नजरिया- भाग 3: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

अगले दिन जब निखिल दफ्तर गया तो उस की मां आशी को कोसने लगीं, ‘‘मेरा बेटा कल तक मेरी सारी बातें मानता था… अब तुम ने न जाने क्या पट्टी पढ़ा दी कि मेरी सुनता ही नहीं.’’

अब घर में ये कलह बढ़ती ही जा रही थी. आज आशी और निखिल दोनों ही मां से परेशान हो कर मेरे घर आए. मैं ने जब उन की सारी बातें सुन लीं तो कहा, ‘‘एक समस्या सुलझती नहीं की दूसरी आ जाती है. पर समाधान तो हर समस्या का होता है.’’

अब मां का क्या करें? रोज घर में क्लेश होगा तो आशी के होने वाले बच्चे पर भी तो उस का बुरा प्रभाव पड़ेगा,’’ निखिल बोला.

मैं ने उन के जाने के बाद अपनी मां से आशी व निखिल की मजबूरी बताते हुए कहा, ‘‘मां, क्या आप आशी की डिलिवरी नहीं करवा सकतीं? बच्चा होने तक आशी तुम्हारे पास रह ले तो ठीक रहेगा.’’

मां कहने लगीं, ‘‘बेटी, इस से तो नेक कोई काम हो ही नहीं सकता. यह तो सब से बड़ा मानवता का काम है. मेरे लिए तो जैसे तुम वैसे ही आशी, पर क्या उस के पति मानेंगे?’’

‘‘पूछती हूं मां,’’ कह मैं ने फोन काट दिया.

अब मैं ने निखिल के सामने सारी स्थिति रख दी कि वह आशी को मेरी मां के घर छोड़ दे.

मेरी बात सुन कर निखिल को हिचकिचाहट हुई.

तब मैं ने कहा, ‘‘निखिल आप भी तो मेरे पति जब यहां नहीं होते हैं तो हर संभव मदद करते हैं. क्या मुझे मेरा फर्ज निभाने का मौका नहीं देंगे?’’

मेरी बात सुन कर निखिल मुसकरा दिया, बोला, ‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’

‘‘और आशी जब तुम स्वस्थ हो जाओ तो तुम भी मेरी कोई मदद कर देना,’’ मैं ने कहा. यदि हम एकदूसरे के सुखदुख में काम न आएं तो सहेली का रिश्ता कैसा?

मेरी बात सुन आशी ने भी मुसकरा कर हामी भर दी. फिर क्या था. निखिल आशी की जरूरत का सारा सामान पैक कर आशी को मेरी मां के पास छोड़ आ गया.

वक्त बीता. 9 माह पूरे हुए. आशी ने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया, जिस की शक्ल हूबहू आशी की सास व पति से मिलती थी.

उस के पति निखिल ने जब अपनी बेटी को देखा तो फूला न समाया. वह आशी को अपने घर चलने को कहने लगा, लेकिन मेरी मां ने कहा कि बेटी थोड़ी बड़ी हो जाए तब ले जाना ताकि आशी स्वयं भी अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सके.

इधर आशी की मां निखिल से रोज पूछतीं, ‘‘निखिल बेटा, आशी को क्या हुआ बेटा या बेटी?’’

‘‘मां, बेटी हुई है पर जाने दो मां तुम्हें तो पोता चाहिए था न.’’

मां जब पूछतीं कि किस जैसी है बेटी तेरे जैसी या आशी जैसी. तो वह कहता कि मां क्या फर्क पड़ता है, है तो लड़की ही न.

अब आशी की सास से रहा नहीं जा

रहा था. अत: एक दिन बोलीं, ‘‘आशी को कब लाएगा?’’

‘‘मां अभी बच्ची छोटी है. थोड़ी बड़ी हो जाने दो फिर लाऊंगा. यहां 3 बच्चों को अकेली कैसे पालेगी?’’

यह सुन आशी की सास कहने लगीं, ‘‘और कितना सताएगा निखिल… क्या तेरी बच्ची पर हमारा कोई हक नहीं? माना कि मैं पोता चाहती थी पर यह बच्ची भी तो हमारी ही है. हम इसे फेंक तो न देंगे? अब तू मुझे आशी और मेरी पोती से कब मिलवाएगा यह बता?’’

निखिल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अगले संडे को मां.’’

अगले रविवार ही निखिल अपनी मां को मेरी मां के घर ले गया. निखिल की मां आशी की बच्ची को देखने को बहुत उत्सुक थीं. उसे देखते ही लगीं शक्ल मिलाने. बोलीं, ‘‘अरे, इस की नाक तो बिलकुल आशी जैसी है और चेहरा निखिल तुम्हारे जैसा… रंग तो देखो कितना निखरा हुआ है,’’ वे अपनी पोती की नाजुक उंगलियों को छू कर देख रही थीं और उस के चेहरे को निहारे जा रही थीं.

तभी आशी ने कहा, ‘‘मां, अभी तो यह सोई है, जागेगी तब देखिएगा आंखें बिलकुल आप के जैसी हैं नीलीनीली… आप की पोती बिलकुल आप पर गई है मां.’’

यह सुन आशी की सास खुश हो उठीं और फिर मेरी मां को धन्यवाद देते हुए बोलीं, ‘‘आप ने बहुत नेक काम किया है बहनजी, जो आशी की इतनी संभाल की… मैं किन शब्दों में आप का शुक्रिया अदा करूं… अब आप इजाजत दें तो मैं आशी को अपने साथ ले जाऊं.’’

‘‘आप ही की बेटी है बेशक ले जाएं… बस इस का सामान समेट देती हूं.’’

‘‘अरे, आप परेशान न हों. सामान तो निखिल समेट लेगा और अगले रविवार को वह आशी को ले जाएगा. अभी जल्दबाजी न करें. तब तक मैं आशी के स्वागत की तैयारियां भी कर लेती हूं.’’

अगले रविवार को निखिल आशी व उस की बेटी को ले कर अपने घर आ गया. उस की मां ने घर को ऐसे सजाया था मानो दीवाली हो. आशी का कमरा खूब सारे खिलौनों से सजा था. आशी की सास उस की बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े लाई थीं.

जब आशी घर पहुंची तो निखिल की मां दरवाजे पर खड़ी थीं. उन्होंने झट से अपनी पोती को गोद में ले कर कहा, ‘‘आशी, मुझे माफ कर दो. मैं अज्ञान थी या यों कहो कि पोते की चाह में अंधी हो गई थी और सोचनेसमझने की क्षमता खत्म हो गई थी. लेकिन बहू तुम बहुत समझदार हो. तुम ने मेरी आंखें खोल दीं… मुझे व हमारे पूरे घर को एक घोर अपराध करने से बचा लिया. अब सारा घर खुशियों से भर गया है. फिर वे अपनी बेटी व अन्य रिश्तेदारों को समझाने लगीं कि कन्या भू्रण हत्या अपराध है… उन्हें भी बेटेबेटी में फर्क नहीं करना चाहिए. बेटियां भी वंश बढ़ा सकती हैं, जमीनजायदाद संभाल सकती हैं. जरूरत है तो सिर्फ हमें अपना नजरिया बदलने की.’’

किसकी मां, किसका बाप- भाग 2 :ससुराल में कैसे हुआ वरुण का स्वागत ?

निशा की मादक मुसकराहट और भोलेपन के कारण वरुण को उस की सचाई अच्छी लगी. हंस कर फिर से दोहराया, ‘‘मां सच ही बड़ी समझदार हैं.’’

निशा ने उठने का प्रयत्न करते हुए पूछा, ‘‘आप क्या लेंगे, चाय या कौफी?’’

वरुण ने शरारत से पूछा, ‘‘चाय या कौफी कौन बनाएगा, मां?’’

निशा मुसकराई,  ‘‘आप कहेंगे तो मैं बना दूंगी.’’

‘‘पर उस के लिए तुम्हें उठ कर जाना होगा,’’ वरुण ने कहा.

‘‘सो तो है,’’ निशा का उत्तर था.

‘‘फिर बैठी रहो,’’ वरुण ने फुसफसा कर कहा, ‘‘आज बहुत सारी बातें

करने को जी कर रहा है. चलो, कहीं चलते हैं.’’

निशा ने मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘ना बाबा ना, मां जाने नहीं देंगी.’’

‘‘मां से पूछ लेते हैं,’’ वरुण ने बहादुरी से कहा.

‘‘मां ने पहले ही कह दिया है कि अगर आप बाहर जाने को कहें तो सख्ती से मना कर देना,’’ निशा ने नाखूनों पर अंगूठा फिराते हुए कहा.

‘‘मां तो बहुत समझदार हैं,’’ इस बार वरुण के स्वर में व्यंग्य का अनुपात अधिक था.

‘‘सो तो है,’’ निशा ने स्वीकार किया.

‘‘कौफी हाजिर है,’’ शिवानी ट्रे में

2 कप कौफी ले कर खड़ी थी, ‘‘रुकावट के लिए खेद है.’’

प्यालों से ऊपर उठते सफेद झाग की ओर प्रशंसा से देखते हुए वरुण ने कहा, ‘‘कौफी तो लगता है तुम्हारी तरह स्वादिष्ठ और लाजवाब है.’’

शिवानी ने चट से कहा, ‘‘बिना चखे कैसे कह सकते हैं.’’

वरुण ने शरारत से कहा, ‘‘अगर तुम्हारी दीदी की अनुमति हुई तो वह भी कर  सकता हूं.’’

‘‘धत् जीजाजी,’’ कह कर शिवानी ने ट्रे मेज पर रखी और भाग गई.

‘‘आप बहुत गंदे हैं,’’ निशा ने मुसकरा कर कहा.

‘‘यह तो पहला प्रमाणपत्र है तुम्हारा. अभी तो आगे बहुत से मिलेंगे,’’ वरुण ने कौफी पीते हुए कहा.

वरुण के जाने के बाद मांबाप का बहुत झगड़ा हुआ. मां ने दुनियादारी की दुहाई दी और पिता ने ‘जमाना बदल गया’ का तर्क पेश किया. निर्णय तो कु़छ नहीं हुआ, पर कुछ समय पहले के खुशी के वातावरण में मनहूसियत फैल गई.

पति से बदला लेने के लिए मां बेटी पर बरस पड़ी, ‘‘तुझ से किस ने कहा था कि अपने घर की सारी बातें बता दे?’’

‘‘मैं ने क्या कहा?’’ निशा ने तीव्र स्वर में पूछा. मां की बेरुखी पर वह पहले से ही दुखी थी.

‘‘क्या नहीं कहा?’’

मां ने नकल करते हुए कहा, ‘‘दहीबड़े सख्त बने थे, सो नौकरानी को दे दिए. सारे व्यंजन बाजार से आए थे. ये सब किस ने कहा?’’

‘तो मां कान लगा कर सुन रही थीं,’ निशा को कोई उत्तर नहीं सूझा तो वह रोने लगी ओर रोतेरोते अपने कमरे में चली गई.

पिता ने क्रोध में कहा, ‘‘रुला दिया न गुड्डी को? कौन सा झूठ कह रही थी? और फिर तुम्हारी तरह से झूठ बोलने में माहिर भी तो नहीं है. तुम्हारी तरह मंजने में समय तो लगेगा ही.’’

वरुण ने झिझकते हुए निशा को बाहर ले जाने की आज्ञा मांगी थी पर मां ने बड़ी होशियारी से टाल दिया.

वरुण को निराशा तो हुई ही, क्रोध भी बहुत आया. सारे रोमानी सपनों पर पानी फिर गया. उस ने अब कभी भी ससुराल न जाने का निश्चय कर लिया. सास के लिए जो श्रद्धा होनी चाहिए, वह लगभग लुप्त हो गई. एक बार शादी हो जाने दो, उस के मन में जो विचार उठ रहे थे, वे बड़े खतरनाक थे.

मुंह लटका देख कर बहन ने हंसी से ताना दिया, ‘‘मुंह ऐसे लटका है जैसे किसी गोदाम के दरवाजे पर बड़ा सा ताला. लगता है खातिर नहीं हुई. इस बार मुझे साथ ले चलना. फिर देख लूंगी सब को.’’

मां ने हंस कर पूछा, ‘‘सब ठीक है न?’’

पिता को अच्छा नहीं लगा, ‘‘कोई गड़बड़ हो तो बता दो. रिश्ता अभी भी टूट सकता है.’’ बात इतनी गंभीर हो जाएगी, वरुण ने सोचा न था. मुसकरा कर कहा, ‘‘कुछ नहीं. मैं तो नाटक कर रहा था.’’ जब वरुण ने 3 सप्ताह तक कोई बात नहीं की तो निशा को चिंता होने लगी और मां के दिल में भी अशांति ने जन्म लिया. निशा ने बहन को उकसाया. शिवानी ने मां से कहा और फिर मां ने पति से कहा कि वरुण को फोन करें और बाइज्जत निमंत्रण दें. फोन पर ससुर का स्वर सुनते ही वरुण की 3 सप्ताह की भड़ास काफूर हो गई और बड़े उत्साह से वहां पहुंच गया. इस का लाभ यह हुआ कि जब वरुण ने निशा को बाहर ले जाने का प्रस्ताव रखा तो कोई आपत्ति किसी ने नहीं उठाई. थोड़ाबहुत खा कर बेसब्री से बाहर निकल पड़ा. निशा साथ थी तो मन कर रहा था कि दुनियाभर उसे देखे और जले.

‘‘किस हौल में चलना है?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘तो क्या आप ने टिकट नहीं खरीदे हैं?’’ निशा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘कैसे खरीदता?’’ वरुण ने कटुता से कहा, ‘‘कहीं पिछली बार की तरह फिर मां मेरा टिकट काट देतीं?’’

मीठी हंसी बिखेरती हुई निशा बोली, ‘‘तो अभी तक नाराज हो? क्या इसीलिए इतने दिनों तक आप ने फोन नहीं किया? और न ही कोई संदेश?’’

‘‘हां, जी तो कर रहा था कि आज भी न आऊं,’’ वरुण मुसकराया.

‘‘तो फिर क्यों आ गए?’’ निशा ने सरलता से पूछा.

‘‘कशिश, मैडम, कशिश,’’ वरुण ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘शुद्ध, शतप्रतिशत शुद्ध कशिश.’’

‘‘ओह,’’ निशा ने आंखें मटका कर पूछा, ‘‘तो क्या कशिश का भी कोई अनुपात होता है?’’

‘‘होता है,’’ वरुण ने दिल पर हाथ रख कर कहा, ‘‘शादी के बाद पूरी तफसील के साथ बताऊंगा. अभी तो यह बताओ, कौन सी फिल्म देखनी है?’’

‘‘जिस में भी टिकट मिल जाए.’’ निशा ने उत्तर दिया.

‘‘अब दिल्ली में इतने सारे सिनेमाघर हैं, कहांकहां देखेंगे?’’ वरुण ने पूछा, ‘‘क्या अंगरेजी सिनेमा देखती हो?’’

‘‘कभीकभी,’’ निशा ने कहा, ‘‘वैसे मुझे शौक नहीं है.’’

‘‘अंगरेजी फिल्म के टिकट तो जरूर मिल जाएंगे,’’ वरुण ने उत्साह से पूछा, ‘‘तुम ने ‘बेसिक इंस्ंिटक्ट’ और ‘इन्डीसैंट प्रपोजल’ देखी है?’’

‘‘नहीं,’’ निशा ने सिहर कर कहा, ‘‘ये तो नाम से ही गंदी फिल्में लगती

हैं. क्या आप ऐसी फिल्में देखना पसंद करते हैं?’’

‘‘अरे, जैसा नाम वैसी फिल्में नहीं हैं,’’ वरुण ने निराशा से कहा, ‘‘देखोगी तो अच्छी लगेंगी.’’

‘‘ना बाबा ना,’’ निशा ने मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मां को पता लग गया तो खा जाएंगी.’’

चिढ़ कर वरुण ने कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो मुझे नरभक्षी लगती हैं. क्या तुम्हें थोड़ाथोड़ा रोज खाती हैं? कैसी मां हैं तुम्हारी?’’ निशा को मां की बुराई अच्छी नहीं लगी, पर इस पर लड़ाई करना भी ठीक नहीं था. आखिर मां का नाम भी तो उसी ने ले लिया था.

‘‘मां बहुत अच्छी हैं,’’ निशा ने गंभीरता से कहा, ‘‘सही मार्गदर्शन करती हैं. मेरी मां तो एक संपूर्ण स्कूल हैं.’’

व्यग्ंय से वरुण ने कहा, ‘‘वह तो सामने आ रहा है. वैसे हम फिल्म की बात कर रहे थे.’’

निशा ने सोच कर कहा, ‘‘चलो ‘बेबीज डे आउट’ देखते हैं. सुना है बहुत अच्छी है. उस डायरैक्टर की मैं ने ‘होम अलोन’ देखी थी, बहुत मजेदार थी.’’

वरुण समझ गया कि अंगरेजी फिल्मों के बारे में निशा से टक्कर नहीं ले सकेगा. वैसे अच्छा भी लगा. कुछ गर्व भी हुआ. पत्नी अच्छी अंगरेजी बोलती हो, अंगरेजी सिनेमा भी देखती हो और पाश्चात्य संगीत में रुचि रखती हो तो पति का स्तर बढ़़ जाता है.

‘‘चलो छोड़ो फिल्मविल्म,’’ वरुण ने कहा, ‘‘थोड़ा घूमते हैं और फिर बैठेंगे किसी रेस्तरां में. क्या कहती हो?’’

‘‘जैसी आप की मरजी,’’ निशा ने मासूमियत से कहा, ‘‘मां ने कहा था कि धूप में ज्यादा मत घूमना.’’

‘‘रंग काला पड़ जाएगा,’’ वरुण ने चिढ़ कर कहा, ‘‘मां की सारी हिदायतें क्या टेप में भर ली हैं?’’

निशा हंस पड़ी, ‘‘ऐसा ही समझ लो.’’

‘‘तो अगली बार मां को साथ मत लाना. शादी तुम से कर रहा हूं, तुम्हारी मां से नहीं,’’ वरुण ने क्रोध से कहा. निशा को अच्छा नहीं लगा लेकिन अपने ऊपर नियंत्रण कर के बोली,‘‘आप को मेरी मां के लिए ऐसा नहीं कहना चाहिए. आखिर वे आप की सास हैं. मां के बराबर हैं.’’ वरुण को भी एहसास हुआ कि शायद उस के स्वर में कुछ अधिक तीखापन था. बोला, ‘‘मुझे खेद है. क्षमा कर दो.’  निशा की मुसकराहट में क्षमा छिपी थी. यही इस का उत्तर था. अपराधभावना से ग्रस्त वरुण ने सोचा कोई निदान करना चाहिए. अगर निशा को कोई भेंट दे तो वह खुश हो जाएगी. भुने चनों की पुडि़या हाथों में ले कर घूमते हुए वरुण एक दुकान के सामने रुक गया. बड़ा सुंदर सलवारसूट एक डमी मौडल, आतेजाते सब का ध्यान आकर्षित कर रही थी.

‘‘यह सूट तुम्हारे ऊपर बहुत अच्छा लगेगा,’’ वरुण ने पूछा, ‘‘क्या खयाल है?’’

‘‘खयाल तो अच्छा है,’’ निशा की आंखोें में चमक आई पर लुप्त हो गई,  ‘‘पर…’’

‘‘पर क्या?’’ वरुण ने आश्चर्य में पूछा और शौर्य प्रदर्शन करते हुए कहा, ‘‘दाम की तरफ मत देखो.’’

निशा ने अब देखा. मूल्य था 1,750 रुपए.

‘‘दाम तो ज्यादा है ही,’’ निशा ने झिझकते हुए कहा, ‘‘पर इस का गला ठीक नहीं है.’’

अब वरुण ने देखा, कुरते का गला आगे से नीचे कटा हुआ था.

‘‘तो क्या हुआ,’’ वरुण ने बहादुरी से कहा, ‘‘मेरी पसंद है, तुम मेरे लिए पहनोगी.’’

‘‘नहीं,’’ निशा ने दृढ़ता से कहा, ‘‘मां पहनने नहीं देंगी. इस मामले में बहुत सख्त हैं.’’

मैली लाल डोरी – भाग 2 : दास्तान अपर्णा की

‘तुम क्या जानो इन बाबाओं की करामात? और जगदगुरु तो पहुंचे हुए हैं. तुम्हें पता है, शहर के बड़ेबड़े पैसे वाले लोग इन के शिष्य बनना चाहते हैं परंतु ये घास नहीं डालते. अपना तो समय खुल गया है जो गुरुजी ने स्वयं ही घर पधारने की बात कही. तुम्हारी गलती भी नहीं है. तुम्हारे घर में कोई भी बाबाओं के प्रताप में विश्वास नहीं करता. तो तुम कैसे करोगी? व्यंग्यपूर्वक कह कर नितिन वहां से चला गया. शाम को फिर आया और कहने लगा, ‘देखो, यह लाल डोरी. इसे सदा हाथ में बांधे रखना, कभी उतराना नहीं, गुरुजी ने दी है. सब ठीक होगा.’

कलह और असंतोष के मध्य जिंदगी किसी तरह कट रही थी. बिना किसी काम के व्यक्ति की मानसिकता भी बेकार हो जाती है. उसी बेकारी का प्रभाव नितिन के मनमस्तिष्क पर भी दिखने लगा था. अब उस के स्वभाव में हिंसा भी शामिल हो गई थी. बातबात पर अपर्णा व बच्चों पर हाथ उठा देना उस के लिए आम बात थी. घर का वातावरण पूरे समय अशांत और तनावग्रस्त रहता. लगातार चलते तनाव के कारण अपर्णा को बीपी, शुगर जैसी कई बीमारियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.

एक दिन घर पर नितिन से मिलने कोई व्यक्ति आया. कुछ देर की बातचीत

के बाद अचानक दोनों में हाथापाई होने लगी और वह आदमी जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगा. कालोनी के कुछ लोग गेट पर जमा हो गए और कुछ अपने घरों में से झांकने लगे. किसी तरह मामला शांत कर के नितिन आया तो अपर्णा ने कहा, ‘यह सब क्या है? क्यों चिल्ला रहा था यह आदमी?’

‘शांत रहो, ज्यादा जबान और दिमाग चलाने की जरूरत नहीं है,’ बेशर्मी से नितिन ने कहा.

‘इस तरह कालोनी में इज्जत का फालूदा निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती?’

‘बोला न, दिमाग मत चलाओ. इतनी देर से कह रहा हूं, चुप रह. सुनाई नहीं पड़ता,’ कह कर नितिन ने एक स्केल उठा कर अपर्णा के सिर पर दे मारा.

अपर्णा के सिर से खून बहने लगा. अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो उस के सिर पर लगी बैंडएड देख कर पिं्रसिपल ऊषा बोली, ‘यह क्या हो गया, चोट कैसे लगी?’

उन के इतना कहते ही अपर्णा की आंखों से जारजार आंसू बहने लगे. ऊषा मैडम उम्रदराज और अनुभवी थीं. उन की पारखी नजरों ने सब भांप लिया. सो, उन्होंने सर्वप्रथम अपने कक्ष का दरवाजा अंदर से बंद किया और अपर्णा के कंधे पर प्यार से हाथ रख कर बोलीं, ‘क्या हुआ बेटा, कोई परेशानी है, तो बताओ.’

कहते हैं प्रेम पत्थर को भी पिघला देता है, सो ऊषा मैडम के प्यार का संपर्क पाते ही अपर्णा फट पड़ी और रोतेरोते उस ने सारी दास्तान कह सुनाई.

‘मैडम, आज शादी के 20 साल बाद भी मेरे घर में मेरी कोई कद्र नहीं है. पूरा पैसा उन तथाकथित बाबाजी की सेवा में लगाया जा रहा है. बाबाजी की सेवा के चलते कभी आश्रम के लिए सीमेंट, कभी गरीबों के लिए कंबल, और कभी अपना घर लुटा कर गरीबों को खाना खिलाया जा रहा है. यदि एक भी प्रश्न पूछ लिया तो मेरी पिटाई जानवरों की तरह की जाती है. सुबह से शाम तक स्कूल में खटने के बाद जब घर पहुंचती हूं तो हर दिन एक नया तमाशा मेरा इंतजार कर रहा होता है. मैं थक गई हूं इस जिंदगी से,’ कह कर अपर्णा फूटफूट कर रोने लगी.

ऊषा मैडम अपनी कुरसी से उठीं और अपर्णा के आगे पानी का गिलास रखते हुए बोलीं, ‘बेटा, एक बात सदा ध्यान रखना कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है. सब से बड़ी गलती तेरी यह है कि तू पिछले

20 सालों से अन्याय को सह रही है. जिस दिन तेरे ऊपर उस का पहला हाथ उठा था, वहीं रोक देना था. सामने वाला आप के साथ अन्याय तभी तक करता है जब तक आप सहते हो. जिस दिन आप प्रतिकार करने लगते हो, उस का मनोबल समाप्त हो जाता है. आत्मनिर्भर और पूर्णतया शिक्षित होने के बावजूद तू इतनी कमजोर और मजबूर कैसे हो गई? जिस दिन पहली बार हाथ उठाया था, तुम ने क्यों नहीं मातापिता और परिवार वालों को बताया ताकि उसे रोका जा सकता. क्यों सह रही हो इतने सालों से अन्याय? छोड़ दो उसे उस के हाल पर.’

‘मैं हर दिन यही सोचती थी कि शायद सब ठीक हो जाएगा. मातापिता की इज्जत और लोकलाज के डर से मैं कभी किसी से कुछ नहीं कह पाई. लगा था कि मैं सब ठीक कर लूंगी. पर मैं गलत थी. स्थितियां बद से बदतर होती चली गईं.’ अपर्णा ने रोते हुए कहा.

अब ऊषा मैडम बोलीं, ‘जो आज गलत है, वह कल कैसे सही हो जाएगा. जिस इंसान के गुस्से से तुम प्रथम रात्रि को ही डर जाती हो और जिस इंसान को अपनी पत्नी पर हाथ उठाने में लज्जा नहीं आती. जो बाबाओं की करामात पर भरोसा कर के खुद बेरोजगार हो कर पत्नी का पैसा पानी की तरह उड़ा रहा है, वह विवेकहीन इंसान है. ऐसे इंसान से तुम सुधार की उम्मीद लगा बैठी हो? क्यों सह रही हो? तोड़ दो सारे बंधनों को अब. निर्णय तुम्हें लेना है,’ कह कर मैडम ने दरवाजा खोल दिया था.

बाहर निकल कर उस ने भी अब और न सहने का निर्णय लिया और अगले ही दिन अपने तबादले के लिए आवेदन कर दिया. 6 माह बाद अपर्णा का तबादला दूसरे शहर में हो गया.

नितिन को जब तबादले के बारे में पता चला, तो क्रोध से चीखते हुए बोला, ‘यह क्या मजाक है मुझ से बिना पूछे ट्रांसफर किस ने करवाया?’

‘मैं ने करवाया. मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. तुम्हारे उन तथाकथित गुरुजी ने तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज और अभी से ही तुम्हारी यह दुनिया तुम्हें मुबारक. अब और अधिक सहने की क्षमता मुझ में नहीं है.’

‘हांहां, जाओ, रोकना भी कौन चाहता है तुम्हें? वैसे भी कल गुरुजी आ रहे हैं. तुम्हारी तरफ देखना भी कौन चाहता है. मैं तो यों भी गुरुजी की सेवा में ही अपना जीवन लगा देना चाहता हूं,’ कह कर भड़ाक से दरवाजा बंद कर के नितिन बाहर चला गया.

बस, उस के बाद से दोनों के रास्ते अलगअलग हो गए थे. बेटे नवीन ने पुणे में जौब जौइन कर ली थी. परंतु आज आए इस एक फोन ने उस के ठहरे हुए जीवन में फिर से तूफान ला दिया था. तभी अचानक उस ने मां का स्पर्श कंधे पर महसूस किया.

‘‘क्या सोच रही है, बेटा.’’

‘‘मां, कुछ नहीं समझ आ रहा? क्या करूं?’’

‘‘बेटा, पत्नी के नाते नहीं, केवल इंसानियत के नाते ही चली जा, बल्कि नवीन को भी बुला ले. कल को कुछ हो गया, तो मन में हमेशा के लिए अपराधबोध रह जाएगा. आखिर, नवीन का पिता तो नितिन ही है न,’’ अपर्णा की मां ने उसे समझाते हुए कहा.

अगले दिन वह नवीन के साथ दिल्ली के सरकारी अस्पताल के बैड नंबर 401 पर पहुंची. बैड पर लेटे नितिन को देख कर वह चौंक गई. बिखरे बाल, जर्जर शरीर और गड्ढे में धंसी आंखें. शरीर में कई नलियां लगी हुई थीं. मुंह से खून की उलटियां हो रही थीं. पूछने पर पता चला कि नितिन को कोई खतरनाक बीमारी है. उसे आया देख कर नितिन के चेहरे पर चमक आ गई.

वह अपनी कांपती आवाज में बोला, ‘‘तुम आ गईं. मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी. अब मैं ठीक हो जाऊंगा,’’ तभी डाक्टर सिंह ने कमरे में प्रवेश किया. नवीन की तरफ मुखातिब हो कर वे बोले, ‘‘इन्हें एड्स हुआ है. अंतिम स्टेज में है. हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

सुबह का भूला- भाग 2 : आखिर क्यों घर से दूर होना चाहते थे मोहन और रोली

मोहन ने तय कर लिया कि अब वह यहां नहीं रहेगा. अपनी रोली को ले कर कहीं दूर चला जाएगा. अपना बोरियाबिस्तर समेट कर आंखों में हजारों सपने लिए मोहन अपनी रोली के साथ दिल्ली की ट्रेन पर चढ़ गया. इधर रोली भी अपने सपनों को पंख लगाए, पति का हाथ पकड़े ट्रेन में जा कर बैठ गई.

दिल्ली आ कर मोहन ने मजदूरी का काम पकड़ लिया और एक कच्ची बस्ती में एक कमरा ले कर रोली के साथ रहने लगा. अब न तो यहां कोई उसे कुछ बोलने वाला था और न ही रोली से मिलने पर रोकटोक ही लगाने वाला. अपनी पत्नी के साथ उस की जिंदगी बड़े मजे से गुजर रही थी.

रोली भी दिल्ली जैसे बड़े शहर में आ कर साड़ी से सलवारकमीज पर उतर आई थी. जब कभी मोहन काम से जल्दी लौट आता, रोली को यहांवहां घुमा आता था.

मोहन ने कहीं से सस्ते दामों पर एक टैलीविजन खरीद लिया था, जिसे देखदेख कर रोली अपना पूरा दिन बिताने लगी थी. लेकिन फिर उस का मन ऊबने लगा था. उस का मन करता कि मोहन उसे पूरी दिल्ली घुमाए, खूब खरीदारी करवाए, फिल्म दिखाए, होटलों में खाना खिलाए. लेकिन मोहन के पास इतना पैसा ही कहां था, जो उस के इतने सारे अरमान पूरे कर पाता.

यहीं बस्ती के पास वाली जमीन पर बिल्डिंग बनने का काम चालू था और जिस की देखरेख रितेश कर रहा था. वह वहां खड़ा हो कर देखता कि सारे मजदूर ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं. हट्टाकट्टा रितेश जब फोन पर किसी से बात कर रहा होता, तब रोली तिरछी निगाहों से उसे देखती और जैसे ही वह इधर देखने लगता, तो मुंह फेर लेती थी.

अब मछली खुदबखुद जाल में फंसने को तैयार थी, तो शिकारी क्यों पीछे हटता. सो, एक दिन पानी मांगने के बहाने रितेश रोली की कोठरी में घुस गया और जब वह उसे पानी देने लगी तो कस कर उस का हाथ पकड़ लिया.

कसमसाई सी रोली हाथ छुड़ा कर भागी. मगर अब रोज दोनों की आंखों ही आंखों में बात होने लगी और एक दिन जब मोहन घर पर नहीं था, तब रोली ने इशारों से उसे अपनी कोठरी में बुला लिया.

उस दिन के बाद से अब रोज यही होने लगा. मोहन के जाते ही रोली रितेश की बांहों में समा जाती और जीभर कर मजे लेती. बदले में रितेश उसे साड़ी ला कर देता, बाहर घुमाने ले कर जाता, होटलों में खाना खिलाता, फिल्म दिखाता.

रितेश ने रोली को एक मोबाइल फोन भी खरीद कर दिया था, ताकि जब मोहन घर पर न हो, तो वह फोन कर उसे बता सके.

रोली के दिन अब रितेश की बांहों में गुजरते और रात मोहन के आगोश में. लेकिन मोहन में अब उस की जरा भी दिलचस्पी नहीं रह गई थी. उसे तो रितेश का साथ ही भाता था, इसलिए वह मोहन से छिटकने लगी थी.

रितेश गुजरात के छोटा उदयपुर का रहने वाला था और यहां वह बिल्डर के साथ काम कर के अच्छा पैसा कमा लेता था. रितेश शादीशुदा और 2 बच्चों का बाप था. उस के बीवीबच्चे सब छोटा उदयपुर में ही रहते थे और वह उन के खर्चे के लिए पैसे भेजता रहता था.

रितेश एक साधारण परिवार का, मगर ऊंची जाति का था और वहीं रोली एक छोटी जाति की थी. रोली का तो मन होता था कि वह अपनी रातें भी अब रितेश की बांहों में गुजारे, इसलिए बिना बात के ही वह मोहन से झगड़ती, उस पर चिल्लाती और कहती कि उस ने दिया ही क्या है उसे सिवा दो जोड़ी कपड़े और दो वक्त की रोटी के? इस से अच्छा तो वह अपने मांबाप के घर ही थी.

मोहन समझ ही नहीं पाता था कि अब क्या करे वह रोली के लिए? जितनी हैसियत है कर ही तो रहा है, फिर यह खुश क्यों नहीं है उस से? रोली का बरताव अब मोहन की समझ से बाहर होने लगा था. जितना ही वह उसे पुचकारता था, उतना ही वह उस पर चिल्लाती थी.

एक दिन जब पड़ोस की मौसी के मुंह से मोहन ने रोली और रितेश के किस्से सुने तो वह सन्न रह गया. पूछने पर शर्मिंदा होने के बजाय बेशर्मों की तरह रोली कहने लगी कि हां, है उस का रिश्ता रितेश से. तो क्या कर लेगा वह? जब बीवी को खुश नहीं रख सकता, तो फिर शादी ही क्यों की उस से?

मोहन के पास रोली के सवालों का कोई जवाब नहीं था सिवा इस के कि वह अपनी रोली को बहुत प्यार करता है. लेकिन रोली कहती कि सिर्फ प्यार से ही जिंदगी नहीं चलती. और भी बहुतकुछ चाहिए होता है, जिसे देने की उस की कूवत नहीं है.

असल बात तो यह थी कि रोली अब मोहन के साथ मैली चादर में नहीं, बल्कि रितेश के साथ नरम बिस्तर पर सुख भोगना चाहती थी, इसलिए एक दिन वह मोहन का घर छोड़ कर उस रितेश के साथ रहने चली गई.

 

बेचारा मोहन रोयागिड़गिड़ाया और बोला था कि वह जो कहेगी करेगा, पर वह उस के साथ चले, मगर रोली अपनी खूबसूरती के घमंड में इतनी चूर थी कि कहां उसे मोहन का दर्द दिखाई पड़ा था.

देखने में भोलीभाली और बला की खूबसूरत रोली ने अपनी जवानी के दम पर ही तो रितेश को फंसाया था, ताकि उसे वह सबकुछ मिल सके, जिस का सपना लिए वह यहां दिल्ली आई थी.

जिस रोली के कहने पर मोहन अपने घरपरिवार को छोड़ आया था, जिस रोली की खुशी के लिए मोहन मेहनत कर रहा था, जिस रोली की खुशी के लिए वह एक पैर पर खड़ा रहता था, उसी रोली ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा. उस की परवाह न कर वह क्षणिक देह सुख के लिए रितेश के घर रहने चली गई.

यह बात मोहन को घुन की तरह खाए जा रही थी कि अब वह अपने परिवार और रिश्तेदारों को क्या मुंह दिखाएगा? क्या कहेगा कि उस की बीवी उसे छोड़ कर किसी और के साथ भाग गई? नामर्द नहीं कहेंगे लोग उसे?

नजरिया- भाग 2: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

15 दिन और बीत गए. आशी की सास रोज घर में आशी के बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने के लिए कहतीं. निखिल की बहन भी फोन कर निखिल को समझाती कि आजकल तो उन की जातबिरादरी में सभी गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लेते हैं ताकि यदि गर्भ में कन्या हो तो छुटकारा पा लिया जाए.

पहले तो निखिल को ये सब बातें दकियानूसी लगीं, पर फिर धीरेधीरे उसे भी लगने लगा कि यदि सभी ऐसा करवाते हैं, तो इस में बुराई भी क्या है?

उस दिन आशी अचानक फिर से मेरे घर आई. इधरउधर की बातों के बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसा महसूस करती हो अब? मौर्निंग सिकनैस ठीक हुई या नहीं? अब तो 4 महीने हो गए न?’’

‘‘ऋचा क्या बताऊं. आजकल न जाने निखिल को भी क्या हो गया है. कुछ सुनते ही नहीं मेरी. इस बार जब चैकअप के लिए गई तो डाक्टर से बोले कि देख लीजिए आप. पहले ही हमारी 2 बेटियां हैं, इस बार हम बेटी नहीं चाहते. ऋचा मुझे बहुत डर लग रहा है. अब तक तो बच्चे में धड़कन भी शुरू हो गई है… यदि निखिल न समझे और फिर से लड़की हुई तो कहीं मुझे गर्भपात न करवाना पड़े,’’ वह रोतेरोते कह रही थी, ‘‘नहीं ऋचा यह तो हत्या है, अपराध है… यह बच्चा गर्भ में है, तो किसी को नजर नहीं आ रहा. पैदा होने के बाद तो क्या पता मेरी दोनों बेटियों जैसा हो और उन जैसा न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है. उस में भी जान तो है. उसे भी जीने का हक है. हमें क्या हक है अजन्मी बेटी की जान लेने का… यह तो जघन्य अपराध है और कानूनन भी यह गलत है. यदि पता लग जाए तो इस की तो सजा भी है. लिंग परीक्षण कर गर्भपात करने वाले डाक्टर भी सजा के हकदार हैं.’’

आशी बोले जा रही थी और उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहे जा रही थी. मेरी आंखें भी नम हो गई थीं.

अत: मैं ने कहा, ‘‘देखो आशी, तुम्हें यह समय हंसीखुशी गुजारना चाहिए. मगर तुम रोज दुखी रहती हो… इस का पैदा होने वाले बच्चे पर भी असर पड़ता है. मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं. यदि निखिल तुम्हारी बात समझ जाए तो शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए… तुम्हें उसे यह समझाना होगा कि यह उस का भी बच्चा है. इस में उस का भी अंश है… एक मूवी है ‘साइलैंट स्क्रीम’ जिस में पूरी गर्भपात की प्रक्रिया दिखाई गई है. तुम आज ही निखिल को वह मूवी दिखाओ. शायद उसे देख कर उस का मन पिघल जाए. उस में सब दिखाया गया है कि कैसे अजन्मे भू्रण को सक्शन से टुकड़ेटुकड़े कर दिया जाता है और उस से पहले जब डाक्टर अपने औजार उस के पास लाता है तो वह कैसे तड़पता है, छटपटाता है और बारबार मुंह खोल कर रोता है, जिस की हम आवाज तो नहीं सुन सकते, किंतु देख तो सकते हैं. किंतु यदि उस के अपने मातापिता ही उस की हत्या करने पर उतारू हों तो वह किसे पुकारे? जब उस का शरीर मांस के लोथड़ों के रूप में बाहर आता है तो बेचारे का अंत हो जाता है. उस का सिर क्योंकि हड्डियों का बना होता है, इसलिए वह सक्शन द्वारा बाहर नहीं आ पाता तो किसी औजार से दबा कर उसे चूरचूर कर दिया जाता है… उस अजन्मे भू्रण का वहीं खात्मा हो जाता है. बेचारे की अपनी मां की कोख ही उस की कब्र हो जाती है. कितना दर्दनाक है… यदि वह भू्रण कुछ माह और अपनी मां के गर्भ में रह ले तो एक मासूम, खिलखिलाता हुआ बच्चा बन जाता है. फिर शायद सभी उसे बड़े प्यार व दुलार से गोद में उठाए फिरें. मुझे ऐसा लगता है कि शायद निखिल इस मूवी को देख लें तो फिर शायद अपनी मां की बात न मानें.

‘‘ठीक है, कोशिश करती हूं,’’ कह आशी थोड़ी देर बैठ घर चली गई.

मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक औरत पुरुष के सामने इतना विवश क्यों हो जाती है कि अपने बच्चे को जन्म देने में भी उसे अपने पति की स्वीकृति लेनी होती है?

खैर, आशी ने रात को अपने पति निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ मूवी दिखाई. मैं बहुत उत्सुक थी कि अगले दिन आशी क्या खबर लाती है?

अगले दिन जब आशी बेटियों को स्कूल बस में बैठाने आई तो कुछ चहक सी रही थी, जो अच्छा संकेत था. फिर भी मेरा मन न माना तो मैं उसे सैर के लिए ले गई और फिर एकांत मिलते ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ आशी, निखिल तुम्हारी बात मान गए? तुम ने मूवी दिखाई उन्हें?’’

वह कहने लगी, ‘‘हां ऋचा तुम कितनी अच्छी हो. तुम ने मेरे लिए कितना सोचा… जब रात को मैं ने निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ यूट्यूब पर दिखाई तो वे मुझे देख स्वयं भी रोने लगे और जब मैं ने बताया कि देखिए बच्चा कैसे तड़प रहा है तो फूटफूट कर रोने लगे. फिर मैं ने कहा कि यदि हमारे बच्चे का लिंग परीक्षण कर गर्भपात करवाया तो उस का भी यही हाल होगा… अब निखिल ने वादा किया है कि वे ऐसा नहीं होने देंगे. चाहे कुछ भी हो जाए.’’

मैं ने सोचा काश, आशी जो कह रही है वैसा ही हो. किंतु जैसे ही निखिल ने मां को अपना फैसला सुनाया कि चाहे बेटा हो या बेटी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाएगा तो उस की मां बिफर पड़ीं. कहने लगीं कि क्या तू ने भी आशी से पट्टी पढ़ ली है?’’

‘‘मां, यह मेरा फैसला है और मैं इसे हरगिज नहीं बदलूंगा,’’ निखिल बोला.

अब तो निखिल की मां आशी को रोज ताने मारतीं. निखिल का भी जीना हराम कर दिया था. निखिल ने मां को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह आशी को ताने न दें. वह गर्भवती है, इस बात का ध्यान रखें.

आशी तो अपने मातापिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वे भी तो यही चाहते थे कि बस आशी को एक बेटा हो जाए.

निखिल मां को समझाता, ‘‘मां, ये सब समाज के लोगों के बनाए नियम हैं कि बेटा वंश बढ़ाता है, बेटियां नहीं. इन के चलते ही लोग बेटियों की कोख में ही हत्या कर देते हैं. मां यह घोर अपराध है… तुम्हारी और दीदी की बातों में आ कर मैं यह अपराध करने जा रहा था, किंतु अब ऐसा नहीं होगा.’’

निखिल की बातें सुन कर एक बार को तो उस की मां को झटका सा लगा, पर पोते की चाह मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी.

किसकी मां, किसका बाप- भाग 1 : ससुराल में कैसे हुआ वरुण का स्वागत ?

-मां बाप अकसर इस कहावत ‘आ बैल मुझे मार’ के शिकार हो जाते हैं. पहले तो मुसीबत को बड़े जोश से निमंत्रण देते हैं और फिर परेशान हो कर सिर पटकते हैं. दूरदर्शिता तो दूरदर्शन पर भी नहीं दिखाई देती जो एक आम आदमी के जीवन का अहम हिस्सा बन गई है. अब निशा और वरुण की सगाई तो दोनों के मांबापों ने जल्दबाजी में न केवल कर दी बल्कि अच्छी तरह से ढोल बजा कर की. सारे रिश्तेदारों और महल्ले वालों को मालूम है, यहां तक कि पान वाले और बनिए को भी, जिस के यहां से घर का सामान आता है, मालूम है. नौकरानी रोज अपनी मांगें बढ़ाती जाती है. एक नहीं, 3 साडि़यां, वेतन दोगुना और नेग अलग. जानते हुए भी सब लोग पूछते रहते हैं कि शादी कब हो रही है? शादी के सिवा सब विषयों पर पूर्णविराम लग गया है. मुश्किल यह है कि शादी होने में अभी  7 महीने बाकी हैं. 1-2 महीने तो यों ही गुजर जाते हैं, पर 7 महीने? परिवार वाले तो जब कभी इकट्ठा बैठते हैं, खोखली योजनाओं पर बहस कर लेते हैं. वैसे, होगा तो वही जो होना है, पर 7 महीने का विकराल अंतराल 7 साल सा लगता है. सगाई के साथ ही शादी क्यों न कर दी?

चलिए परिवार वालों को छोडि़ए. किसी ने निशा और वरुण के बारे में भी सोचा है? रोज मिलें और प्रेमवाटिका में विचरण करें तो मुश्किल और कई दिनों तक न मिलें तो विरह के मारे बुरा हाल. सब से बड़ी मुश्किल तो इन लोगों की है. जब सगाई हो जाए और मिलने न दें तो यह परिवार का सरासर अन्याय ही कहा जाएगा. दूसरी ओर मिलने की गति और अवधि दिन पर दिन बढ़ती जाए तो मांबाप का चिंतित होना स्वाभाविक है. विशेषकर लड़की के मांबाप का. बुरा जमाना है, पैर फिसलते देर नहीं लगती. कोई ऊंचनीच हो गई तो जगहंसाई तो होगी ही, मुंह दिखाने योग्य भी न रहेंगे. कहीं रिश्ता तोड़ने की नौबत आ गई तो लड़की तो बस गई काम से. दूसरा कौन पकड़ेगा हाथ?

सगाई के कुछ दिन बाद ही ससुराल से वरुण के लिए दोपहर के भोजन का निमंत्रण आ गया. सासससुर को तो दामाद की खातिरदारी करने का चाव था ही, निशा के बदन में भी वरुण का नाम सुनते ही गुदगुदी होने लगी. वह बारबार घड़ी को देखती. मरी 1 घंटे में भी 1 मिनट ही आगे खिसकती है. वरुण की हालत भी कम खराब नहीं थी. ससुराल जाने लायक कोई कपड़ा समझ में नहीं आ रहा था. अगर सगाई में मिले कपड़े पहनेगा तो सब यही समझेंगे कि बेचारे के पास अपने कोई कपड़े नहीं हैं. अगर अपने पुराने कपड़े पहनेगा तो लगेगा कि जनाब की हालत खस्ता है. अपनी जींस और चैक वाली लालनीली कमीज में लगता तो स्मार्ट है, पर इन कपड़ों में उस का फोटो खिंच चुका है और इस फोटो की एक कौपी ससुराल में बतौर इश्तिहार के पहले ही भेजी जा चुकी है. जहां तक वरुण का अनुमान है, यह फोटो ससुराल के ड्राइंगरूम में बहुत सारे चांद लगा रही है.

हठ कर के मां के गुल्लक में से रुपए निकाले और कुछ अपने जोड़े. बहन की शरारतभरी हंसी से चिढ़ा तो, पर उसे डांट कर चुप कर दिया और नई जींस, कमीज, टौप की जैकेट व गला कसने के लिए एक बहुरंगा स्कार्फ ले आया. काला चश्मा तो उस के पास था. जब आईने में देखा तो आंखों में चमक आ गई. सामने वरुण नहीं, दिलीप कुमार, देव आनंद, आमिर खान, शाहरुख और सैफ अली खान, सब मिला कर एक अनूठा व्यक्तित्व वाला जवां मर्द खड़ा था.

जब चलने लगा तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, जल्दी आ जाना. ससुराल में ज्यादा देर बैठने से इज्जत कम हो जाती है. अपना सम्मान अपने हाथ में है.’’

पिता ने चुटकी ली, ‘‘मेरा उदाहरण ले सपूत. जानता है न मेरा सम्मान कितना करते हैं तेरे मामा लोग?’’

यह मां के लिए बड़ा दुखदायी विषय था. जब से मामियां आई हैं कोई उसे बुलाता तक नहीं है और अब तो यह बात जूते की तरह घिस गई है. शरारती बहन बोली तो कुछ नहीं, बस, सुगंधित परफ्यूम पेश कर दिया. परफ्यूम का नाम था ‘फेटल अट्रैक्शन’ यानी घातक आकर्षण. चुलबुली इतनी है कि गंभीर से गंभीर चेहरा भी खिल जाए. वरुण ने पहले तो घूर कर देखा और फिर मुसकरा कर प्यार से चपत मारने के लिए हाथ उठाया. बहन भाग कर मां के पल्लू में छिप गई. मां की ढाल के आगे सारी तलवारें कुंद हो जाती हैं. सब हंस पड़े, वरुण भी. लगता था कि सब दरवाजे से चिपके खड़े थे. वरुण ने घंटी के बटन पर उंगली रखी ही थी कि दरवाजा अलीबाबा के ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह चर्रचूं करता हुआ खुल गया. सब के चेहरे इतने नजदीक कि नाक से नाक भिड़ जाती अगर वरुण चौंक कर पीछे न हट जाता.

‘‘नमस्कार जीजाजी,’’ एक सामूहिक स्वर जिस में 2 साले और 1 साली की आवाजें शामिल थी. एक साला उधार का था. छुट्टियों में गुलछर्रे उड़ाने के लिए चाची ने भेज दिया था.

‘‘आप लोगों ने तो मुझे डरा ही दिया,’’ वरुण ने झेंपते हुए कहा.

‘‘यह तो सिर्फ नमूना है जीजाजी,’’ शिवानी ने आंखें मिचकाते हुए कहा, ‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या.’’

‘‘आगे क्या होगा?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘आप दीदी से डर जाएंगे,’’ शिवानी ने उत्तर दिया.

‘‘भला क्यों?’’ वरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जब से आप से रूबरू हुई हैं, उन के 2 सींग निकल आए हैं,’’ शिवानी ने निहायत गंभीरता से कहा, ‘‘आंखें फूल कर बजरबट्टू हो गई हैं, कान हाथी के से बड़े हो कर फड़फड़ा रहे हैं और नाक कंधारी अनार की तरह फूल गई है. दांत…’’

वरुण वापस मुड़ा, मानो जा रहा हो.

‘‘अरेअरे, कहां जा रहे हैं?’’ शिवानी ने पूछा.

‘‘लगता है मैं गलती से किसी अजायबघर आ गया हूं,’’ वरुण ने गंभीरता से कहा, ‘‘क्या गोपालदासजी घर छोड़ कर चले गए हैं?’’

मां ने पीछे से हंसते हुए आवाज लगाई, ‘‘अरे, अब अंदर आने भी दोगे या बाहर से ही भगा दोगे? आओ बेटे, ये लोग तो बड़े शरारती हैं. बुरा मत मानना. टीवी देखदेख कर सब बिगड़ गए हैं.’’ सब ने सिर झुका कर सलाम किया और वरुण के लिए रास्ता बनाया. बैठते ही सास ने फ्रिज में से शीतल पेय की बोतल निकाल कर पेश कर दी. निशा कमरे के अंदर से परदे की दरार में से झांक रही थी और वरुण की रूपरेखा दिल में उतार रही थी. बड़ा बांका लग रहा था.

इतने में शिवानी पास आ कर फुसफुसाई, ‘‘बड़े स्मार्ट लग रहे हैं जीजाजी, बिलकुल चार्ली चैपलिन की तरह. पूछ तो सही, कपड़े जामा मसजिद की कौन सी दुकान से लाए हैं?’’

‘‘चल हट,’’ निशा ने झिड़क कर कहा, ‘‘तू ही पूछ ले.’’

फिर निशा ने भी अधिक शरमाने में भलाई नहीं समझी. उस का जी भी तो वरुण के पास बैठने को मचल रहा था. मां तो समझती ही नहीं, पर फिर भी…

जब धीरेधीरे खुली खिड़की से आती खुशबूदार हवा की तरह उस ने कमरे में प्रवेश किया तो वरुण की आंखें मानो उस पर चिपक गईं. फालसई रंग का सलवारकुरता उस पर अच्छा खिल रहा था. सांवला रंग फीका पड़ गया था और वरुण को वह आशा के विपरीत अधिक साफसुथरी नजर आ रही थी. अलग अकेले में बात करने को मन करने लगा. शिवानी ने उठते हुए वरुण के पास निशा के लिए जगह बना दी.

सास मुंह बना कर अंदर रसोई में चली गईं. ससुर 1-2 औपचारिक बातें करने के बाद अपने कमरे में चले गए. शिवानी मां की मदद करने के लिए रसोई में गई और दोनों साले बाजार से कुछ लाने को भेज दिए गए.

इस तरह मैदान खाली कर दिया गया.

निशा शरमा कर नीचे देख रही थी. वरुण उस के चेहरे पर आंखें गड़ाए था. यही तो है न वह.

वरुण ने गहरी सांस ले कर आहिस्ते से कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

निशा ने मुसकरा कर मासूमियत से कहा, ‘‘हां, मां भी यही कहती हैं.’’

वरुण शरारत से हंसा, ‘‘ओह, तो मां का प्रमाणपत्र पहले ही मिल चुका है. यह अधिकार तो मेरा था.’’

निशा भी हंसी, ‘‘आप ने तो कुछ खाया ही नहीं. लीजिए, रसमलाई खाइए.’’

‘‘तुम ने बनाई है?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ निशा ने कहा, ‘‘बाजार से मंगाई है. बहुत मशहूर दुकान की है.’’

‘‘तुम ने क्या बनाया है?’’ वरुण ने हंस कर कहा, ‘‘वही खिलाओ.’’

‘‘कुछ नहीं,’’ निशा ने सादगी से कहा, ‘‘मां ने कुछ बनाने नहीं दिया.’’

‘‘क्यों?’’ वरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मां ने कहा कि अगर अच्छा नहीं बना तो,’’ निशा ने मुसकरा कर कहा, ‘‘और आप को भी अच्छा नहीं लगा तो आप हमेशा वही याद रखेंगे.’’

‘‘मां तो बहुत समझदार हैं,’’ वरुण के स्वर में हलका सा व्यंग्य था, ‘‘पर उस दिन तो तुम ने हम लोगों का मन जीत लिया था.’’

‘‘दरअसल उस दिन अधिक व्यंजन तो मां ने ही बनाए थे. मैं ने तो उन की मदद की थी,’’ निशा की हंसी में रबड़ी की खुशबू थी.

‘‘पर कुछ तो बनाया होगा?’’ वरुण ने अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘दहीबड़े बनाए थे,’’ निशा ने संकोच से कहा, ‘‘पर वे इतने सख्त थे कि मां ने नौकरानी को दे दिए.’’

मैली लाल डोरी – भाग 1 : दास्तान अपर्णा की

रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन 2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

अपर्णा ने नितिन से पूछा, ‘यह सब क्या है नितिन? सुबह मैं स्कूल गई थी, तब तो तुम ने कुछ नहीं बताया?’

‘तुम सुबह जल्दी निकल गई थीं, सूचना बाद में मिली. आज गुरुजी घर आने वाले हैं. जाओ तुम भी तैयार हो जाओ,’ कह कर नितिन फिर जोश से काम में जुट गया.

उस दिन देररात्रि तक गुरुजी का प्रोग्राम चलता रहा. न जाने कितने ही लोग आए और गए. सब को चाय, खाना आदि खिलाया गया. अपर्णा को सुबह स्कूल जाना था, सो, वह अपने कमरे में आ कर सो गई. दूसरे दिन शाम को जब स्कूल से लौटी तो नितिन बड़ा खुश था. ट्रे में चाय के 2 कप ले कर अपर्णा के पास ही बैठ गया और कल के सफल आयोजन के लिए खुशी व्यक्त करने लगा. तभी अपर्णा ने धीरे से कहा, ‘नितिन, आप खुश हो, इसलिए मैं भी खुश हूं परंतु मेहनत की गाढ़ी कमाई की यों बरबादी ठीक नहीं.’

नजरिया- भाग 1: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

आज आशी जब अपनी जुड़वां बेटियों को स्कूल बस में छोड़ने आई तो रोज की तरह नहीं खिलखिला रही थी. मैं उस की चुप्पी देख कर समझ गई कि जरूर कोई बात है, क्योंकि आशी और चुप्पी का तो दूरदूर तक का वास्ता नहीं है.

आशी मेरी सब से प्यारी सहेली है, जिस की 2 जुड़वां बेटियां मेरी बेटी प्रिशा के स्कूल में साथसाथ पढ़ती हैं. मैं आशी को 3 सालों से जानती हूं. मात्र 21 वर्ष की उम्र में उस का अमीर परिवार में विवाह हो गया था और फिर 1 ही साल में 2 जुड़वां बेटियां पैदा हो गईं. रोज बच्चों को बस में बैठा कर हम दोनों सुबह की सैर को निकल जातीं. स्वास्थ्य लाभ के साथसाथ अपने मन की बातों का आदानप्रदान भी हो जाता. किंतु उस के चेहरे पर आज उदासी देख कर मेरा मन न माना तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है आशी, आज इतनी उदास क्यों हो?’’

‘‘क्या बताऊं ऋचा घर में सभी तीसरा बच्चा चाहते हैं. बड़ी मुश्किल से तो दोनों बेटियों को संभाल पाती हूं. तीसरे बच्चे को कैसे संभालूंगी? यदि एक बच्चा और हो गया तो मैं तो मशीन बन कर रह जाऊंगी.’’

‘‘तो यह बात है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’

‘‘निखिल को नहीं उन की मां को चाहिए बच्चा. उन का कहना है कि इतनी बड़ी जायदाद का कोई वारिस मिल जाता तो अच्छा रहता. असल में उन्हें एक पोता चाहिए.’’

‘‘पर क्या गारंटी है कि इस बार पोता ही होगा? यदि पोती हुई तो क्या वारिस पैदा करने के लिए चौथा बच्चा भी पैदा करोगी?’’

‘‘वही तो. पर निखिल की मां को कौन समझाए. फिर वे ही नहीं मेरे अपने मातापिता भी यही चाहते हैं. उन का कहना है कि बेटियां तो विवाह कर पराए घर चली जाएंगी. वंशवृद्धि तो बेटे से ही होती है.’’

‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’

‘‘वैसे तो निखिल बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं समझते. किंतु उन का भी कहना है कि पहली बार में ही जुड़वां बेटियां हो गईं वरना क्या हम दूसरी बार कोशिश न करते? एक कोशिश करने में कोई हरज नहीं… सब को वंशवृद्धि के लिए लड़का चाहिए बस… मेरे शरीर, मेरी इच्छाओं के बारे में तो कोई नहीं सोचता और न ही मेरे स्वास्थ्य के बारे में… जैसे मैं कोई औरत नहीं वंशवृद्धि की मशीन हूं… 2 बच्चे पहले से हैं और बेटे की चाह में तीसरे को लाना कहां तक उचित है?’’

मैं सोचती थी कि जमाना बदल गया है, लेकिन आशी की बात सुन कर लगा कि हमारा समाज आज भी पुरातन विचारों से जकड़ा हुआ है. बेटेबेटी का फर्क सिर्फ गांवों और अनपढ़ घरों में ही नहीं वरन बड़े शहरों व पढ़ेलिखे परिवारों में भी है. यह देख कर मैं बहुत आश्चर्यचकित थी. फिर मैं तो सोचती थी कि आशी का पति बहुत समझदार है… वह कैसे अपनी मां की बातों में आ गया?

आशी मन से तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. न बेटा न बेटी. अब आशी अकसर अनमनी सी रहती. मैं भी सोचती कि रोजरोज पूछना ठीक नहीं. यदि उस की इच्छा होगी तो खुद बताएगी. हां, हमारा बच्चों को बस में बैठा कर सुबह की सैर का सिलसिला जारी था.

एक दिन आशी ने बताया, ‘‘ऋचा मैं गर्भवती हूं… अब शायद रोज सुबह की सैर के लिए न जा सकूं.’’

उस की बात सुन मैं मन ही मन सोच रही थी कि यह शायद निखिल की बातों में आ गई या क्या मालूम निखिल ने इसे मजबूर किया हो. फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘तो अब तुम्हें भी वारिस चाहिए?’’

‘‘नहीं. पर यदि मैं निखिल की बात न मानूं तो वे मुझे ताने देने लगेंगे… इसीलिए सोचा कि एक चांस और ले लेती हूं. अब वही फिर से 9 महीनों की परेड.’’

इस के बाद आशी को कभी मौर्निंग सिकनैस होती तो सैर पर नहीं आती. देखतेदेखते 3 माह बीत गए. फिर एक दिन अचानक आशी मेरे घर आई. उसे अचानक आया देख मुझे लगा कि कुछ बात जरूर है. अत: मैं ने पूछा, सब ठीक तो है? कोई खास वजह आने की? तबीयत कैसी है तुम्हारी आशी?’’

आशी कहने लगी, ‘‘कुछ ठीक नहीं चल रहा है ऋचा… निखिल की मम्मी को किसी ने बताया है कि आजकल अल्ट्रासाउंड द्वारा गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण किया जाता है… लड़की होने पर गर्भपात भी करवा सकते हैं. अब मुझे मेरी सास के इरादे ठीक नहीं लग रहे हैं.

2 दिन से मेरे व निखिल के पीछे बच्चे के लिंग की जांच कराने के लिए पड़ी हैं.’’

‘‘यह तो गंभीर स्थिति है… तुम सास की बातों में मत आ जाना… निखिल को समझा दो कि तुम अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाना चाहती,’’ मैं ने कहा.

सुबह का भूला – भाग 1: आखिर क्यों घर से दूर होना चाहते थे मोहन और रोली

मोहन ने जब अपनी पत्नी रोली के गले में गुलाबी मोतियों का हार पहनाया, तो खुश होने के बजाय वह मुंह बना कर बोली, ‘‘मुझे नहीं चाहिए यह हार.’’

‘‘क्यों भला?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘अब तो जब असली सोने का हार ला कर दोगे, तभी पहनूंगी. यह 20-30 रुपल्ली वाला हार नहीं चाहिए मुझे,’’ झूठमूठ का गुस्सा दिखाते हुए रोली रसोईघर में घुस गई.

मोहन भी उस के पीछेपीछे चल पड़ा और उसे अपनी बांहों में भर कर बोला, ‘‘अच्छा ठीक है मेरी मैना. एक दिन सोने के हार से भी सजा देंगे तेरे इस सुराहीदार गले को. लेकिन अभी तो इसे पहन ले.’’

‘‘सच बोल रहे हो न? तो खाओ मेरी कसम…’’ रोली ने आंखें नचा कर पूछा.

‘‘अरे, तेरी कसम मेरी जान. सच कह रहा हूं. अरे, तू कहे तो मैं अपना कलेजा निकाल कर तेरी हथेली पर रख दूं, तो यह सोने का हार क्या चीज है,’’ कह कर वह रोली को जीभर कर प्यार करने लगा.

मोहन और रोली की शादी को आज एक साल हो चुका था. आज ही के दिन मोहन रोली को ब्याह कर अपने घर ले आया था. उस ने सोच रखा था कि आज वह अपनी रोली को पूरा शहर घुमाएगा, इसलिए तो उस ने मालिक से बोल कर एक दिन की छुट्टी ले रखी थी. मगर रोली को लगता है कि वह उस से प्यार ही नहीं करता.

रोली को अपने रूपरंग का इतना गुमान है कि वह अपने आगे सांवलेसलोने मोहन को कुछ समझती ही नहीं है. जब देखो उसे झिड़कती रहती है, उस में कमी निकालती है और मोहन है कि उस की हर बात को हंसी में उड़ा देता है. वह तो चाहता है कि कैसे भी कर के, कुछ भी कर के रोली को बस खुश रखना है. लेकिन यह रोली भी न, पता नहीं और क्या चाहिए इसे जो हरदम मुंह बनाए रहती है.

‘‘अच्छा, अब गुस्सा थूक भी दे. देख, आज हम सिनेमा देखने चलते हैं और कहीं बाहर ही भेलकचौड़ी खाएंगे. तेरा मनपसंद पुचका भी. बोल, अब तो खुश?

 

‘‘तो चल जल्दी से तैयार हो जा. और सुन, वही गुलाबी वाली साड़ी पहनना जो मैं ने तुझे ला कर दी थी. उस पर यह मोतियों का हार खूब जंचेगा. है कि नहीं?’’ मोहन और रोली काफी देर रात घूमफिर कर घर आए, तो मोहन आते ही लुढ़क गया, क्योंकि वह इतना थक चुका था कि खाट पर लेटते ही उसे नींद आ गई.

लेकिन रोली की बड़ीबड़ी आंखों में अब भी वही बड़ेबड़े माल, चमकती दुकानें, बड़ीबड़ी और ऊंची बिल्डिगें, तैर रही थीं.

रोली सोच रही थी कि काश, उस के पास भी बहुत पैसे होते, तो वह भी इन दुकानों और माल में जा कर अपने लिए महंगेमहंगे कपड़े और जेवर खरीदती, होटलों में खाना खाती, मोटरगाड़ी में घूमती. लेकिन अफसोस…

आहें भरते हुए रोली ने पलट कर सो रहे मोहन की ओर देखा और उस की बगल में जा कर लेटते हुए सोचने लगी, ‘हाय रे, क्याक्या सपने ले कर आई थी इस दिल्ली शहर में. मगर मिला क्या बस ठेंगा…’

मोहन उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव बलरामपुर का रहने वाला था. वहां उस का अपना एक कच्चापक्का

3 कमरे का टूटाफूटा मकान था, जिस में 3 भाई, उन के बीवीबच्चे और बूढ़े मांबाप रहते थे. वे लोग अपने गांव में दूसरों की जमीन पर खेती कर के अपना गुजारा करते थे.

मोहन घर में सब से छोटा होने के चलते सारा दिन अपने हमउम्र दोस्तों के साथ यहांवहां मटरगश्ती करता फिरता था और घर आ कर खा कर सो जाता था.

मांबाप ने सोचा कि अगर मोहन की शादी कर देंगे तो शायद यह अपनी जिम्मेदारी समझने लगेगा, इसलिए एक सुंदर, सुशील लड़की देख कर उन्होंने मोहन की शादी करा दी.

मोहन की पत्नी रोली उस से 5 साल छोटी थी. खूबसूरत तो वह इतनी थी कि कोई देखे तो देखता रह जाए. दूध सी गोरीचिकनी रोली को अगर अंधेरे घर में बिठा दिया जाए, तो कमरा रोशनी से नहा उठे. तभी तो मोहन अपनी हूर की परी रोली को देख कर मचल उठता था. जब देखो वह उस के आसपास ही मंडराता रहता था.

मोहन का तो मन करता कि बस अपनी रोली को ताकता रहे, कोई काम ही न करे. जब बापभाई की डांट पड़ती तब वह कमरे से बाहर निकल कर काम पर जाता तो सही, पर जल्द ही वापस लौट आता था.

इधर, रोली को अपने पति से इतना प्यार पाते देख उस की तीनों जेठानी उस से जलन करतीं और कहतीं कि उस ने पति को अपने रूपजाल में फंसा कर निखट्टू बना रखा है. अरे, क्या उस के इस खूबसूरत थोबड़े को देखदेख कर मोहन की जिंदगी चलेगी या पेट भरने के लिए कमाना भी पड़ेगा?

जेठानियों के तानेउलाहने सुनसुन कर रोली को अब कोफ्त होने लगी थी, इसलिए गुस्से में वह भी उन्हें सुना डालती और इसी बात पर घर में महायुद्ध छिड़ जाता.

रात में मोहन के आगोश में समाई रोली जब अपनी जेठानियों की उस से शिकायत करती और कहती कि अब उसे इन के साथ नहीं रहना, क्योंकि ये लोग जब देखो उसे खरीखोटी सुनाते रहते हैं, पूरे घर का काम भी करवाते हैं, तो सुन कर मोहन का मन खिन्न हो उठता था.

लेकिन इस घर के सिवा और कोई ठिकाना भी तो नहीं था उस के पास,जहां वह अपनी खूबसूरत बीवी को ले कर जा पाता. सो, वह मनमसोस कर रह जाता था.

एक दिन जब रोली ने मोहन से कहा कि क्यों न हम शहर जा कर रहें और रखा ही क्या है यहां इस घर में, तो मोहन भी सोचने पर मजबूर हो गया कि हां, वहां शहर में अपना कमाएंगे, अपना खाएंगे तो किसी की आंखों में चुभेंगे नहीं. और रोली से मिलने से भी उसे कोई रोक नहीं पाएगा. यहां तो जब देखो, सब उसे सुनाते ही रहते हैं. रोली पर भी पूरे घर का काम लाद देते हैं, जैसे वह सब की नौकरानी हो.

होली स्पेशल: बनारसी साड़ी- भाग 3

सीमा भुनभनाती, मुंह फुलाती, अपनी मां से हुज्जत करती पर सास का फरमान कोई टाल नहीं सकता था.

मैं मन ही मन जानती थी कि मेरी सास जानबूझ कर सीमा को हमारे साथ नहीं भेजती थीं और उसे घर के किसी काम में उलझाए रखती थीं. मैं मन ही मन उन का आभार मानती.

एक बार मेरे भैया मुझ से मिलने आए थे. मां ने अपने सामर्थ्य भर कुछ सौगात भेजी थीं. मेरी सास ने उन वस्तुओं की बहुत तारीफ की और घर भर को दिखाया. फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बहू, बहुत दिनों बाद तुम्हारे भाई तुम से मिलने आए हैं. तुम अपनी निगरानी में आज का खाना बनवाओ और उन की पसंद की चीजें बनवा कर उन्हें खिलाओ.’’

मेरा मन खुशी से नाच उठा. उन के प्रति मेरा मन आदर से झुक गया. कितना फर्क था मेरी मां और मेरी सास के बरताव में, मैं ने सोचा. मुझे याद है जब भी मेरी भाभी का कोई रिश्तेदार उन से मिलने आता तो मेरी मां की भृकुटी तन जाती. वे किचन में जा कर जोरजोर से बरतन पटकतीं ताकि घर भर को उन की अप्रसन्नता का भान हो जाए.

मुझे याद आया कि जब मेरी शादी हुई तो मेरी मां ने मुझे बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देख छुटकी, तेरा दूल्हा बड़ा सलोना है. तू उस के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. मैं तुझे चेताए देती हूं कि तू हमेशा उन के सामने बनठन कर रहना. तभी तू उन का मन जीत पाएगी.’’

मुझ से कहे बिना नहीं रहा गया, ‘‘लेकिन भाभी को तो तुम हमेशा बननेसंवरने पर टोका करती थीं.’’

‘‘वह और बात है. तेरी भाभी कोई नईनवेली दुलहन थोड़े न है. बालबच्चों वाली है,’’ मां मुझ से बोलीं.

इस के विपरीत मेरी ससुराल में जब भी कोई त्योहार आता तो मेरी सास आग्रह कर के मुझे नई साड़ी पहनातीं और अपने गहनों से सजातीं. वे सब से कहती फिरतीं, ‘‘मेरी बहू तो लाखों में एक है.’’

इधर मेरी मां थीं जिन्होंने भाभी को तिलतिल जलाया था. उन की भावनाओं की अवहेलना कर के उन के जीवन में जहर घोल दिया था. ऐसा क्यों किया था उन्होंने? ऐसा कर के न केवल उन्होंने मेरे भाई की सुखशांति भंग कर दी थी बल्कि भाभी के व्यक्तित्व को भी पंगु बना दिया था.

मुझे लगता है भाभी अपने प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई थीं. उन में जीने की इच्छा ही मर गई थी. यहां तक कि जब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने उन्हें धर दबोचा तब भी उन्होंने अपनी परवाह न की, न घर में किसी को बताया कि उन्हें इतनी प्राणघातक बीमारी है. जब भैया को भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

जब मैं घर पहुंची तो भाभी की अर्थी उठने वाली थी. मैं ने अपने बक्से से बनारसी साड़ी निकाली और भाभी को पहना दी.

‘‘ये क्या कर रही है छुटकी,’’ मां ने कहा, ‘‘थोड़ी देर में तो सब राख होने वाला है.’’

‘‘होने दो,’’ मैं ने रुक्षता से कहा.

मुझे भाभी की वह छवि याद आई जब वे वधू के रूप में घर के द्वार पर खड़ी थीं. उन के माथे पर गोल बिंदी सूरज की तरह दमक रही थी. उन के होंठों पर सलज्ज मुसकान थी. उन की आंखों में हजार सपने थे.

भाभी की अर्थी उठ रही थी. मां का रुदन सब से ऊंचा था. वे गला फाड़फाड़ कर विलाप कर रही थीं. भैया एकदम काठ हो गए थे. उन के दोनों बेटे रो रहे थे पर छोटी बेटी नेहा जो अभी 4 साल की ही थी चारों ओर अबोध भाव से टुकुरटुकुर देख रही थी. मैं ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और भैया से कहा, ‘‘लड़के बड़े हैं. कुछ दिनों में बोर्डिंग में पढ़ने चले जाएंगे. पर यह नन्ही सी जान है जिसे कोई देखने वाला नहीं है. इस को तुम मुझे दे दो. मैं इसे पाल लूंगी और जब कहोगे वापस लौटा दूंगी.’’

‘‘अरी ये क्या कर रही है?’’ मां फुसफुफसाईं ‘‘तू क्यों इस जंजाल को मोल ले रही है. तुझे नाहक परेशानी होगी.’’

‘‘नहीं मां मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. उलटे अगर बच्ची यहां रहेगी तो तुम उसे संभाल न सकोगी.’’

‘‘लेकिन तेरी सास की मरजी भी तो जाननी होगी. तू अपनी भतीजी को गोद में लिए पहुंचेगी तो पता नहीं वे क्या कहेंगी.’’

‘‘मैं अपनी सास को अच्छी तरह जानती हूं. वे मेरे निर्णय की प्रशंसा ही करेंगी,’’ मैं ने दृढ़ शब्दों में कहा.

मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे भाभी अंतरिक्ष से मुझे देख रही हैं और हलकेहलके मुसकारा रही हैं. ‘भाभी,’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘मैं तुम्हारी थाती लिए जा रही हूं. मुझे पक्का विश्वास है कि इस में तुम्हारे संस्कार भरे हैं. इसे अपने हृदय से लगा कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करूंगी.

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