एक प्यार ऐसा भी : क्या थी नसीम की गलती

जेबा से बात करतेकरते कब फिरोज उस से प्यार करने लगा, उसे पता ही न चला. उसे जेबा के लिए स्ट्रौंग फीलिंग आने लगी थी, उस ने जेबा को प्रपोज कर दिया. लेकिन जेबा…? क्या वह भी फिरोज के लिए ऐसा ही महसूस कर रही थी?

उस दिन सूरज रोज की तरह ही निकला था. गरमी के दिनों में धूप की तल्खी इंसान को भी तल्ख कर देती है. फिरोज को नसीम को देख कर ऐसा ही लग रहा था.

नसीम अपनी ही धुन में बोले जा रही थी, ‘‘बहुत घमंडी है वह, खुद को जाने क्या समझती है?’’ नसीम बहुत गुस्से में थी.

‘‘लेकिन गलती तो तुम्हारी है न, फिर बात इतनी क्यों बढ़ाई?’’ फिरोज के इतना कहते ही नसीम भड़क गई, ‘‘तुम मेरे दोस्त हो या उस के?’’

‘‘तुम्हारा दोस्त हूं, इसी कारण समझाने की कोशिश कर रहा हूं,’’ फिरोज आगे भी कुछ कहना चाहता था लेकिन नसीम का गुस्सा देख कर चुप रह गया.

‘जब नसीम का गुस्सा कम होगा, तब इसे समझाऊंगा, अभी यह कुछ नहीं समझेगी,’ मन में ऐसा सोच कर न जाने क्यों फिरोज ने डिबेट ग्रुप से उस घमंडी लड़की का नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया.

‘‘आप कौन?’’ मैसेज में चमकते उन शब्दों को देख कर फिरोज को ध्यान आया कि अनजाने में ही वह उसे एक मैसेज फौरवर्ड कर गया है.

‘‘मैं फिरोज हूं,’’ की बोर्ड पर टाइप करते हुए उस ने अपना परिचय दिया.

‘‘क्या आप मुझे जानते हैं?’’ इस प्रश्न पर फिरोज ने बताया कि मैं नसीम का दोस्त हूं.

‘‘ओह, कहिए, क्या कहना है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं ने गलती से यह मैसेज आप को भेज दिया. माफी चाहता हूं,’’ फिरोज ने शालीनता से कहा.

उस घमंडी लड़की से फिरोज की यह पहली बात थी.

फिरोज उसे पहले से जानता था. उस का नाम जेबा है. यह भी उसे पता था लेकिन वह फिरोज को नहीं जानती थी.

एक दिन बैठेबैठे न जाने क्यों फिरोज की इच्छा हुई जेबा से बात करने की लेकिन क्या कह कर वह उस से बात करेगा. क्यों नहीं कर सकता? दोनों एक ही विषय से जुड़े हैं, भले ही उन के कालेज अलगअलग हों और फिर नसीम वाली बात भी स्पष्ट कर लेगा. आखिर नसीम उस की सब से अच्छी दोस्त है.

फिरोज ने उस का नंबर डायल कर दिया.

‘‘हैलो, कौन बोल रहा है?’’ स्क्रीन पर अनजान नंबर देख कर ही शायद उस ने यह सवाल किया था.

‘‘मैं फिरोज, उस दिन गलती से आप को मैसेज किया था. नसीम का दोस्त,’’ फिरोज ने परिचय दिया.

‘‘कहिए, कैसे फोन किया?’’ जेबा ने मधुर मगर लहजे को सपाट रखते हुए सवाल किया.

‘‘जी, बस यों ही. दरअसल, हम दोनों के विषय एक ही हैं,’’ अचानक फिरोज को लगा कि वह बेवजह का कारण बता रहा है. ‘‘दरअसल उस दिन गलती नसीम की थी मगर वह दिल की बुरी नहीं, आप उस के लिए कोई मुगालता मत रखिएगा.’’

‘‘मैं जानती हूं कि वह अच्छी है. वह तो बस उस का लहजा मुझे पसंद नहीं आया.’’ जेबा से थोड़ी देर बात कर फिरोज ने फोन रख दिया. जेबा की शालीनता से वह काफी प्रभावित हुआ. धीरेधीरे दोनों की बातें बढ़ने लगीं. फिरोज ने महसूस किया कि जेबा से बात कर के उसे अच्छा लगता है. ऐसा नहीं था कि जेबा से पहले उस ने लड़कियों से बात नहीं की थी मगर जेबा में कुछ अलग था. सब से बड़ी बात उस में और जेबा में स्वभाव में काफी समानता थी.

जेबा खूबसूरत होने के साथ काफी समझदार भी थी. उस से बात करते हुए फिरोज को समय का एहसास भी न होता था. एक रात दोनों चैटिंग कर रहे थे. जेबा ने फिरोज को वीडियोकौल कर दी. यह पहला मौका था दोनों का एकदूसरे से रूबरू होने का. फिरोज एकटक जेबा को देखता ही रह गया.

जेबा ने खिलखिला कर पूछा, ‘‘क्या हुआ आप को? ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

फिरोज कहना तो बहुतकुछ चाहता था लेकिन अभी कुछ कहना शायद जल्दबाजी होती, इसलिए सिर हिला कर मुसकरा दिया. थोड़ी देर बात करने के बाद जेबा ने गुडनाइट कहते हुए फोन काट दिया.

फिरोज कौल कटने के बाद भी काफी देर तक मोबाइल स्क्रीन को देखता रहा और फिर बेखयाली में मुसकराते हुए उस ने स्क्रीन पर एक चुंबन जड़ दिया.

‘न जाने क्या है उस में जो मुझे अपनी तरफ खींचता है,’ आईने में बाल संवारते हुए फिरोज खुद से ही सवाल कर रहा था.

कालेज जाने के लिए बाइक स्टार्ट करने के पहले फिरोज ने मोबाइल में मैसेज चैक किए. मैसेज तो कई थे, बस जेबा का ही कोई मैसेज न था. फिरोज थोड़ा मायूम हुआ.

‘कहीं यह इकतरफा मोहब्बत तो नहीं. न…न… काश, वह भी मेरे बारे में ऐसा ही सोचती हो,’ मन ही मन सोच कर फिरोज ने बाइक स्टार्ट की ही थी कि मोबाइल पर किसी की कौल आई. जेब से मोबाइल निकाला. अरे यह तो जेबा है. आसमान की तरफ देख कर, धड़कते दिल को काबू में कर फिरोज ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, क्या कर रहे हो?’’ उधर से जेबा का स्वर न जाने क्यों फिरोज को उदास सा लगा.

‘‘हैलो, मैं कुछ नहीं कर रहा. तुम बताओ,’’ फिरोज फिक्रमंद हुआ.

‘‘कालेज जा रहे होगे न? मैं ने तो बस यों ही कौल कर लिया था.’’

‘‘जेबा, तुम उदास क्यों हो? क्या हुआ है?’’ फिरोज अब परेशान हो गया.

‘‘मैं ने एक कंपीटिशन से अपना नाम वापस ले लिया,’’ कहती हुई जेबा हिचकियां ले कर रोने लगी.

फिरोज ने बाइक किनारे खड़ी की और एक पेड़ के सहारे खड़ा हो गया.

‘‘तुम मुझे पूरी बात बताओ जेबा. क्या और कैसे हुआ?’’ फिरोज काफी संजीदा हो गया था.

जेबा ने रोतेरोते सब बता दिया कि किस तरह चीटिंग कर के उस की जगह किसी और को फाइनल में भेजा जाएगा.

‘‘जेबा, अब तुम उस बारे में बिलकुल मत सोचो. मैं हूं न तुम्हारे साथ. ऐसे बहुत कंपीटिशन मिलेंगे तुम्हें,’’

फिरोज का मन कर रहा था कि वह किसी तरह जेबा के पास पहुंच कर उसे संभाल ले. उस की एकएक हिचकी पर फिरोज का दिल बैठा जा रहा था. आखिरकार उस ने पूछ ही लिया कि तुम कहां हो इस वक्त.

‘‘घर पर,’’ जेबा ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘चांदनी चौक आ सकती हो? कहीं बैठें?’’

‘‘नहीं.’’

‘उफ्फ, फिर कैसे संभालूं इसे मैं,’  मगर फिर भी फिरोज उस से बातें करता रहा जब तक जेबा नौर्मल नहीं हो गई.

‘‘अब क्या करूं? कालेज का टाइम तो मोहतरमा ने निकलवा दिया और मिल भी नहीं रही,’’ नकली गुस्से में फिरोज ने जेबा से कहा तो जेबा ने भी शोखी से जवाब दिया, ‘‘तो चले जाते, हम ने कोई जबरदस्ती तो नहीं पकड़ा था आप को.’’

‘‘मैं कुछ कहना चाहता हूं जेबा, मगर डरता हूं कहीं यह जल्दबाजी तो नहीं होगी,’’ आज फिरोज दिल की बात जुबां पर लाना चाहता था.

‘‘मैं समझी नहीं. क्या कहना है आप को?’’ जेबा की आवाज से लग रहा था जैसे वह समझ कर भी अनजान बन रही है.

‘‘कह दूं.’’

‘‘जी, कहें.’’

‘‘आई लव यू जेबा. मैं बहुत स्ट्रौंग फीलिंग महसूस कर रहा हूं तुम्हारे लिए.’’

जवाब में दूसरी तरफ खामोशी छा गई.

‘‘जेबा, क्या हुआ? नाराज हो गईं क्या? कुछ तो कहो. देखो, मैं जो कह रहा हूं सच है और मैं इस के लिए सौरी नहीं बोलूंगा. आई रियली लव यू.’’

‘‘देखिए, मेरे मन में ऐसा कुछ भी फील नहीं हो रहा लेकिन जब भी ऐसा महसूस हुआ तो जरूर कहूंगी.’’

‘‘इंतजार रहेगा कि जल्दी ही वह दिन आए,’’ कहते हुए फिरोज ने अपने दिल पर हाथ रख लिया.

जेबा और फिरोज की बातें अकसर होती रहीं. एक दिन फिरोज ने जेबा से कहा कि उसे कालेज के टूर पर 2 दिनों के लिए जाना है. इस बीच हो सकता है उन की बात न हो सके.

जेबा ने फिरोज को हैप्पी जर्नी कहा लेकिन न जाने क्यों जेबा उदास हो गई. सहेलियों से बात करते हुए भी उसे बारबार एक खालीपन का एहसास हो रहा था. उस के अनमनेपन के लिए सहेलियों ने टोका भी लेकिन जेबा उन से क्या कहती.

शाम को फिरोज की कौल आते ही उस ने पहली ही घंटी में फोन उठा लिया.

‘‘कैसे हो? क्या कर रहे हो?’’ एक सांस में जेबा ने कई सवाल कर लिए.

‘‘क्या हुआ मैडम? मिस कर रही हो क्या मुझे,’’ फिरोज ने शरारत से पूछा.

‘‘नहीं, मैं क्यों मिस करने लगी,’’ जेबा ने अपनी बेताबी को छिपाते हुए कहा.

जवाब में फिरोज हलके से हंस दिया.

‘‘सुनो, आई लव यू.’’

‘‘क्या… क्या कहा तुम ने. फिर से कहो.’’

‘‘अब नहीं कह रही. एक बार कह तो दिया,’’ जेबा शरमा गई.

‘‘तुम रेडियो हो क्या जो दोबारा नहीं बोल सकती,’’ फिरोज जेबा से फिर से सुनना चाहता था, ‘‘मैं सुन नहीं पाया.’’

‘‘आई लव यू. अब तो सुन लिया न, बदमाश,’’ जेबा के गालों पर सुर्खी दौड़ गई.

‘‘आई लव यू टू,’’ कहते हुए फिरोज ने मोबाइल से ही एक फ्लाइंग किस जेबा की तरफ उछाल दी.

फिरोज बहुत खुश था और जेबा भी.

दोनों की बातें अब दिनोंदिन लंबी होती जा रही थीं. अभी तक दोनों एकदूसरे से मिले नहीं थे. एक दिन फिरोज ने जेबा से मिलने के लिए कहा. कालिंदी कुंज में दोनों तय समय पर मिलने आए. अपनी मोहब्बत को सामने देख कर दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं था. काफी समय साथ बिता कर रात में बात करने के वादे के साथ अपनेअपने घर चले गए.

जेबा अपने सब कामों से फ्री हो कर रात को 10 बजे फिरोज से बात करने के लिए औनलाइन आ गई. लेकिन फिरोज का कहीं पता नहीं था. थोड़ी देर बाद वह औनलाइन आया लेकिन उस ने जेबा को थोड़ा इंतजार करने के लिए कहा.

घड़ी की सूइयां खिसकती जा रही थीं और उस के साथ ही साथ जेबा का गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था क्योंकि वह फिरोज को औनलाइन आते देख रही थी मगर वह उस के मैसेज अनदेखे कर रहा था. आखिरकार, रात के 12 बजे जेबा के सब्र का पैमाना छलक गया और उस ने फिरोज को एक गुडनाइट के मैसेज के साथ थैंक्स लिख कर अपना मोबाइल स्विचऔफ कर लिया.

अगले दिन सुबह जेबा ने फिरोज को कई बार कौल किया लेकिन उस का फोन लगातार व्यस्त आ रहा था. दोपहर को फिरोज ने जेबा को फोन कर नाराजगी दिखाई और कहा कि उस का कजिन साथ था, वह उस के सोने का इंतजाम कर रहा था. इस कारण उस वक्त बात नहीं कर पाया. जेबा को इंतजार करना चाहिए था और सुबह वह रातभर जग कर थक कर सो गया था और उस का फोन कजिन इस्तेमाल कर रहा था.

जेबा यह सुन कर और भी नाराज हो गई, ‘‘जब तुम्हें पता था कि मैं तुम से गुस्सा हूं और सुबह तुम को फोन कर के लड़ं ूगी तो तुम ने अपना फोन अपने कजिन को क्यों दिया?’’

‘‘अरे उस का फोन खराब हो गया था और उसे अपनी गर्लफ्रैंड से बात करनी थी,’’ फिरोज को जेबा की बात सुन कर उस पर प्यार भी आ रहा था.

‘‘मुझे नहीं पता, तुम सौरी कहो.’’

‘‘मैं नहीं बोलूंगा.’’

‘‘क्या… नहीं बोलोगे?’’ जेबा भी जिद पर आ गई थी.

‘‘सौरी, सौरी नहीं कहूंगा.’’

‘‘चलो, दो बार कह दिया तुम ने सौरी. अब आगे से ऐसा मत करना,’’ जेबा ने इतरा कर कहा तो फिरोज उस की इस चतुराई पर हैरान रह गया और हंस पड़ा.

‘‘आई लव यू.’’

‘‘आई लव यू टू,’’ कहते हुए दोनों हंस पड़े, एकदूसरे के साथ जिंदगीभर यों ही हाथ पकड़ कर हंसते रहने के वादे के साथ.

घरौंदा: दोराहे पर खड़ी रेखा की जिंदगी

दिल्ली से उस के पति का तबादला जब हैदराबाद की वायुसेना अकादमी में हुआ था तब उस ने उस नई जगह के बारे में उत्सुकतावश पति से कई प्रश्न पूछ डाले थे. उस के पति अरुण ने बताया था कि अकादमी हैदराबाद से करीब 40 किलोमीटर दूर है. वायुसैनिकों के परिवारों के अलावा वहां और कोई नहीं रहता. काफी शांत जगह है. यह सुन कर रेखा काफी प्रसन्न हुई थी. स्वभाव से वह संकोचप्रिय थी. उसे संगीत और पुस्तकों में बहुत रुचि थी. उस ने सोचा, चलो, 3 साल तो मशीनी, शहरी जिंदगी से दूर एकांत में गुजरेंगे. अकादमी में पहुंचते ही घर मिल गया था, यह सब से बड़ी बात थी. बच्चों का स्कूल, पति का दफ्तर सब नजदीक ही थे. बढि़या पुस्तकालय था और मैस, कैंटीन भी अच्छी थी.

पर इसी कैंटीन से उस के हृदय के फफोलों की शुरुआत हुई थी. वहां पहुंचने के दूसरे ही दिन उसे कुछ जरूरी कागजात स्पीड पोस्ट करने थे, इसलिए उन्हें बैग में रख कर कुछ सामान लेने के लिए वह कैंटीन में पहुंची. सामान खरीद चुकने के बाद घड़ी देखी तो एक बजने को था. अभी खाना नहीं बना था. बच्चे और पति डेढ़ बजे खाने के लिए घर आने वाले थे. सुबह से ही नए घर में सामान जमाने में वह इतनी व्यस्त थी कि समय ही न मिला था. कैंटीन के एक कर्मचारी से उस ने पूछा, ‘‘यहां नजदीक कोई पोस्ट औफिस है क्या?’’

‘‘नहीं, पोस्ट औफिस तो….’’

तभी उस के पास खड़े एक व्यक्ति, जो वेशभूषा से अधिकारी ही लगता था, ने उस से अंगरेजी में पूछा था, ‘‘क्या मैं आप की मदद कर सकता हूं? मैं उधर ही जा रहा हूं.’’ थोड़ी सी झिझक के साथ ही उस के साथ चल दी थी और उस के प्रति आभार प्रदर्शित किया था.

रेखा शायद वह बात भूल भी जाती क्योंकि नील के व्यक्तित्व में कोई असाधारण बात नहीं थी लेकिन उसी शाम को नील उस के पति से मिलने आया था और फिर उन लोगों में दोस्ती हो गई थी.

नील देखने में साधारण ही था, पर उस का हंसमुख मिजाज, संगीत में रुचि, किताबीभाषा में रसीली बातें करने की आदत और सब से बढ़ कर लोगों की अच्छाइयों को सराहने की उस की तत्परता, इन सब गुणों से रेखा, पता नहीं कब, दोस्ती कर उस के बहुत करीब पहुंच गई थी.

नील की पत्नी, अपने बच्चों के साथ बेंगलुरु में रहती थी. वह अपने पिता की इकलौती बेटी थी और विशाल संपत्ति की मालकिन. अपनी संपत्ति को वह बड़ी कुशलता से संभालती थी. बच्चे वहीं पढ़ते थे. छुट्टियों में वे नील के पास आ जाते या नील बेंगलुरु चला जाता.

लोगों ने उस के और उस की पत्नी के बारे में अनेक अफवाहें फैला रखी थीं. कोई कहता, ‘बड़ी घमंडी औरत है, नील को तो अपनी जूती के बराबर भी नहीं समझती.’ दूसरा कहता, ‘नहीं भई, नील तो दूसरी लड़की को चाहता था, लेकिन पढ़ाई का खर्चा दे कर उस के ससुर ने उसे खरीद लिया.’ स्त्रियां कहतीं, ‘वह इस के साथ कैसे खुश रह सकती है? उसे तो विविधता पसंद है.’

लेकिन नील इन सब अफवाहों से अलग था. वह जिस तरह सब से मेलजोल रखता था, उसे देख कर यह सोचना भी असंभव लगता कि उस की पत्नी से पटती नहीं होगी.

रेखा को इन अफवाहों की परवा नहीं थी. दूसरों की त्रुटियों में उसे कोई रुचि नहीं थी. जल्दी ही उसे अपने मन की गहराइयों में छिपी बात का पता लग गया था, और तब गहरे पानी में डूबने वाले व्यक्ति की सी घुटन उस ने महसूस की थी. ‘यह क्या हो गया?’ यही वह अपनेआप से पूछती रहती थी.

रेखा को पति से कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि वह उसे प्यार ही करती आई थी. अपने बच्चों से, अपने घर से उसे बेहद लगाव था. शायद इसी को वह प्यार समझती थी. लेकिन अब 40 की उम्र के करीब पहुंच कर उस के मन ने जो विद्रोह कर दिया था, उस से वह परेशान हो गईर् थी.

वह नील से मिलने का बहाना ढूंढ़ती रहती. उसे देखते ही रेखा के शरीर में एक विद्युतलहरी सी दौड़ जाती. नील के साथ बात करने में उसे एक विचित्र आनंद मिलता, और सब से अजीब बात तो यह थी कि नील की भी वैसी ही हालत थी. रेखा उस की आंखों का प्यार, याचना, स्नेह, परवशता-सब समझ लेती थी और नील भी उस की स्थिति समझता था.

वहां के मुक्त वातावरण में लोगों का ध्यान इस तरफ जाना आसान नहीं था. और इसी कारण से दोनों दूसरों से छिप कर मानसिक साहचर्य की खोज में रहते और मौका मिलते ही, उस साहचर्य का आनंद ले लेते.

अजीब हालत थी. जब मन नील की प्रतीक्षा में मग्न रहता, तभी न जाने कौन उसे धिक्कारने लगता. कई बार वह नील से दूर रहने का निर्णय लेती पर दूसरे ही क्षण न जाने कैसे अपने ही निर्णय को भूल जाती और नील की स्मृति में खो जाती. रेखा अरुण से भी लज्जित थी. अरुण की नील से अच्छी दोस्ती थी. वह अकसर उसे खाने पर या पिकनिक के लिए बुला लाता. ऐसे मौकों पर जब वह मुग्ध सी नील की बातों में खो जाती, तब मन का कोई कोना उसे बुरी तरह धिक्कारता.

रेखा के दिमाग पर इन सब का बहुत बुरा असर पड़ रहा था. न तो वह हैदराबाद छोड़ कर कहीं जाने को तैयार थी, न हैदराबाद में वह सुखी थी. कई बार वह छोटी सी बात के लिए जमीनआसमान एक कर देती और किसी के जरा सा कुछ कहने पर रो देती. अरुण ने कईर् बार कहा, ‘‘तुम अपनी बहन सुधा के पास 15-20 दिनों के लिए चली जाओ, रेखा. शायद तुम बहुत थक गई हो, वहां थोड़ा अच्छा महसूस करोगी.’’

रेखा की आंखें, इन प्यारभरी बातों से भरभर आतीं, लेकिन बच्चों के स्कूल का बहाना कर के वह टाल जाती. ऐसे में उस ने नील के तबादले की बात सुनी. उस का हृदय धक से रह गया. इस की कल्पना तो उस ने या नील ने कभी नहीं की थी. हालांकि दोनों में से एक को तो अकादमी छोड़ कर पहले जाना ही था. अब क्या होगा? रेखा सोचती रही, ‘इतनी जल्दी?’

एक दिन नील का मैसेज आया. उस ने स्पष्ट शब्दों में पूछा था, ‘‘क्या तुम अरुण को छोड़ कर मेरे साथ आ सकती हो?’’ बहुत संभव है कि फिर हमें एक साथ, एक जगह, रहने का मौका कभी न मिले. मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा, पता नहीं. पर, मैं तुम्हें मजबूर भी नहीं करूंगा. सोच कर मुझे बताना. सिर्फ हां या न कहने से मैं समझ जाऊंगा. मुझे कभी कोई शिकायत नहीं होगी.’’

रेखा ने मैसेज कई बार पढ़ा. हर शब्द जलते अंगारे की तरह उस के दिल पर फफोले उगा रहा था. आगे के लिए बहुत सपने थे. अरुण से भी बेहतर आदमी के साथ एक सुलझा हुआ जीवन बिताने का निमंत्रण था.

और पीछे…17 साल से तिनकातिनका इकट्ठा कर के बनाया हुआ छोटा सा घरौंदा था. प्यारेप्यारे बच्चे थे, खूबियों और खामियों से भरपूर मगर प्यार करने वाला पति था. सामाजिक प्रतिष्ठा थी, और बच्चों का भविष्य उस पर निर्भर था.

लेकिन उन्हीं के साथ, उसी घरौंदे में विलीन हो चुका उस का अपना निजी व्यक्तित्व था. कितने टूटे हुए सपने थे, कितनी राख हो चुकी उम्मीदें थीं. बहुत से छोटेबड़े घाव थे. अब भी याद आने पर उन में से कभीकभी खून बहता है. चाहे प्रौढ़त्व ने अब उसे उन सब दुखों पर हंसना सिखा दिया हो पर यौवन के कितने अमूल्य क्षणों का इसी पति की जिद के लिए, उस के परिवार के लिए उस ने गला घोंट लिया. शायद नील के साथ का जीवन इन बंधनों से मुक्त होगा. शायद वहां साहचर्य का सच्चा सुख मिलेगा. शायद…

लेकिन पता नहीं. अरुण के साथ कई वर्ष गुजारने के बाद अब वह क्या नील की कमजोरियों से भी प्यार कर सकेगी? क्या बच्चों को भूल सकेगी? नील की पत्नी, उस के बच्चे, अरुण, अपने बच्चे-इन सब की तरफ उठने वाली उंगलियां क्या वह सह सकेगी?

नहीं…नहीं…इतनी शक्ति अब उस के पास नहीं बची है. काश, नील पहले मिलता.

रेखा रोई. खूब रोई. कई दिन उलझनों में फंसी रही.

उस शाम जब उस ने अरुण के  साथ पार्टी वाले हौल में प्रवेश किया तो उस की आंखें नील को ढूंढ़ रही थीं. उस का मन शांत था, होंठों पर उदास मुसकान थी. डीजे की धूम मची थी. सुंदर कपड़ों में लिपटी कितनी सुंदरियां थिरक रही थीं. पाम के गमले रंगबिरंगे लट्टुओं से चमक रहे थे और खिड़की के पास रखे हुए लैंप स्टैंड के पास नील खड़ा था हाथ में शराब का गिलास लिए, आकर्षक भविष्य के सपनों, आत्मविश्वास और आशंका के मिलेजुले भावों में डूबताउतराता सा.

अरुण के साथ रेखा वहां चली गई. ‘‘आप के लिए क्या लाऊं?’’ नील ने पूछा. रेखा ने उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘नहीं, कुछ नहीं, मैं शराब नहीं पीती.’’

नील कुछ समझा नहीं, हंस कर बोला, ‘‘मैं तो जानता हूं आप शराब नहीं पीतीं, पर और कुछ?’’

‘‘नहीं, मैं फिर एक बार कह रही हूं, नहीं,’’ रेखा ने कहा और वहां से दूर चली गई. अरुण आश्चर्य से देखता रहा लेकिन नील सबकुछ समझ गया था.

मासूम कातिल: इमरान ने कैसे किया मां और बेटी का शोषण

मकतूल एक दौलतमंद और रसूख वाला आदमी था जबकि कातिल 2 औरतें थीं. मां सुहाना और बेटी अदीना. सुहाना की उम्र करीब 38 साल थी और अदीना की 19 साल. वह बेहद हसीन व शोख लड़की थी. उस के चेहरे पर गजब की मासूमियत थी.

सुहाना भी खूबसूरत औरत थी, लेकिन उस के चेहरे पर उदासी और आंखों में समंदर की गहराई थी. दोनों मांबेटी कोर्ट में मुसकराती हुई आती थीं और बड़े फख्र से कहती थीं कि उन्होंने इमरान हसन को कत्ल किया है. अदीना कहती थी, ‘‘मैं ने एक ठोस डंडे से उस की पिंडलियों पर वार किए थे. वह नीचे गिर पड़ा.’’

सुहाना कहती थी, ‘‘जब वह नीचे गिरा तो मैं ने उसी ठोस डंडे से उस के सीने पर मारना शुरू किया, इस से उस की पसलियां टूटने की आवाज आने लगी. फिर मैं ने अपनी अंगुलियों के नाखून उस की दोनों आंखों में उतार दिए.’’

मांबेटी दोनों बड़े फख्र से ये कारनामा सुनाती थीं और मैं भी उन के गुरूर को सही समझता था. लाश बुरी हालत में मिली थी. डंडे से उस का सिर फोड़ दिया गया था. मैं जानता था, मासूम चेहरे वाली इन मांबेटी को कड़ी सजा मिलेगी. पर उन के चेहरे पर डर या वहशत नहीं थी. वे दोनों बड़े सुकून और इत्मीनान से बैठी रहती थीं. इस के पीछे एक दर्दनाक कहानी छिपी थी. मैं आप को वही कहानी सुनाऊंगा, जो मुझे सुहाना ने कोर्ट के अंदर सुनाई थी.

आप यह सोच कर सुहाना की कहानी सुनें कि आप ही उस का इंसाफ करने वाले जज हैं. सुहाना ने मुझे बताया, ‘‘मेरी मां का नाम नसीम था. हमारा घर पुराना पर अच्छा था. घर में हम 3 लोग थे. मैं मेरी मां और मेरे अब्बू. जिंदगी आराम से गुजर रही थी. हमारे रिश्तेदार और अब्बू के दोस्त आते रहते थे. अब्बू काफी मिलनसार थे.

बदनसीबी कहिए या कुछ और, अब्बू बीमार पड़ गए. 3 दिन अस्पताल में भरती रहे और चौथे दिन चल बसे. हम लोगों की दुनिया अंधेरी हो गई. कुछ दिनों तक दोस्तों व रिश्तेदारों ने साथ निभाया, लेकिन फिर सब अपनीअपनी राह लग गए. अब मैं बची थी और मेरी मजबूर मां. न कोई मददगार न सिर पर हाथ रखने वाला.

उस वक्त मैं बीए के पहले साल में थी, पर अब पढ़ाई जारी रखने जैसे हालात नहीं बचे थे. पड़ोसी भी शुरू में मोहब्बत से पेश आए लेकिन धीरेधीरे सब ने निगाहें फेर लीं. गनीमत यही थी कि हमारा घर अपना था. सिर छिपाने को आसरा था हमारे पास, पर खाने के लाले पड़ने लगे थे.

अम्मा ने घरों में काम करने की बात की, पर मुझ से यह बरदाश्त नहीं हुआ. मैं ने अम्मा को बहुत समझाया और खुद नौकरी करने की बात की. मैं इंग्लिश मीडियम से पढ़ी थी, मेरी अंगरेजी और मैथ्स बहुत अच्छा था. बहुत कोशिश करने पर मुझे एक औफिस में जौब मिल गई. वेतन ज्यादा तो नहीं था, पर गुजारा किया जा सकता था.

शुरू में लोगों ने बातें बनाईं कि खूबसूरती के चलते यह नौकरी मिली है. अम्मा बहुत डरती, घबराती, लोगों की बातों से दहशत खाती. मैं ने उन्हें समझाया, ‘‘अम्मा, लोग सिर्फ बातें बनाते हैं. वे हमें खिलाने नहीं आएंगे. हमें अपना बोझ खुद उठाना है. लोगों को भौंकने दें.’’

अम्मा को बात समझ में आ गई. फिर भी उन्होंने नसीहत दी, ‘‘बेटी, दुनिया बहुत बुरी है. तुम बहुत मासूम और नासमझ हो. फूंकफूंक कर कदम रखना, हर मोड़ पर इज्जत के लुटेरे बैठे हैं.’’

मैं ने उन्हें दिलासा दी, ‘‘अम्मी, आप फिक्र न करें, मैं अपना भलाबुरा खूब समझती हूं. जिस फर्म में मैं काम करती हूं, वहां भेड़िए नहीं, बहुत नेक और भले लोग हैं.’’

एकाउंटेंट अली रजा बूढ़े आदमी थे. बहुत ही सीधे व मोहब्बत करने वाले. मुझे नौकरी दिलाने में भी उन्होंने मेरी मदद की थी और पहले दिन से ही मुझे गाइड करना और सिखाना भी शुरू कर दिया था. वैसे मैं काफी जहीन थी. जल्द ही सारा काम बहुत अच्छे से करने लगी.

औफिस में सभी लोग अली रजा साहब की बहुत इज्जत करते थे. हां, फर्म के बौस इमरान हसन से मेरी अब तक मुलाकात नहीं हुई थी. सुना था, बहुत रिजर्व रहते हैं. काम से काम रखने वाले व्यक्ति हैं.

फर्म के लोग मालिक इमरान हसन से खुश थे. सब उन की तारीफ करते थे. मुझे वहां काम करते एक महीना हो गया था. पहली तनख्वाह मिली तो अम्मा बड़ी खुश हुईं. तनख्वाह इतनी थी कि हम मांबेटी का गुजारा आसानी से हो जाता और थोड़ा बचा भी सकते थे. फर्म में 4-5 लड़कियां और भी थीं. उन से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई. बौस पिछले दरवाजे से आतेजाते थे, इसलिए उन से मेरा कभी आमनासामना नहीं हुआ.

एक दिन एक कलीग रशना की सालगिरह थी. उस ने बड़े प्यार से मुझे अपने घर आने की दावत दी. इस प्रोग्राम में बौस समेत औफिस के सभी लोग जाने वाले थे. मुझे भी वादा करना पड़ा. अम्मा से इजाजत  लेने में मुश्किल हुई, क्योंकि वह मेरे अकेले जाने से परेशान थीं. रशना के यहां पहुंचने पर मेरा शानदार वेलकम हुआ. वहां बहुत धूमधाम थी. केक काटा गया. पार्टी भी बढि़या थी.

मैं अपनी प्लेट ले कर एक कोने में खड़ी थी. उसी वक्त एक गंभीर नशीली आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘आप कैसी हैं मिस सुहाना?’’

मैं ने सिर उठा कर सामने देखा. एक बेहद हैंडसम यूनानी हुस्न का शाहकार सामने खड़ा था. शानदार पर्सनैलिटी, तीखे नैननक्श, ऊंची नाक, नशीली आंखें. मैं बस देखती रह गई. मेरी आवाज नहीं निकल सकी. रशना ने कहा, ‘‘सुहाना, बौस तुम से कुछ पूछ रहे हैं.’’

मैं जैसे होश में आ गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘मैं ठीक हूं सर.’’

‘‘हमारी फर्म में कोई परेशानी तो नहीं है?’’

‘‘नहीं सर, कोई प्रौब्लम नहीं है. सब ठीक है.’’

मैं बौस को देख कर हैरान रह गई. कितने खूबसूरत, कितने शानदार पर उतने ही मिलनसार और विनम्र. अभी खाना चल ही रहा था कि बादल घिरने लगे. जब मैं घर जाने के लिए खड़ी हुई तो अच्छीखासी बारिश होने लगी. रशना भी सोच में पड़ गई. जब हम बाहर निकले तो बौस इमरान साहब कहने लगे, ‘‘सुहाना, अभी टैक्सी मिलना मुश्किल है. तुम मेरे साथ आओ मैं तुम्हें तुम्हारे घर ड्रौप कर दूंगा.’’

रशना ने फोर्स कर के मुझे उन की कार में बिठा दिया.

मैं सकुचाते हुए बैठ गई. मैं जिंदगी में इतने खूबसूरत मर्द के साथ पहली बार बैठी थी. मेरा दिल अजीब से अंदाज से धड़क रहा था. मैं ने कहा, ‘‘सर, आप ने मेरे लिए बेवजह तकलीफ उठाई. आप बहुत अच्छे इंसान हैं.’’

इमरान साहब हंस पड़े, फिर कहा, ‘‘नहीं भई, हम इतने अच्छे इंसान नहीं हैं. अगर तुम भीग जाती तो बीमार पड़ जातीं. 2-3 दिन हमारे औफिस को इतनी अच्छी वर्कर से महरूम रहना पड़ता और फिर ये मेरा फर्ज भी तो है.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप बेहद शरीफ इंसान हैं, बहुत नेक और बहुत खयाल रखने वाले.’’

उन्होंने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप को मुझ पर यकीन है तो मेरी एक बात मानेंगी?’’

‘‘जी कहिए, आप क्या चाहते हैं?’’

‘‘सामने एक अच्छा रेस्टोरेंट है, वहां एक कप कौफी पी जाए.’’

मैं सोच में पड़ गई, ‘‘मैं कभी ऐसे होटल में नहीं गई. मुझे वहां के तौरतरीके नहीं आते. मैं एक गरीब घर की लड़की हूं.’’ मैं ने कहा.

इमरान साहब बोले, ‘‘कोई बात नहीं, हालात सब सिखा देते हैं. आप की इस बात ने मेरी नजरों में आप की इज्जत और भी बढ़ा दी. क्योंकि आप ने मुझ से अपनी हालत छिपाई नहीं, यह अच्छी बात है.’’

उन्होंने कार रेस्टोरेंट के सामने रोक दी. हम अंदर गए, बहुत शानदार हौल था. वहां का माहौल खुशनुमा था. मैं इस से पहले कभी किसी होटल में नहीं गई थी. इमरान साहब ने कौफी का और्डर दिया, फिर मेरे काम की, मेरे मिजाज की तारीफ करते रहे. फिर कहने लगे, ‘‘अच्छा ये बताइए, आप मेरे बारे में क्या सोचती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘आप ने पार्टी में मुझे मेरा नाम ले कर पुकारा था, आप तो मुझ से मिले भी नहीं थे?’’

‘‘आप के सवाल में बड़ी मासूमियत है. आप मेरे औफिस में काम करती हैं और एक अच्छा बौस होने के नाते मुझे अपने साथियों के बारे में पूरी जानकारी रखना चाहिए. मैं तो यह भी जानता हूं कि आप औफिस की दूसरी लड़कियों से अलग हैं. अपने काम से काम रखने वाली.’’

मैं हैरान रह गई. हम कौफी पी कर बाहर आ गए. वह कहने लगे, ‘‘बहुत शुक्रिया, आप ने अपना समझ कर मुझ पर यकीन किया. आज तो आप से ज्यादा बातें न हो सकीं. खैर, अगली मुलाकात में बातें होंगी.’’

मैं देर होने से अम्मा के लिए परेशान थी. मैं ने सोच लिया था कि उन्हें इमरान साहब के बारे में कुछ नहीं बताऊंगी वरना उन की नींद उड़ जाएगी. मेरा घर आ गया. मैं ने गली के बाहर ही गाड़ी रुकवाते हुए कहा, ‘‘सर, मुझे यहीं उतार दें.’’

‘‘मैं आप की मजबूरी समझता हूं. मैं तो चाहता था कि आप को आप के दरवाजे पर ही उतारूं.’’

‘‘रजा साहब बाकायदा मेरा रिश्ता ले कर तुम्हारी अम्मा के पास जाएंगे. तुम्हारी अम्मा को राजी कर लेंगे, पर पहले तुम्हारी मंजूरी जरूरी है.’’

मैं उन के कदमों में झुक गई. उन्होंने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. मेरे तड़पते दिल व प्यासी रूह को जैसे सुकून मिल गया. हम दोनों रोज मिलने लगे पर दुनिया से छिप कर. मैं तो अपने महबूब को पा कर जैसे पागल हो गई थी. सब से बड़ी खुशी की बात यह थी कि उन्होंने अपनी मोहब्बत का इजहार शादी के पैगाम के बाद किया था. वह कहते थे, ‘‘सुहाना, मैं तुम्हें दुनिया की हर खुशी देना चाहता हूं.’’

और मैं कहती, ‘‘बस थोड़ा सा इंतजार मेरे महबूब.’’

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी.’’ कह कर वह चुप हो जाते.

अब हालात बदल गए थे. मैं औफिस में उन के करीब रहती, हमारे बीच में बहुत से फैसले हो गए थे. मां की आंखों की रोशनी चली गई थी. हमारी मोहब्बत तूफान की तरह बढ़ रही थी. मैं अपनी मां की नसीहत, अपनी मर्यादा भूल कर सारी हदें पार कर गई. औफिस के बाद हम काफी वक्त साथ गुजारते. इमरान साहब ने मुझे कीमती जेवर, महंगे तोहफे और कार देनी चाही, पर मैं ने यह कह कर इनकार कर दिया कि ये सब मैं शादी के बाद कबूल करूंगी.

मैं ने उन पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया. एक गरीब लड़की को ऐसा खूबसूरत और चाहने वाला मर्द मिले तो वह कहां खुद पर काबू रख सकती है. मैं शमा की तरह पिघलती रही, लोकलाज सब भुला बैठी.

अली रजा साहब उन दिनों छुट्टी पर गए हुए थे. मैं ने इमरान हसन से कहा, ‘‘अब आप अम्मा से मेरे रिश्ते के लिए बात कर लीजिए. आप अम्मा के पास कब जाएंगे?’’

‘‘जब तुम कहोगी, तब चले जाएंगे.’’

‘‘अच्छा, परसों चले जाइएगा.’’

‘‘जानेमन, अभी अली रजा साहब छुट्टी पर हैं. वह आ जाएं, कोई बुजुर्ग भी तो साथ होना चाहिए.’’

मैं खामोश हो गई. अब वही मेरी जिंदगी थे. दिन गुजरते रहे वह अम्मा के पास न गए. अली रजा साहब भी पता नहीं कितनी लंबी छुट्टी पर गए थे. धीरेधीरे इमरान साहब का रवैया मेरे साथ बदलता जा रहा था. अली रजा साहब छुट्टी से वापस आ गए. मैं ने इमरान साहब से कहा, ‘‘आप कुछ उलझेउलझे से नजर आते हैं. क्या बात है?’’

‘‘कुछ बिजनैस की परेशानियां हैं. लाखों का घपला हो गया है. मुझे देखने के लिए बाहर जाना पड़ेगा.’’

‘‘आप अम्मा से मिल लेते तो बेहतर था.’’

‘‘हां, उन से भी मिल लेंगे, पहले ये मसला तो देख लें. लाखों का नुकसान हो गया है.’’

उन का लहजा रूखा और सर्द था. उन्होंने मुझ से कभी इस तरह बात नहीं की थी. मैं परेशान हो गई. रात भर बेचैन रही. मैं ने फैसला कर लिया कि सवेरे अली रजा साहब से कहूंगी कि वह इमरान साहब को ले कर अम्मा के पास मेरे रिश्ते के लिए जाएं. वह मुझे बहुत मानते हैं, वह जरूर ले जाएंगे.

दूसरे दिन मैं इमरान के औफिस में बैठी उन का इंतजार कर रही थी. 12 बजे तक वह नहीं आए, मैं अली रजा साहब के पास गई और उन से पूछा, ‘‘सर, अभी तक बौस नहीं आए?’’

अली रजा साहब बोले, ‘‘वह तो कल रात को फ्लाइट से स्वीडन चले गए.’’

मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह मुझे बिना बताए बाहर चले गए. मुझ से मिले भी नहीं.

‘‘मेरे लिए कुछ कह गए हैं?’’

‘‘हां, इमरान साहब की वापसी का कोई यकीन नहीं है. 7-8 महीने या साल-2 साल भी लग सकते हैं. कारोबार वहीं से चलता है. उन्हें वहां का बिगड़ा हुआ इंतजाम संभालना है. आप अपनी सीट पर वापस आ जाइए.’’ अली रजा साहब ने सपाट लहजे में कहा.

मुझे चक्कर सा आ गया. मैं ने एक हफ्ते की छुट्टी ली और घर आ गई.

कुदरत के भी अजीब खेल हैं. मां की रोशनी इसलिए छिन गई थी ताकि वह मेरी यह हालत न देख सकें. मैं अपने कमरे में पड़ी रहती, रोती रहती. मुझे एक पल का चैन नहीं था. पलपल मर रही थी मैं.

एक हफ्ते बाद एक उम्मीद ले कर औफिस पहुंची. शायद कोई अच्छी खबर आई हो. मैं ने अली रजा साहब से पूछा, ‘‘इमरान साहब की कोई खबर आई?’’

‘‘हां आई, ठीक हैं. औफिस के बारे में डिसकस करते रहे. क्या तुम्हें उन का इंतजार है?’’

‘‘जी, मैं उन की राह देख रही हूं.’’

‘‘बेकार है, जब वे आएंगे तो तुम्हें भूल चुके होंगे.’’

मेरी आंखों से आंसू बह निकले. उन्होंने दुख से कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता तुम्हें क्या कहूं? तुम जैसी मासूम व बेवकूफ लड़कियां आंखें बंद कर के भेडि़ए के सामने पहुंच जाती हैं. तुम्हारे घर वाले लड़कियों को अक्ल व दुनियादारी की बात क्यों नहीं सिखाते? तुम्हें यह क्यों नहीं समझाया गया, जहां तुम जा रही हो, वे लोग कैसे हैं. उन का स्टाइल क्या है. वहां तुम जैसी लड़कियों की क्या कीमत है. सब जानते हैं, ये अमीरजादे साथ नहीं निभाते, बस कुछ दिन ऐश करते हैं. पर तुम लोग उन्हें जीवनसाथी समझ कर खुद को लुटा देती हो.’’

मैं सिसकने लगी, ‘‘रजा साहब, मैं ने ये सब जानबूझ कर नहीं किया, दिल के हाथों मजबूर थी. उन की झूठी मोहब्बत को सच्चाई समझ बैठी.’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘सुहाना, अगर तुम अपनी इज्जत गंवा चुकी हो तो चुप हो जाओ, चिल्लाने से कुछ हासिल नहीं होगा. वह लौट कर नहीं आएगा, ऐसा वह कई लड़कियों के साथ पहले भी कर चुका है. अब तुम अपने फ्यूचर की फिक्र करो. बाकी सब भूल जाओ.’’

सुहाना अपनी कहानी सुनाते हुए बोली, ‘‘मैं ने सब समझ लिया. वक्त से पहले अपनी बरबादी को स्वीकार कर लिया. मेरे पास सिवा पछताने के और कुछ नहीं बचा था. मैं ने औफिस जाना छोड़ दिया. मां से बहाना कर दिया. उन्होंने ज्यादा पूछताछ की तो झिड़क दिया.’’

वक्त गुजरता रहा. मां चुप सी हो गईं. गुजरबसर जैसेतैसे हो रही थी. चंद माह गुजर गए और फिर पड़ोसियों ने मां से कह दिया. अम्मा ने मुझे टटोल कर देखा और एक दर्दभरी चीख के साथ बेहोश हो कर नीचे गिर गई. सदमा इतना बड़ा था कि वह बरदाश्त न कर सकी और फिर कभी नहीं उठ सकीं.

पेट में पलती औलाद ने मुझे खुदकशी करने न दी. फिर मेरी बदनसीब बेटी अदीना पैदा हो गई. मेरे जिस्म का एक टुकड़ा मेरी गोद में था. मैं ने अपना घर बेच दिया, एक गुमनाम मोहल्ले में एक कमरा खरीद कर रहने लगी. मैं ने अपनी पुरानी सब बातें भुला दीं. मकान से अच्छी रकम मिली थी. फिर मैं थोड़ाबहुत सिलाईकढ़ाई का काम करने लगी.

हम मांबेटी की अच्छी गुजर होने लगी. मैं ने अपनी बेटी की बहुत अच्छी परवरिश की. उसे दुनिया की हर ऊंचनीच समझाई. उस से वादा लिया कि वह मुझ से कोई बात नहीं छिपाएगी. अदीना बेइंतहा हसीन निकली. मैं ने उसे अच्छी तालीम दिलाई. वह बीएससी कर रही थी. एक दिन वह मुझ से कहने लगी, ‘‘मम्मी, मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘कहो.’’

‘‘मैं नौकरी करना चाहती हूं. मेरे एग्जाम भी पूरे हो गए हैं. रिजल्ट भी जल्द आएगा.’’

‘‘नहीं बेटी, नौकरी ढूंढना और करना बड़ा कठिन है.’’

‘‘मम्मी, मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.’’

‘‘कहां मिल गई नौकरी तुम्हें?’’

‘‘एक प्राइवेट फर्म है. फर्म के मालिक ने मुझे खुद नौकरी का औफर दिया है. मेरी इमरान साहब से कालेज के फंक्शन में मुलाकात हुई थी. वह चीफ गेस्ट थे. इतने नेक और सादा मिजाज आदमी हैं कि देख कर आप दंग रह जाएंगी.’’

‘‘कौन?’’ मुझे जैसे बिच्छू ने डंक मारा.

‘‘इमरान हसन साहब. बड़े हमदर्द इंसान हैं.’’ अदीना उन के बारे में पता नहीं क्याक्या बोलती रही. मुझे लगा, मेरे चारों तरफ जहन्नुम की आग दहक रही हो. फिर मैं ने खुद पर काबू पाया और कुछ सोच कर अदीना को नौकरी की इजाजत दे दी.

वह मेरी हां सुन कर खुशी से खिल उठी. साथ ही मैं ने एक काम किया. चुपचाप उस का पीछा करना शुरू कर दिया. मैं ने इमरान हसन को देखा, वह उतना ही खूबसूरत और डैशिंग था.

उम्र की अमीरी ने उसे और ग्रेसफुल बना दिया था. मैं उस के एकएक रूप एकएक चाल से वाकिफ थी. फिर मैं ने अदीना को अपनी गमभरी दास्तान सुनाई. वह कांप उठी, उस ने चीख कर पूछा, ‘‘ममा, कौन था वह कमीना बेदर्द इंसान?’’

‘‘मैं खुद उस बेगैरत की तलाश में हूं.’’

‘‘काश! वह मिल जाए.’’ अदीना ने गुर्राते हुए कहा तो मैं ने पूछा, ‘‘क्या करेगी तू उस का?’’

‘‘खुदा की कसम है मम्मी, मैं उसे जान से मार डालूंगी. ऐसा हाल करूंगी कि दुनिया देखेगी.’’

मुझे सुकून मिल गया, मैं ने अदीना की परवरिश इसी तरह की थी. ऐसा ही बनाया था उसे. मेरी निगरानी जारी थी. मैं चुपचाप उस का पीछा करती रही. उस दिन भी मैं अदीना से ज्यादा दूर नहीं थी, जब वह अदीना को अपनी शानदार कार में कहीं ले जा रहा था. वह अदीना को अपने घर ले गया. मैं भी छिप कर अंदर आ गई और दरवाजे के पीछे खड़ी हो गई.

मैं सारे रास्तों से वाकिफ थी. घर सुनसान पड़ा था. हलका अंधेरा था. मेरे कानों में इमरान हसन की नशीली आवाज पड़ी, ‘‘अदीना, तुम मेरी जिंदगी में बहार बन कर आई हो. मैं ने सारी जिंदगी तुम जैसी हसीना की तलाश में तनहा गुजार दी.’’

‘‘सर, ये आप क्या कह रहे हैं. मैं तो आप पर बहुत ऐतमाद करती थी. आप पर बहुत भरोसा है मुझे.’’

‘‘हां ठीक है, पर मोहब्बत तो उफनती नदी है. उस पर रोक नहीं लगाई जा सकती. तुम्हारी चाहत मेरी रगरग में समा गई है. मेरी जान, मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘सर, ये आप गलत कर रहे हैं. आप मुझे यहां यह कह कर लाए थे कि कुछ लेटर्स भेजने हैं.’’

‘‘ये मेरा घर है और तुम अपनी मरजी से मेरे घर आई हो. अब यहां जो कुछ होगा, उस में तुम्हारी रजा भी समझी जाएगी. इस में मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर तुम बदनाम हो जाओगी. लोग कहेंगे तुम मेरे सूने घर में क्यों आई थीं?’’

‘‘सर, आप मुझे काम के बहाने लाए थे.’’

‘‘कौन सुनेगा, तुम्हारी बकवास.’’ वह हंस कर आगे बढ़ा. उसी वक्त मैं अंदर दाखिल हो गई. मैं ने कहा, ‘‘अदीना, यही है वह आदमी जिस की कहानी मैं ने तुम्हें सुनाई थी. यही है वह वहशी दरिंदा, जिस ने मेरी इज्जत लूटी थी.’’

इमरान मुझे देख कर हैरान रह गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘इमरान, ये तेरी बेटी है. तेरा गुनाह है.’’

फिर हम दोनों मसरूफ हो गए. अदीना ने अपना वादा निभाया. उसे कोने में रखा डंडा मिल गया. हम ने अपना इंतकाम लिया. इज्जत के लुटेरे उस शैतान को हम ने खत्म कर दिया. हम ने बहुत बड़ा नेक काम किया है और कई लड़कियों की इज्जत बचाई है. भले ही आप हमें सजा दीजिए, हमें मंजूर है. सुहाना चुप हो गई.

यह मेरी जिंदगी का सब से संगीन केस था. मैं बड़ी उलझन में था. अदालत में मैं सरकारी वकील की हैसियत से खड़ा था. मुझे इन मांबेटी पर संगीन जुर्म साबित करना था. उन के खिलाफ बोलना था, पर मेरा जमीर इस बात पर राजी नहीं था. मेरा दिल कहता था कि मैं यह मुकदमा हार जाऊं.

मुझे नहीं मालूम मैं ये मुकदमा ठीक से लड़ पाऊंगा या नहीं. मेरी जबान जैसे गूंगी हो गई थी. मैं अपनी बात कह नहीं पा रहा था. जुबान लड़खड़ा रही थी. और सचमुच मैं यह मुकदमा हार गया. मांबेटी सजा से बच गईं. मैं सही था या नहीं, कह नहीं सकता. आप खुद फैसला कीजिए.

जून, 1993 की बात है. मुंबई में बंगलादेशियों की धरपकड़ जारी  थी. पुलिस उन्हें पकड़पकड़ कर ट्रेनों में ठूंस रही थी.   कुछ तो चले गए, कुछ कल्याण स्टेशन से वापस मुड़ गए. किसी का बाप पकड़ा गया और टे्रेन में बुक कर दिया गया तो बीवीबच्चे छूट गए. किसी की मां पकड़ी गई तो छोटेछोटे बच्चे इधर ही भीख मांगने के लिए छूट गए. पुलिस को किसी का फैमिली डिटेल मालूम नहीं था, बस, जो मिला, धर दबोचा और किसी भी ट्रेन में चढ़ा दिया. सब के चेहरे आंसुओं से भीग गए थे.

यह धरपकड़ करवाने वाले दलाल इन्हीं में से बंगाली मुसलमान थे. रात के अंधेरे में सोए हुए लोगों पर पुलिस का कहर नाजिल होता था, क्योंकि इन्हें दिन में पकड़ना मुश्किल था. कभी तो कोई मामला लेदे कर बराबर हो जाता और कभी किसी को जबरदस्ती ट्रेन में ठूंस दिया जाता. इन की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आया, न ही बंगलादेश की सरकार और न ही मानवाधिकार आयोग.

उन दिनों मेरे पास कुछ औरतों का काम था. सब की सब सफाई पर लगा दी गई थीं. कुछ को मैं ने कब्रिस्तान में घास की सफाई पर लगा रखा था. ज्यादातर औरतें बच्चों के साथ थीं. उन के साथ जो मर्द थे, उन के पति थे या भाई, मालूम नहीं. ये भेड़बकरियों की तरह झुंड बना कर निकलती थीं और झुंड ही की शक्ल में रोड के ब्रिज के नीचे अपने प्लास्टिक के झोपड़ों में लौट जाती थीं.

उन्हीं में एक थी फरजाना. देखने में लगता था कि वह 17 या 18 साल की होगी. मुझे तब ज्यादा आश्चर्य हुआ जब उस ने बताया कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है. उस का 2 साल का बच्चा जमालपुर (बंगलादेश) में है.

इस धरपकड़ के दौरान एक दिन वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘साहब, मैं यहां से वापस बंगलादेश नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों? चली जाओ. यहां अकेले क्या करोगी?’’

‘‘साहब, मेरा मर्द एक्सीडेंट में मर गया. मेरा एक लड़का है जावेद, मेरा बाबू, मैं अपनी भाभी और भाई के पास उसे छोड़ कर आई हूं. मैं अपने बाबू के लिए ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हूं ताकि उसे अच्छे स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला सकूं और बड़ा आदमी बना सकूं.’’

फरजाना को पुकारते समय मैं उसे ‘बेटा’ कहता था और इसी एक शब्द की गहराई ने उस को मेरे बहुत करीब कर दिया था. न जाने क्यों, जब वह मेरे पास आती तो मेरे इतने करीब आ जाती जैसे किसी बाप के पास बेटी आती है. वह मुझे ‘रे रोड’ के प्लास्टिक के झोंपड़ों की सारी दास्तान सुनाती.

उस की कई बार इज्जत खतरे में पड़ी, लेकिन वह भाग कर या तो रे रोड के रेलवे स्टेशन पर आ गई या रोड पर आ कर चिल्लाने लगी. ये इज्जत लूटने वाले या उन्हें जिस्मफरोशी के बाजार में बेचने वाले बंगलादेशी ही थे. पहले वह यहां के दलालों से मिलते थे. रात के समय औरतों को दिखाते थे और फिर सौदा पक्का हो जाता था. कितनी ही औरतें फकलैंड रोड, पीली कोठी और कमाठीपुरा में धंधा करने लगीं और कुछ तंग आ कर मुंबई से भाग गईं.

फरजाना ने एक दिन मुझे बताया कि वह बंगाली नहीं है. बंटवारे के समय उस के पिता याकूब खां जिला गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) से पूर्वी पाकिस्तान गए थे. उस के बाद 1971 के गृहयुद्ध में वह मुक्ति वाहिनी के हाथों मारे गए. इस के बाद उस के भाई ने उस की शादी कर दी. उस का पति एक्सीडेंट में मर गया. जब उस का पति मरा तो वह पेट से थी. अब यह खानदान पूरी तरह उजड़ गया था. बंगलादेश से जब बिहारी मुसलमानों  ने उर्दू भाषी पाकिस्तान की तरफ कूच करना शुरू किया तो वहां की सरकार ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इधर बंगलादेश सरकार भी उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस गृहयुद्ध में इन की सारी वफादारी पाकिस्तान के साथ थी. यहां तक कि इन्होंने मुक्ति वाहिनी से लड़ने के लिए अपनी रजाकार सेना बनाई थी.

जबपाकिस्तान हार गया और एक नए देश, बंगलादेश, का जन्म हो गया तो ये सारे लोग बीच में लटक गए. न बंगलादेश के रहे न पाकिस्तान के. फरजाना उन्हीं में से एक थी. वह भोजपुरी के साथ बहुत साफ बंगला बोलती थी. एक दिन तो हद हो गई, जब वह टूटेफूटे बरतनों में मेरे लिए मछली और चावल पका कर लाई.

मैं ने अपने दिल के अंदर कई बार झांक कर देखा कि फरजाना कहां है? हर बार वही हुआ. फरजाना ठीक मेरी लड़की की तरह मेरे दिल में रही. अब वह मुझे बाबा कह कर पुकारती थी. दिल यही कहता था कि उसे इन सारे झमेलों से उठा कर क्यों न अपने घर ले जाऊं, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि मेरी 3 के बजाय 4 लड़कियां हो जाएंगी. लेकिन उस के बाबू जावेद का क्या होगा, जिस को वह जमालपुर (बंगलादेश) में छोड़ कर आई थी और फिर मैं ने उसे इधरउधर के काम से हटा कर अपने पास, अपने दफ्तर में रख लिया. काम क्या था, बस, दफ्तर की सफाई, मुझे बारबार चाय पिलाना और कफन के कपड़ों की सफाई.

मुंबई एक ऐसा शहर है जहां ढेर सारे ट्रस्ट, खैराती महकमे हैं, बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग भी हैं और जिस विभाग का मैं मैनेजर था वह भी एक चैरेटी विभाग था. मसजिदों की सफाई, इमामों, मोअज्जिनों की भरती, पैसों का हिसाब- किताब लेकिन इस के अलावा सब से बड़ा काम था लावारिस मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करना. जो भी मुसलिम लाशें अस्पताल से मिलती थीं, उन का वारिस हमारा महकमा था. हमारा काम था कि उन को नहला कर नए कपड़ों में लपेट कर उन्हें कब्रिस्तान में सुला दिया जाए.

मुंबई में कब्रिस्तानों का तो यह आलम है कि चाहे जहां भी किसी के लिए कब्र खोदी जाए, वहां 2-4 मुर्दों की हड्डियां जरूर मिलती हैं. मतलब इस से पहले यहां कई और लोग दफन हो चुके हैं, और फिर इन हड्डियों को इकट्ठा कर के वहीं दफन कर दिया जाता है. यहां कब्रिस्तानों में कब्र के लिए जमीन बिकती है और यह दो गज जमीन का टुकड़ा वही खरीद पाते हैं जिन के वारिस होते हैं.

सोनापुर के इलाके में ज्यादातर कब्रें इसलिए पुख्ता कर दी गई हैं ताकि दोबारा यहां कोई और मुर्दा दफन न हो सके. मुंबई में मुर्दों की भी भीड़ है, इन के लिए दो गज जमीन का टुकड़ा कौन खरीदे? इसलिए हमारा विभाग यह काम करता है. हमारे विभाग ने लावारिस लाशों के लिए एक जगह मुकर्रर कर रखी है. यह संस्था कफनदफन का सारा खर्च बरदाश्त करती है. बाकायदा एक मौलाना और कुछ मुसलमान इस काम पर लगा दिए गए हैें कि जब कोई लावारिस लाश आए उसे नहलाएं, कफन पहनाएं और नमाजेजनाजा पढ़ कर कब्र में उतारें. शायद ऐसा विभाग हिंदुस्तान के किसी शहर में नहीं है, लेकिन मुंबई में है और यह चैरेटी इस काम को खुशीखुशी करती है. वैसे इस दफ्तर का मुंबई की भाषा में एक दूसरा नाम भी है, ‘कफन आफिस.’

एक दिन फरजाना ने आ कर मुझे एक मुड़ीतुड़ी तसवीर दिखाई, ‘‘बाबा, यह मेरा बाबू है, ठीक अपने बाप पर गया है,’’ और फिर उस ने किसी कीमती चीज की तरह उसे अपने ब्लाउज में रख लिया. बच्चे की तसवीर बड़ी प्यारी थी. बड़ीबड़ी आंखें, उस में ढेर सारा काजल, माथे पर काजल का टीका, बाबासूट पहने फरजाना की गोद में बैठा हुआ है. मैं ने पूछा, ‘‘फरजाना, यह छोटा बच्चा तुम्हारे बगैर कैसे रहता होगा?’’

‘‘मैं वहां उसे भैयाभाभी के पास छोड़ कर आई हूं. उन के अपने 2 बच्चे हैं. यह तीसरा मेरा है. बड़े आराम से रह रहा होगा बाबा. आखिर, इस का बाप नहीं, दादा नहीं, चाचा नहीं, फिर इस के लिए कौन कमाएगा? इस को कौन बड़ा आदमी बनाएगा? मैं अपने सीने पर पत्थर रख कर आई हूं. जब किसी का बच्चा रोता है तो मेरा बाबू याद आता है. मैं अकेले में चुपके- चुपके रोती हूं. लेकिन मैं चाहती हूं, थोड़ा- बहुत पैसा कमा लूं तो वहां जाऊं, अपनेबाबू का अच्छे स्कूल में नाम लिखाऊं और फिर बड़ा हो कर मेरा बाबू कुछ बन जाए.’’

कुछ दिनों के बाद पुलिस ने इन की धरपकड़ बंद कर दी. लेकिन मैं ने उन सारी औरतों को काम से हटा दिया. वह कहां गईं, किधर से आईं, किधर चली गईं, मैं इस फिक्र से आजाद हो गया क्योंकि इन में कुछ रेडलाइट एरिया का चक्कर भी काटती थीं. मैं अपनेआप को इन तमाम झंझटों से दूर रखना चाहता था.

एक दिन जब दफ्तर की सफाई करते समय एक थैला मिला. खोल कर देखा तो उस में छोटे बच्चे के लिए नएनए कपड़े थे. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सारे कपड़े फरजाना ने अपने बाबू के लिए खरीदे होंगे और जल्दबाजी या पुलिस की धरपकड़ के दौरान वह इन्हें भूल गई होगी. अब ऐसे खानाबदोश लोगों का न घर है न टेलीफोन नंबर. फिर इन कपड़ों का क्या किया जाए?

मैं ने एकएक कपड़े को गौर से देखा. बाबासूट, जींस की पैंट, जूता, मोजा और एक छोटी सी टोपी. मैं ने भी उन्हें वहीं संभाल कर रख दिया. शहर में फरजाना को तलाश करना मुश्किल था.

एक दिन अखबार पर सरसरी निगाह डालते हुए मैं ने देखा कि कुछ औरतें सोनापुर (भानडूप) के रेडलाइट एरिया से पकड़ी गई हैं और पुलिस की हिरासत में हैं. इन में फरजाना का भी नाम था. इन सारी औरतों को कमरे के नीचे तहखाने में रखा गया था. दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता था और जबरदस्ती उन से देह व्यापार का धंधा कराया जाता था.

उस का नाम पढ़ते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस का बारबार मुझे बाबा कह के पुकारना याद आने लगा. दिल नहीं माना और मैं उस की तलाश में निकल पड़़ा.

उसे ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई. वह भांडूप पुलिस स्टेशन में थी और वहां की पुलिस उसे बंगलादेश भेज रही थी. मैं थोड़ी देर के लिए उस से मिला लेकिन अब वह बिलकुल बदल चुकी थी. वह मुझे टकटकी लगा कर देख रही थी. उस के चेहरे की सारी मुसकराहट गुम हो चुकी थी. मुझे मालूम था कि उस की इज्जत भी लुट चुकी है. औरत की जब इज्जत लुट जाती है तो उस का चेहरा हारे हुए जुआरी की तरह हो जाता है, जो अपना सबकुछ गंवा चुका होता है. मैं ने वह प्लास्टिक का थैला उस के हाथ में दे दिया. उस ने उसे देखा और रोते हुए बोली, ‘‘बाबा, अब इस की जरूरत नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाबा, मेरा बाबू मर गया.’’

‘‘क्या बात कर रही हो. यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘बाबा, वह मर गया. मैं अपने भाई और भाभी को पैसा भेजती रही और वह मेरे बाबू की मौत मुझसे छिपाए रहे. वह  उसे कमरे के बाहर सुला देते थे. रात भर वह नन्हा फरिश्ता बारिश और ठंड में पड़ा रहता था. उसे सर्दी लगी और वह मर गया. भाभी और भाई ने उस की मौत को मुझ से छिपाए रखा ताकि उन को हमेशा पैसा भेजती रहूं. वह तो एक औरत वहां से आई थी और उस ने रोरो कर मेरे बाबू की दास्तान सुनाई. अब मेरा जिस्म बाकी है. अब मुझे जिंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं.’’

फिर वह दहाड़ मार कर रोने लगी.

उस के इस तरह रोने से पुलिस स्टेशन में हड़बड़ी मच गई. सभी अपना काम छोड़ कर उस की तरफ दौड़ पड़े. उसे पानी वगैरह पिला कर चुप कराया गया. पुलिस अपनी काररवाई कर रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि अब वह बंगलादेश नहीं जाएगी, अलीगंज या किशनगंज से दोबारा भाग आएगी. अब वहां उस का था भी कौन? एक बच्चा था वह भी मर गया. मैं उसे पुलिस स्टेशन में छोड़ कर आ गया और अपने कफन आफिस के कामों में लग गया. रोज एक नया मुर्दा और उस का कफनदफन.

एक दिन अस्पताल से फोन आने पर वहां गया. एक लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी. लाश लोकल ट्रेन से कट गई थी. दोनों जांघों की हड्डियां कट गई थीं. पेट की आंतें बाहर थीं. यह एक औरत की लाश थी. ब्लाउज के अंदर एक छोटे बच्चे की तसवीर खून में डूबी हुई थी. तसवीर को पानी से साफ किया. अब सबकुछ साफ था. यह फरजाना की लाश थी. उस का बाबू अपनी तसवीर में हंस रहा था. न जाने अपनी मौत पर, या अपनी मां की मौत पर या फिर इस मुल्क के बंटवारे पर. मैं उस लाश को उठा कर ले आया और तसवीर के साथ उसे कब्र में दफन कर दिया.

वो एक रात : रवि के साथ क्या हादसा हुआ

आज का दिन ही कुछ अजीब था. सुबह से ही कुछ न कुछ हो रहा था. कालेज से आते समय रिकशे की टक्कर. बस बच गई वरना हाथपैर टूट जाते. फिर वह खतरनाक सा आदमी पीछे पड़ गया. बड़ी मुश्किल से रास्ता काट कर छिपतेछिपाते घर पहुंच पाई. उसे घबराया हुआ देख कर मम्मी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अलका बड़ी घबराई हुई है?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी बस यों ही मन ठीक नहीं है,’’ कह कर वह बात टाल गई.

फिर अभीअभी फोन आया कि मौसाजी के बेटे का ऐक्सीडैंट हो गया है सो मम्मीपापा तुरंत चल दिए. उस का सिविल परीक्षा का पेपर था, इसलिए वह नहीं गई. उस पर शाम से ही मौसम अलग रंग में था. रुकरुक कर बारिश हो रही थी. बिजली चमक रही थी. थोड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था, परंतु वह अपने को दिलासा दे रही थी बस एक रात की ही तो बात है, वह रह लेगी. रात के 11 बजे थे. अभी उसे और पढ़ना था. सोचा चलो एक कौफी पी ली जाए. फिर पढ़ाई करेगी. वह किचन की तरफ बढ़ी ही थी तभी जोरदार ब्रेक लगने की आवाज आई और फिर एक चीख की. पहले तो अलका थोड़ा घबराई, फिर उस ने मेनगेट खोला तो सामने एक युवक घायल पड़ा था, खून से लथपथ और अचेत. अलका ने इधरउधर देखा कि शायद कोई दिखाई दे, परंतु वहां कोई नहीं था जो उस की हैल्प करता. ‘अगर वह अंदर आ गई तो वह युवक मर भी सकता है,’ कुछ देर सोचने के बाद उस ने उसे उठाने का निश्चय किया. तभी सामने के घर से रवि निकला.

‘‘अरे, रवि देखो तो किसी ने टक्कर मार दी है. बहुत खून बह रहा है. जरा मदद करो… इसे हौस्पिटल ले चलते हैं.’’

‘‘अरे, अलका दीदी ऐक्सीडैंट का केस है, मैं किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहता. आप भी अंदर जाओ,’’ रवि ने कहा.

‘‘अरे, कम से कम इसे उठाओ तो… मैं फर्स्ट एड दे देती हूं… और जरा देखो कोई मोबाइल बगैरा पड़ा है क्या आसपास.’’

रवि ने इधरउधर देखा तो कुछ दूर एक मोबाइल पड़ा था. उस ने उठा कर अलका को दे दिया और फिर दोनों ने सहारा दे कर युवक को ड्राइंगरूम में सोफे पर लिटा दिया. उस के बाद रवि चला गया.

अलका ने उस की पट्टी कर दी. फिर उस ने देखा कि वह कांप रहा है तो वह अपने भाई के कपड़े ले आई और बोली कि आप कपड़े बदल लीजिए, परंतु वह तो बेहोश था. फिर थोड़ा हिचकते हुए उस ने उस के कपड़े बदल डाले. उसे थोड़ा अजीब लगा, लेकिन अगर वह उस के कपड़े नहीं बदलती तो चोट के साथ उसे बुखार भी आ सकता था.

‘‘ओह गीता,’’ थोड़ा कराहते हुए वह अजनबी युवक बुदबुदाया. अचानक बेहोशी की हालत में उस अजनबी युवक ने अलका का हाथ कस कर पकड़ लिया.

एक पल को अलका घबरा गई. फिर बोली, ‘‘अरे हाथ तो छोडि़ए.’’

मगर वह तो बेहोश था. धीरेधीरे उस की हालत खराब होती जा रही थी.

अब अलका घबराने लगी थी. अगर इसे कुछ हो गया तो क्या होगा. मैं ही पागल थी जो इसे घर ले आई… रवि ने मना भी किया था, मगर मैं ही नहीं मानी. पर न लाती तो यह मर जाता. मैं ने तो सोचा कि पट्टी कर के घर भेज दूंगी पर अब क्या करूं?

तभी अचानक जोर से बिजली कड़की और उस ने बेहोशी में ही उस का हाथ जोर से खींचा और अलका उस के ऊपर गिर पड़ी और फिर अंधेरा छा गया.

सुबह होने को थी. उस की हालत बिगड़ती जा रही थी. अलका ने ऐंबुलैंस बुलाई और उसे हौस्पिटल ले गई. उपचार मिलने के बाद युवक को होश आया तो डाक्टर ने उसे अलका के बारे में बताया कि वही उसे यहां लाई थी.

तब वह युवक बोला, ‘‘धन्यवाद देना तो आप के लिए बहुत छोटी बात होगी अलकाजी… समझ नहीं पा रहा कि मैं आप को क्या दूं.’’

‘‘कुछ नहीं बस आप जल्दी से ठीक हो जाएं,’’ अलका ने कहा.

वह बोला, ‘‘मेरा नाम ललित है और मैं आर्मी में लैफ्टिनैंट हूं. कल मेरी गाड़ी खराब हो गई थी. मैं मैकेनिक की तलाश में अपनी गाड़ी से बाहर आया था. तभी एक कार मुझे टक्कर मार कर चली गई. फिर उस के बाद मेरी आंखें यहां खुलीं. आप ने मेरी जान बचाई आप का बहुतबहुत धन्यवाद वरना गीता मेरा इंतजार ही करती रह जाती.’’

‘‘ललितजी क्या आप को रात की बात बिलकुल याद नहीं?’’ अलका ने पूछा.

‘‘क्या मतलब? कौन सी बात?’’

ललित बोला.

‘‘नहीं मेरा मतलब वह कौन था, जिस ने आप को टक्कर मारी थी?’’ अलका जानबूझ कर असलियत छिपा गई.

‘‘नहीं अलकाजी मुझे कुछ याद नहीं आ रहा,’’ दिमाग पर जोर डालते हुए ललित बोला, ‘‘हां, अगर आप को तकलीफ न हो तो कृपया मेरी वाइफ को फोन कर दीजिए. वह परेशान होगी.’’

अब अलका को अपने चारों ओर अंधेरा दिखाई देने लगा. उफ, यह इमोशनल हो कर मैं ने क्या कर डाला और ललित वह तो निर्दोष था और अनजान भी. जो कुछ भी हुआ वह एक  झटके में हुआ और बेहोशी में. ललित की हालत देख कर वह उस से कुछ न कह पाई, पर अब?

जैसेतैसे उस ने अपने को संभाल कर ललित के घर फोन किया और उस की पत्नी के आने पर उसे सबकुछ समझा कर अपने घर लौट आई. जब वह लौट कर आई तो देखा कि मम्मीपापा दरवाजे पर खड़े हैं.

‘‘अरे अलका कहां चली गई थी सुबहसुबह और यह तेरा चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे पूरी रात सोई न हो?’’ पापा चिंतित स्वर में बोले.

‘‘ठीक कह रहे हैं अंकलजी… आजकल मैडम ने समाजसेवा का ठेका ले रखा है,’’ रवि ने कहा.

‘‘चलो, मैं ने तो ले लिया पर तुम तो लड़के हो कर भी नजरें छिपा गए. किसी को मरने से बचाना गलत है क्या पापा?’’

उस के बाद रवि और अलका ने मिल कर पूरी बात बताई और ढूंढ़ा तो वहीं पास में ललित की गाड़ी भी खड़ी मिल गई. बाद में अलका ने ललित के घर वालों को फोन कर के बता दिया तो उस के घर वाले आ कर ले गए.

‘‘बेटा, यह तो ठीक किया परंतु आगे से हमारी गैरमौजूदगी में फिर ऐसा नहीं करना. यह तो ठीक है कि वह एक अच्छा इंसान है, परंतु अगर कोई अपराधी होता तो क्या होता,’’ अलका के पापा बोले.

‘‘अरे, अब छोडि़ए भी न. अंत भला तो सब भला. वैसे भी वह पूरी रात की जगी हुई है,’’ अलका की मम्मी बोलीं, ‘‘चल बेटी चाय पी कर थोड़ा आराम कर ले.’’

अलका अंदर चली गई साथ में एक तूफान भी वह उस रात अकेली थी, मगर पूरी थी और अब जब सब साथ हैं और वह घर में घुस रही है, तो उसे यह क्यों लग रहा है कि वह अधूरी है और यह कमी कभी पूरी होने वाली नहीं थी, क्योंकि जिस ने उसे अधूरा किया था वह तो एक अनजान इंसान था और इस बात से भी अनजान कि उस से क्या हो गया.

धीरेधीरे 1 महीना बीत गया. अलका की परीक्षा अच्छी हो गई और आज उसे लड़के वाले देखने आए थे. मम्मीपापा उन लोगों से बातें कर रहे थे. चायनाश्ता चल रहा था. लड़का डाक्टर था. परिवार भी सुलझा हुआ था.

‘‘रोहित बेटा तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं. कुछ तो लो?’’ अलका के पापा बोले.

‘‘बहुत खा लिया अंकल,’’ रोहित ने जवाब दिया.

‘‘भाई साहब, अब तो अलका को बुलवा लीजिए. रोहित कब से इंतजार कर रहा है,’’ थोड़ा मुसकरा कर रोहित की मम्मी बोलीं.

‘‘नहीं मम्मी ऐसी कोई बात नहीं है,’’ रोहित थोड़ा झेंपता सा बोला.

‘‘अरे अलका की मां अब तो सचमुच बहुत देर हो गई है. अब तो अलका को ले आओ.’’

मम्मी अंदर जा कर बोलीं, ‘‘अलका, अब कितनी देर और लगने वाली है… सब इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘बस हो गया मम्मी चलिए,’’ अलका बोली और फिर वह और उस की मम्मी ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ने लगीं.

अचानक अलका को लगा कि सबकुछ गोलगोल घूम रहा है और वह बेहोश हो कर गिर पड़ी. हर तरफ सन्नाटा छा गया कि क्या हुआ. उस के पापा और सब लोग उस तरफ बढ़े तो रोहित बोला कि ठहरिए अंकल मैं देखता हूं. मगर उस ने जैसे ही उस की नब्ज देखी तो उस के चेहरे के भाव बदल गए. हर कोई जानना चाहता था कि क्या हुआ. रोहित ने उसे उठा कर पलंग पर लिटाया और फिर उस के चेहरे पर पानी के छींटे मारे तो उसे थोड़ा होश आया. अलका ने उठने की कोशिश की तो वह बोला लेटी रहो.

‘‘मुझे क्या हो गया अचानक पता नहीं,’’ अलका ने कहा.

‘‘कुछ खास नहीं बस थोड़ी देर आराम करो,’’ कह रोहित ने एक इंजैक्शन लगा दिया.

अब सब को बेचैनी होने लगी खासतौर पर अलका के पापा को. वे बोले, ‘‘रोहित बेटा, बताओ न क्या हुआ अलका को?’’

‘‘कुछ खास नहीं अंकल थोड़ी कमजोरी है और नए रिश्ते को ले कर टैंशन तो हो ही जाती है… अब सबकुछ ठीक है. क्या मैं अलका से अकेले में बात कर सकता हूं?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ अलका के पिता बोले.

अलका कुछ असमंजस में थी. सोच रही थी कि क्या हुआ. तभी कमरे में रोहित ने प्रवेश किया. उसे देख कर अलका कुछ सकुचा कर बोली, ‘‘पता नहीं क्या हुआ रोहितजी… बस कमरे में आई और सबकुछ घूमने लगा और मैं बेहोश हो गई.’’

‘‘क्या तुम्हें सचमुच कुछ नहीं मालूम

अलका?’’ रोहित उसे गहरी नजरों से देखते हुए बोला.

‘‘आप तो डाक्टर हैं आप को तो पता होगा कि मुझे क्या हुआ है?’’

‘‘क्या तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो?’’ रोहित ने कहा.

‘‘रोहितजी न तो मैं आप को अच्छी तरह जानती हूं और न ही आप मुझे. फिर भी मैं आप के ऊपर पूरा भरोसा कर सकती हूं.’’

‘‘तो सुनो तुम प्रैगनैंट हो,’’ रोहित ने कहा.

अलका के सिर पर जैसे आसमान गिर गया हो. वह समझ नहीं पा रही थी कि उस दिन की एक छोटी सी घटना इतने बड़े रूप में उस के सामने आएगी. वह आंसू भरी आंखों से रोहित को देखती रह गई और वह सारा घटनाक्रम ललित का ऐक्सीडैंट, वह बरसात की रात, ललित का समागम सब उस की आंखों के सामने तैर गया.

‘‘कहां, कैसे क्या हुआ तुम मुझे बता सकती हो? बेशक हमारी शादी नहीं हुई पर मैं तुम्हें धोखा नहीं दूंगा, उस धोखेबाज की तरह जो तुम्हें मंझधार में छोड़ कर चला गया.’’

‘‘नहीं वह धोखेबाज नहीं था रोहितजी,’’ अलका ने थरथराते हुए कहा.

‘‘फिर यह क्या है जरा बताओगी मुझे?’’ रोहित ने कुछ व्यंग्य से कहा.

‘‘वह तो हालात का मारा था. उस दिन बहुत बरसात हो रही थी. उस का ऐक्सीडैंट हुआ था. बहुत खून बह रहा था. मैं इमोशनल हो गई और उसे अंदर ले आई. सोचा था कि पट्टी बगैरा कर के घर भेज दूंगी पर उस की हालत बिगड़ती गई. वह बेहोश था और बेहोशी की हालत में बारबार अपनी वाइफ का नाम ले रहा था. बस तभी यह हादसा हो गया. मैं तो इसे एक हादसा समझ कर भूल गई थी पर यह इस रूप में सामने आएगा सोचा भी न था. अब क्या होगा राहितजी?’’ वह थरथराते होंठों से बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा. जो कहता हूं ध्यान से सुनो. सामान्य हो कर बाहर आ जाओ.’’

रोहित बाहर आया तो सब इंतजार कर रहे थे खासतौर पर अलका के पापा.

‘‘हां रोहितजी, कहिए क्या फैसला है आप का?’’

‘‘मुझे लड़की पसंद है पापाजी,’’ रोहित मुसकराते हुए बोला.

‘‘भई मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी,’’ रोहित के पापा हंसते हुए बोले.

‘‘पापाजी एक बात कहनी थी,’’ रोहित ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ अलका के पापा कुछ घबराते हुए बोले.

‘‘पापीजी आप डर क्यों रहे हैं? बस इतना कहना है कि जितनी भी रस्में हैं शादी सहित सब 1 महीने में ही कर दीजिए.’’

‘‘पर 1 महीने में हम पूरी तैयारी कैसे करेंगे बेटा? कुछ और समय दो.’’

‘‘बात यह है पापाजी मुझे आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना है तो मैं सोच रहा इस बीच में शादी भी निबटा ली जाए ताकि अलका भी मेरे साथ अमेरिका चले.’’

‘‘ठीक कह रहा है रोहित. वैसा ही करते हैं. क्यों रोहित की मां?’’ रोहित के पापा बोले.

‘‘जैसा आप लोग ठीक समझें,’’ अनमने से भाव से रोहित की मम्मी बोलीं.

अगले दिन रोहित अपने कमरे में बैठा था. तभी उस की मम्मी चाय ले कर आईं.

‘‘मैं जानता हूं मम्मी आप क्यों परेशान हो… लेकिन आप को मुझ से वादा करना पड़ेगा कि जो कुछ भी मैं आप को बताऊंगा उसे आप किसी से भी शेयर नहीं करेंगी.’’

‘‘चल वादा किया… अब तू इस आननफानन की शादी की मतलब बता.’’

रोहित ने उन्हें उस ऐक्सीडैंट से ले कर सारी बात बताई और वादा लिया कि वे किसी से भी इस बारे में कोई बात नहीं करेंगी यहां तक कि रोहित के पापा और अलका के किसी भी घर वाले से नहीं.

इस तरह चट मंगनी पट ब्याह कर के आज अलका और रोहित हनीमून पर जा रहे हैं. अलका आज बहुत भावुक थी.

रोहित से कहा, ‘‘आप ने न सिर्फ मेरी इज्जत बचाई, बल्कि मेरे पूरे परिवार की भी इज्जत बचा कर मुझे उन की नजरों से गिरने से बचा लिया. मैं आप का यह कर्ज कभी नहीं उतार पाऊंगी.’’

‘‘अलका अब अपने मन पर कोई बोझ मत रखो. जो हुआ उस में न तो तुम्हारा कोई दोष था न उस अनजाने का और न ही इस छोटी सी जान का जो इस दुनिया में अभी आई भी नहीं है. अब यह जो भी आएगा या आएगी वह मेरा ही अंश होगा, बस यह मानना.’’

तभी एअरहोस्टेस की आवाज गूंजी, ‘‘कृपया सभी यात्री अपनीअपनी सीट बैल्ट बांध लें.

कर लो दुनिया मुट्ठी में : पूजा के समय क्या हुआ

गुरुदेव ने रात को भास्करानंद को एक लंबा भाषण पिला दिया था.‘‘नहीं, भास्कर नहीं, तुम संन्यासी हो, युवाचार्य हो, यह तुम्हें क्या हो गया है. तुम संध्या को भी आरती के समय नहीं थे. रात को ध्यान कक्ष में भी नहीं आए? आखिर कहां रहे? आगे आश्रम का सारा कार्यभार तुम्हें ही संभालना है.’’

भास्करानंद बस चुप रह गए.

रात को लेटते ही श्यामली का चेहरा उन की आंखों के सामने आ गया तो वे बेचैन हो उठे.

आंख बंद किए स्वामी भास्करानंद सोने का अथक प्रयास करते रहे पर आंखों में बराबर श्यामली का चेहरा उभर आता.

खीझ कर भास्करानंद बिस्तर से उठ खड़े हुए. दवा के डब्बे से नींद की गोली निकाली. पानी के साथ निगली और लेट गए. नींद कब आई पता नहीं. जब आश्रम के घंटेघडि़याल बज उठे, तब चौंक कर उठे.

‘लगता है आज फिर देर हो गई है,’ वे बड़- बड़ाए.

पूजा के समय भास्करानंद मंदिर में पहुंचे तो गुरुदेव मुक्तानंद की तेज आंखें उन के ऊपर ठहर गईं, ‘‘क्यों, रात सो नहीं पाए?’’

भास्करानंद चुप थे.

‘‘रात को भोजन कम किया करो,’’ गुरुदेव बोले, ‘‘संन्यासी को चाहिए कि सोते समय वह टीवी से दूर रहे. तुम रात को भी उधर अतिथिगृह में घूमते रहते हो, क्यों?’’

भास्करानंद चुप रहे. वे गुरुदेव को क्या बताते कि श्यामली का रूपसौंदर्य उन्हें इतना विचलित किए हुए है कि उन्हें नींद ही नहीं आती.

गुरुदेव से बिना कुछ कहे भास्करानंद मंदिर से बाहर आ गए.

तभी उन्हें आश्रम में श्यामली आती हुई दिखाई दी. उस की थाली में गुड़हल के लाल फूल रखे थे. उस ने अपने घने काले बालों को जूड़े में बांध कर चमेली की माला के साथ गूंथा था. एक भीनीभीनी खुशबू उन के पास से होती हुई चली जा रही थी. उन्हें लगा कि वे अभी, यहीं बेसुध हो जाएंगे.

‘‘स्वामीजी प्रणाम,’’ श्यामली ने भास्करानंद के चरणों में झुक कर प्रणाम किया तो उस के वक्ष पर आया उभार अचानक भास्करानंद की आंखों को स्फरित करता चला गया और वे आंखें फाड़ कर उसे देखते रह गए.

श्यामली तो प्रणाम कर चली गई लेकिन भास्करानंद सर्प में रस्सी को या रस्सी में सर्प के आभास की गुत्थी में उलझे रहे.

विवेक चूड़ामणि समझाते हुए गुरुदेव कह रहे थे कि यह संसार मात्र मिथ्या है, निरंतर परिवर्तनशील, मात्र दुख ही दुख है. विवेक, वैराग्य और अभ्यास, यही साधन है. इस विष से बचने में ही कल्याण है.

पर भास्करानंद का चित्त अशांत ही रहा.

उस रात भास्करानंद ने गुरुजी से अचानक पूछा था.

‘‘गुरुजी, आचार्य कहते हैं, यह संसार विवर्त है, जो है ही नहीं. पर व्यवहार में तो मच्छर भी काट लेता है, तो तकलीफ होती है.’’

‘‘हूं,’’ गुरुजी चुप थे. फिर वे बोले, ‘‘सुनो भास्कर, तुम विवेकानंद को पढ़ो, वे तुम्हारी ही आयु के थे जब शिकागो गए थे. गुरु के प्रति उन जैसी निष्ठा ही अपरिहार्य है.’’

‘‘जी,’’ कह कर भास्कर चुप हो गए.

घर याद आया. जहां खानेपीने का अभाव था. भास्कर आगे पढ़ना चाह रहा था, पर कहीं कोई सुविधा नहीं. तभी गांव में गुरुजी का आना हुआ. उन से भास्कर की मुलाकात हुई. उन्होेंने भास्कर को अपनी किताब पढ़ने को दी. उस के आगे पढ़ने की इच्छा जान कर, उसे आश्रम में बुला लिया. अब वह ब्रह्मचारी हो गया था.

भास्कर का कसा हुआ बदन व गोरा रंग, आश्रम के सुस्वादु भोजन व फलाहार से उस की देह भी भरने लग गई.

एक दिन गुरुजी ने कहा, ‘‘देखो भास्कर, यह इतना बड़ा आश्रम है, इस के नाम खेती की जमीन भी है. यहां मंत्री भी आते हैं, संतरी भी. यह सब इस आश्रम की देन है. यह समाज अनुकरण पर खड़ा है. मैं आज पैंटशर्ट पहन कर सड़क पर चलूं तो कोई मुझे नमस्ते भी नहीं करेगा. यहां भेष पूजा जाता है.’’

भास्कर चुप रह जाता. वेदांत सूत्र पढ़ने लगता. वह लघु सिद्धांत कौमुदी तो बहुत जल्दी पढ़ गया. संस्कृत के अध्यापक कहते कि अच्छे संन्यासी के लिए अच्छा वक्ता होना आवश्यक है और अच्छे वक्ता के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है.

कर्नाटक की तेलंगपीठ के स्वामी दिव्यानंद भी आए थे. वे कह रहे थे, ‘‘तुम अंगरेजी का ज्ञान भी लो. दुनिया में नाम कमाना है तो अंगरेजी व संस्कृत दोनों का ज्ञान आवश्यक है. धाराप्रवाह बोलना सीखो. यहां भी ब्रांड ही बिकता है. जो बड़े सपने देखते हैं वे ही बड़े होते हैं.’’

भास्कर अवाक् था. स्वामीजी की बड़ी इनोवा गाड़ी पर लाल बत्ती लगी हुई थी. पुलिस की गाड़ी भी साथ थी. उन्होंने बहुत पहले अपने ऊपर हमला करवा लिया था, जिस में उन की पुरानी एंबैसेडर टूट गई थी. सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था. उन के भक्तों ने सरकार पर दबाव बनाया, उन्हें सुरक्षा मिल गई थी. इस से 2 लाभ, आगे पुलिस की गाड़ी चलती थी तो रास्ते में रुकावट नहीं, दूसरे, इस से आमजन पर प्रभाव पड़ता है. भेंट जो 100 रुपए देते थे, वे 500 देने लग गए.

भास्कर समझ रहा था, जितना सीखना चाहता था, उतना ही उलझता जाता था. स्वामीजी के हाथ में हमेशा अंगरेजी के उपन्यास रहते या मोटीमोटी किताबें. वे पढ़ते तो कम थे पर रखते हमेशा साथ थे.

उस दिन उन से पूछा तो बोले, ‘‘बेटा, ये सरकारी अफसर, कालेज के प्रोफेसर, सब इसी अंगरेजी भाषा को जानते हैं. जो संन्यासी अंगरेजी जानता है उस के ये तुरंत गुलाम बन जाते हैं. समझो, विवेकानंद अगर बंगला भाषा बोलते और अमेरिका जाते तो चार आदमी भी उन्हें नहीं मिलते. अंगरेजी भाषा ने ही उन्हें दुनिया में पूजनीय बनाया. तुम्हारे ओशो भी इन्हीं भक्तों की कृपा से दुनिया में पहुंचे. योग साधना से नहीं. किताबें तो वे पतंजलि पर भी लिख गए. खूब बोले भी पर खुद दुनिया भर की सारी बीमारियों से मरे. कभी किसी ने उन से पूछा कि आप ने जिस योग साधना की बातें बताईं, उन्हें आप ने क्यों नहीं अपनाया और आप का शरीर स्वस्थ क्यों नहीं रहा?

‘‘बातें हमेशा बात करने के लिए होती हैं. दूसरों को चलाओ, तुम चलने लगे तो तकलीफ होगी. इस जनता पर अंगरेजी का प्रभाव पड़ता है. तुम सीखो, तुम्हारी उम्र है.’’

भास्कर पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव से आया था. गुरुजी उसे योग विद्या सिखा रहे थे. ब्रह्मसूत्र पढ़वा रहे थे. स्वामी दिव्यानंद उसे अंगरेजी भाषा में दक्ष करना चाह रहे थे.

बनारस में उस के मित्र जो देहात से आए थे उन्होंने एम.बी.ए. में दाखिला लिया था. दाखिला लेते ही रात को सोते समय भी वे मुश्किल से टाई उतारते थे. वे कहते थे, हमारी पहचान ड्रेसकोड से होती है.

स्वामीजी कह रहे थे, ‘‘संन्यासी की पहचान उस की मुद्रा है. उस का ड्रेसकोड है. उत्तरीय कैसे डाला जाए, सीखो. शाल कैसे ओढ़ते हैं, सीखो. रहस्य ही संन्यासी का धन है. जो भी मिलने आए उसे बाहर बैठाओ. जब पूरी तरह व्यवस्थित हो जाओ तब उसे पास बुलाओ. उसे लगे कि तुम गहरे ध्यान में थे, व्यस्त थे. उसे बस देखो, उसे बोलने दो, वह बोलताबोलता अपनी समस्या पर आ जाएगा. उसे वहीं पकड़ लो. देखो, हर व्यक्ति सफलता चाहता है. उसी के लिए उस का सबकुछ दांव पर लगा होता है. तुम्हें क्या करना है, उस से अच्छा- अच्छा बोलो. यहां 10 आते हैं, 5 का सोचा हो जाता है. 5 का नहीं होता. जिन 5 का हो जाता है, वे अगले 25 से कहते हैं. फिर यहां 30 आते हैं. जिन का नहीं हुआ वे नहीं आएं तो क्या फर्क पड़ता है. सफलता की बात याद रखो, बाकी भूल जाओ.’’

भास्कर यह सब सुन कर अवाक् था.

स्वामी विद्यानंद यहां आए थे. गुरुजी ने उन के प्रवचन करवाए. शहर में बड़ेबड़े विज्ञापनों के बैनर लगे. उन के कटआउट लगे. काफी भक्तजन आए. भास्कर का काम था कि वह सब से पहले 100 व 500 रुपए के कुछ नोट उन के सामने चुपचाप रख आता था. वहां इतने रुपयों को देख कर, जो भी उन से मिलने आता, वह भी 100 व 500 रुपए से कम भेंट नहीं देता था.

भास्कर समझ गया था कि ग्लैमर और करिश्मा क्या होता है. ‘ग्लैमर’ दूसरे की आंख में आकर्षण पैदा करना है. स्वामीजी के कासमैटिक बौक्स में तरहतरह की क्रीम रखी थीं. वे खुशबू भी पसंद करते थे. दक्षिणी सिल्क का परिधान था. आने वाला उन के सामने झुक जाता था. पर भास्कर का मन स्वामी दिव्यानंद समझ नहीं पाए.

श्यामली के सामने आते ही भास्कर ब्रह्मसूत्र भूल जाता. वह शंकराचार्य के स्थान पर वात्स्यायन को याद करने लग जाता.

‘नहीं, भास्कर नहीं,’ वह अपने को समझाता. क्या मिलेगा वहां. समाज की गालियां अलग. कोई नमस्कार भी नहीं करेगा. 4-5 हजार की नौकरी. तब क्या श्यामली इस तरह झुक कर प्रणाम करेगी. इसीलिए भास्कर श्यामली को देखते ही आश्रम के पिछवाड़े के बगीचे में चला जाता. वह श्यामली की छाया से भी बचना चाह रहा था.

श्यामली अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. संस्कृत में उस ने एम.ए. किया था. रामानुजाचार्य के श्रीभाष्य पर उस ने पीएच.डी. की है तथा शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापिका थी. मातापिता दोनों शिक्षण जगत में रहे थे. धन की कोई कमी नहीं. पिता ने आश्रम के पास के गांव में 20 बीघा कृषि योग्य भूमि ले रखी थी. वहां वे अपने फार्म पर रहा करते थे. श्यामली के विवाह को ले कर मां चिंतित थीं. न जाने कितने प्रस्ताव वे लातीं, पर श्यामली सब को मना कर देती. श्यामली तो भास्कर को ही अपने समीप पाती थी.

भास्कर मानो सूर्य हो, जिस का सान्निध्य पाते ही श्यामली कुमुदिनी सी खिल जाती थी. मां ने बहुत समझाया पर श्यामली तो मानो जिद पर अड़ी थी. वह दिन में एक बार आश्रम जरूर जाती थी.

उस दिन भास्कर दिन भर बगीचे में रहा था. वह मंदिर न जा कर पंचवटी के नीचे दरी बिछा कर पढ़ता रहा. ध्यान की अवस्था में भास्कर को लगा कि उस के पास कोई बैठा है.

‘‘कौन?’’ वह बोला.

पहले कोई आवाज नहीं, फिर अचानक तेज हंसी की बौछार के साथ श्यामली बोली, ‘‘मुझ से बच कर यहां आ गए हो संन्यासी?’’

‘‘श्यामली, मैं संन्यासी हूं.’’

‘‘मैं ने कब कहा, नहीं हो. पर मैंने श्रीभाष्य पर पीएच.डी. की है. रामानुजाचार्य गृहस्थ थे. वल्लभाचार्य भी गृहस्थ थे. उन के 7 पुत्र थे. उन की पीढ़ी में आज भी सभी महंत हैं. कहीं कोई कमी नहीं है. पुजापा पाते हैं. कोठियां हैं, जो महल कहलाती हैं. क्या वे संत नहीं हैं?’’

‘‘तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘तुम्हें,’’ श्यामली बोली, ‘‘भास्कर, तुम मेरे लिए ही यहां आए हो. तुम जिस परंपरा में जा रहे हो वहां वीतरागता है, पलायन है. देखो, अध्यात्म का संन्यास से कोई संबंध नहीं है. यह पतंजलि की बनाई हुई रूढि़ है, जिसे बहुत पहले इसलाम ने तोड़ दिया था. हमारे यहां रामानुज और वल्लभाचार्य तोड़ चुके थे. गृहस्थ भी संन्यासी है अगर वह दूसरे पर आश्रित नहीं है. अध्यात्म अपने को समझने का मार्ग है. आज का मनोविज्ञान भी यही कहता है पर तुम्हारे जैसे संन्यासी तो पहले दिन से ही दूसरे पर आश्रित होते हैं.’’

‘‘तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘जो तुम चाहते हो पर कह नहीं पाते हो, तभी तो मना कर रहे हो. यहां छिप कर बैठे हो?’’

भास्कर चुप सोचता रहा कि गुरुजी कह रहे थे कि इस साधना पथ पर विकारों को प्रश्रय नहीं देना है.

‘‘मैं तुम्हें किसी दूसरे की नौकरी नहीं करने दूंगी,’’ श्यामली बोली, ‘‘हमारा 20 बीघे का फार्म है. वहां योगपीठ बनेगा. तुम प्रवचन दो, किताबें लिखो, जड़ीबूटी का पार्क बनेगा. वृद्धाश्रम भी होगा, मंदिर भी होगा, एक अच्छा स्कूल भी होगा. हमारी परंपरा होगी. एक सुखी, स्वस्थ परिवार.

‘‘भास्कर, रामानुज कहते हैं चित, अचित, ब्रह्म तीनों ही सत्य हैं, फिर पलायन क्यों? हम दोनों मिल कर जो काम करेंगे, वह यह मठ नहीं कर सकता. यहां बंधन है. हर संन्यासी के बारे में सहीगलत सुना जाता है. तुम खुद जानते हो. भास्कर, मैं तुम से प्यार करती हूं. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. मैं तुम्हारा बंधन नहीं बनूंगी. तुम्हें ऊंचे आकाश में जहां तक उड़ सको, उड़ने की स्वतंत्रता दूंगी,’’ इतना कह श्यामली भास्कर से लिपट गई थी. वृक्ष और लता दोनों परस्पर एक हो गए थे. उस पंचवटी के घने वृक्षों की छाया में, जैसे समय भी आ कर ठहर गया हो. श्यामली ने भास्करानंद को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था.

दोनों की सांसें टकराईं तो भास्कर सोचने लगा कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है.

पंचवटी के घने वृक्षों की छाया में दोनों शरीर सुख के अलौकिक आनंद से सराबोर हो रहे थे. गहरी सांसों के साथ वे हर बार एक नई ऊर्जा में तरंगित हो रहे थे.

थोड़ी देर बाद श्यामली बोली, ‘‘भास्कर, तुम नहीं जानते, इस मठ के पूर्व गुरु की प्रेमिका की बेटी ही करुणामयी मां हैं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘यही सच है.’’

‘‘नहीं, यह सुनीसुनाई बात है.’’

‘‘तभी तो पूर्व महंतजी ने गद्दी छोड़ी थी और अपनी संपत्ति इन को दे गए, अपनी बेटी को…’’

भास्कर चुप रह गया था. यह उस के सामने नया ज्ञान था. क्या श्यामली सही कह रही है?

‘‘भास्कर, यह हमारी जमीन है, हम यहां पांचसितारा आश्रम बनाएंगे. जानते हो मेरी दादी कहा करती थीं, ‘रोटी खानी शक्कर से, दुनिया ठगनी मक्कर से’ दुनिया तो नाचने को तैयार बैठी है, इसे नचाने वाला चाहिए. आश्रम ऐसा हो जहां युवक आने को तरसें और बूढ़े जिन के पास पैसा है वे यहां आ कर बस जाएं. मैं जानती हूं कि सारी उम्र प्राध्यापकी करने से कितना मिलेगा? तुम योग सिखाना, वेदांत पर प्रवचन देना, लोगों की कुंडलिनी जगाना, मैं आश्रम का कार्यभार संभाल लूंगी, हम दोनों मिल कर जो दुनिया बसाएंगे, उसे पाने के लिए बड़ेबड़े महंत भी तरसेंगे.’’

श्यामली की गोद में सिर रख कर भास्कर उन सपनों में खो गया था जो आने वाले कल की वास्तविकता थी.

मेरा बाबू: एक मां की दर्द भरी कहानी

जून, 1993 की बात है. मुंबई में बंगलादेशियों की धरपकड़ जारी  थी. पुलिस उन्हें पकड़पकड़ कर ट्रेनों में ठूंस रही थी.   कुछ तो चले गए, कुछ कल्याण स्टेशन से वापस मुड़ गए. किसी का बाप पकड़ा गया और टे्रेन में बुक कर दिया गया तो बीवीबच्चे छूट गए. किसी की मां पकड़ी गई तो छोटेछोटे बच्चे इधर ही भीख मांगने के लिए छूट गए. पुलिस को किसी का फैमिली डिटेल मालूम नहीं था, बस, जो मिला, धर दबोचा और किसी भी ट्रेन में चढ़ा दिया. सब के चेहरे आंसुओं से भीग गए थे.

यह धरपकड़ करवाने वाले दलाल इन्हीं में से बंगाली मुसलमान थे. रात के अंधेरे में सोए हुए लोगों पर पुलिस का कहर नाजिल होता था, क्योंकि इन्हें दिन में पकड़ना मुश्किल था. कभी तो कोई मामला लेदे कर बराबर हो जाता और कभी किसी को जबरदस्ती ट्रेन में ठूंस दिया जाता. इन की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आया, न ही बंगलादेश की सरकार और न ही मानवाधिकार आयोग.

उन दिनों मेरे पास कुछ औरतों का काम था. सब की सब सफाई पर लगा दी गई थीं. कुछ को मैं ने कब्रिस्तान में घास की सफाई पर लगा रखा था. ज्यादातर औरतें बच्चों के साथ थीं. उन के साथ जो मर्द थे, उन के पति थे या भाई, मालूम नहीं. ये भेड़बकरियों की तरह झुंड बना कर निकलती थीं और झुंड ही की शक्ल में रोड के ब्रिज के नीचे अपने प्लास्टिक के झोपड़ों में लौट जाती थीं.

उन्हीं में एक थी फरजाना. देखने में लगता था कि वह 17 या 18 साल की होगी. मुझे तब ज्यादा आश्चर्य हुआ जब उस ने बताया कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है. उस का 2 साल का बच्चा जमालपुर (बंगलादेश) में है.

इस धरपकड़ के दौरान एक दिन वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘साहब, मैं यहां से वापस बंगलादेश नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों? चली जाओ. यहां अकेले क्या करोगी?’’

‘‘साहब, मेरा मर्द एक्सीडेंट में मर गया. मेरा एक लड़का है जावेद, मेरा बाबू, मैं अपनी भाभी और भाई के पास उसे छोड़ कर आई हूं. मैं अपने बाबू के लिए ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हूं ताकि उसे अच्छे स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला सकूं और बड़ा आदमी बना सकूं.’’

फरजाना को पुकारते समय मैं उसे ‘बेटा’ कहता था और इसी एक शब्द की गहराई ने उस को मेरे बहुत करीब कर दिया था. न जाने क्यों, जब वह मेरे पास आती तो मेरे इतने करीब आ जाती जैसे किसी बाप के पास बेटी आती है. वह मुझे ‘रे रोड’ के प्लास्टिक के झोंपड़ों की सारी दास्तान सुनाती.

उस की कई बार इज्जत खतरे में पड़ी, लेकिन वह भाग कर या तो रे रोड के रेलवे स्टेशन पर आ गई या रोड पर आ कर चिल्लाने लगी. ये इज्जत लूटने वाले या उन्हें जिस्मफरोशी के बाजार में बेचने वाले बंगलादेशी ही थे. पहले वह यहां के दलालों से मिलते थे. रात के समय औरतों को दिखाते थे और फिर सौदा पक्का हो जाता था. कितनी ही औरतें फकलैंड रोड, पीली कोठी और कमाठीपुरा में धंधा करने लगीं और कुछ तंग आ कर मुंबई से भाग गईं.

फरजाना ने एक दिन मुझे बताया कि वह बंगाली नहीं है. बंटवारे के समय उस के पिता याकूब खां जिला गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) से पूर्वी पाकिस्तान गए थे. उस के बाद 1971 के गृहयुद्ध में वह मुक्ति वाहिनी के हाथों मारे गए. इस के बाद उस के भाई ने उस की शादी कर दी. उस का पति एक्सीडेंट में मर गया. जब उस का पति मरा तो वह पेट से थी. अब यह खानदान पूरी तरह उजड़ गया था. बंगलादेश से जब बिहारी मुसलमानों  ने उर्दू भाषी पाकिस्तान की तरफ कूच करना शुरू किया तो वहां की सरकार ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इधर बंगलादेश सरकार भी उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस गृहयुद्ध में इन की सारी वफादारी पाकिस्तान के साथ थी. यहां तक कि इन्होंने मुक्ति वाहिनी से लड़ने के लिए अपनी रजाकार सेना बनाई थी.

जबपाकिस्तान हार गया और एक नए देश, बंगलादेश, का जन्म हो गया तो ये सारे लोग बीच में लटक गए. न बंगलादेश के रहे न पाकिस्तान के. फरजाना उन्हीं में से एक थी. वह भोजपुरी के साथ बहुत साफ बंगला बोलती थी. एक दिन तो हद हो गई, जब वह टूटेफूटे बरतनों में मेरे लिए मछली और चावल पका कर लाई.

मैं ने अपने दिल के अंदर कई बार झांक कर देखा कि फरजाना कहां है? हर बार वही हुआ. फरजाना ठीक मेरी लड़की की तरह मेरे दिल में रही. अब वह मुझे बाबा कह कर पुकारती थी. दिल यही कहता था कि उसे इन सारे झमेलों से उठा कर क्यों न अपने घर ले जाऊं, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि मेरी 3 के बजाय 4 लड़कियां हो जाएंगी. लेकिन उस के बाबू जावेद का क्या होगा, जिस को वह जमालपुर (बंगलादेश) में छोड़ कर आई थी और फिर मैं ने उसे इधरउधर के काम से हटा कर अपने पास, अपने दफ्तर में रख लिया. काम क्या था, बस, दफ्तर की सफाई, मुझे बारबार चाय पिलाना और कफन के कपड़ों की सफाई.

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मुंबई एक ऐसा शहर है जहां ढेर सारे ट्रस्ट, खैराती महकमे हैं, बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग भी हैं और जिस विभाग का मैं मैनेजर था वह भी एक चैरेटी विभाग था. मसजिदों की सफाई, इमामों, मोअज्जिनों की भरती, पैसों का हिसाब- किताब लेकिन इस के अलावा सब से बड़ा काम था लावारिस मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करना. जो भी मुसलिम लाशें अस्पताल से मिलती थीं, उन का वारिस हमारा महकमा था. हमारा काम था कि उन को नहला कर नए कपड़ों में लपेट कर उन्हें कब्रिस्तान में सुला दिया जाए.

मुंबई में कब्रिस्तानों का तो यह आलम है कि चाहे जहां भी किसी के लिए कब्र खोदी जाए, वहां 2-4 मुर्दों की हड्डियां जरूर मिलती हैं. मतलब इस से पहले यहां कई और लोग दफन हो चुके हैं, और फिर इन हड्डियों को इकट्ठा कर के वहीं दफन कर दिया जाता है. यहां कब्रिस्तानों में कब्र के लिए जमीन बिकती है और यह दो गज जमीन का टुकड़ा वही खरीद पाते हैं जिन के वारिस होते हैं.

सोनापुर के इलाके में ज्यादातर कब्रें इसलिए पुख्ता कर दी गई हैं ताकि दोबारा यहां कोई और मुर्दा दफन न हो सके. मुंबई में मुर्दों की भी भीड़ है, इन के लिए दो गज जमीन का टुकड़ा कौन खरीदे? इसलिए हमारा विभाग यह काम करता है. हमारे विभाग ने लावारिस लाशों के लिए एक जगह मुकर्रर कर रखी है. यह संस्था कफनदफन का सारा खर्च बरदाश्त करती है. बाकायदा एक मौलाना और कुछ मुसलमान इस काम पर लगा दिए गए हैें कि जब कोई लावारिस लाश आए उसे नहलाएं, कफन पहनाएं और नमाजेजनाजा पढ़ कर कब्र में उतारें. शायद ऐसा विभाग हिंदुस्तान के किसी शहर में नहीं है, लेकिन मुंबई में है और यह चैरेटी इस काम को खुशीखुशी करती है. वैसे इस दफ्तर का मुंबई की भाषा में एक दूसरा नाम भी है, ‘कफन आफिस.’

एक दिन फरजाना ने आ कर मुझे एक मुड़ीतुड़ी तसवीर दिखाई, ‘‘बाबा, यह मेरा बाबू है, ठीक अपने बाप पर गया है,’’ और फिर उस ने किसी कीमती चीज की तरह उसे अपने ब्लाउज में रख लिया. बच्चे की तसवीर बड़ी प्यारी थी. बड़ीबड़ी आंखें, उस में ढेर सारा काजल, माथे पर काजल का टीका, बाबासूट पहने फरजाना की गोद में बैठा हुआ है. मैं ने पूछा, ‘‘फरजाना, यह छोटा बच्चा तुम्हारे बगैर कैसे रहता होगा?’’

‘‘मैं वहां उसे भैयाभाभी के पास छोड़ कर आई हूं. उन के अपने 2 बच्चे हैं. यह तीसरा मेरा है. बड़े आराम से रह रहा होगा बाबा. आखिर, इस का बाप नहीं, दादा नहीं, चाचा नहीं, फिर इस के लिए कौन कमाएगा? इस को कौन बड़ा आदमी बनाएगा? मैं अपने सीने पर पत्थर रख कर आई हूं. जब किसी का बच्चा रोता है तो मेरा बाबू याद आता है. मैं अकेले में चुपके- चुपके रोती हूं. लेकिन मैं चाहती हूं, थोड़ा- बहुत पैसा कमा लूं तो वहां जाऊं, अपनेबाबू का अच्छे स्कूल में नाम लिखाऊं और फिर बड़ा हो कर मेरा बाबू कुछ बन जाए.’’

कुछ दिनों के बाद पुलिस ने इन की धरपकड़ बंद कर दी. लेकिन मैं ने उन सारी औरतों को काम से हटा दिया. वह कहां गईं, किधर से आईं, किधर चली गईं, मैं इस फिक्र से आजाद हो गया क्योंकि इन में कुछ रेडलाइट एरिया का चक्कर भी काटती थीं. मैं अपनेआप को इन तमाम झंझटों से दूर रखना चाहता था.

एक दिन जब दफ्तर की सफाई करते समय एक थैला मिला. खोल कर देखा तो उस में छोटे बच्चे के लिए नएनए कपड़े थे. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सारे कपड़े फरजाना ने अपने बाबू के लिए खरीदे होंगे और जल्दबाजी या पुलिस की धरपकड़ के दौरान वह इन्हें भूल गई होगी. अब ऐसे खानाबदोश लोगों का न घर है न टेलीफोन नंबर. फिर इन कपड़ों का क्या किया जाए?

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मैं ने एकएक कपड़े को गौर से देखा. बाबासूट, जींस की पैंट, जूता, मोजा और एक छोटी सी टोपी. मैं ने भी उन्हें वहीं संभाल कर रख दिया. शहर में फरजाना को तलाश करना मुश्किल था.

एक दिन अखबार पर सरसरी निगाह डालते हुए मैं ने देखा कि कुछ औरतें सोनापुर (भानडूप) के रेडलाइट एरिया से पकड़ी गई हैं और पुलिस की हिरासत में हैं. इन में फरजाना का भी नाम था. इन सारी औरतों को कमरे के नीचे तहखाने में रखा गया था. दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता था और जबरदस्ती उन से देह व्यापार का धंधा कराया जाता था.

उस का नाम पढ़ते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस का बारबार मुझे बाबा कह के पुकारना याद आने लगा. दिल नहीं माना और मैं उस की तलाश में निकल पड़़ा.

उसे ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई. वह भांडूप पुलिस स्टेशन में थी और वहां की पुलिस उसे बंगलादेश भेज रही थी. मैं थोड़ी देर के लिए उस से मिला लेकिन अब वह बिलकुल बदल चुकी थी. वह मुझे टकटकी लगा कर देख रही थी. उस के चेहरे की सारी मुसकराहट गुम हो चुकी थी. मुझे मालूम था कि उस की इज्जत भी लुट चुकी है. औरत की जब इज्जत लुट जाती है तो उस का चेहरा हारे हुए जुआरी की तरह हो जाता है, जो अपना सबकुछ गंवा चुका होता है. मैं ने वह प्लास्टिक का थैला उस के हाथ में दे दिया. उस ने उसे देखा और रोते हुए बोली, ‘‘बाबा, अब इस की जरूरत नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाबा, मेरा बाबू मर गया.’’

‘‘क्या बात कर रही हो. यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘बाबा, वह मर गया. मैं अपने भाई और भाभी को पैसा भेजती रही और वह मेरे बाबू की मौत मुझसे छिपाए रहे. वह  उसे कमरे के बाहर सुला देते थे. रात भर वह नन्हा फरिश्ता बारिश और ठंड में पड़ा रहता था. उसे सर्दी लगी और वह मर गया. भाभी और भाई ने उस की मौत को मुझ से छिपाए रखा ताकि उन को हमेशा पैसा भेजती रहूं. वह तो एक औरत वहां से आई थी और उस ने रोरो कर मेरे बाबू की दास्तान सुनाई. अब मेरा जिस्म बाकी है. अब मुझे जिंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं.’’

फिर वह दहाड़ मार कर रोने लगी.

उस के इस तरह रोने से पुलिस स्टेशन में हड़बड़ी मच गई. सभी अपना काम छोड़ कर उस की तरफ दौड़ पड़े. उसे पानी वगैरह पिला कर चुप कराया गया. पुलिस अपनी काररवाई कर रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि अब वह बंगलादेश नहीं जाएगी, अलीगंज या किशनगंज से दोबारा भाग आएगी. अब वहां उस का था भी कौन? एक बच्चा था वह भी मर गया. मैं उसे पुलिस स्टेशन में छोड़ कर आ गया और अपने कफन आफिस के कामों में लग गया. रोज एक नया मुर्दा और उस का कफनदफन.

एक दिन अस्पताल से फोन आने पर वहां गया. एक लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी. लाश लोकल ट्रेन से कट गई थी. दोनों जांघों की हड्डियां कट गई थीं. पेट की आंतें बाहर थीं. यह एक औरत की लाश थी. ब्लाउज के अंदर एक छोटे बच्चे की तसवीर खून में डूबी हुई थी. तसवीर को पानी से साफ किया. अब सबकुछ साफ था. यह फरजाना की लाश थी. उस का बाबू अपनी तसवीर में हंस रहा था. न जाने अपनी मौत पर, या अपनी मां की मौत पर या फिर इस मुल्क के बंटवारे पर. मैं उस लाश को उठा कर ले आया और तसवीर के साथ उसे कब्र में दफन कर दिया.

झांसी की रानी : जब मां ने दिखाई अपनी ताकत

‘‘पापा, आप हमेशा झांसी की रानी की तसवीर के साथ दादी का फोटो क्यों रखते हैं?’’ नवेली ने अपने पापा सुप्रतीक से पूछा था.

‘‘तुम्हारी दादी ने भी झांसी की रानी की तरह अपने हकों के लिए तलवार उठाई थी, इसलिए…’’ सुप्रतीक ने कहा.

सुप्रतीक का ध्यान मां के फोटो पर ही रहा. चौड़ा सूना माथा, होंठों पर मुसकराहट और भरी हुई पनियल आंखें. मां की आंखों को उस ने हमेशा ऐसे ही डबडबाई हुई ही देखा था. ताउम्र, जो होंठों की मुसकान से हमेशा बेमेल लगती थी.

एक बार सुप्रतीक ने देखा था मां की चमकती हुई काजल भरी आंखों को, तब वह 10 साल का रहा होगा. उस दिन वह जब स्कूल से लौटा, तो देखा कि मां अपनी नर्स वाली ड्र्रैस की जगह चमकती हुई लाल साड़ी पहने हुए थीं और उन के माथे पर थी लाल गोल बिंदी. मां को निहारने में उस ने ध्यान ही नहीं दिया कि कोईआया हुआ है.

‘सुप्रतीक देखो ये तुम्हारे पापा,’ मां ने कहा था.

‘पापा, मेरे पापा,’ कह कर सुप्रतीक ने उन की ओर देखा था. इतने स्मार्ट, सूटबूट पहने हुए उस के पापा. एक पल को उसे अपने सारे दोस्तों के पापा याद आ गए, जिन्हें देख वह कितना तरसा करता था.

‘मेरे पापा तो उन सब से कहीं ज्यादा स्मार्ट दिख रहे हैं…’ कुछ और सोच पाता कि पापा ने उसे बांहों में भींच लिया.

‘ओह, पापा की खुशबू ऐसी होती है…’

सुप्रतीक ने दीवार पर टंगे मांपापा के फोटो की तरफ देखा, जैसे बिना बिंदी मां का चेहरा कुछ और ही दिखता है, वैसे ही शायद मूंछें उगा कर पापा का चेहरा भी बदल गया है. मां जहां फोटो की तुलना में दुबली लगती थीं, वहीं पापा सेहतमंद दिख रहे थे.

सुप्रतीक देख रहा था मां की चंचलता, चपलता और वह खिलखिलाहट. हमेशा शांत सी रहने वाली मां का यह रूप देख कर वह खुश हो गया था.

कुछ पल को पापा की मौजूदगी भूल कर वह मां को देखने लगा. मां खाना लगाने लगीं. उन्होंने दरी बिछा कर 3 प्लेटें लगाईं.

‘सुधा, बेटे का क्या नाम रखा है?’ पापा ने पूछा था.

‘सुप्रतीक,’ मां ने मुसकराते हुए कहा.

‘यानी अपने नाम ‘सु’ से मिला कर रखा है. मेरे नाम से कुछ नहीं जोड़ा?’ पापा हंसते हुए कह रहे थे.

‘हुं, सुधा और घनश्याम को मिला कर भला क्या नाम बनता?’ सुप्रतीक सोचने लगा.

‘आप यहां होते, तो हम मिल कर नाम सोचते घनश्याम,’ मां ने खाना लगाते हुए कहा था.

‘घनश्याम हा…हा…हा… कितने दिनों के बाद यह नाम सुना. वहां सब मुझे सैम के नाम से जानते हैं. अरे, तुम ने अरवी के पत्ते की सब्जी बनाई है. सालों हो गए हैं बिना खाए,’ पापा ने कहा था.

सुप्रतीक ने देखा कि मां के होंठ ‘सैमसैम’ बुदबुदा रहे थे, मानो वे इस नाम की रिहर्सल कर रही हों.

सुप्रतीक ने अब तक पापा को फोटो में ही देखा था. मां दिखाती थीं. 2-4 पुराने फोटो. वे बतातीं कि उस के पापा विदेश में रहते हैं. लेकिन कभी पापा की चिट्ठी नहीं आई और न ही वे खुद. फोन तो तब होते ही नहीं थे. मां को उस ने हमेशा बहुत मेहनत करते देखा था. एक अस्पताल में वे नर्स थीं, घरबाहर के सभी काम वे ही करती थीं.

जिस दिन मां की रात की ड्यूटी नहीं होती थी, वह देखता कि मां देर रात तक खिड़की के पास खड़ी आसमान को देखती रहती थीं. सुप्रतीक को लगता कि मां शायद रोती भी रहती थीं.

उस दिन खना खाने के बाद देर तक वे तीनों बातें करते रहे थे. सुप्रतीक ने उस पल में मानो जमाने की खुशियां हासिल कर ली थीं. सुबह उठा, तो देखा कि पापा नहीं थे.

‘मां, पापा किधर हैं?’ सुप्रतीक ने हैरानी से पूछा था.

‘तुम्हारे पापा रात में ही होटल चले गए, जहां वे ठहरे हैं.’

मां का चेहरा उतरा हुआ लग रहा था. माथे की लकीरें गहरी दिख रही थीं. आंखों में काजल की जगह फिर पानी था. थोड़ी देर में फिर पापा आ गए, वैसे ही खुशबू से सराबोर और फ्रैश. आते ही उन्होंने सुप्रतीक को सीने से लगा लिया. आज उस ने भी कस कर भींच लिया था उन्हें, कहीं फिर न चले जाएं.

‘पापा, अब आप भी हमारे साथ रहिएगा,’ सुप्रतीक ने कहा था.

‘मैं तुम्हें अपने साथ अमेरिका ले जाऊंगा. हवाईजहाज से. वहीं अच्छे स्कूल में पढ़ाऊंगा. बड़ा आदमी बनाऊंगा…’ पापा बोल रहे थे.

सुप्रतीक उस सुख के बारे में सोचसोच कर खुश हुआ जा रहा था.

‘पर, तुम्हारी मम्मी नहीं जा पाएंगी, वे यहीं रहेंगी. तुम्हारी एक मां वहां पहले से हैं, नैंसी… वे होटल में तुम्हारा इंतजार कर रही हैं,’ पापा को ऐसा बोलते सुन सुप्रतीक जल्दी से हट कर सुधा से सट कर खड़ा हो गया था.

‘मैं कल से ही तुम्हारे आने की वजह समझने की कोशिश कर रही थी. एक पल को मैं सच भी समझने लगी थी कि तुम सुबह के भूले शाम को घर लौटे हो. जब तुम्हारी पत्नी है, तो बच्चे भी होंगे. फिर क्यों मेरे बच्चे को ले जाने की बात कर रहे हो?’ सुधा अब चिल्लाने लगी थी, ‘एक दिन अचानक तुम मुझे छोड़ कर चले गए थे, तब मैं पेट से थी. तुम्हें मालूम था न?

‘एक सुबह अचानक तुम ने मुझ से कहा था कि तुम शाम को अमेरिका जा रहे हो, तुम्हें पढ़ाई करनी है. शादी हुए बमुश्किल कुछ महीने हुए थे. तुम्हारी दहेज की मांग जुटाने में मेरे पिताजी रास्ते पर आ गए थे. लेकिन अमेरिका जाने के बाद तुम ने कभी मुझे चिट्ठी नहीं लिखी.

‘मैं कितना भटकी, कहांकहां नहीं गई कि तुम्हारे बारे में जान सकूं. तुम्हारे परिवार वालों ने मुझे ही गुनाहगार ठहराया. अब क्यों लौटे हो?’ मां अब हांफ रही थीं.

सुप्रतीक ने देखा कि पापा घुटनों के बल बैठ कर सिर झुकाए बोलने लगे थे, ‘सुधा, मैं तुम्हारा गुनाहगार हो सकता हूं. सच बात यह है कि मुझे अमेरिका जाने के लिए बहुत सारे रुपयों की जरूरत थी और इसी की खातिर मैं ने शादी की. तुम मुझे जरा भी पसंद नहीं थीं. उस शादी को मैं ने कभी दिल से स्वीकार ही नहीं किया.

‘बाद में मैं ने नैंसी से शादी की और अब तो मैं वहीं का नागरिक हो गया हूं. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद हम मांबाप नहीं बन सके. यह तो मेरा ही खून है. मुझे मेरा बेटा दे दो सुधा…’

अचानक काफी बेचैन लगने लगे थे पापा.

‘देख रहा हूं कि तुम इसे क्या सुख दे रही हो… सीधेसीधे मेरा बेटा मेरे हवाले करो, वरना मुझे उंगली टेढ़ी करनी भी आती है.’

सुप्रतीक देख रहा था उन के बदलते तेवर और गुस्से को. वह सुधा से और चिपट गया. तभी उस के पापा पूरी ताकत से उसे सुधा से अलग कर खींचने लगे. उस की पकड़ ढीली पड़ गई और उस के पापा उसे खींच कर घर से बाहर ले जाने लगे कि अचानक मां रसोई वाली बड़ी सी छुरी हाथ में लिए दौड़ती हुई आईं और पागलों की तरह पापा पर वार करने लगीं.

पापा के हाथ से खून की धार निकलने लगी, पर उन्होंने अभी भी सुप्रतीक का हाथ नहीं छोड़ा था.

चीखपुकार सुन कर अड़ोसपड़ोस से लोग जुटने लगे थे. किसी ने इस आदमी को देखा नहीं था. लोग गोलबंद होने लगे, पापा की पकड़ जैसे ही ढीली हुई, सुप्रतीक दौड़ कर सुधा से लिपट गया.

लाल साड़ी में मां वाकई झांसी की रानी ही लग रही थीं. लाललाल आंखें, गुस्से से फुफकारती सी, बिखरे बाल और मुट्ठी में चाकू. सुप्रतीक ने देखा कि सड़क के उस पार रुकी टैक्सी में एक गोरी सी औरत उस के पापा को सहारा देते हुए बिठा रही थी.

‘‘नवेली, तुम्हारी दादी बहुत बहादुर और हिम्मत वाली थीं,’’ सुप्रतीक ने अपनी बेटी से कहा. सुप्रतीक की निगाहें फिर से मां के फोटो पर टिक गई थीं.

कठपुतली: निखिल से क्यों टूटने लगा मीता का मोह

जैसे ही मीता के विवाह की बात निखिल से चली वह लजाई सी मुसकरा उठी. निखिल उस के पिताजी के दोस्त का इकलौता बेटा था. दोनों ही बचपन से एकदूसरे को जानते थे. घरपरिवार सब तो देखाभाला था, सो जैसे ही निखिल ने इस रिश्ते के लिए रजामंदी दी, दोनों को सगाई की रस्म के साथ एक रिश्ते में बांध दिया गया.

मीता एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी और निखिल अपने पिताजी के व्यापार को आगे बढ़ा रहा था.

2 महीने बाद दोनों परिणयसूत्र में बंध कर पतिपत्नी बन गए. निखिल के घर में खुशियों का सावन बरस रहा था और मीता उस की फुहारों में भीग रही थी.

वैसे तो वे भलीभांति एकदूसरे के व्यवहार से परिचित थे, कोई मुश्किल नहीं थी, फिर भी विवाह सिर्फ 2 जिस्मों का ही नहीं 2 मनों का मिलन भी तो होता है.

विवाह को 1 महीना पूरा हुआ. उन का हनीमून भी पूरा हुआ. अब निखिल ने फिर काम पर जाना शुरू कर दिया. मीता की भी छुट्टियां समाप्त हो गईं.

‘‘निखिल पूरा 1 महीना हो गया दफ्तर से छुट्टी किए. आज जाना है पर तुम्हें छोड़ कर जाने को मन नहीं कर रहा,’’ मीता ने बिस्तर पर लेटे अंगड़ाई लेते हुए कहा.

‘‘हां, दिल तो मेरा भी नहीं, पर मजबूरी है. काम तो करना है न,’’ निखिल ने जवाब दिया. तो मीता मुसकरा दी.

अब रोज यही रूटीन रहता. दोनों सुबह उठते, नहाधो कर साथ नाश्ता कर अपनेअपने दफ्तर रवाना हो जाते. शाम को मीता थकीमांदी लौट कर निखिल का इंतजार करती रहती कि कब निखिल दफ्तर से आए और कब दो मीठे बोल उस के मुंह से सुनने को मिलें.

एक दिन वह निखिल से पूछ ही बैठी, ‘‘निखिल, मैं देख रही हूं जब से हमारी शादी हुई है तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त ही नहीं.’’

‘‘मीता शादी करनी थी हो गई… अब काम भी तो करना है.’’

निखिल का जवाब सुन मीता मुसकरा दी और फिर मन ही मन सोचने लगी कि निखिल कितना जिम्मेदार है. वह अपने वैवाहिक जीवन से बहुत खुश थी. वही करती जो निखिल कहता, वैसे ही रहती जैसे निखिल चाहता. और तो और खाना भी निखिल की पसंदनापसंद पूछ कर ही बनाती. उस का स्वयं का तो कोई रूटीन, कोई इच्छा रही ही नहीं. लेकिन वह खुद को निखिल को समर्पित कर खुश थी. इसलिए उस ने निखिल से कभी इन बातों की शिकायत नहीं की. वह तो उस के प्यार में एक अनजानी डोर से बंध कर उस की तरफ खिंची जा रही थी. सो उसे भलाबुरा कुछ महसूस ही नहीं हो रहा था.

वह कहते हैं न कि सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखाई देता है. बस वैसा ही हाल था निखिल के प्रेम में डूबी मीता का. निखिल रात को देर से आता. तब तक वह आधी नींद पूरी भी कर चुकी होती.

एक बार मीता को जम्हाइयां लेते देख निखिल बोला, ‘‘क्यों जागती हो मेरे लिए रात को? मैं बाहर ही खा लिया करूंगा.’’

‘‘कैसी बात करते हो निखिल… तुम मेरे पति हो, तुम्हारे लिए न जागूं तो फिर कैसा जीवन? वैसे भी हमें कहां एकदूसरे के साथ बैठने के लिए वक्त मिलता है.’’ मीता ने कहा.

विवाह को 2 वर्ष बीत गए, किंतु इन 2 वर्षों में दोनों रात और दिन की तरह हो गए. एक आता तो दूसरा जाता.

एक दिन निखिल ने कहा, ‘‘मीता तुम नौकरी क्यों नहीं छोड़ देतीं… हमें कोई पैसों की कमी तो नहीं. यदि तुम घर पर रहो तो शायद हम एकदूसरे के साथ कुछ वक्त बिता सकें.’’

जैसे ही मीता ने अपनी दफ्तर की कुलीग नेहा को इस बारे में बताया, वह कहने लगी, ‘‘मीता, नौकरी मत छोड़ो. सारा दिन घर बैठ कर क्या करोगी?’’

मगर मीता कहां किसी की सुनने वाली थी, उसे तो जो निखिल बोले बस वही ठीक लगता था. सो आव देखा न ताव इस्तीफा लिख कर अपनी बौस के पास ले गई. वे भी एक महिला थीं, सो पूछने लगीं, ‘‘मीता, नौकरी क्यों छोड़ रही हो?’’

‘‘मैम, वैवाहिक जीवन में पतिपत्नी को मिल कर चलना होता है, निखिल तो अपना कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ा रहा है, यदि पतिपत्नी के पास एकदूसरे के लिए समय ही नहीं तो फिर कैसी गृहस्थी? फिर निखिल तो अपना कारोबार बंद करने से रहा. सो मैं ही नौकरी छोड़ दूं तो शायद हमें एकदूसरे के लिए कुछ समय मिले.’’

बौस को लगा जैसे मीता नौकरी छोड़ कर गलती कर रही है, किंतु वे दोनों के प्यार में दीवार नहीं बनाना चाहती थीं, सो उस ने मीता का इस्तीफा स्वीकार कर लिया.

अब मीता घर में रहने लगी. जैसे आसपास की अन्य महिलाएं घर की साफसफाई, साजसज्जा, खाना बनाना आदि में वक्त व्यतीत करतीं वैसे ही वह भी अपना सारा दिन घर के कामों में बिताने लगी. कभी निखिल अपने बाहर के कामों की जिम्मेदारी उसे सौंप देता तो वह कर आती, सोचती उस का थोड़ा काम हलका होगा तो दोनों को आपस में बतियाने के लिए वक्त मिलेगा.

उस की दफ्तर की सहेलियां कभीकभी फोन पर पूछतीं, ‘‘मीता, घर पर रह कर कैसा लग रहा है?’’

‘‘बहुत अच्छा, सब से अलग,’’ वह जवाब में कहती.

दीवानी जो ठहरी अपने निखिल की. दिन बीते, महीने बीते और पूरा साल बीत गया. मीता तो अपने निखिल की मीरा बन गई समझो. निखिल के इंतजार में खाने की मेज पर ही बैठ कर ऊंघना, आधी रात जाग कर खाना परोसना तो समझो उस के जीवन का हिस्सा हो गया था.

अब वह चाहती थी कि परिवार में 2 से बढ़ कर 3 सदस्य हो जाएं, एक बच्चा हो जाए तो वह मातृत्व का सुख ले सके. वैसे तो वह संयुक्त परिवार में थी, निखिल के मातापिता भी साथ में ही रहते थे, किंतु निखिल के पिता को तो स्वयं कारोबार से फुरसत नहीं मिलती और उस की मां अलगअलग गु्रप में अपने घूमनेफिरने में व्यस्त रहतीं.

‘‘निखिल कितना अच्छा हो हमारा भी एक बच्चा हो. आप सब तो पूरा दिन मुझे अकेले छोड़ कर बाहर चले जाते हो… मुझे भी तो मन लगाने के लिए कोई चाहिए न,’’ एक दिन मीता ने निखिल के करीब आते हुए कहा.

जैसे ही निखिल ने यह सुना वह उस के छिटकते हुए कहने लगा, ‘‘मीता, अभी मुझे अपने कारोबार को और बढ़ाना है. बच्चा हो गया तो जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी और फिर अभी हमारी उम्र ही क्या है.’’

मीता ने उसे बहुत समझाया कि वह बच्चे के लिए हां कह दे, किंतु निखिल बड़ी सफाई से टाल गया, बोला, ‘‘क्यों मेरा हनीमून पीरियड खत्म कर देना चाहती हो?’’

उस की बात सुन मीता एक बार फिर मुसकरा दी. बोली, ‘‘निखिल तुम बहुत चालाक हो.’’

मगर मीता अकेले घर में कैसे वक्त बिताए हर इंसान की अपनी दुनिया होती है. वह भी अपनी दुनिया बसाना चाहती थी, किंतु निखिल की न सुन कर चुप हो गई और निखिल अपनी दुनिया में मस्त.

एक दिन मीता बोली, ‘‘निखिल, मैं सोचती थी कि मैं नौकरी छोड़ दूंगी तो हमें एकसाथ समय बिताने को मिलेगा, किंतु तुम तो हर समय घर पर भी अपना लैपटौप ले कर बैठे रहते हो या फिर फोन पर बातों में लगे रहते हो.’’

उस की यह बात सुन निखिल बिफर गया. गुस्से में बोला, ‘‘तो क्या घर बैठ कर तुम्हारे पल्लू से बंधा रहूं? मैं मर्द हूं. अपनेआप को काम में व्यस्त रखना चाहता हूं, तो तुम्हें तकलीफ क्यों होती है?’’

मीता निखिल की यह बात सुन अंदर तक हिल गई. मन ही मन सोचने लगी कि इस में मर्द और औरत वाली बात कहां से आ गई.

हां, जब कभी निखिल को कारोबार संबंधी कागजों पर मीता के दस्तखत चाहिए होते तो वह बड़ी मुसकराहट बिखेर कर उस के सामने कागज फैला देता और कहता, ‘‘मालकिन, अपनी कलम चला दीजिए जरा.’’

कभी वह रसोई में आटा गूंधती बाहर आती तो कभी अपनी पसंदीदा किताब पढ़ती बीच में छोड़ती और मुसकरा कर दस्तखत कर देती.

मीता का निखिल के प्रति खिंचाव अभी भी बरकरार था. सो आज अकेले में मुसकुराने लगी और सोचा कि ठीक ही तो कहा निखिल ने. घर के लिए ही तो काम करता है सारा दिन वह, मैं ही फालतू उलझ बैठी उस से.

शाम को जब वह आया तो वह पूरी मुसकराहट के साथ उस के स्वागत में खड़ी थी, लेकिन निखिल का रुख कुछ बदला हुआ था. मीता उस के चेहरे के भाव पढ़ कर समझ गई कि निखिल उस से सुबह की बात को ले कर अभी तक नाराज है. सो उस ने उसे खूब मनाया. कहा, ‘‘निखिल, क्या बच्चों की तरह नाराज हो गए? हम दोनों जीवनपथ के हमराही हैं, मिल कर साथसाथ चलना है.’’

लेकिन निखिल के चेहरे पर से गुस्से की रेखाएं हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं. क्या करती बेचारी मीता. आंखें भर आईं तो चादर ओढ़ कर सो गई.

निखिल अगली सुबह भी उसे से नहीं बोला. घर से बिना कुछ खाए निकल गया.

आज पहली बार मीता का दिल बहुत दुखी हुआ. वह सोचने लगी कि आखिर ऐसा भी क्या कह दिया था उस ने कि निखिल 3 दिन तक उस बात को खींच रहा है.

अब वह घर में निखिल से जब भी कुछ कहना चाहती उस का पौरुषत्व जाग उठता. एक दिन तो गुस्से में उस के मुंह से निकल ही गया, ‘‘क्यों टोकाटाकी करती रहती हो दिनरात?

तुम्हारे पास तो कुछ काम है नहीं…ये जो रुपए मैं कमा कर लाता हूं, जिन के बलबूते पर तुम नौकरों से काम करवाती हो, वो ऐसे ही नहीं आ जाते. दिमाग खपाना पड़ता है उन के लिए.’’

आज तो निखिल ने सीधे मीता के अहम पर चोट की थी. वह अपने आंसुओं को पोंछते हुए बिस्तर पर धम्म से जा पड़ी. सारी रात उसे नींद नहीं आई. करवटें बदलती रही. उसे लगा शायद निखिल ने गुस्से में आ कर कटु शब्द बोल दिए होंगे और शायद रात को उसे मना लेगा. लेकिन इस रात की तो जैसे सुबह ही नहीं हुई. जहां वह करवटें बदलती रही वहीं निखिल खर्राटे भर कर सोता रहा.

अब तो यह खिटपिट उन के रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन गई थी. इसलिए उस ने निखिल से कई बातों पर बहस करना ही बंद कर दिया था. कई बार तो वह उस के सामने मौन व्रत ही धारण कर लेती.

सिनेमाहाल में नई फिल्म लगी थी. मीता बोली, ‘‘निखिल, मैं टिकट बुक करा देती हूं. चलो न फिल्म देख कर आते हैं.’’

‘‘तुम किसी और के साथ देख आओ मीता, मेरे पास बहुत काम है,’’ कह निखिल करवट बदल कर सो गया.

मीता ने उसे झंझोड़ कर बोला, ‘‘किस के साथ देख आऊं मैं फिल्म? कौन है मेरा तुम्हारे सिवा?’’

निखिल चिढ़ कर बोला, ‘‘जाओ न क्यों मेरे पीछे पड़ गई. बिल्डिंग में बहुत औरतें हैं. किसी के भी साथ चली जाओ वरना कोई किट्टी जौइन कर लो… मैं ने तुम्हें कितनी बार बताया कि मुझे हिंदी फिल्में पसंद नहीं.’’

मीता उस की बात सुन एक शब्द न बोली और अपनी पनीली आंखों को पोंछ मुंह ढक कर सो गई.

आज मीता को अपने विवाह के शुरुआती महीनों की रातें याद हो आईं. कितनी असहज सी होती थी वह जब नया विवाह होते ही निखिल रात को उसे पोर्न फिल्में दिखाता था. वह निखिल का मन रखने को फिल्म तो देख लेती थी पर उसे उन फिल्मों से बहुत घिन आती थी.

कई बार थके होने का बहाना बना कर सोने की कोशिश भी करती, लेकिन निखिल अकसर उस पर दबाव बनाते हुए कहा करता कि इफ यू टेक इंट्रैस्ट यू विल ऐंजौय देम. वह अकसर जब फिल्म लगाता वह नानुकर करती पर निखिल किसी न किसी तरह उसे फिल्म देखने को राजी कर ही लेता. उस की खुशी में ही अपनी खुशी समझती.

कई बार तो वह सैक्स के दौरान भी वही चाहता जो पोर्न स्टार्स किया करतीं. मीता को लगता क्या यही विवाह है और यही प्यार का तरीका भी? उस ने तो कभी सोचा भी न था कि विवाहोपरांत का प्यार दिली प्यार से इतना अलग होगा, लेकिन वह इन 2 बरसों में पूरी तरह से निखिल के मन के सांचे में ढल तो गई थी, लेकिन इस सब के बावजूद निखिल क्यों उखड़ाउखड़ा रहता है.

मीता को मन ही मन दुख होने लगा था कि जिस निखिल के प्यार में वह पगलाई सी रहती है, उसे मीता की जरा भी फिक्र नहीं शायद… माना कि पैसा जरूरी है पर पैसा सब कुछ तो नहीं होता. कल तक हंसमुख स्वभाव वाले निखिल के बरताव में इतना फर्क कैसे आ गया, वह समझ ही न पाई.

निखिल अपने लैपटौप पर काम करता तो मीता उस पर ध्यान देने लगी. उस ने थोड़ा से देखा तो पाया कि वह तो अपने कालेज के सहपाठियों से चैट करता.

एक दिन उस से रहा न गया तो बोल पड़ी, ‘‘निखिल, मैं ने तुम्हारा साथ पाने के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी, पर तुम्हें मेरे लिए फुरसत नहीं और पुराने दोस्तों से चैट के लिए फुरसत है.’’

निखिल तो जैसे गुस्से में आगबबूला हो उठा. चीख कर बोला, ‘‘जाओ फिर से कर लो नौकरी… कम से कम हर वक्त की बकबक से पीछा तो छूटेगा.’’

यह सुन मीता बोली, ‘‘तुम ने ही कहा था न मुझे नौकरी छोड़ने के लिए ताकि हम दोनों साथ में ज्यादा वक्त बिता सकें, लेकिन तुम्हें तो शायद मेरा साथ पसंद ही नहीं… पत्नी जो ठहरी… और जब मुझे नौकरी छोड़े 2 वर्ष बीत गए तो तुम कह रहे हो मैं फिर शुरू कर दूं ताकि तुम आजाद रहो.’’

मीता निखिल के बरताव से टूट सी गई थी. सारा दिन इसी उधेड़बुन में लगी रही कि उस की गलती क्या है? आज तक उस ने वही किया जो निखिल ने चाहा. फिर भी निखिल उसे क्यों ठुकरा देता है?

अब मीता अकसर निखिल के लैपटौप पर नजर रखती. कई बार चोरीछिपे उस का लैपटौप भी देखती. धीरेधीरे उस ने समझ लिया कि वह स्वयं ही निखिल के बंधन में जबरदस्ती बंधी है, निखिल तो किसी तरह का बंधन चाहता ही नहीं.

एक पुरुष को जीवन में सिर्फ 3 चीजों की ही तो जरूरत होती है- अच्छा खाना, अच्छा पैसा और सैक्स, जिन में खाना तो वह बना ही देती है वरना बड़ेबड़े रैस्टोरैंट तो हैं ही जिन में वह अपने क्लाइंट्स के साथ अकसर जाता है. दूसरी चीज है पैसा जो वह स्वयं कमा ही रहा है और पैसे के लिए तो उलटा मीता ही निखिल पर निर्भर है. तीसरी चीज है सैक्स. वैसे तो मीता उस के लिए जब चाहे हाजिर है, आखिर उसे तो पत्नी फर्ज निभाना है. फिर भी निखिल को कहां जरूरत है मीता की.

कितनी साइट्स हैं जहां न जाने कितनी तरह के वीडियो हैं, जिन में उन छरहरी पोर्न स्टार्स को देख कर कोई भी उत्तेजित हो जाए. उस के पास तो मन बहलाने के पर्याप्त साधन हैं ही. कहने को विवाह का बंधन प्रेम की डोर से बंधा है, लेकिन हकीकत तो यह है कि यह जरूरत की डोर है, जो इस रिश्ते को बांधे रखती है या फिर बच्चे जो स्वत: ही इस रिश्ते में प्यार पैदा कर देते हैं जिन के लिए निखिल राजी नहीं.

उदास सी खिड़की के साथ बने प्लैटफौर्म पर बैठी थी कि तभी घंटी बजी. उस ने झट से अपने बालों को आईने में देख कर ठीक किया. फिर खुद को सहज करते हुए दरवाजा खोला. सामने वाले फ्लैट की पड़ोसिन अमिता दरवाजे पर थी. बोली, ‘‘मेरे बच्चे का पहला जन्मदिन है, आप सभी जरूर आएं,’’ और निमंत्रणपत्र

थमा गई.

अगले दिन मीता अकेली ही जन्मदिन की पार्टी में पहुंच गई. वहां बच्चों के लिए पपेट शो वाला आया था. बच्चे उस का शो देख कर तालियां बजाबजा कर खुश हो रहे थे.

पपेट शो वाला अपनी उंगलियों में बंधे धागे उंगलियों से घुमाघुमा कर लपेटखोल रहा था जिस कारण धागों में कभी खिंचाव पैदा होता तो कभी ढील और उस के इशारों पर नाचती कठपुतली, न होंठ हिलाती न ही अपने मन की करती, बस जैसे उस का मदारी नचाता, नाचती.

आज मीता को अपने हर सवाल का जवाब मिल गया था. वह निखिल के लिए एक कठपुतली ही तो थी. अब तक दोनों के बीच जो आकर्षण और खिंचाव महसूस करती रही, वह उस अदृश्य डोर के कारण ही तो था, जिस से वह निखिल के साथ 7 फेरों की रस्म निभा बंध गई थी और उस डोरी में खिंचाव निखिल की पसंदनापसंद का ही तो था. वह नादान उसे प्यार का आकर्षण बल समझ रही थी. विवाहोपरांत वह निखिल के इशारों पर नाच ही तो रही थी. निखिल ने तो कभी उस के मन की सुध ली ही नहीं.

मीता ने गर्दन हिलाई मानो कह रही हो अब समझी निखिल, अगले दिन उस ने पुराने दफ्तर में फोन पर अपनी बौस से बात की.

बौस ने कहा, ‘‘ठीक मीता, तुम फिर से दफ्तर आना शुरू कर सकती हो.’’

मीता अपनी राह पर अकेली चल पड़ी.

सोनिया: राज एक आत्महत्या का

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

अगली बार कब: आखिर क्यों वह अपने पति और बच्चों से परेशान रहती थी?

उफ, कल फिर शनिवार है, तीनों घर पर होंगे. मेरे दोनों बच्चों सौरभ और सुरभि की भी छुट्टी रहेगी और अमित भी 2 दिन फ्री होते हैं. मैं तो गृहिणी हूं ही. अब 2 दिन बातबात पर चिकचिक होती रहेगी. कभी बच्चों का आपस में झगड़ा होगा, तो कभी अमित बच्चों को किसी न किसी बात पर टोकेंगे. आजकल मुझे हफ्ते के ये दिन सब से लंबे दिन लगने लगे हैं. पहले ऐसा नहीं था. मुझे सप्ताहांत का बेसब्री से इंतजार रहता था. हम चारों कभी कहीं घूमने जाते थे, तो कभी घर पर ही लूडो या और कोई खेल खेलते थे. मैं मन ही मन अपने परिवार को हंसतेखेलते देख कर फूली नहीं समाती थी.

धीरेधीरे बच्चे बड़े हो गए. अब सुरभि सी.ए. कर रही है, तो सौरभ 11वीं क्लास में है. अब साथ बैठ कर हंसनेखेलने के वे क्षण कहीं खो गए थे.

मैं ने फिर भी जबरदस्ती यह नियम बना दिया था कि सोने से पहले आधा घंटा हम चारों साथ जरूर बैठेंगे, चाहे कोई कितना भी थका हुआ क्यों न हो और यह नियम भी अच्छाखासा चल रहा था. मुझे इस आधे घंटे का बेसब्री से इंतजार रहता था. लेकिन अब इस आधे घंटे का जो अंत होता है, उसे देख कर तो लगता है कि यह नियम मुझे खुद ही तोड़ना पड़ेगा.

दरअसल, अब होता यह है कि हम चारों की बैठक खत्म होतेहोते किसी न किसी का, किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता है. मैं कभी सौरभ को समझाती हूं, कभी सुरभि को, तो कभी अमित को.

सुरभि तो कई बार यह कह कर मुझे बहुत प्यार करती है कि मम्मी, आप ही हमारे घर की बाइंडिंग फोर्स हो. सुरभि और मैं अब मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं.

जब सप्ताहांत आता है, तो अमित फ्री होते हैं. थोड़ी देर मेल चैक करते हैं, फिर कुछ देर टीवी देखते हैं और फिर कभी सौरभ तो कभी सुरभि को किसी न किसी बात पर टोकते रहते हैं. बच्चे भी अपना तर्क रखते हुए बराबर जवाब देने लगते हैं, जिस से झगड़ा बढ़ जाता और फिर अमित का पारा हाई होता चला जाता है.

मैं अब सब के बीच तालमेल बैठातेबैठाते थक जाती हूं. मैं बहुत कोशिश करती हूं कि छुट्टी के दिन शांति प्यार से बीतें, लेकिन ऐसा होता नहीं है. कोई न कोई बात हो ही जाती है. बच्चों को लगता है कि पापा उन की बात नहीं समझ रहे हैं और अमित को लगता है कि बच्चों को उन की बात चुपचाप सुन लेनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि अमित बहुत रूखे, सख्त किस्म के इंसान हैं. वे बहुत शांत रहने और अपने परिवार को बहुत प्यार करने वाले इंसान हैं. लेकिन आजकल जब वे युवा बच्चों को किसी बात पर टोकते हैं, तो बच्चों के जवाब देने पर उन्हें गुस्सा आ जाता है. कभी बच्चे सही होते हैं, तो कभी अमित. जब मेरा मूड खराब होता है, तीनों एकदम सही हो जाते हैं.

वैसे मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता है, लेकिन जब आता है, तो मेरा अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रहता है. वैसे मेरा गुस्सा खत्म भी जल्दी हो जाता है. पहले मैं भी बच्चों पर चिल्लाने लगती थी, लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए हैं, मुझे उन पर चिल्लाना अच्छा नहीं लगता.

अब मैं ने अपने गुस्से के पलों का यह हल निकाला है कि मैं घर से बाहर चली जाती हूं. घर से थोड़ी दूर स्थित पार्क में बैठ या टहल कर लौट आती हूं. इस से मेरे गुस्से में चिल्लाना, फिर सिरदर्द से परेशान रहना बंद हो गया है. लेकिन ये तीनों मेरे गुस्से में घर से निकलने के कारण घबरा जाते हैं और होता यह है कि इन तीनों में से कोई न कोई मेरे पीछे चलता रहता है और मुझे पीछे देखे बिना ही यह पता होता है कि इन तीनों में से एक मेरे पीछे ही है. जब मेरा गुस्सा ठंडा होने लगता है, मैं घर आने के लिए मुड़ जाती हूं और जो भी पीछे होता है, वह भी मेरे साथ घर लौट आता है.

एक संडे को छोटी सी बात पर अमित और बच्चों में बहस हो गई. मैं तीनों को शांत करने लगी, मगर मेरी किसी ने नहीं सुनी. मेरी तबीयत पहले ही खराब थी. सिर में बहुत दर्द हो रहा था. जून का महीना था, 2 बज रहे थे. मैं गुस्से में चप्पलें पहन कर बाहर निकल गई. चिलचिलाती गरमी थी. मैं पार्क की तरफ चलती गई. गरमी से तबीयत और ज्यादा खराब होती महसूस हुई. मेरी आंखों में आंसू आ गए. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि इतनी बहस क्यों करते हैं ये लोग. मैं ने मुड़ कर देखा. सुरभि चुपचाप पसीना पोंछते मेरे पीछेपीछे आ रही थी. ऐसे समय में मुझे उस पर बहुत प्यार आता है, मैं उस के लिए रुक गई.

सुरभि ने मेरे पास पहुंच कर कहा, ‘‘आप की तबीयत ठीक नहीं है, मम्मी. क्यों आप अपनेआप को तकलीफ दे रही हैं?’’

मैं बस पार्क की तरफ चलती गई, वह भी मेरे साथसाथ चलने लगी. मैं पार्क में बेंच पर बैठ गई. मैं ने घड़ी पर नजर डाली. 4 बज रहे थे. बहुत गरमी थी.

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी, कम से कम छाया में तो बैठो.’’

मैं उठ कर पेड़ के नीचे वाली बेंच पर बैठ गई. सुरभि ने मुझ से धीरेधीरे सामान्य बातें करनी शुरू कर दीं. वह मुझे हंसाने की कोशिश करने लगी. उस की कोशिश रंग लाई और मैं धीरेधीरे अपने सामान्य मूड में आ गई.

तब सुरभि बोली, ‘‘मम्मी, एक बात कहूं मानेंगी?’’

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘मम्मी, आप गुस्से में यहां आ कर बैठ जाती हैं… इतनी धूप में यहां बैठी हैं. इस से आप को ही तकलीफ हो रही है न? घर पर तो पापा और सौरभ एयरकंडीशंड कमरे में बैठे हैं… मैं आप को एक आइडिया दूं?’’

मैं उस की बात ध्यान से सुन रही थी, मैं ने बताया न कि अब हम मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं. अत: मैं ने कहा, ‘‘बोलो.’’

‘‘मम्मी, अगली बार जब आप को गुस्सा आए तो बस मैं जैसा कहूं आप वैसा ही करना. ठीक है न?’’

मैं मुसकरा दी और फिर हम घर आ गईं. आ कर देखा दोनों बापबेटे अपनेअपने कमरे में आराम फरमा रहे थे.

सुरभि ने कहा, ‘‘देखा, इन लोगों के लिए आप गरमी में निकली थीं.’’ फिर उस ने चाय और सैंडविच बनाए. सभी साथ चायनाश्ता करने लगे. तभी अमित ने कहा, ‘‘मैं ने सुरभि को जाते देख कर अंदाजा लगा लिया था कि तुम जल्द ही आ जाओगी.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. सौरभ ने मुझे हमेशा की तरह ‘सौरी’ कहा और थोड़ी देर में सब सामान्य हो गया.

10-15 दिन शांति रही. फिर एक शनिवार को सौरभ अपना फुटबाल मैच खेल कर आया और आते ही लेट गया. अमित उस से पढ़ाई की बातें करने लगे जिस पर सौरभ ने कह दिया, ‘‘पापा, अभी मूड नहीं है. मैच खेल कर थक गया हूं… थोड़ी देर सोने के बाद पढ़ाई कर लूंगा.’’

अमित को गुस्सा आ गया और वे शुरू हो गए. सुरभि टीवी देख रही थी, वह भी अमित की डांट का शिकार हो गई. मैं खाना बना रही थी. भागी आई. अमित को शांत किया, ‘‘रहने दो अमित, आज छुट्टी है, पूरा हफ्ता पढ़ाई ही में तो बिजी रहते हैं.’’

अमित शांत नहीं हुए. उधर मेरी सब्जी जल रही थी, मेरा एक पैर किचन में, तो दूसरा बच्चों के बैडरूम में. मामला हमेशा की तरह मेरे हाथ से निकलने लगा तो मुझे गुस्सा आने लगा. मैं ने कहा, ‘‘आज छुट्टी है और मैं यह सोच कर किचन में कुछ स्पैशल बनाने में बिजी हूं कि सब साथ खाएंगे और तुम लोग हो कि मेरा दिमाग खराब करने पर तुले हो.’’

अमित सौरभ को कह रहे थे, ‘‘मैं देखता हूं अब तुम कैसे कोई मैच खेलते हो.’’

सौरभ रोने लगा. मैं ने बात टाली, ‘‘चलो, खाना बन गया है, सब डाइनिंग टेबल पर आ जाओ.’’

सौरभ ने कहा, ‘‘अभी भूख नहीं है. समोसे खा कर आया हूं.’’

यह सुनते ही अमित और भड़क उठे. इस के बाद बात इतनी बढ़ गई कि मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा.

‘‘तुम लोगों की जो मरजी हो करो,’’ कह लंच छोड़ कर सुरभि पर एक नजर डाल कर मैं निकल गई. मैं मन ही मन थोड़ा चौंकी भी, क्योंकि मैं ने सुरभि को मुसकराते देखा. आज तक ऐसा नहीं हुआ था. मैं परेशान होऊं और मेरी बेटी मुसकराए. मैं थोड़ा आगे निकली तो सुरभि मेरे पास पहुंच कर बोली, ‘‘मम्मी, आप ने कहा था कि अगली बार मूड खराब होने पर आप मेरी बात मानेंगी?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘मम्मी, आप क्यों गरमी में इधरउधर भटकें? पापा और भैया दोनों सोचते हैं आप थोड़ी देर में मेरे साथ घर आ जाएंगी… आप आज मेरे साथ चलो,’’ कह कर उस ने अपने हाथ में लिया हुआ मेरा पर्स मुझे दिखाया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरा पर्स क्यों लाई हो?’’

सुरभि हंसी, ‘‘चलो न मम्मी, आज गुस्सा ऐंजौय करते हैं,’’ और फिर एक आटो रोक कर उस में मेरा हाथ पकड़ती हुई बैठ गई.

मैं ने पूछा, ‘‘यह क्या है? हम कहां जा रहे हैं?’’ और मैं ने अपने कपड़ों पर नजर डाली, मैं कुरता और चूड़ीदार पहने हुए थी.

सुरभि बोली, ‘‘आप चिंता न करें, अच्छी लग रही हैं.’’

वंडरमौल पहुंच कर आटो से उतर कर हम  पिज्जा हट’ में घुस गए.

मैं हंसी तो सुरभि खुश हो गई, बोली, ‘‘यह हुई न बात. चलो, शांति से लंच करते हैं.’’

तभी सुरभि के सैल पर अमित का फोन आया. पूछा, ‘‘नेहा कहां है?’’

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी मेरे साथ हैं… बहुत गुस्से में हैं… पापा, हम थोड़ी देर में आ जाएंगे.’’

फिर हम ने पिज्जा आर्डर किया. हम पिज्जा खा ही रहे थे कि फिर अमित का फोन आ गया. सुरभि से कहा कि नेहा से बात करवाओ.

मैं ने फोन लिया, तो अमित ने कहा, ‘‘उफ, नेहा सौरी, अब आ जाओ, बड़ी भूख लगी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी नहीं, थोड़ा और चिल्ला लो… खाना तैयार है किचन में, खा लेना दोनों, मैं थोड़ा दूर निकल आई हूं, आने में टाइम लगेगा.’’

कुछ ही देर में सौरभ का फोन आ गया, ‘‘सौरी मम्मी, जल्दी आ जाओ, भूख लगी है.’’

मैं ने उस से भी वही कहा, जो अमित से कहा था.

‘पिज्जा हट’ से हम निकले तो सुरभि ने कहा, ‘‘चलो मम्मी, पिक्चर भी देख लें.’’

मैं तैयार हो गई. मेरा भी घर जाने का मन नहीं कर रहा था. वैसे भी पिक्चर देखना मुझे पसंद है. हम ने टिकट लिए और आराम से फिल्म देखने बैठ गए. बीचबीच में सुरभि अमित और सौरभ को मैसज देती रही कि हमें आने में देर होगी… आज मम्मी का मूड बहुत खराब है. जब अमित बहुत परेशान हो गए तो उन्होंने कहा कि वे हमें लेने आ रहे हैं. पूछा हम कहां हैं. तब मैं ने ही अमित से कहा कि मैं जहां भी हूं शांति से हूं, थोड़ी देर में आ जाऊंगी.

फिल्म खत्म होते ही हम ने जल्दी से आटो लिया. रास्ता भर हंसते रहे हम… बहुत मजा आया था. घर पहुंचे तो बेचैन से अमित ने ही दरवाजा खोला. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘ओह नेहा, इतना गुस्सा, आज तो जैसे तुम घर आने को ही तैयार नहीं थी, मैं पार्क में भी देखने गया था.’’

सुरभि ने मुझे आंख मारी. मैं ने किसी तरह अपनी हंसी रोकी. सौरभ भी रोनी सूरत लिए मुझ से लिपट गया. बोला, ‘‘अच्छा मम्मी अब मैं कभी कोई उलटा जवाब नहीं दूंगा.’’

दोनों ने खाना नहीं खाया था, मुझे बुरा लगा.

अमित बोले, ‘‘चलो, अब कुछ खिला दो और खुद भी कुछ खा लो.’’

सुरभि ने मुझे देखा तो मैं ने उसे खाना लगाने का इशारा किया और फिर खुद भी उस के साथ किचन में सब के लिए खाना गरम करने लगी. हम दोनों ने तो नाम के कौर ही मुंह में डाले. मैं गंभीर बनी बैठी थी.

अमित ने कहा, ‘‘चलो, आज से कोई किसी पर नहीं चिल्लाएगा, तुम कहीं मत जाया करो.’’

सौरभ भी कहने लगा, ‘‘हां मम्मी, अब कोई गुस्सा नहीं करेगा, आप कहीं मत जाया करो… बहुत खराब लगता है.’’

और सुरभि वह तो आज के प्रोग्राम से इतनी उत्साहित थी कि उस का मुसकराता चेहरा और चमकती आंखें मानो मुझ से पूछ रही थीं कि अगली बार आप को गुस्सा कब आएगा?

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