अधूरी प्रेम कहानी : रजिया किस बात का जिक्र करने पर असहज हो जाती थी

रजिया और आफताब का खातापीता और सुखी परिवार था. आज उन की शादी की 25वीं सालगिरह थी. आफताब और रजिया ने केक काटने के बाद सब से पहले अशोक बाबूजी को खिलाया. अशोक बाबूजी भी इसी परिवार का हिस्सा थे. रजिया और आफताब की 20 साल की बेटी आसमां आज भी अशोक बाबूजी से 5 साल की बच्ची की तरह लाड़ दिखाती है. आफताब के एक स्कूटर हादसे पर अशोक बाबूजी ने किसी फरिश्ते की तरह इस परिवार की मदद की थी. उस हादसे में अपनी टांग गंवाने के बाद आफताब की निर्भरता अशोक बाबूजी पर और ज्यादा बढ़ गई थी. इधर आसमां की शादी की बात चल रही थी. वह बहुत खूबसूरत और पढ़ीलिखी थी. उस के लिए एक से बढ़ कर एक परिवारों के रिश्ते आ रहे थे. आफताब की खाला की सख्त हिदायत थी कि उन के समाज में ज्यादा दूर के लोगों से रिश्ते नहीं किए जाते और उन्हें अपनी बेटी का निकाह अपने ही किसी एक परिचित परिवार में करना चाहिए.

खाला के सुझाव को दरकिनार कर रात को खाने की टेबल पर आफताब ने अपनी बेटी से कहा, ‘‘बेटा, हम तुम्हारे ऊपर अपनी पसंद नहीं थोपेंगे. तुम अपनी पसंद के लड़के से शादी कर सकती हो, भले ही वह किसी भी मजहब या जाति का हो, हमें फर्क नहीं पड़ता है.’’ इसी बातचीत के दौरान आफताब ने रजिया की अधूरी लवस्टोरी का जिक्र कर दिया. रजिया बातचीत का मसला बदलने को कह कर बगैर पूरा खाना खाए उठ गई. अपने अधूरे इश्क का जिक्र आते ही रजिया असहज हो जाती थी. वह अपने पुराने प्यार को पूरी तरह भूल चुकी थी और अब उस के लिए टोकना उसे बुरा लगता था. आफताब ने रजिया के कालेज के लड़के के साथ अफेयर की अनदेखी कर उस से शादी की थी. आफताब ने रजिया की प्रेम कहानी को पूरी होने से पहले ही खत्म कर दिया था. आफताब को इस बात का अफसोस था. आफताब रजिया की खूबसूरती और ऊंचे खानदान से होने के चलते इस कदर उतावला था कि उस ने रजिया की प्रेम कहानी को सांप्रदायिक रंग दे कर खत्म करा दिया और खुद उस का शौहर बन बैठा.

आफताब ने रजिया का शरीर और उस का शौहर होने का हक तो हासिल कर लिया था, लेकिन रजिया की रजामंदी हासिल करने में उसे जमाना लग गया. जबरदस्ती रजिया का प्यार हासिल कर लेने के बाद आफताब को अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. आसमां के जन्म के बाद रजिया ने मन से आफताब को अपना पति मान लिया था और अब जा कर उन के रिश्ते मधुर हुए थे. इस परिवार की हंसीखुशी इसी तरह जारी थी. आज उन के परिवार के दोस्त अशोक बाबूजी का जन्मदिन था. पूरा परिवार इस आयोजन को एकसाथ मनाता था. अशोक बाबू ने पता नहीं किस वजह से शादी नहीं की थी. इलाके में उन की एक छोटी सी कपड़ों की दुकान थी. अशोक बाबूजी से इस परिवार का नाता दिनोंदिन और गहरा हो गया था. आफताब को अशोक बाबूजी ने ही दिया था. आसमां को जन्म के बाद सब से पहले अपनी बांहों में उठाने वाले अशोक बाबूजी ही थे. कहते हैं कि इनसान के कर्म इसी जिंदगी में कभी न कभी उस के आने वाले कल को जरूर चोट पहुंचाते हैं. किसी छोटी सी बात पर नाराज हो कर एक दिन दंगाइयों ने आफताब के घर में आग लगा दी.

रजिया और आसमां तो किसी तरह से परदों और चादरों की रस्सी बना कर बाहर निकल आईं, लेकिन आफताब के साथ उन का खुशियों का आशियाना जल कर खाक हो चुका था. अशोक बाबूजी एक बार फिर इस परिवार के लिए फरिश्ता साबित हुए. भयानक अग्निकांड के बाद जब उन का किसी रिश्तेदार ने सहयोग नहीं दिया, तो अशोक बाबूजी ने ही उन्हें अपने घर में पनाह दी. रजिया के अपने ही सगेसंबंधी और समाज के लोग आफताब की जगह रजिया को सरकारी नौकरी नहीं मिलने दे रहे थे, बीमा की रकम मिलने में भी मुश्किलें डाल रहे थे. पूरा शहर मानो इस परिवार की जान का दुश्मन बना हुआ था. अशोक बाबूजी को इस परिवार के लिए कईकई दिनों तक दुकान बंद रखनी पड़ी, पूरे शहर से लड़ना पड़ा,

लेकिन अब 8 महीने बाद समस्याएं दुरुस्त होने लगी थीं. आसमां का एक कालेज में प्रोफैसर के लिए चयन हो गया था. आज उस का पहला दिन था. आसमां सुबहसुबह अशोक बाबूजी के कमरे में फूलों का गुलदस्ता ले कर गई. पर वहां उस के पैरों तले की जमीन खिसक गई. आसमां की मां रजिया अशोक बाबूजी के साथ उन के बिस्तर में थी. आप समझ सकते हैं कि आसमां के दिल पर क्या गुजरी होगी. आसमां ने फूलों को एक तरफ फेंक कर रोते हुए बेबसी में अशोक बाबूजी से कहा, ‘‘आह, तो यह है आप के एहसानों की वजह.’’ अभी उस के प्यारे अब्बूजान को गुजरे हुए पूरा एक साल भी नहीं हुआ था और उस की मां गिरगिट की तरह रंग बदल लेगी, आसमां ने यह सपने में भी नहीं सोचा था. आज रजिया को अपनी जिंदगी का वह गहरा राज आसमां से साझा करना पड़ गया जिसे वह गलती से भी जबान पर लाना नहीं चाहती थी. अशोक बाबूजी ही रजिया के बचपन का वह प्यार था, जो परवान नहीं चढ़ सका था. आफताब द्वारा रजिया को बेबस कर शादी के बाद, रजिया ने इसे ही जिंदगी मान लिया था.

रजिया ने पूरी वफादारी से आफताब के साथ अपने रिश्ते को निभाया था. अपनी पूरी शादीशुदा जिंदगी में उस ने अशोक बाबूजी की ओर मुड़ कर नहीं देखा था. अशोक बाबूजी का उन के घर आनाजाना था, लेकिन रजिया ने हर समय उन से परदा किया था. यहां तक कि चायपानी के लिए भी वह आसमां से कह कर या परदे की आड़ से पूछती थी. उधर अशोक ने अपने अधूरे प्यार के गम में जिंदगी में कभी शादी न करने का फैसला लिया था. आज जब हालत बदल चुके थे, तो रजिया इनकार नहीं कर सकी. आसमां को यह दलील, यह सफाई पसंद नहीं आई. उस ने अपनी मां के चेहरे पर थूक दिया. आसमां को रजिया और अशोक का रिश्ता किसी कीमत पर मंजूर नहीं था. वह नहीं चाहती थी कि उस के अब्बा, जिन को खाक में मिलना नसीब नहीं हुआ था, की बेवा किसी दूसरे धर्म के आदमी से जिस्मानी रिश्ता बनाए. अग्निकांड की उस भयानक रात ने आसमां की सोच को कट्टरपंथी बना दिया था. रजिया का जला हुआ मकान फिर से बन चुका था. आसमां को भी तनख्वाह मिलने लगी थी. तुरंत ही वे दोनों अपने नए मकान में शिफ्ट हो गए.

रजिया और अशोक बाबूजी के रिश्ते को जानने के बाद आसमां को अपना जन्म नाजायज लगने लगा था. आसमां ने रजिया को घर में बंदी बना दिया और अशोक बाबूजी से बोलचाल बंद कर दी. रजिया का कोई भी तर्क और कोई भी सुबूत आसमां को संतुष्ट न कर सका. आसमां की खातिर एक बार फिर रजिया और अशोक के मिलने का सपना अधूरा रह गया. आसमां की शादी करने के बाद रजिया ने अपनी सारी जायदाद बेटी और दामाद के नाम कर दी. अगले दिन रजिया बगैर किसी को बताए अशोक बाबूजी के साथ घर से भाग गई. जो काम अशोक और रजिया को आज से 30 साल पहले पूरा कर लेना चाहिए था, 50 साल की उम्र में वही काम कर उन्होंने अपनी अधूरी प्रेम कहानी को पूरा कर लिया था.

हितैषी : कोरियन दंपती का अनोखा वादा

गरमी के दिन थे लेकिन कैलांग में लोग अभी भी गरम कपड़े पहने हुए थे. एसोचेम के अध्यक्ष द्वारा विदेशी प्रतिनिधियों के आग्रह पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस में विदेशी प्रतिनिधियों के साथ कुछ आप्रवासी भारतीय भी थे. आप्रवासी भारतीयों का विचार यह था कि सम्मेलन किसी बड़े मैट्रो शहर में न करवा कर किसी रोमांचक पर्वतीय क्षेत्र में आयोजित किया जाए. इसी कारण से 40 प्रतिनिधियों का प्रतिनिधिमंडल कैलांग के होटल में ठहरा हुआ था. मुक्त व्यापार, भारत में विदेशी निवेश के लिए नई संभावना, अवसर तलाशने के लिए नई रूपरेखा बनाने के लिए सम्मेलन आयोजित किया गया था. दिनभर वक्ताओं ने अपनेअपने विचार प्रकट किए और अपनेअपने प्रोजैक्ट से अपनी प्रस्तुतियां पेश की. कैलांग की प्रदूषणरहित शीतल जलवायु में रात होते ही प्रवीन जैना और उन की मंडली ने पार्टी आयोजित की. पार्टी में सभी देशीविदेशी प्रतिनिधियों ने जम कर शराब पी. एक कोरियन दंपती ऐसा भी था जो शराब की जगह शरबत पी रहा था. दूसरे लोग उन का उपहास उड़ा रहे थे.

‘‘सब से ज्यादा मैं ने पी है, मेरा कोई भी डेलीगेट मुकाबला नहीं कर सकता मिस्टर जैना,’’ राजेश ढींगरा ने झूमते हुए जोर से कहा.

‘‘आप ने कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया है मिस्टर ढींगरा, कल आप का ट्रैकिंग में जाना कैंसिल,’’ जैना ने कहा.

‘‘नो वरी, पूरे 10 हजार रुपए की पी है मैं ने. मैं महंगी से महंगी पीता हूं मिस्टर जैना, यू आर जीरो,’’ राजेश ढींगरा चिल्ला कर बोला और बोतल को जोर से उछाल दिया. नाचरंग में भंग पड़ गया. विदेशी प्रतिनिधि एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. आखिरकार, राजेश ढींगरा बेहोश हो कर गिर पड़ा तो होटल के कर्मचारी उसे उठा कर उस के कमरे में लिटा आए.

अगले दिन शैक्षणिक कार्यक्रम के अंतर्गत 5 किलोमीटर की स्थानीय स्तर की ट्रैकिंग का कार्यक्रम रखा गया. इस में कुल 35 सदस्यों को कैलांग परिक्षेत्र में किब्बर नामक क्षेत्र में भेजने का निश्चय हुआ. 35 सदस्यों को 7-7 सदस्यों की

5 टोलियों में बांटा गया. टोली संख्या 5 में 2 भारतीय, 3 जापानी, 2 कोरियन थे. इन में एक कोरियन दंपती जीमारोधम और इमाशुम भी थे. इन के साथ भारवाहक लच्छीराम था. लच्छीराम ने अपनी टोली को सब से आगे ले जाने का निश्चय किया और यह टोली सब से आगे रही. 3 किलोमीटर चलने के बाद अब सीधी चढ़ाई शुरू हुई. टोली के कुछ सदस्य हांफने लगे. 2 भारतीय सदस्यों संतोष और नितीन एक वृक्ष के पास रुक गए.

‘‘हम लोग आगे चलने में असमर्थ हैं, पैरों में दर्द हो रहा है,’’ संतोष बोला.

‘‘वी आर औलसो टायर्ड, वी विल नौट मूव फरदर,’’ जापानियों ने भी आगे जाने में असमर्थता व्यक्त की.

‘‘ठीक है, आप लोग रुक जाएं और दूसरे लोगों के साथ वापस चले जाएं,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘सर, क्या आप लोग जाएंगे?’’ लच्छीराम ने कोरियन दंपती से पूछा.

‘‘हां, हम जाएंगे,’’ कोरियन दंपती बोले. लच्छीराम कोरियन दंपती को ले कर आगे पहाड़ी की ओर चला, सामने एक पहाड़ी नाला था, जिस में पानी कम था.

‘‘साहब, बरसात में इस नाले को कोई भी पार नहीं कर सकता,’’ लच्छीराम ने कहा.

‘‘आप कहां रहते हैं?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘मेरा घर उस पहाड़ी के पीछे है, अगर हिम्मत करें तो आप वहां चल सकते हैं,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘हम जरूर चलेंगे,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘सर, एक बात पूछना चाहता हूं, मुझे बताइए कि आप ने हिंदी कहां से सीखी?’’ लच्छीराम ने पूछा.

‘‘हम दोनों ने बनारस और जयपुर में हिंदी सीखी,’’ जीमारोधम ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे हिंदी भाषा अच्छी लगती है, मैं ने प्रेमचंद की कुछ कहानियों को कोरियन भाषा में अनुवाद किया है,’’ अब की बार इमाशुम बोली. लच्छीराम उन की हिंदी के प्रति रुचि देख कर आश्चर्यचकित था. बातोंबातों में 2 घंटे चलने के बाद वे पहाड़ी के पार लच्छीराम के गांव में पहुंचे. गांव में 10 परिवार थे जो कि भारवाहक का ही कार्य करते थे.

लच्छीराम का घर ऐसा था जैसे बर्फ में रहने वाले इगलू या जंगल में रहने वाले वन गूजर का तबेला हो. इस में लकड़ी का बाड़ा बना हुआ था जो तनिक झुका हुआ था, ऊपर से उसे घासफूस और खपचियों से ढक रखा था. इस झोंपड़ी में पर्याप्त जगह थी. इस में जंगली जानवरों से बचने के लिए पूरी व्यवस्था थी.

झोंपड़ी के अंदर लच्छीराम की पत्नी पारुली भोजन पकाने की व्यवस्था कर रही थी और साथ ही, पशुओं के बाड़े में पशुओं के लिए चारे का इंतजाम भी कर रही थी. झोंपड़ी के अंदर फट्टे बिछा रखे थे जो चारपाई का काम करते थे. लच्छीराम के 3 बच्चों, पत्नी और बूढ़े मांबाप ने जीमारोधम और इमाशुम का सत्कार किया. फट्टे पर ही एक फटी चादर बिछाई गई. पशुओं के बाड़े में बकरियां, भेड़े रहरह कर मिमिया रही थीं.

‘‘बाबाजी नमस्कार, आप कैसे हैं?’’ कोरियन दंपती ने बड़ी विनम्रता से झुकते हुए कोरियन शैली में अभिवादन किया.

‘‘साहब, बस आंखों की समस्या है, नजर कम हो गई है,’’ वृद्घ बोला.

बच्चे उन अजनबी लोगों को देख कर संकोच कर के एक कोने में बैठे थे. लच्छीराम ने फट्टे पर बिछी चादर पर कोरियन दंपती को बिठाया. इमाशुम पारुली से बातें करने लगी और चूल्हे पर उबलते बकरी के दूध को देखने लगी. पारुली देवी ने उबले दूध को गिलास में डाला और काले रंग का चियूरा के गुड़ की डली भी परोसी. 12 हजार फुट से ज्यादा ऊंचाई में उगने वाले पर्वतीय कामधेनु वृक्ष है चियूरा, जिस के फल से शहद, गुड़ और वनस्पति बनाए जाते हैं.

‘‘यह बकरी का दूध है,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘ठीक है, हम पहली बार बकरी का दूध पिएंगे,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘बहुत पतला दूध है,’’ इमाशुम ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा. अब लच्छीराम के तीनों बच्चे भी उन के पास आ कर बैठ गए.

‘‘बेटा, स्कूल जाते हो?’’ जीमारोधम ने पूछा. बच्चों ने सिर हिला कर बतलाया कि वे स्कूल नहीं जाते, बल्कि भेड़बकरियों की देखभाल करते हैं, उन को चराते हैं.

‘‘साहब, यहां गांव में कोई स्कूल नहीं है, यहां से 10 किलोमीटर दूर उस पहाड़ी के पीछे एक कसबा है लेकिन वहां जाने के लिए 10 किलोमीटर घूम कर जाना पड़ता है. बीच में एक पहाड़ी नाला पड़ता है जिस पर पुल नहीं है. अगर पुल बन जाएगा तो दूरी

घट कर 3 किलोमीटर रह जाएगी,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘क्या सरकार की तरफ से पुल नहीं बना?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘नहीं साहब, आज तक इस गांव में कोई जनप्रतिनिधि नहीं पहुंचा है. इस गांव में अधिकांश बच्चे भेड़ और बकरी चराते हैं या फिर भारिया बनते हैं, मैं भी भारिया हूं और मेरे बच्चे भी भारिया बनेंगे,’’ लच्छीराम ने उदास श्वास छोड़ते हुए कहा.

‘‘ये भारिया क्या होता है?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘पोरटर, भार ढोने वाला,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘सरकार की तरफ से कोई भी विकास कार्यक्रम यहां नहीं होता क्योंकि यहां कोई आता ही नहीं,’’ इस बार पारुली ने वेदनापूर्ण स्वर में कहा. कुछ देर बैठ कर कोरियन दंपती ने पूरे परिवार, घर और उस स्थान की फोटो खींची और फिर वे लौटने लगे.

‘‘अच्छा, अब हम चलते हैं. हम अगले साल आएंगे और आप के इस गांव में एक पुल, स्कूल और डिस्पैंसरी जरूर खोलेंगे, यह हमारा प्रौमिस है,’’ जीमारोधम बोला और उस की पत्नी इमाशुम ने हां भरी, साथ ही अपने हैंडबैग से 500 रुपए के 4 नोट निकाले और पारुली को देते हुए कहा, ‘‘लो बहन, तुम सब लोग अपने लिए नए कपड़े बनवा लेना.’’

पारुली शर्म एवं संकोच से कुछ नहीं बोल पाई, उस का मन एक बार तो ललचाया लेकिन अंदर के स्वाभिमान की कशमकश ने विवश किया, उस ने नोट पकड़ने से मना कर दिया.

इमाशुम ने अपने हाथ से पारुली की मुट्ठी में नोट ठूंस दिए. पारुली की आंखों से झरझर आंसू टपकने लगे.

इमाशुम ने अपने दोनों हाथों से पारुली के हाथों को कस कर पकड़ लिया. पारुली संकोचवश कुछ नहीं बोल पाई. उस ने जिंदगी में पहली बार 500 रुपए का नोट देखा था.

‘‘साहब, अब आप से कब मुलाकात होगी?’’ अब लच्छीराम के वृद्ध पिता ने पूछा.

‘‘हम अगले साल आएंगे और आप की आंखों का इलाज भी करवाएंगे,’’ जीमारोधम ने कहा.

लच्छीराम कोरियन दंपती को ले कर वापस लौटने लगा. ‘‘सर, आप पहले इंसान हैं जिन्होंने इतनी बड़ी धनराशि हमें दी है,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘कल आप ने देखा होटल में डेलीगेट्स लाखों रुपए की शराब पी गए लेकिन वे चाहते तो किसी पीडि़त को मदद दे सकते थे. हम कभी शराब नहीं पीते, उस पैसे को जरूरतमंद को दान करते हैं,’’ जीमारोधम बोला.

रात देर गए कोरियन दंपती की यह टोली होटल पहुंची और उन्होंने देखा, कई शराबी सदस्य हाथ में खाने की थाली में रखे भोजन को यों ही चखचख कर फेंक रहे थे. कईयों ने अपनी थाली में पूरा भोजन ले रखा था और उस भोजन की थाली को शराब के नशे में नीचे गिरा रहे थे. कई सदस्य अभी भी नाचरंग में मस्त थे. अन्न की बरबादी का नजारा लच्छीराम ने देखा. उस ने देखा कि 10 भोजन की थालियां तो बिलकुल भोजन से लबालब भरी हुई थीं. शराब ज्यादा पीने वाले प्रतिनिधियों ने सिर्फ एक चम्मच खा कर भोजन की थाली एक तरफ लुढ़का दी.

लच्छीराम ने नजर बचा कर उस थाली के भोजन को अपने थैले में जैसे ही डाला, ‘‘डौंट टच दिस प्लेट, यू पिग,’’ एक विदेशी अंगरेज प्रतिनिधि ने चिल्ला कर उसे डांटा. लच्छीराम ने अपना थैला वहीं छोड़ दिया, भय से वह सकपका गया. होटल स्टाफ ने देखा, कोरियन दंपती ने भी देखा. कोरियन दंपती यह देख कर आहत था. उन के चेहरे पर उस अंगरेज प्रतिनिधि के प्रति रोष था, लेकिन वे चुप रह गए. भारी कदमों से लच्छीराम ने कोरियन दंपती से विदा ली और उन्हें अपना पताठिकाना लिखवाया.

सम्मेलन समाप्त हो गया. सभी लोग चले गए. कैलांग की वादियों से लच्छीराम और उस के परिवार की स्मृति लिए कोरियन दंपती भी चले गए. 1 वर्ष बीता. लच्छीराम को पत्र मिला जो कोरियन दंपती ने भेजा था. कोरियन दंपती ने अपने आने के बारे में और परियोजना के बारे में सूचित किया था.

ठीक समय पर कोरियन दंपती अपनी टीम के साथ पहुंचे. उन के साथ तकनीशियनों की टोली भी थी. वे लोग किब्बर में पुल बनाना चाहते थे, स्कूल खोलना चाहते थे, डिस्पैंसरी खोलना चाहते थे. इन लोगों ने सब से पहले नाले पर पुल बनाने की सोची जिस से वहां निर्माण सामग्री लाने में मदद मिलती. वन विभाग ने आपत्ति लगा दी.

‘‘यहां आप पुल नहीं बना सकते विदाउट परमिशन औफ कंजर्वेटर,’’ वन विभाग के अधिकारियों ने सूचित किया. पुल का कार्य रोक दिया गया. कोरियन दंपती तब कंजर्वेटर से मिले.

‘‘देखिए, पर्यावरण का मामला है, जब तक एनओसी पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार से नहीं मिलेगी, तब तक अनुमति नहीं दी जा सकती,’’ कंजरर्वेटर बोला.

‘‘हमें क्या करना चाहिए?’’ जीमारोधम ने बड़े भोलेपन से पूछा.

‘‘यू शुड सबमिट योर ऐप्लीकेशन थ्रू प्रौपर चैनल, फर्स्ट सबमिट ऐप्लीकेशन ऐट योर एंबैसी,’’ कंजर्वेटर बोला.

‘‘सर, आप मेरे से हिंदी में बात कर सकते हैं, हमें हिंदी भाषा आती है,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘सौरी, क्या करें अंगरेजी की आदत पड़ गई है,’’ कंजर्वेटर बोला.

‘‘आप अपनी ऐप्लीकेशन में यह भी लिखिए कि आप किस पर्पज से पुल बनाना चाहते हैं? आप के क्या प्रोजैक्ट हैं? आप की सोर्स औफ इनकम क्या है? ये सब डिटेल लिखिए.’’

कोरियन दंपती ने पुल बनाने, स्कूल खोलने, डिस्पैंसरी खोलने संबंधी अपनी परियोजना का खाका तैयार किया और अनुमति हेतु फाइल को अपने दूतावास के माध्यम से पर्यावरण मंत्रालय को भेजा. एक वर्ष के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने टिप्पणी लिख कर सूचित किया, ‘‘एज सून एज द कंपीटैंट अथौरिटी विल ग्रांट परमिशन, यू विल बी इनफौमर्ड थ्रू योर कोरियन एंबैसी.’’ जीमारोधम ने उस पत्र को अपने पुत्र ईमोमांगचूक को देते हुए उसे संभाल कर रखने को कहा.

21 वर्ष बीत गए, इस बीच कोरियन दंपती का निधन हो चुका था. एक दिन कोरियन दंपती के पुत्र ईमोमांगचूक को एक पत्र अपने कोरिया के घर पर मिला. पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार का यह पत्र कोरियन दूतावास के माध्यम से कोरियन दंपती को संबोधित था जो उन के पुत्र ईमोमांगचूक ने प्राप्त किया. उस में लिखा था, ‘‘विद रैफरैंस टू योर ऐप्लीकेशन अबाउट एनओसी, द कंपीटैंट अथौरिटी इज प्लीज्ड टू इनफौर्म यू दैट द परमिशन इज ग्रांटेड विद इफैक्ट फ्रौम सबमिशन औफ योर प्रौजैक्ट ऐप्लीकेशन औन कंस्ट्रकशन वर्क एट किब्बर, कैलांग, हिमाचल प्रदेश, इंडिया.’’

ईमोमांगचूक ने उस सरकारी पत्र को अपने दिवंगत मातापिता की तसवीर के पास रख दिया और अपने पिता की पुरानी फाइलों को तलाशने लगा जिस में उसे लच्छीराम का पुराना बदरंग फोटो मिला.

ईमोमांगचूक असमंजस के सागर में डूबनेउतरने लगा और वह अपने मातापिता की उस परियोजना को यथार्थ में बदलने के बारे में सोचने लगा.

शरणार्थी : मीना ने कैसे लगाया अविनाश को चूना

वह हांफते हुए जैसे ही खुले दरवाजे में घुसी कि तुरंत दरवाजा बंद कर लिया. अपने ड्राइंगरूम में अविनाश और उन का बेटा किशन इस तरह एक अनजान लड़की को देख कर सन्न रह गए.

अविनाश गुस्से से बोले, ‘‘ऐ लड़की, कौन है तू? इस तरह हमारे घर में क्यों घुस आई है?’’

‘‘बताती हूं साहब, सब बताती हूं. अभी मुझे यहां शरण दे दो,’’ वह हांफते हुए बोली, ‘‘वह गुंडा फिर मुझे मेरी सौतेली मां के पास ले जाएगा. मैं वहां नहीं जाना चाहती हूं.’’

‘‘गुंडा… कौन गुंडा…? और तुम सौतेली मां के पास क्यों नहीं जाना चाहती हो?’’ अविनाश ने जब सख्ती से पूछा, तब वह लड़की बोली, ‘‘मेरी सौतेली मां मुझ से देह धंधा कराना चाहती है. उदय प्रकाश एक गुंडे के साथ मुझे कोठे पर बेचने जा रहा था, मगर मैं उस से पीछा छुड़ा कर भाग आई हूं.’’

‘‘तू झूठ तो नहीं बोल रही है?’’

‘‘नहीं साहब, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. सच कह रही हूं,’’ वह लड़की इतना डरी हुई थी कि बारबार बंद दरवाजे की तरफ देख रही थी.

अविनाश ने पूछा, ‘‘ठीक है, पर तेरा नाम क्या है?’’

‘‘मीना है साहब,’’ वह लड़की बोली,

अविनाश ने कहा, ‘‘घबराओ मत मीना. मैं तुम्हें नहीं जानता, फिर भी तुम्हें शरण दे रहा हूं.’’

‘‘शुक्रिया साहब,’’ मीना के मुंह से निकल गया.

‘‘एक बात बताओ…’’ अविनाश कुछ सोच कर बोले, ‘‘तुम्हारी मां तुम से धंधा क्यों कराना चाहती है?’’

मीना ने कहा, ‘‘जन्म देते ही मेरी मां गुजर गई थीं. पिता दूसरी शादी नहीं करना चाहते थे, मगर रिश्तेदारों ने जबरदस्ती उन की शादी करा दी.

‘‘मगर शादी होते ही पिता एक हादसे में गुजर गए. मेरी सौतेली मां विधवा हो गई. तब से ही रिश्तेदार मेरी सौतेली मां पर आरोप लगाने लगे कि वह पिता को खा गई. तब से मेरी सौतेली मां अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारने लगी.

‘‘इस तरह तानेउलाहने सुन कर मैं ने बचपन से कब जवानी में कदम रख दिए, पता ही नहीं चला. मेरी सौतेली मां को चाहने वाले उदय प्रकाश ने उस के कान भर दिए कि मेरी शादी करने के बजाय किसी कोठे पर बिठा दे, क्योंकि उस के लिए वह कमाऊ जो थी.

‘‘मां का चहेता उदय प्रकाश मुझे कोठे पर बिठाने जा रहा था. मैं उस की आंखों में धूल झोंक कर भाग गई और आप का मकान खुला मिला, इसी में घुस गई.’’

अविनाश ने पूछा, ‘‘कहां रहती हो?’’

‘‘शहर की झुग्गी बस्ती में.’’

‘‘तुम अगर मां के पास जाना चाहती हो, तो मैं अभी भिजवा सकता हूं.’’

‘‘मत लो उस का नाम…’’ मीना जरा गुस्से से बोली.

‘‘फिर कहां जाओगी?’’ अविनाश ने पूछा.

‘‘साहब, दुनिया बहुत बड़ी है, मैं कहीं भी चली जाऊंगी?’’

‘‘तुम इस भेडि़ए समाज में जिंदा रह सकोगी.’’

‘‘फिर क्या करूं साहब?’’ पलभर सोच कर मीना बोली, ‘‘साहब, एक बात कहूं?’’

‘‘कहो?’’

‘‘कुछ दिनों तक आप मुझे अपने यहां नहीं रख सकते हैं?’’ मीना ने जब यह सवाल उठाया, तब अविनाश सोचते रहे. वे कोई जवाब नहीं दे पाए.

मीना ही बोली, ‘‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसी आप सोच रहे हैं.’’

‘‘तुम्हारे कहने से मैं कैसे यकीन कर लूं?’’ अविनाश बोले, ‘‘और फिर तुम्हारी मां का वह आदमी ढूंढ़ता हुआ यहां आ जाएगा, तब मैं क्या करूंगा?’’

‘‘आप उसे भगा देना. इतनी ही आप से विनती है,’’ यह कहते समय मीना की सांस फूल गई थी.

मीना आगे कुछ कहती, तभी दरवाजे के जोर से खटखटाने की आवाज आई. कमरे में तीनों ही चुप हो गए. इस वक्त कौन हो सकता है?

मीना डरते हुए बोली, ‘‘बाबूजी, वही गुंडा होगा. मैं नहीं जाऊंगी उस के साथ.’’

‘‘मत जाना. मैं जा कर देखता हूं.’’

‘‘वही होगा बाबूजी. मेरी सौतेली मां का चहेता. आप मत खोलो दरवाजा,’’ डरते हुए मीना बोली.

एक बार फिर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज आई.

अविनाश बोले, ‘‘मीना, तुम भीतर जाओ. मैं दरवाजा खोलता हूं.’’

मीना भीतर चली गई. अविनाश ने दरवाजा खोला. एक गुंडेटाइप आदमी ने उसे देख कर रोबीली आवाज में कहा, ‘‘उस मीना को बाहर भेजो.’’

‘‘कौन मीना?’’ गुस्से से अविनाश बोले.

‘‘जो तुम्हारे घर में घुसी है, मैं उस मीना की बात कर रहा हूं…’’ वह आदमी आंखें दिखाते हुए बोला, ‘‘निकालते हो कि नहीं… वरना मैं अंदर जा कर उसे ले आऊंगा.’’

‘‘बिना वजह गले क्यों पड़ रहे हो भाई? जब मैं कह रहा हूं कि मेरे यहां कोई लड़की नहीं आई है,’’ अविनाश तैश में बोले.

‘‘झूठ मत बोलो साहब. मैं ने अपनी आंखों से देखा है उसे आप के घर में घुसते हुए. आप मुझ से झूठ बोल रहे हैं. मेरे हवाले करो उसे.’’

‘‘अजीब आदमी हो… जब मैं ने कह दिया कि कोई लड़की नहीं आई है, तब भी मुझ पर इलजाम लगा रहे हो? जाते हो कि पुलिस को बुलाऊं.’’

‘‘मेरी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. मैं ने मीना को इस घर में घुसते हुए देखा है. मैं उसे लिए बिना नहीं जाऊंगा…’’ अपनी बात पर कायम रहते हुए उस आदमी ने कहा.

अविनाश बोले, ‘‘मेरे घर में आ कर मुझ पर ही तुम आधी रात को दादागीरी कर रहे हो?’’

‘‘साहब, मैं आप का लिहाज कर रहा हूं और आप से सीधी तरह से कह रहा हूं, फिर भी आप समझ नहीं रहे हैं,’’ एक बार फिर वह आदमी बोला.

‘‘कोई भी लड़की मेरे घर में नहीं घुसी है,’’ एक बार फिर इनकार करते हुए अविनाश उस आदमी से बोले.

‘‘लगता है, अब तो मुझे भीतर ही घुसना पड़ेगा,’’ उस आदमी ने खुली चुनौती देते हुए कहा.

तब एक पल के लिए अविनाश ने सोचा कि मीना कौन है, वे नहीं जानते हैं, मगर उस की बात सुन कर उन्हें उस पर दया आ गई. फिर ऐसी खूबसूरत लड़की को वे कोठे पर भिजवाना भी नहीं चाहते थे.

वह आदमी गुस्से से बोला, ‘‘आखिरी बार कह रहा हूं कि मीना को मेरे हवाले कर दो या मैं भीतर जाऊं?’’

‘‘भाई, तुम्हें यकीन न हो, तो भीतर जा कर देख लो,’’ कह कर अविनाश ने भीतर जाने की इजाजत दे दी. वह आदमी तुरंत भीतर चला गया.

किशन पास आ कर अविनाश से बोला, ‘‘यह क्या किया बाबूजी, एक अनजान आदमी को घर के भीतर क्यों घुसने दिया?’’

‘‘ताकि वह मीना को ले जाए,’’ छोटा सा जवाब दे कर अविनाश बोले, ‘‘और यह बला टल जाए.’’

‘‘तो फिर इतना नाटक करने की क्या जरूरत थी. उसे सीधेसीधे ही सौंप देते,’’ किशन ने कहा, ‘‘आप ने झूठ बोला, यह उसे पता चल जाएगा.’’

‘‘मगर, मुझे मीना को बचाना था. मैं उसे कोठे पर नहीं भेजना चाहता था, इसलिए मैं इनकार करता रहा.’’

‘‘अगर मीना खुद जाना चाहेगी, तब आप उसे कैसे रोक सकेंगे?’’ अभी किशन यह बात कह रहा था कि तभी वह आदमी आ कर बोला, ‘‘आप सही कहते हैं. मीना मुझे अंदर नहीं मिली.’’

‘‘अब तो हो गई तसल्ली तुम्हें?’’ अविनाश खुश हो कर बोले.

वह आदमी बिना कुछ बोले बाहर निकल गया.

अविनाश ने दरवाजा बंद कर लिया और हैरान हो कर किशन से बोले, ‘‘इस आदमी को मीना क्यों नहीं मिली, जबकि वह अंदर ही छिपी थी?’’

‘‘हां बाबूजी, मैं अगर अलमारी में नहीं छिपती, तो यह गुंडा मुझे कोठे पर ले जाता. आप ने मुझे बचा लिया. आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ बाहर निकलते हुए मीना बोली.

‘‘हां बेटी, चाहता तो मैं भी उस को पुलिस के हवाले करा सकता था, मगर तुम्हारे लिए मैं ने पुलिस को नहीं बुलाया,’’ समझाते हुए अविनाश बोले, ‘‘अब तुम्हारा इरादा क्या है?’’

‘‘किस बारे में बाबूजी?’’

‘‘अब इतनी रात को तुम कहां जाओगी?’’

‘‘आप मुझे कुछ दिनों तक अपने यहां शरणार्थी बन कर रहने दो.’’

‘‘मैं तुम को नहीं रख सकता मीना.’’

‘‘क्यों बाबूजी, अभी तो आप ने कहा था.’’

‘‘वह मेरी भूल थी.’’

‘‘तो मुझे आप एक रात के लिए अपने यहां रख लीजिए. सुबह मैं खुद चली जाऊंगी,’’ मीना बोली.

‘‘मगर, कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, इसे अभी निकाल दो,’’ किशन विरोध जताते हुए बोला.

‘‘किशन, मजबूर लड़की की मदद करना हमारा फर्ज है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर कहीं इसी इनसानियत में हैवानियत न छिपी हो बाबूजी.’’

‘‘आप आपस में लड़ो मत. मैं तो एक रात के लिए शरणार्थी बन कर रहना चाहती थी. मगर आप लोगों की इच्छा नहीं है, तो…’’ कह कर मीना चलने लगी.

‘‘रुको मीना,’’ अविनाश ने उसे रोकते हुए कहा. मीना वहीं रुक गई.

अविनाश बोले, ‘‘तुम कौन हो, मैं नहीं जानता, मगर एक अनजान लड़की को घर में रखना खतरे से खाली नहीं है. और यह खतरा मैं मोल नहीं ले सकता. तुम जो कह रही हो, उस पर मैं कैसे यकीन कर लूं?’’

‘‘आप को कैसे यकीन दिलाऊं,’’ निराश हो कर मीना बोली, ‘‘मैं उस सौतेली मां के पास भी नहीं जाना चाहती.’’

‘‘जब तुम सौतेली मां के पास नहीं जाना चाहती हो, तो फिर कहां जाओगी?’’

‘‘नहीं जानती. मैं रहने के लिए एक रात मांग रही थी, मगर आप को एतराज है. आप का एतराज भी जायज है. आप मुझे जानते नहीं. ठीक है, मैं चलती हूं.’’

अविनाश उसे रोकते हुए बोले, ‘‘रुको, तुम कोई भी हो, मगर एक पीडि़त लड़की हो. मैं तुम्हारे लिए जुआ खेल रहा हूं. तुम यहां रह सकती हो, मगर कल सुबह चली जाना.’’

‘‘ठीक है बाबूजी,’’ कहते हुए मीना के चेहरे पर मुसकान फैल गई… ‘‘आप ने डूबते को तिनके का सहारा दिया है.’’

‘‘मगर, सुबह तुम कहां जाओगी?’’ अविनाश ने फिर पूछा.

‘‘सुबह मौसी के यहां उज्जैन चली जाऊंगी?’’

अविनाश ने यकीन कर लिया और बोले, ‘‘तुम मेरे कमरे में सो जाना.’’

‘‘आप कहां साएंगे बाबूजी?’’ मीना ने पूछा.

‘‘मैं यहां सोफे पर सो जाऊंगा,’’ अविनाश ने अपना फैसला सुना दिया और आगे बोले, ‘‘जाओ किशन, इसे मेरे कमरे में छोड़ आओ.’’

काफी रात हो गई थी. अविनाश और किशन को जल्दी नींद आ गई. सुबह जब देर से नींद खुली. मीना नहीं थी. सामान बिखरा हुआ था. अलमारियां खुली हुई थीं. उन में रखे गहनेनकदी सब साफ हो चुके थे.

अविनाश और किशन यह देख कर हैरान रह गए. उम्रभर की कमाई मीना ले गई. उन का अनजान लड़की पर किया गया भरोसा उन्हें बरबाद कर गया. जो आदमी रात को आया था, वह उसी गैंग का एक सदस्य था, तभी तो वह मीना को नहीं ले गया. चोरी करने का जो तरीका उन्होंने अपनाया, उस तरीके पर कोई यकीन नहीं करेगा.

मीना ने जोकुछ कहा था, वह झूठ था. वह चोर गैंग की सदस्य थी. शरणार्थी बन कर अच्छा चूना लगा गई.

खाउड्या : घूसखोर सिपाही सीतू

सीतू झोंपड़पट्टी वाले थाने में नयानया सिपाही भरती हुआ था. एक दिन थानेदार ने उसे रामू बनिए को बुला लाने के लिए भेजा.

रामू बनिया तो घर पर नहीं मिला, पर उस के मुनीम ने सीतू को 50 रुपए का नोट पकड़ा कर कहा, ‘‘थानेदार से कह देना कि सेठजी आते ही थाने में हाजिर हो जाएंगे.’’

लौट कर सीतू ने 50 रुपए का नोट थानेदार की मेज पर रख दिया और साथ ही मुनीम का पैगाम भी कह सुनाया.

जब वह जाने लगा तो थानेदार ने 50 रुपए का नोट उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘इसे रख लो, यह तुम्हारा इनाम है.’’

बाद में थाने के सिपाहियों ने सीतू का काफी मजाक उड़ाया और बताया कि मुनीम ने 50 रुपए उसे दिए थे, न कि थानेदार को. थानेदार तो 100 रुपए से कम को हाथ तक नहीं लगाता.

सीतू 50 रुपए ले कर खुश हो गया. यह उस की पहली ऊपर की कमाई थी. थानेदार उस की ईमानदारी का कायल हो गया. इस के बाद से थानेदार को जहां से भी पैसा ऐंठना होता, तो वह सीतू को भेज देता या अपने साथ ले जाता.

सीतू जो भी पैसा ऐंठ कर लाता था, उस में से उसे भी हिस्सा मिलता था. धीरेधीरे उस के पास काफी पैसा जमा हो गया. पर मन के किसी कोने में उसे अपनी इस ऊपर की कमाई से एक तरह के जुर्म का अहसास होता, मगर जब वह अपनी तुलना दूसरों से करता तो यह अहसास कहीं गायब हो जाता.

सीतू को एक बात अकसर चुभती थी कि कसबे के लोग बाकी सिपाहियों को तो पूरी इज्जत देते और सलाम करते थे, मगर उसे केवल मजबूरी में ही सलाम करते थे. वह चाहता था कि उसे भी दूसरे सिपाहियों के बराबर समझा जाए, मगर वह इस बारे में कुछ कर नहीं सकता था.

वैसे, अब सीतू काफी सुखी था.

उस के पास सरकारी मकान था. एक साइकिल भी उस ने खरीद ली थी. वह शान से साफसुथरे कपड़ों में रहता था. कम से कम झोंपड़पट्टी के लोग तो उस की कद्र करते ही थे.

सीतू अपने साथी सिपाहियों के मुकाबले खुद को बेहतर समझता था. उस के सभी साथी शादीशुदा थे, मगर वह इस झंझट से अभी तक आजाद था. मांबाप की याद भी उसे ज्यादा नहीं आती थी, क्योंकि उसे उन से ज्यादा लगाव कभी रहा ही नहीं था.

एक दिन सीतू अपनी साइकिल पर सवार हो कर बाजार से गुजर रहा था कि एक जगह भीड़ लगी देख कर वह रुक गया. उस ने देखा कि झोंपड़पट्टी में रहने वाली एक लड़की भीड़ से घिरी खड़ी थी और रोते हुए गालियां बक रही थी. वह कभीकभार भीड़ पर पत्थर भी फेंक रही थी.

भीड़ में शामिल लोग लड़की के पत्थर फेंकने पर इधरउधर भागते हुए उस के बारे में उलटीसीधी बातें कर रहे थे.

सीतू ने देखा कि कुछ लफंगे से दिखाई देने वाले लड़के उस लड़की को घेरने की कोशिश कर रहे थे. सीतू ने पास खड़े झोंपड़पट्टी में रहने वाले एक बूढ़े आदमी से पूछा, ‘‘बाबा, आखिर माजरा क्या है?’’

बूढ़े ने सीतू को पुलिस की वरदी में देख कर पहले तो मुंह बिचकाया, फिर बोला, ‘‘यह लड़की यहां बैठ कर लकड़ी के खिलौने बेच रही थी. जब सब खिलौने बिक गए, तो उस ने पैसे रख लिए और थैले में से रोटी निकाल कर खाने लगी.

‘‘तभी ये 3 बदमाश लड़के यहां आ धमके. एक ने उसे 50 का नोट दिखा कर पूछा कि ‘चलती है क्या मेरे साथ?’ तो लड़की ने उस के मुंह पर थूक दिया.

‘‘बस फिर क्या था, तीनों लड़के उस पर टूट पड़े. लड़की की चीखपुकार सुन कर भीड़ जमा हो गई तो लड़कों ने शोर मचा दिया कि इस लड़की ने चोरी की है. बस, तभी से यह नाटक चल रहा है.’’

इतना बता कर वह बूढ़ा सीतू को इस तरह घूर कर देखने लगा मानो कह रहा हो, ‘है हिम्मत इस लड़की को इंसाफ दिलाने की?’

इतना सुनते ही सीतू साइकिल की घंटी बजाते हुए भीड़ में जा घुसा. उस ने कड़क लहजे में लड़की से पूछा, ‘‘ऐ लड़की, यह सब क्या हो रहा है?’’

‘‘साहब, ये तीनों मुझ से बदतमीजी कर रहे हैं. मैं ने रोका तो जबरदस्ती करने लगे. मैं ने शोर मचाया तो बोले कि मैं चोर हूं, पर मैं ने कोई चोरी नहीं की है,’’ लड़की गुस्से में बोली.

‘‘साहब, यह झूठी है. यह तो पक्की चोर है. इस ने पहले भी कई चोरियां की हैं. जो घड़ी इस के हाथ में बंधी है वह मेरी है,’’ एक लड़के ने कहा.

‘‘इस ने मेरा 50 का नोट चुराया है,’’ दूसरा लड़का बोला.

‘‘ये लड़के झूठ बोलते हैं साहब. मैं ने चोरी नहीं की है,’’ लड़की ने सीतू के आगे हाथ जोड़ कर कहा.

लड़की के मुंह से ‘साहब’ सुन कर सीतू की छाती चौड़ी हो गई. उस ने एक लड़के से पूछा, ‘‘क्या सुबूत है कि यह घड़ी तेरी है?’’

इस से पहले कि वह लड़का कुछ कह पाता, भीड़ में से किसी की आवाज आई, ‘‘इस लड़की के पास क्या सुबूत है कि यह घड़ी इसी की है?’’

यह सुन कर सीतू भड़क उठा. साइकिल स्टैंड पर लगा कर उस ने अपना डंडा निकाल लिया. फिर वह भीड़ की तरफ मुड़ गया और हवा में डंडा लहराते हुए बोला, ‘‘किसे चाहिए सुबूत? इस लड़की के पास यह सुबूत है कि घड़ी इस के कब्जे में है… और किसी को कुछ पूछना है? चलो, भागो यहां से. क्या यहां जादूगर का तमाशा हो रहा है?’’

सीतू की फटकार सुन कर वहां जमा हुए लोग धीरेधीरे खिसकने लगे.

‘‘देखो साहब, वे तीनों भी भाग रहे हैं,’’ लड़की बोली.

‘‘तुम तीनों यहीं रुको और बाकी सब लोग जाएं,’’ सीतू ने उन लफंगों को रोकते हुए कहा.

जब भीड़ छंट गई, तो सीतू उन लड़कों से बोला, ‘‘चलो, थाने चलो.’’

थाने का नाम सुन कर उन तीनों लड़कों के साथसाथ वह लड़की भी घबरा गई. वह बोली, ‘‘देखो साहब, ये तो बदमाश हैं, मगर मैं थाने नहीं जाना चाहती.’’

‘‘अरी, तुझे कोई खा जाएगा क्या वहां? मैं हूं न तेरे साथ,’’ सीतू उसे दिलासा देते हुए बोला.

‘‘साहब, घड़ी इसी के पास रहने दीजिए. कहां थाने के चक्कर में फंसाते हैं,’’ एक लड़का बोला.

‘‘साला… फिर कहता है कि मैं चोर हूं. चलो साहब, थाने ही चलो,’’ लड़की गुस्से में बोली.

‘‘गाली नहीं देते लड़की,’’ सीतू ने लड़की से कहा और फिर लड़कों से बोला, ‘‘मैं तुम लोगों को तब से देख रहा हूं, जब तुम ने इस लड़की को 50 का नोट दिखाया था.’’

यह सुन कर तीनों लड़कों के चेहरे फीके पड़ गए. सीतू ने लड़की को बूढ़े के पास रुकने को कहा और तीनों लड़कों को ले कर थाने की ओर बढ़ चला. लड़कों ने आपस में कानाफूसी की और एक लड़के ने सौ का नोट सीतू की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अब तो जाने दो साहब. कभीकभी गलती हो जाती है.’’

सीतू ने एक नजर नोट पर डाली और फिर इधरउधर देखा, कुछ लोग उन्हें देख रहे थे.

‘‘रिश्वत देता है. इस जुर्म की दफा और लगेगी,’’ कहते हुए सीतू उन्हें धकेलता हुआ सड़क के मोड़ पर ले गया.

‘‘साहब, इस समय तो हमारे पास इतने ही पैसे हैं,’’ कहते हुए लड़के ने 50 का नोट और बढ़ा दिया.

सीतू ने इधरउधर देखा, वहां उन्हें कोई नहीं देख रहा था. वह बोला, ‘‘ठीक है, अब आगे ऐसी घटिया हरकत मत करना.’’

‘अरे साहब, कसम पैदा करने वाले की, अब ऐसा कभी नहीं करेंगे,’ तीनों ने एकसाथ कहा.

‘‘अच्छा जाओ, मगर दोबारा अगर पकड़ लिया तो सीधा सलाखों के पीछे डाल दूंगा,’’ सीतू ने नोट जेब में रखते हुए कहा.

सीतू कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा, फिर धीरेधीरे साइकिल धकेलता हुआ वहीं जा पहुंचा, जहां बूढ़े के पास लड़की को छोड़ कर गया था. लड़की तो वहां नहीं थी, पर बूढ़ा वहीं बैठा हुआ था. बूढ़ा सीतू को सिर से पैर तक घूर रहा था.

‘‘ऐ बूढ़े, वह लड़की कहां गई?’’ सीतू ने पूछा.

बूढ़े ने सीतू को घूरते हुए कहा, ‘‘पुलिस में भरती हो गए तो क्या यह तमीज भी भूल गए कि बड़ेबूढ़ों से किस तरह बात करते हैं. वह लड़की चली गई, पर इस से तुम्हें क्या मतलब? तुम्हारी जेब तो गरम हो गई न, जाओ ऐश करो.’’

‘‘क्या बकता है? किस की जेब की बात करता है? तुम ने उस लड़की को क्यों जाने दिया?’’ सीतू भड़क उठा.

‘‘इस इलाके में कोई भी तुम पुलिस वालों पर यकीन नहीं करता. ऐसे में वह लड़की क्या करती? सोचा था कि अपनी बिरादरी का एक आदमी पुलिस में आया है तो वह कुछ ठीक करेगा, मगर वाह री पुलिस की नौकरी, बेच दी अपनी ईमानदारी शैतान के हाथों और बन गया खाउड्या… जा खाउड्या अपना काम कर.’’

‘‘क्या बकता है? थाने में बंद कर दूंगा,’’ कहने को तो सीतू कह गया, मगर न जाने क्यों वह बूढ़े से नजरें नहीं मिला पाया.

सीतू इस बात को अच्छी तरह से जानता था कि रिश्वत लेना जुर्म है, मगर आज तक किसी पुलिस वाले ने उसे यह बात नहीं बताई थी. हां, साथियों ने यह जरूर समझाया था कि रिश्वत लेते समय पूरी तरह से चौकस रहना बहुत ही जरूरी होता है.

दिल का राज: क्या सरना ने पूरी की चौधराइन की इच्छा

जानवरों का चारादाना निबटाते हुए सरना को काफी देर हो गई थी. उस ने भल्लू चौधरी की गौशाला में ताला ठोंक कर झटका दिया और मुट्ठियां बगलों में दबा लीं. एक पल को उसे बड़ा अच्छा लगा. सोचने लगा कि अब रात अपनी है. पुआल के बिछावन में पुरानी रजाई ओढ़ कर लेटेगा, तो छमिया की याद थोड़ी गरमी दे जाएगी और वह मीठी नींद सो जाएगा.सरना को छमिया के गदराए बदन की याद आती थी, पर हर समय तो छमिया उस की बांहों में हो नहीं सकती. चौधराइन ने सरना को बाहर की कोठरी की चाबी देते वक्त लकड़ी निकालने को कहा था और कहा था कि अगले दिन बेचेंगे. अच्छा यह रहा कि घर पर चौधरी नहीं थे.

चौधराइन ने दोपहर को पेट भर बढि़या खाना करा दिया था. वह भी दोनों वक्त का एक ही बार में खा गया था. खाता न तो करता भी क्या? छमिया खाना तो ठीक बनाती थी, पर बढि़या कचौड़ी, रायता, 2-2 सब्जियां और खीर उसे कहां बनानी आती थी? चौधरी ने 2 दिन पहले रतजगा किया था. उस के लिए कई दिन खाने लायक खाना बचा था. चौधरी किसी स्वामी को छोड़ने उन के आश्रम 250 किलोमीटर दूर अपनी गाड़ी में गए हुए थे. चौधरी घर में होते तो चाहे कुछ भी बनता, सरना को सूखी रोटियां और बासी साग ही मिलता. वह मन ही मन सोच रहा था कि अच्छा होता, अगर चौधरी 5-7 दिन बाहर ही रहते. सरना ने दरवाजे की कुंडी खटकाई. चौधराइन ने दरवाजा खोला. सरना को लग रहा था कि चौधराइन कुंडी खोलते वक्त गुनगुना रही थीं. चौधराइन ने उस समय टाइट ब्लाउज पहन रखा था.

सरना कुछ सोचता सा खड़ा था कि सामने खड़ी चौधराइन ने कहा, ‘‘लाओ चाबी. और हां, कुछ लकडि़यां यहां भी डाल दो. बड़ी ठंड है. मैं भी जला लूंगी. हीटर से कहां काम चलता है.’’ हमेशा स्वैटर, शौल वगैरह से लदीफदी गुडि़या को उस समय इतने कम कपड़ों में देखने की बात सरना सपने में भी नहीं सोच सकता था.

‘इन्हें इतने कपड़े पहनने के बाद भी ठंड क्यों नहीं लग रही है?’ वह सोचने लगा, ‘पर बेचारी बूढ़े साहूकार के फंदे में फंस गई. यह किसी और गरमी की तलाश में है.’

जब तक सरना लकड़ी लाया, तो पानी की बूंदाबांदी बौछार में बदल गई थी. भीगने से बचने के लिए उसे तकरीबन दौड़ना पड़ा. शुक्र था कि चौधराइन किवाड़ खोले ही खड़ी थीं.

बरामदे में लकडि़यां रख कर उस ने चेहरे और नाक का पानी पोंछते हुए हाथ एक ओर झटका. चौधराइन ने उस की ओर देखा तो हंस पड़ीं, ‘‘अरे, तुम तो अच्छेखासे भीग गए.’’‘‘पानी में जो जाएगा, वह भीगेगा ही,’’ कहते हुए सरना कुढ़ सा गया. वह सोचने लगा, ‘पैसे वालों को गरीबी का मजाक उड़ाने में शायद कुछ खास मजा आता है.’ ‘‘वह तो ठीक है, लेकिन अब तुम रात कैसे काटोगे?’’ चौधराइन ने खूंटी पर टंगे पति के एक पुराने कुरते की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘यह तो तुम्हारे बहुत ढीला होगा पर पहन लो. और वह रही लुंगी.’’ सरना को यह बात कुछ जंची नहीं. पर ठिठुरने के बजाय यही ठीक रहेगा, यही सोच कर उस ने कुरता उतार लिया. अब चौधराइन अंदर की ओर चली गई थीं.

लुंगी और ढीलाढाला कुरता पहनते हुए सरना को लगा कि चौधराइन उसे देख रही हैं. सरना को अजीब लग रहा था. वह सोचने लगा कि इन कपड़ों में तो वह जोकर लग रहा होगा. खैर, कौन इतनी रात में देखेगा. सरना ने आवाज दी, ‘‘किवाड़ बंद कर लीजिए, मैं जा रहा हूं. मैं ने बरामदे में लकडि़यां जला दी हैं. आप यहां बैठ कर आग सेंक सकती हैं.’’

तभी खाने की थाली लिए आती चौधराइन ने कहा, ‘‘अजीब बात है. पानी बरस रहा है, फिर भीगना है क्या? खाना खा लो, शायद तब तक पानी रुक जाए. घर में छाता भी नहीं है. चौधरी साहब छाते को अपने साथ ले गए हैं.’’ यह तो मुंहमांगी मुराद थी सरना के लिए. वह खाता जाता था और चौधराइन की खूबसूरती की दिल ही दिल में तारीफ भी करता जा रहा था. तब तक बरामदे की लकडि़यां जलने लगी थीं. उसे भी गरमी महसूस हो रही थी.

सरना को लग रहा था कि यह वाकई बड़ी नेक औरत है. इसे बूढ़े चौधरी के पल्ले बांध कर कुदरत ने इस के साथ बहुत बड़ा मजाक किया है. अब तक औलाद का मुंह तक नहीं देखा बेचारी ने… जबकि ब्याह हुए 7-8 बरस गुजर गए हैं. चौधरी ने इसीलिए किसी पोंगापंथी स्वामी को बुला कर बच्चे देने की मन्नत मांगी थी और भंडारा किया था. सरना खाना खा कर हाथमुंह धो चुका था. पर पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था. उलटे बारिश तेज होती जा रही थी. आग के पास हाथपैर सेंक कर सरना ने कहा, ‘‘अब मैं चलूंगा मालकिन.?’’

इतनी रात को अकेली चौधराइन के पास सूने घर में रुकने का सरना का मन था, पर जानता था कि पकड़ा गया तो उस का घरबार सब जला दिया जाएगा, इसीलिए उसे वहां से जाने की उतावली हो रही थी. चौधराइन ने नीचे से ऊपर तक उसे गौर से देखते हुए कहा, ‘‘बहुत अच्छे… पानी में भीग कर बीमार पड़ने का इरादा है क्या? ठीक है, जाओ, जरूर जाओ, तुम्हारे घर में दवादारू के लिए भी बहुतेरे लोग बैठे हैं…’’ ‘‘न जाऊं तो करूं भी क्या? यहां बैठने से तो रात कटनी नहीं. कोई देखेगा तो क्या कहेगा,’’ अपने दिल की बात झिझक के साथ सरना ने कह दी.

‘‘यह घर छोटा है न… यहां ओढ़नेबिछाने को कुछ नहीं है न? अरे सरना, यह घर तो रहने वालों के लिए तरसता है. यहां कमी भी किस बात की है. दुनिया के कहनेसुनने की चिंता है? क्या मैं तुझे वैसी लगती हूं, सच कहना?’’

‘‘नहीं, आप तो बड़ी नेक और रहमदिल हैं. मैं औरतों के मामले में आप की मिसाल देता हूं. आप का अंगअंग संगमरमर का सा सफेद है, छूने पर मखमली होगा. सुंदरता की खान.

‘‘चौधरी के बुढ़ापे का जब आप से मेल करता हूं तो मन करता है कि आप के कदमों पर माथा झुका दूं. ‘‘मालकिन, छोटी सी उम्र में मैं ने भी काफी दुनिया देखी है. पहले मैं लुधियाना गया था. वहां मेरे बूढ़े लालाजी की जवान बीवी मेरे देखतेदेखते ही अपने यार के साथ चंपत हो गई थी…’’ लगता था जैसे सरना की बात बांध तोड़ कर नदी की तरह बह निकली थी. चौधराइन ने आग और तेज करते हुए सिसक कर सरना की ओर आते हुए कहा, ‘‘और क्या देखा?’’

सरना को लगा, जैसे उन के चेहरे पर कुछ और लाली आ गई है और आंखों में नशा सा छा गया है. वे बात करने में कुछकुछ अटकने सी लगी हैं. उस ने लाला और यार की कहानी 2-4 बातों में बता दी कि कैसे उस ने ही उन्हें कमरे में साथ सोते देखा था. बात करतेकरते चौधराइन इधरउधर चौकन्नी निगाहों से देखती भी जा रही थीं, मानो दीवारों के कान होने पर उन्हें यकीन होता जा रहा हो.

सरना को ऐसा लगा, जैसे उस के शरीर की उठी मछलियों पर चौधराइन की नजरें गड़ी हैं. वे बोलीं, ‘‘सरना, यही तो वहम है… दुनिया भी यही जानती है. पर, तुम सब अपने को मेरी जगह रख कर सोचो. क्या धनदौलत से जवानी के जोश को दबाया जा सकता है? सच तो यह है कि ये सब देह की भूख को और बढ़ाने वाले हैं.

‘‘कई बार सोचती हूं कि मैं एक गरीब घर में होती. शाम को मेरा आदमी काम कर के पसीने से लथपथ आता. मैं पंखे से उस को हवा करती और वह सिर्फ मेरा होता, इन बहीखातों का नहीं. घर में नन्हेमुन्ने किलकते, मैं निहाल हो जाती. ये सोनेचांदी के गहने मेरे पैरोें में बड़ी माया की जंजीरें हैं. इन से मेरा दुख बढ़ता है,’’ कह कर उन्होंने सरना पर एक निगाह डाली.

सरना चौधराइन की तेज निगाहों से सिटपिटा गया. उस ने कहा, ‘‘मालकिन, कुदरत ने ही आप को इतना दयावान बनाया है. सुख दिया है और सब से ऊपर ‘सत’ दिया है. आज के जमाने में ऐसे लोग मिलते कहां हैं?’’ ‘‘सरना, तू क्या कभी जान सकेगा मेरे मन की पीर? बचपन गरीबी में बीता. तब मैं पैसे को दुनिया का सब से बड़ा सुख समझती थी, लेकिन फिर भी उस गरीबी में कहीं न कहीं कोई मजा भी था. जो जीने की तमन्ना पैदा करता था, जिस की बदौलत होंठों पर मुसकान रहती थी. मेरी समझ में अब बीता समय ही अच्छा जान पड़ता है. ‘‘लेकिन तब तो मुझे क्या, मेरे मांबाप को भी यही वहम था कि दुनिया का सारा सुख पैसे से खरीदा जा सकता है. तभी तो मुझे चौधरी के पल्ले बांध दिया गया.

‘‘अब मैं सोचती हूं कि चौधरी ने तो पैसे से सुख जरूर खरीदा, पर मेरी खुशियां पैसे के बदले बिक गईं. क्या यह सारा पैसा गरीब से गरीब औरत को वह सुख मुझे दे सकता है, जो पति की बांह का सिरहाना लगा कर सोई जवान औरत को मिलता है? ‘‘प्यारमुहब्बत का झरना बराबर उम्र वालों में भी फूट सकता है. चौधरी तो बिस्तर पर आने से पहले ही निढाल हो जाते हैं.’’ फिर चौधराइन खुल कर बोलीं, ‘‘सरना, सच मान मेरा रोमरोम उस सुख के लिए जब पागल होता है, तो चौधरी के पैसे के हिसाब में डूब कर पता नहीं किस दुनिया में चले जाते हैं. क्या पैसे की इस प्यास का कहीं अंत भी है?

‘‘तू जो समझता है, मैं अपने ‘सत’ पर मजबूत हूं, यह तेरा भोलापन है. दरअसल, मैं अंदर से इतनी नंगी हूं कि तुझे क्या बताऊं.’’ सरना को चौधराइन की बात का कोई जवाब नहीं सूझ रहा था, तभी उसे खांसी आ गई, जिस से वह जवाबदेही से बच गया. चौधराइन इस समय उसे पैसे के जोर से खरीदी गई एक कमजोर औरत लगी, जिस के जिस्म में एक नाजुक दिल धड़क रहा है और वे पैसे के सुख के बदले अनजाने ही जिंदगी की खुशियां हार चुकी हैं. सरना को लगा कि उसे जरूर चौधराइन के काम आना चाहिए.

सरना को चुप देख कर चौधराइन बोलीं, ‘‘तुझे मैं दूध धोई लगती हूं. मेरे तन पर कोई शक नहीं कर सकता, पर दिल को तो मैं ही जानती हूं. कभीकभी दिल की प्यास आंखों में भर आती है. लेकिन इसे पढ़ने वाला कम से कम वहां तो कोई नहीं मिला.’’

सरना सन्न रह गया. जिसे वह इतना ‘साफ’ समझे बैठा है, उस के दिल में ऐसी बात होगी, उस ने ऐसा कब सोचा था? उसे बड़ा दुख हुआ. उसे लगा जैसे चौधराइन की आवाज का काम उन की आंखों ने अपने जिम्मे ले लिया है. वे आंखें एक भूचाल के आने की खबर दे रही थीं.

सरना चौधराइन के सुंदर मुखड़े को देखता रह गया, तभी बिजली जोर से चमकी और चौधराइन डर के मारे उस के बदन से चिपक गईं. सरना की आंखों में भी अनजाने ही एक चमक सी आ गई. उस ने महसूस किया, जैसे चौधराइन के जिस्म के जरीए एक आग उस के तनमन में समाती चली जा रही हो. वे दोनों घंटाभर एकदूसरे की बांहों में बरामदे में ही खोए रहे.

दरवाजे पर खटका सा हुआ. चौधराइन ने कपड़े पहन कर किवाड़ खोल दिए. चौधरी सामने खड़े थे. बदन का पानी पोंछते हुए वे बोले, ‘‘रास्ता बारिश की वजह से खराब हो गया था, इसलिए एक गाड़ी को स्वामीजी के साथ छोड़ कर आ गया हूं…

‘‘यहां तुम अकेली जो थी. मन ने कहा कि लौट चलो, सो लौट आया. तुम्हें हैरानी तो नहीं हुई इस तरह मेरे लौटने पर? यह अच्छा किया कि सरना को रोक लिया था. यह बड़ा अच्छा लड़का है. ऐसी सुनसान रात में अकेले रहना भी तो ठीक नहीं था…’’

चौधराइन अपने आदमी के इस यकीन पर हैरान रह गईं. अगर वह थोड़ी देर और कर देते तो जवानी का तूफान दोनों को पता नहीं कहां ले जाता. चौधराइन मुसकरा कर बोली, ‘‘हैरानी, वह भी आप के आने की? हैरानी तो तब होती, जब आप न आते. सरना भी रुक नहीं रहा था. कह रहा था कि चौधरी आते ही होंगे… थोड़ी देर की तो बात है. आप अकेले ही वक्त काट लीजिए. पर सच मानिए, आप के बिना सब सूनासूना लगता है.’’

घर जाते समय सरना सोच रहा था, चौधराइन के दिल का सारा बोझ जैसे उस के दिल पर आ गया है. अब उसे इस बात की चिंता थी कि अगर फिर किसी दिन चौधरी रात को घर नहीं लौटे, तो उस वक्त क्या होगा?उधर चौधराइन खुश थीं कि दिल के अंदर उठता जोशीला तूफान कम गया था. चौधरी भी खुश हुआ, जब 2 महीने बाद पता चला कि चौधराइन पेट से है. उस ने स्वामीजी को पूरे 2 लाख रुपए का चढ़ावा दिया.सरना को भी चौधराइन ने बहुतकुछ दिया, पर वह बताने की बात नहीं है. राज को राज ही रहने दें.

चोट: कैसे पूरी की उसने पत्नी की जिस्मानी जरूरत

आखिर कब तक सहन करती? कब तक बेइज्जती, जोरजुल्म सहती? इस आदमी ने, जब से मैं इस घर में शादी कर के आई हूं, डांटफटकार, उलाहनोंतानों के अलावा कुछ नहीं दिया.

शादी के शुरुआती कुछ दिन… कुछ महीने… ज्यादा हुआ, तो एक साल तक प्यार से बात की. घुमानेफिराने ले जाते. सिनेमा दिखाते, मेला, प्रदर्शनी ले जाते. मीठीमीठी प्यारभरी बातें करते. यहां तक कि अपनी मां से भी बहस कर लेते.

अगर मेरी सास मुझे छोटीछोटी बातों पर टोकतीं, तो पतिदेव अपनी मां से कह देते, ‘‘क्यों छोटीछोटी बातों पर घर की शांति भंग कर रही हो? आप की लड़की के साथ ससुराल में यही सब हो तो क्या बीतेगी आप पर? यह इस घर की बहू है, नौकरानी नहीं.

‘‘यह तो कुछ नहीं कहती, लेकिन मैं ही इसे घुमाने ले जाता हूं. पढ़ीलिखी औरत है. बदलते समय के साथ आप नहीं बदल सकतीं, तो छोटीछोटी बातों पर टोकाटाकी कर के घर में अशांति तो न फैलाएं.’’

सास को लगता होगा कि जोरू का गुलाम है बेटा. वे गुस्से में कुछ दिन तक बात न करतीं. बात करतीं तो भी इस तरह, जैसे धीरेधीरे बातों से अपना गुस्सा निकाल रही हों.

‘‘मुझे क्या करना है? तुम खूब घूमोफिरो, लेकिन हद में. आसपड़ोस के घर में भी बहुएं हैं. यह क्या बात हुई कि जब जी आया मुंह उठा कर चल दिए.

न किसी से कुछ पूछना, न बता कर जाना. आखिर घर में बड़ेबुजुर्ग भी हैं. उन के मानसम्मान का भी ध्यान रखो.’’

एक साल बाद ही पति के बरताव में बदलाव आने लगा. शायद शादी की  खुमारी अब तक उतर चुकी थी. पहले ये बहुत ही कम टोकाटाकी करते, बाद में बातबात पर टोकने लगे. मेरी कोई बात इन्हें अच्छी ही नहीं लगती. हर बात में अपनी मां की तरफदारी करते. चाहे वह बात गलत हो या सही, मैं सुनती रही.

इस बीच 2 बच्चे भी हो गए. कहने को घरगृहस्थी तो ठीकठाक चल रही थी, लेकिन जिन पति से मैं प्यार करती थी, उन के बातबात पर डांटनेटोकने से मन उदास रहने लगा.

मैं अपनी तरफ से पति का, सास का, बच्चों का, घर का पूरा खयाल रखती, फिर भी इन की बातबात पर टोकने, डांटने की आदत नहीं जाती.

एक बार मैं ने गुस्से में जरा जोर से कहा भी था, ‘‘आखिर बात क्या है? आप मुझे इस तरह से बेइज्जत क्यों करते रहते हैं?’’

इन्होंने भी झुंझला कर जवाब दिया, ‘‘मैं मर्द हूं. घर का मुखिया हूं. गलत बात पर टोकूंगा नहीं, तो क्या लाड़ करूंगा? तुम 2 बच्चों की मां बन गई हो. तुम्हें घर की जिम्मेदारी समझनी चाहिए. गलती पर डांटता हूं, तो गलती को सुधारना चाहिए. इस में बुरा मानने वाली क्या बात है?’’

‘‘मैं ऐसी कौन सी गलती करती हूं? क्या मन भर गया है मुझ से?’’

‘‘मुझे तो सब को साथ ले कर चलना है. तुम्हारा भी अब तक मन भर जाना चाहिए. प्यारमुहब्बत की उम्र बीत चुकी. अब अपने फर्ज पर ध्यान दो.’’

‘‘आखिर मैं ने फर्ज निभाने में कौन सी कमी रखी है?’’

‘‘तुम फिर बहस करने लगीं. मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘आप को मेरी कौन सी बात अच्छी लगती है आजकल?’’

‘‘औरत हो, औरत की तरह रहना सीखो. घर के कामकाज देखो. अम्मां की तबीयत ठीक नहीं रहती आजकल. उन की देखभाल करो.’’

‘‘करती तो हूं.’’

‘‘करती, तो अम्मां शिकायत नहीं करतीं.’’

‘‘अम्मां की तो आदत है मेरी शिकायत करने की. एक की चार लगा कर भड़काती हैं.’’

‘‘खबरदार, जो मेरी अम्मां के बारे में कुछ कहा,’’ इन्होंने इतनी जोर से डांटा कि मैं गुस्से में अपने कमरे में आ कर रोने लगी.

बैडरूम में तो ये बड़े प्यार से बात करते हैं. हालांकि अब यह होता है कि बैडरूम में मेरे आने तक ये सो जाते हैं. मुझे घर के काम निबटातेनिबटाते ही रात के 11-12 बज जाते हैं.

अब हमारे बीच संबंध बनने में भी काफी समय होने लगा था. मसरूफियत, जिम्मेदारी, बढ़ती उम्र के साथ ऐसा होता है. इस की कोई शिकायत नहीं. लेकिन आदमी दो बातें प्यार से कर ले, तो क्या बिगड़ जाएगा? लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मुझे देख कर इन का पारा चढ़ जाता है, खासकर दूसरों के सामने.

ये दूसरों से तो अच्छी तरह बात करेंगे. अपनी अम्मां से, बच्चों से, पासपड़ोस के लोगों से, घर आए रिश्तेदारों से. दोस्तों से तो इस कदर प्यार से बातें करेंगे कि जैसे इन्हें गुस्सा आता ही न हो, मानो जबान पर चाशनी चिपक जाती हो.

लेकिन सुबह मैं थोड़ी देर से उठूं, तो चिल्लाते हैं, ‘‘तुम जल्दी नहीं उठ सकतीं. यह कोई समय है उठने का? अभी तक चाय नहीं बनी. चाय में चीनी कम है. कभी ज्यादा है. खाने में नमक नहीं है. यह सब्जी क्यों बनाई है? वही काम करती हो, जो मुझे पसंद नहीं आता. न घर में साफसफाई है, न बच्चों की तरफ ढंग से ध्यान देती हो.

‘‘अम्मां अब कितने दिनों की मेहमान हैं. कम से कम उन की देखभाल ही ठीक से कर लिया करो. तुम्हें कपड़े पहनने का सलीका नहीं आता है. तुम्हें मेहमानों से बात करने का ढंग नहीं है. तुम यह नहीं करती, तुम वह नहीं करती. तुम ऐसी हो, तुम वैसी हो. तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता.’’

मैं ने तो अब बहस करना, इन की बातों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया. जो कहना है, कहते रहो. मेरा काम सुनना है, सुनती रहती हूं. लेकिन आखिर कब तक? अकेले में कह दें तो सुन भी लूं. चार लोगों के बीच टोकना, डांटना घोर बेइज्जती है मेरी. मेरे औरत होने की. पत्नी हूं, नौकरानी नहीं.

एक दिन इन के 2-3 दोस्त खाने पर आए. इन के कहे मुताबिक ही खाना बनाया. मैं ने अच्छे से परोसा. लेकिन दोस्तों के सामने ही इन का चिल्लाना शुरू हो गया, ‘‘जरा अपने हाथपैर तेजी से चलाओ. यह जैट युग है, बैलगाड़ी की तरह काम मत करो…’’

फिर इन्होंने चीख कर कहा, ‘‘दही कहां है?’’

‘‘अभी लाई,’’ मैं ने अपनी रुलाई रोकते हुए कहा.

इन के एक दोस्त ने कहा, ‘‘क्या दबदबा बना कर रखा है यार? मैं अगर अपनी पत्नी से इतना कह दूं, तो घर में मुसीबत खड़ी हो जाए.’’

दूसरे दोस्त ने इन की हिम्मत बढ़ाते हुए कहा, ‘‘वाकई सही माने में तुम हो असली मर्द. औरतों को ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए.’’

मैं अंदर रसोई में से सब सुन रही थी. जी तो चाहता था कि सारा सामान उठा कर फेंक दूं. इन्हें और इन के दोस्तों को जम कर लताड़ लगाऊं, लेकिन चुप ही रही. पर मैं ने भी मन ही मन तय कर लिया था कि अपनी बेइज्जती का बदला तो ले कर रहूंगी. लेकिन बहस से, चीखचिल्ला कर घर का माहौल बिगाड़ कर नहीं. इन्हें बताऊंगी कि औरत कैसे शर्मिंदा कर सकती है. कैसे हरा सकती है. कैसे तुम्हारे मर्द होने का अहंकार तोड़ सकती है.

खाना खा रहे दोस्तों के बीच मैं दही रखने गई, तभी दोनों बच्चे वहां आ गए खेलते हुए.

‘‘बाहर निकालो इन्हें कमरे से. तुम बच्चों का ध्यान नहीं रख सकतीं…’’ वे जोर से चिल्लाए.

मैं दोनों बच्चों को जबरदस्ती घसीटते हुए कमरे से बाहर ले गई. इन के किसी दोस्त की आवाज कानों में आई, ‘‘खाना तो लजीज बना है.’’

इन्होंने मुंह बिचकाते हुए जवाब दिया, ‘‘खाना तो सुमन बनाती थी. पहले मेरी उसी से शादी होने वाली थी. सगाई तक हो गई थी उस से. कई बार मैं सुमन के घर भी गया. ऐसा स्वादिष्ठ खाना मुझे आज तक नसीब नहीं हुआ.’’

इन की सगाई टूटने की बात मुझे पता थी, लेकिन सुमन के खाने की तारीफ और मेरे खाने को सुमन के मुकाबले कमतर बताना मुझे अखर गया.

ये मर्द थे, तो मैं औरत थी. इन्हें अपने मर्द होने का घमंड था, तो मुझे क्यों न हो अपने औरत होने पर गर्व? अब इन्हें बताना जरूरी था कि औरत क्या होती है.

मर्द की सौ सुनार की और औरत की एक लुहार की कहावत को सच साबित करने का समय आ गया था. इन का यह जुमला कि मर्द बने रहने के लिए औरत को दुत्कारते रहना जरूरी है, तभी घर भी घर बना रहता है. तभी सब ठीक रहते हैं.

अम्मांजी ने इन से एक बार कहा भी था, ‘‘बेटा, मर्द को मर्द की तरह रहना चाहिए. औरत को हमेशा सिर पर चढ़ा कर नहीं रखना चाहिए. उसे डांटडपट, फटकार लगाना जरूरी है.’’

इन्होंने अम्मांजी की बातों को इस तरह स्वीकार किया कि मेरा पूरा वजूद ही बिखरने लगा.

दोनों बच्चे अकसर दादी के पास ही सोया करते थे. वे आज भी वहीं सो रहे थे. ये भी बिस्तर पर लेटेलेटे किताब पढ़ रहे थे.

आज मैं जरा जल्दी ही कमरे में पहुंच गई थी. मैं गाउन पहन कर सोती थी और कपड़े बाथरूम में ही बदलती थी. लेकिन आज मैं ने कमरे में जा कर साड़ी उतारी.

मैं ने तिरछी नजरों से इन की तरफ देखा. साड़ी बदलते ही इन का ध्यान मेरी तरफ गया. नहीं… नहीं, मेरे बदन की तरफ. पहले तो इन्होंने आदत के मुताबिक मुझे टोका, ‘‘यह जगह है क्या कपड़े बदलने की?’’

मैं ने भी कह दिया, ‘‘यहां पर आप के अलावा और कौन हैं? आप से कैसी परदादारी?’’

ये कुछ कहते, इस से पहले ही मैं ने अपने बाकी कपड़े भी उतार दिए. अब मैं छोटे कपड़ों में थी, टूपीस भी कह सकते हैं.

मैं ने पहनने के लिए गाउन उठाया. लेकिन इन के सब्र का पैमाना छलक चुका था. इन्होंने प्यार से मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘बहुत दिन हो गए तुम्हें प्यार किए हुए. आज इस रूप में देख कर सब्र नहीं होता.’’

इस के बाद कमरे में हम दोनों एक हो गए. अलग होते ही मैं मुंह बिचका कर एक तरफ मुंह फेर कर लेट गई. मैं ने कहा, ‘‘किसी वैद्यहकीम को दिखाओ. इतने सारे तो इश्तिहार आते हैं, कोई गोली ले लिया करो.’’

ये दुम दबाते पालतू कुत्ते की तरह आ र कूंकूं की आवाज में बोले, ‘‘क्यों, खुश नहीं हुईं क्या तुम? कुछ कमी रह गई क्या?’’

इन की हालत देख कर बड़ी मुश्किल से मैं ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है. कभीकभी होता है ऐसा.’’

इन का उदास, हताश, हारा हुआ चेहरा देख कर मुझे अपनी जीत का एहसास हुआ. एक ही वार से इन के अंदर की मर्दानगी और बाहर का मर्द दोनों मुरदा पड़े हुए थे, जैसे दुनिया के सब से तुच्छ, कमजोर इनसान हों.

उस के बाद इन की टोकाटाकी, डांटफटकार तो बंद हुई ही, साथ ही साथ मेरी तरफ जब भी ये देखते, तो ऐसा लगता कि इन के देखने में डर और शर्मिंदा का भाव हो. अकसर चोरीछिपे जिस्मानी ताकत बढ़ाने के इश्तिहार पढ़ते भी नजर आते.

खूबसूरत : जब असलम को अच्छी लगने लगी मुमताज

असलम ने धड़कते दिल के साथ दुलहन का घूंघट उठाया. घूंघट के उठते ही उस के अरमानों पर पानी फिर गया था. असलम ने फौरन घूंघट गिरा दिया. अपनी दुलहन को देख कर असलम का दिमाग भन्ना गया था. वह उसे अपने ख्वाबों की शहजादी के बजाय किसी भुतहा फिल्म की हीरोइन लग रही थी. असलम ने अपने दांत पीस लिए और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

बड़ी भाभी बरामदे में टहलते हुए अपने रोते हुए मुन्ने को चुप कराने की कोशिश कर रही थीं. असलम उन के पास चला गया.

‘‘मेरे साथ आइए भाभी,’’ असलम भाभी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हुआ क्या है?’’ भाभी उस के तेवर देख कर हैरान थीं.

‘‘पहले अंदर चलिए,’’ असलम उन का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गया.

‘‘यह दुलहन पसंद की है आप ने मेरे लिए,’’ असलम ने दुलहन का घूंघट झटके से उठा कर भाभी से पूछा.

‘‘मुझे क्या पता था कि तुम सूरत को अहमियत दोगे, मैं ने तो सीरत परखी थी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘आप से किस ने कह दिया कि सूरत वालों के पास सीरत नहीं होती?’’ असलम ने जलभुन कर भाभी से पूछा.

‘‘अब जैसी भी है, इसी के साथ गुजारा कर लो. इसी में सारे खानदान की भलाई है,’’ बड़ी भाभी नसीहत दे कर चलती बनीं

‘‘उठो यहां से और दफा हो जाओ,’’ असलम ने गुस्से में मुमताज से कहा.

‘‘मैं कहां जाऊं?’’ मुमताज ने सहम कर पूछा. उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘भाड़ में,’’ असलम ने झल्ला कर कहा.

मुमताज चुपचाप बैड से उतर कर सोफे पर जा कर बैठ गई. असलम ने बैड पर लेट कर चादर ओढ़ ली और सो गया. सुबह असलम की आंख देर से खुली. उस ने घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 9 बज रहे थे. मुमताज सोफे पर गठरी बनी सो रही थी.

असलम बाथरूम में घुस गया और फ्रैश हो कर कमरे से बाहर आ गया.

‘‘सुबहसुबह छैला बन कर कहां चल दिए देवरजी?’’ कमरे से बाहर निकलते ही छोटी भाभी ने टोक दिया.

‘‘दफ्तर जा रहा हूं,’’ असलम ने होंठ सिकोड़ कर कहा.

‘‘मगर, तुम ने तो 15 दिन की छुट्टी ली थी.’’

‘‘अब मुझे छुट्टी की जरूरत महसूस नहीं हो रही.’’

दफ्तर में भी सभी असलम को देख कर हैरान थे. मगर उस के गुस्सैल मिजाज को देखते हुए किसी ने उस से कुछ नहीं पूछा. शाम को असलम थकाहारा दफ्तर से घर आया तो मुमताज सजीधजी हाथ में पानी का गिलास पकड़े उस के सामने खड़ी थी.

‘‘मुझे प्यास नहीं है और तुम मेरे सामने मत आया करो,’’ असलम ने बेहद नफरत से कहा.

‘‘जी,’’ कह कर मुमताज चुपचाप सामने से हट गई.

‘‘और सुनो, तुम ने जो चेहरे पर रंगरोगन किया है, इसे फौरन धो दो. मैं पहले ही तुम से बहुत डरा हुआ हूं. मुझे और डराने की जरूरत नहीं है. हो सके तो अपना नाम भी बदल डालो. यह तुम पर सूट नहीं करता,’’ असलम ने मुमताज की बदसूरती पर ताना कसा.

मुमताज चुपचाप आंसू पीते हुए कमरे से बाहर निकल गई. इस के बाद मुमताज ने खुद को पूरी तरह से घर के कामों में मसरूफ कर लिया. वह यही कोशिश करती कि असलम और उस का सामना कम से कम हो.

दोनों भाभियों के मजे हो गए थे. उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी. एक दिन मुमताज किचन में बैठी सब्जी काट रही थी तभी असलम ने किचन में दाखिल हो कर कहा, ‘‘ऐ सुनो.’’

‘‘जी,’’ मुमताज उसे किचन में देख कर हैरान थी.

‘‘मैं दूसरी शादी कर रहा हूं. यह तलाकनामा है, इस पर साइन कर दो,’’ असलम ने हाथ में पकड़ा हुआ कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘क्या…?’’ मुमताज ने हैरत से देखा और सब्जी काटने वाली छुरी से अपना हाथ काट लिया. उस के हाथ से खून बहने लगा.

‘‘जाहिल…,’’ असलम ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शक्ल तो है ही नहीं, अक्ल भी नहीं है तुम में,’’ और उस ने मुमताज का हाथ पकड़ कर नल के नीचे कर दिया.

मुमताज आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी. असलम ने एक पल को उस की तरफ देखा. आंखों में उतर आए आंसुओं को रोकने के लिए जल्दीजल्दी पलकें झपकाती हुई वह बड़ी मासूम नजर आ रही थी.

असलम उसे गौर से देखने लगा. पहली बार वह उसे अच्छी लगी थी. वह उस का हाथ छोड़ कर अपने कमरे में चला गया. बैड पर लेट कर वह देर तक उसी के बारे में सोचता रहा, ‘आखिर इस लड़की का कुसूर क्या है? सिर्फ इतना कि यह खूबसूरत नहीं है. लेकिन इस का दिल तो खूबसूरत है.’

पहली बार असलम को अपनी गलती का एहसास हुआ था. उस ने तलाकनामा फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिया.

असलम वापस किचन में चला आया. मुमताज किचन की सफाई कर रही थी.

‘‘छोड़ो यह सब और आओ मेरे साथ,’’ असलम पहली बार मुमताज से बेहद प्यार से बोला.

‘‘जी, बस जरा सा काम है,’’ मुमताज उस के बदले मिजाज को देख कर हैरान थी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें नौकरों की तरह सारा दिन काम करने की,’’ असलम किचन में दाखिल होती छोटी भाभी को देख कर बोला.

असलम मुमताज की बांह पकड़ कर अपने कमरे में ले आया, ‘‘बैठो यहां,’’  उसे बैड पर बैठा कर असलम बोला और खुद उस के कदमों में बैठ गया.

‘‘मुमताज, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मुझे तुम जो चाहे सजा दे सकती हो. मैं खूबसूरत चेहरे का तलबगार था. मगर अब मैं ने जान लिया है कि जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए खूबसूरत चेहरे की नहीं, बल्कि खूबसूरत दिल की जरूरत होती है. प्लीज, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘आप मेरे शौहर हैं. माफी मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. सुबह का भूला अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते,’’ मुमताज बोली.

‘‘थैंक्स मुमताज, तुम बहुत अच्छी हो,’’ असलम प्यार से बोला.

‘‘अच्छे तो आप हैं, जो मुझ जैसी बदसूरत लड़की को भी अपना रहे हैं,’’ कह कर मुमताज ने हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और रोने लगी.

‘‘पगली, आज रोने का नहीं हंसने का दिन है. आंसुओं को अब हमेशा के लिए गुडबाय कह दो. अब मैं तुम्हें हमेशा हंसतेमुसकराते देखना चाहता हूं.

‘‘और खबरदार, जो अब कभी खुद को बदसूरत कहा. मेरी नजरों में तुम दुनिया की सब से हसीन लड़की हो,’’ ऐसा कह कर असलम ने मुमताज को अपने सीने से लगा लिया.

मुमताज सोचने लगी, ‘अंधेरी रात कितनी भी लंबी क्यों न हो, मगर उस के बाद सुबह जरूर होती है.’

निगाहों से आजादी कहां : क्या बचा पाई वो अपनी इज्जत

‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.

ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.

रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’

रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’

‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’

‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’

‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’

‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’

‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’

‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’

‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’

‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’

‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’

‘‘नेकी और पूछपूछ.’’

‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’

‘‘तो चल,’’ कह कर रामकली चंपा के साथ हो ली. वैसे भी वह अब मजदूरी करना नहीं चाहती थी. एक तो यह हड्डीतोड़ काम था. फिर न जाने कितने मर्दों की काम वासना का शिकार बनो. कई मजदूर तो तगारी देते समय उस का हाथ छू लेते हैं, फिर गंदी नजरों से देखते हैं. कई ठेकेदार ऐसे भी हैं जो उसे हमबिस्तर बनाना चाहते हैं.

एक अकेली औरत की जिंदगी में कई तरह के झंझट हैं. उस का पति कन्हैया कमजोर है. जहां भी वह काम करता है, वहां से छोड़ देता है. भूखे मरने की नौबत आ गई तब मजबूरी में आ कर उसे मजदूरी करनी पड़ी.

जब पहली बार रामकली उस ठेकेदार के पास मजदूरी मांगने गई थी, तब वह वासना भरी आंखों से बोला था, ‘‘तुझे मजदूरी करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘ठेकेदार साहब, पेट का राक्षस रोज खाना मांगता है?’’ गुजारिश करते हुए वह बोली थी.

‘‘इस के लिए मजदूरी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत है तभी तो आप के पास आई हूं.’’

‘‘यहां हड्डीतोड़ काम करना पड़ेगा. कर लोगी?’’

‘‘मंजूर है ठेकेदार साहब. काम पर रख लो?’’

‘‘अरे, तुझे तो यह हड्डीतोड़ काम करने की जरूरत भी नहीं है,’’ सलाह देते हुए ठेकेदार बोला था, ‘‘तेरे पास वह चीज है, मजदूरी से ज्यादा कमा सकती है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहते हैं ठेकेदार साहब.’’

‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी जवानी है, किसी कोठे पर बैठ जाओ, बिना मेहनत के पैसा ही पैसा मिलेगा,’’ कह कर ठेकेदार ने भद्दी हंसी हंस कर उसे वासना भरी आंखों से देखा था.

तब वह नाराज हो कर बोली थी, ‘‘काम देना नहीं चाहते हो तो मत दो. मगर लाचार औरत का मजाक तो मत उड़ाओ,’’ इतना कह कर वह ठेकेदार पर थूक कर चली आई थी.

फिर कहांकहां न भटकी. जो भी ठेकेदार मिला, उस के साथ वह और चंपा काम करती थीं. दोनों का काम अच्छा था, इसलिए दोनों का रोब था. तब कोई मर्द उन की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा करता था.

मगर जैसे ही चंपा ने काम पर आना बंद किया, फिर काम करते हुए उस के आसपास मर्द मंडराने लगे. वह भी उन से हंस कर बात करने लगी. कोई मजदूर तगारी पकड़ाते हुए उस का हाथ पकड़ लेता, तब वह भी कुछ नहीं कहती है. किसी से हंस कर बात कर लेती है तब वह समझता है कि रामकली उस के पास आ रही है.

कई बार रामकली ने सोचा कि यह हाड़तोड़ मजदूरी छोड़ कर कोई दूसरा काम करे. मगर सब तरफ से हाथपैर मारने के बाद भी उसे ऐसा कोई काम नहीं मिला. जहां भी उस ने काम किया, वहां मर्दों की वहशी निगाहों से वह बच नहीं पाई थी. खुद को किसी के आगे सौंपा तो नहीं, मगर वह उसी माहौल में ढल गई.

‘‘ऐ रामकली, कहां खो गई?’’ जब चंपा ने बोल कर उस का ध्यान भंग किया तब वह पुरानी यादों से वर्तमान में लौटी.

चंपा आगे बोली, ‘‘तू कहां खो गई थी?’’

‘‘देख रामवती, तहसीलदार का बंगला आ गया. मेमसाहब के सामने मुंह लटकाए मत खड़ी रहना. जो वे पूछें, फटाफट जवाब दे देना,’’ समझाते हुए चंपा बोली.

रामकली ने गरदन हिला कर हामी भर दी.

दोनों गेट पार कर लौन में पहुंचीं. मेमसाहब बगीचे में पानी देते हुए मिल गईं. चंपा को देख कर वे बोलीं, ‘‘कहो चंपा, किसलिए आई हो?’’

‘‘मेमसाहब, आप ने कहा था, घर का काम करने के लिए बाई की जरूरत थी. इस रामकली को लेकर आई हूं,’’ कह कर रामकली की तरफ इशारा करते हुए चंपा बोली.

मेमसाहब ने रामकली को देखा. रामकली भी उन्हें देख कर मुसकराई.

‘‘तुम ईमानदारी से काम करोगी?’’ मेमसाहब ने पूछा.

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘रोज आएगी?’’

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘कोई चीज चुरा कर तो नहीं भागोगी?’’

‘‘नहीं मेमसाहब. पापी पेट का सवाल है, चोरी का काम कैसे कर सकूंगी…’’

‘‘फिर भी नीयत बदलने में देर नहीं लगती है.’’

‘‘नहीं मेमसाहब, हम गरीब जरूर हैं मगर चोर नहीं हैं.’’

चंपा मोरचा संभालते हुए बोली, ‘‘आप अपने मन से यह डर निकाल दीजिए.’’

‘‘ठीक है चंपा. इसे तू लाई है इसलिए तेरी सिफारिश पर इसे रख

रही हूं,’’ मेमसाहब पिघलते हुए बोलीं, ‘‘मगर, किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’’

‘‘आप को जरा सी भी शिकायत नहीं मिलेगी,’’ हाथ जोड़ते हुए रामकली बोली, ‘‘आप मुझ पर भरोसा रखें.’’

फिर पैसों का खुलासा कर उसे काम बता दिया गया. मगर 8 दिन का काम देख कर मेमसाहब उस पर खुश हो गईं. वह रोजाना आने लगी. उस ने मेमसाहब का विश्वास जीत लिया.

मेमसाहब के बंगले में आने के बाद उसे लगा, उस ने कई मर्दों की निगाहों से छुटकारा पा लिया है. मगर यह केवल रामकली का भरम था. यहां भी उसे मर्द की निगाह से छुटकारा नहीं मिला. तहसीलदार की वासना भरी आंखें यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

मर्द चाहे मजदूर हो या अफसर, औरत के प्रति वही वासना की निगाह हर समय उस पर लगी रहती थी. बस फर्क इतना था जहां मजदूर खुला निमंत्रण देते थे, वहां तहसीलदार अपने पद का ध्यान रखते हुए खामोश रह कर निमंत्रण देते थे.

ऐसे ही उस दिन तहसीलदार मेमसाहब के सामने उस की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘रामकली बहुत अच्छी मेहरी मिली है, काम भी ईमानदारी से करती?है और समय भी ज्यादा देती है,’’ कह कर तहसीलदार साहब ने वासना भरी नजर से उस की तरफ देखा.

तब मेमसाहब बोलीं, ‘‘हां, रामकली बहुत मेहनती है.’’

‘‘हां, बहुत मेहनत करती है,’’ तहसीलदार भी हां में हां मिलाते हुए बोले, ‘‘अब हमें छोड़ कर तो नहीं जाओगी रामकली?’’

‘‘साहब, पापी पेट का सवाल है, मगर…’’

‘‘मगर, क्या रामकली?’’ रामकली को रुकते देख तहसीलदार साहब बोले.

‘‘आप चले जाओगे तब आप जैसे साहब और मेमसाहब कहां मिलेंगे.’’

‘‘अरे, हम कहां जाएंगे. हम यहीं रहेंगे,’’ तहसीलदार साहब बोले.

‘‘अरे, आप ट्रांसफर हो कर दूसरे शहर में चले जाएंगे,’’ रामकली ने जब तहसीलदार पर नजर गड़ाई, तो देखा कि उन की नजरें ब्लाउज से झांकते उभार पर थीं. कभीकभी ऐसे में जान कर के वह अपना आंचल गिरा देती ताकि उस के उभारों को वे जी भर कर देख लें.

तब तहसीलदार साहब बोले, ‘‘ठीक कहती हो रामकली, मेरा प्रमोशन होने वाला है.’’

उस दिन बात आईगई हो गई. तहसीलदार साहब उस से बात करने का मौका ढूंढ़ते रहते हैं. मगर कभी उस पर हाथ नहीं लगाते हैं. रामकली को तो बस इसी बात का संतोष है कि औरत को मर्दों की निगाहों से छुटकारा नहीं मिलता है. मगर वह तब तक ही महफूज है, जब तक तहसीलदार की नौकरी इस शहर में है.

तुम्हें पाने की जिद में : रत्ना की क्या जिद थी

ट्रेन में बैठते ही सुकून की सांस ली. धीरज ने सारा सामान बर्थ के नीचे एडजस्ट कर दिया था. टे्रन के चलते ही ठंडी हवा के झोंकों ने मुझे कुछ राहत दी. मैं अपने बड़े नाती गौरव की शादी में शामिल होने इंदौर जा रही हूं.

हर बार की घुटन से अलग इस बार इंदौर जाते हुए लग रहा है कि अब कष्टों का अंधेरा मेरी बेटी की जिंदगी से छंट चुका है. आज जब मैं अपनी बेटी की खुशियों में शामिल होने इंदौर जा रही हूं तो मेरा मन सफर में किसी पत्रिका में सिर छिपा कर बैठने की जगह उस की जिंदगी की किताब को पन्ने दर पन्ने पलटने का कर  रहा है.

कितने खुश थे हम जब अपनी प्यारी बिटिया रत्ना के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में अपने सारे अनुभव और प्रयासों के निचोड़ से जीतेंद्र को सर्वथा उपयुक्त वर समझा था. आकर्षक व्यक्तित्व का धनी जीतेंद्र इंदौर के प्रतिष्ठित कालिज में सहायक प्राध्यापक है. अपने मातापिता और भाई हर्ष के साथ रहने वाले जीतेंद्र से ब्याह कर मेरी रत्ना भी परिवार का हिस्सा बन गई. गुजरते वक्त के साथ गौरव और यश भी रत्ना की गोद में आ गए. जीतेंद्र गंभीर और अंतर्मुखी थे. उन की गंभीरता ने उन्हें एकांतप्रिय बना कर नीरसता की ओर ढकेलना शुरू कर दिया था.

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जीतेंद्र के छोटे भाई चपल और हंसमुख हर्ष के मेडिकल कालिज में चयनित होते ही मातापिता का प्यार और झुकाव उस के प्रति अधिक हो गया. यों भी जोशीले हर्ष के सामने अंतर्मुखी जीतेंद्र को वे दब्बू और संकोची मानते आ रहे थे. भावी डाक्टर के आगे कालिज में लेक्चरर बेटे को मातापिता द्वारा नाकाबिल करार देना जीतेंद्र को विचलित कर गया.

बारबार नकारा और दब्बू घोषित किए जाने का नतीजा यह निकला कि जीतेंद्र गहरे अवसाद से ग्रस्त हो गए. संवेदनशील होने के कारण उन्हें जब यह एहसास और बढ़ा तो वह लिहाज की सीमाओं को लांघ कर अपने मातापिता, खासकर मां को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगे. वैचारिक असंतुलन की स्थिति में जीतेंद्र के कानों में कुछ आवाजें गूंजती प्रतीत होती थीं जिन से उत्तेजित हो कर वह अपने मातापिता को गालियां देने से भी नहीं चूकते थे.

शांत कराने या विरोध का नतीजा मारपीट और सामान फेंकने तक पहुंच जाता था. वह मां से खुद को खतरा बतला कर उन का परोसा हुआ खाना पहले उन्हें ही चखने को मजबूर करते थे. उन्हें संदेह रहता कि इस में जहर मिला होगा.

जीतेंद्र को रत्ना का अपनी सास से बात करना भी स्वीकार न था. वह हिंसक होने की स्थिति में उन का कोप भाजन नन्हे गौरव और यश को भी बनना पड़ता था.

मेरी रत्ना का सुखी संसार क्लेश का अखाड़ा बन गया था. अपने स्तर पर प्यारदुलार से जीतेंद्र के मातापिता और हर्ष ने सबकुछ सामान्य करने की कोशिश की थी मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. यह मानसिक ग्रंथि कुछ पलोें में नहीं शायद बचपन से ही जीतेंद्र के मन में पल रही थी.

दौरों की बढ़ती संख्या और विकरालता को देखते हुए हर्ष और उन के मातापिता जीतेंद्र को मानसिक आरोग्यशाला आगरा ले कर गए. मनोचिकित्सक ने मेडिकल हिस्ट्री जानने के बाद कुछ परीक्षणों व सी.टी. स्केन की रिपोर्ट को देख कर उन की बीमारी को सीजोफे्रनिया बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस रोग का उपचार लंबा और धीमा है. रोगी के परिजनों को बहुत धैर्य और संयम से काम लेना होता है. रोगी के आक्रामक होने पर खुद का बचाव और रोगी को शांत कर दवा दे कर सुलाना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें लगातार काउंसलिंग की आवश्यकता थी.

हम परिस्थितियों से अनजान ही रहते यदि गौरव और यश को अचंभित करने यों अचानक इंदौर न पहुंचते. हालात बदले हुए थे. जीतेंद्र बरसों के मरीज दिखाई दे रहे थे. रत्ना पति के क्रोध की निशानियों को शरीर पर छिपाती हुई मेरे गले लग गई थी. मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था. जिस रत्ना को एक ठोकर लगने पर मैं तड़प जाती थी वही रत्ना इतने मानसिक और शारीरिक कष्टों को खुद में समेटे हुए थी.

जब कोई उपाय नहीं रहता था तो पास के नर्सिंग होम से नर्स को बुला कर हाथपांव पकड़ कर इंजेक्शन लगवाना ही आखिरी उपाय रहता था.

इतने पर भी रत्ना की आशा और  विश्वास कायम था, ‘मां, यह बीमारी लाइलाज नहीं है.’ मेरी बड़ी बहू का प्रसव समय नजदीक आ रहा था सो मैं रत्ना को हौसला दे कर भारी मन से वापस आ गई थी.

रत्ना मुझे चिंतामुक्त रखने के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़ कर मुझे तटस्थ रखना चाहती थी. इस दौरान मेरे बेटे मयंक और आकाश जीतेंद्र को दोबारा आगरा मानसिक आरोग्यशाला ले कर गए. जीतेंद्र को वहां एडमिट किया जाना आवश्यक था, लेकिन उसे अकेले वहां छोड़ने को इन का दिल गवारा न करता और उसे काउंसलिंग और परीक्षणों के बाद आवश्यक हिदायतों और दवाओं के साथ वापस ले आते थे.

मैं बेटों के वापस आने पर पलपल की जानकारी चाहती थी. मगर वे ‘डाक्टर का कहना है कि जीतेंद्र जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,’ कह कर दाएंबाएं हो जाते थे.

कहां भूलता है वह दिन जब मेरे नाती यश ने रोते हुए मुझे फोन किया था. यश सुबकते हुए बहुत कुछ कहना चाह रहा था और गौरव फुसफुसा कर रोक रहा था, ‘फोन पर कुछ मत बोलो…नानी परेशान हो जाएंगी.’

लेकिन जब मैं ने उसे सबकुछ बताने का हौसला दिया तो उस ने रोतेरोते बताया, ‘नानी, आज फिर पापा ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ है. किसी भी तरह मनाने पर दवा नहीं ले रहे हैं. मम्मी को उन्होंने जोर से जूता मारा जो उन्हें घुटने में लगा और बेचारी लंगड़ा कर चल रही हैं. मम्मी तो आप को कुछ भी बताने से मना करती हैं, मगर हम छिप कर फोन कर रहे हैं. पापा इस हालत में हमें अपने पापा नहीं लगते हैं. हमें उन से डर लगता है. नानी, आप प्लीज, जल्दी आओ,’ आगे रुंधे गले से वह कुछ न कह सका था.

तब मैं और धीरज फोन रखते ही जल्दी से इंदौर के लिए रवाना हो गए थे. उस बार मैं बेटी की जिंदगी तबाह होने से बचाने के लिए उतावलेपन से बहुत ही कड़ा निर्णय ले चुकी थी लेकिन धीरज अपने नाम के अनुरूप धैर्यवान हैं, मेरी तरह उतावले नहीं होते.

इंदौर पहुंच कर मेरे मन में हर बार की तरह जीतेंद्र के लिए कोई सहानुभूति न थी बल्कि वह मेरी बेटी की जिंदगी तबाह करने का दोषी था. तब मेरा ध्येय केवल रत्ना, यश और गौरव को वहां से मुक्त करा कर अपने साथ वापस लाना था. जीतेंद्र की इस दशा के दोषी उस के मातापिता हैं तो वही उस का ध्यान रखें. मेरी बेटी क्यों उस पागल के साथ घुटघुट कर अपना जीवन बरबाद करे.

उफ, मेरी रत्ना को कितनी यंत्रणा और दुर्दशा सहनी पड़ रही थी. जीतेंद्र सो रहे थे. उन्हें बड़ी मुश्किल से दवा दे कर सुलाया गया था.

एकांत देख कर मैं ने अपने मन की बात रत्ना के सामने रख दी थी, ‘बस, बहुत हो गई सेवा. हमारे लिए तुम बोझ नहीं हो जो जीतेंद्र की मार खा कर यहां पड़ी रहो. करने दो इस के मांबाप को इस की सेवा. तुम जरूरी सामान बांधो और बच्चों को ले कर हमारे साथ चलो.’

तब यश और गौरव सहमे हुए मेरी बात से सहमत दिखाई दे रहे थे. आखिरकार उन्होंने ही तो मुझे समस्या से उबरने के लिए यहां बुलाया था. ‘क्या सोच रही हो, रत्ना. चलने की तैयारी करो,’ मैं ने उसे चुप देख कर जोर से कहा था.

‘सोच रही हूं कि मां बेटी के प्यार में कितनी कमजोर हो जाती है. आप को इन हालात से निकलने का सब से सरल उपाय मेरा आप के साथ चलना ही लग रहा है. ‘जीवन एक संघर्ष है’ यह घुट्टी आप ने ही पिलाई है और बेटी के प्यार में यह मंत्र आप ही भूले जा रही हैं… और लोगों की तरह आप भी इन्हें पागल की उपमा दे रही हैं जबकि यह केवल एक बीमार हैं.

‘आप ने तो पूर्ण स्वस्थ और सुयोग्य जीतेंद्र से मेरा विवाह किया था न? मैं ने जिंदगी की हर खुशी इन से पाई है. स्वस्थ व्यक्ति कभी बीमार भी हो सकता है तो क्या बीमार को छोड़ दिया जाता है. इन की इस बीमारी को मैं ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. दुनिया में संघर्षशील व्यक्ति न जाने कितने असंभव कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या मैं मानव सेवा परम धर्म के संस्कार वाले समाज में अपने पति की सेवा का प्रण नहीं ले सकती.

‘जीतेंद्र को इस हाल में छोड़ कर आप अपने दिल से पूछिए, क्या वाकई मैं आप के पास खुश रह पाऊंगी. यह मातापिता की अवहेलना से आहत हैं… पत्नी के भी साथ छोड़ देने से इन का क्या हाल होगा जरा सोचिए.

‘मम्मी, आप पुत्री मोह में आसक्त हो कर ऐसा सोच रही हैं लेकिन मैं ऐसा करना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती. हां, आप कुछ दिन यहां रुक जाइए… यश और गौरव को नानानानी का साथ अच्छा लगेगा. इन दिनों मैं उन पर ध्यान भी कम ही दे पाती हूं.’

रत्ना धीरेधीरे अपनी बात स्पष्ट कर रही थी. वह कुछ और कहती इस से पहले रत्ना के पापा, जो चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे, उठ कर रत्ना को गले लगा कर बोले, ‘बेटी, मुझे तुम से यही उम्मीद थी. इसी तरह हौसला बनाए रहो, बेटी.’

रत्ना के निर्णय ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया था. ऐसा लगा कि मेरी शिक्षा अधूरी थी. मैं ने रत्ना को जीवन संघर्ष मानने का मंत्र तो दिया मगर सहजता से जिम्मेदारियों का वहन करते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का पाठ मुझे रत्ना ने पढ़ाया. मैं उस के सिर पर हाथ फेर कर भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ‘बेटी, मैं तुम्हारे प्यार में हार गई लेकिन तुम अपने कर्तव्यों की निष्ठा में जरूर जीतोगी.’

कुछ दिन रत्ना और बच्चों के साथ गुजार कर मैं धीरज के साथ वापस आ गई थी. हम रहते तो ग्वालियर में थे मगर मन रत्ना के आसपास ही रहता था. दोनों बेटे अपने बच्चों और पत्नी के परिवार में खुश थे. मैं उन की तरफ से निश्चिंत थी. हम सभी चिंतित थे तो बस, रत्ना पर आई मुसीबत से. धीरज छुट्टियां ले कर मेरे साथ हरसंभव कोशिश करते जबतब इंदौर पहुंचने की.

रत्ना के ससुर इस मुश्किल समय में रत्ना को सहारा दे रहे थे. उन्होंने बडे़ संघर्षों के साथ अपने दोनों बेटों को लायक बनाया था. जीतेंद्र ही आर्थिक रूप से घर को सुदृढ़ कर रहे थे. हर्ष तब मेडिकल कालिज में पढ़ रहा था. इसलिए घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल होने लगी थी. बीमारी की वजह से जीतेंद्र को महीनों अवकाश पर रहना पड़ता था. अनेक बार छुट्टियां अवैतनिक हो जाती थीं. दवाइयों का खर्च तो था ही. काफी समय आगरा में अस्पताल में भी रहना पड़ता था.

जब कभी जीतेंद्र कालिज जाते तो रत्ना भी साथ जाती थी. रत्ना के कालिज  में उन के सहयोगियों से सहानुभूति और सहयोग की प्रार्थना की थी कि वे लोग जीतेंद्र की मानसिक स्थिति को देखते हुए उन के साथ बहस या तर्क न करें. जीतेंद्र को संतुलित रखने के लिए रत्ना साए की तरह उन के साथ रहती.

जीतेंद्र को बच्चों के भरोसे छोड़ कर रत्ना बाहर कहीं नौकरी करने भी नहीं जा सकती थी. इसलिए घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था. जिस दिन जीतेंद्र कुछ विचलित दिखते थे रत्ना को ट्यूशन वाले बच्चों को वापस भेजना पड़ता था, क्योंकि एक तो वह उन बच्चों को जीतेंद्र का कोपभाजन नहीं बनाना चाहती थी और दूसरे, वह नहीं चाहती थी कि आसपड़ोस के बच्चे जीतेंद्र की असंतुलित मनोदशा को नमकमिर्च लगा कर अपने परिजनों में प्रचारित करें. इस कारण सामान्य दिनों में उसे अधिक समय ट्यूशन में देना पड़ता था.

गृहस्थी की दो पहियों की गाड़ी में एक पहिए के असंतुलन से दूसरे पहिए पर सारा दारोमदार आ टिका था. सभी साजोसामान से भरा घर घोर आर्थिक संकट में धीरेधीरे खाली हो रहा था. यश और गौरव को शहर के प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल से निकाल कर पास के ही एक स्कूल में दाखिला दिला दिया था ताकि आनेजाने के खर्च और आर्थिक बोझ को कुछ कम किया जा सके. मासूम बच्चे भी इस संघर्ष के दौर में मां के साथ थे. वे कक्षा में अव्वल आ कर मां की आंखों में आशा के दीप जलाए हुए थे.

रत्ना जाने किस मिट्टी की बनी थी जो पल भर भी बिना आराम किए घर, बच्चों, ट्यूशन और पति सेवा में कहीं भी कोई कसर न रखना चाहती थी.

मेरे बेटे मयंक और आकाश अपनी लाड़ली बहन रत्ना की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते पर स्वाभिमानी रत्ना ने आर्थिक सहायता लेने से विनम्र इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि अपने परिवार के खर्चों के बाद एक गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए आप को अपने परिवार की इच्छाओं का गला घोंटना पडे़गा. भाई, आप का यह अपनापन और सहारा ही काफी है कि आप मुश्किल वक्त में मेरे साथ खडे़ हैं.

इन हालात की जिम्मेदार जीतेंद्र की मां खुद को निरपराधी साबित करने के लिए चोट खाई नागिन की तरह रत्ना के खिलाफ नईनई साजिशें रचती रहतीं. छोटे बेटे हर्ष और पति की असहमति के बावजूद जीतेंद्र को दूरदराज के ओझास्यानों के पास ले जा कर तंत्र साधना और झाड़फूंक करातीं जिस से जीतेंद्र की तबीयत और बिगड़ जाती थी. जीतेंद्र के विचलित होने पर उसे रत्ना के खिलाफ भड़का कर उस के क्रोध का रुख रत्ना  की ओर मोड़ देती थीं. केवल रत्ना ही उन्हें प्यारदुलार से दवा खिला पाती थी. लेकिन तब नफरत की आंधी बने जीतेंद्र को दवा देना भी मुश्किल हो जाता था.

जीतेंद्र को स्वयं पर भरोसा मजबूत कर अपने भरोसे में लेना, उन्हें उत्साहित करते हुए जिंदादिली कायम करना उन की काउंसलिंग का मूलमंत्र था.

सहनशक्ति की प्रतिमा बनी मेरी रत्ना सारे कलंक, प्रताड़ना को सहती चुपचाप अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती रही. यश और गौरव को हमारे साथ रखने का प्रस्ताव वह बहुत शालीनता से ठुकरा चुकी थी. ‘मम्मी, इन्हें हालात से लड़ना सीखने दो, बचना नहीं.’ वाकई बच्चे मां की मेहनत को सफल करने में जी जान से जुटे थे. गौरव इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर पूणे में नौकरी कर रहा है. यश इंदौर में ही एम.बी.ए. कर रहा है.

हर्ष के डाक्टर बनते ही घर के हालात कुछ पटरी पर आ गए थे. रत्ना की सेवा, काउंसलिंग और व्यायाम से जीतेंद्र लगभग सामान्य रहने लगे थे. हां, दवा का सेवन लगातार चलते रहना है. अपने बेटों की प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार मिल रही सफलता से वे गौरवान्वित थे.

रत्ना की सास अपने इरादों में कामयाब न हो पाने से निराश हो कर चुप बैठ गई थीं. भाभी को अकारण बदनाम करने की कोशिशों के कारण हर्ष की नजरों में भी अपनी मां के प्रति सम्मान कम हुआ था. हमेशा झूठे दंभ को ओढे़ रहने वाली हर्ष की मां अब हारी हुई औरत सी जान पड़ती थीं.

ट्रेन खुली हवा में दौड़ने के बाद धीमेधीमे शहर में प्रवेश कर रही थी. मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. इत्मिनान से रत्ना की जिंदगी की किताब के सुख भरे पन्नों तक पहुंचतेपहुंचते मेरी ट्रेन भी इंदौर पहुंच गई.

स्टेशन पर रत्ना और जीतेंद्र हमें लेने आए थे. कितना सुखद एहसास था यह जब हम जीतेंद्र और रत्ना को स्वस्थ और प्रसन्न देख रहे थे. शादी में सभी रस्मों में भागदौड़ में जीतेंद्र पूरी सक्रियता से शामिल थे. उन्हें देख कर लग ही नहीं रहा था कि यह व्यक्ति ‘सीजोफेनिया’ जैसे जजबाती रोग की जकड़न में है.

गौरव की शादी धूमधाम से हुई. शादी के बाद गौरव और नववधू बड़ों का आशीर्वाद ले कर हनीमून के लिए रवाना हो गए. शाम को मैं, धीरज, रत्ना और जीतेंद्र में चाय पीते हुए हलकीफुलकी गपशप में मशगूल थे. तब जीतेंद्र ने झिझकते हुए मुझ से कहा, ‘‘मम्मीजी, आप ने रत्ना के रूप में एक अमूल्य रत्न मुझे सौंपा है जिस की दमक से मेरा घर आलोकित है. मुझे सही मानों में सच्चा जीवनसाथी मिला है, जिस ने हर मुश्किल में मेरा साथ दिया है.’’

बेटी की गृहस्थी चलाने की सूझबूझ और सहनशक्ति की तारीफ सुन कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. ‘‘रत्ना, मेरा दुर्व्यवहार, इतनी आर्थिक तंगी, सास के दंश, मेरा इलाज… कैसे सह पाईं तुम इतना कुछ?’’ अनायास ही रत्ना से मुसकरा कर पूछ बैठे थे जीतेंद्र. रत्ना शरमा कर सिर्फ इतना ही कह सकी, ‘‘बस, तुम्हें पाने की जिद में.’’-

नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

“पापा, मैं यह शादी नहीं करना चाहती. प्लीज, आप मेरी बात मान लो…”

“क्या कह रही हो तुम? आखिर क्या कमी है मुनेंद्र में? भरापूरा परिवार है. खेतखलिहान हैं उस के पास. दोमंजिले मकान का मालिक है. घर में कोई कमी नहीं. हमारी टक्कर के लोग हैं,” उस के पिता ने गुस्से में कहा.

“पर पापा, आप भी जानते हैं, मुनेंद्र 5वीं फेल है जबकि मैं ग्रैजुएट हूं. हमारा क्या मेल?” मंजू ने अपनी बात रखी.

“मंजू, याद रख पढ़नेलिखने का यह मतलब नहीं कि तू अपने बाप से जबान लड़ाए और फिर पढ़ाई में क्या रखा है? जब लड़का इतना कमाखा रहा है, वह दानधर्म करने वाले इतने ऊंचे खानदान से है फिर तुझे बीच में बोलने का हक किस ने दिया? देख बेटा, हम तेरे भले की ही बात करेंगे. हम तेरे मांबाप हैं कोई दुश्मन तो हैं नहीं,” मां ने सख्त आवाज में उसे समझाने की कोशिश की.

“पर मां आप जानते हो न मुझे पढ़नेलिखने का कितना शौक है. मैं आगे बीएड कर टीचर बनना चाहती हूं. बाहर निकल कर काम करना है, रूपए कमाने हैं मुझे,” मंजू गिड़गिड़ाई.

“बहुत हो गई पढ़ाई. जब से पैदा हुई है यह लड़की पढ़ाई के पीछे पड़ी है. देख, अब तू चेत जा. लड़की का जन्म घर संभालने के लिए होता है, रुपए कमाने के लिए नहीं. तेरे ससुराल में इतना पैसा है कि बिना कमाई किए आराम से जी सकती है. चल, ज्यादा नखरे मत कर और शादी के लिए तैयार हो जा. हम तेरे नखरे और नहीं सह सकते. अपने घर जा और हमें चैन से रहने दे,” उस के पिता ने अपना फैसला सुना दिया था.

हार कर मंजू को शादी की सहमति देनी पड़ी. मुनेंद्र के साथ सात फेरे ले कर वह उस के घर आ गई. मंजू का मायका बहुत पूजापाठ करने वाला था. उस के पिता गांव के बड़े किसान थे. अब उसे ससुराल भी वैसा ही मिला था. पूजापाठ और अंधविश्वास में ये लोग दो कदम आगे ही थे.

किस दिन कौन से रंग के कपड़े पहनने हैं, किस दिन बाल धोना है, किस दिन नाखून काटने हैं और किस दिन बहू के हाथ दानपुण्य कराना है यह सब पहले से निश्चित रहता था.

सप्ताह के 7 में से 4 दिन उस से अपेक्षा रखी जाती थी कि वह किसी न किसी देवता के नाम पर व्रत रखे. व्रत नहीं तो कम से कम नियम से चले. रीतिरिवाजों का पालन करे. मंजू को अपनी डिगरी के कागज उठा कर अलमारी में रख देने पड़े. इस डिगरी की इस घर में कोई अहमियत नहीं थी.

उस का काम केवल सासससुर की सेवा करना, पति को सैक्स सुख देना और घर भर को स्वादिष्ठ खाना बनाबना कर खिलाना मात्र था. उस की खुशी, उस की संतुष्टि और उस के सपनों की कोई अहमियत नहीं थी.

समय इसी तरह गुजरता जा रहा था. बहुत बुझे मन से मंजू अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रही थी. शादी के 1 साल बीत जाने के बाद भी जब मंजू ने सास को कोई खुशखबरी नहीं सुनाई तो घर में नए शगूफे शुरू हो गए.

सास कभी उसे बाबा के पास ले जाती तो कभी टोटके करवाती, कभी भस्म खिलाती तो कभी पूजापाठ रखवाती. लंबे समय तक इसी तरह बच्चे के जन्म की आस में परिवार वाले उसे टौर्चर करते रहे. मंजू समझ नहीं पाती थी कि आखिर इस अनपढ़, जाहिल और अंधविश्वासी परिवार के साथ कैसे निभाए?

इस बीच खाली समय में बैठेबैठे उस ने फेसबुक पर एक लड़के अंकित से दोस्ती कर ली. अंकित पढ़ालिखा था और उसी की उम्र का भी था. दोनों बैचमेट थे. उस के साथ मंजू हर तरह की बातें करने लगी. अंकित मंजू की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता. उसे नईनई बातें बताता. दोनों के बीच थोड़ा बहुत अट्रैक्शन भी था मगर अंकित जानता था कि मंजू विवाहित है सो वह कभी अपनी सीमारेखा नहीं भूलता था.

एक दिन उस ने मंजू को बताया कि वह सिंगापुर अपनी आंटी के पास रहने जा रहा है. उसे वहां जौब भी मिल जाएगी. इस पर मंजू के मन में भी उम्मीद की एक किरण जागी. उसे लगा जैसे वह इन सारे झमेलों से दूर किसी और दुनिया में अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकती है.

उस ने अंकित से सवाल किया,” क्या मैं तुम्हारे साथ सिंगापुर चल सकती हूं?”

“पर तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हें जाने की अनुमति दे देंगे?” अंकित ने पूछा.

“मैं उन से अनुमति मांगने जाऊंगी भी नहीं. मुझे तो बस यहां से बहुत दूर निकल जाना है, ” मंजू ने बिंदास हो कर कहा.

“इतनी हिम्मत है तुम्हारे अंदर?” अंकित को विश्वास नहीं हो रहा था.

“हां, बहुत हिम्मत है. अपने सपनों को पूरा करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.”

“तो ठीक है मगर सिंगापुर जाना इतना आसान नहीं है. पहले तुम्हें पासपोर्ट, वीजा वगैरह तैयार करवाना पड़ेगा. उस में काफी समय लग जाता है. वैसे मेरा एक फ्रैंड है जो यह काम जल्दी कराने में मेरी मदद कर सकता है. लेकिन तुम्हें इस के लिए सारे कागजात और पैसे ले कर आना पड़ेगा. कुछ औपचारिकता हैं उन्हें पूरी करनी होगी,” अंकित ने समझाया.

“ठीक है, मैं कोई बहाना बना कर वहां पहुंच जाऊंगी. मेरे पास कुछ गहने पड़े हैं उन्हें ले आऊंगी. तुम मुझे बता दो कब और कहां आना है.”

अगले ही दिन मंजू कालेज में सर्टिफिकेट जमा करने और सहेली के घर जाने के बहाने घर से निकली और अंकित के पास पहुंच गई. दोनों ने फटाफट सारे काम किए और मंजू वापस लौट आई. घर में किसी को कानोंकान खबर भी नहीं हुई कि वह क्या कदम उठाने जा रही है.

इस बीच मंजू चुपकेचुपके अपनी पैकिंग करती रही और फिर वह दिन भी आ गया जब उसे सब को अलविदा कह कर बहुत दूर निकल जाना था. अंकित ने उसे व्हाट्सऐप पर सारे डिटेल्स भेज दिए थे.

शाम के 7 बजे की फ्लाइट थी. उसे 2-3 घंटे पहले ही निकलना था. उस ने अंकित को फोन कर दिया था. अंकित ठीक 3 बजे गाड़ी ले कर उस के घर के पीछे की तरफ खड़ा हो गया. इस वक्त घर में सब सो रहे थे. मौका देख कर मंजू बैग और सूटकेस ले कर चुपके से निकली और अंकित के साथ गाड़ी में बैठ कर एअरपोर्ट की ओर चल पड़ी.

फ्लाइट में बैठ कर उसे एहसास हुआ जैसे आज उस के सपनों को पंख लग गए हैं. आज से उस की जिंदगी पर किसी और का नहीं बल्कि खुद उस का हक होगा. वह छूट रही इस दुनिया में कभी भी वापस लौटना नहीं चाहती थी.

रास्ते में अंकित जानबूझ कर माहौल को हलका बनाने की कोशिश कर रहा था. वह जानता था कि मंजू अंदर से काफी डरी हुई थी. अंकित ने अपनी जेब से कई सारे चुइंगम निकाल कर उसे देते हुए पूछा,”तुम्हें चुइंगम पसंद हैं?”

मंजू ने हंसते हुए कहा,”हां, बहुत पसंद हैं. बचपन में पिताजी से छिप कर ढेर सारी चुइंगम खरीद लाती थी.”

“पर अब भूल जाओ. सिंगापुर में चुइंगम नहीं खा पाओगी.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि वहां चुइंगम खाना बैन है. सफाई को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर सरकार ने साल 1992 में चुइंगम बैन कर दिया था.”

अंकित के मुंह से यह बात सुन कर मंजू को हंसी आ गई. चेहरा बनाते हुए बोली,” हाय, यह वियोग मैं कैसे सहूंगी?”

“जैसे मैं सहता हूं,” कहते हुए अंकित भी हंस पड़ा.

“वैसे वहां की और क्या खासियतें हैं? मंजू ने उत्सुकता से पूछा.

“वहां की नाईटलाइफ बहुत खूबसूरत होती है. वहां की रातें लाखों टिमटिमाती डिगाइनर लेजर लाइटों से लैस होती हैं जैसे रौशनी में नहा रही हों.

“तुम्हें पता है, सिंगापुर हमारे देश के एक छोटे से शहर जितना ही बड़ा होगा. लेकिन वहां की साफसुथरी सड़कें, शांत, हराभरा वातावरण किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है. वहां संस्कृति के अनोखे और विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं. वहां की शानदार सड़कों और गगनचुंबी इमारतों में एक अलग ही आकर्षण है. सिंगापुर में सड़कों और अन्य स्थलों पर लगे पेड़ों की खास देखभाल की जाती है और उन्हें एक विशेष आकार दिया जाता है. यह बात इस जगह की खूबसूरती को और भी बढ़ा देते हैं. ”

“ग्रेट, पर तुम्हें इतना सब कैसे पता? पहले आ चुके हो लगता है?”

“हां, आंटी के यहां कई बार आ चुका हूं।”

सिंगापुर पहुंच कर अंकित ने उसे अपनी आंटी से मिलवाया. 2-3 दिन दोनों आंटी के पास ही रुके.

आंटी ने मंजू को सिंगापुर की लाइफ और वर्क कल्चर के बारे में विस्तार से समझाते हुए कहा,” वैसे तो तेरी जितनी शिक्षा है वह कहीं भी गुजरबसर करने के लिए काफी है. पर याद रख, तू फिलहाल सिंगापुर में है और वह डिगरी भारत की है जिस का यहां ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला.

“तेरे पास जो सब से अच्छा विकल्प है वह है हाउसहोल्ड वर्क का. सिंगापुर में घर संभालने के लिए काफी अच्छी सैलरी मिलती है. वैसे कपल्स जो दिन भर औफिस में रहते हैं उन्हें पीछे से बच्चों और बुजुर्गों को संभालने के लिए किसी की जरूरत पड़ती है. यह काम तू आसानी से कर सकेगी. बाद में काम करतेकरते कोई और अच्छी जौब भी ढूंढ़ सकती है.”

मंजू को यह आइडिया पसंद आया. उस ने आंटी की ही एक जानपहचान वाली के यहां बच्चे को संभालने का काम शुरू किया. दिनभर पतिपत्नी औफिस चले जाते थे. पीछे से वह बेबी को संभालने के साथ घर के काम करती. इस के लिए उसे भारतीय रुपयों में ₹20 हजार मिल रहे थे. खानापीना भी घर में ही था. ऐसे में वह सैलरी का ज्यादातर हिस्सा जमा करने लगी.

धीरेधीरे उस के पास काफी रुपए जमा हो गए. घर में सब उसे प्यार भी बहुत करते थे. बच्चों का खयाल रखतेरखते वह उन से गहराई से जुड़ती चली गई थी. अब उसे अपनी पुरानी जिंदगी और उस जिंदगी से जुड़े लोग बिलकुल भी याद नहीं आते थे. वह अपनी नई दुनिया में बहुत खुश थी. अंकित जैसे सच्चे दोस्त के साथसाथ उसे एक पूरा परिवार मिल गया था.

अपनी मालकिन सीमा की सलाह पर मंजू ने ऐडवांस कंप्यूटर कोर्स भी जौइन कर लिया ताकि उसे समय आने पर कोई अच्छी जौब का मौका भी मिल जाए. वह अब सिंगापुर और यहां के लोगों से भी काफी हद तक परिचित हो चुकी थी. यहां के लोगों की सोच और रहनसहन उसे पसंद आने लगी थी. यहां का साफसुथरा माहौल उसे बहुत अच्छा लगता. अंकित से भी उस की दोस्ती काफी खूबसूरत मोड़ पर थी. अंकित को जौब मिल चुकी थी और वह एक अलग कमरा ले कर रहता था.

हर रविवार जिद कर के वह मंजू को आसपास घुमाने भी ले जाता. वह मंजू की हर तरह से मदद करने को हमेशा तैयार रहता. कभीकभी मंजू को लगता जैसे वह अंकित से प्यार करने लगी है. अंकित की आंखों में भी उसे अपने लिए वही भाव नजर आते. मगर सामने से दोनों ने ही एकदूसरे से कुछ नहीं कहा था.

एक दिन शाम में अंकित उस से मिलने आया. उस ने घबराए हुए स्वर में मंजू को बताया,”मंजू, तुम्हारे पति को कहीं से खबर लग गई कि तुम मेरे साथ कहीं दूर आ गई हो. दरअसल, किसी ने तुम्हें मेरे साथ एअरपोर्ट के पास देख लिया था. यह सुन कर तुम्हारा पति मेरे भाई के घर पहुंचा और डराधमका कर सच उस से उगलवा लिया कि हम सिंगापुर में हैं.

“दोनों को यह लग रहा है कि तुम मेरे साथ भाग आई हो. हो सकता है कि तुम्हारा पीछा करतेकरते वे यहां भी पहुंच जाएं.”

“लेकिन उन के लिए सिंगापुर आना इतना आसान तो नहीं और यदि वे यहां आ भी जाते हैं तो उस से पहले ही मुझे यहां से निकलना पड़ेगा.”

“हां पर तुम जाओगी कहां?” चिंतित स्वर में अंकित ने पूछा.

“ऐसा करो मंजू तुम मलयेशिया निकल जाओ. वहां मेरी बहन रहती है. उस के घर में बूढ़े सासससुर और एक छोटा बेबी है. जीजू और दीदी जौब पर जाते हैं. पीछे से सास बेबी को संभालती हैं. मगर अब उन की भी उम्र काफी हो चुकी है. तुम कुछ दिनों के लिए उन के घर में फैमिली मैंबर की तरह रहो. मैं तुम्हारे बारे में उन्हें सब कुछ बता दूंगी. तुम बेबी संभालने का काम कर लेना. बाद में जब तुम्हारे पति और भाई यहां से चले जाएं तो वापस आ जाना. अंकित तुम्हें वहां भेजने का प्रबंध कर देगा,” सीमा ने समाधान सुझाया.

मंजू ने अंकित की तरफ देखा. अंकित ने हामी भरते हुए कहा,” डोंट वरी मंजू मैं तुम्हें सुरक्षित मलेशिया तक पहुंचाऊंगा मगर वीजा बनने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम्हें यहां छिप कर रहना होगा.”

“हां, अंकित मुझे अपनी पढ़ाई भी छोड़नी होगी. मैं नहीं चाहती कि मेरा पति या भाई मुझे पकड़ लें और फिर से उसी नरक में ले जाएं जहां से बच कर मैं आई हूं. आई विल बी ग्रेटफुल टू यू अंकित.”

“ओके, तुम डरो नहीं मैं इंतजाम करता हूं,” कह कर अंकित चला गया और मंजू उसे जाता देखती रही. फिर वह सीमा के गले लग गई. सीमा बड़ी बहन की तरह प्यार से उस का माथा सहलाने लगी.

इस बात को कई दिन बीत गए. एक दिन मंजू कंप्यूटर क्लास से निकलने वाली थी कि उसे अपने भाई की शक्ल वाला लड़का नजर आया. वह इस बात को मन का भ्रम मान कर आगे बढ़ने को हुई कि तभी उसे भाई के साथ अपना पति मुनेंद्र भी नजर आ गया. मंजू वहीं ठहर गई. वह नहीं चाहती थी कि उन दोनों को उस की झलक भी मिले. उस का पति और भाई इधरउधर देखते दूसरी सड़क पर आगे बढ़ गए तो वह दुपट्टे से चेहरा ढंक कर बाहर निकली और तेजी से अपने घर की तरफ चल दी. उसे बहुत डर लग रहा था. वह समझ गई थी कि उस का भाई और पति उस की तलाश में सिंगापुर पहुंच चुके हैं और अब यहां उस का बचना मुश्किल है.

घर आ कर उस ने सारी बात सीमा और अंकित को बताई. जाहिर था कि अब मंजू का सिंगापुर में रहना खतरे से खाली नहीं था. अब तक अंकित ने मंजू की वीजा का इंतजाम कर दिया था. अगले दिन ही उस के जाने का प्रबंध कर दिया गया. अपना सामान पैक करते समय मंजू सीमा के गले लग कर देर तक रोती रही. बच्चे भी मंजू को छोड़ने को तैयार नहीं थे.

छोटी परी ने तो उसे कस कर पकड़ लिया और कहने लगी,” नहीं दीदी, आप कहीं नहीं जाओगे हमें छोड़ कर.”

मंजू का दिल भर आया था. उस की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. अंकित के साथ एअरपोर्ट की तरफ जाते हुए भी वही सोच रही थी कि एक अनजान देश में अनजानों के बीच उसे अपने परिवार से कहीं ज्यादा प्यार मिला. यही नहीं, अंकित जैसा दोस्त मिला जो रिश्ते में कुछ न होते हुए भी उस के लिए इतनी भागदौड़ करता रहता है, उसे सुरक्षा देता है, उस की परवाह करता है. काश अंकित हमेशा के लिए उस का बन जाता. इसी तरह हमेशा उस के बढ़ते कदमों को हौंसला और संबल देता.

मंजू ने इन्हीं भावों के साथ अंकित की तरफ देखा. अंकित की नजरों में भी शायद यही भाव थे. एक अनकहा सा प्यार दोनों की आंखों में झलक रहा था पर दोनों ही कुछ कह नहीं पा रहे थे. अंकित ने उदास स्वर में कहा,”अपना ध्यान रखना मंजू।”

“देखो, तुम भी बच के रहना. कहीं वे तुम्हें देख न लें,” मंजू ने भी चिंतित हो कर कहा.

“नहींनहीं आजकल मेरी नाईटशिफ्ट चल रही है. मैं दिन में वैसे भी घर में ही रहता हूं सो पकड़ में नहीं आने वाला. अगर वे मुझे खोजते हुए घर तक आ भी गए तो मैं यही कहूंगा कि तुम मेरे साथ आई जरूर थी मगर अब कहां हो यह खबर नहीं है. तुम घबराओ नहीं आराम से रहना और अपना ध्यान रखना.”

मलयेशिया की फ्लाइट में बैठी हुई मंजू का दिल अभी भी अंकित को याद कर रहा था. शायद वह अंकित से दूर जाना नहीं चाहती थी. वह एक नए सफर की तरफ निकल तो चुकी थी पर इस बार पीछे जो छूट रहा था वह सब फिर से पा लेने की चाहत थी.

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