मैं अहम हूं- भाग 2: शशि की लापरवाही

उस के व्यावहारिक होने का थोड़ा अंदाजा तो बाहर से ही मिल रहा था. जब अंदर जा कर देखा तो एलईडी टैलीविजन, कंप्यूटर, चमचमाता महंगा फर्नीचर ओह, क्याक्या गिनाए. शशि की हैरानी को इंदुशायद भांप गई थी. बड़े गर्व से, गर्व के बजाय घमंड कहना ही उचित होगा, बोली, ‘यह सब मेरी मेहनत का फल है. यदि विकी को छात्रावास में न रखती तो इतने आराम से नौकरी थोड़े ही की जा सकती थी. उस को देखने के लिए आया, नौकर रखो, फिर उन नौकरों की निगरानी करो, अच्छा सिरदर्द ही समझो. अब मुझे कोई फिक्र नहीं. हर महीने 70 हजार रुपए कमा लेती हूं. काम भी अच्छा ही है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंसल्टैंट के तौर पर काम करती हूं. जरा ढंग से संवर के रहना, लोगों से मिलना और मुसकान बिखेरते रहना. संवर के रहना किस औरत को अच्छा नहीं लगेगा. अरे, मैं तो बोले ही जा रही हूं. आप भी कहेंगी, अच्छी मिली. आइए, मैं आप को पूरा घर दिखाऊं.’

शयनकक्ष तो बिलकुल फिल्मी था. बढि़या सुंदर डबलबैड और उस पर बिछी चादर इतनी सुंदर कि हाय, शशि कल्पना में अपनेआप को उस पर अजय के साथ देखने लगी. सिर को झटक कर उस विचार को तुरंत निकाल देने की कोशिश की. बाहर के कमरे में आने पर अजय बोला, ‘चलो शशि, क्या यहीं रहने का इरादा है?’

इंदु ने अजय से कहा, ‘आप इन्हें कभीकभी यहां ले आया करिए. इन का मन भी बहला करेगा. आप को समय न हो तो मनोज को फोन कर दिया कीजिए, हम खुद ही इन्हें ले आएंगे.’ शशि की इच्छा तो हुई कि कहे, जब आप लेने आएंगी तो वहीं, मेरे घर पर बातचीत हो सकती है. पर उस का मन इतना भारी हो रहा था कि लग रहा था कि अगर एक बोल भी मुंह से निकला तो वह रो देगी. वह समझ रही थी कि इंदु सिर्फ अपने धन का दिखावा भर दिखाना चाहती थी. घर लौटते हुए आधे रास्ते तक दोनों चुप रहे. फिर अजय एकदम बोला, ‘मनोज की पत्नी भी खूब है.’ वह आगे कुछ बोले, इस से पहले शशि ने टोक दिया, ‘हां, मुझ जैसी बेवकूफ थोड़ी है.’

उस की आवाज रोंआसी थी. अजय ने आश्चर्य से उस की ओर देखा और प्यार से बोला, ‘शशि, कैसी बेवकूफों सी बातें करती हो?’ फिर उस ने एकदम दांतों तले जीभ दबा ली. यह वह अनजाने में क्या बोल गया, मानो शशि की कही हुई बात का समर्थन कर दिया हो. एकदम बात बदलते हुए बोला, ‘बहुत देर हो गई, बच्चे शायद सो भी गए होंगे.’ पर शशि की आग्नेय दृष्टि देख कर फिर वह रास्ते भर चुप ही रहा.

घर पहुंचने पर शशि सिरदर्द का बहाना कर के बिना कुछ खाएपिए लेट गई. पर रातभर उसे इंदु के बैडरूम के ही सपने आते रहे. इंदु की अलमारी में सजी साडि़योें की इंद्रधनुषी छटा रहरह कर आंखों के सामने नाच रही थी. ओह, कितनी साडि़यां, रोज एकएक पहने तो साल में उसे 3 या 4 बार से अधिक पहनने का मौका न आए. अब तो उन की दूसरी कार भी आने को है. वैसे तो कई लोगों के अच्छे व बड़े घर, कार सब देख चुकी है. खुद उस के भाईसाहब के पास कार है पर वे बहुत बड़े इंजीनियर हैं. अपने पति की बराबरी में तो जो भी हैं, सब का रहनसहन करीबकरीब एकसा ही है. शशि ने यह नहीं सोचा था कि उस की बेचैनी एक दिन उसे नौकरी करने पर मजबूर कर देगी. आवेदन देने के पहले कई दिन तक ऊहापेह में पड़ी रही. ढाई साल का बबलू, उसे कौन संभालेगा? सासूमां बूढ़ी हैं. अजय से जब राय मांगी तो उन्होंने भी यही कहा, ‘भई, परिस्थितिवश नौकरी करना बुरी बात नहीं, पर तुम्हें नौकरी की क्या जरूरत पड़ गई? कम से कम बबलू ही कुछ बड़ा हो कर स्कूल जाने लगे तो ठीक है. फिर आगे तुम्हारी इच्छा.’

सासससुर ने भी कहा, ‘बहू, बबलू को तो हम संभाल लेंगे. हमारा और है ही कौन. पर तुम्हारा शरीर भी तो दोनों भार को सहन कर सके तब न. जो भी करो, सोचसमझ कर करो.’’ पर उस के सिर पर तो जैसे जनून सवार था. 6-7 दिन तक तो स्कूल में बबलू की खूब याद आती थी, फिर ठीक लगने लगा. पर रोज स्कूल से लौट कर जब घर में कदम रखती तो घर की कुछ अव्यवस्थता मन को खटकती. एक दिन जब वह स्कूल से लौटी तो घर में कोई मेहमान आए हुए थे. कामवाली घर पर नहीं थी तो नीलू उन को पानी दे रही थी. नीलू को देखते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर आ पहुंचा. बाल बिखरे हुए, फ्रौक की तुरपन उधड़ी हुई, हाथ में पेंटिंग कलर लगे हुए थे, अजीब हाल बना रखा था. नीलू को बगल से पकड़ कर खींचते हुए वह अंदर ले गई. उस का तमतमाता चेहरा देख कर वहां का वातावरण एकदम बोझिल हो गया. नीलू सुबकती हुई एक कोने में खड़ी हो गई.

उस समय शशि को अपनी गलती का खयाल नहीं आया, बल्कि उसे सब पर गुस्सा आया कि सब उस से खार खाए बैठे हैं और जानबूझ कर उस का अपमान करना चाहते हैं. पर आज लगता है, वास्तव में उस ने अपनी नौकरी के आगे बाकी हर बात को गौण समझ लिया. पहले वह अजय के मोजे, रूमाल देख कर रख दिया करती थी, उस के कपड़ों पर प्रैस, बटन आदि का भी ध्यान रखती थी. दोपहर के समय बच्चों के पुराने कपड़ों को बड़ा करना, मरम्मत करना आदि काफी कुछ काम कर लेती थी. अब तो अजय अपने हाथ से बटन लगाना आदि छोटीमोटी मरम्मत कर लेता है, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता. बबलू भी इन 2 ही महीनों में कुछ दुबला हो गया है. दादी दूध दे सकती हैं, खिला सकती हैं, प्यार भी बहुत करती हैं, पर मां की ममता व आरंभिक शिक्षा और कोई थोड़े ही दे सकता है.

बहन का सुहाग: चंचल रिया की चालाकी

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बयार बदलाव की- भाग 2 : नीला की खुशियों को किसकी नजर लग गई थी

शाम को वह घर पहुंचा तो नीला मम्मीपापा के साथ बातें करने में मशगूल थी. मम्मीपापा भी उस की गृहस्थी देख कर बहुत खुश थे. चारों बैठ कर बातें करने लगे. उन्हें पता ही नहीं चला कि कितना समय गुजर गया. डिनर तो आज बाहर ही कर लेंगे, उस ने सोचा, इसलिए बोला, ‘‘मम्मीपापा चलिए ड्राइव पर चलते हैं, घूम भी लेंगे और खाना भी खा कर आ जाएंगे.’’

चारों तैयार हो कर चले गए. सुबह उस का औफिस था. उस की नींद और दिनों से भी जल्दी खुल गई. उस ने एकदो बार नीला को हौले से उठाने की कोशिश की पर वह इतनी गहरी नींद में थी कि हिलडुल कर फिर सो गई. वह उठ कर मम्मीपापा के कमरे की तरफ चला गया. तभी उस ने देखा कि मम्मी किचन में गैस जलाने की कोशिश कर रही हैं. वह किचन में चला गया.

‘‘क्या कर रही हैं मम्मी?’’ ‘‘चाय बना रही थी बेटा, तू पिएगा चाय?’’ ‘‘हां, पी लूंगा.’’ ‘‘और नीला?’’ ‘‘वह तो अभी…’’ ‘‘सो रही होगी, कोई बात नहीं. जब उठेगी तब पी लेगी. हम तीनों की बना देती हूं,’’ मां के चेहरे से उसे बिलकुल भी नहीं लगा कि उन्हें नीला के देर तक सोने पर कोई आश्चर्य हो रहा है. बातें करतेकरते तीनों ने चाय खत्म की. पर दिल ही दिल में वह अनमयस्क सोच रहा था कि ‘काश, नीला भी उठ जाती.’

औफिस का समय हो रहा था. वह तैयार होने चला गया. वह रोज सुबह अपने कपड़े खुद ही प्रैस करता था. खासकर शर्ट तो रोज ही प्रैस करनी पड़ती थी. मम्मी बाथरूम में थीं. प्रैस की टेबल लौबी में लगी थी. उस ने सोचा जब तक मम्मी बाथरूम से आती हैं तब तक वह शर्ट प्रैस कर लेगा. अभी वह प्रैस कर ही रहा था कि मम्मी बाथरूम से निकल आईं.

‘‘अरे, तू प्रैस कर रहा है बेटा, ला मैं कर देती हूं.’’ ‘‘नहींनहीं मम्मी, मैं कर लूंगा,’’ वह कुछकुछ ?ोंपता हुआ सा बोला. ‘‘नहींनहीं, मैं कर देती हूं. तू तैयार हो जा और नाश्ते में क्या खाएगा?’’ ‘‘मैं तो कौर्नफ्लैक्स और दूध लेता हूं.’’ ‘‘आजकल तो कुछ और नाश्ता कर ले. कौर्नफ्लैक्स और दूध तो रोज ही लेते हो तुम दोनों. जो नीला को भी पसंद हो…’’

‘‘नीला को तो उत्तपम बहुत पसंद है. वहां अलमारी में पड़े हैं पैकेट,’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘ठीक है, मैं उत्तपम ही बना देती हूं. मु?ो और तेरे पापा को भी बहुत पसंद है,’’ मम्मी ने हंस कर कहा. उसे लगा मम्मी ने कुछ कहा नहीं पर सोच रही होंगी कि बीवी सो रही है और वह औफिस जाने के लिए चीजों से जू?ा रहा है. पर मम्मी के चेहरे पर उसे ऐसा कोई भाव नजर नहीं आया.

उस ने तृप्ति से नाश्ता किया. तब तक नीला भी उठ गई. अपनी तरफ से तो वह भी रोज से जल्दी उठ गई थी. वह सब को बाय करता हुआ औफिस चला गया. नीला बाथरूम से फ्रैश हो कर आई तो मम्मी ने उसे भी नाश्ता पकड़ा दिया.

वह औफिस में बैठा लंच के बारे में सोच रहा था. पता नहीं घर में क्या बना होगा. उस के मातापिता तो रोज बाहर का भी नहीं खा पाएंगे. उस ने नीला को फोन किया.

‘‘हैलो,’’ नीला की सुरीली व मासूम सी आवाज सुन कर वह सबकुछ  भूल गया. ‘‘लंच में कुछ बनाया भी है या नहीं? नहीं तो बाहर से और्डर कर लो.’’ ‘‘मम्मी ने बढि़या राजमाचावल बनाए हैं और मेरी पसंद की गोभी की सब्जी भी,’’ नीला के स्वर में मां के आने का सा लाड़लापन था. इठलाते हुए बोली, ‘‘आप को भी खाना है तो घर आ जाओ.’’

‘‘नहीं, तुम ही खाओ. मैं शाम को बचा हुआ खा लूंगा,’’ वह हंसता हुआ बोला, ‘‘चाय तुम अच्छी बनाती हो. कम से कम शाम की बढि़या चाय पिला देना मम्मीपापा को,’’ जवाब में नीला भी बिना सोचेसम?ो हंस दी.

शाम को वह जल्दी घर पहुंच गया. तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. उस के आते ही मम्मीपापा ने नीला की बनाई चाय की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. वह मन ही मन मुसकरा दिया.’’ ‘‘मम्मी, नीला टमाटर का सूप भी बहुत अच्छा बनाती है. नीला, आज सूप बना कर पिला दो.’’

‘‘हां, आज मैं सूप बना दूंगी, ठीक है मम्मी?’’ ‘‘ठीक है. डिनर में क्या बनाऊं,’’ मम्मी किचन की तरफ जाती हुई बोलीं.

‘‘बाहर घूमने चलेंगे तो खाना खा कर आ जाएंगे,’’ वह बोला.‘‘नहींनहीं, कुछ तैयारी कर देती हूं. फिर घूमने जाएंगे. जब तक हम हैं,  तब तक घर का खा लो,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘हां मम्मा,’’ नीला लाड़ से मम्मी के गले में बांहें डालती हुई बोली, ‘‘आज दमआलू बना दो जैसे आप ने चंडीगढ़ में बनाए थे. सारी तैयारी मैं कर देती हूं. आप मु?ो बता दीजिए. बना आप दीजिए.’’

‘‘ठीक है, मैं अपनी गुडि़या की पसंद बनाऊंगी,’’ मम्मी प्यार से नीला की बलैयां लेती हुई बोलीं.

रमन सुखद आश्चर्य से मम्मी को देख रहा था. बदली सिर्फ उस की पीढ़ी ही नहीं है. उस के मातापिता की पीढ़ी ने भी खुद को कितना बदल लिया है.

मम्मी ने आननफानन डिनर की तैयारी की और चारों घूमने चल दिए. बाहर वह देख रहा था. नीला मम्मीपापा से ही चिपकी हुई है. कभी एक का हाथ पकड़ रही है तो कभी दूसरे का. कभीकभी तो उसे लग रहा था कि शायद मांबाप नीला के आए हैं और वह दामाद है.

नीला छोटीछोटी बातों में मम्मीपापा का बहुत ध्यान रख रही थी. घुमाते समय भी एकएक जगह के बारे में उन्हें बता रही थी और उस के मातापिता तो अपनी लाड़ली बहू पर फिदा हुए जा रहे थे.

रोज की यही दिनचर्या बीत रही थी. मम्मी ने किचन का लगभग सारा भार अपने ऊपर ले लिया था. नीला को जो कुछ बनाना आता था, वह भी पूरे मनोयोग से बना कर खिलाने की कोशिश करती. शाम को चारों घूमने निकल जाते. घर आ कर जहां नीला कपड़े बदलने में लग जाती, मम्मी किचन में पहुंच कर डिनर का बचा हुआ कार्य खत्म करतीं और फिर बैठ जातीं. तब तक नीला आती और बढि़या चाय बना कर मम्मीपापा को पिलाती. गजब का सामंजस्य था. कहीं कोई हलचल नहीं. कहीं कुछ गड़बड़ नहीं.

एक दिन उस ने पापा से नाइट क्लब  में जाने की बात कही. उस के मम्मीपापा उच्चशिक्षित थे. सहर्ष तैयार हो गए. वे तैयार होने कमरे में चले गए. वे दोनों भी तैयार होने चले गए. वह तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठ गया. मम्मीपापा भी बाहर आ कर बैठ गए. थोड़ी देर बाद नीला तैयार हो कर निकली तो रमन सन्न रह गया. नीला ने घुटनों से ऊपर की स्लीवलैस लाल रंग की मिनी पहनी हुई थी.

वह घबरा कर मम्मीपापा के चेहरे देखने लगा. अभी तक की उस की ड्रैसेज को तो वे सहर्ष पचा रहे थे पर… उसे पता होता कि नीला आज क्या पहनने वाली है तो वह उसे मना कर देता. हालांकि नीला जहां जा रही थी वहां के माहौल के अनुरूप ही उस ने ड्रैस पहनी थी.

मम्मीपापा की नजर उस पर पड़ी तो दोनों मुसकरा दिए, ‘‘अरे वाह, नीला, तू तो पहचान में ही नहीं आ रही है. बहुत स्मार्ट लग रही है. किसी फिल्म की हीरोइन लग रही है,’’ पापा बोले.

‘‘हमारी बेटी किसी फिल्म हीरोइन से कम है क्या. जो भी पहनती है उस पर सबकुछ अच्छा लगता है,’’ मम्मी भी हुलस कर बोलीं.

सुन कर वह चारों खाने चित्त हो गया. उस के मम्मीपापा की सोच उस की कल्पना से बहुत आगे व आधुनिक थी. वह अपने दोस्तों के घरों की स्थितियों के बारे में सोचने लगा. जब उन की बीवियों और उन के मातापिताओं का आमनासामना होता है तो इन्हीं छोटीछोटी बातों पर उन की अपने बेटों की आधुनिक मिजाज बीवियों से, जो लाड़ली बेटियां रही हैं, खटपट मची रहती है. उन के मातापिताओं को अपनी बहुओं के देर से उठने से ले कर पहननेओढ़ने के तौरतरीकों, ठीक से खाना खाना न आना, काम करने की आदत न होना आदि तमाम बातों से शिकायतें थीं. और बहुओं को सासससुर की टोकाटाकी वह पहननेओढ़ने के बंधनों से सख्त नफरत थी. जिस में बेचारे बेटे या पति की दुर्दशा हो जाती थी.

बेटा अपनी पत्नी से प्यार करता है. वह उस की अच्छीबुरी आदतों के साथ सम?ाता करना चाहता है पर यह बात मातापिता नहीं सम?ा पाते. उन्हें अपना बेटा बेचारा लगने लगता है. वे नहीं सम?ा पाते कि बहू की बुराई या उसे नापसंद करना बेटे के हृदय को तोड़ देता है, उन के बीच के नाजुक रिश्ते, जो समय के साथ मजबूती पाया है, को कमजोर करता है. खैर, यह उन की समस्या है. उस ने सोचा, वह तो खामखां ही डर रहा था इतने दिनों से. इसलिए अपने मम्मीपापा को खुलेदिल से आने के लिए भी नहीं कह पा रहा था.

वे चारों साथ में खूब मस्ती कर रहे थे. घूमने जाते, हंसतेबोलते. हंसीमजाक से उस का छोटा सा फ्लैट हर समय गुलजार रहता. नीला को भले ही किचन का बहुत अधिक काम नहीं आता था पर उस के प्यार व उस की भावनाओं में मम्मीपापा के प्रति कहीं कमी नहीं थी. बल्कि, उन की उपस्थिति से वह उस से अधिक आनंदित हो रही थी.

धीरेधीरे मम्मीपापा के जाने का दिन करीब आ रहा था. जैसेजैसे उन के जाने का दिन करीब आ रहा था, नीला उदास होती जा रही थी. वह बराबर मम्मीपापा से मीठा ?ागड़ा करने पर तुली हुई थी.

‘‘आप वापस क्यों जा रहे हैं मम्मी, वहां क्या रखा है? आप के बच्चे तो यहां पर हैं. यहीं रहिए न.’’

‘‘फिर आएंगे बेटा. अब तुम आ जाओगे छुट्टी पर. साल में 2 बार तुम आ जाओगे, एक बार हम आ जाएंगे. मिलनाजुलना होता रहेगा,’’ पापा उसे दुलार करते हुए बोले.

‘‘लेकिन आप दोनों यहीं क्यों नहीं रह सकते हमेशा,’’ नीला लगभग रोंआसी सी हो गई.

मम्मी ने उसे सीने से लगा लिया, ‘‘हम यहीं रह गए तो तुम घर किस के पास जाओगे. अगली बार आएंगे तो ज्यादा दिन रहेंगे,’’ फिर उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘बहुत दिन घर भी अकेला नहीं छोड़ा जाता. तू तो हमारी लाखों में एक लाड़ली बेटी है. तेरे साथ तो हमें बहुत अच्छा लगता है.’’ पर नीला की आंखें भर आई थीं. नीला की भरी आंखें देख कर उस का हृदय भी भावुक हो रहा था. ‘‘पापा, थोड़े दिन और रुक जाइए न. मैं फ्लाइट का टिकट आगे बढ़ा देता हूं,’’ रमन बोला.

‘‘नहीं बेटा. इस बार रहने दो, अगली बार आएंगे तो घर का प्रबंध ठीक से कर के आएंगे तब ज्यादा दिन रह लेंगे.’’

मम्मीपापा के जाने का दिन आ गया. उन की शाम की फ्लाइट थी. उस दिन रविवार था. मम्मीपापा के न… न… करतेकरते भी नीला ने उन के लिए ढेर सारे गिफ्ट खरीदवाए थे. सुबह वह काफी जल्दी उठ कर मम्मीपापा के कमरे में चला गया. पापा मौर्निंग वाक पर गए हुए थे. वह मम्मी के पास जा कर बैठ गया.

‘‘मैं तेरे लिए चाय बना कर ले आती हूं,’’ मम्मी उठने का उपक्रम करती  हुई बोलीं.

‘‘नहीं मम्मी, रहने दो. मु?ो रोज चाय पीने की आदत नहीं है. बैठो आप. कल से आप कहां होंगी. इतने दिन तो पता ही नहीं चला. कब एक महीना बीत गया, बहुत अच्छा लगा आप के और पापा के आने से.’’

‘‘हमें भी तो बहुत अच्छा लगा बेटा तुम्हारे पास आने से. कितना ध्यान रखा तुम दोनों ने, कितना घुमाया, कितना खर्च किया हमारे ऊपर, इतनी सारी चीजें भी खरीद लीं.’’

‘‘कुछ नहीं किया मम्मी, फिर मातापिता को खुश करने से आशीर्वाद तो हमें ही मिलेगा.’’

‘‘कितनी प्यारी और मीठी बातें करते हो तुम दोनों,’’ मम्मी खुशी से छलक आई अपनी आंखों को पोंछती हुई बोलीं, ‘‘दिल को छू जाती हैं तुम्हारी बातें, तुम्हारी भावनाएं. खुशनसीब हैं हम कि हमारे ऐसे प्यारे बच्चे हैं. एक महीना बहुत खुशी से बीता.’’

‘‘पर आप पर काम का भार पड़ गया,’’ रमन संकोच से बोला, ‘‘दरअसल, नीला को अभी गृहस्थी का ज्यादा काम नहीं आता. धीरेधीरे सीख रही है. नौकरी करेगी तो जल्दी उठने की आदत भी पड़ जाएगी.’’

‘‘काम कोई माने नहीं रखता बेटा. नीला कोशिश करती है, आलसी नहीं है. उस से जो भी हो पाता है वह पूरा प्रयत्न करती है. कुछ कर न पाना और कुछ करना ही न चाहना, दोनों बातों में फर्क है. मुख्य तो स्वभाव होता है, भावनाओं और विचारों से यदि इंसान अच्छा है तो ये बातें कोई अहमियत नहीं रखतीं. आदतें बदल जाती हैं. काम करना आ जाता है. आजकल एकदो बच्चे होते हैं. बेटियां बहुत लाड़प्यार और संपन्नता में बड़ी होती हैं. उन के जीवन का ध्येय किचन या गृहस्थी का काम सीखना नहीं, बल्कि पढ़ाईलिखाई कर के कैरियर बनाना होता है. इसलिए विवाह होते ही उन से ऐसी उम्मीद करना गलत है.

‘‘नीला बहुत प्यारी लड़की है, उस के हृदय का पूरा प्यार और भावना हम तक पूरी की पूरी पहुंच जाती है. हम तो ऐसी बहू पा कर बहुत खुश हैं,’’ मां उस के चेहरे पर मुसकराती नजर डाल कर बोलीं, ‘‘अभी वह बच्ची है. कल को बच्चे होंगे तो कई बातों में वह खुद ही परिपक्व हो जाएगी.’’

‘‘जी मम्मी, मैं भी यही सोचता हूं.’’

‘‘और बेटा, आजकल लड़की क्या और लड़का क्या, दोनों को ही समानरूप से गृहस्थी संभालनी चाहिए. वरना लड़कियां, खासकर महानगरों में, नौकरियां कैसे करेंगी जहां नौकरों की भी सुविधा नहीं है.’’

‘‘जी मम्मी, मैं इस बात का ध्यान रखूंगा.’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर एकाएक रमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, सच बताऊं तो मैं नहीं सोच पा रहा था कि आप नीला की पीढ़ी की लड़कियों के रहनसहन की आदतों व पहननेओढ़ने के तरीकों को इतनी स्वाभाविकता से ले लेंगी, इसलिए…’’ कह कर उस ने नजरें ?ाका लीं.

‘‘इसीलिए हमें आने के लिए नहीं बोल रहा था,’’ मम्मी हंसने लगीं, ‘‘तेरे मातापिता अनपढ़ हैं क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, आप की पीढ़ी तो पढ़ीलिखी है. मेरे सभी दोस्तों के मातापिता उच्चशिक्षित हैं पर पता नहीं क्यों बदलना नहीं चाहते.’’

‘‘बदलाव बहुत जरूरी है बेटा. समय को बहने देना चाहिए. पकड़ कर बैठेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? रिश्ते भी ठहर जाएंगे, दूरियां भी बढ़ेंगी…’’

‘‘यह सम?ा सब में नहीं होती मम्मी,’’ यह बोला ही था कि तभी उस के पापा आ गए. नीला भी आंखें मलतेमलते उठ कर आ गई और मम्मी की गोद में सिर रख कर गुडमुड कर लेट गई. मम्मी हंस कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

मां की उम्मीद- भाग 1 : क्या कामयाब हो पाया गोपाल

जून का महीना खत्म होने वाला था. होस्टल भी तकरीबन खाली था. कहींकहीं कोई इक्कादुक्का छात्र दिख जाता था. ऐसे में होस्टल के कमरे में चारपाई पर गोपाल अकेला लेटा हुआ छत की ओर देखे जा रहा था. उस के चेहरे पर तनाव की रेखाएं साफ दिखाई पड़ रही थीं.

2 महीने पहले गोपाल ने एमए (इकोनौमिक्स) का इम्तिहान दिया था, जिस का नतीजा कभी भी आ सकता था. उसे नतीजे की इतनी चिंता नहीं थी, क्योंकि उसे पता था कि पास तो वह हो ही जाएगा. उसे तो चिंता थी कि उसे कौन सा नंबर हासिल होगा. उस का मकसद था कि उसे यूनिवर्सिटी में पहला नंबर हासिल हो और साथ में मिले गोल्ड मैडल. गोल्ड मैडल के लिए उसे अपने दूसरे सहपाठियों के साथ चल रही कड़ी होड़ का भी पूरापूरा अंदाजा था.

सब से ज्यादा होड़ तो गोपाल को अपने ही कालेज के एक दूसरे सहपाठी विद्या चरण से थी, जो बहुत अमीर परिवार से था और जिस के पास पढ़ाई के पूरे साधन मौजूद थे,

चाहे किताबें हों या अकेला कमरा और घर में नौकरचाकर की सुविधा.

विद्या चरण के मुकाबले उस के पास तो किताबें खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे. वह तो किताबों के लिए कालेज की एकमात्र लाइब्रेरी पर ही पूरी तरह से निर्भर था.

इम्तिहान शुरू होने से तकरीबन 2 महीने पहले की बात थी, जब सभी लैक्चरर बड़ी तेजी से कोर्स पूरा कराने की कोशिश कर रहे थे और तकरीबन रोजाना ही ऐक्स्ट्रा क्लासेज भी हो रही थीं.

कालेज के प्रिंसिपल बहुत अनुशासनप्रिय थे और अध्यापकों और छात्रों यानी सब के ऊपर उन की पैनी नजर रहती थी. कालेज के माहौल में सरगर्मी थी और गोपाल भी पढ़ाई में पूरा ध्यान लगा रहा था. पर गोपाल की तैयारियों को एकाएक बहुत बड़ा झटका लगा था, जब एक दिन अचानक उसे बहुत तेज बुखार चढ़ गया था और सारी पढ़ाई धरी रह गई थी. डाक्टर ने ब्लड टैस्ट कर के बताया था कि टाइफाइड है और बुखार उतरने में कम से कम 21 दिन लगेंगे और ऐसे में वह क्लास में भी नहीं जा सकता है. खानेपीने का ध्यान रखना है, सो अलग.

ज्योंत्यों कर के 3 हफ्ते निकल गए और बुखार भी उतर गया था, पर कमजोरी इतनी ज्यादा थी कि गोपाल खड़ा भी नहीं रह पा रहा था. नहाने गया तो चक्कर खा कर गिर पड़ा था. उस का रूममेट किसी तरह सहारा दे कर उसे कमरे में लाया था.

गोपाल के बाथरूम में चक्कर खा कर गिरने की बात कालेज में तुरंत फैल गई थी. दोपहर का लैक्चर खत्म होने के बाद उस का सब से बड़ा चैलेंजर उस के कमरे में आया और दरवाजे से ही चिल्ला कर बोला, ‘‘अबे भूल जा अब फर्स्ट आने का सपना. खड़ा तो हो नहीं सकता, फर्स्ट कैसे आएगा?

फर्स्ट तो मैं ही आऊंगा.’’

यह खुली चुनौती गोपाल के दिल को स्वीकार नहीं हुई थी और उस ने भी अपनी दुर्बल, पर दृढ़ आवाज में जवाब दे दिया था,

‘‘अरे, जाजा. कुछ भी कर ले, गोल्ड मैडल तो मैं ही ले के रहूंगा.’’

इस के बाद तो गोपाल ने दिनरात एक कर दिया था. पढ़ना, समझना, नोट्स बनाना और उन्हें याद करना… लगता था कि इस के अलावा उस की जिंदगी में और कुछ बाकी नहीं बचा था. जैसे अर्जुन को केवल चिडि़या की आंख दिखती थी,

उसे केवल गोल्ड मैडल दिख रहा था. अब आजकल में ही रिजल्ट आने वाला था. गोपाल की मनोशक्ति जो हमेशा उस के साथ थी, आज उस का साथ छोड़ती लग रही थी.

चारपाई पर लेटेलेटे ही गोपाल को अपनी मां का खयाल आया. गांव के कच्चे घर में अभी क्या कर रही होगी भला? शायद मट्ठा बिलो रही होगी. वह तो कभी खाली नहीं बैठती है. और वही तो उस के पीछे हमेशा चट्टान की तरह खड़ी रही है, चाहे स्कूल हो या कालेज.

4 साल पहले जब गोपाल पढ़ाई करने यहां आना चाहता था, तो घर में सब ने उस का विरोध किया था, पर मां ने साफ कह दिया था, ‘‘यह आगे पढ़ना चाहता है, तो इसे जाने दो. पैसे की फिक्र मत करो. जैसे भी होगा, मैं संभाल लूंगी. मुझे बस एक बात पता है कि मेरा यह सब से छोटा बेटा एक दिन बहुत बड़ा अफसर बनेगा.’’

घर की पैसे की तंगी में इतना बड़ा फैसला लेना बड़ी बात थी, पर मां तो हमेशा बड़े फैसले लेने को मानो तैयार रहती थीं. गांव के मास्टरजी की एक भूल पकड़ लेने पर वे गोपाल को गांव के प्राथमिक विद्यालय से कैसे निकाल लाई थीं.

‘जिस मास्टर को इतना भी नहीं पता, वह बच्चों को क्या पढ़ाएगा,’ कह कर वे गोपाल को शहर के स्कूल में दाखिल करवा कर आ गई थीं और वहां उस के साथ जोकुछ हुआ था, आज भी तसवीर की तरह आंखों के आगे घूम जाता है.

राजकीय माध्यमिक विद्यालय, सहारनपुर में उस दिन बहुत सरगर्मी थी. नए सैशन का पहला दिन जो था. नए दाखिले हो चुके थे और बहुत सारे बच्चे आज पहली बार स्कूल आ रहे थे.

गोपाल भी आज पहली बार इस स्कूल में आया था. आज ही उसे यहां छठी जमात में दाखिला मिला था. शहर के इस स्कूल में उस का भी पहला दिन था. वह कितना डरा हुआ था. सहमा सा, सकुचाया सा, जब वह क्लास में पहुंचा, तो सब बच्चे शोर मचा रहे थे.

जैसे ही गोपाल ने क्लासरूम में कदम रखा, उसे देखते ही क्लास में बैठे सब छात्र एकदम चुप हो गए और उसे देखने लगे थे. उन की आंखों में हैरानी थी और उत्सुकता भी.

गोपाल की उम्र भी कम थी, मुश्किल से 11 साल का होगा. ऊपर से उस की कदकाठी भी छोटी थी. सांवला रंग और सिर पर मशीन से कटे हुए छोटेछोटे बाल, साथ ही सिर पर एक चोटी भी, जिसे उस ने जतन से बांध रखा था.

गोपाल के कानों में चांदी की बालियां थीं, जिन्हे गांव के सुनार काका ने यह कहते हुए प्यार से उसे पहना दिया था, ‘‘बेटा शहर में पढ़ने जा रहा है, मेरी बनाई मुरकियां तो पहन जा.’’

गोपाल के सूती कपड़े वैसे तो साफसुथरे थे, पर पता चल रहा था कि वह महंगे तो बिलकुल भी नहीं थे. उस के बालों के स्टाइल, पट्टू के पाजामे और कान में पड़ी मुरकियों से साफ पता लग रहा था कि वह गांव के किसी गरीब परिवार से आया है.

संभलसंभल कर कदम उठाता हुआ गोपाल धीरे से क्लास में घुसा था और सब से पीछे रखी एक खाली डैस्क पर बैठ गया था. सारे छात्र उसे लगातार घूर रहे थे.

जैसे ही गोपाल ने अपना बैग वहां रखा, एक मोटा सा गोरा लड़का उठा और उस की तरफ इशारा कर के जोर से बोला, ‘‘अरे भाई, किसी को पता है क्या कि यह कौन सा जानवर है?’’

दूसरे कोने से एक लड़के ने जवाब दिया,

‘‘चूहा है, चूहा.’’

पूरी क्लास जोर से हंस पड़ी थी.

अब एक तीसरा बोला, ‘‘अरे नहीं रे, यह तो पिद्दी चूहा है,’’ और सारे बच्चे जोरजोर से हंसने लगे थे. और गोपाल…? वह घबराया सा फर्श की ओर देखे जा रहा था.

अब एक और लड़का, जो शायद सब का नेता था, जोर से बोला, ‘‘अरे ओ चूहे, सामने आ और सब को बता कि तू कौन से बिल से आया है?’’

अब तो गोपाल की हालत और खराब हो गई थी.

‘‘अरे नहीं. कोई नामपता बताने की जरूरत नहीं है. यह तो एक डरा हुआ चूहा है, इस का हमारी क्लास में क्या काम है? चलो, इस की पूंछ पकड़ कर इसे बाहर फेंक देते हैं,’’ किसी ने गोपाल की चोटी की ओर इशारा करते हुए कहा.

तभी 2-3 मोटेतगड़े लड़के उस की चोटी खींचने के इरादे से उस की ओर बढ़ने लगे. क्लास के बाकी सब बच्चे तमाशा देख रहे थे और हंसहंस कर मजे ले रहे थे.

घर का चिराग: भाग 2- क्या बेटे और बेटी का फर्क समझ पाई नीता

‘‘बस, रहने दो. 2-4 औरतों के नौकरी करने से देश का विकास नहीं होता, न समाज का भला होता. नौकरी करने वाली स्त्रियों के घर बिगड़ जाते हैं. वे अपनी संतानों की ठीक से देखभाल नहीं कर पातीं. परिवार, समाज और देश के विकास व उन्नति के लिए लड़कों का सक्षम होना परम आवश्यक है. हमें बेटे की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए. वही हमारे बुढ़ापे का सहारा है.’’ केशव बाबू ने कटाक्ष किया, ‘‘तभी तो हमारे सुपुत्र पढ़ाई में कुछ ज्यादा ही ध्यान दे रहे हैं. 3-3 डिगरियां लिए बैठे हैं और नौकरी हाथ नहीं आ रही है. डिगरी ले कर चाटेगा?’’

‘‘आप तो पता नहीं क्यों बेटे के खिलाफ रहते हैं. देख लेना, एक दिन वही हमारा नाम रोशन करेगा. मुझे तो डर है, बेटी बाहर जा कर हमारी नाक न कटवा दे?’’

‘‘वह तो पता नहीं कब हमारा नाम रोशन करेगा, परंतु तुम्हारी घटिया सोच के चलते मैं बेटी के जीवन को अंधकारमय नहीं बना सकता. बेटे के लिए तुम हमेशा अपनी मनमानी करती रही, परंतु बेटी के संबंध में तुम्हारी एक भी नहीं चलने दूंगा. वह जहां तक पढ़ना चाहेगी, मैं पढ़ाऊंगा,’’ केशव बाबू उत्तेजना में उठ कर खड़े हो गए.

‘‘बेटी के ऊपर पैसा बरबाद कर के एक दिन पछताओगे.’’

‘‘बेटे के ऊपर खर्चा कर के मैं कौन सा सुख भोग रहा हूं.’’ केशव बाबू की बात पर नीता इस तरह चीखनेचिल्लाने लगी, जैसे पति से नहीं, किसी और से कह रही हो, ‘‘अरे देखो तो इस भले आदमी को, कैसी अनहोनी की बातें कर रहा है, बेटे से ज्यादा इस को बेटी की पड़ी है. अपने घर में आग लगा कर कोई हाथ सेंकता है. मैं तो हार गई इस आदमी से. पता नहीं कैसे इतने दिनों तक झेलती रही. देख लेना, यह घर को बरबाद कर के रहेगा.’’ और वह झूठमूठ के आंसू बहाने लगी. ऊंची आवाज में चीखनाचिल्लाना और रोनाधोना, यही उस के सशक्त हथियार थे. ऊंची आवाज से वह अपने पति की आवाज को दबाती थी और आंसुओं से अपनी बात मनवाती थी. आज तक वह अपने इन्हीं 2 हथियारों का अनधिकृत प्रयोग करती आ रही थी. परंतु आज वे दोनों निरर्थक सिद्ध होने वाले थे.

इस बार केशव बाबू नीता की आवाज से थोड़ा दबे, परंतु उस के आंसुओं से पराजित नहीं हुए. उन्होंने ठान लिया कि इस बार नीता की बात नहीं मानेंगे. वे बाहर जाने के लिए मुड़े, तभी उन को नीता के अलावा किसी और की सिसकियों की आवाज सुनाई पड़ी. उन्होंने ध्यान नहीं दिया था, उन की बेटी अनिका वहीं पर खड़ी थी.

वे बेटी के पास गए, ‘‘तुम क्यों रो रही हो, बेटी?’’ उन्होंने पूछा.

अनिका की रुलाई और तेजी से फूट पड़ी. केशव बाबू ने किसी तरह उसे चुप कराया और बाहर के कमरे में ला कर पूछा, ‘‘अब बताओ, तुम्हें क्या दुख है?’’ ‘‘पापा, मेरी वजह से आप के और मम्मी के बीच झगड़ा हुआ, मैं आगे पढ़ाई नहीं करूंगी,’’ उस ने हताश स्वर में कहा. केशव बाबू एक पल के लिए हतप्रभ से खड़े रहे. फिर बेटी के सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘‘बेटा, तुम पढ़ाई करोगी. यह तुम्हारे भविष्य का ही सवाल नहीं है, मेरे आत्मसम्मान का भी सवाल है. तुम समझ रही हो न, तुम्हें कुछ बन कर दिखाना है. तुम्हें कुछ बना कर मैं दिखाना चाहता हूं कि बेटियां किसी से कम नहीं होतीं. बेटे ही नहीं, बेटियां भी मांबाप का नाम रोशन करती हैं.’’ अनिका समझ गई. बहुत पहले ही समझ गई थी. वह एक अच्छेभले, सुसंस्कृत और आर्थिक रूप से संपन्न परिवार में पैदा हुई थी, परंतु इस छोटे से घर में उस की सगी मां की सोच दकियानूसी और पुरातनपंथी थी. जब उस का बचपन जवान होने लगा था, तभी उस की समझ में आ गया था कि मां की नजरों में वह एक बोझ के समान है. उस का बड़ा भाई मां की आंखों का तारा है. हर पल वह पक्षपात का शिकार होती थी. गलती न होने पर भी उसे झिड़कियां, डांट और कभीकभी मार भी पड़ती थी, परंतु दूसरी तरफ भाई की बड़ी से बड़ी गलती पर भी उसे माफ कर दिया जाता था. खानपान, कपड़ेलत्ते में भी भाई को वरीयता दी जाती थी. मां की हठधर्मी से इस घर का माहौल हर पल विषाक्त बना रहता था.

मां के अनुचित व्यवहार से न केवल वह दुखी रहती थी, बल्कि केशव बाबू भी उदास और थकेथके से रहते थे. वह पापा का दर्द समझती थी, परंतु कुछ कर नहीं सकती थी. सभी दुखों और कष्टों से नजात पाने के लिए वह किताबों की दुनिया में खो गई. वह अपना ज्यादातर समय पढ़ने में बिताती, ताकि मां की खिटखिट से छुटकारा मिल जाए और पिता का उदास व थका चेहरा देख कर उस की उदासी और ज्यादा न बढ़े. पढ़ाई में उस की एकाग्रता के कारण ही वह अच्छे नंबरों से पास होती रही. केशव बाबू के लिए बेटी को उच्च शिक्षा दिलाना एक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था. उन के प्रोत्साहन से अनिका ने लगन से तैयारी की और उस का एक अच्छे कालेज में दाखिला हो गया. केशव बाबू ने उसे होस्टल में डाल दिया, ताकि घर के माहौल से वह दूर रह कर मन से पढ़ाई कर सके. रोजरोज की बकझक और लड़ाईझगड़े से वह पढ़ाई में मन कैसे लगाती? इस बीच, पतिपत्नी के बीच कितने विवाद हुए, वाकयुद्ध हुए, कितने लिटर आंसू बहे, कितनी धमकियां दी गईं, इन सब का बयान करना बेमानी है. बस, इतना कहना पर्याप्त है कि दोनों तरफ से तलवारें खिंची थीं, परंतु कत्ल नहीं हो रहे थे. यही गनीमत थी. यह तनाव घर में काफी दिनों तक बना रहा, परंतु धीरेधीरे खत्म हो गया.

अनिका और उस के पापा के बीच रोज फोन पर बातें होती थीं. अनिका मां से भी बातें करती थी. पहले तो मां ऐंठी रहती थी, परंतु धीरेधीरे वह सामान्य हो गई. जिंदगी की ऊंचीनीची डगर पर सब लोग हिचकोले खाते हुए यों ही आगे बढ़ रहे थे. घर का माहौल कुछ दिनों से सहमासहमा और डरावना सा था. केशव बाबू ने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वे अपनी नित्य क्रियाओं में व्यस्त रहते. औफिस जाते और घर पर आ कर पढ़ने में व्यस्त रहते. नीता वैसे भी उन से खिचींखिचीं रहती थी, इसलिए वे उस के किसी प्रसंग में दखल नहीं देते थे. दफ्तर से आ कर वे ड्राइंगरूम में बैठे ही थे कि नीता अपना तमतमाया हुआ चेहरा ले कर उन के सामने खड़ी हो गई. लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘आप को पता है, इस घर में क्या हो रहा है?’’

केशव बाबू ने इस तरह सिर उठा कर नीता को देखा, जैसे कह रहे हों, ‘मुझे कैसे पता चलेगा. घर में तो तुम रहती हो,’ फिर उपेक्षित भाव से बोले, ‘‘बताओ?’’

‘‘विप्लव एक सप्ताह से घर नहीं आया है.’’

‘‘अच्छा, मुझे तो वह कभी घर में नहीं दिखता. तुम्हें पता होगा, वह कहां होगा? न पता हो, फोन कर के पूछ लो.’’

‘‘पूछा है, कहता है कि अपनी गर्लफ्रैंड के साथ रहने लगा है, लिवइन रिलेशनशिप में.’’ केशव बाबू एक पल के लिए हतप्रभ रह गए. फिर एक व्यंग्यात्मक मुसकान उन के चेहरे पर दौड़ गई, ‘‘खुशी की बात है, उस ने मांबाप को शादी के झंझट से बचा लिया. सोचो, लाखों रुपए की बचत हो गई. तुम बेटी की शादी का खर्च बचाना चाहती थी. तुम्हारे बेटे ने स्वयं की शादी का खर्च बचा दिया.’’ नीता धम्म से सोफे के दूसरे किनारे पर गिर सी पड़ी. वह केशव बाबू के पैरों की तरफ झुकती हुई बोली, ‘‘आप को मजाक सूझ रहा है और मेरी जान निकली जा रही है. वह न तो कोई नौकरी कर रहा है, न उस का एमबीए पूरा हुआ है. ऐसे में वह बरबाद हो जाएगा. वह लड़की उसे बरबाद कर देगी.’’

ताईजी: भाग 3- गलत परवरिश

विभा ने जब रिचा से इस विषय पर बात की तो पहले तो वह सकपका गई, फिर बोली, ‘‘रोज ही कोई न कोई समस्या घेरे रहती है, समझ में नहीं आता, कब क्या करूं. पर 6 महीने वाली बात गलत है, मुश्किल से महीनाभर पहले ही तो कपड़ा आया है.’’

‘‘तुम अपने कार्यों को व्यवस्थित कर के किया करो. गृहिणी दफ्तर नहीं जाती, किंतु उस का कार्यक्षेत्र तो सब से अधिक विस्तृत होता है. इस में कहीं अधिक योजना की आवश्यकता होती है, ताकि हर कार्य समय से कुछ पूर्व ही हो जाए और घर के सदस्यों को किसी प्रकार की परेशानी या तनाव गृहिणी के प्रति न रहे.’’विभा ने यह भी देखा था कि हर रोज सुबह नहाने के बाद अलमारी में से कपड़े निकालते समय भी मां और बेटे में अकसर तकरार होती है. उस ने रिचा से इस समस्या को सुलझाने की भी हिदायत दी.एक दिन दोपहर को जब विक्की खेलने की जिद करने लगा तो विभा ने उसे 2 घंटे का गणित का पेपर सैट कर के दे दिया. जब 2 घंटे बाद उस ने विक्की की कौपी जांची तो यह देख कर बहुत प्रसन्न हुई कि विक्की ने 50 में से 50 अंक प्राप्त किए हैं. वह बोली, ‘‘बहुत बढि़या, शाबाश विक्की, पढ़ाई में तो तुम अच्छे हो, तो परीक्षा में इतने कम नंबर क्यों आए?’’

विक्की हंसता हुआ ताईजी से लिपट गया और उन की पप्पी लेता हुआ बोला, ‘‘मुझे अपने साथ ले चलिए, प्लीज ताईजी.’’ विभा उस की मानसिकता देख कर सोच में पड़ गई थी, ‘यह बच्चा अपने मातापिता से दूर क्यों जाना चाहता है? और अपने साथ ले जाना ही क्या इस समस्या का सही निदान है?’

दिन के 12 बजे का समय था. विक्की रिचा के पास जा कर चिल्लाया, ‘‘बड़ी जोर की भूख लगी है. खाना कब दोगी?’’

‘‘क्या खाएगा? मुझे खा ले तू तो, सारा दिन बस ‘भूखभूख’ चिल्लाता रहता है. अभी सुबह तो पेट भर कर नाश्ता किया है, कुछ देर पहले ही फ्रिज में से मिठाई के 3 टुकड़े निकाल कर खा चुका है. मैं सब देख रही थी बच्चू, अब फिर भूखभूख. मुझे भी तो नहानाधोना होता है. चल जा कर पढ़ कुछ देर,’’ रिचा विक्की पर झल्ला पड़ी.

‘‘हमेशा डांटती रहती हो, अब भूख लगी है तो क्या करूं? पैसे दे दो, बाजार से समोसे खा कर आऊंगा.’’

‘‘यह कह न, कि समोसे खाने का मन है,’’ रिचा चिल्लाई, ‘‘देखिए न दीदी, कितना चटोरा हो गया है. पिछली बार जब मां के पास गई थी तो वहां पर छोटी बहन अपने घर से समोसे बना कर लाती थी. यह अकेला ही खाली कर देता था. देखो न, कितना मोटा होता जा रहा है, खाखा कर सांड हो रहा है.’’

‘‘रिचा, अपनी जबान पर लगाम दो. बच्चे के लिए कैसेकैसे शब्द मुंह से निकालती हो. यह यही सब सीखेगा. जो सुनेगा, वही बोलेगा. जो देखेगा, वही करेगा. पढ़ाई की जो बात तुम ने इस से कही है, वह सजा के रूप में कही है. इसे स्वयं ले कर बैठो, रोचक ढंग से पढ़ाई करवाओ. कैसे नहीं पढ़ेगा? दिमाग तो इस का अच्छा है,’’ विभा दबे स्वर में बोली ताकि विक्की उस की बात सुन न सके. पर इतनी देर में विक्की अपने लिए मिक्सी में मीठी लस्सी बना चुका था. वह खुशी से बोला, ‘‘ताईजी, लस्सी पिएंगी?’’ वह गिलास हाथ में लिए खड़ा था.

‘‘नहीं बेटे, मुझे नहीं पीनी है, तुम पी लो.’’

‘‘ले लीजिए न, मैं अपने लिए और बना लूंगा, दही बहुत सारा है अभी.’’

‘‘नहीं विक्की, मेरा मन नहीं है,’’ विभा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘दीदी, मेरी बहनों के बच्चों के साथ रह कर इसे भी बाजार के छोलेभटूरे, आलू की टिकिया, चाट, समोसे वगैरा खाने की आदत पड़ गई है. उन के बच्चे हर समय ही वीडियो गेम खेलते हैं, अनापशनाप खर्च करते हैं, पर हम तो इतना खर्च नहीं कर सकते. इतना समझाती हूं, पर यह माने तब न. इसी कारण तो अब मैं दिल्ली जाना ही नहीं चाहती.’’ ‘‘बस, शांत हो जाओ. विक्की को चैन से लस्सी पीने दो. उसे समझाने का तुम्हारा तरीका ही गलत है,’’ विभा चिढ़ कर बोली.

‘‘अब आप भी मेरे ही पीछे लग गईं?’’ रिचा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मेरा बच्चा ही जब मेरा नहीं रहा तो मैं औरों से क्या आशा करूं?’’ विभा ने सोचा, ‘इसी प्रकार तो नासमझ माताएं अपने बच्चों से हाथ धो बैठती हैं. बच्चों का मनोविज्ञान, उन की इच्छाअनिच्छा, उन के आत्मसम्मान व स्वाभिमान के विषय में तो कुछ समझती ही नहीं हैं. बस, अपनी ही हांकती रहती हैं. सोचती यही हैं कि उन के बच्चे को घर के और लोग ही बिगाड़ रहे हैं, जबकि इस कार्य में उन का स्वयं का हाथ भी कुछ कम नहीं होता.’ ‘‘बढ़ता बच्चा है, छुट्टियों के दिनों में कुछ तो खाने का मन करता ही है. कुछ नाश्ते का सामान, जैसे लड्डू, मठरी, चिड़वा वगैरा बना कर रख लो,’’ विभा ने अगले दिन कहा.

‘‘तो क्या मैं उसे खाने को नहीं देती? जब कहता है, तुरंत ताजी चीज बना कर खिलाती हूं.’’

‘‘वह तो ठीक है रिचा, पर हर समय तो गृहिणी का हाथ खाली नहीं होता न, फिर बनाने में भी कुछ देर तो लग ही जाती है. नाश्ता घर में बना रखा हो तो वह स्वयं ही निकाल कर ले सकता है. मैं आज मठरियां बनाए देती हूं.’’

‘‘अभी गैस खाली है नहीं, खाना भी तो बनाना है,’’ रिचा ने बेरुखी से कहा.

‘‘ठीक है, जब कहोगी तभी बना दूंगी,’’ विभा रसोई से खिसक ली. व्यर्थ की बहसबाजी में पड़ना उस ने उचित न समझा. वैसे भी अगले दिन तो उसे अपने घर जाना ही था. कौन कब तक किसी की समस्याओं से जूझ सकता है? पर जब कोई व्यक्ति हठधर्मी पर ही उतर आए और अपनी ही बात पर अड़ा रहे तो उस का क्या किया जा सकता है?

‘बच्चे तो ताजी मिट्टी के बने खिलौने होते हैं, उन पर जैसे नाकनक्शे एक बार बना दो, हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं. संस्कार डालने का कार्य तो केवल मां ही करती है. चंचल प्रकृति के बच्चों को कैसे वश में रखा जा सकता है, यह भी केवल मां ही अधिक समझ सकती है,’ विभा ने सोचा. ‘‘ताईजी, मुझे पत्र लिखोगी न?’’ विक्की ने प्यार से विभा के गले में बांहें डालते हुए पूछा.

‘‘हां, अवश्य,’’ विभा हंस पड़ी.

‘‘वादा?’’ प्रश्नवाचक निगाहों से विक्की ने उन की ओर देखा.

‘‘वादा. पर तुम अब खूब मन लगा कर पढ़ोगे, पहले यह वादा करो.’’

‘‘वादा, ताईजी, आप बहुत अच्छी हैं. अब मैं मन लगा कर पढ़ूंगा.’’

‘‘खूब मन लगा कर पढ़ना, अच्छे नंबर लाना, मां का कहना मानना और अगली छुट्टियों में हमारे घर जरूर आना.’’

‘‘ठीक,’’ विक्की ने आगे बढ़ कर ताईजी की पप्पी ली. आने वाले निकट भविष्य के सुखद, सुनहरे सपनों की दृढ़ता व आत्मविश्वास  उस के नेत्रों में झलकने लगा था. ‘‘मेरे बच्चे, खूब खुश रहो,’’ विभा ने विक्की को गले से लगा लिया. तभी रेलगाड़ी ने सीटी दी. विक्की के पिताजी ने उसे ट्रेन से नीचे उतर आने के लिए आवाज दी.

‘‘ताईजी, आप मत जाइए, प्लीज,’’ विक्की रो पड़ा.

‘‘बाय विक्की,’’ विभा ने हाथ हिलाते हुए कहा. गाड़ी स्टेशन से खिसकने लगी थी. विक्की प्लेटफौर्म पर खड़ा दोनों हाथ ऊपर कर हिला रहा था, ‘‘बाय, ताईजी,  बाय.’’ उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.

‘‘विक्की, अपना वादा याद रखना,’’ ताईजी ने जोर से कहा.

‘‘वादा ताईजी,’’ उस ने प्रत्युत्तर दिया. गाड़ी की गति तेज हो गई थी. विभा अपने रूमाल से आंसुओं को पोंछने लगी.

ताईजी: भाग 1- गलत परवरिश

‘‘मां, मेरा टेपरिकौर्डर दे दो न, कब से मांग रहा हूं, देती ही नहीं हो,’’ विक्की ने मचलते हुए कहा.

‘‘मैं ने कह दिया न, टेपरिकौर्डर तुझे हरगिज नहीं दूंगी, बारबार मेरी जान मत खा,’’ रिचा ने लगभग चीखते हुए कहा.

‘‘कैसे नहीं दोगी, वह मेरा है. मैं ले कर ही रहूंगा.’’

‘‘बड़ा आया लेने वाला. देखूंगी, कैसे लेता है,’’ रिचा फिर चिल्लाई.

रिचा का चीखना सुन कर विक्की अपने हाथपैर पटकते हुए जोरजोर से रोने लगा, ‘‘देखो ताईजी, मां मेरा टेपरिकौर्डर नहीं दे रही हैं. आप कुछ बोलो न?’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोला.

‘‘रिचा, क्या बात है, क्यों बच्चे को रुला रही हो, टेपरिकौर्डर देती क्यों नहीं?’’

‘‘दीदी, आप बीच में न बोलिए. यह बेहद बिगड़ गया है. जिस चीज की इसे धुन लग जाती है उसे ले कर ही छोड़ता है. देखिए तो, कैसे बात कर रहा है. तमीज तो इसे छू नहीं गई.’’

‘‘पर रिचा, तुम ने बच्चे से वादा किया था तो उसे पूरा करो,’’ जेठानी ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘मत रो बच्चे, मैं तुझे टेपरिकौर्डर दिला दूंगी. चुप हो जा अब.’’

‘‘दीदी, अब तो मैं इसे बिलकुल भी देने वाली नहीं हूं. कैसे बदतमीजी से पेश आ रहा है. सच कह रही हूं, आप बीच में न पडि़ए,’’ रिचा बोली.

रिचा की बात सुन कर विभा तत्काल कमरे से बाहर चली गई. विक्की उसी प्रकार रोता, चीखता रहा. दोपहर के खाने से निबट कर देवरानी, जेठानी शयनकक्ष में जा कर लेट गईं. बातोंबातों में विक्की का जिक्र आया तो रिचा कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं तो इस लड़के से परेशान हो गई हूं. न किसी का कहना मानता है, न पढ़ता है, हर समय तंग करता रहता है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, रिचा. तुम्हारा एक ही बेटा है, वह भी इतना प्यारा, इतना सुदर्शन, इतना कुशाग्र बुद्धि वाला, तिस पर भी तुम खुश नहीं हो. अब उसे तुम कैसा बनाती हो, कैसे संस्कार प्रदान करती हो, यह तो तुम्हारे ही हाथ में है,’’ विभा ने समझाया.

‘‘क्या मेरे हाथ में है? क्या यहां मैं अकेली ही बसती हूं?’’ रिचा तैश में आ गई, ‘‘मैं जो उसे समझाती हूं, दूसरे उस की काट करते हैं. ऐसे में बच्चा भी उलझ जाता है, क्या करे, क्या न करे. अभी परसों की ही बात है, इन के बौस के बच्चे आए थे. ये उन के लिए रसगुल्ले व नमकीन वगैरा ले कर आए थे. सब को मैं ने प्लेटें लगा कर 2-2 रसगुल्ले व नमकीन और बिस्कुट रख कर दिए. इसे भी उसी तरह प्लेट लगा कर दे दी. मैं रसोईघर में उन के लिए मैंगोशेक बना रही थी कि यह आ कर कहने लगा, ‘मां, मैं रसगुल्ले और खाऊंगा.’

‘‘मैं ने कहा, ‘खा लेना, पर उन के जाने के बाद. अब इतने रसगुल्ले नहीं बचे हैं कि सब को 1-1 और मिल सकें.’ तब विक्की तो मान सा रहा था पर मांजी तुरंत मेरी बात काटते हुए बोलीं, ‘अरी, क्या है? एक ही तो बच्चा है, खाने दो न इसे.’

‘‘अब बोलिए दीदी. यह कोई बात हुई? जब मैं बच्चे को समझा रही हूं सभ्यता की बात, तो वे उसे गलत काम करने के लिए शह दे रही हैं. मैं भी मना तो नहीं कर रही थी न, बस यही तो कह रही थी कि अतिथियों के जाने के बाद और रसगुल्ले खा लेना. बस, इसी तरह कोई न कोई बात हो जाती है. जब मैं इसे ले कर पढ़ाने बैठती हूं, तब भी वे टोकती रहती हैं. बस, दादी की तरफ देखता हुआ वह झट से उठ कर भाग लेता है. लीजिए हो गई पढ़ाई. अब तो पढ़ाई से इतना कतराने लगा है कि क्या बताऊं, किसी समय भी पढ़ना नहीं चाहता.’’

‘‘स्कूल की परीक्षाओं में कैसे नंबर ला रहा है? वहां की प्रोग्रैस रिपोर्ट कैसी है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘अरे, बस पूछो मत कि क्या हाल है. अब तो झूठ भी इतना बोलने लगा है कि क्या बताऊं.’’

‘‘जैसे?’’ विभा ने हैरानी दर्शाई.

‘‘पिछली बार कई दिनों तक पूछती रही, ‘बेटे, तुम्हारे यूनिट टैस्ट की कौपियां मिल गई होंगी, दिखाओ तो सही.’ तब बोला, ‘अभी कौपियां नहीं मिली हैं. जब मिलेंगी तो मैं खुद ही आप को दिखा दूंगा.’ जब 15 दिन इसी प्रकार बीत गए तो हार कर एक दिन मैं इस की कक्षा के एक लड़के संजय के घर पहुंची तो पता चला कि कौपियां तो कब की मिल चुकी थीं.

‘‘‘क्यों, विकास ने अपनी कौपियां दिखाई नहीं क्या?’ संजय ने हैरानी से पूछा.

‘‘‘नहीं तो, वह तो कह रहा था कि मैडम ने अभी कौपियां दी ही नहीं हैं,’ मैं ने उसे बताया तो वह जोरजोर से हंसने लगा, ‘विक्की तो इस बार कई विषयों में फेल हो गया है, इसी कारण उस ने आप को कौपियां नहीं दिखाई होंगी.’

‘‘मुझे बहुत क्रोध आया, खुद को अपमानित भी महसूस किया. उस की मां के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी देख कर मैं फौरन घर आ गई. ‘‘जब इसे खूब पीटा, तब जा कर इस ने स्वीकार किया कि झूठ बोल रहा था. अब बताइए, मैं क्या कर सकती हूं? यही नहीं, रिपोर्टकार्ड तक इस ने छिपा कर रख दिया था. कई हफ्तों के बाद वाश्ंिग मशीन के नीचे पड़ा मिला. अरे, क्याक्या खुराफातें हैं इस की, आप को क्याक्या बताऊं, यह तो अपनी मासिक रिपोर्टबुक पर अपने पिता के नकली हस्ताक्षर कर के लौटा आता है. अब बोलिए, क्या करेंगी आप ऐसे लड़के के साथ?’’ रिचा गुस्से में बोलती जा रही थी.

‘‘पिछले वर्ष तक तो इस के काफी अच्छे नंबर आ रहे थे, अब अचानक क्या हो गया?’’ विभा ने पूछा.

‘‘इस के पिता तो इस से कभी पढ़ने को कहते नहीं हैं, न ही कभी खुद पढ़ाने के लिए ले कर बैठते हैं. केवल मैं ही कहती हूं तो इसे अब फूटी आंखों नहीं सुहाती. क्या मां हो कर भी इस का भविष्य बिगाड़ दूं, बताओ, दीदी?’’

‘‘पर रिचा, बच्चों को केवल प्यार से ही वश में किया जा सकता है, मार या डांट से नहीं. तुम जितना अधिक उसे मारोगी, डांटोगी, वह उतना ही तुम से दूर होता जाएगा. पढ़ाई से भी इसीलिए दिल चुराता है, तुम पढ़ाती कम हो और डांटती अधिक हो. कल तुम कह रही थीं, ‘अरे, यह तो निकम्मा लड़का है, यह जीवन में कुछ नहीं कर सकता. यह तो जूते पौलिश करेगा सड़क पर बैठ कर…’ ‘‘कहीं ऐसे शब्द भी कहे जाते हैं? तुम ने तो साधारण तौर पर कह दिया, पर बच्चे का कोमल हृदय तो टूट गया न,  बोलो?’’ विभा ने कहा.

‘‘ताईजी, ताईजी, शतरंज खेलेंगी मेरे साथ?’’ अचानक विक्की ने विभा का हाथ पकड़ते हुए पूछा. संभवतया वह इस लज्जाजनक प्रसंग को अब बंद करवाना चाहता था.

‘‘बेटा, मुझे तो शतरंज खेलना नहीं… तुम अपने ताऊजी के साथ खेलते तो हो न?’’

‘‘पर अभी तो वे कहीं गए हैं, आप खेलो न.’’

‘‘पर जब आता ही नहीं तो कैसे खेलूंगी?’’

‘‘अच्छा, तो ताश खेलते हैं.’’

‘‘ले आओ, कुछ देर खेल लेती हूं,’’ विभा ने हंसते हुए विक्की को गुदगुदाया तो वह दौड़ कर ताश की गड्डी ले आया.

‘‘कौन सा खेल खेलोगे, विक्की?’’ विभा ने पूछा.

‘‘रमी खेलें, ताईजी?’’

‘‘ठीक है, पर बांटोगे हर बार तुम ही, मैं नहीं बाटूंगी, मंजूर?’’ विभा ने शर्त रखी. उस की तबीयत ठीक नहीं थी, वह लेटेलेटे ही खेलना चाहती थी.

‘‘मंजूर, आप तकिए के सहारे लेट जाइए,’’ विक्की ने पत्ते बांटे. ताईजी के साथ खेलने में उसे इतना अधिक आनंद आ रहा था कि बस पूछो मत.

‘‘ताश के अलावा तुम और कौनकौन से खेल खेलते हो?’’ विभा ने पूछा.

‘‘बहुत सारे खेल हैं, ताईजी,’’ विक्की खुश होता हुआ बोला, ‘‘लूडो, सांपसीढ़ी, शतरंज, ट्रबल, व्यापार, स्क्रैबल, स्कौटलैंड यार्ड, मकैनो, कार रेस…’’

‘‘अरे, बसबस, इतने सारे खेल हैं तुम्हारे पास? बाप रे, किस के साथ खेलते हो?’’

‘‘किसी के भी नहीं.’’

‘‘अरे, यह क्या बात हुई, फिर खरीदे क्यों हैं?’’

‘‘कुछ मौसी लाई थीं, कुछ बड़ी ताईजी लाई थीं, कुछ जन्मदिन पर आए तो कुछ पिताजी दौरे पर गए थे, तब ले कर आए थे. ताईजी, पड़ोस के रवींद्र के घर खेलने जाता हूं तो मां कहती हैं कि अपने इतने महंगे खेल वहां मत ले जाया करो. जब उन्हें मैं अपने घर पर खेलने के लिए बुलाता हूं तो मां कहती हैं कि कितना हल्ला मचा रखा है, बंद करो खेलवेल, हर समय खेल ही खेल, कभी पढ़ भी लिया करो.’’

‘‘और घर में कौनकौन खेलता है तुम्हारे साथ? मातापिता खेलते हैं कभी?’’ विभा ने पूछा तो वह कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा, फिर ताश बंद कर के उठ कर चला गया.

आई हेट हर – भाग 1 : मां से नाराजगी

सुबह के 7 बजे थे, गूंज औफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी कि मां के फोन ने उस का मूड खराब कर दिया,”गूंज बिटिया, मुझे माफ कर दो…मेरी हड्डी टूट गई है…”

“बीना को दीजिए फोन…,” गूंज परेशान सा बोली. ‘’बीना क्या हुआ मां को?”

“दीदी, मांजी बाथरूम में गिर कर बेहोश हो गई थीं. मैं ने गार्ड को बुलाया और किशोर अंकल भी आ गए थे. किसी तरह बैड पर लिटा दिया लेकिन वे बहुत जोरजोर से रो रहीं हैं. सब लोग होस्पिटल ले जाने को बोल रहे हैं. शायद फ्रैक्चर हुआ है. किशोर अंकल आप को फोन करने के लिए बोल रहे थे.”

“बीना, मैं डाक्टर को फोन कर देती हूं. वह देख कर जो बताएंगे फिर देखती हूं…’’

गूंज ने अपने फैमिली डाक्टर को फोन किया और औफिस आ गई. उसे मालूम हो गया था कि मां को हिप बोन में फ्रैक्चर हुआ है, इसी वजह से वे परेशान थीं. उसे अब काफी चिंता होने लगी थी.

किशोर अंकल ने ऐंबुलैंस बुला कर उन्हें नर्सिंगहोम में ऐडमिट करवा दिया था. इतनी देर से लगातार फोन से सब से बात करने से काम तो हो गया, लेकिन बीना है कि बारबार फोन कर के कह रही है कि मां बहुत रो रही हैं और एक बार आने को बोल रही हैं.

“गूंज, किस का फोन है जो तुम बारबार फोन कट कर रही हो?’’ पार्थ ने पूछा. पार्थ उस के साथ उसी के औफिस में काम करता है और अच्छा दोस्त है.

एक ही कंपनी में काम करतेकरते दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ गई थी. फिर दोनों कब आपस में अपने सुखदुख साझा करने लगे थे, यह पता ही नहीं लगा था.

गूंज ने अपना लैपटौप बंद किया और सामान समेटती हुई बोली, ‘’मैं रूम पर जा रही हूं.‘’पार्थ ने भी अपना लैपटौप बंद कर बौस के कैबिन में जा कर बताया और दोनों औफिस से निकल पड़े.

“गूंज, चलो न रेस्तरां में 1-1 कप कौफी पीते हैं.”गूंज रोबोट की तरह उदास कदमों के साथ रेस्तरां की ओर चल दी. वह वहां बैठी अवश्य थी पर उस की आंखों से ऐसा स्पष्ट हो रहा था कि उस का शरीर यहां है पर मन कहीं और, मानों वह अपने अंतर्मन से संघर्ष कर रही हो .

पार्थ ने उस का मोबाइल उठा लिया और काल हिस्ट्री से जान लिया था कि उस की मां की कामवाली का फोन, फिर डाक्टर…“क्या हुआ तुम्हारी मम्मी को?’’“वे गिर गईं हैं, हिप बोन में फ्रैक्चर हुआ है. मुझे रोरो कर बुला रही हैं.‘’“तुम्हें जाना चाहिए.‘’

“मुझे तो सबकुछ करना चाहिए, इसलिए कि उन्होंने मुझे पैदा कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है…इसलिए…उन्होंने मेरे साथ क्या किया है? हमेशा मारनापीटना… प्यारदुलार के लिए मैं सदा तरसती रही…अब आएं उन के भगवान…करें उन की देखभाल….उन के गुरु  महराज… जिन के कारण वे मेरी पिटाई किया करती थीं. आई हेट हर.”

‘’देखो गूंज, तुम्हारा गुस्सा जायज है, होता है… कुछ बातें स्मृति से प्रयास करते रहने से भी नहीं मिट पातीं. लो पानी लो, अपनेआप को शांत करो.”

“पार्थ, मैं मां की सूरत तक नहीं देखना चाहती,‘’ कह कर वह सिसक उठी थी.पार्थ चाहता था कि उस के मन की कटुता आंसू के माध्यम से बाहर निकल जाएं ताकि वह सही निर्णय ले पाए.

वह छोटी सी थी. तब संयुक्त परिवार में रहती थी. घर पर ताईजी का शासन था क्योंकि वह रईस परिवार की बेटी थी. मां सीधीसादी सी समान्य परिवार से थीं.

गूंज दुबलीपतली, सांवली, पढ़ने में कमजोर, सब तरह से उपेक्षित… पापा का किसी के साथ चक्कर था… सब तरह से बेसहारा मां दिन भर घर के कामों में लगी रहतीं. उन का सपना था कि उन की बेटी पढ़लिख कर औफिसर बने पर उसे तो आइसपाइस, कैरमबोर्ड व दूसरे खेलों से ही फुरसत नहीं रहती. वह हर समय ताई के गोलू और चिंटू के पीछेपीछे उन की पूंछ की तरह घूमा करती.

घर में कभी बुआ के बच्चे, तो कभी मौसी के बच्चे तो कभी पड़ोस के साथियों की टोली का जमघट लगा रहता. बस, सब का साथ पा कर वह भी खेलने में लग जाती.

एक ओर पति की उपेक्षा, पैसे की तंगी साथ में घरेलू जिम्मेदारियां. कुछ भी तो मां के मनमाफिक नहीं था. गूंज जिद करती कि मुझे गोलू भैया जैसा ही बैग चाहिए, नाराज हो कर मां उस का कान पकड़ कर लाल कर देतीं. वह सिसक कर रह जाती. एक तरफ बैग न मिल पाने की तड़प, तो दूसरी तरफ कान खींचे जाने का दर्द भरा एहसास और सब से अधिक अपनी बेइज्जती को महसूस कर गूंज  कभी रो पड़ती तो कभी चीखनेचिल्लाने लगती. इस से फिर से उस की पिटाई होती थी. रोनाधोना और भूखे पेट सो जाना उस की नियति थी.

उस उम्र में वह नासमझ अवश्य थी पर पिटाई होने पर अपमान और बेइज्जती को बहुत ज्यादा ही महसूस करती थी.

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 1- क्या हुआ आलोक के साथ

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा.

खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

एक थी मां- भाग 1: कहानी एक नौकरानी की

मैंअपने बैडरूम में लगे आदमकद आईने के सामने खड़ी अपनेआप को देख रही थी. मेरे चेहरे पर खुशी और गम के मिलेजुले भाव आजा रहे थे. पता नहीं क्यों आज मेरा अतीत मुझे बारबार याद आ कर परेशान कर रहा था. कमरे के बाहर से शादी में बजने वाली शहनाई की धुन की धीमी आवाज आ रही थी. एक बात बताऊं, शादी किसी और की नहीं, बल्कि मेरी ही हो रही थी.

घर में अभी मेरी ही विदाई की तैयारी चल रही थी. सभी उसी में बिजी थे. मैं भी अभी दुलहन के लिबास में ही आईने के सामने खड़ी थी.

शादी से पहले तकरीबन सभी लड़कियां अपनी ससुराल और पति के बारे में ढेर सारे सपने संजोती हैं, मगर मैं ने आज तक कभी कुछ नहीं सोचा था. अगर मैं कुछ सपने संजोती भी तो कितने…? वैसे भी मेरी जैसी बदनसीब लड़की को सपने देखने का हक कहां होता है. फिर भी मैं जितने सपने देखती, उस से सैकड़ों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों गुना ज्यादा अच्छा परिवार और पति मुझे मिलने जा रहा था.

मेरे होने वाले पति किसी फिल्मी हीरो से कम दिखने में नहीं थे. अच्छी सरकारी नौकरी थी. पिता के एकलौते बेटे थे. पूरा परिवार सुखी और अमीर था.

ऐसा पति और परिवार पाने के बावजूद भी मैं आज अंदर से खुश नहीं थी, जबकि मुझे तो खुशी से पागल हो कर खूब नाचना चाहिए था, मगर मैं अभी अपनी पुरानी यादों के भंवर में ही उलझी बुझीबुझी सी खुद से ही बातें करने में लगी थी.

आप को एक बात बताऊं, सुन कर आप भी चौंक जाएंगे. मैं जिस घर में अभी दुलहन बनी आईने के सामने खड़ी थी, उस घर की मैं नौकरानी थी… नौकरानी कश्मीरा. मगर आज तक मेरे मालिक और मालकिन ने कभी मुझे घर की नौकरानी नहीं समझा था. वे दोनों हमेशा मुझे अपनी बेटी मानते थे.

मैं आई तो थी इस घर में 14 साल पहले नौकरानी बन कर ही, लेकिन आज इस घर की बेटी बन कर शादी के सुर्ख लाल जोड़े में विदा होने जा रही थी.

मगर, अब मैं जो बात आप को बताने जा रही हूं, उसे सुन कर तो आप के पैर तले की जमीन खिसक जाएगी. आप को पता है कि मेरी अपनी मां, जिस ने मुझे जन्म और यह नाम दिया था, भी अभी जिंदा थीं.

मेरी बात सुन कर आप के होश उड़ गए न? जरा सोचिए, मैं कैसेकैसे और किनकिन हालात से गुजर रही होऊंगी. मैं आज आप को अपनी पूरी कहानी सुनाती हूं, शायद आप को बताने से मेरे दिल का भी बोझ कुछ कम हो जाएगा.

बात आज से 35 साल पहले की है. उस समय मेरे पिता यानी गणेश गिरी की उम्र 10 साल की थी. परिवार में मेरे दादाजी यानी दीनानाथ गिरी और मेरे पिताजी के अलावा कोई और नहीं था. दादीजी 5 साल पहले ही मर गई थीं.

मेरा परिवार उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक छोटे से शहर सिकंदरपुर में रहता था. यह बलिया से तकरीबन

30-35 किलोमीटर दूर है.

मेरे दादाजी को धर्मग्रंथ और हस्त विज्ञान का अच्छा ज्ञान था. वे पूजापाठ और लोगों का हाथ देख कर उन का भविष्य बताने का काम करते थे. सभी उन की बहुत इज्जत करते थे.

मेरे दादाजी की प्रबल इच्छा थी कि उन का बेटा यानी मेरे पिताजी भी पढ़लिख कर धर्मग्रंथों के अच्छा ज्ञाता बनें और उन से भी बड़े विद्वान बनें, मगर मेरे दादाजी की सोच के एकदम सब उलटा हो रहा था.

मेरे पिताजी को संस्कृत कौन कहे, उन का तो पढ़नेलिखने में ही मन नहीं लगता था. दादाजी बहुत डांटते और समझाते, मगर कोई फायदा नहीं होता था. मेरे पिताजी दिनभर अपने दोस्तों के साथ सिर्फ मटरगश्ती करने में लगे रहते थे.

और आखिर में वही हुआ, जिस का मेरे दादाजी को डर था. मेरे पिताजी मैट्रिक में फेल हो गए थे, 1-2 बार नहीं, बल्कि 4-4 बार. दादाजी ने पिताजी को मैट्रिक का इम्तिहान दिलवाया था, मगर हर बार पिताजी फेल ही होते थे.

मेरे दादाजी ने गुस्से में आ कर यह सोच कर कि शायद शादी करने से वह संभल जाएगा, इसलिए उन्होंने मेरे पिताजी की शादी करवा दी थी.

पूरे सिकंदरपुर में मेरे दादाजी का अच्छाखासा नाम था, जिस के चलते मैट्रिक फेल होने के बावजूद मेरे पिताजी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई थी.

मेरी मां पुष्पा गिरी दुलहन बन कर मेरे पिताजी के घर आ गई थीं. वे बहुत खूबसूरत और पढ़ीलिखी थीं, पर दादाजी ने जिस सोच के साथ मेरे पिताजी का ब्याह कराया था, वह कामयाब नहीं हुआ. मेरे पिताजी ने पढ़ाईलिखाई तो छोड़ ही दी थी, वे अब भी कोई कामधंधा नहीं करते थे. सिर्फ दिनभर दोस्तों के साथ घूमा करते थे.

शादी के एक साल बाद ही मेरा यानी इस कश्मीरा गिरी का धरती पर आना हुआ और ठीक 2 साल बाद मेरे छोटे भाई अमर गिरी का. अब हम परिवार में 5 सदस्य हो गए थे, मगर कमाने वाले अभी भी सिर्फ मेरे दादाजी ही थे. नतीजतन, घर चलाने में अब बहुत दिक्कतें होने लगी थीं.

पहले सिर्फ दादाजी ही मेरे पिताजी को उन की फालतू हरकतों पर डांटा करते थे, मगर अब मां भी बातबात पर पिताजी को ताने देने लगी थीं.

इस बात से घर में अब आएदिन पतिपत्नी, बापबेटे में पारिवारिक झगड़े शुरू हो गए थे. दादाजी भी अब इस चिंता में बीमार रहने लगे थे.

मुझे आज भी वे दिन याद थे, क्योंकि तब तक मैं 5 साल की हो गई थी. पिताजी दादाजी से किसी बात को ले कर बहस कर रहे थे. पहली बार मेरी मां ने भी पिताजी के पक्ष में हो कर दादाजी को कुछ बोला था.

मां का साथ पा कर पिताजी का जोश और बढ़ गया. इस का नतीजा यह हुआ कि मेरे दादाजी गुस्से में अपने खुद के बनाए घर को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए थे. मेरे पिताजी ने मना करना तो दूर उलटे उन्हें तुरंत घर से जाने को कह दिया था.

सिकंदरपुर से कुछ ही दूरी पर एक शहर है मऊ. वहां मेरी बूआ रहती थीं, जो मेरे दादाजी को हमेशा अपने पास बुलाती थीं. दादाजी अभी तक मना करते आ रहे थे, मगर उस दिन मेरे पिताजी के रवैए से ऊब कर वे वहीं रहने के लिए चले गए थे.

मेरे दादाजी के घर छोड़ कर जाने से सब से ज्यादा खुशी शायद मेरी मां को हुई थी, क्योंकि दादाजी के जाते ही मेरी मां का बरताव और चालचलन एकदम बदल गया था. जहां पहले घर में भी वे घूंघट निकाले रहती थीं, वहीं अब सूटसलवार और जींसटीशर्ट पहनने लगी थीं.

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