दोहराव : क्यों बेचैन था कुसुम का मन

शाम का धुंधलका सूर्य की कम होती लालिमा को अपने अंक में समेटने का प्रयास कर रहा था. घाट की सीढि़यों पर कुछ देर बैठ अस्त हो रहे सूर्य के सौंदर्य को निहार कर कुसुम खड़ी हुईं और अपने घर की ओर चलने लगीं. आज उन के कदम स्वयं गति पकड़ रहे थे…जब फूलती सांसें साथ देने से इनकार करतीं तो वह कुछ पल को संभलतीं मगर व्याकुल मन कदमों में फिर गति भर देता. बात ही कुछ ऐसी थी. कल सुबह की टे्रन से वह अपनी इकलौती बेटी नेहा के घर जा रही थीं. वह भी पूरे 2 साल बाद.

यद्यपि नेहा के विवाह को 2 साल से ऊपर हो चले थे मगर कुसुम को लगता था जैसे कल की बात हो. कुसुम के पति नेहा के जन्म के कुछ सालों के बाद ही चल बसे थे. उन के निधन के बाद कुसुम नन्ही नेहा को गोद में ले कर प्राकृतिक छटा से भरपूर उत्तराखंड के एक छोटे से कसबे में आ गईं. इस जगह ने कुसुम को वह सबकुछ दिया जो वह खो चुकी थीं. मानप्रतिष्ठा, नौकरी, घर और नेहा की परवरिश में हरसंभव सहायता.

कुसुम ने भी इन एहसानों को उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने छोटा सा स्कूल खोला, जो धीरेधीरे कालिज के स्तर तक पहुंच गया. उन्हीं की वजह से कसबे में सर्वशिक्षा अभियान को सफलता मिली.

कुसुम के पड़ोसी घनश्यामजी जब भी नेहा को देखते कुसुम से यही कहते, ‘बहनजी, इस प्यारी सी बच्ची को तो मैं अपने परिवार में ही लाऊंगा,’ और समय आने पर उन्होंने अपनी बात रखते हुए अपने भतीजे अनुज के लिए नेहा का हाथ मांग लिया.

अनुज एक संस्कारी और होनहार लड़का था. वह उत्तर प्रदेश सरकार के बिजली विभाग में इंजीनियर था. कुसुम ने नेहा को विवाह में देने के लिए कुछ रुपए जोड़ कर रखे थे, मगर अनुज ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि मुझे आप के आशीर्वाद के सिवा और कुछ नहीं चाहिए. मेरी पत्नी को मेरी कमाई से ही गृहस्थी चलानी होगी, अपने मायके से लाई हुई चीजों से नहीं. और उस की इस बात को सुन कर पल भर के लिए कुसुम अतीत में खो गई थीं.

उन के अपने विवाह के समय उन के पति ने भी ऐसा ही कुछ कह कर दहेज लेने से साफ मना कर दिया था. अपने दामाद में अपने दिवंगत पति के आदर्श देख कर कुसुम अभिभूत हो उठी थीं.

नेहा के विवाह के 2 महीने बाद कुसुम को कालिज के किसी काम से दिल्ली जाना था. लौटते हुए वह कुछ समय के लिए मेरठ में बेटीदामाद के घर रुकी थीं. बड़ा आत्मिक सुख मिला था कुसुम को नेहा का सुखी घरसंसार देख कर. हालांकि देखने में उन का घर किसी भी दृष्टि से सरकारी इंजीनियर का घर नहीं लग रहा था, फर्नीचर के नाम पर कुल 4 बेंत की कुरसियां थीं, 1 मेज और पुराना दीवान था. सामने स्टूल पर रखा छोटा ब्लैक एंड वाइट टीवी रखा था जो शायद अनुज के होस्टल के दिनों का साथी था. उन का घर महंगे इलेक्ट्रोनिक उपकरणों और फर्नीचर  से सजाधजा नहीं था मगर उन के प्रेम की जिस भीनीभीनी सुगंध ने उन के घर को महका रखा था उसे कुसुम ने भी महसूस किया था और वह बेटी की तरफ से पूरी तरह संतुष्ट हो खुशीखुशी अपने घर लौट आई थीं. आज वह एक बार फिर अपनी बेटी के घर की उसी सुगंध को महसूस करने जा रही थीं.

स्टेशन पर उतरने के बाद कुसुम की बेचैन आंखें बेटीदामाद को खोज रही थीं कि तभी पीछे से नेहा ने उन की आंखों पर हाथ रखरख कर उन्हें चौंका दिया. अनुज तो नहीं आ पाया था मगर नेहा अपनी मां को लेने ठीक समय पर पहुंच गई थी.

कुसुम ने बेटी को देखा तो वह कुछ बदलीबदली सी नजर आई थी, गाढ़े मेकअप की परत चढ़ा चेहरा, कीमती परिधान, हाथों और गले में रत्नजडि़त आभूषण. इन 2 सालों में तो जैसे उस का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था. कुसुम सामान उठाने लगीं तो नेहा ने यह कहते रोक दिया,  ‘‘रहने दो, मम्मी, ड्राइवर उठा लेगा.’’

नेहा, मां को लेने सरकारी जीप में आई थी. जीप में बैठ नेहा मां को बताने लगी, ‘‘मम्मी, अनुज आजकल बड़े व्यस्त रहते हैं इसलिए मेरे साथ नहीं आ सके. हां, आप को लेने के लिए इन्होंने सरकारी जीप भेज दी है…हाल ही में इन का प्रमोशन हुआ है, बड़ी अच्छी जगह पोस्टिंग हुई है…उस जगह पर पोस्टिंग पाने के लिए इंजीनियर तरसते रहते हैं मगर इन को मिली…खूब कमाई वाला एरिया है…’’ इस के आगे के शब्द कुसुम नहीं सुन सकीं. नेहा के बदले व्यक्तित्व से वह पहले ही विचलित थीं. उन के मुंह से निकला, ‘कमाई वाला एरिया.’

नेहा की हर एक हरकत…हर एक बात उस की सोच में आए बदलाव का संकेत दे रही थी. उस की आंखों में बसी सादगी और संतुष्टि की जगह कुसुम को पैसे की चमक और अपने स्टेटस का प्रदर्शन करने की चाह नजर आ रही थी.

घर पहुंच कर कुसुम ने पाया कि घर भी नेहा की तरह उन के बढ़े हुए स्टेटस का खुल कर प्रदर्शन कर रहा है. आधुनिक साजसज्जा से युक्त घर में ऐशोआराम की हर एक चीज मौजूद थी.

‘‘लगता है, अनुज ने इन 2 सालों में काफी तरक्की कर ली है,’’ कुसुम ने चारों ओर दृष्टि घुमाते हुए पूछा.

‘‘अनुज ने कहां की है मम्मी, मैं ने जबरन इन के पीछे पड़ कर करवाई है… जब मैं ने देखा कि कभी इन के नीचे काम करने वाले कहां के कहां पहुंच गए और यह वहीं अटके पड़े हैं तो मुझ से रहा न गया…वैसे इन का बस चलता तो अभी तक हम उसी कबूतरखाने में पड़े रहते…’’

कुसुमजी समझ गईं कि उन की बेटी, शहर आ कर काफी सयानी हो गई है और पैसे बनाने की अंधी दौड़ में शामिल हो चुकी है. इस बात को ले कर वह गहन चिंता में डूब गईं.

‘‘अरे, मम्मी, आप अभी तक यों ही बैठी हैं, जल्दी से हाथमुंह धो कर फे्रश हो जाइए…खाना तैयार है…आप थकी होंगी, सो जल्दी खा कर सो जाइए…कल आराम से बातें करेंगे.’’

‘‘अनुज को आने दे…साथ ही डिनर करेंगे…वैसे बहुत देर हो गई है, कब तक आता है?’’

‘‘उन का तो कुछ भरोसा नहीं है, मम्मी, जब से प्रमोशन हुआ है अकसर देर से ही आते हैं…मैं तो समय पर खाना खा कर सो जाती हूं, क्योंकि ज्यादा देर से सोने से मेरी नींद उचट जाती है. वह जब आते हैं तो उन्हें नौकर खिला देता है.’’

‘‘मैं अनुज के साथ ही खाऊंगी, वैसे भी मुझे अभी भूख नहीं है, तुम चाहो तो खा कर सो जाओ…’’ कुसुम ने जवाब दिया.

थोड़ी ही देर में अनुज घर आया और आते ही कुसुम के चरण स्पर्श कर अभिवादन करते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें, मम्मीजी, कुछ जरूरी काम आ गया था सो आप को लेने स्टेशन नहीं पहुंच सका.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ कुसुमजी बोलीं, ‘‘मगर यह तुम्हें क्या हो गया है… तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई है…माना काम जरूरी है पर अपना ध्यान भी तो रखना चाहिए…’’

सचमुच इस अनुज की सूरत 2 साल पहले वाले अनुज से बिलकुल मेल नहीं खाती थी…निस्तेज आंखें, बुझा चेहरा, झुके कंधे, निष्प्राण सा शरीर…उस का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था.

‘‘बस, मम्मीजी, क्या कहूं…काम कुछ ज्यादा ही रहता है,’’ इतना कह कर वह नजरें झुकाए अपने कमरे में चला गया और वहां जा कर नेहा को आवाज लगाई, ‘‘नेहा, ये 20 हजार रुपए अलमारी में रख दो, ये घर पर ही रहेेंगे…बैंक में जमा मत कराना.’’

अनुज के कमरे से आ रही पतिपत्नी की धीमी आवाज ने कुसुम पर वज्रपात कर दिया. 20 हजार रुपए, वह भी महीने के आखिर में…कहीं ये रिश्वत की कमाई तो नहीं…नेहा कह भी रही थी कि खूब कमाई वाले एरिया में पोस्टिंग हुई है…तो इस का अर्थ है कि इन दोनों को पैसे की भूख ने इतना अंधा बना दिया है कि इन्होंने अपने संस्कार, नैतिकता और ईमानदारी को ताक पर रख दिया. नहीं…मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगी…कुछ भी हो इन्हें सही राह पर लाना ही होगा. मन में यह दृढ़ निश्चय कर वह सोने चली गईं.

आज रविवार था. अनुज घर पर ही था. उस के व्यवहार से कुसुमजी को लग रहा था जैसे वह घरपरिवार की तरफ से उदासीन हो कर अपने में ही खोया…गुमसुम सा…भीतर ही भीतर घुट रहा है…घर की हवा बता रही थी कि उन दोनों का प्यार मात्र औपचारिकताओं पर आ कर सिमट गया है, मगर नेहा इस माहौल में भी बेहद सुखी और संतुष्ट नजर आ रही थी और यही बात कुसुम को बुरी तरह कचोट रही थी.

‘‘मम्मी, आज इन की छुट्टी है. चलो, कहीं बाहर घूम कर आते हैं और आज लंच भी फाइव स्टार होटल में करेंगे,’’ नेहा ने चहकते हुए प्रस्ताव रखा.

‘‘नहीं…आज हम तीनों कहीं नहीं जाएंगे बल्कि घर पर ही रह कर ढेर सारी बात करेंगे…और हां, आज खाना मैं बनाऊंगी,’’ कुसुमजी ने नेहा के प्रस्ताव को नामंजूर करते हुए कहा.

‘‘वाह, मम्मीजी, मजा आ जाएगा, नौकरों के हाथ का खाना खाखा कर तो मेरी भूख ही मर गई,’’ अनुज ने नेहा पर कटाक्ष किया.

‘‘हां…हां, जब घर में नौकरचाकर हैं तो मैं क्यों रसोई का धुआं खाऊं,’’ नेहा ने प्रतिवाद किया.

‘‘तुम्हें मसालेदार छोले और भरवां भिंडी बहुत पसंद हैं न…वही बनाऊंगी,’’ कुसुमजी ने बात संभाली.

‘‘अरे, मम्मीजी, आप को मेरी पसंद अभी तक याद है…नेहा तो शायद भूल ही गई,’’ अनुज के एक और कटाक्ष से नेहा मुंह बनाते हुए वहां से उठ कर चली गई.

‘‘चलो, बाहर लौन में बैठ कर कुछ देर धूप सेंकी जाए. मुझे तुम दोनों से कुछ जरूरी बातें भी करनी हैं,’’ लंच से निबट कर कुसुम ने सुझाव रखा.

बाहर आ कर बैठते ही कुसुम की भावमुद्रा बेहद गंभीर हो गई. उन की नजरें शून्य में ऐसे ठहर गईं जैसे अतीत के कुछ खोए हुए लमहे तलाश कर रही हों. कुछ देर खुद को संयत कर उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘आज मैं तुम दोनों के साथ अपनी कुछ ऐसी बातें शेयर करना चाहती हूं जिन का जानना तुम्हारे लिए बेहद जरूरी है. बात उन दिनों की है जब मैं नेहा के पापा से पहली बार मिली थी. वह भी अनुज की तरह ही सरकारी विभाग में इंजीनियर थे. बेहद ईमानदार और उसूलों के पक्के. वह ऐसे महकमे में थे जहां रिश्वत का लेनदेन एक आम बात थी मगर वह उस कीचड़ में भी कमल की तरह निर्मल थे. हम ने एकदूसरे को पसंद किया और शादी कर ली. उन की जिद के चलते हमारी शादी भी बड़ी सादगी से और बिना किसी दानदहेज के हुई थी. पहले उन की पोस्टिंग उत्तरकाशी में थी.

‘‘साल भर बाद उन का तबादला गाजियाबाद हो गया. वह एक औद्योगिक शहर है, जो ऊपरी कमाई की दृष्टि से बहुत अच्छा था. वहां हमें विभाग की सरकारी कालोनी में घर मिल गया. उन्होंने मुझे शुरू  से ही हिदायत दी थी कि मैं वहां सरकारी कालोनी में रह रहे बाकी इंजीनियरों की बीवियों और उन के रहनसहन की खुद से तुलना न करूं क्योंकि उन का उच्च स्तरीय जीवन उन के काले धन के कारण है, जो हमारे पास कभी नहीं होगा.

‘‘धीरेधीरे मेरा पासपड़ोस में मेलजोल बढ़ने लगा और न चाहते हुए भी मैं उन के ठाटबाट से प्रभावित होने लगी. मेरे मन में भी उन सब की देखादेखी ऐशोआराम से रहने की इच्छा जागने लगी. मुझे लगने लगा कि यह लेनदेन तो जगत व्यवहार का हिस्सा है, जब इस दुनिया में हर कोई पैसे बटोर कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित कर रहा है तो हम ही क्यों पीछे रहें…

‘‘बस, मैं ने अपनी सहेलियों के बहकावे में आ कर उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया मगर उन्होंने अपने आदर्शों के साथ समझौता करना नहीं स्वीकारा. मैं उन्हें ताने देती, उन के सहकर्मियों की तरक्की का हवाला देती, यहां तक कि मैं ने उन्हें एक असफल पति भी करार दिया, मगर वह नहीं झुके.

‘‘इन्हीं उलझनों के बीच मैं गर्भवती हुई तो वह तमाम मतभेदों को भूल कर बेहद खुश थे. मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं इस हीनता भरे दमघोंटू माहौल में किसी बच्चे को जन्म नहीं दूंगी. हमारे घर संतान तभी होगी जब तुम अपने खोखले आदर्शों का चोगा उतार कर बाकी लोगों की तरह ही घर में हमारे और बच्चे के लिए तमाम सुखसुविधाओं को जुटाने का वचन दोगे. मुझे गर्भपात कराने पर उतारू देख तुम्हारे पिता टूट गए और धीरेधीरे धन पानी की तरह बरसने लगा…घर सुखसुविधाओं की चीजों से भरता चला गया.

‘‘मैं ने जो चाहा सो पा लिया, मगर तुम्हारे पिता का प्यार खो दिया. उस समय मेरी आंखों पर माया का ऐसा परदा पड़ा था कि मुझे इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह किसी मशीन की भांति काम करते जा रहे थे और मैं अपने ऊंचे स्टेटस के मद में पागल थी.

‘‘फिर तुम्हारा जन्म हुआ, तुम्हारे आने के बाद तुम्हारे भविष्य के लिए धन जमा करने की तृष्णा भी बढ़ गई. सबकुछ मेरी इच्छानुसार ही चल रहा था कि एक दिन अचानक…’’

कुसुमजी की वाणी कुछ पल के लिए थम गई और उन की आंखें नम हो गईं….

‘‘एक दिन क्या हुआ, मम्मी?’’ नेहा ने विस्मित स्वर से पूछा.

‘‘…आफिस से खबर आई कि तुम्हारे पिता को भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते ने धर दबोचा. अखबार में नाम आया…खूब फजीहत हुई और फिर मुकदमे के बाद उन्हें जेल भेज दिया गया…जेल जाते हुए उन्होंने मुझ को जिस हिकारत की नजर से देखा था वह मैं कभी भूल नहीं सकती…वह चुप थे, मगर उन की चमकती संतुष्ट नजरें जैसे कह रही थीं कि वह मुझे यों असहाय, भयभीत और अपमानित देख कर बेहद खुश थे.

‘‘बाद में पता चला कि उन्होंने अपनी इच्छा से ही खुद को गिरफ्तार करवाया था और अपना सब कच्चा चिट्ठा अदालत में खोल कर रख दिया था…मुझे दंडित करने का यही तरीका चुना था उन्होंने…जेल में वह कभी मुझ से नहीं मिले और एक दिन पता चला कि वहां उन का देहांत हो गया है…’’

इतना बता कर कुसुमजी फूटफूट कर रो पड़ीं…बरसों से बह रहे पश्चाताप के आंसू अभी भी सूखे नहीं थे…

‘‘मम्मी, इतनी तीक्ष्ण पीड़ा आप ने इतने साल कैसे छिपा कर रखी…मुझे तो कभी आभास भी नहीं होने दिया.’’

‘‘मन में अपार ग्लानि थी. बस, यही साध थी मन में कि बाकी जीवन उन के आदर्शों पर चल कर ही बिताऊं और तुम्हें भी तुम्हारे पिता के संस्कार दूं. मैं अब बूढ़ी हो चली हूं, पता नहीं कितने दिनों की मेहमान हूं…और कुछ तो नहीं है मेरे पास, बस यह आपबीती तुम दोनों को धरोहर के रूप में दे रही हूं…

‘‘वैसे, मैं ने देखा है कि  जो रिश्वत लेते हैं वे शराबीकबाबी हो जाते हैं और रातरात भर गायब रहते हैं. उन पर काम का भरोसा नहीं किया जा सकता है. और उन्हें छोटेमोटे प्रमोशन ही मिल पाते हैं. बेटी, इंजीनियरिंग ऐसा काम नहीं कि दोचार घंटे गए और हो गया. घंटों किताबों में मगजमारी करनी होती है और जिस को रिश्वत मिलती है, वह किताबों में नहीं पार्टियों में समय बिताता है, हो सकता है तुम्हें ये बातें बुरी लग जाएं पर मेरा अनुभव है. तुम्हारे पिता के जाने के बाद मैं यही तो देखती रही कि मैं गलत थी या तुम्हारे पिता,’’ कुसुम ने बात खत्म करते हुए कहा.

‘‘जरूर काम आएंगी मम्मी,… तुम्हारी यह धरोहर अब कभी मेरे कदम लड़खड़ाने नहीं देगी,’’ नेहा अपनी मां से लिपट गई. उस की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे जिन के साथ उस के भीतर छिपी न जाने कितनी तृष्णाएं भी बही जा रही थीं.

दो भूत : उर्मिल ने अम्माजी को दी अनोखी राहत

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’

‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. यद्यपि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

लक्ष्मण रेखा : सब्र का दूसरा नाम थीं मिसेज राजीव

मेहमानों की भीड़ से घर खचाखच भर गया था. एक तो शहर के प्रसिद्ध डाक्टर, उस पर आखिरी बेटे का ब्याह. दोनों तरफ के मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी. इतना बड़ा घर होते हुए भी वह मेहमानों को अपने में समा नहीं पा रहा था. कुछ रिश्ते दूर के होते हुए भी या कुछ लोग बिना रिश्ते के भी बहुत पास के, अपने से लगने लगते हैं और कुछ नजदीकी रिश्ते के लोग भी पराए, बेगाने से लगते हैं, सच ही तो है. रिश्तों में क्या धरा है? महत्त्व तो इस बात का है कि अपने व्यक्तित्व द्वारा कौन किस को कितना आकृष्ट करता है.

तभी तो डाक्टर राजीव के लिए शुभदा उन की कितनी अपनी बन गई थी. क्या लगती है शुभदा उन की? कुछ भी तो नहीं. आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डाक्टर राजीव सहज ही मिलने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. उन की आंखों में न जाने ऐसा कौन सा चुंबकीय आकर्षण है जो देखने वालों की नजरों को बांध सा देता है. अपने समय के लेडीकिलर रहे हैं डाक्टर राजीव. बेहद खुशमिजाज. जो भी युवती उन्हें देखती, वह उन जैसा ही पति पाने की लालसा करने लगती. डाक्टर राजीव दूल्हा बन जब ब्याहने गए थे, तब सभी लोग दुलहन से ईर्ष्या कर उठे थे. क्या मिला है उन्हें ऐसा सजीला गुलाब सा दूल्हा. गुलाब अपने साथ कांटे भी लिए हुए है, यह कुछ सालों बाद पता चला था. अपनी सुगंध बिखेरता गुलाब अनायास कितने ही भौंरों को भी आमंत्रित कर बैठता है. शुभदा भी डाक्टर राजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन की तरफ खिंची चली आई थी.

बौद्धिक स्तर पर आरंभ हुई उन की मित्रता दिनप्रतिदिन घनिष्ठ होती गई थी और फिर धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के लिए अपरिहार्य बन गए थे. मिसेज राजीव पति के बौद्धिक स्तर पर कहीं भी तो नहीं टिकती थीं. बहुत सीधे, सरल स्वभाव की उषा बौद्धिक स्तर पर पति को न पकड़ पातीं, यों उन का गठा बदन उम्र को झुठलाता गौरवर्ण, उज्ज्वल ललाट पर सिंदूरी गोल बड़ी बिंदी की दीप्ति ने बढ़ती अवस्था की पदचाप को भी अनसुना कर दिया था. गहरी काली आंखें, सीधे पल्ले की साड़ी और गहरे काले केश, वे भारतीयता की प्रतिमूर्ति लगती थीं. बहुत पढ़ीलिखी न होने पर भी आगंतुक सहज ही बातचीत से उन की शिक्षा का परिचय नहीं पा सकता था. समझदार, सुघड़, सलीकेदार और आदर्श गृहिणी. आदर्श पत्नी व आदर्श मां की वे सचमुच साकार मूर्ति थीं. उन से मिलते ही दिल में उन के प्रति अनायास ही आकर्षण, अपनत्व जाग उठता, आश्चर्य होता था यह देख कर कि किस आकर्षण से डाक्टर राजीव शुभदा की तरफ झुके. मांसल, थुलथुला शरीर, उम्र को जबरन पीछे ढकेलता सौंदर्य, रंगेकटे केश, नुची भौंहें, निरंतर सौंदर्य प्रसाधनों का अभ्यस्त चेहरा. असंयम की स्याही से स्याह बना चेहरा सच्चरित्र, संयमी मिसेज राजीव के चेहरे के सम्मुख कहीं भी तो नहीं टिकता था.

एक ही उम्र के माइलस्टोन को थामे खड़ी दोनों महिलाओं के चेहरों में बड़ा अंतर था. कहते हैं सौंदर्य तो देखने वालों की आंखों में होता है. प्रेमिका को अकसर ही गिफ्ट में दिए गए महंगेमहंगे आइटम्स ने भी प्रतिरोध में मिसेज राजीव की जबान नहीं खुलवाई. प्रेमी ने प्रेमिका के भविष्य की पूरी व्यवस्था कर दी थी. प्रेमिका के समर्पण के बदले में प्रेमी ने करोड़ों रुपए की कीमत का एक घर बनवा कर उसे भेंट किया था. शाहजहां की मलिका तो मरने के बाद ही ताजमहल पा सकी थी, पर शुभदा तो उस से आगे रही. प्रेमी ने प्रेमिका को उस के जीतेजी ही ताजमहल भेंट कर दिया था. शहरभर में इस की चर्चा हुई थी. लेकिन डाक्टर राजीव के सधे, कुशल हाथों ने मर्ज को पकड़ने में कभी भूल नहीं की थी. उस पर निर्धनों का मुफ्त इलाज उन्हें प्रतिष्ठा के सिंहासन से कभी नीचे न खींच सका था.

जिंदगी को जीती हुई भी जिंदगी से निर्लिप्त थीं मिसेज राजीव. जरूरत से भी कम बोलने वाली. बरात रवाना हो चुकी थी. यों तो बरात में औरतें भी गई थीं पर वहां भी शुभदा की उपस्थिति स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी थी. मिसेज राजीव ने ‘घर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए’ कह कर खुद ही शुभदा का मार्ग प्रशस्त कर दिया था. मां मिसेज राजीव की दूर की बहन लगती हैं. बड़े आग्रह से पत्र लिख उन्होंने हमें विवाह में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. सालों से बिछुड़ी बहन इस बहाने उन से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.

बरात के साथ न जा कर मिसेज राजीव ने उस स्थिति की पुनरावृत्ति से बचना चाहा था जिस में पड़ कर उन्हें उस दिन अपनी नियति का परिचय प्राप्त हो गया था. डाक्टर राजीव काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. डाक्टरों के अनुसार उन का एक छोटा सा औपरेशन करना जरूरी था. औपरेशन का नाम सुनते ही लोगों का दिल दहल उठता है.

परिणामस्वरूप ससुराल से भी रिश्तेदार उन्हें देखने आए थे. अस्पताल में शुभदा की उपस्थिति, उस पर उसे बीमार की तीमारदारी करती देख ताईजी के तनबदन में आग लग गई थी. वे चाह कर भी खुद को रोक न सकी थीं. ‘कौन होती हो तुम राजीव को दवा पिलाने वाली? पता नहीं क्याक्या कर के दिनबदिन इसे दीवाना बनाती जा रही है. इस की बीवी अभी मरी नहीं है,’ ताईजी के कर्कश स्वर ने सहसा ही सब का ध्यान आकर्षित कर लिया था.

अपराधिनी सी सिर झुकाए शुभदा प्रेमी के आश्वासन की प्रतीक्षा में दो पल खड़ी रह सूटकेस उठा कर चलने लगी थी कि प्रेमी के आंसुओं ने उस का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था. उषा पूरे दृश्य की साक्षी बन कर पति की आंखों की मौन प्रार्थना पढ़ वहां से हट गई थी. पत्नी के जीवित रहते प्रेमिका की उपस्थिति, सबकुछ कितना साफ खुला हुआ. कैसी नारी है प्रेमिका? दूसरी नारी का घर उजाड़ने को उद्यत. कैसे सब सहती है पत्नी? परनारी का नाम भी पति के मुख से पत्नी को सहन नहीं हो पाता. सौत चाहे मिट्टी की हो या सगी बहन, कौन पत्नी सह सकी है?

पिता का आचरण बेटों को अनजान?े ही राह दिखा गया था. मझले बेटे के कदम भी बहकने लगे थे. न जाने किस लड़की के चक्कर में फंस गया था कि चतुर शुभदा ने बिगड़ती बात को बना लिया. न जाने किन जासूसों के बूते उस ने अपने प्रेमी के सम्मान को डूबने से बचा लिया. लड़के की प्रेमिका को दूसरे शहर ‘पैक’ करा के बेटे के पैरों में विवाह की बेडि़यां पहना दीं. सभी ने कल्पना की थी बापबेटे के बीच एक जबरदस्त हंगामा होने की, पर पता नहीं कैसा प्रभुत्व था पिता का कि बेटा विवाह के लिए चुपचाप तैयार हो गया. ‘ईर्ष्या और तनावों की जिंदगी में क्यों घुट रही हो?’ मां ने उषा को कुरेदा था.

एकदम चुप रहने वाली मिसेज राजीव उस दिन परत दर परत प्याज की तरह खुलती चली गई थीं. मां भी बरात के साथ नहीं गई थीं. घर में 2 नौकरों और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. इतने लंबे अंतराल में इतना कुछ घटित हो गया, मां को कुछ लिखा भी नहीं. मातृविहीन सौतेली मां के अनुशासन में बंधी उषा पतिगृह में भी बंदी बन कर रह गई थी. मां ने उषा की दुखती रग पर हाथ धर दिया था. वर्षों से मन ही मन घुटती मिसेज राजीव ने मां का स्नेहपूर्ण स्पर्श पा कर मन में दबी आग को उगल दिया था. ‘मैं ने यह सब कैसे सहा, कैसे बताऊं? पति पत्नी को मारता है तो शारीरिक चोट ही देता है, जिसे कुछ समय बाद पत्नी भूल भी जाती है पर मन की चोट तो सदैव हरी रहती है. ये घाव नासूर बनते जाते हैं, जो कभी नहीं भरते.

‘पत्नीसुलभ अधिकारों को पाने के लिए विद्रोह तो मैं ने भी करना चाहा था पर निर्ममता से दुत्कार दी गई. जब सभी राहें बंद हों तो कोई क्या कर सकता है? ‘ऊपर से बहुत शांत दिखती हूं न? ज्वालामुखी भी तो ऊपर से शांत दिखता है, लेकिन अपने अंदर वह जाने क्याक्या भरे रहता है. कलह से कुछ बनता नहीं. डरती हूं कि कहीं पति को ही न खो बैठूं. आज वे उसे ब्याह कर मेरी छाती पर ला बिठाएं या खुद ही उस के पास जा कर रहने लगें तो उस स्थिति में मैं क्या कर लूंगी?

‘अब तो उस स्थिति में पहुंच गई हूं जहां मुझे कुछ भी खटकता नहीं. प्रतिदिन बस यही मनाया करती हूं कि मुझे सबकुछ सहने की अपारशक्ति मिले. कुदरत ने जिंदगी में सबकुछ दिया है, यह कांटा भी सही. ‘नारी को जिंदगी में क्या चाहिए? एक घर, पति और बच्चे. मुझे भी यह सभीकुछ मिला है. समय तो उस का खराब है जिसे कुदरत कुछ देती हुई कंजूसी कर गई. न अपना घर, न पति और न ही बच्चे. सिर्फ एक अदद प्रेमी.’

उषा कुछ रुक कर धीमे स्वर में बोली, ‘दीदी, कृष्ण की भी तो प्रेमिका थी राधा. मैं अपने कृष्ण की रुक्मिणी ही बनी रहूं, इसी में संतुष्ट हूं.’ ‘लोग कहते हैं, तलाक ले लो. क्या यह इतना सहज है? पुरुषनिर्मित समाज में सब नियम भी तो पुरुषों की सुविधा के लिए ही होते हैं. पति को सबकुछ मानो, उन्हें सम्मान दो. मायके से स्त्री की डोली उठती है तो पति के घर से अर्थी. हमारे संस्कार तो पति की मृत्यु के साथ ही सती होना सिखाते हैं. गिरते हुए घर को हथौड़े की चोट से गिरा कर उस घर के लोगों को बेघर नहीं कर दिया जाता, बल्कि मरम्मत से उस घर को मजबूत बना उस में रहने वालों को भटकने से बचा लिया जाता है.

‘तनाव और घुटन से 2 ही स्थितियों में छुटकारा पाया जा सकता है या तो उस स्थिति से अपने को अलग करो या उस स्थिति को अपने से काट कर. दोनों ही स्थितियां इतनी सहज नहीं. समाज द्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा को पार कर सकना मेरे वश की बात नहीं.’

मिसेज राजीव के उद्गार उन की समझदारी के परिचायक थे. कौन कहेगा, वे कम पढ़ीलिखी हैं? शिक्षा की पहचान क्या डिगरियां ही हैं?

बरात वापस आ गई थी. घर में एक और नए सदस्य का आगमन हुआ था. बेटे की बहू वास्तव में बड़ी प्यारी लग रही थी. बहू के स्वागत में उषा के दिल की खुशी उमड़ी पड़ रही थी. रस्म के मुताबिक द्वार पर ही बहूबेटे का स्वागत करना होता है. बहू बड़ों के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद पाती है. सभी बड़ों के पैर छू आशीष द्वार से अंदर आने को हुआ कि किसी ने व्यंग्य से चुटकी ली, ‘‘अरे भई, इन के भी तो पैर छुओ. ये भी घर की बड़ी हैं.’’ शुभदा स्वयं हंसती हुई आ खड़ी हुई. आशीष के चेहरे की हर नस गुस्से में तन गई. नया जवान खून कहीं स्थिति को अप्रिय ही न बना दे, बेटे के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मिसेज राजीव ने आशीष के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, आगे बढ़ कर चरणस्पर्श करो.’’

काम की व्यस्तता व नई बहू के आगमन की खुशी में सभी यह बात भूल गए पर आशीष के दिल में कांटा पड़ गया, मां की रातों की नींद छीनने वाली इस नारी के प्रति उस के दिल में जरा भी स्थान नहीं था. शाम को घर में पार्टी थी. रंगबिरंगी रोशनियों से फूल वाले पौधों और फलदार व सजावटी पेड़ों से आच्छादित लौन और भी आकर्षक लग रहा था. शुभदा डाक्टर राजीव के साथ छाया सी लगी हर काम में सहयोग दे रही थी. आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट, पार्टी का मीनू सभीकुछ तो उस के परामर्श से बना था.

शहनाई का मधुर स्वर वातावरण को मोहक बना रहा था. शहर के मान्य व प्रतिष्ठित लोगों से लौन खचाखच भर गया था. नईनेवली बहू संगमरमर की तराशी मूर्ति सी आकर्षक लग रही थी, देखने वालों की नजरें उस के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं लेती थीं. एक स्वर से दूल्हादुलहन व पार्टी की प्रशंसा की जा रही थी. साथ ही, दबे स्वरों में हर व्यक्ति शुभदा का भी जिक्र छेड़ बैठता. ‘‘यही हैं न शुभदा, नीली शिफौन की साड़ी में?’’ डाक्टर राजीव के बगल में आ खड़ी हुई शुभदा को देखते ही किसी ने पूछा.

‘‘डाक्टर राजीव ने क्या देखा इन में? मिसेज राजीव को देखो न, इस उम्र में भी कितनी प्यारी लगती हैं.’’ ‘‘तुम ने सुना नहीं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज?’’

‘‘शुभदा ने शादी नहीं की?’’ ‘‘शादी की होती तो अपने पति की बगल में खड़ी होती, डाक्टर राजीव के पास क्या कर रही होती?’’ किसी ने चुटकी ली, ‘‘मजे हैं डाक्टर साहब के, घर में पत्नी का और बाहर प्रेमिका का सुख.’’

घर के लोग चर्चा का विषय बनें, अच्छा नहीं लगता. ऐसे ही एक दिन आशीष घर आ कर मां पर बड़ा बिगड़ा था. पिता के कारण ही उस दिन मित्रों ने उस का उपहास किया था. ‘‘मां, तुम तो घर में बैठी रहती हो, बाहर हमें जलील होना पड़ता है. तुम यह सब क्यों सहती हो? क्यों नहीं बगावत कर देतीं? सबकुछ जानते हुए भी लोग पूछते हैं, ‘‘शुभदा तुम्हारी बूआ है? मन करता है सब का मुंह नोच लूं. अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. तुम यहां नहीं रहोगी.’’

मां निशब्द बैठी मन की पीड़ा, अपनी बेबसी को आंखों की राह बहे जाने दे रही थी. बच्चे दुख पाते हैं तो मां पर उबल पड़ते हैं. वह किस पर उबले? नियति तो उस की जिंदगी में पगपग पर मुंह चिढ़ा रही थी. बेटी साधना डिलीवरी के लिए आई हुई थी. उस के पति ने लेने आने को लिखा तो उस ने घर में शुभदा की उपस्थित को देख, कुछ रुक कर आने को लिख दिया था. ससुराल में मायका चर्चा का विषय बने, यह कोईर् लड़की नहीं चाहती. उसी स्थिति से बचने का वह हर प्रयत्न कर रही थी. पर इतनी लंबी अवधि के विरह से तपता पति अपनी पत्नी को विदा कराने आ ही पहुंचा.

शुभदा का स्थान घर में क्या है, यह उस से छिपा न रह सका. स्थिति को भांप कर ही चतुर विवेक ने विदा होते समय सास और ससुर के साथसाथ शुभदा के भी चरण स्पर्श कर लिए. पत्नी गुस्से से तमतमाती हुई कार में जा बैठी और जब विवेक आया तो एकदम गोली दागती हुई बोली, ‘‘तुम ने उस के पैर क्यों छुए?’’ पति ने हंसते हुए चुटकी ली, ‘‘अरे, वह भी मेरी सास है.’’

साधना रास्तेभर गुमसुम रही. बहुत दिनों बाद सुना था आशीष ने मां को अपने साथ चलने के लिए बहुत मनाया था पर वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हुई. लक्ष्मणरेखा उन्हें उसी घर से बांधे रही.

आंतरिक साहस के अभाव में ही मिसेज राजीव उसी घर से पति के साथ बंधी हैं. रातभर छटपटाती हैं, कुढ़ती हैं, फिर भी प्रेमिका को सह रही हैं सुबहशाम की दो रोटियों और रात के आश्रय के लिए. वे डरपोक हैं. समाज से डरती हैं, संस्कारों से डरती हैं, इसीलिए उन्होंने जिंदगी से समझौता कर लिया है. सुना था, इतनी असीम सहनशक्ति व धैर्य केवल पृथ्वी के पास ही है पर मेरे सामने तो मिसेज राजीव असीम सहनशीलता का साक्षात प्रमाण है.

काठ की हांडी : क्या हुआ जब पति की पुरानी प्रेमिका से मिली सीमा

रितु ने दोपहर में फोन कर के मु झे शाम को अपने फ्लैट पर बुलाया था.

‘‘मेरा मन बहुत उचाट हो रहा है. औफिस से निकल कर सीधे मेरे यहां आ जाओ. कुछ देर. दोनों गपशप करेंगे,’’ फोन पर रितु की आवाज में मु झे हलकी सी बेचैनी के भाव महसूस हुए.

‘‘तुम वैभव को क्यों नहीं बुला लेती हो गपशप के लिए? तुम्हारा यह नया आशिक तो सिर के बल भागा चला आएगा,’’ मैं ने जानबू झ कर वैभव को बुलाने की बात उठाई.

‘‘इस वक्त मु झे किसी नए नहीं, बल्कि पुराने आशिक के साथ की जरूरत महसूस हो रही है,’’ उस ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘सीमा भी तुम से मिलने आने की बात कह रही थी. उसे साथ लेता आऊं?’’ मैं ने उस के मजाक को नजरअंदाज करते हुए पूछा.

‘‘क्या तुम्हें अकेले आने में कोई परेशानी है?’’ वह खीज उठी.

‘‘मु झे कोई परेशानी होनी चाहिए क्या?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अब ज्यादा भाव मत खाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’ और उस ने  झटके से फोन काट दिया.

रितु अपने फ्लैट में अकेली रहती है. शाम को उस से मिलने जाने की बात मेरे मन को बेचैन कर रही थी. अपना काम रोक कर मैं कुछ देर के लिए पिछले महीनेभर की घटनाओं के बारे में सोचने लगा…

मेरी शादी होने के करीब 8 साल बाद रितु अचानक महीनाभर पहले मेरे घर मु झ से मिलने आई तो मैं हैरान होने के साथसाथ बहुत खुश भी हुआ था.

‘‘अभी भी किसी मौडल की तरह आकर्षक नजर आ रही रितु और मैं ने एमबीए साथसाथ किया था. सीमा, हमारी शादी होने से पहले ही यह मुंबई चली गई थी वरना बहुत पहले ही तुम से इस की मुलाकात हो जाती,’’ सहज अंदाज में अपनी पत्नी का रितु से परिचय कराते हुए मैं ने अपने मन की उथलपुथल को बड़ी कुशलता से छिपा लिया.

मेरे 5 साल के बेटे रोहित के लिए रितु ढेर सारी चौकलेट और रिमोट से चलने वाली कार लाई थी. सीमा और मेरे साथ बातें करते हुए वह लगातार रोहित के साथ खेल भी रही थी. बहुत कम समय में उस ने मेरे बेटे और उस की मम्मी का दिल जीत लिया.‘‘क्या चल रहा है तुम्हारी जिंदगी में? मयंक के क्या हालचाल हैं?’’ मेरे इन सवालों को सुन कर उस ने अचानक जोरदार ठहाका लगाया तो सीमा और मैं हैरानी से उस का मुंह ताकने लगे.

हंसी थम जाने के बाद उस ने रहस्यमयी मुसकान होंठों पर सजा कर हमें बताया, ‘‘मेरी जिंदगी में सब बढि़या चल रहा है, अरुण. बहुराष्ट्रीय बैंक में जौब कर रही हूं. मयंक मजे में है. वह 2 प्यारी बेटियों का पापा बन गया है.’’

‘‘अरे वाह, वैसे तुम्हें देख कर यह कोई नहीं कह सकता है कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो,’’ मेरे शब्दों में उस की तारीफ साफ नजर आ रही थी.

रितु पर एक बार फिर हंसने का दौरा सा पड़ा. सीमा और मैं बेचैनीभरे अंदाज में मुसकराते हुए उस के यों बेबात हंसने का कारण जानने की प्रतीक्षा करने लगे.

‘‘माई डियर अरुण, मु झे पता था कि तुम ऐसा गलत अंदाजा जरूर लगाओगे. यार, वह 2 बेटियों का पिता है पर मैं उस की पत्नी नहीं हूं.’’

‘‘क्या तुम दोनों ने शादी नहीं की है?’’

‘‘उस ने तो की पर मैं अभी तक शुद्ध अविवाहिता हूं, तलाकशुदा या विधवा नहीं. तुम्हारी नजर में मेरे लायक कोई सही रिश्ता हो तो जरूर बताना,’’ अपने इस मजाक पर उस ने फिर से जोरदार ठहाका लगाया.

‘‘मजाक की बात नहीं है यह, रितु बताओ न कि तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’ मैं ने गंभीर लहजे में पूछा.

‘‘जब सही मौका सामने था किसी अच्छे इंसान के साथ जिंदगीभर को जुड़ने का तो मैं ने नासम झी दिखाई और वह मौका हाथ से निकल गया. लेकिन यह किस्सा फिर कभी सुनाऊंगी. अब तो मैं अपनी मस्ती में मस्त बहती धारा बनी रहना चाहती हूं… सच कहूं तो मु झे शादी का बंधन अब अरुचिकर प्रतीत होता है,’’ 33 साल की उम्र तक अविवाहित रह जाने का उसे कोई गम है, यह उस की आवाज से बिलकुल जाहिर नहीं हो रहा था.

मगर सीमा ने शादी न करने के मामले में अपनी राय उसे

उसी वक्त बता दी, ‘‘शादी नहीं करोगी तो बढ़ती उम्र के साथ अकेलेपन का एहसास लगातार बढ़ता जाएगा. अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. मेरी सम झ से तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, रितु.’’

‘‘तुम ढूंढ़ना न मेरे लिए कोई सही जीवनसाथी, सीमा,’’ रितु बड़े अपनेपन से सीमा का हाथ पकड़ कर दोस्ताना लहजे में मुसकराई तो मेरी पत्नी ने उसी पल से उसे अपनी अच्छी सहेली मान लिया.

उन दोनों को गपशप में लगा देख मैं उस दिन भी अतीत की यादों में खो गया…

एक समय था जब साथसाथ एमबीए करते हुए हम दोनों ने जीवनसाथी बनने के रंगीन सपने देखे थे. हमारा प्रेम करीब 2 साल चला और फिर उस का  झुकाव अचानक मयंक की तरफ होता चला गया.

वैसे मयंक रितु की एक सहेली निशा का बौयफ्रैंड था. इस इत्तफाक ने बड़ा गुल खिलाया कि मयंक रितु की कालोनी में ही रहता था. इस कारण निशा द्वारा परिचय करा दिए जाने के बाद मयंक और रितु की अकसर मुलाकातें होने लगीं.

ये मुलाकातें निशा और मेरे लिए बड़ी दुखदाई साबित हुईं. अचानक एक दिन रितु ने मु झ से और मयंक ने निशा से प्रेम संबंध समाप्त कर लिए.

‘‘रितु प्लीज, तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी. मेरा साथ मत छोड़ो,’’ मैं ने उस के सामने आंसू भी बहाए पर उस ने मु झ से दूर होने का अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘आई एम सौरी अरुण… मैं मयंक के साथ कहीं ज्यादा खुश हूं. तुम्हें मु झ से बेहतर लड़की मिलेगी, फिक्र न करो,’’ हमारी आखिरी मुलाकात के समय उस ने मेरा गाल प्यार से थपथपाया और मेरी जिंदगी से निकल गई.

मु झ से कहीं ज्यादा तेज  झटका उस की सहेली निशा को लगा था. उस ने तो नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश भी करी थी.

एमबीए करने के बाद वह मुंबई चली गई. मैं सोचता था कि उस ने मयंक से शादी कर ली होगी पर मेरा अंदाजा गलत निकला.

मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि रितु से जुड़ी यादों की पीड़ा को वह लगभग पूरी तरह भूल चुका है. मैं सीमा और रोहित के साथ बहुत खुश था. उस दिन रितु को सामने देख कर मु झे वैसी खुशी महसूस हुई थी जैसी किसी पुराने करीबी दोस्त के अचानक आ मिलने से होती है.

उस दिन सीमा ने अपनी नई सहेली रितु को खाना खिला कर भेजा. कुछ घंटों में ही उन दोनों के बीच दोस्ती के मजबूत संबंध की नींव पड़ गई.

रितु अकसर हमारे यहां शाम को आ जाती थी. उस की मु झ से कम और सीमा से ज्यादा बातें होतीं. रोहित भी उस के साथ खेल कर बहुत खुश होता.

रोहित के जन्मदिन की पार्टी में सीमा ने उस का परिचय अपनी सहेली वंदना के बड़े भाई वैभव से कराया. दोनों सहेलियों की मिलीभगत से यह मुलाकात संभव हो पाई थी.

वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था.

किसी को उम्मीद नहीं थी पर रितु के साथ हुई पहली मुलाकात में ही वैभव भाई उस के प्रशंसक बन गए थे. रितु भी उस दिन फ्लर्ट करने के पूरे मूड में थी. उन दोनों के बीच आपसी पसंद को लगातार बढ़ते देख सीमा बहुत खुश हुई थी.

रितु और वैभव ने 2 दिन बाद बड़े महंगे होटल में साथ डिनर किया है, वंदना से मिली इस खबर ने सीमा को खुश कर दिया.

‘‘वैसे यह बंदा तो ठीक है सीमा, पर मेरे सपनों के राजकुमार से बहुत ज्यादा नहीं मिलता है, लेकिन तुम्हारी मेहनत सफल करने के लिए

मैं दिल से कोशिश कर रही हूं कि हमारा तालमेल बैठ जाए,’’ अगले दिन शाम को रितु ने अपने मन की बात सीमा को और मु झे साफसाफ बता दी.

‘‘अपने सपनों के राजकुमार के गुणों से हमें भी परिचित कराओ, रितु,’’ सीमा की इस जिज्ञासा का रितु क्या जवाब देगी, उसे सुनने को मैं भी उत्सुक हो उठता था.

रितु ने सीमा की पकड़ में आए बिना पहले मेरी तरफ मुड़ कर शरारती अंदाज में मु झे आंख मारी और फिर उसे बताने लगी, ‘‘मेरे सपनों का राजकुमार उतना ही अच्छा होना चाहिए जितना अच्छा तुम्हारा जीवनसाथी, सीमा. मेरी खुशियों… मेरे सुखदुख का हमेशा ध्यान रखने वाला सीधासादा हंसमुख इंसान है मेरे सपनों का राजकुमार.’’

‘‘ऐसे सीधेसादे इंसान से तुम जैसी स्मार्ट, फैशनेबल, आधुनिक स्त्री की निभ जाएगी?’’ सीमा ने माथे में बल डाल कर सवाल किया.

‘‘सीमा, 2 इंसानों के बीच आपसी सम झ और तालमेल गहरे प्रेम का मजबूत आधार बनता है या नहीं?’’

‘‘बिलकुल बनता है. वैभव तुम्हें अगर नहीं भी जंचा तो फिक्र नहीं. तुम्हारी शादी मु झे करानी ही है और तुम्हारे सपनों के राजकुमार से मिलताजुलता आदमी मैं ढूंढ़ ही लाऊंगी,’’ जोश से भरी सीमा भावुक भी हो उठी थी.

‘‘जो सामने मौजूद है उसे ढूंढ़ने की बात कह रही थी मेरी सहेली,’’ कुछ देर बाद जब सीमा रसोई में थी तब रितु ने मजाकिया लहजे में इन शब्दों को मुंह से निकाला तो मेरे दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गईं.

मन में मच रही हलचल के चलते मु झ से कोई जवाब देते नहीं बना था. रितु ने हाथ बढ़ा कर अचानक मेरे बालों को शरारती अंदाज में खराब सा किया और फिर मुसकराती हुई रसोई में सीमा के पास चली गई.

उस दिन रितु की आंखों में मैं ने अपने लिए चाहत के भावों को साफ पहचाना था.

आगामी दिनों में उसे जब भी अकेले में मेरे साथ होने का मौका मिलता तो वह जरूर कुछ न कुछ ऐसा कहती या करती जो उस की मेरे प्रति चाहत को रेखांकित कर जाता. मैं ने अपनी तरफ से उसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया था पर मु झ से छेड़छाड़ करने का उस का हौसला बढ़ता ही जा रहा था.

इन सब बातों को सोचते हुए मैं ने शाम तक का समय गुजारा. रितु के फ्लैट की तरफ अपनी कार से जाते हुए मैं खुद को काफी तनावग्रस्त महसूस कर रहा था, इस बात को मैं स्वीकार करता हूं.

अपने ड्राइंगरूम में रितु मेरी बगल में बैठते हुए शिकायती अंदाज में बोली, ‘‘तुम ने बहुत इंतजार कराया, अरुण.’’

‘‘नहीं तो… अभी 6 ही बजे हैं. औफिस खत्म होने के आधे घंटे बाद ही मैं हाजिर हो गया हूं. कहो, कैसे याद किया है?’’ अपने स्वर को हलकाफुलका रखते हुए मैं ने जवाब दिया.

‘‘आज तुम से बहुत सारी बातें कहनेसुनने का दिल कर रहा है,’’ कहते हुए उस ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया.

‘‘तुम बेहिचक बोलना शुरू करो. मैं तुम्हारे मुंह से निकले हर शब्द को पूरे ध्यान से सुनूंगा.’’

मेरी आंखों में गहराई से  झांकते हुए उस ने भावुक लहजे में कहा, ‘‘अरुण, तुम्हारे प्यार को मैं कुछ दिनों से बहुत मिस कर रही हूं.’’

‘‘अरे, अब मेरे नहीं वैभव के प्यार को अपने दिल में जगह दो, रितु,’’ मैं ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘मेरी जिंदगी में बहुत पुरुष आए हैं और आते रहेंगे, पर मेरे दिल में तुम्हारी जगह किसी को नहीं मिल सकेगी. तुम से दूर जा कर मैं ने अपने जीवन की सब से बड़ी भूल की है.’’

‘‘पुरानी बातों को याद कर के बेकार में अपना मन क्यों दुखी कर रही हो?’’

‘‘मेरी जिंदगी में खुशियों की बौछार तुम ही कर सकते हो, अरुण. अपने प्यार के लिए मु झे अब और तरसने मत दो, प्लीज,’’ और उस ने मेरे हाथ को कई बार चूम लिया.

‘‘मैं एक शादीशुदा इंसान हूं, रितु. मु झ से ऐसी चीज मत मांगो जिसे देना गलत होगा,’’ मैं ने उसे कोमल स्वर में सम झाया.

‘‘मैं सीमा का हक छीनने की कोशिश नहीं कर रही हूं. हम उसे कुछ पता नहीं लगने देंगे,’’ मेरे हाथ को अपने वक्षस्थल से चिपका कर उस ने विनती सी करी.

कुछ पलों तक उस के चेहरे को ध्यान से निहारने के बाद मैं ने ठहरे अंदाज में बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हारे बदलते हावभावों को देख कर मु झे पिछले कुछ दिनों से ऐसा कुछ घटने का अंदेशा हो गया था, रितु. अब प्लीज तुम मेरी बातों को ध्यान से सुनो.

‘‘हमारा प्रेम संबंध उसी दिन समाप्त हो गया था जिस दिन तुम ने मु झे छोड़ कर मयंक के साथ जुड़ने का निर्णय लिया था. अब हमारे पास उस अतीत की यादें हैं, लेकिन उन यादों के बल पर दोबारा प्रेम का रिश्ता कायम करने की इच्छा रखना तुम्हारी नासम झी ही है.

‘‘ऐसे प्रेम संबंध को छिपा कर रखना संभव नहीं होता है, रितु. मु झे आज भी मयंक की प्रेमिका निशा याद है. तुम ने मयंक को उस से छीना तो उस ने खुदकुशी करने की कोशिश करी थी. तुम्हें मनाने के लिए मैं किसी छोटे बच्चे की तरह रोया था, शायद तुम्हें याद होगा. किसी बिलकुल अपने विश्वासपात्र के हाथों धोखा खाने की गहन पीड़ा कल को सीमा भोगे, ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहूंगा.

‘‘पिछली बार तुम ने निशा और मेरी खुशियों के संसार को अपनी खुशियों की खातिर तहसनहस कर दिया था. आज तुम सीमा, रोहित और मेरी खुशियोें और सुखशांति को अपने स्वार्थ की खातिर दांव पर लगाने को तैयार हो पर काठ की हांडी फिर से चूल्हे पर नहीं चढ़ती है.

‘‘देखो, आज तुम सीमा की बहुत अच्छी सहेली बनी हुई हो. हम तुम्हें अपने घर की सदस्य मानते हैं. मैं तुम्हारा बहुत अच्छा दोस्त और शुभचिंतक हूं. तुम नासम झी का शिकार बन कर हमारे साथ ऐसे सुखद रिश्ते को तोड़ने व बदनाम करने की मूर्खता क्यों करना चाहती हो?’’

‘‘तुम इतना ज्यादा क्यों डर रहे हो, स्वीटहार्ट?’’ मेरे सम झाने का उस पर खास असर नहीं हुआ और वह अपनी आंखों में मुझे प्रलोभित करने वाले नशीले भाव भर कर मेरी तरफ बढ़ी.

तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई तो वह नाराजगीभरे अंदाज में मुड़ कर दरवाजा

खोलने चल पड़ी.

‘‘यह सीमा होगी,’’ मेरे मुंह से निकले इन शब्दों को सुन वह  झटके से मुड़ी और मु झे गुस्से से घूरने लगी.

‘‘तुम ने बुलाया है उसे यहां?’’ उस ने दांत पीसते हुए पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैं अकेले यहां नहीं आना चाहता था.’’

‘‘अब उसे क्या बताओगे?’’

‘‘कह दूंगा कि तुम उस की सौत बनने की…’’

‘‘शटअप, अरुण. अगर तुम ने हमारे बीच हुई बात का उस से कभी जिक्र भी किया तो मैं तुम्हारा मर्डर कर दूंगी.’’ वह अब घबराई सी नजर आ रही थी.

‘‘क्या तुम्हें इस वक्त डर लग रहा है?’’ मैं ने उस के नजदीक जा कर कोमल स्वर में पूछा.

‘‘म… मु झे… मैं सीमा की नजरों में अपनी छवि खराब नहीं करना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल यही इच्छा मेरे भी है, माई गुड फ्रैंड.’’

‘‘अब उस से क्या कहोगे?’’ दोबारा बजाई गई घंटी की आवाज सुन कर उस की हालत और पतली हो गई.

‘‘तुम्हें वैभव कैसा लगता है?’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘इस ठीक को हम सब मिल कर बहुत अच्छा बना लेंगे, रितु. तुम बहुत भटक चुकी हो. मेरी सलाह मान अब अपनी घरगृहस्थी बसाने का निर्णय ले डालो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि सीमा को हम यह बताएंगे कि हम ने उसे यहां महत्त्वपूर्ण सलाहमश्वरे के लिए बुलाया है, क्योंकि तुम आज वैभव को अपना जीवनसाथी बनाने के लिए किसी पक्के फैसले तक पहुंचना चाहती हो.’’

‘‘गुड आइडिया,’’ रितु की आंखों में राहत के भाव उभरे.

‘‘तब सुखद विवाहित जीवन के लिए मेरी अग्रिम शुभकामनाएं स्वीकार करो, रितु,’’ मैं ने उस से फटाफट हाथ मिलाया और फिर जल्दी से दरवाजा खोलने के लिए मजाकिया ढंग से धकेल सा दिया.

‘‘थैंक यू, अरुण.’’ उस ने कृतज्ञ भाव से मेरी आंखों में  झांका और फिर खुशी से भरी दरवाजा खोलने चली गई.

‘‘वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था…’’

हिंदी की दुकान : क्या पूरा हुआ सपना

मेरे रिटायरमेंट का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, एक ही चिंता सताए जा रही थी कि इतने वर्षों तक बेहद सक्रिय जीवन जीने के बाद घर में बैठ कर दिन गुजारना कितना कष्टप्रद होगा, इस का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. इसी उधेड़बुन में कई महीने बीत गए. एक दिन अचानक याद आया कि चंदू चाचा कुछ दिन पहले ही रिटायर हुए हैं. उन से बात कर के देखा जा सकता है, शायद उन के पास कोई योजना हो जो मेरे भावी जीवन की गति निर्धारित कर सके.

यह सोच कर एक दिन फुरसत निकाल कर उन से मिला और अपनी समस्या उन के सामने रखी, ‘‘चाचा, मेरे रिटायरमेंट का दिन नजदीक आ रहा है. आप के दिमाग में कोई योजना हो तो मेरा मार्गदर्शन करें कि रिटायरमेंट के बाद मैं अपना समय कैसे बिताऊं?’’

मेरी बात सुनते ही चाचा अचानक चहक उठे, ‘‘अरे, तुम ने तो इतने दिन हिंदी की सेवा की है, अब रिटायरमेंट के बाद क्या चिंता करनी है. क्यों नहीं हिंदी की एक दुकान खोल लेते.’’

‘‘हिंदी की दुकान? चाचा, मैं समझा नहीं,’’ मैं ने अचरज से पूछा.

‘‘देखो, आजकल सभी केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों में हिंदी सेल काम कर रहा है,’’ चाचा बोले, ‘‘सरकार की ओर से इन कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग करने और उसे बढ़ावा देने के लिए तरहतरह के प्रयास किए जा रहे हैं. कार्यालयों के आला अफसर भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. इन दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों को समयसमय पर प्रशिक्षण आदि की जरूरत तो पड़ती ही रहती है और जहां तक हिंदी का सवाल है, यह मामला वैसे ही संवेदनशील है. इसी का लाभ उठाते हुए हिंदी की दुकान खोली जा सकती है. मैं समझता हूं कि यह दुकानदारी अच्छी चलेगी.’’

‘‘तो मुझे इस के लिए क्या करना होगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘करना क्या होगा,’’ चाचा बोले, ‘‘हिंदी के नाम पर एक संस्था खोल लो, जिस में राजभाषा शब्द का प्रयोग हो. जैसे राजभाषा विकास निगम, राजभाषा उन्नयन परिषद, राजभाषा प्रचारप्रसार संगठन आदि.’’

‘‘संस्था का उद्देश्य क्या होगा?’’

‘‘संस्था का उद्देश्य होगा राजभाषा का प्रचारप्रसार, हिंदी का प्रगामी प्रयोग तथा कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन में आने वाली समस्याओं का समाधान. पर वास्तविक उद्देश्य होगा अपनी दुकान को ठीक ढंग से चलाना. इन सब के लिए विभिन्न प्रकार की कार्यशालाओं का आयोजन किया जा सकता है.’’

‘‘चाचा, इन कार्यशालाओं में किनकिन विषय पर चर्चाएं होंगी?’’

‘‘कार्यशालाओं में शामिल किए जाने वाले विषयों में हो सकते हैं :राजभाषा कार्यान्वयन में आने वाली कठिनाइयां और उन का समाधान, वर्तनी का मानकीकरण, अनुवाद के सिद्धांत, व्याकरण एवं भाषा, राजभाषा नीति और उस का संवैधानिक पहलू, संसदीय राजभाषा समिति की प्रश्नावली का भरना आदि.’’

‘‘कार्यशाला कितने दिन की होनी चाहिए?’’ मैं ने अपनी शंका का समाधान किया.

‘‘मेरे खयाल से 2 दिन की करना ठीक रहेगा.’’

‘‘इन कार्यशालाओं में भाग कौन लोग लेंगे?’’

‘‘केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों तथा उपक्रमों के हिंदी अधिकारी, हिंदी अनुवादक, हिंदी सहायक तथा हिंदी अनुभाग से जुड़े तमाम कर्मचारी इन कार्यशालाओं में भाग लेने के पात्र होंगे. इन कार्यालयों के मुख्यालयों एवं निगमित कार्यालयों को परिपत्र भेज कर नामांकन आमंत्रित किए जा सकते हैं.’’

‘‘परंतु उन के वरिष्ठ अधिकारी इन कार्यशालाओं में उन्हें नामांकित करेंगे तब न?’’

‘‘क्यों नहीं करेंगे,’’ चाचा बोले, ‘‘इस के लिए इन कार्यशालाओं में तुम्हें कुछ आकर्षण पैदा करना होगा.’’

मैं आश्चर्य में भर कर बोला, ‘‘आकर्षण?’’

‘‘इन कार्यशालाओं को जहांतहां आयोजित न कर के चुनिंदा स्थानों पर आयोजित करना होगा, जो पर्यटन की दृष्टि से भी मशहूर हों. जैसे शिमला, मनाली, नैनीताल, श्रीनगर, ऊटी, जयपुर, हरिद्वार, मसूरी, गोआ, दार्जिलिंग, पुरी, अंडमान निकोबार आदि. इन स्थानों के भ्रमण का लोभ वरिष्ठ अधिकारी भी संवरण नहीं कर पाएंगे और अपने मातहत कर्मचारियों के साथसाथ वे अपना नाम भी नामांकित करेंगे. इस प्रकार सहभागियों की अच्छी संख्या मिल जाएगी.’’

‘‘इस प्रकार के पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कार्यशालाएं आयोजित करने पर खर्च भी तो आएगा?’’

‘‘खर्च की चिंता तुम्हें थोड़े ही करनी है. अधिकारी स्वयं ही खर्च का अनुमोदन करेंगे/कराएंगे… ऐसे स्थानों पर अच्छे होटलों में आयोजन से माहौल भी अच्छा रहेगा. लोग रुचि ले कर इन कार्यशालाओं में भाग लेंगे. बहुत से सहभागी तो अपने परिवार के साथ आएंगे, क्योंकि कम खर्च में परिवार को लाने का अच्छा मौका उन्हें मिलेगा.’’

‘‘इन कार्यशालाओं के लिए प्रतिव्यक्ति नामांकन के लिए कितना शुल्क निर्धारित किया जाना चाहिए?’’ मैं ने पूछा.

चाचा ने बताया, ‘‘2 दिन की आवासीय कार्यशालाओं का नामांकन शुल्क स्थान के अनुसार 9 से 10 हजार रुपए प्रतिव्यक्ति ठीक रहेगा. जो सहभागी खुद रहने की व्यवस्था कर लेंगे उन्हें गैर आवासीय शुल्क के रूप में 7 से 8 हजार रुपए देने होंगे. जो सहभागी अपने परिवारों के साथ आएंगे उन के लिए 4 से 5 हजार रुपए प्रतिव्यक्ति अदा करने होंगे. इस शुल्क में नाश्ता, चाय, दोपहर का भोजन, शाम की चाय, रात्रि भोजन, स्टेशनरी तथा भ्रमण खर्च शामिल होगा.’’

‘‘लेकिन चाचा, सहभागी अपनेअपने कार्यालयों में इन कार्यशालाओं का औचित्य कैसे साबित करेंगे?’’

‘‘उस के लिए भी समुचित व्यवस्था करनी होगी,’’ चाचा ने समझाया, ‘‘कार्यशाला के अंत में प्रश्नावली का सत्र रखा जाएगा, जिस में प्रथम, द्वितीय, तृतीय के अलावा कम से कम 4-5 सांत्वना पुरस्कार विजेताओं को प्रदान किए जाएंगे. इस में ट्राफी तथा शील्ड भी पुरस्कार विजेताओं को दी जा सकती हैं. जब संबंधित कार्यालय पुरस्कार में मिली इन ट्राफियों को देखेंगे, तो कार्यशाला का औचित्य स्वयं सिद्ध हो जाएगा. विजेता सहभागी अपनेअपने कार्यालयों में कार्यशाला की उपयोगिता एवं उस के औचित्य का गुणगान स्वयं ही करेंगे. इसे और उपयोगी साबित करने के लिए परिपत्र के माध्यम से कार्यशाला में प्रस्तुत किए जाने वाले उपयोगी लेख तथा पोस्टर व प्रचार सामग्री भी मंगाई जा सकती है.’’

‘‘इन कार्यशालाओं के आयोजन की आवृत्ति क्या होगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वर्ष में कम से कम 2-3 कार्य-शालाएं आयोजित की जा सकती हैं.’’

‘‘कार्यशाला के अतिरिक्त क्या इस में और भी कोई गतिविधि शामिल की जा सकती है?’’

मेरे इस सवाल पर चाचा बताने लगे, ‘‘दुकान को थोड़ा और लाभप्रद बनाने के लिए हिंदी पुस्तकों की एजेंसी ली जा सकती है. आज प्राय: हर कार्यालय में हिंदी पुस्तकालय है. इन पुस्तकालयों को हिंदी पुस्तकों की आपूर्ति की जा सकती है. कार्यशाला में भाग लेने वाले सहभागियों अथवा परिपत्र के माध्यम से पुस्तकों की आपूर्ति की जा सकती है. आजकल पुस्तकों की कीमतें इतनी ज्यादा रखी जाती हैं कि डिस्काउंट देने के बाद भी अच्छी कमाई हो जाती है.’’

‘‘लेकिन चाचा, इस से हिंदी कार्यान्वयन को कितना लाभ मिलेगा?’’

‘‘हिंदी कार्यान्वयन को मारो गोली,’’ चाचा बोले, ‘‘तुम्हारी दुकान चलनी चाहिए. आज लगभग 60 साल का समय बीत गया हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले हुए. किस को चिंता है राजभाषा कार्यान्वयन की? जो कुछ भी हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है वह हिंदी सिनेमा व टेलीविजन की देन है.

‘‘उच्चाधिकारी भी इस दिशा में कहां ईमानदार हैं. जब संसदीय राजभाषा समिति का निरीक्षण होना होता है तब निरीक्षण तक जरूर ये निष्ठा दिखाते हैं, पर उस के बाद फिर वही ढाक के तीन पात. यह राजकाज है, ऐसे ही चलता रहेगा पर तुम्हें इस में मगजमारी करने की क्या जरूरत? अगर और भी 100 साल लगते हैं तो लगने दो. तुम्हारा ध्यान तो अपनी दुकानदारी की ओर होना चाहिए.’’

‘‘अच्छा तो चाचा, अब मैं चलता हूं,’’ मैं बोला, ‘‘आप से बहुत कुछ जानकारी मिली. मुझे उम्मीद है कि आप के अनुभवों का लाभ मैं उठा पाऊंगा. इतनी सारी जानकारियों के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

चंदू चाचा के घर से मैं निकल पड़ा. रास्ते में तरहतरह के विचार मन को उद्वेलित कर रहे थे. हिंदी की स्थिति पर तरस आ रहा था. सोच रहा था और कितने दिन लगेंगे हिंदी को अपनी प्रतिष्ठा व पद हासिल करने में? कितना भला होगा हिंदी का इस प्रकार की दुकानदारी से?

चरित्रहीन कौन: क्या उषा अपने पति को बचा पाई?

ऊषा का पति प्रकाश शादी के 3 महीने बाद ही नौकरी ढूंढ़ने मुंबई चला गया था. वह ज्यादा पढ़ालिखा नहीं था और एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में मजदूरी कर रहा था. जो भी कमाई होती थी उस में से आधा हिस्सा वह ऊषा को भेजता था और आधे हिस्से में खुद गुजारा करता था.

दीवाली की छुट्टियां थीं तो प्रकाश एक साल बाद घर आ रहा था. मुंबई में खुद के रहने का कोई ठौरठिकाना नहीं था, ऐसे में वह ऊषा को कहां ले जाता.

ऊषा बिहार के एक छोटे से गांव में अकेली रहती थी. वह इस उम्मीद में पति की याद में दिन बिता रही थी कि कभी तो प्रकाश उसे मुंबई ले जाएगा.

प्रकाश के आते ही ऊषा मानो जी उठी. एक साल बाद पति से मिल कर वह ताजा गुलाब सी खिल गई.

प्रकाश महीनेभर की छुट्टी ले कर आया था, पर कुछ ही दिनों में उस की तबीयत बिगड़ने लगी. सरकारी अस्पताल में सारे टैस्ट कराने पर पता चला कि प्रकाश को एड्स है. इस खबर से दोनों पतिपत्नी पर मानो आसमान टूट पड़ा.

प्रकाश ने ऊषा से माफी मांगते हुए कहा, “मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुंबई में मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और 1-2 बार रैड लाइट एरिया की धंधे वालियों से मुलाकात का यह नतीजा है. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

ऊषा के ऊपर दर्द का पहाड़ सा गिरा. नफरत, दुख और दर्द से उस का मन तड़प उठा, पर आखिर पति था, लिहाजा उसे माफ कर दिया. जो होना था, वह तो हो चुका, अब वह हालात को बदल तो नहीं सकती.

आहिस्ताआहिस्ता प्रकाश सूख कर कांटा हो गया. ऊषा ने बचाबचा कर जो थोड़ीबहुत पूंजी जमा की थी वह सारी प्रकाश के इलाज में लगा दी, लेकिन कोई दवा काम न आई और एक दिन प्रकाश ऊषा को इस दुनिया में अकेली छोड़ कर चल बसा.

इस बेरहम दुनिया में ऊषा अकेली रह गई. आज तक तो मांग का सिंदूर उस की हिफाजत करता था, पर अब उस की सूनी मांग मानो गांव में सब की जागीर हो गई. ऊपर से कमाने वाला भी चला गया. अब अकेली जान को भी दो वक्त की रोटी भी तो चाहिए, लिहाजा वह गांव के मुखिया के घर काम मांगने गई.

ऊषा को देख कर मुखिया की आंखों में हवस के सांप लोटने लगे और अबला, लाचार सी ऊषा के ऊपर वह किसी भेड़िए की तरह टूट पड़ा.

बेबस ऊषा यह जुल्म सह तो गई, पर आज मुखिया ने उस के मन में मर्द जात के प्रति नफरत का एक बीज बो दिया था. अब तो हर कोई उस की देह का पुजारी बन बैठा था. किसकिस से बचती वह…

ऊषा आसपास के शहर में बने बड़े बंगलों में जा कर झाड़ूपोंछा और बरतन धोने का काम कर के अपना गुजारा करती थी, पर कुछ ही दिनों में प्रकाश से मिला प्यार का तोहफा ऊषा के शरीर को दीमक की तरह खोखला करने लगा, क्योंकि उसे भी एड्स की जानलेवा बीमारी हो गई थी.

अस्पताल में टैस्ट कराने पर इस बीमारी का पता चला, पर ऊषा खुश थी कि इस दरिंदगी भरी दुनिया से डरती, बिलखती वह जी तो रही थी, लेकिन सोच रही थी कि ऐसी जिंदगी से तो बेहतर है कि उसे मौत आ जाए.

एक दिन ऊषा काम से घर लौट रही थी कि रास्ते में 2 गुंडों ने उसे घेर लिया और पास के खंडहर में घसीटते हुए ले जा कर उस की इज्जत एक बार और तारतार कर दी.

अब ऊषा ने ठान लिया कि जब मर्दों की फितरत यही है तो यही सही, अब वह देह तो देगी, साथ में एकएक को यह बीमारी भी देगी.

अब ऊषा अपने जिस्म की दुकान खोल कर बैठ गई. हर रोज लाइन लगती थी जिस्म के भूखे दरिंदों की. ऊषा को पैसे भी मिलते थे और उस का मकसद भी पूरा होता था.

ऊषा की झोंपड़ी के सामने ही एक मंदिर था, जिस का पुजारी रोज ऊषा को नफरत या दया के भाव से देखता था, पर ऊषा हमेशा उस पुजारी को हाथ जोड़ कर नमस्ते करती थी.

इस इज्जत की वजह से वह पुजारी ऊषा की जवानी को पाने की ललक होते हुए भी पहल नहीं कर पाता था, पर एक दिन उस पुजारी का सब्र जवाब दे गया और उस ने आधी रात को ऊषा की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया.

ऊषा ने दरवाजा खोल कर पूछा, “पुजारीजी, आप यहां?”

पुजारी ने कहा, “पुजारी हूं तो क्या हुआ, हूं तो मैं भी इनसान ही न. तन की आग मुझे भी जलाती है. थोड़ी खुशी मुझे भी दे दो, बदले में जितना चाहे पैसा ले लो. पर गांव में किसी को पता न चले, आखिर लोगों की मेरे ऊपर श्रद्धा जो है.”

ऊषा के दिल में नफरत का सैलाब उठा. खुद ऊपर वाले का तथाकथित सेवक भी औरत देह का भूखा है और साथ ही यह भी चाहता है कि उस का पाप दबा रहे. पुजारी क्या ऊषा की देह को दागदार करता, ऊषा ने ही उसे बीमारी का तोहफा दे दिया.

कुछ ही दिनों में सब से पहले मुखिया के शरीर में एड्स कहर ढाने लगा. वह आगबबूला हो कर सीधा ऊषा की झोंपड़ी में घुस कर गालीगलौज करने लगा और चिल्लाचिल्ला कर कहने लगा, “सुनो गांव वालो, यह एक चरित्रहीन औरत है. इसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. यह गांव के लड़कों को खा जाएगी. अगर अपने बेटों की सलामती चाहते हो तो इस औरत को पत्थर मारमार कर गांव से बाहर निकाल दो.”

यह सुन कर सारा गांव वहां जमा हो गया और सब ऊषा की झोंपड़ी पर पत्थर मारने लगे. ऊषा भी अब रणचंडी बन कर घर में रखी कुल्हाड़ी ले कर बाहर निकली और दहाड़ते हुए बोली, “खबरदार, अगर किसी ने मेरी तरफ पत्थर फेंका तो चीर कर रख दूंगी.

“हां हूं मैं चरित्रहीन, पर मुझे चरित्रहीन बनाया किस ने? मुखिया, पहले तू अपने गरीबान में झांक कर देख. पहली बार मेरे तन को दाग तू ने ही तो लगाया था, तो मैं अकेली चरित्रहीन कैसे कहलाऊंगी? सब से बड़ा चरित्रहीन तो तू है.

“यहां पर जमा हुए बहुत से नामर्द भी चरित्रहीन हैं, तो मेरे साथ पूरा गांव भी तो चरित्रहीन कहलाएगा. और एक बात कान खोल कर सुन लो कि मुझे एड्स नाम का गुप्त रोग है और सब से पहले इस मुखिया को मैं ने दान दी यह बीमारी. इसी वजह से यह अब उछलउछल कर सब को भड़का रहा है.”

ऊषा की यह बात सुन कर पुजारी का दिल बैठ गया, फिर वह भी अपनी भड़ास निकालते हुए गांव वालों को भड़काने आगे आ गया और बोला, “सही कहा मुखियाजी ने, ऐसी औरतों को गांव में रहने का कोई हक नहीं है.”

ऊषा ने आंखें तरेरते हुए कहा, “पुजारीजी, इन अनपढ़, गंवारों की ओछी सोच तो समझ में आ सकती है, पर आप जैसे ज्ञानी और ऊपर वाले के सेवक ने भी मुझे इनसान न समझ कर एक भोगने की चीज ही समझा न?

“सुनो, इस पुजारी की असलियत. इस ने भी कई बार आधी रात को मेरा दरवाजा खटखटा कर अपना मुंह काला कराया है. सब से बड़ा चरित्रहीन तो यह पुजारी है, जिस ने खुद ऊपर वाले को भी धोखा दिया है.

“और हां, जिसजिस ने मेरे साथ जिस्मानी रिश्ता बनाया है, वे सब पहले अस्पताल पहुंचो, फिर इस चरित्रहीन औरत का हिसाब करने आना.”

इतना सुनते ही ज्यादातर मर्द वहां से भागे. ऊषा ने मुखिया और पुजारी से कहा, “कोई औरत अपनी मरजी से चरित्रहीन नहीं बनती, बल्कि उस के पीछे कहीं न कहीं किसी मर्द का ही हाथ होता है.

“बेबस, लाचार, अबला के सिर पर कोई पल्लू डालने की नहीं सोचता, हर एक को औरत के सीने के भीतर लटक रहा मांस का टुकड़ा ललचाता है. आज के बाद किसी अबला को रौंदने से पहले सौ बार सोचना.”

पुजारी और मुखिया दोनों शर्मिंदा थे. पुजारी ने कहा, “आज मेरी आंखें खुल गई हैं. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. डूब तो हम सब को मरना चाहिए. तुम ने बिलकुल सही कहा कि अगर मर्द जात अपनी हवस को काबू में रख कर अपनी हद में रहे तो कोई औरत कभी चरित्रहीन नहीं बनेगी.”

पुजारी के इतना कहते ही वहां जमा इक्कादुक्का लोग भी चले गए. ऊषा ने अपनी झोंपड़ी का दरवाजा बंद कर लिया और बक्से में से नींद की गोलियों की शीशी निकाल कर सारी की सारी गोलियां निगल गई.

अगली सुबह एक चरित्रहीन औरत की श्मशान यात्रा में पूरा गांव तो उमड़ा, पर सब से पहले मुखिया और पुजारी ने उस की अर्थी को कंधा दिया. उन नकारों के मुंह से ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज सुनते ही ऊषा के बेजान होंठ भी मानो हंस दिए.

राहें जुदा जुदा : संबंधों की अनसुलझी कहानी

‘‘निशा….’’ मयंक ने आवाज दी. निशा एक शौपिंग मौल के बाहर खड़ी थी, तभी मयंक की निगाह उस पर पड़ी. निशा ने शायद सुना नहीं था, वह उसी प्रकार बिना किसी प्रतिक्रिया के खड़ी रही. ‘निशा…’ अब मयंक निशा के एकदम ही निकट आ चुका था. निशा ने पलट कर देखा तो भौचक्की हो गई. वैसे भी बेंगलुरु में इस नाम से उसे कोई पुकारता भी नहीं था. यहां तो वह मिसेज निशा वशिष्ठ थी. तो क्या यह कोई पुराना जानने वाला है. वह सोचने को मजबूर हो गई. लेकिन फौरन ही उस ने पहचान लिया. अरे, यह तो मयंक है पर यहां कैसे?

‘मयंक, तुम?’ उस ने कहना चाहा पर स्तब्ध खड़ी ही रही, जबान तालू से चिपक गई थी. स्तब्ध तो मयंक भी था. वैसे भी, जब हम किसी प्रिय को बहुत वर्षों बाद अनापेक्षित देखते हैं तो स्तब्धता आ ही जाती है. दोनों एकदूसरे के आमनेसामने खड़े थे. उन के मध्य एक शून्य पसरा पड़ा था. उन के कानों में किसी की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पूरा ब्रह्मांड ही थम गया हो, धरती स्थिर हो गई हो. दोनों ही अपलक एकदूसरे को निहार रहे थे. तभी ‘एक्सक्यूज मी,’ कहते हुए एक व्यक्ति दोनों के बीच से उन्हें घूरता हुआ निकल गया. उन की निस्तब्धता भंग हो गई. दोनों ही वर्तमान में लौट आए.

‘‘क्यों, कैसी लग रही हूं?’’ निशा ने थोड़ा मुसकराते हुए नटखटपने से कहा.

अब मयंक थोड़ा सकुंचित हो गया. फिर अपने को संभाल कर बोला, ‘‘यहीं खड़ेखड़े सारी बातें करेंगे या कहीं बैठेंगे भी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, चलो इस मौल में एक रैस्टोरैंट है, वहीं चल कर बैठते हैं.’’ और मयंक को ले कर निशा अंदर चली गई. दोनों एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गए. धूमिल अंधेरा छाया हुआ था. मंदमंद संगीत बज रहा था. वेटर को मयंक ने 2 कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम का और्डर दिया.

‘‘तुम्हें अभी भी मेरी पसंदनापंसद याद है,’’ निशा ने तनिक मुसकराते हुए कहा.

‘‘याद की क्या बात है, याद तो उसे किया जाता है जिसे भूल जाया जाए. मैं अब भी वहीं खड़ा हूं निशा, जहां तुम मुझे छोड़ कर गई थीं,’’ मयंक का स्वर दिल की गहराइयों से आता प्रतीत हो रहा था. निशा ने उस स्वर की आर्द्रता को महसूस किया किंतु तुरंत संभल गई और एकदम ही वर्षों से बिछड़े हुए मित्रों के चोले में आ गई.

‘‘और सुनाओ मयंक, कैसे हो? कितने वर्षों बाद हम मिल रहे हैं. तुम्हारा सैमिनार कब तक चलेगा. और हां, तुम्हारी पत्नी तथा बच्चे कैसे हैं?’’ निशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘उफ, निशा थोड़ी सांस तो ले लो, लगातार बोलने वाली तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं,’’ मयंक ने निशा को चुप कराते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा, अब कुछ नही बोलूंगी, अब तुम बोलोगे और मैं सुनूंगी,’’ निशा ने उसी नटखटपने से कहा.

मयंक देख रहा था आज 25 वर्षों बाद दोनों मिल रहे थे. उम्र बढ़ चली थी दोनों की पर 45 वर्ष की उम्र में भी निशा के चुलबुलेपन में कोई भी कमी नहीं आई थी जबकि मयंक पर अधेड़ होने की झलक स्पष्ट दिख रही थी. वह शांत दिखने का प्रयास कर रहा था किंतु उस के मन में उथलपुथल मची हुई थी. वह बहुतकुछ पूछना चाह रहा था. बहुतकुछ कहना चाह रहा था. पर जबान रुक सी गई थी.

शायद निशा ने उस के मनोभावों को पढ़ लिया था, संयत स्वर में बोली, ‘‘क्या हुआ मयंक, चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो.’’

‘‘अ…हां,’’ मयंक जैसे सोते से जागा, ‘‘निशा, तुम बताओ क्या हालचाल हैं तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं? तुम खुश तो हो न?’’

निशा थोड़ी अनमनी सी हो गई, उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मयंक के प्रश्नों का क्या उत्तर दे. फिर अपने को स्थिर कर के बोली, ‘‘हां मयंक, मैं बहुत खुश हूं. आदित्य को पतिरूप में पा कर मैं धन्य हो गई. बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित, संपन्न परिवार के इकलौते पुत्र की वधू होने के कारण मेरी जिंदगी में चारचांद लग गए थे. मेरे ससुर का साउथ सिल्क की साडि़यों का एक्सपोर्ट का व्यवसाय था. कांजीवरम, साउथ सिल्क, साउथ कौटन, बेंगलौरी सिल्क मुख्य थे. एमबीए कर के आदित्य भी उसी व्यवसाय को संभालने लगे. जब मैं ससुराल में आई तो बड़ा ही लाड़दुलार मिला. सासससुर की इकलौती बहू थी, उन की आंखों का तारा थी.’

‘‘विवाह के 15 दिनों बाद मुझे थोड़ाथोड़ा चक्कर आने लगा था और जब मुझे पहली उलटी हुई तो मेरी सासूमां ने मुझे डाक्टर को दिखाया. कुछ परीक्षणों के बाद डाक्टर ने कहा, ‘खुशखबरी है मांजी, आप दादी बनने वाली हैं. पूरे घर में उत्सव का सा माहौल छा गया था. सासूमां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. बस, आदित्य ही थोड़े चुपचुप से थे. रात्रि में मुझ से बोले,’ ‘निशा, मैं तुम्हारा हृदय से आभारी हूं.’

‘क्यों.’ मैं चौंक उठी.

‘क्योंकि तुम ने मेरी इज्जत रख ली. अब मैं भी पिता बन सकूंगा. कोई मुझे भी पापा कहेगा,’ आदित्य ने शांत स्वर में कहा.

‘‘मैं अपराधबोध से दबी जा रही थी क्योंकि यह बच्चा तुम्हारा ही था. आदित्य का इस में कोई भी अंश नहीं था. फिर भी मैं चुप रही. आदित्य ने तनिक रुंधी हुई आवाज में कहा, ‘निशा, मैं एक अधूरा पुरुष हूं. जब 20 साल का था तो पता चला मैं संतानोत्पत्ति में अक्षम हूं, जब दोस्त लोग लड़की के पास ले गए, अवसर तो मिला था पर उस से वहां पर कुछ ज्यादा नहीं हो सका. नहीं समझ पाता हूं कि नियति ने मेरे साथ यह गंदा मजाक क्यों किया? मांपापा को यदि यह बात पता चलती तो वे लोग जीतेजी मर जाते और मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था. मुझ पर विवाह के लिए दबाव पड़ने लगा और मैं कुछ भी कह सकने में असमर्थ था. सोचता था, मेरी पत्नी के प्रति यह मेरा अन्याय होगा और मैं निरंतर हीनता का शिकार हो रहा था.

‘मैं ने निर्णय ले लिया था कि मैं विवाह नहीं करूंगा किंतु मातापिता पर पंडेपुजारी दबाव डाल रहे थे. उन्हें क्या पता था कि उन का बेटा उन की मनोकामना पूर्र्ण करने में असमर्थ है. और फिर मैं ने उन की इच्छा का सम्मान करते हुए विवाह के लिए हां कर दी. सोचा था कि घरवालों का तो मुंह बंद हो जाएगा. अपनी पत्नी से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. यदि उसे मुझ से नफरत होगी तो उसे मैं आजाद कर दूंगा. जब तुम पत्नी बन कर आई तब मुझे बहुत अच्छी लगी. तुम्हारे रूप और भोलेपन पर मैं मर मिटा.

‘हिम्मत जुटा रहा था कि तुम्हें इस कटु सत्य से अवगत करा दूं किंतु मौका ही न मिला और जब मुझे पता चला कि तुम गर्भवती हो तो मैं समझ गया कि यह शिशु विवाह के कुछ ही समय पूर्व तुम्हारे गर्भ में आया है. अवश्य ही तुम्हारा किसी अन्य से संबंध रहा होगा. जो भी रहा हो, यह बच्चा मुझे स्वीकार्य है.’ कह कर आदित्य चुप हो गए और मैं यह सोचने पर बाध्य हो गई कि मैं आदित्य की अपराधिनी हूं या उन की खुशियों का स्रोत हूं. ये किस प्रकार के इंसान हैं जिन्हें जरा भी क्रोध नहीं आया. किसी परपुरुष के बच्चे को सहर्ष अपनाने को तैयार हैं. शायद क्षणिक आवेग में किए गए मेरे पाप की यह सजा थी जो मुझे अनायास ही विधाता ने दे दी थी और मेरा सिर उन के समक्ष श्रद्धा से झुक गया.

‘‘9 माह बाद प्रसून का जन्म हुआ. आदित्य ने ही प्रसून नाम रखा था. ठीक भी था, सूर्य की किरणें पड़ते ही फूल खिल उठते हैं, उसी प्रकार आदित्य को देखते ही प्रसून खिल उठता था. हर समय वे उसे अपने सीने से लगाए रखते थे. रात्रि में यदि मैं सो जाती थी तो भी वे प्रसून की एक आहट पर जाग जाते थे. उस की नैपी बदलते थे. मुझ से कहते थे, ‘मैं प्रसून को एयरफोर्स में भेजूंगा, मेरा बेटा बहुत नाम कमाएगा.’

‘‘मेरे दिल में आदित्य के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था, देखतेदखते 15 वर्ष बीत चुके थे. मैं खुश थी जो आदित्य मुझे पतिरूप में मिले. लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था. अकस्मात एक दिन एक ट्रक से उन की गाड़ी टकराई और उन की मौके पर ही मौत हो गई. तब प्रसून 14 वर्ष का था.’’

मयंक निशब्द निशा की जीवनगाथा सुन रहा था. कुछ बोलने या पूछने की गुंजाइश ही नहीं रह गई थी. क्षणिक मौन के बाद निशा फिर बोली, ‘‘आज मैं अपने बेटे के साथ अपने ससुर का व्यवसाय संभाल रही हूं. प्रसून एयरफोर्स में जाना नहीं चाहता था, अब वह 25 वर्ष का होने वाला है. उस ने एमबीए किया और अपने पुश्तैनी व्यवसाय में मेरा हाथ बंटा रहा है या यों कहो कि अब सबकुछ वही संभाल रहा है.’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मयंक ने मुंह खोला, ‘‘निशा, तुम्हें अतीत की कोई बात याद है?’’

‘‘हां, मयंक, सबकुछ याद है जब तुम ने मेरे नाम का मतलब पूछा था और मैं ने अपने नाम का अर्थ तुम्हें बताया, ‘निशा का अर्र्थ है रात्रि.’ तुम मेरे नाम का मजाक बनाने लगे तब मैं ने तुम से पूछा, ‘आप को अपने नाम का अर्थ पता है?’

‘‘तुम ने बड़े गर्व से कहा, ‘हांहां, क्यों नहीं, मेरा नाम मयंक है जिस का अर्थ है चंद्रमा, जिस की चांदनी सब को शीतलता प्रदान करती है’ बोलो याद है न?’’ निशा ने भी मयंक से प्रश्न किया.

मयंक थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘और तुम ने कहा था, ‘मयंक जी, निशा है तभी तो चंद्रमा का अस्तित्व है, वरना चांद नजर ही कहां आएगा.’ अच्छा निशा, तुम्हें वह रात याद है जब मैं तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे घर आया था. हमारे बीच संयम की सब दीवारें टूट चुकी थीं.’’ मयंक निशा को अतीत में भटका रहा था.

‘‘हां,’’ तभी निशा बोल पड़ी, ‘‘प्रसून उस रात्रि का ही प्रतीक है. लेकिन मयंक, अब इन बातों का क्या फायदा? इस से तो मेरी 25 वर्षों की तपस्या भंग हो जाएगी. और वैसे भी, अतीत को वर्तमान में बदलने का प्रयास न ही करो तो बेहतर होगा क्योंकि तब हम न वर्तमान के होंगे, न अतीत के, एक त्रिशंकु बन कर रह जाएंगे. मैं उस अतीत को अब याद भी नहीं करना चाहती हूं जिस से हमारा आज और हमारे अपनों का जीवन प्रभावित हो. और हां मयंक, अब मुझ से दोबारा मिलने का प्रयास मत करना.’’

‘‘क्यों निशा, ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मयंक विचलित हो उठा.

‘‘क्योंकि तुम अपने परिवार के प्रति ही समर्पित रहो, तभी ठीक होगा. मुझे नहीं पता तुम्हारा जीवन कैसा चल रहा है पर इतना जरूर समझती हूं कि तुम्हें पा कर तुम्हारी पत्नी बहुत खुश होगी,’’ कह कर निशा उठ खड़ी हुई.

मयंक उठते हुए बोला, ‘‘मैं एक बार अपने बेटे को देखना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारा बेटा? नहीं मयंक, वह आदित्य का बेटा है. यही सत्य है, और प्रसून अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता है. वह तुम्हारा ही प्रतिरूप है, यह एक कटु सत्य है और इसे नकारा भी नहीं जा सकता किंतु मातृत्व के जिस बीज का रोपण तुम ने किया उस को पल्लवित तथा पुष्पित तो आदित्य ने ही किया. यदि वे मुझे मां नहीं बना सकते थे, तो क्या हुआ, यद्यपि वे खुद को एक अधूरा पुरुष मानते थे पर मेरे लिए तो वे परिपूर्ण थे. एक आदर्श पति की जीवनसंगिनी बन कर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं. मेरे अपराध को उन्होंने अपराध नहीं माना, इसलिए वे मेरी दृष्टि में सचमुच ही महान हैं.

‘‘प्रसून तुम्हारा अंश है, यह बात हम दोनों ही भूल जाएं तो ही अच्छा रहेगा. तुम्हें देख कर वह टूट जाएगा, मुझे कलंकिनी समझेगा. हजारों प्रश्न करेगा जिन का कोई भी उत्तर शायद मैं न दे सकूंगी. अपने पिता को अधूरा इंसान समझेगा. युवा है, हो  सकता है कोई गलत कदम ही उठा ले. हमारा हंसताखेलता संसार बिखर जाएगा और मैं भी कलंक के इस विष को नहीं पी सकूंगी. तुम्हें वह गीत याद है न ‘मंजिल वही है प्यार की, राही बदल गए…’

‘‘भूल जाओ कि कभी हम दो जिस्म एक जान थे, एक साथ जीनेमरने का वादा किया था. उन सब के अब कोई माने नहीं है. आज से हमारी तुम्हारी राहें जुदाजुदा हैं. हमारा आज का मिलना एक इत्तफाक है किंतु अब यह इत्तफाक दोबारा नहीं होना चाहिए,’’ कह कर उस ने अपना पर्स उठाया और रैस्टोरैंट के गेट की ओर बढ़ चली. तभी मयंक बोल उठा, ‘‘निशा…एक बात और सुनती जाओ.’’ निशा ठिठक गई.

‘‘मैं ने विवाह नहीं किया है, यह जीवन तुम्हारे ही नाम कर रखा है.’’ और वह रैस्टोरैंट से बाहर आ गया. निशा थोड़ी देर चुप खड़ी रही, फिर किसी अपरिचित की भांति रैस्टोरैंट से बाहर आ गई और दोनों 2 विपरीत दिशाओं की ओर मुड़ गए.

चलतेचलते निशा ने अंत में कहा, ‘‘मयंक, इतने जज्बाती न बनो. अगर कोई मिले तो विवाह कर लेना, मुझे शादी का कार्ड भेज देना ताकि मैं सुकून से जी सकूं.’’

टूटी लड़ियां: क्या फिर से जुड़ पाईं सना की जिंदगी की लड़ियां

सना की अम्मी कमरे से सूटकेस उठा लाईं और उस में रखा सामान बाहर निकालने लगीं. ये रहे सातों सूट, यह रहा लहंगा, यह कुरती, यह चुन्नी, यह रहा बुरका, यह मेकअप का सामान और यह रहा नेकलेस…

नेकलेस का केस हाथ में आना था कि उन्हें गुस्सा आ गया और बोलीं, ‘‘कंजूस मक्खीचूस, कितना हलका नेकलेस है. एक तोले से भी कम वजन का होगा.’’

सना के अब्बू बोल पड़े, ‘‘सना की अम्मी, वे लोग कंजूस नहीं हैं, बड़े चालाक किस्म के इनसान हैं. यह सोने का हार सना के मेहर में होता न और मेहर पर सिर्फ लड़की का हक होता है, इसलिए इतना हलका बनवा कर लाए. जिन की नीयत में खोट होता है, वे ही ऐसा करते हैं… इसलिए कि कोई अनबन हो जाए, मंगनी टूट जाए या फिर तलाक हो जाए, तो ज्यादा नुकसान नहीं होता. हार वापस मिला तो मिला, न मिला तो न सही…’’

सना के अब्बू ने थोड़ा दम लिया, फिर अपने दोस्त अबरार से बोले, ‘‘अबरार भाई, यह सारा सामान उठा कर ले जाइए और उन के यहां पटक आइए…’’

अबरार सोचविचार में गुम थे. कहां तो उन्हें हज पर जाने का मौका मिलने वाला था, अब कहां वे पचड़े में पड़ गए. शादी कराना कोई आसान काम है? नेकियां भी मिलती हैं, जिल्लत भी. निबट जाए तो अच्छा, नहीं तो बड़ी फजीहत.

सना के अब्बू दोबारा बोले, ‘‘अबरार भाई, कहां खो गए? सामान उठाइए और ले जाइए.’’

अबरार चौंक पड़े, फिर सामान सूटकेस में रखने लगे.

सना के अब्बू कुछ याद करते हुए फिर बोले, ‘‘और हां, उन्होंने यह जो 10 हजार रुपए भिजवाए हैं, इन्हें भी लेते जाइए, उन के मुंह पर मार देना. बड़े गैरतमंद बनते हैं. हमें मुआवजा दे रहे हैं… 10 हजार रुपए ही खर्च हुए हैं हमारे… मंगनी में कमोबेश 50 हजार रुपए खर्च हुए हैं.’’

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘मंगनी में पूरे 50 लोग आए थे. मंगनी क्या पूरी बरात थी. आप तो थे ही… आप ने सबकुछ देखा है… हम ने कोई कोरकसर रख छोड़ी थी भला? ऐसा क्या था, जो हम ने न बनवाया हो? बिरयानी, कोरमा, कबाब, खीर और शीरमाल भी. ऊपर से सागसब्जी सो अलग…’’

कमरे का दरवाजा पकड़े खड़ी सना सिसक पड़ी. उस के गुलाबी मखमली गालों पर आंसू मोतियों की तरह लुढ़क आए. मंगनी के दिन कितनी धूमधाम थी. उस की होने वाली सास और जेठानी आई थीं और ननद भी.

सभी को उस की ससुराल से आया सामान दिखाया गया. कुछ ने तारीफ की, तो कुछ ने मुंह बिचका दिया. इतने नाम वाले बनते हैं और इतना कम सामान. कम से कम 11 सूट तो होते ही. खाली हार उठा लाए. न झुमके हैं, न नथ और न ही अंगूठी.

सना की ननद ने उसे लहंगाकुरती पहनाई थी. चुन्नी सिर पर डाली थी. सब ने मिलजुल कर उसे सजायासंवारा था. माथे पर टीका, गले में नेकलेस, कानों में झुमके और नाक में एक छोटी सी नथ पहनाई थी. नथ, टीका और झुमके सना की अम्मी ने उस के लिए जबतब बनवाए थे, ताकि शादी में गहनों की कमी न रहे.

सना की नजर सामने रखे सिंगारदान पर पड़ गई. आईने में अपना अक्स देख कर उसे शर्म आ गई थी. वह किसी शहजादी से कम नहीं लग रही थी. उस की अम्मी उस की बलाएं लेने लगी थीं. सास और ननद को अपनी पसंद पर गर्व होने लगा था, पर जेठानी जलभुन गई थी. उस का बस चले तो वह यह रिश्ता होने ही न दे.

वह घर में अपने से ज्यादा खूबसूरत औरत नहीं चाहती थी. उस का मान जो कम हो जाएगा. सभी लोग देवरानी की तारीफ करेंगे और फिर यह पढ़ीलिखी भी तो है. उस की तरह अंगूठाटेक तो नहीं है.

उस दिन से सना बहुत खिलीखिली सी रहने लगी थी. सुबहशाम सजनेसंवरने लगी थी, मंगनी में आए सूट पहनपहन कर देखने लगी थी कि किस सूट में वह कैसी लगती है. हार भी पहन कर देखती थी, फिर खुद शरमा जाती थी.

सना सपने देखने लगी कि उस की बरात गाजेबाजे के साथ बड़ी ही धूमधाम से आ रही है. वह दुलहन बनी बैठी है. बड़े सलीके से उस का सिंगार किया गया है. हाथपैरों में मेहंदी तो एक दिन पहले ही लगा दी गई थी. लहंगा, कुरती और चुन्नी में वह किसी हूर से कम नहीं लग रही है.

कभी सना सोचती, कैसा है उस का हमसफर? मोबाइल फोन की वीडियो क्लिप में तो बिलकुल फिल्मी हीरो जैसा लगता है. खूबसूरत तो बहुत है, उस की सीरत कैसी है? पढ़ालिखा है. सरकारी नौकरी करता है, तो उस की सोच भी अच्छी ही होगी.

यह वीडियो क्लिप सना का छोटा भाई बना कर लाया था. वह इसी वीडियो क्लिप को देखा करती थी और तरहतरह की बातें सोचा करती थी.

उधर सना के मंगेतर आफताब का हाल भी कुछ अलग न था. मंगनी वाले दिन जब सना का बनावसिंगार किया गया था, तो उस की ननद ने भी उस की वीडियो क्लिप बना ली थी और जब से आफताब ने इस क्लिप को देखा था, वह बेताब हो उठा था. सना से बातें करने की कोशिश करने लगा था, पर सना को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

अलबत्ता, जब सास और ननद के फोन आते, तो सना सलामदुआ कर लिया करती थी, पर आफताब से नहीं. उसे बहुत अजीब सा लग रहा था.

एक दिन जब सना अपनी ननद से बातें कर रही थी, तो बातें करतेकरते उस की ननद ने मोबाइल फोन आफताब को पकड़ा दिया था.

कुछ देर सना यों ही बातें करती रही. सास और जेठानी की खैरियत पूछती रही, फिर उसे लगा कि उधर उस की ननद नहीं कोई और है. उस ने फोन काटना चाहा, पर आफताब बोल पड़ा, ‘सना, प्लीज फोन मत काटना, तुम्हें मेरी कसम है…’

इतना सुनना था कि सना का रोमरोम जैसे खिल उठा. वह बेसुध सी हो गई. फिर आफताब ने क्या कहा, क्या उस ने जवाब दिया, उसे कुछ पता नहीं.

फिर उस दिन से यह सिलसिला ऐसा चला कि दिन हो या रात, सुबह हो या शाम दोनों एकदूसरे से बातें करते नहीं थकते थे. बातें भी क्या… एकदूसरे की पसंदनापसंद की. कौनकौन से हीरोहीरोइन पसंद हैं? फिल्में कैसी अच्छी लगती हैं? टैलीविजन सीरियल कौनकौन से देखते हैं? सहेलियां कितनी हैं और बौयफ्रैंड कितने हैं?

बौयफ्रैंड का नाम पूछने पर सना नाराज हो जाती और गुस्से में कहती, ‘‘7 बौयफ्रैंड्स हैं मेरे. शादी करनी है तो करो, वरना रास्ता पकड़ो…’’

यह सुन कर आफताब को मजा आ जाता. वह लोटपोट हो जाता. फिर सना को मनाने लगता. प्यारमुहब्बत का इजहार और वादे होने लगते.

इस तरह बहुत ही हंसीखुशी से दिन गुजर रहे थे. अब तो बस शादी का इंतजार था. शादी भी ज्यादा दूर न थी. कमोबेश 2 महीने रह गए थे. शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं.

एक दिन अबरार सना के घर आए. वे कुछ परेशान से थे. सना की अम्मी ने पूछा, ‘‘क्या बात है अबरार भाई? आप कुछ परेशान से लग रहे हैं?’’

‘‘परेशानी वाली बात ही है भाभी,’’ असरार बोले.

‘‘क्या बात है? बताइए भी.’’

अबरार ने धीरे से कहा, ‘‘लड़के ने मोटरसाइकिल की मांग की है.’’

यह सुन कर सना की अम्मी को हंसी आ गई, ‘‘बड़ा नादान लड़का है. यह भी कोई कहने की बात है… क्या हम इतने गएगुजरे हैं कि मोटरसाइकिल भी नहीं देंगे.’’

शाम को जब सना के अब्बू घर आए और उन्हें यह बात पता चली, तो उन्हें बड़ा अफसोस हुआ. वे बोले, ‘‘सना की अम्मी, लड़के वाले बहुत लालची किस्म के लग रहे हैं.’’

बात आईगई हो गई. धीरेधीरे समय गुजरता रहा. इधर एक बात और हुई. आफताब का फोन आना बंद हो गया. सना को चिंता हुई. क्या वह बीमार है? बीमार होता, तो पता चलता. कहीं बाहर गया है? बाहर कहां जाएगा. वैसे तो दिन हो या रात, दम ही नहीं लेता था. पर अब. अब उसे चैन कैसे पड़ रहा है. आज कितने दिन हो गए हैं उस से बातें किए हुए?

आखिरकार सना ने उस का फोन नंबर मिलाया. उधर से काल रिसीव नहीं की गई. उस ने दोबारा फोन मिलाया. फिर नहीं रिसीव की गई. इस के बाद फोन बिजी बताने लगा.

सना पर उदासी छा गई. वह बारबार मोबाइल फोन की ओर हसरत भरी नजरों से देखती. शायद अब आफताब का फोन आए. शायद अब. कभीकभी जब किसी और का या फिर कंपनी का फोन आता, वह खुश हो कर दौड़ पड़ती, अगले ही पल निराश हो जाती.

आखिर में उस ने एक एसएमएस टाइप किया, ‘प्लीज, आफताब बात करो. इतना मत सताओ. तुम्हें मेरी कसम.’ कई दिन गुजर गए, उधर से न तो एसएमएस आया और न ही काल हुई.

इसी बीच एक दिन अबरार का आना हुआ. आज फिर वे कुछ परेशान से थे. पूछने पर वे बोले, ‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि लड़के वालों की मरजी क्या है?’’

यह सुनते ही सना के अब्बूअम्मी डर गए. अबरार ने बताया, ‘‘लड़के की मां कह रही थीं कि उन के बेटे के रिश्ते अब भी आ रहे हैं. एक लड़की वाले तो कार देने को तैयार हैं…’’

इतना सुनना था कि सना के अब्बू उठ खड़े हुए. वे गुस्से से कांपने लगे, ‘‘अबरार भाई, मैं उन के हथकडि़यां लगवा दूंगा… उन का लालच दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. अरे, उन का लड़का सरकारी नौकरी करता है… बैंक में मुलाजिम है… तो हमारी लड़की भी कोई जाहिल नहीं है.’’

अबरार भाई सकते में आ गए. वे उठ खड़े हुए और सना के अब्बू को समझाने लगे, ‘‘गफ्फार भाई, ऐसा मत बोलिए, ठंडे दिमाग से काम लीजिए. गुस्से में सब बिगड़ जाता है.’’

‘‘क्या खाक ठंडे दिमाग से काम लें… क्या आप को नहीं लगता कि सबकुछ बिगड़ रहा है… वे मंगनी तोड़ने के मूड में हैं. उन्हें हम से बड़ी मुरगी मिल गई है.’’

‘‘आप ठीक फरमा रहे हैं. शायद उन्हें हम से ऊंची पार्टी मिल गई है.’’

‘‘तो क्या ऐसी हालत में मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा… जेल भिजवा दूंगा उन्हें… समझ क्या रखा है?’’

‘‘गफ्फार भाई, जरा सोचिए, अगर आप ने ऐसा किया, तो बड़ी बदनामी होगी…’’

‘‘बदनामी, किस की बदनामी?’’

‘‘आप की, लोग कहेंगे कि लड़की का बाप हो कर लड़के वालों को हथकड़ी लगवाता है… जेल भिजवाता है… सना बिटिया के लिए रिश्ते आने बंद हो जाएंगे. लड़की वालों को बड़े सब्र से काम लेना पड़ता है.’’

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘इस से पहले कि वे मंगनी तोड़ें, हम उन के रिश्ते को लात मार देते हैं… इस से वे बदनाम हो जाएंगे कि दहेज में गाड़ी मांग रहे थे. उन्हें रिश्ता ढूंढ़े नहीं मिलेगा. हमारी सना बेटी के लिए हजारों रिश्ते आएंगे. आखिर उस में क्या कमी है? खूबसूरत है और खूब सीरत भी. अभी उस की उम्र ही क्या हुई है.’’

फिर एक दिन लड़के वालों की तरफ से 3-4 लोग आए. इन लोगों में उन के यहां की मसजिद के इमाम साहब भी थे और अबरार भी. बैठ कर तय हुआ कि दोनों पक्ष एकदूसरे का सामान वापस कर दें और लड़की वाले का मंगनी के खानेपीने में जो खर्च हुआ है, उस का मुआवजा लड़के वाले दें.

सना की अम्मी कमरे के अंदर से बोलीं, ‘‘दिखाई में हम लोग लड़के को सोने की अंगूठी पहना आए थे और 5 हजार रुपए नकद भी दिए थे. मिठाई और फल भी ले गए थे, सो अलग…’’

‘‘यही कहा जा रहा है कि जो भी दियालिया है, वह एकदूसरे को वापस कर दें. मिठाई और फल तो लड़के वाले भी लाए होंगे?’’ इमाम साहब बोले.

सना की अम्मी बोलीं, ‘‘वे ठहरे लड़के वाले, वे भला क्यों लाने लगे मिठाई और फल. बिटिया को सिर्फ 251 रुपल्ली पकड़ा गए थे, बस…’’

आज अबरार मंगनी का वह सारा सामान जो लड़के के यहां से आया था, लेने आए थे और साथ में 15 हजार रुपए भी लाए थे. 10 हजार रुपए मुआवजे के और 5 हजार रुपए जो लड़की वाले लड़के को दे आए थे. सोने की अंगूठी भी ले कर आए थे.

अबरार जब सूटकेस उठा कर चलने लगे, तो सना बोली, ‘‘अंकल, एक चीज रह गई है, वह भी लेते जाइए.’’

‘‘वह क्या है बेटी? जल्दी से ले आइए,’’ वे बोले.

‘‘अंकल, आप सूटकेस मुझे दे दीजिए, मैं इसी में रख दूंगी,’’ सना ने उन से सूटकेस लेते हुए कहा.

सना कमरे के अंदर गई. सूटकेस बिस्तर पर रखा और कैंची उठाई. शाम को जब सूटकेस आफताब के घर पहुंचा, तो उस के घर की औरतें उसे खोल कर देखने लगीं कि सारे कपड़े, मेकअप का सामान और नेकलेस है भी या नहीं.

सूट तो सारे दिखाई पड़ रहे हैं. बुरका भी है, लहंगा, कुरती और चुन्नी भी. बचाखुचा मेकअप का सामान भी है.

‘‘यह क्या…’’ आफताब की भाभी चीख पड़ीं, ‘‘यह लहंगा तो कई जगह से कटा हुआ है.’’

दोबारा देखा, लहंगा चाकचाक था. कुरती उठा कर देखी, वह भी कई जगह से कटीफटी थी. सारे के सारे सूट उठाउठा कर देख डाले. सब के सब तारतार निकले. नकाब का भी यही हाल था. जल्द से नेकलेस उठा कर देखा. उस की भी लड़ियां टूटी हुई थीं.

थप्पड़: मामू ने अदीबा के साथ क्या किया?

शाम ढलने को थी. इक्कादुक्का दुकानों में बिजली के बल्ब रोशन होने लगे थे. ऊन का आखिरी सिरा हाथ में आते ही अदीबा को धक्का सा लगा कि पता नहीं अब इस रंग की ऊन का गोला मिलेगा कि नहीं.

अदीबा ने कमरे की बत्ती जलाई और अपनी अम्मी को बता कर झटपट ऊन का गोला खरीदने निकल पड़ी.

जातेजाते अदीबा बोली, “अम्मी, ऊन खत्म हो गई है, लाने जा रही हूं, कहीं दुकान बंद न हो जाए.”

अम्मी ने कहा, “अच्छा, जा, पर जल्दी लौट आना, रात होने वाली है.”

लेकिन यह क्या. जहां सिर्फ दुकान जाने में ही आधा घंटा लगता है, वहां से ऊन खरीद कर आधा घंटा से पहले ही अदीबा वापस आ गई… यह कैसे?

मां ने बेटी के चेहरे को गौर से देखा. बेटी का चेहरा धुआंधुआं सा था और उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं.

“क्या हुआ अदीबा, ऊन नहीं लाई?”

अदीबा ने रोते हुए अपनी अम्मी को जो आपबीती सुनाई तो अम्मी के होश उड़ गए.

अदीबा की आपबीती सुन कर अम्मी गुस्से से आगबबूला हो उठीं और उस नामुराद आदमी को तरहतरह की गालियां देने लगीं.

कुछ देर बाद जब अम्मी का गुस्सा ठंडा हुआ, तो उन्होंने कहना शुरू किया, “अब तुझे क्या बताऊं बेटी, यह मर्द जात होती ही ऐसी है. उन की नजरों में औरत का जिस्म बस मर्द की प्यास बुझाने का जरीया होता है.

“मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है. वह भी एक दफा नहीं, बल्कि कईकई दफा,”
इतना कह कर अम्मी अपने पुराने दिनों के काले पन्ने पलटने लगीं…

अम्मी ने अदीबा को बताया, “जब मैं 5वीं जमात में थी, तब एक दिन मदरसे के मौलवी साहब ने मुझे अपने पास बुलाया और अपनी गोद में बिठा कर वे मेरे सीने पर हाथ फेरने लगे. वे अपना हाथ चलाते रहे और मुझे बहलाते रहे.

“मैं मासूम थी, इसलिए उन की इस गंदी हरकत को समझ न सकी. उन की इस गलत हरकत की वजह से मेरा सीना दर्द करने लगा था…”

हैरान अदीबा ने पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

“उस जमाने में गलत और सही छूने का पता तो बड़े लोगों को भी ज्यादा नही था, मैं तो भला बच्ची थी. बहरहाल, छुट्टी मिलते ही मैं रोते हुए घर गई और अपनी अम्मी से सबकुछ साफसाफ बता दिया.

“फिर क्या था… अब्बू ने न सिर्फ मौलवी साहब की जबरदस्त पिटाई की, बल्कि उन्हें मदरसे से बाहर भी निकलवा दिया.

“इसी तरह एक बार, एक दिन मेरे दूर के रिश्ते के मामू अपनी 5 साल की बेटी के साथ हमारे घर मेहमान बन कर आए. वे तोहफे में ढेर सारी मिठाइयां और फल लाए थे.

“अपने रिश्ते के भाई की खातिरदारी में मेरी अम्मी ने मटन बिरयानी और चिकन कोरमा बनाया था. सब ने खुश हो कर खाया.

“अरसे बाद मिले भाईबहन अपने पुराने दिनों को याद करते रहे और मैं मामू की बेटी के साथ देर रात तक उछलकूद करती रही…”

यह बतातेबताते जब अदीबा की अम्मी सांस लेने के लिए ठहरीं, तो अदीबा ने बेसब्री से पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

अम्मी ने कहना जारी रखा, “जैसे कि हर बच्चा आने वाले मेहमान के बच्चों के साथ सोना पसंद करता है, वैसा ही मैं ने भी किया और अपनी हमउम्र दोस्त के साथ मामू के बिस्तर पर ही सो गई.

“रात के किसी पहर में मेरी नींद तब खुली, जब मुझे एहसास हुआ कि मेरे तथाकथित मामू मेरी सलवार की डोरी खोल रहे हैं.

“मेरा हाथ फौरन सलवार की डोरी पर चला गया. डोरी खुल चुकी थी. मेरा हाथ अपने हाथ से टकराते ही तथाकथित मामू ने अपना हाथ तेजी से खींच लिया. मैं डर गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी.

“यह चिल्लाना सुन कर मेरी अम्मी अपने कमरे से भागीभागी आईं और दरवाजा पीटने लगीं.

“तथाकथित मामू ने उठ कर दरवाजा खोला और अम्मी को देखते ही कहा, ‘अदीबा सपने में बड़बड़ा रही है…’

“अम्मी फौरन हालात की नजाकत भांप गईं और मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ ले चलीं. एक हाथ से सलवार पकड़े मैं थरथर कांपती उन के साथ चल पड़ी. इस बीच उन मामू की बेटी भी जाग चुकी थी और सारा तमाशा हैरत से देख रही थी.

“उस हादसे के बाद से हमेशाहमेशा के लिए उन तथाकथित मामू से हमारे परिवार का रिश्ता खत्म हो गया.”

अदीबा ने जोश में कहा, “अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ. ऐसे गंदे लोग रिश्तेदार के नाम पर बदनुमा दाग होते हैं.”

अम्मी जब यादों के झरोखों से वापस लौटीं, तो फिर कहने लगीं, “छोड़ो, अब इस किस्से को यहीं दफन करो वरना जितने मुंह उतनी बातें होंगी. लड़कियां सफेद चादर की तरह होती हैं, जिन पर दाग बहुत जल्दी लग जाते हैं, जो छुड़ाने से भी नहीं छूटते, इसलिए भूल कर भी किसी से इस बात का जिक्र मत करना.”

दरअसल, ऊन खरीदने के लिए जाते समय रास्ते में अदीबा को दूर के एक रिश्तेदार मिल गए थे. वे बातें करते हुए साथसाथ चलने लगे और चंद मिनटों में ही कुछ ज्यादा ही करीब होने की कोशिश करने लगे. अदीबा फासला बढ़ा कर चलना चाहती और वे फासला घटा कर चलना चाहते.

पहले तो वे अदीबा के साथ सलीके से बातचीत करते रहे, लेकिन जैसे ही गली में अंधेरा मिला, तो वे अपनी असलियत पर उतर आए.

उन का हाथ बारबार किसी न किसी बहाने अदीबा के सीने को छूने लगा. अदीबा उन की नीयत भांप गई, फिर बिना लिहाज के एक जोरदार थप्पड़ उन के चेहरे पर रसीद कर दिया कि वे बिलबिला उठे.

इस के बाद अदीबा ऊन का गोला खरीदने का इरादा छोड़ कर बीच रास्ते से ही घर वापस लौट आई.

बड़े मियां इस अचानक होने वाले हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. उन के कानों में अचानक सीटियां सी बजने लगीं और आंखों के सामने गोलगोल तारे नाचने लगे. उन्होंने बिना इधरउधर देखे सामने वाली पतली गली से निकलना मुनासिब समझा.

यही वजह थी कि अदीबा जब घर में दाखिल हुई, तो उस का चेहरा धुआंधुआं था और सांसें तेजतेज चल रही थीं.

बहरहाल, इस तरह मांबेटी की बातचीत में कई परतें और कई गांठें खुलती चली गईं.

अमेरिकन बेटा : कुछ ऐसा ही था डेविड

रीता एक दिन अपनी अमेरिकन दोस्त ईवा से मिलने उस के घर गई थी. रीता भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक थी. वह अमेरिका के टैक्सास राज्य के ह्यूस्टन शहर में रहती थी. रीता का जन्म अमेरिका में ही हुआ था. जब वह कालेज में थी, उस की मां का देहांत हो गया था. उस के पिता कुछ दिनों के लिए भारत आए थे, उसी बीच हार्ट अटैक से उन की मौत हो गई थी.

रीता और ईवा दोनों बचपन की सहेलियां थीं. दोनों की स्कूल और कालेज की पढ़ाई साथ हुई थी. रीता की शादी अभी तक नहीं हुई थी जबकि ईवा शादीशुदा थी. उस का 3 साल का एक बेटा था डेविड. ईवा का पति रिचर्ड अमेरिकन आर्मी में था और उस समय अफगानिस्तान युद्ध में गया था.

शाम का समय था. ईवा ने ही फोन कर रीता को बुलाया था. शनिवार छुट्टी का दिन था. रीता भी अकेले बोर ही हो रही थी. दोनों सखियां गप मार रही थीं. तभी दरवाजे पर बूटों की आवाज हुई और कौलबैल बजी.

अमेरिकन आर्मी के 2 औफिसर्स उस के घर आए थे. ईवा उन को देखते ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि घर पर फुल यूनिफौर्म में आर्मी वालों का आना अकसर वीरगति प्राप्त सैनिकों की सूचना ही लाता है. वे रिचर्ड की मृत्यु का संदेश ले कर आए थे और यह भी कि शहीद रिचर्ड का शव कल दोपहर तक ईवा के घर पहुंच जाएगा.

ईवा को काटो तो खून नहीं. उस का रोतेरोते बुरा हाल था. अचानक ऐसी घटना की कल्पना उस ने नहीं की थी. रीता ने ईवा को काफी देर तक गले से लगाए रखा. उसे ढांढ़स बंधाया, उस के आंसू पोंछे.

इस बीच ईवा का बेटा डेविड, जो कुछ देर पहले कार्टून देख रहा था, भी पास आ गया. रीता ने उसे भी अपनी गोद में ले लिया. ईवा और रिचर्ड दोनों के मातापिता नहीं थे. उन के भाईबहन थे. समाचार सुन कर वे भी आए थे, पर अंतिम क्रिया निबटा कर चले गए. उन्होंने जाते समय ईवा से कहा कि किसी तरह की मदद की जरूरत हो तो बताओ, पर उस ने फिलहाल मना कर दिया था.

ईवा जौब में थी. वह औफिस जाते समय बेटे को डे केयर में छोड़ जाती और दोपहर बाद उसे वापस लौटते वक्त पिक कर लेती थी. इधर, रीता ईवा के यहां अब ज्यादा समय बिताती थी, अकसर रात में उसी के यहां रुक जाती. डेविड को वह बहुत प्यार करती थी, वह भी ईवा से काफी घुलमिल गया था. इस तरह 2 साल बीत गए.

इस बीच रीता की जिंदगी में प्रदीप आया, दोनों ने कुछ महीने डेटिंग पर बिताए, फिर शादी का फैसला किया. प्रदीप भी भारतीय मूल का अमेरिकन था और एक आईटी कंपनी में काम करता था. रीता और प्रदीप दोनों ही ईवा के घर अकसर जाते थे.

कुछ महीनों बाद ईवा बीमार रहने लगी थी. उसे अकसर सिर में जोर का दर्द, चक्कर, कमजोरी और उलटी होती थी. डाक्टर्स को ब्रेन ट्यूमर का शक था. कुछ टैस्ट किए गए. टैस्ट रिपोर्ट लेने के लिए ईवा के साथ रीता और प्रदीप दोनों गए थे. डाक्टर ने बताया कि ईवा का ब्रेन ट्यूमर लास्ट स्टेज पर है और वह अब चंद महीनों की मेहमान है. यह सुन कर ईवा टूट चुकी थी, उस ने रीता से कहा, ‘‘मेरी मृत्यु के बाद मेरा बेटा डेविड अनाथ हो जाएगा. मुझे अपने किसी रिश्तेदार पर भरोसा नहीं है. क्या तुम डेविड के बड़ा होने तक उस की जिम्मेदारी ले सकती हो?’’

रीता और प्रदीप दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगे. उन्होंने ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. तभी ईवा बोली, ‘‘देखो रीता, वैसे कोई हक तो नहीं है तुम पर कि डेविड की देखभाल की जिम्मेदारी तुम्हें दूं पर 25 वर्षों से हम एकदूसरे को भलीभांति जानते हैं. एकदूसरे के सुखदुख में साथ रहे हैं, इसीलिए तुम से रिक्वैस्ट की.’’

दरअसल, रीता प्रदीप से डेटिंग के बाद प्रैग्नैंट हो गई थी और दोनों जल्दी ही शादी करने जा रहे थे. इसलिए इस जिम्मेदारी को लेने में वे थोड़ा झिझक रहे थे.

तभी प्रदीप बोला, ‘‘ईवा, डोंट वरी. हम लोग मैनेज कर लेंगे.’’

ईवा ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘थैंक्स डियर. रीता, क्या तुम एक प्रौमिस करोगी?’’

रीता ने स्वीकृति में सिर हिलाया और ईवा से गले लगते हुए कहा, ‘‘तुम अब डेविड की चिंता छोड़ दो. अब वह मेरी और प्रदीप की जिम्मेदारी है.’’

ईवा बोली, ‘‘थैंक्स, बोथ औफ यू. मैं अपनी प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स की पावर औफ अटौर्नी तुम दोनों के नाम कर दूंगी. डेविड के एडल्ट होने तक इस की देखभाल तुम लोग करोगे. तुम्हें डेविड के लिए पैसों की चिंता नहीं करनी होगी, प्रौमिस?’’

रीता और प्रदीप ने प्रौमिस किया. और फिर रीता ने अपनी प्रैग्नैंसी की बात बताते हुए कहा, ‘‘हम लोग इसीलिए थोड़ा चिंतित थे. शादी, प्रैग्नैंसी और डेविड सब एकसाथ.’’

ईवा बोली, ‘‘मुबारक हो तुम दोनों को. यह अच्छा ही है डेविड को एक भाई या बहन मिल जाएगी.’’

2 सप्ताह बाद रीता और प्रदीप ने शादी कर ली. डेविड तो पहले से ही रीता से काफी घुलमिल चुका था. अब प्रदीप भी उसे काफी प्यार करने लगा था. ईवा ने छोटे से डेविड को समझाना शुरू कर दिया था कि वह अगर बहुत दूर चली जाए, जहां से वह लौट कर न आ सके, तो रीता और प्रदीप के साथ रहना और उन्हें परेशान मत करना.

पता नहीं डेविड ईवा की बातों को कितना समझ रहा था, पर अपना सिर बारबार हिला कर हां करता और मां के सीने से चिपक जाता था.

3 महीने के अंदर ही ईवा का निधन हो गया. रीता ने ईवा के घर को रैंट पर दे कर डेविड को अपने घर में शिफ्ट करा लिया. शुरू के कुछ दिनों तक तो डेविड उदास रहता था, पर रीता और प्रदीप दोनों का प्यार पा कर धीरेधीरे नौर्मल हो गया.

रीता ने एक बच्चे को जन्म दिया. उस का नाम अनुज रखा गया. अनुज के जन्म के कुछ दिनों बाद तक ईवा उसी के साथ व्यस्त रही थी. डेविड कुछ अकेला और उदास दिखता था.

रीता ने उसे अपने पास बुला कर प्यार किया और कहा, ‘‘तुम्हारे लिए छोटा भाई लाई हूं. कुछ ही महीनों में तुम इस के साथ बात कर सकोगे और फिर बाद में इस के साथ खेल भी सकते हो.’’

रीता और प्रदीप ने डेविड की देखभाल में कोई कमी नहीं की थी. अनुज भी अब चलने लगा था. घर में वह डेविड के पीछेपीछे लगा रहता था. डेविड के खानपान व रहनसहन पर भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप थी. शुरू में तो वह रीता को रीता आंटी कहता था, पर बाद में अनुज को मम्मी कहते देख वह भी मम्मी ही कहने लगा था. शुरू के कुछ महीनों तक डेविड की मामी और चाचा उस से मिलने आते थे, पर बाद में उन्होंने आना बंद कर दिया था.

डेविड अब बड़ा हो गया था और कालेज में पढ़ रहा था. रीता ने उस से कहा कि वह अपना बैंक अकाउंट खुद औपरेट किया करे, लेकिन डेविड ने मना कर दिया और कहा कि आप की बहू आने तक आप को ही सबकुछ देखना होगा. रीता भी डेविड के जवाब से खुश हुई थी. अनुज कालेज के फाइनल ईयर में था. 3 वर्षों बाद डेविड को वैस्टकोस्ट, कैलिफोर्निया में नौकरी मिली. वह रीता से बोला, ‘‘मम्मी, कैलिफोर्निया तो दूसरे छोर पर है. 5 घंटे तो प्लेन से जाने में लग जाते हैं. आप से बहुत दूर चला जाऊंगा. आप कहें तो यह नौकरी जौइन ही न करूं. इधर टैक्सास में ही ट्राई करता हूं.’’

रीता ने कहा, ‘‘बेटे, अगर यह नौकरी तुम्हें पसंद है तो जरूर जाओ.’’

प्रदीप ने भी उसे यही सलाह दी. डेविड के जाते समय रीता बोली, ‘‘तुम अब अपना बैंक अकाउंट संभालो.’’

डेविड बोला ‘‘क्या मम्मी, कुछ दिन और तुम्हीं देखो यह सब. कम से कम मेरी शादी तक. वैसे भी आप का दिया क्रैडिट कार्ड तो है ही मेरे पास. मैं जानता हूं मुझे पैसों की कमी नहीं होगी.’’

रीता ने पूछा कि शादी कब करोगे तो वह बोला, ‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी कैलिफोर्निया की ही है. यहां ह्यूस्टन में राइस यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई थी. वह भी अब कैलिफोर्निया जा रही है.’’

रीता बोली, ‘‘अच्छा बच्चू, तो यह राज है तेरे कैलिफोर्निया जाने का?’’

डेविड बोला, ‘‘नो मम्मी, नौट ऐट औल. तुम ऐसा बोलोगी तो मैं नहीं जाऊंगा. वैसे, मैं तुम्हें सरप्राइज देने वाला था.’’

‘‘नहीं, तुम कैलिफोर्निया जाओ, मैं ने यों ही कहा था. वैसे, तुम क्या सरप्राइज देने वाले हो.’’

‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी इंडियन अमेरिकन है. मगर तुम उसे पसंद करोगी, तभी शादी की बात होगी.’’

रीता बोली, ‘‘तुम ने नापतोल कर ही पसंद किया होगा, मुझे पूरा भरोसा है.’’

इसी बीच अनुज भी वहां आया. वह बोला, ‘‘मैं ने देखा है भैया की गर्लफ्रैंड को. उस का नाम प्रिया है. डेविड और प्रिया दोनों को लाइब्रेरी में अनेक बार देर तक साथ देखा है. देखनेसुनने में बहुत अच्छी लगती है.’’

डेविड कैलिफोर्निया चला गया. उस के जाने के कुछ महीनों बाद ही प्रदीप का सीरियस रोड ऐक्सिडैंट हो गया था. उस की लोअर बौडी को लकवा मार गया था. वह अब बिस्तर पर ही था.

डेविड खबर मिलते ही तुरंत आया. एक सप्ताह रुक कर प्रदीप के लिए घर पर ही नर्स रख दी. नर्स दिनभर घर पर देखभाल करती थी और शाम के बाद रीता देखती थीं.

रीता को पहले से ही ब्लडप्रैशर की शिकायत थी. प्रदीप के अपंग होने के कारण वह अंदर ही अंदर बहुत दुखी और चिंतित रहती थी. उसे एक माइल्ड अटैक भी पड़ गया, तब डेविड और प्रिया दोनों मिलने आए थे. रीता और प्रदीप दोनों ने उन्हें जल्द ही शादी करने की सलाह दी. वे दोनों तो इस के लिए तैयार हो कर ही आए थे.

शादी के बाद रीता ने डेविड को उस की प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स के पेपर सौंप दिए. डेविड और प्रिया कुछ दिनों बाद लौट गए थे. इधर अनुज भी कालेज के फाइनल ईयर में था. पर रीता और प्रदीप दोनों ने महसूस किया कि डेविड उतनी दूर रह कर भी उन का हमेशा खयाल रखता है, जबकि उन का अपना बेटा, बस, औपचारिकता भर निभाता है.

इसी बीच रीता को दूसरा हार्ट अटैक पड़ा, डेविड इस बार अकेले मिलने आया था. प्रिया प्रैग्नैंसी के कारण नहीं आ सकी थी. रीता को 2 स्टेंट हार्ट के आर्टरी में लगाने पड़े थे, पर डाक्टर ने बताया था कि उस के हार्ट की मसल्स बहुत कमजोर हो गई हैं. सावधानी बरतनी होगी. किसी प्रकार की चिंता जानलेवा हो सकती है.

रीता ने डेविड से कहा, ‘‘मुझे तो प्रदीप की चिंता हो रही है. रातरात भर नींद नहीं आती है. मेरे बाद इन का क्या होगा? अनुज तो उतना ध्यान नहीं देता हमारी ओर.’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, अनुज की तुम बिलकुल चिंता न करो. तुम को भी कुछ नहीं होगा, बस, चिंता छोड़ दो. चिंता करना तुम्हारे लिए खतरनाक है. आप, आराम करो.’’

कुछ महीने बाद थैंक्सगिविंग की छुट्टियों में डेविड और प्रिया रीता के पास आए. साथ में उन का 4 महीने का बेटा भी आया. रीता और प्रदीप दोनों ही बहुत खुश थे.

इसी बीच रीता को मैसिव हार्ट अटैक हुआ. आईसीयू में भरती थी. डेविड, प्रिया और अनुज तीनों उस के पास थे. डाक्टर बोल गया कि रीता की हालत नाजुक है. डाक्टर ने मरीज से बातचीत न करने को भी कहा.

रीता ने डाक्टर से कहा, ‘‘अब अंतिम समय में तो अपने बच्चों से थोड़ी देर बात करने दो डाक्टर, प्लीज.’’

फिर रीता किसी तरह डेविड से बोल पाई, ‘‘मुझे अपनी चिंता नहीं है. पर प्रदीप का क्या होगा?’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, तुम चुप रहो. परेशान मत हो.’’

वहीं अनुज बोला, ‘‘मम्मा, यहां अच्छे ओल्डएज होम्स हैं. हम पापा को वहां शिफ्ट कर देंगे. हम लोग पापा से बीचबीच में मिलते रहेंगे.’’

ओल्डएज होम्स का नाम सुनते ही रीता की आंखों से आंसू गिरने लगे. उसे अपने बेटे से बाप के लिए ऐसी सोच की कतई उम्मीद नहीं थी. उस की सांसें और धड़कन काफी तेज हो गईं.

डेविड अनुज को डांट रहा था, प्रिया ने कहा, ‘‘मम्मी, जब से आप की तबीयत बिगड़ी है, हम लोग भी पापा को ले कर चिंतित हैं. हम लोगों ने आप को और पापा को कैलिफोर्निया में अपने साथ रखने का फैसला किया है. वहां आप लोगों की जरूरतों के लिए खास इंतजाम कर रखा है. बस, आप यहां से ठीक हो कर निकलें, बाकी आगे सब डेविड और मैं संभाल लेंगे.’’

रीता ने डेविड और प्रिया दोनों को अपने पास बुलाया, उन के हाथ पकड़ कर कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, उस की सांसें बहुत तेज हो गईं. अनुज दौड़ कर डाक्टर को बुलाने गया. इस बीच रीता किसी तरह टूटतीफूटती बोली में बोली, ‘‘अब मुझे कोई चिंता नहीं है. चैन से मर सकूंगी. मेरा प्यारा अमेरिकन बेटा.’’

इस के आगे वह कुछ नहीं बोल सकी. जब तक अनुज डाक्टर के साथ आया, रीता की सांसें रुक चुकी थीं. डाक्टर ने चैक कर रहा, ‘‘शी इज नो मोर.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें