गांव देहात में मुश्किल हो गया शहनाई बजवाना

Marriage is Big Issue in Village Area: शहरों में अखबारों में शादी के इश्तिहार देने, मैरिज ब्यूरो (Marriage Bureau) , मैट्रिमोनियल साइट (Matrimonial Site) और गैरबिरादरी (Intercaste) में शादीब्याह कराने के बहुत से रास्ते हैं. इन के जरीए शादी के लिए दूल्हादुलहन (Bride and Groom) की तलाश की जा सकती है, पर गांवों में अभी भी केवल परिचितों का ही सहारा है. शहरीकरण का असर बढ़ने से गांव से शहर की तरफ तो लोग जा रहे हैं. गांव के लोगों की गांव में ही शादियां न के बराबर होती हैं. इस वजह से अब गांव में शादी के रिश्ते खोजना मुश्किल होने लगा है.

रामपुर कलां गांव के रहने वाले 70 साल के बुजुर्ग प्रेमपाल कहते हैं, ‘‘समय के साथसाथ गांव की सोच बदली नहीं है, जबकि हालात बदल गए हैं.

‘‘पहले दूरदूर तक नातेरिश्तेदार शादी लायक लड़का या लड़की पर नजर रखते थे. शादी लड़के की पढ़ाईलिखाई से ज्यादा उस के घरपरिवार की हैसियत पर निर्भर करती थी. जिस की खेती अच्छी होती थी उस को ज्यादा अमीर माना जाता था. पर अब नौकरी वाले लड़कों को अहमियत मिलने लगी है.

‘‘शादी के बाद अगर किसी तरह का विवाद होता भी था तो उसे आपस में सुलझा लिया जाता था. अब ऐसे विवाद कोर्ट और पुलिस तक पहुंचने के बाद ही सुलझते हैं. ऐसे में शादी कराने वाले बिचौलिए के रिश्ते खराब होने लगे हैं. वह फालतू के विवाद में नहीं पड़ना चाहता.’’

बिचौलिया वह होता है जो यह बताता है कि शादी के लायक लड़का या लड़की किस घर में है. इस काम को करने वाले लोग हर गांवदेहात में होते थे. नातेरिश्तेदार होने के साथसाथ शादी कराने वाले पंडित तक इस में शामिल होते थे.

शादी कराने के एवज में पंडित को  दक्षिणा मिलने के साथ ही चढ़ावा भी मिलता था. बिचौलिए को किसी तरह का कोई माली फायदा नहीं होता था. शादी में मिलने वाले शगुन और सम्मान में बिचौलिए को खास अहमियत दी जाती थी. यही उस का इनाम होता था.

इन की बढ़ी जिम्मेदारी

अब शादी के लिए रिश्तों की तलाश करने का काम घरपरिवार के लोगों के ही जिम्मे बचा है. अपनी लड़की के लिए दामाद की तलाश कर रहे देव कुमार बताते हैं, ‘‘हम गांव के लोग आपसी जानपहचान के बल पर ही रिश्तों को तलाशने का काम करते हैं. एक शादी करने के लिए कईकई रिश्तों को देखनासमझना पड़ता है. हम अच्छा पढ़ालिखा नौकरी वाला दामाद खोजने की कोशिश करते हैं.

‘‘पहले जहां गांव की खेती, घर और जमीन ही अच्छे रिश्ते का पैमाना होती थी वहीं अब लड़के की नौकरी पहली प्राथमिकता हो गई है. केवल सवर्णों की ही बात नहीं है, बल्कि दलितों और पिछड़ों में भी ऐसे लड़कों को अहमियत दी जाती है जो कामधंधा करते हों.’’

समाजसेवी दिनेश लाल मानते हैं कि आज के समय में गांवों में शादी के लिए रिश्तों को खोजना मुश्किल काम हो गया है. वजह यह है कि रिश्ता खोजने के जितने तरीके शहरों में हैं उतने गांव में नहीं हैं. इस के लिए गांव के लोगों की सोच में बदलाव लाना पड़ेगा. जातिवाद और ऊंचनीच का भेदभाव खत्म करना होगा.

गांव को ले कर लड़कियों की एक यह भी सोच होती है कि गांव में रहने वाले लड़के गालीगलौज, मारपीट और नशा करते हैं, इस वजह से इन से दूर रहो. गांव में कमाई का अहम जरीया खेतीबारी थी, पर अब वह मुनाफे की नहीं रही. गांव के लोग जमीनें बेच कर शहर या कसबों में बसने लगे हैं. ऐसे में गांवदेहात में अच्छे रिश्ते मिलने के मौके कम होते जा रहे हैं.

तरक्की में रुकावट

बहुत से गांव अभी भी ऐसे हैं जहां सड़क, बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी तरह से कमी है. इन गांवों के लोग साफतौर पर कहते हैं कि इन वजहों से गांव में शादी करने वाले लोगों की तादाद लगातार घटती जा रही है. शादी अगर हो भी जाती है तो बाद में विवाद होते हैं.

शादी के बाद होने वाले झगड़ों की वजह से शादी का रिश्ता बताने वाले कम होते जा रहे हैं. लोग शादी के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहते हैं. गांव में तरक्की अगर होती भी है तो सड़क तक दिखती है. सड़क से नीचे उतरते ही उस की पोल खुल जाती है.

जरूरत इस बात की है कि गांव में उद्योगधंधे लगें, जिस से वहां पैसे का आना बढ़ सके, सुविधाएं आ सकें तभी वहां की सोच और हालात बदल सकते हैं. तमाम कोशिशों के बाद भी अभी गांव में शौचालय नहीं बन सके हैं. जहां ये बने भी हैं, वहां उन का इस्तेमाल नहीं होता है.

गांवदेहात के आसपास अभी भी अच्छे डाक्टर नहीं हैं. ऐेसे में झोलाछाप डाक्टर ही वहां इलाज करते हैं. बच्चों की पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूलों की भी कमी है. बाजारों में शहरों जैसी चकाचौंध नहीं है. ऐसे में यहां खरीदारी करना भी अच्छा नहीं लगता. इन सब के बीच एक खास वजह यह भी है कि औरतों का सम्मान भी यहां नहीं है. पहले आपसी रिश्तों में औरतों का सम्मान बहुत होता था, पर अब इस में कमी आती जा रही है.

जातिगोत्र की परेशानी

गांव के परिवार अभी भी जातिगोत्र की ऊंचनीच में फंसे हैं. गैरबिरादरी में शादी तो बड़ी दूर की बात है. अपनी ही जाति में काबिल लड़कों की तादाद सब से कम मिलती है. अगर मिलती भी है तो वहां दहेज ज्यादा देना पड़ता है. अब दहेज की मांग इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि काबिल लड़कों की तादाद बहुत कम है. उन के लिए शादी के औफर ज्यादा हैं.

जब बात अपनी जाति की आती है तो यह परेशानी और भी बढ़ जाती है. अपनी ही जाति में मनपसंद लड़के बहुत कम मिलते हैं. काबिलीयत के पैमाने के बाद पर्सनैलिटी के हिसाब से देखें तो भी गांव के लड़के लड़कियों से कमतर दिखते हैं.

गांव के लोगों में गैरबिरादरी में शादी करने का रिवाज नहीं है पर अगर इस चक्कर में शादी की उम्र निकलने लगती है तो बहुत से लोग दूरदराज से शादी कर के लड़की ले आते हैं, जिन की जाति के बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता है. धीरेधीरे उन लड़कियों को सामाजिक मंजूरी भी मिल जाती है.

हरियाणा और पंजाब में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जहां बिहार, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल की रहने वाली लड़कियां आ जाती हैं. कई लोग तो खरीद कर ऐसी लड़कियों को लाते हैं. इन प्रदेशों में गरीबी ज्यादा है. परिवार में लड़कियों की तादाद ज्यादा होती है. बहुत सारे दलाल शादियां कराने का ठेका लेते हैं.

सावधान! औरत तांत्रिकों का बढ़ता नैटवर्क

भूतप्रेत, टोनाटोटका व पेट से न होने के नाम पर झाड़फूंक की दुकान चलाने वाले ठग तांत्रिकों के निशाने पर ज्यादातर औरतें ही रही हैं, क्योंकि उन को तमाम ऐसी अंदरूनी व दिमागी बीमारियां होती हैं, जिन को ठग तांत्रिक ऊपरी साया बता कर आसानी से बेवकूफ बना देते हैं.

इन पाखंडी तांत्रिकों के जाल में फंस कर औरतें न केवल खुद की सेहत के साथ खिलवाड़ करती हैं, बल्कि अपना पैसा, समय और इज्जत भी गंवा बैठती हैं. कभीकभी ऐसी औरतों के साथ हमबिस्तरी का वीडियो बना कर शातिर तांत्रिक उन्हें ब्लैकमेल भी करते हैं.

झाड़फूंक के नाम पर बाबाओं के पास जाने वाली औरतों में ज्यादातर दलित व पिछड़े तबके की औरतें होती हैं, जिन के मन में बचपन से ही यह भर दिया जाता है कि इन की हर समस्या की वजह ऊपरी साया व टोनाटोटका ही है. ऐसे में ढोंगी तांत्रिकों द्वारा खास तरह की पूजा का ढोंग किया जाता है. इस दौरान ये बाबा औरतों की इज्जत लूटने में कोई गुरेज नहीं करते हैं.

ढोंगी बाबाओं द्वारा इज्जत के साथ खिलवाड़ किए जाने के मामलों में औरतें इसलिए विरोध नहीं कर पाती हैं, क्योंकि उन्हें यह भरोसा होता है कि हो सकता है कि बाबा के साथ हमबिस्तरी से ही उन की गोद भर जाए.

किसीकिसी मामले में लोकलाज के डर से भी औरतें अपने साथ हुई ज्यादती की बात छिपा जाती हैं, लेकिन झाड़फूंक के नाम पर कई औरतों के साथ सैक्स करने की वजह से इन बाबाओं को भी इन्फैक्शन व एड्स जैसी बीमारियां लग जाती हैं, जो औरतों में भी आ जाती हैं.

चूंकि अब झाड़फूंक के नाम पर पाखंडी तांत्रिकों द्वारा औरतों के साथ हमबिस्तरी के कई मामले सामने आ रहे हैं, ऐसे में मर्द अपने घर की औरतों को उन के पास ले जाने में कतराने लगे हैं.

औरतों की तादाद में आई कमी को देखते हुए बाबा भी अपने इस धंधे को चलाने के लिए दूसरा जरीया ढूंढ़ने लगे हैं. वे औरतों को विश्वास में लेने के लिए अपने घर की औरतों या चेलियों को आगे कर उन्हें बड़ा तांत्रिक साबित कर रहे हैं, ताकि धंधा चलता रहे.

औरत तांत्रिकों की तादाद व उन की कमाई में इजाफे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के नामीगिरामी टैलीविजन चैनलों, अखबारों व पत्रपत्रिकाओं में महंगेमहंगे इश्तिहार छपवा कर बड़ी से बड़ी समस्याओं के समाधान का दावा किया जा रहा है.

आसानी से झांसे में

 औरत तांत्रिकों द्वारा पीडि़त औरतों को आसानी से झांसे में ले लिया जाता है, क्योंकि ये तांत्रिक उन से जुड़ी अंदरूनी व घरेलू समस्याओं को आसानी से समझती हैं. यहां तक कि हमबिस्तरी की बातों को भी उगलवाने में वे कामयाब होती हैं. इस के बाद झाड़फूंक के नाम पर पीडि़त औरतों का जिस्मानी, माली व दिमागी शोषण शुरू हो जाता है.

मर्द तांत्रिकों की चाल

झाड़फूंक के नाम पर ठगी की दुकान चलाने वाली औरत तांत्रिकों के पीछे शातिर किस्म के मर्दों का हाथ होता है. ऐसे में जब कोई पीडि़त औरत पेट से न होने की समस्या ले कर इन तांत्रिकों के पास पहुंचती है, तो ये उन के ऊपर दुष्ट आत्मा का साया बता कर उसे नष्ट करने के लिए विशेष पूजा, अनुष्ठान वगैरह कराने की सलाह देती हैं.

अंधविश्वास में जकड़ी औरतें बच्चा पाने की चाह में इन तांत्रिकों पर आसानी से आंखें मूंद कर विश्वास कर लेती हैं और फिर तय समय पर ये तांत्रिक अकेले में अनुष्ठान के नाम पर उन्हें बुलाते हैं.

पेट से होने के लालच में औरत के परिवार वाले भी उसे पूजा के नाम पर अकेला छोड़ देते हैं. इस की वजह यह भी होती है कि झाड़फूंक करने वाली एक औरत होती है, जिस से इज्जत लुटने का खतरा नहीं हो सकता, लेकिन ये औरत तांत्रिक ऐसे अनुष्ठान उन कमरों में करती हैं, जहां घुप अंधेरा होता है.

झाड़फूंक के दौरान पीडि़ता को नशीली दवा मिला कर प्रसाद दे दिया जाता है, जिस से वह अपनी सुधबुध खो बैठती है. इस के बाद हवस के भूखे औरत तांत्रिक के गुरु व परिवार के मर्द उस की इज्जत लूट लेते हैं.

अगर इज्जत लूटने वाले के वीर्य में बच्चा पैदा करने की कूवत होती है, तो वह पीडि़ता पेट से हो जाती है. चूंकि झाड़फूंक के दौरान वह अपने होश में नहीं होती है, ऐसे में उसे यह नहीं पता चल पाता कि उस के पेट से होने का राज क्या है और वह तांत्रिक की चमत्कारी शक्तियों का असर मान कर उस की मुरीद बन बैठती है.

कभी कभार अगर बाबाओं द्वारा इज्जत से खिलवाड़ के मामले में पीडि़ता होश में आ भी जाती है, तो वह इस वजह से खुल कर विरोध नहीं कर पाती कि हो सकता है कि उसे बाबा की वजह से ही बच्चे का सुख मिल जाए और उसे बांझपन के ताने से नजात मिल जाए.

इश्तिहारों पर बेहिसाब खर्च

 झाड़फूंक से होने वाली मोटी कमाई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि औरत तांत्रिकों के बड़ेबड़े इश्तिहार टैलीविजन चैनलों, अखबारों व पत्रपत्रिकाओं में दिखाए व छापे जाते हैं, जिस के लिए औरत तांत्रिकों द्वारा भारीभरकम रकम का भुगतान किया जाता है, जो झाड़फूंक के दौरान कई गुना के रूप में वापस आ जाती है.

देश की नामीगिरामी पत्रिका में छपे एक औरत तांत्रिक के इश्तिहार का मजमून इस तरह था: ‘फ्री… फ्री… फ्री…’ समस्या कैसी भी हो, जड़ से खत्म. 5 घंटे में समस्या का समाधान. सौ फीसदी गारंटी.  गुरु मां गायत्री देवी घर बैठे गारंटी समाधान.

एक औरत ही औरत का दुख समझती है. कृपया दुखी माताएं व बहनें ही फोन करें. धोखा नहीं पक्का वादा. मैं कहती नहीं कर के दिखाती हूं केवल एक फोन ही आप के जीवन की दिशा व दशा बदल सकता है, ब्लैक मैजिक व ब्लैकमेलिंग से परेशान अवश्य फोन करें.

लव मैरिज, कारोबार, विदेश में रिश्ता करवाना, सौतन दुश्मन से छुटकारा, जिस को चाहोगे तुरंत वश में कर के दूंगी, काम नहीं होने पर पैसा वापस.

नोट: आप का पति, प्रेमी, बेटा किसी के वश में हो, प्यार में धोखा, निराश प्रेमीप्रेमिका, एक बार अवश्य फोन करें, लाटरी, सट्टा नंबर हासिल करें. स्थायी पता चंडीगढ़ मोबाइल नंबर 0988895×××.

दुख की बात है कि इस तरह के इश्तिहारों में लोग फंस कर लुटने को तैयार बैठे होते हैं.

सभी बनते हैं शिकार

इन औरत तांत्रिकों के पास पढ़ेलिखे व अनपढ़ लोग समान रूप से ठगी का शिकार बनते हैं. क्योंकि इन के मन में बचपन से ही भूतप्रेत व ऊपरी साए के प्रति इस तरह का डर बिठा दिया जाता है, जिसे वे मन से नहीं निकाल पाते हैं.

इस तरह का एक उदाहरण गोंडा व बस्ती जिले की सीमा से लगने वाले मेहदिया ढडौवा गांव में देखने को मिला, जहां दिल्ली से 8 सौ किलोमीटर की दूरी तय कर बीएड पास एक औरत ‘बड़की माई’ नाम से विख्यात किस्मती देवी नाम की अनपढ़ औरत तांत्रिक के पास झाड़फूंक कराने आई थी.

इस औरत की समस्या यह थी कि इसे शादी के 6 साल बाद भी बच्चे नहीं पैदा हो रहे थे. अंधविश्वास की शिकार इस औरत को विश्वास था कि यहां आने से उस की यह मुराद पूरी होगी.

यहां हर सोमवार व शुक्रवार को झाड़फूंक कराने के लिए ऐसे तमाम लोग आते हैं, जो पढ़ेलिखे होते हैं, लेकिन अपनी आंखों पर चढ़े अंधविश्वास के चश्मे के चलते ठगी का शिकार होते हैं.

यहां एक दिन में तकरीबन 50 हजार लोगों की भीड़ इकट्ठा होती है. ऐसे में अगर हर पीडि़ता से 10 रुपए की औसत कमाई को देखा जाए, तो भी यह हफ्ते के 2 दिनों को मिला कर 10 लाख रुपए आसानी से इकट्ठा कर लेती है.

इसी तरह की झाड़फूंक की दुकान चलाने वाली बडगो गांव की पिछड़े तबके की एक अनपढ़ औरत काली माई के नाम पर झाड़फूंक का धंधा चलाती है, जहां रोजाना हजारों की तादाद में लोग बेवकूफ बनने चले आते हैं.

महज कोरी कल्पना

बस्ती जिला चिकित्सालय में डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि भूतपे्रत, तंत्रमंत्र व ऊपरी साया महज कोरी कल्पना है. इस की वजह न तो कभी थी और न है, बल्कि सदियों से पोंगापंथ की दुकान चलाने वाले लोगों ने जनता के मन में इस तरह का वहम बिठा कर उन्हें लूटने का जरीया बनाया है.

डाक्टर वीके वर्मा के मुताबिक, बचपन में भूतप्रेतों की कहानियां, डरावनी फिल्में देखसुन कर लोग मन में यह वहम पाल बैठते हैं कि हमारे आसपास भी बुरी आत्माएं मौजूद होती हैं, जिन की जद में हम कभी न कभी आ ही जाते हैं, लेकिन यह मन का वहम  होता है, क्योंकि बुरी आत्माओं व तंत्रमंत्र का वजूद है ही नहीं.

कैटाटोनिया व साइकोसिस जैसी बीमारियों के चलते औरतें अजीबोगरीब हरकतें करना शुरू कर देती हैं, जिसे घर के लोग आत्माओं का साया मान बैठते हैं. वहीं गर्भाशय में गांठ होना, प्रजनन अंगों में संक्रमण वगैरह के चलते पेट से न होने की समस्या जन्म लेती है, जिसे पाखंडी तांत्रिक भूतप्रेत का साया साबित कर देते हैं.

वकील कृष्ण कुमार उपाध्याय का कहना है कि झाड़फूंक करने वाला चाहे औरत हो या मर्द दोनों ही जुर्म में बराबर के भागीदार होते हैं. ऐसे में लोगों को भूतप्रेत व झाड़फूंक के नाम पर उन का शोषण करना और कभीकभी समस्या के समाधान के लिए तांत्रिकों द्वारा नरबलि के लिए उकसावा देना अपराध की श्रेणी में आता है.

 

लड़की क्यों चाहे सरकारी नौकरी वाला पति ?

हमार पापा बड़ा नीमन दामाद खोजेला, हमरा खातिर वो अकशवा के चांद खोजेला.

‘नहीं खींचे ठेलागाड़ी, न ढोवेला टोकरी, हमार पियवा करेला सरकारी नौकरी…’

भोजपुरी में ‘हमार पियवा करेला सरकारी नौकरी…’ गाना बहुत मशहूर हो रहा है. इस को गाने वाले कलाकार हैं प्रियंका सिंह, ओम झा और प्यारेलाल यादव. स्क्रीन पर दिखे हैं भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार और भारतीय जनता पार्टी के सांसद दिनेशलाल यादव ‘निरहुआ’.

इस पूरे गाने में यह बताया गया है कि सरकारी नौकरी वाला पति कितना अच्छा होता है. वह कैसे अपनी पत्नी का ध्यान रखता है. वह कितना स्मार्ट और असरदार होता है. इस बात पर लड़की घमंड करते हुए कहती है कि पापा ने उस के लिए बहुत अच्छा पति ढूंढ़ा है.

अब गानों की लाइनों को ले कर जवान लड़केलड़कियां सोशल मीडिया पर रील बनाने लगे हैं. उन में से बहुत सी रील तो मशहूर हो जाती हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार, जहां के लोग भोजपुरी समझते हैं, वे इस को खूब प्रचारित करते हैं.

भोजपुरी फिल्मों और म्यूजिक की जो दुनिया है, वहां ज्यादातर कलाकार एससी और ओबीसी जाति से आते हैं. वे अपने गानों में अपनी जाति को ले कर फर्क महसूस करते हूं. कई गायकों ने तो ‘यादवजी का बेटा हूं’ गाना गाया है. ‘चमार एक्सप्रैस’ नाम से म्यूजिक चैनल है यूट्यूब पर, जिस में कई गानों की तर्ज पर ‘चमार’ शब्द को ले कर गाना गाया जाता है. लिहाजा, लड़कियां भी चाहती हैं कि ‘हमार पियवा करेला सरकारी नौकरी…’

ऐसे पति की चाहत

हर दौर में लड़कियां अपने लिए बेहतर पति की चाहत रखती रही हैं. जिस दौर में समाज सुधार के आंदोलन चले थे, मतलब तकरीबन 80 और 90 के दशक में तो लड़कियां दहेज मांगने वाले लड़कों को नापसंद करती थीं. प्रगतिशील विचारों वाली बहुत सी लड़कियां अपने नाम के आगे जाति का इस्तेमाल भी नहीं करती थीं.

ऐसी लड़कियां पढ़नेलिखने और अपने विचारों को जाहिर करने में भी आगे रहती थीं. कहानियों और लेखों में भी उन के विचार झलकते थे. 1990 के बाद जब मंडल कमीशन लागू हुआ और दलित और पिछड़ी जाति के लड़कों को सरकारी नौकरी मिलने लगी, वहां से लड़कियों की सोच में भी बदलाव आने लगा.

साल 2000 के आतेआते सरकारी नौकरी करने वालों के वेतनमान बढ़ गए. समाज में पैसा आया तो रिश्वतखोरी बढ़ी. राजनीति में सरकारी नौकरों का दखल हुआ तो कामचोरी भी शुरू हो गई. समाज में दिखावा बढ़ गया.

इस का असर शादियों पर भी पड़ने लगा. अगड़ी जातियों में तो लड़कियों की कोई राय ली ही नहीं जाती थी, अब एससी और ओबीसी लड़कियों ने भी समाज सुधार वाली बातें करनी छोड़ दीं. वे भी अगड़ी जाति की तर्ज पर शादियां करने लगीं.

एससी और ओबीसी में भी सरकारी नौकरी करने वाले लड़के मिलने लगे. ऐसे में दहेज का चलन बढ़ गया, जिस की वजह से सरकारी नौकरी करने वाले लड़कों की डिमांड बढ़ने लगी.

जो मातापिता दहेज दे कर सरकारी नौकरी वाला दामाद खरीदने की हैसियत में हो गए, वे अपनी बेटी के सुरक्षित भविष्य के लिए सरकारी नौकरी वाला दामाद लाने लगे. यह लड़की और उस के घरपरिवार के लिए इज्जत का सवाल हो गया.

जब आप लड़की की शादी का निमंत्रणपत्र ले कर किसी को न्योता देने के लिए जाते हैं, तो सामने वाला कहता है, ‘बहुत अच्छा… कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं. अच्छा, दामादजी करते क्या हैं?’

अगर आप ने इस सवाल के जवाब में यह कहा कि दामादजी सरकारी नौकरी में हैं तो वह खुशी ही जाहिर करेगा, भले ही मन में कुछ सोच रहा हो.

अब ऐसी खबरें नहीं आतीं

कुछ समय पहले तक अखबारों में यह खबर खूब छपती थी कि किसी लड़की ने बरात बैंरग लौटाई. इस खबर में लड़की को महिला सशक्तीकरण का उदाहरण बना कर पेश किया जाता था. अब ऐसी खबरें पढ़ने को नहीं मिलती हैं.

अब एससी और ओबीसी लड़कियों की शादी भी पूरे धूमधाम से होती है. लड़का केवल दहेज ही नहीं लेता है, बल्कि वह यह भी तय करता है कि शादी होटल में होगी या मैरिज हाल में? घर या गांव से शादी हो तो सजावट इस तरह की हो कि लोग देखते रह जाएं. शादी में दिखावा बढ़ गया है.

दहेज के पैकेज में यह भी शामिल होने लगा है कि बरात का स्वागत, खानपान, वीडियो, फोटो, आरकैस्ट्रा सब कैसा होगा? बरातियों का लेनदेन, नेग में क्याक्या होगा? जयमाल होगा और खाना मेजकुरसी पर होगा. नकद और चढ़ावा तो दहेज का मुख्य हिस्सा होता ही है.

लखनऊ यूनिवर्सिटी से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने वाले मनोज पासवान कहते हैं, ‘‘नौजवानों के प्रगतिशील विचारों में ठहराव आने के चलते दहेज जैसी सामाजिक बुराइयां हावी होने लगी हैं. पहले एससी और ओबीसी समाज के नौजवान सामाजिक बदलाव के लिए पढ़ाई और नौकरी करते थे. आज के नौजवानों की प्राथमिकता नौकरी और अच्छी शादी हो गई है.’’

महंगी हो गई हैं शादियां

सरकारी नौकरी वाले युवाओं की तादाद कम होने के चलते उन की डिमांड ज्यादा है. इस से दहेज की रकम बढ़ जाती है, जिस से शादियां महंगी होने लगी हैं. ओबीसी जाति में तो शादियों में होने वाला खर्च अगड़ी जातियों के बराबर ही होने लगा है.

एससी तबके में अभी यह खर्च दूसरों के मुकाबले कम है, पर जिन के पिता सरकारी नौकरी, राजनीति, कारोबार में है, वह किसी से कम खर्च न कर के ज्यादा ही करते हैं. दहेज मांगने वाले तो कुसूरवार हैं ही, लेकिन सरकारी पति और दामाद की चाहत रखने वाले भी कम कुसूरवार नहीं हैं.

आज के समय में यह कहा जाने लगा है कि अगर अच्छी नौकरी नहीं हुई तो शादी नहीं होगी. इस की एक वजह यह भी है कि अब लड़कियां पढ़लिख कर ही शादी कर रही हैं.

एससी और ओबीसी में एकल परिवार होने लगे हैं. लड़कियों के शादीब्याह के फैसलों में उन की मां की भूमिका बढ़ गई है. ऐसे में कम उम्र में किसी के साथ शादी करने का रिवाज नहीं रह गया है.

महंगाई ने निकाला दम, कैसे मनाएं दिवाली हम

आमतौर पर त्योहार एक दिन का होता है, दीवाली अकेला ऐसा त्योहार है, जो 5 दिनों का होता है. इस की शुरुआत धनतेरस से होती है. उस के बाद छोटी दीवाली और बड़ी दीवाली आती है. चौथा दिन गोवर्धन पूजा और सब से आखिर में भैयादूज का होता है.

एक त्योहार के 5 दिन में अलगअलग आयोजन होने से महंगाई का असर ज्यादा होता है. धनतेरस में नई चीजें खरीदने का रिवाज होता है. ऐसे में कुछ न कुछ खरीदना ही पड़ता है. छोटी और बड़ी दीवाली घर की साफसफाई, सजावट, झालर लगाने जैसे तमाम काम होते हैं. इसी दिन लोग मिलने भी आते हैं. गोवर्धन पूजा को ‘अन्नकूट’ भी कहते हैं. भैयादूज का दिन रक्षाबंधन की तरह भाईबहन के बीच का होता है. अब इस में लेनदेन और दिखावा भी होने लगा है.

पर महंगाई के दौर में दीवाली का त्योहार कैसे मनाएं, इस बात को समझने की जरूरत है. त्योहार साल में एक बार आता है. ऐसे में इस को हंसीखुशी से मनाने की जरूरत है.

त्योहार का मतलब यह होता है कि अपनी जानपहचान और करीबी लोगों के साथ इस की खुशियां मनाएं. पर अगर महंगाई है, तो उस का मुकाबला करने के लिए कुछ उपाय कर सकते हैं. गांवकसबों में बहुत सारी उपहार में दी जाने वाली चीजें कम पैसों में मिलती हैं.

ये चीजें दें उपहार में

हाथ से बने सामान को बड़ेबड़े बाजारों में हस्तशिल्प के नाम से जाना जाता है. उपहार देने के लिए इन की खरीदारी करने से कम पैसों में अच्छी चीजें मिल जाती हैं. दीवाली में मिट्टी के दीए, घर को सजाने के लिए कपड़ों से बने बंदनवार, हस्तशिल्प और लकड़ी के सामान मिलते हैं. मिट्टी से बने खिलौने केवल खेलने के ही काम नहीं आते हैं, बल्कि अब इन का इस्तेमाल घर को सजाने में भी किया जाने लगा है.

बचपन में एक बूढ़ा सिर हिलाते हुए हर खिलौने की दुकान पर दिखता था. आज भी मिट्टी के बने खिलौनों में वह सब से ज्यादा पसंद किया जाता है. अब यह लोगों के ड्राइंगरूम या बच्चों के कमरे में सजावटी सामान की तरह से रखा मिलता है. इसी तरह से मिट्टी से बनी बैलगाड़ी भी मिल जाती है.

अपने दोस्तों और परिवार के लिए महंगे उपहार खरीदने के बजाय इस तरह के सस्ते सामान उपहार में दे सकते हैं. इस के अलावा घर में बनी मिठाइयां, पापड़ और नमकीन, हाथ से बनी पेंटिंग या शिल्पकला जैसे सामान को अपने बजट में रहते हुए उपहार में दे सकते हैं.

इन उपहारों की न केवल कीमत कम होती है, बल्कि ये दिल से दिए उपहार लगते हैं. इस के अलावा गांव और कसबों के लोगों को रोजगार भी दिया जा सकता है. इस से उन की भी दीवाली खुशियों वाली होगी.

जितनी जरूरत उतना खर्च

त्योहार के शुरू होते ही औनलाइन से ले कर औफलाइन तक छूट और औफर की भरमार दिखने लगती है. इस के चक्कर में लोग अपनी जरूरत से ज्यादा का सामान ले कर अपना बजट बिगाड़ लेते हैं.

दुकानदार बड़ी होशियारी से वह सामान बेच लेते हैं, जो पहले बिक नहीं रहा होता है. ज्यादा वजन वाली चीजें कम बिकती हैं. जैसे 100 ग्राम वाला टूथपेस्ट ज्यादा बिकता है. अब दुकानदार इस पर कोई छूट और औफर नहीं देता. 250 ग्राम वाला टूथपेस्ट नहीं बिकता. ऐसे में इस पर 20 फीसदी छूट का औफर रख दिया जाता है. अब अगर औफर के चक्कर में आ कर ज्यादा वजन वाला पैकेट ले लिया, तो इस से बजट बिगड़ जाता है.

जरूरत से ज्यादा का सामान लेने पर ज्यादा बजट लगा, जिस ने त्योहार के खर्च को बढ़ा दिया. ऐसे में खरीदारी करते समय ध्यान रखें कि जितनी जरूरत हो उतनी ही खरीदारी करें.

औनलाइन खरीदारी करने की जगह पर अपने पड़ोस वाली दुकान से खरीदारी करें. इस से आप अपने आसपास वाले की ही मदद करते हैं और उस के साथ निजी संबंध भी बनाते हैं. ये लोग औफर और छूट का झांसा कम देते हैं.

ऐसे में आप उतनी ही चीजें खरीदते हो जितनी जरूरत होती है. इस के अलावा यह आप का हालचाल पूछ कर आप को अहसास दिलाता है कि हम आप के अपने है. कभी कोई शिकायत हो, तो सुन लेता है.

नकद खर्च का अहसास

कुछ पैसे कमज्यादा भी हो गए, तो बाद में दे सकते हैं. इस तरह की सुविधा भी होती है. क्या किसी मौल या औनलाइन दुकान से बिना पैसा दिए चीजें ले सकते हो? नहीं. पर पड़ोस वाली दुकान से बिना पैसे दिए भी ले सकते हो, जिस का पैसा बाद में दे सकते हैं.

औनलाइन खरीदारी करते समय भुगतान क्रेडिट कार्ड और ईवौलेट जैसे माध्यमों से होता है, जिस से खर्च करते समय पता नहीं चलता कि कितना खर्च हो गया. इसलिए बजट बढ़ जाता है, जबकि जेब में रखे पैसे खर्च होते हैं, तो खर्च का अहसास होता है. ऐसे में ज्यादा खर्च नहीं हो पाता है.

औनलाइन खरीदारी में खर्च ज्यादा हो जाता है. ऐसे में फैस्टिवल का बजट बिगड़ जाता है. बजट बनाए रखने के लिए नकद खरीदारी करनी जरूरी है, क्योंकि जो क्रेडिट कार्ड से पैसा खर्च होता है, वह भी देना तो पड़ता ही है.

औनलाइन खरीदारी से केवल एक महीने का ही नहीं, बल्कि कई महीने तक का बजट बिगड़ सकता है. ऐसे में उधार की जगह नकद पर भरोसा करें. यह पैसा जैसे ही ज्यादा खर्च होगा, समझ आने लगता है. ऐसे में हम खर्च करने की हद के अंदर ही रहते हैं.

त्योहार के दिन करें सफर

दीवाली के 3 महीने पहले ही अखबारों में यह खबर देखने को मिलती है कि दीवाली के समय सारी ट्रेन और बस के टिकट बुक हो गए हैं. गांवकसबों में रहने वाले ज्यादातर लोग दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में रहते हैं. दीवाली में गांवघर आना जरूरी होता है. पहले से टिकट बुक नहीं हो पाया है, तो महंगी कीमत में टिकट लेने से अच्छा है कि त्योहार के दिन सफर कीजिए.

त्योहार के एक दिन पहले ज्यादा तादाद में लोग सफर करते हैं. त्योहार के दिन भीड़ कम होती है. वापसी भी 1-2 दिन बाद करेंगे, तो टिकट मिलने में दिक्कत नहीं होगी. आराम से कम बजट में सफर कर सकेंगे.

दीए जलाएं

दीवाली रोशनी का त्योहार है और घर को रोशन करना रिवाज का हिस्सा है. पहले के समय में घर में रूई से बाती बनाई जाती थी. तेल में एक दिन पहले से भिगो कर रख दिया जाता था, जिस से बाती ठीक से तेल में तर हो जाती थी.

मिट्टी के दीए भी एक दिन पहले धो कर रखे जाते थे, जिस से उन का पानी सूख जाता था. ऐसे में जब उन में तेल डाला जाता था, तब वह कम तेल सोखते थे. पहले से तेल में डूबी रूई की बाती देर तक जलती थी. तेल कम लगता था. खर्च कम होता था.

आज भी सरसों का तेल 150 रुपए लिटर तक का होता है. एक लिटर तेल में पूरे घर में दिए जल जाते हैं. दीए भी झालर के मुकाबले सस्ते पड़ते हैं. दीए से रोशनी करना सस्ता और पारंपरिक है. इस से असली त्योहार की फीलिंग आती है.

बनाएं त्योहारी बजट

त्योहार में कितना खर्च करना है, पहले से ही यह सोच कर इस का बजट बना लें. बजट के मुताबिक ही खर्चा करने से ज्यादा खर्च नहीं होगा. उस के खर्च का इंतजाम भी पहले से कर सकेंगे. इस के लिए सभी मदों की सूची बनाएं और हर मद के लिए उन्हें मिलने वाली प्राथमिकता के मुताबिक पैसा अलग करें. इस से आप को ज्यादा खर्च करने से बचने में मदद मिलेगी. त्योहार खत्म होने के बाद इस बात का अफसोस नहीं होगा कि खर्च ज्यादा हो गया है. इस से दीवाली के त्योहार का भरपूर मजा आएगा.

 दीवाली पर सस्ते में घर रोशन

दीवाली पर रोशनी को ले कर ‘न्यू आर्क स्टूडियोज’ की आर्किटैक्ट नेहा चोपड़ा ने बताया, ‘‘बहुत से लोग तो यही सोचते रहते हैं कि हम ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे, पर कर नहीं पाते. कभी पैसे की कमी, तो कभी समय न होने के चलते लोगों को यह तरीका ही नहीं सूझता है कि दीवाली पर अपने घर को रोशन कैसे करना है. पर घबराइए नहीं, क्योंकि इस समस्या का हल कुछ इस तरह से किया जा सकता है :

-हर शादीशुदा औरत के पास कोई फटीपुरानी चमकदार साड़ी या जूट का रंगबिरंगा कपड़ा रखा ही होता है. 2 लोहे के छल्ले ले कर उस पर साड़ी का एक हिस्सा या रंगबिरंगा जूट कस कर लपेट दें और एक एलईडी बल्ब बीच में जला कर कमरे में सजा दें. अगर बल्ब नहीं है, तो बड़ा सा दीया भी जला कर रखा जा सकता है. दीया रखते समय सावधानी बरतें कि कपड़ा आग न पकड़ ले.

-अगर कपड़ा नहीं है, तो किसी गत्ते के डब्बे को डिजाइन में काट कर उस के चारों तरफ मजबूत रंगीन कागज चिपका दें और अंदर बल्ब जला दें या दीया रख दें. कटे गत्ते के डिजाइन से बाहर निकलती रोशनी खूबसूरत लगेगी.

-अगर किसी के घर की भीतरी छत खराब दिख रही है, तो दीवाली पर मिलने वाली इलैक्ट्रिकल लडि़यों को करीने से छत पर लगा दें. उस के बाद किसी साड़ी की मदद से उन लडि़यों को ढक दें. रात को जब वे लडि़यां जगमगाएंगी, तो छत भी खराब नहीं दिखेगी और साड़ी में से निकलती लाइट से घर का माहौल ही बदल जाएगा.

-आप घर में ही कागज से कंदील बना सकते हैं. उस में बल्ब लगा कर कम रोशनी वाली जगह को रोशन कर सकते हैं.

-अलगअलग रंगों या फूलों की रंगोली बना कर बीच में बड़ा सा दीया रख कर भी घर की रोशनी बढ़ाई जा सकती है.

-आजकल सस्ती इलैक्ट्रिक लडि़यां भी बाजार में मिल जाती हैं. किसी लड़ी को कांच की खाली बोतल वगैरह में भर कर रोशन करने से भी घर की रौनक बढ़ जाती है.

-घर को जगमग करने में मोमबत्ती भी अच्छाखासा रोल निभाती हैं. ये ज्यादा महंगी भी नहीं होती हैं.

बढ़ती उम्र की औरतों की क्यों बदलती है सोच?

कुछ वर्षों में कमला मल्होत्रा की मानसिकता में काफी बदलाव आया है. भीतर ही भीतर एक आक्रोश सा सुलग रहा है. जराजरा सी बात पर झुंझलाने और क्रोध करने लगती हैं. उन की उम्र होगी 60 वर्ष के करीब. बेटी का विवाह हो चुका है, एक बेटा कनाडा में है, दूसरा मुंबई में. दिल्ली में वे अपने अवकाशप्राप्त पति के साथ एक अच्छे व शानदार फ्लैट में रहती हैं. सबकुछ है, पर इस आभास से मुक्ति नहीं है कि ‘मैं अकेली हूं, मेरा कोई नहीं है.’  एक चिड़चिड़ाहट और तनाव उन के चेहरे पर बराबर दिखाई देता है.

बढ़ती उम्र की शहरी महिलाओं की अब यही एक आम मानसिकता होती जा रही है. पारिवारिक जीवन में जो बदलाव आ रहा है, उस के लिए वे तैयार नहीं होती हैं. बच्चे हाथ से ऐसे छूट जाते हैं जैसे कटोरी से पारा गिर गया हो. पति हर समय सिर पर सवार सा लगने लगता है. जवानी में जो आशा बनी रहती है कि बच्चे बड़े हो कर हमारी सेवा करेंगे, वह टूट जाती है.

घर में काम भी बहुत कम हो जाता है. एक सूनापन सा बराबर बना रहता है. इस बदलाव से महिलाओं को जो पीड़ा होती है, उस से उन के नजरिए में भी फर्क आता है. वे अपनेआप को दुखियारी और बेचारी समझने लगती हैं. उन का आत्मविश्वास, उन की सहनशीलता खत्म हो जाती है.

इस दौरान पति के साथ भी उन का लगाव कम होने लगता है. प्रेम और आकर्षण को बनाए रखने की दिशा में वे कोई पहल नहीं करतीं. तटस्थ और उदासीन हो कर घर के काम करते हुए भावनाओं में डूब जाती हैं.

विशेषज्ञ बताते हैं कि उन की जिंदगी का यही समय होता है उन के लिए सब से अधिक फुरसत का, जिसे वे व्यर्थ की चिंताओं में बिताने में एक अस्वस्थ सुख का अनुभव करती हैं. मनोवैज्ञानिकों की भाषा में इसे ‘स्वपीड़ा का सुख’ कहते हैं. कमला मल्होत्रा का सुखदुख यही है.

लगभग इसी उम्र की हैं गायत्री देवी. अपनी संतान को ही सबकुछ मान लेने की गलत मानसिकता पाल कर जानेअनजाने वे पति की अवहेलना करती रही हैं.

20 वर्षों के इस भावनात्मक अंतराल के चलते पतिपत्नी के बीच पूरा संवाद नहीं हो पाता. एक गैप बराबर बना रहता है. पति को शिकायत है कि उन की जरूरतों की गायत्री को परवा नहीं है. गायत्री के अनुसार, वे मुझे पूछते ही कब हैं.

 

पुरुष बनाम महिला

जाहिर है, यह एक अधेड़ मानसिकता है जिस का शिकार महिलाएं अधिक होती हैं. उन का जीवन कुछ और अधिक सिकुड़ कर आत्मकेंद्रित हो जाता है. खाली समय में कुछ पढ़नेलिखने की आदत भी उन की नहीं होती. पुरुष बाहर की दुनिया से भी कुछ तालमेल रखते हुए जिंदगी की बदली हुई परिस्थिति से समझौता करने का गुर सीख लेते हैं. इस उम्र में जो अडि़यल मानसिकता महिलाओं में पैदा हो जाती है वह पुरुषों में बहुत कम देखी जाती है.

महिला मनोविज्ञान के विश्लेषकों ने इस मानसिकता को काफी खतरनाक बताया है. उन का मानना है कि इस से बीमारियां भी पैदा हो सकती हैं, जिन बीमारियों का जिक्र इस संदर्भ में अकसर किया जाता है उन में अवसाद और उच्च रक्तचाप प्रमुख हैं.

इधर स्ट्रोक और दिल का दौरा भी महिलाओं को अधिक पड़ने लगा है. पहले महिलाओं को यह बहुत कम होता था. बहुत से कारणों में एक कारण अब यह भी बताया जा रहा है कि अधेड़ावस्था में उन का अकेलापन बढ़ जाता है. गृहस्थी में कुछ खास करने को नहीं रह जाता तो खाली दिमाग परेशानी का सबब बन जाता है. पुरानी बातों को याद कर दुखी होने की आदत छोड़नी पड़ेगी.

मनोचिकित्सकों से बात करने पर पता चलता है कि डिप्रैशन की बीमारी भी बढ़ती उम्र की महिलाओं को ही अधिक होती है. अकसर यह इतनी गंभीर हो जाती है कि मनोचिकित्सक के पास जाना अनिवार्य हो जाता है. वे भी उन्हें यही सलाह देते हैं कि आप अपने को किसी काम में उलझाए रखें. कोई अच्छा शौक पालें, पत्रपत्रिकाएं पढ़ें, बागबानी करें और अपनी सोच को सकारात्मकता की ओर उन्मुख करें.

नकारात्मक विचार

देखने में आ रहा है कि महिलाओं को इधर स्ट्रैस व डायबिटीज भी अधिक होने लगी है. कहते हैं, आदमी जब अपने नकारात्मक विचारों को रोक नहीं पाता और यह लंबे समय तक चलता रहे तो उस के शरीर में इंसुलिन की कमी हो जाती है. मधुमेह का यह एक मानसिक कारण है. यह बढ़ती उम्र की महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है. इसी बीच अगर आर्थ्राइटिस भी हो गई हो तो कुछ चिकित्सक उसे भी महिलाओं की मानसिक अवस्था से जोड़ देते हैं. इस उम्र में वे अगर जीने का स्वस्थ दृष्टिकोण अपना लें तो अधेड़ होने की बहुत सी कुंठाओं से बच सकती हैं.

आत्महत्या से पीडि़त महिलाओं की संख्या भी इधर बहुत बढ़ी है. वे दूसरों को फलताफूलता देखती हैं तो उन से अपनी तुलना करने की मजबूरी को दबा नहीं पातीं.

पड़ोस की मीरा को यह बात रास नहीं आई कि अर्चना ने गाड़ी खरीद ली है. हम अपने एक इस छोटे से सपने को भी पूरा नहीं कर पाए तो हमारे जीवन में रखा ही क्या है. मीरा की उलझनें बढ़ गईं. पति के जीवनभर की बचतपूंजी लगा कर अर्चना की गाड़ी से भी अच्छी गाड़ी खरीदने की लालसा उन के मन में जाग उठी.

बढ़ती उम्र में आप के मन में अगर इस प्रकार की कोई वेदना पैदा हो तो आप जरा शांति से बैठ कर हिसाब लगाएं. आप को तब मालूम होगा कि आप के अधिकतर सपने पूरे हो चुके हैं और जो बाकी हैं उन के पूरे न होने का दुख मात्र एक असुरक्षा की भावना है, जो उम्र के साथ बढ़ जाती है.

यहां एक मामूली सी समझ यह रखनी होगी कि आप जब 50-55 वर्ष की होती हैं तो आप का पति 60 पार कर रहा होता है. इस उम्र में उस की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. वह तन और मन की सेहत पर अधिक खर्च करने लगता है, घरेलू चीजों की खरीदारी पर बेकार पैसा गंवाना समझता है. इस से पतिपत्नी के बीच जो विवाद पैदा होता है वह आप दोनों के अडि़यल रुख को बढ़ावा देता है. यह और बात है कि इस का खमियाजा शायद औरतों को ही ज्यादा भुगतना पड़ता है.

बोलचाल की भाषा में जिसे हम अडि़यलपन कहते हैं वह अधेड़ावस्था में अपनी चरमसीमा पर होता है. कुछ लोग इसे सठियाना भी कहते हैं. यह महिलाओं में अधिक होता है या पुरुष में, इस विषय पर कोई रिसर्च शायद न हुई हो पर अनुभव यही बताते हैं कि स्त्रियां इस की शिकार अधिक होती हैं. सासबहू के झगड़ों का एक कारण यह भी है कि सास अड़ जाती है, जबकि ससुर का नजरिया उदारवादी अथवा समझौते वाला होता है.

इच्छाओं की पूर्ति का सवाल जिस मानसिकता से पैदा होता है उस में भावुकता का पुट अधिक होता है जबकि वास्तविक समझदारी बहुत कम होती है. कभीकभी छोटीछोटी जरूरतों को भी इतना तूल दे दिया जाता है कि घर में तनाव पैदा हो जाता है. पुताई हो रही है तो दीवार पर कौन सा रंग लगे, इस पर भी बहस हो जाती है, मुंह फूल जाते हैं.

ऐसा नहीं कि अधेड़ उम्र की कठिन मानसिक दशा से उबरने का कोई रास्ता नहीं. इस समस्या से सरोकार रखने वाले बताते हैं कि आप अपने आपसी प्रेम के रैगुलेटर को जरा बढ़ा दें तो मन में रस का संचार होने लगेगा. महिलाओं के पास तो इतने गुण हैं कि उन का इस्तेमाल करें तो वे बढ़ती उम्र की कुंठाओं से बच सकती हैं. स्वयं को कुतरने वाले काल्पनिक विचारों के चूहों से बचने के लिए आप यह सब करें :

  • कोई आर्थिक समस्या नहीं तो फ्री में बच्चों को ट्यूशन दें.
  • शौकिया कुकिंग करें.
  • इस उम्र में कुछ आर्थिक जिम्मेदारी निभाने का भी प्रयास करें.
  • सिलाईकढ़ाई करें.
  • पति की दुकान या औफिस है तो वहां बैठें.
  • सुविधाजनक लगे तो बिजलीपानी और फोन आदि के बिल भी स्वयं औनलाइन जमा करें.
  • पैसा हो तो कंप्यूटर या लैपटौप खरीदें, उस पर टाइप करें, हिसाबकिताब रखें.
  • गाने सुनें, फिल्में देखें.
  • व्हाट्सऐप पर पत्रव्यवहार करें, बधाई और शुभकामनाओं का लेनदेन करें.

दो रोटी बना कर खा लेने से आत्मविश्वास नहीं पैदा होगा. घर में बुढ़ाएसठियाए  पतिपत्नी की तरह नहीं, 2 प्रेमियों की तरह रहें. अगर स्वयं को बदल नहीं सकते तो कम से कम जिन खुशियों को महसूस कर सकते हैं उन का तो जीभर के अपने जीवन में स्वागत करें. जब हम छोटीछोटी खुशियों का आनंद नहीं लेंगे तो जाहिर है कि बड़ी खुशियां भी हम से मुख मोड़ कर जा सकती हैं.

बच्चियों से सैक्स : हवस की भूख का घिनौना नतीजा

उत्तर प्रदेश राज्य के हसनगंज कोतवाली इलाके का रहने वाला रमेश पेशे से बढ़ई था. कुछ दिन पहले उस ने काम करने का ठेका लिया था, जिस के लिए वह बेंगलुरु गया था. रमेश की बेटी रीना (बदला नाम) दूसरी जमात में पढ़ती थी. वह डांस करने में अच्छी थी और खूबसूरत भी. लखनऊ में होने वाले हजरतगंज कार्निवाल में उस ने डांस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था. उस समय के डीएम राजशेखर ने उसे

50 हजार रुपए का इनाम दिया था. रीना के परिवार में उस के मातापिता, 2 बहनें और 3 भाई थे. एक रविवार की सुबह 8 बजे रीना दूध लेने बाजार गई थी. इस के बाद उस की मां काम करने बाहर चली गई थी. शाम को तकरीबन 4 बजे जब मां वापस आई, तब रीना घर पर नहीं थी. उस ने दूसरे बच्चों से पूछा, तो पता चला कि रीना सुबह से ही बाहर है और अब तक घर नहीं लौटी है.

रीना की तलाश शुरू हुई. महल्ले की हर गली, हर सड़क पर मां और उस के बच्चे उसे तलाश करते रहे. मां ने पुलिस को 100 नंबर पर फोन कर के बताने की कोशिश की, पर किसी ने फोन नहीं उठाया. जब रीना का कुछ पता नहीं चला, तो वे लोग थाने गए और बेटी के लापता होने की बात बताई. पुलिस वालों ने परिवार के लोगों से कहा कि तुम खोज लो कि लड़की कहां गई थी. इसी बीच एक दिन बीत गया.

सोमवार की दोपहर निरालानगर में कार बाजार में सफाई करने वाला लड़का कार की सफाई कर रहा था, तो उसे कार की पिछली सीट पर एक बच्ची की लाश पड़ी मिली. वहां से पुलिस को सूचना मिली. तब आननफानन लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखी गई. पुलिस को बच्ची की लाश के नाखूनों में बाल मिले, जिस से लग रहा था कि उस ने खुद को बचाने की कोशिश की थी.

बच्ची की आंखें और जबान बाहर निकली हुई थी और मुट्ठी बंधी हुई थी, जिस से उस के दर्द का एहसास बराबर समझ आ रहा था. बच्ची के शरीर पर काले रंग की लैगिंग और पीले रंग का कुरता था. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे. बच्ची की लाश मिलने की जानकारी जब घर वालों को मिली, तो वे भागेभागे आए और चीखतेचिल्लाते जमीन पर गिर पड़े.

वह बच्ची रीना थी. उस की मां ने राजुल नामक लड़के पर शक जाहिर किया, क्योंकि एक दिन पहले वह रीना को बहलाफुसला कर उसी कार के पास ले गया था. उस दिन रीना की मां वहां आ गई थी. पुलिस ने राजुल को पकड़ा. वह साफसफाई का काम करता था. वह रीना को अकसर टौफी भी देता था.

राजुल ने पुलिस को बताया कि उस ने रीना को कार में बिठाया था. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के बाद यह पता चला कि रीना के अंगों पर चोट के निशान मिले. मौत की वजह सिर में लगी चोट को माना गया. रीना का विसरा सुरक्षित रख लिया गया.

यह वारदात लखनऊ शहर की है, जहां हर वक्त भीड़ रहती है. यह वारदात सवाल उठाती है कि बच्ची से सैक्स करने के लिए अपराध क्यों किया जाता है? यह किसी एक शहर की वारदात नहीं है. बहुत सी जगहों पर ऐसे अपराध तेजी से होने लगे हैं.

सैक्स की भूख

मनोचिकित्सक डाक्टर मधु पाठक  का कहना है, ‘‘सैक्स की भूख और दिमागी बीमारी आदमी को अपराधी बना देती है. छोटी मासूम बच्चियों को बहलानाफुसलाना और उन को काबू में करना आसान होता है.

‘‘बलात्कार करने वाले आदमी दिमागी रूप से बीमार होते हैं. उन को लगता है कि वे किसी सामान्य औरत के साथ सैक्स संबंध नहीं बना सकते हैं. ऐसे में वे छोटी बच्चियों को अपना शिकार बनाते हैं.

‘‘ज्यादातर मामलों में ऐसे अपराधी बच्चियों के साथ खेलतेखेलते उन को बहलानेफुसलाने का काम करते हैं. इस दौरान वे उन के नाजुक अंगों से खेलते हैं. बच्चियों को इस बारे में पता नहीं होता, इसलिए वे ज्यादा विरोध नहीं कर पाती हैं.

‘‘कई बार तो सैक्स के दौरान ही बच्चियों की मौत हो जाती है और कई बार खुद को बचाने के लिए ऐसे लोग उन की हत्या तक कर देते हैं.’’

अच्छी छुअन की समझ

कुछ लोग सैक्स को ले कर इतने बीमार होते हैं कि वे शरीर को छू कर ही खुश हो जाते हैं. ऐसे लोग दूसरी औरतों के जिस्म को भी छूने की कोशिश करते हैं. राह चलते, बस, ट्रेन और हवाईजहाज तक में सफर के दौरान वे ऐसी हरकतें करने की कोशिश करते हैं. इस को ‘ईव टीजिंग’ यानी छेड़छाड़ कहा जाता है.

रैड ब्रिगेड, लखनऊ की उषा विश्वकर्मा कहती हैं, ‘‘गुड टच और बैड टच यानी अच्छी छुअन और बुरी छुअन की जानकारी बच्चों को देना बहुत ही जरूरी होता है.

‘‘आमतौर पर बीमार सोच के लोग बच्चियों के नाजुक अंगों पर हाथ फेरते हैं. देखने वालों को यह सामान्य लगता है, पर यह उन को खुशी देता है.

‘‘ऐसे में मांबाप की जिम्मेदारी बनती है कि वे बड़ी होती बच्चियों को यह जानकारी दें कि किस तरह से लोग उन को छूने की कोशिश करते हैं.

‘‘वैसे तो उम्र के साथसाथ बड़ी होती लड़कियों को यह पहले से पता चल जाता है कि उन को छूने वाले की मंशा क्या है, छोटी उम्र खासकर 6 साल से 9 साल की लड़कियों में यह समझ नहीं होती है. उन्हें लगता है कि जिस तरह से उन के घर के लोग लाड़प्यार में उन को छूते हैं, वैसे ही दूसरे लोग भी छू रहे हैं. इसलिए बच्चियों को यह बताना जरूरी है कि लाड़प्यार से छूने और सैक्स की सोच वाले के छूने में फर्क होता है.’’

बच्चियों पर कहर

गरीब भिखारी बच्चियों के बीच काम करने वाली लड़कियों को वहां से हटा कर स्कूल भेजने और उन्हें सही राह दिखाने की कोशिश करने वाली सोनाली सिंह कहती हैं, ‘‘आम समाज में रहने वाली लड़कियों को ही नहीं, बल्कि भीख मांगने वाली लड़कियों को भी ऐसे लोग अपना निशाना बनाते हैं.

‘‘आमतौर पर भीख मांगने में पूरे दिन में उतना पैसा नहीं मिलता, जितना किसी आदमी के साथ सैक्स के दौरान मिल जाता है. ऐसे में केवल मजदूर, रिकशा चलाने वाले ही नहीं, बल्कि ड्राइवर, चपरासी या दूसरे ऐसे लोग भीख मांगने वाली लड़कियों को बहलाफुसला कर ले जाते हैं. 1-2 बार सैक्स करने के बाद ये लड़कियां भी इस की आदी हो जाती हैं.

‘‘ऐसे लोग बड़ी चतुराई से इन लड़कियों को नशा करने की आदत भी डाल देते हैं, जिस के चलते इन को पैसों की जरूरत पड़ती रहती है और ये सैक्स की भूख मिटाने का जरीया बनी रहती हैं. हालत यह होती है कि कईकई लड़कियां तो 12 साल से 14 साल की उम्र में ही मां बन जाती हैं.

‘‘यह बात इन के मांबाप को भी पता  चल जाती है. कुछ दिनों तक तो ये छोटे बच्चे को अपने साथ रखती हैं, बाद में उस को किसी और के हवाले कर खुद फिर उसी दुनिया में चली जाती हैं.

‘‘भीख मांगने वाली गरीब लड़कियां सैक्स का सब से बड़ा जरीया बनती जा रही हैं. हालात ये हैं कि जल्दी मां बनने और दूसरी बीमारियों का शिकार हो कर इन में से ज्यादातर लड़कियां जवान होने से पहले ही मर जाती हैं.’’

किसी को नहीं चिंता

ऐसे ज्यादातर मामले गरीब घरों की बच्चियों के साथ होते हैं. इस मामले में पुलिस और कानून दोनों ही बहुत सुस्ती से काम करते हैं.

रीना की मां जब बेटी के गायब होने पर पुलिस थाने गई, तो पुलिस ने उस से रिपोर्ट तो ले ली, पर रीना को तलाश नहीं किया. अगर पुलिस ने उस दिन अपना काम शुरू कर दिया होता तो हो सकता है कि रीना बच जाती या उस का पता पहले चल जाता.

यही नहीं, ज्यादातर मामलों में अगर गंभीर किस्म की वारदात न हो जाए, तो घरपरिवार के लोग चुप हो जाते हैं. वे अपनी शिकायत कहीं दर्ज नहीं कराते हैं. ऐसे में अपराध करने वालों का हौसला बढ़ता है.

लखनऊ के ही एक स्कूल की घटना है. वहां काम करने वाले एक मुलाजिम ने छोटी बच्ची के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार करने की कोशिश की. बच्ची इस बात से डर गई और उस ने स्कूल जाना ही बंद कर दिया.

उस के मांबाप ने जब पूछा, तो वह कुछ बोली ही नहीं. मांबाप को लगा कि हो सकता है, स्कूल की किसी टीचर ने कुछ कहा हो. ऐसे में जब वे टीचर से मिलने की बात कहने लगे, तो बच्ची ने अपने डर की वजह बताई और तब घर वालों को पता चला कि स्कूल का एक मुलाजिम उसे डरा कर रखता था. स्कूल में शिकायत होने पर उस को हटाया गया.

ऐसे कई मामलों में केवल टीचर ही नहीं, प्रिंसिपल तक पर आरोप लग चुके हैं. यह जरूर है कि बड़े मामलों में लड़की से छेड़छाड़ तक मामला रहता है, पर गरीब बच्चियों के साथ बात बलात्कार और हत्या जैसे मामलों तक पहुंच जाती है.

कई बार लोग बच्चियों के घर वालों को पैसे दे कर मामला दर्ज न कराने का दबाव बनाते हैं. बहुत बार पैसों के दबाव में पुलिस भी आपस में समझौता कराना ठीक समझती है.

निशाने पर गरीब

‘आभा जगत ट्रस्ट’ की अध्यक्ष शिवा पांडेय कहती हैं, ‘‘गरीब बच्चियों के बहुत सारे ऐसे मामले दबा दिए जाते हैं. इन की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है. ऐसे में कुसूरवार को सजा नहीं मिलती. अपराध करने वाले ज्यादातर शराब के नशे में होते हैं. उन्हें खुद पता नहीं चल पाता कि नशे में वे शैतान बन चुके हैं.

‘‘पुलिस भी तभी काम करती है, जब उस पर दबाव होता है. कई बार तो हत्यारे पकड़े ही नहीं जाते याफिर किसी दूसरे को जेल भेज कर मामले को खत्म कर दिया जाता है. ऐसे मामले ज्यादातर गरीब और दलित जाति की लड़कियों के साथ होते हैं.’’

शिवा पांडेय गरीब बच्चों को पढ़ाने का काम करती हैं. वे बताती हैं कि इन के घरों में रहने की जगह नहीं होती. ऐसे में ये बच्चियां किसी दूसरी जगह पर सोने या रहने लगती हैं. वहां आसपास के लोग इस का फायदा उठाते हैं. गरीब बच्चे भी दूसरे बच्चों की तरह टौफी, चौकलेट, कोल्ड ड्रिंक पीना चाहते हैं. इन के घर वाले पैसे दे नहीं पाते, तो दूसरे लोग खिलापिला कर बहलाफुसला लेते हैं. कई बार तो ये बातें किसी को पता ही नहीं चलतीं. जब कभी कोई वारदात हो जाती है, तो ही बात सामने आ पाती है.

देश में एक तबका कितना भी क्यों न चमक रहा हो, दूसरा तबका बहुत पीछे है. ऐसे में उस का शोषण करना लोग अपना हक समझते हैं. कई बार ऐसे मामले खबरों में आते हैं, जहां बलात्कार की शिकार को पैसे दे कर समझौता करा दिया जाता है. जब तक यह सुधार नहीं होगा, तब तक हालात नहीं बदलेंगे.

उम्र को मात देती हौसलों की उड़ान

पंकज त्रिपाठी और पत्रलेखा अभिनीत शौर्ट फिल्म ‘एल’ (एल फौर लर्निंग) मात्र डेढ़ मिनट में महिला सशक्तीकरण पर वह प्रभावोत्पादक टिप्पणी कर जाती है जो अब तक ढेरों सरकारी योजनाएं और नेताओं के छद्म वादोंभरे भाषण नहीं कर पाए. किस्सा कुछ यों है. मिडिल क्लास फैमिली को करीने से संभालती एक महिला को साइकिल चलानी नहीं आती.

जब वह अपने पति से साइकिल चलाना सिखाने के लिए कहती तो वह उस का उपहास करते हुए कहता कि इस उम्र में यह क्या नया शौक चढ़ा है, लोग देखेंगे तो हंसेंगे. पति से मिले मीठे इनकार के बाद जब वह अपने बच्चे की साइकिल ले कर पार्क में खुद ही सीखने की कोशिश करते हुए लड़खड़ाती है तो उस के बेटे को अपने दोस्तों के सामने काफी शर्मिंदगी होती है.

घर आ कर वह अपनी मां से उस की साइकिल दोबारा न छूने की हिदायत देता है. घर में अपने पति और बेटे के हतोत्साहित करते इन रवैयों से वह हार नहीं मानती और अंत में घर का सारा काम निबटा कर दोनों को बताए बगैर वह अपने ही दम पर साइकिल सीखने निकल पड़ती है.

सतही तौर पर देखें तो लगता है कोई बड़ी बात नहीं है. साइकिल तो कोई भी चला सकता है. लेकिन साइकिल का इस्तेमाल यहां प्रतीकात्मक तरीके से हुआ है. सिर्फ साइकिल ही नहीं, आज की महिला जब भी कोई नया काम सीखना चाहती है या फिर किसी पुरानी कमतरी से उबरना चाहती है तो उसे समाज से प्रोत्साहन के बजाए उपहास और उलाहना ही मिलता है. समाज की बात क्या करें, खुद के परिवार में भाई, बहन, पिता या पति भी महिलाओं को घर पर बैठने की हिदायत दे कर उन्हें कुछ नया सीखने से दूर रखते हैं.

याद कीजिए, श्रीदेवी की फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश.’ इस फिल्म में संभ्रांत परिवार का किस्सा था. जहां घर में सब अंगरेजी बोल लेते हैं सिवा शशि गोडबोले के. उस की इस कमतरी पर पति और बच्चे तक उसे जलील करने का मौका नहीं छोड़ते. आखिर में उसे भी खुद ही पहल करनी पड़ती है. वह अपने दम पर बगैर अपनी उम्र की परवा किए इंग्लिश कोचिंग क्लास में न सिर्फ दाखिला लेती है बल्कि इंग्लिश सीख कर अपना खोया आत्मविश्वास भी हासिल करती है.

हौसला और हुनर उम्र के मुहताज नहीं

फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की शशि गोडबोले और ‘एल’ की मिडिल क्लास वाइफ जैसी न जाने कितनी महिलाएं हैं हमारे देश में जिन में कइयों को कार ड्राइविंग करनी है, कई पाइलट बन कर प्लेन उड़ाना चाहती हैं, कोई अंतरिक्ष में जाना चाहती है तो किसी को शूटर बना है. किसी का सपना है कि वह एवरेस्ट की चढ़ाई करे तो कोई शादी के बाद मौडलिंग करना चाहती है.

किसी को डांस का शौक है तो कोई सिंगर बनना चाहती है. किसी को दंगल में धोबीपछाड़ लगानी है तो कोई अपनी अधूरीछूटी पढ़ाई को पूरा कर के डाक्टर या टीचर बनना चाहती है. लेकिन सब अपने परिवार की जिम्मेदारियां निभाने में कहीं पीछे छूट गईं. लेकिन जब आज वे फिर से अपने अधूरे ख्वाबों के परवाजों को पंख देना चाहती हैं तो समाज और परिवार उन्हें उम्र का हवाला दे कर उड़ने से रोकता है. कहता है कि इस उम्र में अब काहे जगहंसाई करवाओगी. चुपचाप घर में बैठो और बच्चे पालो.

जिन के हौसलों में दम होता है वे इन अड़चनों को आसानी से पार करने के लिए उम्र और अपनों के हतोत्साहन को रौंदते हुए न सिर्फ अपने सपनों को पूरा करती हैं बल्कि समाज और महिलाओं को यह संदेश भी दे जाती हैं कि हौसला और हुनर उम्र के मुहताज नहीं होते.

इस देश में कई मिसालें हैं जब महिलाओं की उम्र जान कर उन्हें कमजोर आंकने की गलती की गई. उन्होंने अपने साहस, लगन और बहादुरी से नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया. उन्होंने साबित कर दिया कि अगर कुछ करने का जज्बा हो तो आप शिखर पर पहुंच सकते हैं. आइए मिलते हैं कुछ ऐसी ही महिलाओं से, जो प्रेरणा हैं हम सब के लिए.

101 साल की गोल्ड मैडलिस्ट धावक

जब 101 वर्षीय एक महिला ने उम्र को मात देते हुए अमेरिकन मास्टर्स टूर्नामैंट में भारत की तरफ से गोल्ड मैडल जीता तो देखने वाले दांतों तले उंगली दबा कर रह गए. यह महिला कोई और नहीं, बल्कि भारतीय धावक मान कौर थीं जो 101 साल की उम्र में यह कारनामा कर दुनिया को बता रही हैं कि उम्र को बहाना बनाना छोड़ो और कर डालो जो भी हासिल करना है.

आश्चर्य की बात तो यह है कि मान कौर ने 93 वर्ष की उम्र से दौड़ना शुरू किया था. जिस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने बुढ़ापे का हवाला दे कर कभी नातीपोतों के साथ समय गुजारती हैं या फिर बिस्तर पर पड़ेपड़े मौत का इंतजार करती हैं, उस उम्र में मान कौर 100 मीटर की दौड़ पूरी करती हैं. पिछले साल भी उन्होंने इसी प्रतियोगिता में गोल्ड जीता था.

न्यूजीलैंड के औकलैंड शहर में आयोजित स्पर्धा में मान कौर ने 100 मीटर रेस में यह मैडल जीता है. मान ने अपने कैरियर में यह 17वां गोल्ड मैडल हासिल किया है. मान ने 1 मिनट 14 सैकंड्स में यह दूरी तय की, जो उसेन बोल्ट के 64.42 सैकंड के रिकौर्ड से कुछ सैकंड ही कम है. उसेन बोल्ट ने 2009 में 100 मीटर की रेस में यह रिकौर्ड कायम किया था. न्यूजीलैंड के मीडिया में ‘चंडीगढ़ का आश्चर्य’ कही जा रहीं मान कौर के लिए इस स्पर्धा में भाग लेना ही सब से बड़ा लक्ष्य था.

मान कौर कहती हैं कि उम्र की ढलान में अपने सपनों को दफन करना ठीक नहीं है. हम किसी भी उम्र में खेल सकते हैं. महिलाओं को खेलों में आना चाहिए, इस के लिए खानपान पर नियंत्रण रखना चाहिए. बढ़ती उम्र में चलतेफिरते रहने से बीमारियां दूर होती हैं. इस प्रतिस्पर्धा में मान की ऊर्जा अन्य प्रतिभागियों के लिए प्रेरणास्रोत बन गई. इस से पहले उन्होंने भाला फेंक और शौट पुट में भी मैडल जीते थे. दुनियाभर के मास्टर्स खेलों में मान कौर अब तक 20 मैडल अपने नाम कर चुकी हैं.

फिटनैस का हौआ

उम्र को मात दे कर किस तरह हौसलों का शिखर पार किया जाता है, इस के 2 बड़े उदाहरण हैं. एक तरफ तेलंगाना से बेहद आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से ताल्लुक रखती सिर्फ 13 साल की उम्र की मामलावत पूर्णा अपनी लगन से सब से कम उम्र की महिला पर्वतारोही बनने का गौरव हासिल करती है तो दूसरी तरफ प्रेमलता अग्रवाल हैं जो एवरेस्ट फतह करने वाली अब तक भारत की सब से उम्रदराज महिला हैं. उन्होंने उपलब्धि 48 साल की उम्र में हासिल की.

अब यह खिताब अपने नाम करने की कोशिश 52 साल की संगीता एस बहल कर रही हैं. पर्वतारोहण का शौक संगीता के लिए ज्यादा पुराना नहीं है. उन्होंने लगभग 47 साल की उम्र में पहली बार किलिमंजारो पर चढ़ाई की.

वे 2011 में संगीता किलिमंजारो, 2013 में एलब्रस, 2014 में विंसन, 2015 में अंकाकागुआ और कोसियुस्जको शिखर फतह कर चुकी हैं. 2015 में उत्तरी अमेरिका के डेनाली पर्वत पर वे दुर्घटना का शिकार हुईं. चढ़ाई के दौरान उन का घुटना टूट गया जिस के बाद सर्जन ने उन्हें पर्वतारोहण छोड़ने की सलाह दी. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और इसे एक चुनौती की तरह लिया. उन का घुटना दोबारा जोड़ा गया. कई महीनों तक फिजियोथेरैपी ली. और उन की हिम्मत देखिए, चोट लगने के 6 महीने से भी कम समय में वे अंकाकागुआ पर्वत पर थीं.

उन की जगह कोई और होता तो आसानी से हार मान जाता और अपनी चोट व फिटनैस का हवाला दे कर घर बैठ जाता लेकिन जिसे कुछ करने की बेचैनी और जनून होता है वह हार नहीं मानता बल्कि औरों के लिए मिसाल बन जाता है.

कई बार महिलाएं या पुरुष यह सोच कर अपने कैरियर या सपने को पूरा करने में सकुचाते हैं कि अब उम्र हो गई है या फिर शरीर साथ नहीं देता. कम ही ऐसे होते हैं जो बढ़ती उम्र और फिटनैस से जुड़ी चुनौतियों का मजबूती से सामना कर कामयाबी हासिल कर पाते हैं.

महू के गोल्फर मुकेश कुमार ऐसे ही अपवाद हैं. उन्होंने 51 साल की उम्र में एशियन टूर जीत कर किसी उम्रदराज खिलाड़ी द्वारा विश्वस्तरीय गोल्फ टूर्नामैंट जीतने का रिकौर्ड अपने नाम किया है. कुछ साल पहले तक मुकेश भीतर से इतने मजबूत नहीं थे. उन्हें लगता था कि युवा खिलाडि़यों की तरह लंबे हिट लगाना अब उन के बस की बात नहीं. लगातार प्रैक्टिस और उस से मिले आत्मविश्वास के बल पर मुकेश को यह सफलता मिली.

नाकामी पर भारी पक्के इरादे

इरादा पक्का हो तो अक्षमता की हर खाई लांघी जा सकती है. यह कर दिखाया बहराइच की पुष्पा ने. दिव्यांग पुष्पा सिंह हाथों से अक्षम हैं लेकिन उन्होंने इसे कभी भी इस अक्षमता को अपने पैशन के आड़े नहीं आने दिया. वे अपने पैरों से लिखती हैं. जब वे पीसीएस लोअर की परीक्षा देने पहुंचीं तो उन की हिम्मत देख कर सभी हैरान रह गए. पुष्पा स्कूलटीचर हैं, लेकिन उन का सपना प्रशासनिक अधिकारी बनने का है. प्रशासनिक अधिकारी बन कर पुष्पा समाज में बदलाव लाना चाहती हैं.

अभिनेत्री सुधा चंद्रन ने भी तब हार नहीं मानी थी जब एक दुर्घटना में उन की एक टांग काटनी पड़ी थी. मशहूर नृत्यांगना के लिए पैरों की क्या अहमियत होती है, इसे सिर्फ एक डांसर ही समझ सकता है. सुधा की हिम्मत ही थी कि उन्होंने कृत्रिम पैर के साथ न सिर्फ अपने डांस और अभिनय के जनून को जिंदा रखा बल्कि फिल्म ‘नाचे मयूरी’ में नृत्य प्रतिभा से सब को सकते में डाल दिया.

पैरा ओलिंपिक प्रतियोगिताओं में देखिए, किस तरह से दिव्यांग खिलाड़ी अपनी लगन और प्रैक्टिस से दुनियाभर के खेलों में अपने देश का नाम रोशन कर रहे हैं.

शादी के बाद एक नई शुरुआत

कई बार महिलाओं के सपने इस बात पर दम तोड़ देते हैं कि अब वे मां बन गई हैं और शरीर में वह बात नहीं रही जो शादी से पहले होती है. जबकि यह तथ्य बिलकुल फुजूल है. हैल्थ एक्सपर्ट मानते हैं कि शादी के बाद या मां बनने के बाद एक औरत का शरीर कमजोर नहीं होता बल्कि और मजबूत हो जाता है.

उत्तर प्रदेश के मथुरा की ताइक्वांडो चैंपियन नेहा की कहानी उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है जो शादी के बाद यह मान लेती हैं कि उन का कैरियर ही खत्म हो गया है. नेहा ने न सिर्फ शादी के बाद पढ़ाई की, बल्कि अपनी मेहनत के दम पर नैशनल ताइक्वांडो प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल भी हासिल किया. अगर नेहा शादी के बाद ताइक्वांडो चैंपियन हो सकती है तो कोई भी महिला शादी के बाद जो चाहे, वह कर सकती है.

दरअसल, शादी के बाद एक नई शुरुआत हो सकती है अपना हर वह हुनर आजमाने के लिए, जो शादी के पहले किन्हीं कारणों से अधूरा रह गया था. केरल की 70 वर्षीय दिलेर और जुझारू मीनाक्षी अम्मा को ही देख लीजिए. इस उम्र में औरतें अपने नातीपोतों के साथ घर पर अपना बुढ़ापा गुजारती हैं जबकि मीनाक्षी अम्मा मार्शल आर्ट कलारीपयटूट का निरंतर अभ्यास करती हैं.

कलारीपयटूट तलवारबाजी और लाठियों से खेला जाने वाला केरल का एक प्राचीन मार्शल आर्ट है. इस कला में वे इतनी पारंगत हैं कि अपने से आधी उम्र के मार्शल आर्ट योद्घाओं के छक्के छुड़ाने का दम रखती हैं.

वे कहती हैं, ‘‘आज जब लड़कियों के देररात घर से बाहर निकलने को सुरक्षित नहीं समझा जाता और इस पर सौ सवाल खड़े किए जाते हैं, कलारीपयटूट ने उन में इतना आत्मविश्वास पैदा कर दिया है कि उन्हें देररात भी घर से बाहर निकलने में किसी प्रकार की झिझक या डर महसूस नहीं होता.’’ उन्हें प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है.

फैसला होने से पहले क्यों हार मानूं

उपरोक्त महिलाओं की उपलब्धिभरे आंकड़े और मिसालों भरे प्रेरणादायक किस्से इस तथ्य को पुष्ट कर रहे हैं कि उत्साह, लगन, संकल्प बना रहे तो किसी भी उम्र या स्थिति में कोई भी हुनर सीखा और उस में निपुण हुआ जा सकता है. कुछ पाने की तमन्ना हो, सकारात्मक सोच हो तो हम अपने जीवन को सफल व सार्थक बना सकते हैं. फिर चाहे पति, पिता और बेटे सपोर्ट करें या उपहास करें, महिलाओं को जो करना है उन्हें करने से कोई नहीं रोक सकता.

उम्र को थामना किसी के भी वश में नहीं है, इसलिए बढ़ती उम्र का हवाला दे कर अपने सपनों को बीच राह में छोड़ना तार्किक नहीं है. इन तमाम महिलाओं की तरह अपनी हर अक्षमता, उम्रदराजी, हालात और मजबूरियों के पहाड़ों को पार कर के ही महिला सशक्तीकरण के नए आयाम रचे जा सकते हैं. और इस चुनौती में अगर घर, समाज, परिवार उपहास करता है, राह में कांटे बिछाता है तो बिना किसी के सहारे भी आप अकेली काफी हैं.

‘फैसला होने से पहले, मैं भला क्यों हार मानूं. जग अभी जीता नहीं है, मैं अभी हारा नहीं हूं…’ ये पंक्तियां इशारा करती हैं कि हमें लोग क्या कहेंगे और इस उम्र में हम क्या करेंगे, जैसे बहानों को पीछे छोड़ कर तब तक संघर्ष और मेहनत करो जब तक अपनी मंजिल न पा लो.

बीड़ीसिगरेट के धुएं में दम तोड़ती जिंदगी

आप जानते हैं कि बीड़ीसिगरेट पीने के चलते भारत में हर साल 10 लाख लोगों की जानें चली जाती हैं? नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे 4 के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2015 में 13 राज्यों में कराए गए सर्वे में यह बात सामने आई कि तंबाकू खाने वालों की तादाद 47 फीसदी है.

दुनियाभर में तकरीबन 60 लाख लोग हर साल तंबाकू की बलि चढ़ते हैं, जिन में से 10 फीसदी यानी 6 लाख लोग नौनस्मोकर होने के बावजूद पैसिव स्मोकिंग का शिकार होते हैं.

नयति सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, मथुरा द्वारा कराई गई एक रिसर्च के मुताबिक, अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तकरीबन 21 फीसदी आबादी तंबाकू की लत की शिकार है. यह भी पाया गया है कि 45 साल या इस से ज्यादा की उम्र के लोगों में तंबाकू का प्रयोग आम है, जबकि नौजवान पीढ़ी धूम्रपान की गिरफ्त में है. धूम्रपान करने वाली 55 फीसदी आबादी की उम्र 25 से 45 साल के बीच पाई गई.

दिल्ली के बीएलके सुपर स्पेशलिटी अस्पताल की डाक्टर तपस्विनी शर्मा के मुताबिक, तंबाकू की लत ओरल कैविटी, कंठ नली, ग्रास नली, पेनक्रियाज, आंत और किडनी व फेफड़ों के कैंसर की वजह बनती है.

तंबाकू की लत का सीधा संबंध सभी तरह के कैंसर से होने वाली तकरीबन 30 फीसदी मौतों से होता है. बीड़ीसिगरेट पीने वाले ऐसा नहीं करने वालों की तुलना में औसतन 15 साल पहले मौत के मुंह में चले जाते हैं. सिगरेट, पाइप, सिगार, हुक्का पीने और तंबाकू चबाने व सूंघने जैसे तंबाकू सेवन के दूसरे तरीके खतरनाक होते हैं.

तंबाकू में मौजूद निकोटिन दिमाग में डोपामाइन व एंड्रोफाइन जैसे कैमिकलों का लैवल बढ़ा देता है, जिस से इस की लत लग जाती है. ये कैमिकल मजे का एहसास कराते हैं और इसलिए तंबाकू पीने या चबाने की तलब बढ़ जाती है. अगर कोई शख्स इस लत को छोड़ना भी चाहता है, तो उसे चिड़चिड़ाहट, बेचैनी, तनाव और एकाग्रता की कमी जैसी परेशानियों से गुजरना पड़ता है.

तंबाकू और तंबाकू के धुएं में तकरीबन 4 हजार तरह के कैमिकल पाए जाते हैं, जिन में से 250 कैमिकल जहरीले होते हैं और 60 केमिकल कैंसर के होने की वजह बनते हैं.

तंबाकू का धुआं खून की नलियों को सख्त बना देता है, जिस से हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है. इस में कार्बनमोनोआक्साइड तत्त्व भी होता है, जो खून में आक्सिजन की मात्रा घटा देता है.

आमतौर पर सिगरेट नहीं पीने वालों के मुकाबले सिगरेट पीने वालों में कोरोनरी आर्टरी संबंधी बीमारियों से होने वाली मौत की दर 70 फीसदी ज्यादा रहती है.

बीड़ीसिगरेट पीने की लत के चलते औरतें समय से पहले ही बच्चे को जन्म दे देती हैं या उन्हें बारबार बच्चा गिरने की समस्या से जूझना पड़ता है. साथ ही, मरा हुआ बच्चा पैदा होना या बच्चे के कम वजन होने का खतरा रहता है.

बीड़ीसिगरेट पीने के चलते मर्दों में फेफड़े के कैंसर के 90 फीसदी मामले हैं, जबकि औरतों में 80 फीसदी मामले देखे गए हैं. तंबाकू का धुआं नौनस्मोकरों खासकर बच्चों के लिए भी खतरनाक होता है.

society

बीड़सिगरेट पीने वाला कोई शख्स न सिर्फ खुद की सेहत को खतरे में डालता है, बल्कि अपने आसपास मौजूद लोगों, मसलन काम करने वालों और परिवार के दूसरे सदस्यों की जिंदगी भी खतरे में डाल देता है.

बीड़ीसिगरेट पीने की लत अमूमन किशोरावस्था में ही लगती है और जवान होतेहोते लोग इस के आदी हो जाते हैं. इस की लत की चपेट में आने वालों को इस बात का एहसास नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं या किस चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं.

ऐसे छोड़ें तंबाकू की लत

अगर एक बार किसी को तंबाकू की लत लग जाती है, तो इसे छोड़ पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. उसे सिरदर्द, नींद न आना, तनाव, बेचैनी, हाथपैर कांपने और भूख न लगने की शिकायत या खून की उलटी होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

लेकिन कुछ तरीके ऐसे हैं, जिन को अपनाने से इस लत से छुटकारा पाने में मदद मिल सकती है:

– तंबाकू छोड़ने के लिए सब से जरूरी है कि इसे छोड़ने का पक्का फैसला करें.

– तंबाकू एक झटके में छोड़ना मुश्किल है. धीरेधीरे मात्रा कम करते हुए छोड़ें.

-अपने दोस्तों, परिचितों व रिश्तेदारों को भी बता दें कि आप ने नशा छोड़ दिया है और वे आप को नशा करने के लिए मजबूर न करें.

-अपने पास सिगरेट, तंबाकू, गुटका, माचिस वगैरह रखना छोड़ दें.

-जब आप खुद को सारा दिन मसरूफ रखते हैं, तो आप का ध्यान तंबाकू की तरफ जाएगा ही नहीं.

-अच्छा खानपान और समय पर आराम जैसी बातों का खयाल रखें.

-नशा करने वाले दोस्तों की संगत छोड़ दें.

-तंबाकू छोड़ने के लिए आप बिना शुगर वाली चुइंगम चबाते रहें, फिर आप को तंबाकू की तलब नहीं लगेगी.

-जब भी सिगरेट पीने की इच्छा हो, तो जीभ पर थोड़ा नमक रख लें.

डाक्टर तपस्विनी शर्मा कहती हैं कि बीड़ीसिगरेट पीने से छुटकारा पाने के लिए दवाएं और व्यवहार थैरैपी भी इलाज करने का एक रास्ता हो सकता है. जागरूकता बढ़ाने के लिए एक मजबूत एंटीस्मोकिंग मीडिया कैंपेन अच्छा प्लेटफौर्म हो सकता है.

स्कूलों में धूम्रपान न करने की सीख भी दी जानी चाहिए. अपने घरों, सार्वजनिक जगहों पर बीड़ीसिगरेट पीने या तंबाकू खाने पर बैन करने जैसी सामाजिक पहल से जागरूकता बढ़ाई जा सकती है.

वैसे, सरकार ने नाबालिगों को धूम्रपान, तंबाकू और गुटके के नुकसान से बचाने के लिए इन्हें बेचना गंभीर अपराध घोषित किया है. दिसंबर, 2015 में भारतीय संसद में पास हुए नए जुवैनाइल जस्टिस ऐक्ट में किसी नाबालिग को तंबाकू या उस से संबंधित चीजें बेचना दंडनीय अपराध माना जाएगा और कुसूरवार को 7 साल तक की जेल व एक लाख रुपए तक का जुर्माना लगेगा.

भ्रामक उपचार का प्रचार : शर्तिया इलाज के साइड इफैक्ट

पिछले कुछ सालों से बाजारवाद के चलते जनता सेहत के प्रति बहुत जागरूक हुई है. जागरूक होना अच्छी पहल है, लेकिन इस जागरूकता के पीछे बाजारवाद का होना खतरनाक है.

टैलीविजन चैनलों पर देशी नुसखे और 100 फीसदी फायदे की गारंटी के साथ इश्तिहार दिखाए जाते हैं. इन में 7 दिनों में सिर पर बाल आना, 10 दिनों में डायबिटीज की बीमारी ठीक होना और 7 दिनों में चेहरे की झुर्रियां गायब कर देने की देशी दवाएं बताई जाती हैं. बाद में एक बात कही जाती है कि

इसे सब्सक्राइब करें यानी इन का यह सब्सक्राइब हजार से ऊपर होने पर चैनल उस पर उसी हिसाब से इश्तिहार डालता है और हर इश्तिहार की कमाई का एक बड़ा हिस्सा फर्जी लोगों के पास चला जाता है.

कुछ लोगों के इंटरव्यू भी दिखाए जाते हैं. उसी के साथ एक झूठी कहानी भी बताई जाती है कि किस तरह अफ्रीका के घने जंगलों में फलां फल को खोजा गया और उस का इस्तेमाल किया गया, जिस से शर्तिया फायदा मिल गया.

कौन सा फल? उस के रासायनिक गुण क्या हैं? उस के साइड इफैक्ट क्या हैं? इस बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है, जो ड्रग ऐेंड कंट्रोल के कायदे के मुताबिक कंपनी द्वारा बताया जाना जरूरी है.

पिछले दिनों शुगर की बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए एक ऐसा ही तकरीबन 2,000 रुपए का प्रोडक्ट आया. हैरानी की बात यह है कि उसे लाखों लोगों ने खरीदा, जिस से कंपनी करोड़पति बन गई. पर उस प्रोडक्ट में जो दवाएं मिलाई गई थीं वे कितनी मात्रा में थीं, इस का कहीं भी जिक्र नहीं था और उस का भी प्रचार अफ्रीका के जंगलों और हिमालय पर्वत की घाटियों से लाई गई जड़ीबूटियों के नाम से किया गया था.

न तो 7 दिनों में झुर्रियां जाती हैं और न ही सिर पर 7 दिनों में बाल उगते हैं, लेकिन चैनल पर बैठे वैद्य या डाक्टर खुद के मरीजों द्वारा फायदा दिए जाने की दुहाई देते हैं और आखिर में यह कहते सुनाई देते हैं कि इस जानकारी को जनहित में प्रचारित कीजिए, जितने लाइक और सब्सक्राइब बढ़ेंगे, चैनल पर उस के भाव और बढ़ेंगे, लेकिन इस नीमहकीमी से जो परेशानियां होंगी उन्हें कैसे दूर करना है, इस का कोई जिक्र नहीं होता है.

कुछ कंपनियों के बनाए सामान को आप नहीं जानते हैं, जबकि उन की कीमत लोकल ब्रांडेड कंपनियों के बनाए गए सामान से 50 से 80 गुना ज्यादा होती है. आप को सिर्फ फोन करना होता है, दवा घर पहुंच जाती है. अगर वीपीआर नहीं छुड़वाया तो उन्हें कुछ नुकसान नहीं होता है क्योंकि पहले ही वे कई गुना ज्यादा किसी से वसूल चुके होते हैं, इसलिए अपनी सेहत से खिलवाड़ न करें. आप के फैमिली डाक्टर जो सलाह दें उसी के मुताबिक दवाओं का सेवन करें.

अगर टैलीविजन चैनल की दवा खाने से कुछ साइड इफैक्ट हो गया तो आप भी परेशान होंगे और आप का डाक्टर भी.

बहुत सी दवाओं का ऐंटी डोज दवा में रखे कागज पर होता है लेकिन इन  दवाओं का ऐंटी डोज क्या लेना है, ऐसा कुछ लिखा नहीं होता है. ये लोग अपना सामान बेच कर कई गुना फायदा कमाते हैं, ऊपर से इश्तिहार से भी आमदनी हासिल करते हैं. नुकसान में ग्राहक ही रहते हैं जो रुपयों के अलावा सेहत भी खोते हैं, इसलिए टैलीविजन चैनल पर घर बैठे शर्तिया इलाज के उपयोग से बचें और अपनी सेहत को महफूज रखें.

लड़कियों की कमी के चलते शादियां अटकीं

देश बदल रहा है. शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी अब शादी के लिए लड़कियों की कमी होने लगी है. इस से लड़कों की शादियां अटक रही हैं. ज्यादातर परिवारों में लड़कियों की तादाद कम होने लगी है. एक लड़की या एक लड़के से ही परिवार पूरा होने लगा है. गांवों में रहने वाले परिवार अब शहरों में पहुंच गए हैं. ऐसे में आम परिवार की लड़कियां स्कूल जाने लगी हैं.

गांव के किसी स्कूल को देखेंगे तो साफ हो जाएगा कि वहां पढ़ने वालों में लड़कियों की तादाद ज्यादा होती जा रही है. ऐसे में अब मांबाप अपनी लड़कियों की शादियां करने के लिए लड़के को ही नहीं बल्कि उस के परिवार की माली हालत को भी देखते परखते हैं. ऐसे में कम काबिल लड़कों की शादियां नहीं हो रही हैं. उत्तर भारत के कुछ राज्यों खासतौर पर हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लड़कों के सामने ऐसे हालात बनने लगे हैं.

ऐसे में ये लड़के दूर के प्रदेशों से खरीद कर लड़कियां लाते हैं और उन से शादी कर लेते हैं. गैर प्रदेशों से लाई गई लड़कियों में यह सुविधा रहती है कि वे इन के पास गुलामों की तरह रहती हैं.

दरअसल, उत्तर भारत के ये प्रदेश मर्दवादी सोच से प्रभावित होते हैं. वे औरतों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते. इस वजह से उन के लिए खरीद कर लाई गई लड़कियां शादी के लिए सब से उपयोगी होती हैं.

खरीद कर लाई लड़कियों से शादी करने वालों में ऐसे लोग भी होते हैं जो कम उम्र में शादी करने के बाद अकेले हो गए. उन में से कुछ का पत्नी से विवाद हो गया या पत्नी छोड़ कर चली गई या फिर पत्नी की मौत हो गई. ऐसे में दूसरी शादी के लिए खरीद कर लाई गई लड़कियां उन्हें सही लगती हैं.

इस तरह के लड़कों में हर जाति और धर्म के लोग हैं. सब से ज्यादा खराब हालत पिछड़ी जातियों की है. पिछड़ी जातियों की रोजीरोटी पहले खेती पर ही टिकी होती थी. आज भी ये परिवार खेती पर ही टिके हैं. पर अब खेती में मुनाफा कम होने लगा है. ये परिवार खेती को छोड़ कर शहरों में बस रहे हैं. ऐसे में ये काफी गरीब होते जा रहे हैं. अब इन परिवारों के लड़कों को लड़की खरीद कर शादी करना आसान लगने लगा है.

हरियाणा और पंजाब में कई सालों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर ऐसे मामले तभी सामने आते हैं जब किसी तरह का कोई झगड़ा हो या फिर मामला पुलिस तक पहुंच जाए.

आमतौर पर खरीदी गई लड़की से शादी करने वाले लोग समाज के सामने इस बात को नहीं मानते हैं कि लड़की खरीदी गई है. ये लोग चोरीछिपे शादी करते हैं. लड़की को अपने घरोें में छिपा कर रखते हैं.

ये लोग शादी के लिए ऐसी लड़की पसंद करते हैं जो इन के जैसी दिखती हो. यही वजह है कि दक्षिण भारत के प्रदेशों की लड़कियों को यहां नहीं लाया जाता. पश्चिम बंगाल और असम की जगह बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की लड़कियां ज्यादा पसंद की जाती हैं. वहां की लड़कियां हिंदी बोल और समझ लेती हैं. उन का रंग भी साफ होता है. ऐसे में कुछ ही दिनों में वे यहां का रहनसहन सीख कर परिवार के बीच हिलमिल जाती हैं. समाज को यह बताना आसान होता है कि वह किसी दूर के रिश्तेदार की लड़की है.

यही वजह है कि लड़की खरीद कर शादी करने के मामले में बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की लड़कियां ज्यादा डिमांड में होती हैं. दूसरा पहलू यह भी है कि शादी के नाम पर खरीदी गई लड़कियों में बहुत सी कई बार आगे बेच दी जाती हैं, जो जिस्मफरोशी के बाजार में पहुंच जाती हैं.

जानकार मानते हैं कि पहले बेची गई लड़कियां केवल जिस्मफरोशी के बाजार में ही जाती थीं, पर अब वे शादी कर के दुलहन भी बनने लगी हैं. लड़की के परिवार के लिए यह माने नहीं रखता कि वह कहां जा रही है. वे तो गरीबी से छुटकारा पाने के लिए अपनी लड़की को बेचने की कोशिश करते हैं. ऐसे ज्यादातर मामले सामने नहीं आते.

निशाने पर गरीब प्रदेश

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में कुनकुनी थाने में एक आदिवासी लड़की ने शिकायत दर्ज कराई कि उसे नौकरी दिलाने के नाम पर ओडिशा ले जाया गया. वहां उस से जबरन शादी कर के बाद में जिस्मफरोशी के धंधे में उतार दिया गया.

पता चला कि यह ऐसी अकेली घटना नहीं है, बल्कि तमाम लड़कियों को नौकरी के नाम पर बाहर ले जाया जाता है और वहां उन को शादी का झांसा दे कर फंसाया जाता है.

छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि ओडिशा, आंध्र प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश और बिहार राज्यों से लड़कियों को किसी न किसी तरह का लालच दे कर दूसरे राज्यों में ले जाया जाता है, जहां पर वे नौकरी करने जाती हैं.

इस के बाद इन लड़कियों को शादी से ले कर जिस्मफरोशी तक के जाल में फंसा दिया जाता है. कई बार ऐसी लड़कियां घरेलू नौकरानी बन कर जोरजुल्म का शिकार होती हैं.

उत्तर भारत के कुछ राज्यों जैसे हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में लड़कियों की कमी है. कई नौजवानों की तो लड़कियों की कमी की वजह से शादियां अटकी होती हैं. ऐसे में वे लोग गरीब और आदिवासी प्रदेशों से लड़कियों की खरीदारी करते हैं.

गरीब और आदिवासी प्रदेशों में कई ऐसी प्लेसमैंट एजेंसियां हैं जो नौकरी दिलाने के नाम पर लड़कियों को दूसरे प्रदेशों में भेजती हैं. ये प्लेसमैंट एजेंसियां अब नौकरी के बजाय शादी के लिए लड़कियों को बाहर भेजने लगी हैं.

ये लोग लड़कियों के घर वालों को समझाते हैं कि लड़की नौकरी के लिए जा रही है. इस के बदले में उन को कभीकभी एकमुश्त और कभीकभी हर महीने पैसे पाने का लालच दिया जाता है.

बड़े शहरों में जाने वाली लड़कियां घरेलू नौकरी करती हैं या फिर जिस्मफरोशी के बाजार में पहुंच जाती हैं. अब छोटेबड़े शहरों के साथसाथ गांव और कसबों में यहां की लड़कियां जाने लगी हैं. ये लोग शादी के नाम पर लड़कियों को ले जाते हैं. असल में इन जगहों पर अब लड़कियों की कमी होने लगी है.

बेरोजगार, नशेड़ी और बिगड़ैल किस्म के लड़कों को अपने समाज की अच्छी लड़कियां शादी के लिए नहीं मिल रही हैं. ऐसे में गरीब लड़कियों को खरीद कर शादी करना उन की मजबूरी हो गई है.

गरीबी है वजह

शादी के लिए खरीद कर आने वाली लड़कियां गरीब परिवारों से होती हैं. वे शादी के बाद हर तरह का जोरजुल्म सहने को तैयार होती हैं. कम उम्र की लड़कियां बड़ी उम्र के मर्दों के साथ शादी करने को तैयार हो जाती हैं. इन मर्दों को अपने समाज की लड़कियां नहीं मिलतीं.

गरीब प्रदेशों की रहने वाली लड़कियों के मातापिता कुछ हजार रुपयों के लालच में अपनी लड़की बाहर भेज देते हैं. उन को इस बात का सुकून होता है कि उन की लड़की भूखी नहीं मरेगी और उन को भी कुछ पैसे मिल जाएंगे. इस काम में लड़की के परिवार को तैयार करने का काम वहां उन के ही समाज के लोग और नातेरिश्तेदार करते हैं.

असम से आई एक लड़की लखनऊ के एक परिवार में रहती है. वह सही से हिंदी भी नहीं बोल पाती है. पहले यह लड़की एक घरेलू नौकर बन कर आई थी, बाद में वहीं एक आदमी उस से शादी करने को तैयार हो गया.

वह लड़की बताती है, ‘‘मेरे घर में रहने के लिए एक छप्पर भी सही तरह का नहीं था. साल में कुछ महीने ही हम भरपेट खाना खाते थे. मेरी 5 बहनें हैं. मेरी बड़ी बहन कोलकाता गई थी. वहां से जो पैसे मिले उस से एक छप्पर वाला मकान बना था.

‘‘जब मैं बड़ी हुई तो मेरे एक रिश्तेदार ने मुझे यहां भेज दिया. मैं सालभर में कुछ पैसे अपने घर भेजती थी. 3 साल में मैं ने यहां का रहनसहन सीख लिया. अब कुछकुछ हिंदी बोल लेती हूं.

‘‘जब मैं यहां आई थी तब मेरी उम्र 14 साल थी. मेरे मालिक बहुत अच्छे थे. मेरे पति उन के घर आतेजाते थे. उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि वे मुझ से शादी करना चाहते हैं. इन 4 सालों में मैं अपने घर कभी नहीं गई. मेरे घर वाले शुरू में कभीकभी मेरे बारे में पूछते भी थे, पर अब कोई नहीं आता. जो पैसे मैं उन्हें भेजती थी, यह भी नहीं पता कि वे उन तक पहुंचते भी थे या नहीं. हो सकता है कि अब मेरी छोटी बहन को भी कहीं भेज दिया हो.

‘‘मैं ने शादी की बात मान ली. मैं शादी कर के बहुत खुश हूं. मेरे लिए शादी के साथ घरपरिवार का मिलना ही बड़ी बात है. मेरे लिए पति की उम्र का कुछ साल बड़ा होना माने नहीं रखता. यहां लोग बोलते हैं कि खरीद कर लाई लड़की से शादी हुई है.

‘‘यह सुन कर अजीब लगता है. पर यह उस दुख से काफी बेहतर है जो गरीबी में अपने परिवार में सहन करने पड़े थे. घरेलू नौकर से अब मैं शादीशुदा हो गई. मुझे एक पहचान मिल गई. मैं बाकी बातें भी भूल जाऊंगी और धीरेधीरे बाकी लोग भी शायद भूल जाएंगे.

‘‘गरीब लड़कियों के लिए देह धंधे के दलदल में जाने से बेहतर है कि वे किसी जरूरमंद से शादी कर के उस का घर बसा दें.’’

कई बार बिकती हैं

छत्तीसगढ़ में अपनी संस्था के साथ आदिवासी इलाकों में काम कर रहे समाजसेवी दीनानाथ कहते हैं, ‘‘लड़की के घर वालों को केवल पैसों से मतलब होता है. जहां ज्यादा पैसा मिलता है, वे वहां लड़की भेजने को तैयार हो जाते हैं. हम लोग भी इन बातों को समझते हैं.

‘‘हम लड़कियों के मांबाप को समझाते हैं कि नौकरी के नाम पर भेजने से अच्छा है कि शादी के लिए लड़की को भेज दो. शादी कम से कम 18 साल की उम्र में होती है. मांबाप इस उम्र तक लड़की को घर में रख ही नहीं पाते.

‘‘यहां की लड़कियां ज्यादा से ज्यादा 13 से 15 साल की उम्र में ही बाहर चली जाती हैं. कुछ मांबाप तो 10 साल की उम्र में ही लड़की को बाहर भेजने को तैयार हो जाते हैं.

‘‘ऐसे में कई परिवार अपने लड़के से आधी उम्र की लड़की को ले जाते हैं, फिर कुछ सालों के बाद उन की शादी करा देते हैं. शादी की उम्र होने तक कई बार तो ये लड़कियां कईकई बार बिक चुकी होती हैं.

‘‘सैक्स के नाम पर इन्हें तरहतरह के समझौते करने पड़ते हैं. एक रात में कईकई ग्राहकों को खुश करना पड़ता है. कुछ ही सालों में ये बूढ़ी हो जाती हैं. उन्हें जिंदगी में कभी घरपरिवार का सुख नहीं मिलता, जबकि खरीदी गई दुलहन को शादी के बाद हर सुख मिलता है. ऐसे में शादी के लिए बिकना ज्यादा पसंद किया जा रहा है.’’

छत्तीसगढ़ सरकार ने प्राइवेट प्लेसमैंट एजेंसी ऐक्ट 2013 तैयार किया है. अगस्त, 2014 में इसे लागू भी किया गया. इस के बाद भी अभी तक प्लेसमैंट एजेंसियां अपनी तरह से ही काम कर रही हैं. वे अब मानव तस्करी के अड्डे बन गई हैं.

लड़कियों की खरीदफरोख्त के मामले में पश्चिम बंगाल पहले, ओडिशा दूसरे और छत्तीसगढ़ तीसरे नंबर पर आता है.

एक निजी संस्था द्वारा किए गए सर्वे से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ का जशपुर इलाका लड़कियों की खरीदफरोख्त का बहुत बड़ा अड्डा बन गया है. जिले से हर साल तकरीबन 7 हजार लड़कियों को बड़े शहरों में खरीदाबेचा जाता है.

267 गांवों के सर्वे में यह भी सामने आया है कि 70 फीसदी लड़कियां नाबालिग थीं. बाकी भी 18 साल के आसपास थीं. लड़कियों के बेचने में उन के जानपहचान वाले होते हैं. लड़कियों के मांबाप को भी यह पता होता है कि अब लड़की को वापस नहीं आना है.ऐसे में वे एकमुश्त पैसे लेने का काम करते हैं.

शादियों से बदले हालात

समाजसेवी दीनानाथ कहते हैं, ‘‘पहले जहां लड़कियां केवल बिकने के बाद जिस्मफरोशी के बाजार में जाती थीं, वहीं अब वे शादी के लिए भी खरीदी जाने लगी हैं. ऐसे में गरीब लड़कियां इज्जत भरी जिंदगी गुजरबसर करने लगी हैं.’’

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