जिंदगी के रंग (अंतिम भाग)

पूर्व कथा

काम की तलाश में भटकती एक लड़की कालोनी के घरों में जा कर काम मांगती है तो सभी डांटडपट कर भगा देते हैं. अंत में वह एक कोठी में जाती है तो एक प्रौढ़ महिला श्रीमती चतुर्वेदी उस का नामपता पूछती हैं तो वह अपना नाम कमला बताती है और उन के घर कमला को काम मिल जाता है.

कुछ घंटे बाद कमला बाहर जाने की अनुमति मांगती है ताकि वह अपना सामान ले कर आ सके तो श्रीमती चतुर्वेदी उसे जाने की इजाजत दे देती हैं. शाम को श्रीमती चतुर्वेदी की बेटियां और पति आफिस से आते हैं तो नई काम वाली को देख खुश होते हैं और उस की जांचपड़ताल के बारे में श्रीमती चतुर्वेदी से पूछते हैं. श्रीमती चतुर्वेदी उसे स्टोर रूम में रहने की जगह देती हैं. बिस्तर पर लेटते ही अतीत की यादें ताजा हो जाती हैं.

आज की नौकरानी कल की डा. लता थी. पीएच.डी. करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर के पद के लिए आवेदन किया था. लेकिन एक रात कुछ अज्ञात लोग उस के घर में घुस आते हैं और सब को मार देते हैं पर लता को छोड़ देते हैं. वह तड़के ही अपनी जान बचा कर वहां से भाग जाती है और मुंबई आ जाती है काम की तलाश में.

और अब आगे…

एक बार सविता से मिलने उस की मामी होस्टल में आई थीं तो उन से लता की भी अच्छी जानपहचान हो गई थी. उस ने योजना बनाई कि धर्मशाला में सामान रख कर पहले वह सविता की मामी के यहां जा कर बात करेगी, क्योंकि उस ने मुंबई विश्वविद्यालय के फार्म पर मुरादाबाद का पता लिखा है और वहां के पते पर इंटरव्यू लेटर जाएगा तो इस की सूचना उसे किस तरह मिलेगी.

टे्रन से उतरने के बाद लता स्टेशन से बाहर आई और कुछ ही दूरी पर एक धर्मशाला में अपने लिए कमरा ले कर थैले में से उस डायरी को निकालने लगी जिस में सविता की मामी का पता उस ने लिख रखा था. फिर उस किताब में से रुपए ढूंढ़े और सविता की मामी के घर पहुंच गई.

मामी के सामने अपनी असलियत कैसे बताती इसलिए उस ने कहा कि उस की मुंबई में नौकरी लग गई है, लेकिन स्थायी पते का चक्कर है इसलिए मैं आप के घर का पता विश्वविद्यालय में लिखा देती हूं.

वहां से लौट कर काम की तलाश करते लता को श्रीमती चतुर्वेदी ने काम पर रख लिया था. वैसे लता मुंबई में किसी प्राइवेट कालिज में कोशिश कर के नौकरी पा सकती थी, पर एक तो प्राइवेट कालिजों में तनख्वाह कम, ऊपर से किराए का मकान ले कर रहना, खाने का जुगाड़, बिजली, पानी का बिल चुकाना, यह सब उस थोड़ी सी तनख्वाह में संभव नहीं था. दूसरे, वह अभी उस घटना से इतनी भयभीत थी कि उस ने 24 घंटे की नौकरानी बन कर रहना ही अच्छा समझा.

इस तरह लता से कमला बनी वह रोज सुबह उठ कर काम में लग जाती. दिन भर काम करती हुई उस ने बीबीजी और सभी घर वालों का मन मोह लिया था. कमला के लिए अच्छी बात यह थी कि वह लोग शाम का खाना 5 बजे ही खा लेते थे, इसलिए सारा काम कर के वह 7 बजे फ्री हो जाती थी.

काम से निबट कर वह अपने छोटे से कमरे में पहुंच जाती और फिर सारी रात बैठ कर इंटरव्यू की तैयारी करती. वैसे छात्र जीवन में वह बहुत मेहनती रही थी, इसलिए पहले से ही काफी अच्छी तैयारी थी. लेकिन फिर भी मुंबई विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति पाना और वह भी बिना किसी सिफारिश के बहुत ही मुश्किल था. वह तो केवल अपनी योग्यता के बल पर ही इंटरव्यू में पास होने की तैयारी कर रही थी. आत्मविश्वास तो उस में पहले से ही काफी था. दिल्ली विश्वविद्यालय में भी उस ने कितने ही सेमिनार अटेंड किए थे. अब तो वह बस, सारे कोर्स रिवाइज कर रही थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के घर 4 दिन उस के बहुत अच्छे गुजरे. 5वें दिन धड़कते दिल से उस ने पूछा, ‘‘आप ने क्या सोचा बीबीजी, मुझे काम पर रखना है या हटाना है?’’

बीबीजी और घर के सभी सदस्य उस के काम से खुश तो थे ही, इसलिए मालकिन हंसते हुए बोलीं, ‘‘चल, तू भी क्या याद रखेगी कमला, तेरी नौकरी इस घर में पक्की, लेकिन एक बात पूछनी थी, तू पूरी रात लाइट क्यों जलाती है?’’

‘‘वह क्या है बीबीजी, अंधेरे में मुझे डर लगता है, नींद भी नहीं आती. बस, इसीलिए रातभर बत्ती जलानी पड़ती है,’’ बड़े भोलेपन से उस ने जवाब दिया.

कभीकभी तो लता को अपने कमला बनने पर ही बेहद आश्चर्य होता था कि कोई उसे पहचान नहीं पाया कि वह पढ़ीलिखी भी हो सकती है. एक दिन तो उस की पोल खुल ही जाती, पर जल्दी ही वह संभल गई थी.

हुआ यह कि मालकिन की छोटी बेटी, जो बी.एससी. कर रही थी, अपनी बड़ी बहन से किसी समस्या पर डिस्कस कर रही थी, तभी कमला के मुंह से उस का समाधान निकलने ही वाला था कि उसे अपने कमलाबाई होने का एहसास हो गया.

अब तो मालकिन उस से इतनी खुश थी कि दोपहर को खुद ही उस से कह देती थी कि तू दोपहर में थोड़ी देर आराम कर लिया कर.

कमला को और क्या चाहिए था. वह भी अब दोपहर को 2 घंटे अपनी स्टडी कर लेती थी. इतना ही नहीं उसे कमरे में एक सुविधा और भी हो गई थी कि रोज के पुराने अखबार ?मालकिन ने उसे ही अपने कमरे में रखने को कह दिया था. इस से वह इंटरव्यू की दृष्टि से हर रोज की खास घटनाओं के संपर्क में बनी रहने लगी थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के यहां काम करते हुए कमला को अब 2 महीने हो गए. एक दिन बीबीजी की तबीयत अचानक अधिक खराब हो गई, लगभग बिस्तर ही पकड़ लिया था उन्होंने. उस दिन बीमार मालकिन को दिखाने के लिए घर के सभी लोग अस्पताल गए थे, तभी टेलीफोन की घंटी बजी, फोन सविता की मामी का था.

‘‘हैलो लता, तुम्हारा साक्षात्कार लेटर आ गया है, 15 दिन बाद इंटरव्यू है तुम्हारा. कहो तो इंटरव्यू लेटर वहां भिजवा दूं.’’

मामी को उस समय टालते हुए कमला ने कहा, ‘‘नहीं, मामीजी, आप भिजवाने का कष्ट न करें, मैं खुद ही आ कर ले लूंगी.’’

इंटरव्यू से 2 दिन पहले कमला ने मालकिन से बात की, ‘‘बीबीजी, परसों 15 सितंबर को मुझे छुट्टी चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ श्रीमती चतुर्वेदी बोलीं.

‘‘ऐसा है, बीबीजी, मेरी दूर के रिश्ते की बहन यहां रहती है, जब से आई हूं उस से मिल नहीं पाई. 15 सितंबर को उस की लड़की का जन्मदिन है, यहां हूं तो सोचती हूं कि वहां हो आऊं.’’

फिर बच्चे की तरह मचलते हुए बोली, ‘‘बीबीजी उस दिन तो आप को छुट्टी देनी ही पड़ेगी.’’

15 सितंबर के दिन एक थैला ले कर कमला चल दी. वह वहां से निकल कर उसी धर्मशाला में गई और वहां कुछ देर रुक कर कमला से लता बनी.

काटन की साड़ी पहन, जूड़ा बना कर, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर, हाथ में फाइल और थीसिस ले कर जब उस ने वहां लगे शीशे में अपने को देखा तो जैसे मानो खुद ही बोल उठी, ‘वाह लता, क्या एक्ंिटग की है.’

सविता की मामी के पास से इंटरव्यू लेटर ले कर वह विश्वविद्यालय पहुंच गई. सभी प्रत्याशियों में इंटरव्यू बोर्ड को सब से अधिक लता ने प्रभावित किया था.

लौटते समय लता सविता की मामी से यह कह आई थी कि अगर उस का नियुक्तिपत्र आए तो वह फोन पर उसी को बुला कर यह खबर दें, किसी और से यह बात न कहें.

धर्मशाला में जा कर लता कपड़े बदल कर कमला बन गई और फिर मालकिन के घर जा कर काम में जुट गई थी. मन बड़ा प्रफुल्लित था उस का. अपने इंटरव्यू से वह बहुत अधिक संतुष्ट थी, इस से अच्छा इंटरव्यू हो ही नहीं सकता था उस का.

खुशी मन से जल्दीजल्दी काम करती हुई कमला से श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘सच कमला, तेरे बिना अब तो इस घर का काम ही चलने वाला नहीं है. इसलिए अब जब भी तुझे अपनी बहन के यहां जाना हुआ करे तो हमें बता दिया कर, हम मिलवा कर ले आया करेंगे तुझे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ इतना कह कर वह काम में लग गई थी.

एक दिन सविता की मामी ने फोन पर उसे बुला कर सूचना दी कि उस का चयन हो गया है, अपना नियुक्तिपत्र आ कर उन से ले ले.

अब वह सोचने लगी कि बीमार बीबीजी से इस बारे में क्या और कैसे बात करे, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि नौकरी ज्वाइन करने से पहले बीबीजी को यह बात बताए. उसे डर था कहीं कोई अडं़गा न आ जाए.

वहां से जा कर ज्वाइन करने का पूरा गणित बिठाने के बाद कमला बीबीजी से बोली, ‘‘बीबीजी, आज जब मैं सब्जी लेने गई थी, तब मेरी उसी बहन की लड़की मिली थी, उस ने बताया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है, इसलिए बीबीजी मुझे उस की देखभाल के लिए जाना पड़ेगा.’’

‘‘और यहां मैं जो बीमार हूं, मेरा क्या होगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? यह सब सोचा है तू ने,’’ बीबीजी नाराज होते बोलीं, ‘‘देख, तनख्वाह तो तू यहां से ले रही है, इसलिए तेरा पहला फर्ज बनता है कि तू पहले हम सब की देखभाल करे.’’

‘‘बीबीजी, आप मेरी तनख्वाह से जितने पैसे चाहे काट लेना, मेरी देखभाल के बिना मेरी बहन मर जाएगी, हां कर दो न बीबीजी,’’ अत्यंत दीनहीन सी हो कर उस ने कहा.

कमला की दीनता को देख कर बीबीजी को तरस आ गया और उन्होंने जाने के लिए हां कर दी.

सारी औपचारिकताएं पूरी करते हुए लता ने मुंबई विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया था. उसे वहीं कैंपस में स्टाफ क्वार्टर भी मिल गया था. आज उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. इन 5 दिन में सविता की मामी के पास ही रहने का उस ने मन बना लिया था.

जाते ही उसे एम.एससी. की क्लास पढ़ाने को मिल गई थी. क्लास में भी क्या पढ़ाया था उस ने कि सारे विद्यार्थी उस के फैन हो गए थे.

5 दिनो के बाद 3 दिन की छुट्टियों में डा. लता फिर कमलाबाई बन कर बीबीजी के घर पहुंच गई.

‘‘अरी, कमला, तू इस बीमार को छोड़ कर कहां चली गई थी. तुझे मुझ पर जरा भी तरस नहीं आया. कितना भी कर लो पर नौकर तो नौकर ही होता है, तुझे तो तनख्वाह से मतलब है, कोई अपनी बीबीजी से मोह थोड़े ही है. अगर मोह होता तो 5 दिनों में थोड़ी देर के लिए ही सही खोजखबर लेने नहीं आती क्या? अब मैं कहीं नहीं जाने दूंगी तूझे, मर जाऊंगी मैं तेरे बिना, सच कहे देती हूं मैं,’’ मालकिन बोले ही जा रही थीं.

कमला खामोश हो कर बीबीजी से सबकुछ कहने की हिम्मत जुटा रही थी. तभी शाम के समय चतुर्वेदीजी के एक मित्र घर आए. वह मुंबई विश्वविद्यालय में बौटनी विभाग के हेड थे और उस की ज्वाइनिंग उन्होंने ही ली थी. ड्राइंगरूम से ही बीबीजी ने आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘कमला, अच्छी सी 3 कौफी तो बना कर लाना.’’

‘‘अभी लाई, बीबीजी,’’ कह कर कमला कौफी बना कर जैसे ही ड्राइंगरूम में पहुंची, डा. भार्गव को देख कर उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे. लेकिन फिर भी वह अंजान ही बनी रही.

डा. भार्गव लता को देख कर चौंक कर बोले, ‘‘अरे, डा. लता, आप यहां?’’

‘‘अरे, भाई साहब, आप क्या कह रहे हैं, यह तो हमारी बाई है, कमला. बड़ी अच्छी है, पूरा घर अच्छे से संभाल रखा है इस ने.’’

‘‘नहीं भाभीजी, मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं, यह डा. लता ही हैं, जिन्होंने 5 दिन पहले मेरे विभाग में ज्वाइन किया है. डा. लता, आप ही बताइए, क्या मेरी आंखें धोखा खा रही हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप कैसे धोखा खा सकते हैं, मैं लता ही हूं.’’

‘‘क्या…’’ घर के सभी सदस्यों के मुंह से अनायास ही एकसाथ निकल पड़ा. सभी लता के मुंह की ओर देख रहे थे.

उन के अभिप्राय को समझ कर लता बोली, ‘‘हां, बीबीजी, सर बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’’ यह कहते हुए उस ने अपनी सारी कहानी सुनाते हुए कहा, ‘‘तो बीबीजी, यह थी मेरे जीवन की कहानी.’’

‘‘खबरदार, जो अब मुझे बीबीजी कहा. मैं बीबीजी नहीं तुम्हारी आंटी हूं, समझी.’’

‘‘डा. लता, वैसे आप अभिनय खूब कर लेती हैं, यहां एकदम नौकरानी और वहां यूनिवर्सिटी में पूरी प्रोफेसर. वाह भई वाह, कमाल कर दिया आप ने.’’

‘‘मान गई लता मैं तुम्हें, क्या एक्टिंग की थी तुम ने, कह रही थी कि मुझे लाइट बिना नींद ही नहीं आती. लेकिन लता, सच में मुझे बहुत खुशी हो रही है…हम सभी को, कितने संघर्ष के बाद तुम इतने ऊंचे पद पर पहुंचीं. सच, तुम्हारे मातापिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम जैसी साहसी लड़की को जन्म दिया.’’

‘‘पर बीबीजी…ओह, नहीं आंटीजी, मैं तो आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी, यदि आप ने मुझे शरण नहीं दी होती तो मैं कैसे इंटरव्यू की तैयारी कर पाती? मैं जहां भी रहूंगी, इस परिवार को सदैव याद रखूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है…तू कहीं नहीं रहेगी, यहीं रहेगी तू, सुना तू ने, जहां मेरी 2 बेटियां हैं, वहीं एक बेटी और सही. अब तक तू यहां कमला बनी रही, पर अब लता बन कर हमारे साथ हमारे ही बीच रहेगी. अब तो जब तेरी डोली इस घर से उठेगी तभी तू यहां से जाएगी. तू ने जिंदगी के इतने रंग देखे हैं, बेटी उन में एक रंग यह भी सही.’’

खुशी के आंसुओं के बीच लता ने अपनी सहमति दे दी थी.

जिंदगी के रंग (भाग-1)

‘‘बीबीजी…ओ बीबीजी, काम वाली की जरूरत हो तो मुझे आजमा कर देख लो न,’’ शहर की नई कालोनी में काम ढूंढ़ते हुए एक मकान के गेट पर खड़ी महिला से वह हाथ जोड़ते हुए काम पर रख लेने की मनुहार कर रही थी.

‘‘ऐसे कैसे काम पर रख लें तुझे, किसी की सिफारिश ले कर आई है क्या?’’

‘‘बीबीजी, हम छोटे लोगों की सिफारिश कौन करेगा?’’

‘‘तेरे जैसी काम वाली को अच्छी तरह देख रखा है, पहले तो गिड़गिड़ा कर काम मांगती हैं और फिर मौका पाते ही घर का सामान ले कर चंपत हो जाती हैं. कहां तेरे पीछे भागते फिरेंगे हम. अगर किसी की सिफारिश ले कर आए तो हम फिर सोचें.’’

ऐसे ही जवाब उस को न जाने कितने घरों से मिल चुके थे. सुबह से शाम तक गिड़गिड़ाते उस की जबान भी सूख गई थी, पर कोई सिफारिश के बिना काम देने को तैयार नहीं था.

कितनों से उस ने यह भी कहा, ‘‘बीबीजी, 2-4 दिन रख के तो देख लो. काम पसंद नहीं आए तो बिना पैसे दिए काम से हटा देना पर बीबीजी, एक मौका तो दे कर देखो.’’

‘‘हमें ऐसी काम वाली की जरूरत नहीं है. 2-4 दिन का मौका देते ही तू तो हमारे घर को साफ करने का मौका ढूंढ़ लेगी. ना बाबा ना, तू कहीं और जा कर काम ढूंढ़.’’

‘आज के दिन और काम मांग कर देखती हूं, यदि नहीं मिला तो कल किसी ठेकेदार के पास जा कर मजदूरी करने का काम कर लूंगी. आखिर पेट तो पालना ही है.’ मन में ऐसा सोच कर वह एक कोठी के आगे जा कर बैठ गई और उसी तरह बीबीजी, बीबीजी की रट लगाने लगी.

अंदर से एक प्रौढ़ महिला बाहर आईं. काम ढूंढ़ने की मुहिम में वह पहली महिला थीं, जिन्होंने बिना झिड़के उसे अंदर बुला कर बैठाते हुए आराम से बात की थी.

‘‘तुम कहां से आई हो? कहां रहती हो? कौन से घर का काम छोड़ा है? क्याक्या काम आता है? कितने रुपए लोगी? घर में कौनकौन हैं? शादी हुई है या नहीं?’’ इतने सारे प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी उन्होंने एकसाथ ही.

बातों में मिठास ला कर उस ने भी बड़े धैर्य के साथ उत्तर देते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मैं बाहर से आई हूं, मेरा यहां कोई घर नहीं है, मुझे घर का सारा काम आता है, मैं 24 घंटे आप के यहां रहने को तैयार हूं. मुझ से काम करवा कर देख लेना, पसंद आए तो ही पैसे देना. 24 घंटे यहीं रहूंगी तो बीबीजी, खाना तो आप को ही देना होगा.’’

उस कोठी वाली महिला पर पता नहीं उस की बातों का क्या असर हुआ कि उस ने घर वालों से बिना पूछे ही उस को काम पर रखने की हां कर दी.

‘‘तो बीबीजी, मैं आज से ही काम शुरू कर दूं?’’ बड़ी मासूमियत से वह बोली.

‘‘हां, हां, चल काम पर लग जा,’’ श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘तेरा नाम क्या है?’’

‘‘कमला, बीबीजी,’’ इतना बोल कर वह एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘बीबीजी, मेरा थोड़ा सामान है, जो मैं ने एक जगह रखा हुआ है. यदि आप इजाजत दें तो मैं जा कर ले आऊं,’’ उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘कितनी देर में वापस आएगी?’’

‘‘बस, बीबीजी, मैं यों गई और यों आई.’’

काम मिलने की खुशी में उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस ने अपना सामान एक धर्मशाला में रख दिया था, जिसे ले कर वह जल्दी ही वापस आ गई.

उस के सामान को देखते ही श्रीमती चतुर्वेदी चौंक पड़ीं, ‘‘अरे, तेरे पास ये बड़ेबड़े थैले किस के हैं. क्या इन में पत्थर भर रखे हैं?’’

‘‘नहीं बीबीजी, इन में मेरी मां की निशानियां हैं, मैं इन्हें संभाल कर रखती हूं. आप तो बस कोई जगह बता दो, मैं इन्हें वहां रख दूंगी.’’

‘‘ऐसा है, अभी तो ये थैले तू तख्त के नीचे रख दे. जल्दी से बर्तन साफ कर और सब्जी छौंक दे. अभी थोड़ी देर में सब आते होंगे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ कह कर उस ने फटाफट सारे बर्तन मांज कर झाड़ूपोंछा किया और खाना बनाने की तैयारी में जुट गई. पर बीबीजी ने एक पल को भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था, और छोड़तीं भी कैसे, नईनई बाई रखी है, कैसे विश्वास कर के पूरा घर उस पर छोड़ दें. भले ही काम कितना भी अच्छा क्यों न कर रही हो.

उस के काम से बड़ी खुश थीं वह. उन की दोनों बेटियां और पति ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो घर बड़ा चमक रहा है?’’

मिसेज चतुर्वेदी बोलीं, ‘‘चमकेगा ही, नई काम वाली कमला जो लगा ली है,’’ यह बोलते समय उन की आंखों में चमक साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘अच्छी तरह देखभाल कर रखी है न, या यों ही कहीं से सड़क चलते पकड़ लाईं.’’

‘‘है तो सड़क चलती ही, पर काम तो देखो, कितना साफसुथरा किया है. अभी तो जब उस के हाथ का खाना खाओगे, तो उंगलियां चाटते रह जाओगे,’’ चहकते हुए मिसेज चतुर्वेदी बोलीं.

सब खाना खाते हुए खाने की तारीफ तो करते जा रहे थे पर साथ में बीबीजी को आगाह भी करा रहे थे कि पूरी नजर रखना इस पर. नौकर तो नौकर ही होता है. ऐसे ही ये घर वालों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर सबकुछ ले कर चंपत हो जाते हैं.

यह सब सुन कर कमला मन ही मन कह रही थी कि आप लोग बेफिक्र रहें. मैं कहीं चंपत होने वाली नहीं. बड़ी मुश्किल से तो तुझे काम मिला है, इसे छोड़ कर क्या मैं यों ही चली जाऊंगी.

खाना वगैरह निबटाने के बाद उस ने बीबीजी को याद दिलाते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मेरे लिए कौन सी जगह सोची है आप ने?’’

‘‘हां, हां, अच्छी याद दिलाई तू ने, कमला. पीछे स्टोररूम है. उसे ठीक कर लेना. वहां एक चारपाई है और पंखा भी लगा है. काफी समय पहले एक नौकर रखा था, तभी से पंखा लगा हुआ है. चल, वह पंखा अब तेरे काम आ जाएगा.’’

उस ने जा कर देखा तो वह स्टोररूम तो क्या बस कबाड़घर ही था. पर उस समय वह भी उसे किसी महल से कम नहीं लग रहा था. उस ने बिखरे पड़े सामान को एक तरफ कर कमरा बिलकुल जमा लिया और चारपाई पर पड़ते ही चैन की सांस ली.

पूरा दिन काम में लगे रहने से खाट पर पड़ते ही उसे नींद आ गई थी, रात को अचानक ही नींद खुली तो उसे, उस एकांत कोठरी में बहुत डर लगा था. पर क्या कर सकती थी, शायद उस का भविष्य इसी कोठरी में लिखा था. आंख बंद की तो उस की यादों का सिलसिला शुरू हो गया.

आज की कमला कल की डा. लता है, एस.एससी., पीएच.डी.. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कितने बड़े घर में उस का जन्म हुआ था. मातापिता ने उसे कितने लाड़प्यार से पाला था. 12वीं तक मुरादाबाद में पढ़ाने के बाद उस की जिद पर पिता ने उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया था. गुणसंपन्न (मेरिटोरिअस) छात्रा होने के कारण उसे जल्द ही हास्टल में रहने की भी सुविधा मिल गई थी.

लता ने बी.एससी. बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की. फिर वहीं से एस.एससी. बौटनी कर लिया. पढ़ाई के अलावा वह दूसरी गतिविधियों में भाग लेती थी. भाषण और वादविवाद के लिए जब वह मंच पर जाती थी तो श्रोताओं के दिलोदिमाग पर अपनी छाप छोड़ जाती थी. उस के अभिनय का तो कोई जवाब ही नहीं था, यूनिवर्सिटी में होने वाली नाटकप्रतियोगिताओं में उस ने कई बार प्रथम स्थान प्राप्त किया था. बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लता ने एम.फिल और पीएच.डी. भी कर ली थी.

पीएच.डी. पूरी करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर पद के लिए आवेदन किया था. वह इंतजार कर रही थी कि कब साक्षात्कार के लिए पत्र आए, तभी एक दिन अचानक घटी एक घटना ने उसे आसमान से जमीन पर पटक दिया.

एक रात घर में सभी लोग सोए हुए थे कि अचानक कुछ लोगों ने हमला बोल दिया. उस की आंखों के सामने उन्होंने उस के मातापिता को गोलियों से भून डाला. भाई ने विरोध किया तो उसे भी गोली मार दी गई. वह इतना डर गई कि अपनी जान बचाने के लिए पलंग के नीचे छिप गई.

अपने सामने अपनी दुनिया को बरबाद होते देखती रही, बेबस लाचार सी, पर कुछ भी नहीं बोल पाई थी वह. ये लोग पिता के किसी काम का बदला लेने आए थे. पिता की पुश्तैनी लड़ाई चल रही थी. कितने ही खून हो चुके थे इस बारे में.

6 लोगों के सामने वह कर भी क्या सकती थी. पलंग के नीचे छिपी वह अपने आप को सुरक्षित अनुभव कर रही थी. पिता ने कभीकभार सुनाई भी थीं ये बातें. अत: उसे कुछ आभास सा हो गया था कि ये लोग कौन हो सकते हैं. उस के जेहन में पिता की कही बातें याद आ रही थीं.

डर का उस ने अपने को और सिकोड़ने की कोशिश की तो उन में से एक की नजर उस पर पड़ गई और उस ने पैर पकड़ कर उसे पलंग के नीचे से खींच लिया और चाकू से उस पर वार करने जा रहा था कि उस के एक साथी ने उस का हाथ पकड़ कर मारने से रोक दिया.

‘लड़की, हम क्या कर सकते हैं यह तो तू ने देख ही लिया है. इस घर का सारा कीमती सामान हम ले कर जा रहे हैं. चाहें तो तुझे भी मार सकते हैं पर तेरे बाप से बदला लेने के लिए तुझे जिंदा छोड़ रहे हैं कि तू दरदर घूम कर भीख मांगे और अपने बाप के किए पर आंसू बहाए. हमारे पास समय कम है. हम जा रहे हैं पर कल इस मकान में तेरा चेहरा देखने को न मिले. अगर दिखा तो तुझे भी तेरे बाप के पास भेज देंगे,’ इतना कह कर वे सभी अंधेरे में गुम हो गए.

अब सबकुछ शांत था. कमरे में उस के सामने खून से लथपथ उस के परिवार के लोगों की मृत देह पड़ी थी. वह चाह कर भी रो नहीं सकती थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो रात के सवा 3 बजे थे. लता का दिमाग तेजी से चल रहा था. उस के रुकने का मतलब है पुलिस के सवालों का सामना करना. अदालत में जा कर वह अपने परिवार के कातिलों को सजा दिला पाएगी. इस में उसे संदेह था क्योंकि भ्रष्ट पुलिस जब तक कातिलों को पकड़ेगी तब तक तो वे उसे मार ही डालेंगे.

उस ने अपने सारे सर्टिफिकेट और अपनी किताबें, थीसिस, 4 जोड़ी कपड़े थैली में भर कर घर से निकलने का मन बना लिया, पापा और मम्मी ने उसे जेब खर्च के लिए जो रुपए दिए वे उस ने किताबों के बीच में रखे थे. उन पैसों का ध्यान आया तो वह कुछ आस्वस्त हुई.

किसी की हंसतीखेलती दुनिया ऐसे भी उजड़ सकती है, ऐसी तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर भी चलने से पहले पलट कर मांबाप और भाई के बेजान शरीर को देखा तो आंखों से आंसू टपक पड़े. फिर पिता के हत्यारे की कही बातें याद आईं तो वह तेजी से निकल गई. चौराहे तक इतने सारे सामान के साथ वह भागती गई थी. उस में पता नहीं कहां से इतनी ताकत आ गई थी. शायद हत्यारों का डर ही उसे हिम्मत दे रहा था, वहां से दूर भागने की.

लता ने सोचा कि किसी रिश्तेदार के यहां जाने से तो अच्छा है, जहां नौकरी के लिए आवेदन कर रखा है वहीं चली जाती हूं. आखिर छात्र जीवन में की गई एक्ंिटग कब काम आएगी. किसी के यहां नौकरानी बन कर काम चला लूंगी. जब तक नौकरी नहीं मिलेगा, किसी धर्मशाला में रह लूंगी. मुंबई जाते समय उसे याद आया कि उस की रूम मेट सविता की मामी मुंबई में ही रहती हैं.

-क्रमश:

…क्या क्या ख्वाब दिखाए: मेरी पत्नी छंदा

ख्वाब दिखाना तो महिलाओं का शगल होता है. मेरी पत्नी छंदा को भी सपने दिखाने का शौक है. मैं ने एक दिन छंदा से कहा, ‘‘तुम प्लीज मुझे सपने मत दिखाया करो. यह सब काम तो प्रेमिका का होता है.’’

वह गार्डन में मिलती है. मुसकराती है, जूड़े में लगे फूल को संवारती है, फिर धीरे से कहती है, ‘‘हमारी शादी हो जाएगी न हैंडसम, तब मैं डैड से कह कर दफ्तर में पीए बनवा दूंगी. कार दिलवा दूंगी फिर हम हनीमून के लिए बैंकाक, सिंगापुर जाएंगे. बड़ा मजा आएगा न.’’

प्रेमी ख्वाब के समुद्र में गोता लगाने लगता है. बाद में पता चलता है कि ऐसे ख्वाब के चक्कर उस ने कई पे्रमियों के साथ चलाए हैं. सब को पतंग समझ कर सपनों के आसमान पर जी भर कर उड़ाया है. अपनी जमीन छोड़ चुके प्रेमी हवा में उड़ते रहे और वे अब जमीन के रहे न आसमान के, त्रिशंकु बन कर अधर में लटकते रहे.

मैं ने कहा, ‘‘क्षमा करना देवी, मैं शादीशुदा हूं, घर में सपने दिखाने के लिए पत्नी है. वह रातदिन सपने दिखाती रहती है.’’

प्रेमिका ठहाका मार कर हंसते हुए बोली, ‘‘पत्नी व सपने? अच्छा मजाक कर लेते हो. सपने दिखाना प्रेमिका को ही शोभा देता है. पत्नी तो बेचारी चूल्हाचौका,  झाड़ूपोंछा, बर्तनों की सफाई में, बच्चों की चिल्लपों में उलझी रहती है. उस के पास न तो सोने की फुरसत होती है न सपने देखने का समय बचता है. एक पल पति से बात करने के लिए तरस जाती है बेचारी. घरगृहस्थी का चक्कर होता ही ऐसा है. पत्नी तो ब्लाटिंगपेपर बन कर रह जाती है जहां सारे सपने एकएक कर सोख लिए जाते हैं.’’

इस के बाद प्रेमिका की खिल- खिलाहट काफी देर तक मेरे कान में गूंजती रही. मैं मन ही मन एक फिल्मी गीत गुनगुनाने लगा, ‘‘रात ने क्याक्या ख्वाब दिखाए…’’

सात फेरों के समय पत्नी का हर फेरा किसी रंगीन ख्वाब से कम नहीं होता. पहले फेरे में छंदा ने ख्वाब का पहला फंदा डालते हुए कहा था, ‘‘डार्लिंग, मैं वचन देती हूं कि मेरी ओर से तुम्हें किसी प्रकार की शिकायत नहीं होगी.’’

मैं ने कहा था, ‘‘थैंक्स…’’

दूसरा फेरा लेते हुए वह बोली थी, ‘‘मैं तुम्हें वह सब सुख दूंगी जो हर पति चाहता है.’’

मैं ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, ‘‘ख्वाब अच्छा है. बुनती जाओ.’’

वह तुरंत बोली, ‘‘हम अपने बच्चों को जापान पढ़ने भेजेंगे.’’

ख्वाबों के आकाश से वह तारे तोड़ने लगी. तब मेरा पति धर्म जाग गया.

मैं ने पूछा, ‘‘ठंडा पीओगी? सपने बुनने में तुम्हें राहत मिलेगी.’’

‘‘आप ऐसा कैसे बोल रहे हैं. मैं तो अपनी गृहस्थी की नींव मजबूत करने के लिए अपनी कोमल भावनाएं जाहिर कर रही थी. तुम्हारी पत्नी बन रही हूं. खाना बनाऊंगी भी और पेट भर तुम्हें खिलाऊंगी भी. तुम तो जानते ही होगे कि पत्नी अपने पति के दिल पर शासन करने के लिए उस के पेट से ही रास्ता बनाती है.’’

छंदा नारी रहस्य बताती जा रही थी.

‘‘मतलब?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जो पत्नी स्वादिष्ठ भोजन बनाना जानती है उस का पति हमेशा उस के आसपास मंडराता रहता है, फुदकता रहता है. उन के बीच सदैव प्रेम बना रहता है. प्यार कभी मुरझाता नहीं.’’

छंदा सप्तपदी की एकएक शपथ में ख्वाबों का उल्लेख करती रही, जिस में कम खर्च, सहनशीलता, आपसी सहयोग ‘…सुख मेरा ले ले मैं दुख तेरा ले लूं’ टाइप के फिल्मी गीत के मुखड़े शामिल थे.

ऐसी बातें कर जो सपने छंदा ने मुझे दिखाए तब मैं ने अपने भाग्य को सराहा था. अपने को दुनिया का सब से भाग्यशाली पति समझा था, जिसे ऐसी सुशील, दूरदर्शी पत्नी मिली थी.

 

गृहस्थी के विषय में मैं निश्ंिचत था. ख्वाबगाह में आराम से लेटेलेटे चैन की बांसुरी बजाता रहा. तब मुझे क्या पता था कि छंदा ने अभी तो सिर्फ मेरी उंगली पकड़ी है, वह धीरेधीरे पहुंचा पकड़ने की गुप्त तैयारी कर रही है.

छंदा ने कहा, ‘‘सुनो, मिसेज चोपड़ा ने बसंत विहार में 45 लाख का फ्लैट लिया है. क्यों न हम भी एक फ्लैट वहां बुक करा लें. आप का ख्वाब पूरा हो जाएगा.’’

मेरे कान खड़े हो गए. एक पल को मुझे लगा कि मेरा ख्वाब टूटने से कहीं मेरा ब्लडप्रेशर न बढ़ जाए. गंभीर हो कर मैं ने कहा, ‘‘प्रिय छंदा, मध्यवर्गीय परिवार के सपने भी छोटेछोटे होते हैं. बड़ेबड़े सपने देखना हमें शोभा नहीं देता. इन के टूटने पर हम डिप्रेशन के शिकार हो सकते हैं. ख्वाब तो शुद्ध घी की तरह होता है जिसे हर कोई पचा नहीं पाता. अपना यह छोटा सा मकान क्या बुरा है. सिर पर बस, छत होनी चाहिए. रातोंरात तुम्हारे लखपति बनने के ख्वाब ने ही हमें शेयरमार्केट के आकाश से पटक कर जमीन दिखला दी. तब तुम ने इस हादसे को सहजता से लिया था.’’

‘‘ऐसी करवटें तो शेयर बाजार का ऊंट बदलता रहता है. आज घाटे में हैं कल फिर लाभ में आ जाएंगे. सब दिन एक जैसे नहीं होते,’’ कहते हुए वह मुझे फिर से अच्छे दिन आने के ख्वाब दिखाने लगी.

मैं जानता हूं कि बीवी के ख्वाब के पीछे उस की महत्त्वाकांक्षी भावनाएं ही हैं. मैं ने विवाह के समय ली गई शपथ याद दिलाते हुए कहा, ‘‘तुम सभी सुख मुझे दोगी जो हर पति चाहता है.’’ मेरे द्विअर्थी संवाद सुन कर वह ‘धत’ कहते हुए शरमा गई.

मेरी स्थिति ‘खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है’ की तरह हो गई. मैं भी पत्नी के साथ रहतेरहते रातदिन ख्वाब देखने लगा हूं. हम शाम को साथसाथ ख्वाब बुनते हैं. ख्वाब देखना आज देश की पहली जरूरत है. ख्वाब ही तो हमें आगे बढ़ाते हैं. पहले जब मैं ख्वाब नहीं देखता था तब रक्तचाप, मधुमेह बीमारी का शिकार था. अब ख्वाब साकार करने के लिए नईनई योजनाएं बना रहे हैं. इसी अनुसार अर्थात चादर के अनुसार पैर पसार रहे हैं. आशा का संचार मन में हो रहा है. छंदा अब पत्नी के रूप में प्रेमिका नजर आने लगी है. नएनए ख्वाबों की जननी है वह, उसे मैं अब ख्वाबों की मलिका कहने लगा हूं.

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