Family Story In Hindi: देर आए दुरुस्त आए

Family Story In Hindi: रात का 1 बज रहा था. स्नेहा अभी तक घर नहीं लौटी थी. सविता घर के अंदर बाहर बेचैनी से घूम रही थी. उन के पति विनय अपने स्टडीरूम में कुछ काम कर रहे थे, पर ध्यान सविता की बेचैनी पर ही था. विनय एक बड़ी कंपनी में सीए थे. वे उठ कर बाहर आए. सविता के चिंतित चेहरे पर नजर डाली. कहा, ‘‘तुम सो जाओ, मैं जाग रहा हूं, मैं देख लूंगा.’’

‘‘कहां नींद आती है ऐसे. समझासमझा कर थक गई हूं. स्नेहा के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. क्या करूं?’’

तभी कार रुकने की आवाज सुनाई दी. स्नेहा कार से निकली. ड्राइविंग सीट पर जो लड़का बैठा था, उसे झुक कर कुछ कहा, खिलखिलाई और अंदर आ गई. सविता और विनय को देखते ही बोली, ‘‘ओह, मौम, डैड, आप लोग फिर जाग रहे हैं?’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेटी हो तो माता पिता ऐसे ही जागते हैं, स्नेहा. तुम्हें हमारी हैल्थ की भी परवाह नहीं है.’’

‘‘तो क्या मैं लाइफ ऐंजौय करना छोड़ दूं? मौम, आप लोग जमाने के साथ क्यों नहीं चलते? अब शाम को 5 बजे घर आने का जमाना नहीं है.’’

‘‘जानती हूं, जमाना रात के 1 बजे घर आने का भी नहीं है.’’

‘‘मुझे तो लगता है पेरैंट्स को चिंता करने का शौक होता है. अब गुडनाइट, आप का लैक्चर तो रोज चलता है,’’ कहते हुए स्नेहा गुनगुनाती हुई अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गई.

सविता और विनय ने एकदूसरे को चिंतित और उदास नजरों से देखा. विनय ने कहा, ‘‘चलो, बहुत रात हो गई. मैं भी काम बंद कर के आता हूं, सोते हैं.’’

सविता की आंखों में नींद नहीं थी. आंसू भी बहने लगे थे, क्या करे, इकलौती लाडली बेटी को कैसे समझाए, हर तरह से समझा कर देख लिया था. सविता ठाणे की खुद एक मशहूर वकील थीं.

उन के ससुर सुरेश रिटायर्ड सरकारी अधिकारी थे. घर में 4 लोग थे. स्नेहा को घर में हमेशा लाड़प्यार ही मिला था. अच्छी बातें ही सिखाई गई थीं पर समय के साथ स्नेहा का लाइफस्टाइल चिंताजनक होता गया था. रिश्तों की उसे कोई कद्र नहीं थी. बस लाइफ ऐंजौय करते हुए तेजी से आगे बढ़ते जाना ही उस की आदत थी. कई लड़कों से उस के संबंध रह चुके थे. एक से ब्रेकअप होता, तो दूसरे से अफेयर शुरू हो जाता. उस से नहीं बनती तो तीसरे से दोस्ती हो जाती. खूब पार्टियों में जाना, डांसमस्ती करना, सैक्स में भी पीछे न हटने वाली स्नेहा को जबजब सविता समझाने बैठीं दोनों में जम कर बहस हुई. सुरेश स्नेहा पर जान छिड़कते थे. उन्होंने ही लंदन बिजनैस स्कूल औफ कौमर्स से उसे शिक्षा दिलवाई. अब वह एक लौ फर्म में ऐनालिस्ट थी. सविता और विनय के अच्छे पारिवारिक मित्र अभय और नीता भी सीए थे और उन का इकलौता बेटा राहुल एक वकील.

एक जैसा व्यवसाय, शौक और स्वभाव ने दोनों परिवारों में बहुत अच्छे संबंध स्थापित कर दिए थे. राहुल बहुत ही अच्छा इनसान था. वह मन ही मन स्नेहा को बहुत प्यार करता था पर स्नेहा को राहुल की याद तभी आती थी जब उसे कोई काम होता था या उसे कोई परेशानी खड़ी हो जाती थी. स्नेहा के एक फोन पर सब काम छोड़ कर राहुल उस के पास होता था.

सविता और विनय की दिली इच्छा थी कि स्नेहा और राहुल का विवाह हो जाए पर अपनी बेटी की ये हरकतें देख कर उन की कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि वे इस बारे में राहुल से बात भी करें, क्योंकि स्नेहा के रंगढंग राहुल से छिपे नहीं थे. पर वह स्नेहा को इतना प्यार करता था कि उस की हर गलती को मन ही मन माफ करता रहता था. उस के लिए प्यार, केयर, मानवीय संवेदनाएं बहुत महत्त्व रखती थीं पर स्नेहा तो इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानती थी.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. स्नेहा अपनी मरजी से ही घर आतीजाती.  विनय और सविता के समझाने का उस पर कोई असर नहीं था. जब भी दोनों कुछ डांटते, सुरेश स्नेहा को लाड़प्यार कर बच्ची है समझ जाएगी कह कर बात खत्म करवा देते. वे अब बीमार चल रहे थे. स्नेहा में उन की जान अटकी रहती थी. अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपना अच्छा खासा बैंक बैलेंस सब स्नेहा के नाम कर दिया.

एक रात सुरेश सोए तो फिर नहीं जागे. तीनों बहुत रोए, बहुत उदास हुए, कई दिनों तक रिश्तेदारों और परिचितों का आनाजाना लगा रहा. फिर धीरेधीरे सब का जीवन सामान्य होता गया. स्नेहा अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई. वैसे भी किसी भी बात को, किसी भी रिश्ते को गंभीरतापूर्वक लेने का उस का स्वभाव था ही नहीं. अब तो वह दादा के मोटे बैंक बैलेंस की मालकिन थी. इतना खुला पैसा हाथ में आते ही अब वह और आसमान में उड़ रही थी. सब से पहले उस ने मातापिता को बिना बताए एक कार खरीद ली.

सविता ने कहा, ‘‘अभी से क्यों खरीद ली? हमें बताया भी नहीं?’’

‘‘मौम, मुझे मेरी मरजी से जीने दो. मैं लाइफ ऐंजौय करना चाहती हूं. रात में मुझे कभी कोई छोड़ता है, कभी कोई. अब मैं किसी पर डिपैंड नहीं करूंगी. दादाजी मेरे लिए इतना पैसा छोड़ गए हैं, मैं क्यों अपनी मरजी से न जीऊं?’’

विनय ने कहा, ‘‘बेटा, अभी तुम्हें ड्राइविंग सीखने में टाइम लगेगा, पहले मेरे साथ कुछ प्रैक्टिस कर लेती.’’

‘‘अब खरीद भी ली है तो प्रैक्टिस भी हो जाएगी. ड्राइविंग लाइसैंस भी बन गया है. आप लोग रिलैक्स करना सीख लें, प्लीज.’’

अब तो रात में लौटने का स्नेहा का टाइम ही नहीं था. कभी भी आती, कभी भी जाती. सविता ने देखा था वह गाड़ी बहुत तेज चलाती है. उसे टोका, ‘‘गाड़ी की स्पीड कम रखा करो. मुंबई का ट्रैफिक और तुम्हारी स्पीड… बहुत ध्यान रखना चाहिए.’’

‘‘मौम, आई लव स्पीड, मैं यंग हूं, तेजी से आगे बढ़ने में मुझे मजा आता है.’’

‘‘पर तुम मना करने के बाद भी पार्टीज में ड्रिंक करने लगी हो, मैं तुम्हें समझा कर थक चुकी हूं, ड्रिंक कर के ड्राइविंग करना कहां की समझदारी है? किसी दिन…’’

‘‘मौम, मैं भी थक गई हूं आप की बातें सुनतेसुनते, जब कुछ होगा, देखा जाएगा,’’ पैर पटकते हुए स्नेहा कार की चाबी उठा कर घर से निकल गई.

सविता सिर पकड़ कर बैठ गईं. बेटी की हरकतें देख वे बहुत तनाव में रहने लगी थीं. समझ नहीं आ रहा था बेटी को कैसे सही रास्ते पर लाएं.

एक दिन फिर स्नेहा ने किसी पार्टी में खूब शराब पी. अपने नए बौयफ्रैंड विक्की के साथ खूब डांस किया, फिर विक्की को उस के घर छोड़ने के लिए लड़खड़ाते हुए ड्राइविंग सीट पर बैठी तो विक्की ने पूछा, ‘‘तुम कार चला पाओगी या मैं चलाऊं?’’

‘‘डोंट वरी, मुझे आदत है,’’ स्नेहा नशे में डूबी गाड़ी भगाने लगी, न कोई चिंता, न कोई डर.

अचानक उस ने गाड़ी गलत दिशा में मोड़ ली और सामने से आती कार को भयंकर टक्कर मार दी. तेज चीखों के साथ दोनों कारें रुकीं. दूसरी कार में पति ड्राइविंग सीट पर था, पत्नी बराबर में और बच्चा पीछे. चोटें स्नेहा को भी लगी थीं. विक्की हकबकाया सा कार से नीचे उतरा. उस ने स्नेहा को सहारा दे कर उतारा. स्नेहा के सिर से खून बह रहा था. दोनों किसी तरह दूसरी कार के पास पहुंचे तो स्नेहा की चीख से वातावरण गूंज उठा. विक्की ने भी ध्यान से देखा तो तीनों खून से लथपथ थे. पुरुष शायद जीवित ही नहीं था.

विक्की चिल्लाया, ‘‘स्नेहा, शायद कोई नहीं बचा है. उफ, पुलिस केस हो जाएगा.’’

स्नेहा का सारा नशा उतर चुका था. रोने लगी, ‘‘विक्की, प्लीज, हैल्प मी, क्या करें?’’

‘‘सौरी स्नेहा, मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. प्लीज, कोशिश करना मेरा नाम ही न आए. मेरे डैड बहुत नाराज होंगे, सौरी, मैं जा रहा हूं.’’

‘‘क्या?’’ स्नेहा को जैसे तेज झटका लगा, ‘‘तुम रात में इस तरह मुझे छोड़ कर जा रहे हो?’’

विक्की बिना जवाब दिए एक ओर भागता चला गया. सुनसान रात में अकेली, घायल खड़ी स्नेहा को हमेशा की तरह एक ही नाम याद आया, राहुल. उस ने फौरन राहुत को फोन मिलाया. हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा राहुल को देखते ही जोरजोर से रो पड़ी. स्नेहा डरी हुई, घबराई हुई चुप ही नहीं हो रही थी.

राहुल ने उसे गले लगा कर तसल्ली दी, ‘‘मैं कुछ करता हूं, मैं हूं न, तुम पहले हौस्पिटल चलो, तुम्हें काफी चोट लगी है, लेकिन उस से पहले भी कुछ जरूरी फोन कर लूं,’’ कह उस ने अपने एक पुलिस इंस्पैक्टर दोस्त राजीव और एक डाक्टर दोस्त अनिल को फोन कर तुरंत आने के लिए कहा.

अनिल ने आकर उन 3 लोगों का मुआयना किया. तीनों की मृत्यु हो चुकी थी. सब सिर पकड़ कर बैठ गए. स्नेहा सदमें में थी. उस पर केस तो दर्ज हो ही चुका था. उसे काफी चोटें थीं तो पहले तो उसे ऐडमिट किया गया.

सरिता और विनय भी पहुंच चुके थे. स्नेहा मातापिता से नजरें ही नहीं मिला पा रही थी. कई दिन पुलिस, कोर्टकचहरी, मानसिक और शारीरिक तनाव से स्नेहा बिलकुल टूट चुकी थी. उस की जिंदगी जैसे एक पल में ही बदल गई थी. हर समय सोच में डूबी रहती. उस के लाइफस्टाइल के कारण 3 लोग असमय ही दुनिया से जा चुके थे. वह शर्मिंदगी और अपराधबोध की शिकार थी. 1-1 गलती याद कर, बारबार अपने मातापिता और राहुल से माफी मांग रही थी. राहुल और सविता ने ही उस का केस लड़ा. रातदिन एक कर दिया. भारी जुर्माने के साथ स्नेहा को थोड़ी आजादी की सांस लेने की आशा दिखाई दी. रातदिन मानसिक दबाव के कारण स्नेहा की तबीयत बहुत खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में ऐडमिट किया गया. अभी तो ऐक्सिडैंट की चोटें भी ठीक नहीं हुई थीं. उस की जौब भी छूट चुकी थी. पार्टियों के सब संगीसाथी गायब थे. बस राहुल रातदिन साए की तरह साथ था. हौस्पिटल के बैड पर लेटेलेटे स्नेहा अपने बिखरे जीवन के बारे में सोचती रहती. कार में 3 मृत लोगों का खयाल उसे नींद में भी घबराहट से भर देता. कोर्टकचहरी से भले ही सविता और राहुल ने उसे जल्दी बचा लिया था पर अपने मन की अदालत से वह अपने गुनाहों से मुक्त नहीं हो पा रही थी.

विनय, सविता, राहुल और उस के मम्मीपापा अभय और नीता भी अपने स्नेह से उसे सामान्य जीवन की तरफ लाने की कोशिश कर रहे थे. अब उसे सहीगलत का, अच्छेबुरे रिश्तों का, भावनाओं का, अपने मातापिता के स्नेह का, राहुल की दोस्ती और प्यार का एहसास हो चुका था.

एक दिन जब विनय, सविता, अभय और नीता चारों उस के पास थे, बहुत सोचसमझ कर उस ने अचानक सविता से अपना फोन मांग कर राहुल को फोन किया और आने के लिए कहा.

हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा ने उठ कर बैठते हुए राहुल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘इस बार तुम्हें किसी काम से नहीं, सब के सामने बस इतना कहने के लिए बुलाया है, आई एम सौरी फौर ऐवरीथिंग, आप सब मुझे माफ कर दें और राहुल, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर रोतेरोते स्नेहा ने राहुल के गले में बांहें डाल दीं तो राहुल वहां उपस्थित चारों लोगों को देख कर पहले तो शरमा गया, फिर हंस कर स्नेहा को अपनी बांहों के सुरक्षित घेरे में ले कर अपने मातापिता, फिर विनय और सविता को देखा तो बहुत दिनों बाद सब के चेहरे पर एक मुसकान दिखाई दी, सब की आंखों में अपनी इच्छा पूरी होने की खुशी साफसाफ दिखाई दे रही थी. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: पानी पानी – आखिर समता क्यों गुमसुम रहने लगी?

Family Story In Hindi: अमित अपनी मां के साथ दिल्ली के पटेल नगर वाले मकान में था कि इतने में उस का फोन बजता है. सामने फोन पर प्राची है. अमित कुछ कह पाता, उस से पहले उस की भावभंगिमा बंद होने लगती  है. उस के हाथ कांपने लगते हैं. चेहरे का रंग पीला पड़ जाता है. वह घबरा कर अपनी मां की तरफ देख कर कहता है, ‘‘चिंकू कौन है मां? किस की बात कर रही हैं प्राची दी?’’

बेटे के चेहरे की उड़ी रंगत देख सुलक्षणा घबरा गई. बिस्तर से उठते हुए बेचैन हो कर वह बोली, ‘‘अरे, तेरा बेटा ही तो है चिंकू. और किसी चिंकू को तो मैं जानती नहीं. क्या हुआ, क्या कहा प्राची ने चिंकू के बारे में? कुछ तो बता.’’

‘‘मां, वह नहीं रहा. मेरा बच्चा चिंकू चला गया,’’ कह कर अमित बच्चों की तरह रोने लगा.

‘‘क्या हुआ उसे? ला मेरा फोन दे. शायद प्राची किसी और से बात करना चाह रही थी और तेरा नंबर मिल गया. मैं समता का नंबर लगा लेती हूं. बहू से ही पूछ लेती हूं इस फोन के बारे में. जरूर कुछ गड़बड़ हुई है. हो सकता है तुझ से सुनने में कुछ गलती हुई हो.’’ सुलक्षणा लगातार बोले जा रही थी. टेबल से अपना मोबाइल उठा कर उस ने अपनी बहू समता का नंबर मिला लिया. मोबाइल समता के जीजाजी ने उठाया. सुलक्षणा के कान जो नहीं सुनना चाह रहे थे वही सुनना पड़ा. सचमुच, अमित का 2 वर्षीय बेटा चिंकू इस दुनिया को छोड़ कर जा चुका था.

पिछले सप्ताह ही तो समता अपनी बहन प्राची के घर लखनऊ गई थी. शादी के बाद अमित की व्यस्तता के कारण वह प्राची के पास जा ही नहीं पाई थी. प्राची ही एक बार आ गई थी उस से मिलने. मातापिता तो थे नहीं, इसलिए दोनों बहनें ही एकदूसरे का सहारा थीं. कुछ दिनों पहले फोन पर प्राची ने समता से कहा था कि इस बार अपने बच्चों के स्कूल की छुट्टियों में वह कहीं नहीं जाएगी और समता को उस के पास आना ही पड़ेगा.

समता और चिंकू को लखनऊ छोड़ अमित कल ही दिल्ली वापस आया था. वह गुड़गांव में एक जरमन एमएनसी में मैनेजर के पद पर था. उसे कंपनी का मैनेजमैंट संभालना था, इसलिए वह लखनऊ रुक नहीं पाया और जल्द ही वापस दिल्ली आ गया. घर पहुंच कर उस ने जब समता को फोन किया था तो चिंकू ने समता के हाथ से मोबाइल छीन लिया था. उस की नन्हीं सी ‘एलो’ सुन कर रोमरोम खिल उठा था अमित का. प्यार से उसे ‘लव यू बेटा’ कह कर वह मुसकरा दिया था. चिंकू ने भी अपनी तोतली भाषा में ‘लब्बू पापा’ कह कर जवाब दे दिया था. आखिरी बार अमित ने तभी आवाज सुनी थी चिंकू की. और अब, वह कभी चिंकू की आवाज नहीं सुन पाएगा. कैसे हो गया यह सब.

दुख में डूबा अमित समता के पास जल्दी ही पहुंचना चाहता था. इसलिए उस ने बिना देरी किए फ्लाइट का टिकट बुक करवा लिया और लखनऊ के लिए रवाना हो गया.

अगले दिन ही वह समता को ले कर घर आ गया. उन के घर पहुंचते ही सुलक्षणा फूटफूट कर रोने लगी. अमित मां को कैसे सांत्वना देता, वह तो स्वयं ही टूट गया था. समता चुपचाप जा कर एक कोने में गुमसुम सी हो कर बैठ गई. उस की तो जैसे सोचनेसमझने की शक्ति ही चली गई थी. वह चंचल स्वभाव की थी. वह लोगों के साथ घुलनामिलना पसंद करती थी. लेकिन अब न जाने उस की दुनिया ही लुट गई हो.

धीरेधीरे पड़ोसी एकत्र होने लगे. चिंकू के इस तरह अचानक मौत के मुंह में जाने से सब बेहद दुखी थे.

‘‘कैसा लग रहा होगा समता को. खुद स्विमिंग की चैंपियन थी, अपने कालेज में… और बेटे की छोटी सी टंकी में डूब कर मौत,’’ समता की पुरानी सहेली वंदना दुखी स्वर में बोली.

‘‘बच्चे जब इकट्ठे होते हैं, मनमानी भी तो बहुत करने लगते हैं,’’ ठंडी आह भरते हुए सामने के मकान में रहने वाले मृदुल बोले.

‘‘हम लोग भी तो एकदूसरे में कभीकभी इतना खो जाते हैं कि बच्चों की सुध लेना ही भूल जाते हैं,’’ समता के पड़ोस में रहने वाली मनोविज्ञान की अध्यापिका, मृदुल को जवाब देने के अंदाज में बोल उठी.

‘‘असली बात तो यह है कि मौत के आगे आज तक किसी की नहीं चली. बाद में बस अफसोस ही तो कर सकते हैं. इस के सिवा कुछ नहीं,’’ एक बुजुर्ग महिला के कहने पर सभी कुछ देर के लिए मौन हो गए.

रिश्तेदारों को जब इस दुर्घटना के विषय में पता लगा तो वे प्राची से जानना चाह रहे थे कि आखिर यह सब हुआ कैसे? शोक में डूबी प्राची स्वयं को कुसूरवार समझ रही थी. न ही वह बच्चों को छत पर जाने देती और न ही यह दुर्घटना घटती. क्यों वह समता के साथ बातों में इतनी मशगूल हो गई कि छत पर खेल रहे बच्चों को झांक कर भी नहीं देखा. उस के बच्चे भी तो छोटे ही हैं. बेटी सौम्या 7 वर्ष की और बेटा सार्थक 5 वर्ष का. तभी तो वे समझ ही न पाए कि पानी की टंकी में गिरने के बाद चिंकू हाथपैर मार कर खेल नहीं रहा, बल्कि छटपटा रहा है. खेलखेल में ही क्या से क्या हो गया.

छत के फर्श पर रखी पानी की टंकी का ढक्कन खोल, प्राची के बच्चे उस में हाथ डाल कर मस्ती कर रहे थे. चिंकू ने भी उन की नकल करनी चाही, किंतु वह छोटा था और जब उचक कर उस ने पानी में दोनों हाथ डालने की कोशिश की तो उस का संतुलन बिगड़ गया और अपने को संभाल न पाने के कारण टंकी में ही गिर गया.

प्राची और समता के तब होश उड़ गए थे जब सौम्या ने नीचे आ कर कहा था, ‘‘चिंकू, बहुत देर से पानी में  है, आप निकालो बाहर’’, बेतहाशा दौड़ते हुए वे दोनों छत पर पहुंचीं. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. अपनी बहन समता के दुख में दुखी प्राची के पास आंसुओं के सिवा कुछ नहीं था.

पड़ोसी और रिश्तेदारों का अमित के घर आनाजाना लगातार जारी था. सब की नम आंखें हृदय का दुख व्यक्त कर पा रही थीं. मन को हलका करने के लिए एकदूसरे से बातें भी कर रहे थे वे. किंतु समता सब से दूर बैठी थी. जब कोई पास जा कर उस से बात करना शुरू करता तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ लेती. न आंखों में आंसू थे और न ही चेहरे पर कोई भाव. चिंकू का नाम सुनते ही वह कानों पर हाथ रख लेती और सब की बातों को अनसुना कर देती थी.

सब की यही राय थी कि समता को रोना चाहिए, ताकि उस का मन हलका हो पाए और वह भी सब के साथ अपना दुख साझा कर पाए, पर समता तो भावहीन चेहरा लिए एकटक शून्य में ताकती रहती थी.

समता की मानसिक स्थिति को देखते हुए अमित ने मनोचिकित्सक से सलाह ली. मनोचिकित्सक ने बताया कि ऐसे समय में कई बार व्यक्ति की चेतना दुख को स्वीकार नहीं करना चाहती, किंतु अवचेतन मन जानता है कि कुछ बुरा घट चुका है. सो, व्यक्ति का मस्तिष्क कुछ भी सोचना नहीं चाहता. समता के विषय में उस ने कहा कि यदि कुछ और दिनों तक उस की यही हालत रही तो उस के दिमाग के सोचनेसमझने की शक्ति हमेशा के लिए खत्म हो सकती है. चिकित्सक ने सलाह दी कि समता को चिंकू के कपड़े दिखा कर रुलाने का प्रयास करना चाहिए.

डाक्टर की सलाह अनुसार, अमित ने समता को चिंकू के कपड़े, खिलौने और फोटो दिखाए. चिंकू के विषय में जानबूझ कर बातें भी करने लगा वह. सुलक्षणा ने भी चिंकू की शैतानियों के किस्से समता को याद दिलाए और उन शैतानियों का नतीजा ही चिंकू की मौत का कारण बना, कह कर रुलाना भी चाहा पर समता पर किसी प्रकार का असर होता दिखाई नहीं दिया.

सुलक्षणा ने अमित को सलाह दी कि सब साथ में अपने गांव चलते हैं. वहां जा कर कुछ दिन इस वातावरण से दूर होने पर समता शायद सबकुछ नए सिरे से सोचने लगे और चिंकू की अनुपस्थिति खलने लगे उसे. संभव है फिर उस के मन का गुबार आंसुओं में निकल जाए. मां की बात मान अमित समता और सुलक्षणा के साथ कुछ दिनों के लिए गांव चला गया.

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के नजदीक ही गांव में उन का बड़ा सा पुश्तैनी मकान था. पास ही आम के बगीचे भी थे. उन सब की देखभाल रणजीत किया करता था. रणजीत बचपन से ही उन के परिवार के साथ जुड़ा हुआ था. यों तो उस की उम्र 40 वर्ष के ऊपर थी, पर परिवार के नाम पर पत्नी रज्जो और 4 वर्षीय इकलौटा बेटा सूरज ही थे. सूरज को उस ने पास के स्कूल में दाखिल करवा दिया था. विवाह के लगभग 20 वर्षों बाद सूरज का जन्म हुआ था. रज्जो और रणजीत चाहते थे कि उन की आंखों का तारा सूरज खूब पढ़ेलिखे और बड़ा हो कर कोई अच्छी नौकरी करे.

अमित का परिवार गांव आ रहा है, यह सुन कर रणजीत ने उन के आने की तैयारी शुरू कर दी. घर खूब साफसुथरा कर, बाजार जा कर जरूरी सामान ले आया. चिंकू के विषय में जान कर वह भी बेहद दुखी था.

गांव पहुंच कर अमित और सुलक्षणा का मन तो कुछ हलका हुआ, पर समता की भावशून्यता वहां भी कम न हुई. अमित उसे इधरउधर ले कर जाता. सुलक्षणा भी गांव की पुरानी बातें बता कर उस का ध्यान दूसरी ओर लगाने का प्रयास करती, पर समता तो जैसे जड़ हो गई थी. न वह ठीक से खातीपीती और न ही ज्यादा कुछ बोलती थी.

उस दिन अमित सुलक्षणा के साथ घर के नजदीक बने तालाब के किनारे टहल रहा था. समता घास पर चुपचाप बैठी थी. कुछ देर बाद पास के खाली मैदान पर बच्चे आ कर क्रिकेट खेलने लगे. उन के पास जो गेंद थी, वह प्लास्टिक की थी, इसलिए अमित ने समता को वहां से हटाना आवश्यक नहीं समझा.

बच्चे गेंद पर तेजी से बल्ला मार, उसे दूर फेंकने का प्रयास कर रहे थे, ताकि गेंद दूर तक जाए और उन्हें अधिक से अधिक रन बनाने का अवसर मिले. उन बच्चों की टोली में एक छोटा सा बच्चा हर बार फुरती से जा कर गेंद ले कर आ रहा था. छोटा होने के कारण बच्चों ने उसे बैंटिंग या बौलिंग न दे कर, फेंकी हुई गेंद वापस ला कर देने का काम सौंपा हुआ था.

इस बार एक बच्चे ने कुछ ज्यादा ही तेजी से बल्ला चला दिया और गेंद तीव्र गति से लुढ़कने लगी. छोटा बच्चा भागता हुआ गेंद को पकड़ने की कोशिश करता रहा, पर गेंद तो खूब तेजी से लुढ़कते हुए तालाब में गिर कर ही रुकी. प्लास्टिक की होने के कारण वह गेंद पानी पर तैरने लगी. गेंद तालाब से निकालने के लिए उस बच्चे ने जमीन पर पड़ी पेड़ की पतली सी टहनी उठाई और गेंद को टहनी से खिसका कर करीब लाने की कोशिश करने लगा. पेड़ की डंडी गेंद तक तो पहुंच रही थी, पर इतनी बड़ी नहीं थी कि गेंद को आगे की ओर धकेल पाए. इधर बच्चा कोशिश कर रहा था, उधर साथी ‘जल्दीजल्दी’ का शोर मचाए हुए थे. गेंद को तेजी से आगे की ओर धकेलने के लिए उस पर डंडी मारते हुए अचानक ही वह बच्चा तालाब में गिर गया.

इस से पहले कि वहां खेल रहे बच्चे कुछ समझ पाते, समता तेजी से दौड़ती हुई वहां पहुंची और तालाब में कूद पड़ी. बच्चे को झटके से पकड़ कर उस ने गोदी में उठा लिया. अमित और सुलक्षणा दूर से यह दृश्य देख रहे थे. अमित भी भागता हुआ वहां पहुंच गया और तालाब के किनारे बैठ कर बच्चे को अपनी गोद में ले लिया. बच्चे को शीघ्र ही उस ने अपने घुटने पर पेट के बल लिटा दिया, ताकि थोड़ा सा पानी भी अंदर गया हो तो बाहर निकल सके. तब तक सभी बच्चे चिल्लाते हुए वहां पहुंच गए. शोर सुन कर आसपास के घरों से भी लोग वहां इकट्ठे होने लगे.

तालाब से बाहर निकलते ही समता अमित के पास आई और उस बच्चे को सकुशल देख अपने गले लगा कर फूटफूट कर रोने लगी. तभी भीड़ को चीरता हुआ रणजीत वहां पहुंच गया. अपने बेटे सूरज को मौत के मुंह से निकला हुआ देख उस की जान में जान आई. गदगद हो कर वह समता से बोला, ‘‘आज आप ने नया जीवन दिया है मेरे बच्चे को. कितने सालों बाद संतान का मुंह देखा था. अगर आज इसे कुछ हो जाता तो… आप का एहसान तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा.’’

भावविभोर समता बाली, ‘‘एहसान कैसा, भैया? मुझे तो लग रहा है जैसे मैं ने अपने चिंकू को बचा लिया हो.’’ और सूरज को गले लगा कर समता फिर से रोने लगी.

घर वापस आते हुए सूरज का हाथ थामे वह उस से बातें कर रही थी. समता में आए इस परिवर्तन से अमित और सुलक्षणा बेहद खुश थे. कुछ दिन गांव में गुजारने के बाद वे तीनों वापस दिल्ली लौट आए.

घर वापस आ कर समता नया जीवन जीने को तैयार थी. अनजाने में ही उसे यह एहसास हो गया था कि जिंदगी में गम और खुशी दोनों को ही गले लगाना पड़ता है.

उस के अवचेतन मन ने उसे समझा ही दिया था कि सुख और दुख के तानेबाने को गूंथ कर ही जिंदगी की बुनाई होती है. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: याददाश्त – भूलने की आदत से क्यों छूटकारा नहीं मिलता

Family Story In Hindi: याददाश्त इतनी कमजोर नहीं थी कि घर भूल जाऊं. पत्नीबच्चों को भूल जाऊं. जैसा कि लोग कहते थे कि यदि भूलने की आदत है तो खानापीना, सोना, घनिष्ठ संबंध क्यों नहीं भूल जाते. अब मैं क्या करूं यदि रोजमर्रा की चीजें भी दिमाग से निकल जाती थीं. तो वहीं ऐसी बहुत सारी छोटीछोटी बातें हैं जो मैं नहीं भूलता था और ऐसी भी बहुत सी चीजें, बातें थीं जो मैं भूल जाता था और बहुत कोशिश करने के बाद भी याद नहीं आती थीं और याद करने की कोशिश में दिमाग लड़खड़ा जाता.

खुद पर गुस्सा भी आता. तलाश में घर का कोनाकोना छान मारता. समय नष्ट होता. खूब हलकान, परेशान होता और जब चीज मिलती तो ऐसी जगह मिलती कि लगता, अरे, यहां रखी थी. हां, यहीं तो रखी थी. पहले भी इस जगह तलाश लिया था, तब क्यों नजर नहीं आई? उफ, यह कैसी आदत है भूलने की. इसे जल्दबाजी कहें, लापरवाही कहें या क्या कहें? अभी इतनी भी उम्र नहीं हुई थी कि याद न रहे.

कल बाजार में एक व्यक्ति मिला, जिस ने गर्मजोशी से मुझ से मुलाकात की और वह पिछली बहुत सी बातें करता रहा और मैं यही सोचता रहा कि कौन है यह? मैं उस की हां में हां मिला कर खिसकने का बहाना ढूंढ़ रहा था. मैं यह भी नहीं कह पा रहा था, उस का अपनापन देख कर कि भई माफ करना मैं ने आप को पहचाना नहीं. हालांकि, इतना मैं समझ रहा था कि इधर पांचसात सालों में मेरी इस व्यक्ति से मुलाकात नहीं हुई थी. उस के जाने के बाद मुझे अपनी याददाश्त पर बहुत गुस्सा आया. मैं सोचता रहा, दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर कौन था यह? लेकिन दिमाग कुछ भी नहीं पकड़ पा रहा था.

घर से जब बाहर निकलता तो कुछ न कुछ लाना भूल जाता था. यह भी समझ में आता था कि कुछ भूल रहा हूं लेकिन  क्या? यह पकड़ में नहीं आता था. अब मैं कागज पर लिख कर ले जाने लगा था कि क्याक्या खरीदना है बाजार से. इस बार मैं तैयार हो कर घर से बाहर निकला और बाहर निकलते ही ध्यान आया कि चश्मा तो पहना ही नहीं है. घर के अंदर गया तो जहां चश्मा रखता था, वहां चश्मा नहीं था. तो कहां गया चश्मा?

इस चक्कर में पूरा घर छान मारा. पत्नी को परेशान कर दिया. उसे उलाहना देते हुए कहा, ‘‘मेरी चीजें जगह पर क्यों नहीं मिलतीं? यहीं तो रखता था चश्मा. कहां गया?’’

पत्नी भी मेरे साथ चश्मा तलाश करने लगी और कहने भी लगी गुस्से में, ‘‘खुद ही कहीं रख कर भूल गए होगे. याद करो, कहां रखा था?’’

‘‘वहीं रखा था जहां रखता हूं हमेशा.’’

‘‘तो कहां गया?’’

‘‘मुझे पता होता, तो तुम से क्यों पूछता?’’

फिर हमारी गरमागरम बहस के साथ   हम दोनों ही पूरा घर छानने लगे चश्मे की तलाश में. काफी देर तलाशते रहे. लेकिन चश्मा कहीं नहीं मिल रहा था. मैं याद करने की कोशिश भी कर रहा था कि मैं ने यदि चश्मे को उस के नियत स्थान से उठाया था तो फिर कहांकहां रख सकता था? जैसे कि मैं ने चश्मा उठाया. उस के कांच साफ किए. फिर गाड़ी की चाबी उठाई. इस बीच, मैं ने आईने के सामने जा कर कंघी की. फिर पानी पिया, फिर…

तो मैं सभी संभावित स्थानों पर गया. जैसे ड्रैसिंग टेबल के पास, फ्रिज के पास वगैरह. लेकिन चश्मा नहीं मिला. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर चश्मा गया कहां? उसे जमीन खा गई या आसमान निगल गया. याद क्यों नहीं आ रहा है?

चश्मे की आदत सी पड़ गई थी. न भी पहनूं तो जेब में रख लेता था बाजार जाते समय. जैसे घड़ी का पहनना होता था. मोबाइल रखना होता था. बहुत जरूरी न होते भी जरूरी होना. न रखने पर लगता था कि जैसे कुछ जरूरी सामान छूट गया हो. खालीखाली सा लगता. आदत की बात है.

चश्मा तलाश रहा हूं. पत्नी अपने काम में लगी हुई है. उस ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि नहीं मिल रहा तो परेशान मत हो. घर में होगा, मिल जाएगा. बिना चश्मे के बाजार जा सकते हो. मुझे उस की बात ठीक लगी. लेकिन दिमाग में यही चल रहा था कि आखिर चश्मा कहां रख कर भूल गया. तभी कोचिंग से बेटा घर आया. मेरा चेहरा देख कर समझ गया. उस ने पूछा, ‘‘क्या नहीं मिल रहा, अब?’’

उस की बात पर मुझे गुस्सा आ गया. ‘अब’ लगाने का क्या मतलब हुआ? यही कि मैं हमेशा कुछ न कुछ भूल जाता हूं. अकसर तो भूल जाता हूं, लेकिन हमेशा… यह तो हद हो गई. खुद तो कोचिंग के नाम पर व्यर्थ रुपया खर्च कर रहा है. कोचिंग ही जाना था तो स्कूल की क्या जरूरत थी? फैशन सा हो गया है आजकल कोचिंग जाना. कोचिंग जा कर छात्र साबित करते हैं कि वे बहुत पढ़ाकू हैं. दिनभर स्कूल, फिर कोचिंग. मैं इसे कमजोर दिमाग मानता हूं. जैसे पहले कमजोर को ट्यूशन दी जाती थी. लेकिन अब जमाना बदल गया है. कोचिंग जाने वालों को पढ़ाकू माना जाता है. मैं ने गुस्से से बेटे की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘जा कर अपना काम करो.’’ बेटे तो फिर बेटे ही होते हैं. तुरंत मुंह घुमा कर अंदर चला गया और मैं बिना चश्मे के बाहर निकल गया.

किराना दुकानदार को सामान की लिस्ट दी. वह सामान निकालता रहा. मैं इधरउधर सड़कों पर नजर घुमाता रहा.

दुकानदार आधा सामान दुकान के बाहर रखे हुए हैं.

तंबाकू खाते हुए मुझे भी थूकने की इच्छा हुई. मैं ने काफी देर पीक को मुंह में रखा और नाली, सड़क का किनारा तलाशता रहा. अंत में मुझे भी सड़क पर ही थूकना पड़ा. दुकानदार ने बिल देते हुए कहा, ‘‘चैक कर लीजिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई, आज मैं अपना चश्मा लाना भूल गया.’’ उस ने मेरे चेहरे पर इस तरह दृष्टि डाली जैसे मैं ने शराब पी रखी हो. फिर कहा, ‘‘लगा तो है.’’ मेरा हाथ आंखों पर गया और… अरे, यह तो पहले से ही लगा हुआ था और मैं पूरे घर में तलाश रहा था. लेकिन मुझे समझ क्यों नहीं आया. शायद आदत पड़ जाने पर उस चीज का भार महसूस नहीं होता.

पत्नी तो खैर मेरे कहने पर ढूंढ़ने लगी थी. उसे विश्वास था कि नहीं मिल रहा होगा. लेकिन बेटे को तो पता होगा कि चश्मा लगाया हुआ है मैं ने. लेकिन मैं ने कहां बताया था गुस्से में कि चश्मा नहीं मिल रहा है. बताता तो शायद वह बता देता और इतनी मानसिक यंत्रणा न झेलनी पड़ती. न ही दुकानदार के सामने शर्मिंदा होना पड़ता. बच्चों से प्रेम से ही बात करनी चाहिए. वह पूछता. मैं बताता कि चश्मा नहीं मिल रहा है तो वह बता देता.

मांबाप की डांट या गुस्से में बात करने से बच्चे और चिढ़ जाते हैं. नए खून नए मस्तिष्क पर भरोसा करना सीखना चाहिए. उन के बाप ही न बने रहना चाहिए. मित्र भी बन जाना चाहिए जवान होते बच्चों के पिता को.

बेटे को पता तो चल ही गया होगा कि चश्मा तलाश रहा था मैं और अब तक उस ने अपनी मां को बता भी दिया होगा कि चश्मा पिताजी पहने हुए थे. दोनों मांबेटे हंस रहे होंगे मुझ पर. अब भविष्य में कोई चीज गुम होने पर शायद उतनी संजीदगी से तलाशने में मदद भी न करें.

मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मुझे समझ में क्यों नहीं आया कि मैं चश्मा लगाए हुए था.

अब दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि नियत स्थान से चश्मा उठा कर मैं ने लगाया कब था? तैयार होने के बाद. गाड़ी की चाबी उठाने के बाद या पानी पीने के बाद या इस सब के पहले या उस से भी बहुत पहले. कहीं ऐसा तो नहीं कि सुबह समाचारपत्र पढ़ते समय.

यह भी संभव है कि रात में पहन कर ही सो गया था. दिमाग पर काफी जोर डालने के बाद भी पक्का नहीं कर पाया कि चश्मा लगाया कब था और मैं अभी भी उसी सोच में डूबा हुआ था. और यह सोच तब तक नहीं निकलने वाली थी जब तक कोई दूसरी चीज न मिलने पर उस की खोज में दिमाग न उलझे. Family Story In Hindi

Hindi Family Story: ख्वाहिशें

 Hindi Family Story, लेखक – मनोज शर्मा

जो मुझे ठीक लगता है वही ठीक है, वही सच है. जिंदगी मेरी है, मैं जैसे चाहे जियूं, किसी का क्या जाता है. फिर यह सब मुझे पिछली जिंदगी से बेहतर लगता है. यों घिसटघिसट कर जीने से तो अच्छा है कि सोसाइटी में कुछ बन कर जिया जाए.

कल तक कोई साथ नहीं था, आज चार लोग साथ हैं. हर आदमी को पैसे की भूख है और शायद यही सच है, क्योंकि पैसे के बिना कुछ नहीं, कुछ भी नहीं. एक दिन भी नहीं जिया जा सकता. हां सच में, एक दिन भी नहीं.

जसपाल ने सिगरेट के धुएं को हवा में फेंकते हुए गाड़ी का दरवाजा खोला और मुसकराते हुए कहा, ‘‘ओह, कम औन गौरी…’’

गौरी ने शरारतभरी नजरों से जसपाल को देखा और उस के बगल में बैठ गई. कार धुआं छोड़ते हुए आगे बढ़ने लगी. साइड मिरर में गौरी ने खुद को निहारा. वह लाल फूलों वाली साड़ी में आज काफी खूबसूरत दिख रही थी.

‘‘अच्छा गौरी, कल तो आ रही हो न?’’ जसपाल ने गौरी की आंखों में ?ांकते हुए पूछा.

‘‘वैसे, कल तुम कर क्या रही हो?’’ जसपाल ने हौर्न देते हुए उस से दोबारा पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं. पर कल रितु के स्कूल जाना है… वह पैरेंट मीटिंग हैं न कल स्कूल में,’’ गौरी ने बालों के जूड़े को ठीक करते हुए जवाब दिया.

गौरी का पूरा जिस्म मीठी खुशबू से महक रहा था. जसपाल उसे मुसकराते हुए देखता रहा. गाड़ी स्पीड ब्रेकर पर थोड़ा उछली. जसपाल ने गियर बदलते हुए गाड़ी को दाईं ओर मोड़ दिया. गौरी का बदन हलका सा ठिठका.

सड़क पर अलसाई शाम की उदासी के बीच लोग दफ्तरों से घर लौट रहे थे. कुछ छोटी गाडि़यां, मोटरें और सड़क के किनारे पैदल चलते लोग.

इन पैदल चलने वाले लोगों की भी क्या जिंदगी है, जसपाल ने उन की तरफ देख कर तेज हौर्न दिया और भोंड़ी सी हंसी हंस कर उस ने गाड़ी को सड़क के किनारे पार्क किया.

जसपाल सिगरेट का पैकेट खरीदने के लिए बाहर निकला. दरवाजा बंद होते ही गाड़ी में अकेली गौरी मिरर में खुद को बड़े प्यार से देखती रही. उस ने महसूस किया कि आज वह सच में ही खूबसूरत दिख रही है. उस ने बाईं कलाई में बंधी घड़ी में समय देखा, साढ़े 8 हो चुके थे.

गौरी ने बंद गाड़ी के काले शीशों में से बाहर देखा. जसपाल सिगरेट की टपरी पर बतिया रहा था. गौरी उसे पीली रोशनी में बाहर देखती रही. उसे लगा कि असलियत में यही जिंदगी है. गाड़ी, बंगला और सभी सुखसुविधाएं. अब कोई दुखदर्द नहीं. न घर की चिंता, न खानेपीने की, बस मौज ही मौज. शायद यही जिंदगी है और यही सचाई है.

4 साल पहले तक जैसे नरक में जी रही थी गौरी. वह मुफलिसी भरी जिंदगी जहां दो रोटियां भी वक्त पर नसीब नहीं होती थीं. घर वालों ने नीरज में क्या देखा था मेरे लिए, जो उस के साथ मुझे ब्याह दिया था. जसपाल की काली आकृति शीशों में हिलडुल रही थी.

नीरज अपने साथ एक गरीब परिवार लिए था, जिस में उस की बूढ़ी मां और विधवा बहन थी, जो पुराने सिद्धांतों पर जीते थे. घर के नाम पर वह टूटाफूटा कोठरा था, जहां पेटभर खाना भी नसीब नहीं होता था. पहले मां मर गई और फिर खुद नीरज भी और बहन भी गौरी को ऐसे हालात में तनहा छोड़ कर भाग गई.

उस घर में गौरी के सारे सपने चकनाचूर होते गए. काश, नीरज से शादी न हुई होती तो…

गौरी ने फ्रंट मिरर की लाइट जला कर खुद को देखा और वह अपने कानों में पहनी बड़ीबड़ी बालियों को देखने लगी. हलकी पीली लाइट में बालियां चमक रही थीं.

रितु का जन्म न हुआ होता तो बात दूसरी ही होती. गौरी ने अपने नरम गालों पर उंगली फिराते हुए बाहर देखा. जसपाल वापस लौट रहा था. वह उसे ऐसे देख रही थी, जैसे जसपाल ही उस के लिए सबकुछ हो.

जसपाल ने दरवाजा खोला. उस की आंखों में मीठी चमक थी. गौरी हलका सा खिसक कर बाहर की ओर देखने लगी. स्ट्रीट लाइट की सड़क पर तेज चमक थी.

एक पियक्कड़ गाड़ी के पास से गुजरा. वह शीशे को बजाते हुए कुछ बोलता रहा.

जसपाल ने उसे गुस्से से देखा और गाड़ी दौड़ा दी. पियक्कड़ कुछ देर गाड़ी के पीछे भागता रह गया. गाड़ी चली गई. आसपास की सब चीजें और वह पियक्कड़, जो बाहर सड़क पर दिखाई दे रहा थे, पलभर में ही सब ओ?ाल होते गए.

जसपाल ने गौरी को गंभीरता से देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ गौरी, तुम इतनी चुप क्यों हो? कम औन डियर. यही जिंदगी है. बदलाव का नाम ही जिंदगी है. जिंदगी में तुम्हारी अगर कोई भी ख्वाहिश, हो तो मुझे बताओ.

‘‘मैं ने तुम्हें नीरज के चले जाने के बाद कहा था न कि तुम अगर अच्छी जिंदगी और ऐश चाहती हो, तो रहनसहन और खानपान में थोड़ा बदलाव करो और मेरा साथ दो. फिर देखो, असली जिंदगी जीने का मजा.’’

गौरी गंभीर थी. वह चुप ही रही.

‘‘अरे, तुम कहां फिर पुराने दिनों में चली जाती हो. अच्छा, सचसच बताओ कि यह जिंदगी बेहतर है या वह, जिसे तुम ने 4 साल पहले जिया है? आज तुम समाज में चाहे एक विधवा हो, पर क्या यह जिंदगी उस जिंदगी से ज्यादा मजेदार नहीं है? सफेद साड़ी में जिंदगी इतनी बड़ी और नीरस दिखाई देती. तुम तो जानती ही हो कि मेरा तो जिंदगी में एक ही उसूल है, ख्वाहिशों को पूरा करना सीखो, चाहे जिस भी रास्ते से, वरना जीना छोड़ दो.

‘‘आज तुम्हारे पास नौकरचाकर और रितु के लिए आया है. अपना बंगला है. न किराया देने की टैंशन.

‘‘तुम्हारी सारी परेशानियां अब मेरी हैं. फिर जवानी जीने की चीज है, यों ही रो कर गंवा देने की नहीं. जितनी ऐश अब है तुम्हारी, शायद ही इस की कल्पना भी तुम कर पाती. और सच बताऊं तो तुम्हारा साथ मुझे और हम सब को खूब भाता है. फिर कुदरत ने एक ही तो जिंदगी दी है, वह भी रोधो कर जीनी पड़े, तो उस का क्या फायदा. ऐसे जीने से तो मरना ही अच्छा. सच बताऊं तो अच्छा ही हुआ, जो नीरज…’’ जसपाल बोलतेबोलते चुप हो गया और गौरी के चेहरे को देखता रहा.

गौरी भी जसपाल की नशीली नीली आंखों को देखती रही. जसपाल पैसे वाला रईस है, जिस के लिए जिंदगी केवल और केवल ऐश करने के लिए है. यों तिलतिल कर खत्म करने के लिए नहीं. लंबा और गठीला बदन, आंखों पर काला चश्मा, सिगरेट का शौकीन.

नीरज एक वक्त जसपाल के कारखाने में काम करता था. 15-20 हजार रुपए की सैलरी थी उस की. इतने रुपए में क्या ऐश की जा सकती है, बस जी ही लिया जाए, वही काफी है.

गौरी ने नीरज के जीतेजी जसपाल को 2-3 बार ही देखा था. जसपाल तेजतर्रार और आकर्षक मर्द है, जिसे जीना आता है. उस की ही बदौलत आज गौरी के पास उसी की कंपनी में अच्छी नौकरी है, घर है और सच कहें तो ऐश ही ऐश है.

‘‘कहां जा रहे हो, घर नहीं चलना क्या? जानते हो, पौने 9 बज चुके हैं,’’ गौरी ने जसपाल को देखते हुए पूछा, ‘‘और फिर रितु को भी तो देखना है.’’

‘‘अरे, चली जाना. घर पर ही तो जाना है. बस आधा घंटा और… तुम्हें अपना नया बंगला दिखाना है,’’ जसपाल की आंखों में नशीली शरारत थी.

‘‘अरे, चलो भी तो. मैं हूं न तुम्हारे साथ. तुम तो ऐसे कर रही हो जैसे पहली बार जा रही हो,’’ और वह एक आंख बंद कर मुसकराने लगा.

जसपाल की गाड़ी भीनीभीनी महक से भरी थी. गौरी ने गाड़ी के भीतर के कमजोर अंधेरे में उस की नीली आंखों को देखा, जो बारबार उसे ही देख रही थीं. वह पलभर में उस के इशारे को सम?ा गई.

‘‘ओके, रितु की आया सावित्री को फोन लगाओ,’’ गौरी बोली.

जसपाल ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और गौरी के घर पर नंबर मिलाया.

दूसरी ओर से आया सावित्री की आवाज आई, ‘हैलो..’

‘‘हां सावित्री, रितु ने खाना खाया या नहीं?’’ गौरी इस ओर से फोन पर

बोलने लगी.

‘हां मेमसाब, रितु बिटिया ने खाना खा लिया है. बस अभीअभी सोई है. क्या जगाऊं?’ सावित्री पूछने लगी.

‘‘नहींनहीं, कोई जरूरत नहीं… ऐसा करो, तुम भी कुछ खा कर अभी वहीं रुको. मैं अभी जसपाल साहब के साथ हूं, थोड़ा टाइम और लगेगा. और हां, अगर इस बीच रितु उठ जाए, तो बोलना कि मैं 10 बजे तक पहुंच जाऊंगी. तुम संभाल लेना प्लीज उसे.

‘‘अच्छा, मैं अभी बहुत बिजी हूं. फोन रखती हूं,’’ कह कर उस ने फोन कट कर दिया.

जसपाल कंधे उचका कर मुसकराने लगा. यह जसपाल के लिए कोई नई बात नहीं थी और अब शायद गौरी के लिए भी. अब उन्हें इस जिंदगी में ज्यादा मजा आता है.

‘‘कहो, खुश तो हो न गौरी?’’ जसपाल ने गौरी की कलाई को छूते हुए पूछा.

गौरी चुप रही, पर उस के होंठों पर नरम हंसी थी, जिस का मतलब जसपाल खूब समझता था. गाड़ी सड़क पर दौड़ती रही. जसपाल ने गाड़ी की स्पीड बढ़ाते हुए गौरी की ओर देखा और कहा, ‘‘चलो, तुम्हें आज एक और सरप्राइज देता हूं…’’

गौरी सरप्राइज की बात सुन कर मंदमंद मुसकराने लगी मानो उस की एक और ख्वाहिश आज पूरी होने वाली हो, क्योंकि जब भी जसपाल ने कोई सरप्राइज दिया, उसे जिंदगी में कोई न कोई नई सौगात ही मिली है.

फिर इस शरीर का क्या है, अगर इस के सहारे कुछ मिलता भी है, तो गलत ही क्या है. जिंदगी में ऐसे दिन फिर कहां… आज जवानी है तो सब मिल रहा है, कल जब शरीर ही काम का नहीं रहेगा, फिर कौन साथ होगा. न जसपाल और न दूसरे सब. ओ जसपाल कितने अच्छे हैं, सच में,आज गौरी नई कार पा कर बहुत खुश थी. यह शौर्टकट सच में उसे खूब भाने लगा था.

10 बजे गौरी अपनी नई गाड़ी में घर पहुंची. तेज ठंडी हवा में उस के उलझे बिखरे बाल कंधे की ओर ढुलक रहे थे. आज उस ने फिर से वाइन भी पी थी. वह दरवाजे पर पहुंची. उस ने अंगड़ाई लेते हुए सावित्री की तरफ देखा. सावित्री का पीला और उदास चेहरा गौरी को देखता रहा.

‘‘कहो सावित्री, कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘मेमसाब, कुछ पैसे चाहिए,’’ कहते हुए वह खामोश हो गई और घर के बाहर फैले सन्नाटे को देखने लगी.

सावित्री क्योंकि इस महीने की सैलरी ले चुकी थी, इसलिए उस की पैसे मांगने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

‘‘सैलरी तो तुम ले चुकी हो न,’’ गौरी ने सावित्री की आंखों में ?ांकते

हुए कहा.

‘‘जी मेमसाब, मेरा मरद बहुत बीमार है. अब उस की नौकरी भी छूट गई है. केवल मैं ही थोड़ा गुजरबसर कर रही हूं,’’ उस की आवाज में गहरा दुख था.

‘‘अच्छा, कितने पैसे चाहिए?’’ गौरी ने सावित्री के कंधे पर हाथ रख कर पूछा.

‘‘बस, 1,000 रुपए दे दीजिए, मैं बहुत जल्दी आप को लौटा दूंगी. आप यकीन कीजिए, उन के इलाज के लिए चाहिए… और हां, मैं कल केवल शाम को ही आ सकूंगी. मुझे कल उन के ऐक्सरे करवाने हैं,’’ वह असहाय सी हो कर बोली.

‘‘ठीक है. अब तुम जाओ और ये लो 5,000 रुपए,’’ गौरी ने नोटों की एक गड्डी से कुछ नोट निकाल कर सावित्री की ओर बढ़ा दिए.

‘‘नहीं मेमसाब, 1,000 रुपए ही काफी हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, अभी तुम रख लो, तुम्हें जरूरत होगी,’’ गौरी सावित्री की रोती आंखों को देखती रही.

सावित्री कुछ देर रुकी, फिर वह नोट गिनते हुए वहां से लौट गई.

फोन की घंटी बजी. जसपाल था, ‘कहो डियर, पहुंच गई. ओ सौरी, मैं तो आज बिलकुल ही टूट गया था, पर यकीन करो मजा आ गया.

‘और हां, मेरा सरप्राइज कैसा लगा? गाड़ी को सही से पार्किंग में लगा दिया न? और हां, मैं ने उस का टैंक फुल करवा दिया है. तेल की कोई टैंशन न लेना तुम. कहो तो एक ड्राइवर रखवा दूं तुम्हारे लिए?

‘डियर, तुम यकीन करो, मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूं. अच्छा अभी कामिनी का फोन आ रहा है… रखता हूं,’ फोन कट हो गया था.

गौरी अकेले में सोचते हुए, ‘मैं कितनी खुशनसीब हूं. सबकुछ तो है मेरे पास. बस, एक पति ही तो नहीं. फिर ऐसे पति का मुझे करना ही क्या, जो न ढंग का खिला सके. बिना घर, बिना गाड़ी के भी क्या जिंदगी. आज नीरज नहीं भी है तो क्या हुआ, बाकी सबकुछ तो है मेरे पास…’ और वह अकेले में पागलों की तरह हंसने लगी.

‘मुझे लगता है कि हमें जिंदगी की प्राथमिकताओं को समझना चाहिए. जो हमारे लिए जरूरी है और जिस काम से हमें मजा मिलता है, संतुष्टि मिलती है, हकीकत में वही सच्ची जिंदगी है, बाकी सब बेकार है.

‘आज मैं बड़ी सोसाइटी में जी रही हूं. यह मेरी जिंदगी है, केवल मेरी. मैं जैसे चाहे जीयूं,’ उस ने सिगरेट जलाई और बालकनी में जा कर दूर अंधेरे में देखती रही, मानो अंधेरे में सब छिप जाता है. इच्छाएं, सपने और ख्वाहिशें भी.

‘आज जिंदगी में जो उजाला है, वह मेरी ही बदौलत है…’ उस ने लंबा कश खींचते हुए आसमान में झिलमिलाते तारों को देखा और सोचने लगी, ‘कितनी चमक है इन तारों में. जो दिखाई दे रहा है, वही चमक रहा है. वैसे तो आसमान में अनगिनत सितारे हैं, पर चमक उन्हीं की नजर आती है, जो चमकना चाहते हैं.

‘जिंदगी में शायद कुछ भी गलत नहीं, केवल सोच या नजरिया ही किसी भी चीज को गलत या सही ठहराता है. आज जो मेरी नजर में सही है, वह मेरे लिए सही है और अगर मैं दूसरों के नजरिए से जीने लगूं, तो सावित्री की तरह जीना होगा.

‘ये गरीब लोग गरीब नहीं, बल्कि पागल हैं, कमजोर हैं, जो जिंदगी की सचाई से कोसों दूर हैं. अगर मैं अपनी जिंदगी में इस तरह का बदलाव न करती, तो शायद मुझे भी सावित्री की तरह दरदर की ठोकरें ही खानी पड़तीं…’

‘‘1,000 रुपए के लिए, केवल 1,000 के लिए…’’ गौरी हंस रही थी और उस की जबान लड़खड़ा रही थी, ‘‘ये लोग अपनी सोच नहीं बदल सकते तो जिएं ऐसे ही नरक में…’’

धीरेधीरे आसपास के बंगलों की लाइट कम होने लगी थी. गौरी पार्किंग में खड़ी सफेद चमचमाती कार को देख कर मंदमंद मुसकरा रही थी, मानो उस की जिंदगी का कोई बड़ा सपना आज पूरा हो गया हो.

नींद गौरी की आंखों से कोसों दूर थी. वह कुछ देर आसमान के तारों को ताकती रही. अंदर कमरे में मखमली गद्दे पर रितु गहरी नींद में सोई हुई थी. गौरी उस के नरम गालों को चूमते हुए उस के पास लेट गई. Hindi Family Story

Hindi Family Story: नाक का प्रश्न – संगीता ने संदीप को कौन सा बहाना दिया?

Hindi Family Story: डाकिए से पत्र प्राप्त होते ही संगीता उसे पढ़ने लगी. पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे का रंग उड़ गया. उस की भृकुटियां तन गईं.

पास ही बैठे संगीता के पति संदीप ने पूछा, ‘‘किस का पत्र है?’’

संगीता ने बुरा मुंह बनाते हुए उत्तर दिया, ‘‘तुम्हारे भाई, कपिल का.’’

‘‘क्या खबर है?’’

‘‘उस ने तुम्हारी नाक काट दी.’’

‘‘मेरी नाक काट दी?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तुम्हारे भाई ने नए मौडल की नई कार खरीद ली है और उस ने तुम्हें पचमढ़ी चलने का निमंत्रण दिया है.’’

‘‘तो इस में मेरी नाक कैसे कट गई?’’

‘‘तो क्या बढ़ गई?’’ संगीता ने झुंझलाहट भरे स्वर में कहा.

संदीप ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘इस में क्या शक है? घर में अब 2 कारें हो गईं.’’

‘‘तुम्हारी खटारा, पुरानी और कपिल की चमचमाती नई कार,’’ संगीता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

संदीप ने पहले की तरह ही शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘बिलकुल. दोनों जब साथसाथ दौड़ेंगी, तब लोग देखते रह जाएंगे.’’

‘‘तब भी तुम्हारी नाक नहीं कटेगी?’’ संगीता ने खीजभरे स्वर में पूछा.

‘‘क्यों कटेगी?’’ संदीप ने मासूमियत से कहा, ‘‘दोनों हैं तो एक ही घर की?’’

संगीता ने पत्र मेज पर फेंकते हुए रोष भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारी बुद्धि को हो क्या गया है?’’

संगीता के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय संदीप अपने भाई का पत्र पढ़ने लगा. पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. उधर संगीता की पेशानी पर बल पड़ गए.

पत्र पूरा पढ़ने के बाद संदीप चहका, ‘‘कपिल ने बहुत अच्छा प्रोग्राम बनाया है. बूआजी के यहां का विवाह निबटते ही दूल्हादुलहन के साथ सभी पचमढ़ी चलेंगे. मजा आ जाएगा. इन दिनों पचमढ़ी का शबाब निराला ही रहता है. 2 कारों में नहीं बने तो एक जीप और…’’

संगीता ने बात काटते हुए खिन्न स्वर में कहा, ‘‘मैं पचमढ़ी नहीं जाऊंगी. तुम भले ही जाना.’’

‘‘तुम क्यों नहीं जाओगी?’’ संदीप ने कुतूहल से पूछा.

‘‘सबकुछ जानते हुए भी…फुजूल में पूछ कर मेरा खून मत जलाओ,’’ संगीता ने रूखे स्वर में उत्तर दिया.

संदीप ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम अपना खून मत जलाओ, उसे बढ़ाओ. चमचमाती कार में बैठ कर पचमढ़ी में घूमोगी तो खून बढ़ जाएगा.’’

‘‘मेरा खून ऐसे नहीं बढ़ेगा.’’

‘‘तो फिर कैसे बढ़ेगा?’’

‘‘अपनी खुद की नए मौडल की कार में बैठने पर ही मेरा खून…’’

‘‘वह कार क्या हमारी नहीं है?’’ संदीप ने बात काटते हुए पूछा.

संगीता ने खिन्न स्वर में उत्तर दिया, ‘‘तो तुम बढ़ाओ अपना खून.’’

‘‘हां, मैं तो बढ़ाऊंगा.’’

इसी तरह की नोकझोंक संगीता एवं संदीप में आएदिन होने लगी. संगीता नाक के प्रश्न का हवाला देती हुई आग्रह करने लगी, ‘‘अपनी खटारा कार बेच दो और कपिल की तरह चमचमाती नई कार ले लो.’’

संदीप अपनी आर्थिक स्थिति का रोना रोते हुए कहने लगा, ‘‘कहां से ले लूं? तुम्हें पता ही है…यह पुरानी कार ही हम ने कितनी कठिनाई से ली थी?’’

‘‘सब पता है, मगर अब कुछ भी कर के नहले पर दहला मार ही दो. कपिल की नाक काटे बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा.’’

‘‘उस की ऊपर की आमदनी है. वह रोजरोज नईनई चीजें ले सकता है. फिलहाल हम उस की बराबरी नहीं कर सकते, बाद में देखेंगे.’’

‘‘बाद की बाद में देखेंगे. अभी तो उन की नाक काटो.’’

‘‘यह मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘तो मैं बूआजी के यहां शादी में भी नहीं जाऊंगी.’’

‘‘पचमढ़ी भले ही मत जाना, बूआजी के यहां शादी में जाने में क्या हर्ज है?’’

‘‘किस नाक से जाऊं?’’

‘‘इसी नाक से जाओ.’’

‘‘कहा तो, कि यह तो कट गई. कपिल ने काट दी.’’

‘‘यह तुम्हारी फुजूल की बात है. मन को इस तरह छोटा मत करो. कपिल कोई गैर नहीं है, तुम्हारा सगा देवर है.’’

‘‘देवर है इसीलिए तो नाक कटी. दूसरा कोई नई कार खरीदता तो न कटती.’

‘‘तुम्हारी नाक भी सच में अजीब ही है. जब देखो, तब कट जाती है,’’ संदीप ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

बूआजी की बिटिया के विवाह की तिथि ज्योंज्यों नजदीक आने लगी त्योंत्यों नई कार के लिए संगीता का ग्रह बढ़ने लगा. वह संदीप को सचेत करने लगी, ‘‘देखो, मैं नई कार के बिना सच में नहीं जाऊंगी बूआजी के यहां. मेरी बात को हंसी मत समझना.’’

ऐसी चेतावनी पर संदीप का पारा चढ़ जाता. वह झल्ला कर कहता, ‘‘नई कार को तुम ने बच्चों का खेल समझ रखा है क्या? पूरी रकम गांठ में होने पर भी कार हाथोंहाथ थोड़े ही मिलती है.’’

‘‘पता है मुझे.’

‘‘बस, फिर फुजूल की जिद मत करो.’’

‘‘अपनी नाक रखने के लिए जिद तो करूंगी.’’

‘‘मगर जरा सोचो तो, यह जिद कैसे पूरी होगी? सोचसमझ कर बोला करो, बच्चों की तरह नहीं.’’

‘‘यह बच्चों जैसी बात है?’’

‘‘और नहीं तो क्या है? कपिल ने नई कार ले ली. तो तुम भी नई कार के सपने देखने लगीं. कल वह हैलिकौप्टर ले लेगा तो तुम…’’

‘‘तब मैं भी हैलिकौप्टर की जिद करूंगी.’’

‘‘ऐसी जिद मुझ से पूरी नहीं होगी.’’

‘‘जो पूरी हो सकती है, उसे तो पूरी करो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यही कि नई कार नहीं तो उस की बुकिंग तो करा दो ताकि मैं नातेरिश्ते में मुंह दिखाने लायक हो जाऊं.’’

कपिल की तनी हुई भृकुटियां ढीली पड़ गईं. उस के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. वह बोला, ‘‘तुम सच में अजीब औरत हो.’’

संगीता ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘‘हर पत्नी अजीब होती है. उस के पति की नाक ही उस की नाक होती है. इसीलिए पति की नाक पर आई आंच वह सहन नहीं कर पाती. उस की यही आकांक्षा रहती है कि उस के पति की नाक ऊंची रहे, ताकि वह भी सिर ऊंचा कर के चल सके. इस में उस का स्वार्थ नहीं होता. वह अपने पति की प्रतिष्ठा के लिए ही मरी जाती है. तुम पत्नी की इस मानसिकता को समझो.’’

संगीता के इस कथन से संदीप प्रभावित हुआ. इस कथन के व्यापक संदर्भों ने उसे सोचने पर विवश किया. उस के भीतर गुदगुदी सी उठने लगी. नाक के प्रश्न से जुड़ी पत्नी की यह मानसिकता उसे बड़ी मधुर लगी.

इसी के परिणामस्वरूप संदीप ने नई कार की बुकिंग कराने का निर्णय मन ही मन ले लिया. उस ने सोचा कि वह भले ही उक्त कार भविष्य में न खरीद पाए, किंतु अभी तो वह अपनी पत्नी का मन रखेगा

संगीता को संदीप के मन की थाह मिल न पाई थी. इसीलिए वह बूआजी की बिटिया के विवाह के संदर्भ में चिंतित हो उठी. कुल गिनेगिनाए दिन ही अब शेष रह गए थे. उस का मन वहां जाने को हो भी रहा था और नाक का खयाल कर जाने में शर्म सी महसूस हो रही थी.

बूआजी के यहां जाने के एक रोज पूर्व तक संदीप इस मामले में तटस्थ सा बने रहने का अभिनय करता रहा एवं संगीता की चुनौती की अनसुनी सी करता रहा. तब संगीता अपने हृदय के द्वंद्व को व्यक्त किए बिना न रह सकी. उस ने रोंआसे स्वर में संदीप से पूछा, ‘‘तुम्हें मेरी नाक की कोई चिंता नहीं है?’’

‘‘चिंता है, तभी तो तुम्हारी बात मान रहा हूं. तुम अपनी नाक ले कर यहां रहो. मैं बच्चों को अपनी पुरानी खटारा कार में ले कर चला जाऊंगा. वहां सभी से बहाना कर दूंगा कि संगीता अस्वस्थ है,’’ संदीप ने नकली सौजन्य से कहा.

‘‘तुम शादी के बाद पचमढ़ी भी जाओगे?’’ संगीता ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘अवश्य जाऊंगा. बच्चों को अपने चाचा की नई कार में बैठाऊंगा. तुम नहीं जाना चाहतीं तो यहीं रुको और यहीं अपनी नाक संभालो.’’

संगीता भीतर ही भीतर घुटती रही. कुछ देर की चुप्पी के बाद उस ने विचलित स्वर में पूछा, ‘‘बूआजी बुरा तो नहीं मानेंगी?’

‘‘बुरा तो शायद मानेंगी? तुम उन की लाड़ली जो हो.’’

‘‘इसीलिए तो..?’’

संदीप ने संगीता के इस अंतर्द्वंद्व का मन ही मन आनंद लेते हुए जाहिर में संजीदगी से कहा, ‘‘तो तुम भी चली चलो?’’

‘‘कैसे चलूं? कपिल ने राह रोक दी है.’’

‘‘हमारी तरह नाक की चिंता छोड़ दो.’’

‘‘नाक की चिंता छोड़ने की सलाह देने लगे, मेरी बात रखने की सुध नहीं आई?’’

‘‘सुध तो आई, मगर सामर्थ्य नहीं है.’’

‘‘चलो, रहने दो. बुकिंग की सामर्थ्य तो थी? मगर तुम्हें मेरी नाक की चिंता हो तब न?’’

‘‘तुम्हारी नाक का तो मैं दीवाना हूं. इस सुघड़, सुडौल नाक के आकर्षण ने ही…’’

संगीता ने बात काटते हुए किंचित झल्लाहटभरे स्वर में कहा, ‘‘बस, बातें बनाना आता है तुम को. मेरी नाक की ऐसी ही परवा होती तो मेरी बात मान लेते.’’

‘‘मानने को तो अभी मान लूं. मगर गड्ढे में पैसे डालने का क्या अर्थ है? नई का खरीदना हमारे वश की बात नहीं है.’’

‘‘वे पैसे गड्ढे में न जाते. वे तो बढ़ते और मेरी नाक भी रह जाती.’

‘‘तुम्हारी इस खयाली नाक ने मेरी नाक में दम कर रखा है. यह जरा में कट जाती है, जरा में बढ़ जाती है.’

इस मजाक से कुपित हो कर संगीता ने रोषभरे स्वर में कहा, ‘‘भाड़ में जाने दो मेरी नाक को. तुम मजे से नातेरिश्ते में जाओ, पचमढ़ी में सैरसपाटे करो, मेरी जान जलाओ.’’

इतना कहतेकहते वह फूटफूट कर रो पड़ी. संदीप ने अपनी जेब में से नई कार की बुकिंग की परची निकाल कर संगीता की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘रोओ मत, यह लो.’’

संगीता ने रोतेरोते पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘तुम्हारी नाक,’’ संदीप ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम्हारी नाक, देखो.’’

परची पर नजर पड़ते ही संगीता प्रसन्न हो गई. उस ने बड़ी मोहक दृष्टि से संदीप को निहारते हुए कहा, ‘‘तुम सच में बड़े वो हो.’’

‘‘कैसा हूं?’’ संदीप ने शरारती लहजे में पूछा.

‘‘हमें नहीं मालूम,’’ संगीता ने उस परची को अपने पर्स में रखते हुए उत्तर दिया. Hindi Family Story

Hindi Family Story: भ्रम – आखिर क्या वजह थी प्रभाकर के इनकार की

Hindi Family Story: ‘हां, मैं तुम से प्यार करता हूं, सुकेशी, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’ मैं अपने बंगले की वाटिका में एकांत में बैठी डा. प्रभाकर की इस बात के मर्म को समझने का प्रयास कर रही थी, ‘वे मुझ से प्यार भी करते हैं और विवाह के प्रस्ताव को इनकार भी करते हैं.’

उन्होंने जिस दृढ़ता से ये शब्द कहे थे, उस के बाद उन के कमरे में बैठे रहने का मेरा साहस समाप्त हो चुका था. मैं कितनी मूर्ख हूं, उन के सामने भावना में बह कर इतना बड़ा प्रस्ताव रख दिया. हालांकि, वे मेरे इतने निकट आ चुके थे कि यह प्रस्ताव बड़ा होते हुए भी उतना बड़ा नहीं रह गया था.

गत वर्ष के सत्र में मैं उन की कक्षाओं में कई महीने तक सामान्य छात्रा की भांति ही रही थी, किंतु जब उन्होंने मेरी रुचियों को जाना तो…

कालेज के उद्यान में पहुंच कर जब वे विभिन्न फूलों को बीच से चीर कर उस की कायिक प्रक्रिया को बताते तो हम सब विस्मय से नर और मादा फूलों के अंतर को समझने का प्रयास करते.

वह शायद मेरी धृष्टता थी कि एक दिन प्रभाकरजी से उद्यान में ही प्रश्न कर दिया था कि क्या गोभी के फूल में भी नर व मादा का अंतर आंका जा सकता है?

उन्होंने उस बात को उस समय अनसुना कर दिया था, किंतु उसी दिन जब कृषि विद्यालय बंद हुआ तो उन्होंने मुझे गेट पर रोक लिया. मैं उन के पीछेपीछे अध्यापक कक्ष में चली गई थी. उन्होंने मुझे कुरसी पर बिठाते हुए प्रश्न किया था, ‘क्या तुम्हारे यहां गोभी के फूल उगाए जाते हैं?’

‘हां, हमारे बंगले के चारों ओर लंबीचौड़ी जमीन है. मेरे पिता उस के एक भाग में सब्जियां उगाते हैं. कुछ भाग में गोभी भी लगी है.’

‘तुम्हारे पिता क्या करते हैं?’

‘अधिवक्ता हैं, एडवोकेट.’

‘क्या उन्हें फूल, पौधे लगाने का शौक है?’

‘हमारे यहां फूलों के बहुत गमले हैं. एक माली है, जो सप्ताह में 2 दिन हमारी फुलवारी को देखने आता है.’

‘कहां है तुम्हारा बंगला?’

‘जौर्ज टाउन में, पीली कोठी हमारी ही है.’

‘मैं तुम्हारी बगिया देखने कभी आऊंगा.’

‘अवश्य आइए.’

उन्होंने स्वयं से मुझे रोका था. उन्होंने स्वयं ही मेरे घर आने की बात कही थी और दूसरे ही दिन आ भी गए थे. उन के आगमन के बाद ही तो मैं उन की विशिष्ट छात्रा बन गई थी.

मैं गत दिनों के संपूर्ण घटनाक्रम के बारे में सोचती चली जा रही थी. गतवर्ष गरमी की छुट्टियों में जब वे अपने गांव जाने लगे थे तो बातबात में बताया था कि उन के घर में खेती होती है. बड़े भाई खेती का काम देखते हैं.

उस के बाद तो वे बिना बुलाए मेरे घर आने लगे. क्या यह मेरे प्रति उन का आकर्षण नहीं था? मैं ने अपनी दृष्टि वाटिका के चारों ओर फेरी तो हर फूल और पौधे के विन्यास के पीछे डा. प्रभाकर के योगदान की झलक नजर आई. लौन में जो मखमली घास उगाई गई थी, वह प्रभाकरजी की मंत्रणा का ही फल था. उन्होंने जंगली घास को उखाड़ कर, नए बीज और उर्वरक के प्रयोग से बेरमूडा लगवाई. उन्होंने ही बैडमिंटन कोर्ट के चारों ओर कंबरलैंड टर्फ लगवाई.

प्रभाकरजी ने जब से रुचि लेनी शुरू की थी, हमारी बगिया में गंधराज गमक उठा, हरसिंगार झरने लगा, रजनीगंधा महकने लगी. यह सब उन के प्यार को दर्शाने के लिए क्या पर्याप्त नहीं था? हम अंगरेजी फूलों के बारे में अधिक नहीं जानते थे, स्वीट पी और एलाईसम की गंध से परिचय उन के द्वारा ही हुआ. केवल 8 महीने में प्रभाकरजी ने हमारे इस रूखेसूखे मैदान का हुलिया बदल कर रख दिया था.

मैं अपनी वाटिका के सौंदर्य के परिप्रेक्ष्य में डा. प्रभाकर को याद करते हुए उन के साथ बीते हुए उन क्षणों को भी याद करने लगी, जिन्होंने मेरे अंदर यह भाव जगा दिया था कि डा. प्रभाकर भी शायद अपने जीवन में मेरे साहचर्य की आकांक्षा रखते हैं. इधर, मैं तो उन के संपूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित हो गई थी.

मेरी टूटीफूटी कविताओं की प्रशंसा और कभीकभार रेखाचित्रों की अनुशंसा अथवा जलरंगों से निर्मित लैंडस्केप के प्रयास क्या सचमुच उन के हृदय को नहीं छू रहे थे. उन्होंने ही तो कहा था, ‘सुकेशी, तुम्हारी बहुआयामी प्रतिभा किसी न किसी रूप में यश के सोपानों को चढ़ते हुए शिखर पर पहुंचेगी.’

एक दिन बातोंबातों में मैं ने उन से यह भी बता दिया था कि मैं इस संपूर्ण बंगले की अकेली उत्तराधिकारी हूं, फिर भी मेरे प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया? क्या मैं कुरूप हूं? लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं.

उन के एक कमरे के फ्लैट में मैं कई बार गई थी. उन्होंने अनेक फूलों की एक मिश्रित वाटिका की पेंटिंग अपने प्रवेशद्वार पर ही लगा रखी थी, जो कि उन्हीं की बनाई हुई थी. यह बात उन्होंने जानबूझ कर मुझे बताई थी. आखिर इस बात का क्या अभिप्राय था? मेरी वाहवाह पर मुसकराए थे और मेरी परख की प्रशंसा में उन्होंने मेरे मस्तक पर एक चुंबन दिया था. और मैं बाहर से अंदर तक झंकृत हो उठी थी.

उस दिन एकांत के क्षणों में जो प्रस्ताव मैं ने उन के सामने रख दिया था, शायद उस चुंबन द्वारा ही प्रेरित था. उन्हें मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत नहीं करना चाहिए था. किंतु उन्होंने तो मुझ से आंखें बचा कर कहा, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’

मुझे प्रभाकरजी की बात से एक झटका सा लगा था. मैं ने कृषि विद्यालय जाना छोड़ दिया था और अंदर ही अंदर मुरझाने लगी थी.

सप्ताह में एक बार अवश्य ही आने वाले प्रभाकरजी जब 16 दिनों तक नहीं आए तो मैं बीते दिनों की संपूर्ण घटनाओं का निरूपण करने के बाद सोचने लगी, ‘मुझ से कौन सी भूल हुई? प्रभाकरजी नाराज हो गए क्या… लेकिन क्यों?’

आज ठीक 16 दिनों बाद अचानक संध्या समय प्रभाकरजी पधारे. मैं बाहर के कमरे में अकेले ही बैठी थी. मैं ने तिरछी दृष्टि से उन्हें देखा और एक मुसकान बिखेर कर स्वागत किया.

‘‘क्या बिलकुल अकेली हो?’’ उन्होंने गंभीर स्वर में पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘बाबूजी?’’

‘‘वे अभी कोर्ट से नहीं आए, शायद किसी के यहां रुक गए हैं.’’

‘‘और अम्माजी?’’

‘‘वे पड़ोस में गई हैं. आप कहां रहे इतने दिन?’’

‘‘मैं तो मात्र एक सप्ताह के लिए अपने गांव गया था. तुम ने विद्यालय जाना क्यों छोड़ दिया? पिछले सोमवार से तुम मुझे अपनी क्लास में दिखाई नहीं दीं. तुम्हारी सहेली सुरभि से पूछने पर ज्ञात हुआ कि तुम कई दिनों से विद्यालय नहीं जा रही हो, शायद जब से मैं छुट्टी पर गया?’’

लेकिन मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चुप क्यों हो?’’ वे हौले से बोले.

‘‘सच बताऊं? मैं तो दर से मुरझा गई हूं. कोई उल्लास ही नहीं रह गया. आप ने उस दिन इतना रूखा उत्तर दिया कि…’’

‘‘रूखा उत्तर नहीं, गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध होने चाहिए, वही यदि रहें तो…’’

‘‘आप इतने दकियानूसी हैं. आज के युग में…’’

‘‘दुनिया में जाने क्याक्या होता है, किंतु मैं जिसे जीवन की सफलता की ऊंचाइयों पर देखना चाहता हूं, उसे धोखा नहीं दे सकता.’’

‘‘धोखा, कैसा धोखा?’’

‘‘तुम शायद अभी तक भ्रम में थीं कि मैं कुंआरा हूं, लेकिन मैं विवाहित हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. अभी दूसरे बच्चे के जन्म पर ही गांव गया था.’’

यह बात सुन कर मेरी गरदन झुक गई. किंतु साहस बटोर कर प्रश्न कर बैठी, ‘‘यह कोई गढ़ी हुई कहानी तो नहीं? आप इतना अच्छा वेतन पाते हैं. यदि विवाहित हैं तो परिवार को अपने साथ क्यों नहीं रखते?’’

प्रभाकरजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैं अपने गांव से उखड़ कर शहर में रहना नहीं चाहता. यहां छोटा सा फ्लैट है, जो मेरे लिए पर्याप्त है. पौधों के शौक मैं जिस विपुलता से अपने गांव में पूरा कर लेता हूं, यहां 5 हजार रुपए मासिक पर भी वैसी जमीन नहीं मिल सकती.’’

उन के इस उत्तर के बाद कुछ देर को सन्नाटा छा गया. मैं समझ ही न सकी कि अब क्या बोलूं.

प्रभाकरजी कुछ समय तक मेरी मुखमुद्रा को पढ़ते रहे, फिर बोले, ‘‘मेरे गांव का विकास हो गया है-नहर आ गई है, अस्पताल है, समाज कल्याण कार्यालय है, बच्चों को इंटर तक पढ़ाने के लिए कालेज है. एक पक्की सड़क है. मैं अपने घरपरिवार को गांव से उखाड़ कर शहर में रोपना नहीं चाहता.’’

यह सब सुन कर मैं थोड़ी देर को चुप हो गई, किंतु फिर धीरे से बोली, ‘‘आप ने जिस अनौपचारिक रूप से मेरे घर आना शुरू कर दिया था, मैं ने उसे आप का आकर्षण मान लिया था.’’

मेरी बात सुन कर प्रभाकरजी ने कहा, ‘‘हां, मैं यह भूल गया था कि तुम ऐसा भी सोच सकती हो. दरअसल, तुम्हारे यहां निरंतर आने का कारण तो तुम्हारे बंगले से जुड़ा हुआ यह मैदान है, जो अब एक सुंदर वाटिका में बदल गया है. यहां मैं अपनी योजनाओं का प्रैक्टिकल प्रयोग कर सकता था. मैं ने तो सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम विवाह का प्रस्ताव भी…’’

मैं एक बार फिर चुप हो गई. पूर्व इस के कि मैं फिर कोई प्रश्न करती, प्रभाकरजी वहां से अचानक लौट पड़े.

प्रभाकर के मस्तिष्क में सुकेशी के प्रस्ताव की बात घुमड़ती रही और उन्हें अपने उस चुंबन की बात याद आई, जो उन्होंने सुकेशी के मस्तक पर दिया था. शायद उस चुंबन ने ही प्रेरित कर दिया था कि वह ऐसा प्रस्ताव रख गई थी. उसे पता नहीं, मस्तक के चुंबनों में और कपोलों अथवा होंठों के चुंबन में क्या अंतर होता है. काश, वह भारतीय परंपराओं से अवगत होती. Hindi Family Story

Hindi Family Story: कुछ इस तरह – जूही और उस की मां क्या यादों से बाहर निकल पाईं?

Hindi Family Story: रात के एक बजे जूही ने घर में सोए मेहमानों पर नजर डाली. उस की चाची, मामी और ताऊ व ताईजी कुछ दिनों के लिए रुक गए थे. बाकी मेहमान जा चुके थे. ये लोग जूही और उस की मम्मी कावेरी का दुख बांटने के लिए रुक गए थे.

जूही ने अब धीरे से अपनी मम्मी के बैडरूम का दरवाजा खोल कर झांका. नाइट बल्ब जल रहा था. जूही ने मां को कोने में रखी ईजीचेयर पर बैठे देखा तो उस का दिल भर आया. क्या करे, कैसे मां का दिल बहलाए. मां का दुख कैसे कम करे. कुछ तो करना ही पड़ेगा, ऐसे तो मां बीमार पड़ जाएंगी.

उस ने पास जा कर कहा, ‘‘मां, उठो, ऐसे बैठेबैठे तो कमर अकड़ जाएगी.’’ कावेरी के मुंह से एक आह निकल गई. जूही ने जबरदस्ती मां का हाथ पकड़ कर उठाया और बैड पर लिटा दिया. खुद भी उन के बराबर में लेट गई. जूही का मन किया, दुखी मां को बच्चे की तरह खुद से चिपटा ले और उस ने वही किया.

कावेरी से चिपट गई वह. कावेरी ने भी उस के सिर पर प्यार किया और रुंधे स्वर में कहा, ‘‘अब हम कैसे रहेंगे बेटा, यह क्या हो गया?’’ यही तो कावेरी 20 दिनों से रो कर कहे जा रही थी. जूही ने शांत स्वर में कहा, ‘‘रहना ही पड़ेगा, मां. अब ज्यादा मत सोचो. सो जाओ.’’

जूही धीरेधीरे मां का सिर थपकती रही और कावेरी की आंख लग ही गई. कई दिनों का तनाव, थकान तनमन पर असर दिखाने लगा था. जूही की खुद की आंखों में नींद नहीं थी.

26 वर्षीया जूही, कावेरी और पिता शेखर 3 ही लोगों का तो परिवार था. अब उस में से भी 2 ही रह गईं. 20 दिनों पहले शेखर जो रात को सोए, उठे ही नहीं. सोतेसोते कब हार्टफेल हो गया, पता ही नहीं चला. मांबेटी अकेली उन के जाने के बाद सब काम कैसे निबटाए चली आ रही हैं, वे ही जानती हैं.

रिश्तेदारों को इस दुखद घटना की सूचना देने से ले कर, उन के आने पर सब संभालते हुए जूही भी शारीरिक व मानसिक रूप से थक रही है अब. शेखर एक सफल, प्रसिद्ध बिजनैसमैन थे. आर्थिक स्थिति काफी अच्छी थी. मुंबई के पवई इलाके में उन के इस 4 बैडरूम फ्लैट में अब मांबेटी ही रह गई हैं.

एमबीए करने के बाद जूही काफी दिनों से पिता के बिजनैस में हाथ बंटा रही थी. यह वज्रपात अचानक हुआ था, इस की पीड़ा असहनीय थी. शेखर जिंदादिल इंसान थे. जीवन के हर पल को वे भरपूर जीते थे. परिवार के साथ घूमना उन का प्रिय शौक था. साल में एक बार कावेरी और जूही को ले कर कहीं न कहीं घूमने जरूर जाते थे और अब भी अगले महीने स्विट्जरलैंड जाने के टिकट बुक थे, मगर अब?

जूही के मुंह से एक सिसकी निकल गई. पिता की इच्छाएं, उन के जीने के अंदाज, उनकी जिंदादिली, उन का स्नेह याद कर रुलाई का आवेग फूट पड़ा. मां की नींद खराब न हो जाए यह सोच कर वह बालकनी में जा कर वहां रखी चेयर पर बैठ कर देर तक  रोती रही. अचानक सिर पर हाथ महसूस हुआ, तो वह चौंकी. हाथ कावेरी का था. ‘‘मम्मी, आप?’’

‘‘मुझे लिटा कर खुद यहां आ गई. चलो, आओ, सोते हैं, 3 बज रहे हैं. अब की बार बेटी को दुलारते हुए कावेरी अपने साथ ले गई. 20 दिनों से यही तो चल रहा था. कभी बेटी मां को संभाल रही थी, कभी मां बेटी को.

दोनों ने लेट कर सोने की कोशिश करते हुए आंखें बंद कर लीं. कुछ ही दिनों में बाकी मेहमान भी चले गए. मांबेटी अकेली रह गईं. घर का सूनापन, हर तरफ फैली उदासी, घर के कोनेकोने में बसी शेखर की याद. जीना कठिन था पर जीवन है, तो जीना ही था. कावेरी सुशिक्षित थीं. वे पढ़नेलिखने की शौकीन थीं. कुछ सालों से लेखन के क्षेत्र में काफी सक्रिय थीं. उन की कई रचनाएं प्रकाशित होती रहती थीं. लेखन के क्षेत्र में उन की एक खास पहचान बन चुकी थी. शेखर से उन्हें हमेशा प्रोत्साहन मिला था. अब शेखर के जाने के बाद कलम जो छूटा, उस का सिरा पकड़ में ही नहीं आ रहा था.

जूही ने औफिस जाना शुरू कर दिया था. कई शुभचिंतक उसे औफिस में भरपूर सहयोग कर रहे थे. पर घर पर अकेली उदास मां की चिंता उसे दुखी रखती. जूही ने एक दिन कहा, ‘‘मां, कुछ लिखना शुरू करो न. कुछ लिखोगी, तो ठीक रहेगा, मन भी लगेगा.’’

‘‘नहीं, मैं अब लिख नहीं पाऊंगी. मेरे अंदर तो सब खत्म हो गया है. लिखने का तो कोई विचार आता ही नहीं.’’

जूही मुसकराई, ‘‘कोई बात नहीं, कई राइटर्स कभीकभी नहीं लिख पाते. होता है ऐसा. ठीक है, ब्रेक ले लो.’’ फिर एक दिन जूही ने कहा, ‘‘मां, टिकट बुक हैं, हम दोनों चलें स्विटजरलैंड?’’

कावेरी को झटका लगा. ‘‘अरे नहींनहीं, सोचा भी कैसे तुम ने? तुम्हारे पापा के बिना हम कैसे जाएंगे. घूम लिए जितना घूमना था,’’ कह कर कावेरी सिसक पड़ी. जूही ने मां के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘मां, सोचो, पापा का सपना था वहां जाने का, हम वहां जाएंगे तो लगेगा पापा की इच्छा पूरी कर रहे हैं. वे जहां भी हैं, हमें देख रहे हैं. मैं तो यही महसूस करती हूं. आप को नहीं लगता, पापा हमारे साथ ही हैं? मैं तो औफिस में भी उन की उपस्थिति अपने आसपास महसूस करती हूं, दोगुने उत्साह के साथ काम में लग जाती हूं. चलो न मां, हम घूम कर आएंगे.’’

कावेरी ने गंभीरतापूर्वक फिर न कर दिया. पर अगले दोचार दिन जूही के लगातार सकारात्मक सुझावों और स्नेहभरी जिद के आगे कावेरी ने हां में सिर हिलाते हुए, ‘‘जैसी तुम्हारी मरजी, तुम्हारे लिए यही सही’’ कहा, तो जूही उन से लिपट गई, बोली, ‘‘बस मां, अब सब मेरे ऊपर छोड़ दो.’’

जूही की मौसी गंगा का बेटा अजय पेरिस में अपनी पत्नी रीमा के साथ रहता था. जूही अब लगातार अजय से संपर्क कर सलाह करती रही. जिस ने भी सुना कि दोनों घूमने जा रही हैं, हैरान रह गया. कुछ लोगों ने मुंह बनाया, व्यंग्य किए. पर वहीं, कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने खुल कर मांबेटी के इस फैसले की प्रशंसा की. जूही को शाबाशी दी कि वह अपना मनोबल, आत्मविश्वास ऊंचा रखते हुए अपनी मां को कुछ बदलाव के लिए बाहर ले कर जा रही है.

उन लोगों का कहना था कि अच्छा है, दोनों घूम कर आएंगी, इतना बड़ा वज्रपात हुआ है, दोनों कुछ उबर पाएंगी.

इतनी प्रतिभावान मां हिम्मत छोड़ कर ऐसे ही दुख में डूबी रही तो क्या होगा मां का, कैसे मन लगेगा, जूही को इस बात की बड़ी चिंता थी और यह कि जिन किताबों में मां रातदिन डूबी रहती थीं, अब उन की तरफ देख भी नहीं रही थीं. बस, चुपचाप बैठी रहती थीं. इस ट्रिप से मां का मन जरूर बदलेगा. घर में तो हर समय कोई न कोई शोक प्रकट करने आता ही रहता था. वही बातें बारबार सुन कर कैसे इस मनोदशा से निकला जा सकता है. यही सब जूही के दिमाग में चलता रहता था.

शेखर का टिकट तो बहुत भारीमन से जूही कैंसिल करवा चुकी थी. औफिस का काम अपने मित्रों, सहयोगियों पर छोड़ कर जूही और कावेरी ट्रिप पर निकल गईं.

मुंबई से साढ़े 3 घंटे में कतर पहुंच कर वहां 2 घंटे रुकना था. जूही पिता को याद करते हुए उन की बातें करने में न हिचकते हुए कावेरी से उन की खूब बातें करने लगी कि पापा को ट्रैवलिंग का कितना शौक था. हर जगह का स्ट्रीटफूड ट्राई करते थे. हम भी ऐसा ही करेंगे. कावेरी भी धीरेधीरे सब याद करते हुए मुसकराने लगी तो जूही को बहुत खुशी हुई. फ्लाइट चेंज कर के दोनों साढ़े 7 घंटे में जेनेवा पहुंच गए.

जूही ने कहा, ‘‘मां, यहां रुकेंगे. ‘लेक जेनेवा’ पास से देखेंगे. पापा ने बताया था, उन्होंने डिस्कवरी चैनल में देखा था एक बार, लेक से एक तरफ स्विटजरलैंड, एक तरफ फ्रांस दिखता है. वहां ‘लोसान टाउन’ है जहां से ये दोनों दिखते हैं. वहीं ‘लेक जेनेवा’ के सामने किसी होटल में रह लेंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम ने सोचा है, सब जानकारी ले ली है न?’’

‘‘हां, मां, अजय भैया के लगातार संपर्क में हूं.’’ रात होतेहोते बर्फ से ढके पहाड़ों पर लाइट दिखने लगी. जूही ने उत्साहपूर्ण कांपती सी आवाज में कहा, ‘‘मां, वह देखो, वह फ्रांस है.’’ होटल में रूम ले कर सामान रख कर फ्रैश होने के बाद दोनों ने कुछ खाने का और्डर किया, थोड़ा खापी कर दोनों बार निकल आईं.

लेक के आसपास कईर् परिवार बैठ कर एंजौय कर रहे थे. शेखर की याद शिद्दत से आई. कावेरी वहां के माहौल पर नजर डालने लगी. सब कितने शांत, खुश, बच्चे खेल रहे थे. आसपास काफी चर्च थे. चर्च की घंटियों की आवाज कावेरी को बड़ी भली सी लगी.

दोनों अगले दिन लोसान घूमते रहे. कैथेड्रल्स, गार्डंस, म्यूजियम बहुत थे. वहां दोनों 2 दिन रुके. वहीं एक जगह मूवी ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ की शूटिंग हुई थी. कावेरी अचानक हंस पड़ी, ‘‘जूही, याद है न, तुम्हारे पापा ने यह मूवी 4 बार देखी थी. टीवी पर तो जब भी आती थी, वे देखने बैठ जाते थे. यही सब तो उन्हें यहां देखना था, आज यह जगह देख कर वे बहुत खुश होते.’’

‘‘वे देख रहे हैं यह जगह हमारे साथ, जो हमेशा दिल में रहते हैं. वे दूर कहां हैं,’’ जूही बोली थी.

कावेरी मुसकरा दी, ‘‘मेरी मां बनती जा रही हो तुम. मेरी मां होती तो वे भी मुझे यही समझातीं. सच ही कहा गया है कि बेटी बड़ी हो जाए तो भूमिकाएं बदल जाती हैं.’’

दोनों वहां से फिर ‘इंटरलेकन’ चली गईं. वहां जा कर तो दोनों का मन खिल उठा. वहां बड़ा सा पहाड़ था. 2 लेक के बीच की जगह को इंटरलेकन कहा जाता है. सुंदर सी लेक. अचानक जूही जोर से हंस पड़ी, ‘‘मां, उधर देखो, कितने सारे हिंदी के साइन बोर्ड.’’

‘‘वाह,’’ कावेरी भी वहां हिंदी के साइनबोर्ड देख कर आश्चर्य से भर उठी. वहां से दोनों 2 घंटे का सफर कर खूबसूरत ‘टौप औफ यूरोप’ देखने गईं जो पूरे साल बर्फ से ढका रहता है. वहां से वापस आ कर आसपास की जगहें देखीं. वहां का कल्चर, खानपान का आनंद उठाती रहीं. वहां उन्हें थोड़ा जरमन कल्चर भी देखने को मिला.

ट्रिप काफी रोमांचक और खूबसूरत लग रहा था. दोनों को कहीं कोई परेशानी नहीं थी. दोनों हर जगह फैले प्राकृतिक सौंदर्य को जीभर कर एंजौय कर रही थीं. पूरी ट्रिप के अंत में उन्हें 2 दिन के लिए अजय के घर भी जाना था. अजय सब बता ही रहा था कि अब कहां और कैसे जाना है.

फिर अजय की सलाह पर दोनों वहां से इटली में ‘ओरोपा सैंचुरी’ चले गए, जो पहाड़ों में ही है. वहां बहुत ही पुराने चर्च हैं, जहां जीसस के हर रूप को बहुत ही अनोखे ढंग से दिखाया गया है. जीसस का साउथ अफ्रीकन और डार्क जीसस और मदर मैरी का अद्भुत रूप देख कर दोनों दंग रह गईं. इंग्लिश नेस थीं. बहुत सारी धर्मशालाएं थीं. बहुत ही अद्भुत, रोमांचक अनुभव था यह. फोन का नैटवर्क नहीं था तो हर जगह शांति थी व इतनी सुंदरता कि कावेरी ने अरसे बाद मन को इतना शांत महसूस किया. आसपास सुंदर झीलों की आवाज, प्रकृतिप्रदत्त सौंदर्य को आत्मसात करती कावेरी जैसे किसी और ही दुनिया में पहुंच गई थी. अगले दिन एक नन दोनों को ग्रेवयार्ड दिखाने ले गई.

जूही अब तक  इस नन से काफी बातें कर चुकी थी. अपने पिता की मृत्यु के बारे में भी बता चुकी थी. नन काफी स्नेहिल स्वभाव की थी. वहां पहुंच कर नन की शांत, गंभीर आवाज गूंज रही थी, ‘बस, यही सच है. जीवन का सार यही है. यही होना है. एक दिन सब को जाना ही है. बस, यही कोशिश करनी चाहिए कि कुछ ऐसा कर जाएं कि सब के पास हमारी अच्छी यादें ही हों. जितना जीवन है, खुशी से जी लें, पलपल का उपयोग कर लें. दुखों को भूल आगे बढ़ते रहें.’’ नन तो यह कह कर थोड़ा आगे बढ़ गई. कावेरी को पता नहीं क्या हुआ, वह अद्भुत से मिश्रित भावों में भर कर जोरजोर से रो पड़ी.

नन ने वापस आ कर कावेरी का कंधा थपथपाया और फिर आगे बढ़ गई. जूही भी मां की स्थिति देख सिसक पड़ी. पर जीभर कर रो लेने के बाद कावेरी ने अचानक खुद को बहुत मजबूत महसूस किया. खुद को संभाला, अपने और जूही के आंसू पोंछे. जूही को गले लगा कर प्यार किया और मुसकरा दी.

जूही अब हैरान हुई, ‘‘क्या हुआ, मां, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘हां, अब बिलकुल ठीक हूं, चलें?’’ दोनों आगे चल दीं.

जूही ने मां की ऐसी शांत मुद्रा बहुत दिनों बाद देखी थी, कहा, ‘‘मां, बहुत थक गई, आज जल्दी सोऊंगी मैं.’’

‘‘तुम सोना, मुझे कुछ काम है.’’

‘‘क्या  काम, मां?’’ जूही फिर हैरान हुई.

‘‘आज ही रात को नई कहानी में इस ट्रिप का अनुभव लिखना है न.’’

‘‘ओह, सच मां?’’ जूही ने मां के गाल चूम लिए.

एकदूसरे का हाथ पकड़ शांत मन से दोनों ने कुछ इस तरह से आगे कदम बढ़ा दिए थे कि नन भी पीछे मुड़ कर उन्हें देख मुसकरा दी थी. Hindi Family Story

Family Story In Hindi: प्रायश्चित्त – क्या सुधीर को किया उसकी पत्नी ने माफ

Family Story In Hindi: आज सुधीर की तेरहवीं है. मेरा चित्त अशांत है. बारबार नजर सुधीर की तसवीर की तरफ चली जाती. पति कितना भी दुराचारी क्यों न हो पत्नी के लिए उस की अहमियत कम नहीं होती. तमाम उपेक्षा, तिरस्कार के बावजूद ताउम्र मुझे सुधीर का इंतजार रहा. हो न हो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास हो और मेरे पास चले आएं. पर यह मेरे लिए एक दिवास्वप्न ही रहा. आज जबकि वह सचमुच में नहीं रहे तो मन मानने को तैयार ही नहीं. बेटाबहू इंतजाम में लगे हैं और मैं अतीत के जख्मों को कुरेदने में लग गई.

सुधीर एक स्कूल में अध्यापक थे. साथ ही वह एक अच्छे कथाकार भी थे. कल्पनाशील, बौद्धिक. वह अकसर मुझे बड़ेबड़े साहित्यकारों के सारगर्भित तत्त्वों से अवगत कराते तो लगता अपना ज्ञान शून्य है. मुझ में कोई साहित्यिक सरोकार न था फिर भी उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनती. उसी का असर था कि मैं भी कभीकभी उन से तर्कवितर्क कर बैठती. वह बुरा न मानते बल्कि प्रोत्साहित ही करते.

उस दिन सुधीर कोई कथा लिख रहे थे. कथा में दूसरी स्त्री का जिक्र था. मैं ने कहा, ‘यह सरासर अन्याय है उस पुरुष का जो पत्नी के होते हुए दूसरी औरत से संबंध बनाए,’ सुधीर हंस पड़े तो मैं बोली, ‘व्यवहार में ऐसा होता नहीं.’

सुधीर बोले, ‘खूबसूरत स्त्री हमेशा पुरुष की कमजोरी रही. मुझे नहीं लगता अगर सहज में किसी को ऐसी औरत मिले तो अछूता रहे. पुरुष को फिसलते देर नहीं लगती.’

‘मैं ऐसी स्त्री का मुंह नोंच लूंगी,’ कृत्रिम क्रोधित होते हुए मैं बोली.

‘पुरुष का नहीं?’ सुधीर ने टोका तो मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

कई साल गुजर गए उस वार्त्तालाप को. पर आज सोचती हूं कि मैं ने बड़ी गलती की. मुझे सुधीर के सवाल का जवाब देना चाहिए था. औरत का मौन खुद के लिए आत्मघाती होता है. पुरुष इसे स्त्री की कमजोरी मान लेता है और कमजोर को सताना हमारे समाज का दस्तूर है. इसी दस्तूर ने ही तो मुझे 30 साल सुधीर से दूर रखा.

सुधीर पर मैं ने आंख मूंद कर भरोसा किया. 2 बच्चों के पिता सुधीर ने जब इंटर की छात्रा नम्रता को घर पर ट्यूशन देना शुरू किया तो मुझे कल्पना में भी भान नहीं था कि दोनों के बीच प्रेमांकुर पनप रहे हैं. मैं भी कितनी मूर्ख थी कि बगल के कमरे में अपने छोटेछोटे बच्चों के साथ लेटी रहती पर एक बार भी नहीं देखती कि अंदर क्या हो रहा है. कभी गलत विचार मन में पनपे ही नहीं. पता तब चला जब नम्रता गर्भवती हो गई और एक दिन सुधीर अपनी नौकरी छोड़ कर रांची चले गए.

मेरे सिर पर तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. 2 बच्चों को ले कर मेरा भविष्य अंधकारमय हो गया. कहां जाऊं, कैसे कटेगी जिंदगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? लोग तरहतरह के सवाल करेंगे तो उन का जवाब क्या दूंगी? कहेंगे कि इस का पति लड़की ले कर भाग गया.

पुरुष पर जल्दी कोई दोष नहीं मढ़ता. उन्हें मुझ में ही खोट नजर आएंगे. कहेंगे, कैसी औरत है जो अपने पति को संभाल न सकी. अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं ने स्त्री धर्म का पालन किया. मैं ने उन वचनों को निभाया जो अग्नि को साक्षी मान कर लिए थे.

तीज का व्रत याद आने लगा. कितनी तड़प और बेचैनी होती है जब सारा दिन बिना अन्न, जल के अपने पति का साथ सात जन्मों तक पाने की लालसा में गुजार देती थी. गला सूख कर कांटा हो जाता. शाम होतेहोते लगता दम निकल जाएगा. सुधीर कहते, यह सब करने की क्या जरूरत है. मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ हूं. पर वह क्या जाने इस तड़प में भी कितना सुख होता है. उस का यह सिला दिया सुधीर ने.

बनारस रहना मेरे लिए असह्य हो गया. लोगों की सशंकित नजरों ने जीना मुहाल कर दिया. असुरक्षा की भावना के चलते रात में नींद नहीं आती. दोनों बच्चे पापा को पूछते. इस बीच भइया आ गए. उन्हें मैं ने ही सूचित किया था. आते ही हमदोनों को खरीखोटी सुनाने लगे. मुझे जहां लापरवाह कहा वहीं सुधीर को लंपट. मैं लाख कहूं कि मैं ने उन पर भरोसा किया, अब कोई विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो क्या किया जा सकता है. क्या मैं उठउठ कर उन के कमरे में झांकती कि वह क्या कर रहे हैं? क्या यह उचित होता? उन्होंने मेरे पीठ में छुरा भोंका. यह उन का चरित्र था पर मेरा नहीं जो उन पर निगरानी करूं.

‘तो भुगतो,’ भैया गुस्साए.

भैया ने भी मुझे नहीं समझा. उन्हें लगा मैं ने गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया. पति को ऐसे छोड़ देना मूर्ख स्त्री का काम है. मैं रोने लगी. भइया का दिल पसीज गया. जब उन का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने रांची चलने के लिए कहा.

‘देखता हूं कहां जाता है,’ भैया बोले.

हम रांची आए. यहां शहर में मेरे एक चचेरे भाई रहते थे. मैं वहीं रहने लगी. उन्हें मुझ से सहानुभूति थी. भरसक उन्होंने मेरी मदद की. अंतत: एक दिन सुधीर का पता चल गया. उन्होंने नम्रता से विवाह कर लिया था. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. सुधीर इतने नीचे तक गिर सकते हैं. सारी बौद्धिकता, कल्पनाशीलता, बड़ीबड़ी इल्म की बातें सब खोखली साबित हुईं. स्त्री का सौंदर्य मतिभ्रष्टा होता है यह मैं ने सुधीर से जाना.

उस रोज भैया भी मेरे साथ जाना चाहते थे. पर मैं ने मना कर दिया. बिला वजह बहसाबहसी, हाथापाई का रूप ले सकता था. घर पर नम्रता मिली. देख कर मेरा खून खौल गया. मैं बिना इजाजत घर में घुस गई. उस में आंख मिलाने की भी हिम्मत न थी. वह नजरें चुराने लगी. मैं बरस पड़ी, ‘मेरा घर उजाड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?’

उस की निगाहें झुकी हुई थीं.

‘चुप क्यों हो? तुम ने तो सारी हदें तोड़ दीं. रिश्तों का भी खयाल नहीं रहा.’

‘यह आप मुझ से क्यों पूछ रही हैं? उन्होंने मुझे बरगलाया. आज मैं न इधर की रही न उधर की,’ उस की आंखें भर आईं. एकाएक मेरा हृदय परिवर्तित हो गया.

मैं विचार करने लगी. इस में नम्रता का क्या दोष? जब 2 बच्चों का पिता अपनी मर्यादा भूल गया तो वह बेचारी तो अभी नादान है. गुरु मार्ग दर्शक होता है. अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है. पर यहां गुरु ही शिष्या का शोषण करने पर तुला है. सुधीर से मुझे घिन आने लगी. खुद पर शर्म भी. कितना फर्क था दोनों की उम्र में. सुधीर को इस का भी खयाल नहीं आया. इस कदर कामोन्मत्त हो गया था कि लाज, शर्म, मानसम्मान सब को लात मार कर भाग गया. कायर, बुजदिल…मैं ने मन ही मन उसे लताड़ा.

‘तुम्हारी उम्र ही क्या है,’ कुछ सोच कर मैं बोली, ‘बेहतर होगा तुम अपने घर चली जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो.’

‘अब संभव नहीं.’

‘क्यों?’ मुझे आश्चर्य हुआ.

‘मैं उन के बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘तो क्या हुआ. गर्भ गिराया भी तो जा सकता है. सोचो, तुम्हें सुधीर से मिलेगा क्या? उम्र का इतना बड़ा फासला. उस पर रखैल की संज्ञा.’

‘मुझे सब मंजूर है क्योंकि मैं उन से प्यार करती हूं.’

यह सुन कर मैं तिलमिला कर रह गई पर संयत रही.

‘अभीअभी तुम ने कहा कि सुधीर ने तुम्हें बरगलाया है. फिर यह प्यारमोहब्बत की बात कहां से आ गई. जिसे तुम प्यार कहती हो वह महज शारीरिक आकर्षण है. एक दिन सुधीर का मन तुम से भी भर जाएगा तो किसी और को ले आएगा. अरे, जिसे 2 अबोध बच्चों का खयाल नहीं आया वह भला तुम्हारा क्या होगा,’ मैं ने नम्रता को भरसक समझाने का प्रयास किया. तभी सुधीर आ गया. मुझे देख कर सकपकाया. बोला, ‘तुम, यहां?’

‘हां मैं यहां. तुम जहन्नुम में भी होते तो खोज लेती. इतनी आसानी से नहीं छोड़ूंगी.’

‘मैं ने तुम्हें अपने से अलग ही कब किया था,’ सुधीर ने ढिठाई की.

‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे,’ मैं बोली.

‘इन सब के लिए तुम जिम्मेदार हो.’

‘मैं…’ मैं चीखी, ‘मैं ने कहा था इसे लाने के लिए,’ नम्रता की तरफ इशारा करते हुए बोली.

‘मेरे प्रति तुम्हारी बेरुखी का नतीजा है.’

‘चौबीस घंटे क्या सारी औरतें अपने मर्दों की आरती उतारती रहती हैं? साफसाफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मन मुझ से भर गया.’

‘जो समझो पर मेरे लिए तुम अब भी वैसी ही हो.’

‘पत्नी.’

‘हां.’

‘तो यह कौन है?’

‘पत्नी.’

‘पत्नी नहीं, रखैल.’

‘जबान को लगाम दो,’ सुधीर तनिक ऊंचे स्वर में बोले. यह सब उन का नम्रता के लिए नाटक था.

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने बड़े पाखंडी हो. तुम्हारी सोच, बौद्धिकता सिर्फ दिखावा है. असल में तुम नाली के कीड़े हो,’ मैं उठने लगी, ‘याद रखना, तुम ने मेरे विश्वास को तोड़ा है. एक पतिव्रता स्त्री की आस्था खंडित की है. मेरी बददुआ हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी. तुम इस के साथ कभी सुखी नहीं रहोगे,’ भर्राए गले से कहते हुए मैं ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भरे कदमों से घर आई.

इस बीच मैं ने परिस्थितियों से मुकाबला करने का मन बना लिया था. सुधीर मेरे चित्त से उतर चुका था. रोनेगिड़गिड़ाने या फिर किसी पर आश्रित रहने से अच्छा है मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हूं. बेशक भैया ने मेरी मदद की. मगर मैं ने भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए भरपूर मेहनत की. इस का मुझे नतीजा भी मिला. बेटा प्रशांत सरकारी नौकरी में आ गया और मेरी बेटी सुमेधा का ब्याह हो गया.

बेटी के ब्याह में शुरुआती दिक्कतें आईं. लोग मेरे पति के बारे में ऊलजलूल सवाल करते. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. एक जगह बात बन गई. उन्हें हमारे परिवार से रिश्ता करने में कोई खोट नहीं नजर आई. अब मैं पूरी तरह बेटेबहू में रम गई. जिंदगी से जो भी शिकवाशिकायत थी सब दूर हो गई. उलटे मुझे लगा कि अगर ऐसा बुरा दिन न आता तो शायद मुझ में इतना आत्मबल न आता. जिंदगी से संघर्ष कर के ही जाना कि जिंदगी किसी के भरोसे नहीं चलती. सुधीर नहीं रहे तो क्या सारे रास्ते बंद हो गए. एक बंद होगा तो सौ खुलेंगे. इस तरह कब 60 की हो गई पता ही न चला. इस दौरान अकसर सुधीर का खयाल जेहन में आता रहा. कहां होंगे…कैसे होंगे?

एक रोज भैया ने खबर दी कि सुधीर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है. मुझे आश्चर्य हुआ. भला सुधीर को मुझ से क्या काम. मैं ने ज्यादा सोचविचार करना मुनासिब नहीं समझा. वर्षों बाद सुधीर का आगमन मुझे भावविभोर कर गया. अब मेरे दिल में सुधीर के लिए कोई रंज न था. मैं जल्दीजल्दी तैयार हुई. बाल संवार कर जैसे ही मांग भरने के लिए हाथ ऊपर किया कि प्रशांत ने रोक लिया.

‘मम्मी, पापा हमारे लिए मर चुके हैं.’

‘नहीं,’ मैं चिल्लाई, ‘वह आज भी मेरे लिए जिंदा हैं. वह जब तक जीवित रहेंगे मैं सिं?दूर लगाना नहीं छोड़ूंगी. तू कौन होता है मुझे यह सब समझाने वाला.’

‘मम्मी, उन्होंने क्या दिया है हमें, आप को. एक जिल्लत भरी जिंदगी. दरदर की ठोकरें खाई हैं हम ने तब कहीं जा कर यह मुकाम पाया है. उन्होंने तो कभी झांकना भी मुनासिब नहीं समझा. तुम्हारा न सही हमारा तो खयाल किया होता. कोई अपने बच्चों को ऐसे दुत्कारता है,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘वह तेरे पिता हैं.’

‘सिर्फ नाम के.’

‘हमारे संस्कारों की जड़ें अभी इतनी कमजोर नहीं हैं बेटा कि मांबाप को मांबाप का दर्जा लेखाजोखा कर के दिया जाए. उन्होंने तुझे अपनी बांहों में खिलाया है. तुझे कहानी सुना कर वही सुलाते थे, इसे तू भूल गया होगा पर मैं नहीं. कितनी ही रात तेरी बीमारी के चलते वह सोए नहीं. आज तू कहता है कि वह सिर्फ नाम के पिता हैं,’ मैं कहती रही, ‘अगर तुझे उन्हें पिता नहीं मानना है तो मत मान पर मैं उन्हें अपना पति आज भी मानती हूं,’ प्रशांत निरुत्तर था.

मैं भरे मन से सुधीर से मिलने चल पड़ी.

सुधीर का हुलिया काफी बदल चुका था. वह काफी कमजोर लग रहे थे. मानो लंबी बीमारी से उठे हों. मुझे देखते ही उन की आंखें नम हो गईं.

‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम सब को बहुत दुख दिए.’

जी में आया कि उन के बगैर गुजारे एकएक पल का उन से हिसाब लूं पर खामोश रही. उम्र के इस पड़ाव पर हिसाबकिताब निरर्थक लगे.

सुधीर मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े थे. इतनी सजा काफी थी. गुजरा वक्त लौट कर आता नहीं पर सुधीर अब भी मेरे पति थे. मैं अपने पति को और जलील नहीं देख सकती. बातोंबातों में भइया ने बताया कि सुधीर के दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं. सुन कर मेरे कानों को विश्वास नहीं हुआ.

मैं विस्फारित नेत्रों से भैया को देखने लगी. वर्षों बाद सुधीर आए भी तो इस स्थिति में. कोई औरत विधवा होना नहीं चाहती. पर मेरा वैधव्य आसन्न था. मुझ से रहा न गया. उठ कर कमरे में चली आई. पीछे से भैया भी चले आए. शायद उन्हें आभास हो गया था. मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘इन आंसुओं को रोको.’

‘मेरे वश में नहीं…’

‘नम्रता दवा के पैसे नहीं देती. वह और उस के बच्चे उसे मारतेपीटते हैं.’

‘बाप पर हाथ छोड़ते हैं?’

‘क्या करोगी. ऐसे रिश्तों की यही परिणति होती है.’

भइया के कथन पर मैं सुबकने लगी.

‘भइया, सुधीर से कहो, वह मेरे साथ ही रहें. मैं उन की पत्नी हूं…भले ही हमारा शरीर अलग हुआ हो पर आत्मा तो एक है. मैं उन की सेवा करूंगी. मेरे सामने दम निकलेगा तो मुझे तसल्ली होगी.’

भैया कुछ सोचविचार कर बोले, ‘प्रशांत तैयार होगा?’

‘वह कौन होता है हम पतिपत्नी के बीच में एतराज जताने वाला.’

‘ठीक है, मैं बात करता हूं…’

सुधीर ने साफ मना कर दिया, ‘मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मुझे जितना तिरस्कार मिलेगा मुझे उतना ही सुकून मिलेगा. मैं इसी का हकदार हूं,’ इतना बोल कर सुधीर चले गए. मैं बेबस कुछ भी न कर सकी.

आज भी वह मेरे न हो सके. शांत जल में कंकड़ मार कर सुधीर ने टीस, दर्द ही दिया. पर आज और कल में एक फर्क था. वर्षों इस आस से मांग भरती रही कि अगर मेरे सतीत्व में बल होगा तो सुधीर जरूर आएंगे. वह लौटे. देर से ही सही. उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी होने का एहसास कराया तो. पति पत्नी का संबल होता है. आज वह एहसास भी चला गया. Family Story In Hindi

Hindi Kahani: माई स्मार्ट मौम – प्रिया के साथ क्या हुआ

Hindi Kahani: ‘‘वाउ, कितनी स्मार्ट हैं तुम्हारी मौम. उन की स्किन कितनी सौफ्ट और यंग है. रिअली तुम दोनों मांबेटी नहीं, 2 बहनें लगती हो.’’ प्रिया मुझ से मेरी मौम की तारीफ कर रही थी. मुझे तो खुश होना चाहिए, मगर मैं उदास थी. मुझे जलन हो रही थी अपनी मां से. कोई इस बात पर यकीन नहीं करेगा. कहीं किसी बेटी को अपनी मां से जलन हो सकती है, भला? पर मेरी जिंदगी की यही हकीकत थी.

मैं समझती हूं, मेरी मां दूसरों से अलग हैं. 40-42 वर्ष की उम्र में भी उन की खूबसूरती देख सब हतप्रभ रह जाते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं खूबसूरत नहीं हूं. मैं कालेज की सब से प्यारी और चुलबुली लड़की के रूप में जानी जाती हूं. मगर मौम की खूबसूरती में जो ग्रेस और ठहराव है वह शायद मुझ में नहीं.

इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब मेरा बौयफ्रैंड मेरी मां को दीवानों की तरह चाहने लगा. यह सब अचानक नहीं हुआ था. किसी प्लानिंग के तहत भी नहीं हुआ. मैं मां को दोष नहीं दे सकती, पर अचानक सामने आई इस हकीकत ने मुझे झंझोड़ कर रख दिया. मां की वजह से मेरा बौयफ्रैंड मुझ से दूर हो रहा था. इस बात की कसक मेरे मन में कड़वाहट भरने लगी थी. 2-3 महीने पहले तक कितनी खुश थी मैं. विकास मेरी जिंदगी में एकाएक ही आ गया था. मैं ने फ्रैंच क्लासेज जौइन की थी. कालेज के बाद मैं फ्रैंच क्लासेज के लिए जाती. वहीं मुझे विकास मिला. कूल, हैंडसम और परफैक्ट फिजिक वाले विकास पर मैं पहली नजर में ही फिदा हो गई. उसे भी मैं पसंद आ गई थी. बहुत जल्द हमारे बीच दोस्ती हो गई और फिर हम ने एकदूसरे को जिंदगी के सब से खूबसूरत रिश्ते में बांध लिया.

उन दिनों मैं बहुत खुश रहा करती थी. एक दिन मौम ने टोका, ‘‘क्या बात है, मेरी बिटिया, आजकल गीत गुनगुनाने लगी है, खोईखोई सी रहती है अपनी दुनिया में गुम. जरा मैं भी तो जानूं, किस राजकुमार ने हमारी बेटी की दुनिया खूबसूरत बना दी है?’’ मैं शरमा गई थी. अपनी मौम के गले लग गई. मौम प्यार से मुझे दुलारने लगीं. मैं ने उन के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘मौम, मेरे बाद आप अकेली हो जाओगी न.’’

‘‘मौम, आप शादी कर लो फिर से,’’ एकाएक बोल गई थी मैं. मौम ने मुझे फिर से गले लगा लिया. कितने प्यारे लमहे थे वो. तब मुझे कहां पता था कि मौम ही मेरी खुशियों को नजर लगा देंगी. वैसे मैं मौम के बहुत करीब हूं. उन की जिंदगी में मेरे सिवा कोई है भी तो नहीं.

20 साल की उम्र में उन की शादी हुई. एक साल बाद मैं पैदा हो गई. इस के अगले साल पापा इस दुनिया से रुखसत हो गए. तब से आज तक मौम ने ही मुझे पालापोसा, बड़ा किया. अपनी जिंदगी के हादसे से वे बिखरी नहीं, बल्कि और भी मजबूत हो कर उभरीं. उन्हें पापा की जगह जौब मिल गई थी. तब से वे मेरे लिए मम्मीपापा दोनों के दायित्त्व निभा रही थीं. मेरे मनमस्तिष्क को उद्वेलित करने वाला वह हादसा तब मेरे साथ हुआ जब विकास के प्यार में गुम मैं अपनी दुनिया में मदहोश रहती थी. उस दिन मेरी छुट्टी थी. पर मौम को जिम के लिए निकलना था. वे अभी दरवाजे के पास ही थीं कि पड़ोस की उर्वशी मुझ से मिलने आ गई. उर्वशी की मां भी उसी जिम में जाती थीं जहां मेरी मौम जाया करतीं. दोनों सहेलियां थीं.

मौम के जाते ही उर्वशी मेरे पास बैठती हुई बोली, ‘‘यार, क्या लगती हैं आंटीजी, गोरी, लंबी, छरहरी, लंबेकाले बाल, मुसकराता चेहरा और चमकती त्वचा. सच कहती हूं, जो भी उन को देखे, दीवाना हो जाए.’’ ‘‘इट्स ओके, यार. बट, यह मत भूल कि अब उन का नहीं, हमारा समय है. अपनी सुंदरता की चिंता कर.’’ मैं ने उस का ध्यान बांटना चाहा पर वह थोड़ी सीरियस होती हुई बोली, ‘‘यार, मुझे लगता है, समय आ गया है जब तुझे अपनी चिंता करनी चाहिए. तुझे शायद बुरा लगे पर यह सच है कि तेरी मां का अफेयर चल रहा है.’’

‘‘क्या, वाकई?’’ मैं ने आश्चर्य से कहा. ‘‘हां. वह कोई और नहीं, नया जिम ट्रेनर है जो तुम्हारी मौम के पीछे पड़ा है.’’

मैं इस बात से चकित तो थी पर प्रसन्न भी थी. मैं खुद चाहती थी कि मौम मेरे बाद किसी से जुड़ जाएं. मुझे आघात तब लगा जब उर्वशी ने उस जिम ट्रेनर की फोटो दिखाई. वह कोई और नहीं, मेरा विकास ही था.

खुद को संभालना मुझे मुश्किल हो रहा था. मैं समझ नहीं पाई कि विकास ने मेरे प्यार का तिरस्कार किया है या वाकई मौम के आगे मैं कुछ भी नहीं, एकाएक ही मौम के प्रति मेरा मन घृणा और विद्वेष से भर उठा.

अब मैं मौम पर नजर रखने लगी. वाकई वे आजकल ज्यादा ही स्टाइलिश कपड़े पहन कर निकला करतीं. उन के चेहरे पर सदैव एक रहस्यमयी मुसकान खिली होती. वे गुनगुनाने लगी थीं. अपनी ही दुनिया में खोई रहती थीं. मुझे यह सब देख कर खुश होना चाहिए पर विकास की वजह से मुझे खीझ होती थी. मैं गुमसुम रहने लगी. विकास की नजरों में मुझे मौम का चेहरा नजर आने लगा. वह भी अब मुझ से बचने की कोशिश करता, जितना हो पाता नजरें चुराने का प्रयास करता.

मैं इन परिस्थितियों में घिरी बहुत ही बेचैन रहने लगी. अकसर लगता कि मुझे सारी बात मौम को बता देनी चाहिए. शायद कोई समाधान निकल आए या असलियत जानने के बाद मौम विकास को अपनी जिंदगी से निकाल दें.

एक दिन हिम्मत जुटा कर मैं ने मौम को बातों ही बातों में विकास की फोटो दिखाते हुए बताया कि यही विकास है जिस के लिए मेरे दिल में बहुत सारा प्यार है. मौम उस फोटो को देर तक देखती रहीं. उन का चेहरा पीला पड़ गया था. जरूर उन्हें झटका लगा होगा कि वे जिसे अपना प्यार समझ रही थीं, वास्तव में वह तो उन की बेटी का प्यार है. मैं ध्यान से मौम का चेहरा देखती रही. मन में सुकून था कि अब मौम उसे छोड़ देंगी. पर हुआ मेरी सोच के विपरीत. मौम अब मुझे ही विकास से दूर रहने की सीख देने लगीं. अगले दिन मैं जब कालेज के लिए तैयार हो रही थी तो मौम मेरे करीब आईं और समझाने के अंदाज में कहने लगीं, ‘‘बेटा, प्यार का रिश्ता बहुत ही नाजुक होता है. इस में एकदूसरे के लिए मन में विश्वास और सम्मान की भावना जितनी आवश्यक है उतना ही एकदूसरे के प्रति समर्पण भी. यदि कोई तुम्हें प्यार करे तो सिर्फ तुम से करे और यदि ऐसा नहीं है तो उसे अपनी जिंदगी से निकाल देना ही बेहतर होता है.’’

मैं ने कुछ कहा नहीं, पर मौम का तात्पर्य समझ रही थी. वे मुझे विकास से दूर हो जाने की सलाह दे रही थीं. यह जानते हुए भी कि वे ही हमारे बीच आई थीं, न कि मैं उन के बीच. उस दिन कालेज जा कर मैं बहुत रोई. मुझे लग रहा था जैसे मेरा सब से कीमती सामान कोई छीन कर भाग गया हो और मैं कुछ भी नहीं कर सकी. सब से ज्यादा दुख मुझे इस बात का था कि मौम ने मेरी खुशी से ज्यादा अपनी खुशी को तवज्जुह दी थी. यह सब मेरे लिए बहुत अप्रत्याशित था. मुझे मौम पर गुस्सा आ रहा था और अकेलापन भी महसूस हो रहा था. एक अजीब सा एहसास था जो न जीने दे रहा था, न मरने. अपनी ही तनहाइयों में कहीं मैं खोने लगी थी.

मैं मौम से कट सी गई जबकि मौम पहले की तरह जिम जाती रहीं. एक दिन मौम के पीछे उर्वशी फिर से मेरे घर आई. मुझे अंदर ले जा धीरे से बोली, ‘‘जानती है, आज तेरी मौम उस विकास के साथ डेट पर जा रही हैं. मेरी मौम ने यह न्यूज दी है मुझे.’’ चौंक गई थी मैं. ‘‘कहां जा रही हैं,’’ मैं ने पूछा.

‘‘मनभावन रैस्टोरैंट. ट्रीट विकास की तरफ से है. कल तेरी मौम का उस जिम में अंतिम दिन है न.’’ ‘‘यानी, मौम अब जिम नहीं जाएंगी?’’

‘‘नहीं. मगर आज जब विकास ने डेट पर चलने को कहा तो वे मान गईं. आज वह पक्के तौर पर उन्हें प्रपोज करेगा.’’

मैं ने उसी पल तय कर लिया कि वेश बदल कर मैं उन की बातें सुनने के लिए वहां जरूर जाऊंगी और उसी रैस्टोरैंट में लोगों के सामने मां को उन की इस हरकत के लिए जलीकटी भी सुनाऊंगी. उर्वशी के बताए समय पर मैं उस रैस्टोरैंट में पहुंच गई. मौम और विकास जहां बैठे थे, उस की बगल वाली टेबल बुक की और बैठ गई. विकास बहुत प्रेम से मौम की तरफ देख रहा था. मेरे तनबदन में आग लग रही थी. थोड़ी इधरउधर की बातों के बाद विकास ने कह ही दिया कि वह उन्हें पसंद करता है. विकास प्रपोज करने के लिए अंगूठी भी साथ ले कर आया था. मैं उठ कर उन के रंग में भंग डालने ही वाली थी कि मौम के शब्दों ने मुझे चौंका दिया.

मौम कह रही थीं, ‘‘विकास, प्रेम समर्पण का दूसरा नाम है. इस में ठहराव जरूरी है. यदि आप किसी से प्यार करते हैं तो बस, आप उसी के हो जाते हैं. मगर तुम्हारे साथ ऐसा नहीं. तुम एकसाथ मुझे और प्रिया को प्यार कैसे कर सकते हो?’’ ‘‘प्रिया को आप जानती हैं?’’ वह चौंका.

‘‘हां, वह मेरी बेटी है और मैं ने बहुत करीब से उसे तुम्हारे प्यार में सराबोर देखा है. तुम उस से प्यार नहीं करते थे क्या?’’ विकास पहले तो हकबकाया, फिर सपाट लहजे में बोला, ‘‘नो, कुसुमजी, वह तो प्रिया ही मेरे पीछे पड़ी थी. उस में बहुत बचपना है. मुझे तो आप जैसी मैच्योर और ग्रेसफुल जीवनसाथी की आवश्यकता है.’’

‘‘जैसे प्रिया में तुम्हें आज बचपना लगने लगा है, क्या पता वैसे ही आज मैं तुम्हें अच्छी लग रही हूं पर कल मेरी बढ़ती उम्र तुम्हें खटकने लगे? मुझे छोड़ कर तुम किसी और के करीब हो जाओ. विकास, प्यार इंसान के गुणदोष या रंगरूप से नहीं, बल्कि दिल व सोच से होता है. प्यार किसी एक के प्रति समर्पण का नाम है, एक से दूसरे के प्रति परिवर्तन का नहीं.’’ ‘‘मगर कुसुमजी, आप भी तो मुझे…’’

विकास ने कुछ बोलना चाहा पर मौम ने उसे रोक दिया, ‘‘नो विकास, आई थिंक, तुम मुझे समझ सकोगे. मैं तुम्हें पसंद करती थी, पर अब, इस से आगे कुछ सोचना भी मत. इट्स माई फाइनल डिसीजन.’’ मौम उठ गई थीं और विकास अवाक सा उन्हें जाता देखता रहा. मैं खुशी से उछलती हुई उठी और पीछे से जा कर मौम को चूम लिया. Hindi Kahani

Hindi Kahani: लंच बौक्स – जब चला गया विजय का लकी

Hindi Kahani: सूरज ढलने को था. खंभों पर कुछ ही समय बाद बत्तियां जल गईं. घर में आनेजाने वालों का तांता लगा हुआ था. अपनेअपने तरीके से लोग विजय को दिलासा देते, थोड़ी देर बैठते और चले जाते. मकान दोमंजिला था. ग्राउंड फ्लोर के ड्राइंगरूम में विजय ने फर्श डाल दिया था और सामने ही चौकी पर बेटे लकी का फोटो रखवा दिया गया था. पास में ही अगरबत्ती स्टैंड पर अगरबत्तियां जल रही थीं. लोग विजय को नमस्ते कर, जहां भी फर्श पर जगह मिलती, बैठ जाते और फिर वही चर्चा शुरू हो जाती. रुलाई थी कि फूटफूट आना चाहती थी.

दरवाजे पर पालतू कुत्ता टौमी पैरों पर सिर रख कर चुपचाप बैठा था, जरा सी आहट पर जो कभी भूंकभूंक कर हंगामा बरपा देता था, आज शांत बैठा था. दिल पर पत्थर रख मन के गुबार को विजय ने मुश्किल से रोक रखा था.

‘‘क्यों, कैसे हो गया ये सबकुछ?’’

‘‘सामने अंधेरा था क्या?’’

‘‘सीटी तो मारनी थी.’’

‘‘तुम्हारा असिस्टैंट साथ में नहीं था क्या?’’

‘‘उसे भी दिखाई नहीं दिया?’’

एकसाथ लोगों ने कई सवाल पूछे, मगर विजय सवालों के जवाब देने के बजाय उठ कर कमरे में चला गया और बहुत देर तक रोता रहा.

रोता भी क्यों न. उस का 10 साल का बेटा, जो उसे लंच बौक्स देने आ रहा था, अचानक उसी शंटिंग इंजन के नीचे आ गया, जिसे वह खुद चला रहा था. बेटा थोड़ी दूर तक घिसटता चला गया.

इस से पहले कि विजय इंजन से उतर कर लड़के को देखता कि उस की मौत हो चुकी थी.

‘‘तुम्हीं रोरो कर बेहाल हो जाओगे, तो हमारा क्या होगा बेटा? संभालो अपनेआप को,’’ कहते हुए विजय की मां अंदर से आईं और हिम्मत बंधाते हुए उस के सिर पर हाथ फेरा.

मां की उम्र 75 साल के आसपास रही होगी. गजब की सहनशक्ति थी उन में. आंखों से एक आंसू तक नहीं बहाया. उलटे वे बहूबेटे को हिम्मत के साथ तसल्ली दे रही थीं.

मां ने विजय की आंखों के आंसू पोंछ डाले. वह दोबारा ड्राइंगरूम में आ गया.

‘पापा पापा, मुझे चाबी से चलने वाली कार नहीं चाहिए. आप तो सैल से जमीन पर दौड़ने वाला हैलीकौप्टर दिला दो,’ एक बार के कहने पर ही विजय ने लकी को हैलीकौप्टर खरीद कर दिलवा दिया था.

कमरे में कांच की अलमारियों में लकी के लिए खरीदे गए खिलौने थे. उस की मां ने सजा रखे थे. आज वे सब विजय को काटने को दौड़ रहे थे.

एक बार मेले में लकी ने जिस चीज पर हाथ रख दिया था, बिना नानुकर किए उसे दिलवा दिया था. कितना खुश था लकी. उस के जन्म के 2 दिन बाद ही बड़े प्यार से ‘लकी’ नाम दिया था उस की दादी ने.

‘देखना मां, मैं एक दिन लकी को बड़ा आदमी बनाऊंगा,’ विजय ने लकी के नन्हेनन्हे हाथों को अपने हाथों में ले कर प्यार से पुचकारते हुए कहा था.

लकी, जो अपनी मां की बगल में लेटा था, के चेहरे पर मुसकराते हुए भाव लग रहे थे.

‘ठीक है, जो मरजी आए सो कर. इसे चाहे डाक्टर बनाना या इंजीनियर, पर अभी इसे दूध पिला दे बहू, नहीं तो थोड़ी देर में यह रोरो कर आसमान सिर पर उठा लेगा,’ विजय की मां ने लकी को लाड़ करते हुए कहा था और दूध पिलाने के लिए बहू के सीने पर लिटा दिया था.

अस्पताल के वार्ड में विजय ने जच्चा के पलंग के पास ही घूमने वाले चकरीदार खिलौने पालने में लकी को खेलने के लिए टंगवा दिए थे, जिन्हें देखदेख कर वह खुश होता रहता था. एक अच्छा पिता बनने के लिए विजय ने क्याक्या नहीं किया…विजय इंजन ड्राइवर के रूप में रेलवे में भरती हुआ था. रनिंग अलाउंस मिला कर अच्छी तनख्वाह मिल जाया करती थी उसे. घर की गाड़ी बड़े मजे से समय की पटरियों पर दौड़ रही थी. उसे अच्छी तरह याद है, जब मां ने कहा था, ‘बेटा, नए शहर में जा रहे हो, पहनने वाले कपड़ों के साथसाथ ओढ़नेबिछाने के लिए रजाईचादर भी लिए जा. बिना सामान के परेशानी का सामना करना पड़ेगा.’

‘मां, क्या जरूरत है यहां से सामान लाद कर ले जाने की? शहर जा कर सब इंतजाम कर लूंगा. तुम्हारा  आशीर्वाद जो साथ है,’ विजय ने कहा था.

वह रसोई में चौकी पर बैठ कर खाना खा रहा था. मां उसे गरमागरम रोटियां सेंक कर खाने के लिए दिए जा रही थीं. विजय गांव से सिर्फ 2 पैंट, 2 टीशर्ट, एक तौलिया, साथ में चड्डीबनियान ब्रीफकेस में रख कर लाया था.

कोयले से चलने वाले इंजन तो रहे नहीं, उन की जगह पर रेलवे ने पहले तो डीजल से चलने वाले इंजन पटरी पर उतारे, पर जल्द ही बिजली के इंजन आ गए. विजय बिजली के इंजनों की ट्रेनिंग ले कर लोको पायलट बन गया था.

ड्राइवर की नौकरी थी. सोफा, अलमारी, रूम कूलर, वाशिंग मशीन सबकुछ तो जुटा लिया था उस ने. कौर्नर का प्लौट होने से मकान को खूब हवादार बनवाया था उस ने. शाम को थकाहारा विजय ड्यूटी से लौटता, तो हाथमुंह धो कर ऊपर बैठ कर चाय पीने के लिए कह जाता. दोनों पतिपत्नी घंटों ऊपरी मंजिल पर बैठेबैठे बतियाते रहते. बच्चों के साथ गपशप करतेकरते वह उन में खो जाता.

लकी के साथ तो वह बच्चा बन जाता था. स्टेशन रोड पर कोने की दुकान तक टहलताटहलता चला जाता और 2 बनारसी पान बनवा लाता. एक खुद खा लेता और दूसरा पत्नी को खिला देता.

विजय लकी और पिंकी का होमवर्क खुद कराता था. रात को डाइनिंग टेबल पर सब मिल कर खाना खाते थे. मन होता तो सोने से पहले बच्चों के कहने पर एकाध कहानी सुना दिया करता था.

मकान के आगे पेड़पौधे लगाने के लिए जगह छोड़ दी थी. वहां गेंदा, चमेली के ढेर सारे पौधे लगा रखे थे. घुमावदार कंगूरे और छज्जे पर टेराकोटा की टाइल्स उस ने लगवाई थी, जो किसी ‘ड्रीम होम’ से कम नहीं लगता था.

मगर अब समय ठहर सा गया है. एक झटके में सबकुछ उलटपुलट हो गया है. जो पौधे और ठंडी हवा उसे खुशी दिया करते थे, आज वे ही विजय को बेगाने से लगने लगे हैं.

घर में भीड़ देख कर पत्नी विजय के कंधे को झकझोर कर बोली, ‘‘आखिर हुआ क्या है? मुझे बताते क्यों नहीं?’’

विजय और उस की मां ने पड़ोसियों को मना कर दिया था कि पत्नी को मत बताना. लकी की मौत के सदमे को वह सह नहीं पाएगी. मगर इसे कब तक छिपाया जा सकता था. थोड़ी देर बाद तो उसे पता चलना ही था. आटोरिकशा से उतर कर लकी के कटेफटे शरीर को देख कर दहाड़ मार कर रोती हुई बेटे को गोदी में ले कर वहीं बैठ गई. विजय आसमान को अपलक देखे जा रहा था.

पिंकी लकी से 3 साल छोटी थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि हुआ क्या है? मां को रोते देख वह भी रोने लगी.‘‘देख, तेरा लकी अब कभी भी तेरे साथ नहीं खेल पाएगा,’’ विजय, जो वहीं पास बैठा था, पिंकी को कहते हुए बोला. उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था. पिंकी को उस ने अपनी गोद में बिठा लिया. रहरह कर ढेर सारे बीते पलों के चित्र उस के दिमाग में उभर रहे थे, जो उस ने लकी और पिंकी के साथ जीए थे.

उन चित्रों में से एक चित्र फिल्मी सीन की तरह उस के सामने घट गया. इंजन ड्राइवर होने के नाते रेल के इंजनों से उस का निकट का रिश्ता बन गया था. वर्तमान आशियाने को छोड़ कर वह बाहर ट्रांसफर पर नहीं जाना चाहता था, इसलिए प्रशासन ने नाराज हो कर उसे शंटिंग ड्राइवर बना दिया. रेलवे का इंजन, डब्बे, पौइंटमैन और कैबिनमैन के साथ परिवार की तरह उस का रिश्ता बन गया.

विजय दिनभर रेलवे क्रौसिंग के पास बने यार्ड में गाडि़यों की शंटिंग किया करता और डब्बों के रैक बनाया करता. लालहरी बत्तियों और झंडियों की भाषा पढ़ने की जैसे उस की दिनचर्या ही बन गई. सुबह 8 बजे ड्यूटी पर निकल जाता और दिनभर इंजन पर टंगा रहता, रैक बनाने के सिलसिले में.

अचानक उस के असिस्टैंट को एक लड़का साइकिल पर आता दिखाई दिया, जो तेजी से रेलवे बैरियर के नीचे से निकला. इस से पहले कि विजय कुछ कर पाता, उस ने इंजन की सीटी मारी, पर लड़का सीधा इंजन से जा टकराया.

‘यह तो लकी है…’ विजय बदहवास सा चिल्लाया.

लकी जैसे ही इंजन से टकराया, उस ने पैनल के सभी बटन दबा दिए. वह इंजन को तुरंत रोकना चाहता था. उस के मुंह से एक जोरदार चीख निकल गई.सामने लकी की साइकिल इंजन में उलझ गई और सौ मीटर तक घिसटती चली गई. लकी के शरीर के  चिथड़ेचिथड़े उड़ गए.

‘बचाओ, बचाओ रे, मेरे लकी को बचा लो,’ विजय रोता हुआ इंजन के रुकने से पहले उतर पड़ा.

लकी, जो पापा का लंच बौक्स देने यार्ड की तरफ आ रहा था, वह अब कभी नहीं आ पाएगा. चैक की शर्ट जो उस ने महीनेभर पहले सिलवाई थी, उसे हाथ में ले कर झटकाया. वहां पास ही पड़े लकी के सिर को उस की

शर्ट में रख कर देखने लगा और बेहोश हो गया. शंटिंग ड्राइवर से पहले जब वह लोको पायलट था, तो ऐसी कितनी ही घटनाएं लाइन पर उस के सामने घटी थीं. उसे पता है, जब एक नौजवान ने उस के इंजन के सामने खुदकुशी की थी, नौजवान ने पहले ड्राइवर की तरफ देखा, पर और तेज भागते हुए इंजन के सामने कूद पड़ा था.

उस दिन विजय से खाना तक नहीं खाया गया था. जानवरों के कटने की तो गिनती भी याद नहीं रही उसे. मन कसैला हो जाया करता था उस का. मगर करता क्या, इंजन चलाना उस की ड्यूटी थी. आज की घटना कैसे भूल पाता, उस के जिगर का टुकड़ा ही उस के हाथों टुकड़ेटुकड़े हो गया.

बेटे, जो पिता के शव को अपने कंधों पर श्मशान ले जाते हैं, उसी बेटे को विजय मुक्तिधाम ले जाने के लिए मजबूर था. Hindi Kahani

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