Family Story : रिटायरमेंट – आखिर क्या चाहते थे शर्मा जी के लालची रिश्तेदार

Family Story : मेरी नौकरी का अंतिम सप्ताह था, क्योंकि मैं सेवानिवृत्त होने वाला था. कारखाने के नियमानुसार 60 साल पूरे होते ही घर बैठने का हुक्म होना था.

मेरा जन्मदिन भी 2 अक्तूबर ही था. संयोगवश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर.

विभागीय सहयोगियों व कर्मचारियों ने कहा, ‘‘शर्माजी, 60 साल की उम्र तक ठीकठाक काम कर के रिटायर होने के बदले में हमें जायकेदार भोज देना होगा.’’

मैं ने भरोसा दिया, ‘‘आप सब निश्ंिचत रहें. मुंह अवश्य मीठा कराऊंगा.’’

इस पर कुछ ने विरोध प्रकट किया, ‘‘शर्माजी, बात स्पष्ट कीजिए, गोलमोल नहीं. हम ‘जायकेदार भोज’ की बात कर रहे हैं और आप मुंह मीठा कराने की. आप मांसाहारी भोज देंगे या नहीं? यानी गोश्त, पुलाव…’’

मैं ने मुकरना चाहा, ‘‘आप जानते हैं कि गांधीजी सत्य व अहिंसा के पुजारी थे, और हिंसा के खिलाफ मैं भी हूं. मांसाहार तो एकदम नहीं,’’ एक पल रुक कर मैं ने फिर कहा, ‘‘पिछले साल झारखंड के कुछ मंत्रियों ने 2 अक्तूबर के दिन बकरे का मांस खाया था तो उस पर बहुत बवाल हुआ था.’’

‘‘आप मंत्री तो नहीं हैं न. कारखाने में मात्र सीनियर चार्जमैन हैं,’’ एक सहकर्मी ने कहा.

‘‘पर सत्यअहिंसा का समर्थक तो हूं मैं.’’

फिर कुछ सहयोगी बौखलाए, ‘‘शर्माजी, हम भोज के  नाम पर ‘सागपात’ नहीं खा सकते. आप के घर ‘आलूबैगन’ खाने नहीं जाएंगे,’’ इस के बाद तो गीदड़ों के झुंड की तरह सब एकसाथ बोलने लगे, ‘‘शर्माजी, हम चंदा जमा कर आप के शानदार विदाई समारोह का आयोजन करेंगे.’’

प्रवीण ने हमें झटका देना चाहा, ‘‘हम सब आप को भेंट दे कर संतुष्ट करना चाहेंगे. भले ही आप हमें संतुष्ट करें या न करें.’’

मैं दबाव में आ कर सोचने लगा कि क्या कहूं? क्या खिलाऊं? क्या वादा करूं? प्रत्यक्ष में उन्हें भरोसा दिलाना चाहा कि आप सब मेरे घर आएं, महंगी मिठाइयां खिलाऊंगा. आधाआधा किलो का पैकेट सब को दे कर विदा करूंगा.

सीनियर अफसर गुप्ता ने रास्ता सुझाना चाहा, ‘‘मुरगा न खिलाइए शर्माजी पर शराब तो पिला ही सकते हैं. इस में हिंसा कहां है?’’

‘‘हां, हां, यह चलेगा,’’ सब ने एक स्वर से समर्थन किया.

‘‘मैं शराब नहीं पीता.’’

‘‘हम सब पीते हैं न, आप अपनी इच्छा हम पर क्यों लादना चाहते हैं?’’

‘‘भाई लोगों, मैं ने कहा न कि 2 अक्तूबर हो या नवरात्रे, दीवाली हो या नववर्ष…मुरगा व शराब न मैं खातापीता हूं, न दूसरों को खिलातापिलाता हूं.’’

सुखविंदर ने मायूस हो कर कहा, ‘‘तो क्या 35-40 साल का साथ सूखा ही निबटेगा?’’

कुछ ने रोष जताया, ‘‘क्या इसीलिए इतने सालों तक आप के मातहत काम किया? आप के प्रोत्साहन से ही गुणवत्तापूर्ण उत्पादन किया? कैसे चार्जमैन हैं आप कि हमारी अदनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते?’’

एक ने व्यंग्य किया, ‘‘तो कोई मुजरे वाली ही बुला लीजिए, उसी से मन बहला लेंगे.’’

नटवर ने विचार रखा, ‘‘शर्माजी, जितने रुपए आप हम पर खर्च करना चाह रहे हैं उतने हमें दे दीजिए, हम किसी होटल में अपनी व्यवस्था कर लेंगे.’’

इस सारी चर्चा से कुछ नतीजा न निकलना था न निकला.

यह बात मेरे इकलौते बेटे बलबीर के पास भी पहुंची. वह बगल वाले विभाग में बतौर प्रशिक्षु काम कर रहा था.

कुछ ने बलबीर को बहकाया, ‘‘क्या कमी है तुम्हारे पिताजी को जो खर्च के नाम से भाग रहे हैं. रिटायर हो रहे हैं. फंड के लाखों मिलेंगे… पी.एफ. ‘तगड़ा’ कटता है. वेतन भी 5 अंकों में है. हम उन्हें विदाई देंगे तो उन की ओर से हमारी शानदार पार्टी होनी चाहिए. घास छील कर तो रिटायर नहीं हो रहे. बुढ़ापे के साथ ‘साठा से पाठा’ होना चाहिए. वे तो ‘गुड़ का लाठा’ हो रहे हैं…तुम कैसे बेटे हो?’’

बलबीर तमतमाया हुआ घर आया. मैं लौट कर स्नान कर रहा था. बेटा मुझे समझाने के मूड में बोला, ‘‘बाबूजी, विभाग वाले 50-50 रुपए प्रति व्यक्ति चंदा जमा कर के ‘विदाई समारोह’ का आयोजन करेंगे तो वे चाहेंगे कि उन्हें 75-100 रुपए का जायकेदार भोज मिले. आप सिर्फ मिठाइयां और समोसे खिला कर उन्हें टरकाना चाहते हैं. इस तरह आप की तो बदनामी होगी ही, वे मुझे भी बदनाम करेंगे.

‘‘आप तो रिटायर हो कर घर में बैठ जाएंगे पर मुझे वहीं काम करना है. सोचिए, मैं कैसे उन्हें हर रोज मुंह दिखाऊंगा? मुझे 10 हजार रुपए दीजिए, खिलापिला कर उन्हें संतुष्ट कर दूंगा.’’

‘‘उन की संतुष्टि के लिए क्या मुझे अपनी आत्मा के खिलाफ जाना होगा? मैं मुरगे, बकरे नहीं कटवा सकता,’’ बेटे पर बिगड़ते हुए मैं ने कहा.

‘‘बाबूजी, आप मांसाहार के खिलाफ हैं, मैं नहीं.’’

‘‘तो क्या तुम उन की खुशी के लिए मद्यपान करोगे?’’

‘‘नहीं, पर मुरगा तो खा ही सकता हूं.’’

अपना विरोध जताते हुए मैं बोला, ‘‘बलबीर, अधिक खर्च करने के पक्ष में मैं नहीं हूं. सब खाएंगेपीएंगे, बाद में कोई पूछने भी नहीं आएगा. मैं जब 4 महीने बीमारी से अनफिट था तो 1-2 के अलावा कौन आया था मेरा हाल पूछने? मानवता और श्रद्धा तो लोगों में खत्म हो गई है.’’

पत्नी कमला वहीं थी. झुंझलाई, ‘‘आप दिल खोल कर और जम कर कुछ नहीं कर पाते. मन मार कर खुश रहने से भी पीछे रह जाते हैं.’’

कमला का समर्थन न पा कर मैं झुंझलाया, ‘‘श्रीमतीजी, मैं ने आप को कब खुश नहीं किया है?’’

वे मौका पाते ही उलाहना ठोक बैठीं, ‘‘कई बार कह चुकी हूं कि  मेरा गला मंगलसूत्र के बिना सूना पड़ा है. रिटायरमेंट के बाद फंड के रुपए मिलते ही 5 तोले का मंगलसूत्र और 10 तोले की 4-4 चूडि़यां खरीद देना.’’

‘‘श्रीमतीजी, सोने का भाव बाढ़ के पानी की तरह हर दिन बढ़ता जा रहा है. आप की इच्छा पूरी करूं तो लाखों अंटी से निकल जाएंगे, फिर घर चलाना मुश्किल होगा.’’

श्रीमतीजी बिगड़ कर बोलीं, ‘‘तो बताइए, मैं कैसे आप से खुश रहूंगी?’’

बलबीर को अवसर मिल गया. वह बोला, ‘‘बाबूजी, अब आप जीवनस्तर ऊंचा करने की सोचिए. कुछ दिन लूना चलाते रहे. मेरी जिद पर स्कूटी खरीद लाए. अब एक बड़ी कार ले ही लीजिए. संयोग से आप देश की नामी कार कंपनी से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं.’’

बेटे और पत्नी की मांग से मैं हतप्रभ रह गया.

मैं सोने का उपक्रम कर रहा था कि बलबीर ने अपनी रागनी शुरू कर दी, ‘‘बाबूजी, खर्च के बारे में क्या सोच रहे हैं?’’

मैं ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम अभी स्थायी नौकरी में नहीं हो. प्रशिक्षण के बाद तुम्हें प्रबंधन की कृपा से अस्थायी नौकरी मिल सकेगी. पता नहीं तुम कब तक स्थायी होगे. तब तक मुझे ही घर का और तुम्हारा भी खर्च उठाना होगा. इसलिए भविष्यनिधि से जो रुपए मिलेंगे उसे ‘ब्याज’ के लिए बैंक में जमा कर दूंगा, क्योंकि आगे ब्याज से ही मुझे अपना ‘खर्च’ चलाना होगा. अत: मैं ने अपनी भविष्यनिधि के पैसों को सुरक्षित रखने की सोची है.’’

श्रीमतीजी संभावना जाहिर कर गईं कि 20 लाख रुपए तक तो आप को मिल ही जाएंगे. अच्छाखासा ब्याज मिलेगा बैंक से.

उन के इस मुगालते को तोड़ने के लिए मैं ने कहा, ‘‘भूल गई हो, 3 बेटियों के ब्याह में भविष्यनिधि से ऋण लिया था. कुछ दूसरे ऋण काट कर 12 लाख रुपए ही मिलेंगे. वैसे भी अब दुनिया भर में आर्थिक संकट पैदा हो चुका है, इसलिए ब्याज घट भी सकता है.’’

बलबीर ने टोका, ‘‘बाबूजी, आप को रुपए की कमी तो है नहीं. आप ने 10 लाख रुपए अलगअलग म्यूचुअल फं डों में लगाए हुए हैं.’’

मैं आवेशित हुआ, ‘‘अखबार नहीं पढ़ते क्या? सब शेयरों के भाव लुढ़कते जा रहे हैं. उस पर म्यूचुअल फंडों का बुराहाल है. निवेश किए हुए रुपए वापस मिलेंगे भी या नहीं? उस संशय से मैं भयभीत हूं. रिटायर होने के बाद मैं रुपए कमाने योग्य नहीं रहूंगा. बैठ कर क्या करूंगा? कैसे समय बीतेगा. चिंता, भय से नींद भी नहीं आती…’’

श्रीमतीजी ने मेरे दर्द और चिंता को महसूस किया, ‘‘चिंतित मत होइए. हर आदमी को रिटायर होना पड़ता है. चिंताओं के फन को दबोचिए. उस के डंक से बचिए.’’

‘‘देखो, मैं स्वयं को संभाल पाता हूं या नहीं?’’

तभी फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, मैं विजय बोल रहा हूं.’’

‘‘नमस्कार, विजय बाबू.’’

‘‘शर्माजी, सुना है, आप रिटायर होने जा रहे हैं.’’

‘‘हां.’’

‘‘कुछ करने का विचार है या बैठे रहने का?’’ विजय ने पूछा.

‘‘कुछ सोचा नहीं है.’’

‘‘मेरी तरह कुछ करने की सोचो. बेकार बैठ कर ऊब जाओगे.’’

‘‘मेरे पिता ने भी सेवामुक्त हो कर ‘बिजनेस’ का मन बनाया था, पर नहीं कर सके. शायद मैं भी नहीं कर सकूंगा, क्यों जहां भी हाथ डाला, खाली हो गया.’’

विजय की हंसी गूंजी, ‘‘हिम्मत रखो. टाटा मोटर्स में ठेका पाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराओ. एकाध लाख लगेंगे.’’

बलबीर उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘ठेका ले कर देखिए, बाबूजी.’’

‘‘बेटा, मैं भविष्यनिधि की रकम को डुबाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता.’’

बलबीर जिद पर उतर आया तो मैं बोला, ‘‘तुम्हारे कहने पर मैं ने ट्रांसपोर्ट का कारोबार किया था न? 7 लाख रुपए डूब गए थे. तब मैं तंगी, परेशानी और खालीहाथ से गुजरने लगा था. फ ांके की नौबत आ गई थी.’’

बलबीर शांत पड़ गया, मानो उस की हवा निकल गई हो.

तभी मोबाइल बजने लगा. पटना से रंजन का फोन था. आवाज कानों में पड़ी तो मुंह का स्वाद कसैला हो गया. रंजन मेरा चचेरा भाई था. उस ने गांव का पुश्तैनी मकान पड़ोसी पंडितजी के हाथ गिरवी रख छोड़ा था. उस की एवज में 50 हजार रुपए ले रखे थे.

पहले मैं रंजन को अपना भाई मानता था पर जब उस ने धोखा किया, मेरा मन टूट गया था.

‘‘रंजन बोल रहा हूं भैया, प्रणाम.’’

‘‘खुश रहो.’’

‘‘सुना है आप रिटायर होने वाले हैं? एक प्रार्थना है. पंडितजी के रुपए चुका कर मकान छुड़ा लीजिए न. 20 हजार रुपए ब्याज भी चढ़ चुका है. न चुकाने से मकान हाथ से निकल जाएगा. मेरे पास रुपए नहीं हैं. पटना में मकान बनाने से मैं कर्जदार हो चुका हूं. कुछ सहायता कीजिएगा तो आभारी रहूंगा.’’

मैं क्रोध से तिलमिलाया, ‘‘कुछ करने से पहले मुझ से पूछा था क्या? सलाह भी नहीं ली. पंडितजी का कर्ज तुम भरो. मुझे क्यों कह रहे हो?’’

मोबाइल बंद हो गया. इच्छा हुई कि उसे और खरीखोटी सुनाऊं. गुस्से में बड़बड़ाता रहा, ‘‘स्वार्थी…हमारे हिस्से को भी गिरवी रख दिया और रुपए ले गया. अब चाहता है कि मैं फंड के रुपए लगा दूं? मुझे सुख से जीने नहीं देना चाहता?’’

‘‘शांत हो जाइए, नहीं तो ब्लडप्रेशर बढे़गा,’’ कमला ने मुझे शांत करना चाहा.

सुबह कारखाने पहुंचा तो जवारी- भाई रामलोचन मिल गए, बोले, ‘‘रिटायरमेंट के बाद गांव जाने की तो नहीं सोच रहे हो न? बड़ा गंदा माहौल हो गया है गांव का. खूब राजनीति होती है. तुम्हारा खाना चाहेंगे और तुम्हें ही बेवकूफ बनाएंगे. रामबाबू रिटायरमेंट के बाद गांव गए थे, भाग कर उन्हें वापस आना पड़ा. अपहरण होतेहोते बचा. लाख रुपए की मांग कर रहे थे रणबीर दल वाले.’’

सीनियर अफसर गुप्ताजी मिल गए. बोले, ‘‘कल आप की नौकरी का आखिरी दिन है. सब को लड्डू खिला दीजिएगा. आप के विदाई समारोह का आयोजन शायद विभाग वाले दशहरे के बाद करेंगे.’’

कमला ने भी घर से निकलते समय कहा था, ‘‘लड्डू बांट दीजिएगा.’’

बलबीर भी जिद पर आया, ‘‘मैं भी अपने विभाग वालों को लड्डू खिलाऊंगा.’’

‘‘तुम क्यों? रिटायर तो मैं होने वाला हूं.’’

वह हंसते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, रिटायरमेंट को खुशी से लीजिए. खुशियां बांटिए और बटोरिए. कुछ मुझे और कुछ बहनबेटियों को दीजिए.’’

मुझे क्रोध आया, ‘‘तो क्या पैसे बांट कर अपना हाथ खाली कर लूं? मुझे कम पड़ेगा तो कोई देने नहीं आएगा. हां, मैं बहनबेटियों को जरूर कुछ गिफ्ट दूंगा. ऐसा नहीं कि मैं वरिष्ठ नागरिक होते ही ‘अशिष्ट’ सिद्ध होऊं. पर शिष्ट होने के लिए अपने को नष्ट नहीं करूंगा.’’

मैं सोचने लगा कि अपने ही विभाग का वेणुगोपाल पैसों के अभाव का रोना रो कर 5 हजार रुपए ले गया था, अब वापस करने की स्थिति में नहीं है. उस के बेटीदामाद ने मुकदमा ठोका हुआ है कि उन्हें उस की भविष्यनिधि से हिस्सा चाहिए.

रामलाल भी एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति थे. एक दिन आए और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे, ‘‘शर्माजी, रिटायर होने के बाद मैं कंगाल हो गया हूं. बेटों के लिए मकान बनाया. अब उन्होंने घर से बाहर कर दिया है. 15 हजार रुपए दे दीजिए. गायभैंस का धंधा करूंगा. दूध बेच कर वापस कर दूंगा.’’

रिटायर होने के बाद मैं घर बैठ गया. 10 दिन बीत गए. न विदाई समारोह का आयोजन हुआ, न विभाग से कोई मिलने आया. मैं ने गेटपास जमा कर दिया था. कारखाने के अंदर जाना भी मुश्किल था. समय के साथ विभाग वाले भूल गए कि विदाई की रस्म भी पूरी करनी है.

एक दिन विजय आया. उलाहने भरे स्वर में बोला, ‘‘यार, तुम ने मुझे किसी आयोजन में नहीं बुलाया?’’

मैं दुखी स्वर में बोला, ‘‘क्षमा करना मित्र, रिटायर होने के बाद कोई मुझे पूछने नहीं आया. विभाग वाले भी विभाग के काम में लग कर भूल गए…जैसे सारे नाते टूट गए हों.’’

कमला ताने दे बैठी, ‘‘बड़े लालायित थे आधाआधा किलो के पैकेट देने के लिए…’’

बलबीर को अवसर मिला. बोला, ‘‘मांसाहारी भोज से इनकार कर गए, अत: सब का मोहभंग हो गया. अब आशा भी मत रखिए…आप को पता है, मंदी का दौर पूरी दुनिया में है. उस का असर भारत के कारखानों पर भी पड़ा है. कुछ अनस्किल्ड मजदूरों की छंटनी कर दी गई है. मजदूरों को चंदा देना भारी पड़ रहा है. वैसे भी जिस विभाग का प्रतिनिधि चंदा उगाहने में माहिर न हो, काम से भागने वाला हो और विभागीय आयोजनों पर ध्यान न दे, वह कुछ नहीं कर सकता.’’

विजय ने कहा, ‘‘यार, शर्मा, घर में बैठने के बाद कौन पूछता है? वह जमाना बीत गया कि लोगों के अंदर प्यार होता था, हमदर्दी होती थी. रिटायर व्यक्ति को हाथी पर बैठा कर, फूलमाला पहना कर घर तक लाया जाता था. अब लोग यह सोचते हैं कि उन का कितना खर्च हुआ और बदले में उन्हें कितना मिला. मुरगाशराब खिलातेपिलाते तो भी एकदो माह के बाद कोई पूछने नहीं आता. सचाई यह है कि रिटायर व्यक्ति को सब बेकार समझ लेते हैं और भाव नहीं देते.’’

मैं कसमसा कर शांत हो गया…घर में बैठने का दंश सहने लगा.

Family Story : काश – क्या मालती प्रायश्चित्त कर सकी?

Family Story, लेखक- कमल कपूर

‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा

हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा

हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

‘मालती भारद्वाज.’

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

Family Story : अपने लोग – आनंद ने आखिर क्या सोचा था

Family Story : ‘‘आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? तुम्हारी इस आमदनी में तो जिंदगी पार होने से रही. मैं ने डाक्टरी इसलिए तो नहीं पढ़ी थी, न इसलिए तुम से शादी की थी कि यहां बैठ कर किचन संभालूं,’’ रानी ने दूसरे कमरे से कहा तो कुछ आवाज आनंद तक भी पहुंची. सच तो यह था कि उस ने कुछ ही शब्द सुने थे लेकिन उन का पूरा अर्थ अपनेआप ही समझ गया था.

आनंद और रानी दोनों ने ही अच्छे व संपन्न माहौल में रह कर पढ़ाई पूरी की थी. परेशानी क्या होती है, दोनों में से किसी को पता ही नहीं था. इस के बावजूद आनंद व्यावहारिक आदमी था. वह जानता था कि व्यक्ति की जिंदगी में सभी तरह के दिन आते हैं. दूसरी ओर रानी किसी भी तरह ये दिन बिताने को तैयार नहीं थी. वह बातबात में बिगड़ती, आनंद को ताने देती और जोर देती कि वह विदेश चले. यहां कुछ भी तो नहीं धरा है.

आनंद को शायद ये दिन कभी न देखने पड़ते, पर जब उस ने रानी से शादी की तो अचानक उसे अपने मातापिता से अलग हो कर घर बसाना पड़ा. दोनों के घर वालों ने इस संबंध में उन की कोई मदद तो क्या करनी थी, हां, दोनों को तुरंत अपने से दूर हो जाने का आदेश अवश्य दे दिया था. फिर आनंद अपने कुछ दोस्तों के साथ रानी को ब्याह लाया था.

तब वह रानी नहीं, आयशा थी, शुरूशुरू में तो आयशा के ब्याह को हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश हुई थी, पर कुछ डरानेधमकाने के बाद बात आईगई हो गई. फिर भी उन की जिंदगी में अकेलापन पैठ चुका था और दोनों हर तरह से खुश रहने की कोशिशों के बावजूद कभी न कभी, कहीं न कहीं निकटवर्तियों का, संपन्नता का और निश्ंिचतता का अभाव महसूस कर रहे थे.

आनंद जानता था कि घर का यह दमघोंटू माहौल रानी को अच्छा नहीं लगता. ऊपर से घरगृहस्थी की एकसाथ आई परेशानियों ने रानी को और भी चिड़चिड़ा बना दिया था. अभी कुछ माह पहले तक वह तितली सी सहेलियों के बीच इतराया करती थी. कभी कोईर् टोकता भी तो रानी कह देती, ‘‘अपनी फिक्र करो, मुझे कौन यहां रहना है. मास्टर औफ सर्जरी (एमएस) किया और यह चिडि़या फुर्र…’’ फिर वह सचमुच चिडि़यों की तरह फुदक उठती और सारी सहेलियां हंसी में खो जातीं.

यहां तक कि वह आनंद को भी अकसर चिढ़ाया करती. आनंद की जिंदगी में इस से पहले कभी कोई लड़की नहीं आई थी. वह उन क्षणों में पूरी तरह डूब जाता और रानी के प्यार, सुंदरता और कहकहों को एकसाथ ही महसूस करने की कोशिश करने लगता था.

आनंद मास्टर औफ मैडिसिन (एमडी) करने के बाद जब सरकारी नौकरी में लगा, तब भी उन दोनों को शादी की जल्दी नहीं थी. अचानक कुछ ऐसी परिस्थितियां आईं कि शादी करना जरूरी हो गया. रानी के पिता उस के लिए कहीं और लड़का देख आए थे. अगर दोनों समय पर यह कदम न उठाते तो निश्चित था कि रानी एक दिन किसी और की हो जाती.

फिर वही हुआ, जिस का दोनों बरसों से सपना देख रहे थे. दोनों एकदूसरे की जिंदगी में डूब गए. शादी के बाद भी इस में कोई फर्क नहीं आया. फिर भी क्षणक्षण की जिंदगी में ऐसे जीना संभव नहीं था और रानी की बड़बड़ाहट भी इसी की प्रतिक्रिया थी.

आनंद ने यह सब सुना और रानी की बातें उस के मन में कहीं गहरे उतरती गईं. रानी के अलावा अब उस का इतने निकट था ही कौन? हर दुखदर्द की वह अकेली साथी थी. वह सोचने लगा, ‘चाहे जैसे भी हो, विदेश निकलना जरूरी है. जो यहां बरसों नहीं कमा सकूंगा, वहां एक साल में ही कमा लूंगा. ऊपर से रानी भी खुश हो जाएगी.’

आखिर वह दिन भी आया जब आनंद का विदेश जाना लगभग तय हो गया. डाक्टर के रूप में उस की नियुक्ति इंगलैंड में हो गई थी और अब उन के निकलने में केवल उतने ही दिन बाकी थे जितने दिन उन की तैयारी के लिए जरूरी थे. जाने कितने दिन वहां लग जाएं? जाने कब लौटना हो? हो भी या नहीं? तैयारी के छोटे से छोटे काम से ले कर मिलनेजुलने वालों को अलविदा कहने तक, सभी काम उन्हें इस समय में निबटाने थे.

रानी की कड़वाहट अब गायब हो चुकी थी. आनंद अब देर से लौटता तो भी वह कुछ न कहती, जबकि कुछ महीनों पहले आनंद के देर से लौटने पर वह उस की खूब खिंचाई करती थी.

अब रात को सोने से पहले अधिकतर समय इंगलैंड की चर्चा में ही बीतता, कैसा होगा इंगलैंड? चर्चा करतेकरते दोनों की आंखों में एकदूसरे के चेहरे की जगह ढेर सारे पैसे और उस से जुड़े वैभव की चमक तैरने लगती और फिर न जाने दोनों कब सो जाते.

चाहे आनंद के मित्र हों या रानी की सहेलियां, सभी उन का अभाव अभी से महसूस करने लगे थे. एक ऐसा अभाव, जो उन के दूर जाने की कल्पना से जुड़ा हुआ था. आनंद का तो अजीब हाल था. आनंद को घर के फाटक पर बैठा रहने वाला चौकीदार तक गहरा नजदीकी लगता. नुक्कड़ पर बैठने वाली कुंजडि़न लाख झगड़ने के बावजूद कल्पना में अकसर उसे याद दिलाती, ‘लड़ लो, जितना चाहे लड़ लो. अब यह साथ कुछ ही दिनों का है.’

और फिर वह दिन भी आया जब उन्हें अपना महल्ला, अपना शहर, अपना देश छोड़ना था. जैसेजैसे दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ने का समय नजदीक आ रहा था, आनंद की तो जैसे जान ही निकली जा रही थी. किसी तरह से उस ने दिल को कड़ा किया और फिर वह अपने महल्ले, शहर और देश को एक के बाद एक छोड़ता हुआ उस धरती पर जा पहुंचा जो बरसों से रानी के लिए ही सही, उस के जीने का लक्ष्य बनी हुई थी.

लंदन का हीथ्रो हवाईअड्डा, यांत्रिक जिंदगी का दूर से परिचय देता विशाल शहर. जिंदगी कुछ इस कदर तेज कि हर 2 मिनट बाद कोई हवाईजहाज फुर्र से उड़ जाता. चारों ओर चकमदमक, उसी के मुकाबले लोगों के उतरे या फिर कृत्रिम मुसकराहटभरे चेहरे.

जहाज से उतरते ही आनंद को लगा कि उस ने बाहर का कुछ पाया जरूर है, पर साथ ही अंदर का कुछ ऐसा अपनापन खो दिया है, जो जीने की पहली शर्त हुआ करती है. रानी उस से बेखबर इंगलैंड की धरती पर अपने कदमों को तोलती हुई सी लग रही थी और उस की खुशी का ठिकाना न था. कई बार चहक कर उस ने आनंद का भी ध्यान बंटाना चाहा, पर फिर उस के चेहरे को देख अकेले ही उस नई जिंदगी को महसूस करने में खो जाती.

अब उन्हें इंगलैंड आए एक महीने से ऊपर हो रहा था. दिनभर जानवरों की सी भागदौड़. हर जगह बनावटी संबंध. कोई भी ऐसा नहीं, जिस से दो पल बैठ कर वे अपना दुखदर्द बांट सकें. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी, पर अपनेपन का काफी अभाव था. यहां तक कि वे भारतीय भी दोएक बार लंच पर बुलाने के अलावा अधिक नहीं मिलतेजुलते जिन के ऐड्रैस वह अपने साथ लाया था. जब भारतीयों की यह हालत थी, तो अंगरेजों से क्या अपेक्षा की जा सकती थी. ये भारतीय भी अंगरेजों की ही तरह हो रहे थे. सारे व्यवहार में वे उन्हीं की नकल करते.

ऐसे में आनंद अपने शहर की उन गलियों की कल्पना करता जहां कहकहों के बीच घडि़यों का अस्तित्व खत्म हो जाया करता था. वे लंबीचौड़ी बहसें अब उसे काल्पनिक सी लगतीं. यहां तो सबकुछ बंधाबंधा सा था. ठहाकों का सवाल ही नहीं, हंसना भी हौले से होता, गोया उस की भी राशनिंग हो. बातबात में अंगरेजी शिष्टाचार हावी. आनंद लगातार इस से आजिज आता जा रहा था. रानी कुछ पलों को तो यह महसूस करती, पर थोड़ी देर बाद ही अंगरेजी चमकदमक में खो जाती. आखिर जो इतनी मुश्किल से मिला है, उस में रुचि न लेने का उसे कोई कारण ही समझ में न आता.

कुछ दिनों से वह भी परेशान थी. बंटी यहां आने के कुछ दिनों बाद तक चौकीदार के लड़के रामू को याद कर के काफी परेशान रहा था. यहां नए बच्चों से उस की दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकी थी. बंटी कुछ कहता तो वे कुछ कहते और फिर वे एकदूसरे का मुंह ताकते. फिर बंटी अकेला और गुमसुम रहने लगा था. रानी ने उस के लिए कई तरह के खिलौने ला दिए, लेकिन वे भी उसे अच्छे न लगते. आखिर बंटी कितनी देर उन से मन बहलाता.

और आज तो बंटी बुखार में तप रहा था. आनंद अभी तक अस्पताल से नहीं लौटा था. आसपास याद करने से रानी को कोई ऐसा नजर नहीं आया, जिसे वह बुला ले और जो उसे ढाढ़स बंधाए. अचानक इस सूनेपन में उसे लखनऊ में फाटक पर बैठने वाले रग्घू चौकीदार की याद आई, जो कई बार ऐसे मौकों पर डाक्टर को बुला लाता था. उसे ताज्जुब हुआ कि उसे उस की याद क्यों आई. उसे कुंजडि़न की याद भी आई, जो अकसर आनंद के न होने पर घर में सब्जी पहुंचा जाती थी. उसे उन पड़ोसियों की भी याद आई जो ऐसे अवसरों पर चारपाई घेरे बैठे रहते थे और इस तरह उदास हो उठते थे जैसे उन का ही अपना सगासंबंधी हो.

आज पहली बार रानी को उन की कमी अखरी. पहली बार उसे लगा कि वह यहां हजारों आदमियों के होने के बावजूद किसी जंगल में पहुंच गई है, जहां कोई भी उन्हें पूछने वाला नहीं है. आनंद अभी तक नहीं लौटा था. उसे रोना आ गया.

तभी बाहर कार का हौर्न बजा. रानी ने नजर उठा कर देखा, आनंद ही था. वह लगभग दौड़ सी पड़ी, बिना कुछ कहे आनंद से जा चिपटी और फफक पड़ी. तभी उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘कितने अकेले हैं हम लोग यहां, मर भी जाएं तो कोई पूछने वाला नहीं. बंटी की तबीयत ठीक नहीं है और एकएक पल मुझे काटने को दौड़ रहा था.’’

आनंद ने धीरे से बिना कुछ कहे उसे अलग किया और अंदर के कमरे की ओर बढ़ा, जहां बंटी आंखें बंद किए लेटा था. उस ने उस के माथे पर हाथ रखा, वह तप रहा था. उस ने कुछ दवाएं बंटी को पिलाईं. बंटी थोड़ा आराम पा कर सो गया.

थका हुआ आनंद एक सोफे पर लुढ़क गया. दूसरी ओर, आरामकुरसी पर रानी निढाल पड़ी थी. आनंद ने देखा, उस की आंखों में एक गलती का एहसास था, गोया वह कह रही हो, ‘यहां सबकुछ तो है पर लखनऊ जैसा, अपने देश जैसा अपनापन नहीं है. चाहे वस्तुएं हों या आदमी, यहां केवल ऊपरी चमक है. कार, टैलीविजन और बंगले की चमक मुझे नहीं चाहिए.’

तभी रानी थके कदमों से उठी. एक बार फिर बंटी को देखा. उस का बुखार कुछ कम हो गया था. आनंद वैसे ही आंखें बंद किए हजारों मील पीछे छूट गए अपने लोगों की याद में खोया हुआ था. रानी निकट आई और चुपचाप उस के कंधों पर अपना सिर टिका दिया, जैसे अपनी गलती स्वीकार रही हो.

Family Story : वापसी

Family Story : पूरे देश में अब अनलौक की शुरुआत हो चुकी थी. औफिस, बाजार वगैरह खुल गए थे. लौकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर काम से लोगों की हुई छंटनी का असर हर तरफ दिख रहा था.

लौकडाउन के समय भारी तादाद में मजदूर अपनेअपने गांव लौट गए थे. गांवों के हालात कोई अच्छे नहीं थे. वहां का समाज अपने लोगों को काम और भोजन मुहैया करा पाने में नाकाम साबित हुआ था. लिहाजा, मजदूर फिर से वापस शहरों की तरफ रुख कर रहे थे. उसी शहर की तरफ जिस ने मुसीबत में सब से पहले उन का साथ छोड़ा था.

दूसरे मजदूरों की तरह अब्दुल भी लौकडाउन में परिवार समेत अपने गांव लौट आया था. उस ने तय कर लिया था कि अब वह नोएडा कभी वापस नहीं जाएगा. पीढि़यों से जिस गांव में उस का परिवार रहता आया हो, वहां उसे दो जून की रोटी कमाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.

नोएडा में अब्दुल एक बहुमंजिला औफिस के बाहर सड़क के किनारे चाय का छोटा सा स्टाल लगाता था, जिस से वह इतना कमा लेता था कि परिवार का गुजारा चल जाता था. यह बात उस को मालूम थी कि गांव में केवल खेती के मौसम में ही काम आसानी से मिल पाता?है. खेती के मौसम के बाद बाकी के महीनों में वह गांव से सटे ब्लौक में चाय का स्टाल लगाया करेगा. गांव में खर्च भी कम होता है, तो उस का काम कम आमदनी में भी चल जाएगा.

धान रोपनी के मौसम में अब्दुल और उस की बीवी को धान बोने का काम मिल गया. 2 महीने आराम से कट गए. धान रोपनी के बाद अब्दुल फिर से बेरोजगार हो गया था. उस ने अपनी छोटी सी जमापूंजी से एक ठेला खरीदा और ब्लौक के एक नुक्कड़ के पीछे चाय का स्टाल लगाना शुरू कर दिया.

कुछ ही दिनों में अब्दुल का धंधा चल निकला. आमदनी ठीकठाक होने लगी. यह सोच कर अब्दुल बहुत खुश था कि परिवार का पेट पालने के लिए अब उसे अपना गांव छोड़ कर कहीं नहीं जाना पड़ेगा.

हालांकि अब्दुल को उसे इलाके के लोग पहचानते थे, फिर भी उस की कमाई कुछ लोगों को खटकने लगी थी. पहले किसी ने कल्पना ही नहीं की थी कि नुक्कड़ के पीछे के एक कोने में भी कोई कामधंधा चल सकता है.

एक दिन कुछ लोफर लड़के बाइक से उस के स्टाल पर आए और उन में से एक लड़के ने, जो खुद को नेता समझता था, अब्दुल से कड़क आवाज में पूछा, ‘‘यहां तुम्हें किस ने ठेला लगाने की इजाजत दी है?’’

‘‘मालिक, यह जगह खाली थी तो रोजीरोटी कमाने के लिए मैं यहां ठेला लगाने लगा,’’ अब्दुल सहमते हुए बोला.

‘‘पता है न कि आगे नुक्कड़ पर देवी स्थान है?’’

‘‘जी…’’

‘‘फिर यह जगह हिंदुओं की हुई न. यहां किसी गैरहिंदू का होना इस जगह को अपवित्र कर रहा है. तुम इस जगह को खाली कर कहीं और अपना कामधंधा करो. समझ गए न…’’ दूसरे लड़के ने धमकाते हुए कहा.

फिर वे लड़के वहां से तेजी से मोटरसाइकिल घुमाते हुए निकल गए. अब्दुल उन लड़कों में से एक को पहचान गया था. वह लड़का उस के बेटे शकील का दोस्त था. जब शकील जिंदा था, तो वह उस के घर आयाजाया करता था.

शकील नोएडा में राजमिस्त्री का काम करता था. 2 साल पहले नोएडा में एक बहुमंजिला इमारत के बनने के दौरान हुए एक हादसे में उस की मौत हो गई थी. उन शोहदों की धमकी से अब्दुल डर गया था. फिर उस ने खुद को समझाया कि ये बच्चे जानबूझ कर मजे के लिए ऐसी हरकत कर रहे होंगे. शायद अब वह दोबारा आएंगे भी नहीं.

‘‘यह गांवसमाज सब का है. 50 साल की उम्र में मैं ने अपने गांव या आसपास के गांवों में कभी हिंदूमुसलमान होते नहीं देखा है. बिरजू काका, छोटा काकी, मूलचंद दादा जैसे बड़ेबुजुर्गों की छांव में राम नारायण, बेचू, महेंद्र जैसे कितनों दोस्तों के साथ मैं ने हंसीखुशी अपनी जिंदगी गुजारी है.

‘‘नदी में नहाना हो या बाग में घुस कर आम चुराना, ताजिया देखने जाना हो या दुर्गा पूजा का मेला देखने, मजहब की पहचान कभी आड़े नहीं आई. होली और ईद सब ने मिल कर साथ मनाई,’’ शाम में घर जाते हुए अब्दुल सोच रहा था.

अब्दुल उन गुंडों की बात को उन की दिल्लगी समझ कर भूल गया और उसी जगह पर ठेला लगाता रहा.

2-4 दिन बाद वही गुंडे फिर से आए और उन में से एक फट पड़ा, ‘‘ऐ बूढ़े, अपनी जान प्यारी नहीं है क्या? समझाया था न कि यह जगह हिंदुओं की है, सो अब यहां से हट कर कहीं और अपना ठेला लगाओ.’’

‘‘यह जमीन सरकारी है. यह सिर्फ हिंदुओं की नहीं, सब की है,’’ अब्दुल ने हिम्मत दिखाते हुए जवाब दिया.

अब्दुल के जवाब को सुन कर वे लोग तिलमिला उठे. वे अब्दुल से गालीगलौज करने लगे. उन में से एक ने अब्दुल को 2 थप्पड़ जड़ दिए.

यह मजमा देखने के लिए लोगों की भीड़ लग गई. भीड़ से एक दबी सी आवाज आई कि किसी निहत्थे आदमी को इस तरह मारना गलत है.

यह सुन कर नेताटाइप लड़का चिल्लाया, ‘‘हमारे हिंदू धर्म की बेइज्जती करता है. हम लोगों से ही इस की रोजीरोटी चलती है और ये हमारे ही देवीदेवता के बारे में अनापशनाप बकता?है.’’

उस लड़के की बात सुन कर अब्दुल अवाक रह गया. उस ने तो धर्म के नाम पर एक शब्द भी नहीं बोला था. वह अपने बचाव में कुछ कहना चाह रहा था. लेकिन कोई सुनने को तैयार ही नहीं था. लड़कों के लातमुक्कों से वह बेहोश हो रहा था.

अब्दुल ने हिंदू देवीदेवताओं की बेइज्जती की है, यह सुन कर भीड़ गुस्सा हो गई थी. हालांकि कुछ लोग अब्दुल को बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्हें भी विरोध का सामना करना पड़ रहा था.

अब्दुल बुरी तरह लहूलुहान हो कर सड़क के किनारे तड़प रहा था. भीड़ में से किसी ने अब्दुल को अस्पताल तक पहुंचा दिया. मरहमपट्टी करा कर अब्दुल एक बिस्तर पर लेट गया.

‘अगर राम नारायण या महेंद्र में से कोई वहां होता, तो उन लोगों की मजाल नहीं होती कि मुझे पीट सके. अपनी जवानी के दिनों में अपने दोस्तों साथ मिल कर न जाने कितनी शरारतें की थीं. बिरजू काका की तंबाकू चुरा कर दोस्तों के साथ हुक्का पीने का मजा ही कुछ और था,’ बिस्तर पर लेटेलेटे अब्दुल पुराने दिन याद कर रहा था.

इस वारदात की खबर मिलते ही अब्दुल के समुदाय के कुछ लोग उस से मिलने अस्पताल आए. अब्दुल के साथ हुई हैवानियत का बदला लेने के लिए उन में से कुछ लोग उतावले थे.

अब्दुल उन लोगों की मंशा समझ गया कि ये लोग सिर्फ अपने निजी फायदे को पूरा करने के लिए इस मौके का भुनाना चाह रहे हैं.

‘‘चाचाजान, आप हम लोगों के साथ सिर्फ खड़े रहो, फिर देखो कि हम खून का बदला खून से कैसे लेते हैं,’’ एक नौजवान गुस्से में बोल रहा था.

‘तो ये गुंडेटाइप के नेता हर जगह पैदा हो गए हैं. जब मैं लौकडाउन में गांव लौटा, तो इन में से किसी ने मेरी कोई खोजखबर नहीं ली. अब अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए आज अचानक से ये मेरे हिमायती बन कर आ गए हैं,’ अब्दुल ने यह सोचते हुए आंखें बंद कर लीं और कोई जवाब नहीं दिया.

उन तथाकथित नेताओं को अब्दुल से कोई मदद नहीं मिली. वे बैरंग लौट गए.

2 हफ्ते के बाद अब्दुल को अस्पताल से छुट्टी मिली. अस्पताल से लौटते हुए उस ने देखा कि जिस जगह पर वह स्टाल लगाया करता था, वहां किसी और का स्टाल लगा हुआ था. वह समझ गया कि यह सारा तमाशा उस जगह को हथियाने के लिए किया गया था.

धर्म को तो बस हथियार बनाया गया. उस को इस बात का मलाल था कि उस की पिटाई उस अपराध के लिए हुई, जो उस ने कभी की ही नहीं थी. सिर्फ धर्म का नाम ले लेने पर कोई और उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया.

वह यह भी समझ रहा था कि वहां मौजूद सभी लोग वैसे नहीं रहे होंगे, पर उन गुंडों के डर से किसी ने कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई होगी.

नोएडा में काम करते हुए जब अब्दुल ने अखलाक और तबरेज की हत्या की वारदात के बारे में सुना था, तो उसे अपने गांवसमाज की याद आई थी. उसे गर्व होता था कि उस के गांव में सांप्रदायिकता की विषबेल नहीं फैली थी और ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं थी.

अब्दुल हमेशा सपना देखा करता था कि कुछ पैसे कमा कर वह वापस अपने गांव चला जाएगा. लौकडाउन में अब्दुल उसी समाज के भरोसे परिवार समेत वापस आ गया था. पर वह समाज उसे अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा था.

अब्दुल का दिल टूट गया था. गांव के नौजवान भी इस घटना का कुसूरवार उसे ही ठहरा रहे थे. भरे मन से अब्दुल ने परिवार समेत नोएडा वापस लौटने का फैसला किया.

ट्रेन में बैठने से पहले अब्दुल ने पीछे मुड़ कर भरे मन से अपने गांव की ओर देखा और फिर आंख पोंछते हुए अपनी सीट पर आ कर बैठ गया.

ट्रेन ने जैसे ही रफ्तार पकड़ी, अब्दुल के सब्र का बांध टूट गया. वह दहाड़ें मार कर रोने लगा.

लेखक – सुजीत सिन्हा

Social Story : वह बुरी लड़की

‘‘क्या सोच रहे हैं? बहू की मुंह दिखाई कीजिए न. कब से बेचारी आंखें बंद किए बैठी है.’’

कमलकांत हाथ में कंगन का जोड़ा थामे संज्ञाशून्य खड़े रह गए. ज्यादा देर खड़े होना भी मानो मुश्किल लग रहा था, ‘‘मुझे चक्कर आ रहा है…’’ कहते हुए उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया और तेजी से हौल से बाहर निकल आए.

अपने कमरे में आ कर वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. ऐसा लग रहा था जैसे वह मीलों दौड़ कर आए हों, पीछेपीछे नंदा भी दौड़ी आई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, चक्कर आ गया था.’’

‘‘आप आराम करें. लगता है शादी का गरिष्ठ भोजन और नींद की कमी, आप को तकलीफ दे गई.’’

‘‘मुझे अकेला ही रहने दो. किसी को यहां मत आने देना.’’

‘‘हां, हां, मैं बाहर बोल कर आती हूं,’’ वह जातेजाते बोली.

‘‘नहीं नंदा, तुम भी नहीं…’’ कमलकांत एकांत में अपने मन की व्यथा का मंथन करना चाहते थे जो स्थिति एकदम से सामने आ गई थी उसे जीवनपर्यंत कैसे निभा पाएंगे, इसी पर विचार करना चाहते थे. पत्नी को आश्चर्य हुआ कि उसे भी रुकने से मना कर रहे हैं, फिर कुछ सोच, पंखा तेज कर वह बाहर निकल गई.

धीरेधीरे घर में सन्नाटा फैल गया. नंदा 2-3 बार आ कर झांक गई थी. कमलकांत आंख बंद किए लेटे रहे. एक बार बेटा देबू भी आ कर झांक गया, लेकिन उन्हें चैन से सोता देख कर चुपचाप बाहर निकल गया. कमलकांत सो कहां रहे थे, वे तो जानबूझ कर बेटे को देख कर सोने का नाटक कर रहे थे.

सन्नाटे में उन्हें महसूस हुआ, वह गुजरती रात अपने अंदर कितना बड़ा तूफान समेटे हुए है. बेटे व बहू की यह सुहागरात एक पल में तूफान के जोर से धराशायी हो सकती है. अपने अंदर का तूफान वे दबाए रहें या बहने दें. कमलकांत की आंख के कोरों में आंसू आ कर ठहर गए.

नंदा आई, उन्हें निहार कर और सोफे पर सोता देख स्वयं भी सोफे से कुशन उठा कर सिर के नीचे लगा कालीन पर ही लुढ़क गई. देबू ने कई बार डाक्टर बुलाने के लिए कहा था, पर कमलकांत होंठ सिए बैठे रहे थे. पति के शब्दों का अक्षरश: पालन करने वाली नंदा ने भी जोर नहीं दिया. विवाह के 28 वर्षों में कभी छोटीमोटी तकरार के अलावा, कोई ऐसी चोट नहीं दी थी, जिस का घाव रिसता रहता.

कमलकांत को जब पक्का यकीन हो गया कि नंदा सो गई है तो उन्होंने आंखें खोल दीं. तब तक आंखों की कोरों पर ठहरे आंसू सूख चुके थे. वे चुपचाप उठ कर बैठ गए. कमरे में धीमा नीला प्रकाश फैला था. बाहर अंधेरा था. दूर छत की छाजन पर बिजली की झालरें अब भी सजी थीं.

रात के इस पहर यदि कोई जाग रहा होगा तो देबू, उस की पत्नी या वह स्वयं. उन्होंने बेबसी से अपने होंठों को भींच लिया. काश, उन्होंने स्वाति को पहले देख लिया होता. काश, वह जरमनी गए ही न होते. उन के बेटे के गले लगने वाली स्वाति जाने कितनों के गले लग चुकी होगी. कैसे बताएं वह देबू और नंदा से कि जिसे वह गृहस्वामिनी बना कर लाए हैं वह किंकिर बनने के योग्य भी नहीं है. वह एक गिरी हुई चरित्रहीन लड़की है. अंधकार में दूर बिजली की झिलमिल में उन्हें एक वर्ष पूर्व की घटना याद आई तो वे पीछे अतीत में लुढ़क गए.

कमलकांत का ऊन का व्यापार था. इस में काफी नाम व पैसा कमाया था उन्होंने. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. सभी व्यसनों से दूर कमलकांत ने जो पैसा कमाया, वह घरपरिवार पर खर्च किया. पत्नी नंदा व पुत्र देबू के बीच, उन का बहुत खुशहाल परिवार था.

एक साल पहले उन्हें व्यापार के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा था. वे एक अच्छे होटल में ठहरे थे. वहां चेन्नई की एक पार्टी से उन की मुलाकात होनी थी. नियत समय पर वे शाम 7 बजे होटल के कमरे में पहुंचे थे. लिफ्ट से जा कर उन्होंने होटल के कमरा नंबर 305 के दरवाजे पर ज्यों ही हाथ रखा था, फिर जोर लगाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक झटके से दरवाजा खुला और एक लड़की तेजी से बाहर निकली. उस लड़की का पूरा चेहरा उन के सामने था.

उस लड़की की तरफ वे आकर्षित हुए. कंधे पर थैला टांगे, आकर्षक वस्त्रों में घबराई हुई सी वह युवती तेजी से बिना उन की तरफ देखे बाहर निकल गई. पहले तो उन्होंने सोचा, वापस लौट जाएं पता नहीं अंदर क्या चल रहा हो. तभी सामने मिस्टर रंगनाथन, जो चेन्नई से आए थे, दिख गए तो वापस लौटना मुश्किल हो गया.

‘आइए, कमलकांतजी, मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. कैसे रही आप की यात्रा?’

‘जी, बहुत अच्छी, पर मिस्टर नाथन, मैं…वह लड़की…’

‘ओह, वे उस समय पैंट और शर्ट पहन रहे थे. मुसकरा कर बोले, ‘ये तो मौजमस्ती की चीजें हैं. भई कमलकांत, हम ऊपरी कमाई वाला पैसा 2 ही चीजों पर तो खर्च करते हैं, बीवी के जेवरों और ऐसी लड़कियों पर,’ रंगनाथन जोर से हंस पड़े.

कमलकांत का जी खराब हो गया. लानत है ऐसे पैसे और ऐश पर. लाखों के नुकसान की बात न होती तो शायद वे वापस लौट आते. लेकिन बातचीत के बीच वह लड़की उन के जेहन से एक सैकंड को भी न उतरी. क्या मजबूरी थी उस की? क्यों इस धंधे में लगी है? इतने अनाड़ी तो वे न थे, जानते थे, पैसे दे कर ऐसी लड़कियों का प्रबंध आराम से हो जाता है.

होटल में ठहरे उन के व्यवसायी मित्र ने जरूर उसे पैसे दे कर बुलवाया होगा. उस वक्त वे उस लड़की की आंखों का पनीलापन भी भूल गए थे. याद था, सिर्फ इतना कि वह एक बुरी लड़की है.

जालंधर लौट कर वे अपने काम में व्यस्त हो गए. कुछ माह बीत गए. तभी उन्हें 3 माह के लिए जरमनी जाना पड़ गया. जब वे जरमनी में थे, देबू का रिश्ता तभी पत्नी ने तय कर दिया था. उन के लौटने के

2 दिनों बाद की शादी की तारीख पड़ी थी. जरमनी से बहू के लिए वे कीमती उपहार भी लाए थे. आने पर नंदा ने कहा भी था, ‘यशोदा को तो तुम जानते हो?’

‘हां भई, तुम्हीं ने तो बताया था जो मुंबई में रहती है. उसी की बेटी स्वाति है न?’

‘हां,’ नंदा बोली, ‘सच पूछो तो पहले मैं बहुत डर रही थी कि पता नहीं तुम इनकार न कर दो कि एक साधारण परिवार की लड़की को…’

‘पगली,’ उस की बात काट कर कमलकांत ने कहा, ‘इतना पैसा हमारे पास है, हमें तो सिर्फ एक सुशील बहू चाहिए.’

‘यशोदा मेरी बचपन की सहेली थी. शादी के बाद पति के साथ मुंबई चली गई थी. 10 वर्ष हुए दिवाकर को गुजरे, तब से बेटी स्वाति ने ही नौकरी कर के परिवार को चलाया है. सुनो, उस का एक छोटा भाई भी है, जो इस वर्ष इंजीनियरिंग में चुन लिया गया है. मैं ने यशोदा से कह दिया है कि बेटे की पढ़ाई के खर्च की चिंता वह न करे. हम यह जिम्मेदारी प्यार से उठाना चाहते हैं. आप को बुरा तो नहीं लगा?’

‘नंदा, यह घर तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हारा,’ वे हंस कर बोले थे.

‘पर बहू की फोटो तो देख लो.’

‘अब कितने दिन बचे हैं. इकट्ठे दुलहन के लिबास में ही बहू को देखूंगा. हां, अपना देबू तो खुश है न?’

‘एक ही तो बेटा है. उस की मरजी के खिलाफ कैसे शादी हो सकती है?’

शादी के दौरान भी वे स्वाति को ठीक से न देख पाए थे. जब भी कोई उन्हें दूल्हादुलहन के स्टेज पर उन के साथ फोटो लेने के लिए बुलाने आता, आधे रास्ते से फिर कोई खींच ले जाता. बहू की माथा ढकाई पर वह घूंघट में थी. काश, उसी समय उन्होंने फोटो देख ली होती.

चीं…चीं…के शोर पर कमलकांत वर्तमान में लौट आए. सुबह का धुंधलका फैल रहा था. लेकिन उन के घर की कालिमा धीरेधीरे और गहरा रही थी.

नाश्ते के समय भी जब वे बाहर नहीं निकले तो देबू डाक्टर बुला लाया. उस ने चैकअप के बाद कहा, ‘‘कुछ तनाव है. लगता है सोए भी नहीं हैं. यह दवा दे दीजिएगा. इन्हें नींद आनी जरूरी है.’’

घरभर परेशान था. आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वे एकदम से बीमार पड़ गए. बहू ने आ कर उन के पांव छुए और थोड़ी देर वहां खड़ी भी रही, लेकिन वे आंखें बंद किए पड़े रहे.

‘‘बाबूजी, आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

बहू लौट गई थी. कमलकांत का जी चाहा, इस लड़की को फौरन घर से निकाल दें. यदि यह सारी जिंदगी इसी घर में रहेगी तो भला वे कैसे जी पाएंगे? क्या उन का दम नहीं घुट जाएगा. इस घर की हर सांस, हर कोना उन्हें यह एहसास कराता रहेगा कि उन की बहू एक गिरी हुई लड़की है. इस सत्य से अनभिज्ञ नंदा और देबू, कितने खुश हैं, वे समझ रहे हैं कि स्वाति के रूप में घर में खुशियां आ गई हैं. अजीब कशमकश है जो उन्हें न तो जीने दे रही है, न मरने.

दूसरे दिन जब उन्होंने पत्नी से किसी पहाड़ी जगह चलने की बात कही तो वह हंस दी, ‘‘सठिया गए हो क्या? विवाह हुआ है बेटे का, हनीमून मनाने हम चलें. लोग क्या कहेंगे.’’

‘‘तो बेटेबहू को भेज दो.’’

‘‘उन का तो आरक्षण था, पर बहू ही तैयार नहीं हुई कि पिताजी अस्वस्थ हैं, हम अभी नहीं जाएंगे.’’

वे चिढ़ गए, शराफत व शालीनता का अच्छा नाटक कर रही है यह लड़की. जी हलका करने के लिए वे फैक्टरी चले गए. वहां सभी उन का हाल लेने के लिए आतुर थे. लेकिन इतने लोगों के बीच भी वे सहज नहीं हो पाए. चुपचाप कुरसी पर बैठे रहे. न कोई फाइल खोल कर देखी, न किसी से बात की. जिस ने जो पूछा, ‘हां हूं’ में उत्तर दे दिया.

धीरेधीरे कमलकांत शिथिल होते गए. कारोबार बेटे ने संभाल लिया था. नंदा समझ रही थी, जरमनी में पति के साथ कुछ ऐसा घटा है जिस ने इन्हें तनाव से भर दिया है.

10 माह गुजर गए. स्वाति के पांव उन दिनों भारी थे. अचानक काम के सिलसिले में मुंबई जाने की बात आई तो देबू ने जाने की तैयारी कर ली. पर कमलकांत ने उसे मना कर दिया. मुंबई के नाम से एक दबी चिनगारी फिर भड़क उठी. इतने दिनों बाद भी वह उन के मन से न निकल पाईर् थी. मन में मंथन अभी भी चालू था.

मुंबई जा कर वे एक बार स्वाति के विषय में पता करना चाहते थे. यह प्रमाणित करना होगा कि स्वाति की गुजरी जिंदगी गंदी थी. बलात्कार की शिकार या मजबूरी में इस कार्य में लगी युवती को चाहे वे एक बार अपना लेते, पर स्वेच्छा से इस कार्य में लगी युवती को वे माफ करने को तैयार न थे.

एक बार यदि प्रमाण मिल जाए तो वे बेटे का उस से तलाक दिलवा देंगे. क्यों नहीं मुंबई जा कर यह बात पता करने का विचार उन्हें पहले आया? चुपचाप शादी के अलबम से स्वाति की एक फोटो निकाल उन्होंने मुंबई जाने का विचार बना लिया.

घर में पता चला कि कमलकांत मुंबई जा रहे हैं तो स्वाति ने डरतेसहमते एक पत्र उन्हें पकड़ा दिया, ‘‘बाबूजी, मौका लगे तो घर हो आइएगा. मां आप से मिल कर बहुत खुश होंगी.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्र ले लिया.

स्वाति के घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन फिर भी कुछ टोह लेने की खातिर उस के घर पहुंच गए.

‘‘बहू यहां कहां काम करती थी?’’ वे शीघ्र ही मतलब की बात पर आ गए.

‘‘होराइजन होटल में, चाचाजी,’’ स्वाति के भाई ने उत्तर दिया.

‘‘भाईसाहब, हमारी इच्छा तो नहीं थी कि स्वाति होटल की नौकरी करे, पर नौकरी अच्छी थी. इज्जतदार होटल है, तनख्वाह भी ठीकठाक थी. फिर आसानी से नौकरी मिलती कहां है?’’

कमलकांत को लगा, समधिन गोलमोल जवाब दे रही हैं कि होटल में उन की बेटी का काम करना मजबूरी थी.

होटल होराइजन के स्वागतकक्ष में पहुंच कर उन्होंने स्वाति की फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘मुझे इन मैडम से काम था. क्या आप इन से मुझे मिला सकती हैं?’’

‘‘मैं यहां नई हूं, पता करती हूं,’’ कह कर स्वागतकर्मी महिला ने एक बूढ़े वेटर को बुला कर कुछ पूछा, फिर कमलकांत की तरफ इशारा किया. वह वेटर उन के पास आया फिर साश्चर्य बोला, ‘‘आप स्वातिजी के रिश्तेदार हैं, पहले कभी तो देखा नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं उन का रिश्तेदार नहीं, मित्र हूं. एक वर्ष पूर्व उन्होंने मुझ से कुछ सामान मंगवाया था.’’

‘‘आश्चर्य है, स्वाति बिटिया का तो कोई मित्र ही नहीं था. फिर आप से सामान मंगवाना तो बिलकुल गले नहीं उतरता.’’

कमलकांत को समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दें, वेटर कहता रहा, ‘‘वे यहां रूम इंचार्ज थीं. सारा स्टाफ उन की इज्जत करता था.’’

तभी कमलकांत की आंखों के सामने होटल का वह दृश्य घूम गया…जब इसी होटल में उन के चेन्नई के मित्र ठहरे थे. उन्होंने एक छोटा सा निर्णय लिया और उसी होटल में ठहर गए. जब यहां तक पहुंच ही गए हैं तो मंजिल का भी पूरा पता कर ही लें. शाम को चेन्नई फोन मिलाया. व्यापार की कुछ बातें कीं. पता चला 2 दिनों बाद ही चेन्नई की वह पार्टी मुंबई आने वाली है, तो वे भी रुक गए.

सबकुछ मानो चलचित्र सा घटित हो रहा था. कभी कमलकांत सोचते पीछे हट जाएं, बहुत बड़ा जुआ खेल रहे हैं वे. इस में करारी मात भी मिल सकती है. फिर क्या वे उसे पचा पाएंगे? पर इतने आगे बढ़ने के बाद बाजी कैसे फेंक देते.

रात में चेन्नई से आए मित्र के साथ उस के कमरे में बैठ कर इधरउधर की बातों के बीच वे मुख्य मुद्दे पर आ गए, ‘‘रंगनाथन, एक बात बता, यह लड़कियां कैसे मिलती हैं?’’

रंगनाथन ने चौंक कर उन्हें देखा, फिर हंसे, ‘‘वाह, शौक भी जताया तो इस उम्र में. भई, हम ने तो यह सब छोड़ दिया है. हां, यदि तुम चाहो तो इंतजाम हो जाएगा, पर यहां नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह होटल इन सब चीजों के लिए नहीं है. यहां इस पर सख्त पाबंदी है.’’

‘‘क्यों झूठ बोलते हो, मैं ने अपनी आंखों से तुम्हारे कमरे से एक लड़की को निकलते देखा था.’’

रंगनाथन कुछ पल सोचता रहा… फिर अचानक चौंक कर बोला, ‘‘तुम 2 वर्ष पहले की बात तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘हां, हां…’’ वही, उस की बात, लपक कर कमलकांत बोले. उन की सांस तेजी से ऊपरनीचे हो रही थी. ऐसा मालूम हो रहा था, जीवन के किसी बहुत बड़े इम्तिहान का नतीजा निकलने वाला हो.

‘‘मुझे याद है, वह लड़की यहां काम करती थी. मैं ने उसे जब स्वागतकक्ष में देखा, तभी मेरी नीयत खराब हो गई थी. अकसर होटलों में मैं लड़की बुलवा लिया करता था. उस दिन…हां, बाथरूम का नल टपक रहा था. उस ने मिस्त्री भेजा. दोबारा फिर जब मैं ने शिकायत तनिक ऊंचे लहजे में की तो वह खुद चली आई.

उस समय वह घर जा रही थी, इसलिए होटल के वस्त्रों में नहीं थी. इस कारण और आकर्षक लग रही थी. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर नोटों की एक गड्डी उस के हाथ पर रखी. लेकिन वह मेरा हाथ झटक कर तेजी से बाहर निकल गई. यह वाकेआ मुझे इस कारण भी याद है कि कमरे से निकलते वक्त उस की आंखें आंसुओं में डूब गई थीं.

ऐसा हादसा हमारे साथ कम हुआ था. यहां से जाने के बाद मुझे दिल का दौरा पड़ा. अब ज्यादा उत्तेजना मैं सहन नहीं कर पाता. 6 माह पहले ही पत्नी भी चल बसी. अब सादा, सरल जीवन काफी रास आता है.’’

रंगनाथन बोलते जा रहे थे, उधर कमलकांत को लग रहा था कि वे हलके हो कर हवा में उड़ते जा रहे हैं. अब वे स्वाति की ओर से पूर्ण संतुष्ट थे.

-साधना राकेश 

Family Story : मंदिर

परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’ मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’ ‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’

यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले. परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी. मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी.

बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़. परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’ ‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया. ‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी. सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया.

परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए. काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती.

वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो. सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’ ‘‘कोई उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली. परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’ सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था. ‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं. ‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा. सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया. ‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’ ‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया. ‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली. ‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए.

अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया. ‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’ परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था. परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी. परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई.

2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार. सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था.

यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था. दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए. परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी.

पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’ धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है.

हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं. इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’ चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी.

उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता. परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’ मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया

यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था. परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी.

पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.

खो गई जीनत : अम्मी और अब्बू में किसी हुई जीत

अम्मी और अब्बू की सिर्फ तसवीर ही देखी थी जीनत ने. उन का प्यार कैसा होता है, इस का उसे कोई अहसास ही नहीं था.

अम्मी और अब्बू के एक सड़क हादसे में मारे जाने के बाद मामी और मामू ही जीनत का सहारा थे.

मामू ने जीनत को पढ़ायालिखाया और इस लायक बनाया कि बड़ी हो कर वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके और मामू का सहारा बने.

मामू की माली हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी. एक कमरे के मकान के बाहर मामू ने एक छोटा सा खोखा रख रखा था. वे उस में बिसातखाने का सामान रख कर बेचते थे.

जो औरतें सामान खरीदने आ भी जातीं, वे मामू से इतना मोलभाव करतीं कि किसी चीज पर मिलने वाला मुनाफा कम हो जाता और वैसे भी मामू को बाहर की औरतों से बहुत लगाव महसूस होता था और वे चाहते थे कि औरतें उन के खोखे पर

आ कर मामू से बातें करती ही रहें. उन की इसी कमजोरी का फायदा चालाक औरतें खूब उठाती थीं. वे मामू से खूब रसीली बातें करतीं और सामान सस्ते में खरीद लेतीं.

घर में 5 लोग थे. मामू, मामी, उन के 2 बच्चे और एक जीनत. इन सब का खर्च चलाने की जिम्मेदारी जीनत के कंधों पर ही थी, इसीलिए वह शहर के ही एक स्कूल में कंप्यूटर पढ़ाने का काम करने लगी थी.

जीनत के मामू जितने लापरवाह किस्म के थे, मामी उतनी ही सख्त थीं.

‘‘मैं तो कहती हूं कि घर में अगर लड़की हो तो उस पर एक नजर टेढ़ी ही रखनी चाहिए और घर की अंदरूनी बातों में लड़की जात को ज्यादा शामिल नहीं करना चाहिए,’’ मामी ने पड़ोस में रहने वाली शकीला से कहा और शकीला ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘हां… सही कहा आप ने और इसीलिए मैं ने अपनी बेटी सलमा का स्कूल जाना बंद करवा दिया है. अब 8वीं जमात तो पास हो ही गई है, आगे की पढ़ाई के लिए लड़कों वाले स्कूल में भेजना पड़ेगा और हम ने तो सुना है

कि वहां लड़का और लड़की एकसाथ बैठते हैं.’’

मामी की इसी सख्ती का नतीजा था कि जीनत ने अपनेआप को बहुत संभाल रखा था और हमेशा ही डरीसहमी सी रहती थी.

इस सहमेपन के साथ जीतेजीते जीनत 30 साल की हो गई थी और अभी तक कुंआरी थी. ऐसा नहीं था कि उस के लिए शादी के पैगाम नहीं आए, पर भला मामू उस की शादी करा देता तो घर के लिए पैसे कौन लाता.

मामूमामी की सोच यही थी कि जीनत इसी घर में ही रहे और पैसे लाती रहे.

मामू और मामी के दोनों बेटे भी अब जवान हो चले थे. उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भरपूर सम?ाते हुए कुछ पैसे जोड़े, कुछ पैसा बैंक से लोन लिया और अपने अब्बा की बिसातखाने की दुकान को अब एक बढि़या मेकअप  सैंटर में तबदील कर दिया था.

जीनत भी मेहनत से स्कूल में अपनी ड्यूटी पूरी करती और घर आ कर मामी के साथ रसोईघर में मदद करती.

जीनत ने अपनी जवान होती भावनाओं को अच्छी तरह से काबू कर रखा था, पर फिर भी जवानी में किसी की तरफ ?ाकाव होना बड़ा ही लाजिमी होता है और जीनत भी कोई अलग नहीं थी.

‘‘अरे जीनत मैडम… मैं ने एक शायरी लिखी है… जरा इस पर गौर तो फरमाइएगा,’’ जीनत के साथ ही स्कूल में पढ़ाने वाले एक साथी टीचर आफताब ने कहा.

‘‘अजी, आप की शायरी का क्या सुनना… वह तो हमेशा की तरह अच्छी ही होती हैं… हां, अगर आप फिर भी अपनी और तारीफ सुनना चाहते हैं तो सुना सकते हैं.’’

‘‘किसी आशिक के कलेजे को जलाया होगा, तब जा कर खुदा ने सूरज को बनाया होगा.’’

‘‘अरे वाह… क्या बात है… बहुत ही उम्दा… लगता है, सूरज से कुछ ज्यादा ही प्यार है आप को और तभी तो आप ने तखल्लुस भी सूरज ही रखा है.’’

‘‘जी, बिलकुल सही कहा आप ने, इसीलिए मेरा नाम तो आफताब भले ही है, पर मैं चाहता हूं कि अब लोग मुझे सूरज के नाम से ही पुकारें,’’ आफताब ने कहा.

‘‘हां जी… ऐसी बात है तो मैं

आप को सूरज के नाम से ही बुलाऊंगी,’’ जीनत ने कहा.

2 जवां दिलों के बीच प्यार को पनपने के लिए कुछ खास की जरूरत नहीं होती, बस थोड़ा सा अपनापन का पानी, खूबसूरती की खाद और प्यार के फल आने लगते हैं.

आफताब एक सीधासादा लड़का था, जो जिंदगी से जूझ रहा था, फिर भी हमेशा मुसकराता रहता और अपनी जिंदगी के गम को शायरी में कह कर उड़ा दिया करता था. पर माली हालत की बात करें तो आफताब जीनत से तो बेहतर ही था.

इस बार नए साल पर आफताब ने जीनत को एक मोबाइल फोन गिफ्ट कर दिया. जीनत ने बहुत नानुकर की, पर आफताब ने ऐसी दलील दी कि उसे चुप हो जाना पड़ा.

‘‘देखिए मैडम, यह मैं आप को इसलिए गिफ्ट कर रहा हूं, ताकि मैं आप को ह्वाट्सएप पर अपने शेर भेज सकूं और आप उस की अच्छाइयां और कमियां मुझे बताएं, जिस से मुझे और बेहतर शायर बनने में मदद मिल सकेगी. क्या अब भी आप यह मोबाइल नहीं लेंगी?’’

‘‘ठीक है, ठीक है… ले लेती हूं… पर जब मैं अपने घर पर रहूंगी, तब आप फोन नहीं करेंगे… हां, मैसेज में बात जरूर कर सकते हैं.’’

‘‘ठीक है जीनतजी.’’

जीनत और आफताब को एकदूसरे का साथ अच्छा लग रहा था और दोनों ही अपनी आगे की जिंदगी एकदूसरे के साथ गुजरने की बात सोच रहे थे, पर हमेशा ही इनसान का सोचा हुआ कहां होता है?

इतनी जिंदगी गुजरने के बाद एक बात तो जीनत मन ही मन जान चुकी थी कि मामू और मामी उस की शादी जानबूझ कर नहीं करना चाहते और वे लोग यही चाहते हैं कि जीनत उन के लिए बस ऐसे ही पैसे कमाती रहे और वे लोग आराम से मजे करते रहें, इसलिए जीनत इस बाबत मामी से खुद ही बात करने की सोचने लगी.

एक रात को आफताब ने कुछ शायरियां लिख कर जीनत के मोबाइल पर भेजीं और पूछा कि कोई सुधार की गुंजाइश हो तो बताए.

जीनत ने सारी शायरियां पढ़ीं और उन का जवाब भी आफताब को लिख दिया और सो गई. सुबह उठी तो स्कूल के लिए देर हो रही थी, इसलिए जल्दी में जीनत मोबाइल अपने बिस्तर पर ही भूल गई.

‘‘चलो फिर मैं आज तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं,’’ अपनी बाइक की तरफ इशारा करता हुआ आफताब बोला.

जीनत पहले तो हिचकिचाई, क्योंकि गली के नुक्कड़ पर ही तो मामू की दुकान है. बहुत मुमकिन है कि घर के लोग आफताब के साथ उसे देख लें.

‘देख लें तो देख लें, मैं कोई चोरी तो नहीं कर रही. और फिर आज तो मुझे वैसे भी आफताब के बारे में बात करनी ही है,’ ऐसा सोच कर जीनत ने बाइक पर जाने के लिए हां कर दी और आफताब के साथ बैठ कर चल दी.

जीनत कुछ देर बाद घर के सामने पहुंचने वाली थी. उस ने आफताब को उसे वहीं उतार देने को कहा और वह घर तक पैदल ही चली गई.

घर में अंदर का नजारा ही अलग था. मामू, उन का बेटा असलम और मामी एकसाथ बैठे हुए थे. वे जीनत को घूर रहे थे.

‘‘अरे जीनत बेटी… बहुत थक गई होगी,’’ मामू ने कहा.

‘‘हां… मामू… स्कूल में काम ही इतना होता है, थोड़ीबहुत थकान आना तो लाजिमी ही है,’’ जीनत ने कहा.

जीनत का इतना कहना ही था कि मामी बिफर उठीं, ‘‘हां… हां थकान तो आएगी ही, जब देर रात तक किसी दूसरे लड़के से चक्कर चलाया जाएगा.’’

जीनत को तुरंत ही याद आया कि आज वह अपना मोबाइल घर में ही भूल गई थी और इसीलिए मामी ऐसा बोल रही हैं.

‘‘वह मामी, मैं आप से बात करने ही वाली थी… आज,’’ जीनत हकला गई.

‘‘अरे, तू क्या बात करेगी… तू तो चक्कर चला रही है. और वह भी किसी गैरधर्म के लड़के के साथ…’’

‘‘अरे नहीं मामी… वह तो आफताब…’’

‘‘बता कौन है यह सूरज… जो तुझे से अपनी मुहब्बत का इजहार शेरोशायरी से कर रहा है? और जिस का जवाब भी तू खूब वाहवाह कर के दे रही है…

‘‘अरे, मैं कह रही हूं कि हमारी जात में कोई लड़के नहीं रह गए थे, क्या जो तू किसी हिंदू लड़के से…’’

‘‘नहीं मामी… वह सूरज नहीं, आफताब है और हमारे ही धर्म का है… मैं खुद ही आज आप से अपनी शादी के बारे में बात करने वाली थी,’’ जीनत बोलती चली गई.

‘‘अरे, तू दोचार शब्द पढ़ क्या गई है, मुझे ही शब्दों के मतलब समझाने लगी है… और तू समझ क्या रही है, तू किसी भी जात वाले से शादी करने को कहेगी और हम कर देंगे. तुझे ऐसे ही हमारे लिए पैसे कमाने होंगे. भूल जा कि तेरी कभी शादी भी होगी,’’ मामी का पारा चढ़ चुका था.

‘‘शादी तो मैं सूरज से ही करूंगी… और आप सब को बताना चाहूंगी कि मैं सूरज के बच्चे की मां बनने वाली हूं…’’ जीनत ने यह बात सिर्फ इसलिए कह दी थी कि ऐसा सुन कर मामू और मामी का पारा कम हो जाएगा, पर इस बात ने आग में घी डालने का काम किया था.

‘‘आप लोग नहीं मानोगे, तो जबरदस्ती ही सही… देखती हूं कि मुझे कौन रोकता है,’’ जीनत भी अड़ गई थी.

‘‘मैं रोकूंगी तु?ो… नमकहराम… हमारी नाक कटवाती है… महल्ले में हमारा जीना मुश्किल करना चाहती है,’’ मामी चिल्ला रही थीं.

जीनत ने सोचा कि जब बात इतनी बढ़ ही चुकी है, तो आफताब को भी फोन कर के यहीं बुला लेती हूं और इस गरज से उस ने मामी के हाथ से अपना मोबाइल छीन कर आफताब को फोन कर दिया.

‘‘हां… तुम मेरे घर आ जाओ… सब लोग घर पर ही हैं… आमनेसामने बैठ कर बात हो जाएगी.’’

आफताब अभी ज्यादा दूर नहीं गया था, वह तुरंत ही लौट पड़ा.

मामू ने जीनत के विद्रोही सुर देखे तो मामी को शांत कराने लगे.

‘‘ठीक है जीनत… तुम्हारे फैसले को हमारी भी हां है… जैसा तुम चाहो वैसा करो,’’ मामू ने कहा.

पर असलम को काटो तो खून नहीं, उसे यह बात कतई मंजूर नहीं हो पा रही थी कि किसी लड़के को घर बुला कर जीनत खुद ही अपनी शादी की बात करे.

कुछ देर बाद ही आफताब वहां आ गया. अभी उस ने दरवाजे के अंदर पहला कदम रखा ही था कि असलम उसे देख कर भड़क गया.

असलम ने तुरंत ही आफताब का कौलर पकड़ लिए और उस को जमीन पर गिरा कर लातघूंसे चलाने लगा.

आफताब को अचानक इस हमले की उम्म्मीद नहीं थी, इसलिए वह असलम का विरोध नहीं कर सका. अब तो मौका देख कर जीनत के मामू ने भी आफताब को मारना शुरू कर दिया. वे दोनों आफताब को मारते हुए बाहर ले आए, जीनत आफताब को बचाने दौड़ी, तो मामी ने उसे पकड़ लिया.

बाहर महल्ले के लोग जमा होने लगे थे.

‘‘दिनदहाड़े चोरी करने घुसता है. आज तुझे नहीं छोड़ेंगे,’’ असलम चीख रहा था.

एक चोर को पिटता देख कर जमा हुई भीड़ की हथेलियों में भी खुजली होने लगी थी. बिना जाने कि सच क्या है, भीड़ ने भी बेतहाशा आफताब को मारना शुरू कर दिया.

जीनत ने बड़ी कोशिशों से अपनेआप को मामी की गिरफ्त से आजाद किया और आफताब को बचाने दौड़ी.

भीड़ अब भी आफताब को मारे जा रही थी… जीनत आफताब तक पहुंच ही नहीं पा रही थी… वह लगातार चीख रही थी, ‘‘मत मारो इसे… यह चोर नहीं है…’’ पर भीड़ तो खुद ही वकील होती है और खुद ही जज…

इतने में जीनत पिटते हुए आफताब को बचाने की गरज से उस से जा चिपकी, पर गुस्साई भीड़ को वह दिखाई तक न दी और भीड़ लाठीडंडे बरसाती रही. कुछ ही देर बाद जीनत और आफताब के सिर से खून की धारा निकल पड़ी थी और उन दोनों की लाशें एकदूसरे से लिपटी हुई पड़ी थीं. भीड़ ने अपनी ताकत दिखाते हुए इंसाफ कर दिया था.

ख्वाहिश: ‘बांझ’ होने का ठप्पा

ट्रिंग… ट्रिंग… फोन की घंटी बज रही थी. घड़ी में देखा, तो रात के साढ़े 12 बजे थे. इतनी रात में किस का फोन हो सकता है. किसी बुरी आशंका से मन कांप उठा. रिसीवर उठाया तो दूसरी ओर से अशोक की भर्राई हुई आवाज थी, “दीदी शोभा शांत हो गई. वह हम सब को छोड़ कर दिव्यलोक को चली गई.”

कुछ पल को मैं ठगी सी बैठी रही. फोन की आवाज से मेरे पति सुनील भी जाग गए थे. मैं ने उन्हें स्थिति से अवगत कराया. हम ने आपस में सलाह की और फिर मैं ने अशोक को फोन मिलाया, “अशोक, हम जल्दी ही सुबह जयपुर पहुंच जाएंगे, हमारा इंतजार करना.”

सुबह 5 बजे हम दोनों अपनी गाड़ी से जयपुर के लिए रवाना हो गए. दिल्ली से जयपुर पहुंचने में 5 घंटे लगते हैं. वैसे भी सुबहसुबह सड़कें खाली थीं. अत: 4 घंटे में ही पहुंच जाने की आशा थी. रास्तेभर शोभा का खयाल आता रहा.

अतीत की यादें चलचित्र की भांति आंखों के आगे घूमने लगीं.

शोभा मेरे छोटे भाई अशोक की पत्नी थी. वह बहुत मृदुभाषी, कार्यकुशल और खुशमिजाज की थी. याद हो आया वह दिन, जब विवाह के बाद वरवधू का स्वागत करने के लिए मां ने पूजा का थाल मेरे हाथ में पकड़ा दिया. वैसे, बड़ी भाभी का हक बनता था वरवधू को गृहप्रवेश करवाने का. किंतु बड़ी भाभी की तबियत ठीक नहीं थी, वह पेट से थीं और डाक्टर ने उन्हें बेडरेस्ट के लिए कहा हुआ था. अत: आरती का थाल सजा कर मैं ने ही वरवधू को गृहप्रवेश कराया था. बनारसी साड़ी में लिपटी हुई सिमटी सी संकुचित सी खड़ी थी.

अशोक ने उसे मेरा परिचय देते हुए कहा, “ये मेरी बड़ी दीदी हैं, मुझ से 10 साल बड़ी हैं, मेरे लिए मां समान हैं.”

दोनों ने मेरे पैर छुए. मैं ने भी दोनों को प्यार से गले लगा लिया. विवाह के बाद की प्रथाएं संपन्न करवा कर मैं वापस दिल्ली लौट आई.
2 महीने बाद भाभी की जुड़वा बच्चियों हुईं, जिन का नाम सिया और जिया रखा गया.

प्रसव के बाद भाभी बहुत कमजोर हो गई थीं. अत: घर का सारा कार्यभार शोभा ने संभाल लिया. उसे बच्चों से बहुत प्यार था. वह बच्चों का खयाल बहुत उत्साहित हो कर रखती थी.

मां सारी रिपोर्ट विस्तार से मुझे फोन पर बतलाया करती थीं. बच्चों के प्रति शोभा का अपनत्व देख कर भाभी को बहुत अच्छा लगता था.

जब सिया और जिया का नर्सरी स्कूल में दाखिला हुआ तो शोभा उन्हें तैयार करने से ले कर उन के जूते पौलिश करती, उन्हें नाश्ता करवा के टिफिन पैक कर के उन के स्कूल बैग में रख देती और टिफिन पूरा खत्म करना है, यह भी हिदायत दे देती थी. कभीकभी उन को होमवर्क करने में भी वह मदद करती थी. घर में सब सुचारू रूप से चल रहा था.
शोभा के विवाह को 4 वर्ष हो गए थे. मां जब भी मुझे फोन करती थीं, उन की बातों में कुछ बेचैनी का आभास होता था. वे दिल की मरीज थीं. मैं ने जोर दे कर उन की बेचैनी का कारण जानना चाहा, तो उन्होंने बताया, “अब अशोक की शादी को 4 साल हो गए हैं. अगर उस को एक बेटा हो जाता तो मैं पोते का मुंह देख कर दुनिया से जाती.

“न जाने कब मुझे बुला लें,” मैं उन्हें सांत्वना देती रहती थी कि धैर्य रखो. सब ठीक हो जाएगा.

मैं ने मां की इच्छा शोभा तक पहुंचा दी तो वह हंस कर बोली, “दीदी आजकल पोता और पोती में कोई फर्क नहीं होता. सिया और जिया भी तो अपनी हैं. वही मेरे बच्चे हैं,” बच्चों के प्रति उस की आत्मीयता मुझे बहुत अच्छी लगी.

जिस बात का डर था, वही हुआ. अचानक मां को दिल का दौरा पड़ा और पोते की चाहत लिए हुए वे इस दुनिया से चल बसीं.

शोभा के विवाह को 6 वर्ष हो चुके थे. मैं ने लक्ष्य किया कि अब उस के मन में संतान की चाह प्रबल हो रही थी. अशोक ने कई डाक्टरों से संपर्क किया. कुछ डाक्टरी जांच भी हुई, किंतु नतीजा संतोषप्रद नहीं था. मेरे आग्रह पर दोनों दिल्ली भी आए. मेरी जानकार डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर यही निष्कर्ष निकाला कि शोभा मां नहीं बन सकती.

अशोक ने सब तरह के उपचार किए, चाहे आयुर्वेदिक हो या होमियोपैथी. यहां तक कि कुछ रिश्तेदारों के कहने पर झाड़फूंक का भी सहारा लिया, किंतु निराश ही होना पड़ा. इस का असर शोभा के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
शोभा प्राय: फोन कर के मुझे इधरउधर की बहुत सी खबरें देती रहती थी. उस ने एक घटना का जिक्र किया कि कुछ दिन पहले उस के किसी दूर के रिश्तेदार के यहां पुत्र जन्म का उत्सव था. वहां अशोक और शोभा के साथसाथ बड़े भैयाभाभी भी आमंत्रित थे. वहां पहुंच कर जब शोभा ने नवागत शिशु को पालने में झूलते देखा तो वह अपने को रोक ना पाई और आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में उठा लिया. तभी पीछे से बच्चे की दादी ने उस के हाथ से बच्चे को छीन लिया और अपनी बहू को डांटते हुए कहा, “तेरा ध्यान कहां है? देख नहीं रही बच्चे को बांझ ने उठा लिया है.”

शोभा ने बताया कि बड़ी भाभी भी वहीं खड़ी थीं. यह बात बतलाते समय शोभा की आवाज में पीड़ा झलक रही थी. मेरा मन संवेदना से भर उठा.

आशोभा ने बतलाया कि अब सिया और जिया उस के पास नहीं आती हैं. या यों कहिए कि भाभी उन बच्चों को शोभा के पास नहीं आने देतीं. इस का कारण भी वह समझ गई थी.

बांझपन का एहसास शोभा को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा था. मैं अपनी गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो गई थी. मेरे दोनों बच्चे विवाह योग्य थे. अगले वर्ष मेरे पति रिटायर होने वाले थे. अतः हम भविष्य की योजनाओं में व्यस्त हो गए थे. कभीकभी मैं शोभा को फोन कर के उन की कुशलक्षेम जान लेती थी.
फिर एक दिन अशोक का फोन आया. बातचीत से लगा कि वह बहुत परेशान है. मैं ने 3-4 दिन के लिए जयपुर का प्रोग्राम बना लिया. फीकी मुसकराहट से शोभा ने स्वागत किया. वह बहुत कमजोर हो गई थी. अशोक उस की स्थिति से बहुत चिंतित हो गया था. मुझे लगा कि ‘बांझ’ शब्द ने उस को भीतर तक आहत कर दिया है. वह बोली, “अब तो सिया और जिया भी मेरे पास नहीं आती.”

मैं ने प्यार से शोभा को अपने पास बैठाया और कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो और समझने की कोशिश करो. मैं चाहती हूं कि तुम किसी नवजात शिशु को गोद ले लो या कुछ अच्छी संस्थाएं हैं, जहां से बच्चे को लिया जा सकता है. ऐसा करने से एक बच्चे का भला हो जाएगा. उसे एक प्यारी मां मिल जाएगी और तुम्हें एक प्यारा बच्चा मिल जाएगा. यह एक नेक कार्य होगा. एक बच्चे का जीवन अच्छा बन जाएगा. तुम चाहो तो इस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं.”

लेकिन शोभा ने गंभीरता से उत्तर दिया, “दीदी, मैं अपनी तकदीर तो बदल नहीं सकती. यदि मेरी तकदीर में संतान का सुख लिखा ही नहीं है तो गोद ले कर भी मैं सुखी नहीं रह पाऊंगी,” कुछ रुक कर वह फिर बोली, “दीदी, मैं अपनी कोख से जन्मा बच्चा चाहती हूं, गोद लिया हुआ नहीं.”

वह अपने फैसले पर अडिग थी और मैं उस के फैसले के आगे निरुतर हो गई.

15 दिन बाद अशोक का फोन आया, वह आवाज से बहुत परेशान लग रहा था. उस ने बताया कि शोभा अब अकसर बीमार रहती है. उसे भूख नहीं लगती है और जबरदस्ती कुछ खाती है तो हजम नहीं होता उलटी हो जाती है. मैं ने सलाह दी कि तुरंत डाक्टरी जांच करवाओ. शोभा की तरफ से मुझे चिंता हो गई. अत: अशोक को सहारा देने के मकसद से मैं ने 3-4 दिन का जयपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया.

अशोक ने शोभा के सारे टेस्ट करवा लिए थे. मेरे पहुंचने के अगले दिन वह अस्पताल से रिपोर्ट ले आया. वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि शोभा की किडनी में कैंसर है, जो बहुत फैल गया है. अगर एक महीने पहले जांच करवा लेते तो शायद आपरेशन द्वारा किडनी निकाल देते, लेकिन अब तो कैंसर किडनी के बाहर तक फैल गया है. एक और विशेष बात जो डाक्टर ने बतलाई, वह यह कि शोभा प्रेग्नेंट भी है. प्रेगनेंसी की अभी शुरुआत ही है. एक हफ्ते बाद निश्चित तौर पर पता चल पाएगा. अचरज से मेरा मुंह खुला रह गया. समझ नहीं आया कि दुखी होऊं या खुशी मनाऊं.

शोभा ने मेरी और अशोक की बातें सुन ली थीं. वह मुसकराते हुए बोली, “दीदी, अशोक तो यों ही घबरा जाते हैं. मैं सहज में इन का पीछा छोड़ने वाली नहीं हूं और अब तो मुझे जीना ही है. उस की बातें आज भी मेरे कानों में गूंज रही हैं.
बाद में अशोक ने मुझे बतला दिया था कि डाक्टरों के अनुसार गर्भ को गिरा देने में ही बेहतरी है, क्योंकि कैंसर किडनी से बाहर निकल कर फैल रहा है, अगर तुरंत आपरेशन कर के किडनी निकाल भी दें, फिर भी शोभा का जीवन एक वर्ष से अधिक नहीं होगा और अगर गर्भपात नहीं करवाया तो कैंसर के आपरेशन के बाद की थेरेपी से बच्चे पर बुरा असर पड़ सकता है. या तो वह बचेगा ही नहीं और अगर बच भी जाए तो एब्नार्मल भी हो सकता है. अत: डाक्टर की राय में गर्भपात ही उचित होगा.

शोभा ने सबकुछ सुन लिया था. वह खुश नजर आ रही थी. वह बोली, ”दीदी, मुझे यही खुशी है कि अब मुझे कोई बांझ नहीं कहेगा. डाक्टरों का निर्णय ठीक ही है. मेरे जीवन का सूर्य अस्त हो रहा है. मैं बच्चे को देख पाऊंगी या नहीं, पता नहीं. अगर बच्चा बच भी गया और विकलांग हो गया तो और भी दुःख होगा. तसल्ली यही है कि अब मेरे ऊपर से ‘बांझ’ होने का लांछन हट गया. अब मैं शांतिपूर्वक मर सकूंगी.”

सहसा कार एक झटके के साथ रुक गई. सुनील ने ब्रेक मारा था, क्योंकि सामने एक बड़ा सा गड्ढा आ गया था. मेरी विचार श्रृंखला टूट गई. अब हम जयपुर की सीमा में पहुंच गए थे. बाजार के बीच से गुजरते हुए याद आया कि यहां कई बार शोभा के साथ चाट खाने आती थी, फिर खूब शौपिंग कर के हम दोनों शाम तक घर पहुंचते थे. अब तो केवल याद ही बाकी है.

ठीक साढ़े 9 बजे हम घर पहुंच गए. गाड़ी की आवाज सुन कर अशोक बाहर आ गया. सहारा दे कर उस ने गाड़ी से उतारा और मेरे गले से लग कर जोर से रो पड़ा. अंदर पहुंच कर देखा, शोभा का शव भूमि पर रखा था, बड़ी शांत मुख मुद्रा थी जैसे कुछ कहना चाहती हो. मैं अपने को ना रोक सकी और फफक कर रो पड़ी.
वह समाप्त हो गई. 2 दिन बाद बहुत बोझिल मन से हम दोनों वापस लौट आए. रास्तेभर सोचती रही कि समाज के उलाहनों ने शोभा को बहुत चोट पहुंचाई, लेकिन मरने से पहले उसे यह खुशी थी कि वह बांझ नहीं थी, पर बच्चे की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई.

मुराद : सास बिना ससुराल, बहू हुई बेहाल

बचपन में एक लोक गीत ‘यह सास जंगल घास, मुझ को नहीं सुहाती है, जो मेरी लगती अम्मां, सैयां की गलती सासू मुझ को वही सुहाती है…’ सुन कर सोचा शायद सास के जुल्म से तंग आ कर किसी दुखी नारी के दिल से यह आवाज निकली होगी. कालेज में पढ़ने लगी तो किसी सीनियर को कहते हुए सुना, ‘ससुराल से नहीं, सास से डर लगता है.’ यह सब देखसुन कर मुझे तो ‘सास’ नामक प्राणी से ही भय हो गया था. मैं ने घर में ऐलान कर दिया था कि पति चाहे कम कमाने वाला मिले मंजूर है, पर ससुराल में सास नहीं होनी चाहिए. अनुभवी दादी ने मुझे समझाने की कोशिश की कि बेटी सुखी जिंदगी के लिए सास का होना बहुत जरूरी होता है, पर मम्मी ने धीरे से बुदबुदाया कि चल मेरी न सही तेरी मुराद तो पूरी हो जाए.

शायद भगवान ने तरस खा कर मेरी सुन ली. ग्रैजुएशन की पढ़ाई खत्म होते ही मैं सासविहीन ससुराल के लिए खुशीखुशी विदा कर दी गई. विदाई के वक्त सारी सहेलियां मुझे बधाई दे रही थीं. यह कहते हुए कि हाय कितनी लकी है तू जो ससुराल में कोई झमेला ही नहीं, राज करेगी राज.

लेकिन वास्तविक जिंदगी में ऐसी बात नहीं होती है. सास यानी पति की प्यारी और तेजतर्रार मां का होना एक शादीशुदा स्त्री की जिंदगी में बहुत माने रखता है, इस का एहसास सब से पहले मुझे तब हुआ जब मैं ने ससुराल में पहला कदम रखा. न कोई ताना, न कोई गाना, न कोई सवाल और न ही कोई बवाल बस ऐंट्री हो गई मेरी, बिना किसी झटके के. सच पूछो तो कुछ मजा नहीं आया, क्योंकि सास से मिले ‘वैल्कम तानों’ के प्लाट पर ही तो बहुएं भावी जीवन की बिल्डिंग तैयार करती हैं, जिस में सासूमां की शिकायत कर सहानुभूति बटोरना, नयनों से नीर बहा पति को ब्लैकमेल करना, देवरननद को उन की मां के खिलाफ भड़काना, ससुरजी की लाडली बन कर सास को जलाना जैसे कई झरोखे खोल कर ही तो जिंदगी में ताजा हवा के मजे लिए जा सकते हैं.

क्या कहूं और किस से कहूं अपना दुखड़ा. अगले दिन से ही पूरा घर संभालने की जिम्मेदारी अपनेआप मेरे गले पड़ गई. ससुरजी ने चुपचाप चाभियों को गुच्छा थमा दिया मुझे. सखियो, वही चाभियों का गुच्छा, जिसे पाने के लिए टीवी सीरियल्स में बहुओं को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. कहते हैं न कि मुफ्त में मिली चीज की कोई कद्र नहीं होती. बिलकुल ठीक बात है, मेरे लिए भी उस गुच्छे को कमर में लटका कर इतराने का कोई क्रेज नहीं रहा. आखिर कोई देख कर कुढ़ने वाली भी तो होनी चाहिए.

मन निराशा से भर उठता है कभीकभी तो. गुस्से और झल्लाहट में कभी बेस्वाद खाना बना दिया या किसी को कुछ उलटापुलटा बोल दिया, तो भी कोईर् प्रतिक्रिया या मीनमेख निकालने वाला नहीं है इस घर में. कोई लड़ाईझगड़ा या मनमुटाव नहीं. अब आप सब सोचो किसी भी खेल को खेलने में मजा तो तब आता है जब खेल में द्वंद्वी और प्रतिद्वंद्वी दोनों बराबरी के भागीदार हों. एकतरफा प्रयास किस काम का? अब तो लगने लगा है लाइफ में कोई चुनौती नहीं रही. बस बोरियत ही बोरियत.

एक बार महल्ले की किसी महान नारी को यह कहते सुना था कि टीवी में सासबहू धारावाहिक देखने का अलग ही आकर्षण है. सासबहू के नित्य नए दांवपेच देखना, सीखना और एकदूसरे पर व्यवहार में लाना सचमुच जिंदगी में रोमांच भर देता है. उन की बातों से प्रभावित हो कर मैं ने भी सासबहू वाला धारावाहिक देखना शुरू कर दिया. साजिश का एक से बढ़ कर एक आइडिया देख कर जोश से भर उठी मैं पर हाय री मेरी किस्मत आजमाइश करूं तो किस पर? बहुत गुस्सा आया अपनेआप पर. अपनी दादी की बात याद आने लगी मुझे. उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की थी कि बेटा सास एक ऐसा जीव है, जो बहू के जीवनरूपी स्वाद में चाटमसाले का भूमिका अदा करता है, जिस से पंगे ले कर ही जिंदगी जायकेदार बनाईर् जा सकती है. काश, उस समय दादी की बात मान ली होती तो मजबूरन दिल को यह न गाना पड़ता, ‘न कोई उमंग है, न कोई तरंग है, मेरी जिंदगी है क्या, सासू बिना बेरंग है…’

मायके जाने का भी दिल नहीं करता अब तो. क्या जाऊं, वहां बैठ कर बहनें मम्मी से जहां अपनीअपनी सास का बखान करती रहती हैं, मुझे मजबूरन मूक श्रोता बन कर सब की बातें सुननी पड़ती हैं. बड़ी दीदी बता रही थीं कि कैसे उन की सास ने एक दिन चाय में कम चीनी डालने पर टोका तो दूसरे दिन से किस तरह उन की चाय में डबल चीनी मिला कर उन्होंने उन का शुगर लैवल बढ़ा दिया. लो अब पीते रहो बिना चीनी की चाय जिंदगी भर. मूवी देखने की शौकीन दूसरी बहन ने कहा कि मैं ने तो अपनी सास को सिनेमाघर में मूवी देखने का चसका लगा दिया है. ससुरजी तो जाते नहीं हैं, तो एहसान जताते हुए मुझे ही उन के साथ जाना पड़ता है मूवी देखने. फिर बदले में उस दिन रात को खाना सासू अम्मां ही बनातीं सब के लिए तथा ससुरजी बच्चों का होमवर्क करवाते हैं. यह सब सुन कर मन में एक टीस सी उठती कि काश ऐसा सुनहरा मौका मुझे भी मिला होता.

अब कल की ही बात है. मैं किट्टी पार्टी में गई थी. सारी सहेलियां गपशप में व्यस्त थीं. बात फिल्म, फैशन, स्टाइल से शुरू हो कर अंतत: पति, बच्चों और सास पर आ टिकी. 4 वर्षीय बेटे की मां मीनल ने कहा, ‘‘भई मैं ने तो मम्मीजी (सास) से ऐक्सचेंज कर लिया है बेटों का. अब उन के बेटे को मैं संभालती हूं और मेरे बेटे को मम्मीजी,’’ सुन कर कुढ़ गई मैं.

सुमिता ने मेरी तरफ तिरछी नजर से देखते हुए मुझे सुनाते हुए कहा, ‘‘सुबह पति और ससुरजी के सामने मैं अपनी सास को अदरक और दूध वाली अच्छी चाय बना कर दे देती हूं फिर उन के औफिस जाने के बाद से घर के कई छिटपुट कार्य जैसे सब्जी काटना, आटा गूंधना, चटनी बनाना, बच्चों को संभालने में दिन भर इतना व्यस्त रखती हूं कि उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती कि मुझ में कमी निकाल सकें. शाम को फिर सब के साथ गरमगरम चाय और नमकीन पेश कर देती हूं बस.’’

उस के इतना कहते ही एक जोरदार ठहाका लगाया सारी सखियों ने.

बात खास सहेलियों की कि जाए तो पता चला कि सब ने मिल कर व्हाट्सऐप पर एक गु्रप बना रखा है, जिस का नाम है- ‘सासूमां’ जहां सास की खट्टीतीखी बातें और उन्हें परास्त करने के तरीके (मैसेज) एकदूसरे को सैंड किए जाते हैं, जिस से बहुओं के दिल और दिमाग में दिन भर ताजगी बनी रहती है, पर मुझ जैसी नारी को उस गु्रप से भी दूर रखा गया है अछूत की तरह. पूछने पर कहती हैं कि गु्रप का मैंबर बनने के लिए एक अदद सास का होना बहुत जरूरी है. मजबूरन मनमसोस कर रह जाना पड़ा मुझे.

अपनी की गई गलती पर पछता रही हूं मैं, मुझे यह अनुभव हो चुका है कि सास गले की फांस नहीं, बल्कि बहू की सांस होती है. बात समझ में आ गई मुझे कि सासबहू दोनों का चोलीदामन का साथ होता है. दोनों एकदूसरे के बिना अधूरी और अपूर्ण हैं. कभीकभी दिल मचलता है कि काश मेरे पास भी एक तेजतर्रार, दबंग और भड़कीली सी सास होती पर ससुरजी की अवस्था देख कर यह कहने में संकोच हो रहा है कि पापा एक बार फिर घोड़ी पर चढ़ने की हिम्मत क्यों नहीं करते आप?

नई लड़कियों और अविवाहित सखियो, मेरा विचार बदल चुका है. अब दिल की जगह दिमाग से सोचने लगी हूं मैं कि पति चाहे कम कमाने वाला हो पर ससुराल में एक अदद सास जरूर होनी चाहिए. जय सासूमां की.

राजकुमारी: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

उस का नाम ही राजकुमारी था. वैसे तो वह कहीं की राजकुमारी नहीं थी, लेकिन वह सचमुच राजकुमारी लगती थी. उस की खूबसूरती, रखरखाव, बातचीत करने का अंदाज और उस की शाही चाल उसे वाकई राजकुमारी बनाए हुए थे, जबकि वह एक मामूली घर की लड़की थी. जब उस ने पहले दिन दफ्तर में कदम रखा, तो न केवल कुंआरों के, बल्कि शादीशुदा लोगों के दिलों की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. ‘चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल’, जैसी गजल उन के सामने आ गई थी. सपनों की हसीन शहजादी उन के सामने थी.

दफ्तर की दूसरी लड़कियों और औरतों ने भी जलन और तारीफ भरी नजरों से देखा था उसे. वह सब से अलग नजर आ रही थी. उस पर जवानी ही कुछ ऐसी टूट कर बरस रही थी कि दफ्तर में सभी चौंक पड़े थे. लंबा कद, घने बाल, भरी छातियां, पतली कमर और चाल में कोमलता. लेकिन वह वहां नौकरी करने आई थी, इश्क करने नहीं. उसे औरों से ज्यादा अपने काम से लगाव था. उस ने किसी की तरफ नजर भर कर मुसकरा कर भी नहीं देखा. उस के चेहरे पर खामोशी छाई रहती थी और आंखों में चिंता तैरती रहती थी. ऐसा लगता था कि वह बहुत सी परेशानियों से एकसाथ लड़ रही है. वह एक मामूली साड़ी बांधे हुए थी, लेकिन दूसरी औरतों और लड़कियों के मुकाबले उस की वह मामूली साड़ी भी खूब जंच रही थी उस पर. कई दिन बीत गए. वह सिर्फ अपने काम से काम रखती.

यदि वह किसी की माशूका न होती तो किसी न किसी को अपना दिल दे बैठती. खूबसूरत नौजवानों की इस दफ्तर में भी कमी नहीं थी. आमतौर पर उस तरह की खूबसूरत लड़कियां सहयोगियों पर दाना फेंक कर अपना काम निकालती हैं, पर राजकुमारी उन में से न थी. यह ऐसा सैंटर था, जिस में छोटीछोटी सैकड़ों मेजें लगी थीं. इस कंपनी का मालिक था निर्मल कुमार. अच्छीखासी दौलत होने के बावजूद उस ने अभी तक शादी नहीं की थी. अपनी पसंद की लड़की उसे अभी तक नहीं मिली थी. वह रोशन खयाल और गहरी सोच रखने वाला इनसान था. उस की उम्र 32 साल की थी. वह लंदन से पढ़ कर लौटा था.  उस ने आज तक वहां काम कर रही किसी लड़की की ओर ध्यान नहीं दिया था.

तकरीबन 4 साल से बड़ी सूझबूझ और लगन से वह कंपनी को चला रहा था. उस की कई दोस्त थीं, पर वह किसी से भी प्रेम नहीं करता था, क्योंकि उस की सब दोस्त लड़कियां खुले विचारों की थीं और कितनों के साथ रह चुकी थीं. निर्मल कुमार खुद भी कभी किसी के साथ नहीं सोया था उसे ऐसी लड़की चाहिए थी, जो कहीं भी मुंह मार ले. निर्मल कुमार ने जब पहली बार राजकुमारी को देखा था, तो उस का दिल भी धड़का था. आखिर वह उस के हुस्न की खुशबू से कैसे बच सकता था? वह लाखों में एक थी. निर्मल कुमार पहले मर्द था, मालिक बाद में. राजकुमारी जब भी किसी काम से निर्मल कुमार के सामने जाती, तो वह दो नजर भर देखे बगैर नहीं रह सकता था. इस से पहले भी उस की मुलाकात कई खूबसूरत पढ़ीलिखी ऊंचे घराने वालियों से होती रही थी. लंदन और मुंबई में भी वह कई हसीन लड़कियों से मिल चुका था, लेकिन उस ने उन में से किसी एक के लिए भी अपने दिल में तड़प महसूस नहीं की थी. उसे लगा कि राजकुमारी उतनी ही साफ थी जितना दिखती थी.

उस ने कभी काम के अलावा कुछ बात करने की कोशिश नहीं की, जबकि उस के स्टार्टअप में हर लड़की हर दूसरेतीसरे हफ्ते कोई पर्सनल प्रौब्लम लिए खड़ी होती थी. राजकुमारी में उस ने जैसे कोई खास बात महसूस की थी. वह दिन में 2-3 बार उसे जरूर बुलाता. राजकुमारी की मौजूदगी उसे तड़पाने लगती थी. जब वह कमरे से चली जाती तो उस की पीड़ा और बढ़ जाती. वह अपनी मेज  पर सिर टेक देता और आंखें बंद हो जातीं. फिर वह सोचता कि यह उसे क्या  होता जा रहा है, वह क्यों दीवानगी के खयाल पालने लगा है? इसी तरह कई हफ्ते बीत गए. राजकुमारी को भी अब महसूस होने लगा था कि निर्मल कुमार उस में दिलचस्पी लेने लगा है. लेकिन वह जल्दी ही दिमाग से यह बात निकाल देती. वह अपने और निर्मल कुमार के बीच के फासले को जानती थी.

वह 12,000 रुपए पाने वाली मामूली नौकर थी और निर्मल कुमार करोड़ों का मालिक था. उस के दिल में निर्मल कुमार को पाने या अपनाने की कोई ख्वाहिश नहीं थी, क्योंकि उस का राजकुमार तो राजेश था, जो उस के दिल का मालिक था. उस का और राजेश का साथ उसी समय से था, जब वह 10वीं में पढ़ती थी. लगभग 10 साल पहले की सी ताजगी थी. फिलहाल दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी की परेशानियों में उलझे हुए थे. इसी कारण वे अपने सपनों की दुनिया को आबाद नहीं कर सके थे. राजेश भी बहुत सुंदर और गठीला नौजवान था. वह जहां काम करता था, वहां उस की बड़ी इज्जत थी. फैक्टरी का मालिक भी उस पर बहुत मेहरबान था. राजकुमारी और राजेश रोजाना शाम को किसी छोटे से ढाबे या पार्क में मिलते थे. वे देर तक बातें करते रहते थे. हर रोज एक ही परेशानी उन के सामने होती थी.

वे दोनों बातें कर के दिल की भड़ास निकाल लेते थे और अपने दुखों को जैसे बांट लेते थे.  ऐसा करने से उन को बड़ी शांति मिलती थी. कभीकभार जब मौका मिलता, तो दोनों एकदूसरे के साथ रातभर रहते, पर दोनों ने वादा कर रखा था कि वे पक्का शादी करेंगे. दोनों एक ही जाति के थे और घर वाले मंजूर कर लेंगे. यह भी उन्हें मालूम था. निर्मल कुमार ने एक रोज अपने दफ्तर के साथी लोगों को रात के खाने की दावत दी. नवंबर का महीना था. सर्दी शुरू हो चुकी थी. राजकुमारी पार्टी में आई, तो बादामी रंग की साड़ी पहने हुए थी. उस पर चौकलेटी रंग का शाल देखने वालों को बड़ी भली मालूम हो रही थी.  उस के अंगअंग से जवानी उबल रही थी. जब वह हंसती थी तो देखने वालों का कलेजा मुंह को आ जाता था.

चारों ओर एक आह सी निकलती महसूस होती थी. पार्टी में जितने भी लोग थे, सभी उसी को घूर रहे थे. दावत खत्म होने के बाद निर्मल कुमार जब अपने कमरे में पहुंचा तो खुद को बहुत थकाथका सा महसूस करने लगा. उसे बिस्तर पर पड़ेपड़े बहुत देर हो गई. करवटें बदलतेबदलते रात के 3 बज गए. रहरह कर उसे राजकुमारी का मासूम चेहरा दिखाई देता. आज उसे अपने अंदर अधूरेपन का एहसास हो रहा था. बहुतकुछ होते हुए भी वह अपनेआप को बहुत गरीब समझ रहा था. उस की यह गरीबी एक औरत ही दूर कर सकती थी. और वह मालदार औरत थी राजकुमारी.

उस के दिल में कहीं से एक सदमे की लहर आई, जिस ने उसे अपने लपेटे में ले लिया. उसे ऐसा लगा जैसे वह इस दुनिया में अकेला है. उसे कोई चाहने वाला नहीं, प्यार करने वाला नहीं, उस की जवानी को अपनी बांहों में भरने वाला कोई नहीं है. निर्मल कुमार अपनेआप को एक बड़े कैदखाने में बंद पा रहा था, जिस से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था, लेकिन वह भी बंद था. फिर उसे अपनेआप में शोर सुनाई देने लगा. पहली बार यह शोर गूंजा था. कितनी ही देर वह इस शोर को सुनता रहा.

क्या राजकुमारी को वह अपना जीवनसाथी बना सकता है? वह सोच रहा था, ‘वह इनकार तो नहीं कर देगी? वह किसी और से तो प्यार नहीं करती? अगर वह किसी से मुहब्बत करती है तो क्या हुआ, मेरे पास तुरुप के पत्ते हैं. मैं अपना सबकुछ उस हुस्न की मलिका के कदमों में डाल दूंगा.’  सोचतेसोचते वह बिस्तर पर लेट गया. अब वह बहुत खुश था. जैसे उस ने राज को पा लिया हो.  अगले दिन उस ने राजकुमारी का शाम को अपनी गाड़ी में पीछा किया. वह रिकशे में 10 लोगों के साथ जहां उतरी, वह कच्चेपक्के मकानों की बस्ती थी. दूसरे दिन पार्क की बैंच पर बैठते हुए राजेश ने कहा, ‘‘कल कहां थी राज? तुम घर पर भी नहीं थी.’’ ‘‘हां, मैं परसों तुम को बताना भूल गई थी… हमारे मालिक ने दफ्तर के तमाम लोगों को खाने पर बुलाया था,’’ राजकुमारी ने राजेश की ओर देखते  हुए कहा. ‘‘अरे भई, निर्मल सेठ?है, जवान है. उस की पार्टी हो तो हमारी गुंजाइश कहां, हम ठहरे गरीब आदमी…’’ सुन कर राजकुमारी ने फौरन कहा, ‘‘यह बात तो है… निर्मल बहुत अमीर है, लेकिन उस में जरा सा भी घमंड नहीं है.’’

राजेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फिर मैं ऐसा समझूं कि मेरी 3,650 दिनों की तपस्या बेकार गई, कहीं तुम्हारा इरादा…’’ ‘‘नहीं…’’ राजकुमारी बोली, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि कहां निर्मल कुमार और कहां मैं. मेरा उस के बारे में सोचना ही बेकार है.’’ ‘‘तुम कितनी मालदार हो, तुम्हें नहीं मालूम…’’ राजेश बोला, ‘‘बस एक बात है, 100 साल पहले मुझे तुम से प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…’’ राजकुमारी ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘मालूम है बाबा, अब उठो.’’ अगले दिन जब निर्मल कुमार के कमरे में राजकुमारी आई, तो वह अपनी कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आओ राजकुमारी, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था.’’  वह उसे कुरसी की ओर इशारा करते हुए आगे बोला, ‘‘बैठोबैठो.’’ निर्मल कुमार के इस तरह बोलने पर वह जरा हैरान हुई और ‘जी’ कहती हुई बैठ गई. ‘‘कहो, तुम्हें हमारी पार्टी कैसी लगी?’’

निर्मल कुमार की आंखों में एक खास चमक देखते हुए राजकुमारी ने कहा, ‘‘पार्टी बहुत शानदार रही.’’  वह सोच रही थी कि राजेश उस के दिल में बसा हुआ है तो क्या हुआ, खूबसूरत मर्द तो अपने अंदर चुंबक का असर रखते हैं. वह निर्मल कुमार को गौर से देखने लगी. फिर आंखें झुका कर वह बोली, ‘‘जी कहिए, क्या हुक्म है?’’ ‘‘हुक्म नहीं, गुजारिश है… वह यह है कि आज शाम मैं तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. तुम कल साढ़े  7 बजे होटल डिलाइट में मुझ से मिलना. अब तुम जा सकती हो. लेकिन ध्यान रहे, मुलाकात का किसी को पता न चले, समझीं?’’ राजकुमारी ‘ठीक है’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई. उस के दिमाग में कितने ही सवाल उठ खड़े हुए. उसे महसूस हो गया था कि निर्मल कुमार उस पर डोरे डाल रहा है.  उस पार्टी की रात की पार्टी में भी वह उस की निगाहों के इशारे को पढ़ चुकी थी. और उसे वह यकीन भी हो गया कि उस का मालिक ऐयाश नहीं है.

वह अपनी जवानी की आग नहीं बुझाना चाहता, वह जीवनसाथी चाहता है. फिर एक और डर भी उसे परेशान कर रहा था कि अमीर मर्द एक गरीब लड़की को अपनी बीवी कैसे बना सकता है?  शाम को वह राजेश से मिली, तो कुछ खिंचीखिंची सी थी. राजेश ने उस का मन रखने को कहा ‘‘चलो, तुम्हारे कमरे में चलते हैं. वहां बैठ कर बात करेंगे.’’ उधर निर्मल कुमार बेचैन था, पर अगले दिन का इंतजार नहीं करना चाहता था. वह उसी बस्ती तक चला गया और राजकुमारी के कमरे के सामने भी चाय की दुकान में बैठ कर राजकुमारी के दर्शन का इंतजार करने लगा. उस ने उन 2-3 घंटों में बहुतकुछ देख लिया, पर उस का राजकुमारी ने प्रति लगाव कम नहीं हुआ था.

जब अगले दिन दोनों शाम को मिले, तो राजकुमारी ने सिर उठाया और उस से कोई बात नहीं छिपाई. लेकिन जानबूझ कर राजेश के बारे में कुछ नहीं बताया. बाकी सबकुछ सचमुच बता दिया कि मातापिता हैं, 2 बहनें हैं, मकान गिरवी रखा है, दोनों बहनों की शादी बड़ी उलझन बनी हुई है, क्योंकि शादी करने के लिए रकम नहीं है, और हजारों रुपए का कर्ज भी चढ़ा हुआ है, जिसे अपनी पगार से बचा कर वह उतारने की कोशिश कर रही है. उस की कहानी सुन कर निर्मल कुमार वैसे तो दिल ही दिल में बहुत खुश हुआ. पर अब उसे राजेश के बारे में पता करना था. इस हुस्न की मलिका को खरीदने के लिए वह ज्यादा जरूरी था. उस ने बड़ी आसानी से राजेश के बारे में पता कर लिया था. फिर भी उसे भरोसा था कि राजकुमारी और राजेश की सिर्फ दोस्ती है और वह उस की अच्छी साथी बन सकती है, चाहे गरीब घर की क्यों न हो.

बहनों की बात को ले कर उस ने राजकुमारी से पूछा, ‘‘सीधी सी बात है कि बहनों की शादी के बाद तुम शादी करोगी. करोगी न…?’’ राजकुमारी ने एक मीठी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘जी हां.’’ ‘‘यह तो तुम देख रही हो कि मैं ने अब तक शादी नहीं की. तुम्हें देखने के बाद शादी करना चाहता हूं. मुझे एक ऐसी ही पत्नी की तलाश थी.’’ ‘‘मुझ से…? मैं तो…’’ राजकुमारी का गला सूख गया. निर्मल कुमार ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘जब तुम मेरी बीवी बन जाओगी, तो जोकुछ मेरा है, वह तुम्हारा होगा. एक शानदार जिंदगी तुम्हारे सामने है. तुम्हारे लिए कोई परेशानी बाकी नहीं रहेगी.

मकान छुड़ा लेना, बहनों की शादी पर जितना चाहे खर्च करना, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’ राजकुमारी ने फौरन हामी नहीं भरी और इनकार भी नहीं किया. निर्मल कुमार ने उसे देखते हुए कहा, ‘‘इस बात का जवाब आराम से देना…’’ ‘‘हांहां, सोच लो, आराम से सोचो और तब मुझे बताओ. वैसे, मेरा यकीन है कि मेरी बात को तुम ठुकराओगी नहीं, मंजूर कर लोगी. अच्छा, चलो तुम्हें छोड़ते चलते हैं.’’ घर आ कर राजकुमारी रातभर सो नहीं सकी. वह बारबार बिस्तर से उठती और पानी पीती… इसी तरह सवेरे के  6 बज गए.  एक तरफ राजेश था, जिस से वह बेहद प्यार करती थी. वह रातोंरात चाहे राजेश के साथ रही हो, पर उस ने कभी भी जिस्मानी संबंध नहीं बनाए थे.

वह निर्मल कुमार से कम उम्र का भी था और सुंदर भी. वह उसे बहुत चाहती थी.  पर राजेश के साथ भी लगभग यही परेशानियां थीं. इन दोनों ने शादी इसीलिए नहीं की थी कि इस से घर वालों पर असर पड़ता था.  दूसरी ओर निर्मल कुमार एक करोड़पति था. उस की सारी उलझनें चुटकी बजाते ही हल हो सकती थीं. दूसरे दिन वह दिनभर इन्हीं खयालों में गुम रही. वह दफ्तर भी नहीं गई.  2-3 रोज बाद जब राजेश से मिली, तो उसे सारी बातें बता दीं.  राजेश उन दिनों काफी बिजी रहने लगा था. वह कहता था कि शादी के लिए पैसा जमा करने के लिए उस ने  2 पार्टटाइम नौकरियां पकड़ी हैं. राजेश ने पूछा, ‘‘फिर, तुम ने क्या फैसला किया?’’ राजकुमारी ने जमीन की ओर नजरें करते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं, अपने परिवार के लिए यह कुरबानी दे ही दूं… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’ सुनते ही राजेश का चेहरा पीला पड़ गया. लेकिन जल्दी ही उस ने अपनेआप पर काबू पा लिया.

राजकुमारी किसी मुजरिम की तरह नजरें नीचे किए बैठी थी, इसलिए वह राजेश का चेहरा नहीं देख पाई थी. राजेश ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे भला क्या इनकार हो सकता है? इस ‘सच’ को मान लेना चाहिए तुम्हें.’’ राजकुमारी बोली, ‘‘लेकिन, मैं ने फैसला कर लिया है, जो मैं तुम्हें 2-3 रोज में बताऊंगी. प्लीज, उस दौरान मुझ से कुछ पूछना नहीं.’’ ‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ राजेश हंसते हुए बोला, ‘‘तुम निर्मल कुमार की बात मान लो. मेरा क्या, मां कहीं से गांव की लड़की पकड़ कर ब्याह कर देगी.’’ दोनों जब उठे तो राजकुमारी एक फैसले पर पहुंच चुकी थी. राजकुमारी निर्मल कुमार की होने को तैयार हो गई थी और दोनों अपनीअपनी मंजिल की ओर चल पड़े. उस रात वह बहुत खुश थी. फिर भी करवटें बदलती रही. दूसरे दिन भी वह दफ्तर नहीं गई. उसे बुखार हो गया. इसी तरह 4 दिन बीत गए. छठे दिन जब वह दफ्तर जा रही थी, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई.

उसे आज निर्मल कुमार को अपना फैसला सुनाना था.  निर्मल कुमार को लगा कि वह राजेश के लिए कहीं चली न गई हो. उस के घर पर जा कर देखा, तो राजकुमारी का कमरा खुला दिखा.  एक घंटे तक न कोई आया और न कोई गया तो वह चुपचाप घर चला गया. राजकुमारी किसी भी कीमत पर राजेश को खोना नहीं चाहती थी. उस की मुहब्बत के आगे निर्मल कुमार की दौलत कुछ भी नहीं थी. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और राजेश की मुहब्बत रंग लाने लगी.  उस ने जब दफ्तर में प्रवेश किया, तो पता चला कि निर्मल साहब आ चुके हैं. वह उन के कमरे में गई और थोड़ी मुसकान के बाद बोली, ‘‘सर, आप बहुत महान हैं कि आप ने मुझे अपनाने का फैसला किया था. पर, मैं अपना दिल तो राजेश को दे चुकी हूं. मैं आप से शादी नहीं कर सकती. यह मेरा इस्तीफा है. मैं राजेश से शादी करूंगी.’’ निर्मल कुमार बोला, ‘‘तुम उस राजेश से बात कर रही हो न, जो इंपैक्ट इंडस्ट्री में काम करता है. उस के मालिक ने अपनी सांवली लड़की के लिए राजेश को तैयार कर लिया था. पर, मैं ने उन्हें बता दिया है कि राजेश और तुम कितनी ही रातें एक कमरे में गुजार चुके हो.

उन के पास तुम्हारे घर के वीडियो पहुंच चुके हैं. उन्होंने आज ही राजेश को धक्के दे कर नौकरी से निकल दिया है.  ‘‘राजेश तुम्हें धोखा देता रहा है. तुम जैसी लड़की से मैं भी अब शादी करने से इनकार करता हूं. इंपैक्ट इंडस्ट्री के मालिक ने राजेश को मेरे भेजे वीडियो के आधार पर उस के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है. वह अब जेल में है. जाओ, जेल में मिल आओ.’’ राजकुमारी उस से आगे एक लफ्ज भी नहीं सुन सकी. उस के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़े. राजकुमारी की दुनिया उजड़ चुकी थी. न निर्मल साथ रहा, न राजेश.

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