सब से बड़ा रुपय्या : अपनों ने दिखाया असली रंग

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी. सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली.

हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था. बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था. शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था.

किराए की आमदनी, पैंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था. घर में सुखसुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टैलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं. जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढ़िया भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया. वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

शेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए. अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.

बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न?’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपए की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है? आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती और सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’

सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है. वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा, आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं, यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिरकार बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर चिंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं, क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए?”

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके, इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.

‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेहंदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पैंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किरायानामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पैंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटाबहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीड़ित हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट औफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को, यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी. उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शैड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रैस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्मविश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

सरिता : भगोड़े पति की हिम्मती पत्नी

जिलाधीश राहुल की कार झांसी शहर की गलियों को पार करते हुए शहर के बाहर एक पुराने मंदिर के पास जा कर रुक गई. जिलाधीश की मां कार से उतर कर मंदिर की सीढियां चढ़ने लगीं.

‘‘मां, तेरा सुहाग बना रहे,’’ पहली सीढ़ी पर बैठे हुए भिखारी ने कहा.

सरिता की आंखों में आंसू आ गए. उस ने 1 रुपए का सिक्का उस के कटोरे में डाला और सोचने लगी, कहां होगा सदाशिव?

सरिता को 15 साल पहले की अपनी जिंदगी का वह सब से कलुषित दिन याद आ गया जब दोनों बच्चे राशि व राहुल 8वीं और 9वीं में पढ़ते थे और वह खुद एक निजी स्कूल में पढ़ाती थी. पति सदाशिव एक फैक्टरी में भंडार प्रभारी थे. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. एक दिन वह स्कूल से घर आई तो बच्चे उदास बैठे थे.

‘क्या हुआ बेटा?’

‘मां, पिताजी अभी तक नहीं आए.’

सरिता ने बच्चों को ढाढ़स बंधाया कि पिताजी किसी जरूरी काम की वजह से रुक गए होंगे. जब एकडेढ़ घंटा गुजर गया और सदाशिव नहीं आए तो उस ने राशि को घनश्याम अंकल के घर पता करने भेजा. घनश्याम सदाशिव की फैक्टरी में ही काम करते थे.

कुछ समय बाद राशि वापस आई तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस ने आते ही कहा, ‘मां, पिताजी को आज चोरी के अपराध में फैक्टरी से निकाल दिया गया है.’

‘यह सच नहीं हो सकता. तुम्हारे पिता को फंसाया गया है.’

‘घनश्याम चाचा भी यही कह रहे थे. परंतु पिताजी घर क्यों नहीं आए?’ राशि ने कहा.

रात भर पूरा परिवार जागता रहा. दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सरिता सदाशिव की फैक्टरी पहुंची तो उसे हर जगह अपमान का घूंट ही पीना पड़ा. वहां जा कर सिर्फ इतना पता चल सका कि भंडार से काफी सामान गायब पाया गया है. भंडार प्रभारी होने के नाते सदाशिव को दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

सरिता घर आ कर सदाशिव का इंतजार करने लगी. दिन भर इंतजार के बाद उस ने शाम को पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी.

अगले दिन पुलिस तफतीश के लिए घर आई तो पूरे महल्ले में खबर फैल गई कि सदाशिव फैक्टरी से चोरी कर के भाग गया है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है. इस खबर के बाद तो पूरा परिवार आतेजाते लोगों के हास्य का पात्र बन कर रह गया.

सरिता ने सारे रिश्तेदारों को पत्र भेजा कि सदाशिव के बारे में कोई जानकारी हो तो तुरंत सूचित करें. अखबार में फोटो के साथ विज्ञापन भी निकलवा दिया.

इस मुसीबत ने राहुल और राशि को समय से पहले ही वयस्क बना दिया था. वह अब आपस में बिलकुल नहीं लड़ते थे. दोनों ने स्कूल के प्राचार्य से अपनी परिस्थितियों के बारे में बात की तो उन्होंने उन की फीस माफ कर दी.

राशि ने शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. राहुल ने स्कूल जाने से पहले अखबार बांटने शुरू कर दिए. सरिता की तनख्वाह और बच्चों की इस छोटी सी कमाई से घर का खर्च किसी तरह से चलने लगा.

इनसान के मन में जब किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष को पाने की आकांक्षा बहुत बढ़ जाती है तब उस का मन कमजोर हो जाता है और इसी कमजोरी का लाभ दूसरे लोग उठा लेते हैं.

सरिता इसी कमजोरी में तांत्रिकों के चक्कर में पड़ गई थी. उन की बताई हुई पूजा के लिए कुछ गहने भी बेच डाले. अंत में एक दिन राशि ने मां को समझाया तब सरिता ने तांत्रिकों से मिलना बंद किया.

कुछ माह के बाद ही सरिता अचानक बीमार पड़ गई. अस्पताल जाने पर पता चला कि उसे टायफाइड हुआ है. बताया डाक्टरों ने कि इलाज लंबा चलेगा. यह राशि और राहुल की परीक्षा की घड़ी थी.

ट्यूशन पढ़ाने के साथसाथ राशि लिफाफा बनाने का काम भी करने लगी. उधर राहुल ने अखबार बांटने के अलावा बरात में सिर पर ट्यूबलाइट ले कर चलने वाले लड़कों के साथ भी मजदूरी की. सिनेमा की टिकटें भी ब्लैक में बेचीं. दोनों के कमाए ये सारे पैसे मां की दवाई के काम आए.

‘तुम्हें यह सब करते हुए गलत नहीं लगा?’ सरिता ने ठीक होने पर दोनों बच्चों से पूछा.

‘नहीं मां, बल्कि मुझे जिंदगी का एक नया नजरिया मिला,’ राहुल बोला, ‘मैं ने देखा कि मेरे जैसे कई लोग आंखों में भविष्य का सपना लिए परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं.’

दोनों बच्चों को वार्षिक परीक्षा में स्कूल में प्रथम आने पर अगले साल से छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. घर थोड़ा सुचारू रूप से चलने लगा था.

सरिता को विश्वास था कि एक दिन सदाशिव जरूर आएगा. हर शाम वह अपने पति के इंतजार में खिड़की के पास बैठ कर आनेजाने वालों को देखा करती और अंधेरा होने पर एक ठंडी सांस छोड़ कर खाना बनाना शुरू करती.

इस तरह साल दर साल गुजरते चले गए. राशि और राहुल अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी पर लग गए. राशि मुंबई में नौकरी करने लगी है. उस की शादी को 3 साल गुजर गए. राहुल भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर झांसी में जिलाधीश बन गया. 1 साल पहले उस ने भी अपने दफ्तर की एक अधिकारी सीमा से शादी कर ली.

सरिता की तंद्रा भंग हुई. वह वर्तमान में वापस आ गई. उस ने देखा कि बाहर काफी अंधेरा हो गया है. हमेशा की तरह उस ने सदाशिव के लिए प्रार्थना की और घर के लिए रवाना हो गई.

‘‘मां, बहुत देर कर दी,’’ राहुल ने कहा.

सरिता ने राहुल और सीमा को देखा और उन का आशय समझ कर चुपचाप खाना खाने लगी.

‘‘बेटा, यहां से कुछ लोग जयपुर जा रहे हैं. एक पूरी बस कर ली है. सोचती हूं कि मैं भी उन के साथ हो आऊं.’’

‘‘मां, अब आप एक जिलाधीश की भी मां हो. क्या आप का उन के साथ इस तरह जाना ठीक रहेगा?’’ सीमा ने कहा.

सरिता ने सीमा से बहस करने के बजाय, प्रश्न भरी नजरों से राहुल की ओर देखा.

‘‘मां, सीमा ठीक कहती है. अगले माह हम सब कार से अजमेर और फिर जयपुर जाएंगे. रास्ते में मथुरा पड़ता है, वहां भी घूम लेंगे.’’

अगले महीने वे लोग भ्रमण के लिए निकल पड़े. राहुल की कार ने मथुरा में प्रवेश किया. मथुरा के जिलाधीश ने उन के ठहरने का पूरा इंतजाम कर के रखा था. खाना खाने के बाद सब लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. थोड़ी दूर चलने पर कार को रोकना पड़ा क्योंकि सामने से एक जुलूस आ रहा था.

‘‘इस देश में लोगों के पास बहुत समय है. किसी भी छोटी सी बात पर आंदोलन शुरू हो जाता है या फिर जुलूस निकल जाता है,’’ सीमा ने कहा.

राहुल हंस दिया.

सरिता खिड़की के बाहर आतेजाते लोगों को देखने लगी. उस की नजर सड़क के किनारे चाय पीते हुए एक आदमी पर पड़ गई. उसे लगा जैसे उस की सांस रुक गई हो.

वही तो है. सरिता ने अपने मन से खुद ही सवाल किया. वही टेढ़ी गरदन कर के चाय पीना…वही जोर से चुस्की लेना…सरिता ने कई बार सदाशिव को इस बात पर डांटा भी था कि सभ्य इनसानों की तरह चाय पिया करो.

चाय पीतेपीते उस व्यक्ति की निगाह भी कार की खिड़की पर पड़ी. शायद उसे एहसास हुआ कि कार में बैठी महिला उसे घूर रही है. सरिता को देख कर उस के हाथ से प्याली छूट गई. वह उठा और भीड़ में गायब हो गया.

उसी समय जुलूस आगे बढ़ गया और कार पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर दौड़ पड़ी. सरिता अचानक सदाशिव की इस हरकत से हतप्रभ सी रह गई और कुछ बोल भी नहीं पाई.

दिल्ली में वे लोग राहुल के एक मित्र के घर पर रुके.

रात को सरिता ने राहुल से कहा, ‘‘बेटा, मैं जयपुर नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों, मां?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या मेरा जयपुर जाना बहुत जरूरी है?’’

‘‘हम आप के लिए ही आए हैं. आप की इच्छा जयपुर जाने की थी. अब क्या हुआ? आप क्या झांसी वापस जाना चाहती हैं.’’

‘‘झांसी नहीं, मैं मथुरा जाना चाहती हूं.’’

‘‘मथुरा क्यों?’’

‘‘मुझे लगता है कि जुलूस वाले स्थान पर मैं ने तेरे पिताजी को देखा है.’’

‘‘क्या कर रहे थे वह वहां पर?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने उन्हें सड़क के किनारे बैठे देखा था. मुझे देख कर वह भीड़ में गायब हो गए,’’ सरिता ने कहा.

‘‘मां, यह आप की आंखों का धोखा है. यदि यह सच भी है तो भी मुझे उन से नफरत है. उन के कारण ही मेरा बचपन बरबाद हो गया.’’

‘‘मैं जयपुर नहीं मथुरा जाना चाहती हूं. मैं तुम्हारे पिताजी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, मैं आप के मन को दुखाना नहीं चाहता पर आप उस आदमी को मेरा पिता मत कहो. रही मथुरा जाने की बात तो हम जयपुर का मन बना कर निकले हैं. लौटते समय आप मथुरा रुक जाना.’’

सरिता कुछ नहीं बोली.

सदाशिव अपनी कोठरी में लेटे हुए पुराने दिनों को याद कर रहा था.

3 दिन पहले कार में सरिता थी या कोई और? यह प्रश्न उस के मन में बारबार आता था. और दूसरे लोग कौन थे?

आखिर उस की क्या गलती थी जो उसे अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ कर एक गुमनाम जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा. बस, इतना ही न कि वह इस सच को साबित नहीं कर सका कि चोरी उस ने नहीं की थी. वह मन से एक कमजोर इनसान है, तभी तो बीवी व बच्चों को उन के हाल पर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था. अब क्या रखा है इस जिंदगी में?

‘खटखट…’ किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

सदाशिव ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने सरिता खड़ी थी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को चुपचाप देखते रहे.

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगे? बड़ी मुश्किलों से ढूंढ़ते हुए यहां तक पहुंच सकी हूं,’’ सरिता ने कहा.

‘‘आओ,’’ सरिता को अंदर कर के सदाशिव ने दरवाजा बंद कर दिया.

सरिता ने देखा कि कोठरी में एक चारपाई पर बिस्तर बिछा है. चादर फट चुकी है और गंदी है. एक रस्सी पर तौलिया, पाजामा और कमीज टंगी है. एक कोने में पानी का घड़ा और बालटी है. दूसरे कोने में एक स्टोव और कुछ खाने के बरतन रखे हैं.

सरिता चारपाई पर बैठ गई.

‘‘कैसे हो?’’ धीरे से पूछा.

‘‘कैसा लगता हूं तुम्हें?’’ उदास स्वर में सदाशिव ने कहा.

सरिता कुछ न बोली.

‘‘क्या करते हो?’’ थोड़ी देर के बाद सरिता ने पूछा.

‘‘इस शरीर को जिंदा रखने के लिए दो रोटियां चाहिए. वह कुछ भी करने से मिल जाती हैं. वैसे नुक्कड़ पर एक चाय की दुकान है. मुझे तो कुछ नहीं चाहिए. हां, 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है.’’

‘‘बच्चे?’’ सरिता के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘हां, अनाथ बच्चे हैं,’’ उन की पढ़ाई की जिम्मेदारी मैं ने ले रखी है. सोचता हूं कि अपने बच्चों की पढ़ाई में कोई योगदान नहीं कर पाया तो इन अनाथ बच्चों की मदद कर दूं.’’

‘‘घर से निकल कर सीधे…’’ सरिता पूछतेपूछते रुक गई.

‘‘नहीं, मैं कई जगह घूमा. कई बार घर आने का फैसला भी किया पर जो दाग मैं दे कर आया था उस की याद ने हर बार कदम रोक लिए. रोज तुम्हें और बच्चों को याद करता रहा. शायद इस से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था. पिछले 5 सालों से मथुरा में हूं.’’

‘‘अब तो घर चल सकते हो. राशि अब मुंबई में है. नौकरी करती है. वहीं शादी कर ली है. राहुल झांसी में जिलाधीश है. मुझे सिर्फ तुम्हारी कमी है. क्या तुम मेरे साथ चल कर मेरी जिंदगी की कमी पूरी करोगे?’’ कहतेकहते सरिता की आंखों में आंसू आ गए.

सदाशिव ने सरिता को उठा कर गले से लगा लिया और बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है. यदि तुम्हारे साथ जा कर मेरे रहने से तुम खुश रह सकती हो तो मैं तैयार हूं. पर क्या इतने दिनों बाद राहुल मुझे पिता के रूप में स्वीकार करेगा? मेरे जाने से उस के सुखी जीवन में कलह तो पैदा नहीं होगी? क्या मैं अपना स्वाभिमान बचा सकूंगा?’’

‘‘तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम से दूर रहूं,’’ सरिता ने रो कर कहा और सदाशिव के सीने में सिर छिपा लिया.

‘‘नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम झांसी जाओ और वहां ठंडे दिल से सोच कर फैसला करो. तुम्हारा निर्णय मुझे स्वीकार्य होगा. मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करूंगा.’’

सरिता उसी दिन झांसी वापस आ गई. शाम को जब राहुल और सीमा साथ बैठे थे तो उन्हें सारी बात बताते हुए बोली, ‘‘मैं अब अपने पति के साथ रहना चाहती हूं. तुम लोग क्या चाहते हो?’’

‘‘एक चाय वाला और जिलाधीश साहब का पिता? लोग क्या कहेंगे?’’ सीमा के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘बहू, किसी आदमी को उस की दौलत या ओहदे से मत नापो. यह सब आनीजानी है.’’

‘‘मां, वह कमजोर आदमी मेरा…’’

‘‘बस, बहुत हो गया, राहुल,’’ सरिता बेटे की बात बीच में ही काटते हुए उत्तेजित स्वर में बोली.

राहुल चुप हो गया.

‘‘मैं अपने पति के बारे में कुछ भी गलत सुनना नहीं चाहती. क्या तुम लोगों से अलग हो कर वह सुख से रहे? उन के प्यार और त्याग को तुम कभी नहीं समझ सकोगे.’’

‘‘मां, हम आप की खुशी के लिए उन्हें स्वीकार सकते हैं. आप जा कर उन्हें ले आइए,’’ राहुल ने कहा.

‘‘नहीं, बेटा, मैं अपने पति की अनुगामिनी हूं. मैं ऐसी जगह न तो खुद रहूंगी और न अपने पति को रहने दूंगी जहां उन को अपना स्वाभिमान खोना पड़े.’’

सरिता रात को सोतेसोते उठ गई. पैर के पास गीलागीला क्या है? देखा तो सीमा उस का पैर पकड़ कर रो रही थी.

‘‘मां, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप का कई बार दिल दुखाया है. आज आप ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं भी आप के समान अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा कर सकूं.’’

सरिता ने भीगी आंखों से सीमा का माथा चूमा और उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.’’

भोर की पहली किरण फूट पड़ी. जिलाधीश के बंगले में सन्नाटा था. सरिता एक झोले में दो जोड़े कपड़े ले कर रिकशे पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल दी. उसे मथुरा के लिए पहली ट्रेन पकड़नी थी.

चोरी का फल : दोस्ती की आड़

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वसूली : रधिया ने मांगी अपने जिस्म की कीमत

रधिया का पति बिकाऊ एक बड़े शहर में दिहाड़ी मजदूर था. रधिया पहले गांव में ही रहती थी, पर कुछ महीने पहले बिकाऊ उसे शहर में ले आया था. वे दोनों एक झुग्गी बस्ती में किराए की कोठरी ले कर रहते थे.

रधिया को खाना बनाने से ले कर हर काम उसी कोठरी में ही करना पड़ता था. सुबहशाम निबटने के लिए उसे बोतल ले कर सड़क के किनारे जाना पड़ता था. उसे शुरू में खुले में नहाने में बड़ी शर्म आती थी. पता नहीं कौन देख ले, पर धीरेधीरे वह इस की आदी हो गई.

बिकाऊ 2 रोटी खा कर और 4-6 टिफिन में ले कर सुबह 7 बजे निकलता, तो फिर रात के 9 बजे से पहले नहीं आता था. उस की 12 घंटे की ड्यूटी थी.

जब बिकाऊ को महीने की तनख्वाह मिलती, तो रधिया बिना बताए ही समझ जाती थी, क्योंकि उस दिन वह दारू पी कर आता था. रधिया के लिए वह दोने में जलेबी लाता और रात को उस का कचूमर निकाल देता.

बिकाऊ रधिया से बहुत प्यार करता था, पर उस की तनख्वाह ही इतनी कम थी कि वह रधिया के लिए कभी साड़ी या कोई दूसरी चीज नहीं ला पाता था.

एक दिन दोपहर में रधिया अपनी कोठरी में लेटी थी कि दरवाजे पर कुछ आहट हुई. वह बाहर निकली, तो सामने एक जवान औरत को देखा.

उस औरत ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा नाम मालती है. मैं बगल की झुग्गी में ही रहती हूं. तुम जब से आई हो, कभी तुम्हें बाहर निकलते नहीं देखा. मर्द तो काम पर चले जाते हैं. बाहर निकलोगी, तभी तो जानपहचान बढ़ेगी. अकेले पड़ेपड़े तो तुम परेशान हो जाओगी. चलो, मेरे कमरे पर, वहां चल कर बातें करते हैं.’’

रधिया ने कहा, ‘‘मैं यहां नई आई हूं. किसी को जानती तक नहीं.’’

‘‘अरे, कोठरी से निकलोगी, तब तो किसी को जानोगी.’’

रधिया ने अपनी कोठरी में ताला लगाया और मालती के साथ चल पड़ी.

जब वह मालती की झुग्गी में घुसी, तो दंग रह गई. उस की झुग्गी में

2 कोठरी थी. रंगीन टैलीविजन, फ्रिज, जिस में से पानी निकाल कर उस ने रधिया को पिलाया.

रधिया ने कभी फ्रिज नहीं देखा था, न ही उस के बारे में सुना था.

रधिया ने पूछा, ‘‘बहन, यह कैसी अलमारी है?’’

इस पर मालती मन ही मन मुसकरा दी. उस ने कहा, ‘‘यह अलमारी नहीं, फ्रिज है. इस में रखने पर खानेपीने की कोई चीज हफ्तों तक खराब नहीं होती. पानी ठंडा रहता है. बर्फ जमा सकते हैं. पिछले महीने ही तो पूरे 10,000 रुपए में लिया है.’’

रधिया ने हैरानी से पूछा, ‘‘बहन, तुम्हारे आदमी क्या काम करते हैं?’’

मालती ने कहा, ‘‘वही जो तुम्हारे आदमी करते हैं. बगल वाली कैमिकल फैक्टरी में मजदूर हैं. पर उन की कमाई से यह सब नहीं है. मैं भी तो काम करती हूं. यहां रहने वाली ज्यादातर औरतें काम करती हैं, नहीं तो घर नहीं चले.

‘‘बहन, मैं तो कहती हूं कि तुम भी कहीं काम पकड़ लो. काम करोगी, तो मन भी बहला रहेगा और हाथ में दो पैसे भी आएंगे.’’

‘‘पर मुझे क्या काम मिलेगा? मैं तो अनपढ़ हूं.’’

‘‘तो मैं कौन सी पढ़ीलिखी हूं. किसी तरह दस्तखत कर लेती हूं. यहां अनपढ़ों के लिए भी काम की कमी नहीं है. तुम चौकाबरतन तो कर सकती हो? कपड़े तो साफ कर सकती हो? चायनाश्ता तो बना सकती हो? ऐसे काम कोठियों में खूब मिलते हैं और पैसे भी अच्छे मिलते हैं. नाश्ताचाय तो हर रोज मिलता ही है, त्योहारों पर नए कपड़े और दीवाली पर गिफ्ट.’’

‘‘आज मैं अपनी कमाई में से ही 2 बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही हूं. इन की कमाई तो झुग्गी के किराए, राशन और दारू में ही खर्च हो जाती है.’’

‘‘क्या मुझे काम मिलेगा?’’ रधिया ने जल्दी से पूछा.

‘‘करना चाहोगी, तो कल से ही काम मिलेगा. जहां मैं काम करती हूं, उस के बगल में रहने वाली कोठी की मालकिन कामवाली के बारे में पूछ रही थीं. वे एक बड़े स्कूल में पढ़ाती हैं. उन के मर्द वकील हैं. 2 बच्चे हैं, जो मां के साथ ही स्कूल जाते हैं.

‘‘मैं आज शाम को ही पूछ लूंगी और पैसे की बात भी कर लूंगी. मालिकमालकिन अगर तुम्हारे काम से खुश हुए, तो तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई भी हो जाती है.’’

इस बीच मालती ने प्लेट में बिसकुट और नमकीन सजा कर उस के सामने रख दिए. गैस पर चाय चढ़ा रखी थी.

चाय पीने के बाद मालती ने रधिया से कहा कि वह चाहे, तो अभी उस के साथ चली चले. मैडम 2 बजे घर आ जाती हैं. आज ही बात पक्की कर ले और कल से काम पर लग जा.

मालती ने यह भी बताया कि हर काम के अलग से पैसे मिलते हैं. अगर सफाई करानी हो, तो उस के 300 रुपए. कपड़े भी धुलवाने हों, तो उस के अलग से 300 रुपए. अगर सारे काम कराने हों, तो कम से कम 2,000 रुपए.

मालती कपड़े बदलने लगी. उस ने रधिया से कहा, ‘‘चल, तू भी कपड़े बदल ले. पैसे की बात मैं करूंगी. चायनाश्ता तो बनाना जानती होगी?’’

‘‘हां दीदी, मैं सब जानती हूं. मीटमछली भी बना लेती हूं,’’ रधिया ने कहा. उस का दिल बल्लियों उछल रहा था. अगर वह महीने में 2,000 रुपए कमाएगी, तो उस की सारी परेशानी दूर हो जाएंगी.

रधिया तेजी से अपनी झुग्गी में आई. नई साड़ी पहनी और नया ब्लाउज भी. पैरों में वही प्लास्टिक की लाल चप्पल थी. उस ने आंखों में काजल लगाया और मालती के साथ चल पड़ी.

रधिया थी तो सांवली, पर जोबन उस का गदराया हुआ था और नैननक्श बड़े तीखे थे. गांव में न जाने कितने मर्द उस पर मरते थे, पर उस ने किसी को हाथ नहीं लगाने दिया. इस मामले में वह बड़ी पक्की थी.

रास्ते में मालती ने कहा, ‘‘बहन, अगर तुम्हारा काम बन गया, तो मैं महीने की पहली पगार का आधा हिस्सा लूंगी. यहां यही रिवाज है.’’

मालती एक कोठी के आगे रुकी. उस ने घंटी बजाई, तो मालकिन ने दरवाजा खोला.

मालती ने उन्हें नमस्ते किया. रधिया ने भी हाथ जोड़ कर नमस्ते किया. मालती 2 साल पहले उन के घर भी काम कर चुकी थी.

गेट खोल कर अंदर जाते ही मालती ने कहा, ‘‘मैडमजी, मैं आप के लिए बाई ले कर आई हूं.’’

‘‘अच्छा, बाई तो बड़ी खूबसूरत है. पहले कहीं काम किया है?’’ मैडम ने रधिया से पूछा.

मालती ने जवाब दिया, ‘‘अभी गांव से आई है, पर हर काम जानती है. मीटमछली तो ऐसी बनाती है कि खाओ तो उंगलियां चाटती रह जाओ. मेरे इलाके की ही है, इसीलिए मैं आप के पास ले कर आई हूं. अब आप बताओ कि कितने काम कराने हैं?’’

मैडम ने कहा, ‘‘देख मालती, काम तो सारे ही कराने हैं. सुबह का नाश्ता और दिन में लंच तैयार करना होगा. रात का डिनर मैं खुद तैयार कर लूंगी. कपड़े धोने ही पड़ेंगे, साफसफाई, बरतनपोंछा… यही सारे काम हैं. सुबह जल्दी आना होगा. मैं साढ़े 7 बजे तक घर से निकल जाती हूं.’’

इस के बाद मैडम ने मोलभाव किया और पूछा, ‘‘कल से काम करोगी?’’

‘‘मैं कल से ही आ जाऊंगी. जब काम करना ही है, तो कल क्या और परसों क्या?’’ रधिया ने कहा.

रात में जब बिकाऊ घर लौटा, तो रधिया ने उसे सारी रामकहानी सुनाई.

बिकाऊ ने कहा, ‘‘यह तो ठीक है कि तू काम पर जाएगी, पर कोठियों में रहने वाले लोग बड़े घटिया होते हैं. कामवालियों पर बुरी नजर रखते हैं. यह मालती बड़ी खेलीखाई औरत है. जिन कोठियों में काम करती है, वहां मर्दों को फांस कर वह खूब पैसे ऐंठती है. ऐसे ही नहीं, इस के पास फ्रिज और महंगीमहंगी चीजें हैं.’’

इस पर रधिया ने कहा, ‘‘मुझ पर कोई हाथ ऐसे ही नहीं लगा सकता. गांव में भी मेरे पीछे कुछ छिछोरे लगे थे, पर मैं ने किसी को घास नहीं डाली.

‘‘एक दिन दोपहर में मैं कुएं से पानी भरने गई थी. जेठ की दोपहरी, रास्ता एकदम सुनसान था. तभी न जाने कहां से बाबू साहब का बड़ा लड़का आ टपका और अचानक उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैं ने उसे ऐसा धक्का दिया कि कुएं में गिरतेगिरते बचा और फिर भाग ही खड़ा हुआ.

‘‘मैं दबने वाली नहीं हूं. पर मैं ने बात कर ली है. दुनिया में बुरेभले हर तरह के लोग हैं.’’

बिकाऊ ने कहा, ‘‘तू जैसा ठीक समझ. मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है.’’

दूसरे दिन रधिया सुबह जल्दी उठी और मालती को साथ ले कर 6 बजे तक कोठी पर पहुंच गई. मालकिन ने उसे सारा काम समझाया.

रधिया ने जल्दी से पोंछा लगा दिया, गैस जला कर चाय भी बना दी.

‘‘तू भी समय से नाश्ता कर लेना. चाहो तो बाथरूम में नहा भी सकती हो. साहब निकल जाएं, तो कुछ कपड़े हैं, उन्हें धो लेना.’’

थोड़ी देर में रधिया साहब के लिए चाय बनाने चली गई. ‘ठक’ की आवाज कर वह कमरे में आ गई और बैड के पास रखी छोटी मेज पर ट्रे को रख दिया.

साहब ने रधिया को गौर से देखा और कहा, ‘‘देखना, बाहर अखबार डाल गया होगा. जरा लेती आना.’’

रधिया बाहर से अखबार ले कर आ गई और साहब की तरफ बढ़ा दिया. इसी बीच साहब ने 500 का एक नोट उस की तरफ बढ़ाया.

रधिया ने कहा, ‘‘यह क्या?’’

‘‘यह रख ले. मालती ने तुझ से 500 रुपए ले लिए होंगे. पहले वह यहां काम कर चुकी है.

‘‘तुम ये 500 रुपए ले लो, पर मैडम से मत कहना. तनख्वाह मिलने पर मैं अलग से 500 तुझे फिर दे दूंगा. यह मुआवजा समझना.’’

लेकिन रधिया ने अपना हाथ नहीं बढ़ाया. इस पर साहब ने उसे 500 के 2 नोट लेने को कहा.

रधिया ने साहब के बारबार कहने पर पैसे ले लिए और कपड़े धोने में लग गई. कपड़े धो कर जब तक उन्हें छत पर सुखाने डाला, तब तक साहब नहाधो कर तैयार थे. उस ने उन के नाश्ते के लिए आमलेट और ब्रैड तैयार किया, फिर चाय बनाई.

नाश्ता करने के बाद साहब बोले, ‘‘तू ने तो अच्छा नाश्ता तैयार किया. पर नाश्ते से ज्यादा तू अच्छी लगी.’’

चाय देते समय उस ने जानबूझ कर ब्लाउज का बटन ढीला कर दिया और ओढ़नी किनारे रख दी.

‘‘अब मैं चलता हूं. किसी चीज की जरूरत हो, तो मुझ से कहना. संकोच करने की जरूरत नहीं है.’’

साहब ने उसे टैलीविजन खोलना और बंद कर के दिखाया और अपना बैग रधिया को पकड़ा दिया.

बैग ले कर रधिया उन के पीछेपीछे कार तक गई. साहब ने उस के हाथों से बैग लिया. न जाने कैसे साहब की उंगलियां उस के हाथों से छू गईं.

रधिया भी 2 सैकंड के लिए रोमांचित हो उठी.

साहब के जाने के बाद रधिया ने गेट बंद किया. फिर वह कोठी के अंदर आई और दरवाजा बंद कर लिया.

वह नहाने के लिए बाथरूम में गई. ऐसा बाथरूम उस ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा था. तरहतरह के साबुन, तेल की शीशियां और शैंपू की शीशी, आदमकद आईना.

रधिया को लगा कि वह किसी दूसरी दुनिया में आ गई है. कपड़े उतार कर पहली बार जब से वह गांव से आई थी, उस ने जम कर साबुन लगा कर नहाया और फिर बाथरूम में टंगे तौलिए से देह पोंछ कर मैडम का दिया पुराना सूट पहन कर अपनेआप को आदमकद आईने में निहारा. उसे लगा कि वह रधिया नहीं, कोई और ही औरत है.

अपने कपड़े धो कर रधिया उन्हें भी छत पर डाल आई. फिर बचे हुए परांठे खा लिए. थोड़ी चाय बच गई थी. उसे गरम कर पी लिया, नहीं तो बरबाद ही होती.

धीरेधीरे रधिया ने उस घर के सारे तौरतरीके सीख लिए. वह सारा काम जल्दीजल्दी निबटा देती और किसी को शिकायत का मौका नहीं देती. मैडम उस के काम से काफी खुश थीं. एक महीना कब बीत गया, उसे पता ही नहीं चला. महीना पूरा होते ही मैडम ने उसे बकाया पगार दे दी.

उस दिन वह काफी खुश थी. शाम तक जब वह अपनी झुग्गी में लौटी, तो उस ने सब से पहले 1,000 रुपए जा कर मालती को दे दिए.

मालती ने उसे चाय पिलाई और हालचाल पूछा. उस ने इशारों में ही पूछा कि साहब से कोई दिक्कत तो नहीं.

रधिया ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है.’’

मालती ने कहा, ‘‘अगर तू चाहे, तो शाम को किसी और घर में लग जा. और कुछ नहीं, तो 1,000 रुपए वहां से भी मिल जाएंगे.’’

इस पर रधिया ने कहा, ‘‘सोचूंगी… अपने घर का भी तो काम है.’’

साहब तो अपनी चाय उसी से लेते. जब मैडम आसपास न हों, तो उसे ही देखते रहते और रधिया मजे लेती रहती.

रधिया समझ गई थी कि मालिक की निगाह उस की जवानी पर है. वे उसे पैसे देते, तो वह पहले लेने से मना करती, पर वे जबरन उसे दे ही डालते और कहते, ‘‘देख रधिया, अपने पास पैसों की कमी नहीं है. फिर 1,000 रुपए की आज कीमत ही क्या है? तेरे काम ने मेरा दिल जीत लिया है. कई औरतों ने इस घर में काम किया, पर तेरी सुघड़ता उन में नहीं थी.’’

रधिया चुप रह जाती. साहब कुछ हाथ मारना चाहते थे, पर समझ ही नहीं आता था.

एक दिन मैडम ने उस से कहा, ‘‘रधिया, हमारे स्कूल से टूर जा रहा है. मैं भी जा रही हूं और बच्चे भी, घर में सिर्फ साहब रहेंगे. हमें टूर से लौटने में 10 दिन लगेंगे.

‘‘आनेजाने के टाइम का तुम समझ लेना. साहब को कोई दिक्कत न हो.

‘‘पहले आमलेट बना दे… और तू ऐसा करना, लंच के साथ डिनर भी तैयार कर फ्रिज में रख देना. साहब रात में गरम कर के खा लेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ रधिया ने कहा और अपने काम में लग गई.

मैडम की गए 10वां दिन था. रधिया जब ठीक समय पर चाय और पानी का गिलास ले कर साहब के कमरे में पहुंची, तो उन्होंने कहा, ‘‘आज कोर्ट नहीं जाना है. वकीलों ने हड़ताल कर दी है. फ्रिज में एक बोतल पड़ी होगी, वह ले आ. मैं थोड़ी ब्रांडी लूंगा, मुझे ठंड लग गई है.’’

रधिया रसोई में आमलेट बनाने चली गई. आमलेट बना कर उसे प्लेट में रख कर वह साहब के कमरे में गई, तो वे वहां नहीं थे. उस ने सोचा कि शायद बाथरूम गए होंगे. साहब तब तक वहां आ गए थे.

‘‘वाह रधिया, वाह, तू ने तो फटाफट काम कर दिया. तू बड़ी अच्छी है. आ चाय पी.

‘‘ये ले 1,000 रुपए. मनपसंद साड़ी खरीद लेना.’’

‘‘किस बात के पैसे साहब? पगार तो मैं लेती ही हूं,’’ रधिया ने कहा.

‘‘अरे, लेले. पैसे बड़े काम आते हैं. मना मत कर,’’ कहतेकहते साहब ने उस का हाथ पकड़ लिया और पैसे उस के ब्लाउज में डाल दिए.

रधिया पीछे हटी. तब तक साहब ने उस के ब्लाउज में हाथ डाल दिया था और उस के ब्लाउज के बटन टूट गए थे.

रधिया ने एक जोर का धक्का दिया. साहब बिस्तर पर गिर पड़े. इस बीच रधिया भी उन पर गिर गई.

रधिया ने एक जोरदार चुम्मा गाल पर लगाया और बोली, ‘‘साहब, 5,000 और दो. देखो, मैडम बच्चों के साथ चली आ रही हैं.’’

साहब ने कहा, ‘‘रधिया, तू जल्दी यहां से निकल,’’ और अपना पूरा पर्स उसे पकड़ा दिया.

शायद : पैसों के बदले मिला अपमान

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यही दस्तूर है : गरिमा के हरे जख्म

कालिज से लौट कर गरिमा ने जैसे ही अपने फ्लैट का दरवाजा खोला सामने के फ्लैट से रोहित निकल कर आ गए.

‘‘आप का पत्र कोरियर से आया है,’’ एक लिफाफा उस की तरफ बढ़ाते हुए रोहित ने कहा.

‘‘ओह…आइए न,’’ पत्र थाम कर गरिमा अंदर आ गई. रोहित भी अंदर आ गए.

‘‘पत्र विदेशी है. बेटे का ही होगा?’’ रोहित की बात पर गरिमा ने पलट कर उन्हें देखा. मानो कोई चुभती हुई बात उन के मुंह से निकल गई हो.

फिर वह खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं कौफी बनाती हूं.’’

‘‘पर खत तो पढ़ लीजिए.’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले कौफी बना लूं.’’

रोहित को आश्चर्य नहीं हुआ यह देख कर कि बेटे का पत्र पढ़ने की उसे कोई जल्दी नहीं है. इतने दिन से गरिमा को देख रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि यह विदेशी पत्र उसे विचलित कर गया है. कुछ तो है मांबेटे के बीच पर वह कभी पूछने का साहस नहीं कर पाए हैं.

गरिमा के बारे में सिर्र्फ इतना जानते हैं कि 30 वर्ष पूर्व गरिमा के पति नहीं रहे थे. तब वह मात्र 20 वर्ष की थी. समीर गोद में आ गया था. अपना पूरा यौवन उस ने बेटे को बड़ा करने में लगा दिया था. मांबाप ने एकाध जगह बात पक्की की पर बेटे के साथ उसे अपनाने वाला कोई उचित वर न मिला. भैयाभाभी उस से विशेष मतलब नहीं रखते. मां को अस्थमा का अकसर दौरा पड़ता था, इस के बावजूद वह समीर को अपने पास रखने को तैयार थीं. पर गरिमा ने खुद को बच्चे से अलग नहीं किया. मांपिताजी के पास रह कर उस ने बी.एड. किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी. 5 वर्ष पूर्व इस फ्लैट में आई है. बेटे को कभी आते नहीं देखा. बस, इतना पता है कि वह विदेश में है.

‘‘कौफी…’’ गरिमा की आवाज पर रोहित की तंद्रा टूटी. प्याला हाथ में ले कर गरिमा भी वहीं बैठ गई.

‘‘गरिमा, मैं ने आप से एक प्रश्न किया था, आप ने जवाब नहीं दिया?’’

अचानक पूछे गए इस प्रश्न पर गरिमा चौंक पड़ी. हां, रोहित ने 2 दिन पूर्व उन के सामने एक बात रखी थी. अपनी बोझिल पलकों को उठा कर उस ने रोहित की तरफ देखा. यह आदमी उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता है.

बचे हुए जीवन के दिनों को हंसीखुशी से जी लेने का उस का भी दिल करता है. बेटे के कृत्य के लिए वह खुद को दोषी क्यों ठहराए. मगर इन 5-6 वर्षों में वह समीर के कुसूर को भूल नहीं पाई  है, उसे माफ नहीं कर पाई है.

रोहित के जाने के बाद उस ने समीर का पत्र खोला, लिखा था, ‘‘जानता हूं अभी तक नाराज हो. कुछ तो है जो अभिशाप बन कर हमारे बीच पसर गया है. शिखा 2 बार मां बनतेबनते रह गई. मां, जानता हूं तुम्हारा दिल दुखाया है, उसी की सजा मिल रही है. क्या मुझे क्षमा नहीं करोगी?’’

समीर के पत्र ने उस के जख्मों को फिर हरा कर दिया. शैल्फ पर रखी तसवीर पर उस की नजर अटक गई. लाख चाह कर भी वह इस तसवीर को हटा नहीं पाई है. आखिर है तो मां ही. तसवीर में समीर मां की गरदन में बांहें डाले था. उसे देखते हुए वह अतीत में खो गई.

पति के समय का ही एक माली था नंदू. माली कम सेवक ज्यादा. पति की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई  थी. नंदू ने काम छोड़ने से मना कर दिया था, ‘बचपन से खिलाया है रवि भैया को, उन के न रहने पर तो मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं यहीं रहूंगा.’

रवि की मृत्यु के बाद आफिस का फ्लैट भी चला गया था. वह मां के पास रह कर बी.एड. करने लगी तो नंदू ने ही समीर को संभाला. फिर नौकरी लगने पर वह नंदू और समीर को ले कर दूसरे शहर आ गई.

समीर बड़ा हो गया और नंदू बूढ़ा. एक दिन वह गांव गया तो कई दिनों तक नहीं लौटा. उस की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. गांव से लौटा तो 17-18 वर्ष की एक सांवलीसलोनी सी पोती भी उस के साथ थी, ‘बहूजी, इस के 4 भाईबहन हैं. गांव में कुछ सीख नहीं पाती. पढ़ना चाहती है, सो अपने साथ ले आया हूं. आप की छत्रछाया में कुछ गुण ढंग सीख लेगी.’

ज्योति नाम था उस का. 8वीं तक पढ़ी थी. 9वीं में एक स्कूल में नाम लिखवा दिया उस का. फिर तो हिरनी सी कुलांचें भरती कटोरी जैसी आंखों वाली वह छरहरी काया पूरे घर पर शासन कर बैठी. घर का सारा काम उस ने अपने ऊपर ले लिया. समीर इंजीनियरिंग कर रहा था. उस के पास जाने में वह थोड़ी झेंपती थी. लेकिन यह संकोच भी टूट गया जब उसे पढ़ाई में विज्ञान एवं गणित कठिन लगने लगे तब गरिमा ने ही समीर से कहा कि वह ज्योति की मदद कर दिया करे.

समीर की महत्त्वाकांक्षा काफी ऊंची थी. उस की इच्छा विदेश जा कर पढ़ने की थी. जहां भी कुछ अवसर मिलता वह फौरन आवेदन कर देता. पासपोर्र्ट उस ने बनवा रखा था. मां अकेली कैसे रहेगी, पूछने पर कहता, ‘मैं तुम्हें भी जल्दी ही बुला लूंगा. यहां इंडिया में अपना है ही कौन.’

पर गरिमा ने निश्चय कर लिया था कि वह अपना देश नहीं छोड़ेगी. उसे लगता कि ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जब बच्चे पढ़ते इंडिया में हैं और बसने विदेश चले जाते हैं. पर बेटे की महत्त्वाकांक्षा के सामने वह मौन हो जाती.

ज्योति ने समीर से पढ़ना शुरू किया तो दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए. गरिमा इसे दोनों की नोकझोंक समझती रही. समीर ज्योति की बड़ीबड़ी आंखों में खो गया. प्रेम की यह पींग काफी ऊंची उड़ान ले बैठी. इतनी ऊंची कि झूला टूट कर गिर गया.

उस दिन वाशिंगटन से समीर के नाम एक पत्र आया था कि वह फैलोशिप के लिए चुन लिया गया है. इधर घर में एक जबरदस्त विस्फोट हुआ जब नंदू उस के सामने बिलख उठा, ‘बहूजी, मैं तो बरबाद हो गया. ज्योति ने तो मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं रखा. मैं क्या करूं. कहां ले कर जाऊं इस कलंक को.’

ज्योति के मुंह से समीर का नाम सुनते ही वह सुलग उठी. उसे यह बात सच लगी कि हर व्यक्ति के अंदर एक जानवर होता है जो मौका पड़ते ही जाग जाता है. समीर के अंदर का जानवर भी जाग उठा था. समीर ने मां के विश्वास के सीने में छुरा घोंपा था.

दोषी तो ज्योति भी थी. उस ने समीर को इतने पास आने ही क्यों दिया कि अपनी अस्मत ही गंवा बैठी. गरिमा का जी चाहा कि वह जोरजोर से चीखे, रोए. पर कैसी लाचार हो गई थी वह. कहीं कोई सुन न ले, इस डर से मुंह से सिसकी भी न निकाली.

2 दिन तक गरिमा घर में पड़ी रही. क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उधर समीर जो घर से गया तो 2 दिन तक लौटा ही नहीं. तीसरे दिन जरा सी आंख लगी ही थी कि आहट पर खुल गई. दरवाजा खुला छोड़ कर कोई बाहर गया था. ‘कौन है…’ वह बड़बड़ाते हुए उठी. देखा तो कमरे से समीर के कपड़े, अटैची सब गायब थे. एक पत्र जरूर मिला. लिखा था, ‘टिकट के पैसे नहीं हैं. कुछ रुपए और आप का हार लिए जा रहा हूं. हो सके तो क्षमा कर दीजिएगा.’

अरे, बेशर्म, क्षमा हार की मांग रहा है, पर जो कुकर्म किया है उस की क्षमा उसे कैसे मिलेगी. ज्योति की तरफ देख कर वह बिलख उठी थी. चाह कर भी वह उस के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी. कौन अपनाएगा इसे. सबकुछ तितरबितर हो गया. क्या सोचा था, क्या हो गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी भी सूख चली. बुद्घि, विवेक सबकुछ मानो किसी ने छीन लिया हो.

और एक दिन नंदू भी लड़की को ले कर कहीं चला गया. तब से अकेली है. पुराना मकान छोड़ कर नई कालोनी में यह फ्लैट ले लिया था, ताकि समीर को उस का पता न लग सके. पर जाने कहां से उस ने पता कर ही लिया है. पत्र भेजता है. पत्रों में उसे बुलाने का ही आग्रह होता है. शादी कर ली है….पर वह तो उसे आज तक क्षमा नहीं कर पाई है.

डोर बेल बजने पर वह अतीत से बाहर आई. बाई थी. उसे तो समय का ध्यान ही नहीं रहा कि रात के 8 बज चुके हैं. बाई ने उसे अंधेरे में बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, बहूजी. तबीयत तो ठीक है न. यह अंधेरा क्यों?’’

‘‘यों ही आंख लग गई थी.’’

‘‘खाना क्या बनाऊं, बहूजी.’’

‘‘मेरे लिए कुछ नहीं बनाना. तेरा जो खाने का दिल करे बना ले.’’

‘‘पर आप….’’

‘‘मैं कुछ नहीं लूंगी.’’

‘‘तो फिर कौफी, दूध…कुछ तो ले लीजिए.’’

‘‘ठीक है दूध दे जाना कमरे में,’’ कहती हुई गरिमा अपने कमरे में चली गई.

समीर का पत्र एक बार फिर पढ़ा उस ने. बहू की फोटो भेजी थी समीर ने. एक बार देख कर उस ने तसवीर को अलमारी में रख दिया. सोचती रही, क्या करे. रोहित भी जवाब मांग रहे हैं. मां- पिताजी अब रहे नहीं. अपना कहने वाला कोई नहीं है. मां की अस्थमा की बीमारी उसे भी हो गई है. ऐसे में रोहित ही उस की देखभाल करते हैं. जब वह यहां आई थी तब रोहित से कटती रहती थी पर आमने- सामने रहने से कभीकभार की मुलाकात से परिचय गहरा हो गया. यही परिचय अब अच्छी मित्रता में बदल चुका है.

रोहित का व्यक्तित्व बहुत मोहक है. कम बोलना, पर जो बोलना सोचसमझ कर. 2 बच्चे हैं, बेटा पत्नी के साथ बंगलौर में है. बेटी कनाडा में है. 2 साल पहले पति के साथ आई थी. उसे बहुत पसंद करती है. जाने से पहले उस का हाथ अपने हाथ में ले कर अपने पिता से बोली थी, ‘‘जाने के बाद अब यह सोच कर तसल्ली होगी कि अब आप अकेले नहीं हैं.’’

वह चौंकी थी कि रोहित पर उस का क्या अधिकार है. कहीं रोहित ने ही तो बेटी से कुछ नहीं कहा. उन के बेटे से भी वह मिल चुकी है. जब भी आता है, उस के पैर छूता है. रोहित के प्रस्ताव में, लगता है दोनों बच्चों की सहमति भी छिपी है. रोहित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे, ‘गरिमाजी, मेरा और आप का रास्ता एक ही है तो क्यों न मंजिल तक साथ ही चलें. मुझ से शादी करेंगी?’

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आज समीर के पत्र ने उसे झकझोर दिया था. उस ने कभी भी बेटे को कोसा नहीं है. आखिर क्यों कोसे? अब वह किसी का पति है. आखिर उस की पत्नी का क्या दोष? वह मां बनना चाहती है तो इस में वह क्या सहयोग कर सकती है सिवा इस के कि उसे अपनी शुभकामना दे. आखिर उस ने बहू शिखा को पत्र लिखने का निश्चय कर लिया.

दूसरे दिन उस ने शिखा को पत्र लिखा, ‘‘बेटी, हम दोनों एकदूसरे से अब तक नहीं मिले हैं, पर हमारे बीच आत्मीय दूरी नहीं है. तुम मेरी बहू हो और मैं तुम्हारी सास. तुम मां बनो और मैं दादी यह हृदय से कामना करती हूं. तुम्हारी मां.’’

पत्र मोड़ कर लिफाफे में रखते हुए गरिमा सोच रही थी कि उसे रोहित का प्रस्ताव अब मान लेना चाहिए. जीवन के बाकी दिन खुद के लिए भी तो जी लें.

दूसरा कोना: क्यों बदनाम हुई ऋचा?

‘‘अजीब तरह का व्यवहार कर रही थी अजय की पत्नी. पूरे समय बस अपनी खूबसूरती, हंसीमजाक, ब्यूटीपार्लर उफ, कोई कह सकता है भला कि उस के पति की अभीअभी कीमोथेरैपी हुई है. उस के हावभाव, अदाओं से कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उस के पति को इतनी गंभीर बीमारी है. मुझे तो दया आ रही है बेचारे अजय पर. ऐसे समय में उस का खयाल रखने के बजाय, उस की पत्नी ऋचा अपनी साजसज्जा में लगी रहती है,’’ घर का दरवाजा खोलने के साथ ही प्रिया ने अपने पति राकेश से कहा.

‘‘हां, थोड़ा अजीब तो मुझे भी लगा ऋचा का तरीका, पर चलो छोड़ो न, तुम क्यों अपना दिमाग खराब कर रही हो. हमें कौन सा रोजरोज उन के घर जाना है. औफिस का कलीग है, कैंसर की बीमारी का सुना तो एक बार तो देखने जाना बनता था,’’ राकेश ने प्रिया को बांहों में लेते हुए कहा.

‘‘अरे, छोड़ो क्या, मेरे तो दिमाग से ही नहीं निकल रही यह बात. कोई इतना लापरवाह कैसे हो सकता है. ऋचा पढ़ीलिखी, अच्छे परिवार की लड़की है, फिर भी ऐसी हरकतें. मुझे तो शर्म आ रही है कि  ऐसी भी होती हैं औरतें.

‘‘ऋचा औफिस की पार्टीज में भी कितना बनसंवर कर आती थी. कितना मरता था अजय उस की खूबसूरती पर. एक से एक लेटैस्ट ड्रैसेज पहनती थी वह तब भी. पर अब हालत कैसी है, कम से कम यह तो सोचना चाहिए.’’ राकेश ने प्रिया की बातों में अब हां में सिर हिलाया और कहा कि बहुत नींद आ रही है, सुबह औफिस भी जाना है, चलो सो जाते हैं.

बिस्तर पर पहुंच कर भी प्रिया के मन में ऋचा की बातें, उस की हंसी फांस की तरह चुभ रही थी. आज की मुलाकात ने रिचा को प्रिया की आंखों के सामने लापरवाह औरत के रूप में खड़ा कर दिया था. यही सब सोचतेसोचते प्रिया की आंख कब लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह औफिस जाते हुए राकेश को गुडबाय किस देने के बाद अंदर आई तो देखा राकेश अपना टिफिन भूल गए. प्रिया ने राकेश को कौल कर के रुकने को कहा. दौड़ते हुए वह राकेश का टिफिन नीचे पार्किंग में पकड़ा कर आई. ‘‘तुम एक चीज भी याद नहीं रख सकते. मैं न होती तो तुम्हारा क्या होता?’’ प्रिया ने मुसकराते हुए कहा.

राकेश ने भी उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘तुम न होती तो कोई और होती.’’

इस पर प्रिया ने उसे घूरने वाली नजरों से देखा. राकेश ने जल्दी से ‘आई लव यू’ कहा और बाय कहते हुए वहां से निकल गया.

सब काम निबटा कर प्रिया ने चाय बनाई और टीवी औन कर लिया. चैनल पलटतेपलटते ‘सतर्क रहो इंडिया’ पर आ कर उस का रिमोट रुका. प्रिया ने बिना पलकें झपकाए पूरा एपिसोड देख डाला. उसे फिर ऋचा का खयाल आ गया. अब वह तरहतरह की बातें सोचने लगी कि ऋचा का कहीं किसी से चक्कर तो नहीं चल रहा, कहीं वह अजय से छुटकारा तो नहीं पाना चाहती? दिनभर प्रिया के दिमागी घोड़े ऋचा के घर के चक्कर लगाते रहे.

शाम को राकेश के आने पर प्रिया ने फिर से ऋचा की बात छेड़ी तो राकेश ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘अरे यार, क्या ऋचाऋचा लगा रखा है? उन की जिंदगी है, तुम क्यों इतना सोच रही हो?’’

प्रिया चुप हो गई. वह राकेश को नाराज नहीं करना चाहती थी. बहुत प्यार जो करती थी वह उस से.

मगर प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा उतरा नहीं था. उस ने अपनी किट्टी की सहेलियों को भी उस के व्यवहार के बारे में बताया.

सहेलियों में से एक बोली, ‘‘जिस के पति के जीवन की डोर कब कट जाए, पता नहीं, वह पति के बारे में न सोच कर सिर्फ अपने बारे में बातें कर रही है, कैसी औरत है वह.’’

‘‘जो बीमार पति से भी इधरउधर घूमने की फरमाइश करती है, कैसी अजीब है वह,’’ दूसरी सहेली ने कहा.

‘‘ऐसी औरतें ही तो औरतों के नाम पर धब्बा होती हैं,’’ तीसरी बोली.

सब सहेलियों ने मिल कर ऋचा के उस व्यवहार का पूरा पोस्टमौर्टम कर दिया. धीरेधीरे प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा निकल गया. हां, कभीकभार वह राकेश से अजय के बारे में जरूर पूछ लेती. राकेश का एक ही जवाब होता, ‘अजय अब शायद ही औफिस आ सके.’ प्रिया को अफसोस होता और मन ही मन सोचती कि बेचारे अजय का तो समय ही खराब निकला.

4 महीने बाद एक दिन राकेश ने औफिस से फोन पर प्रिया को बताया कि अजय की मृत्यु हो गई. प्रिया को बहुत दुख हुआ. राकेश ने प्रिया से कहा कि तुम शाम को तैयार रहना, अजय के घर जाना है. औफिस के सभी लोग जा रहे हैं.

प्रिया और राकेश अजय के घर पहुंचे. घर में कुहराम मचा हुआ था. अभी उम्र ही क्या थी अजय की, अभी 42 साल का ही तो था. ऐसे माहौल में प्रिया का मन अंदर घुसते हुए घबरा रहा था. अंदर घुसते ही सब से पहले ऋचा पर उस की नजर पड़ी. ऋचा का रंग बिलकुल सफेद पड़ा हुआ था. जो ऋचा 4 महीने पहले उसे नवयुवती लग रही थी, आज वही मानो बुढ़ापे के मध्यम दौर में पहुंच गई हो. जिस तरह ऋचा रो रही थी, प्रिया का मन और आंखें दोनों भीग गए. वह ऋचा को संभालने उस के करीब पहुंच गई.

बाहर अजय की अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही थीं. राकेश भी बाहर औफिस के लोगों के साथ खड़ा था. सभी अजय की जिंदादिली और हिम्मत की तारीफ कर रहे थे.

राकेश के पास ही डा. प्रकाश खड़े थे. डा. प्रकाश राकेश के बौस के खास मित्र थे. औफिस की पार्टीज में अकसर उन से मिलना हो जाया करता था. डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘अजय जितना हिम्मत वाला था, उस से भी बढ़ कर उस की पत्नी ऋचा है.’’

राकेश ने जब यह बात सुनी तो उस के मन में उत्सुकता जाग गई. उस ने डा. प्रकाश से मानो आंखों से ही पूछ लिया कि आप क्या कह रहे हैं.

‘‘अजय का पूरा इलाज मेरी देखरेख में ही हुआ है,’’ डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘राकेश, अजय की रिपोर्ट्स के मुताबिक उस के पास मुश्किल से एक से डेढ़ महीने का समय था. यह ऋचा ही थी जिस ने उसे 4 महीने जिंदा रखा.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘जब इन लोगों को कैंसर की बीमारी का पता चला तो ऋचा डिप्रैशन में चली गई थी. अजय अपनी बीमारी से ज्यादा ऋचा को देख कर दुखी रहने लगा था. अजय की चिंता देख कर मैं ने पूछा तब उस ने सारी बात मुझे बताई. उस दिन अजय और मेरे बीच बहुत बातें हुईं. मैं ने उसे ऋचा से बात करने को कहा.

‘‘अगली बार जब वे दोनों मुझ से मिलने आए तो हालात बेहतर थे. तब ऋचा ने मुझे बताया कि उस के पति उसे मरते दम तक खूबसूरत रूप में ही देखना चाहते हैं. उस ने कहा था, ‘अजय चाहते हैं कि मैं हर वह काम करूं जो उन के ठीक रहने पर करती आई हूं. उन के साथ नौर्मल बातें करूं. हंसीमजाक, छेड़ना सब करूं. बस, उन की बीमारी का जिक्र न करूं. इन थोड़े बचे दिनों में वे एक पूरी जिंदगी जीना चाहते हैं मेरे साथ.

‘‘अजय ने मुझ से कहा, ‘तुम्हें दुखी देख कर मैं पहले ही मर जाऊंगा. मुझे मरने से पहले जीना है.’ मैं ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन की बात मान ली. डाक्टर साहब, अब अजय काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं.’ उस दिन यह कहतेकहते ऋचा की आंखों में आंसू आ गए थे, मगर पी लिए उस ने अपने आंसू भी अजय की खातिर.

‘‘ऋचा बहुत हिम्मती है. आज देखो, दिल पर से पत्थर हटा तो कैसा सैलाब उमड़ आया है उस की आंखों में.’’

डा. प्रकाश की बातें सुन कर राकेश का मन ग्लानि से भर गया. जिस ऋचा के लिए उस ने और प्रिया ने मन में गलत धारणा पाल ली थी, आज उसी ऋचा के लिए उस के मन में बहुत आदरभाव उमड़ आया था.

राकेश को काफी शर्म भी महसूस हुई यह सोच कर कि कैसे हम लोग बिना विचार किए एक कोने में खड़े हो कर किसी के बारे में अच्छीबुरी राय बना लेते हैं. कभी दूसरे कोने में जा कर देखने या विचारने की कोशिश ही नहीं करते.

अजनबी : कौन था दरवाजे के बाहर

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा.

‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा.

‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्डिंग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है?

‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा.

इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया.

नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी.

‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’

शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’

शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी.

आंटी ने बताया कि उन की बिल्ड़िंग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से   पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

खाली जगह : सड़क पर नारियल पानी बेचने का संघर्ष

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खामोश जिद: क्या पूरी हो पाई रुकमा की जिद

‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

चैक ले कर रुकमा आंसू पोंछते हुए स्टेज से नीचे आ गई. पतले काले सफेद बौर्डर वाली साड़ी, माथे पर न बिंदी और काले उलझे बालों के बीच न सुहाग की वह लाल रेखा. पर बिना इन सब के भी उस का चेहरा पहले से ज्यादा दमक रहा था. थी तो वह शहीद की बेवा. आज उस के शहीद पति के लिए सेना द्वारा सम्मान समारोह रखा गया था. समारोह के बाद बुझे कदमों से वह स्टेशन की तरफ चल दी.

ट्रेन आने में अभी 7-8 घंटे बाकी थे. सोचा कि चलो चाय पी लेते हैं. नजरें दौड़ा कर देखा कि थोड़ी दूर पर रेलवे की कैंटीन है. सोचा, वहीं पर चलते हैं दाम भी औसत होंगे.

रुकमा पास खड़े अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, चलो कुछ खा लेते हैं. अभी तो ट्रेन आने में बहुत देर है.’’

बापबेटी अपना पुराना सा फटा बैग समेट कर चल दिए.

चाय पीतेपीते पापा बोले, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि वे बात करेंगे या ऐसे ही बोल रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे.’’

‘‘पता नहीं पापा, कुछ भी कह पाना मुश्किल है.’’

‘‘रुकमा, तुम आराम करो. मैं जरा ट्रेन का पता लगा कर आता हूं,’’ कहते हुए पापा बाहर चले गए.

रुकमा ने अपने पैरों को समेट कर ऊपर सीट पर रख लिया और बैग की टेक लगा कर लेट गई और धीरे से सौरभ का फोटो निकाल कर देखने लगी.

देखतेदेखते रुकमा भीगी पलकों के रास्ते अपनी यादों के आंगन में उतरती चली गई. कितनी खुश थी वह जब पापा उस का रिश्ता ले कर सौरभ के घर गए थे. पूरे रीतिरिवाज से उस की शादी भी हुई थी. मां ने अपनी बेटी को सदा सुहागन बने रहने के लिए कोई भी रिवाज नहीं छोड़ा था. यहां तक कि गांव के पास वाले मन्नत पेड़ पर जा कर पूर्णमासी के दिन दीया भी जलाया था. शादी भी धूमधाम से हुई थी.

सौरभ को पा कर रुकमा धन्य हो गई थी. सजीला, बांका, जवान, सांवला रंग, लंबा गठा शरीर, चौड़ा सीना, जो देखे उसे ही भा जाए. रुकमा भी कम सुंदर न थी. हां, मगर लंबाई उतनी न थी.

सौरभ हर समय उसे उस की लंबाई को ले कर छेड़ता था. जब सारा परिवार एकसाथ बैठा हो तो तब जरूर ‘जिस की बीवी छोटी उस का भी बड़ा नाम है…’ गाना गा कर उसे छेड़ता था. वह मन ही मन खीजती रहती थी, मगर ज्यादा देर नाराज न हो पाती थी क्योंकि सौरभ झट से उसे मना लेना जानता था.

पर यह सुख कुछ ही समय रह पाया. उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया था और सौरभ की सारी छुट्टियां कैंसिल हो गई थीं. उसे वापस जाना पड़ा था.

उस रात रुकमा कितना रोई थी. सुबह तक आंसू नहीं थमे थे, सौरभ उस को समझाता रहा था. उस की सुंदर आंखें सूज कर लाल हो गई थीं. सौरभ के जाने में अभी 2 दिन बाकी थे.

सौरभ कहता था, ‘ऐसे रोती रहोगी तो मैं कैसे जाऊंगा.’

घर में सभी लोग कहते हैं कि ये 2 दिन तुम दोनों खुश रहो, घूमोफिरो, पर जैसे ही कोई जाने की बात करता तो अगले ही पल रुकमा की आंखों से आंसू लुढ़कने लगते.

सौरभ उसे छेड़ता, ‘यार, तुम्हारी आंखों में नल लगा है क्या, जो हमेशा टपटप गिरता रहता है.’

सौरभ की इस बचकानी हरकत से रुकमा के चेहरे पर कुछ देर के लिए हंसी आ जाती, मगर अगले ही पल फिर चेहरे पर उदासी छा जाती.

जिस दिन सौरभ को जाना था, उस रात रुकमा सौरभ के सीने पर सिर रख कर रोती ही रही और अब तो सौरभ भी अपने आंसू न रोक पाया. आखिर सिपाही के अंदर से बेइंतिहा प्यार करने वाला पति जाग ही गया जो अपनी नईनवेली दुलहन के आगोश में से निकलना नहीं चाहता था, पर छुट्टी की मजबूरी थी, वापस तो जाना ही था.

‘‘रुकमा, उठ…’’ पापा ने हिलाते हुए रुकमा को जगाया और कहा, ‘‘ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 2 पर आ रही है.’’

पापा की आवाज से रुकमा अपनी यादों से बाहर आ गई. आंखों को हाथों से मलते हुए वह उठ खड़ी हुई, जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

‘‘क्या बात है बेटी… तुम फिर से…’’

‘‘नहीं पापा… ऐसा कुछ भी नहीं…’’

थोड़ी देर में ट्रेन आ गई और रुकमा ट्रेन में बैठते ही फिर यादों में खो गई. कैसे भूल सकती है वह दिन, जब सौरभ को खुशखबरी देने को बेकरार थी लेकिन सौरभ से बात ही न हो पाई. शायद लाइन और किस्मत दोनों ही खराब थीं और तभी कुछ दिन में ही खबर आ गई कि सौरभ सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए हैं. उस वक्त रुकमा ड्राइंगरूम में बैठी थी, तभी सौरभ के दोस्त उस का सामान ले कर आए थे.

आंखों और दिल ने विश्वास ही नहीं किया. रुकमा को लगा, वह भी आ रहा होगा. हमेशा की तरह मजाक कर रहा होगा. होश में ही नहीं थी. मगर होश तो तब आया जब ससुर ने पापा से कहा था, ‘रुकमा को अपने साथ वापस ले जाएं. मेरा बेटा ही चला गया तो इसे रख कर क्या करेंगे.’

उस ने अपने सासससुर को समझाया था कि वह सौरभ के बच्चे की मां बनने वाली है लेकिन उन्होंने तो उसे शाप समझ कर घर से निकाल दिया.

तभी सिर के ऊपर रखा बैग रुकमा के सिर से टकराया और वह चीख पड़ी. बाहर झांक कर देखा कि कोई स्टेशन आने वाला है. कुछ ही देर में वह झांसी पहुंच गए.

घर पहुंचते ही मां बोलीं, ‘‘बड़ी मुश्किल से यह सोया है. कुछ देर इसे गोद में ले कर बैठ जा.’’

रुकमा कुछ ही महीने पहले पैदा हुए अपने बेटे को गोद में ले कर प्यार करने लगी.

मां ने पूछा, ‘‘वहां सौरभ के घर वाले भी आए थे क्या?’’

‘‘नहीं मां,’’ रुकमा बोली.

शाम को खाने में साथ बैठते हुए पापा ने रुकमा से पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है? तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

रुकमा ने लंबी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां पापा, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. मेरे बेटे ने अपने फौजी पिता को नहीं देखा, इसलिए मैं फौज में ही जाऊंगी.’’

रुकमा के मातापिता हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे. बेटे को मां के पास छोड़ कर रुकमा दिल्ली में एमबीए करने आ गई और नौकरी भी करने लगी.

रुकमा को यह भी चिंता थी कि कार्तिक बड़ा हो रहा था. उसे भी स्कूल में दाखिला दिलाना होगा.

रुकमा यह सब सोच ही रही थी कि मां की अचानक हुई मौत से वह फिर बिखर गई और अब तो कार्तिक की भी उस के सिर पर जिम्मेदारी आ गई. उसे अब नौकरी पर जाना मुश्किल हो गया.

बेटा अभी बहुत छोटा था और घर पर अकेले नहीं रह सकता था. पापा भी अभी रिटायर नहीं हुए थे.

जब कोई रास्ता नजर नहीं आया, तभी सहारा बन कर आए गुप्ता अंकल यानी उस के साथ में काम कर रही दोस्त अर्चना के पिताजी.

अर्चना ने कहा, ‘‘रुकमा, आज मेरे भतीजे का बर्थडे है. तू कार्तिक को ले कर जरूर आना, कोई बहाना नहीं चलेगा और तू भी थोड़ा अच्छा महसूस करेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ रुकमा ने हंस कर हां कर दी और औफिस से बाहर आ गई.

घर आ कर कार्तिक से कहा, ‘‘आज मेरा बाबू घूमने चलेगा. वहां पर तेरे बहुत सारे फ्रैंड्स मिलेंगे.’’

‘‘हां मम्मी…’’ कार्तिक खुशी से मां के गले लग गया.

मां बेटे खूब तैयार हो कर पार्टी में पहुंचे. पार्टी क्या थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादी हो. शहर की सारी नामीगिरामी हस्तियां मौजूद थीं. तभी किसी ने पीछे से पुकारा. रुकमा ने पीछे पलट कर देखा कि उस के औफिस का सारा स्टाफ मौजूद था.

केक वगैरह काटने के बाद अर्चना ने उसे अपने पिताजी से मिलवाया. वे बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारे बारे में सुन कर बड़ा दुख हुआ कि आज भी ऐसी सोच वाले लोग हैं. बेटी, जो सज्जन सामने आ रहे हैं, वे उसी रैजीमैंट में पोस्टेड हैं जिस में तुम्हारे पति थे. मुझे अर्चना ने सबकुछ बताया था.

‘‘कर्नल साहब, ये रुकमा हैं. फौज में जाना चाहती हैं. अगर आप की मदद मिल जाती तो अच्छा होता,’’ और फिर उन्होंने रुकमा के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया.

‘‘बेटी, तुम मुझे 1-2 दिन में फोन कर लेना. मुझ से जो बन पड़ेगा, मैं जरूर मदद करूंगा.’’

कर्नल के सहयोग से रुकमा देहरादून जा कर एसएसबी की कोचिंग लेने लगी और वहीं आर्मी स्कूल में पार्टटाइम बच्चों को पढ़ाने भी लगी. बेटे कार्तिक का दाखिला भी एक अच्छे स्कूल में करा दिया.

मगर मंजिल आसान न थी. हर रोज सुबह 4 बजे उठ कर फौज जैसी फिटनैस लाने के लिए दौड़ने जाती, फिर 20 किलोमीटर स्कूटी से बेटे को स्कूल छोड़ती और लाती, फिर शाम को वह फिजिकल ट्रेनिंग लेने जाती, लौट कर बच्चे का होमवर्क और घर का पूरा काम करती.

रोज की तरह रुकमा एक दिन जब बच्चे को सुलाने जा ही रही थी तभी पापा का फोन आया और फिर से वही राग ले कर बैठ गए, ‘रुकमा, मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम क्यों इतना सब बेकार में कर रही हो. दीपक का फिर फोन आया था. वह तुम्हें और तुम्हारे बेटे को खूब खुश रखेगा. मेरी बात मान जा बेटी, तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है, मेरा क्या भरोसा. मैं भी तेरी मां की तरह कब चला जाऊं, तो तेरा क्या होगा.’

‘‘पापा, मैं अपने बेटे कार्तिक और सौरभ की यादों के साथ बहुत खुश हूं. मैं किसी और को प्यार कर ही न पाऊंगी, यह उस रिश्तों के साथ उस से बेईमानी होगी. मैं सौरभ की जगह किसी और को नहीं दे सकती.

‘‘मुझे सौरभ से बेइंतिहा मुहब्बत करने के लिए सौरभ की जरूरत नहीं है, उस की यादें ही मेरी मुहब्बत को पूरी कर देंगी. मैं जज्बात में उबलती हुई नसीहतों की दलीलें नहीं सुनना चाहती.’’

पापा ने कहा, ‘क्या कोई इस तरह जाने के बाद पागलों सी मुहब्बत करता है.’

‘‘सौरभ मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ है. एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि वह रिश्तों की तरह 2 लोगों में बंटता नहीं है. उस में फिर मेरा हक होता है,’’ यह कहते हुए रुकमा ने फोन काट दिया, फिर प्यार से सो रहे पास लेटे बेटे कार्तिक का सिर सहलाने लगी.

तभी रुकमा ने फौज में भरती का इश्तिहार अखबार में पढ़ा. रुकमा और भी खुश हो गई कि एक सीट शहीद की विधवाओं के लिए आरक्षित है. अब उसे सौरभ के अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आने लगे.

इन सब मुश्किल तैयारियों के बाद फौज का इम्तिहान देने का समय आ गया. मेहनत रंग लाई. लिखित इम्तिहान के बाद उस ने एसएसबी के भी सभी राउंड पास कर लिए. लेकिन यहां तक पहुंचने के बाद एक नई परेशानी खड़ी हो गई, वहां पर एक और शहीद की पत्नी थी पूजा और उस ने भी सारे टैस्ट पास कर लिए थे और सीट एक थी.

आखिरी फैसले के लिए सिलैक्शन अफसर ने अगले दिन की तारीख दे दी और कहा कि पास होने वाले को इत्तिला दे दी जाएगी.

उदास मन से रुकमा वापस आ गई, लेकिन इतने पर भी वह टूटी नहीं. उसे अपने ऊपर विश्वास था. उस का दुख बांटने अर्चना आ जाती थी और दिलासा भी देती थी. तय तारीख भी निकल चुकी थी.

रुकमा को यकीन हो गया कि उस का सिलैक्शन नहीं हुआ इसलिए फिर उस ने उसी दिनचर्या से एक नई जंग लड़नी शुरू कर दी.

तभी एक दिन औफिस से लौट कर उसे सिलैक्शन अफसर की चिट्ठी मिली जिस में उसे हैड औफिस बुलाया गया था. सिलैक्शन का कोई जिक्र न होने के चलते रुकमा उदास मन से बुलाए गए दिन पर हैड औफिस पहुंच गई. वहां जा कर देखा कि साहब के सामने पूजा भी बैठी थी.

साहब ने दोनों को बुला कर पूछा कि तुम दोनों की काबिलीयत और जज्बे को देखते हुए हम ने रक्षा मंत्रालय से 2 वेकैंसी की मांग की थी. रक्षा मंत्रालय ने एक की जगह 2 वेकैंसी कर दी हैं और तुम दोनों ही सिलैक्ट हो गई हो. बाहर औफिस से अपना सिलैक्शन लैटर ले लो.

रुकमा यह सुनते ही शून्य सी हो गई. सौरभ को याद कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. लैटर ले कर उस ने सब से पहले अर्चना को फोन कर शुक्रिया अदा किया.

पापा उस समय देहरादून में बेटे कार्तिक के पास थे. घर पहुंच कर रुकमा पापा से लिपट गई और खुशखबरी दी.

पापा बोले, ‘‘तू बचपन से ही जिद्दी थी, पर आज तू ने अपने प्यार को ही जिद में तबदील कर दिया. और अपने बेटे को उस के फौजी पिता कैसे थे, यह बताने के लिए तू खुद फौजी बन गई. हम सभी तेरे जज्बे को सलाम करते हैं.’’

रुकमा ने देखा कि अर्चना और उस के स्टाफ के लोग बाहर दरवाजे पर खड़े थे. रुकमा इस खुशी का इजहार करने के लिए अर्चना से लिपट गई.

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