आशा, आयशा शकील, आयशा मैसी : 3 किरदारों वाली एक औरत

उस का नाम कई बार बदला गया. उस ने जिंदगी के कई बडे़ उतारचढ़ाव देखे. झुग्गीझोंपड़ी की जिंदगी वही जान सकता है, जिस ने वहां जिंदगी बिताई हो. तंग गलियां, बारिश में टपकती छत. बाप मजदूरी करता, मां का साया था नहीं, मगर लगन थी पढ़ने की. सो, वह पास के ही एक स्कूल से मिडिल पास कर गई.

मिसेज क्लैरा से बातचीत कर के उस की अंगरेजी भी ठीक हो चली थी. पासपड़ोस के आवारा, निठल्ले लड़के जब फिकरे कसते, तो दिल करता कि वह यहां से निकल भागे. मगर वह जाती कहां? बाप ही तो एकमात्र सहारा था उस का. आम लड़कियों की तरह उस के भी सपने थे. अच्छा सा घर, पढ़ालिखा, अच्छे से कमाता पति. मगर सपने कब पूरे होते हैं?

उस का नाम आशा था. उस के लिए मिसेज क्लैरा ही सबकुछ थीं. वही उसे पढ़ालिखा भी रही थीं. वे कहतीं कि आगे पढ़ाई कर. नर्सिंग की ट्रेनिंग कराने का जिम्मा भी उन्हीं के सिर जाता है. उसे अच्छे से अस्पताल में नौकरी दिलाने में मिसेज क्लैरा का ही योगदान था. वह फूली नहीं समाती थी.

सफेद यूनिफौर्म में वह घर से जब निकली, तो वही आवारा लड़के आंखें फाड़ कर कहते, ‘‘मेम साहब, हम भी तो बीमार हैं. एक नजर इधर भी,’’ पर वह अनसुना कर के आगे बढ़ जाती.

पड़ोस का कलुआ भी उम्मीदवारों की लिस्ट में था. अस्पताल में शकील भी था. वह वहां फार्मासिस्ट था. वह था बेहद गोराचिट्टा और उस की बातों से फूल झड़ते थे.

लोगों ने महसूस किया कि फुरसत में वे दोनों गपें हांकते थे. आशा की हंसी को लोग शक की नजरों से देखने लगे थे. सोचते कि कुछ तो खिचड़ी पक रही है.

इस बात से मिसेज क्लैरा दुखी थीं. वे तो अपने भाई के साथ आशा को ब्याहना चाहती थीं. इश्क और मुश्क की गंध छिपती नहीं है. आखिरकार आशा से वह आयशा शकील बन गई. उन दोनों ने शानदार पार्टी दी थी.

यह देख मिसेज क्लैरा दिमागी आघात का शिकार हो गई थीं. वे कई दिन छुट्टी पर रहीं… आशा यानी आयशा उन से नजरें मिलाने से कतरा रही थी.

मिसेज क्लैरा का गुस्सा वाजिब था. वे तो अपने निखट्टू भाई के लिए एक कमाऊ पत्नी चाहती थीं. मगर अब क्या हो सकता था, तीर कमान से निकल चुका था.

आयशा वैसे तो हंसबोल रही थी, मगर उस के दिल पर एक बोझ था.

शकील ने भांपते हुए कहा, ‘‘क्या बात है? क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं. बस, थकान है,’’ कह कर उस ने बात टाल दी.

मिसेज क्लैरा सबकुछ भुला कर अपने काम में बिजी हो गईं. आयशा ने उन की नजरों से बचने के लिए दूसरे अस्पताल में नौकरी तलाश ली थी.

आयशा की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया था. उस का स्वभाव अब भी वैसा ही था. मरीजों को दवा देना, उन का हालचाल पूछना.

उस का बचपन का देखा सपना पूरा हो चला था. वह कच्चे मकान और बदबूदार गलियों से निकल कर स्टाफ क्वार्टर में रहने को आ गई थी. धीरेधीरे कुशल घरेलू औरत की तरह उस ने सारे सुख के साधन जुटा लिए थे. 3 साल में वह दोनों 2 से 4 बन चुके थे. एक बेटा और एक बेटी.

कल्पनाओं की उड़ान इनसान को कहां से कहां ले जाती है. इच्छाएं दिनोंदिन बढ़ती चली जाती हैं. बच्चों की देखभाल की चिंता किए बिना ही शकील परदेश चला गया… आयशा ने लाख मना किया, मगर वह नहीं माना.

आयशा रोज परदेश में शकील से बातें करती व बच्चों का और अपने प्यार का वास्ता देती. बस, उस के सपने 4 साल ही चल सके. मिडिल ईस्ट में शायद शकील ने अलग घर बसा लिया था. आयशा के सपने बिखर गए.

शुरूशुरू में तो शकील के फोन भी आ जाते थे कि अपना और बच्चों का ध्यान रखना. कभीकभार वैसे भी आते रहे. दिनों के साथ प्यार पर नफरत की छाया पड़ने लगी.

‘‘बुजदिल… बच्चों पर ऐसा ही प्यार उमड़ रहा था, तो देश छोड़ कर गया ही क्यों?’’

आयशा समझ गई थी कि शकील अब लौट कर नहीं आएगा… वह नफरत से कहती, ‘‘सभी मर्द होते ही बेवफा हैं.’’

आयशा अब पछता रही थी. उसे अपने सपने पूरे करने के बजाय मिसेज क्लैरा के सपने पूरे करने चाहिए थे. ‘पलभर की भूल, जीवन का रोग’ सच साबित हो गया.

शकील भी शायद आयशा से छुटकारा पाना चाहता था और वह भी… आसानी से तलाक भी हो गया. उस दिन वह फूटफूट कर रोई थी.

बच्चों ने पूछा, ‘मम्मी, क्या पापा अब नहीं आएंगे?’

‘‘नहीं…’’ आयशा रोते हुए बोली थी.

‘क्यों नहीं?’ बच्चों ने पूछा था.

‘‘क्योंकि, तुम्हारे पापा ने नई मम्मी ढूंढ़ ली है.’’

आशा ने मिसेज क्लैरा के भाई से शादी कर ली… उन्हें शांति मिल गई थी. पर वे खुद कैंसर से पीडि़त थीं. अब वह आशा ग्रेस मैसी बन चुकी थी. मिसेज क्लैरा की जिंदगी ने आखिरी पड़ाव ले लिया था. वे भी दुनिया सिधार चुकी थीं. अब वह और ग्रेस मैस्सी… यही जीवन चक्र रह गया था. मगर उस का बेटा शारिक ग्रेस को स्वीकार न कर सका.

शारिक अकसर घर से बाहर रहने लगा. वह समझदार हो चला था. वह लाख मनाती कि अब तुम्हारे पापा यही हैं.

‘‘नहीं… मेरे पापा तो विदेश में हैं. मैं अभी तुम्हारी शिकायत पापा से करूंगा. मुझे पापा का फोन नंबर दो.’’

यह सुन कर आशा हैरान रह जाती. आशा की बेटी समीरा गुमसुम सी रहने लगी थी. ग्रेस भी आशा के पैसों पर ऐश कर रहा था. आज मिसेज क्लैरा न थीं, जो हालात संभाल लेतीं.

आशा आज कितनी अकेली पड़ गई थी. अस्पताल और घर के अलावा उस ने कहीं आनाजाना छोड़ दिया था. हंसी उस से कोसों दूर हो चली थी, मगर जिम्मेदारियों से वह खुद को अलग नहीं कर सकी थी.

शारिक को आशा ने अच्छी तालीम दिलाई. वह घर छोड़ कर जाना चाहता था. सो, वह भी चला गया. शराब ने ग्रेस को खोखला कर दिया था. वह दमे का मरीज बन चुका था.

शारिक 2-4 दिन को घर आता, तो नाराज हो जाता. वह कहता, ‘‘मम्मी, कहे देता हूं कि इसे घर से निकालो. यह हरदम खांसता रहता है. सारा पैसा इस की दवाओं पर खर्च हो जाता है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटा.’’

‘‘मम्मी, आप ने दूसरी शादी क्यों की?’’

और यह सुन कर आशा चुप्पी लगा जाती. वह तो खुद को ही गुनाहगार मानती थी, मगर वह जानती थी कि उस ने मिसेज क्लैरा के चलते ऐसा किया. वह उस की गौडमदर थीं न?

आशा अब खुद ईसाई थी, मगर उस ने अपने बच्चों को वही धर्म दिया, जिस का अनुयायी उन का बाप था.

समीरा की शादी भी उस ने उसी धर्म में की, जिस का अनुयायी उस का बाप था.

आशा का घर दीमक का शिकार हो चला था. वह फिर से झुगनी बस्ती में रहने को पहुंच गई थी.

ग्रेस ने उसी झुगनी बस्ती में दम तोड़ा. बेटे शारिक को उस ने ग्रेस के मरने की सूचना दी, मगर वह नहीं आया.

आशा अब तनहा जिंदगी गुजार रही थी. उस की ढलती उम्र ने उसे भी जर्जर कर दिया था. रात में न जाने कितनी यादें, न जाने कितने आघात उसे घेर लेते. वह खुद से ही पूछती, ‘‘मां बनना क्या जुर्म है? क्या वही जिंदगी का बोझ ढोने को पैदा होती है?’’

उसे फिल्म ‘काजल’ का वह डायलौग याद आ रहा था, जिस में मां अपने बेटे का इंतजार करती है. धूपबत्ती जल रही है. गंगाजल मुंह में टपकाया जा रहा है. डूबती सांसों से कहती है, ‘स्त्री और पृथ्वी का जन्म तो बोझ उठाने के लिए ही हुआ है.’

आशा के सीने पर लगी चोट अब धीरेधीरे नासूर बन कर रिस रही थी. बेटा शारिक आखिरी समय में आया और बेटी समीरा भी आई. मां को देख बेटा भावविभोर था, ‘‘मम्मी, आखिरी समय है आप का. अब भी लौट आओ.

‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा. मरने के बाद इस शरीर को चाहे आग में जला देना, चाहे मिट्टी के हवाले करना…’’ और वह दुनिया से चली गई.

किसी की आंख से एक आंसू भी नहीं टपका. अंतिम यात्रा में कुछ लोग ही शामिल थे.

‘‘क्या यह वही नर्स थी. क्या नाम था… मैसी?’’

‘‘तो क्या हुआ अंतिम समय में तो वह कलमा गो यानी मुसलिम थी. कहां ले जाएं इसे. यहीं पास में एक कब्रिस्तान है. वहीं ले चलें. और आशा मिट्टी में समा गई.’’

मैं अकसर उधर से गुजर रहा होता. आवारा लड़के क्रिकेट खेलते नजर आते. वहां कुछ ही कब्रें रही होंगी. शायद लावारिस लोगों की होंगी. लेकिन आशा के वारिस भी थे. एक बेटा और एक बेटी.

इस नाम के कब्रिस्तान में कोई दीया जलाने वाला न था. अब चारों तरफ ऊंचीऊंची इमारतें बन गई थीं. लोगों ने अपनी नालियों के पाइप इस कब्रिस्तान में डाल दिए थे.

3 महीने बाद आशा की बेटी समीरा बैंक की पासबुक लिए मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मी के 50 हजार रुपए बैंक में जमा हैं. जरा चल कर आप सत्यापन कर दें. हम वारिस हैं न?’’

और मैं सोच रहा था कि आशा न जाने कितनी उम्मीदें लिए दुनिया से चली गई. वह जिस गंदी बस्ती में पलीबढ़ी, वहीं उस ने दम तोड़ा.

मेरे दिमाग में कई सवाल उभरे, ‘क्या फर्क पड़ता है, अगर आशा किसी ईसाई कब्रिस्तान में दफनाई जाती? क्या फर्क पड़ता है, अगर वह ताबूत में सोई होती? शायद, उस के नाम का एक पत्थर तो लगा होगा.’

‘‘हाय आशा…’’ मेरे मुंह से निकला और मेरी पलकें भीग गईं.

एक प्रश्न लगातार: भाग 2

‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’

‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’

‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’

‘सच कह रहे हो?’

‘क्यों नहीं कहूंगा?’

‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’

‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’

परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.

‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’

‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’

‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’

कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.

निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.

अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.

कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.

‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.

ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.

‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’

‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’

‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’

‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’

‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’

‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’

‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’

वातावरण हलका हो गया था.

जवाब : अनसुलझे सवालों के घेरे में माधुरी

Story in Hindi

बैग पर लटका राजू : लौकडाउन ने जड़े पैरों में ताले

Story in Hindi

तितली: मांबाप के झगड़े में पिसती सियाली

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मीपापा के  झगड़े की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी कि चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर तक ओढ़ ली, इस से आवाज पहले से कम तो हुई, पर अब भी उस के कानों से टकरा रही थी.

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईयरफोन लगा कर उन्हें कानों में कस कर ठूंस लिया और आवाज को बहुत तेज कर दिया.

18 साल की सियाली के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. उस के मांबाप आएदिन ही झगड़ते रहते थे, जिस की सीधी वजह थी उन दोनों के संबंधों में खटास का होना… ऐसी खटास, जो एक बार जिंदगी में आ जाए, तो आपसी रिश्तों का खात्मा ही कर देती है.

सियाली के मांबाप प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास कोई एक दिन में नहीं आई, बल्कि यह तो  एक मिडिल क्लास परिवार के कामकाजी जोड़े के आपसी तालमेल बिगड़ने के चलते धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी.

सियाली के पिता प्रकाश अपनी पत्नी निहारिका पर शक करते थे. उन का शक करना भी एकदम जायज था, क्योंकि निहारिका का अपने औफिस के एक साथी के साथ संबंध चल रहा था. जितना शक गहरा हुआ, उतना ही प्रकाश की नाराजगी बढ़ती गई और निहारिका का नाजायज रिश्ता भी उसी हिसाब से  बढ़ता गया.

‘‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते, तो तलाक क्यों नहीं दे देते… एकदूसरे को,’’ सियाली बिस्तर से उठते हुए  झुं झलाते  हुए बोली.

सियाली जब तक अपने कमरे से बाहर आई, तब तक वे दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद वे किसी फैसले तक पहुंच गए थे.

‘‘तो ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए पूछा.

‘‘मैं समझती हूं… सियाली को तुम मुझ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा, तो उस की इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो, ताकि तुम अपने उस औफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारों तरफ एक गार्ड बन कर घूमता रहूं.’’

प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है…  1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे भी एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था.

सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी, तो कभी पिता की तरफ, उस से कुछ कहते न बना, पर वह इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का वजूद एक पैंडुलम से ज्यादा नहीं है जो उन दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है.

शाम को जब सियाली कालेज से लौटी, तो घर में एक अलग सी शांति थी. पापा सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की शिकन गायब थी.

सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश की और बोले, ‘‘देख ले… तेरे लिए चाय बची होगी… लेले और मेरे पास बैठ कर पी.’’

सियाली पापा के पास आ कर बैठी, तो पापा ने अपनी सफाई में काफीकुछ कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था. उस के काम ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’

पापा की बातें सुन कर सियाली से भी नहीं रहा गया और वह बोली, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत है, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए, तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है.’’

बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और गुस्सा ही छलक रहा था, जिसे सियाली चुपचाप सुनती रही थी.

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को भी कोई एतराज नहीं हुआ.

शाम को सियाली मां के दिए पते पर पहुंच गई. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था और वह फ्लैट नंबर 111 में पहुंच गई.

सियाली ने डोरबैल बजाई. दरवाजा मां ने ही खोला था. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थीं. उन की मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर बिंदी… सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से सिंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादा वेश में ही रहती थीं मां और टोकने पर दलील देती थीं, ‘अरे, हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो हैं नहीं, जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें… हम पिछड़ी जाति वालों के लिए साधारण रहना ही अच्छा है.’

तो फिर आज मां को ये क्या हो गया? बहरहाल, सियाली ने मां को बुके दे दिया. मां ने बड़े प्यार से कोने में रखी एक मेज पर उसे सजा दिया.

‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से,’’ मां के पीछे से आवाज आई.

सियाली ने आवाज की दिशा में नजर उठाई, तो देखा कि सफेद कुरतापाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था.

सियाली उसे पहचान गई. वह मां का औफिस का साथी देशवीर था. मां उसे पहले भी घर ला चुकी थीं.

मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस  पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां… पहले भी आप इन से मुझ को मिलवा चुकी हो.’’

‘‘पर, पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे, लेकिन आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे.’’

सियाली मुसकरा कर रह गई थी. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था. मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

सियाली रात को मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख ले, घर जा कर पिज्जा और्डर कर देना.’’

कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण पेश किए थे, पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से वह उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई.

‘‘सियाली, आज तू यह किस खुशी में पार्टी दे रही है?’’ महक ने पूछा.

‘‘बस यों समझो कि आजादी की पार्टी है,’’ कह कर सियाली मुसकरा दी थी.

सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे छुटकारा मिल चुका था और वह अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी, इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ग्रुप जौइन करना चाहती हूं, ताकि मैं अपने

जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’

इस पर उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए, जिन से वह अपनेआप को दुनिया के सामने पेश कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना, पर सियाली तो मौजमस्ती के लिए डांस ग्रुप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे बाकी के औप्शन अच्छे  नहीं लगे.

सियाली ने अपने शहर के डांस ग्रुप इंटरनैट पर खंगाले, तो ‘डिवाइन डांसर’ नामक एक डांस ग्रुप ठीक लगा, जिस में 4 मैंबर लड़के थे और एक लड़की थी.

सियाली ने तुरंत ही वह ग्रुप जौइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह तानाशाह हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकने वाला. वह जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक ऐसी चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी.

एक दिन सियाली का फोन बज उठा. यह पापा का फोन था, ‘सियाली, तुम कई दिन से घर नहीं आई, क्या बात है? कहां हो तुम?’

‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’

‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो…’

‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं… आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही  जिऊंगी,’’ इतना कह कर सियाली ने फोन काट दिया था, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था.

डांस ग्रुप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी, पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी थी.

पराग स्मार्ट था और पैसे वाला भी. वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को भी सिक्योरिटी का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रैस्टोरैंट में गए. पराग ने अपने लिए एक बीयर मंगवाई और सियाली से पूछा, ‘‘तुम तो कोल्ड ड्रिंक लोगी न सियाली?’’

‘‘खुद तो बीयर पीओगे और मु झे बच्चों वाली ड्रिंक… मैं भी बीयर पीऊंगी,’’ कहते हुए सियाली के चेहरे पर  एक अजीब सी शोखी उतर आई थी.

सियाली की इस अदा पर पराग भी मुसकराए बिना न रह सका और उस ने एक और बीयर और्डर कर दी.

सियाली ने बीयर से शुरुआत जरूर की थी, पर उस का यह शौक धीरेधीरे ह्विस्की तक पहुंच गया था.

अगले दिन डांस क्लास में जब वे दोनों मिले, तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर ग्रुप के सभी लड़केलड़कियां तालियां बजाने लगे.

सियाली ने भी मुसकरा कर पराग के हाथ से गुलाब ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जिंदगी बिताने का, पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ग्रुप के लड़केलड़कियां शांत से हो गए थे.

सियाली ने थोड़ा रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को उन की शादीशुदा जिंदगी में हमेशा लड़ते ही देखा है, जिस का खात्मा तलाक के रूप में हुआ और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं.’’

पराग यह बात सुन कर तपाक से बोला, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ लिवइन में रहने को तैयार हूं,’’ तो सियाली ने इसे झट से स्वीकार कर लिया.

कुछ दिन बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे, जहां वे जी भर कर जिंदगी का मजा ले रहे थे. पराग के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी.

कुछ दिनों के बाद उन के डांस ग्रुप की गायत्री नाम की एक लड़की ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है… और इतनी जल्दी किसी के साथ लिवइन में रहना… कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें…’’

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर उस ने अपनेआप को संभालते हुए कहा, ‘‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं की, तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं… और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है, इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की…

‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं, और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ, उम्र का तो सोचो ही मत… बस मस्ती करो.’’

सियाली यह कहते हुए वहां से चली गई, जबकि गायत्री अवाक सी खड़ी रह गई.

तितली कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठती… वह कभी एक फूल पर, तो कभी दूसरे फूल पर, और तभी तो  इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है… रंगबिरंगी तितली, जिंदगी से भरपूर तितली.

और हीरो मर गया : कहानी स्ट्रगल के साथी की

जुनून इतना पुरजोर था कि उसे मुंबई खींच कर ले गया, पर यह तो उसे मुंबई पहुंच कर ही पता चला कि हर दिन मुंबई पहुंचने वाले लोगों में फिल्मी हीरोहीरोइन बनने की ख्वाहिश रखने वाले लड़केलड़कियों की भी बड़ी भारी तादाद होती है.

रोजरोज मुंबई आने वाले ये लोग फिल्म स्टार बनने की ख्वाहिश रखने वाले स्ट्रगलरों की भीड़ में इजाफा करते जाते हैं. विनय भी इस भीड़ का हिस्सा बन गया. इसी भीड़ की धक्कामुक्की और रेलमपेल ने एक दिन उसे एक फिल्म ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट के दरवाजे पर पहुंचा दिया.

विनय ने घर से लाए अपने रुपएपैसों की गिनती की, फिर उस ने एक ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट के एक साल के कोर्स में दाखिला ले लिया. वहां विनय की मुलाकात उदय नाम के एक लड़के से हुई. लंबाचौड़ा उदय बहुत हैंडसम था, पर महीनेभर में विनय अपनी ऐक्टिंग के दम पर सब के आकर्षण का केंद्र बन गया. विनय और उदय की दोस्ती धीरेधीरे इतनी गहरी हो गई कि वे रूम पार्टनर बन कर साथसाथ रहने लगे.

कोर्स पूरा हो जाने के बाद आत्मविश्वास से भरे इन दोनों नौजवानों की मेहनत रंग लाई. दोनों को ही 1-1 फिल्म मिल गई. मगर विनय की फिल्म 2 रील की शूटिंग के बाद ही अटक गई. उसे 2 और फिल्मों का भी औफर मिला, मगर वे दोनों फिल्में भी किसी न किसी वजह से बीच में ही दम तोड़ गईं. उधर, उदय की फिल्म न केवल पूरी हुई, साथ ही सुपरहिट भी हुई.

उदय की धूम मच गई. नतीजतन, उस के सामने बड़ेबड़े बजट की फिल्मों के प्रस्ताव वालों की कतार लगी थी, तो विनय स्ट्रगल करने वाले कलाकारों की कतार में धक्के खातेखाते पीछे होता जा रहा था.

उदय एक बड़े फिल्मकार द्वारा गिफ्ट किए गए शानदार फ्लैट में शिफ्ट हो गया. विनय अपने रूम में अकेला रह गया, तो उस ने अपना नया रूम पार्टनर बना लिया.

विनय को हार तो स्वीकार थी, मगर घुटने टेकना स्वीकार नहीं था. नाकामी का अंधेरा जितना ज्यादा गहराता जाता, उतना ही कामयाबी के उजालोें के लिए उस की जद्दोजेहद और मजबूती से बढ़ती जाती. हिम्मत की इसी चट्टान से उस के दिल का दर्द कविता और कहानी बन कर फूटने लगा.

मशहूर टैलीविजन की हस्ती और सीरियल बनाने वाली प्रीता नूरी की नजर विनय के लेखन पर पड़ी, तो उन्होंने उसे सीरियल लिखने वाले लेखकों की अपनी टीम में शामिल कर लिया.

प्रीता नूरी के लेखकों की टीम में लेखन करने के अलावा विनय एक फिल्म पत्रिका में पार्टटाइम न्यूज रिपोर्टर भी हो गया था. इस तरह उसे इतनी आमदनी होने लगी थी कि वह फिल्मी दुनिया में अपने बूते अपनी जद्दोजेहद जारी रख सकता था.

एक दिन एक पत्रिका में विनय ने पढ़ा, ‘फिल्म स्टार उदय अब सुपरस्टार के पायदान के नजदीक.’

विनय को खुशी हुई. इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम उस के साथी कलाकार को तो कामयाबी मिली.

एक दूसरी फिल्म पत्रिका ने लिखा, ‘उदय एक दिन फिल्मी दुनिया का ध्रुव तारा साबित होगा,’ तीसरी पत्रिका ने लिखा, ‘सुपरस्टार उदय :

द हैंडसम हीरो: आंखें रोमांटिक और मुसकराहट जानलेवा.’

विनय जिस फिल्म पत्रिका में न्यूज रिपोर्टर था, उस के संपादक को जब पता चला कि फिल्म स्टार उदय कभी विनय का रूम पार्टनर रहा है, तो वह विनय के पीछे ही पड़ गया कि वह उदय का कोई धांसू इंटरव्यू तैयार करे. साथ ही, पत्रिका को चाहिए थे फिल्म स्टार उदय के रोमांस के किस्से. स्टार बनने से पहले और बाद के इश्क की रंगरंगीली दास्तान.

विनय उदय से मिलने शूटिंग पर गया, तो उदय ने बिजी कह कर मिलने में आनाकानी की.

कई बार तो विनय को लगा कि उदय उसे देख कर भी अनदेखा कर आगे बढ़ जाता है.

यह देख विनय हैरान था. क्या उदय वाकई इतना बिजी है कि उस के पास स्ट्रगल के दिनों के अपने दोस्त से बात करने की फुरसत भी नहीं थी? वह क्या इतना बड़ा स्टार बन गया है कि मुझ जैसे मामूली आदमी से मिलने में उसे अपनी तौहीन महसूस होती है? पर वह तो पत्रकार की हैसियत से मिलना चाहता है. तो क्या अब उदय इतना बड़ा हो गया है कि उसे मीडिया की दरकार भी नहीं रही?

विनय ने दूसरे दिन फिर से उदय से मिलने की कोशिश की, पर वह नाकाम रहा. तीसरे दिन फिर कोशिश की, फिर नाकाम रहा. आखिर एक दिन उस ने उदय के घर पर फोन किया, तो पीए ने जवाब दिया, ‘साहब के पास अभी बिलकुल भी टाइम नहीं है.’

उधर दूसरी ओर फिल्म पत्रिकाओं में उदय के चटपटे इंटरव्यू छप रहे थे.

विनय ने सिर थाम लिया. उस का संपादक उस के बारे में क्या सोच रहा होगा. दूसरी पत्रिकाओं में चटपटी खबर को पढ़ कर विनय ने उदय के पीए को मन ही मन कोसा, ‘देखो तो इसे… बोलता है कि साहब के पास अभी टाइम नहीं है. अच्छा, तो साहब के पास आजकल रोमांस के लिए टाइम है, दोस्तों से मिलने के लिए नहीं है’, विनय ने अपनेआप को भी कोसा, ‘तेरी तो किस्मत ही खराब है. फिल्मों में ऐक्टिंग करना तो दूर रहा, फिल्म पत्रकारिता भी तेरे बस की नहीं. छोड़ दे यह फिल्मी दुनिया…’

‘नहीं छोड़ूंगा,’ विनय के भीतर से आवाज आती रही और वह अपनी जिद पर डटा रहा कि वह फिल्मी दुनिया नहीं छोड़ेगा. वह इसी फिल्मी दुनिया में कामयाबी की अपनी एक अलग राह खोज कर रहेगा.

उधर, प्रीता नूरी विनय की काबिलीयत से काफी प्रभावित हो चुकी थीं. उन्होंने विनय को एक फिल्म की कहानी और पटकथा पर आयोजित एक मीटिंग में बतौर सलाहकार अपने साथ बिठाया. फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर लेखक प्रवीण तन्मय कहानी और पटकथा पेश कर रहे थे. उस मीटिंग में फिल्म के हीरो और हीरोइन भी शामिल थे.

वहां विनय ने महसूस किया कि फिल्म इंडस्ट्री में पहले की तुलना में लेखकों की इज्जत काफी बढ़ चुकी है. उस ने देखा कि केवल डायरैक्टर और फिल्मकार ही नहीं, बल्कि फिल्म के हीरोहीरोइन भी लेखक प्रवीण तन्मय को काफी इज्जत दे रहे थे.

विनय को लगा कि वह भी एक कामयाब फिल्म लेखक बन सकता है.

इधर लेखक प्रवीण तन्मय की कहानी से प्रीता नूरी इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उस का डायरैक्शन भी उन्हें ही सौंप दिया. प्रवीण तन्मय ने जब इस फिल्म के डायरैक्शन की बागडोर संभाली, तो विनय को अपना चीफ असिस्टैंट बनाया. कामयाबी के पायदान की तरफ विनय का यह पहला ठोस कदम था. उस का खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से लौट आया था. भीतर के उजाले से उस की बाहर की दुनिया भी बदलनी शुरू हो गई थी.

एक दिन अचानक विनय के भीतर एक कहानी का आइडिया कौंध गया और कुछ समय चुरा कर उस ने कहानी पूरी कर ली, जिस का नाम था ‘और हीरो मर गया’.

इस कहानी ने खुद विनय को इतना रोमांचित कर दिया कि आननफानन उस ने उसे पटकथा और संवादों में भी ढाल दिया. फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में रजिस्ट्रेशन कराने के बाद उस ने अपनी यह कहानी प्रवीण तन्मय को दिखाई. प्रवीण तन्मय खुशी से उछल पड़े. कहानी प्रीता नूरी को भी सुनाई गई, तो वे भी मुग्ध हो गईं.

इसी बीच लेखक प्रवीण तन्मय के डायरैक्शन में बनी फिल्म ‘युद्ध जारी है’ हिट हो चुकी थी. प्रवीण तन्मय को कुछ दूसरे प्रोड्यूसरों से भी लेखन और डायरैक्शन के प्रस्ताव मिल रहे थे, लिहाजा, वे काफी बिजी हो गए थे. इधर प्रीता नूरी ने विनय की कहानी ‘और हीरो मर गया’ के डायरैक्शन का भार विनय को ही सौंप दिया. कामयाबी के पायदान पर विनय का यह दूसरा ठोस कदम था.

फिल्म कम समय और कम लागत में बन कर तैयार हो गई. फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं था. कहानी के मुताबिक, नए और छोटे कलाकारों को फिल्म में लिया गया था और तकरीबन सभी कलाकारों ने गजब की ऐक्टिंग की थी.

फिल्म ने लागत से कई गुना ज्यादा आमदनी की और इस तरह विनय का नाम हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एक जानामाना नाम बन गया. कामयाबी के पायदान पर विनय का यह तीसरा ठोस कदम था.

विनय की तीसरी फिल्म ने तो इतनी कमाई कर डाली कि खुश हो कर फिल्मकार ने विनय को एक शानदार फ्लैट गिफ्ट कर दिया. अब विनय से कहानी लिखवाने व डायरैक्शन के लिए फिल्मकारों की लंबी कतार लग गई. उधर, उदय की 5 फिल्में लगातार पिट गई थीं. उस की फिल्मों के शूटिंग शैड्यूल ही कैंसिल हो गए.

एक दिन विनय तब सुखद आश्चर्य से भर गया, जब उदय को अपने सामने खड़ा पाया. यह वही सुपरस्टार उदय था, जिस के पास स्ट्रगल के दिनों के अपने साथी को पहचानने और बात करने का समय नहीं था.

विनय ने हैरानी से उदय से पूछा, ‘‘सुपरस्टारजी, आप तो धांसू डायलौग डिलीवरी के लिए मशहूर हैं और मेरी कहानियों के डायलौग बहुत साधारण होते हैं. कहानी भी सीधेसादे पात्रों को ले कर होती है.

‘‘हर फिल्म में आप की ड्रैसें महंगे फैशन डिजाइनरों द्वारा तैयार की जाती हैं और मेरी कहानी के पात्र तो आम होते हैं, इसलिए उन्हें साधारण पोशाक ही सूट करती हैं.

‘‘आप तो जोखिम भरे स्टंट करने के लिए मशहूर हैं. फिल्म में एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग पर छलांग लगाते हुए आप को देख कर दर्शक रोमांचित हो जाते हैं, जबकि मेरी कहानियों के पात्र हवा में नहीं उड़ते, जमीन पर चलते हैं.

‘‘आप की अभी तक की रिकौर्डतोड़ फिल्मों की कामयाबी का क्रेडिट परदे पर आप के द्वारा गाए गए सुपरहिट गीतों को दिया जाता है, डांस को दिया जाता है, जबकि मेरी कहानी के किरदार तो जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराते हैं. भला आप ऐसे साधारण किरदारों को परदे पर करना क्यों पसंद करोगे?’’

सवाल का खुद जवाब न देते हुए उदय ने विनय से ही पूछ लिया, ‘‘हां, मैं जानता हूं कि आप की कहानियों के पात्र आम आदमी होते हैं, साधारण होते हैं. तो आप ही बताइए कि फिर दर्शक उन्हें पसंद क्यों कर रहे हैं?’’

उदय की बात सुन कर विनय बोला, ‘‘क्योंकि मेरी कहानियां मौलिक और असली होती हैं.’’

उदय ने विनय का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मैं उन उंगलियों को चूमना चाहता हूं, जो ऐसी कहानियों को लिख रही हैं. कामयाबी के घमंड ने मुझे अंधा बना दिया था, पर स्ट्रगल से मिली आप की कामयाबी के उजालों ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मेरी पतंग तो हवा में उड़ रही थी. कामयाबी तो यह है, जो आप ने अपने खूनपसीने से हासिल की है. फिल्म इंडस्ट्री में आप ने अपना पैर अंगद के पैर की तरफ जमा दिया है. मैं आप को बधाई देता हूं. हो सके, तो मुझे माफ कर दो.’’

विनय ने उदय को अपनी छाती से लगा लिया. उदय बोला, ‘‘भाग्य के भरोसे पर टिकी बेतुकी फिल्मों की अपनी कामयाबी से मेरा मन ऊब गया है. मैं जमीन पर पैर रख कर अपनी मेहनत से अपने हुनर को तौलना चाहता हूं.

‘‘दोस्त, तुम तो स्ट्रगल के दिनों के मेरे साथी हो. मेरे लिए कोई ऐसी ही कहानी लिखो न, जिस का किरदार विलक्षण हो, पर धरती के आम इनसान की तरह हो.’’

विनय ने उदय के सादगी से दमकते चेहरे की ओर देखा तो देखता ही रह गया. अब वह फिर वही पहले जैसा कलाकार उदय हो गया था. उस के भीतर का हीरो मर चुका था.

नायर साहब : सेना के सीक्रेट मिशन का अनोखा कोडवर्ड

टारगेट प्रैक्टिस कर रहे कमांडो सन्नी की गन से लगातार निकल रही गोलियां अचूक निशाने पर लग रही थीं. हर गोली कुछ एमएम इधरउधर हो रही थीं. रैपिड फायरिंग हो या लौंग रेंज या शौर्ट रेंज. गोलियों की आवाज कुछ देर के लिए रुकी. सामने लाल बत्ती जलबुझ रही थी. यह इमर्जैंसी का सिगनल था.

‘‘इमर्जैंसी?‘‘

इस के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, चौबीसों घंटे वरदी पहने रहता था. पर बेस्ट कमांडो को प्रैक्टिस रोक कर बुलाने का मतलब…?

‘‘कोई हाईजैकिंग, टैररिस्ट अटैक हुआ क्या…?‘‘ सन्नी ने बाहर निकल कर घंटी बजाने वाले जवान से पूछा.

‘‘सर कुछ पता नहीं न्यूज चैनल में तो कुछ भी खास नहीं. वैसे तो वो लोग सभी न्यूज को ब्रेकिंग न्यूज बताते हैं. आप सर बेस्ट कमांडो अफसर हैं, वे लोग आप को बताएंगे, आप का मोबाइल नौनस्टौप बज रहा था, इसलिए आप को सिगनल दिया.‘‘

‘‘इडियट, जोकर है तुम… मोबाइल बज रहा था तो क्या…?‘‘ नाराज हो कर सन्नी लौटने वाला था.

तभी डरतेडरते जवान ने कहा, ‘‘सरजी, आप का स्पैशल मोबाइल बज रहा था और हैडक्वार्टर से आप का हालचाल कोई नायर साहब पूछ रहे थे कि आप की तबीयत कैसी है…?‘‘

‘‘ओह नायर साहब, वे तो मेरे दोस्त हैं…‘‘ सन्नी के तेवर नरम पड़े. प्रैक्टिस बीच में छोड़ना उसे पसंद नहीं था, पर बात जरूर खास थी.

‘‘मेरा प्रैक्टिस चैंबर बंद कर दो. अब मूड नहीं है,‘‘ सन्नी अपना सामान कप बोर्ड में रखता हुआ बोला.

सन्नी अपना बैग ले कर तुरंत गाड़ी में बैठा. ‘नायर साहब‘ कोड था कि कोई सीक्रेट मिशन है, जिस की चर्चा तक नहीं करनी है. स्पैशल हैक न होने वाले मोबाइल पर टैक्स्ट मैसेज था – आप का दिन शुभ हो, नायर साहब औफिस में आप का इंतजार कर रहे हैं.

औफिस पहुंच कर उस ने पूरे मिशन – ‘मिशन ग्रीन‘ की बारीकी से स्टडी की. 85 सीआरपीएफ जवानों की हत्या हुई थी और तमाम उपायों के बाद भी माओवादी हिंसा रुक नहीं रही थी. सन्नी जानता था कि उस का चयन बहुत ही सोचसमझ कर किया गया था. वह भी गांव का रहने वाला था और वहां की हर तरह के हालात को बेहतर तरीके से हैंडल कर सकता था.

सन्नी दूर तक फैले जंगल और ऊंची पहाड़ियों की ओर मुड़मुड़ कर देखता. आसपास के गांव की तलाश में आगे बढ़ा. जंगल अब खत्म हो गए थे और जंगल किनारे के खेत नजर आने लगे थे.

‘आपरेशन ग्रीन‘ सफल रहा था और उस ने उन के सुप्रीम कमांडर को मार गिराया था. किसी को पता नहीं था कि 2 गुटों की दबदबे की लड़ाई की आड़ में दोनों ओर के मारे गए लोग उस की अचूक निशानेबाजी के शिकार हुए थे. यह उस के पहले इंस्ट्रक्टर बुद्धन गुरु की सिखाई रणनीति थी, जो इसी इलाके के थे और अब रिटायर हो चुके थे.

अपनी सफलता की कहानी वह कमांडो ट्रेनिंग हैडक्वार्टर तक पहुंचा भी नहीं पाया था, क्योंकि कोई भी संचार उपकरण रखना खतरे से खाली नहीं था. अब वह निहत्था भी था. हथियार पहाड़ी झरने में फेंक आया था, ताकि कोई उसे पहचान न पाए.

पर उसे भी 2 गोलियां लगी थीं. वह बैस्ट कमांडो था और हर हालात में अपने को बचाने और जीवित रखने के तरीके जानता था, पर सीक्रेट मिशन के कारण वह ग्रामीण वेशभूषा में था और भयंकर गोलीबारी में अपने छापामार युद्ध के बाद बहुत खून बहने के कारण बुरी तरह थक चुका था. अब आपरेशन कर गोली निकालने में किसी अस्पताल या सरकारी एजेंसी की मदद भी नहीं ले सकता था.

नजदीकी थाना 20 किलोमीटर दूर था. दूसरे किसी और का मोबाइल इस्तेमाल करना बहुत हद तक खतरनाक था, क्योंकि वहां मोबाइल उन के ही लोगों के पास थे और कोई ऐसा समर्थक भी नहीं था तो किसी डाक्टर के आने पर उस से माओवादियों को शक हो जाता. अब उस के पास एक ही रास्ता था किसी रिटायर्ड फौजी या पुलिस वाले से मदद ले कर गोली बाहर निकलवाना.

‘‘पर, ऐसा फौजी इस जंगल के बीच मिलेगा कहां? अगर मिल भी गया तो इन माओवादियों के डर से उस की मदद कौन करेगा?‘‘

गांव में उस के खून सने कपड़े देख कर कोई मदद के लिए तैयार नहीं था. एक दयालु बुढ़िया ने उसे एक फौजी का घर दिखाया. दरवाजे की सांकल बजाते ही वह बुखार और कमजोरी से बेहोश हो कर गिर गया.

कई दिनों के बाद होश में आने पर उस ने अपने पहले इंस्ट्रक्टर हवलदार बुद्धन को देखा, जिस ने आज से 10 साल पहले उसे छापामार युद्ध की बारीकियां सिखाई थीं. वह अपने बारे में बताना चाह रहा था, पर गले में कांटे चुभ रहे थे और बोलना संभव नहीं था. वह अपने जमाने के बेस्ट इंस्ट्रक्टर के घर में था, इसलिए बच गया था. उसे हवलदार बुद्धन की दूर से आती आवाज सुनाई दी. वह स्थानीय भाषा में उस से उस का परिचय पूछ रहा था. फिर उस की आंखें मुंद गई थीं.

वह समझ गया था कि बुद्धन ने उसे नहीं पहचाना था. उस के जैसे सैकड़ों कमांडो को उस ने ट्रेनिंग दी होगी, कितनों को पहचानेगा? दूसरे, यहां एनएसजी के बेस्ट कमांडो का पाया जाना कल्पना से परे था. यहां तो पुलिस या पैरामिलिट्री फोर्स के जवान आते थे जो बाहरी होते थे और हावभाव, बोलीभाषा से पहचान लिए जाते थे.

पर, ये बात बुद्धन से छिपी नहीं रह सकती थी कि बहुत ही सफाई से दो खूंख्वार माओवादी गुटों को समाप्त करना किसी कमांडो के अलावा किसी से संभव नहीं था और वो भी जो यहां की भाषा, संस्कृति के साथ भूगोल से अच्छी तरह वाकिफ हो. ऐसे में अपने पुराने शिष्य को पहचान लेना मुश्किल नहीं था.

सन्नी ने अपना परिचय और उद्देश्य बता देना उचित समझा, क्योंकि वह जानता था कि बुद्धन एक देशभक्त फौजी रह चुका था और सच जानने के बाद यहां से सुरक्षित निकालने में उस की मदद कर सकता था.

एक दिन अकेले में जब बुद्धन उस की मरहमपट्टी कर रहा था, तो उस ने बुद्धन से पूछा, ‘‘सर, आप मिलिट्री में कहां थे?‘‘

बुद्धन चुप रहा और उसी दिन उसे अपने खेत के पास वाले घर में ले गया, जहां गांव वालों का आनाजाना नहीं था. वहां उस ने उसे उस के नाम से संबोधित कर कहा, ‘‘सन्नी, जब तक मैं न आऊं, किसी भी हाल में बाहर झांकना तक नहीं.‘‘

यह सुन कर सन्नी सन्न रह गया. उस का अनुमान सही था, तभी उसे याद आया कि उस की कोहनी के भीतरी तरफ दो निशान थे, जो हर बेस्ट कमांडो के हाथों में होते हैं. आम आदमी न समझ पाए, पर बुद्धन गुरु के लिए ये बहुत आसान था कि साधारण से दिखने वाले इस जवान के हाथ में ये निशान 2 छेद करने पर बने थे, जो खुद का खून पी कर जिंदा रहने की अंतिम ट्रेनिंग होती है. सन्नी किसी भी हालात के लिए तैयार था, जो उस की आदत थी.

उस सुनसान से घर में दिन में कुछ लोगों की आवाजें सुनाई पड़ती थीं, जो खेतों में काम करते थे. उन की बातें सुन कर उसे पता चला कि एक मारा गया सुप्रीम कमांडर उसी गांव का था और उस के बचेखुचे साथी दूसरे गुट और उस के सुप्रीमो से बहुत नाराज थे, जिस ने उस की हत्या की थी और खुद भी मारा गया था. अभी तक दूसरा गुट इस सदमे से उबर नहीं पाया था.

एक दिन एकदम मुंहअंधेरे बुद्धन गुरु उस के पास आया और बोला, ‘‘सन्नी, अब तुम बिलकुल ठीक हो. कुछ दिन मिलिट्री हौस्पिटल में रहोगे तो ड्यूटी के लिए फिट हो जाओगे. मैं ने पास के पुलिस कैंप से आगे जाने की व्यवस्था कर दी है. अभी चलो मेरे साथ…‘‘

सन्नी ने इतने दिनों तक रोज उसे दिनरात खिलानेपिलाने सेवा करने वाली बुद्धन की पत्नी से मिल कर आभार प्रकट करने की इच्छा व्यक्त की, ‘‘सर, मैं चाचीजी से मिल कर उन के पैर छूना चाहता हूं…‘‘

‘‘अभी उस की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उस को परेशान करना उचित नहीं,‘‘ बुद्धन ने कहा. दोनों तेजी से आगे बढ़ ही रहे थे कि बुद्धन की पत्नी सामने राइफल लिए खड़ी थी, ‘‘चलिए, मैं भी इसे छोड़ने चलती हूं और आप राइफल के बिना जंगल में निकलते कैसे हैं?‘‘

सन्नी ने 1-2 बार उन का आभार व्यक्त करने की कोशिश की, पर उन्होंने बात बदल दी, ‘‘यह जंगल है. यहां हर पल सावधान रहना पड़ता है, आगे देखो…” उन के उखड़े हुए स्वर से लगा कि वह अनचाहा मेहमान था. बुद्धन गुरु पहले की तरह भावहीन थे. सुबह होतेहोते तीनों जंगल के छोर पर पहुंच गए थे.

बुद्धन ने कहा, ‘‘यह रास्ता सीधा पुलिस कैंप तक जाएगा, कोई अगर पूछे तो बताना कि मेरे मेहमान हो, शहर जाना है.‘‘

सन्नी ने दोनों के पैर छुए, पर दोनों ने कुछ कहा नहीं. दो कदम आगे बढ़ते ही बुद्धन की पत्नी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘अब हमारी सीमा समाप्त हो गई है और इसलिए ये हमारा मेहमान नहीं है. गोली मारो मेरे एकलौते बेटे के हत्यारे को…‘‘

सन्नी समझ गया था कि सुप्रीम कमांडर, जिस की उस ने हत्या की थी, बुद्धन सर का ही भटका हुआ बेटा था. राइफल कौक हुआ… सन्नी समझ चुका था कि अब एक बेटे का बाप उस के हत्यारे को सजा देने के लिए तैयार था, ठीक उस की तरह बुद्धन सर का निशाना कभी नहीं चूकता…

कुछ पल और बाकी थे और पीछे से गोली का एक धक्का उस के सिर के टुकड़े करने वाला था. उस ने अंतिम बार अपनी मां को याद किया…

गोली चली, पर यह हवाई फायर था. गोली पेड़ के ऊपर टहनियों से टकरा कर आगे निकल गई थी… वह समझ गया था कि एक रिटायर्ड फौजी भी फौजी ही होता है, जिस के लिए देश सब से पहले होता है. सन्नी ने उस दंपती को खड़े हो कर सैल्यूट किया और तेजी से आगे बढ़ गया.

हेलीकौप्टर के पायलट की बात सुन कर उस का पत्थरदिल भी पसीज गया, ‘‘सर, बुद्धन सर नहीं आए, उन्होंने ही हेडक्वार्टर फोन कर आप के लिए हेलीकौप्टर मंगवाया था.

‘‘सर, सच है, ‘‘वंस ए सोल्जर आल्वेज ए सोल्जर.‘‘

विरासत : मां का कद ऊंचा करती एक बेटी

मुझे ऐसा क्यों लगने लगा है कि शादी के बाद  लड़कियां बदल सी जाती हैं और उन का वह घर जहां वह अभी कुछ माह या साल पहले गई थीं, अधिक प्रिय हो जाता है. लगता है कि मेरी बेटी कामना के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है. आती है तो खोईखोई सी रहती है, भाईबहन के साथ की वह धींगामस्ती भी अब नजर नहीं आती. छोटे भाईबहन को कभीकभार आइसक्रीम खिलाने ले जाना, कोई पिक्चर दिखाना या शापिंग के लिए ले जाना, सब ‘रुटीन वे’ में होता है. आज तो उस ने हद ही कर दी. मैं उस की पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाने में व्यस्त थी तभी मैं ने सुना वह अपनी छोटी बहन भावना से कह रही थी, ‘‘भानु, अब की बार मैं जल्दी चली जाऊंगी. तेरे जीजाजी आने वाले हैं. कैंटीन का खाना उन को बिलकुल सूट नहीं करता. आज शाम को बाजार चलते हैं, मुझे मम्मीजी की साड़ी भी लेनी है.’’

यह मम्मीजी कौन हैं? आप को बताने की जरूरत नहीं है. वही हैं जो ससुराल जाने पर हर लड़की की अधिकारपूर्वक मम्मीजी बन जाती हैं, चाहे वह उसे असली मम्मी की तरह मानें या न मानें.

मैं गलत नहीं कह रही हूं. पिछले 10 दिनोें से मुझे वायरल फीवर भी था. थोड़ी कमजोरी भी महसूस कर रही थी, पर उस कालिज से, जहां मैं पढ़ा रही थी, मैं ने छुट््टी ले ली थी. मुझे बस एक ही धुन थी कि बेटी को वह सब चीजें खिला दूं जो उसे पसंद थीं और वह थी कि अपनी बहन से जाने की जल्दी बता रही थी. जैसे मैं अब उस के लिए कुछ नहीं थी.

तभी मैं ने यह भी सुना, ‘‘भानु, इस सितार पर तो धूल जम गई है, तू क्या इसे कभी नहीं बजाती? मैं तो पहले ही जानती थी कि तू साइंस की स्टूडेंट है, भला तुझे कहां समय मिलेगा सितार बजाने का? मां से कह कर मैं इस बार यह सितार लेती जाऊंगी. मैं वहां क्लास ज्वाइन कर के सितार बजाना सीख लूंगी, वैसे भी अकेले बोर होती हूं.’’

हलवा बन चुका था पर कड़ाही कपड़े से पकड़ कर उतारना भूल गई तो उंगलियां जल गईं. अब किसी को बुला कर सितार पैक कराना होगा, जिस से लंबे सफर में कुछ टूटेफूटे नहीं. बेटी है न, उस के जाने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. मैं ने जल्दी से आंखें आंचल से पोंछ लीं. लगता है, मेरी बेटी अपनी सारी चीजें जिन से मेरी यादें जुड़ी हुई हैं, मुझ से दूर कर ही देगी.

पिछली बार जब वह आई थी, मैं उस के रूखे, घने, लंबे केशों में तेल लगा रही थी कि अचानक ही मैं ने सुना, ‘मां, मैं वह मसूरी वाली ‘पोट्रेट’ ले जाऊं जो आप ने ‘एम्ब्रायडरी कंपीटीशन’ के लिए बनाई थी. वही वाली जो आप ने प्रथम पुरस्कार पाने के बाद मुझे मेरे जन्मदिन पर प्रेजेंट कर दी थी. मम्मीजी उसे देख कर बहुत खुश होंगी. आप ने कितनी सुंदर कढ़ाई की है. पहाड़ लगता है बर्फ से भरे हैं.’’

मैं हां कहने में थोड़ी हिचकिचाई. कितने पापड़ बेलने पड़े थे उस तसवीर को काढ़ने में. कितने प्रकार की स्टिचेज सीखनी पड़ी थीं उसे पूरा करने में, और वह मुझ से ले कर उसे अपनी उन मम्मीजी को दे देगी. पर कोई बात नहीं, मैं तो उसे खुश देखने के लिए अपनी कोई भी प्रिय वस्तु देने को तैयार थी, यह तो फ्रेम में जड़ी केवल एक तसवीर ही थी.

अनुराग उसे लेने सुबह ही आ गया था. शाम को जब मैं दोनों को चाय के लिए बुलाने गई तो देखा दोनों दीवार से तसवीर उतार कर यत्नपूर्वक ब्राउन पेपर  के ऊपर अखबार लपेट रहे थे.

मैं ने दीवार की तरफ देखा, कितनी सूनी, बदरंग सी लग रही थी. ठीक उसी तरह जैसे कामना के चले जाने के बाद उस का कमरा लगता था. मैं बिना कुछ बोले तेज कदमों से वापस लौट आई. कब सुबह हुई, जल्दीजल्दी नाश्ता हुआ फिर साथ ले जाने का खाना पैक हुआ और कामना विदा हो गई, पता ही न चला. भावना सिसक रही थी, ‘‘दीदी, जल्दी आना.’’ मैं चुपचाप उसे देखती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई.

हर बार की तरह तीसरेचौथे महीने कामना नहीं आई. मैं सोचसोच कर परेशान थी कि क्या कारण हो सकता है उस के न आने का. तभी उस की मम्मीजी का एक छोटा सा पत्र मुझे मिला.

‘अत्यंत प्रसन्नता से आप को सूचित कर रही हूं कि हम दोनों की पदोन्नति हो गई है, यानी कि आप नानी और मैं दादी बनने वाली हूं. कामना को एकदम डाक्टर ने बेड रेस्ट बताया है, इसलिए कुछ महीने बाद ही जा सकेगी वह. हां, गोदभराई के लिए आप को हमारे यहां आना होगा क्योंकि हमारे घर की परंपरा है कि पहला बच्चा ससुराल में ही होता है. अत: डिलीवरी भी यहीं होगी. आप बिलकुल निश्ंिचत रहिएगा क्योंकि मैं भी तो कामना की मम्मी हूं.’

पत्र पढ़ कर कामना के न आने का दुख तो मैं भूल ही गई और खुशी से भावना को जोर से आवाज दी. खबर सुन कर वह भी नाच उठी. घर में कितनी ही देर तक हर्षोल्लास का वातावरण बना रहा. कामना के पापा जहां पोस्टेड थे वहां से घर वह छुट््टियों में ही आते थे. इस बार हमसब एकसाथ गए रस्म अदा करने. बेटी को देख कर उतनी ही खुशी हुई जितनी अपने हाथों से लगाए वृक्ष को फूलतेफलते देख कर होती है.

रस्म अदा करने के बाद कामना मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मां, चलो, तुम्हें कुछ दिखाते हैं.’’

एक कमरे के पास आ कर वह रुक गई और बोली, ‘‘देखो मां, यह बच्चे की नर्सरी है.’’ अंदर जा कर मैं चकित रह गई. दीवार पर हलके रंग का प्लास्टिक पेंट, फूलपत्तियां बनी हुईं, छोटेछोटे बच्चे ऐंजेल बने हुए थे. एक तरफ ‘क्रिब’ में बिछी हुई गुलाबी प्रिंटेड और गुलाबी उढ़ाने की चादर भी. दूसरे कोने में तरहतरह के खिलौने, नर्सरी राइम्स की किताबें करीने से सजी हुईं.

‘‘मां, तुम मेरी वह छोटी कुरसीमेज भेज देना जिस पर मैं बचपन में पढ़ती थी.’’

मैं ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई, ‘‘हां, मैं जाते ही शिबू से तुम्हारी मेजकुरसी पहुंचवा दूंगी.’’

कहना नहीं होगा, शिबू ही उस की देखभाल करता था जब मैं कालिज पढ़ाने चली जाती थी. घर पहुंचते ही कामना का कमरा खोला, दीवार पर उस के बचपन की कितनी ही तसवीरें लगी हुई थीं. एक कोने में उस की छोटी कुरसीमेज, मेज पर उस का एक छोटा सा बाक्स भी रखा हुआ था. बाक्स नीचे रखा और कुरसीमेज पेंट करा के उसे कामना की ससुराल पहुंचाने की बात मैं ने शिबू को बताई.

वह दिन भी आया कि कामना अपने छोटे से बेटे को साथ लिए आई. साथ में उस का पति अनुराग भी था. मैं तो कब से तीनों की राह देखती दरवाजे पर खड़ी थी. आगे बढ़ कर मैं ने बच्चे को गोद में ले लिया और चूम लिया.

‘‘मां, तुम मुझे प्यार करना भूल गईं.’’

‘‘अब तुम बड़ी जो हो गई हो,’’ मैं ने हंस कर कहा.

हंसीखुशी के बीच महीना कैसे बीत गया, पता ही न चला. कामना अकसर बच्चे को अपने कमरे में ले जाती, खिलाती, सुलाती.

कल ही उस की ट्रेन थी. मैं बरामदे की आरामकुरसी पर लेटी ही थी कि कामना आ पहुंची.

‘‘मां, बहुत थक गई हो न. लाओ न पैर दबा दूं थोड़ा,’’ और हाथ में ली हुई फाइल उस ने पास की कुरसी पर रख दी, पर मैं ने अपने पैर समेट लिए थे.

‘‘अरे, मैं तो ऐसे ही लेट गई थी’’ तभी बेटे के रोने की आवाज सुन कर वह चल दी. उत्सुकतावश मैं ने फाइल उठा ली. देखने में पुरानी किंतु नए रंगीन ग्लेज  पेपर, रिबन से बंधी हुई. मैं सीधे बैठ गई. अंदर लिखाई जानीपहचानी सी लग रही थी. फाइल में कितनी ही कटिंग थीं, समाचारपत्रों की, कालिज की पत्रिकाओं की. मेरी लिखी हुई टिप्पणियां भी थीं.

हां, वह पहली कटिंग भी थी जब कामना 8वीं में पढ़ती थी. मुझे याद आ गया, कामना 100 मीटर की रेस में भाग लेने वाली थी, कितनी ही बार वह खेलों में भाग ले कर पुरस्कार भी पा चुकी थी. पर उस दिन उस के पैर में भयानक दर्द था. कुछ मलहम मला, सिंकाई की, दवाई खिलाई, पैर में कस कर पट््टी बांध दी, पर उस के पैर के ‘क्रैंप’ न गए. उधर उस की जिद थी कि वह रेस में भाग जरूर लेगी. मुझे भी अपने कालिज पहुंचना जरूरी था. मैं ने शिबू द्वारा थर्मस में गरम दूध में कौफी डाल कर और एक नोट लिख कर भेजा, ‘बेटी कामना, रेस में हार कर दुखी मत होना. जीवन में ऐसी बहुत सी रेस आएंगी और तुम जरूर ही जीतोगी. तुम मेरी रानी बेटी हो न, हारने पर मन छोटा मत करना.’

मैं जब कालिज का काम खत्म कर कामना के स्कूल के सालाना स्पोर्ट्स देखने पहुंची तो कामना अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ पिरामिड बनाने में लगी थी. सब से ऊपर वही थी. तालियों से मैदान गूंज उठा.

मुझे सुकून हुआ कि मेरी बेटी हार कर भी निराश नहीं थी. खेल खत्म होने पर जब वह मेरे पास आई तो उस की आंसू भरी आंखों को मैं ने चूम लिया था, इस की कटिंग भी थी.

ऐसी ही कितनी कटिंग काट कर उस ने संजो कर करीने से लगाई थीं. अकसर हम दोनों ही व्यस्त हो जाते थे, दूर हो जाते. मैं कभी परीक्षा लेने दूसरे शहर चली जाती तो मेरी अनुपस्थिति में उसे ही घर सुचारु रूप से चलाना है, मैं उसे लिख कर भेजती. लौट कर देखती कि वह थोड़े ही दिनों में और भी बड़ी हो गई है. किसी को मेरी याद तक न आती थी. कामना, जो घर में थी उन्हें संभालने के लिए.

मैं तल्लीन हो कर पेज पलटने में लगी थी तभी कामना आ पहुंची. एक शरारत भरी हंसी उस के अधरों पर फैल गई, ‘‘मां, अपनी फाइल ले जाऊं मैं,’’ मैं ने उठ कर कामना को सीने से लगा लिया. कौन कहता है कि बेटियां अपने उस घर के लिए बटोरती ही रहती हैं? सच तो यह है कि ये बेटियां ही तो मांबाप की सिखाई हुई अच्छीअच्छी बातों की विरासत से अपने उस दूसरे घर को भी प्रकाशमान करती हैं. मेरी इस बेटी ने इस विरासत को अपना कर मेरा सिर कितना ऊंचा कर दिया था.

तीन प्रश्न : कौन से सवाल थे वो

मैं पाकिस्तान की यात्रा पर जा रहा था. भारत का कभी हिस्सा रहे इस देश को करीब से देखने का यह मेरा पहला मौका था. वीजा लेने की कठोर कसरत के बाद मैं दिल्ली से अटारी जाने वाली समझौता एक्सप्रेस में रात को सवार हो गया. ट्रेन में अलगअलग तरह के यात्री मिल रहे थे. किसी को अपने रिश्तेदारों से मिल कर लौटने का गम था तो कोई रिश्तेदारों से मिलने जाने की खुशी लिए था और कोई भारी मात्रा में सामान बेच कर रुपए कमाने की चाहत लिए जा रहा था.

अलगअलग आवाजें आ रही थीं :

‘‘मेरे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं. अब 60 साल बाद मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘मेरी बेटी की शादी भारत में हुई है, 20 साल बाद मिली थी. अब अपनी नवासी की शादी कर के लौट रही हूं.’’

‘‘बंटवारे के बाद मेरा सारा कुनबा भारत आ कर बस गया. अपने मूल वतन रावलपिंडी देखने का सपना आज पूरा हुआ है.’’

‘‘10 हजार बनारसी साडि़यां पाकिस्तान ले जा कर बेचूंगा, वहां वे सोने के भाव बिकेंगी.’’

अगली सुबह, गाड़ी अटारी स्टेशन पहुंच गई. वहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे बाघा बोर्डर पड़ता है, जहां से पाकिस्तानी सीमा शुरू होती है. लोग अपनाअपना सामान समेट कर इमिग्रेशन के लिए तैयार हो गए. पासपोर्ट और वीजा की जांच के बाद कस्टम की काररवाई होती है जोकि इस यात्रा का सब से तकलीफदेह हिस्सा होता है.

मुसाफिरों के सामान को खोल कर कस्टम अधिकारी एकएक चीज को झाड़ कर तलाशी ले रहे थे और लोगों से खूब रुपए भी ऐंठ रहे थे. यहां मजबूरी में लोग न चाहते हुए भी कस्टम से पीछा छुड़ाने के लिए रुपए खर्च कर रहे थे.

कस्टम की औपचारिकता के बाद यात्री एक बडे़ गेट को पार कर के उस पार एक तैयार ट्रेन में दोबारा सवार हो रहे थे. यह ट्रेन आगे चल कर बाघा होती हुई सब लोगों को लाहौर तक छोड़ती है. यहां के सीमा गेट पर ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी (सिपाही) हर यात्री से 100-100 रुपए मांग रहे थे.

जब सभी यात्री ट्रेन में सवार हो गए तो दोपहर ढाई बजे ट्रेन चल दी. लगभग 10 मिनट बाद ही भारत की सरहद खत्म हो गई और पाकिस्तान आ गया. बाघा स्टेशन पर गाड़ी रुकी. लोग ट्रौलियों में अपनाअपना सामान लाद कर दोबारा इमिग्रेशन और कस्टम के लिए तैयार हो रहे थे. खूब भगदड़ मची हुई थी. वहां काली वरदी में तैनात कस्टम अधिकारी भी भारतीय कस्टम अधिकारियों की तरह लोगों से रुपए ऐंठ कर अपना फर्ज अदा कर रहे थे. लगभग 4 घंटे में यहां की सारी काररवाई पूरी हुई तो ट्रेन लाहौर की तरफ चल दी, जोकि वहां से कुल 25 किलोमीटर की दूरी पर था.

मेरे जीजाजी लाहौर स्टेशन पर मुझे लेने के लिए खड़े थे. रात हो रही थी. अगले दिन हमें कराची जाना था, सो लाहौर घूम कर हम मुगलों की इस प्राचीन राजधानी को देखते रहे.

अगले दिन शाम को हम कराची के लिए रवाना हो गए.

पाकिस्तानी ट्रेन में बैठ कर मैं बेहद खुशी महसूस कर रहा था. यात्रा के दौरान मुझे एक पादरी मिले. वह पठानी सलवारकुर्ता पहने हुए पक्के पाकिस्तानी लग रहे थे और फर्राटेदार उर्दू बोल रहे थे.

‘‘मैं मुंबई का रहने वाला हूं. अंगरेजों के शासनकाल में मेरे अब्बा एक ईसाई मिशनरी के साथ कराची आए थे. जब बंटवारा हुआ तो कराची पाकिस्तान में चला गया और फिर हम यहीं बस गए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों को यहां बहुत तकलीफ हुई होगी. सुना है, मुसलमानों के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों के साथ अच्छा सुलूक नहीं होता है.’’

‘‘सब कहने की बातें हैं. नफरत और मोहब्बत दुनिया के हर हिस्से में है. पाकिस्तान में लोगों की यह सोच बनी हुई है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें हर जगह भेदभाव से देखा जाता है. क्या यह सही है?’’

मैं ने और उत्सुकता दिखाई, ‘‘क्या पाकिस्तान में हिंदू या सिख नहीं रहते हैं?’’

पादरी ने समझाया, ‘‘जब बंटवारा हुआ तो भारत बड़ा था और पाकिस्तान छोटा. जिन सूबों में मुसलमानों की घनी आबादी थी, उन को मिला कर पाकिस्तान बना था. नौर्थवेस्ट फ्रंटियर  प्रौविंस और बलूचिस्तान में हिंदू आबादी कम थी. सिंध में अब भी हिंदू आबादी है, जोकि ज्यादातर जमींदार और महाजन हैं.’’

‘‘पंजाब में सिख लोग ज्यादा थे. पंजाब और बंगाल के 2 टुकड़े किए गए थे, इसलिए इन 2 सूबों में सब से ज्यादा कत्लेआम हुआ. कश्मीर को पाकिस्तान लेना चाह रहा था पर भारत ने नहीं दिया. दोनों मुल्कों में जंग हुई पर हमारे हुक्मरान मसले को सुलझाना नहीं चाहते.’’

हमारी ट्रेन पंजाब से बलूचिस्तान होती हुई सिंध की तरफ जा रही थी. बलूचिस्तान और सिंध ज्यादातर रेगिस्तानी क्षेत्र हैं. बीचबीच में स्टेशन पड़ रहे थे. स्टेशनों पर मांसाहारी चीजों जैसे कीमे के समोसे और पकौडे़, बिरयानी, कोरमा आदि की अधिकता थी. भारत के मुकाबले में पाकिस्तानी रेलवे स्टेशनों पर भीड़ कम होती है.

पाकिस्तान के सब से बडे़ शहर कराची को देख कर लखनऊ की याद आ गई, क्योंकि दोनों शहरों में उर्दू का गहरा असर है. कराची में भारत से गए हुए लोग सब से ज्यादा तादाद में हैं. क्षेत्रवाद के शिकार ये मुसलमान ‘मुहाजिर’ कहलाते हैं.

मैं कराची जी भर कर घूमा. भारत से अलग होने पर भी भारत की छाप साफ दिखाई दे रही थी. कई लोग मेरे भारतीय होने पर अपना आतिथ्य निभा रहे थे. मुझे वहां भारतीय और पाकिस्तानी लोगों में कोई खास फर्क नजर नहीं आया. इस से कहीं अधिक फर्क तो भारत के ही अलगअलग राज्यों के लोगों में है. उत्तर भारत का रहने वाला अगर दक्षिण भारत में चला जाए तो समझेगा कि कहीं विदेश में आ गया. वहां का रहनसहन अलग, खानपान अलग, भाषा अलग, पहनावा अलग मगर देश एक है.

विभाजन के 60 साल बाद भी संस्कृति ने अपनी छाप नहीं छोड़ी है. लोगों को धर्म जोड़े न जोडे़ पर क्षेत्र अवश्य जोड़ता है. पंजाब, बंगाल और कश्मीर के 2-2 टुकडे़ होते हुए भी यदि वहां के लोगों की आपस में तुलना की जाए तो पता चलता है कि धर्म के नाम पर तो उन्हें बांटा गया पर उन की समानता को कोई बांट नहीं सका.

भारत या पाकिस्तान के लोग अपने को धार्मिक कहते हैं पर हर धर्म की पहली सीढ़ी इनसानियत से इतनी दूर क्यों होती जा रही है?

पाकिस्तान की अपनी यात्रा के निचोड़ में 3 प्रश्न मेरे दिलोदिमाग में उत्तर के लिए भटक रहे हैं.

पहला, धर्म के नाम पर देश के बंटवारे का मूल उद्देश्य क्या था? धर्म इनसान के लिए है या इनसान धर्म के लिए? देश का बंटवारा कर के क्या सांप्रदायिकता खत्म हो गई? जबकि इसी के नतीजतन, एक नए देश के रूप में बंगलादेश का जन्म हुआ और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय मसला बना हुआ है. यही नहीं दोनों मुल्कों का जो अरबों रुपया, सीमा सुरक्षा में लग रहा है, काफी हद तक बच सकता था.

दूसरा, अंगरेजों की गुलामी से आजाद होने की इच्छा हर भारतीय में थी और हिंदू व मुसलमान दोनों ने मिल कर संघर्ष किया था पर जब बंटवारे की बात चली तो किसी के मन में यह विचार नहीं आया कि जब आजादी साथ पाई है तो रहेंगे भी साथ ही. कोई रास्ता निकाल कर बंटवारा रोको.

तीसरा, हम अंगरेजों को ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के लिए दोषी ठहराते हैं. क्या यह नीति हमारे धार्मिक दुकानदारों और उन के पिट्ठू नेताओं में नहीं है? हर तरह का भेदभाव हमारे देश में ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ की तरह बड़ी कुशलता से पनप रहा है और हमारे पंडे, मौलवी, नेताओं के वोट बैंक को पुख्ता कर रहे हैं.

पड़ोसी देशों को अपनी कमजोरियों के लिए दोष देना हमारे नेताओं की जन्मघुट्टी में मिला हुआ है. अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो हमारे नेता आतंकवाद के लिए चीन को दोष देते या रूस को?

सच्चाई सामने आती है पर देर से

Story in Hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें