अनोखा संबंध: क्या विधवा औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती?

Romantic Story in Hindi : ‘‘इस औरत को देख रही हो… जिस की गोद में बच्चा है?’’

‘‘हांहां, देख रही हूं… कौन है यह?’’

‘‘अरे, इस को नहीं जानती तू?’’ पहली वाली औरत बोली.

‘‘हांहां, नहीं जानती,’’ दूसरी वाली औरत इनकार करते हुए बोली.

‘‘यह पवन सेठ की दूसरी औरत है. पहली औरत गुजर गई, तब उस ने इस औरत से शादी कर ली.’’

‘‘हाय, कहां पवन सेठ और कहां यह औरत…’’ हैरानी से दूसरी औरत बोली, ‘‘इस की गोद में जो लड़का है, वह पवन सेठ का नहीं है.’’

‘‘तब, फिर किस का है?’’

‘‘पवन सेठ के नौकर रामलाल का,’’ पहली वाली औरत ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पवन सेठ की उम्र देखो, मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं…’’ दूसरी वाली औरत ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘दोनों में उम्र का कितना फर्क है. इस औरत ने कैसे कर ली शादी?’’

‘‘सुना है, यह औरत विधवा थी,’’ पहली वाली औरत ने कहा.

‘‘विधवा थी तो क्या हुआ? अरे, उम्र देख कर तो शादी करती.’’

‘‘अरे, इस ने पवन सेठ को देख कर शादी नहीं की.’’

‘‘फिर क्या देख कर शादी की?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘उस की ढेर सारी दौलत देख कर.’’

आगे की बात निर्मला न सुन सकी. जिस दुकान पर जाने के लिए वह सीढि़यां चढ़ रही थी, तभी ये दोनों औरतें सीढि़यां उतर रही थीं. उसे देख कर यह बात कही, तब वह रुक गई. उन दोनों औरतों की बातें सुनने के बाद दुकान के भीतर न जाते हुए वह उलटे पैर लौट कर फिर कार में बैठ गई.

ड्राइवर ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘मेम साहब, आप दुकान के भीतर क्यों नहीं गईं?’’

‘‘जल्दी चलो बंगले पर,’’ निर्मला ने अनसुना करते हुए आदेश दिया.

आगे ड्राइवर कुछ न बोल सका. उस ने चुपचाप गाड़ी स्टार्ट कर दी.

निर्मला की गोद में एक साल का बच्चा नींद में बेसुध था. मगर कार में बैठने के बाद भी उस का मन उन दोनों औरतों के तानों पर लगा रहा. उन औरतों ने जोकुछ कहा था, सच ही कहा था. निर्मला उदास हो गई.

निर्मला पवन सेठ की दूसरी ब्याहता है. पहली पत्नी आज से 3 साल पहले गुजर गई थी. यह भी सही है कि उस की गोद में जो लड़का है, वह रामलाल का है. रामलाल जवान और खूबसूरत है.

जब निर्मला ब्याह कर के पवन सेठ के घर में आई थी, तब पहली बार उस की नजर रामलाल पर पड़ी थी. तभी से उस का आकर्षण रामलाल के प्रति हो गया था. मगर वह तो पवन सेठ की ब्याहता थी, इसलिए उस के खूंटे से बंध गई थी.

यह भी सही है कि निर्मला विधवा है. अभी उस की उम्र का 34वां पड़ाव चल रहा है. जब वह 20 साल की थी, तब उस की शादी राजेश से कर दी गई थी. वह बेरोजगार था. नौकरी की तलाश जारी थी. मगर वह इधरउधर ट्यूशन कर के अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहा था.

निर्मला की सास झगड़ालू थी. हरदम वह उस पर अपना सासपना जताने की कोशिश करती, छोटीछोटी गलतियों पर बेवजह चिल्लाना उस का स्वभाव बना हुआ था. मगर वह दिन काल बन कर उस पर टूट पड़ा, जब एक कार वाला राजेश को रौंद कर चला गया. अभी उन की शादी हुए 7 महीने भी नहीं बीते थे और वह विधवा हो गई. समाज की जरूरी रस्मों के बाद निर्मला की सास ने उसे डायन बता दिया. यह कह कर उसे घर से निकाल दिया कि आते ही मेरे बेटे को खा गई.

ससुराल से जब विधवा निकाली जाती है, तब वह अपने मायके में आती है. निर्मला भी अपने मायके में चली आई और मांबाबूजी और भाई के लिए बो झ बन गई. बाद में एक प्राइवेट स्कूल में टीचर बन गई. तब उसे विधवा जिंदगी जीते हुए 14 साल से ऊपर हो गए.

समाज के पोंगापंथ के मुताबिक, विधवा की दोबारा शादी भी नहीं हो सकती है. उसे तो अब जिंदगीभर विधवा की जिंदगी जीनी है. ऐसे में वह कई बार सोचती है कि अभी मांबाप जिंदा हैं लेकिन कल वे नहीं रहेंगे, तब भाई कैसे रख पाएगा? यही दर्द उसे हरदम कचोटता रहता था.

निर्मला कई बार यह सोचती थी कि वह मांबाप से अलग रहे, मगर एक विधवा का अकेले रहना बड़ा मुश्किल होगा. मर्दों के दबदबे वाले समाज में कई भेडि़ए उसे नोचने को तैयार बैठे हैं. कई वहशी मर्दों की निगाहें अब भी उस पर गड़ी रहती हैं. मां और बाबूजी भी उसे देख कर चिंतित हैं. ऐसी कोई बात नहीं है कि सिर्फ  वही अपने बारे में सोचती है.

मां और बाबूजी भी सोचते हैं कि निर्मला की जिंदगी कैसे कटेगी? वे खुद भी चाहते थे कि निर्मला की दोबारा शादी हो जाए, मगर समाज की बेडि़यों से वे भी बंधे हुए थे.

इसी कशमकश में समाज के कुछ ठेकेदार पवन सेठ का रिश्ता ले कर निर्मला के बाबूजी के पास आ गए.

बाबूजी को मालूम था कि पवन सेठ बहुत पैसे वाला है. उस का बड़ा भाई मनोहर सेठ के नाम से मशहूर है. मगर दोनों भाइयों के बीच 30 साल पहले ही घर की जायदाद को ले कर रिश्ता खत्म हो गया था. आज तक दोनों के बीच बोलचाल बंद है.

बाबूजी यह भी जानते थे कि पवन सेठ 64 साल के ऊपर है. यह बेमेल गठबंधन कैसे होगा? तब समाज के ठेकेदारों ने एक ही बात बाबूजी को सम झाने की कोशिश की थी कि यह निर्मला की जिंदगी का सवाल है. पवन सेठ के साथ वह खुश रहेगी.

तब बाबूजी ने सवाल उठाया था कि पवन सेठ नदी किनारे खड़ा वह ठूंठ है कि कब बहाव में बह जाए. फिर निर्मला विधवा की विधवा रह जाएगी. तब समाज के ठेकेदारों ने बाबूजी को सम झाया कि देखो, वह विधवा जरूर हो जाएगी, मगर सेठ की जायदाद की मालकिन बन कर रहेगी.

तब बाबूजी ने निर्मला से पूछा था, ‘निर्मला तुम्हारे लिए रिश्ता आया है.’

वह सम झते हुए भी अनजान बनते हुए बोली, ‘रिश्ता और मेरे लिए?’

‘हां निर्मला, तुम्हारे लिए रिश्ता.’

‘मगर बाबूजी, मैं एक विधवा हूं और विधवा की दोबारा शादी नहीं हो सकती,’ अपने पिता को सम झाते हुए निर्मला बोली थी.

‘हां, नहीं हो सकती है, मैं जानता हूं. मगर जब सोचता हूं कि तुम यह लंबी उम्र कैसे काटोगी, तो डर जाता हूं.’

‘जैसे, कोई दूसरी विधवा काटती है, वैसे ही काटूंगी बाबूजी,’ निर्मला ने जब यह बात कही, तब बाबूजी सोचविचार में पड़ गए थे.

तब निर्मला खुद ही बोली थी, ‘मगर बाबूजी, मैं आप की भावनाओं को भी अच्छी तरह सम झती हूं. आप बूढ़े पवन सेठ के साथ मेरा ब्याह करना चाहते हैं.’

‘हां बेटी, वहां तेरी जिंदगी अच्छी तरह कट जाएगी और विधवा की जिंदगी से छुटकारा भी मिल जाएगा,’ बोल कर बाबूजी ने अपने मन की सारी बात कह डाली थी. तब वह भी सहमति देते हुए बोली थी, ‘बाबूजी, आप किसी तरह की चिंता मत करें. मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं.’

यह सुन कर बाबूजी का चेहरा खिल गया था. फिर पवन सेठ के साथ निर्मला की बेमेल शादी हो गई.

निर्मला पवन सेठ के बंगले में आ गई थी. दुकान के नौकर अलग, घर के नौकर अलग थे. घर का नौकर रामलाल 20 साल का गबरू जवान था. बाकी तो वहां अधेड़ औरतें थीं.

जब पवन सेठ के साथ निर्मला हमबिस्तर होती थी, वह बहुत जल्दी ठंडा पड़ जाता था. राजेश के साथ जो रातें गुजारी थीं, पवन सेठ के साथ वैसा मजा नहीं मिलता था.

पवन सेठ ने कई बार उस से कहा था, ‘निर्मला, तुम मेरी दूसरी पत्नी हो. उम्र में बेटी के बराबर हो. अगर मेरी पहली पत्नी से कोई औलाद होती, तब वह तुम्हारी उम्र के बराबर होती. मैं तु झ से औलाद की आस रखता हूं. तुम मु झे एक औलाद दे दो.’

‘औलाद देना मेरे अकेले के हाथ में नहीं है,’ निर्मला अपनी बात रखते हुए बोली, ‘मगर, मैं देख रही हूं…’

‘क्या देख रही हो?’ उसे रुकते देख पवन सेठ ने पूछा.

‘हमारी शादी के 6 महीने हो गए हैं, मगर जितना जोश पैदा होता, वह पलभर में खत्म हो जाता है.’

‘अब मैं उम्र की ढलान पर हूं, फिर भी औलाद चाहता हूं,’ पवन सेठ की आंखों का इशारा वह सम झ गई. तब उस ने नौकर रामलाल से बातचीत करना शुरू किया.

निर्मला उसे बारबार किसी बहाने अपने कमरे में बुलाती, आंखों में हवस लाती. कभी वह अपना आंचल गिराती, कभी ब्लाउज का ऊपरी बटन खोल देती, तो कभी पेटीकोट जांघों तक चढ़ा लेती. मर्द कैसा भी पत्थरदिल हो, आखिर एक दिन पिघल ही जाता है.

रामलाल ने कहा, ‘मेम साहब, आप का मु झे देख कर बारबार आंचल गिराना मु झे अच्छा नहीं लगता. आप क्यों ऐसा करती हैं?’

‘अरे बुद्धू, इतना भी नहीं समझता है,’ निर्मला मुसकरा कर बोली और उस के गाल को चूम लिया.

‘सम झता तो मैं सबकुछ हूं, मगर मालिक…’

‘मालिक कुछ भी नहीं कहेंगे,’ बीच में ही उस की बात काट कर निर्मला बोली, ‘मालिक से क्यों घबराता है?’

यह सुन कर रामलाल पहले तो हैरान हुआ, फिर धीरे से मुसकरा दिया. उस ने आव न देखा न ताव निर्मला को दबोच लिया और उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

निर्मला ने कुछ नहीं कहा. फिर क्या था, निर्मला की शह पा कर जब भी मौका मिलता, वे दोनों हमबिस्तर हो जाते. इस का फायदा यह हुआ कि निर्मला का जोश शांत होने लगा था और एक दिन वह पेट से हो गई.

पवन सेठ बहुत खुश हुआ और जब पहला ही लड़का पैदा हुआ, तब पवन सेठ की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा.

निर्मला और बच्चे की देखरेख के लिए एक आया रख ली गई. जब भी बाजार या कहीं दूसरी जगह जाना होता, निर्मला अपने बच्चे को आया के पास छोड़ जाती है. मगर आज उस की ममता जाग गई थी, इसलिए साथ ले गई थी.

‘‘मेम साहब, बंगला आ गया,’’ जब ड्राइवर ने यह कहा, तब निर्मला पुरानी यादों से लौटी. जब वह कार से उतरने लगी, तब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम साहब, जिस दुकान पर आप खरीदारी करने पहुंची थीं, वहां से बिना खरीदारी किए क्यों लौट आईं?’’

‘‘मेरा मूड बदल गया,’’ निर्मला ने जवाब दिया.

‘‘मूड तो नहीं बदला मेम साहब, मगर मैं सब समझ गया,’’ कह कर ड्राइवर मुसकराया.

‘‘क्या सम झे मानमल?’’ गुस्से से निर्मला बोली.

‘‘इस बच्चे को ले कर उन औरतों ने…’’

‘‘देखो मानमल, तुम अपनी औकात में रहो,’’ बीच में ही बात काट कर निर्मला बोली.

‘‘हां मेम साहब, मैं भूल गया था कि मैं आप का ड्राइवर हूं,’’ माफी मांगते हुए मानमल बोला, ‘‘मगर, सच बात तो होंठों पर आ ही जाती है.’’

‘‘क्या सच बात होंठों पर आ जाती है?’’ निर्मला ने पूछा.

‘‘यही मेम साहब कि उन दोनों औरतों ने बच्चे को देख कर कहा होगा कि यह बच्चा सेठजी का खून नहीं है, बल्कि उन के नौकर रामलाल का है,’’ मानमल ने साफसाफ कह दिया.

तब निर्मला गुस्से से बोली, ‘‘देखो मानमल, तुम हमारे नौकर हो और अपनी हद में रहो. औरों की तरह हमारे संबंधों को ले कर बात करने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर निर्मला कार से उतर गई.

अभी निर्मला दालान पार कर रही थी कि आया ने आ कर बच्चे को उस से ले लिया. मानमल फिर मुसकरा दिया.

शन्नो की हिम्मत: एक बेटी ने कैसे बदली अपने पिता की जिंदगी

Family Story in Hindi: शन्नो थी तो 10 साल की ही, पर उस का बाप फिरोज खान उस से सख्त नफरत करता था. वजह यह थी कि बेटा पैदा न करने के जुर्म में वह शन्नो की मां को अकसर मारतापीटता था, जिस की शन्नो जम कर खिलाफत करती थी. शन्नो की मां अनवरी मजबूरी के चलते पति के सितम चुपचाप सह लेती थी, लेकिन एक दिन शन्नो का सब्र जवाब दे गया और उस ने बाकरपुर थाने जा कर बाप की शिकायत कर डाली. थाना इंचार्ज एसआई पूनम यादव ने सूझबूझ से काम लेते हुए फिरोज खान को हिरासत में ले लिया.

लेकिन जब पुलिस वाले फिरोज खान की कमर पर रस्सा बांधने लगे, तो शन्नो यह देख कर तड़प उठी. वह एसआई पूनम यादव से रोते हुए बोली, ‘‘मैडमजी, पापा को माफ कर दीजिए. आप इन्हें सिर्फ समझा दीजिए कि अब दोबारा कभी अम्मी को नहीं सताएंगे.

‘‘मैं यह नहीं जानती थी कि पापा इतनी बड़ी मुसीबत में फंस जाएंगे. प्लीज, पापा को छोड़ दीजिए,’’ कह कर वह उन से लिपट कर रोने लगी.

‘‘घबराओ नहीं बेटी, तुम्हारे पापा को कुछ नहीं होगा. हम इन्हें समझाबुझा कर जल्दी छोड़ देंगे,’’ एसआई पूनम यादव ने शन्नो को काफी समझाया, लेकिन वह रोतीबिलखती रही.

पापा के बगैर शन्नो थाने से बाहर नहीं आना चाहती थी. बड़ी मुश्किल से उसे घर पहुंचाया गया. इस वाकिए के बाद शन्नो हंसना ही भूल गई. पापा को उस की वजह से जेल जाना पड़ा था. इस बात का उसे बहुत अफसोस था. एसआई पूनम यादव ने फिरोज खान की माली हालत के मद्देनजर उस पर बहुत कम जुर्माना लगाया, जिस से वह एकाध महीने में ही जेल से छूट गया.

एसआई पूनम यादव ने फिरोज खान को जेल से बाहर आने के बाद समझाया, ‘‘देखो फिरोज, तुम ने बेटा पाने की चाहत में बेटियों की जो लाइन लगा रखी है, उस का बोझ तुम्हें अकेले ही उठाना पड़ेगा, इसलिए अब भी वक्त है कि तुम अपनी बेटियों को ही बेटा समझो. उन्हें प्यारदुलार दो.

‘‘अगर तुम्हारे घर बेटा पैदा नहीं हुआ, तो इस की जिम्मेदार तुम्हारी पत्नी नहीं है, बल्कि तुम खुद हो.

‘‘तुम्हारे घर में कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है, बल्कि तुम सब के दुश्मन हो और अपनी जिंदगी के साथ भी दुश्मनी कर रहे हो.

‘‘अब क्या तुम अपनी बेटी शन्नो से इस बात का बदला लोगे कि तुम्हारे द्वारा उस की मां पर ढाए जाने वाले जुल्म से घबरा कर वह थाने चली आई?’’

फिरोज खान सिर झुकाए चुपचाप एसआई पूनम यादव की बातें सुनता रहा.

‘‘खबरदार फिरोज, अब भूल से भी कोई ऐसीवैसी हरकत मत करना.’’

फिरोज खान ने एसआई पूनम यादव की बात को अनसुना कर दिया, क्योंकि उस के मन में शन्नो के लिए बदले की आग सुलग रही थी. घर में कदम रखते ही फिरोज ने शन्नो की पिटाई की.

बेटी को पिटता देख अनवरी बचाने आई, तो फिरोज ने उसे भी खूब मारापीटा, फिर दोनों मांबेटी को घर से निकाल दिया. इस दुखद मंजर को अड़ोसपड़ोस के लोग चुपचाप देखते रहे. किसी के लफड़े में पड़ने की क्या जरूरत है, इस सोच के चलते महल्ले वाले अपनेअपने जमीर को मुरदा बनाए हुए थे. कोई भी यह नहीं सोचना चाहता था कि कल उन के साथ भी ऐसा हो सकता है.

अनवरी शन्नो को साथ ले कर अपने मायके समस्तीपुर चली आई और अपनी बेवा मां से लिपट कर खूब रोई. सारा दुखड़ा सुनाने के बाद अनवरी बोली, ‘‘अम्मां, आज से शन्नो का जीनामरना आप को ही करना होगा.’’

सुबह होते ही अनवरी बस में सवार हो कर ससुराल लौट गई. इस बात को 10 साल बीत गए. शन्नो के ननिहाल वाले गरीब थे, इस के बावजूद मामूमौसी वगैरह ने मिलजुल कर शन्नो की परवरिश की. उसे अच्छी से अच्छी तालीम दे कर कुछ इस तरह निखारा कि अपनेपराए, सभी उस पर नाज करने लगे.

आज शन्नो 18-19 बरस की हो चली थी. इस दौरान फिरोज खान ने उस की कोई खोजखबर नहीं ली, क्योंकि वह उस से बहुत चिढ़ता था. उसी की वजह से उसे जेल जाना पड़ा था. शन्नो की मां अनवरी अकसर मायके आ कर बेटी को देख लेती थी.

इस बार अनवरी मायके आई, तो उस ने मायके के तमाम रिश्तेदारों को इकट्ठा किया और अपनी लाचारी बयान करते हुए शन्नो के हाथ पीले करने की गुहार लगाई. इस पर मायके वालों ने भरपूर हमदर्दी जताई.

शन्नो के बड़े मामू साबिर ने तो मीटिंग के दौरान ही अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराते हुए कहा, ‘‘देखिए, आप लोगों को ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं ने शन्नो के लिए एक अच्छा सा लड़का देख रखा है. वह शरीफ है, कम उम्र का है, पढ़ालिखा है और नौकरी भी बहुत अच्छी करता है.’’

लेकिन जब लड़के की असलियत पता की गई, तो मालूम हुआ कि वह किसी भी नजरिए से शन्नो के लायक नहीं था. वह 50 साल से ऊपर का था और 2 बीवियों को तलाक दे चुका था. नौकरी करने के नाम पर वह दिल्ली में रिकशा चलाता था.

साबिर द्वारा पेश किया गया ऐसा बेमेल रिश्ता किसी को पसंद नहीं आया. नतीजतन, उस रिश्ते को नकार दिया गया. इस पर साबिर ने नाराजगी जताई, तो उस की बड़ी बहन नरगिस बानो ने साबिर को तीखा जवाब दिया, ‘‘लड़का जब इतना ही अच्छा है, तो शन्नो को दरकिनार करो और उस से अपनी बेटी को ब्याह दो.’’

नरगिस बानो के इस फिकरे ने साबिर के होश ठिकाने लगा दिए. वह तिलमिला कर फौरन मीटिंग से उठ गया. शन्नो के लिए एक मुनासिब लड़के की तलाश जारी थी और जल्दी ही नरगिस बानो ने एक लायक लड़के को देख लिया, जो सब को पसंद आया. शादी की तारीख एक महीने के अंदर तय की गई. चंद ननिहाली रिश्तेदारों ने माली मदद में पहल की. इस में नरगिस बानो खासतौर से आगे रहीं.

लड़का पेशे से वकील होने के अलावा एक सच्चा समाजसेवी भी था. उस के स्वभाव में करुणा कूटकूट कर भरी थी. उस ने लड़की वालों से किसी चीज की मांग नहीं की थी.

शन्नो की बरात आने में 10 दिन बाकी रह गए थे. इसी बीच एक दिन शन्नो के होने वाले पति रिजवान ने नरगिस बानो को फोन कर शादी से इनकार करने का संकेत दिया. वजह पूछने पर उस ने बताया कि लड़की अपने बाप को जेल की हवा खिलवा चुकी है. इस वजह से कोई भी शरीफ लड़का ऐसी लड़की को अपना हमसफर बनाना पसंद नहीं करेगा.

शन्नो के ननिहाल वालों की आंखों में मायूसी का अंधेरा पसर गया. वे आपस में मिलबैठ कर सोचविचार कर रहे थे कि बिगड़ी बात कैसे बनाई जाए, तभी नरगिस बानो के मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. रिजवान का फोन था.

नरगिस बानो ने झट से फोन रिसीव किया और बोलीं, ‘‘तुम्हारे शुभचिंतकों ने हमारी शन्नो के खिलाफ और जो कुछ भी शिकायतें की हैं, तो वे भी हम से कह कर भड़ास निकाल लो.’’

‘ऐसी बात नहीं है, बल्कि मैं ने तो आप लोगों से माफी मांगने के लिए फोन किया है. मुझे माफ कर दीजिए प्लीज.’

नरगिस बानो ने मोबाइल फोन का स्पीकर औन कर दिया, ताकि लड़के की बात उन के अलावा घर के दूसरे लोग भी सुन सकें.

‘आप के ही कुछ सगेसंबंधी मेरे कान भर कर मुझे गुमराह करने पर तुले थे. लेकिन भला हो एसआई पूनम मैडम का, जिन्होंने आप के रिश्तेदारों द्वारा रची गई झूठी कहानी का परदाफाश कर मेरी आंखें खोल दीं.’

‘‘लेकिन, कौन पूनम मैडम?’’ नरगिस बानो ने चौंक कर पूछा.

‘जी, वे एक पुलिस वाली होने के अलावा समाजसेवी भी हैं. उन से मेरी अच्छी जानपहचान है. मैं ने उन से शन्नो और उस के अब्बू फिरोज खान साहब से संबंधित थानापुलिस वाली बात जब बताई, तो उन्हें वह सारा माजरा याद आ गया. तब उन की पोस्टिंग बाकरपुर थाने में थी. उन्होंने मुझे सबकुछ बता दिया है, जिस से सारी बात साफ हो गई और मेरा दिल साफ हो गया.’

शन्नो के ननिहाल वाले गौर से रिजवान की बातें सुन रहे थे. रिजवान ने आगे कहा, ‘बड़े अफसोस की बात है कि अपने लोग भी कितने दुश्मन होते हैं. ऐसे लोग अगर किसी मजबूर का भला नहीं कर सकते, तो कम से कम बुराई करने से परहेज करें.’

और फिर देखते ही देखते शन्नो की शादी रिजवान के साथ करा दी गई. शादी में एसआई पूनम यादव भी दूल्हे की तरफ से शरीक हुई थीं. विदाई के दौरान शन्नो की रोती हुई आंखें किसी को तलाश रही थीं. एसआई पूनम यादव उस की बेचैनी को समझ रही थीं. वे थोड़ी देर के लिए भीड़ से निकल गईं और जब लौटीं, तो उन के साथ शन्नो के अब्बू फिरोज खान थे. उस के हाथ में एक छोटी सी थैली थी.

अपने अब्बू को देखते ही शन्नो उन से लिपट गई और रोने लगी. फिरोज खान ने थैली शन्नो की तरफ बढ़ा दी. इसी बीच एसआई पूनम यादव शन्नो से मुखातिब हुईं, ‘‘तुम्हारे पापा ने कड़ी मेहनत और अरमान से तुम्हारे लिए ये गहने बनवाए हैं, इस की गवाह मैं हूं. मैं चाहे जहां भी रहूं, लेकिन ये कोई भी काम मुझ से मशवरा ले कर ही करते हैं.

‘‘तुम्हारे पापा अब बेटी को मुसीबत समझने की नासमझी से तोबा कर चुके हैं. तुम्हारी सारी बहनें अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर रही हैं और खूब नाम रोशन कर रही हैं.’’

‘‘मैडमजी ठीक बोल रही हैं बेटी,’’ यह शन्नो की मां अनवरी बानो थीं.

एसआई पूनम यादव बोलीं, ‘‘बस यह समझो कि शन्नो बेटी के अच्छे दिन आ गए हैं. मुबारक हो.’’

शन्नो बोली, ‘‘आप की बड़ी मेहरबानी मैडमजी. आप ने मेरे घर वालों को बिखरने से बचा लिया,’’ इतना कह कर वह एसआई पूनम यादव से लिपट कर इस तरह रो पड़ी, जैसे वह बरसों पहले बाकरपुर थाने में उन से लिपट कर रोई थी.

और दीप जल उठे : कैंसर से जूझती एक मां

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी.

कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

औक्टोपस कैद में : औरतों का शिकारी नेता

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे  झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह  झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी  झिझक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई समझ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

आलिया: आलिया को क्यों पसंद थी तन्हाई

अगर कोई कुछ सीखना चाहता है तो वह इन्हीं अच्छेबुरे लोगों के बीच रह कर ही सीख सकता है. अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो उसे इन्हीं लोगों के साथ ही आगे चलना होगा.

लेकिन उन लोगों का क्या, जिन्होंने यह दुनिया जी ही नहीं? ऐसे लोग जो अपने ख्वाबों में अपनी एक अलग दुनिया जीते हैं. वे किताबों, घर के बनाए उसूलों और टैलीविजन देख कर ही पूरी जिंदगी गुजार देते हैं.

ऐसे ही लोगों में से एक है आलिया. वह 12वीं क्लास में पढ़ती है. देखने में होशियार लगती है. और है भी, लेकिन उस ने अपना दिमाग सिर्फ किताब के कुछ पन्नों तक ही सिमटा रखा है. 12वीं क्लास में होने के बावजूद उस ने आज तक बाजार से अपनेआप एक पैन नहीं खरीदा है. वह छोटे बच्चों की तरह लंच बौक्स ले कर स्कूल जाती है और अपने पास 100 रुपए से ज्यादा जेबखर्च नहीं रखती है.

आलिया के पास आर्ट स्ट्रीम है और स्कूल में उस की एक ही दोस्त है हिना, जो साइंस स्ट्रीम में पढ़ती है. दोनों का एक सब्जैक्ट कौमन है, इसलिए वे दोनों उस एक सब्जैक्ट की क्लास में मिलती हैं और लंच बे्रक साथ ही गुजारती हैं.

आलिया को लगता है कि अगर कोई बच्चा 100 रुपए से ज्यादा स्कूल में लाता है तो वह बिगड़ा हुआ है. पार्टी करना, गपें मारना और किसी की खिंचाई करना गुनाह के बराबर है.

अगर कोई लड़की स्कूल में बाल खोल कर और मोटा काजल लगा कर आती है और लड़कों से बिंदास बात करती है तो वह उस के लिए बहुत मौडर्न है.

सच तो यह है कि आलिया बनना तो उन के जैसा ही चाहती है, पर चाह कर भी ऐसा बन ही नहीं पाती है. क्लास के आधे से ज्यादा बच्चों से उस ने आज तक बात नहीं की है.

एक बार रोहन ने आलिया से पूछा, ‘‘आलिया, क्या तुम हमारे साथ पार्टी में चलोगी? श्वेता अपने फार्महाउस पर पार्टी दे रही है.’’

आलिया का मन तो हुआ जाने का, पर उसे यह सब ठीक नहीं लगा. उस ने सोचा कि इतनी दूर फार्महाउस पर वह अकेली कैसे जाएगी.

‘‘नहीं, मैं नहीं आऊंगी. वह जगह बहुत दूर है,’’ आलिया बोली.

‘‘तो क्या हुआ. हम तुम्हें अपने साथ ले लेंगे. तुम कहां रहती हो, हमें जगह बता दो,’’ श्वेता ने भी साथ चलने के लिए कहा.

‘‘नहीं, मैं वहां नहीं जा पाऊंगी,’’ आलिया ने साफ लहजे में कहा.

‘‘बाय आलिया,’’ छुट्टी के वक्त रोहन ने आलिया से कहा.

आलिया सोचने लगी कि आज वह इतनी बातें क्यों कर रही है. वह रोहन की बात को अनसुना करते हुए आगे निकल गई.

रोहन को लगा कि वह बहुत घमंडी है. इस के बाद उस ने कभी आलिया से बात नहीं की.

अगले दिन आलिया को लंच ब्रेक में हिना मिली. अरे, हिना के बारे में तो बताया ही नहीं. वह आलिया की तरह भीगी बिल्ली नहीं है, बल्कि बहुत बिंदास और मस्त लड़की है. लेकिन अलग मिजाज होने के बावजूद दोस्ती हो ही जाती है. हिना की भी अपनी क्लास में ज्यादा किसी से बनती नहीं थी. इसी वजह से वे दोनों दोस्त बन गईं.

हिना को आलिया इसलिए पसंद थी, क्योंकि वह ज्यादा फालतू बात नहीं करती थी और कभी भी हिना की बात नहीं काटती थी. आलिया को कभी पता ही नहीं चलता था कि कौन किस तरह की बात कर रहा है.

बचपन से ले कर स्कूल के आखिरी साल तक आलिया सिर्फ स्कूल पढ़ने जाती है. बाकी बच्चे कैसे रहते हैं और कैसे पढ़ते हैं, इस पर उस ने कभी ध्यान ही नहीं दिया. अपनी 17 साल की जिंदगी में वह इतना कम बोली है कि शायद बात करना ही भूल गई है. उस की जिंदगी के बारे में जितना बताओ, उस से कहीं ज्यादा अजीब है.

हां, तो हम कहां थे. अगले दिन आलिया लंच ब्रेक में हिना से मिली और रोहन के बारे में बताया.

‘‘आलिया, सिर्फ ‘बाय’ कहने से कोई तुम्हें खा नहीं जाएगा. अगर बच्चे पार्टी नहीं करेंगे, तो क्या 80 साल के बूढ़े करेंगे. वैसे, कर तो वे भी सकते हैं, पर इस उम्र में पार्टी करने का ज्यादा मजा है. स्कूल में हम सब पढ़ने आते हैं, पर यों अकेले तो नहीं रह सकते हैं न. बेजान किताबों के साथ तो बिलकुल नहीं.

‘‘खुद को बदलो आलिया, इस से पहले कि वक्त हाथ से निकल जाए. क्या पता कल तुम्हें उस से काम पड़ जाए, पर अब तो वह तुम से बात भी नहीं करेगा. तू एवरेज स्टूडैंट है, पर दिनभर पढ़ती रहती है और तेरी क्लासमेट पूजा जो टौपर है, वह कितना ऐक्स्ट्रा करिकुलर ऐक्टिविटीज में हिस्सा लेती है. इतने सारे दोस्त हैं उस के.

‘‘टौपर वही होता है, जो दिमागी और जिस्मानी तौर पर मजबूत होता है. जो सिर्फ पढ़ाई ही नहीं करता, बल्कि जिंदगी को भी ऐंजौय करता है.’’

‘‘अच्छा ठीक है. अब लैक्चर देना बंद कर,’’ आलिया ने कहा.

‘‘तू फेसबुक पर कब आएगी? मुझे अपनी कजिन की शादी की पिक्स दिखानी हैं तुझे,’’ हिना ने कहा.

‘‘मेरे यहां इंटरनैट नहीं है. फोटो बन जाएं तब दिखा देना.’’

‘‘ठीक है देवीजी, आप के लिए यह भी कर देंगे,’’ हिना ने मजाक में कहा.

लंच ब्रेक खत्म हो गया और वे दोनों अपनीअपनी क्लास में चली गईं.

‘‘मम्मी, पापा या भाई से कह कर घर में इंटरनैट लगवा दो न.’’

‘‘भाई तो तेरा बाहर ही इंटरनैट इस्तेमाल कर लेता है और पापा से बात की थी. वे कह रहे थे कि कुछ काम नहीं होगा, सिर्फ बातें ही बनाएंगे बच्चे.’’

‘‘तो आप ने पापा को बताया नहीं कि भाई तो बाहर भी इंटरनैट चला लेते हैं और मुझे उस का कखग तक नहीं आता है. मेरे स्कूल में सारे बच्चे इंटरनैट इस्तेमाल करते हैं,’’ आलिया ने थोड़ा गुस्सा हो कर कहा.

‘‘अच्छा, अब ज्यादा उलटीसीधी जिद न कर. पता नहीं, किन जाहिलों में रह रही है. बात करने की तमीज नहीं है तुझे. इतना चिल्लाई क्यों तू?’’ मां ने डांटते हुए कहा.

आलिया अकेले में सोचने लगी कि भाई तो बाहर भी चला जाता है. उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होती और वह घर में ही रहती है, फिर भी भिखारियों की तरह हर चीज मांगनी पड़ती है.

कुछ पेड़ हर तरह का मौसम सह लेते हैं और कुछ बदलते मौसम का शिकार हो जाते हैं. आलिया ऐसे ही बदलते मौसम का शिकार थी.

आलिया का परिवार सहारनपुर से है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती हैं. 12वीं क्लास के बाद ही ज्यादातर सब की शादी हो जाती है. दिल्ली में रहने के बाद भी आलिया नहीं बदली. जब वह छोटी थी तब उस के सारे काम भाई और मम्मी ही करते थे.

वे जितना प्यार करते थे, उतनी ही उस पर पाबंदी भी रखते थे. दिल्ली में एक अच्छे स्कूल में होने की वजह से उसे पढ़ाई का बढि़या माहौल मिला, पर स्कूल के दूसरे बच्चों के घर के माहौल में और उस के घर के माहौल में जमीनआसमान का फर्क था.

आलिया स्कूल से घर दोपहर के 3 बजे आती है, फिर खाना खाती है, ट्यूशन पढ़ती है. रात में थोड़ा टीवी देखने के बाद 10 या 11 बजे तक पढ़ कर सो जाती है. उस के घर के आसपास कोई उस का दोस्त नहीं है और उस के स्कूल का भी कोई बच्चा वहां नहीं रहता है.

कुछ दिनों के बाद स्कूल के 12वीं क्लास के बच्चों की फेयरवैल पार्टी थी. आलिया भी जाना चाहती थी, पर भाई और पापा काम की वजह से उसे ले कर नहीं गए और अकेली वह जा नहीं सकती थी. न घर वाले इस के लिए तैयार थे, न उस में इतनी हिम्मत थी.

12वीं क्लास के एग्जाम हो गए. पास होने के बाद हिना और आलिया का अलगअलग कालेज में दाखिला हो गया. आलिया की आगे की कहानी क्या है. जो हाल स्कूल का था, वही हाल कालेज का भी था. घर से कालेज और कालेज से घर. पूरे 3 साल में बस 2-3 दोस्त ही बन पाए.

बाद में आलिया ने एमबीए का एंट्रैस एग्जाम दिया, पर पापा के कहने पर बीएड में एडमिशन ले लिया. उस के पापा को प्राइवेट कंपनी में जौब तो करानी नहीं थी, इसलिए यही ठीक लगा.

बीएड के बाद आलिया का रिश्ता पक्का हो गया. नवंबर में उस की शादी है.

एक बात तो बतानी रह गई. 12वीं क्लास के बाद उस ने अपना फेसबुक अकाउंट बना लिया था. जैसेतैसे घर पर इंटरनैट लग गया था. एक दिन उस ने फेसबुक खोला तो हिना का स्टेटस मिला कि उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई है.

आलिया ने फिर हिना के फोटो देखे और दूसरे क्लासमेट के भी. सभी अपने दोस्तों के साथ किसी कैफे में तो किसी फंक्शन के फोटो डालते रहते हैं. सभी इतने खुश नजर आते हैं.

अचानक आलिया को एहसास हुआ कि सभी अपनी जिंदगी की छोटीबड़ी यादें साथ रखते हैं. सभी जितना है, उसे और अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं. स्कूल टाइम से अब तक सब कितने बदल गए हैं. कितने अच्छे लगने लगे हैं.

सभी काफी खुश लगते हैं और वह… आलिया को एहसास हुआ कि उस ने कभी जिंदगी जी ही नहीं. स्कूल या कालेज की एक भी तसवीर उस के पास नहीं है. शादी के बाद जिंदगी न जाने कौन सा रंग ले ले, पर जिसे वह अपने हिसाब से रंग सकती थी, वह सब उस ने मांबाप के डर और अकेलेपन से खो दिया.

वह दिन भी आ गया, जब आलिया की शादी हुई. हिना भी उस की शादी में आई थी. विदाई के वक्त आलिया की आंखों में शायद इस बात के आंसू थे कि वह जिस वक्त को बिना डरे खुशी से जी सकती थी, उसे किताबों के पन्नों में उलझा कर खत्म कर दिया. जो वक्त बीत गया है, उस में कोई कमी नहीं थी, पर आने वाला वक्त उसे नापतोल कर बिताना होगा.

आशा, आयशा शकील, आयशा मैसी : 3 किरदारों वाली एक औरत

उस का नाम कई बार बदला गया. उस ने जिंदगी के कई बडे़ उतारचढ़ाव देखे. झुग्गीझोंपड़ी की जिंदगी वही जान सकता है, जिस ने वहां जिंदगी बिताई हो. तंग गलियां, बारिश में टपकती छत. बाप मजदूरी करता, मां का साया था नहीं, मगर लगन थी पढ़ने की. सो, वह पास के ही एक स्कूल से मिडिल पास कर गई.

मिसेज क्लैरा से बातचीत कर के उस की अंगरेजी भी ठीक हो चली थी. पासपड़ोस के आवारा, निठल्ले लड़के जब फिकरे कसते, तो दिल करता कि वह यहां से निकल भागे. मगर वह जाती कहां? बाप ही तो एकमात्र सहारा था उस का. आम लड़कियों की तरह उस के भी सपने थे. अच्छा सा घर, पढ़ालिखा, अच्छे से कमाता पति. मगर सपने कब पूरे होते हैं?

उस का नाम आशा था. उस के लिए मिसेज क्लैरा ही सबकुछ थीं. वही उसे पढ़ालिखा भी रही थीं. वे कहतीं कि आगे पढ़ाई कर. नर्सिंग की ट्रेनिंग कराने का जिम्मा भी उन्हीं के सिर जाता है. उसे अच्छे से अस्पताल में नौकरी दिलाने में मिसेज क्लैरा का ही योगदान था. वह फूली नहीं समाती थी.

सफेद यूनिफौर्म में वह घर से जब निकली, तो वही आवारा लड़के आंखें फाड़ कर कहते, ‘‘मेम साहब, हम भी तो बीमार हैं. एक नजर इधर भी,’’ पर वह अनसुना कर के आगे बढ़ जाती.

पड़ोस का कलुआ भी उम्मीदवारों की लिस्ट में था. अस्पताल में शकील भी था. वह वहां फार्मासिस्ट था. वह था बेहद गोराचिट्टा और उस की बातों से फूल झड़ते थे.

लोगों ने महसूस किया कि फुरसत में वे दोनों गपें हांकते थे. आशा की हंसी को लोग शक की नजरों से देखने लगे थे. सोचते कि कुछ तो खिचड़ी पक रही है.

इस बात से मिसेज क्लैरा दुखी थीं. वे तो अपने भाई के साथ आशा को ब्याहना चाहती थीं. इश्क और मुश्क की गंध छिपती नहीं है. आखिरकार आशा से वह आयशा शकील बन गई. उन दोनों ने शानदार पार्टी दी थी.

यह देख मिसेज क्लैरा दिमागी आघात का शिकार हो गई थीं. वे कई दिन छुट्टी पर रहीं… आशा यानी आयशा उन से नजरें मिलाने से कतरा रही थी.

मिसेज क्लैरा का गुस्सा वाजिब था. वे तो अपने निखट्टू भाई के लिए एक कमाऊ पत्नी चाहती थीं. मगर अब क्या हो सकता था, तीर कमान से निकल चुका था.

आयशा वैसे तो हंसबोल रही थी, मगर उस के दिल पर एक बोझ था.

शकील ने भांपते हुए कहा, ‘‘क्या बात है? क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं. बस, थकान है,’’ कह कर उस ने बात टाल दी.

मिसेज क्लैरा सबकुछ भुला कर अपने काम में बिजी हो गईं. आयशा ने उन की नजरों से बचने के लिए दूसरे अस्पताल में नौकरी तलाश ली थी.

आयशा की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया था. उस का स्वभाव अब भी वैसा ही था. मरीजों को दवा देना, उन का हालचाल पूछना.

उस का बचपन का देखा सपना पूरा हो चला था. वह कच्चे मकान और बदबूदार गलियों से निकल कर स्टाफ क्वार्टर में रहने को आ गई थी. धीरेधीरे कुशल घरेलू औरत की तरह उस ने सारे सुख के साधन जुटा लिए थे. 3 साल में वह दोनों 2 से 4 बन चुके थे. एक बेटा और एक बेटी.

कल्पनाओं की उड़ान इनसान को कहां से कहां ले जाती है. इच्छाएं दिनोंदिन बढ़ती चली जाती हैं. बच्चों की देखभाल की चिंता किए बिना ही शकील परदेश चला गया… आयशा ने लाख मना किया, मगर वह नहीं माना.

आयशा रोज परदेश में शकील से बातें करती व बच्चों का और अपने प्यार का वास्ता देती. बस, उस के सपने 4 साल ही चल सके. मिडिल ईस्ट में शायद शकील ने अलग घर बसा लिया था. आयशा के सपने बिखर गए.

शुरूशुरू में तो शकील के फोन भी आ जाते थे कि अपना और बच्चों का ध्यान रखना. कभीकभार वैसे भी आते रहे. दिनों के साथ प्यार पर नफरत की छाया पड़ने लगी.

‘‘बुजदिल… बच्चों पर ऐसा ही प्यार उमड़ रहा था, तो देश छोड़ कर गया ही क्यों?’’

आयशा समझ गई थी कि शकील अब लौट कर नहीं आएगा… वह नफरत से कहती, ‘‘सभी मर्द होते ही बेवफा हैं.’’

आयशा अब पछता रही थी. उसे अपने सपने पूरे करने के बजाय मिसेज क्लैरा के सपने पूरे करने चाहिए थे. ‘पलभर की भूल, जीवन का रोग’ सच साबित हो गया.

शकील भी शायद आयशा से छुटकारा पाना चाहता था और वह भी… आसानी से तलाक भी हो गया. उस दिन वह फूटफूट कर रोई थी.

बच्चों ने पूछा, ‘मम्मी, क्या पापा अब नहीं आएंगे?’

‘‘नहीं…’’ आयशा रोते हुए बोली थी.

‘क्यों नहीं?’ बच्चों ने पूछा था.

‘‘क्योंकि, तुम्हारे पापा ने नई मम्मी ढूंढ़ ली है.’’

आशा ने मिसेज क्लैरा के भाई से शादी कर ली… उन्हें शांति मिल गई थी. पर वे खुद कैंसर से पीडि़त थीं. अब वह आशा ग्रेस मैसी बन चुकी थी. मिसेज क्लैरा की जिंदगी ने आखिरी पड़ाव ले लिया था. वे भी दुनिया सिधार चुकी थीं. अब वह और ग्रेस मैस्सी… यही जीवन चक्र रह गया था. मगर उस का बेटा शारिक ग्रेस को स्वीकार न कर सका.

शारिक अकसर घर से बाहर रहने लगा. वह समझदार हो चला था. वह लाख मनाती कि अब तुम्हारे पापा यही हैं.

‘‘नहीं… मेरे पापा तो विदेश में हैं. मैं अभी तुम्हारी शिकायत पापा से करूंगा. मुझे पापा का फोन नंबर दो.’’

यह सुन कर आशा हैरान रह जाती. आशा की बेटी समीरा गुमसुम सी रहने लगी थी. ग्रेस भी आशा के पैसों पर ऐश कर रहा था. आज मिसेज क्लैरा न थीं, जो हालात संभाल लेतीं.

आशा आज कितनी अकेली पड़ गई थी. अस्पताल और घर के अलावा उस ने कहीं आनाजाना छोड़ दिया था. हंसी उस से कोसों दूर हो चली थी, मगर जिम्मेदारियों से वह खुद को अलग नहीं कर सकी थी.

शारिक को आशा ने अच्छी तालीम दिलाई. वह घर छोड़ कर जाना चाहता था. सो, वह भी चला गया. शराब ने ग्रेस को खोखला कर दिया था. वह दमे का मरीज बन चुका था.

शारिक 2-4 दिन को घर आता, तो नाराज हो जाता. वह कहता, ‘‘मम्मी, कहे देता हूं कि इसे घर से निकालो. यह हरदम खांसता रहता है. सारा पैसा इस की दवाओं पर खर्च हो जाता है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटा.’’

‘‘मम्मी, आप ने दूसरी शादी क्यों की?’’

और यह सुन कर आशा चुप्पी लगा जाती. वह तो खुद को ही गुनाहगार मानती थी, मगर वह जानती थी कि उस ने मिसेज क्लैरा के चलते ऐसा किया. वह उस की गौडमदर थीं न?

आशा अब खुद ईसाई थी, मगर उस ने अपने बच्चों को वही धर्म दिया, जिस का अनुयायी उन का बाप था.

समीरा की शादी भी उस ने उसी धर्म में की, जिस का अनुयायी उस का बाप था.

आशा का घर दीमक का शिकार हो चला था. वह फिर से झुगनी बस्ती में रहने को पहुंच गई थी.

ग्रेस ने उसी झुगनी बस्ती में दम तोड़ा. बेटे शारिक को उस ने ग्रेस के मरने की सूचना दी, मगर वह नहीं आया.

आशा अब तनहा जिंदगी गुजार रही थी. उस की ढलती उम्र ने उसे भी जर्जर कर दिया था. रात में न जाने कितनी यादें, न जाने कितने आघात उसे घेर लेते. वह खुद से ही पूछती, ‘‘मां बनना क्या जुर्म है? क्या वही जिंदगी का बोझ ढोने को पैदा होती है?’’

उसे फिल्म ‘काजल’ का वह डायलौग याद आ रहा था, जिस में मां अपने बेटे का इंतजार करती है. धूपबत्ती जल रही है. गंगाजल मुंह में टपकाया जा रहा है. डूबती सांसों से कहती है, ‘स्त्री और पृथ्वी का जन्म तो बोझ उठाने के लिए ही हुआ है.’

आशा के सीने पर लगी चोट अब धीरेधीरे नासूर बन कर रिस रही थी. बेटा शारिक आखिरी समय में आया और बेटी समीरा भी आई. मां को देख बेटा भावविभोर था, ‘‘मम्मी, आखिरी समय है आप का. अब भी लौट आओ.

‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा. मरने के बाद इस शरीर को चाहे आग में जला देना, चाहे मिट्टी के हवाले करना…’’ और वह दुनिया से चली गई.

किसी की आंख से एक आंसू भी नहीं टपका. अंतिम यात्रा में कुछ लोग ही शामिल थे.

‘‘क्या यह वही नर्स थी. क्या नाम था… मैसी?’’

‘‘तो क्या हुआ अंतिम समय में तो वह कलमा गो यानी मुसलिम थी. कहां ले जाएं इसे. यहीं पास में एक कब्रिस्तान है. वहीं ले चलें. और आशा मिट्टी में समा गई.’’

मैं अकसर उधर से गुजर रहा होता. आवारा लड़के क्रिकेट खेलते नजर आते. वहां कुछ ही कब्रें रही होंगी. शायद लावारिस लोगों की होंगी. लेकिन आशा के वारिस भी थे. एक बेटा और एक बेटी.

इस नाम के कब्रिस्तान में कोई दीया जलाने वाला न था. अब चारों तरफ ऊंचीऊंची इमारतें बन गई थीं. लोगों ने अपनी नालियों के पाइप इस कब्रिस्तान में डाल दिए थे.

3 महीने बाद आशा की बेटी समीरा बैंक की पासबुक लिए मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मी के 50 हजार रुपए बैंक में जमा हैं. जरा चल कर आप सत्यापन कर दें. हम वारिस हैं न?’’

और मैं सोच रहा था कि आशा न जाने कितनी उम्मीदें लिए दुनिया से चली गई. वह जिस गंदी बस्ती में पलीबढ़ी, वहीं उस ने दम तोड़ा.

मेरे दिमाग में कई सवाल उभरे, ‘क्या फर्क पड़ता है, अगर आशा किसी ईसाई कब्रिस्तान में दफनाई जाती? क्या फर्क पड़ता है, अगर वह ताबूत में सोई होती? शायद, उस के नाम का एक पत्थर तो लगा होगा.’

‘‘हाय आशा…’’ मेरे मुंह से निकला और मेरी पलकें भीग गईं.

नायर साहब : सेना के सीक्रेट मिशन का अनोखा कोडवर्ड

टारगेट प्रैक्टिस कर रहे कमांडो सन्नी की गन से लगातार निकल रही गोलियां अचूक निशाने पर लग रही थीं. हर गोली कुछ एमएम इधरउधर हो रही थीं. रैपिड फायरिंग हो या लौंग रेंज या शौर्ट रेंज. गोलियों की आवाज कुछ देर के लिए रुकी. सामने लाल बत्ती जलबुझ रही थी. यह इमर्जैंसी का सिगनल था.

‘‘इमर्जैंसी?‘‘

इस के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, चौबीसों घंटे वरदी पहने रहता था. पर बेस्ट कमांडो को प्रैक्टिस रोक कर बुलाने का मतलब…?

‘‘कोई हाईजैकिंग, टैररिस्ट अटैक हुआ क्या…?‘‘ सन्नी ने बाहर निकल कर घंटी बजाने वाले जवान से पूछा.

‘‘सर कुछ पता नहीं न्यूज चैनल में तो कुछ भी खास नहीं. वैसे तो वो लोग सभी न्यूज को ब्रेकिंग न्यूज बताते हैं. आप सर बेस्ट कमांडो अफसर हैं, वे लोग आप को बताएंगे, आप का मोबाइल नौनस्टौप बज रहा था, इसलिए आप को सिगनल दिया.‘‘

‘‘इडियट, जोकर है तुम… मोबाइल बज रहा था तो क्या…?‘‘ नाराज हो कर सन्नी लौटने वाला था.

तभी डरतेडरते जवान ने कहा, ‘‘सरजी, आप का स्पैशल मोबाइल बज रहा था और हैडक्वार्टर से आप का हालचाल कोई नायर साहब पूछ रहे थे कि आप की तबीयत कैसी है…?‘‘

‘‘ओह नायर साहब, वे तो मेरे दोस्त हैं…‘‘ सन्नी के तेवर नरम पड़े. प्रैक्टिस बीच में छोड़ना उसे पसंद नहीं था, पर बात जरूर खास थी.

‘‘मेरा प्रैक्टिस चैंबर बंद कर दो. अब मूड नहीं है,‘‘ सन्नी अपना सामान कप बोर्ड में रखता हुआ बोला.

सन्नी अपना बैग ले कर तुरंत गाड़ी में बैठा. ‘नायर साहब‘ कोड था कि कोई सीक्रेट मिशन है, जिस की चर्चा तक नहीं करनी है. स्पैशल हैक न होने वाले मोबाइल पर टैक्स्ट मैसेज था – आप का दिन शुभ हो, नायर साहब औफिस में आप का इंतजार कर रहे हैं.

औफिस पहुंच कर उस ने पूरे मिशन – ‘मिशन ग्रीन‘ की बारीकी से स्टडी की. 85 सीआरपीएफ जवानों की हत्या हुई थी और तमाम उपायों के बाद भी माओवादी हिंसा रुक नहीं रही थी. सन्नी जानता था कि उस का चयन बहुत ही सोचसमझ कर किया गया था. वह भी गांव का रहने वाला था और वहां की हर तरह के हालात को बेहतर तरीके से हैंडल कर सकता था.

सन्नी दूर तक फैले जंगल और ऊंची पहाड़ियों की ओर मुड़मुड़ कर देखता. आसपास के गांव की तलाश में आगे बढ़ा. जंगल अब खत्म हो गए थे और जंगल किनारे के खेत नजर आने लगे थे.

‘आपरेशन ग्रीन‘ सफल रहा था और उस ने उन के सुप्रीम कमांडर को मार गिराया था. किसी को पता नहीं था कि 2 गुटों की दबदबे की लड़ाई की आड़ में दोनों ओर के मारे गए लोग उस की अचूक निशानेबाजी के शिकार हुए थे. यह उस के पहले इंस्ट्रक्टर बुद्धन गुरु की सिखाई रणनीति थी, जो इसी इलाके के थे और अब रिटायर हो चुके थे.

अपनी सफलता की कहानी वह कमांडो ट्रेनिंग हैडक्वार्टर तक पहुंचा भी नहीं पाया था, क्योंकि कोई भी संचार उपकरण रखना खतरे से खाली नहीं था. अब वह निहत्था भी था. हथियार पहाड़ी झरने में फेंक आया था, ताकि कोई उसे पहचान न पाए.

पर उसे भी 2 गोलियां लगी थीं. वह बैस्ट कमांडो था और हर हालात में अपने को बचाने और जीवित रखने के तरीके जानता था, पर सीक्रेट मिशन के कारण वह ग्रामीण वेशभूषा में था और भयंकर गोलीबारी में अपने छापामार युद्ध के बाद बहुत खून बहने के कारण बुरी तरह थक चुका था. अब आपरेशन कर गोली निकालने में किसी अस्पताल या सरकारी एजेंसी की मदद भी नहीं ले सकता था.

नजदीकी थाना 20 किलोमीटर दूर था. दूसरे किसी और का मोबाइल इस्तेमाल करना बहुत हद तक खतरनाक था, क्योंकि वहां मोबाइल उन के ही लोगों के पास थे और कोई ऐसा समर्थक भी नहीं था तो किसी डाक्टर के आने पर उस से माओवादियों को शक हो जाता. अब उस के पास एक ही रास्ता था किसी रिटायर्ड फौजी या पुलिस वाले से मदद ले कर गोली बाहर निकलवाना.

‘‘पर, ऐसा फौजी इस जंगल के बीच मिलेगा कहां? अगर मिल भी गया तो इन माओवादियों के डर से उस की मदद कौन करेगा?‘‘

गांव में उस के खून सने कपड़े देख कर कोई मदद के लिए तैयार नहीं था. एक दयालु बुढ़िया ने उसे एक फौजी का घर दिखाया. दरवाजे की सांकल बजाते ही वह बुखार और कमजोरी से बेहोश हो कर गिर गया.

कई दिनों के बाद होश में आने पर उस ने अपने पहले इंस्ट्रक्टर हवलदार बुद्धन को देखा, जिस ने आज से 10 साल पहले उसे छापामार युद्ध की बारीकियां सिखाई थीं. वह अपने बारे में बताना चाह रहा था, पर गले में कांटे चुभ रहे थे और बोलना संभव नहीं था. वह अपने जमाने के बेस्ट इंस्ट्रक्टर के घर में था, इसलिए बच गया था. उसे हवलदार बुद्धन की दूर से आती आवाज सुनाई दी. वह स्थानीय भाषा में उस से उस का परिचय पूछ रहा था. फिर उस की आंखें मुंद गई थीं.

वह समझ गया था कि बुद्धन ने उसे नहीं पहचाना था. उस के जैसे सैकड़ों कमांडो को उस ने ट्रेनिंग दी होगी, कितनों को पहचानेगा? दूसरे, यहां एनएसजी के बेस्ट कमांडो का पाया जाना कल्पना से परे था. यहां तो पुलिस या पैरामिलिट्री फोर्स के जवान आते थे जो बाहरी होते थे और हावभाव, बोलीभाषा से पहचान लिए जाते थे.

पर, ये बात बुद्धन से छिपी नहीं रह सकती थी कि बहुत ही सफाई से दो खूंख्वार माओवादी गुटों को समाप्त करना किसी कमांडो के अलावा किसी से संभव नहीं था और वो भी जो यहां की भाषा, संस्कृति के साथ भूगोल से अच्छी तरह वाकिफ हो. ऐसे में अपने पुराने शिष्य को पहचान लेना मुश्किल नहीं था.

सन्नी ने अपना परिचय और उद्देश्य बता देना उचित समझा, क्योंकि वह जानता था कि बुद्धन एक देशभक्त फौजी रह चुका था और सच जानने के बाद यहां से सुरक्षित निकालने में उस की मदद कर सकता था.

एक दिन अकेले में जब बुद्धन उस की मरहमपट्टी कर रहा था, तो उस ने बुद्धन से पूछा, ‘‘सर, आप मिलिट्री में कहां थे?‘‘

बुद्धन चुप रहा और उसी दिन उसे अपने खेत के पास वाले घर में ले गया, जहां गांव वालों का आनाजाना नहीं था. वहां उस ने उसे उस के नाम से संबोधित कर कहा, ‘‘सन्नी, जब तक मैं न आऊं, किसी भी हाल में बाहर झांकना तक नहीं.‘‘

यह सुन कर सन्नी सन्न रह गया. उस का अनुमान सही था, तभी उसे याद आया कि उस की कोहनी के भीतरी तरफ दो निशान थे, जो हर बेस्ट कमांडो के हाथों में होते हैं. आम आदमी न समझ पाए, पर बुद्धन गुरु के लिए ये बहुत आसान था कि साधारण से दिखने वाले इस जवान के हाथ में ये निशान 2 छेद करने पर बने थे, जो खुद का खून पी कर जिंदा रहने की अंतिम ट्रेनिंग होती है. सन्नी किसी भी हालात के लिए तैयार था, जो उस की आदत थी.

उस सुनसान से घर में दिन में कुछ लोगों की आवाजें सुनाई पड़ती थीं, जो खेतों में काम करते थे. उन की बातें सुन कर उसे पता चला कि एक मारा गया सुप्रीम कमांडर उसी गांव का था और उस के बचेखुचे साथी दूसरे गुट और उस के सुप्रीमो से बहुत नाराज थे, जिस ने उस की हत्या की थी और खुद भी मारा गया था. अभी तक दूसरा गुट इस सदमे से उबर नहीं पाया था.

एक दिन एकदम मुंहअंधेरे बुद्धन गुरु उस के पास आया और बोला, ‘‘सन्नी, अब तुम बिलकुल ठीक हो. कुछ दिन मिलिट्री हौस्पिटल में रहोगे तो ड्यूटी के लिए फिट हो जाओगे. मैं ने पास के पुलिस कैंप से आगे जाने की व्यवस्था कर दी है. अभी चलो मेरे साथ…‘‘

सन्नी ने इतने दिनों तक रोज उसे दिनरात खिलानेपिलाने सेवा करने वाली बुद्धन की पत्नी से मिल कर आभार प्रकट करने की इच्छा व्यक्त की, ‘‘सर, मैं चाचीजी से मिल कर उन के पैर छूना चाहता हूं…‘‘

‘‘अभी उस की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उस को परेशान करना उचित नहीं,‘‘ बुद्धन ने कहा. दोनों तेजी से आगे बढ़ ही रहे थे कि बुद्धन की पत्नी सामने राइफल लिए खड़ी थी, ‘‘चलिए, मैं भी इसे छोड़ने चलती हूं और आप राइफल के बिना जंगल में निकलते कैसे हैं?‘‘

सन्नी ने 1-2 बार उन का आभार व्यक्त करने की कोशिश की, पर उन्होंने बात बदल दी, ‘‘यह जंगल है. यहां हर पल सावधान रहना पड़ता है, आगे देखो…” उन के उखड़े हुए स्वर से लगा कि वह अनचाहा मेहमान था. बुद्धन गुरु पहले की तरह भावहीन थे. सुबह होतेहोते तीनों जंगल के छोर पर पहुंच गए थे.

बुद्धन ने कहा, ‘‘यह रास्ता सीधा पुलिस कैंप तक जाएगा, कोई अगर पूछे तो बताना कि मेरे मेहमान हो, शहर जाना है.‘‘

सन्नी ने दोनों के पैर छुए, पर दोनों ने कुछ कहा नहीं. दो कदम आगे बढ़ते ही बुद्धन की पत्नी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘अब हमारी सीमा समाप्त हो गई है और इसलिए ये हमारा मेहमान नहीं है. गोली मारो मेरे एकलौते बेटे के हत्यारे को…‘‘

सन्नी समझ गया था कि सुप्रीम कमांडर, जिस की उस ने हत्या की थी, बुद्धन सर का ही भटका हुआ बेटा था. राइफल कौक हुआ… सन्नी समझ चुका था कि अब एक बेटे का बाप उस के हत्यारे को सजा देने के लिए तैयार था, ठीक उस की तरह बुद्धन सर का निशाना कभी नहीं चूकता…

कुछ पल और बाकी थे और पीछे से गोली का एक धक्का उस के सिर के टुकड़े करने वाला था. उस ने अंतिम बार अपनी मां को याद किया…

गोली चली, पर यह हवाई फायर था. गोली पेड़ के ऊपर टहनियों से टकरा कर आगे निकल गई थी… वह समझ गया था कि एक रिटायर्ड फौजी भी फौजी ही होता है, जिस के लिए देश सब से पहले होता है. सन्नी ने उस दंपती को खड़े हो कर सैल्यूट किया और तेजी से आगे बढ़ गया.

हेलीकौप्टर के पायलट की बात सुन कर उस का पत्थरदिल भी पसीज गया, ‘‘सर, बुद्धन सर नहीं आए, उन्होंने ही हेडक्वार्टर फोन कर आप के लिए हेलीकौप्टर मंगवाया था.

‘‘सर, सच है, ‘‘वंस ए सोल्जर आल्वेज ए सोल्जर.‘‘

विरासत : मां का कद ऊंचा करती एक बेटी

मुझे ऐसा क्यों लगने लगा है कि शादी के बाद  लड़कियां बदल सी जाती हैं और उन का वह घर जहां वह अभी कुछ माह या साल पहले गई थीं, अधिक प्रिय हो जाता है. लगता है कि मेरी बेटी कामना के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है. आती है तो खोईखोई सी रहती है, भाईबहन के साथ की वह धींगामस्ती भी अब नजर नहीं आती. छोटे भाईबहन को कभीकभार आइसक्रीम खिलाने ले जाना, कोई पिक्चर दिखाना या शापिंग के लिए ले जाना, सब ‘रुटीन वे’ में होता है. आज तो उस ने हद ही कर दी. मैं उस की पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाने में व्यस्त थी तभी मैं ने सुना वह अपनी छोटी बहन भावना से कह रही थी, ‘‘भानु, अब की बार मैं जल्दी चली जाऊंगी. तेरे जीजाजी आने वाले हैं. कैंटीन का खाना उन को बिलकुल सूट नहीं करता. आज शाम को बाजार चलते हैं, मुझे मम्मीजी की साड़ी भी लेनी है.’’

यह मम्मीजी कौन हैं? आप को बताने की जरूरत नहीं है. वही हैं जो ससुराल जाने पर हर लड़की की अधिकारपूर्वक मम्मीजी बन जाती हैं, चाहे वह उसे असली मम्मी की तरह मानें या न मानें.

मैं गलत नहीं कह रही हूं. पिछले 10 दिनोें से मुझे वायरल फीवर भी था. थोड़ी कमजोरी भी महसूस कर रही थी, पर उस कालिज से, जहां मैं पढ़ा रही थी, मैं ने छुट््टी ले ली थी. मुझे बस एक ही धुन थी कि बेटी को वह सब चीजें खिला दूं जो उसे पसंद थीं और वह थी कि अपनी बहन से जाने की जल्दी बता रही थी. जैसे मैं अब उस के लिए कुछ नहीं थी.

तभी मैं ने यह भी सुना, ‘‘भानु, इस सितार पर तो धूल जम गई है, तू क्या इसे कभी नहीं बजाती? मैं तो पहले ही जानती थी कि तू साइंस की स्टूडेंट है, भला तुझे कहां समय मिलेगा सितार बजाने का? मां से कह कर मैं इस बार यह सितार लेती जाऊंगी. मैं वहां क्लास ज्वाइन कर के सितार बजाना सीख लूंगी, वैसे भी अकेले बोर होती हूं.’’

हलवा बन चुका था पर कड़ाही कपड़े से पकड़ कर उतारना भूल गई तो उंगलियां जल गईं. अब किसी को बुला कर सितार पैक कराना होगा, जिस से लंबे सफर में कुछ टूटेफूटे नहीं. बेटी है न, उस के जाने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. मैं ने जल्दी से आंखें आंचल से पोंछ लीं. लगता है, मेरी बेटी अपनी सारी चीजें जिन से मेरी यादें जुड़ी हुई हैं, मुझ से दूर कर ही देगी.

पिछली बार जब वह आई थी, मैं उस के रूखे, घने, लंबे केशों में तेल लगा रही थी कि अचानक ही मैं ने सुना, ‘मां, मैं वह मसूरी वाली ‘पोट्रेट’ ले जाऊं जो आप ने ‘एम्ब्रायडरी कंपीटीशन’ के लिए बनाई थी. वही वाली जो आप ने प्रथम पुरस्कार पाने के बाद मुझे मेरे जन्मदिन पर प्रेजेंट कर दी थी. मम्मीजी उसे देख कर बहुत खुश होंगी. आप ने कितनी सुंदर कढ़ाई की है. पहाड़ लगता है बर्फ से भरे हैं.’’

मैं हां कहने में थोड़ी हिचकिचाई. कितने पापड़ बेलने पड़े थे उस तसवीर को काढ़ने में. कितने प्रकार की स्टिचेज सीखनी पड़ी थीं उसे पूरा करने में, और वह मुझ से ले कर उसे अपनी उन मम्मीजी को दे देगी. पर कोई बात नहीं, मैं तो उसे खुश देखने के लिए अपनी कोई भी प्रिय वस्तु देने को तैयार थी, यह तो फ्रेम में जड़ी केवल एक तसवीर ही थी.

अनुराग उसे लेने सुबह ही आ गया था. शाम को जब मैं दोनों को चाय के लिए बुलाने गई तो देखा दोनों दीवार से तसवीर उतार कर यत्नपूर्वक ब्राउन पेपर  के ऊपर अखबार लपेट रहे थे.

मैं ने दीवार की तरफ देखा, कितनी सूनी, बदरंग सी लग रही थी. ठीक उसी तरह जैसे कामना के चले जाने के बाद उस का कमरा लगता था. मैं बिना कुछ बोले तेज कदमों से वापस लौट आई. कब सुबह हुई, जल्दीजल्दी नाश्ता हुआ फिर साथ ले जाने का खाना पैक हुआ और कामना विदा हो गई, पता ही न चला. भावना सिसक रही थी, ‘‘दीदी, जल्दी आना.’’ मैं चुपचाप उसे देखती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई.

हर बार की तरह तीसरेचौथे महीने कामना नहीं आई. मैं सोचसोच कर परेशान थी कि क्या कारण हो सकता है उस के न आने का. तभी उस की मम्मीजी का एक छोटा सा पत्र मुझे मिला.

‘अत्यंत प्रसन्नता से आप को सूचित कर रही हूं कि हम दोनों की पदोन्नति हो गई है, यानी कि आप नानी और मैं दादी बनने वाली हूं. कामना को एकदम डाक्टर ने बेड रेस्ट बताया है, इसलिए कुछ महीने बाद ही जा सकेगी वह. हां, गोदभराई के लिए आप को हमारे यहां आना होगा क्योंकि हमारे घर की परंपरा है कि पहला बच्चा ससुराल में ही होता है. अत: डिलीवरी भी यहीं होगी. आप बिलकुल निश्ंिचत रहिएगा क्योंकि मैं भी तो कामना की मम्मी हूं.’

पत्र पढ़ कर कामना के न आने का दुख तो मैं भूल ही गई और खुशी से भावना को जोर से आवाज दी. खबर सुन कर वह भी नाच उठी. घर में कितनी ही देर तक हर्षोल्लास का वातावरण बना रहा. कामना के पापा जहां पोस्टेड थे वहां से घर वह छुट््टियों में ही आते थे. इस बार हमसब एकसाथ गए रस्म अदा करने. बेटी को देख कर उतनी ही खुशी हुई जितनी अपने हाथों से लगाए वृक्ष को फूलतेफलते देख कर होती है.

रस्म अदा करने के बाद कामना मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मां, चलो, तुम्हें कुछ दिखाते हैं.’’

एक कमरे के पास आ कर वह रुक गई और बोली, ‘‘देखो मां, यह बच्चे की नर्सरी है.’’ अंदर जा कर मैं चकित रह गई. दीवार पर हलके रंग का प्लास्टिक पेंट, फूलपत्तियां बनी हुईं, छोटेछोटे बच्चे ऐंजेल बने हुए थे. एक तरफ ‘क्रिब’ में बिछी हुई गुलाबी प्रिंटेड और गुलाबी उढ़ाने की चादर भी. दूसरे कोने में तरहतरह के खिलौने, नर्सरी राइम्स की किताबें करीने से सजी हुईं.

‘‘मां, तुम मेरी वह छोटी कुरसीमेज भेज देना जिस पर मैं बचपन में पढ़ती थी.’’

मैं ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई, ‘‘हां, मैं जाते ही शिबू से तुम्हारी मेजकुरसी पहुंचवा दूंगी.’’

कहना नहीं होगा, शिबू ही उस की देखभाल करता था जब मैं कालिज पढ़ाने चली जाती थी. घर पहुंचते ही कामना का कमरा खोला, दीवार पर उस के बचपन की कितनी ही तसवीरें लगी हुई थीं. एक कोने में उस की छोटी कुरसीमेज, मेज पर उस का एक छोटा सा बाक्स भी रखा हुआ था. बाक्स नीचे रखा और कुरसीमेज पेंट करा के उसे कामना की ससुराल पहुंचाने की बात मैं ने शिबू को बताई.

वह दिन भी आया कि कामना अपने छोटे से बेटे को साथ लिए आई. साथ में उस का पति अनुराग भी था. मैं तो कब से तीनों की राह देखती दरवाजे पर खड़ी थी. आगे बढ़ कर मैं ने बच्चे को गोद में ले लिया और चूम लिया.

‘‘मां, तुम मुझे प्यार करना भूल गईं.’’

‘‘अब तुम बड़ी जो हो गई हो,’’ मैं ने हंस कर कहा.

हंसीखुशी के बीच महीना कैसे बीत गया, पता ही न चला. कामना अकसर बच्चे को अपने कमरे में ले जाती, खिलाती, सुलाती.

कल ही उस की ट्रेन थी. मैं बरामदे की आरामकुरसी पर लेटी ही थी कि कामना आ पहुंची.

‘‘मां, बहुत थक गई हो न. लाओ न पैर दबा दूं थोड़ा,’’ और हाथ में ली हुई फाइल उस ने पास की कुरसी पर रख दी, पर मैं ने अपने पैर समेट लिए थे.

‘‘अरे, मैं तो ऐसे ही लेट गई थी’’ तभी बेटे के रोने की आवाज सुन कर वह चल दी. उत्सुकतावश मैं ने फाइल उठा ली. देखने में पुरानी किंतु नए रंगीन ग्लेज  पेपर, रिबन से बंधी हुई. मैं सीधे बैठ गई. अंदर लिखाई जानीपहचानी सी लग रही थी. फाइल में कितनी ही कटिंग थीं, समाचारपत्रों की, कालिज की पत्रिकाओं की. मेरी लिखी हुई टिप्पणियां भी थीं.

हां, वह पहली कटिंग भी थी जब कामना 8वीं में पढ़ती थी. मुझे याद आ गया, कामना 100 मीटर की रेस में भाग लेने वाली थी, कितनी ही बार वह खेलों में भाग ले कर पुरस्कार भी पा चुकी थी. पर उस दिन उस के पैर में भयानक दर्द था. कुछ मलहम मला, सिंकाई की, दवाई खिलाई, पैर में कस कर पट््टी बांध दी, पर उस के पैर के ‘क्रैंप’ न गए. उधर उस की जिद थी कि वह रेस में भाग जरूर लेगी. मुझे भी अपने कालिज पहुंचना जरूरी था. मैं ने शिबू द्वारा थर्मस में गरम दूध में कौफी डाल कर और एक नोट लिख कर भेजा, ‘बेटी कामना, रेस में हार कर दुखी मत होना. जीवन में ऐसी बहुत सी रेस आएंगी और तुम जरूर ही जीतोगी. तुम मेरी रानी बेटी हो न, हारने पर मन छोटा मत करना.’

मैं जब कालिज का काम खत्म कर कामना के स्कूल के सालाना स्पोर्ट्स देखने पहुंची तो कामना अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ पिरामिड बनाने में लगी थी. सब से ऊपर वही थी. तालियों से मैदान गूंज उठा.

मुझे सुकून हुआ कि मेरी बेटी हार कर भी निराश नहीं थी. खेल खत्म होने पर जब वह मेरे पास आई तो उस की आंसू भरी आंखों को मैं ने चूम लिया था, इस की कटिंग भी थी.

ऐसी ही कितनी कटिंग काट कर उस ने संजो कर करीने से लगाई थीं. अकसर हम दोनों ही व्यस्त हो जाते थे, दूर हो जाते. मैं कभी परीक्षा लेने दूसरे शहर चली जाती तो मेरी अनुपस्थिति में उसे ही घर सुचारु रूप से चलाना है, मैं उसे लिख कर भेजती. लौट कर देखती कि वह थोड़े ही दिनों में और भी बड़ी हो गई है. किसी को मेरी याद तक न आती थी. कामना, जो घर में थी उन्हें संभालने के लिए.

मैं तल्लीन हो कर पेज पलटने में लगी थी तभी कामना आ पहुंची. एक शरारत भरी हंसी उस के अधरों पर फैल गई, ‘‘मां, अपनी फाइल ले जाऊं मैं,’’ मैं ने उठ कर कामना को सीने से लगा लिया. कौन कहता है कि बेटियां अपने उस घर के लिए बटोरती ही रहती हैं? सच तो यह है कि ये बेटियां ही तो मांबाप की सिखाई हुई अच्छीअच्छी बातों की विरासत से अपने उस दूसरे घर को भी प्रकाशमान करती हैं. मेरी इस बेटी ने इस विरासत को अपना कर मेरा सिर कितना ऊंचा कर दिया था.

तीन प्रश्न : कौन से सवाल थे वो

मैं पाकिस्तान की यात्रा पर जा रहा था. भारत का कभी हिस्सा रहे इस देश को करीब से देखने का यह मेरा पहला मौका था. वीजा लेने की कठोर कसरत के बाद मैं दिल्ली से अटारी जाने वाली समझौता एक्सप्रेस में रात को सवार हो गया. ट्रेन में अलगअलग तरह के यात्री मिल रहे थे. किसी को अपने रिश्तेदारों से मिल कर लौटने का गम था तो कोई रिश्तेदारों से मिलने जाने की खुशी लिए था और कोई भारी मात्रा में सामान बेच कर रुपए कमाने की चाहत लिए जा रहा था.

अलगअलग आवाजें आ रही थीं :

‘‘मेरे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं. अब 60 साल बाद मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘मेरी बेटी की शादी भारत में हुई है, 20 साल बाद मिली थी. अब अपनी नवासी की शादी कर के लौट रही हूं.’’

‘‘बंटवारे के बाद मेरा सारा कुनबा भारत आ कर बस गया. अपने मूल वतन रावलपिंडी देखने का सपना आज पूरा हुआ है.’’

‘‘10 हजार बनारसी साडि़यां पाकिस्तान ले जा कर बेचूंगा, वहां वे सोने के भाव बिकेंगी.’’

अगली सुबह, गाड़ी अटारी स्टेशन पहुंच गई. वहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे बाघा बोर्डर पड़ता है, जहां से पाकिस्तानी सीमा शुरू होती है. लोग अपनाअपना सामान समेट कर इमिग्रेशन के लिए तैयार हो गए. पासपोर्ट और वीजा की जांच के बाद कस्टम की काररवाई होती है जोकि इस यात्रा का सब से तकलीफदेह हिस्सा होता है.

मुसाफिरों के सामान को खोल कर कस्टम अधिकारी एकएक चीज को झाड़ कर तलाशी ले रहे थे और लोगों से खूब रुपए भी ऐंठ रहे थे. यहां मजबूरी में लोग न चाहते हुए भी कस्टम से पीछा छुड़ाने के लिए रुपए खर्च कर रहे थे.

कस्टम की औपचारिकता के बाद यात्री एक बडे़ गेट को पार कर के उस पार एक तैयार ट्रेन में दोबारा सवार हो रहे थे. यह ट्रेन आगे चल कर बाघा होती हुई सब लोगों को लाहौर तक छोड़ती है. यहां के सीमा गेट पर ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी (सिपाही) हर यात्री से 100-100 रुपए मांग रहे थे.

जब सभी यात्री ट्रेन में सवार हो गए तो दोपहर ढाई बजे ट्रेन चल दी. लगभग 10 मिनट बाद ही भारत की सरहद खत्म हो गई और पाकिस्तान आ गया. बाघा स्टेशन पर गाड़ी रुकी. लोग ट्रौलियों में अपनाअपना सामान लाद कर दोबारा इमिग्रेशन और कस्टम के लिए तैयार हो रहे थे. खूब भगदड़ मची हुई थी. वहां काली वरदी में तैनात कस्टम अधिकारी भी भारतीय कस्टम अधिकारियों की तरह लोगों से रुपए ऐंठ कर अपना फर्ज अदा कर रहे थे. लगभग 4 घंटे में यहां की सारी काररवाई पूरी हुई तो ट्रेन लाहौर की तरफ चल दी, जोकि वहां से कुल 25 किलोमीटर की दूरी पर था.

मेरे जीजाजी लाहौर स्टेशन पर मुझे लेने के लिए खड़े थे. रात हो रही थी. अगले दिन हमें कराची जाना था, सो लाहौर घूम कर हम मुगलों की इस प्राचीन राजधानी को देखते रहे.

अगले दिन शाम को हम कराची के लिए रवाना हो गए.

पाकिस्तानी ट्रेन में बैठ कर मैं बेहद खुशी महसूस कर रहा था. यात्रा के दौरान मुझे एक पादरी मिले. वह पठानी सलवारकुर्ता पहने हुए पक्के पाकिस्तानी लग रहे थे और फर्राटेदार उर्दू बोल रहे थे.

‘‘मैं मुंबई का रहने वाला हूं. अंगरेजों के शासनकाल में मेरे अब्बा एक ईसाई मिशनरी के साथ कराची आए थे. जब बंटवारा हुआ तो कराची पाकिस्तान में चला गया और फिर हम यहीं बस गए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों को यहां बहुत तकलीफ हुई होगी. सुना है, मुसलमानों के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों के साथ अच्छा सुलूक नहीं होता है.’’

‘‘सब कहने की बातें हैं. नफरत और मोहब्बत दुनिया के हर हिस्से में है. पाकिस्तान में लोगों की यह सोच बनी हुई है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें हर जगह भेदभाव से देखा जाता है. क्या यह सही है?’’

मैं ने और उत्सुकता दिखाई, ‘‘क्या पाकिस्तान में हिंदू या सिख नहीं रहते हैं?’’

पादरी ने समझाया, ‘‘जब बंटवारा हुआ तो भारत बड़ा था और पाकिस्तान छोटा. जिन सूबों में मुसलमानों की घनी आबादी थी, उन को मिला कर पाकिस्तान बना था. नौर्थवेस्ट फ्रंटियर  प्रौविंस और बलूचिस्तान में हिंदू आबादी कम थी. सिंध में अब भी हिंदू आबादी है, जोकि ज्यादातर जमींदार और महाजन हैं.’’

‘‘पंजाब में सिख लोग ज्यादा थे. पंजाब और बंगाल के 2 टुकड़े किए गए थे, इसलिए इन 2 सूबों में सब से ज्यादा कत्लेआम हुआ. कश्मीर को पाकिस्तान लेना चाह रहा था पर भारत ने नहीं दिया. दोनों मुल्कों में जंग हुई पर हमारे हुक्मरान मसले को सुलझाना नहीं चाहते.’’

हमारी ट्रेन पंजाब से बलूचिस्तान होती हुई सिंध की तरफ जा रही थी. बलूचिस्तान और सिंध ज्यादातर रेगिस्तानी क्षेत्र हैं. बीचबीच में स्टेशन पड़ रहे थे. स्टेशनों पर मांसाहारी चीजों जैसे कीमे के समोसे और पकौडे़, बिरयानी, कोरमा आदि की अधिकता थी. भारत के मुकाबले में पाकिस्तानी रेलवे स्टेशनों पर भीड़ कम होती है.

पाकिस्तान के सब से बडे़ शहर कराची को देख कर लखनऊ की याद आ गई, क्योंकि दोनों शहरों में उर्दू का गहरा असर है. कराची में भारत से गए हुए लोग सब से ज्यादा तादाद में हैं. क्षेत्रवाद के शिकार ये मुसलमान ‘मुहाजिर’ कहलाते हैं.

मैं कराची जी भर कर घूमा. भारत से अलग होने पर भी भारत की छाप साफ दिखाई दे रही थी. कई लोग मेरे भारतीय होने पर अपना आतिथ्य निभा रहे थे. मुझे वहां भारतीय और पाकिस्तानी लोगों में कोई खास फर्क नजर नहीं आया. इस से कहीं अधिक फर्क तो भारत के ही अलगअलग राज्यों के लोगों में है. उत्तर भारत का रहने वाला अगर दक्षिण भारत में चला जाए तो समझेगा कि कहीं विदेश में आ गया. वहां का रहनसहन अलग, खानपान अलग, भाषा अलग, पहनावा अलग मगर देश एक है.

विभाजन के 60 साल बाद भी संस्कृति ने अपनी छाप नहीं छोड़ी है. लोगों को धर्म जोड़े न जोडे़ पर क्षेत्र अवश्य जोड़ता है. पंजाब, बंगाल और कश्मीर के 2-2 टुकडे़ होते हुए भी यदि वहां के लोगों की आपस में तुलना की जाए तो पता चलता है कि धर्म के नाम पर तो उन्हें बांटा गया पर उन की समानता को कोई बांट नहीं सका.

भारत या पाकिस्तान के लोग अपने को धार्मिक कहते हैं पर हर धर्म की पहली सीढ़ी इनसानियत से इतनी दूर क्यों होती जा रही है?

पाकिस्तान की अपनी यात्रा के निचोड़ में 3 प्रश्न मेरे दिलोदिमाग में उत्तर के लिए भटक रहे हैं.

पहला, धर्म के नाम पर देश के बंटवारे का मूल उद्देश्य क्या था? धर्म इनसान के लिए है या इनसान धर्म के लिए? देश का बंटवारा कर के क्या सांप्रदायिकता खत्म हो गई? जबकि इसी के नतीजतन, एक नए देश के रूप में बंगलादेश का जन्म हुआ और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय मसला बना हुआ है. यही नहीं दोनों मुल्कों का जो अरबों रुपया, सीमा सुरक्षा में लग रहा है, काफी हद तक बच सकता था.

दूसरा, अंगरेजों की गुलामी से आजाद होने की इच्छा हर भारतीय में थी और हिंदू व मुसलमान दोनों ने मिल कर संघर्ष किया था पर जब बंटवारे की बात चली तो किसी के मन में यह विचार नहीं आया कि जब आजादी साथ पाई है तो रहेंगे भी साथ ही. कोई रास्ता निकाल कर बंटवारा रोको.

तीसरा, हम अंगरेजों को ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के लिए दोषी ठहराते हैं. क्या यह नीति हमारे धार्मिक दुकानदारों और उन के पिट्ठू नेताओं में नहीं है? हर तरह का भेदभाव हमारे देश में ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ की तरह बड़ी कुशलता से पनप रहा है और हमारे पंडे, मौलवी, नेताओं के वोट बैंक को पुख्ता कर रहे हैं.

पड़ोसी देशों को अपनी कमजोरियों के लिए दोष देना हमारे नेताओं की जन्मघुट्टी में मिला हुआ है. अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो हमारे नेता आतंकवाद के लिए चीन को दोष देते या रूस को?

मौन: मसूरी, मनामी और उस की चुप्पी

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न?’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे होें. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

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