Story in hindi

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रात के ठीक 10 बजे ‘झेलम ऐक्सप्रैस’ ट्रेन ने जम्मूतवी से रेंगना शुरू किया, तो पलभर में रफ्तार पकड़ ली. कंपार्टमैंट में सभी मुसाफिर अपना सामान रख आराम कर रहे थे. गीता ने भी लोअर बर्थ पर अपनी कमर टिकाई. कमर टिकाते ही उस ने देखा कि सामने वाली बर्थ पर जो साहब अभी तक बैठे थे, मुंह खुला रख कर खर्राटों भरी गहरी नींद सो चुके थे. गीता की नजर उन साहब के ऊपर वाली बर्थ पर गई तो देखा कि एक नौजवान अपनी छाती पर मोबाइल फोन रख कानों में ईयरफोन लगाए उस में बज रहे गानों के संग जुगलबंदी में मस्त था.
गीता को नींद नहीं आ रही थी. उस के ऊपर वाली बर्थ पर कोई हलचल नहीं थी. उस पर सामान रखा हुआ था और सामान वाला उसी कंपार्टमैंट के आखिरी छोर पर अपने दोस्त के साथ कारोबार की बातें कर रहा था.
रात गुजर गई. गीता लेटी रही, मगर सो नहीं पाई थी. सुबह के 5 बज चुके थे. अपनी ही दुनिया में मस्त वह नौजवान उठा और वाशरूम की तरफ चल दिया.
जब वह लौटा, तो उस का चेहरा एकदम तरोताजा दिख रहा था. तब तक गाड़ी अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन पर रुक चुकी थी. वह नौजवान छोलेकुलचे ले कर आया और फिर उस ने देखते ही देखते नाश्ता कर लिया.
सामने वाली बर्थ पर लेटे साहब हरकत में आने शुरू हुए. उन्होंने गीता से पूछा, ‘‘मैडम, यह गाड़ी कौन से स्टेशन पर रुकी हुई है?’’
गीता ने उन के सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी, अंबाला स्टेशन पर.’’
तभी ट्रेन ने रेंगना शुरू कर दिया. उन साहब ने सवाल किया, ‘‘क्या कोई चाय वाला नहीं आया अब तक?’’
गीता बोली, ‘‘जी, बहुत आए थे, मगर आप सो रहे थे.’’
वे साहब चाय की तलब लिए फिर से अपनी बर्थ पर आलू की तरह लुढ़क गए. थोड़ी देर बाद उन का मुंह खुला और वे फिर से खर्राटे लेने लगे.
गीता ने सामने ऊपर वाली बर्थ पर उस नौजवान पर निगाह डाली तो देखा कि वह कोई उपन्यास पढ़ रहा था.
न जाने क्यों गीता की निगाहों को वह अच्छा लगने लगा था. उस का डीलडौल, कदकाठी, हेयरकट और उस के दैनिक रूटीन से उस ने अंदाजा लगा लिया था कि यह तो पक्का फौजी है.
इस के बाद गीता वाशरूम चली गई. थोड़ी देर बाद वह होंठों को और गुलाबी कर, आंखों को कजरारी कर, चेहरे को चमका कर व जुल्फों को संवार कर जब वापस अपनी बर्थ की ओर लौटने लगी, तो उस की नजरें दूर से ही उस नौजवान पर जा टिकीं. वह उपन्यास के पात्रों में खोया हुआ था.
गीता ने ठोकर लगने की सी ऐक्टिंग कर उस का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की, मगर सब बेकार.
गीता खिसियाई सी खिड़की के पास आ कर बैठ गई और बाहर झांकने लगी.
तकरीबन 8 बजे गाड़ी पानीपत स्टेशन पर रुकी, तो गीता ने अपनी नजरें नौजवान पर टिका कर सामने वाले साहब को पुकारते हुए कहा, ‘‘जी उठिए, स्टेशन पर गाड़ी रुकी है… चायनाश्ता सब है यहां.’’
‘‘ओके थैंक्यू, चाय पीने का बड़ा मन है मेरा,’’ उन साहब ने कहा.
‘‘जी, इसीलिए तो उठाया है. मैं जानती हूं कि आप चाय की तलब के साथ ही सो गए थे,’’ गीता बोली.
चाय वाला जैसे ही खिड़की पर आया, तो उन साहब ने झट से चाय का कप लिया और अपनी जेब से पैसे निकाल कर चाय वाले को थमा दिए. इस के तुरंत बाद आलूपूरी वाले ने खिड़की पर दस्तक दी, तो पलभर में उन साहब ने आलूपूरी अपने हाथों में थाम ली.
गीता की नजर दोबारा ऊपर वाली बर्थ पर गई, तो उस ने देखा कि वह नौजवान अभी भी उपन्यास पढ़ने में डूबा हुआ था.
चायनाश्ते से निबट कर जब उन साहब को फुरसत मिली, तो उन्होंने गीता को ‘थैंक्यू’ कहा. तभी ऊपर बैठे उस नौजवान ने नीचे झांका तो देखा कि साहब नाश्ता कर चुके थे.
उस नौजवान ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘सर, अगर आप बैठ रहे हैं, तो मैं अपनी बर्थ नीचे कर लूं क्या?’’
‘‘हांहां क्यों नहीं.’’
थोड़ी देर बाद वह नौजवान उन साहब की बगल में, तो गीता के ठीक सामने बैठ चुका था.
गीता अपनी बर्थ पर बैठीबैठी खिड़की से बाहर झांकतेझांकते अपनी नजरें उस नौजवान की नजरों से मिलाने की कोशिश करने लगी.
लेकिन वह नौजवान तो उसे देख ही नहीं रहा था. वह सोचने लगी, ‘ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि मुझे कोई देखे भी न. अगर कोई मेरी बगल से भी गुजरता है, तो वह पलट कर मुझे जरूर देखता है.’
उस नौजवान पर टकटकी लगाए गीता सोच रही थी कि तभी उस ने पानी की बोतल गीता की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैडम, पानी पी लीजिए.’’
यह सुन कर गीता के गंभीर चेहरे पर एक मुसकान उभरी. उस की ओर देखतेदेखते गीता पानी की बोतल अपने हाथ में थाम बैठी और दोचार घूंट गटागट पी भी गई.
पानी की बोतल उसे वापस देते हुए गीता ने अपने कयास को पुख्ता करने के लिए पूछ लिया, ‘‘आप फौजी हैं न?’’
‘‘जी…’’
गीता ने उस से दोबारा कहा, ‘‘बुरा मत मानना प्लीज… मैं ने किसी से सुना था कि फौजी दिमाग से पैदल होते हैं… जहां लड़की देखी नहीं कि कभी उन के सिर में तो कभी बदन में खुजली होने लगती है और फिर वे पागलों की तरह लड़कियों को देखने लगते हैं. पर आप ने यह साबित कर दिया कि सभी फौजी एकजैसे नहीं होते.’’
‘‘हां, पर फौजियों को ठीक रहने कौन देता है… जहां फौजी ऐसी हरकत नहीं करते, वहां लड़कियां उन के साथ ऐसा ही करने लगती हैं. आखिर कोई कहां तक बचे?’’ उस नौजवान की यह बात सीधा गीता के दिल को जा कर लगी.
बातचीत का सिलसिला चला, तो उस नौजवान ने पूछ लिया, ‘‘क्या नाम है आप का?’’
‘‘गीता.’’
‘‘क्या करती हैं आप?’’
‘‘जी, मैं बैंक में हूं.’’
‘‘बहुत अच्छा,’’ वह फौजी बोला.
गीता ने पूछा, ‘‘और आप का नाम?’’
‘‘मेरा नाम प्रिंस है.’’
‘‘प्रिंस… वह भी सेना में… पर कौन रहने देता होगा आप को वहां प्रिंस की तरह…’’
इस बात पर वे दोनों हंस दिए थे, हंसीठहाकों के बीच उन्हें पता ही नहीं चला कि टे्रन कब नई दिल्ली स्टेशन पर आ कर रुक गई.
सवारियों ने उतरना शुरू किया, तो साथ ही साथ नई सवारियों का चढ़ना भी जारी था.
तभी एक बंगाली जोड़ा अपना बर्थ नंबर ढूंढ़तेढूंढ़ते वहां आ पहुंचा. अधेड़ उम्र के उस बंगाली जोड़े ने अपना सामान सीट के नीचे रखा और वे दोनों गीता व प्रिंस के साथ ही आ बैठे.
दिनभर की प्यारभरी बातों के सिलसिले के साथ ही एक के बाद एक स्टेशन भी पीछे छूटते रहे और पता ही नहीं चला कि कब शाम हो गई. पैंट्री वाले आए, खाने का और्डर बुक किया. कुछ देर बाद रात का भोजन सब के सामने था.
खाना खाने के बाद प्रिंस ने टूथब्रश किया, तो गीता ने भी उस की देखादेखी यह काम कर डाला. सभी सुस्ताने के मूड में आए, तो सब ने अपनीअपनी बर्थ संभालनी शुरू कर दी.
बंगाली जोड़ा कुछ परेशान सा इधरउधर ताकनेझांकने लगा.
प्रिंस ने उन्हें टोकते हुए पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है जी?’’
बंगाली आदमी ने अपना दर्द बयां किया, ‘‘क्या बताएं बेटा. एक तो हम शरीर से भारी, उस पर उम्र के उस पड़ाव पर हैं कि जहां हमारे लिए ऊपर वाली बर्थ पर चढ़नाउतरना किसी किले को फतेह करने से कम नहीं है. कहीं इस चढ़नेउतरने में फिसल कर गिर गए, तो 2-4 हड्डियां तो टूट ही जाएंगी.’’
इतने में बंगाली औरत की याचक निगाहें गीता के छरहरे बदन पर जा पड़ीं. उन्होंने विनती करते हुए कहा, ‘‘बेटी, क्या आप हमारी मदद कर सकती हैं?’’
गीता हैरानी से उन की ओर देखते हुए बोली, ‘‘कैसे आंटी?’’
‘‘आप बर्थ ऐक्सचेंज कर लीजिए प्लीज. आप जवान लोग हो, ऊपर की बर्थ पर चढ़उतर सकते हो.’’
‘‘ठीक है आंटी. मैं ऊपर वाली बर्थ पर चली जाती हूं, आप मेरी बर्थ पर सो जाइए,’’ गीता ने कहा.
गीता पायदान में पैर अटका कर प्रिंस के सामने ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गई, तो बंगाली जोड़ा भी नीचे वाली बर्थ पर लेट गया.
प्रिंस, जो पहले से ही अपनी बर्थ पर मौजूद था, अब तक उपन्यास के पन्नों में डूब चुका था.
गीता ने ऊंघते हुए उस की तरफ देखा और एक बदनतोड़ अंगड़ाई लेते हुए अपनी छाती को उभारा, तो फौजी की नजरें उपन्यास से हट कर उस के बदन पर आ ठहरीं. उपन्यास हाथ से छूट कर नीचे गिर गया.
गीता के चेहरे पर मादकता में लिपटी जीत की मुसकान तैर गई. उस ने नीचे गिरे हुए उपन्यास को देखा तो उस के उभार झांकने लगे. फौजी की निगाहें तो मानो वहीं पर अटक कर रह गईं.
फौजी ने गीता की ओर देख कर कहा, ‘‘बुरा मत मानना, आप की हंसी तो बेहद खूबसूरत है.’’
गीता ने भी जवाब में कहा, ‘‘आप का चालचलन बहुत अच्छा है… मैं कल से देख रही हूं.’’
यह बात सुन कर प्रिंस हंस पड़ा और बोला, ‘‘आर्मी वालों का चालचलन बिगड़ने कौन देता है मैडम? कैद में रहते हैं. कोई हमें खुला छोड़ कर तो देखे.’’
गीता मुसकराते हुए कहने लगी, ‘‘अब चालचलन कुछ ठीक नहीं लग रहा है आप का.’’
‘‘कहां से ठीक रहता… आप जो कल रात से मुझ पर डोरे डालती आ रही हैं. हम कंट्रोल करना जानते हैं, तो इस का मतलब यह तो नहीं हुआ कि किसी हुस्नपरी को देख कर हमारा दिल ही नहीं धड़कता. हम बात मौका देख कर करते हैं मैडम.’’
गीता ने उस की बातों में दिलचस्पी लेते हुए पूछा, ‘‘गाने के शौकीन हो बाबू, फौज में क्यों चले गए?’’
प्रिंस गंभीर हो गया, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘एक लड़की के चक्कर में फौजी बन गया. उसे आर्मी वाले पसंद थे.’’
‘‘ओह… अब तो वह लड़की आप की पत्नी होगी?’’
‘‘न… जब मैं ट्रेनिंग कर के गांव लौटा, तब तक उस ने किसी कारोबारी से शादी कर ली थी. मगर मैं फौजी हो कर रह गया.’’
‘‘बहुत दुख हुआ होगा उस के ऐसा करने पर?’’
‘‘हां, पर क्या करता? जिंदगी है ही चलने का नाम. कभी दोस्तों ने मुझ को, तो कभी मैं ने खुद को समझा लिया कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है.’’
फिर गीता की ओर आंख मार कर प्रिंस ने हलके से मुसकराते हुए कहा, ‘‘बस, अब मैं कुछ अच्छा होने का इंतजार कर रहा हूं.’’
‘‘क्या बात है साहब… मुझे आप की यही अदा तो बड़ी पसंद है.’’
‘‘मुझ से दोस्ती करोगी?’’
‘‘वह तो हो ही गई है अब… इस में कहने की क्या बात है?’’
फिर उन दोनों ने एकदूसरे से हाथ मिलाया, तो गीता ने प्रिंस की हथेली में अपनी उंगलियों से सरसराहट सी पैदा कर दी. उस सरसराहट ने प्रिंस के तनमन में खलबली मचा दी थी. दोनों एकदूजे की आंखों में डूबने लगे.
रात अपने शबाब पर चढ़नी शुरू हो गई थी. वे दोनों कब एक ही बर्थ पर आ गए, किसी को भनक तक न हुई.
गीता के बदन से आ रही गुलाब के इत्र की भीनीभीनी खुशबू में प्रिंस बहकता चला गया.
गीता ने थोड़ी ढील दी, तो प्रिंस के हाथ उस के बदन से खेलने लगे. गीता ने कुछ नहीं कहा, तो प्रिंस ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया.
थोड़ी ही देर में वे दो बदन एक जान हो गए. चलती टे्रन में उन के प्यार का सफर अब अपनी हद पर था. फिर इसी सफर में वे दोनों हांफतेहांफते नींद के आगोश में समा गए.
सुबह के तकरीबन 3 बजे गाड़ी ने अपनी रफ्तार कम की, तो गीता की नींद खुल गई. उस ने अपनेआप को प्रिंस की बांहों से आजाद कर कपड़े पहने. उस का खंडवा स्टेशन आने वाला था.
गीता ने एक कागज पर प्रिंस के लिए कुछ लिखा और उस के सिरहाने रख दिया. फिर कुछ सोचा और जल्दबाजी में एक और पुरजे पर कुछ लिखा और पर्स निकाल कर उस पुरजे को पर्स में रखा और पैंट की जेब के हवाले किया.
फिर गीता ने अपना सामान समेटा और बिना आहट किए ही प्लेटफार्म पर उतर गई.
रात के प्यार में थके प्रिंस की नींद सुबह के 5 बजे खुली, तो उस ने अपनी बगल में गीता को टटोला. वह वहां नहीं थी और न ही उस का सामान.
प्रिंस हैरानपरेशान सा इधरउधर ताकने लगा. गीता का कहीं नामोनिशान न मिलने पर उस ने खुद को ठीकठाक करने के लिए सिरहाने रखी अपनी शर्ट उठाई, तो उसे उस के नीचे एक चिट्ठी मिली. लिखा था:
‘डियर,
‘आप बहुत अच्छे फौजी हैं. देर से बहकते हो जरा… पर बहकते जरूर हो. सफर रोमांचक गुजरा. आप की बात ही कुछ और थी… फिर कभी दोबारा आप से इसी तरह मुलाकात हो.
‘लव यू डियर, गुड बाय.’
चिट्ठी पढ़ कर प्रिंस हैरान हुआ. उस भोलीभाली दिखने वाली मासूम बला के बारे में सोचतेसोचते उस के माथे पर सिलवटें पड़ने लगीं, तभी चाय वाला वहां आया.
‘‘अरे भैया, एक कप चाय दे दो,’’ कहते हुए प्रिंस ने अपना पर्स निकाला, तो उस में से एक और पुरजा निकला, जिस पर लिखा हुआ था:
‘आप का पर्स रंगीन नोटों की गरमी से लबालब था. दिल आ गया… सो, निशानी के तौर पर सभी रंगीनियां साथ लिए जा रही हूं… उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.’
प्रिंस के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘चाय के लिए चिल्लर तो छोड़ जाती…पर फौजी पर तरस खाता कौन है…’’
उस ने आगे बढ़ कर अपनी पत्नी को बांहों में भर लिया. कविता अचानक हिचकियां ले कर रोने लगी. नीरज की आंखों से भी आंसू बह रहे थे.
कविता के शरीर ने जब कांपना बंद कर दिया तब नीरज ने उसे अपनी बांहों के घेरे से मुक्त किया. अब तक अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का सहारा ले कर उस ने खुद को काफी संभाल भी लिया था.
‘‘मेरे सामने यह रोनाधोना नहीं चलेगा, जानेमन,’’ उस ने मुसकरा कर कविता के गाल पर चुटकी भरी, ‘‘इन मुसीबत के क्षणों को भी हम उत्साह, हंसीखुशी और प्रेम के साथ गुजारेंगे. यह वादा इसी वक्त तुम्हें मुझ से करना होगा, कविता.’’
नीरज ने अपना हाथ कविता के सामने कर दिया.
कविता शरमाते हुए पहली बार सहज ढंग से मुसकराई और उस ने हाथ बढ़ा कर नीरज का हाथ पकड़ लिया.
उस रात नीरज अपनी ससुराल में रुका. दोनों ने साथसाथ खाना खाया. फिर देर रात तक हाथों में हाथ ले कर बातें करते रहे.
भविष्य के बारे में कैसी भी योजना बनाने का अवसर तो नियति ने उन से छीन ही लिया था. अतीत की खट्टीमीठी यादों को ही उन दोनों ने खूब याद किया.
सुहागरात, शिमला में बिताया हनीमून, साथ की गई खरीदारी, देखी हुई जगहें, आपसी तकरार, प्यार में बिताए क्षण, प्रशंसा, नाराजगी, रूठनामनाना और अन्य ढेर सारी यादों को उन्होंने उस रात शब्दों के माध्यम से जिआ.
हंसतेमुसकराते, आंसू बहाते वे दोनों देर रात तक जागते रहे. कविता उसे यौन सुख देने की इच्छुक भी थी पर कैंसर ने इतना तेज दर्द पैदा किया कि उन का मिलन संभव न था.
अपनी बेबसी पर कविता की रुलाई फूट पड़ी. नीरज ने बड़े सहज अंदाज में पूरी बात को लिया. वह तब तक कविता के सिर को सहलाता रहा जब तक वह सो नहीं गई.
‘‘मैं तुम्हारी अंतिम सांस तक तुम्हारे पास हूं, कविता. इस दुनिया से तुम्हारी विदाई मायूसी व शिकायत के साथ नहीं बल्कि प्रेम व अपनेपन के एहसास के साथ होगी, यह वादा है मेरा तुम से,’’ नींद में डूबी कविता से यह वादा कर के ही नीरज ने सोने के लिए अपनी आंखें बंद कीं.
अगले दिन सुबह नीरज और कविता 2 कमरों वाले एक फ्लैट में रहने चले आए. यह खाली पड़ा फ्लैट नीरज के एक पक्के दोस्त रवि का था. रवि ने फ्लैट दिया तो अन्य दोस्तों व आफिस के सहयोगियों ने जरूरत के दूसरे सामान भी फ्लैट में पहुंचा दिए.
नीरज ने आफिस से लंबी छुट्टी ले ली. जहां तक संभव होता अपना हर पल वह कविता के साथ गुजारने की कोशिश करता.
उन से मिलने रोज ही कोई न कोई घर का सदस्य, रिश्तेदार या दोस्त आ जाते. सभी अपनेअपने ढंग से सहानुभूति जाहिर कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश करते.
नीरज की समझ में एक बात जल्दी ही आ गई कि हर सहानुभूतिपूर्ण बातचीत के बाद वह दोनों ही उदासी और निराशा का शिकार हो जाते थे. शब्दों के माध्यम से शरीर या मन की पीड़ा को कम करना संभव नहीं था.
इस समझ ने नीरज को बदल दिया. कविता का ध्यान उस की घातक बीमारी पर से हटा रहे, इस के लिए उस ने ज्यादा सक्रिय उपायों को इस्तेमाल में लाने का निर्णय किया.
उसी शाम वह बाजार से लूडो और कैरमबोर्ड खरीद लाया. कविता को ये दोनों ही खेल पसंद थे. जब भी समय मिलता दोनों के बीच लूडो की बाजी जम जाती.
एक सुबह रसोई में जा कर नीरज ने कविता से कहा, ‘‘मुझे भी खाना बनाना सिखाओ, मैं चाय बनाने के अलावा और कुछ जानता ही नहीं.’’
‘‘अच्छा, खाना बनाना सीखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी जनाब,’’ कविता उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए मुसकराई.
‘‘मैडमजी, मैं पूरी लगन से सीखूंगा.’’
‘‘मेरी डांट भी सुननी पड़ेगी.’’
‘‘मुझे मंजूर है.’’
‘‘तब पहले सब्जी काटना सीखो,’’ कविता ने 4 आलू मजाकमजाक में नीरज को पकड़ा दिए.
नीरज तो सचमुच आलुओं को धो कर उन्हें काटने को तैयार हो गया. कविता ने उसे रोकना भी चाहा, पर वह नहीं माना.
उसे ढंग से चाकू पकड़ना भी कविता को सिखाना पड़ा. नीरज ने आलू के आड़ेतिरछे टुकड़े बड़े ध्यान से काटे. दोनों ने ही इस काम में खूब मजा लिया.
‘‘अब मैं तुम्हें खिलाऊंगा आलू के पकौड़े,’’ नीरज की इस घोषणा को सुन कर कविता ने इतनी तरह की अजीबो- गरीब शक्लें बनाईं कि उस का हंसतेहंसते पेट दुखने लगा.
नीरज ने बेसन खुद घोला. तेल की कड़ाही के सामने खुद ही जमा रहा. कविता की सहायता व सलाह लेना उसे मंजूर था, पर पकौड़े बनाने का काम उसी ने किया.
उस दिन के बाद से नीरज भोजन बनाने के काम में कविता का बराबर हाथ बंटाता. कविता को भी उसे सिखाने में बहुत मजा आता. रसोई में साथसाथ बिताए समय के दौरान वह अपना दुखदर्द पूरी तरह भूल जाती.
‘‘मैं नहीं रहूंगी, तब भी आप कभी भूखे नहीं रहोगे. बहुत कुछ बनाना सीख गए हो अब आप,’’ एक रात सोने के समय कविता ने उसे छेड़ा.
‘‘तुम से मैं ने यह जो खाना बनाना सीखा है, शायद इसी की वजह से ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जो तुम मेरे साथ मेरे दिल में कभी न रहो,’’ नीरज ने उस के होंठों को चूम लिया.
नीरज से लिपट कर बहुत देर तक खामोश रहने के बाद कविता ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘आप के प्यार के कारण अब मुझे मौत से डर नहीं लगता है.
‘‘जिस से जानपहचान नहीं उस से डरना क्या. जीवन प्रेम से भरा हो तो मौत के बारे में सोचने की फुरसत किसे है,’’ नीरज ने इस बार उस की आंखों को बारीबारी से चूमा.
‘‘आप बहुत अच्छे हो,’’ कविता की आंखें नम होने लगीं.
‘‘थैंक यू. देखो, अगर मैं तुम्हारी तारीफ करने लगा तो सुबह हो जाएगी. कल अस्पताल जाना है. अब तुम आराम करो,’’ अपनी हथेली से नीरज ने कविता की आंखें मूंद दीं.
कुछ ही देर में कविता गहरी नींद के आगोश में पहुंच गई. नीरज देर तक उस के कमजोर पर शांत चेहरे को प्यार से निहारता रहा.
हर दूसरे दिन नीरज अपने किसी दोस्त की कार मांग लाता और कविता को उस की सहेलियों व मनपसंद रिश्तेदारों से मिलाने ले जाता. कभीकभी दोनों अकेले किसी उद्यान में जा कर हरियाली व रंगबिरंगे फूलों के बीच समय गुजारते. एकदूसरे का हाथ थाम कर अपने दिलों की बात कहते हुए समय कब बीत जाता उन्हें पता ही नहीं चलता.
नीरज कितनी लगन व प्रेम से कविता की देखभाल कर रहा है, यह किसी की नजरों से छिपा नहीं रहा. कविता के मातापिता व भाई हर किसी के सामने नीरज की प्रशंसा करते न थकते.
नीरज के अपने मातापिता को उस का व्यवहार समझ में नहीं आता. वे उस के फ्लैट से हमेशा चिंतित व परेशान से हो कर लौटते.
नीरज 3 महीने की टे्रनिंग के लिए दिल्ली से मुंबई गया था पर उसे 2 माह बाद ही वापस दिल्ली लौटना पड़ा था.
‘‘कविता की तबीयत बहुत खराब है. डा. विनिता कहती हैं कि उसे स्तन कैंसर है. तुम फौरन यहां आओ,’’ टेलीफोन पर अपने पिता से पिछली शाम हुए इस वार्त्तालाप पर नीरज को विश्वास नहीं हो रहा था.
कविता और उस की शादी हुए अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए थे. सिर्फ 25-26 साल की कम उम्र में कैंसर कैसे हो गया? इस सवाल से जूझते हुए नीरज का सिर दर्द से फटने लगा था.
एअरपोर्ट से घर न जा कर नीरज सीधे डा. विनिता से मिलने पहुंचा. इस समय उस का दिल भय और चिंता से बैठा जा रहा था.
डा. विनिता ने जो बताया उसे सुन कर नीरज की आंखों से आंसू झरने लगे.
‘‘तुम्हें तो पता ही है कि कविता गर्भवती थी. उसे जिस तरह का स्तन कैंसर हुआ है, उस का गर्भ धारण करने से गहरा रिश्ता है. इस तरह का कैंसर कविता की उम्र वाली स्त्रियों को हो जाता है,’’ डा. विनिता ने गंभीर लहजे में उसे जानकारी दी.
‘‘अब उस का क्या इलाज करेंगे आप लोग?’’ अपने आंसू पोंछ कर नीरज ने कांपते स्वर में पूछा.
बेचैनी से पहलू बदलने के बाद डा. विनिता ने जवाब दिया, ‘‘नीरज, कविता का कैंसर बहुत तेजी से फैलने वाला कैंसर है. वह मेरे पास पहुंची भी देर से थी. दवाइयों और रेडियोथेरैपी से मैं उस के कैंसर के और ज्यादा फैलने की गति को ही कम कर सकती हूं, पर उसे कैंसरमुक्त करना अब संभव नहीं है.’’
‘‘यह आप क्या कह रही हैं? मेरी कविता क्या बचेगी नहीं?’’ नीरज रोंआसा हो कर बोला.
‘‘वह कुछ हफ्तों या महीनों से ज्यादा हमारे साथ नहीं रहेगी. अपनी प्यार भरी देखभाल व सेवा से तुम्हें उस के बाकी बचे दिनों को ज्यादा से ज्यादा सुखद और आरामदायक बनाने की कोशिश करनी होगी. कविता को ले कर तुम्हारे घर वालों का आपस में झगड़ना उसे बहुत दुख देगा.’’
‘‘यह लोग आपस में किस बात पर झगड़े, डाक्टर?’’ नीरज चौंका और फिर ज्यादा दुखी नजर आने लगा.
‘‘कैंसर की काली छाया ने तुम्हारे परिवार में सभी को विचलित कर दिया है. कविता इस समय अपने मायके में है. वहां पहुंचते ही तुम्हें दोनों परिवारों के बीच टकराव के कारण समझ में आ जाएंगे. तुम्हें तो इस वक्त बेहद समझदारी से काम लेना है. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ नीरज की पीठ अपनेपन से थपथपा कर डा. विनिता ने उसे विदा किया.
ससुराल में कविता से मुलाकात करने से पहले नीरज को अपने सासससुर व साले के कड़वे, तीखे और अपमानित करने वाले शब्दों को सुनना पड़ा.
‘‘कैंसर की बीमारी से पीडि़त अपनी बेटी को मैं ने धोखे से तुम्हारे साथ बांध दिया, तुम्हारे मातापिता के इस घटिया आरोप ने मुझे बुरी तरह आहत किया है. नीरज, मैं तुम लोगों से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता हूं,’’ गुस्से में उस के ससुर ने अपना फैसला सुनाया.
‘‘इस कठिन समय में उन की मूर्खतापूर्ण बातों को आप दिल से मत लगाइए,’’ थकेहारे अंदाज में नीरज ने अपने ससुर से प्रार्थना की.
‘‘इस कठिन समय को गुजारने के लिए तुम सब हमें अकेले छोड़ने की कृपा करो. बस,’’ उस के साले ने नाटकीय अंदाज में अपने हाथ जोड़े.
‘‘तुम भूल रहे हो कि कविता मेरी पत्नी है.’’
‘‘आप जा कर अपने मातापिता से कह दें कि हमें उन से कैसी भी सहायता की जरूरत नहीं है. अपनी बहन का इलाज मैं अपना सबकुछ बेच कर भी कराऊंगा.’’
‘‘देखिए, आप लोगों ने आपस में एकदूसरे से झगड़ते हुए क्याक्या कहा, उस के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं. मेरी गृहस्थी उजड़ने की कगार पर आ खड़ी हुई है. कविता से मिलने को मेरा दिल तड़प रहा है…उसे मेरी…मेरे सहारे की जरूरत है. प्लीज, उसे यहां बुलाइए,’’ नीरज की आंखों से आंसू बहने लगे.
नीरज के दुख ने उन के गुस्से के उफान पर पानी के छींटे मारने का काम किया. उस की सास पास आ कर स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.
अब उन सभी की आंखों में आंसू छलक उठे.
‘‘कविता की मौसी उसे अपने साथ ले कर गई हैं. वह रात तक लौटेंगी. तुम तब तक यहां आराम कर लो,’’ उस की सास ने बताया.
अपने हाथों से मुंह कई बार पोंछ कर नीरज ने मन के बोझिलपन को दूर करने की कोशिश की. फिर उठ कर बोला, ‘‘मैं अभी घर जाता हूं. रात को लौटूंगा. कविता से कहना कि मेरे साथ घर लौटने की तैयारी कर के रखे.’’
आटोरिकशा पकड़ कर नीरज घर पहुंचा. उस का मन बुझाबुझा सा था. अपने मातापिता के रूखे स्वभाव को वह अच्छी तरह जानता था इसलिए उन्हें समझाने की उस ने कोई कोशिश भी नहीं की.
कविता की जानलेवा बीमारी की चर्चा छिड़ते ही उस की मां ने गुस्से में अपने मन की बात कही, ‘‘तेरी ससुराल वालों ने हमें ठग कर अपनी सिरदर्दी हमारे सिर पर लाद दी है, नीरज. कविता के इलाज की भागदौड़ और उस की दिनरात की सेवा हम से नहीं होगी. अब उसे अपने मायके में ही रहने दे, बेटे.’’
‘‘तेरे सासससुर ने शादी में अच्छा दहेज देने का मुझे ताना दिया है. सुन, अपनी मां से कविता के सारे जेवर ले जा कर उन्हें दे देना,’’ नीरज के पिता भी तेज गुस्से का शिकार बने हुए थे.
नीरज की छोटी बहन वंदना ने जरूर उस के साथ कुछ देर बैठ कर अपनी आंखों से आंसू बहाए पर कविता को घर लाने की बात उस ने भी अपने मुंह से नहीं निकाली.
अपने कमरे में नीरज बिना कपड़े बदले औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ा. इस समय वह अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा था. अपने घर व ससुराल वालों के रूखे व झगड़ालू व्यवहार से उसे गहरी शिकायत थी.
उस के अपने घर वाले बीमार कविता को घर में रखना नहीं चाहते थे और ससुराल में रहने पर नीरज का अपना दिल नहीं लगता. वह कविता के साथ रह कर कैसे यह कठिन दिन गुजारे, इस समस्या का हल खोजने को उसे काफी माथापच्ची करनी पड़ी.
उस रात कविता से नीरज करीब 2 माह बाद मिला. उसे देख कर नीरज को मन ही मन जबरदस्त झटका लगा. उस की खूबसूरत पत्नी का रंगरूप मुरझा गया था.
‘‘सुनते हो, आज एटीएम से 10 हजार रुपए निकाल कर ले आना. राशन नहीं है घर में,’’ किचन से चिल्ला कर बिंदु ने अपने पति सतीश से कहा.
सतीश बाथरूम से निकलते हुए झुंझलाए स्वर में बोला, ‘‘फिर से रुपए? अभी 10 दिन पहले ही तो 12 हजार रुपए निकाल कर लाए थे.’’
‘‘तुम क्या सोचते हो कि मैं ने सारे पैसे उड़ा दिए? खर्चे कम हैं क्या तुम्हारे घर के? बेटे के ट्यूशन में 2 हजार रुपए चले गए. दूधवाले के 2 हजार, डाक्टर की फीस में 1,200 रुपए. तुम ने भी तो 4 हजार रुपए लिए थे मुझ से सेठ का उधार चुकाने को. इस तरह के दूसरे छोटेमोटे खर्च में ही 10 हजार रुपए खर्च हो गए. बाकी बचे रुपए फलसब्जी आदि में लग गए.’’
‘‘देखो बिंदु, मैं हिसाब नहीं मांग रहा. मगर तुम्हें हाथ दबा कर खर्च करना होगा. मैं कोई हर महीने लाख 2 लाख रुपए सैलरी पाने वाला बंदा तो हूं नहीं. मकान किराए पर चढ़ाने का व्यवसाय है मेरा, जो आजकल मंदा चल रहा है.’’
‘‘तुम बताओ कौन सा खर्च रोकूं? घर के खर्चे, राशन, दूध, बिजली, पानी, सब्जी, बच्चे की पढ़ाई… इन सब में तो खर्च होने जरूरी हैं न. फिर हर महीने कुछ न कुछ ऐक्स्ट्रा खर्चे भी आते ही रहते हैं. उस पर तुम 3-4 हजार रुपए तक की शराब भी गटक जाते हो.’’
‘‘तो क्या शराब मैं अकेला पीता हूं? तुम भी पीती ही हो न,’’ सतीश ने चिढ़ कर कहा.
‘‘मैं कभीकभार तुम्हारा साथ देने को पीती हूं. पर तुम पीने के लिए जीते हो. खाना नहीं बना तो चलेगा पर शराब जरूर होनी चाहिए. फ्रिज में दूध नहीं तो चलेगा मगर अलमारी में दारू की बोतल न हो तो हंगामा कर दोगे.’’
‘‘तुम केवल दिमाग खराब करती रहती हो मेरा. मैं ले आऊंगा रुपए,’’ कह कर सतीश भुनभुनाते हुए बाहर निकल गया.
ऐसे झगड़े बिंदु और सतीश के जीवन में रोज की कहानी है. मध्यवर्गीय परिवार में वैसे भी पैसों की किचकिच हमेशा चलती ही रहती है.
सतीश शराब में भी काफी रुपए फेंकता है. हजारों रुपयों की शराब तो वह बिंदु की नजर में आए बिना ही गटक जाता है. वैसे और कोई ऐब नहीं है सतीश में. मेहनत से अपना काम करता है. यारदोस्तों के सुखदुख में शरीक होने की पूरी कोशिश करता है. कभी मन खुश हो या बिजनैस अच्छा चल निकले तो बीवीबच्चों के लिए नए कपड़े और तोहफे भी खरीद कर लाता है. बस, शराब के आगे बेबस हो जाता है. शराब सामने हो तो फिर उसे कुछ भी नहीं दिखता.
इस बीच देश में कोरोना के बढ़ते मामलों की वजह से लौकडाउन हो गया. सतीश को शराब खरीद कर जमा करने का मौका ही नहीं मिला. शराब की जो बोतलें अलमारी में छिपा कर रखी थीं, उन के सहारे 20-25 दिन तो निकल गए. मगर फिर सतीश को शराब की तलब लगने लगी. शराब के बिना उस का कहीं मन नहीं लगता. वैसे भी रोजगार ठप पड़ गया था. प्रौपर्टी बिजनैस शून्य था. उस के पास मकान और औफिस तो था पर नकदी की कमी थी. पैसे आ नहीं रहे थे. बैंक से निकाल कर किसी तरह घर का खर्च चल रहा था. तीसरे लौकडाउन के दौरान शराब बिकने की शुरुआत हुई तो सतीश खुश हो उठा. पहले दिन तो 2-3 घंटे लाइन में लग कर उस ने अपने पास बचे रुपयों से 4-6 बोतल शराब खरीद ली. शराब के चक्कर में उसे पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ीं. हजारों की भीड़ थी उस दिन.
अगले दिन भी वह शराब लेना चाहता था. सतीश के मन में खौफ था कि ठेके फिर से बंद न हो जाएं. इसलिए उस ने शराब स्टौक में रखने की सोची. रुपए पास में थे नहीं. बैंक अकाउंट में भी 10-12 हजार रुपए से अधिक नहीं थे. इतने रुपए तो घर के राशन के लिए जरूरी थे.
सतीश अपनी बीवी के पास पहुंचा और प्यार से बोला, ‘‘यार बिंदु, मुझे शराब खरीदनी है. तू ने
कुछ रुपए बचाए हैं तो दे दो या फिर अपने गहने…’’
गहनों का नाम सुनते ही बिंदु फुंफकार उठी, ‘‘खबरदार जो गहनों का नाम भी लिया. तुम ने नहीं बनवाए हैं. मेरी मां के दिए गहने हैं और इन्हें दारू खरीदने के लिए नहीं दे सकती. जाओ, गटर में जा कर लोटो या शराबी दोस्तों से भीख मांगो. मगर मेरे गहनों की तरफ देखना भी मत.’’
बिंदु की बात सुन कर सतीश को भी गुस्सा आ गया. उस ने बिंदु के बाल पकड़ कर खींचते हुए कहा, ‘‘कलमुंही, मैं ने प्यार से बोला कि कुछ रुपए या जेवर दे दे, तो तेरे भेजे में आग लग गई.’’
‘‘आग तो मैं तुम्हारे कलेजे में लगाती हूं. ठहरो…’’ कहती हुई बिंदु गई और एक बड़ी लाठी उठा लाई, ‘‘खबरदार, मेरे गहनों या पैसों को हाथ लगाया तो हाथ तोड़ दूंगी.’’
‘‘तू हाथ तोड़ेगी मेरा? ठहर अभी दिखाता हूं मैं,’’ सतीश ने लाठी छीन कर उसी को जमा दी.
वह अपना आपा खो चुका था. चीखता हुआ उलटीसीधी बातें बोलने लगा, ‘‘तू नहीं दे सकती तो जा अपने यार से ले कर आ पैसे.’’
‘‘यार? कौन सा यार पाल रखा है मैं ने? बददिमाग कहीं का. घिन्न नहीं आती तुझे ऐसी बातें बोलते हुए?’’
‘‘हां, सतीसावित्री तो बनना मत. सारी करतूतें जानता हूं मैं. किस के लिए सजधज कर निकलती है. उसी की दुकान पर जाती है रोज मरने.’’
बिंदु होश खो बैठी. दहाड़ती हुई उठी और सतीश की गरदन पकड़ कर चीखी, ‘‘एक शब्द भी तू ने मुंह से निकाला तो अभी टेंटुआ दबा दूंगी. फिर लगाते रहना इलजाम मुझ पर.’’
सतीश ने आव देखा न ताव और लाठी बिंदु के सिर पर दे मारी. वह दर्द से बिलबिलाती हुई गिर पड़ी, तो सतीश ने जल्दी से अलमारी में से गहने निकाले. सामने 7 साल का पिंकू सहमा खड़ा मम्मीपापा की लड़ाई देख रहा था. सतीश ने दरवाजा भिड़ाया और तेजी से बाहर निकल आया.
10 मिनट सामने की पुलिया पर बैठा रहा. फिर सोचना शुरू किया कि अब गहने किस के पास गिरवी रखे जाएं. उसे अपने दोस्त श्यामलाल का खयाल आया. मन में सोचा कि चलो आज उसी से रुपए मांगें जाएं.
सतीश श्यामलाल के घर के दरवाजे पर पहुंचा और दस्तक दी. तो अंदर से उस की बीवी की आवाज आई, ‘‘हां जी भाईसाहब, बोलिए क्या काम है?’’
‘‘भाभी, जरा श्याम को भेजना. उस से कुछ काम था.’’
‘‘माफ कीजिएगा. कोरोना के डर से वे आजकल कहीं नहीं निकलते. वैसे भी, अभी तो वे सो रहे हैं. उन की तबीयत ठीक नहीं.’’
‘‘अच्छा,’’ कह कर सतीश ने कदम पीछे कर लिए. श्यामलाल के अलावा सुदेश से भी उस की अच्छी पटती थी. वह सुदेश के घर पहुंचा. सुदेश ने दरवाजे से ही उसे यह कह कर टरका दिया कि अभी खुद पैसों की तंगी है. कोविड-19 के इस बदहाल समय में जेवर ले कर पैसे नहीं दे सकता.
1-2 और लोगों के पास भी सतीश ने जा कर गुहार लगाई. मगर किसी ने उसे घर में घुसने भी नहीं दिया. सब ने अपनेअपने बहाने बना दिए. साथ ही, सब ने उस पर यह तोहमत भी लगाई कि तू कैसा आदमी है जो ऐसे समय में पत्नी के जेवर बेचने निकला है?
सतीश के पास अब एक ही रास्ता था कि वह किसी ज्वैलर से ही संपर्क करे. उस ने ज्वैलरी की दुकान के आगे लिखे नंबर पर फोन किया. उसे उम्मीद थी कि अब काम बन जाएगा. सामने से किसी ने फोन उठाया तो सतीश ने कहा, ‘‘सरजी, मुझे गहने बेचने हैं.’’
‘‘क्यों, ऐसी क्या समस्या है जो पत्नी के गहने बेच रहे हो? कौन हो तुम?’’
‘‘सरजी, मुसीबत में हूं. रुपए चाहिए. इसलिए बेचना चाहता हूं.’’
‘‘सारी मुसीबतें जानता हूं मैं तुम लोगों की. जरूर दारू खरीदनी होगी, तभी पैसे चाहिए. सरकार ने भी जाने क्यों ठेके खोल दिए. पैसे नहीं, तो भी दारू पीनी इतनी जरूरी है?’’
‘‘हां जी, जरूरी है और फ्री में रुपए देने को नहीं कह रहा. गहने लो और पैसे दो,’’ सतीश भी भड़क उठा.
‘‘समझा क्या है तू ने बेवकूफ? पूरा देश कोविड-19 से लड़ रहा है और तुझे अपनी तलब बुझानी है. जिंदगी में कुछ अच्छे काम भी करने चाहिए. कभी देख गरीबों के बच्चों को, 2 रोटी के लिए तरस रहे हैं. दूसरों का भला करने के लिए रुपए मांगता तो तुरंत दे देता पर तुझे तो…’’
सतीश ने फोन काट दिया. इतना उपदेश सुनने के मूड में नहीं था वह. हताश हो कर वापस घर की तरफ लौट चला. कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे. अपनी बेचारगी पर गुस्सा आ रहा था. इस महामारी ने जिंदगी बदल दी थी उस की.
वह घर पहुंचा तो देखा कि दरवाजा खुला हुआ है. अंदर बेटा एक कोने में बैठा रो रहा है और बिस्तर पर बिंदु बेसुध पड़ी है. उस के हाथों में नींद की गोलियों की डब्बी पड़ी थी. दोचार गोलियां इधरउधर बिखरी हुई थीं. बाकी गोलियां खा कर वह बेहोश हो गई थी.
सतीश की काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. उस ने जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. बेटे को कमरे में बंद कर, खुद बिंदु को गोद में उठा कर बाहर निकल आया. बिंदु को ऐंबुलैंस में बैठा कर पास वाले अस्पताल में पहुंचा तो उसे ऐंट्री करने से भी रोक दिया गया. बताया गया कि अस्पताल कोविड-19 के लिए बुक है. सतीश ने दूसरे अस्पताल का रुख किया. वहां भी उसे रिसैप्शन से ही टरका दिया गया. बिंदु की हालत खराब होती जा रही थी. इस डर से कि कहीं बिंदु को कुछ हो न जाए, वह पसीने से तरबतर हो रहा था. 3-4 अस्पतालों के चक्कर लगाने पर भी जब कोई मदद नहीं मिली तो वह हार कर वापस घर लौट आया.
बिंदु को बैड पर लिटा कर वह खुद भी बगल में लुढ़क गया. रोता हुआ पिंकू भी आ कर उस से लिपट गया. सतीश को खयाल आया कि इतनी देर से पिंकू भूखा होगा. वह किचन में गया और ब्रैड गरम कर दूध के साथ पिंकू को दे दिया. खुद भी चाय पी कर सो गया.
अगले दिन उस की नींद देर से खुली. किसी तरह पिंकू को नहला कर उसे नाश्ता कराया और खुद चायब्रैड खा कर बिंदु की बगल में आ कर बैठ गया. अचेत पड़ी बिंदु पर उसे बहुत प्यार आ रहा था.
वह पुराने दिन याद करने लगा. 2-3 महीने पहले तक उस की जिंदगी कितनी अच्छी थी. बिंदु ने कितने सलीके से घर संभाला हुआ था. बेटे और पत्नी के साथ वह एक खूबसूरत जिंदगी जी रहा था. मगर आज बिंदु को अपनी आंखों के आगे अचेत पड़ा देख मन में तड़प उठ रही थी.
बिंदु की इस हालत का जिम्मेदार वह खुद था. दारू की लत में पड़ कर उस ने अपने सुखी संसार में आग लगा ली थी. कितना बेबस था वह. कितनी कोशिश की कि बिंदु की जान बचाई जा सके, मगर हर जगह से निराश और बेइज्जत हो कर लौटना पड़ा.
कितनी दयनीय स्थिति हो गई थी उस की. बिंदु का हाथ पकड़े हुए वह उस के सीने पर सिर रख कर सिसकसिसक कर रोने लगा.
तभी उसे लगा जैसे बिंदु के शरीर में कोई हरकत हुई है. वह एकदम से उठ बैठा और बिंदु को आवाज देने लगा. बिंदु ने किसी तरह आंखें खोलीं और ‘पानी’ कह कर फिर से आंखें बंद कर लीं. सतीश दौड़ कर पानी ले आया. 1-2 घूंट पी कर बिंदु फिर सो गई. शाम तक सतीश बिंदु की बगल में यह सोच कर बैठा रहा कि शायद वह फिर से आंखें खोलेगी.
शाम 5 बजे के करीब बिंदु ने फिर से आंखें खोलीं. सतीश ने उसे तुरंत पानी पिलाया. अब वह थोड़ी बेहतर लग रही थी. सतीश उस के लिए संतरे और अनार का जूस बना लाया. बिंदु की स्थिति में और भी सुधार हुआ. वह किसी तरह उठ कर बैठ गई. पिंकू को सीने से लगा कर रोने लगी.
सतीश ने अलमारी से दारू की बची हुई बोतलें निकालीं और बिंदु के सामने ही उन बोतलों को बाहर फेंक दिया. फिर वह बिंदु को गले लगा कर रोता हुआ बोला, ‘‘बिंदु, मुझे मेरा खुशहाल परिवार चाहिए, दारू नहीं,’’ बिंदु हौले से मुसकरा उठी.
आज सतीश को असली सुख की पहचान हो गई थी.
‘‘किस का पत्र है, उमा?’’ सास ने पूछा.
‘‘पिताजी का पत्र है, मांजी. गृहप्रवेश के लिए उत्सव का आयोजन कर रहे हैं. मुझे भी बुलाया है,’’ उस ने उत्तर दिया.
‘‘जाना चाहती हो क्या?’’ पति ने प्रश्न किया.
‘‘कहीं जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. बबलू की परीक्षा है. फिर मुझे भी तो छुट्टी नहीं मिलेगी. वैसे भी हम इतने स्वतंत्र थोड़े ही हैं कि जब मन आया अटैची उठा कर चल पड़ें,’’ उमा व्यंग्य से मुसकराते हुए बोली. उस की बात सुन कर पति भी मुसकरा कर रह गए. मां दूसरी ओर देखने लगीं पर मीना तिलमिला कर रह गई. पुरानी घटनाएं तेजी से उस की आंखों के सामने घूमने लगीं.
घड़ी में समय देखते हुए मीना अपने पति मनोज से बोली थी, ‘कितनी देर कर दी? गाड़ी छूटने में केवल 1 घंटा रह गया है. मैं ने तुम्हारे कार्यालय में कई बार फोन किया था. कहां चले गए थे?’
‘क्यों, कहां जाना है? क्या मुझे और कोई काम नहीं है जो सदा तुम्हारी ही हाजिरी में खड़ा रहूं,’ मनोज सुनते ही झुंझला गया था.
‘कितनी जल्दी भूल जाते हो तुम? सुबह ही तो बताया था कि मां का फोन आया है,’ मीना ने याद दिलाया.
‘सहारनपुर से आए हुए कितने दिन हुए हैं? पिछले सप्ताह ही तो लौटी हो. अब फिर जाने की तैयारी कर ली?’
‘अरे, तो क्या हो गया, बेटी हूं उन की, बुलाएंगे तो क्या जाऊंगी नहीं? तुम क्या जानो, मातापिता अपनी संतान से कितना प्यार करते हैं,’ मीना नाटकीय अंदाज में बोली.
‘तुम्हारे कुछ ज्यादा ही करते हैं, मेरे भी मातापिता हैं. 1 वर्ष हो गया विवाह को…कितनी बार गया हूं मैं?’
‘पुरुषों की बात दूसरी है, तुम तो पिछले 10 वर्ष से छात्रावास में ही रहते आए हो, अब भला उन्हें तुम से कितना लगाव होगा. तुम तो परिवार के साथ रहते हुए अधिकतर मित्रों के साथ ही घूमते रहते हो. इसीलिए तो तुम्हारे मातापिता तुम्हें याद नहीं करते.’
‘व्यर्थ की बातें करने की आवश्यकता नहीं है…मांजी का फिर फोन आए तो कह देना, अभी आना संभव नहीं है. यहां मेरे मातापिता भी आने वाले हैं.’
‘क्या?’
‘हां, आज ही पत्र आया है,’ मनोज ने एक अंतर्देशीयपत्र निकाल कर सामने रख दिया था.
‘तब तो और भी आसान है, मांजी आ जाएंगी तो तुम्हें खानेपीने की भी सुविधा हो जाएगी और अकेलापन भी नहीं अखरेगा,’ मीना ने छोटी बच्ची की तरह प्रसन्न हो कर कहा.
‘जरा सोचो, विवाह के बाद पहली बार वे लोग आ रहे हैं. तुम चली जाओगी तो उन के मन को कितनी ठेस पहुंचेगी,’ मनोज ने समझाने का प्रयत्न किया.
‘मेरे मातापिता की भावनाओं की भी कुछ चिंता है तुम्हें? मैं उन की इकलौती बेटी हूं. कजरी तीज का व्रत बड़ी धूमधाम से मनाते हैं हम लोग…3 दिन तक उत्सव चलता है. मैं नहीं गई तो मां कितना बुरा मानेंगी,’ मीना तैश में आ गई.
‘हर बार मैं तुम्हारी बात मानता हूं. इस बार मेरी बात मान लो. विवाह की वर्षगांठ आ रही है, सब साथ रहेंगे तो कितना अच्छा लगेगा,’ मनोज ने मिन्नत की.
‘देखो, ट्रेन का समय हो रहा है, व्यर्थ के तर्कवितर्क में उलझने का समय नहीं है. यदि तुम यह समझते होगे कि तुम जोर दे कर मुझे रोक लोगे तो यह बात भूल जाओ. तुम मेरे साथ नहीं चले तो मैं स्वयं ही चली जाऊंगी. स्टेशन तक का मार्ग मुझे भी मालूम है,’ मीना का उत्तर था.
‘तो ठीक है, चली क्यों नहीं जातीं. मेरी भी जान छूटे. मातापिता से इतना ही प्यार था तो विवाह क्यों किया था?’ मनोज क्रोध में इतनी जोर से चीखा कि मीना एक क्षण को तो स्तंभित रह गई. किंतु दूसरे ही क्षण चेहरा क्रोध से लाल हो गया और वह फूटफूट कर रो पड़ी.
2 दिन तक दोनों के बीच मौन छाया रहा. मीना ने खानापीना छोड़ रखा था. मनोज ने मनाने का प्रयत्न किया तो वह और बिफर पड़ी.
‘ठीक है, पहले खाना खा लो. तुम जाना ही चाहती हो तो छोड़ आऊंगा. किसी को जबरदस्ती यहां रोक कर रखने का मेरा कोई इरादा नहीं है और उस से लाभ ही क्या है,’ अंतत: मनोज ने दुखी हो कर हथियार डाल ही दिए थे और मीना सहारनपुर आ गई थी.
6 महीने बीत गए थे. मनोज ने मीना की सुधि नहीं ली थी और मीना को भी जिद थी कि वह बिना बुलाए जाएगी नहीं. किंतु आज उमा भाभी का व्यंग्य उस के सीने को चीरता निकल गया था. वह इतनी नादान भी नहीं थी कि इतनी सी बात भी न समझ पाती. वह फिर सोचने लगी… भाभी की बात सुन कर मां भी चुप रह गई थीं, इस बात ने उसे और अधिक आहत किया था.
पहले भी मां कई बार मीना को खोदखोद कर पूछ चुकी थीं कि इतने दिन बीत गए हैं, मनोज का कोई पत्र क्यों नहीं आया?
‘उन्हें पत्र लिखने की आदत नहीं है, मां,’ वह हंसने का प्रयत्न करती पर हंस न पाती.
किंतु आज इस घटना ने उसे पूर्णत: उद्वेलित कर दिया था. अपने कमरे में वह अकेली बैठी चुपचाप आंसू बहाती रही.
‘‘अरे, मीना, क्या बात है? शाम होने को आई, अभी तक सो रही हो,’’ अचानक उमा ने आ कर कमरे की बत्ती जलाई तो वह चौंक कर उठ बैठी और वर्तमान में आ गई. रोतेरोते कब आंख लग गई थी, वह समझ ही न पाई.
‘‘तबीयत ठीक नहीं है भाभी, बत्ती बुझा दो,’’ वह बोली.
‘‘बुखार तो नहीं है?’’ भाभी ने माथा छूते हुए कहा.
‘‘नहीं, बुखार नहीं, सिर में तेज दर्द है.’’
‘‘सिरदर्द में भी भला कोई इस तरह बिस्तर पर पड़ा रहता है? चलो, एक गोली खा लो और चाय पी लो, दर्द ठीक हो जाएगा. आज तुम्हारी चचेरी बहन सुधा का विवाह है, वहां भी तो जाना है. उठो, तैयार हो जाओ,’’ उमा ने कहा.
‘‘मेरी ओर से सुधा से माफी मांग लेना भाभी. मैं नहीं जा सकूंगी. जी बिलकुल अच्छा नहीं है,’’ मीना की आंखें डबडबा आईं.
‘‘मीना, तुम्हारे सिरदर्द का कारण मैं जानती हूं. सुबह की मेरी बात पर नाराज हो न? उसी समय तुम्हारा चेहरा देख कर मैं अपने मुंह से निकले उस व्यंग्य पर पश्चात्ताप से भर उठी थी. पर क्या करूं, कमान से निकले तीर की तरह मुंह से निकली इस बात को मैं लौटा तो नहीं सकती पर क्या अब तुम यह चाहती हो कि मैं बड़ी हो कर तुम से माफी मांगूं?’’ उमा दुखी स्वर में बोली.
‘‘कैसी बातें करती हो, भाभी. मैं भला तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगी?’’ मीना उदास स्वर में बोली.
‘‘क्या तुम सचमुच सोचती हो कि तुम्हारा यहां रहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता?’’ उमा ने कहा.
‘‘मैं ने ऐसा कब कहा, भाभी?’’
‘‘मीना, तुम यहां रहती हो तो घर ज्यादा भराभरा लगता है, पर तुम शायद नहीं जानतीं कि खून का रिश्ता न होते हुए भी मैं तुम्हें हमेशा सुखी देखना चाहती हूं. तुम्हारे चेहरे पर घिरती दुख की छाया अब पूरे परिवार को भी घेरने लगी है.’’
‘‘तो क्या तुम चाहती हो कि मैं जा कर मनोज के पैर पकड़ं ू?’’
‘‘पैर मत पकड़ो, पर कम से कम उस की कुशलता जानने के लिए फोन तो कर सकती हो, पत्र तो लिख सकती हो, उसे भी तो लगे कि उस की पत्नी को उस की चिंता है.’’
‘‘मुझे यहां आए 6 माह हो गए, किसी ने मेरी चिंता की?’’
‘‘किसी न किसी को पहल करनी ही पड़ेगी, मीना. सच बताना, तुम मनोज से लड़ कर आई थीं न?’’
‘‘हां,’’ मीना ने सिर हिलाते हुए आंखें झुका लीं.
‘‘मैं तो उसी दिन तुम्हारा उतरा चेहरा देख कर समझ गई थी और मैं नहीं सोचती कि मां या पिताजी की अनुभवी आंखों से यह तथ्य छिपा रहा होगा. इसीलिए तो लोग कहते हैं कि विवाह के बाद बेटी पराई हो जाती है. सबकुछ जानते हुए भी वे तुम से कुछ नहीं कह सकते और मनोज से संपर्क करने को शायद उन का अहं आड़े आ जाता है,’’ उमा बोली.
‘‘मैं क्या करूं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’
‘‘मेरी मानो तो इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न मत बनाओ. ये छोटीछोटी बातें ही वैवाहिक जीवन में विष घोल देती हैं. मनोज और उस के परिवार के लोग भले हैं, पर वे भी शायद हम लोगों की तरह पहल नहीं करना चाहते. अब तो तुम्हें ही निर्णय लेना है कि तुम क्या चाहती हो,’’ उमा ने समझाते हुए कहा.
‘‘तुम दोनों यहां छिपी बैठी हो और मैं सारे घर में ढूंढ़ आई,’’ तभी मांजी आ गईं और दोनों की बातचीत बीच में ही रह गई.
‘‘मीना की तबीयत ठीक नहीं है, मांजी. वह विवाह में नहीं जाना चाहती,’’ उमा ने सास की ओर देखा.
‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
‘‘सिर में दर्द है.’’
‘‘अरे, इस का तो चेहरा उतरा हुआ है. ठीक है, तुम्हीं चली जाओ, इसे आराम करने दो.’’
‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी, मीना नहीं जा रही तो आप चलिए,’’ उमा बोली.
‘‘ठीक है, चलो, मैं चलती हूं. जल्दी तैयार हो जाओ, देर हो रही है.’’
सब के जाते ही मीना उठी. उमा भाभी से बातचीत कर के उस का मन काफी हलका हो गया था. वह दिल्ली मनोज को फोन करने का प्रयत्न करने लगी. पर जब बहुत देर तक संपर्क नहीं हुआ तो उस का मन अजीब सी आशंका से भर उठा. तभी उसे याद आया कि मनोज के पड़ोसी लाल भाई का फोन नंबर उस के पास है. अत: उस ने उन से संपर्क करने का निश्चय किया.
‘‘नमस्ते भाभीजी, मैं मीना बोल रही हूं…मनोज कैसे हैं? काफी दिनों से कोई समाचार नहीं मिला,’’ मीना लाल भाई की पत्नी की आवाज पहचान कर बोली.
‘‘अरे, मीना बोल रही हो? क्या हो गया तुम्हें…इस बार तो मायके जा कर जम ही गईं. यहां आने का नाम ही नहीं ले रहीं?’’
एक क्षण को मीना मौन खड़ी रह गई. किस मुंह से कहे कि वह मनोज की प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है.
‘‘हैलो…’’ लाल भाई की पत्नी पुन: बोलीं.
‘‘जी हां, मैं बोल रही हूं. आवश्यक कार्यवश नहीं आ सकी. बहुत देर से मनोज को फोन करने का प्रयत्न कर रही थी पर मिला ही नहीं…वे कैसे हैं?’’
‘‘कैसे होंगे…तुम्हारी अनुपस्थिति में रंगरलियां मना रहे हैं…हर दूसरे दिन नई लड़की के साथ घूमते नजर आते हैं. मैं ने तो समझाया भी पर कौन सुनता है. तुम ने फोन किया तो मैं ने बता दिया परंतु मेरा नाम मत लेना, व्यर्थ ही मनोज बुरा मानेगा,’’ वे बोलीं.
घर के सदस्य विवाह से लौटे तो मीना अस्तव्यस्त दशा में बैठी थी. चेहरा आंसुओं में भीगा था.
‘‘क्या हुआ, मीना?’’ देखते ही सब ने समवेत स्वर में पूछा.
‘‘मुझे दिल्ली जाना है,’’ वह शून्य में देखती हुई बोली.
‘‘अब इस समय? रात के 12 बजे हैं,’’ भैया आश्चर्यचकित हो बोले.
‘‘पर क्या हुआ?’’ मां उलझन भरे स्वर में बोलीं.
‘‘मुझे यहां भेज कर मनोज रंगरलियां मना रहा है.’’
‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ पिताजी ने पूछा.
‘‘उन की पड़ोसिन ने बताया. मैं ने फोन किया था.’’
‘‘सुबह चली जाना…इतनी देर में कुछ नहीं बिगड़ेगा. तुम्हारे भैया जा कर छोड़ आएंगे,’’ पिताजी बोले.
वह रात बच्चों को छोड़ कर सब ने आंखों में ही काटी. दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही मीना पहली बस पकड़ कर भैया के साथ दिल्ली रवाना हो गई.
दोनों भाईबहन घर पहुंचे तो मनोज तो नहीं था पर उस की मां वहां थीं.
‘‘आप कब आईं, मांजी,’’ अभिवादन के बाद भैया ने पूछा.
‘‘मैं तो 4 महीने से पूरे परिवार को छोड़ कर यहां पड़ी हूं. सोचा था मनोज का विवाह हो गया तो उस की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. पर वह लगभग 4 महीने पहले बहुत बीमार हो गया था और मीना सहारनपुर जा कर ऐसी बैठी कि अपने परिवार को भूल ही गई,’’ मनोज की मां शिकायत भरे स्वर में बोलीं.
‘‘सचमुच गलती मीना की है, मांजी. पर इस बार क्षमा कर दीजिए, नासमझ है. आगे से ऐसी भूल नहीं होगी,’’ भैया बोले.
‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मैं तो प्रसन्न हूं कि घर की लक्ष्मी घर आ गई है. अब अपना घर संभाले और मुझे मुक्ति दे,’’ वे बोलीं.
मनोज काफी रात गए घर लौटा, वह मीना को देख हैरान हो गया.
‘‘यह कोई घर आने का समय है?’’ मीना एकांत पाते ही बोली.
उत्तर में मनोज अपनी हंसी न रोक सका.
‘‘इस में हंसने की क्या बात है?’’ मीना ने नाराजगी से कहा.
‘‘नहीं, हंसने की कोई बात नहीं है पर अब तो रोज ही मुझे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा,’’ मनोज बोला.
‘‘मुझे लाल भाई की पत्नी ने सब बता दिया है,’’ मीना ने आंखें तरेरते हुए कहा.
‘‘मुझे भी उन्होंने आज सुबह सब बताया था.’’
‘‘क्या?’’
‘‘यही कि अब तुम्हारे लौटने में अधिक देर नहीं है.’’
‘‘यानी कि उन्होंने सब झूठ कहा था.’’
‘‘यह तो तुम उन्हीं से पूछो.’’
‘‘मैं बिना बुलाए आ गई इसलिए अपनी विजय पर इठला रहे हो.’’
‘‘कैसी बातें कर रही हो मीना, हम दोनों क्या अलग हैं, जो मैं अपमान और सम्मान जैसी ओछी बातें सोचूंगा. तुम अपने घर आई हो, इस में शर्म कैसी? रही बात मेरे वहां आने की तो एक बार लिखा होता या फोन ही कर दिया होता तो मैं सिर के बल दौड़ा आता.’’
‘‘मुझ पर अपना जरा सा भी अधिकार समझते हो तो बिना बुलाए आ सकते थे.’’
‘‘आ सकता था पर सच कहूं?’’
‘‘कहो.’’
‘‘तुम ठहरीं इकलौती बेटी. याद है, मेरे मना करने पर तुम कितने क्रोध में यहां से गई थीं. वहां जाने पर तुम मेरा अपमान कर देतीं और मेरे साथ न आतीं तो शायद मैं सह न पाता.’’
मीना सोच रही थी कि मनोज के विचार कितने सुलझे हुए हैं और एक वह है जिस ने अपनी हठधर्मी के कारण सब के जीवन में विष घोल दिया. वह तो उमा भाभी ने बचा लिया, नहीं तो शायद पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी हाथ न लगता.
लड़की जैसे हावभाव होने पर श्री ने सिया बनने का फैसला ले तो लिया, पर मुसीबतों ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा. ट्रांसजेंडर और हिजड़ा शब्द बारबार उस के कानों में गूंजते. श्री से सिया बनने के बाद क्या मुसीबतों का खात्मा हो गया या फिर सामाजिक व मानसिक सोच में कोई बदलाव आया.
‘छनाक’ की आवाज के साथ आईना चकनाचूर हो गया था. कई टुकड़ों में बंटा हुआ आईने का हर टुकड़ा सिया का अक्स दिखा रहा था.
मांग में भरा सिंदूर, गले का मंगलसूत्र, कानों के कुंडल ये सब मानो सिया को चिढ़ा रहे थे.
शायद समाज के दोहरेपन के आगे वह हार मान चुकी थी.
एकसाथ कई सवाल सिया के मन में उमड़घुमड़ रहे थे.
आईने के नुकीले टुकड़ों में सिया को उस के सवालों का उत्तर नहीं मिल सका. आंखों में आंसुओं के साथ पिछली यादें किसी फिल्म की तरह सिया की आंखों के सामने से गुजरने लगी थी.
“श्री” नाम था उस का. 20 साल का होतेहोते वह और उस के मांबाप ये समझ चुके थे कि श्री का शरीर भले ही एक पुरुष का हो, पर उस के अंदर आत्मा एक महिला की ही है.
मांबाप ने श्री को कई डाक्टरों और मनोचिकित्सकों को दिखलाया, इलाज भी चला, पर कोई लाभ नहीं हुआ. डाक्टरों ने श्री को ‘जेंडर आइडेंटिटी डिसऔर्डर’ का मरीज बताया, जिस में शरीर तो स्त्री या पुरुष का हो सकता है, पर हावभाव और लक्षण विपरीत लिंग के होते हैं.
श्री के नैननक्श तीखे थे. उस के चेहरे की खूबसूरती और चमक से लड़कियों को जलन होना स्वाभाविक ही था. वह लड़कियों के कपड़े पहनता, उन की तरह हावभाव रखता, गाने गाता और लड़कियों की तरह डांस करना उसे बहुत अच्छा लगता था. किसी से बात करते समय लचकनामचकना श्री की आदत थी. अनजाने में ही श्री के अंदर की स्त्री सहज रूप में उभर कर आती थी.
श्री जीवन के 22वें वर्ष में प्रवेश कर चुका था. बाहर जाने पर भी लड़कियों जैसे कपड़े ही पहनने लगा था वह… मानो अब उसे जमाने के कहनेसुनने की कोई परवाह ही नहीं थी. उस ने अमर नाम का एक दोस्त बनाया था, जिसे वह अपना बौयफ्रैंड कहता था.
अमर को इस बात का अहसास था कि श्री की हरकतें लड़कियों जैसी हैं, पर उसे तो सिर्फ श्री के पैसे से मजे करने थे, इसलिए वह उस के नाज उठाता था. आज वे दोनों श्री का जन्मदिन मनाने के लिए किसी रेस्टोरेंट में जाने वाले थे.
इस खास दिन के लिए श्री ने अपने लंबे बालों को खुला छोड़ा हुआ था और वह सलवारसूट पहने था.
उन दोनों को वापसी में रात के साढ़े 11 बजे गए थे. अमर और श्री एकदूसरे का हाथ पकड़े गाड़ी की पार्किंग की तरफ बढ़ रहे थे.
“अरे लगता है, मैं अपना मोबाइल रेस्टोरेंट में ही भूल आया हूं,” कह कर अमर अंदर की ओर लपक गया, जबकि श्री बाहर ही उस के आने का इंतजार करने लगा था.
एक बड़ी सी गाड़ी श्री के ठीक सामने आ कर खड़ी हुई और उन में से बाहर निकले एक बलशाली लड़के ने श्री को अंदर घसीट लिया और श्री के मुंह पर टेप लगा दिया, ताकि वह शोर न मचा सके. गाड़ी को वे लोग एक निर्माणाधीन बिल्डिंग के पास ले गए और श्री को बाहर घसीटा.
“आज बहुत दिनों बाद कोई चिकना माल मिला है,” श्री के कपड़े फाड़ते हुए एक वहशी बोला, पर अगले ही पल वह बुरी तरह चौंक गया, “स्साला… ये तो लड़की के वेश में लड़का है… क्यों बे साले… लड़की बन कर घूमने में ज्यादा मजा आता है क्या?” दोचार लातघूंसे रसीद कर दिए थे उस वहशी ने श्री के गाल पर.
“अब क्या करें… सारे मूड का तो सत्यानाश हो गया…अब मूड कैसे फ्रेश करें?” दूसरा युवक बोला.
“भाई तुम लोग अपना सोच लो… मुझे तो आज इस लड़के के साथ ही मजे लेना है… कभीकभी स्वाद भी तो बदलना चाहिए न,” इतना कह कर वह युवक श्री के साथ जबरन दुराचार करने लगा और फिर कुछ देर बाद बारीबारी से तीनों दोस्तों ने भी श्री के साथ मुंह काला किया और उसे तड़पती अवस्था में छोड़ कर वहां से चले गए.
अर्धबेहोशी की अवस्था में श्री कब तक रहा, उसे कुछ पता नहीं था. आंखें खुलीं, तो उस ने अपनेआप को एक अस्पताल में पाया. पुलिस वाले उस के सामने खड़े थे.
“तो आप का कहना है कि आप के बेटे का बलात्कार हुआ है,” पुलिस वाले ने श्री के पिता से पूछा.
“जी.”
“हमें पीड़ित का बयान लेना होगा,” इंस्पेक्टर ने कहा और श्री से कुछ अटपटे सवाल पूछने के बाद जल्द ही कार्यवाही करने की बात कह कर बाहर निकलते हुए पुलिस कांस्टेबल इंस्पेक्टर से कह रहा था, “साहब, ये सब अमीर घर के लड़कों के चोंचले हैं… पहले लड़की बन कर घूमते हैं और फिर बलात्कार करवा कर हमारे लिए काम बढ़ा देते हैं… साले हिजड़े कहीं के…”
‘हिजड़े…’ यह शब्द गाली की तरह चुभा था श्री को. श्री का कलेजा अंदर तक छलनी हो गया था.
ये पहला मौका था, जब उसे अपने इस दोहरे जीवन जीने के ढंग पर शर्म आई थी.
करीब 5 दिन तक अस्पताल में रहने के बाद श्री अपने मांबाप के साथ घर आया और अपने बौयफ्रैंड अमर को फोन लगाया.
काफी देर बाद अमर ने उस का फोन उठाया और सीधे शब्दों में कह दिया कि श्री के साथ जो हादसा हुआ है, उस से उस की काफी बदनामी हो गई है, इसलिए वह उस के साथ अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता.
जिस दोस्त की अब उसे सब से ज्यादा जरूरत थी, उसी ने उस का साथ छोड़ दिया. ये सोच कर श्री काफी परेशान हो उठा.
श्री ने अपने मर्दाना पर निष्क्रिय पड़े हुए अंग को देखा और नफरत से भर गया. यह पहला मौका था, जब श्री ने अपना लिंग परिवर्तन कराने की बात गहराई से सोची, इस के लिए सब से पहले उस ने इंटरनेट खंगालना शुरू किया. उस के जैसे लक्षणों वाले और बहुत से लोग हैं इस दुनिया में. यह बात उसे पता चली, तो उस के मन को थोड़ा सुकून मिला और गहरे जाने पर श्री को बहुत सी नई बातें पता चलीं. उस में से एक यह बात भी थी कि चिकित्सा के नए स्वरूप में लिंग परिवर्तन कराना कोई बहुत बड़ी बात नहीं रह गई है और 10 लाख से भी कम खर्चे में भारत में ही रह कर अपना लिंग परिवर्तन कराया जा सकता है.
ये सारी बातें जान कर श्री एक नई ऊर्जा से भर गया था. अपने लिंग परिवर्तन अर्थात अपनेआप को एक पुरुष से स्त्री के शरीर में ढालने की बात जब श्री ने अपने मांबाप से की, तो पहले तो वे सकते में आ गए, पर बाद में उन्होंने हामी भर दी.
श्री ने लिंग परिवर्तन के लिए विशेषज्ञों से औनलाइन परामर्श लेना शुरू किया, जिन से उसे पता चला कि ये प्रोसेस धीमा जरूर है, पर इस में धैर्य रख कर इसे सफल बनाया जा सकता है, कुछ और जरूरी खोजबीन के बाद डाक्टर मुकेश माथुर से अपना लिंग परिवर्तन कराने के लिए वह गुजरात में उन से मिला और उन के अस्पताल में भरती हो गया.
डाक्टर माथुर ने सब से पहले उसे हार्मोंस के इंजेक्शन देने शुरू किए और थेरेपी व अन्य दवाएं भी देनी शुरू कीं, जिन के असर से कभीकभी श्री परेशान हो उठता. कभी वह मूड स्विंग्स का शिकार भी हो जाता था. स्त्री के स्वभाव के साथसाथ उस का शरीर भी एक का हो जाएगा, ये सोच कर श्री ये सारे दर्द झेलता रहा.
जब कभी श्री परेशान होता, तो वह रोने लगता. ऐसे में उस के मनोचिकित्सक की कमी डाक्टर मुकेश माथुर पूरी करते.
40 साल के डाक्टर मुकेश माथुर शहर के जानेमाने सर्जन थे और चिकित्सा में उन्होंने कई इनाम भी जीते थे. उन्हें मरीज की मनोदशा का अच्छी तरह से पता था. वह घंटों श्री का हाथ पकड़ कर उस के सिरहाने बैठे रहते और उसे हिम्मत बंधाते. श्री को उन का आत्मिक होना बहुत अच्छा लगता था.
धीरेधीरे दवाएं और हार्मोंस का असर श्री के शरीर पर आने लगा. उस की काया कमनीय हो चली थी. सीने पर उभार आने लगे और शरीर के बाल पतले हो कर गायब होने लगे थे.
और आखिर वह दिन भी आया, जब डाक्टर मुकेश माथुर के द्वारा श्री को स्त्री घोषित कर दिया गया.
डाक्टर माथुर ने श्री को नया नाम भी दिया, “नए शरीर के साथ तुम्हारा नया होगा… सिया.”
अपने नए नाम को बारबार दोहरा रहा था श्री और ऐसा करते समय उस की आंखों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे.
“वैसे तो हमारे देश में अब लिंग परिवर्तन की प्रक्रिया आसान हो गई है, पर डाक्टर मुकेश माथुर ने जितने कम समय और बिना किसी साइड इफेक्ट के इस सर्जरी को अंजाम दिया है, काबिलेतारीफ है,” डाक्टरों के एक पैनल ने सर्वसम्मति से डाक्टर माथुर को “धन्वंतरि अवार्ड” से नवाजा.
श्री से सिया बन कर उस के जीने का अंदाज ही बदल गया था. अपनेआप को घंटों आईने के सामने निहारती रहती थी सिया.
सिया के नाम से नया फेसबुक एकाउंट भी बना लिया था उस ने. सब से पहली फ्रेंड रिक्वेस्ट उस ने अमर को भेजी, एक सुंदर लड़की की फोटो देख कर अमर ने तुरंत ही फ्रेंडशिप स्वीकार कर ली. धीरेधीरे फोन नंबरों का आदानप्रदान हुआ और अमर और सिया में बातचीत होने लगी. सिया ने वीडियो काल कर अमर को अपनी खूबसूरती की एक झलक भी दिखला दी थी.
अमर सिया से मिलने के लिए बेचैन हो उठा और उस ने सिया को मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में बुलाया, फिर उसे बहाने से एक होटल के कमरे में ले गया. उस की मंशा सिया जैसी खूबसूरत लड़की को भोगने की थी इसलिए, पर वह सिया को बातों मे लगा कर उस के कपड़े उतारने लगा. सिया ने भी कोई विरोध नहीं किया. कुछ देर बाद सिया पूरी तरह नग्न हो कर अमर के सामने खड़ी थी.
अमर अपलक सिया को निहारे जा रहा था. सिया को बांहों में भर लिया था अमर ने… जैसे ही सिया के शरीर में अमर ने समाने की कोशिश की, सिया ने उसे जोर का धक्का दिया.
यह देख अमर थोड़ा सा चौंक उठा, “अरे सिया, अब इतना नाटक क्यों कर रही हो?”
“मैं नाटक नहीं कर रही, बल्कि मैं तुम्हें ये अहसास कराना चाहती हूं कि तुम ने क्या खोया है… ये सिया वही श्री है, जिस को तुम ने एक दिन अपनी बदनामी के डर से ठुकरा दिया था.”
ऐसा कह कर सिया ने झट से कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल गई.
अमर को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत थी या कोई छलावा था.
सिया अपने मांबाप के साथ रहने लगी. महल्ले के लोगों को पता चल चुका था कि श्री ही लिंग परिवर्तन के बाद की सिया है, इसलिए सब उसे अजीब नजरों से देखते थे, कभीकभी सिया के पीछे फुसफुसाती आवाजें सिया को अजीब लगतीं, तो कभी 15-16 साल के लड़के उस के पीठ पीछे “हिजड़ा” बोल कर हंसते हुए चले जाते थे.
पहलेपहल तो सिया ने ध्यान नहीं दिया, पर जब इन चीजों की पुनरावृत्ति होने लगी तो सिया के मन में खटास आने लगी.
“मैं कोई हिजड़ा नहीं, बल्कि मैं तो पूरी औरत हूं,” फुसफुसा उठती थी सिया.
इस दौरान उसे हार्मोन थेरेपी के लिए डाक्टर मुकेश माथुर के पास जाना पड़ता था. उस दिन 14 फरवरी अर्थात “वैलेंटाइन डे” था. डाक्टर माथुर ने हाथों में एक सुर्ख गुलाब ले कर सिया को दिया.
“क्या आप किसी लड़की को लाल गुलाब देने का मतलब जानते हैं डाक्टर?” सिया ने पूछा.
“अच्छी तरह जानता हूं…तभी तो दे रहा हूं,” डाक्टर माथुर ने कहा.
“तुम्हारी सर्जरी करने के बाद मुझे तुम से मिलतेमिलते इतना प्यार हो गया है कि अब तुम्हारे बिना मुझ से रहा नहीं जाता है, इसलिए मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.”
एक ट्रांसजेंडर बनने के बाद से ही सिया एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ रही थी, जो उस के साथ शादी करने का साहस जुटा सके और उसे औरत के जिस्म का अहसास करा सके.
सिया डाक्टर माथुर की ये बात सुन कर फूली नहीं समा रही थी. उसे लग रहा था कि उस का सपना साकार हो गया है.
सिया के मांबाप को भला इस फैसले से क्या आपत्ति होती… उन्होंने उस की हां में हां मिला दी.
एक सादा समारोह में डाक्टर मुकेश माथुर ने सिया से शादी कर ली. एक ट्रांसजेंडर की एक डाक्टर से शादी को लोकल समाचारपत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया. सोशल मीडिया पर भी डाक्टर मुकेश माथुर और सिया की शादी खूब सुर्खियों में रही.
शादी के बाद डाक्टर मुकेश और सिया जी भर कर सैक्स का सुख लेने लगे. अपने शरीर को ले कर सिया का हर प्रकार का डर खत्म हो गया था.
आज कुछ मीडिया वाले डाक्टर मुकेश का इंटरव्यू लेने आए थे, जो उन से बारबार वही जानना चाह रहे थे कि एक ट्रांसजेंडर के साथ शादी कर के उन्हें कैसा लग रहा है… पत्रकार घुमाफिरा कर उन के सैक्स संबंधों के बारे में ही सवाल पूछ रहे थे, उन के हर सवाल का जवाब डाक्टर मुकेश माथुर बड़ी गर्मजोशी से जवाब दे रहे थे.
पत्रकारवार्ता खत्म होने के बाद डाक्टर मुकेश के मोबाइल पर एक फोन आया, जिसे सुन कर वे बहुत खुश हुए और सिया से बोले, “सुनो सिया… मैं ने एक लिंग परिवर्तन करवाए हुए एक लड़के से शादी की है. मेरे इस साहसिक निर्णय के लिए मुझे मानव कल्याण संस्था वाले एक अवार्ड दे रहे हैं,” चहक रहे थे डाक्टर मुकेश. उन को खुश देख कर सिया भी खुश हो गई.
2 दिन बाद ही डाक्टर मुकेश माथुर को जब अवार्ड मिल गया, तो उस ने अपने कुछ डाक्टर साथियों को इस खुशी में घर पर पार्टी के लिए बुलाया. सारा खाना बाहर से मंगवाया गया था और महंगी वाली शराब का दौर चल रहा था. मुकेश के सभी साथी नशे में झूमने लगे थे.
“यार मुकेश… शराब तो तू ने पिला दी, पर शबाब के लिए अपनी उस ट्रांसजेंडर बीवी को ही बुला ले,” एक साथी ने कहा.
“हां यार, बड़ा मूड हो रहा है,” दूसरे साथी ने कहा.
“नहीं यार, भले ही वह ट्रांसजेंडर हो… पर है तो उस की बीवी ही,” दूसरे दोस्त ने बचाव किया.
“इन ट्रांसजेंडर की भी क्या इज्जत और क्या बेइज्जती? ये तो ग्रुप सैक्स के लिए भी राजी हो जाते हैं.”
कमाल की बात यह थी कि डाक्टर मुकेश उन सब की बातों का कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था, बल्कि उन की हां में हां मिला रहा था.
दीवार के पीछे खड़ी सिया ये सब सुन रही थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. इतने में सिया ने अपनी पीठ पर किसी का मजबूत हाथ महसूस किया. ये डाक्टर मुकेश माथुर था.
मुकेश सिया को घसीटते हुए अपने साथियों के सामने ले गया और बोला,
“लो दोस्तो, शराब के बाद… शबाब… मजे ले लो इस के.”
“ये आप क्या कर रहे हैं… मैं पत्नी हूं आप की.”
बड़ी ज़ोर से हंस पड़ा था डाक्टर मुकेश माथुर.
“अरे ओ… मैं ने तुझ जैसे हिजड़े… सौरी… ट्रांसजेंडर से शादी इसलिए की है कि मुझे समाज में सम्मान मिल सके… अवार्ड मिल सके… और मैं एक हिजड़े का उद्धार करने वाले डाक्टर के रूप मे जाना जाऊं,” नशे में डाक्टर मुकेश माथुर बुरी तरह हावी हो रहा था, जबकि डाक्टर मुकेश के साथी सिया के कपड़े खींचने में लगे हुए थे और कुछ ही देर में सिया उन सब के सामने नंगी खड़ी हुई फफक रही थी. वह हाथों से कैंची बना कर अपने सीने को ढकने की असफल कोशिश कर रही थी. एक व्यक्ति ने उसे बिस्तर पर गिरा लिया. उस के बाद सभी लोगों ने बारीबारी से सिया के साथ मुंह काला किया और इस घटना का वीडियो भी बनाया, ताकि इस बलात्कार की यादें ताजा रहें.
अगली सुबह जब सिया को होश आया था, तब कमरे में कोई नहीं था, सिर्फ शराब और सिगरेट की गंध शेष थी.
सिया ने किसी तरह से कपड़े पहने और उस की नजर आईने के टूटे हुए टुकड़ों पर पड़ी, जो उसे चिढ़ा रहे थे मानो कह रहे हो कि तू एक हिजड़ा है… तू एक ट्रांसजेंडर है और तुझे समाज वाले इज्जत की नजर से कभी नहीं देखेंगे…बड़ी चली थी शादी करने… सिया ने भरे मन से टूटे आईने का एक टुकड़ा उठाया और अपनी कलाई की नस को काट लिया. उस की कलाई से खून तेजी से टपकने लगा था. सिया के कानों में अब भी आवाजें गूंज रही थीं… ट्रांसजेंडर… हिजड़ा… हिजड़ा…
राजस्थान प्रदेश के इस हिस्से में लौटरी खेलने पर कोई प्रतिबंध नहीं था. यहां के युवा तो युवा, प्रौढ़ लोग भी लौटरी खेलने के जाल में उलझे हुए थे. इसी कसबे में सूरज नाम का 30 वर्षीय युवक भी रहता था. सूरज को भी लौटरी खेलने की लत लग गई थी.
सूरज के पिताजी गांव के प्रधान हुआ करते थे और किसी समय उन के पास काफी पैसा भी था. सूरज की लौटरी की लत ने काफी पैसा फुजूल उड़ा दिया था. सूरज लौटरी में ज्यादातर हारता, कभीकभी ही जीतता. पर जीत, हारे गए पैसों की तुलना में बहुत छोटी होती. फिर भी सूरज नए उत्साह से लौटरी का टिकट खरीदता और परिणाम का बेसब्री से इंतज़ार करता.
सूरज अपने मांबाप का इकलौता लड़का था. उस की शादी की उम्र हो गई थी, फिर भी उस की शादी नहीं हो रही थी. भला एक जुआरी से शादी करता भी कौन.
सूरज को गांव के लोग अच्छी नज़रों से नहीं देखते थे जिस का कारण उस का लौटरी खेलना तो था ही, साथ ही, सूरज के अंदर एक ऐब और भी था. दरअसल, लौटरी जीतने की खुशी मनाने और हारने का गम मिटाने के लिए वह गेरुई के पास जाता था.
गेरुई एक रुदाली थी. रुदाली, यानी, वह स्त्री जो किसी व्यक्ति की मृत्य हो जाने पर विलाप करती है. रुदाली के विलाप में ऐसा दर्द उभर कर आना चाहिए कि वहां खड़े सभी लोगों की आंखें नम हो जाएं.
सभ्रांत घरों की महिलाएं व्यक्ति की लाश पर हाथ मारमार कर विलाप नहीं कर सकती थीं क्योंकि वे तथाकथित सभ्य समाज का हिस्सा थीं और उन्हें घर की चारदीवारी के अंदर ही रहना होता था. ऐसे में रुदाली, पैसे वाले और कुलीन कहलाने वाले लोगों के बहुत काम आती थी.
और यह भी सच है कि आंसुओं की भी एक सीमा होती है. ऐसे में जब आंसू आंखों का साथ छोड़ देते तो रुदाली का सहारा लिया जाता.
रुदालियां काले रंग का लबादा सा ओढ़ कर आतीं. अच्छे कामों में रुदाली को देख लेने भर से काम बिगड़ जाते हैं, ऐसी मान्यता रखता था यह गांव.
गेरुई और उस के परिवार को गांव वालों ने गांव के कोने पर ही रहने की इज़ाज़त दी हुई थी. वह गांव में तब ही आती जब उसे किसी की मृत्यु पर विलाप करने के लिए बुलाया जाता, वरना उसे गांव के अंदर जाने की सख्त मनाही थी.
आज के समाज में भी लोकरीति के चलते उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर गेरुई के पास जब सूरज प्यार की तलाश में पहुंचा तो अपनेपन और सम्मान की भूखी गेरुई ने अपना तन और मन दोनों ही सूरज पर लुटा दिए थे. सूरज जब भी लौटरी में हार कर आता, तो हताशा में गेरुई से कुछ अलग डिमांड करता. तब गेरुई उसे बिस्तर पर लिटाती और उस की आंखों के सामने अपने मांसल अंगों से खुद कपड़े अलग करती. सूरज का कहना था कि गेरुई को ऐसा करते देख उसे कामसुख जैसा ही आनंद प्राप्त होता है. जब गेरुई पूरी तरह से निर्वस्त्र हो जाती और सूरज की सांसें धौकनी बन रही होतीं तो वह गेरुई को बिस्तर पर पटक देता और अपना मुंह गेरुई के विशाल वक्ष स्थल के बीच में डाल देता और गेरुई के कोमल व गोल अंगों को जी भर प्यार करता. गेरुई और सूरज जम कर कामसुख का आनंद लेते और फिर सूरज देर तक गेरुई की आगोश में पड़ा रहता. जातेजाते सूरज कुछ पैसे भी गेरुई को दे कर जाता.
एक दिन सूरज सड़क के किनारे वाली चाय की दुकान पर बैठा हुआ लौटरी के टिकट का गणित बिठा रहा था. तभी वहां पर अपने स्कूटर पर बैठा हुआ राजू सिंह आया और सूरज से जानपहचान बढ़ाने लगा. राजू सिंह ने उसे बताया कि वह आसपास के गांव और कसबों में घूमता है और उम्र निकल जाने के कारण जिन लड़केलड़कियों की शादी नहीं हो पाती है वह उन की शादी करवाने में मदद करता है. राजू सिंह ने 4-5 फोटो सूरज के सामने फैला दी थीं. सूरज ने उड़ती नज़र उन पर डाली. वे सभी बहुत सुंदर लड़कियां थीं. देखने से ही बड़े घर की लड़कियां लग रही थीं. उन की सुंदरता देख कर एकबारगी सूरज के मुंह में भी पानी आ गया.
“ये… इत्ती सुंदर लड़कियां मुझ से शादी करने के लिए क्यों राजी होंगी भला?” सूरज ने सवाल किया.
“अरे हुज़ूर, आप के रसूख के बारे में किसे पता नहीं है. बस, आप यह लौटरी और रुदाली गेरुई का चक्कर छोड़ दीजिए, फिर देखिए, आप के पास लड़कियां कैसी खिंची चली आती हैं,” राजू सिंह ने चिकनीचुपड़ी बातें शुरू कर दीं और जातेजाते लड़कियों की फोटो सूरज के पास ही छोड़ गया और 2-3 दिनों बाद आने को कह गया.
संयोग की बात थी कि जब सूरज घर पहुंचा तो उस की मां ने खाना देते समय बेहद भावपूर्ण स्वर में सूरज से कहा, “क्या बेटा उम्रभर मुझ से ही खाना बनवाएगा? शादी कर ले, तो मुझे भी बहू के हाथ की रोटी नसीब हो जाएगी. एक दिन तो मरना ही है मुझे.”
मां के मुंह से ऐसी बातें सुन कर सूरज को भी लगा कि भटकना बहुत हो गया, अब मांबाप के सुख के लिए उसे शादी कर लेनी चाहिए.
आज राजू सिंह आया तो सूरज ने अपनी परेशानी उसे बताई, “शादी तो मैं कर लूं पर मेरे पास पैसाकौड़ी तो कुछ है नहीं. फिर, सारा इंतज़ाम कैसे होगा?”
“पैसे की चिंता आप मत करो. पहले तो आप लड़की फाइनल करो. आगे का रास्ता मैं आप को बताता हूं.”
राजू सिंह को सूरज ने अपने मांबाप से मिलवा दिया ताकि शादी आदि की बात आगे बढ़ सके. लड़की की फोटो पर मांबाप और सूरज ने मोहर लगाई, तो राजू सिंह ने बताया कि यह लड़की सिंगरी गांव के एक गरीब किसान की बेटी है. इस के पास रूप है पर इस के बाप के पास पैसा नहीं है. ऐसे में आप लोगों को ही इन का खर्चा भी उठाना पड़ेगा. आप लोगों का रिश्ता इतनी सुंदर लड़की से हो रहा है, इसलिए गांव में अभी इस रिश्ते की चर्चा किसी से मत करना वरना लोग शादी तुड़वा भी देते हैं.
“पर हमारे पास भी तो अधिक पैसे नहीं हैं,” सूरज के पिता ने कहा.
“अरे चाचा, कोई बात नहीं है. मैं सूरज को बैंक से लोन दिलवा दूंगा.”
“लोन पर बैंक में बंधक यानी गारंटी के नाम पर हमारे पास तो सिर्फ ज़मीन के कागज़ ही हैं,” सूरज ने कहा.
“बस, उतना ही बहुत है. आप चिंता मत करो, सब इंतज़ाम हो जाएगा,” राजू सिंह ने शेखी बघारी.
राजू सिंह ने अगले दिन ही सूरज को अपने साथ ले जा कर बैंक में कागजी कार्यवाही भी शुरू कर दी और अपने स्कूटर को सिंगरी गांव के बाहर बने मंदिर की तरफ मोड़ दिया.
“यह हम सिंगरी गांव की तरफ क्यों जा रहे हैं?” सूरज ने पूछा, तो राजू सिंह ने बताया कि वह उसे अपनी होने वाली पत्नी से मिलाने ले जा रहा है.
सूरज आज मंदिर में जा कर उस फोटो वाली खूबसूरत लड़की से जा कर मिल भी लिया था. भले ही उस ने अपना चेहरा घूंघट में छिपाए रखा था पर उस लड़की के हाथों की हलकी सी छुअन ने सूरज के जवान मन को विचलित कर दिया था.
सूरज ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन को लड़की के गले में डाल कर यह रिश्ता पक्का कर दिया .
सूरज और उस का मन भी एक नवयौवना से मिल कर पुलकित हो रहा था. इस बीच गाहेबगाहे उस के मन में गेरुई की याद भी आ जाती थी. उसे लगता कि उस ने गेरुई के साथ धोखा किया है. पर भला वह भी क्या करे, अब एक रुदाली से शादी थोड़े ही की जा सकती है, ऐसा सोच कर गेरुई की याद को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता था.करीब 2 महीने बाद लोन के रुपए भी सूरज के हाथ में आ गए थे, पूरे 5 लाख थे. लड़की वाले गरीब थे, इसलिए उन की तरफ से लड़के वालों को दहेज देने के लिए सूरज ने अपने हाथों से 2 लाख रुपए लड़की के भाई को दे दिए और बाकी के पैसों से 3 तोला सोना और चांदी के गहने ले आया, जिन्हें शादी के समय दुलहन को देना था.
सूरज और उस का परिवार पूरी कोशिश कर रहा था ताकि शादी में कहीं से भी सूरज के परिवार की बेइज़्ज़ती न हो जाए.
सूरज ने सोचा, एक बार और लौटरी का टिकट ले लिया जाए, क्या पता बाद में पत्नी लौटरी खेलने पर प्रतिबंध ही लगा दे. सूरज ने 50 लाख रुपए के बम्पर प्राइज वाला टिकट ले लिया और शादी की तैयारियों में जुट गया.
शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी. एक दिन राजू सिंह का फोन आया कि लड़की वाले के घर में किसी की मौत हो गई है, इसलिए वे सब सिंगरी गांव न जा कर एक दूसरे गांव बेकल में बरात ले कर आएंगे. बड़ी विपदा आ गई थी लड़की वालों पर. सूरज के परिवार में रिश्तेदार आ गए थे पर उन्हें भला दूसरे गांव में बरात ले जाने से क्या आपत्ति होती. शादी की तारीख आई, तो ज़ोरशोर से सूरज की बरात बेकल गांव के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर बेहद ही सादे समारोह में सूरज के ब्याह को निबटा दिया गया. उसे दहेज के नाम पर भी कोई सामान नहीं दिखा जिस का कारण लड़की के खानदान में हुई मौत को बताया जा रहा था.
सूरज और उस के मांबाप ने समझदारी व शांति का परिचय देते हुए लड़की वालों की मनोदशा को समझा और जैसेजैसे रिश्ते की मध्यस्थता करने वाले राजू सिंह ने बताया, उन लोगों ने वैसा ही किया और शादी कर के दुलहन विदा करा कर घर ले आए.
आज सूरज की सुहागरात थी. बड़ी खास तैयारियां कर रखी थी सूरज ने. सुनहरे रंग का कुरता और सुनहरे रंग की धोती पहने सूरज अपने कमरे में दाखिल हुआ. बिस्तर पर बैठी दुलहन के पास जा कर हौले से बैठ गया. सूरज ने जैसे ही दुलहन का घूंघट पलटना चाहा तो लड़की ने धीमे से कहा कि अभी वह किसी भी प्रकार का शारीरिक संबंध नहीं बना सकती क्योंकि टीले वाले मंदिर पर उसे एक नारियल फोड़ना है. उस के बाद ही वह अपनी सुहागरात मनाएगी.
पत्नी बड़ी धार्मिक है, ऐसा सोच व जान कर सूरज को बड़ा अच्छा लगा और उस ने पत्नी की बात का पूरा सम्मान किया, उसे हाथ तक नहीं लगाया. अपने साथ मुंहदिखाई के तौर पर लाया हुआ मोबाइल सूरज ने अपनी दुलहन को बिना उस का मुंह देखे ही दे दिया.
अगला दिन निकला, तो सूरज ने सोचा कि फटाफट दुलहन को टीले वाले मंदिर ले जा कर नारियल फोड़वा लाऊं ताकि आज अपनी सुहागरात जम कर मना सकूं. मांबाप से आज्ञा ले कर मोटरसाइकिल पर अपनी नईनवेली दुलहन को बिठा कर सूरज टीले वाले मंदिर की ओर चल दिया.
अपने हाथ में नारियल लिए दुलहन मंदिर की ओर बढ़ चली. बीचबीच में सूरज दुलहन के चेहरे को देखने की कोशिश करता भी, तो दुलहन बड़ी सफाई से अपना घूंघट और निकाल लेती. बेचारा मनमसोस कर रह जाता. अब तो उसे और भी बेसब्री से अपनी सुहागरात का इंतज़ार था.
मंदिर में नारियल फोड़ने के बाद सूरज को मंदिर की सीढ़ियों पर बिठा कर दुलहन मंदिर की परिक्रमा करने चली गई. सूरज काफी देर तक वहीं उस के इंतज़ार में बैठा रहा. जब करीब घंटेभर तक दुलहन नहीं लौटी तब सूरज ने उसे ढूंढना शुरू किया. पर दुलहन का कहीं अतापता न मिला. सूरज बहुत परेशान हो गया. आसपास पूछताछ की. पर कोई फायदा न हुआ. सूरज बदहवास हो लोगों से पूछता और उपहास का पात्र बनता. शाम तक भी दुलहन का कोई पता न चला, तो हार कर सूरज अपने घर चला आया और सारी बात अपने मांबाप को बताई.
अभी वह मांबाप से बातें कर ही रहा था कि उस के मोबाइल पर फोन आया. उधर से एक लड़की की आवाज़ थी, “सुनो, मुझे ढूंढने की कोशिश मत करो क्योंकि जो तसवीर देख कर तुम ने शादी की थी, वैसी कोई लड़की तुम्हें कभी नहीं मिलेगी क्योंकि वह लड़की मात्र तसवीरभर है. ये सब राजू सिंह और उस के गैंग की करतूत है. और मुझे भी इस काम के पैसे मिलते हैं, हज़ार रुपए रोज़. हां, तुम ने मुझे जो मोबाइल गिफ्ट किया था, इसलिए उसी मोबाइल से फोन कर रही हूं. वैसे भी, तुम आदमी मुझे भले लगे, पर कोई रपट मत करना क्योंकि ये सब राजू सिंह का प्लान रहता है जिस में बैंक से लोन पास कराने से ले कर लड़कियों के रिश्तेदार आदि सब के सब मिले होते हैं.”
सूरज और उस का परिवार सन्न रह गया था. मांबाप ने अंदर जा कर देखा तो उन की नईनवेली बहू के कमरे से सारे गहने और नकदी गायब थी. उन लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपना दर्द किस से जा कर कहें. वे लोग एक सोचेसमझे ढंग की साज़िश का शिकार हुए थे. इस सदमे से उबरने के लिए उन्हें वक़्त चाहिए था.
सूरज और उस के मांबाप ने खुद के ठगे जाने की बात किसी से नहीं बताई. पर भला जंगल की आग और प्रपंच के फैलने को कोई रोक सकता है क्या?
पूरे गांव वालों में यह बात फैल गई थी और लोग चुस्की व चटखारे लेले कर यह बात एकदूसरे से कहसुन रहे थे.
सूरज के बाप अपनी बदनामी सहन नहीं कर पा रहे थे, इसलिए वे सूरज की मां को ले कर शहर में अपने भाई के पास रहने चले गए और गांव में सूरज अकेला रह गया.
अब तो सूरज से कोई भी बात नहीं करता था. सूरज के पास पैसा नहीं बचा था, ऊपर से बैंक के लोन को चुकाने का तनाव अलग से उस पर हावी हो रहा था. उसे लगने लगा कि अब उस का जीना बेमानी है. उसे लालची लोगों ने ठगा, मुश्किल वक़्त में मांबाप ने भी साथ छोड़ दिया, इसलिए अब उस के जीवन में बचा ही क्या है…उसे मर जाना चाहिए… सूरज तुरंत ही रस्सी ले आया और अपना जीवन खत्म करने के लिए एक मजबूत फंदा बनाने लगा. अचानक उस का मोबाइल बज गया. यह मेरी दुलहन का फोन तो नहीं? उस ने जो कहानी सुनाई थी कहीं वह सब झूठ तो नहीं? यह सोच तपाक से फोन रिसीव कर लिया था सूरज ने.
पर अफसोस, उधर से किसी मर्द की आवाज़ थी. यह मर्द कोई और नहीं, बल्कि सूरज का लौटरी बेचने वाला एजेंट था जो तेज़ आवाज़ में बोल रहा था, “बधाई हो सूरज भैया, पूरे 50 लाख रुपए की लौटरी लगी है तुम्हारी. जल्दी से टिकट ले आओ. भैया, तुम्हारी तो मौज हो गई.”
सूरज़ को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था जो उस ने अभी सुना. उसे भरोसा नहीं हुआ, तो उस ने दोबारा लौटरी एजेंट को फोन लगा कर उस से इस बात की पुष्टि की.
कुछ देर बाद गांव वालों ने देखा कि हाथ में लौटरी का टिकट पकड़े सूरज तेज़ी से गांव के बाहर की ओर भागा जा रहा है. पर किधर? यह तो रुदालियों के घर की तरफ चला गया. हां, रुदाली के पास ही तो गया था सूरज.
गेरुई को अपनी बांहों में कस कर दबोच लिया था सूरज ने. उस के कपोलों को कस कर चूम रहा था सूरज.
गेरुई सारा माजरा समझ ही नहीं पा रही थी. उसे सूरज की शक्ल में नया ही सूरज दिखाई दे रहा था.
सूरज ने गेरुई का हाथ पकड़ा और शहर की ओर भाग पड़ा. जहां एक नया जीवन, एक नया सवेरा उन दोनों की प्रतीक्षा में था. जहां किसी की मौत पर रोने के लिए किसी रुदाली की ज़रूरत नहीं होती. गेरुई के पैरों में भी यह सोच कर पंख लग गए थे कि अब उसे किसी की मौत पर रोने जैसा अजीब कार्य नहीं करना पड़ेगा.
9 दिसंबर मेरे जीवन का सब से बड़ा काला दिन है क्योंकि 2 साल पहले आज के ही दिन नियति के क्रूर हाथों ने मेरी उस गुडि़या को छीन लिया था जो फूल बन कर अपने साजन के आंगन को महका रही थी. एक दिन पहले गुडि़या ने फोन किया था, ‘मम्मा, जाने क्यों पिछले कुछ दिनों से आप की बहुत याद आ रही है. राजीव की 2 दिन की छुट्टी है, हम लोग आप से मिलने आ रहे हैं.’
मैं ने रात को ही दहीबडे़ और आलू की कचौडि़यों की तैयारी कर के रख दी थी. मेरी बेटी गुडि़या, दामाद राजीव और दोनों नातिनें गीतूमीतू सुबह की ट्रेन से आ रहे थे पर सुबहसुबह ही टेलीविजन पर समाचार आया कि जिस ट्रेन से वे लोग आ रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई.
चेतना जागृत होने पर यह क्रूर सचाई मेरे सामने थी कि मेरी गुडि़या अपनी अबोध गीतूमीतू और पति राजीव को छोड़ कर इस संसार से जा चुकी थी. समझाने वाले मुझे समझाते रहे पर मैं यह मानने को कहां तैयार थी कि मेरी गुडि़या अब हमारे बीच नहीं है और इसे स्वीकारने में मुझे वर्षों लग गए थे.
राजीव की आंखों में कैसा अजीब सा सूनापन उभर आया था और वह दोनों नन्ही कलियां इतनी नादान थीं कि उन्हें इस का अहसास तक नहीं था कि कुदरत ने उन के साथ कितना क्रूर खेल खेला है. उन की आंखें अपनी मां को ढूंढ़तेढूंढ़ते थक गईं. आखिर में उन के मन में धीरेधीरे मां की छवि धुंधली पड़तेपड़ते लुप्त सी हो गई और उन्होंने मां के बिना जीना सीख लिया.
दादी व बूआ के भरपूर लाड़प्यार के बावजूद मुझे गीतूमीतू अनाथ ही नजर आतीं. कभी दोपहर में बालकनी में खड़ी हो जाती तो देखती नन्हेमुन्ने बच्चे रंगबिरंगी यूनीफार्म में सजे अपनीअपनी मम्मी की उंगली पकड़ कर उछलतेकूदते स्कूल जा रहे हैं. उन्हें देख कर मेरे सीने में हूक सी उठती कि हाय, मेरी गीतूमीतू किस की उंगली पकड़ कर स्कूल जाएंगी. किस से मचलेंगी, किस से जिद करेंगी कि मम्मी, हमें टौफी दिला दो, हमें चिप्स दिला दो. और यही सब सोचते- सोचते मेरा मन भर उठता था.
जब से उड़ती- उड़ती सी यह खबर मेरे कानों में पड़ी है कि राजीव की मां अपने बेटे के पुन- र्विवाह की सोच रही हैं तो लगा किसी ने गरम शीशा मेरे कानोें में डाल दिया है. कई लड़की वाले अपनी अधेड़ बेटियों के लिए राजीव को विधुर और 2 बेटियों का बाप जान कर सहजप्राप्य समझने लगे थे.
राजीव की दूसरी शादी का मतलब था मासूम कलियों को विमाता के जुल्म व अत्याचार की आग में झोंकना. इस सोच ने मेरी बेचैनी को अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दिया था. अब राजीव के पुनर्विवाह को रोकना मेरे लिए पहला और सब से अहम मकसद बन गया.
मैं ने अपनी चचेरी बहन, जो राजीव के घर से कुछ ही दूरी पर रहती थी, को सख्त हिदायत दे डाली कि किसी भी कीमत पर राजीव की दूसरी शादी नहीं होनी चाहिए. कोई लड़की वाला राजीव या उस के घरपरिवार के बारे में जानकारी हासिल करना चाहे तो उन की कमियां बताने में कोई कोरकसर न छोडे़.
राजीव के साथ अपनी बेटी की शादी की इच्छा ले कर जो भी मातापिता मेरे पास उन के घरपरिवार की जानकारी लेने आते, मैं उन के सामने उस परिवार के बुरे स्वभाव का कुछ ऐसा चित्र खींचती कि वह दोबारा वहां जाने का नाम नहीं लेते थे और अपनी इस सफलता पर मैं अपार संतुष्टि का अनुभव करती थी.
मेरे बहुत अनुरोध पर उस दिन राजीव गीतूमीतू को मुझ से मिलाने ले आया. इस बार वह काफी खीजा हुआ सा लग रहा था. बातबात में गीतूमीतू को झिड़क बैठता. पता नहीं, मेरे कुचक्रों से या किसी और वजह से उस का विवाह नहीं हो पा रहा था और वह एकाकी जीवन जीने को विवश था.
मेरी समधिन बारबार फोन पर मुझ से अनुरोध करतीं, ‘बहनजी, कोई अच्छी लड़की हो तो बताइएगा. मैं चाहती हूं कि मेरी आंखों के सामने राजीव का घर फिर से बस जाए. कल को बेटी सुधा भी ब्याह कर अपने घर चली जाएगी तो इन बच्चियों को संभालने वाला कोई तो चाहिए न.
प्रकट में तो मैं कुछ नहीं कहती पर मेरी गुडि़या के बच्चों को सौतेली मां मिले, यह मेरे दिल को मंजूर न था. आखिर तिनकातिनका जोड़ कर बसाए अपनी बेटी के घोंसले को मैं किसी और का होता हुआ कैसे देख सकती थी.
मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें यह पता लग गया कि राजीव का घर बसाने के मामले में जड़ काटने का काम मैं खुद कर रही हूं तो उन्हें सतर्क होना ही था और उन के सतर्क होने का नतीजा यह निकला कि राजीव ने अपनी सहकर्मी से विवाह कर लिया.
इस मनहूस खबर ने तो मुझे तोड़ कर ही रख दिया. हाय, अब मेरी गुडि़या के बच्चों का क्या होगा. अब मैं ने लगातार राजीव और उस की मां को कोसना शुरू कर दिया.
अब दिनोदिन मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. जाने कितनी सौतेली मांओं के क्रूरता भरे किस्से मेरे दिमाग में कौंधते रहते और एक पल भी मुझे चैन न लेने देते. मन ही मन में गीतूमीतू को सौतेली मां की झिड़कियां खाते, पिटते और कई तरह के अत्याचारों को तसवीर में ढाल कर देखती रहती और अपनी बेबसी पर खून के आंसू रोती.
उस दिन मैं घर में अकेली ही थी. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने जो खड़ा था उसे देख कर मेरी त्यौरियां चढ़ गईं. मैं तो दरवाजा ही बंद कर लेती पर बगल में मुसकराती गीतूमीतू को देख कर मैं अपने गुस्से को पी गई.
राजीव ने नमस्ते की और उस के साथ जो औरत खड़ी थी उस ने भी कुछ सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर नजरें झुका लीं.
राजीव ने कुछ अपराधी मुद्रा में कहा, ‘मांजी, मुझे माफ कीजिएगा कि आप को बिना बताए मैं ने फिर से विवाह कर लिया. मैं तो यहां आने में संकोच का अनुभव कर रहा था पर नेहा की जिद थी कि वह आप से मिल कर आप का आशीर्वाद जरूर लेगी.
मैं ने क्रोध भरी नजरों से नेहा को देखा पर उस के होंठों पर सरल मुसकान खेल रही थी. उस ने अपने सिर पर गुलाबी साड़ी का पल्लू डाला और मेरे चरण स्पर्श करने को झुकी पर उसे आशीर्वाद देना तो दूर, मैं ने अपने कदमों को पीछे खींच लिया. नेहा ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, शायद वह इस के लिए तैयार थी.
बहुत दिनों बाद गीतूमीतू को अनायास ही अपने पास पा कर अपनी ममता लुटाने का जो अवसर आज मुझे मिला था उसे मैं किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसलिए मजबूरीवश सब को अंदर आने के लिए कहना पड़ा.
राजीव तो बिना कहे ही सोफे पर बैठ गया और अपने माथे पर उभर आए पसीने को रूमाल से जज्ब करते हुए कहीं खो सा गया. गीतूमीतू ने खुद को टेलीविजन देखने में व्यस्त कर लिया पर नेहा थोड़ी देर ठिठकी सी खड़ी रही फिर स्वयं रसोई में जा कर सब के लिए पानी ले आई.
उस ने सब से पहले पानी के लिए मुझ से पूछा पर मैं ने बड़ी रुखाई से मना कर दिया. उस ने गीतूमीतू और राजीव को पानी पिलाया और फिर खुद पिया. इस के बाद मेरे रूखे व्यवहार की परवा न करते हुए वह मेरे पास ही बैठ गई.
पानी पी कर राजीव अचानक उठ कर बाहर चला गया. उस के चेहरे से मुझे लगा कि शायद यहां आ कर उस के मन में मेरी गुडि़या की याद ताजा हो गई थी पर अब क्या फायदा. मेरी गुडि़या से यदि वह इतना ही प्यार करता तो उस का स्थान किसी और को क्यों देता. और उस पर से मुझ से मिलाने के बहाने मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए उसे यहां ले आया है. मेरी सोच की लकीरें मेरे चेहरे पर शायद उभर आई थीं तभी नेहा उन लकीरों को पढ़ कर अपराधबोध से पीडि़त हो उठी.
अगले ही पल नेहा ने अपने चेहरे से अपराधभाव को उतार फेंका और सहज हो कर पूछने लगी, ‘मांजी, आप की तबीयत ठीक नहीं है शायद? मैं अभी चाय बना कर लाती हूं.’
राजीव बाहर से अपने को सहज कर वापस आ गया. गीतूमीतू दौड़ती हुई राजीव की गोद में चढ़ गईं. नेहा चाय और रसोई के डब्बों में से ढूंढ़ कर बिस्कुटनमकीन भी ले आई. सब से पहले उस ने चाय मुझे ही दी, न चाहते हुए भी मुझे चाय लेनी ही पड़ी.
मीतू अचानक राजीव की गोद से उतर कर नेहा की गोद में बैठ गई. बिस्कुट कुतरती मीतू बारबार नेहा से चिपकी जा रही थी और नेहा उस के माथे पर बिखर आई लटों को पीछे करते हुए उस का माथा सहला रही थी. मीतू का इस तरह दुलार होता देख गीतू भी नेहा की गोद में जगह बनाती हुई चढ़ बैठी और नेहा ने उसे भी अपने अंक में समेट लिया तो गीतूमीतू दोनों एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़ीं. पता नहीं उन की हंसी मेरे रोने का सबब क्यों बन गई. मैं आंखों के कोरों में छलक आए आंसुओं को कतई न छिपा सकी.
तभी नेहा ने दोनों बच्चों को गोद से उतार कर आंखों ही आंखों में राजीव को जाने क्या इशारा किया कि वह दोनों बच्चों को ले कर बाहर चला गया. नेहा खाली हो गया कप जो अभी भी मेरे हाथों में ही था, को ले कर सारे बरतन समेट रसोई में रख आई और मेरे एकदम करीब आ कर बैठ गई. फिर मेरे हाथों को अपने कोमल हाथों में ले कर जैसे मुझे आश्वस्त करती हुई बोली, ‘मांजी, मैं आप का दुख समझ सकती हूं. आप ने अपने कलेजे के टुकडे़ को खोया है और मैं यह भी जानती हूं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है. आप बेहद आशंकित हैं कि कहीं सौतेली मां आ कर आप की नातिनों पर अत्याचार करना न शुरू कर दे और उन के पिता को उन से दूर न कर दे.
‘मेरा विश्वास कीजिए मांजी, जब यह बात मुझे पता चली तो मैं ने मन में यह ठान लिया कि मैं आप से मिल कर आप की आशंका जरूर दूर करूंगी. सभी ने तो मुझे रोका था कि आप पता नहीं मुझ से कैसे पेश आएंगी लेकिन मुझे यह पता था कि आप का वह व्यवहार बच्चों की असुरक्षा की आशंका से ही प्रेरित होगा.’
मेरे हाथों पर नेहा के कोमल हाथों का हल्का सा दबाव बढ़ा और थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहना शुरू किया, ‘मांजी, आप अपने दिल से यह डर बिलकुल निकाल दीजिए कि मैं गीतू व मीतू के साथ बुरा सुलूक करूंगी. आप निश्ंिचत हो कर रहिए ताकि आप का स्वास्थ्य सुधर सके,’ नेहा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा कर मेरा कंधा थपथपाया और मेरी आंखों में झांकती हुई बोली, ‘मांजी, मेरी विनती है कि मुझे भी आप अपनी बेटी जैसी ही समझें. मेरा आप से वादा है कि आप बच्चों से मिलने को नहीं तरसेंगी. हम उन्हें आप से मिलाने लाते रहेंगे.’
नेहा की बात समाप्त भी न होने पाई थी कि राजीव व बच्चे आ गए. दोनों बच्चे दौड़ कर नेहा की टांगों से लिपट गए और ‘मम्मी घर चलो,’ ‘मम्मी घर चलो’ की रट लगाने लगे.
नेहा ने उन्हें गोद में बिठाते हुए कहा, ‘चलते हैं बेटे, पहले आप नानी मां को नमस्ते करो.’
गीतूमीतू ने एकसाथ अपनी छोटीछोटी हथेलियां जोड़ कर तोतली भाषा में मुझे नमस्ते की. मेरे अंदर जमा शिलाखंड पिघलने को आतुर होता सा जान पड़ा. राजीव व नेहा ने चलने की इजाजत मांगी.
उन्हें कुछ पल रुकने को कह कर मैं अंदर गई और अलमारी से गीतूमीतू को देने के लिए 100-100 के 2 नोट निकाले तो लिफाफे के नीचे से झांकती नीली कांजीवरम् की साड़ी ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. साड़ी देखते ही मेरी आंखें भर आईं क्योंकि यह साड़ी मैं अपनी गुडि़या को देने के लिए लाई थी. साड़ी का स्पर्श करते ही मेरे हाथ कांपने लगे पर न जाने कैसे मैं वह साड़ी उठा लाई और टीके की थाली भी लगा लाई.
टीके के बाद मेरे पैर छू कर नेहा ने मीतू को गोद में उठाया और गीतू की उंगली पकड़ कर आटो में बैठने चल दी. आटो में बैठने से पहले नेहा ने मुझे पीछे मुड़ कर देखा. पता नहीं उस की आंखों में मैं ने क्या देखा कि मेरी आंखें झरझर बरसने लगीं. आंसुओं के सैलाब ने आंखों को इतना धुंधला कर दिया कि कुछ भी दिखना संभव न रहा.
जब धुंध छंटी तो सामने से जाती नेहा में मुझे अपनी गुडि़या की छवि का कुछकुछ आभास होने लगा. अब मुझे लगने लगा कि गुडि़या के जाने के बाद मैं जिस डर व आशंका के साथ जी रही थी वह कितना बेमानी था.
एक सवाल मन को मथे जा रहा था कि मैं जो करने जा रही थी क्या वह उचित था?
आज नेहा से मिल कर ऐसा लगा कि मेरी समधिन ने मुझ से छिपा कर राजीव का पुनर्विवाह कर के बहुत ही अच्छा काम किया, वरना मैं तो अपनी नातिनों की भलाई सोच कर उन का बुरा करने ही जा रही थी. कभी अपनी हार भी इतनी सुखदाई हो सकती है यह मैं ने आज नेहा से मिलने के बाद जाना. राजीव के चेहरे पर छाई संतुष्टि और गीतूमीतू के लिए नेहा के हृदय से छलकता ममता का सागर देख कर मैं भावविभोर थी.
मैं यह सोचने पर विवश थी, कितना बड़ा दिल है नेहा का. एक तो उसे विधुर पति मिला और उस पर से 2 अबोध बच्चियों के पालनपोषण की जिम्मेदारी. फिर भी वह मुझे मनाने चली आई. मुझे नेहा अपने से बहुत बड़ी लगने लगी.
अब मुझ से और नहीं रहा गया. बहुत दिनों बाद मैं ने राजीव के यहां फोन लगाया. रुंधे कंठ से इतना ही पूछ पाई, ‘‘ठीक से पहुंच गई थीं, बेटी?’’
‘‘जी, मम्मीजी,’’ नेहा का भी गला भर आया था. मेरे गले और दिल से एकसाथ निकला, ‘‘खुश रहो, मेरी गुडि़या.’’
पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : जटपुर गांव के आसपास के जंगलों में एक मादा गुलदारनी का खौफ था. इस गांव में ब्याह कर आई स्वाति का भी अपनी ससुराल में दबदबा था. उस ने गांव के चौधरी राम सिंह को अपनी तरफ कर लिया था. वह गांव के मनचलों के साथ भी सैल्फी खिंचवाती थी. इस बीच स्वाति के पति नरदेव पर छेड़छाड़ करने का आरोप लगा. स्वाति ने चौधरी राम सिंह को यह मामला सुलझाने के लिए कहा. अब पढि़ए आगे…
बाबूराम ने चौधरी राम सिंह की बात का मान रखते हुए कहा, ‘‘चौधरी साहब, आप की पगड़ी का मान रख रहा हूं, नहीं तो थाने में रिपोर्ट लिखवा कर नरदेव को जेल भिजवा कर ही दम लेता. बस चौधरी साहब, हमारा भी इतना मान रख लो कि नरदेव से माफी मंगवा दो.’’
रात के साए में चौधरी राम सिंह स्वाति और नरदेव को ले कर बाबूराम के घर पहुंचे. नरदेव ने बाबूराम से माफी मांग ली और आइंदा कभी ऐसी हरकत न करने की कसम खाई. सब ने यही समझा कि नरदेव के माफी मांगने से पहले ही मामले का खात्मा हो गया.
चौधरी राम सिंह भी मामले को निबटा समझ कर यही सोच रहे थे कि अब तो स्वाति उन के एहसान तले दब जाएगी और उन के फंदे में फंस जाएगी, लेकिन स्वाति फंदे में फंसने वाली कहां थी. वह उन्हें तरसाती रही.
उस रात चौधरी राम सिंह को खबर मिली कि जंगल में ‘गुलदारनी’ ने एक पिंजरा और पलट दिया है, लेकिन जंगल महकमे का अफसर भी उसे पकड़ने पर आमादा था. उस का मानना है कि बकरे की अम्मां कब तक खैर मनाएगी. आज नहीं तो कल पिंजरे में फंस कर रहेगी.
उधर गांव के खिलाड़ी लड़कों को जब यह पता चला कि स्वाति भाभी और नरदेव भैया का बाबूराम से कोई पंगा हो गया है और वे परेशानी में हैं तो उन अल्हड़ लड़कों ने बिना सोचेसमझे स्वाति भाभी को खुश करने के लिए बाबूराम के बेटे कुंदन की धुनाई कर दी.
यह खबर सुन कर स्वाति बहुत खुश हुई. उस ने लड़कों को बुलवा कर उन के साथ सैल्फी ली और उन्हें मिठाई खिलाई.
लेकिन ऐसा करते हुए स्वाति भूल गई कि बाबूराम का नासूर अभी हरा है. जब बाबूराम को यह पता चला कि कुंदन की पिटाई करने वाले लड़कों को स्वाति ने मिठाई खिलाई है, तो वह आगबबूला हो गया. उसे लगा कि स्वाति ने उसे बेवकूफ बनाया है. एक ओर तो नरदेव से माफी मंगवा दी, वहीं दूसरी ओर उस के लड़के को पिटवा दिया.
इस मामले को सुलझाने में भी एक बार फिर चौधरी राम सिंह काम आए. उन्होंने समझाबुझा कर किसी तरह बाबूराम को शांत किया.
लेकिन स्वाति और नरदेव से भी जलने वाले कम न थे. उन का पड़ोसी हरिया उन से खूब जलता था. हरिया का नरदेव से किसी न किसी बात पर पंगा होता ही रहता था. कोई भी एकदूसरे को नीचा दिखाने का मौका नहीं चूकता था. स्वाति के बढ़ते दबदबे से भी हरिया चिंतित रहता था.
नरदेव पर लगा छेड़खानी का आरोप हरिया के लिए स्वाति और नरदेव को नीचा दिखाने का सुनहरा मौका था. वह उन की गांवभर में बदनामी तो कर ही रहा था, मामले को किसी तरह दबने भी नहीं देना चाहता था. उस ने बाबूराम की कमजोर नब्ज पकड़ी.
हरिया दारू की बोतल ले कर बाबूराम के चबूतरे पर पहुंचा. नमकीन की थैली उस ने कुरते की जेब में ठूंस रखी थी.
हरिया के हाथ में बोतल देख कर बाबूराम की आंखें चमक उठीं, ‘‘क्या ले आया रे हरिया आज?’’
‘‘कुछ नहीं, बस लालपरी है. सोचा, बहुत दिन हो गए बड़े भैया के साथ दो घूंट लगा लूं.’’
यह सुन कर बाबूराम हरिया के लिए चारपाई पर जगह बनाने के लिए ऊपर को खिसक गया.
‘‘बैठो, आराम से बैठो हरिया. यह तुम्हारा ही तो घर है.’’
‘‘हांहां, बाबूराम भैया. हम ने कब इसे गैरों का घर समझा है. यह तो तुम हो जो हमें मुसीबत में भी याद नहीं करते.’’
‘‘ऐसी कोई बात नहीं है हरिया, बस बात को क्या बढ़ाएं?’’
इसी बीच बाबूराम घर से 2 गिलास और नमकीन के लिए प्लेट ले आया और कोठरी का दरवाजा बंद कर दिया.
हरिया ने पैग बनाने शुरू किए और लालपरी का रंग धीरेधीरे बाबूराम पर चढ़ना शुरू हो गया.
मौका ताड़ कर हरिया ने पांसा फेंका, ‘‘बाबूराम भैया, हमारे और तुम्हारे संबंध बचपन से कितने गाढ़े हैं. तुम्हारी बेटी को नरदेव ने छेड़ा तो छुरी अपने दिल पर चल गई भैया. तुम्हारी बेटी हमारी बेटी भी तो है. तुम ने इस बेइज्जती को सहन कैसे कर लिया भैया?’’
‘‘हरिया, हम गरीब आदमी जो हैं. पुलिस का केस बन जाए तो दिनरात दौड़ना पड़ता है. पुलिस भी पैसे वालों और दमदार लोगों की सुनती है. बस, यही सोच कर हम रुक गए.’’
‘‘बाबूराम भैया, तुम पुलिस का चक्कर छोड़ो. गांव में पंचायत बिठवा दो. 5 जूते तो उस को अपनी बेटी से लगवा ही दो.’’
‘‘हरिया, मैं ने इस पर भी बहुत सोचविचार किया, लेकिन पंचायत के पंच कौन बनेंगे…? कौन जाने?’’
‘‘तो क्या भैया हम पर यकीन नहीं है? पंचायत में अपने पंच बनवाने का माद्दा तो हम भी रखते हैं.’’
‘‘तो ठीक है हरिया, तू ही बिसात बिछा. गांव वालों से बात कर. चौधरी से बात कर. वही कुछ कर सकते हैं. गांव में उन की धाक है. समझदार भी हैं और निष्पक्ष भी.’’
हरिया ने अगले दिन से ही स्वाति और नरदेव के खिलाफ गोटी बिछानी शुरू कर दी.
चौधरी राम सिंह के कानों में खबर पहुंची तो वे सीधे स्वाति के पास पहुंचे. उन्होंने स्वाति को चेताते हुए कहा, ‘‘स्वाति, पंचायत बैठ गई, तो बेइज्जती होगी. इस आग पर बिना पानी डाले काम न चलेगा. प्रधान तेजप्रताप न माना, तो पंचायत बैठ कर ही रहेगी.’’
‘‘तो फिर क्या करना होगा…?’’
‘‘प्रधान मेरे हाथ में नहीं है. उस की लगाम कसने की कोई तरकीब सोचो. यह सारी आग पंचायत की हरिया की लगाई हुई है.’’
स्वाति समझ गई कि चौधरी राम सिंह जितना इस मामले में कर सकते थे, उन्होंने कर लिया. प्रधान का शिकार किए बिना काम नहीं चलेगा.
स्वाति ने अपना दिमाग लड़ाया. प्रधान की पत्नी रत्नो से उस की बातचीत तो है, लेकिन दूसरा महल्ला होने के चलते उस का उधर कम ही आनाजाना है. स्वाति की जानकारी में था कि रत्नो देशी घी बड़ा अच्छा तैयार करती है. उसी का बहाना बना कर वह प्रधानजी के घर पहुंच गई.
‘‘स्वाति बेटी, तू किसी के हाथ खबर भिजवा देती तो मैं देशी घी तेरे घर ही पहुंचवा देती.’’
‘‘चाची, तुम्हारे दर्शन करे बहुत दिन हो गए थे. मैं ने सोचा तुम्हारे दर्शन कर लूं. आनेजाने से ही तो जानपहचान बढ़ती है.’’
‘‘हां, सो तो है. तू भी कोई दावत का इतंजाम कर. खुशखबरी सुना तो हम भी तेरे घर आएं.’’
‘‘यह भली कही चाचीजी. आज ही लो. शाम को प्रधानजी की और तुम्हारी दावत पक्की.’’
स्वाति को तो मौका मिलना चाहिए था. उस ने प्रधानजी और रत्नो की दावत का पूरा इंतजाम कर लिया.
स्वाति ने खूब अच्छे पकवान बनाए. प्रधानजी के बराबर में बैठ कर उन की खूब सेवा की. खाने के बाद चाय की प्याली पेश की गई.
स्वाति जानती थी कि खाने के वक्त ज्यादा बातें नहीं हो पातीं, लेकिन चाय का समय तो होता ही इन बातों के लिए है.
स्वाति ने दांव चला, ‘‘रत्नो चाची, ऐसा लगता है कि आप कभी बाहर घूमने नहीं जातीं?’’
‘‘यह बात प्रधानजी से कहा. हम कितना चाहते हैं कि हरिद्वार के दर्शन कर आएं, लेकिन ये कभी ले जाते ही नहीं.’’
अब तक प्रधानजी स्वाति के मोहपाश में फंस चुके थे. उन्होंने भी अपने तरकश से तीर निकाला, ‘‘स्वाति, तुम्हीं बताओ, क्या अकेले घूमना अच्छा लगता है. कोई साथ हो…’’
‘‘हम हैं न प्रधानजी. नरदेव और मैं चलूंगी आप दोनों के साथ. और हमारी कार किस काम आएगी,’’ स्वाति ने प्रधानजी की बात को लपकते हुए और उस का समाधान करते हुए कहा.
2 दिन बाद वे चारों हरिद्वार में घूम रहे थे. रात में फिल्म का शो देखा. होटल में ठहरे. सारा बंदोबस्त स्वाति का था. गंगा में चारों ने एक ही जगह स्नान किया. प्रधानजी न चाह कर भी कनखियों से स्वाति के भीगे कमसिन बदन को देखते रहे.
स्वाति सब समझ रही थी कि प्रधानजी मन हार चुके हैं. स्वाति ने जब देखा कि प्रधानजी उस की बात को अब ‘न’ नहीं करेंगे तो मौका देख कर कहा, ‘‘प्रधानजी, यह हरिया हमारा पुराना दुश्मन है. सारा मामला सुलझ गया तो पंचायत की बात उठा दी. अब आप ही बताओ कि क्या गांव में ऐसे बैर बढ़ाना चाहिए?’’
प्रधानजी तो स्वाति पर लट्टू हो चुके थे. स्वाति का दिल जीतने के लिए उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति, मेरे होते हुए तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. मेरे होते हुए पंचायत नहीं होगी. बाबूराम को मैं समझा दूंगा, हरिया को तुम देखो. वह अडि़यल बैल है. उस से मेरी नहीं बनती है.’’
स्वाति प्रधानजी के मुंह से यही तो सुनना चाहती थी. उस का ‘मिशन प्रधान’ कामयाब हुआ.