दिल का तीसरा कोना: भाग 2

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कुहू एकदम से चौंक कर बोली, ‘‘क्यों? वह कोई डरावनी फिल्म तो नहीं थी जो अंधेरे में डर के मारे मेरा हाथ पकड़ लेता.’’

मोनिका को खूब हंसी आई, जबकि वह थोड़ाथोड़ा समझ गई थी. जब उस ने कहा, ‘‘यार मोनिका, आरव की वकालत नहीं चली तो वह अच्छा गायक बन जाएगा. आज उस ने मुझे फिर एक गाना सुनाया, आप की आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं… आप से भी खूबसूरत आप के अंदाज हैं…’’

मोनिका ने हंसते हुए उसे हिला कर कहा, ‘‘कहीं, उसे तुम से प्यार तो नहीं हो गया?’’

कुहू थोड़ी ढीली पड़ गई. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘देख मोनिका, ये प्यारव्यार कुछ नहीं होता, बस एक कैमिकल लोचा होता है. तू छोड़ उस को…चल खाना खाने चलते हैं.’’

इस के बाद हम पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी में लग गए, कुहू के पेपर पहले हो गए तो वह घर लौटने की तैयारी करने लगी. उस की सुबह 7 बजे की बस थी. मेरे साथ मेरी एक सहेली बिंदु भी उसे बस स्टौप पर छोड़ने आई थी. आरव भी उसे बस पर बिठाने आया था. जातेजाते उस का कुछ अलग ही अंदाज था. उस ने आरव से खुद तो हाथ मिलाया ही बिंदु का हाथ पकड़ कर उस से मिलवाया.

‘‘मोनिका, सही बात तो यह कि मैं वहां से जा नहीं सकी, अभी भी उस का हाथ पकड़े वहीं खड़ी हूं. जब मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाते हुए उस की आंखों में झांका तो उन में जो दिखाई दिया, उसे उस समय तो नहीं समझ सकी. उस की बातें, उस के सुनाए गीत कानों में गूंज रहे थे. उस ने मेरी सगाई की बात सुनी तो उस का चेहरा उतर गया था. मेरा शरीर कहीं भी रहा हो, आत्मा अभी भी वहीं है.’’ आंसू पोंछते हुए कुहू ने कहा और चाय बनाने के लिए किचन में चली गई.

उस के पीछेपीछे मोनिका भी गई. उस ने कहा, ‘‘उस के बाद तुम फेसबुक पर आरव के संपर्क में आई थीं क्या?’’

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कुहू ने हां में सिर हिलाया और कहने लगी, ‘‘हौस्टल से घर आने के बाद कुछ ही दिनों में उमंग से मेरी शादी हो गई. उमंग बहुत ही अच्छा और नेक आदमी था. उस के जीवन का एक ही ध्येय था जियो और जीने दो. पार्टी के शौकीन उमंग को खूब घूमने और घुमाने का शौक था. वह जहां भी जाता, मुझे अपने साथ ले जाता. बेटे की पढ़ाई में नुकसान न हो, इस के लिए उसे हौस्टल में डाल दिया. पर मेरा साथ नहीं छोड़ा.’’

बात सच भी थी. कुहू जब भी मोनिका को फोन करती, यही कहती थी, ‘शादी के 15 साल बाद भी उमंग का हनीमून पूरा नहीं हुआ है.’

कभीकभी हंसती, मस्ती में डूबी कुहू की आंखों के सामने एक जोड़ी थोड़ी भूरी, थोड़ी काली आंखें आ जातीं तो वह खो जाती. ऐसे में ही एक रोज उमंग ने कहा, ‘‘चलो अपना फेसबुक पेज बनाते हैं और अपने पुराने मित्रों को खोजते हैं. अपने पुराने मित्र से मिलने का यह एक बढि़या रास्ता है.’’

इस के बाद दोनों ने अपनेअपने मोबाइल पर फेसबुक पेज बना लिए.

एक दिन कुहू अकेली थी और अपने मित्रों को खोज रही थी. अचानक उस के मन में आया हो सकता है आरव ने भी अपना फेसबुक पेज बनाया हो. वह आरव को खोजने लगी. पर वहां तो तमाम आरव थे उस का आरव कौन है, कैसे पता चले. तभी उस की नजर एक चेहरे पर पड़ी तो वह चौंकी. शायद यही है आरव.

उस के पास उस की कोई फोटो भी तो नहीं. बस, यादें ही थीं. उस ने उस की प्रोफाइल खोल कर देखी. उस की जन्मतिथि और शहर भी वही था. उस ने तुरंत उस के मैसेज बौक्स में अपना परिचय दे कर मैसेज भेज दिया. अंत में उस ने यह भी लिख दिया, ‘क्या अभी भी मैं तुम्हें याद हूं?’

बाद में उसे संकोच हुआ कि अगर कोई दूसरा हुआ तो वह उसे कितना गलत समझेगा. कुहू ने एक बार फिर उस की प्रोफाइल चैक की और उस के फोटो देखने लगी तो उस के फोटो देख कर कुहू की आंखें नम हो गईं. यह तो उसी का आरव है.

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फोटो में उस के हाथ पर वह काला निशान यानी ‘बर्थ मार्क’ था. अगले ही दिन आरव का संदेश आया, ‘हां’. अब इस ‘हां’ का अर्थ 2 तरह से निकाला जा सकता था. एक ‘हां’ का मतलब मैं आरव ही हूं. दूसरा यह कि तुम मुझे अभी भी याद हो. पर कुहू को दोनों ही अर्थों में हां दिखाई दिया.

कुहू ने इस संदेश के जवाब में अपना फोन नंबर दे दिया. थोड़ी देर में आरव औनलाइन दिखाई दिया तो दोनों ही यह भूल गए कि उन की जिंदगी 15 साल आगे निकल चुकी है. कुहू एक बच्चे की मां तो आरव 2 बच्चों का बाप बन चुका था. इस के बाद दोनों में बात हुई तो कुहू ने कहा, ‘‘आरव, तुम ने अपने घर में मेरी बात की थी क्या?’’

आरव की मां को कुहू के बारे में पता था कि दोनों बातें करते हैं. जब उस ने अपनी मां से कुहू की सगाई के बारे में बताया था तो उस की मां ने राहत की सांस ली थी. कुहू को यह बात आरव ने ही बताई थी. आरव पर इस का क्या असर पड़ा, यह जाने बगैर ही कुहू खूब हंसी थी. और आरव सिर्फ उस का मुंह देखता रह गया था.

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हां, तो जब कुहू ने आरव से  पूछा कि उस ने उस के बारे में अपने घर में बताया कि नहीं? इस पर आरव हंस पड़ा था. हंसी को काबू में करते हुए उस ने कहा, ‘‘न बताया है और न बताऊंगा. मां तो अब हैं नहीं, मेरी पत्नी मुझ पर शक करती है. इसलिए मैं उस से कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं कर सकता.’’

जाने आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दिल का तीसरा कोना: भाग 3

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आरव ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं, पर अब उस का कोई मतलब नहीं है और तुम जो जवाब दोगी, वह भी मुझे पता है. फिर भी तुम मुझे बताओ, अगर मैं तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाता तो तुम मना तो नहीं करती. पर आज बात कुछ अलग है.’’

और सचमुच इस सवाल का कुहू के पास कोई जवाब नहीं था. और कोई भी…

एक दिन आरव ने हंस कर कहा, ‘‘कुहू कोई समय घटाने का यंत्र होता तो हम 15 साल पीछे चले जाते.’’

‘‘अरे मैं तो कब से वहीं हूं, पर तुम कहां हो.’’ कुहू ने कहा.

‘‘अरे तुम मेरे पीछे खड़ी हो,’’ आरव ने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने देखा ही नहीं. तुम बहुत झूठी हो.’’ इस के बाद उस ने एक गाना गाया, ‘बंदा परवर थाम लो जिगर…’

कुहू भी जोर से हंस कर बोली, ‘‘तुम्हारी यह गाने की आदत गई नहीं. अब इस आदत का मतलब खूब समझ में आता है, पर अब इस का क्या फायदा?’’

दिल की सच्ची और ईमानदार कुहू को थोड़ी आत्मग्लानि हुई कि वह जो कर रही है गलत है. फिर उस ने सब कुछ उमंग से बताने का निर्णय कर लिया और रात में खाने के बाद उस ने सारी सच्चाई उसे बता दी. अंत में कहा, ‘‘इस में सारी मेरी ही गलती है. मैं ने ही आरव को ढूंढा और अब मुझ से झूठ नहीं बोला जाता. अब जो सोचना हो सोचिए.’’

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पहले तो उमंग थोड़ा परेशान हुआ, उस के बाद बोला, ‘‘कुहू तुम झूठ बोल रही हो, मजाक कर रही हो. सच बोलो, मेरे दिल की धड़कनें थम रही हैं.’’

‘‘नहीं उमंग, यह सच है.’’ कुहू ने कहा. उस ने सारी बातें तो उमंग को बता ही दी थीं, पर गाने सुनाने और फिल्म देखने वाली बात नहीं बताई थी. शायद हिम्मत नहीं हुई.

उमंग ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. उस ने कहा, ‘‘जाने दो, कोई प्राब्लम नहीं, यह सब तो होता रहता है.’’

अगले दिन कुहू ने आरव को सारी बात बताई तो उसे आश्चर्य हुआ. उस ने हैरानी से कहा, ‘‘कुहू, तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो तुम्हें ऐसा जीवनसाथी मिला है. जबकि सुरभि ने तो मुझे कैद कर रखा है.’’

‘‘इस में गलती तुम्हारी है, तुम अपने जीवनसाथी को विश्वास में नहीं ले सके.’’ कुहू ने कहा.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है, मैं ने बहुत कोशिश की. सुरभि भी वकील है. पर पता नहीं क्यों वह ऐसा करती है.’’ आरव ने कहा.

इस के बाद एक दिन आरव ने कुहू की बात सुरभि को बता दी. उस ने कुहू से तो खूब मीठीमीठी बातें कीं, पर इस के बाद आरव का जीना मुहाल कर दिया. उस ने आरव से स्पष्ट कहा, ‘‘तुम कुहू से संबंध तोड़ लो, वरना मैं मौत को गले लगा लूंगी.’’

अगले दिन आरव का संदेश था, ‘कुहू मैं तुम से कोई बात नहीं कर सकता. सुरभि ने सख्ती से मना कर दिया है.’

उस समय कुहू और उमंग खाना खा रहे थे. संदेश पढ़ कर कुहू रो पड़ी. उमंग ने पूछा तो उस ने बेटे की याद आने का बहाना बना दिया. कई दिनों तक वह संताप में रही. फोन की भी किया, पर आरव ने बात नहीं की. हार कर कुहू ने संदेश भेजा कि अंत में एक बार तो बात करनी ही पड़ेगी, जिस से मुझे पता चल सके कि क्या हुआ है.

इस के बाद आरव का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे यहां कुछ ठीक नहीं है. 3 दिन हो गए हम सोए नहीं हैं. सुरभि को हमारी नि:स्वार्थ दोस्ती से सख्त ऐतराज है. अब मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं कि मुझे माफ कर दो. मुझे पता है, इन बातों से तुम्हें कितनी तकलीफ हो रही होगी. यह सब कहते हुए मुझे भी. विधि का विधान यही है. हम इस से बंधे हुए हैं.’’

कुहू बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना ही बोल सकी, ‘‘कोई प्राब्लम नहीं, अब मैं तुम से मिलने के लिए 15 साल और इंतजार करूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’ कह कर आरव ने फोन काट दिया.

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कुहू ने भी उस का नंबर डिलीट कर दिया, अपनी फ्रैंड लिस्ट से उसे भी बाहर कर दिया.

कुहू ने मोनिका का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘यार मोनिका मैं ने उस का नंबर तो डिलीट कर दिया, पर जो नंबर मैं पिछले 15 सालों से नहीं भूल सकी, उसे इस तरह कैसे भूल सकती हूं. वजह, मुझे पता नहीं, मुझे उस से प्यार नहीं था, फिर भी मैं उसे भूल नहीं सकी. उस के लिए मेरा दिल दुखी है और अब मुझे यह भी पता नहीं कि इस दिल को समझाने के लिए क्या करूं. मेरी समझ में नहीं आता उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? जब उसे पता था तो उस ने ऐसा क्यों किया? बस, जब तक उसे अच्छा लगता रहा, मुझ से बातें करता रहा और जब जान पर आ गई तो तुम कौन और मैं कौन वाली बात कह कर किनारा कर लिया.’’

कुहू इसी तरह की बातें कह कर रोती रही और मोनिका ने उसे रोने दिया. उसे रोका नहीं. यह समझ कर कि उस के दिल पर जितना बोझ है, वह आंसुओं के रास्ते बह जाए तो अच्छा है.

वैसे भी मोनिका उस से कहती भी क्या? जबकि वह जानती थी कि वह प्यार ही था, जिसे कुहू भुला नहीं सकी थी, एक बार उस ने आरव से कहा था, ‘‘हम औरतों के दिल में 3 कोने होते हैं. एक में उस का घर, दूसरे में उस का मायका होता है, और जो दिल का तीसरा कोना है, उस में उस की अपनी कितनी यादें संजोई होती हैं, जिन्हें वह फुरसत के क्षणों में निकाल कर धोपोंछ कर रख देती है.’’

मोनिका सोचने लगी, जो लड़की प्यार को कैमिकल रिएक्शन मानती थी और दिल को मात्र रक्त सप्लाई करने का साधन, उस ने दिल की व्याख्या कर दी थी और अब भी वह कह रही थी कि आरव से प्यार नहीं है.

मोनिका ने उसे यही समझाया और वह खुद भी समझतीजानती थी कि उसे जो भी मिला है, अच्छा ही मिला है. जिसे कोई भी विधि का विधान बदल नहीं सकता.

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अग्निपरीक्षा: भाग 1

लेखिका- रेणु गुप्ता

भाग-1

स्मिता आज बहुत उदास थी. उस की पड़ोसिन कम्मो ने आज फिर उसे टोका था, ‘‘स्मिता, यह जो राज बाबू तुम्हारे घर रोजरोज आते हैं और तुम्हारे पास बैठ कर रात के 12-1 बजे घर जाते हैं, पड़ोस में इस बात की बहुत चर्चा हो रही है. कल रात सामने वाले वालियाजी इन से पूछ रहे थे, ‘यह स्मिता के घर रोज रात को जो आदमी आता है, उस का स्मिता से क्या रिश्ता है? अकेली औरत के पास वह 2-3 घंटे क्यों आ कर बैठता है? स्मिता उसे अपने घर रात में क्यों आने देती है? क्या उसे इतनी भी समझ नहीं कि पति की गैरहाजिरी में अकेले मर्द के साथ रात के 12 बजे तक बैठना गलत है.’ ’’

कम्मो के मुंह से यह सब सुन कर स्मिता का चेहरा उतर गया था. उफ, यह पासपड़ोस वाले, किसी के घर में कौन आताजाता है, सारी खोजखबर रखते हैं. उन्हें क्या मतलब अगर कोई उस के घर में आता भी है तो. क्या ये पासपड़ोस वाले उस का अकेलापन बांट सकते हैं? वे क्या जानें कि बिना एक मर्द के एक अकेली औरत कैसे अपने दिन और रात काटती है? फिर राज क्या उस के लिए पराया है? एक वक्त था जब राज के बिना जिंदगी काटना उस के लिए कल्पना हुआ करती थी और यह सब सोचतेसोचते स्मिता कब बीते दिनों की भूलभुलैया में उतर आई, उसे एहसास तक नहीं हुआ था.

स्मिता की मां बचपन में ही चल बसी थी. उस के बड़े भाई उसे पिता के पास से अपने घर ले आए थे. तब वह 7 साल की थी और तभी से वह भाईभाभी के घर रह कर पली थी. भैयाभाभी के 2 बच्चे थे और वे अपने दोनों बच्चों को बहुत लाड़दुलार करते थे. उन के मुंह से निकली हर बात पूरी करते लेकिन स्मिता की हमेशा उपेक्षा करते. भाभी स्मिता के साथ दुर्व्यवहार तो नहीं करतीं, लेकिन कोई बहुत अच्छा व्यवहार भी नहीं करतीं. उन को यह एहसास न था कि स्मिता एक बिन मां की बच्ची है. इसलिए उसे भी लाड़प्यार की जरूरत है.

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भाई भी स्मिता का कोई खास खयाल न रखते. भाई के बेटाबेटी स्मिता की ही उम्र के थे. अकसर कोई विवाद उठने पर भाईभाभी स्मिता की अवमानना कर अपने बच्चों का पक्ष ले बैठते. इस तरह निरंतर उपेक्षा और अवमानना भरा व्यवहार पा कर स्मिता बहुत अंतर्मुखी बन गई थी तथा उस में भावनात्मक असुरक्षा घर कर गई थी.

राज भाभी का भाई था जो अकसर बहन के घर आया करता. उसे शुरू से सांवलीसलोनी, अपनेआप में सिमटी, सकुचाई स्मिता बहुत अच्छी लगती थी और वह जितने दिन बहन के घर रहता, स्मिता के इर्दगिर्द बना रहता. उस की स्मिता से खूब पटती तथा अकसर वे दुनिया जहान की बातें किया करते.

स्मिता को जब भी कोई परेशानी होती वह राज के पास भागीभागी जाती और राज उसे उस की परेशानी का हल बताता. वक्त बीतने के साथ स्मिता व राज की मासूम दोस्ती प्यार में बदल गई थी तथा वे कब एकदूसरे को शिद्दत से चाहने लगे थे, वे खुद जान न पाए थे.

लगभग 3 साल तक तो उन के प्यार की खबर स्मिता के भैयाभाभी को नहीं लग पाई और वे गुपचुप प्यार की पेंग बढ़ाते रहे थे. अकसर वे अपने हसीन वैवाहिक जीवन की रूपरेखा बनाया करते. लेकिन न जाने कब और कैसे उन की गुपचुप मोहब्बत का खुलासा हो गया और भैयाभाभी ने राज के स्मिता से मिलने पर कड़ी पाबंदी लगा दी थी और स्मिता के लिए लड़का ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

राज और स्मिता ने भैयाभाभी से लाख मिन्नतें कीं, उन की खुशामद की कि उन का साथ बहुत पुराना है, उन को एकदूसरे के साथ की आदत पड़ गई है और वे एकदूसरे के बिना जिंदगी काटने की कल्पना तक नहीं कर सकते, लेकिन इस का कोई अनुकूल असर भाई व भाभी पर नहीं पड़ा.

स्मिता की भाभी का परिवार शहर का जानामाना खानदानी रुतबे वाला अमीर परिवार था तथा भाभी सुरभि के मातापिता को राज के विवाह में अच्छे दानदहेज की उम्मीद थी. इसलिए उन्होंने सुरभि से साफ कह दिया था कि वे राज की शादी स्मिता से किसी हालत में नहीं करेंगे. इसलिए उन्हें स्मिता का विवाह जल्दी से जल्दी कोई सही लड़का ढूंढ़ कर कर देना चाहिए.

राज के मातापिता ने राज से साफ कह दिया था कि यदि उस ने स्मिता से अपनेआप शादी की तो वे उस को घर के कपड़े के पुराने व्यापार से बेदखल कर देंगे और उस से कोई संबंध भी नहीं रखेंगे. राज के परिवार की शहर के मुख्य बाजार में कपड़ों की 2 मशहूर दुकानें थीं. राज महज 12वीं पास युवक था और अगर वह मातापिता की इच्छा के विरुद्ध स्मिता से शादी करता तो कपड़ों की दुकान में हिस्सेदारी से बाहर हो जाता.

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इधर स्मिता के भैयाभाभी ने उस से साफ कह दिया था कि अगर उस ने अपनेआप शादी की तो वह न तो उस की शादी में एक फूटी कौड़ी लगाएंगे, न ही शादी में शामिल होंगे. इस तरह राज और स्मिता ने देखा था कि यदि वे घर वालों की इच्छा के विरुद्ध शादी कर लेते हैं तो उन का भविष्य अंधकारमय होगा.

स्मिता के पास भी कोई ऐसी शैक्षणिक योग्यता नहीं थी जिस के सहारे वह अपने परिवार का खर्च उठा पाती. अत: बहुत सोचसमझ कर वह दोनों अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि उन्हें अपने प्यार का गला घोंटना पड़ेगा तथा अपने रास्ते जुदा करने पड़ेंगे. उन के सामने बस, यही एक रास्ता था.

सुरभि स्मिता के लिए जोरशोर से लड़का ढूंढ़ने में लगी हुई थी. आखिरकार सुरभि की मेहनत रंग लाई. उसे स्मिता के लिए एक योग्य लड़का मिल गया था. लड़के का अपना स्वतंत्र जूट का व्यवसाय था तथा वह अच्छा कमा खा रहा था. लड़के का नाम भुवन था तथा उस ने पहली ही बार में स्मिता को देख कर पसंद कर लिया था. उन की शादी की तारीख 1 माह बाद ही निश्चित हुई थी.

शादी तय होने के बाद जब स्मिता राज से मिली तो उस के कंधों पर सिर रख कर फूटफूट कर रोई थी. उस ने राज से कहा था, ‘राज, 15 तारीख को तुम्हारी स्मिता पराई हो जाएगी. किसी गैर को मैं अपनेआप को कैसे सौंपूंगी? नहीं राज नहीं, मैं यह शादी हर्गिज नहीं करूंगी.’

राज ने स्मिता को समझाया था, ‘व्यावहारिक बनो स्मिता, यही जिंदगी की वास्तविकता है. क्या करें, हर किसी को अपनी मंजिल नहीं मिलती, यही सोच कर तसल्ली दो अपने मन को. मैं तुम्हें ताउम्र प्यार करता रहूंगा, कभी शादी नहीं करूंगा. तुम शांत मन से शादी करो, भुवन बहुत अच्छा लड़का है, अच्छा कमाता है, तुम्हें बहुत खुश रखेगा,’ यह कहते हुए डबडबाई आंखों से राज ने स्मिता का माथा चूमा था और चला गया था.

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स्मिता की शादी की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. सुरभि ने भाई से साफसाफ कह दिया था, ‘राज, मुझ से एक वादा करो, स्मिता की शादी तक तुम घर नहीं आओगे. स्मिता को अपने सामने देख तुम सामान्य नहीं रह पाओगे तथा बेकार में लोगों को बातें करने का मौका मिल जाएगा.’

‘दीदी, मेरे साथ इतना अन्याय मत करो,’ राज गिड़गिड़ाता हुआ बोला, ‘मैं कसम खाता हूं, शादी होने तक मैं किसी के सामने स्मिता से एक शब्द नहीं बोलूंगा. उस की शादी का काम कर के मुझे बहुत आत्मिक संतोष मिलेगा. प्लीज दीदी, तुम ने मुझ से सबकुछ तो छीन लिया, अब यह छोटा सा सुख तो मत छीनो.’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

औरों से आगे: भाग 2

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लेखक- प्रसून भार्गव

अम्मां सन्न रह गई थीं. जब उन का मौन टूटा तो मुंह से पहला वाक्य यही निकला था, ‘‘आज तुम्हारे पिताजी जिंदा होते तो क्या घर में ऐसा होता? उन्हें बहुत दुख होता. जमाने की हवा है. मैं तो तभी जान गई थी जब तुम ने इसे बाहर पढ़ने भेजा. लड़कियों की अधिक स्वतंत्रता अच्छी नहीं.’’

यह अम्मां की विशेषता थी कि उन्हें हर बात पहले से ही पता रहती थी. पर वह घटना घटने के बाद ही कहती थीं. अम्मां ही क्या, कई लोग इस में माहिर होते हैं.

अम्मां के प्रतिकूल रवैए से बड़े भैया का मन भी अशांत हो उठा था. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि वैश्य परिवार की लाड़ली, भोलीभाली एवं प्रतिभाशाली कन्या ऐसा कदम उठाएगी, जबकि परिवार के लोग घरवर खोजने में लगे थे.

वह तो एकाएक विस्फोट सा लगा. पर जब शुद्ध दक्षिण भारतीय राघवन से परिचय हुआ तो उस सौम्यसुदर्शन चेहरे के सम्मोहन ने कहीं सब के मन को छू लिया. सभी को लगा कि लड़का लाखों में एक है.

अम्मां ने कहा, ‘‘हिंदी तो ऐसे बोलता है, जैसे हमारे बीच ही रहता आया हो.’’

अम्मां का अनुकूल रुख देख कर बड़े भैया भी बदले थे. भाभी तो ऐसे अवसरों पर सदा तटस्थ रहती थीं. फिर भी बेटी को मनचाहा घरवर मिल रहा था, इस बात की अनुभूति उन के तटस्थ चेहरे को निखार गई थी. वह मन की प्रसन्नता मन तक ही रख कर अम्मां और भैया के सामने कुछ कहने का दुस्साहस नहीं कर पा रही थीं. बस, दबी जबान से इतना ही कहा, ‘‘आजकल तो वैश्यों में कितने ही अंतर्जातीय विवाह हो रहे हैं और सभी सहर्ष स्वीकार किए जा रहे हैं. जाति की संकुचित भावना का अब उतना महत्त्व नहीं है, जितना 15-20 वर्ष पहले था.’’

इतना सुनते ही अम्मां और भैया साथसाथ बोल उठे थे, ‘‘तुम्हारी ही शह है.’’

उस के बाद जब तक विवाह नहीं हुआ, भाभी मौन ही रहीं. वैसे यह सच था कि भाभी के बढ़ावे से ही कनु ने जाति से बाहर जाने की जिद की थी. सम्मिलित परिवार में रहीं भाभी नहीं चाहती थीं कि उन की बेटी सिर्फ आदर्श बहू बन कर रह जाए. वह चाहती थीं कि वह स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी बने.

कनु और राघवन विवाह के अवसर पर फुजूलखर्ची के खिलाफ थे. इसलिए बहुत सादी रीति से ब्याह हो गया, जो बाद में सब को अच्छा लगा.

जैसेजैसे समय बीतता गया, राघवन का सभ्य व्यवहार, दहेज विरोधी सुलझे विचार और स्वाभिमानी व्यक्तित्व की ठंडी फुहार तले भीगता सब का मन शांत व सहज हो गया था. दोनों परिवारों में आपसी सद्भाव, प्रेम व स्नेह के आदानप्रदान ने प्रांतीयता व भाषा रूपी भेदभावों को पीछे छोड़, कब स्वयं को व्यक्त करने के लिए नई भाषा अपना ली, पता ही नहीं लगा. वह थी, हिंदी, अंगरेजी, तमिल मिश्रित भाषा.

हमारे परिवार में भी तमिल समझने- सीखने की होड़ लग गई थी. यह जरूरी भी था. एक भाषाभाषी होने पर जो आत्मीयता व अपनेपन के स्पर्श की अनुभूति होती है, वह भिन्नभिन्न भाषाभाषी व्यक्तियों के साथ नहीं हो पाती. संभवत: यही कारण है कि अंतर्जातीय विवाहों में दूरी का अनुभव होता है. भाषा भेद हमारी एकता में बाधक है. नहीं तो भारत के हर प्रांत की सभ्यता व संस्कृति एक ही है. प्रांतों की भाषा की अनेकता में भी एकता गहरी है या शायद विशाल एकता की भावना ने रंगबिरंगी हो भिन्नभिन्न भाषाओं के रूप में प्रांतों में विविधता सजा दी है.

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कनु के ब्याह के बाद स्मिता का ब्याह गुजराती परिवार में हुआ. मझली भाभी व भैया के लाख न चाहने पर भी वह ब्याह हुआ. सब से आश्चर्यजनक बात यह थी कि किसी को उस विवाह पर आपत्ति नहीं हुई. जैसे वह रोज की सामान्य सी बात थी. साथ ही रिंकू के लिए वर खोजने की आवश्यकता नहीं है, यह भी सोच लिया गया.

अनिल व स्मिता को जैसे एकदूसरे के लिए ही बनाया गया था. दोनों की जोड़ी बारबार देखने को मन करता था.

अम्मां इस बार पहले से कुछ अधिक शांत थीं. अनिल डाक्टर था, इसलिए आते ही अम्मां की कमजोर नब्ज पहचान गया था. जितनी देर रहता, ‘अम्मांअम्मां’ कह कर उन्हें निहाल करता रहता.

एक बार जब अम्मां बीमार पड़ीं, तब ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने पर अनिल सारी रात वहीं कुरसी डाले बैठा रहा. सवेरे आंख खुलने पर अम्मां ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी. बेटी से ज्यादा दामाद जिगर का टुकड़ा बन चला था. अम्मां ने अनिल के पिता से बारबार कहा था, ‘‘हमारी स्मिता के दिन फिर गए, जो आप के घर की बहू बनी. हमें गर्व है कि हमें ऐसा हीरा सा दामाद मिला.’’

अनिल के मातापिता ने अम्मां का हाथ पकड़ कर गद्गद कंठ से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘आप घर की बड़ी हैं. बस, सब को आप का आशीर्वाद मिलता रहे.’’

सुखदुख में जाति भेद व भाषा भेद न जाने कैसे लुप्त हो जाता है. सिर्फ भावना ही प्रमुख रह जाती है, जिस की न जाति होती है, न भाषा. और भावना हमें कितना करीब ला सकती है, देख कर आश्चर्य होता था.

अब रिंकू का ब्याह था. घर के कोनेकोने में उत्साह व आनंद बिखरा पड़ा था. जातीयविजातीय अपनेअपने तरीके से, अपनीअपनी जिज्ञासा लिए अनेक दृष्टिकोणों से हमारे परिवार को समझने का प्रयास कर रहे थे. रिंकू बंगाली परिवार में ब्याही जा रही थी. कहां शुद्ध शाकाहारी वैश्य परिवार की कन्या रिंकू और कहां माछेर झोल का दीवाना मलय. पर किसी को चिंता नहीं थी, अम्मां उत्साह से भरी थीं. उन की बातों से लगता था कि उन्हें अपने विजातीय दामादों पर नाज है. अम्मां का उत्साह व रवैया देख कर जातीय भाईबंधु, जो कल तक अम्मां को ‘इन बेचारी की कोई सुनता नहीं’ कह कर सहानुभूति दर्शा रहे थे, अब चकित हो पसोपेश में पड़े क्या सोच रहे थे, कह पाना मुश्किल था. रिंकू का विवाह सानंद संपन्न हो गया. वह विदा हो ससुराल चली गई.

दूसरे दिन मन का कुतूहल जब प्रश्न बन कर अम्मां के आगे आया तो पहले तो अम्मां ने टालना चाहा, लेकिन राकेश, विवेक, कनु, राघवन, स्मिता, अनिल सभी उन के पीछे पड़ गए, ‘‘अम्मां, सचसच बताइएगा, अंतर्जातीय विवाहों को आप सच ही उचित नहीं समझतीं या…’’

प्रश्न पूरा होने से पहले ही अम्मां सकुचाती सी बोल उठीं, ‘‘मेरे अपने विचार में इन विवाहों में कुछ भी अनुचित नहीं. पर हम जिस समाज में रहते हैं, उस के साथ ही चलना चाहिए.’’

‘‘पर अम्मां, समाज तो हम से बनता है. यदि हम किसी बात को सही समझते हैं तो उसे दूसरों को समझा कर उन्हें भी उस के औचित्य का विश्वास दिलाना चाहिए न कि डर कर स्वयं भी चुप रह जाना चाहिए.’’

अब स्मिता को बोलने का अवसर भी मिल गया था, ‘‘अम्मां, जातिभेद प्रकृति की देन नहीं है. यह वर्गीकरण तो हमारे शास्त्रों की जबरदस्ती की देन है. लेकिन अब तो हर जाति का व्यक्ति शास्त्र के विरुद्ध व्यवसाय अपना रहा है. अंतर्मन सब का एक जैसा ही तो है. फिर यह भेद क्यों?’’

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राकेश ने अम्मां को एक और दृष्टिकोण से समझाना चाहा, ‘‘अम्मां, हम लोगों में शिक्षा की प्रधानता है. और शिक्षित व्यक्ति ही आगे बढ़ सकता है, ऐसा करने से हम आगे बढ़ते हैं. हमें जाति से जरा भी नफरत नहीं है. आप ऐसा क्यों सोचती हैं?’’

सब बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं लगा, कब भैयाभाभी इत्यादि आ कर खड़े हो गए थे.

अम्मां कुछ देर चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘सच है, यदि हमारे परिवार की तरह ही हर परिवार अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकार करे तो किसी हद तक तलाक व दहेज की समस्या सुलझ सकती है और बेमानी वैवाहिक जिंदगी जीने वालों की जिंदगी खुशहाल हो सकती है.’’ अम्मां के पोतेपोतियों ने उन्हें झट चूम लिया. एक बार फिर हमें गर्व की अनुभूति ने सहलाया, ‘हमारी अम्मां औरों से आगे हैं.’

औरों से आगे: भाग 1

लेखक- प्रसून भार्गव

‘‘अंतर्जातीय विवाहों से हमारे आचारविचार में छिपी संकीर्णता खत्म हो जाती है. अंधविश्वासों व दकियानूसीपन के अंधेरे से ऊपर उठ कर हम एक खुलेपन का अनुभव करते हैं. विभिन्न प्रांतों की संस्कृति तथा सभ्यता को अपनाकर भारतीय एकता को बढ़ावा देते हैं…’’ अम्मां किसी से कह रही थीं.

मैं और छोटी भाभी कमरे से निकल रहे थे. जैसे ही बाहर बरामदे में आए तो देखा कि अम्मां किसी महिला से बतिया रही हैं. सुन कर एकाएक विश्वास होना कठिन हो गया. कल रात ही तो अम्मां बड़े भैया पर किस कदर बरस रही थीं, ‘‘तुम लोगों ने तो हमारी नाक ही काट दी. सारी की सारी बेटियां विजातियों में ब्याह रहे हो. तुम्हारे बाबूजी जिंदा होते तो क्या कभी ऐसा होता. उन्होंने वैश्य समाज के लिए कितना कुछ किया, उन की हर परंपरा निभाई. सब बेटाबेटी कुलीन वैश्य परिवारों में ब्याहे गए. बस, तुम लोगों को जो अंगरेजी स्कूल में पढ़ाया, उसी का नतीजा आज सामने है.

‘‘अभी तक तो फिर भी गनीमत है. पर तुम्हारे बेटेबेटियों को तो वैश्य नाम से ही चिढ़ हो रही है. बेटियां तो परजाति में ब्याही ही गईं, अब बेटे भी जाति की बेटी नहीं लाएंगे, यह तो अभी से दिखाई दे रहा है.’’

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बड़े भैया ने साहस कर बीच में ही पूछ लिया था, ‘‘तो क्या अम्मां, तुम्हें अपने दामाद पसंद नहीं हैं?’’

‘‘अरे, यह…यह मैं ने कब कहा. मेरे दामाद तो हीरा हैं. अम्मांअम्मां कहते नहीं थकते?हैं, मानो इसी घर के बेटे हों.’’

‘‘तो फिर शिकायत किस बात की. यही न कि वह वैश्य नहीं हैं?’’

2 मिनट चुप रह कर अम्मां बोलीं, ‘‘सो तो है. पर ब्राह्मण हैं, बस, इसी बात से सब्र है.’’

‘‘अगर ब्राह्मण की जगह कायस्थ होते तो?’’

‘‘न बाबा न, ऐसी बातें मत करो. कायस्थ तो मांसमछली खाते हैं.’’

धीरेधीरे घर के अन्य सदस्य भी वहां जमा होने लगे थे. ऐसी बहस में सब को अपनाअपना मत रखने का अवसर जो मिलता था.

‘‘क्या मांसमछली खाने वाले आदमी नहीं होते?’’ छोटे भैया के बेटे राकेश ने पूछा.

अम्मां जैसे उत्तर देतेदेते निरुत्तर होने लगीं. शायद इसीलिए उन का आखिरी अस्त्र चल गया, ‘‘मुझ से व्यर्थ की बहस मत किया करो. तुम लोगों को न बड़ों का अदब, न उन के विचारों का आदर. चार अक्षर अंगरेजी के क्या पढ़ लिए कि अपनी जाति ही भूलने लगे.’’

ऐसे अवसरों पर मझले भैया की बेटी स्मिता सब से ज्यादा कुछ कहने को उतावली दिखती थी, जो समाजशास्त्र की छात्रा थी. आखिर वह समाज के विभिन्न वर्गों को भिन्नभिन्न नजरिए से देखसमझ रही थी.

भैया भले ही कम डरते थे, पर भाभियां तो अपनेअपने बेटेबेटियों को आंखों के इशारों से तुरंत वहां से हटा कर दूसरे कामों में लगा देने को उतारू हो जाती थीं. जानती?थीं कि आखिर में उन्हें ही अम्मां की उस नाराजगी का सामना करना पड़ेगा. भाभियों के डर को भांपते हुए मैं ने सोचा, ‘आज मैं ही कुछ बोल कर देखूं.’

‘‘अम्मां, यह तो कोई बात न हुई कि उत्तर देते न बन पड़ा तो आप ने कह दिया, ‘व्यर्थ की बहस मत करो.’ राकेश ने तो सिर्फ यही जानना चाहा है कि क्या मांसमछली खाने वाले भले आदमी नहीं होते?’’

अम्मां हारने वाली नहीं थीं. उन्हें हर बात को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करना आता था. हारी हुई लड़ाई जीतने की कला में माहिर अम्मां ने झट बात बदल दी, ‘‘अरे, दुनिया में कुछ भी हो, मुझे तो अपने घर से लेनादेना है. मेरे घर में यह अधर्म न हो, बस.’’

मेरा समर्थन पा कर राकेश फिर पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, जो लोग मांसमछली खाते हैं, उन्हें आप वैश्य नहीं मानतीं. यदि कोई दूसरी जाति का आदमी वैश्य जैसा रहे तो आप उसे क्या वैश्य मान लेंगी?’’

‘‘फिर वही बहस. कह दिया, हम वैश्य हैं.’’

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कमरे में बैठी अपने स्कूल का पाठ याद करती रीना दीदी की 6 वर्षीय बेटी बोल उठी, ‘‘नहीं, नानीजी, हम लोग हिंदुस्तानी हैं.’’

अम्मां ने उसे पास खींच कर पुचकारा. फिर बोलीं, ‘‘हां बेटा, हम हिंदुस्तानी हैं.’’

अम्मां को समझ पाना बहुत कठिन था. कभी तो लगता था कि अम्मां जमाने के साथ जिस रफ्तार से कदम मिला कर चल रही हैं वह उन की स्कूली शिक्षा न होने के बावजूद उन्हें अनपढ़ की श्रेणी में नहीं रखता. औरों से कहीं आगे, समय के साथ बदलतीं, नए विचारों को अपनातीं, नई परंपराओं को बढ़ावा देतीं, अगली पीढ़ी के साथ ऐसे घुलमिल जातीं मानो वह उन्हीं के बीच पलीबढ़ी हों.

लेकिन कभीकभी जब वह अपने जमाने की आस्थाओं की वकालत कर के उन्हें मान्यता देतीं, अतीत की सीढि़यां उतर कर 50 वर्ष पीछे की कोठरी का दरवाजा खोल देतीं और रूढि़वादिता व अंधविश्वास की चादर ओढ़ कर बैठ जातीं तो हम सब के लिए एक समस्या सी बन जाती. शायद हर मनुष्य दोहरे व्यक्तित्व का स्वामी होता है या संभवत: अंदर व बाहर का जीवन अलगअलग ढंग से जीता है.

पिताजी उत्तर प्रदेश के थे और इलाहाबाद शहर में जन्मे व पलेबढ़े थे. बाद में नौकरी के सिलसिले में उन्होंने अनेक बार देशविदेश के चक्कर लगाए थे. कई बार अम्मां को भी साथ ले गए. लिहाजा, अम्मां ने दुनिया देखी. बहुत कुछ सीखा, जाना और अपनी उम्र की अन्य महिलाओं से ज्ञानविज्ञान व आचारविचारों में कहीं आगे हो गईं.

पिताजी विदेशी कंपनी में काम करते थे. ऊंचा पद, मानमर्यादा और हर प्रकार से सुखीसंपन्न, उच्चविचारों व खुले संस्कारों के स्वामी थे. अम्मां उन की सच्ची जीवनसंगिनी थीं.

वर्षों पहले हमारे परिवार में परदा प्रथा समाप्त हो गई थी. स्त्रीपुरुष सब साथ बैठ कर भोजन करते थे. यह सामान्य सी बात थी, पर 35-40 वर्ष पूर्व यह हमारे परिवार की अपनी विशेषता थी, जिसे कहने में गर्व महसूस होता था. हमें लगता था कि हमारी मां औरों से आगे हैं, ज्यादा समझदार हैं. परदा नहीं था, पर इस का तात्पर्य यह नहीं था कि आदर व स्नेह में कमी आ जाए.

भाभियों को घूमनेफिरने की पूरी स्वतंत्रता थी. यहां तक कि उन का क्लब के नाटकों में भाग लेना भी मातापिता को स्वीकार था.

इतना सब होते हुए भी अपने समाज के प्रति पिताजी कुछ ज्यादा ही निष्ठावान थे. ऐसा नहीं था कि वह देश या अन्य जातियों के प्रति उदासीन थे, पर शादीब्याह के मामले में उन्हें अंतर्जातीय विवाह उचित नहीं लगे. हम सब को भी उन्हीं के विचारों के फलस्वरूप अपने समाज के प्रति आस्था जैसे विरासत में मिली थी. शायद अम्मां ने तो कभी अपना विचार या अपना मत जानने की कोशिश नहीं की.

समय के साथ सभी मान्यताएं बदल रही थीं. फिर भी मेरा मन मानता था, ‘यदि आज पिताजी जिंदा होते तो शायद उन की पोतियां स्वयं वर चुन कर गैरजाति में न ब्याही जातीं.’ लेकिन यह भी लगता?था, ‘यदि उन्हें दुख होता तो यह उन की संकीर्णता का द्योतक होता है,’ और हो सकता है, जिस रफ्तार से वह समय के साथसाथ चले और समय के साथसाथ बदलने की वकालत करते रहे थे, शायद ऐसे विवाहों को सहर्ष स्वीकर कर लेते.

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आज वह नहीं हैं. अम्मां का अपना मत क्या है, वह स्वयं नहीं जानतीं. जो हो रहा?है, उन्हें कहीं अनुचित नहीं लग रहा. परंतु पिताजी का खयाल आते ही इन विवाहों को ले कर उन का मन कहीं कड़वा सा हो जाता है. प्रतिक्रियास्वरूप उन के अंतर्मन का कहीं कोई कोना उन्हें कचोटने लगता है. शायद वह उन की अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं है, बल्कि पिताजी के विचारों के समर्थन का भावनात्मक रूप है.

5-6 बरस पहले कनु का सादा सा ब्याह और अब रिंकू के ब्याह का उत्सव कैसा विपरीत दृश्य था. कनु ने जब कहा था, ‘‘मैं सहपाठी राघवन से ब्याह करूंगी और वह भी अदालत में जा कर.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनोखा बदला: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- अनोखा बदला: भाग 1

मधुरा ने विवेक के सामने अपनेआप को संयत रखा और उत्पल को खोजना शुरू किया. पुराने संपर्कों के माध्यम से मधुरा ने आसानी से उत्पल की आईडी खोज निकाली. उस ने उत्पल से कांटैक्ट किया.

अपने सर्किल में बाहुबली की छवि बनाता जा रहा उत्पल मधुरा की आवाज सुन कर रो पड़ा. दोनों के बीच बातें फिर से शुरू हो गईं.

उत्पल अब तक कुंआरा था. मधुरा की जगह किसी और को देने के बारे में वह सोच भी नहीं पाता था. बस जिस्मानी जरूरत जब बहुत ज्यादा आवाज देने लगती तो निराशा में पैसों के बल पर अपना बिस्तर रातभर के लिए सजा लेता था, लेकिन जो खालीपन उस के दिल में था, उस का इलाज वह कैसे करता?

मधुरा ने उस को अपनी सारी कहानी धीरेधीरे सुनानी शुरू कर दी. बाद में उस ने अपनी बहन और मां को भी सबकुछ बता दिया. वे भी सन्न रह गईं, मगर मधुरा के मना करने के चलते किसी ने विवेक से कुछ नहीं कहा.

समय बीतता रहा. एक दिन विवेक ने मधुरा के सामने प्रस्ताव रखा कि अपनी शादी की छठी सालगिरह किसी दूसरे शहर में चल कर मनाई जाए. मधुरा राजी हो गई. दोनों अपने बेटे को ले कर होटल में पहुंचे.

खास मौके के लिए मधुरा भी सजीधजी और ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. रात पिंकू को जल्दी सुला कर विवेक ने मधुरा को अपनी बांहों में भर लिया और चूमने लगा, तभी कमरे का दरवाजे झटके से खुला और 4 नकाबपोश अंदर घुस आए.

मधुरा की चीख निकल गई. शोर से पिंकू भी जाग कर रोने लगा, लेकिन बदमाशों ने उन सब को गन पौइंट पर ले कर लूटपाट शुरू कर दी.

रुपयों से भरा पर्स, मोबाइल फोन वगैरह अपने बैग में भरने के बाद 3 बदमाश एक तरफ खड़े हो गए.

विवेक को लगा कि अब वे लोग चले जाएंगे, लेकिन चौथे ने मधुरा का हाथ पकड़ा और उसे अपने सीने से लगा लिया.

विवेक बौखला कर चिल्ला उठा. वह मधुरा को ले कर काफी पजेसिव था, भले ही उस का खुद का स्वभाव कैसा भी हो.

मधुरा उस बदमाश के चंगुल से छूटने के लिए छटपटाने लगी. विवेक उसे बचाने के लिए आगे बढ़ा तो बाकी 2 बदमाशों ने उसे पकड़ कर बांध दिया और मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. एक बदमाश पिंकू को अपनी गोद में ले कर दूसरे कमरे में चला गया.

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मधुरा कहती रही, ‘‘मैं अपने गहने खुद तुम्हें दे दूंगी, मुझे छोड़ दो,’’ लेकिन उसे पकड़े बदमाश के कानों में कोई आवाज मानो जा ही नहीं रही थी. वह मधुरा को खींचता हुआ बाथरूम में ले गया.

अंदर से मधुरा के रोनेचिल्लाने की आवाजें आती रहीं. विवेक अपने बंधनों में मजबूर कसमसाता, आंसू बहाता रहा.

आधा घंटे बाद बाथरूम का दरवाजा खुला और मधुरा के साथ अंदर गया बदमाश अपने कपड़ों को थामे बाहर आया और आननफानन उन्हें पहन कर साथियों के साथ भाग गया.

उन बदमाशों के जाने के बाद होटल का कोई स्टाफ वहां आया तो उस ने विवेक के बंधन खोले.

विवेक बेतहाशा भाग कर बाथरूम के अंदर गया. वहां मधुरा जमीन पर बेहाल मिली. उस का सारा मेकअप बिखर चुका था और कपड़े यहांवहां बिखरे पड़े थे. विवेक उस से लिपट कर बैठ गया और रोने लगा.

पूरे होटल का स्टाफ बाहर जमा हो चुका था और दूसरे लोगों की भीड़ थी. मैडिकल जांच, पुलिस, मीडिया का दौर शुरू हो गया. अंदाजन पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियां भी कीं, लेकिन असली मुजरिम उस की पकड़ में नहीं आ सके.

धीरेधीरे विवेक अवसाद में जाने लगा. बारबार थाने के चक्कर लगाने में उस की माली हालत बिगड़ने लगी. कई बार तो नौकरी पर भी बन आती. कुछ दिनों तक खूब शोर करने के बाद मीडिया भी अचानक शांत होता गया.

इसी बीच एक दिन मधुरा को उलटियां आने लगीं. चैकअप करने के बाद डाक्टर ने बताया कि बच्चा ठहर गया है. विवेक अपनी नसबंदी करा चुका था. वह समझ गया कि यह बच्चा उसी बदमाश लुटेरे का है.

विवेक ने बच्चे को गिराने की बात की तो मधुरा ने यह कह कर एतराज जताया कि यह बच्चा उस का अंश है, चाहे जैसे भी पेट में आया हो.

जचगी का समय नजदीक आतेआते उन का घर कलह से भरने लगा और आखिरकार आपसी समझौते के आधार पर उन्होंने तलाक ले लिया.

पिंकू को मां के साथ रहने की इजाजत मिल गई. मधुरा उसे ले कर मायके चली आई और वहीं बच्चे को जन्म दिया.

इस के कुछ महीने बाद मधुरा ने उत्पल से शादी कर ली. सुहागरात के समय मधुरा सेज पर लेटी थी और उत्पल प्यार से उस का सिर सहला रहा था. पास ही पालने में उस का नवजात बेटा सोया था.

उत्पल ने मधुरा से कहा, ‘‘यह मेरा बच्चा है, लेकिन तुम्हारा पहला बेटा पिंकू भी मेरे लिए बेटे जैसा ही रहेगा… उसे मैं कभी पराया नहीं समझूंगा.’’

मधुरा ने मुसकरा कर उत्पल की ओर देखा और उसे अपने बगल में लिटा कर बत्ती बुझा दी.

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दरअसल, यह सब उन दोनों का ही प्लान था जो मधुरा ने विवेक की धोखेबाजी का बदला लेने के लिए बनाया था. उस रात होटल में उत्पल ही अपने साथियों के साथ मधुरा व विवेक के कमरे में घुसा था और मधुरा के साथ बलात्कार करने का नाटक किया, जबकि बाथरूम में मधुरा उसे संबंध बनाने में पूरा सहयोग दे रही थी और विवेक को तड़पाने के लिए चिल्ला रही थी.

इस मामले का उत्पल और उस के दोस्तों से दूरदूर तक कोई लिंक नहीं होने के चलते पुलिस ने जांच उधर मोड़ी ही नहीं. होटल के 1-2 कर्मचारी, जो उत्पल के इस प्लान को जानते थे, वे उस के जानने वाले थे इसलिए उन्होंने अपना मुंह नहीं खोला.

मधुरा के मांबाप को इस सारे प्लान के बारे में कुछ पता नहीं था, पर अब उन्हें उत्पल की जाति या ठेकेदारी नजर नहीं आ रही थी. उन की अपनी नजरों में मधुरा अब दूषित हो चुकी थी और ऊंची जाति का अहम तो ऐसा है कि घर की बेटीबहू को त्याग देना आम बात है.

विवेक अब अकेला है और अंदर से काफी टूट चुका है. कल तक उस के अगलबगल घूमने वालियां फिलहाल उसे भाव नहीं दे रहीं. विवेक अपने बेटे से भी कम ही मिल पाता है. उसे उस की करनी की भरपूर सजा मिल गई है, वहीं मधुरा अब संतुष्ट है और नए परिवार के साथ जिंदगी को नए सिरे से शुरू कर चुकी है.

अनोखा बदला: भाग 1

मधुरा के मांबाप को उत्पल का ठेकेदार परिवार से होना नहीं सुहाया था. उन की नजर में ठेकेदारी गुंडों का काम था. मधुरा उन्हें समझाती रह गई कि अगर उत्पल को गुंडई ही दिखानी होती तो वह उसे कब का उठा कर ले गया होता. अपराधियों और पुलिस से ले कर जिले के नेताओं तक के बीच उस के बापदादा का बढि़या उठनाबैठना था.

एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क मधुरा के पिता उत्पल से कहां तक लड़ते? वैसे भी मधुरा के पिता पंडित थे और उत्पल पिछड़ी जाति का था और तभी वह ठेकेदारी का काम भलीभांति कर सकता था.

उत्पल दिल का बहुत अच्छा था. पढ़ाई के दिनों में कंप्यूटर हार्डवेयर ट्रेनिंग सैंटर में हुई मधुरा और उस की भेंट ने उन्हें देखतेदेखते कैसे जोड़ दिया, उन को खुद भी पता नहीं चला था. उस ने मधुरा को केवल मन से अपनाया था, तन से वे दोनों बिलकुल दूर थे, मगर मधुरा के पिता नहीं माने और उस की शादी अपने ही दफ्तर के एक साथी के बेटे विवेक से करा दी जो किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर था.

उत्पल छटपटा कर रह गया, लेकिन उस ने मधुरा की शादी में कोई खलल नहीं डाला. मधुरा ने अपनी मां की खुदकुशी की धमकी के चलते उत्पल से वादा जो ले लिया था कि वह कोई गलत कदम नहीं उठाएगा.

ससुराल आने के बाद मधुरा को विवेक का बरताव भी अच्छा लगने लगा. दिनभर के सीधेसरल स्वभाव और रात को बिस्तर पर मधुरा के जिस्म का तारतार झनझना देने वाला विवेक मधुरा को उस का बीता कल भुलाने में बहुत मददगार रहा था.

इस के अलावा आम लड़कियों की तरह मधुरा ने भी अपने पति से अपने प्रेमी का कभी कोई जिक्र नहीं किया.

शादी के 2 साल बाद मधुरा और विवेक के प्यार की निशानी पिंकू के आने के बाद मधुरा की जिंदगी खुशियों से भर चुकी थी. हां, कभीकभार उत्पल जब सपनों में आ जाता तो मधुरा जाग कर सिसक जरूर पड़ती थी.

उस दिन विवेक का जन्मदिन था. उन दोनों को अपने नए फ्लैट में शिफ्ट हुए 6 महीने ही हुए थे. भाइयों में रोजरोज होने वाले झगड़ों के चलते विवेक के पिता ने जायदाद का बंटवारा कर दिया था, जिस से मिले रुपयों से विवेक ने अपने पिता का घर छोड़ नया फ्लैट ले लिया था.

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मां की बीमारी के चलते मधुरा मायके गई हुई थी लेकिन विवेक के जन्मदिन पर अचानक आ कर उसे सरप्राइज देना था.

बीती रात विवेक ने बहुत ही उदास लहजे में कह दिया था, ‘तुम्हारे बिना मुझे मेरा जन्मदिन मरणदिन सा लगेगा.’

पिंकू को शाम तक के लिए अपनी छोटी बहन को सौंप कर मधुरा दोपहर को ही अपने फ्लैट पर आ गई. हाथ में केक का डब्बा और मिठाई थी.

डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोल मधुरा अंदर दाखिल हुई. उस ने सोच रखा था कि जैसे ही विवेक घर आएगा, वह केक और मिठाई के साथ उस के सामने तैयार मिलेगी.

मधुरा अपने कमरे की तरफ बढ़ी, लेकिन नजदीक जातेजाते अंदर से आ रही कुछ आवाजों ने उसे चौंका दिया. एक आवाज विवेक की थी और दूसरी भी किसी जानीपहचानी औरत की.

‘विवेक आज जल्दी घर आ गया क्या? और शायद किसी को बुला भी रखा है,’ मधुरा ने सोचा, लेकिन मन के किसी कोने ने उसे अपनी पदचाप छिपा कर ही आगे बढ़ने की सलाह दी. उस ने ऐसा ही किया.

खिड़की से कमरे के अंदर झांकते ही मधुरा का सिर चकरघिन्नी की तरह नाचने लगा. बिस्तर पर विवेक अपने स्कूल की ही एक शादीशुदा महिला टीचर नलिनी के संग मधुरा के विश्वास को भी बुरी तरह मसल रहा था.

तकरीबन 40 साला नलिनी विवेक से कम से कम 5 साल बड़ी थी और अकसर उन के?घर आती थी. वह ऐसी निकलेगी, यह मधुरा ने सपने में भी नहीं सोचा था. उस के मुंह से कोई आवाज न निकल सकी. उस का बदन जैसे सुन्न पड़ गया था. आंसू बहाती फटीफटी आंखों से वह सारा मंजर देखती रही.

‘‘साइज… स्टैमिना… विवेक… उफ… तुम मुझे… पागल बना कर मानोगे अपने प्यार में…’’ धौंकनी की तरह चलती सांसों के बीच नलिनी किसी तरह बोल पा रही थी. उस की उंगलियां विवेक की शर्ट चीरफाड़ कर उस की पीठ में घुसने को उतावली लग रही थीं.

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विवेक भी सुपरफास्ट ट्रेन बनता चला गया. जल्दी ही मिलीजुली तेज सिसकारियों का दौर शुरू हुआ और फिर सबकुछ शांत पड़ गया.

‘‘समीज तो पसीने से पूरी भीग गई तुम्हारी. थोड़ी देर पंखे के नीचे सूखने के लिए डाल दो…’’ विवेक ने शरारत भरे लहजे में कहा. उस का संकेत समझ नलिनी ने उसे प्यार से गाल पर थपकी दी और कोई तौलिया मांगा. विवेक ने सीधे खूंटी पर टंगा मधुरा का तौलिया उतार कर उसे दे दिया.

मधुरा का रोमरोम जल रहा था. वह चुपचाप वहां से निकल गई. खिड़की पर लगे परदे और अपने उन्माद में डूबे होने के चलते वे दोनों उसे देख नहीं पाए थे.

मधुरा कालोनी के पार्क में जा कर बैठ गई. केकमिठाई के डब्बे रास्ते में कहांकहां छूटते गए, उसे कोई होश नहीं था. घंटे बीतते रहे, शाम हो आई. इस बीच कई बार विवेक का फोन भी आ कर मिस होता रहा. हर रिंग मधुरा को विवेक के आज दिखे नए रूप की धमक लग रही थी. मधुरा ने वापस अपने मायके की बस पकड़ ली.

मायके पहुंचने के बाद रात को नींद मधुरा की आंखों से दूर ही रही. विवेक से एक बार बात हुई भी तो उस से तबीयत खराब होने की बात कह कर पीछा छुड़ा लिया. शुक्र था कि विवेक की अपनी सास या साली से कोई बात नहीं हुई, वरना मधुरा के आज फ्लैट पर आने का राज खुल जाता.

मधुरा रो रही थी और अपने मांबाप को कोस रही थी. उसे आज उत्पल की याद फिर से बहुत ज्यादा सताने लगी. वह फैसला नहीं ले पा रही थी कि आखिर करे तो क्या करे?

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में

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