पहला पहला प्यार: मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का आभास-भाग 1

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

सलाहकार: कैसे अपनों ने उठाया शुचिता का फायदा

छात्रछात्राओं का प्रिय शगल हर एक अध्यापक- अध्यापिका को कोई नाम देना होता है और चाहे अध्यापक हों या प्राध्यापक, सब जानबूझ कर इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं, शायद इसलिए कि अपने जमाने में उन्होंने भी अपने गुरुजनों को अनेक हास्यास्पद नामों से अलंकृत किया होगा. ऋतिका इस का अपवाद थीं. वह अंगरेजी साहित्य की प्रवक्ता ही नहीं होस्टल की वार्डन भी थीं, लेकिन न तो लड़कियों ने खुद उन्हें कोई नाम दिया और न ही किसी को उन के खिलाफ बोलने देती थीं.

मिलनसार, आधुनिक और संवेदनशील ऋतिका का लड़कियों से कहना था : ‘‘देखो भई, होस्टल के कायदे- कानून मैं ने नहीं बनाए हैं, लेकिन मुझे इस होस्टल में रह कर पीएच.डी. करने की सुविधा इसलिए मिली है कि मैं किसी को उन नियमों का उल्लंघन न करने दूं. मैं नहीं समझती कि आप में से कोई भी लड़की होस्टल के कायदेकानून तोड़ कर मुझे इस सुविधा से वंचित करेगी.’’

इस आत्मीयता भरी चेतावनी के बाद भला कौन लड़की मैडम को परेशान करती? वैसे लड़कियों की किसी भी उचित मांग का ऋतिका विरोध नहीं करती थीं. खाना बेस्वाद होने पर वह स्वयं कह देती थीं, ‘‘काश, मुझ में होस्टल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को दावत पर बुला कर यह खाना खिलाने की हिम्मत होती.’’

लड़कियां शिकायत करने के बजाय हंसने लगतीं. ऋतिका मैडम का व्यवहार सभी लड़कियों के साथ सहृदय था. किसी के बीमार होने पर वह रात भर जाग कर उस की देखभाल करती थीं. पढ़ाई में कोई दिक्कत होने पर अपना विषय न होते हुए भी वह यथासंभव सहायता कर देती थीं, लेकिन अगर कभी कोई लड़की व्यक्तिगत समस्या ले कर उन के पास जाती थी तो बजाय समस्या सुनने या कोई हल सुझाने के वह बड़ी बेरुखी से मना कर देती थीं.

लड़कियों को उन की बेरुखी उन के स्वभाव के अनुरूप तो नहीं लगती थी फिर भी किसी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. मनोविज्ञान की छात्रा श्रेया ने कुछ दिनों में ही यह अटकल लगा ली कि ऊपर से सामान्य लगने वाली ऋतिका मैम, भीतर से बुरी तरह घायल थीं और जिंदगी को सजा समझ कर जी रही थीं.

मगर उन से पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि अगर उस का प्रश्न सुन कर ऋतिका मैडम जरा सी भी उदास हो गईं तो सब लड़कियां उन का होस्टल में रहना मुश्किल कर देंगी. एम.ए. की छात्रा होने के कारण श्रेया अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी और ऋतिका मैडम से कुछ ही छोटी थी, सो प्राय: हमउम्र होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों एक ही कमरे में रहने लगीं.

एक दिन एक पत्रिका द्वारा आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रही छात्रा रश्मि उन के कमरे में आई. ‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं हिंदी में निबंध लिखूं या अंगरेजी में?’’

‘‘लिखना तो उसी भाषा में चाहिए जिस में तुम सुंदरता से अपने भाव व्यक्त कर सको,’’ श्रेया बोली.

‘‘दोनों में ही कर सकती हूं.’’

‘‘इस की दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ है,’’ ऋतिका मैडम के स्वर में सराहना थी जिसे सुन कर रश्मि का उत्साहित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम पुरस्कार जीतना चाहती हूं, सो आप सलाह दें मैडम, कौन सी भाषा में लिखना अधिक प्रभावशाली रहेगा?’’ रश्मि ने ऋतिका से मनुहार की.

‘‘तुम्हारी शिक्षिका होने के नाते बस, इतना ही कह सकती हूं कि तुम अच्छी अंगरेजी लिखती हो और सलाह तो मैं किसी को देती नहीं,’’ ऋतिका मैडम ने इतनी रुखाई से कहा कि रश्मि सहम कर चली गई.

‘‘जब आप को पता है कि उस की अंगरेजी औसत से बेहतर है, तो उसे उसी भाषा में लिखने को कहना था क्योंकि अंगरेजी में जीत की संभावना अधिक है,’’

श्रेया बोली. ‘‘इतनी समझ रश्मि को भी है.’’

‘‘फिर भी बेचारी आश्वस्त होने आप के पास आई थी और आप ने दुत्कार दिया,’’ श्रेया के स्वर में भर्त्सना थी, ‘‘मैडम, आप से सलाह मांगना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाना है.’’

ऋतिका ने अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास किया, जिस से प्रभावित हो कर श्रेया पूछे बगैर न रह सकी : ‘‘आखिर आप सलाह देने से इतना चिढ़ती क्यों हैं?’’

‘‘चिढ़ती नहीं श्रेया, डरती हूं,’’ ऋतिका मैडम आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी सलाह से एकसाथ कई जीवन बरबाद हो चुके हैं.’’ ‘‘किसी आतंकवादी गिरोह की आप सदस्या रह चुकी हैं?’’ श्रेया ने उन की ओर कृत्रिम अविश्वास से देखा. ऋतिका ने गहरी सांस ली,

‘‘असामाजिक तत्त्व ही नहीं शुभचिंतक भी जिंदगियां तबाह कर सकते हैं, श्रेया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बड़ी लंबी कहानी है.’’

‘‘मैडम, आज पढ़ाई यहीं बंद करते हैं. कल रविवार को कहीं घूमने न जा कर पढ़ाई कर लेंगे,’’ कह कर श्रेया उठी और उस ने कमरे का दरवाजा बंद किया, बत्ती बुझा कर बोली, ‘‘अब आप शुरू हो जाओ. कहानी सुनाने से आप का दिल हलका हो जाएगा और मेरी जिज्ञासा शांत.’’

‘‘मेरा दिल तो कभी हलका नहीं होगा मगर चलो, तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देती हूं.

‘‘शुचिता मेरी स्कूल की सहपाठी थी. जब वह 7वीं में पढ़ती थी तो उस के डाक्टर मातापिता उसे दादी के पास छोड़ कर मस्कट चले गए थे. जब भी वह उन्हें याद करती, दादी प्रार्थना करने को कहतीं या उसे दिलासा देने को राह चलते ज्योतिषियों से कहलवा देती थीं कि उस के मातापिता जल्दी आएंगे.

‘‘मस्कट कोई खास दूर तो था नहीं, सो दादी से शुचि की उदासी के बारे में सुन कर अकसर उस के मातापिता में से कोई न कोई बेटी से मिलने आता रहता था. इस तरह शुचि भाग्य और भविष्यवक्ताओं पर विश्वास करने लगी. विदेश से लौटने पर उस के आधुनिक मातापिता ने शुचि को बहुत समझाया मगर उस की अंधविश्वास के प्रति आस्था नहीं डिगी.

‘‘रजत शुचि का पड़ोसी और मेरे पापा के दोस्त का बेटा था, सो एकदूसरे के घर आतेजाते मालूम नहीं कब हमें प्यार हो गया, लेकिन यह हम दोनों को अच्छी तरह मालूम था कि सही समय पर हमारे मातापिता सहर्ष हमारी शादी कर देंगे, मगर अभी से इश्क में पड़ना गवारा नहीं करेंगे.

लेकिन मिले बगैर भी नहीं रहा जाता था, सो मैं पढ़ने के बहाने शुचि के घर जाने लगी. शुचि के मातापिता नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे इसलिए रजत बेखटके वहां आ जाता था. जिंदगी मजे में गुजर रही थी. मैं शुचि से कहा करती थी कि प्यार जिंदगी की अनमोल शै है और उसे भी प्यार करना चाहिए. तब उस का जवाब होता था, ‘करूंगी मगर शादी के बाद.’

‘‘‘उस में वह मजा नहीं आएगा जो छिपछिप कर प्यार करने में आता है.’

‘‘‘न आए, मगर जब मैं अपने मम्मीपापा को यह वचन दे चुकी हूं कि मैं शादी उन की पसंद के डाक्टर लड़के से करूंगी, जो उन का नर्सिंग होम संभाल सके तो फिर मैं किसी और से प्यार कैसे कर सकती हूं?’

‘‘असल में शुचि के मातापिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे लेकिन शुचि की रुचि संगीत साधना में थी, सो दामाद डाक्टर पर समझौता हुआ था. हम सब बी.ए. फाइनल में थे कि रजत का चचेरा भाई जतिन एम.बी.ए. करने वहां आया और रजत के घर पर ही रहने लगा.

‘‘एक रोज शुचिता पर नजर पड़ते ही जतिन उस पर मोहित हो गया और रजत के पीछे पड़ गया कि वह उस की दोस्ती शुचिता से करवाए. रजत के असलियत बताने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. मालूम नहीं जतिन को कैसे पता चल गया कि रजत मुझ से मिलने शुचिता के घर आता है. उस ने रजत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया कि या तो वह उस की दोस्ती शुचिता के साथ करवाए नहीं तो वह हमारे मातापिता को सब बता देगा.

‘‘इस से बचने की मुझे एक तरकीब समझ में आई कि शुचिता के अंधविश्वास का फायदा उठा कर उस का चक्कर जतिन के साथ चला दिया जाए. रजत के रंगकर्मी दोस्त सुधाकर को मैं ने अपने और शुचिता के बारे में सबकुछ अच्छी तरह समझा दिया. एक रोज जब मैं और शुचिता कालिज से घर लौट रहे थे तो साधु के वेष में सुधाकर हम से टकरा गया और मेरी ओर देख कर बोला कि मैं चोरी से अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं. उस के बाद उस ने मेरे और रजत के बारे में वह सब कहना शुरू कर दिया जो हम दोनों के अलावा शुचिता को ही मालूम था, सो शुचिता का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘शुचिता ने साधु बाबा से अपने घर चलने को कहा. वहां जा कर सुधाकर ने भविष्यवाणी कर दी कि शीघ्र ही शुचिता के जीवन में भी उस के सपनों का राजकुमार प्रवेश करेगा. सुधाकर ने शुचिता को आश्वस्त कर दिया कि वह कितना भी चाहे प्रेमपाश से बच नहीं सकेगी क्योंकि यह तो उस के माथे पर लिखा है. उस ने यह भी बताया कि वह कहां और कैसे अपने प्रेमी से मिलेगी.

‘‘शुचिता के यह पूछने पर कि उस की शादी उस व्यक्ति से होगी या नहीं, सुधाकर सिटपिटा गया, क्योंकि इस बारे में तो हम ने उसे कुछ बताया ही नहीं था, सो टालने के लिए बोला कि फिलहाल उस की क्षमता केवल शुचिता के जीवन में प्यार की बहार देखने तक ही सीमित है. वैसे जब प्यार होगा तो विवाह भी होगा ही. सच्चे प्यार के आगे मांबाप को झुकना ही पड़ता है.

‘‘उस के बाद जैसे सुधाकर ने बताया था उसी तरह जतिन धीरेधीरे उस के जीवन में आ गया. शुचिता का खयाल था कि जब साधु बाबा की कही सभी बातें सही निकली हैं तो मांबाप के मानने वाली बात भी ठीक ही निकलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जतिन ने यहां तक कहा कि उसे उन का एक भी पैसा नहीं चाहिए…वे लोग चाहें तो किसी गरीब बच्चे को गोद ले कर उसे डाक्टर बना कर अपना नर्सिंग होम उसे दे दें. शुचिता ने भी जतिन की बात का अनुमोदन किया. शुचिता के मातापिता को मेरी और अपनी बेटी की गहरी दोस्ती के बारे में मालूम था, सो एक रोज वह दोनों हमारे घर आए.

‘‘‘देखो ऋतिका, शुचि हमारी इकलौती बेटी है. हम ने रातदिन मेहनत कर के जो इतना बढ़िया नर्सिंग होम बनाया है या दौलत कमाई है इसीलिए कि हमारी बेटी हमेशा राजकुमारियों की तरह रहे. जतिन अच्छा लड़का है लेकिन उस की एक बंधीबधाई तनख्वाह रहेगी. वह एक डाक्टर जितना पैसा कभी नहीं कमा पाएगा और फिर हमारे इतनी लगन से बनाए नर्सिंग होम का क्या होगा? अपनी बेटी के रहते हम किसी दूसरे को कैसे गोद ले कर उसे सब सौंप दें? हम ने शुचि के लिए डाक्टर लड़का देखा हुआ है जो हर तरह से उस के उपयुक्त है और उस के साथ वह बहुत खुश रहेगी. तुम भी उसे जानती हो.’

‘‘‘कौन है, अंकल?’

‘‘‘तुम्हारा भाई कुणाल. उस के अमेरिका से एम.एस. कर के लौटते ही दोनों की शादी कर देंगे.’ ‘‘ ‘मैं ठगी सी रह गई. शुचिता मेरी भाभी बन कर हमेशा मेरे पास रहे इस से अच्छा और क्या होगा? जतिन तो आस्ट्रेलिया जाने को कटिबद्ध था.

‘‘‘आप ने यह बात छिपाई क्यों?’ मैं ने पूछा, ‘क्या पता भैया ने वहीं कोई और पसंद कर ली हो.’

‘‘‘उसे वहां इतनी फुरसत ही कहां है? और फिर मैं ने कुणाल और तुम्हारे मम्मीपापा को साफ बता दिया था कि मैं कुणाल को अमेरिका जाने में जो इतनी मदद कर रहा हूं उस की वजह क्या है. उन सब ने तभी रिश्ता मंजूर कर लिया था. तुम्हें बता कर क्या ढिंढोरा पीटना था?’

‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे न बताने से क्या अनर्थ हुआ है. तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. शुचिता के जिस अंधविश्वास का सहारा ले कर मैं ने उस का और जतिन का चक्कर चलवाया था, एक बार फिर उसी अंधविश्वास का सहारा ले कर उस चक्कर को खत्म भी कर सकती थी लेकिन अब यह इतना आसान नहीं था.

रजत कभी भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं होता और अकेली मैं कहां साधु बाबा को खोजती फिरती? मैं ने शुचिता की मम्मी को सलाह दी कि वह शुचि के अंधविश्वास का फायदा क्यों नहीं उठातीं? उन्हें सलाह पसंद आई. कुछ रोज के बाद उन्होंने शुचिता से कहा कि वह उस की और जतिन की शादी करने को तैयार हैं मगर पहले दोनों की जन्मपत्री मिलवानी होगी. अगर कुछ गड़बड़ हुई तो ग्रह शांति की पूजा करा देंगे.

‘‘अंधविश्वासी शुचिता तुरंत मान गई. उस ने जबरदस्ती जतिन से उस की जन्मपत्री मंगवाई. मातापिता ने एक जानेमाने पंडित को शुचिता के सामने ही दोनों कुंडलियां दिखाईं. पंडितजी देखते ही ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ करने लगे. ‘‘‘इस कन्या से विवाह करने के कुछ ही समय बाद वर की मृत्यु हो जाएगी. कन्या के ग्रह वर पर भारी पड़ रहे हैं.’

‘‘‘उन्हें हलके यानी शांत करने का कोई उपाय जरूर होगा पंडितजी. वह बताइए न,’ शुचिता की मम्मी ने कहा. ‘‘ ‘ऐसे दुर्लभ उपाय जबानी तो याद होते नहीं, कई पोथियां देखनी होंगी.’

‘‘‘तो देखिए न, पंडितजी, और खर्च की कोई फिक्र मत कीजिए. अपनी बिटिया की खुशी के लिए आप जो पूजा या दान कहेंगे हम करेंगे.’

‘‘‘मगर पूजा से अमंगल टल जाएगा न पंडितजी?’ शुचिता ने पूछा.

‘‘‘शास्त्रों में तो यही लिखा है. नियति में लिखा बदलने का दावा मैं नहीं करता,’ पंडितजी टालने के स्वर में बोले.

‘‘‘ऐसा है बेटी. जैसे डाक्टर अपने इलाज की शतप्रतिशत गारंटी नहीं लेते वैसे ही यह पंडित लोग अपनी पूजा की गारंटी लेने से हिचकते हैं,’ शुचिता के पापा हंसे.

‘‘उस के बाद शुचिता ने कुछ और नहीं पूछा. अगली सुबह उस के कमरे से उस की लाश मिली. शुचिता ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि पंडितजी की बात से साफ जाहिर है कि उस की जिंदगी में जतिन का साथ नहीं लिखा है, वह जतिन से बेहद प्यार करती है.

उस के बगैर जीने की कल्पना नहीं कर सकती और न ही उस का अहित चाहती है, सो आत्महत्या के सिवा उस के पास कोई और विकल्प नहीं है. ‘‘शुचिता की आत्महत्या के लिए उस के मातापिता स्वयं को अपराधी मानते हैं, मगर असली दोषी तो मैं हूं जिस की सलाह पर पहले एक नकली ज्योतिषी ने शुचिता का जतिन से प्रेम करवाया और मेरी सलाह से ही उस प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए फिर एक झूठे ज्योतिषी का सहारा लिया गया.

‘‘शुचिता के मातापिता और उस से अथाह प्यार करने वाला जतिन तो जिंदा लाश बन ही चुके हैं. मगर मेरे कुणाल भैया, जो बचपन से शुचिता से मूक प्यार करते थे और जिस के कारण ही वह बजाय इंजीनियर बनने के डाक्टर बने थे, बुरी तरह टूट गए हैं और भारत लौटने से कतरा रहे हैं इसलिए मेरे मातापिता भी बहुत मायूस हैं. यही नहीं मेरे इस तरह क्षुब्ध रहने से रजत भी बेहद दुखी हैं. तुम ही बताओ श्रेया, इतना अनर्थ कर के, इतने लोगों को संत्रास दे कर मैं कैसे खुश रह सकती हूं या सलाहकार बनने की जुर्रत कर सकती हूं?’’

 

इमोशनल अत्याचार : खतरनाक मोड़ पर रक्षिता की जिंदगी

रक्षिता का सामाजिक बहिष्कार तो मानो हो ही चुका था. रहीसही कसर उस के दोस्त वरुण ने पूरी कर दी थी. रक्षिता को ऐसा लग रहा था कि वह जैसे कोई सपना देख रही हो. 20 दिनों में उस की जिंदगी तहसनहस हो चुकी थी.

20 दिनों पहले रक्षिता के पापा की हार्टअटैक से मौत हो चुकी थी. पापा की मौत के बाद भाई ने अपना असली रंग दिखा दिया. कहते हैं सफलता मिलने के बाद इंसान अपना असली रंग दिखाता है, लेकिन यहां तो दुख की घड़ी में भाई ने रक्षिता को अपना असली चेहरा दिखा दिया था.

अब क्या किया जाए. मां पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी. दादी की भी एक साल पहले मृत्यु हो गई थी. रक्षिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे.

रिश्तेदारों के सामने भाई ने हाथ नचा कर पुष्टि कर दी थी कि रक्षिता की वजह से ही पापा की मृत्यु हुई. बूआ, जो उसे बहुत मानती थीं, ने भी साफ कह दिया था, ‘ऐसी लड़की से वे कोई नाता नहीं रखना चाहतीं.’

उस के भाई ने उस से साफतौर पर कह दिया था, ‘अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है. तुम्हारी शादी पर खर्च करने की मेरी कोई मंशा नहीं है.’ उस ने दिल्ली जाने का टिकट उस के हाथ में थमा दिया.

‘कोई बात नहीं, कम से कम वरुण तो साथ देगा ही. अब जब समस्या आ ही गई है तो समाधान भी ढूंढ़ना ही पड़ेगा,’ अपनी आंखें पोंछते हुए रक्षिता ने मन ही मन सोचा.

दिल्ली आ कर उस ने दोबारा औफिस जौइन कर लिया. रक्षिता ने वरुण से मिलने की काफी कोशिश की पर वरुण ने उस से दोबारा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रक्षिता ने सोचा कि हो सकता है वरुण औफिस के काम में बिजी हो.

एक दिन जब कैंटीन में रक्षिता की सपना से मुलाकात हुई तब उसे हकीकत मालूम हुई. सपना ने बताया, ‘‘रक्षिता, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं. उम्मीद है कि तुम इसे हलके में नहीं लोगी.’’

‘‘पर बताओ तो सही बात क्या है,’’ रक्षिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘वरुण कह रहा था कि तुम्हारे रोनेधोने की कहानियां सुनने का स्टेमिना उस में नहीं है.’’

यह सुनते ही रक्षिता के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. अब उसे मालूम हो गया था कि वरुण उस से कटाकटा सा क्यों रहता है. उस के प्यार ने ही तो उसे हिम्मत बंधाई थी. उसी के बलबूते उस ने अपने भाई की बातों का बहिष्कार किया था. उस से लड़ी थी, लेकिन अब तो सारी उम्मीदें चकनाचूर होती नजर आ रही थीं.

वरुण के प्यार में वह काफी आगे बढ़ चुकी थी.

पापा की मृत्यु ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था. उस के बाद भाई ने और अब वरुण की बेवफाई ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था.

उस के मन में अब तरहतरह के खयाल आ रहे थे. अब क्या होगा. कौन शादी करेगा उस से. पापा की मृत्यु के बाद उन की नौकरी उस के भाई को मिल चुकी थी. घर और थोड़ीबहुत प्रौपर्टी पर भाई ने पहले ही अपना कब्जा जमा लिया था. रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. अब रक्षिता को पता चल गया था कि वह दुनिया में अकेली है. उस का संघर्ष सही माने में अब शुरू हुआ है.

पहली बार पता चला कि लड़के सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक सुरक्षा, रिश्तों की सुरक्षा के साथ पैदा होते हैं. खाली हाथ तो सिर्फ लड़कियां ही पैदा होती हैं.

लोग रक्षिता को लैक्चर देते कि तुम खुद सफल हो कर दिखाओ ताकि वरुण तुम्हें छोड़ने के निर्णय को ले कर पछताए. पर वह किसकिस को समझाए. ऐसा तो फिल्मों में ही संभव है. और रिश्तों की सुरक्षा के बिना वह कितना व क्या कर लेगी.

धीरेधीरे समय बीतने लगा और रक्षिता ने अब किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में इवनिंग क्लासेस ले कर एलएलबी की पढ़ाई शुरू कर दी. उस ने सोचा कि एक डिगरी भी हो जाएगी और खाली समय भी आराम से कट जाएगा.

नीलेश से उस की वहीं मुलाकात हुई थी. लेकिन वह अब लड़कों से इतना उकता चुकी थी कि उन से बातें करने में भी कतराती थी. नीलेश एक अंगरेजी अखबार में काम करता था. एमबीए करने के बाद उस ने एक दैनिक न्यूजपेपर के विज्ञापन विभाग में नौकरी जौइन की थी. अब एलएलबी की पढ़ाई रक्षिता के साथ कर रहा था.

अब तक बेवकूफ बनी रक्षिता को इतनी समझ आ चुकी थी कि जिंदगी बिताने के लिए एक साथी की अहम जरूरत होती है और इस के लिए जरूरी नहीं कि उसे प्यार किया जाए. प्यार का दिखावा भी किया जा सकता है लेकिन फिर से दिल लगा बैठी तो पता नहीं कितनी तकलीफ होगी.

नीलेश से उस का मेलजोल इस कदर बढ़ा कि धीरेधीरे बात शादी तक पहुंच गई. दिखावा ही सही, पर रक्षिता ने शादी करने में देरी नहीं की. नीलेश की मां ने भी खुलेदिल से रक्षिता को स्वीकार किया. सब ने प्रेमविवाह होने के बावजूद उस का खूब स्वागत किया था और भरपूर प्यार दिया था. पर रक्षिता ने मन की गांठें नहीं खोलीं. उसे लगता था कि एक बार भावनात्मक रूप से जुड़ गई तो गई काम से.

उस के व्यवहार से ससुराल में सभी खुश थे. गलती से भी उस ने कोई कटु शब्द नहीं बोला था. उसे गुस्सा आता ही नहीं था. बातचीत वह बहुत ज्यादा नहीं करती थी. जब भी कोई किसी की बुराई शुरू करता तो वह वहां से खिसक जाती थी.

लेकिन उस की आंखें उस दिन खुलीं जब नीलेश की मां अपनी बहन को बता रही थी, ‘‘बड़ा शौक था मुझे अपनी बहू में बेटी ढूंढ़ने का. वह तो बिलकुल मशीन है. आज तक मैं उस की सास ही हूं, मां नहीं बन पाई.’’

यह सुन कर रक्षिता अपने इमोशंस रोक न सकी और उस पर हुए इमोशनल अत्याचार आंसू बन कर बहने लगे. आंसुओं के साथ बहुतकुछ बह रहा था.

विदेश: मीता के मन में कौन सा मैल था

बेटी के बड़ी होते ही मातापिता की चिंता उस की पढ़ाई के साथसाथ उस की शादी के लिए भी होने लगती है. मन ही मन तलाश शुरू हो जाती है उपयुक्त वर की. दूसरी ओर बेटी की सोच भी पंख फैलाने लगती है और लड़की स्वयं तय करना शुरू कर देती है कि उस के जीवनसाथी में क्याक्या गुण होने चाहिए.

प्रवेश के परिवार की बड़ी बेटी मीता इस वर्ष एमए फाइनल और छोटी बेटी सारिका कालेज के द्वितीय वर्ष में पढ़ रही थी. मातापिता ने पूरे विश्वास के साथ मीता को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट दे दी थी. वे जानते थे कि सुशील लड़की है और धैर्य से जो भी करेगी, ठीक ही होगा.

रिश्तेदारों की निगाहें भी मीता पर थीं क्योंकि आज के समय में पढ़ीलिखी होने के साथ और भी कई गुण देखे थे उन्होंने उस में. मां के काम में हाथ बंटाना, पिता के साथ जा कर घर का आवश्यक सामान लाना, घर आए मेहमान की खातिरदारी आदि वह सहर्ष करती थी.

उसी शहर में ब्याही छोटी बूआ का तो अकसर घर पर आनाजाना रहता था और हर बार वह भाई को बताना नहीं भूलती कि मीता के लिए वर खोजने में वह भी साथ है. मीता की फाइनल परीक्षा खत्म हुई तो जैसे सब को चैन मिला. मीता स्वयं भी बहुत थक गई थी पढ़ाई की भागदौड़ से.

अरे, दिन न त्योहार आज सुबहसुबह भाई के काम पर जाने से पहले ही बहन आ गई. कमरे में भाई से भाभी धीमी आवाज में कुछ चर्चा कर रही थी. सारिका जल्दी से चाय बना जब कमरे में देने गई तो बातचीत पर थोड़ी देर के लिए विराम लग गया.

पापा समय से औफिस के लिए निकल गए तो चर्चा दोबारा शुरू हुई. वास्तव में बूआ अपने पड़ोस के जानपहचान के एक परिवार के लड़के के लिए मीता के रिश्ते की सोचसलाह करने आई थी. लड़का लंदन में पढ़ने के लिए गया था और वहां अच्छी नौकरी पर था. वह अपने मातापिता से मिलने एक महीने के लिए भारत आया तो उन्होंने उसे शादी करने पर जोर दिया. बूआ को जैसे ही इस बात की खबर लगी, वहां जा लड़के के बारे में सब जानकारी ले तुरंत भाई से मिलने आ पहुंची थी.

अब वह हर बात को बढ़ाचढ़ा कर मीता को बताने बैठी. बूआ यह भी जानती थी कि मीता विदेश में बसने के पक्ष में नहीं है. शाम को भाईभाभी से यह कह कि पहले मीता एक नजर लड़के को देख ले, वह उसे साथ ले गई. समझदार बूआ ने होशियारी से सिर्फ अपनी सहेली और लड़के को अपने घर बुला चायपानी का इंतजाम कर डाला. बातचीत का विषय सिर्फ लंदन और वहां की चर्चा ही रहा.

बूआ की खुशी का ठिकाना न रहा जब अगले दिन सुबह ही सहेली स्वयं आ बूआ से मीता व परिवार की जानकारी लेने बैठीं. और आखिर में बताया कि उन के बेटे निशांत को मीता भा गई है. मीता यह सुन सन्न रह गई.

मीता ने विदेश में बसे लड़कों के बारे में कई चर्चाएं सुनी थीं कि वे वहां गर्लफ्रैंड या पत्नी के होते भारत आ दूसरा विवाह कर ले जाते हैं आदि. बूआ के घर बातचीत के दौरान उसे निशांत सभ्य व शांत लड़का लगा था. उस ने कोई शान मारने जैसी फालतू बात नहीं की थी.

मीता के मातापिता को जैसे मनमांगी मुराद मिल गई. आननफानन दोनों तरफ से रस्मोरिवाज सहित साधारण मगर शानदार विवाह संपन्न हुआ. सब खुश थे. मातापिता को कुछ दहेज देने की आवश्यकता नहीं हुई सिवा बेटीदामाद व गिनेचुने रिश्तेदारों के लिए कुछ तोहफे देने के.

नवदंपती के पास केवल 15 दिन का समय था जिस में विदेश जाने के लिए मीता के लिए औपचारिक पासपोर्ट, वीजा, टिकट आदि का प्रबंध करना था. इसी बीच, 4 दिन के लिए मीता और निशांत शिमला घूम आए.

अब उन की विदाई का समय हुआ तो दोनों परिवार उदास थे. सारिका तो जैसे बहन बगैर अकेली ही पड़ गई थी. सब के गले लगते मीता के आंसू तो जैसे खुशी व भय के गोतों में डूब रहे थे. सबकुछ इतनी जल्दी व अचानक हुआ कि उसे कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला. मां से तो कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था, पता नहीं फिर कब दोबारा बेटी को देखना हो पाएगा. पिता बेटी के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखे दामाद से केवल यह कह पाए कि इस का ध्यान रखना.

लंदन तक की लंबी हवाईयात्रा के दौरान मीता कुछ समय सो ली थी पर जागते ही फिर उसे उदासी ने आ घेरा. निशांत धीरेधीरे अपने काम की व अन्य जानकारी पर बात करता रहा. लंदन पहुंच कर टैक्सी से घर तक जाने में मीता कुछ संयत हो गई थी.

छोटा सा एक बैडरूम का 8वीं मंजिल पर फ्लैट सुंदर लगा. बाहर रात में जगमगाती बत्तियां पूरे वातावरण को और भी सुंदर बना रही थीं. निशांत ने चाय बनाई और पीते हुए बताया कि उसे कल से ही औफिस जाना होगा पर अगले हफ्ते वह छुट्टी लेने की कोशिश करेगा.

सुबह का नाश्ता दोनों साथ खाते थे और निशांत रात के खाने के लिए दफ्तर से आते हुए कुछ ले आता था.

मीता का अगले दिन का लंच उसी में हो जाता था. अगले हफ्ते की छुट्टी का इंतजाम हो गया और निशांत ने उसे लंदन घुमाना शुरू किया. अपना दफ्तर, शौपिंग मौल, बसटैक्सी से आनाजाना आदि की बातें समझाता रहा. काफी पैसे दे दिए और कहा कि वह बाहर आनाजाना शुरू करे. जो चाहे खरीदे और जैसे कपड़े यहां पहने जाते हैं वैसे कुछ कपड़े अपने लिए खरीद ले. मना करने पर भी एक सुंदर सी काले प्रिंट की घुटने तक की लंबी ड्रैस मीता को ले दी. एक फोन भी दिलवा दिया ताकि वह उस से और इंडिया में जिस से चाहे बात कर सके. रसोई के लिए जरूरत की चीजें खरीद लीं. मीता ने घर पर खाना बनाना शुरू किया. दिन बीतने लगे. निशांत ने समझाया कि यहां रहने के औपचारिक पेपर बनने तक इंतजार करे. उस के बाद यदि वह चाहे तो नौकरी की तलाश शुरू कर सकती है.

एक दिन मीता ने सुबह ही मन में सोचा कि आज अकेली बाहर जाएगी और निशांत को शाम को बता कर सरप्राइज देगी. दोपहर को तैयार हो, टैक्सी कर, वह मौल में पहुंची. दुकानों में इधरउधर घूमती चीजें देखती रही. एक लंबी ड्रैस पसंद आ गई. महंगी थी पर खरीद ली. चलतेचलते एक रेस्टोरैंट के सामने से गुजरते उसे भूख का एहसास हुआ पर वह तो अपने लिए पर्स में सैंडविच ले कर आई थी. अभी वह यहां नई है और अब बिना निशांत के अकेले खाने का तुक नहीं बनता, उस ने बस, उस ओर झांका ही था, वह निशांत…एक लड़की के साथ रेस्टोरैंट में, शायद नहीं, पर लड़की को और निशांत का दूर से हंसता चेहरा देख वह सन्न रह गई. दिमाग में एकदम बिजली सी कौंधी, तो सही थी मेरी सोच. गर्लफ्रैंड के साथ मौजमस्ती और घर में बीवी. हताश, वह टैक्सी ले घर लौटी. शाम को निशांत घर आया तो न तो उस ने खरीदी हुई ड्रैस दिखाई और न ही रेस्टोरैंट की चर्चा छेड़ी.

तीसरे दिन औफिस से लौटते वह उस लड़की को घर ले आया और मीता से परिचय कराया, ‘‘ये रमा है. मेरे दूर के रिश्ते में चाचा की बेटी. ये तो अकेली आना नहीं चाह रही थी क्योंकि इस के पति अभी भारत गए हैं और अगले हफ्ते लौट आएंगे. रेस्टोरैंट में जब मैं खाना पैक करवाने गया था तो इसी ने मुझे पहचाना वहां. मैं ने तो इसे जब लखनऊ में देखा था तब ये हाईस्कूल में थी. मीता का दिल धड़का, ‘तो अब घर तक.’ बेमन से मीता ने उसे चायनाश्ता कराया.

दिन में एक बार मीता स्वयं या निशांत दफ्तर से फोन कर लेता था पर आज न मीता ने फोन किया और न निशांत को फुरसत हुई काम से. कितनी अकेली हो गई है वह यहां आ कर, चारदीवारी में कैद. दिल भर आया उस का. तभी उसे कुछ ध्यान आया. स्वयं को संयत कर उस ने मां को फोन लगाया. ‘‘मीता कैसी हो? निशांत कैसा है? कैसा लगा तुम्हें लंदन में जा कर?’’ उस के कुछ बोलने से पहले मां ने पूछना शुरू कर दिया.

‘‘सब ठीक है, मां.’’ कह फौरन पूछा, ‘‘मां, बड़ी बूआ का बेटा सोम यहां लंदन में रहता है. क्या आप के पास उस का फोन या पता है.’’

‘‘नहीं. पर सोम पिछले हफ्ते से कानपुर में है. तेरे बड़े फूफाजी काफी बीमार थे, उन्हें ही देखने आया है. मैं और तेरे पापा भी उन्हें देखने परसों जा रहे हैं. सोम को निशांत का फोन नंबर दे देंगे. वापस लंदन पहुंचने पर वही तुम्हें फोन कर लेगा.’’

‘‘नहीं मां, आप मेरा फोन नंबर देना, जरा लिख लीजिए.’’

मीता, सोम से 2 वर्ष पहले उस की बहन की शादी में कानपुर में मिली थी और उस के लगभग 1 वर्ष बाद बूआ ने मां को फोन पर बताया था कि सोम ने लंदन में ही एक भारतीय लड़की से शादी कर ली है और अभी वह उसे भारत नहीं ला सकता क्योंकि उस के लिए अभी कुछ पेपर आदि बनने बाकी हैं. इस बात को बीते अभी हफ्ताभर ही हुआ था कि शाम को दफ्तर से लौटने पर निशांत ने मीता को बताया कि रमा का पति भारत से लौट आया है और उस ने उन्हें इस इतवार को खाने पर बुलाया है.

मीता ने केवल सिर हिला दिया और क्या कहती. खाना बनाना तो मीता को खूब आता था. निशांत उस के हाथ के बने खाने की हमेशा तारीफ भी करता था. इतवार के लंच की तैयारी दोनों ने मिल कर कर ली पर मीता के मन की फांस निकाले नहीं निकल रही थी. मीता सोच रही थी कि क्या सचाई है, क्या संबंध है रमा और निशांत के बीच, क्या रमा के पति को इस का पता है, क्योंकि निशांत ने मुझ से शादी…?

ध्यान टूटा जब दरवाजे की घंटी 2 बार बज चुकी. आगे बढ़ कर निशांत ने दरवाजा खोला और गर्मजोशी से स्वागत कर रमा के पति से हाथ मिलाया. वह दूर खड़ी सब देख रही थी. तभी उस के पैरों ने उसे आगे धकेला क्योंकि उस ने जो चेहरा देखा वह दंग रह गई. क्या 2 लोग एक शक्ल के हो सकते हैं? उस ने जो आवाज सुनी, ‘आई एम सोम’, वो दो कदम और आगे बढ़ी और चेहरा पहचाना, और फिर भाग कर उस ने उस का हाथ थामा, ‘‘सोम भैया, आप यहां.’’

‘‘क्या मीता, तुम यहां लंदन में, तुम्हारी शादी’’ और इस से आगे सोम बिना बोले निशांत को देख रहा था. उसे समझते देर न लगी, कुछ महीने पहले मां ने उसे फोन पर बताया था कि मीता की शादी पर गए थे जो बहुत जल्दी में तय की गई थी. मीता अब सोम के गले मिल रही थी और रमा अपने कजिन निशांत के, भाईबहन का सुखद मिलाप.

सब मैल धुल गया मीता के मन का, मुसकरा कर निशांत को देखा और लग गई मेहमानों की खातिर में. उसे लगा अब लंदन उस का सुखद घर है जहां उस का भाई और भाभी रहते हैं और उस के पति की बहन भी यानी उस की ननद व ननदोई. ससुराल और मायका दोनों लंदन में. मांपापा सुनेंगे तो हैरान होंगे और खुश भी और बड़ी बूआ तो बहुत खुश होंगी यह जानकर कि सोम की पत्नी से जिस से अभी तक वे मिली नहीं हैं उस से अकस्मात मेरा मिलना हो गया यहां लंदन में. मीता की खुशी का आज कोई ओरछोर नहीं था. सब कितना सुखद प्रतीत हो रहा था.

समझौता: रामेश्वर ने अपने हक से किया समझौता

‘‘क्या करूं, वह मेरी बचपन की सहेली है,’’ अनसुना करते हुए दुर्गा बोली.

‘‘देख दुर्गा, आखिरी बार कह रहा हूं कि अब तू मानमल की लुगाई से कभी नहीं मिलेगी…’’ एक बार फिर समझाते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘बोलती है और कभीकभार हलवापूरी भी भिजवा देती है. बड़ा प्रेम दिखाने लगी है आजकल उस से.’’

‘‘अरे, मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो प्रेम से रहना चाहिए,’’ दुर्गा एक बार फिर समझाते हुए बोली.

‘‘बड़ी आई प्रेम दिखाने वाली…’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘वहां उस का प्रेम कहां गया था, जब मानमल ने अपना रास्ता बंद किया? हम ने थाने में रपट लिखवा दी. अदालत में पेशी चल रही है. वह हमारा दुश्मन है, फिर भी उन से प्रेम जताती है.’’

‘‘देखो, वह अदालती दुश्मनी है…’’ समझाते हुए दुर्गा बोली, ‘‘यह क्यों नहीं समझते कि वह पैसे वाला है. हम से ऊंची जात का भी है.’’

‘‘हम से ऊंची जात का हुआ तो क्या हुआ. क्या हम ढोर हैं. देख दुर्गा, कान खोल कर अच्छी तरह सुन ले. अब तू उस दुश्मन की औरत से नहीं बोलेगी और न ही मिलेगी.’’

‘‘झगड़ा तुम्हारा मानमल से है, उस की औरत से तो नहीं है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘मानमल और उस की लुगाई क्या अलगअलग हैं?’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘है तो उस की लुगाई.’’

‘‘झगड़ा झगड़े की जगह होता है. तुम मत बोलो, मैं तो बोलूंगी.’’

‘‘रस्सी जल गई, मगर ऐंठन नहीं गई,’’ रामेश्वर गुस्से से बोला.

‘‘तुम एक बात कान खोल कर सुन लो. तुम्हारा लाड़ला मांगीलाल, जो 12वीं में पढ़ रहा है और मानमल का लड़का भी 12वीं जमात में मांगीलाल के साथ पढ़ रहा है. दोनों में गहरी दोस्ती है. वे साथसाथ स्कूल जाते हैं और आते भी हैं. मुझे तो रोक लोगे, उसे कैसे रोकोगे?’’

‘‘अरे, तुम मांबेटे दोनों मिल कर दुश्मन से कहीं मुकदमे को हरवा न दो,’’ शक जाहिर करते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘जैसा तुम सोच रहे हो मांगीलाल के बापू, वैसा नहीं है. हम में मुकदमे संबंधी कोई बात नहीं होती…’’ एक बार फिर दुर्गा बोली, ‘‘हमारे बीच घरेलू बातें

ही होती हैं.’’

‘‘मतलब, तुम उस से मिलनाजुलना बंद नहीं करोगी?’’ रामेश्वर ने पूछा और कहा, ‘‘जैसी तेरी मरजी. अब मैं कुछ भी नहीं कहूंगा.’’

इस के बाद रामेश्वर झल्लाते हुए घर से बाहर निकल गया.

यह कहानी जिस गांव की है उस गांव का नाम है रिंगनोद जो पिंगला नदी के किनारे बसा हुआ है. एक जमाना था जब यह नदी 12 महीने बहती रहती थी. उस जमाने में इस नदी में पुल नहीं बना हुआ था, इसलिए शहर जाने के लिए नदी में से हो कर जाना पड़ता था. मगर आज तो यह नदी गरमी आतेआते सूख जाती है. अब तो इस के ऊपर बड़ा पुल बन गया है, तो गांव शहर से पूरी तरह जुड़ गया है.

इसी गांव के रहने वाला रामेश्वर जाति से अनुसूचित है और मानमल बनिया है. उस की गांव में किराने की दुकान के साथ खेती भी है. वह ज्यादा पैसे वाला है, इसलिए अच्छा दबदबा है. रामेश्वर के पास केवल खेती है.

वह इसी पर ही निर्भर है. बापदादा के जमाने से दोनों के खेत असावती रोड पर पासपास हैं. जावरा से सीतामऊ तक कंक्रीट की रोड बन गई है, जो उन के खेत के पास से ही निकली है. इसी सड़क से लगा हुआ एक रास्ता है, जो दोनों की सुविधा के लिए था. दोनों का अपने खेत पर जाने के लिए यही एक रास्ता था.

रामेश्वर के खेत थोड़े से अंदर थे और मानमल के खेत सड़क से लगे हुए थे. उस रास्ते को ले कर अभी तक दोनों में कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ, मगर जब से पक्का रोड बना है, तब से मानमल के भीतर खोट आ गया. वह अपनी जमीन पर होटल खोलना चाहता था. अगर वह दीवार बना कर निकलने का गलियारा देता, जो होटल के लिए कम जमीन पड़ती इसलिए उस ने अपनी दबंगता के बल पर जहां से रामेश्वर के खेत शुरू होते हैं, वहां रातोंरात दीवार खिंचवा दी.

रामेश्वर ने एतराज किया कि इस जमीन पर उस का भी हक है. बापदादा के जमाने से यह रास्ता बना हुआ है. मगर मानमल बोला था, ‘‘देख रामेश्वर, यह सारी जमीन मेरी है.’’

‘‘तेरी कैसे हो गई भई?’’ रामेश्वर ने पूछा.

‘‘मेरी जमीन सड़क से शुरू होती है और जो सड़क से शुरू हुई वह मेरी हुई न,’’ मानमल ने कहा.

‘‘मगर, मैं अब कहां से निकलूंगा?’’

‘‘यह तुझे सोचना है. अरे, बापदादा ने गलती की तो इस की सजा क्या मैं भुगतूंगा?’’

‘‘देखो मानमलजी, आप बड़े लोग हो. मैं आप से जरा नीचा हूं. इस का यह मतलब नहीं है कि नाजायज कब्जा कर लें.’’

‘‘अरे, आप की जमीन है तो

कागज दिखाओ? मेरी तो यहां दीवार बनेगी.’’

‘‘मैं दीवार नहीं बनने दूंगा,’’ विरोध जताते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘कैसे नहीं बनने देगा. जमीन मेरी है. इस पर चाहे मैं कुछ भी करूं, तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले?’’

‘‘मतलब, तुम दीवार बनाओगे और मेरा रास्ता रोकोगे?’’

‘‘पटवारी ने भी इस जमीन का मालिक मुझे बना रखा है.’’

‘‘देखो, मैं आखिरी बार कह रहा हूं, तुम यहां दीवार मत बनाओ.’’

‘‘मैं तो दीवार बनाऊंगा… तुझ से जो हो कर ले.’’

‘‘ठीक है, मैं तुझे कोर्ट तक खींच कर ले जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है, ले जा.’’

फिर मानमल के खिलाफ रामेश्वर ने थाने में शिकायत दर्ज कर दी. पुलिस ने चालान बना कर कोर्ट में पेश कर दिया. कोर्ट ने फैसला आने तक जैसे हालात थे, वैसे रहने का आदेश दिया.

पुलिस ने मुकदमा कायम कर दिया. पूरे 5 साल हो गए, पर कोई फैसला न हो पाया. तारीख पर तारीख बढ़ती गई. दोनों परिवारों में पैसा खर्च होता रहा.

रामेश्वर इस मुकदमे से टूट गया. पैसा अलग खर्च हो रहा था और मानमल फैसला जल्दी न मिले, इसलिए पैसे दे कर तारीखें आगे बढ़वाता रहा ताकि रामेश्वर टूट जाए और मुकदमा हार जाए.

मगर रामेश्वर की जोरू दुर्गा मानमल की लुगाई से संबंध बढ़ा रही है. उस के घर भी काफी आनाजाना करती है. कभीकभार मिठाइयां भी खिला रही है, जबकि रामेश्वर और मानमल एकदूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते थे, बल्कि कोर्ट में जब भी तारीख लगती थी और मानमल से उस का सामना होता था, तब मानमल उसे देख कर हंसता था. यह जताने की कोशिश करता था कि मुकदमा लड़ने की हैसियत नहीं है, फिर भी लड़ रहा है.

मुकदमा तो वे ही लड़ सकते हैं, जिन के पास पैसों की ताकत है.10 साल तक अगर और मुकदमा चलेगा तो जमीन बिक जाएगी. मुकदमा लड़ना हंसीखेल नहीं है. मानमल तो चाहता है कि रामेश्वर बरबाद हो जाए.

5 साल के मुकदमे ने रामेश्वर की कमर तोड़ दी. अब भी न जाने कितने साल तक चलेगा. वकील का घर भरना है. वह तो केवल खेती के ऊपर निर्भर है, जबकि मानमल के किराने की दुकान भी अच्छी चल रही है और भी न जाने क्याक्या धंधा कर रहा है. खेती भी उस से ज्यादा है, इसलिए मुकदमे के फैसले से वह निश्चिंत है.

मगर, रामेश्वर जब भी तारीख पर जाता है, तारीख आगे बढ़ जाती है और जब तारीख आगे बढ़ जाती है, तब मानमल मन ही मन हंसता है. उस की हंसी में बहुत ही गहरा तंज छिपा हुआ रहता है.

‘‘चाय पी लो,’’ दुर्गा चाय का कप लिए खड़ी थी. तब रामेश्वर अपनी सोच से बाहर निकला.

‘‘क्या सोच रहे थे?’’ दुर्गा ने पूछा.

‘‘इस मुकदमे के बारे में?’’ हारे हुए जुआरी की तरह रामेश्वर ने जवाब दिया.

‘‘बस सोचते रहना, पहले ही कोई समझौता कर लेते, तब ये दिन देखने को नहीं मिलते,’’ दुर्गा ने कहा.

रामेश्वर नाराज हो कर बोला, ‘‘तुम जले पर नमक छिड़क रही हो? एक तो मैं इस मुकदमे से टूट गया हूं, फिर न जाने कब फैसला होगा. मानमल पैसा दे कर तारीख पर तारीख बढ़ाता जा रहा है और तुझे मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था,’’ दुर्गा ने सफाई दी.

‘‘तब क्या मतलब था तेरा? एक तो दुश्मन की औरत से बोलती हो… कितनी बार कहा है कि तुम उस से संबंध

मत बनाओ, मगर मेरी एक भी नहीं सुनती हो.’’

‘‘देखोजी, उस से संबंध बनाने से मेरा भी लालच है.’’

‘‘क्या लालच है?’’

‘‘जैसे आप टूट रहे हो न, वैसे मानमल भी चाहता है कि कोई बीच का रास्ता निकल जाए.’’

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’

‘‘मानमल की जोरू बताती रहती है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘समझौता क्यों नहीं कर

लेता है? रास्ता क्यों बंद कर

रहा है?’’

‘‘वह रास्ता देने को

तैयार है.’’

‘‘जब वह देने को तैयार है, तब तारीखें क्यों बढ़वाता है? यह तो वही हुआ कि आप खावे काकड़ी और दूसरे को दे आकड़ी,’’ नाराजगी से रामेश्वर बोला.

‘‘आप कहें तो मैं उस की जोरू से बात कर के देखती हूं,’’ दुर्गा ने रामेश्वर को सलाह दी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है उस से बात करने की. अब तो अदालत से ही फैसला होगा…’’ इनकार करते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘तू औरत जात ठहरी. मानमल की चाल को तू क्या समझे.’’

‘‘ठीक है तो लड़ो मुकदमा और वकीलों का भरो पेट,’’ दुर्गा ने कहा, फिर उन के बीच सन्नाटा पसर गया.

रामेश्वर इसलिए नाराज है कि दुर्गा अपने दुश्मन की जोरू से पारिवारिक संबंध बनाए हुए है. दुर्गा इसलिए नाराज है कि हर झगड़ा अदालत से नहीं निबटा जा सकता है. थोड़ा तुम झुको, थोड़ा वह झुके. मगर मांगीलाल के पापा तो जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं.

मगर इसी बीच एक घटना घट गई.

मानमल और उस की पत्नी का अचानक उन के घर आना.

मानमल की जोरू बोली, ‘‘दुर्गा, हम इसलिए आए हैं कि हम दोनों जमीन

के जिस टुकड़े के लिए अदालत में

लड़ रहे हैं, उस का फैसला तो न जाने कब होगा.’’

‘‘हां बहन,’’ दुर्गा भी हां में हां मिलाते हुए बोली, ‘‘अदालत में सालों लग जाते हैं फैसला होने में.’’

‘‘भाई रामेश्वर, हम आपस में मिल कर ऐसा समझौता कर लें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे,’’ मानमल समझाते हुए बोला.

‘‘कैसा समझौता? मैं समझा नहीं,’’ रामेश्वर नाराजगी से बोला.

‘‘तुम नाराज मत होना. मैं ने बहुत सोचसमझ कर यह फैसला लिया है कि तुम्हें 5 फुट जमीन का गलियारा देता हूं ताकि तुम्हें अपने खेत में आनेजाने के लिए कोई तकलीफ न पड़े…’’ समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘मैं 5 फुट छोड़ कर दीवार बना लेता हूं.’’

‘‘वाह मानमलजी, वाह, खूब फैसला लिया. मुझे इतना बेवकूफ समझ लिया कि बाकी की 10 फुट जमीन खुद रख रहे हो. मुझे आधी जमीन चाहिए,’’ रामेश्वर भी गुस्से से अड़ गया.

‘‘देखो नाराज मत होना. जिस जमीन के लिए तुम अदालत में लड़ रहे हो. अदालत देर से सही मगर फैसला मेरे पक्ष में देगी. मैं ने सारे सुबूत लगा रखे हैं, जबकि मैं अपनी मरजी से तुम्हें गलियारा दे रहा हूं, इसलिए ले लो वरना बाद में पछताना न पड़े.’’

‘‘देखोजी, इतना भी मत सोचो, कोर्ट का फैसला तो न जाने कब आएगा. अगर हमारे खिलाफ आएगा, तब हमें 5 फुट जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा,’’

दुर्गा समझाते हुए बोली.

‘‘हां भाई साहब, मत सोचो, जो हम दे रहे हैं वह कबूल कर लो…’’ मानमल की पत्नी ने प्रस्ताव रखते हुए कहा, ‘‘हम तो आप की भलाई की बात कर रहे हैं ताकि हमारे बीच अदालत का फैसला खत्म हो जाए.’’

‘‘मैं फायदे का सौदा कर रहा हूं रामेश्वर,’’ एक बार फिर समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘इस के बावजूद तुम्हें लगे कि कोर्ट के फैसले तक इंतजार करूं, तब भी मुझे कोई एतराज नहीं है,’’ कह कर मानमल ने गेंद रामेश्वर के पाले में फेंक दी.

रामेश्वर के लिए इधर खाई उधर कुआं थी. शायद मानमल को यह एहसास हो गया हो कि 15 फुट जमीन, जिस के लिए सारी लड़ाई है, वह खुद ही हार रहा हो, इसलिए फैसला आए उस के पहले ही यह समझौता कर रहा है. बड़ा चालाक है मानमल. यह इस तरह कभी हार मानने वाला नहीं है.

लगता है कि अपनी हार देख कर ही यह फैसला लिया हो. वह कचहरी के चक्कर काटतेकाटते हार गया है. इस ने अपनी जमीन पर होटल बना लिया है. जो चल भी रहा है. इस ने कहा भी है कि इस तरफ दीवार खींच कर पूरा इंतजाम करना चाहता है. तभी तो समझौता करने के लिए आगे आया है. इस में भी इस का लालच है.

उसे चुप देख कर मानमल एक बार फिर बोला, ‘‘अब क्या सोच रहे हो?’’

‘‘ठीक है, मुझे यह समझौता मंजूर है. यह घूंट भी पी लेता हूं,’’ कह कर रामेश्वर ने अपने हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मानमल खुशी से खिल उठा. उस ने रामेश्वर को गले से लगा लिया. फिर उन दोनों ने यह भी फैसला लिया कि अगली तारीख पर कोर्ट से मुकदमा वापस ले लेंगे. कोर्ट से दोनों के समझौते के मुताबिक कागज ले लेंगे. इस के बाद वे दोनों चले गए.

चुप्पी तोड़ते हुई दुर्गा बोली, ‘‘अच्छा हुआ जो समझौता कर लिया?’’

‘‘मानमल की गरज थी तो उस ने समझौता किया है?’’ चिढ़ कर रामेश्वर बोला.

‘‘उस की तो पूरी की पूरी जमीन हड़पने की योजना थी. मगर, यह सब मैं ने मानमल की बीवी को समझाया था.

‘‘उस ने ही मानमल को मनाया था. इसी वजह से मैं ने संबंध बनाए थे, आप के लाख मना करने के बाद भी. 5 फुट का गलियारा देने के लिए मैं ने ही मानमल की बीवी के सामने प्रस्ताव रखा था,’’ कह कर दुर्गा ने अपनी बात पूरी कर दी. रामेश्वर कोई जवाब नहीं दे पाया.  द्य

नया द्वार: नये दरवाजे पर खुशियों ने दी दस्तक

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं. बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

अलविदा काकुल : रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार

पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण…

काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई.

2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली.

शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’

पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’

‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज  मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी.

ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया.

‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’

मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा.

‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा.

मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया.

काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते.

एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा.

मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था.

इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया.

‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’

‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए.

अलविदा…काकुल…अलविदा…

Holi 2024 – रंग दे चुनरिया: क्या एक हो पाए गौरी-श्याम

वह बड़ा सा मकान किसी दुलहन की तरह सजा हुआ था. ऐसा लग रहा था, जैसे वहां बरात आई है. दूर से देखने पर ऐसा जान पड़ता था, जैसे हजारों तारे आकाश में एकसाथ टिमटिमा रहे हों. छोटेछोटे बल्ब जुगनुओं की तरह चमक रहे थे. लेकिन श्याम की नजर उस लड़की पर थी, जो उस के दिल की गहराइयों में उतरती चली गई थी. वह कोई और नहीं, बल्कि उस की भाभी की बहन गौरी थी. खूबसूरत चेहरा, प्यारी आंखें, नाक में चमकता हीरा और गोरेगोरे हाथों में मेहंदी का रंग उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहा था. श्याम उसे अपना दिल दे बैठा था. उस ने महसूस किया कि गौरी के बिना उस की जिंदगी अधूरी है.

गौरी कभीकभार तिरछी नजरों से उसे देख लेती. एक बार दोनों की नजरें आपस में मिलीं, तो वह मुसकरा दी. तभी भाभी ने उसे पुकारा, ‘‘श्याम?’’

‘‘जी हां, भाभी…’’ उसे लगा कि भाभी ने उस की चोरी पकड़ ली है. ‘‘क्या बात है, आज तुम उदास क्यों हो? कहीं किसी ने हमारे देवरजी का दिल तो नहीं चुरा लिया?’’

‘‘नहीं भाभी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ वह अपनी घबराहट को छिपाने के लिए रूमाल निकाल कर पसीना पोंछने लगा.

श्याम अपनी भाभी के जन्मदिन पर उन के साथ उन के मायके गया था, लेकिन उसे क्या पता था कि यहां आते ही उसे प्रेम रोग लग जाएगा. गौरी सुंदर थी, इसलिए उस के मन को भा गई और वह उस पर दिलोजान से फिदा हो गया. अपने प्यार का इजहार करने के बारे में वह सोच रहा था कि क्या भाभी उसे अपनी देवरानी बनाने के लिए तैयार होंगी. भाभी अगर तैयार भी हो जाएं, तो क्या भैया होंगे? देर रात तक वह यही सोचता रहा.

अगले दिन श्याम चुपके से गौरी के कमरे में पहुंचा. वहां वह खिड़की खोल कर बाहर का नजारा देख रही थी. वह उस की आंख बंद कर उभारों से हरकत करते हुए बोला, ‘‘कैसा लगा गौरी?’’ गौरी खड़ी होती हुई बोली, ‘‘श्याम, ऐसी हरकतों से मुझे सख्त नफरत है.’’

‘‘ओह गौरी, मैं कोई पराया थोड़े ही हूं.’’

‘‘मैं दीदी और जीजाजी से शिकायत करूंगी.’’ ‘‘गौरी, मुझे साफ कर दो. आइंदा, मैं कभी ऐसी हरकत नहीं करूंगा.’’

‘‘मैं अभी दीदी को बुला कर लाती हूं,’’ कह कर गौरी फीकी मुसकान के साथ वहां से चली गई. श्याम का मोह भंग हुआ. उसे लगा कि गौरी को उस से प्यार नहीं है. वह अब तक उस से एकतरफा प्यार कर रहा था. लेकिन अब क्या होगा? कुछ देर बाद भाभी यहां पहुंच जाएंगी, फिर सारी पोल खुल जाएगी. खैर, बाद में जो होगा देख लेंगे… सोच कर उस ने गौरी के नाम एक खत लिख कर तकिए के नीचे रख दिया और अपने गांव चल दिया.

गौरी आधे घंटे बाद चाय ले कर जब कमरे में पहुंची, तो उस का दिल धकधक करने लगा. एक अनजान ताकत उस के मन को बेचैन कर रही थी कि आखिर श्याम कहां चला गया. लेकिन तभी उस की नजर तकिए के नीचे दबे कागज पर गई. वह उसे उठा कर पढ़ने लगी:

‘प्रिय गौरी, खुश रहो. ‘मैं अपने किए पर बहुत पछताया, लेकिन तुम भी पता नहीं किस पत्थर की बनी हो, जो मेरे लाख माफी मांगने के बावजूद भैया और भाभी से कहने के लिए चली गईं. पता नहीं, क्यों मैं तुम्हारे साथ गलत हरकत कर बैठा? मैं गांव जा रहा हूं. जब भैया वापस आएंगे, तो मेरी खैर नहीं.

‘गौरी, मैं ने अपनी जिंदगी में सिर्फ तुम्हीं को चाहा, लेकिन मुझे मालूम न था कि मेरा प्यार एकतरफा है. काश, यह बात पहले मेरी समझ में आ जाती. ‘अच्छा गौरी, हो सके तो मुझे माफ कर देना. मैं रो कर सब्र कर लूंगा कि अपनी जिंदगी में पहली बार किसी को चाहा था.

‘तुम्हारा श्याम.’ गौरी की आंखों से पछतावे के आंसू बहने लगे. चाय का प्याला जैसे ही उठाया, वैसे ही गिर कर टुकड़ेटुकड़े हो गया. उसे ऐसा लगा कि किसी ने उस के दिल के हजार टुकड़े कर दिए. उस ने कभी सोचा भी न होगा कि श्याम अपने भैया और भाभी की इतनी इज्जत करता है.

तभी उस की दीदी कमरे में आई, ‘‘क्या बात है गौरी, यह प्याला कैसे टूट गया. श्याम कहां है?’’ आते ही दीदी ने सवालों की झड़ी लगा दी. अचानक उस की निगाह गौरी के हाथ में बंद कागज पर चली गई, जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रही थी. वह खत ले कर पढ़ने लगी.

‘‘तो यह बात है…’’ ‘‘नहीं दीदी, वह तो श्याम,’’ गौरी अपनी बात पूरी नहीं कर सकी.

‘‘अरे, तेरी आवाज में कंपन क्यों पैदा हो गया. प्यार करना कोई बुरी बात नहीं है. एक बात बताओ गौरी, क्या तुम भी उस से प्यार करती हो?’’ गौरी ने नजरें झुका लीं, जो इस

बात की गवाह थीं कि उसे भी श्याम से प्यार है. ‘‘लेकिन गौरी, श्याम कहां चला गया?’’

गौरी ने रोते हुए सारी बातें बता दीं. यह सब सुन कर गौरी की बहन खूब हंसी और बोली, ‘‘गौरी, अगर मैं तुम्हें अपनी देवरानी बना लूंगी, तो तुम मेरा हुक्म माना करोगी या नहीं?’’

‘‘दीदी, मैं नहीं जानती थी कि मेरी झूठी धमकी को श्याम इतनी गंभीरता से लेगा. मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर रहूंगी, लेकिन श्याम के रूप में मुझे मेरी खुशियां लौटा दो. वह मुझे बेवफा समझ रहा होगा.’’ इस के बाद दोनों बहनें काफी देर तक बातें करती रहीं.

श्याम की भाभी जब अपनी ससुराल लौटीं, तो गौरी को भी साथ ले आईं. श्याम घर में नहीं था. जैसे ही उस ने शाम को घर में कदम रखा, तो सामने गौरी को देखा, तो मायूस हो कर बोला, ‘‘गौरी, क्या भाभी और भैया अंदर हैं?’’

‘‘हां, अंदर ही हैं.’’ यह सुन कर जैसे ही श्याम लौटने लगा, तो गौरी ने उस की कलाई पकड़ ली और बोली, ‘‘प्यार करने वाले इतने कायर नहीं हुआ करते श्याम. मैं सच में तुम से प्यार करती हूं.’’

‘‘गौरी मेरा हाथ छोड़ दो, वरना भैया देख लेंगे.’’ ‘‘मैं ने सब सुन लिया है बरखुरदार, तुम दोनों अंदर आ जाओ.’’

आवाज सुन कर दोनों ने नजरें उठा कर देखा, तो सामने श्याम का बड़ा भाई खड़ा था. ‘‘मेरे डरपोक देवरजी, अंदर आ जाइए,’’ अंदर से श्याम की भाभी ने आवाज दी.

इस तरह श्याम और गौरी की शादी धूमधाम से हो गई. इस साल होली का त्योहार दोनों के लिए खुशियां ले कर आया.

होली के दिन गौरी ने श्याम के कपड़ों पर जगहजगह मन भर कर रंग लगाया. ‘‘गौरी, आज तेरी चुनरी की जगह गालों को लाल करूंगा,’’ कह कर श्याम भी गौरी की तरफ बढ़ा.

तब ‘डरपोक पिया, रंग दे चुनरिया’ कह कर गौरी ने शर्म से अपना चेहरा हाथों से ढक लिया.

Holi 2024: जिंदगी की उजली भोर

दो कदम साथ: किस दोराहे पर खड़े थे मानसी और सुलभ?

पूरे 10 साल के बाद दोनों एक बार फिर आमनेसामने खडे़ थे. नोएडा  में एक शौपिंग माल में यों अचानक मिलने पर हत्प्रभ से एकदूसरे को देख रहे थे.

सुलभ ने ही अपने को संयत कर के धीरे से पूछा, ‘‘कैसी हो, मन?’’

वही प्यार में भीगा हुआ स्वर. कोई दिखावा नहीं, कोई शिकायत नहीं. मानसी के चेहरे पर कुछ दर्द की लकीरें, खिंचने लगीं जिन्हें उस ने यत्न से संभाला और हंसने की चेष्टा करते हुए बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

सुलभ ने ध्यान से देखा. वही 10 साल पहले वाला सलोना सा चेहरा है पर जाने क्यों तेवर पुराने नहीं हैं. अपने प्रश्नों को उस ने चेहरे पर छाने नहीं दिया. दोनों साथसाथ चलने लगे. दोनों के अंतस में प्रश्नों के बवंडर थे फिर भी वे चुप थे. सुलभ ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘तुम तो दिल्ली छोड़ कर बंगलौर मामाजी के पास चली गई थीं.’’

मानसी ने उसे देखा. इस ने मेरे एकएक पल की खबर रखी है. मुसकराने का प्रयास करते हुए उत्तर में बोली, ‘‘एक सेमिनार में आई हूं. नोएडा में भाभी से मिलने आना पड़ा. उन का फ्रैक्चर हो गया है.’’

‘‘अरे,’’ सुलभ भी चौंक पड़ा.

‘‘किस अस्पताल में हैं?’’

‘‘अब तो घर पर आ गई हैं.’’

मानसी चलतेचलते एक शोरूम के सामने रुक गई. सुलभ को याद आया कि मानसी को शौपिंग का शौक सदा से रहा है. बेहिसाब शौपिंग और फिर उन्हें बदलने का अजीब सा बचकाना शौक…यह सब सुलभ को बहुधा परेशान कर दिया करता था. पर इस समय वह चुप रहा. मानसी अधिक देर वहां नहीं रुकी. बोली, ‘‘पीहू कैसी है?’’

‘‘विवाह हो गया है उस का…अब 1 साल का बेटा भी है उस के.’’

मानसी मुसकरा दी पर उस की मुसकराहट में अब वह तीखापन नहीं था. सुलभ बारबार सोच रहा था, यह बदलाव कैसे हुआ है इस में…हुआ भी है या उस का भ्रम है यह.

सुलभ को आवश्यककार्य से जाना था. उस ने कुछ कहना चाहा उस से पहले ही मानसी का स्वर जैसे गुफाओं से गूंजता सा निकला, ‘‘और तुम्हारे बच्चे, पत्नी?’’

सुलभ ठहर गया. मानसी के चेहरे पर जो भी था वह क्या कोई पछतावा था या वही मैं के आसपास भटकने की जिद, बोला, ‘‘विवाह के बिना बच्चे कैसे हो सकते हैं. और तुम?’’

मानसी चुप रही. एक कार्ड निकाल कर उस की तरफ बढ़ा दिया और बोली, ‘‘यह मेरा मोबाइल नंबर है.’’

सुलभ ने कार्ड पकड़ लिया. औपचारिकता के नाते अपना कार्ड भी उस की तरफ बढ़ा दिया और चलते हुए बोला, ‘‘एक जरूरी मीटिंग है…’’ और आगे बढ़ गया.

उस रात सुलभ का मन बहुत व्याकुल था. कैसी विडंबना है यह कि शरीर और मन दोनों अपने होते हैं पर परिस्थितियां अपने वश में नहीं होती हैं. इसलिए तो एक आयु बीत जाने के बाद महसूस होता है कि काश, एक बार जीवन वहीं से शुरू कर सकते तो जीवन अधिक व्यवस्थित ढंग से जी पाते.

कौन गलत था कौन सही, यह सब अब सोचने का कोई लाभ नहीं है. कितना गलत होता है यह सोचना कि किसी को हम 1-2 माह की जानपहचान में अच्छी तरह समझ पाते हैं.

सुलभ को अपने दोस्त अंचित के विवाह की याद आ गई. मानसी अंचित की पत्नी सुलेखा की मित्र थी. विवाह के अवसर पर बरातियों की खिंचाई करने में सब से आगे. एक तो उस के रूपसौंदर्य का जादू, ऊपर से उस का हंसता- खिलखिलाता स्वभाव. सुलभ का मन अपने वश में नहीं था. जैसेजैसे उस का मन वश के बाहर होता जा रहा था वैसेवैसे जानपहचान उस मंजिल की ओर बढ़ चली थी जिसे प्यार कहते हैं.

प्यार का सम्मोहन कितना विचित्र होता है. सबकुछ भूल कर व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ एकदूसरे के सम्मुख प्रस्तुत करता रहता है. एकदूसरे को शीघ्र पा लेने की उत्कंठा और कुछ सोचने भी नहीं देती है. यही उन दोनों के साथ भी हुआ.

सुलभ इंजीनियर था और मानसी एक बड़े व्यवसायी की पुत्री, विवाह में बाधा क्यों आती. दोनों बहुत शीघ्र पतिपत्नी बन गए थे. विवाह से ले कर हनीमून तक सब कुछ कितना सुखद था, एक स्वप्नलोक सा. मानसी का प्यार, उस के मीठे बोल उसे हर पल गुदगुदाते रहते लेकिन घर वापस लौटते ही धीरेधीरे मानसी के स्वर बदलने लगे थे. घर में सभी उसे प्यार करते थे पर उस के मन में क्या था यह जान पाना कठिन था. उस ने एक दिन कहा था, ‘तुम्हारे यहां तो बहुत सारे लोग इस 4 कमरे के घर में रहते हैं.’

सुलभ चौंक पड़ा. यह स्वर उस की प्रेयसी का नहीं हो सकता. फिर भी मन को संयत रख कर बोला, ‘बहुत सारे कैसे, मन…मेरे मातापिता, 2 भाई, 1 बहन और 1 विधवा बूआ. ये सब हमारे अपने हैं, यहां नहीं तो और कहां रहेंगे.’

‘तुम इंजीनियर हो, इमारतें बनवाते हो. अपने लिए एक घर नहीं बनवा सकते,’ मानसी ने कहा तो वह स्तब्ध रह गया.

‘यह कैसी बातें कर रही हो, मन. पापा ने पढ़ालिखा कर मुझे इस योग्य बनाया कि मैं उन के सुखदुख में काम आऊं…और तुम काम आने की जगह अलग घर बसा लेने को कह रही हो?’

उस दिन मानसी शायद बहस करने के लिए तैयार बैठी थी. बोली, ‘तुम गलत सोचते हो. हम 2 इस घर से चले जाएंगे तो उन का खर्च भी कम हो जाएगा.’

सुलभ को अपनी नवविवाहिता पत्नी से ऐसी बातों की उम्मीद नहीं थी. बात टालने के लिए बोला, ‘जब तक पीहू का विवाह नहीं हो जाता मैं अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता. पीहू मेरी भी जिम्मेदारी है.’ संभवत: वही एक पल था जब पीहू के लिए मानसी के मन में चिढ़ पैदा हुई थी.

ऐसी छोटीछोटी बातें अकसर उन दोनों के बीच उलझन बन कर छाने लगीं. घर के सभी लोगोें को  यह सब समझ में आने लगा था पर कोई भी विवाद बढ़ाना नहीं चाहता था. मां को उम्मीद थी कि कुछ दिनों में मानसी नई स्थिति से समझौता करना सीख जाएगी. इसलिए कभीकभी उसे समझाने के प्रयास में कहतीं, ‘बेटा, अपने घर से अलग अकसर वे सारी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं जिन की बचपन से आदत होती है…तुम्हें भी धीरेधीरे इस नए वातावरण का अभ्यास हो जाएगा.’

मानसी ने इस पर बिफर कर कहा था, ‘लेकिन मम्मीजी, यह क्या बात हुई कि विवाह के बाद लड़की ही अपना अस्तित्व मिटा दे, लड़के क्यों नहीं नए सांचे में ढलना चाहते हैं?’

‘ठीक कहती हो बेटा, लड़कों को भी समझौता करना चाहिए,’ मम्मी धीरे से बोल गई थीं और सुलभ की ओर देख कर कहा, ‘शादी की है तो अपनी जिम्मेदारियों को भी समझना सीखो. अभी से इस का दिल दुखाओगे तो आगे क्या करोगे.’

‘मम्मीजी, मुझे पता है कि आप मेरा मन रखने के लिए यह बात कर रही हैं. अंदर से तो आप को मेरी बात बुरी ही लगी है,’ मानसी ने तुरंत कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है.’

मां समझा रही थीं या फुजूल में गिड़गिड़ा रही थीं, सुलभ समझ नहीं पाया था. फिर भी कह  बैठा, ‘मम्मी, इसे समझाने की कोई जरूरत नहीं है,’ और क्रोध से पैर पटकते चला गया था.

मन में बहुत बड़ा झंझावात उठा था. न खानेपीने में मन  लग रहा था, न मित्रों से गपशप में. पार्क में जा कर बैठा तो भी मन उदास रहा. वहां जाने कितने प्यारेप्यारे बच्चे खेल रहे थे. उन की किलकारियां और शरारतें उसे भा तो रही थीं पर कुछ इस तरह जैसे कोई बहुत ही सुगंधित सी बयार उसे छू कर बेअसर सी गुजर जाए.

उसे बारबार याद आ रही थी वह रात जब प्यार के सम्मोहन में डूब उस ने मानसी से कहा था, ‘मानसी, मुझे पापा कब बनाओगी?’

मानसी ने भी प्यार के मधुर रस में डूब कर कहा था, ‘अभी मुझे मां नहीं बनना है.’

‘क्यों?’

‘अभी मेरी उम्र ही क्या है,’ मानसी इतरा कर बोली.

‘हां, यह तो है, जितनी जल्दी मां बनोगी उतनी जल्दी जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी,’ सुलभ ने सहजता से कह कर उस का चुंबन ले लिया. पर यह क्या? मानसी जैसे बिफर कर उठ बैठी.

‘जिम्मेदारियां तो इस घर में कदम रखते ही मेरे तमाम सपनों पर काले बादलों सी मंडराने लगी हैं. ’

मन जब प्यार की उमंग में डूबा हुआ हो और ऐसे में पत्नी प्यार का रुख मोड़ कर आंधियों के हवाले कर दे तो बेचारा पति हक्काबक्का होने के अलावा और क्या करे.

‘किन बादलों की बात कर रही हो?’ सुलभ आश्चर्य और खीज से देखते हुए बोला था.

‘क्यों, मेरे जीवन पर तुम्हारे मातापिता, भाईबहन का साया मेरे सपने तोड़ता रहता है और वह विधवा बूआ सुबहसुबह उस के दर्शन करो.’

‘मानसी…’ सुलभ की आवाज तल्ख हो उठी.

‘चिल्लाओ मत,’ मानसी भी उतने ही आवेग से बोली, ‘वह तुम्हारी प्यारी बहन पीहू…जब तक उस का विवाह नहीं हो जाता हम अपने शौक पूरे नहीं कर सकते. मेरे सारे अरमान घुट रहे हैं इसलिए कि तुम्हारे पापा के पास पीहू के लिए ज्यादा पैसे नहीं हैं.’

‘बस, मानसी बहुत कह दिया,’ सुलभ के अंदर का प्रेमी अचानक बिफर कर पलंग से उठ गया, ‘तुम्हारे संस्कारों में रिश्तों का महत्त्व नहीं है तो न सही…मेरी दुनिया इतनी छोटी नहीं कि पतिपत्नी से आगे हर रिश्ता बेमानी लगे.’

सुलभ कमरे से उठ कर बाहर चला गया. धीरेधीरे ऐसी तकरारें बढ़ने लगीं तब मां ने एक दिन सुलभ को एकांत में समझाया, ‘अगर मानसी अलग रहना चाहती है तो मान ले उस की बात. शादी की है तो निभाने के रास्ते निकाल. शायद दूर रह कर वह सब के प्यार को समझ सके.’

सुलभ मां की बातों पर विचार ही करता रह गया और मानसी अचानक अपने पापा के यहां चली गई. उस समय सब को लगा था कि वह कुछ दिन में वापस आ जाएगी पर सुलभ के बुलाने पर भी मानसी नहीं लौटी.

मां ने कई बार उसे बुलाने भेजा था पर मानसी ने कहा कि उस की तरफ से सुलभ पूरी तरह हर बंधन से आजाद है. जब चाहे दूसरी शादी कर ले, वह कभी नहीं आएगी.

मां को फिर भी भरोसा था कि कुछ माह में मानसी जरूर वापस आ जाएगी पर जाने कैसी जिद या शायद घमंड पाल कर बैठ गई थी मानसी. एक साल के अंदर तलाक का नोटिस आ गया था. आशाओं की अंतिम डोर भी टूट गई थी.

मानसी दिल्ली छोड़ कर अपने मामा के यहां बंगलौर चली गई थी. उस के मामाजी बहुत बड़े व्यापारी थे. विदेशों में भी उन का काम फैला हुआ था. मानसी का सपना भी बहुत पैसा था. शायद वहां मानसी ने उन की सहायता कर के अपना सपना साकार करना चाहा था.

सुलभ ने अपनी सोच को परे धकेल कर करवट ली. जाने कैसी व्याकुलता थी. उठ कर बैठ गया. पानी पी कर मेज पर पड़ा मानसी का कार्ड देखने लगा. विचारों का झंझावात फिर परेशान करने लगा.

मानसी को मामाजी के घर अपार वैभव का सुख था. उन्हें कोई संतान नहीं थी इसलिए उसे बेटी जैसा प्यार मिल रहा था. फिर भी मानसी के चेहरे पर कैसी उदासी थी. उस ने शायद  विवाह भी नहीं किया. क्या अकेलेपन की उदासी थी उस के चेहरे पर या अब उसे रिश्तों की परख हो गई है.

रात के 11 बज चुके थे. फोन के पास बैठ कर भी उसे साहस नहीं हुआ कि मानसी को फोन करे. वह चुपचाप पलंग पर लेट गया. अपने ही मन से प्रश्न करने लगा… यह क्या हो रहा है मन को? इतने वर्षों तक वह मानसी को भूल जाने का भ्रम पाले हुए था पर अब क्यों मन व्याकुल है. क्या मानसी भी उस से बहुत सी कहीअनकही बातें करना चाहती होगी? अपने ही प्रश्नों से घिरा सुलभ सोने का व्यर्थ प्रयास करने लगा.

अभी अधिक समय नहीं बीता था कि उस का मोबाइल बजने लगा. उस ने बत्ती जला कर देखा और मुसकरा उठा.

‘‘हैलो, मन.’’

‘‘जाग रहे हो?’’ उधर से मानसी का विह्वल स्वर गूंजा.

‘‘हां, सोच रहा था कि तुम्हें फोन करूं या नहीं,’’ सुलभ ने अपने मन की बात कह दी. पहले भी कभी वह मानसी से कुछ छिपा नहीं पाता था.

‘‘तो किया क्यों नहीं?’’ मानसी ने प्रश्न किया, ‘‘शायद इसलिए कि अभी तक तुम ने मुझे क्षमा नहीं किया है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, भूल तो हम दोनों से हुई है. मेरे मन में जरा भी मैल होता तो अब तक मैं दूसरी बार घर बसा चुका होता,’’ सुलभ ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात कह दी.

उधर से कुछ पल सन्नाटा रहा, फिर एक धीमी सी वेदनामय आवाज गूंजी, ‘‘घर तो मैं भी नहीं बसा सकी. शुरू में वह सब जिद में किया, फिर धीरेधीरे अपनी गलतियों का एहसास जागा तो तुम्हारी याद ने वैसा नहीं करने दिया.’’

दोनों तरफ फिर मौन पसर गया. दोनों के मन में हलचल थी. शायद समय को मुट््ठी में कैद कर लेने की चाहत जाग उठी थी.

एक पल के सन्नाटे के बाद ही उसे मानसी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘सुलभ, मेरी बात को तुम पता नहीं कैसे लोगे पर बहुत दिनों से मन में एक बात थी और मैं चाहती थी कि तुम्हें बताऊं. क्या तुम से वह बात शेयर कर सकती हूं?’’

‘‘मानसी, भले ही अब हम साथसाथ नहीं हैं पर कभी हम ने हर कदम पर एकदूसरे का साथ देने का वचन दिया था… बोलो, क्या बात है?’’

‘‘जानती हूं, सुलभ. मेरा ही दोष है, जो दो कदम भी तुम्हारे साथ नहीं चल सकी,’’ और इसी के साथ मोबाइल पर फिर सन्नाटा पसर गया…फिर एक आवाज जैसे किसी कंदरा से घूमती हुईर् उस तक पहुंची.

‘‘सुलभ, तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें एक बच्चे का पिता बनाऊं. तुम ने मेरे विवाह के बारे में पूछा था तो मैं ने दूसरी शादी नहीं की, लेकिन मैं एक बच्ची की मां हूं…क्या तुम उस के पिता बनना पसंद करोगे?’’

‘‘क्या?’’ सुलभ चौंक कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘हां, सुलभ, मैं ने विवाह नहीं किया तो क्या, मैं मां हूं, एक प्यारी सी बेटी की मां, 2 साल पहले उसे गोद लिया था.’’

सुलभ चकित हो कर सुन रहा था. क्या यह सचमुच मानसी का स्वर था, जिसे बच्चे पसंद नहीं थे, जिसे घर में भीड़ पसंद नहीं थी, यह वही मानसी है…

अभी वह सोच ही रहा था कि मानसी ने फिर कहा, ‘‘जाने दो, सुलभ, मैं ने तो…’’

‘‘मानसी, हमारी बेटी का नाम क्या है?’’ सुलभ बोला तो मानसी का स्वर खुशी से लहराता हुआ आया, ‘सुरीली.’’

मानसी को उस का वह सपना भी याद था. हनीमून पर उस ने कहा था, ‘मन, जब कभी हमें बेटी होगी उस का नाम हम सुरीली रखेंगे.’

वह भावविभोर हो कर उठा और बोला, ‘‘थैंक्स मन, मैं अभी तुम्हारे पास पहुंच रहा हूं.’’

‘‘इतनी रात में?’’ मानसी का स्वर उस ने अनसुना करते हुए कहा, ‘‘अब और कुछ नहीं, पहले ही जीवन के बहुत सारे पल हम ने गंवा दिए हैं.

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