इस दुनिया को तोड़ें नहीं, जोड़ें

दुनिया का मौसम बदल रहा है. पर्यावरण तो प्रदूषित हो ही रहा है, हर देश में शासन ऐसे लोगों के हाथों में आ रहा है जो संकुचित सोच वाले हैं और जब बोलते हैं तो जहर उगलते हैं और कुछ करते हैं तो शहर ही नहीं पूरे देश गंदे हो जाते हैं. हम तो ऐसे नेताओं के आदी हैं ही लेकिन अब अमेरिका हम से बाजी मार ले गया. अमेरिका ने राष्ट्रपति चुनावों में डौनल्ड ट्रंप को चुना, जो 2 माह बाद भी अपना सही कैबिनेट नहीं बना सका है, पर उसे परवा नहीं है. वह जब बोलता है या व्हाइट हाउस के ओवल रूम में बैठ कर कोई आदेश निकालता है तो उसे इस की चिंता नहीं होती कि इस से कहां किस का दम घुटेगा. इंगलैंड की जनता ने भी यूरोपीय यूनियन से निकलने का फैसला ले कर ट्रंप को जिताने जैसा बरबादी वाला कदम उठाया है. फ्रांस में ला पेन नाम की पुरातनपंथी पार्टी कोयले से चलने वाले इंजन मानो वापस लाने को तैयार है, जो धुएं से दम घोट दें.

भारत में नोटबंदी के जहर का असर अभी भी बाकी है पर फिर भी राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी दमखम से उतरी. यानी दुनिया के ज्यादातर देशों की जनता को न प्रकृति के पर्यावरण की चिंता है न राजनीतिक प्रदूषण की. लोकतंत्र ने हरेक को वोट देने का हक दिया है कि आगे आने वाली पीढि़यों की सुरक्षा का बंदोबस्त उन के अपने मातापिता वोट देते समय कर सकें, पर यहां तो लगता है कि लोकतंत्र के वोटरों और इसलामी देशों के हथियारबंद जिहादियों में कुछ खास फर्क नहीं. दोनों ही अपनेअपने देशों को नष्ट करने में लगे हैं.

यह दुनिया बनी भी तो जंगलों में रहने लायक थी. बस लाखों ने आज और अब की नहीं कल की सोची. तरहतरह की किताबें लिखी गईं. दुनिया के रहस्य जानने के लिए कोई एवरेस्ट पर चढ़ा तो कोई गहरे समुद्र में गया. लोगों ने चांद पर जाने के लिए वाहन बनाए तो आम आदमी को दुनिया भर में घंटों में पहुंचाने के लिए हवाईजहाज बनाए. सरकारों ने इन का कितना साथ दिया यह आकलन करना कठिन है पर सरकारों ने बहुतों को रोका, यह साफ है.

अब इस रुकावट को शासन का तरीका माना जाने लगा है. हर देश में शासक अपने बाशिंदों को काले मध्य युग के से आदेश देने लगा है. दुनिया की जेलों में जगह नहीं बची है. हर जगह एक डर बैठ रहा है कि अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने, शहरों के प्रदूषण से, समुद्र में गंद भरने से ज्यादा नुकसान होगा या शासकों की गैर जिम्मेदारियों से.

आज का किशोर भ्रमित है कि कल क्या होगा? जिन्होंने अमेरिकाइंगलैंड जा कर पढ़ने की सोची थी उन का सपना धुंधला पड़ गया है. कल किस देश में सीरियाई आपसी युद्ध की बीमारी न फैल जाए यह अंदेशा होने लगा है. सारी दुनिया एक है, यह भ्रम टूट रहा है. जैसे गरमी के अंधड़ अपने साथ धूल लाते हैं, वैसा डर हर मन में धीरधीरे आ रहा है. उम्मीद करिए कि सद्बुद्धि जागेगी और लोग दुनिया को तोड़ेंगे नहीं, जोड़ेंगे.

उच्चतम न्यायालय : एक अदृश्य शिकंजा

देश में आजकल राजनीतिक मंच पर एक रोचक प्रहसन चल रहा है. जिसे देश देख रहा है. इसमें देश के उच्चतम न्यायालय अर्थात सुप्रीम कोर्ट पर अपना प्रभाव नहीं देखकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार के कानून मंत्री लगातार अलग-अलग वेशभूषा में आकर कभी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का वे सम्मान करते हैं ,कभी कहते हैं कि हमारा उच्चतम न्यायालय स्वतंत्र है और धीरे से स्थितियां यह बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि देश का उच्चतम न्यायालय पूरी तरह उनके अंकुश में आ जाए.

दरअसल ,यह सरकार के अनुरूप,  पूर्ववर्ती परंपराओं और कॉलेजियम सिस्टम के कारण नहीं हो पा रहा है. आज केंद्र में बैठी सरकार की सारी कवायद इसी में लगी हुई है कि किसी भी तरह उच्चतम न्यायालय पर अपना अंकुश हो जाए.

वर्तमान में न्यायाधीशों की नियुक्ति एक कॉलेजियम सिस्टम के तहत हो रही हैं जिसमें सरकार का कोई दखल नहीं है. ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार चाहती है कि किसी तरह कुछ ऐसी बात बन जाए कि जिस तरह अन्य संवैधानिक संस्थाओं सहित सीबीआई प्रवर्तन निदेशालय में नियुक्ति की डोर केंद्र सरकार के पास है वैसा ही कुछ उच्चतम न्यायालय में भी हो जाए तो अपने मनमाफिक न्यायाधीश बैठाकर देश को अपनी  एकांगी  मंशा के अनुरूप देश पर स्वतंत्र रूप से सत्ता संचालन किया जाए. आज यह प्रयास इसी पटकथा के तहत किया जा रहा है. इस तरह हम कह सकते हैं कि देश आज एक जैसे चौराहे पर खड़ा है जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. ऐसे में देश में लोकतंत्र को बचाने वली शक्तियों को आज अपनी भूमिका निभानी होगी.

नरेंद्र मोदी के कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने मौका मिलते ही 22 जनवरी 2022 को  को हाई कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के विचारों का समर्थन करने की कोशिश की है, उनके मुताबिक -“सुप्रीम कोर्ट ने खुद न्यायाधीशों की नियुक्ति का फैसला कर संविधान का ‘अपहरण’ किया है.”

देश जानता है कि हालिया समय में उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ा है. ऐसे समय में यह बयान आना यह बताता है कि कौन-कौन कितना गिर और  उठ सकता है. अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम सिस्टम के तहत नियुक्तियां कर रही है  तो आज केंद्र में बैठे हुए सत्ताधारिओं को पीड़ा क्यों हो रही है.

कानून मंत्री की मंशा

कानून मंत्री किरण रिजीजू ने दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी (सेवानिवृत्त) के एक साक्षात्कार का वीडियो साझा करते हुए कहा -” यह एक न्यायाधीश की आवाज है और अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण ‘विचार’ हैं. यहां यह भी समझना आवश्यक है कि आज केंद्र सरकार आंख बंद कर चाहती है कि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति उसके मुंहर से होनी चाहिए. समझने वाली बात यह है कि अगर कोई एक पार्टी जो सत्ता में आ जाती है और उसे 5 साल के लिए उसे जनादेश मिला है वह अपने लाभ के लिए लंबे समय तक का कोई फैसला कैसे ले सकती है.

साक्षात्कार में न्यायमूर्ति सोढ़ी ने यह भी कहा कि शीर्ष अदालत कानून नहीं बना सकती, क्योंकि उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. उन्होंने कहा कि कानून बनाने का अधिकार संसद का है. मंत्री ने ट्वीट किया कि चुने हुए प्रतिनिधि लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और कानून बनाते हैं. हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है और हमारा संविधान सर्वोच्च है.

रिजीजू ने पूर्व न्यायमूर्ति सोढीं का खुलकर समर्थन करते हुए कहा यह ‘एक न्यायाधीश की आवाज’ है और अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण ‘विचार’ हैं.

किरण रिजिजू कानून मंत्री से यह पूछना चाहिए कि आप समझदारी भरी बातें क्यों नहीं कर रहे हैं एक न्यायाधीश कहता है तो आप ताली बजा रहे हैं सिस्टम काम कर रहा है तो आप गाल बजा रहे हैं. एक पूर्व न्यायाधीश कुछ कहता है तो आप समर्थन में खड़े हो जाते हैं देश का उच्चतम न्यायालय का पूरा ढांचा चल रहा है तो आपको तकलीफ होती है. कोई इनसे पूछे कि आपको आखिर तकलीफ क्यों है क्या आपको पता नहीं है कि अगर संसद कोई गलत कानून बनाती है जो सविधान की मंशा के खिलाफ है तो उसे सुप्रीम कोर्ट रोक सकती है, क्या आपको यह पता नहीं है कि अगर संसद कानून बना सकती है तो फिर देश का उच्चतम न्यायालय भी कानून बनाता है और यह अधिकार संविधान से उसे मिला अधिकार है.

पाठकों को याद होगा कि पिछले दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसी शैली में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम और एक संबंधित संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए शीर्ष अदालत पर सवाल उठाया है . स्मरण रहे -आप वही धनदीप जगदीप धनखड़ हैं जिन्होंने राज्यसभा में एक विवादित अध्यादेश पास करवा दिया था और जो बाद में सरकार को वापस देना पड़ा था . कुल मिलाकर के देश में माहौल उच्चतम न्यायालय के कालेजियम प्रणाली के विरोध में बनाने का प्रयास जारी है एक अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है जिसके परिणाम आने वाले समय में सकते हैं.

रिजीजू ने खुलकर  न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालेजियम प्रणाली को भारतीय संविधान के प्रतिकूल बताया है. वहीं, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम और एक संबंधित संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए शीर्ष अदालत पर सवाल उठाया है. इधर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को मंजूर देने में देरी पर भी शीर्ष अदालत ने सरकार से सवाल किया है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार सुप्रीम कोर्ट पर जैसा प्रभाव चाहती है तो वह भूल जाती है कि आने वाले समय में अगर सत्ता हाथ से निकल गई तो जो पार्टी सत्ता में आएगी वह इसका गलत उपयोग करेगी, तब आप पछताएंगे.

इंटरनेट बना गुस्सा निकालने का साधन

आजकल इंटरनैट आम आदमियों का अपना गुस्सा निकालने का सहज साधन बन गया है. दिल्ली, मुंबई एयरपोर्टों पर अब बहुत अधिक भीड़ होने लगी है और लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह वादा खूब याद आ रहा है कि वे देश के रेलवे स्टेशनों को एयरपोर्टों जैसा शानदार बना देंगे. लोग कह रहे हैं कि एयरपोर्टों और स्टेशनों में बराबर की भीड़, पार्क के निर्माण, बाहर गाडि़यों की अफरातफरी, धक्कामुक्की बराबर है.

स्टेशन तो एयरपोर्ट नहीं बन सके, पर एयरपोर्ट भारतीय स्टेशन जरूर बन गए हैं.नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई.आम हवाई चप्पल पहनने वाला हवाईर् यात्रा तो आज भी नहीं कर रहा पर हवाई चप्पल ही ऐसी महंगी और फैशनेबल हो गई है कि गोवा, चेन्नई, बैंगलुरु में कितने ही रबड़ की ब्रांडेड चप्पलें पहने भी दिख जाएंगे. वह वादा भी उन्होंने पूरा कर दिया.सुविधा के नाम पर कुछ स्टेशन ठीकठाक हुए हैं,

‘वंदे भारत’ नाम की कुछ ट्रेनें चली हैं पर आज अब किराए इतने बढ़ा दिए गए हैं कि एक  बार ट्रेन में जा कर 4 दिन खराब करना और 4 दिन की मजूरी खराब करने से हवाई यात्रा करना ज्यादा सस्ता है. रेलों के बढ़ते दाम, हवाई यात्रा के घटते दामों ने यह वादा भी पूरा कर लिया.

वैसे भी देश की जनता हमेशा वादों को सच होता ऐसे ही मानती रही है जैसे वह मूर्ति के आगे मन्नत को पूरी होना मानती रही है. 4 में से एक काम तो हरेक का अपनी मरजी का अपनेआप हो ही जाता है. बीमार ठीक हो जाते हैं, देरसवेर छोटीमोटी नौकरी लग ही जाती है, लड़की को काला अधपढ़ा सा पति भी मिल जाता है, 10-20 साल बाद अपना मकान बन ही जाता है, 10 में से 2-3 के धंधे भी चल निकलते हैं और इन सब को मूर्ति की दया सम?ा कर सिर ?ाकाने वाले, अंटी खाली करने वालों, चुनावी वादों में से कुछ को भी सही होता देख कर वोट डाल ही आते हैं.

जहां तक हवाई यात्रा का सवाल है, यह देश के लिए जरूरी है, जैसे आज बिजली और उस से चलने वाली चीजें फ्रिज, कूलर, पंखा, बत्ती, एसी, टीवी, मोबाइल, लैटपटौप हरेक के लिए जरूरी है, वैसे ही हवाई यात्रा हरेक के लिए जरूरी हैं. पहले जो शान हवाई यात्रा में रहती थी, जब टिकट आज के रुपए की कीमत के हिसाब से महंगे थे, वह अब कहां.

उस के लिए अमीरों ने प्राइवेट जैट रखने शुरू कर दिए हैं. नरेंद्र मोदी भी या तो 8,000 करोड़ के प्राइवेट जैट में सफर करते हैं या 20-25 किलोमीटर की यात्रा हो तो हैलीकौप्टर में आतेजाते हैं. हवाई चप्पल पहनने वाली जनता इस शान की बात भूल जाए.हवाई यात्रा जरूरी इसलिए है कि देश बहुत बड़ा है और लोग गांवों से शहरों की ओर जा रहे हैं.

उन्हें जब भी गांव वापस जाना होता है तो उन के पास 7-8 दिन रेल के सफर के नहीं होते. वे यह काम हवाई यात्रा से घंटों में कर सकते हैं.दुनियाभर में हवाई यात्रा अब रेल यात्रा की तरह हो गई है. ट्रेनें और पानी के जहाज तो अब खास लोगों के लिए रह जाएंगे जिन में होटलों जैसी सुविधाएं होंगी. लोग चलते या तैरते होटलों का मजा लेंगे और हवाई यात्रा बस काम के लिए करेंगे.

शादियां अब हर तरह के लोगों के लिए एक जुआ बन गईर् हैं जिस में सबकुछ लुट जाए तो भी बड़ी बात नहीं. राजस्थान की एक औरत ने साल 2015 में कोर्ट मैरिज की पर शादी के बाद बीवी मर्द से मांग करने लगी कि वह अपनी जमीन उस के नाम कर दे वरना उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे. शादी के 8 दिन बाद ही वह लापता हो गई पर उस से मिलतीजुलती एक लाश दूर किसी शहर में मिली जिसे लावारिस सम?ा कर जला दिया.

औरत के लापता होने के 6 माह बाद औरत के पिता ने पुलिस में शिकायत की कि उस के मर्द ने उन की बेटी की एक और जने के साथ मिल कर हत्या कर दी है. दूर थाने की पुलिस ने पिता को जलाई गई लाश के कपड़े दिखाए तो पिता ने कहा कि ये उन की बेटी के हैं. मर्द और उस के एक साथी को जेल में ठूंस दिया गया.

7 साल तक मर्द जेलों में आताजाता रहा. कभी पैरोल मिलती, कभी जमानत होती.अब 7 साल बाद वह औरत किसी दूसरे शहर में मिली और पक्की शिनाख्त हुई तो औरत को पूरी साजिश रचने के जुर्म में पकड़ लिया गया है. आज जब सरकार हल्ला मचा रही है कि यूनिफौर्म सिविल कोड लाओ, क्योंकि आज इसलाम धर्म के कानून औरतों के खिलाफ हैं.

असलियत यह है कि हिंदू मर्दों और औरतों दोनों के लिए हिंदू कानून ही अब आफत बने हुए हैं. अब गांवगांव में मियांबीवी के ?ागड़े में बीवी पुलिस को बुला लेती है और बीवी के रिश्तेदार आंसू निकालते छातियां पीटते नजर आते हैं तो मर्दों को गिरफ्तार करना ही पड़ता है.शादी हिंदू औरतों के लिए ही नहीं, मर्दों के लिए भी आफत है. जो सीधी औरतें और गुनाह करना नहीं जानतीं वे मर्द के जुल्म सहने को मजबूर हैं पर मर्द को छोड़ नहीं सकतीं, क्योंकि हिंदुओं का तलाक कानून ऐसा है कि अगर दोनों में से एक भी चाहे तो बरसों तलाक न होगा. हिंदू कानूनों में छोड़ी गई औरतों को कुछ पैसा तो मिल सकता है पर उन को न समाज में इज्जत मिलती है, न दूसरी शादी आसानी से होती है.

चूंकि तलाक मुश्किल से मिलता है और चूंकि औरतें तलाक के समय मोटी रकम वसूल कर सकती हैं, कोई भी नया जना किसी भी कीमत पर तलाकशुदा से शादी करने को तैयार नहीं होता. सरकार को हिंदूमुसलिम करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड की पड़ी है, जबकि जरूरत है ऐसे कानून की जिस में शादी एक सिविल सम?ौता हो, उस में क्रिमिनल पुलिस वाले न आएं.जब औरतें शातिर हो सकती हैं, अपने प्रेमियों के साथ मिल कर पति की हत्या कर सकती हैं, नकली शादी कर के रुपयापैसा ले कर भाग सकती हैं, न निभाने पर पति की जान को आफत बना सकती हैं तो सम?ा जा सकता है कि देश का कानून खराब है और यूनिफौर्म सिविल कोड बने या न बने हिंदू विवाह कानून तो बदला जाना चाहिए जिस में किसी जोरजबरदस्ती की गुंजाइश न हो. यदि लोग अपनी बीवियों के फैलाए जालों में फंसते रहेंगे और औरतें मर्दों से मार खाती रहेंगी तो पक्का है कि समाज खुश नहीं रहेगा और यह लावा कहीं और फूटेगा.

 

लड़कियों का अन्याय सहना है गलत

एक युवा साधारण से दर्जी के यहां काम करने वाला, दिल्ली सहित कई शहरों में जा कर बीसियों लड़कियों और कुछ लड़कों का बलात्कार कर पाए यह घिनौनी हरकत न केवल डरा देने वाली है, इस समाज के अन्याय को सहने की गलत आदत की पुष्टि भी करती है. वह युवक तो अब कहता है कि उस ने 400-500 लड़कियों से जबरदस्ती की है पर पुलिस उस की निशानदेही पर केवल 15-20 तक पहुंच पाई है, क्योंकि वह युवक अनजान लड़कियों को पकड़ता था, उन्हें अकेले में ले जा कर दुराचार करता और छोड़ देता था. उसे खुद नहीं मालूम कि वे कहां रहती थीं.

इन लड़कियों के मातापिताओं ने मुंह सी रखे थे, यह ज्यादा भयावह है. इस तरह के दुर्जन होते हैं, इस का अंदाजा है पर उन के सताए लोग आज भी कानून व्यवस्था व सामाजिक मान्यताओं से इतना ज्यादा डरते हैं कि वे यातना का दुख सह लेते हैं पर हुए अपराध की सूचना नहीं देते.

आमतौर पर जेब कतरी जाए, चेन खींच ली जाए, घर में चोरी हो जाए, तो लोग तुरंत पुलिस तक पहुंच जाते हैं पर सैकड़ों मातापिता अपनी बच्चियों के साथ हुई बलात्कार की घटना की शिकायत पुलिस में यह सोच न करें कि कहीं उन की इज्जत पर बट्टा न लग जाए, यह सरकार की नाक काटने के बराबर है. यह कैसी सरकार है जिस ने इस सीरियल अपराध पर मुंह सी रखा है और जो सफाई मिल रही है वह छोटे इंस्पैक्टरों से मिल रही है.

साफ है हमारे यहां सरकारें राज करने आती हैं, राज चलाने नहीं. नेता चुनाव लड़ कर, जीत कर पद का लाभ उठाना चाहते हैं, कर्तव्य पूरा नहीं करना चाहते. यदि जनता को नेताओं व पुलिस पर भरोसा होता तो इन पीडि़तों में से आधे तो अपने क्षेत्र के नेताओं से मिलते और व्यथा सुनाते. लगता है आम आदमी को पूरा एहसास है कि सरकार तो क्या सरकार का सांसद, विधायक, पार्षद, सरपंच, पंच सब इस तरह राजनीति के स्विमिंग पूल में नहाने में व्यस्त हैं कि जनता की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं और उन के दरवाजे खटखटाने से कोई लाभ नहीं.

देश की स्थिति इस बुरी तरह खराब होगी कि एक अदना सा पर हिम्मती युवा इतना जघन्य काम लगातार कई सालों तक कर सके, देश की नाक कटाने वाला है. हम अपने को किस तरह का विश्व गुरु कहते हैं, किस मुंह से अपनी सभ्यता का बखान करते हैं, कैसे अपनी संस्कृति का ढोल पीटते हैं जब हमारे बीच ऐसे युवा मजे से सामाजिक व्यवस्था तारतार कर हमें जानवरों माफिक बनाते हैं? तिरंगे को सलाम या तिरंगे के अपमान पर बौखलाना देशभक्ति नहीं है, यह सिर्फ दिखावा है. जो देश समाज को सुरक्षा न दे सके उसे ज्यादा हांकना तो नहीं चाहिए.

राजनीति में अकेली ताकतवर नहीं मोदी सरकार

गुजरात व हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं केदिल्ली की म्यूनिसिपल कमेटी केउत्तर प्रदेशबिहार व ओडिशा के उपचुनावों से एक बात साफ है कि न तो भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कोई बड़ा माहौल बना है और न ही भारतीय जनता पार्टी इस देश की अकेली राजनीतिक ताकत है. जो सोचते हैं कि मोदी है तो जहां है वे भी गलत हैं और जो सोचते हैं कि धर्म से ज्यादा महंगाईबेरोजगारीहिंदूमुसलिम खाई से जनता परेशान हैवे भी गलत हैं.

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सीटें बढ़ा लीं क्योंकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में वोट बंट गए. गुजरात की जनता का बड़ा हिस्सा अगर भाजपा से नाराज है तो भी उसे सुस्त कांग्रेस औैर बड़बोली आम आदमी पार्टी में पूरी तरह भरोसा नहीं हुआ. गुजरात में वोट बंटने का फायदा भारतीय जनता पार्टी को जम कर हुआ और उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी की दिल्ली की सरकार अब तोहफे की शक्ल में अरविंद केजरीवाल को दिल्ली राज्य सरकार और म्यूनिसिपल कमेटी चलाने में रोकटोक कम कर देगी. उपराज्यपाल के मारफत केंद्र सरकार लगातार अरविंद केजरीवाल को कीलें चुभाती रहती है.

कांग्रेस का कुछ होगायह नहीं कहा जा सकता. गुजरात में हार धक्का है पर हिमाचल प्रदेश की अच्छी जीत एक मैडल है. हांयह जरूर लग रहा है कि जो लोग भारत को धर्मजाति और बोली पर तोड़ने में लगे हैंवे अभी चुप नहीं हुए हैं और राहुल गांधी को भारत जोड़ो यात्रा’ में मिलते प्यार और साथ से उन्हें कोईर् फर्क नहीं पड़ता.

देशों को चलाने के लिए आज ऐसे लोग चाहिए जो हर जने को सही मौका दें और हर नागरिक को बराबर का सम?ों. जो सरकार हर काम में भेदभाव करे और हर फैसले में धर्म या जाति का पहलू छिपा होवह चुनाव भले जीत जाएअपने लोगों का भला नहीं कर सकती. धर्म पर टिकी सरकारें मंदिरोंचर्चों को बनवा सकती हैं पर नौकरियां नहीं दे सकतीं. आज भारत के लाखों युवा पढ़ने और नौकरी करने दूसरे देशों में जा रहे हैं और विश्वगुरु का दावा करने वाली सरकार के दौरान यह गिनती बढ़ती जा रही है. यहां विश्वगुरु नहींविश्वसेवक बनाए जा रहे हैं. भारतीय युवा दूसरे देशों में जा कर वे काम करते हैं जो यहां करने पर उन्हें धर्म और जाति से बाहर निकाल दिया जाए.

अफसोस यह है कि भाजपा सरकार का यह चुनावी मुद्दा था ही नहीं. सरकार तो मानअपमानधर्मजातिमंदिर की बात करती रही और कम से कम गुजरात में तो जीत गई.

देश में तरक्की हो रही है तो उन मेहनती लोगों की वजह से जो खेतों और कारखानों में काम कर रहे हैं और गंदी बस्तियों में जानवरों की तरह रह रहे हैं. देश में किसानों के मकान और जीवन स्तर हो या मजदूरों का उस की चिंता किसी को नहींक्योंकि ऐसी सरकारें चुनी जा रही हैं जो इन बातों को नजरअंदाज कर के धर्म का ढोल पीट कर वोट पा जाती हैं.

ये चुनाव आगे सरकारों को कोई सबक सिखाएंगेइस की कोई उम्मीद न करें. हर पार्टी अपनी सरकार वैसे ही चलाएगीजैसी उस से चलती है. मुश्किल है कि आम आदमी को सरकार पर कुछ ज्यादा भरोसा है कि वह अपने टूटफूट के फैसलों से सब ठीक कर देगी. उसे लगता है कि तोड़जोड़ कर बनाई गई महाराष्ट्रकर्नाटकगोवामध्य प्रदेश जैसी सरकारें भी ठीक हैं. चुनावों में तोड़फोड़ की कोई सजा पार्टी को नहीं मिलती. नतीजा साफ है. जनता को सुनहरे दिनों को भूल जाना चाहिए. यहां तो हमेशा धुंधला माहौल रहेगा.

अंधविश्वास की राजनीति आखिर कबतक

देसी चुनावों में जीत पा जाना कोई कमाल की बात नहीं है खासतौर पर जब यह पैसा देने को भी तैयार हो और भक्तों का चलाया जा रहा मीडिया लोगों को पाखंडी और अंधविश्वासी के साथ राज्य की भक्ति भी सिखा रहा. नेता की ताकत तो तब दिखती है जब दूसरे देश उस की सुनते हों, उसे नाराज करने की हिम्मत न करते हों.

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होने की वजह से बारीबारी से मिलने वाली जी-20, बड़े 20 देशों की संस्था के अध्यक्ष बने हैं पर उन के अध्यक्ष की कुर्सी लेने के कुछ दिन बाद ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ शुरू कर दी यही नहीं, मुसलिम देशों के संगठन औगैंनाइजेशन औफ इस्लामिक कंट्रीज के महासचिव ने भारत के कश्मीर के उस हिस्से का दौरा कर लिया जो पाकिस्तान ने 1947 से जबरन दबोच रखा है.

अच्छा नेता वह होता है जिस का खौफ न हो तो कम से कम इज्जत हो कि उसे अपने देश में नीचा देखने की जरूरत न पड़े. पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर घूमने जाने से या अरुणाचल प्रदेश में घुस जाने से भारत टूटने नहीं वाला, न उसे…..है पर यह सवाल जरूर कर सकता है कि जब केंद्र में दिल्ली में बैठी सरकार इतनी मजबूत है तो ऐसा हो ही क्यों रहा है.

अपने देश में अपने बलबूते पर चुनाव जीतना किसी देश के नेता के लिए काफी नहीं है. हर देश का नेता चुनाव जीत कर या लड़ कर जीत कर ही नेता बनता है. बड़ा नेता वह होता है जिस की सब की इज्जत करें. जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में धोखा खाया था. उन्हें लगा कि महात्मा गांधी के शिष्य होने की वजह से उन्हें दुनिया भर में इज्जत मिलेगी और चाहे चुनाव उन्होंने जीते हो, बेहद लोकप्रिय रहे हो. कानून मानने वाले रहे हों, माओ त्से तुंग के चीन ने. 1862 में हमला कर के मोहभंग कर दिया.

आज भारत ऐसे मोड़ पर बैठा है जहां अपनी गिनती की वजह से, सस्ती मजदूरी की वजह से, बड़ा देश होने की वजह से, सडक़ों, हवाई अड्डों, रेलों के जाल की वजह से वह दुनिया के किसी भी देश से बढ़ कर बन सकता है. पर हो क्या हो रहा है. एक चीन और इस्लामिक देश अपने तेवर दिखा रहे है और दूसरी तरफ भारतीय मजदूर कोठियों में नौकरियां करने के लिए खुद को गुलाम बना कर दुनिया भर में घटिया काम करने के लिए जा रहे हैं. हमारा हाल तो यह है कि हमारे पढ़ेलिखे ही पढऩे के लिए बाहर जा रहे हैं. देश में अमनचैन की बात की जाती है पर हर साल 2 लाख ङ्क्षहदुस्तानी अपनी नागरिकता छोड़ कर दूसरे देश की नागरिकता अपना लेते हैं.

देश को चलाने के बैलेट या बुलेट की नहीं, सही बैल्ट वाली नीतियों की जरूरत है जो हमारी खिसकती फटी पैंट को रोक सके. देश बाहरी खतरों से ज्यादा तो अदरुनी खतरों से परेशान है और इसीलिए बाहर वाले शेर हो रहे हैं.

कांग्रेसी एकजुटता के सुरीले सुर

यह दर्द था हिमाचल प्रदेश के एक आम आदमी और प्रतिभा सिंह खेमे के कार्यकर्ता का. पर सवाल उठता है कि आखिर जिन वीरभद्र सिंह के नाम पर कांग्रेस ने खूब चुनाव प्रसार किया, उन के परिवार में से किसी को मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया?

कांग्रेस के लिहाज से हिमाचल प्रदेश में सत्ता पर काबिज होना देश की राजनीति के लिए सुखद संकेत है. भले ही हम राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का फिलहाल कोई सीधा असर नहीं देख रहे हैं, पर उन की मेहनत अब कदम दर कदम रफ्तार पकड़ रही है. साथ ही, कांग्रेस अब एकजुट होती दिखाई दे रही है.

यही वजह है कि सुखविंदर सिंह सुक्खू के हिमाचल प्रदेश के नए मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सचिन पायलट, राजीव शुक्ला समेत पार्टी के कई दिग्गज नेता शामिल हुए.

इस एकता के कई सियासी माने हैं, जैसे कांग्रेस पहले की तुलना में भले ही कमजोर दिखती है, पर जनता ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को सिरे से खारिज कर के बता दिया है कि कांग्रेसी तिलों में अभी काफी तेल बाकी है.

इसी एकता का नतीजा है कि दिल्ली कांग्रेस इकाई के उपाध्यक्ष अली मेहंदी, जो हाल ही में 2 नवनिर्वाचित पार्षदों के साथ आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए थे, कुछ समय बाद उन्होंने कांग्रेस से माफी मांगते हुए वापस पार्टी में शामिल होने की जानकारी दी.

अली मेहंदी ने इस दौरान कहा, ‘‘मैं कांग्रेस में था, कांग्रेस में हूं और रहूंगा… मैं हमेशा राहुल गांधी का कार्यकर्ता बन कर रहूंगा.’’

दूसरी ओर अगर हिमाचल प्रदेश के कांग्रेसी घमासान पर नजर डालें, तो प्रदेश के 6 बार मुख्यमंत्री रहे दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह और उन के समर्थकों द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए होहल्ला मचाने के बावजूद अगर आलाकमान ने अपना कड़ा रुख बनाए रखा, तो इस की सब से बड़ी वजह यह रही कि कांग्रेस परिवारवाद के आरोप से उबरना चाहती है.

प्रतिभा सिंह के पति वीरभद्र सिंह हिमाचल प्रदेश में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे. उन के बेटे भी विधायक हैं और खुद प्रतिभा सिंह सांसद हैं. ऐसे में अगर प्रतिभा सिंह को मुख्यमंत्री या विक्रमादित्य को उपमुख्यमंत्री बनाया जाता तो एक बार फिर से कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगता. पर मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी

ने सख्ती दिखाई और प्रतिभा सिंह के बागी तेवरों के बावजूद उन की दाल नहीं गलने दी.

अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, तो मैनपुरी लोकसभा सीट पर पिछले दिनों हुए उपचुनाव में पार्टी की उम्मीदवार डिंपल यादव ने अपने भारतीय जनता पार्टी के रघुराज सिंह शाक्य को 2 लाख, 88 हजार, 461 वोटों के फर्क से हरा दिया था. जब डिंपल यादव ने लोकसभा सदस्य के रूप में शपथ ली, तब उन्होंने सोनिया गांधी के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.

इतना ही नहीं, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने उसी दौरान पत्रकारों से बात करते हुए इशारा किया कि साल 2024 के चुनाव के लिए विपक्ष एकजुट होगा. विपक्षी दल साल 2024 से पहले साथ आएंगे. नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, केसीआर सभी इस की कोशिश कर रहे हैं. विपक्ष की एकता और डिंपल यादव का सोनिया गांधी के पैर छूना भारतीय राजनीति के लिए नया संकेत है.

हाल के दिनों में कांग्रेस की बांछें खिलने की एक अहम वजह यह भी है कि इन दिनों पार्टी सोशल प्लेटफार्म पर बदलीबदली नजर आ रही है. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के ट्वीट और हैशटैग चुटीले हो चले हैं और अकसर ट्रैंड भी करते हैं. इस का असर पार्टी और राहुल गांधी के फौलोअर्स की तादाद पर भी साफ देखा जा सकता है.

अगर ऐसा ही रहा, तो साल 2023 में होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की एकजुटता को नया बल मिल सकता है और यह भारतीय जनता पार्टी के साथसाथ तमाम छोटे क्षेत्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है.

दशहरा रैली: लोकतंत्र का खेत

महाराष्ट्र में शिवसेना को लेकर  जिस तरह की खैघचमखैच देश में देखी है वह राजनीतिक इतिहास का विषय बन गई है. यह सारा देश जानता है कि शिवसेना की स्थापना बाला साहब ठाकरे ने की थी और वर्तमान शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे हैं. मगर अदृश्य संरक्षण में एकनाथ शिंदे ने बगावत करके जहां महाराष्ट्र में अपनी सरकार बना ली वहीं चाहते हैं कि शिवसेना पर भी अधिकार बन जाए. बाला साहब के उत्तराधिकारी के रूप में उद्धव ठाकरे का कोई नाम लेवा भी ना हो. मगर यह सब दिवास्वप्न तो हो सकता है मगर हकीकत नहीं बन पाया. इसका एक उदाहरण आज देश के सामने है दशहरा रैली के रूप में.

लगभग 50 वर्षों से बालासाहेब ठाकरे विजयादशमी के दिन रैली किया करते थे और देश को संबोधित करते थे. एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए तो यह प्रयास शुरू हो गया कि शिवसेना पर आ रहा करके उसकी पहचान जो दशहरा रैली से जुड़ी हुई है खत्म कर दी जाए.

मगर,बंबई उच्च न्यायालय ने उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना को मध्य मुंबई के शिवाजी पार्क में पांच अक्तूबर को वार्षिक दशहरा रैली के आयोजन की  अनुमति आखिरकार दे दी.

सच्चाई यह है कि है कि शिवसेना वर्षों से शिवाजी पार्क ( शिव – तीर्थ) में दशहरा रैली का आयोजन करती रही है, लेकिन इस साल मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे नीत शिवसेना के धड़े द्वारा भी दशहरे के दिन (पांच अक्तूबर को ) उसी मैदान में रैली आयोजित करने की अनुमति मांगे जाने के बाद यह कानूनी विवादों में घिर गया था .न्यायमूर्ति आरडी धनुका और न्यायमूर्ति कमल खाटा की खंडपीठ ने आदेश में कहा – दशहरा रैली आयोजित करने की अनुमति नहीं देने का बीएमसी का आदेश स्पष्ट रूप से कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है. बाला साहेब ठाकरे नीत शिवसेना गुट और उसके सचिव अनिल द्वारा बृहन्नमुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के आदेश को चुनौती दी थी. पीठ ने कहा कि हमारे विचार में बीएमसी ने साफ मन से फैसला नहीं लिया है.

जैसा कि सारा देश जानता है बाला साहब ठाकरे शिवसेना की स्थापना के साथ ही दसरा उत्सव पर रैली किया करते थे इसी सत्य को उच्च न्यायालय ने भी मान लिया‌ और कहा – याचिकाकर्ता को अतीत में शिवाजी पार्क में दशहरा रैली करने की अनुमति मिलती रही है.

दशहरा रैली को रोकना अनुमति नहीं देना स्पष्ट रूप से कानून का दुरुपयोग का मामला है इस और भी न्यायालय में टिप्पणी की गई.

एकनाथ शिंदे को पहला झटका

भारतीय जनता पार्टी के अदृश्य संरक्षण में एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए हैं इसके साथ ही सत्ता का दुरुपयोग करते हुए उन्हें सारा देश देख रहा है. उद्धव ठाकरे और शिवसेना के सामने अनेक अड़चनें खड़ी कर दी गई है यह सब कुछ सीधे-सीधे लोकतंत्र को कमजोर करने की तरह है कल्पना कीजिए कि अगर इस देश में न्यायालय स्वतंत्र ना हो तो क्या होता महाराष्ट्र में शिवसेना के दशहरा रैली के मसले को ही अगर हम इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाते हैं कि अगर एकनाथ शिंदे की चलती तो उद्धव ठाकरे को कदापि रैली की अनुमति नहीं दी जाती. आगे क्या होता आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उद्धव ठाकरे गुट की तरफ से एसपी चिनॉय ने बहस करते हुए हाई कोर्ट में यह कहा कि शिवसेना साल 1966 से शिवाजी पार्क में दशहरा रैली का आयोजन करती आई है. सिर्फ कोरोना काल के दौरान यह दशहरा रैली नहीं आयोजित हो पाई थी. अब कोरोना के बाद सभी त्यौहार मनाए जा रहे हैं. ऐसे में इस वर्ष हमको दशहरा रैली का आयोजन करना है जिसके लिए हमने अर्जी की है.  दशहरा रैली शिवसेना की कई दशक पुरानी परंपरा है जिसे कायम रखना हमारी जिम्मेदारी है. चिनॉय ने कहा कि हैरत वाली बात यह है कि अचानक एक और दूसरी अर्जी दशहरा रैली के लिए बीएमसी के पास आई है, जो गलत है.

दरअसल,लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सभी राजनीतिक दलों और संस्थाओं को अपनी मर्यादा कभी नहीं भूलनी चाहिए महत्वाकांक्षा  की लड़ाई में लोकतंत्र की खेत को चौपट करने का अधिकार किसी को भी नहीं है.

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