Family Story: पीयूषा – क्या विधवा मिताली की गृहस्थी दोबारा बस पाई?

Family Story, लेखिका: Sandhya

रविवार का दिन था. छुट्टी होने के कारण मैं इतमीनान से अपने कमरे में अखबार पढ़ रहा था, तो अचानक चाचाजी पर नजर पड़ी. वे सामने उदास व शांत खड़े हुए थे. मैं ने बैठने का आग्रह करते हुए कहा, ‘‘क्या बात है चाचाजी, परेशान से लग रहे हैं? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम से कुछ कहना चाहता हूं,’’ बैठने के बाद चाचाजी ने धीरे से कहा. मैं ने अखबार एक ओर रखते हुए कहा, ‘‘तो कहिए न चाचाजी.’’ लेकिन चाचाजी शांत ही बैठे रहे. मैं ने आग्रह करते हुए कहा, ‘‘क्या बात है चाचाजी? जो दिल में है बेझिझक कह दीजिए. आप का कथन मेरे लिए आदेश है,’’ चाचाजी की चुप्पी दरअसल मेरी बैचेनी बढ़ा रही थी. ‘‘बेटा पवन, तू ने कभी भी मेरी बात नहीं टाली है. आज भी इसी उम्मीद से तेरे पास आया हूं. तेरी चाची का और मेरा विचार है कि तू मिताली से शादी कर ले. उसे सहारा दे दे. बेचारी कम उम्र में विधवा हो गई है और दुनिया में एकदम अकेली है. मायके में उस का कोई नहीं है. हम बूढ़ाबूढ़ी का क्या भरोसा, तब वह अकेली कहां जाएगी…,’’ चाचाजी ने धीरेधीरे अपनी बात रखी. उन की आंखें सजल हो उठी थीं, गला भर आया था. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा चाचाजी की बातें सुन रहा था और क्या कहूं समझ नहीं पा रहा था. मेरे समक्ष एक ओर चाचाचाची का निर्णय था, तो दूसरी ओर मेरा प्यार जो पनप चुका था.

मुझे लग रहा था कि यह बात सच है कि जीवनपथ का अगला मोड़ क्या और कैसा होगा कोई नहीं जानता. आज जीवनपथ का ऐसा मोड़ मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ था, जिस में मुझे अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य एवं अपने प्यार में से किसी एक का चुनाव करना था.

मेरे जीवनपथ का प्रथम पड़ाव बचपन शुरू में काफी खुशहाल था. मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान हूं. पापा बैंक में मैनेजर थे और मां कुशल गृहिणी. चूंकि पापा घर के बड़े बेटे थे और मां अच्छे स्वभाव की महिला थीं, इसलिए मेरी वृद्धा दादी हमारे साथ ही रहती थीं. मुझे मांबाप के साथ दादी का भी भरपूर स्नेहप्यार मिलता रहा. पटना के सब से अच्छे स्कूल में मेरा दाखिला करवाया गया था. पढ़ाई में मेरी विशेष दिलचस्पी थी और शुरू से ही मैं मेधावी रहा, इसलिए अच्छे अंक लाता था. पढ़ाई के साथसाथ खेलकूद, गायन आदि में भी मेरी विशेष रुचि थी. मुझे मांपापा का पूरा प्रोत्साहन मिलता रहा, इसलिए सभी क्षेत्रों में अच्छा कर मैं परिवार एवं स्कूल की आंखों का तारा बना रहा. मेरे जीवनपथ में अचानक ही अत्यंत कठिन और पथरीला मोड़ आ खड़ा हुआ. मैं उस समय कक्षा 8 में पढ़ता था. मांपापा का अचानक रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. मेरे पास इस दुख को सहने की न तो बुद्धि थी न ही हिम्मत. मैं हताश और हारा हुआ सा सिर्फ रोता रहता था.

उस कठिन समय में दादी ने मुझे ढाढ़स बंधाया और अपने छोटे बेटे यानी मेरे चाचाजी के घर मुझे ले आईं. मैं चाचा चाची के साथ जमशेदपुर में रहने लगा. उन का इकलौता बेटा पीयूष था. वह मुझ से 2 साल छोटा था. चाचाजी ने उसी के स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया. मैं वहां भी अच्छे अंकों से पास होने लगा.

चाचाचाची मेरी रहने, खानेपीने, पढ़नेलिखने आदि सभी व्यवस्था देखते, लेकिन मेरे और पीयूष के प्रति उन के व्यवहार में थोड़ा फर्क रहता. जैसे चाची मुझ से नजरें बचा कर पीयूष को कुछ स्पैशल खाने को देतीं. लेकिन पीयूष मेरे लाख मना करने पर भी उसे मुझ से शेयर करता. मैं चाचाचाची के सारे भेदभाव नजरअंदाज कर तहे दिल से उन का आभार मानता कि उन्होंने मुझ बेसहारा को सहारा तो दिया ही अच्छे स्कूल में मेरा नाम भी लिखवाया. मेरी दादी जब तक रहीं मुझ पर विशेष ध्यान देती रहीं, किंतु वे मांपापा के आकस्मिक निधन से अंदर तक टूट चुकी थीं. उन के जाने के 2 वर्ष बाद वे भी चल बसीं.

चाचाचाची पीयूष की उच्च शिक्षा हेतु अकसर चर्चा करते किंतु मेरे संबंध में ऐसी कोई जिज्ञासा नहीं व्यक्त करते. मैं ने 12वीं की परीक्षा उच्च अंकों से पास की. फिर बी.कौम. करने के बाद बैंक परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर मैं सरकारी बैंक में पी.ओ. बन गया. इत्तफाक से मेरी नियुक्ति जमशेदपुर में ही हुई, तो मैं चाचाचाची के साथ ही रहा. वैसे भी मेरी दिली इच्छा यही थी कि मैं चाचाचाची के साथ रह कर उन्हें सहयोग दूं क्योंकि दोनों को ही बढ़ती उम्र के साथसाथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी होने लगी थीं.

पीयूष ने बैंगलुरु से एम.बी.ए. किया. वहीं उस का एक मल्टीनैशनल कंपनी में सिलैक्शन हो गया. हम सभी उस की खुशी से खुश थे. उसे जल्दी ही अपनी जूनियर मिताली से प्यार हो गया, तो चाचाचाची ने उस की पसंद को सहर्ष स्वीकार करते हुए धूमधाम से उस का विवाह कर दिया. शादी के बाद पीयूष और मिताली बैंगलुरु लौट गए. पीयूष की शादी के बाद मेरा मन कुछ ज्यादा ही खालीपन महसूस करने लगा. उसी दौरान कविता ने कब इस में जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला. कविता मेरी ही बस से आतीजाती थी. सुंदर, सुशील, सभ्य कविता विशाल हृदय मालूम होती, क्योंकि हमेशा ही सब की सहायता हेतु तत्पर दिखाई देती. कभी किसी अंधे को सड़क पार करवाती, तो कभी किसी बच्चे की सहायता करती. बस में वृद्ध या गर्भवती महिला को तुरंत अपनी सीट औफर कर देती. मुझे उस की ये सब बातें बहुत अच्छी लगती थीं, क्योंकि वे मेरे स्वभाव से मेल खाती थीं. हम दोनों में छोटीछोटी बातें होने लगीं.

धीरेधीरे हम एकदूसरे के लिए जगह रख, साथ ही जानेआने लगे. दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता. मैं उस के प्रति आकर्षण महसूस करता किंतु चाह कर भी उस के सामने व्यक्त नहीं कर पाता. उस की दशा भी मेरे समान ही महसूस होती, क्योंकि उस की आंखों में चाहत, समर्पण दिखाई देता. किंतु शर्मोहया का बंधन उसे भी जकड़े हुए था.

मैं अपने विवाह हेतु चाची से चर्चा करना चाहता किंतु झिझक महसूस होती. कई बार पीयूष की मदद लेने का विचार आता किंतु वह अपनी नौकरी एवं गृहस्थी में ऐसा व्यस्त और मस्त था कि उस से चर्चा करने का अवसर ही नहीं मिल पाता. इस के अलावा उस का हमारे पास आना भी बहुत कम एवं सीमित समय के लिए हो पाता. उस दौरान मेरा संकोची स्वभाव कुछ व्यक्त नहीं कर पाता. मिताली के गर्भवती होने पर चाची उसे लंबी छुट्टी दिलवा कर अपने साथ ले आईं. 5 माह का गर्भ हो चुका था.

चाची बड़ी लगन एवं जिम्मेदारी से उस की देखभाल करतीं, तो नए मेहमान के आगमन की खुशी से घर में हर समय त्योहार जैसा माहौल बना रहता. मैं अपने संकोची स्वभाव के कारण मिताली से थोड़ा दूरदूर ही रहता. हम दोनों में कभीकभी ही कुछ बात होती. जीवन अपनी गति से चल रहा था कि अचानक पीयूष का रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. घर में मानो कुहराम मच गया. चाचाचाची का रोरो कर बुरा हाल था. मिताली तो पत्थर की मूर्ति सी बन गई. एकदम शांत, गमगीन. मैं स्वयं के साथसाथ सभी को संभालने की असफल कोशिश में लगा रहता. मिताली को समझाते हुए कहता कि मिताली कम से कम बच्चे के बारे में तो सोचो उस पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, तो वह आंसू पोंछते हुए सुबकने लगती. पीयूष के जाने बाद हम सभी का जीवन रंगहीन, उमंगहीन हो गया था. हम सभी यंत्रवत अपनाअपना काम करते और एकदूसरे से नजरें चुराते हुए मालूम होते.

जीवनयात्रा की टेढ़ीमेढ़ी डगर मेरे मनमस्तिष्क में हलचल मचा रही थी. चाचाजी मिताली से विवाह करने की बात पर मेरा जवाब सुनना चाह रहे थे. वे मेरी सहमति की आस लगाए बैठे थे और मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मेरा गुजरा कल आज मिताली के साथ में मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ है. कल जब मैं अपने मातापिता से बिछुड़ कर चाचाचाची के समक्ष सहारे की उम्मीद लिए आ खड़ा हुआ था, यदि उस समय उन्होंने सहारा नहीं दिया होता तो मेरा जाने क्या होता. सत्य है इतिहास स्वयं को दोहराता है. वैसे चाचाजी यदि मेरी जान भी मांग लेते तो बिना सोचेविचारे मैं सहर्ष दे देता, किंतु चाचाजी ने मिताली से विवाह का प्रस्ताव रख मुझे असमंजस में डाल दिया था. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘चाचाजी, मिताली को मैं ने हमेशा अपनी छोटी बहन माना है. ऐसे में भला मैं उस से शादी कैसे कर सकता हूं?’’

‘‘बेटा, तुम निराश करोगे तो हम कहां जाएंगे,’’ कहते हुए चाचाजी रो पड़े. मैं ने उन्हें संभालते हुए कहा, ‘‘चाचाजी, स्वयं को संभालिए. यों निराश होने से समस्या का समाधान कैसे निकलेगा? मैं नहीं जानता था कि आप लोग मिताली के पुनर्विवाह हेतु विचार कर रहे हैं. दरअसल, मेरा मित्र पंकज अपने विधुर भैया प्रसुन्न के लिए मुझ से मिताली का हाथ मांग रहा था, किंतु मैं उस के प्रस्ताव पर उस पर बिफर पड़ा था कि अभी बेचारी पीयूष के गम से उबर भी नहीं पाई है, उस का बच्चा मिताली के गर्भ में है, ऐसे में उस से मैं कहीं और शादी करने के लिए कैसे बोल सकता हूं. ‘‘उस ने मुझे समझाते हुए कहा था कि दोस्त गंभीरता से विचार कर. जो हुआ बहुत बुरा हुआ किंतु वह हो चुका है, तो अब उस से निकलने का उपाय सोचना होगा. मेरी भाभी बेटे के जन्म के साथ चल बसीं. आज बेटा डेढ़ वर्ष का हो गया है.

मेरी मां बेटे प्रखर का पालनपोषण करती हैं किंतु वे बूढ़ी और बीमार हैं. भैया दूसरी शादी के लिए इसलिए इनकार कर देते हैं कि अगर उन की दूसरी पत्नी उन के जान से प्यारे प्रखर के साथ बुरा व्यवहार करेगी तो वे बरदाश्त नहीं कर पाएंगे. वही सिचुएशन मिताली के समक्ष भी आ खड़ी हुई है. लेकिन वह बेचारी जिंदगी किस सहारे निकालेगी?

‘‘उस ने मुझे विस्तार से समझाते हुए कहा कि देख दोस्त मेरे भैया और मिताली दोनों संयोगवश अपने जीवनसाथियों से बिछुड़ आधेअधूरे रह गए हैं. हम दोनों को मिला कर उन के जीवन को सरस एवं सफल बनाएं, यही सर्वथा उचित होगा. मैं ने बहुत चिंतनमनन के बाद तेरे समक्ष यह प्रस्ताव रखा है. दोनों एकदूसरे के बच्चे को अपना कर जीवनसाथी बन जाएं, इसी में दोनों का सुख है. जो घटित हुआ उसे तो बदला नहीं जा सकता, किंतु उन का भविष्य तो अवश्य सुधारा जा सकता है. ‘‘गंभीरता से विचार करने पर मुझे भी पंकज का प्रस्ताव उचित लगा, किंतु आप लोगों से इस के बारे में चर्चा करने का साहस मुझ में न था. आज आप ने चर्चा की तो कहने का साहस जुटा पाया.’’

चाचाजी मेरी बातें शांति से सुन रहे थे और समझ भी रहे थे, क्योंकि अब वे संतुष्ट नजर आ रहे थे. चाचीजी जो अब तक परदे की ओट से हमारी बातें सुन रही थीं, लपक कर हमारे सामने आ खड़ी हुईं और अधीरता से बोलीं, ‘‘बेटा, कैसे हैं पंकज के भैया? क्या करते हैं? उम्र क्या है उन की और क्या तू उन से मिला है? वगैरहवगैरह.’’

मैं ने उन को पलंग पर बैठाते हुए कहा, ‘‘चाचीजी, पहले आप इतमीनान से बैठिए. मैं सब बताता हूं. बड़े नेक और संस्कारवान इनसान हैं. सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं और मेरी ही उम्र के होंगे, क्योंकि पंकज से 2 साल ही बड़े हैं. पंकज मुझ से लगभग 2 साल ही छोटा है. वैसे आप लोग पहले उन से मिल लीजिए, उस के बाद निर्णय लीजिएगा. मैं तो मिताली को देख कर चिंतित हो जाता हूं. समझ नहीं पाता हूं कि वह इस बात के लिए तैयार होगी या नहीं. अभी बेहद गुमसुम व गमगीन रहती है.’’

‘‘बेटा, तू चिंता न कर. उसे विवाह के लिए हम सभी को प्रोत्साहित करना होगा. विवाह होने से वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करेगी जिस का प्रभाव गर्भ पर भी सकारात्मक पड़ेगा. बेटा, वह अभी स्वयं को अकेली एवं असुरक्षित महसूस करती होगी. एक औरत होने के नाते मैं उस की भावनाएं समझ सकती हूं. यदि उसे सहारा मिल जाएगा तब उसे दुनिया और जीवन प्रकाशवान लगने लगेगा. हम सब के सहयोग और प्रोत्साहन से वह सामान्य जीवन के प्रति अग्रसर हो जाएगी,’’ चाची ने समझाते हुए कहा. फिर चाची 2 मिनट बाद बोलीं, ‘‘बेटा पवन मिताली की शादी के बाद हम तेरी शादी भी कर देना चाहते हैं.’’

‘‘ठीक है चाची, लेकिन अभी हमें सिर्फ मिताली के संबंध में ही सोचना चाहिए. कच्ची उम्र में बड़ी विपदा उस पर आ पड़ी है.’’ ‘‘हां बेटा, बहुत दुख लगता है उसे यों मूर्त बना देख कर, लेकिन तेरी जिम्मेदारी भी पूरी कर देना चाहती हूं. कोई नजर में हो तो बता देना,’’ कहते हुए चाची ने स्नेह से मेरा सिर सहला दिया. मैं कविता को याद कर अहिस्ता से मुसकरा दिया. प्रसुन्न भैया के साथ मिताली की शादी कर दी गई. उन के प्यार, संरक्षण एवं हम सभी के स्नेह, सहयोग एवं प्रोत्साहन से मिताली ने स्वयं को संभाल लिया. समय से उस ने प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, तो हम सभी को सारा संसार गुलजार महसूस होने लगा. सब से बड़ी बात तो यह हुई कि अब मिताली खुश रहने लगी. बच्ची के नामकरण हेतु घर में चर्चा होने लगी, तो मैं ने कहा, ‘‘प्रसुन्न भैया, आप ने बेटे का नाम प्रखर बहुत प्यारा एवं सारगर्भित रखा है. उसी तरह बेटी का नाम भी आप ही बताएं.’’

प्रसुन्न भैया 2 पल सोच कर मुसकराते हुए बोले, ‘‘मेरी बेटी का नाम होगा पीयूषा, जो है तो पीयूष की निशानी किंतु दुनिया उसे मेरी निशानी के रूप में पहचानेगी.’’ फिर प्यार से उन्होंने मिताली की ओर देखा. मिताली उन्हें आदर और प्यार से देखने लगी मानों कह रही हो कि आप को पा कर मैं धन्य हो गई.

Family Story: हृदयहीन – एक मध्यमवर्गीय परिवार की दिलचस्प कहानी

Family Story: ड्राइंगरूम में मम्मीपापा के साथ पड़ोस में रहने वाले अशोक अंकल और एक अनजान दंपती को देख कर दिव्या का चौंकना स्वाभाविक था.

‘‘लगता है बिटिया ने मुझे पहचाना नहीं,’’ अनजान सज्जन हंसे.

दिव्या ने उन्हें गौर से देखा, उसे पहचानते देर नहीं लगी कि ये तो उमेश चंद्र थे जो चंद घंटे पहले उस के होटल में अपनी बेटी की शादी के लिए हौल बुक कराने आए थे. उन्होंने बातचीत के दौरान उस से घरपरिवार के बारे में पूछा था. दिव्या ने उन की सज्जनता के प्रभाव में काफी कुछ बता दिया था. घर का पता सुनते ही उन्होंने कहा था कि स्टार टावर्स में तो उन के एक मित्र अशोक मित्तल भी रहते हैं और दिव्या ने बताया था कि वे उस के पापा के भी अच्छे दोस्त हैं.

‘‘सौरी अंकल, सोचा नहीं था कि आप से यहां और इतनी जल्दी मुलाकात होगी.’’

‘‘अब तो मुलाकातों का यह सिल- सिला चलता ही रहेगा बिटिया, अभी चलते हैं, फिर आएंगे,’’ उमेश चंद्र उठ खड़े हुए.

‘‘फिर भी आ जाइएगा अंकल, मगर अभी तो बैठिए,’’ दिव्या आग्रह करते हुए बोली, ‘‘आंटी से तो मेरा परिचय कराया ही नहीं.’’

‘‘परिचय क्या, आंटी तो तुम्हारी पूरी जन्मपत्री ले चुकी हैं. क्यों? यह आराम से जयाजी और उदयजी से सुनना, अभी हमें जाने दो, घर पर बच्चे इंतजार कर रहे हैं.’’

उन के जाने के बाद दिव्या ने देखा, मेज पर परिवार की कई तसवीरें बिखरी हुई थीं.

‘‘यह सब क्या है, मम्मी?’’

‘‘सब तेरा अपना कियाधरा है दिव्या, मम्मी का कोई कसूर नहीं है,’’ उदय ने कहा.

‘‘मेरा कियाधरा? मैं ने क्या किया है?’’ दिव्या ने झुंझला कर पूछा.

‘‘उमेश चंद्र से बेहद शालीनता और विनम्रता से बातें…’’

‘‘वह तो मेरी नौकरी का हिस्सा है मम्मी,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे तनख्वाह ही उसी की मिलती है और अभी जो रुकने को कहा वह आप का सिखाया शिष्टाचार है. खैर, वे यहां आए किस खुशी में थे?’’

‘‘अपने इकलौते इंजीनियर बेटे देवेश के लिए तेरा हाथ मांगने.’’

‘‘और आप ने फौरन देने का वादा कर दिया?’’ दिव्या चिल्लाई.

‘‘वह लड़का देखने के बाद तेरी मरजी पूछ कर करेंगे, फिलहाल मिलने और लड़का देखने में हमें कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा,’’ उदय ने कहा, ‘‘अगर लड़का अच्छा नहीं लगा तो मना कर देंगे.’’

दिव्या ने गहरी सांस ली.

‘‘वह तो आप शायद नहीं करेंगे, क्योंकि देवेश विनम्र और आकर्षक है, कल आया था हमारे होटल में हौल देखने.’’

‘‘हौल के साथ ही उस ने तुझे भी पसंद कर लिया और आज बात करने के लिए बाप को भेज दिया,’’ जया हंसीं.

‘‘उस ने शायद मुझे देखा भी न हो क्योंकि उस ने आते ही मेरे सहकर्मी विकास से बात की थी. वह केवल बैंक्वेट हौल को देखने और उस का किराया पता करने आया था और विकास से जरूरी जानकारी ले कर तभी चला गया था. उस समय मैं विकास की बराबर वाली सीट पर बैठी थी. इसलिए मेरा उसे देखना या उस की बात सुनना स्वाभाविक था.’’

‘‘यानी लड़का तुझे पसंद आया?’’

‘‘आप भी कमाल करती हैं, मम्मी. होटल में मेरे साथ एक से बढ़ कर एक स्मार्ट लोग काम करते हैं, पांचसितारा होटल में आने वाले सभी शालीन ही लगते हैं और मैं सब को पसंद करने लग गई तो हो गई छुट्टी. एक बात और, प्रोबेशन पीरियड में आप मेरी शादी की बात सोच भी कैसे सकती हैं?’’

‘‘तेरे पापा ने तो उमेश चंद्र को यह भी बताया था कि अपने बेटे सौरभ की गैरहाजिरी में वे बेटी की शादी की सोच भी नहीं सकते और सौरभ अगले साल के अंत से पहले नहीं आ सकता तो उन्होंने कहा कि उन्हें भी कोई जल्दी नहीं है.’’

‘‘पूरी बात बताओ न जया, उमेश चंद्र ने साफ कहा कि बेटी की शादी करने के तुरंत बाद बेटे की शादी करने लायक उन की हैसियत नहीं है लेकिन लड़की अच्छी लगी, इसलिए बात करने चले आए इस उम्मीद से कि शायद हम कुछ समय बाद शादी करने के लिए मान जाएं. हमें वे सुलझे हुए लोग लगे इसलिए हम ने उन्हें सपरिवार बुलाया है. लड़के की सुविधानुसार आएंगे वे किसी दिन.’’

‘‘यह भी बता दिया न कि मुझे उन के लड़के की सुविधानुसार जब चाहे तब छुट्टी नहीं मिलेगी?’’

‘‘अपनी छुट्टी का दिन और घर आने का समय तो तू स्वयं ही उन्हें बता चुकी है,’’ जया और उदय हंसने लगे.

दिव्या मुंह बनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

अगले सप्ताह उमेश चंद्र पत्नी और बेटीबेटे के साथ आए. दिव्या को पापा से सहमत होना पड़ा कि सुलझे हुए लोग हैं. देवेश ने उस से साफ कहा कि वह दहेज में कुछ नहीं लेगा और दिव्या को अपने शौक उस की या अपनी सीमित आय में ही पूरे करने होंगे. इकलौता बेटा है इसलिए मातापिता के प्रति उस के कुछ दायित्व हैं. उन्हें छोड़ कर न तो वह ज्यादा पैसे के लालच में विदेश जाएगा और न ही तरक्की के लिए किसी दूसरे शहर में. दिव्या को इसी शहर में उस के मातापिता के साथ रहना पड़ेगा. दोनों ही शर्तें दिव्या को मंजूर थीं क्योंकि उस के मातापिता भी यह शहर छोड़ कर जाने वाले नहीं थे. यहां रहते हुए वह बराबर उन का खयाल भी रख सकेगी और देवेश का संयुक्त परिवार होने से जरूरत पड़ने पर मम्मीपापा के पास आ कर रहने में भी आसानी रहेगी. जल्दी ही दोनों की सगाई हो गई. सगाई के बावजूद देवेश का व्यवहार बहुत सौम्य और शालीन था. वह दिव्या को फोन करता था, उस से मिलने आता और घुमाने भी ले जाता था लेकिन दिव्या की सुविधानुसार. उस का कहना था कि प्रोबेशन पीरियड पूरे कैरियर की नींव है. अगर वह पुख्ता हो गई तो बुलंदियों को छूना मुश्किल नहीं होगा. दिव्या का भी यही सपना था, होटल की सर्वोच्च कुरसी पर बैठना. देवेश जैसे समझदार जीवनसाथी के साथ अब यह मुश्किल नहीं लग रहा था.

दिव्या के प्रोबेशन पीरियड पूरे होने से कुछ रोज पहले सीढि़यों से गिरने के कारण जया के दाहिने कंधे की हड्डी कई जगह से टूट गई. कई घंटे के औपरेशन के बाद कंधे को जोड़ तो दिया गया लेकिन डाक्टर ने उन्हें आराम और एहतियात बरतने को कहा था. मां के फ्रैक्चर की खबर सुनते ही दिव्या की बड़ी बहन विजया भी आ गई थी, उस के रहते दिव्या काम पर जाती रही लेकिन विजया अपना घर और बच्चे छोड़ कर कितने रोज तक रुक सकती थी. जया तो पूरी तरह से विजया पर आश्रित थीं. उन्हें सहारा दे कर उठानाबैठाना, यहां तक कि एक खास अवस्था में लिटाना तक पड़ता था. पापा कितनी छुट्टी लेते और फिर मां और घर दोनों की देखभाल उन के बस की बात नहीं थी. दिव्या को छुट्टी तो नहीं मिल सकती थी लेकिन प्रोबेशन पीरियड पूरा होते ही वह नौकरी छोड़ सकती थी, इसलिए उस ने वही किया. मम्मीपापा ने तो नौकरी छोड़ने के लिए मना किया था लेकिन दिव्या के यह कहने पर कि नौकरी तो कभी भी दोबारा मिल जाएगी लेकिन तीमारदारी में थोड़ी सी कोताही हो गई तो मम्मी हमेशा के लिए अपाहिज हो जाएंगी, वे गद्गद हो गए. सौरभ और विजया ने भी उस की बहुत तारीफ की और आभार माना लेकिन देवेश यह सुनते ही कि उस ने नौकरी छोड़ दी है, बुरी तरह भड़क गया.

‘‘किस ने कहा था तुम्हें लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ने के लिए?’’

‘‘मेरी अंतरात्मा ने, अपनी मम्मी के प्रति जो मेरा कर्तव्यबोध है, उस ने.’’

‘‘कर्तव्य केवल तुम्हारा ही है? तुम्हारे बहनभाई या पापा का नहीं?’’

‘‘विजया दीदी घर और बच्चे छोड़ कर जितना रुक सकती थीं, रुक गईं, सौरभ भैया स्कौलरशिप पर पीएचडी कर रहे हैं इसलिए बीच में छोड़ कर नहीं आ सकते लेकिन पार्ट टाइम जौब कर के पैसा भेज रहे हैं…’’

‘‘तो उस पैसे से तुम्हारे पापा मम्मी के लिए ट्रेंड नर्स क्यों नहीं रखते?’’ देवेश ने बात काटी.

‘‘नर्स तो है ही देवेश लेकिन उस पर नजर रखने और मम्मी का मनोबल बनाए रखने के लिए परिवार के किसी सदस्य का हरदम उन के साथ रहना जरूरी है और फिलहाल यह काम मैं ही कर सकती हूं.’’

‘‘पांचसितारा होटल की नौकरी छोड़ कर? नौकरी छोड़ने से पहले किसी से पूछा तो होता?’’

‘‘जरूर पूछती अगर कोई गलत काम कर रही होती तो. मम्मी के बिलकुल ठीक होने के बाद फिर नौकरी तलाश कर लूंगी. वैसे यह होटल भी दोबारा जौइन कर सकती हूं.’’

‘‘लेकिन उसी पोजीशन और तनख्वाह पर, जिस पर तुम कल तक थीं,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा, ‘‘अगर 6 महीने के बाद भी जौइन किया तो लौंग रन में जानती हो कितने का नुकसान होगा?’’

दिव्या का मन एक अजीब से अवसाद से भर उठा. कमाल का आदमी है, मानवीय संवेदनाओं को पैसे से तौल रहा है. लेकिन वह कुछ बोली नहीं, मम्मी के आईसीयू में रहने के दौरान देवेश बराबर पापा के साथ रहा था और उन्हें सौरभ की कमी महसूस नहीं होने दी थी. उस के घर वाले भी परिवार की तरह उन सब के लिए खाना लाते थे, जया को तसल्ली दिया करते थे.

उदय और जया बहुत खुश थे कि दिव्या को इतना अच्छा घरवर मिला है. दिव्या को लगा कि नौकरी में अनुभव होने के कारण शायद देवेश को मालूम होगा कि नौकरी में वरीयता की क्या अहमियत है मगर दिव्या की वरीयता तो मम्मी की संतुष्टि और सेहत थी. देवेश रोज ही शाम को जया को देखने आया करता था लेकिन उस रोज के बाद वह नहीं आया और न ही उस ने फोन किया. 2-3 रोज के बाद जया ने पूछा कि देवेश क्यों नहीं आ रहा है तो दिव्या ने उन्हें टालने को कह दिया कि काम में व्यस्त है. जया को तसल्ली नहीं हुई और अगले रोज उन्होंने स्वयं देवेश को फोन किया.

‘‘क्या बात है बेटा, तुम घर आ नहीं रहे, बहुत व्यस्त हो काम में?’’

‘‘काम छोड़ कर दिव्या बैठ तो गई है आप के सिरहाने,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा.

‘‘हां बेटा, रातदिन साए की तरह मेरे साथ रहती है. तभी कह रही हूं कि तुम आ जाओगे तो उस का ध्यान बंटेगा, हंसबोल लेगी तुम से.’’

‘‘उस के हंसनेबोलने की तो आप को फिक्र है लेकिन उस के कैरियर की नहीं, अभी भी देर नहीं हुई है, उसे समझा कर भेज दीजिए काम पर,’’ देवेश के स्वर में व्यंग्य था या आदेश, जया समझ नहीं सकीं.

‘‘देवेश को शायद दिव्या का नौकरी छोड़ना पसंद नहीं आया,’’ जया ने शाम को उदय के घर लौटने पर कहा.

‘‘शायद क्या, बिलकुल पसंद नहीं आया,’’ दिव्या बोली, ‘‘सुनते ही बौखला गया और लगा उलटासीधा बोलने.’’

‘‘कुछ ऐसा ही हाल उस के पिताजी का भी हुआ था,’’ उदय ने हंस कर कहा, ‘‘वे भी बौखला कर कहने लगे कि दुनिया में बहुत से लोग बाएं हाथ से सब काम करते हैं, जयाजी भी करना सीख लेंगी. उस के लिए दिव्या का कैरियर क्यों खराब कर रहे हैं? सोचा नहीं था कि उमेश चंद्रजी जैसे सज्जन व्यक्ति ऐसी बेहूदा बात कर सकते हैं.’’

‘‘जब उन्हें पसंद नहीं है तो तेरा काम पर लौटना ही मुनासिब होगा, दिव्या,’’ जया ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘काम पर तो लौटना है ही और जरूर लौटूंगी, मम्मी, लेकिन तब जब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी यानी मुझे अपने हाथ से बनाए परांठे खिला कर काम पर भेजेंगी.’’

‘‘और अगर मैं इस काबिल न हुई तो?’’

‘‘क्यों नहीं होगी?’’ दिव्या ने जिरह की, ‘‘औपरेशन से हड्डियां बिलकुल सही बैठा दी गई हैं. बस, अब इंतजार है उन के जुड़ने का और वे भी सही जुड़ जाएंगी अगर आप फालतू में हिलेंगीडुलेंगी नहीं और उस की चौकसी करने को मैं हूं ही.’’

‘‘ससुराल वालों की नाराजगी की कीमत पर?’’

‘‘वे अभी मेरे ससुराल वाले नहीं हैं, मम्मी. और न ही फिलहाल उन्हें मेरे व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करने का हक है.’’

‘‘यह तो तू ठीक कह रही है बेटी,’’ पापा ने बात काटी, ‘‘नौकरी करना या छोड़ना एक नितांत व्यक्तिगत मामला है, खासकर उन लड़कियों के लिए जो शौक के लिए नौकरी करती हैं, पैसों के लिए नहीं.’’

‘‘यही नहीं पापा, बात भावनाओं को समझने की भी तो है. जो लोग हमारे हालात और मजबूरियों को नहीं समझ रहे, वे सज्जनता का मुखौटा लगाए संवेदनहीन लोग नहीं हैं क्या?’’ दिव्या ने पूछा.

‘‘जहां पैसे का सवाल हो बेटा वहां मध्यम वर्ग के लोग भावुक होने के बजाय अकसर व्यावहारिक हो जाते हैं.’’

‘‘लेकिन अभी तो पैसा उन की जेब से नहीं जा रहा. दूसरी बात यह कि उन्होंने आप को बताया था कि अपने काम के प्रति मेरी निष्ठा से प्रभावित हो कर वे आप से मेरा हाथ मांगने आए थे, फिर अब अपने कर्तव्य या मां के प्रति मेरी निष्ठा से उन्हें तकलीफ क्यों हो रही है?’’ दिव्या ने फिर पूछा.

‘‘कभी मौका देख कर देवेश से पूछ लेना,’’ उदय ने टालने के स्वर में कहा लेकिन उमेश चंद्र और देवेश का व्यवहार उन्हें भी सामान्य नहीं लगा था और वे भी जानना चाहते थे कि कहीं उन लोगों ने दिव्या के रूपगुण की अपेक्षा उस की तगड़ी तनख्वाह से प्रभावित हो कर तो रिश्ता नहीं किया था? उस के बाद देवेश या उमेश चंद्र ने फोन नहीं किया. जया चाहती थीं कि उन से संपर्क किया जाए मगर दिव्या नहीं मानी.

‘‘परेशानी हमारे घर में है मम्मी, इसलिए उन लोगों को हमारी खैरखबर पूछनी चाहिए और अगर वे लोग मेरी नौकरी छोड़ने से नाराज हैं तो भूल जाइए कि मैं उन की खुशी के लिए आप के ठीक होने से पहले नौकरी जौइन करूंगी, इसलिए बेहतर है कि हम अभी चुप रहें,’’ दिव्या ने दृढ़ स्वर में कहा. जया और उदय दिव्या से सहमत तो थे लेकिन फिर भी उन्हें यह सब ठीक नहीं लग रहा था और वे किसी तरह उन लोगों का हालचाल जानना चाहते थे. इसलिए उदय एक रोज अशोक मित्तल से मिलने के लिए उन के घर गए. कुछ देर अशोक से इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने उमेश चंद्र का जिक्र छेड़ा.

‘‘यार क्या बताऊं, कंधा तो भाभीजी का टूटा मगर उम्मीदें और दिल उमेश के परिवार के टूट गए,’’ अशोक ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘असल में अपने मध्यम वर्ग को आदर्शवादी बनना रास नहीं आता. ईमानदारी से नौकरी करते हुए उमेश ने बच्चों को हैसियत से बढ़ कर उच्च शिक्षा दिलवाई, लड़की की शादी में खर्च भी दिल खोल कर किया और यह फैसला भी किया कि लड़के की शादी में दहेज नहीं लेगा, किसी अच्छी नौकरी वाली लड़की को ही बहू बनाएगा. देवेश भी अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित लड़की से ही शादी करना चाहता था ताकि घर में मां की सत्ता बरकरार रहे और बीवी की तगड़ी तनख्वाह भी आती रहे. दिव्या से मिलने के बाद परिवार को अपना सपना साकार होता लगा लेकिन भाभीजी ने अपने कंधे के साथ ही उन का सपना भी चकनाचूर कर दिया. भाभीजी का कंधा तो खैर सही इलाज से जुड़ गया है मगर उमेश के परिवार के सपने जुड़ने में समय लगेगा.’’

‘‘वह क्यों?’’

‘‘क्योंकि देवेश को एक स्ट्रिक्टली कैरियर माइंडिड लड़की चाहिए. हालांकि इस बीच उसे दिव्या से प्यार भी हो गया है लेकिन उसे लगता है कि दिव्या अपने कैरियर के प्रति नहीं, घरपरिवार के प्रति अधिक समर्पित है. घरपरिवार में तो परेशानियां आती ही रहेंगी, खासकर बालबच्चे होने के बाद. इसलिए दिव्या जबतब छुट्टी ले कर या तो अपनी तरक्की के अवसर खराब किया करेगी या नौकरी छोड़ दिया करेगी…’’

‘‘और यह देवेश की तिकड़मी योजनाओं के अनुकूल नहीं है,’’ उदय ने बात काटी.

‘‘बिलकुल. मैं ने समझाया है कि यह कोई ऐसी गंभीर समस्या नहीं है, प्रभुत्व वाले पद पर पहुंचने के बाद हर कोई प्रैक्टिकल हो जाता है, दिव्या भी हो जाएगी. वह मेरी इस बात से तो सहमत है.’’

‘देवेश हो सकता है सहमत हो लेकिन दिव्या जैसी संवेदनशील लड़की प्रैक्टिकल होते हुए भी कभी भी देवेश जैसे हृदयहीन व्यक्ति के तिकड़मी विचारों से सहमत नहीं होगी और न ही तालमेल बिठा पाएगी,’ उदय ने घर लौटते हुए सोचा, ‘और इस के लिए मैं और जया कभी भी उस पर दबाव नहीं डालेंगे.’

Family Story: दो टकिया दी नौकरी

Family Story, Writer- Bhawna Gaur

‘‘हैलो,’’फोन पर विद्या की जानीपहचानी आवाज सुन कर स्नेहा चहक उठी.

‘‘क्या हालचाल हैं… और सुना सब कैसा चल रहा है…’’ कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों अपनेअपने पति की बुराई में लग गईं.

‘‘प्रखर को तो घर की कोई चिंता ही नहीं रहती. कल मैं ने बोला था कि शाम को जल्दी आ जाना. टिंकू के जूते खरीदने हैं. पर इतनी देर में आया कि क्या बताऊं,’’ विद्या बोली.

 स्नेहा यह सुन कर क्या बोली

यह सुन कर स्नेहा भी बोल पड़ी, ‘‘यह रूपेश भी ऐसा ही करता है. जब जल्दी आने को बोलूं तो और भी देर से आता है. शुक्रवार की ही बात ले लो. नई फिल्म देखने का प्लान था हमारा… इतनी देर से आया कि आधी फिल्म छूट गई.’’

दोनों गृहिणियां थीं. दोनों के पति एक ही कंपनी में काम करते थे. बच्चे भी लगभग समान उम्र के थे. दोनों का अपने पति की औफिस की पार्टी के दौरान एकदूसरे से पहली बार मिलना हुआ था. दोनों के पति एक ही औफिस में काम करने के कारण लगभग एक ही तरह की समस्या से गुजरते थे. शुरुआत में दोनों अपनेअपने पति के औफिस के बारे में ही बातें किया करती थीं, लेकिन जल्दी ही उन की बातों का विषय अपनेअपने पति की बुराई करना बन गया.

तभी स्नेहा के घर की घंटी बजी तो वह बोली, ‘‘विद्या, शायद मेरी कामवाली आ गई है. चल, बाद में फोन करती हूं,’’ कह कर स्नेहा ने फोन काट दिया. दरवाजा खोलते ही रमाबाई अंदर आ गई और फिर जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी.

‘‘क्या बात है रमा… आज बड़ी जल्दी में लग रही हो?’’ स्नेहा ने पूछा तो वह रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ?’’ स्नेहा ने हैरान होते हुए पूछा.

तब रमा रोतेरोते बोली, ‘‘क्या बताएं बीबीजी, हमारा आदमी एक स्कूल बस के ड्राइवर की नौकरी करता था. कल गलती से स्कूल के एक बच्चे को स्कूल के लिए लेना भूल गया तो नाराज हो कर मालिक ने नौकरी से ही निकाल दिया.’’

‘‘उफ,’’ स्नेहा को सहानुभूति हुई.

फिर रमाबाई अपना काम कर के चली गई. तब स्नेहा को याद आया कि आज तो सब्जी भी नहीं है. लव और कुश भी स्कूल से आते ही होंगे. जल्दीजल्दी सब्जी की दुकान की तरफ चल दी. मन ही मन बड़बड़ा रही थी कि यह रूपेश सब्जी तक नहीं ले कर आता. सारा काम खुद ही करना पड़ता है.

स्नेहा घर आ कर खाना बनाने में जुट गई. बच्चों के स्कूल से आने के बाद उन्हें खाना खिलाना, पार्क ले जाना, होमवर्क करवाना आदि इन्हीं सब में शाम बीत जाती. रात के खाने की तैयारी के दौरान रूपेश भी घर आ जाता. बस खाना खा कर सो जाता. यही उस की दिनचर्या बन गई थी.

कभीकभी स्नेहा इस दिनचर्या से आ जाती तंग 

कभीकभी स्नेहा इस दिनचर्या से तंग आ जाती तो रूपेश के घर आते ही उस से झगड़ पड़ती, ‘‘तुम मेरे लिए तो छोड़ो, बच्चों तक के लिए समय नहीं देते.’’

जवाब में रूपेश भी गुस्सा करता, ‘‘तुम पूरा दिन घर में रहती हो. तुम्हें क्या पता मुझे दिन भर कितनी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. तुम विद्या से पूछना. प्रखर भी अभी तक रुका हुआ था… कंपनी की हालत ठीक नहीं चल रही है. जब से यह अशोका नामक नई कंपनी खुली है तब से हमारी कंपनी का बिजनैस काफी कम हो गया है.’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी कंपनी में रोज ही कोई न कोई समस्या होती है. अरे, इतनी ही बुरी हालत है तो कंपनी छोड़ ही क्यों नहीं देते?’’ स्नेहा गुस्से में बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई.

अगले दिन फिर सुबह फोन पर रूपेश और प्रखर की बुराई का सिलसिला चल पड़ता.

विद्या और स्नेहा ने एक रविवार को साथ पिकनिक का प्लान बनाया. हंसीमजाक, मौजमस्ती के बीच में भी प्रखर और रूपेश कंपनी की बातें करते जा रहे थे.

आखिरकार स्नेहा खीज कर बोली, ‘‘तुम लोग यह कंपनी छोड़ कर कोई बिजनैस क्यों नहीं शुरू करते?’’

‘‘बिजनैस?’’ सभी एकसाथ बोल पड़े.

‘‘हां, थोड़ा लोन ले लेंगे, कुछ गहने आदि बेच कर हम शुरुआत के लिए तो रकम जुटा ही लेंगे,’’ स्नेहा बोली.

स्नेहा की बात अच्छी तो सब को लगी, लेकिन बिजनैस करना कोई बच्चों का खेल नहीं. प्रखर ने तो साफ मना कर दिया, ‘‘बिजनैस करना जोखिम से भरा होता है. चले या न चले इस की कोई गारंटी नहीं रहती. न बाबा न, मैं नहीं करने वाला बिजनैस.’’

क्या बात विद्या को पसंद आई

लेकिन यह बात विद्या को बड़ी पसंद आई. बोली, ‘‘स्नेहा ठीक ही तो कह रही है, बिजनैस करो और मनचाही छुट्टियां कर लो, बौस की नाराजगी का कोई डर नहीं.’’

‘‘बिजनैस करना एक तरह से जुआ खेलने के समान है. सब कुछ दांव पर लगा कर भी जीत सुनिश्चित नहीं होती,’’ प्रखर के कहने पर बात आईगई हो गई.

रूपेश अपने परिवार को प्यार करता था. परिवार को अधिक समय दे पाने की ख्वाहिश उस की भी थी, लेकिन कई बार अपने बौस के गुस्से के डर से अपने घर की जिम्मेदारियां पूरी तरह से नहीं निभा पाता था. वह स्नेहा के सुझाव पर ध्यान से सोचने लगा.

अगले दिन जैसे ही स्नेहा ने विद्या से बात करने के लिए फोन हाथ में उठाया तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘लगता है रमाबाई आ गई,’ मन ही मन सोचते हुए स्नेहा ने दरवाजा खोला, तो सामने रूपेश को देख कर चौंक उठी. बोली, ‘‘आप अभीअभी तो औफिस गए थे. इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘अब मैं औफिस जाऊंगा ही नहीं, नौकरी जो छोड़ आया हूं,’’ रूपेश ने मुसकराते हुए कहा.

स्नेहा सुन कर परेशान हो गई, ‘‘बौस से कहासुनी हो गई क्या? ऐसे कैसे नौकरी छोड़ दी?’’

‘‘अरे बाबा बिजनैस जो करना है.’’

रूपेश के जवाब पर स्नेहा मुसकराई तो जरूर पर मन ही मन घबरा भी गई. उस ने तो यह सोच कर कह दिया था बिजनैस करने को कि प्रखर और रूपेश मिल कर बिजनैस करेंगे. फायदा या नुकसान जो भी हो दोनों मिल कर झेल लेंगे और फिर एक और एक ग्यारह होते हैं. लेकिन जब प्रखर ने मना कर दिया तो उस ने आगे सोचा भी नहीं, पर यह रूपेश तो अपनी जौब ही छोड़ आया. स्नेहा कुछ बोल न पाई. तभी रमाबाई आ गई और स्नेहा घर के काम में लग गई.

‘‘रूपेश, मैं सब्जी ले कर आती हूं,’’ कह स्नेहा जाने लगी तो रूपेश भी उस के साथ हो लिया.

‘‘अरे बाबूजी आप?’’ सब्जी वाला जो

रोज स्नेहा के सब्जी खरीदने की वजह से उस

से काफी परिचित हो चुका था, रूपेश से बोल उठा, ‘‘आइएआइए बाबूजी… आज काम पर नहीं गए क्या?’’

‘‘नहीं, मैं ने नौकरी छोड़ दी है.’’

‘‘क्यों?’’ पूछ सब्जी वाले ने यों देखा जैसे रमाबाई के पति की तरह रूपेश को भी नौकरी से निकाल दिया गया हो.

स्नेहा कुछ बोल न पाई. घर आ कर उस ने जल्दीजल्दी सब्जी बनाई. फिर रूपेश से बोली, ‘‘लवकुश के स्कूल से आने का समय हो गया है. मैं चावल चढ़ा कर जा रही हूं, तुम थोड़ी देर बाद आंच बंद कर देना.’’

‘‘ठहरो, मैं भी चलता हूं. चावल आ कर बना लेना,’’ कह रूपेश भी साथ चल दिया.

बसस्टौप पर बच्चे पापा को देख कर

हैरान थे.

‘‘पापा आज तो बारिश नहीं हुई. फिर आप के औफिस में रेनीडे की छुट्टी क्यों हो गई?’’ नन्हे कुश ने बोला तो सभी हंस पड़े.

घर आने पर जब तक स्नेहा से खाना नहीं बना तब तक बच्चों ने खानाखाना का राग अलाप कर दोनों की नाक में दम कर दिया.

खाना खा कर रूपेश ने स्नेहा से बोला, ‘‘आओ मिल कर बिजनैस की प्लानिंग करते हैं.’’

पर स्नेहा को फुरसत कहां?

‘‘रूपेश तुम बच्चों को होमवर्क करवा दो. तब तक मैं कपड़े धो लेती हूं. फिर आराम से बैठ कर बिजनैस की प्लानिंग करेंगे.’’

बच्चों को होमवर्क करवाना आसान नहीं था. लव ने जब पापा से पूछा कि कद्दू और बैगन में क्या फर्क है, तो रूपेश बोला, ‘‘लिख दो कि कद्दू हरा और बैगन बैगनी होता है,’’ पापा के जवाब पर लव जोरजोर से हंसने लगा तो कुश भी उस के साथ मिल कर तालियां बजाबजा कर हंसने लगा.

शोर सुन कर कपड़े धोना छोड़ कर स्नेहा भागीभागी आई, ‘‘क्या बात है, तुम दोनों पढ़ाई क्यों नहीं कर रहे? तब लव ने वही सवाल स्नेहा से भी पूछ लिया.

‘‘बैगन एक श्रब है और कद्दू क्रीपर.’’

स्नेहा के जवाब पर लव और कुश फिर से पापा को देख कर हंस दिए.

होमवर्क के लिए पापा को तंग न करने का निर्देश दे कर स्नेहा फिर से कपड़े धोने चली गई. रूपेश आंखें बंद कर के चुपचाप लेट गया. थोड़ी देर बाद बच्चों ने फिर से कुछ पूछने की कोशिश की तो रूपेश ने सोने की ऐक्टिंग करने में ही भलाई समझी. थोड़ी देर बाद पापा को सोया देख दोनों खेलने भाग गए. काफी देर बाद आंख खुली तो देखा शाम हो आई है.

स्नेहा लवकुश को डांट रही थी, ‘‘शाम हो गई है और तुम दोनों अपना होमवर्क छोड़ कर खेल में ही लगे हो.’’

तभी रूपेश को जागा देख कर स्नेहा शांत हो कर चाय बनाने चली गई. चाय पी कर स्नेहा बच्चों को होमवर्क कराने लगी.

रूपेश सोच में पड़ गया कि स्नेहा को तो पूरा दिन चैन से बैठने की भी फुरसत नहीं मिली. बिजनैस में मेरा हाथ बंटाने का वक्त कहां से निकालेगी.

‘‘खाने में क्या बनाऊं?’’ तभी स्नेहा की आवाज से रूपेश की तंद्रा टूटी.

अगले दिन रूपेश औफिस नहीं गया. रमाबाई आ कर अपना काम करते हुए आज फिर से रो पड़ी, ‘‘बीबीजी, साहब को बोलो कि मेरे आदमी को अपने लिए ड्राइवर रख लें. जब तक उस की कहीं नौकरी नहीं लग रही तब तक उसे काम पर रख लो. नहीं तो मेरे बच्चों का स्कूल छूट जाएगा.’’

स्नेहा के कहने पर ही रमाबाई ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय

प्राइवेट स्कूल में डाला था. स्नेहा कैसे बताती कि खुद उस का पति ही नौकरी छोड़ आया है. वह उस के पति को काम पर कैसे रख सकता है?

स्नेहा अपने गहने निकालना. जरा देखूं तो बिजनैस के लिए कितने पैसों का इंतजाम हो जाएगा.

रूपेश के कहने पर स्नेहा ने अपने गहनों का डब्बा निकाला. कांपते हाथों से उसे रूपेश के हवाले कर के वह कुछ उदास सी हो गई.

तभी विद्या का फोन आ गया, ‘‘आज औफिस में पार्टी है. तू आ रही है न?’’

‘‘देखूंगी,’’ अनमने भाव से कह स्नेहा ने फोन काट दिया. फिर सोचने लगी कि बिना गहनों के अब वह पार्टी में कैसे जाएगी?

अत: रूपेश के पास जा कर बोली, ‘‘सुनो, क्या हम इन गहनों को 1-2 दिन के बाद नहीं बेच सकते?’’

‘‘ठीक है,’’ कह रूपेश ने गहनों का डब्बा वापस कर दिया.

स्नेहा को उन बेजान गहनों पर बेतहाशा प्यार उमड़ आया कि ये कंगन मेरी मां ने बनवाए थे. यह अंगूठी मेरी दीदी ने गिफ्ट की थी, यह सोने की चैन मेरी बूआ की आखिरी निशानी है और यह हार बड़े प्यार से रूपेश ने मेरे लिए बनवाया था. उस की आंखों भीगने लगीं.

1-1 कर वह गहनों को चूमने लगी.

तभी विद्या का फिर फोन आ गया. बोली, ‘‘तू ने बताया ही नहीं स्नेहा कि पार्टी में आ रही है या नहीं?’’

‘‘हांहां,’’ कह स्नेहा कुछ सामान्य हुई, ‘‘पर यह तो बता कि पार्टी है किस बात की?’’

‘‘बौस का जन्मदिन है न, तभी तो 2 दिन की छुट्टी है.’’

‘‘अच्छा ठीक है, मैं बाद में बात करती हूं,’’ कह स्नेहा ने फोन काट दिया. वह सीधे रूपेश के पास पहुंची, ‘‘मुझे बेवकूफ बनाया तुम ने, मुझ से कहा कि मैं नौकरी छोड़ आया हूं जबकि तुम्हारे औफिस में छुट्टी थी.’’

‘‘हां, औफिस में छुट्टी तो थी, लेकिन मैं सचमुच सोच रहा था कि नौकरी छोड़ दूं. आज बौस के जन्मदिन की पार्टी में ही मैं अपना त्यागपत्र देने वाला था. यह देखो मैं ने लिख भी रखा है.’’

2 दिन पहले का लिखा त्यागपत्र देख कर स्नेहा को विश्वास हो गया कि रूपेश सचमुच नौकरी छोड़ने वाला है.

शाम को पार्टी के लिए तैयार होते हुए स्नेहा की आंखें बारबार भीग रही थीं कि इन सारे गहनों को अब वह नहीं पहन पाएगी या फिर शायद 4-5 साल बाद जब उन का बिजनैस चल जाए तो फिर से खरीद लें… पर कम से कम 4-5 साल तो उसे इन के बिना ही रहना पड़ेगा.

पार्टी के लिए गाड़ी से जाते हुए स्नेहा सोच रही थी कि अगर रूपेश नौकरी न छोड़े तो वह रमाबाई के पति को ड्राइवर रख ले.

पूरा दिन स्नेहा कितना काम करती है, अगर वह बिजनैस में हाथ बंटाएगी तो घर और बच्चे कौन संभालेगा?’’ रूपेश भी चिंता में था.

पार्टी जोरशोर से चल रही थी. वहां पहुंचते ही प्रखर और विद्या उन्हें मिल गए. पार्टी के बाद बौस ने सब को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘आज की पार्टी मेरे औफिस में काम करने वाले सभी दोस्तों की बीवियों के नाम… अगर वे घर की जिम्मेदारियों से अपने पतियों को मुक्त न रखतीं तो सारे कर्मचारी औफिस में मन लगा कर काम न कर पाते.’’

स्नेहा का दिल जोरों से धड़क रहा था कि अब रूपेश त्यागपत्र दे देगा और ये पार्टियां वगैरह बंद हो जाएंगी.

घर लौटते वक्त रूपेश ने कहा, ‘‘स्नेहा, तुम मेरे और बच्चों के लिए बहुत मेहनत करती हो. बौस ने सच ही कहा कि अगर तुम पूरी जिम्मेदारी से घर संभालती हो तो मैं पूरी जिम्मेदारी से औफिस का काम कर पाता हूं. मैं बेकार में तुम पर गुस्सा करता हूं. सौरी…’’

‘‘रूपेश, तुम्हारा काम भी तो कम महत्त्वपूर्ण नहीं. हमारे पास आज जो कुछ भी है वह तुम्हारी मेहनत का ही तो फल है. दरअसल, मैं इस सब की आदी हो चुकी हूं, इसलिए मैं बेकार की शिकायत करती रहती हूं. लेकिन कभी यह सब खो गया तो पता नहीं मैं कैसे सह पाऊंगी? अच्छा ही हुआ जो तुम ने त्यागपत्र नहीं दिया.’’

Family Story: आफत – सासू मां के आने से क्यों दुखी हो गई रितु?

Family Story, Writer- Neha Chachra

औफिस से घर पहुंचते ही मैं ने छेड़ने वाले अंदाज में रितु से कहा, ‘‘हम 2 से 3 होने जा रहे हैं, मैडम.’’

रितु फौरन मेरे गले में बांहों का हार डाल कर बोली, ‘‘ओह, सुमित, मेरी खुशियों को ध्यान में रखते हुए आखिरकार तुम ने उचित फैसला कर ही लिया न. मैं अभी सारी गर्भनिरोधक गोलियां कूड़े की टोकरी के हवाले करती हूं.’’

‘‘इतनी जल्दी भी न करो, स्वीटहार्ट,’’

मैं ने उस का हाथ पकड़ कर उसे शयनकक्ष में जाने से रोका, ‘‘हम 2 से 3 होने जा रहे हैं, क्योंकि तुम्हारी मम्मी कुछ दिनों के लिए हमारे पास रहने…’’

‘‘ओह नो…’’ रितु ने जोर से अपने माथे पर हाथ मारा.

‘‘अरे, वे तुम्हारी सगी मम्मी हैं, कोई सौतेली मां नहीं… उन के आने की खबर सुन कर जरा मुसकराओ, यार,’’ मैं ने उसे छेड़ना चालू रखा.

मुझे तो उन के आने की खबर ने खुश कर दिया है, यार

‘‘मेरी सगी मां किसी सौतेली मां से ज्यादा बड़ी आफत लगती हैं मुझे, यह तुम अच्छी तरह जानते हो न. उन का आना टालने के लिए कोई बहाना बना देते तो क्या बिगड़ जाता तुम्हारा?’’ यों शिकायत करते हुए वह मुझ से झगड़ने को तैयार हो गई.

‘‘अरे, मैं क्यों कोई झूठा बहाना बनाता? मुझे तो उन के आने की खबर ने खुश कर दिया है, यार.’’

‘‘मुझे पता है कि जब वे मेरी खटिया खड़ी करेंगी तो तुम्हें खुशी ही होगी. मेरी तबीयत वैसे ही ढीली चल रही है और अब ऊपर से नगर निगम की चेयरमैन मेरे घर में पधार रही हैं,’’ वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई.

‘‘अब ज्यादा नाटक मत करो और एक कप गरमगरम चाय पिला दो.’’

मैं ने हंसते हुए उसे बाजू से पकड़ कर उठाना चाहा तो उस ने मेरा हाथ जोर से झटका और तुनक कर बोली, ‘‘अब अपनी लाड़ली सासूमां के हाथ की बनी चाय ही पीना.’’

‘‘तुम गुस्से में बहुत प्यारी लगती हो,’’ मैं ने आंखें मटकाते हुए उस की तारीफ की तो वह मुंह बनाती हुई रसोई में मेरे लिए चाय बनाने चली गई.

मेरी सासूमां स्कूल टीचर हैं. पिछली गरमियों की छुट्टियों में वे हमारे पास 2 सप्ताह रह कर गई थीं. अब दशहरे की छुट्टियों में उन्होंने फिर से आने का कार्यक्रम बनाया है. मेरे मातापिता नहीं रहे हैं, इसलिए मुझे उन का आना अच्छा लगता है, लेकिन रितु की हालत पतली हो रही है.

‘‘मैं शादीशुदा हूं, पराए घर आ गई हूं पर अभी भी मम्मी के सामने पड़ते ही मन अजीब सा डर व घबराहट का शिकार हो जाता है. कोई गलती नहीं की है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी गलत काम को करने के बाद प्रिंसिपल के सामने पेशी हो रही है. मेरी इस दशा का फायदा उठा कर ही वे मुझ पर हिटलरी अंदाज में हुक्म चला लेती हैं,’’ रितु ने पिछली बार अपनी मम्मी के आने के अपने मनोभावों से मुझे  अवगत कराया.

मेरी सासूमां अनोखे व्यक्तित्व की मालकिन हैं. घर में अधिकतर जीन्स व टौप पहनती  हैं. नियम से ऐरोबिक्स करने की शौकीन हैं और पार्क में कभी भी घूमने जाने के लिए तैयार रहती हैं. उन्हें घर में गंदगी बिलकुल बरदाश्त नहीं. आलसी व लापरवाह इंसान उन्हें दुश्मन नजर आते हैं.

पिछली बार सासूमां आई थीं तो रितु को खूब खींच कर गई थीं. रितु आरामपसंद इंसान है पर अपनी मां के सामने डट कर काम करने को बेचारी मजबूर हो गई थी. उसे मेरी सासूमां ने शनिवारइतवार की छुट्टियों में 1 मिनट भी आराम नहीं करने दिया था.

वे सारे घर का कायापलट करा गई थीं. परदे, सोफे के कवर, चादरें, पंखे, खिड़कियां आदि सब की साफसफाई हुई थी. घर का फर्श सारे समय जगमगाता रहा था. रसोई में हर चीज अपनी जगह पर मिलने लगी थी. धूलमिट्टी ढूंढ़ने पर भी घर में कहीं नजर नहीं आती थी.

यह तो रही घर में आए बदलाव की बात, इस के अलावा उन्होंने आते ही अपनी बेटी को तंदुरुस्त करने की भी मुहिम छेड़ दी थी.

रितु की सेहत सुधारने का बीड़ा भी सासूमां ने उठा लिया था

‘‘शादी के बाद अगर तेरा वजन इसी स्पीड से बढ़ता रहा तो तू एकदम बेडौल हो जाएगी, रितु. फिर अगर अमित ने नई गर्लफ्रैंड बना ली तो क्या करेगी? नो, नो, ऐसी लापरवाही बिलकुल नहीं चलेगी. आज से ही अपनी फिटनैस ठीक करने को कमर कस ले,’’ सासूमां की आंखों में सख्ती के ऐसे भाव मौजूद थे कि रितु चूं भी नहीं कर पाई थी.

घर के सफाई अभियान के साथसाथ रितु की सेहत सुधारने का बीड़ा भी सासूमां ने उठा लिया था. रातदिन बेचारी का पसीना बहता रहता था. ऊपर से खाने में से सारी तलीभुनी चीजें भी गायब हो गई थीं. सासूमां खड़ी हो कर अपनी बेटी से सिंपल व पौष्टिक खाना बनवाती थीं.

मैं बहुत खुश था, अपने घर व रितु में आए परिवर्तन को देख कर. सासूमां की प्रशंसा करते हुए मेरी जबान नहीं थकती थी. ऐसे मौकों पर अपनी मां की नजरें बचा कर रितु मुझे यों घूरती थी मानो कच्चा चबा जाएगी, पर अपनी मां के सामने उस बेचारी की मुझ से लड़ने की हिम्मत नहीं होती थी.

अगले दिन रविवार की सुबह सासूमां 9 बजे के करीब हमारे घर आ पहुंचीं. मैं प्रसन्न था जबकि रितु कुछ बुझीबुझी सी नजर आ रही थी.

‘‘तेरी शक्ल पर क्यों 12 बज रहे हैं, गुडि़या?’’ मुझे ढेर सारे आशीर्वाद देने के बाद उन्होंने पहले अपनी बेटी का ऊपर से नीचे तक मुआयना किया और फिर माथे पर बल डाल कर यह सवाल पूछा.

‘‘आप के सुपरविजन में अब इसे जो ढेर सारे घर के काम करने पड़ेंगे, उन के बारे में सोचसोच कर ही इस बेचारी की जान निकल रही है, मम्मी,’’ मैं मजा लेते हुए बोला.

‘‘नहीं, दामादजी, इस बार तो यह मुझे बहुत कमजोर और उदास लग रही है. क्या तुम मेरी बेटी का ठीक से खयाल नहीं रख रहे हो?’’ वे अचानक मुझ से नाखुश नजर आने लगीं तो मैं हड़बड़ा गया.

‘‘ऐसी बात नहीं है, मम्मी. इस की तलाभुना खाने की आदत इसे स्वस्थ नहीं रहने…’’ मुझे आधी बात बोल कर चुप होना पड़ा, क्योंकि उन्होंने मुझ पर से ध्यान हटा लिया था.

सासूमां ने अपनी बेटी का हाथ पकड़ा और कोमल स्वर में बोलीं, ‘‘अपने मन की हर चिंता को तू मुझे खुल कर बताना, गुडि़या. इन 10 दिन में मैं तेरे चेहरे पर भरपूर रौनक देखना चाहती हूं.’’

‘‘जब ये परदे, सोफे के कवर वगैरह धुल जाएंगे और…’’

‘‘लगता है कि इस बार मुझे घर के बजाय तेरे व्यक्तित्व को निखारने पर ध्यान देना पड़ेगा.’’

‘‘और व्यक्तित्व निखारने के लिए सुबहशाम घूमने जाने से बढि़या तरीका और क्या हो सकता है, मम्मी?’’

‘‘तू थकीथकी सी लग रही है, बेटी. मैं जब तक यहां हूं, तू खूब आराम कर. कुछ दिनों की छुट्टी जरूर ले लेना. हमें अपने मनोरंजन के पक्ष को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.’’

‘‘इंसान जितना ज्यादा प्रकृति के साथ रहेगा, उतना ज्यादा स्वस्थ…’’

‘‘जब 2-4 फिल्में देखेंगे, खूब घूमेंगेफिरेंगे, कुछ मनपसंद शौपिंग करेंगे तो देखना, तेरे मन की सारी उदासी छूमंतर हो जाएगी, मेरी गुडि़या.’’

मेरे जोश के गुब्बारे की हवा सासूमां की बातें सुन कर निकलती चली गई तो मैं ने अपना राग अलापना बंद कर दिया. मेरी समझ में बिलकुल नहीं आ रहा था कि वे इस बार ऐसी अजीबोगरीब बातें रितु से क्यों कर रही हैं.

‘‘ओह, मम्मी, यू आर गे्रट,’’ रितु उछल कर अपनी मां के गले लग गई और साथ ही मुझे जीभ चिढ़ाना भी नहीं भूली.

मैं कुछ बुझाबुझा सा हो गया तो सासूमां ने हंस कर कहा, ‘‘दामादजी, चिंता मत करो. हमारे साथ मौजमस्ती करने तुम भी साथ चलोगे. मैं तुम्हें अपनी बेटी से ज्यादा पसंद करती हूं, कम नहीं. लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है जैसे इस बार तुम्हारे घर में मेरा मन नहीं लगेगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’ मैं ने औपचारिकतावश पूछा.

‘‘अब बिना नाती या नातिन के घर सूना सा लगता है.’’

‘‘मम्मी, अभी तो हमारी शादी को साल भर ही हुआ है. जब 3 साल बीत जाएंगे, तब आप की यह इच्छा भी पूरी हो जाएगी.’’

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आजकल की पीढ़ी पहले खूब धन जोड़ना चाहती है, जी भर कर मौजमस्ती करना चाहती है. उन की प्राथमिकताओं की सूची में बड़ा मकान, महंगी कार और तगड़े बैंक बैलैंस के बाद बच्चे पैदा करने का नंबर आता है.’’

‘‘यू आर राइट, मम्मी. जिस बात को आप इतनी आसानी से समझ गईं, उसे मैं रितु को आज तक नहीं समझा पाया हूं.’’

‘‘मम्मी, मैं ने 28 साल की उम्र में शादी की है, 22-23 की उम्र में नहीं. मेरा कहना है कि अगर मैं जितनी ज्यादा बड़ी उम्र में मां बनूंगी, बच्चा स्वस्थ न पैदा होने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ जाएगी. शादी के 3 साल बाद बच्चा पैदा करना चाहिए, ऐसा कोई नियम थोड़े ही है. इंसान के अंदर समझदारी नाम की भी तो कोई चीज होती है,’’ मौका मिलते ही रितु भड़की और मेरे साथ बहस शुरू करने के मूड में आ गई.

‘‘मम्मी, इस मामले में आप इस की तरफदारी मत करना, प्लीज,’’ मैं ने नाराजगी भरे अंदाज में एक बार रितु को घूरा और फिर ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चला आया.

मैं घर में मुंह फुला कर घूम रहा हूं, इस बात की मांबेटी को कोई चिंता ही नहीं हुई. दोनों नाश्ता करने के बाद तैयार हुईं और घूमने निकल गईं. मुझ से 2-3 बार साथ चलने को कहा मगर मैं ने नाराजगी भरे अंदाज में इनकार किया तो दोनों ने खास जोर नहीं डाला था.

लंच के नाम पर मेरे लिए रितु ने आलू के परांठे बना दिए. वे दोनों 12 बजे के करीब घूमने निकलीं और रात को 8 बजे लौटी थीं. इन 8 घंटों में मेरा कितना खून फुंका होगा, इस का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है.

उन के घर में घुसते ही मैं ने 2 बातें नोट की थीं. पहली तो यह कि वे दोनों 7-8 लिफाफे पकड़े घर लौटी थीं और दूसरी यह कि दोनों के चेहरे जरूरत से ज्यादा दमक रहे थे.

कुछ ही देर में मुझे पता लग गया कि उन दोनों ने 8 हजार की खरीदारी एक दिन में कर ही डाली. रही बात चेहरों पर नजर आते नूर की तो खरीदारी करने से पहले दोनों ब्यूटीपार्लर गई थीं. कुल मिला कर 10 हजार का खर्चा मांबेटी ने 1 दिन में ही कर डाला था.

‘‘देखा, दामादजी, इस वक्त रितु कितनी खुश और स्वस्थ दिख रही है. 10 दिन में तो देखना, यह फिल्मी हीरोइनों को मात करने लगेगी,’’ सासूमां अपनी बेटी को प्रशंसा भरी नजरों से निहार रही थीं.

‘‘मम्मी, 10 दिन में 10 हजार रोज के हिसाब से 1 लाख खर्च कर के अगर इस ने फिल्मी हीरोइनों को मात कर भी दिया तो मैं इस की तारीफ करने के लिए जिंदा कहां रहूंगा? सदमे से मेरी जीवनलीला समाप्त हो चुकी होगी न,’’ मैं दुखी अंदाज में मुसकराया तो सासूमां ठहाका मार कर हंस पड़ीं.

‘‘कभीकभी बड़ा अच्छा मजाक करते हो, दामादजी. अच्छा, तुम दोनों बैठ कर गपशप करो. मैं बढि़या सा पुलाव बनाने रसोई में जाती हूं,’’ सासूमां रसोई में चली गईं.

मेरे कुछ कहने से पहले ही रितु ने तीखे लहजे में सफाई देनी शुरू कर दी, ‘‘मैं ने तो मम्मी को बहुत मना किया, पर वे तो कुछ भी सुनने का तैयार नहीं थीं. कह रही थीं कि खरीदारी करने के कारण वे आप को नाराज नहीं होने देंगी. अब आप को जो भी कहना हो, उन्हीं से कहना. मैं तो पहले ही कह रही थी कि इन के यहां आने के कार्यक्रम को कोई बहाना बना कर टाल दो. आप ही अपनी लाड़ली सासूमां को बुलाने का भूत सवार था, अब भुगतो.’’

आगे की बहस से बचने के लिए उठ कर वह शयनकक्ष की तरफ चल दी. मैं ने नाराज स्वर में उसे हिदायत दी, ‘‘अब आगे से एक पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मम्मी तो कह रही हैं कि मैं उन के साथ घूमनेफिरने के लिए औफिस से हफ्ते भर की छुट्टियां ले लूं. अब इस बाबत जो कहना हो, आप उन से कहो. आप को पता तो है कि उन के सामने मुंह खोलने की मेरी हिम्मत नहीं होती है,’’ अपनेआप को साफ बचाती हुई रितु मेरी आंखों से ओझल हो गई.

मैं रितु को औफिस से छुट्टियां लेने से नहीं रोक सका. वे दोनों अगले दिन भी शौपिंग करने गईं और इस बार सासूमां ने रितु को 40 हजार की सोने की चेन खरीदवा दी.

‘‘मम्मी, आप क्या इस बार मुझे कंगाल करने का कार्यक्रम बना कर यहां आई हैं?’’ मैं ने दोनों हाथों से सिर थाम कर उन से यह सवाल पूछा तो वे उदास सी हंसी हंस पड़ीं.

‘‘दामादजी, आज सोने की चेन तो सचमुच मैं ने जबरदस्ती रितु को खरीदवाई है. मन सुबह से बड़ा उचाट था. रात को नींद भी अच्छी नहीं आई थी. सच बात तो यह है कि मन की उदासी दूर करने के चक्कर में ही मैं ने 40 हजार खर्च किए हैं. मन लग ही नहीं रहा है इस बार तुम्हारे यहां. अगर खेलने के लिए कोई नातीनातिन होती…’’

‘‘मम्मी, आप फालतू के खर्च को बंद कर मुझे कंगाल होने से बचाइए और मैं आप से वादा करता हूं कि बहुत जल्द ही आप का कोई नातीनातिन घर में नजर आएगा.’’

मेरे मुंह से इन शब्दों का निकलना था कि मांबेटी दोनों ने पहले खुशी से उछलते हुए तालियां बजानी शुरू कर दीं, फिर सासूमां ने उठ कर मुझे छाती से लगा लिया और रितु मेरा हाथ उठा कर उसे बारबार चूमे जा रही थी.

‘‘थैंक यू, दामादजी,’’ खुशी के मारे सासूमां का गला भर आया, ‘‘मुझे तुम ने इतना खुश कर दिया है कि कल और आज का सारा खर्चा मेरे खाते में गया.’’

‘‘सच?’’ मेरे मन की सारी चिंता पल भर में खत्म हो गई.

‘‘तुम ने जो मुझे नानी बनाने का वादा किया है, वह सच है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो मैं भी सच बोल रही हूं, दामादजी. अब लगे हाथ जल्दी पापा बनने की पेशगी मुबारकबाद भी कबूल कर लो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ सासूमां को रहस्यमय अंदाज में मुसकराते देख मैं चौंक पड़ा.

‘‘जल्द ही इस घर में नन्हेमुन्हे किलकारियां जो गूंजने वाली हैं.’’

‘‘क्या मम्मी सच कह रही हैं?’’ मैं ने रितु से पूछा.

उस ने गरदन ऊपरनीचे हिला कर ‘हां’ कहा  और टैंशन भरी नजरों से मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी.

‘‘रितु तुम्हें यह खुशखबरी सुनाने से डर रही थी, दामादजी. यह बेवकूफ सोचती थी कि तुम 3 साल बाद बच्चा पैदा करने वाली अपनी जिद पर अड़ कर इस के ऊपर गर्भपात कराने के लिए दबाव डालोगे. तब इस की तसल्ली के लिए मुझे 50 हजार खर्च कर तुम्हारे मुंह से यह कहलवाना पड़ा कि तुम पापा बनने को तैयार हो. मेरे लिए तो यह बड़ा फायदेमंद सौदा रहा है. मैं बहुत खुश हूं, दामादजी,’’ सासूमां ने हम दोनों को इस बार एकसाथ गले लगा लिया.

मैं ने रितु की आंखों में प्यार से झांकते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘रितु, मैं कंजूस

हूं. पैसे जोड़ने के लिए बहुत झिकझिक करता हूं, क्योंकि मातापिता के न रहने से

मेरा बचपन बहुत अभावों और दुखों से भरा हुआ था. असुरक्षा का एहसास मेरे मन में बहुत गहरे बैठा हुआ है और उसी के चलते मैं पहले अपनी आर्थिक जड़ें मजबूत कर लेना चाहता था. लेकिन मैं ऐसा पत्थरदिल इंसान नहीं हूं कि आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए तुम्हारी कोख में पल रहे अपने बच्चे को मारने का फैसला…’’

‘‘मैं ने आप को समझने में भारी भूल की है. मुझे माफ कर दीजिए, प्लीज,’’ मेरी आंखों में भर आए आंसुओं को देख रितु फफकफफक कर रोने लगी.

मेरे कुछ बोलने से पहले ही सासूमां शुरू हो गईं, ‘‘रितु, कल से घर की सफाई का काम शुरू हो जाएगा. सुमित, तुम परदे उतरवाने में मेरी हैल्प करना. कल से ही पार्क घूमने भी चला करेंगे हम सब. सेहत को ठीक रखना अब तो और ज्यादा जरूरी हो गया है तुम्हारे लिए, रितु. सिर्फ सप्ताह भर ही है मेरे पास और कितने सारे काम…’’

सासूमां अपनी पुरानी फौर्म में लौट आई हैं, यह देख कर रितु ने ऐसा मुंह बनाया मानो कोई बहुत कड़वी चीज मुंह में आ गई हो और फिर हम तीनों एकसाथ ठहाका मार कर हंसने लगे.

Family Story: अम्मां जैसा कोई नहीं

Family Story: अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह किया

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Hindi Family Story: उपेक्षा – कैसे टूटा अनुभा का भ्रम?

Hindi Family Story: हमेशा सहेलियों की तरह रहने वाली मां और अनीषा चाची का व्यवहार अनुभा को आज पहली बार असहज लगा. अनीषा चाची कुछ परेशान लग रही थीं. मां के बहुत पूछने पर उन्होंने हिचकते हुए बताया, ‘‘मेरा चचेरा भाई सलिल यहां ट्रेनिंग पर आ रहा है शीतल भाभी. रहेगा तो कंपनी के गैस्टहाउस में, लेकिन छुट्टी के रोज तो आया ही करेगा.’’

‘‘नहीं आएगा तो गाड़ी भेज कर बुला लिया करेंगे,’’ शीतल उत्साह से बोली, ‘‘इस में परेशान होने की क्या बात है?’’

‘‘परेशान होने वाली बात तो है शीतल भाभी. मम्मी कहती हैं कि तेरे घर में जवान लड़की है, फिर उस की सहेलियां भी आतीजाती होंगी. ऐसे में सलिल का तेरे घर आनाजाना सही नहीं होगा.’’

‘‘उसे आने से रोकना सही होगा?’’

‘‘तभी तो परेशान हूं भाभी, सलिल को समझाऊंगी कि वह निक्की और गोलू का ही नहीं अनुभा और अजय का भी मामा है.’’

‘‘वह तो है ही, लेकिन आजकल के बच्चे ये सब नहीं मानते,’’ शीतल का स्वर चिंतित था.

‘‘इसीलिए जब आया करेगा तो अपने कमरे में ही बैठाया करूंगी.’’

‘‘जैसा तू ठीक समझे. बस न तो सलिल को बुरा लगे और न कोई ऊंचनीच हो,’’ शीतल के स्वर में अभी भी चिंता थी.

अनुभा ने मां और चाची को इतना परेशान देख कर सोचा कि वह स्वयं ही सलिल को घास नहीं डालेगी. उस के आने पर अपने कमरे में चली जाया करेगी ताकि चाची और मां उस के साथ सहज रह सकें.

सलिल को पहली बार अमित चाचा घर ले कर आए. सब से उस का परिचय करवाया, ‘‘है तो यह तेरा भी मामा अनु, लेकिन हमउम्र्र है, इसलिए तुम दोनों में दोस्ती ठीक रहेगी.’’

‘‘जी चाचा,’’ अनुभा ने हतप्रभ लग रहीं चाची और मां की ओर देख कर उस समय तो सलिल से हैलो के अलावा और बात नहीं की, लेकिन सलिल की आकर्षक छवि और मजेदार बातों को वह चाह कर भी दिल से नहीं निकाल सकी.

सलिल की मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही वह अपने कमरे में तो चली जाती थी, लेकिन कान बराबर चाची के कमरे से आने वाली ठहाकों की आवाजों पर लगे रहते थे और जब मां या चाची सलिल के सुनाए चुटकुले पापा और अमित चाचा को सुनाती थीं तो वह बड़े ध्यान से सुनती थी और फिर कालेज में अपनी सहेलियों को सुनाती थी.

कुछ दिन बाद अपनी सहेली माधवी की बहन की सगाई में उस के बड़े भाई मोहन के साथ खड़े सलिल को देख कर अनुभा चौंक पड़ी.

‘‘यह मेरा दोस्त सलिल है, अनु,’’ मोहन ने परिचय करवाया, ‘‘और यह माधवी की

खास सहेली…’’

‘‘जानता हूं यार, मामा हूं मैं इस का,’’ सलिल हंसा.

‘‘रियली? तब तो तू संभाल अपने मामा को अनु. यह पहली बार हमारे घर आया है. इस का परिचय करवा सब से. मैं दूसरे काम कर लेता हूं,’’ कह कर मोहन चला गया.

सलिल शरारत से मुसकराया, ‘‘मेरे एक सवाल का जवाब दोगी प्लीज? क्या मेरी शक्ल इतनी खराब है कि मेरे आने की आहट सुनते ही तुम अपने कमरे में छिप जाती हो? जानती हो इस से कितनी तकलीफ होती है मुझे?’’

‘‘तकलीफ तो मुझे भी बहुत होती है,’’ अनुभा के मुंह से बेसाख्ता निकला, ‘‘छिपने से नहीं बल्कि तुम्हें न देख पाने की वजह से.’’

‘‘तो फिर देखती क्यों नहीं?’’

अनुभा ने सही वजह बता दी.

‘‘ओह, तो यह बात है. मेरे यहां आने से पहले मेरे घर में भी यही टैंशन थी, लेकिन तुम्हारे चाचा ने तो मुझ से दोस्ती करने को कहा था, सामने न आने के लिए किस ने कहा?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. चाचा की बात सुन कर मां और चाची इतनी परेशान लगीं कि मैं ने उन्हें और परेशान करने के बजाय खुद ही बेचैन होना बेहतर समझा.’’

सलिल कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘तुम्हारे घर से और कोई नहीं आया?’’

‘‘मां और चाची आएंगी कुछ देर बाद.’’

‘‘उस से पहले अपनी सहेलियों से कहो कि वे सब भी मुझे मामा बुलाएं. मैं दीदी को विश्वास दिला दूंगा कि मैं रिश्तों की मान्यता में विश्वास रखता हूं ताकि मेरीतुम्हारी दोस्ती पर किसी को शक न हो.’’

लड़कियों को भला उसे मामा बुलाने में क्या ऐतराज होता? जब तक अनीषा और शीतल आईं, सलिल भागभाग कर काम कर के सब का चहेता और प्राय: छोटेबड़े सब का ही मामा बन चुका था.

‘‘ये सब क्या है भाई?’’ अनीषा ने पूछा.

‘‘दीदी के शहर में आने का प्रसाद,’’ सलिल ने मुंह लटका कर कहा, ‘‘यह सोच कर आया था कि कोई गर्लफ्रैंड बन जाएगी. मगर अनुभा की सारी सहेलियां भी तो मेरी भानजियां ही लगीं. भानजी को गर्लफ्रैंड बनाने के संस्कार तो आप ने दिए नहीं सो बस काम कर के और मामा बन कर आशीष बटोर रहा हूं.’’

शीतल तो भावविभोर होने के साथसाथ अभिभूत भी हो गई. सगाई की रस्म के बाद जब उन्होंने अनुभा से घर चलने को कहा तो माधवी ने कहा, ‘‘अनुभा अभी कैसे जाएगी? काम के चक्कर में हम ने कुछ खाया भी नहीं है. आप जाओ, अनुभा बाद में आएगी.’’

‘‘अकेली?’’

‘‘अकेली क्यों?’’ माधवी की मां ने पूछा, ‘‘इस का मामा है न, उस के साथ आ जाएगी.’’

‘‘क्यों सलिल, ले आओगे?’’ अनुभा की आशा के विपरीत शीतल ने पूछा.

‘‘जी बड़ी दीदी, मगर इन सब का खाने का ही नहीं नाचगाने का भी प्रोग्राम है जो देर तक चलेगा.’’

‘‘तुम जब तक चाहो रुकना, फिर भानजी को कान पकड़ कर ले आना. मामा हो तुम उस के,’’ शीतल ने हंसते हुए कहा.

शीतल की हरी झंडी दिखाने के बावजूद अनुभा सलिल के घर आने पर न अपने कमरे से बाहर निकलती थी और न ही उस के बारे में बात करती थी, मगर सलिल की छुट्टी के रोज माधवी के घर पढ़ने के बहाने चली जाती थी और वहां से सलिल के साथ घूमने. माधवी तक को शक नहीं होता था. इम्तिहान खत्म होते ही घर में उस की शादी की चर्चा होने लगी. उस ने सलिल को बताया.

‘‘मुझे भी दीदी ने अपने दोस्तों में तुम्हारे लिए उपयुक्त वर ढूंढ़ने को कहा है.’’

‘‘अपना नाम सुझाओ न.’’

‘‘पागल हूं क्या? मेरे यहां आने पर जो इतना बवाल मचा था. वह इसीलिए तो था कि अगर मैं ने तुम से शादी करनी चाही तो अनर्थ हो जाएगा. जिस घर में लड़की दी है उस घर से लड़की नहीं लेते.’’

‘‘तुम ये सब मानते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं, लेकिन अपने परिवार की मान्यताओं और भावनाओं की कद्र करता हूं.’’

‘‘मगर मेरे प्यार की नहीं.’’

‘‘उस की भी कद्र करता हूं और तुम्हारे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता.’’

‘‘हो सकता है तुम्हारे घर वाले तुम्हारी शादी न करने की जिद मान लें, मगर मुझे तो शादी करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘वह तो मैं भी करूंगा अनु.’’

अनुभा झुंझला गई. अजीब मसखरा आदमी है. मेरे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता, मगर शादी करेगा. सलिल तो जैसे उस का चेहरा खुली किताब की तरह पढ़ लेता था.

‘‘शादी किसी से भी हो, तसव्वुर में तो मेरे हमेशा तुम रहोगी और तुम्हारे तसव्वुर में मैं, बस अपने जीवनसाथी से यह सोच कर प्यार किया करेंगे कि हम एकदूसरे से कर रहे हैं.’’

‘‘अगर गलती से कभी मुंह से असली नाम निकल गया तो चोरी पकड़ी नहीं जाएगी?’’

अनुभा ने भी यह सोच कर सब्र कर लिया कि जैसे अभी वह सलिल के खयालों में जीती है, हमेशा जीती रहेगी और शादी के बाद मिलना भी आसान हो जाएगा, क्योंकि विवाहित मामाभानजी के मिलने पर किसी को ऐतराज नहीं होगा.

सलिल यह सुन कर खुशी से बोला, ‘‘अरे वाह, फिर तो चोरीछिपे नहीं सब के सामने तुम्हें गले लगाया करूंगा, कहीं घुमाने के बहाने बढि़या होटल में ले जाया करूंगा.’’

जल्द ही दुबई में बसे डाक्टर गिरीश से अनुभा का रिश्ता पक्का हो गया. देखने में गिरीश सलिल से 21 ही था और बहुत खुशमिजाज भी, लेकिन अनुभा ने उस में सलिल की छवि ही देखी. शादी में अनीषा का पूरा परिवार आया. मौका मिलते ही अनुभा ने सलिल से कहा कि वह अपने प्यार की निशानी के तौर पर कुछ भेंट तो दे.

‘‘देना तो चाहता था, लेकिन दीदी ने कहा कि अम्मां दे तो रही हैं, तुझे अलग से कुछ देने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘फिर भी कुछ तो दे दो, जिस के पास रहने से मुझे यह एहसास रहे कि तुम मेरे पास हो.’’

सलिल ने जेब से रूमाल निकाला और उसे चूम कर अनुभा को पकड़ा दिया. अनुभा ने उसे आंखों से लगाया.

‘‘यह मेरे जीवन की सब से अनमोल वस्तु होगी.’’

उस ने शुरू से ही गिरीश को सलिल समझा, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि मजा ही आया और सोचा कि वह सलिल को मिलने पर बताएगी कि फौर्मूला कामयाब रहा. लेकिन मिलने का मौका ही नहीं मिला. नैनीताल में हनीमून मना कर लौटने पर सलिल की मोटरसाइकिल अजय को चलाते देख कर उस ने पूछा, ‘‘सलिल मामा की मोटरसाइकिल तुम्हारे पास कैसे?’’

‘‘सलिल मामा से पापा ने खरीद ली है यह मेरे लिए.’’

‘‘मगर सलिल मामा ने बेची क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे कनाडा चले गए.’’

अनुभा बुरी तरह चौंक गई, ‘‘अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘यह तो मालूम नहीं.’’

अनुभा ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संयत किया. शाम को वह माधवी से मिलने के बहाने मोहन से सलिल के अचानक जाने की वजह पूछने गई.

‘‘सलिल मामा अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘पहली बार कोई भी अचानक विदेश नहीं जाता अनु, सलिल यहां हैड औफिस में कनाडा जाने से पहले खास प्रशिक्षण लेने आया था. प्रशिक्षण खत्म होते ही चला गया,’’ मोहन ने जैसे उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया.

‘‘वह कनाडा से आप को फोन तो करते होंगे… मुझे उन का नंबर दे दीजिए प्लीज,’’ अनुभा ने मनुहार करी.

‘‘चंद महीनों के दोस्तों को न कोई इतनी दूर से फोन करता है और न ही याद रखता है. बेहतर रहेगा कि तुम भी सलिल को भूल कर अपनी नई जिंदगी में खुश रहो.’’

अनुभा को लगा कि मोहन जैसे उस पर तरस खा रहा है. वह नई जिंदगी का मजा तो ले रही थी, लेकिन सलिल को याद करते हुए, उस के दिए रूमाल को जबतब चूम कर.

अचानक एक रोज गिरीश ने उस के हाथ में वह रूमाल देख कर कहा, ‘‘इतना गंदा रूमाल एक डाक्टर की बीवी के हाथ में क्या कर रहा है? फेंको इसे.’’

अनुभा सिहर उठी. फेंकना तो दूर, सलिल के चूमे उस रूमाल को तो वह धो भी नहीं सकती थी. उस ने रूमाल को गिरीश से छिपा कर टिशू पेपर में सहेज दिया अकेले में चूमने के लिए.

गिरीश का परिवार कई वर्षों से दुबई में सैटल था. जुमेरा बीच के पास उन का बहुत बड़ा विला था और शहर में कई मैडिकल स्टोर और उन से जुड़े क्लीनिक्स की शृंखला थी. गिरीश भी एक क्लीनिक संभालता था. परिवार की सभी महिलाएं व्यवसाय के विभिन्न विभागों की देखरेख करती थीं.

अनुभा भी जेठानी वर्षा के साथ आधे दिन को औफिस जाती थी. अनुभा दुबई आ कर बहुत खुश थी. लेकिन न जाने क्यों सलिल की याद अब कुछ ज्यादा ही बेचैन करने लगी थी. जबतब उस का रूमाल चूम कर तसल्ली करनी पड़ती थी.

एक रोज वर्षा की कजिन लता ने फोन पर बताया कि उस के पति का भी दुबई में तबादला हो गया है, अभी तो होटल में रह रही है, घर और गाड़ी मिलने पर वर्षा से मिलने आएगी. लेकिन वर्षा उस से तुरंत मिलना चाहती थी. अनुभा ने सुझाया कि औफिस से लौटते हुए वे दोनों लता को उस के होटल से ले आएंगी. शाम को ड्राइवर उस के पति को औफिस से पिक कर लेगा और रात के खाने के बाद होटल छोड़ देगा. वर्षा का सुझाव अच्छा लगा पर घर के पुरुष तो देर से आते थे, तब तक लता का पति औरतों में बोर हो जाता. गिरीश हर बृहस्पति की शाम को क्लीनिक से जल्दी लौटता था. अत: अनुभा के कहने पर वर्षा ने लता को बृहस्पति को बुलाया. दोपहर को जेठानी देवरानी लता को लेने उस के होटल में गईं.

‘‘तू तो शादी के बाद अमेरिका या कनाडा गई थी, फिर यहां कैसे आ गई?’’ वर्षा ने पूछा.

‘‘मुझे बर्फ रास नहीं आई, इसलिए इन्होंने यहां तबादला करवा लिया,’’ लता दर्प से बोली.

‘‘अरे वाह, बड़ा दिलदार आदमी है भई, बीवी के लिए डौलर छोड़ कर दिरहम कमाना मान गया,’’ वर्षा ने चुहल करी.

‘‘मेरे लिए तो जांनिसार भी हैं दीदी,’’

लता इठलाई. वर्षा और अनुभा हंस पड़ी.

‘‘इस जांनिसर दिलदार से रिश्ता करवाया किस ने, चुन्नो चाची ने?’’ वर्षा ने पूछा.

लता हंसने लगी, ‘‘नहीं दीदी, चाची तो इस रिश्ते के बेहद खिलाफ थीं. उन का कहना था कि लड़का दिलफेंक और छोकरीबाज है. लेकिन चाचाजी ने कहा कि सभी लड़कों के शादी से पहले टाइम पास होते हैं, शादी के बाद सब ठीक हो जाते हैं.’’

‘‘आप के जांनिसार आप को किसी पुरानी टाइम पास के नाम से यानी किसी खास नाम से तो नहीं बुलाते?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘नहीं, लता ही पुकारते हैं.’’

‘‘फिर कोई फिक्र की बात नहीं है,’’ अनुभा बोली, ‘‘आप के जांनिसार सिर्फ आप के हैं.’’

शाम को गिरीश के आने के बाद वर्षा ने कहा, ‘‘गिरीश, मैं लता को जुमेरा बीच घुमाने ले जा रही हूं. लता के पति के आने पर तुम और अनुभा उन का स्वागत कर लेना.’’

कुछ देर के बाद गिरीश ने उत्साहित स्वर में अनुभा को पुकारा, ‘‘अनु, देखो तो लता के पति कौन हैं, तुम्हारे सलिल मामा.’’

उल्लासउत्साह से उफनती गिरतीपड़ती अनुभा ड्राइंगरूम में आई. हां, सलिल ही तो था, शरीर थोड़ा भर जाने से और भी आकर्षक लग रहा था.

‘‘लीजिए, आप की भानजी आ गई,’’ गिरीश बोला.

‘‘लेकिन मेरी बीवी कहां है?’’ सलिल ने अनुभा की उल्लसित किलकारी की ओर ध्यान दिए बगैर उतावली से पूछा.

‘‘भाभी के साथ समुद्र तट घूमने गई हैं, मैं बुला कर लाता हूं. तब तक आप अपनी भानजी के साथ बतियाइए.’’

‘‘बतियाने से पहले गले लगा कर आशीर्वाद तो दो मामा,’’ अनुभा मचली.

‘‘मामाजी की गोद में ही बैठ जाओ न,’’ गिरीश हंसा.

‘‘अभी तो गोद में लता को बैठा कर देखने को बेचैन हूं कि उस की आंखें ज्यादा गहरी हैं या समुद्र. आप वर्षा जीजी को घर ले आना प्लीज ताकि हम दोनों कुछ देर अकेले बैठ सकें, समुद्र के किनारे,’’ सलिल ने बेसब्री से कहा, ‘‘चलिए, गिरीशजी.’’

इतनी बेशर्मी, इतनी उपेक्षा. अनुभा सहन नहीं कर सकी, अपमान से तिलमिलाती हुई तेजी से अपने कमरे में गई, अकेले में रोने नहीं, बल्कि सलिल के दिए अनमोल रूमाल को फाड़ कर फेंकने के लिए.

Family Story: आखिरी खत – नैना की मां और शीलू का क्या रिश्ता था?

Family Story, लेखिका- अर्चना त्यागी

नैना बहुत खुश थी. उस की खास दोस्त नेहा की शादी जो आने वाली थी. यह शादी उस की दोस्त की ही नहीं थी बल्कि उस की बूआ की बेटी की भी थी. बचपन से ही दोनों के बीच बहनों से ज्यादा दोस्ती का रिश्ता था. पिछले 2 वर्षों में दोस्ती और भी गहरी हो गई थी. दोनों एक ही होस्टल में एक ही कमरे में रह रही थीं अपनी पढ़ाई के लिए. यही कारण था कि नैना कुछ अधिक ही उत्साहित थी शादी में जाने के लिए. वह आज ही जाने की जिद पर अड़ी थी जबकि उस के पिता चाहते थे कि हम सब साथ ही जाएं. उन की भी इकलौती बहन की बेटी की शादी थी. उन का उत्साह भी कुछ कम न था.

सुबह से दोनों इसी बात को ले कर उलझ रहे थे. मैं घर का काम खत्म करने में व्यस्त थी. जल्दी काम निबटे तो समान रखने का वक्त मिले. मांजी शादी में देने के लिए सामान बांधने में व्यस्त थीं.

जाने की तैयारी में 2 दिन और निकल गए. नैना को रोक पाना अब मुश्किल हो रहा था. वह अकेले जाने की जिद पर अड़ी थी. मैं ने पति को समझाया. ‘‘काम तो जीवनभर चलता रहेगा. शादीब्याह रोजरोज नहीं होते. फिर शादी के बाद नेहा भी अपनी ससुराल चली जाएगी तो पहले वाली बात नहीं रह जाएगी. नैना रोज उस से नहीं मिल पाएगी.’’

नैना के पिता सुनील ने पूरे एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी

वे पहले ही अपना मन बना चुके थे. बस, नैना को चकित करना चाहते थे. नैना, मैं और उस के पापा हम तीनों शादी से 4 दिन पहले ही दीदी के घर आ गए, शादी की सभी रस्में जो निभानी थीं. नैना के पिता यानी मेरे पति सुनील ने पूरे एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी शादी के बाद भी बचे हुए कामों में दीदी की सहायता करने के लिए. नेहा हमारी भी बेटी जैसी ही थी. बचपन से नैना के साथ ही रही थी तो उस से अपनापन भी कुछ ज्यादा ही था.

दीदी के घर अकसर हम कार से ही जाया करते थे. इस बार तो सामान अधिक था, सो कार से जाना ही सुविधाजनक था. मांजी और पिताजी बाद में ट्रेन से आने वाले थे. हम तीनों कार से ही दीदी के घर के लिए रवाना हो गए. 5-6 घंटे के रास्ते में नैना ने एक बार भी कार को रोकने नहीं दिया. उस का उतावलापन देखते ही बनता था. शाम को लगभग 5 बजे हम उन के घर पर थे.

शादी में 4 दिन अभी शेष थे, फिर भी नेहा ने अपनी नाराजगी जाहिर की. नैना से तो उस ने बात भी न की. उस की नाराजगी इस बात से थी कि वह इस बार अकेले क्यों नहीं आ पाई. हर बार तो आती थी. क्या शादी से पहले ही उसे पराया मान लिया गया है? नैना अपने तर्क दे रही थी. पिछले हफ्ते ही परीक्षा समाप्त हुई थी. कपड़े भी सिलाने थे. कुछ और भी तैयारी करनी थी. उस के सभी तर्क बेकार गए. उस दिन तो नेहा ने उस से बात न की.

अगले दिन मुझे हस्तक्षेप करना ही पड़ा, ‘‘अब तो आ गए हैं न, अब तो बात करो.’’ मैं ने जोर दे कर कहा तो उस की समझ में कुछ बात आई. 3 दिन कैसे निकले, पता ही न चला. अगले दिन नेहा की बरात आने वाली थी. मैं दीदी के साथ ही थी. नेहा के चले जाने की बात से वे बहुत उदास थीं. लड़का विदेश में था. कुछ महीनों बाद नेहा को भी उस के साथ जाना होगा. यही सोच कर उन की आंखें बारबार भर आती थीं.

मैं ने उन्हें दुनियादारी समझाने की पूरी कोशिश की. ‘‘इतने अच्छे घर में रिश्ता हुआ है. परिवार भी छोटा ही है. खुले दिमाग के लोग हैं. विदेश में रह कर भी अपनी सभ्यता नहीं भूले हैं. हमारी नेहा बहुत खुश रहेगी उन के घर. नेहा को नौकरी करने से भी मना नहीं कर रहे हैं. और तो और, अपने व्यवसाय में उसे जिम्मेदारी देने को तैयार हैं. और क्या चाहिए हमें?’’

शादी के दिन तक ये सभी बातें जाने कितनी बार मैं ने उन के सामने बोली थीं. इस से ज्यादा कुछ जानती भी न थी मैं नेहा की ससुराल वालों के बारे में. दीदी से पूछने की कोशिश भी की पर उन्हें उदास देख कर मन में ही रोक लिए थे अपने सभी प्रश्न.

आखिर वह घड़ी आ गई जिस का हम सब को इंतजार था. नेहा की बरात आ गई. दूल्हे का स्वागत करने दरवाजे पर जाना था दीदी को. साथ मैं भी थी. आरती की थाली हाथ में पकड़े दीदी आगे चल रही थीं. मैं शादी में आई दूसरी औरतों के साथ उन के पीछे चल रही थी. मन में बड़ा कुतूहल था दूल्हे को देखने का. तभी बरात घर के सामने आ कर रुकी. दूल्हे राजा घोड़ी से नीचे उतरे और दोस्तों, रिश्तेदारों के झुंड के साथ मुख्यद्वार के सामने रुक गए.

बैंडबाजे के साथ दूल्हे को तिलक लगा कर हम ने उस का स्वागत किया. स्वागत के बाद हम लोग घर की ओर मुड़ गए और बरात स्टेज की ओर बढ़ गई. नेहा को उस की सहेलियों ने घेर रखा था. हम लोग भी वहीं खड़े हो कर वरमाला का इंतजार करने लगे. नेहा आसमान से उतरी एक परी की तरह दिख रही थी. दुलहन के लिबास में उस का रंगरूप और भी निखर गया था. कुछ देर बाद वरमाला के लिए नेहा का बुलावा आ गया.

नेहा नैना और अपनी दूसरी सहेलियों के साथ स्टेज की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थी. दीदी सहित हम सभी औरतें उन से थोड़ी दूरी पर चल रहे थे. मैं ने अपना चश्मा अब पहन लिया था. स्वागत के समय दूल्हे को ठीक से देख न पाई थी. नेहा ने वरमाला पहनाई. सभी लोगों ने तालियां बजाईं. अब दूल्हे की बारी थी. उस ने भी वरमाला नेहा के गले में पहना दी. एक बार वापस तालियों की गड़गड़ाहट फिर से गूंज उठी. वरमाला पहनाने की रस्म पूरी होते ही दूल्हादुलहन स्टेज पर बैठ गए. अब दोनों को सामने से देख सकते थे. दूल्हे का चेहरा जानापहचाना सा लग रहा था मुझे.

लगभग 2 बजे नेहा अंदर आ गई. फेरों की तैयारियां शुरू हो गईं. पंडितजी अपने आसन पर बैठ गए. दूल्हा फेरों के लिए बैठ चुका था. पंडितजी ने अपना काम प्रारंभ कर दिया. कुछ देर बाद नेहा को भी बुलवा लिया. अधिकतर मेहमान उस समय तक विदा हो चुके थे. घर के लोग और कुछ निजी रिश्तेदार ही रुके थे. निजी रिश्तेदारों में भी हमारा परिवार ही जाग रहा था. बाकी लोग खाना खा कर सो चुके थे. सभी को अगले दिन जाना ही था.

क्या नेहा ससुराल जाकर खुश हुई?

सुबह 4 बजे नेहा की विदाई हो गई. घर में गिनती के लोग रह गए थे. पूरा घर सूनासूना लग रहा था. नैना एक कमरे में उदास बैठी थी. मैं नाश्ते की व्यवस्था करने के लिए रसोईघर में थी. दीदी भी नैना के पास ही बैठी थीं. रातभर जागने के बाद भी किसी का सोने का मन नहीं था. घर में रौनक लड़कियों के कारण ही होती है, आज सभी यह महसूस कर रहे थे.

पग फिराई की रस्म के लिए नेहा कल घर वापस आने वाली थी. घर को व्यवस्थित भी करना था. सब का नाश्ता हुआ, तब तक नैना और दीदी ने मिल कर घर की सफाई कर ली. ऊपर वाला कमरा मेहमानों के विश्राम के लिए रखा था. 11 बजे वे लोग आ गए- नेहा, प्रतीक और एकदो रिश्तेदार. उन के आते ही सब लोग उन के स्वागत में जुट गए. लड़की की ससुराल से पहली बार मेहमान घर आए थे. चाव ही अलग था. हम लोग नेहा के साथ व्यस्त हो गए. नैना और उस के पापा प्रतीक और बाकी मेहमानों के साथ ऊपर वाले कमरे में चले गए. जीजाजी ने बहुत रोका परंतु दोपहर का खाना खा कर नेहा को ले कर वे लोग लगभग 4 बजे रवाना हो गए.

हम ने जाने के लिए कहा तो दीदी ने रोना शुरू कर दिया, ‘‘भाभी, मैं अकेली रह गई हूं अब. आप तो जानते हो नेहा भी अभी जल्दी नहीं आने वाली वापस. आप को कुछ और दिन रुकना ही होगा.’’

उन्होंने जिद पकड़ ली. नैना, उस के पापा और मांजी और पिताजी उसी दिन शाम को घर लौट गए. मैं दोचार दिन के लिए रुक गई. सब के जाने के बाद दीदी ने नेहा की ससुराल से आया सामान खोला. सभी के लिए कुछ न कुछ उपहार दिया था उस की ससुराल वालों ने. मेरे लिए भी. मेरा पैकेट हाथ में दे कर दीदी बोलीं, ‘‘भाभी, घर जा कर खोलना भैया और नैना के उपहार के साथ.’’ मुझे उन की बात ठीक लगी. मन में एक प्रश्न जरूर था, ‘लड़की की ससुराल से इतने उपहार?’ प्रश्न मन में रख कर पैकेट अपने सूटकेस में रख लिए.

जब रोकना चाहें तो समय पंख लगा कर उड़ता है. शनिवार को सुनील मुझे ले जाने के लिए आए. दीदी बहुत उदास थीं. परंतु अब रुकना संभव नहीं था. नैना को भी जाना था. उसे नौकरी मिल गई थी स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष में ही. नेहा की शादी के कारण उस ने जाने का समय कुछ दिन बाद रखा था. रविवार सुबह ही हम घर के लिए रवाना हो गए.

घर जा कर देखा तो मांजी घर पर अकेली थीं. टीवी देखते हुए सब्जी काट रही थीं. उन के चरण स्पर्श कर के मैं ने नैना के बारे में पूछा. उन्होंने थोड़ा रोष से जवाब दिया, ‘‘किसी दोस्त के घर पर गई होगी. तुम्हारे पीछे घर पर रुकती ही कहां है? आजकल की लड़कियां थोड़ा पढ़लिख जाएं तो नौकरी तलाश कर लेती हैं. घर के कामकाज तो छोड़ो, घर पर रहना ही उन्हें नहीं भाता है.’’

मेरे बोलने से पहले ही सुनील ने बात खत्म करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘आ जाएगी मां. किसी काम से ही गई होगी. जब जिम्मेदारी सिर पर आती है, सब निभाना सीख जाते हैं.’’ इन की बात खत्म होते ही नैना आ गई.

‘‘लो दादी, तुम्हारी दवाइयां. बहुत दूर से मिलीं,’’ दवाई दादी के पास रख कर उस ने कहा और आ कर मुझ से लिपट गई.

‘‘तुम्हारे बिना घर पर मन ही नहीं लगता मां,’’ उस ने मुझ से लिपट कर कहा. फिर थोड़ा सामान्य हो कर बोली, ‘‘मेरा उपहार तो दो जो नेहा की ससुराल वालों ने दिया है. जल्दी दो न मां.’’

‘‘ठीक है, मुझे छोड़ो और मेरे पर्स से चाबी ले लो. सूटकेस खोल कर सब के पैकेट निकाल लो.’’

मैं ने उसे अपने से अलग करते हुए कहा, ‘‘मां, अपना पैकेट तुम खोलो. पापा का उन को देती हूं.’’

मेरा पैकेट दे कर नैना मांजी को अपना उपहार दिखाने चली गई. मैं पैकेट हाथ में ले कर कमरे की ओर बढ़ गई. कपड़े भी बदलने थे. पहले पैकेट खोल लेती हूं. बेचैन रहेगी तब तक यह लड़की. मैं ने मन में सोचा. खोला तो सब से पहले एक पत्र था. लिफाफे में था. परंतु पोस्ट नहीं किया गया था. सकुचाते हुए मैं ने लिफाफे से पत्र निकाला.

‘‘मां,

‘यह मेरा आखिरी खत है. इस के बाद तो मैं आप से मिलता ही रहूंगा. मैं ने नेहा से इसीलिए शादी की है कि आप के संपर्क में रह पाऊं. नेहा बहुत अच्छी लड़की है परंतु आप से झूठ नहीं बोल सकता हूं.

‘‘क्या आप को अपना शीलू याद है मां? मैं एक दिन भी आप को नहीं भूला हूं. दादादादी मुझे बहुत प्यार करते हैं. चाचाचाची ने मुझे अपने पास विदेश में रख कर काबिल बनाया. मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है मां. बस, यह जानना चाहता हूं कि तुम मुझे छोड़ कर क्यों गईं? क्या मजबूरी थी मां? पापा के जाने के बाद मैं आप के साथ था. फिर आप ने मुझे क्यों छोड़ा, मां वह भी बिना बताए. अब तो आप को बताना ही पड़ेगा मां. मैं आप के जवाब का इंतजार करूंगा.

‘आप का राजा बेटा,

‘शीलू.’

मेरी आंखों से आंसू टपटप गिर रहे थे. पत्र पूरा भीग चुका था. ‘लू, मेरा बेटा’. मुंह से निकला और मैं फफकफफक कर रो पड़ी. सालों पुराने जख्म हरे हो चुके थे. कुछ देर के लिए चेतना शून्य हो गई थी मेरी. बस, बोलती जा रही थी, ‘मैं तुम्हें कैसे बताती बेटा, तुम बहुत छोटे थे. तुम्हारी दादी का ही निर्णय था यह. दुर्घटना में तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद भी मैं उन लोगों के साथ ही रहना चाहती थी, तुम्हें ले कर रह भी रही थी. एक दिन के लिए भी उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं गई. तुम्हारे नाना के घर भी नहीं. तुम्हारी दादी ने ही बुलाया था उन्हें.

‘घर बुला कर कहा था कि यदि अपनी बेटी का पुनर्विवाह नहीं कर सकते हो तो कोई लड़का देख कर हम ही कर देंगे. छोटे बेटे की शादी के बाद हम शीलू को ले कर उस के साथ विदेश चले जाएंगे. इसलिए शीलू की चिंता करने की जरूरत नहीं है. एक वाक्य में तुम्हें मुझ से अलग कर दिया था उन्होंने.’

तभी सुनील अंदर आए. उन्हें देख कर मैं फिर से रो पड़ी. ‘‘तुम तो सब जानते हो सुनील. तुम तो भैया के करीबी दोस्त थे न. शादी से ले कर खाली हाथ वापस घर आने तक सब तुम ने अपनी आंखों से देखा है, कानों से सुना है. किस तरह अपमानित कर के मुझे घर से निकाल दिया था उन्होंने. आखिरी बार शीलू से मिलने भी नहीं दिया था. देखो, यह चिट्ठी देखो.’’

‘‘अरे हां, देख रहा हूं भाई.’’ उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कुछ भी भूला नहीं हूं. अब उठो. वर्तमान में आओ. शीलू ने तुम्हें हमेशा के लिए ढूंढ़ लिया है. मैं नेहा की शादी से पहले से जानता हूं कि प्रतीक ही शीलू है.’’

मैं हतप्रभ उन्हें देख रही थी. नैना भी तब तक कमरे में आ चुकी थी, बोली, ‘‘मां, अगले हफ्ते नेहा और प्रतीक आ रहे हैं घर पर. हनीमून के लिए जाते हुए वे हम लोगों से मिलते हुए जाएंगे. उठो मां, बहुत सी तैयारियां करनी हैं उन के स्वागत की.’’

सब की आवाज सुन कर मांजी भी कमरे में आ गईं. मैं उठने लगी तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, दोनों भाईबहनों ने मुझे मना किया था तुम्हें बताने के लिए. इसीलिए मैं चुप रही. मुझे माफ करना. पहले बता दिया होता तो तुम्हारा दिल तो नहीं दुखता.’’

मैं ने उठ कर उन के पैर पकड़ लिए, बोल पड़ी, ‘‘मां, तुम ने तो मेरा दिल हमेशा के लिए खुश कर दिया है. आज जिंदगी को फिर से देखा. एक वह मां थी. एक यह मां है. एक वह समय था जब शीलू को मुझ से मिलने ही नहीं दिया गया. एक यह समय है जब शीलू मुझ से मिलने आने वाला है.’’

‘शीलू से मिल कर, उसे अपने सीने से लगा कर, उस की सारी शिकायतें दूर कर दूंगी. मेरे बेटे, तू ने अपनी मां को आज जीवन की वे खुशियां दी हैं, जो मुझ से छीन ली गई थीं. शीलू, मेरे बेटे जल्दी आ,’ मेरा मन सोचते हुए खुशी से भरा जा रहा था.

Hindi Story: सौतेला बरताव – जिस्म बेचने को मजबूर एक बेटी

Hindi Story: चंपा को देह धंधा करने के आरोप में जेल हो गई. वह रंगे हाथ पकड़ी गई थी. वह जेल की सलाखों में उदास बैठी हुई थी. चंपा के साथ एक अधेड़ औरत भी बैठी हुई थी. थोड़ी देर पहले पुलिस उसे भी इस बैरक में डाल गई थी. चंपा जिस होटल में देह धंधा करती थी, उसी होटल में पुलिस ने छापा मारा था और उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था. आदमी तो भाग गया था, मगर पुलिस वाला उसे दबोचते हुए बोला था, ‘चल थाने.’

‘नहीं पुलिस बाबू, मुझे माफ कर दो…’ वह हाथ जोड़ते हुए बोली थी, ‘अब नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘वह आदमी कौन था ’ पुलिस वाला उसी अकड़ से बोला था.

‘मुझे नहीं मालूम कि वह कौन था ’ वह फिर हाथ जोड़ते हुए बोली थी.

‘झूठ बोलती है. चल थाने, सारा सच उगलवा लूंगा.’

‘मुझे छोड़ दीजिए.’

‘हां, छोड़ देंगे. लेकिन तू ने उस ग्राहक से कितने पैसे लिए हैं ’

‘कुछ भी नहीं दे कर गया.’

‘झूठ कब से बोलने लगी  चल थाने ’

‘छोड़ दीजिए, कहा न कि अब कभी नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘करेगी… जरूर करेगी. अगर करना ही है, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ. फिर हम तुझ से कुछ नहीं कहेंगे…’ हवलदार थोड़ा नरम पड़ते हुए बोला था, ‘तुझे छोड़ सकता हूं, मगर अंटी में जितने पैसे हैं, निकाल कर मुझे दे दे.’

‘साहब, आज तो मेरी अंटी में कुछ भी नहीं है,’ वह बोली थी.

‘ठीक है, तब तो एक ही उपाय है… जेल,’ फिर वह पुलिस वाला उसे पकड़ कर थाने ले गया था. चंपा दीवार के सहारे चुपचाप बैठी हुई थी. वह अधेड़ औरत न जाने कब से उसे घूर रही थी.आखिरकार वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘ऐ लड़की, तू कौन है ’’

तब चंपा ने अपना चेहरा ऊपर कर उस अधेड़ औरत की तरफ देखा, मगर जवाब कुछ नहीं दिया.

वह अधेड़ औरत जरा नाराजगी से बोली, ‘‘सुना नहीं  बहरी है क्या ’’

‘‘हां, पूछो ’’ चंपा ने कहा.

‘‘क्या अपराध किया है तू ने ’’

‘‘मैं ने वही अपराध किया है, जो तकरीबन हर औरत करती है ’’

‘‘क्या मतलब है तेरा गोलमोल बात क्यों कर रही है, सीधेसीधे कह न,’’ वह अधेड़ औरत गुस्से से बोली.

‘‘मुझे देह धंधा करने के आरोप में पकड़ा गया है.’’

‘‘शक तो मुझे पहले से ही था. अरे, जिस पुलिस वाले ने तुझे पकड़ा है, उस के मुंह पर नोट फेंक देती.’’

‘‘अगर मेरे पास पैसे होते, तो उस के मुंह पर मैं तभी फेंक देती.’’

‘‘तुम ने यह धंधा क्यों अपनाया ’’

‘‘क्या करोगी जान कर ’’

‘‘मत बता, मगर मैं सब जानती हूं.’’

‘‘क्या जानती हैं आप ’’

‘‘औरत मजबूरी में ही यह धंधा अपनाती है.’’

‘‘नहीं, गलत है. मैं मजबूरी में वेश्या नहीं बनी, बल्कि बनाई गई हूं.’’

‘‘कैसे अपनी कहानी सुना.’’

‘‘हां सुना दूंगी, मगर आप इस उम्र में जेल में क्यों आई हो ’’

‘‘मेरी बात छोड़, मेरा तो जेल ही घर है,’’ उस अधेड़ औरत ने कहा.

‘‘आप आदतन अपराधी हैं ’’

‘‘यही समझ ले…’’ उस अधेड़ औरत ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘फिर भी सुनना चाहती है तो सुन. मैं अफीम की तस्करी करती थी. अब सुना तू अपनी कहानी.’’

चंपा की कहानी कुछ इस तरह थी: चंपा के पिता मजदूर थे. उन का नाम मांगीलाल था. उन्होंने रुक्मिणी नाम की औरत से शादी की थी.

शादी के 2 साल गुजर गए थे. एक दिन पिता मांगीलाल को पता चला कि रुक्मिणी मां बनने वाली है. उन की खुशियों का ठिकाना न रहा.

रुक्मिणी को बांहों में भरते हुए वे बोले थे, ‘पहला बच्चा लड़का होना चाहिए…’

‘यह मेरे हाथ में है क्या ’ रुक्मिणी उन्हें झिड़कते हुए बोली थी. 9 महीने बाद जब चंपा पैदा हुई, तो 4 दिन बाद उस की मां मर गई. पिता के ऊपर सारी जवाबदारी आ पड़ी. रिश्तेदार कहने लगे कि पैदा होते ही यह लड़की मां को खा गई. तब मौसी ने उसे पाला. मां के मरने पर पिता टूट गए थे. वे उदासउदास से रहने लगे थे. तब अपना गम भुलाने के लिए वे शराब पीने लगे थे. रिश्तेदारों और उन के बड़े भाई ने खूब कहा कि दोबारा शादी कर लो, मगर वे तैयार नहीं हुए थे. धीरेधीरे चंपा मौसी की गोद में बड़ी होती गई. जब वह 5 साल की हो गई, तब उसे स्कूल में भरती करा दिया गया. पिता को दोबारा शादी के प्रस्ताव आने लगे. चारों तरफ से दबाव भी बनने लगा. एक दिन पिता के बड़े भाई भवानीराम और उन की पत्नी तुलसाबाई आ धमके. आते ही भवानीराम बोले, ‘ऐसे कैसे काम चलेगा मांगीलाल ’

‘क्या कह रहे हैं भैया ’ मांगीलाल ने पूछा.

‘सारी जिंदगी यों ही बैठे रहोगे ’ भवानीराम ने दबाव डालते हुए कहा.

‘आप कहना क्या चाहते हो भैया ’

‘अरे देवरजी…’ तुलसाबाई मोरचा संभालते हुए बोली, ‘देवरानी को गुजरे 6-7 साल हो गए हैं. अब उस की याद में कब तक बैठे रहोगे. चंपा भी अब बड़ी हो रही है.’ ‘भाभी, मेरा मन नहीं है शादी करने का,’ मांगीलाल ने साफ इनकार कर दिया था. ‘मैं पूछती हूं कि आखिर मन क्यों नहीं है ’ दबाव डालते हुए तुलसाबाई बोली, ‘यों देवरानी की याद करने से वह वापस तो नहीं आ जाएगी. फिर शादी कर लोगे, तो देवरानी के गम को भूल जाओगे.’

‘नहीं भाभी, मैं ने कहा न कि मुझे शादी नहीं करनी है.’

‘क्यों नहीं करनी है  हम तेरी शादी के लिए आए हैं. और हां, तेरी हां सुने बगैर हम जाएंगे नहीं,’ भैया भवानीराम ने हक से कहा, ‘हम ने तेरे लिए लड़की भी देख ली है. लड़की इतनी अच्छी है कि तू रुक्मिणी को भूल जाएगा.’

‘नहीं भैया, मैं चंपा के लिए सौतेली मां नहीं लाऊंगा,’ एक बार फिर इनकार करते हुए मांगीलाल बोला.

‘कैसी बेवकूफों जैसी बातें कर रहा है. जिन की औरत भरी जवानी में ही चली जाती है, तब वे दोबारा शादी नहीं करते हैं क्या ’

‘अरे देवरजी, यह क्यों भूल रहे हो कि चंपा को मां मिलेगी. कब तक मौसी उस की देखरेख करती रहेगी  इस बात को दिमाग से निकाल फेंको कि हर मां सौतेली होती है. जिस के साथ हम तुम्हारी शादी कर रहे हैं, वह ऐसी नहीं है. चंपा को वह अपनी औलाद जैसा ही प्यार देगी ’ ‘भाभी, आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो ’

‘बिना औरत के आदमी का घर नहीं बसता है और हम तेरा घर बसाना चाहते हैं. लड़की हम ने देख ली है. एक बात कान खोल कर सुन ले, हम तेरी शादी करने के लिए आए हैं. इनकार तो तुम करोगे नहीं. बस, तैयार हो जाओ,’ कह कर भवानीराम ने बिना कुछ सुने फैसला सुना दिया. मांगीलाल को भी हार माननी पड़ी. भैयाभाभी ने जो लड़की पसंद की थी, उस का नाम कलावती था. मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह कलावती के साथ उस की शादी कर दी गई. जब तक कलावती की पहली औलाद न हुई, तब तक उस ने चंपा को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह उस की सौतेली मां है. मगर बच्चा होने के बाद वह चंपा को बातबात पर डांटने लगी. उस का स्कूल छुड़वा दिया गया. वह उस से घर का सारा काम लेने लगी. पिता भी नई मां पर ज्यादा ध्यान देने लगे. इस तरह नई मां ने पिता को अपने कब्जे में कर लिया. धीरेधीरे चंपा बड़ी होने लगी. लड़के उसे छेड़ने लगे.

कलावती भी उसे देख कर कहने लगी, ‘लंबी और जवान हो गई है. कब तक हमारे मुफ्त के टुकड़े तोड़ती रहेगी. कोई कामधंधा कर. कामधंधा नहीं मिले, तो किसी कोठे पर जा कर बैठ जा. तेरी जवानी तुझे कमाई देगी.’ चंपा के पिता जब शादी की बात चलाते, तब सौतेली मां कहती, ‘कहां शादी के चक्कर में पड़ते हो. चंपा अब बड़ी हो गई है. साथ ही, जवान भी. रूप भी ऐसा निखरा है कि अगर इसे किसी कोठे पर बिठा दो, तो खूब कमाई देगी.’ तब पिता विरोध करते हुए कहते, ‘जबान से ऐसी गंदी बात मत निकालना. क्या वह तुम्हारी बेटी नहीं है ’

‘‘मेरी पेटजाई नहीं है वह. आखिर है तो सौतेली ही,’ कलावती उसी तरह जवाब देती. पिता को गुस्सा आता, मगर वह उन्हें भी खरीखोटी सुना कर उन की जबान बंद कर देती थी. इस गम में पिता ज्यादा शराब पीने लगे. रातदिन की चकचक से तंग आ कर चंपा ने कोई काम करने की ठान ली. मगर सौतेली मां तो उस से देह धंधा करवाना चाहती थी. आखिर में चंपा ने भी अपनी सौतेली मां की बात मान ली. जिस होटल में वह धंधा करती थी, वहीं सौतेली मां ग्राहक भेजने लगी. ग्राहक से सारे पैसे सौतेली मां झटक लेती थी. चंपा ने उस अधेड़ औरत के सामने अपना दर्द उगल दिया. थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘तेरी कहानी बड़ी दर्दनाक है. आखिर सौतेली मां ने अपना सौतेलापन दिखा ही दिया.’’

चंपा कुछ नहीं बोली.

‘‘अब क्या इरादा है  तेरी सौतेली मां तुझे छुड़ाने आएगी ’’ उस अधेड़ औरत ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो अब जेल में ही रहना चाहती हूं. उस सौतेली मां की सूरत भी नहीं देखना चाहती हूं.’’

‘‘तू भले ही मत देख, मगर तेरी सौतेली मां तुझ से पैसा कमाएगी, इसलिए तुझे छुड़ाने जरूर आएगी,’’ अपना अनुभव बताते हुए वह अधेड़ औरत बोली.

‘‘मगर, अब मैं घर छोड़ कर भाग जाऊंगी ’’

‘‘भाग कर जाएगी कहां  यह दुनिया बहुत बड़ी है. यह मर्द जात तुझे अकेली देख कर नोच लेगी. मैं कहूं, तो तू किसी अच्छे लड़के से शादी कर ले.’’ ‘‘कौन करेगा मुझ से शादी बस्ती के सारे बिगड़े लड़के मुझ से शादी नहीं मेरा जिस्म चाहते हैं. वैसे भी मैं बदनाम हो गई हूं. अब कौन करेगा शादी ’’ ‘‘हां, ठीक कहती हो…’’ कह कर वह अधेड़ औरत खामोश हो गई. कुछ पल सोच कर वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘हम औरतों के साथ यही परेशानी है. देख न मुझे भी मेरी जवानी का फायदा उठा कर तस्करी का काम दिया, ताकि औरत देख कर कोई शक नहीं करे. मगर जब पैसे मिलने लगे, तब धंधा मुझे रास आ गया. इस का नतीजा देख रही हो, आज मैं जेल में हूं.’’ फिर दोनों के बीच काफी देर तक सन्नाटा पसरा रहा. तभी एक पुलिस वाले ने ताला खोलते हुए कहा, ‘‘बाहर निकल. तेरी मां ने जमानत दे दी है.’’ चंपा ने देखा कि उस की मां कलावती खड़ी थी. वह गुस्से में बोली, ‘‘तू चुपचाप धंधा करती रही और मुझे बदनाम कर दिया. सारी बस्ती वाले मुझ पर थूक रहे हैं. आखिर मैं तेरी सौतेली मां हूं न, बदनाम तो होना ही है. वैसे भी सौतेली मां तो बदनाम ही रहती है.

‘‘चल, निकल बाहर. अब कभी धंधा किया न, तो तेरी खाल खींच लूंगी. मां हूं तेरी, भले ही सौतेली सही. मैं ने जमानत दे दी है.’’ चंपा कुछ नहीं बोली. वह अपनी सौतेली मां के साथ हो ली. वह जानती थी कि यह केवल लोकलाज का दिखावा है. अब यह कैसी साहूकार बन रही है. उलटा चोर कोतवाल को डांट कर.

Family Story : ये चार दीवारें – अभिलाषा और वर्षा क्यों दुखी थी?

Family Story : कोरोना वायरस ने सभी की जिंदगियों को कितना बदल दिया है. अभी तीन दिन पहले ही तो बर्षा और अभिलाषा कालेज के कैम्पस में मदमस्त घूम रहीं थीं और आज अपने रूम में बंद मुंह बनाएं अपनेअपने फोन में लगी हुई हैं. दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के नामी कालेज में पढ़ती हैं. अभिलाषा लाइफ साइंसेस के छठे सेमेस्टर में है तो बर्षा बीबीए के चौथे सेमेस्टर में. दोनों के इंटर्वल्स चल रहे थे और जल्द ही एनुअल एग्जाम भी होने वाले थे कि कोरोना वायरस के चलते पहले कालेज 31 मार्च तक बंद हुआ और फिर देशभर में लौकडाउन की घोषणा हो गई. लौकडाउन के चलते वे दोनों अपने पीजी में बंद हैं. अभिलाषा इस पीजी में पहले से रह रही थी और सेमेस्टर की शुरुआत में ही बर्षा इस में शिफ्ट हुई थी.

बर्षा और अभिलाषा एकसाथ रहती तो थीं पर दोस्त नहीं थीं, होती भी कैसे, दोस्ती करने का समय था किस के पास.

बर्षा मदमस्त लड़की थी लेकिन कालेज में कोई खास दोस्त नहीं था उस का. नासिक की रहने वाली बर्षा 3 साल से पार्थ के साथ रिलेशनशिप में थी. पार्थ नासिक में ही था और बर्षा यहां दिल्ली में. बर्षा के लिए दोस्ती का मतलब था पार्थ, प्यार का मतलब था पार्थ और परिवार का मतलब भी था तो सिर्फ पार्थ. बर्षा का परिवार रसूखदार था. नौकरीपरस्त मातापिता उस की जरूरतों को तो समझते थे पर उस के मन को कभी नहीं समझ पाए. छोटी बहन से उसे प्यार तो बहुत था लेकिन उम्र में 4 साल छोटी बहन उसे समझती भी तो कैसे. सो, वह बड़ी भी कुछ इसी तरह हुई कि अपने मन की बातें अपने मन में ही रखती थी.

वहीं, अभिलाषा सोनीपत की रहने वाली थी. बचपन से हमेशा परिवार की लाड़ली. दोनों भाई उस से बेहद प्यार करते थे और मम्मीपापा की तो जान थी वह. यहां कालेज में भी उस के कई दोस्त थे. हमेशा दोस्तों से घिरी अभिलाषा के लिए शांत पर हमेशा चिड़चिड़ी बर्षा को झेलना मुश्किल हो जाता था. उस ने बर्षा के इस रूम में शिफ्ट होने पर उस की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, वह उस से कालेज के बाद हैंगआउट करने के लिए भी पूछती थी लेकिन बर्षा कभी पार्थ के साथ फोन पर बात कर रही होती तो कभी चैटिंग. एक बार जब अभिलाषा ने बर्षा से उस की क्लासमेट से नोट्स लाने के लिए कहा था तो बर्षा ने यह कह कर टाल दिया था कि पार्थ दिल्ली आ रहा है और वह उस से मिलने स्टेशन जा रही है. अभिलाषा ने उसे कहा भी कि नोट्स लेने में उसे 5 मिनट से ज्यादा वक्त नहीं लगेगा लेकिन बर्षा नहीं मानी और कालेज से बिना नोट्स लिए ही निकल गई.

उस दिन से ही ऐसी कितनी ही छोटी बड़ी चीजें थीं जिन पर दोनों झगड़ती रहतीं. कभी अभिलाषा के दोस्तों की पीजी पार्टियों से बर्षा परेशान हो जाती तो कभी बर्षा के गंदे पड़े कपड़ों को अपनी कुर्सी पर देख अभिलाषा बिफर पड़ती. एक बार अभिलाषा को जब बहुत भूख लगी थी तो उस ने लंच में आए बर्षा के टिफिन से आलू का परांठा खा लिया था. बर्षा जब कालेज से लंच के लिए लौटी तो खाली टिफिन देख कर उस का मूड खराब हो गया.

‘तुम ने मेरा लंच खाया है?’ बर्षा ने गुस्से से अभिलाषा से पूछा.

‘हां, मुझे भूख लगी थी. तू मुझ से पैसे ले कर कैंटीन से कुछ खा ले,’ अभिलाषा बोली.

‘यार, क्या बदतमीजी है ये. एक कौल कर देती तो मैं कुछ खा लेती वहीं पर. 25 मिनट तक चलते हुए तो नहीं आना पड़ता न मुझे, वो भी इस खाली डब्बे के लिए,’ बर्षा चिल्लाने लगी.

अभिलाषा की आवाज भी अब तेज हो गई. ‘मुझ पर चिल्लाने की जरूरत नहीं है. भूख लगी थी खा लिया और कौल करना भूल गई, सौरी. पर मुझ पर आज के बाद चिल्लाने की कोशिश भी मत करियो. छोटी है, छोटी बन कर रह.’

‘स्टौप टौकिंग, मेरा अभी तुम्हारी शक्ल देखने का भी मन नहीं है.’

‘मैं तो मरी जा रही हूं जैसे तेरी शक्ल देखने के लिए. जा यहां से,’ अभिलाषा अपनी चप्पल पहन बालकनी में जा कर खड़ी हो गई थी.

बर्षा और अभिलाषा हर दिन किसी न किसी बात पर लड़ती थीं. उन दोनों के लिए खुशी की बात यही थी कि वे जबजब लड़तीं तो दोनों में से कोई एक कमरे से बाहर निकल जाया करती थी. बर्षा को अपने कमरे में ही रहना पसंद होता था तो ज्यादातर अभिलाषा ही अपनी किसी दोस्त के पीजी चली जाती थी और कभीकभी वहीं नाइट स्टे करती.

अभिलाषा और बर्षा का पीजी कालेज से 25 मिनट की दूरी पर था. उन के पीजी के पास उन के किसी क्लासमेट या फ्रैंड का पीजी नहीं था. उन के पीजी वाली गली संकरी थी लेकिन आसपास के घरों की ऊंचाई ज्यादा नहीं थी. रात में जब बालकनी में बर्षा खड़ी होती तो उसे खुला आसमान नजर आता था. तारे टिमटिमाते तो उन्हें देख वह खुश हो जाया करती थी, अपने फोन से एक पिक्चर क्लिक करती और पार्थ को भेजा करती. कितनी खुशी मिलती थी उसे पार्थ को अपने हर पल से जोड़ते हुए. जबजब उस से लड़ाई करती तो इतनी उदास हो जाया करती कि अभिलाषा से लड़ना भी उसे व्यर्थ लगता.

अभिलाषा को बर्षा की जिंदगी से कोई मतलब नहीं था, वह उसे उदास देख कर एक पल को कुछ पूछने के बारे में सोचती भी तो दूसरे ही पल उसे बर्षा से अपनी लड़ाइयां याद आ जातीं और वह चुप अपनी किताबों में घुस जाती. लड़ाइयों से अभिलाषा को सब से ज्यादा वह दिन याद आता जब बर्षा ने किचन में आ उस की मैगी के पैन में पानी डाल दिया था और अभिलाषा का खून खौल गया था. हुआ यह था कि अभिलाषा किचन में मैगी बना रही थी और रूम में रखा उस का फोन बज उठा.

अपना फोन उठाने की जल्दी में अभिलाशा किचन से मैगी हिलाने वाला चमचा हाथ में पकड़ तेजी से निकली और गलती से कुर्सी पर सूख रहे बर्षा के कपड़ों पर उस ने चमचा लगा दिया. बर्षा नहा कर बाहर आई तो उस ने देखा उस के टौप पर पीला निशान पड़ा हुआ है. उसे लगा कि अभिलाषा ने यह जानबूझ कर किया क्योंकि उसे पता था आज बर्षा को क्लास में प्रेसेंटेशन देनी है.

बर्षा गुस्से से लाल होती हुई किचन की तरफ बड़ी और बोतल खोल कर जितना पानी उस में था उस ने अभिलाषा की मैगी में उड़ेल दिया. अभिलाषा को भूख बिलकुल बर्दाश्त नहीं थी. सो, बर्षा से लड़ाई और चिल्लमचिल्ली के बाद भी उसे पानी वाली बेस्वाद मैगी खानी पड़ी थी. यह वाक्य उसे जब भी याद आता वह गुस्से से भर जाती थी और उस का मन होता कि बर्षा को खींच कर तमाचा मार दे. वैसे, एक बार जब बर्षा सोतेसोते पलंग के बिलकुल किनारे सरक आई थी तो उसे सरकाने या गिरने से बचाने के बजाय अभिलाषा फोन का विडियो रिकौर्डर खोल कर बैठ गई थी और उस ने बर्षा के गिरने की विडियो बनाई भी थी और अपने दोस्तों में खूब वायरल भी की थी.

अब जब से लौकडाउन हुआ है तब से दोनों इस बात से कम कि बाहर नहीं जा सकते, इस बात से ज्यादा परेशान हैं कि अगले 21 दिन उन्हें एक साथ, एक ही कमरे में काटने हैं. दोनों का लंच और डिनर का खाना भी आना बंद हो गया था, कुछ और्डर वे कर नहीं सकती थीं तो एक ही उपाय था कि दोनों खाना बना कर खाएं. खाना बनाने, बर्तन धोने, झाडू पोंछा करने आदि को ले कर दोनों सुबह शाम लड़ती रहती थीं. अभिलाषा अपनी मम्मी से फोन पर हर दिन बात कर उन्हें हर पल की खबर देती. दूसरी तरफ बर्षा की पार्थ से लड़ाई होती रहती. अभिलाषा ने बर्षा को अभी कल ही फोन पर चिल्लाते सुना था, ‘नहीं करनी मुझे तुम से बात अब, जाओ उस मालविका से ही बातें करो, मुझ से करने की जरूरत नहीं है.’

अब कोरोना वायरस के चलते वे दोनों कहीं आजा नहीं सकतीं, दोनों ही परेशान हैं. दोनों के अकाउंट में पैसे हैं तो दोनों को कुछ खास चिंता नहीं लेकिन घुटन तो उन्हें भी महसूस हो रही है इस चार दीवारी में. आज सुबह से ही बर्षा का मूड कुछ ठीक नहीं यह अभिलाषा को महसूस तो हुआ लेकिन वह उस से कुछ पूछनाजानना नहीं चाहती.

अभिलाषा ‘लव इन द टाइम औफ कोलेरा’ किताब पढ़ रही थी जब उसे बर्षा के रोने की आवाज आई. बर्षा अपने बेड पर थी जो अभिलाषा के बेड से चार कदम दूर ही था. बर्षा का चेहरा चादर से ढका हुआ था तो अभिलाषा को बस उस की आवाज सुनाई दे रही थी. वह बारबार फरमीना और फ्लोरेंटिनो के रोमांस पर फोकस करती और बारबार बर्षा की आवाज उस के ध्यान में बाधा डालती.

‘‘सुन,’’ अभिलाषा ने कहा.

बर्षा ने अभिलाषा की आवाज सुन कर भी उसे अनसुना कर दिया तो अभिलाषा ने फिर आवाज लगाई, ‘‘ओए बर्षा, सुन.’’

‘‘हूं,’’ बर्षा ने जवाब में कहा.

‘‘थोड़ा धीरे रो, मुझे बुक पढ़ने में डिस्टर्बेंस हो रही है,’’ अभिलाषा कहने लगी.

‘‘तुम कितनी हार्टलेस हो, कितनी बुरी हो. तुम्हें दिख रखा है मैं रो रही हूं पर तुम्हें फर्क नहीं पड़ रहा न. तुम्हारा ब्रेकअप होता तो क्या तब भी तुम यही कहती,’’ बर्षा सुबकते हुए कहने लगी.

‘‘मेरा ब्रेकअप होता तो मैं ब्रेकअप पार्टी देती. वैसे भी लड़के इस लायक होते भी नहीं कि उन के लिए आंसू बहाए जाएं, कोई समझदार लड़की उन पर आंसू नहीं बहाती. हां, तू समझदार भी तो नहीं है तो तुझ से ऐसी उम्मीद भी नहीं लगा सकते.’’

‘‘प्लीज, मुझ से बात करने की कोई जरूरत नहीं है,’’ बर्षा अब भी सुबक रही थी.

‘‘हां, जैसे मैं तो मरी जा रही हूं,’’ अभिलाषा ने मुंह बनाते हुए कहा.

बर्षा अपने बेड से उठी और बाथरूम में जा कर शावर के नीचे बैठ रोने लगी. बर्षा और पार्थ का ब्रेकअप हो गया था. पार्थ से बर्षा बेहद प्यार करती थी लेकिन जब से उसे यह पता चला था कि मालविका के पार्थ को प्रोपोज करने के बाद भी वह उस से दोस्ती बनाए हुए है तो बर्षा का शक पार्थ पर गहराता जा रहा था. इस शक और बर्षा की इन्सेक्योरिटी के चलते ही पार्थ ने बर्षा से ब्रेकअप कर लिया था. बर्षा बाथरूम में बैठ कर दिल खोल कर रो रही थी, उस के आंसू पानी की बौछार के साथ मिलते हुए नाली में बह रहे थे और हर एक आंसू के साथ उसे ऐसा लगता मानो उस के दिल के छोटेछोटे टुकड़े भी बह रहे हैं और उस के सीने से दर्द हलका होता जा रहा है.

अभिलाषा बाहर अपने पलंग पर बैठी बर्षा के रोने की आवाज सुन रही थी. तभी अभिलाषा बाहर से जोर से चिल्लाई, ‘‘पानी कम खर्च कर, न्यूज नहीं सुनती क्या, पानी की बचत कर. ऐसे ही हमारा देश कोरोना के बाद पानी की किल्लत से ही जूझने वाला है. कम पानी बहा.’’ बर्षा अपने आंसुओं के साथसाथ अभिलाषा के तानों का घूंट भी पी गई.

शाम के 7 बज रहे थे जब बर्षा अपने बेड पर आंखें बंद किए लेटी थी. बर्षा अपने और पार्थ के हर उस पल के बारे में सोच रही थी जिन में उसे महसूस होता था कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने हैं और उन के बीच कभी कोई नहीं आ सकता. अचानक अभिलाषा का फोन बजा तो बर्षा की तंद्रा भंग हुई.

‘‘हां पापा, बोलिए क्या हुआ,’’ अभिलाषा फोन पर बोली. ‘‘क्या…..,’’ अभिलाषा लगभग चीख पड़ी.

अभिलाषा की आवाज सुन कर बर्षा चादर हटा अपने बेड पर बैठ गई. उस की नजरें अभिलाषा के चहरे पर टिक गईं जो धीरेधीरे रोआंसा होने लगा था.

‘‘कहां…कहां हैं मम्मी….मैं…मैं…मैं आ रही हूं….पापा….’’ कहते हुए अभिलाषा जोरजोर से रोने लगी. अभिलाषा को इतनी बुरी तरह रोते बर्षा ने पहले कभी नहीं देखा था. वह तेजी से अपने बेड से उठी और अभिलाषा को थामने लगी. अभिलाषा बस रोए जा रही थी और फोन से लगातार उस के पापा की आवाज आ रही थी.

‘‘अभिलाषा…अभिलाषा…’’ फोन से निकलती हुई आवाज अभिलाषा के कानों तक पहुंच तो रही थी लेकिन शब्दों ने जैसे उस की जबान पर आने से मना कर दिया था.

‘‘अभिलाषा क्या हुआ? बताओ तो हुआ क्या है?’’ बर्षा अभिलाषा से लगातार पूछ रही थी. बर्षा ने अभिलाषा के हाथ से फोन ले लिया.

‘‘हैलो, अंकल…क्या हुआ है,’’ बर्षा ने अभिलाषा के पापा से पूछा.

‘‘बेटा, व…वो….अभिलाषा की मम्मी काफी जल गईं है बेटा. किचन में पूडि़यां तलते हुए कढ़ाई का खौलता हुआ तेल उन के गले से पैर तक छिटक गया. ज्यादा जल गईं हैं होस्पिटल में भर्ती हैं पर अभिलाषा को मत कहना की बहुत ज्यादा जली हैं. उस से कहना कि थोड़ा बहुत जली हैं और कुछ दिन में ठीक हो जाएंगी. उस का ध्यान रखना बेटा… वो पागल है, अपनी मम्मी से बहुत प्यार करती है, रोरो कर अपना हाल बुरा कर लेगी, उस का ध्यान रखना. उस की मम्मी ठीक हैं… तुम दोनों अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ओके…अंकल,’’ बर्षा ने कहा और फोन काट दिया.

अभिलाषा बिना रुके बस रोए जा रही थी. बर्षा उसे ले कर बेड पर बैठी और उसे चुप कराने लगी. ‘‘आंटी अब ठीक हैं अभिलाषा, अंकल ने कहा है वे जल्दी ठीक हो जाएंगी.’’

अभिलाषा अब भी कुछ नहीं सुन रही थी बस रोए जा रही थी. बर्षा उठ कर गई और गिलास में पानी ले आई. अभिलाषा ने पानी पिया और दोनों हथेलियां आंखों पर रख रोने लगी. वह बिलकुल बच्चों की तरह रो रही थी.

‘‘आंटी ठीक हो जाएंगी जल्दी,’’ बर्षा दिलासा देते हुए बोली.

‘‘मुझे मम्मी के पास जाना है,’’ अभिलाषा सुबकते हुए बोल पड़ी.

‘‘लौकडाउन खत्म होते ही चले जाना. अभी संभालो खुद को.’’

अभिलाषा ने अपना फोन उठाया और पापा को कौल लगा दिया.

‘‘पापा, मम्मी को होश आ गया तो बात करा दीजिए, मुझे उन से बात करनी है,’’ एक मिनट रुक अभिलाषा कहने लगी, ‘‘हैलो, हैलो…मम्मी आप ठीक हैं न….आप ठीक हैं न. आप को ज्यादा चोट तो नहीं आई….’’ मम्मी से बात करते हुए अभिलाषा का रोना शांत हो गया था. बर्षा को यह देख कर राहत मिली. वह उठी और बालकनी में जा कर बैठ गई.

बाहर अंधेरा छा चुका था. कोरोना वायरस से लोग इतने डरे हुए हैं कि अपने घरों से बाहर कोई दिखाई ही नहीं देता अब. अंधेरे में बालकनी के एक कोने में बैठी बर्षा खुले आसमान को ताक रही थी. आज न फोन उस के हाथ में था और न फोन के दूसरी तरफ पार्थ. अभिलाषा की मम्मी के साथ जो कुछ हुआ था उसे सुन कर बर्षा को अपना गम बहुत छोटा लगने लगा था. वह घुटनों के दोनों तरफ बांहें बांधे बैठी हुई थी कि तभी अभिलाषा कमरे से निकल कर आई और उस के बगल में आ कर बैठ गई.

‘‘आंटी ठीक हैं?’’ बर्षा ने पूछा.

‘‘हां,’’ अभिलाषा ने जवाब दिया. अभिलाषा की आंखें अब भी नम थीं और आंखों की किनारी से ऐसा लग रहा था मानो दो बूंदे बस छलकने ही वाली हैं.

‘‘तुम ठीक हो?’’ बर्षा अभिलाषा की ओर देखते हुए पूछ पड़ी.

‘‘नहीं.’’

‘‘हम्म.’’

‘‘और तुम,’’ अभिलाषा ने आसमान की ओर देखते हुए कहा.

‘‘नहीं,’’ बर्षा ने कहा और वह भी उसी आसमान में उसी ओर देखने लगी जिस ओर अभिलाषा की नजरें थीं.

‘‘बर्षा….’’

‘‘हां?’’

‘‘सौरी…एंड…थैंक यू…’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘अगर तुम न होती तो पता नही यह रात कैसे कटती. यह दीवारें काटने को दौड़ती मुझे और मैं घुटघुट कर मर जाती,’’ अभिलाषा बोली.

‘‘जबतक मैं हूं तबतक तुम्हें काटने और मारने का हक सिर्फ मुझे है,’’ बर्षा ने कहा और हलकी सी हंसी हंस दी.

बर्षा की बात सुन अभिलाषा की हंसी भी छूट गई. दोनों अपलक आसमान में चांद को निहार रही थीं. अभिलाषा ने आंखें बंद कर लीं और बर्षा के कांधे पर सिर रख लिया. बर्षा ने अपना सिर अभिलाषा के सिर की तरफ झुका लिया. दोनों की आंखें नम अपनेअपने गम से भरी हुई थीं. बर्षा गुनगुनाने लगी, ‘रात का शौक है….रात की सौंधी सी खामोशी का शौक है….शौक है….’

Hindi Story : गणपति का जन्म – विकृत बच्चे को देख क्या हुआ

Hindi Story : फूलचंद ने फटा हुआ कंबल खींचखींच कर एकदूसरे के साथ सट कर सो रहे तीनों बच्चों को ठीक से ओढ़ाया और खुद राख के ढेर में तब्दील हो चुके अलाव को कुरेद कर गरमी पाने की नाकाम कोशिश करने लगा.

जाड़े की रात थी. ऊपर से 3 तरफ से खुला हुआ बरामदा. सांयसांय करती हवा हड्डियों को काटती चली जाती थी. गनीमत यही थी कि सिर पर छत थी.

अंदर कमरे में फूलचंद की बीवी सुरना प्रसव वेदना से तड़प रही थी. रहरह कर उस की चीखें रात के सन्नाटे को चीरती चली जाती थीं. पड़ोसी रामचरन की घरवाली और सुखिया दाई उसे ढाढ़स बंधा रही थीं.

मगर फूलचंद का ध्यान न तो सुरना की पीड़ा की ओर था, न ही उस के मन में आने वाले मेहमान के प्रति कोई उल्लास था. सच तो यह था कि अनचाहे बोझ को ले कर वह चिंतित ही था.

परिवार की माली हालत पहले से ही खस्ता थी. जब तक मिल चलती रही तब तक तो गनीमत थी. मगर पिछले 8 महीने से मिल में तालाबंदी चल रही थी और अब वह मजदूरी कर के किसी तरह परिवार का पेट पाल रहा था.

लेकिन रोज काम मिलने की कोई गारंटी न थी. कई बार फाकों की नौबत आ चुकी थी. कर्ज था कि बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में वह चौथा बच्चा फूलचंद को किसी नई मुसीबत से कम नजर नहीं आ रहा था. लेकिन समय के चक्र के आगे बड़ेबड़ों की नहीं चलती, फिर फूलचंद की तो क्या बिसात थी.

तभी सुरना की हृदय विदारक चीख उभरी और धीरेधीरे एक पस्त कराह में ढलती चली गई. फूलचंद ने भीतर की आवाजों पर कान लगाए. अंदर कुछ हलचल तो हो रही थी. मगर नवजात शिशु का रुदन सुनाई नहीं पड़ रहा था. अब फूलचंद को खटका हुआ, ‘क्या बात हो सकती है?’ कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? मगर पूछूं भी तो किस से? अंदर जा नहीं सकता.

फूलचंद मन मार कर बैठा रहा. अब तो दोनों औरतों में से ही कोई बाहर आती, तभी कुछ पता चल पाता. हां, सुरना की कराहें उसे कहीं न कहीं आश्वस्त जरूर कर रही थीं.

प्रतीक्षा की वे घडि़यां जैसे युगों लंबी होती चली गईं. काफी देर बाद सुखिया दाई बाहर निकली. फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, लड़का हुआ है,’’ सुखिया ने निराश स्वर में बताया, ‘‘मगर…’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ फूलचंद व्यग्र हो उठा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. तुम खुद ही जा कर देख लो.’’

इस के बाद सुखिया तो चली गई, लेकिन फूलचंद की उलझन और बढ़ गई, ‘ऐसी क्या बात है, जो सुखिया से नहीं बताई गई? कहीं बच्चा मरा हुआ तो नहीं? मगर यह बात तो सुखिया बता सकती थी.’

कुछ देर बाद रामचरन की घरवाली भी यह कह कर चली गई, ‘‘कोई दिक्कत आए तो बुला लेना.’’

अब फूलचंद के अंदर जाने में कोई रुकावट नहीं थी. वह धड़कते दिल से अंदर घुसा. सुरना अधमरी सी चारपाई पर पड़ी थी. बगल में शिशु भी लेटा था.

सुरना ने आंखें खोल कर देखा. मगर फूलचंद की कुछ पूछने की हिम्मत न हुई. हां, उस की आंखों में कौंधती जिज्ञासा सुरना से छिपी न रह सकी. उस ने शिशु के मुंह पर से कपड़ा हटा दिया और खुद आंखें मूंद लीं.

आंखें तो फूलचंद की भी एकबारगी खुद ब खुद मुंद गईं. सामने दृश्य ही ऐसा था. नवजात शिशु का चेहरा सामान्य शिशुओं जैसा न था. माथा अत्यंत संकरा और लगभग तिकोना था. आंखें छोटीछोटी और कनपटियों तक फटी हुई थीं. कान भी असामान्य रूप से लंबे थे. सब से विचित्र बात यह थी कि शिशु का ऊपरी होंठ था ही नहीं. हां, नाक अत्यधिक लंबी हो कर ऊपरी तालू से जा लगी थी.

फूलचंद जड़ सा खड़ा था, ‘यह कैसी माया है? हुआ ही था तो अच्छाभला होता. नहीं तो जन्म लेने की क्या जरूरत थी. मुझ पर हालात की मार पहले ही क्या कम थी, जो यह नई मुसीबत मेरे सिर आ पड़ी. क्या होगा इस बच्चे का? अपना यह कुरूप ले कर इस दुनिया में यह कैसे जिएगा? क्या होगा इस का भविष्य?’

फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘इस की आवाज?’’

‘‘पता नहीं,’’ सुरना ने कमजोर आवाज में बताया, ‘‘रोया तक नहीं.’’

‘हैं,’ फूलचंद ने सोचा, ‘क्या यह गूंगा भी होगा?’

सुरना पहले ही काफी दुखी प्रतीत हो रही थी. इसलिए फूलचंद ने और कोई सवाल न किया. बस, अपनेआप को कोसता रहा और बाहर सोए तीनों बच्चों को ला ला कर अंदर लिटाता रहा. फिर खुद भी उन्हीं के साथ सिकुड़ कर लेटा रहा.

मगर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. रहरह कर नवजात शिशु का चेहरा आंखों के आगे नाचने लगता था. तरहतरह की आशंकाएं मन में उठ रही थीं. फूलचंद ने सुना था कि उस तरह के बच्चे कुछ दिनों के ही मेहमान होते हैं. मगर वह बच्चा अगर जी गया तो…?

इसी तरह की उलझनों में पड़े हुए फूलचंद ने बाकी रात आंखों में ही काट दी.

सुबह होतेहोते रामचरन की घरवाली के माध्यम से यह बात महल्ले भर में जंगल की आग की तरह फैल गई कि फूलचंद के यहां विचित्र बालक का जन्म हुआ है.

बस, फिर क्या था. तमाशबीन औरतों के झुंड के झुंड आने शुरू हो गए. उन का तांता टूटने का नाम ही नहीं लेता था. वह एक ऐसी मुसीबत थी जिस की फूलचंद ने कल्पना तक नहीं की थी. मगर चुप्पी साधे रहने के सिवा कोई दूसरा चारा भी नहीं था.

तभी तमाशबीन औरतों के एक झुंड के साथ भगवानदीन की मां राधा आई. उस ने सारा वातावरण ही बदल कर रख दिया. राधा ने बच्चे को देखते ही हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. फिर जमीन पर बैठ कर माथा झुकाया और साथ आई औरतों को फटकार लगाई, ‘‘अरी, ऐसे दीदे फाड़फाड़ कर क्या देख रही हो? प्रणाम करो. यह तो साक्षात गणेशजी ने कृपा की है सुरना पर. इस की तो कोख धन्य हो गई.’’

साथ आई औरतें अभी तक तो राधा के क्रियाकलाप अचरज से देख रही थीं. किंतु उस की बात सुनते ही जैसे उन की भी आंखें खुलीं. सब ने शिशु को प्रणाम किया. सुरना की कोख को सराहा और हाथ में जो भी सिक्का था, वही चारपाई के सामने अर्पित करने के बाद जमीन पर माथा टेक दिया.

अब राधा बाहर फूलचंद के पास दौड़ी आई. वह थकान और चिंता के कारण बाहर चबूतरे पर घुटनों में सिर डाले बैठा था. राधा ने उसे झिंझोड़ कर उठाया, ‘‘अरे, क्या रोनी सूरत बनाए बैठा है यहां. तुझे तो खुश होना चाहिए, भैया. सुरना की कोख पर साक्षात ‘गणेशजी’ ने कृपा की है. तेरे तो दिन फिर गए. और देख, वह तो माया दिखाने आए हैं अपनी. वह रुकेंगे थोड़ा ही. जब तक हैं, खुशीखुशी उन की सेवा कर. हजारों वर्षों में किसीकिसी को ही ऐसा अवसर मिलता है.’’

फूलचंद चमत्कृत हो उठा, ‘‘यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी, काकी.’’

‘‘अरे, तुम लोग ठहरे उम्र व अक्ल के कच्चे,’’ राधा ने बड़प्पन झाड़ा, ‘‘तुम्हें ये सब बातें कहां से सूझें. और हां, लोग दर्शन को आएंगे तो किसी को मना न करना, बेटा. उन पर कोई अकेले तेरा ही हक थोड़ा है. वह तो साक्षात ‘परमात्मा’ हैं, वह सब के हैं, समझा?’’

फूलचंद ने नादान बालक की तरह हामी भरी और लपक कर अंदर पहुंचा. दरअसल, अब वह शिशु को एक नई नजर से देखना चाहता था. मगर चारपाई के पास पड़े पैसों को देख कर वह एक बार फिर चक्कर खा गया. सुरना से पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘वही लोग चढ़ा गए हैं,’’ सुरना ने बताया, ‘‘काकी कहती थीं, गणेशजी…’’

‘‘और नहीं तो क्या,’’ फूलचंद में जैसे नई जान पड़ने लगी थी, ‘‘न तो तेरी मति में यह बात आई, न ही मेरी. मगर हैं ये साक्षात गणेशजी ही.’’

‘‘हम लोग उन की माया क्या जान सकें. अपनी माया वही जानें.’’

फूलचंद को एकाएक शिशु की चिंता सताने लगी, ‘‘यह तो हिलताडुलता भी नहीं. देख सांस तो चलती है न?’’

सुरना ने कपड़ा हटा कर देखा. सांसें चल रही थीं.

फूलचंद को अब दूसरी चिंता हुई, ‘‘भला एकआध बार दूधवूध चटाया या नहीं?’’

सुरना ने तनिक दुखी स्वर में कहा, ‘‘दूध तो मुंह में दाब ही नहीं पाता.’’

‘‘ओह,’’ फूलचंद झल्लाया, ‘‘क्या इसे भूखा मारोगी? देखो, मैं रुई का फाहा बना कर देता हूं. तुम उसी से दूध इस के मुंह में टपका देना. गला सूखता होगा.’’

शिशु का गला सींचने का यह उपक्रम चल ही रहा था कि कुछ और लोग कथित गणेशजी के दर्शनार्थ आ पहुंचे. इस बार औरतों के अलावा मर्द भी आए थे. दूसरी खास बात यह थी कि कुछ लोगों के हाथों में फूल और फल भी थे. फूलचंद ने लपक कर प्रसन्न मन से सब का स्वागत किया, ‘‘आइए आइए, आप लोग भी दर्शन कीजिए.’’

दोपहर ढलतेढलते कथित गणेशजी के जन्म की खबर पासपड़ोस के महल्लों तक फैल गई. श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी. मिठाई, फल, मेवा, फूल आदि जो बन पाता, लिए चले आ रहे थे. उस के अलावा नकदी का चढ़ावा भी कम न था.

शाम को किसी पड़ोसी ने सलाह दी, ‘‘कुछ परचे छपवा कर बांट दिए जाएं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को खबर हो जाए और वे दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकें.’’

फूलचंद को वह सलाह जंची. पता नहीं, कब उस की भी यह दिली इच्छा हो आई थी कि जितने ज्यादा लोग दर्शन का लाभ उठा लें, उतना ही अच्छा.

आननफानन मजमून बनाया गया और एक पड़ोसी ने खुद आगे बढ़ कर परचे छपवा कर अगले ही दिन मुहैया कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

रात करीब 10 बजे दर्शनार्थियों का तांता टूटा. तब फूलचंद ने दर्शन बंद होने की घोषणा की. उस रात फूलचंद के परिवार ने बहुत दिनों बाद तृप्ति भर सुस्वाद भोजन का आनंद उठाया था. दूसरे दिन परचे बंटे और एक स्थानीय अखबार के प्रतिनिधि आ कर बच्चे की तसवीर खींच ले गए. अखबार में बच्चे की तसवीर और विचित्र बालक के जन्म की खबर छपते ही, शहर में जैसे आग सी लग गई. दूरदराज के महल्लों से भी लोग दर्शन के लिए टूट पड़े.

फूलचंद के घर के सामने मेला सा लग गया. पता नहीं, कहां से फूल आदि ले कर एक माली बैठ गया. उस के अलावा महल्ले के हलवाई को दम मारने की फुरसत न थी. उस भीड़ को व्यवस्थित ढंग से दर्शन कराने के लिए फूलचंद को अपने कमरे का दूसरा दरवाजा (जो अभी तक बंद रखा जा रहा था) खोलना पड़ा. अब लोग कतार बांधे एक दरवाजे से अंदर आते थे और दर्शन कर के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाते थे.

फूलचंद और उस के बच्चे सुबहसुबह ही नहाधो कर साफसुथरे कपड़े पहन लेते और दर्शन की व्यवस्था में जुट जाते. घर में अब न तो पहले जैसा तनाव था, न ही कुढ़न. सभी जैसे उल्लास की लहरों में तैरते रहते थे.

फूलचंद थोड़ीथोड़ी देर बाद सुरना के पास आ कर उस के कान में शिशु को रुई के फाहे से दूध चटाते रहने की हिदायत देता रहता था. इस बहाने वह अपनेआप को आश्वस्त भी कर लेता था कि शिशु अभी जीवित है.

रात को भी वह कई बार शिशु को देखता और उस की सांसें चलती देख कर चैन से सो जाता. सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था. कहीं कोई समस्या न थी. हां, एक समस्या यह जरूर पैदा हो गई थी कि चढ़ावे में चढ़ी मिठाई का क्या किया जाए. उसे उपभोग के लिए ज्यादा दिन बचाए रखना संभव न था. यों फूलचंद ने महल्ले में अत्यंत उदारतापूर्वक प्रसाद बांटा था. फिर भी मिठाई चुकने में न आती थी.

लेकिन उस समस्या का हल भी निकल आया. रात में मिठाई फूलचंद के यहां से उठा कर हलवाई के हाथों बेच दी जाती, फिर सुबह श्रद्धालुओं के हाथों में होती हुई दोबारा फूलचंद के यहां चढ़ा दी जाती.

छठे दिन भोर में ही सुरना ने फूलचंद को जगाया और घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘देखो, इस को क्या हो गया?’’

फूलचंद ने हड़बड़ा कर शिशु को उघाड़ दिया. झुक कर गौर से देखा. उस की सांसें बंद हो चुकी थीं. हताश हो कर सुरना की ओर देखा, ‘‘खेल खत्म हो गया.’’ सुरना की रुलाई खुद व खुद फूट पड़ी. मगर फूलचंद ने उसे रोका, ‘‘नहीं, रोनाधोना बंद करो. इस को ऐसे ही लेटा रहने दो. देखो, किसी से जिक्र न करना. थोड़ी देर में लोग दर्शन के लिए आने लगेंगे.’’

सुरना ने रोतेरोते ही कहा, ‘‘मगर यह तो…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ फूलचंद ने कहा, ‘‘यह तो वैसे भी न तो रोता था, न ही हिलताडुलता था. लोगों को क्या पता चलेगा? हां, शाम को कह देंगे कि भगवान ने माया समेट ली.’’ और फिर जैसे सुरना को समझाने के बहाने फूलचंद अपनेआप को भी समझाने लगा, ‘कोई हम ने तो भगवान से यह स्वरूप मांगा न था. यह तो उन्हीं की कृपा थी. शायद हमारी गरीबी ही दूर करने आए थे. आज दिन भर लोग और दर्शन कर लेंगे तो कुछ बुरा तो नहीं हो जाएगा.’

सुरना घुटनों पर माथा टेके सिसकती रही. फूलचंद ने फिर समझाया, ‘‘देखो, अब ज्यादा दुख न करो. ज्यादा दिन तो इसे वैसे भी नहीं जीना था. और जी जाता तो क्या होता इस का. उठो, तैयार हो कर रोज की तरह बैठ जाओ. लोग आने ही वाले हैं.’’ सुरना बिना कुछ बोले तैयार होने के लिए उठ गई. थोड़ी देर बाद ही वहां दर्शनार्थियों का तांता लगना शुरू हो गया और भेंट व प्रसाद के रूप में फूलों, मिठाइयों एवं सिक्कों के ढेर लगने लगे.

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