Story In Hindi: खोखले चमत्कार – कैसे दूर हुआ दादी का अंधविश्वास

Story In Hindi: संजू की दादी का मन सुबह से ही उखड़ा हुआ था. कारण यह था कि जब वे मंदिर से पूजा कर के लौट रही थीं तो चौराहे पर उन का पैर एक बुझे हुए दीए पर पड़ गया था. पास ही फूल, चावल, काली दाल, काले तिल तथा सिंदूर बिखरा हुआ था. वे डर गईं और अपशकुन मनाती हुई अपने घर आ पहुंचीं .

घर पर संजू अकेला बैठा हुआ पढ़ रहा था. उस की मां को बाहर काम था. वे घर से जा चुकी थीं. पिताजी औफिस के काम से शहर से बाहर चले गए थे. उन्हें 2 दिन बाद लौटना था.

दादी के बड़बड़ाने से संजू चुप न रह सका. वह अपनी दादी से पूछ बैठा, ‘‘दादी, क्या बात हुई? क्यों सुबहसुबह परेशान हो रही हो?’’

अंधविश्वासी दादी ने सोचा, ‘संजू मुझे टोक रहा है.’ इसलिए वे उसे डांटती हुई फौरन बोलीं, ‘‘संजू, तू भी कैसी बातें करता है. बड़ा अपशकुन हो गया. किसी ने चौराहे पर टोनाटोटका कर रखा था. उसी में मेरा पैर पड़ गया. उस वक्त से मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

संजू बोला, ‘‘दादी, अगर ऐसा है तो मैं डाक्टर को बुला लाता हूं.’’  पर दादी अकड़ गईं और बोलीं, ‘‘तेरा भेजा तो नहीं फिर गया कहीं. ऐसे टोनेटोटके में डाक्टर को बुलाया जाता है या ओझा को. रहने दे, मैं अपनेआप संभाल लूंगी. वैसे भी आज सारा दिन बुरा निकलेगा.’’

संजू ने उन की बात पर कोई ध्यान न दिया और अपना होमवर्क करने लगा. संजू स्कूल चला गया तो दादी घर पर अकेली रह गईं. पर दादी का मन बेचैन था. उन्हें लगा कि कहीं किसी के साथ कोई अप्रिय घटना न घट जाए, क्योंकि जब से चौराहे में टोनेटोटके पर उन का पैर पड़ा था, वे अपशकुन की आशंका से कांप रही थीं. तभी कुरियर वाला आया और उन से हस्ताक्षर करवा उन्हें एक लिफाफा थमा कर चला गया. अब तो उन का दिल ही बैठ गया. लिफाफे में एक पत्र था जो अंगरेजी में था और अंगरेजी वे जानती नहीं थीं. उन्हें लगा जरूर इस में कोई बुरी खबर होगी.

इसी डर से उन्होंने वह पत्र किसी से नहीं पढ़वाया. दिन भर परेशान रहीं कि कहीं इस में कोई बुरी खबर न हो. शाम को जब संजू और उस की मां घर लौटे, तब दादी कांपते हाथों से संजू की मां जानकी को पत्र देती हुई बोलीं, ‘‘बहू, जरूर कोई बुरी खबर है. अपशकुन तो सुबह ही हो गया था. अब पढ़ो, यह पत्र कहां से आया है और इस में क्या लिखा है? जरूर कोई संकट आने वाला है. हाय, अब क्या होगा?’’

जानकी ने तार खोल कर पढ़ा लिखा था, ‘‘बधाई, संजय ने छात्रवृत्ति परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है.’’

पढ़ कर जानकी खिलखिला उठीं और अपनी सास से बोलीं, ‘‘मांजी, आप बेकार घबरा रही थीं, खबर बुरी नहीं बल्कि अच्छी है. हमारे संजू को छात्रवृत्ति मिलेगी. उस ने जो परीक्षा दी थी, उत्तीर्ण कर ली.’’ तब दादी का चेहरा देखने लायक था. किंतु दादी अंधविश्वास पर टिकी रहीं. वे रोज मंदिर जाया करती थीं. एक रोज सुबहसुबह दादी मंदिर गईं. थाली में नारियल, केला और लड्डू ले गईं. थाली मूर्ति के सामने ही रख दी और आंखें बंद कर के मन ही मन जाप करने लगीं. इसी बीच वहीं पेड़ पर बैठा एक बंदर पेड़ से उतरा और चुपके से केला व लड्डू ले कर पेड़ पर चढ़ गया.

दादी ने जब आंखें खोलीं और थाली में से केला व लड्डू गायब पाया तो खुश हो कर अपनेआप से बोलीं, ‘‘प्रभु, चमत्कार हो गया. आज आप ने स्वयं ही भोजन ग्रहण कर लिया.’’ वे खुशीखुशी मंदिर से घर लौट आईं. घर पर जब उन्हें सब ने खुश देखा तो संजू कहने लगा, ‘‘दादी, आज तो लगता है कोई वरदान मिल गया?’’

दादी प्रसन्न थी, बोलीं, ‘‘और नहीं तो क्या?’’

फिर दादी ने सारा किस्सा कह सुनाया. संजू खिलखिला कर हंस पड़ा तथा यह कहता हुआ बाहर दौड़ गया, ‘‘इस महल्ले में चोरउचक्कों की भी कमी नहीं है. फिर पिछले कुछ समय से यहां काफी बंदर आए हुए हैं लगता है प्रसाद कोई बंदर ही ले गया होगा.’’ सुन कर दादी ने मुंह बिचकाया. फिर सोचने लगीं कि आज शुभ दिन है. आज मेरी मनौती पूरी हुई. मैं चाहती थी कि मेरा बुढ़ापा सुखचैन से बीते. रोज की तरह उस शाम को दादी टहलने निकल गईं. वे पार्क में जाने के लिए सड़क के किनारे चली जा रही थीं. साथ ही सुबह हुए चमत्कार के बारे में सोच रही थीं.

तभी एक किशोर स्कूटी सीखता हुआ आया और दादी को धकियाता हुआ आगे बढ़ गया. दादी को पता ही नहीं चला, वे लड़खड़ा कर हाथों के बल सड़क पर जा गिरीं. हड़बड़ाहट में उठ तो गईं, पर घर आतेआते उन के दाएं हाथ में सूजन आ गई. वे दर्द के मारे कराहने लगीं. उन्हें फौरन डाक्टर को दिखाया गया. एक्सरे करने पर पता चला कि कलाई की हड्डी चटक गई है

एक माह के लिए प्लास्टर बंध गया. दादी ‘हाय मर गई, हाय मर गई’ की दुहाई देती रहीं.संजू चुटकी लेता हुआ दादी से बोला, ‘‘दादी, यही है वह चमत्कार, जिस के लिए आप सुबह से ही खुश हो रही थीं. तुम्हारी दोनों बातें गलत निकलीं. इसलिए भविष्य में ऐसे अंधविश्वासों के चक्कर में मत पड़ना.’’  दादी रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘हां बेटा, तुम ठीक कहते हो. हम ने तो सारी जिंदगी ही ऐसे भ्रमों में बिता दी पर मैं अब कभी शेष जीवन में इन खोखले चमत्कारों के जाल में नहीं पडूंगी.’’ Story In Hindi

Hindi Family Story: दत्तक बेटी ने झुका दिया सिर

Hindi Family Story: लंदन के वेंबली इलाके में ज्यादातर गुजराती रहते हैं. नैरोबी से लंदन आ कर बसे घनश्याम सुंदरलाल अमीन भी अपनी पत्नी सुनंदा के साथ वेंबली में ही रहते थे. वे लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन के ड्राइवर थे. नौकरी से रिटायर होने के बाद वे पत्नी के साथ आराम से रह रहे थे.

घनश्यामभाई को सोशल स्कीम के तहत अच्छा पैसा मिल रहा था. इस के अलावा उन की खुद की बचत भी थी. उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी. बस, एक कमी के अलावा कि वे बेऔलाद थे. गोद में खेलने वाला कोई नहीं था, जिस का पतिपत्नी को काफी दुख था.

किसी दोस्त ने घनश्यामभाई को सलाह दी कि वे कोई बच्चा गोद ले लें. ब्रिटेन में बच्चा गोद लेना बहुत मुश्किल है, वह भी भारतीय परिवार के लिए तो और भी मुश्किल है, इसलिए घनश्यामभाई ने अपने किसी भारतीय दोस्त की सलाह पर कोलकाता की एक स्वयंसेवी संस्था से बात की. उस संस्था ने एक अनाथाश्रम से उन का परिचय करा दिया.

अनाथाश्रम वालों ने घनश्यामभाई से कोलकाता आने को कहा. वे पत्नी के साथ कोलकाता आ गए.

कोलकाता के उस अनाथाश्रम में उन्हें सुचित्र नाम की एक लड़की पसंद आ गई. वह 15 साल की थी. जन्म से बंगाली और महज बंगाली व हिंदी बोलती थी. देखने में एकदम भोली, सुंदर और मुग्धा थी.

पतिपत्नी ने सुचित्र को पसंद कर लिया. सुचित्र भी उन के साथ लंदन जाने को तैयार हो गई. घनश्यामभाई ने सुचित्र को गोद लेने की तमाम कानूनी कार्यवाही पूरी कर ली. सुचित्र को वीजा दिलाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. तरहतरह के प्रमाणपत्र देने पड़े. आखिरकार 6 महीने बाद सुचित्र को वीजा मिल गया.

सुचित्र अब लंदन पहुंच गई. उस के लिए वहां सबकुछ नया नया था. देश नया, दुनिया नई, भाषा नई, लोग नए. वहां उस का एक स्कूल में दाखिल करा दिया गया. उस ने जल्दी ही इंगलिश भाषा सीख ली. वह गोरी थी और छोटी भी, इसलिए जल्दी से गोरे बच्चों के साथ घुलमिल गई. स्कूल में गुजराती, पंजाबी और बंगलादेश से आए परिवारों के तमाम बच्चे पढ़ते थे.

सुचित्र अब बड़ी होने लगी. वह अकेली लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन में सफर कर सकती थी. वह बिलकुल अकेली पिकाडाली तक जा सकती थी. वह पढ़ने में भी अच्छी थी.

सुचित्र को गोद लेने वाले घनश्यामभाई और उन की पत्नी सुनंदा खुश थे अपनी इस बेेटी से. छुट्टी के दिनों में वे कभी उसे मैडम तुसाद म्यूजियम दिखाने ले जाते तो कभी उसे हाइड पार्क घुमाने ले जाते. दोस्तों के घर पार्टी में भी वे सुचित्र को हमेशा साथ रखते. सुचित्र सुनंदा को ‘मम्मी’ कहती तो वे खुश हो जातीं. उन्हें ऐसा लगता कि सुचित्र उन्हीं की बेटी है. वह स्कूल तो जा ही रही थी, अब कभीकभार अपनी सहेली के घर रुक जाती. समय के साथ अब वह हर शनिवार को सहेली के घर रुकने की बात करने लगी थी. अभी वह 17 साल की ही थी.

एक दिन सुनंदा को पता चला कि सुचित्र घर से तो अपनी सहेली के घर जा कर रुकने की बोल कर गई थी, पर वह सहेली के घर गई नहीं थी. उन्होंने सुचित्र से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र खीज कर बोली, “मैं कहीं भी जाऊं, इस से आप को क्या मतलब…”

सुचित्र की इस बात से घनश्यामभाई और सुनंदा को गहरा धक्का लगा. कुछ दिनों बाद एक दूसरी घटना घटी. सुचित्र अकसर स्कूल नहीं जाती थी. घनश्यामभाई और सुनंदा ने जब उस से पूछा तो उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया.

पतिपत्नी ने सुचित्र की सहेलियों से पूछताछ की तो पता चला कि सुचित्र सुखबीर नाम के एक पंजाबी लड़के के साथ घूमती है. वह स्कूल छोड़ कर उस के साथ बाहर घूमने चली जाती है.

घनश्यामभाई ने शाम को सुचित्र से पूछा, “मुझे पता चला है कि तुम सुखबीर नाम के किसी लड़के के साथ घूमती हो, क्या यह सच है?”

यह सुन कर सुचित्र ने कहा, “मैं कहां जाती हूं और बाहर जा कर क्या करती हूं, यह आप को बिलकुल नहीं पूछना चाहिए.”

सुनंदा ने कहा, “तुम हमारी बेटी हो. हमें चिंता होती है. तुम अभी 17 साल की ही तो हो.”

“मैं आप की बेटी नहीं हूं. आप ने अपने फायदे के लिए मुझे गोद लिया है. मैं आप की कोख से पैदा नहीं हुई हूं. मेरे ऊपर आप के बहुत कम अधिकार हैं, समझीं?”

“मतलब?” सुनंदा ने पूछा.

“मैं तुम्हारे शरीर का कोई भी हिस्सा नहीं हूं. मेरे शरीर पर मेरा ही अधिकार है?”

सुचित्र की बात सुन कर घनश्यामभाई को गुस्सा आ गया. उन्होंने सुचित्र को एक तमाचा मार दिया.

सुचित्र चिल्लाई, “अगर दूसरी बार आप ने ऐसा किया तो मैं पुलिस बुला लूंगी.”

घनश्यामभाई ने कहा, “मैं खुद ही पुलिस को बताऊंगा कि मेरे द्वारा गोद ली गई बेटी पढ़ने की उम्र में गलत काम करती है. तुम्हें सामाजिक काउंसलिंग में भेज दूंगा।. उस के बाद भी नहीं सुधरी तो फिर भारत वापस भेज दूंगा.”

भारत वापस भेजने की बात सुन कर सुचित्र सोच में पड़ गई. वह एकदम चुप हो गई और अपने बैडरूम में चली गई. अगले दिन उठ कर उस ने मम्मीपापा से माफी मांगी. यह सुन कर घनश्यामभाई और सुनंदा शांत हो गए.

सुनंदा ने कहा, “देखो बेटा, यह तुम्हारी पढ़नेलिखने की उम है. तुम अच्छी तरह पढ़लिख कर अपना कैरियर बना लो. अभी तुम टीनएज हो. जिस लड़के के साथ मन हो, नहीं घूम सकती हो.”

सुचित्र ने सिर झुका कर कहा, “मम्मी, इस तरह की गलती अब दोबारा नहीं करूंगी.”

इस के बाद सुचित्र नियमित रूप से स्कूल जाने लगी. धीरेधीरे इस बात को काफी समय बीत गया.

एक दिन घनश्यामभाई और सुनंदा के पड़ोसियों ने पुलिस से शिकायत की कि हमारे बगल वाले घर से बहुत तेज बदबू आ रही है. तुरंत पुलिस आ गई. घर का दरवाजा बंद था, पर अंदर से ताला नहीं लगा था. पुलिस ने धक्का मारा तो दरवाजा खुल गया.

पुलिस ने अंदर जा कर देखा तो बैडरूम में घनश्यामभाई और उन की पत्नी की लाशें पड़ी थीं. पूछताछ में पड़ोसियों ने बताया कि इन के साथ गोद ली गई एक बेटी भी रहती थी. उस समय वह घर में नहीं थी.

दोनों लाशों को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. उन की गोद ली गई बेटी गायब थी. पता चला कि वह कई दिनों से स्कूल भी नहीं गई थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई तो पता चला कि पतिपत्नी की मरने से पहले खाने मेेें नींद की दवा दी गई थी. उस के बाद घनश्यामभाई की हत्या चाकू से और सुनंदा की हत्या मुंह पर तकिया रख कर की गई थी.

पुलिस का पहला शक मारे गए पतिपत्नी की गोद ली गई बेटी सुचित्र पर गया. उन्होंने घनश्यामभाई और सुचित्र के मोबाइल का काल रिकौर्ड चैक किया. 2 ही दिनों में पुलिस सुचित्र के बौयफ्रैंड सुखबीर के घर पहुंच गई.

सुखबीर अकेला ही अपनी विधवा मां के साथ रहता था. सुचित्र भी उसी के घर पर मिल गई. पुलिस ने दोनों से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र और सुखबीर ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने प्रेम का विरोध करते की वजह से घनश्यामभाई और सुनंदा की हत्या की है

सुचित्र ने बताया, “उस रात मैं ने ही अपने मम्मीपापा के खाने में नींद की गोलियां मिला दी थीं, जिस से वे जाग न सकें. दोनों गहरी नींद सो गए तो मैं ने सुखबीर को बुला लिया. उस के बाद मम्मी के मुंह पर तकिया रख कर पूरी ताकत से दबाए रखा तो उन की सांसों की डोर टूट गई.

“मम्मी के छटपटाने की आवाज सुन कर मेरे पापा जाग गए. सुखबीर अपने साथ चाकू लाया था. उसी चाकू से उस ने पापा पर ताबड़तोड़ वार कर के उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया. उस के बाद हम दोनों भाग गए.”

दोनों के बयान सुन कर पुलिस हैरान रह गई. सुचित्र अभी नाबालिग थी. पुलिस ने उस की मैडिकल जांच कराई तो पता चला कि वह पेट है. सुचित्र ने जो किया, उसे सुन कर तो अब यही लगता है कि इस तरह बच्चे को गोद लेने में भी कई बार सोचना पड़ेगा. Hindi Family Story

Hindi Family Story: वो कमजोर पल – क्या सीमा ने राज से दूसरी शादी की?

Hindi Family Story: वही हुआ जिस का सीमा को डर था. उस के पति को पता चल ही गया कि उस का किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. अब क्या होगा? वह सोच रही थी, क्या कहेगा पति? क्यों किया तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा? क्या कमी थी मेरे प्यार में? क्या नहीं दिया मैं ने तुम्हें? घरपरिवार, सुखी संसार, पैसा, इज्जत, प्यार किस चीज की कमी रह गई थी जो तुम्हें बदचलन होना पड़ा? क्या कारण था कि तुम्हें चरित्रहीन होना पड़ा? मैं ने तुम से प्यार किया. शादी की. हमारे प्यार की निशानी हमारा एक प्यारा बेटा. अब क्या था बाकी? सिवा तुम्हारी शारीरिक भूख के. तुम पत्नी नहीं वेश्या हो, वेश्या.

हां, मैं ने धोखा दिया है अपने पति को, अपने शादीशुदा जीवन के साथ छल किया है मैं ने. मैं एक गिरी हुई औरत हूं. मुझे कोई अधिकार नहीं किसी के नाम का सिंदूर भर कर किसी और के साथ बिस्तर सजाने का. यह बेईमानी है, धोखा है. लेकिन जिस्म के इस इंद्रजाल में फंस ही गई आखिर.

मैं खुश थी अपनी दुनिया में, अपने पति, अपने घर व अपने बच्चे के साथ. फिर क्यों, कब, कैसे राज मेरे अस्तित्व पर छाता गया और मैं उस के प्रेमजाल में उलझती चली गई. हां, मैं एक साधारण नारी, मुझ पर भी किसी का जादू चल सकता है. मैं भी किसी के मोहपाश में बंध सकती हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देख कर अपने पास के खिलौने को फेंक कर नए खिलौने की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है.

नहीं…मैं कोई बच्ची नहीं. पति कोई खिलौना नहीं. घरपरिवार, शादीशुदा जीवन कोई मजाक नहीं कि कल दूसरा मिला तो पहला छोड़ दिया. यदि अहल्या को अपने भ्रष्ट होने पर पत्थर की शिला बनना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं. मैं भी एक औरत हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं. इच्छाएं हैं. यदि कोई अच्छा लगने लगे तो इस में मैं क्या कर सकती हूं. मैं मजबूर थी अपने दिल के चलते. राज चमकते सूरज की तरह आया और मुझ पर छा गया.

उन दिनों मेरे पति अकाउंट की ट्रेनिंग पर 9 माह के लिए राजधानी गए हुए थे. फोन पर अकसर बातें होती रहती थीं. बीच में आना संभव नहीं था. हर रात पति के आलिंगन की आदी मैं अपने को रोकती, संभालती रही. अपने को जीवन के अन्य कामों में व्यस्त रखते हुए समझाती रही कि यह तन, यह मन पति के लिए है. किसी की छाया पड़ना, किसी के बारे में सोचना भी गुनाह है. लेकिन यह गुनाह कर गई मैं.

मैं अपनी सहेली रीता के घर बैठने जाती. पति घर पर थे नहीं. बेटा नानानानी के घर गया हुआ था गरमियों की छुट्टी में. रीता के घर कभी पार्टी होती, कभी शेरोशायरी, कभी गीतसंगीत की महफिल सजती, कभी पत्ते खेलते. ऐसी ही पार्टी में एक दिन राज आया. और्केस्ट्रा में गाता था. रीता का चचेरा भाई था. रात का खाना वह अपनी चचेरी बहन के यहां खाता और दिनभर स्ट्रगल करता. एक दिन रीता के कहने पर उस ने कुछ प्रेमभरे, कुछ दर्दभरे गीत सुनाए. खूबसूरत बांका जवान, गोरा रंग, 6 फुट के लगभग हाइट. उस की आंखें जबजब मुझ से टकरातीं, मेरे दिल में तूफान सा उठने लगता.

राज अकसर मुझ से हंसीमजाक करता. मुझे छेड़ता और यही हंसीमजाक, छेड़छाड़ एक दिन मुझे राज के बहुत करीब ले आई. मैं रीता के घर पहुंची. रीता कहीं गई हुई थी काम से. राज मिला. ढेर सारी बातें हुईं और बातों ही बातों में राज ने कह दिया, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’

मुझे उसे डांटना चाहिए था, मना करना चाहिए था. लेकिन नहीं, मैं भी जैसे बिछने के लिए तैयार बैठी थी. मैं ने कहा, ‘राज, मैं शादीशुदा हूं.’

राज ने तुरंत कहा, ‘क्या शादीशुदा औरत किसी से प्यार नहीं कर सकती? ऐसा कहीं लिखा है? क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’

मैं ने कहा, ‘हां.’ और उस ने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर मैं भूल गई कि मैं एक बच्चे की मां हूं. मैं किसी की ब्याहता हूं. जिस के साथ जीनेमरने की मैं ने अग्नि के समक्ष सौगंध खाई थी. लेकिन यह दिल का बहकना, राज की बांहों में खो जाना, इस ने मुझे सबकुछ भुला कर रख दिया.

मैं और राज अकसर मिलते. प्यारभरी बातें करते. राज ने एक कमरा किराए पर लिया हुआ था. जब रीता ने पूछताछ करनी शुरू की तो मैं राज के साथ बाहर मिलने लगी. कभी उस के घर पर, कभी किसी होटल में तो कभी कहीं हिल स्टेशन पर. और सच कहूं तो मैं उसे अपने घर पर भी ले कर आई थी. यह गुनाह इतना खूबसूरत लग रहा था कि मैं भूल गई कि जिस बिस्तर पर मेरे पति आनंद का हक था, उसी बिस्तर पर मैं ने बेशर्मी के साथ राज के साथ कई रातें गुजारीं. राज की बांहों की कशिश ही ऐसी थी कि आनंद के साथ बंधे विवाह के पवित्र बंधन मुझे बेडि़यों की तरह लगने लगे.

मैं ने एक दिन राज से कहा भी कि क्या वह मुझ से शादी करेगा? उस ने हंस कर कहा, ‘मतलब यह कि तुम मेरे लिए अपने पति को छोड़ सकती हो. इस का मतलब यह भी हुआ कि कल किसी और के लिए मुझे भी.’

मुझे अपने बेवफा होने का एहसास राज ने हंसीहंसी में करा दिया था. एक रात राज के आगोश में मैं ने शादी का जिक्र फिर छेड़ा. उस ने मुझे चूमते हुए कहा, ‘शादी तो तुम्हारी हो चुकी है. दोबारा शादी क्यों? बिना किसी बंधन में बंधे सिर्फ प्यार नहीं कर सकतीं.’

‘मैं एक स्त्री हूं. प्यार के साथ सुरक्षा भी चाहिए और शादी किसी भी स्त्री के लिए सब से सुरक्षित संस्था है.’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम अपने पति का सामना कर सकोगी? उस से तलाक मांग सकोगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के वापस आते ही प्यार टूट जाए और शादी जीत जाए?’

मुझ पर तो राज का नशा हावी था. मैं ने कहा, ‘तुम हां तो कहो. मैं सबकुछ छोड़ने को तैयार हूं.’

‘अपना बच्चा भी,’ राज ने मुझे घूरते हुए कहा. उफ यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘राज, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम बच्चे को अपने साथ रख लें?’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा, मुझे अपना पिता मानेगा? कभी नहीं. क्या मैं उसे उस के बाप जैसा प्यार दे सकूंगा? कभी नहीं. क्या तलाक लेने के बाद अदालत बच्चा तुम्हें सौंपेगी? कभी नहीं. क्या वह बच्चा मुझे हर घड़ी इस बात का एहसास नहीं दिलाएगा कि तुम पहले किसी और के साथ…किसी और की निशानी…क्या उस बच्चे में तुम्हें अपने पति की यादें…देखो सीमा, मैं तुम से प्यार करता हूं. लेकिन शादी करना तुम्हारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक तुम अपना अतीत पूरी तरह नहीं भूल जातीं.

‘अपने मातापिता, भाईबहन, सासससुर, देवरननद अपनी शादी, अपनी सुहागरात, अपने पति के साथ बिताए पलपल. यहां तक कि अपना बच्चा भी क्योंकि यह बच्चा सिर्फ तुम्हारा नहीं है. इतना सब भूलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है.

‘कल जब तुम्हें मुझ में कोई कमी दिखेगी तो तुम अपने पति के साथ मेरी तुलना करने लगोगी, इसलिए शादी करना संभव नहीं है. प्यार एक अलग बात है. किसी पल में कमजोर हो कर किसी और में खो जाना, उसे अपना सबकुछ मान लेना और बात है लेकिन शादी बहुत बड़ा फैसला है. तुम्हारे प्यार में मैं भी भूल गया कि तुम किसी की पत्नी हो. किसी की मां हो. किसी के साथ कई रातें पत्नी बन कर गुजारी हैं तुम ने. यह मेरा प्यार था जो मैं ने इन बातों की परवा नहीं की. यह भी मेरा प्यार है कि तुम सब छोड़ने को राजी हो जाओ तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं. लेकिन क्या तुम सबकुछ छोड़ने को, भूलने को राजी हो? कर पाओगी इतना सबकुछ?’ राज कहता रहा और मैं अवाक खड़ी सुनती रही.

‘यह भी ध्यान रखना कि मुझ से शादी के बाद जब तुम कभी अपने पति के बारे में सोचोगी तो वह मुझ से बेवफाई होगी. क्या तुम तैयार हो?’

‘तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं समझाया ये सब?’

‘मैं शादीशुदा नहीं हूं, कुंआरा हूं. तुम्हें देख कर दिल मचला. फिसला और सीधा तुम्हारी बांहों में पनाह मिल गई. मैं अब भी तैयार हूं. तुम शादीशुदा हो, तुम्हें सोचना है. तुम सोचो. मेरा प्यार सच्चा है. मुझे नहीं सोचना क्योंकि मैं अकेला हूं. मैं तुम्हारे साथ सारा जीवन गुजारने को तैयार हूं लेकिन वफा के वादे के साथ.’

मैं रो पड़ी. मैं ने राज से कहा, ‘तुम ने पहले ये सब क्यों नहीं कहा.’

‘तुम ने पूछा नहीं.’

‘लेकिन जो जिस्मानी संबंध बने थे?’

‘वह एक कमजोर पल था. वह वह समय था जब तुम कमजोर पड़ गई थीं. मैं कमजोर पड़ गया था. वह पल अब गुजर चुका है. उस कमजोर पल में हम प्यार कर बैठे. इस में न तुम्हारी खता है न मेरी. दिल पर किस का जोर चला है. लेकिन अब बात शादी की है.’

राज की बातों में सचाई थी. वह मुझ से प्यार करता था या मेरे जिस्म से बंध चुका था. जो भी हो, वह कुंआरा था. तनहा था. उसे हमसफर के रूप में कोई और न मिला, मैं मिल गई. मुझे भी उन कमजोर पलों को भूलना चाहिए था जिन में मैं ने अपने विवाह को अपवित्र कर दिया. मैं परपुरुष के साथ सैक्स करने के सुख में, देह की तृप्ति में ऐसी उलझी कि सबकुछ भूल गई. अब एक और सब से बड़ा कदम या सब से बड़ी बेवकूफी कि मैं अपने पति से तलाक ले कर राज से शादी कर लूं. क्या करूं मैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.  मैं ने राज से पूछा, ‘मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’

राज हंस कर बोला, ‘ये तो दिल की बातें हैं. तुम्हारी तुम जानो. यदि तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद मैं तुम्हारे प्यार में ही न पड़ता या अपने कमजोर पड़ने वाले क्षणों के लिए अपनेआप से माफी मांगता. पता नहीं, मैं क्या करता?’

राज ये सब कहीं इसलिए तो नहीं कह रहा कि मैं अपनी गलती मान कर वापस चली जाऊं, सब भूल कर. फिर जो इतना समय इतनी रातें राज की बांहों में बिताईं. वह क्या था? प्यार नहीं मात्र वासना थी? दलदल था शरीर की भूख का? कहीं ऐसा तो नहीं कि राज का दिल भर गया हो मुझ से, अपनी हवस की प्यास बुझा ली और अब विवाह की रीतिनीति समझा रहा हो? यदि ऐसी बात थी तो जब मैं ने कहा था कि मैं ब्याहता हूं तो फिर क्यों कहा था कि किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा प्यार नहीं कर सकते?

राज ने आगे कहा, ‘किसी स्त्री के आगोश में किसी कुंआरे पुरुष का पहला संपर्क उस के जीवन का सब से बड़ा रोमांच होता है. मैं न होता कोई और होता तब भी यही होता. हां, यदि लड़की कुंआरी होती, अकेली होती तो इतनी बातें ही न होतीं. तुम उन क्षणों में कमजोर पड़ीं या बहकीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन जब तुम्हारे साथ का साया पड़ा मन पर, तो प्यार हो गया और जिसे प्यार कहते हैं उसे गलत रास्ता नहीं दिखा सकते.’

मैं रोने लगी, ‘मैं ने तो अपने हाथों अपना सबकुछ बरबाद कर लिया. तुम्हें सौंप दिया. अब तुम मुझे दिल की दुनिया से दूर हकीकत पर ला कर छोड़ रहे हो.’

‘तुम चाहो तो अब भी मैं शादी करने को तैयार हूं. क्या तुम मेरे साथ मेरी वफादार बन कर रह सकती हो, सबकुछ छोड़ कर, सबकुछ भूल कर?’ राज ने फिर दोहराया.

इधर, आनंद, मेरे पति वापस आ गए. मैं अजीब से चक्रव्यूह में फंसी हुई थी. मैं क्या करूं? क्या न करूं? आनंद के आते ही घर के काम की जिम्मेदारी. एक पत्नी बन कर रहना. मेरा बेटा भी वापस आ चुका था. मुझे मां और पत्नी दोनों का फर्ज निभाना था. मैं निभा भी रही थी. और ये निभाना किसी पर कोई एहसान नहीं था. ये तो वे काम थे जो सहज ही हो जाते थे. लेकिन आनंद के दफ्तर और बेटे के स्कूल जाते ही राज आ जाता या मैं उस से मिलने चल पड़ती, दिल के हाथों मजबूर हो कर.

मैं ने राज से कहा, ‘‘मैं तुम्हें भूल नहीं पा रही हूं.’’

‘‘तो छोड़ दो सबकुछ.’’

‘‘मैं ऐसा भी नहीं कर सकती.’’

‘‘यह तो दोतरफा बेवफाई होगी और तुम्हारी इस बेवफाई से होगा यह कि मेरा प्रेम किसी अपराधकथा की पत्रिका में अवैध संबंध की कहानी के रूप में छप जाएगा. तुम्हारा पति तुम्हारी या मेरी हत्या कर के जेल चला जाएगा. हमारा प्रेम पुलिस केस बन जाएगा,’’ राज ने गंभीर होते हुए कहा.

मैं भी डर गई और बात सच भी कही थी राज ने. फिर वह मुझ से क्यों मिलता है? यदि मैं पूछूंगी तो हंस कर कहेगा कि तुम आती हो, मैं इनकार कैसे कर दूं. मैं भंवर में फंस चुकी थी. एक तरफ मेरा हंसताखेलता परिवार, मेरी सुखी विवाहित जिंदगी, मेरा पति, मेरा बेटा और दूसरी तरफ उन कमजोर पलों का साथी राज जो आज भी मेरी कमजोरी है.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. पति को भनक लगी. उन्होंने दोटूक कहा, ‘‘रहना है तो तरीके से रहो वरना तलाक लो और जहां मुंह काला करना हो करो. दो में से कोई एक चुन लो, प्रेमी या पति. दो नावों की सवारी तुम्हें डुबो देगी और हमें भी.’’

मैं शर्मिंदा थी. मैं गुनाहगार थी. मैं चुप रही. मैं सुनती रही. रोती रही.

मैं फिर राज के पास पहुंची. वह कलाकार था. गायक था. उसे मैं ने बताया कि मेरे पति ने मुझ से क्याक्या कहा है और अपने शर्मसार होने के विषय में भी. उस ने कहा, ‘‘यदि तुम्हें शर्मिंदगी है तो तुम अब तक गुनाह कर रही थीं. तुम्हारा पति सज्जन है. यदि हिंसक होता तो तुम नहीं आतीं, तुम्हारे मरने की खबर आती. अब मेरा निर्णय सुनो. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. मैं एक ऐसी औरत से शादी करने की सोच भी नहीं सकता जो दोहरा जीवन जीए. तुम मेरे लायक नहीं हो. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश मत करना. वे कमजोर पल मेरी पूरी जिंदगी को कमजोर बना कर गिरा देंगे. आज के बाद आईं तो बेवफा कहलाओगी दोनों तरफ से. उन कमजोर पलों को भूलने में ही भलाई है.’’

मैं चली आई. उस के बाद कभी नहीं मिली राज से. रीता ने ही एक बार बताया कि वह शहर छोड़ कर चला गया है. हां, अपनी बेवफाई, चरित्रहीनता पर अकसर मैं शर्मिंदगी महसूस करती रहती हूं. खासकर तब जब कोई वफा का किस्सा निकले और मैं उस किस्से पर गर्व करने लगूं तो पति की नजरों में कुछ हिकारत सी दिखने लगती है. मानो कह रहे हों, तुम और वफा. पति सभ्य थे, सुशिक्षित थे और परिवार के प्रति समर्पित.

कभी कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या नहीं कहा. लेकिन अब शायद उन की नजरों में मेरे लिए वह सम्मान, प्यार न रहा हो. लेकिन उन्होंने कभी एहसास नहीं दिलाया. न ही कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाया.

मैं सचमुच आज भी जब उन कमजोर पलों को सोचती हूं तो अपनेआप को कोसती हूं. काश, उस क्षण, जब मैं कमजोर पड़ गई थी, कमजोर न पड़ती तो आज पूरे गर्व से तन कर जीती. लेकिन क्या करूं, हर गुनाह सजा ले कर आता है. मैं यह सजा आत्मग्लानि के रूप में भोग रही थी. राज जैसे पुरुष बहका देते हैं लेकिन बरबाद होने से बचा भी लेते हैं.

स्त्री के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है घर की दहलीज, अपनी शादी, अपना पति, अपना परिवार, अपने बच्चे. शादीशुदा औरत की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं कभीकभी. उन में फंस कर सबकुछ बरबाद करने से अच्छा है कि कमजोर न पड़े और जो भी सुख तलाशना हो, अपने घरपरिवार, पति, बच्चों में ही तलाशे. यही हकीकत है, यही रिवाज, यही उचित भी है. Hindi Family Story

Family Story In Hindi: नई जिंदगी – क्या फिर नई जिदंगी जी पाई लता

Family Story In Hindi: मुझे आज भी अपने घर का पता ठीक से याद है. आज भी मुझे बाबूजी, अम्मां और लाड़ले भाई बिल्लू की बहुत याद आती है. आज भी हर रात मुझे जलता हुआ अपना घर, चीखते हुए लोग और नकाब पहन कर अपनी ओर आते काले साए दिखने लगते हैं.

यहां इस बदनाम बस्ती में लोग दिन में आते हुए घबराते हैं, क्योंकि वे शरीफ लोग होते हैं. लेकिन रात होते ही वही शरीफ अपने जिस्म की भूख मिटाने यहां चले आते हैं. यहां एक शरीफ घर की बेटी भी रहती है, जो कुछ साल पहले एकमुश्त रकम दे कर खरीदी गई थी और अब हर रात टुकड़ों में बिकती है.

हां, वह शरीफ घर की बेटी मैं ही हूं. पर लोग मेरे खानदान के बारे में जानने नहीं आते, बल्कि अपनी हवस मिटाने आते हैं. कई तो बाबूजी जैसे बूढ़े, कई मेरे सपनों के राजकुमार जैसे जवान और कई मेरे भाई बिल्लू जैसे मुझ से उम्र में छोटे लड़के भी यहां आए और गए.

मैं ने हर किसी को अपना पता बताया और विनती की कि मेरे घर खबर दे दो कि मैं इस गंदी नाली में फंसी हुई हूं. मुझे आ कर ले जाएं. पर लोग आते और अपनी भूख मिटा कर चले जाते.

एक दिन ‘मौसी’ ने बताया, ‘‘आज रात जरा सजसंवर के बैठियो बन्नो, नया दारोगा आ रहा है.’’

हम वहां 3 लड़कियां थीं. तीनों को दारोगा के सामने यों पेश किया गया, मानो पान की गिलौरियां हों. मैं ने नजर उठा कर देखना भी जरूरी नहीं समझा. सोचा, बूढ़ा, जवान या बच्चा, जो भी होगा, कि अपना काम कर के चला ही जाएगा.

दारोगा ने शायद मौसी को इशारा कर के बता दिया था कि मैं उसे पसंद हूं. मौसी उन दोनों लड़कियों को ले कर चली गई. कमरे में बाकी बची मैं और वह दारोगा. वह बोला, ‘‘बैठो, मुझ से डरो नहीं, अपना नाम बताओ.’’

पहली बार मैं ने नजरें उठा कर देखा. वह लंबा, तगड़ा, गोराचिट्टा नौजवान था. मैं हैरान सी उसे देखती रही, तो वह फिर बोला, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

मै ने सोचा कि उस से पूछूं, ‘तुम्हें नाम से क्या काम?’ पर जबान ने साथ नहीं दिया.

मुझे चुप देख कर वह कुछ झुंझला गया और बोला, ‘‘क्या तुम गूंगी हो?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘मैं गूंगी नहीं हूं, पर बेजबान हूं,’’

वह धीरे से बोला, ‘‘मेरा नाम निरंजन सिंह है. मैं मैनपुरी का रहने वाला हूं. बेसहारा लोगों की मदद करने के लिए ही पुलिस में भरती हुआ हूं. घर पर जमींदारी है, शौकिया नौकरी कर रहा हूं. जानना चाहता हूं, तुम यह काम शौकिया कर रही हो या मजबूरी में?’’

मैं खामोश ही रही. दारोगा निरंजन सिंह बोला, ‘‘अपना पता बताओ.’’

न चाहते हुए भी मैं ने अलीगढ़ का अपने घर का पता बता दिया. इस से पहले भी कितने ही आए और बहलाफुसला कर आस का दीया मेरे दिल में जला कर चले गए. इसी तरह मुझे यहां से नजात दिलाने का वादा कर के और घर का पता पूछ कर, मेरे जिस्म से खेल कर कितने ही जा चुके थे.

मैं ने सोचा कि चलो, इसे भी सह ही लूंगी. मौत बुलाने से आती तो कब की आ गई होतीअचानक दारोगा की आवाज सुन कर मैं ने उस की तरफ देखा. वह कह रहा था, ‘‘हाथमुंह धो कर ढंग के कपड़े पहन कर बाहर आओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’

दूसरे कमरे से मौसी और दारोगा की बात करने की आवाज अंदर आ रही थी. वह पूछ रहा था, ‘‘कितने में खरीदा था इसे? आज बेच दो. मैं साथ लिए जा रहा हूं. कीमत बोलो?’’

मौसी ने कहा, ‘‘सरकार, ले जाइए, जब मन भर जाए तो लौटा देना.’’

अब मैं ने आईने में खुद को देखा. लिपीपुती मैं कितनी गंदी लग रही थी. बहुत समय बाद खुद से नफरत होने लगी. मैं ने जल्दीजल्दी हाथमुंह धोया. एक सादा सा सूट पहना और बाहर चली आई.

मौसी ने मुझे चूम कर कहा, ‘‘दारोगा को खुश कर देना.’’

बाहर निकल कर मैं ने देखा कि दारोगा जीप में बैठा मेरा इंतजार कर रहा था. फिर एक लंबा सफर शुरू हुआ. सफर के दौरान मुझे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

नींद तभी खुली, जब दारोगा ने कंधे से झकझोर कर उठाया और मेरे हाथ में चाय का एक गिलास पकड़ा दिया.

भौचक्की सी मैं कभी चाय तो कभी दारोगा को देख रही थी. सवेरा हो चुका था. सबकुछ एकदम अनोखा लग रहा था. हम एक ढाबे के बाहर थे.

‘‘अभी आधे घंटे में हम अलीगढ़ पहुंच जाएंगे. तुम एक बार फिर अपनों के बीच होगी,’’ दारोगा ने मुसकराते हुए कहा.

कैसे बताऊं, अपनी उस हालत को. ऐसा लगा, मानो मेरे कटे पंख फिर से उग आए हों. मैं अब आजाद हूं, उड़ने के लिए. मेरी आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

जल्दी ही हम अलीगढ़ पहुंच गए. सुबह के लगभग 7 बजे जीप हमारे घर के सामने जा कर रुक गई. दारोगा ने मुझे घर की कुंडी खटखटाने को कहा.

अंदर से एक मर्दाना आवाज आई, ‘‘कौन है?’’ और फिर कुंडी खुल गई.

आंगन में मां अंगीठी के लिए कोयले तोड़ रही थीं. दरवाजा खोलने वाला शायद मेरा भाई बिल्लू था. पिताजी चारपाई पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. इन 8 सालों में मैं काफी बदल गई थी, तभी तो मुझे किसी ने नहीं पहचाना.

मैं ‘मां… मां’ कहती अंदर लपकी. मां मुझे पहचानते ही चीख पड़ीं, ‘‘अरे, मेरी लता? कहां थी बेटी? तुझे कहांकहां नहीं ढूंढ़ा,’’ और हम दोनों मांबेटी गले मिल कर रोने लगीं.

पर बिल्लू और पिताजी अजनबी बने दूर खड़े रहे. जब मैं पिताजी की तरफ बढ़ी तो वे बोले, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ भी लगाया. निकल जा इसी वक्त यहां से.’’

अब दारोगाजी पहली बार बोले, ‘‘आप अपनी बेटी को नहीं पहचानते. यह बेचारी किसी तरह लोगों के घरों में बरतन धोधो कर जिंदा रही, क्या आप की यही नफरत देखने के लिए?’’

पिताजी की कड़कदार आवाज गूंजी, ‘‘जी हां, इस के कई खरीदार आशिकों के खत मुझे पहले भी मिल चुके हैं. मैं जानता हूं कि यह बरतन नहीं हमारी इज्जत धोती रही है.’’

मुझे लगा कि जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं. ‘तो मेरे जिस्म को नोचने वालों में से कुछ ने यहां मेरे बताए पते पर खत डाले थे.’

तब तक बिल्लू बोल उठा, ‘‘तू जाती है या धक्के मार कर निकालूं बाहर?’’

मां रो रही थीं और पिताजी से कह रही थीं, ‘‘तुम्हें पता था, यह कहां है? और तुम इसे लेने नहीं गए. तुम ने मुझे भी कभी नहीं बताया. मेरी लता का क्या कुसूर है? इसे घर में रहने दो.’’

बिल्लू गुस्से से बोला, ‘‘मां, तुम तो पागल हो गई हो. दीदी तो 8 साल पहले मर गई… यह जाने कौन घुस रही है, हमारे घर में.’’

अब दारोगाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और सीधे ला कर जीप में बिठाया. फिर से एक अनजाना सफर शुरू हो गया. मैं काफी रो चुकी थी. अब तो आंसू भी सूख गए थे और दिल भी पत्थर बन चुका था.

मैनपुरी पहुंच कर हमारा सफर खत्म हुआ. जीप एक हवेली के सामने रुकी. दारोगाजी ने मुझे अपने साथ आने को कहा. 7-8 कमरे पार करने के बाद उन्होंने एक औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी है, भानु… और भानु, यह लता है. इस के मांबाप और भाई सब एक हादसे में मारे गए. अब यह यहां रहेगी. इसे मेरी बहन समझ कर पूरी इज्जत देना.’’

फिर दारोगा मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘लता, आज से तुम भानु की देखरेख में यहीं रहोगी.’’

मेरी आंखों में फिर आंसू भर आए. भानु भाभी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपने साथ अंदर ले गईं. Family Story In Hindi

Hindi Family Story: पुरस्कार – रिटायरमेंट के बाद पिता और परिवार की कहानी

Hindi Family Story: उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.

वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.

बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.

शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.

हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.

सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.

सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.

उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.

‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.

‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’

‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’

‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’

‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’

वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’

वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’

पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.

‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.

‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’

‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’

सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.

अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’

बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’

उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.

समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे. लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.

उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.

शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.

शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.

क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.

मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.

कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.

‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.

‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’

‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.

‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.

‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’

‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’

‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’

‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.

‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.

‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’ Hindi Family Story

Hindi Family Story: टेढ़ीमेढ़ी डगर – सुमोना ने कैसे सिखाया पति को सबक

Hindi Family Story: सुमोना रोरो कर अब शांत हो चुकी थी. आज फिर विक्रांत ने उस पर हाथ उठाया था और फिर धक्का दे कर व बुरीबुरी गालियां देता हुआ घर से बाहर चला गया था. 5 वर्षीय पिंकी और 4 वर्षीय पंकज हिचकियों के साथ रोते हुए उस से चिपके हुए थे. तीनों के आंसू मिल कर एक हो रहे थे. अब यह सब आएदिन की बात हो गई थी.

सुमोना सोच रही थी कि कौन कहेगा कि वे दोनों पढ़ेलिखे संपन्न परिवारों से हैं. दोनों के ही परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से समाज में अच्छी हैसियत रखते थे. कहने को तो उन का प्रेम विवाह था. सजातीय होने के कारण और शायद परिजनों के खुले हुए विचारों का होने के कारण भी उन्हें विवाह में कोई अड़चन नहीं आई थी. सभी की रजामंदी से, बहुत धूमधड़ाके के साथ उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ था. दोनों के ही मातापिता ने किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बल्कि अगर यह कहें कि कुछ जरूरत से ज्यादा ही दिखावा किया गया था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

शादी के थोड़े दिनों बाद ही विक्रांत का यह रूप उस के सामने आ गया था. सुमोना चौंकी जरूर थी. दोनों ने एकसाथ एमबीए किया था. सुमोना अपने बैच की टौपर थी. पूरा जोर लगाने के बाद भी विक्रांत कक्षा में दूसरे स्थान पर ही रहता था. दोनों के बीच एक स्वस्थ स्पर्धा रहती थी.

विक्रांत का दोस्त अंगद अकसर कहता था, “अच्छा है तुम दोनों एकदूसरे को डेट नहीं कर रहे हो. नहीं तो एकदूसरे का सिर ही फोड़ देते.”

पल्लवी हंसते हुए उस में जोड़ती, “और कहीं यह दोनों शादी कर लेते तो एकदूसरे का गला ही दबा देते,” सब खिलखिला कर हंस पड़ते और बात हवा में उड़ जाती.

पता नहीं साथियों के कहने का असर था या क्या, धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगे और जब विक्रांत पर प्रेम का भूत चढ़ा तो वह इतना अधिक रोमांटिक हो गया कि खुद सुमोना को ही विश्वास नहीं होता कि यह वही अकड़ू, गुस्सैल विक्रांत है. सहेलियां भी सुमोना से जलने लगीं. विक्रांत हर दिन सुमोना के लिए कुछ न कुछ सरप्राइज प्लान करता और सब देखते रह जाते. विक्रांत कभी भी कुछ छिपा कर नहीं करता सबकुछ सब के सामने खुलाखुला.

दोस्त कहते, “शादी के बाद विक्रांत तो जोरू का गुलाम बन जाएगा,”
विक्रांत हंस कर जवाब देता, “हां भाई बन जाऊंगा. तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है? तुम भी बन जाना पर अपनी बीवी के मेरी नहीं,” और चारों ओर जलन भरी खिलखिलाहट बिखर जाती.

सुमोना को खुद भी विक्रांत का यह रूप बहुत भाता था. वह तो खुशियों के सतरंगे आकाश में विचरण कर रही थी मगर कहां जानती थी कि कुदरत उसे अंधेरे की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है.

पहला झटका सुमोना को शादी के बाद दूसरे महीने में ही लगा था. मात्र 15 दिनों के हनीमून ट्रिप से जब दोनों लौटे थे, 1 हफ्ता तो घर से बाहर ही नहीं निकले और विक्रांत तो जैसे चकोर की तरह उसे निहारता ही रहता था.

जौइंट फैमिली थी. घर में सासससुर के साथ जेठजेठानी भी थे पर जैसे विक्रांत को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था. जेठानी जरूर इस बात पर ताना मारती रहती थी. वह एकांत में विक्रांत को समझाती तो वह कहता, “जो जलता है, उसे जलने दो.”

उस रात नई बहू के स्वागत में विक्रांत के चाचा ने पूरे परिवार को खाने पर बुलाया था. बहुत चाव से सजधज कर जब वह तैयार हुई और विक्रांत के सामने आई तो विक्रांत के चेहरे पर बल पड़ गया, “यह क्या पहना है तुम ने?”

“क्यों क्या हुआ? अच्छा तो है,” शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने पूछा.

“ब्लाउज का इतना गहरा गला किस को दिखाना चाहती हो?”

आहत हुई थी सुमोना, पर खुद को संभाल कर बोली, “अच्छा तो जनाब इनसिक्योर हो रहे हैं.”

“बदल कर नीचे आओ, मैं मां के पास इंतजार कर रहा हूं,” कहता हुआ विक्रांत कमरे से बाहर चला गया.

सुमोना का उखड़ा हुआ मूड, चाचा के घर में सब के स्नेहिल व्यवहार से फिर से खिल उठा था. खाना खा कर सब बैठक में बैठे हंसीमजाक कर रहे थे. बहुत ही खुशनुमा माहौल था. सब उस के रूप और व्यवहार की तारीफ कर रहे थे. थोड़ा हंसीमजाक भी चल रहा था. किसी बात पर सब के साथसाथ वह भी खिलखिला कर हंसी तो विक्रांत तेजी से चीखा, “क्या घोड़े की तरह हिनहिना रही हो… कायदे से हंस भी नहीं सकती हो क्या?”

सब चुप हो गए और उसी असहनीय शांति के बीच वापस घर चले आए. कोई कुछ नहीं बोला. कमरे में आ कर वह बहुत रोई. विक्रांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वह करवट बदल कर आराम से सो गया. सुबह भी घर में इस बारे में कोई बात नहीं हुई. न ही किसी ने उस से कुछ कहा, न ही विक्रांत को कुछ समझाया. जेठानी के चेहरे पर जरूर व्यंग्य भरी मुसकान पूरे दिन तैरती रही.

कुछ ही दिनों बाद विक्रांत के किसी दोस्त की ऐनिवर्सरी की पार्टी थी. विक्रांत ने उसे शाम के लिए तैयार होने के साथसाथ यह भी हिदायत दी की देखो, यह मेरे दोस्त की पार्टी है, शराफत वाले कपड़े ही पहनना. बल्कि ऐसा करो की मुझे दिखा दो कि तुम क्या पहनने वाली हो. यह तो बस शुरुआत थी. उस के पहनने, बोलने पर टिप्पणी करना, टोकाटाकी करना, व्यंग्य करना अब अंगद के लिए आम बात हो गई थी.

उस दिन पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब संगीत की लहरों पर थिरक रहे थे. संगीत वैसे भी सुमोना की कमजोरी थी. वह भी पूरी तरह से संगीत में डूबी हुई थिरक रही थी. अचानक अंगद चिल्लाया, “क्या नचनिया की तरह ठुमके लगाए जा रही हो? अब पिछली बातें भूल जाओ, शरीफ घर की बहू बन गई हो तो शरीफों की तरह रहना सीखो.”

इस अपमान को वह सह नहीं पाई और रोते हुए बाहर की ओर भागी. विक्रांत भी उस के पीछेपीछे आया. घर पहुंचते ही उस ने अपनी सासूमां को पूरी बात बताई पर उन की प्रतिक्रिया से वह चकित रह गईं,”देख बहू, पतिपत्नी के बीच में ऐसी छोटीमोटी बातें होती रहती हैं. इन्हें तूल नहीं देना चाहिए. जाओ जा कर आराम करो,” कहते हुए उन्होंने उस की पीठ थपथपाई और अपने कमरे में चली गईं.

रात उस ने आंखों में ही काटी. सुबह होते ही वह अपने मायके चली आई. अपने मातापिता की प्रतिक्रिया से तो वह बुरी तरह आहत ही हो गई. पिता ने ठहरे हुए शब्दों में उसे समझाया, “देखो सुमोना, हर दंपति के बीच में ऐसे मौके आते ही हैं. बात को बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं है. पुरुष कभीकभार कुछ ऊंचानीचा बोल ही देते हैं. छोटीछोटी बातों को पकड़ कर बैठोगी तो खुद भी दुखी रहोगी और हमें भी दुखी करती रहोगी. अब बड़ी हो गई हो, अपनी जिम्मेदारियों को समझो. हमारी परवरिश पर उंगली उठाने का मौका उन लोगों को मत देना. बस, इतनी सी अपेक्षा है तुम से.“

पिता तो अपनी बात कह कर अपने कमरे में चले गए, उस ने आशा भरी नजरों से मां की ओर देखा. कुछ देर शांत रहने के बाद मां बोलीं, “तुम अगर यह सारी बातें अपना मन हलका करने के लिए हमारे साथ साझा कर रही हो, तो ठीक है. पर अगर तुम को लगता है कि हम लोग दामादजी से इस बारे में कोई बात करेंगे तो ऐसा नहीं होगा.”

“मां…”

बात बीच में काट कर मां बोलीं, “सुमी, हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है. इस का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि तुम लड़का बन जाओ. लड़की हो, लड़की की तरह रहना सीखो. लड़कियों को थोड़ा दबना पड़ता है, सहना पड़ता है. गृहस्थी की गाड़ी तभी पटरी पर चलती है.”

“मां, मुझे इस तरह अपमानित करने का अधिकार विक्रांत को नहीं है. ”

“सुमी, तुम ने तो खुद देखा है, तुम्हारे पापा कितनी बार मुझे क्या कुछ नहीं कह देते हैं. तो क्या मैं उन की शिकायत ले कर अपने मायके जाती हूं? नहीं न?”

“मां, पर मैं यह अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती.”

“सुमी, यह शादी तुम्हारी पसंद से, तुम्हारी खुशी के लिए करी गई है. इसे निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी है. अभी हमें तुम्हारी दोनों छोटी बहनों की शादी भी करनी है. अगर बड़ी बहन का डाइवोर्स हो गया तो दोनों बहनों की शादी में बहुत दिक्कत आएगी. 2-4 चार दिन रहो आराम से मायके में और फिर अपने घर चली जाना. रात बहुत हो गई है, जाओ सो जाओ.”

शाम को औफिस से लौटते हुए विक्रांत उस के मायके चला आया. बिना कुछ कहेसुने वह विक्रांत के साथ अपने ससुराल चली आई. अपमानित होने का एक अनवरत सिलसिला आरंभ हो गया था. अब उसे अपने जीवन की सब से बड़ी भूल का एहसास हो रहा था. भावना में बह कर उस ने हनीमून पर से ही अपनी लगीलगाई नौकरी को इस्तीफा दे दिया था क्योंकि विक्रांत ने कहा था, “जानेमन, तुम दूसरे शहर में नौकरी करोगी तो मैं तो वियोग में ही मर जाऊंगा. 1-2 साल साथ में जी लेते हैं फिर तुम भी नौकरी कर लेना. तुम तो टौपर हो, तुम्हें तो कभी भी नौकरी मिल जाएगी.”

जाने उसे कब नींद आई. अगले दिन जब सुबह सो कर उठी तो उसे चक्कर आ रहे थे. उसे लगा कि उसे तनाव की वजह से ऐसा हो रहा है. पर सासूमां की अनुभवी आंखें शायद समझ गई थीं. उन्होंने डाक्टर के पास ले जा कर जांच करवाई और खुशी से झूमती हुई घर वापस आईं. सालभर के भीतर ही पिंकी उस की गोद में खेलने लगी थी और लगभग 1 साल बाद ही उस ने बेटे को जन्म दिया था. 2 बेटियों की मां, उस की जेठानी जलभुन गई थीं. अब वे भी उसे बातबात पर कुछ न कुछ बोलती रहतीं पर बेटा पा कर सास अब उस का ही पक्ष लेतीं पर बच्चों की मां को नौकरी करने की अनुमति इस घर में नहीं थी.

धीरेधीरे विक्रांत शराब पीने लगा. सब के बीच उस का अपमान करना अब रोज की बात थी. कमरे में अगर वे कुछ समझाने की कोशिश करतीं भी तो विक्रांत उस पर हाथ उठा देता. बच्चे सहम जाते.

कालेज में विक्रांत के परम मित्र थे अंगद. एक ही शहर में होने के कारण उन की दोस्ती अभी भी कायम थी . अगर उन के सामने कुछ भी घटित होता तो वे कभी विक्रांत को समझाते और कभी उसे. पर यह बात न तो विक्रांत को अच्छी लगती न ही परिजनों को इसलिए उन्होंने विक्रांत के घर आना कम कर दिया पर मोबाइल से वे सुमोना से संपर्क में रहते. सुमोना भी जब भी परेशान होती एकांत पा कर अंगदजी को ही फोन लगा लेती. अंगद हमेशा उस का हौसला बढ़ाते. अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह देते.

उस दिन भी अंगद घर आए थे. जब विक्रांत ने सुमोना को गाली दी तो अंगद बच्चों का वास्ता दे कर उसे समझाने लगे पर विक्रांत तो जैसे अपना आपा ही खो चुका था. उस ने उन दोनों के रिश्ते पर ही उंगली उठा दी. अपमान से तिलमिलाए हुए अंगद उठ कर चले गए और अंगद का सारा गुस्सा विक्रांत ने उस पर ही उतार दिया.

आज जिस तरह से विक्रांत ने उसे पीटा था, उसे देख कर पंकज सहम गया था और उस घटना के बाद घंटे भर तक पिंकी डर कर कांपती रही थी और उस के आंसू रुके ही नहीं थे. सुमोना को लगा ये मेरे बच्चे हैं उन्हें डर और उलझी हुई जिंदगी नहीं दे सकती हूं. अब अपने बच्चों के लिए मुझे ही कुछ करना होगा. यह निर्णय लेने के बाद सुमोना स्वयं को भविष्य में आने वाले कठिन समय के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी. अब उसे पता था कि यह लड़ाई उस की अकेले की है. इस युद्ध में कोई उस के साथ नहीं खड़ा होगा. पर फिर भी सुमोना हलका महसूस कर रही थी.

अगले दिन विक्रांत के जाने के बाद सुमोना लैपटौप ले कर बैठ गई और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेज कर ही अपने कमरे से बाहर आई. 2 दिनों तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया. पर वह निराश नहीं हुई, जानती थी कोर्स करने के बाद 5 साल का लंबा अंतराल लिया था उस ने, तो थोड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिलेगी ही. पर उसे विश्वास था कि उस की योग्यता को देखते हुए उसे नौकरी जरूर मिलेगी.

मगर हमेशा अपना सोचा कहां होता है. इस से पहले कि सुमोना की नौकरी लगती विक्रांत ने उस के हाथ में तलाक के कागज थमा दिए. दूसरा विस्फोट यह था कि विक्रांत ने कोर्ट से अपने बच्चों की कस्टडी मांगी थी, क्योंकि सुमोना बेरोजगार थी. सुमोना के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी. पर सुमोना ने रोनेचिल्लाने की बजाय आगे की रणनीति पर विचार करना आरंभ किया. उसे किसी से किसी सहारे की उम्मीद नहीं थी. एक ही व्यक्ति था जिस से वह कोई मदद मांग सकती थी. तो उस ने अंगद को फोन मिलाया. पूरी स्थिति बता कर उस ने किराए का मकान ढूंढ़ने का अनुरोध किया.

विक्रांत के आने से पहले ही सुमोना अपने दोनों बच्चों को ले कर एक अटैची के साथ घर से चली गई. अंगद उस के विश्वास पर खरा उतरा और उस ने अपने किसी परिचित के यहां उसे पेइंगगेस्ट बनवा दिया. अंगद ने उसे मायके जाने की भी सलाह दी पर सुमोना ने यह कह कर मना कर दिया कि यह मेरी लडाई है मैं इस में उन लोगों को परेशान नहीं करना चाहती.

रात में जब विक्रांत लौटा तो इस नए घटनाक्रम से बुरी तरह बौखला गया,
“आप लोगों ने उसे रोका क्यों नहीं? वह इस तरह से मेरे बच्चों को ले कर नहीं जा सकती.”

“हम लोगों को लगा कि आप लोगों की आपस में बात हो गई होगी,” भाभी मुंह बना कर बोलीं.

विक्रांत अपने कमरे में चला गया. उस के जीवन में इतना बड़ा भूचाल आया था और परिवार का कोई सदस्य उस के पास हमदर्दी दिखाने भी नहीं आया. समझ नहीं पा रहा था कि जिन परिजनों पर सुमोना जान छिड़कती थी, उस के जाने का किसी को कोई दुख नहीं था. आधी रात को विक्रांत को भूख लगी. उठ कर बाहर आया, डाइनिंग टेबल पर 2 रोटी और सब्जी ढकी रखी थी, वही खा कर वापस जा कर सो गया.

सुमोना होती तो गरम कर, मानमनुहार से सलाद, अचार के साथ उसे खिलाती. अगली सुबह भी सब कुछ सामान्य ढंग से होता रहा. जब वह बाहर निकलने लगा तब मां ने पूछा, “सुमोना से कुछ बात हुई क्या?”

“नहीं, खुद गई है तो खुद वापस आएगी. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है,” गुस्से में विक्रांत बोला.

“और वह तलाकनामा?” भाभी ने पूछा.

“उसी से उस की अक्ल ठिकाने आएगी आप देख लीजिएगा,” कहता हुआ विक्रांत बाहर चला गया.

समय के तो जैसे पंख होते हैं, तेजी से खिसकने लगा. दिन, महीना और फिर साल बीत गया. न सुमोना आई, न उस का कोई फोन आया. विक्रांत ने भी अपनी अकड़ में कोई फोन नहीं किया था पर इस दौरान विक्रांत ने सुमोना की कमी को शिद्दत से महसूस किया. अपनी उलझनों के कारण उस का काम में मन नहीं लगता था. प्राइवेट कंपनी उस को क्यों रखती अतः उसे नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार देवर अब भाभी पर अब बोझ था. वही भाभी जो उस के साथ मिल कर सुमोना को ताने सुनाया करती थीं, अब उसे ताने देती थीं, “जो अपनी पत्नी और बच्चों का नहीं हुआ वह किसी और का कैसे होगा.“

अपने ही घर में उस की स्थिति अनचाहे मेहमान जैसी हो गई थी. अब विक्रांत को अपने जीवन में सुमोना का महत्त्व समझ में आ रहा था. वह खुद को सुमोना से मिलने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा था कि तभी उस के ताबूत में आखिरी कील के रूप में हस्ताक्षर किया हुआ तलाकनामा रजिस्टर्ड डाक से उस के पास आ गया. साथ ही सुमोना ने कोर्ट के पास अपने बच्चों की कस्टडी का दावा भी ठोका था क्योंकि अब वह बेरोजगार नहीं थी बल्कि एक बड़ी कंपनी की एचआर हैड थी. Hindi Family Story

Hindi Family Story: जीत – रमेश अपने मां-बाप के सपने को पूरा करना चाहता था

Hindi Family Story: रमेश चंद की पुलिस महकमे में पूरी धाक थी. आम लोग उसे बहुत इज्जत देते थे, पर थाने का मुंशी अमीर चंद मन ही मन उस से रंजिश रखता था, क्योंकि उस की ऊपरी कमाई के रास्ते जो बंद हो गए थे. वह रमेश चंद को सबक सिखाना चाहता था. 25 साला रमेश चंद गोरे, लंबे कद का जवान था. उस के पापा सोमनाथ कर्नल के पद से रिटायर हुए थे, जबकि मम्मी पार्वती एक सरकारी स्कूल में टीचर थीं. रमेश चंद के पापा चाहते थे कि उन का बेटा भी सेना में भरती हो कर लगन व मेहनत से अपना मुकाम हासिल करे. पर उस की मम्मी चाहती थीं कि वह उन की नजरों के सामने रह कर अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन पर खेतीबारी करे.

रमेश चंद ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपने मांबाप के सपनों को पूरा करने के लिए पुलिस में भरती होगा और जहां कहीं भी उसे भ्रष्टाचार की गंध मिलेगी, उस को मिटा देने के लिए जीजान लगा देगा. रमेश चंद की पुलिस महकमे में हवलदार के पद पर बेलापुर थाने में बहाली हो गई थी. जहां पर अमीर चंद सालों से मुंशी के पद पर तैनात था. रमेश चंद की पारखी नजरों ने भांप लिया था कि थाने में सब ठीक नहीं है. रमेश चंद जब भी अपनी मोटरसाइकिल पर शहर का चक्कर लगाता, तो सभी दुकानदारों से कहता कि वे लोग बेखौफ हो कर कामधंधा करें. वे न तो पुलिस के खौफ से डरें और न ही उन की सेवा करें.

एक दिन रमेश चंद मोटरसाइकिल से कहीं जा रहा था. उस ने देखा कि एक आदमी उस की मोटरसाइकिल देख कर अपनी कार को बेतहाशा दौड़ाने लगा था.

रमेश चंद ने उस कार का पीछा किया और कार को ओवरटेक कर के एक जगह पर उसे रोकने की कोशिश की. पर कार वाला रुकने के बजाय मोटरसाइकिल वाले को ही अपना निशाना बनाने लगा था. पर इसे रमेश चंद की होशियारी समझो कि कुछ दूरी पर जा कर कार रुक गई थी. रमेश चंद ने कार में बैठे 2 लोगों को धुन डाला था और एक लड़की को कार के अंदर से महफूज बाहर निकाल लिया.

दरअसल, दोनों लोग अजय और निशांत थे, जो कालेज में पढ़ने वाली शुभलता को उस समय अगवा कर के ले गए थे, जब वह बारिश से बचने के लिए बस स्टैंड पर खड़ी घर जाने वाली बस का इंतजार कर रही थी. निशांत शुभलता को जानता था और उस ने कहा था कि वह भी उस ओर ही जा रहा है, इसलिए वह उसे उस के घर छोड़ देगा. शुभलता की आंखें तब डर से बंद होने लगी थीं, जब उस ने देखा कि निशांत तो गाड़ी को जंगली रास्ते वाली सड़क पर ले जा रहा था. उस ने गुस्से से पूछा था कि वह गाड़ी कहां ले जा रहा है, तो उस के गाल पर अजय ने जोरदार तमाचा जड़ते हुए कहा था, ‘तू चुपचाप गाड़ी में बैठी रह, नहीं तो इस चाकू से तेरे जिस्म के टुकड़ेटुकड़े कर दूंगा.’

तब निशांत ने अजय से कहा था, ‘पहले हम बारीबारी से इसे भोगेंगे, फिर इस के जिस्म को इतने घाव देंगे कि कोई इसे पहचान भी नहीं सकेगा.’ पर रमेश चंद के अचानक पीछा करने से न केवल उन दोनों की धुनाई हुई थी, बल्कि एक कागज पर उन के दस्तखत भी करवा लिए थे, जिस पर लिखा था कि भविष्य में अगर शहर के बीच उन्होंने किसी की इज्जत पर हाथ डाला या कोई बखेड़ा खड़ा किया, तो दफा 376 का केस बना कर उन को सजा दिलाई जाए. शुभलता की दास्तान सुन कर रमेश चंद ने उसे दुनिया की ऊंचनीच समझाई और अपनी मोटरसाइकिल पर उसे उस के घर तक छोड़ आया. शुभलता के पापा विशंभर एक दबंग किस्म के नेता थे. उन के कई विरोधी भी थे, जो इस ताक में रहते थे कि कब कोई मुद्दा उन के हाथ आ जाए और वे उन के खिलाफ मोरचा खोलें.

विशंभर विधायक बने, फिर धीरेधीरे अपनी राजनीतिक इच्छाओं के बलबूते पर चंद ही सालों में मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ गए. सिर्फ मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता ही इस बात को जानती थीं कि उन की बेटी शुभलता को बलात्कारियों के चंगुल से रमेश चंद ने बचाया था. बेलापुर थाने में नया थानेदार रुलदू राम आ गया था. उस ने अपने सभी मातहत मुलाजिमों को निर्देश दिया था कि वे अपना काम बड़ी मुस्तैदी से करें, ताकि आम लोगों की शिकायतों की सही ढंग से जांच हो सके. थोड़ी देर के बाद मुंशी अमीर चंद ने थानेदार के केबिन में दाखिल होते ही उसे सैल्यूट किया, फिर प्लेट में काजू, बरफी व चाय सर्व की. थानेदार रुलदू राम चाय व बरफी देख कर खुश होते हुए कहने लगा, ‘‘वाह मुंशीजी, वाह, बड़े मौके पर चाय लाए हो. इस समय मुझे चाय की तलब लग रही थी…

‘‘मुंशीजी, इस थाने का रिकौर्ड अच्छा है न. कहीं गड़बड़ तो नहीं है,’’ थानेदार रुलदू राम ने चाय पीते हुए पूछा.

‘‘सर, वैसे तो इस थाने में सबकुछ अच्छा है, पर रमेश चंद हवलदार की वजह से यह थाना फलफूल नहीं रहा है,’’ मुंशी अमीर चंद ने नमकमिर्च लगाते हुए रमेश चंद के खिलाफ थानेदार को उकसाने की कोशिश की.

थानेदार रुलदू राम ने मुंशी से पूछा, ‘‘इस समय वह हवलदार कहां है?’’

‘‘जनाब, उस की ड्यूटी इन दिनों ट्रैफिक पुलिस में लगी हुई है.’’

‘‘इस का मतलब यह कि वह अच्छी कमाई करता होगा?’’ थानेदार ने मुंशी से पूछा.

‘‘नहीं सर, वह तो पुश्तैनी अमीर है और ईमानदारी तो उस की रगरग में बसी है. कानून तोड़ने वालों की तो वह खूब खबर लेता है. कोई कितनी भी तगड़ी सिफारिश वाला क्यों न हो, वह चालान करते हुए जरा भी नहीं डरता.’’

इतना सुन कर थानेदार रुलदू राम ने कहा, ‘‘यह आदमी तो बड़ा दिलचस्प लगता है.’’

‘‘नहीं जनाब, यह रमेश चंद अपने से ऊपर किसी को कुछ नहीं समझता है. कई बार तो ऐसा लगता है कि या तो इस का ट्रांसफर यहां से हो जाए या हम ही यहां से चले जाएं,’’ मुंशी अमीर चंद ने रोनी सूरत बनाते हुए थानेदार से कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. आज उस को यहां आने दो, फिर उसे बताऊंगा कि इस थाने की थानेदारी किस की है… उस की या मेरी?’’

तभी थाने के कंपाउंड में एक मोटरसाइकिल रुकी. मुंशी अमीर चंद दबे कदमों से थानेदार के केबिन में दाखिल होते हुए कहने लगा, ‘‘जनाब, हवलदार रमेश चंद आ गया है.’’

अर्दली ने आ कर रमेश चंद से कहा, ‘‘नए थानेदार साहब आप को इसी वक्त बुला रहे हैं.’’

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार रुलदू राम को सैल्यूट मारा.

‘‘आज कितना कमाया?’’ थानेदार रुलदू राम ने हवलदार रमेश चंद से पूछा.

‘‘सर, मैं अपने फर्ज को अंजाम देना जानता हूं. ऊपर की कमाई करना मेरे जमीर में शामिल नहीं है,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

थानेदार ने उसे झिड़कते हुए कहा, ‘‘यह थाना है. इस में ज्यादा ईमानदारी रख कर काम करोगे, तो कभी न कभी तुम्हारे गरीबान पर कोई हाथ डाल कर तुम्हें सलाखों तक पहुंचा देगा. अभी तुम जवान हो, संभल जाओ.’’

‘‘सर, फर्ज निभातेनिभाते अगर मेरी जान भी चली जाए, तो कोई परवाह नहीं,’’ हवलदार रमेश चंद थानेदार रुलदू राम से बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, तुम्हारे ये प्रवचन सुनने के लिए मैं ने तुम्हें यहां नहीं बुलाया था,’’ थानेदार रुलदू राम की आवाज में तल्खी उभर आई थी.

दरवाजे की ओट में मुंशी अमीर चंद खड़ा हो कर ये सब बातें सुन रहा था. वह मन ही मन खुश हो रहा था कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. हवलदार रमेश चंद के बाहर जाते ही मुंशी अमीर चंद थानेदार से कहने लगा, ‘‘साहब, छोटे लोगों को मुंह नहीं लगाना चाहिए. आप ने हवलदार को उस की औकात बता दी.’’

‘‘चलो जनाब, हम बाजार का एक चक्कर लगा लें. इसी बहाने आप की शहर के दुकानदारों से भी मुलाकात हो जाएगी और कुछ खरीदारी भी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मैं जरा क्वार्टर जा कर अपनी पत्नी से पूछ लूं कि बाजार से कुछ लाना तो नहीं है?’’ थानेदार ने मुंशी से कहा.

क्वार्टर पहुंच कर थानेदार रुलदू राम ने देखा कि उस की पत्नी सुरेखा व 2 महिला कांस्टेबलों ने क्वार्टर को सजा दिया था. उस ने सुरेखा से कहा, ‘‘मैं बाजार का मुआयना करने जा रहा हूं. वहां से कुछ लाना तो नहीं है?’’

‘‘बच्चों के लिए खिलौने व फलसब्जी वगैरह देख लेना,’’ सुरेखा ने कहा.

मुंशी अमीर चंद पहले की तरह आज भी जिस दुकान पर गया, वहां नए थानेदार का परिचय कराया, फिर उन से जरूरत का सामान ‘मुफ्त’ में लिया और आगे चल दिया. वापसी में आते वक्त सामान के 2 थैले भर गए थे. मुंशी अमीर चंद ने बड़े रोब के साथ एक आटोरिकशा वाले को बुलाया और उस से थाने तक चलने को कहा. थानेदार को मुंशी अमीर चंद का रसूख अच्छा लगा. उस ने एक कौड़ी भी खर्च किए बिना ढेर सारा सामान ले लिया था. अगले दिन थानेदार के जेहन में रहरह कर यह बात कौंध रही थी कि अगर समय रहते हवलदार रमेश चंद के पर नहीं कतरे गए, तो वह उन सब की राह में रोड़ा बन जाएगा. अभी थानेदार रुलदू राम अपने ही खयालों में डूबा था कि तभी एक औरत बसंती रोतीचिल्लाती वहां आई.

उस औरत ने थानेदार से कहा, ‘‘साहब, थाने से थोड़ी दूरी पर ही मेरा घर है, जहां पर बदमाशों ने रात को न केवल मेरे मर्द करमू को पीटा, बल्कि घर में जो गहनेकपड़े थे, उन पर भी हाथ साफ कर गए. जब मैं ने अपने पति का बचाव करना चाहा, तो उन्होंने मुझे धक्का दे दिया. इस से मुझे भी चोट लग गई.’’

थानेदार ने उस औरत को देखा, जो माथे पर उभर आई चोटों के निशान दिखाने की कोशिश कर रही थी. थानेदार ने उस औरत को ऐसे घूरा, मानो वह थाने में ही उसे दबोच लेगा. भले ही बसंती गरीब घर की थी, पर उस की जवानी की मादकता देख कर थानेदार की लार टपकने लगी थी. अचानक मुंशी अमीर चंद केबिन में घुसा. उस ने बसंती से कहा, ‘‘साहब ने अभी थाने में जौइन किया है. हम तुम्हें बदमाशों से भी बचाएंगे और जो कुछवे लूट कर ले गए हैं, उसे भी वापस दिलाएंगे. पर इस के बदले में तुम्हें हमारा एक छोटा सा काम करना होगा.’’

‘‘कौन सा काम, साहबजी?’’ बसंती ने हैरान हो कर मुंशी अमीर चंद से पूछा.

‘‘हम अभी तुम्हारे घर जांचपड़ताल करने आएंगे, वहीं पर तुम्हें सबकुछ बता देंगे.’’

‘‘जी साहब,’’ बसंती उठते हुए बोली.

थानेदार ने मुंशी से फुसफुसाते हुए पूछा, ‘‘बसंती से क्या बात करनी है?’’

मुंशी ने कहा, ‘‘हुजूर, पुलिस वालों के लिए मरे हुए को जिंदा करना और जिंदा को मरा हुआ साबित करना बाएं हाथ का खेल होता है. बस, अब आप आगे का तमाशा देखते जाओ.’’ आननफानन थानेदार व मुंशी मौका ए वारदात पर पहुंचे, फिर चुपके से बसंती व उस के मर्द को सारी प्लानिंग बताई. इस के बाद मुंशी अमीर चंद ने कुछ लोगों के बयान लिए और तुरंत थाने लौट आए. इधर हवलदार रमेश चंद को कानोंकान खबर तक नहीं थी कि उस के खिलाफ मुंशी कैसी साजिश रच रहा था.

थानेदार ने अर्दली भेज कर रमेश चंद को थाने बुलाया.

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार को सैल्यूट मारने के बाद पूछा, ‘‘सर, आप ने मुझे याद किया?’’

‘‘देखो रमेश, आज सुबह बसंती के घर में कोई हंगामा हो गया था. मुंशीजी अमीर चंद को इस बाबत वहां भेजना था, पर मैं चाहता हूं कि तुम वहां मौका ए वारदात पर पहुंच कर कार्यवाही करो. वैसे, हम भी थोड़ी देर में वहां पहुंचेंगे.’’

‘‘ठीक है सर,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

जैसे ही रमेश चंद बसंती के घर पहुंचा, तभी उस का पति करमू रोते हुए कहने लगा, ‘‘हुजूर, उन गुंडों ने मारमार कर मेरा हुलिया बिगाड़ दिया. मुझे ऐसा लगता है कि रात को आप भी उन गुंडों के साथ थे.’’ करमू के मुंह से यह बात सुन कर रमेश चंद आगबबूला हो गया और उस ने 3-4 थप्पड़ उसे जड़ दिए.

तभी बसंती बीचबचाव करते हुए कहने लगी, ‘‘हजूर, इसे शराब पीने के बाद होश नहीं रहता. इस की गुस्ताखी के लिए मैं आप के पैर पड़ कर माफी मांगती हूं. इस ने मुझे पूरी उम्र आंसू ही आंसू दिए हैं. कभीकभी तो ऐसा मन करता है कि इसे छोड़ कर भाग जाऊं, पर भाग कर जाऊंगी भी कहां. मुझे सहारा देने वाला भी कोई नहीं है…’’

‘‘आप मेरी खातिर गुस्सा थूक दीजिए और शांत हो जाइए. मैं अभी चायनाश्ते का बंदोबस्त करती हूं.’’

बसंती ने उस समय ऐसे कपड़े पहने हुए थे कि उस के उभार नजर आ रहे थे. शरबत पीते हुए रमेश की नजरें आज पहली दफा किसी औरत के जिस्म पर फिसली थीं और वह औरत बसंती ही थी. रमेश चंद बसंती से कह रहा था, ‘‘देख बसंती, तेरी वजह से मैं ने तेरे मर्द को छोड़ दिया, नहीं तो मैं इस की वह गत बनाता कि इसे चारों ओर मौत ही मौत नजर आती.’’ यह बोलते हुए रमेश चंद को नहीं मालूम था कि उस के शरबत में तो बसंती ने नशे की गोलियां मिलाई हुई थीं. उस की मदहोश आंखों में अब न जाने कितनी बसंतियां तैर रही थीं. ऐन मौके पर थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद वहां पहुंचे. बसंती ने अपने कपड़े फाड़े और जानबूझ कर रमेश चंद की बगल में लेट गई. उन दोनों ने उन के फोटो खींचे. वहां पर शराब की 2 बोतलें भी रख दी गई थीं. कुछ शराब रमेश चंद के मुंह में भी उड़ेल दी थी.

मुंशी अमीर चंद ने तुरंत हैडक्वार्टर में डीएसपी को इस सारे कांड के बारे में सूचित कर दिया था. डीएसपी साहब ने रिपोर्ट देखी कि मौका ए वारदात पर पहुंच कर हवलदार रमेश चंद ने रिपोर्ट लिखवाने वाली औरत के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. डीएसपी साहब ने तुरंत हवलदार रमेश चंद को नौकरी से सस्पैंड कर दिया. अब सारा माजरा उस की समझ में अच्छी तरह आ गया था, पर सारे सुबूत उस के खिलाफ थे. अगले दिन अखबारों में खबर छपी थी कि नए थानेदार ने थाने का कार्यभार संभालते ही एक बेशर्म हवलदार को अपने थाने से सस्पैंड करवा कर नई मिसाल कायम की. रमेश चंद हवालात में बंद था. उस पर बलात्कार करने का आरोप लगा था. इधर जब मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता को इस बारे में पता लगा कि रमेश चंद को बलात्कार के आरोप में हवालात में बंद कर दिया गया है, तो उस का खून खौल उठा. उस ने सुबह होते ही थाने का रुख किया और रमेश चंद की जमानत दे कर रिहा कराया. रमेश चंद ने कहा, ‘‘मैडम, आप ने मेरी नीयत पर शक नहीं किया है और मेरी जमानत करा दी. मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

चंद्रकांता बोली, ‘‘उस वक्त तुम ने मेरी बेटी को बचाया था, तब यह बात सिर्फ मुझे, मेरी बेटी व तुम्हें ही मालूम थी. अगर तुम मेरी बेटी को उन वहशी दरिंदों से न बचाते, तो न जाने क्या होता? और हमें कितनी बदनामी झेलनी पड़ती. आज हमारी बेटी शादी के बाद बड़ी खुशी से अपनी जिंदगी गुजार रही है.

‘‘जिन लोगों ने तुम्हारे खिलाफ साजिश रची है, उन के मनसूबों को नाकाम कर के तुम आगे बढ़ो,’’ चंद्रकांता ने रमेश चंद को धीरज बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं आज ही मुख्यमंत्रीजी से इस मामले में बात करूंगी, ताकि जिस सच के रास्ते पर चल कर अपना वजूद तुम ने कायम किया है, वह मिट्टी में न मिल जाए.’’ अगले दिन ही बेलापुर थाने की उस घटना की जांच शुरू हो गई थी. अब तो स्थानीय दुकानदारों ने भी अपनीअपनी शिकायतें लिखित रूप में दे दी थीं. थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद अब जेल की सलाखों में थे. रमेश चंद भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई जीत गया था. Hindi Family Story

Hindi Story: आलू वड़ा – मामी ने दीपक के साथ क्या किया

Hindi Story: ‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया. मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था. Hindi Story

Hindi Family Story: लिफाफाबंद चिट्ठी – क्या था उस पत्र में

Hindi Family Story: मैंने घड़ी देखी. अभी लगभग 1 घंटा तो स्टेशन पर इंतजार करना ही पड़ेगा. कुछ मैं जल्दी आ गया था और कुछ ट्रेन देरी से आ रही थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो एक बैंच खाली नजर आ गई. मैं ने तुरंत उस पर कब्जा कर लिया. सामान के नाम पर इकलौता बैग सिरहाने रख कर मैं पांव पसार कर लेट गया. अकेले यात्रा का भी अपना ही आनंद है. सामान और बच्चों को संभालने की टैंशन नहीं. आराम से इधरउधर ताकाझांकी भी कर लो.

स्टेशन पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी. पर जैसे ही कोई ट्रेन आने को होती, एकदम हलचल मच जाती. कुली, ठेले वाले एकदम चौकन्ने हो जाते. ऊंघते यात्री सामान संभालने लगते. ट्रेन के रुकते ही यात्रियों के चढ़नेउतरने का सिलसिला शुरू हो जाता. उस समय यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता था कि ट्रेन के अंदर ज्यादा भीड़ है या बाहर? इतने इतमीनान से यात्रियों को निहारने का यह मेरा पहला अवसर था. किसी को चढ़ने की जल्दी थी, तो किसी को उतरने की. इस दौरान कौन खुश है, कौन उदास, कौन चिंतित है और कौन पीडि़त यह देखनेसमझने का वक्त किसी के पास नहीं था.

किसी का पांव दब गया, वह दर्द से कराह रहा है, पर रौंदने वाला एक सौरी कह चलता बना. ‘‘भैया जरा साइड में हो कर सहला लीजिए,’’ कह कर आसपास वाले रास्ता बना कर चढ़नेउतरने लगे. किसी को उसे या उस के सामान को चढ़ाने की सुध नहीं थी. चढ़ते वक्त एक महिला की चप्पलें प्लेटफार्म पर ही छूट गईं. वह चप्पलें पकड़ाने की गुहार करती रही. आखिर खुद ही भीड़ में रास्ता बना कर उतरी और चप्पलें पहन कर चढ़ी.

मैं लोगों की स्वार्थपरता देख हैरान था. क्या हो गया है हमारी महानगरीय संस्कृति को? प्रेम, सौहार्द और अपनेपन की जगह हर किसी की आंखों में अविश्वास, आशंका और अजनबीपन के साए मंडराते नजर आ रहे थे. मात्र शरीर एकदूसरे को छूते हुए निकल रहे थे, उन के मन के बीच का फासला अपरिमित था. मुझे सहसा कवि रामदरश मिश्र की वह उपमा याद आ गई, ‘कैसा है यह एकसाथ होना, दूसरे के साथ हंसना न रोना. क्या हम भी लैटरबौक्स की चिट्ठियां बन गए हैं?’

इस कल्पना के साथ ही स्टेशन का परिदृश्य मेरे लिए सहसा बदल गया. शोरशराबे वाला माहौल निस्तब्ध शांति में तबदील हो गया. अब वहां इंसान नहीं सुखदुख वाली अनंत चिट्ठियां अपनीअपनी मंजिल की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थीं. लेकिन कोई किसी से नहीं बोल रही थी. मैं मानो सपनों की दुनिया में विचरण करने लगा था.

‘‘हां, यहीं रख दो,’’ एक नारी स्वर उभरा और फिर ठकठक सामान रखने की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. गोद में छोटे बच्चे को पकड़े एक संभ्रांत सी महिला कुली से सामान रखवा रही थी. बैंच पर बैठने का उस का मंतव्य समझ मैं ने पांव समेट लिए और जगह बना दी. वह धन्यवाद दे कर मुसकान बिखेरती हुई बच्चे को ले कर बैठ गई. एक बार उस ने अपने सामान का अवलोकन किया. शायद गिन रही थी पूरा आ गया है या नहीं? फिर इतमीनान से बच्चे को बिस्कुट खिलाने लगी.

यकायक उस महिला को कुछ खयाल आया. उस ने अपनी पानी की बोतल उठा कर हिलाई. फिर इधरउधर नजरें दौड़ाईं. दूर पीने के पानी का नल और कतार नजर आ रहें थे. उस की नजरें मुड़ीं और आ कर मुझ पर ठहर गईं. मैं उस का मंतव्य समझ नजरें चुराने लगा. पर उस ने मुझे पकड़ लिया, ‘‘भाई साहब, बहुत जल्दी में घर से निकलना हुआ तो बोतल नहीं भर सकी. प्लीज, आप भर लाएंगे?’’

एक तो अपने आराम में खलल की वजह से मैं वैसे ही खुंदक में था और फिर ऊपर से यह बेगार. मेरे मन के भाव शायद मेरे चेहरे पर लक्षित हो गए थे. इसलिए वह तुरंत बोल पड़ी, ‘‘अच्छा रहने दीजिए. मैं ही ले आती हूं. आप थोड़ा टिंकू को पकड़ लेंगे?’’

वह बच्चे को मेरी गोद में पकड़ाने लगी, तो मैं झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं ही ले आता हूं,’’ कह कर बोतल ले कर रवाना हुआ तो मन में एक शक का कीड़ा बुलबुलाया कि कहीं यह कोई चोरउचक्की तो नहीं? आजकल तो चोर किसी भी वेश में आ जाते हैं. पीछे से मेरा बैग ही ले कर चंपत न हो जाए? अरे नहीं, गोद में बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कहां भाग सकती है? लो, बन गए न बेवकूफ? अरे, ऐसों का पूरा गिरोह होता है. महिलाएं तो ग्राहक फंसाती हैं और मर्द सामान ले कर चंपत. मैं ठिठक कर मुड़ कर अपना सामान देखने लगा.

‘‘मैं ध्यान रख रही हूं, आप के सामान का,’’ उस ने जोर से कहा.

मैं मन ही मन बुदबुदाया कि इसी बात का तो डर है. कतार में खड़े और बोतल भरते हुए भी मेरी नजरें अपने बैग पर ही टिकी रहीं. लौट कर बोतल पकड़ाई, तो उस ने धन्यवाद कहा. फिर हंस कर बोली, ‘‘आप से कहा तो था कि मैं ध्यान रख रही हूं. फिर भी सारा वक्त आप की नजरें इसी पर टिकी रहीं.’’

अब मैं क्या कहता? ‘खैर, कर दी एक बार मदद, अब दूर रहना ही ठीक है,’ सोच कर मैं मोबाइल में मैसेज पढ़ने लगा. यह अच्छा जरिया है आजकल, भीड़ में रहते हुए भी निस्पृह बने रहने का.

‘‘आप बता सकते हैं कोच नंबर 3 कहां लगेगा?’’ उस ने मुझ से फिर संपर्कसूत्र जोड़ने की कोशिश की.

‘‘यहीं या फिर थोड़ा आगे,’’ सूखा सा जवाब देते वक्त अचानक मेरे दिमाग में कुछ चटका कि ओह, यह भी मेरे ही डब्बे में है? मेरी नजरें उस के ढेर सारे सामान पर से फिसलती हुईं अपने इकलौते बैग पर आ कर टिक गईं. अब यदि इस ने अपना सामान चढ़वाने में मदद मांगी या बच्चे को पकड़ाया तो? बच्चू, फूट ले यहां से. हालांकि ट्रेन आने में अभी 10 मिनट की देर थी. पर मैं ने अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा.

कुछ ही देर में ट्रेन आ पहुंची. मैं लपक कर डब्बे में चढ़ा और अपनी सीट पर जा कर पसर गया. अभी मैं पूरी तरह जम भी नहीं पाया था कि उसी महिला का स्वर सुनाई दिया, ‘‘संभाल कर चढ़ाना भैया. हां, यह सूटकेस इधर नीचे डाल दो और उसे ऊपर चढ़ा दो… अरे भाई साहब, आप की भी सीट यहीं है? चलो, अच्छा है… लो भैया, ये लो अपने पूरे 70 रुपए.’’

मैं ने देखा वही कुली था. पैसे ले कर वह चला गया. महिला मेरे सामने वाली सीट पर बच्चे को बैठा कर खुद भी बैठ गई और सुस्ताने लगी. मुझे उस से सहानुभूति हो आई कि बेचारी छोटे से बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कैसे अकेले सफर कर रही है? पर यह सहानुभूति कुछ पलों के लिए ही थी. परिस्थितियां बदलते ही मेरा रुख भी बदल गया. हुआ यों कि टी.टी. आया तो वह उस की ओर लपकी. बोली, ‘‘मेरी ऊपर वाली बर्थ है. तत्काल कोटे में यही बची थी. छोटा बच्चा साथ है, कोई नीचे वाली सीट मिल जाती तो…’’

मेरी नीचे वाली बर्थ थी. कहीं मुझे ही बलि का बकरा न बनना पड़े, सोच कर मैं ने तुरंत मोबाइल निकाला और बात करने लगा. टी.टी. ने मुझे व्यस्त देख पास बैठे दूसरे सज्जन से पूछताछ आरंभ कर दी. उन की भी नीचे की बर्थ थी. वे सीटों की अदलाबदली के लिए राजी हो गए, तो मैं ने राहत की सांस ले कर मोबाइल पर बात समाप्त की. वे सज्जन एक उपन्यास ले कर ऊपर की बर्थ पर जा कर आराम से लेट गए. महिला ने भी राहत की सांस ली.

‘‘चलो, यह समस्या तो हल हुई… मैं जरा टौयलेट हो कर आती हूं. आप टिंकू को देख लेंगे?’’ बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह उठ कर चल दी. मुझ जैसे सज्जन व्यक्ति से मानो इनकार की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी.

मैं ने सिर थाम लिया कि इस से तो मैं सीट बदल लेता तो बेहतर था. मुझे आराम से उपन्यास पढ़ते उन सज्जन से ईर्ष्या होने लगी. उस महिला पर मुझे बेइंतहा गुस्सा आ रहा था कि क्या जरूरत थी उसे एक छोटे बच्चे के संग अकेले सफर करने की? मेरे सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया. मैं बैग से अखबार निकाल कर पढ़े हुए अखबार को दोबारा पढ़ने लगा. वह महिला तब तक लौट आई थी.

‘‘मैं जरा टिंकू को भी टौयलेट करा लाती हूं. सामान का ध्यान तो आप रख ही रहे हैं,’’ कहते हुए वह बच्चे को ले कर चली गई. मैं ने अखबार पटक दिया और बड़बड़ाया कि हां बिलकुल. स्टेशन से बिना पगार का नौकर साथ ले कर चढ़ी हैं मैडमजी, जो कभी इन के बच्चे का ध्यान रखेगा, कभी सामान का, तो कभी पानी भर कर लाएगा…हुंह.

तभी पैंट्रीमैन आ गया, ‘‘सर, आप खाना लेंगे?’’

‘‘हां, एक वैज थाली.’’

वह सब से पूछ कर और्डर लेने लगा. अचानक मुझे उस महिला का खयाल आया कि यदि उस ने खाना और्डर नहीं किया तो फिर स्टेशन से मुझे ही कुछ ला कर देना पड़ेगा या शायद शेयर ही करना पड़ जाए. अत: बोला, ‘‘सुनो भैया, उधर टौयलेट में एक महिला बच्चे के साथ है. उस से भी पूछ लेना.’’

कुछ ही देर में बच्चे को गोद में उठाए वह प्रकट हो गई, ‘‘धन्यवाद, आप ने हमारे खाने का ध्यान रखा. पर हमें नहीं चाहिए. हम तो घर से काफी सारा खाना ले कर चले हैं. वह रामधन है न, हमारे बाबा का रसोइया उस ने ढेर सारी सब्जी व पूरियां साथ रख दी हैं. बस, जल्दीजल्दी में पानी भरना भूल गया, बल्कि हम तो कह रहे हैं आप भी मत मंगाइए. हमारे साथ ही खा लेना.’’

मैं ने कोई जवाब न दे कर फिर से अखबार आंखों के आगे कर लिया और सोचने लगा कि या तो यह महिला निहायत भोली है या फिर जरूरत से ज्यादा शातिर. हो सकता है खाने में कुछ मिला कर लाई हो. पहले भाईचारा गांठ रही है और फिर… मुझे सावधान रहना होगा. इस का आज का शिकार निश्चितरूप से मैं ही हूं.

जबलपुर स्टेशन आने पर खाना आ गया था. मैं कनखियों से उस महिला को खाना निकालते और साथ ही बच्चे को संभालते देख रहा था. पर मैं जानबूझ कर अनजान बना अपना खाना खाता रहा.

‘‘थोड़ी सब्जीपूरी चखिए न. घर का बना खाना है,’’ उस ने इसरार किया.

‘‘बस, मेरा पेट भर गया है. मैं तो नीचे स्टेशन पर चाय पीने जा रहा हूं,’’ कह मैं फटाफट खाना खत्म करते हुए वहां से खिसक लिया कि कहीं फिर पानी या और कुछ न मंगा ले.

‘‘हांहां, आराम से जाइए. मैं आप के सामान का खयाल रख लूंगी.’’

‘ओह, बैग के बारे में तो भूल ही गया था. इस की नजर जरूर मेरे बैग पर है. पर क्या ले लेगी? 4 जोड़ी कपड़े ही तो हैं. यह अलग बात है कि सब अच्छे नए जोड़े हैं और आज के जमाने में तो वे ही बहुत महंगे पड़ते हैं. पर छोड़ो, बाहर थोड़ी आजादी तो मिलेगी. इधर तो दम घुटने लगा है,’ सोचते हुए मैं नीचे उतर गया. चाय पी तो दिमाग कुछ शांत हुआ. तभी मुझे अपना एक दोस्त नजर आ गया. वह भी उसी गाड़ी में सफर कर रहा था और चाय पीने उतरा था. बातें करते हुए मैं ने उस के संग दोबारा चाय पी. मेरा मूड अब एकदम ताजा हो गया था. हम बातों में इतना खो गए कि गाड़ी कब खिसकने लगी, हमें ध्यान ही न रहा. दोस्त की नजर गई तो हम भागते हुए जो डब्बा सामने दिखा, उसी में चढ़ गए. शुक्र है, सब डब्बे अंदर से जुड़े हुए थे. दोस्त से विदा ले कर मैं अपने डब्बे की ओर बढ़ने लगा. अभी अपने डब्बे में घुसा ही था कि एक आदमी ने टोक दिया, ‘‘क्या भाई साहब, कहां चले गए थे? आप की फैमिली परेशान हो रही है.’’

आगे बढ़ा तो एक वृद्ध ने टोक दिया, ‘‘जल्दी जाओ बेटा. बेचारी के आंसू निकलने को हैं,’’ अपनी सीट तक पहुंचतेपहुंचते लोगों की नसीहतों ने मुझे बुरी तरह खिझा दिया था.

मैं बरस पड़ा, ‘‘नहीं है वह मेरी फैमिली. हर किसी राह चलते को मेरी फैमिली बना देंगे आप?’’

‘‘भैया, वह सब से आप का हुलिया बताबता कर पूछ रही थी, चेन खींचने की बात कर रही थी. तब किसी ने बताया कि आप जल्दी में दूसरे डब्बे में चढ़ गए हैं. चेन खींचने की जरूरत नहीं है, अभी आ जाएंगे तब कहीं जा कर मानीं,’’ एक ने सफाई पेश की.

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्यों तमाशा बना रही हैं? मैं अपना ध्यान खुद रख सकता हूं. आप अपना और अपने बच्चे का ध्यान रखिए. बहुत मेहरबानी होगी,’’ मैं ने गुस्से में उस के आगे हाथ जोड़ दिए.

इस के बाद पूरे रास्ते कोई कुछ नहीं बोला. एक दमघोंटू सी चुप्पी हमारे बीच पसरी रही. मुझे लग रहा था मैं अनावश्यक ही उत्तेजित हो गया था. पर मैं चुप रहा. मेरा स्टेशन आ गया था. मैं उस पर फटाफट एक नजर भी डाले बिना अपना बैग उठा कर नीचे उतर गया. अपना वही दोस्त मुझे फिर नजर आ गया तो मैं उस से बतियाने रुक गया. हम वहीं खड़े बातें कर रहे थे कि एक अपरिचित सज्जन मेरी ओर बढ़े. उन की गोद में उसी बच्चे को देख मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे उस महिला के पति होंगे.

‘‘किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं? संजना बता रही है, आप ने पूरे रास्ते उस का और टिंकू का बहुत खयाल रखा. वह दरअसल अपने बीमार बाबा के पास पीहर गई हुई थी. मैं खुद उसे छोड़ कर आया था. यहां अचानक मेरे पापा को हार्टअटैक आ गया. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. संजना को पता चला तो आने की जिद पकड़ बैठी. मैं ने मना किया कि कुछ दिनों बाद मैं खुद लेने आ जाऊंगा पर उस से रहा नहीं गया. बस, अकेले ही चल पड़ी. मैं कितना फिक्रमंद हो रहा था…’’

‘‘मैं ने कहा था न आप को फिक्र की कोई बात नहीं है. हमें कोई परेशानी नहीं होगी. और देखो ये भाई साहब मिल ही गए. इन के संग लगा ही नहीं कि मैं अकेली सफर कर रही हूं.’’

मैं असहज सा महसूस करने लगा. मैं ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओह, 5 बज गए. मैं चलता हूं… क्लाइंट निकल जाएगा,’’ कहते हुए मैं आगे बढ़ते यात्रियों में शामिल हो गया. लिफाफाबंद चिट्ठियों की भीड़ में एक और चिट्ठी शुमार हो गई थी. Hindi Family Story

Hindi Family Story: अपराजिता – क्या पप्पी बचा पायगी अपनी जान?

Hindi Family Story: मेरे जागीरदार नानाजी की कोठी हमेशा मेरे जीवन के तीखेमीठे अनुभवों से जुड़ी रही है. मुझे वे सब बातें आज भी याद हैं.

कोठी क्या थी, छोटामोटा महल ही था. ईरानी कालीनों, नक्काशीदार भारी फर्नीचर व झाड़फानूसों से सजे लंबेचौड़े कमरों में हर वक्त गहमागहमी रहती थी. गलियारों में शेर, चीतों, भालुओं की खालें व बंदूकें जहांतहां टंगी रहती थीं. नगेंद्र मामा के विवाह की तसवीरें, जिन में वह रूपा मामी, तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों व उच्च अधिकारियों के साथ खडे़ थे, जहांतहां लगी हुई थीं.

रूपा मामी दिल्ली के प्रभावशाली परिवार की थीं. सब मौसियां भी ठसके वाली थीं. तकरीबन सभी एकाध बार विदेश घूम कर आ चुकी थीं. नगेंद्र मामा तो विदेश में नौकरी करते ही थे.

देशी घी में भुनते खोए से सारा घर महक रहा था. लंबेचौड़े दीवानखाने में तमाम लोग मामा व मौसाजी के साथ जमे हुए थे. कहीं राजनीतिक चर्चा गरम थी तो कहीं रमी का जोर था. नरेन मामा, जिन की शादी थी, बारबार डबल पपलू निकाल रहे थे. सभी उन की खिंचाई कर रहे थे, ‘भई, तुम्हारे तो पौबारह हैं.’

नगेंद्र मामा अपने विभिन्न विदेश प्रवासों के संस्मरण सुना रहे थे. साथ ही श्रोताओं के मुख पर श्रद्धामिश्रित ईर्ष्या के भाव पढ़ कर संतुष्ट हो चुरुट का कश खींचने लगते थे. उन का रोबीला स्वर बाहर तक गूंज रहा था. लोग तो शुरू से ही कोठी के पोर्टिको में खड़ी कार से उन के ऊंचे रुतबे का लोहा माने हुए थे. अब हजारों रुपए फूंक भारत आ कर रहने की उदारता के कारण नम्रता से धरती में ही धंसे जा रहे थे.

यही नगेंद्र मामा व रूपा मामी जब एक बार 1-2 दिन के लिए हमारे घर रुके थे तो कितनी असुविधा हुई थी उन्हें भी, हमें भी. 2 कमरों का छोटा सा घर  चमड़े के विदेशी सूटकेसों से कैसा निरीह सा हो उठा था. पिताजी बरसते पानी में भीगते डबलरोटी, मक्खन, अंडे खरीदने गए थे. घर में टोस्टर न होने के कारण मां ने स्टोव जला कर तवे पर ही टोस्ट सेंक दिए थे, पर मामी ने उन्हें छुआ तक नहीं था.

आमलेट भी उन के स्तर का नहीं था. रूपा मामी चाय पीतेपीते मां को बता रही थीं कि अगर अंडे की जरदी व सफेदी अलगअलग फेंटी जाए तो आमलेट खूब स्वादिष्ठ और अच्छा बनता है.

यही मामी कैसे भूल गई थीं कि नाना के घर मां ही सवेरे तड़के उठ रसोई में जुट जाती थीं. लंबेचौडे़ परिवार के सदस्यों की विभिन्न फरमाइशें पूरी करती कभी थकती नहीं थीं. बीच में जाने कब अंडे वाला तवा मांज कर पिताजी के लिए अजवायन, नमक का परांठा भी सेंक देती थीं. नौकर का काम तो केवल तश्तरियां रखने भर तक था.

दिन भर जाने क्या बातें होती रहीं. मैं तो स्कूल रही. रात को सोते समय मैं अधजागी सी मां और पिताजी के बीच में सोई थी. मां पिताजी के रूखे, भूरे बालों में उंगलियां फिरा रही थीं. बिना इस के उन्हें नींद ही नहीं आती थी. मुझे भी कभी कहते. मैं तो अपने नन्हे हाथ उन के बालों में दिए उन्हीं के कंधे पर नींद के झोंके में लुढ़क पड़ती थी.

मां कह रही थीं, ‘पिताजी को बिना बताए ही ये लोग आपस में सलाह कर के यहां आए हैं. उन से कह कर देखूं क्या?’

‘छोड़ो भी, रत्ना, क्यों लालच में पड़ रही हो? आज नहीं तो कुछ वर्ष बाद जब वह नहीं रहेंगे, तब भी यही करना पडे़गा. अभी क्यों न इस इल्लत से छुटकारा पा लें. हमें कौन सी खेतीबाड़ी करनी है?’ कह कर पिताजी करवट बदल कर लेट गए.

‘खेतीबाड़ी नहीं करनी तो क्या? लाखों की जमीन है. सुनते हैं, उस पर रेलवे लाइन बनने वाली है. शायद उसे सरकार द्वारा खरीद लिया जाएगा. भैया क्या विलायत बैठे वहां खेती करेंगे.’

मां को इस तरह मीठी छुरी तले कट कर अपना अधिकार छोड़ देना गले नहीं उतर रहा था. उत्तर भारत में सैकड़ों एकड़ जमीन पर उन की मिल्कियत की मुहर लगी हुई थी.

भूमि की सीमाबंदी के कारण जमीनें सब बच्चों के नाम अलगअलग लिखा दी गई थीं. बंजर पड़ी कुछ जमीनें ‘भूदान यज्ञ’ में दे कर नाम कमाया था. मां के नाम की जमीनें ही अब नगेंद्र मामा बडे़ होने के अधिकार से अपने नाम करवाने आए थे. वैसे क्या गरीब बहन के घर उन की नफासतपसंद पत्नी आ सकती थी?

स्वाभिमानी पिताजी को मिट्टी- पत्थरों से कुछ मोह नहीं था. जिस मायके से मेरे लिए एक रिबन तक लेना वर्जित था वहां से वह मां को जमीनें कैसे लेने देते? उन्होंने मां की एक न चलने दी.

दूसरे दिन बड़ेबडे़ कागजों पर मामा ने मां से हस्ताक्षर करवाए. मामी अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थीं.

शाम को वे लोग वापस चले गए थे.

अपने इस अस्पष्ट से अनुभव के कारण मुझे नगेंद्र मामा की बातें झूठी सी लगती थीं. उन की विदेशों की बड़बोली चर्चा से मुझ पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ा. पिताजी शायद अपने कुछ साहित्यकार मित्रों के यहां गए हुए थे. लिखने का शौक उन्हें कोठी के अफसरी माहौल से कुछ अलग सा कर देता था.

मुझे यह देख कर बड़ा गुस्सा आता था कि पिताजी का नाम अखबारों, पत्रिकाओं में छपा देख कर भी कोई इतना उत्साहित नहीं होता जितना मेरे हिसाब से होना चाहिए. अध्यापक थे तो क्या, लेखक भी तो थे. पर जाने क्यों हर कोई उन्हें ‘मास्टरजी’ कह कर पुकारता था.

सब मामामौसा शायद अपनी अफसरी के रोब में अकड़े रहते थे. कभी कोई एक शेर भी सुना कर दिखाए तो. मोटे, बेढंगे सभी कुरतापजामा, बास्कट पहने मेरे छरहरे, खूबसूरत पिताजी के पैर की धूल के बराबर भी नहीं थे. उन की हलकी भूरी आंखें कैसे हर समय हंसती सी मालूम होती थीं.

अनजाने में कई बार मैं अपने घर व परिस्थितियों की रिश्तेदारों से तुलना करती तो इतने बडे़ अंतर का कारण नहीं समझ पाई थी कि ऊंचे, धनी खानदान की बेटी, मां ने मास्टर (पिताजी) में जाने क्या देखा कि सब सुख, ऐश्वर्य, आराम छोड़ कर 2 कमरों के साधारण से घर में रहने चली आईं.

नानानानी ने क्रोध में आ कर फिर उन का मुंह न देखने की कसम खाई. जानपहचान वालों ने लड़कियों को पढ़ाने की उदारता पर ही सारा दोष मढ़ा. परंतु नानी की अकस्मात मृत्यु ने नाना को मानसिक रूप से पंगु सा कर दिया था.

मां भी अपना अभिमान भूल कर रसोई का काम और भाईबहनों को संभालने लगीं. नौकरों की रेलपेल तो खाने, उड़ाने भर को थी.

नानाजी ने कई बार कोठी में ही आ कर रहने का आग्रह किया था, परंतु स्वाभिमानी पिताजी इस बात को कहां गवारा कर सकते थे? बहुत जिद कर के  नानाजी ने करीब की कोठी कम किराए पर लेने की पेशकश की, परंतु मां पति के विरुद्ध कैसे जातीं?

फिर पिताजी की बदली दूसरे शहर में हो गई, पर घर में शादी, मुंडन, नामकरण या अन्य कोई भी समारोह होने पर नानाजी मां को महीना भर पहले बुलावा भेजते, ‘तुम्हारे बिना कौन सब संभालेगा?’

यह सच भी था. उन का तर्क सुन कर मां को जाना ही पड़ता था.

असुविधाओं के बावजूद मां अपना पुराना सा सूटकेस बांध कर, मुझे ले कर बस में बैठ जातीं. बस चलने पर पिताजी से कहती जातीं, ‘अपना ध्यान रखना.’

कभीकभी उन की गीली आंखें देख कर मैं हैरान हो जाती थी, क्या बडे़ लोग भी रोते हैं? मुझे तो रोते देख कर मां कितना नाराज होती हैं, ‘छि:छि:, बुरी बात है, आंखें दुखेंगी,’ अब मैं मां से क्या कहूं?

सोचतेसोचते मैं मां की गोद में आंचल से मुंह ढक कर सो जाती थी. आंख खुलती सीधी दहीभल्ले वाले की आवाज सुन कर. एक दोना वहीं खाती और एक दोना कुरकुरे भल्लों के ऊपर इमली की चटनी डलवा रास्ते में खाने के लिए रख लेती. गला खराब होगा, इस की किसे चिंता थी.

कोठी में आ कर नानाजी हमें हाथोंहाथ लेते. मां को तो फिर दम मारने की भी फुरसत नहीं रहती थी. बाजार का, घर का सारा काम वही देखतीं. हम सब बच्चे, ममेरे, मौसेरे बहनभाई वानर सेना की तरह कोठी के आसपास फैले लंबेचौड़े बाग में ऊधम मचाते रहते थे.

आज भी मैं, रिंपी, डिंकी, पप्पी और अन्य कई लड़कियां उस शामियाने की ओर चल दीं जहां परंपरागत गीत गाने के लिए आई महिलाएं बैठी थीं. बीच में ढोलकी कसीकसाई पड़ी थी पर बजाने की किसे पड़ी थी. पेशेवर गानेवालियां गा कर थक कर चाय की प्रतीक्षा कर रही थीं.

सभी महिलाएं अपनी चकमक करती कीमती साडि़यां संभाले गपशप में लगी थीं. हम सब बच्चे दरी पर बैठ कर ठुकठुक कर के ढोलकी बजाने का शौक पूरा करने लगे. मैं ने बजाने के लिए चम्मच हाथ में ले लिया. ठकठक की तीखी आवाज गूंजने लगी. नगेंद्र मामा की डिंकी व रिंपी के विदेशी फीते वाले झालरदार नायलोनी फ्राक गुब्बारे की तरह फूल कर फैले हुए थे.

पप्पी व पिंकी के साटन के गरारे खेलकूद में हमेशा बाधा डालते थे, सो अब उन्हें समेट कर घुटनों से ऊपर उठा कर बैठी हुई थीं. गोटे की किनारी वाले दुपट्टे गले में गड़ते थे, इसलिए कमर पर उन की गांठ लगा कर बांध रखे थे.

इन सब बनीठनी परियों सी मौसेरी, ममेरी बहनों में मेरा साधारण छपाई का सूती फ्राक अजीब सा लग रहा था. पर मुझे इस का कहां ज्ञान था. बाल मन अभी आभिजात्य की नापजोख का सिद्धांत नहीं जान पाया था. जहां प्रेम के रिश्ते हीरेमोती की मालाओं में बंधे विदेशी कपड़ों में लिपटे रहते हों वहां खून का रंग भी शायद फीका पड़ जाता है.

रूपा मामी चम्मच के ढोलकी पर बजने की ठकठक से तंग आ गई थीं. मुझे याद है, सब औरतें मग्न भाव से उन के लंदन प्रवास के संस्मरण सुन रही थीं. अपने शब्द प्रवाह में बाधा पड़ती देख वह मुझ से बोलीं, ‘अप्पू, जा न, मां से कह कर कपडे़ बदल कर आ.’

हतप्रभ सी हो कर मैं ने अपनी फ्राक की ओर देखा. ठीक तो है, साफसुथरा, इस्तिरी किया हुआ, सफेद, लाल, नीले फूलों वाला मेरा फ्राक.

किसी अन्य महिला ने पूछा, ‘यह रत्ना की बेटी है क्या?’

‘हां,’ मामी का स्वर तिरस्कारयुक्त था.

‘तभी…’ एक गहनों से लदी जरी की साड़ी पहने औरत इठलाई.

इस ‘तभी’ ने मुझे अपमान के गहरे सागर में कितनी बार गले तक डुबोया था, पर मैं क्या समझ पाती कि रत्ना की बेटी होना ही सब प्रकार के व्यंग्य का निशाना क्यों बनता है?

समझी तो वर्षों बाद थी, उस समय तो केवल सफेद चमकती टाइलों वाली रसोई में जा कर खट्टे चनों पर मसाला बुरकती मां का आंचल पकड़ कर कह पाई थी, ‘मां, रूपा मामी कह रही हैं, कपड़े बदल कर आ.’

मां ने विवश आंखों में छिपी नमी किस चतुराई से पलकें झपका कर रोक ली थी. कमरे में आ कर मुझे नया फ्राक पहना दिया, जो शायद अपनी पुरानी टिशू की साड़ी फाड़ कर दावत के दिन पहनने के लिए बनाया था.

‘दावत वाले दिन क्या पहनूंगी?’ इस चिंता से मुक्त मैं ठुमकतीकिलकती फिर ढोलक पर आ बैठी. रूपा मामी की त्योरी चढ़ गईं, साथ ही साथ होंठों पर व्यंग्य की रेखा भी खिंच गई.

‘मां ने अपनी साड़ी से बना दिया है क्या?’ नाश्ते की प्लेट चाटते मामी बोलीं. वही नाश्ता जो दोपहर भर रसोई में फुंक कर मां ने बनाया था. मैं शामियाने से उठ कर बाहर आ गई.

सेहराबंदी, घुड़चढ़ी, सब रस्में मैं ने अपने छींट के फ्राक में ही निभा दीं. फिर मेहमानों में अधिक गई ही नहीं. दावत वाले दिन घर में बहुत भीड़भाड़ थी. करीबकरीब सारे शहर को ही न्योता था. हम सब बच्चे पहले तो बैंड वाले का गानाबजाना सुनते रहे, फिर कोठी के पिछवाड़े बगीचे में देर तक खेलते रहे.

फिर बाग पार कर दूर बने धोबियों के घरों की ओर निकल आए. पुश्तों से ये लोग यहीं रहते आए थे. अब शहर वालों के कपड़े भी धोने ले आते थे. बदलते समय व महंगाई ने पुराने सामंती रिवाज बदल डाले थे. यहीं एक बड़ा सा पक्का हौज बना हुआ था, जिस में पानी भरा रहता था.

यहां सन्नाटा छाया हुआ था. धोबियों के परिवार विवाह की रौनक देखने गए हुए थे. हम सब यहां देर तक खेलते रहे, फिर हौज के किनारे बनी सीढि़यां चढ़ कर मुंडेर पर आ खडे़ हुए. आज इस में पानी लबालब भरा था. रिंपी और पप्पी रोब झाड़ रही थीं कि लंदन में उन्होंने तरणताल में तैरना सीखा है. बाकी हम में से किसी को भी तैरना नहीं आता था.

डिंकी ने चुनौती दी थी, ‘अच्छा, जरा तैर कर दिखाओ तो.’

‘अभी कैसे तैरूं? तैरने का सूट भी तो नहीं है,’ पप्पी बोली थी.

‘खाली बहाना है, तैरनावैरना खाक आता है,’ रीना ने मुंह चिढ़ाया.

तभी शायद रिंपी का धक्का लगा और पप्पी पानी में जा गिरी.

हम सब आश्वस्त थे कि उसे तैरना आता है, अभी किनारे आ लगेगी, पर पप्पी केवल हाथपैर फटकार कर पानी में घुसती जा रही थी. सभी डर कर भाग खड़े हुए. फिर मुझे ध्यान आया कि जब तक कोठी पर खबर पहुंचेगी, पप्पी शायद डूब ही जाए.

मैं ने चिल्ला कर सब से रुकने को कहा, पर सब के पीछे जैसे भूत लगा था. मैं हौज के पास आई. पप्पी सचमुच डूबने को हो रही थी. क्षणभर को लगा, ‘अच्छा ही है, बेटी डूब जाए तो रूपा मामी को पता लगेगा. हमारा कितना मजाक उड़ाती रहती हैं. मेरा कितना अपमान किया था.’

तभी पप्पी मुझे देख कर ‘अप्पू…अप्पू…’ कह कर एकदो बार चिल्लाई. मैं ने इधरउधर देखा. एक कटे पेड़ की डालियां बिखरी पड़ी थीं. एक हलकी पत्तों से भरी टहनी ले कर मैं ने हौज में डाल दी और हिलाहिला कर उसे पप्पी तक पहुंचाने का प्रयत्न करने लगी. पत्तों के फैलाव के कारण पप्पी ने उसे पकड़ लिया. मैं उसे बाहर खींचने लगी. घबराहट के कारण पप्पी डाल से चिपकी जा रही थी. अचानक एक जोर का झटका लगा और मैं पानी में जा गिरी. पर तब तक पप्पी के हाथ में मुंडेर आ गई थी. मैं पानी में गोते खाती रही और फिर लगा कि इस 9-10 फुट गहरे हौज में ही प्राण निकल जाएंगे.

होश आया तो देखा शाम झुक आई थी. रूपा मामी वहीं घास पर मुझे बांहों में भरे बैठी थीं. उन की बनारसी साड़ी का पानी से सत्यानास हो चुका था. डाक्टर अपना बक्सा खोले कुछ ढूंढ़ रहा था. मां और पिताजी रोने को हो रहे थे.

‘बस, अब कोई डर की बात नहीं है,’ डाक्टर ने कहा तो मां ने चैन की सांस ली.

‘आज हमारी बहादुर अप्पू न होती तो जाने क्या हो जाता. पप्पी के लिए इस ने अपनी जान की भी परवा नहीं की,’ नगेंद्र मामा की आंखों में कृतज्ञता का भाव था.

मैं ने मां की ओर यों देखा जैसे कह रही हों, ‘तुम्हारा दिया अपराजिता नाम मैं ने सार्थक कर दिया, मां. आज मैं ने प्रतिशोध की भावना पर विजय पा ली.’

शायद मैं ने साथ ही साथ रूपा मामी के आभिजात्य के अहंकार को भी पराजित कर दिया था. Hindi Family Story

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