कुंवारे बदन का दर्द : शबनम की टीस

जावेद ने अपनी बीवी रह चुकी शबनम को बड़े ही गौर से देखा तो हक्काबक्का रह गया. यह एक होटल था जहां सब लोग खाना खा रहे थे. तलाक के बाद तो वे दोनों एकदूसरे के लिए अजनबी थे लेकिन 5 सालों तक साथ रहने के बाद, एक ही बिस्तर पर सोने के बावजूद कैसे अजनबी रह सकते थे.

शबनम अकेले ही एक टेबल पर बैठ कर खाना खा रही थी और जावेद अलग टेबल पर. 5 सालों के बाद उन के चेहरों में कोई खास फर्क नहीं आया था.

शबनम को खातेखाते कुछ याद आया और वह खाना छोड़ कर जावेद के टेबल की तरफ बढ़ी. शायद उसे 5 साल पहले की कोई बात याद आई थी.

‘‘आप ने खाने से पहले इंसुलिन का इंजैक्शन लिया है कि नहीं?’’ शबनम ने जावेद से पूछा.

‘‘इंजैक्शन लिया है. लेकिन 5 साल तक तलाकशुदा जिंदगी गुजारने के बाद तुम्हें कैसे याद है?’’ जावेद ने पूछा.

‘‘जावेद, मैं एक औरत हूं.’’

‘‘तुम्हारे जाने के बाद, इतना मेरा किसी ने खयाल नहीं रखा,’’ जावेद ने कहा.

‘‘अगर ऐसी बात थी तो तुम ने मुझे तलाक क्यों दिया?’’

‘‘वह तो तुम जानती हो…

5 साल साथ रहने के बाद भी तुम मां नहीं बन पाई और बच्चा तो हर किसी को चाहिए.’’

‘‘अगर तुम बच्चा पैदा करने के लायक होते तो क्या मैं नहीं देती?’’ शबनम ने कहा और अपनी टेबल की तरफ बढ़ गई.

जब वे दोनों होटल से बाहर निकले तो फिर मेन गेट पर उन की मुलाकात हो गई.

‘‘चलो, कुछ दूर साथ चलते हैं,’’ जावेद ने कहा.

‘‘जिंदगीभर साथ चलने का वादा था लेकिन तुम ने ही मुझे तलाक दे कर घर से निकाल दिया,’’ शबनम बोली.

‘‘जो होना था, हो गया. अब यह बताओ कि तुम यहां आई कैसे?’’

‘‘जब तुम ने तलाक दिया तो मैं अपने मांबाप के पास गई. वे इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर सके और 6 महीने के अंदर ही दोनों चल बसे. मैं तो उन की कब्र पर भी नहीं जा सकी क्योंकि औरतों का कब्रिस्तान में जाना सख्त मना है.

‘‘उस के बाद मैं भाई के पास रही थी. भाई तो कुछ नहीं बोलता था, लेकिन भाभी के लिए मैं बोझ बन गई थी. वह रातदिन मेरे भाई के पीछे पड़ी रहती और मुझे जलील करते हुए कहती थी कि इस की दूसरी शादी कराओ, नहीं तो किसी के साथ भाग जाएगी.

‘‘तुम नहीं जानते कि कोई मर्द तलाकशुदा औरत से शादी नहीं करता. सब को कुंआरी लड़की और कुंआरा बदन चाहिए.

‘‘भाई बहुत इधरउधर भागा, पर कहीं कोई मेरा हाथ थामने वाला नहीं मिला. आखिरकार उस ने एक बूढ़े आदमी से मेरी शादी करा दी. वह दिनभर बिस्तर पर पड़ा रहता और मैं उस की एक नर्स हूं. उसे समय से दवा देना, खाना खिलाना या बाथरूम ले जाना, यही मेरी ड्यूटी?थी.

‘‘मुझे यह भी मालूम है कि तुम ने दूसरी शादी कर ली और तुम को दोबारा एक कुंआरी लड़की मिल गई. लेकिन मेरी जिंदगी को तो तुम ने सीधे आग की लपटों में फेंक दिया. और मैं नामुराद दूसरी शादी के बाद भी जल रही हूं.

‘‘तुम ने मुझे तलाक दे दिया और मेरे कुंआरे बदन का सारा रस निचोड़ लिया. एक औरत की जिंदगी क्या होती?है, तुम्हें मालूम नहीं है,’’ शबनम ने अपना दर्द बताया. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह रोतेरोते पत्थर की बनी एक कुरसी पर बैठ गई.

जावेद सबकुछ एक बुत की तरह सुनता रहा और फिर अपना वही सवाल दोहराया, ‘‘तुम इस शहर में कैसे आई?’’

‘‘मेरा बूढ़ा पति बहुत बीमार है. मैं ने उसे एक अस्पताल में भरती कराया है.’’

‘‘उस की उम्र क्या है?’’ जावेद ने पूछा.

‘‘70 साल से भी ऊपर?है,’’ शबनम ने जवाब दिया.

‘‘फिर तो उम्र का बहुत फर्क है,’’ जावेद बोला.

जब शबनम वहां से उठ कर जाने लगी तो जावेद ने आगे बढ़ कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’

‘‘तलाक माफी मांगने से नहीं खत्म होता है. तुम ने मुझे तलाक दे कर जैसे किसी ऊंची पहाड़ी से नीचे धकेल दिया और मैं नरक में चली गई,’’ और फिर शबनम अपना हाथ छुड़ा कर वहां से चली गई.

दूसरे दिन जावेद शाम को उसी होटल के सामने शबनम का इंतजार करता रहा. वह आई और बगैर कुछ बोले ही होटल के अंदर चली गई.

जावेद पीछेपीछे गया और उस के पास बैठ गया. दोनों ने एकदूसरे को देखा और उन के बीच रस्मी बातचीत शुरू हो गई.

‘‘तुम्हारी मम्मी कैसी हैं?’’ शबनम ने पूछा.

‘‘ठीक हैं. अब वे भी काफी बूढ़ी हो चुकी हैं.’’

‘‘उन को मेरी याद तो नहीं आती होगी. मुझे 5 साल तक बच्चा नहीं हुआ तो उन्होंने मेरा तुम से तलाक करा दिया और तुम्हारी बहन जरीना को 7 साल से बच्चा नहीं हुआ तो कोई बात नहीं, क्योंकि जरीना उन की अपनी बेटी है, बहू नहीं.’’

‘‘चलो जो होना था हो गया. यह हम दोनों का नसीब था,’’ जावेद ने अफसोस जताते हुए कहा.

‘‘नसीब बनाया भी जाता है और बिगाड़ा भी जाता है. अगर औरतों की सोच गलत होती?है तो घर के मर्द एक लोहे की दीवार की तरह खड़े हो जाते हैं. वैसे, औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं.’’

जावेद के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था. वह होटल की छत की तरफ देखने लगा. फिर उस ने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘क्या मेरी मम्मी से बात करोगी?’’

‘‘हां, लगाओ फोन. मैं बात कर लेती हूं.’’

जावेद ने अपनी मां को फोन लगा कर कहा, ‘‘मम्मी, शबनम आप से बात करना चाहती है.’’

‘‘तोबातोबा, तुम अपनी तलाकशुदा औरत के साथ हो. यह हमारे मजहब के खिलाफ है. मैं उस से बात नहीं करूंगी,’’ उस की मां की आवाज स्पीकर पर शबनम को भी सुनाई दी.

‘‘जावेद, तुम उन का नंबर दो. मैं अपने मोबाइल फोन से बात करूंगी.’’

जावेद ने शबनम का मोबाइल फोन ले कर खुद ही नंबर लगा दिया. घंटी बजने लगी. उधर से आवाज आई, ‘कौन?’

‘‘मैं आप की बहू शबनम बोल रही हूं. आप ने अपने लड़के से मुझे तलाक दिलवाया, वह एकतरफा तलाक था. मेरे मांबाप को इस का इतना दुख हुआ कि वे मर गए. अब मैं तुम्हारे लड़के जावेद को ऐसा तलाक दूंगी कि वह भी तुम्हारी जिंदगी से चला जाएगा.’’

उधर से टैलीफोन कट गया, लेकिन जावेद के चेहरे पर सन्नाटा छा गया. उस ने कहा, ‘‘तुम मेरी मम्मी से क्या फालतू बात करने लगी थी…’’

शबनम ने जावेद की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

अब भी वे दोनों कई दिनों तक रात का खाना खाने उस होटल में आए लेकिन अलगअलग टेबलों पर बैठ कर चले गए, क्योंकि रिश्ता तो टूट ही गया था और अब बातों में कड़वाहट भी आ गई थी.

एक दिन होटल में शबनम जल्दी आई, खाना खा कर बाहर पत्थर की बनी कुरसी पर बैठ गई और जावेद का इंतजार करने लगी. जावेद जब खाना खा कर निकला तो शबनम ने उसे आवाज दी, ‘‘आओ, कहीं दूर तक इन पहाड़ों में घूम कर आते हैं. मेरे बूढ़े पति की अस्पताल से छुट्टी हो गई है. मैं अब चली जाऊंगी. इस के बाद यहां नहीं मिलूंगी.’’

वे दोनों एकदूसरे के साथ गलबहियां करते हुए टाइगर हिल के पास चले आए जहां ऐसी ढलान थी कि अगर किसी का पैर फिसल जाए तो सीधे कई गहरे फुट नीचे नदी में जा गिरे.

शबनम ने साथ चलतेचलते जावेद से कहा, ‘‘मैं तुम्हारा अपने मोबाइल फोन से फोटो लेना चाहती हूं क्योंकि अब हम नहीं मिलेंगे. तुम इस ढलान पर खड़े हो जाओ ताकि पीछे पहाड़ों का सीन फोटो में अच्छा लगे.’’

जावेद मुसकराया और फोटो खिंचवाने के लिए खड़ा हो गया. शबनम उस के पास आई, मानो वह सैल्फी लेगी. तभी उस ने जावेद को जोर से धक्का दिया और चिल्लाई, ‘‘तलाक… तलाक… तलाक…’’ जावेद ढलान से गिरा, फिर नीचे नदी में न जाने कहां गुम हो गया.

हुस्न का धोखा : कैसे फंस गए सेठजी

सेठ मंगतराम अपने दफ्तर में बैठे फाइलों में खोए हुए थे, तभी फोन की घंटी बजने से उन का ध्यान टूट गया. फोन उन के सैक्रेटरी का था. उस ने बताया कि अनीता नाम की एक औरत आप से मिलना चाहती है. वह अपनेआप को दफ्तर के स्टाफ रह चुके रमेश की विधवा बताती है.

सेठ मंगतराम ने कुछ पल सोच कर कहा, ‘‘उसे अंदर भेज दो.’’

सैक्रेटरी ने अनीता को सेठ के केबिन में भेज दिया. सेठ मंगतरात अपने काम में बिजी थे कि तभी एक मीठी सी आवाज से वे चौंक पड़े. दरवाजे पर अनीता खड़ी थी. उस ने अंदर आने की इजाजत मांगी. सेठ उसे भौंचक देखते रह गए.

अनीता की न केवल आवाज मीठी थी, बल्कि उस की कदकाठी, रंगरूप, सलीका सभी अव्वल दर्जे का था.

सेठ मंगतराम ने अनीता को बैठने को कहा और आने की वजह पूछी. अनीता ने उदास सूरत बना कर कहा, ‘‘मेरे पति आप की कंपनी में काम करते थे. मैं उन की विधवा हूं. मेरी रोजीरोटी का कोई ठिकाना नहीं है. अगर कुछ काम मिल जाए, तो आप की मेहरबानी होगी.’’

सेठ मंगतराम ने साफ मना कर दिया. अनीता मिन्नतें करने लगी कि वह कोई भी काम कर लेगी.

सेठ ने पूछा, ‘‘कहां तक पढ़ी हो?’’

यह सुन कर अनीता ने अपना सिर झुका लिया.

सेठ मंगतराम ने कहा, ‘‘मेरा काम सर्राफ का है, जिस में हर रोज करोड़ों रुपए का लेनदेन होता है. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि तुम्हें कहां काम दूं? खैर, तुम कल आना. मैं कोई न कोई इंतजाम कर दूंगा.’’

अनीता दूसरे दिन सेठ मंगतराम के दफ्तर में आई, तो और ज्यादा कहर बरपा रही थी. सभी उसे ही देख रहे थे. सेठ भी उसे देखते रह गए.

अनीता को सेठ मंगतराम ने रिसैप्शनिस्ट की नौकरी दे दी और उसे मौडर्न ड्रैस पहनने को कहा.

अनीता अगले दिन से ही मिनी स्कर्ट, टीशर्ट, जींस और खुले बालों में आने लगी. देखते ही देखते वह दफ्तर में छा गई.

अनीता ने अपनी अदाओं और बरताव से जल्दी ही सेठ मंगतराम का दिल जीत लिया. उस का ज्यादातर समय सेठ के साथ ही गुजरने लगा और कब दोनों की नजदीकियां जिस्मानी रिश्ते में बदल गईं, पता नहीं चला.

अनीता तरक्की की सीढि़यां चढ़ने लगी. कुछ ही समय में वह सेठ मंगतराम के कई राज भी जान गई थी. वह सेठ के साथ शहर से बाहर भी जाने लगी थी.

सेठ मंगतराम का एक बेटा था. उस का नाम राजीव था. वह अमेरिका में ज्वैलरी डिजाइन का कोर्स कर रहा था. अब वह भारत लौट रहा था.

सेठ मंगतराम ने अनीता से कहा, ‘‘आज मेरी एक जरूरी मीटिंग है, इसलिए तुम मेरे बेटे राजीव को लेने एयरपोर्ट चली जाओ.’’

अनीता जल्दी ही एयरपोर्ट पहुंची, पर उस ने राजीव को कभी देखा नहीं था, इसलिए वह एक तख्ती ले कर रिसैप्शन काउंटर पर जा कर खड़ी हो गई.

राजीव उस तख्ती को देख कर अनीता के पास पहुंचा और अपना परिचय दिया.

अनीता ने उस का स्वागत किया और अपना परिचय दिया. उस ने राजीव का सामान गाड़ी में रखवाया और उस के साथ घर चल दी.

राजीव खुद बड़ा स्मार्ट था. वह भी अनीता की खूबसूरती से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. अनीता का भी यही हालेदिल था.

घर पहुंच कर राजीव ने अनीता से कल दफ्तर में मुलाकात होने की बात कही.

अगले दिन राजीव दफ्तर पहुंचा, तो सारे स्टाफ ने उसे घेर लिया. राजीव भी उन से गर्मजोशी से मिल रहा था, पर उस की आंखें तो किसी और को खोज रही थीं, लेकिन वह कहीं दिख नहीं रही थी.

राजीव बुझे मन से अपने केबिन में चला गया, तभी उसे एक झटका सा लगा.

अनीता राजीव के केबिन में ही थी. वह अनीता से न केवल गर्मजोशी से मिला, बल्कि उस के गालों को चूम भी लिया.

आज भी अनीता गजब की लग रही थी. उस ने राजीव के चूमने का बुरा नहीं माना.

इसी बीच राजीव के पिता सेठ मंगतराम वहां आ गए. उन्होंने अनीता से कहा, ‘‘तुम मेरे बेटे को कंपनी के बारे में सारी जानकारी दे दो.’’

अनीता ने ‘हां’ में जवाब दिया.

मंगतराम ने आगे कहा, ‘‘अनीता, आज से मैं तुम्हारी टेबल भी राजीव के केबिन में लगवा देता हूं, ताकि राजीव को कोई दिक्कत न हो.’’

इस तरह अनीता का अब ज्यादातर समय राजीव के साथ ही गुजरने लगा. इस वजह से उन दोनों के बीच नजदीकियां भी बढ़ने लगीं.

आखिरकार एक दिन राजीव ने ही पहल कर दी और बोला, ‘‘अनीता, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या हम एक नहीं हो सकते?’’

अनीता यह सुन कर मन ही मन बहुत खुश हुई, पर जाहिर नहीं किया. कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोली, ‘‘राजीव, तुम शायद मेरी हकीकत नहीं जानते हो. मैं एक विधवा हूं और तुम से उम्र में भी 4-5 साल बड़ी हूं. यह कैसे मुमकिन है.’’

राजीव ने कहा, ‘‘मैं ऐसी बातों को नहीं मानता. मैं अपने दिल की बात सुनता हूं. मैं तुम्हें चाहता हूं…’’ इतना कह कर राजीव अचानक उठा और अनीता को अपनी बांहों में भर लिया. अनीता ने भी अपनी रजामंदी दे दी.

राजीव और अनीता अब खूब मस्ती करते थे. बाहर खुल कर, दफ्तर में छिप कर. राजीव अनीता पर बड़ा भरोसा करने लगा था. उस ने भी अनीता को अपना राजदार बना लिया था.

इस तरह कुछ ही दिनों में अनीता ने कंपनी के मालिक और उस के बेटे को अपनी मुट्ठी में कर लिया. अनीता ने अपने जिस्म का पासा ऐसा फेंका, जिस में बापबेटे दोनों उलझ गए.

अनीता ने सेठ मंगतराम के घर पर भी अपना सिक्का जमा लिया था. उस ने सेठजी की पत्नी व नौकरों पर भी अपना जादू चला दिया. वह अपने हुस्न के साथसाथ अपनी जबान का भी जादू चलाती थी.

एक दिन राजीव ने अनीता से कहा, ‘‘मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

अनीता बोली, ‘‘मैं भी तुम्हें पसंद करती हूं, पर सेठजी ने तो तुम्हारे लिए किसी अमीर घराने की लड़की पसंद की है. वे हमारी शादी नहीं होने देंगे.’’

राजीव बोला, ‘‘हम भाग कर शादी कर लेंगे.’’

अनीता ने जवाब दिया, ‘‘भाग कर हम कहां जाएंगे? कहां रहेंगे? क्या खाएंगे? सेठजी शायद तुम्हें अपनी जायदाद से भी बेदखल कर दें.’’

अनीता की बातें सुन कर राजीव चौंक पड़ा. वह सोचने लगा, ‘क्या पिताजी इस हद तक नीचे गिर सकते हैं?’

अनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं पिछले 2 साल से सेठजी के साथ हूं. जहां तक मैं जान पाई हूं, सेठजी को अपनी दौलत और समाज में इज्जत बहुत प्यारी है. क्यों न ऐसा तरीका निकाला जाए कि सेठजी जायदाद से बेदखल न कर पाएं.’’

राजीव ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’

अनीता ने बताया, ‘‘क्यों न सेठजी के दस्तखत किसी तरह जायदाद के कागजात पर करा लिए जाएं?’’

राजीव बोला, ‘‘यह कैसे मुमकिन है? पिताजी कागजात नहीं पढ़ेंगे क्या?’’

अनीता बोली, ‘‘सेठजी मुझ पर काफी भरोसा करते हैं. दस्तखत कराने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

कुछ दिनों के बाद अनीता सेठजी के केबिन में पहुंची, तो उन्होंने पूछा, ‘‘बड़े दिन बाद आई हो? क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई?’’

अनीता ने कहा, ‘‘दफ्तर में काफी काम था. आज भी मैं आप के पास काम से ही आई हूं. कुछ जरूरी फाइलों पर आप के दस्तखत लेने हैं.’’

सेठ मंगतराम बुझे मन से बिना पढ़े ही फाइलों पर दस्तखत करने लगे. अनीता ने जायदाद वाली फाइल पर भी उन से दस्तखत करा लिए.

सेठजी ने अनीता से कहा, ‘‘कुछ देर बैठ भी जाओ मेरी जान,’’ फिर उस से पूछा, ‘‘सुना है कि तुम मेरे बेटे से शादी करना चाहती हो?’’

यह सुन कर अनीता चौंक पड़ी, पर कुछ नहीं बोली.

सेठजी ने बताया, ‘‘राजीव की शादी एक रईस घराने में तय कर दी गई है. तुम रास्ते से हट जाओ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘सेठजी, मैं अपनी सीमा जानती हूं. मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मैं आप की नजरों में गिर जाऊं.’’

वैसे, अनीता ने एक शक का बीज यह कह कर बो दिया कि शायद राजीव ने विदेश में किसी गोरी मेम से शादी कर रखी है.

सेठजी अनीता की बातों से चौंक पड़े. यह उन के लिए नई जानकारी थी. उन्होंने अनीता को राजीव से जुड़ी हर बात की जानकारी देने को कहा.

अनीता ने अपनी दस्तखत कराने की योजना की कामयाबी की जानकारी राजीव को दी. वह खुशी से झूम उठा.

राजीव ने अनीता से कहा, ‘‘डार्लिंग, मैं ने कई बार ज्वैलरी डिजाइन की है. इन डिजाइनों की कीमत बाजार में करोड़ों रुपए है. मैं इस के बारे में अपने पिताजी को बताने वाला था, पर अब मैं इस बारे में उन से कोई बात नहीं करूंगा.’’

अनीता ने जब ज्वैलरी डिजाइन के बारे में सुना, तो वह चौंक पड़ी. उस ने मन ही मन एक योजना बना डाली.

एक दिन अनीता सेठजी के केबिन में बैठी थी, तब उस ने चर्चा छेड़ते हुए कहा, ‘‘राजीवजी के पास लेटैस्ट डिजाइन की हुई ज्वैलरी है, जिस की बाजार में बहुत ज्यादा कीमत है. आप का बेटा तो हीरा है.’’

यह सुन कर सेठजी चौंक पड़े और बोले, ‘‘मुझे तो इस बारे में तुम से ही पता चला है. क्या पूरी बात बताओगी?’’

अनीता ने कहा, ‘‘शायद राजीवजी आप से खफा होंगे, इसलिए उन्होंने इस सिलसिले में आप से बात नहीं की.’’

अनीता ने चालाकी से सेठजी के दिमाग में यह कह कर शक का बीज बो दिया कि शायद राजीव अपना कारोबार खुद करेंगे.

सेठ चिंतित हो गए. वे बोले, ‘‘अगर ऐसा हुआ, तो हमारी बाजार में साख गिर जाएगी. इसे रोकना होगा.’’

अनीता ने कहा, ‘‘सेठजी, अगर डिजाइन ही नहीं रहेगा, तो वे खाक कारोबार कर पाएंगे?’’

सेठजी ने पूछा, ‘‘तुम क्या पहेलियां बुझा रही हो? मैं कुछ समझा नहीं?’’

अनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘सेठजी, अगर वह डिजाइन किसी तरह आप के नाम हो जाए, तो आप राजीव को अपनी मुट्ठी में कर सकते हैं.’’

‘‘यह होगा कैसे?’’ सेठजी ने पूछा.

अनीता बोली, ‘‘मैं करूंगी यह काम. राजीवजी मुझ पर भरोसा करते हैं. मैं उन से दस्तखत ले लूंगी.’’

सेठजी ने कहा, ‘‘अगर तुम ऐसा कर दोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा.’’

अनीता ने यहां भी पुराना तरीका अपनाया, जो उस ने सेठजी के खिलाफ अपनाया था. राजीव से फाइलों पर दस्तखत लेने के दौरान ज्वैलरी राइट के ट्रांसफर पर भी दस्तखत करा लिए.

सेठ चूंकि सोने के कारोबारी थे, इसलिए काफी मात्रा में सोना व काले धन अपने घर के तहखाने में ही रखते थे, जिस के बारे में उन्होंने किसी को नहीं बताया था. पर बुढ़ापे का प्यार बड़ा नशीला होता है. लिहाजा, उन्होंने अनीता को इस बारे में बता दिया था.

इस तरह कुछ दिन और गुजर गए. एक दिन राजीव ने अनीता से कहा, ‘‘अगले सोमवार को हम कोर्ट में शादी कर लेंगे. तुम ठीक 9 बजे आ जाना.’’

अनीता ने भी कहा, ‘‘मैं दफ्तर से छुट्टी ले लेती हूं, ताकि किसी को शक न हो.’’

फिर अनीता सेठजी के पास गई. उन्हें बताया, ‘‘सोमवार को राजीव कोर्ट में किसी विदेशी लड़की से शादी करने जा रहा है. मुझे उस ने गवाह बनने को बुलाया है.’’

सेठजी गुस्से से आगबबूला हो गए.

तब अनीता ने सेठजी को शांत करते हुए कहा, ‘‘कोर्ट पहुंच कर आप राजीव को एक किनारे ले जा कर समझाएं. शायद वह मान जाए. आप अभी होहल्ला न मचाएं. आप की ही बदनामी होगी.’’

सेठजी ने अनीता से कहा, ‘‘तुम सही बोलती हो.’’

सोमवार को राजीव कोर्ट पहुंच गया और अनीता का इंतजार करने लगा, तभी उस के सामने एक गाड़ी रुकी, जिस में अपने पिताजी को देख कर वह चौंक पड़ा.

सेठजी ने राजीव को एक कोने में ले जा कर समझाया, ‘‘क्यों तुम अपनी खानदान की इज्जत उछाल रहे हो? वह भी दो कौड़ी की गोरी मेम के लिए.’’

यह सुन कर राजीव हंस पड़ा और बोला, ‘‘क्यों नाटक कर रहे हैं आप? मैं किसी गोरी मेम से नहीं, बल्कि अनीता से शादी करने वाला हूं. पता नहीं, वह अभी तक क्यों नहीं आई?’’

अनीता का नाम सुन कर अब चौंकने की बारी सेठजी की थी. उन्होंने कहा, ‘‘क्या बकवास कर रहे हो? अनीता ने मुझे बताया है कि तुम आज एक गोरी मेम से शादी कर रहे हो, जिस के साथ तुम विदेश में रहते थे.’’

राजीव ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘आप क्यों अनीता को बीच में घसीट रहे हैं? मैं उसी से शादी कर रहा हूं.’’

सेठजी को अब माजरा समझ में आने लगा कि अनीता बापबेटों के साथ डबल गेम खेल रही है. उन्होंने राजीव को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटे राजीव, वह हमारे बीच फूट डाल कर जरूर कोई गहरी साजिश रच रही है. अब वह यहां कभी नहीं आएगी.’’

राजीव को भी अपने पिता की बातों पर विश्वास होने लगा. उस ने अनीता के घर पर मोबाइल फोन का नंबर मिलाया, पर कोई जवाब नहीं मिला.

दोनों सीधे दफ्तर गए, तो पता चला कि अनीता ने इस्तीफा दे दिया है. दोनों सोचने लगे कि आखिर उस ने ऐसा क्यों किया?

कुछ दिनों के बाद जब सेठजी को कुछ सोने और पैसों की जरूरत हुई, तो वे अपने तहखाने में गए. तहखाना देख कर वे सन्न रह गए, क्योंकि उस में रखा करोड़ों रुपए का सोना और नकदी गायब हो चुकी थी.

सेठजी के तो होश ही उड़ गए. वे तो थाने में शिकायत भी दर्ज नहीं करा सकते थे, क्योंकि वे खुद टैक्स के लफड़े में फंस सकते थे.

सेठजी ने यह सब अपने बेटे राजीव को बताया. राजीव ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मेरे पास कुछ डिजाइन के कौपी राइट्स हैं, उन्हें बेचने पर काफी पैसे मिलेंगे.’’

पर यह क्या, राजीव जब शहर बेचने गया, तो पता चला कि वे तो 12 महीने पहले किसी को करोड़ों रुपए में बेचे जा चुके हैं.

यह सुन कर राजीव सन्न रह गया. उस पर धोखाधड़ी का केस भी दर्ज हुआ, सो अलग.

सेठजी ने साख बचाने के लिए अपनी कंपनी को गिरवी रखने की सोची, ताकि बाजार से लिया कर्ज चुकाया जा सके.

पर यहां भी उन्हें दगा मिली. एक फर्म ने दावा किया और बाद में कागजात भी पेश किए, जिस के मुताबिक उन्होंने करोड़ों रुपए बतौर कर्ज लिए थे और 4 महीने में चुकाने का वादा किया था.

देखतेदेखते सेठजी का परिवार सड़क पर आ गया. उन्होंने अनीता की शिकायत थाने में दर्ज कराई, पर वह कहां थी किसी को नहीं पता.

पुलिस ने कार्यवाही के बाद बताया कि रमेश की तो शादी ही नहीं हुई थी, तो उस की विधवा पत्नी कहां से आ गई.

आज तक यह नहीं पता चला कि अनीता कौन थी, पर उस ने आशिकमिजाज बापबेटों को ऐसी चपत लगाई कि वे जिंदगीभर याद रखेंगे.

ठोकर: आखिर सरला ने गौरिका के विश्वास को क्यों तोड़ दिया?

विश्वास आईने की तरह होता है. हलकी सी दरार पड़ जाए तो उसे जोड़ा नहीं जा सकता. ऐसा ही विश्वास किया था गौरिका ने सरला पर. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस पर वह अपनों से ज्यादा भरोसा करने लगी है वह उस के विश्वास को इस तरह चकनाचूर कर देगी.

गौरिका ने आंखें खोलीं तो सिर दर्द से फटा जा रहा था. एक क्षण के लिए तो सबकुछ धुंधला सा लगा, मानो कोई डरावना सपना देख रही हो. उस ने कराहते हुए इधरउधर देखने की कोशिश की थी.

‘सरला, ओ सरला,’ उस ने बेहद कमजोर स्वर में अपनी सेविका को पुकारा. लेकिन उस की पुकार छत और दरवाजों से टकरा कर लौट आई.

‘कहां मर गई?’ कहते हुए गौरिका ने सारी शक्ति जुटा कर उठने का यत्न किया. तभी खून में लथपथ अपने हाथ को देख कर उसे झटका सा लगा और वह सिरदर्द भूल कर ‘खूनखून…’ चिल्लाती हुई दरवाजे की ओर भागी थी.

गौरिका की चीख सुन कर पड़ोस के दरवाजे खुलने लगे और पड़ोसिनें निशा और शिखा दौड़ी आई थीं.

‘क्या हुआ, गौरिका?’ दोनों ने समवेत स्वर में पूछा. खून में लथपथ गौरिका को देखते ही उन के रोंगटे खड़े हो गए थे. गौरिका अधिक देर खड़ी न रह सकी. वह दरवाजे के पास ही बेसुध हो कर गिर पड़ी.

तब तक वहां अच्छीखासी भीड़ जमा हो गई थी. निशा और शिखा बड़ी कठिनाई से गौरिका को उठा कर अंदर ले गईं. वहां का दृश्य देख कर वे भय से कांप उठीं. दीवान पूरी तरह खून से लथपथ था.

गौरिका के सिर पर गहरा घाव था. किसी भारी वस्तु से उस के सिर पर प्रहार किया गया था. शिखा ने भी सरला को पुकारा था पर कोई जवाब न पा कर वह स्वयं ही रसोईघर से थोड़ा जल ले आई थी और उसे होश में लाने का यत्न करने लगी थी.

निशा ने तुरंत गौरिका के पति कौशल को फोन कर सूचित किया था. अन्य पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दे दी थी. सभी इस घटना पर आश्चर्य जाहिर कर रहे थे. बड़े से पांचमंजिला भवन में 30 से अधिक फ्लैट थे. मुख्यद्वार पर 2 चौकीदार दिनरात उस अपार्टमेंट की रखवाली करते थे. नीचे ही उन के रहने का प्रबंध भी था.

इस साईं रेजिडेंसी के ज्यादातर निवासी वहां लंबे समय से रह रहे थे और भवन को पूरी तरह सुरक्षित समझते थे. अत: इस प्रकार की घटना से सभी का भयभीत होना स्वाभाविक ही था.

आननफानन में कौशल आ गया. उस का आफिस अधिक दूर नहीं था. पर आज आफिस से फ्लैट तक पहुंचने का 15 मिनट का समय उसे एक युग से भी लंबा प्रतीत हुआ था. अपने घर का दृश्य देखते ही कौशल के हाथों के तोते उड़ गए. घर का सामान बुरी तरह बिखरा हुआ था. लोहे की अलमारी का सेफ खुला पड़ा था और सामान गायब था.

‘सरला…सरला,’ कौशल ने भी घर में घुसते ही उसे पुकारा था पर उसे न पा कर एक झटका सा लगा उस भरोसे को जो उन्होंने सरला को ले कर बना रखा था.

सरला को गौरिका और कौशल ने सेविका समझा ही नहीं था. वह घर का काम करने के साथ ही गौरिका की सहेली भी बन बैठी थी. कौशल का पूरा दिन तो दफ्तर में बीतता था. घर लौटने में रात के 9-10 भी बज जाते थे.

कौशल एक साफ्टवेयर कंपनी में ऊंचे पद पर था. वैसे भी काम में जुटे होने पर उसे समय का होश कहां रहता था.

गौरिका से कौशल का विवाह हुए मात्र 10 माह हुए थे. गौरिका एक संपन्न परिवार की 2 बेटियों में सब से छोटी थी. पिता बड़े व्यापारी थे, अत: जीवन सुख- सुविधाओं में बीता था. मातापिता ने भी गौरिका और उस की बहन चारुल पर जी भर कर प्यार लुटाया था. ‘अभाव’ किस चिडि़या का नाम है यह तो उन्होंने जाना ही नहीं था.

कौशल का परिवार अधिक संपन्न नहीं था पर उस के पिता ने बच्चों की शिक्षा में कोई कोरकसर नहीं उठा रखी थी. विवाह में गौरिका के परिवार द्वारा किए गए खर्च को देख कर कौशल हैरान रह गया था. 4-5 दिनों तक विवाह का उत्सव चला था. 3 अलगअलग स्थानों पर रस्में निभाई गई थीं. उस शानो- शौकत को देख कर मित्र व संबंधी दंग रह गए थे. पर सब से अधिक प्रभावित हुआ था कौशल. उस ने अपने परिवार में धन का अपव्यय कभी नहीं देखा था. जहां जितना आवश्यक हो उतना ही व्यय किया जाता था, वह भी मोलतोल के बाद.

सुंदर, चुस्तदुरुस्त गौरिका गजब की मिलनसार थी. 10 माह में ही उस ने इतने मित्र बना लिए थे जितने कौशल पिछले 5 सालों में नहीं बना सका था.

अब दिनरात मित्रों का आनाजाना लगा रहता. मातापिता ने उपहार में गौरिका को घरेलू साजोसामान के साथ एक बड़ी सी कार भी दी थी. कौशल कार्यालय आनेजाने के लिए अपनी पुरानी कार का ही इस्तेमाल करता था. गौरिका अपनी मित्रमंडली के साथ घूमनेफिरने के लिए अपनी नई कार का प्रयोग करती थी.

मायके में कभी तिनका उठा कर इधरउधर न करने वाली गौरिका ने मित्रों के स्वागतसत्कार के लिए इस फ्लैट में आते ही 3 सेविकाओं का प्रबंध किया था. घर की सफाई और बरतन मांजने वाली अधेड़ उम्र की दमयंती साईं रेजिडेंसी से कुछ दूरी पर झोंपड़ी में रहती थी. कपड़े धोने और प्रेस करने वाली सईदा सड़क पार बने नए उपनगर में रहती थी.

सरला को गौरिका ने रहने के लिए निचली मंजिल पर कमरा दे रखा था. वह भोजन बनाने, मित्रों का स्वागतसत्कार करने के साथ ही उस के साथ खरीदारी करने, सिनेमा देखने जाती थी. 4-5 माह में ही सरला कुछ इस तरह गौरिका की विश्वासपात्र बन बैठी थी कि उस के गहने संभालने, दूध, समाचारपत्र आदि का हिसाबकिताब करने जैसे काम भी वह करने लगी थी.

कुछ दिनों के लिए कौशल के मातापिता बेटे की गृहस्थी को करीब से देखने की आकांक्षा लिए आए थे और नौकरों का एकछत्र साम्राज्य देख कर दंग रह गए थे. उस की मां ने दबी जबान में कौशल को समझाया भी था, ‘बेटा, 2 लोगों के लिए 3 सेवक? तुम्हारी पत्नी तो तुम्हारा सारा वेतन इसी तरह उड़ा देगी. अभी से बचत करने की सोचो, नहीं तो बाद में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा.’

‘मां, गौरिका हम जैसे मध्यम परिवार से नहीं है. उस के यहां तो नौकरों की फौज रखना साधारण सी बात है. हम उस से यह आशा तो नहीं कर सकते कि वह बरतन मांजने और घर की सफाई करने जैसे कार्य भी अपने हाथों से करेगी,’ कौशल ने उत्तर दिया था.

‘कपड़े धोने के लिए मशीन है, बेटे,’ मां बोलीं, ‘साफसफाई के लिए आने वाली दमयंती भी ठीक है, पर दिन भर घर में रहने वाली सरला मुझे फूटी आंखों नहीं भाती. कपडे़, गहने, रुपएपैसे आदि की जानकारी उसे भी है. किसी तीसरे को इस तरह अपने घर के भेद देना ठीक नहीं है. उस की आंखें मैं ने देखी हैं… घूर कर देखती है सबकुछ. काम रसोईघर में करती है, पर उस की नजरें पूरे घर पर रहती हैं. मुझे तो तुम्हारी और गौरिका की सुरक्षा को ले कर चिंता होने लगी है.’

‘मां, यह चिंता करनी छोड़ो. चलो, कहीं घूमने चलते हैं. सरला 6 माह से यहां काम कर रही है पर कभी एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ. गौरिका को तो उस पर अपनों से भी अधिक विश्वास है,’ कौशल ने बोझिल हो आए वातावरण को हलका करने का प्रयत्न किया था.

‘रहने भी दो, अब बच्चे बड़े हो गए हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. हम 2-4 दिनों के लिए घूमने आए हैं. तुम क्यों व्यर्थ ही अपना मन खराब करती हो,’ कौशल के पिताजी ने बात का रुख मोड़ने का प्रयत्न किया था.

‘क्या हुआ? सब ऐसे गुमसुम क्यों बैठे हैं,’ तभी गौरिका वहां आ गई थी.

‘कुछ नहीं, मां को कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं,’ कौशल हंसा था.

‘बातें बाद में होती रहेंगी, हम लोग तो पिकनिक पर जाने वाले थे, चलिए न, देर हो जाएगी,’ गौरिका ने कुछ ऐसे स्वर में अनुनय की थी कि सब हंस पड़े थे.

सरला ने चटपट भोजन तैयार कर दिया था. थर्मस में चाय भर दी थी. पर जब गौरिका ने सरला से भी साथ चलने को कहा तो कौशल ने मना कर दिया था.

‘मांपापा को अच्छा नहीं लगेगा, उन्हें परिवार के सदस्यों के बीच गैरों की उपस्थिति रास नहीं आती,’ कौशल ने समझाया था.

‘मैं ने सोचा था कि वहां कुछ काम करना होगा तो सरला कर देगी.’

‘ऐसा क्या काम पड़ेगा. फिर मैं हूं ना, सब संभाल लूंगा,’ सच तो यह था कि खुद कौशल को भी परिवार में सरला की उपस्थिति हर समय खटकती थी पर कुछ कह कर गौरिका को आहत नहीं करना चाहता था.

कौशल के मातापिता कुछ दिन रह कर चले गए थे पर कौशल की रेनू बूआ, जो उसी शहर के एक कालिज में व्याख्याता थीं, दशहरे की छुट्टियों में अचानक आ धमकी थीं. चूंकि  कौशल घर में सब से छोटा था इसकारण वह बूआ का विशेष लाड़ला था.

गौरिका से बूआ की खूब पटती थी. पर सरला को कर्ताधर्ता बनी देख वह एक दिन चाय पीते ही बोल पड़ी थीं, ‘गौरिका, नौकरों से इतना घुलनामिलना ठीक नहीं है. तुम्हें शायद यह पता नहीं है कि तुम अपनी सुरक्षा को किस तरह खतरे में डाल रही हो. आजकल का समय बड़ा ही कठिन है. हम किसी पर विश्वास कर ही नहीं सकते.’

‘मैं जानती हूं बूआजी, इसीलिए तो मैं ने किसी पुरुष को काम पर नहीं रखा. मैं अपनी कार के लिए एक चालक रखना चाहती थी. अधिक भीड़भाड़ में कार चलाने से बड़ी थकान हो जाती है. पर देखिए, हम दोनों स्वयं ही अपनी कार चलाते हैं.’

रेनू बूआ चुप रह गई थीं. वह शायद बताना चाहती थीं कि पुरुष हो या स्त्री कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है. फिर भी उन्होंने गौरिका से यह आश्वासन जरूर ले लिया कि भविष्य में वह रुपएपैसे, गहनों से सरला को दूर ही रखेगी.

गौरिका ने रेनू बूआ का मन रखने के लिए उन्हें आश्वस्त कर दिया पर उसे सरला पर अविश्वास करने का कारण समझ में नहीं आता था. उस के अधिकतर पड़ोसी एक झाड़ ूबरतन वाली से काम चलाते थे लेकिन वह सोचती थी कि उस का स्तर उन सब से ऊंचा है.

कौशल ने सब से पहले गौरिका को पास के नर्सिंग होम में भरती कराया था. सिर पर घाव होने के कारण वहां टांके लगाए गए थे. निशा और शिखा ने गौरिका के पास रहने का आश्वासन दिया तो कौशल घर आ गया और आते ही उस ने अपने और गौरिका के मातापिता को सूचित कर दिया. कौशल ने रेनू बूआ को भी सूचित कर दिया. बूआ नजदीक थीं और वह अच्छी तरह से जानता था कि उस पर आई इस आफत को सुनते ही बूआ दौड़ी चली आएंगी.

प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखा कर कौशल दोबारा नर्सिंग होम चला गया था. सिर में टांके लगाने के लिए गौरिका के एक ओर के बाल साफ कर दिए गए थे. हाथ में पट्टी बंधी थी, पर वह पहले से ठीक लग रही थी.

‘कौशल, मेरे कपड़े बदलवा दो. सरला से कहना अलमारी से धुले कपडे़ निकाल देगी,’ गौरिका थके स्वर में बोली थी.

‘नाम मत लेना उस नमकहराम का. कहीं पता नहीं उस का. तुम्हें अब भी यह समझ में नहीं आया कि तुम्हारी यह दशा सरला ने ही की है,’ कौशल क्रोधित हो उठा था.

‘क्या कह रहे हो? सरला ऐसा नहीं कर सकती.’

‘याद करने की कोशिश करो, हुआ क्या था तुम्हारे साथ? पुलिस तुम्हारा बयान लेने आने वाली है.’

गौरिका ने आंखें मूंद ली थीं. देर तक आंसू बहते रहे थे. फिर वह अचानक उठ बैठी थी.

‘मुझे कुछ याद आ रहा है. मैं आज सरला के साथ बैंक गई थी. 50 हजार रुपए निकलवाए थे. घर आ कर सरला खाना बनाने लगी थी. मैं ने उस से एक प्याली चाय बनाने के लिए कहा था. चाय पीने के बाद क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं,’ गौरिका सुबकने लगी थी, ‘2 दिन बाद तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हें उपहार देना चाहती थी.’

तभी रेनू बूआ आ पहुंची थीं. उन के गले लग कर गौरिका फूटफूट कर रोई थी.

‘देखो बूआजी, क्या हो गया? मैं ने सरला पर अपनों से भी अधिक विश्वास किया. सभी सुखसुविधाएं दीं. उस ने मुझे उस का यह प्रतिदान दिया है,’ गौरिका बिलख रही थी.

रेनू बूआ चुप रह गई थीं. वह जानती थीं कि कभीकभी मौन शब्दों से भी अधिक मुखर हो उठता है. वह यह भी जानती थीं कि बहुत कम लोग दूसरों को ठोकर खाते देख कर संभलते हैं, अधिकतर को तो खुद ठोकर खा कर ही अक्ल आती है.

सरला 50 हजार रुपए के साथ ही घर में रखे गौरिका के गहनेकपड़े भी ले गई थी. लगभग 5 माह बाद वह अपने 2 साथियों के साथ पकड़ी गई थी और तभी गौरिका को पता चला कि वह पहले भी ऐसे अपराधों के लिए सजा काट चुकी थी. सुन कर गौरिका की रूह कांप गई थी. कौशल, मांबाप तथा घर के अन्य सभी सदस्यों ने उसे समझाया था कि भाग्यशाली हो जो तुम्हारी जान बच गई. नहीं तो ऐसे अपराधियों का क्या भरोसा.

इस घटना को 5 वर्ष बीत चुके हैं. फैशन डिजाइनर गौरिका का अपना बुटीक है. पर पति, 3 वर्षीय बंटी और बुटीक सबकुछ गौरिका स्वयं संभालती है. दमयंती अब भी उस का हाथ बंटाती है पर सब पर अविश्वास करना और अपना कार्य स्वयं करना सीख लिया है गौरिका ने.

जुल्म की सजा : कहानी एक पिछड़े गांव की

हमारे भारत देश को अंगरेजों की गुलामी से छुटकारा मिले हुए भले ही 65 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है, पर आज भी न जाने कितने ऐसे गांव हैं, जो आजादी के सुख से अनजान हैं. ऐसा ही एक गांव है पिरथीपुर.

उत्तर प्रदेश के बदायूं, शाहजहांपुर और फर्रुखाबाद जिलों की सीमाओं को छूता, रामगंगा नदी के किनारे पर बसा हुआ गांव पिरथीपुर यों तो बदायूं जिले का अंग है, पर जिले तक इस की पहुंच उतनी ही मुश्किल है, जितनी मुश्किल शाहजहांपुर और फर्रुखाबाद जिला हैडक्वार्टर तक की है.

कभी इस गांव की दक्षिण दिशा में बहने वाली रामगंगा ने जब साल 1917 में कटान किया और नदी की धार पिरथीपुर के उत्तर जा पहुंची, तो पिरथीपुर बदायूं जिले से पूरी तरह कट गया. गांव के लोगों द्वारा नदी पार करने के लिए गांव के पूरब और पश्चिम में 10-10 कोस तक कोई पुल नहीं था, इसलिए उन की दुनिया पिरथीपुर और आसपास के गांवों तक ही सिमटी थी, जिस में 3 किलोमीटर पर एक प्राइमरी स्कूल, 5 किलोमीटर पर एक पुलिस चौकी और हफ्ते में 2 दिन लगने वाला बाजार था.

सड़क, बिजली और अस्पताल पिरथीपुर वालों के लिए दूसरी दुनिया के शब्द थे. सरकारी अमला भी इस गांव में सालों तक नहीं आता था.

देश और प्रदेश में चाहे जिस राजनीतिक पार्टी की सरकार हो, पर पिरथीपुर में तो समरथ सिंह का ही राज चलता था. आम चुनाव के दिनों में राजनीतिक पार्टियों के जो नुमाइंदे पिरथीपुर गांव तक पहुंचने की हिम्मत जुटा पाते थे, वे भी समरथ सिंह को ही अपनी पार्टी का झंडा दे कर और वोट दिलाने की अपील कर के लौट जाते थे, क्योंकि वे जानते थे कि पूरे गांव के वोट उसी को मिलेंगे, जिस की ओर ठाकुर समरथ सिंह इशारा कर देंगे.

पिरथीपुर गांव की ज्यादातर जमीन रेतीली और कम उपजाऊ थी. समरथ सिंह ने उपजाऊ जमीनें चकबंदी में अपने नाम करवा ली थीं. जो कम उपजाऊ जमीन दूसरे गांव वालों के नाम थी, उस का भी ज्यादातर भाग समरथ सिंह के पास गिरवी रखा था.

समरथ सिंह के पास साहूकारी का लाइसैंस था और गांव का कोई बाशिंदा ऐसा नहीं था, जिस ने सारे कागजात पर अपने दस्तखत कर के या अंगूठा लगा कर समरथ सिंह के हवाले न कर दिया हो. इस तरह सभी गांव वालों की गरदनें समरथ सिंह के मजबूत हाथों में थीं.

पिरथीपुर गांव में समरथ सिंह से आंख मिला कर बात करने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी. पासपड़ोस के ज्यादातर लोग भी समरथ सिंह के ही कर्जदार थे.

समरथ सिंह की पहुंच शासन तक थी. क्षेत्र के विधायक और सांसद से ले कर उपजिलाधिकारी तक पहुंच रखने वाले समरथ सिंह के खिलाफ जाने की हिम्मत पुलिस वाले भी नहीं करते थे.

समरथ सिंह के 3 बेटे थे. तीनों बेटों की शादी कर के उन्हें 10-10 एकड़ जमीन और रहने लायक अलग मकान दे कर समरथ सिंह ने उन्हें अपने राजपाट से दूर कर दिया था. उन की अपनी कोठी में पत्नी सीता देवी और बेटी गरिमा रहते थे.

गरिमा समरथ सिंह की आखिरी औलाद थी. वह अपने पिता की बहुत दुलारी थी. पूरे पिरथीपुर में ठाकुर समरथ सिंह से कोई बेखौफ था, तो वह गरिमा ही थी.

सीता देवी को समरथ सिंह ने उन के बैडरूम से ले कर रसोईघर तक सिमटा दिया था. घर में उन का दखल भी रसोई और बेटी तक ही था. इस के आगे की बात करना तो दूर, सोचना भी उन के लिए बैन था.

कोठी के पश्चिमी भाग के एक कमरे में समरथ सिंह सोते थे और उसी कमरे में वे जमींदारी, साहूकारी, नेतागीरी व दादागीरी के काम चलाते थे. वहां जाने की इजाजत सीता देवी को भी नहीं थी.

समरथ सरकार के नाम से पूरे पिरथीपुर में मशहूर समरथ सिंह की कोठी में बाहरी लोगों का आनाजाना पश्चिमी दरवाजे से ही होता था. इस दरवाजे से बरामदे में होते हुए उन के दफ्तर और बैडरूम तक पहुंचा जा सकता था.

कोठी के पश्चिमी भाग में दखल देना परिवार वालों के लिए ही नहीं, बल्कि नौकरचाकरों के लिए भी मना था.

अपने पिता की दुलारी गरिमा बचपन से ही कोठी के उस भाग में दौड़तीखेलती रही थी, इसलिए बहुत टोकाटाकी के बाद भी वह कभीकभार उधर चली ही जाती थी.

गांव की हर नई बहू को ‘समरथ सरकार’ से आशीर्वाद लेने जाने की प्रथा थी. कोठी के इसी पश्चिमी हिस्से में समरथ सिंह जितने दिन चाहते, उसे आशीर्वाद देते थे और जब उन का जी भर जाता था, तो उपहार के तौर पर गहने दे कर उसे पश्चिमी दरवाजे से निकाल कर उस के घर पहुंचा दिया जाता था.

आतेजाते हुए कभी गांव की किसी बहूबेटी पर समरथ सिंह की नजर पड़ जाती, तो उसे भी कोठी देखने का न्योता भिजवा देते, जिसे पा कर उसे कोठी में हर हाल में आना ही होता था.

समरथ सिंह की इमेज भले ही कठोर और बेरहम रहनुमा की थी, पर वे दयालु भी कम नहीं थे. खुशीखुशी आशीर्वाद लेने वालों पर उन की कृपा बरसती थी. अनेक औरतें जबतब उन का आशीर्वाद लेने के लिए कोठी का पश्चिमी दरवाजा खटखटाती रहती थीं, ताकि उन के

पति को फसल उपजाने के लिए अच्छी जमीन मिल सके, दवा व इलाज और शादीब्याह के खर्च वगैरह को पूरा करने हेतु नकद रुपए मिल सकें.

लेकिन बात न मानने से समरथ सिंह को सख्त चिढ़ थी. राधे ने अपनी बहू को आशीर्वाद लेने के लिए कोठी पर भेजने से मना कर दिया था. उस की बहू को समरथ के आदमी रात के अंधेरे में घर से उठा ले गए और तीसरे दिन उस की लाश कुएं में तैरती मिली थी.

अपनी नईनवेली पत्नी की लाश देख कर राधे का बेटा सुनील अपना आपा खो बैठा और पूरे गांव के सामने समरथ सिंह पर हत्या का आरोप लगाते हुए गालियां बकने लगा.

2 घंटे के अंदर पुलिस उसे गांव से उठा ले गई और पत्नी की हत्या के आरोप में जेल भेज दिया. बाद में ठाकुर के आदमियों की गवाही पर उसे उम्रकैद की सजा हो गई.

राधे की पत्नी अपने एकलौते बेटे की यह हालत बरदाश्त न कर सकी और पागल हो गई. इस घटना से घबरा कर कई इज्जतदार परिवार पिरथीपुर गांव से भाग गए.

समरथ सिंह ने भी बचेखुचे लोगों से साफसाफ कह दिया कि पिरथीपुर में समरथ सिंह की मरजी ही चलेगी. जिसे उन की मरजी के मुताबिक जीने में एतराज हो, वह गांव छोड़ कर चला जाए. इसी में उस की भलाई है.

समरथ सिंह की बेटी गरिमा जब थोड़ी बड़ी हुई, तो समरथ सिंह ने उस का स्कूल जाना बंद करा दिया. अब वह दिनरात घर में ही रहती थी.

गरमी के मौसम में एक दिन दोपहर में उसे नींद नहीं आ रही थी. वह लेटेलेटे ऊब गई, तो अपने कमरे से बाहर निकल कर छत पर चली गई और टहलने लगी.

अचानक उसे कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर कुछ आहट सुनाई दी. उस ने झांक कर देखा, तो दंग रह गई. समरथ सिंह का खास लठैत भरोसे एक औरत को ले कर आया था. कुछ देर बाद कोठी का पश्चिमी दरवाजा बंद हो गया और भरोसे दरवाजे के पास ही चारपाई डाल कर कोठी के बाहर सो गया.

गरिमा छत से उतर कर दबे पैर कोठी के बैन इलाके में चली गई. अपने पिता के बैडरूम की खिड़की के बंद दरवाजे के बीच से उस ने कमरे के अंदर झांका, तो दंग रह गई. उस के पिता नशे में धुत्त एक लड़की के कपड़े उतार रहे थे. वह लड़की सिसकते हुए कपड़े उतारे जाने का विरोध कर रही थी.

जबरन उस के सारे कपड़े उतार कर उन्होंने उस लड़की को किसी बच्चे की तरह अपनी बांहों में उठा कर चूमना शुरू कर दिया. फिर वे पलंग की ओर बढ़े और उसे पलंग पर लिटा कर किसी राक्षस की तरह उछल कर उस पर सवार हो गए.

गरिमा सांस रोके यह सब देखती रही और पिता का शरीर ढीला पड़ते ही दबे पैर वहां से निकल कर अपने कमरे में आ गई. उसे यह देख कर बहुत अच्छा लगा और बेचैनी भी महसूस हुई.

अब गरिमा दिनभर सोती और रात को अपने पिता की करतूत देखने के लिए बेचैन रहती.

अपने पिता की रासलीला देखदेख कर गरिमा भी काम की आग से भभक उठती थी.

एक दिन समरथ सिंह भरोसे को ले कर किसी काम से जिला हैडक्वार्टर गए हुए थे. दोपहर एकडेढ़ बजे उन का कारिंदा भूरे, जिस की उम्र तकरीबन 20 साल होगी, हलबैल ले कर आया.

बैलों को बांध कर वह पशुशाला के बाहर लगे नल पर नहाने लगा, तभी गरिमा की निगाह उस पर पड़ गई. वह देर तक उस की गठीली देह देखती रही.

जब भूरे कपड़े पहन कर अपने घर जाने लगा, तो गरिमा ने उसे बुलाया. भूरे कोठरी के दरवाजे पर आया, तो गरिमा ने उसे अपने साथ आने को कहा.

गरिमा को पता था कि उस की मां भोजन कर के आराम करने के लिए अपने कमरे में जा चुकी है.

गरिमा भूरे को ले कर कोठी के पश्चिमी दरवाजे की ओर बढ़ी, तो भूरे ठिठक कर खड़ा हो गया. गरिमा ने लपक कर उस का गरीबान पकड़ लिया और घसीटते हुए अपने पिता के कमरे की ओर ले जाने लगी.

भूरे कसाई के पीछेपीछे बूचड़खाने की ओर जाती हुई गाय के समान ही गरिमा के पीछेपीछे चल पड़ा.

पिता के कमरे में पहुंच कर गरिमा ने दरवाजा बंद कर लिया और भूरे को कपड़े उतारने का आदेश दिया. भूरे उस का आदेश सुन कर हैरान रह गया.

उसे चुप खड़ा देख कर गरिमा ने खूंटी पर टंगा हंटर उतार लिया और दांत पीसते हुए कहा, ‘‘अगर अपना भला चाहते हो, तो जैसा मैं कह रही हूं, वैसा ही चुपचाप करते जाओ.’’

भूरे ने अपने कपड़े उतार दिए, तो गरिमा ने अपने पिता की ही तरह उसे चूमनाचाटना शुरू कर दिया. फिर पलंग पर ढकेल कर अपने पिता की तरह उस पर सवार हो गई.

भूरे कहां तक खुद पर काबू रखता? वह गरिमा पर उसी तरह टूट पड़ा, जिस तरह समरथ सिंह अपने शिकार पर टूटते थे.

गरिमा ने कोठी के पश्चिमी दरवाजे से भूरे को इस हिदायत के साथ बाहर निकाल दिया कि कल फिर इसी समय कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर आ जाए. साथ ही, यह धमकी भी दी कि अगर वह समय पर नहीं आया, तो उसकी शिकायत समरथ सिंह तक पहुंच जाएगी कि उस ने उन की बेटी के साथ जबरदस्ती की है.

भूरे के लिए एक ओर कुआं था, तो दूसरी ओर खाई. उस ने सोचा कि अगर वह गरिमा के कहे मुताबिक दोपहर में कोठी के अंदर गया, तो वह फिर अगले दिन आने को कहेगी और एक न एक दिन यह राज समरथ सिंह पर खुल जाएगा और तब उस की जान पर बन आएगी. मगर वह गरिमा का आदेश नहीं मानेगा, तो वह भूखी शेरनी उसे सजा दिलाने के लिए उस पर झूठा आरोप लगाएगी और उस दशा में भी उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा.

मजबूरन भूरे न चाहते हुए भी अगले दिन तय समय पर कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर हाजिर हो गया, जहां गरिमा उस का इंतजार करती मिली.

अब यह खेल रोज खेला जाने लगा. 6 महीने बीततेबीतते गरिमा पेट से हो गई. भूरे को जिस दिन इस बात का पता चला. वह रात में ही अपना पूरा परिवार ले कर पिरथीपुर से गायब हो गया.

गरिमा 3-4 महीने से ज्यादा यह राज छिपाए न रख सकी और शक होने पर जब सीता देवी ने उस से कड़ाई से पूछताछ की, तो उस ने अपनी मां के सामने पेट से होना मान लिया. फिर भी उस ने भूरे का नाम नहीं लिया.

सीता देवी ने नौकरानी से समरथ सिंह को बुलवाया और उन्हें गरिमा के पेट से होने की जानकारी दी, तो वे पागल हो उठे और सीता देवी को ही पीटने लगे. जब वे उन्हें पीटपीट कर थक गए, तो गरिमा को आवाज दी.

2-3 बार आवाज देने पर गरिमा डरते हुए समरथ सिंह के सामने आई. उन्होंने रिवाल्वर निकाल कर गरिमा को गोली मार दी.

कुछ देर तक समरथ सिंह बेटी की लाश के पास बैठे रहे, फिर सीता देवी से पानी मांग कर पिया. तभी फायर की आवाज सुन कर उन के तीनों बेटे और लठैत भरोसे दौड़े हुए आए.

समरथ सिंह ने उन्हें शांत रहने का इशारा किया, फिर जेब से रुपए निकाल कर बड़े बेटे को देते हुए कहा, ‘‘जल्दी से जल्दी कफन का इंतजाम करो और 2 लोगों को लकड़ी ले कर नदी किनारे भेजो. खुद भी वहीं पहुंचो.’’

समरथ सिंह के बेटे पिता की बात सुन कर आंसू पोंछते हुए भरोसे के साथ बाहर निकल गए.

एक घंटे के अंदर लाश ले कर वे लोग नदी किनारे पहुंचे. चिता के ऊपर बेटी को लिटा कर समरथ सिंह जैसे ही आग लगाने के लिए बढ़े, तभी वहां पुलिस आ गई और दारोगा ने उन्हें चिता में आग लगाने से रोक दिया.

यह सुनते ही समरथ सिंह गुस्से से आगबबूला हो गए और तकरीबन चीखते हुए बोले, ‘‘तुम अपनी हद से आगे बढ़ रहे हो दारोगा.’’

‘‘नहीं, मैं अपना फर्ज निभा रहा हूं. राधे ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि आप ने अपनी बेटी की गोली मार कर हत्या कर दी है, इसलिए पोस्टमार्टम कराए बिना लाश को जलाया नहीं जा सकता.’’

समरथ सिंह ने दारोगा के पीछे खड़े राधे को जलती आंखों से देखा.

वे कुछ देर गंभीर चिंता में खड़े रहे, फिर रिवाल्वर से अपने सिर में गोली मार ली.

इस घटना को देख कर वहां मौजूद लोग सन्न रह गए, तभी पगली दौड़ती हुई आई और दम तोड़ रहे समरथ सिंह के पास घुटनों के बल बैठ कर ताली बजाते हुए बोली, ‘‘देखो ठाकुर, तेरे जुल्मों की सजा तेरे साथ तेरी औलाद को भी भोगनी पड़ी. खुद ही जला कर अपनी सोने की लंका राख कर ली.’’

जैसेजैसे समरथ सिंह की सांस धीमी पड़ रही थी, वहां मौजूद लोगों में गुलामी से छुटकारा पाने का एहसास तेज होता जा रहा था.

लेनदेन : पायल का क्या था प्लान

मनोहर की चाय की गुमटी रेंगरेंग कर चल रही थी. घर का खर्च भी चलाना मुश्किल था. उसी में 5 लोगों का पेट पालना था. अपने एक खास ग्राहक के कहने पर मनोहर ने गुमटी पर शराब के पाउच भी रखने शुरू कर दिए. 2-4 ग्राहकों को बता भी दिया. फिर क्या था. चाय के बहाने पाउचों की बिक्री बढ़ती चली गई.

थानेदार को यह बात पता चली, तो वह 2 हवलदारों को ले कर गुमटी पर आ धमका और रोज के 4 सौ रुपए कमीशन मांगने लगा.

मनोहर हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया, ‘‘साहब, मैं रोज 4 सौ रुपए नहीं दे पाऊंगा. हां, हर महीने इतने रुपए थाने में पहुंचा दिया करूंगा.’’ ‘‘तू मुझे 4 सौ रुपए की भीख देगा…’’ कह कर थानेदार ने उसे एक लात मारी और चिल्लाया, ‘‘खुलेआम दारू बेचता है और मुझे 4 सौ रुपए का थूक चाटने को कहता है.’’

मनोहर की पत्नी श्यामा ने दौड़ कर उसे उठाया और थानेदार से बोली, ‘‘हमें माफ कर दीजिए सरकार. हम दारू का धंधा ही छोड़ देंगे.’’ ‘‘तू दारू का धंधा छोड़ देगी, तो हमारी आमदनी कैसे होगी? तू दारू बेचेगी और रुपए के साथ सजसंवर कर मेरे पास आएगी,’’ कहते हुए थानेदार ने एक आंख दबाई.

तभी मनोहर की 15, 13 और 9 साल की 3 बेटियां स्कूल से छुट्टी होने के बाद बस्ता टांगे वहां आ गईं.

मनोहर की बड़ी बेटी पायल, जो 9वीं जमात में पढ़ रही थी, को समझते देर न लगी. वह बोली, ‘‘पापा, मैं ने मना किया था न कि दारू मत बेचो. देखो, आज पुलिस आ ही गई. हमारी इज्जत गई न…’’ कहतेकहते उस का गला भर आया.

‘‘ताजा गुलाब की तरह खिलीखिली है तेरी बेटी. आज रात इसे मेरे क्वार्टर पर 10 पाउच के साथ भेज देना,’’ कहते हुए थानेदार की आंखों में गुलाबी रंगत छा गई.

‘‘नहीं साहब, मैं इसे नहीं भेजूंगा,’’ मनोहर बोला. इतना सुनते ही थानेदार ने एक तमाचा मनोहर को रसीद कर दिया.

‘‘रात को 8 बजे तेरी बेटी थाने में पहुंच जानी चाहिए, नहीं तो समझ लेना कि कल मैं तेरा क्या हाल करूंगा,’’ कहते हुए उस ने दूसरा तमाचा उठाया, तभी एकाएक पायल बोली, ‘‘सर, मैं आने के लिए तैयार…’’ ‘‘बेटी, यह तू क्या कह रही है?’’ यह सुन कर मनोहर के होश उड़ गए.

‘‘पापा, आप डरिए मत. सर, कल से मेरे इम्तिहान शुरू हैं. मैं अगले हफ्ते आऊंगी. आप कहेंगे, तो मैं अपनी 2-4 सहेलियों को भी साथ लाऊंगी. वे सब तो मुझ से भी ज्यादा खूबसूरत हैं.’’ थानेदार ने खुशी से झूमते हुए एक आंख दबाई, फिर वह मनोहर से बोला, ‘‘तेरी बेटी कितनी समझदार है.’’

इस के बाद थानेदार वहां से चला गया. ‘‘बेटी, तू ने उस नीच के साथ यह कैसा सौदा कर लिया? अपने साथ सहेलियों की भी जिंदगी बरबाद करेगी,’’ कहते हुए मां श्यामा बहुत डर गई थी.

‘‘आप लोग शांत रहिए. मुझे जैसा करना होगा, मैं करूंगी,’’ कह कर पायल बस्ता लिए घर चली गई. पायल ने इस बारे में अपनी सहेलियों से बात की, तो वे सभी राजी हो गईं.

वादे के मुताबिक अगले हफ्ते ही पायल दारू और 4 सौ रुपए ले कर थाने पहुंच गई. थानेदार ने पूछा, ‘‘तुम्हारी सहेलियां किधर हैं?’’

‘‘2-4 नहीं, बल्कि वे तो 8-10 हैं. वे सब टेकरी के पास हैं. किसी ने आप को इस थाने में इतनी सारी लड़कियों के साथ कुछ उलटासीधा करते देख लिया, तो आप की लुटिया ही डूब जाएगी, इसलिए मैं ने उन को यहां से कुछ दूर रखा है सर…’’ पायल थानेदार के कान में धीरे से फुसफुसाई, ‘‘हम कड़ैया गांव चलें. वहां पुराने बरगद के पास एक खंडहरनुमा मकान है. वहां ज्यादा ठीक रहेगा.’’ ‘‘हाय पायल, मैं तो खुशी के मारे

मर जाऊं,’’ कह कर थानेदार ने उस के गुलाबी गाल मसल दिए और बोला, ‘‘तू तो बड़ी होशियार है. चल, वहीं चलते हैं.’’

थानेदार एक हवलदार के भरोसे थाना छोड़ कर पायल के साथ अपनी जीप से कुछ दूरी पर टेकरी के पास गया. वहां पायल की ही उम्र की 8-10 लड़कियों को जींसटौप में खड़ी देख थानेदार की लार टपकने लगी.

‘‘ऐसे गुलाब के फूलों के सामने ये रुपए क्या चीज हैं,’’ उस ने जेब से रुपए निकाल कर पायल को लौटा दिए, ‘‘हां, दारू तो मैं जरूर पीऊंगा.’’ पायल ने कहा, तो सारी लड़कियां जीप में बैठने लगीं, तभी 14-15 लड़के वहां आ धमके.

यह नजारा देख एक लड़के ने पायल को घूरते हुए पूछा, ‘‘पायल, तुम सब थानेदार साहब के साथ कहां जा

रही हो?’’ ‘‘विशाल, हम कड़ैया गांव में ट्रेनिंग के लिए जा रहे हैं. आएदिन लड़कियों के साथ उलटीसीधी घटनाएं हो रही हैं, इसलिए थानेदार साहब ने कहा है कि वे हम सब को कराटे सिखाएंगे?’’

‘‘हांहां,’’ थानेदार झट से बोला, ताकि उस की चोरी पकड़ी न जाए. ‘‘पायल, आज तुम इस पीली ड्रैस में बहुत खूबसूरत दिख रही हो. मैं तुम्हारा फोटो खींच लूं?’’

‘‘हांहां, खींचो न.’’ विशाल ने पायल के साथ थानेदार और सारी लड़कियों के भी फोटो खींचे.

थानेदार गाड़ी स्टार्ट कर पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘मैं तो डर ही गया था. अच्छा हुआ कि तुम ने ऐन मौके पर ट्रेनिंग की बात कह दी, नहीं तो मैं काम से गया था.’’ थानेदार के बगल में बैठी पायल और बाकी लड़कियां मुसकरा दीं.

कड़ैया गांव 10 किलोमीटर दूर था. थानेदार घूंटघूंट दारू पीते हुए आगे टंगे आईने में लड़कियों को देख मदहोश हुआ जा रहा था. वह बहुत तेज गाड़ी चला रहा था, ताकि जल्दी कड़ैया गांव पहुंचे. ‘‘सर… सर, गाड़ी रोकिए,’’ पायल इतराते हुए बोली.

थानेदार ने झट से ब्रेक मारा और पूछा, ‘‘यहां गाड़ी क्यों रुकवाई?’’ फिर उस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई. वह एकदम सुनसान जंगल था. दूरदूर तक बड़ेबड़े पेड़ दिखाई दे रहे थे. कड़ैया गांव अभी 4-5 किलोमीटर दूर था.

‘‘सर, आगे जाने से क्या फायदा? जो काम वहां हो सकता है, क्या वह यहां नहीं हो सकता?’’ पायल ने थानेदार की लाललाल आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘कितना मस्त मौसम है. हलकीहलकी धूप, ठंडीठंडी बहती हवा, घने पेड़, आप और हम सब तितलियां.’’ ‘‘मुझ से ज्यादा तुम बेकरार हो,’’ थानेदार ने सीना फुला कर कहा, ‘‘चलो, यहीं उतरते हैं.’’

सभी जीप से उतर गए. थानेदार के साथ चिकनीचुपड़ी बातें करते हुए सारी लड़कियां आगे बढ़ रही थीं. पायल थानेदार को एकएक पाउच दारू थमाते जा रही थी. वह पाउच के कोने को दांत से काट कर गटागट शराब पीता जा रहा था.

‘‘सर, अपने कपड़े उतार लीजिए,’’ जींस वाली एक लड़की ने इतना कह कर थानेदार के गाल सहला दिए. लड़कियों के नशे में अंधे थानेदार ने रिवाल्वर उसे थमा कर अपनी खाकी वरदी खोल कर हवा में उछाल दी.

पायल ने उसे एक पेड़ के सहारे खड़ा कर दिया, ‘‘सर, आप कितने खूबसूरत हैं. काश, आप जैसे से मेरी शादी होती…’’ वह खूब मीठीमीठी बातें बोलती गई. थानेदार के पूरे शरीर में रोमांच हो आया. लेकिन जब वह उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, तो उस के होश फाख्ता हो गए.

बाकी लड़कियों ने थानेदार को रस्सी से पेड़ के सहारे कस कर बांध दिया था. खुद को पेड़ से बंधा पा कर थानेदार का दारू और लड़की का नशा काफूर हो गया, ‘‘अरे लड़कियो, यह क्या मजाक है. मुझे छोड़ो. प्यार का वक्त निकला जा रहा है,’’ सिर्फ अंडरवियर पहने थानेदार बोला.

सारी लड़कियां खिलखिला पड़ीं. एक लड़की ने कहा, ‘‘थानेदारजी, आप अकेले इतनी लड़कियों से कैसे प्यार करेंगे? आप तो बस इस पेड़ से बंधे इसे ही प्यार कीजिए. हम तो चले.’’ ‘‘मुझे इस जंगल में छोड़ कर तुम सब जाओगी, तो पुलिस तुम लोगों को जिंदा नहीं छोड़ेगी.’’

‘‘हमें कुछ नहीं होगा…’’ पायल बोली, ‘‘बल्कि तुम्हारा पूरा पुलिस महकमा बदनाम हो जाएगा कि तुम ने 8-10 लड़कियों को ट्रेनिंग देने के नाम पर उन के साथ गलत हरकत की. इस बात को साबित करने के लिए विशाल के कैमरे में तुम्हारे और हम सभी लड़कियों के फोटो मौजूद हैं.’’ थानेदार ने हड़बड़ा कर नजरें घुमाईं.

एक लड़की मुसकराते हुए थानेदार के हर एंगल से खटाखट फोटो खींचे जा रही थी. थानेदार अपना ही सिर खुद पेड़ पर मारने लगा, ‘‘अरे बाप रे, अब तो मेरी नौकरी गई…’’ फिर वह गरजा, ‘‘ऐ छोकरी, मेरे फोटो खींचना बंद कर.’’

पायल बोली, ‘‘थानेदार, तुम ने मुझ पर बुरी नजर डाली थी न, अब सब लेनदेन बराबर हो गया. मैं ने पापा को दारू बेचने से मना कर दिया और उन्होंने बेचनी भी बंद कर दी. ‘‘मगर फिर भी तुम ने उन को या दूसरे ठेले, गुमटी और रेहड़ी वालों को परेशान किया या उन की बीवीबेटी या मांबहन पर बुरी नजर डाली, तो तुम्हारी हवा में लहराती वरदी वाली और ये सब तसवीरें हर अखबार में छप जाएंगी.’’

थानेदार की तो हालत खराब हो गई कि जिस पायल के चक्कर में वह पड़ा था, उस ने तो उसे घनचक्कर बना दिया. थानेदार बोला, ‘‘मेरी मां, ऐसा गजब मत करना. मैं तुम्हारी हर बात मानूंगा. मेरी इज्जत बख्श दे. उलटे, मैं तुम्हें हर हफ्ते कमीशन दिया करूंगा, पर मेरा फोटो अखबार में मत छपवाना…’’

थानेदार को यों गिड़गिड़ाते हुए देख पायल के साथ आई सारी लड़कियां हंस पड़ीं और वहां से चली गईं.

नाइंसाफी : मां के हक के लिए लड़ती एक बेटी

बैठक में बैठी शिखा राहुल के खयालों में खोई थी. वह नहा कर तैयार हो कर सीधे यहीं आ कर बैठ गई थी. उस का रूप उगते सूर्य की तरह था. सुनहरे गोटे की किनारी वाली लाल साड़ी, हाथों में ढेर सारी लाल चूडि़यां, माथे पर बड़ी बिंदी, मांग में चमकता सिंदूर मानो सीधेसीधे सूर्य की लाली को चुनौती दे रहे थे. घर के सब लोग सो रहे थे, मगर शिखा को रात भर नींद नहीं आई. शादी के बाद वह पहली बार मायके आई थी पैर फेरने और आज राहुल यानी उस का पति उसे वापस ले जाने आने वाला था. वह बहुत खुश थी.

उस ने एक भरपूर नजर बैठक में घुमाई. उसे याद आने लगा वह दिन जब वह बहुत छोटी थी और अपनी मां के पल्लू को पकड़े सहमी सी दीवार के कोने में घुसी जा रही थी. नानाजी यहीं दीवान पर बैठे अपने बेटों और बहुओं की तरफ देखते हुए अपनी रोबदार आवाज में फैसला सुना रहे थे, ‘‘माला, अब अपनी बच्ची के साथ यहीं रहेगी, हम सब के साथ. यह घर उस का भी उतना ही है, जितना तुम सब का. यह सही है कि मैं ने माला का विवाह उस की मरजी के खिलाफ किया था, क्योंकि जिस लड़के को वह पसंद करती थी, वह हमारे जैसे उच्च कुल का नहीं था, परंतु जयराज (शिखा के पिता) के असमय गुजर जाने के बाद इस की ससुराल वालों ने इस के साथ बहुत अन्याय किया. उन्होंने जयराज के इंश्योरैंस का सारा पैसा हड़प लिया. और तो और मेरी बेटी को नौकरानी बना कर दिनरात काम करवा कर इस बेचारी का जीना हराम कर दिया. मुझे पता नहीं था कि दुनिया में कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है कि अपने बेटे की आखिरी निशानी से भी इस कदर मुंह फेर ले. मैं अब और नहीं देख सकता. इस विषय में मैं ने गुरुजी से भी बात कर ली है और उन की भी यही राय है कि माला बिटिया को उन लालचियों के चंगुल से छुड़ा कर यहीं ले आया जाए.’’

फिर कुछ देर रुक कर वे आगे बोले, ‘‘अभी मैं जिंदा हूं और मुझ में इतना सामर्थ्य है कि मैं अपनी बेटी और उस की इस फूल सी बच्ची की देखभाल कर सकूं… मैं तुम सब से भी यही उम्मीद करता हूं कि तुम दोनों भी अपने भाई होने का फर्ज बखूबी अदा करोगे,’’ और फिर नानाजी ने बड़े प्यार से उसे अपनी गोद में बैठा लिया था. उस वक्त वह अपनेआप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी. घर के सभी सदस्यों ने इस फैसले को मान लिया था और उस की मां भी घर में पहले की तरह घुलनेमिलने का प्रयत्न करने लगी थी. मां ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. इस तरह से उन्होंने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे किसी पर बोझ हैं.

नानाजी एवं नानी के परिवार की अपने कुलगुरु में असीम आस्था थी. सब के गले में एक लौकेट में उन की ही तसवीर रहती थी. कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले गुरुजी की आज्ञा लेनी जरूरी होती थी. शिखा ने बचपन से ही ऐसा माहौल देखा था. अत: वह भी बिना कुछ सोचेसमझे उन्हें मानने लगी थी. अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद समय निकाल कर उस की मां कुछ वक्त गुरुजी की तसवीर के सामने बैठ कर पूजाध्यान करती थीं. कभीकभी वह भी मां के साथ बैठती और गुरुजी से सिर्फ और सिर्फ एक ही दुआ मांगती कि गुरुजी, मुझे इतना बड़ा अफसर बना दो कि मैं अपनी मां को वे सारे सुख और आराम दे सकूं जिन से वे वंचित रह गई हैं.

तभी खट की आवाज से शिखा की तंद्रा भंग हो गई. उस ने मुड़ कर देखा. तेज हवा के कारण खिड़की चौखट से टकरा रही थी. उठ कर शिखा ने खिड़की का कुंडा लगा दिया. आंगन में झांका तो शांति ही थी. घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे. सब अभी सो ही रहे हैं, यह सोचते हुए वह भी वहीं सोफे पर अधलेटी हो गई. उस का मन फिर अतीत में चला गया…

जब तक नानाजी जिंदा रहे उस घर में वह राजकुमारी और मां रानी की तरह रहीं. मगर यह सुख उन दोनों के हिस्से बहुत दिनों के लिए नहीं लिखा था. 1 वर्ष बीततेबीतते अचानक एक दिन हृदयगति रुक जाने के कारण नानाजी का देहांत हो गया. सब कुछ इतनी जल्दी घटा कि नानी को बहुत गहरा सदमा लगा. अपनी बेटी व नातिन के बारे में सोचना तो दूर, उन्हें अपनी ही सुधबुध न रही. वे पूरी तरह से अपने बेटों पर आश्रित हो गईं और हालात के इस नए समीकरण ने शिखा और उस की मां माला की जिंदगी को फिर से कभी न खत्म होने वाले दुखों के द्वार पर ला खड़ा कर दिया.

नानाजी के असमय देहांत और नानीजी के डगमगाते मानसिक संतुलन ने जमीनजायदाद, रुपएपैसे, यहां तक कि घर के बड़े की पदवी भी मामा के हाथों में थमा दी. अब घर में जो भी निर्णय होता वह मामामामी की मरजी के अनुसार होता. कुछ वक्त तक तो उन निर्णयों पर नानी से हां की मुहर लगवाई जाती रही, पर उस के बाद वह रस्म भी बंद हो गई. छोटे मामामामी बेहतर नौकरी का बहाना बना कर अपना हिस्सा ले कर विदेश में जा कर बस गए. अब बस बड़े मामामामी ही घर के सर्वेसर्वा थे.

मां का अपनी नौकरी से बचाखुचा वक्त रसोई में बीतने लगा था. मां ही सुबह उठ कर चायनाश्ता बनातीं. उस का और अपना टिफिन बनाते वक्त कोई न कोई नाश्ते की भी फरमाइश कर देता, जिसे मां मना नहीं कर पाती थीं. सब काम निबटातेनिबटाते, भागतेदौड़ते वे स्कूल पहुंचतीं.

कई बार तो शिखा को देर से स्कूल पहुंचने पर डांट भी पड़ती. इसी प्रकार शाम को घर लौटने पर जब मां अपनी चाय बनातीं, तो बारीबारी पूरे घर के लोग चाय के लिए आ धमकते और फिर वे रसोई से बाहर ही न आ पातीं. रात में शिखा अपनी पढ़ाई करतेकरते मां का इंतजार करती कि कब वे आएं तो वह उन से किसी सवाल अथवा समस्या का हल पूछे. मगर मां को काम से ही फुरसत नहीं होती और वह कापीकिताब लिएलिए ही सो जाती. जब मां आतीं तो बड़े प्यार से उसे उठा कर खाना खिलातीं और सुला देतीं. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर उसे पढ़ातीं.

यदि वह कभी मामा या मामी के पास किसी प्रश्न का हल पूछने जाती तो वे हंस कर

उस की खिल्ली उड़ाते हुए कहते, ‘‘अरे बिटिया, क्या करना है इतना पढ़लिख कर? अफसरी तो करनी नहीं तुझे. चल, मां के साथ थोड़ा हाथ बंटा ले. काम तो यही आएगा.’’

वह खीज कर वापस आ जाती. परंतु उन की ऐसी उपहास भरी बातों से उस ने हिम्मत न हारी, न ही निराशा को अपने मन में घर करने दिया, बल्कि वह और भी दृढ़ इरादों के साथ पढ़ाई में जुट जाती.

मामामामी अपने बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाते और बाहर से ही खापी कर आते. मगर भूल कर भी कभी न उस से न ही मां से पूछते कि उन का भी कहीं आनेजाने का या बाहर का कुछ खाने का मन तो नहीं? और तो और जब भी घर में कोई बहुत स्वादिष्ठ चीज बनती तो मामी अपने बच्चों को पहले परोसतीं और उन को ज्यादा देतीं. वह एक किनारे चुपचाप अपनी प्लेट लिए, अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में खड़ी रहती.

सब से बाद में मामी अपनी आवाज में बनावटी मिठास भर के उस से बोलतीं, ‘‘अरे बिटिया तू भी आ गई. आओआओ,’’ कह कर बचाखुचा कंजूसी से उस की प्लेट में डाल देतीं. तब उस का मन बहुत कचोटता और कह उठता कि काश, आज उस के भी पापा होते, तो वे उसे कितना प्यार करते, कितने प्यार से उसे खिलाते. तब किसी की भी हिम्मत न होती, जो उस का इस तरह मजाक उड़ाता या खानेपीने को तरसता. तब वह तकिए में मुंह छिपा कर बहुत रोती. मगर फिर मां के आने से पहले ही मुंह धो कर मुसकराने का नाटक करने लगती कि कहीं मां ने उस के आंसू देख लिए तो वे बहुत दुखी हो जाएंगी और वे भी उस के साथ रोने लगेंगी, जो वह हरगिज नहीं चाहती थी.

एकाध बार उस ने गुरुजी से परिवार से मिलने वाले इन कष्टों का जिक्र करना चाहा, परंतु गुरुजी ने हर बार किसी न किसी बहाने से उसे चुप करा दिया. वह समझ गई कि सारी दुनिया की तरह गुरुजी भी बलवान के साथी हैं.

जब वह छोटी थी, तब इन सब बातों से अनजान थी, मगर जैसेजैसे बड़ी होती गई, उसे सारी बातें समझ में आने लगीं और इस सब का कुछ ऐसा असर हुआ कि वह अपनी उम्र के हिसाब से जल्दी एवं ज्यादा ही समझदार हो गई.

उस की मेहनत व लगन रंग लाई और एक दिन वह बहुत बड़ी अफसर बन गई. गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, ऐशोआराम अब सब कुछ उस के पास था.

उस दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर इतना रोईं, इतना रोईं कि पत्थरदिल हो चुके मामामामी की भी आंखें भर आईं. नानी भी बहुत खुश थीं और अपने पूरे कुनबे को फोन कर के उन्होंने बड़े गर्व से यह खबर सुनाई. वे सभी लोग, जो वर्षों से उसे और उस की मां को इस परिवार पर एक बोझ समझते थे, ‘ससुराल से निकाली गई’, ‘मायके में आ कर पड़ी रहने वाली’ समझ कर शक भरी निगाहों से देखते थे और उन्हें देखते ही मुंह फेर लेते थे, आज वही सब लोग उन दोनों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे. मामामामी ने तो उस के अफसर बनने का पूरा क्रैडिट ही स्वयं को दे दिया था और गर्व से इतराते फिर रहे थे.

समय का चक्र मानो फिर से घूम गया था. अब मां व शिखा के प्रति मामामामी का रवैया बदलने लगा था. हर बात में मामी कहतीं, ‘‘अरे जीजी, बैठो न. आप बस हुकुम करो. बहुत काम कर लिया आप ने.’’

मामी के इस रूप का शिखा खूब आनंद लेती. इस दिन के लिए तो वह कितना तरसी थी.

जब सरकारी बंगले में जाने की बात आई, तो सब से पहले मामामामी ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. मगर नानी ने जाने से मना कर दिया, यह कह कर कि इस घर में नानाजी की यादें बसी हैं. वे इसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी. जो जाना चाहे, वह जा सकता है. मां नानी के दिल की हालत समझती थीं. अत: उन्होंने भी जाने से मना कर दिया. तब शिखा ने भी शिफ्ट होने का प्रोग्राम फिलहाल टाल दिया.

इसी बीच एक बहुत ही सुशील और हैंडसम अफसर, जिस का नाम राहुल था की तरफ से शिखा को शादी का प्रस्ताव आया. राहुल ने खुद आगे बढ़ कर शिखा को बताया कि वह उसे बहुत पसंद करता है और उस से शादी करना चाहता है. शिखा को भी राहुल पसंद था.

राहुल शिखा को अपने घर, अपनी मां से भी मिलाने ले गया था. राहुल ने उसे बताया कि किस प्रकार पिताजी के देहांत के बाद मां ने अपने संपूर्ण जीवन की आहुति सिर्फ और सिर्फ उस के पालनपोषण के लिए दे दी. घरघर काम कर के, रातरात भर सिलाईकढ़ाईबुनाई कर के उसे इस लायक बनाया कि आज वह इतना बड़ा अफसर बन पाया है. उस की मां के लिए वह और उस के लिए उस की मां दोनों की बस यही दुनिया थी. राहुल का कहना था कि अब उन की इस 2 छोरों वाली दुनिया का तीसरा छोर शिखा है, जिसे बाकी दोनों छोरों का सहारा भी बनना है एवं उन्हें मजबूती से बांधे भी रखना है.

यह सब सुन कर शिखा को महसूस हुआ था कि यह दुनिया कितनी छोटी है. वह समझती थी कि केवल एक वही दुखों की मारी है, मगर यहां तो राहुल भी कांटों पर चलतेचलते ही उस तक पहुंचा है. अब जब वे दोनों हमसफर बन गए हैं, तो उन की राहें भी एक हैं और मंजिल भी.

राहुल की मां शिखा से मिल कर बहुत खुश हुईं. उन की होने वाली बहू इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी तथा सुशील है, यह देख कर वे खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. झट से उन्होंने अपने गले की सोने की चेन उतार कर शिखा के गले में पहना दी और फिर बड़े स्नेह से शिखा से बोलीं, ‘‘बस बेटी, अब तुम जल्दी से यहां मेरे पास आ जाओ और इस घर को घर बना दो.’’

मगर एक बार फिर शिखा के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े आ गए. राहुल दूसरी जाति का था और उस के यहां मीटमछली बड़े शौक से खाया जाता था जबकि शिखा का परिवार पूरी तरह से पंडित बिरादरी का था, जिन्हें मीटमछली तो दूर प्याजलहसुन से भी परहेज था.

घर पर सब राहुल के साथ उस की शादी के खिलाफ थे. जब शिखा की मां माला ने शिखा को इस शादी के लिए रोकना चाहा तो शिखा तड़प कर बोली, ‘‘मां, तुम भी चाहती हो कि इतिहास फिर से अपनेआप को दोहराए? फिर एक जिंदगी तिलतिल कर के इन धार्मिक आडंबरों और दुनियादारी के ढकोसलों की अग्नि में अपना जीवन स्वाहा कर दे? तुम भी मां…’’ कहतेकहते शिखा रो पड़ी.

शिखा के इस तर्क के आगे माला निरुत्तर हो गईं. वे धीरे से शिखा के पास आईं और उस का सिर सहलाते हुए रुंधी आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी बेटी. बढ़ती उम्र ने नजर ही नहीं, मेरी सोचनेसमझने की शक्ति को भी धुंधला दिया था. मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़ कर और कुछ भी नहीं… हम आज ही यह घर छोड़ देंगी.’’

जब मामामामी को पता लगा कि शिखा का इरादा पक्का है और माला भी उस के साथ है, तो सब का आक्रोश ठंडा पड़ गया. अचानक उन्हें गुरुजी का ध्यान आया कि शायद उन के कहने से शिखा अपना निर्णय बदल दे.

बात गुरुजी तक पहुंची तो वे बिफर उठे. जैसे ही उन्होंने शिखा को कुछ समझाना चाहा, शिखा ने अपने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने गले में पड़ा उन की तसवीर वाला लौकेट उतार कर उन के सामने फेंक दिया.

सब लोग गुस्से में कह उठे, ‘‘यह क्या पागलपन है शिखा?’’

गुरुजी भी आश्चर्यमिश्रित रोष से उसे देखने लगे.

इस पर शिखा दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘बहुत कर ली आप की पूजा और देख ली आप की शक्ति भी, जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. मेरा सर्वस्व अब मेरा होने वाला पति राहुल है, उस का घर ही मेरा मंदिर है, उस की सेवा आप के ढोंगी धर्म और भगवान से बढ़ कर है,’’ कहते हुए शिखा तेजी से उठ कर वहां से निकल गई.

शिखा के इस आत्मविश्वास के आगे सब ने समर्पण कर दिया और फिर खूब धूमधाम से राहुल के साथ उस का विवाह हो गया.

अचानक बादलों की गड़गड़ाहट से शिखा की आंख खुल गई. आंगन में लोगों की चहलकदमी शुरू हो गई थी. आंखें मलती हुई वह उठी और सोचने लगी, यहां दीवान पर लेटेलेटे उस की आंख क्या लगी वह तो अपना अतीत एक बार फिर से जी आई.

‘राहुल अब किसी भी वक्त उसे लेने पहुंचने ही वाला होगा,’ इस खयाल से शिखा के चेहरे पर एक लजीली मुसकान फैल गई.

हत्या या आत्महत्या: क्या हुआ था अनु के साथ?

अनु के विवाह समारोह से उस की विदाई होने के बाद रात को लगभग 2 बजे घर लौटी थी. थकान से सुबह 6 बजे गहरी नींद में थी कि अचानक अनु के घर से, जो मेरे घर के सामने ही था, जोरजोर से विलाप करने की आवाजों से मैं चौंक कर उठ गई. घबराई हुई बालकनी की ओर भागी. उस के घर के बाहर लोगों की भीड़ देख कर किसी अनहोनी की कल्पना कर के मैं स्तब्ध रह गई. रात के कपड़ों में ही मैं बदहवास उस के घर की ओर दौड़ी. ‘अनु… अनु…’ के नाम से मां को विलाप करते देख कर मैं सकते में आ गई.

किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मुझे वहां की स्थिति देख कर समझने में देर नहीं लगी. तो क्या अनु ने वही किया, जिस का मुझे डर था? लेकिन इतनी जल्दी ऐसा करेगी, इस का मुझे अंदेशा नहीं था. कैसे और कहां, यह प्रश्न अनुत्तरित था, लेकिन वास्तविकता तो यह कि अब वह इस दुनिया में नहीं रही. यह बहुत बड़ी त्रासदी थी. अभी उम्र ही क्या थी उस की…? मैं अवाक अपने मुंह पर हाथ रख कर गहन सोच में पड़ गई.

मेरा दिमाग जैसे फटने को हो रहा था. कल दुलहन के वेश में और आज… पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया. मैं मन ही मन बुदबुदाई. मेरी रूह अंदर तक कांप गई. वहां रुकने की हिम्मत नहीं हुई और क्यों कर रुकूं… यह घर मेरे लिए उस के बिना बेगाना है. एक वही तो थी, जिस के कारण मेरा इस घर में आनाजाना था, बाकी लोग तो मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते.

मैं घर आ कर तकिए में मुंह छिपा कर खूब रोई. मां ने आ कर मुझे बहुत सांत्वना देने की कोशिश की तो मैं उन से लिपट कर बिलखते हुए बोली, ‘‘मां, सब की माएं आप जैसे क्यों नहीं होतीं? क्यों लोग अपने बच्चों से अधिक समाज को महत्त्व देते हैं? क्यों अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया का ध्यान रखते हैं? शादी जैसे व्यक्तिगत मामले में भी क्यों समाज की दखलंदाजी होती है? मांबाप का अपने बच्चों के प्रति यह कैसा प्यार है जो सदियों से चली आ रही मान्यताओं को ढोते रहने के लिए उन के जीवन को भी दांव पर लगाने से नहीं चूकते? कितना प्यार करती थी वह जैकब से? सिर्फ वह क्रिश्चियन है…? प्यार क्या धर्म और जाति देख कर होता है? फिर लड़की एक बार मन से जिस के साथ जुड़ जाती है, कैसे किसी दूसरे को पति के रूप में स्वीकार करे?’’ रोतेरोते मन का सारा आक्रोश अपनी मां के सामने उगल कर मैं थक कर उन के कंधे पर सिर रख कर थोड़ी देर के लिए मौन हो गई.

पड़ोसी फर्ज निभाने के लिए मैं अपनी मां के साथ अनु के घर गई. वहां लोगों की खुसरफुसर से ज्ञात हुआ कि विदा होने के बाद गाड़ी में बैठते ही अनु ने जहर खा लिया और एक ओर लुढ़क गई तो दूल्हे ने सोचा कि वह थक कर सो गई होगी. संकोचवश उस ने उसे उठाया नहीं और जब कार दूल्हे के घर के दरवाजे पर पहुंची तो सास तथा अन्य महिलाएं उस की आगवानी के लिए आगे बढ़ीं. जैसे ही सास ने उसे गाड़ी से उतारने के लिए उस का कंधा पकड़ा उन की चीख निकल गई. वहां दुलहन की जगह उस की अकड़ी हुई लाश थी. मुंह से झाग निकल रहा था.

चीख सुन कर सभी लोग दौड़े आए और दुलहन को देख कर सन्न रह गए.

दहेज से लदा ट्रक भी साथसाथ पहुंचा. लेकिन वर पक्ष वाले भले मानस थे, उन्होंने सोचा कि जब बहू ही नहीं रही तो उस सामान का वे क्या करेंगे? इसलिए उसी समय ट्रक को अनु के घर वापस भेज दिया. उन के घर में खुशी की जगह मातम फैल गया. अनु के घर दुखद खबर भिजवा कर उस का अंतिम संस्कार अपने घर पर ही किया. अनु के मातापिता ने अपना सिर पीट लिया, लेकन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़यां चुग गई खेत.

एक बेटी समाज की आधारहीन परंपराओं के तहत तथा उन का अंधा अनुकरण करने वाले मातापिता की सोच के लिए बली चढ़ गई. जीवन हार गया, परंपराएं जीत गईं.

अनु मेरे बचपन की सहेली थी. एक साथ स्कूल और कालेज में पढ़ी, लेकिन जैसे ही उस के मातापिता को ज्ञात हुआ कि मैं किसी विजातीय लड़के से प्रेम विवाह करने वाली हूं, उन्होंने सख्ती से उस पर मेरे से मिलने पर पाबंदी लगाने की कोशिश की, लेकिनउस ने मुझ से मिलनेजुलने पर मांबाप की पाबंदी को दृढ़ता से नकार दिया. उन्हें क्या पता था कि उन की बटी भी अपने सहपाठी, ईसाई लड़के जैकब को दिल दे बैठी है. उन के सच्चे प्यार की साक्षी मुझ से अधिक और कौन होगा? उसे अपने मातापिता की मानसिकता अच्छी तरह पता थी. अकसर कहती थी, ‘‘प्रांजलि, काश मेरी मां की सोच तुम्हारी मां जैसे होती. मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि मातापिता हमें अपनी सोच की जंजीरों में क्यों बांधना चाहते हैं. तो फिर हमें खुले आसमान में विचरने ही क्यों देते हैं? क्यों हमें ईसाई स्कूल में पढ़ाते हैं? क्यों नहीं पहले के जमाने के अनुसार हमारे पंख कतर कर घर में कैद कर लेते हैं? समय के अनुसार इन की सोच क्यों नहीं बदलती? ’’

मैं उस के तर्क सुन कर शब्दहीन हो जाती और सोचती काश मैं उस के मातापिता को समझा पाती कि उन की बेटी किसी अन्य पुरुष को वर के रूप में स्वीकार कर ही नहीं पाएगी, उन्हें बेटी चाहिए या सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन उन्होंने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया था.

अनु एक बहुत ही संवेदनशील और हठी लड़की थी. जैकब भी पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला युवक था. उस के मातापिता भी समझदार और धर्म के पाखंडों से दूर थे. वे अपने इकलौते बेटे को बहुत प्यार करते थे और उस की खुशी उन के लिए सर्वोपरि थी. मैं ने अनु को कई बार समझाया कि बालिग होने के बाद वह अपने मातापिता के विरुद्ध कोर्ट में जा कर भी रजिस्टर्ड विवाह कर सकती है, लेकिन उस का हमेशा एक ही उत्तर होता कि नहीं रे, तुझे पता नहीं हमारी बिरादरी का, मैं अपने लिए जैकब का जीवन खतरे में नहीं डाल सकती… इतना कह कर वह गहरी उदासी में डूब जाती.

मैं उस की कुछ भी मदद न करने में अपने को असहाय पा कर बहुत व्यथित होती. लेकिन मैं ने जैकब और उस के परिवार वालों से कहा कि उस के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाएं, शायद उन्हें समझ में आ जाए,

लेकिन इस में भी अनु के घर वालों को मेरे द्वारा रची गई साजिश की बू आई, इसलिए उन्होंने उन्हें बहुत अपमानित किया और उन के जाने के बाद अनु को मेरा नाम ले कर खूब प्रताडि़त किया. इस के बावजूद जैकब बारबार उस के घर गया और अपने प्यार की दुहाई दी. यहां तक कि उन के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाया भी, लेकिन उन का पत्थर दिल नहीं पिघला और उस की परिणति आज इतनी भयानक… एक कली खिलने से पहले ही मुरझा गई. मातापिता को तो उन के किए का दंड मिला, लेकिन मुझे अपनी प्यारी सखी को खोने का दंश बिना किसी गलती के जीवनभर झेलना पड़ेगा.

लोग अपने स्वार्थवश कि उन की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी, बुढ़ापे का सहारा बनेगा और दैहिक सुख के परिणामस्वरूप बच्चा पैदा करते हैं और पैदा होने के बाद उसे स्वअर्जित संपत्ति मान कर उस के जीवन के हर क्षेत्र के निर्णय की डोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं, जैसे कि वह हाड़मांस का न बना हो कर बेजान पुतली है. यह कैसी मानसिकता है उन की?

कैसी खोखली सोच है कि वे जो भी करते हैं, अपने बच्चों की भलाई के लिए करते हैं? ऐसी भलाई किस काम की, जो बच्चों के जीवन से खुशी ही छीन ले. वे उन की इस सोच से तालमेल नहीं बैठा पाते और बिना पतवार की नाव के समान अवसाद के भंवर में डूब कर जीवन ही नष्ट कर लेते हैं, जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, लेकिन इसे हत्या कहें तो अधिक सार्थक होगा. अनु की हत्या की थी, मातापिता और उन के खोखले समाज ने.

कौन चरित्रहीन – मांगी बच्चों की कस्टडी

उसके हाथों में कोर्ट का नोटिस फड़फड़ा रहा था. हत्प्रभ सी बैठी थी वह… उसे एकदम जड़वत बैठा देख कर उस के दोनों बच्चे उस से चिपक गए. उन के स्पर्श मात्र से उस की ममता का सैलाब उमड़ आया और आंसू बहने लगे. आंसुओं की धार उस के चेहरे को ही नहीं, उस के मन को भी भिगो रही थी. न जाने इस समय वह कितनी भावनाओं की लहरों पर चढ़उतर रही थी. घबराहट, दुख, डर, अपमान, असमंजस… और न जाने क्याक्या झेलना बाकी है अभी. संघर्षों का दौर है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. जब भी उसे लगता कि उस की जिंदगी में अब ठहराव आ गया है, सबकुछ सामान्य हो गया है कि फिर उथलपुथल शुरू हो जाती है.

दोनों बच्चों को अकेले पालने में जो उस ने मुसीबतें झेली थीं, उन के स्थितियों को समझने लायक बड़े होने के बाद उस ने सोचा था कि वे कम हो जाएंगी और ऐसा हुआ भी था. पल्लवी 11 साल की हो गई थी और पल्लव 9 साल का. दोनों अपनी मां की परेशानियों को न सिर्फ समझने लगे थे वरन सचाई से अवगत होने के बाद उन्होंने अपने पापा के बारे में पूछना भी छोड़ दिया था. पिता की कमी वे भी महसूस करते थे, पर नानी और मामा से उन के बारे में थोड़ाबहुत जानने के बाद वे दोनों एक तरह से मां की ढाल बन गए थे. वह नहीं चाहती थी कि उस के बच्चों को अपने पापा का पूरा सच मालूम हो, इसलिए कभी विस्तार से इस बारे में बात नहीं की थी. उसे अपनी ममता पर भरोसा था कि उस के बच्चे उसे गलत नहीं समझेंगे.

कागज पर लिखे शब्द मानो शोर बन कर उस के आसपास चक्कर लगा रहे थे, ‘चरित्रहीन, चरित्रहीन है यह… चरित्रहीन है इसलिए इसे बच्चों को अपने पास रखने का भी हक नहीं है. ऐसी स्त्री के पास बच्चे सुरक्षित कैसे रह सकते हैं? उन्हें अच्छे संस्कार कैसे मिल सकते हैं? इसलिए बच्चों की कस्टडी मुझे मिलनी चाहिए… एक पिता होने के नाते मैं उन का ध्यान ज्यादा अच्छी तरह रख सकता हूं और उन का भविष्य भी सुरक्षित कर सकता हूं…’

चरित्रहीन शब्द किसी हथौड़े की तरह उस के अंतस पर प्रहार कर रहा था. मां को रोता देख पल्लवी ने कोर्ट का कागज मां के हाथों से ले लिया. ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आया. पर इतना अवश्य जान गई कि मां पर इलजाम लगाए जा रहे हैं.

‘‘पल्लव तू सोने जा,’’ पल्लवी ने कहा तो वह बोला, ‘‘मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं. सब जानता हूं. हमारे पापा ने नोटिस भेजा है और वे चाहते हैं कि हम उन के पास जा कर रहें. ऐसा कभी नहीं होगा. मम्मी आप चिंता न करें. मैं ने टीवी में एक सीरियल में देखा था कि कैसे कोर्ट में बच्चों को लेने के लिए लड़ाई होती है. मैं नहीं जाऊंगा पापा के पास. दीदी आप भी नहीं जाना.’’

पल्लव की बात सुन कर वह हैरान रह गई. सही कहते हैं लोग कि वक्त किसी को भी परिपक्व बना सकता है.

‘‘मैं भी नहीं जाऊंगी उन के पास और कोर्ट में जा कर कह दूंगी कि हमें मम्मी के पास ही रहना है. फिर कैसे ले जाएंगे वे हमें. मुझे तो उन की शक्ल तक याद नहीं. इतने सालों तक एक बार भी हम से मिलने नहीं आए. फिर अब क्यों ड्रामा कर रहे हैं?’’ पल्लवी के स्वर में रोष था.

कोई गलती न होने पर भी वह इस समय बच्चों से आंख नहीं मिला पा रही थी. छि: कितने गंदे शब्द लिखे हैं नोटिस में… किसी तरह उस ने उन दोनों को सुलाया.

रात की कालिमा परिवेश में पसर चुकी थी. उसे लगा कि अंधेरा जैसे धीरेधीरे उस की ओर बढ़ रहा है. इस बार यह अंधेरा उस के बच्चों को छीनने के लिए आ रहा है. भयभीत हो उस ने बच्चों की ओर देखा… नहीं, वह अपने बच्चों को अपने से दूर नहीं होने देगी… अपने जिगर के टुकड़ों को कैसे अलग कर सकती है वह?

तब कहां गया था पिता का अधिकार जब उसे बच्चों के साथ घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था? बच्चों की बगल में लेट कर उस ने उन के ऊपर हाथ रख दिया जैसे कोई सुरक्षाकवच डाल दिया हो.

उस के दिलोदिमाग में बारबार चरित्रहीन शब्द किसी पैने शीशे की तरह चुभ रहा था. कितनी आसानी से इस बार उस पर एक और आरोप लगा दिया गया है और विडंबना तो यह है कि उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया गया है जिसे कभी झल्ली, मूर्ख, बेअक्ल और गंवारकहा जाता था. आभा को लगा कि नरेश का स्वर इस कमरे में भी गूंज रहा है कि तुम चरित्रहीन हो… तुम चरित्रहीन हो… उस ने अपने कानों पर हाथ रख लिए. सिर में तेज दर्द होने लगा था.

समय के साथ शब्दों ने नया रूप ले लिया, पर शब्दों की व्यूह रचना तो बरसों पहले ही हो चुकी थी. अचानक ‘तुम गंवार हो… तुम गंवार हो…’ शब्द गूंजने लगे… आभा घिरी हुई रात के बीच अतीत के गलियारों में भटकने लगी…

‘‘मांबाप ने तुम जैसी गंवार मेरे पल्ले बांध मेरी जिंदगी खराब कर दी है. तुम्हारी जगह कोई पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बीवी होती तो मुझे कितनी मदद मिल जाती. एक की कमाई से घर कहां चलता है. तुम्हें तो लगता है कि घर संभाल रही हो तो यही तुम्हारी बहुत बड़ी क्वालिफिकेशन है. अरे घर का काम तो मेड भी कर सकती है, पर कमा कर तो बीवी ही दे सकती है,’’ नरेश हमेशा उस पर झल्लाता रहता.

आभा ज्यादातर चुप ही रहती थी. बहुत पढ़ीलिखी न सही पर ग्रैजुएट थी. बस आगे कोई प्रोफैशनल कोर्स करने का मौका ही नहीं मिला. कालेज खत्म होते ही शादी कर दी गई. सोचा था शादी के बाद पढ़ेगी, पर सासससुर, देवर, ननद और गृहस्थी के कामों में ऐसी उलझी कि अपने बारे में सोच ही नहीं पाई. टेलैंट उस में भी है. मूर्ख नहीं है. कई बार उस का मन करता कि चिल्ला कर एक बार नरेश को चुप ही करा दे, पर सासससुर की इज्जत का मान रखते हुए उस ने अपना मुंह ही सी लिया. घर में विवाद हो, यह वह नहीं चाहती थी.

मगर मन ही मन ठान जरूर लिया था कि वह पढ़ेगी और स्मार्ट बन कर दिखाएगी…

स्मार्ट यानी मौडर्न और वह भी कपड़ों से…

ऐसी नरेश की सोच थी… पर वह स्मार्टनैस सोच में लाने में विश्वास करती थी. जल्दीजल्दी 2 बच्चे हो गए, तो उस की कोशिशें फिर ठहर गईं. बच्चों की अच्छी परवरिश प्राथमिकता बन गई. मगर खर्चे बढ़े तो नरेश की झल्लाहट भी बढ़ गई. बहन की शादी पर लिया कर्ज, भाई की भी पढ़ाई और मांबाप की भी जिम्मेदारी… गलती उस की भी नहीं थी. वह समझ रही थी इसलिए उस ने सिलाई का काम करने का प्रस्ताव रखा, ट्यूशन पढ़ाने का प्रस्ताव रखा पर गालियां ही मिलीं.

‘‘कोई सौफिस्टिकेटेड जौब कर सकती हो तो करो… पर तुम जैसी गंवार को कौन नौकरी देगा. बाहर निकल कर उन वर्किंग वूमन को देखो… क्या बढि़या जिंदगी जीती हैं. पति का हाथ भी बंटाती हैं और उन की शान भी बढ़ाती हैं.’’

आभा सचमुच चाहती थी कि कुछ करे. मगर वह कुछ सोच पाती उस से पहले ही विस्फोट हो गया.

‘‘निकल जा मेरे घर से… और अपने इन बच्चों को भी ले जा. मुझे तेरी जैसी गंवार की जरूरत नहीं… मैं किसी नौकरीपेशा से शादी करूंगा. तेरी जैसी फूहड़ की मुझे कोई जरूरत नहीं.’’

सकते में आ गई थी वह. फूहड़ और गंवार मैं हूं कि नरेश… कह ही नहीं पाई वह.

सासससुर के समझाने पर भी नरेश नहीं माना. उस के खौफ से सभी डरते थे. उस के चेहरे पर उभरे एक राक्षस को देख उस समय वह भी डर गई थी. सोचा कुछ दिनों में जब उस का गुस्सा शांत हो जाएगा, वह वापस आ जाएगी. 2 साल की पल्लवी और 1 साल के पल्लव को ले कर जब उस ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा था तब उसे क्या पता था कि नरेश का गुस्सा कभी शांत होगा ही नहीं.

मायके में आ कर भाईभाभी की मदद व स्नेह पा कर उस ने ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमैंट की पढ़ाई की. फिर जब एक कंपनी में उसे नौकरी मिली तो लगा कि अब उस के सारे संघर्ष खत्म हो गए हैं. बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया. खुद का किराए पर घर ले लिया.

इतने सालों बाद फिर से यह झंझावात कहां से आ गया. यह सच है कि नरेश ने तलाक नहीं लिया था, पर सुनने में आया था कि किसी पैसे वाली औरत के साथ ऐसे ही रह रहा था. सासससुर गांव चले गए थे और देवर अपना घर बसा कर दूसरे शहर में चला गया था. फिर अब बच्चे क्यों चाहिए उसे…

वह इस बार हार नहीं मानेगी… वह लड़ेगी अपने हक के लिए. अपने बच्चों की खातिर. आखिर कब तक उसे नरेश के हिसाब से स्वयं को सांचे में ढालते रहना होगा. उसे अपने अस्तित्व की लड़ाई तो लड़नी ही होगी. आखिर कैसे वह जब चाहे जैसा मरजी इलजाम लगा सकता है और फिर किस हक से… अब वह तलाक लेगी नरेश से.

अदालत में जज के सामने खड़ी थी आभा. ‘‘मैं अपने बच्चों को किसी भी हालत में इसे नहीं सौंप सकती हूं. मेरे बच्चे सिर्फ मेरे हैं. पिता का कोई दायित्व कब निभाया है इस आदमी ने…’’

‘‘तुम्हारी जैसी महत्त्वाकांक्षी, रातों को देर तक बाहर रहने वाली, जरूरत से ज्यादा स्मार्ट और मौडर्न औरत के साथ बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? पुरुषों के साथ मीटिंग के बहाने बाहर जाती है, उन से हंसहंस कर बातें करती है… मैं ने इसे छोड़ दिया तो क्या यह अब किसी भी आदमी के साथ घूमने के लिए आजाद है? जज साहब, मैं इसे अभी भी माफ करने को तैयार हूं. यह चाहे तो वापस आ सकती है. मैं इसे अपना लूंगा.’’

‘‘नहीं. कभी नहीं. तुम इसलिए मुझे अपनाना चाहते हो न, क्योंकि मैं अब कमाती हूं. तुम्हें उस अमीर औरत ने बेइज्जत कर के बाहर निकाल दिया है और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कमा कर खिलाऊं? नरेश मैं तुम्हारे हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं हूं और न ही तुम्हें बच्चों की कस्टडी दूंगी. हां, तुम से तलाक जरूर लूंगी.

‘‘जज साहब अगर बच्चों को अच्छी जिंदगी देने के लिए मेहनत कर पैसा कमाना चारित्रहीनता की निशानी है तो मैं चरित्रहीन हूं. जब मैं घर की देहरी के अंदर खुश थी तो मुझे गंवार कहा गया, जब मैं ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा तो मैं चरत्रिहीन हो गई. आखिर यह कैसी पुरुष मानसिकता है… अपने हिसाब से तोड़तीमरोड़ती रहती है औरत के अस्तित्व को, उस की भावनाओं को अपने दंभ के नीचे कुचलती रहती है… मुझे बताइए मैं चरित्रहीन हूं या नरेश जैसा पुरुष?’’ आभा के आंसू बांध तोड़ने को आतुर हो उठे थे. पर उस ने खुद को मजबूती से संभाला.

‘‘मैं तुम्हें तलाक देने को तैयार नहीं हूं. तुम भिजवा दो तलाक का नोटिस. चक्कर लगाती रहना फिर अदालत के बरसों तक,’’ नरेश फुफकारा था.

केस चलता जा रहा था. पल्लवी और पल्लव को आभा को न चाहते हुए भी केस में घसीटना पड़ा. जज ने कहा कि बच्चे इतने बड़े हैं कि उन से पूछना जरूरी है कि वे किस के साथ रहना चाहते हैं.

‘‘हम इस आदमी को जानते तक नहीं हैं. आज पहली बार देख रहे हैं. फिर इस के साथ कैसे जा सकते हैं? हम अपनी मां के साथ ही रहेंगे.’’

अदालत में 2 साल तक केस चलने के बाद जज साहब ने फैसला सुनाया, ‘‘नरेश को बच्चों की कस्टडी नहीं मिल सकती और आभा पर मानसिक रूप से अत्याचार करने व उस की इज्जत पर कीचड़ उछालने के जुर्म में उस पर मानहानि का मुकदमा चलाया जाए. ऐसी घृणित सोच वाले पुरुष ही औरत की अस्मिता को लहूलुहान करते हैं और समाज में उसे सम्मान दिलाने के बजाय उस के सम्मान को तारतार कर जीवन में आगे बढ़ने से रोकते हैं. आभा को परेशान करने के एवज में नरेश को उन्हें क्व5 लाख का हरजाना भी देना होगा.’’

आभा ने नरेश के आगे तलाक के पेपर रख दिए. बुरी तरह से हारे हुए नरेश के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचा था. दोनों बच्चों के लिए तो वह एक अजनबी ही था. कांपते हाथों से उस ने पेपर्स पर साइन कर दिए. अदालत से बाहर निकलते हुए आभा के कदमों में एक दृढ़ता थी. दोनों बच्चों ने उसे कस कर पकड़ा था.

जरा सी बात : प्रथा का द्वंद्व

प्रथानहीं जानती थी कि यों जरा सी बात का बतंगड़ बन जाएगा. हालांकि अपने क्षणिक आवेश का उसे भी बहुत दुख है, लेकिन अब तो बात उस के हाथ से जा चुकी है. वैसे भी विवाहित ननदों के तेवर सास से कम नहीं होते. फिर रजनी तो इस घर की लाडली छोटी बेटी थी. सब के स्नेह की इकलौती अधिकारी… उस के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार के लिए ये जरा सी बात बहुत बड़ी बात थी.

‘हां, जरा सी बात ही तो थी… क्या हुआ जो आवेश में रजनी को एक थप्पड़ लग गया. उसे इतना तूल देने की क्या जरूरत थी. वैसे भी मैं ने किसी द्ववेष से तो उसे थप्पड़ नहीं मारा था. मैं तो रजनी को अपनी छोटी बहन मानती हूं. रजनी की जगह मेरी अपनी बहन होती तो क्या इसे पी नहीं जाती. लेकिन रजनी लाख बहन जैसी होगी, बहन तो नहीं है न. इसीलिए तांडव मचा रखा है,’ प्रथा जितना सोचती उतना ही उल झती जाती. मामले को सुल झाने का कोई सिरा उस के हाथ नहीं आ रहा था.

दूसरा कोई मसला होता तो प्रथा पति भावेश को अपनी बगल में खड़ा पाती, लेकिन यहां तो मामला उस की अपनी छोटी बहन का है, जिसे रजनी ने अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया है. अब तो भावेश भी उस से नाराज है. किसकिस को मनाए… किसकिस को सफाई दे… प्रथा सम झ नहीं पा रही थी.

हालांकि ननद पर हाथ उठते ही प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो गया था. लेकिन वह जली हुई साड़ी बारबार उसे अपनी गलती नहीं मानने के लिए उकसा रही थी. दरअसल, प्रथा को अपनी सहेली की शादी की सालगिरह पार्टी में जाना था. भावेश पहले ही तैयार हो कर उसे देर करने का ताना मार रहा था ऊपर से जिस साड़ी को वह पहनने की सोच रही थी वह आयरन नहीं की हुई थी.

छुट्टियों में मायके आई हुई ननद ने लाड़ दिखाते हुए भाभी की साड़ी को आयरन करने की जिम्मेदारी ले ली. प्रथा ननद पर री झती हुई बाथरूम में घुस गई. इधर ननदोईजी का फोन आ गया और उधर रजनी बातों में डूब गई. बातों में व्यस्त रजनी आयरन को साड़ी पर से उठाना भूल गई और जब प्रथा बाथरूम से निकली तो अपनी साड़ी को जलते देख कर अपना होश खो बैठी. उस ने ननद को उस की गलती का एहसास करवाने के लिए गुस्से में उस से मोबाइल छीनने की कोशिश की, लेकिन खतरे से अनजान रजनी के अचानक मुंह घुमा लेने से प्रथा का हाथ उस के गाल पर लग गया जिसे उस ने ‘थप्पड़’ कह कर पूरे घर को सिर पर उठा लिया.

देखते ही देखते घर में भूचाल आ गया. घर भर की लाडली बहू अचानक किसी खलनायिका सी अप्रिय हो गई.

मनहूसियत के साए में भी भला कभी रूमानियत खिली है? प्रथा का पार्टी में जाना तो कैंसिल होना ही था. अब सासननद तो रसोई में घुसने से रही क्योंकि वह तो पीडि़त पक्ष था. लिहाजा प्रथा को ही रात के खाने में जुटना पड़ा.

खाने की मेज पर सब के मुंह चपातियों की तरह फूले हुए थे. ननद ने खाने की तरफ देखना तो दूर खाने की मेज पर आने तक से इनकार कर दिया. सास ने बहुत मनाया कि किसी तरह दो कौर हलक से नीचे उतार ले, लेकिन रूठी हुई रानियां भी भला बनवास से कम मानी हैं कभी?

रजनी की जिद थी कि भाभी उस से माफी मांगे. सिर्फ दिखावे भर की नहीं, बल्कि पश्चात्ताप के आंसुओं से तर माफी. उधर प्रथा इसे अपनी गलती ही नहीं मान रही थी तो माफी और पश्चात्ताप का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि वह तो चाह रही थी कि रजनी को उस की कीमती साड़ी जलाने का अफसोस करते हुए स्वयं उस से माफी मांगनी चाहिए.

जिस तरह से एक घर में 2 महत्त्वाकांक्षाएं नहीं रह सकतीं उसी तरह से यहां भी यह जरा सी बात अब प्रतिष्ठा का सवाल बनने लगी थी. रजनी अब यहां एक पल रुकने को तैयार नहीं थी. वहीं सास को डर था कि बात समधियाने तक जाएगी तो बेकार ही धूल उड़ेगी. किसी तरह सास उसे मामला सुलटने तक रुकने के लिए मना सकी. एक उम्मीद भी थी कि हो सकता है 1-2 दिन में प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो जाए.

ससुरजी का कमरा और सास की अध्यक्षता… देर रात तक चारों की मीटिंग चलती रही. प्रथा इस मीटिंग से बहिष्कृत थी. अपने कमरे में विचारों में डूबी प्रथा के लिए पति को अपने पक्ष में करना कठिन नहीं था. पुरुष की नाराजगी भला होती ही कितनी देर तक है… कामिनी स्त्री की पहल जितनी ही न… एक रति शस्त्र में ही पुरुष घुटनों पर आ जाता है. लेकिन आज प्रथा इस अमोघ बाण को चलाने के मूड में भी तो नहीं थी. वह भी देखना चाहती थी कि इस ससुरजी के कमरे में होने वाले मंथन से उस के हिस्से में क्या आता है. जानती थी कि हलाहल ही होगा लेकिन बस आधिकारिक घोषणा का इंतजार कर रही थी.

ढलती रात भावेश ने कमरे में प्रवेश किया. प्रथा जागते हुए भी सोने का नाटक करती रही. भावेश ने उस की कमर के गिर्द घेरा डाल दिया. प्रथा ने कसमसा कर अपना मुंह उस की तरफ घुमाया.

‘‘प्रथा, तुम सुबह रजनी से माफी मांग लेना. बड़ी मुश्किल से उसे इस बात के लिए राजी कर पाए हैं कि वह इस बात को यहीं खत्म कर दे,’’ भावेश ने अपनी आवाज को यथासंभव धीरे रखा ताकि बात बैडरूम से बाहर न जाए.

उस का प्रस्ताव सुनते ही प्रथा के सीने में जलन होने लगी. बोली, ‘‘भावेश तुम भी… जिस ने गलती की उसी का पक्ष ले रहे हो?  एक तो तुम्हारी उस नकचढ़ी बहन ने मेरी इतनी कीमती साड़ी जला दी, ऊपर से तुम चाहते हो कि मैं नाराजगी जाहिर करने का अपना अधिकार भी खो दूं? गिर जाऊं उस के पैरों में? नहीं, मु झ से यह नहीं होगा… किसी सूरत में नहीं.’’

‘‘साड़ी ही तो थी न, जाने दो. मैं वैसी 5 नई ला दूंगा. तुम प्लीज उस से माफी मांग लो,’’ भावेश ने फिर खुशामद की. मगर प्रथा ने कोई जवाब नहीं दिया और पीठ फेर कर सो गई, जो उस के स्पष्ट इनकार का द्योतक था. भावेश ने उसे मजबूत बांह से पकड़ कर जबरदस्ती अपनी तरफ फेरा. प्रथा को उस की यह हरकत बहुत ही नागवार लगी.

‘‘एक थप्पड़ ही तो मारा था न… वह भी उस की गलती पर. यदि वह तुम्हारी

बहन न हो कर मेरी बहन होती तब भी क्या ऐसा ही बवाल मचता? नहीं न? बात आईगई हो जाती. तुम बहनभाई कभी आपस में नहीं लड़े क्या? क्या तुम ने या तुम्हारे मांपापा ने आज तक कभी उस पर हाथ नहीं उठाया? फिर आज ये महाभारत क्यों छिड़ गई?’’ प्रथा ने उस का हाथ  झटकते हुए कहा.

भावेश ने बात आगे न बढ़ाना ही उचित सम झा. उस रात शायद घर का कोई भी सदस्य नहीं सोया होगा. सब अपनेअपने मन को मथ रहे थे. विचारों की झड़ी लगी थी. रजनी अपनी मां के आंचल को भिगो रही थी तो प्रथा तकिए को.

सुबह प्रथा ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी सम झते हुए सब को चाय थमाई, लेकिन आज इस चाय में किसी को कोई मिठास महसूस नहीं हुई. रजनी और सास ने तो कप को छुआ तक नहीं. बस, घूरती रहीं. हरकोई बातचीत शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘भाई, तुम किसे ज्यादा प्यार करते हो मु झे या अपनी बीवी को?’’ अचानक रजनी का अटपटा प्रश्न सुन कर भावेश चौंक गया. उस ने अपनी मां की तरफ देखा. मां ने कन्नी काट ली. पिता ने अपना सिर अखबार में घुसा लिया. प्रथा की निगाहें भी भावेश के चेहरे पर टिक गई.

‘‘यह कैसा बेतुका प्रश्न है?’’ भावेश ने धर्मसंकट से बचना चाहा, लेकिन यह इतना आसान कहां था.

‘‘अटपटाचटपटा मैं नहीं जानती. आप जवाब दो कि यदि आप को बहन औैर बीवी में से एक को चुनना पड़े तो आप किसे चुनेंगे?’’ रजनी ने उसे रणछोड़ नहीं बनने दिया.

भावेश ने देखा कि प्रथा बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए बाथरूम में घुस गई. उस ने राहत की सांस ली. वह रजनी की बगल वाली कुरसी पर आ कर बैठ गया. भावेश ने स्नेह से बहन की गले में अपने हाथ डाल धीरे से गुनगुनाया, ‘‘फूलों का तारों का…सब कहना है…एक हजारों में… मेरी बहना है…’’

दृश्य देख कर मां मुसकराई. पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. रजनी को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया था.

‘‘भाई, यदि आप मु झे सचमुच प्यार करते हो तो भाभी को तलाक दे दो,’’ रजनी ने भाई के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा. उस की आंखें  झर रही थीं.

बहन की बात सुनते ही भावेश को सांप सूंघ गया. उस ने रजनी का मुंह अपने हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? जरा सी बात पर इतना बड़ा फैसला? तलाक का मतलब जानती हो न? एक बार फिर से सोच कर देखो. मेरे खयाल से प्रथा की गलती इतनी बड़ी तो नहीं है जितनी बड़ी तुम सजा तय कर रही हो,’’ भावेश ने रजनी को सम झाने की कोशिश की. फिर अपनी बात के समर्थन में उस ने मांपापा की तरफ देखा, लेकिन मां ने अनसुना कर दिया और पापा तो पहले से ही अखबार में घुसे हुए थे. भावेश निराश हो गया.

‘‘जरा सी बात? क्या बहन के स्वाभिमान पर चोट भाई के लिए जरा सी बात हो सकती है? हम बहनें इसी दिन के लिए राखियां बांधती हैं क्या?’’ रजनी ने गुस्से से कहा.

‘‘रजनी ठीक ही कहती है. वो 2 साल की ब्याही लड़की तुम्हें अपनी सगी बहन से ज्यादा प्यारी हो गई? आज उस ने रजनी से माफी मांगने से मना किया है कल को सासससुर की इज्जत को भी फूंक मार देगी,’’ बहनभाई की बहस को नतीजे पर पहुंचाने की मंशा से मां बोली.

‘‘मनरेगा में बरसात से पहले ही नदीनालों पर बांध बनवाए जा रहे हैं ताकि तबाही होने से रोकी जा सके. सरकार का यह फैसला प्रशंसनीय है,’’ पापा ने अखबार की खबर पढ़ कर सुनाई.

भावेश सम झ गया कि इन का पलड़ा भी बेटी की तरफ ही  झुका हुआ है. कहां तो भावेश सोच रहा था कि इस बार बहन के प्यार को रिश्तों के पलड़े पर रख कर मकान पर उस के हिस्से वाले आधे भाग को भी अपने नाम करवा लेगा, लेकिन यहां तो खुद उस का प्यार ही पलडे़ पर रखा जा रहा है. प्रथा का थप्पड़ उस के मंसूबों की लिखावट पर पानी फेर रहा है. उस ने वैभव ने प्रथा को शीशे में उतारना तय कर लिया. वह इस जरा सी बात के लिए अपना इतना बड़ा नुकसान नहीं कर सकता. फिर वैसे भी यदि वह नुकसान में होगा तो प्रथा भी कहां फायदे में रहेगी.

रजनी दिनभर अपने कमरे में पड़ी रही. सब ने कोशिश कर देख ली, लेकिन वह तो प्रथा को तलाक देने की बात पर अड़ ही गई. हालांकि सब को उस की यह जिद बचकानी ही लग रही थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भय भी सिर उठा रहा था कि इस बार की जीत कहीं प्रथा के सिर पर सींग न उगा दे. कहीं ऐसा न हो कि वह छोटेबड़े का लिहाज ही बिसरा दे…  झाडि़यों को बेतरतीब होने से पहले ही कतर देना ठीक रहता है. इसलिए प्रथा को एक सबक सिखाने के पक्ष में तो सभी थे.

‘‘प्रथा, सुनो न,’’ रात को सोने से पहले भावेश ने स्वर पर चाशनी चढ़ाई. प्रथा ने सिर्फ आंखों से पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘रजनी को सौरी बोल भी दो न. उस का बालहठ सम झ कर. जरा सोचो. यदि यह बात उस की ससुराल चली गई तो वे लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे खासकर तुम्हारे बारे में? तुम जानती हो न कि रजनी के ससुरजी तुम्हें कितना मान देते हैं,’’ भावेश ने निशाना साध कर चोट की. निशाना लगा भी सही जगह पर प्रहार अधिक दमदार न होने के कारण अपने लक्ष्य को बेध नहीं सका.

‘‘इसे बालहठ नहीं इसे तिरिया हठ कहते हैं.’’ प्रथा ने ननद पर व्यंग्य कसते हुए पति के कमजोर ज्ञान पर तीर चला दिया.

भावेश को पत्नी की यह बात खली तो बहुत, लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए उस ने इसे खुशीखुशी सह लिया.

‘‘अरे हां, तुम तो साहित्य में मास्टर्स हो. वह कहावत सुनी ही होगी कि जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. सम झ लो कि आज अपनी जरूरत है और हमें रजनी को मनाना है,’’ भावेश ने आवेश में प्रथा के हाथ पकड़ लिए.

कहावत के अनुसार उस में रजनी के पात्र की कल्पना कर के अनायास प्रथा के चेहरे पर मुसकान आ गई. भावेश को लगा मानो अब उस के प्रयास सही दिशा में जा रहे हैं. उस ने प्रथा को सारी बात बताते हुए उसे अपनी योजना में शामिल कर लिया.

रूठे हुए पतिपत्नी के मिलन के बीच एक प्यारभरी मनुहार की ही तो दूरी होती है. अभिसार के एक इसरार के साथ ही यह दूरी खत्म हो गई. शक्कर के दूध में घुलते ही उस की मिठास कई गुणा बढ़ जाती है.

अगली सुबह प्रथा को सब को गुनगुनाते हुए चाय बनाते देखा तो इस परिवर्तन पर किसी को यकीन नहीं हुआ. भावेश अवश्य राजभरी पुलक के साथ मेज पर हाथों से तबला बजा रहा था. मांपापा उठ कर कमरे से बाहर आ चुके थे. रजनी अभी भी भीतर ही थी. प्रथा ने 3 कप चाय बाहर रखे और 2 कप ले कर रजनी को उठाने चल दी. मांपापा की आंखें लगातार उस का पीछा कर रही थीं.

‘‘आई एम सौरी रजनी. मु झे इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था. प्लीज, मु झे माफ कर दो,’’ प्रथा ने बिस्तर में गुमसुम बैठी ननद के पास बैठते हुए कहा.

रजनी को सुबहसुबह इस माफीनामे की उम्मीद नहीं थी. वह अचकचा गई.

‘‘कल तक मैं इसे जरा सी बात ही सम झ रही थी औैर तुम्हारी जिद को तुम्हारा बचपना, लेकिन कल रात जब से मैं ने ‘थप्पड़’, मूवी देखी है तब से तुम्हारे दर्द को बहुत नजदीक से महसूस कर पा रही हूं. मैं इस बात से शर्मिंदा हूं कि एक स्त्री हो कर मैं तुम्हारे स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर पाई. मैं सचमुच तुम से माफी मांगती हूं… दिल से.’’

रजनी ने देखा प्रथा की पलकें सचमुच नम थी. उस ने एक पल सोचा और फिर भाभी के गले में बाहें डाल दीं. भावेश खुश था कि वह अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने में कामयाब हुआ. मांपापा खुश थे, क्योंकि बेटी भी खुश थी और रजनी भी, क्योंकि एक स्त्री ने दूसरी स्त्री के स्वाभिमान को पोषित किया था.

Mother’s Day Special- उस की मम्मी मेरी अम्मा : दो मांओं की कहानी

दीक्षा की मम्मी उसे कार से मेरे घर छोड़ गईं. मैं संकोच के कारण उन्हें अंदर आने तक को न कह सकी. अंदर बुलाती तो उन्हें हींग, जीरे की दुर्गंध से सनी अम्मा से मिलवाना पड़ता. उस की मम्मी जातेजाते महंगे इत्र की भीनीभीनी खुशबू छोड़ गई थीं, जो काफी देर तक मेरे मन को सुगंधित किए रही.

मेरे न चाहते हुए भी दीक्षा सीधे रसोई की तरफ चली गई और बोली, ‘‘रसोई से मसालों की चटपटी सी सुगंध आ रही है. मौसी क्या बना रही हैं?’’

मैं ने मन ही मन कहा, ‘सुगंध या दुर्गंध?’ फिर झेंपते हुए बोली, ‘‘पतौड़े.’’

दीक्षा चहक कर बोली, ‘‘सच, 3-4 साल पहले दादीमां के गांव में खाए थे.’’

मैं ने दीक्षा को लताड़ा, ‘‘धत, पतौड़े भी कोई खास चीज होती है. तेरे घर उस दिन पेस्ट्री खाई थी, कितनी स्वादिष्ठ थी, मुंह में घुलती चली गई थी.’’

दीक्षा पतौड़ों की ओर देखती हुई बोली, ‘‘मम्मी से कुछ भी बनाने को कहो तो बाजार से न जाने कबकब की सड़ी पेस्ट्री उठा लाएंगी, न खट्टे में, न ढंग से मीठे में. रसोई की दहलीज पार करते ही जैसे मेरी मम्मी के पैर जलने लगते हैं. कुंदन जो भी बना दे, हमारे लिए तो वही मोहनभोग है.’’

अम्मा ने दही, सौंठ डाल कर दीक्षा को एक प्लेट में पतौड़े दिए तो उस ने चटखारे लेले कर खाने शुरू कर दिए. मैं मन ही मन सोच रही थी, ‘कृष्ण सुदामा के तंबुल खा रहे हैं, वरना दीक्षा के घर तो कितनी ही तरह के बिस्कुट रखे रहते हैं. अम्मा से कुछ बाजार से मंगाने को कहो तो तुरंत घर पर बनाने बैठ जाएंगी. ऊपर से दस लैक्चर और थोक के भाव बताने लगेंगी, ताजी चीज खाया करो, बाजार में न जाने कैसाकैसा तो तेल डालते हैं.’

दीक्षा प्लेट को चाटचाट कर साफ कर रही थी और मैं उस की मम्मी, उस के घर के बारे में सोचे जा रही थी, ‘दीक्षा की मम्मी साड़ी और मैचिंग ब्लाउज में मुसकराती हुई कितनी स्मार्ट लगती हैं. यदि वे क्लब चली जाती हैं तो कुंदन लौन में कुरसियां लगा देता है और अच्छेअच्छे बिस्कुटों व गुजराती चिवड़े से प्लेटें भरता जाता है. अम्मा तो बस कहीं आनेजाने में ही साड़ी पहनती हैं और उन के साथ लाल, काले, सफेद रूबिया के 3 साधारण ब्लाउजों से काम चला लेती हैं.’

प्लेट रखते हुए दीक्षा अम्मा से बोली, ‘‘मौसी, आप ने कितने स्वादिष्ठ पतौड़े बनाए हैं. दादी ने तो अरवी के पत्ते काट कर पतौड़े बनाए थे, पर उन में वह बात कहां जो आप के चटपटे पतौड़ों में है.’’

मैं और दीक्षा कैरम खेलने लगीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी आज कहां गई हैं?’’

दीक्षा ने उदासी से उत्तर दिया, ‘‘उन का महिला क्लब गरीब बच्चों के लिए चैरिटी शो कर रहा है, उसी में गई हैं.’’

मैं ने आश्चर्य से चहक कर कहा, ‘‘सच? मौसी घर के साथसाथ समाजसेवा भी खूब कर लेती हैं. एक मेरी अम्मा हैं कि कहीं निकलती ही नहीं. हमेशा समय का रोना रोती रहेंगी. कभी कहो कि अम्मा, मौल घुमा लाओ, तो पिताजी को साथ भेज देंगी. तुम्हारी मम्मी कितनी टिपटौप रहती हैं. अम्मा कभी हमारे साथ चलेंगी भी तो यों ही चल देंगी. दीक्षा, सच तो यह है कि मौसीजी तेरी मम्मी नहीं, वरन दीदी लगती हैं,’’ मैं मन ही मन अम्मा पर खीजी.

रसोई से अम्मा की खटरपटर की आवाज आ रही थी. वे मेरे और दीक्षा के लिए मोटेमोटे से 2 प्यालों में चाय ले आईं. दीक्षा उन से लगभग लिपटते हुए बोली, ‘‘मौसी, आप भी कमाल हैं, बच्चों का कितना ध्यान रखती हैं. आइए, आप भी कैरम खेलिए.’’

अम्मा छिपी रुस्तम निकलीं. एकसाथ 2-2, 3-3 गोटियां निकाल कर स्ट्राइकर छोड़तीं. अचानक उन को जैसे कुछ याद आया. कैरम बीच में ही छोड़ कर कहते हुए उठ गईं, ‘‘मुझे मसाले कूट कर रखने हैं. तुम लोग खेलो.’’

अम्मा के जाने के बाद दीक्षा आश्चर्य से बोली, ‘‘तुम लोग बाजार से पैकेट वाले मसाले नहीं मंगाते?’’

मेरा सिर फिर शर्म से झुक गया. रसोई से इमामदस्ते की खटखट मेरे हृदय पर हथौड़े चलाने लगी, ‘‘कई बार मिक्सी के लिए बजट बना, पर हर बार पैसे किसी न किसी काम में आते रहे. अंत में हार कर अम्मा ने मिक्सी के विचार को मुक्ति दे दी कि इमामदस्ते और सिलबट्टे से ही काम चल जाएगा. मिक्सी बातबात में खराब होती रहती है और फिर बिजली भी तो झिंकाझिंका कर आती है. ऐसे में मिक्सी रानी तो बस अलमारी में ही सजी रहेंगी.’’

मुझे टैस्ट की तैयारी करनी थी, मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी चैरिटी शो से कब लौटेंगी? तेरे पापा भी तो औफिस से आने वाले हैं.’’

दीक्षा ने लंबी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘मम्मी का क्या पता, कब लौटें? और पापा को तो अपने टूर प्रोग्रामों से ही फुरसत नहीं रहती, महीने में 4-5 दिन ही घर पर रहते हैं.’’

अतृप्ति मेरे मन में कौंधी, ‘एक अपने पिताजी हैं, कभी टूर पर जाते ही नहीं. बस, औफिस से आते ही हम भाईबहनों को पढ़ाने बैठ जाएंगे. टूर प्रोग्राम तो टालते ही रहते हैं. दीक्षा के पापा उस के लिए बाहर से कितना सामान लाते होंगे.’

मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘सच दीक्षा, फिर तो तेरा सारा सामान भारत के कोनेकोने से आता होगा?’’

दीक्षा रोनी सूरत बना कर बोली, ‘‘घर पूरा अजायबघर बन गया है और फिर वहां रहता ही कौन है? बस, पापा का लाया हुआ सामान ही तो रहता है घर में. महल्ले की औरतें व्यंग्य से मम्मी को नगरनाइन कहती हैं, उन्हें समाज कल्याण से फुरसत जो नहीं रहती. होमवर्क तक समझने को तरस जाती हूं मैं. मम्मी आती हैं तो सिर पर कस कर रूमाल बांध कर सो जाती हैं.’’

पहली बार दीक्षा के प्रति मेरे हृदय की ईर्ष्या कुछ कम हुई. उस की जगह दया ने ले ली, ‘बेचारी दीक्षा, तभी तो इसे स्कूल में अकसर सजा मिलती है. इस का मतलब अभी यह जमेगी हमारे घर.’

अम्मा ने रसोई से आ कर प्यार से कहा, ‘‘चलो दीक्षा, सीमा, कल के लिए कुछ पढ़ लो. ये आएंगे तो सब साथसाथ खाना खा लेना. उस के बाद उन से पढ़ लेना. कल तुम लोगों के 2-2 टैस्ट हैं, बेटे.’’

दीक्षा ने अम्मा की ओर देखा और मेरे साथ ही इतिहास के टैस्ट की तैयारी करने लगी. उसे कुछ भी तो याद नहीं था. उस की रोनीसूरत देख कर अम्मा उसे पाठ याद करवाने लगीं. जैसेजैसे वह उसे सरल करकर के याद करवाती जा रही थीं, उस के चेहरे की चमक लौटती जा रही थी. आत्मविश्वास उस के चेहरे पर झलकने लगा था.

पिताजी औफिस से आए तो हम सब के साथ खाना खा कर उन्होंने मुझे तथा दीक्षा को गणित के टैस्ट की तैयारी के लिए बैठा दिया. दीक्षा को पहाडे़ भी ढंग से याद नहीं थे. जोड़जोड़ कर पहाड़े वाले सवाल कर रही थी. तभी दीक्षा की मम्मी कार ले कर उसे लेने आ गईं.

अम्मा सकुचाई सी बोलीं, ‘‘दीक्षा को मैं ने जबरदस्ती खाना खिला दिया है. जो कुछ भी बना है, आप भी खा लीजिए.’’

थोड़ी नानुकुर के बाद दीक्षा की मम्मी ने हमारे उलटेसीधे बरतनों में खाना खा लिया. मैं शर्र्म से पानीपानी हो गई. स्टूल और कुरसी से डाइनिंग टेबल का काम लिया. न सौस, न सलाद. सोचा, अम्मा को भी क्या सूझी? हां, उन्होंने उड़द की दाल के पापड़ घर पर बनाए थे. अचानक ध्यान आया तो मैं ने खाने के साथ उन्हें भून दिया. दीक्षा की मम्मी ने भी दीक्षा की ही तरह हमारे घर का खाना चटखारे लेले कर खाया. फिर मांबेटी चली गईं.

अब अकसर दीक्षा की मम्मी उसे हमारे घर कार से छोड़ जातीं और रात को ले जातीं. समाज कल्याण के कार्यों में वे पहले से भी अधिक उलझती जा रही थीं. शुरूशुरू में दीक्षा को संकोच हुआ, पर धीरेधीरे हम भाईबहनों के बीच उस का संकोच कच्चे रंग सा धुल गया. पिताजी औफिस से आ कर हम सब के साथ उसे भी पढ़ाते और गलती होने पर उस की खूब खबर लेते.

मैं ने दीक्षा से पूछा, ‘‘पिताजी तुझे डांटते हैं तो कितना बुरा लगता होगा? उन्हें तुझे डांटना नहीं चाहिए.’’

दीक्षा मुसकराई, ‘‘धत पगली, मुझे अच्छा लगता है. मेरे लिए उन के पास वक्त है. दवाई भी तो कड़वी होती है, पर वह हमें ठीक भी करती है. मेरे मम्मीपापा के पास तो मुझे डांटने के लिए भी समय नहीं है.’’

मुझे दीक्षा की बुद्धि पर तरस आने लगा, ‘अपने मम्मीपापा की तुलना मेरे मातापिता से कर रही है. मेरे पिताजी क्लर्क और उस के पापा बहुत बड़े अफसर. उस की मम्मी कई समाजसेवी संस्थाओं की सदस्या, मेरी अम्मा घरघुस्सू. उस के  पापा क्लबों, टूरों में समय बिताने वाले, मेरे पिताजी ट्यूशन का पैसा बचाने में माहिर. उस की मम्मी सुंदरता का पर्याय, मेरी अम्मा को आईना देखने तक की भी फुरसत मुश्किल से ही मिल पाती है.’

अचानक दीक्षा 1 और 2 जनवरी को विद्यालय नहीं आई. यदि वह 3 जनवरी को भी नहीं आती तो उस का नाम कट जाता. इसलिए मैं 3 जनवरी को विद्यालय जाने से पूर्व उस के घर जा पहुंची. काफी देर घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला.

मैं आश्चर्यचकित हो दीक्षा को देखे चली जा रही थी. वह एकदम मुरझाए हुए फूल जैसी लग रही थी. मैं ने उसे मीठी डांट पिलाते हुए कहा, ‘‘दीक्षा, तू बीमार है, मुझे मैसेज तो कर देती.’’

वह फीकी सी हंसी के साथ बोली, ‘‘मम्मी पास के गांवों में बच्चों को पोलियो की दवाई पिलवाने चली जाती हैं…’’

‘‘और कुंदन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘4-5 दिनों से गांव गया हुआ है. उस की बेटी बीमार है.’’

पहली बार मेरे मन में दीक्षा की मम्मी के लिए रोष के तीव्र स्वर उभरे, ‘‘और तू जो बीमार है तो तेरे लिए मौसीजी का समाजसेविका वाला रूप क्यों धुंधला जाता है. चैरिटी घर से ही शुरू होती है.’’ यह कह कर मैं ने उस को बिस्तर पर बैठाया.

दीक्षा ने बात पूरी की, ‘‘पर घर की  चैरिटी से मम्मी को प्रशंसा के पदक और प्रमाणपत्र तो नहीं मिलते. गवर्नर उन्हें भरी सभा में ‘कल्याणी’ की उपाधि तो नहीं प्रदान करता.’’

शो केस में सजे मौसी को मिले चमचमाते पदक, जो मुझे सदैव आकर्षित करते

थे, तब बेहद फीके से लगे. अचानक मुझे पिछली गरमी में खुद को हुए मलेरिया के बुखार का ध्यान आ गया. बोली, ‘‘दीक्षा, मुझे कहलवा दिया होता. मैं ही तेरे पास बैठी रहती. मुझे जब मलेरिया हुआ था तो मैं अम्मा को अपने पास से उठने तक नहीं देती थी. बस, मेरी आंख जरा लगती थी, तभी वे झटपट रसोई में कुछ बना आती थीं.’’

दीक्षा के सिरहाने बिस्कुट का पैकेट तथा थर्मस में गरम पानी रखा हुआ था. मैं ने उसे चाय बना कर दी. फिर स्कूल जा कर अपनी और दीक्षा की छुट्टी का प्रार्थनापत्र दे आई. लौटते हुए अम्मा को सब बताती भी आई.

पूरा दिन मैं दीक्षा के पास बैठी रही. थर्मस का पानी खत्म हो चुका था. मैं ने थर्मस गरम पानी से भर दिया. दीक्षा का मन लगाने के लिए उस के साथ वीडियो गेम्स खेलती रही.

शाम को मौसीजी लौटीं. उन की सुंदरता, जो मुझे सदैव आकर्षित करती थी, कहीं गहन वन की कंदरा में छिप गई थी. बालों में चांदी के तार चमक रहे थे. मुंह पर झुर्रियों की सिलवटें पड़ी थीं. उन में सुंदरता मुझे लाख ढूंढ़ने पर भी न मिली.

वे आते ही झल्लाईं, ‘‘यह पार्लर भी न जाने कब खुलेगा. रोज सुबहशाम चक्कर काटती हूं. आजकल मुझे न जाने कहांकहां जाना पड़ता है. कोई पहचान ही नहीं पाता. यदि पार्लर कल भी न खुला तो मैं घर पर ही बैठी रहूंगी. इस हाल में बाहर जाते हुए मुझे शर्म आती है. सभी आंखें फाड़फाड़ कर देखते हैं कि कहीं मैं बीमार तो नहीं.’’

मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, मौसी कल से दीक्षा के पास पार्लर न खुलने की ही मजबूरी में रहेंगी. उन की सुंदरता ब्यूटीपार्लर की देन है. क्रीम की न जाने कितनी परतें चढ़ती होंगी.

मन ही मन मेरा स्वर विद्रोही हो उठा, ‘मौसी, तब भी आप को अपनी बीमार बिटिया का ध्यान नहीं आता. कुंदन, ब्यूटीपार्लर…सभी तो बारीबारी से बीमार दीक्षा की ओर संकेत करते हैं. आप ने तो यह भी ध्यान नहीं किया कि स्कूल में 3 दिनों की अनुपस्थिति में दीक्षा का नाम कटतेकटते रह गया.

‘ओह, मेरी अम्मा कितनी अच्छी हैं. उन के बिना मैं घर की कल्पना ही नहीं कर सकती. वे हमारे घर की धुरी हैं, जो पूरे घर को चलाती हैं. आप से ज्यादा तो कुंदन आप के घर को चलाने वाला सदस्य है.

मेरी अम्मा की जो भी शक्लसूरत है, वह उन की अपनी है, किसी ब्यूटीपार्लर से उधार में मांगी हुई नहीं. यदि आप का ब्यूटीपार्लर 4 दिन भी न खुले तो आप की सुंदरता दम तोड़ देती है. अम्मा ने 2 कमरों के मकान को घर बनाया हुआ है, जबकि आप का लंबाचौड़ा बंगला, बस, शानदार मगर सुनसान स्मारक सा लगता है.

‘मौसी, आप कितनी स्वार्थी हैं कि अपने बच्चों को अपना समय नहीं दे सकतीं, जबकि हमारी अम्मा का हर पल हमारा है.’

मेरा मन भटके पक्षी सा अपने नीड़ में मां के पास जाने को व्याकुल होने लगा.

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