दूसरी भूल : अनीता की कशमकश

अनीता बाजार से कुछ घरेलू चीजें खरीद कर टैंपू में बैठी हुई घर की ओर आ रही थी. एक जगह पर टैंपू रुका. उस टैंपू में से 4 सवारियां उतरीं और एक सवारी सामने वाली सीट पर आ कर बैठ गई.जैसे ही अनीता की नजर उस सवारी पर पड़ी, तो वह एकदम चौंक गई और उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

इस से पहले कि अनीता कुछ कहती, सामने बैठा हुआ नौजवान, जिस का नाम मनोज था, ने उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे अनीता, तुम?’’

‘‘हां मैं,’’ अनीता ने बड़े ही बेमन से जवाब दिया.

‘‘तुम कैसी हो? आज हम काफी दिन बाद मिल रहे?हैं,’’ मनोज के चेहरे पर खुशी तैर रही थी.

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मुझे पता चला था कि यहां इस शहर में तुम्हारी शादी हुई है. जान सकता हूं कि परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे पति, 2 बेटियां और एक बेटा,’’ अनीता बोली.

‘‘तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’

‘‘कार मेकैनिक हैं.’’

‘‘क्या नाम है?’’

‘‘नरेंद्र कुमार.’’

‘‘मैं यहां अपनी कंपनी के काम से आया था. अब काम हो चुका है. रात की ट्रेन से वापस चला जाऊंगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘घर का पता नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या करोगे पता ले कर?’’ अनीता कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘कभी तुम से मिलने आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या करोगे मिल कर? देखो मनोज, अब मेरी शादी हो चुकी?है और मुझे उम्मीद है कि तुम ने भी शादी कर ली होगी. तुम्हारे घर में भी पत्नी व बच्चे होंगे.’’

‘‘हां, पत्नी और 2 बेटे हैं. तुम मुझे पता बता दो. वैसे, तुम्हारे घर आने का मेरा कोई हक तो नहीं है, पर एक पुराने प्रेमी नहीं, बल्कि एक दोस्त के रूप में आ जाऊंगा किसी दिन.’’

‘‘शिव मंदिर के सामने, जवाहर नगर,’’ अनीता ने कहा.

कुछ देर बाद टैंपू रुका. अनीता टैंपू से उतरने लगी.

‘‘अनीता, अब तो रात को मैं वापस आगरा जा रहा हूं, फिर किसी दिन आऊंगा.’’

अनीता ने कोई जवाब नहीं दिया. घर पहुंच कर उस ने देखा कि उस की बड़ी बेटी कल्पना, छोटी बेटी अल्पना और बेटा कमल कमरे में बैठे हुए स्कूल का काम कर रहे थे.

अनीता ने कल्पना से कहा, ‘‘बेटी, मैं जरा आराम कर रही हूं. सिर में तेज दर्द है.’’

‘‘मम्मी, आप को डिस्प्रिन की दवा या चाय दूं?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘नहीं बेटी, कुछ नहीं,’’ अनीता ने कहा और दूसरे कमरे में जा कर लेट गई.

अनीता को तकरीबन 11 साल पहले की बातें याद आने लगीं. जब वह 12वीं जमात में पढ़ रही थी. कालेज से छुट्टी होने पर वह एक नौजवान को अपने इंतजार में पाती थी. वह मनोज ही था. उन दोनों का प्यार बढ़ने लगा. अनीता जान चुकी थी कि मनोज किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रहा है.

मनोज के पिताजी का अपना कारोबार था और अनीता के पिताजी का भी. वे दोनों शादी करना चाहते थे, पर अनीता के पापा को यह रिश्ता बिलकुल मंजूर नहीं था.

लिहाजा, अनीता और मनोज ने घर से भागने की ठान ली. घर से 50 हजार रुपए नकद व कुछ जेवर ले कर अनीता मनोज के साथ जयपुर जाने वाली ट्रेन में बैठ गई थी.

जयपुर पहुंच कर वे 8-10 दिन होटल में रहे. पता नहीं, पुलिस को कैसे पता चल गया और उन दोनों को पकड़ लिया गया. अनीता के पापा को आगरा से बुलाया गया. मनोज को पुलिस ने नहीं छोड़ा. नाबालिग लड़की को भगाने के अपराध में जेल भेज दिया गया.

पापा को अनीता से बहुत नफरत हो गई थी, क्योंकि उस ने कहना नहीं माना था.

अनीता ने आगे पढ़ाई करने को कहा था, पर पापा ने मना कर दिया था और उस की शादी करने की ठान ली थी. उस के लिए रिश्ते ढूंढ़े जाने लगे.

सालभर इधरउधर धक्के खाने के बाद पापा को एक रिश्ता मिल ही गया था. विधुर नरेंद्र की उम्र 35 साल थी. उस की पत्नी की एक हादसे में मौत हो चुकी थी. उस की 2 बेटियां थीं. एक 5 साल की और दूसरी 3 साल की.

नरेंद्र एक कार मेकैनिक था. उस की अपनी वर्कशौप थी. पापा ने नरेंद्र से जब शादी की बात की, तो उसे सब सच बता दिया था. नरेंद्र ने सब जान कर भी मना नहीं किया था.

अनीता शादी कर के नरेंद्र के घर आ गई थी. अब वह 2 बेटियों की मां बन गई थी.

एक दिन नरेंद्र ने कहा था, ‘देखो अनीता, मुझे तुम्हारी पिछली जिंदगी से कोई मतलब नहीं. तुम भी वह सब भुला दो. इस घर में आने का मतलब है कि अब तुम्हें एक नई जिंदगी शुरू करनी है. अब तुम अल्पना और कल्पना की मम्मी हो… तुम्हें इन दोनों को पालना है.’

‘जी हां, मैं ऐसा ही करूंगी. अब कल्पना और अल्पना आप की ही नहीं, मेरी भी बेटियां हैं,’ अनीता ने कहा था.

एक साल बाद अनीता ने एक बेटे को जन्म दिया था. बेटा पा कर नरेंद्र बहुत खुश हुआ था. बेटे का नाम कमल रखा गया था.

अनीता नरेंद्र को पति के रूप में पा कर खुश थी और उस ने भी कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. पापामम्मी भी अपना गुस्सा भूल कर अब उस से मिलने आने लगे थे.

आज दोपहर अनीता की अचानक मनोज से मुलाकात हो गई. उसे मनोज को घर का पता नहीं देना चाहिए था.

उस के दिल में एक अनजाना सा डर बैठने लगा. वह आंखें बंद किए चुपचाप लेटी रही.

अगले दिन सुबह के तकरीबन 11 बजे अनीता रसोई में खाना तैयार कर रही थी. कालबेल बज उठी. उस ने दरवाजा खोला, तो सामने मनोज खड़ा था.

‘‘तुम…’’ अनीता के मुंह से अचानक ही निकला,’’ तुम तो कह रहे थे कि मैं रात की गाड़ी से आगरा जा रहा हूं.’’

‘‘अनीता, मुझे रात की गाड़ी से ही आगरा जाना था, पर टैंपू में तुम से मिलने के बाद मेरा दिल दोबारा मिलने को बेचैन हो उठा. होटल में रातभर नींद नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम नहीं जानती अनीता कि मैं आज भी तुम को कितना चाहता हूं,’’ मनोज ने कहा.

अनीता चुपचाप खड़ी रही. उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अनीता, अंदर आने के लिए नहीं कहोगी क्या? मैं तुम से केवल 10 मिनट बातें करना चाहता हूं.’’

‘‘आओ,’’ न चाहते हुए भी अनीता के मुंह से निकल गया.

कमरे में सोफे पर बैठते हुए मनोज ने इधरउधर देखते हुए पूछा, ‘‘कोई दिखाई नहीं दे रहा है… सभी कहीं गए हैं क्या?’’

‘‘बच्चे स्कूल गए हैं और नरेंद्र वर्कशौप गए हैं,’’ अनीता बोली.

तभी रसोई से गैस पर रखे कुकर से सीटी की आवाज सुनाई दी.

‘‘जो कहना है, जल्दी कहो. मुझे खाना बनाना है.’’

‘‘अनीता, तुम अब पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई हो. दिल करता है कि तुम्हें देखता ही रहूं. क्या तुम्हें जयपुर के होटल के उस कमरे की याद आती है, जहां हम ने रातें गुजारी थीं?’’

‘‘क्या यही कहने के लिए तुम यहां आए हो?’’

‘‘अनीता, मैं तुम्हारे पति को सब बताना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उन्हें क्या बताओगे?’’ अनीता ने घबरा कर पूछा.

‘‘मैं नरेंद्र से कहूंगा कि जयपुर में मैं अकेला ही नहीं था. मेरे 2 दोस्त और भी थे, जिन के साथ अनीता ने खूब मस्ती की थी.’’

‘‘झठ, बिलकुल झूठ,’’ अनीता गुस्से से चीखी.

‘‘यह झूठ है, पर इसे मैं और तुम ही तो जानते हैं. तुम्हारा पति तो सुनते ही एकदम यकीन कर लेगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा.

अनीता ने हाथ जोड़ कर पूछा, ‘‘तुम आखिर चाहते क्या हो?’’

‘‘मैं चाहता हूं कि आज दोपहर बाद तुम मेरे होटल के कमरे में आ जाओ.’’

‘‘नहीं मनोज, मैं नहीं आऊंगी. अब मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोलूंगी. नरेंद्र मुझ पर बहुत विश्वास करते हैं. मैं उन से विश्वासघात नहीं करूंगी,’’ अनीता ने मनोज से घूरते हुए कहा.

‘‘तो ठीक है अनीता, मैं नरेंद्र से मिलने जा रहा हूं वर्कशौप पर,’’ मनोज ने कहा.

‘‘वर्कशौप जाने की जरूरत नहीं है. मैं यहीं आ गया हूं,’’ नरेंद्र की आवाज सुनाई पड़ी.

यह देख अनीता और मनोज बुरी तरह चौंक उठे. अनीता के चेहरे का रंग एकदम पीला पड़ गया.

‘‘यहां क्यों आया है?’’ नरेंद्र ने मनोज को घूरते हुए पूछा, ‘‘तुझे इस घर का पता किस ने दिया?’’

‘‘अनीता ने. कल यह मुझे बाजार में मिली थी,’’ मनोज बोला.

अनीता ने घबराते हुए नरेंद्र को पूरी बात बता दी.

‘‘अबे, तुझे अनीता ने पता क्या इसलिए दिया था कि तू घर आए और उसे ब्लैकमेल करे. मैं ने तुम दोनों की बातें सुन ली हैं. अब तू यहां से दफा हो जा. फिर कभी इस घर में आने की कोशिश की, तो पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’ नरेंद्र ने मनोज की ओर नफरत से देखते हुए गुस्साई आवाज में कहा.

मनोज चुपचाप घर से निकल गया.अनीता को रुलाई आ गई. वह सुबकते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई, जो मैं ने मनोज को घर का पता दे दिया था.’’

‘‘हां अनीता, यह तुम्हारी जिंदगी की दूसरी भूल है, जो तुम ने अपने दुश्मन को घर में आने दिया. मनोज तुम्हारा प्रेमी नहीं, बल्कि दुश्मन था. सच्चे प्रेमी कभी भी अपनी प्रेमिका को घर से रुपएगहने वगैरह ले कर भागने को नहीं कहते.’’

अनीता की आंखों से आंसू बहते रहे. नरेंद्र ने उस के चेहरे से आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘अनीता, मुझे तुम पर बहुत विश्वास था, पर आज की बातें सुन कर यह विश्वास और बढ़ गया है. वैसे तो मनोज अब यहां नहीं आएगा और अगर आ भी गया, तो मुझे फोन कर देना. मैं उसे पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

नरेंद्र की यह बात सुन कर अनीता के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘आप कितने अच्छे हैं…’

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 4

वह पहले से जल्दी उठता. दोनों भागदौड़ कर तैयार होते. बैडरूम ठीक करते. अपनेअपने कपड़े प्रैस करते, उन्हें अलमारियों में लगाते. नाश्ते के लिए एक टोस्ट सेंकता तो दूसरा कोल्ड कौफी बनाता. एक कौर्नफ्लैक्स बाउल में डालता तो दूसरा दूध गिलास में. एक औमलेट बनाता तो दूसरा टोस्ट पर बटर लगाता. सुजाता खुद कामकाजी थीं. इसलिए उन की बहुत अधिक मदद नहीं कर सकती थीं. बस, घर की व्यवस्था उन्हें ठीकठाक मिल रही थी. राशनपानी, सब्जी कब कहां से आएगा, कामवाली कब काम करेगी, खाना कब बनेगा, इस का सिरदर्द न होना भी बहुत बड़ी मदद थी. इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर मदद को ले कर वे चुप ही रहती थीं.

लेकिन परिमल को हर कदम पर अवनी का साथ व स्वतंत्रता देते देख, सुजाता को अपना जीवन व्यर्थ जाया जाने जैसा लगता. वे खुद तो कभी नौकरी व घर के बीच पूरी ही नहीं पड़ीं. ऊपर से सारे रिश्तेनाते. अवनी को तो रिश्तेनाते निभाने की कोई फिक्र ही नहीं थी. यहां तक तो उस की न तो सोच जाती न ही समय था. उस पर भी अब परिवार छोटे. एक टाइम की चाय भी नहीं पिलानी है. और फिर व्हाट्सऐप…चाय की प्याली भी गुडमौर्निंग के साथ व्हाट्सऐप पर भेज दो, और जरूरत पड़ने पर बर्थडे केक भी, यह सब सोच कर सुजाता मन ही मन मुसकराईं.

अवनी की पीढ़ी की लड़कियों ने जैसे एक युद्ध छेड़ रखा है. वर्षों से आ रही नारी की पारंपरिक छवि के विरुद्ध सुजाता सोचतीं, भले ही कितना कोस लो आजकल की लड़कियों को, सच तो यह है कि सही मानो में वे अपना जीवन जी रही हैं. मुखरित हो चुकी हैं, यह पीढ़ी ऐसा ही जीवन शायद उन की पीढ़ी या उन से पहले और उन से पहले की भी पीढ़ी की लड़कियों ने चाहा होगा पर कायदे और रीतिरिवाजों में बंध कर रह गईं. पुरुषों के बराबर समानता स्त्रियों को किसी ने नहीं दी. लेकिन यह पीढ़ी अपना वह अधिकार छीन कर ले रही है.

फिर विकास तो अपने साथ कुछ विनाश तो ले कर आता ही है. गेहूं के साथ घुन तो पिस ही जाता है. अवनी और परिमल दोनों आजकल अत्यधिक व्यस्त थे. रात में भी देर से लौट रहे थे. वर्कलोड बहुत था. दोनों के रिव्यू होने वाले थे. घर आ कर दोनों जैसातैसा खा कर दोचार बातें कर के औंधे मुंह सो जाते. छुट्टी के दिन भी दोनों लैपटौप पर आंखें गड़ाए रहते.

मानसी की बेचैनी सीमा पार कर रही थी. उस में सुजाता जैसा धैर्य नहीं था. न ही वह सुजाता की तरह व्यस्त थी. इसलिए नई पीढ़ी की अपनी बहू के क्रियाकलापों को भी सहजता से नहीं ले पाती और अपनी भड़ास निकालने के लिए बेटी के कान भी उपलब्ध नहीं थे. मां के दुखदर्द सुनना अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की न आदत है न फुरसत. पर बेटी से मोह कम कर बहू से मोह बढ़ाना मानसी जैसी महिलाओं को भी नहीं आता.

यदि अवनी ससुराल में न रह कर कहीं अलग रह रही होती तो मानसी अब तक आ धमकती. पर नएनए समधियाने में जा कर रहने में पुराने संस्कार थोड़े आड़े आ ही जाते थे. बेटी तो 2-4 बातें कर के फोन रख देती पर जबतब सुजाता से बात कर वह अपनी भड़ास निकाल लेती.

उन का इस कदर पुत्रीमोह देख कर सुजाता को अजीब तरह का अपराधबोध सालने लगता. जैसे उन की बेटी को उन से अलग कर के उन्होंने कोई गुनाह कर दिया हो. उन्हें कभी मानसी की फोन पर कही अजीबोगरीब बातों से चिड़चिड़ाहट होती तो कभी खुद भी एक बेटी की मां होने के नाते द्रवित हो जातीं.

बेटी से प्यार तो सुजाता को भी बहुत था. पर उस की व्यस्तता उन्हें प्यार जताने तक का समय नहीं देती, मोह की कौन कहे. पर मानसी की हालत देख कर उन्हें लगता कि सच ही कहते हैं, ‘खाली दिमाग शैतान का घर.’ हर इंसान को कहीं न कहीं व्यस्त रहना चाहिए. नौकरी ही जरूरी नहीं है और भी कई तरीके हैं व्यस्त रहने के. उस का दिल करता किसी दिन इतमीनान से समझाए मानसी को कि बच्चों से मोह अब कुछ कम करे और खुद की जिंदगी से प्यार करे.

अभी 55-56 वर्ष की उम्र होगी उन की. बहुत कुछ है जिंदगी में करने के लिए अभी. हर समय बेटीबेटी कर के, उस के मोह में फंस कर, वह खुद की भी जिंदगी बोझ बना रही है और बेटी की जिंदगी में भी उलझन पैदा कर रही है. अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की जिंदगी व्यस्तताभरी है. इस पीढ़ी को कहां फुरसत है कि वह मातापिता, सासससुर के भावनात्मक पक्ष को अंदर तक महसूस करे. लेकिन समझा न पाती, रिश्ता ही ऐसा था.

इसी बीच, कंपनी ने अवनी को 15 दिन की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेज दिया. अवनी जाने की तैयारी करने लगी. घर में किसी के मन में दूसरा विचार ही न आया. एक आत्मनिर्भर लड़की को औफिस के काम से जाना है, तो बस जाना है. लेकिन अवनी की मम्मी बेचैन हो गई.

‘‘कैसे रहेगी तू वहां अकेली इतने दिन. कभी अकेली रही नहीं तू. दिल्ली में भी तू अपनी फ्रैंड के साथ रहती थी,’’ मानसी कह रही थी. सुजाता को भी मोबाइल की आवाज सुनाई दे रही थी.

‘‘अकेले का क्या मतलब मम्मी. नौकरी में तो यह सब चलता रहता है. कंपनी मुझे भेज रही है. आप हर समय चिंता में क्यों डूबी रहती हैं. ऐसा करो आप और पापा कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आओ या ऐसा करो गरीब बच्चों को इकट्ठा कर के आप पढ़ाना शुरू कर दो,’’ अवनी भन्नाती हुई बोली. अवनी की बात सुन कर सुजाता की हंसी छूटने को हुई.

‘‘तू हर समय बात टाल देती है. मैं तुझे अकेले नहीं जाने दे सकती. मैं चलती हूं तेरे साथ.’’

‘‘ओफ्फो मम्मी, आप का वश चले तो मुझे वाशरूम भी अकेले न जाने दो. मेरी शादी हो गई है अब. जब यहां किसी को एतराज नहीं तो आप क्यों परेशान हो रही हैं. मेरे साथ जाने की कोई जरूरत नहीं.’’

‘‘मां की चिंता तू क्या जाने. जब मां बनेगी तब समझेगी,’’ मानसी की आवाज भर्रा गई.

‘‘मां, अगर इतनी चिंता करती हैं तो मुझे मां ही नहीं बनना. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. मैं फोन औफ कर रही हूं. मुझे औफिस का जरूरी काम खत्म करना है.’’

‘‘अच्छा, फोन औफ मत कर. जरा मम्मी से बात करा अपनी.’’

अवनी ने फोन सुजाता को पकड़ा दिया. आज मानसी की बातें सुन कर सुजाता का दिल किया कि बुरा ही मान जाए मानसी पर वे अब चुप नहीं रहेंगी, अपनी बात बोल कर रहेंगी. वे फोन पर बात करतेकरते अपने कमरे में आ कर बैठ गईं.

‘‘देख रही हैं आप. कैसे रहेगी वहां अकेली. मुझे भी मना कर रही है. आप परिमल से कहिए न कि छुट्टी ले कर उस के साथ जाए.’’ उस की बेसिरपैर की बात पर झुंझलाहट हो गई सुजाता को.

‘‘परिमल के पास इतनी छुट्टी कहां है मानसीजी. और फिर यह तो शुरुआत है. जैसेजैसे नौकरी में समय होता जाएगा, ऐसे मौके तो आते रहेंगे. आप चिंता क्यों कर रही हैं. आप ने उच्च शिक्षा दी है बेटी को तो कुछ अच्छा करने के लिए ही न. घर बैठने के लिए तो नहीं. समझदार व आत्मविश्वासी लड़कियां हैं आजकल की. इतनी चिंता करनी छोड़ दीजिए आप भी.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं आप. कैसे छोड़ दूं चिंता. आप नहीं करतीं अपनी बेटी की चिंता?’’

‘‘मैं चिंता करती हूं मानसीजी, पर अपनी चिंता बच्चों पर लादती नहीं हूं.’’ सुजाता का दिल किया, अगला वाक्य बोले, ‘और न बेटी की सास को जबतब कुछ ऐसावैसा बोल कर परेशान करती हूं,’ पर स्वर को संभाल कर बोलीं, ‘‘बच्चों की अपनी जिंदगी है. यदि बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं तो बस मातापिता को चाहिए कि दर्शक बन कर उन की खुशी को निहारें और खुद को व्यस्त रखें. आज की पीढ़ी बहुत व्यस्त है, इन की तुलना अपनी पीढ़ी से मत कीजिए. इस का मतलब यह नहीं कि बच्चों को हम से प्यार नहीं, पर उन की दिनचर्या ही ऐसी है कि कई छोटीछोटी खुशियों के लिए उन के पास समय ही नहीं है या कहना चाहिए खुशियों के मापदंड ही बदल गए हैं उन की जिंदगी के.’’

मानसी एकाएक रो पड़ी फोन पर. सुजाता का दिल पसीज गया. लेकिन सोचा, आखिर बेटी से मोह भंग तो होना ही चाहिए मानसी का.

‘‘मानसीजी, क्यों दिल छोटा कर रही हैं. अवनी आप की बेटी है और जिंदगीभर आप की बेटी रहेगी. लेकिन एक बच्ची आप के पास भी है. उसे भी अवनी के नजरिए से देखेंगी तो वह भी उतनी ही अपनी लगेगी. प्यार कीजिए बच्चों से, पर अपना प्यार, अपना रिश्ता लाद कर उन की जिंदगी नियंत्रित मत कीजिए. बल्कि, अपनी जिंदगी खुशी से जीने के तरीके ढूंढि़ए. अभी हमारी ऐसी उम्र नहीं हुई है. खूबसूरत उम्र है यह तो. सब जिम्मेदारियों से अब जा कर फारिग हुए हैं. अपने छूटे हुए शौक पूरे कीजिए. अब वे दिन लद गए कि बच्चों की शादी की और बुढ़ापा आ गया. अब तो समय आया है एक नई शुरुआत करने का.’’

मानसी चुप हो गई. सुजाता को समझ नहीं आ रहा था कि मानसी उन की बात कितनी समझी, कितनी नहीं. उसे अच्छा लगा या बुरा. ‘‘आप सुन रही हैं न,’’ वे धीरे से बोलीं.

‘‘हूं…’’

‘‘मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती, बल्कि बड़ी बहन की तरह आप का साथ देना चाहती हूं. अवनी खुश है अपनी जिंदगी में. व्यस्त है अपनी नौकरी में. आप के पास कम आ पाती है, कम बात कर पाती है तो क्या आप सोचती हैं कि वह हमारे पास रहती है, तो हमारी बहुत बातें हो जाती हैं. आप दूर हैं, फिर भी फोन पर बात कर लेती हैं, लेकिन मैं तो जब उसे अपने सामने थका हुआ देखती हूं तो खुद ही बातों में उलझाने का मन नहीं करता. छुट्टी के दिन बच्चे काफी देर से सो कर उठते हैं. फिर उन के हफ्ते में करने वाले कई काम होते हैं. शाम को थोड़ाबहुत इधरउधर घूमने या मूवी देखने चले जाते हैं.

‘‘यदि इस तरह से हम हर समय अपनी खुशियों के लिए बच्चों का मुंह देखते रहेंगे तो हमारी खुशियां रेत की तरह फिसल जाएंगी मुट्ठी से और हथेली में कुछ भी न बचेगा. इसीलिए कहा इतना कुछ. अगर मेरी बात का बुरा लगा हो तो क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, आप की बात का बुरा नहीं लगा मुझे. बल्कि आप की बात पर सोच रही हूं. बहुत सही कह रही हैं. अवनी भी जबतब कुछ ऐसा ही समझाती है मगर झल्ला कर. मैं भी कोई नई राह ढूंढ़ती हूं. आप नौकरी में व्यस्त हैं, इसीलिए जिंदगी को सही तरीके से समझ पा रही हैं शायद.’’

‘‘नौकरी के अलावा भी बहुत से रास्ते हैं जिंदगी में व्यस्त रहने के. मैं भी रिटायरमैंट के बाद कोई नया रास्ता ढूंढ़ूंगी. आप भी सोच कर ढूंढि़ए और ढूंढ़ कर सोचिए,’’ कह कर सुजाता हंस दी.

‘‘हां जी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं. कब जा रही है अवनी?’’

‘‘परसों सुबह की फ्लाइट से.’’

‘‘ठीक है. कल रात उसे ‘गुड विशेज’ का मैसेज कर दूंगी,’’ कह कर मानसी खिलखिला कर हंस पड़ी और साथ ही सुजाता भी.

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 4

अगले ही दिन नितिन की मां नेहा को देखने सौम्या के घर आ गईं. नेहा पहले से ही वहां तैयार हो कर पहुंच चुकी थी. नेहा का बातव्यवहार, उस की पढ़ाईलिखाई और खूबसूरती नितिन की मां को काफी पसंद आई. हर तरह से नेहा को परखने के बाद उन्होंने सौम्या से इस रिश्ते की सहमति देते हुए जल्द सगाई करने का वादा भी किया. एक बार वे नेहा को अपने पति और नितिन से भी मिलाना चाहती थीं.

सौम्या ने तुरंत बाजी अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं समधनजी. एकदो दिनों में मैं खुद ही अपनी बच्ची को आप के यहां भेज दूंगी. अब तो यह आप की बच्ची भी है. नितिन से मिलवा दीजिएगा. आप चाहें तो नितिन और उस के पापा यहां आ कर भी बच्ची को देख सकते हैं.’’

‘‘जी जरूर,’’ खुश होते हुए नितिन की मां ने कहा. इस बीच नितिन की मां ने यह कह कर नितिन को सौम्या के यहां भेजा कि अपनी आंखों से लड़की देख ले. नितिन और नेहा उस दिन सुबह से शाम तक सौम्या के यहां ही थे और जी भर कर इस बात का मजा ले रहे थे.

घर जा कर नितिन ने औपचारिक रूप से लड़की के लिए अपनी सहमति दे दी. अब तो नेहा 4-6 दिन में एक बार नितिन के यहां हो ही आती थी. इधर उन की सगाई का दिन एक महीने बाद का तय कर दिया गया था. नितिन चाहता था कि सगाई से पहले वह मां को हर बात सचसच बता दे. पर सौम्या ने उसे फिलहाल खामोश रहने की सलाह दी.

इस घटना के करीब 20-22 दिन बाद की बात है. उस दिन नितिन औफिस के काम से शहर के बाहर था. अचानक शाम के समय औफिस से लौटते ही नितिन के पिता के सीने में तेज दर्द होने लगा. नितिन की मां के हाथपैर फूल गए. उन्हें सम झ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें. वे बहुत घबरा गई थीं. रोतेरोते उन्होंने नितिन को फोन किया. नितिन ने तुरंत नेहा से अपने घर पहुंचने की गुजारिश की. नेहा दौड़ीदौड़ी नितिन के घर पहुंची. रास्ते में ही उस ने एंबुलैंस वाले को फोन कर दिया था.

घर पहुंच कर उस ने एक तरफ नितिन की मां को संभाला तो दूसरी तरफ पिता को. उस ने पिता के टाइट कपड़े ढीले कर उन्हें आराम से बिस्तर पर लिटा दिया. पैर नीचे की तरफ और सिर थोड़ा ऊपर की ओर उठा कर रखा ताकि ब्लड की सप्लाई हार्ट तक होती रहे.

तब तक एंबुलैंस पहुंच गई. वह तुरंत उन्हें एंबुलैंस में ले कर अस्पताल पहुंची और आईसीयू में ऐडमिट करवाया. उन्हें हार्टअटैक आया था. नेहा सब से सीनियर डाक्टर से रिक्वैस्ट करने लगी कि वे ही इस केस को हैंडल करें. आननफानन  सारे इंतजाम हो गए. नितिन की मां एक कोने में बैठी नेहा की दौड़भाग देखती रहीं. नेहा नितिन के पिता की केयर अपने पिता जैसी कर रही थी. यह सब देख कर नितिन की मां की आंखें भर आई थीं.

नेहा रातभर जाग कर पिता का ध्यान रखती रही. हर तरह की दौड़भाग करती रही. अगले दिन उन की सर्जरी की बात उठी. नेहा ने रुपयों का इंतजाम किया. कुछ नितिन की मां से लिया और कुछ अपनी तरफ से मिला कर फटाफट रुपए जमा करा दिए. औपरेशन कामयाब रहा. शाम तक नितिन भी आ गया.

2 दिनों बाद जब नितिन के पिता थोड़े नौर्मल हुए तो उन्होंने रुंधे गले से नेहा की तारीफ की. उसे बेटी कह कर गले लगा लिया. 4-6  दिन में उन्हें छुट्टी दे दी गई. वे घर आ गए. अब तक सगाई का दिन भी नजदीक आ गया था. सगाई से 2 दिन पहले नितिन ने अपने पेरैंट्स को सचाई बताने की सोची.

नितिन ने कांपती जबान से कहा, ‘‘पापा, मां, मैं आप लोगों से  झूठ बोल कर शादी नहीं कर सकता. दरअसल,  नेहा हमारी जाति की नहीं है और वह सौम्या दीदी की बेटी भी नहीं है. नेहा तो वही लड़की है जिसे मैं… प्यार करता था.’’

नितिन ने सच बता कर निगाहें झुका लीं. वह डर रहा था कि शायद अब उस के पेरैंट्स नाराज हो उठेंगे. पर ऐसा नहीं हुआ. दोनों मुसकरा रहे थे.

नितिन के पिता ने कहा, ‘‘बेटा, इस बात का एहसास हमें हो गया था. जिस प्यार और अपनेपन से नेहा हमारी देखभाल कर रही थी और फिक्रमंद थी, उसी से पता चल रहा था कि वह तुम से कितना प्यार करती है. तुम दोनों के इस प्यार के बीच हम कतई नहीं आ सकते. वैसे भी, नेहा किसी भी जाति की हो, उसे हम ने बेटी तो मान ही लिया है न.’’

नितिन की आंखें खुशी से भर उठीं. उस की मां ने स्नेह के साथ कहा, ‘‘बेटे, तुम दोनों की जोड़ी बहुत खूबसूरत है और इस खूबसूरत रिश्ते को जोड़ने में मदद करने वाली सौम्याजी भी हमारी रिश्तेदार हैं. कल हम सब उन के घर मिठाई ले कर चलेंगे.’’

अगले दिन सौम्या का घर हंसी और ठहाकों से गूंज रहा था. खिलेखिले चेहरों के बीच बैठी सौम्या के पास अब रिश्तेदारों की कमी नहीं थी.

चौथा कंधा : सोनू की कालगर्ल भाभी

अन्य पिछड़ा वर्ग का दीना कोलकाता के एक उपनगर संतरागाछी में रहता था. वहीं एक गली में उस की झोंपड़ी थी. उसी झोंपड़ी के आगे उस की छोटी सी दुकान थी, जहां उस ने एक सिलाई मशीन लगा रखी थी. दुकान में वह रैक्सीन के साथसाथ कपड़ों के बैग भी तैयार करता था. साथ में कुछ चप्पलें भी बनाता था.

दीना की पत्नी मीरा महल्ले में मजदूरी का काम करती थी या फिर गल्ले की दुकानों में चावल, गेहूं, मसाले की सफाई करती थी. बदले में नकद मजदूरी या अनाज मिल जाता था.

दीना के 4 बेटे थे, सब से बड़ा बेटा गोलू, उस के बाद पिंकू, टिंकू और सब से छोटा सोनू. चारों बेटे स्कूल जाते थे. बीचबीच में दोनों बड़े बेटे शहर जा कर सामान बेचा करते थे. परिवार की गुजरबसर हो जाती थी.

एक दिन दीना ने अपनी पत्नी मीरा से कहा, ‘‘हम दोनों कितने भाग्यवान हैं. हमारी मौत पर कंधा देने वाले चारों बेटे हैं. बाहरी कंधे की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

देखतेदेखते गोलू और पिंकू दोनों बीए पास कर गए. इत्तिफाक से राज्य के नए मुख्यमंत्री भी अन्य पिछड़ा वर्ग से थे. उन्होंने फरमान जारी किया कि अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे के खाली पदों पर फौरन बहाली कर ऐक्शन टेकन रिपोर्ट सरकार को सौंपी जाए.

दीना के दोनों बेटों को राज्य सरकार में आरक्षण के बल पर क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. एक की पोस्टिंग बर्दवान थी और दूसरे की आसनसोल में हो गई.

कुछ साल तक वे दोनों परिवार की माली मदद करते रहे और बीचबीच में अपने घर भी आया करते थे.

टिंकू और सोनू भी अपनी पढ़ाई में लग गए थे. मीरा ने अब बाहर का काम करना बंद कर दिया था.

इधर दोनों बड़े बेटों ने अपनी मरजी से शादी कर ली. वे अपनीअपनी गृहस्थी में बिजी रहने लगे. घर में पैसे भेजना बंद कर दिया था.

टिंकू बीए फाइनल में था और सोनू मैट्रिक पास था. दीना को खांसी और दमे की पुरानी बीमारी थी. अब उस से काम नहीं होता था.

एक दिन सोनू ने पिता से कहा, ‘‘टिंकू भैया तो कुछ दिनों में बीए पास कर लेगा. उसे कुछ न कुछ काम जरूर मिल जाएगा. तब तक भैया को पढ़ने दें, आप का काम मैं संभाल लूंगा. भैया को नौकरी मिलते ही मैं अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दूंगा.’’

दुकान का काम अब मीरा देखती थी. सोनू रोज कुछ बैग और चप्पलें ले कर बेचने निकल जाता था.

रोज की तरह सोनू उस दिन भी दोनों कंधों पर एकएक थैला लिए था. एक थैले में कुछ जोड़ी चप्पलें थीं, कुछ जैट्स और कुछ लेडीज. दूसरे कंधे पर भी थैला होता था, जिस में रैक्सीन और कपड़े के बैग थे.

अकसर प्लैनेटोरियम इलाके से थोड़ा आगे सड़क के किनारे एक सुंदर लड़की उसे दिखती थी. जब भी उसे देखता, वह पूछता ‘‘दीदी, कुछ लोगी?’’

वह मना करते हुए बोलती, ‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, तुम अपना समय बरबाद न करो.’’

एक छुट्टी के दिन सोनू फिर उस लड़की के सामने रुक कर बोला, ‘‘दीदी, कुछ चाहिए आज? आप की चप्पलें काफी घिसी हुई लगती हैं.’’

लड़की ने अपनी साड़ी खींच कर नीचे कर चप्पलों को ढक लिया, फिर वह बोली, ‘‘कुछ नहीं चाहिए, पर तुम रोजरोज मुझ से ही क्यों पूछते हो? यहां तो थोड़ीथोड़ी दूरी पर हर खंभे पर लड़कियां खड़ी हैं, तुम उन से क्यों नहीं पूछते?’’

‘‘दीदी, आप मुझे अच्छी लगती हो. बस रुक कर दो पल आप से बात कर लेता हूं, बिक्री हो न हो.’’

‘‘अच्छा, अपना नाम बताओ?’’

‘‘मैं सोनू… और आप?’’

‘‘मैं पारो.’’

‘‘और, आप का देवदास कौन है?’’

‘‘सारा शहर मेरा देवदास है. चल भाग यहां से… बित्ते भर का छोकरा और गजभर की जबान,’’ पारो बोली.

सोनू हंसते हुए आगे बढ़ गया और पारो भी हंसने लगी थी.

अगले दिन फिर सोनू की मुलाकात पारो से हुई. उस ने पूछा, ‘‘दीदी, आप रोज यहां खड़ीखड़ी क्या करती हो?’’

‘‘मैं भी कुछ बेचती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम नहीं समझोगे,’’ बोल कर पारो ने आगे वाले खंभे के पास खड़ी लड़की की तरफ दिखा कर कहा, ‘‘देख, जो वह करती है, मैं भी वही करती हूं.’’

सोनू ने देखा कि उस लड़की के पास एक लड़का आया और उस के साथ

2 मिनट बात की, फिर वे दोनों एक टैक्सी में बैठ कर निकल गए.

अगले दिन सोनू फिर उसी जगह पारो से मिला. दोनों ने आपस में एकदूसरे के परिवार की बातें कीं.

सोनू ने कहा, ‘‘मैं काम कर के घर का खर्च और बड़े भाई की पढ़ाई का खर्च जुटाने की कोशिश करता हूं.’’

पारो बोली, ‘‘तू तो बड़ा अच्छा काम कर रहा है. मैं भी अपने छोटे भाई

को पढ़ा रही थी. वह बीए पास कर

चुका है. कुछ जगह नौकरी की अर्जी

दी है. उसे काम मिलने के बाद मैं यहां नहीं मिलूंगी.’’

कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा था. सोनू की अकसर पारो से मुलाकात होती रहती थी. टिंकू बीए पास कर चुका था. नौकरी के लिए उस ने भी अर्जी दे रखी थी. पर साहब को रिश्वत चाहिए थी, इसलिए औफर लैटर रुका हुआ था.

पिछले 2-3 दिनों से सोनू सामान बेचने नहीं निकल सका था. उस के पिता की तबीयत ज्यादा खराब थी. उन्हें सरकारी अस्पताल में भरती किया गया था. उन की हालत में कोई सुधार नहीं था. टिंकू पिता के पास अस्पताल में था.

आज सोनू बाजार निकला था. पारो ने सोनू को आवाज दे कर कहा, ‘‘तू कहां था? मैं तुझे खुशखबरी देने के लिए ढूंढ़ रही थी. मेरे भाई को नौकरी मिल गई है आसनसोल के कारखाने में. सोमवार को उसे जौइन करना है. बस, अब 2-4 दिन बाद मैं यहां नहीं मिलूंगी.’’

‘‘मुबारक हो दीदी, तो मिठाई नहीं खिलाओगी? मेरे पिता अस्पताल

में भरती हैं, इसलिए मैं नहीं आ सका था.’’

‘‘घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’’ बोल कर पारो ने मिठाई उस के मुंह में डाल दी.

‘‘क्या ठीक होगा, टिंकू भैया की नौकरी रुकी है. वैसे, आरक्षण कोटे में औफर तो मिलना है, पर साहब ने घूस के लिए अभी तक लैटर इशू नहीं किया है.’’

‘‘तुम उस साहब का पता बताओ, मैं उन से रिक्वैस्ट करूंगी.’’

‘‘कोई फायदा नहीं, हम लोगों ने बहुत नाक रगड़ी उन के सामने, वह बिना रिश्वत लिए मानने वाला नहीं है.’’

‘‘अरे, तुम बताओ तो सही. हो सकता है कि कोई पहचान वाला हो और काम बन जाए.’’

‘‘ठीक है. बताता हूं, पर घूस की बात वह घर पर करता है.’’

‘‘ठीक है, घर पर ही मिल लूंगी.’’

उस दिन शाम को पारो उस साहब के घर पर मिली. एक काली मोटी सी औरत ने कहा, ‘‘मैं साहब की पत्नी हूं. कहो, क्या काम है?’’

पारो बोली, ‘‘मुझे भाई की नौकरी के सिलसिले में उन से बात करनी है.’’

‘‘ठीक है, तुम यहीं रुको. मैं उन्हें भेजती हूं,’’ बोल कर वह अंदर चली गई.

साहब आए, तो पारो को ऊपर से नीचे तक गौर से देखते रह गए.

पारो ने अपने आने की वजह बताई, तो वे बोले, ‘‘तुम लोगों को पता होना चाहिए कि दफ्तर का काम मैं घर पर नहीं करता हूं.’’

पारो ने सीधे मुद्दे पर आते हुए धीमी आवाज में कहा, ‘‘सर, मैं ज्यादा रुपए तो नहीं दे सकती हूं, हजार डेढ़ हजार रुपए से काम हो जाता, तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’

साहब ने धीरे से कहा, ‘‘मैं तुम से ज्यादा लूंगा भी नहीं. बस जो तुम्हारे पास है, उतने से मैं काम कर दूंगा. तुम कल शाम को इस होटल में मिलना. याद रहे, अकेले में प्राइवेट मीटिंग होगी,’’ और उन्होंने होटल और कमरा नंबर पारो को बता दिया.

अगले दिन साहब ने दफ्तर जाते समय पत्नी से कहा, ‘‘लंच के बाद मुझे बर्दवान जाना है. एक जरूरी मीटिंग है. आतेआते रात के 12 बज जाएंगे.’’

दूसरे दिन पारो सोनू को रोज वाली जगह पर नहीं मिली. वह तो साहब के साथ होटल के कमरे में मीटिंग में थी. रात के 12 बजे तक साहब ने पारो के साथ इस उम्र में खूब मौजमस्ती की.

पारो ने पूछा, ‘‘मेरा काम तो हो जाएगा न सर?’’

साहब बोले, ‘‘मैं इतना बेईमान नहीं हूं. तुम ने मेरा काम कर दिया, तो समझो तुम्हारा काम हो चुका है. और्डर मैं ने आज साइन कर दिया है. मेरे ही दराज में है. कल सुबह भाई को अपना आईडी प्रूफ ले कर दफ्तर भेज देना. डाक से पहुंचने में कुछ दिन लग जाएंगे. सरकारी तौरतरीके तो जानती ही हो.’’

‘‘जी सर, मैं भाई को भेज दूंगी,’’ साड़ी लपेटते हुए पारो बोली.

अगले दिन सुबहसुबह पारो सोनू के घर पहुंची. सोनू और टिंकू घर पर ही थे. उन की मां अस्पताल में थीं.

पारो ने टिंकू से दफ्तर जा कर बहाली का और्डर लेने को कहा.

सोनू बोला, ‘‘कितनी घूस देनी पड़ी?’’

पारो बोली, ‘‘मेरे पास ज्यादा कुछ था भी नहीं. थोड़े में ही मान गए वे.’’

‘‘ओह दीदी, तुम कितनी अच्छा हो,’’ बोल कर सोनू उस के पैर छूने को ?ाका, तो पारो ने उसे रोक कर गले लगाया.

टिंकू ने दफ्तर से और्डर ले कर उसी दिन जौइन भी कर लिया. दीना को यह खुशखबरी सोनू ने दे दी थी.

दीना बोला, ‘‘अब मैं चैन से मर सकूंगा. टिंकू अपनी मां और छोटे भाई की देखभाल करेगा.’’

उसी शाम को दीना चल बसा, इत्तिफाक से पारो और उस का भाई

तपन उस दिन अस्पताल में दीना से मिलने गए थे. सोनू ने दोनों बड़े भाइयों को पिता की मौत की खबर उसी समय दे दी और कहा कि दाहसंस्कार कल सुबह होना है.

बड़ा बेटा गोलू तो 2 घंटे की दूरी पर बर्दवान में था. वह बोला, ‘‘मैं तो नहीं आ सकूंगा, बहुत जरूरी काम है, तेरहवीं के दिन आने की कोशिश करूंगा.’’

दूसरा बेटा पिंकू आसनसोल से उसी रात आ गया, पर उस की पत्नी नहीं आई. सुबह अर्थी उठने वाली थी. पारो भी अपने भाई के साथ आई थी.

टिंकू ने सोनू से कहा, ‘‘हम तीन भाई तो हैं ही. जा कर पड़ोस से किसी को बुला ला, कंधा देने के लिए.’’

पारो आगे बढ़ कर बोली, ‘‘चौथा कंधा मेरा भाई तपन देगा.’’

मीरा अपने पति की अंतिम विदाई के समय फूटफूट कर रो रही थी. उसे पति की कही बात याद आ गई. कितने फख्र से कहते थे कि मरने पर मेरे चारों बेटे हैं ही कंधा देने के लिए.

कुछ दिनों बाद सोनू का घर सामान्य हो चला था. पारो अकसर आती रहती थी. सोनू अपनी पढ़ाई में लग गया.

एक दिन मीरा ने पारो से कहा, ‘‘बेटी, तुम ने बड़े एहसान किए हैं हम लोगों पर. एक और एहसान कर सकोगी?’’

‘‘मां, मैं ने कोई एहसान नहीं किया है. आप बोलिए, मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘सोनू को अपना देवर बना लो, वह तुम्हारी बड़ी तारीफ करता है. हां, अगर टिंकू तुम्हें ठीक लगे तो…’’

टिंकू भी उस समय घर में था, उस ने खामोश रह कर स्वीकृति दे दी थी और पारो की ओर देख कर उस के जवाब का इंतजार कर रहा था.

पारो बोली, ‘‘आप लोगों को मैं अंधेरे में नहीं रखना चाहती हूं. मैं कुछ दिन पहले तक कालगर्ल थी. पता नहीं, टिंकू मुझे पसंद करेंगे या नहीं.’’

‘‘कौन सी गर्ल, वह क्या होता है?’’ मां ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां. सेल्स गर्ल समझो. सोनू इस के बारे में मुझे सब बताया करता था. पारो बहुत अच्छी लड़की है. अब फैसला इसे करने दो.’’

सोनू पारो के पास आ कर बोला, ‘‘मान जाओ न दीदी… नहीं भाभी.’’

पारो ने नजरें झका लीं. उस ने सिर पर पल्लू रख कर मां के पैर छुए.

 

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 3

‘‘जी दीदी, मैं अभी चलती हूं.’’ नेहा चली गई और सौम्या आरुषि की देखभाल में लग गई.

अगले 3-4 दिनों तक सौम्या आरुषि में ही लगी रही क्योंकि उसे तेज बुखार था. चौथे दिन जब वह थोड़ी ठीक हुई तो उसे नेहा का ध्यान आया. उस ने नेहा को फोन किया तो उस ने उठाया नहीं. घबरा कर सौम्या ने नितिन को फोन लगाया और नितिन से नेहा के बारे में पूछा.

नितिन ने उदास स्वर में कहा, ‘‘हमारा ब्रेकअप हो गया है दीदी. 3 दिन हो गए मेरी नेहा से कोई बात नहीं हुई.’’

‘‘पर ऐसा क्यों?’’

‘‘दीदी, नेहा बहुत शक्की लड़की है. अजीब तरह से रिऐक्ट करती है. मैं अब उस से कभी बात नहीं करूंगा.’’

‘‘पागल हो क्या? ऐसे नहीं करते. कल मेरे पास आओ. मुझे मिलना है तुम से.’’

‘‘ठीक है दीदी. कल 3 बजे आता हूं.’’

अगले दिन सौम्या ने नेहा को फिर से फोन लगाया. उस ने उदास स्वर में  ‘हैलो’ कहा तो सौम्या ने उसे 3 बजे घर आने को कहा.

फिर 3 बजे के करीब नितिन और नेहा दोनों ही सौम्या के घर पहुंचे. एकदूसरे को देखते ही उन्होंने मुंह बनाया और खामोशी से बैठ गए. सौम्या ने कमान संभाली और नेहा से पूछा, ‘‘नेहा, तुम्हारी क्या शिकायत है?’’

नेहा ने ठंडा सा जवाब दिया, ‘‘यह दूसरी लड़कियों के साथ घूमता है.’’

नितिन ने घूर कर नेहा को देखा और नजरें फेर लीं. सौम्या ने अब नितिन से पूछा, ‘‘तुम्हें क्या कहना है इस बारे में नितिन?’’

‘‘दीदी, इस ने मुझ से इतने रूखे तरीके से बात की जो मैं आप को बता नहीं सकता. 2 दिन तो मेमसाहब मुझ से मिलीं नहीं और न ही फोन उठाया. जब तीसरे दिन जबरदस्ती मैं ने बात करनी चाही और इस रवैये का कारण पूछा तो मुझ पर सीधा इलजाम लगाती हुई बोली कि तुम्हें दूसरी लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाना पसंद है न, तो ठीक है, करो जो करना है. पर मुझ से बात मत करना. अब बताइए दीदी, मुझे कैसा लगेगा?’’ नितिन फूट पड़ा था.

सौम्या ने उसे शांत करते हुए पूछा, ‘‘नितिन, वह लड़की कौन थी?’’

‘‘दीदी, वह मेरे शहर की थी और उस के विषय भी सेम मेरे वाले थे. वह हमारी बिंदु मैडम की भतीजी थी. उन्होंने ही मुझे उस का ध्यान रखने और गाइड करने को कहा था. बस, वही कर रहा था और इस ने पता नहीं क्याक्या समझ लिया.’’

सौम्या ने हंस कर कहा, ‘‘नेहा, मुझे नहीं लगता कि नितिन की कोई गलती है. तुम्हें इस तरह रिऐक्ट नहीं करना चाहिए था. जिस से आप प्यार करते हैं उस पर पूरा भरोसा रखना चाहिए. नितिन, तुम्हें भी नेहा की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए था. जहां प्यार होता है वहां जलन और शक होना स्वाभाविक है. नेहा ने जलन की वजह से ही ऐसा बरताव किया. अब तुम दोनों एकदूसरे को सौरी कहो और मेरे आगे एकदूसरे के गले लगो.’’

नेहा और नितिन मुसकरा पड़े. एकदूसरे को सौरी बोलते हुए वे सौम्या के गले लग गए. सौम्या का दिल खिल उठा था. नितिन और नेहा में उसे अपने बच्चे नजर आने लगे थे. सब ने मिल कर शाम तक बातें कीं और साथ मिल कर चायनाश्ते का आनंद लिया.

दिन इसी तरह बीतने लगे. समय के साथ सौम्या नितिन और नेहा के और भी करीब आती गई. इस बीच नितिन को जौब मिल गई थी और नेहा एक ट्रेनिंग में बिजी हो गई.

इधर नितिन और नेहा के घर में उन की शादी की बातें भी चलने लगी थीं. सौम्या के कहने पर उन्होंने अपने घरवालों से एकदूसरे के बारे में बताया और अपने प्यार की जानकारी दी. नेहा के घरवाले तो थोड़े नानुकुर के बाद तैयार हो गए मगर नितिन के पेरैंट्स ने गैरजाति की लड़की को बहू बनाने से साफ इनकार कर दिया.

नितिन ने नेहा को सारी बात बताते हुए भाग कर शादी करने का औप्शन दिया. तब नेहा ने एक बार सौम्या से सलाह लेने की बात की. नितिन तैयार हो गया और दोनों एक बार फिर सौम्या के पास पहुंचे. सौम्या ने सारी बातें सुनीं और थोड़ी देर सोचती रही. भाग कर शादी करने की बात सिरे से नकारते हुए सौम्या ने मन ही मन एक प्लान बनाया. सौम्या ने नितिन से अपनी मां का नंबर देने को कहा और उस के रिश्तेदारों के बारे में भी जानकारी ली.

नंबर ले कर सौम्या ने नितिन की मां को फोन लगाया. उधर से ‘हैलो’ की आवाज सुनते ही सौम्या बोली, ‘‘बहनजी, मैं सौम्या बोल रही हूं. आप का नंबर मुझे अपने पति से मिला है. मेरे पति आप के एक रिश्तेदार के साथ औफिस में काम करते हैं. असल में बहनजी, हम भी आप की ही बिरादरी के हैं. आप के रिश्तेदार ने बताया कि आप का बेटा शादी लायक है. बहुत जहीन और प्यारा बच्चा है. तो  मु झे लगा मैं अपनी बिटिया की शादी की बात चलाऊं. हम भी राजपूत हैं और हमारी बिटिया बहुत संस्कारशील व खूबसूरत है. आप को जरूर पसंद आएगी.’’

‘‘हां जी, आप मिल लीजिए हम से.’’

‘‘मैं तो कहती हूं बहनजी, आप आ जाओ हमारे घर. बिटिया को तबीयत से देख लेना आप. मैं एड्रैस भेजती हूं.’’

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 2

परिमल दुविधा में सोफे पर बैठा ही रहा और साथ में अवनी भी. थकान के मारे आंखें मुंद रही थीं. मायके की बात होती तो सारा तामझाम उतार कर, शौर्ट्स और टीशर्ट पहन कर, फुल एसी पंखा खोल कर चित्त सो जाती, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं कर सकती थी. इसलिए चुप बैठी रही.

‘‘जाओ परिमल, ड्राइवर इंतजार कर रहा है.’’

‘‘चलो अवनी,’’ थकेमांदे अवनी व परिमल, थके शरीर को धकेल कर कार में बैठ गए. अवनी का दिल कर रहा था पीछे सिर टिकाए और सो जाए.

शादी से पहले उस के पापा ने उस की मम्मी से कहा था कि अवनी व परिमल का दिल्ली से देहरादून की फ्लाइट का टिकट करवा देते हैं. रोड की 7-8 घंटे की जर्नी इन्हें थका देगी. लेकिन भारतीय संस्कार आड़े आ गए. इसलिए मानसी बोलीं, ‘शादी के बाद अवनी उन की बहू है. वे उसे ट्रेन से ले जाएं, कार से ले जाएं, बैलगाड़ी से ले जाएं या फिर फ्लाइट से, हमें बोलने का कोई हक नहीं.’

सुन कर अवनी मन ही मन मुसकरा दी थी, ‘वाह भई, भारतीय परंपरा… सड़क  मार्ग से यात्रा करने में मेरी तबीयत खराब होती है, इसलिए मुझे उलटी की दवाई खा कर जाना पड़ेगा. लेकिन बेटी को चाहे कितनी भी ऊंची शिक्षा दे दो और वह कितने ही बड़े पद पर कार्यरत क्यों न हो, एक ही रात में उस के मालिकों की अदलाबदली कैसे हो जाती है? उस पर अधिकार कैसे बदल जाते हैं? उस की खुद की भी कोई मरजी है? खुद की भी कोई तकलीफ है? खुद का भी कोई निर्णय है? इस विषय में कोई भी जानना नहीं चाह रहा.’

लेकिन उस की शादी होने जा रही थी. वह बमुश्किल एक महीने की छुट्टी ले पाई थी. 20 दिन विवाह से पहले और 10 दिन बाद के. लेकिन उन 10 दिनों की भी कशमकश थी. उसे ससुराल में शादी के बाद की कुछ जरूरी रस्मों में भी शामिल होना था और हनीमून ट्रिप पर भी जाना था. बहुत टाइट शैड्यूल था. शादी से पहले की छुट्टियां भी जरूरी थीं. उसे शादी की तैयारियों के लिए भी समय नहीं मिल पाया था. ऐसा लग रहा था,

शादी भी औफिस के जरूरी कार्यों की तरह ही निबट रही है. शायद वे दोनों एक महीने के किसी प्रोजैक्ट को पूरा करने आए हैं. ऊपर से मम्मी के उपदेश सुनतेसुनते वह तंग आ गई थी. ‘बहू को ऐसा नहीं करना चाहिए, बहू को वैसा नहीं करना चाहिए, ऐसे रहना, वैसे रहना, चिल्ला कर बात नहीं करना, सुबह उठना, औफिस से आ कर थोड़ी देर सासससुर के पास बैठना, किचन में जितनी बन पाए मदद जरूर करना…’

एक दिन सुनतेसुनते वह भन्ना गई, ‘मम्मी, जब भैया की शादी हुई थी, तब भैया को भी यही सब समझाया था? स्त्रीपुरुष की समानता का जमाना है. भाभी भी नौकरी करती हैं. भैया को भी सबकुछ वही करना चाहिए, जो भाभी करती हैं. मसलन, उन के मातापिता, भाईबहन, रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखना, किचन में मदद करना, भाभी से ऊंचे स्वर में बात न करना, औफिस से आ कर हफ्ते में भाभी के मम्मीपापा से  2-3 बार बात करना और सुबह उठ कर भाभी के साथ मिलजुल कर काम करना आदि…लड़की को ही यह सब क्यों सिखाया जाता है?’

उस के बाद मम्मी के निर्देश कुछ बंद हुए थे. अवनी को मन ही मन मम्मी पर दया आ गई. गलती मम्मी की नहीं, मम्मी की पीढ़ी की है जो नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूल रही है. उच्च शिक्षित है लेकिन अधिकतर आत्मनिर्भर नहीं रही. इसलिए कई तरह के अधिकारों से वंचित भी रही. उच्च शिक्षा के कारण गलतसही भले ही समझी हो, नए विचारों को अपनाने का माद्दा भले ही रखती हो, लेकिन गलत को गलत बोलती नहीं है. नए विचारों को अपने आचरण में लाने की हिम्मत नहीं करती.

यहां तक कि मम्मी की पीढ़ी की आत्मनिर्भर महिलाएं भी नईपुरानी विचारधारा के बीच झूलती, नईपुरानी परंपराओं के बीच पिसती रहती हैं. फुल होममेकर्स की शायद आखिरी पीढ़ी है, जो अब समाप्त होने की कगार पर है.

कार होटल पहुंच गई और अवनी व परिमल को कमरे तक पहुंचा कर परिमल के दोस्त चले गए. रात के 12 बज रहे थे. कमरे में पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली.

2 प्रेमी पिछले 4 सालों से इस रात का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. लेकिन थके शरीर नींद की आगोश में जाना चाहते थे. दोनों इतने थके थे कि बात करने के मूड में भी नहीं थे. शादी की 3 दिनों तक चली परंपरावादी प्रक्रिया ने उन्हें बुरी तरह थका दिया था. ऊपर से देहरादूनदिल्ली का भीड़ के कारण 8-9 घंटे का सफर. दोनों उलटेसीधे कपड़े बदल कर औंधेमुंह सो गए.

सुबह देहरादून व दिल्ली के दोनों घरों में सभी देर से उठे. लेकिन 10 बजतेबजते सभी उठ गए. बेटी को विदा कर बेटी की मां आज भी चैन से कहां रह पाती है, चाहे वह लड़के को बचपन से ही क्यों न जानती हो. 12 बज गए मानसी से रहा न गया. उन्होंने अवनी को फोन मिला दिया. गहरी नींद के सागर में गोते लगा रही अवनी, फोन की घंटी सुन कर बमुश्किल जगी. परिमल भी झुंझला गया. स्क्रीन पर मम्मी का नाम देख कर मोबाइल औन कर कानों से लगा लिया.

‘‘कैसी है मेरी अनी?’’

‘‘सो रही है, मरी नहीं है,’’ अवनी झुंझला कर बोली, ‘‘इतनी सुबह क्यों फोन किया?’’ मम्मी को बुरा तो लगा पर बोली, ‘‘सुबह कहां है, 12 बज रहे हैं, कैसी है?’’

‘‘अरे कैसी है मतलब…कल 12 बजे तो आई हूं देहरादून से. आज 12 बजे तक क्या हो जाएगा मुझे. हमेशा ही तो आती हूं नौकरी पर छुट्टियों के बाद, तब तो आप फोन नहीं करतीं. आज ऐसी क्या खास बात हो गई? कल मैसेज कर तो दिया था पहुंचने का.’’

मानसी निरुत्तर हो, चुप हो गई. ‘‘अभी मैं सो रही हूं, फोन रखो आप. जब उठ जाऊंगी तो खुद ही मिला दूंगी,’’ कह कर अवनी ने फोन रख दिया.

मानसी की आंखें भर आईं. आज की पीढ़ी की बहू की तटस्थता तो दुख देती ही है, पर बेटी की तटस्थता तो दिल चीर कर रख देती है. यह असंवेदनहीन मशीनी पीढ़ी तो किसी से प्यार करना जैसे जानती ही नहीं. जब मां को ऐसे जवाब दे रही है तो सास को कैसे जवाब देगी.

मानसी एक शिक्षित गृहिणी थी और सास सुजाता एक उच्चशिक्षित कामकाजी महिला. वे केंद्रीय विद्यालय में विज्ञान की अध्यापिका थीं. सुबह पौने 8 बजे घर से निकलतीं और साढ़े 4 बजे तक घर पहुंचतीं. सरस रिटायर हो चुके थे. लेकिन सुजाता के रिटायरमैंट में अभी 3 साल बाकी थे. सुजाता आधुनिक जमाने की उच्चशिक्षित सास थीं. कभी कार, कभी स्कूटी चला कर स्कूल जातीं, लैपटौप पर उंगलियां चलातीं. और जब किचन में हर तरह का खाना बनातीं, कामवाली के न आने पर बरतन धोतीं, झाड़ूपोंछा करतीं तो उन के ये सब गुण पता भी न चलते. सरस एक पीढ़ी पहले के पति, पत्नी के कामकाजी होने के बावजूद, गृहकार्य में मदद करने में अपनी हेठी समझते और पत्नी से सबकुछ हाथ में मिल जाने की उम्मीद करते.

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 3

सुजाता सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी व्यस्त थीं. नौकरी की व्यस्तता के कारण उन का ध्यान दूसरी कई फालतू बातों की तरफ नहीं जाने पाता था. दूसरा, सोचने का आयाम बहुत बड़ा था. कई बातें उन की सोच में रुकती ही नहीं थीं. इधर से शुरू हो कर उधर गुजर जाती थीं.

2 बज गए थे. लंच का समय हो गया था. बच्चे अभी होटल से नहीं आए थे. सरस ने एकदो बार फोन करने की पेशकश की, पर सुजाता ने सख्ती से मना कर दिया कि उन्हें फोन कर के डिस्टर्ब करना गलत है.

‘‘तुम्हें भूख लग रही है, सरस, तो हम खाना खा लेते हैं.’’

‘‘बच्चों का इंतजार कर लेते हैं.’’

‘‘बच्चे तो अब यहीं रहेंगे. थोड़ी देर और देखते हैं, फिर खा लेते हैं. न उन्हें बांधो, न खुद बंधो. वे आएंगे तो उन के साथ कुछ मीठा खा लेंगे.’’

सुजाता के जोर देने पर थोड़ी देर बाद सुजाता व सरस ने खाना खा लिया. बच्चे 4 बजे के करीब आए. वे सो कर ही 2 बजे उठे थे. अब कुछ फ्रैश लग रहे थे. उन के आने से घर में चहलपहल हो गई. सरस और सुजाता को लगा बिना मौसम बहार आ गई हो. सुजाता ने उन का कमरा व्यवस्थित कर दिया था. बच्चों का भी होटल जाने का कोई मूड नहीं था. परिमल भी अपने ही कमरे में रहना चाहता था. इसलिए वे अपनी अटैचियां साथ ले कर आ गए थे. थोड़ी देर घर में रौनक कर, खाना खा कर बच्चे फिर अपने कमरे में समा गए.

अवनी अपनी मम्मी को फोन करना फिर भूल गई. बेचैनी में मानसी का दिन नहीं कट रहा था. दोबारा फोन मिलाने पर अवनी की सुबह की डांट याद आ रही थी. इसलिए थकहार कर समधिन सुजाता को फोन मिला दिया. थकी हुई सुजाता भी लंच के बाद नींद के सागर में गोते लगा रही थीं. घंटी की आवाज से बमुश्किल आंखें खोल कर मोबाइल पर नजरें गड़ाईं. समधिन मानसी का नाम देख कर हड़बड़ा कर उठ कर बैठ गईं.

‘‘हैलो,’’ वे आवाज को संयत कर नींद की खुमारी से बाहर खींचती हुई बोलीं.

‘‘हैलो, सुजाताजी, लगता है आप को डिस्टर्ब कर दिया. दरअसल, अवनी ने फोन करने को कहा था, पर अभी तक नहीं किया.’’

‘‘ओह, अवनी अपने कमरे में है. बच्चे 4 बजे आए होटल से. खाना खा कर कमरे में चले गए हैं. फोन करना भूल गई होगी शायद. जब बाहर आएगी तो मैं याद दिला दूंगी.’’

‘‘हां, जी,’’ बेटी की सुबह की डांट से क्षुब्ध मानसी सुजाता से भी संभल कर व धीमी आवाज में बात कर रही थी. सुजाता का हृदय द्रवित हो गया. बेटी की मां ऐसी ही होती है.

‘‘बेटी की याद आ रही है?’’ वे स्नेह से बोलीं.

‘‘हां, आ तो रही है,’’ मानसी की आवाज भावनाओं के दबाव से नम हो गई, ‘‘पर ये आजकल के बच्चे, मातापिता की भावनाओं को समझते कहां हैं,’’ सुबह की घटना से व्यथित मानसी बोल पड़ी.

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं. दरअसल, बच्चों के जीवन में उलझने के लिए बहुतकुछ है. और मातापिता के जीवन में सिर्फ बच्चे, इसलिए ऐसा लगता है. अवनी बहुत प्यारी बच्ची है. लेकिन अभी नईनई शादी है न, इसलिए आप चिंता मत कीजिए. वह आप की लाड़ली बेटी है तो हमारे घर की भी संजीवनी है. बाहर आएगी तो मैं बात करने के लिए कह दूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मानसी ने फोन रख दिया. सुजाता की नींद तो मानसी के फोन से उड़ गई थी. सरस भी आवाज से उठ गए थे. इसलिए वह उठ कर मुंहहाथ धो कर चाय बना कर ले आई.

बच्चे दूसरे दिन हनीमून पर निकल गए. वापस आए तो कुछ दिन अवनी के घर देहरादून चले गए. इस बीच, सुजाता की छुट्टियां खत्म हो गईं. बच्चे वापस आए तो उन की भी छुट्टियां खत्म हो गई थीं. दोनों के औफिस शुरू हो गए और दोनों अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. वैसे तो सुजाता बहुत ही आधुनिक विचारों की कामकाजी सास थीं पर वे इस नई पीढ़ी को नवविवाहित जीवन की शुरुआत करते बड़े आश्चर्य व कुतूहल से देख रही थीं. इन बच्चों की दिनचर्या में उन के मोबाइल व लैपटौप के अलावा किसी के लिए भी जगह नहीं थी.

उन के औफिस संबंधी अधिकतर काम तो मोबाइल से ही निबटते थे. बाकी बचे लैपटौप से. सुबह 8, साढ़े 8 बजे के निकले बच्चे रात के साढ़े 8 बजे के बाद ही घर में घुसते. उन की दिनचर्या में अपने नवविवाहित साथी के लिए ही जगह नहीं थी, फिर सासससुर की कौन कहे. ‘‘इन्हें प्यार करने के लिए फुरसत कैसे मिली होगी?’’ सुजाता अकसर सरस से परिहास करतीं, ‘‘लगता है प्यार भी मोबाइल पर ही निबटा लिया होगा औफिस के जरूरी कार्यों की तरह.’’

मानसी बेटी से बात करने के लिए तरस जाती. पहले सिर्फ उस की नौकरी थी, इसलिए थोड़ीबहुत बात हो जाती थी. पर अब उस की दिनचर्या का थोड़ाबहुत हिस्सेदार परिमल भी हो गया था.

‘‘सासससुर के साथ भी थोड़ाबहुत बैठती है छुट्टी के दिन? कभी किचन का रुख भी कर लिया कर. अब तेरी शादी हो गई है. तेरे सासससुर अच्छे हैं पर थोड़ीबहुत उम्मीद तो वे भी करते होंगे,’’ एक दिन फोन पर बात करते हुए मानसी बोली.

‘‘उफ, मम्मी, फिर शुरू हो गए आप के उपदेश. अरे, जब मैं किसी से बदलने की उम्मीद नहीं करती, जो जैसा है वैसा ही रह रहा है, तो मुझ से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकता है कोई. शादी मेरे लिए ही सजा क्यों है. यह मत पहनो, वह मत करो. मन हो न हो, सब से बातचीत करो. जल्दी उठो. रिश्तेदार आएं तो उन्हें खुश करो,’’ अवनी झल्ला कर बोली.

कमरे के बाहर से गुजरती सुजाता के कानों में अवनी की ये बातें पड़ गईं. सुजाता बहुत ही खुले विचारों की महिला थीं. हर बात का सकारात्मक पहलू देखना व विश्लेषणात्मक तरीके से सोचना उन की आदत थी.

पारंपरिक सास के कवच से बाहर आ कर एक स्त्री के नजरिए से वे सोचने लगीं, ‘आखिर गलत क्या कह रही है अवनी. शादी सजा क्यों बन जाती है किसी लड़की के लिए. लड़के के लिए शादी न कल सजा थी न आज, पर लड़की के लिए…वे खुद भी कामकाजी रही हैं. अंदरबाहर की जिम्मेदारियों में बुरी तरह पिसी हैं. पति ने भी इतना साथ नहीं दिया. कितने ही क्षण ऐसे आए जब नौकरी बचाना भी मुश्किल हो गया था. कामकाजी होते हुए भी उन से एक संपूर्ण गृहिणी वाली उम्मीद की गई.’

ऐसे विचार कई बार उन के हृदय को भी आंदोलित करते थे. पर गलत को गलत कहने की उच्चशिक्षित होते हुए यहां तक कि आर्थिकरूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी उन की पीढ़ी ने हिमाकत नहीं की. उन्हें लग रहा था जैसे उन की पीढ़ी का मौन अब अवनी की पीढ़ी की लड़कियों के मुंह से मुखरित हो रहा है. अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की दिनचर्या अपने हिसाब से शुरू होती है और अपने हिसाब से खत्म होती है. यह देख कर उन्हें अच्छा भी लगता. अवनी की पीढ़ी की लड़की का जीवन पतिरूपी पुरुष के जीवन के खिलने व सफल होने के लिए आधार मात्र नहीं है बल्कि दोनों ही बराबर के स्तंभ थे. एक भी कम या ज्यादा नहीं. वे अपने बेटे को अवनी से ज्यादा बदलते हुए देख रही थीं शादी के बाद.

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 2

सौम्या की बात सुन कर घर के सभी सदस्यों की नजरें सौम्या पर जा टिकीं. मगर कोई कुछ बोल न सका. सौम्या बैग उठा कर और सैंडल पहन कर घर से निकल गई.

वैसे, अजीब तो उसे वाकई लग रहा था, कभी भी अकेली फिल्म देखने जो नहीं गई थी. बाहर आ कर उस ने बैटरी रिकशा लिया और सब से नजदीकी सिनेमाहौल पहुंच गई, जो एक छोटे मौल में था. वैसे यहां अधिक भीड़ नहीं रहा करती थी मगर फिल्म अच्छी होने की वजह से कई जोड़े युवकयुवतियां काउंटर के बाहर मंडराते नजर आए. जैसे ही काउंटर खुला, लंबी लाइन लग गई. 15 मिनट लाइन में लग कर आखिरकार उस ने टिकट हासिल कर लिया.

सिक्योरिटी चैक के बाद अंदर दाखिल हुई तो देखा बहुत से लड़केलड़कियां बैठ कर शो शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं. सब आपस में बातें कर रहे थे. उसे कुछ अजीब सा लग रहा था. मगर वह अपना आत्मविश्वास खोना नहीं चाहती थी. मोबाइल पर सहेली को फोन लगा कर बातें करने लगी. कुछ ही देर में शो शुरू होने का समय हो गया. टिकट चैकिंग के बाद एकएक कर सब को अंदर भेजा जाने लगा. वह भी अंदर जा कर अपनी सीट पर बैठ गई. बगल की सीट पर एक लड़की को देख उसे तसल्ली हुई. वह भी अकेली बैठी हुई थी. सौम्या ने उस से हलकीफुलकी बातचीत आरंभ की. तब तक उस लड़की का बौयफ्रैंड आ गया और दोनों आपस में मशगूल हो गए.

सौम्या चैन से फिल्म देखने लगी. इंटरवल के समय जब लड़का पौपकौर्न वगैरह लेने जाने लगा तो सौम्या ने उस के द्वारा अपने लिए भी स्नैक्स मंगा लिए. इंटरवल में सौम्या ने उस लड़की से काफी बातें कीं. वह लड़की काफी चुलबुली और प्यारी सी थी. लड़का भी अच्छा लग रहा था. फिल्म खत्म होने पर तीनों साथसाथ बाहर निकले. सौम्या को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि दोनों उसी के महल्ले के थे. सौम्या ने उन दोनों को घर चलने का निमंत्रण दिया. दोनों तैयार हो गए.

सौम्या दोनों के साथ घर पहुंची. उस वक्त अनुराग औफिस में और बच्चे स्कूल में थे. सौम्या ने फटाफट चाय और पकौड़े बनाए और दोनों को मन से खिलाया. लड़की का नाम नेहा और लड़के का नितिन था. एक घंटा बातचीत करने के बाद दोनों चले गए.

सौम्या का मन आज बहुत खुश था. उस का पूरा दिन बहुत खूबसूरत जो गुजरा था. अब तो वह अकसर नितिन और नेहा को घर पर बुलाने लगी. कभी नितिन व्यस्त होता तो नेहा अकेली आ जाती. दोनों मिल कर शौपिंग करने जाते तो कभी कहीं घूमने निकल जाते.

सौम्या को नितिन और नेहा के रूप में मनचाहे साथी या कहिए रिश्तेदार मिल गए थे. वहीं, नितिन और नेहा के लिए सौम्या दोस्त, बहन, मां, दादी, गाइड और दोस्त जैसे किरदार निभा रही थी. वे सौम्या से दोस्त की तरह अपनी हर बात शेयर करते. सौम्या कभी बहन की तरह प्यार लुटाती तो कभी मां की तरह उन की फिक्र करती. कभी दादी की तरह आज्ञा देती तो कभी गाइड की तरह सही रास्ता दिखाती. उन दोनों को कोई भी समस्या आती, तो वे बेखटके सौम्या के पास पहुंच जाते. सौम्या उन के लिए हमेशा तैयार रहती. वैसे भी वह पूरे दिन घर में अकेली होती थी. सो, इन दोनों के साथ खुल कर समय बिताती.

एक दिन दोपहर के समय नेहा सौम्या के घर आई. दरवाजा खुलते ही वह सौम्या के सीने से लग कर रोने लगी. सौम्या घबरा गई. उसे बैठा कर पानी ले आई. नेहा की आंखें सूजी हुई थीं. वह अब भी रो रही थी.

नेहा का कंधा थपथपाते हुए सौम्या ने कारण पूछा तो नेहा ने बताया, ‘‘सौम्या दीदी, मैं अब नितिन से कभी बात नहीं करूंगी.’’

‘‘अरे, ऐसा क्या हो गया?’’ चौंकते हुए सौम्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं दीदी. वह मु झ से सच्चा प्यार नहीं करता. उसे तो कोई भी लड़की चलती है.’’

‘‘यह कैसी बकवास कर रही है तू?’’ डांटते हुए सौम्या ने कहा तो वह फूट पड़ी, ‘‘दीदी, आज मु झे कालेज जाने में थोड़ी देर हो गई थी. 12 बजे के करीब पहुंची, तो पता है मैं ने क्या देखा?’’

‘‘क्या देखा?’’

‘‘मैं ने देखा कि नितिन एक नई लड़की के साथ कैंटीन में बैठा कौफी पी रहा है. यह दृश्य देखते ही मैं अपसैट हो गई और बाहर लौन में आ कर एक बैंच  पर बैठ गई. जानती हैं फिर क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘फिर नितिन उस लड़की का बैग उठाए लौन में आया और दोनों एक बैंच पर बैठ कर बातें करने लगे. नितिन ने मु झे देखा नहीं था. उस का ध्यान तो पूरी तरह उस लड़की पर था. जाने कितनी देर दोनों एकदूसरे की आंखों में देखते हुए बातें करते रहे. मेरा दिल जल उठा और मैं वहां से उठ कर चली आई. क्लास में जाने का भी दिल नहीं हुआ.’’ नेहा की आंखें फिर से भर आई थीं.

सौम्या हंसती हुई बोली, ‘‘बस, इतनी सी बात है?’’

‘‘दीदी, यह इतनी सी बात नहीं. आज नितिन ने दिखा दिया कि वह जरा भी वफादार नहीं है.’’

‘‘पागल है तू, ऐसा कुछ नहीं,’’ सौम्या ने नेहा को सम झाना चाहा कि तब तक सौम्या की बेटी आरुषि घर में दाखिल हुई.

‘‘अरे, क्या हुआ बेटे, आप जल्दी आ गए?’’

‘‘हां मम्मा, तबीयत ठीक नहीं थी. फीवर है.’’

‘‘ओह, रुक, मैं आती हूं.’’

तब तक नेहा उठ खड़ी हुई, ‘‘दीदी, आप आरुषि को संभालो. मैं अभी चलती हूं. फिर आऊंगी.’’

‘‘ठीक है नेहा, पर इस बात को सीरियसली मत लेना. हो सकता है वह लड़की नितिन की जानपहचान की हो.’’

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 1

अवनी आखिर परिमल की हो गई. विदाई का समय आ गया. मम्मीपापा अपनी इकलौती, लाड़ली, नाजों पली गुडि़या सी बेटी को विदा कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. बेटी तो आती रहेगी विवाह के बाद भी, पर बेटी पर यह अधिकारबोध शायद तब न रहेगा.

यह एक प्राचीन मान्यता है. अधिकार तो बेटे पर विवाह के बाद बेटी से भी कम हो जाता है, पर बोध कम नहीं होता शायद. उसी सूत्र को पकड़ कर बेटी के मातापिता की आंखें विदाई के समय आज भी भीग जाती हैं. हृदय आज भी तड़प उठता है, इस आशंका से कि बेटी ससुराल में दुख पाएगी या सुख. हालांकि, आज के समय में यह पता नहीं रहता कि वास्तव में दुख कौन पा सकता है, बेटी या ससुराल वाले. अरमान किस के चूरचूर हो सकते हैं दोनों में से, उम्मीदें किस की ध्वस्त हो सकती हैं.

विदाई के बाद भरीआंखों से अवनी कार में बैठी सड़क पर पीछे छूटती वस्तुओं को देख रही थी. इन वस्तुओं की तरह ही जीवन का एक अध्याय भी पीछे छूट गया था और कल से एक नया अध्याय जुड़ने वाला था जिंदगी की किताब में. जिसे उसे पढ़ना था. लेकिन पता नहीं अध्याय कितना सरल या कठिन हो.

‘मम्मी, मैं परिमल को पसंद करती हूं और उसी से शादी करूंगी,’ घर में उठती रिश्ते की बातों से घबरा कर अवनी ने कुछ घबरातेलरजते शब्दों में मां को सचाई से अवगत कराया.

‘परिमल? पर बेटा वह गैरबिरादरी का लड़का, पूरी तरह शाकाहारी व नौकरीपेशा परिवार है उन का.’

‘उस से क्या फर्क पड़ता है, मम्मी?’

‘लेकिन परिमल की नौकरी भी वहीं पर है. तुझे हमेशा ससुराल में ही रहना पड़ेगा, यह सोचा तूने?’

‘तो क्या हुआ? आप अपने जानने वाले व्यावसायिक घरों में भी मेरा विवाह करोगे तो क्या साथ में नहीं रहना पड़ेगा? वहां भी रह लूंगी. है ही कौन घर पर, मातापिता ही तो हैं. बहन की शादी तो पहले ही हो चुकी है.’

‘व्यावसायिक घर में तेरी शादी होगी तो रुपएपैसे की कमी न होगी. कई समस्याओं का समाधान आर्थिक मजबूती कर देती है,’ मानसी शंका जाहिर करती हुई बोली.

‘ओहो मम्मी, इतना मत सोचो. अकसर हम जितना सोचते हैं, उतना कुछ होता नहीं है. मैं और परिमल दोनों की अच्छी नौकरियां हैं. मुझे खुद पर पूरा भरोसा है. निबट लूंगी सब बातों से. आप तो बस, पापा को मनाओ, क्योंकि मैं परिमल के अलावा किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी.’

अवनी के तर्कवितर्क से मानसी निरुत्तर हो गई थी. आजकल के बच्चे कुछ कहें तो मातापिता के होंठों पर हां के सिवा कुछ नहीं होना चाहिए. यही आधुनिक जीवनशैली व विचारधारा का पहला दस्तूर है. अवनी के मातापिता ने भी सहर्ष हां बोल दी. दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद अवनी व परिमल विवाह सूत्र में बंध गए थे.

बरात विदा होने से पहले ही बरातियों की एक कार अपने गंतव्य की तरफ चल दी थी, जिन में परिमल की मम्मी भी थीं ताकि वे जल्दी पहुंच कर बहू के स्वागत की तैयारियां कर सकें. बरात देहरादून से वापस दिल्ली जा रही थी.

बरात जब घर पहुंची तो नईनवेली बहू के स्वागत में सब के पलकपांवड़े बिछ गए. द्वारचार की थोड़ीबहुत रस्मों के बाद गृहप्रवेश हो गया. पंडितजी भी अपनी दक्षिणा पा कर दुम दबा कर भागे और घर पर इंतजार करते बैंड वाले भी अपना कर्तव्य पालन कर भाग खड़े हुए.

बरात के दिल्ली पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज गए थे. खाना तैयार था. अधिकांश बराती तो रास्ते से ही इधरउधर हो लिए थे. करीबी रिश्तेदार, जिन्होंने घर तक आने की जरूरत महसूस की थी, भी खाना खा कर जाने को उद्यत हो गए. परिमल की मां सुजाता ने सब को भेंट वगैरह दे कर रुखसत कर दिया.

घर में अब सुजाता, सरस, बेटीदामाद व दूल्हादुलहन रह गए थे. दामाद की नौकरी तो दूसरे शहर में थी, पर घर स्थानीय था. इसलिए बेटीदामाद भी अपने घर चले गए.

‘‘परिमल, तुम ने भी होटल में कमरा बुक किया हुआ है, तुम भी निकल जाओ. तुम्हारे दोस्त तुम्हें छोड़ देंगे और ड्राइवर तुम्हारे दोस्तों को घर छोड़ता हुआ चला जाएगा. काफी देर हो रही है, आराम करो,’’ सरस बोले.

परिमल बहुत थका हुआ था. इतने थके हुए थे दोनों कि उन का होटल जाने का भी मन नहीं हो रहा था, ‘‘यहीं सो जाते हैं, पापा. मेरा कमरा खाली ही तो है. घर में तो कोई मेहमान भी नहीं है.’’

सुजाता चौंक गईं. मन ही मन सोचा, ‘नई बहू क्या सोचेगी.’

‘‘नहींनहीं, तुम्हारा कमरा तो बहुत अस्तव्यस्त है. आज तो होटल चले जाओ. कल सबकुछ व्यवस्थित कर दूंगी,’’ सुजाता बोलीं.

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 1

सौम्या बालकनी में खड़ी आसमान की ओर देख रही थी. सुबह से ही नीले आसमान को कालेकाले शोख बादलों ने अपनी आगोश में ले रखा था. बारिश की नन्हीनन्ही बूंदों के बाद अब मोटीमोटी बूंदें गिरने लगी थीं. सावन के महीने की यही खासीयत होती है. पूरी प्रकृति बारिश में नहा कर खिल उठती है. सौम्या का मनमयूर भी नाचने को विकल था. सुहाने मौसम में वह भी पति की बांहों में सिमट जाना चाहती थी. मगर क्या करती, उस का पति अनुराग तो अपने कमरे में कंप्यूटर से चिपका बैठा था.

वह 2 बार उस के पास जा कर उसे उठाने की कोशिश कर चुकी थी. एक बार फिर वह अनुराग के कमरे में दाखिल होती हुई बोली, ‘‘प्लीज चलो न बाहर, बारिश बंद हो जाएगी और तुम काम ही करते रह जाओगे.’’

‘‘बोला न सौम्या, मु झे जरूरी काम है. तुम चाहती क्या हो? बाहर जा कर क्या करूंगा मैं? तुम भूल क्यों जाती हो कि अब हम प्रौढ़ हो चुके हैं. तुम्हारी नवयुवतियों वाली हरकतें अच्छी नहीं लगतीं.’’

तुनकते हुए सौम्या ने कहा, ‘‘मैं कौन सा तुम से रेनडांस करने को कह रही हूं?  बस, बरामदे में बैठ कर सुहाने मौसम का आनंद लेने ही को कह रही हूं. गरमगरम चाय और पकौड़े खाते हुए जीवन के खट्टेमीठे पल याद करने को कह रही हूं.’’

‘‘देखो सौम्या, मेरे पास इतना फालतू वक्त नहीं कि बाहर बैठ कर प्रकृति निहारूं और खट्टेमीठे पल याद करूं. मुझे चैन से काम करने दो. तुम अपने लिए कोई सहेली या रिश्तेदार ढूंढ़ लो, जो हरदम तुम्हारा मन लगाए रखे और हर काम में साथ दे,’’ कह कर अनुराग फिर से काम में लग गया और मुंह बनाती हुई सौम्या किचन में घुस गई.

वह इस शहर में करीब 4 साल पहले आई थी. अनुराग का ट्रांसफर हुआ तो पुराना शहर छोड़ना पड़ा. पुरानी सहेलियां और पुरानी यादें भी पीछे छूट गईं. इस शहर में अभी किसी से ज्यादा परिचय नहीं है उस का. वैसे भी, यहां लोग अपनेअपने घरों में कैद रहते हैं. बगल के घर में मिस्टर गुप्ता अपनी मिसेज के साथ रहते हैं. 60 साल के करीब के ये दंपती दरवाजा खोलने में बहुत आलसी हैं. दूसरी तरफ मिस्टर भटनागर हैं, जो 2 बेटों के साथ रहते हैं. उन की पत्नी का देहांत हो चुका है.

खुद सौम्या के दोनों बच्चे अब ऊंची कक्षाओं में आ चुके हैं. इसलिए हमेशा किताबें या लैपटौप खोल कर बैठे रहते हैं. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग एंट्रैंस टैस्ट की तैयारी कर रहा है जबकि बिटिया बोर्ड परीक्षा की तैयारी में जुटी है.

पूरे घर में सौम्या ही है जो व्यस्त नहीं है. घर के काम निबटा कर उसे इतना वक्त आराम से मिल जाता है कि वह अपने दिल के काम कर सके. कभी किताबें पढ़ना, कभी पेंटिंग करना और कभी यों ही प्रकृति को निहारना उस का मनपसंद टाइमपास है. इन सब के बाद भी कई बार उस का टाइम पास नहीं होता, तो वह उदास हो जाती है. इस शहर में उस का कोई रिश्तेदार भी नहीं.

वैसे भी वह घर की इकलौती बिटिया थी. पिता की मौत के बाद मां ने ही उसे संभाला था. अभी भी सौम्या दिल से मां के बहुत करीब है. मां खुद बहुत व्यस्त रहती हैं. वैसे भी, वे दूसरे शहर में सरकारी नौकरी में हैं. सौम्या की एकदो सहेलियां हैं, मगर फोन पर कितनी बात की जाए.

सौम्या का मन आज बहुत उदास था. शाम तक उसे कहीं सुकून नहीं मिला. रात में बिस्तर पर लेटेलेटे उस ने एक प्लान बनाया. अगले दिन सुबहसुबह पति और बच्चों के साथ वह भी तैयार होने लगी.

बेटी ने जब सौम्या को कहीं जाने के लिए तैयार होते देखा तो पूछ बैठी, ‘‘ममा, आप कहां जा रहे हो?’’

‘‘फिल्म देखने,’’ इठलाती हुई सौम्या बोली.

बेटी ने फिर से सवाल किया, ‘‘मगर किस के साथ?’’

‘‘खुद के साथ.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो आप? भला फिल्म भी खुद के साथ देखी जाती है? अकेली क्यों जा रही हो आप? कितना अजीब लगेगा.’’

‘‘तो फिर क्या करूं, बता जरा. तुम चलोगी मेरे साथ? तुम्हारे पापा चलेंगे? नहीं न. कोई रिश्तेदारी या सहेली है इस शहर में मेरी? नहीं न. बताओ, फिर क्या करूं? अजीब लगेगा, यह सोच कर अपने मन को मारती रहूं? मगर कब तक? कभी तो हिम्मत करनी पड़ेगी न मु झे अकेले चलने की. सब के होते हुए भी मैं अकेली जो हूं.’’

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