Story in Hindi
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Family Story in Hindi : जैसे ही दोपहर के खाने की घंटी बजी, सारे बच्चे दौड़ते हुए खाने की तरफ भागे. दीपक सर, जो गणित के टीचर थे और हाल ही में इस स्कूल में आए थे, स्कूल के इन तौरतरीकों को देख कर हैरान थे. आज बच्चों का खाना देख कर तो और भी हैरान हो गए. दाल बिलकुल पानी जैसी, भात और सब्जी के नाम पर उबले हुए चने. कैसे किसी के गले से उतरेंगे? स्टाफ रूम में सारे टीचर अपनेअपने खाने का डब्बा खोल कर खाने बैठ गए थे. दीपक सर ने जैसे ही अपने खाने का डब्बा खोला, मिश्रा सर, जो हिंदी के टीचर थे, कहने लगे, ‘‘दीपक सर, क्या बात है… आज तो आप के खाने के डब्बे से बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है?’’
‘‘जी,’’ मुसकराते हुए दीपक सर ने कहा और अपने खाने का डब्बा उन के आगे बढ़ा दिया.
थोडी़ देर बाद दीपक ने वहां बैठे दूसरे टीचरों से पूछा, ‘‘चलिए, मैं तो चलता हूं, अगली क्लास लेने. आप सब को नहीं चलना है?’’
‘‘अरे भैया, क्यों इतने उतावले हो रहे हो? बैठो जरा. बच्चे कहां भागे जा रहे हैं,’’ संस्कृत के पांडे सर ने कहा.
विज्ञान की टीचर वंदना मैडम बोल पड़ीं, ‘‘बच्चे अगर 1-2 सब्जैक्ट नहीं भी पढ़ेंगे, तो कौन सा आईएएस बनना है उन्हें, जो नहीं बन पाएंगे?’’
‘‘वंदना मैडम, बच्चों को पढ़ाना हमारी ड्यूटी है और अगर हम ईमानदारी से बच्चों पढ़ाएंगे न, तो बच्चे एक दिन जरूर आईएएस बनेंगे. हम यहां इसलिए तो आए हैं. तनख्वाह भी तो हमें बच्चों को पढ़ाने की ही मिलती है,’’ दीपक सर ने कहा.
‘‘मैं ने तो कुछ ज्यादा ही खा लिया. अब क्या करें? पत्नीजी खाना ही इतना दे देती हैं. और खाते ही मुझे जोरों की नींद आने लगती है,’’ कह कर सिन्हा सर वहीं पड़ी कुरसी पर अपने पैर पसार कर सो गए.
दीपक ने जब मिश्रा सर की तरफ देखा, तो वे भी अपने मुंह में पान दबाते हुए बोले, ‘‘देखिए दीपक सर, आप भी नएनए आए हैं, तो आप को यहां के नियमकानून का कुछ पता नहीं है.’’
‘‘कैसे नियमकानून हैं सर?’’ दीपक ने हैरान होते हुए पूछा.
मिश्रा सर भी वहीं लगी दूसरी कुरसी पर आराम से अपने पैर पसारते हुए कहने लगे, ‘‘दीपक सर, मैं कोचिंग सैंटर भी चलाता हूं. अब पूरे दिन इसी स्कूल में बैठा रह गया, तो वहां के बच्चे को कौन पढ़ाएगा?
‘‘अब ऐसे मत देखिए दीपक सर. अब अगर कोचिंग सैंटर नहीं चलाएंगे, तो दालरोटी पर मक्खन कहां से मिलेगा.’’
‘‘मिश्रा सर, वह सब तो ठीक है, पर जब प्रिंसिपल मैडम को आप सब की हरकतों का पता चलेगा तो…?’’
दीपक सर की बात को बीच में ही काटते हुए श्रीवास्तव सर कहने लगे, ‘‘अरे छोडि़ए मैडम की बातें. उन को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम क्या करें और क्या न करें. उन के हाथों में हर महीने हरेहरे नोट सरका दीजिए बस. और वे कौन सी दूध की धुली हैं, जो हमें कुछ कहेंगी.’’
तभी मिश्राजी हंसते हुए कहने लगे, ‘‘लगता है दीपक बाबू को प्रिंसिपल मैडम की कहानी नहीं पता?’’
दीपक सर ने हैरानी से सब का मुंह देखते हुए पूछा, ‘‘कौन सी कहानी सर?’’
‘‘लो भैया, अब इन्हें भी बतानी पड़ेगी मैडम की कहानी कि कैसे वे एक अदना सी टीचर से प्रिंसिपल बन बैठीं,’’ अपने मुंह से पान की पीक दीवार पर ही फेंकते हुए मिश्राजी ने कहा.
‘‘दीपक सर, ये बबीता मैडम जो हैं न, पहले अपने ही गांव के एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं. आप समझ रहे हैं न?’’ एक बार फिर उन्होंने पान की पीक दीवार पर मारते हुए कहा.
दीपक सर ने उन्हें बड़ी अजीब नजरों से देखा.
‘‘बबीता मैडम जिस गांव से थीं, उसी गांव से एमएलए प्रवीण यादव चुनाव के लिए खड़े हुए थे. बबीताजी के पति चुनाव महकमे में ही एक छोटेमोटे मुलाजिम थे.
‘‘प्रवीण यादव की तरफ से बबीता मैडम और उन के पति ने खूब चुनाव प्रचार किया था. प्रवीण यादव ने बबीताजी से यह वादा किया था कि अगर वे जीत गए, तो उन्हें खुश कर देंगे और उन्होंने ऐसा किया भी.
‘‘बबीताजी कितनी पढ़ीलिखी हैं, यह तो आज तक हम में से कोई नहीं जानता है. उस के बावजूद उन्हें इस स्कूल में मिडिल तक की टीचर बना दिया गया. बबीता मैडम गांव के स्कूल से सीधा शहर में आ गईं.
‘‘प्रवीण यादव और बबीता मैडम अब किसी न किसी बहाने एकदूसरे से मिलने लगे. लोगों की नजरों में तो वे अच्छे दोस्त थे, पर सचाई कुछ और ही थी. धीरेधीरे सब को पता चल ही गया कि नेता प्रवीण यादव और बबीताजी के रिश्ते कितने गहरे हैं.
‘‘बबीता मैडम स्कूल में तो जब मन करता तब ही आती थीं, पर तनख्वाह पूरे महीने की उठाती थीं. वे अब ज्यादातर नेताजी की सेवा में ही लगी रहती थीं.
‘‘दीपक सर, आप समझ रहे हैं न. मैडम कहां बिजी रहने लगी थीं और नेताजी उन पर इतने मेहरबान क्यों थे?’’ एक खलनायक वाली हंसी हंसते हुए मिश्रा सर ने कहा, तो दीपक सर ने भी अपना सिर हां में हिला दिया. मिश्रा सर ने पूरा किस्सा बताया.
‘‘नेताजी की पत्नी को जब उन दोनों के नाजायज रिश्तों के बारे में पता चला, तो एक दिन वे सीधे अपने फार्महाउस पहुंच गईं, जहां पहले से बबीता मैडम मौजूद थीं.
‘‘पहले तो उन्होंने बबीताजी के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया, फिर कहने लगीं, ‘नीच औरत, तुझे शर्म नहीं आती किसी पराए मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ाते हुए. अपने पति से मन भर गया, तो मेरे पति का बिस्तर गरम कर रही है. आगे से कभी भी मैं ने तुझे इन के इर्दगिर्द भी देखा ना, तो समझ लेना…’
‘‘नेताजी को भी उन्होंने खूब खरीखोटी सुनाई, ‘आप को यह जो एमएलए की पोस्ट मिली है न, वह मैं मिनटों में छिनवा लूंगी… समझे नेताजी?’
‘‘नेताजी के ससुर खुद ही मुख्यमंत्री रह चुके थे. उन्होंने ही अपने दामाद को टिकट दिलवाया था.
‘‘बबीताजी की हरकतों से परेशान हो कर उन के पति ने भी उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल दिया.
‘‘बबीताजी के सिर पर अब शिक्षा मंत्रीजी का हाथ है. अरे, एक ने घर से निकाल दिया, तो दूसरे ने अपनी पत्नी के डर से उन्हें छोड़ दिया तो क्या हुआ. आप ने सुना है दीपक सर, एक नहीं तो और सही,’’ चुटकी लेते हुए मिश्रा सर ने कहा.
मिश्रा सर ने आगे कहा, ‘‘शिक्षा मंत्रीजी, जो अकसर स्कूल की शिक्षा व्यवस्था देखने आते रहते हैं, बबीताजी ने अब उन को फंसा रखा है. उन के साथ भी बबीता मैडम के बहुत गहरे संबंध बन गए हैं. देखिए, एक मामूली टीचर से आज वे प्रिंसिपल बन बैठी हैं.’’
दीपक को ये सब बातें सुन कर बहुत हैरानी हुई. कैसा अंधा कानून चल रहा है इस स्कूल में. एक प्रिंसिपल कितनी पढ़ीलिखी हैं, यह भी किसी को नहीं पता है. वे कैसे इतनी बड़ी कुरसी पर बैठ सकती हैं? और ये सारे निकम्मे टीचर अपनी कामचोरी, रिश्वतखोरी, आलसीपन का सुबूत खुद अपने मुंह से दे रहे हैं.
ऐसे ही कुछ टीचरों की वजह से आज सारे टीचरों को गलत समझा जा रहा है. क्लास में बच्चे तो आते हैं, पर पढ़ाने के लिए टीचर ही नहीं आते हैं. सब अपनाअपना कोचिंग सैंटर चलाते हैं और तनख्वाह इस स्कूल से लेते हैं. यह सरासर गलत है.
उस दिन अंगरेजी की टीचर ममता मैडम बच्चों को 8 की अंगरेजी में स्पैलिंग ईआईजीटी समझ रही थीं. दीपक ने ही उन्हें टोका था, ‘‘मैडम, आप गलत स्पैलिंग बता रही हैं बच्चों को. ईआईजीटी नहीं, ईआईजीएचटी होगा.’’
इस पर अंगरेजी की मैडम ममता बरस पड़ीं, ‘‘दीपक सर, आप अपनी क्लास के बच्चों को संभालिए.’’
अगले दिन दीपक जब स्कूल गया, तो स्कूल के चपरासी ने आ कर उस से कहा, ‘‘आप को प्रिंसिपल मैडम ने अपने औफिस में बुलाया है.’’
‘‘नमस्ते मैडम,’’ दीपक ने प्रिंसिपल मैडम से कहा. उस ने देखा कि पहले से ही वहां और भी कई टीचर बैठे थे.
‘‘दीपक सर, आइए बैठिए. मैं ने आप सब को यहां यह कहने के लिए बुलाया है कि कल हमारे स्कूल में स्कूल निरीक्षक आने वाले हैं. आप सब अपनीअपनी क्लास के बच्चों को ठीक से समझा दें कि क्या कहना है और क्या नहीं.
‘‘और हां, कल दोपहर का खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनना चाहिए और मिठाई तो जरूर होनी चाहिए.
‘‘मिश्रा सर, आप पूरे स्कूल की व्यवस्था ठीक से देख लीजिएगा. कुछ भी गड़बड़ नहीं होनी चाहिए,’’ बबीता मैडम ने सब को अच्छी तरह से समझ दिया.
अगले दिन बराबर बैठी वंदना मैडम ने कहा, ‘‘पांडेजी, जरा देखिए तो,
कैसे प्रिंसिपल मैडम निरीक्षक महोदय के बगल में अपनी कुरसी चिपका कर बैठी हैं.
‘‘मैडम की इसी अदा पर तो मर्द फिदा हो जाते हैं,’’ पांडे सर की बातों पर वहां बैठे सारे टीचर हंस पड़े.
‘‘सर, आप को बच्चों से कुछ पूछना है, तो पूछ सकते हैं,’’ प्रिंसिपल मैडम ने निरीक्षक महोदय से कहा.
‘‘बच्चो, आप सब को कोई दिक्कत तो नहीं है न इस स्कूल में? किसी को कुछ कहना हो या कुछ पूछना हो तो पूछो. डरने की कोई बात नहीं है,’’ निरीक्षक महोदय ने कहा.
सारे बच्चों ने एकसाथ जवाब दिया, ‘‘नहीं सर, यहां सबकुछ ठीक है. हमें कोई दिक्कत नहीं है.’’
बच्चों ने वही कहा, जो उन्हें पहले से रटाया गया था.
‘‘आप टीचरों को कुछ कहना है?’’ निरीक्षक महोदय ने पूछा.
‘‘नहीं महोदय, हमें कुछ नहीं कहना है,’’ सारे टीचरों ने जवाब दिया.
तभी अपना हाथ ऊपर करते हुए दीपक सर ने कहा, ‘‘महोदयजी, मुझे कुछ कहना है.’’
दीपक ने सोचा कि अगर आज हम चुप रहे तो फिर पता नहीं निरीक्षक सर कब आएं इस स्कूल में.
दीपक के इतना कहते ही प्रिंसिपल मैडम समेत सारे टीचर उन का मुंह ताकने लगे कि भाई इन्हें क्या कहना है.
‘‘हांहां, कहिए, आप क्या कहना चाहते हैं?’’ निरीक्षक महोदय ने पूछा.
‘‘महोदय, बच्चे तो वही कह रहे हैं, जो उन्हें कहने को कहा गया है. दरअसल, यहां की स्कूली व्यवस्था बिलकुल अच्छी नहीं है.’’
‘‘आप मुझे जरा खुल कर बताइए,’’ निरीक्षक महोदय ने दीपक से कहा.
‘‘महोदय, पहली बात तो यह है कि कोई भी टीचर अपनी क्लास ठीक से नहीं लेते हैं. जब मन हुआ बच्चों को पढ़ाते हैं, नहीं मन हुआ तो नहीं पढ़ाते हैं.
‘‘दूसरी बात यह कि यहां खाने के नाम पर बच्चों को भात के साथ पानी जैसी दाल और उबली हुई सब्जी परोसी जाती है. हर क्लास में पंखे सिर्फ दिखाने के लिए हैं, चलता कोई नहीं है, जबकि प्रिंसिपल रूम और स्टाफ रूम में एयरकंडीशंड का इंतजाम है.’’
और भी जितनी बातें दीपक ने इस स्कूल में देखीं और सुनीं, वे सब उस ने निरीक्षक को बता दीं, बिना अंजाम की परवाह किए.
निरीक्षक ने सारी बातें अपनी डायरी में लिख लीं, पर रजिस्टर में कुछ नहीं लिखा और पेज खाली छोड़ दिया. बाद में प्रिंसिपल और दूसरे टीचर ने दीपक को बहुत फटकार लगाई और कहने लगे, ‘‘दीपक सर, जो भी बात थी, आप हमें आ कर बताते, निरीक्षक को बताने की क्या जरूरत थी.’’
मिश्रा सर कहने लगे, ‘‘दीपक सर, यह आप ने ठीक नहीं किया. अब आप को क्या होगा देख लेना,’’ जैसे उन्हें सब पता था कि क्या होगा.
‘‘माफ कीजिएगा मिश्रा सर, मैं यहां कोई रिश्वत दे कर या किसी की पैरवी से नहीं आया हूं, जो मैं डर जाऊंगा. अंजाम की परवाह तो वे लोग करते हैं, जो खुद गलत हैं.’’
हफ्तेभर बाद दीपक का तबादला हो गया, तो मिश्रा और सारे टीचर मुसकरा कर बोले, ‘‘देख लिया न अंजाम.’’
दीपक को यह समझते जरा भी देर नहीं लगी कि ये सब मिले हुए हैं, निरीक्षक भी. यहां तो पूरा घोटाला है, अकेला वह कुछ नहीं कर सकता है. यह तो चलता रहेगा.
आज टीचर की नौकरी उस की काबिलीयत को देख कर नहीं लगती है. नौकरी लगती है तो किसी बड़े नेता की पैरवी से. यहां टीचर 15 दिन की नौकरी करते हैं और पूरे महीने की तनख्वाह उठाते हैं. अपना खुद का कोचिंग सैंटर चलाते हैं. पैसे ले कर बच्चों को ज्यादा नंबर देते हैं. आज कोई भी मांबाप अपने बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की कामना कैसे कर सकते हैं, जब वे ही इन नकारा टीचर को बढ़ावा दे रहे हैं.
प्रिंसिपल शिक्षा मंत्री की चमचागीरी करते हैं और टीचर प्रिंसिपल की, ताकि बिना मेहनत के उन्हें तरक्की मिलती रहे. मेहनती टीचर को या तो मैमो दिलवाते हैं या कोसों दूर तबादला कर देते हैं.
दीपक का तबादला एक पहाड़ी गांव में कर दिया गया था, जहां स्कूल की अधूरी बिल्डिंग बनी थी, पर 2 कमरों की छत ढह चुकी थी. बच्चे आते ही नहीं थे, क्योंकि टीचर ऊंची जातियों के थे और बच्चे दलितों के. उन को बहला दिया गया था कि उन्हें पास होने का सर्टिफिकेट मिल जाएगा.
किदवई नगर कालोनी में बड़ीबड़ी कोठियां बनी हुई थीं. इसी कालोनी में इंजीनियर नागेश साहब की भी एक कोठी थी. कोठी के आउटहाउस में बैजू अपनी बीवी मीना और 8 साल के बेटे संजू के साथ रहता था.
बैजू एक मजदूर था. वह ईंट, गिट्टी और बालू ढोने का काम करता था. उस की मजदूरी से घर का खर्च चलता था. लेकिन उसे शराब पीने की बुरी आदत थी. मजदूरी के मिले थोड़े रुपयों से भी वह ऐश कर लेता था. उसे अपनी बीवीबच्चे की परवाह नहीं थी.
बैजू की बीवी मीना को घर चलाने में बड़ी मुश्किलें होती थीं. इस वजह से वह अपने पति बैजू से चिढ़ी रहती थी. उसे बेटे संजू की परवरिश और पढ़ाई की फिक्र होती थी, लेकिन बैजू को बेटे की पढ़ाई की कोई चिंता नहीं थी.
मीना गोरी और खूबसूरत औरत थी. वह स्मार्ट और फुरतीली थी. उस की पतली कमर और लंबे रेशमी बाल सब को आकर्षित करते थे. वह हंसमुख और बिंदास थी. वह बनठन कर रहने की शौकीन थी. उस का पहनावा सलीकेदार था.
किदवई नगर कालोनी में किराए का घर ले कर रहना बैजू जैसे मजदूर के लिए मुमकिन नहीं था. इस कालोनी में घर का किराया बहुत ज्यादा था. नागेश साहब ने उसे अपनी कोठी के आउटहाउस में रहने को जगह दे दी थी.
नागेश साहब बैजू से किराया नहीं लेते थे. किराए के बदले में नागेश साहब की कोठी में बैजू की बीवी मीना कामवाली बाई की तरह काम करती थी. वह सुबहशाम घर के जूठे बरतन साफ कर देती थी, जिस से मेमसाहब को बननेसंवरने और पार्टियों में जाने की फुरसत मिल जाती थी. नागेश साहब और मेमसाहब दोनों बड़े खुश रहते थे. उन्हें मीना के रूप में नौकरानी जो मिल गई थी.
बैजू एक रात शराब पी कर घर लौटा था. इस से बैजू और मीना में जम कर लड़ाई हो गई थी.
‘‘मैं कहती हूं, तू कब सुधरेगा…’’ मीना ने बैजू से कहा.
‘‘मैं बिगड़ा ही कहां हूं. थोड़ी पी ली तो पहाड़ टूट गया क्या?’’ बैजू ने अपनी सफाई दी.
‘‘500 रुपए मजदूरी के मिलते हैं, जिन में से 300 रुपए की तू दारू पी गया. मुझे घर चलाने के लिए केवल 200 रुपए ही दिए. इतनी महंगाई में घर कैसे चलेगा?’’ मीना ने कहा.
‘‘घर चल जाएगा. हां, नवाबी चाहोगी तो वह नहीं होगा,’’ बैजू ने बेशर्मी से कहा.
इस बात पर बैजू और मीना के बीच हाथापाई हो गई. मीना ने बैजू के पीठ पर 2-4 जोरदार मुक्के मारे. बैजू ने भी मीना को पीट दिया.
संजू अम्मां और बापू की लड़ाई देख कर सहम गया. वह सुबक कर रोने लगा. तब जा कर मियांबीवी शांत हुए.
इसी कलह में सुबह हो गई थी. बैजू साइट पर मजदूरी करने चला गया था. मीना मेमसाहब के जूठे बरतन धो रही थी. मेमसाहब भी वहीं कुरसी पर बैठी थीं.
‘‘अरे मीना, कल रात बैजू के साथ तेरा झगड़ा हुआ था क्या? तुम दोनों के झगड़ने की जोरजोर से आवाजें आ रही थीं,’’ मेमसाहब ने पूछा.
‘‘हां, मेमसाहब. कल रात बैजू दारू पी कर आया था. वह मजदूरी के मिले सारे रुपए दारू में उड़ा देता है,’’ मीना ने उदास लहजे में कहा.
‘‘अरे मीना, इस में बैजू से लड़ने की क्या जरूरत थी. नागेश साहब भी तो क्लब में शराब पीते हैं. मैं ने उन से कभी कोई झगड़ावगड़ा नहीं किया. उलटे रात में उन का प्यार मुझ से बढ़ जाता है,’’ मेमसाहब ने मुसकरा कर कहा.
मेमसाहब की बात सुन कर मीना जलभुन गई और बोली, ‘‘हां मेमसाहब, नागेश साहब और बैजू में बड़ा फर्क है. नागेश साहब के पास क्या कमी है. उन के पास खूब दौलत है. वे क्लब में शराब पी सकते हैं. लेकिन बैजू को मजदूरी के मिले रुपयों से मेरे और संजू के सपने जुड़े हुए हैं. हम उन सपनों को मरते नहीं देख सकते हैं.’’
मीना ने मेमसाहब को लाजवाब कर दिया था. वह झटपट बरतन धो कर वहां से चली गई.
मीना ने संजू को नाश्ता करा कर स्कूल भेज दिया था. थोड़ी दूर संजू का स्कूल था. उस स्कूल में गरीब घरों के बच्चे पढ़ते थे. स्कूल में 2 ही कमरे थे. एक कमरे और आंगन से सटे बरामदे में बच्चों की क्लास चलती थी.
दूसरे कमरे में रामचंद्र फल वाले का फल का गोदाम था. गोदाम से फल की खुशबू आती रहती थी. बच्चे ललचाते रहते थे कि फल चुरा कर कैसे खाए जाएं. वे पढ़ाई पर पूरी तरह से ध्यान नहीं लगा पाते थे.
आज रामचंद्र फल वाले ने गोदाम में आम रखे थे. गोदाम से पके आम की रसीली खुशबू आ रही थी. संजू को आम खाने का मन करने लगा. वह गोदाम से आम चुरा कर खाने लगा. किसी बच्चे ने संजू की शिकायत सुनील सर से कर दी. चुरा कर आम खाने पर उन्होंने संजू को खूब डांट लगाई.
शाम को स्कूल के रास्ते बैजू काम पर से घर लौट रहा था. उसे स्कूल के पास सुनील सर मिल गए. उन्होंने संजू की आम चुरा कर खाने वाली बात बैजू से कह दी.
घर पहुंच कर बैजू छड़ी से संजू की पिटाई करने लगा, ‘‘और आम चुरा कर खाएगा.’’
संजू पिटाई से रोने लगा. मीना को संजू की छड़ी से पिटाई देखी नहीं गई. वह बैजू को कोसने लगी, ‘‘कभी बच्चे के लिए आम खरीद कर लाया नहीं, वह चुरा कर नहीं खाएगा तो क्या करेगा.’’
‘‘मेरी महंगे आम खरीदने की औकात नहीं है,’’ बैजू ने कहा.
‘‘और दारू पीने और मुरगा खाने की औकात तो है न,’’ मीना ने डपट कर कहा.
इस बात पर मीना और बैजू में मारपीट हो गई. दोनों एकदूसरे को थप्पड़ और मुक्के से मारने लगे. वे चीखचिल्ला भी रहे थे. संजू अम्मां और बापू के झगड़े से डर कर रोने लगा. कुछ देर बाद दोनों की लड़ाई शांत हुई.
अगली सुबह मीना नागेश साहब की कोठी में जूठे बरतन साफ कर रही थी. मेमसाहब वहीं कुरसी लगा कर बैठी थीं.
बरतन साफ कर मीना घर जाने लगी कि तभी मेमसाहब ने उसे रोक कर कहा, ‘‘मीना, ये लो 200 रुपए. बाजार से चिकन खरीद कर ला दो.’’
‘‘जी मेमसाहब, अभी जाती हूं,’’ मीना रुपए ले कर बाजार से चिकन लाने चली गई.
सब्जी मंडी के नुक्कड़ पर बादल की चिकन, ब्रैड और अंडे की दुकान थी. बादल गठीला नौजवान था. उसे बनठन कर रहना अच्छा लगता था. वह टीशर्ट और जींस पहनता था. उस के पास एक पुरानी मोटरसाइकिल थी, जिस से वह अपने किराए के घर से दुकान आताजाता था.
मीना बादल की दुकान पर आ गई. बादल ने मीना को देखते ही पूछा, ‘‘मीना, आज क्या चाहिए? अंडाब्रैड दे दूं क्या?’’ ‘‘नहीं बादल, सिर्फ एक किलो चिकन दे दो,’’ मीना ने कहा.
बादल ने झटपट उसे चिकन दे दिया. मीना ने उसे 200 रुपए दे दिए.
‘‘दोपहर में आओ न मीना, कुछ इधरउधर घूमेंगे. मैं दुकान पर बैठेबैठे बोर हो जाता हूं,’’ बादल ने मीना से कहा.
‘‘अच्छा, मैं दोपहर में आती हूं. लेकिन बादल, तुम्हारी दुकान तो दोपहर में बंद हो जाती है,’’ मीना ने कहा.
‘‘हां, तभी तो उस समय ही फुरसत मिलती है,’’ बादल ने कहा. मीना मुसकराते हुए चिकन ले कर चली गई.
मीना अकसर मेमसाहब के लिए चिकन और अंडाब्रैड लेने बादल की दुकान पर आती थी. बादल की मीना से दोस्ती हो गई थी.
धीरेधीरे बादल और मीना एकदूसरे को चाहने लगे थे. मीना बादल के गठीले बदन पर मरमिटी थी. मीना भी खूबसूरती में कहां कम थी. बादल उस की देह का दीवाना हो गया था. दोनों को एकदूसरे से प्यार हो गया.
दोपहर में बादल मीना का इंतजार करने लगा. कुछ ही देर में मीना आ गई. बादल मीना को मोटरसाइकिल पर बैठा कर एक ढाबे पर ले गया, जहां दोनों ने गरमागरम डोसा खाया. ढाबे से निकल कर बादल मीना को अपने घर ले गया.
कमरे में मीना पलंग पर लेट गई. उस के साथ बादल भी लेट गया. वह मीना को बांहों में भर कर चूमने लगा. मीना भी बादल को बेतहाशा चूमने लगी.
बादल मीना के उभारों को सहलाने लगा. वे दोनों पूरी तरह प्यार के सुर में आ गए थे. पलभर में दोनों सैक्स करने लगे. जब जिस्म की आग ठंडी हुई, तब दोनों अलग हुए. बादल ने मीना को मोटरसाइकिल से उस के घर के नजदीक छोड़ दिया.
महीने बीतते गए. अब सर्दियां आ गई थीं. जल्दी ही दीवाली आने वाली थी. इस सब के बावजूद बैजू को पिछले 3-4 दिन से काम नहीं मिल रहा था. उस के हाथ में रोज की तरह मजदूरी के पैसे नहीं आ रहे थे. उसे रोज दारू पी कर ऐश करने की आदत थी. वह बैठेबैठे जुगाड़ भिड़ाने लगा.
‘अरे हां, कालोनी के मोड़ के पास चाय वाले प्रभु को जूठे कपप्लेट धोने के लिए एक छोकरा चाहिए था. अपना संजू उस चाय की दुकान में कपप्लेट धो देगा. बदले में प्रभु चाय वाले से उसे 2,000 रुपया महीना देने को बोलूंगा,’ सोच कर बैजू खुशी से झूम उठा.
दूसरे दिन बैजू संजू को स्कूल न भेज कर अपने साथ प्रभु चाय वाले के पास ले गया.
‘‘प्रभु, तुम्हें अपनी दुकान में जूठे कपप्लेट धोने के लिए एक छोकरा चाहिए था न? मेरे बेटे संजू को दुकान में रख लो,’’ बैजू ने कहा.
‘‘हां, एक छोकरा तो चाहिए था. क्या मेरी दुकान में यह लड़का काम कर लेगा?’’ प्रभु चाय वाले ने संजू को देखते हुए पूछा.
‘‘हां, क्यों नहीं. मजदूर का बेटा है, काम आसानी से कर लेगा,’’ बैजू ने उसे भरोसा दिलाया.
‘‘ठीक है, संजू को आज से ही
काम पर लग जाने दो,’’ प्रभु चाय वाले ने कहा.
कुछ सकुचाते हुए बैजू ने प्रभु चाय वाले से कहा, ‘‘500 रुपए एडवांस चाहिए थे. संजू की पगार से काट लेना.’’
प्रभु चाय वाले ने बैजू पर शक करते हुए बड़ी मुश्किल से 500 रुपए दिए.
बैजू रुपए ले कर चला गया.
जब संजू दोपहर में घर नहीं लौटा, तो मीना घबरा गई. वह स्कूल में संजू को खोजने गई. स्कूल में सुनील सर ने बताया कि आज संजू स्कूल नहीं आया है. तब मीना और ज्यादा घबरा गई.
घबराई मीना कालोनी के मोड़ से हो कर घर लौट रही थी. अचानक उस की नजर प्रभु चाय वाले की दुकान पर पड़ी, जहां संजू जूठे कपप्लेट धो रहा था. यह देख कर वह हैरान रह गई. वह फौरन तेज कदमों से दुकान में चली गई.
‘‘संजू बेटे, यह क्या कर रहे हो?’’ मीना ने पूछा.
‘‘अम्मां, बापू ने मुझे स्कूल न भेज कर इस दुकान में काम पर लगा दिया है,’’ संजू ने बताया.
‘‘हां, बैजू सुबह इसे दुकान में छोड़ कर गया है,’’ प्रभु चाय वाले ने कहा.
यह सुन कर मीना को बैजू पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन वह संभल कर प्रभु चाय वाले से बोली, ‘‘संजू को घर जाने दीजिए.’’
‘‘यह कैसे हो सकता है. आज ही इस छोकरे का बाप 500 रुपए एडवांस में ले कर गया है,’’ प्रभु चाय वाले को गुस्सा आया.
‘‘संजू को जाने दीजिए. कल मैं आप के रुपए लौटा दूंगी,’’ मीना ने प्रभु चाय वाले से गुजारिश की.
‘‘ठीक है, छोकरे को ले जाओ, लेकिन कल मेरे रुपए मिल जाने चाहिए,’’ प्रभु चाय वाले ने मीना को धमकाते हुए कहा.
मीना संजू को दुकान से वापस ले कर चली आई थी. रात को बैजू दारू पी कर घर लौटा. उसे देखते ही मीना को काफी गुस्सा आया, लेकिन वह गुस्से को दबा गई.
मीना के चेहरे पर अब कोई उतारचढ़ाव नहीं था. उस ने मन ही मन एक फैसला ले लिया था, जिसे उस ने अपने सीने में छिपा कर रख लिया था.
मीना ने बैजू से शांत हो कर पूछा, ‘‘प्रभु चाय वाले से जो 500 रुपए लिए थे, उन का क्या किया?’’
‘‘उन रुपयों से दारू पी गया,’’ बैजू ने कहा.
‘‘बाप का फर्ज क्या होता है?’’ मीना ने पूछा.
‘‘मुझे नहीं मालूम,’’ बैजू ने कहा.
‘‘क्या एक मजदूर का बेटा पढ़ नहीं सकता है?’’ मीना ने पूछा.
‘‘मजदूर का बेटा पढ़ कर क्या बैरिस्टर बनेगा? उसे एक दिन मजदूरी ही करनी पड़ेगी,’’ बैजू ने कहा.
‘‘इसलिए तुम ने अपने बेटे संजू को स्कूल न भेज कर चाय की दुकान में जूठे कपप्लेट धोने के लिए काम पर लगा दिया,’’ मीना ने उसे नफरत से देखा. बैजू कुछ नहीं बोला. वह बिछावन पर जा कर निढाल हो कर सो गया.
2 दिन के बाद दीवाली थी. सुबह के 8 बज रहे थे. कुनकुनी धूप खिली हुई थी. बैजू मजदूरी करने चला गया था. इसी समय मीना बादल से मिलने उस की चिकन की दुकान पर चली गई.
मीना को देखते ही बादल धीरे से मुसकराया, ‘‘चिकन चाहिए क्या या अंडाब्रैड दे दूं?’’
‘‘नहीं, मुझे 500 रुपए चाहिए. प्रभु चाय वाले को लौटाने हैं,’’ मीना ने कहा.
‘‘500 रुपए, प्रभु चाय वाले को…’’ बादल सोचते हुए बड़बड़ाया.
‘‘हां बादल, बैजू ने प्रभु चाय वाले से एडवांस में 500 रुपए लिए थे. बदले में बेटे संजू को जूठे कपप्लेट धोने के लिए उस की दुकान में काम पर लगा दिया था. मैं संजू को दुकान से वापस ले आई. मैं उस के रुपए लौटा कर संजू को स्कूल भेजना चाहती हूं,’’ मीना ने कहा.
‘‘हां, क्यों नहीं. ये लो 500 रुपए, प्रभु चाय वाले को लौटा देना. वैसे, बैजू का रवैया बेटे के प्रति अच्छा नहीं है. संजू को स्कूल भेज कर पढ़ाना चाहिए था,’’ बादल ने कहा.
‘‘मैं ने फैसला कर लिया है कि अब बैजू के साथ नहीं रहूंगी, क्योंकि मेरी और संजू की जिंदगी उस के साथ रह कर बरबाद हो जाएगी. अब और सहना ठीक नहीं है,’’ मीना ने कहा.
‘‘तुम चाहो तो संजू को ले कर मेरे पास चली आओ. ऐसे आदमी के साथ रहना बिलकुल ठीक नहीं है,’’ बादल ने कहा.
‘‘हां बादल, मुझे एक सहारे की जरूरत है, जिस के साथ मैं चैन से रह सकूं. संजू अच्छे माहौल में रह कर पढ़लिख सके,’’ मीना ने कहा.
‘‘मैं भी अकेले रह कर ऊब चुका हूं. तुम संजू को ले कर आ जाओगी, तब हमारा एक परिवार हो जाएगा. हम साथ रह कर हंसीखुशी से जी सकेंगे,’’ बादल ने कहा.
‘‘आज शाम को संजू को ले कर मैं आ जाऊंगी. तुम मेरा इंतजार करना,’’ कह कर मीना चली गई.
मीना ने प्रभु चाय वाले को रुपए वापस कर दिए. शाम को मीना ने अपने कपड़े और संजू की किताबकौपियां सब एक बैग में रख लीं. बैजू के लौट आने से पहले वह संजू के साथ घर छोड़ कर बादल के घर चली गई. बादल मीना का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.
‘‘आ जाओ मीना. आज से मेरे घर की मालकिन तुम हो,’’ बादल ने मीना का स्वागत गर्मजोशी से किया.
‘‘हां बादल, संजू को मिल कर खूब पढ़ानालिखाना है. आज से संजू तुम्हारा भी बेटा है,’’ मीना ने कहा.
बादल ने संजू को प्यार से गले लगा लिया, ‘‘संजू प्यारा बच्चा है. इसे मैं खूब सारा प्यार दूंगा. पढ़ालिखा कर काबिल बनाऊंगा. संजू अब हम दोनों का प्यार है,’’ बादल ने कहा. मीना खुशी से मुसकरा उठी.
बैजू जब रात में घर लौटा, तब मीना और संजू को न पा कर वह सन्न रह गया. उस ने अपने दिल को समझाया कि मीना यहींकहीं बाजार से कोई सामान लेने गई होगी. जब 2-3 घंटे बीत गए, फिर भी मीना घर नहीं लौटी. तब
बैजू घबरा गया. उस ने सब्जी मंडी, बाजारहाट सब जगह मीना को ढूंढ़ा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली. कहार कर बैजू घर लौट आया.
‘‘लगता है, मीना किसी यार के साथ भाग गई,’’ बैजू बड़बड़ाया.
कटोरे में थोड़ी सब्जी और 2-4 रोटियां रखी थीं, जिसे खा कर बैजू सो गया.
सुबह हुई. बैजू की रात बेचैनी में कटी थी. उस के चेहरे पर उदासी थी, मीना उस का घर छोड़ कर जो चली गई थी. वह बेबस था. वह कमरे में खामोश बैठा था.
तभी मेमसाहब ने पुकारा, ‘‘बैजू, मीना को भेज दो. जूठे बरतन धोने के लिए पड़े हैं.’’
बैजू भारी मन से कमरे से बाहर आया. कोठी के बरामदे में मेमसाहब मीना के इंतजार में खड़ी थीं.
‘‘मेमसाहब, मीना रात को ही किसी प्रेमी के साथ भाग गई है,’’ बैजू ने कहा.
‘‘मुझे रात में क्यों नहीं बताया? यह सब कैसे हुआ?’’ मेमसाहब ने थोड़ा हैरान हो कर पूछा.
‘‘मुझे नहीं मालूम, मेमसाहब. रात में काम पर से लौटा, तब मीना और संजू घर पर नहीं थे,’’ कहते हुए बैजू की आंखों में आंसू झिलमिला आए.
‘‘इतनी बड़ी बात हो गई. मैं नागेश साहब से बात करती हूं,’’ कह कर मेमसाहब चली गईं.
नागेश साहब कमरे में बैठे मोबाइल फोन पर किसी से बातें कर रहे थे. उन की बात जब खत्म हुई, तब मेमसाहब ने नागेश साहब से कहा, ‘‘मीना रात से ही घर से गायब हो गई है. पता नहीं, वह कहां चली गई.’’
‘‘बैजू से पूछा कि मीना कहां गई है?’’ नागेश साहब ने कहा.
‘‘हां, पूछा था. बैजू का कहना है कि मीना किसी प्रेमी के साथ भाग गई है,’’ मेमसाहब ने कहा.
‘‘बहुत बुरा हो गया. घर के जूठे बरतन अब कौन साफ करेगा. मीना तो हम लोगों को तकलीफ दे गई,’’ नागेश साहब के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गई थीं.
‘‘आप ने बैजू के बारे में क्या सोचा है?’’ मेमसाहब ने नागेश साहब से पूछा.
‘‘कुछ नहीं. अपने आउटहाउस से बैजू को निकाल दूंगा. जब मीना थी, तब वह हमारे घर का कामकाज करती थी. हम लोगों को कामवाली बाई की कभी जरूरत नहीं पड़ी. अब बैजू जैसे मजदूर को यहां रखना ठीक नहीं है,’’ नागेश साहब ने कहा.
‘‘ठीक है, मैं अभी बैजू को बुलाती हूं,’’ मेमसाहब ने कहा.
मेमसाहब ने कोठी के बरामदे से बैजू को पुकारा, ‘‘बैजू, तुम को साहब बुला रहे हैं.’’
बैजू मेमसाहब की आवाज सुन कर तुरंत कमरे से बाहर चला आया. वह नागेश साहब के सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘आप ने बुलाया साहब?’’
‘‘बैजू, मेरा आउटहाउस खाली कर दो. तुम कहीं दूसरी जगह चले जाओ,’’ नागेश साहब ने गंभीर आवाज में कहा.
‘‘लेकिन साहब, मैं रहूंगा कहां…?’’ बैजू गिड़गिड़ाया.
‘‘बैजू, तुम कहीं भी जाओ. मुझे मेरा घर 1-2 दिन में खाली मिलना चाहिए,’’ नागेश साहब ने जोर दे कर कहा.
बैजू अब करता भी क्या. वह बहुत मजबूर था. वह 2 दिन बाद नागेश साहब की कोठी का आउटहाउस खाली कर के चला गया. नशे की लत ने उस की जिंदगी से परिवार और दीवाली की खुशियां छीन ली थीं.
‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई.
यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी.
हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.
तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’
दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’
काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझ और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े.
काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.
ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.
अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.
काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.
काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी.
भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.
किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.
‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’
कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तु?ा पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.
‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’
कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी. वह करती भी तो क्या करती.
35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है.
गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.
वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं.
पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में.
पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.
रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.
उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.
काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.
अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.
रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.
काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.
जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.
रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.
फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझाने की कोशिश करती. मां झंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’
मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझाने लगे थे.
आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.
कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झाका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.
फूलमनी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बुतरू के स्टाइल पर फिदा हो गई. प्यार के झांसे में आ कर एक दिन बिना सोचेसमझो वह अपना घर छोड़ उस के साथ शहर भाग आई.
शादीशुदा जिंदगी क्या होती है, दोनों ही इस का ककहरा भी नहीं जानते थे. भाग कर शहर तो आ गए, लेकिन बुतरू कोई काम ही नहीं करना चाहता था. वह बस्ती के बगल वाली सड़क पर दिनभर हंड़िया बेचने वाली औरतों के पास निठल्ला बैठा बातें करता और हंड़िया पीता रहता था. इसी तरह दिन महीनों में बीत गए और खाने के लाले पड़ने लगे.
फूलमनी कब तक बुतरू के आसरे बैठे रहती. उस ने अगलबगल की औरतों से दोस्ती गांठी. उन्होंने फूलमनी को ठेकेदारी में रेजा का काम दिलवा दिया. वह काम करने जाने लगी और बुतरू घर संभालने लगा. जल्द ही दोनों का प्यार छूमंतर हो गया.
बुतरू दिनभर घर में अकेला बैठा रहता. शाम को जब फूलमनी काम से घर लौटती, वह उस से सारा पैसा छीन लेता और गालीगलौज पर आमादा हो जाता, ‘‘तू अब आ रही है. दिनभर अपने भरतार के घर गई थी पैसा कमाने… ला दे, कितना पैसा लाई है…’’
फूलमनी दिनभर ठेकेदारी में ईंटबालू ढोतेढोते थक कर चूर हो जाती. घर लौट कर जमीन पर ही बिना हाथमुंह धोए, बिना खाना खाए लेट जाती. ऊपर से शराब के नशे में चूर बुतरू उस के आराम में खलल डालते हुए किसी भी अंग पर बेधड़क हाथ चला देता. वह छटपटा कर रह जाती.
एक तो हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से बुतरू की मार खाखा कर फूलमनी का गदराया बदन गलने लगा था. तरहतरह के खयाल उस के मन में आते रहते. कभी सोचती, ‘कितनी बड़ी गलती की ऐसे शराबी से शादी कर के. वह जवानी के जोश में भाग आई. इस से अच्छा तो वह सुखराम मिस्त्री है. उम्र में बुतरू से थोड़ा बड़ा ही होगा, पर अच्छा आदमी है. कितने प्यार से बात करता है…’
सुखराम फूलमनी के साथ ही ठेकेदारी में मिस्त्री का काम करता था. वह अकेला ही रहता था. पढ़ालिखा तो नहीं था, पर सोचविचार का अच्छा था. सुबहसवेरे नहाधो कर वह काम पर चला आता. शाम को लौट कर जो भी सुबह का पानीभात बचा रहता, उसे प्यार से खापी कर सो जाता.
शनिवार को सुखराम की खूब मौज रहती. उस दिन ठेकेदार हफ्तेभर की मजदूरी देता था. रविवार को सुखराम अपने ही घर में मुरगा पकाता था. मौजमस्ती करने के लिए थोड़ी शराब भी पी लेता और जम कर मुरगा खाता.
फूलमनी से सुखराम की नईनई जानपहचान हुई थी. एक रविवार को उस ने फूलमनी को भी अपने घर मुरगा खाने के लिए बुलाया, पर वह लाज के मारे नहीं गई.
साइट पर ठेकेदार का मुंशी सुखराम के साथ फूलमनी को ही भेजता था. सुखराम जब बिल्डिंग की दीवारें जोड़ता, तो फूलमनी फुरती दिखाते हुए जल्दीजल्दी उसे जुगाड़ मसलन ईंटबालू देती जाती थी.
सुखराम को बैठने की फुरसत ही नहीं मिलती थी. काम के समय दोनों की जोड़ी अच्छी बैठती थी. काम करते हुए कभीकभी वे मजाक भी कर लिया करते थे. लंच के समय दोनों साथ ही खाना खाते. खाना भी एकदूसरे से सा?ा करते. आपस में एकदूसरे के सुखदुख के बारे में भी बतियाते थे.
एक दिन मुंशी ने सुखराम के साथ दूसरी रेजा को काम पर जाने के लिए भेजा, तो सुखराम उस से मिन्नतें करने लगा कि उस के साथ फूलमनी को ही भेज दे.
मुंशी ने तिरछी नजरों से सुखराम को देखा और कहा, ‘‘क्या बात है सुखराम, तुम फूलमनी को ही अपने साथ क्यों रखना चाहते हो?’’
सुखराम थोड़ा झोंप सा गया, फिर बोला ‘‘बाबू, बात यह है कि फूलमनी मेरे काम को अच्छी तरह समझती है कि कब मुझे क्या जुगाड़ चाहिए. इस से काम करने में आसानी होती है.’’
‘‘ठीक है, तुम फूलमनी को अपने साथ रखो, मुझे कोई एतराज नहीं है. बस, काम सही से होना चाहिए… लेकिन, आज तो फूलमनी काम पर आई नहीं है. आज तुम इसी नई रेजा से काम चला लो.’’
झक मार कर सुखराम ने उस नई रेजा को अपने साथ रख लिया, मगर उस से उस के काम करने की पटरी नहीं बैठी, तो वह भी लंच में सिरदर्द का बहाना बना कर हाफ डे कर के घर निकल गया. दरअसल, फूलमनी के नहीं आने से उस का मन काम में नहीं लग रहा था.
दूसरे दिन सुखराम ने बस्ती जा कर फूलमनी का पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बुतरू ने घर में रखे 20 किलो चावल बेच दिए हैं. फूलमनी से उस का खूब झगड़ा हुआ है. गुस्से में आ कर बुतरू ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई. वह तो उसे मारे ही जा रहा था, पर बस्ती के लोगों ने किसी तरह उस की जान बचाई.
सुखराम ने पड़ोस में पूछा, ‘‘बुतरू अभी कहां है?’’
किसी ने बताया कि वह शराब पी कर बेहोश पड़ा है. सुखराम हिम्मत कर के फूलमनी के घर गया. चौखट पर खड़े हो कर आवाज दी, तो फूलमनी आवाज सुन कर झोपड़ी से बाहर आई. उस का चेहरा उतरा हुआ था.
सुखराम से उस की हालत देखी न गई. वह परेशान हो गया, लेकिन कर भी क्या सकता था. उस ने बस इतना ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, जो 2 दिन से काम पर नहीं आ रही हो?’’
दर्द से कराहती फूलमनी ने कहा, ‘‘अब इस चांडाल के साथ रहा नहीं जाता सुखराम. यह नामर्द न कुछ करता है और न ही मुझे कुछ करने देता है. घर में खाने को चावल का एक दाना तक नहीं छोड़ा. सारे चावल बेच कर शराब पी गया.’’
‘‘जितना सहोगी उतना ही जुल्म होगा तुम पर. अब मैं तुम से क्या कहूं. कल काम पर आ जाना. तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता है,’’ इतना कह कर सुखराम वहां से चला आया.
सुखराम के जाने के बाद बहुत देर तक फूलमनी के मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच सुखराम उसे चाहता है? फिर वह खुद ही लजा गई. वह भी तो उसे चाहने लगी है. कुछ शब्दों के एक वाक्य ने उस के मन पर इतना गहरा असर किया कि वह अपने सारे दुखदर्द भूल गई. उसे ऐसा लगने लगा, जैसे सुखराम उसे साइकिल के कैरियर पर बैठा कर ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहां दोनों का अपना सुखी संसार होगा. वह भी पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाह रही थी. बस आगे और आगे खुले आसमान की ओर देख रही थी.
अचानक फूलमनी सपनों के संसार से लौट आई. एक गहरी सांस भरी कि काश, ऐसा बुतरू भी होता. कितना प्यार करती थी वह उस से. उस की खातिर अपने मांबाप को छोड़ कर यहां भाग आई और इस का सिला यह मिल रहा है. आंखों से आंसुओं की बूंदें टपक आईं. बुतरू का नाम आते ही उस का मन फिर कसैला हो गया.
अगले दिन सुबहसवेरे फूलमनी काम पर आई, तो उसे देख कर सुखराम का मन मयूर नाच उठा. काम बांटते समय मुंशी ने कहा, ‘‘सुखराम के साथ फूलमनी जाएगी.’’
साइट पर सुखराम आगेआगे अपने औजार ले कर चल पड़ा, पीछेपीछे फूलमनी पाटा, बेलचा, सीमेंट ढोने वाला तसला ले कर चल रही थी.
सुखराम ने पीछे घूम कर फूलमनी को एक बार फिर देखा. वह भी उसे ही देख रही थी. दोनों चुप थे. तभी सुखराम ने फूलमनी से कहा, ‘‘तुम ऐसे कब तक बुतरू से पिटती रहोगी फूलमनी?’’
‘‘देखें, जब तक मेरी किस्मत में लिखा है,’’ फूलमनी बोली.
‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’’ सुखराम ने सवाल किया.
‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’
‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूं.’’
‘‘एक बार तो घर छोड़ चुकी हूं और कितनी बार छोडूं? अब तो उसी के साथ जीना और मरना है.’’
‘‘ऐसे निकम्मे के हाथों पिटतेपिटाते एक दिन तुम्हारी जान चली जाएगी फूलमनी. क्या तुम मेरा कहा मानोगी?’’
‘‘बोलो…’’
‘‘बुतरू एक जोंक की तरह है, जो तुम्हारे बदन को चूस रहा है. कभी आईने में तुम ने अपनी शक्ल देखी है. एक बार देखो. जब तुम पहली बार आई थीं, कैसी लगती थीं. आज कैसी लग रही हो. तुम एक बार मेरा यकीन कर के मेरे साथ चलो. हमारी अपनी प्यार की दुनिया होगी. हम दोनों इज्जत से कमाएंगेखाएंगे.’’
बातें करतेकरते दोनों उस जगह पहुंच चुके थे, जहां उन्हें काम करना था. आसपास कोई नहीं था. वे दोनों एकदूसरे की आंखों में समा चुके थे.
सुधा का पति राम सजीवन दूरसंचार महकमे में लाइनमैन था. एक दिन काम के दौरान वह खंभे से गिर गया. उसे गहरी चोट लगी. अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उस ने दम तोड़ दिया.
सुधा की जिंदगी में अंधेरा छा गया. वह कम पढ़ीलिखी देहाती औरत थी. उस के 2 मासूम बच्चे थे. बड़ा बेटा पहली क्लास में पढ़ता था और छोटा 2 साल का था.
पति का क्रियाकर्म हो गया, तो सुधा ससुराल से मायके चली आई. वहां उस के बड़े भाई सुखनंदन ने कहा, ‘‘बहन, जो होना था, वह तो हो ही गया. गम भुलाओ और आगे की सोचो. बताओ कि नौकरी करोगी? बहनोई की जगह तुम्हें नौकरी मिल जाएगी. एक नेता मेरे जानने वाले हैं. उन से कहूंगा तो वे जल्दी ही तुम्हें नौकरी पर रखवा देंगे.’’
‘‘कुछ तो करना ही होगा भैया, वरना इन बच्चों का क्या होगा? लेकिन, मैं 8वीं जमात तक ही तो पढ़ी हूं. क्या मु झे नौकरी मिल जाएगी?’’ सुधा ने पूछा.
‘‘चपरासी की नौकरी तो मिल ही जाएगी. मैं आज ही नेता से मिलता हूं,’’ सुखनंदन बोला.
सुखनंदन की दौड़धूप काम आई और सुधा को जल्दी ही नौकरी मिल गई.
‘‘बहन, तुम बच्चों को ले कर शहर में रहो. मैं वहां आताजाता रहूंगा. कोई चिंता की बात नहीं है. तुम्हारी तरह बहुत सी औरतें हैं दुनिया में, जो हिम्मत से काम ले कर अपनी और बच्चों की जिंदगी संवार रही हैं,’’ सुखनंदन ने बहन का हौसला बढ़ाया.
सुधा शहर आ गई और किराए के मकान में रह कर चपरासी की नौकरी करने लगी. उस ने पास के स्कूल में बड़े बेटे का दाखिला करा दिया.
सुखनंदन सुधा का पूरा खयाल रखता था. वह बीचबीच में गांव से राशन वगैरह ले कर आया करता था. फोन पर तो रोज ही बात कर लिया करता था.
सुधा खूबसूरत और जवान थी. महकमे के कई अफसर और बाबू उसे देख कर लार टपकाते रहते थे. उस से नजदीकी बनाने के लिए भी कोई उस के प्रति हमदर्दी जताता, तो कोई रुपएपैसे का लालच देता.
सुधा का मकान मालिक भी रसिया किस्म का था. वह नशेड़ी भी था. सुधा पर उस की नीयत खराब थी. कभीकभी शराब के नशे में वह आधी रात में
उस का दरवाजा खटखटाया करता था. आतेजाते कई मनचले भी सुधा को छेड़ा करते थे.
किसी तरह दिन कटते रहे और सुधा खुद को बचाती रही. उस के साथ राजू नाम का एक चपरासी काम करता था. वह उस का दीवाना था, लेकिन दिल की बात जबान पर नहीं ला पा रहा था.
राजू बदमाश किस्म का आदमी था और शराब का नशा भी करता था. वह अकसर लोगों के साथ मारपीट किया करता था, लेकिन सुधा से बेहद अच्छी बातें किया करता था.
राजू उसे भरोसा दिलाता था, ‘‘मेरे रहते चिंता बिलकुल मत करना. कोई आंख उठा कर देखे तो बताना… मैं उस की आंख निकाल लूंगा.’’
सुधा को राजू अकसर घर भी छोड़ दिया करता था. कुछ दिनों बाद राजू सुधा को घुमानेफिराने भी लगा. सुधा को भी उस का साथ भाने लगा. वह राजू से खुल कर हंसनेबोलने लगी.
जल्दी ही दोनों के बीच प्यार हो गया. अब तो राजू उस के घर आ कर उठनेबैठने लगा. सुधा के बच्चे उसे ‘अंकल’ कहने लगे. वह बच्चों के लिए खानेपीने की चीजें भी लाया करता था.
सुधा के पड़ोस में एक और किराएदार रहता था. राजू ने उस से दोस्ती कर ली.
एक दिन वह किराएदार अपने गांव जाने लगा, तो राजू ने उस से मकान की चाबी मांग ली. दिन में उस ने सुधा
से कहा, ‘‘आज रात मैं तुम्हारे साथ गुजारूंगा.’’
‘‘लेकिन, कैसे? बच्चे भी तो हैं,’’ सुधा ने समस्या रखी.
‘‘उस की चिंता तुम बिलकुल न करो…’’ यह कह कर उस ने जेब से चाबी निकाली और कहा, ‘‘यह देखो, मैं ने सुबह ही इंतजाम कर लिया है. आज तुम्हारा पड़ोसी गांव चला गया है. रात को मैं आऊंगा और उसी के कमरे में…’’
सुधा मुसकराई और फिर शरमा कर उस ने सिर झुका लिया. उस की भी इच्छा हो रही थी और वह राजू की बांहों में समा जाना चाहती थी.
राजू देर रात शराब के नशे में आया. उस ने सुधा के पड़ोसी के मकान का दरवाजा खोला. आहट मिली तो सुधा जाग गई. उस के दोनों बेटे सो रहे थे. उस ने आहिस्ता से अपना दरवाजा बंद किया और पड़ोसी के कमरे में चली गई.
राजू ने फौरन दरवाजा बंद कर लिया. उस के बाद जो होना था, वह देर रात तक होता रहा. लंबे अरसे बाद उस रात सुधा को जिस्मानी सुख मिला था. वह राजू की बांहों में खो गई थी. तड़के राजू चला गया और सुधा अपने कमरे में आ गई.
सुधा और पड़ोसी के मकान के बीच जो दीवार थी, उस में दरवाजा लगा था. पहले जो किराएदार रहता था, उस ने दोनों कमरे ले रखे थे. वह जब मकान छोड़ कर गया, तो मालिक ने दोनों कमरों के बीच का दरवाजा बंद कर दिया और ज्यादा किराए के लालच में 2 किराएदार रख लिए. अब उसे एक हजार की जगह 2 हजार रुपए मिलने लगे.
उस रात के बाद राजू अकसर सुधा के घर देर रात आने लगा. कई बार सुधा का भाई सुबहसुबह ही आ जाता और राजू अंदर. ऐसी हालत में बीच का दरवाजा काम आता था. राजू उस दरवाजे से पड़ोसी के मकान में दाखिल हो जाता था.
सुधा के भाई को कभी शक ही नहीं हुआ कि बहन क्या गुल खिला रही है. वह तो उसे सीधीसादी, गांव की भोलीभाली औरत मानता था.
राजू का अपना भी परिवार था. बीवी थी, 4 बच्चे थे. परिवार के साथ वह किसी झुग्गी बस्ती में रहता था. बीवी उस से बेहद परेशान थी, क्योंकि वह पगार का काफी हिस्सा शराबखोरी में उड़ा दिया करता था.
बीवी मना करती, तो राजू उस के साथ मारपीट भी करता था. पैसों के बिना न तो ठीक से घर चल रहा था और न ही बच्चे पढ़लिख पा रहे थे.
पहले तो राजू कुछ रुपए घर में दे दिया करता था, लेकिन जब से उस की सुधा से नजदीकी बढ़ी, तब से पूरी तनख्वाह ला कर उसे ही थमा दिया करता था.
सुधा उस के पैसों से अपना शहर का खर्च चलाती और अपनी तनख्वाह बैंक में जमा कर देती. वह काफी चालाक हो गई थी. राजू डालडाल तो सुधा पातपात थी.
उधर राजू की बीवी घर चलाने के लिए कई बड़े लोगों के घरों में नौकरानी का काम करने लगी थी. वह खून के आंसू रो रही थी. लेकिन उस ने कोई गलत रास्ता नहीं चुना, मेहनत कर के किसी तरह बच्चों को पालती रही.
कुछ साल बाद रकम जुड़ गई, तो सुधा ने ससुराल में अपना मकान बनवा लिया. ससुराल वालों ने हालांकि उस का विरोध किया कि वह गांव में न रहे, वे उस का हिस्सा हड़प कर जाना चाहते थे, लेकिन पैसा मुट्ठी में होने से सुधा में ताकत आ गई थी. उस ने जेठ को धमकाया, तो वह डर गया. सुधा का बढि़या मकान बन गया.
‘‘भैया, तुम मेरा पास के टैलीफोन के दफ्तर में ट्रांसफर करा दो नेता से कह कर. इस से मैं घर और खेतीबारी भी देख सकूंगी,’’ एक दिन सुधा ने भाईर् से कहा.
‘‘मैं कोशिश करता हूं,’’ सुखनंदन ने उसे भरोसा दिलाया.
कुछ महीने बाद सुधा का तबादला उस के गांव के पास के कसबे में हो गया. यह जानकारी जब राजू को हुई, तो वह बेहद गुस्सा हुआ और बोला, ‘‘मेरे साथ इतनी बड़ी गद्दारी? तुम्हारे चलते मैं ने अपने बालबच्चे छोड़ दिए और तुम मु झे छोड़ कर चली जाओगी? ऐसा कतईर् नहीं होगा. या तो मैं तुम्हें मार डालूंगा या खुद ही जान दे दूंगा. तुम्हारी जुदाई मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’
‘‘राजू, तुम मरो या जीओ, इस से मेरा कोई मतलब नहीं. यह मेरी मजबूरी थी कि मैं ने तुम से संबंध बनाया. तमाम लोगों से बचने के लिए मैं ने तुम्हारा हाथ पकड़ा. अब मेरा सारा काम बन चुका है. मु झे हाथ उठाने के बारे में सोचना भी नहीं, वरना जेल की हवा खाओगे. आज के बाद मु झ से मिलना भी नहीं,’’ सुधा ने धमकाया.
राजू डर गया. वह सुधा के सामने रोनेगिड़गिड़ाने लगा, लेकिन सुधा का दिल नहीं पसीजा. अगले ही दिन वह मकान खाली कर गांव चली गई.
प्यार में पागल राजू सुधा का गम बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ दिन बाद उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली.
जब राजू की पत्नी को उस के मरने की खबर मिली, तो वह बोली, ‘‘मेरे लिए तो वह बहुत पहले ही मर गया था. उस ने मु झे इतना रुलाया कि आज उस की मिट्टी के सामने रोने के लिए मेरी आंखों में आंसू नहीं बचे हैं,’’ यह कह कर वह बेहोश हो कर गिर पड़ी.
राजू के घर के सामने लोगों की भीड़ लग गई. लोग पानी के छींटे मार कर उस की पत्नी को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे.
पृथ्वी सड़क के किनारे चुपचाप चल रहा है. संगीता हरे रंग का सूट पहने हुए है, उस का चेहरा पीला पड़ गया है. हाथों में जेवर की पोटली और किताबों का बैग है. संगीता चलतचलते सरसरी निगाह से पृथ्वी को देख रही है. जब बाजार समाप्त हो गया, तो दोनों पासपास आ गए और एक रिकशे में बैठ कर स्टेशन की ओर चल दिए.
संगीता बोली, ‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है.’’
पृथ्वी बोला, ‘‘जब मैं हूं तब किस बात का डर. एक बात बताओ, रास्ते में तुम्हें कोई जानने वाला तो नहीं मिला?’’
संगीता ने कहा, ‘‘नहीं, एक लड़की मिली थी. परंतु तब तुम मेरे से दूर थे. मातापिता परेशान होंगे, मैं उन से कह कर आई थी कि कालेज जा रही हूं. न जाने दिल क्यों इतना घबरा रहा है?’’
पृथ्वी ने आश्वासन दिया, ‘‘डरने की क्या बात है, ट्रेन में बैठ कर सीधे मुंबई पहुंच जाएंगे. एक दिन का तो सफर है. वहां बिलकुल अपरिचित लोग होंगे. बस, मैं और तुम. वहां जा कर एक होटल में ठहर जाएंगे. वैसे भी हमारे घर वालों को, हम पर किसी तरह का शक थोड़े ही हुआ होगा.
संगीता घबराती हुई बोली, ‘‘मुझे घर पर न पा कर मम्मीपापा कितने परेशान होंगे, बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्यों?’’
पृथ्वी हंसते हुए बोला, ‘‘सब से पहले तो तुम्हारे कालेज में पूछताछ होगी. बहरहाल, यह गहने कैसे ले कर आ पाई?’’
‘‘मुझे जगह पता थी. रात को ही अलमारी खोल कर निकाल लिए थे. अलमारी का ताला बंद कर दिया है,’’ संगीता ने बताया.
रिकशा वाला सब सुन रहा था. उन्होंने स्टेशन के लिए 50 रुपए में रिकशा तय किया था. जब स्टेशन आया तो रिकशा वाला हेकड़ी से बोला, ‘‘मैं तो 500 रुपए लूंगा.’’
‘‘500 रुपए,’’ दोनों एकसाथ बोले, ‘‘500 रुपए किस बात के?’’
‘‘चुपचाप 500 रुपए दे दो वरना अभी पुलिस को बुलाता हूं,’’ रिकशे वाले ने कहा.
पृथ्वी ने चुपचाप जेब से 500 रुपए निकाल कर दे दिए. संगीता घबरा रही थी. जल्दीजल्दी पृथ्वी ने मुंबई के फर्स्टक्लास के 2 टिकट ले लिए. टिकट ले कर तेजी से दोनों ट्रेन के फर्स्टक्लास के डब्बे में जा कर बैठ गए और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.
संगीता ने रोते हुए कहा, ‘‘अब तो मुझे और भी ज्यादा डर लग रहा है.’’
पृथ्वी ने समझाया, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. फियर इंस्टिंक्ट एक चीज है. लिखने वाले ने तो यह भी लिखा है कि… मगर… खैर छोड़ो… हां, तुम्हारी जरा सी घबराहट ने रिकशा वाले को 500 रुपए का फायदा करा दिया. यदि तुम रिकशे में यह बात न बोलती तो ऐसा कुछ भी न होता. मुझे कुछ नहीं कहना. मगर दुख है तो सिर्फ इस बात का कि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी और रिकशे वाला मुझे लूट कर चला गया.’’
बाहर दरवाजे पर खटखट हुई, दोनों ने एकदूसरे को डरते हुए देखा. पृथ्वी बोला, ‘‘साले ने 500 रुपए ले कर भी पुलिस को खबर कर दी.’’
संगीता घबराहट के मारे कांप रही थी, वह बोली, ‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘चुपचाप देखती रहो, मुझ पर विश्वास रखो. पीछे के दरवाजे से उतर कर किसी दूसरे डब्बे में बैठ जाते हैं,’’ कह कर पृथ्वी ने पिछला दरवाजा खोला और दोनों उतर कर चल दिए. परंतु दूसरे किसी डब्बे में नहीं बैठ पाए, क्योंकि किसी भी डब्बे का दरवाजा खुला हुआ नहीं था. दोनों चुपचाप प्लेटफौर्म पर चलने लगे.
‘‘अपना किताबों का यह बैग तो छोड़ दो,’’ पृथ्वी ने संगीता से कहा.
एक सिपाही घूमता हुआ उधर ही आ रहा था. संगीता ने जल्दी से अपना बैग एक मालगाड़ी के डब्बे में रख दिया. सिपाही इतने में पास आ कर पृथ्वी से बोला, ‘‘आप लोग कहां जाएंगे?’’
पृथ्वी बोला, ‘‘हम तो ऐसे ही घूमने चले आए हैं. अब जा रहे हैं.’’
‘‘मगर आप की गाड़ी तो छूटने वाली है. आप ने फर्स्टक्लास का टिकट बुक कराया था,’’ सिपाही अपनी बात पर जोर देते हुए बोला.
‘‘ऐ मिस्टर, मैं ने कहीं का भी टिकट बुक कराया हो आप को इस से क्या लेनादेना. बोलो, क्या कर लोगे तुम? कौन होते हो यह सब पूछने वाले?’’
‘‘अरे भाई, गुस्सा क्यों होते हो? मैं तो सेवक हूं आप का. जब 50 रुपए की जगह 500 रुपए रिकशे वाले को दे सकते हो, तो हुजूर, थोड़ा सा ईनाम हमें भी मिल जाए.’’
पृथ्वी पूरी बात समझ गया. उसे 500 रुपए का नोट देते हुए बोला, ‘‘हांहां, तुम भी लो.’’ सिपाही रुपए ले कर चला गया. संगीता बोली, ‘‘हमारे मन में चोर है न, इसलिए हम हर बात से डरते हैं. चलो, फिर वापस चलते हैं.’’
‘‘बेकार में डरडर कर इधरउधर भटकते रहें, क्या फायदा,’’ पृथ्वी ने खीझते हुए कहा, ‘‘बेकार ही कंपार्टमैंट से आए. चलो, वापस वहीं चलते हैं.’’
दोनों तेजी से दौड़े परंतु कंपार्टमैंट में घुसने से पहले ही एक और पुलिस वाला आया और बोला, ‘‘अरे, झगड़ा बढ़ाने से क्या फायदा, हम सब को 1000-1000 रुपए दो और मौज करो,’’ और हाहा कर हंसने लगा.
संगीता तो डर के मारे बुरी तरह से कांप रही थी. पृथ्वी बोला, ‘‘मैं कोई ईनाम वगैरा नहीं दूंगा. मैं ने कोई दानखाता खोल रखा है क्या? मैं आप लोगों की फितरत समझ रहा हूं.’’
‘‘देखिए साहब, आप पढ़ेलिखे मालूम पड़ते हैं. आओ, पहले डब्बे में बैठ जाएं. यहां भीड़ इकट्ठी हो जाएगी और आप की बदनामी होगी. जब दोनों कंपार्टमैंट में चढ़ गए तो पुलिस वाला भी पीछेपीछे पहुंच गया और बोला, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप थाने चलिए.’’
‘‘मैं किसी थानेवाने नहीं जाऊंगा. मेरी गाड़ी छूट जाएगी,’’ गुस्से से पृथ्वी ने कहा.
‘‘देखिए भाईसाहब, अब आप इस गाड़ी से तो नहीं जा सकते. मैं ने तो पहले ही आप से कहा था कि आप हमारे साहब की सेवा में 1000 रुपए दे दीजिए.’’ अब की बार साहब भी उसी कंपार्टमैंट में आ गए, बोले, ‘‘क्यों बे शकीरा के बच्चे, जाओ, हथकड़ी ले कर आओ. यह लड़का इस लड़की को भगा कर लिए जा रहा है. इस को गिरफ्तार कर के हवालात में बंद कर दो.’’
पृथ्वी ने 2-2 हजार रुपए के 5 नोट निकाल कर उन के हाथ में थमा दिए. बड़े साहब उन नोटों को जेब में रखते हुए बोले, ‘‘अच्छा सर, चलिए, बिना हथकड़ी लगाए ही आप को ले कर चलते हैं.’’
अब पृथ्वी बोला, ‘‘अब मैं थाने क्यों जाऊं. मैं ने 10,000 रुपए किस बात के दिए हैं?’’
‘‘देखो लड़के, यह 10,000 रुपए मैं ने सिर्फ इस बात के लिए हैं कि तुम्हें थाने हथकड़ी डाल कर न ले कर जाऊं.’’
संगीता बहुत देर से साहस जुटा रही थी, बोली, ‘‘देखिए, मैं अपनी मरजी से जा रही हूं. आप बेकार में हमें परेशान मत कीजिए.’’
‘‘हांहां मुन्नी, मैं भी तो यही कह रहा हूं, थाने चल कर थोड़ी देर बैठिएगा. वहीं आप के मम्मीपापा को बुलाया जाएगा. तब जैसा होगा, कर दिया जाएगा और उस सूरत में आप इसी ट्रेन से शाम को जा सकते.’’ तभी पहला सिपाही भी आ गया और बैग देते हुए बोला, ‘‘संगीताजी, आप का बैग. आप ने मालगाड़ी में छोड़ दिया था.’’
संगीता ने बैग हाथ में ले लिया. उस के बाद दोनों चुपचाप नीचे प्लेटफौर्म पर उतर गए. पृथ्वी ने पुलिस अफसर से इजाजत मांगी कि वह संगीता से एकांत में कुछ बात कर ले. उस पर पुलिस वाले ने कहा, ‘‘हांहां, जरूर कर लीजिए.’’ और थोड़ी दूर जा कर खड़ा हो गया. आसपास काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. पृथ्वी काफी परेशान था, बोला, ‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘मुझे मेरे घर या कालेज भेज दीजिए,’’ संगीता ने रोते हुए कहा.
‘‘घर मैं भी जाना चाहता हूं, लेकिन ये कमीने आसानी से पीछा नहीं छोड़ रहे.’’
‘‘कोई ऐसी तरकीब निकालें, जिस से पिताजी को पता न चले,’’ संगीता ने पृथ्वी से घबराते हुए कहा.
‘‘कोशिश तो ऐसी ही करूंगा. मेरा विचार है कि जितना भी रुपया है, इन्हें दे दिया जाए और यहां से वापस चलते हैं. यहां अगर हमें किसी ने पहचान लिया तो मुसीबत हो जाएगी.’’ इस बीच, सिपाही बोला, ‘‘चलिए साहब, थाने.’’
‘‘इंस्पैक्टर साहब, हम से गलती हुई है. अब हम वापस जा रहे हैं,’’ संगीता ने इंस्पैक्टर साहब को अपनी पोटली दे दी.
पृथ्वी का साथ दम तोड़ चुका था. संगीता निर्जीव सी सब कार्य कर रही थी. इसी झगड़े में 11 बज गए. संगीता एक रिकशे पर बैठ कर कालेज चली गई. पृथ्वी दूसरे रिकशे पर बैठ कर अपने घर चला गया. शकीरा ने इंस्पैक्टर से पूछा, ‘‘अगर इन लोगों ने अपने मांबाप को बता दिया तो क्या होगा?’’
‘‘तू गधा है. क्या वे अपने मांबाप को यह बताएंगे कि हम भाग रहे थे. फिर मैं तो उन को जानता भी नहीं. हमें कोई कुछ क्यों बताएगा या देगा?’’
शाम को 4 बजे जब संगीता घर पहुंची तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. फिर भी वह हंस रही थी. कहने लगी, ‘‘मम्मी, आज तो कालेज में यह हुआ वह हुआ.’’ उस के बाद कमरे में अकेली जा कर लेट गई और सोचने लगी, ‘अब क्या होगा, कैसे होगा?’
संगीता को कड़वा लग रहा था. उस ने अधिक नहीं खाया. बस, एक ही सवाल उस के जेहन में घूम रहा था, ‘कैसे होगा?’
अलमारी की तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया था.
कैसे होगा? शाम को उस की सहेली आ गई थी. उस ने बताया, ‘‘आज उस के कालेज में फिजिक्स के पीरियड में सब लड़कियां खिड़कियों पर चढ़ गईं और जब फिजिक्स की टीचर आईं, तो उन के कहने पर नीचे उतरीं.’’ संगीता ने कुछ नहीं सुना. बस, उस का दिल घबरा रहा था, ‘अब क्या होगा, कैसे होगा?’
रात को उसे नींद भी नहीं आई. पुलिस, भीड़, रेलवे स्टेशन, बैग, गहने, पोटली बराबर दिमाग में घूम रहे थे और एक ही सवाल बारबार दिमाग में हथियार के जैसे प्रहार कर रहा था, अब कैसे होगा?’
2 बजे रात चुपके से संगीता उठी. उस ने छिपाई हुई चाबी को हाथ में ले कर अलमारी का दरवाजा खोल दिया. बचे हुए गहनों को तितरबितर कर दिया. एक हार पोटली में से जमीन पर डाल दिया. कपड़े आंगन में फैला दिए. दरवाजे की चटकनी खोल दी और फिर जा कर अपने बैड पर लेट गई. दिमाग में एक ही बात हथौड़े जैसे प्रहार कर रही थी कि अब क्या होगा?
सुबह होते ही अड़ोसपड़ोस में शोर मचा हुआ था कि रामप्रकाश के घर में चोरी हो गई. चोर अलमारी खोल कर कुछ लाख रुपए और गहने ले गए हैं. शायद किसी आवाज से डर गए थे. इसलिए सारे गहने ले कर नहीं गए. रामप्रकाश ने लोगों को बताया कि बड़े कमाल की बात है. उन चोरों ने बाहर का दरवाजा कैसे खोला? समझ में नहीं आ रहा है. मैं तो रात को सबकुछ देख कर सोता हूं और सब से बड़ी बात, वे सारे गहने ले कर नहीं गए. यों समझो कि भारी नुकसान होने से बच गए.
चोरी की सूचना पुलिस को दी गई. वहां से एक इंस्पैक्टर और 2 सिपाही जांचपड़ताल के लिए आए. उन्होंने दरवाजे को गौर से देखा. वह अलमारी भी देखी. अलमारी की चाबी भी देखी. लेकिन संगीता को देखते ही पहचान गए. संगीता भी उस पुलिस औफिसर और सिपाही को पहचान गई. तब पुलिस वाले ने संगीता की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘यह काम तो किसी घर वाले का ही लगता है.’’
इस पर संगीता की आंखें, पुलिस वाले की आंखों से जा मिलीं. उन में याचना थी. पुलिस वाले ने घर के चारों और देखा और बोला, ‘‘कोई किराएदार ऊपर रहता है क्या?’’
‘‘नहीं साहब,’’ राम प्रकाश ने कहा.
‘‘यह घर के आदमी का काम नहीं हो सकता. मेरा एक लड़का 8 साल का है. एक लड़की है, जो दूध की जैसी धुली हुई है. मैं हूं. मेरी पत्नी है. यह सच्ची बात है कि दरवाजा बाहर से ही खुला है. मगर कमाल है, साहब,’’ राम प्रकाश बोला.
पुलिस वाले ने कहा, ‘‘चोरी का पता लगाने की पूरी कोशिश की जाएगी. मगर मेरी सलाह मानिए, आप अपना जेवरपैसा. अब अलमारी में न रख कर, बैंक में रखें. हो सकता है चोर दोबारा चोट करे.’’
पुलिस वाले ने वहीं बैठ कर रिपोर्ट तैयार की. वहां उपस्थित लोगों के हस्ताक्षर लिए. पुलिस वाले के साथ आए सिपाही ने जाते हुए सरकारी निगाह से संगीता की तरफ देखा और बोला, ‘दूध की धुली’ और लंबी सी डकार लेता हुआ दरवाजे से बाहर निकल गया.
Story in hindi
वह उस रेल से पहली बार बिहार आ रहा था. इंदौर से पटना की यह रेल लाइन बिहार और मध्य प्रदेश को जोड़ती थी. वह मस्ती में दोपहर के 2 बजे चढ़ा. लेकिन 13-14 घंटे के सफर के बाद वह एक हादसे का शिकार हो गया. पूरी रेल को नुकसान पहुंचा था. वह किसी तरह जान बचा कर उतरा. उसे कम ही चोट लगी थी.
उसे पता नहीं था कि अब वह कहां है कि तभी एक बूढ़ी अम्मां ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘बेटा, अम्मां से रूठ कर तू कहां भाग गया था?’’
उस ने चौंक कर पीछे की ओर देखा. तकरीबन 64-65 साल की वे अम्मां उसे अपना बेटा समझ रही थीं. फिर तो आसपास के सारे लोगों ने उसे बुढ़िया का बेटा साबित कर दिया.
उसे जबरदस्ती बुढ़िया के घर जाना पड़ा.
उस बुढ़िया के बेटे की शक्ल और उम्र पूरी तरह उस से मिलतीजुलती थी.
‘चलो, थोड़ा मजा ले लेते हैं,’ उस ने मन ही मन सोचा.
रात को खाना खाने के बाद जैसे ही वह सोने के लिए कमरे में पहुंचा, तो चौंक गया.
बुढि़या की बहू गरमागरम दूध ले कर उस के पास आई. वह भरेपूरे बदन की सांवले रंग की औरत थी.
‘‘अब मैं कभी आप से नहीं लड़ूंगी. आप की हर बात मानूंगी,’’ वह औरत उस से लिपटते हुए बोली.
‘‘क्यों, क्या हुआ था?’’ उस ने बड़ी हैरानी से पूछा.
‘‘आप शादी के 2 महीने बाद अचानक गायब हो गए थे. सब ने आप को बहुत ढूंढ़ा, पर आप कहीं नहीं मिले. इस गम में बाबूजी चल बसे,’’ वह रोते हुए बता रही थी.
‘‘मैं सब भूल चुका हूं. मुझे कुछ याद नहीं है. मैं किसी को नहीं पहचानता,’’ वह शांत भाव से बोला.
उस औरत ने रात को उसे भरपूर देह सुख दिया. सुबह के तकरीबन 8 बजे उस की नींद खुली. उस ने ब्रश कर के चाय पी.
दिन में पता चला कि वह दुकान चलाता था. वह दिनभर में अपनी इस जिंदगी के बारे में काफीकुछ जान गया. उस की 5 बहनें थीं और वह एकलौता भाई है. उस की पत्नी चौथी बहन की ननद है.
तकरीबन 6 साल पहले शादी हुई थी. उस का बेटा लापता हो गया है. शायद सड़क हादसे में या किसी दूसरे हादसे में अपनी औलाद खो चुका है. बेटा वह भी एकलौता, इसलिए यह दर्द दिखाया नहीं जा सकता.
दूसरी ओर अनपढ़ और देहाती बहू है, जो 16-17 साल की उम्र में ही ब्याह कर यहां आई थी. कुछ ही दिनों में पति गुजर गया, इसलिए बड़ी मुश्किल से मिले इस पति को वह संभाल कर रखना चाह रही है.
कितना भी बड़ा हादसा हो, सरकार बस एक जांच कमीशन बिठा देगी. इस से ज्यादा करेगी, तो इस पीड़ित या उस के परिवार को 2-3 लाख रुपए का मुआवजा दे देगी.
मगर उसे न तो मुआवजा मिला था, न ही लाश. वैसे भी जनरल डब्बे में सफर करने वाले लोगों की जिंदगी की कोई कीमत है क्या?
काफी दिन न मिलने के चलते उस ने मरा मान लिया था. क्या पता, कहीं जिंदा हो और लौट आया हो. उस हादसे में क्या पता याददाश्त चली गई हो, इसलिए सासबहू दोनों ही अपनेअपने तरीके से उसे याद दिलाने की कोशिश में थीं.
2 दिन बाद ही सभी बहनें, बहनोई और बच्चे आ गए.
‘‘अम्मां, यह तो अपना ही भाई है,’’ चौथी बहन उसे ढंग से देखते हुए उस के हाथपैरों को छू कर बोली.
‘‘क्या मैं अपने साले को नहीं पहचानता… पक्का वही है. मुझे तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती है.’’
‘‘बालकिशन, मैं तेरा तीसरे नंबर का जीजा हूं. साथ ही, तेरी पत्नी का बड़ा भाई भी,’’ जीजा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोल उठा.
‘‘जी,’’ कह कर वह चुप हो गया. बस वह सब को बड़े ही ध्यान से देख रहा था, मानो उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा हो.
‘‘अरी अम्मां, यह हादसे में अपनी याददाश्त बिलकुल ही खो बैठा है. बाद में इसे सब याद आ जाएगा,’’ इतना कह कर उस की बहन उस का हाथ सहलाने लगी.
वह इंदौर में अकेला रहता था. वहीं रह कर छोटामोटा काम करता था, जबकि यहां उसे पत्नी, भरापूरा परिवार मिल रहा था. वह बालकिशन का हूबहू था.
पासपड़ोस वालों के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार उसे बालकिशन बता रहे थे और याददाश्त खोया हुआ भी.
पत्नी एकदम साए की तरह उस के साथ रहती, ताकि वह दोबारा न भाग जाए.
एक दिन दोपहर का खाना खाने के तकरीबन डेढ़ घंटे बाद वह अपना काम समझने की कोशिश कर रहा था. यहां उस की पान की दुकान थी. कोई रजिस्टर या कागज… पता चला कि सभी अंगूठाछाप थे. बस, वही 10वीं फेल था. अब कैसे बताए कि वह बीटैक है. लेकिन छोटामोटा चोर है. मोटरसाइकिल पर मास्क लगा कर जाना, औरतों के जेवर उड़ाना और घरों में चोरी करना उस का पेशा है.
मगर, इस परिवार में सभी सीधेसादे हैं. उस की तीसरे नंबर की बहन ने पूरे 5 तोले का सोने का हार पहना हुआ था. गोरा रंग, दोहरा बदन. भारीभरकम शरीर पर वह हार जंच रहा था.
जब वह गौर से उस हार को देखने लगा, तो झट से बहनोई बोला, ‘‘क्यों साले साहब, पसंद है तो रख लो इस हार को.’’
‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ वह सकपका कर बोला था.
‘‘फिर भी, तुम मेरी बहन के सुहाग हो. अगर कुछ चाहिए तो बोलो? मेरी बहन की वीरान जिंदगी में बहार आ चुकी है,’’ जीजा भावुक होते हुए बोला.
‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ वह मना करते हुए बोला.
शाम को उस का साला जब जाने लगा, तो कुछ रुपए उस की पत्नी को देने लगा और बोला, ‘‘दुकान काफी दिनों से बंद पड़ी हुई है. मैं कल ही जा कर दुकान को सही कर दूंगा.’’
‘‘न भैया, मेरे पास पैसे हैं. इन के पास भी जेब में 20 हजार रुपए हैं,’’
वह भाई को पैसे देने से मना करते हुए बोली.
‘मगर, मैं तो पान की दुकान चलाना भूल गया हूं. पान लगाना तक नहीं आता मुझे. कैसे बेचूंगा?’ उस के दिमाग में तेजी से कुछ चलने लगा.
‘‘क्या सोच रहे हो साले साहब?’’ जीजा मानो उस के चेहरे को गौर से पढ़ते हुए बोला.
‘‘पान की दुकान मैं ने कभी चलाई नहीं है. मैं तो टैलीविजन, ट्रांजिस्टर, फ्रिज सुधारना जरूर जानता हूं,’’ वह जीजा को समझाते हुए बोला.
‘‘फिर तो हमारे पड़ोस में दुकान ले लेते हैं. 5-10 किलोमीटर में एक भी दुकान नहीं है. खूब चलेगी,’’ जीजा हंसते हुए बोला.
अगले दिन सुबह घर से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर दूर बंद पड़ी दुकान उसे सौंपी गई, तो दिनभर में उसे सुधार कर दुकान की शक्ल दे दी. जरूरी सामान का इंतजाम किया गया.
पहले दिन वह 5 सौ रुपए कमा कर लाया, तो बहुत खुश था. जीजा भी उस के काम से खुश था. वह उसे खुद घर छोड़ने आया था.
‘‘अम्मां, यह तो कुशल कारीगर है. देखो, आज ही इस ने 5 सौ रुपए कमा लिए. अब तक यह 4 और्डर पा चुका है,’’ जीजा जोश में बोल रहा था.
‘‘अब बेटा आ गया है न, मेरी सारी गरीबी दूर हो जाएगी,’’ अम्मां तकरीबन रोते हुए कह रही थीं.
‘‘रो मत अम्मां. मैं सब ठीक कर लूंगा,’’ वह पहली बार बोला था.
रात को खाना खाने के बाद जब वह बिस्तर पर सोने पहुंचा, तो पत्नी खुशी से भरी थी, ‘‘अरे, आप तो बहुत ही कुशल कारीगर निकले,’’ वह चुहल करते हुए पूछ रही थी.
‘‘कुछ नहीं. बस यों ही थोड़ाबहुत जानता हूं.’’
सोते समय वह सोचने लगा, ‘अब तक मैं चोरउचक्का था. गंदे काम से पैसे कमाने वाला. अब मैं मेहनत से पैसा कमाऊंगा और परिवार का पेट भरूंगा,’ इतना सोचतेसोचते उस ने पत्नी के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोला, ‘‘मैं तुम्हें अब कभी नहीं छोड़ूंगा… कभी नहीं.’’ इतना कहते ही उसे सुख की नींद आने लगी. सच कहें, तो इस सजा में भी मजा था.
‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’
मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.
‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’
तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.
3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’
‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.
‘‘क्या? बच्चों को मुझ से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.
‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.
‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’
‘‘कौन सा ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.
दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’
‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’
‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.
‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’
‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.
‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’
‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’
‘‘कौन सा नेग?’’
‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.
तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर झांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.
‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर झुकाए बोल रहा था.
घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.
‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.
दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’
‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.
‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.
‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.
‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’
दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.