दरवाजा खोल दो मां : आखिर क्यों बीमार हो गई स्मिता?

10वीं क्लास तक स्मिता पढ़ने में बहुत तेज थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, पर 10वीं के बाद उस के कदम लड़खड़ाने लगे थे. उस को पता नहीं क्यों पढ़ाईलिखाई के बजाय बाहर की दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इन्हीं सब वजहों के चलते वह पास में रहने वाली अपनी सहेली सीमा के भाई सपन के चक्कर में फंस

गई थी. वह अकसर सीमा से मिलने के बहाने वहां जाती और वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे. एक दिन सपन ने स्मिता से पूछा, ‘‘तुम ने कभी भूतों को देखा है?’’

‘‘तुम जो हो… तुम से भी बड़ा कोई भूत हो सकता है भला?’’ स्मिता ने हंसते हुए मजाकिया लहजे में जवाब दिया. सपन को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, इसलिए अपनी बात को आगे रखते हुए पूछा, ‘‘चुड़ैल से तो जरूर सामना हुआ होगा?’’

‘‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ है. तुम न जाने क्या बोले जा रहे हो,’’ स्मिता ने खीजते हुए कहा. तब सपन उसे एक कमरे में ले कर गया और कहा, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ कहते हुए स्मिता को कुरसी पर बैठा कर उस का हाथ उठा कर हथेली को चेहरे के सामने रखने को कहा, फिर बोला, ‘‘बीच की उंगली को गौर से देखो…’’ आगे कहा, ‘‘अब तुम्हारी उंगलियां फैल रही हैं और आंखें भारी हो रही हैं.’’

स्मिता वैसा ही करती गई और वही महसूस करने की कोशिश भी करती गई. थोड़ी देर में उस की आंखें बंद हो गईं. फिर स्मिता को एक जगह लेटने को बोला गया और वह उठ कर वहां लेट गई. सपन ने कहा, ‘‘तुम अपने घर पर हो. एक चुड़ैल तुम्हारे पीछे पड़ी है. वह तुम्हारा खून पीना चाहती है. देखो… देखो… वह तुम्हारे नजदीक आ रही है. स्मिता, तुम डर रही हो.’’

स्मिता को सच में चुड़ैल दिखने लगी. वह बुरी तरह कांप रही थी. तभी सपन बोला, ‘‘तुम्हें क्या दिख रहा है?’’ स्मिता ने जोकुछ भी देखा या समझने की कोशिश की, वह डरतेडरते बता दिया. वह यकीन कर चुकी थी कि चुड़ैल जैसा डरावना कुछ होता है, जो उस को मारना चाहता है.

‘‘प्लीज, मुझे बचाओ. मैं मरना नहीं चाहती,’’ कहते हुए वह जोरजोर से रोने लगी.

सपन मन ही मन बहुत खुश था. सबकुछ उस की सोच के मुताबिक चल रहा था. सपन ने बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘डरो नहीं, मैं हूं न. मेरे एक जानने वाले पंडित हैं. उन से बात कर के बताता हूं. ऐसा करो कि तुम 2 घंटे में मुझे यहीं मिलना.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए जैसे ही स्मिता मुड़ी, सपन ने उसे टोका, ‘‘और हां, तुम को किसी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है. मुझ पर यकीन रखना. सब सही होगा.’’ स्मिता घर तो आ गई, पर वे 2 घंटे बहुत ही मुश्किल से कटे. पर उसे सपन पर यकीन था कि वह कुछ न कुछ तो जरूर करेगा.

जैसे ही समय हुआ, स्मिता फौरन सपन के पास पहुंच गई. सपन तो जैसे इंतजार ही कर रहा था. उस को देखते ही बोला, ‘‘स्मिता, काम तो हो जाएगा, पर…’’

‘‘पर क्या सपन?’’ स्मिता ने डरते हुए पूछा. ‘‘यही कि इस काम के लिए कुछ रुपए और जेवर की जरूरत पड़ेगी. पंडितजी ने खर्चा बताया है. तकरीबन 5,000 रुपए मांगे हैं. पूजा करानी होगी.’’

‘‘5,000 रुपए? अरे, मेरे पास तो 500 रुपए भी नहीं हैं और मैं जेवर कहां से लाऊंगी?’’ स्मिता ने अपनी बात रखी. ‘‘मैं नहीं जानता. मेरे पास तुम्हें चुड़ैल से बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है,’’ थोड़ी देर कुछ सोचने का दिखावा करते हुए सपन बोला, ‘‘तुम्हारी मां के जेवर होंगे न? वे ले आओ.’’

‘‘पर… कैसे? वे तो मां के पास हैं,’’ स्मिता ने कहा. ‘‘तुम्हें अपनी मां के सब जेवर मुझे ला कर देने होंगे…’’ सपन ने जोर देते हुए कहा, ‘‘अरे, डरती क्यों हो? काम होने पर वापस ले लेना.’’

स्मिता बोली, ‘‘वे मैं कैसे ला सकती हूं? उन्हें तो मां हर वक्त अपनी तिजोरी में रखती हैं.’’ ‘‘मैं नहीं जानता कि तुम यह सब कैसे करोगी. लेकिन तुम को करना ही पड़ेगा. मुझे उस चुड़ैल से बचाने की पूजा करनी है, नहीं तो वह तुम्हें जान से मार देगी.

‘‘अगर तुम जेवर नहीं लाई तो बस समझ लो कि तब मैं तुम्हें जान से मार दूंगा, क्योंकि पंडित ने कहा है कि तुम्हारी जान के बदले वह चुड़ैल मेरी जान ले लेगी और मुझे अपनी जान थोड़े ही देनी है.’’ उसी शाम स्मिता ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आज मैं आप का हार पहन कर देखूंगी.’’

स्मिता की मां बोलीं, ‘‘चल हट पगली कहीं की. हार पहनेगी. बड़ी तो हो जा. तेरी शादी में तुझे दे दूंगी.’’ स्मिता को रातभर नींद नहीं आई. थोड़ा सोती भी तो अजीबअजीब से सपने दिखाई देते.

अगले दिन सीमा स्मिता के पास आ कर बोली, ‘‘भैया ने जो चीज तुझ से मंगवाई थी, अब उस की जरूरत नहीं रह गई है. वे सिर्फ तुम्हें बुला रहे हैं.’’ जब स्मिता ने यह सुना तो उसे बहुत खुशी हुई. वह भागती हुई गई तो सपन उसे एक छोटी सी कोठरी में ले गया और बोला, ‘‘अब जेवर की जरूरत नहीं रही. चुड़ैल को तो मैं ने काबू में कर लिया है. चल, तुझे दिखाऊं.’’

स्मिता ने कहा, ‘‘मैं नहीं देखना चाहती.’’ सपन बोला, ‘‘तू डरती क्यों है?’’

यह कह कर उस ने स्मिता का चुंबन ले लिया. स्मिता को उस का चुंबन लेना अच्छा लगा. थोड़ी देर बाद सपन बोला, ‘‘आज रात को जब सब सो जाएं तो बाहर के दरवाजे की कुंडी चुपचाप से खोल देना. समझ तो गई न कि मैं क्या कहना चाहता हूं? लेकिन किसी को पता न चले, नहीं तो तेरे पिताजी तेरी खाल उतार देंगे.’’

स्मिता ने एकदम से पूछा, ‘‘इस से क्या होगा?’’ सपन ने कहा, ‘‘जिस बात की तुम्हें समझ नहीं, उसे जानने से क्या होगा?’’

स्मिता ने सोचा, ‘जेवर लाने का काम बड़ा मुश्किल था. लेकिन यह काम तो फिर भी आसान है.’ ‘‘अगर तू ने यह काम नहीं किया तो चुड़ैल तेरा खून पी जाएगी,’’ सपन ने एक बार फिर डराया.

तब स्मिता ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि दरवाजा खोलने से होगा क्या?’’ ‘‘अभी नहीं कल बताऊंगा. बस तुम कुंडी खोल देना,’’ सपन ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

‘‘खोल दूंगी,’’ स्मिता ने चलते हुए कहा.

‘‘ठाकुरजी को हाथ में ले कर बोलो कि जैसा मैं बोल रहा हूं, तुम वही करोगी?’’ सपन ने जोर दे कर कहा. स्मिता ने ठाकुर की मूर्ति को हाथ में ले कर कहा, ‘‘मैं दरवाजा खोल दूंगी.’’

पर सपन को तो अभी भी यकीन नहीं था. पता नहीं क्यों वह फिर से बोला, ‘‘मां की कसम है तुम्हें.

कसम खा?’’ आज न जाने क्यों स्मिता बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. वह धीरे से बोली, ‘‘मां की कसम.’’

जब स्मिता घर गई तो उस की मां ने पूछा, ‘‘तेरा मुंह इतना लाल क्यों हो रहा है?’’

जब मां ने स्मिता को छू कर देखा तो उसे तेज बुखार था. उन्होंने स्मिता को बिस्तर पर लिटा दिया. शाम के शायद 7 बजे थे.

स्मिता के पिता पलंग पर बैठे हुए खाना खा रहे थे. स्मिता पलंग पर पड़ीपड़ी बड़बड़ाए जा रही थी.

जब स्मिता को थर्मामीटर लगाया गया, उस को 102 डिगरी बुखार था. रात के 9 बजतेबजते स्मिता की हालत बहुत खराब हो गई. फौरन डाक्टर को बुलाया गया. स्मिता को दवा दी गई. स्मिता के पिताजी के दोस्त भी आ गए थे. स्मिता फिर भी बड़बड़ाए जा रही थी, पर उस पर किसी परिवार वाले का ध्यान नहीं जा रहा था.

स्मिता को बिस्तर पर लेटेलेटे, सिर्फ दरवाजा और उस की कुंडी ही दिखाई दे रही थी या उसे चुड़ैल का डर

दिखाई दे रहा था. कभीकभी उसे सपन का भी चेहरा दिखाई पड़ता था. उसे लग रहा था, जैसे चारों लोग उसी के आसपास घूम रहे हैं और तभी वह जोर से चीखी, ‘‘मां, मुझे बचाओ.’’ ‘‘क्या बात है बेटी?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘दरवाजे की कुंडी खोल दो मां. मां, तुम्हें मेरी कसम. दरवाजे की कुंडी खोल दो, नहीं तो चुड़ैल मुझे मार देगी. ‘‘मां, तुम दरवाजे को खोल दो. मां, मैं अच्छी तो हो जाऊंगी न? मां तुम्हें मेरी कसम,’’ स्मिता बड़बड़ाए जा

रही थी. स्मिता के पिताजी ने कहा, ‘‘लगता है, लड़की बहुत डरी हुई है.’’

स्मिता की बत्तीसी भिंच गई थी. शरीर अकड़ने लगा था. यह सब स्मिता को नहीं पता चला. वह बारबार उठ कर भाग रही थी, जोरजोर से चीख रही थी, ‘‘मां, दरवाजा खोल दो. खोल दो, मां. दरवाजा खोल दो,’’ और उस के बाद वह जोरजोर से रोने लगी. मां ने कहा, ‘‘बेटी, बात क्या है? बता तो सही? क्या सपन ने कहा है ऐसा करने को?’’

‘‘हां मां, खोल दो नहीं तो एक चुड़ैल आ कर मेरा खून पी जाएगी,’’ स्मिता ने डरी हुई आवाज में कहा. अब उस के पिताजी के कान खड़े हो गए. उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘साफसाफ बताओ, बात क्या है?’’

‘‘पिताजी, मुझे अपनी गोद में लिटा लीजिए, नहीं तो मैं… ‘‘पिताजी, सपन ने कहा है कि जब सब सो जाएं तो चुपके से दरवाजा खोल देना. अगर दरवाजा नहीं खोला तो चुड़ैल मेरा खून पी जाएगी.’’

वहीं ड्राइंगरूम में बैठेबैठे ही स्मिता के पिताजी ने किसी को फोन किया था. शायद पुलिस को. थोड़ी देर में कुछ पुलिस वाले सादा वरदी में एकएक कर के चुपचाप उस के मकान में आ कर दुबक गए और दरवाजे की कुंडी खोल दी गई. रात के तकरीबन 2 बजे जब स्मिता तकरीबन बेहोशी में थी तो उसे कुछ शोर सुनाई दे रहा था. पर तभी वह बेहोश हो गई. आगे क्या हुआ ठीक से उस को मालूम नहीं. पर जब उसे होश आया तो घर वालों ने बताया कि 5 लोग पकड़े गए हैं.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह कि इन पकड़े गए लोगों में से एक सपन और एक चोरों के गैंग का आदमी भी था जिस के ऊपर सरकारी इनाम था. बाद में वह इनाम स्मिता को मिला. स्मिता 10 दिनों के बाद अच्छी हो गई.

अब स्मिता के अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया था कि एक क्या वह तो कई चुड़ैलों की गरदन पकड़ कर तोड़ सकती थी.

तांती : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

प्रेम की इबारत : भाग 2

‘‘हां बहन, मैं ने भी देखा है,’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘इस हवा के पागलपन को महसूस किया है. यह रात में भी कभीकभी यहीं घूमती है. सवेरे जब सूरज की किरणों की लालिमा पहाडि़यों पर बिखरने लगती है तो यह छत पर उसी स्थान पर अपनी मंदमंद खुशबू बिखेरती है, जहां कभीकभी रूपमती जा कर खड़ी हो जाती थीं. कैसी दीवानगी है इस हवा की जो हर उस स्थान को चूमती है जहांजहां रूपमती के कदम पडे़ थे.’’

पहली दीवार कहां खामोश रहने वाली थी. झट बोली, ‘‘हां, इन सीढि़यों पर रानी की पायलों की झंकार आज भी मैं महसूस करती हूं. मुझे लगता है कि पायलों की रुनझुन सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आ रही है.’’

दीवारों की बातें सुन कर अब तक खामोश झरोखा बोल पड़ा, ‘‘आप दोनों ठीक कह रही हैं. वह अनोखा संगीत और रागों का मिलन मैं ने भी देखा है. क्या उसे कलम के ये मतवाले देख पाएंगे? नहीं…बिलकुल नहीं.

‘‘पहाडि़यों से उतरती हुई संगीत की वह मधुर तान, बाजबहादुर के होने का आज भी मुझे एहसास करा देती है कि बाजबहादुर का संगीत प्रेम यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरा हुआ है.’’

उपरोक्त बातचीत के 2 दिन बाद :

रात की कालिमा फिर धीरेधीरे गहराने लगी. ताड़ के पेड़ों को वही पागल हवाएं सहलाने लगीं. झरोखों से गुजर कर रूपमती के महल में अपने अंदाज दिखाने लगीं.

झरोखों से रात की यह खामोशी सहन नहीं हो रही थी. आखिरकार दीवारों की ओर देख कर एक झरोखा बोला, ‘‘बहन, चुप क्यों हो. आज भी कुछ कहो न.’’

दीवारों की तरफ से कोई हलचल न होते देख झरोखे अधीर हो गए फिर दूसरा बोला, ‘‘बहन, मुझ से तुम्हारी यह चुप्पी सहन नहीं हो रही है. बोलो न.’’

तभी झरोखों के कानों में धीमे से हवा की सरगोशियां पड़ीं तो झरोखों को लगा कि वह भी बेचैन थीं.

‘‘तुम दोनों आज सो गई हो क्या?’’ हवा ने पूरे वेग से अपने आने का एहसास दीवारों को कराया.

‘‘नहीं, नहीं,’’ दीवारें बोलीं.

‘‘देखो, आज अंधेरा कुछ कम है. शायद पूर्णिमा है. चांद कितना सुंदर है,’’ हवा फिर अपनी दीवानगी पर उतरी.

‘‘मैं आज फिर नीलकंठ गई तो वहां मुझे फूलों की खुशबू अधिक महसूस हुई. मैं ने फूलों को देखा और उन के पराग को स्पर्श भी किया. साथ में उन की कोमल पंखडि़यों और पत्तियों को भी….’’

‘‘क्या कहा तुम ने, जरा फिर से तो कहो,’’ एक दीवार की खामोशी भंग हुई.

हवा आश्चर्य से बोली, ‘‘मैं ने तो यही कहा कि फूलों की पंखडि़यों को…’’

‘‘अरे, नहीं, उस से पहले कहा कुछ?’’ दीवार ने फिर प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने कहा फूलों के पराग को… पर क्या हुआ, कुछ गलत कहा?’’ हवा के चेहरे पर अपराधबोध झलक रहा था. मानो वह कुछ गलत कह गई हो. वह थम सी गई.

‘‘अरे, तुम को थम जाने की जरूरत नहीं… तुम बहो न,’’ दीवार ने उस की शंका दूर की.

हवा फिर अपनी गति में लौटने लगी.

‘‘वह जो लंबा लड़का आता है न और उस के साथ वह सांवली सी सुंदर लड़की होती है…’’

‘‘हां…हां… होती है,’’ झरोखा बोल पड़ा.

‘‘उस लड़के का नाम पराग है और आज ही उस लड़की ने उसे इस नाम से पुकारा था,’’ दीवार का बारीक मधुर स्वर उभरा.

‘‘अच्छा, इस में आश्चर्य की क्या बात है? हजारों लोग  मांडव की शान देखने आतेजाते हैं,’’ हवा ने चंचलता बिखेरी.

‘‘किस की बात हो रही है,’’ चांदनी भी आ कर अब अपनी शीतल किरणों को बिखेरने लगी थी.

‘‘वह लड़का, जो कभीकभी छत पर आ कर संगीत का रियाज करता है और वह सांवलीसलोनी लड़की उसे प्यार भरी नजरों से निहारती रहती है,’’ दीवार ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘अरे, हां, उसे तो मैं भी देखती हूं जो घंटों रियाज में डूबा रहता है,’’ हवा ने मधुर शब्दों में कहा, ‘‘और लड़की बावली सी उसे देखती है. लड़का बेसुध हो जाता है रियाज करतेकरते, फिर भी उस की लंबीलंबी उंगलियां थकती नहीं… सितार की मधुर ध्वनि पहाडि़यों में गूंजती रहती है .’’

‘‘उस लड़की का क्या नाम है?’’ झरोखा, जो खामोश था, बोला.

‘‘नहीं पता, देखना कहीं मेरे दामन पर उस लड़की का तो नाम नहीं,’’ दीवार ने झरोखे से कहा.

‘‘नहीं, तुम्हारे दामन में पराग नाम कहीं भी उकेरा हुआ नहीं है,’’ एक झरोखा अपनी नजरों को दीवार पर डालते हुए बोला.

‘‘हां, यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों की यह सब से गंदी आदत है कि मेरे ऊपर खुरचखुरच कर अपना नाम लिख जाते हैं, जिन की खुद की कोई पहचान नहीं. भला यों ही दीवारों पर नाम लिख देने से कोई अमर हुआ है क्या?’’ दीवार का स्वर दर्द भरा था.

‘‘कहती तो तुम सच हो,’’ शीतल चांदनी बोली, ‘‘मांडव की लगभग हर किले की दीवारों का यही हाल है.’’

‘‘हां, बहन, तुम सच कह रही हो,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, जो अब तक खामोशी से उन की यह बातचीत सुन रही थी.

‘‘तुम,’’ झरोखा, दीवार, हवा और शीतल चांदनी के अधरों से एकसाथ निकला.

‘‘हर जगह नाम लिखे हैं, ‘सविता- राजेश’, ‘नैना-सुनीला’, ‘रमेश, नीता को नहीं भूलेगा’, ‘रीतू, दीपक की है’, ‘हम दोनों साथ मरेंगे’, ‘हमारा प्रेम अमर है’, ‘हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं.’ यही सब लिखते हैं ये प्रेमी जोडे़,’’ नर्मदा की पवित्रता ने कहा.

 

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 3 : रत्ना की क्या जिद थी

जब कभी जीतेंद्र कालिज जाते तो रत्ना भी साथ जाती थी. रत्ना के कालिज  में उन के सहयोगियों से सहानुभूति और सहयोग की प्रार्थना की थी कि वे लोग जीतेंद्र की मानसिक स्थिति को देखते हुए उन के साथ बहस या तर्क न करें. जीतेंद्र को संतुलित रखने के लिए रत्ना साए की तरह उन के साथ रहती.

जीतेंद्र को बच्चों के भरोसे छोड़ कर रत्ना बाहर कहीं नौकरी करने भी नहीं जा सकती थी. इसलिए घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था. जिस दिन जीतेंद्र कुछ विचलित दिखते थे रत्ना को ट्यूशन वाले बच्चों को वापस भेजना पड़ता था, क्योंकि एक तो वह उन बच्चों को जीतेंद्र का कोपभाजन नहीं बनाना चाहती थी और दूसरे, वह नहीं चाहती थी कि आसपड़ोस के बच्चे जीतेंद्र की असंतुलित मनोदशा को नमकमिर्च लगा कर अपने परिजनों में प्रचारित करें. इस कारण सामान्य दिनों में उसे अधिक समय ट्यूशन में देना पड़ता था.

गृहस्थी की दो पहियों की गाड़ी में एक पहिए के असंतुलन से दूसरे पहिए पर सारा दारोमदार आ टिका था. सभी साजोसामान से भरा घर घोर आर्थिक संकट में धीरेधीरे खाली हो रहा था. यश और गौरव को शहर के प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल से निकाल कर पास के ही एक स्कूल में दाखिला दिला दिया था ताकि आनेजाने के खर्च और आर्थिक बोझ को कुछ कम किया जा सके. मासूम बच्चे भी इस संघर्ष के दौर में मां के साथ थे. वे कक्षा में अव्वल आ कर मां की आंखों में आशा के दीप जलाए हुए थे.

रत्ना जाने किस मिट्टी की बनी थी जो पल भर भी बिना आराम किए घर, बच्चों, ट्यूशन और पति सेवा में कहीं भी कोई कसर न रखना चाहती थी.

मेरे बेटे मयंक और आकाश अपनी लाड़ली बहन रत्ना की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते पर स्वाभिमानी रत्ना ने आर्थिक सहायता लेने से विनम्र इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि अपने परिवार के खर्चों के बाद एक गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए आप को अपने परिवार की इच्छाओं का गला घोंटना पडे़गा. भाई, आप का यह अपनापन और सहारा ही काफी है कि आप मुश्किल वक्त में मेरे साथ खडे़ हैं.

इन हालात की जिम्मेदार जीतेंद्र की मां खुद को निरपराधी साबित करने के लिए चोट खाई नागिन की तरह रत्ना के खिलाफ नईनई साजिशें रचती रहतीं. छोटे बेटे हर्ष और पति की असहमति के बावजूद जीतेंद्र को दूरदराज के ओझास्यानों के पास ले जा कर तंत्र साधना और झाड़फूंक करातीं जिस से जीतेंद्र की तबीयत और बिगड़ जाती थी. जीतेंद्र के विचलित होने पर उसे रत्ना के खिलाफ भड़का कर उस के क्रोध का रुख रत्ना  की ओर मोड़ देती थीं. केवल रत्ना ही उन्हें प्यारदुलार से दवा खिला पाती थी. लेकिन तब नफरत की आंधी बने जीतेंद्र को दवा देना भी मुश्किल हो जाता था.

जीतेंद्र को स्वयं पर भरोसा मजबूत कर अपने भरोसे में लेना, उन्हें उत्साहित करते हुए जिंदादिली कायम करना उन की काउंसलिंग का मूलमंत्र था.

सहनशक्ति की प्रतिमा बनी मेरी रत्ना सारे कलंक, प्रताड़ना को सहती चुपचाप अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती रही. यश और गौरव को हमारे साथ रखने का प्रस्ताव वह बहुत शालीनता से ठुकरा चुकी थी. ‘मम्मी, इन्हें हालात से लड़ना सीखने दो, बचना नहीं.’ वाकई बच्चे मां की मेहनत को सफल करने में जी जान से जुटे थे. गौरव इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर पूणे में नौकरी कर रहा है. यश इंदौर में ही एम.बी.ए. कर रहा है.

हर्ष के डाक्टर बनते ही घर के हालात कुछ पटरी पर आ गए थे. रत्ना की सेवा, काउंसलिंग और व्यायाम से जीतेंद्र लगभग सामान्य रहने लगे थे. हां, दवा का सेवन लगातार चलते रहना है. अपने बेटों की प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार मिल रही सफलता से वे गौरवान्वित थे.

रत्ना की सास अपने इरादों में कामयाब न हो पाने से निराश हो कर चुप बैठ गई थीं. भाभी को अकारण बदनाम करने की कोशिशों के कारण हर्ष की नजरों में भी अपनी मां के प्रति सम्मान कम हुआ था. हमेशा झूठे दंभ को ओढे़ रहने वाली हर्ष की मां अब हारी हुई औरत सी जान पड़ती थीं.

ट्रेन खुली हवा में दौड़ने के बाद धीमेधीमे शहर में प्रवेश कर रही थी. मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. इत्मिनान से रत्ना की जिंदगी की किताब के सुख भरे पन्नों तक पहुंचतेपहुंचते मेरी ट्रेन भी इंदौर पहुंच गई.

स्टेशन पर रत्ना और जीतेंद्र हमें लेने आए थे. कितना सुखद एहसास था यह जब हम जीतेंद्र और रत्ना को स्वस्थ और प्रसन्न देख रहे थे. शादी में सभी रस्मों में भागदौड़ में जीतेंद्र पूरी सक्रियता से शामिल थे. उन्हें देख कर लग ही नहीं रहा था कि यह व्यक्ति ‘सीजोफेनिया’ जैसे जजबाती रोग की जकड़न में है.

गौरव की शादी धूमधाम से हुई. शादी के बाद गौरव और नववधू बड़ों का आशीर्वाद ले कर हनीमून के लिए रवाना हो गए. शाम को मैं, धीरज, रत्ना और जीतेंद्र में चाय पीते हुए हलकीफुलकी गपशप में मशगूल थे. तब जीतेंद्र ने झिझकते हुए मुझ से कहा, ‘‘मम्मीजी, आप ने रत्ना के रूप में एक अमूल्य रत्न मुझे सौंपा है जिस की दमक से मेरा घर आलोकित है. मुझे सही मानों में सच्चा जीवनसाथी मिला है, जिस ने हर मुश्किल में मेरा साथ दिया है.’’

बेटी की गृहस्थी चलाने की सूझबूझ और सहनशक्ति की तारीफ सुन कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. ‘‘रत्ना, मेरा दुर्व्यवहार, इतनी आर्थिक तंगी, सास के दंश, मेरा इलाज… कैसे सह पाईं तुम इतना कुछ?’’ अनायास ही रत्ना से मुसकरा कर पूछ बैठे थे जीतेंद्र. रत्ना शरमा कर सिर्फ इतना ही कह सकी, ‘‘बस, तुम्हें पाने की जिद में.’’-

सोने का घाव- भाग 2 : मलीहा और अलीना बाजी के बीच क्या थी गलतफहमी

मगर एक दिन तो हद कर दी उन्होंने. मुझे मेरे बौस के साथ एक मीटिंग में जाते देख लिया था. शाम को घर आने पर जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया. मुझ पर बेवफाई व बदकिरदारी का इलजाम लगाया. कई लोगों के साथ मेरे ताल्लुक जोड़ दिए.

ऐसे वाहियात इलजाम सुन कर मैं गुस्से से पागल हो उठी और फैसला कर लिया कि यहां जिऊंगी तो इज्जत के साथ, वरना जुदाई बेहतर है. मैं ने सख्त लहजे में कहा, ‘नादिर, अगर आप का रवैया ऐसा ही रहा तो मेरा आप के साथ रहना मुश्किल होगा. आप को अपने लगाए इलजामों के सुबूत देने पड़ेंगे. मुझ पर आप ऐसे फालतू इलजाम नहीं लगा सकते.’

सासससुर ने अपने बेटे को समझाने की कोशिश की. लेकिन वे गुस्से से उफनते हुए बोले, ‘मुझे कुछ साबित करने की जरूरत नहीं. मुझे सब पता है. तुम जैसी आवारा औरतों को घर में नहीं रखा जा सकता. मुझे बदलचन औरतों से नफरत है. मैं ऐसी औरत के साथ नहीं रह सकता. मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तलाक देता हूं, तलाक देता हूं.’

और सबकुछ पलभर में खत्म हो गया. मैं मम्मी के पास आ गई. उन पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा. मेरे अहं, मेरे चरित्र पर चोट पड़ी थी. मेरे चरित्र पर लांछन लगाए गए थे. मैं ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया क्योंकि मैं कुसूरवार न थी. यह मेरी इज्जत और अस्मिता की लड़ाई थी. 20-25 दिनों की छुट्टी करने के बाद मैं ने जौब पर जाना शुरू कर दिया.

संभल तो गई मैं, पर खामोशी व उदासी मेरे साथी बन गए. मम्मी मेरा बेहद खयाल रखती थीं. बड़ी बहन अलीना भी आ गईं. वे हर तरह से मुझे ढाढ़स बंधातीं. काफी दिन रुकीं. जिंदगी अपने रूटीन पर आ गई. अलीना बाजी ने इस संकट से निकलने में बड़ी मदद दी. मैं काफी हद तक सामान्य हो गई थी.

उस दिन छुट्टी थी. अम्मी ने 2 पुराने गावतकिए (दीवान के गोल तकिए) निकाले और कहा, ‘ये तकिए काफी सख्त हो गए हैं, इन में नई रुई भर देते हैं.’

मैं ने पुरानी रुई निकाल कर नीचे डाल दी. मैं और अलीना बाजी तख्त पर रखी नई रुई साफ कर रहे थे. मम्मी उसी वक्त कमरे से आ कर हमारे पास ही बैठ गईं. उन के हाथ में एक प्यारी सी चांदी की डब्बी थी. मम्मी ने खोल कर दिखाई. उस में बेपनाह खूबसूरत एक जोड़ी जड़ाऊ कर्णफूल थे. जिस पर पन्ना और रूबी की बड़ी खूबसूरत जड़न थी. इतनी चमक और महीन कारीगरी थी कि हम देखते ही रह गए.

अलीना बाजी की आंखें कर्णफूलों की तरह जगमगाने लगीं. उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘मम्मी ये किस के हैं?’ मम्मी बोलीं, बेटा, ये तुम्हारी दादी के हैं. उन्होंने ये कर्णफूल और माथे का जड़ाऊ झूमर मुझे दिया था. माथे का झूमर मैं ने शादी में तुम्हें दे दिया. अब ये कर्णफूल हैं, इन्हें मैं मलीहा को देना चाहती हूं. दादी की यादगार निशानियां तुम दोनों बहनों के पास रहेगीं, ठीक है न.’

अलीना बाजी के चेहरे का रंग फीका पड़ गया. उन्हें जेवरों का जनून की हद तक शौक था, खासकर एंटीक ज्वैलरी की तो जैसे वे दीवानी थीं. जरा सा गुस्से से वे बोलीं, ‘मम्मी, आप ने ज्यादती की, खूबसूरत और बेमिसाल चीज आप ने मलीहा के लिए रख दी. मैं बड़ी हूं, आप को कर्णफूल मुझे देने चाहिए थे.’

मम्मी ने समझाया, ‘बेटी, तुम बड़ी हो, इसलिए कुंदन का सैट तुम्हें अलग से दिया था, साथ में, दादी का झूमर और एक सोने का सैट दिया था. मलीहा को एक सोने का ही सैट दिया था, उसे मैं ने कर्णफूल (टौप्स) भी उस वक्त नहीं दिए थे. अब दे रही हूं. तुम खुद सोच कर बताओ, क्या गलत किया मैं ने.’

अलीना बाजी अपनी ही बात कहती रहीं. मम्मी के बहुत समझाने पर कहने लगीं, ‘अच्छा, मैं दादी वाला झूमर मलीहा को दे दूंगी, तब आप ये कर्णफूल मुझे दे दीजिएगा. अगली बार मैं आऊंगी, तो झूमर ले कर आऊंगी और कर्णफूल ले जाऊंगी.’

मम्मी ने बेबसी से मेरी तरफ देखा. मेरे सामने अजीब दोराहा था. बहन की मोहब्ब्त या कर्णफूल, मैं ने दिल की बात मानी और कहा, ‘ठीक है बाजी, अगली बार झूमर मुझे दे देना और आप ये कर्णफूल ले कर जाना.’

मम्मी को यह बात पसंद नहीं आई. पर क्या करतीं, चुप रहीं. अभी ये सब बातें चल ही रही थीं कि घंटी बजी. मम्मी ने जल्दी से कर्णफूल और डब्बी तकिए के नीचे रख दी. पड़ोस की आंटी कश्मीरी सूट वाले को ले कर आईर् थीं. हम सब सूट व शौल वगैरह देखने लगे. काफी अच्छे थे, कीमतें भी सही थीं. हम ने 2-3 सूट लिए. उन के जाने के बाद मम्मी ने वह चांदी की डब्बी निकाल कर दी और कहा, ‘मलीहा, इसे संभाल कर अलमारी में रखे दो.’ मैं डब्बी रख कर आई. फिर हम ने जल्दीजल्दी तकिए के खोलों में रुई भर दी. उन्हें सी कर तैयार कर कवर चढ़ा दिए और दीवान पर रख दिए. 3-4 दिनों बाद अलीना बाजी चली गईं. जातेजाते मुझे याद करा गईं, ‘मलीहा, अगली बार मैं कर्णफूल ले कर जाऊंगी, भूलना मत.’

 

सोने का घाव- भाग 3 : मलीहा और अलीना बाजी के बीच क्या थी गलतफहमी

दिन अपने अंदाज में गुजर रहे थे. एक शादी में शामिल होने चाचाचाची, उन के बच्चे आए. 5-6 दिन रहे. घर में खूब रौनक रही. खूब घूमेफिरे. चाची मेरी मम्मी को कम ही पसंद करती थीं क्योंकि मेरी मम्मी दादी की चहेती बहू थीं. दादी ने अपनी खास चीजें भी मम्मी को दी थीं. चाची की दोनों बेटियों से मेरी खूब बनती थी, हम ने खूब एंजौय किया.

नादिर की मम्मी 2-3 बार आईं. बहुत माफी मांगी, बहुत कोशिश की कि इस मसले का कोई हल निकल जाए, पर जब अहं और चरित्र पर चोट पड़ती है तो औरत बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं ने किसी भी तरह के समझौते से साफ इनकार कर दिया.

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वे अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर में मनाएंगी. मैं और मम्मी बहुत खुश हुए. बड़े उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना बाजी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर की डैकोरेशन देख कर बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सारे काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया था. मैं और मम्मी नाश्ते के बाद अरेंजमैंट के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से और्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना बाजी आईं, मम्मी से कहने लगीं, ‘मम्मी, लीजिए, आप यह झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’ अम्मी ने मुझ से कहा, ‘जाओ मलीहा, वह डब्बी निकाल कर ले आओ.’ मैं ने डब्बी ला कर मम्मी के हाथ पर रख दी. बाजी ने बेसब्री से डब्बी उठा कर खोली. डब्बी खोलते ही वे चीख पड़ीं, ‘मम्मी, कर्णफूल तो इस में नहीं हैं.’

मम्मी ने झपट कर डब्बी उन के हाथ से ली. सच ही, डब्बी खाली पड़ी थी. मम्मी एकदम सन्न रह गईं. मेरे तो जैसे हाथपैरों की जान निकल गई. अलीना बाजी की आंखों में आंसू थे. उन्होंने ऐसी शकभरी नजरों से मुझे देखा कि मुझे लगा, काश, जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं. बाजी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं.

मैं ने और मम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं कर्णफूल न मिलें. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डब्बी अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली ही नहीं. फिर कर्णफूल गए कहां?

एक बार खयाल आया, ‘अभी चाचाचाची आए थे. और चाची दादी के जेवर की वजह से मम्मी से बहुत जलती थीं कि सब कीमती चीजें उन्होंने मम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने तो मौका देख कर, हक समझ कर निकाल लिए.’ मैं ने मम्मी से अपने मन की बात कही तो वे कहने लगीं, ‘मैं ऐसा नहीं सोचती कि वे ऐसा कर सकती हैं.’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिनों काम किया था. भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. मम्मी कहने लगीं, ‘नहीं बेटा, बिना देखे, बिना सुबूत के किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी वह चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम क्यों लगाएं.’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिलदिमाग ठिकाने न था. अलीना बाजी के हस्बैंड समर भाई ने परिस्थिति संभाली. सब काम ठीकठाक हो गए. दूसरे दिन अलीना बाजी ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. मम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं. समरभाई ने भी समझाया, पर वे रुकने को तैयार न हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘मैं बेकुसूर हूं. कर्णफूल गायब होने में मेरा कोई हाथ नहीं है.’

उन्हें किसी बात पर यकीन न आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव देखे जा सकते थे. शाम को वे चली गईं. पूरे घर में एक बेबस सी उदासी पसर गई. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना बाजी से शर्मिंदा थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना बाजी सिर्फ 2 बार मम्मी से मिलने आईं वह भी 2-3 दिनों के लिए. आने पर मुझ से तो बात ही न करतीं. मैं ने बहन के साथसाथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी. बारबार सफाई देना फुजूल था. मैं ने चुप्पी साध ली. मेरी खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जबां बन जाए. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद यह गम भी मंद पड़ जाए. हलकी सी आहट हुई और मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी, कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

मुंह धो कर मैं मम्मी के पास आईसीयू में गई. मम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई. वे मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, तुम परेशान न हो. उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हलका सा नाश्ता कराया. डाक्टर ने कहा, ‘‘उन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे.

2-4 दिनों में छुट्टी कर देगें. पर दवा और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो जिस से उन्हें स्ट्रैस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना बाजी आ गईं. मुझ से सिर्फ सलामदुआ हुई. वे मम्मी के पास रुकीं, मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद मम्मी भी घर आ गईं. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की ही कोशिश करते. एक हफ्ता तो मम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया. मैं ने भी औफिस जौइन कर लिया. मम्मी के बहुत कहने पर बाजी ज्यादा रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब मम्मी भी हलकेफुलके काम कर लेती थीं.

अलीना बाजी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक रहती. उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. मम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गावतकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं, एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’ अन्नामां तकिए उठा लाईं. उन्हें खोलने लगी. फिर मैं और अन्नामां रुई तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगी, मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गई. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘देखिए मम्मी, ये रहे कर्णफूल.’’

बाजी ने कर्णफूल उठा लिए और मम्मी के हाथ पर रख दिए. मम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो बाजी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

मम्मी सोच में पड़ गईं, फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आता है अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रही थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख रहे थे जब ही घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डब्बी में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डब्बी के बजाय रुई में रख दिए और डब्बी तकिए के पीछे रख दी थी. कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शौल वाले के जाने के बाद डब्बी मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई में दब कर रुई के साथ तकिए के अंदर चले गए और मलीहा ने तकिए सिल कर कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे, कर्णफूल डब्बी में अलमारी में सेफ रखे हैं.

‘‘जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल नहीं हैं और अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’ मम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक दुखभरी सांस छोड़ी.

अलीना के चेहरे पर पछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उस की आंखें भर आईं. वे दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खड़ी हो गईं. रूंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन, मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के मरूस्थल में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं बाजी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं में दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

बाजी शर्मिंदगी से बोलीं, ‘‘मम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटीक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमत एंटीक पीस हैं. मुझे मिलना चाहिए थे पर आप ने मलीहा को दे दिया. मुझे लगा, मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी. यह माना कि  ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल को मलीहा को ही देती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से बाजी से लिपट गईर् और बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से जो खुशी मुझे होगी वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

मम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा, जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ. मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए.’’

‘‘रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है. फिर ये टूट कर बिखर जाते हैं,’’ यह कहते हुए मैं ने बाजी के कानों में कर्णफूल पहना दिए.

क्यों का प्रश्न नहीं

तांती – भाग 2 : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

मगर कुछ दिनों बाद जब दाग बिंदी से बाहर झांकने लगा तो सुखिया की पत्नी शांति का ध्यान उस पर गया. उस ने पूछा, ‘‘लक्ष्मी, यह तुम्हारे माथे पर दाग कैसा है?’’ ‘‘पता नहीं, यह कैसे हो गया. मैं ने तो कई देशी इलाज कर लिए मगर यह तो ठीक ही नहीं हो रहा, आगे से आगे बढ़ता ही जा रहा है,’’ कहते हुए लक्ष्मी रोंआसी सी हो गई.

‘‘अरे, बस इतनी सी बात. तुम नौलखा बाबा के नाम की तांती क्यों नहीं बांध लेती? इसे अपने दाएं हाथ पर बांध कर मन्नत मांग लो कि ठीक होते ही बाबा के दरबार में पैदल जा कर

धोक लगा कर आओगी… फिर देखो चमत्कार… सफेद दाग जड़ से न चला जाए तो कहना…’’ शांति ने दावे से कहा. ‘‘क्या ऐसा करने से यह दाग सचमुच ठीक हो जाएगा?’’ लक्ष्मी ने हैरानी से पूछा.

‘‘यही तो परेशानी है… रामदीन भैया की तरह तुम्हें भी बाबा पर भरोसा नहीं… अरे, बाबा तो अंधों को आंखें, लंगड़ों को पैर और बांझ को बेटा देने वाले हैं… देखती नहीं, हर साल लाखों भक्त कैसे उन के दर पर दौड़े चले आते हैं… अगर उन में कोई अनहोनी ताकत न होती तो कोई जाता क्या?’’ शांति ने उस की कमअक्ली पर तरस खाते हुए समझाया.

लक्ष्मी को अब भी सफेद दाग के इतनी आसानी से खत्म होने का भरोसा नहीं था. उस ने शक की निगाह से शांति की तरफ देखा. ‘‘मेरा अपना ही किस्सा सुन… मेरी शादी के बाद 4 साल तक भी मेरी गोद हरी नहीं हुई थी. हम सारे उपाय कर के निराश हो चुके थे. डाक्टर और हकीम भी हार मान गए थे. एक डाक्टर ने तो यहां तक कह दिया था कि मैं कभी मां नहीं बन सकती क्योंकि इन में ही कुछ कमी है. तब हमें किसी ने बाबा के दरबार में जाने की भली सलाह दी.

‘‘हारे का सहारा… नौलखा बाबा हमारा… और हम दोनों गिर पड़े बाबा के चरणों में… पुजारीजी से बाबा के नाम की तांती बंधवाई और सब दवादारू छोड़ कर हर महीने उन के दर्शनों को जाते रहे. और देखो बाबा का चमत्कार… अगले साल ही हरिया मेरी गोद में खेल रहा था,’’ शांति ने पूरे यकीन से कहा. शाम को अब रामदीन घर आया तो लक्ष्मी ने उसे अपने सफेद दाग के बारे में बताया और बाबा की तांती का भी जिक्र किया.

लक्ष्मी की सफेद दाग वाली बात सुन कर रामदीन के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. उस ने पत्नी को समझा कर शहर के चमड़ी के किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने की बात की मगर लक्ष्मी पर तो जैसे शांति की बातों का जादू चला हुआ था. लक्ष्मी ने कहा, ‘‘ठीक है. डाक्टर और अस्पताल अपनी जगह हैं और आस्था अपनी जगह… एक बार शांति की बात मान कर तांती बांधने में हर्ज ही क्या है? अगर फायदा न हुआ तो डाक्टर कहां भागे जा रहे हैं… बाद में दिखा देंगे.’’ रामदीन को गुस्से के साथसाथ हंसी भी आ गई. उस ने अपने बचपन का एक किस्सा लक्ष्मी को सुनाया कि उस की बड़ी बहन रानी की गरदन पर छोटेछोटे मस्से हो गए थे. मां ने उस की बांह पर तांती बांध कर मन्नत मांगी कि मस्से ठीक होते ही वे बाबा के मंदिर में 2 झाड़ू चढ़ा कर आएंगी. उन्हें बाबा के चमत्कार पर पूरा भरोसा था और सचमुच कुछ ही दिनों में रानी की गरदन से सारे मस्से गायब हो गए.

मां ने बहन के साथ बाबा के मंदिर में जा कर धोक लगाई और श्रद्धा से 2 झाड़ू वहां देवरे पर चढ़ाईं. मेरा हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया था जब रानी ने मुझे बताया कि उस ने चुपकेचुपके चमड़ी के माहिर डाक्टर की सलाह पर दवाएं खाई थीं.

रामदीन को हंसता देख लक्ष्मी आगबबूला हो गई. शांति से होते हुए बात सुखिया तक पहुंची तो वह भी आया रामदीन को समझाने के लिए. मगर रामदीन ने वहां जाने से साफ इनकार कर दिया. लक्ष्मी ने उसे पति धर्म का वास्ता दिया और एक आखिरी बार अपनी बात मानने की गुजारिश की तो आखिर में रामदीन को रिश्तों के आगे झुकना ही पड़ा और वह न चाहते हुए भी अपनों का मन रखने के लिए सुखिया के साथ लक्ष्मी को ले कर नौलखा बाबा के देवरे पर जा पहुंचा.

मंदिर के पीछे ही बड़े पुजारी का बड़ा सा कमरा बना हुआ था. चूंकि वह सुखिया को पहले से ही जानता था इसलिए तुरंत ही उसे भीतर बुला लिया. बाहर खड़ा रामदीन कमरे का मुआयना करने लगा. एक ही कमरे में पुजारीजी ने सारी मौडर्न सुखसुविधाएं जुटा रखी थीं. गजब की ठंडक थी अंदर… रामदीन का ध्यान दीवार पर लगे एयरकंडीशनर की तरफ चला गया. दीवार पर एक बड़ा सा टैलीविजन भी लगा था.

अभी रामदीन अचंभे से सबकुछ देख ही रहा था कि सुखिया ने उसे और लक्ष्मी को अंदर आने का इशारा किया. पुजारी ने लक्ष्मी पर एक भरपूर नजर डाल कर देखा, फिर उस ने कुछ मंत्रों का जाप करते हुए लक्ष्मी के दाएं हाथ पर काले धागे की तांती बांध दी. तांती बांधते समय जिस तरह से पुजारी लक्ष्मी का हाथ सहला रहा था, उसे देख कर रामदीन की त्योरियां चढ़ गईं. लक्ष्मी भी थोड़ी परेशान हो गई तो पुजारी ने माहौल की नजाकत को भांपते हुए बाबा के चरणों में से थोड़ी सी भस्म ले कर उसे चटा दी और आशीर्वाद के बदले में एक मोटी रकम दक्षिणा के रूप में वसूल ली.

लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘पुजारीजी, यह दाग कितने दिन में ठीक हो जाएगा?’’ ‘‘यह तो बाबा की मेहर पर है… और साथ ही ही भक्त के भरोसे पर भी… कृपा तो वे ही करेंगे… मगर हां, जिन के मन में बाबा के प्रति जरा भी शक हो, उन पर बाबा की मेहर नहीं होती…’’ लक्ष्मी उस की गोलमोल बातों से कुछ समझी कुछ नहीं समझी और पुजारी को प्रणाम कर के कमरे से बाहर निकल आई.

रास्तेभर जहां सुखिया तो बाबा की ही महिमा का बखान करता रहा वहीं रामदीन की आंखों के सामने पुजारी का लक्ष्मी का हाथ सहलाना ही घूमता रहा. 2 महीने हो गए मगर दाग मिटने या कम होने के बजाय बढ़ ही रहा था. हालांकि लक्ष्मी को तांती पर पूरा भरोसा था, मगर रामदीन को चिंता होने लगी. उस ने सुखिया के सामने अपनी चिंता जाहिर की और लक्ष्मी को भी डाक्टर के पास चलने को कहा, तो सुखिया उखड़ गया. वह बोला, ‘‘तुम्हारा यह अविश्वास ही भाभी की बीमारी ठीक नहीं होने दे रहा… तुम कल ही चलो मेरे साथ पुजारीजी के पास… तुम्हारा सारा शक दूर हो जाएगा.’’

‘‘तुम रहने दो, बेकार क्यों अपनी छुट्टी खराब करते हो… मैं और लक्ष्मी ही हो आएंगे,’’ रामदीन ने हथियार डालते हुए कहा. वह अपने दोस्त को नाराज नहीं करना चाहता था. रामदीन को वहां जाने के लिए छुट्टी लेनी पड़ी. लक्ष्मी की तनख्वाह से भी एक दिन नागा होने से मालकिन ने पैसे काट लिए.

 

सोने का घाव- भाग 1 : मलीहा और अलीना बाजी के बीच क्या थी गलतफहमी

जैसे ही मैं अपने कमरे से बाहर निकली, अन्नामां, जो मम्मी के कमरे में उन्हें नाश्ता करा रही थी, कहने लगी, ‘‘मलीहा बेटी, बीबी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्होंने नाश्ता नहीं किया. बस, चाय पी है.’’

मैं जल्दी से मम्मी के कमरे में गई. कल से कमजोर लग रही थीं, पेट में दर्द बता रही थीं, आज तो ज्यादा ही निढाल लग रही थीं. मैं ने अन्नामां से कहा, ‘‘अम्मी के बाल संवारो, उन्हें जल्द तैयार करो. मैं गाड़ी गेट पर लगाती हूं.’’

मम्मी को ले कर हम दोनों अस्पताल पहुंचे. जांच होने पर पता लगा कि हार्ट अटैक है. उन का इलाज शुरू हो गया. इस खबर ने जैसे मेरी जान ही निकाल दी पर अगर मैं हिम्मत हार जाती तो यह सब कौन संभालता. मैं ने खुद को कंट्रोल किया, अपने आंसू पी लिए. इस वक्त पापा बेहद याद आए.

मेरे पापा बहुत मोहब्बत करने वाले, केयरिंग व्यक्ति थे. उन की मृत्यु एक ऐक्सिडैंट में हो गई थी. मुझ से बड़ी बहन अलीना बाजी, जिन की शादी हैदराबाद में हुई थी, का 3 साल का एक बेटा है. मैं ने उन्हें फोन कर के खबर देना जरूरी समझा.

मैं आईसीयू में गई. डाक्टर ने काफी तसल्ली दी, ‘‘इंजैक्शन लग चुके हैं, इलाज शुरू है, खतरे की कोई बात नहीं है. अभी दवाओं के असर में सो रही हैं, आराम उन के लिए जरूरी है, उन्हें डिस्टर्ब न करें.’’

मैं ने बाहर आ कर अन्नामां को घर भेज दिया और खुद वेटिंगरूम में जा कर एक कोने में बैठ गई. अच्छा था वेटिंगरूम, काफी खाली था. सोफे पर आराम से बैठ कर मैं ने अलीना बाजी को फोन लगाया. मेरी आवाज सुन कर बड़े ही रूखे अंदाज में सलाम का जवाब दिया. मैं ने अपने गम समेटते हुए आंसू पी कर उन्हें मम्मी के बारे में बताया. वे परेशान हो गईं, कहां, ‘‘मैं जल्द पहुंचने की कोशिश करती हूं.’’

बिना मुझे तसल्ली का एक शब्द कहे उन्होंने फोन बंद कर दिया. मेरे दिल को बड़ा सदमा लगा. मेरी यह वही बहन थी जो मुझे बेइंतहा प्यार करती थी. मेरी जरा सी उदासी पर दुनिया के जतन कर डालती थी. इतनी चाहत, इतनी मोहब्बत के बाद यह बेरुखी. मेरी आंखें आंसुओं से भर गईं. मैं अतीत में खो गई.

पापा की मौत को थोड़ा समय ही गुजरा था कि मुझ पर एक कयामत टूट पड़ी. पापा ने बहुत देखभाल कर एक अच्छे खानदान में मेरी शादी करवाई थी. शादी काफी शानदार हुई थी. मैं बड़े अरमान ले कर ससुराल गई. मैं ने एमबीए किया था और एक अच्छी कंपनी में जौब कर रही थी. शादी के पहले ही जौब करने के बारे में बात हो गईर् थी. उन लोगों को मेरे जौब करने पर एतराज न था. वे लोग भी मिडिल क्लास के थे. उन की 2 बेटियां थीं, जिन की शादी होनी थी. मुझ नौकरी करने वाली बहू का अच्छा स्वागत हुआ.

मेरी सास अच्छे मिजाज की थीं. मुझ से काफी अच्छा व्यवहार करती थीं. ससुर भी स्नेह रखते थे. मेरे पति देखने में सामान्य थे जबकि मैं खूबसूरत थी. कभीकभी उन की बातों में खुद को ले कर हीनभावना झलकती थी.

शादी के 2-3 महीने के बाद पति का असली रंग खुल कर सामने आ गया. मुझे ले कर नएनए शक उन के दिल में पनपने लगे. पूरे वक्त उन्हें लगता कि मैं उन से बेवफाई कर रही हूं. जराजरा सी बात पर नाराज हो जाते, झगड़ना शुरू कर देते. पर इसे मैं उन का कौंपलैक्स समझ कर टालती रही, निबाह करती रही.

तांती – भाग 1 : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

चलतेचलते रामदीन के पैर ठिठक गए. उस का ध्यान कानफोड़ू म्यूजिक के साथ तेज आवाज में बजते डीजे की तरफ चला गया. फिल्मी धुनों से सजे ये भजन उस के मन में किसी भी तरह से श्रद्धा का भाव नहीं जगा पा रहे थे. बस्ती के चौक में लगे भव्य पंडाल में नौजवानों और बच्चों का जोश देखते ही बनता था. रामदीन ने सुना कि लोक गायक बहुत ही लुभावने अंदाज में नौलखा बाबा की महिमा गाता हुआ उन के चमत्कारों का बखान कर रहा था.

रामदीन खीज उठा और सोचने लगा, ‘बस्ती के बच्चों को तो बस जरा सा मौका मिलना चाहिए आवारागर्दी करने का… पढ़ाईलिखाई छोड़ कर बाबा की महिमा गा रहे हैं… मानो इम्तिहान में यही उन की नैया पार लगाएंगे…’ तभी पीछे से रामदीन के दोस्त सुखिया ने आ कर उस की पीठ पर हाथ रखा, ‘‘भजन सुन रहे हो रामदीन. बाबा की लीला ही कुछ ऐसी है कि जो भी सुनता है बस खो जाता है. अरे, जिस के सिर पर बाबा ने हाथ रख दिया समझो उस का बेड़ा पार है.’’

रामदीन मजाकिया लहजे में मुसकरा दिया, ‘‘तुम्हारे बाबा की कृपा तुम्हें ही मुबारक हो. मुझे तो अपने हाथों पर ज्यादा भरोसा है. बस, ये सलामत रहें,’’ रामदीन ने अपने मजबूत हाथों को मुट्ठी बना कर हवा में लहराया. सुखिया को रामदीन का यों नौलखा बाबा की अहमियत को मानने से इनकार करना बुरा तो बहुत लगा मगर आज कुछ कड़वा सा बोल कर वह अपना मूड खराब नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और दोनों बस्ती की तरफ चल दिए.

विनोबा बस्ती में चहलपहल होनी शुरू हो गई थी. नौलखा बाबा का सालाना मेला जो आने वाला है. शहर से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर देहाती अंचल में बनी बाबा की टेकरी पर हर साल यह मेला लगता है. 10 दिन तक चलने वाले इस मेले की रौनक देखते ही बनती है. रामदीन को यह सब बिलकुल भी नहीं सुहाता था. पता नहीं क्यों मगर उस का मन यह बात मानने को कतई तैयार नहीं होता कि किसी तथाकथित बाबा के चमत्कारों से लोगों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं. अरे, जिंदगी में अगर कुछ पाना है तो अपने काम का सहारा लो न. यह चमत्कारवमत्कार जैसा कुछ भी नहीं होता…

रामदीन बस्ती में सभी को समझाने की कोशिश किया करता था मगर लोगों की आंखों पर नौलखा बाबा के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि उस की सारी दलीलें वे हवा में उड़ा देते थे. बाबा के सालाना मेले के दिनों में तो रामदीन से लोग दूरदूर ही रहते थे. कौन जाने, कहीं उस की रोकाटोकी से कोई अपशकुन ही न हो जाए…

विनोबा बस्ती से हर साल बाल्मीकि मित्र मंडल अपने 25-30 सदस्यों का दल ले कर इस मेले में जाता है. सुखिया की अगुआई में रवानगी से पहली रात बस्ती में बाबा के नाम का भव्य जागरण होता है जिस में संघ को अपने सफर पर खर्च करने के लिए भारी मात्रा में चढ़ावे के रूप में चंदा मिल जाता है. अलसुबह नाचतेगाते भक्त अपने सफर पर निकल पड़ते हैं. इस साल सुखिया ने रामदीन को अपनी दोस्ती का वास्ता दे कर मेले में चलने के लिए राजी कर ही लिया… वह भी इस शर्त पर कि अगर रामदीन की मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर सुखिया कभी भी उसे अपने साथ मेले में चलने की जिद नहीं करेगा…

अपने दोस्त का दिल रखने और उस की आंखों पर पड़ी अंधश्रद्धा की पट्टी हटाने की खातिर रामदीन ने सुखिया के साथ चलने का तय कर ही लिया, मगर शायद वक्त को कुछ और ही मंजूर था. इन्हीं दिनों ही छुटकी को डैंगू हो गया और रामदीन के लिए मेले में जाने से ज्यादा जरूरी था छुटकी का बेहतर इलाज कराना… सुखिया ने उसे बहुत टोका कि क्यों डाक्टर के चक्कर में पड़ता है, बाबा के दरबार में माथा टेकने से ही छुटकी ठीक हो जाएगी मगर रामदीन ने उस की एक न सुनी और छुट्की का इलाज सरकारी डाक्टर से ही कराया.

रामदीन की इस हरकत पर तो सुखिया ने उसे खुल्लमखुल्ला अभागा ऐलान करते हुए कह ही दिया, ‘‘बाबा का हुक्म होगा तो ही दर्शन होंगे उन के… यह हर किसी के भाग्य में नहीं होता… बाबा खुद ही ऐसे नास्तिकों को अपने दरबार में बुलाना नहीं चाहते जो उन पर भरोसा नहीं करते…’’ रामदीन ने दोस्त की बात को बचपना समझते हुए टाल दिया.

सुखिया और रामदीन दोनों ही नगरनिगम में सफाई मुलाजिम हैं. रामदीन ज्यादा तो नहीं मगर 10वीं जमात तक स्कूल में पढ़ा है. उसे पढ़ने का बहुत शौक था मगर पिता की हुई अचानक मौत के बाद उसे स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ा और वह परिवार चलाने के लिए नगरनिगम में नौकरी करने लगा. रामदीन ने केवल स्कूल छोड़ा था, पढ़ाई नहीं… उसे जब भी वक्त मिलता था, वह कुछ न कुछ पढ़ता ही रहता था. खुद का स्कूल छूटा तो क्या, वह अपने बच्चों को खूब पढ़ाना चाहता था.

सुखिया और रामदीन में इस नौलखा बाबा के मसले को छोड़ दिया जाए तो खूब छनती है. दोनों की पत्नियां भी आपस में सहेलियां हैं और आसपास के फ्लैटों में साफसफाई का काम कर के परिवार चलाने में अपना सहयोग देती हैं. एक दिन रामदीन की पत्नी लक्ष्मी को अपने माथे पर बिंदी लगाने वाली जगह पर एक सफेद दाग सा दिखाई दिया. उस ने इसे हलके में लिया और बिंदी थोड़ी बड़ी साइज की लगाने लगी.

 

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