अंतहीन- भाग 3: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

रामदयाल के कानों में प्रभव की बात गूंज रही थी, ‘शादी अभी तो मुमकिन नहीं है, गुंजन की मजबूरियों के कारण. विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है.’ लगाव वाली बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता था लेकिन प्रेमा की मृत्यु के बाद जब प्राय: सभी ने उस से कहा था कि पिता और घर की देखभाल अब उस की जिम्मेदारी है, इसलिए उसे शादी कर लेनी चाहिए तो गुंजन ने बड़ी दृढ़ता से कहा था कि घर संभालने के लिए तो मां से काम सीखे पुराने नौकर हैं ही और फिलहाल शादी करना पापा के साथ ज्यादती होगी क्योंकि फुरसत के चंद घंटे जो अभी सिर्फ पापा के लिए हैं फिर पत्नी के साथ बांटने पड़ेंगे और पापा बिलकुल अकेले पड़ जाएंगे. गुंजन का तर्क सब को समझ में आया था और सब ने उस से शादी करने के लिए कहना छोड़ दिया था. तभी प्रभव और राघव आ गए.

‘‘अंकल, गुंजन को आपरेशन के लिए ले गए हैं,’’ राघव ने बताया. ‘‘आपरेशन में काफी समय लगेगा और मरीज को होश आने में कई घंटे. हम सब को आदेश है कि अस्पताल में भीड़ न लगाएं और घर जाएं, आपरेशन की सफलता की सूचना आप को फोन पर दे दी जाएगी.’’

‘‘तो फिर अंकल घर ही चलिए, आप को भी आराम की जरूरत है,’’ प्रभव बोला.

‘‘हां, चलो,’’ रामदयाल विवश भाव से उठ खड़े हुए, ‘‘तुम्हें कहां छोड़ना होगा, राघव?’’

‘‘अभी तो आप के साथ ही चल रहे हैं हम दोनों.’’

‘‘नहीं बेटे, अभी तो आस की किरण चमक रही है, उस के सहारे रात कट जाएगी. तुम दोनों भी अपनेअपने घर जा कर आराम करो,’’ रामदयाल ने राघव का कंधा थपथपाया.

हालांकि गुंजन हमेशा उन के लौटने के बाद ही घर आता था लेकिन न जाने क्यों आज घर में एक अजीब मनहूस सा सन्नाटा फैला हुआ था. वह गुंजन के कमरे में आए. वहां उन्हें कुछ अजीब सी राहत और सुकून महसूस हुआ. वह वहीं पलंग पर लेट गए.

तकिये के नीचे कुछ सख्त सा था, उन्होंने तकिया हटा कर देखा तो एक सुंदर सी डायरी थी. उत्सुकतावश रामदयाल ने पहला पन्ना पलट कर देखा तो लिखा था, ‘वह सब जो चाह कर भी कहा नहीं जाता.’ गुंजन की लिखावट वह पहचानते थे. उन्हें जानने की जिज्ञासा हुई कि ऐसा क्या है जो गुंजन जैसा वाचाल भी नहीं कह सकता?

किसी अन्य की डायरी पढ़ना उन की मान्यताआें में नहीं था लेकिन हो सकता है गुंजन ने इस में वह सब लिखा हो यानी उस मजबूरी के बारे में जिस का जिक्र प्रभव कर रहा था. उन्होंने डायरी के पन्ने पलटे. शुरू में तो तनूजा से मुलाकात और फिर उस की ओर अपने झुकाव का जिक्र था. उन्होंने वह सब पढ़ना मुनासिब नहीं समझा और सरसरी निगाह डालते हुए पन्ने पलटते रहे. एक जगह ‘मां’ शब्द देख कर वह चौंके. रामदयाल को गुंजन की मां यानी अपनी पत्नी प्रेमा के बारे में पढ़ना उचित लगा.

‘वैसे तो मुझे कभी मां के जीवन में कोई अभाव या तनाव नहीं लगा, हमेशा खुश व संतुष्ट रहती थीं. मालूम नहीं मां के जीवनकाल में पापा उन की कितनी इच्छाआें को सर्वाधिक महत्त्व देते थे लेकिन उन की मृत्यु के बाद तो वही करते हैं जो मां को पसंद था. जैसे बगीचे में सिर्फ सफेद फूलों के पौधे लगाना, कालीन को हर सप्ताह धूप दिखाना, सूर्यास्त होते ही कुछ देर को पूरे घर में बिजली जलाना आदि.

‘मुझे यकीन है कि मां की इच्छा की दुहाई दे कर पापा सर्वगुण संपन्न और मेरे रोमरोम में बसी तनु को नकार देंगे. उन से इस बारे में बात करना बेकार ही नहीं खतरनाक भी है. मेरा शादी का इरादा सुनते ही वह उत्तर प्रदेश की किसी अनजान लड़की को मेरे गले बांध देंगे. तनु मेरी परेशानी समझती है मगर मेरे साथ अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती है. उस के लिए समय निकालना कोई समस्या नहीं है लेकिन लोग हमें एकसाथ देख कर उस पर छींटाकशी करें यह मुझे गवारा नहीं है.’ 

रामदयाल को याद आया कि जब उन्होंने लखनऊ की जायदाद बेच कर यह कोठी बनवानी चाही थी तो प्रेमा ने कहा था कि यह शहर उसे भी बहुत पसंद है मगर वह उत्तर प्रदेश से नाता तोड़ना नहीं चाहती. इसलिए वह गुंजन की शादी उत्तर प्रदेश की किसी लड़की से ही करेगी. उन्होंने प्रेमा को आश्वासन दिया था कि ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि उन के परिवार की संस्कृति और मान्यताएं तो उन की अपनी तरफ की लड़की ही समझ सकती है.

गुंजन का सोचना भी सही था, तनु से शादी की इजाजत वह आसानी से देने वाले तो नहीं थे. लेकिन अब सब जानने के बाद वह गुंजन के होश में आते ही उस से कहेंगे कि वह जल्दीजल्दी ठीक हो ताकि उस की शादी तनु से हो सके.

अगली सुबह अखबार में घायलों में गुंजन का नाम पढ़ कर सभी रिश्तेदार और दोस्त आने शुरू हो गए थे. अस्पताल से आपरेशन सफल होने की सूचना भी आ गई थी फिर वह अस्पताल जा कर वरिष्ठ डाक्टर से मिले थे.

‘‘मस्तिष्क में जितनी भी गांठें थीं वह सफलता के साथ निकाल दी गई हैं और खून का संचार सुचारुरूप से हो रहा है लेकिन गुंजन की पसलियां भी टूटी हुई हैं और उन्हें जोड़ना बेहद जरूरी है लेकिन दूसरा आपरेशन मरीज के होश में आने के बाद करेंगे. गुंजन को आज रात तक होश आ जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा, ‘‘आप फिक्र मत कीजिए, जब हम ने दिमाग का जटिल आपरेशन सफलतापूर्वक कर लिया है तो पसलियों को भी जोड़ देंगे.’’

शाम को अपने अन्य सहकर्मियों के साथ तनुजा भी आई थी. बेहद विचलित और त्रस्त लग रही थी. रामदयाल ने चाहा कि वह अपने पास बुला कर उसे दिलासा और आश्वासन दें कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन रिश्तेदारों की मौजूदगी में यह मुनासिब नहीं था.

पसलियों के टूटने के कारण गुंजन के फेफड़ों से खून रिसना शुरू हो गया था जिस के कारण उस की संभली हुई हालत फिर बिगड़ गई और होश में आ कर आंखें खोलने से पहले ही उस ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं.

अंत्येष्टि के दिन रामदयाल को आएगए को देखने की सुध नहीं थी लेकिन उठावनी के रोज तनु को देख कर वह सिहर उठे. वह तो उन से भी ज्यादा व्यथित और टूटी हुई लग रही थी. गुंजन के अन्य सहकर्मी और दोस्त भी विह्वल थे, उन्होंने सब को दिलासा दिया. जनममरण की अनिवार्यता पर सुनीसुनाई बातें दोहरा दीं.

सीमा के साथ खड़ी लगातार आंसू पोंछती तनु को उन्होंने चाहा था पास बुला कर गले से लगाएं और फूटफूट कर रोएं. उन की तरह उस का भी तो सबकुछ लुट गया था. वह उस की ओर बढ़े भी लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर दूसरी ओर मुड़ गए.

कुछ दिनों के बाद एक इतवार की सुबह राघव गुंजन का कोट ले कर आया.

‘‘इस की जेब में गुंजन की घड़ी और पर्स वगैरा हैं. अंकल, संभाल लीजिए,’’ कहते हुए राघव का स्वर रुंध गया.

कुछ देर के बाद संयत होने पर उन्होंने पूछा, ‘‘यह तुम्हें कहां मिला, राघव?’’

‘‘तनु ने दिया है.’’

‘‘तनु कैसी है?’’

‘‘कल ही उस की बहन उसे अपने साथ पुणे ले गई है, जगह और माहौल बदलने के लिए. यहां तो बम होने की अफवाहों को सुन कर वह बारबार उन्हीं यादों में चली जाती थी और यह सिलसिला यहां रुकने वाला नहीं है. तनु के बहनोई उस के लिए पुणे में ही नौकरी तलाश कर रहे हैं.’’

‘‘नौकरी ही नहीं कोई अच्छा सा लड़का भी उस के लिए तलाश करें. अभी उम्र नहीं है उस की गुुंजन के नाम पर रोने की?’’

राघव चौंक पड़ा.

‘‘आप को तनु और गुंजन के बारे में मालूम है, अंकल?’’

‘‘हां राघव, मैं उस के दुख को शिद्दत से महसूस कर रहा था, उसे गले लगा कर रोना भी चाहता था लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, अंकल? क्यों नहीं किया आप ने ऐसा? इस से तनु को अपने और गुंजन के रिश्ते की स्वीकृति का एहसास तो हो जाता.’’

‘‘मगर मेरे ऐसा करने से वह जरूर मुझ से कहीं न कहीं जुड़ जाती और मैं नहीं चाहता था कि मेरे जरिए गुंजन की यादों से जुड़ कर वह जीवन भर एक अंतहीन दुख में जीए.’’

अंकल शायद ठीक कहते हैं.

Father’s Day Special: रिटर्न गिफ्ट- भाग 3

‘‘अंकिता, जब कभी तुम्हें भी एहसास हो जाए कि मुझे रिटर्न गिफ्ट में क्या चाहिए तो खुद ही उसे मुझे दे देना. उस फकीर की तरह मैं भी कभी तुम्हें अपने मन की इच्छा अपने मुंह से नहीं बताना चाहूंगा,’’ उन्होंने बड़ी चालाकी से सारे मामले में पहल करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी थी.

‘‘जब मुझे आप की पसंद की गिफ्ट का एहसास हो जाएगा तो मैं अपना फैसला आप को जरूर बता दूंगी, अब यहां से चलें?’’

‘‘हां,’’ उन के चेहरे पर एक उदास सी मुसकान उभरी और हम वापस गेट की तरफ चल पड़े थे.

‘‘अब आप मुझे मेरे घर छोड़ दो, प्लीज,’’ मेरी इस प्रार्थना को सुन कर वह अचानक जोर से हंस पड़े थे.

‘‘अरे, अभी एक बढि़या सरप्राइज तुम्हारे लिए बचा कर रखा है. उस का मजा लेने के बाद घर जाना,’’ वह एकदम से सहज नजर आने लगे तो मेरा मन भी तनावमुक्त होने लगा था.

मुझे सचमुच उन के घर पहुंच कर जबरदस्त सरप्राइज मिला.

उन के ड्राइंगरूम में मेरी शानदार बर्थडे पार्टी का आयोजन शिखा ने बड़ी मेहनत से किया था. उस ने बड़ी शानदार सजावट की थी. मेरी खास सहेलियों को उस ने मुझ से छिपा कर बुलाया हुआ था.

‘‘हैप्पी बर्थडे, अंकिता,’’ मेरे अंदर घुसते ही सब ने तालियां बजा कर मेरा स्वागत किया तो मेरा मन खुशी से नाच उठा था.

अचानक मेरी नजर अपनी मम्मी पर पड़ी तो मैं जोशीले अंदाज में चिल्ला उठी, ‘‘अरे, आप यहां कैसे? इस शानदार पार्टी के बारे में आप को तो कम से कम मुझे जरूर बता देना चाहिए था.’’

‘‘हैप्पी बर्थडे, माई डार्लिंग. मुझे ही शिखा ने 2 घंटे पहले फोन कर के इस पार्टी की खबर दी तो मैं तुम्हें पहले से क्या बताती?’’ उन्होंने मुझे छाती से लगाने के बाद जब मेरा माथा प्यार से चूमा तो मेरी पलकें भीग उठी थीं.

कुछ देर बाद मैं ने चौकलेट वाला केक काटा. मेरी सहेलियों ने मौका नहीं चूका और मेरे गालों पर जम कर केक मला.

खाने का बहुत सारा सामान वहां था. हम सब सहेलियों ने डट कर पेट भरा और फिर डांस करने के मूड में आ गए. सब ने मिल कर सोफे दीवार से लगाए और कमरे में डांस करने की जगह बना ली.

मस्त हो कर नाचते हुए अचानक मेरी नजर राकेशजी पर पड़ी. वह मंत्रमुग्ध से हो कर मेरी मम्मी को देख रहे थे. तालियां बजा कर हम सब का उत्साह बढ़ा रही मम्मी को कतई अंदाजा नहीं था कि वह किसी की प्रेम भरी नजरों का आकर्षण केंद्र बनी हुई थीं.

उसी पल में बहुत सी बातें मेरी समझ में अपनेआप आ गईं, राकेशजी पिछले दिनों मम्मी को पाने के लिए मेरा दिल जीतने की कोशिश कर रहे थे और मैं कमअक्ल इस गलतफहमी का शिकार हो गई कि वह मुझ से इश्क लड़ाने के चक्कर में थे.

‘तो क्या मम्मी भी उन्हें चाहती हैं?’ अपने मन में उभरे इस सवाल का जवाब पाना मेरे लिए एकाएक ही बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया.

‘‘मैं पानी पी कर अभी आई,’’ अपनी सहेलियों से यह बहाना बना कर मैं ने नाचना रोका और सीधे राकेशजी के पास पहुंच गई.

‘‘तो आप मुझ से और ज्यादा गहरे और मजबूत संबंध मेरी मम्मी को अपनी जीवनसंगिनी बना कर कायम करना चाहते हैं?’’ मेरा यह स्पष्ट सवाल सुन कर राकेशजी पहले चौंके और फिर झेंपे से अंदाज में मुसकराते हुए उन्होंने अपना सिर कई बार ऊपरनीचे हिला कर ‘हां’ कहा.

‘‘और मम्मी क्या कहती हैं आप को अपना जीवनसाथी बनाने के बारे में?’’ मैं तनाव से भर उठी.

‘‘पता नहीं,’’ उन्होंने गहरी सांस छोड़ी.

‘‘इस ‘पता नहीं’ का क्या मतलब है, सर?’’

‘‘सारा आफिस जानता है कि तुम उन की जिंदगी में अपने सौतेले पिता की मौजूदगी को स्वीकार करने के हमेशा से खिलाफ रही हो. फिलहाल तो हम बस अच्छे सहयोगी हैं. अब तुम्हारी ‘हां’ हो जाए तो मैं उन का दिल जीतने की कोशिश शुरू करूं,’’ वह मेरी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे थे.

‘‘क्या आप उन का दिल जीतने में सफल होने की उम्मीद रखते हैं?’’ कुछ पलों की खामोशी के बाद मैं ने संजीदा लहजे में पूछा.

‘‘अगर मैं ने बेटी का दिल जीत लिया है तो फिर यह काम भी कर लूंगा.’’

‘मेरा तो बाजा ही बजवा दिया था आप ने,’ मैं मुंह ही मुंह में बड़बड़ा उठी और फिर उन के बारे में अपने मनोभावों को याद कर जोर से शरमा भी गई.

‘‘क्या कहा तुम ने?’’ मेरी बड़बड़ाहट को वह समझ नहीं सके और मेरे शरमाने ने उन्हें उलझन का शिकार बना दिया था.

‘‘मैं ने कहा है कि मैं अभी ही आप के सवाल पर मम्मी का जवाब दिलवा देती हूं. वैसे क्या शिखा को आप के दिल की यह इच्छा मालूम है, अंकल?’’ बहुत दिनों के बाद मैं ने उन्हें उचित ढंग से संबोधित किया था.

‘‘तुम ने हरी झंडी दिखा दी तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा,’’ उन्होंने बड़े अधिकार से मेरा हाथ पकड़ा और मुझे उन के स्पर्श में सिर्फ स्नेह और अपनापन ही महसूस हुआ.

‘‘आप चलो मेरे साथ,’’ उन्हें साथ ले कर मैं मम्मी के पास आ गई.

मैं ने मम्मी से थोड़ा इतराते हुए पूछा, ‘‘मौम, अगर अपने साथ के लिए मैं एक हमउम्र बहन बना लूं तो आप को कोई एतराज होगा?’’

‘‘बिलकुल नहीं होगा,’’ मम्मी ने मुसकराते हुए फौरन जवाब दिया.

‘‘राकेश अंकल रिटर्न गिफ्ट मांग रहे हैं.’’

‘‘तो दे दो.’’

‘‘आप से पूछना जरूरी है, मौम.’’

‘‘समझ ले मैं ने ‘हां’ कर दी है.’’

‘‘बाद में नाराज मत होना.’’

‘‘नहीं होऊंगी, मेरी गुडि़या.’’

‘‘रिटर्न गिफ्ट में अंकल आप की दोस्ती चाहते हैं. आप संभालिए अपने इस दोस्त को और मैं चली अपनी नई बहन को खुशखबरी देने कि उस की जिंदगी में बड़ी प्यारी सी नई मां आ गई हैं,’’ मैं ने अपनी मम्मी का हाथ राकेशजी के हाथ में पकड़ाया और शिखा से मिलने जाने को तैयार हो गई.

‘‘इस रिटर्न गिफ्ट को मैं सारी जिंदगी बड़े प्यार से रखूंगा,’’ राकेशजी के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर मम्मी जिस अंदाज में लजाईंशरमाईं, वह मेरी समझ से उन के दिल में अपने नए दोस्त के लिए कोमल भावनाएं होने का पक्का सुबूत था.

स्टूडैंट लीडर – भाग 2 : जयेश की जिद

नीलेंदु ने अभ्यागत को निहारा,

‘‘क्या है?’’

जयेश ने पूछा, ‘‘सर, आप छात्र संघ चुनाव के इंचार्ज हैं?’’

नीलेंदु ने सांस छोड़ कर कहा, ‘‘हां, हूं.’’

जयेश ने कहा, ‘‘सर, मु?ो महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ना है.’’

नीलेंदु ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, ‘‘सही में…?’’

जयेश बोला, ‘‘जी सर.’’

नीलेंदु ने विस्मय से कहा, ‘‘ठीक है.’’

 

उन्होंने एक रजिस्टर अपनी डैस्क से निकाला और उस में एंट्री करते हुए कहा, ‘‘लेकिन, मैं तुम्हें बता दूं कि तुम किस के विरुद्ध खड़े हो रहे हो – अनुरंजन नावे.’’

जयेश को कोई फर्क नहीं पड़ा, ‘‘तो…?’’

प्राध्यापक नीलेंदु ने कहा, ‘‘छात्र संघ में सभी उसे पसंद करते हैं.’’

जयेश इस बात से अनजान था. नीलेंदु ने पहली बार चुनाव लड़ने वाले इस छात्र का मनोबल परखना चाहा, ‘‘यह चुनाव लोकप्रियता पर निर्भर है. दरअसल यह लोकप्रियता प्रतियोगिता होती है. जो ज्यादा लोकप्रिय होता है, वही जीतता है.’’

यह सुन कर जयेश की भौहें तन गईं. नीलेंदु ने और हथौड़े का प्रहार किया, ‘‘स्नातकोत्तर छात्र है अनुरंजन. कितने वर्ष गुजारे हैं उस ने इस महाविद्यालय में और तुम तो अभीअभी आए हो. तुम्हें तो कोई जानता तक नहीं. मु?ो भी नहीं पता कि तुम कौन हो?’’

जयेश ने कठोरता से कहा, ‘‘चुनाव लोकप्रियता के बारे में नहीं होने चाहिए. उन्हें इस बारे में होना चाहिए कि किस के पास सब से अच्छे विचार हैं.’’

नीलेंदु ने मुंह बनाया, ‘‘और, तुम्हारे क्या विचार हैं?’’

जयेश ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘खेल पर कम खर्च और विज्ञान पर ज्यादा.’’

नीलेंदु उसे देखता रह गया.

शाम को जब जयेश की मुलाकात अपने मित्रों से हुई तो उस ने उन्हें इस प्रकरण से अवगत कराया, ‘‘मैं ने निश्चय किया है कि छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ं ूगा.’’

प्रसेनजीत खुश होते हुए बोला, ‘‘बहुत बढि़या.’’

संदेश ने विस्मय से प्रसेनजीत से कहा, ‘‘तुम इसे बढ़ावा दे रहे हो? चुनाव में इस का पूरा भाजीपाला निकल जाएगा. बुरी तरह से शिकस्त मिलेगी.’’

प्रसेनजीत ने नाराजगी से संदेश से कहा, ‘‘तुम्हें पूरी बात नहीं पता है.’’

संदेश बोला, ‘‘मु?ो तो यही लगता है.’’

प्रसेनजीत ने जयेश का मनोबल कायम रखने के लिए कहा, ‘‘जीत हो या हार, मु?ो तो इस बात की ही खुशी है कि तुम कोशिश कर रहे हो.’’

जयेश को शायद और प्रोत्साहन की जरूरत थी, ‘‘लेकिन तु?ो ऐसा लगता है कि मैं जीतूंगा?’’

प्रसेनजीत ने कहा, ‘‘मु?ो तो यही लगता है कि यह जीत निश्चित रूप से संभव है.’’

संदेश ने हुंकार भरी. प्रसेनजीत ने संदेश को अनदेखा कर जयेश से पूछा, ‘‘क्या तेरे पास अपने अभियान की कोई रणनीति है?’’

जयेश ने इस बारे में अभी सोचा नहीं

था, ‘‘नहीं.’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘कोई ऐसा नारा है, जो एकदम आकर्षक हो?’’

जयेश ने फिर कहा, ‘‘नहीं.’’

प्रसेनजीत ने जयेश को सम?ाते हुए कहा, ‘‘हमारी एक आंटी हैं, वृंदा कड़वे. वे हमारे इलाके का कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. मैं उन से बात करवा सकता हूं तुम्हारी.’’

प्रसेनजीत ने तुरंत अपने मोबाइल फोन से वृंदा कड़वे को फोन लगाया, ‘‘आंटी, मैं प्रसेनजीत.’’

वृंदा ने आतुर हो कर कहा, ‘‘हां, बोलो बेटा, क्या बात है?’’

प्रसेनजीत ने स्थिति सम?ाई, ‘‘मेरा एक मित्र छात्र संघ के लिए चुनाव लड़ रहा है. वह उम्मीद कर रहा है कि आप उसे कुछ सलाह दे सकती हैं.’’

 

प्रसेनजीत ने जयेश को मोबाइल थमा दिया. वृंदा ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम कभी फेल हुए

हो क्या?’’

जयेश एक पल के लिए यह प्रश्न सुन कर चौंक गया. फिर संभल कर उस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं हमेशा अव्वल दर्जे में पास हुआ हूं और मैं हमेशा सभी के साथ तमीज से पेश आता हूं. अपने व्यवहार के बारे में आज तक मैं ने किसी को कुछ कहने का मौका नहीं दिया है.’’

कारपोरेटर होने के कारण वृंदा कडवे सफाई को बेहद महत्त्व देती थीं, ‘‘तुम अपने आसपास स्वच्छता रखते हो?’’

जयेश ने जोश में कहा, ‘‘गंदगी तो मु?ो सर्वथा पसंद नहीं. आप तो खुद कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. क्या आप चुनाव जीतने के बारे में मु?ो कुछ सलाह दे सकती हैं?’’

 

वृंदा ने अपने अनुभव से कहा, ‘‘सब से महत्त्वपूर्ण बात है, बाहर निकलना और लोगों से जुड़ना.’’

जयेश को यह थोड़ा मुश्किल कार्य लगा. वह विज्ञान का छात्र था. वह बोला, ‘‘मु?ो लोगों से बहुत लगाव नहीं है.’’

कारपोरेटर वृंदा को अच्छे से इस बात का महत्त्व पता था, ‘‘ठीक है, तुम को

उस पर काबू पाने की आवश्यकता हो

सकती है.’’

जयेश ने इस के आगे का कदम जानना चाहा, ‘‘मान लें कि मैं यह कर सकता हूं. मैं उन से कैसे जुड़ं ू?’’

कारपोरेटर वृंदा बोली, ‘‘तुम्हारे लिए तो सब से अच्छी शुरुआत करने का तरीका है, सब के साथ दोस्ताना बना कर उन से हाथ मिलाओ.’’

हाथ मिलाने के नाम से ही जयेश के हाथ सिकुड़ गए.

अगले कुछ दिनों में जयेश ने अपना अभियान चलाया. उस ने महाविद्यालय में जगहजगह पोस्टर लगवाए. सभी छात्रों से बातचीत की और उन्हें बताया, ‘‘मेरा नाम जयेश है और मैं छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं.’’

प्रसेनजीत और संदेश ने उस का भरपूर साथ दिया. हर जगह, हर विभाग में पोस्टर दिखने लगे, ‘छात्र प्रतिनिधि के लिए जयेश को वोट दीजिए.’

सभी से मिलते समय जयेश ने उन्हें एकएक पेन देना उचित सम?ा. थोक में खरीदने पर हर पेन की कीमत महज 5 रुपए पड़ी.

ऐसे में अनजाने में उस की मुलाकात अपने प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे से हो गई. वाणिज्य विभाग की ओर जाते समय जयेश ने एक लंबे से युवक को जब पेन थमाते हुए कहा, ‘‘मैं जयेश हूं. मैं छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहा हूं.’’

इस पर उस युवक ने मुसकराते से कहा, ‘‘आखिरकार तुम से मुलाकात हो ही गई.’’

बड़े ही गर्मजोशी के साथ जयेश से हाथ मिला कर कहा, ‘‘मैं अनुरंजन नावे.’’

जयेश ने अपने विरोधी पक्ष पर गौर किया. उसे गौर से देखता देख अनुरंजन  ने विस्मय से पूछा, ‘‘इस पेन का क्या  करना है?’’

जयेश ने अस्पष्ट तरीके से कहा, ‘‘जो भी असाइनमैंट हम को करने के लिए मिलते हैं, वे इस से कर सकते हैं. मु?ो अपने शिक्षकों के दिए हुए असाइनमैंट न केवल अच्छे लगते हैं, बल्कि उन्हें करने में भी मजा आता है.’’

अनुरंजन ने मुसकराते हुए पैन ले लिया और कहा, ‘‘हम में से जो श्रेष्ठ है, उसी की जीत होगी.’’ और पैन ले कर वहां से चल दिया.

शाम को जयेश ने यह बात प्रसेनजीत को बताई, ‘‘वह वाकई में बहुत अच्छी तरह से पेश आया. उस का स्वभाव मु?ो अच्छा ही लगा.’’

तभी संदेश बोला, ‘‘तभी तो वह लोकप्रिय है.’’

प्रसेनजीत ने एक और रणनीति को कार्यान्वित किया, ‘‘अब ढेर सारे चौकलेट ले लेते हैं. चौकलेट सभी को पसंद आते हैं. इस से बाकियों के साथ आत्मीयता बढ़ेगी.’’

संदेश ने हामी भरी, ‘‘अच्छा तरीका है.’’

जयेश बोला, ‘‘अब मु?ो सम?ा में आ रहा है कि अमीर व्यक्ति लोगों का वोट कैसे खरीद सकते हैं.’’

परंतु अगले दिन जब जयेश महाविद्यालय पहुंचा तो उसे जैसे ?ाटका लगा. हर विभाग में उस के चित्र समेत पोस्टर लगे थे, जिन पर लिखा था, ‘जयेश को वोट देने का मतलब है ज्यादा असाइनमैंट और ज्यादा पढ़ाई.’ पोस्टर में नीचे इस प्रकार से लिखा था, ‘जयेश : ‘‘मु?ो असाइनमैंट अच्छे लगते हैं.’’ अगर आप को और असाइनमैंट नहीं चाहिए तो अनुरंजन नावे को वोट दीजिए.’

यह देख जयेश सकते में आ गया. उस ने पोस्टरों की लड़ी में से एक पोस्टर निकाल कर हाथ में ले लिया. रातोंरात अपने विरोधी पक्ष को अपने से ऊपर होता देख वह दंग रह गया. उस के ही मुंह से निकले हुए शब्द थे ये. वाणिज्य और कला के विद्यार्थी कहां असाइनमैंट जैसी चीज को पसंद करने वाले थे.

अनुरंजन नावे ने उस की यह बात पकड़ कर उसे इन दोनों विभागों के छात्रों से विमुख कर दिया था. मैनेजमैंट के छात्र भी कहां अधिक पढ़ाई चाहते थे और रही बात विज्ञान के छात्रों की तो वे भी ज्यादा बो?ा तले नहीं जीना चाहते थे. कुल मिला कर असाइनमैंट या गृहकार्य ही कोई नहीं चाहता था और अधिक की तो बात ही नहीं बनती. उस के विरोधी ने अपने हाथ खोल दिए थे. जयेश सम?ा गया कि उस का विरोधी किस हद तक जा सकता है. ऐसा काम कम से कम वह तो कभी न करता.

प्रसेनजीत ने जब वह पोस्टर देखा तो जयेश से कहा, ‘‘बहुत दुर्भाग्य की बात है.’’

जयेश ने कट्टरता से कहा, ‘‘दुर्भाग्य नहीं, बिलकुल अनुचित व्यवहार है.’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘तुम ने ये क्यों उस से कह दिया कि असाइनमैंट करना तुम को अच्छा लगता है?’’

जयेश बोला, ‘‘मैं ने तो ऐसे ही कह दिया था. मैं तो ऐसे ही सभी से यह कहता रहता हूं. मु?ो थोड़े ही पता था…’’

 

प्रसेनजीत बोला, ‘‘चुनाव के इंचार्ज नीलेंदु सर से शिकायत दर्ज कर के कोई फायदा नहीं है.’’

जयेश उन से कहने लगा, ‘‘लेकिन उस ने मेरे कथन को संदर्भ से बाहर कर दिया है और मेरे खिलाफ इस का इस्तेमाल कर रहा है.’’

प्रसेनजीत जयेश को सम?ाते हुए बोला, ‘‘कितनों को तुम संदर्भ बताते फिरोगे.’’

तभी संदेश भी वहां आ पहुंचा. सारा मसला उसे पता था. उस ने कहा, ‘‘राजनीति में ऐसा ही होता है. विरोधी पक्ष वाले सत्य को इस तरह से रबड़ की तरह खींच कर पेश करते हैं कि उस का मूल अर्थ ही गायब हो जाए.’’

जयेश बोला, ‘‘वे लोग गंदे हैं.’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘वह तो है. लेकिन मु?ो एक बात बताओ. तुम इस चुनाव को कितनी बुरी तरह से जीतना चाहते हो?’’

जयेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘अब तो किसी भी कीमत पर…’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘तो तु?ो सख्त होने की जरूरत है. राजनीति कमजोरों के लिए नहीं है.’’

 

यह सुन कर जयेश बोला, ‘‘तुम यह सु?ाव दे रहे हो कि मैं ईंट का जवाब पत्थर से दूं?’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘यही करना होगा. जो हो गया, उस पर विचार करते रहने से बात नहीं बनेगी.’’

संदेश ने कहा, ‘‘हमें भी कुछ सोचना पड़ेगा.’’

प्रसेनजीत ने संदेश से कहा, ‘‘संदेश, हम तीनों में से सब से ज्यादा निष्ठुर तुम हो. मैं ने कई बार तुम्हें क्रिकेट के मैदान में चीटिंग करते हुए भी देखा है.’’

संदेश को इस इलजाम से कोई फर्क नहीं पड़ा, ‘‘तो..?’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘इस की जवाबी कार्यवाही में क्या करना चाहिए?’’

संदेश ने सोचते हुए कहा, ‘‘अनुरंजन नावे के बारे में हमें ज्यादा कुछ पता नहीं है. हमें मनगढ़ंत कुछ बनाना पड़ेगा.’’

जयेश ने सत्य के प्रयोग पर बल दिया, ‘‘मैं ?ाठ का सहारा नहीं लूंगा.’’

संदेश बोला, ‘‘मैं छानबीन कर के पता लगाने की कोशिश करता हूं कि उस के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ मिल सकता है क्या?’’

जयेश बोला, ‘‘मैं ने तय कर लिया है कि मैं उस के स्तर तक नहीं गिरना चाहता. अगर मैं अपने विचारों की गुणवत्ता पर नहीं जीत सकता तो अपने सिर को ऊंचा रख कर हार जाना पसंद करूंगा.’’

प्रसेनजीत ने फिर भी संदेश को अनुरंजन नावे की पृष्ठभूमि खंगालने की अनुमति दे दी.

उसी दिन जयेश की मुलाकात उसी लैब के इंचार्ज से हो गई, जिस लैब में आग लगने की दुर्घटना घटी थी. उस ने लैब इंचार्ज को सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘मैं आप को यह बताना चाहता हूं कि मैं अभी भी अपने अभियान पर कड़ी मेहनत कर रहा हूं. विज्ञान विभाग के लिए और अधिक ग्रांट प्राप्त करने के लिए. आप की लैब के उपकरणों के लिए भी.’’

लैब इंचार्ज ने उदासीनता से कहा, ‘‘मु?ो दोपहर के प्रयोगों के लिए साधन जुटाने जाना है.’’

इस पर जयेश बोला, ‘‘निर्णायक जीत हासिल करने में आप जो कुछ भी मेरी मदद कर सकते हैं, वह कीजिए. लैब और प्रयोगशालाओं के उपकरणों के भविष्य का सवाल है.’’

लैब इंचार्ज ने उसी विरक्त भाव से कहा, ‘‘फैकल्टी को छात्र चुनाव में शामिल होने का अधिकार नहीं है.’’

जयेश बोला, ‘‘यह बात तो मु?ो भी सम?ा आती है कि आप को तटस्थ बने रहना है. लेकिन आप को अपनी प्रयोगशाला के लिए नए उपकरण चाहिए और मैं भी यही चाहता हूं कि आप को ऐसी मदद मिले. हमारा लक्ष्य एक ही है. हमें एकदूसरे का साथ देना चाहिए.’’

गांठ खुल गई – भाग 2 : हैसियत का खेल

अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत सम?ाया लेकिन वह फैसले से टस से मस नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी. उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

Father’s Day Special- मौहूम सा परदा: भाग 2

राबिया बेगम की इंगलैंड जाने की पेशकश सुन कर उन के दिमाग में 2 दिनों पहले बहू का बेहूदा डायलौग, ‘और लोगों की नजरों पर मोहूम सा परदा भी पड़ा रहेगा,’ और उस के बाद उस की बेहया हंसी की याद उन्हें करंट का सा झटका दे गई. वे समझ गए कि बात राबिया बेगम तक पहुंच गई है, और उन्हें गहरे चुभ गई है. सोच कर वे बेहद मायूस हो गए. मगर बोले, ‘‘बेगम, अपने पासपोर्ट पता नहीं कब से रिन्यू नहीं हुए, शायद नए ही बनवाने पड़ें. अब इस उम्र में यह सब झंझट कहां होगा.’’

‘‘अरे, ऐसे कौन से बूढ़े हो गए हैं आप. और ये पासपोर्ट सिर्फ एक टर्म ही तो रिन्यू नहीं हुए हैं. ब्रिटिश एंबैसी के कल्चरल सैंटर में मेरी एक शार्गिद है, शायद वह कुछ मदद कर सके. कोशिश कर के देखते हैं, कह कर राबिया बेगम ने दोनों पासपोर्ट उन के आगे रख दिए और एक गहरी सांस ले कर बेबस निगाहों से डा. जाकिर की तरफ देखा तो वे फैसला करने को मजबूर हो गए.’’

जाकिर साहब की जानपहचान और व्यवहारकुशलता से एक महीने में दोनों के पासपोर्ट बन गए. अभी तक घर में उन्होंने इस बारे में खुल कर किसी से बात नहीं की थी. अब जब उन्होंने अपने दोनों के लंदन जाने की बात कही तो अजीब सी प्रतिक्रिया मिली. राबिया बेगम के लंदन जाने पर किसी को एतराज नहीं था. पर लड़के और बहुएं जाकिर साहब को जाने नहीं देना चाहते थे. राबिया बेगम से सिर्फ उन के पोते आमिर और समद ने नहीं जाने की मनुहार की थी. बहरहाल, कुछ समझाइश के बाद दोनों लंदन रवाना हो गए.

3 महीने बीत गए. एक दिन शाहिद ने उन को फोन किया और बोला, ‘‘अब्बू, आमों के बाग को ठेके पर देने का मौसम आ गया है,आप हिंदुस्तान कब आ रहे हैं, बहुत दिन हो गए, आ जाइए न.’’

फोन सुन कर उन्होंने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘साहबजादे, अगर आमों के बाग का ठेका देने के लिए ही मुझे आना है तो बेहतर है कि तुम अभी से इन सभी कामों को और दुनियादारी को समझ लो. भई, आगे भी तुम्हें ही सबकुछ देखना है.’’

‘‘अरे नहीं, अब्बू. बात यह है कि हम सब आप को बहुत याद कर रहे हैं,’’ अब की बहू की आवाज थी, ‘‘अब्बू, आमिर और समद भी आप को बहुत याद करते हैं.’’

‘‘वे सिर्फ  मुझे ही याद कर रहे हैं या…’’

‘‘अरे नहीं अब्बू, याद तो अम्मी को भी करते हैं, मगरवह क्या है कि वे तो अपनी संगीत की महफिलों वगैरा में व्यस्त रहती होंगी. इसलिए… इसलिए,’’ कहते हुए बहू अपनी बात जारी रखने के लिए शब्द नहीं मिलने से हकलाने लगी तो, ‘‘देखता हूं, 1-2 हफ्ते  बाद आने की कोशिश करूंगा,’’ कह कर जाकिर साहब ने फोन काट दिया.

कुछ दिनों बाद वे लौट आए तो देखा कि राबिया बेगम के सब से प्यारे सितार को कागज के कफन में लपेट कर कमरे के ताख पर रख दिया गया था. उन की गैर मौजूदगी में दोनों के कमरों का इस्तेमाल किया गया था. मगर उन की किताबों और राबिया बेगम के साजों की देखभाल कतई नहीं की गई थी. यह मंजर देख कर उन का मन खिन्न हो गया.

उस दिन रात को डाइनिंग टेबल पर उन्होंने शाहिद से कहा कि वह कल उन के साथ गांव चल कर आम के बाग को ठेके पर देने के संबंध में सारी बातें समझ ले. 3-4 रोज में वे लंदन वापस लौट जाएंगे तो शाहिद बोला, ‘‘अब्बू, आप वहां जा कर क्या करेंगे. अम्मी तो अपनी महफिलों में व्यस्त रहती होंगी, आप अकेले के अकेले…’’ बात अधूरी छोड़ कर वह पता नहीं क्यों रुक गया.

शाहिद की बात सुन कर आज पहली दफा उन को लगा कि उन के बेटे जवान और समझदार ही नहीं, दुनियादार भी हो गए हैं. अब उन की नजरों में राबिया बेगम का दरजा उन की मां का नहीं, बल्कि शायद अपने बाप की दूसरी बीवी का हो गया है. मगर उन की रगों में नवाबी खानदान का खून तथा तबीयत में अदब बसा हुआ था. इसलिए गुस्से को पी कर बोले, ‘‘शाहिद, अदब से बात करो, वे तुम्हारी मां हैं. उन्होंने तुम लोगों की परवरिश के लिए अपने कैरियर को ही कुरबान नहीं किया, एक इतनी बड़ी कुरबानी दी है जिसे तुम लोग जानते भी नहीं हो और न ही उस की अहमियत को समझते हो. जानना चाहोगे?’’ उन्होंने शाहिद को घूर कर देखते हुए कहा.

‘‘चलिए, उस कुरबानी को भी आज बता ही दीजिए,’’ शाहिद की आवाज में अब भी तल्खी थी.

‘‘शाहिद, हर औरत में मां बनने की अहम ख्वाहिश होती है. उस की जिंदगी का यह एक अहम मकसद होता है. मगर राबिया बेगम ने हम से निकाह के वक्त वादा किया था कि वह तुम दोनों को ही अपनी औलाद मान कर पालेगी. अपना वचन निभाने के लिए उस ने बिना कोई अपनी औलाद पैदा किए स्टर्लाइजेशन करा लिया, जिस से उस की अपनी औलाद पैदा होने की सूरत ही न बने. यह कोई मामूली बात नहीं है और तुम, तुम…’’ कहतेकहते दबाए गुस्से के कारण उन की आवाज कांप गई.

‘‘अब्बू, मैं आप की बहुत इज्जत करता हूं. मगर कुछ बातों पर मोहूम सा परदा ही रहे तो बेहतर है. वैसे, खुदकुशी को कुरबानी का दरजा दिया जाना भी सही नहीं है,’’ शाहिद की जबान में अब भी तल्खी कायम थी.

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, साफसाफ बोलो,’’ वे बोले तो उन की आवाज में अब की बार सख्ती थी.

‘‘बात यह है अब्बू, सभी चीजें उतनी खुशगवार और बेहतर नहीं थीं जितनी आप समझते रहे हैं. आप से निकाह करते वक्त मोहतरमा राबिया बेगम की नजरों में इस महानगर में एक बड़ी जमीन में बने हमारे इस आलीशान मकान और हमारी खानदानी जमीनजायदाद का खयाल बिलकुल नहीं था, यह बात कहना बिलकुल लफ्फाजी होगी. आप से निकाह के वक्त वे तलाकशुदा थीं तो उन्हें भी एक महफूज पनाह की जरूरत थी. रही बात स्टर्लाइजेशन कराने की, तो इस की वजह कोई पेचीदा जनाना मर्ज और यह खयाल भी हो सकता है कि इस निकाह का अंजाम भी अगर तलाक हुआ तो उस हाल में उन की अपनी औलाद उन की परेशानी की वजह बन सकती है. रही हमारी परवरिश की बात, वह तो आप अगर एक आया भी रख लेते तो यह काम तो वह भी करती ही. मगर उस हालत में आप की जिंदगी तनहा कटती.’’

शाहिद का संवाद और उस के मुंह से राबिया बेगम का नाम सुन कर जाकिर अली सन्न रह गए. यह वही शाहिद है जो डाइनिंग टेबल पर आने से पहले यह पूछता था कि अम्मी ने आज क्या पकाया है. 8वें दरजे में आने तक वह रात को अकसर अपने कमरे में से निकल आता और अपनी इसी अम्मी के पास सोने की जिद करता तो राबिया उसे अपने साथ सुला लेती थीं तो उसे मेहमानखाने में रात बितानी पड़ती थी.

उस समय शाहिद अपनी इन्हीं अम्मी के ही बेहद करीब था. आईआईटी में ऐडमिशन हो जाने पर वह अपनी इन्हीं अम्मी के गले में बांहें डाल कर लिपट कर रोया था-‘अम्मी आप साथ चलो, प्लीज अम्मी, कुछ दिनों के लिए चलो. आप नहीं चलोगी तो मैं भी नहीं जाऊंगा.’ और वह तभी गया था जब राबिया बेगम उस के साथ गई थीं और उस के पास से कुछ दिनों बाद नहीं, पूरे 3 महीने बाद अपना 4 किलो वजन खो कर लौटी थीं.

शाहिद की जिद सुन कर इन्हीं अम्मी के मां की मुहब्बत से लबरेज दिल और अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया कि वह आईआईटी में नए लड़कों की रैगिंग की बातें सुन कर बेहद घबराया हुआ है और अगर वे साथ नहीं गईं तो कुछ अप्रिय हो सकता है. वे एक बड़ी यूनिवर्सिटी से छात्र और अध्यापक दोनों रूप से लंबे अरसे तक जुड़ी रही थीं. सो वे यह बात जानती थीं कि यह रैगिंग जैसा परपीड़न का घिनौना आपराधिक काम करने वाले चंद वे स्टूडैंट होते हैं जो मांबाप की प्यारभरी तवज्जुह न मिलने से उपजे आक्रोश के साथ किसी न किसी तरह के अन्य मानसिक तनाव का शिकार होते हैं.

बहुत सोचसमझ कर राबिया बेगम ने एक योजना बनाई. जिस के तहत आईआईटी में पहुंच कर वे वहां के कोऔडिनेटर से मिलीं. उन्हें अपना पूरा परिचय दिया और आने का मकसद बताया तो वे अपने स्तर पर उन्हें हर संभव सहयोग देने के लिए तैयार हो गए.

राबिया बेगम ने सब से पहले उन से उन संभावित लड़कों की जानकारी प्राप्त की जो उस साल के नवागंतुकों की रैगिंग करना अपना अधिकार समझते थे. फिर उन्होंने उन लड़कों से अलगअलग मुलाकात की. उन लड़कों से राबिया बेगम की ममताभरी लंबी बातचीत में यह बात निकल कर आई कि उन्हें कभी भी मांबाप की निकटता, उन की प्यारभरी देखभाल, स्नेहभरी डांटफटकार मिली ही नहीं थी. ज्यादातर लड़कों को तो यह भी याद नहीं था कि उन्हें मां ने कभी अपने हाथ से परोस कर खाना खिलाया था. वे तो मां के उस स्वरूप से परिचित ही नहीं थे जो गुस्सा होने पर बच्चे को मार तो देती है, मगर बाद में उस के रोने पर उस के साथ खुद भी रो लेती है.

पिता के बारे में उन का परिचय सिर्फ जरूरत पर पैसे मांगने पर पैसे देते हुए यह घुड़की, ‘अभी उस दिन तो इतने पैसे दिए थे. तुम्हारे खर्चे दिनपरदिन बढ़ते जा रहे हैं,’ देने वाले व्यक्ति के रूप में था. बच्चे इस बात से भी आक्रोशित थे कि उन के मांबाप उन पर जो खर्चा करते हैं उस का ढिंढोरा भी खूब पीटते हैं. इस के साथ, ये लड़के रैगिंग की पीड़ा झेलने के दमित आक्रोश का भी शिकार थे.

जब राबिया ने पहली बार उन15-12 लड़कों को अपने घर पर खाने को कहा तो वे भौचक्के रह गए. मगर राबिया बेगम का ममताभरा अनुरोध टाल भी नहीं सके. उन के आ जाने पर राबिया बेगम ने अपने हाथ से बना खाना परोस कर मां की तरह मनुहार कर के खिलाया तो खाना खत्म होने पर एक लड़का गुनगुनाने लगा, ‘तू प्यार का सागर है…’ लड़के की आवाज में सोज था मगर उसे आरोह और अवरोह का सही ज्ञान नहीं था. यह समझते हुए राबिया ने उसे गाने को प्रोत्साहित किया और बड़ी सावधानी से थोड़ी सी समझाइश के साथ उस से पूरा गाना गवाया.

लड़के समझ गए कि उन्हें संगीत की अच्छी जानकारी है और वे बच्चों की तरह उन से गाना सुनाने की जिद करने लगे तो उन्होंने, ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी…’ गजल सुनाई. राबिया बेगम की सुरीली आवाज में पेश की गई गजल जब खत्म हुई तो संगीत की जानकारी रखने वाले ही नहीं, सभी लड़के बेहद भावुक हो गए और एक तो उन से ‘हाय अम्मी, आप इतना अच्छा गा भी सकती हो,’ कह कर उन से बच्चे की तरह लिपट गया.

इस के बाद तो राबिया बेगम ने अपना प्रोग्राम तय कर लिया था. वे रोज उन लड़कों को घर पर बुला लेती थीं, बल्कि कुछ दिन बीतते तो ज्यादातर लड़के उन्हें शरारती बच्चों की तरह घेरे रहने लगे थे. अब इन्हीं दमित आक्रोश के शिकार लड़कों ने घर की सफाई वगैरा से ले कर खाना बनाने और बरतन साफ करने तक में सामूहिक सहयोग करना शुरू कर दिया था. सब मिल कर खाना बनाते, फिर सहभोज होता था.

राबिया बेगम की ममता और व्यवहारमाधुर्य ने उन्हें रिश्तों की अहमियत सिखा दी थी. शुरू में जब लड़कों ने उन्हें मैडम कहा तो वे बोली थीं, ‘भई, मैं तुम्हारी टीचर थोड़े ही हूं.’ तब कुछ लड़कों ने उन्हें ‘आंटी’ कहा तो वे बोलीं, ‘यह आंटी कौन सा रिश्ता होता है. हमारी समझ में नहीं आया और अपन तो पूरी तरह देसी लोग हैं न. तो भई, हम किसी की आंटी तो नहीं बनेंगे.’ फिर लड़कों की दुविधा भांपते हुए उन्होंने कहा था, ‘देखो भई, मेरी उम्र तुम्हारी मां के बराबर है. मगर मां तो मां ही होती है.’ परिवार में मां के बाद काकी, ताई, मौसी का भी मां जैसा ही रिश्ता होता है, इसलिए मेरी उम्र के लिहाज से तुम मुझे काकी, ताई, मौसी वगैरा में से जो भी अच्छा लगे, कह सकते हो. वरना मेरा नाम राबिया है, इस नाम से भी बुला सकते हो, मगर आंटी मत कहना. पता नहीं क्यों यह आंटी मुझे अजीब लिजलिजी सी लगती है, जिस में न जाने कौनकौन छिपी बैठी हैं.’ उन की बात सुन कर लड़के एक बार तो हंस पड़े, फिर कुछ लड़कों ने उन्हें जिद कर के अम्मी, मम्मी कहना शुरू कर दिया और बाकी काकी, मौसी वगैरा कहने लगे थे तो उन्हें अम्मी कहने वाले लड़कों से शाहिद के मुंह से बेअख्तियार निकल गया, ‘जनाब, आप हमारी अम्मी के प्यार में हमारे रकीब बन रहे हैं.’ यह सारा वाकेआ पहली छुट्टियों में घर आने पर इसी शाहिद ने खुद अपने मुंह से सुनाया था.

राबिया बेगम के व्यवहार से लड़कों की संख्या में रोज इजाफा हो जाता था. अब ज्यादातर नवागंतुक भी सीनियर्स का सामीप्य राबिया बेगम की देखभाल में पाने के लिए आने लगे थे. राबिया बेगम तो सभी को अपने बच्चों के बड़े कुटुंब में शामिल कर लेती थीं, मगर 2 महीने लगातार इतने सारे लड़कों के बनाए परिवार के लिए खाने की व्यवस्था कराने, सब को एकजुट बनाए रख कर शाहिद की सुरक्षा के लिए रैगिंग विरोधी अभियान चलाए रखने की कोशिश में रातदिन मेहनत करने से राबिया बेगम का स्वास्थ्य काफी गिर गया. फिर भी उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि इस अवधि में उन्होंने शाहिद के लिए जो दोस्ताना माहौल बना दिया है उस से शाहिद अब इस संस्थान से डिगरी लेने तक रैगिंग वगैरा से महफूज रहेगा.

इस तरह 8-10 सप्ताह बीत गए. वह दिन आ गया जब नए छात्रों को पुरानों के साथ सामंजस्य बिठाने वाला फ्रैशर्स डे मनाया जाता है. पुराने यानी सीनियर्स और जूनियर्स का सहभोज होता है और रैगिंग पर घोषित विराम लग जाता है. अब की बार फ्रैशर्स डे राबिया बेगम ने इस तरह आयोजित किया कि वह मात्र मस्तीभरा सहभोज न रह कर एक विराट सांस्कृतिक कार्यक्रम बन गया. फ्रैशर्स डे के इस जबरदस्त कारनामे का पता संस्थान के प्रिंसिपल के पत्र से हुआ, जिस में उन्हें बधाई और धन्यवाद देते हुए लिखा था कि यह साल उन के संस्थान के पिछले कई दशकों के इतिहास में यादगार बन गया है क्योंकि इस साल इस संस्थान में रैगिंग की कोई घटना नहीं हुई और फ्रैशर्स डे के अभूतपूर्व सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए राबियाजी को आगे भी आना होगा.

उन दिनों के शाहिद और आज के शाहिद की तुलना करते हुए जाकिर साहब डाइनिंग टेबल पर खामोश बैठे थे, सभी इंतजार में थे कि वे खाना शुरू करें तो खाना खाएं. मगर जाकिर साहब यह कह कर उठ गए, ‘‘शुक्रिया साहबजादे, आज आप ने हमें खुदकुशी और कुरबानी में फर्क का इल्म करा दिया.’’ और उन्होंने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. काफी सोचविचार कर उन्होंने एक फैसला कर लिया.

घर के लोगों ने सुबह उठ कर देखा कि जाकिर साहब और राबिया बेगम के कमरों के दरवाजों पर ताला लगा हुआ है और जाकिर साहब घर में नहीं हैं. ऐसा तो कभी नहीं हुआ. जाकिर साहब और राबिया बेगम घर के बाहर भी जाते थे तब भी कमरों के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. एक दफा जाकिर साहब ने बेगम से कहा था, ‘बेगम, कम से कम दरवाजा बंद कर के कुंडी तो लगा दिया करो’ तो राबिया बेगम ने जवाब दिया था, ‘हमारे कमरों में ऐसा क्या रखा है जिसे अपने ही बच्चों की नजरों से परदा कराया जाए.’

Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 2

‘‘फिर सब का अलगअलग कार्यक्रम रहता है,’’ केशव ने अभिनव की बात काटी, ‘‘यह सिलसिला कई साल से चल रहा है और अब भी चलेगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब मैं भी छुट्टी का दिन अपनी मर्जी से गुजारा करूंगा. पहले यह सोच कर खाने के समय पर घर पर रहता था कि तुम में से जो बाहर नहीं गया है वह क्या खाएगा लेकिन अब यह देखने को सब की बीवियां हैं, सो मैं भी अब छुट्टी के रोज अपनी उमर वालों के साथ मौजमस्ती और लंचडिनर बाहर किया करूंगा.’’

‘‘बिलकुल, पापा, बहुत जी लिए… आप हमारे लिए. अब अपनी पसंद की जिंदगी जीने का आप को पूरा हक है,’’ प्रणव बोला.

‘‘लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि पापा बाहर लंचडिनर कर के अपनी सेहत खराब करें,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘हम में से कोई तो घर पर रहा करेगा ताकि पापा जब घर आएं तो उन्हें घर खाली न मिले.’’

‘‘हम इस बात का खयाल रखेंगे,’’ जूही बोली, ‘‘वैसे भी हर सप्ताह सारा दिन बाहर कौन रहेगा?’’

‘‘और कोई रहे न रहे मैं तो रहा करूंगा भई,’’ केशव हंसे.

‘‘यह तो बताएंगे न पापा कि जाएंगे कहां?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं, मोबाइल ले कर जाऊंगा, तुझे अगर मेरी उंगली की जरूरत पड़े तो फोन कर लेना,’’ केशव प्रिया की ओर मुड़े, ‘‘प्रिया बेटी, इसे अब अपना पल्लू थमा ताकि मेरी उंगली छोड़े.’’

लेकिन कुछ रोज बाद प्रिया ने खुद ही उन की उंगली थाम ली. एक रोज जब रात के खाने के बाद वह घूमने जा रहे थे तो प्रिया भागती हुई आई बोली, ‘‘पापाजी, मैं भी आप के साथ घूमने चलूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप सड़क पर अकेले घूमते हैं और मैं छत पर तो क्यों न हम दोनों साथ ही टहलें?’’ प्रिया ने उन के साथ चलते हुए कहा.

‘‘मगर तुम छत पर अकेली क्यों घूमती हो?’’

‘‘और क्या करूं पापाजी? प्रणव को तो 2-3 घंटे पढ़ाई करनी होती है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती, सो जब तक टहलतेटहलते थक नहीं जाती तब तक छत पर घूमती रहती हूं.’’

‘‘टीवी क्यों नहीं देखतीं?’’

‘‘अकेले क्या देखूं, पापाजी? सब लोग 1-2 सीरियल देखने तक रुकते हैं फिर अपनेअपने कमरों में चले जाते हैं.’’

‘‘अब तो बस कुछ ही महीने रह गए हैं प्रणव की परीक्षा में,’’ केशव ने दिलासे के स्वर में कहा, ‘‘तुम चाहो तो इस दौरान मायके हो आओ.’’

‘‘नहीं, पापाजी, उस की जरूरत नहीं है. बस, रात को यह थोड़ा सा वक्त अकेले गुजारना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब इस समय आप के साथ घूमा करूंगी, गपें मारते हुए.’’

‘‘मैं बहुत तेज चलता हूं. थक जाओगी.’’

‘‘चलिए, देखते हैं.’’

कुछ दूर जाने के बाद, एक कौटेज में से एक प्रौढ़ महिला निकलती हुई दिखाई दीं. प्रिया पहचान गई. मालिनी नामबियार थीं, जो उस की शादी की दावत में आई थीं तब पापाजी ने बताया था कि ये सब भाई आज जो कुछ भी हैं मालिनीजी की कृपा से हैं. यह इन की गणित की अध्यापिका और स्कूल की प्राचार्या हैं, बहुत मेहनत की है इन्होंने इन सब पर.

मगर पापाजी ने जिस कृतज्ञता से आभार प्रकट किया था, किसी भी भाई ने मालिनीजी की खातिर में उतनी रुचि नहीं दिखाई थी.

‘‘मगर कौफी यहां कहां मिलेगी?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मेरे घर पर.’’

प्रिया ने केशव की ओर देखा, वह बगैर कुछ कहे मालिनी के पीछे उस के घर में चले गए. जब मालिनीजी कौफी लाने अंदर गईं तो प्रिया ने पूछा, ‘‘आप पहले भी यहां आ चुके हैं, पापा?’’

केशव सकपकाए.

‘‘बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में आना पड़ता था. इसी तरह जानपहचान हो गई तो आनाजाना बना हुआ है.’’

‘‘आंटी ने शादी नहीं की?’’

‘‘अभी तक तो नहीं.’’

प्रिया ने कहना चाहा कि अब इस उम्र में क्या करेंगी लेकिन तब तक मालिनीजी कौफी की ट्रौली धकेलती हुई आ गईं. जितनी जल्दी वह कौफी लाई थीं उस से लगता था कि तैयारी पहले से थी. प्रिया को कच्चे केले के चिप्स बहुत पसंद आए.

‘‘किसी छुट्टी के दिन आ जाना, बनाना सिखा दूंगी,’’ मालिनी ने कहा.

‘‘तरीका बता देने से भी चलेगा, आंटी. अब तो रोज घूमते हुए आप से मुलाकात हुआ करेगी सो किसी रोज पूछ लूंगी,’’ प्रिया ने चिप्स खाते हुए कहा.

मालिनी ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘तुम रोज सैर करने आया करोगी?’’

‘‘हां, आंटी?’’

शक की सूई – भाग 2 : जब पति ने किया पत्नी का पीछा

जयंती की शादी हुए 22 साल हो चुके थे और उस के 18 और 14 साल के 2 बेटे थे. जिंदगी के कितने मौसम बीत गए, पर उस के पति प्रमोद को न कोलियरी कैंटीन में चाय पीते कभी किसी ने देखा, न वह कभी बसंती होटल में घुघनीचोप खाते मिला. जयंती को औफिस गेट के अंदर उतार कर नाक की सीध में वापस घर चला जाता था, फिर ठीक 2 बजे उस की बाइक औफिस गेट के बाहर खड़ी नजर आती थी.

एक दिन अचानक प्रमोद की बाइक की दिशा में बदलाव हुआ. जयंती को औफिस गेट के अंदर छोड़ पर वापस घर लौट जाने वाली बाइक आज फिल्टर प्लांट की ओर मुड़ गई थी. अगले दिन से वही बाइक कभी कैंटीन के सामने खड़ी नजर आने लगी, तो कभी बसंती होटल के सामने.

जिस आदमी ने बसंती होटल में कभी कदम नहीं रखा था, वही अब उस होटल में घुघनीचोप गपागप खाने लगा था मानो बरसों का भूखा हो.

बसंती अंदर से बेहद खुश थी. उसे नया मालदार ग्राहक मिल गया था, ‘‘और कुछ खाने का मन करे तो फोन कर दीजिएगा, घर जैसा स्वाद मिलेगा. यह हमारा नंबर है, रख लीजिए…’’ बसंती ने ब्लाउज के भीतर से एक कागज की चिट निकाल प्रमोद के हाथ में थमा दी थी.

प्रमोद जयंती का पति है, यह बसंती को पता था. प्रमोद की बाइक की दिशा का बदलना और खुद प्रमोद में यह बदलाव अचानक से नहीं हुआ था. अचानक कुछ होता भी नहीं है. हर नर के पीछे एक नारी और हर शक के पीछे एक बीमारी वाली बात थी.

एक दिन जयंती को औफिस छोड़ कर प्रमोद घर लौट रहा था हमेशा की तरह, तभी रास्ते में उसे एक आदमी मिल गया. उस ने इशारे से प्रमोद को रुकने को कहा, फिर पास जा कर पूछ बैठा, ‘‘आप जयंती के पति हैं न?’’

‘‘हां, पर तुम कौन हो?’’

‘‘मेरा नाम रघु है.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘भैया, भाभी पर नजर रखो. बड़े बाबू राजेश और उन के संबंधों को ले कर औफिस में बड़े गरमागरम चर्चे हैं.’’

‘‘क्या बकते हो, सुबहसुबह पी ली है क्या? होश में तो हो?’’ प्रमोद ने रघु का कौलर पकड़ लिया, ‘‘मेरी पत्नी के बारे में ऐसी बात कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’

रघु ने अपना कौलर छुड़ाते हुए

कहा, ‘‘मैं तो होश में हूं भैया, लेकिन जब सचाई जान लोगे तो तुम बेहोश

हो जाओगे.’’

‘‘अगर यह बात झूठ निकली, तो तुम्हें ढूंढ़ कर पीटूंगा.’’

‘‘जरूर पीटना, पर पहले अपनी पत्नी का पता करो,’’ इसी के साथ रघु खिसक लिया था. आज वह बेहद खुश था. महीनों से मन में जो गुबार था, वह बाहर निकल गया था. आज उस ने उस बात का बदला ले लिया था.

दरअसल, एक दिन सुबह रघु जयंती को कह बैठा था, ‘‘मैडम, कभीकभी आप बहुत जल्दी आ जाती हैं, कोई खास काम रहता होगा?’’

औफिस में रघु की पत्नी के बारे में सभी को पता था. रघु हर औरत में अपनी पत्नी का सा रूप देखने की ख्वाहिश लिए घूमता था, इसीलिए कभीकभी उसे करारा जवाब मिल जाता था.

‘‘तुम अपनी औकात में रहो और दूसरों की जासूसी करना छोड़ कर अपनी पत्नी की निगरानी करो… समझे तुम…’’ जयंती का यह उसी तरह का ताना था, जैसा महाभारत के एक प्रसंग में द्रौपदी ने दुर्योधन से कहा था कि अंधे का बेटा अंधा ही होता है. बाकी महाभारत का पता है आप को. वहां शकुनि था, यहां रघु शकुनि बनना चाह रहा था.

प्रमोद सोच में पड़ गया, पर किसी नतीजे पर पहुंच नहीं सका. उस ने रघु को तलाशा. पता चला कि पिछले 2 दिनों से वह काम पर ही नहीं आ रहा था.

यह भी पता चला कि रघु औफिस का चपरासी है और एक नंबर का पियक्कड़ भी. उस की खुद की पत्नी उस के बस में नहीं है. गांव में रहती थी, तब उस ने अपने 2 देवरों को फांस रखा था. रात को वह दोनों के बीच में सोती और रघु शराब पी कर रातभर आंगन में पड़ा रहता था. कुछ कहने पर पत्नी उसे देवरों से दौड़ादौड़ा कर पिटवाती थी.

शहर आने पर देवरों का संग तो छूटा, पर यहां भी उस ने एक बौयफ्रैंड रख लिया. कमाई खाए पति की, अंगूठा चूसे पड़ोसी का.

उस दिन के बाद से ही प्रमोद कुछ उखड़ाउखड़ा सा रहने लगा था. जयंती को औफिस में छोड़ वापस घर जाने का सिलसिला उस ने तोड़ दिया था और औफिस कैंपस के बाहर चारदीवारी से सटे गुलमोहर तो कभी लिप्टस के पेड़ों पर बंदर की तरह चढ़ कर बैठ जाता

और औफिस के बरामदे की ओर बगुले की माफिक टकटकी लगाए छिप कर देखता रहता.

लोग प्रमोद की ओर देखते और हंसते हुए आगे निकल लेते. उसे भरम होता कि कोई उसे नहीं देख रहा है, उलटे वह लोगों को अपनी ओर देखते हुए पा कर खुद को पेड़ की डालियों में छिपाने की नाकाम कोशिश करने लगता था.

औफिस आ रहे करमचंद बाबू ने एक दिन प्रमोद से कहा था, ‘‘हर रोज बंदरों की तरह पेड़ पर चढ़ कर क्या देखते हो?’’

‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो न, कौन क्या कर रहा है, उस से तुम्हारा क्या लेनादेना है? अपना रास्ता नापो,’’ एकबारगी प्रमोद झुंझला उठा था.

‘‘क्या हुआ सर, मूड उखड़ा हुआ लग रहा है?’’ सामने से आ रहे सफाई मजदूर पूरनराम ने पूछा था.

‘‘अजीब सनकी लगता है…’’

‘‘कौन… वह जो पेड़ पर चढ़ा हुआ है? उसे मैं कभीकभी कैंटीन की तरफ भी घूमते हुए देखता हूं. एक दिन रघु के साथ बैठ कर कैंटीन में चाय पीते देखा, पर कभी खुश नहीं लग रहा था. जाने क्याक्या सोचता रहता है…’’

अंतहीन- भाग 2: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

‘‘मैं और गुंजन सूर्यास्त देख कर पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे कि अचानक चीखतेचिल्लाते लोग ‘भागो, बम फटने वाला है’ हमें धक्का देते हुए नीचे भागे. मैं किनारे की ओर थी सो रेलिंग पर जा कर गिरी लेकिन गुंजन को भीड़ की ठोकरों ने नीचे ढकेल दिया. उसे लुढ़कता देख कर मैं रेलिंग के सहारे नीचे भागी. एक सज्जन ने, जो हमारे साथ सूर्यास्त देख कर हम से आगे नीचे उतर रहे थे, गुंजन को देख लिया और लपक कर किसी तरह उस को भीड़ से बाहर खींचा. तब तक गुंजन बेहोश हो चुका था. उन्हीं सज्जन ने हम लोगों को अपनी गाड़ी में मैत्री अस्पताल पहुंचाया.’’

‘‘गुंजन की गाड़ी तो आफिस में खड़ी है, तेरी गाड़ी कहां है?’’ एक युवती ने पूछा.

‘‘प्लैनेटोरियम की पार्किंग में…’’

‘‘उसे वहां से तुरंत ले आ तनु, लावारिस गाड़ी समझ कर पुलिस जब्त कर सकती है,’’ एक युवक बोला.

‘‘अफवाह थी सो गाड़ी तो खैर जब्त नहीं होगी, फिर भी प्लैनेटोरियम बंद होने से पहले तो वहां से लानी ही पड़ेगी,’’ राघव ने कहा.

‘‘मैत्री से गुंजन का कोट भी लेना है, उस में उस का पर्स, मोबाइल आदि सब हैं मगर मैं कैसे जाऊं?’’ तनु ने असहाय भाव से कहा, ‘‘तुम्हीं लोग ले आओ न, प्लीज.’’

‘‘लेकिन हमें तो कोई गुंजन का सामान नहीं देगा और हो सकता है गाड़ी के बारे में भी कुछ पूछताछ हो,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘तुम्हें भी साथ चलना पड़ेगा, तनु.’’

‘‘गुंजन को इस हाल में छोड़ कर?’’ तनु ने आहत स्वर में पूछा.

‘‘गुंजन को तुम ने सही हाथों में सौंप दिया है तनु और फिलहाल सिवा डाक्टरों के उस के लिए कोई और कुछ नहीं कर सकता. तुम्हारी परेशानी और न बढ़े इसलिए तुम गुंजन का सामान और अपनी गाड़ी लेने में देर मत करो,’’ राघव ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं दोनों काम कर के 15-20 मिनट में आ जाऊंगी.’’

‘‘यहां आ कर क्या करोगी तनु? न तो तुम अभी गुंजन से मिल सकती हो और न उस के इलाज के बारे में कोई निर्णय ले सकती हो. अपनी चोटों पर भी दवा लगवा कर तुम घर जा कर आराम करो,’’ राघव ने कहा, ‘‘यहां मैं और प्रभव हैं ही. रजत, तू इन लड़कियों के साथ चला जा और सीमा, मिन्नी तुम में से कोई आज रात तनु के साथ रह लो न.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो राघव, मगर तनु को गुंजन के हाल से बराबर सूचित करते रहना,’’ कह कर दोनों युवतियां और रजत तनु को ले कर बगैर रामदयाल की ओर देखे चले गए.

गुंजन की चिंता में त्रस्त रामदयाल सोचे बिना न रह सके कि गुंजन के बाप का तो खयाल नहीं, मगर उस लड़की की चिंता में सब हलकान हुए जा रहे हैं. उन के दिल में तो आया कि वह राघव और प्रभव से भी जाने को कहें मगर इन हालात में न तो अकेले रहने की हिम्मत थी और फिलहाल न ही किसी रिश्तेदार या दोस्त को बुलाने की, क्योंकि सब का पहला सवाल यही होगा कि गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर शाम के समय क्या कर रहा था जबकि गुंजन ने सब को कह रखा था कि 6 बजे के बाद वह बौस के साथ व्यस्त होता है इसलिए कोई भी उसे फोन न किया करे.

रामदयाल तो समझ गए थे कि कहां किस बौस के साथ, वह व्यस्त होता था मगर लोगों को तो कोई माकूल वजह ही बतानी होगी जो सोचने की मनोस्थिति में वह अभी नहीं थे.

तभी उन्हें वरिष्ठ डाक्टर ने मिलने को बुलाया. रौंदे जाने और लुढ़कने के कारण गुंजन को गंभीर अंदरूनी चोटें आई थीं और उस की बे्रन सर्जरी फौरन होनी चाहिए थी. रामदयाल ने कहा कि डाक्टर, आप आपरेशन की तैयारी करें, वह अभी एटीएम से पैसे निकलवा कर काउंटर पर जमा करवा देते हैं.

प्रभव उन्हें अस्पताल के परिसर में बने एटीएम में ले गया. जब वह पैसे निकलवा कर बाहर आए तो प्रभव किसी से फोन पर बात कर रहा था… ‘‘आफिस के आसपास के रेस्तरां में कब तक जाते यार? उन दोनों को तो एक ऐसी सार्वजनिक मगर एकांत जगह चाहिए जहां वे कुछ देर शांति से बैठ कर एकदूसरे का हाल सुनसुना सकें. नेहरू प्लैनेटोरियम आफिस के नजदीक भी है और उस के बाहर रूमानी माहौल भी. शादी अभी तो मुमकिन नहीं है…गुंजन की मजबूरियों के कारण…विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है…हां, सीमा या मिन्नी से बात कर ले.’’

उन्हें देख कर प्रभव ने मोबाइल बंद कर दिया.

पैसे जमा करवाने के बाद राघव और प्रभव ने उन्हें हाल में पड़ी कुरसियों की ओर ले जा कर कहा, ‘‘अंकल, आप बैठिए. हम गुंजन के बारे में पता कर के आते हैं.’’

मुझे यकीन है : शौहर को तरसती गुलशन

पढ़ीलिखी गुलशन की शादी मसजिद के मुअज्जिन हबीब अली के बेटे परवेज अली से धूमधाम से हुई. लड़का कपड़े का कारोबार करता था. घर में जमीनजायदाद सबकुछ था.

गुलशन ब्याह कर आई तो पहली रात ही उसे अपने मर्द की असलियत का पता चल गया. बादल गरजे जरूर, पर ठीक से बरस नहीं पाए और जमीन पानी की बूंदों के लिए तरसती रह गई. वलीमा के बाद गुलशन ससुराल दिल में मायूसी का दर्द ले कर लौटी.

खानदानी घर की पढ़ीलिखी लड़की होने के बावजूद सीधीसादी गुलशन को एक ऐसे आदमी को सौंप दिया गया, जो सिर्फ चारापानी का इंतजाम तो करता, पर उस का इस्तेमाल नहीं कर पाता था.

गुलशन को एक हफ्ते बाद हबीब अली ससुराल ले कर आए. उस ने सोचा कि अब शायद जिंदगी में बहार आए, पर उस के अरमान अब भी अधूरे ही रहे.

मौका पा कर एक रात को गुलशन ने अपने शौहर परवेज को छेड़ा, ‘‘आप अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से क्यों नहीं कराते?’’

‘‘तुम चुपचाप सो जाओ. बहस न करो. समझी?’’ परवेज ने कहा.

गुलशन चुपचाप दूसरी तरफ मुंह कर के अपने अरमानों को दबा कर सो गई. समय बीतता गया. ससुराल से मायके आनेजाने का काम चलता रहा. इस बात को दोनों समझ रहे थे, पर कहते किसी से कुछ नहीं थे. दोनों परिवार उन्हें देखदेख कर खुश होते कि उन के बीच आज तक तूतूमैंमैं नहीं हुई है.

इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिस ने गुलशन की जिंदगी बदल दी. मसजिद में एक मौलाना आ कर रुके. उन की बातचीत से मुअज्जिन हबीब अली को ऐसा नशा छाया कि वे उन के मुरीद हो गए. झाड़फूंक व गंडेतावीज दे कर मौलाना ने तमाम लोगों का मन जीत लिया था. वे हबीब अली के घर के एक कमरे में रहने लगे.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी के  2 साल हो गए, पर मुझे दादा बनने का सुख नहीं मिला. कहो तो मौलाना से तावीज डलवा दूं, ताकि इस घर को एक औलाद मिल जाए?’’ हबीब अली ने अपनी बहू गुलशन से कहा.

गुलशन समझदार थी. वह ससुर से उन के बेटे की कमी बताने में हिचक रही थी. चूंकि घर में ससुर, बेटे, बहू के सिवा कोई नहीं रहता था, इसलिए वह बोली, ‘‘बाद में देखेंगे अब्बूजी, अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

हबीब अली ने कुछ नहीं कहा.

मुअज्जिन हबीब अली के घर में रहते मौलाना को 2 महीने बीत गए, पर उन्होंने गुलशन को देखा तक नहीं था. उन के लिए सुबहशाम का खाना खुद हबीब अली लाते थे.

दिनभर मौलाना मसजिद में इबादत करते. झाड़फूंक के लिए आने वालों को ले कर वे घर आते, जो मसजिद के करीब था. हबीब अली अपने बेटे परवेज के साथ दुकान में रहते थे. वे सिर्फ नमाज के वक्त घर या मसजिद आते थे.

मौलाना की कमाई खूब हो रही थी. इसी बहाने हबीब अली के कपड़ों की बिक्री भी बढ़ गई थी. वे जीजान से मौलाना को चाहते थे और उन की बात नहीं टालते थे.

एक दिन दोपहर के वक्त मौलाना घर आए और दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘जी, कौन है?’’ गुलशन ने अंदर से ही पूछा.

‘‘मैं मौलाना… पानी चाहिए.’’

‘‘जी, अभी लाई.’’

गुलशन पानी ले कर जैसे ही दरवाजा खोल कर बाहर निकली, गुलशन के जवां हुस्न को देख कर मौलाना के होश उड़ गए. लाजवाब हुस्न, हिरनी सी आंखें, सफेद संगमरमर सा जिस्म…

मौलाना गुलशन को एकटक देखते रहे. वे पानी लेना भूल गए.

‘‘जी पानी,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘लाइए,’’ मौलाना ने मुसकराते हुए कहा.

पानी ले कर मौलाना अपने कमरे में लौट आए, पर दिल गुलशन के कदमों में दे कर. इधर गुलशन के दिल में पहली बार किसी पराए मर्द ने दस्तक दी थी. मौलाना अब कोई न कोई बहाना बना कर गुलशन को आवाज दे कर बुलाने लगे. इधर गुलशन भी राह ताकती कि कब मौलाना उसे आवाज दें.

एक दिन पानी देने के बहाने गुलशन का हाथ मौलाना के हाथ से टकरा गया, उस के बाद जिस्म में सनसनी सी फैल गई. मुहब्बत ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था.

ऊपरी मन से मौलाना ने कहा, ‘‘सुनो मियां हबीब, मैं कब तक तुम्हारा खाना मुफ्त में खाऊंगा. कल से मेरी जिम्मेदारी सब्जी लाने की. आखिर जैसा वह तुम्हारा बेटा, वैसा मेरा भी बेटा हुआ. उस की बहू मेरी बहू हुई. सोच कर कल तक बताओ, नहीं तो मैं दूसरी जगह जा कर रहूंगा.’’

मुअज्जिन हबीब अली ने सोचा कि अगर मौलाना चले गए, तो इस का असर उन की कमाई पर होगा. जो ग्राहक दुकान पर आ रहे हैं, वे नहीं आएंगे. उन को जो इज्जत मौलाना की वजह से मिल रही है, वह नहीं मिलेगी.

इस समय पूरा गांव मौलाना के अंधविश्वास की गिरफ्त में था और वे जबरदस्ती तावीज, गंडे, अंगरेजी दवाओं को पीस कर उस में राख मिला कर इलाज कर रहे थे. हड्डियों को चुपचाप हाथों में रख कर भूतप्रेत निकालने का काम कर रहे थे.

बापबेटे दोनों ने मौलाना से घर छोड़ कर न जाने की गुजारिश की. अब मौलाना दिखाऊ ‘बेटाबेटी’ कह कर मुअज्जिन हबीब अली का दिल जीतने की कोशिश करने लगे.

नमाज के बाद घर लौटते हुए हबीब अली ने मौलाना से कहा, ‘‘जनाब, आप इसे अपना ही घर समझिए. आप की जैसी मरजी हो वैसे रहें. आज से आप घर पर ही खाना खाएंगे, मुझे गैर न समझें.’’

मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गई. अब वे ज्यादा वक्त घर पर गुजारने लगे. बाहर के मरीजों को जल्दी से तावीज दे कर भेज देते. इस काम में अब गुलशन भी चुपकेचुपके हाथ बंटाने लगी थी. तकरीबन 6 महीने का समय बीत चुका था. गुलशन और मौलाना के बीच मुहब्बत ने जड़ें जमा ली थीं.

एक दिन मौलाना ने सोचा कि आज अच्छा मौका है, गुलशन की चाहत का इम्तिहान ले लिया जाए और वे बिस्तर पर पेट दर्द का बहाना बना कर लेट गए.

‘‘मेरा आज पेट दर्द कर रहा है. बहुत तकलीफ हो रही है. तुम जरा सा गरम पानी से सेंक दो,’’ गुलशन के सामने कराहते हुए मौलाना ने कहा.

‘‘जी,’’ कह कर वह पानी गरम करने चली गई. थोड़ी देर बाद वह नजदीक बैठ कर मौलाना का पेट सेंकने लगी. मौलाना कभीकभी उस का हाथ पकड़ कर अपने पेट पर घुमाने लगे.

थोड़ा सा झिझक कर गुलशन मौलाना के पेट पर हाथ फिराने लगी. तभी मौलाना ने जोश में गुलशन का चुंबन ले कर अपने पास लिटा लिया. मौलाना के हाथ अब उस के नाजुक जिस्म के उस हिस्से को सहला रहे थे, जहां पर इनसान अपना सबकुछ भूल जाता है.

आज बरसों बाद गुलशन को जवानी का वह मजा मिल रहा था, जिस के सपने उस ने संजो रखे थे. सांसों के तूफान से 2 जिस्म भड़की आग को शांत करने में लगे थे. जब तूफान शांत हुआ, तो गुलशन उठ कर अपने कमरे में पहुंच गई.

‘‘अब्बू, मुझे यकीन है कि मौलाना के तावीज से जरूर कामयाबी मिलेगी,’’ गुलशन ने अपने ससुर हबीब अली से कहा.

‘‘हां बेटी, मुझे भी यकीन है.’’

अब हबीब अली काफी मालदार हो गए थे. दिन काफी हंसीखुशी से गुजर रहे थे. तभी वक्त ने ऐसी करवट बदली कि मुअज्जिन हबीब अली की जिंदगी में अंधेरा छा गया.

एक दिन हबीब अली अचानक किसी जरूरी काम से घर आए. दरवाजे पर दस्तक देने के काफी देर बाद गुलशन ने आ कर दरवाजा खोला और पीछे हट गई. उस का चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. बदन में कंपकंपी आ गई थी.

हबीब अली ने अंदर जा कर देखा, तो गुलशन के बिस्तर पर मौलाना सोने का बहाना बना कर चुपचाप मुंह ढक कर लेटे थे.

यह देख कर हबीब अली के हाथपैर फूल गए, पर वे चुपचाप दुकान लौट आए.

‘‘अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है,’’ कहते हुए गुलशन मौलाना के सीने से लिपट गई.

‘‘कुछ नहीं होगा. हम आज ही रात में घर छोड़ कर नई दुनिया बसाने निकल जाएंगे. मैं शहर से गाड़ी का इंतजाम कर के आता हूं. तुम तैयार हो न?’’

‘‘मैं तैयार हूं. जैसा आप मुनासिब समझें.’’

मौलाना चुपचाप शहर चले गए. मौलाना को न पा कर हबीब अली ने समझा कि उन के डर की वजह से वह भाग गया है.

सुबह हबीब अली के बेटे परवेज ने बताया, ‘‘अब्बू, गुलशन भी घर पर नहीं है. मैं ने तमाम जगह खोज लिया, पर कहीं उस का पता नहीं है. वह बक्सा भी नहीं है, जिस में गहने रखे हैं.’’

हबीब अली घबरा कर अपनी जिंदगी की कमाई और बहू गुलशन को खोजने में लग गए. पर गुलशन उन की पहुंच से काफी दूर जा चुकी थी, मौलाना के साथ अपना नया घर बसाने.

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