
लेखक- सुकेश कुमार श्रीवास्तव
पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : शरद के एक दूर के साले ने उसे पान खाने का चसका लगा दिया. पहले मीठा, फिर तंबाकू वाला. धीरेधीरे शरद गुटखा खाने लगा. एक दिन मुंह में छाला हुआ तो डाक्टर ने उसे चेतावनी देते हुए दवा लिख दी. शरद को लगा कि उसे कैंसर हो गया है. इस से उस की हालत पतली हो गई.. अब पढ़िए आगे…
‘‘पर, यह छिपेगा कैसे महेंद्रजी? आपरेशन होगा. आपरेशन और दवा के खर्चों का बिल औफिस से पास होगा. पता तो चल ही जाएगा न.’’
‘‘अरे, कंपनी को कैसे पता चलेगा?’’
‘‘वह डैथ सर्टिफिकेट होता है न. कंपनी डैथ सर्टिफिकेट तो मांगेगी न?’’
‘‘तो…?’’
‘‘उस में तो मौत की वजह लिखी होती है न. उस में अगर कैंसर लिखा होगा तो समस्या हो सकती है न.’’
‘‘अरे, आप इतनी फिक्र मत कीजिए भाई. आप के डैथ सर्टिफिकेट में हम लोग कुछ और लिखा देंगे. इतना तो हम लोग कर ही लेते हैं. अब जाइए, मैं कुछ काम कर लूं.’’
शरद चिंतित सा उठ गया. पीछे से महेंद्रजी ने आवाज दी, ‘‘शरद बाबू, एक बात सुनिए.’’
शरद पलट गया, ‘‘जी…’’
‘‘आप पान-गुटखा खाना छोड़ दीजिए. अगर कौज औफ डैथ में कोई और वजह लिखी होगी तो क्लेम में कोई परेशानी नहीं आएगी. समझ गए न…’’
‘‘जी, समझ गया. छोड़ दिया है.’’
आधे घंटे के अंदर पूरे औफिस में खबर फैल गई कि शरद को कैंसर हो गया है.
चपरासी ने आ कर शरद को बताया कि इंजीनियर साहब उसे बुला रहे हैं.
शरद उन के केबिन में गया. उन्होंने इशारे से बैठने को कहा.
‘‘कौन सी स्टेज है?’’ उन्होंने गुटखा थूक कर कहा.
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‘‘जी, अभी तो कंफर्म ही नहीं है. टैस्ट होना है.’’
‘‘इस का पता ही लास्ट स्टेज पर चलता है. आप लोग बड़ी गलती करते हैं. निगल जाते हैं. अब मुझे देखिए. जब से पान मसाला चला है, खा रहा हूं, पर मजाल है कि कभी निगला हो.
‘‘कभीकभी हो जाता है.’’
‘‘तभी तो यह परेशानी होती है. मैं आप की फाइल देख रहा था. आप की पत्नी का नाम रजनी है न?’’
‘‘जी, हां.’’
‘‘वह ग्रेजुएट है न?’’
‘‘जी. साइंस में ग्रेजुएट है.’’
‘‘बहुत बढि़या. कंप्यूटर का कोई कोर्स किया है क्या?’’
‘‘नहीं साहब. वह तो उस ने नहीं किया है.’’
‘‘करा दीजिए. 3 महीने का कोर्स करा दीजिए. आप तो जानते ही हैं कि आजकल कंप्यूटर के बिना काम नहीं चलता.’’
‘‘जी, मैं जल्दी ही करा दूंगा.’’
‘‘उसे आप की जगह नौकरी मिल जाएगी. आप के पीएफ में कुछ प्रौब्लम है, पर मैं उसे देख लूंगा.’’
‘‘पर, अभी कंफर्म नहीं हुआ है. टैस्ट होने हैं.’’
‘‘कंफर्म ही समझिए और क्या आप लेंगे?’’ उन्होंने नया पाउच तोड़ते हुए पूछा.
‘‘नहीं साहब, मैं ने खाना छोड़ दिया है.’’
‘‘अरे, आराम से खाइए…’’ उन्होंने पाउच सीधे मुंह में डालते हुए कहा, ‘‘जितना समय बचा है, जो मन हो खाइए. जितना नुकसान होना था हो चुका है. अब कोई फर्क नहीं पड़ना है, खाइए या छोडि़ए. खुश रहिए और मस्त रहिए.
‘‘शरद बाबू, दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी. बीवी को जौब मिल जाएगी और बच्चा पल जाएगा. कुछ समय बाद किसी को आप की याद भी नहीं आएगी. पर उस ने कंप्यूटर कोर्स किया होता तो अच्छा था. उस की अंगरेजी कैसी है?’’
‘‘ठीक ही है.’’
‘‘आप की अंगरेजी कमजोर थी. आप की ड्राफ्टिंग भी कमजोर थी. हम तो यही चाहते हैं कि औफिस को काम का स्टाफ मिले.’’
‘‘मैं करा दूंगा सर. मैं उसे कंप्यूटर कोर्स करा दूंगा. 3 महीने वाला नहीं, 6 महीने वाला करा दूंगा.’’
‘‘नहीं. 3 महीने वाला ही ठीक है. बीच में छोड़ना न पड़े.’’
‘‘ठीक है सर.’’
‘‘आल माई बैस्ट विशेज.’’
‘‘थैंक्यू सर,’’ कह कर शरद बाहर आ कर अपनी सीट पर पहुंचा.
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इंजीनियर की बात सुन कर शरद का मन घबराने लगा. उस ने एक हफ्ते की मैडिकल लीव की एप्लीकेशन लिखी व सीधे इंजीनियर साहब के कमरे में आ गया. वे खाना खा कर नया पाउच तोड़ रहे थे.
‘‘सर, मैं घर जा रहा हूं एक हफ्ते की मैडिकल लीव पर,’’ शरद ने अपना निवेदन उन की सीट पर रखा.
‘‘मैं तो पहले ही कह रहा था. जाइए और भी छुट्टी बढ़ानी हो तो बढ़ा दीजिएगा. एप्लीकेशन देने की भी जरूरत नहीं है. फोन कर दीजिएगा. मैं संभाल लूंगा.’’
शरद घर आ गया. वह बहुत निराश था. पर इंजीनियर साहब की एक बात से उसे तसल्ली मिली. रजनी को नौकरी मिल जाएगी और वह बेसहारा नहीं रहेगी.
5वें दिन शाम को शरद डाक्टर के यहां पहुंचा. रजनी भी जिद कर के साथ गई थी. उन की बारी आई तो वे डाक्टर के चैंबर में गए.
‘‘आइए, कैसे हैं आप?’’ डाक्टर साहब ने उन्हें पहचान लिया.
‘‘क्या हाल बताएं डाक्टर साहब,’’ शरद ने कहा, ‘‘अब आप ही देखिए और बताइए.’’
‘‘आप के छाले का क्या हाल है?’’
‘‘दर्द तो कम है, लेकिन खाना खाने में तकलीफ होती है.’’
‘‘अच्छा, मुंह खोलिए.’’
शरद ने मुंह खोला. उसे लगा कि मुंह पहले से कुछ ज्यादा खुल रहा है.
‘‘यह देखिए…’’ डाक्टर ने एक शीशा लगे यंत्र को मुंह में डाल कर दिखाया, ‘‘यह गाल देखिए. दूसरी तरफ भी यह देखिए. पूरा चितकबरा हो गया है. इस में जलन या दर्द है क्या?’’
‘‘नहीं डाक्टर साहब. जलन या दर्द तो पहले भी नहीं था, पर जबान से छूने पर पता नहीं चलता है.’’
‘‘सैंसिविटी खत्म हो गई है. आजकल पान मसाला के पाउच का क्या स्कोर है?’’
‘‘छोड़ दिया है डाक्टर साहब…’’ अब रजनी बोली, ‘‘जिस दिन से आप के पास से गए हैं, उस दिन के बाद से नहीं खाया है.’’
‘‘आप को क्या मालूम? आप जरा चुप रहिए. आप से बाद में बात करता हूं. ये बाहर जा कर खा आते होंगे, तो आप को क्या पता चलेगा’’
‘‘नहीं डाक्टर साहब, मैं ने उस दिन से पान मसाला का एक दाना भी नहीं खाया है,’’ शरद की आवाज भर्रा गई.
‘‘क्यों नहीं खाया है? आप तो दिनभर में 20 पाउच खा जाते थे.’’
‘‘डर लगता है साहब.’’
‘‘वैरी गुड. तभी आराम दिख रहा है. मैं 5 दिन की दवा और दे रहा हूं. उस के बाद दिखाइएगा.’’
‘‘डाक्टर साहब, वह कैंसर वाला टैस्ट…’’ शरद ने कहना चाहा.
‘‘5 दिन बाद. जरा और प्रोग्रैस देख लें, उस के बाद. और आप अब जरा बाहर बैठिए. मुझे आप की पत्नी से कुछ बात करनी है.’’
शरद उठ कर धीरेधीरे बाहर आ गया व दरवाजा बंद कर दिया. रजनी हैरान सी बैठी रही.
‘‘पिछले 5 दिन आप लोगों के कैसे बीते?’’ डाक्टर साहब ने रजनी से पूछा.
रजनी जवाब न दे पाई. उस की आंखें भर आई व गला रुंध गया. उस ने आंचल मुंह पर लगा लिया.
आज रविवार है. पूरा दिन बारिश होती रही है. अभी थोड़ी देर पहले ही बरसना बंद हुआ था. लेकिन तेज हवा की सरसराहट अब भी सुनाई पड़ रही थी. गीली सड़क पर लाइट फीकीफीकी सी लग रही थी. सुषमा बंद खिड़की के सामने खोईखोई खड़ी थी और शीशे से बाहर देखते हुए राहुल के बारे में सोच रही थी, पता नहीं वह इस मौसम में कहां है.
बड़ा खामोश, बड़ा दिलकश माहौल था. एक ताजगी थी मौसम में, लेकिन मौसम की सारी सुंदरता, आसपास की सारी रंगीनियां दिल के मौसम से बंधी होती हैं और उस समय सुषमा के दिल का मौसम ठीक नहीं था.
विशाल टीवी पर कभी गाने सुन रहा था, तो कभी न्यूज. वह आराम के मूड में था. छुट्टी थी, निश्चिंत था. उस ने आवाज दी, ‘‘सुषमा, क्या सोच रही हो खड़ेखड़े?’’
‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बाहर देख रही हूं, अच्छा लग रहा है.’’
‘‘यश और समृद्धि कब तक आएंगे?’’
‘‘बस, आने ही वाले हैं. मैं उन के लिए कुछ बना लेती हूं,’’ कह कर सुषमा किचन में चली गई.
सुषमा जानबूझ कर किचन में आ गई थी. विशाल की नजरों का सामना करने की उस में इस समय हिम्मत नहीं थी. उस की नजरों में इस समय बस राहुल के इंतजार की बेचैनी थी.
सुषमा और विशाल के विवाह को 20 वर्ष हो गए थे. युवा बच्चे यश और समृद्धि अपनीअपनी पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त हुए तो सुषमा को जीवन में एक रिक्तता खलने लगी. वह विशाल से अपने अकेलेपन की चर्चा करती, ‘‘विशाल, आप भी काफी व्यस्त रहने लगे हैं, बच्चे भी बिजी हैं, आजकल कहीं मन नहीं लगता, शरीर घरबाहर के सारे कर्त्तव्य तो निभाता चलता है, लेकिन मन में एक अजीब वीराना सा भरता जा रहा है. क्या करूं?’’
विशाल समझाता, ‘‘समझ रहा हूं तुम्हारी बात, लेकिन पद के साथसाथ जिम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तुम भी किसी शौक में अपना मन लगाओ न’’
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‘‘मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है. मन करता है कोई मेरी बात सुने, मेरे साथ कुछ समय बिताए. तुम तीनों तो अपनी दुनिया में ही खोए रहते हो.’’
‘‘सुषमा, इस में अकेलेपन की क्या बात है. यह तो तुम्हारे हाथ में है. तुम अपनी सोच को जैसे मरजी जिधर ले जाओ. अकेलापन देखो तो कहां नहीं है. आजकल फर्क बस इतना ही है कि कोई बूढ़ा हो कर अकेला हो जाता है, कोई थोड़ा पहले. इस सचाई को मन से स्वीकारो तो कोई तकलीफ नहीं होती और हां, तुम्हें तो पढ़नेलिखने का इतना शौक था न. तुम तो कालेज में लिखती भी थी. अब समय मिलता है तो कुछ लिखना शुरू करो.’’ मगर सुषमा को अपने अकेलेपन से इतनी आसानी से मुक्त होना मुश्किल लगता.
इस बीच विशाल ने रुड़की से दिल्ली एमबीए करने आए अपने प्रिय दोस्त के छोटे भाई राहुल को घर आने के लिए कहा तो सुषमा राहुल से मिलने के बाद खिल ही उठी.
होस्टल में रहने का प्रबंध नहीं हो पाया तो विजय ने विशाल से फोन पर कहा, ‘‘यार, उसे कहीं अपने आसपास ही कोई कमरा दिलवा दे, घर में भी सब लोगों की चिंता कम हो जाएगी.’’
विशाल के खूबसूरत से घर में पहली मंजिल पर 2 कमरे थे. एक कमरा यश और समृद्धि का स्टडीरूम था, दूसरा एक तरह से गैस्टरूम था, रहते सब नीचे ही थे. जब कुछ समझ नहीं आया तो विशाल ने सुषमा से विचारविमर्श किया, ‘‘क्यों न राहुल को ऊपर का कमरा दे दें. अकेला ही तो है. दिन भर तो कालेज में ही रहेगा.’’
सुषमा को कोई आपत्ति नहीं थी. अत: विशाल ने विजय को अपना विचार बताया और कहा, ‘‘घर की ही बात है, खाना भी यहीं खा लिया करेगा, यहीं आराम से रह लेगा.’’
विजय ने आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘ठीक है, उसे पेइंगगैस्ट की तरह रख ले.’’
विशाल हंसा, ‘‘क्या बात कर रहा है. जैसे तेरा भाई वैसे मेरा भाई.’’
राहुल अपना बैग ले आया. अपने हंसमुख स्वभाव से जल्दी सब से हिलमिल गया. सुषमा को अपनी बातों से इतना हंसाता कि सुषमा तो जैसे फिर से जी उठी. नियमित व्यायाम और संतुलित खानपान के कारण सुषमा संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी. राहुल उस से कहता, ‘‘कौन कहेगा आप यश और समृद्धि की मां हैं. बड़ी बहन लगती हैं उन की.’’
राहुल सुषमा के बनाए खाने की, उस के स्वभाव की, उस की सुंदरता की दिल खोल कर तारीफ करता और सुषमा अपनी उम्र के 40वें साल में एक नवयुवक से अपनी प्रशंसा सुन कर जैसे नए उत्साह से भर गई.
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कई दिनों से विशाल अपने पद की बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त होता चला गया था. अब तो बस नाश्ते के समय विशाल हांहूं करता हुआ जल्दीजल्दी पेपर पर नजर डालता और जाने के लिए बैग उठाता और चला जाता. रात को आता तो कभी न्यूज, कभी लैपटौप, तो कभी फोन पर व्यस्त रहता. सुषमा उस के आगेपीछे घूमती रहती, इंतजार करती रहती कि कब विशाल कुछ रिलैक्स हो कर उस की बात सुनेगा. वह अपने मन की कई बातें उस के साथ बांटना चाहती, लेकिन सुषमा को लगता विशाल की जिम्मेदारियों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. उसे लगता एक चतुर अधिकारी के मुखौटे के पीछे उस का प्रियतम कहीं छिप सा गया है.
बच्चों का अपना रूटीन था. वे घर में होते तो भी अपने मोबाइल पर या टीवी में लगे रहते या फिर पढ़ाई में. वह बच्चों से बात करना भी चाहती तो अकसर दोनों बच्चों का ध्यान अपने फोन पर रहता. सुषमा उपेक्षित सी उठ कर अपने काम में लग जाती.
और अब अकेले में वह राहुल के संदर्भ में सोचने लगी. लेकिन कौन, कब, बिना कारण, बिना चेतावनी दिए इंसान के भीतर जगह पा जाता है, इस का आभास उस घटना के बाद ही होता है. सुषमा के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल आया तो दिनबदिन विशाल और बच्चों की बढ़ती व्यस्तता से मन के एक खाली कोने के भरे जाने की सी अनुभूति होने लगी.
विशाल टूर पर रहता तो राहुल कालेज से आते ही कहता, ‘‘भैया गए हुए हैं. आप बोर हो रही होंगी. आप चाहें तो बाहर घूमने चल सकते हैं. यश और समृद्धि को भी ले चलिए.’’
सुषमा कहती, ‘‘वे तो कोचिंग क्लास में हैं. देर से आएंगे. चलो, हम दोनों ही चलते हैं. मैं गाड़ी निकालती हूं.’’
दोनों जाते, घूमफिर कर खाना खा कर ही आते, सुषमा राहुल को अपना पर्स कहीं निकालने नहीं देती. राहुल उस के जीवन में एक ताजा हवा का झोंका बन कर आया था. दोनों की दोस्ती का दायरा बढ़ता गया. वह अकेलेपन की खाई से निकल कर नई दोस्ती की अनुभूति के सागर में गोते लगाने लगी. अपनी उम्र को भूल कर किशोरियों की तरह दोगुने उत्साह से हर काम करने लगी. राहुल की हर बात, हर अदा उसे अच्छी लगती.
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कई दिनों से अकेलेपन के एहसास से चाहेअनचाहे अपने भीतर का खाली कोना गहराई से महसूस करती आ रही थी. अब उस जगह को राहुल के साथ ने भर दिया था. कोई भी काम करती, राहुल का ध्यान आता रहता. उस का इंतजार रहता. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है, लेकिन दिल क्या बातें समझ लेता है? नहीं, यह तो सिर्फ अपनी ही जबान समझता है, अपनी ही बोली जानता है. उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल ही से निकलता है.
अब तो न चाहते हुए भी विशाल के साथ अंतरंग पलों में भी वह राहुल की चहकती आवाज से घिरने लगती. मन का 2 दिशाओं में पूरे वेग से खिंचना उसे तोड़ जाता. मन में उथलपुथल होने लगती, वह सोचती यह बैठेबैठाए कौन सा रोग लगा बैठी. यह किशोरियों जैसी बेचैनी, हर आहट पर चौंकना, कभी वह शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी मनोदशा पर खुद ही हंस पड़ती.
अचानक एक दिन राहुल कालेज से मुंह लटकाए आया. सुषमा ने खाने के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया. वह चुपचाप ड्राइंगरूम में ही गुमसुम बैठा रहा. सुषमा ने बारबार पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आज कालेज में मेरा मोबाइल खो गया है. यहां आते समय विजय भैया ने इतना महंगा मोबाइल ले कर दिया था. भैया अब बहुत गुस्सा होंगे.’’
सुषमा चुपचाप सुनती रही. कुछ बोली नहीं. लेकिन अगले ही दिन उस ने अपनी जमापूंजी से क्व15 हजार निकाल कर राहुल के हाथ पर जबरदस्ती रख दिए. राहुल मना करने लगा, लेकिन सुषमा के जोर देने पर रुपए रख लिए.
कुछ महीने और बीत गए. विशाल भी फुरसत मिलते ही राहुल के हालचाल पूछता, वैसे उस के पास समय ही नहीं रहता था. सुषमा पर घरगृहस्थी पूरी तरह से सौंप कर अपने काम में लगा रहता था. सुषमा मन ही मन पूरी तरह राहुल की दोस्ती के रंग में डूबी हुई थी. पहले उसे विशाल में एक दोस्त नजर आता था, अब उसे विशाल में एक दोस्त की झलक भी नहीं दिखती.
यह क्या उसी की गलती थी. विशाल को अब उस की कोमल भावनाएं छू कर भी नहीं जाती थीं. राहुल में उसे एक दोस्त नजर आता है. वह उस की बातों में रुचि लेता है, उस के शौक ध्यान में रखता है, उस की पसंदनापसंद पर चर्चा करता है. उसे बस एक दोस्त की ही तो तलाश थी. वह उसे राहुल के रूप में मिल गया है. उसे और कुछ नहीं चाहिए.
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एक दिन विशाल टूर पर था. यश और समृद्धि किसी बर्थडे पार्टी में गए थे. अंधेरा हो चला था. राहुल भी अभी तक नहीं आया था. सुषमा लौन में टहल रही थी. राहुल आया, नीचे सिर किए हुए मुंह लटकाए ऊपर अपने कमरे में चला गया. सुषमा को देख कर भी रुका नहीं तो सुषमा को उस की फिक्र हुई. वह उस के पीछेपीछे ऊपर गई. जब से राहुल आया था वह कभी उस के रूम में नहीं जाती थी. मेड ही सुबह सफाई कर आती थी. उस ने जा कर देखा राहुल आंखों पर हाथ रख कर लेटा है.
सुषमा ने पूछा, ‘‘क्या हो गया, तबीयत तो ठीक है?’’
राहुल उठ कर बैठ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मैं ठीक हूं.’’
‘‘तो रोनी सूरत क्यों बनाई हुई है?’’
‘‘भैया ने बाइक के पैसे भेजे थे, मेरे दोस्त उमेश की बहन की शादी है, उसे जरूरत पड़ी तो मैं ने उसे सारे रुपए दे दिए. अब भैया बाइक के बारे में पूछेंगे तो क्या कहूंगा, कुछ समझ नहीं आ रहा है. वही उमेश याद है न आप को. यहां एक बार आया था और मैं ने उसे आप से भी मिलवाया था.’’
‘‘हांहां याद आया,’’ सुषमा को वह लड़का याद आ गया जो उसे पहली नजर में ही कुछ जंचा नहीं था. बोली, ‘‘अब क्या करोगे?’’
‘‘क्या कर सकता हूं? भैया को तो यही लगेगा कि मैं यहां आवारागर्दी कर रहा हूं, वे तो यही कहेंगे कि सब छोड़ कर वापस आ जाओ, यहीं पढ़ो.’’
राहुल के जाने का खयाल ही सुषमा को सिहरा गया. फिर वही अकेलापन होगा, वही बोरियत अत: बोली, ‘‘मैं तुम्हें रुपए दे दूंगी.’’
‘‘अरे नहींनहीं, यह कोई छोटी रकम नहीं है.’’
‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास बच्चों की कोचिंग की फीस रखी है. मैं तुम्हें दे दूंगी.’’
‘‘लेकिन मैं ये रुपए आप को जल्दी लौटा दूंगा.’’
‘‘हांहां, ठीक है. मुझ से कल रुपए ले लेना. अब नीचे आ कर खाना खा लो.’’
सुषमा नीचे आ गई. अपनी अलमारी खोली. सामने ही रुपए रखे थे. सोचा अभी राहुल को दे देती हूं. उसे ज्यादा जरूरत है इस समय. बेचारा कितना दुखी हो रहा है. अभी जा कर पकड़ा देती हूं. खुश हो जाएगा. वह रुपए ले कर वापस ऊपर गई. राहुल के कमरे के दरवाजे के बाहर ही उस के कदम ठिठक गए.
वह फोन पर किसी से धीरेधीरे बात कर रहा था. न चाहते हुए भी सुषमा ने कान उस की आवाज की तरफ लगा दिए. वह कह रहा था, ‘‘यार उमेश, मोबाइल और बाइक का इंतजाम तो हो गया. सोच रहा हूं अब क्या मांगूगा. अमीर औरतों से दोस्ती करने का यही तो फायदा है, उन्हें अपनी बोरियत दूर करने के लिए कोई तो चाहिए और मेरे जैसे लड़कों को अपना शौक पूरा करने के लिए कोई चाहिए.’’
‘‘मुझे तो यह भी लगता है कि थोड़ी सब्र से काम लूंगा तो वह मेरे साथ सो भी जाएगी. बेवकूफ तो है ही… सबकुछ होते हुए भटकती घूमती है. मुझे क्या, मेरा तो फायदा ही है उस की बेवकूफी में.’’
सुषमा भारी कदमों से नीचे आ कर कटे पेड़ सी बैड पर पड़ गई. लगा कभीकभी इंसान को परखने में मात खा जाती है नजरें. ऐसे जैसे कोई पारखी जौहरी कांच को हीरा समझ बैठे.
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तीखी कचोट के साथ उसे स्वयं पर शर्म आई. इतने दिनों से वह राहुल जैसे चालाक इंसान के लिए बेचैन रहती थी, सही कह रहा था राहुल. वही बेवकूफी कर रही थी. अकेलेपन के एहसास से उस के कदम जिस राह पर बढ़ चले थे, अगर कभी विशाल और बच्चों को उस के मन की थाह मिल जाती तो क्या इज्जत रह जाती उस की उन की नजरों में.
तभी विशाल की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘अकेलेपन से हमेशा दुखी रहने और नियति को कोसने से तो अच्छा है कि हम चीजों को उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसी वे हैं. तुम ऐसा करोगी तभी खुल कर सांस ले पाओगी.’’
इस बात का ध्यान आते ही सुषमा को कुछ शांति सी मिली. उस ने कुदरत को धन्यवाद दिया, उम्र के इस मोड़ पर अभी इतनी देर नहीं हुई थी कि वह स्थिति को संभाल न सके. वह कल ही राहुल को यहां से जाने के लिए कह देगी और यह भी बता देगी वह इतनी बेवकूफ नहीं कि अपने पति की कमाई दूसरों की भावनाओं से खेलने वाले लड़के पर लुटा दे.
वह अपने जीवन की पुस्तक के इस दुखांत अध्याय को सदा के लिए बंद कर रही है ताकि वह अपने जीवन की नई शुरुआत कर सके. कुछ सार्थक करते हुए जीवन का शुभारंभ करने का प्रयत्न तो वह कर ही सकती है. अब वह नहीं भटकेगी. क्रोध, घृणा, अपमान और पछतावे के मिलेजुले आंसू उस की आंखों से बह निकले लेकिन अब सुषमा के मन में कोई दुविधा नहीं थी. अब वह जीएगी अपने स्वयं के सजाएसंवरे लमहे, अपनी खुद की नई पहचान के साथ अचानक मन की सारी गांठें खुल गई थीं. यही विकल्प था दीवाने मन का.
उस ने फोन उठा लिया, राहुल के भाई को फोन कर दिए गए पैसों की सूचना देने के लिए और उन्हें वापस मांगने के लिए.
लेखक- राजन सिंह
फूल संस्कृत विद्यालय पर पहुंचता और कृष्णकली साइकिल के पिछले कैरियर से बीच के हैंडल तक का सफर तय कर के कालेज जाने लग गई थी. कुल मिला कर कह सकते हैं, थोड़ा सा प्यार हो गया था, बस थोड़ा ही बाकी था.
हम को फिर से गांव जाना पड़ गया, धान फसल की कटाई के लिए. क्या करें? किस्मत ही खराब है अपनी तो पढ़ेंगे कैसे? फगुनिया कांड के बाद हमारे नाम के मुताबिक ही हम को सब खदेड़ते ही रहते हैं. अगर कटाई में नहीं जाएंगे तो बाबूजी खर्चापानी भी बंद कर देंगे.
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एक तो देर से पढ़ाना शुरू कराया था हमारे घर वालों ने, ऊपर से बचीखुची कसर हम ने फेल हो कर पूरी कर दी. पूरे 22 साल के हो गए हैं हम, लेकिन हैं अब तक इंटरमीडिएट में ही.
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि यह फगुनिया कहां से आ गई बीच में? पर क्या करें, न गाली देते बनता है और न ही अपना सकते हैं उस को हम. कभी हमारी जान हुआ करती थी वह. भैया की छोटकी साली. जबजब वह हम को करेजा कह कर बुलाती थी, तो लगता था जैसे कलेजा चीर कर उस को दिल में बसा लें.
बहुत प्यार करते थे हम फगुनिया को. उस को एक नजर देखते ही दिल चांद के फुनगी पर बैठ कर ख्वाब देखने लगता था. बोले तो एकदम लल्लनटौप थी हमारी फगुनिया. उस के तन का वजन तो पूछिए ही मत, 3 हाथी मरे होंगे तब जा कर हमारी फगुनिया पैदा हुई होगी, फिर भी जब वह ठुमुकठुमुक कर चलती थी तो हमारे पेट में घिरनी नाचने लगती थी और आटा चक्की के जैसे कलेजा धुकधुकाने लगता था.
लेकिन मुंह झौंसी हमारी भाभी को फूटी आंख नहीं सुहाती थी हमारी फगुनिया. दुष्ट कहीं की.
नैहर से ले कर ससुराल तक ऐसा ढोल बजाया हमारी प्रेम कहानी का कि हम सब जगह से बुड़बक बन कर रह गए. इतने पर भी भाभी ने दम नहीं लिया, हम को हमारी फगुनिया से लड़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
जबजब हमारी फगुनिया हम से लड़ती थी तो ऐसा लगता था जैसे हमारे दिल का महुआ कच्चे में ही रस चुआने लगा हो. आंत ऐंठने लगती. हम तो न मरते थे, न जीते थे. बस, अंदर ही अंदर कुहुकते रहते थे.
पर, हम ने भी ठान लिया था कि ब्याह करेंगे तो फगुनिया से ही करेंगे, नहीं तो किसी से नहीं करेंगे. जब हम सब जगह से बदनाम हो ही गए हैं तो लिहाज किस का रखें. हम ने भी आव देखा न ताव, फगुनिया को भगा कर ब्याह कर ले जाने का प्लान बना लिया.
फूल से सलाहमशवरा लिया तो उस ने भी कहा कि वह रुपएपैसे का इंतजाम कर देगा किसी से सूदब्याज पर. हम भी जोश में थे ही, उस की सभी शर्तें मंजूर कर लीं. फगुनिया को भी हम ने मना लिया भागने के लिए.
तय दिन हम रोसड़ा बाजार में जा कर फगुनिया का इंतजार करने लगे, वहीं फूल भी रुपएपैसे का इंतजाम कर के आने वाला था. वहां से हम थानेश्वर स्थान महादेव मंदिर समस्तीपुर जा कर ब्याह करते, उस के बाद गोरखपुर निकल जाने का प्लान था हमारा.
फगुनिया अपनी सहेली तेतरी को साथ ले कर पतलापुर गांव से रोसरा के दुर्गा मंदिर में आ गई. वहां हम पहले से ही मौजूद थे. तेतरी 3 भाई के बाद एकलौती बहन. फगुनिया की हमराज. एकदम पक्की वाली बहन. हम लोग फूल का इंतजार करते रहे, पर वह गधे के सिर से सींग के जैसे गायब हुआ, सो 3 महीने बाद जा कर मिला हम को. मर्द के नाम पर कलंक.
उस समय मन तो कर रहा था कि एक बार फूल मिल जाता तो गरदन मरोड़ कर आंत में घुसा देता.
हम फिर भी फगुनिया पर जोर देते रहे भाग चलने के लिए. पर वह तो बहुत बड़ी वाली जालिम निकली. कहने लगी, बिना रुपएपैसे के भाग कर जाइएगा कहां? आप तो बकलोल के बकलोल ही रह गए. कम से कम इतने रुपएपैसे का इंतजाम तो कर लेते कि एकाध महीना सही से गुजारा हो जाता. हम तो ऐसे निखट्टू मरद के साथ नहीं जाएंगे, चाहे कुछ हो जाए. आप के चक्कर में हम अपनी जिंदगी बरबाद नहीं करेंगे.
हम घिघियाते रहे, मनाते रहे, पर फगुनिया के कान पर जूं तक न रेंगी. आखिर में हम भी खिसिया कर वहां से चल दिए. जातेजाते हम तड़कभड़क दिखा कर कहते गए, ‘‘आज दिनभर थानेश्वर स्थान में इंतजार करेंगे. अगर तुम नहीं आए तो जिंदगीभर मुंह नहीं देखेंगे तुम्हारा,’’ साइकिल उठाई और हम स्पीड में वहां से निकल गए.
हम तो वहां से पहुंच गए थानेश्वर स्थान महादेव मंदिर, पर फगुनिया के कलेजे पर सांप लोटने लगा. वह सोचसोच कर डर से घबराने लगी. कहीं वह आत्महत्या तो नहीं कर लेगा.
फगुनिया को फैसला लेना पड़ा, तेतरी को हमारे पीछे भेजने का. कितनी बेचैन हो कर बोली थी हमारी फगुनिया, ‘‘ऐ तेतरी, जाओ खदेरन को सम झाबु झा दो. घर चला जाएगा बेचारा.’’
हम झटपट समस्तीपुर के महादेव मंदिर तो पहुंच गए, पर फगुनिया नहीं आई. उस की जगह तेतरी हम को सम झानेबु झाने पहुंच गई. तेतरी हम को जितना सम झाती, हम और ज्यादा गुस्सा होते जाते. जोशजोश में हम गुस्से से लालपीले होते हुए मंदिर में रखे सिंदूर की थाली से मुट्ठीभर सिंदूर उठाया और तेतरी की मांग भर दी.
जब तक होश आया, तब तक तेतरी कुमारी, बाबा की दुलारी हमारी तेतरी देवी बन चुकी थी. एक तो फगुनिया का गम हम को पहले से ही था, ऊपर से तेतरी के सरपंच ने हमारा बोलबम निकलवा दिया. हमारा हाल सेमर की रुई की तरह हो गया था जो न पेड़ से ही लगा हो और न हवा के संग उड़ ही पा रहा हो. दिल से बस एक ही चीज निकल रही थी, ‘ऐ तेतरी, तुम न लात मारी, न मारी घूंसा, फिर भी करेजा को तड़तड़ा दी.’
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फगुनिया का फागुन कब बीत गया, पता ही नहीं चला. घरपरिवार, समाज की दुत्कार में. अब तो तेतरी के देह की देहरी पर जेठ अंगड़ाई लेने लगा. हम फगुनिया के गम में रेडियो पर दर्द भरे गाना सुनते हुए जंगल झाड़, खेतखलिहान में भटकते रहते. हमारा मन तो कर रहा था हैंडपंप में छलांग लगा कर डूब मरें, पर ससुरा कूदने का रास्ता ही नहीं था. अपने दर्द के वशीभूत हो कर हम उस दिन नहर किनारे वाले टूटे पुल पर बैठे रो रहे थे कि तभी वहां गांव के 3-4 संघाती पहुंच गए. हम को रोता देख कर बहुत सम झाया सब ने. पर हम को तनिक भी ढांढस न बंधा, हम और फूटफूट कर रोने लगे.
लेखक- राजन सिंह
‘‘ऐ लड़के, जरा इधर तो सुनिए.’’
‘‘जी, कहिए.’’
‘‘यह क्या कर रहे हैं यहां आप?’’
‘‘क्या कर रहे हैं हम?’’
‘‘क्या कर रहे हैं सो आप को नहीं मालूम. ज्यादा बनने की कोशिश तो कीजिए मत… ठीक है.’’
‘‘हम क्या कर रहे हैं, जो आप इतना भड़क रही हैं.’’
‘‘इतने भी मासूम मत बनिए. आप को हम 15-20 दिन से देख रहे हैं कि हम जब भी छत पर आते हैं तो आप अपने कमरे की खिड़की से या बालकनी की रेलिंग से टुकुरटुकुर निहारते रहते हैं. आप के घर में मांबहन नहीं हैं क्या?’’
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‘‘हम कहां देखते हैं आप को? वह तो आप ही…’’
‘‘बड़े बेशर्म हैं जी आप. एक तो देखते भी हैं, ऊपर से मुंहजोरी भी करते हैं. लगता है, अपने भैया को बताना ही पड़ेगा,’’ इतना कह कर कृष्णकली मुंह बिचकाते हुए छत से नीचे चली गई.
फूल के तो गले के शब्द जीभ में ही उल झ कर रह गए. कितनी बोल्ड लड़की है… दिमाग झन्ना कर चली गई.
एक महीने तक फूल की हिम्मत नहीं हुई कि कृष्णकली छत पर आए तो वह बाहर बालकनी में निकल कर आ सके या फिर खिड़की पर ही खड़ा रह सके. कौन आफत मोल ले. कहीं भाईबाप को कह आई तो बेमतलब की बात बढ़ जाएगी और बदनामी होगी सो अलग.
हम जैसे ही गांव से लौट कर आए तो फूल सब से पहले हम को यही कथा सुनाने लगा. तकरीबन डेढ़ महीने से पेट में खुदबुदा जो रहा था बताने के लिए.
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि हम कौन हैं? तो चलिए बता देते हैं. हम हैं खदेरन मंडल. फूल हमारा जिगरी दोस्त है. बचपन से कोई बात हमारे बीच छिपी नहीं थी, फिर यह कैसे छिप जाती. हम दोनों लंगोटिया यार जो ठहरे.
वैसे, एक बात और बता देते हैं. हम केवल बातचीत ही नहीं, बल्कि खानापीना, कपड़े वगैरह भी शेयर कर लेते हैं. यहां तक कि कच्छा और बनियान भी हम ने शेयर किए हैं.
इत्तेफाक से हम एक ही गांव में, एक ही दिन और तकरीबन एक ही समय पर जनमे भी हैं. बस, फर्क यह है कि वह यादव वंश में जनमा है और हम मंडल
के घर में, वरना हम जुड़वां ही होते. फूल तनिक पढ़ने में ठीकठाक था, इसलिए इंटरमीडिएट के बाद मास्टर बनने के लिए टीचर ट्रेनिंग स्कूल में नाम लिखवा लिया और हम जरा भुसकोल हैं पढ़ने में, इसलिए अब तक इंटर में ही लटके हुए हैं. क्या करें करम में लिखा है नेड़हा, तो हम पेड़ा कहां से खाते.
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि हम क्या बकवास करने में लगे हैं, तो चलिए फूल के बारे में जानते हैं कि आगे क्या हुआ.
तकरीबन महीनेभर बाद फूल को नाका नंबर-5 पर फिर से कृष्णकली मिल गई. आटोरिकशे का इंतजार करते हुए. क्रेज डौल्बी से वह फिल्म देख कर लौट रही थी.
दरभंगा इंटर कालेज में वह पढ़ती है. कालेज बंक कर के सिनेमा देखने में तो मास्टरब्लास्टर. फूल कोचिंग सैंटर से पढ़ कर साइकिल टनटनाते स्पीड में नाका नंबर-5 से गुजरने ही वाला था कि कृष्णकली की नजर पड़ गई.
‘‘ऐ… लड़के, जरा रुको,’’ अचानक कृष्णकली की आवाज सुन कर फूल सकपकाते हुए रुक गया.
‘‘जी… जी, कहिए.’’
‘‘जरा भी दयाधरम है कि नहीं. एक अकेली लड़की कब से रिकेश के लिए इंतजार में यहां खड़ी है और आप हैं कि मस्ती में साइकिल टुनटुनाते हुए भागे जा रहे हैं. डर है कि नहीं है…’’
‘‘अरे… नहींनहीं. ऐसी कोई बात नहीं है. हम आप को नहीं देखे थे, इसलिए…’’
‘‘इसलिए क्या…? आप हम को बु झाइएगा?’’
‘‘यह क्या बोल रही हैं आप? हम सच्ची में नहीं देखे थे आप को.’’
‘‘तो अब देख लिए हैं न.’’
‘‘जी…’’
‘‘जी… जी क्या कर रहे हैं आप? हमारा नाम कृष्णकली कुमारी है. आप हम को कृष्णकली कह सकते हैं.’’
‘‘जी.’’
‘‘फिर से जी… वैसे, अब चलिएगा भी या यहीं खड़े रहिएगा?’’
‘‘पर… पर, आप का रिकशा?’’
‘‘गोली मारिए रिकशे को. आप हैं न साथ में, फिर सफर यों ही कट जाएगा. आप चलेंगे न मेरे साथ?’’
‘‘हांहां… बिलकुल चलेंगे जी.’’
‘‘चलिए, तो चलते हैं.’’
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दोनों ने पैदल ही कदम बढ़ा दिए. फूल को ज्यादा बातें सू झ नहीं रही थीं. वह चुपचाप ही कदम बढ़ाता रहा.
थोड़ी दूर चलने के बाद कृष्णकली ही बोली, ‘‘हम ऐसे ही चलते रहेंगे तो रात हो जाएगी और हम रास्ते में ही रह जाएंगे.’’
‘‘फिर क्या करें हम? कोई रिकशा भी नहीं दिखाई दे रहा है, जो आप को बैठा देते उस पर.’’
‘‘तो फिर साइकिल किसलिए रखे हैं आप? डबल लोडिंग में चलाना नहीं आता है क्या आप को?’’
‘‘आप… आप हमारी साइकिल पर बैठिएगा?’’
‘‘तो क्या हुआ? हम साइकिल पर बैठ कर नहीं जा सकते हैं क्या? चिंता मत कीजिए, हम महल्ला आने से पहले ही उतर जाएंगे आप की साइकिल से.’’
फूल हैंडल को मजबूती से थाम कर साइकिल पर सवार हो गया. हौले से कृष्णकली भी साइकिल के पीछे कैरियर पर अपना दुपट्टा संभालते हुए बैठ गई. लेकिन बातचीत पर ब्रेक लग गया.
महल्ले के बाहर संस्कृत विद्यालय के सामने कृष्णकली साइकिल से उतर गई और फूल घंटी बजाते हुए तेजी से अपने रूम पर आ गया.
रूम पर आते ही सब से पहले 3-4 गिलास पानी गटागट पी गया. उस का हलक सूखा हुआ था. उस के बाद सारा किस्सा हमें सुनाने लगा.
हम ने उसी टाइम कह दिया था कि बेटा सैट हो गई लड़की, पर वह मानने को राजी नहीं था. वैसे, उस के दिल में फुल झडि़यां तो जरूर छूटी थीं, लेकिन स्वीकारने की हिम्मत न थी उस में. एकदम डरपोक, भीगी बिल्ली.
पर कहानी भी यहीं नहीं अटकी. कृष्णकली जितनी मुंहफट थी, उतनी ही दिमाग की तेज भी थी. दूसरी मुलाकात के बाद पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि अकसर संस्कृत विद्यालय के पास वह फूल का इंतजार करने लग गई थी.
धीरेधीरे ही सही, पर फूल ने ‘ऐ लड़का’ से ‘फूलजी’ तक का सफर तय कर लिया था. अकसर का इंतजार अब रोजाना में तबदील होने लग गया था.
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मात्र 24 साल की छोेटी सी उम्र में वह 2 बड़े हादसे झेल चुकी थी. पहली घटना उस के साथ 20 वर्ष की उम्र में घटी थी. तब वह बीकौम कर रही थी. उम्र के इस पड़ाव में युवाओं का किसी के प्यार में पड़ना आम बात होती है. आधुनिक शिक्षा व पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण और समाज की बेडि़यों में ढीलापन होने के कारण युवा आपस में बहुत जल्दी घुलमिल जाते हैं. उन के संबंध जितनी तीव्रता से परवान चढ़ते हैं, उतनी ही तेजी से टूटते भी हैं. कच्ची उम्र की सोच भी कच्ची होती है और इस उम्र में युवाओं के लिए सही निर्णय लेना लगभग असभंव होता है.
मिलिंद उस का पहला प्यार था. वह भी उसी के कालेज में पढ़ता था और एक साल सीनियर था. पढ़ाई के दौरान होने वाला प्यार मात्र मौजमस्ती के लिए होता है. यह सारे युवा जानते हैं. एकदूसरे को भरोसे में लेने के लिए वे बड़ेबड़े वादे करते हैं, लेकिन जब उन के बीच शारीरिक संबंध कायम हो जाते हैं, तो उस के बाद सारे वादे धरे के धरे रह जाते हैं. तब प्यार के बंधन ढीले पड़ने लगते हैं. फिर प्यार में कटुता पनपती है, दूरियां बढ़ती हैं और कई बार इस की परिणति बहुत दुखद होती है.
मिलिंद के साथ शारीरिक संबंध बनाने के बाद उसे पता चला कि वह एक बदमाश किस्म का युवक है. छोटीमोटी लूटपाट, मारपीट ही नहीं, वह युवतियों के साथ जोरजबरदस्ती भी करता था. जो युवती उस के झांसे में नहीं आती, उसे वह अपने मित्रों के माध्यम से अगवा कर उस की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करता. कालेज में वह बहुत बदनाम था, लेकिन किसी युवती ने अभी तक उस पर कोईर् दोष नहीं मढ़ा था, इसीलिए उस की हिम्मत दिनोदिन बढ़ती जा रही थी.
नित्या के लिए यह स्थिति बहुत कष्टकारी थी. न तो वह किसी को अपनी मनोस्थिति बता सकती थी और न ही किसी से सलाह ले सकती थी. मिलिंद के चंगुल से निकल भागने का कोई उपाय उसे नहीं सूझ रहा था.
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लेकिन परिस्थितियों ने उस का साथ दिया. चूंकि मिलिंद नित नई युवतियों पर फिदा होने वाला युवक था, नित्या से उस ने खुद ही दूरियां बनानी शुरू कर दीं. वह मन ही मन बड़ी खुश हुई. धीरेधीरे एक साल बीत गया और नित्या ने बीकौम भी कर लिया.
अगले साल उस ने मांबाप को मना कर दूसरे शहर में एमबीए जौइन कर लिया. होस्टल में जगह न मिलने के कारण पेइंगगैस्ट के रूप में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगी. पैसा बचाने के लिए उस ने अपना रूम एक दूसरी युवती के साथ शेयर कर लिया. सुरक्षा की दृष्टि से भी यह जरूरी था.
नए शहर में आ कर नित्या ने ठान लिया था कि वह किसी लफड़े में नहीं पड़ेगी. बस, अपनी पढ़ाई पर ध्यान देगी. लेकिन जहां खुला माहौल हो, भंवरे और तितलियां एक ही बाग में स्वछंद घूमफिर रहे हों, प्रकृति का रोमांच उन के दिलों को गुदगुदा रहा हो, तो वसंत के फूलों की सुगंध से वे कैसे बच सकते हैं और मधुमास के अभिसार से अछूते कैसे रह सकते हैं. पेड़पौधों और फूलपत्तों पर जब वसंत का निखार आता है, तो जवां दिल एक हुए बिना नहीं रह सकते.
वह बहुत सोचसमझ कर जीवन के अगले चरण में अपने कदम रख रही थी. उस की रूममेट शिखा बहुत बातूनी और चंचल थी. वह हर वक्त प्यारमुहब्बत की बातें करती रहती थी. नित्या उस की बातें सुन हलके से मुसकरा भर देती या उसे झिड़क देती, ‘‘अब बस कर, कुछ पढ़ाई की तरफ भी ध्यान दे ले.’’
‘‘पढ़ाई कर के क्या मिलेगा? अंत में शादी ही तो करनी है. अभी जवानी है, प्यार का मौसम है, तो क्यों न उस का भरपूर मजा लिया जाए?’’ वह अंगड़ाई ले कर कहती.
नित्या बस, मुसकरा कर रह जाती. प्यार के खेल की वह पुरानी खिलाड़ी थी, लेकिन उस ने शिखा को अपने पहले प्यार के बारे में कुछ नहीं बताया था. वह उन
कड़वी यादों को अपने दिल से निकाल देना चाहती थी.
यों ही हंसीमजाक में दिन गुजरते रहे. एक दिन शिखा ने पूछ ही लिया, ‘‘नित्या, सचसच बता, क्या तेरे मन में प्यार की भावना नहीं उमड़ती या तेरे साथ कोई हादसा हुआ है, जो तू प्यार के नाम से बिदकती है?’’
नित्या चौंक गई, क्या शिखा को उस के बारे में कुछ पता चल गया है या वह केवल कयास लगा रही है. उस ने कहा, ‘‘तू क्या समझती है, सारी युवतियां एकजैसी होती हैं? मेरा एक लक्ष्य है. मुझे पढ़ाईर् कर के मांबाप के सपनों को पूरा करना है.’’
‘‘बस कर, तू मुझे क्यों बना रही है? प्यार के मामले में सारी युवतियां एकजैसी होती हैं. जवान होने से पहले ही चारा खाने के लिए उतावली रहती हैं. मुझे तो लगता है, तूने चारा खा लिया है. अब बन रही है.’’
‘‘मैं ने क्या किया है या क्या करूंगी, यह तू मेरे ऊपर छोड़ दे. तू अपनी सोच,’’ नित्या ने बात को टालने का प्रयास किया.
शिखा लापरवाही से बोली, ‘‘मुझे अपने बारे में क्या सोचना? मैं ने तो अपना बौयफ्रैंड बना भी लिया है. तू अपनी फिक्र कर…’’ उस के चहरे से खुशी टपक रही थी, हृदय उछल रहा था. सपनों के उड़नखटोले में बैठ कर वह किसी और ही दुनिया में विचरण कर रही थी.
नित्या को उस के बौयफ्रैंड के बारे में जानने की कोई उत्सुकता नहीं थी, लेकिन एक कसक सी उस के मन में उठी. प्यार में ठोकर न खाई होती तो उस का भी कोई बौयफ्रैंड होता. उसे शिखा से जलन हुई. परंतु फिर उस ने अपना मन कड़ा किया. क्या फिर से आग में कूदने का इरादा है. शिखा को जो करना है, करे. वह अपने पथ पर अडिग रहेगी. पुरानी चोट क्या इतनी जल्दी भूल जाएगी?
लेकिन एक जवान युवती, जब घर से दूर अकेली रहती है, तो उस की भावनाएं बेलगाम हो जाती हैं. वह केवल अपने लक्ष्य पर ही ध्यान केंद्रित नहीं रख पाती. दूसरी चीजें भी उसे प्रलोभित करती हैं. कोई भी युवा अपने मन को चंचल होने से नहीं रोक सकता. नित्या भी अपने हृदय की भावनाओं और मन की चंचलता को दबाने का प्रयास करती, लेकिन शिखा की बातें सुनसुन कर वह मन से कमजोर पड़ने लगी थी. जब भी शिखा उस से अपने अफेयर और बौयफ्रैंड के बारे में बात करती तो उस के हृदय में कांटे से गड़ने लगते. सोचती, इतनी सुंदर दुनिया में वह अकेले ही चलने के लिए क्यों मजबूर है? यह उम्र क्या तनहाइयों में आहें भरने के लिए होती है?
कालेज में हर दूसरी युवती अपने बौयफ्रैंड के साथ नजर आती. एक बस वही अकेली थी. कितना खराब लगता था उसे. उस की फ्रैंड्स उसे चिढ़ातीं, ‘‘यह देखो, ठूंठ, इस पर जवानी का फूल अभी तक नहीं खिला है.’’
धीरेधीरे उस का मन विचलित होने लगा. पुरानी कड़वी यादें समय की परतों के नीचे दब सी गईं. नई भावनाओं ने जल की लहरों की तरह उस के हृदय में उछाल लेना शुरू कर दिया, जैसे कोई नया तूफान आने वाला था. नए तूफान को रोकने का उस ने प्रयास नहीं किया, वह कमजोर हो गई थी. प्यार के मामले में हर युवती बहुत कमजोर होती है. प्यार के नाम पर कोई भी युवक उसे किसी भी तरफ झुका सकता है. नित्या दूसरी बार झुकने के लिए अपने मन को तैयार कर रही थी.
सहेलियों के बीच वह एक ठूंठ सिद्ध हो चुकी थी. उस ने तय कर लिया, अब वह फूल की तरह कोमल बन कर दिखाएगी. उस ने अपने दिमाग को इधरउधर दौड़ाया. कई युवकों के चेहरे उस के मस्तिष्कपटल पर दौड़ने लगे, लेकिन उस ने तय किया कि वह किसी क्लासमेट या कालेज के किसी युवक से दोस्ती नहीं करेगी. मिलिंद भी उस के कालेज का लड़का था, वह कितना छिछोरा और बदमाश निकला. इस बार वह किसी नौकरीशुदा व्यक्ति से दोस्ती करेगी.
उस ने अपना मन अपने मकान में रहने वाले किराएदारों की तरफ केंद्रित किया. जिस मकान में वह रहती थी, उस में कई किराएदार थे. ज्यादातर कालेज की युवतियां थीं, कुछ आईटी प्रोफैशनल भी थे. कुछ अन्य नौकरी करने वाले थे. राहुल नित्या के कमरे के बिलकुल सामने रहता था. वह जब भी सामने पड़ता, उसे देख कर मुसकरा देता. पहले वह तटस्थ रहती थी, लेकिन जब उस के मन की भावनाओं ने पंख फैलाने शुरू किए, तो उस के होंठों पर भी मुसकान की मीठी झलक दिखाई देने लगी. युवकयुवती के बीच एक बार मुसकान का आदानप्रदान हो जाए, तो दूरियां कम होने में वक्त नहीं लगता.
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राहुल से रिश्ता बनाते समय उसे तनिक भी खयाल नहीं आया कि वह एक बार प्यार में धोखा खा चुकी है. इस बार ठोंकबजा कर राहुल को परख ले, जब प्यार की चिनगारी हृदय को जलाने लगती है, तो सारी सावधानी और समझदारी धरी की धरी रह जाती है.
बात बढ़ी, तो बढ़ती ही चली गई. दोनों एक ही बिल्डिंग में रहते थे, इसलिए उन के मिलने में कोई व्यवधान भी नहीं था. स्वच्छंद रूप से दिनरात जब भी मन करता, वे मिल लेते. उन के बीच की सारी दूरियां बिना किसी देरी के समाप्त हो गईं.
शिखा को उस के अफेयर के बारे में पता चलते देर न लगी. पूछा, ‘‘नित्या, तू तो बड़ी तेज निकली. इतनी जल्दी बौयफ्रैंड बना लिया. कल तक तो प्रेम के नाम पर नाकभौं सिकोड़ती थी.’’
नित्या ने सिर झटकते हुए कहा, ‘‘क्यों, क्या मैं प्यार नहीं कर सकती? आखिर सामान्य युवती हूं. मन में भावनाएं हैं, इच्छाएं हैं और हृदय में कामनाएं मचलती हैं. जब तक मन का दरवाजा नहीं खुलता, बाहर की हवा की सुगंध मनमस्तिष्क में नहीं घुसती, तब तक कामदेव के बाण किसी को घायल नहीं करते. मैं ने भी तुझ से सीख ले कर मन की आंखें खोल दीं, हृदयपटल को खोल कर ‘उसे’ प्रवेश करने की अनुमति दे दी. फिर तो तुम जानती ही हो, प्रेम की चिनगारी भड़कने में देर नहीं लगती.’’
‘‘पर तुम ने राहुल को क्यों पसंद किया. तुम्हारे क्सासमेट भी तो हैं?’’
‘‘तुम नहीं समझोगी. साथ में पढ़ने वाले युवकों में गंभीरता नहीं होती. उन का भविष्य अनिश्चित सा रहता है. पूरी तरह
से वे मांबाप पर निर्भर रहते हैं. राहुल नौकरीशुदा है. वह मेरा खर्च उठा सकता है.’’
‘‘क्या करता है वह?’’
‘‘शायद किसी आईटी कंपनी में ऐग्जिक्यूटिव है. मैं ने पूछा नहीं है.’’
‘‘नौकरी वाला बौयफ्रैंड पसंद किया है, तो क्या तुम उस से शादी करने की सोच रही हो?’’
‘‘क्या हर्ज है, अगर वह तैयार हो जाए,’’ नित्या ने लापरवाही से कहा.
‘‘तुम ने बात की है?’’
‘‘कर लूंगी, अभीअभी तो प्यार हुआ है. कुछ दिन एंजौय करने दो.’’
शिखा गंभीर हो गई, ‘‘नित्या, एक बात अच्छी तरह समझ लो, प्यार अगर मौजमस्ती के लिए है, तो इस में सबकुछ जायज है, पर अगर शादी कर के घर बसाने के उद्देश्य से तुम राहुल से प्यार कर रही हो, तो संभल कर रहना. पहले शादी कर लो, फिर अपना तन उस को समर्पित करना. आजकल शादी के नाम पर युवक बहलाफुसला कर युवतियों का सालों शोषण करते हैं और जब उन का मन भर जाता है, तो युवती को ठोकर मार कर भगा देते हैं. युवतियां भावुक होती हैं. वे बहुत जल्दी युवकों की बातों पर विश्वास कर लेती हैं और बाद में पछताती हैं. तुम राहुल से साफसाफ बात कर लो कि वह क्या चाहता है और तुम भी अपने दिल की बात उस के सामने रख दो कि तुम उस से शादी करना चाहती हो, वरना बाद में पछताओगी.’’
नित्या के मन में बात खटक गई. शिखा सच कह रही थी. प्यार कोई खेल तो है नहीं, जो केवल मनोरंजन के लिए खेला जाए. ऐसा प्यार वासना का खेल बन जाता है. उस ने खुद को धिक्कारा…. उसे क्या कभी अक्ल नहीं आएगी. एक बार लुट चुकी है और दूसरी बार लुटने को तैयार है. जीवनभर क्या वह प्यार के नाम पर अलगअलग युवकों के हाथों अपने शरीर को नुचवाती रहेगी, अपनी अस्मिता तारतार करवाती रहेगी?
उसे अफसोस होने लगा कि प्यार में वह इतनी जल्दबाजी क्यों करती है, दो दिन की बातचीत और मीठीमीठी बातों में आ कर उस ने खुद को राहुल के चरणों में समर्पित कर दिया.
अगली मुलाकात में उस ने राहुल से पूछ लिया, ‘‘राहुल, तुम ने अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताया, जबकि मैं अपने बारे में तुम्हें सबकुछ बता चुकी हूं.’’
‘‘क्या जानना चाहती हो मेरे बारे में?’’ उस ने संशय से पूछा.
‘‘मैं तुम्हारे नाम के सिवा क्या जानती हूं.’’
‘‘क्या तुम्हारे लिए इतना जानना पर्याप्त नहीं है कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं?’’
‘‘प्यार की अंतिम परिणति शादी होती है, इसलिए एकदूसरे के घरपरिवार के बारे में जानना भी जरूरी है,’’ नित्या ने अपने मन की बात कही.
राहुल ने टालने के भाव से कहा, ‘‘तुम कहां बेमतलब की बातों में पड़ी हो. दुनियादारी के लिए सारी उम्र पड़ी है. अभी प्यार का मौसम है, जी भर कर प्यार कर लो और उस की सुगंध अपने तनबदन में भर लो. प्यार की खुशबू से जब तनमन नहाने लगता है, तो बाकी चीजें गौण हो जाती हैं. अभी तुम केवल मेरे बारे में सोचो और मैं तुम्हारे बारे में… बस,’’ उस ने नित्या को बांहों में समेटने की कोशिश की.
नित्या ने प्यार से उसे अलग करते हुए कहा, ‘‘तुम अपनी मीठीमीठी बातों से टालने की कोशिश मत करो. मेरे लिए यह जानना काफी अहम है कि मैं ने जिस व्यक्ति से प्यार किया, वह जीवन में कितनी दूर तक मेरा साथ देगा. पुरुष और स्त्री को बांधने का सूत्र प्रेम होता है और जब वह सूत्र शादी के बंधन में बंध जाता है तो यह अटूट हो जाता है.’’
‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. जब हम स्वेच्छा से एकदूसरे के साथ रह रहे हैं, तो बीच में शादी कहां से आ गई?’’
‘‘राहुल, तुम बात को समझने का प्रयास करो. अब हम बच्चे या किशोर नहीं हैं, पूरी तरह से बालिग हैं. लिवइन रिलेशनशिप केवल वासना की पूर्ति का एक आधुनिक बहाना है, वरना समाज में इस तरह के कृत्य अवैध रूप से पहले भी चलते थे और आज भी चल रहे हैं. लेकिन परिवार और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के साथ अगर पतिपत्नी का रिश्ता निभाया जाए, तो सभी सुखी रहते हैं.’’
नित्या ने सोचसमझ कर बहुत गंभीर बात कही थी. उस में अब परिपक्वता झलक रही थी, क्यों न हो आखिर? ठोकर खाने के बाद तो मूर्ख भी अक्लमंद हो जाते हैं. इस के बाद भी अगर नित्या को अक्ल न आती, तो कब आती?
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राहुल चिंतित हो गया, फिर बोला, ‘‘यार, तुम ने भी अच्छाखासा रोमांटिक मूड खराब कर दिया. मैं बाद में इस मुद्दे पर बात करूंगा,’’ फिर वह अपने औफिस चला गया.
नित्या को उस की यह बेरुखी अच्छी नहीं लगी. वह समझ गई थी कि राहुल उस के साथ केवल शारीरिक संबंध बनाने तक ही रिश्ता कायम रखना चाहता है. इस के अलावा वह किसी और जिम्मेदारी के प्रति गंभीर नहीं है, पर बिना किसी जिम्मेदारी के यह रिश्ता भी कोई रिश्ता है. क्या यह एक प्रकार की वेश्यावृत्ति नहीं है? बिना प्रतिबद्धता और सामाजिक बंधन के युवती एक युवक के साथ रहे या दो के साथ, क्या फर्क पड़ता है? इस में पारिवारिक और सामाजिक प्रतिष्ठा कहां है. युवती को तो अपनी अस्मिता लुटा कर ही यह सब करना पड़ता है. बदले में उसे क्या मिलता है? युवक के चंद मीठे बोल, कुछ उपहार लेकिन सामाजिक सुरक्षा इस में कहां है? उसे लांछनों के साथ समाज में जीवित रहना पड़ता है.