जवां मोहब्बत: 18 की दुल्हन, 61 का दूल्हा

कहते हैं इश्क पर किसी का जोर नहीं चलता. चाहे कोई कितना भी इस के बहाव को रोकने की कोशिश करे, रोका नहीं जा सकता है. ऐसा ही कुछ पाकिस्तान में रावलपिंडी की 18 वर्षीया आशिया  के साथ हुआ. उस का दिल 61 साल के शमशाद पर आ गया था. इस के बाद जो हुआ…

आशिया कुछ हफ्ते बाद ही 18 ही होने वाली थी. अम्मीअब्बू उस की शादी को ले कर चिंतित थे.

वे उस के लिए अच्छा सा रिश्ता ढूंढ रहे थे. मनपसंद रिश्ता नहीं मिल पा रहा था. उन्हें शमशाद के आने का इंतजार था. वह महीनों से आए नहीं थे.

उन के बारे में आशिया की अम्मी हफ्ते भर से बातें कर रही थीं कि वह आएंगे तब उन की मुश्किल दूर हो जाएगी. बेटी का रिश्ता तय हो जाएगा. वह कई बार अपने शौहर से बोल चुकी थीं कि किसी से शमशाद के बारे में मालूम करें कि वह महीनों से क्यों नहीं आ रहे हैं.

शमशाद के बारे में अम्मी और अब्बू से बातें सुनसुन कर आशिया के मन में उन्हें देखने की इच्छा मचलने लगी थी. उस के दिल में निकाह को ले कर गुदगुदी होने लगी थी. उसे लगा जैसे उस की पसंद का दूल्हा चल कर उस के घर आने वाला हो. वह चुपके से रसोई में अम्मी से पूछ बैठी, ‘‘अम्मी शमशाद कौन है?’’

‘‘क्यों? क्या करना है उन के बारे में तुझे जान कर?’’ अम्मी झिड़कते हुए बोलीं.

‘‘मेरी अच्छी अम्मी, प्यारी अम्मी बताओ न, कौन हैं शमशाद? तुम अब्बू से उन के बारे में बातें करती रहती हो.’’ आशिया ठुनकते हुए बोली.

‘‘आएंगे, तब मिल लेना. और हां, जो कुछ तुम से पूछें, उस का सहीसही जवाब देना.’’ अम्मी प्यार से उस के गाल पर एक चपत लगाती हुई बोलीं.

अम्मी का जवाब आशिया को बेहद ही प्यारा लगा. उस के मन की बेचैनी और बढ़ गई. उस की अल्हड़ उम्र सपने बुनने लगी.

वह दिन भी आ गया, जब घर पर शमशाद आए. उन्हें अम्मी और अब्बू ने बैठकखाने में बिठाया था. आशिया ने कमरे के दरवाजे के परदे से झांक कर

देखा. उसे शमशाद की पीठ नजर आई. केश पीछे से आधे सफेद दिखे. वह चौंक गई, खुद से सवाल कर बैठी, ‘‘अरे

यह कौन है? यह तो कोई बुजुर्ग दिखता है.’’

‘‘आशिया… आशिया… रसोई में आना बेटा. शमशाद के लिए चायनाश्ता ले कर चलना है.’’ अम्मी की आवाज आई.  आशिया चुपचाप रसोई में चली गई. अम्मी से कुछ पूछे बगैर चायनाश्ते की ट्रे उठा ली और अम्मी के पीछेपीछे बैठक

में आ गई. वहां पहले से ही अब्बू भी बैठे थे.

उन के सामने वही इंसान बैठा था, जिस के बारे में घर में कई दिनों से बातें हो रही थीं. उन्हीं के आने का अम्मीअब्बू को इंतजार था. लेकिन वह आशिया के सपनों का शहजादा नहीं था. वह तो कोई 60 साल का लग रहा था. हां, पहनावे से अच्छा जरूर दिख रहा था.

वह भागती हुई रसोई में आ गई. अम्मी भी तुरंत आ गईं और पूछा, ‘‘तुम इतनी जल्दी क्यों आ गई? जाओ वहां, उन्हें तुम से कुछ सवाल पूछने हैं.’’

आशिया ने हिम्मत कर पूछा, ‘‘क्या इन्हीं से हमारा निकाह…’’

अम्मी बीच में ही हंसती हुई बोल पड़ीं, ‘‘अरे धत पगली! वह तो निकाह करवाने वाला है, लड़के और लड़कियों के लिए रिश्ते ले कर आते हैं. तेरे लिए एक

रिश्ता ले कर आए हैं. जा, जा कर अपने होने वाले दूल्हे के बारे में जो पूछना है पूछ ले.’’

‘‘मेरा जिस से निकाह होना है वह कोई और है? मैं तो उन्हीं को अपना दूल्हा समझ रही थी.’’ बोलते हुए आशिया बैठकखाने में चली गई. उस के जाने पर अब्बू वहां से चले गए.

शमशाद ने एक नजर आशिया पर डाली. बैठने का इशारा किया. आशिया उस के सामने की कुरसी पर बैठ गई और उस के सवालों का इंतजार करने लगी. कुछ समय तक चुप्पी छाई रही. वहां उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. शमशाद ने सीधा सा सवाल किया, ‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है?’’

‘‘जी, 17 साल 10 महीने.’’ आशिया बोली.

‘‘सहीसही बताओ, 18 साल पूरे होने में कितने दिन बचे हैं?’’ शमशाद बोले.

‘‘जन्म की तारीख के हिसाब से कुल 42 दिन बचे हुए हैं.’’

‘‘तुम्हारी माहवारी की तारीख क्या है?’’ शमशाद ने पूछा.

आशिया को बड़ा अटपटा लगा यह सवाल सुन कर. वह चुप रही. शमशाद ने दोबारा पूछा, ‘‘कहां तक पढ़ी हो? उस की तारीख याद रखनी चाहिए तुम्हें.’’

‘‘जी…जी, पता है. महीने की 22-23 तारीख.’’ आशिया बोली.

‘‘शाबाश! इस तरीख को खुद याद रखना और होने वाले शौहर को याद रखना जरूरी है.’’ शमशाद बोले.

‘‘क्यों, शौहर को क्यों?’’ आशिया ने जिज्ञासा जताई.

‘‘बहुत खूब पूछा तुम ने. वह इसलिए ताकि उस दौरान होने वाली तुम्हारी तकलीफों और नासाज सेहत को शौहर भी समझ सके. वैसे तुम हो हिम्मती.’’

‘‘जी!’’ आशिया बोली.

‘‘ठीक है, अब तुम जाओ,’’ शमशाद बोले.

‘‘सिर्फ यही पूछना था?’’ आशिया बोली.

‘‘हां, बाकी सवाल अम्मीअब्बू से बात करने के बाद पूछूंगा.’’ शमशाद बोले.

‘‘मैं आप से एक सवाल पूछूं?’’

‘‘हां हां, पूछो.’’

‘‘आप अपनी बीवी की माहवारी के बारे में जानते हैं?’’ आशिया तपाक से पूछ बैठी.

‘‘यही तो मुझ से गलती हो गई. मैं उस बारे में कभी नहीं पूछ पाया. उस का खयाल नहीं रख पाया. वही उस की बीमारी का कारण भी बना और कई दिनों तक खून बहता रहा. उस ने जब इस बारे में बताया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. एक दिन वह मुझे छोड़ कर दूसरी दुनिया में चली गई.’’ शमशाद मायूसी से बोल कर ऊपर की ओर देखने लगा.

आशिया को लगा जैसे उस ने शमशाद की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. वह सहम गई और सौरी बोल कर वहां से अपने कमरे में चली आई.

शमशाद के साथ अम्मी और अब्बू की करीब आधे घंटे तक बाचचीत होती रही. उन के बीच क्या बातें हो रही थीं, इस पर आशिया ने ध्यान नहीं दिया. उस के दिमाग में एक ही बात कौंध रही थी कि अच्छा शौहर वही होता है, जो उस की सेहत का खयाल रखता है.

एक हफ्ते बाद ही शमशाद फिर आए. अब्बू काम के सिलसिले में बाहर निकले हुए थे. अम्मी बाजार गई हुई थीं. घर पर केवल आशिया ही अकेली थी.

उस ने शमशाद को बैठकखाने में बिठाया और खातिरदारी में लग गई. रसोई में चाय बनाते वक्त आशिया की बातें एक बार फिर घूमने लगीं. कुछ समय में ही वह चाय और नाश्ता ले कर बैठकखाने में आ गई.

शमशाद ने पूछा, ‘‘कैसी हो आशिया?’’

‘‘जी, बहुत अच्छी हूं.’’ आशिया चहकते हुए बोली.

‘‘बहुत खुश नजर आ रही हो,’’ शमशाद बोले.

‘‘आप आए न इसलिए.’’ आशिया बोली.

‘‘अच्छा, तो मेरी बातें तुम्हें अच्छी लगीं… बहुत सी लड़कियों को मेरे सवाल अच्छे नहीं लगते हैं. मेरा सवाल सुनते ही मुंह बिचका लेती हैं. मुझे गलत समझ बैठती हैं. वे दोबारा मुझ से बात तक नहीं करतीं.’’

‘‘मैं तो कहती हूं कि आप बहुत अच्छा पूछते हैं,’’ आशिया बोली.

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, तुम्हें देख कर तो मोहल्ले के लड़के आहें भरते होंगे.’’ शमशाद तारीफ में बोले.

‘‘भरा करें आहें मेरी बला से. मैं उन के पीछे नहीं भागती. सारे के सारे निखट्टू हैं.’’ आशिया ने ताने मारे.

‘‘तुम्हें कैसा लड़का पसंद है?’’ शमशाद ने पूछा.

‘‘आप जैसा?’’ अचानक आशिया के मुंह से निकल गया.

‘‘मुझ जैसा या मैं?’’ शमशाद भी अचानक बोल पड़े.

‘‘धत तेरे की!’’ आशिया जाने लगे.

‘‘यहीं बैठो न, तुम से बातें कर के बहुत अच्छा लग रहा है.’’ शमशाद ने उस का हाथ पकड़ कर वहीं बिठा लिया. आशिया वहीं स्टूल पर बैठ गई. बैठते ही पूछ बैठी, ‘‘तुम सिर्फ निकाह करवाने का काम करते हो? अब तक कितने जोड़ों के निकाह करवा चुके हो?’’

‘‘अरे नहीं, मैं निकाह नहीं करवाता वह तो काजी करवाता है. मैं तो उस के लिए जोड़े मिलवाने का काम करता हूं. बड़ी मुश्किल से रिश्ते बनते हैं,’’ शमशाद बोले.

‘‘मेरे लिए कैसा रिश्ता ढूंढा है?’’ आशिया ने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘जो ढूंढा था, लगता है तुम्हारे लायक सही नहीं होगा. किसी और की तलाश करनी होगी,’’ शमशाद बोले.

‘‘उस में कमी है क्या?’’

‘‘नहीं, कमी उस में नहीं वह बराबरी का नहीं है. मुझे लगता है वह तुम्हारी तरह खुले विचारों का नहीं है,’’ शमशाद बोले.

‘‘सही फरमाया आप ने, मुझे एकदम से खुले विचारों वाला ही चाहिए, जैसे कि आप हैं. आप से बातें कर लगता है कि मैं बराबर की उम्र के किसी लड़के के साथ बात कर रही हूं.’’

उस रोज आशिया और शमशाद की काफी बातें हुईं. उन्होंने परिवार, शादी और समाज से ले कर दुनियाजहान की भी बातें कीं. कम उम्र वाली लड़की से शादी करने पर भी बातें हुईं.

दोनों ने उसे गलत नहीं कहा. उन्होंने इमरान खान की शादी के हवाले से उस की प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि तक गिनवा दी.

दोनों बातें करने में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं चला. बातोंबातों में आशिया ने शमशाद से उन के खानदान और परिवार के बारे में भी मालूम कर लिया.

पता चला कि शमशाद अपनी अकेली जिंदगी गुजारने पर मजबूर हैं. गुजारे के लिए मकान के बाहर 5 दुकानें हैं. उस से उन्हें किराया मिलता है. मकान की ऊपरी मंजिल पर 2 परिवार किराए पर रहते हैं. वही लोग घर की देखभाल भी कर देते हैं.

आशिया की अम्मी आईं और देरी का कारण बताया. आशिया से शमशाद की खातिरदारी के बारे में पूछा. शमशाद ने ही बताया कि उन की बेटी ने उन की बड़ी अच्छी मेहमाननवाजी की है. उसे 2 बार चाय नाश्ता करवाया है. यह भी कहा कि आशिया एक नेकदिल इंसान है. जितनी सुंदर दिखती है उस से भी अधिक सुंदर उस का मन है.

शमशाद जाने को तैयार हो गए. इस पर आशिया बोली, ‘‘थोड़ी देर और

ठहर जाइए न, खाना खा कर जाइएगा.’’

‘‘कोई लड़का तुम्हें पसंद आया?’’ अम्मी ने आशिया से पूछा.

‘‘हां अम्मी, आया न!’’ कहती हुई आशिया शरमाती हुई अंदर चली गई. शमशाद भी अगले हफ्ते आने को बोल कर चले गए.

आशिया अम्मी के साथ रात का खाना पकाने की तैयारी कर रही थी. आशिया ने कहा, ‘‘अम्मी, शमशाद बहुत अच्छे हैं.’’

‘‘अच्छे हैं तभी तो तुम्हारे लिए रिश्ता ढूंढने के लिए उन्हें कहा है.’’ अम्मी बोली.

‘‘लेकिन अम्मी, मुझे तो शमशाद ही पसंद हैं.’’ आशिया बोली.

‘‘क्या बकती हो तुम? कहां तुम्हारी कमसिन उम्र और कहां शमशाद की उम्र! हाय तौबा, क्या हो गया है तुम्हें.’’ अम्मी चौंकती हुई बोलीं.

‘‘कुछ नहीं अम्मी, मेरा उन पर दिल आ गया है. वह मुझे बहुत अच्छे लगे.’’

‘‘बहुत अच्छे लगने से क्या होता है. पूरी जिंदगी गुजारनी है उन के साथ. वह तुम से 40 साल से अधिक बड़े हैं.’’

‘‘बड़े हैं तो क्या हुआ. वह नेक इंसान हैं. नेक काम करते हैं. अच्छी आमदनी है. और क्या चाहिए. मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि वह मुझे बहुत खुश रखेंगे.’’ आशिया बोलती चली गई.

‘‘यह बात दोबारा मत बोलियो. अब्बू सुनेंगे तो गजब हो जाएगा. …और हां रिश्तेदार क्या कहेंगे हमारे बारे में.’’ अम्मी बिफरती हुई बोलीं.

2 हफ्ते तक शमशाद नहीं आए. आशिया चिंतित हो गई. उस से अधिक चिंता उस के अम्मीअब्बू को होने लगी. विवाह के नए कानून की वजह से उन की चिंता और बढ़ गई.

दरअसल, पाकिस्तान सरकार ने विवाह का नया कानून बनाया है. उस के मुताबिक लड़की की 18 की उम्र होते ही उस का निकाह करना जरूरी होगा.

ऐसा नहीं करने पर इस का जुरमाना उस के मातापिता या अभिभावक को भरना पड़ेगा.

कानून के मुताबिक मुसलिम पुरुषों और महिलाओं को 18 साल की उम्र के बाद शादी का अधिकार दिया गया है. इसे पूरा करना उन के अभिभावकों, विशेषकर उन के मातापिता की जिम्मेदारी है.

पाकिस्तान में यह कानून सिंध प्रांतीय विधानसभा के एक विधायक की पहल पर बनाया गया है. इस कानून से सरकार का मकसद सामाजिक बुराइयों, बच्चियों से बलात्कार और अनैतिक गतिविधियों को काबू में करना है. इस के अंतर्गत 18 साल की उम्र होने पर लोगों की शादी को अनिवार्य बनाने के प्रावधान किए गए हैं.

‘सिंध अनिवार्य विवाह अधिनियम, 2021’ में कहा गया है कि ऐसे वयस्कों के अभिभावकों जिन की 18 साल की उम्र के बाद भी शादी नहीं हुई हो, उन्हें जिले के उपायुक्त के समक्ष इस की देरी के उचित कारण के साथ एक शपथपत्र प्रस्तुत करना होगा. शपथपत्र प्रस्तुत करने में विफल रहने वाले अभिभावकों को 500 रुपए का जुरमाना देना होगा.

आशिया की उम्र 18 साल हो गई थी और उस के लिए कोई रिश्ता तय नहीं हो पाया था. जबकि आशिया रिश्ता तय करवाने वाले से ही निकाह की जिद लगाए बैठी थी.

आखिरकार उस के मातापिता को जिद माननी पड़ी. उन्होंने शमशाद को बुलवाया. शमशाद के आने पर उन से आशिया की बात बताई. शमशाद को भी आशिया पसंद थी. इसलिए उन्होंने देरी किए बगैर हामी भर दी. जल्द ही उन के निकाह की तारीख मुकर्रर कर दी गई. उस परिवार में ही नहीं, उन के इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गई कि 18 साल की लड़की 61 साल के बुजुर्ग से शादी करने वाली है.

सभी मीडिया वाले सक्रिय हो गए. उन्होंने अपनेअपने स्तर से उन की शादी का कवरेज किया. निकाह के अगले रोज आशिया और शमशाद के इंटरव्यू के साथ खबर अखबारों और चैनलों में आ गई.

आशिया ने इंटरव्यू में कहा कि शमशाद इलाके में गरीब लड़कियों की शादी करवाते थे, मुझे यही आदत अच्छी लगी. दूसरी बात वह लड़की के हक की बात खुल कर करते हैं. एक यूट्यूबर ने उन की शादी पर अनोखा विवाह बना कर वीडियो अपलोड कर दिया.

शमशाद ने कहा कि वह खुद को काफी खुशनसीब मानते हैं कि इस उम्र में लाइफ पार्टनर मिला. वह बोले, आशिया मेरा बहुत ध्यान रखती हैं. आशिया ने कहा, शमशाद भी उन का खूब ध्यान रखते हैं. आशिया ने बताया, ‘उन्हें जिस चीज की भी जरूरत होती है, वह ला देते हैं. मेरे परिवार की भी मदद करते हैं.’

शमशाद बताते हैं कि वे इस बात के लिए शुक्रगुजार हैं कि उन्हें इस उम्र में 18 साल की आशिया से शादी करने का मौका मिला. उन्होंने बताया कि उन की शादी की बात सुन कर कई रिश्तेदारों ने मुंह बनाए. लोग वैसे भी जीने नहीं देते हैं. कोई न कोई रुकावट पैदा करने की कोशिश करते हैं. लोग उम्र के अंतर को ले कर असहज थे.

जब आशिया से इस इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि इतनी कम उम्र में बड़ी उम्र के शख्स से शादी करने की क्या जरूरत थी तो आशिया ने कहा, ‘‘रिश्तेदार तो अब भी कहते रहते हैं. लोग वैसे भी बात करने से पीछे नहीं हटते हैं. मैं जब भी मोहल्ले में जाती हूं तो लोग कहते हैं कि तुम ने उस में क्या देखा?’’

आशिया ने कहा कि वह लोगों को नहीं समझा सकती हैं. उन्हें इन बातों से फर्क नहीं पडता है. इस शादी से आशिया और शमशाद भले ही खुश हों, लेकिन हर लव स्टोरी की तरह समाज इस में भी दुश्मन बना हुआ है, जो उन्हें उम्र के फासले को ले कर ताने मारता रहता है लेकिन इश्क के इन परिंदों को इस की कोई परवाह नहीं है.

अंतत -भाग 3: जीत किस की हुई

पत्र पढ़ कर ताऊजी वितृष्णा से हंस पड़े थे और व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘देखा रघुवीर, सुन लो मां, तुम्हारे दामाद ने कैसा आदर्श बघारा है. चोर कहीं का. आखिर उस ने सचाई स्वीकार कर ही ली. लेकिन अब भी अपनेआप को हरिश्चंद्र साबित करने से बाज नहीं आया.’

पिताजी इस घटना से और भी भड़क उठे थे. उन्होंने उसी दिन आंगन में सब के सामने कसम खाई थी कि ऐसे जीजा का वे जीवनभर मुंह नहीं देखेंगे. न ही ऐसे किसी व्यक्ति से कोई संबंध रखेंगे, जो उस शख्स से जुड़ा हुआ हो, फिर चाहे वह उन की बहन ही क्यों न हो.

बूआ न केवल फूफाजी से जुड़ी हुई थीं बल्कि वे उन का एकमात्र संबल थीं. उस के बाद वास्तव में ही पिताजी फूफाजी का मुंह न देख सके. वे यह भी भूल गए कि उन की कोई बहन भी है. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे लोग कहां हैं, किस हालत में हैं.

इधर ताऊजी ने बिलकुल ही नए क्षेत्र में हाथ डाला और अपना एक पिं्रटिंग प्रैस खोल लिया. शुरू में एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. बहुत समय तक ऐसे ही चला, किंतु धीरेधीरे पत्रिका का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा. कुछ ही वर्षों में उन के प्रैस से 1 दैनिक, 2 मासिक और 1 साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा. ताऊजी की गिनती सफल प्रकाशकों में होने लगी. किंतु जैसेजैसे संपन्नता बढ़ी, वे खुद और उन का परिवार भौतिकवादी होता चला गया. जब उन्हें यह घर तंग और पुराना नजर आने लगा तो उन्होंने शहर में ही एक कोठी ले ली और सपरिवार वहां चले गए.

इस बीच बहुतकुछ बदल गया था. मैं और भैया जवान हो गए थे. मां, पिताजी ने बुढ़ापे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया. दादी तो और वृद्ध हो गई थीं. सभी अपनीअपनी जिंदगी में इस तरह मसरूफ हो गए कि गुजरे सालों में किसी को बूआ की याद भी नहीं आई.

पिताजी ने बूआ से संबंध तोड़ लिया था, लेकिन दादी ने नहीं, इस वजह से पिताजी, दादी से नाराज रहते थे और शायद इसीलिए दादी भी बेटी के प्रति अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार न कर सकती थीं. उन्हें हमेशा बेटे की नाराजगी का डर रहा. बावजूद इस के, उन्होंने बूआ से पत्रव्यवहार जारी रखा और बराबर उन की खोजखबर लेती रहीं. बूआ के पत्रों से ही दादी को समयसमय पर सारी बातों का पता चलता रहा.

फूफाजी ने अहमदाबाद जाने के बाद अपने मित्र के सहयोग से नया व्यापार शुरू कर दिया था. लेकिन काम ठीक से जम नहीं पाया. वे अकसर तनावग्रस्त और खोएखोए से रहते थे. बूआ ने एक बार लिखा था, ‘बदनामी का गम उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है. वे किसी भी तरह इस सदमे से उबर नहीं पा रहे. अकेले में बैठ कर जाने क्याक्या बड़बड़ाते रहते हैं. समझाने की बहुत कोशिश करती हूं, पर सब व्यर्थ.’

कुछ समय बाद बूआ ने लिखा था, ‘उन की हालत देख कर डर लगने लगा है. उन का किसी काम में मन नहीं लगता. व्यापार क्या ऐसे होता है. पर वे तो जैसे कुछ समझते ही नहीं. मुझ से और बच्चोें से भी अब बहुत कम बोलते हैं.’

बूआ को भाइयों से एक ही शिकायत थी कि उन्होंने मामले की गहराई में गए बिना बहुत जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया था. यदि ईमानदारी से सचाई जानने की कोशिश की गई होती तो ऐसा न होता और न वे (फूफाजी) इस तरह टूटते.

बूआ के दर्दभरे पत्र दादी के मर्म पर कहीं भीतर तक चोट कर जाते थे. मन की घनीभूत पीड़ा जबतब आंसू बन कर बहने लगती थी. कई बार मैं ने स्वयं दादी के आंसू पोंछे. मैं समझ नहीं पाती कि वे इस तरह क्यों घुटती रहती हैं, क्यों नहीं बूआ के लिए कुछ करतीं? यदि फूफाजी निर्दोष हैं तो उन्हें किसी से भी डरने की क्या आवश्यकता है?

लेकिन मेरी अल्पबुद्धि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती थी. बूआ के पत्र बदस्तूर आते रहते. उन्हीं के पत्रों से पता चला कि फूफाजी का स्वास्थ ठीक नहीं चल रहा. वे अकसर बीमार रहे और एक दिन उसी हालत में चल बसे.

फूफाजी क्या गए, बूआ की तो दुनिया ही उजड़ गई. दादी अपने को रोक नहीं पाईं और उन दुखद क्षणों में बेटी के आंसू पोंछने उन के पास जा पहुंचीं. जाने से पूर्व उन्होंने पिताजी से पहली बार कहा था, ‘जिसे तू अपना बैरी समझता था वह तो चला गया. अब तू क्यों अड़ा बैठा है. चल कर बहन को सांत्वना दे.’

मगर पिताजी जैसे एकदम कठोर और हृदयहीन हो गए थे. उन पर दादी की बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. दादी क्रोधित हो उठीं. और उस दिन पहली बार पिताजी को खूब धिक्कारा था. इस के बाद दादी को ताऊजी से कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ था.

बूआ ने भाइयों के न आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उन्होंने सारे दुख को पी कर स्वयं को कठोर बना लिया था. पति की मौत पर न वे रोईं, न चिल्लाईं, बल्कि वृद्ध ससुर और बच्चों को धीरज बंधाती रहीं और उन्हीं के सहयोग से सारे काम निबटाए. बूआ का यह अदम्य धैर्य देख कर दादी भी चकित रह गई थीं, साथ ही खुश भी हुईं. फूफाजी की भांति यदि बूआ भी टूट जातीं तो वृद्ध ससुर और मासूम बच्चों का क्या होता?

फूफाजी के न रहने के बाद अकेली बूआ के लिए इतने बड़े शहर में रहना और बचेखुचे काम को संभालना संभव न था. सो, उन्होंने व्यवसाय को पति के मित्र के हवाले किया और स्वयं बच्चों को ले कर ससुर के साथ गांव चली गईं, जहां अपना पैतृक मकान था और थोड़ी खेतीबाड़ी भी.

बूआ को पहली बार मैं ने तब देखा था जब वे 3 वर्ष पूर्व ताऊजी के निधन का समाचार पा कर आई थीं, हालांकि उन्हें बुलाया किसी ने नहीं था. ताऊजी एक सड़क दुर्घटना में अचानक चल बसे थे. विदेश में पढ़ रहे उन के बड़े बेटे ने भारत आ कर सारा कामकाज संभाल लिया था.

दूसरी बार बूआ तब आईं जब पिछले साल समीर भैया की शादी हुई थी. पहली बार तो मौका गमी का था, लेकिन इस बार खुशी के मौके पर भी किसी को बूआ को बुलाना याद नहीं रहा, लेकिन वे फिर भी आईं. पिताजी को बूआ का आना अच्छा नहीं लगा था. दादी सारा समय इस बात को ले कर डरती रहीं कि बूआ की घोर उपेक्षा तो हो ही रही है, कहीं पिताजी उन का अपमान न कर दें. लेकिन जाने क्या सोच कर वे मौन ही रहे.

पिताजी का रवैया मुझे बेहद खला था. बूआ कितनी स्नेहशील और उदार थीं. भाई द्वारा इतनी अपमानित, तिरस्कृत हो कर क्या कोई बहन दोबारा उस के पास आती, वह भी बिन बुलाए. यह तो बूआ की महानता थी कि इतना सब सहने के बाद भी उन्होंने भाई के लिए दिल में कुछ नहीं रखा था.

चलो, मान लिया कि फूफाजी ने पिताजी के साथ विश्वासघात किया था और उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, लेकिन उस के बाद स्वयं फूफाजी ने जो तकलीफें उठाईं और उन के बाद बूआ और बच्चों को जो कष्ट झेलने पड़े, वे क्या किसी भयंकर सजा से कम थे. यह पिताजी की महानता होती यदि वे उन्हें माफ कर के अपना लेते.

अब जबकि बूआ ने बेटी की शादी पर कितनी उम्मीदों से बुलाया है, तो पिताजी का मन अब भी नहीं पसीज रहा. क्या नफरत की आग इंसान की तमाम संवेदनाओं को जला देती है?

दादी ने उस के बाद पिताजी को बहुतेरा समझाने व मनाने की कोशिशें कीं. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विवाह का दिन जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, दादी की चिंता और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ऐसे में ही दादी के नाम बूआ का एक पत्र आ गया. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में लिखा था, ‘अगले हफ्ते तान्या की शादी है. लेकिन भैया नहीं आए, न ही उन्होंने या तुम ने ऐसा कोई संकेत दिया है, जिस से मैं निश्चिंत हो जाऊं. मैं जानती हूं कि तुम ने भैया को मनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी होगी, मगर शायद इस बार भी हमेशा की तरह मेरी झोली में भैया की नफरत ही आई है.

‘मां, मैं भैया के स्वभाव से खूब परिचित हूं. जानती हूं कि कोई उन के फैसले को नहीं बदल सकता. पर मां, मैं भी उन की ही बहन हूं. अपने फैसले पर दृढ़ रहना मुझे भी आता है. मैं ने फैसला किया है कि तान्या का कन्यादान भैया के हाथों से होगा. बात केवल परंपरा के निर्वाह की नहीं है बल्कि एक बहन के प्यार और भांजी के अधिकार की है. मैं अपना फैसला बदल नहीं सकती. यदि भैया नहीं आए तो तान्या की शादी रुक जाएगी, टूट भी जाए तो कोई बात नहीं.’

पत्र पढ़ कर दादी एकदम खामोश हो गईं. मेरा तो दिमाग ही घूम गया. यह बूआ ने कैसा फैसला कर डाला? क्या उन्हें तान्या दीदी के भविष्य की कोई चिंता नहीं? मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

आखिर में दादी से पूछ ही बैठी, ‘‘अब क्या होगा, बूआ को ऐसा करने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘तू नहीं समझेगी, यह एक बहन के हृदय से निकली करुण पुकार है,’’ दादी द्रवित हो उठीं, ‘‘माधवी आज तक चुपचाप भाइयों की नफरत सहती रही, उन के खिलाफ मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला. आज पहली बार उस ने भाई से कुछ मांगा है. जाने कितने वर्षों बाद उस के जीवन में वह क्षण आया है, जब वह सब की तरह मुसकराना चाहती है. मगर तेरा बाप उस के होंठों की यह मुसकान भी छीन लेना चाहता है. पर ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं,’’ उन का स्वर कठोर होता चला गया.

दादी की बातों ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मुझे लगा उन्होंने कोई फैसला कर लिया है. किंतु उन की गंभीर मुखमुद्रा देख कर मैं कुछ पूछने का साहस न कर सकी. पर ऐसा लग रहा था कि अब कुछ ऐसा घटित होने वाला है, जिस की किसी को कल्पना तक नहीं.

शाम को पिताजी घर आए तो दादी ने बूआ का पत्र ला कर उन के सामने रख दिया. पिताजी ने एक निगाह डाल कर मुंह फेर लिया तो दादी ने डांट कर कहा, ‘‘पूरा पत्र पढ़, रघुवीर.’’

पिताजी चौंक से गए. मैं कमरे के दरवाजे से सटी भीतर झांक रही थी कि पता नहीं क्या होने वाला है.

पिताजी ने सरसरी तौर पर पत्र पढ़ा और बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें क्या करना चाहिए, इतना भी नहीं जानते,’’ दादी के स्वर ने सब को चौंका दिया था. मां रसोई का काम छोड़ कर कमरे में चली आईं.

‘‘मां, मैं तुम से पहले भी कह चुका हूं.’’

‘‘कि तू वहां नहीं जाएगा,’’ दादी ने व्यंग्यभरे, कटु स्वर में कहा, ‘‘चाहे तान्या की शादी हो, न हो…वाह बेटे.’’

क्षणिक मौन के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मैं आज तक तेरी हठधर्मिता को चुपचाप सहती रही. तुम दोनों भाइयों के कारण माधवी का तो जीवन बरबाद हो ही गया, पर मैं तान्या का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

दादी का स्वर भर्रा गया, ‘‘तेरी जिद ने आज मुझे वह सब कहने पर मजबूर कर दिया है, जिसे मैं नहीं कहना चाहती थी. मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस बेटे के जीतेजी उस के अपराध पर परदा डाले रही, आज उस के न रहने के बाद उस के बारे में यह सब कहना पड़ेगा. पर मैं और चुप नहीं रहूंगी. मेरी चुप्पी ने हर बार मुझे छला है.

‘‘सुन रहा है रघुवीर, फर्म में गबन धीरेंद्र ने नहीं बल्कि तेरे सगे भाई ने किया था.’’

मैं सकते में आ गई. पिताजी फटीफटी आंखों से दादी की तरफ देख रहे थे, ‘‘नहीं, नहीं, मां, यह नहीं हो सकता.’’

दादी गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन सच यही है, बेटा. क्या मैं तुझ से झूठ बोलूंगी? क्या कोई मां अपने मृत बेटे पर इस तरह का झूठा लांछन लगा सकती है? बोल, जवाब दे?’’

‘‘नहीं मां, नहीं,’’ पिताजी का समूचा शरीर थरथरा उठा. उन की मुट्ठियां कस गईं, जबड़े भिंच गए और होंठों से एक गुर्राहट सी खारिज हुई, ‘‘इतना बड़ा विश्वासघात…’’

फिर सहसा उन्होंने चौंक कर दादी से पूछा, ‘‘यह सब तुम्हें कैसे पता चला, मां?’’

‘‘शायद मैं भी तुम्हारी तरह अंधेरे में रहती और झूठ को सच मान बैठती. लेकिन मुझे शुरू से ही सचाई का पता चल गया था. हुआ यों कि एक दिन मैं ने सुधीर और बड़ी बहू की कुछ ऐसी बातें सुन लीं, जिन से मुझे शक हुआ. बाद में एकांत में मैं ने सुधीर को धमकाते हुए पूछा तो उस ने सब सचसच बता दिया.’’

‘‘तो तुम ने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई?’’ पिताजी ने तड़प कर पूछा.

‘‘कैसे बताती, बेटा, मैं जानती थी कि सचाई सामने आने के बाद तुम दोनों भाई एकदूसरे के दुश्मन बन जाओगे. मैं अपने जीतेजी इस बात को कैसे बरदाश्त कर सकती थी. मगर दूसरी तरफ मैं यह भी नहीं चाहती थी कि बेकुसूर दामाद को अपराधी कहा जाए और तुम सभी उस से नफरत करो. किंतु दोनों ही बातें नहीं हो सकती थीं. मुझे एक का परित्याग करना ही था.

‘‘मैं ने बहुत बार कोशिश की कि सचाई कह दूं. पर हर बार मेरी जबान लड़खड़ा गई, मैं कुछ नहीं कह पाई और तभी से अपने सीने पर एक भारी बोझ लिए जी रही हूं. बेटी की बरबादी की असली जिम्मेदार मैं ही हूं,’’ कहतेकहते दादी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

‘‘मां, यह तुम ने अच्छा नहीं किया. तुम्हारी खामोशी ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया,’’ पिताजी दोनों हाथों से सिर थाम कर धड़ाम से बिस्तर पर गिर गए. मां और मैं घबरा कर उन की ओर लपकीं.

पिताजी रो पड़े, ‘‘अब तक मैं क्या करता रहा. अपनी बहन के साथ कैसा अन्याय करता रहा. मैं गुनाहगार हूं, हत्यारा हूं. मैं ने अपनी बहन का सुहाग उजाड़ दिया, उसे घर से बेघर कर डाला. मैं अपनेआप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

पिताजी का आर्तनाद सुन कर मां और मेरे लिए आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया. हम तीनों ही रो पड़े.

दादी ही हमें समझाती रहीं, सांत्वना देती रहीं, विशेषकर पिताजी को. कुछ देर बाद जब आंसुओं का सैलाब थमा तो दादी ने पिताजी को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटा, इस तरह अपनेआप को दोषी मान कर सजा मत दे. दोष किसी एक का नहीं, हम सब का है. वह वक्त ही कुछ ऐसा था, हम सब परिस्थितियों के शिकार हो गए. लेकिन अब समय अपनी गलतियों पर रोने का नहीं बल्कि उन्हें सुधारने का है. बेटा, अभी भी बहुतकुछ ऐसा है, जो तू संवार सकता है.’’

दादी की बातों ने पिताजी के संतप्त मन को ऐसा संबल प्रदान किया कि वे उठ खड़े हुए और एकदम से पूछा, ‘‘समीर कहां है?’’

समीर भैया उसी समय बाहर से लौटे थे, ‘‘जी, पिताजी.’’

‘‘तुम जाओ और इसी समय कानपुर जाने वाली ट्रेन के टिकट ले कर आओ, पर सुनो, ट्रेन को छोड़ो… मालूम नहीं, कब छूटती होगी. तुम एक टैक्सी बुक करा लो और ज्योत्सना, माया तुम दोनों जल्दी से सामान बांध लो. मां, हम लोग इसी समय दीदी के पास चल रहे हैं,’’ पिताजी ने एक ही सांस में हस सब को आदेश दे डाला.

फिर वे शिथिल से हो गए और कातर नजरों से दादी की तरफ देखा, ‘‘मां, दीदी मुझे माफ कर देंगी?’’ स्वर में जाने कैसा भय छिपा हुआ था.

‘‘हां, बेटा, उस का मन बहुत बड़ा है. वह न केवल तुम्हें माफ कर देगी, बल्कि तुम्हारी वही नन्हीमुन्नी बहन बन जाएगी,’’ दादी धीरे से कह उठीं.

अंतत: भाईबहन के बीच वर्षों से खड़ी नफरत और गलतफहमी की दीवार गिर ही गई. मैं खड़ी हुई सोच रही थी कि वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब पिताजी बूआ को गले से लगाएंगे.

 

अंतत -भाग 2: जीत किस की हुई

अचानक ही फर्म में लाखों की हेराफेरी का मामला प्रकाश में आया, जिस ने न केवल तीनों साझेदारों के होश उड़ा दिए बल्कि फर्म की बुनियाद तक हिल गई. तात्कालिक छानबीन से एक बात स्पष्ट हो गई कि गबन किसी साझेदार ने किया है, और वह जो भी है, बड़ी सफाई से सब की आंखों में धूल झोंकता रहा है.

तमाम हेराफेरी औफिस की फाइलों में हुई थी और वे सब फाइलें यानी कि सभी दस्तावेज फूफाजी के अधिकार में थे. आखिरकार शक की पहली उंगली उन पर ही उठी. हालांकि फूफाजी ने इस बात से अनभिज्ञता प्रकट की थी और अपनेआप को निर्दोष ठहराया था. पर चूंकि फाइलें उन्हीं की निगरानी में थीं, तो बिना उन की अनुमति या जानकारी के कोई उन दस्तावेजों में हेराफेरी नहीं कर सकता था.

लेकिन जाली दस्तावेजों और फर्जी बिलों ने फूफाजी को पूरी तरह संदेह के घेरे में ला खड़ा किया था. सवाल यह था कि यदि उन्होंने हेराफेरी नहीं की तो किस ने की? जहां तक पिताजी और ताऊजी का सवाल था, वे इस मामले से कहीं भी जुड़े हुए नहीं थे और न ही उन के खिलाफ कोई प्रमाण था. प्रमाण तो कोई फूफाजी के खिलाफ भी नहीं मिला था, लेकिन वे यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि अगर फर्म का रुपया उन्होंने नहीं लिया तो फिर कहां गया? ऐसी ही दलीलों ने फूफाजी को परास्त कर दिया था. फिर भी वे सब को यही विश्वास दिलाने की कोशिश करते रहे कि वे निर्दोष हैं और जो कुछ भी हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ नहीं जानते.

इन घटनाओं ने जहां एक ओर पिताजी को स्तब्ध और गुमसुम बना दिया था, वहीं ताऊजी उत्तेजित थे और फूफाजी से बेहद चिढ़े थे. जबतब वे भड़क उठते, ‘यह धीरेंद्र तो हमें ही बदनाम करने पर तुला हुआ है. अगर इस पर विश्वास न होता तो हम सबकुछ इसे कैसे सौंप देते. अब जब सचाई सामने आ गई है तो दुहाई देता फिर रहा है कि निर्दोष है. क्या हम दोषी हैं? क्या यह हेराफेरी हम ने किया है?

‘मुझे तो इस आदमी पर शुरू से ही शक था, इस ने सबकुछ पहले ही सोचा हुआ था. हम इस की मीठीमीठी बातों में आ गए. इस ने अपने पैसे लगा कर हमें एहसान के नीचे दबा देना चाहा. सोचा होगा कि पकड़ा भी गया तो बहन का लिहाज कर के हम चुप कर जाएंगे. मगर उस की सोची सारी बातें उलटी हो गईं, इसलिए अब अनापशनाप बकता फिर रहा है.’

एक बार तो ताऊजी ने यहां तक कह दिया था, ‘हमें इस आदमी को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए.’

लेकिन दादी ने कड़ा विरोध किया था. पिताजी को भी यह बात पसंद नहीं आई कि यदि मामला पुलिस में चला गया तो पूरे परिवार की बदनामी होगी.

बात घर से बाहर न जाने पाई, लेकिन इस घटना ने चारदीवारी के भीतर भारी उथलपुथल मचा दी थी. घर का हरेक प्राणी त्रस्त व पीडि़त था. पिताजी के मन को ऐसा आघात लगा कि वे हर ओर से विरक्त हो गए. उन्हें फर्म के नुकसान और बदनामी की उतनी चिंता नहीं थी, जितना कि विश्वास के टूट जाने का दुख था. रुपया तो फिर से कमाया जा सकता था. मगर विश्वास? उन्होंने फूफाजी पर बड़े भाई से भी अधिक विश्वास किया था. बड़ा भाई ऐसा करता तो शायद उन्हें इतनी पीड़ा न होती, मगर फूफाजी ऐसा करेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी न सोचा था.

उधर फूफाजी भी कम निराश नहीं थे. वे किसी को भी अपनी नेकनीयती का विश्वास नहीं दिला पाए थे. दुखी हो कर उन्होंने यह जगह, यह शहर ही छोड़ देने का फैसला कर लिया. यहां बदनामी के सिवा अब धरा ही क्या था. अपने, पराए सभी तो उन के विरुद्ध हो गए थे. वे बूआ को लेकर अपने एक मित्र के पास अहमदाबाद चले गए.

दादी बतातीं कि जाने से पूर्व फूफाजी उन के पास आए थे और रोरो कहा था, ‘सब लोग मुझे चोर समझते हैं, लेकिन मैं ने गबन नहीं किया. परिस्थितियों ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा है. मैं चाह कर भी इस कलंक को धो नहीं पाया. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं. मैं ने उन्हें हमेशा अपना भाई ही समझा है. क्या मैं भाइयों के साथ ऐसा कर सकता हूं. क्या आप भी मुझ पर विश्वास नहीं करतीं?’

‘मुझे विश्वास है, बेटा, मुझे विश्वास है कि तुम वैसे नहीं हो, जैसा सब समझते हैं. पर मैं भी तुम्हारी ही तरह असहाय हूं. मगर इतना जानती हूं, झूठ के पैर नहीं होते. सचाई एक न एक दिन जरूर सामने आएगी. और तब ये ही लोग पछताएंगे,’ दादी ने विश्वासपूर्ण ढंग से घोषणा की थी.

व्यवसाय से पिताजी का मन उचट गया था, उन्होंने फर्म बेच देने का प्रस्ताव रखा. ताऊजी भी इस के लिए राजी हो गए. गबन और बदनामी के कारण फर्म की जो आधीपौनी कीमत मिली, उसे ही स्वीकार कर लेना पड़ा.

पिताजी ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली, जबकि ताऊजी का मन अभी तक व्यवसाय में ही रमा हुआ था. वे पिताजी के साथ कोई नया काम शुरू करना चाहते थे. किंतु उन के इनकार के बाद उन्होंने अकेले ही काम शुरू करने का निश्चय कर लिया.

फर्म के बिकने के बाद जो पैसा मिला, उस का एक हिस्सा पिताजी ने फूफाजी को भिजवा दिया. हालांकि यह बात ताऊजी को पसंद नहीं आई, मगर पिताजी का कहना था, ‘उस ने हमारे साथ जो कुछ किया, उस का हिस्सा ले कर वही कुछ हम उस के साथ करेंगे तो हम में और उस में अंतर कहां रहा. नहीं, ये पैसे मेरे लिए हराम हैं.’

किंतु लौटती डाक से वह ड्राफ्ट वापस आ गया था और साथ में थी, फूफाजी द्वारा लिखी एक छोटी सी चिट…

‘पैसे मैं वापस भेज रहा हूं इस आशा से कि आप इसे स्वीकार कर लेंगे. अब इस पैसे पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. फर्म में जो कुछ भी हुआ, उस की नैतिक जिम्मेदारी से मैं मुक्त नहीं हो सकता. यदि इन पैसों से उस नुकसान की थोड़ी सी भी भरपाई हो जाए तो मुझे बेहद खुशी होगी. वक्त ने साथ दिया तो मैं पाईपाई चुका दूंगा, क्योंकि जो नुकसान हुआ है, वह आप का ही नहीं, मेरा, हम सब का हुआ है.’

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