Valentine’s Special-भाग -2-अब और नहीं : आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

दीपमाला की डिलीवरी का समय नजदीक था. भूपेश ने उस के जाने का इंतजाम कर दिया. दीपमाला अपनी मां के घर चली आई. अपने मायके पहुंचने के कुछ दिन बाद ही दीपमाला ने एक बेटे को जन्म दिया. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस के दिनरात नन्हे अंशुल के साथ बीतने लगे. 4 दिन दीपमाला और बच्चे के साथ रह कर भूपेश औफिस में जरूरी काम की बात कह कर लौट आया. दीपमाला के न रहने पर वह अब बिलकुल आजाद पंछी था. उस की और उपासना की प्रेमलीला परवान चढ़ रही थी. औफिस में लोग उन के बारे में दबीछिपी बातें करने लगे थे, मगर भूपेश को अब किसी की परवाह नहीं थी. वह हर हालत में उपासना का साथ चाहता था.

कुछ महीने बीते तो दीपमाला ने भूपेश को फोन कर के बताया कि वह अब घर आना चाहती है. जवाब में भूपेश ने दीपमाला को कुछ दिन और आराम करने की बात कही. दीपमाला को भूपेश की बात कुछ जंची नहीं, मगर उस के कहने पर वह कुछ दिन और रुक गई. 3 महीने बीतने को आए, मगर भूपेश उसे लेने नहीं आया तो उस ने भूपेश को बताए बिना खुद ही आने का फैसला कर लिया.

दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो दीपमाला को फिक्र होने लगी. ‘आज इतवार है. औफिस नहीं गया होगा. दरवाजे पर ताला भी नहीं है. इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गया है. तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ वह सोचने लगी.

कंधे पर बैग उठाए और एक हाथ से बच्चे को गोद में संभाले वह अनमनी सी खड़ी थी कि खटाक से दरवाजा खुला.

एक बिलकुल अनजान लड़की को अपने घर में देख दीपमाला हैरान रह गई. वह कुछ पूछ पाती उस से पहले ही उपासना बिजली की तेजी से वापस अंदर चली गई. भूपेश ने दीपमाला को यों इस तरह अचानक देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उस के माथे पर पसीना आ गया.

उस का घबराया चेहरा और घर में एक पराई औरत को अपनी गैरमौजूदगी में देख दीपमाला का माथा ठनका. गुस्से में दीपमाला की त्योरियां चढ़ गईं. पूछा, ‘‘कौन है यह और यहां क्या कर रही है तुम्हारे साथ?’’

भूपेश अपने शातिर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा. उपासना उस के मातहत काम करती है, यह बताने के साथ ही उस ने दीपमाला को एक झूठी कहानी सुना डाली कि किस तरह उपासना इस शहर में नई आई है. रहने की कोई ढंग की जगह न मिलने की वजह से वह उस की मदद इंसानियत के नाते कर रहा है.

‘‘तो तुम ने यह मुझे फोन पर क्यों नहीं बताया? तुम ने मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं समझा कि हमारे साथ कोई रह सकता है या नहीं?’’

‘‘यह आज ही तो आई है और मैं तुम्हें बताने ही वाला था कि तुम ने आ कर मुझे चौंका दिया. और देखो न मुझे तुम्हारी और मुन्ने की कितनी याद आ रही थी,’’ भूपेश ने उस की गोद से ले कर अंशुल को सीने से लगा लिया. दीपमाला का शक अभी भी दूर नहीं हुआ कि तभी उपासना बेहद मासूम चेहरा बना कर उस के पास आई.

‘‘मुझे माफ कर दीजिए, मेरी वजह से आप लोगों को तकलीफ हो रही है. वैसे इस में इन की कोई गलती नहीं है. मेरी मजबूरी देख कर इन्होंने मुझे यहां रहने को कहा. मैं आज ही किसी होटल में चली जाती हूं.’’

‘‘इस शहर में बहुत से वूमन हौस्टल भी तो हैं, तुम ने वहां पता नहीं किया?’’ दीपमाला बोली.

‘‘जी, हैं तो सही, लेकिन सब जगह किसी जानपहचान वाले की गारंटी चाहिए और यहां मैं किसी को नहीं जानती.’’

भूपेश और उपासना अपनी मक्कारी से दीपमाला को शीशे में उतारने में कामयाब हो गए. दीपमाला उन दोनों की तरह चालाक नहीं थी. उपासना के अकेली औरत होने की बात से उस के दिल में थोड़ी सी हमदर्दी जाग उठी. उन का गैस्टरूम खाली था तो उस ने उपासना को कुछ दिन रहने की इजाजत दे दी.

भूपेश की तो जैसे बांछें खिल गईं. एक ही छत के नीचे पत्नी और प्रेमिका दोनों का साथ उसे मिल रहा था. वह अपने को दुनिया का सब से खुशनसीब मर्द समझने लगा.

दीपमाला के आने के बाद भूपेश और उपासना की प्रेमलीला में थोड़ी रुकावट तो आई पर दोनों अब होशियारी से मिलतेजुलते. कोशिश होती कि औफिस से भी अलगअलग समय पर निकलें ताकि किसी को शक न हो. दीपमाला के सामने दोनों ऐसे पेश आते जैसे उन का रिश्ता सिर्फ औफिस तक ही सीमित हो.

दीपमाला घर की मालकिन थी तो हर काम उस की मरजी से होता था. थोड़े ही अंतराल बाद उपासना उस की स्थिति की तुलना खुद से करने लगी थी. उस के तनमन पर भूपेश अपना हक जताता था, मगर उन का रिश्ता कानून और समाज की नजरों में नाजायज था. औफिस में वह सब के मनोरंजन का साधन थी, सब उस से चुहल भरे लहजे में बात करते, उन की आंखों में उपासना को अपने लिए इज्जत कम और हवस ज्यादा दिखती थी.

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Valentine’s Special-भाग -4-अब और नहीं : आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

बसीबसाई गृहस्थी उजड़ चुकी थी. भूपेश ने जब तलाक का नोटिस भिजवाया तो दीपमाला की मां और भाई का खून खौल उठा. वे किसी भी कीमत पर भूपेश को सबक सिखाना चाहते थे, जिस ने दीपमाला की जिंदगी से खिलवाड़ किया. रहरह कर दीपमाला को वह थप्पड़ याद आता जो भूपेश ने उसे उपासना की खातिर मारा था.

दीपमाला के दिल में भूपेश की याद तक मर चुकी थी. उस ने ठंडे लहजे में घर वालों को समझाबुझा लिया और तलाकनामे पर हां की मुहर लगा दी. जिस रिश्ते की मौत हो चुकी थी उसे कफन पहनाना बाकी था.

वक्त ने गम का बोझ कुछ कम किया तो दीपमाला अपने आपे में लौटी. अपने घर वालों पर मुहताज होने के बजाय उस ने फिर से नौकरी करने का फैसला लिया. दीपमाला दिल कड़ा कर चुकी थी. नन्ही जान को अपनी मां की देखरेख में छोड़ वह उसी शहर में चली आई, जिस ने उस का सब कुछ छीन लिया था. सीने में धधकती आग ले कर दीपमाला ने अपने को काम के प्रति समर्पित कर दिया. जिंदगी की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर आने लगी.

ब्यूटी सैलून में उस के हाथों के हुनर के ग्राहक कायल थे. उसे अपने काम में महारत हासिल हो चुकी थी. कुछ समय बाद ही दीपमाला ने नौकरी छोड़ दी. अब वह खुद का काम शुरू करना चाहती थी. अपने बेटे की याद आते ही तड़प उठती. वह उसे अपने पास रखना चाहती थी, मगर फिलहाल उसे किसी ढंग की जगह की जरूरत थी जहां वह अपना सैलून खोल सके.

तलाक के बाद कोर्ट के आदेश पर दीपमाला को भूपेश से जो रुपए मिले उन में अपनी कुछ जमापूंजी मिला कर उस के पास इतना पैसा हो गया कि वह अपना सपना पूरा कर सकती थी.

अपने सैलून के लिए जगह तलाश करने की दौड़धूप में उस की मुलाकात प्रौपर्टी डीलर अमित से हुई, जिस ने दीपमाला को शहर के कुछ इलाकों में कुछ जगहें दिखाईं. असमंजस में पड़ी दीपमाला जब कुछ तय नहीं कर पाई तो अमित ने खुद ही उस की परेशानी दूर करते हुए एक अच्छी रिहायशी जगह में उसे जगह दिलवा दी. अपना कमीशन भी थोड़ा कम कर दिया तो दीपमाला अमित की एहसानमंद हो गई.

अमित के प्रौपर्टी डीलिंग के औफिस के पास ही दीपमाला का सैलून खुल गया. आतेजाते दोनों की अकसर मुलाकात हो जाती. कुछ समय बाद उन का साथ उठनाबैठना भी हो गया.

अमित दीपमाला के अतीत से वाकिफ था, बावजूद इस के वह कभी भूल से भी दीपमाला को पुरानी बातें याद नहीं करने देता. उस की हमदर्दी भरी बातें दीपमाला के टूटे मन को सुकून देतीं. जिंदगी ने मानो हंसनेमुसकराने का बहाना दे दिया था.

दोस्ती कुछ गहरी हुई तो दोनों की शामें साथ गुजरने लगीं. शहर में अकेली रह रही दीपमाला पर कोई बंदिश नहीं थी. वह जब चाहती तब अमित की बांहों में चली आती.

एक सुहानी शाम दीपमाला की गोद में सिर रख कर उस के महकते आंचल से आंखें मूंदे लेटे अमित से दीपमाला ने पूछा, ‘‘अमित हम कब तक यों ही मिलते रहेंगे. क्या कोई भविष्य है इस रिश्ते का?’’

रोमानी खयालों में डूबा अमित एकाएक पूछे गए इस सवाल से चौंक गया. बोला, ‘‘जब तक तुम चाहो दीप, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा.’’

दीपमाला खुद तय नहीं कर पा रही थी कि इस रिश्ते का कोई अंजाम भी है या नहीं. किसी की प्रेमिका बन कर प्यार का मीठा फल चखने में उसे आनंद आने लगा था, पर यह साथ न जाने कब छूट जाए, इस बात से उस का दिल डरता था.

जब अमित ने उसे बताया कि उस के घर वाले पुराने विचारों के हैं तो दीपमाला को यकीन हो गया कि उस के तलाकशुदा होने की बात जान कर वे अमित के साथ उस की शादी को कभी स्वीकार नहीं करेंगे. आने वाले कल का डर मन में छिपा था, मगर अपने वर्तमान में वह अमित के साथ खुश थी.

अमित की बाइक पर उस के साथ सट कर बैठी दीपमाला को एक दिन जब भूपेश ने बाजार में देखा तो वह नाग की तरह फुफकार उठा. दीपमाला अब उस की पत्नी नहीं थी, यह बात जानते हुए भी दीपमाला का किसी और मर्द के साथ इस तरह घूमनाफिरना उसे नागवार गुजरा. उस की कुंठित मानसिकता यह बात हजम नहीं कर पा रही थी कि उस की छोड़ी हुई औरत किसी और मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ाए.

घर आ कर भूपेश बहुत देर तक उत्तेजित होता रहा. दीपमाला उस आदमी के साथ कितनी खुश लग रही थी, उसे यह बात रहरह कर दंश मार रही थी. उपासना से शादी कर के उस के अहं को संतुष्टि तो मिली, लेकिन उपासना दीपमाला नहीं थी. शादी के बाद भी उपासना पत्नी न हो कर प्रेमिका की तरह रहती थी. घर के कामों में बिलकुल फूहड़ थी.

उस की फजूलखर्ची से भूपेश अब परेशान रहने लगा था. कभी उस पर झुंझला उठता तो उपासना उस का जीना हराम कर देती, तलाक और पुलिस की धमकी देती.

जो शारीरिक सुख उपासना से प्रेमिका के रूप में मिल रहा था वह उस के पत्नी बनते ही नीरस लगने लगा. इश्क का भूत जल्दी ही सिर से उतर गया.

दीपमाला के साथ शादी के शुरुआती दिनों की कल्पना कर के भूपेश के मन में बहुत से विचार आने लगे. वह एक बार फिर दीपमाला के संग के लिए उत्सुक होने लगा. खाने की थाली की तरह जिस्म की भूख भी स्वाद बदलना चाहती थी.

किसी तरह दीपमाला के घर और सैलून का पता लगा कर एक दिन वह दीपमाला के फ्लैट पर आ धमका. एक अरसे बाद अचानक उसे सामने देख दीपमाला चौंक उठी कि भूपेश को आखिर उस का पता कैसे मिला और अब यहां क्या करने आया है?

‘‘कैसी हो दीपमाला? बिलकुल बदल गई हो… पहचान में ही नहीं आ रही,’’ भूपेश ने उसे भरपूर नजरों से घूरा.

दीपमाला संजसंवर कर रहती थी ताकि उस के सैलून में ग्राहकों का आना बना रहे. अब वह आधुनिक फैशन के कपड़े भी पहनने लगी थी. सलीके से कटे बाल और आत्मनिर्भरता के भाव उस के चेहरे की रौनक बढ़ा रहे थे. उस का रंगरूप भी पहले की तुलना में निखर आया था.

कांच के मानिंद टूटे दिल के टुकड़े बटोरते उस के हाथ लहूलुहान भी हुए थे, मगर उस ने अपनी हिम्मत कभी नहीं टूटने दी. वह अब जीवन की हर मुश्किल का सामना कर सकती थी तो फिर भूपेश क्या चीज थी.

‘‘किस काम से आए हो?’’ उस ने बेहद उपेक्षा भरे लहजे में पूछा. उस की बेखौफी देख भूपेश जलभुन गया, लेकिन फौरन उस ने पलटवार किया, ‘‘मैं अपने बेटे से मिलने आया हूं. तुम ने मुझे मेरे ही बेटे से अलग कर दिया है.’’

‘‘आज अचानक तुम्हें बेटे पर प्यार कैसे आ गया? इतने दिनों में तो एक बार भी खबर नहीं ली उस की,’’ एक व्यंग्य भरी मुसकराहट दीपमाला के अधरों पर आ गई.

‘‘तुम्हें क्या लगता है मैं अंशुल से प्यार नहीं करता? बाप हूं उस का, जितना हक तुम्हारा है उतना मेरा भी है.’’

‘‘तो तुम अब हक जताने आए हो? कानून ने तुम्हें बेशक हक दिया है, मगर वह मेरा बेटा है,’’ दीपमाला ने कहा.

बेटे से मिलना बस एक बहाना था भूपेश के लिए. उसे तो दीपमाला के साथ की प्यास थी. बोला, ‘‘सुनो दीपमाला, मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई… हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

भूपेश के तेवर अचानक नर्म पड़ गए. उस ने दीपमाला का हाथ पकड़ लिया.

तभी एक झन्नाटेदार तमाचा भूपेश के गाल पर पड़ा. दीपमाला ने बिजली की फुरती से फौरन अपना हाथ छुड़ा लिया.

भूपेश का चेहरा तमतमा गया. इस खातिरदारी की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी. वह कुछ बोलता उस से पहले ही दीपमाला गुर्राई, ‘‘आज के बाद दोबारा मुझे छूने की हिम्मत की तो अंजाम इस से भी बुरा होगा. यह मत भूलो कि तुम अब मेरे पति नहीं हो और एक गैरमर्द मेरा हाथ इस तरह नहीं पकड़ सकता, समझे तुम? अब दफा हो जाओ यहां से.’’

उसे एक भद्दी सी गाली दे कर भूपेश बोला, ‘‘सतीसावित्री बनने का नाटक कर रही हो. किसकिस के साथ ऐयाशी करती हो सब जानता हूं, अगर उन के साथ तुम खुश रह सकती हो तो मुझ में क्या कमी है? मैं अगर चाहूं तो तुम्हारी इज्जत सारे शहर में उछाल सकता हूं… इस थप्पड़ का बदला तो मैं ले कर रहूंगा और फिर दीपमाला को बदनाम करने की धमकी दे कर भूपेश वहां से चला गया.

कितना नीच और कू्रर हो चुका है भूपेश… दीपमाला की सहनशक्ति जवाब दे गई. वह तकिए पर सिर रख कर खुद पर रोती रही, जुल्म उस पर हुआ था, लेकिन कुसूरवार उसे ठहराया जा रहा था.

इस मुश्किल की घड़ी में उसे अमित की जरूरत होने लगी. उस के प्यार का मरहम उस के दिल को सुकून दे सकता था. उस ने अपने फोन पर अमित का नंबर मिलाया. कई बार कोशिश करने पर भी जब उस ने फोन नहीं उठाया तो वह अपना पर्स उठा कर उस से मिलने चल पड़ी.

भूपेश किसी भी हद तक जा सकता है, यह दीपमाला को यकीन था. वह चुप नहीं बैठेगा. अगर उस की बदनामी हई तो उस के सैलून के बिजनैस पर असर पड़ सकता है. वह अमित से मिल कर इस मुश्किल का कोई हल ढूंढ़ना चाहती थी. क्या पता उसे पुलिस की भी मदद लेनी पड़े.

अमित के औफिस में ताला लगा देख कर वह निराश हो गई. अमित उस के एक बार बुलाने पर दौड़ा चला आता था, फिर आज उस का फोन क्यों नहीं उठा रहा? उसे याद आया जब वह पहली बार अमित से मिली थी तो उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था. उस ने पर्स टटोला, कार्ड मिल गया. औफिस और घर का पता उस में मौजूद था. उस ने पास से गुजरते औटो को हाथ दे कर रोका और पता बताया. धड़कते दिल से दीपमाला ने फ्लैट की घंटी बजाई. एक आदमी ने दरवाजा खोला. दीपमाला ने उस से अमित के बारे में पूछा तो वह अंदर चला गया. थोड़ी देर बाद एक औरत बाहर आई. बोली, ‘‘जी कहिए, किस से मिलना है? लगभग उस की ही उम्र की दिखने वाली उस औरत ने दीपमाला से पूछा.’’

‘‘मैं अमित से मिलने आई हूं. क्या यह उन का घर है?’’ पूछते हुए उसे थोड़ा अटपटा लगा कि पता नहीं यह सही पता है भी या नहीं.

‘‘मैं अमित की पत्नी हूं. क्या काम है आप को? आप अंदर आ जाइए,’’ अमित की पत्नी विनम्रता से बोली.

दीपमाला ने उस औरत को करीब से देखा. वह सुंदर और मासूम थी, मांग में सिंदूर दमक रहा था और चेहरे पर एक पत्नी का विश्वास.

कुछ रुक कर अपनी लड़खड़ाती जबान पर काबू पा कर दीपमाला बोली, ‘‘कोई खास बात नहीं थी. मुझे एक मकान किराए पर चाहिए था. उसी सिलसिले में बात करनी थी.’’

‘‘मगर आप ने अपना नाम तो बताया नहीं… मैं अपने पति को कैसे आप का संदेश दूंगी.’’

‘‘वे खुद समझ जाएंगे,’’ और दीपमाला पलट कर तेज कदमों से मकान की सीढि़यां उतर सड़क पर आ गई.

अजीब मजाक किया था कुदरत ने उस के साथ. उस ने शुक्र मनाया कि उस की आंखें समय रहते खुल गईं.

अमित ने भी वही दोहराया था जो भूपेश ने उस के साथ किया था. एक बार फिर से वह ठगी गई थी. मगर इस बार वह मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी थी. जिस जगह पर कभी उपासना खड़ी थी, उसी जगह उस ने आज खुद को पाया. क्या फर्क था भला उस में और उपासना में? दीपमाला ने सोचा.

नहीं, बहुत फर्क है, उस का जमीर अभी मरा नहीं, वह इतनी खुदगर्ज नहीं हो सकती कि किसी का बसेरा उजाड़े. जो गलती उस से हो गई है उसे अब वह दोहराएगी नहीं. उस ने तय कर लिया अब वह किसी को अपने दिल से खेलने नहीं देगी. बस अब और नहीं.

Valentine’s Special-भाग -1-अब और नहीं : आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

नन्हीगौरैया ने बड़ी कोशिश से अपना घोंसला बनाया था. घास के तिनके फुरती से बटोर कर लाती गौरैया को देख कर दीपमाला के होंठों पर मुसकान आ गई. हाथ सहज ही अपने पेट पर चला गया. पेट के उभार को सहलाते हुए वह ममता से भर उठी. कुछ ही दिनों में एक नन्हा मेहमान उस के आंगन में किलकारियां मारेगा. तार पर सूख रहे कपड़े बटोर वह कमरे में आ गई. कपड़े रख कर रसोई की तरफ मुड़ी ही थी कि तभी डोरबैल बजी.

‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई?’’ घर में घुसते ही भूपेश ने पूछा.

‘‘आज मन नहीं किया काम पर जाने का. तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ दीपमाला ने जवाब दिया.

दीपमाला इस आस से भूपेश के पास खड़ी रही कि तबीयत खराब होने की बात जान कर वह परेशान हो उठेगा. गले से लगा कर प्यार से उस का हाल पूछेगा, मगर बिना कुछ कहेसुने जब वह हाथमुंह धोने बाथरूम में चला गया तो बुझी सी दीपमाला रसोई की ओर चल पड़ी.

शादी के 4 साल बाद दीपमाला मां बनने जा रही थी. उस की खुशी 7वें आसमान पर थी, मगर भूपेश कुछ खास खुश नहीं था. दीपमाला अकेली ही डाक्टर के पास जाती, अपने खानेपीने का ध्यान रखती और अगर कभी भूपेश को कुछ कहती तो काम की व्यस्तता का रोना रो कर वह अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता. वह बड़ी बेसब्री से दिन गिन रही थी. बच्चे के आने से भूपेश को शायद कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो जाए, शायद उस के अंदर भी नन्ही जान के लिए प्यार उपजे, इसी उम्मीद से वह सब कुछ अपने कंधों पर संभाले बैठी थी.

कुछ ही दिनों की तो बात है. बच्चे के आने से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच कर उस ने काम पर जाना नहीं छोड़ा. जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उस की और भूपेश की कमाई से घर मजे से चल रहा था. पार्लर की मालकिन दीपमाला के हुनर की कायल थी. एक तरह से दीपमाला के हाथों का ही कमाल था जो ग्राहकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी. दीपमाला के इस नाजुक वक्त में सैलून की मालकिन और बाकी लड़कियां उसे पूरा सहयोग देतीं. उस का जब कभी जी मिचलाता या तबीयत खराब लगती तो वह काम से छुट्टी ले लेती.

एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर भूपेश स्वभाव से रूखा था. उस के अधीन 2-4 लोग काम करते थे. उस के औफिस में एक पोस्ट खाली थी, जिस के लिए विज्ञापन दिया गया था. कंपनी में ग्राहक सेवा के लिए योग्यता के साथसाथ किसी मिलनसार और आकर्षक व्यक्तित्व की जरूरत थी.

एक दिन तीखे नैननक्शों वाली उपासना नौकरी के आवेदन के लिए आई. उस की मधुर आवाज और व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर और कुछ उस के पिछले अनुभव के आधार पर उस का चयन कर लिया गया. भूपेश के अधीनस्थ होने के कारण उसे काम सिखाने की जिम्मेदारी भूपेश पर थी.

उपासना उन लड़कियों में से थी जिन्हें योग्यता से ज्यादा अपनी सुंदरता पर भरोसा होता है. अब तक के अपने अनुभवों से वह जान चुकी थी कि किस तरह अदाओं के जलवे दिखा कर आसानी से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. छोटे शहर से आई उपासना कामयाबी की मंजिल छूना चाहती थी. कुछ ही दिनों बाद वह समझ गई कि भूपेश उस पर फिदा है. फिर इस बात का वह भरपूर फायदा उठाने लगी.

उपासना का जादू भूपेश पर चला तो वह उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहने लगा. उपासना बहाने बना कर औफिस के कामों को टाल देती जिन्हें भूपेश दूसरे लोगों से करवाता. अकसर बेवजह छुट्टी ले कर मौजमस्ती करने निकल पड़ती. उसे बस उस पैसे से मतलब था जो उसे नौकरी से मिलते थे. साथ में काम करने वाले भूपेश के दबदबे की वजह से उपासना की हरकतों को नजरंदाज कर देते.

अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर उपासना भूपेश के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई. उस की और भूपेश की नजदीकियां बढ़ने लगीं. काम के बाद दोनों कहीं घूमने निकल जाते. उसे खुश करने के लिए भूपेश उसे महंगे तोहफे देता. आए दिन किसी पांचसितारा होटल में लंच या डिनर पर ले जाता. भूपेश का मकसद उपासना को पूरी तरह से हासिल करना था और उपासना भी खूब समझती थी कि क्यों भूपेश उस के आगेपीछे भंवरे की तरह मंडरा रहा है.

पहले भूपेश औफिस से घर जल्दी आता था तो दोनों साथ में खाना खाते, अब देर रात तक दीपमाला उस का इंतजार करती रहती और फिर अकेली ही खा कर सो जाती. कुछ दिनों से भूपेश के रंगढंग बदल गए थे. औफिस में भी सजधज कर जाता. उधर इन सब बातों से बेखबर दीपमाला नन्हें मेहमान की कल्पना में डूबी रहती. उस की दुनिया सिमट कर छोटी हो गई थी.

एक रोज धोने के लिए कपड़े निकालते वक्त उसे भूपेश की पैंट की जेब से फिल्म के 2 टिकट मिले. उसे थोड़ी हैरानी हुई. भूपेश फिल्मों का शौकीन नहीं था. कभी कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो दीपमाला ही जबरदस्ती उसे खींच ले जाती.

उस ने भूपेश से इस बारे में पूछा. टिकट की बात सुन कर वह कुछ सकपका गया. फिर तुरंत संभल कर उस ने बताया कि औफिस के एक सहकर्मी के कहने पर वह चला गया था. बात आईगई हो गई.

इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन भूपेश के बटुए में दीपमाला को सुनार की दुकान की एक परची मिली. शंकित दीपमाला ने भूपेश के घर लौटते ही उस पर सवालों की बौछार कर दी.

उपासना को जन्मदिन में देने के लिए भूपेश ने एक गोल्ड रिंग बुक करवाई थी, लेकिन किसी शातिर अपराधी की तरह भूपेश उस दिन सफेद झूठ बोल गया. अपने होने वाले बच्चे का वास्ता दे कर.

उस ने दीपमाला को यकीन दिला दिया कि उस के दोस्त ने अपनी पत्नी को सरप्राइज देने के लिए ही परची उस के पास रखवाई है. इस घटना के बाद से भूपेश कुछ सतर्क रहने लगा. अपनी जेब में कोई सुबूत नहीं छोड़ता था.

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Valentine’s Special- भाग-1: वैलेंटाइन के फूल

‘‘जब तुम्हारी नेतागीरी चल नहीं पा रही है तो तुम और कोई काम क्यों नहीं करते? अब तो घर चलाना कितना मुश्किल हो रहा है…’’ मानसी ने अपने पति हितेश से कहा.

‘‘नेतागीरी नहीं चल रही होती तो लोग मेरी पार्टी को चंदा नहीं भेजते… और अब तो मैं सोशल मीडिया पर भी अपने भाषण के वीडियो डालता हूं… कितने ढेर सारे कमैंट आते हैं… पर तुम भला क्या जानो… तुम्हारी तो सोच ही छोटी है, तुम्हारी जाति की तरह,’’ आखिरी के शब्द हितेश ने धीमी आवाज में कहे थे कि मानसी के कान उन्हें सुन नहीं पाए, वह बस हितेश का मुंह देखती रह गई.

हितेश एक कर्मकांडी ब्राह्मण का बेटा था और कालेज के समय से ही नेतागीरी में अपना कैरियर बनाना चाहता था. वह जानता था कि उत्तर प्रदेश में सिर्फ जातिवाद पर ही राजनीति की जा सकती है, इसीलिए उस ने जानबू झ कर एक छोटी जाति की लड़की से शादी की थी, ताकि पिछड़ी जाति वालों को अपनी ओर ला कर सके. पर एक छोटी जाति की लड़की से शादी करने से हितेश के घर वालों ने उस से नाता तोड़ लिया था और उस के पिता ने उसे अपनी जायदाद से बेदखल भी कर दिया था.

शादी के बाद वे दोनों लखनऊ के हजरतगंज इलाके में एक फ्लैट किराए पर ले कर रहने लगे थे. हितेश कुछ कामवाम नहीं करता था और राजनीति में भी जो पैसा वह कमा पा रहा था, वह पार्टी के प्रचारप्रसार में और लोगों को अपनी पार्टी में जोड़ने में खर्च कर देता था, लिहाजा घर चलाने के लिए मानसी को घर से बाहर निकलना पड़ा और नौकरी करनी पड़ी.

मानसी की नौकरी से ही इन दोनों का घर का खर्चा चल रहा था, पर आज मानसी के बौस ने उसे औफिस में बुला कर उस की पीठ पर हाथ फेर कर जो बदतमीजी दिखाई तो मानसी ने बौस को न सिर्फ थप्पड़ रसीद किया, बल्कि नौकरी से इस्तीफा भी दे दिया था.

बौस को लगा था कि छोटी जाति की लड़की सब सहन कर लेगी, पर मानसी एक स्वाभिमानी लड़की थी और ऐसे लुच्चों को जवाब देना उसे अच्छी तरह से आता था.

मानसी ने जोश में आ कर नौकरी तो छोड़ दी थी, पर घर वापस आ कर 1-2 दिन के बाद ही अहसास हुआ कि हितेश ने घर का खर्चा चलाने की जिम्मेदारी अघोषित रूप से मानसी को ही सौंप दी थी. शायद हितेश के मन में कहीं न कहीं मानसी के लिए उस की छोटी जाति को ले कर यह भाव था कि सेवा और नौकरी करना तो मानसी की जातिगत विशेषता है और वह अगड़ी जाति वालों की सेवा करने के लिए ही बनी है.

और वैसे भी हितेश के अंदर नौकरी करने की कोई लालसा ही नहीं बची थी. वह तो एक बड़ा नेता बनना चाहता था और इसीलिए लोकल नेतागीरी में दांव भी आजमाता आया था और इसी चक्कर में घर की जिम्मेदारियों से वह कट चुका था.

कालेज के दिनों से ही मानसी एक मेधावी छात्रा रही थी और उस के पास एचआर का डिप्लोमा भी था, इसलिए नई नौकरी ढूंढ़ने के लिए उस ने अपना बायोडाटा अलगअलग तरह की नौकरी  देने वाली साइटों पर अपलोड कर दिया था.

कुछ दिनों के बाद ही मानसी की पढ़ाईलिखाई और अनुभव के मुताबिक उस के इंटरव्यू के लिए बुलावा आने लगा, पर कई औफिसों के चक्कर लगाने के बाद भी मानसी को नौकरी न मिल सकी. कहीं पर नाइट शिफ्ट में काम करने की शर्त थी, तो कहीं पर मनमुताबिक सैलरी न मिल पाई.

पति घर में बैठा हो और कामकाजी पत्नी की लगीलगाई नौकरी भी छूट जाए तो गृहस्थी चलाना एक बड़ा मुश्किल काम होता है… इसी अनुभव से गुजर रही थी मानसी कि एक दिन सुबहसुबह ही इंटरव्यू के एक बुलावे ने मानसी के मन में फिर से उमंग भर दी थी. ठीक 11 बजे इंटरव्यू के लिए पहुंचना था उसे.

औफिस में पहुंच कर मानसी ने देखा कि तकरीबन 15 लोग पहले से बैठे हुए अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. एक घंटे के बाद मानसी का नंबर भी आ गया था.

‘‘मे आई कम इन सर?’’ केबिन का दरवाजा खोल कर मानसी ने बोला और बौस के चेहरे पर नजर पड़ते ही उस के चेहरे पर एक हैरानी भरी खुशी दौड़ गई थी, ‘‘अरे नैतिक, तुम…’’ मानसी चहक पड़ी थी. केबिन में बैठा हुआ बौस भी खुश हुए बिना न रह सका और वह अपनी कुरसी से उठ कर मानसी की तरफ लपका, ‘‘ओह, मानसी तुम… आओ, आओ… आज तुम से कितने सालों बाद मिलना हो रहा है…’’

‘‘हां, नैतिक, तो तुम यहां के बौस हो… काफी पैसा कमा लिया है तुम ने…’’

‘‘कुछ नहीं बस थोड़ाबहुत काम चल जाता है,’’ नैतिक ने मुसकराते हुए कहा.

मानसी और नैतिक एक ही कालेज में पड़ते थे. नैतिक मानसी से एकतरफा प्यार करता था और उसे प्रपोज करना चाहता था, पर मानसी उसी कालेज में पड़ने वाले हितेश से प्यार करती थी.

कालेज में वैलेंटाइन डे वाली शाम को हितेश ने मानसी को प्रपोज कर दिया  था. मानसी हितेश से प्रभावित थी, इसलिए उन दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया था.

नैतिक एक हारा हुआ प्रेमी था, पर मानसी के लिए उस के मन में प्यार अब भी बाकी था. कालेज में भी दोस्तों ने नैतिक का खूब मजाक बनाया था और उसे ‘देवदास’ कह कर पुकारने लगे थे, पर अब नैतिक के हाथ में कुछ बचा नहीं था.

आज पूरे 5 साल के बाद मानसी और नैतिक एकदूसरे से मिल रहे थे. अब मानसी को एक नौकरी की जरूरत थी और नैतिक एक कंपनी का मालिक था. मानसी और नैतिक ने खूब बातें कीं, कालेज की बातों को ताजा किया और नैतिक ने हितेश के बारे मे भी पूछताछ की, फिर उस ने मानसी को अपनी सैक्रेटरी का पद औफर कर दिया.

जल्दी ही मानसी ने औफिस की जिम्मेदारियां उठा ली थीं और आज मानसी को पूरा एक महीना हो गया था. अभी थोड़ी देर पहले ही उस के बैंक अकाउंट में सैलरी क्रेडिट होने का मैसेज आया था.

खुशीखुशी थैंक्स कहने मानसी नैतिक के केबिन के अंदर गई तो नैतिक ने उसे फूलों का गुलदस्ता भी दिया.

‘‘पर यह क्यों?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘बस ऐसे ही, नई दोस्ती की शुरुआत के लिए सम झो,’’ नैतिक ने मुसकरा कर कहा.

मानसी ने घर आ कर गुलदस्ता एक तरफ रख दिया और देखा कि हितेश उस की तरफ सवालिया निगाहों से देख रहा था.

‘‘नैतिक ने दिया है,’’ मानसी ने सफाई दी, पर फिर भी सवाल उस की नजरों में अब भी था.

मानसी ने तुरंत ही हितेश से कहा, ‘‘नैतिक कह रहा था कि औफिस में एक जगह खाली हो गई है, अगर तुम चाहो तो औफिस जौइन कर सकते हो.’’

‘‘अच्छा… पर तुम्हारे होते हुए मु झे नौकरी करने की क्या जरूरत है और फिर मेरे जैसे नेतागीरी करने वाले को भी कोई जौब पर रख सकता है क्या?’’

‘‘हांहां, आखिर नैतिक हम दोनों का कौमन दोस्त था न,’’ मानसी ने कहा.

‘‘तो ठीक है, कल की कल सोचेंगे, पर पहले आज तो मेरी बांहों में आओ न,’’ कहते हुए हितेश ने मानसी को अपनी बांहों में भर लिया और उस को चूमने लगा. इसी दौरान वह अपना और मानसी के प्रेम संबंध का वीडियो भी बनाने लगा.

‘‘तुम यह सब इस मोबाइल में क्यों शूट करते रहते हो, मु झे बिलकुल पसंद नहीं है,’’ मानसी ने हितेश के हाथों से मोबाइल छीनते हुए कहा.

‘‘अरे मेरी जान, जब तुम औफिस चली जाती हो और मु झे तुम्हारी याद आती है, तो मैं तुम्हारे साथ किए गए सैक्स को दोबारा मोबाइल में देख कर दोगुना मजा लेता हूं,’’ हितेश ने बेशर्मी से कहा.

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Valentine’s Special- मिलने का वादा: क्या राज को मिल पाई नीलू

नीलू ससुराल से मायके महीनाभर रहने को आई थी. नीलू यानी नीलोफर की शादी को 2 साल गुजर गए थे. ऐसा लगता था कि कल ही की बात हो. राज के जेहन में जो यादें धुंधली पड़ गई थीं, वे एकएक कर सामने आने लगीं. नीलू की शादी में दर्द देने वाले डरावने मंजर धीरेधीरे जिंदा होने लगे थे.

यह राज नीलू की अधूरी मुहब्बत का अंजाम था. निगाहों में हर पल बसने वाली नीलोफर को वह आज तक नहीं भुला पाया था. राज अपनी अधूरी मुहब्बत का इलजाम पूरी तरह नीलू पर नहीं लगा सकता था. अपनी नाकाम मुहब्बत का वह खुद भी जिम्मेदार था. आने वाले तूफान से वह घबरा गया था.

चांद सी सूरत वाली नीलोफर राज पर अपनी जान लुटाती थी, पर नीलोफर का बाप अकरम गांव का दबंग, शातिर, झगड़ालू किस्म का आदमी था. गांव में कहीं भी झगड़ाफसाद, राहजनी, आगजनी… यहां तक कि कई हत्याओं में उस का नाम जुड़ा होता था. आधे गांव ने तो अकरम का हुक्कापानी बंद कर रखा था.

अकरम और राज के घरों की दीवारें आपस में मिली हुई थीं. बचपन के दिनों में मासूम राज गांव के स्कूल में पढ़ता था. नीलू भी वहीं पढ़ती थी.

राज और नीलू घर से साथसाथ ही स्कूल जाते थे और घर आ कर अपने घरों के सामने एकसाथ खेलते थे. उन दिनों राज शाम के समय अपनी छत पर पतंग भी उड़ाया करता था. उस समय नीलू भी अपने घर की छत पर चढ़ जाया करती थी और राज को पेंच लड़ाने को उकसाया करती थी.

जब राज नीलू के कहने पर किसी की पतंग काट देता था, तो नीलू उछलउछल कर अपनी खुशी जाहिर किया करती थी. अगर पेंच लड़ाने के मुकाबले में राज की पतंग कट जाती, तो वह उदास हो जाती थी.

एक दिन राज बड़ी सी पतंग खरीद कर लाया. उस ने स्कैच पैन से पतंग पर कार्टून बना कर नीचे शरारत से नीलू का नाम लिख दिया. कार्टून के नीचे अपना नाम लिखा देख कर नीलू गुस्से से भर उठी थी. राज बारबार उड़ती पतंग को नीलू पर झुका कर उस के गुस्से को बढ़ा रहा था.

अचानक राज की पतंग जरा ज्यादा झुक गई और नीलू के हाथ में आ गई. उस ने राज की पतंग दबोच कर धागा खींचा और अपने घर के अंदर भाग गई. नीलू की इस शरारत पर राज को बहुत गुस्सा आया. वह चीखताचिल्लाता हुआ सीधा नीलू के घर पहुंच गया. वह नीलू को उस के घर में ही दबोच कर पीटने लगा.

उस समय नीलू का बाप अकरम घर पर ही मौजूद था. छोटे से राज की इतनी हिम्मत देख उस ने उसे 2 तमाचे मारे और अपने घर से भगा दिया.

उस समय राज की उम्र 12 साल की रही होगी. वह रोताबिलखता अपने घर चला गया और पापा को बताया. राज के पापा रामदयाल शांत स्वभाव के थे. वे एक स्कूल में टीचर थे. उन्होंने अपराधी अकरम के मुंह लगना ठीक नहीं समझा और राज को ही डांटडपट कर खामोश कर दिया.

अब रामदयाल ने राज को जेबखर्च देना बंद कर दिया. इस तरह राज की पतंगबाजी पर रोक लग गई.

राज नीलू से बेहद नाराज था. वह नीलू को अकेला देख कर उसे पीटने की फिराक में था. एक दिन स्कूल में खेलकूद का पीरियड चल रहा था. उस समय क्लास के तमाम सहपाठी अपनेअपने मनपसंद खेल खेलने में मसरूफ थे, तभी राज ने देखा कि नीलू नलके से पानी पी कर अकेली आ रही है.

उसी समय राज ने नीलू को लपक कर उस का एक बाजू पकड़ा और गुर्राया, ‘‘परसों शाम को मेरी पतंग पकड़ कर क्यों खींची थी? वह पतंग मैं 2 रुपए की खरीद कर लाया था, जिस की तू ने ऐसी की तैसी कर के रख दी.’’

‘‘उस पर तो मेरा नाम लिखा था, इसलिए मैं ने अपनी पतंग ले ली. तुम दूसरी पतंग उड़ा लेते,’’ नीलू बोली.

‘‘मैं तेरे दोनों हाथ और मुंह तोड़ दूंगा. तुझे बचाने इस समय कोई नहीं आएगा,’’ राज चिल्लाया.

‘‘लो मारो मुझे. मेरे दोनों हाथ तोड़ दो. सामने पड़ी ईंट उठा कर मेरे मुंह पर दे मारो. अगर मुझे मारने से तुम्हारी पतंग जुड़ जाए, तो अपने मन की इच्छा पूरी कर लो,’’ नीलू ने कहा. मगर राज का हाथ नीलू पर उठा नहीं.

राज ने चेतावनी देते हुए नीलू को छोड़ दिया. 4-5 दिनों तक नीलू से उस की कोई बात नहीं हुई. अब उस ने घर जाना बंद कर दिया. उसे अपने पापा का डर भी था. सालाना इम्तिहान सिर पर आ गएथे. वह मन लगा कर अपनी पढ़ाई में जुट गया. एक दिन शाम के समय नीलू अपनी मां के साथ राज के घर आई. उन दिनों नीलू के बड़े भाई की शादी होने वाली थी. नीलू की मां उस के परिवार को शादी में शामिल होने का न्योता देने आई थीं.

नीलू सब की नजरें बचा कर राज के कमरे में आ गई और उस से पूछने लगी कि वह अब पतंग क्यों नहीं उड़ाता है?

राज ने उदास मन से बताया कि अब उसे जेबखर्च नहीं मिलता. इतना सुनते ही नीलू ने छिपा कर साथ लाई एक छोटी सी पोटली राज की तरफ उछाल दी और पतंग उड़ाने को कह कर चली गई. राज ने पोटली खोली, तो उस के चेहरे पर बेशुमार खुशियों के भाव चमक उठे. उस के सामने सिक्कों का अंबार सा लग गया. शायद नीलू ने अपनी गुल्लक खाली कर के दी थी. धीरेधीरे समय गुजरता चला गया. प्यार भरी शरारतें कब चाहत में बदल गईं, उन दोनों को पता ही नहीं चला. वे दोनों पलभर भी एकदूसरे से दूर होने पर बुरी तरह तड़प उठते थे.

अकरम को इस इश्क की भनक लग गई. वह दोनों प्रेमियों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो गया. वह किसी भी सूरत में अपनी बेटी को गैरजात में ब्याहना नहीं चाहता था. उस ने आननफानन बेटी नीलोफर यानी नीलू का रिश्ता दूसरे गांव के गुलेमान, जो जुआघरों, शराब की दुकानों का मालिक था, के साथ पक्का कर दिया. अकरम अपनी बेटी को जल्दी ब्याह कर ससुराल भेजना चाहता था, पर उसे डर भी था कि कहीं नीलोफर बगावत न कर दे.

नीलोफर के लिए अकरम ने जो शौहर पसंद किया था, वह उम्र में नीलू से दोगुना बड़ा था. जल्दबाजी में शादी की तारीख भी तय कर दी गई. 2-4 दिन बाद अकरम 4-5 बदमाश ले कर रामदयाल मास्टर के घर जा पहुंचा और धमकी दे आया कि वे अपने बेटे को समझा कर रखे, वरना पूरे परिवार को इसी घर में बंद कर के आग लगा देगा.

राज के पापा लड़ाईझगड़े से दूर रहना पसंद करते थे. उन्होंने प्यार से अपने बेटे पर दबाव डाला कि वह नीलू को भूल जाए. राज ने मन ही मन अपने पापा का कहना मानने का मन बना लिया, मगर कामयाब नहीं हो पा रहा था.

एक दिन राज दोपहर के समय गांव के बाहर नीलू से मिला. नीलू ने उलाहना देते हुए न मिलने की वजह पूछी, तो राज खामोश रहा. नीलू ने अपनी बात पर जोर देते हुए दोबारा पूछा, पर राज को कुछ भी बताना मुनासिब नहीं लग रहा था. राज की खामोशी देख नीलू ने राज का कौलर पकड़ते हुए सारा माजरा पूछा.

राज ने आखिरकार दुखी मन से सारी बातें नीलू को बता दीं. नीलू गरजते हुए बोली कि उसे अपने निजी मामलों में बाप की दखलअंदाजी बिलकुल मंजूर नहीं है. वह जिस से प्यार करती है, उसी से शादी करेगी.

राज ने नीलू को जिद न करने की सलाह दी. यह भी समझाया कि अगर उन दोनों ने गलत कदम उठाया, तो उस का अपराधी बाप उस के परिवार की हत्या कर देगा. मगर नीलू सारी बात सुन कर भी अपनी जिद पर अड़ी थी. कुछ देर सोचने के बाद नीलू ने एक सलाह दी, तो राज सोच में पड़ गया.

नीलू बोली, ‘‘हम दोनों इस जालिम जमाने से बहुत दूर भाग चलते हैं, जहां हमारे प्यार का कोई दुश्मन न हो. जब हमारे 4-5 बच्चे हो जाएंगे, तब पापा का गुस्सा अपनेआप ठंडा हो जाएगा.’’

यह सुन कर राज डर गया और बोला, ‘‘नहींनहीं, मेरी प्यारी नीलू, यह रास्ता बदनामी और तबाही की तरफ जाता है. ऐसा करने से हमारे परिवारों की बदनामी तो होगी ही, तुम्हारा बाप मेरे परिवार पर कहर बन कर टूट पड़ेगा. इस का अंजाम बहुत बुरा होगा.’’

राज ने खतरे का सुलगता हुआ आईना दिखाया, तो नीलू थोड़ा सहम गई. नीलू बोली, ‘‘सोच लो राज, आया समय एक बार हाथ से निकल गया, तो दोबारा हमारे हाथ कभी नहीं आएगा. हिम्मत और कोशिश करने से हमारी समस्या का हल हो सकता है.’’

मगर राज को अकरम का डर था. वह जल्लाद से कम न था. राज अपने मांबाप और बहन से बहुत प्यार करता था, इसलिए उस ने अपनी मुहब्बत को कुरबान करने का मन बना लिया. उस दिन के बाद से वह नीलू से नहीं मिला. मगर नीलू को दिल से भुलाना इतना आसान कहां था?

अकरम ने हफ्तेभर में ही नीलू की शादी कर के उसे ससुराल भेज दिया. आज जब राज को पता चला कि नीलू अपने मायके आई है, उस का दिल मिलने को मचल उठा. मिलने की चाहत लिए राज धीरेधीरे कदमों से चलता हुआ नीलू के घर पहुंच गया. घर का मेन गेट अंदर से बंद था. उस ने नीलू के घर का गेट खटखटाया, तो वह खुल गया. सामने उस की प्यारी नीलू ही खड़ी थी. शायद नहा कर निकली थी, पानी के मोती उस के काले लंबे बालों से गिर रहे थे.

‘‘अरे राज, कैसे हो? अंदर आओ न…’’ राज को देखते ही नीलू खुशी से चहक उठी, ‘‘अपनी क्या हालत बना ली है तुम ने? अपनेआप को संभालो राज?’’

‘‘नीलू, जो मुसाफिर अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचते, उन का यही अंजाम होता है. लेकिन, तुम मेरी हालत पर मत जाओ, अपनी सुनाओ?’’ राज ने कांपती आवाज में पूछा.

नीलू को लगा कि हालात से घबरा कर राज उस से दूर तो हो गया, मगर अपनी महबूबा को भूल नहीं पाया.

‘‘मैं खुश हूं या नहीं, इस का कोई माने नहीं है. जब तुम ने ही हालात से घबरा कर मेरा कहा मानने से इनकार कर दिया, तो मुझे तो हालात से समझौता करना ही था. मगर आज तुम्हारी हालत देख कर ऐसा लग रहा है कि तुम अधूरी मुहब्बत की आग में बुरी तरह झुलस रहे हो. बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?’’ कहते हुए नीलू ने राज के दोनों हाथ थाम लिए.

‘‘नीलू, मैं जो देखना और महसूस करना चाहता था, वह सब देख कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि मेरी कुरबानी कामयाब हो गई है. मैं जिंदगीभर तुम्हारी यादों को अपने दिल में सहेज कर रखूंगा. तुम खुशहाल रहोगी, तो मैं समझूंगा कि मुझे सबकुछ मिल गया,’’ राज ने कहा.

‘‘नहीं राज, तुम मुझे कभी अपने से अलग मत समझना. मैं आज भी तुम्हारे साथ हूं. जहां चाहे ले चलो, मैं तुम्हारी बन कर रहूंगी,’’ कहते हुए नीलू ने राज को अपनी बांहों में कस कर चूमना चाहा.

‘‘मेरी वजह से जमाना तुम्हें बदचलन कहे, मैं यह सब सह नहीं पाऊंगा,’’ राज ने कहा.

नीलू बोली, ‘‘अब पता नहीं कब आ सकूंगी. थोड़ी देर अंदर आओ. अपने मन की बात मैं तुम्हारे सामने रखना चाहती हूं,’’ इतना कह कर नीलू ने राज का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाना चाहा.

‘‘नहीं नीलू, मुझ से यह नहीं हो पाएगा. मुझे माफ कर देना,’’ इतना कह कर राज उलटे कदमों से गेट से बाहर आ गया. नीलू राज को रोकना तो चाहती थी, मगर उसे रोक नहीं सकी.

Valentine’s Special- वेलेंटाइन डे: वो गुलाब किसका था

अपने देश में विदेशी उत्पाद, पहनावा, विचार, आचारसंहिता आदि का चलन जिस तरह से जोर पकड़ चुका है उस में वेलेंटाइन डे को तो अस्तित्व में आना ही था. वैसे अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि वेलेंटाइन डे के दिन होता क्या है. फिर भी बात चली है तो खुलासा कर देते हैं कि चाहने वाले जवान दिलों ने इस दिन को प्रेम जाहिर करने का कारगर माध्यम बना लिया है. इस अवसर पर बाजार सजते हैं, चहकते, इठलाते लड़केलड़कियों की सड़कों पर आवाजाही बढ़ जाती है, वातावरण में खुमार, खनक, खुशी भर जाती है.

सेंट जोंसेफ कानवेंट स्कूल के कक्षा 11 के छात्र अभिराम ने इसी दिन अपनी सहपाठिनी निष्ठा को ग्रीटिंग कार्ड के ऊपर चटक लाल गुलाब रख कर भेंट किया था. निष्ठा ने अंदरूनी खुशी और बाहरी झिझक के साथ भेंट स्वीकार की थी तो कक्षा के छात्रछात्राओं ने ध्वनि मत से उन का स्वागत कर कहा, ‘‘हैप्पी फोर्टीन्थ फैब.’’

विद्यालय का यह पहला इश्क कांड नहीं था. कई छात्रछात्राओं का इश्क चोरीछिपे पहले से ही परवान चढ़ रहा था. आप जानिए, वे पढ़ाई की उम्र में पढ़ाई कम दीगर हरकतें ज्यादा करते हैं. चूंकि यह विद्यालय अपवाद नहीं है इसलिए यहां भी तमाम घटनाएं हुआ करती हैं.

एक छात्रा स्कूल आने और उस के निर्धारित समय का लाभ ले कर किसी के साथ भाग चुकी है. एक छात्रा को रसायन शास्त्र के अध्यापक ने लैब में छेड़ा था. इस के विरोध में विद्यार्थी तब तक हड़ताल पर बैठे रहे जब तक उन को प्रयोगशाला से हटा नहीं दिया गया. इस के बावजूद स्कूल का जो अनुशासन, प्रशासन और नियमितता होती है वह आश्चर्यजनक रूप से यहां भी है.

हां, तो बात निष्ठा की चल रही थी. उस ने दिल की बढ़ी धड़कनों के साथ ग्रीटिंग की इबारत पढ़ी- ‘निष्ठा, सेंट वेलेंटाइन ने कहा था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है. मैं संत का बहुत आभारी हूं-अभिराम.’

प्रेम की घोषणा हो गई तो उन के बीच मिलनमुलाकातें भी होने लगीं. दोनों एकदूसरे को मुग्धभाव से देखने लगे. साथसाथ ट्यूशन जाने लगे, फिल्म देखने भी गए.

कक्षा की सहपाठिनें निष्ठा से पूछतीं, ‘‘प्रेम में कैसा महसूस करती हो?’’

‘‘सबकुछ अच्छा लगने लगा है. लगता है, जो चाहूंगी पा लूंगी.’’

‘‘ग्रेट यार.’’

अपने इस पहले प्रेम को ले कर उत्साहित अभिराम कहता, ‘‘निष्ठा, मेरे मम्मीपापा डाक्टर हैं और वे मुझे भी डाक्टर बनाना चाहते हैं. यही नहीं वे बहू भी डाक्टर ही चाहते हैं तो तुम्हें भी डाक्टर बनना होगा.’’

‘‘और न बन सकी तो? क्या यह तुम्हारी भी शर्त है?’’

‘‘शर्त तो नहीं पर मुझे ले कर मम्मीपापा ऐसा सोचते हैं,’’ अभिराम बोला, ‘‘तुम्हारे घरवालों ने भी तो तुम्हें ले कर कुछ सोचा होगा.’’

‘‘यही कि मेरी शादी कैसे होगी, दहेज कितना देना होगा? आदि…’’ सच कहूं अभिराम तो पापामम्मी विचित्र प्राणी होते हैं. एक तरफ तो वे दहेज का दुख मनाएंगे, किंतु लड़की को आजादी नहीं देंगे कि वह अपने लिए किसी को चुन कर उन का काम आसान करे.’’

‘‘यह अचड़न तो विजातीय के लिए है हम तो सजातीय हैं.’’

‘‘देखो अभिराम, धर्म और जाति की बात बाद में आती है, मांबाप को असली बैर प्रेम से होता है.’’

‘‘मैं अपनी मुहब्बत को कुरबान नहीं होने दूंगा,’’ अभिराम ने बहुत भावविह्वल हो कर कहा.

‘‘बहुत विश्वास है तुम्हें अपने पर.’’

‘‘हां, मेरे पापामम्मी ने तो 25 साल पहले प्रेमविवाह किया था तो मैं इस आधुनिक जमाने में तो प्रेमविवाह कर ही सकता हूं.’’

‘‘अभि, तुम्हारी बातें मुझे भरोसा देती हैं.’’

अभिराम और निष्ठा अब फोन पर लंबीलंबी बातें करने लगे. अभि के मातापिता दिनभर नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे अत: उस को फोन करने की पूरी आजादी थी. निष्ठा आजाद नहीं थी. मां घर में होती थीं. फोन मां न उठा लें इसलिए वह रिंग बजते ही रिसीवर उठा लेती थी.

मां एतराज करतीं कि देख निष्ठा तू घंटी बजते ही रिसीवर न उठाया कर. आजकल के लड़के किसी का भी नंबर डायल कर के शरारत करते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं ने एक फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, ‘‘पहचाना? मैं ने कहा कौन? तो बोला, तुम्हारा होने वाला.’’

इस तरह अभिराम और निष्ठा का प्रेम अब एक साल पुराना हो गया.

अभिराम ने योजना बनाई कि निष्ठा, वेलेंटाइन डे पर कुछ किया जाए.

निष्ठा ने सवालिया नजरों से अभिराम को देखा, जैसे पूछ रही हो क्या करना है?

‘‘देखो निष्ठा, इस छोटे से शहर में कोई बीच या पहाड़ तो है नहीं,’’ अभिराम बोला. ‘‘अपना पुष्करणी पार्क अमर रहे.’’

‘‘पार्क में हम क्या करेंगे?’’

‘‘अरे यार, कुछ मौजमस्ती करेंगे. और कुछ नहीं तो पार्क में बैठ कर पापकार्न ही खा लेंगे.’’

‘‘नहीं बाबा, मैं वेलेंटाइन डे पर तुम्हारे साथ पार्क में नहीं जा सकती. जानते हो हिंदू संस्कृति के पैरोकार एक संगठन के कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है, जो लोग वेलेंटाइन डे मनाते हुए मिलेंगे उन्हें परेशान किया जाएगा.’’

‘‘निष्ठा, यही उम्र है जब मजा मार लेना चाहिए. स्कूल में यह हमारा अंतिम साल है. इन दिनों की फिर वापसी नहीं होगी. हम कुछ तो ऐसा करें जिस की याद कर पूरी जिंदगी में रौनक बनी रहे. हम पार्क में मिलेंगे. मैं तुम्हें कुछ गिफ्ट दूंगा, इंतजार करो,’’ अभिराम ने साहबी अंदाज में कहा.

निष्ठा आखिर सहमत हो गई. मामला मुहब्बत का हो तो माशूक की हर अदा माकूल लगती है.

शाम को दोनों पार्क में मिले. निष्ठा खास सजसंवर कर आई थी. पार्क के कोने की एकांत जगह पर बैठ कर अभिराम निष्ठा को वाकमैन उपहार में देते हुए बोला, ‘‘इस में कैसेट भी है जिस पर तुम्हारे लिए कुछ रिकार्ड किया है.’’

‘‘वाह, मुझे इस की बहुत जरूरत थी. अब मैं अपने कमरे में आराम से सोते हुए संगीत सुन सकूंगी.’’

अभिराम ने निष्ठा के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘भारतीय संस्कृति ही नहीं बल्कि विकसित और आधुनिक देशों की संस्कृति भी प्रेम को बुरा कहती रही है. कैथोलिक ईसाइयों में प्रेम और शादी की मनाही थी. तब वेलेंटाइन ने कहा था कि मनुष्य को प्रेम की अभिव्यक्ति का अधिकार है. तभी से 14 फरवरी के दिन प्रेमी अपने प्रेम का इजहार करते हैं.’’

संगठन के कुछ कार्यकर्ता प्रेमियों को खदेड़ने आ पहुंचे हैं, इस से बेखबर दोनों प्रेम के सागर में हिचकोले ले रहे थे कि अचानक संगठन के कार्यकर्ताओं को लाठी, हाकी, कालारंग आदि लिए देख अभिराम व निष्ठा हड़बड़ा कर खड़े हो गए. कुछ लोग पार्क छोड़ कर भाग रहे थे, तो कुछ तमाशा देख रहे थे.

उधर संगठन के ऐलान को ध्यान में रख स्थानीय मीडिया वाले रोमांचकारी दृश्य को कैमरे में उतारने के लिए शाम को वहां आ डटे थे. उन्होंने कैमरा आन कर लिया. अभिराम व निष्ठा स्थिति को भांपते इस के पहले कार्यकर्ताओं ने दोनों के चेहरे काले रंग से पोत दिए.

निष्ठा ने बचाव में हथेलियां आगे कर ली थीं. अत: चेहरे पर पूरी तरह से कालिख नहीं पुत पाई थी.

‘‘क्या बदतमीजी है,’’ अभिराम चीखा तो एक कार्यकर्ता ने हाकी से उस की पीठ पर वार कर दिया.

हाकी पीठ पर पड़ते ही अभिराम भाग खड़ा हुआ. उसे इस तरह भागते देख निष्ठा असहाय हो गई. वह किस तरह अपमानित हो कर घर पहुंची यह तो वही जानती है. डंडा पड़ते ही भगोड़े का इश्क ठंडा हो गया. वेलेंटाइन डे मना कर चला है क्रांतिकारी बनने. अरे अभिराम, अब तो मेरी जूती भी तुझ से इश्क न करेगी.

निष्ठा देर तक अपने कमरे में छिपी रही. वह जब भी पार्क की घटना के बारे में सोचती उस का मन अभिराम के प्रति गुस्से से भर जाता. बारबार मन में पछतावा आता कि उस ने प्रेम भी किया तो किस कायर पुरुष से. फिल्मों में देखो, हीरो अकेले ही कैसे 10 को पछाड़ देते हैं. वे तो कुल 4 ही थे.

तभी उस के कानों में बड़े भाई विट्ठल की आवाज सुनाई पड़ी जो मां से हंस कर कह रहा था, ‘‘मां, कुछ इश्कमिजाज लड़केलड़कियां पुष्करणी पार्क में वेलेंटाइन डे मना रहे थे. एक संगठन के लोगों ने उन के चेहरे काले किए हैं. रात को लोकल चैनल की खबर जरूर देखना.’’

खबर देख विट्ठल चकित रह गया, जिस का चेहरा पोता गया वह उस की बहन निष्ठा है?

‘‘मां, अपनी दुलारी बेटी की करतूत देखो,’’ विट्ठल गुस्से में भुनभुनाते हुए बोला, ‘‘यह स्कूल में पढ़ने नहीं इश्क लड़ाने जाती है. इस के यार को तो मैं देख लूंगा.’’

मां और बेटा दोनों ही निष्ठा के कमरे में घुस आए. मां गुस्से में निष्ठा को बहुत कुछ उलटासीधा कहती रहीं और वह ग्लानि से भरी चुपचाप सबकुछ सुनती व सहती रही. उस के लिए प्रेम दिवस काला दिवस बन गया था.

उधर अभिराम को पता ही नहीं चला कि वह पार्क से कैसे निकला, कैसे मोटरसाइकिल स्टार्ट की और कैसे भगा. उसे अब लग रहा था जैसे सबकुछ अपने आप हो गया. निष्ठा उस की कायरता पर क्या सोच रही होगी? बारबार यह प्रश्न उसे बेचैन किए जा रहा था.

पिताजी घर में थे, रात को टेलीविजन पर बेटे को देख कर वह चौंके और फौरन उन की आवाज गूंजी, ‘‘अभिराम, इधर तो आना.’’

‘‘जी पापा…’’

‘‘तो तुम पढ़ाई नहीं इश्क कर रहे हो. मैं तुम्हें डाक्टर बनाना चाहता हूं और तुम रोड रोमियो बन रहे हो.’’

‘‘पापा, वो… मैं वेलेंटाइन डे मना रहा था.’’

‘‘बता तो ऐसे गौरव से रहे हो जैसे एक तुम्हीं जवान हुए हो. मैं तो कभी जवान था ही नहीं. देखो, मैं इस शहर का मशहूर सर्जन हूं. क्या कभी तुम ने इस बारे में सोचा कि तुम्हें टेलीविजन पर देख कर लोग क्या कहेंगे कि इतने बड़े सर्जन का बेटा इश्क में मुंह काला करवा कर आ गया. जाओ पढ़ो, चार मार्च से सालाना परीक्षा है और तुम इश्क में निकम्मे बन रहे हो. आज से इश्कबाजी बंद.’’

अभिराम अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गया. इन बाप लोगों की चरित्रलीला समझ में नहीं आती. खुद इश्क लड़ाते रहे तो कुछ नहीं अब बेटे की बारी आई तो बड़ा बुरा लग रहा है. फिल्मों में बचपन का इश्क भी शान से चलता है और यहां सिखाया जा रहा है, इश्क में निकम्मे मत बनो. निष्ठा तुम ठीक कहती हो कि इन बड़े लोगों को असली बैर प्रेम से है.

बेचैन अभिराम निष्ठा को फोन करना चाह रहा था पर न साहस था न स्फूर्ति, न स्थिति.

4 मार्च को पहले परचे के दिन दोनों ने एकदूसरे को पत्र थमाए. अभिराम ने लिखा था, ‘निष्ठा, मैं तुम से सच्चा प्रेम करता हूं, साबित कर के रहूंगा.’

निष्ठा ने लिखा था, ‘यह सब प्रेम नहीं छिछोरापन है, और छिछोरेपन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं.’.

बस तुम्हारी हां की देर है: भाग 1

अपनीशादी की बात सुन कर दिव्या फट पड़ी. कहने लगी, ‘‘क्या एक बार मेरी जिंदगी बरबाद कर के आप सब को तसल्ली नहीं हुई जो फिर से… अरे छोड़ दो न मुझे मेरे हाल पर. जाओ, निकलो मेरे कमरे से,’’ कह कर उस ने अपने पास पड़े कुशन को दीवार पर दे मारा.

नूतन आंखों में आंसू लिए कुछ न बोल कर कमरे से बाहर आ गई. आखिर उस की इस हालत की जिम्मेदार भी तो वे ही थे. बिना जांचतड़ताल किए सिर्फ लड़के वालों की हैसियत देख कर उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को उस हैवान के संग बांध दिया. यह भी न सोचा कि आखिर क्यों इतने पैसे वाले लोग एक साधारण परिवार की लड़की से अपने बेटे की शादी करना चाहते हैं? जरा सोचते कि कहीं दिव्या के दिल में कोई और तो नहीं बसा है… वैसे दबे मुंह ही, पर कितनी बार दिव्या ने बताना चाहा कि वह अक्षत से प्यार करती है, लेकिन शायद उस के मातापिता यह बात जानना ही नहीं चाहते थे.

अक्षत और दिव्या एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों अंतिम वर्ष के छात्र थे. जब कभी अक्षत दिव्या के संग दिख जाता, नूतन उसे ऐसे घूर कर देखती कि बेचारा सहम उठता. कभी उस की हिम्मत ही नहीं हुई यह बताने की कि वह दिव्या से प्यार करता है पर मन ही मन दिव्या की ही माला जपता रहता था और दिव्या भी उसी के सपने देखती रहती थी.

‘‘नीलेश अच्छा लड़का तो है ही, उस की हैसियत भी हम से ऊपर है. अरे, तुम्हें तो खुश होना चाहिए जो उन्होंने अपने बेटे के लिए तुम्हारा हाथ मांगा, वरना क्या उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी है इस दुनिया में?’’

दिव्या के पिता मनोहर ने उसे समझाते हुए कहा था, पर एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि दिव्या मन से इस शादी के लिए तैयार है भी या नहीं.

मांबाप की मरजी और समाज में उन की नाक ऊंची रहे, यह सोच कर भारी मन से ही सही पर दिव्या ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी. वह कभी नहीं चाहेगी कि उस के कारण उस के मातापिता दुखी हों. कहने को तो लड़के वाले बहुत पैसे वाले थे लेकिन फिर भी उन्होंने मुंहमांगा दहेज पाया.

‘अब हमारी एक ही तो बेटी है. हमारे बाद जो भी है सब उस का ही है. तो फिर क्या हरज है अभी दें या बाद में’ यह सोच कर मनोहर और नूतन उन की हर डिमांड पूरी करते रहे, पर उन में तो संतोष नाम की चीज ही नहीं थी. अपने नातेरिश्तेदार को वे यह कहते अघाते नहीं थे कि उन की बेटी इतने बड़े घर में ब्याह रही है. लोग भी सुन कर कहते कि भई मनोहर ने तो इतने बड़े घर में अपनी बेटी का ब्याह कर गंगा नहा ली. दिल पर पत्थर रख दिव्या भी अपने प्यार को भुला कर ससुराल चल पड़ी. विदाई के वक्त उस ने देखा एक कोने में खड़ा अक्षत अपने आंसू पोंछ रहा था.

ससुराल पहुंचने पर नववधू का बहुत स्वागत हुआ. छुईमुई सी घूंघट काढ़े हर दुलहन की तरह वह भी अपने पति का इंतजार कर रही थी. वह आया तो दिव्या का दिल धड़का और फिर संभला भी़  लेकिन सोचिए जरा, क्या बीती होगी उस लड़की पर जिस की सुहागरात पर उस का पति यह बोले कि वह उस के साथ सबंध बनाने में सक्षम नहीं है और वह इस बात के लिए उसे माफ कर दे.

सुन कर धक्क रह गया दिव्या का कलेजा. आखिर क्या बीती होगी उस के दिल पर जब उसे यह पता चला कि उस का पति नामर्द है और धोखे में रख कर उस ने उसे ब्याह लिया?

पर क्यों, क्यों जानबूझ कर उस के साथ ऐसा किया गया? क्यों उसे और उस के परिवार को धोखे में रखा गया? ये सवाल जब उस ने अपने पति से पूछे तो कोई जवाब न दे कर वह कमरे से बाहर चला गया. दिव्या की पूरी रात सिसकतेसिसकते ही बीती. उस की सुहागरात एक काली रात बन कर रह गई.

सुबह नहाधो कर उस ने अपने बड़ों को प्रमाण किया और जो भी बाकी बची रस्में थीं, उन्हें निभाया. उस ने सोचा कि रात वाली बात वह अपनी सास को बताए और पूछे कि क्यों उस के जीवन के साथ खिलवाड़ किया गया? लेकिन उस की जबान ही नहीं खुली यह कहने को. कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे कि करे तो करे क्या, क्योंकि रिसैप्शन पर भी सब लोगों के सामने नीलेश उस के साथ ऐसे बिहेव कर रहा था जैसे उन की सुहागरात बहुत मजेदार रही. हंसहंस कर वह अपने दोस्तों को कुछ बता रहा था और वे चटकारे लेले कर सुन रहे थे. दिव्या समझ गई कि शायद उस के घर वालों को नीलेश के बारे में कुछ पता न हो. उन सब को भी उस ने धोखे में रखा हुआ होगा.

पगफेर पर जब मनोहर उसे लिवाने आए और पूछने पर कि वह अपनी ससुराल में खुश है, दिव्या खून का घूंट पी कर रह गई. फिर उस ने वही जवाब दिया जिस से मनोहर और नूतन को तसल्ली हो.

एक अच्छे पति की तरह नीलेश उसे उस के मायके से लिवाने भी आ गया. पूरे सम्मान के साथ उस ने अपने साससुसर के पांव छूए और कहा कि वे दिव्या की बिलकुल चिंता न करें, क्योंकि अब वह उन की जिम्मेदारी है. धन्य हो गए थे मनोहर और नूतन संस्कारी दामाद पा कर. लेकिन उन्हें क्या पता कि सचाई क्या है? वह तो बस दिव्या ही जानती थी और अंदर ही अंदर जल रही थी.

दिव्या को अपनी ससुराल आए हफ्ते से ऊपर का समय हो चुका था पर इतने दिनों में एक बार भी नीलेश न तो उस के करीब आया और न ही प्यार के दो बोल बोले, हैरान थी वह कि आखिर उस के साथ हो क्या रहा है और वह चुप क्यों है. बता क्यों नहीं देती सब को कि नीलेश ने उस के साथ धोखा किया है? लेकिन किस से कहे और क्या कहे, सोच कर वह चुप हो जाती.

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बस तुम्हारी हां की देर है

सुगंधा लौट आई -भाग 1: क्या थी सुगंधा की अनिल को छोड़ने की वजह?

शकुंतला सिन्हा

मैं उन दिनों बीबीए के अंतिम सैमेस्टर में था. इरादा तो ग्रैजुएशन के बाद एमबीए करने का था पर इस की हैसियत नहीं थी. पापा रिटायर हो चुके थे और रिटायरमैंट पर पैसे बहुत कम मिले थे. नौकरी के दौरान ही 2 बेटियों की शादी के लिए उन्होंने पीएफ से काफी पैसे निकाल लिए थे. छोटी बेटी की शादी के कुछ महीने बाद मम्मी चल बसीं.

पापा की पेंशन इतनी थी कि मेरी पढ़ाई और घर का खर्र्च आराम से चल जाता था. पापा ने मुझे बीबीए करने को कहा. मैं ने सोचा कि बीबीए के बाद बिजनैस के कुछ गुर सीख लूंगा और नौकरी न भी मिली तो अपना बिजनैस करूंगा. पापा ने कहा कि जरूरत पड़ने पर अपना घर गिरवी रख कर बैंक से कर्ज ले लेंगे. घर क्या था, बंटवारे के बाद पुश्तैनी घर में 3 रूम का एक फ्लैट उन के हिस्से आया था.

एक दिन मैं घर से निकल कर थोड़ी दूर ही गया था कि अचानक मेरे ऊपर पानी की कुछ बूंदें गिरीं. मौसम बरसात का नहीं था और ऊपर नीले आसमान में दूर तक बादल का नामोनिशान भी नहीं था. हां, जाड़े की शुरुआत जरूर थी. फिर दोबारा पानी की कुछ बूंदें मेरे सिर और चेहरे पर आ गिरीं. तब मैं ने देखा कि ठीक ऊपर पहली मंजिल की बालकनी पर खड़ी एक लड़की बालों को झटक रही थी. मैं ने रूमाल से अपने चेहरे से उन बूंदों को पोंछते हुए ऊपर देखा. लड़की थोड़ी सहमी सी लगी, फिर मुसकराई. उस के होंठ से कुछ अनसुने शब्द निकले हालांकि होंठों की मूवमैंट से मैं समझ गया कि वह सौरी बोल रही थी.

मैं ने शरारत से हंसते हुए कहा ‘‘इट्स ओके पर एक बार फिर मुसकरा दो.’’

इस पर वह खिलखिला कर हंस पड़ी और शरमा कर अंदर चली गई. मैं ने महसूस किया कि  गोरे रंग की इस लड़की के मुख में दूधिया दंतपंक्तियां उस की सुंदरता में चार चांद लगा रही थीं.

इस के 2 दिन बाद मैं फिर उस रास्ते से जा रहा था तो उस लड़की की बालकनी की ओर देखने लगा. वह लड़की तो वहीं खड़ी थी पर उस ने बालों में तौलिया बांध रखा था. इस बार मैं मुसकरा पड़ा तो जवाब में वह खिलखिला उठी, मुझे अच्छा लगा. फिर कुछ दिनों तक वह नजर नहीं आई. करीब 2 सप्ताह के बाद मुझे वह बाजार में सब्जी खरीदती मिली. इत्तफाक से मैं भी वहीं गया था. दोनों की नजरें मिलीं, मैं ने हिम्मत कर पूछा ‘‘इधर कुछ दिनों से आप दिखीं नहीं.’’

‘‘हां, छुट्टियां थीं, मैं दीदी के यहां गई थी. आज ही लौटी हूं.’’

मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह पहली मुलाकात में इतनी फ्रैंकली बात करेगी. उस ने काफी सामान लिया था और उन्हें 2 थैलों में बांट कर दोनों हाथों में ले कर चलने लगी. मैं एक थैला उस के हाथ से लेना चाहता था, पर वह बोली. ‘‘थैंक्स, मैं खुद ले लूंगी आप क्यों तकलीफ करेंगे. घर ज्यादा दूर भी नहीं है. अगर जरूरत पड़ी तो रिक्शा ले लूंगी.’’

मैं ने उस के हाथ से थैला लगभग छीनते हुए कहा, ‘‘इस में तकलीफ की कोई बात नहीं है. रिक्शा के पैसे बचा कर हम चाय पी लेंगे.’’

चाय की दुकान सामने थी, वहां बैंच पर बैग रख कर बोला. ‘‘भैया 2 स्पैशल चाय बना देना.’’ चाय पीतेपीते थोड़ा परिचय हुआ, उस ने अपना नाम सुगंधा बताया. उस के पिता नहीं थे और वह मां के साथ रहती थी. वह बीसीए कर एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थी. मैं ने भी अपनी पढ़ाई और बिजनैस के इरादे के बारे में बताया. मैं ने चाय के पैसे देने के लिए पर्स निकाला तो उस ने रोकते हुए कहा, ‘‘रिक्शा का पैसा मेरा बचा है तो पेमैंट मैं ही करूंगी.’’

मुझे अच्छा नहीं लगा, माना कि अभी नौकरी नहीं थी पर चाय के पैसे तो दे ही सकता था. चाय पी कर टहलते हुए निकले, पहले उस का ही घर पड़ता था. उस ने दूसरा थैला मुझ से ले कर कहा, ‘‘थैंक्स, अनिलजी.’’

मैं और सुगंधा अकसर मिलने लगे थे जहां तक नौकरी का सवाल था वह सैटल्ड थी. मुझे बीबीए करने के बाद भी कोई मन लायक नौकरी नहीं मिल रही थी, जो औफर थे उन के वेतन बहुत कम थे. मैं कुछ अपना ही बिजनैस करने की सोच रहा था. वह मुझे प्रोत्साहित करती रही और ऐसे लोगों के उदाहरण देती जो निरंतर कठिन संघर्ष के बाद सफल हुए.

मेरे पास लैपटौप और इंटरनैट था. मैं दिन भर उसी पर अच्छी नौकरी या वैकल्पिक बिजनैस के अवसर तलाश रहा था. सुगंधा कभीकभी मुझे अपने घर भी ले जाती. उस की मां मुझे बहुत प्यार करती थी. एक दिन सुगंधा मेरे घर आई और उस ने बताया कि उस के स्कूल में कंप्यूटर लगने जा रहा है और फिर बच्चों को कंप्यूटर सिखाना है. उसी सिलसिले में एक प्रोजैक्ट रिपोर्ट और टैंडर बनाना है. वह चाहती थी कि मैं भी अपना टैंडर भरूं. मैं ने कंप्यूटर ऐप्लिकेशन का कोर्स भी किया था और पढ़ाई के दौरान टैंडर, मार्केटिंग की जानकारी भी मिली थी. मेरे पापा भी यही चाहते थे कि इस अवसर को न गवाऊं.

मैं ने टैंडर भरा और इत्तफाक कहें या सौभाग्य मुझे पहला अवसर मिला. सुगंधा के स्कूल की शाखाएं हमारे राज्य के कुछ अन्य शहरों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी थीं. उस के प्रिंसिपल इस राज्य के स्कूलों में कंप्यूटर प्रोजैक्ट के इंचार्र्ज थे. सुगंधा ने कहा ‘‘अगर तुम्हारे काम से वे खुश हुए तो अन्य स्कूलों में भी तुम्हें काम मिलने की संभावना है.’’

मैं ने कहा ‘‘मैं टीचर नहीं बनना चाहता हूं. कंप्यूटर इंस्टौल कर नैटवर्किंग आदि एक टीचर और कुछ बच्चों को दोचार दिनां में सिखा दूंगा, इस के बाद उसे आगे बढ़ाना तुम लोगों की जिम्मेदारी होगी.’’

‘‘ठीक है, आप मुझे ही बता देना. मैं ने भी कंप्यूटर का कोर्स किया है.’’

मुझे मेरे पहले काम में ही आशातीत सफलता मिली. प्रिंसिपल बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने बाकी 11 स्कूलों के लिए टैंडर भरने को कहा. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. सुगंधा, उस की मां और पापा सभी बहुत खुश थे. पापा ने तो यहां तक कहा ‘‘इस लड़की के कदम बहुत शुभ हैं. इन के पड़ते ही तुम्हारी जिंदगी में एक खुशनुमा मोड़ आया है, क्यों न तुम दोनों ही मिल कर काम करो, बल्कि मुझे तो यह लड़की बेहद पसंद है. तुम्हारी जीवनसाथी बनने लायक है.’’

सुगंधा की मां के भी कुछ ऐसे ही विचार थे. मुझे एहसास था कि हम दोनों एकदूसरे को चाहने लगे थे पर हम ने अपनी चाहत को मन में ही दबा कर रखा था, खास कर मैं ने क्योंकि अभी तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं था. अब तो बड़ों की इजाजत मिल चुकी थी सो खुल्लमखुल्ला मर्यादित और एक दायरे के अंदर इश्क का सिलसिला शुरू हो गया.

मुझे बाकी स्कूल के टैंडर भी मिल गए तब मैं ने अपने घर से ही अपनी निजी कंपनी की शुरूआत की. ‘‘सुनील डौट कौम.’’ पापा ने पूछा ‘‘यह सुनील कौन है जिस के नाम की कंपनी तुम ने खोली है?’’

मैं ने उन्हें कहा ‘‘सु फौर सुगंधा और नील आप के बेटे अनिल का नाम दोनों को मिला कर सुनील रखा है.’’

‘‘अच्छा तो बात यहां तक पहुंच गई है तब तो मुझे सुगंधा की मां से बात करनी होगी.’’

सुगंधा को भी मेरी कंपनी का नाम सुन कर आश्चर्य हुआ. मैं ने जब उसे इस का मतलब समझाया तो वह हंसने लगी. पापा ने उस की मां से मिल कर हम दोनों की चट मंगनी पट शादी करा दी.

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