कोशिशें जारी हैं : सास – बहू का निराला रिश्ता – भाग 1

‘‘पहली बार पता चला कि निया तुम्हारी बहू है, बेटी नहीं…’’ मिथिला शिवानी से कह रही थी और शिवानी मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘क्यों, ऐसा क्या फर्क होता है बेटी और बहू में? दोनों लड़कियां ही तो होती हैं. दोनों ही नौकरियां करती हैं. आधुनिक ड्रैसेज पहनती हैं. आजकल यह फर्क कहां दिखता है कि बहू सिर पर पल्ला रखे और बेटी…’’

‘‘नहीं… फिर भी,’’ मिथिला उस की बात काटती हुई बोली, ‘‘बेटी, बेटी होती है और बहूबहू. हावभाव से ही पता चल जाता है. निया तुम से जैसा लाड़ लड़ाती है, छोटीछोटी बातें शेयर करती है, तुम्हारा ध्यान रखती है, वैसा तो सिर्फ बेटियां ही कर सकती हैं. तुम दोनों की ऐसी मजबूत बौंडिग देख कर तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि तुम दोनों सासबहू हो. ऐसे हंसतीखिलखिलाती हो साथ में कि कालोनी में इतने दिन तक किसी ने यह पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि निया तुम्हारी कौन है. बेटी ही समझा उसे.’’

‘‘ऐसा नहीं है मिथिला. यह सब सोच की बातें हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लड़कियां ठीक ही होती हैं. लेकिन जिस दिन लड़की पहला कदम घर में बहू के रूप में रखती है, रिश्ते बनाने की कोशिश उसी पल से शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि हम बड़े हैं, इसलिए कोशिशों की शुरुआत हमें ही करनी चाहिए और अगर उन कोशिशों को जरा भी सम्मान मिले तो कोशिशें जारी रहनी चाहिए. कभी न कभी मंजिल मिल ही जाती है. हां, यह बात अलग है कि अगर तुम्हारी कोशिशों को दूसरा तुम्हारी कमजोरी समझ रहा है तो फिर सचेत रहने की आवश्यकता भी है,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो… पर तुम दोनों तो देखने में भी बहनों सी ही लगती है. ऐसी बौंडिग कैसे बनाई तुम ने? प्यार तो मैं भी करती हूं अपनी बहू से पर पता नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि यह रिश्ता एक तलवार की धार की तरह है. जरा सी लापरवाही दिखाई तो या तो पैर कट जाएगा या फिसल जाएगा. तुम दोनों कितने सहज और बिंदास रहते हो,’’ मिथिला अपने मन के भावों को शब्द देती हुई बोली.

‘‘बहू तो तुम्हारी भी बहुत प्यारी है मिथिला.’’

‘‘है तो,’’ मिथिला एक लंबी सांस खींच कर बोली, ‘‘पर सासबहू के रिश्ते का धागा इतना पतला होता है शिवानी कि जरा सा खींचा तो टूटने का डर, ढीला छोड़ा तो उलझने का डर. संभलसंभल कर ही कदम रखने पड़ते हैं. निश्चिंत नहीं रह सकते इस रिश्ते में.’’

‘‘हो सकता है… सब के अपनेअपने अनुभव व अपनीअपनी सोच है… निया के साथ मुझे ऐसा नहीं लगता,’’ शिवानी बात खत्म करती हुई बोली.

‘‘ठीक है शिवानी, मैं चलती हूं… कोई जरूरत हो तो बता देना. निया भी औफिस से आती ही होगी,’’ कहती हुई मिथिला चली गई. शिवानी इतनी देर बैठ कर थक गई थी, इसलिए लेट गई.

शिवानी को 15 दिन पहले बुखार ने आ घेरा था. ऐसा बुखार था कि शिवानी टूट गई थी. पूरे बदन में दर्द, तेज बुखार, उलटियां और भूख नदारद. निया ने औफिस से छुट्टी ले कर दिनरात एक कर दिया था उस की देखभाल में. उस की हालत देख कर निया की आंखें जैसे हमेशा बरसने को तैयार रहतीं. शिवानी का बेटा सुयश मर्चेंट नेवी में था. 6 महीने पहले वह अपने परिवार को इस कालोनी में शिफ्ट कर दूसरे ही दिन शिप पर चला गया था. 4 साल होने वाले थे सुयश व निया के विवाह को.

शिवानी के इतना बीमार पड़ने पर निया खुद को बहुत अकेला व असहाय महसूस कर रही थी. पति को आने के लिए कह नहीं सकती थी. वह बदहवास सी डाक्टर, दवाई और शिवानी की देखरेख में रातदिन लगी थी. इसी दौरान पड़ोसियों का घर में ज्यादा आनाजाना हुआ, जिस से उन्हें इतने महीनों में पहली बार उन दोनों के वास्तविक रिश्ते का पला चला था, क्योंकि सुयश को किसी ने देखा ही नहीं था. निया जौब करती, शिवानी घर संभालती. दोनों मांबेटी की तरह रहतीं और देखने में बहनों सी लगतीं.

कर्णफूल : क्यों अपनी ही बहन पर शक करने लगी अलीना-भाग 3

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वह अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर मनाएंगी. मैं और अम्मी बहुत खुश हुए. बडे़ उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना आपी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर के डेकोरेशन को देख कर वह बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सब काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया. मैं और अम्मी नाश्ते के बाद इंतजाम के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से आर्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना आपी आईं और अम्मी से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, ये लीजिए झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे वे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’’

अम्मी ने मुझ से कहा, ‘‘जाओ मलीहा, वह डिबिया निकाल कर ले आओ.’’ मैं ने डिबिया ला कर अम्मी के हाथ पर रख दी. आपी ने बड़ी बेसब्री से डिबिया उठा कर खोली. लेकिन डिबिया खुलते ही वह चीख पड़ीं, ‘‘अम्मी कर्णफूल तो इस में नहीं है.’’

अम्मी ने झपट कर डिबिया उन के हाथ से ले ली. वाकई डिबिया खाली थी. अम्मी एकदम हैरान सी रह गईं. मेरे तो जैसे हाथोंपैरों की जान ही निकल गई. अलीना आपी की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्होंने मुझे शक भरी नजरों से देखा तो मुझे लगा कि काश धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं.

अलीना आपी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं. मैं ने और अम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं भी कर्णफूल नहीं मिले. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डिबिया अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली भी नहीं थी. फिर कर्णफूल कहां गए?

एक बार ख्याल आया कि कुछ दिनों पहले चाचाचाची आए थे और चाची दादी के जेवरों की वजह से अम्मी से बहुत जलती थीं. क्योंकि सब कीमती चीजें उन्होंने अम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने ही तो मौका देख कर नहीं निकाल लिए कर्णफूल. मैं ने अम्मी से कहा तो वह कहने लगीं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वह ऐसा कर सकती हैं.’’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिन काम किया था. संभव है, भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. अम्मी कहने लगीं, ‘‘नहीं बेटा, बिना देखे बिना सुबूत किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी, चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम लगा कर गुनहगार क्यों बनें.’’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिल दिमाग ठिकाने पर नहीं था. अलीना आपी के पति समर भाई ने सिचुएशन संभाली, प्रोग्राम ठीकठाक हो गया. दूसरे दिन अलीना ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. अम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं, समर भाई ने भी समझाया, पर वह रुकने के लिए तैयार नहीं हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘‘मैं बेकुसूर हूं, कर्णफूल गायब होने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं है.’’

लेकिन उन्हें किसी बात पर यकीन नहीं आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव साफ देखे जा सकते थे. शाम को वह चली गईं तो पूरे घर में एक बेमन सी उदासी पसर गईं. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना आपी से शर्मिंदा भी थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना आपी सिर्फ 2 बार अम्मी से मिलने आईं, वह भी 2-3 दिनों के लिए. आती तो मुझ से तो बात ही नहीं करती थीं. मैं ने बहन के साथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी थी. बारबार सफाई देना फिजूल था. खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जुबां बन जाए. यह सोच कर मैं ने चुप्पी साध ली. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद ये गम भी हलका पड़ जाए.

मामूली सी आहट पर मैं ने सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी. वह कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

मैं अतीत की दुनिया से बाहर आ गई. मुंह धो कर मैं अम्मी के पास आईसीयू में पहुंच गई. अम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गईं. वह मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, परेशान न हो, इस तरह के उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते ही रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हल्का सा नाश्ता कराया. डाक्टरों ने कहा, ‘‘इन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे. 2-4 दिन में छुट्टी दे दी जाएगी. हां, दवाई और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो, जिस से इन्हें स्ट्रेस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना आपी भी आ गईं. मुझ से बस सलामदुआ हुई. वह अम्मी के पास रुकीं. मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद अम्मी भी घर आ गई. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की भरसक कोशिश करते रहे. एक हफ्ता तो अम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया.

मैं ने औफिस जौइन कर लिया. अम्मी के बहुत इसरार पर आपी कुछ दिन रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब अम्मी हलकेफुलके काम कर लेती थीं. अलीना आपी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक थी.उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गाव तकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं. एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’

अन्नामां तकिए उठा लाईं और उन्हें खोलने लगीं. फिर मैं और अन्नामां रुई, तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगीं तो मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गईं. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘‘देखिए अम्मी ये रहे कर्णफूल.’’

आपी ने कर्णफूल उठा लिए और अम्मी के हाथ पर रख दिए. अम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो आपी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

अम्मी सोच में पड़ गईं. फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आया अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रहीं थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख ही रहे थे, तभी घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डिबिया में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डिबिया के बजाय रुई में रख दिए और डिबिया तकिए के पीछे रख दी थी.

‘‘कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शाल वाले के जाने के बाद डिबिया तो मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई  में दब कर रुई के साथ तकिए में भर गए. मलीहा ने तकिए सिले और कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे कि कर्णफूल डिबिया में अलमारी में रखे हैं. जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल है ही नहीं. अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’

अम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक गहरी सांस छोड़ी. अलीना के चेहरे पर फछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उन की आंखें भर आईं. वह दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खडी हो गईं. रुंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या, मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के रेगिस्तान में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं आपी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं से दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

आपी बोलीं, ‘‘अम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटिक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमती एंटिक पीस हैं, मुझे मिलने चाहिए. पर आप ने मलीहा को दे दिए. मुझे लगा कि मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी, ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल का मोह छोड़ती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से आपी से लिपट कर बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से मुझे जो खुशी होगी, वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

अम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ, मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए. रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है, फिर खुद टूट कर बिखर जाते हैं.’’

मैं ने खुलूसे दिल से आपी के कानों में कर्णफूल पहना दिए. सारा माहौल मोहब्बत की खुशबू से महक उठा.???

विस्मृत होता अतीत – भाग 3: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है…’’ मैं रोष भरे स्वर में बोली.

‘‘सुनो विभा, अगर अपने इस डर से बाहर निकलना चाहती हो तो अपनी फोटो जरूर अपलोड करो,’’ उन्होंने बेहद संजीदगी से कहा.

वे वाकई सच बोल रहे थे. मैं ने कुछ सोच कर अपनी फोटो अपलोड कर दी और मुझे जो तारीफ भरी कमैंट मिले उन्होंने मुझे अपने अतीत से बाहर खींच लिया. वास्तव में मैं उस एक गुनाह का बोझ ढो रही थी जो मैं ने किया ही नहीं था. सच पूछा जाए तो यह समाज की खींची हुई लकीर है जिस में मर्द गुनाह कर के भी बचा रहता है और उस के किए की सजा अकसर बेटियां ही भुगतती हैं. उन्हें बचपन से शिक्षा भी ऐसी दी जाती है कि वे मानसिक और शारीरिक रूप से अपने अनकिए गुनाहों का दोषी खुद को ही मान लिया करती हैं.

मेरे साथ तो फिर भी राजीव थे जिन्होंने मुझे अपने इस अनचाहे अतीत से छुटकारा दिलावाने में मदद की, पर और न जाने कितनी…? मैं ने अपनेआप को अपनी इस सोच से बाहर निकाला.

मैं ने राजीव को कवि सम्मेलन में शिरकत होने वाले इनविटेशन के बारे में बताया तो वे खुशी से उछल पड़े और मुझे इस के लिए ट्रीट देने को कहा. हम ने आपस में मिल कर तय किया कि शहर में नए खुले रैस्टोरैंट में डिनर किया जाए. इन्होंने एक टेबल बुक कर ली. डिनर के लिए जब मैं इन की पसंद की साड़ी पहन कर आई तो इन्होंने धीरे से सीटी बजाई और कहा, ‘‘आज तो गजब ढा रही हो डार्लिंग… क्यों न आज की रात…’’ मैं बेतरह लजा गई.

रैस्टोरैंट बेहद शानदार था. राजीव कार पार्क करने लगे और मैं बच्चों को ले कर जैसे ही रैस्टोरैंट में दाखिल होने लगी तो दरवाजे पर मौजूद वरदीधारी दरबान को देख कर मैं ठिठक गई. राहुल था जो सैल्यूट मार रहा था. मेरी निगाहों में आश्चर्य था और उस का चेहरा मुझे देख कर फीका पड़ गया था. पीछे आ रहे राजीव मुझे दरवाजे पर रुका हुआ देख कर मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगे तो मैं बिना कुछ बोले अंदर दाखिल हो गई.

अंदर आ कर मैं ने उन्हें सब बताया तो वे पलट कर बाहर चले गए. मैं उन के पीछे लपकी. वे राहुल के पास पहुंच चुके थे और उस का हाथ अपने हाथ में ले कर शेकहैंड करने लगे, ‘‘तुम्हारा बहुतबहुत थैक्स यार… तुम ने जो किया यदि वह न करते तो (मेरी ओर इशारा किया) विभा मेरे जीवन में नहीं आतीं…’’ उस से बोल कर उसे हक्काबक्का छोड़ कर उलटे पांव रैस्टोरैंट में दाखिल हो गए और मैं अरे… अरे… कर के रह गई. मैं भी चुपचाप आ कर कुरसी पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद दरवाजे की ओर देखा तो वहां राहुल नहीं था. जब खाना खा कर लौट रहे थे तो राजीव ने राहुल की जगह दूसरे दरबान को खड़े देखा. उन से रहा नहीं गया तो उन्होंने उस के बारे में पूछ ही लिया तो पता चला कि वह नौकरी छोड़ कर जा चुका था.

विस्मृत होता अतीत – भाग 2: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

अब मैं ने उसे अपनी फ्रैंड्स लिस्ट में से हटाने का सोच कर जैसे ही माउस पर हाथ रखा कि डोरबैल बजी. मैं ने दरवाजा खोलने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, बाहर से शिवांग की आवाज आई, ‘‘मम्मी जल्दी दरवाजा खोलो, आइसक्रीम पिघल जाएगी.’’

मैं जानती थी कि यदि मैं ने जल्दी दरवाजा नहीं खोला तो उस के शोर से ही आसपास के फ्लैट से लोग निकल आएंगे. मैं जल्दी में नैट बंद करना भूल गई.

राजीव ढेर सारा खाने का सामान ले कर आए थे यानी आज रात खाना बनाने से छुट्टी. राजीव ने चाय की फरमाइश की तो मैं तुरंत बना लाई और चाय की चुसकियों के बीच मुझे याद आया कि मैं नेट बंद करना तो भूल ही गई थी. मेरा फेसबुक अकाउंट खुला पड़ा था और चैटिंग विंडो पर 2-3 मैसेज मेरा इंतजार कर रहे थे. मैं खुद को उन्हें खोलने से रोक नहीं पाई. एक मैसेज किसी कवि प्रदीप की ओर से कवि सम्मेलन में कविता पाठ के लिए था और दूसरा मैसेज कौशल महादेव का था, जिसे पढ़ कर मुझे बेहद झुंझलाहट हुई. उस की गाड़ी एक ही जगह पर अटकी पड़ी थी, ‘आप नाराज हैं क्या…?’, ‘आप चैट क्यों नहीं करतीं…?’, ‘आप ने अपना फोटो क्यों नहीं अपलोड किया…?’ अब तो मुझे लगने लगा कि इसे वाकई अपनी फ्रैंड्स लिस्ट में से हटा देना चाहिए और मैं ने किया भी वही, पर बारबार दिमाग में एक ही सवाल दौड़ रहा था कि मैं ने अपना फोटो अपलोड नहीं किया. क्या यह प्रश्न इतना जरूरी है…?

यह सवाल मेरे अतीत की उस कब्र को खोदने के लिए काफी था जिसे दफन करने में मुझे काफी वक्त लगा था और जिस के कारण मैं मानसिक यातना के दौर से गुजरी थी और मेरे परिवार ने जो सामाजिक और मानसिक प्रताड़ना सही थी वह मुझे पागल कर देने के लिए काफी थी. अतीत की परतें उधेड़ने से मैं बहुत अपसैट हो गई और चुपचाप बालकनी में आ कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद राजीव मुझे ढूंढ़ते हुए आए और उन्होंने जैसे ही बालकनी की लाइट जलाई तो मुझे कहना पड़ा कि लाइट बंद रहने दो. वे मेरे करीब आए और धीरे से मेरा सिर सहला कर पूछा कि मैं अपसैट क्यों हूं…? तब मैं ने उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा मैं सब कुछ भूलने की कोशिश करूं. मैं थोड़ी देर अकेले रहना चाहती थी, वे बिना कुछ बोले खामोशी से उठ कर बाहर चले गए और मैं अपने अतीत को अंधेरे में फिर से जीवित होते देखती रही…

उस अंधेरे में मेरी आंखों के आगे वह शाम फिर से रिवाइंड हो गई. कालेज की फेयरवैल पार्टी थी. मैं ने बीएससी फाइनल ईयर का एग्जाम दिया था और कौलेज में वह मेरी आखिरी शाम थी. उस पार्टी में यह तय हुआ था कि लड़के धोतीकुरता या पाजामाकुरता और लड़कियां साड़ी पहन कर आएंगी. वह बेहद यादगार शाम थी पर वह मेरी जिंदगी में अंधेरा ले आएगी, मैं भी कहां जानती थी…? पार्टी में फोटो खींचने का दौर भी चल रहा था. हमारा एक क्लासमेट राहुल कैमरा ले कर आया था. वह हमारी क्लास का पढ़ने में सब से होनहार लड़का था. मेरे लिए सौफ्ट कौर्नर रखता था, यह मैं जानती थी पर वह मेरे लिए दूसरे क्लासमेट जैसा ही था. वह बारबार मेरे मना करने पर भी मेरी सिंगल फोटो खींचने की कोशिश कर रहा था जिस के लिए मैं ने उसे झिड़क दिया. सब के सामने यह बात होने से वह पार्टी से चुपचाप चला गया तो मैं ने चैन की सांस ली, पर मुझे नहीं मालूम था कि दूसरी सुबह मेरी जिंदगी का चैन हर लेने वाली है.

कुछ दिन बाद एक सुबह डाक से लिफाफा मेरे नाम आया. मां मेरे हाथ में उसे थमा कर चली गईं. लिफाफा वजनी था, मैं ने उसे उलटपलट कर देखा तो भेजने वाले का नाम नदारद पाया. खोलने पर उस में से कुछ तसवीरें फर्श पर गिर पड़ीं. उन तसवीरों को जैसे ही फर्श से उठाने के लिए झुकी तो ऐसा लगा कि कोई सांप देख लिया हो. तसवीरों में राहुल मेरे साथ इस तरह के पोज में खड़ा था कि समीपता का एहसास हो रहा था जबकि सचाई यह थी कि राहुल के पास तो क्या दूर खड़े हो कर भी मैं ने कोई तसवीर नहीं खिंचवाई थी.

मुझे रोना आ रहा था. जैसेजैसे मैं उन तसवीरों को देखती जा रही थी मेरा रोना गुस्से और आक्रोश में बदलता जा रहा था. मां ने जब मेरी हालत देखी तो मेरे पास आईं और उन की निगाह जब तसवीरों पर पड़ी तो वे सकते में आ गईं. पहले तो उन्होंने गुस्से में मेरी ओर देखा पर मेरी हालत देख कर वे नर्म पड़ गईं.

घर में जब सब को पता चला तो दादी का रिऐक्शन सब से पहले इस रूप में फूट कर सामने आया, ‘‘और पढ़ाओ लड़कों के साथ, यह तो होना ही था.’’

पापा और भैया कुछ न बोले पर वे बड़े गुस्से में थे. मेरा पूरा शक राहुल पर था, क्योंकि पार्टी वाले दिन मैं ने उसे अपनी फोटो लेने से डांटा था और उसी बात का बदला उस ने लिया था. मैं ने अपने इस शक के बारे में पापा को बताया तो उन्होंने उस से पूछने की ठानी पर वह अपनी इस हरकत से साफ मुकर गया. तब पापा और कोई चारा न देख कर उस के पापा से मिलने की सोच कर भैया के साथ उस के घर गए पर वहां से उन्हें अपमानित हो कर लौटना पड़ा.

इन सब बातों से धीरेधीरे लोगों को यह बात पता चल गई और मेरा घर से निकलना लगभग बंद हो गया. अब पूरा परिवार मानसिक प्रताड़ना से गुजर रहा था. और मैं जो आईएएस बनने का सपना पाले बैठी थी वह पूरा होना तो दूर, मेरी आगे की पढ़ाई करने की भी गुंजाइश शेष नहीं रही थी. मेरा सपना चकनाचूर हो चुका था. पापा को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी. वे मेरा जल्दी से जल्दी विवाह कर देना चाहते थे. वे जहां भी बात चलाते मेरे साथ हुई घटना की जानकारी पहले ही पहुंच जाती और फिर बिरादरी में रिश्ता मिलना लगभग नामुमकिन होने लगा था.

ऐसे ही समय पर राजीव के पापा हमारे घर आए. वे 10-12 सालों के बाद पापा से मिलने आए थे और हमारे घर 2-3 दिन ठहरे. घर के तनावपूर्ण माहौल को वे भांप गए पर उन्होंने अधिक पूछना ठीक न समझा. मुझे उन के आने से बेहद अच्छा लगा, क्योंकि घर में कोई मुझ से ठीक से बात तक नहीं करता था. मैं ने अपना अधिकतर समय उन के साथ ही बिताया था, पर उन के जाने की बात सुन कर मैं बेहद उदास हो गई थी. उन्होंने मुझ से पूछना चाहा कि मैं इतनी उदास क्यों रहती हूं, तो मैं उन के प्रश्न को टाल गई. वे इतना तो समझ ही चुके थे कि जरूर कोई बात है और वह भी कुछ गंभीर सी, पर उन्हें यह ठीक नहीं लगा कि इतने सालों के बाद दोस्त के घर आ कर रहूं और उस के घरेलू मामलों में दखल दूं.

उन के व्यवहार से ऐसा लग रहा था कि मानों वे कुछ कहना चाहते हैं पर कहने से झिझक रहे हैं. जब वे हम से बिदा ले रहे थे तो अचानक उन्होंने पापा से कहा कि वे कुछ कहना चाहते हैं तो पापा ने हंस कर कहा कि इतना झिझक क्यों रहे हैं? इस पर उन्होंने राजीव के लिए मेरा हाथ मांग लिया और उन्होंने बताया कि उन का बेटा एक मल्टीनैशनल कंपनी में सीईओ है. पापा यह बात सुन कर थोड़े संजीदा हो गए. वे एक विजातीय के साथ अपनी बेटी का रिश्ता करने में हिचकिचा रहे थे. उन्हें यह भी पता था कि अपनी जाति में वे मेरे रिश्ते के लिए कितना हाथपांव मार चुके थे पर कोई रिश्ता करने को तैयार नहीं था. ऐसे में यह रिश्ता घर बैठे ही मिल रहा था. पापा ने घर में सब से बात करी तो सब की राय यही थी कि इस रिश्ते के लिए हां कर दी जाए, पर पापा ने इस के पहले मेरी सचाई के बारे में बताना जरूरी समझा.

पूरी बात सुन कर राजीव के पापा हंस पड़े और कहने लगे, ‘‘अरे यार, यह तो आजकल हो ही रहा है. मैं ने तेरी बेटी का हाथ इसलिए मांग लिया कि वह बहुत अच्छी है. मैं तो यह समझ रहा था कि मैं विजातीय हूं इसलिए तू मेरे बेटे से रिश्ता जोड़ने से हिचकिचा रहा है.’’

फिर उन्होंने राजीव को बुला लिया और जल्द ही उन की परिणिता बन कर मैं उन के घर आ गई. मैं अपने अतीत के अंधेरे में ही डूबी रहती यदि राजीव ने आ कर बालकनी की लाइट न जलाई होती.

उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘अब कैसा लग रहा है?’’

‘‘पहले से बेहतर,’’ मैं ने कहा.

‘‘चलो कहीं घूम कर आते हैं,’’ उन्होंने बड़े इसरार से कहा.

‘‘नहीं, अभी मेरा मन नहीं है, फिर कभी.’’

‘‘तो एक काम करो…’’ इस पर मैं ने उन की तरफ देखा. उन के चेहरे पर शरारत खेल रही थी. मैं समझ गई कि वे अब कुछ न कुछ जरूर कहेंगे.

‘‘अपनी फोटो फेसबुक पर अपलोड करो. लोगों को जान लेने दो कि मेरी बीबी कितनी सुंदर है,’’ वे शरारत भरे स्वर में बोले.

विस्मृत होता अतीत – भाग 1: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

काफीदिनों के बाद अपना फेसबुक पेज अपडेट कर ही रही थी कि चैंटिंग विंडो पर ‘हाई’ शब्द ब्लिंक हुआ. पहले तो मैं ने ध्यान नहीं दिया, मगर बारबार ब्लिंक होने पर देखा तो कोई महोदय चैट करने को आतुर दिखाई दे रहे थे. निश्चित ही मेरी फ्रैंड्स लिस्ट में से यह कोई व्यक्ति था. उस से बात करने से पहले मैं ने उस का प्रोफाइल टटोला. नाम कौशल था. मैं ने चैट करने से परहेज किया, क्योंकि मैं चैट करने में रुचि नहीं रखती, पर यह तो कोई ढीठ बंदा था.

थोड़ी देर बाद उस ने मैसेज भेजा, ‘हाऊ आर यू मैम…?’ अब मुझे भी लगा कि जवाब न देना शिष्टाचार के विरुद्ध होगा. अत: अनमने ढंग से ‘हाई, फाइन’ लिखा. मेरी कोशिश यही थी कि उसे चैट के लिए हतोत्साहित किया जाए. मैं ने स्वयं को व्यस्त दिखाने की कोशिश की. फिर से मैसेज उभरा, ‘लगता है मैम बिजी हैं…?’ मेरे संक्षिप्त जवाब ‘हां’ से उस ने फिर मैसेज भेजा, ‘ओके… मैम. सम अदर टाइम.’ मैं ने भी ‘ओह’ लिख कर चैन की सांस ली ही थी कि डोरबैल बजी. घड़ी में देखा तो शाम के 6 बज रहे थे. लगता है राजीव औफिस से लौट आए थे.

जैसे ही दरवाजा खोला, ‘‘और क्या चल रहा है मैडम…?’’ राजीव ने कहा. उन्हें जब मुझे चिढ़ाना होता है तो वे इस शब्द का इस्तेमाल

करते हैं. वे जानते हैं कि मैं मैडम शब्द से बहुत चिढ़ती हूं.

‘‘कोई खास बात नहीं, बस नैट पर सर्फिंग कर रही थी…’’ मैं ने थोड़ा चिढ़ कर ही जवाब दिया. राजीव मुसकराए. मैं उन की इसी मुसकराहट पर फिदा थी. मेरा गुस्सा एकदम गायब हो चुका था. राजीव जानते थे कि मेरे गुस्से को कैसे कम किया जा सकता है. इसलिए वे मुझे चिढ़ाने के बाद अकसर अपनी जानलेवा मुसकराहट से काम लिया करते थे.

‘‘अच्छा यार, अदरक वाली चाय तो पिलाओ… और इस रिमझिम बारिश में गरमगरम पकौड़े हो जाएं तो अपना दिन… अरे नहीं शाम बन जाएगी…’’ उन की फ्लर्टिंग पर मुझे हंसी आ गई. बाहर वास्तव में बारिश हो रही थी. घर के अंदर होने से मेरा ध्यान ही नहीं गया था. मैं जल्दी से चाय और पकौड़े बनाने लगी और राजीव फ्रैश होने चले गए. उन्होंने हम दोनों की पसंदीदा जगह यानी बालकनी में चाय पीने की फरमाइश की. चाय पीतेपीते वे बड़े खुशगवार मूड में दिखे.

मुझ से रहा नहीं गया, ‘‘क्या बात है जनाब… बड़े मूड में लग रहे हैं…’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘अरे वाह कैसे जाना…,’’ वे थोड़ा हैरत से बोले.

‘‘आप की बैटरहाफ हूं. 15 सालों में इतना भी नहीं जानूंगी…?’’ थोड़ा इतराते हुए मैं ने कहा.

‘‘हां, बात तो तुम्हारी ठीक है,’’ वे थोड़ा गंभीर हो कर बोले.

कुछ देर हम दोनों चुपचाप चाय और पकौड़े का स्वाद लेते रहे. राजीव थोड़ी देर बाद मेरी ओर देख कर शरारत में मुसकराए और मैं उन का मंतव्य समझ गई.

‘‘कोई शरारत नहीं जनाब…,’’ मैं ने शरमाते हुए कहा. फिर हम घर के इंटीरियर के बारे में बात करने लगे. पूरा घर अस्तव्यस्त पड़ा था. इस नए फ्लैट में हम हाल ही में शिफ्ट हुए थे. घर का फाइनल टचअप बाकी था. राजीव और बच्चों में इसी बात को ले कर तकरार चल रही थी कि किस कमरे में कौन सा पेंट करवाया जाए. इसी बीच बेटा शुभांग और बेटी शिवानी भी आ गए. जिन्होंने जिद की तो राजीव उन्हें ले कर बाजार चले गए. मैं ने बहुत रोका कि पानी बरस रहा है पर बच्चों के उत्साह के आगे उन्हें सब फीका लगा. उन्होंने कार गैराज से निकाली और मुझे भी साथ चलने को कहा, पर मैं अस्तव्यस्त पड़े घर को ठीक करने की सोच कर रुक गई.

काम निबटा कर जैसे ही फ्री हुई तो लैपटौप पर निगाह गई तो सोचा कि क्यों न कुछ सर्फिंग हो जाए. अब जब इंटरनैट खोला तो खुद को फेसबुक ओपन करने से रोक नहीं पाई. अभी कुछ टाइप कर ही रही थी कि कौशल महोदय ‘हाई और हैलो’ के साथ हाजिर नजर आए. कुछ खास काम तो था नहीं और सोचा राजीव और बच्चे न जाने कितनी देर में आएंगे, तो इन्हीं कौशलजी से थोड़ी देर चैट कर लिया जाए.

मैं ने भी उसे हैलो किया और चैट करना शुरू किया तो उस ने अचानक मुझ से सवाल किया, ‘क्या आप तितली हैं…?’ मैं असमंजस में पड़ गई कि भला यह क्या सवाल हुआ…? उस ने मेरा ध्यान मेरी प्रोफाइल पिक्चर की ओर दिलवाया. इस बात पर मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. मुझे वह इमेज अच्छी लगी थी तो मैं ने उसे डाल दिया था. जब उस ने इसी बात को एक बार और पूछा तो मैं चिढ़ सी गई और बहाना बना कर लौगआउट कर लिया. मुझे गुस्सा भी आ रहा था कि इस बंदे को अपनी फ्रैंड्स लिस्ट से डिलीट कर दूं. अगली बार ऐसा ही करूंगी सोच कर मैं उठ गई और रात के खाने की तैयारी में जुट गई.

आने वाले कई दिनों तक हम घर की साजसज्जा में लगे रहे. घर के इंटीरियर का काम लगभग पूरा हो चुका था. आज घर पूरी तरह से सज चुका था और अब ऐसा लग रहा था कि मानों कंधों पर से कोई बोझ उतर गया हो. चूंकि बच्चे और राजीव घर पर नहीं थे तो थोड़ा रिलैक्स होने के लिए सोचा क्यों न नैट खोल कर बैठूं. अपना मेल चैक कर रही थी तो कुछ खास नहीं था सिवाय एरमा के मेल के.

उस ने मेल किया था कि उसे उसे नई जौब मिल गई है और वह लौसएंजिल्स शिफ्ट हो रही थी. उस ने बताया कि वह कंपनी की तरफ से बहुत जल्दी इंडिया भी आएगी. मैं ने उसे बधाई दी और उसे अपने घर आ कर ठहरने का न्योता भी दिया. एरमा मेरी फेसबुक फ्रैंड थी. मेल चैक करने के बाद एक बार फिर फेसबुक ओपन किया तो देखा तो मैसेजेस का ढेर लगा पड़ा था. मुझे आज तक इतने मैसेज कभी भी नहीं आए थे. जब खोला 7-8 मैसेज तो कौशल महोदय के थे. ‘हाई, कैसे हैं आप…?’, ‘नाराज हैं क्या…?’, ‘आप फेसबुक पर नहीं आ रहीं…’ इत्यादिइत्यादि. ये सब देख कर मेरा मूड खराब हो गया.

 

माध्यम: सास के दुर्व्यवहार को क्या भुला पाई मीना

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अब क्या करूं मैं

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माध्यम – भाग 3 : सास के दुर्व्यवहार को क्या भुला पाई मीना

काश, मेरी सास होतीं उस समय और देख पातीं उन लोगों के मुख पर उभरती संतुष्टि, कृतज्ञता तथा संकटमुक्ति की अनुभूति को.

‘‘मीना, क्या बात है? आज तो शाम से तुम गौतम बुद्ध हो गई हो. एकदम समाधिस्थ, चिंतन में डूबी.’’

प्रदीप ने मेरे दोनों कंधे पकड़ कर झकझोर दिया. मैं अतीत की गलियों से लौट कर, वर्तमान के राजपथ पर आ गई. हां, मैं सचमुच खो गई थी. 3 विकल्प थे मेरे सामने. 2 में बेईमानी, संवेदनशून्यता और क्रूरता थी.

अनायास मैं ने दोपहर को बंबई से आया पत्र प्रदीप की ओर बढ़ा दिया. उलझे हुए हावभाव का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने मुझ से पत्र लिया और गौर से पढ़ने लगे. मेरी दृष्टि प्रदीप के मुख पर टिकी थी. कुछ पल पूर्व की प्रफुल्लता उन के चेहरे से काफूर हो गई और उस का स्थान ले लिया, चिंता, ऊहापोह, उलझन और उदासी ने.

पत्र पढ़ कर प्रदीप ने मेरी तरफ याचक दृष्टि से ताका और बोले, ‘‘यह तो सब गड़बड़ हो गया. अब क्या करना है?

‘‘सीमा की ससुराल वाले भी कमाल के लोग हैं. मायके में इतनी परेशानी है. पर उन्हें तो अपने बेटे के इम्तिहान और बेटी के जापे की चिंता है, बहू की मां चाहे मरे या जिए, उन की बला से.’’

‘‘प्रदीप, हर सास ऐसे ही सोचती है. याद है, पिछले साल, आप का औरंगाबाद तबादला होने से पहले मेरे घर से चिट्ठी आई थी.’’

‘‘मैं ने तुम्हें भेजा था.’’

‘‘हां, प्रदीप. आप ने समझदारी से काम लिया था. पर मैं ने आप को एक बात नहीं बताई.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मांजी ने मुझ से बड़ी कड़वी बातें कही थीं. उन्होंने कहा था कि जो लड़कियां बातबेबात मायके दौड़ती हैं, उन का अपना घर कभी सुखी नहीं रह सकता. लड़की की मां, बेटी की समस्याओं के लिए ससुराल वालों की आलोचना करती है, लड़की को भड़काती है. ससुराल वालों के प्रति उन के मन में वितृष्णा उत्पन्न करती है. फल यह होता है कि लड़की अपने घर जा कर स्थापित नहीं हो पाती.’’

‘‘मीना, उस को छोड़ो. अब बताओ, क्या करना है?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘करना क्या है? हमें कल सुबह ही बंबई रवाना होना है.’’

‘‘और छुट्टी का क्या होगा?’’

‘‘प्रदीप, घूमनेफिरने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी है. हम मांजी को बीमार और पिताजी तथा भैया को इस संकट में छोड़ कर सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते हैं? मायका हो या पति का घर, बच्चों तथा बहूबेटी का मांबाप, सासससुर की सेवा करना प्रथम कर्तव्य है.’’

‘‘और यह जो सामान बंधा हुआ है, उस का क्या होगा?’’

‘‘उसे भी बंबई लिए चलते हैं.’’

प्रदीप ने मेरी ओर अनुराग भरी दृष्टि डाली. क्या उस में केवल स्नेह था? नहीं, उस में प्रशंसा, गर्व, खुशी और संतोष सब का संगम था.

अगले दिन दोपहर बाद करीब साढ़े 3 बजे हम लोग बंबई पहुंच गए. अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के हमें आया देख कर मां, पिताजी और छोटे भैया के चेहरों पर सूर्योदय के बाद की सी चमक आ गई. वे कितने खुश, मुग्ध और चिंतारहित से लगने लगे थे.

मैं ने मांजी की दशा देखी तो अपने निर्णय की बुद्धिमत्ता का विचार आत्मतुष्टि उत्पन्न कर गया. वास्तव में वह काफी तकलीफ में थीं. साथ ही घर पूरी तरह से अस्तव्यस्त हो चुका था.

‘‘बहू आ गई. अब कोई चिंता नहीं,’’ यह थी पिताजी की प्रतिक्रिया. उन्होंने चैन की सांस ली.

‘‘भाभी, आप अचानक कैसे आ गईं?’’ मेरे देवर ने घोर आश्चर्य से पूछा.

‘‘बहू, तुम लोग तो दक्षिण भारत की यात्रा पर जाने वाले थे?’’ मांजी ने पूछा.

‘‘हां, मांजी. पर मातापिता की सेवा तो हम सब का प्रथम कर्तव्य है. आप की दुर्घटना की सूचना पा कर हम सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते थे?’’

मांजी कुछ नहीं बोलीं. केवल उन की आंखों में नमी उभर आई.

हमारे आगमन से घर में नवजीवन का संचार हो गया. मैं ने आते ही घर के संचालन की बागडोर संभाल ली. सफाई, धुलाई, रसोईघर का काम, खाना बनाना, मांजी की सेवा और समयसमय पर उन को दवा तथा खानपान देना.

3-4 दिन में ही घर का कायाकल्प हो गया.

चौथे दिन मांजी के मुख से निकल ही गया, ‘‘घर को पुरुष नहीं, औरत ही चला सकती है, चाहे वह बहू हो या बेटी.’’

मैं क्या कहती? शब्दों में नहीं, गरदन को हिला कर मैं ने मांजी के कथन से अपनी सहमति प्रकट कर दी.

‘‘सीमा की ससुराल वाले बड़े मतलबी और स्वार्थी हैं. जोत रखा होगा मेरी बेटी को. 4 दिन पहले ननद के बेटी हुई है. जच्चा का कितना काम फैल जाता है. सास की निर्दयता तो देखो, उसे इतना भी खयाल नहीं कि बहू की मां की टांग टूट गई है और घर पर कोई नहीं है देखभाल करने वाला…’’

मांजी की भुनभुनाहट सुन कर मुझे अंदर से खुशी हुई. इनसान पर जब बीतती है तब उसे पता चलता है. पिछले वर्ष मांजी को क्या हुआ? तब वह सास थीं और आज? केवल मां.

7वें दिन एक अप्रत्याशित घटना घटी. शाम के 7 बजे अचानक, बिना किसी पूर्व सूचना के सीमा आ धमकी. साथ में था अशोक, उस का पति.

घर में खुशी की धूम मच गई. मांजी की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. बेटी और दामाद का अनायास आगमन निश्चित रूप से अभूतपूर्व सुख का क्षण था.

हमें देख कर वे दोनों चौंके. उन्होंने हमारे वहां होने की कल्पना तक नहीं की थी.

‘‘चिट्ठी पा कर दौड़े चले आए बेचारे. 1 सप्ताह से बहू ऐसी सेवा कर रही है कि बस पूछो मत,’’ मांजी के स्वर में सच्ची प्रशंसा थी.

‘‘भाभी, कितनी छुट्टियां बची हैं तुम्हारी?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘यही 8-10 दिन,’’ मैं ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ कर कहा.

‘‘ठीक है. कल खिसको यहां से. अब मैं संभालती हूं यह मोरचा,’’ सीमा बोली.

‘‘पर अब आरक्षण वगैरह कैसे मिलेगा?’’ प्रदीप के स्वर में निराशा?थी.

‘‘भैया, मतलब तो छुट्टी और सैरसपाटे से है. दक्षिण नहीं जा सकते तो गोआ चले जाओ. बसें जाती हैं. वहां ठहरने के लिए जगह मिल ही जाएगी. कैलनगूट तट की सुनहरी बालू में अर्धनग्न लेट कर मस्ती मारो,’’ सीमा एक सांस में कह गई.

प्रदीप ने मेरी तरफ देखा और मैं ने उस की तरफ.

‘‘हां, बहू. अब सीमा आ गई है. तुम लोग कल चले जाओ. क्यों छुट्टियां बरबाद करते हो,’’ कह कर मांजी ने सीमा से पूछा, ‘‘क्यों री, तेरी सास ने तुझे कैसे छोड़ दिया?’’

‘‘पिताजी की चिट्ठी पढ़ कर उन्होंने खुद कहा कि मैं तुरंत बंबई जाऊं. उन्होंने तो पहले भी मना नहीं किया था. वह तो मुझे ही कहने का साहस नहीं हुआ. इन के इम्तिहान, मंजू बहनजी का जापा और फिर यह भी आप को देखने के लिए चिंतित हो गए.’’

मांजी के मुख पर रुपहली आभा बिखर गई. वह भावातिरेक से कांपने लगीं फिर कुछ क्षण बाद बोलीं, ‘‘सचमुच, मेरे बच्चे और संबंधी इतने उदार, कृपालु और प्रेमी हैं. कितना खयाल रखते हैं हमारा.’’

‘‘बहू,’’ मांजी ने मुझे संबोधित कर के कहा, ‘‘6 मास पूर्व के अपने आचरण पर मैं लज्जित हूं. पहले जमाने में परिवार के अंदर लड़कियों की सेना होती थी. एक गई तो दूसरी उस का स्थान ले लेती थी. पर आज? हम दो, हमारे दो. एकमात्र लड़की चली जाए तो बहुत खलता है. उस पर वह हारीबीमारी, सुखदुख में काम न आए तो बड़ा भावनात्मक कष्ट होता?है,’’ कह कर मांजी ने थकान के कारण आंखें बंद कर लीं.

‘‘आप आराम कीजिए, मांजी,’’ कह कर हम सब बगल के कमरे में चले गए और गप्पें मारने लगे.

मुझे अपने निर्णय पर संतोष था. साथ ही अगले दिन गोआ जाने का मन में उत्साह था. संभवत: मेरे लिए सब से ज्यादा गौरव की बात थी, मेरे अपने घर में मानवीय संबंधों के आधारभूत मूल्यों की पुन: स्थापना…शायद इस का माध्यम मैं ही थी.

माध्यम – भाग 1 : सास के दुर्व्यवहार को क्या भुला पाई मीना

बंबई से आए इस पत्र ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. दोपहर को पत्र आया था, तब प्रदीप दफ्तर में थे. अब रात के 9 बज गए हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए.

फाड़ कर फेंक दूं इसे? डाक विभाग पर दोष लगाना बड़ा सरल है. बाद में कभी प्रदीप या उन की मां ने इस विषय को उठाया तो मैं कह दूंगी कि वह पत्र मुझे कभी मिला ही नहीं.

या फिर प्रदीप से सीधी बात कर ली जाए. जैसेतैसे उन्हें छुट्टी मिली है. छुट्टी यात्रा भत्ता ले कर वह दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं. सिर्फ हम दोनों. बंगलौर, ऊटी, त्रिवेंद्रम, कोवलम और कन्याकुमारी. पिछले कई दिनों से तैयारियां चल रही हैं और परसों सुबह की गाड़ी से हमें रवाना हो जाना है. प्रदीप को इस पत्र के बारे में बताया तो संभव है कि हमारे पिछले 2 वर्ष के वैवाहिक जीवन में प्रथम बार यह यात्रा कार्यक्रम स्थगित हो जाए.

फिर मन इस मानवीय आधार पर पूरे प्रसंग की विवेचना करने लगा. प्रदीप की मां मेरी सास हैं. सास और मां में क्या अंतर है? कुछ भी तो नहीं. उन की बाईं टांग में प्लास्टर चढ़ा है. स्नानागार में फिसल गईं. टखने और घुटने की हड्डियों में दरार आ गई है. गनीमत हुई कि वे टूटी नहीं. उन्हें 3 सप्ताह तक बिस्तर पर विश्राम करने की सलाह दी गई है.

घर पर कौन है? प्रदीप के पिता, छोटा भाई और सीमा. अरे, सीमा कहां है? उस का तो पिछले वर्ष विवाह हो गया. पत्र में लिखा है कि सीमा को बुलाने के लिए दिल्ली फोन किया था पर उस की सास ने अनुमति नहीं दी. सीमा की ननद अपना पहला जापा करने मायके आई हुई है. सास का गठिया परेशान कर रहा है. उधर सीमा का पति किसी विभागीय परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा है.

प्रदीप के भाई ने पत्र लिखा है. मांजी ने ही लिखवाया है. यह भी लिखा है कि घर के कामकाज में बड़ी दिक्कत हो रही है. नौकरानी भी छुट्टी कर गई है.

घर की इस दुर्दशा का वर्णन पढ़ कर मेरा अंतर द्रवित हो गया. मैं ने सोचा, संकट के समय अपने बच्चे ही तो काम आते हैं. मांजी चाहती हैं कि मैं उन की सेवा के लिए औरंगाबाद से बंबई आ जाऊं. पर शालीनता या संकोचवश उन्होंने लिखवाया नहीं. उन्हें पता है कि हम लोग 2 सप्ताह की छुट्टी ले कर घूमने जा रहे हैं.

एक मन किया, छुट्टी का सदुपयोग दक्षिण भारत की यात्रा नहीं, संकटग्रस्त परिवार की सेवा कर के किया जाए. पर तभी मन कसैला सा हो गया. शादी के पहले वर्ष में मेरे साथ मांजी ने जो व्यवहार किया था उस की कटु स्मृति आज तक मुझे छटपटाती है.

तब प्रदीप बंबई में ही नियुक्त थे. मैं अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. एक दिन नासिक से पिताजी का पत्र आया था. लिखा था कि कौशल्या बीमार है. उसे टायफाइड हुआ और बाद में पीलिया. डाक्टरों ने 4 हफ्ते पूर्ण विश्राम की सलाह दी है. वह बेहद परेशान है. पर मैं और तेरा छोटा भाई उस की देखभाल कर लेते हैं. खाना पकाने में दिक्कत होती है. पर पेट भरने के लिए कुछ कच्चापक्का बना ही लेते हैं. कभी दूध, डबलरोटी ले लेते हैं, कभी बाजार से छोलेभठूरे ले आते हैं.

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. घर की ऐसी दुर्दशा. मेरा दिल किया कि मैं उड़ कर नासिक पहुंच जाऊं. शादी के बाद, पूरे 1 वर्ष में केवल रक्षाबंधन पर मैं 1 दिन के लिए अपने घर गई थी. प्रदीप साथ में थे.

मैं ने मांजी से घर जाने के लिए कहा तो वह संवेदनशून्य स्वर में बोलीं, ‘शादी के बाद लड़की को बातबेबात मायके जाना शोभा नहीं देता. उसे तो सिर्फ एक बार, और वह भी किसी त्योहार पर ही मां के घर जाना चाहिए.’

‘मांजी, मां को पीलिया हो गया है. घर में…’

‘बहू, घर में यह मामूली हारीबीमारी तो चलती रहती है. इस तरह छोटेमोटे बहाने से मायके की तरफ लपकना अच्छा लगता है?’ मांजी ने विद्रूप स्वर में ताना कसा.

‘पर भाई और पिताजी को ठीक से खाना नहीं मिल रहा है…’

‘देखो बहू, उस घर को भूल जाओ. अब तो तुम्हारा घर यह है. तुम्हारा पहला फर्ज बनता है हम लोगों की सेवा.’

अब क्या करूं मैं – भाग 3

यह कह कर मैं रो पड़ी थी तो भतीजे ने अपना हाथ पीछे कर लिया था. माला बहू के गले में पहना कर मैं ने उस का माथा चूम लिया. बड़ी प्यारी लगी मुझे पूजा. झट से मेरे लिए नाश्ता परोस लाई. उसी पल मुझे समझ में आ गया कि भैयाभाभी नीचे अलग रहते हैं और बहूबेटा ऊपर अलग हैं.

‘‘बूआ, पूजा का भी मां ने वही हाल किया था जो आप का हुआ. जो भी मां से छू भर जाता है उसी पर मां कोई न कोई आरोप लगा देती हैं. किसी दूसरे के मानसम्मान की मां को कोई चिंता नहीं. हैरान हूं मैं कि कोई इतना सब कैसे और क्यों करता है. आज कोई भी मां के पास जाना नहीं चाहता है. अपनी ईमानदारी पूजा भी कब तक प्रमाणित करती. इस की मां ने ही इसे 50 तोला सोना दिया है और मां ने इस पर भी अपनी अंगूठी उठा लेने का आरोप लगा दिया…और सब से बड़ी बात जिन चीजों के खो जाने के आरोप मां लगाती हैं वह चीजें वास्तव में होती ही नहीं हैं. मां एक काल्पनिक चीज गढ़ लेती हैं जो न कभी मां के पास मिलती है न ही उस के पास मिलती है जिस पर मां आरोप लगाती हैं.’’

याद आया मुझे, जब पहली बार भाभी ने मुझ पर आरोप लगाया था. भारी दुपट्टा और सुनहरी सैंडल का, ये दोनों चीजें कभी मिली ही नहीं थीं.

‘‘मां का ध्येय मात्र दूसरे को अपमानित करना होता है इसलिए वह अपनी कोई भी चीज खो जाने का बहाना करती रहती हैं… मैं क्या करूं बूआ, वह समझती ही नहीं.

‘‘और यही सब मां ने निशा को भी सिखा दिया है. मैं मानता हूं कि उस का पति पहले थोड़ा बिगड़ा हुआ था, अब शादी के बाद काफी संभल गया है, लेकिन निशा बातबेबात हर पल मां जैसा व्यवहार ससुराल में करती रहती है, जिस पर उस का पति तिलमिलाता रहता है. उस पर, उस की मां पर अपना कोई न कोई सामान चुरा लेने का आरोप निशा लगाती रहती है. अब आप ही बताओ, घर में शांति कैसे रहेगी…अपनी इज्जत तो सब को प्यारी है न बूआ.’’

‘‘अपनी मां को किसी डाक्टर को दिखाओ. कहीं कोई मनोवैज्ञानिक कारण ही न हो.’’

‘‘हर बेटी अपनी मां के चरित्र का आईना होती है. जो मां ने नानी से सीखा वही निशा में रोपा. बीमार होते हैं ऐसे लोग, जो जहां जाते हैं असंतोष और आक्रोश फैलाते हैं. आप ने हमें छोड़ दिया, दादादादी ने भी ताऊजी के पास ही रहना ठीक समझा. धीरेधीरे सब दूर हो गए. पूजा भी साथ नहीं रहना चाहती. निशा का पति भी अब उसे साथ नहीं रखना चाहता.

‘‘बूआ, मैं ने इसीलिए आप को बुलाया था कि इस टूटी डोर का एक सिरा पकड़ कर अपनी मां के किए का कुछ प्रायश्चित्त कर सकूं.’’

मेरी गोद में सिर छिपा कर रोने लगा मेरा भतीजा.

‘‘हर बेटी यही चाहती है कि उस का मायका रसताबसता रहे, फलताफूलता रहे क्योंकि मायका उसे बड़ा प्यारा होता है. वहां से मिले शगुन के 5 रुपए भी बेटी को लाखों के बराबर लगते हैं. चाहे बेटी अपने घर करोड़पति ही क्यों न हो… तुम सब को मेरी उम्र भी लग जाए… मेरे मुंह से हर समय यही निकलता है.’’

उस मर्म को मैं सहज ही महसूस कर सकती हूं जो आज भैया का है, उन के बेटे का है. क्या करते भैया भी. जिस का हाथ पकड़ा था उस का परदा तो रखना ही था. यह अलग बात है कि उसी ने पूरे घर, हर रिश्ते को नंगा कर दिया. हर रिश्ता दोनों तरफ से निभाना पड़ता है. अकेला इनसान कब तक अपने हिस्से का दायित्व निभाता रहेगा. एक रिश्ते का पूर्ण रूप तभी सामने आता है जब दोनों तरफ से निभाया जाए. अकेले की तूती ज्यादा देर तक नहीं बज सकती.

रो रहा था मेरा भतीजा. उस का मन तो हलका हो गया होगा लेकिन मेरे मन का बोझ यह सोच कर बढ़ने लगा था कि कैसे मैं अपनी चचिया सास के घर जा कर भतीजी की वकालत कर पाऊंगी. कैसे उसे समझा पाऊंगी कि वह अपनी बहू को माफ कर दें. सत्य तो यही है न कि आज तक मैं खुद भी अपनी भाभी को क्षमा नहीं कर पाई हूं.

‘‘बूआ, आप सिर्फ एक बार कोशिश कर के देखिए. मैं नहीं चाहता कि निशा का घर उजड़ जाए. मैं हाथ जोड़ता हूं आप के सामने, आप एक बार निशा के पति को समझाइए और मैं भी निशा को समझाऊंगा.’’

‘‘मैं जाऊंगी, बेटा, निशा मेरी भी तो बच्ची है. मैं कोशिश करूंगी पर तुम हाथ मत जोड़ो.’’

घर का माहौल बोझिल था फिर भी भैया ने मुझे नेग दे कर विदा किया.

भाभी सदा की तरह आज भी बाहर नहीं आईं. कुछ लोग अपने कर्मों की जिम्मेदारी कभी लेना ही नहीं चाहते. वापस लौट आई मैं. मेरा परिवार मुझे वापस पा कर बहुत खुश था.

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