कट्टरपंथी हिंदू और मुसलमान

कट्टरपंथियों ने हिंदूमुसलिम के जो बीज बोए हैं अब देश में अलगअलग शक्ल ले कर अलगअलग तरह के बीजों को जमीन देने लगे हैं. खेत में खलपरवार उगती है है तो वह एक ही तरह की नहीं होती. इस में बीसियों जहरीले पौधे भी होते हैं और उस में हर तरह के खतरनाक जानवर भी पनपने लगते हैं. पजाब में वारिस पंजाब दे नाम से बने गृह की जिम्मेदारी सीधेसीधे उन बजरंगियों पर जाती है जिन्होंने देश भर में कानून, संविधान, सभ्यता, बोलने की आजादी को पुलिस के मोटे जूतों और बुलडोजरों से रौंब है. अब दोनों पंजाब में किस तरह नाकाम हुए यह दिख गया है.

अमृपाल ङ्क्षसह के साथी कि पंजाब के अजचला पुलिस स्टेशन पर पकड़ कर रखे गए को छुड़ा लाए यह एक खतरनाक इशारा है. खेतों को बांधने वाली बाड़ अब टूटने लगी हैं. पंजाब की आम आदमी सरकार को कमजोर कह कर केंद्र सरकार अपना पीछा नहीं छुटा सकती. यह उसी की देन है कि अब इस तरह की घटना सारे देश में सुॢखयां बनने लगी हैं. कहीं अंबेडक़र की बेइज्जती की जा रही है, कहीं रामचरित्रमानस में लिखी देश की बड़ी जनता की ङ्क्षनदा पर हमला होने लगा है, कहीं जाति जनगणना होने की बात हो रही है. कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा मानो जो हो रहा था उस की पहले से दी गई चेतावनी थी.

पंजाब जैसी घटनाएं पहले भी हुई है. बाबरी मसजिद को गिराने से पहले और फिरगिराने के बाद देश इस तरह के जलजलों से परेशान होने लगा था. बाद में 2004 में भारतीय जनता पार्टी की हार से कुछ बात संभली थी पर अब फिर बिगड़ चुकी है.पंजाब का झगड़ा कहने को पुलिस और धर्म से जुड़े गुट का हो पर इन की जड़ में ङ्क्षहदू सिख मतभेद है जो वैसे नहीं दिखते पर पंजाब की राजनीति में अहम हैं.

आम आदमी पार्टी के अनगढ़ हाथों में ऐसा राज्य आ गया है जो न सिर्फ पाकिस्तान के साथ बार्डर पर है, 1947 के बाद कभी पूरी तरह शांत नहीं रहा. क्या पंजाबी सूवे की मांग, कभी पंजाबी की मांग, कभी गुरुद्वारा कानून पर झगड़ा, कभी सेना में भॢतयों का सवाल, कभी अपने ही दलित गुरू रामरहीम से झगड़ा उसी की निशानी है. पंजाब में सिख अलगाववादी तो उन से भी ज्यादा मुखर रहे हैं जिन्हें अरबन

नक्सल, माओवादी, देशद्रोही जैसे वालों से पुकारा जाता है. जनता को 2-3 हिस्सों में बांट देने वाली यह नीति कुछ समय तक तो सर्दी में हाथ तापने वाली आग का काम करती है पर फिर पतंगे फैलने लगते हैं और बस्तियां जलने लगती हैं. अब हम उस कोने पर आने लगे हैं. अब क्या कुछ करा सकता है. शायद नहीं. यह वह कोविड वायरस है जिस की वैक्सीन बनाने की खोज भी नहीं हो रही है.

सरकार की नीति: रोजगार एक अहम मुद्दा

गूगल पर बेरोजगारों के फोटो खंगालते हुए बहुत से फोटो दिखे जिन में बेरोजगार प्रदर्शन के समय तखतियां लिए हुए थे जिन पर लिखा था ‘मोदी रोजी दो वरना गद्दी छोड़ो’, ‘शिक्षा मंत्री रोजी दो वरना त्यागपत्र छोड़ो’, ‘रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी हैं.’

ये नारे दिखने में अच्छे लगते हैं. बेरोजगारों का गुस्सा भी दर्शाते हैं पर क्या किसी काम के हैं. रोजगार देना अब सरकारों का काम हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हो या जापान के प्रधानमंत्री हर समय बेरोजगारी के आंकड़ों पर उसी तरह नजर रखते हैं जैसे शेयर होल्डर अडानी के शेयरों के दामों पर. पर न तो यह नजर रखना नौकरियां पैदा करती है और न शेयरों के दामों को ऊंचानीचा करती है.

रोजगार पैदा करने के लिए के लिए जनता खुद जिम्मेदार है. सरकार तो बस थोड़ा इशारा करती है. सरकार उस ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह होती है जो ट्रैफिक उस दिशा में भेजता है जहां सडक़ खाली है. पर ट्रैफिक के घटतेबढऩे में पुलिसमैन की कोई भी वेल्यू नहीं है. सरकारें भी नौकरियां नहीं दे सकतीं, हां सरकारें टैक्स इस तरह लगा सकती हैं, नियमकानून बना सकती हैं कि रोजगार पैदा करने का माहौल पैदा हो.

हमारे देश में सरकारें इस काम को इस घटिया तरीके से करती हैं कि वे रोजगार देती हैं तो केवल टीचर्स को, हर ऐसे टीचर्स जो रोजगार पैदा करने लायक स्टूडेंट बना सकें.

ट्रैफिक का उदाहरण लेते हुए कहा जा सकता है कि ट्रैफिक कांस्टेबल को वेतन और रिश्वत का काम किया जाता है. खराब सडक़ें बनाई जाती हैं जिन पर ट्रैफिक धीरेधीरे चले, सडक़ों पर कब्जे होने दिए जाते हैं ताकि सडक़ें छोटी हो जाए और दुकानोंघरों से वसूली हो सके.

ऐसे ही पढ़ाई में हो रहा है. टीचर्स एपायंट करना, स्कूल बनवाने, बुक बनवाने, एक्जाम करने में सरकार आगे पर नौकरी लगा पढ़ाने में कोई नहीं. सरकार जानबूझ कर माहौल पैदा करती है कि बच्चे पढ़ें ही नहीं, खासतौर पर किसानों, मजदूरों, मैकेनिकों, सफाई करने वालों को तो पढ़ाते ही नहीं है. वे सिर्फ मोबाइलों पर फिल्में देखना जानते हैं. ट्रैफिक पुलिसमैन बनी सरकार अपनी जेब भर रही है.

मोदी सरकार अगर इस्तीफा दे देगी तो जो नई सरकार आएगी वह भी उसी ढांचे में ढली होगी क्योंकि यहां पढ़ाने का मतलब होता है पौराणिक पढ़ाई जिस में पढ़ाने वाला गुरू होता है जो मंत्रों को रटवाता है और उस के बदले दान, दक्षिणा, खाना, गाय, औरतें, घर पाना है और गॢमयों में पंखों के नीचे और सॢदयों में धूप में सुस्ताना है, कोङ्क्षचग में वह सिर्फ पेपर लीक करवा कर पास कराने का ठेका लेता है.

जब असली काम की नौबत आती है, पढ़ालिखा सीरिया और तुर्की के मकानों की तरह भूकंप में छह जाता है. अब जब भूकंप के लिए…..एरडोगन और इरशाद जिम्मेदार नहीं तो मोदी क्यों. इसलिए चुप रहो, शोर न मचाओ.

गरीब का होता है शिकार, अमीर का नहीं

पूरा देश गांव वालों और गरीबों को कोसता रहता है कि वे जहां चाहे पैंट खोल कर पेशाब कर देते हैं. गनीमत है कि अब अमीरों की पोल खोल रही है. एक शंकर मिश्रा जी बिजनैस क्लास का मंहगा टिकट लेकर न्यूयौर्क से 26 नवंबर को दिल्ली एयर इंडिया की फ्लाइट में आ रहे थे. उन्होंने इतनी पी रखी थी कि उन्हें होश नहीं था कि क्या कर रहे हैं. उन के बराबर बैठी एक महिला को शायद उन्होंने गली की टीकर समझ कर उस पर पैंट खोल कर मूत दिया. ऐसा काम जो अगर गरीब या गांव वाले कर देते तो तुरंत उस की मारपिटाई शुरू हो जाती पर ये ठहरे मिश्रा जी, इन्हें कौन कुछ कहेगा.

जब मामला जनवरी के पहले सप्ताह में शिकायत करने पर सामने आया तो इस महान उच्चकोटि में जन्म लेने वाले, एक विदेशी कंपनी में काम करने वाले की खोज हुई. वरना एयरलाइंस ने इस मामले को रफादफा कर दिया क्योंकि इस से जगदगुरू भारत की और एयर इंडिया कंपनी की बेइज्जती होती.

मामला खुलने के कई दिन बाद तक इस मिश्रा जी को पकड़ा नहीं जा सका. उस के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में कुछ मामले दर्ज किए हैं पर पक्का है कि गवाहों के अभाव में वह कुछ साल में छूट जाएंगे और देश की दीवारों पर गरीबों के लिए लिखता रहेगा कि यहां पेशाब करना मना है, जुर्म है.

मर्जी से जहां भी पेशाब करना और जहां भी जितना भी मीना शायद यह भी उच्चकोटि में जन्म लेने से मिलने वाले देशों में से एक है. घरों की दीवारों पर कोई भंगी पेशाब तो छोडि़ए थूक भी दे हंगामें खड़े हो जाते हैं पर ऊंचे लोग जो भी चाहे कर ले, उन के लिए अलग कानून हैं. ये अलग कानून किताबों में नहीं लिखे, संविधान में नहीं है पर हर पुलिस वाले के मन में है, हर बेचारी औरत के मन में हैं, पुलिस वालों के मन में हैं और जजों के मन में लिखे हुए हैं.

गरीबों के मकान ढहा दो, गांवों की जमीन सस्ते में सरकार खरीद ले, सरकार किसान से ट्रेक्टर, खाद, डीजल पर जम कर टैक्स ले पर उस की फसल का उसे सही कीमत न दे या ऐसा माहौल बना दे कि प्राइवेट व्यापारी भी न दे. यह मंजूर है.

भारत की गंदगी के लिए ऊंची जातियां ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि जब वे कूड़ा घरों या फैक्ट्रियों से निकालती है तो ङ्क्षचता नहीं करती कि कौन कैसे उन्हें निपटाएगा और उस का हाल क्या होगा. उन ेे लिए तो सफाई वाले दलित, किसान, मजदूर और हर जाति की औरतें एक बराबर है. शंकर मिश्रा को तलब लगी होती तो भी वह किसी पुरुष पर पेशाब नहीं करते. एक प्रौढ़ औरत को उन के छिपीदबी ऊंची भावना ने नीच मान रखा है और उस पर पेशाब कर डाला.

अब देश की सारी दीवारों से यहां पेशाब करना मना है. मिटा देना चाहिए और अगर लगता है तो एयर इंडिया की फ्लाइटों में लगाएं और औरत पैसेंजरों को पेशाब…..मिट दें जैसे कोविड के दिनों में दिया गया था. ऊंची जातियों वाला का राज आज जोरों पर है. ऐसे मामले और कहां हो रहे होंगे पर खबर नहीं बन रहे क्या पता. यह भी तो डेढ़ महीने बाद सामने आया.

आरक्षण : पिछड़े और दलितों को लड़ाने की साजिश

सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) यानी गरीब सवर्ण तबके के आरक्षण को बरकरार रखने का फैसला देते हुए आरक्षण के मामले में 50 फीसदी की सीमा रेखा को पार करने को जायज ठहरा दिया है, जबकि ओबीसी वर्ग को 50 फीसदी सीमा पार करने की जब बात होती है, तब सुप्रीम कोर्ट इस सीमा को संवैधानिक सीमा मान लेता है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से साल 1993 के अपने ही उस फैसले को पलट दिया है, जिस में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने 27 फीसदी पिछड़े वर्ग, 15 फीसदी दलित वर्ग और 7.5 फीसदी अतिदलित वर्ग के कुल योग 49.5 फीसदी आरक्षण से आगे बढ़ाने से मना कर दिया था.अब सवर्ण गरीबों के 10 फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट से भी हरी ?ांडी मिलने के बाद आरक्षण 50 फीसदी की सीमा रेखा को लांघ कर 59.5 फीसदी पर पहुंच गया है. 7 नवंबर, 2022 को ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट के सवर्ण जजों ने सवर्णों के हक में स्वर्णिम फैसला सुना कर मोदी सरकार द्वारा साल 2019 में संविधान में संशोधन कर ईडब्ल्यूएस सवर्णों को जो 10 फीसदी आरक्षण दिया था, उस को जायज करार दे दिया.

मतलब, अब देश में 60 फीसदी आरक्षण हो गया है, जबकि इसी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में, जब मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार ओबीसी को उस की आबादी के अनुपात में 52 फीसदी आरक्षण दिया जाना था, ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला सुनाया था कि देश में कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए, क्योंकि एससीएसटी का 22-50 फीसदी आरक्षण पहले से ही था. इस का मतलब हुआ कि कुल 110 स्थानों में जहां पहले पिछड़ों और दलितों के 55 स्थान होते थे, अब 50 ही रह जाएं.

देश में ओबीसी विधायकों और सांसदों की संख्या 1,500 से भी ज्यादा है, लेकिन दुख की बात है कि ये नेता विधानसभाओं और लोकसभा में कभी भी ओबीसी के अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ते. कमोबेश यही हालत एससीएसटी विधायकसांसदों की है.

देश के ओबीसी अब यह अच्छी तरह सम?ा लें कि उन के अधिकारों की लड़ाई कोई राजनीतिक दल या उन के समाज के विधायकसांसद न कभी पहले लड़े थे और आगे भी कभी नहीं लड़ेंगे. जिस तरह एससीएसटी के लोगों ने अपने ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बचाने के लिए 2 अप्रैल, 2018  को बिना किसी नेता और राजनीतिक दल के पूरे देश में सड़कों पर उतर कर आंदोलन किया था और जिस के बाद मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए मजबूर होना पड़ा था और संविधान में संशोधन कर ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बहाल किया था, वैसा ही अब कुछ करना होगा.

देखा जाए तो कुल जनसंख्या अनुपात में ओबीसी का आंकड़ा बड़ा है. भारत में समाज कल्याण की जितनी भी योजनाएं फेल हो रही हैं, उस का मुख्य कारण भी यही है कि ओबीसी समाज के पास जातिगत जनसंख्या का कोई आंकड़ा नहीं है. केंद्र में ओबीसी के लिए मंत्रालय बना है, ओबीसी आयोग बना है, विभिन्न राज्यों में ओबीसी मंत्रालय, विभाग व आयोग बने हुए हैं, मगर ओबीसी का आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण कम फंड जारी होता है, और जो जारी होता है वह या तो विभागों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है या केंद्र का फंड राज्य के लिए उपयोग में ले लेते हैं, क्योंकि जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना जरूर उपलब्ध है.

आज तो ओबीसी नेताओं और ओबीसी के जातीय संगठनों का हाल यह है कि वे ऊंचे वर्ग के सामने पूरी तरह से समर्पण कर चुके हैं और जो न्यायपूर्ण तरीके से 27 फीसदी आरक्षण मिला था, उस को भी नहीं बचा पा रहे हैं. ओबीसी का बुद्धिजीवी वर्ग सचाई लिखता तो है, मगर कोई सम?ाने या लड़ने वाला नहीं है. उस के वर्ग के अफसर बहुत हैं, पर वे हकों के लिए लड़ने को तैयार नहीं हैं.

ब्राह्मणवाद के शिकंजे में पिछड़ा समाज

साल 2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को ले कर लालू प्रसाद यादव ने दबाव बनाया था और गिनती हुई भी, लेकिन उस को जारी नहीं किया गया. उस के बाद लालू प्रसाद यादव को कई केसों में फंसा दिया गया. बाद में राजद के दबाव में नीतीश सरकार ने ओबीसी की जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पास कर के भेजा, लेकिन उस के बाद की प्रक्रिया पर विचारविमर्श बंद कर दिया गया.

अब पिछले दिनों केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि ओबीसी की जनगणना के आंकड़े साल 2021 के सैंसैक्स में शामिल नहीं किए जाएंगे. ऊंचे वर्गों की सरकारें ओबीसी समुदाय को पढ़ाई और सरकारी नौकरी के हकों में शामिल नहीं करना चाहती हैं, जबकि धर्मों की दुकानों में जाने के रास्ते खुले हैं.

अंगरेजों ने साल 1881 में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत की थी और उन आंकड़ों से जो सचाई सामने आई, उन को आधार बना कर महात्मा ज्योतिबाराव फुले ने सब से पहले विभिन्न जातियों को आबादी में उन के हिस्से के मुताबिक सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिए जाने की मांग उठाई थी.

आंकड़ों से साफ हो गया था कि सरकारी नौकरियों में जाति विशेष का एकछत्र कब्जा है. उन्होंने इस बारे में अपनी पुस्तक ‘शेतकर्याचा असुड़’ (किसान का चाबुक, 1883) में लिखा है.

साल 1901 की जनगणना को आधार बना कर कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने साल 1902 में अपने राज्य में 50 फीसदी आरक्षण लागू किया था, जिस के लिए उन्हें ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. कांग्रेस के कद्दावर ब्राह्मण नेता बाल गंगाधर तिलक ने भी उन का विरोध किया था.

जाति आधारित जनगणना अंतिम बार साल 1931 में हुई थी और उस के अनुसार भारत में ओबीसी की संख्या

52 फीसदी थी. साल 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जनसंख्या का विवरण अटक गया और आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई, मगर जाति आधारित जनगणना छोड़ दी गई.

भीमराव अंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद-340 के तहत ओबीसी के उत्थान का प्रावधान किया था, जिस के तहत सरकार को संविधान लागू करने के एक साल के भीतर ओबीसी आयोग का गठन करना था.

साल 1951 में जाति आधारित जनगणना न करने व ओबीसी आयोग का गठन न करने के कारण दुखी हो कर अंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था.

नेहरू सरकार ने दबाव में आ कर 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में ओबीसी आयोग का गठन किया व इस आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी. कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं, हिंदू महासभा आदि ने यह कह कर इस को लागू करने से रोक दिया कि ओबीसी जनसंख्या के आंकड़े साल 1931 के हैं.

साल 1955 से ले कर साल 1977 तक जनगणना के समय जाति आधारित गिनती का यह कह कर विरोध करते रहे कि इस से देश कमजोर होगा व ओबीसी को हक देने की बात आती तो यह कह कर विरोध करने लग जाते कि नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए लागू नहीं किया जा सकता.

साल 1977 में समाजवादियों के दबाव में वीपी मंडल की अध्यक्षता में दोबारा ओबीसी आयोग बनाया और उठापटक के बीच साल 1980 में रिपोर्ट देते हुए मंडल ने कहा कि मैं यह रिपोर्ट विसर्जित कर रहा हूं.उन को अंदेशा था कि कुछ होगा नहीं, मगर साल 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनी और समाजवादियों के दबाव में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दे दिया गया.

मंडल के खिलाफ ब्राह्मण वर्ग ने कमंडल आंदोलन शुरू कर दिया और 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के आंकड़ों का हवाला देते हुए 27 फीसदी तक आरक्षण सीमित कर दिया और ऊपर से क्रीमीलेयर थोप दिया गया. सब से बड़ा खेल यह किया गया कि ओबीसी आरक्षण को महज सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया गया.

कम्यूनिस्ट पार्टियों का इन आंकड़ों से कोई लेनादेना ही नहीं है, क्योंकि वे जाति संबंधी मुद्दों को नजरअंदाज करने का ढोंग करती आई हैं. एक तरह से मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अभियान में कांग्रेस व भाजपा के साथ उन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण वर्ग के ही थे. आरएसएस व सभी हिंदू समूह और ब्राह्मण सभाएं मंडल विरोधी आंदोलन की अगली लाइन में थीं.

एससीएसटी वर्ग के लोग जितने मंडल आयोग के समर्थन में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे, वे अब ओबीसी की जनगणना को ले कर उतने मुखर नजर नहीं आते हैं. इस के 2 कारण हो सकते हैं. पहला तो एससीएसटी की जनसंख्या की गणना होती है व दूसरा मंडल आयोग के समर्थन से जो ओबीसी नेताओं से उम्मीद थी, वह धूमिल हुई है.

नजरअंदाज ओबीसी की सरकार में भागीदारी

आंकड़ों के अनुसार, केंद्रीय मंत्रालयों में अवर सचिव से ले कर सचिव व निदेशक स्तर के 747 अफसरों में महज 60 अफसर एससी, 24 अफसर एसटी व 17 अफसर ओबीसी समुदाय के हैं यानी ऊंचे सरकारी पदों पर दलितों का प्रतिनिधित्व महज 15 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग से तकरीबन 85 फीसदी अफसर इन पदों पर कार्यरत हैं और ओबीसी समुदाय तो कहीं नजर ही नहीं आता है.

केंद्र सरकार में सचिव रैंक के

81 अधिकारी हैं, जिस में केवल 2 अनुसूचित जाति के और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं व ओबीसी शून्य. 70 अपर सचिवों में केवल 4 अनुसूचित जाति के और 2 अनुसूचित जनजाति के हैं व 3 ओबीसी के हैं. 293 संयुक्त सचिवों में केवल 21 अनुसूचित जाति के और 7 अनुसूचित जनजाति के व 11 ओबीसी के हैं. निदेशक स्तर पर 299 अफसरों में 33 अनुसूचित जाति के और 13 अनुसूचित जनजाति के और 22 ओबीसी के अधिकारी हैं.

केंद्र सरकार की ग्रुप ए की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 12.06 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 8.37 फीसदी है. सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 74.48 फीसदी है. गु्रप बी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 15.73 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 10.01 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 68.25 फीसदी है. गु्रप सी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 17.30 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 17.31 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 57.79 फीसदी है.

वहीं केंद्र सरकार के उपक्रमों की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 18.14 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 28.53 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 53.33 फीसदी है. यूजीसी के आरटीआई द्वारा मिले जवाब के मुताबिक, देशभर में कुल 496 कुलपति हैं. इन 496 में से केवल

6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी कुलपति हैं. इस के अलावा बाकी बचे सभी 448 कुलपति सामान्य वर्ग के हैं. मतलब, देश की 85 फीसदी आबादी (एससी, एसटी और ओबीसी) से 48 कुलपति और 11 फीसदी आबादी (सामान्य) से 448 कुलपति. प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक भी ओबीसी अधिकारी नहीं है. जहां से पूरे देश के लिए नीति निर्माण के फैसले होते हैं, वहां देश की 65 आबादी का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है. न्यायपालिका आजादी के समय ही दूर चली गई थी. सोशल जस्टिस की लड़ाई को धार्मिक ?ांडों के हवाले कर दिया गया है.

गरीबी का दोहरा मापदंड क्यों

जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने ईडब्ल्यूएस के 10 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखने के अपने फैसले में कहा कि आरक्षण गैरबराबरी वालों को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है. इस के लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है, बल्कि किसी और कमजोर क्लास को भी शामिल किया जा सकता है. जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के ईडब्ल्यूएस के पक्ष में फैसले और खासकर जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की टिप्पणी के बाद आने वाले दिनों में अन्य जातियां भी खुद को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग करने लगेंगी और मुमकिन है कि इन में से कुछ नए वर्गों को आरक्षण के दायरे में लाने का रास्ता साफ हो, क्योंकि सरकार को अपनी वोट बैंक की राजनीति करनी है और इस के लिए वह किसी भी ऐसे तबके को नाराज नहीं करना चाहेगी, जिस का वोट बैंक किसी राज्य में हार या जीत तय करने की ताकत रखता हो. मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट इस निर्णायक भूमिका में रहते हैं.

केंद्र सरकार के सामने बड़ी चुनौती

अब आने वाले दिनों में आरक्षण के बंटवारे को ले कर देश में एक बड़ा विवाद छिड़ सकता है, जिसे शांत करने में सरकार के पसीने छूटेंगे, क्योंकि हर तबके के लोग अपने हिस्से की नौकरियों में किसी दूसरे तबके का किसी भी हालत में दखल नहीं चाहते हैं, इसलिए हर जाति और तबके के लोग अपनेअपने लिए आरक्षण की मांग सरकार से करते रहे हैं.

इस में कोई दोराय नहीं है कि आज पूरे देश में धर्म और जाति की राजनीति हो रही है, ऊपर से हर जाति के लोग अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. ऐसे में सवर्णों के इस 10 फीसदी आरक्षण ने आग में घी का काम किया है, जिस के नतीजे अच्छे तो नहीं होने वाले, क्योंकि अगर आप को याद हो, तो ओबीसी आरक्षण लागू होने के समय को याद कीजिए, जब सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में ओबीसी आरक्षण की

52 फीसदी की मांग को घटा कर खुद 27 फीसदी किया था और कहा था कि आरक्षण को 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता. आज यही आरक्षण 50 फीसदी के पार जा कर 59.5 फीसदी पर पहुंच चुका है. ऐसे में जाहिर है कि इस से अब आरक्षण को ले कर नएनए विवाद पैदा होंगे और बहुत सी जातियों के लोग, जिन्होंने अब तक अलग आरक्षण की मांग नहीं की है, सब के सब अब अलगअलग आरक्षण की मांग कर सकते हैं, जिस का असर आगामी आम चुनाव में साफसाफ दिखाई देगा.

जाति के अधार पर होती है शादियां

ऊंची जातियोंखासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैंयह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थीउन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेलराजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणोंक्षत्रियोंवैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 195119611971198119912001 (वाजपेयी)2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैंसरकारी नौकरियोंपढ़ाईप्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरीकिसानीघरों में नौकरी करनेसेना में सिपाही बननेपुलिस में कांस्टेबलसफाईढुलाईमेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जातिउपजातिगौत्र सब होगा. क्योंअगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद हैमाना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्यारिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलोपैरासीटामोल (क्रोसीन) लेनाइस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती हैबीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बनेयही सही.

लोगों के लिए शादियां बनी जुआ

शादियां अब हर तरह के लोगों के लिए एक जुआ बन गई हैं जिस में सबकुछ लुट जाए तो भी बड़ी बात नहीं. राजस्थान की एक औरत ने साल 2015 में कोर्ट मैरिज की पर शादी के बाद बीवी मर्द से मांग करने लगी कि वह अपनी जमीन उस के नाम कर दे वरना उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे. शादी के 8 दिन बाद ही वह लापता हो गई पर उस से मिलतीजुलती एक लाश दूर किसी शहर में मिली जिसे लावारिस सम?ा कर जला दिया.

औरत के लापता होने के 6 माह बाद औरत के पिता ने पुलिस में शिकायत की कि उस के मर्द ने उन की बेटी की एक और जने के साथ मिल कर हत्या कर दी है. दूर थाने की पुलिस ने पिता को जलाई गई लाश के कपड़े दिखाए तो पिता ने कहा कि ये उन की बेटी के हैं. मर्द और उस के एक साथी को जेल में ठूंस दिया गया. 7 साल तक मर्द जेलों में आताजाता रहा. कभी पैरोल मिलतीकभी जमानत होती.

अब 7 साल बाद वह औरत किसी दूसरे शहर में मिली और पक्की शिनाख्त हुई तो औरत को पूरी साजिश रचने के जुर्म में पकड़ लिया गया है. आज जब सरकार हल्ला मचा रही है कि यूनिफौर्म सिविल कोड लाओक्योंकि आज इसलाम धर्म के कानून औरतों के खिलाफ हैं. असलियत यह है कि हिंदू मर्दों और औरतों दोनों के लिए हिंदू कानून ही अब आफत बने हुए हैं. अब गांवगांव में मियांबीवी के ?ागड़े में बीवी पुलिस को बुला लेती है और बीवी के रिश्तेदार आंसू निकालते छातियां पीटते नजर आते हैं तो मर्दों को गिरफ्तार करना ही पड़ता है.

शादी हिंदू औरतों के लिए ही नहींमर्दों के लिए भी आफत है. जो सीधी औरतें और गुनाह करना नहीं जानतीं वे मर्द के जुल्म सहने को मजबूर हैं पर मर्द को छोड़ नहीं सकतींक्योंकि हिंदुओं का तलाक कानून ऐसा है कि अगर दोनों में से एक भी चाहे तो बरसों तलाक न होगा. हिंदू कानूनों में छोड़ी गई औरतों को कुछ पैसा तो मिल सकता है पर उन को न समाज में इज्जत मिलती हैन दूसरी शादी आसानी से होती है.

चूंकि तलाक मुश्किल से मिलता है और चूंकि औरतें तलाक के समय मोटी रकम वसूल कर सकती हैंकोई भी नया जना किसी भी कीमत पर तलाकशुदा से शादी करने को तैयार नहीं होता. सरकार को हिंदूमुसलिम करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड की पड़ी हैजबकि जरूरत है ऐसे कानून की जिस में शादी एक सिविल सम?ौता होउस में क्रिमिनल पुलिस वाले न आएं.

जब औरतें शातिर हो सकती हैंअपने प्रेमियों के साथ मिल कर पति की हत्या कर सकती हैंनकली शादी कर के रुपयापैसा ले कर भाग सकती हैंन निभाने पर पति की जान को आफत बना सकती हैं तो सम?ा जा सकता है कि देश का कानून खराब है और यूनिफौर्म सिविल कोड बने या न बने हिंदू विवाह कानून तो बदला जाना चाहिए जिस में किसी जोरजबरदस्ती की गुंजाइश न हो. यदि लोग अपनी बीवियों के फैलाए जालों में फंसते रहेंगे और औरतें मर्दों से मार खाती रहेंगी तो पक्का है कि समाज खुश नहीं रहेगा और यह लावा कहीं और फूटेगा.     

लड़कियों का अन्याय सहना है गलत

एक युवा साधारण से दर्जी के यहां काम करने वाला, दिल्ली सहित कई शहरों में जा कर बीसियों लड़कियों और कुछ लड़कों का बलात्कार कर पाए यह घिनौनी हरकत न केवल डरा देने वाली है, इस समाज के अन्याय को सहने की गलत आदत की पुष्टि भी करती है. वह युवक तो अब कहता है कि उस ने 400-500 लड़कियों से जबरदस्ती की है पर पुलिस उस की निशानदेही पर केवल 15-20 तक पहुंच पाई है, क्योंकि वह युवक अनजान लड़कियों को पकड़ता था, उन्हें अकेले में ले जा कर दुराचार करता और छोड़ देता था. उसे खुद नहीं मालूम कि वे कहां रहती थीं.

इन लड़कियों के मातापिताओं ने मुंह सी रखे थे, यह ज्यादा भयावह है. इस तरह के दुर्जन होते हैं, इस का अंदाजा है पर उन के सताए लोग आज भी कानून व्यवस्था व सामाजिक मान्यताओं से इतना ज्यादा डरते हैं कि वे यातना का दुख सह लेते हैं पर हुए अपराध की सूचना नहीं देते.

आमतौर पर जेब कतरी जाए, चेन खींच ली जाए, घर में चोरी हो जाए, तो लोग तुरंत पुलिस तक पहुंच जाते हैं पर सैकड़ों मातापिता अपनी बच्चियों के साथ हुई बलात्कार की घटना की शिकायत पुलिस में यह सोच न करें कि कहीं उन की इज्जत पर बट्टा न लग जाए, यह सरकार की नाक काटने के बराबर है. यह कैसी सरकार है जिस ने इस सीरियल अपराध पर मुंह सी रखा है और जो सफाई मिल रही है वह छोटे इंस्पैक्टरों से मिल रही है.

साफ है हमारे यहां सरकारें राज करने आती हैं, राज चलाने नहीं. नेता चुनाव लड़ कर, जीत कर पद का लाभ उठाना चाहते हैं, कर्तव्य पूरा नहीं करना चाहते. यदि जनता को नेताओं व पुलिस पर भरोसा होता तो इन पीडि़तों में से आधे तो अपने क्षेत्र के नेताओं से मिलते और व्यथा सुनाते. लगता है आम आदमी को पूरा एहसास है कि सरकार तो क्या सरकार का सांसद, विधायक, पार्षद, सरपंच, पंच सब इस तरह राजनीति के स्विमिंग पूल में नहाने में व्यस्त हैं कि जनता की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं और उन के दरवाजे खटखटाने से कोई लाभ नहीं.

देश की स्थिति इस बुरी तरह खराब होगी कि एक अदना सा पर हिम्मती युवा इतना जघन्य काम लगातार कई सालों तक कर सके, देश की नाक कटाने वाला है. हम अपने को किस तरह का विश्व गुरु कहते हैं, किस मुंह से अपनी सभ्यता का बखान करते हैं, कैसे अपनी संस्कृति का ढोल पीटते हैं जब हमारे बीच ऐसे युवा मजे से सामाजिक व्यवस्था तारतार कर हमें जानवरों माफिक बनाते हैं? तिरंगे को सलाम या तिरंगे के अपमान पर बौखलाना देशभक्ति नहीं है, यह सिर्फ दिखावा है. जो देश समाज को सुरक्षा न दे सके उसे ज्यादा हांकना तो नहीं चाहिए.

मसला: ‘‘पंच परमेश्वर’ पर भाजपा का ‘फंदा’

यह आज का कड़वा सच है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और उन की सरकार का एक ही मकसद है सभी ‘संवैधानिक संस्थाओं’ को अपनी जेब में रख लेना और अपने हिसाब से देश को चलाना. किसी भी तरह के विरोध को नेस्तनाबूद कर देना.देश के संविधान की शपथ ले कर  सत्ता में आए भारतीय जनता पार्टी के ये चेहरे? ऐसा लगता है कि शायद संविधान पर आस्था नहीं रखते, जिस तरह इन्होंने अपने भाजपा के संगठन में उदार चेहरों को हाशिए पर डाल दिया है, वही हालात यहां भी कायम करना चाहते हैं. ये देश को उस दिशा में ले जाना चाहते हैं,

जो बहुतकुछ पाकिस्तान और अफगानिस्तान की है. यही वजह है कि अब कार्यपालिका, विधायिका के साथ चुनाव आयोग, सूचना आयोग को तकरीबन अपने कब्जे में लेने के बाद यह सुप्रीम कोर्ट यानी न्यायपालिका को भी अपने मनमुताबिक बनाने के लिए बड़े ही उद्दंड रूप में सामने आ चुकी है.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी होती है, जो देश की आजादी और देश को संजोने के लिए अपने प्राण देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, भगत सिंह, डाक्टर बाबा साहेब अंबेडकर जैसे नायकों की विचारधारा से बिलकुल उलट है.

और जब कोई विपरीत विचारधारा सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होती है, तो वह लोकतंत्र पर विश्वास नहीं करती, बल्कि तानाशाही को अपना आदर्श मान कर आम लोगों की भावनाओं को कुचल देना चाहती है और अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद कर देना चाहती है.कोलेजियम से कष्ट हैआज सब से ज्यादा कष्ट केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम सिस्टम से है. भाजपा के नेता यह भूल जाते हैं कि जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी या दूसरे दल देश चला रहे थे, तब भी यही सिस्टम काम कर रहा था, क्योंकि यही आज के हालात में सर्वोत्तम है. इसे बदल कर अपने मुताबिक करने की कोशिश देशहित या लोकतंत्र के हित में नहीं है.

कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर न्यायपालिका पर कब्जा करने के लिए उसे डराने और धमकाने का आरोप लगाया है. कांग्रेस पार्टी ने यह आरोप केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की ओर से प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को लिखे उस पत्र के मद्देनजर लगाया, जिस में किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कोलेजियम में केंद्र और राज्यों के प्रतिनिधियों को शामिल करने का सुझाव दिया है.किरण रिजिजू ने प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग करते हुए कहा है कि इस से जस्टिसों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही लाने में मदद मिलेगी.

इस पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने ट्वीट किया, ‘उपराष्ट्रपति ने हमला बोला. कानून मंत्री ने हमला किया. यह न्यायपालिका के साथ सुनियोजित टकराव है, ताकि उसे धमकाया जा सके और उस के बाद उस पर पूरी तरह से कब्जा किया जा सके.’ उन्होंने आगे कहा कि कोलेजियम में सुधार की जरूरत है, लेकिन यह सरकार उसे पूरी तरह से अधीन करना चाहती है. यह उपचार न्यायपालिका के लिए विष की गोली है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इस मांग को बेहद खतरनाक करार दिया. उन्होंने ट्वीट किया, ‘यह खतरनाक है. न्यायिक  नियुक्तियों में सरकार का निश्चित तौर पर कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.’भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा इतनी अलोकतांत्रिक है कि वह न तो विपक्ष चाहती है और न ही कहीं कोई विरोधअवरोध.

यही वजह है कि सत्ता में आने के बाद वह सारे राष्ट्रीय चिह्न और धरोहर, जो स्वाधीनता की लड़ाई से जुड़ी हुई हैं या कांग्रेस पार्टी से, उन्हें धीरेधीरे खत्म किया जा रहा है. इस के साथ ही सब से खतरनाक हालात ये हैं कि आज सत्ता बैठे हुए देश के जनप्रतिनिधि देश की संवैधानिक संस्थाओं को सुनियोजित तरीके से कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं और चाहते हैं कि यह संस्था उन की जेब में रहे और वे जो चाहें वही होना चाहिए.हम ने देखा है कि किस तरह चाहे वह राष्ट्रपति हो या उपराष्ट्रपति या फिर राज्यपालों की नियुक्तियां, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार ऐसे चेहरों को इन कुरसियों पर बैठा रही है, जो पूरी तरह से उन के लिए मुफीद हैं, जो एक गलत चलन है.

एक बेहतर लोकतंत्र के लिए विपक्ष उतना ही जरूरी है, जितना देश को गति देने के लिए सत्ता, मगर अब यह कोशिश की जा रही है कि विपक्ष खत्म कर दिया जाए और संवैधानिक संस्थाओं को अपनी जेब में रख कर देश को एक अंधेरे युग में धकेल दिया जाए, जहां वे जो चाहें वही अंतिम सत्य हो. पर ऐसा होना बड़ा मुश्किल है.

राजनीति में अकेली ताकतवर नहीं मोदी सरकार

गुजरात व हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं केदिल्ली की म्यूनिसिपल कमेटी केउत्तर प्रदेशबिहार व ओडिशा के उपचुनावों से एक बात साफ है कि न तो भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कोई बड़ा माहौल बना है और न ही भारतीय जनता पार्टी इस देश की अकेली राजनीतिक ताकत है. जो सोचते हैं कि मोदी है तो जहां है वे भी गलत हैं और जो सोचते हैं कि धर्म से ज्यादा महंगाईबेरोजगारीहिंदूमुसलिम खाई से जनता परेशान हैवे भी गलत हैं.

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सीटें बढ़ा लीं क्योंकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में वोट बंट गए. गुजरात की जनता का बड़ा हिस्सा अगर भाजपा से नाराज है तो भी उसे सुस्त कांग्रेस औैर बड़बोली आम आदमी पार्टी में पूरी तरह भरोसा नहीं हुआ. गुजरात में वोट बंटने का फायदा भारतीय जनता पार्टी को जम कर हुआ और उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी की दिल्ली की सरकार अब तोहफे की शक्ल में अरविंद केजरीवाल को दिल्ली राज्य सरकार और म्यूनिसिपल कमेटी चलाने में रोकटोक कम कर देगी. उपराज्यपाल के मारफत केंद्र सरकार लगातार अरविंद केजरीवाल को कीलें चुभाती रहती है.

कांग्रेस का कुछ होगायह नहीं कहा जा सकता. गुजरात में हार धक्का है पर हिमाचल प्रदेश की अच्छी जीत एक मैडल है. हांयह जरूर लग रहा है कि जो लोग भारत को धर्मजाति और बोली पर तोड़ने में लगे हैंवे अभी चुप नहीं हुए हैं और राहुल गांधी को भारत जोड़ो यात्रा’ में मिलते प्यार और साथ से उन्हें कोईर् फर्क नहीं पड़ता.

देशों को चलाने के लिए आज ऐसे लोग चाहिए जो हर जने को सही मौका दें और हर नागरिक को बराबर का सम?ों. जो सरकार हर काम में भेदभाव करे और हर फैसले में धर्म या जाति का पहलू छिपा होवह चुनाव भले जीत जाएअपने लोगों का भला नहीं कर सकती. धर्म पर टिकी सरकारें मंदिरोंचर्चों को बनवा सकती हैं पर नौकरियां नहीं दे सकतीं. आज भारत के लाखों युवा पढ़ने और नौकरी करने दूसरे देशों में जा रहे हैं और विश्वगुरु का दावा करने वाली सरकार के दौरान यह गिनती बढ़ती जा रही है. यहां विश्वगुरु नहींविश्वसेवक बनाए जा रहे हैं. भारतीय युवा दूसरे देशों में जा कर वे काम करते हैं जो यहां करने पर उन्हें धर्म और जाति से बाहर निकाल दिया जाए.

अफसोस यह है कि भाजपा सरकार का यह चुनावी मुद्दा था ही नहीं. सरकार तो मानअपमानधर्मजातिमंदिर की बात करती रही और कम से कम गुजरात में तो जीत गई.

देश में तरक्की हो रही है तो उन मेहनती लोगों की वजह से जो खेतों और कारखानों में काम कर रहे हैं और गंदी बस्तियों में जानवरों की तरह रह रहे हैं. देश में किसानों के मकान और जीवन स्तर हो या मजदूरों का उस की चिंता किसी को नहींक्योंकि ऐसी सरकारें चुनी जा रही हैं जो इन बातों को नजरअंदाज कर के धर्म का ढोल पीट कर वोट पा जाती हैं.

ये चुनाव आगे सरकारों को कोई सबक सिखाएंगेइस की कोई उम्मीद न करें. हर पार्टी अपनी सरकार वैसे ही चलाएगीजैसी उस से चलती है. मुश्किल है कि आम आदमी को सरकार पर कुछ ज्यादा भरोसा है कि वह अपने टूटफूट के फैसलों से सब ठीक कर देगी. उसे लगता है कि तोड़जोड़ कर बनाई गई महाराष्ट्रकर्नाटकगोवामध्य प्रदेश जैसी सरकारें भी ठीक हैं. चुनावों में तोड़फोड़ की कोई सजा पार्टी को नहीं मिलती. नतीजा साफ है. जनता को सुनहरे दिनों को भूल जाना चाहिए. यहां तो हमेशा धुंधला माहौल रहेगा.

अंधविश्वास की राजनीति आखिर कबतक

देसी चुनावों में जीत पा जाना कोई कमाल की बात नहीं है खासतौर पर जब यह पैसा देने को भी तैयार हो और भक्तों का चलाया जा रहा मीडिया लोगों को पाखंडी और अंधविश्वासी के साथ राज्य की भक्ति भी सिखा रहा. नेता की ताकत तो तब दिखती है जब दूसरे देश उस की सुनते हों, उसे नाराज करने की हिम्मत न करते हों.

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होने की वजह से बारीबारी से मिलने वाली जी-20, बड़े 20 देशों की संस्था के अध्यक्ष बने हैं पर उन के अध्यक्ष की कुर्सी लेने के कुछ दिन बाद ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ शुरू कर दी यही नहीं, मुसलिम देशों के संगठन औगैंनाइजेशन औफ इस्लामिक कंट्रीज के महासचिव ने भारत के कश्मीर के उस हिस्से का दौरा कर लिया जो पाकिस्तान ने 1947 से जबरन दबोच रखा है.

अच्छा नेता वह होता है जिस का खौफ न हो तो कम से कम इज्जत हो कि उसे अपने देश में नीचा देखने की जरूरत न पड़े. पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर घूमने जाने से या अरुणाचल प्रदेश में घुस जाने से भारत टूटने नहीं वाला, न उसे…..है पर यह सवाल जरूर कर सकता है कि जब केंद्र में दिल्ली में बैठी सरकार इतनी मजबूत है तो ऐसा हो ही क्यों रहा है.

अपने देश में अपने बलबूते पर चुनाव जीतना किसी देश के नेता के लिए काफी नहीं है. हर देश का नेता चुनाव जीत कर या लड़ कर जीत कर ही नेता बनता है. बड़ा नेता वह होता है जिस की सब की इज्जत करें. जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में धोखा खाया था. उन्हें लगा कि महात्मा गांधी के शिष्य होने की वजह से उन्हें दुनिया भर में इज्जत मिलेगी और चाहे चुनाव उन्होंने जीते हो, बेहद लोकप्रिय रहे हो. कानून मानने वाले रहे हों, माओ त्से तुंग के चीन ने. 1862 में हमला कर के मोहभंग कर दिया.

आज भारत ऐसे मोड़ पर बैठा है जहां अपनी गिनती की वजह से, सस्ती मजदूरी की वजह से, बड़ा देश होने की वजह से, सडक़ों, हवाई अड्डों, रेलों के जाल की वजह से वह दुनिया के किसी भी देश से बढ़ कर बन सकता है. पर हो क्या हो रहा है. एक चीन और इस्लामिक देश अपने तेवर दिखा रहे है और दूसरी तरफ भारतीय मजदूर कोठियों में नौकरियां करने के लिए खुद को गुलाम बना कर दुनिया भर में घटिया काम करने के लिए जा रहे हैं. हमारा हाल तो यह है कि हमारे पढ़ेलिखे ही पढऩे के लिए बाहर जा रहे हैं. देश में अमनचैन की बात की जाती है पर हर साल 2 लाख ङ्क्षहदुस्तानी अपनी नागरिकता छोड़ कर दूसरे देश की नागरिकता अपना लेते हैं.

देश को चलाने के बैलेट या बुलेट की नहीं, सही बैल्ट वाली नीतियों की जरूरत है जो हमारी खिसकती फटी पैंट को रोक सके. देश बाहरी खतरों से ज्यादा तो अदरुनी खतरों से परेशान है और इसीलिए बाहर वाले शेर हो रहे हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें