मेरा संसार – भाग 2 : अपने रिश्ते में फंसते हुए व्यक्ति की कहानी

तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं. फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ. ‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’ कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है. ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है?

इसलिए कि मैं अकेला हूं? रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को. बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का. घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है.

फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है. सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है. मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि यह महज व्यवहार होता है, प्रेम नहीं, तो वह भड़क जाती है. उस का अहम् सिर चढ़ कर बोलने लगता है कि प्रेम के संदर्भ में मैं उसे कैसे समझाने लगा? जो प्रेम वह करती है वही एकमात्र सही है. और यदि मुझे उस से बातें करनी हैं या प्रेम करना है तो नतमस्तक हो कर उस की हां में हां मिलाता रहूं. यह अप्रत्यक्ष शर्त है उस की. किंतु मेरे लिए पे्रेम का अर्थ सिर्फ प्रेम है, कोई शर्त नहीं, कोई बंधन नहीं. प्रेम तो स्वतंत्र, विस्तृत होता है. एकदम खुला हुआ, जहां स्वयं का भान नहीं बल्कि जिस से प्रेम होता है उस की ही मूर्ति, उस का ही गुणगान होता है. मैं प्रेम को किसी प्रकार का संबंध भी नहीं मानता क्योंकि संबंध भी तो एक बंधन होता है और प्रेम बंधता कहां है? वह तो खुले आसमान की तरह अपनी बांहें फैलाए रखता है. क्योंकि व्यवहार में अंतर आना हो सकता है किंतु प्रेम में? …संभव नहीं. सच तो यह है कि रचना मेरे प्रेम को समझना नहीं चाहती और मैं भी उसे कुछ समझाना नहीं चाहता. कभीकभी मुझे लगता है कि मैं बेकार ही अपने दिमाग को परेशान किए रखता हूं.

मैं ने कोई ठेका तो नहीं ले रखा है उसे समझाने का या उसे अपनी हालत बता कर सहानुभूति बटोरने का…यदि ऐसा है तो फिर मेरे प्रेम का अर्थ क्या हुआ? पेन पता नहीं कहां रख दिया…ज्योति मेरी हरेक चीज को कायदे से जमा कर रखती है, और जब भी मुझे कुछ लेना होता है उसे आवाज दे देता हूं…. ज्योति कहती है कि जब तक मैं हूं तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं. इतने सारे कामों के बीच भी वह कभी कहती नहीं कि मैं थक चुकी हूं, कुछ तुम ही कर लो….पता नहीं ज्योति किस मिट्टी की बनी है. ओह, ज्योति तुम कहां हो. अचानक ज्योति की याद तेज हो गई. रचना कहीं खो गई. मैं ज्योति को कितना नजरअंदाज करता हूं इस के बावजूद ज्योति मेरा उतना ही ध्यान रखती है…क्या प्रेम यही होता है? ज्योति द्वारा किया जाने वाला व्यवहार मेरे प्रेम की परिभाषा को नए मोड़ पर ले जा रहा है, क्या मैं अब तक…यह जान नहीं पाया कि प्रेम होता क्या है? रचना द्वारा किए जाने वाला प्रेम और ज्योति द्वारा किया जाने वाला प्रेम…इस मुकाबले में मुझे तय करना है कि आखिर कौन सही है? आज इस अकेलेपन में निर्णय तो लेना ही होगा…मैं ने डायरी लिखने का मन बदल दिया और इसी द्वंद्व में स्वयं को धकेल दिया कि अचानक मोबाइल की रिंग बजी. 

पैर की जूती – भाग 2 : क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

भाभी के बहुत आग्रह करने पर वह उठी, बाथरूम गई, और हाथमुंह धोया. पर कपड़े तो वह सब वहीं छोड़ आई थी. मैले कपड़े पहन कर जब वह बाहर आईर् तो उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. भाभी अपनी उम्दा लाल साड़ी लिए उस के इंतजार में खड़ी थीं.

‘‘जरीना, यह लो. इसे पहन लो. मैं तब तक खाने का इंतजाम करती हूं.’’

‘‘मगर, भाभी…’’

‘‘मैं यह अगरमगर नहीं सुनने वाली. लो, इसे पहन लो.’’

भाभी के ये शब्द सुन कर उसे साड़ी लेनी पड़ी. भाभी साड़ी थमा कर रसोईघर में चली गईं और वह भी बुझे दिल से साड़ी पहन कर रसोईघर में जा पहुंची.

‘‘भैया कब आएंगे, भाभी?’’

‘‘अपने भैया की मत पूछो, जरीना. वरदी पहन ली तो सोचते हैं सारी जिम्मेदारी जैसे इन्हीं के कंधों पर है. मुहर्रम के दिनों में तो इस कदर मशगूल थे कि घर का होश ही नहीं रहा. एक दिन पहले सब को बुला कर चेतावनी दे दी कि ताजिए का जुलूस निकालना हो तो शांति से, नहीं तो सब इंस्पैक्टर अमजद खां सब को ठिकाने लगा देगा. नतीजा बड़ा खुशगवार रहा.

‘‘और अब होली का समय आ गया है. तुम तो जानती हो, इतने अच्छे त्योहार पर भी हिंदुओं, मुसलमानों में दंगाफसाद हो जाता है. वे यह नहीं समझते कि हम जो मुसलमान हुए हैं, वे अरब से नहीं आए बल्कि यहीं के हिंदू भाइयों से कट कर बने हैं. खैर छोड़ो, कहां की बातें ले बैठी हूं. बहुत दिनों के बाद आई हो. आराम से रहो. जब जी चाहे, अपने हबीब के पास चली जाना. हमारे हबीब तो अपनी बीवी से बात करने के बजाय थाने से ही प्यार किए बैठे हैं.’’

भाभी के अंतिम वाक्य पर वह हंस पड़ी, ‘‘अरे भाभी, फख्र करो आप को ऐसा शौहर मिला है जो अपनी ड्यूटी को तो समझता है.’’

‘‘अरी, तुम क्या जानो. अभी होली में उन का करिश्मा देखना. पूरे 20 घंटे की ड्यूटी कर रात को घर आएंगे. आते ही कहेंगे, ‘फरजाना, अरे होली के पेड़े तो खिलाओ जो कमला भाभी के यहां से आए हैं. तू तो कुछ बनाती नहीं.’ अब तुम ही सोचो, ऐसे खुश्क माहौल में किस का दम नहीं घुटेगा. कहने को तो कह देंगे, ‘अरी बेगम, पड़ोस में इतने लोग थे, डट कर खेल लेना था उन से. हम पुलिस वालों की होली तो दूसरे दिन होती है.’ और फिर दूसरे दिन, तौबातौबा, जरीना, तुम देखोगी तो घबरा जाओगी. इतना हिंदू भाई होली नहीं खेलते, जितना कि ये खेलते हैं. इन की देखादेखी महल्ले वाले भी इस जश्न में शामिल हो जाते हैं.’’

वह भाभी की बात टुकुरटुकुर सुनती रही.

‘‘भाभी, यह सब सुन कर दिल को बड़ा सुकून मिलता है. मुसलमानों और हिंदुओं के  अनेक त्योहार हैं. अपने यहां जो महत्त्व ईद का है वही हिंदुओं के यहां होली का है. होली के रंगों में सारी दुश्मनी धुल जाती है.

मुझे तो 3 साल से होली खेलने का मौका नहीं मिला. वह भी इत्तफाक था कि होली से 2 माह पहले ही शादी हो गई. इस दरम्यान, मैं ने न गृहस्थी का सुख जाना, न पति का. मैं तो एक तरह से पैर की जूती बन कर रह गई हूं, जो पैरों में पड़ी बस घिसती रहती है और तले के बिलकुल घिस जाने के बाद फेंक दी जाती है,’’ कहते हुए उस ने भाभी को अपनी पीठ दिखलाई, जिस पर मार के काले निशान पड़े थे.

भाभी ने उन्हें देख कर अपनी आंखें मूंद लीं. फिर थरथराते लबों से बोलीं, ‘‘पगली, मैं तो उस दिन ही समझ गईर् थी जब तेरे घर आई थी. पर कह न सकी, तुम्हारे घर में लोग जो मौजूद थे. आने के बाद इन से कहा तो ये बुरी तरह तमतमा उठे थे. बोले कि उस करीम के बच्चे को अभी सबक सिखाता हूं. वह तो मैं ने बड़ी मुश्किल से समझाया, नहीं तो ये तो तुम्हारे करीम को हथकड़ी लगा कर थाने में बिठला देते.’’

‘‘अब तुम आ गई हो, तुम्हारे खयालात से हम वाकिफ हो गए हैं. चलो, अब कोई कार्यवाही करने से फायदा भी रहेगा. हां, अपने को अकेला मत समझना. हम सब तुम्हारे साथ हैं. तुम तो पढ़ीलिखी लड़की हो. अब तक तो तुम्हें बगावत कर देनी चाहिए थी. खैर, देर आयद दुरुस्त आयद.’’

जरीना और फरजाना आपस में बातें कर ही रही थीं कि अमजद भी आ पहुंचा. वरदी में उस का चेहरा रोब से दमक रहा था. आते ही वह सोफे पर बैठ कर चिल्लाया, ‘‘फरजाना.’’

‘‘आई.’’

फरजाना ने जातेजाते जरीना से धीमे से कहा, ‘‘देखा जरीना, हमारे मियां को हमारे बिना चैन नहीं. पर तुम यहीं रहना, मैं उन्हें हैरत में डालना चाहती हूं.’’

फरजाना तेजी से बाहर गई और जरीना अपनी जिंदगी की तुलना फरजाना भाभी से करने लगी. कितनी मुहब्बत है इन दोनों में और एक वह है, जिसे कभी भी प्यार के दो शब्द सुनने को नहीं मिले.

बाहर से मुहब्बतभरा स्वर अंदर आ रहा था, ‘‘क्या बीवी के बिना चैन नहीं पड़ता?’’

‘‘यह बीवी चीज ही ऐसी होती है.’’

अमजद का जवाब सुन कर जरीना मुसकरा उठी.

‘‘अरे, छोडि़ए भी. लगता है आज आप ने कुछ पी रखी है.’’

‘‘अरी बेगम, जिस दिन से तुम से शादी हुई है, हम तो बिन पिए ही मतवाले हो गए हैं.’’

‘‘ओ जरीना बी, अपने भाईर् को समझाओ.’’

भाभी की आवाज सुन कर जरीना फौरन बाहर आ गई और अमजद को सलाम कर के मुसकराने लगी.

अमजद जरीना को देख कर घबरा गया, फिर पसीना पोंछ कर सलाम का उत्तर देते हुए बोला, ‘‘कब आई, मुन्नी?’’

‘‘चंद लमहे हुए हैं, भाईजान.’’

‘‘फरो डार्लिंग, हमारी बहन को नाश्ता वगैरा दिया?’’

‘‘वह तो आप का इंतजार कर रही थी.’’

‘‘तो चलो. सब एकसाथ बैठ कर खाएं.’’

खाने के दौरान बातों का क्रम चला. तो अमजद बोला, ‘‘तेरे आने का कारण मैं समझ गया हूं, जरीना. मैं जानता हूं, करीम निहायत घटिया दरजे का इंसान है. उस पर बातों का नहीं, डंडे का असर होता है. मैं तो तेरा निकाह उस के साथ करने के सख्त खिलाफ था. मगर तुम तो जानती हो, अपने मांबाप का रवैया. खैर, तू फिक्र मत कर, उस साले को मैं ठिकाने लगाऊंगा. वैसे, साला तो मैं हूं उस का पर अब उलटा ही चक्कर चलाना पड़ेगा.’’

अमजद के शब्दों से फरजाना इतनी हंसी कि उसे उठ कर बाहर चले जाना पड़ा. फिर बाथरूम में उलटी करने की आवाज आई. जरीना इस आवाज से उठ कर फौरन उधर भागी. उस ने भाभी को पानी दे कर कुल्ला करने में मदद की और फिर उसे संभाल कर अंदर ले आई और बिस्तर पर लिटा दिया. फिर अमजद की ओर देखते हुए बोली, ‘‘भैया, ऐसा मजाक मत करिए, जिस से किसी की जान पर बन आए.’’

‘‘अरी, इस का टाइम ही खराब है. मैं हमेशा कहता हूं ठूंसठूंस कर मत खा. वह अंदर वाला फेंक देगा. यह मानती नहीं है, अब इसे तू ही समझा.’’

‘‘यानी कुछ है.’’

‘‘बिलकुल.’’ अमजद कहने को कह गया. पर फिर तेजी से झेंप कर भाग खड़ा हुआ. इधर फरजाना भी शरमा गई थी.

‘‘भाभी, हमारा इनाम.’’

‘‘पूरा घर तुम्हारा है, जो चाहे ले लो.’’

‘‘वह तो ठीक है, भाभी, पर हम तो चाहते हैं कि वह होने वाला पहले हमारी गोद में खेले.’’इस पर फरजाना ने प्यार से जरीना के गाल पर एक हलकी सी चपत लगा दी.

Holi Special: शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 1

‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

पैर की जूती – भाग 1: क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

होली के रंगों की तरह, वह ससुराल में यह उम्मीद ले कर आई थी कि उसे यहां अपने शौहर और सासससुर का प्यार मिलेगा, आने वाला समय इंद्रधनुषी रंगों की तरह आकर्षक और रंगबिरंगा होगा. लेकिन यहां आते ही उस की सारी आशाएं लुप्त हो गईं. हर वक्त ढेर सारा काम और ऊपर से मारपीट व गालियों की बौछार. इन यातनाओं से वह भयभीत हो उठी. न जाने कब ये कयामत के बादल बन कर उस पर टूट पड़ें. करीम से पहले उस के रिश्ते की बात उस के फुफेरे भाई अमजद से चली थी. पर अमजद ने इस रिश्ते को यह कह कर ठुकरा दिया कि वे भाईबहन हैं और वह भाईबहन के निकाह को ठीक नहीं समझता.

करीम से उस के रिश्ते की बात जब महल्ले में उड़ी तो महल्ले के सभी बुजुर्ग खुश हो उठे और बोले, ‘‘वाह, लड़की हो जरीना जैसी. फौरन मांबाप का कहना मान गई. वैसे आजकल की लड़कियां तौबातौबा, कितनी नाफरमान हो गई हैं. सचमुच जरीना जैसी लड़की सब को नहीं मिलती.’’

बुजुर्गों की बातों से छुटकारा मिलता तो सहेलियां उस पर कटाक्ष करतीं, ‘‘वाह बन्नो, अपने हबीब से मिलने की इतनी जल्दी तैयारी कर ली? अरी, थोड़े दिन तो और सब्र किया होता. दीवाली व ईद तो मना ली, होली भी मना कर जाती तो क्या फर्क पड़ जाता? ’’ और वह गुस्से व शर्म से कसमसा कर रह जाती.

कुछ दिनों बाद उस की शादी बड़ी धूमधाम से हो गई. शादी से पहले उस ने एक ख्वाब देखा था. ख्वाब यह था कि वह करीम को अपने मायके लाएगी और होली का त्योहार उल्लास से मनाएगी. पर उस का सपना, सपना ही रह गया.

उस के मायके में मुसलिम त्योहारों को जितनी खुशी से मनाया जाता है उतनी ही हिंदू त्योहारों को भी. वहां त्योहार मनाते समय यह नहीं देखा जाता कि उस का ताल्लुक उन के अपने मजहब से है या किसी दूसरे धर्म से. वे तो इस देश में मनाए जाने वाले प्रत्येक त्योहार को अपना त्योहार मानते हैं पर उस की ससुराल में तो सब उलटा ही था. उसे ऐसा पति मिला, जो पत्नी की इज्जत करना भी नहीं जानता था. वह तो उसे अपने पैर की जूती समझता था.

शादी के कुछ महीने बाद की बात है. उस दिन सब्जी में नमक कुछ ज्यादा हो गया था. करीम के निवाला उठाने से पहले सासससुर ने निवाला उठाया और मुंह में लुकमा डालते ही चीख पड़े, ‘‘यह सब्जी है या जहर? क्या करीम की शादी हम ने यही दिन देखने के लिए की थी?’’

यह सुनते ही करीम भड़क उठा था, ‘‘नालायक, खाना पकाना तक नहीं आता? क्या तेरे मांबाप ने तुझे यही सिखाया था? इस महंगाई के जमाने में इतनी बरबादी. चल, सारी सब्जी तू ही खा, नहीं तो मारमार कर खाल खींच लूंगा.’’

उसे विवश हो कर पतीली की पूरी सब्जी अपने गले से उतारनी पड़ी थी. इनकार करती तो करीम के हाथ में जो आता, उस से मारमार कर उस का भुकस निकाल देता.

इस घटना से भयभीत हो कर वह इतनी बीमार पड़ी कि उस के लिए दो कदम चलना भी मुश्किल हो गया.

पर करीम के मांबाप यही कहते, ‘‘काम के डर से बहाना बना रही है. चल उठ, काम कर, हमारे घर में तेरे ये नखरे नहीं चलेंगे.’’

उसे लाचार हो कर बिस्तर से उठना पड़ता. कदमकदम पर चक्कर आता तो पूरा घर खिल्ली उड़ा कर कहता, ‘‘देखा, कुलच्छन कैसी नजाकत दिखा रही है.’’

अंत में हार कर उस ने करीम से कह दिया, ‘‘देखिए, मुझे कुछ दिनों के लिए मायके भिजवा दीजिए. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘वाह, क्या मैं तुझे इसलिए निकाह कर के लाया हूं कि तू अपने मांबाप के यहां अपनी हड्डियां गलाए? अगर फिर कभी जाने का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’

इन जानवरों के बीच में वह विवश सी हो गई. घर जाने का  नाम उस की जबान पर आते ही ये लोग भूखे गिद्ध की तरह उस के शरीर पर टूट पड़ते. अगर उस की पड़ोसिन निर्मला उस का ध्यान न रखती और उसे वक्त पर चोरीछिपे दवा ला कर न देती तो वह कभी की इस दुनिया से कूच कर गई होती.

करीम ने उस दिन फिर उसे बुरी तरह मारा था. इस स्थिति को सहतेसहते उसे करीब 3 साल हो गए थे. उस की स्थिति उस वहशी कसाई के हाथों में बंधी बकरी की तरह थी जिस का हलाल होना तय था.

इस मुसीबत के समय उसे एक ही हमदर्द चेहरा नजर आता और वह था अमजद का. यह सही था कि उस ने ममेरी बहन होने की वजह से उस से शादी करने से इनकार कर दिया था, पर जब उसे यह पता चला कि जरीना का निकाह करीम से हो रहा है, तो वह दौड़ादौड़ा मामू के पास आया था और उन से बोला था, ‘अरे मामृ, जरीना बहन को कहां दे रहे हो? वह लड़का तो बिलकुल गधा है. अपनी समझ से तो काम ही लेना नहीं जानता. जो मांबाप कहते हैं, बस, आंख मींच कर वही करने लगता है, चाहे वह ठीक हो या गलत. जरीना वहां जा कर कभी खुश नहीं रह सकती. वे लोग उसे अपने पैर की जूती बना कर रखेंगे.’

पर अमजद की बात को किसी ने नहीं माना और जो होना था, वही हुआ. विदा के वक्त अमजद ने उस के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा था, ‘पगली, तू रोती क्यों है? अगर तुझे कभी जरूरत पड़े तो अपने इस भाई को याद कर लेना. तू फिक्र मत कर, मैं तेरे हर दुखदर्द में काम आऊंगा.’

जरीना ने किसी तरह जीवन के 3 साल बिता दिए पर अब उस से बरदाश्त नहीं होता था. उस ने सोचा, अब उसे उस शख्स का दामन थामना ही होगा, जो सही माने में उस का हमदर्द है. फरजाना भाभी यानी अमजद की बीवी भी कई बार उस के घर आईं. वे उस की खैरियत पूछतीं तो जरीना हमेशा हंस कर यही कहती, ‘ठीक हूं, भाभी.’

और कई बार तो ऐसा हुआ कि जब वह मार खा कर सिसक रही होती, ठीक उसी वक्त फरजाना वहां पहुंच जाती. ऐसे वक्त चेहरे पर मुसकराहट लाना बड़ा कठिन होता है. भाभी भी चेहरा देख कर समझ जाती थीं पर घर के अन्य लोगों की मौजूदगी में कुछ बोल नहीं पाती थीं. आखिर वे चुपचाप चली जातीं. कुछ अरसे बाद अमजद का दूसरे शहर में तबादला हो गया. एक रहासहा आसरा भी दूर हो गया.

उस रोज घर में कोई नहीं था. मार और दर्द से उस का बदन टूट रहा था. गुस्से से उस का शरीर कांपने लगा. उस ने अपने वहशी पति के नाम एक लंबा खत लिखा और उसे मेज पर रख कर घर से निकल गई.

2 बजे की ट्रेन पकड़ कर शाम को वह अमजद के शहर पहुंची. रेलवेस्टेशन से टैक्सी ले कर घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो गया था. टैक्सी से उतर कर वह बुझे मन से घर की ड्योढ़ी की ओर बढ़ गई.

सामने से आती फरजाना भाभी उसे देखते ही चौंकीं, ‘‘अरी जरीना, तू कब आई?’’

वह भाभी को सलाम कर सोफे पर बैठते हुए धीमे से बोली, ‘‘बस, सीधे  घर से चली आ रही हूं, भाभी.’’

फरजाना उस के मैले कुचैले कपड़ों और रूखे बालों को एकटक देखती रहीं. फिर क्षणभर बाद बोली, ‘‘यह अपनी क्या हालत बना रखी है, जरीना?’’

भाभी के शब्दों से उस के धैर्य का बांध टूट गया. जो आंसू अब तक जज्ब थे, वे फरात नदी की तरह बह निकले.

‘‘अरी, तू रो रही है,’’ भाभी ने दिलासा देते हुए उस की आंखों से आंसू पोंछ दिए, ‘‘चल जरीना, हाथमुंह धो, कपड़े बदल और जो कुछ हुआ उसे भूल जा.’’

मेरा संसार – भाग 1 : अपने रिश्ते में फंसते हुए व्यक्ति की कहानी

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया.

मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती? कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है. यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए. जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है

तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता. मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है. जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं? हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे.

संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई. मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है. पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद.

किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है. आज छुट्टी है और कोई अपना दफ्तर का काम भी नहीं है इसलिए इस दोपहर की सूनी सी तपन के बीच खुद को देख पा रहा हूं. दूरदूर तक सिर्फ सूरज की आग और अपने अंदर भी विचारों की एक आग, ‘उस के’ निरंतर दिए जाने वाले दर्द की आग. गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं. ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है. ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है.

मैं चुप रहूंगी: क्या थी विजय की असलियत

Rita Kashyap

पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.

उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.

लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.

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दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.

मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.

मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.

वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.

एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’

‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’

‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’

‘‘वे विजय साहब थे न?’’

‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’

गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’

‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’

‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?

लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’

मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.

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गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.

औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?

‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.

मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.

‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’

‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’

‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.

अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.

इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.

स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.

वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.

स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.

एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.

मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.

मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है.

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मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.

मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?

मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?

‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.

पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.

Holi Special: अधूरी चाह- भाग 1

चलिए, आप को संजय चावला से मिलाते हैं… आज से 25 साल पहले का संजय चावला.

संजय के पापा नौकरी करते हैं. एक बड़ा भाई, जिस की अपने ही घर के बाहर किराने की दुकान है. घर के बाहर के हिस्से में 3 दुकानें हैं. पापा ने पहले से ही 3 दुकानें बनाईं, तीनों बेटों के लिए.

छोटा बेटा अभी पढ़ रहा है. बड़े बेटे की शादी हो गई है. अब संजय का नंबर आया है, हजारों लड़कियां उस पर मरती थीं, एक से एक हसीना उस के कदमों में दिल बिछा देती थीं, उस की एक ?ालक पर ही लड़कियां तड़प उठती थीं, उस के साथ न जाने कितने सपनों के तानेबाने बुनतीं, लेकिन उस की भाभी को उस के लिए कोई लड़की नहीं जंचती.

अरे भई, कैसे जंचेगी? कोई संजय जैसी ही मिले तब न. संजय का गोराचिट्टा रंग, तीखे नैननक्श, आंखें ऐसीं जैसे नशा हो इन में, जो देखे बस खो जाए इन नशीली आंखों में. लंबा कद, चौड़ा सीना, होंठों के ऊपर छोटीछोटी बारीक सी मूंछें, चाल में गजब का रोबीलापन और स्वभाव जैसे हंसी बस इन्हीं की गुलाम हो. जी हां साहब, एकदम हंसमुख स्वभाव… ऐसे हैं संजय चावला.

बड़ी मशक्कत के बाद एक कश्मीर की कली भा गई संजय साहब को. क्यों न भाए कश्मीर की जो ब्यूटी है. शालिनी नाम है. नाम से मेल खाता स्वभाव. शालीन सी, बला की खूबसूरती जिसे देखते ही संजय साहब अपना दिल हार बैठे थे. बस, ?ाट से हां बोल दी शादी के लिए.

अरेअरे, कोई शालिनी से तो पूछो कि वह क्या चाहती है, लेकिन नहीं, कोई पूछने की जरूरत नहीं. उस का तो एक ही फैसला है कि जो मम्मीपापा कहेंगे, वही ठीक है.

बस तो चट मंगनी और पट ब्याह वाली बात हो गई. शादी के बाद जिम्मेदारी बढ़ गई. पहले दोनों भाई इसी एक ही किराने की दुकान पर बैठते थे, लेकिन अब संजय को लगा कि खर्चे बढ़े हैं, मगर आमदनी नहीं. तो उस ने भी नौकरी करने के बारे में सोचा. नौकरी भी अच्छी मिल गई. घरपरिवार में सब मिलजुल कर रहते हैं. इस बात को 8 साल बीत गए.

बड़े भाई सुनील के भी 2 बच्चे हैं और संजय के भी 2 बच्चे हैं. छोटे भाई  संदीप की भी शादी हो गई. परिवार भी बढ़े और खर्चे भी. मम्मीपापा भी नहीं रहे. अब तक तो बहुत प्यार था परिवार में, लेकिन कहते हैं न कि प्यार भी पैसा मांगता है, पेट भी पैसा मांगता है, पैसे बिना प्यार बेकार लगता है और प्यार से पेट भी नहीं भरता.

संजय ने कश्मीर में नौकरी तलाश की, तो दिल्ली से अच्छी नौकरी उसे कश्मीर में मिल गई और वह अपनी फैमिली के साथ कश्मीर शिफ्ट हो गया.

एक तो पहले से इतना हैंडसम, उस पर कश्मीर की आबोहवा में संजय और भी कातिल हो गया. जहां से निकलता, न जाने कितने दिलों पर छुरियां चलती थीं, कितने दिल घायल होते थे.

संजय परिवार को ले कर कश्मीर चला तो गया, लेकिन भाइयों से दूर रह नहीं सकता था. अकसर 4-6 महीने बाद जरूर मिलने आता और 10-15 दिन यहीं रहता.

लेकिन जब भी आता, महल्ला तो क्या जिसे भी पता चलता कि संजय आया है, सब लड़कियां, जिन की शादी भी हो चुकी थी, फिर भी संजय की एक ?ालक पाने के लिए किसी न किसी बहाने कोई संजय के घर और कोई उस के भाई की दुकान पर आती, ताकि संजय की एक ?ालक मिल जाए.

यह बात संजय भी अच्छे से जानता था और मन ही मन इतराता था, लेकिन आज संजय को दिल्ली आए 8 महीने हो चुके हैं. शुरू में 2 दिन तो बहुत ही औरतें आईं संजय की ?ालक पाने के बहाने (जी हां औरतें, क्योंकि संजय को कश्मीर गए अब तक 17 साल बीत चुके हैं). इन 17 सालों में ऐसा नहीं कि संजय दिल्ली नहीं आया या कभी वे लड़कियां संजय को देखने के बहाने नहीं आईं, मगर अब तक वे सब औरतें बन चुकी हैं न. दोस्तो, तकरीबन संजय और उन सब की उम्र (जो संजय पर मरती थीं) 45 से 50 साल के बीच है, तो औरतें ही कहेंगे न.

हां, तो अब बस 2 ही दिन औरतें आईं उस की ?ालक पाने को, लेकिन अब नहीं आतीं वे, क्योंकि उन से संजय का उतरा हुआ चेहरा देखा नहीं जाता. वे संजय को इस तरह हारा हुआ बरदाश्त नहीं कर पा रहीं, लेकिन फोन पर संजय से बात कर के उसे ढांढ़स बंधा रही हैं, उसे अपनी परेशानी से बाहर निकलने का रास्ता बताती हैं, उसे नई राह पर चलने की सलाह देती हैं, उसे अपने हक के लिए लड़ना सिखाती हैं, क्योंकि संजय ने कभी परिवार में किसी भी चीज को ले कर मेरातेरा किया ही नहीं, वह सबकुछ छोड़ कर कश्मीर चला गया था. वहां उस की अच्छी नौकरी थी, उस ने यहां से पुश्तैनी जायदाद पर कोई हक कभी जताया ही नहीं था. लेकिन आज उसे हक जताने की जरूरत है. आज हक जताने की मजबूरी है, लेकिन फिर भी भाई के सामने उस की बोलने की हिम्मत नहीं होती, इसलिए सब उसे अपने हक के लिए बोलने को कहते हैं.

संजय का कश्मीर में सबकुछ खत्म हो गया है, इसलिए अब वह भाइयों से पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा ले कर नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करना चाहता है.

लेकिन ऐसा क्यों? जानते हैं ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा क्या हुआ संजय के साथ कि उस का खिलता चेहरा मुर?ा गया? ऐसा क्या हुआ, जो उसे भाई से आज इतने सालों बाद अपना हक मांगना पड़ा?

सुनिए, संजय की दर्दभरी दास्तां…

जब संजय ने कश्मीर शिफ्ट किया था, उस की अच्छीभली गृहस्थी चल रही थी, लेकिन कुछ ही समय बाद तकरीबन 4 साल के बाद एक बुरी छाया मंडराई परिवार पर.

जी हां, जब कोई मुसीबत आएगी तो बुरी छाया का मंडराना ही कहेंगे. शालिनी को लगाव हो गया किसी से यानी प्यार हो गया.

अजीब लग रहा है न सुन कर, लेकिन यही सच है. तकरीबन 32-33 साल की शालिनी और इसी उम्र का ही अजय श्रीवास्तव, जो शालिनी के घर से तकरीबन 200-250 मीटर की दूरी पर ही रहता था.

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Holi Special: अधूरी चाह

Holi Special: ये कैसा सौदा- भाग 1

Reeta Kashyap

जैसे ही उस नवजात बच्चे ने दूध के लिए बिलखना शुरू किया वैसे ही सब सहम गए. हर बार उस बदनसीब का रोना सब के लिए तूफान के आने की सूचना देने लगता है, क्योंकि बच्चे के रोने की आवाज सुनते ही संगीता पर जैसे पागलपन का दौरा सा पड़ जाता है. वह चीखचीख कर अपने बाल नोचने लगती है. मासूम रिया और जिया अपनी मां की इस हालत को देख कर सहमी सी सिसकने लगती हैं. ऐसे में विक्रम की समझ में कुछ नहीं आता कि वह क्या करे? उस 10 दिन के नवजात के लिए दूध की बोतल तैयार करे, अपनी पत्नी संगीता को संभाले या डरीसहमी बेटियों पर प्यार से हाथ फेरे.

संगीता का पागलपन हर दिन बढ़ता ही जा रहा है. एक दिन तो उस ने अपने इस नवजात शिशु को उठा कर पटकने की कोशिश भी की थी. दिन पर दिन स्थिति संभलने के बजाय विक्रम के काबू से बाहर होती जा रही थी. वह नहीं जानता था कि कैसे और कब तक वह अपनी मजदूरी छोड़, घर पर रह कर इतने लोगों के भोजन का जुगाड़ कर पाएगा, संगीता का इलाज करवा पाएगा और दीक्षित दंपती से कानूनी लड़ाई लड़ पाएगा. आज उस के परिवार की इस हालत के लिए दीक्षित दंपती ही तो जिम्मेदार हैं.

विक्रम जानता था कि एक कपड़ा मिल में दिहाड़ी पर मजदूरी कर के वह कभी भी इतना पैसा नहीं जमा कर पाएगा जिस से संगीता का अच्छा इलाज हो सके और इस के साथ बच्चों की अच्छी परवरिश, शिक्षा और विवाह आदि की जिम्मेदारियां भी निभाई जा सकें. उस पर कोर्टकचहरी का खर्चा. इन सब के बारे में सोच कर ही वह सिहर उठता. इन सब प्रश्नों के ऊपर है इस नवजात शिशु के जीवन का प्रश्न, जो इस परिवार के लिए दुखों की बाढ़ ले कर आया है जबकि इसी नवजात से उन सब के जीवन में सुखों और खुशियों की बारिश होने वाली थी. पता नहीं कहां क्या चूक हो गई जो उन के सब सपने टूट कर ऐसे बिखर गए कि उन टूटे सपनों की किरचें इतनी जिंदगियों को पलपल लहूलुहान कर रही हैं.

कोई बहुत पुरानी बात नहीं है. अभी कुछ माह पहले तक विक्रम का छोटा सा हंसताखेलता सुखी परिवार था. पतिपत्नी दोनों मिल कर गृहस्थी की गाड़ी बखूबी चला रहे थे. मिल मजदूरों की बस्ती के सामने ही सड़क पार धनवानों की आलीशान कोठियां हैं. उन पैसे वालों के घरों में आएदिन जन्मदिन, किटी पार्टियां जैसे छोटेबड़े समारोह आयोजित होते रहते हैं. ऐसे में 40-50 लोगों का खाना बनाने के लिए कोठियों की मालकिनों को अकसर अपने घरेलू नौकरों की मदद के लिए खाना पकानेवालियों की जरूरत रहती है. संगीता इन्हीं घरेलू अवसरों पर कोठियों में खाना बनाने का काम करती थी. ऐसे में मिलने वाले खाने, पैसे और बख्शिश से संगीता अपनी गृहस्थी के लिए अतिरिक्त  सुविधाएं जुटा लेती थी.

पिछले साल लाल कोठी में रहने वाले दीक्षित दंपती ने एक छोटे से कार्यक्रम में खाना बनाने के लिए संगीता को बुलाया था. संगीता सुबहसुबह ही रिया और जिया को अच्छे से तैयार कर के अपने साथ लाल कोठी ले गई थी. उस दिन संगीता और उस की बेटियां ढेर सारी पूरियां, हलवा, चने, फल, मिठाई, पैसे आदि से लदी हुई लौटी थीं. तीनों की जबान श्रीमती दीक्षित का गुणगान करते नहीं थक रही थी. उन की बातें सुन कर विक्रम ने हंसते हुए कहा था, ‘‘सब पैसों का खेल है. पैसा हो तो दुनिया की हर खुशी खरीदी जा सकती है.’’

संगीता थोड़ी भावुक हो गई. बोली, ‘‘पैसे वालों के भी अपने दुख हैं. पैसा ही सबकुछ नहीं होता. पता है करोड़ों में खेलने वाले, बंगले और गाडि़यों के मालिक दीक्षित दंपती निसंतान हैं. शादी के 15 साल बाद भी उन का घरआंगन सूना है.’’

‘‘यही दुनिया है. अब छोड़ो इस किस्से को. तुम तीनों तो खूब तरमाल उड़ा कर आ रही हो. जरा इस गरीब का भी खयाल करो. तुम्हारे लाए पकवानों की खुशबू से पेट के चूहे भी बेचैन हो रहे हैं,’’ विक्रम ने बात बदलते हुए कहा.

संगीता तुरंत विक्रम के लिए खाने की थाली लगाने लगी और रिया और जिया अपनेअपने उपहारों को सहेजने में लग गईं.

अगले ही दिन श्रीमती दीक्षित ने अपने नौकर को भेज कर संगीता को बुलवाया था. संदेश पाते ही संगीता चल दी. वह खुश थी कि जरूर कोठी पर कोई आयोजन होने वाला है. ढेर सारा बढि़या खाना, पैसे, उपहारों की बात सोचसोच कर उस के चेहरे की चमक और चाल में तेजी आ रही थी.

संगीता जब लाल कोठी पहुंची तो उसे मामला कुछ गड़बड़ लगा. श्रीमती दीक्षित बहुत उदास और परेशान सी लगीं. संगीता ने जब बुलाने का कारण पूछा तो वे कुछ बोली नहीं, बस हाथ से उसे बैठने का इशारा भर किया. संगीता बैठ तो गई लेकिन वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही. फिर धीरे से अपने आंसू पोंछते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारी शादी को 15 साल हो गए लेकिन हमें कोई संतान नहीं है. इस बीच 2 बार उम्मीद बंधी थी लेकिन टूट गई. विदेशी डाक्टरों ने बहुत इलाज किया लेकिन निराशा ही हाथ लगी. अब तो डाक्टरों ने भी साफ शब्दों में कह दिया कि कभी मां नहीं बन पाऊंगी. संतान की कमी हमें भीतर ही भीतर खाए जा रही है.’’

संगीता को लगा श्रीमती दीक्षित ने अपना मन हलका करने के लिए उसे बुलवाया है. संगीता तो उन का यह दर्द कल ही उन की आंखों में पढ़ चुकी थी. वह सबकुछ चुपचाप सुनती रही.

‘‘संगीता, तुम तो समझ सकती हो, मां बनना हर औरत का सपना होता है. इस अनुभव के बिना एक औरत स्वयं को अधूरा समझती है.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं बीबीजी, आप तो पढ़ीलिखी हैं, पैसे वाली हैं. कोई तो ऐसा रास्ता होगा जो आप के सूने जीवन में बहार ले आए?’’ श्रीमती दीक्षित के दुख में दुखी संगीता को स्वयं नहीं पता वह क्या कह रही थी.

‘‘इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है,’’ कह कर श्रीमती दीक्षित चुप हो गईं.

‘‘मैं…मैं…भला आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’ संगीता असमंजस में पड़ गई.

‘‘तुम अपनी छोटी बेटी जिया को मेरी झोली में डाल दो. तुम्हें तो कुदरत ने 2-2 बेटियां दी हैं,’’ श्रीमती दीक्षित एक ही सांस में कह गईं.

यह सुनते ही जैसे संगीता के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. उस का दिमाग जैसे सुन्न हो चला था. वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई, ‘‘बीबीजी, आप मुझ गरीब से कैसा मजाक कर रही हैं?’’

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