कलंक- भाग 1: बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उस रात 9 बजे ही ठंड बहुत बढ़ गई थी. संजय, नरेश और आलोक ने गरमाहट पाने के लिए सड़क के किनारे कार रोक कर शराब पी. नशे के चलते सामने आती अकेली लड़की को देख कर उन के भीतर का शैतान जागा तो वे उस लड़की को छेड़ने से खुद को रोक नहीं पाए.

‘‘जानेमन, इतनी रात को अकेली क्यों घूम रही हो? किसी प्यार करने वाले की तलाश है तो हमें आजमा लो,’’ आसपास किसी को न देख कर नरेश ने उस लड़की को ऊंची आवाज में छेड़ा.

‘‘शटअप एंड गो टू हैल, यू बास्टर्ड,’’ उस लड़की ने बिना देर किए अपनी नाराजगी जाहिर की.

‘‘तुम साथ चलो तो ‘हैल’ में भी मौजमस्ती रहेगी, स्वीटहार्ट.’’

‘‘तेरे साथ जाने को पुलिस को बुलाऊं?’’ लड़की ने अपना मोबाइल फोन उन्हें दिखा कर सवाल पूछा.

‘‘पुलिस को बीच में क्यों ला रही हो मेरी जान?’’

‘‘पुलिस नहीं चाहिए तो अपनी मां या बहनों…’’

वह लड़की चीख पाती उस से पहले ही संजय ने उस का मुंह दबोच लिया और झटके से उस लड़की को गोद में उठा कर कार की तरफ बढ़ते हुए अपने दोस्तों को गुस्से से निर्देश दिए, ‘‘इस ‘बिच’ को अब सबक सिखा कर ही छोड़ेंगे. कार स्टार्ट करो. मैं इस की बोटीबोटी कर दूंगा अगर इस ने अपने मुंह से ‘चूं’ भी की.’’

आलोक कूद कर ड्राइवर की सीट पर बैठा और नरेश ने लड़की को काबू में रखने के लिए संजय की मदद की. कार झटके से चल पड़ी.

उस चौड़ी सड़क पर कार सरपट भाग रही थी. संजय ने उस लड़की का मुंह दबा रखा था और नरेश उसे हाथपैर नहीं हिलाने दे रहा था.

‘‘अगर अब जरा भी हिली या चिल्लाई तो तेरा गला दबा दूंगा.’’

संजय की आंखों में उभरी हिंसा को पढ़ कर वह लड़की इतना ज्यादा डरी कि उस का पूरा शरीर बेजान हो गया.

‘‘अब कोई किसी का नाम नहीं लेगा और इस की आंखें भी बंद कर दो,’’ आलोक ने उन दोनों को हिदायत दी और कार को तेज गति से शहर की बाहरी सीमा की तरफ दौड़ाता रहा.

एक उजाड़ पड़े ढाबे के पीछे ले जा कर आलोक ने कार रोकी. उन की धमकियों से डरी लड़की के साथ मारपीट कर के उन तीनों ने बारीबारी से उस लड़की के साथ बलात्कार किया.

लड़की किसी भी तरह का विरोध करने की स्थिति में नहीं थी. बस, हादसे के दौरान उस की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू बहते रहे थे.

लौटते हुए संजय ने लड़की को धमकाते हुए कहा, ‘‘अगर पुलिस में रिपोर्ट करने गई, तो हम तुझे फिर ढूंढ़ लेंगे, स्वीटहार्ट. अगर हमारी फिर मुलाकात हुई तो तेजाब की शीशी होगी हमारे हाथ में तेरा यह सुंदर चेहरा बिगाड़ने के लिए.’’

तीनों ने जहां उस लड़की को सड़क पर उतारा. वहीं पास की दीवार के पास 4 दोस्त लघुशंका करने को रुके थे. अंधेरा होने के कारण उन तीनों को वे चारों दिखाई नहीं दिए थे.

धुंधली तस्वीरें

करमवती

प्यार की तलाश- भाग 1 : अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

मेरी कक्षा में पढ़ने वाली नीतू मेरे बैंच से दाईं वाली पंक्ति में, 2 बैंच आगे बैठती थी. वह दिखने में साधारण थी पर उस में दूसरों से हट कर कुछ ऐसा आकर्षण था कि जब मैं ने पहली बार उसे देखा तो बस देखता ही रह गया… वह अपनी सहेलियों के साथ हंसतीखिलखिलाती रहती और मैं उसे चोरीछिपे देखता रहता.

नीतू मेरी जिंदगी में, उम्र के उस मोड़ पर जिसे किशोरावस्था कहते हैं और जो जवानी की पहली सुबह के समान होती है, उस सुबह की रोशनी बन कर आई थी वह. उस सुखद परिवर्तन ने मेरे जीवन में जैसे रंग भर दिया था. मैं हमेशा अपने में मस्त रहता. पढ़ाई में भी मेरा ध्यान पहले से अधिक रहता. मम्मीपापा टोकते, उस से पहले ही मैं पढ़ने बैठ जाता और सुबहसुबह स्कूल जाने के लिए हड़बड़ा उठता.

आज सोचता हूं तो लगता है, काश, वक्त वहीं ठहर जाता. नीतू मुझ से कभी जुदा न होती, पर जीवन के सुनहरे दिन, कितने जल्दी बीत जाते हैं. मेरा स्कूली जीवन कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला.

मैट्रिक की परीक्षा के बाद, नीतू जैसे हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो गई. मैं उस के घर का पता जानता था, लेकिन जब यह पता चला कि नीतू कालेज की पढ़ाई के लिए अपने मामा के यहां चली गई है तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया. मेरे पास कुछ था तो बस उस की यादें, उस के लिखे खत और स्कूल में मिली वह तसवीर, जिस में साथ पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी और शिक्षक एक कतार में खड़े थे और नीतू एक कोने में खड़ी मुसकरा रही थी.

मैं नीतू की यादों में खोया, डायरी के पन्ने पलटता जा रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक सुन कर चौंक गया. नजरें उठा कर देखा तो सामने सुनयना खड़ी थी. अचानक उसे देख कर मैं हड़बड़ा गया, ‘‘कहिए, क्या बात है?’’ मैं ने डायरी बंद करते हुए कहा.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं…’’ सुनयना मेरी मनस्थिति भांप कर मुसकराते हुए बोली.

‘‘हां… हां, आइए न बैठिए,’’ मैं ने जैसे शरमा कर कहा.

‘‘मैं ने आप को डिस्टर्ब कर दिया. शायद आप कुछ लिख रहे थे…’’ सुनयना डायरी की ओर देख रही थी.

‘‘बस डायरी है…’’ मैं ने डायरी पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, आप डायरी लिखते हैं, क्या मैं देख सकती हूं?’’ सुनयना की आंखों में पता नहीं क्यों चमक आ गईर् थी.

‘‘किसी की पर्सनल डायरी नहीं देखनी चाहिए,’’ मैं ने मुसकरा कर मना करने के उद्देश्य से कहा क्योंकि वैसे भी वह डायरी मैं उसे नहीं दिखा सकता था.

‘‘क्या हम इतने गैर हैं?’’ सुनयना नाराज तो नहीं लग रही थी पर अपने चिरपरिचित अंदाज में मुंह बना कर बोली.

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा,’’ मैं ने फिर मुसकराने का प्रयास किया.

‘‘खैर, छोडि़ए. पर कभी तो मैं आप की डायरी पढ़ कर ही रहूंगी,’’ सुनयना के चेहरे पर अब बनावटी नाराजगी थी. उस ने अपनी झील जैसी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे घूरते हुए कहा, ‘‘…अभी चलिए, आप को बुलाया जा रहा है.‘‘

बैठक में भैयाभाभी सभी बैठे हुए थे. अंत्याक्षरी खेलने का कार्यक्रम बनाया गया था पर मेरा मन तो कहीं दूर था, लेकिन मना कैसे करता? न चाह कर भी खेलने बैठ गया. सुनयना पूरे खेल के दौरान, अपने गीतों से मुझे छेड़ने का प्रयास करती रही.

सुनयना मेरी भाभी की छोटी बहन थी. अपने नाम के अनुरूप ही उस की गहरी नीली झील सी आंखें थीं. वह थी भी बहुत खूबसूरत. उस के चेहरे से हमेशा एक आभा सी फूटती नजर आती. उस के काले, घने, चमकदार बाल कमर तक अठखेलियां करते रहते. वह हमेशा चंचल हिरनी के समान फुदकती फिरती. वह बहुत मिलनसार और बिलकुल खुले दिल की लड़की थी. यही वजह थी कि उसे सब बहुत पसंद करते थे और मजाक में ही सही, पर सभी ये कहते, इस घर की छोटी बहू कोई बनेगी तो सिर्फ सुनयना ही बनेगी. मैं सुन कर बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप रह जाता पर कभीकभार ऐसा लगता जैसे मेरी इच्छा, मेरी भावनाओं से किसी को कोईर् लेनादेना नहीं है पर मैं दोष देता तो किसे देता. किसी को तो पता ही नहीं था कि मेरे दिल में जो लड़की बसी है, वह सुनयना नहीं नीतू है.

प्यार की तलाश- भाग 3 : अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

मेरा मन घृणा और दुख से भर उठा. मैं किसी तरह खुद को संभालते हुए अखबार को कुरसी पर ही रख कर, धीरेधीरे उठा और अपने कमरे में जा कर फिर बिस्तर पर लुढ़क गया. ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे मेरे अंदर थोड़ी सी भी जिजीविषा शेष न हो, जैसे मैं दुनिया का सब से दीन आदमी हूं, आंखों से अपनेआप आंसू छलके जा रहे थे.

सामने टेबल पर वही तसवीर थी. जिस में नीतू अब भी मेरी ओर देख कर मुसकरा रही थी, जैसे मेरे जज्बातों से मेरे दिल के दर्द से, उसे कोईर् लेनादेना न हो. जी में आया तसवीर को उठा कर खिड़की से बाहर फेंक दूं कि तभी मां चाय ले कर आ गईं, ‘’अरे, तू फिर सो रहा है क्या? अभी तो पेपर पढ़ रहा था.‘’

मैं ने झटपट अपने चेहरे पर हाथ रख कर पलकों पर उंगलियां फिराते हुए अपने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘’नहीं, सिर थोड़ा भारी लग रहा है.‘’

‘‘रात को देर से सोया होगा. पता नहीं रातरात भर जाग कर क्या लिखता रहता है? ले, चाय पी ले, इस से थोड़ी राहत मिलेगी,‘‘ चाय का कप हाथ में थमा कर

मेरे माथे पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते हुए मां ने कहा, ‘‘तेल ला कर थोड़ी मालिश कर देती हूं.’

‘‘नहीं ठीक है, मां, वैसा दर्द नहीं है. शायद देर से सोया था. इसलिए ऐसा लग रहा है,‘‘ मैं ने फिर बात बना कर कहा.

मां जब कमरे से निकल गईं तो मैं किसी तरह अपनेआप को समझाने की कोशिश करने लगा. पर दिल में उठ रही टीस, जैसे बढ़ती ही जा रही थी. मन कह रहा था, जा कर एक बार उस बेवफा से मिल आओ. आखिर उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्या वह इंतजार नहीं कर सकती थी? उन वादों, कसमों को वह कैसे भूल गई, जो हम ने स्कूल से विदाई की उस आखिरी घड़ी में, एकदूसरे के सामने खाई थीं.

न चाहते हुए भी मेरे मन में, रहरह कर सवाल उठ रहे थे. अपनेआप को समझाना जैसे मुश्किल होता जा रहा था. मन की पीड़ा जब बरदाश्त से बाहर होने लगी तो मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया. उसी वक्त अचानक भाभी मेरे कमरे में आईं. उन्हें अचानक सामने देख कर मैं घबरा गया. किसी तरह अपने मनोभाव छिपा कर मैं बिस्तर से उठा.

कुछ देर पहले भाभी के मायके से फोन आया था. सुनयना की तबीयत बहुत खराब थी. वह कल ही तो यहां से गई थी. अचानक पता नहीं उसे क्या हो गया? भाभी काफी चिंतित थीं. भैया को औफिस के जरूरी काम से कहीं बाहर जाना था इसलिए मुझे भाभी के साथ सुनयना को देखने जाना पड़ा.

सुनयना बिस्तर पर पड़ी हुई थी. कुछ देर पहले डाक्टर दवा दे गया था. वह अभी भी बुखार से तप रही थी. उस की आंखें सूजी हुई थीं, देख कर ही लग रहा था, जैसे वह रातभर रोई हो.

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मैं सामने कुरसी पर चुपचाप बैठा था. भाभी उस के पास बैठीं, उस के बालों को सहला रही थीं. सुनयना बोली तो कुछ नहीं, पर उस की आंखों से छलछला रहे आंसू पूरी कहानी बयान कर रहे थे. सारा माजरा समझ कर भाभी मुझे किसी अपराधी की तरह घूरने लगीं. मैं सिर झुकाए चुपचाप बैठा था. कुछ देर बाद, भाभी कमरे से निकल गईं.

कमरे में सिर्फ हम दोनों थे. सुनयना जैसे शून्य में कुछ तलाश रही थी. उसे देख कर मेरी आंखों में भी आंसू आ गए. अचानक महसूस हुआ कि यदि अब भी मैं ने सामने स्थित जलाशय को ठुकरा कर मृगमरीचिका के पीछे भागने का प्रयास किया तो शायद अंत में पछतावे के सिवा मेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा. मैं ने बिना देर किए सुनयना के पास जा कर, याचना भरे स्वर में कहा, ‘‘सुनयनाजी, मैं ने आप से जो कहा था, वह मेरा भ्रम था. मैं ने बचपन के खेल को प्यार समझ लिया था. मुझे आज ही पता चला कि उस लड़की ने एक दूसरे लड़के से प्रेम विवाह कर लिया है. मैं नादानी में आप से पता नहीं क्याक्या कह गया…‘’

सुनयना अपनी डबडबाई आंखों से अब भी शून्य में निहार रही थी. कुछ देर रुक कर, मैं ने फिर कहा, ‘‘कुदरत जिंदगी में सब को सच्चा हमदर्द देती है पर अकसर हम उसे ठुकरा देते हैं. मैं ने भी शायद, ऐसा ही किया है. लड़कपन से अब तक ख्वाबों के पीछे भागता रहा,’’ मेरा गला भर आया था.

सुनयना मुझे टुकुरटुकुर देख रही थी. उस की आंखों से टपकते आंसू उस के गालों पर लुढ़क रहे थे. मुझे पहली बार उस की आंखों में अपने लिए प्यार नजर आ रहा था.

मैं ने किसी छोटे बच्चे की तरह भावुक हो कर कहा, ‘‘देखो, मुझे मत ठुकराना, वरना मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ और हाथ बढा़ कर उस के गालों को छू रहे आंसुओं को पोंछने लगा.

सुनयना के होंठ कुछ कहने के प्रयास में थरथरा उठे. पर जब वह कुछ बोल न पाई तो अचानक मुझ से लिपट कर जोरजोर से सुबकने लगी. मैं ने भी उसे कस कर अपनी बांहों में भर लिया. हम दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं सोच रहा था, ‘मुझे अब तक क्यों पता नहीं चला कि हमेशा चंचल, बेफिक्र और नादान सी दिखने वाली इस लड़की के दिल में मेरे लिए इतना प्यार छिपा था.’

भाभी दरवाजे के पास खड़ीं मुसकरा रही थीं. पर उन की आंखों में भी खुशी के आंसू थे.

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प्यार की तलाश- भाग 2 : अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

दूसरे दिन सुनयना वापस जा रही थी. भाभी ने आ कर मुझे उसे घर तक छोड़ने को कहा. मैं जान रहा था, यह मेरे और सुनयना को ले कर घर वालों के मन में जो खिचड़ी पक रही है, उसी साजिश का हिस्सा है पर अंदर ही अंदर मैं खुश भी था… मैं मन ही मन सोच रहा था, ’आज रास्ते में सुनयना के सामने सारी बातें स्पष्ट कर दूंगा.’

सुनयना मेरे पीछे चिपक कर बैठी हुई थी. मैं आदतन सामान्य गति से मोटरसाइकिल चला रहा था. वह अपनी हरकतों से मुझे बारबार छेड़ने का प्रयास कर रही थी. मैं चाह कर भी उसे टोक नहीं पा रहा था. वह बीचबीच में ‘नदिया के पार’ फिल्म का गाना गुनगुनाने लगती और रास्तेभर तरहतरह की बातों से मुझे उकसाने का प्रयास करती रही. पर मैं थोड़ाबहुत जवाब देने के अलावा बस, कभीकभार मुसकरा देता.

जब हम शहर की भीड़भाड़ से बाहर, खुली सड़क पर निकले तो दृश्य भी ‘नदिया के पार’ फिल्म के जैसा ही था, बस अंतर इतना था कि मेरे पास ‘बैलगाड़ी’ की जगह मोटरसाइकिल थी. सड़क के दोनों किनारे कतार में खड़े बड़ेबड़े पेड़ थे. सामने दोनों तरफ खेतों में लहलहाती फसलें और वनों से आच्छादित पहाडि़यों की शृंखलाएं नजर आ रही थीं.

बड़ा ही मनोरम दृश्य था. मेरा मन अनायास ही उमंग से भर उठा. लगा जैसे सुनयना का साथ दे कर मैं भी कोई गीत गुनगुनाऊं. पर अचानक नीतू का खयाल आते ही मैं फिर से गंभीर हो उठा. मैं ने मन ही मन सोचा कि मुझे नीतू के बारे में सुनयना को स्पष्ट बता देना चाहिए. पर पता नहीं क्यों मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा. बहुत कोशिश के बाद, किसी तरह खुद को संयत करते हुए मैं ने कहा, ‘‘सुनयनाजी, मैं आप से एक बात कहना चाहता हूं.’’

‘‘जी…’’ शायद सुनयना ठीक से सुन नहीं पाई थी.

मैं ने मोटरसाइकिल की गति, धीमी करने के बाद, फिर से कहा, ‘‘मैं आप से एक बात कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कोई सीरियस बात है?’’ सुनयना कुछ इस तरह मजाकभरे लहजे में बोली, जैसे मेरे जज्बातों से वह अच्छी तरह वाकिफ हो.

मगर मैं जो कहने जा रहा था, शायद उस से उस का दिल टूट जाने वाला था. सो मैं ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘मैं आप को जो बताने जा रहा हूं, मैं ने आज तक किसी से नहीं कहा है. दरअसल, मैं एक लड़की से प्यार करता हूं. उस लड़की का नाम नीतू है. वह मेरे साथ पढ़ती थी. हम दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं और मैं उसी से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘आप कहीं मजाक, तो नहीं कर रहे…’’ सुनयना को मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ.

‘‘यह मजाक नहीं, सच है,’’ मैं ने फिर गंभीर हो कर कहा, ‘‘मैं यह बात बहुत पहले सब को बता देना चाहता था पर कभी हिम्मत नहीं कर पाया. दरअसल, मैं इस बात से डर जाता था कि कहीं घर वाले यह न समझ लें कि मैं पढ़नेलिखने की उम्र में भटक गया हूं. पर अब मेरे सामने कोई मजबूरी नहीं है. मैं अपने पैरों पर खड़ा हो चुका हूं.‘‘

‘‘शशिजी, आप सचमुच बहुत भोले हैं,’’ इस बार सुनयना के लहजे में भी गंभीरता थी, वह मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, ‘‘एक तरफ आप प्यार की बातें करते हैं और दूसरी तरफ रिऐक्शन के बारे में भी सोचते हैं. ये बात आप को बहुत पहले सब को बता देनी चाहिए थी. मुझे पूरी उम्मीद है कि आप की पसंद सब को पसंद आएगी. फिर बात जब शादी की हो तो मेरे विचार से अपने दिल की ही बात सुननी चाहिए. चूंकि यह पल दो पल का खेल नहीं, जिंदगीभर का सवाल होता है.’’ सुनयना सहजता से बोल गई. ऐसा लग रहा था, जैसे मेरे मन की बात जान कर उसे कोई खास फर्क न पड़ा हो.

इस तरह उस के सहयोगात्मक भाव से मेरे दिल का बोझ जो एक तरह से उस को ले कर था, उतरता चला गया.

सुनयना को घर छोड़ कर लौटते वक्त मेरे मन में हलकापन था. लेकिन अंदर कहीं एक खामोशी भी छाई हुई थी. पता नहीं क्यों? सुनयना की आंखों से जो दर्द, विदा लेते वक्त झलका था, मुझे बारबार अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

रात को खाना खा कर मैं जल्दी ही बिस्तर पर लेट गया क्योंकि सुबह किसी भी हालत में मुझे नीतू के  पास जाना था. लेकिन नींद आ ही नहीं रही थी. बस करवटें बदलता रहा. मन में तरहतरह के विचार आजा रहे थे. इसी उधेड़बुन में कब नींद आ गई, पता ही न चला.

सुबह घर के सामने स्थित पीपल के पेड़ से आ रही चिडि़यों की चहचहाट से मेरी नींद खुली. चादर हटा कर देखा, प्र्रभात की लाली खिड़की में लगे कांच से छन कर कमरे के अंदर आ रही है. आज शायद मैं देर से सोने के बावजूद जल्दी उठ गया था क्योंकि देर होने पर मां जगाने जरूर आती थीं. मैं उठ कर चेहरे पर पानी छिड़क कर, कुल्ला कर के अपने कमरे से निकला.

बैठक में मेज पर अखबार पड़ा हुआ था. आदतन अखबार ले कर कुरसी पर बैठ गया और हमेशा की तरह खबरों की हैडलाइन पढ़ते हुए अखबार के पन्ने पलटने लगा. तभी अचानक मेरी नजर अखबार में छपी एक खबर पर अटक गई. मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘थाना परिसर में प्रेमीप्रेमिका परिणयसूत्र में बंधे.’ हैडलाइन पढ़ कर मेरा दिल धक से रह गया, ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,‘ मैं ने सोचा.

खबर कोई अनोखी या विचित्र थी, ऐसी बात न थी, लेकिन जो तसवीर छपी थी मैं ने एक दीर्घ श्वास ले कर पढ़ना शुरू किया. वह नीतू ही थी. खबर में उस के घर का पताठिकाना स्पष्ट रूप से लिखा था. यहां तक कि वह लड़का भी उस के मामा  के महल्ले का ही था. दोनों के बीच 2 साल से प्रेम चल रहा था. घर वालों के विरोध के चलते दोनों भाग कर थाने आ गए थे.

खबर पढ़ कर मैं सन्न रह गया. मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि नीतू ऐसा कर सकती है. मैं ने मन ही मन अपनेआप से ही प्रश्न किया, ‘अगर इस लड़के के साथ, यह उस का प्रेम है तो 4-5 साल पहले मेरे साथ जो हुआ था, वह क्या था? क्या 4-5 साल का अंतराल किसी के दिल से किसी की याद, किसी का प्यार भुला सकता है? मैं उसे हर दिन, हर पल याद करता रहा, उस की तसवीर अपने सीने से लगाए रहा और उस ने मेरे बारे में तनिक भी न सोचा. क्या प्यार के मामले में भी किसी का स्वभाव ऐसा हो सकता है कि उस पर विश्वास करने वाला अंत में बेवकूफ बन कर रह जाए? मैं ने तो अब तक सुना था, प्यार का दूसरा नाम, इंतजार भी होता है पर उस ने मेरा इंतजार नहीं किया.’

 

बंधन टूट गए

बंधन टूट गए : भाग 3

पर कालिंदी उस की बात ही नहीं मान रही थी, मानो वह अपने बाड़े से निकलना ही नहीं चाह रही हो. सुहानी देवी कुछ देर तक यह सब देखती रही, पर जब उस से नहीं रहा गया तो खुद उस नौजवान के पास गई और बोली, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है और इसे क्यों घसीट रहे हो?’’ ‘‘मालकिन, मेरा नाम बातुल है. मालिक ने मुझे जानवरों की साफसफाई के लिए रखा है.’’ ‘‘यह क्या कर रहे हो?’’ उस नौजवान ने बड़े अदब से जवाब दिया, ‘‘दरअसल, कालिंदी ने इस रस्सी को अपने गले में उलझा लिया है. हम इसे बाहर ला कर इस के बंधन को सुलझाना चाहते हैं, पर यह है कि अपने फंदे में ही फंसी रहना चाह रही है. यह खुद भी परेशान है, पर फिर भी निकलना नहीं चाहती.’’ बातुल की बातें सुहानी देवी के कानों से टकराईं और सीधा उस के मन में उतरती चली गईं. ‘‘ठीक है, ठीक है… पर यह नाम बड़ा अजीब सा है, बातुल…’’ बोलते हुए हंस पड़ी थी सुहानी. बातुल ने बताया कि उसे बचपन से ही बहुत बोलने की आदत है,

इसलिए गांव में सब उसे ‘बातुल’ कह कर ही बुलाते हैं. बातोंबातों में बातुल ने यह भी बताया कि गांव वापस आने से पहले वह शहर में भी काम कर चुका है. बातुल के मुंह से शहर का नाम सुन कर सुहानी देवी के मन में जैसे कुछ जाग उठा था. बातुल के रूप में ठकुराइन को बात करने वाला कोई मिल गया था. ठाकुर भवानी सिंह के जाने के बाद सुहानी देवी अपनी सास से कुछ बहाना कर के हवेली की छत पर चली जाती और बातुल को काम करते देखती रहती और फिर खुद ही बातुल से कुछ न कुछ काम बताती. आज ठाकुर साहब सुबहसुबह ही शहर चले गए और बातुल को शाम के लिए मछली लाने को बोल गए. दोपहर में बातुल अपने कंधे पर मछली पकड़ने वाला जाल ले कर आता दिखा. उस में कई सारी मछलियां फंसी हुई थीं और तड़प रही थीं. बातुल ने जाल जमीन पर पटक दिया और सभी मछलियों को निकाल कर पास ही बने एक कच्चे गड्ढे में डाल दिया और उस में ऊपर तक पानी भर दिया, ताकि वे सब शाम तक जिंदा रहें और ठाकुर साहब के आने पर उन्हें पकाया जा सके.

सुहानी देवी ने देखा कि जो मछलियां अब तक पानी के बिना तड़प रही थीं, वे पानी पाते ही कितनी तेज तैर रही थीं मानो उन्होंने जिंदगी ही पा ली हो. सुहानी देवी अभी मछलियों को देख ही रही थी कि तेज बारिश शुरू हो गई. सुहानी देवी ने आवाज लगा कर बातुल को हवेली के अंदर आने को कहा और खुद बारिश का मजा लेने लगी. बारिश मूसलाधार हो रही थी. चारों तरफ पानी भर गया था और उस मछली वाले गड्ढे और बाहर आंगन में पानी का लैवल बराबर हो जाने के चलते गड्ढे की मछलियां जलधारा के साथ बाहर बह चली थी. यह सीन देख कर सुहानी देवी भूल गई थी कि वह एक ठकुराइन है. वह खुश हो कर ताली बजाने लगी और बातुल के कंधे पर हाथ रख दिया. एक ठकुराइन के छुए जाने के चलते एकसाथ कई सवाल बातुल की आंखों में तैर गए थे और उस की नसों में दौड़ते खून की तेजी में उतारचढ़ाव आने लगा था. बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

सुहानी देवी का मन किया कि वह बाहर आंगन में जा कर भीगे, अपने सारे गहने उतार कर नहाए, पर ठकुराइन की मर्यादा ने उसे रोके रखा था. ठाकुर शहर से वापस नहीं लौटेंगे, क्योंकि बारिश तेज है और बातुल को भी इसी वजह से आज हवेली में ही रुकना होगा. सास सो गई थीं. बातुल खाना खा कर हवेली के नीचे वाले हिस्से में सोने चला गया था. सुहानी देवी ने सोने से पहले अपने कमरे का दरवाजा जानबूझ कर क्यों खुला छोड़ दिया था, इस का जवाब खुद उस के पास भी नहीं था. उसी दरवाजे से दबे पैर कोई आया और सीधा सुहानी देवी से लिपट गया. वह भी किसी लता की तरह लिपट गई और फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘हां, जैसे तुम जानती नहीं…’’ उस की यह बात सुन कर सुहानी देवी ने बातुल का सिर अपने सीने के बीचोंबीच भींच लिया और दोनों सैक्स का मजा लेने लगे. एक बार, 2 बार… 3 बार… न जाने कितनी बार हवेली के उस कमरे में ज्वालामुखी का उबाल आया था. आज वहां ऊंचनीच और जातिधर्म की दीवार गिर गई थी. सुहानी देवी को बातुल से प्यार हो गया था. उस दिन के बाद से तो न जाने कितनी बार बातुल और सुहानी देवी ने अपने इस प्यार को भोगा था. अगले दिन सुहानी देवी फिर से भारी गहनों और कपड़ों में लदी हुई थी. बातुल आया, तो उस के एक हाथ में सांप की केंचुली थी.

‘‘यह क्या है?’’ सुहानी ने पूछा. ‘‘केंचुली है ठकुराइन… जब यह पुरानी हो जाती है, तो सांप इस में एक बंधन महसूस करता है और ठीक समय पर वह पुरानी केंचुली को उतार फेंक छुटकारे का अहसास करता है.’’ सुहानी देवी बातुल की बातों को सुन रही थी. उस के दिमाग में बंधन, मुक्ति जैसे शब्द लगातार गूंज रहे थे. 2 दिन बाद ठाकुर भवानी सिंह शहर से लौटे थे. वे सुहानी देवी के लिए सच्चे मोतियों का एक हार लाए थे. उन्होंने वह हार सुहानी देवी के गले में डाल दिया, पर उस के चेहरे को देखा तक नहीं. ठाकुर भवानी सिंह अपने चमचों के बीच बैठ कर रैडलाइट एरिया की बातें करते रहते. इस बार उन के मुंह से कुछ औरतों के नाम भी निकल रहे थे. एक अनजाने सौतिया डाह में जल उठी थी सुहानी देवी. ‘‘अगर गंदे एरिया में जा कर रासरंग ही करना था ठाकुर को तो फिर मुझ से ब्याह ही क्यों रचाया? मैं परंपरा निभाने और दिखावे के लिए मात्र एक गुडि़या की तरह हूं,’’ गुस्से की ज्वाला धधक उठी थी सुहानी देवी के मन में.

ठाकुर भवानी सिंह का शहर जा कर रैडलाइट एरिया में मजे करना बदस्तूर जारी रहा, पर अब सुहानी देवी को भी इस बात की कोई चिंता नहीं थी. उसे तो बातुल के रूप में एक प्यार करने वाला मिल गया था, जिस से वह अपने मन का हर दर्द कह सकती थी और उस की बांहों में अपने अंदर की औरत को महसूस कर सकती थी. पर, आज पूरे 3 दिन बीत गए थे, बातुल हवेली की दहलीज पर सलाम बजाने भी नहीं आया था. ‘कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया बातुल के साथ?’ सुहानी देवी का बेचैन मन बारबार हवेली के दरवाजे की तरफ देख रहा था. रात हो चली थी.

ठाकुर को तो आज आना नहीं था. बातुल से बात करने का मन कर रहा था, उस की खैरियत की भी चिंता हो रही थी. लिहाजा, सास के सो जाने के बाद सुहानी देवी पिछले दरवाजे से बाहर निकली और सीधा बातुल के घर के बाहर जा पहुंची. दरवाजा अंदर से बंद था, पर भीतर से बातुल की आवाज बाहर तक आ रही थी. सुहानी देवी ने दरवाजे की झिर्री से आंख सटा दी. अंदर का सीन देख कर वह दंग रह गई थी. बातुल किसी दूसरी औरत से मजे ले रहा था. ‘‘ठकुराइन ने मुझे बहुत मजा दिया, बहुत मस्त थी उस की जवानी… ठाकुर की रैडलाइट एरिया में मुंह मारने की आदत का मैं ने खूब फायदा उठाया…’’ ‘‘इस का मतलब… तुम नमकहराम हो. जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया,’’ बातुल की बांहों में लेटी औरत ने कहा. ‘‘नहीं, मैं एक व्यापारी हूं… जिसे जो चाहिए था, मैं ने उसे वह दिया और फिर ठाकुर भी तो शहर में जा कर मुंह मारता है, तो मैं नमकहराम कैसे?’’

 

बंधन टूट गए : भाग 1

यह जोड़ी बहुत ही बेमेल थी. 50 साल के ठाकुर भवानी सिंह तो 25 साल की ठकुराइन सुहानी देवी. बेमेल भले ही हो, पर लोगों की नजरों में तो यही जोड़ी सब से बेजोड़ थी, क्योंकि ठाकुर भवानी सिंह 50 साल के हो कर भी दमखम के मामले में किसी जवान लड़के को मात देते थे और ठकुराइन सुहानी देवी का रूप अपनी हद पर था. ठाकुर भवानी सिंह की पहली पत्नी 5 साल पहले ही चल बसी थीं. उन के पहली पत्नी से कोई औलाद नहीं थी. रिश्तेदारों के कहने पर उन्होंने दूसरी शादी के लिए हां कर दी थी और अपने मुकाबले थोड़े कम पैसे वाले ठाकुरों के यहां से सुहानी देवी को ब्याह लाए थे.

भवानी सिंह सुहानी देवी के सामने बड़े ही गर्व से अपनी ठकुराई का बखान करते और अपने खानदान की तलवार दिखाते थे. शान के साथ अपनी खानदानी बातें बताते और हर रीतिरिवाज का बखान करते थे. हर महीने सुहानी देवी के लिए 4-5 जोड़े कपड़े और गहने लाना तो ठाकुर भवानी सिंह के लिए आम बात थी. उन का मानना था कि गहनेकपड़े औरतों के लिए ठीक उसी तरह जरूरी हैं, जैसे मर्दों के लिए शराब और मांस. उन्हें इस के लालच में फंसाओ और खुद चाहे जो भी करो. औरतें घर की चारदीवारों में नियमों, परंपराओ में फंसी रह कर भी अपनेआप को धन्यभागी समझती रहेंगी. जब सुहानी देवी नईनई ब्याह कर आई थी, तो उस की सास उसे बताती थीं कि तुम ठकुराइन हो…

फलां काम तुम्हें इस तरह से करना है और फलां काम कुछ इस तरह से… हम ठकुराइनों के खांसने और छींकने में भी एक शालीनता और एक अदा होती है और अगर घर में कोई शोक हो तो भी हमें चीखचीख कर नहीं रोना… रोने के लिए एक अलग जाति की औरतें होती हैं, जो इन्हीं मौकों पर बुलाई जाती हैं. न जाने और क्याक्या बताया गया था सुहानी देवी को, पर उसे इन सब बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. ठकुराइन होने का भार उस के लिए कुछ ज्यादा ही था. एक बार जब जेठ की दोपहरी में गरमी से परेशान हो कर सुहानी देवी ने अपने बदन के गहने उतार दिए और एक हलके कपड़े वाली साड़ी पहन ली, तो उस की सास ने कितना डांटा था उसे, ‘‘ये भारी कपड़ेलत्ते तो हम ठकुराइनों की शान हैं. इन्हें जीतेजी अपने बदन से अलग नहीं करते… दोष होता है.’’

सुहानी देवी अब इन भारी गहनों और कपड़ों को हमेशा ही ढोती रहती, पर ये भारीभारी गहने और सोने के तार वाली साडि़यों से भी ज्यादा कीमती कुछ और भी था, जिसे सुहानी ढूंढ़ रही थी. अभी तो सुहानी देवी का जवान दिल प्यार चाहता था… घंटों अपने पति के बाहुपाश में लिपटने की चाहत थी उस की. उस का मन अभी आकाश में बिना किसी बंधन के उड़ना चाहता था. ठाकुर भवानी सिंह कभीकभी तो पूरी रात घर से बाहर रहते, तो कभीकभार देर रात ही आते और आते ही औंधे मुंह बिस्तर पर गिर जाते. पूरे महीने में 4-5 ही ऐसे दिन होते, जब वे घर में रुकते, नहीं तो उन की हर रात बाहर ही गुजरती थी. कभीकभार दबी जबान से सुहानी देवी ने पूछने की कोशिश भी की, तो ठाकुर साहब ने खुद के ठाकुर होने का दावा कर के बात आईगई कर दी. ठाकुर भवानी सिंह सुहानी देवी को बिस्तर पर प्यार करना भी जानते थे, पर उन के लिए सिर्फ अपनी संतुष्टि ही माने रखती थी. सुहानी देवी को मजा मिला या नहीं,

इस बात से उन को कोई मतलब नहीं होता था. वे तो बिस्तर पर भी ठाकुर ही बने रहते थे. सुहानी देवी अपने पति से बात करना चाहती थी और आने वाले भविष्य को ले कर कुछ योजनाएं भी बनाना चाहती थी, पर कड़क स्वभाव वाले ठाकुर के साथ ऐसा हो नहीं पाता था. यों तो हवेली में नौकरचाकर भी थे, पर वे सब सुहानी देवी की सास की चमचागीरी और तीमारदारी में ही लगे रहते थे. सुहानी देवी किसी से बात करने को भी तरसती थी. एक रात को जब ठाकुर भवानी सिंह वापस लौटे तो काफी नशे में थे और मूड भी अच्छा लग रहा था, तो सुहानी देवी ने उन से पूछ ही लिया, ‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि रोज इतनी रात तक आप बाहर रहते हो… आखिर आप जाते कहां हो?’’ सुहानी देवी की बात सुन कर ठाकुर मुसकराने लगे और बोले, ‘‘देखो सुहानी, हमारे बापदादा की किसी जमाने में तूती बोलती थी और हमारी हवेली पर औरतों का नाच होता था, हमारे बापदादा जिस औरत पर उंगली रखते वही औरत उन के बिस्तर पर बिछ जाती थी,

पर अब हमारी ठकुराई तो रही नहीं, हम बस नाम के ठाकुर हैं, पर हमारे शौक तो वही पुराने हैं,’’ ठाकुर भवानी सिंह ने पानी का एक बड़ा घूंट भरा और फिर से बोलना शुरू कर दिया, ‘‘हम अपने उसी शौक को पूरा करने के लिए शहर में जाते हैं.’’ ‘‘तो क्या आप औरतों का नाच देखने जाते हैं?’’ सुहानी देवी ने पूछा. ‘‘नहीं रे पगली, शहर में रैडलाइट एरिया नाम की एक जगह है, जहां पर पैसे दे कर औरतों के साथ मजे किए जाते हैं. हम वहीं पर मन बहलाने के लिए जाते हैं,’’ आखिरी शब्द कहतेकहते ठाकुर साहब पर नींद हावी हो गई थी और वे सोने लगे, पर सुहानी देवी की आंखों से तो नींद कोसों दूर जा चुकी थी. ‘‘तो इस का मतलब है कि ठाकुर की नजर में मेरी कोई अहमियत नहीं है… मैं बस उन की झूठी परंपराओं और सड़ेगले रीतिरिवाजों को निभाने के लिए यहां लाई गई हूं…’’ सुहानी देवी अपनेआप से ही कई सवाल करने लगी थी. वह सारी रात करवट बदलती रही थी. अगले दिन सुहानी देवी का सिर भारी सा था और मन भी उचटा सा लग रहा था. वह अपनी छत के कोने पर खड़ी दूर तक निहारने लगी थी कि उस की नजर घर के आंगन में खड़े एक नौजवान पर पड़ी, जिस की उम्र 22-23 साल की रही होगी. वह नौजवान ठाकुर साहब की पसंदीदा गाय कालिंदी को पकड़ कर खींच रहा था,

करमवती- भाग 3 : राजपाल प्लंबर कहा गिरा था

उस ने ओपन यूनिवर्सिटी से 2 साल में बीऐड भी कर लिया. जिस दिन उस का बीऐड का नतीजा आया, उस दिन मैं ने खुशी से महल्ले में मिठाई बांटी. उस की कामयाबी मेरी कामयाबी थी. ‘‘करमवती के स्कूल की प्रबंधन समिति ने उस से पहले ही बोल दिया था कि अगर उस ने बीऐड कर लिया, तो वे उस की नियुक्ति प्रवक्ता के पद पर कर देंगे और इंटर की क्लास पढ़ाने के लिए दे देंगे.

उस का यह सपना भी पूरा हो गया. उसी दिन हम ने अपने मकान की बुनियाद रख दी और कुछ महीने बाद उस में शिफ्ट हो गए.’’ ‘‘बड़े कमाल की कहानी है राजपाल तुम्हारी. शराब पीते रहते तो कहीं गटर में होते या फिर किसी हादसे का शिकार हो जाते. करमवती ने तुम्हें दोनों ही चीजों से बचा लिया.’’ ‘‘बाबूजी, अभी मैं ने आप को नाली में पड़े होने से ले कर अब तक 13 साल की कहानी सुनाई है. अभी और भी साल बाकी हैं. कहो तो वह भी सुना दूं.’’ मैं ने कहा, ‘‘जरूर सुनाओ. ऐसी कामयाबी की कहानी कौन नहीं सुनना चाहेगा.’’ ‘‘बाबूजी, करमवती ने निश्चय किया कि वह सरकारी नौकरी करेगी.

2 साल उस ने कड़ी मेहनत की. किताब बाद में लाती, चट पहले कर जाती. फिर पता क्या हुआ बाबूजी?’’ ‘‘क्या हुआ राजपाल? बताओ.’’ ‘‘पिछले महीने उसे सरकारी नौकरी का नियुक्तिपत्र मिला. धामपुर के बालिका कालेज में वह प्रवक्ता हो गई. बाबूजी, 30,000 की पगार से 70,000 की पगार पर,’’ यह कहतेकहते राजपाल भावुक हो गया. उस के औजार रुक गए. वह अपने आंसू पोंछने लगा, ‘‘पता है बाबूजी, अब वह क्या कहती है?’’ राजपाल की बात सुन कर अब मैं असमंजस में पड़ गया. किसी फिल्मी कहानी की तरह मैं उस की कहानी सुन रहा था.

मुझे लगा कि किसी फिल्मी कहानी की तरह करमवती कामयाबी के शिखर पर चढ़ कर राजपाल को अपने लायक न समझ कर उसे छोड़ने की बात करने लगी होगी. मैं अब राजपाल के मुंह से बद से बदतर बात सुनने को तैयार था. करमवती मुझे कहानी की खलनायिका नजर आने लगी. मेरी पूरी हमदर्दी राजपाल के साथ थी. मुझे लगा कि उस के आंसू खुशी के नहीं दुख के थे. मैं ने पूछा, ‘‘क्या कहती है अब करमवती? क्या तुम अब उस के लायक नहीं रहे?’’ ‘‘नहीं बाबूजी, आप यहां गलत सोच रहे हैं.’’ फिर उस ने बड़े गर्व से आगे की कहानी सुनाई, ‘‘अब करमवती कहती है कि मुझे अब इन औजारों का थैला उठाने की जरूरत नहीं है. वह कहती है कि वह जल्दी ही मुझे प्लंबरी के सामान की बड़ी सी दुकान खुलवाएगी. उस दुकान से भी बड़ी, जिस दुकान के लालाजी ने आप को मेरे पास भेजा था.

‘‘वह कहती है कि यह तो अभी हमारी नई जिंदगी की शुरुआत?है, आगेआगे देखो क्या होता?है.’’ राजपाल का काम लगभग खत्म होने को था, तभी उस के घर से फोन आया. उस ने बताया कि उस का काम खत्म होने ही वाला है. जब राजपाल का काम खत्म हो गया, तो मैं ने उस का हिसाब कर दिया. तभी घर के सामने एक कार आ कर रुकी. ड्राइविंग सीट पर कोई औरत बैठी थी और पिछली सीट पर 2 बड़े बच्चे. मुझे लगा कि कोई मेहमान आया है. तभी पिछली सीट से बड़ा लड़का नीचे उतरा. उस ने मुझे नमस्ते की और राजपाल का औजारों का थैला हाथ से पकड़ते हुए कहा, ‘‘लाओ पापा, यह मुझे दो.’’ मुझे समझते देर न लगी कि कार किस की है. तभी राजपाल बोला,

‘‘बाबूजी, यही है मेरी करमवती. और ये हैं हमारे बच्चे.’’ करमवती ने कार से उतर कर मुझे नमस्ते की. उस की आंखों में अथाह आत्मविश्वास था. ‘‘करमवती, ये वही बाबूजी हैं, जिन्होंने मुझे नाली में से खींचा था.’’ ‘‘मैं उस बात के लिए आज भी बाबूजी की एहसानमंद हूं,’’ करमवती ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर कहा. ‘‘अच्छा बाबूजी नमस्ते,’’ राजपाल ने कार की अगली सीट पर बैठते हुए कहा. ‘‘नमस्ते,’’ मैं ने कहा. उस के बाद करमवती ने कार आगे बढ़ा दी. मैं हैरानी से उस कार को तब तक आगे बढ़ते देखता रहा, जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई. मैं सोच रहा था, ‘समझदारी और हौसला हो, तो आदमी आसमान छू सकता है. करमवती कामयाबी की मिसाल है.’

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