मृगतृष्णा: क्या विजय और राखी की शादी हुई

लौकडाउन में काम छूट जाने के चलते लखन अपने परिवार समेत पैदल ही दिल्ली से अपने गांव मीरपट्टी लौट आया था.

लखन के परिवार में उस की पत्नी के अलावा एक बेटी और बेटा थे. बेटी का नाम राखी और बेटे का नाम सूरज था.

दिल्ली में राखी अपनी मां के साथ दूसरों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी. सूरज अभी छोटा था और सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था. लखन कपड़े की एक फैक्टरी में मजदूर था.

लखन गांव के जमींदार चौधरी साहब का पुराना कारिंदा था, इसलिए चौधरी साहब ने तरस खा कर उसे खेत और बगीचे की देखभाल के लिए रख लिया.

लखन की पत्नी और बेटी राखी चौधरी साहब के घर में महरी का काम करने लगीं. इस तरह परिवार की गुजरबसर का इंतजाम हो गया.

राखी 17 साल की थी और गजब की खूबसूरत थी. कदकाठी लंबी, गोरी छरहरी काया, बड़ीबड़ी आंखें, मासूम चेहरा और चंचल स्वभाव के चलते वह किसी की भी नजरों में चढ़ जाती थी.

राखी को अपनी खूबसूरती का एहसास था. वह उस के प्रदर्शन में कोई कोताही नहीं बरतती थी. उस का प्रेमी जुगल दिल्ली में राजमिस्त्री का काम करता था. लौकडाउन के चलते वह भी गांव वापस आ गया था.

गांव में जुगल को कोई काम नहीं मिल रहा था. वह दिल्ली लौटने के बारे में सोच रहा था. गांव में उसे राखी से मिलने का कभीकभार ही मौका मिलता था.

चौधरी साहब का सब से छोटा बेटा विजय पटना में रह कर पढ़ाई कर रहा था. छुट्टी में वह घर आया हुआ था और लौकडाउन हो जाने के चलते वहीं फंस गया था.

विजय ने एक दिन राखी को दालान में काम करते देखा, तो देखता ही रह गया. राखी की बिखरी हुई लटें, उभरी हुई छाती और कसा बदन देख कर विजय बेचैन हो उठा. वह उस से दोस्ती बढ़ाने की जुगत बैठाने लगा.

मौका देख कर विजय ने राखी से अपने मन की बात रखी, ‘‘राखी, मैं तुम्हें पसंद करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘छोटे मालिक, आप बड़े लोग हैं. और, आप मु?ा जैसी गरीब लड़की से शादी करेंगे…?’’ राखी ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा.

‘‘राखी, जमाना बदल गया है. अब कोई बड़ाछोटा नहीं है…’’ विजय ने कहा.

राखी विजय के ?ांसे में आ तो गई, पर फिर भी उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह इस परिवार की बहू भी बन सकती है. उस ने यह बात जुगल को बताई.

जुगल ने समझते हुए कहा, ‘‘विजय बाबू शादी का ?ांसा दे कर तेरी जवानी को भोगना चाहते हैं. वे पढ़ेलिखे अमीर लोग हैं. किसी गरीब, 5वीं जमात पढ़ी लड़की से कभी शादी नहीं करेंगे.’’

जुगल के सम?ाने पर राखी सम?ा गई. एक दिन विजय ने अकेले में राखी को खेत के मचान पर बैठा कर बहलानेफुसलाने वाली बातें कीं, तो वह फिर से उस के ?ांसे में आ गई.

विजय राखी को यह यकीन दिलाने में कामयाब रहा कि जुगल को राखी की किस्मत देख कर जलन हो रही है. लालच में पड़ कर राखी ने विजय को हां कह दी और पलभर में जुगल के प्यार को भुला बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो मेरी जान, आओ न रोमांस करें,’’ राखी के उभारों को सहलाते हुए विजय ने कहा, तो राखी का तनमन मचल उठा.

विजय ने अपने होंठ राखी के दहकते होंठ पर रख दिए और हाथों से उस के बदन को सहलाने लगा. राखी तड़प कर विजय से लिपट गई. दोनों ने जी भर कर अपनी प्यास बु?ाई.

अब विजय का जब भी मन करता, वह राखी के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाता था.

राखी भी अब जुगल से मिलने से कतराने लगी थी. जुगल सम?ा गया कि राखी विजय के चंगुल में फंस गई है. उस ने राखी को कई बार सम?ाने की कोशिश की, लेकिन वह जुगल से बात ही नहीं करना चाहती थी.

इसी बीच लौकडाउन खुल गया. मजदूर वापस काम पर जाने लगे थे. जुगल दिल्ली लौट आया. लखन को भी उस की फैक्टरी से काम पर आने का फोन आया. फैक्टरी का मालिक पहले से ज्यादा तनख्वाह देने के लिए तैयार था.

गांव में बस किसी तरह गुजरबसर हो रही थी, इसलिए लखन भी दिल्ली आने की सोच रहा था. यह बात राखी ने विजय को बताई.

‘‘मेरा भी कालेज शुरू होने वाला है.  मैं भी यहां से चला जाऊंगा. तुम भी अपने पिताजी के साथ दिल्ली चली जाओ. समय आने पर मैं शादी के लिए घर में बात करूंगा. ध्यान रहे कि समय से पहले किसी को इस की भनक न लगे,’’ विजय ने राखी को चूमते हुए सम?ाया.

राखी अपने पापा के साथ दिल्ली चली आई. विजय पटना चला गया. पहले तो उन दोनों में फोन पर बात होती रहती थी, पर धीरेधीरे विजय ने पढ़ाई का हवाला दे कर बात करना बंद कर दिया. राखी को विजय का यह बरताव अजीब लग रहा था.

एक दिन जुगल ने राखी को फोन कर के मिलने की गुजारिश की. राखी ने हां कर दी. वे एक पार्क में मिले. इधरउधर की बात करने के बाद जुगल ने जो बात बताई, वह सुन कर राखी का कलेजा धक से रह गया.

जुगल ने बताया, ‘‘राखी, विजय बाबू ने धूमधाम से अपनी जाति की एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी कर ली है.’’

राखी का मन जुगल की बात मानने को तैयार नहीं था. जुगल ने राखी को अपने मोबाइल फोन में विजय की शादी की तसवीर दिखाई. राखी को लगा कि जैसे आसमान उस के सिर पर गिर गया हो. वह जुगल को पकड़ कर रोने लगी.

‘‘चुप कर पगली, हर वादा सच्चा नहीं होता. जो भरम था उसे भूल जाना बेहतर है. मैं हूं न तेरे साथ,’’ राखी के माथे को सहलाते हुए जुगल ने प्यार से कहा.

राखी कुछ बोल नहीं पाई. बस, जुगल की गोद में मुंह छिपा कर रोती रही.

लेखक- सुजीत सिन्हा

वे तीन शब्द: क्या आरोही को अपना हमसफर बना पाया आदित्य ?

दीवाली की उस रात कुछ ऐसा हुआ कि जितना शोर घर के बाहर मच रहा था उतना ही शोर मेरे मन में भी मच रहा था. मुझे आज खुद पर यकीन नहीं हो रहा था. क्या मैं वही आदित्य हूं, जो कल था… कल तक सब ठीक था… फिर आज क्यों मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था… आज मैं अपनी ही नजरों में गुनाहगार हो गया था. किसी ने सही कहा है, ‘आप दूसरे की नजर में दोषी हो कर जी सकते हैं, लेकिन अपनी नजर में गिर कर कभी नहीं जी सकते.’

मुझे आज भी आरोही से उतना ही प्यार था जितना कल था, लेकिन मैं ने फिर भी उस का दिल तोड़ दिया. मैं आज बहुत बड़ी कशमकश में गुजर रहा हूं. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? मैं गलत नहीं हूं, फिर भी खुद को गुनाहगार मान रहा हूं. क्या दिल सचमुच दिमाग पर इतना हावी हो जाता है? प्यार की शुरुआत जितनी खूबसूरत होती है उस का अंत उतना ही डरावना होता है.

मैं आरोही से 2 साल पहले मिला था. क्यों मिला था, इस का मेरे पास कोई जवाब नहीं है, क्योंकि उस से मिलने की कोई वजह मेरे पास थी ही नहीं, जहां तक सवाल है कैसे मिला था, तो इस का जवाब भी बड़ा अजीब है. मैं एटीएम से पैसे निकाल रहा था, उस के हाथ में पहले से ही इतना सारा सामान था कि उस को पता ही नहीं चला कि कब उस का एक बैग वहीं रह गया. मैं ने फिर उस को ‘ऐक्सक्यूज मी’ कह कर पुकारा और कहा, ‘‘आप का बैग वहीं रह गया था.’’

बस, यहां हुई थी हमारी पहली मुलाकात. अपने बैग को सहीसलामत देख कर वह खुशी से ऐसे उछल पड़ी मानो किसी ने आसमान से चांद भले ही न सही, लेकिन कुछ तारे तोड़ कर ला दिए हों. लड़कियों का खुशी में इस तरह का बरताव करने वाला फंडा मुझ को आज तक समझ नहीं आया. उस की मधुर आवाज में ‘थैंक्यू’ के बदले जब मैं ने ‘इट्स ओके’ कहा तो बदले में जवाब नहीं सवाल आया और वह सवाल था, ‘‘आप का नाम?’’

मैं ने भी थोड़े स्टाइल से, थोड़ी शराफत के साथ अपना नाम बता दिया, ‘‘जी, आदित्य.’’ ‘‘ओह, मेरा नाम आरोही है,’’ उस ने मेरे से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘भैया, कनाटप्लेस चलोगे?’’ मैं ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. यह सवाल उस ने मुझ से नहीं बल्कि साथ खड़े औटो वाले से किया था.

‘‘नहीं मैडमजी, मैं तो यहां एक सवारी को ले कर आया हूं. यहां उन का 5 मिनट का काम है, मैं उन्हीं को ले कर वापस जाऊंगा.’’ ‘‘ओह,’’ मायूसी से आरोही ने कहा.

‘‘अम्म…’’ मैं ने मन में सोचा ‘पूछूं या नहीं, अब जब इनसानियत निभा रहा हूं तो थोड़ी और निभाने में मेरा क्या चला जाएगा?’ ‘‘जी दरअसल, मैं भी कनाटप्लेस ही जा रहा हूं, लेकिन मुझे थोड़ा आगे जाना है. अगर आप कहें तो मैं आप को वहां तक छोड़ सकता हूं,’’ मैं ने आरोही की तरफ देखते हुए कहा.

उस का जवाब हां में था. यह उस की जबान से पहले उस की आंखों ने कह दिया था. मैं ने उस का बैग कार में रखा और उस के लिए कार का दरवाजा खोला.

रास्ते में हम ने एकदूसरे से काफी बातचीत की. ‘‘ क्या आप यहीं दिल्ली से हैं?’’ मैं ने आरोही से पूछा.

‘‘नहीं, यहां तो मैं अपने चाचाजी के घर आई हूं. उन की बेटी यानी मेरी दीदी की शादी है इसलिए आज मैं शौपिंग के लिए आई थी,’’ आरोही ने मुसकान के साथ कहा. ‘‘कमाल है, दिल्ली जैसे शहर में अकेले शौपिंग जबकि आप दिल्ली की भी नहीं हैं,’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, नहींनहीं, दिल्ली मेरे लिए बिलकुल भी नया शहर नहीं है. मैं दिल्ली कई बार आ चुकी हूं. मेरी स्कूल की छुट्टियों से ले कर कालेज की छुट्टियां यहीं बीती हैं इसलिए न दिल्ली मेरे लिए नया है और न मैं दिल्ली के लिए.’’ मैं ने और आरोही ने कार में बहुत सारी बातें कीं. वैसे मेरे से ज्यादा उस ने बातें की, बोलना भी उस की हौबी में शामिल है. यह उस के बिना बताए ही मुझे पता चल गया था.

उस के साथ बात करतेकरते पता ही नहीं चला कि कब कनाटप्लेस आ गया. ‘‘थैंक्यू सो मच,’’ आरोही ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘प्लीज यार, मैं ने कोई बड़ा काम नहीं किया है. मैं यहां तक तो आ ही रहा था तो सोचा आप भी वहां तक जा रही हैं तो क्यों न लिफ्ट दे दूं, और आप के साथ तो बात करते हुए रास्ते का पता ही नहीं चला कि कब क्नाटप्लेस आ गया,’’ मैं ने उस की तरफ देखते हुए कहा. ‘‘चलिए, मुझे भी दिल्ली में एक दोस्त मिला,’’ आरोही ने कहा.

‘‘अच्छा, अगर हम अब दोस्त बन ही गए हैं तो मेरी अपनी इस नई दोस्त से कब और कैसे बात हो पाएगी?’’ मैं ने आरोही की तरफ देखते हुए पूछा. वह कुछ देर के लिए शांत हो गई. उस ने फिर कहा, ‘‘अच्छा, आप मुझे अपना नंबर दो, मैं आप को फोन करूंगी.’’

मैं ने उसे अपना नंबर दे दिया. आरोही ने मेरा नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया और बाय कह कर चली गई.

मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मैं भी तो आरोही से उस का नंबर ले सकता था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो… ‘चलो, कोई बात नहीं,’ मैं ने स्वयं को सांत्वना दी.

उस दिन मेरे पास जो भी फोन आ रहा था मुझे लग रहा था कि यह आरोही का होगा, लेकिन किसी और की आवाज सुन कर मुझे बहुत झुंझलाहट हो रही थी. मुझे लगा कि आरोही सच में मुझे भूल गई है. वैसे भी किसी अनजान शख्स को कोई क्यों याद रखेगा और अगर उसे सच में मुझ से बात करनी होती तो वह मुझे भी अपना नंबर दे सकती थी.

अगले दिन सुबह मैं औफिस के लिए तैयार हो रहा था कि अचानक मेरे मोबाइल पर एक मैसेज आया, ‘‘हैलो, आई एम आरोही.’’ मैसेज देख कर मेरी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं रहा. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उस ने मुझे मैसेज किया है.

मैं ने तुरंत उसे मैसेज का जवाब दिया, ‘‘तो आखिर आ ही गई याद आप को अपने इस नए दोस्त की.’’ उधर से आरोही का मैसेज आया, ‘‘सौरी, दरअसल, कल मैं काम में बहुत व्यस्त थी और जब फ्री हुई तो बहुत देर हो चुकी थी तो सोचा इस वक्त फोन या मैसेज करना ठीक नहीं है.’’

मैं ने आरोही को मैसेज किया, ‘‘दोस्तों को कभी भी डिस्टर्ब किया जा सकता है.’’ आरोही का जवाब आया, ‘‘ओह, अब याद रहेगा.’’

बस, यहीं से शुरू हुआ हमारी बातों का सिलसिला. जहां मुझे अभी कुछ देर पहले तक लगता था कि अब शायद ही उस से दोबारा मिलना होगा. लेकिन कभीकभी जो आप सोचते हैं उस से थोड़ा अलग होता है. आरोही की बड़ी बहन की शादी मेरे ही औफिस के सहकर्मी से थी. जब औफिस के मेरे दोस्त ने मुझे शादी का कार्ड दिया तो शादी की बिलकुल वही तारीख और जगह को देख कर मैं समझ गया कि हमारी दूसरी मुलाकात का समय आ गया है.

पहले तो शायद मैं शादी में न भी जाता, लेकिन अब सिर्फ और सिर्फ आरोही से दोबारा मिलने के लिए जा रहा था. मैं ने झट से उसे मैसेज किया, ‘‘मैं भी तुम्हारी दीदी की शादी में आ रहा हूं.’’

आरोही का जवाब में मैसेज आया, ‘‘लेकिन आदित्य, मैं ने तो तुम्हें बुलाया ही नहीं.’’ उस का मैसेज देख कर मुझे बहुत हंसी आई, मैं ने ठिठोली करते हुए लिखा, ‘‘तो?’’

उस का जवाब आया, ‘‘तो क्या… मतलब तुम बिना बुलाए आओगे, किसी ने पूछ लिया तो?’’ मुझे बड़ी हंसी आई, मैं ने अपनी हंसी रोकते हुए उसे फोन किया, ‘‘हैलो, आरोही,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम बिना बुलाए आओगे शादी में,’’ आरोही ने एक सांस में कहा, ‘‘हां, तो मैं डरता हूं्र्र क्या किसी से, बस, मैं आ रहा हूं,’’ मैं ने थोड़ा उत्साहित हो कर कहा. ‘‘लेकिन किसी ने देख लिया तो,’’ आरोही ने बेचैनी के साथ पूछा.

‘‘मैडम, दिल्ली है दिल वालों की,’’ यह कह कर मैं हंस दिया. लेकिन मेरी हंसी को उस की हंसी का साथ नहीं मिला तो मैं ने सोचा, ‘अब राज पर से परदा हटा देना चाहिए.’ मैं ने कहा, ‘‘अरे बाबा, डरो मत, मैं बिना बुलाए नहीं आ रहा हूं, बाकायदा मुझे निमंत्रण मिला है आने का.’’

‘‘ओह,’’ कह कर आरोही ने गहरी सांस ली. ‘‘तो अब तो खुश हो तुम,’’ मैं ने आरोही से पूछा.

‘‘हां, बहुत…’’ आरोही की आवाज में उस की खुशी साफ झलक रही थी. उस दिन बरात के साथ जैसे ही मैं मेनगेट पर पहुंचा तो बस मेरी निगाहें एक ही शख्स को ढूंढ़ रही थीं. वहां पर बहुत सारे लोग मौजूद थे, लेकिन आरोही नहीं थी.

काफी देर तक जब इधरउधर देखने के बाद भी मुझे आरोही नहीं दिखाई दी तो मैं ने उस के मोबाइल पर कौल की, ‘‘कहां हो तुम…, मैं कब से तुम को इधरउधर ढूंढ़ रहा हूं,’’ मैं ने बेचैनी से पूछा. ‘‘ओह, पर क्यों… हम्म…’’ उस ने चिढ़ाते हुए कहा.

मैं ने भी उस को चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘ओह, ठीक है फिर लगता है हमारी वह मुलाकात पहली और आखिरी थी.’’ ‘‘अरे, क्या हुआ, बुरा लग गया क्या, अच्छा बाबा, मैं आ रही हूं,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘लेकिन तुम हो कहां?’’ मैं ने आरोही से पूछा. ‘‘जनाब, पीछे मुड़ कर देखिए,’’ आरोही ने हंसते हुए कहा.

मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो बस देखता ही रह गया. हलकी गुलाबी रंग की साड़ी में एक लड़की मेरे सामने खड़ी थी. हां, वह लड़की आरोही थी. उस के खुले हुए बाल, हाथों में साड़ी की ही मैचिंग गुलाबी चूडि़यां, आज वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. आज मुझे 2 बातों का पता चला, पहला यह कि लोग यह कहावत क्यों कहते हैं कि मानो कोई अप्सरा जमीन पर उतर आई हो, और दूसरी बात यह कि शादी में क्यों लोग दूल्हे की सालियों के दीवाने हो जाते हैं.

मैं ने उसी की तरफ देख कर कहा, ‘‘जी, आप कौन, मैं तो आरोही से मिलने आया हूं, आप ने देखा उस को.’’ उस ने बड़ी बेबाकी से कहा, ‘‘मेरी शक्ल भूल गए क्या, मैं ही तो आरोही हूं.’’

मैं ने उस की तरफ अचरज भरी निगाहों से देख कर कहा, ‘‘जी, आप नहीं, आप झूठ मत बोलिए, वह इतनी खूबसूरत है ही नहीं जितनी आप हैं.’’ आरोही ने गुस्से से घूरते हुए कहा, ‘‘ओह, तो तुम मेरी बुराई कर रहे हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो आप की तारीफ कर रहा हूं.’’ वह दिन मेरे लिए बहुत खुशी का दिन था, मैं ने आरोही के साथ बहुत ऐंजौय किया. उस ने मुझे अपने मम्मीपापा और भाईबहन से मिलवाया. पूरी शादी में हम दोनों साथसाथ ही रहे.

जातेजाते वह मुझे बाहर तक छोड़ने आई. मैं ने आरोही की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘अच्छा सुनो, मैं उस समय मजाक कर रहा था. तुम जितनी मुझे आज अच्छी लगी हो न उतनी ही अच्छी तुम मुझे उस दिन भी लगी थी जब हम पहली बार मिले थे,’’ यह सुन कर वह शरमा गई. अब हम दोनों घंटों फोन पर बातें करते. वह अपनी शरारतभरी बातों से मुझे हंसाती और कभी चिढ़ा दिया करती थी. मैं कभी बहुत तेज हंसता तो कभीकभी मजाक में गुस्सा कर दिया करता. हम दोनों के मन में एकदूसरे के लिए इज्जत और दिल में प्यार था. जिस की वजह से हम दोनों बिना एकदूसरे से सवाल किए बात करते थे. कुछ चीजों के लिए कभीकभी शब्दों की जरूरत ही नहीं पड़ती. आप की निगाहें ही आप के दिल का हाल बयां कर देती हैं. फिर भी वे 3 शब्द कहने से मेरा दिल डरता है.

अब मुझे रोमांटिक फिल्में देखना अच्छा लगता है. उन फिल्मों को देख कर मुझे ऐसा नहीं लगता था कि क्या बेवकूफी है. जहन में आरोही का नाम आते ही चेहरा एक मुसकान अपनेआप ओढ़ लेता था और बहुत अजीब भी लगता था, जब कोई अनजान शख्स मुझे इस तरह मुसकराता देख पागल समझता था. अपनी मुसकान को रोकने की जगह मैं उस जगह से उठ जाना ज्यादा अच्छा समझता था. ‘‘हाय, गुडमौर्निंग,’’ आज यह मैसेज आरोही की तरफ से आया.

हमेशा की तरह आज भी मैं ने आरोही को फोन किया, लेकिन आज पहली बार उस ने मेरा फोन नहीं उठाया. मैं पूरे दिन उस का नंबर मिलाता रहा, लेकिन उस ने मेरा फोन नहीं उठाया. आज दीवाली है और आरोही मुझे जरूर फोन करेगी, लेकिन आज भी जब उस का कोई फोन नहीं आया तो मैं ने उस को फिर फोन किया. आज आरोही ने फोन उठा लिया.

‘‘कहां हो आरोही, कल से मैं तुम्हारा फोन मिला रहा हूं, लेकिन तुम फोन ही नहीं उठा रही थी,’’ मैं ने गुस्से में आरोही से कहा. ‘‘यह सब परवा किसलिए आदित्य,’’ आरोही ने रोते हुए पूछा.

‘‘परवा, क्या हो गया तुम्हें, सब ठीक तो है न… और तुम रो क्यों रही हो?’’ मैं ने बेचैनी से आरोही से पूछा. ‘‘प्लीज आदित्य, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. कानपुर मेरी शादी की बात चल रही थी इसलिए बुलाया गया था, लेकिन तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम्हें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा था जब मैं उस दिन रेस्तरां में तुम्हें घर वापस आने की बात कहने आई थी,’’ आरोही एक सांस में बोले जा रही थी. मानो कई दिन से अपने दिल पर रखा हुआ बोझ हलका कर रही हो.

‘‘तुम्हारे लिए मैं कभी कुछ थी ही नहीं आदित्य, शायद यह सब बोलने का कोई हक नहीं है मुझे… और न ही कोई फायदा, शायद अब हम कभी नहीं मिल पाएंगे, अलविदा…’’ यह कह कर आरोही ने फोन रख दिया. मैं एकटक फोन को देखे जा रहा था, जो आरोही हमेशा खिलखिलाती रहती थी आज वही फूटफूट कर रो रही थी. इसलिए आज मैं खुद को गुनाहगार मान रहा था, लेकिन अब मैं ने फैसला कर लिया था कि मैं अपनी आरोही को और नहीं रुलाऊंगा, मैं जान चुका हूं कि आरोही भी मुझे उतना ही प्यार करती है जितना कि मैं उसे करता हूं.

मैं ने फैसला कर लिया कि मैं कल सुबह ही टे्रन से कानपुर जाऊंगा. आज की यह रात बस किसी तरह सुबह के इंतजार में गुजर जाए. मैं ने अगली सुबह कानपुर की टे्रन पकड़ी. 10 घंटे का यह सफर मेरे लिए, मेरे जीवन के सब से मुश्किल पल थे. मैं नहीं जानता था कि आरोही मुझे देख कर क्या कहेगी, कैसा महसूस करेगी, इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं, मैं ने जैसे ही आरोही के घर पहुंच कर उस के घर के दरवाजे की घंटी बजाई तो आरोही ने ही दरवाजा खोला. आरोही मुझे देख कर चौंक गई.

मैं ने आरोही को गले लगा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो आरोही… सारी मेरी ही गलती है. मुझे हमेशा यही लगता था कि अगर मैं तुम से अपने दिल की बात कहूंगा तो तुम को हमेशा के लिए खो दूंगा. मैं भूल गया था कि मैं कह कर नहीं बल्कि खामोश रह कर तुम्हें खो दूंगा.’’ आरोही की आंखों में आंसू थे. उस के घर के सभी लोग वहां मौजूद थे. मैं ने आरोही की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘कल तक मुझ में हिम्मत नहीं थी, लेकिन आज मैं तुम्हारे प्यार की खातिर यहां आया हूं, आई लव यू आरोही, बोलो, तुम दोगी मेरा साथ…’’ मैं ने अपना हाथ आरोही की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

आरोही ने अपना हाथ मेरे हाथ में रखते हुए कहा, ‘‘आई लव यू टू.’’ आज आरोही और मेरे इस फैसले में उस के परिवार वालों का आशीर्वाद भी शामिल था.

मेरा वसंत: क्या निधि को समझ पाया वसंत

मैं ने तुम से पूछा, ‘बुरा लगा?’
‘नहीं,’ तुम्हारा यह जवाब सुन मैं स्तब्ध रह गई कि क्या मेरे बात करने न करने से तुम को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता? पर मैं जब भी तुम से नाराज़ हो कर बात करना बंद करती हूं, दिल धड़कना भूल जाता है और दिमाग सोचना. मन करता है कि तुम मुझे आवाज़ दो और मैं उस आवाज़ में खो दूं अपनेआप को. कभी लगता, क्यों न कौल कर के सुन लूं तुम्हारी आवाज़, पर है न मेरे पास भी अहं की भावना कि क्यों करूं जब तुम्हें चाहत ही नहीं मुझे सुनने की.

मैं ने कहीं सुना था- ‘ज़िंदगी को लाइटली लेने का’. लेकिन ज़िदंगी का हरेक पन्ना जब तुम से जुड़ा हो तो कैसे इस को हलके में ले लूं.

कुछ लोग कहते हैं कि प्यारव्यार कुछ नहीं होता. बस, रासायनिक क्रिया है जो दिल और दिमाग़ को बंद कर देती है और सोचनेसमझने की क्रिया समाप्त कर देती है. पर अगर ऐसा है तो किसी एक के लिए ही दिल क्यों धड़कता है. समझ के बाहर है न, यह ये प्यारव्यार…

कितना अच्छा होता न, मेरी तरह तुम्हारा भी दिल सिर्फ़ मेरे लिए धड़कता और मेरा ही नाम तुम्हारी ज़बान पर होता. पर तुम्हारे लिए तो मेरे सिवा सभी लोग ख़ास हैं और हां, काम की अधिकता भी तो कारण है न मुझ से दूर जाने का.

कुछ प्यार अधूरा ही रहता है, क्या मेरे प्यार को भी अधूरापन ही मिलेगा. पर, मैं तो तुम्हारे ही रंगों में रंगी हूं, सो, तुम्हारा द्वारा दिया हुआ अधूरापन भी स्वीकार है मुझे.

तुम खुश रहो. जानते हो, चाहती हूं कि अपनी खुशी भी तुम्हें दे दूं, पर अपनी खुशी तुम्हें नहीं दे सकती क्योंकि मैं अधूरी हो कर कभी खुश नहीं रह सकती.

जा रही हूं तुम से दूर, कुछ दूर जहां से मैं तुम्हें तो देख सकूं पर तुम मुझे न देख सकोगे. जब मुझे लगेगा कि जितनी बेक़रारी मेरे दिल में है उतनी ही तुम्हारे दिल में पनपने लगी, तब मैं वापस आ जाऊंगी. तुम्हारी बांहों की गरमाहट मुझे बेचैन करेगी. पर इस बेचैनी में भी बहुत प्यारा एहसास कैद रहेगा.

फिर से आतुर मन मिलन के लिए.

तुम्हारी,

निधि.

यह पत्र पढ़ कर मैं कुछ देर सन्न रह गया. काठ बना खड़ा चुपचाप इस खत को बारबार पढ़ता रहा. परसों रात ही तो आया था एक सप्ताह के बाद. नाराज़ निधि को मनाने में एक घंटा लग गया. उस की नाराज़गी दूर नहीं हुई. अबोलापन 2 दिन रहा घर में. आज रात ही तो इस घुटनभरे अबोलापन से छुटकारा मिला था. फिर उस ने पूछा तो था, ‘मेरे नाराज़ होने से तुम को बुरा लगता है न?’ और मैं ने सहजता से कह दिया था, ‘नहीं.’

ओह, निधि, तुम बात नहीं करती हो, तो मैं भी परेशान हो जाता हूं. लेकिन मैं दर्शाना नहीं चाहता. मुझे लगता, अगर इस बात को तुम्हारे सामने कहूंगा तो तुम और ज़्यादा रूठने लगोगी और अगर मैं कह दूं कि नहीं बुरा लगता तुम बात करो या न करो तो तुम रूठना कम कर दोगी. मैं ने अपना फ़ायदा देखा, तुम्हारी भावनाओं को नजरअंदाज किया. मुझे माफ़ कर दो, निधि. तुम आ जाओ वापस. अब मैं सबकुछ तुम्हारे हिसाब से करूंगा. मैं चाहता हूं कि तुम्हें समय दूं, पर…

मुझे पता है, तुम मुझे बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतना गुस्सा करती हो. गुस्सा भी प्यार का ही एक रूप है. पर मैं उस समय इसलिए नहीं मनाता क्योंकि तुम उस समय मेरी बात बिलकुल नहीं समझ पातीं. इंसान जब किसी से नाराज़ होता है तो वह उस समय हर हाल में गलत लगता है. तब समझाना गुस्से को बढ़ाना ही होता है. तुम समझती हो कि उन लमहों में मैं बहुत आराम से रहता हूं, तुम्हें क्या पता कि मैं हर रात जागता हूं सिर्फ तुम्हारी याद में, शायद कौल आ जाए और मैं सुन न पाऊं. लमहालमहा बेचैनी और बेक़रारी छाई रहती है. तब सिर्फ तुम खयालों में मेरे रहती हो. वक्त का पता नहीं चलता और खानापीना सब भूला रहता.

तुम सोचती हो कि मैं तुम्हें अनदेखा करता हूं पर कभी तुम खुद को मेरी जगह रख कर देखो तब समझ आएगा कि काम का कितना प्रैशर रहता है मेरे ऊपर. तब तुम कहोगी कि क्यों करते हो इतना काम. तो मेरी जान, काम नहीं करूंगा तो तुम्हारी ज़रूरतें और रोज की फ़रमाइश कौन पूरा करेगा.

ऐसा क्यों किया निधि? तुम जानती हो मैं तुम्हारे बगैर एक पल नहीं रह सकता. थोड़ी व्यस्तता थी और कभीकभी दोस्तों के पास बैठ जाता था, लेकिन मैं फिर भी समय निकालता था तुम्हारे लिए. हां, इधर कुछ ज़्यादा झगड़ा होने लगा था. लेकिन वज़ह मैं या तुम नहीं थीं. वज़ह थीं परिस्थितियां. पर क्या करता, नौकरी ही ऐसी है कि उस के लिए चौबीस घंटे भी कम ही हैं. तुम को कितनी बार समझाया- तुम नहीं समझोगी तो और कौन समझेगा, बताओ.

रोने का मन हुआ मेरा. दिल किया नौकरी छोड़ वहां भाग जाऊं जहां निधि मेरी प्रतीक्षा कर रही है. पर उस ने बताया ही नहीं कि कहां गई है. वसंत के मौसम में मेरी वसंत पता नहीं कहां चली गई? दिल ने जैसे धड़कना ही बंद कर दिया. कुछ पलों की जुदाई इतनी तकलीफदेह. अब समझ आ रहा है कि क्यों निधि मेरे कईकई दिनों बाद घर आने पर रूठ जाती थी. सच, अकेलापन बहुत उबाऊ होता है.

खिड़की के खुली रहने के बावजूद दम घुट रहा था. हवा ने भी जैसे मुंह मोड़ लिया हो. बाहर निकला. बागबानी की शौकीन निधि क्यारियों में एक से बढ़ कर एक पौधे लगाए हुए थी. इस पर पहले कभी ध्यान नहीं गया था मेरा. मन वहां भी नहीं लगा.

आज फिर लखनऊ जाना था. मन नहीं कर रहा था. फिर भी जाना तो था ही. और फिर इस अकेलेपन से दूर भी जाना चाहता था.

चाय पीने की इच्छा हुई. किचेन में जाते ही निधि की याद आई और मैं लौट आया. आंसुओं को पोंछते हुए तैयार हुआ और निकल गया घर से. महसूस हुआ, पीठ पर किसी की आंखों का स्पर्श. पलट कर देखा, कोई न था.

लखनऊ जाने के बाद मेरा मन वापस अपने घर जाने के लिए बेचैन होने लगा. ऐसा लगता, निधि मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी.

वापस आ गया इलाहाबाद.

घर पहुंच कर जब देखा नहीं है निधि, मन झुंझलाया और निधि पर गुस्सा भी आया. क्या वह नहीं जानती कि नौकरी उसी के सुखसुविधा के लिए करता हूं. सोचता हूं कि उसे दुनिया की सारी खुशियां मिलें. मेरा मन भी करता कि उस के साथ बैठ सारी ज़िंदगी गुजार दूं. पर बैठने से सबकुछ नहीं मिल जाता- वह यह क्यों नहीं समझती है. मन खीझ आया अपनेआप पर. निकल गया घर से. निरुद्देश्य घूमता रहा सड़कों पर. बनारस जाने वाली बस दिखी. और मैं जा बैठा उसी में.

भूख से पेट में जलन उठी. प्यास भी महसूस हुई. 2 दिनों से भूखेप्यासे बेवजह चलते जा रहा था मैं.

एक जगह बस रुकी. पारले जी बिस्कुट के साथ एक कप चाय गटक लिया. दुख हो या सुख, पेट कब शांत रहा है.

गंगाघाट पर घंटों बैठा रहा. पानी को रौंदते हुए नाव, स्टीमर की आवाज़, पंक्षियों की चहचहाहट, मछलियों का बारबार उछल कर पानी की सतह पर आना, बच्चों की हंसी, प्रेमीप्रेमिकाओं की प्यारभरी बातें, प्यारेप्यारे जोड़ों की मदमस्त हंसी, बुजुर्ग की आस्थाभरी निगाह- उदासी के गर्त में मुझे धकेलने लगीं.

सब खुश है, सिवा मेरे. मेरे हिस्से दुख क्यों दे गई निधि? गंगाआरती की तैयारी शुरू हो गई. भीड़ का बढ़ता रेला और मेरा मन इस भीड़ से मुक्ति के लिए छटपटाने लगा. मन किया कि आरती देख लूं, पर आस्था-अनास्था के बीच त्रिशंकु जैसा मन डोलने लगा और मैं चुपचाप वहां से निकल गया.

मन किया एक बार निधि को फोन करूं, शायद वह मान जाए और आ जाए फिर से मेरी बांहों में. पौकेट में हाथ डाला, मोबाइल नहीं था. बेचैन मन ने सोचा, कहां छोड़ दिया मोबाइल. फिर मन ने ही समझाया कि शायद हड़बड़ी में छोड़ आया हूं घर पर.

ठंडी हवा का झोंका आया, चला गया. आसमान की ओर देखा- साफ और सफेद बादल तैर रहे थे. कुछेक तारे भी दिख रहे थे. चांद बादलों में छिप शरारत कर रहा था. यही चांद कई बार हमारे प्यार को देखा करता था जब खुले छत पर, आसमान के नीचे मैं और निधि एकदूसरे की बांहों में खोए रहते थे. निधि कभीकभी शरमा कर कहती, ‘धत, चांद मुझे देख रहा है.’

मैं हंसते हुए कहता, ‘चांद भी तुम्हारी तरह शरमा कर छिप रहा है.’

‘कहां हो गुड़िया?’ मैं यह कहता और हंसी आ जाती. जब भी उसे गुड़िया कहता, वह आंखों को गोलगोल घुमा कर कहती, ‘मैं निधि हूं, छोटी सी गुड़िया नहीं. जिसे जब चाहो, चाबी से चला लो. यहां मेरी मरजी चलती है, समझे.’

तुम्हारी मरजी ही तो चलती थी सोना. सोना कहने पर वह मूर्ति जैसी खड़ी हो जाती और कहती, ‘सोना में सजीव का लक्षण कहां से लाओगे.’

पलकों पर आंसू आ गए. क्या कभी लौट कर नहीं आएगी निधि…

रात एक ढाबे पर सो कर गुजारा. सुबह हुई. समझ नहीं आ रहा था कि कहां जाऊं. आखिरकार घर जाने के लिए बस में बैठ गया. तभी ‘मूंगफली ले लो मूंगफली’ की आवाज़ आई. 9 या 10 साल के बच्चे की आवाज़ थी. मैं ने उस के चेहरे पर भोली मुसकान देखी. खरीद लिया एक पाव मूंगफली. निधि को बहुत पसंद है. जब भी हम सफ़र पर होते, वह जरूर खरीदती.

बस चलने लगी. कुछ यात्री ऊंघने लगे, कुछ बातों में मशगूल और कुछ खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने में. ऊब कर मैं भी बाहर की ओर देखने लगा. मन कहीं भी नहीं लग रहा था.

वापस घर ही जाने का मन हुआ. सोचा, वहां निधि की यादों के साथ रह लूंगा.

घर पहुंचा, लौन में लगे पौधे मुरझा रहे थे. निधि की याद इन को भी आती होगी. सुना था कि पेड़पौधे भी उस के लिए उदास होते हैं जो उन्हें प्यार से सींचते व उन की देखभाल करते हैं. प्यारभरी नजरों से उन्हें देख, मुख्य दरवाजे का ताला खोल अंदर गया. अंदर किचेन से बरतन की आवाज़ आ रही थी. देखा, निधि चाय बना रही थी. मैं पागलों की तरह उस से लिपट गया, “मेरी जान, कहां चली गई थीं, तुम जानती हो कि तुम्हारे बगैर मैं नहीं रह सकता. एकएक पल एकएक बरस जैसा लग रहा था.”

निधि मुसकराई, “एहसास होना जरूरी है मेरी जान. किसी ने सच कहा है, ‘दूरियां प्यार को बढ़ाती हैं.’ मैं देख रही थी तुम्हारी बेचैनी, दिल कर रहा था, आ जाऊं तुम्हारे पास. पर कुछ देर और परेशान हाल देखने की चाहत के कारण मैं छिपी रही. तुम मुझे बहुत प्यार करते हो, राज. मैं तुम्हें छोड़ कर कभी नहीं जाऊंगी.”

“आज का दिन मेरे लिए खुशियोंभरा है. आज ही मेरा वसंत है और तुम मेरी बसंती,” मैं ने उसे चूमते हुए कहा.

पछतावा : आखिर दीनानाथ की क्या थी गलती

दीनानाथ नगरनिगम में चपरासी था. वह स्वभाव से गुस्सैल था. दफ्तर में वह सब से झगड़ा करता रहता था. उस की इस आदत से सभी दफ्तर वाले परेशान थे, मगर यह सोच कर सहन कर जाते थे कि गरीब है, नौकरी से हटा दिया गया, तो उस का परिवार मुश्किल में आ जाएगा.

दीनानाथ काम पर भी कई बार शराब पी कर आ जाता था. उस के इस रवैए से भी लोग परेशान रहते थे. उस के परिवार में पत्नी शांति और 7 साल का बेटा रजनीश थे. शांति अपने नाम के मुताबिक शांत रहती थी. कई बार उसे दीनानाथ गालियां देता था, उस के साथ मारपीट करता था, मगर वह सबकुछ सहन कर लेती थी.

दीनानाथ का बेटा रजनीश तीसरी जमात में पढ़ता था. वह पढ़ने में होशियार था, मगर अपने एकलौते बेटे के साथ भी पिता का रवैया ठीक नहीं था. उस का गुस्सा जबतब बेटे पर उतरता रहता था.

‘‘रजनीश, क्या कर रहा है? इधर आ,’’ दीनानाथ चिल्लाया.

‘‘मैं पढ़ रहा हूं बापू,’’ रजनीश ने जवाब दिया.

‘‘तेरा बाप भी कभी पढ़ा है, जो तू पढ़ेगा. जल्दी से इधर आ.’’

‘‘जी, बापू, आया. हां, बापू बोलो, क्या काम है?’’

‘‘ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ.’’

‘‘आप का दफ्तर जाने का समय हो रहा है, जाओगे नहीं बापू?’’

‘‘तुझ से पूछ कर जाऊंगा क्या?’’ इतना कह कर दीनानाथ ने रजनीश के चांटा जड़ दिया.

रजनीश रोता हुआ 20 रुपए ले कर सोडा लेने चला गया. दीनानाथ सोडा ले कर शराब पीने बैठ गया.

‘‘अरे रजनीश, इधर आ.’’

‘‘अब क्या बापू?’’

‘‘अबे आएगा, तब बताऊंगा न?’’

‘‘हां बापू.’’

‘‘जल्दी से मां को बोल कि एक प्याज काट कर देगी.’’

‘‘मां मंदिर गई हैं… बापू.’’

‘‘तो तू ही काट ला.’’

रजनीश प्याज काट कर लाया. प्याज काटते समय उस की आंखों में आंसू आ गए, पर पिता के डर से वह मना भी नहीं कर पाया. दीनानाथ प्याज चबाता हुआ साथ में शराब के घूंट लगाने लगा. शाम के 4 बज रहे थे. दीनानाथ की शाम की शिफ्ट में ड्यूटी थी. वह लड़खड़ाता हुआ दफ्तर चला गया.

यह रोज की बात थी. दीनानाथ अपने बेटे के साथ बुरा बरताव करता था. वह बातबात पर रजनीश को बाजार भेजता था. डांटना तो आम बात थी. शांति अगर कुछ कहती थी, तो वह उस के साथ भी गालीगलौज करता था. बेटे रजनीश के मन में पिता का खौफ भीतर तक था. कई बार वह रात में नींद में भी चीखता था, ‘बापू मुझे मत मारो.’

‘‘मां, बापू से कह कर अंगरेजी की कौपी मंगवा दो न,’’ एक दिन रजनीश अपनी मां से बोला.

‘‘तू खुद क्यों नहीं कहता बेटा?’’ मां बोलीं.

‘‘मां, मुझे बापू से डर लगता है. कौपी मांगने पर वे पिटाई करेंगे,’’ रजनीश सहमते हुए बोला.

‘‘अच्छा बेटा, मैं बात करती हूं,’’ मां ने कहा.

‘‘सुनो, रजनीश के लिए कल अंगरेजी की कौपी ले आना.’’

‘‘तेरे बाप ने पैसे दिए हैं, जो कौपी लाऊं? अपने लाड़ले को इधर भेज.’’

रजनीश डरताडरता पिता के पास गया. दीनानाथ ने रजनीश का कान पकड़ा और थप्पड़ लगाते हुए चिल्लाया, ‘‘क्यों, तेरी मां कमाती है, जो कौपी लाऊं? पैसे पेड़ पर नहीं उगते. जब तू खुद कमाएगा न, तब पता चलेगा कि कौपी कैसे आती है? चल, ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ…’’

‘‘बापू, आज आप शराब बिना सोडे के पी लो, इन रुपयों से मेरी कौपी आ जाएगी…’’

‘‘बाप को नसीहत देता है. तेरी कौपी नहीं आई तो चल जाएगा, लेकिन मेरी खुराक नहीं आई, तो कमाएगा कौन? अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो फिर तेरी कौपी नहीं आएगी…’’ दीनानाथ गंदी हंसी हंसा और बेटे को धक्का देते हुए बोला, ‘‘अबे, मेरा मुंह क्या देखता है. जा, सोडा ले कर आ.’’

दीनानाथ की यह रोज की आदत थी. कभी वह बेटे को कौपीकिताब के लिए सताता, तो कभी वह उस से बाजार के काम करवाता. बेटा पढ़ने बैठता, तो उसे तंग करता. घर का माहौल ऐसा ही था. इस बीच रात में शांति अपने बेटे रजनीश को आंचल में छिपा लेती और खुद भी रोती.

दीनानाथ ने बेटे को कभी वह प्यार नहीं दिया, जिस का वह हकदार था. बेटा हमेशा डराडरा सा रहता था. ऐसे माहौल में भी वह पढ़ता और अपनी जमात में हमेशा अव्वल आता. मां रजनीश से कहती, ‘‘बेटा, तेरे बापू तो ऐसे ही हैं. तुझे अपने दम पर ही कुछ बन कर दिखाना होगा.’’

मां कभीकभार पैसे बचा कर रखती और बेटे की जरूरत पूरी करती. बाप दीनानाथ के खौफ से बेटे रजनीश के बाल मन पर ऐसा डर बैठा कि वह सहमासहमा ही रहता. समय बीतता गया. अब रजनीश 21 साल का हो गया था. उस ने बैंक का इम्तिहान दिया. नतीजा आया, तो वह फिर अव्वल रहा. इंटरव्यू के बाद उसे जयपुर में पोस्टिंग मिल गई. उधर दीनानाथ की झगड़ा करने की आदत से नगरनिगम दफ्तर से उसे निकाल दिया गया था.

घर में खुशी का माहौल था. बेटे ने मां के पैर छुए और उन से आशीर्वाद लिया. पिता घर के किसी कोने में बैठा रो रहा था. उस के मन में एक तरफ नौकरी छूटने का दुख था, तो दूसरी ओर यह चिंता सताने लगी थी कि बेटा अब उस से बदला लेगा, क्योंकि उस ने उसे कोई सुख नहीं दिया था.

मां रजनीश से बोलीं, ‘‘बेटा, अब हम दोनों जयपुर रहेंगे. तेरे बापू के साथ नहीं रहेंगे. तेरे बापू ने तुझे और मुझे जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा…

‘‘अब तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. तेरी जिंदगी में तेरे बापू का अब मैं साया भी नहीं पड़ने दूंगी.’’

रजनीश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मां, मैं बापू से बदला नहीं लूंगा. उन्होंने जो मेरे साथ बरताव किया, वैसा बरताव मैं नहीं करूंगा. मैं अपने बेटे को ऐसी तालीम नहीं देना चाहता, जो मेरे पिता ने मुझे दी.’’

रजनीश उठा और बापू के पैर छू कर बोला, ‘‘बापू, मैं अफसर बन गया हूं, मुझे आशीर्वाद दें. आप की नौकरी छूट गई तो कोई बात नहीं, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूं. चलो, आप अब जयपुर में मेरे साथ रहो, हम मिल कर रहेंगे.‘‘

यह सुन कर दीनानाथ की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला, ‘‘बेटा, मैं ने तुझे बहुत सताया है, लेकिन तू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा. मुझे तुझ पर गर्व है.’’

दीनानाथ को अपने किए पर खूब पछतावा हो रहा था. रजनीश ने बापू की आंखों से आंसू पोंछे, तो दीनानाथ ने खुश हो कर उसे गले लगा लिया.

फुल टाइम मेड: क्या काजोल के नखरे झेलने में कामयाब हुई सुमी ?

रितु यों मुझे कभी इतना इसरार कर के नहीं बुलाती थी. लेकिन आज उस ने ऐसा किया. मुझ से कहा कि शाम की चाय पर मैं उस के घर आ जाऊं, तो मुझे लगा कि कहीं नया एलसीडी टीवी तो नहीं खरीद लिया रितु ने या फिर नया फ्रिज, सोफा अथवा जरूर हीरे का सैट खरीदा होगा.

उस के घर पहुंची तो दरवाजा सलवारकमीज पहने एक युवती ने खोला.

मुझे देखते ही सिर झुका कर बोली,

‘‘गुड ईवनिंग.’’

मैं सकपकाई कि कौन हो सकती है यह बाला? रितु की बहन तो है नहीं, जहां तक मुझे पता है ननद भी नहीं है. इस से पहले कि मैं कुछ कहती, वह बड़े अदब से बोली, ‘‘प्लीज, कम इन, मैडम आप का वेट कर रही हैं.’’

मैं अपनेआप को संभालती कमरे में आई. मुझे देखते ही रितु उठ खड़ी हुई और गले लगाते हुए बोली, ‘‘क्या यार, बड़ी देर कर दी,’’ फिर बोली, ‘‘ममता, जल्दी से समोसे गरम कर ले आ. ब्रैडपकौड़े तल लेना और हां, 2 तरह की चटनी भी बना लेना.’’

मैं बेवकूफों की तरह उस का मुंह ताकने लगी. रितु ने हाथ पकड़ कर मुझे बैठाते हुए कहा, ‘‘सुमी, बड़ा आराम हो गया है, ममता के आने के बाद. ममता, मेरी फुल टाइम मेड, हर तरह का खाना बनाना जानती है. अपनी घरेलू बाइयों की तरह कोई खिटपिट नहीं. यहीं रहती है, जब चाहो, जो चाहो हाजिर.’’

और ममता मिनटों में समोसे और ब्रैडपकौड़े ले आई, तमीज से ट्रे में रख कर. साथ में एक मीठी चटनी और एक पुदीने की तीखी चटनी. इतनी स्वादिष्ठ कि मन हुआ ममता के हाथ चूम लूं. ‘तो यह थी वह नगीना, जिसे दिखाने के लिए रितु ने मुझे टी पार्टी पर बुलाया था,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

समोसे का एक कौर खाने के बाद रितु मुझे विस्तार से जलाने लगी, ‘‘देख सुमी, अपनी काम वालियों से आप इसी बात की उम्मीद नहीं कर सकते कि वे मेहमानों की आवभगत करें. फिर स्टेटस की भी बात है.

मुझे घर का एक काम नहीं करना पड़ता. सुबहसवेरे बैड टी हाजिर. बाजार से सब्जी वगैरह लाने का काम भी यह कर देती है. हम तो भई सुबह बैड टी पी कर जिम जाते हैं. लौटते हैं तो गरमगरम नाश्ता तैयार होता है. दोपहर को लजीज खाना, शाम को चाय के साथ नाश्ता और रात को शाही डिनर. कभी चाइनीज, तो कभी मुगलई, कभी साउथ इंडियन तो कभी पंजाबी.’’

मैं रितु के उस नगीने पर से नजरें नहीं हटा पा रही थी. मुझे अपनी काम वाली की 100 कमियां सिरे से सताने लगीं. आज सुबह वह मुझ से पगार बढ़ाने की बात कह चुकी थी. हर सप्ताह 1 या 2 दिन गायब रहती. सुबह

6 बजे उस के 1 बार घंटी बजाने पर दरवाजा न खोलूं, तो वह तुरंत दूसरे घर चली जाती. फिर उस के दर्शन होते दोपहर बाद. अगर सिंक में कभी बरतनों की संख्या 2-4 अधिक हो जाए, तो वह कांच की एकाध आइटम तोड़ने के बाद भी बुदबुदाना जारी रखती मानो हमें बरतन की जगह पत्तलों में खाना चाहिए.

साफसफाई में अगर कभी कोई मीनमेख निकाल दो, तो झाड़ू वहीं पटक कर पूरा हिसाब देने बैठ जाती है कि उस से बेहतर काम कोई कर ही नहीं सकता.

रितु का भी महीने भर पहले तक कमोबेश यही हिसाब था, लेकिन आज उस की स्थिति ऐसी थी मानो वह जनरल मैनेजर हो और मैं उस की कंपनी में एक साधारण क्लर्क.

समोसे, ब्रैडपकौड़े और चाय गटकने के बाद मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘तुम यह नगीना कहां से लाई हो?’’

रितु ने भेद भरे अंदाज में कहा, ‘‘यों तो मैं किसी को बताती नहीं, पर तुम मेरी बैस्ट फ्रैंड हो, इसलिए बता रही हूं. शहर में मेड सप्लाई करने वाली कई एजेंसियां हैं, लेकिन इस एजेंसी की बात ही अलग है. सारी लड़कियां ट्रैंड हैं.’’

मैं मुद्दे पर आती हुई पूछ बैठी, ‘‘पैसा तो बहुत लेती होगी?’’

रितु ने मुझ पर बेचारगी से निगाह डाली, फिर बोली, ‘‘सुमी, तुम जाने दो. तुम एफोर्ड नहीं कर पाओगी. मेरी बात अलग है. हसबैंड का प्रमोशन हुआ है, फिर मुझे…’’

मैं खीज कर बोली, ‘‘अब बता भी दो.’’

रितु ने धीरे से कहा, ‘‘डिपैंड करता है कि तुम अपनी मेड से क्याक्या करवाना चाहती हो. सिर्फ इंडियन खाना बनाने वाली थोड़ा कम चार्ज करती है. अगर उसी से तुम घर का सारा काम भी करवाओगी तो कुछ ज्यादा खर्च करना होगा. अब मैं तुम्हें ममता का रेट तो नहीं बता सकती, एजेंसी वाले मना करते हैं. हां, तुम चाहो तो मैं तुम्हें एजेंसी का फोन नंबर दे सकती हूं, साथ भी चल सकती हूं.’’

रितु के घर से लौटते हुए मेरी आंखों के आगे बस ममता ही घूम रही थी. घर पहुंचतेपहुंचते मैं ने तय कर लिया कि चाहे जो हो जाए, मुझे फुलटाइम मेड चाहिए ही चाहिए. बस दिक्कत थी, अपने पतिदेव को पटाने की और उस काम में तो मैं माहिर थी ही.

रितु के साथ मैं एजेंसी पहुंच गई मेड लेने. मैं इस तरह तैयार हो कर गई थी मानो शादी में जा रही हूं. मेड और एजेंसी वालों पर इंप्रैशन जो जमाना था. एजेंसी क्या थी, पूरा फाइव स्टार होटल था. जाते ही हमारे सामने कोल्ड ड्रिंक आ गया. फिर हम एसी की हवा खाने लगे.

तभी हीरो जैसे दिखने वाले एक व्यक्ति ने मेरे सामने एक फार्म रखा और फिर बड़ी मीठी आवाज में शुद्ध अंगरेजी में मेरा इंटरव्यू लेने लगा. मैं कहां तक पढ़ी हूं, कितने कमरों के घर में रहती हूं, पति क्या करते हैं, ऊपरी आमदनी है या नहीं, घर अपना है या किराए का, हम दिन में कितनी दफा खाते हैं, सप्ताह में कितनी बार मेहमान आते हैं, मेहमान किस किस्म का खाना खाते हैं, घर में कोई पानतंबाकू खाने वाला तो नहीं है, सब्जीभाजी वाले से 5-10 रुपए के लिए चिकचिक तो नहीं करते. वगैरहवगैरह.

फिर उस ने रेट कार्ड देते हुए कहा,

‘‘यह रहा हमारा रेट कार्ड, इस में देख कर टिक लगा दीजिए.’’

भारतीय खाना पकवाने के 2 हजार रुपए, चाइनीज के ढाई हजार, अगर कभीकभार मुगलई या कौंटीनैंटल बनवाना हो तो 3 हजार रुपए, इस के अलावा नाश्ते की आइटम के लिए हजार रुपए अलग से.

मैं ने सकपका कर रितु की तरफ देखा. रितु ने फिर से कुहनी मारी, बोली, ‘‘सुमी, तुम सिर्फ इंडियन खाने के लिए रख लो. मुगलई और चाइनीज बनवा कर क्या करोगी?’’

मेरे अहम को इतना जबरदस्त धक्का लगा कि मैं ने तुरंत लपक कर मुगलई वाले में टिक लगा दिया. हीरो ने हिसाबकिताब लगाना शुरू किया और अब की बार थोड़ी विनम्रता से बोला, ‘‘मैडम, आप को हर महीने मेड को

4 हजार रुपए देने होंगे. हफ्ते में 1 दिन की पूरी छुट्टी. साल में 15 दिन की अतिरिक्त तनख्वाह और गांव आनेजाने का सैकंड एसी का किराया. इस के अलावा हमें आप 2 महीने की तनख्वाह डिपौजिट के रूप में देंगी. अगर बीच में कभी आप मेड को निकाल देंगी, तो हम यह पैसा वापस नहीं करेंगे. अगर यह खुद छोड़ कर चली जाएगी, तो डिपौजिट वापस हो जाएगा.’’

तो क्या हुआ, जो मुझे अपनी नई स्कूल की नौकरी में इस मेड के बराबर तनख्वाह मिलती है, स्टेटस भी तो कोई चीज है. मैं अपने साथ सिर्फ 5 हजार रुपए लाई थी, बाकी रितु से उधार ले कर उसे थमाए, तो उस ने मेरे सामने एक सांवली, दुबलीपतली लड़की पेश कर दी.

‘‘मैडम, यह हमारी खास मेड है. नाम है काजोल. एक बार इस के हाथ का पका खाना  खाएंगी, तो बारबार हमें याद करेंगी.’’

काजोल अपना सूटकेस ले कर आई, तो रितु ने धीरे से टोका, ‘‘इसे टैक्सी में आने के पैसे दो. यह तुम्हारे साथ टू व्हीलर पर कैसे जाएगी?’’

मैं ने पर्स से एक आखिरी बचा 100 का नोट निकाल कर काजोल को थमा दिया.

रितु को उस के घर छोड़ते हुए मैं काजोल के संग घर आ गई. मेरा घर देख कर काजोल खास खुश नहीं दिखी. घर देखने के बाद पूछा, ‘‘मैडमजी, मैं कहां रहूंगी?’’

मैं ने घर के बाहर बने कमरे की ओर इशारा किया तो उस ने नाकभौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, कुछ तो मेरी इज्जत का खयाल करो. ऐसे अंधेरे कमरे में मुझे नहीं रहना. मुझे अटैच्ड बाथरूम वाला कमरा दो.’’

उस की निगाहें मेरे कमरे पर थीं. मैं ने सकुचा कर कहा, ‘‘काजोल, ऐसा तो कोई कमरा है नहीं. वैसे दिन भर हम हसबैंडवाइफ तो बाहर ही रहेंगे. तुम ऐसा करो, ड्राइंगरूम में रह लेना. यहां तो कूलर भी है.’’

काजोल को बात पसंद तो नहीं आई, पर उस ने सामान ड्राइंगरूम के कोने में रख दिया. मुझे लगा कि आते ही वह रसोई देखना चाहेगी, पर वह देखना चाहती थी बाथरूम. मेरे बाथरूम में देर तक नहाने के बाद वह बोली, ‘‘मैडम, चाय पीने का मन हो रहा है. रसोई कहां है?’’

मैं खुश हो गई, ‘‘हांहां, चाय के साथ समोसे भी बना लो. हसबैंड भी घर लौटते होंगे.’’

उस का मुंह बन गया, ‘‘मैडम, आज सुबह की ट्रेन से आई हूं. आज चाय पी कर रेस्ट करूंगी. रात को खाने पर कुछ सिंपल बनवा लेना.’’

मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने. खैर, मुझ से पूछपूछ कर उस ने चाय बनाई. उसे चूंकि ज्यादा दूध वाली चाय पसंद थी, इसलिए वह चाय मुझे पीनी पड़ी. इस के बाद वह ड्राइंगरूम में एक चादर बिछा कर लेट

गई. मुझे हिदायत दे गई कि 8 बजे से पहले उसे न उठाऊं.

पतिदेव घर पर पधारे. जैसे ही ड्राइंगरूम में उन के चरण पड़े, मैं ने उन्हें रोक लिया और मेड की तरफ इशारा किया, ‘‘देखो, कौन आया है.’’

पतिदेव ने मेरी तरफ बेचारगी वाली निगाह डाली और कहा, ‘‘चाय मिलेगी?’’

अभी 8 नहीं बजे थे, इसलिए चाय मैं ने ही बनाई, यह कहते हुए कि रात से पूरा काम मेड करेगी.

8 बजे तक किसी तरह जज्ब किया अपने को. ठीक 8 बजे उसे उठाया तो वह कुनमुन करती उठी, ‘‘मैडम, यह क्या, इतना शोर मचा दिया. मेरा तो सिर दर्द करने लगा.’’

खैर, मेरे बाथरूम में हाथमुंह धो कर वह किचन में आई. तब तक मैं घर में बची सब्जियां, लौकी, तुरई और आलू निकाल चुकी थी.

काजोल ने जैसे ही सब्जियों की तरफ निगाह डाली, हिकारत से बोली, ‘‘मैडम, आप को एजेंसी वाले ने बताया नहीं कि मैं लौकी और तुरई जैसी सब्जियां न बनाती हूं, न खाती हूं?’’

मैं ने बात संभालते हुए कहा, ‘‘मैं आज सुबह से बिजी थी न, इसलिए दूसरी कोई सब्जी ला नहीं पाई. जाने दो, आज दालचावल खा लेंगे, वैसे भी सुबह का खाना रखा है फ्रिज में.’’

जब मैं पतिदेव को दिन का खाना माइक्रोवेव में गरम कर के खिलाने लगी, तो उन्होंने मेरी तरफ करुणा भाव से देखा और बोले, ‘‘सुमी, कोई बात नहीं. मुझे तो जो खिला दोगी, खा लूंगा.’’

मैं ने कुछ मनुहार से कहा, ‘‘बस, आज की बात है. कल से रोज तुम्हें चाइनीज, कौटीनैंटल और मुगलई खाना मिला करेगा.’’

कल के सपनों में खोई जो सोई, तो नींद दरवाजा खटखटाने की आवाज से भी नहीं खुली. पतिदेव जाग गए. दरवाजा खोला तो सामने काजोल खड़ी थी.

‘‘सर, मुझे जमीन पर लेट कर नींद नहीं आ रही, आप कहें तो सोफे पर सो जाऊं?’’

पतिदेव ने हां में सिर हिला दिया. करते भी क्या. सुबह उठी, तो ड्राइंगरूम में सोफे पर काजोल को सोया देख, पारा चढ़ने लगा. इस से पहले मैं कुछ कहती, पतिदेव ने मेरा हाथ दबा कर धीरे से कहा, ‘‘बेचारी को जमीन पर नींद नहीं आ रही थी, मुझ से पूछा तो मैं ने ही कहा कि…’’

मैं चुप रह गई. चाय का पानी चढ़ा कर काजोल को आवाज लगाई. सुबह का नाश्ता कौन बनाएगा?

काजोल की मरी सी आवाज आई, ‘‘मैडम, देखिए बुखार आ गया है मुझे.’’

स्कूल से लौटी, तो काजोल सुबह वाली अवस्था में मुंह ढांपे सो रही थी. मैं ने घर के अंदर कदम रखा, तो लगा पता नहीं किस के घर आई हूं. रात से गंदा पड़ा घर वैसा ही था. कमरे में कूड़ा, ड्राइंगरूम में अस्तव्यस्त मेड का बिस्तर, किचन में हर तरफ गंदगी, सिंक में जूठे बरतन.

मैं ने किसी तरह अपने को नियंत्रित कर मेड एजेंसी में फोन घुमाया. हीरो लाइन पर आया, तो उसे अपने मन की पीड़ा बताई कि यह क्या, मेड तो घर आते ही बीमार पड़ गई.

हीरो ने उत्तेजित आवाज में कहा,

‘‘मैडम, हम ने तो आप को मेड बिलकुल सहीसलामत दी थी. आप उसे जल्दी से अच्छा करिए. वैसे भी हम डिफैक्टिव पीस वापस नहीं लेते.’’

मैं भन्नाती हुई रसोई में पहुंची. काजोल लड़खड़ाती हुई उठी, ‘‘मैडम, सुबह से चक्कर आ रहे हैं. लगता है आप के घर का पानी मुझे सूट नहीं किया.’’

मैं उस के सामने बरतन साफ करने लगी. पर उस ने उफ तक नहीं की. मैं ने

मरता क्या न करता की शैली में अपनी कालोनी के डाक्टर को घर बुलवा लिया. डाक्टर पुराने थे, पर काजोल की बीमारी नई थी. वे थक कर बोले, ‘‘वैसे तो कोई बीमारी नहीं लगती, पर एहतियात के लिए 2-4 गोलियां लिख देता हूं.’’

दवा खाने के बाद वह फिर सो गई. शाम ढली और रात की बारी आ गई. मुगलई, चाइनीज के सपने देखती हुई मैं बुरी सी शक्ल बनाती हुई रितु ऐंड फैमिली की बाट जोहने लगी. अब बाहर से खाना मंगवाने के अलावा चारा क्या था?

ठीक समय पर मेहमान आए. घर की हालत देख रितु पहले तो चौंकी, फिर मुझे कोने में बुला कर आवाज को भरसक मुलायम बनाते हुए बोली, ‘‘सुमी, देखो कुछ लोग होते हैं, जो नौकरों से काम निकलवाते हैं और कुछ लोग नौकरों के लिए काम करते हैं.’’

मेरा चेहरा फक्क पड़ गया. मेरा हाथ दबा कर वह कुछ धीरज बंधाती हुई बोली, ‘‘तुम रहने दो सुमी. तुम से मेड नहीं पाली जाएगी. इस के चोंचलों में चोंच दोगी, तो जल्द ही यह तुम्हारे बैडरूम में सोने लगेगी और तुम इस के कपड़े धोती नजर आओगी.’’

मैं रोआंसी हो उठी. वाकई 2 दिन के जद्दोजहद के बाद मुझे यह समझ में आने लगा कि फुलटाइम मेड नामक बला से निबटना मुझे नहीं आएगा.

जातेजाते रितु मुझे जरूरी टिप दे गई, ‘‘देखो, अगर तुम इसे निकालोगी, तो तुम्हें डिपौजिट के पैसे नहीं मिलेंगे. कुछ ऐसा करो कि यह खुद छोड़ जाए.’’

बात मेरी समझ में आ गई. रात में मैं ने काजोल का बिस्तर बाहर वाले कमरे में डलवा दिया और कुछ सख्त स्वर में कहा, ‘‘डाक्टर कह रहे थे, तुम्हें छूत की बीमारी हो सकती है. तुम अलग रहो. खानापीना मैं तुम्हें कमरे में पहुंचा दूंगी.’’

रितु की तरकीब कामयाब रही. अगले ही दिन काजोल की तबीयत ठीक हो गई. न सिर्फ वापस उस ने ड्राइंगरूम में डेरा जमाना चाहा, बल्कि सुबह उठ कर नाश्ता बनाने को भी तैयार हो गई. मैं ने उस के हाथ का बना मंचूरियन और कोफ्ते खाए, तो लगा कि जल्द ही बिस्तर पर पड़ जाऊंगी.

मैं ने कमर कस ली कि डिपौजिट के पैसे तो वापस ले कर रहूंगी. अत: न मैं ने उसे ड्राइंगरूम में आने दिया, न उसे लौकी और तुरई के अलावा बनाने के लिए कोई तीसरी सब्जी दी. चौथे दिन एजेंसी से फोन आ गया, ‘‘मैडम, आप आ कर डिपौजिट के पैसे वापस ले जाइए. काजोल आप के यहां काम नहीं करना चाहती.’’

इस बार मेरा सीना कुछ चौड़ा हुआ. मैं ने काजोल को बस के पैसे दिए और टू व्हीलर से जा कर अपने डिपौजिट के पैसे वापस ले आई. लौटते हुए मैं ने अग्रवाल स्वीट हाउस से गरमगरम समोसे खरीद लिए. आखिर अपनी औका

कालेजिया इश्क: इश्कबाजी की अनोखी कहानी

कालेज के दिन भी क्या थे. वैसे तो कालेज में न जाने कितने दोस्त थे, लेकिन सलीम और रजत के बिना न तो कभी मेरा कालेज जाना हुआ और न ही कभी कैंटीन में कुछ अकेले खाना.

सलीम दूसरे शहर का रहने वाला था. एक छोटे से किराए के कमरे में उस का सबकुछ था जैसे कि रसोईर् का सामान, बिस्तर और चारों तरफ लगीं हीरोइनों की ढेर सारी तसवीरें. हुआ यह कि एक दिन अचानक अपनी पूरी गृहस्थी साइकिल पर लादे मेरे घर आ गया. मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘यार हुआ क्या, मकान मालिक से कहासुनी हो गई. मैं ने कमरा खाली कर दिया. चलो, कोई नया कमरा ढूंढ़ो चल कर,’’ उस ने जवाब दिया तो मैं ने कहा, ‘‘इतनी सुबह किस का दरवाजा खटखटाएं. तुम पहले चाय पियो, फिर चलते हैं.’’

सुबह 10 बजे मैं और सलीम नया कमरा ढूंढ़ने निकले. ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा, पड़ोसी इरफान चाचा का कमरा खाली था. इरफान चाचा पहले तैयार नहीं हुए तो मैं ने अपने ट्यूशन वाले इफ्तियार सर से कहा, ‘‘सर, मेरे दोस्त को कमरा चाहिए.’’ उन की इरफान चाचा से जान पहचान थी. उन के कहने पर सलीम को इरफान चाचा का कमरा मिल गया.’’

कुछ दिनों बाद सलीम ने बताया ‘‘यार, इरफान चाचा बड़े भले आदमी है, कभीकभी उन की बेटियां खाना दे जाती हैं.’’ मैं ने उस से कहा, ‘‘यार चक्कर में मत पड़ जाना.’’

‘‘यार मुझे कुछ लेनादेना नहीं, पढ़ाई पूरी हो जाए अपने शहर वापस चला जाऊंगा,’’ सलीम बोला.

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महीना भर बीता होगा सलीम को इरफान चाचा के यहां रहते हुए, एक सुबह वह फिर पूरी गृहस्थी साइकिल पर लादे मेरे घर आया. मैं ने पूछा, ‘‘अब क्या हुआ, तुम तो फिर बेघर हो गए?’’

उस ने कहा, ‘‘रुको, पहले मैं साइकिल खड़ी कर दूं, फिर बताता हूं. पिछले हफ्ते इरफान चाचा और उन की बेगम खुसरफुसुर कर रहे थे. मैं ने दरवाजे से सट कर उन की बातचीत सुनी. वे कह रहे थे, ‘लड़का तो अच्छा है अपनी जैनब के लिए सही रहेगा. इसे घर में ही खाना खिला दिया करो. जल्द ही निकाह कर देंगे.‘’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘यार इस में कमरा छोड़ने की कौन सी बात है. तुम्हारी बिना मरजी के कोई भला शादी कैसे कर देगा.’’

सलीम ने कागज का एक टुकड़ा निकाल कर पढ़ा जो कि उर्दू में था, ’आप तो बड़े जहीन हैं. मुझे तो पता ही नहीं चला कि मैं कब आप को दिल दे बैठी. अब्बू कह रहे थे, लड़का बहुत भला है, खयाल रखा करो. कल आप का इंतजार करती रही और आप हैं कि आप को अपने दोस्तों से फुरसत नहीं. वैसे जो आप का बड़े बालों वाला दोस्त है वह तो इसी महल्ले में रहता है. अब्बू कह रहे थे. अपनी शादी में उसे भी बुलाना. आज आप के लिए मेवे वाली खीर बनाऊंगी, मुझे पता है. आप को बहुत पसंद हैं.

‘तुम्हारी जैनब.’

खत पढ़ने के बाद सलीम ने कहा, ‘‘तुम्हें पता है, ये खत किस ने लिखा है.’’ ‘‘जैनब ने लिखा होगा,’’ मैं ने कहा.‘‘नहीं, यह जैनब ने नहीं लिखा. मुझे पता है कि जैनब को उर्दू लिखनी नहीं आती. मैं ने यह भी पता कर लिया है कि इसे किस ने लिखा है.’’

‘‘अगर तुम्हें पता है तो बताओ किस ने लिखा है,’’ मैं ने अचरज से पूछा.

सलीम ने कहा, ‘‘इसे जैनब के अब्बू ने खुद लिखा है.’’

‘‘वो तुम्हें कैसे पता?’’

सलीम ने बताया, ‘‘इरफान चाचा के 4 बेटियां हैं और उन्होंने एक को भी नहीं पढ़ाया. मैं उन्हें अब हिंदी वर्णमाला सिखा रहा हूं. उर्दू सिर्फ उन की बेटियों को रटी हुई है थोड़ीबहुत लेकिन वे लिख नहीं पातीं.’’

मैं ने कहा, ‘‘तो अब क्या करें?’’सलीम बोला,’’ कुछ नहीं, पुराने मकान मालिक के पास जा रहा हूं, माफी मांग लूंगा वहीं रहूंगा.’’

पहला साल था हमारा ग्रेजुएशन का. रजत शहर का ही रहने वाला था. एक दिन जैसे ही मैं इकोनौमिक्स की क्लास में घुसा, मेरे होश उड़ गए. ब्लैकबोर्ड पर लिखा था ‘आई लव यू अंजुला.’ नीचे मेरा नाम लिखा था, ‘तुम्हारा राहुल’ और अंजुला नाम की जो लड़की क्लासमेट थी, उस की मेज पर गुलाब का फूल रखा था और साथ में एक लैटर, जिस में लिखा था, ‘अंजुला, आज मैं पूरी क्लास के सामने यह स्वीकार करता हूं कि मैं तुम्हे बेइंतहा प्यार करता हूं.’

ये सब देख कर और लैटर पढ़ कर मेरा हाल बेहाल था. क्लास में रजत मुझे मिला नहीं. वह ये सब कर के निकल चुका था. क्लास में सब से पहले अंजुला ही आई और ये सब देख कर फूटफूट कर रोने लगी. मैं तो मेजों के नीचे से निकल कर कालेज के पिछले दरवाजे से भाग कर घर आ गया. मैं 7 दिनों तक कालेज गया ही नहीं.

ग्रेजुएशन का दूसरा साल था. लंबी छुट्टी के बाद कालेज खुला. सलीम अपने शहर से वापस आ गया. सलीम और मैं हमेशा क्लास की आगे की पंक्ति में बैठते थे. ऐडमिशन चल रहे थे, एक दिन सलमा नाम की लड़की क्लास में आई. उस ने क्लास में पढ़ा रहे सर से कहा, ‘‘सर, मेरा नाम रजिस्टर में लिख लीजिए, मेरे पापा जिला जज हैं. उन का यहां ट्रांसफर हुआ है. सर ने लिख लिया. वह हमारे साथ ही क्लास की अगली पंक्ति में बैठती थी.

सलीम की निगाहें अकसर सलमा की तरफ ही रहती थीं, एक दिन सलीम ने मुझ से कहा, ‘‘तुम ने देखा, सलमा मेरी तरफ देखती रहती है.’’

मैं ने कहा, ‘‘अबे ओए तेरी अक्ल घास चरने गई. कहां राजा भोज कहां गंगू तेली. वह तेरी तरफ नहीं, मुझे देखती है.’’

सलीम ने तुरंत बात काटते हुए कहा, ‘‘नहीं, वह तुम्हारी तरफ बिलकुल नहीं देखती, वह मेरी तरफ ही देखती है और तुम्हें एक बात और बता दूं, अमीर लड़कियों को गरीब लड़कों से ही प्यार होता है. हिंदी फिल्मों में भी तो यही दिखाया जाता है.’’

मैं ने कहा,’’चलो, छोड़ो यार पिछले साल हम लोगों के नंबर कम आए थे, इस बार मेहनत कर लो, पता चले इन बातों के चक्कर में ग्रेजुएशन 3 की जगह 4 साल का हो जाए.’’

एक दिन सलीम का भ्रम टूट ही गया जब उस ने मुझे बताया, ‘‘यार, वह न मेरी तरफ देखती है और न तुम्हारी तरफ. आज मैं कौफी शौप गया तो मैं ने देखा जो अपने क्लास का सुहेल है, उस के साथ सलमा हाथ में हाथ डाले एक ही कप में कौफी पी रही थी.’’

मुझे हंसी आ गई. मैं ने पूछा, ’’फिर तुम्हारी गरीब लड़का और अमीर लड़की वाली फिल्म का क्या होगा?’’

सलीम ने झेंपते हुए कहा, ‘‘मेरी फिल्म फ्लौप हो गई.’’

लेकिन उस ने भी मुझ से पूछ लिया, ‘‘तुम भी तो कह रहे थे, वह तुम्हारी तरफ देखती है. तुम भी तो रेल सी देखते रह गए?’’

मैं ने कहा ‘‘छोड़ो यार, हमारी दोस्ती सब से बढ़ कर है.’’कुछ दिनों से रजत की अजीब किस्म के शरारती लड़कों से दोस्ती हो गई थी. जब भी कोई सर क्लास में पढ़ाने आते, रजत अपने शरारती दोस्तों के साथ क्लास के बाहर कसरत करने लगता.

एक दिन सर ने चिल्ला कर पूछा, ‘‘यह हो क्या रहा है, तुम पढ़ते समय ये हरकतें क्यों करते हो?’’रजत अकड़ कर बोला, ’’सर, इसे हरकत मत बोलिए. जैसे आप किसी विषय को क्लास में पढ़ाते हो वैसे ही मैं इन्हें कसरत कर के शरीर हृष्टपुष्ट रखने की ट्रेनिंग देता हूं.’’

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रजत की हरकतों से सर गुस्से में पैर पटकते क्लास छोड़ कर चले गए, ‘‘बेकार है पढ़ाना, यह पढ़ाने ही नहीं देगा.’’

मैं ने रजत से कहा, ‘‘यार, कभीकभी तो क्लास लगती है, उस पर भी तुम ड्रामा कर देते हो.’’

रजत बोला, ‘‘तुम्हें ज्यादा पढ़ाई सूझ रही है तो घर पर पढ़ा करो. हमें तो पहले शरीर हृष्टपुष्ट करना है, फिर पढ़ाई.’’

एक दिन तो हद हो गई, सर इकोनौमिक्स पढ़ा रहे थे. रजत और उस के दोस्त शेख की वेशभूषा में क्लास में घुसे और सर से बोले, ’’ए मिस्टर, हमें आप से बात करनी है. हमारे अरब में सौ तेल के कुएं हैं, और हम आप को अपना बिजनैस पार्टनर बनाना चाहते हैं.’’

सर आगबबूला हो गए. उन्होंने प्रिंसिपल से तुरंत शिकायत की. प्रिंसिपल ने पुलिस बुला दी. सभी शेख पिछला दरवाजा फांद कर नौ दो ग्यारह हो गए.

कालेज की लाइब्रेरी में नीचे का फ्लोर लड़कों के बैठने के लिए था और ऊपर का फ्लोर लड़कियों के लिए. लाइब्रेरियन लड़कों से तो बड़े खुर्राट तरीके  से बात करता लेकिन जब कोई लड़की बात करने आती तो उस की बातें ही खत्म नहीं होतीं. यह दूसरी बात थी कि लड़कियां ही उस से कम बात किया करती थीं.

एक दिन जब मैं, रजत और सलीम साथ में लाइब्रेरी में घुसे, सलीम ने लाइब्रेरियन से कोई मैगजीन मांगी. उस ने मैगजीन दी ही नहीं और वही मैगजीन जब एक लड़की ने मांगी तो उसे दे दी. सलीम को बड़ा गुस्सा आया. उस ने लाइब्रेरियन से गुस्से में कहा, ‘‘यह बताओ, हमारे में क्या कांटे लगे हैं. तुम्हें सिर्फ लड़कियां ही दिखाई देती हैं.’’

मोनू सिंह और उस की बहन भी हमारे बैचमेट थे. दोस्ती तो नहीं थी, हां, कभीकभार बातचीत हो जाती थी. एक दिन मैं, सलीम, रजत लाइब्रेरी में बैठे पढ़ रहे थे. अचानक ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज आनें लगी, बाद में पता चला कि मोनू सिंह की बहन का किसी ने दुपट्टा खींच दिया था. गांव से उस के साथ आए लोगों ने गोलियां चलाई थीं. खैर, मोनू सिंह और उन की बहन सैकंड ईयर में ही घर वापस चले गए.

पता ही नहीं चले कालेज के 2 साल कब फुर्र से उड़ गए. तीसरे साल में सलीम ने मुझे बताया, ‘‘यार, मुझे एक लड़की से प्यार हो गया है.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारी एक मुहब्बत पहले भी फ्लौप हो चुकी है. चुपचाप पढ़ाई करो, वैसे भी यह थर्ड ईयर है.’’ लेकिन सलीम के ऊपर जैसे मुहब्बत का भूत सवार था. मैं ने पूछा, ‘‘बताओ कौन है वह लड़की?’’

‘‘अरे वही गुलनाज जो पीछे बैठती है.’’ गुलनाज कभीकभार सलीम से बात कर लेती थी.

एक दिन मैं कालेज नहीं गया. सलीम शाम को घर आया,’’यार, तुम तो कालेज गए नहीं लेकिन तुम्हारे लिए किसी ने लैटर दिया है. लो, पढ़ लो.’’

लैटर में यों लिखा था-

‘डियर राहुल, मुझे पता है जीसीआर (गर्ल कौमन रूम) के सामने खड़े हो कर तुम सिर्फ मुझे ही देखते हो. बड़ी अच्छी बात है. तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो, लेकिन क्या करूं, मुझे शर्म लगती है तुम से बात करने में. इसीलिए आज तक हम कोई बात नहीं कर पाए. वैसे, मिलना या बातें करने से भी ऊंचा है हमारा प्यार. कल तुम गांधीजी की मूर्ति के पास जो बैंच है, उस के पास अपने हिस्ट्री के नोट्स रख देना, मैं उन्हें उठा लूंगी.

‘ढेर सारा प्यार. तुम्हारी ममता.’

लैटर में ढेर सारी गुलाब की पंखुडि़यां रखी थी. लैटर पढ़ने के बाद सलीम बोला, ‘‘बधाई हो. कालेज जाते कई दिन हो गए, ममता ने कभी उड़ती नजर से भी मेरी तरफ नहीं देखा.’’

मैं ने सलीम से पूछा, ‘‘यार, लैटर लिखने के बाद उस ने एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा.’’ सलीम ने बड़ी गंभीरता से कहा, ’’तुम ने पढ़ा नहीं. लैटर में उस ने खुद लिखा है उसे शर्म लगती है.

कालेज के दिन पता ही नहीं चले, कब वसंत के दिनों में पेड़ों पर आए बौर की तरह चले भी गए. आखिर ग्रेजुएशन के थर्ड ईयर की ऐग्जाम डेट्स आ गई. जब सभी पेपर हो गए, एक दिन शाम को सलीम घर पर मिलने आया. उस ने कहा, ‘‘आज तुम्हें एक राज वाली बात बतानी है.’’

‘‘बताओ.’’

सलीम ने लंबी सांस भरते हुए कहा, ‘‘ममता वाला लैटर मैं ने खुद लिखा था.’’

मैं ने अचरज से पूछा, ‘‘क्यों?’’ तो उस ने कहा, ‘‘मुझे डर था कि कहीं सलमा की तरह हमारीतुम्हारी एकतरफा मुहब्बत की तरह गुलनाज भी कौमन मुहब्बत न बन जाए.’’

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मैं ने कहा, ‘‘ओह, तो क्या गुलनाज तुम से प्यार करती है?’’ वह बोला, ‘‘नहीं यार, गुलनाज की सगाई लतीफ से हो गई है.’’ और हमेशा की तरह, गृहस्थी साइकिल पर लादे सलीम ने उसी रात महल्ला नहीं, बल्कि शहर ही छोड़ दिया.

राख : अभी ठंडी नहीं हुई

लक्ष्मी की गोद में अभी सालभर की बेटी थी. एक बूढ़ी सास थी. परिवार में और कोई नहीं था. वह अपनी बेटी को भी साथ ले गई थी. दरअसल, लक्ष्मी और किशन के बीच इश्कबाजी बहुत पहले से चल रही थी. जब वह लक्ष्मण से ब्याह कर आई थी, उस के पहले से ही यह सब चल रहा था. वह लक्ष्मण से शादी नहीं करना चाहती थी. एक तो लक्ष्मण पैसे वाला नहीं था, दूसरे वह शादी किशन से करना चाहती थी. वह दलित था, मगर पंच था और उस ने काफी पैसा बना लिया था. मगर मांबाप के दबाव के चलते लक्ष्मी को लक्ष्मण, जो जाति से गूजर था, के साथ शादी करनी पड़ी.

लक्ष्मी तो शादी के बाद से ही किशन के घर बैठना चाहती थी, मगर समाज के चलते वह ऐसा नहीं कर पाई थी. पर उस ने किशन से मेलजोल बनाए रखा था.

शादी की शुरुआत में तो वे दोनों चोरीछिपे मिला करते थे. बिरादरी के लोगों ने उन को पकड़ भी लिया था, मगर लक्ष्मी ने इस की जरा भी परवाह नहीं की थी.

जब लक्ष्मी ज्यादा बदनाम हो गई, तब भी उस ने किशन को नहीं छोड़ा. लक्ष्मण लक्ष्मी का सात फेरे वाला पति जरूर था, मगर लोगों की निगाह में असली पति किशन था.

जब शादी के 5 साल तक लक्ष्मी के कोई औलाद नहीं हुई, तब लक्ष्मण को बस्ती व बिरादरी के लोगों ने नामर्द मान लिया था. शादी के 6 साल बाद जब लक्ष्मी ने एक लड़की को जन्म दिया, तब समाज वालों ने इसे किशन की औलाद ही बताया था.

फिर भी लक्ष्मी लक्ष्मण की परवाह नहीं करती थी, इसलिए दोनों में आएदिन झड़पें होती रहती थीं. अब तो किशन भी उन के घर खुलेआम आनेजाने लगा था.

लक्ष्मण कुछ ज्यादा कहता, तब लक्ष्मी भी कहती थी, ‘‘ज्यादा मर्दपना मत दिखा, नहीं तो मैं किशन के घर बैठ जाऊंगी. तू मुझे ब्याह कर के ले तो आया हैं, मगर दिया क्या है आज तक? कभीकभी तो मैं एकएक चीज के लिए तरस जाती हूं. किशन कम से कम मेरी मांगी हुई चीजें ला कर तो देता है. तू भी मेरी हर मांग पूरी कर दिया कर. फिर मैं किशन को छोड़ दूंगी.’’

यहीं पर लक्ष्मण कमजोर पड़ जाता. बड़ी मुश्किल से मेहनतमजदूरी कर के वह परिवार का पेट भरता था. ऐसे में उस की मांग कहां से पूरी करे. स्त्रीहठ के आगे वह हार जाता था. अंदर ही अंदर वह कुढ़ता रहता था मगर लक्ष्मी से कुछ नहीं कहता था. मुंहफट औरत जो थी. उस की जरूरतें वह कहां से पूरी कर पाता, इसलिए किशन उस के घर में घंटों बैठा रहता था.

रहा सवाल लक्ष्मी की सास का, तो वह भी नहीं चाहती थी कि किशन उस के घर में आए.

एक दिन उस की सास ने कह भी दिया था, ‘‘बहू, पराए मर्द के साथ हंसहंस कर बातें करना, घर में घंटों बिठा कर रखना एक शादीशुदा औरत को शोभा नहीं देता है.’’

सास का इतना कहना था कि लक्ष्मी आगबबूला हो गई और बोली, ‘‘बुढि़या, ज्यादा उपदेश मत झाड़. चुपचाप पड़ी रह. तेरा बेटा जब मेरी मांगें पूरी नहीं कर सकता है, तब क्यों की तू ने उस के साथ मेरी शादी? अगर तेरा बेटा मेरी मांगें पूरी कर दे, तब मैं छोड़ दूंगी उसे.

‘‘एक तो मैं तेरे बेटे के साथ फेरे नहीं लेना चाहती थी, मगर मेरे मातापिता ने दबाव डाल कर तेरे बेटे से फेरे करवा दिए. अब चुपचाप घर में बैठी रह. अपनी गजभर की जबान मत चलाना, वरना मैं किशन के घर में बैठने में जरा भी देर नहीं करूंगी.’’

उस दिन लक्ष्मी ने अपनी सास को ऐसी कड़वी दवा पिलाई कि वह फिर कुछ न बोल सकी.

किशन अब बेझिझक लक्ष्मी के घर आने लगा. लक्ष्मी की हर मांग वह पूरी करता रहा. वह बनसंवर कर रहने लगी. कभीकभी वह किशन के साथ मेला और बाजार भी जाने लगी.

शुरूशुरू में तो बस्ती वालों ने भी उन पर खूब उंगलियां उठाईं, पर बाद में वे भी ठंडे पड़ गए. बस्ती वाले अब कहते थे कि लक्ष्मी के एक नहीं, बल्कि 2-2 पति हैं. फेरे वाला असली पति और बिना फेरे वाला दूसरा पति, मगर बिना फेरे वाला ही उस का असली पति बना हुआ था.

इस तरह दिन बीत रहे थे. जब शादी के 5 साल बाद लक्ष्मी पेट से हुई तब उस का बांझपन तो दूर हुआ, मगर एक कलंक भी लग गया. लक्ष्मी के पेट में जो बच्चा पल रहा था, वह लक्ष्मण का नहीं, किशन का था. मगर लक्ष्मी जानती थी कि वह बच्चा लक्ष्मण का ही है.

बस्ती वालों ने एक यही रट पकड़ रखी थी कि यह बच्चा किशन का ही है, मगर जहर का यह घूंट उसे पीना था. बस्ती वाले कुछ भी कहें, मगर सास को खेलने के लिए खिलौना मिल गया, लक्ष्मण पिता बन गया और नामर्दी से उस का पीछा छूट गया.

बस्ती वाले और रिश्तेदार सब लक्ष्मण को ही कोसते कि तू कैसा मर्द है, जो अपनी जोरू को किशन के पास जाने से रोक नहीं सकता. घर में आ कर किशन तेरी जोरू पर डोरे डाल रहा है, फिर भी तू नामर्द बना हुआ है. निकाल क्यों नहीं देता उसे. लक्ष्मण को तू अपनी लुगाई का खसम नहीं लगता है, बल्कि तेरी जोरू का खसम किशन लगता है.

लक्ष्मण इस तरह के न जाने कितने लांछन बस्ती वालों और रिश्तेदारों के मुंह से सुनता था. मगर वह एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता, क्योंकि लक्ष्मी किसी का कहना नहीं मानती थी.

कई महीनों से एक पुल बन रहा था. वहां लक्ष्मण भी मजदूरी कर रहा था. मगर अचानक एक दिन पुल का एक हिस्सा गिर गया. 6 मजदूर उस में दब गए. उन में लक्ष्मण भी था. हाहाकार

मच गया. पुलिस तत्काल वहां आ गई. पत्रकार उस पुल की क्वालिटी पर सवाल उठा कर ठेकेदार को घेरने लगे और फिर गुस्साई भीड़ वहां जमा हो गई.

पुल का टूटा मलबा उठाया गया. उन 6 लाशों का पुलिस ने पोस्टमार्टम कराया और उन के परिवारों को लाशें सौंप दीं.

जब लक्ष्मण की लाश उस की झोंपड़ी में लाई गई, तब उस की मां पछाड़ें मार कर रोने लगी. लक्ष्मी लाश पर रोई जरूर, मगर केवल ऊपरी मन से. लोकलाज के लिए उस की आंखों में आंसू जरूर थे, मगर वह अब खुद को आजाद मान रही थी.

समाज की निगाहों में लक्ष्मी विधवा जरूर हो गई थी, मगर वह अपने को विधवा कहां मान रही थी. पति नाम का जो सामाजिक खूंटा था, उस से वह छुटकारा पा गई थी.

लक्ष्मण तो मिट्टी में समा गया, मगर समाज के रीतिरिवाज के मुताबिक तेरहवीं की रस्म भी निकली थी. समाज के लोग जमा हुए. रसोई क्याक्या बनाई जाए. मिठाई कौन सी बनाई जाए, यह सब लक्ष्मण की मां से पूछा गया, तब उस ने अपनी बहू से पूछा, ‘‘बहू, कितना पैसा है तेरे पास.’’

मुंहफट लक्ष्मी बोली, ‘‘तुम तो ऐसे पूछ रही हो सासू मां जैसे तुम्हारा बेटा मुझे कारू का खजाना दे गया है.’’

‘‘तेरा क्या मतलब है?’’ सास जरा तीखी आवाज में बोली.

‘‘मतलब यह है सासू मां, मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है.’’

‘‘मगर, रस्में तो पूरी करनी पड़ेंगी.’’

‘‘तुम करो, वह तुम्हारा बेटा था,’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया.

‘‘जैसे तेरा कुछ भी नहीं लगता था वह?’’ सवाल करते हुए सास बोली, ‘‘करना तो पड़ेगा. बिरादरी में नाक कटवानी है क्या?’’

‘‘देखो अम्मां, तुम जानो और तुम्हारा काम जाने. मैं ने पहले ही कह दिया है कि मेरे पास देने को फूटी कौड़ी नहीं है,’’ इनकार करते हुए लक्ष्मी बोली.

‘‘ऐसे इनकार करने से काम कैसे चलेगा. तेरहवीं तो करनी पड़ेगी. चाहे तू इस के लिए अपने गहने बेच दे,’’ सास बोली.

‘‘मैं गहने क्यों बेचूं, बेटा आप का भी था. आप अपने गहने बेच कर बेटे की तेरहवीं कर दीजिए,’’ उलटे गले पड़ते हुए लक्ष्मी बोली.

सासबहू के बीच लड़ाई सी छिड़ गई. दोनों इसी बात पर अड़ी रहीं. बिरादरी वालों ने देखा, दोनों जानीदुश्मन की तरह अपनीअपनी बात पर अड़ी हुई थीं. लोगों के समझाने का कोई असर

भी नहीं पड़ रहा है, तब वे ‘तुम दोनों मिल कर फैसला कर लेना’ कह कर चले गए.

सास ने कभी अपनी बहू के सामने मुंह नहीं खोला. लक्ष्मी भी कम नहीं पड़ी. एक का बेटा था, तो दूसरे का पति, मगर किसी को लक्ष्मण के मरने का गम नहीं था. तब लक्ष्मी ने एक फैसला लिया. कुछ कपड़े बैग में रखे, साथ में गहने भी और अपनी बच्ची को उठा कर वह बोली, ‘‘अम्मांजी, मैं जा रही हूं.’’

‘‘कहां जा रही है?’’ सास ने जरा गुस्से से पूछा.

‘‘मैं किशन के घर में बैठ रही हूं. आज से मेरा वही सबकुछ है.’’

‘‘बेहया, बेशरम, इतनी भी शर्म नहीं है, अपने खसम की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई और तू किशन के घर बैठने जा रही है. बिरादरी वाले क्या कहेंगे?’’ सास गुस्से से उबल पड़ी थी. आगे फिर उसी गुस्से से बोली, ‘‘जब से इस घर में आई है, न बेटे को सुख से जीने दिया और न मुझे. न जाने किस जनम का बैर निकाल रही?है मुझ से…’’

सास का बड़बड़ाना जारी था. मगर लक्ष्मी को न रुकना था, न वह रुकी. चुपचाप झोंपड़ी से वह बाहर चली गई. सारी बस्ती ने उसे जाते देखा, मगर कोई कुछ भी नहीं बोला.

माहौल : क्या सुलझ पाई सुमन की आत्महत्या की गुत्थी!

सुमन ने फांसी लगा ली, यह सुन कर मैं अवाक रह गया. अभी उस की उम्र ही क्या थी, महज 20 साल. यह उम्र तो पढ़नेलिखने और सुनहरे भविष्य के सपने बुनने की होती है. ऐसी कौन सी समस्या आ गई जिस के चलते सुमन ने इतना कठोर फैसला ले लिया. घर के सभी सदस्य जहां इस को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाने लगे, वहीं मैं कुछ पल के लिए अतीत के पन्नों में उलझ गया. सुमन मेरी चचेरी बहन थी. सुमन के पिता यानी मेरे चाचा कलराज कचहरी में पेशकार थे. जाहिर है रुपएपैसों की उन के पास कोई कमी नहीं थी. ललिता चाची, चाचा की दूसरी पत्नी थीं. उन की पहली पत्नी उच्चकुलीन थीं लेकिन ललिता चाची अतिनिम्न परिवार से आई थीं. एकदम अनपढ़, गंवार. दिनभर महल्ले की मजदूर छाप औरतों के साथ मजमा लगा कर गपें हांकती रहती थीं. उन का रहनसहन भी उसी स्तर का था. बच्चे भी उन्हीं पर गए थे.

मां के संस्कारों का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है. कहते हैं न कि पिता लाख व्यभिचारी, लंपट हो लेकिन अगर मां के संस्कार अच्छे हों तो बच्चे लायक बन जाते हैं. चाचा और चाची बच्चों से बेखबर सिर्फ रुपए कमाने में लगे रहते. चाचा शाम को कचहरी से घर आते तो उन के हाथ में विदेशी शराब की बोतल होती. आते ही घर पर मुरगा व शराब का दौर शुरू हो जाता. एक आदमी रखा था जो भोजन पकाने का काम करता था. खापी कर वे बेसुध बिस्तर पर पड़ जाते.

ललिता चाची को उन की हरकतों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि चाचा पैसों से सब का मुंह बंद रखते थे. अगले दिन फिर वही चर्चा. हालत यह थी कि दिन चाची और बच्चों का, तो शाम चाचा की. उन को 6 संतानों में 3 बेटे व 3 बेटियों थीं, जिन में सुमन बड़ी थी.

फैजाबाद में मेरे एक चाचा विश्वभान का भी घर था. उन के 2 टीनएजर लड़के दीपक और संदीप थे, जो अकसर ललिता चाची के घर पर ही जमे रहते. वहां चाची की संतानें दीपक व संदीप और कुछ महल्ले के लड़के आ जाते, जो दिनभर खूब मस्ती करते.

मेरे पिता की सरकारी नौकरी थी, संयोग से 3 साल फैजाबाद में हमें भी रहने का मौका मिला. सो कभीकभार मैं भी चाचा के घर चला जाता. हालांकि इस के लिए सख्त निर्देश था पापा का कि कोई भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर वहां नहीं जाएगा, लेकिन मैं चोरीछिपे वहां चला जाता.

निरंकुश जिंदगी किसे अच्छी नहीं लगती? मेरा भी यही हाल था. वहां न कोई रोकटोक, न ही पढ़ाईलिखाई की चर्चा. बस, दिन भर ताश, लूडो, कैरम या फिर पतंगबाजी करना. यह सिलसिला कई साल चला. फिर एकाएक क्या हुआ जो सुमन ने खुदकुशी कर ली? मैं तो खैर पापा के तबादले के कारण लखनऊ आ गया. इसलिए कुछ अनुमान लगाना मेरे लिए संभव नहीं था.

मैं पापा के साथ फैजाबाद आया. मेरा मन उदास था. मुझे सुमन से ऐसी अपेक्षा नहीं थी. वह एक चंचल और हंसमुख लड़की थी. उस का यों चले जाना मुझे अखर गया. सुमन एक ऐसा अनबुझा सवाल छोड़ गई, जो मेरे मन को बेचैन किए हुए था कि आखिर ऐसी कौन सी विपदा आ गई थी, जिस के कारण सुमन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया.

जान देना कोई आसान काम नहीं होता? सुमन का चेहरा देखना मुझे नसीब नहीं हुआ, सिर्फ लाश को कफन में लिपटा देखा. मेरी आंखें भर आईं. शवयात्रा में मैं भी पापा के साथ गया. लाश श्मशान घाट पर जलाने के लिए रखी गई. तभी विश्वभान चाचा आए. उन्हें देखते ही कलराज चाचा आपे से बाहर हो गए, ‘‘खबरदार जो दोबारा यहां आने की हिम्मत की. हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म.’’

कुछ लोगों ने चाचा को संभाला वरना लगा जैसे वे विश्वभान चाचा को खा जाएंगे.

ऐसा उन्होंने क्यों किया? वहां उपस्थित लोगों को समझ नहीं आया. हो सकता है पट्टेदारी का झगड़ा हो? जमीनजायदाद को ले कर भाईभतीजों में खुन्नस आम बात है. मगर ऐसे दुख के वक्त लोग गुस्सा भूल जाते हैं.

यहां भी चाचा ने गुस्सा निकाला तो मुझे उन की हरकतें नागवार गुजरीं. कम से कम इस वक्त तो वे अपनी जबान बंद रखते. गम के मौके पर विश्वभान चाचा खानदान का खयाल कर के मातमपुरसी के लिए आए थे.

पापा को भी कलराज चाचा की हरकतें अनुचित लगीं. चूंकि वे उम्र में बड़े थे इसलिए पापा भी खुल कर कुछ कह न सके. विश्वभान चाचा उलटेपांव लौट गए. पापा ने उन्हें रोकना चाहा मगर वे रुके नहीं.

दाहसंस्कार के बाद घर में जब कुछ शांति हुई तो पापा ने सुमन का जिक्र किया. सुन कर कलराज चाचा कुछ देर के लिए कहीं खो गए. जब बाहर निकले तो उन की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. बेटी का गम हर बाप को होता है. एकाएक वे उबरे तो बमक पड़े, ‘‘सब इस कलमुंही का दोष है,’’ चाची की तरफ इशारा करते हुए बोले. यह सुन कर चाची का सुबकना और तेज हो गया.

‘‘इसे कुछ नहीं आता. न घर संभाल सकती है न ही बच्चे,’’ कलराज चाचा ने कहा. फिर किसी तरह पापा ने चाचा को शांत किया. मैं सोचने लगा, ’चाचा को घर और बच्चों की कब से इतनी चिंता होने लगी. अगर इतना ही था तो शुरू से ही नकेल कसी होती. जरूर कोई और बात है जो चाचा छिपा रहे थे, उन्होंने सफाई दी, ‘‘पढ़ाई के लिए डांटा था. अब क्या बाप हो कर इतना भी हक नहीं?’’

क्या इसी से नाराज हो कर सुमन ने आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाया? मेरा मन नहीं मान रहा था. चाचा ने बच्चों की पढ़ाई की कभी फिक्र नहीं की, क्योंकि उन के घर में पढ़ाई का माहौल ही नहीं था. स्कूल जाना सिर्फ नाम का था.

बहरहाल, इस घटना के 10 साल गुजर गए. इस बीच मैं ने मैडिकल की पढ़ाई पूरी की और संयोग से फैजाबाद के सरकारी अस्पताल में बतौर मैडिकल औफिसर नियुक्त हुआ. वहीं मेरी मुलाकात डाक्टर नलिनी से हुई. उन का नर्सिंगहोम था. उन्हें देखते ही मैं पहचान गया. एक बार ललिता चाची के साथ उन के यहां गया था. चाची की तबीयत ठीक नहीं थी. एक तरह से वे ललिता चाची की फैमिली डाक्टर थीं. चाची ने ही बताया कि तुम्हारे चाचा ने इन के कचहरी से जुड़े कई मामले निबटाने में मदद की थी. तभी से परिचय हुआ. मैं ने उन्हें अपना परिचय दिया. भले ही उन्हें मेरा चेहरा याद न आया हो मगर जब चाचा और चाची का जिक्र किया तो बोलीं, ‘‘कहीं तुम सुमन की मां की तो बात नहीं कर रहे?’’

‘‘हांहां, उन्हीं की बात कर रहा हूं,’’ मैं खुश हो कर बोला.

‘‘उन के साथ बहुत बुरा हुआ,’’ उन का चेहरा लटक गया.

‘‘कहीं आप सुमन की तो बात नहीं कर रहीं?’’

‘‘हां, उसी की बात कर रही हूं. सुमन को ले कर दोनों मेरे पास आए थे,’’

डा. नलिनी को कुछ नहीं भूला था. नहीं भूला तो निश्चय ही कुछ खास होगा?

‘‘क्यों आए थे?’’ जैसे ही मैं ने पूछा तो उन्होंने सजग हो कर बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा.

‘‘मैडम, बताइए आप के पास वे सुमन को क्यों ले कर आए,’’ मैं ने मनुहार की.

‘‘आप से उन का रिश्ता क्या है?’’

‘‘वे मेरे चाचाचाची हैं. सुमन मेरी चचेरी बहन थी,’’ कुछ सोच कर डा. नलिनी बोलीं, ‘‘आप उन के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि सुमन ने पापा से डांट खा कर खुदकुशी कर ली.’’

‘‘खबर तो मुझे भी अखबार से यही लगी,’’ उन्होंने उसांस ली. कुछ क्षण की चुप्पी के बाद बोलीं, ‘‘कुछ अच्छा नहीं हुआ.’’

‘‘क्या अच्छा नहीं हुआ?’’ मेरी उत्कंठा बढ़ती गई.

‘‘अब छोडि़ए भी गड़े मुरदे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उन्होंने टाला.

‘‘मैडम, बात तो सही है. फिर भी मेरे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर सुमन ने खुदकुशी क्यों की?’’

‘‘जान कर क्या करोगे?’’

‘‘मैं उन हालातों को जानना चाहूंगा जिन की वजह से सुमन ने खुदकुशी की. मैं कोई खुफिया विभाग का अधिकारी नहीं फिर भी रिश्तों की गहराई के कारण मेरा मन हमेशा सुमन को ले कर उद्विग्न रहा.’’

‘‘आप को क्या बताया गया है?’’

‘‘यही कि पढ़ाई के लिए चाचा ने डांटा इसलिए उस ने खुदकुशी कर ली.’’

इस कथन पर मैं ने देखा कि डा. नलिनी के अधरों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. अब तो मेरा विश्वास पक्का हो गया कि हो न हो बात कुछ और है जिसे डा. नलिनी के अलावा कोई नहीं जानता. मैं उन का मुंह जोहता रहा कि अब वे राज से परदा हटाएंगी. मेरा प्रयास रंग लाया.

वे कहने लगीं, ‘‘मेरा पेशा मुझे इस की इजाजत नहीं देता मगर सुमन आप की बहन थी इसलिए आप की जिज्ञासा शांत करने के लिए बता रही हूं. आप को मुझे भरोसा देना होगा कि यह बात यहीं तक सीमित रहेगी.’’

‘‘विश्वास रखिए मैडम, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से आप को रुसवा होना पड़े.’’

‘‘सुमन गर्भवती थी.’’  सुन कर सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैं सन्न रह गया.

‘‘सुमन के गार्जियन गर्भ गिरवाने के लिए मेरे पास आए थे. गर्भ 5 माह का था. इसलिए मैं ने कोई रिस्क नहीं लिया.’’

मैं भरे मन से वापस आ गया. यह मेरे लिए एक आघात से कम नहीं था. 20 वर्षीय सुमन गर्भवती हो गई? कितनी लज्जा की बात थी मेरे लिए. जो भी हो वह मेरी बहन थी. क्या बीती होगी चाचाचाची पर, जब उन्हें पता चला होगा कि सुमन पेट से है? चाचा ने पहले चाची को डांटा होगा फिर सुमन को. बच निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो सुमन ने खुदकुशी कर ली.

मेरे सवाल का जवाब अब भी अधूरा रहा. मैं ने सोचा डा. नलिनी से खुदकुशी का कारण पता चल जाएगा तो मेरी जिज्ञासा खत्म हो जाएगी मगर नहीं, यहां तो एक पेंच और जुड़ गया. किस ने सुमन को गर्भवती बनाया? मैं ने दिमाग दौड़ाना शुरू किया. चाचा ने श्मशान घाट पर विश्वभान चाचा को देख कर क्यों आपा खोया? उन्होंने तो मर्यादा की सारी सीमा तोड़ डाली थी. वे उन्हें मारने तक दौड़ पड़े थे. मेरी विचार प्रक्रिया आगे बढ़ी. उस रोज वहां विश्वभान चाचा के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखा. यहां तक कि दिन भर डेरा डालने वाले उन के दोनों बेटे दीपक और संदीप भी नहीं दिखे. क्या रिश्तों में सेंध लगाने वाले विश्वभान चाचा के दोनों लड़कों में से कोई एक था? मेरी जिज्ञासा का समाधान मिल चुका था.

अधूरी प्रेम कहानी : रजिया किस बात का जिक्र करने पर असहज हो जाती थी

रजिया और आफताब का खातापीता और सुखी परिवार था. आज उन की शादी की 25वीं सालगिरह थी. आफताब और रजिया ने केक काटने के बाद सब से पहले अशोक बाबूजी को खिलाया. अशोक बाबूजी भी इसी परिवार का हिस्सा थे. रजिया और आफताब की 20 साल की बेटी आसमां आज भी अशोक बाबूजी से 5 साल की बच्ची की तरह लाड़ दिखाती है. आफताब के एक स्कूटर हादसे पर अशोक बाबूजी ने किसी फरिश्ते की तरह इस परिवार की मदद की थी. उस हादसे में अपनी टांग गंवाने के बाद आफताब की निर्भरता अशोक बाबूजी पर और ज्यादा बढ़ गई थी. इधर आसमां की शादी की बात चल रही थी. वह बहुत खूबसूरत और पढ़ीलिखी थी. उस के लिए एक से बढ़ कर एक परिवारों के रिश्ते आ रहे थे. आफताब की खाला की सख्त हिदायत थी कि उन के समाज में ज्यादा दूर के लोगों से रिश्ते नहीं किए जाते और उन्हें अपनी बेटी का निकाह अपने ही किसी एक परिचित परिवार में करना चाहिए.

खाला के सुझाव को दरकिनार कर रात को खाने की टेबल पर आफताब ने अपनी बेटी से कहा, ‘‘बेटा, हम तुम्हारे ऊपर अपनी पसंद नहीं थोपेंगे. तुम अपनी पसंद के लड़के से शादी कर सकती हो, भले ही वह किसी भी मजहब या जाति का हो, हमें फर्क नहीं पड़ता है.’’ इसी बातचीत के दौरान आफताब ने रजिया की अधूरी लवस्टोरी का जिक्र कर दिया. रजिया बातचीत का मसला बदलने को कह कर बगैर पूरा खाना खाए उठ गई. अपने अधूरे इश्क का जिक्र आते ही रजिया असहज हो जाती थी. वह अपने पुराने प्यार को पूरी तरह भूल चुकी थी और अब उस के लिए टोकना उसे बुरा लगता था. आफताब ने रजिया के कालेज के लड़के के साथ अफेयर की अनदेखी कर उस से शादी की थी. आफताब ने रजिया की प्रेम कहानी को पूरी होने से पहले ही खत्म कर दिया था. आफताब को इस बात का अफसोस था. आफताब रजिया की खूबसूरती और ऊंचे खानदान से होने के चलते इस कदर उतावला था कि उस ने रजिया की प्रेम कहानी को सांप्रदायिक रंग दे कर खत्म करा दिया और खुद उस का शौहर बन बैठा.

आफताब ने रजिया का शरीर और उस का शौहर होने का हक तो हासिल कर लिया था, लेकिन रजिया की रजामंदी हासिल करने में उसे जमाना लग गया. जबरदस्ती रजिया का प्यार हासिल कर लेने के बाद आफताब को अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. आसमां के जन्म के बाद रजिया ने मन से आफताब को अपना पति मान लिया था और अब जा कर उन के रिश्ते मधुर हुए थे. इस परिवार की हंसीखुशी इसी तरह जारी थी. आज उन के परिवार के दोस्त अशोक बाबूजी का जन्मदिन था. पूरा परिवार इस आयोजन को एकसाथ मनाता था. अशोक बाबू ने पता नहीं किस वजह से शादी नहीं की थी. इलाके में उन की एक छोटी सी कपड़ों की दुकान थी. अशोक बाबूजी से इस परिवार का नाता दिनोंदिन और गहरा हो गया था. आफताब को अशोक बाबूजी ने ही दिया था. आसमां को जन्म के बाद सब से पहले अपनी बांहों में उठाने वाले अशोक बाबूजी ही थे. कहते हैं कि इनसान के कर्म इसी जिंदगी में कभी न कभी उस के आने वाले कल को जरूर चोट पहुंचाते हैं. किसी छोटी सी बात पर नाराज हो कर एक दिन दंगाइयों ने आफताब के घर में आग लगा दी.

रजिया और आसमां तो किसी तरह से परदों और चादरों की रस्सी बना कर बाहर निकल आईं, लेकिन आफताब के साथ उन का खुशियों का आशियाना जल कर खाक हो चुका था. अशोक बाबूजी एक बार फिर इस परिवार के लिए फरिश्ता साबित हुए. भयानक अग्निकांड के बाद जब उन का किसी रिश्तेदार ने सहयोग नहीं दिया, तो अशोक बाबूजी ने ही उन्हें अपने घर में पनाह दी. रजिया के अपने ही सगेसंबंधी और समाज के लोग आफताब की जगह रजिया को सरकारी नौकरी नहीं मिलने दे रहे थे, बीमा की रकम मिलने में भी मुश्किलें डाल रहे थे. पूरा शहर मानो इस परिवार की जान का दुश्मन बना हुआ था. अशोक बाबूजी को इस परिवार के लिए कईकई दिनों तक दुकान बंद रखनी पड़ी, पूरे शहर से लड़ना पड़ा,

लेकिन अब 8 महीने बाद समस्याएं दुरुस्त होने लगी थीं. आसमां का एक कालेज में प्रोफैसर के लिए चयन हो गया था. आज उस का पहला दिन था. आसमां सुबहसुबह अशोक बाबूजी के कमरे में फूलों का गुलदस्ता ले कर गई. पर वहां उस के पैरों तले की जमीन खिसक गई. आसमां की मां रजिया अशोक बाबूजी के साथ उन के बिस्तर में थी. आप समझ सकते हैं कि आसमां के दिल पर क्या गुजरी होगी. आसमां ने फूलों को एक तरफ फेंक कर रोते हुए बेबसी में अशोक बाबूजी से कहा, ‘‘आह, तो यह है आप के एहसानों की वजह.’’ अभी उस के प्यारे अब्बूजान को गुजरे हुए पूरा एक साल भी नहीं हुआ था और उस की मां गिरगिट की तरह रंग बदल लेगी, आसमां ने यह सपने में भी नहीं सोचा था. आज रजिया को अपनी जिंदगी का वह गहरा राज आसमां से साझा करना पड़ गया जिसे वह गलती से भी जबान पर लाना नहीं चाहती थी. अशोक बाबूजी ही रजिया के बचपन का वह प्यार था, जो परवान नहीं चढ़ सका था. आफताब द्वारा रजिया को बेबस कर शादी के बाद, रजिया ने इसे ही जिंदगी मान लिया था.

रजिया ने पूरी वफादारी से आफताब के साथ अपने रिश्ते को निभाया था. अपनी पूरी शादीशुदा जिंदगी में उस ने अशोक बाबूजी की ओर मुड़ कर नहीं देखा था. अशोक बाबूजी का उन के घर आनाजाना था, लेकिन रजिया ने हर समय उन से परदा किया था. यहां तक कि चायपानी के लिए भी वह आसमां से कह कर या परदे की आड़ से पूछती थी. उधर अशोक ने अपने अधूरे प्यार के गम में जिंदगी में कभी शादी न करने का फैसला लिया था. आज जब हालत बदल चुके थे, तो रजिया इनकार नहीं कर सकी. आसमां को यह दलील, यह सफाई पसंद नहीं आई. उस ने अपनी मां के चेहरे पर थूक दिया. आसमां को रजिया और अशोक का रिश्ता किसी कीमत पर मंजूर नहीं था. वह नहीं चाहती थी कि उस के अब्बा, जिन को खाक में मिलना नसीब नहीं हुआ था, की बेवा किसी दूसरे धर्म के आदमी से जिस्मानी रिश्ता बनाए. अग्निकांड की उस भयानक रात ने आसमां की सोच को कट्टरपंथी बना दिया था. रजिया का जला हुआ मकान फिर से बन चुका था. आसमां को भी तनख्वाह मिलने लगी थी. तुरंत ही वे दोनों अपने नए मकान में शिफ्ट हो गए.

रजिया और अशोक बाबूजी के रिश्ते को जानने के बाद आसमां को अपना जन्म नाजायज लगने लगा था. आसमां ने रजिया को घर में बंदी बना दिया और अशोक बाबूजी से बोलचाल बंद कर दी. रजिया का कोई भी तर्क और कोई भी सुबूत आसमां को संतुष्ट न कर सका. आसमां की खातिर एक बार फिर रजिया और अशोक के मिलने का सपना अधूरा रह गया. आसमां की शादी करने के बाद रजिया ने अपनी सारी जायदाद बेटी और दामाद के नाम कर दी. अगले दिन रजिया बगैर किसी को बताए अशोक बाबूजी के साथ घर से भाग गई. जो काम अशोक और रजिया को आज से 30 साल पहले पूरा कर लेना चाहिए था, 50 साल की उम्र में वही काम कर उन्होंने अपनी अधूरी प्रेम कहानी को पूरा कर लिया था.

हितैषी : कोरियन दंपती का अनोखा वादा

गरमी के दिन थे लेकिन कैलांग में लोग अभी भी गरम कपड़े पहने हुए थे. एसोचेम के अध्यक्ष द्वारा विदेशी प्रतिनिधियों के आग्रह पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस में विदेशी प्रतिनिधियों के साथ कुछ आप्रवासी भारतीय भी थे. आप्रवासी भारतीयों का विचार यह था कि सम्मेलन किसी बड़े मैट्रो शहर में न करवा कर किसी रोमांचक पर्वतीय क्षेत्र में आयोजित किया जाए. इसी कारण से 40 प्रतिनिधियों का प्रतिनिधिमंडल कैलांग के होटल में ठहरा हुआ था. मुक्त व्यापार, भारत में विदेशी निवेश के लिए नई संभावना, अवसर तलाशने के लिए नई रूपरेखा बनाने के लिए सम्मेलन आयोजित किया गया था. दिनभर वक्ताओं ने अपनेअपने विचार प्रकट किए और अपनेअपने प्रोजैक्ट से अपनी प्रस्तुतियां पेश की. कैलांग की प्रदूषणरहित शीतल जलवायु में रात होते ही प्रवीन जैना और उन की मंडली ने पार्टी आयोजित की. पार्टी में सभी देशीविदेशी प्रतिनिधियों ने जम कर शराब पी. एक कोरियन दंपती ऐसा भी था जो शराब की जगह शरबत पी रहा था. दूसरे लोग उन का उपहास उड़ा रहे थे.

‘‘सब से ज्यादा मैं ने पी है, मेरा कोई भी डेलीगेट मुकाबला नहीं कर सकता मिस्टर जैना,’’ राजेश ढींगरा ने झूमते हुए जोर से कहा.

‘‘आप ने कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया है मिस्टर ढींगरा, कल आप का ट्रैकिंग में जाना कैंसिल,’’ जैना ने कहा.

‘‘नो वरी, पूरे 10 हजार रुपए की पी है मैं ने. मैं महंगी से महंगी पीता हूं मिस्टर जैना, यू आर जीरो,’’ राजेश ढींगरा चिल्ला कर बोला और बोतल को जोर से उछाल दिया. नाचरंग में भंग पड़ गया. विदेशी प्रतिनिधि एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. आखिरकार, राजेश ढींगरा बेहोश हो कर गिर पड़ा तो होटल के कर्मचारी उसे उठा कर उस के कमरे में लिटा आए.

अगले दिन शैक्षणिक कार्यक्रम के अंतर्गत 5 किलोमीटर की स्थानीय स्तर की ट्रैकिंग का कार्यक्रम रखा गया. इस में कुल 35 सदस्यों को कैलांग परिक्षेत्र में किब्बर नामक क्षेत्र में भेजने का निश्चय हुआ. 35 सदस्यों को 7-7 सदस्यों की

5 टोलियों में बांटा गया. टोली संख्या 5 में 2 भारतीय, 3 जापानी, 2 कोरियन थे. इन में एक कोरियन दंपती जीमारोधम और इमाशुम भी थे. इन के साथ भारवाहक लच्छीराम था. लच्छीराम ने अपनी टोली को सब से आगे ले जाने का निश्चय किया और यह टोली सब से आगे रही. 3 किलोमीटर चलने के बाद अब सीधी चढ़ाई शुरू हुई. टोली के कुछ सदस्य हांफने लगे. 2 भारतीय सदस्यों संतोष और नितीन एक वृक्ष के पास रुक गए.

‘‘हम लोग आगे चलने में असमर्थ हैं, पैरों में दर्द हो रहा है,’’ संतोष बोला.

‘‘वी आर औलसो टायर्ड, वी विल नौट मूव फरदर,’’ जापानियों ने भी आगे जाने में असमर्थता व्यक्त की.

‘‘ठीक है, आप लोग रुक जाएं और दूसरे लोगों के साथ वापस चले जाएं,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘सर, क्या आप लोग जाएंगे?’’ लच्छीराम ने कोरियन दंपती से पूछा.

‘‘हां, हम जाएंगे,’’ कोरियन दंपती बोले. लच्छीराम कोरियन दंपती को ले कर आगे पहाड़ी की ओर चला, सामने एक पहाड़ी नाला था, जिस में पानी कम था.

‘‘साहब, बरसात में इस नाले को कोई भी पार नहीं कर सकता,’’ लच्छीराम ने कहा.

‘‘आप कहां रहते हैं?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘मेरा घर उस पहाड़ी के पीछे है, अगर हिम्मत करें तो आप वहां चल सकते हैं,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘हम जरूर चलेंगे,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘सर, एक बात पूछना चाहता हूं, मुझे बताइए कि आप ने हिंदी कहां से सीखी?’’ लच्छीराम ने पूछा.

‘‘हम दोनों ने बनारस और जयपुर में हिंदी सीखी,’’ जीमारोधम ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे हिंदी भाषा अच्छी लगती है, मैं ने प्रेमचंद की कुछ कहानियों को कोरियन भाषा में अनुवाद किया है,’’ अब की बार इमाशुम बोली. लच्छीराम उन की हिंदी के प्रति रुचि देख कर आश्चर्यचकित था. बातोंबातों में 2 घंटे चलने के बाद वे पहाड़ी के पार लच्छीराम के गांव में पहुंचे. गांव में 10 परिवार थे जो कि भारवाहक का ही कार्य करते थे.

लच्छीराम का घर ऐसा था जैसे बर्फ में रहने वाले इगलू या जंगल में रहने वाले वन गूजर का तबेला हो. इस में लकड़ी का बाड़ा बना हुआ था जो तनिक झुका हुआ था, ऊपर से उसे घासफूस और खपचियों से ढक रखा था. इस झोंपड़ी में पर्याप्त जगह थी. इस में जंगली जानवरों से बचने के लिए पूरी व्यवस्था थी.

झोंपड़ी के अंदर लच्छीराम की पत्नी पारुली भोजन पकाने की व्यवस्था कर रही थी और साथ ही, पशुओं के बाड़े में पशुओं के लिए चारे का इंतजाम भी कर रही थी. झोंपड़ी के अंदर फट्टे बिछा रखे थे जो चारपाई का काम करते थे. लच्छीराम के 3 बच्चों, पत्नी और बूढ़े मांबाप ने जीमारोधम और इमाशुम का सत्कार किया. फट्टे पर ही एक फटी चादर बिछाई गई. पशुओं के बाड़े में बकरियां, भेड़े रहरह कर मिमिया रही थीं.

‘‘बाबाजी नमस्कार, आप कैसे हैं?’’ कोरियन दंपती ने बड़ी विनम्रता से झुकते हुए कोरियन शैली में अभिवादन किया.

‘‘साहब, बस आंखों की समस्या है, नजर कम हो गई है,’’ वृद्घ बोला.

बच्चे उन अजनबी लोगों को देख कर संकोच कर के एक कोने में बैठे थे. लच्छीराम ने फट्टे पर बिछी चादर पर कोरियन दंपती को बिठाया. इमाशुम पारुली से बातें करने लगी और चूल्हे पर उबलते बकरी के दूध को देखने लगी. पारुली देवी ने उबले दूध को गिलास में डाला और काले रंग का चियूरा के गुड़ की डली भी परोसी. 12 हजार फुट से ज्यादा ऊंचाई में उगने वाले पर्वतीय कामधेनु वृक्ष है चियूरा, जिस के फल से शहद, गुड़ और वनस्पति बनाए जाते हैं.

‘‘यह बकरी का दूध है,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘ठीक है, हम पहली बार बकरी का दूध पिएंगे,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘बहुत पतला दूध है,’’ इमाशुम ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा. अब लच्छीराम के तीनों बच्चे भी उन के पास आ कर बैठ गए.

‘‘बेटा, स्कूल जाते हो?’’ जीमारोधम ने पूछा. बच्चों ने सिर हिला कर बतलाया कि वे स्कूल नहीं जाते, बल्कि भेड़बकरियों की देखभाल करते हैं, उन को चराते हैं.

‘‘साहब, यहां गांव में कोई स्कूल नहीं है, यहां से 10 किलोमीटर दूर उस पहाड़ी के पीछे एक कसबा है लेकिन वहां जाने के लिए 10 किलोमीटर घूम कर जाना पड़ता है. बीच में एक पहाड़ी नाला पड़ता है जिस पर पुल नहीं है. अगर पुल बन जाएगा तो दूरी

घट कर 3 किलोमीटर रह जाएगी,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘क्या सरकार की तरफ से पुल नहीं बना?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘नहीं साहब, आज तक इस गांव में कोई जनप्रतिनिधि नहीं पहुंचा है. इस गांव में अधिकांश बच्चे भेड़ और बकरी चराते हैं या फिर भारिया बनते हैं, मैं भी भारिया हूं और मेरे बच्चे भी भारिया बनेंगे,’’ लच्छीराम ने उदास श्वास छोड़ते हुए कहा.

‘‘ये भारिया क्या होता है?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘पोरटर, भार ढोने वाला,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘सरकार की तरफ से कोई भी विकास कार्यक्रम यहां नहीं होता क्योंकि यहां कोई आता ही नहीं,’’ इस बार पारुली ने वेदनापूर्ण स्वर में कहा. कुछ देर बैठ कर कोरियन दंपती ने पूरे परिवार, घर और उस स्थान की फोटो खींची और फिर वे लौटने लगे.

‘‘अच्छा, अब हम चलते हैं. हम अगले साल आएंगे और आप के इस गांव में एक पुल, स्कूल और डिस्पैंसरी जरूर खोलेंगे, यह हमारा प्रौमिस है,’’ जीमारोधम बोला और उस की पत्नी इमाशुम ने हां भरी, साथ ही अपने हैंडबैग से 500 रुपए के 4 नोट निकाले और पारुली को देते हुए कहा, ‘‘लो बहन, तुम सब लोग अपने लिए नए कपड़े बनवा लेना.’’

पारुली शर्म एवं संकोच से कुछ नहीं बोल पाई, उस का मन एक बार तो ललचाया लेकिन अंदर के स्वाभिमान की कशमकश ने विवश किया, उस ने नोट पकड़ने से मना कर दिया.

इमाशुम ने अपने हाथ से पारुली की मुट्ठी में नोट ठूंस दिए. पारुली की आंखों से झरझर आंसू टपकने लगे.

इमाशुम ने अपने दोनों हाथों से पारुली के हाथों को कस कर पकड़ लिया. पारुली संकोचवश कुछ नहीं बोल पाई. उस ने जिंदगी में पहली बार 500 रुपए का नोट देखा था.

‘‘साहब, अब आप से कब मुलाकात होगी?’’ अब लच्छीराम के वृद्ध पिता ने पूछा.

‘‘हम अगले साल आएंगे और आप की आंखों का इलाज भी करवाएंगे,’’ जीमारोधम ने कहा.

लच्छीराम कोरियन दंपती को ले कर वापस लौटने लगा. ‘‘सर, आप पहले इंसान हैं जिन्होंने इतनी बड़ी धनराशि हमें दी है,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘कल आप ने देखा होटल में डेलीगेट्स लाखों रुपए की शराब पी गए लेकिन वे चाहते तो किसी पीडि़त को मदद दे सकते थे. हम कभी शराब नहीं पीते, उस पैसे को जरूरतमंद को दान करते हैं,’’ जीमारोधम बोला.

रात देर गए कोरियन दंपती की यह टोली होटल पहुंची और उन्होंने देखा, कई शराबी सदस्य हाथ में खाने की थाली में रखे भोजन को यों ही चखचख कर फेंक रहे थे. कईयों ने अपनी थाली में पूरा भोजन ले रखा था और उस भोजन की थाली को शराब के नशे में नीचे गिरा रहे थे. कई सदस्य अभी भी नाचरंग में मस्त थे. अन्न की बरबादी का नजारा लच्छीराम ने देखा. उस ने देखा कि 10 भोजन की थालियां तो बिलकुल भोजन से लबालब भरी हुई थीं. शराब ज्यादा पीने वाले प्रतिनिधियों ने सिर्फ एक चम्मच खा कर भोजन की थाली एक तरफ लुढ़का दी.

लच्छीराम ने नजर बचा कर उस थाली के भोजन को अपने थैले में जैसे ही डाला, ‘‘डौंट टच दिस प्लेट, यू पिग,’’ एक विदेशी अंगरेज प्रतिनिधि ने चिल्ला कर उसे डांटा. लच्छीराम ने अपना थैला वहीं छोड़ दिया, भय से वह सकपका गया. होटल स्टाफ ने देखा, कोरियन दंपती ने भी देखा. कोरियन दंपती यह देख कर आहत था. उन के चेहरे पर उस अंगरेज प्रतिनिधि के प्रति रोष था, लेकिन वे चुप रह गए. भारी कदमों से लच्छीराम ने कोरियन दंपती से विदा ली और उन्हें अपना पताठिकाना लिखवाया.

सम्मेलन समाप्त हो गया. सभी लोग चले गए. कैलांग की वादियों से लच्छीराम और उस के परिवार की स्मृति लिए कोरियन दंपती भी चले गए. 1 वर्ष बीता. लच्छीराम को पत्र मिला जो कोरियन दंपती ने भेजा था. कोरियन दंपती ने अपने आने के बारे में और परियोजना के बारे में सूचित किया था.

ठीक समय पर कोरियन दंपती अपनी टीम के साथ पहुंचे. उन के साथ तकनीशियनों की टोली भी थी. वे लोग किब्बर में पुल बनाना चाहते थे, स्कूल खोलना चाहते थे, डिस्पैंसरी खोलना चाहते थे. इन लोगों ने सब से पहले नाले पर पुल बनाने की सोची जिस से वहां निर्माण सामग्री लाने में मदद मिलती. वन विभाग ने आपत्ति लगा दी.

‘‘यहां आप पुल नहीं बना सकते विदाउट परमिशन औफ कंजर्वेटर,’’ वन विभाग के अधिकारियों ने सूचित किया. पुल का कार्य रोक दिया गया. कोरियन दंपती तब कंजर्वेटर से मिले.

‘‘देखिए, पर्यावरण का मामला है, जब तक एनओसी पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार से नहीं मिलेगी, तब तक अनुमति नहीं दी जा सकती,’’ कंजरर्वेटर बोला.

‘‘हमें क्या करना चाहिए?’’ जीमारोधम ने बड़े भोलेपन से पूछा.

‘‘यू शुड सबमिट योर ऐप्लीकेशन थ्रू प्रौपर चैनल, फर्स्ट सबमिट ऐप्लीकेशन ऐट योर एंबैसी,’’ कंजर्वेटर बोला.

‘‘सर, आप मेरे से हिंदी में बात कर सकते हैं, हमें हिंदी भाषा आती है,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘सौरी, क्या करें अंगरेजी की आदत पड़ गई है,’’ कंजर्वेटर बोला.

‘‘आप अपनी ऐप्लीकेशन में यह भी लिखिए कि आप किस पर्पज से पुल बनाना चाहते हैं? आप के क्या प्रोजैक्ट हैं? आप की सोर्स औफ इनकम क्या है? ये सब डिटेल लिखिए.’’

कोरियन दंपती ने पुल बनाने, स्कूल खोलने, डिस्पैंसरी खोलने संबंधी अपनी परियोजना का खाका तैयार किया और अनुमति हेतु फाइल को अपने दूतावास के माध्यम से पर्यावरण मंत्रालय को भेजा. एक वर्ष के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने टिप्पणी लिख कर सूचित किया, ‘‘एज सून एज द कंपीटैंट अथौरिटी विल ग्रांट परमिशन, यू विल बी इनफौमर्ड थ्रू योर कोरियन एंबैसी.’’ जीमारोधम ने उस पत्र को अपने पुत्र ईमोमांगचूक को देते हुए उसे संभाल कर रखने को कहा.

21 वर्ष बीत गए, इस बीच कोरियन दंपती का निधन हो चुका था. एक दिन कोरियन दंपती के पुत्र ईमोमांगचूक को एक पत्र अपने कोरिया के घर पर मिला. पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार का यह पत्र कोरियन दूतावास के माध्यम से कोरियन दंपती को संबोधित था जो उन के पुत्र ईमोमांगचूक ने प्राप्त किया. उस में लिखा था, ‘‘विद रैफरैंस टू योर ऐप्लीकेशन अबाउट एनओसी, द कंपीटैंट अथौरिटी इज प्लीज्ड टू इनफौर्म यू दैट द परमिशन इज ग्रांटेड विद इफैक्ट फ्रौम सबमिशन औफ योर प्रौजैक्ट ऐप्लीकेशन औन कंस्ट्रकशन वर्क एट किब्बर, कैलांग, हिमाचल प्रदेश, इंडिया.’’

ईमोमांगचूक ने उस सरकारी पत्र को अपने दिवंगत मातापिता की तसवीर के पास रख दिया और अपने पिता की पुरानी फाइलों को तलाशने लगा जिस में उसे लच्छीराम का पुराना बदरंग फोटो मिला.

ईमोमांगचूक असमंजस के सागर में डूबनेउतरने लगा और वह अपने मातापिता की उस परियोजना को यथार्थ में बदलने के बारे में सोचने लगा.

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