कच्ची गली: खुद को बदलने पर मजबूर हो गई दामिनी- भाग 2

सृष्टि ने उस के जन्मदिन की तैयारी शुरू कर दी. पार्टी पौपर्स, हैप्पी बर्थडे स्ट्रिंग, दिल की शेप के गुब्बारे और मेहमानों की एक लिस्ट. दामिनी के 50वें जन्मदिन को वाकई खास बनाना चाहती थी उस की बेटी. विपिन का भी पूरा सहयोग था. केवल धनदान से ही नहीं, बल्कि श्रमदान से भी विपिन साथ दे रहे थे.

अगली सुबह दामिनी थोड़ी देर से उठी. आज फिर उसे माइग्रेन अटैक आया था. सुबह उठने के साथ ही सिर में दर्द शुरू हो गया था. ऐसे में अकसर उस की इंद्रियां उस का पूरा साथ नहीं निभाती थीं, सो हर काम थोड़ा धीमी गति से होता था.

‘‘क्या हुआ मेरी प्यारी मम्मा को?’’ सृष्टि उस का उतरा चेहरा देख कर पूछने लगी.

‘‘बेटा, फिर वही सिरदर्द,’’ दामिनी अपना माथा सहलाती हुई बोली.

‘‘उफ, आप दवाई ले कर रैस्ट करो. हमारे जाने के बाद कोई काम मत करना.’’

सृष्टि की बात मान कर विपिन और उस के चले जाने के बाद दामिनी दवा खा कर कुछ देर सो गई.

फोन की घनघनाहट से दामिनी की आंख खुली, ‘‘हैलो,’’ टूटी हुई आवाज में वह बोली.

‘‘दामिनी, मैं रजत बोल रहा हूं. मेरे सहकर्मी को अपनी बेटी के दाखिले के सिलसिले में सृष्टि से कुछ पूछना है पर न जाने क्यों उस का सैलफोन स्विचऔफ आ रहा है. जरा उसे बुला कर अपने फोन से बात करवा दो.’’

‘‘सृष्टि, सृष्टि कालेज से अभी लौटी कहां है. आज तबीयत थोड़ी ढीली लग रही थी, इसलिए आंख लग गई. क्या समय हुआ है?’’

‘‘रात के 8 बज रहे हैं. सृष्टि अभी तक नहीं लौटी,’’ विपिन के स्वर में चिंता के भाव घुलने लगे.

समय सुन कर दामिनी भी हड़बड़ा कर उठ बैठी, ‘‘इतनी देर सृष्टि को कभी नहीं होती. उस पर उस का फोन भी औफ आ रहा है. ऐसा क्या हो गया होगा,’’ कहती हुई दामिनी के पसीने छूट गए.

‘‘क्या तुम उस की सहेलियों के घर जानती हो?’’ विपिन ने पूछा.

‘‘हां, कुछ सहेलियां पास में ही रहती हैं. मैं फौरन जा कर पूछ आती हूं. तुम कहां हो?’’ दामिनी बोली.

‘‘मैं औफिस से घर के लिए चल दिया हूं. सृष्टि के कालेज के रास्ते में हूं. मैं पूरा रास्ता उसे देखता आऊंगा,’’ विपिन काफी घबरा कर बोल रहे थे.

‘‘मैं भी पासपड़ोस, अपने महल्ले व हाईवे तक सृष्टि को देख कर आती हूं,’’ दामिनी ने जल्दबाजी में अपनी चुन्नी उठाई और सड़क की ओर दौड़ पड़ी.

सब से पहले दामिनी ने सृष्टि की सब से पास रहने वाली  सहेली का दरवाजा खटखटाया, तो उस ने बताया, ‘‘आंटी, आज मैं कालेज गई ही नहीं. क्या हुआ, आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

मगर दामिनी के पास उत्तर देने का समय न था. वह भागती हुई दूसरी सहेली के घर पहुंची. फिर  तीसरी. पड़ोस में केवल इतनी ही लड़कियां सृष्टि के कालेज में पढ़ती थीं. कहीं भी सृष्टि की खबर न पा कर दामिनी की चिंता बढ़ती जा रही थी.

‘‘दामिनी अब हाईवे की ओर चलने लगी. तीव्र गति से कदम बढ़ाती दामिनी अब सुबकने लगी कि पता नहीं मेरी बच्ची कहां होगी. इतनी देर कभी नहीं हुई उसे. फोन क्यों स्विचऔफ है. कम से कम एक फोन कर देती. आएगी तो बहुत डांटूंगी. यह भी कोई तरीका हुआ. मन ही मन में बड़बड़ाती अपने आंसुओं को पोंछती हुई दामिनी हाईवे पर चली जा रही थी. कभी दुकान पर बैठे चाय पी रहे लोगों से पूछती तो कभी सड़क पर जा रहे लोगों को अपने फोन पर सृष्टि का फोटो दिखा कर उस के बारे में जानकारी हासिल करने का प्रयास करती.

उधर विपिन जगहजगह अपनी कार रोक कर सृष्टि को खोजने में प्रयत्नशील थे. घर निकट आता जा रहा था, किंतु सृष्टि का कुछ पता नहीं चल रहा था. विपिन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. कार चलाते हुए अब वे हाईवे पर पहुंच चुके थे. रात काफी हो चुकी थी. गाडि़यां तेज रफ्तार से अपने गंतव्य स्थान को दौड़ी जा रही थीं. कार चलाते हुए विपिन अब घर के निकट पहुंचने लगे लेकिन सृष्टि का कोई अतापता न चला था. विपिन किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा रहे थे.

तभी उन्होंने सड़क के किनारे किसी को औंधेमुंह गिरा देखा. तेजी से गाड़ी को साइड में लगाते हुए विपिन उतरे और उस ओर बढ़ चले. वह किसी स्त्री का शरीर था जिस के कपड़े बेतरतीब अवस्था में थे. करीब 10 फर्लांग दूर चुन्नी पड़ी हुई थी. विपिन बेहद घबरा गए कि कहीं यह सृष्टि तो नहीं… आज क्या पहना था सृष्टि ने, यह भी विपिन को नहीं पता क्योंकि सृष्टि उन के औफिस जाने के बाद ही अपने कालेज जाया करती है. लगभग भागते हुए विपिन उस की तरफ बढ़े और कंधे से पकड़ कर उस का चेहरा अपनी ओर मोड़ा.

उस के बाद जो उन्होंने देखा, उन के चेहरे पर विषादपूर्ण भाव उभर आए. पलभर को मानो उन्हें काठ मार गया.

‘‘यह तो दामिनी है,’’ उन के मुंह से अस्फुट बोल निकले. दामिनी से दूर गिरी उस की चुन्नी, कंधे से सरका हुआ उस का कुरता, खुली हुई सलवार जो उस के घुटनों तक गिरी हुई थी और दुख व तकलीफ में लिपटा उस का चेहरा आदि सबकुछ साफसाफ दर्शा रहा था कि उस के साथ क्या बीत चुका है. जिस अनहोनी की आशंका दोनों मातापिता अपनी नवयौवना बेटी के लिए कर रहे थे, यथार्थ में वही दुर्घटना दामिनी के साथ घट चुकी थी.

‘‘यह क्या हुआ, तुम यहां कैसे, इस हालत में… उठो दामिनी,’’ कहते हुए विपिन सहारा दे कर दामिनी को उठाने लगे.

दामिनी मूर्च्छित सी अवस्था में उठने का प्रयास करने लगी. सृष्टि को ढूंढ़ते हुए वह यहां एक सुनसान कोने में पहुंच गई थी. सृष्टि का नाम पुकारती वह यहांवहां भटक रही थी कि सड़क से गुजरती एक गाड़ी में सवार कुछ लड़कों की गंदी नजर उस पर पड़ गई. अकेली औरत, चिंता में बेहाल, रुकी हुई गाड़ी की ओर बेध्यानी में बढ़ती चली गई और कुछ सशक्त हाथों ने उसे गाड़ी के भीतर घसीट लिया.

फिर इन्हीं सड़कों पर, चलती गाड़ी में उस के साथ वही अपमानजनक, अनहोनी दुर्घटना घट गई जैसी खबरें अखबार में पढ़ते हुए विपिन का मन परेशान हो जाया करता. कौन सोच सकता था कि जवान लड़की की मां को भी वही खतरा है जिस का डर अकसर मातापिता को अपनी युवा बेटियों के लिए लगता है. जमाना सेफ्टी पिन का हो या पैपरस्प्रे का औरतों के लिए सुनसान गलियां हमेशा से खतरा रहीं और आज भी हैं.

‘‘उठो दामिनी, हिम्मत करो. घर चलो,’’ विपिन दामिनी को दिलासा देने लगे.

क्या औरतों के लिए घर की देहरी लांघना सदा ही लक्ष्मणरेखा का प्रश्न रहेगा? किसी भी उम्र की औरत हो, कोई भी शहर हो, कोई भी जमाना हो कब तक औरत की इज्जत के लिए हर गली कच्ची रहेगी? कब तक हर औरत को रेप जैसे अपमानजनक अपराध के बाद ऐसे मुंह छिपाना पड़ेगा मानो वह इस की शिकार नहीं बल्कि असली गुनहगार है? केवल दामिनी नाम रख देने से औरत में शक्ति नहीं आती. वह फिर भी निर्बल, भेद्य, आलोचनीय, अशक्त रहती है. कब होगी वह सुबह जो सच्चा सवेरा लाएगी? कब बिखरेंगी वे किरणें जो सच्चा उजाला फैलाएंगी? दामिनी सुन्न दिलदिमाग लिए, लंगड़ाती हुई, विपिन के कंधे का सहारा लिए अपनी कार में बैठ गई.

‘‘विपिन…’’ कह दामिनी रोने लगी, ‘‘देखो न, यह क्या हो गया,’’ फिर स्वयं को समेटती हुई बोली, ‘‘पुलिस स्टेशन चलो, मुझे एफआईआर लिखवानी है.’’

विपिन ने गाड़ी को सड़क के एक ओर लगाया और  दामिनी के सिर पर हाथ फेर कर उसे शांत करने लगे, ‘‘जो होना था सो हो गया. अब इन बातों से क्या होगा? इतनी रात को, यहां सुनसान कोने में कौन सी गाड़ी थी, कौन लोग थे, क्या तुम पहचान पाओगी? क्या तुम ने गाड़ी का नंबर देखा? पुलिस सब पूछेगी, तुम से सुबूत मांगेगी. उस पर जब यह खबर समाज में फैल जाएगी तो हमारे परिवार की इज्जत का क्या होगा? सब रिश्तेदार क्या कहेंगे? सृष्टि पर क्या बीतेगी… आगे चल कर उस की शादी के समय… कुछ सोचो दामिनी. भलाई इसी में है कि इस बात को यही खत्म कर दिया जाए. आने वाले कल के बारे में विचार करो.’’

मोक्ष: क्या गोमती मोक्ष की प्राप्ति कर पाई? – भाग 2

‘‘मैं इन रुपयों का क्या करूंगी? तू है तो मेरे पास. फिर 5-10 रुपए हैं मेरे पास,’’ गोमती ने मना किया. ‘‘वक्तबेवक्त काम आएंगे. तुम्हारा ही कुछ लेने का मन हो या कहीं मेले में मेरी जेब ही कट जाए तो…’’ श्रवण के समझाने पर गोमती ने रुपए ले लिए. गोमती ने रुपए संभाल कर रख लिए. उन्हें ध्यान आया कि ऐसे मेलों में चोर- उचक्के खूब घूमते हैं. लोगों को बेवकूफ बना कर हाथ की सफाई दिखा कर खूब ठगते हैं. श्रवण चला गया और गोमती थैला सिर के नीचे लगा बिछी चादर पर लेट गईं. उन का मन आह्लादित था. श्रवण ने खूब ध्यान रखा है. लेटेलेटे आंखें झपक गईं. जब खुलीं तो देखा कि सूरज ढलने जा रहा है और श्रवण अभी लौटा नहीं है. उन्हें चिंता हो आई. अनजान जगह, अजनबी लोग, श्रवण के बारे में किस से पूछें? अपना थैला टटोल कर देखा. सब- कुछ यथास्थान सुरक्षित था. कुछ रुपए एक रूमाल में बांध कर चुपचाप कपड़ों के साथ थैले में डाल लाई थीं. सोचा था पता नहीं परदेश में कहां जरूरत पड़ जाए. उसी रूमाल में श्रवण के दिए रुपए भी रख लिए. वह डेरे से बाहर आ कर इधरउधर देखने लगीं. आदमियों का रेला एक तरफ तेजी से भागने लगा. वह कुछ समझ पातीं कि चीखपुकार मच गई. पता लगा कि मेले में हाथी बिगड़ जाने से भगदड़ मच गई है. काफी लोग भगदड़ में गिरने के कारण कुचल कर मर गए हैं. सुन कर गोमती का कलेजा मुंह को आने लगा. कहीं उन का श्रवण भी…क्या इसी कारण अभी तक नहीं आया है? उन्होंने एक यात्री के पास जा कर पूछा, ‘‘भैया, यह किस समय की बात है?’’ ‘‘मांजी, शाम 4 बजे नागा साधु हाथियों पर बैठ कर स्नान करने जा रहे थे और पैसे फेंकते जा रहे थे.

उन के फेंके पैसों को लूटने के कारण यह कांड हुआ. जो जख्मी हैं उन्हें अस्पताल पहुंचाया जा रहा है और जो मर गए हैं उन्हें सरकारी गाड़ी से वहां से हटाया जा रहा है. आप का भी कोई है?’’ ‘‘भैया, मेरा बेटा 2 बजे घूमने निकला था और अभी तक नहीं लौटा है.’’ ‘‘उस का कोई फोटो है, मांजी?’’ यात्री ने पूछा. ‘‘फोटो तो नहीं है. अब क्या करूं?’’ गोमती रोने लगीं. ‘‘मांजी, आप रोओ मत. देखो, सामने पुलिस चौकी है. आप वहां जा कर पता करो.’’ गोमती ने चादर समेट कर थैले में रखी और पुलिस चौकी पहुंच कर रोने लगीं. लाउडस्पीकर से कई बार एनाउंस कराया गया. फिर एक सहृदय सिपाही अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर गोमती को वहां ले गया जहां मृतकों को एकसाथ रखा गया था. 1-2 अस्थायी बने अस्पतालों में भी ले गया, जहां जख्मी पड़े लोग कराह रहे थे और डाक्टर उन की मरहमपट्टी करने में जुटे थे. श्रवण का वहां कहीं भी पता न था. तभी गोमती को ध्यान आया कि कहीं श्रवण डेरे पर लौट न आया हो और उन का इंतजार कर रहा हो या उन्हें डेरे पर न पा कर वह भी उन्हीं की तरह तलाश कर रहा हो. हालांकि पुलिस चौकी पर वह अपने बेटे का हुलिया बता आई थीं और लौटने तक रोके रखने को भी कह आई थीं. गोमती ने आ कर मालूम किया तो पता चला कि उन्हें पूछने कोई नहीं आया था. वह डेरे पर गईं. वहां भी नहीं. आधी रात कभी डेरे में, कभी पुलिस चौकी पर कटी. जब रात के 12 बज गए तो पुलिस वालों ने कहा, ‘‘मांजी, आप डेरे पर जा कर आराम करो. आप का बेटा यहां पूछने आया तो आप के पास भेज देंगे.’’

पुत्र के लिए व्याकुल गोमती उसे खोजते हुए डेरे पर लौट आईं. चादर बिछा कर लेट गईं लेकिन नींद आंखों से कोसों दूर थी. कहां चला गया श्रवण? इस कुंभ नगरी में कहांकहां ढूंढ़ेंगी? यहां उन का अपना है कौन? यदि श्रवण न लौटा तो अकेली घर कैसे लौटेंगी? बहू का सामना कैसे करेंगी? खुद को ही कोसने लगीं, व्यर्थ ही कुंभ नहाने की जिद कर बैठी. टिकट ही तो लाया था श्रवण, यदि मना कर देती तो टिकट वापस भी हो जाते. ऐसी फजीहत तो न होती. फिर गोमती को खयाल आया कि कोई श्रवण को बहलाफुसला कर तो नहीं ले गया. वह है भी सीधा. आसानी से दूसरों की बातों में आ जाता है. किसी ने कुछ सुंघा कर बेहोश ही कर दिया हो और सारे पैसे व घड़ीअंगूठी छीन ली हो. मन में उठने वाली शंकाकुशंकाओं का अंत न था. दिन निकला. वह नहानाधोना सब भूल कर, सीधी पुलिस चौकी पहुंच गईं. एक ही दिन में पुलिस चौकी वाले उन्हें पहचान गए थे. देखते ही बोले, ‘‘मांजी, तुम्हारा बेटा नहीं लौटा.’’ रोने लगीं गोमती, ‘‘कहां ढूंढू़ं, तुम्हीं बताओ. किसी ने मारकाट कर कहीं डाल दिया हो तो. तुम्हीं ढूंढ़ कर लाओ,’’ गोमती का रोतेरोते बुरा हाल हो गया. ‘‘अम्मां, धीरज धरो. हम जरूर कुछ करेंगे. सभी डेरों पर एनाउंस कराएंगे. आप का बेटा मेले में कहीं भी होगा, जरूर आप तक पहुंचेगा. आप अपना नाम और पता लिखा दो. अब जाओ, स्नानध्यान करो,’’ पुलिस वालों को भी गोमती से हमदर्दी हो गई थी.

सौतेली मां: क्या था अविनाश की गलती का अंजाम

सहारे की तलाश: क्या प्रकाश को जिम्मेदार बना पाई वैभवी? – भाग 2

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

सौतेली मां: क्या था अविनाश की गलती का अंजाम- भाग 3

अविनाश उसे अच्छा तो लग रहा था, पर 40 की उम्र में ब्याह करना उसे खलने लगा था. बालबच्चों वाला एक परिवार…साथ में बड़ों की छत्रछाया और एक समझदार आदमी का जिंदगी भर का साथ…उस ने हामी भर दी और इस अनजान घर में आ गई. पहले से परिचय की क्या जरूरत है, अविनाश ने मना कर दिया था.

उस ने कहा था, ‘‘जानती हो संविधा, अचानक आक्रमण से विजय मिलती है. अगर पहले से बात करेंगे तो रुकावटें आ सकती हैं. बच्चे भी पूर्वाग्रह में बंध जाएंगे. तुम एक बार किसी से मिलो और उसे अच्छी न लगो, ऐसा नहीं हो सकता. यह अलग बात है कि तुम्हें मेरे बच्चे न अच्छे लगें.’’

तब संविधा ने खुश हो कर कहा था, ‘‘तुम्हारे बच्चे तो अच्छे लगेंगे ही.’’

‘‘बस, बात खत्म हो गई. अब शादी कर लेते हैं.’’ अविनाश ने कहा.

फिर दोनों ने शादी कर ली.

संविधा ने पहला दिन तो अपना सामान लाने और उसे रखने में बिता दिया था पर चैन नहीं पड़ रहा था. बच्चे सचमुच बहुत सुंदर थे, पर उस से बिलकुल बात नहीं कर रहे थे. चौकलेट भी नहीं ली थी. बड़ी बेटी ने स्थिर नजरों से देखते हुए कहा था, ‘‘मेरे दांत खराब हैं.’’

संविधा ढीली पड़ गई थी. अविनाश से शिकायत करने का कोई मतलब नहीं था. वह बच्चों से बात करने के लिए कह सकता है. बच्चे बात तो करेंगे, पर उन के मन में सम्मान के बजाए उपेक्षा ज्यादा होगी. ऐसे में कुछ दिनों इंतजार कर लेना ज्यादा ठीक रहेगा. पर बाद में भी ऐसा ही रहा तो? छोड़ कर चली जाएगी.

रोजाना कितने तलाक होते हैं, एक और सही. अविनाश अपनी बूढ़ी मां और बच्चों को छोड़ कर उस के साथ तो रहने नहीं जा सकता. आखिर उस का भी तो कुछ फर्ज बनता है. ऐसा करना उस के लिए उचित भी नहीं होगा. पर उस का क्या, वह क्या करे, उस की समझ में नहीं आ रहा था. वह बच्चों के लिए ही तो आई थी. अब बच्चे ही उस के नहीं हो रहे तो यहां वह कैसे रह पाएगी.

दूसरा दिन किस्सेकहानियों की किताबें पढ़ कर काटा. मांजी से थोड़ी बातचीत हुई. पर बच्चों ने तो उस की ओर ताका तक नहीं. फिर भी उसे लगा, सब ठीक हो जाएगा. पर ठीक हुआ नहीं. पूरे दिन संविधा को यही लगता रहा कि उस ने बहुत बड़ी गलती कर डाली है. ऐसी गलती, जो अब सुधर नहीं सकती. इस एक गलती को सुधारने में दूसरी कई गलतियां हो सकती हैं.

दूसरी ओर बच्चे अपनी जिद पर अड़े थे. जैसेजैसे दिन बीतते गए, संविधा का मन बैठने लगा. अब तो उस ने बच्चों को मनाने की निरर्थक चेष्टा भी छोड़ दी थी. उसे लगने लगा कि कुछ दिनों के लिए वह भाई के पास आस्ट्रेलिया चली जाए. पर वहां जाने से क्या होगा? अब रहना तो यहीं है. कहने को सब ठीक है, पर देखा तो बच्चों की वजह से कुछ भी ठीक नहीं है. फिर भी इस आस में दिन बीत ही रहे थे. कभी न कभी तो सब ठीक हो ही जाएगा.

उस दिन शाम को अविनाश को देर से आना था. उदास मन से संविधा गैलरी में आ कर बैठ गई. अभी अचानक उस का मन रेलिंग पर सिर रख कर खूब रोने का हुआ. कितनी देर हो गई उसे याद ही नहीं रहा. अचानक उस के बगल से आवाज आई, ‘‘आप रोइए मत.’’

संविधा ने चौंक कर देखा तो अनुष्का खड़ी थी. उस ने हाथ में थामा चाय का प्याला रखते हुए कहा, ‘‘रोइए मत, इसे पी लीजिए.’’

ममता से अभिभूत हो कर संविधा ने अनुष्का को खींच कर गोद में बैठा कर सीने से लगा लिया. इस के बाद उस के गोरे चिकने गालों को चूम कर वह सोचने लगी, ‘अब मैं मर भी जाऊं तो चिंता नहीं है.’

तभी अनुष्का ने संविधा के सिर पर हाथ रख कर सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मम्मी ही तो हूं, इसलिए तुम मम्मी कह सकती हो.’’

‘‘पर दीदी ने मना किया था,’’ सकुचाते हुए अनुष्का ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मन का बोझ झटकते हुए संविधा ने पूछा.

‘‘दीदी, आप से और पापा से नाराज हैं.’’

‘‘क्यों?’’ संविधा ने फिर वही दोहराया.

‘‘पता नहीं.’’

‘‘तुम मान गई न, अब दीदी को भी मैं मना लूंगी.’’ खुद को संभालते हुए बड़े ही आत्मविश्वास के साथ संविधा ने कहा.

संविधा की आंखों में झांकते हुए अनुष्का ने कहा, ‘‘अब मैं जाऊं?’’

‘‘ठीक है, जाओ.’’ संविधा ने प्यार से कहा.

‘‘अब आप रोओगी तो नहीं?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम जैसी प्यारी बेटी को पा कर भला कोई कैसे रोएगा.’’

छोटेछोटे पग भरती अनुष्का चली गई. नन्हीं अनुष्का को बेवफाई का मतलब भले ही पता नहीं था, पर उस के मन में एक बोझ सा जरूर था. उस ने बहन से वादा जो किया था कि वह दूसरी मां से बात नहीं करेगी. पर संविधा को रोती देख कर वह खुद को रोक नहीं पाई और बड़ी बहन से किए वादे को भूल कर दूसरी मां के आंसू पोंछने पहुंच गई.

जाते हुए अनुष्का बारबार पलट कर संविधा को देख रही थी. शायद बड़ी बहन से की गई बेवफाई का बोझ वह सहन नहीं कर पा रही थी. इसलिए उस के कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे.

सम्मान: क्यों आसानी से नही मिलता सम्मान- भाग 3

हम सभी दर्शक दीर्घा में बैठे जब तालियां बजाने में सुस्ती दिखाते तो वे जोर से कहते, ‘‘जोरदार तालियां होनी चाहिए?’’ फिर भी करतल ध्वनि उन के हिसाब से नहीं बजती तो वे कह उठते, ‘भारत माता की’  सब को ‘जय’ कहना ही पड़ता.

अंत में उन्होंने लेखकों की निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि वे सौ सम्मान और बढ़ाएंगे जो हिंदी व इंग्लिश के लेखकों, देश के तमाम प्रधानमंत्रियों के नाम पर दिए जाएंगे. हां, बढ़ती महंगाई के कारण उन्होंने प्रविष्टि शुल्क बढ़ाने पर जोर दिया और इसे संस्था की मजबूरी बताया. उन्होंने लेखकों से सहयोग शुल्क, चंदा, आर्थिक सहयोग भेजते रहने की अपील की ताकि पुरस्कार पाने के इच्छुक (लालची) लेखकों की यह संस्था अनवरत चलती रहे.

उन्होंने पूरी बेशर्मी के साथ यह भी कहा कि पुरस्कार पाने के लिए संस्था पर दबाव न डालें. हम निष्पक्ष हो कर श्रेष्ठता के आधार पर चयन करते हैं. आर्थिक सहयोग दे कर अपनी उदारता दिखाएं.

मैं बैठा सोच रहा था कि पैसा कमाने की कला हो, तो लोग साहित्यकारों की जेब से भी पैसा निकाल कर कमा लेते हैं. सम्मान की भूख ने कितनी सारी दुकानें खुलवा दीं. दुकानदारों को तो शर्म आने से रही. हम लेखक हो कर इतने बेशर्म कैसे हो सकते हैं? अंत में उन्होंने यही कहा कि पढ़ने वालों की कमी है. यह चिंता का विषय है. कुछ सरकार को कोसते रहे. कुछ सिनेमा और टीवी को दोष देते रहे. इस तरह प्रत्येक मुख्य अतिथि कम से कम 45 मिनट बोलता रहा और दर्शक दीर्घा में बैठे लेखक ताली बजाबजा कर थक चुके थे, जिन में एक मैं भी था.

अब शहर के व शहर के बाहर के एकदो लेखकों, जोकि नए थे और जिन की पुस्तक का प्रकाशन इसी संस्था ने किया था, की पुस्तकों के विमोचन का कार्य आरंभ हुआ. 2 नवोदित लेखिकाएं मंच पर आईं. उन की पुस्तकों के विमोचन के साथ संस्था के सभी सदस्य फोटो खिंचवाते रहे काफी देर तक. फिर संस्था के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, उपसचिव, कोषाध्यक्ष और संस्था के अन्य लोगों ने अपने विचार रखे या कहें कि हम पर थोपे. वे बोलते रहे. हम सब सुनते रहे. वे जानते थे कि हम कहीं नहीं जाएंगे क्योंकि हम सब सम्मान लेने के लिए बैठे थे.

अब हम लेखकों को संबोधित करते हुए कहा गया कि यदि आप सम्मान लेते हुए अपना फोटो चाहें तो कोषाध्यक्ष जोकि मंच पर एक कोने में बैठे हैं प्रति फोटो उन के पास सौ रुपए जमा कर दें. फोटो आप के पते पर भेज दी जाएगी.

समय अधिक होने के कारण मुख्य अतिथि एकएक कर के बहाना बना कर निकलने लगे थे. और फिर हम सब के नाम पुकारे जाने लगे. एक लेखक सम्मानित होने के लिए मंच पर पहुंच नहीं पाता कि दूसरे का नाम ले लिया जाता. लग रहा था कि संस्था ने जितने समय के लिए स्कूल का सभागृह किराए पर लिया था, वह पूर्ण होने वाला था या हो चुका था. एक वयोवृद्ध लेखक को यह कह कर रोक लिया गया था कि आप सम्मान करने में सहयोग करें, फिर आप का सम्मान भी होगा.

करीब 15 मिनट में ही दर्शक दीर्घा में बैठे 50 लेखकों का सम्मान निबटा दिया गया. शौल, फूलमाला स्मृतिचिह्न हाथ में थमा दिया गया और दूसरे हाथ में प्रमाणपत्र दे कर तीव्र गति से कैमरामैन फोटो खींचता व इतने में दूसरेतीसरे लेखक मंच पर खड़े हो कर अपनी प्रतीक्षा करते. फिर हम सब को बैठने को कहा गया…भागने के लिए जगह नहीं थी वरना तो कब का निकल कर भाग चुके होते.

हमें बधाई देते हुए आगे भी सहयोग बनाए रखने की अपील की गई. इस के बाद वयोवृद्ध लेखक का सम्मान किया गया. कार्यक्रम तेजी से समाप्त हो गया. बैनर, पोस्टर, कुरसियां तेजी से उठाई जाने लगीं.

मैं अंत में बाहर निकला. मुझे संस्था अध्यक्ष और सचिव की बातें सुनाई दीं. उन्हें मैं दिखाई नहीं दिया.

‘‘कितना बचा? आपस में बांटने पर सब को कितना मिलेगा.’’

‘‘2-2 हजार रुपए सब के हिस्से आएंगे. 20 हजार रुपए बचे हैं. आज रात को जबरदस्त पार्टी होगी. है न बढि़या धंधा. नाम का नाम, पैसे के पैसे. उस पर साहित्यिक संस्था चलाने से शहर के बड़ेबड़े लोगों से परिचय. उन में अपनी धाक.’’

‘‘यार, अगली बार सम्मानित करने वालों से रजिस्ट्रेशन शुल्क ज्यादा लो.’’

‘‘जैसेजैसे सम्मान के इच्छुक बढ़ेंगे, राशि भी बढ़ा देंगे.’’

‘‘लेखक लोग देंगे बड़ी राशि? इतने में ही तो बहस करते हैं वे.’’

‘‘लेखकों की कोई कमी थोड़े ही है. ढेर मिलते हैं. सम्मान किसे नहीं चाहिए होता है?’’

‘‘और जिन्हें मंच पर बोलने का शौक है वे भी दान, चंदा देते हैं. अपने दुश्मनों के विरुद्ध बोलते हैं. अपने व्यवसाय, व्यक्तित्व का बढ़चढ़ कर ब्योरा देते हैं. उन्हें ऐसा मंच कहां मिलेगा?’’

मैं इतना ही सुन पाया. थकाहारा होटल पहुंचा. वहां से स्टेशन पहुंचा. ट्रेन में धक्के खाते घर पहुंचा. घर में, दोस्तों में, सम्मान मिलने पर तारीफ हुई. मुझे समझ नहीं आया कि मेरा सम्मान हुआ था या अपमान.

सम्मान की भूख से कलम चलाने वालों के सम्मान के नाम पर कितने सारे लोग अपनी साहित्यिक दुकानें चला रहे हैं. जहां भूख होती है वहां ढाबे अपनेआप खुल जाते हैं. सेवा की आड़ ले कर व्यापार किया जा सकता है. जब तक हम जैसे सम्मान के भूखे लेखक जिंदा हैं, व्यापारियों की साहित्य सेवा की दुकानें चलती रहेंगी. अच्छा होगा कि लेखक, खासकर नए लिखने वाले, सम्मान लेने, सम्मानपत्रों की संख्या बढ़ाने के बजाय अपने लेखन पर ध्यान दें ताकि सच्चा लेखन हो सके.

अपने अपमान के और लोगों के साहित्यिक ढाबे चलाने के जिम्मेदार हम खुद हैं. आनेजाने का खर्चा, लौज में रुकने का खर्चा, भोजन, प्रविष्टि शुल्क मिला कर 5 हजार रुपए खर्च हो गए और हाथ आया एक व्यापारी द्वारा दिया हुआ सम्मानपत्र, वह भी हमारे ही पैसों से. कई दिन मन खराब रहा और बहुत विचार के बाद मैं ने अपनी आत्मग्लानि दूर करने के लिए सम्मानपत्र उठा कर पास की नदी में फेंक दिया.

अब जब भी ऐसे लुभावने सम्मान के पत्र, एसएमएस, फोन आते हैं तो गालियां देने को मन करता है. जी तो करता है कि सामने मिल जाएं तो कूट दूं सालों को. लेकिन मैं चुप रह कर आए पत्रों को तुरंत फाड़ कर फेंकता हूं. इस के बाद भी कोई मुझे जानवर समझ कर, कसाई बन कर पकड़ लेता है तो फिर मैं आवाज बदल कर कहता हूं कि जिन को आप पूछ रहे हैं, पिछले हफ्ते ही मर चुके हैं वे. उस तरफ से बिना शोक व्यक्त किए कहा जाता है कि आप चाहें तो अपने पिता की स्मृति में सम्मान दे सकते हैं. आप स्वयं सम्मान चाहें तो भी हम दे सकते हैं. ऐसे में मैं गुस्से से मोबाइल पटक देता हूं जोर से.

मंदिर: क्या अपनी पत्नी और बच्चों का कष्ट दूर कर पाएगा परमहंस- भाग 3

पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’ धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है.

हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं. इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’ चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी.

उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता. परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’ मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया

यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था. परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी.

पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.

जो बीत गई सो बात गई- भाग 2

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

जिस गली जाना नहीं: क्या हुआ था सोम के साथ- भाग 1

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

ऐताहासिक कहानी: वंश की मर्यादा- भाग 2

राणाजी द्वारा पत्र में लिखे आखिरी वाक्य माजी साहब के नजरों के आगे घूमने लगे, ‘हुक्म की तामील नहीं की गई तो जागीर जब्त कर ली जाएगी. देशद्रोह व हरामखोरी समझा जाएगा.’

पत्र के आखिरी वाक्यों ने माजीसा के मन में ढेरों विचारों का सैलाब उठा दिया, ‘जागीर जब्त हो जाएगी… देशद्रोह… हरामखोरी समझा जाएगा. मेरा बेटा अपने पूर्वजों के राज्य से बाहर बेदखल हो जाएगा और ऐसा हुआ तो उन की समाज में कौन इज्जत करेगा?

‘पर उस का आज बाप जिंदा नहीं है तो क्या हुआ, मां तो जिंदा है. यदि मेरे जीते जी मेरे बेटे का अधिकार छिन जाए तो मेरा जीना बेकार है. ऐसे जीवन पर धिक्कार और फिर मैं ऐसी तो नहीं जो अपने पूर्वजों के वंश पर कायरता का दाग लगने दूं. उस वंश पर जिस ने कई पीढि़यों से बलिदान दे कर इस भूमि को पाया है. मैं उन की इस बलिदानी भूमि को ऐसे आसानी से कैसे जाने दूं?’

ऐसे विचार करते हुए माजीसा की आंखों में वे दृश्य घूमने लगे जो युद्ध में नहीं जाने के बाद हो सकते थे कि उन का जवान बेटा एक ओर खड़ा है और उस के सगेसंबंधी और गांव वाले बातें कर रहे हैं कि इन्हें देखिए ये युद्ध में नहीं गए थे तो राणाजी ने इन की जागीर जब्त कर ली थी. वैसे इन चूंडावतों को अपनी बहादुरी और वीरता पर बड़ा नाज है. हरावल में भी यही रहते हैं. और ऐसे व्यंग्य सुन उन का बेटा नजरें झुकाए दांत पीस कर रह जाता है.

ऐसे ही दृश्यों के बारे में सोचतेसोचते माजीसा का सिर चकराने लगा. वे सोचने लगीं, ‘यदि ऐसा हुआ तो बेटा बड़ा हो कर मुझ मां को भी धिक्कारेगा. ऐसे विचारों के बीच ही माजीसा को अपने पिता के मुंह से सुनी उन राजपूत वीरांगनाओं की कहानियां याद आ गईं, जिन्होंने युद्ध में तलवार हाथ में ले घोड़े पर सवार हो कर दुश्मन सेना को गाजरमूली की तरह काटते हुए खलबली मचा कर अपनी वीरता का परिचय दिया था.

‘दूसरे उदाहरण क्यों उन के ही खानदान में पत्ताजी चूंडावत की ठकुरानी उन्हें याद आ गईं, जिन्होंने अकबर की सेना से युद्ध किया और अकबर की सेना पर गोलियों की बौछार कर दी थी.

‘जब इसी खानदान की वह ठकुरानी युद्ध में जा सकती थी तो मैं क्यों नहीं? क्या मैं वीर नहीं? क्या मैं ने भी एक राजपूतानी का दूध नहीं पीया? बेटा मासूम है तो क्या हुआ? मैं तो हूं. मैं खुद अपनी सैन्य टुकड़ी का युद्ध में नेतृत्व करूंगी और जब तक शरीर में जान है दुश्मन से टक्कर लूंगी.’

और ऐेसे वीरता से भरे विचार आते ही माजीसा का मन स्थिर हो गया. उन की आंखों में चमक आ गई, चेहरे पर तेज चमकने लगा और उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ प्रधानजी को हुक्म दिया, ‘‘राणाजी का हुक्म सिरमाथे. आप युद्ध की तैयारी के लिए अपनी सैन्य टुकड़ी को तैयार कीजिए. हम अपने स्वामी के लिए यह करेंगे और उस में जान की बाजी लगा देंगे.’’

प्रधानजी ने ये सुन कहा, ‘‘माजीसा, वो तो सब ठीक है, पर बिना स्वामी के कैसी फौज?’’

माजीसा बोलीं, ‘‘हम हैं ना. अपनी फौज का नेतृत्व हम करेंगे.’’

प्रधान ने आश्चर्यचकित हो कर माजीसा की ओर देखा. यह देख माजीसा बोलीं, ‘‘क्या आज तक महिलाएं कभी युद्ध में नहीं गईं? क्या आप ने उन महिलाओं की कभी कोई कहानी नहीं सुनी, जिन्होंने युद्धों में वीरता दिखाई थी? क्या इसी खानदान में पत्ताजी की ठकुरानीसा ने अकबर के खिलाफ युद्ध में भाग ले कर वीरगति नहीं प्राप्त की थी? मैं भी उसी खानदान की बहू हूं तो मैं उन

का अनुसरण करते हर युद्ध में क्यों नहीं भाग ले सकती?’’

बस, फिर क्या था. प्रधानजी ने कोसीथल की सेना को तैयार कर सेना के कूच का नगाड़ा बजा दिया. माजीसा शरीर पर जिरह बख्तर पहने, सिर पर टोप, हाथ में तलवार और गोद में अपने बालक को बिठा कर घोड़े पर सवार हो कर युद्ध में कूच के लिए चल पड़ीं.

कोसीथल की फौज के आगेआगे माजीसा जिरह वस्त्र पहने हाथ में भाला लिए कमर पर तलवार लटकाए उदयपुर पहुंच हाजिरी लगवाई, ‘‘कोसीथल की फौज हाजिर है.’’

अगले दिन मेवाड़ की फौज ने मराठा फौज पर हमला किया. हरावल (आगे की पंक्ति) में चूंडावतों की फौज थी, जिस में माजीसा की सैन्य टकड़ी भी थी. चूंडावतों के पाटवी सलूंबर के रावजी थे.

उन्होंने फौज को हमला करने से पहले संबोधित किया, ‘‘वीर मर्द राजपूतो, मर जाना पर पीठ मत दिखाना. हमारी वीरता के बल पर ही हमारे चूंडावत वंश को हरावल में रहने का अधिकार मिला. जिसे हमारे पूर्वजों ने सिर कटवा कर कायम रखा है.

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