एक और अध्याय: आखिर क्या थी दादी मां की कहानी- भाग 3

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मुझ से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर झांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर झुकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

बोया पेड़ बबूल का : मांबेटी का द्वंद्व- भाग 3

एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’ इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.

मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.

मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.

मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.

जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’

‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’

‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’

‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’

‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.

‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’

भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.

उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.

इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.

मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.

उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.

फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.

अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.

कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.

पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.

सच्ची श्रद्धांजलि: विधवा निर्मला ने क्यों की थी दूसरी शादी?- भाग 3

राजेश ने मेरे कंधों पर हाथ रखते हुए बड़े धैर्य से जवाब दिया, ‘‘यदि नहीं मिलना चाहेंगे या हमारा अपमान करेंगे, हम तुरंत लौट आएंगे और फिर दोबारा उन के पास नहीं जाएंगे. हम यही समझ लेंगे कि मम्मी तो अब इस दुनिया में नहीं हैं और पापा से अब हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

मैं चुपचाप राजेश की बातें सुन रही थी.

‘‘तुम्हें मुझ से वादा करना होगा कि तुम उस के बाद पापा की चिंता करना छोड़ दोगी,’’ उन्होंने बड़े प्यार से कहा, ‘‘मुझ से मेरी बीवी उदास और बुझीबुझी देखी नहीं जाती इसलिए एक बार तो यह रिस्क लेना ही होगा. एक बार चल कर देखना ही होगा.’’

हम जब पापा के पास पहुंचे उस समय सुबह के लगभग 8 बज रहे थे. पापा बागबानी में लगे हुए थे. हमें देखते ही गेट तक आए और बोले, ‘‘अरे, तुम लोग बिना खबर दिए आए, खबर करते तो मैं स्टेशन आ जाता.’’

राजेश ने धीरे से मुझ से कहा, ‘‘रिया, गुस्से को जब्त रखना और अपनी तरफ से कुछ भी अपमानजनक नहीं करना,’’ राजेश ने टैक्सी से निकलते हुए कहा, ‘‘अचानक ही प्रोग्राम बन गया इसलिए चले आए,’’ मैं अपने क्रोध को किसी तरह रोकने की कोशिश कर रही थी, फिर भी मुंह से निकल ही गया, ‘‘हमें लगा, आप को फुरसत कहां होगी, फिर हमें लाने की आप को अनुमति मिले न मिले.’’

पापा कुछ भी न बोले. हमें अंदर लिवा लाए और बोले, ‘‘निम्मो, देखो कौन आया है?’’

पापा के मुंह से निम्मो सुन मैं अंदर ही अंदर तिलमिला गई. निर्मला आंटी तुरंत हाथ पोंछती हुई हमारे पास आ गईं, शायद किचन में थीं. आते ही बोलीं, ‘‘अरे बेटी रिया, कैसी हो? राजेश, रिंकू तुम सभी को देख कर बहुत खुशी हो रही है,’’ फिर रिंकू को दुलारते हुए बोलीं, ‘‘तुम लोग फ्रैश हो लो, मैं नाश्ते की तैयारी करती हूं. हम सभी साथ ही नाश्ता करेंगे.’’

मैं ने कुछ भी नहीं कहा. अपना मायका आज मुझे अपना सा लग ही नहीं रहा था. चुपचाप हम ने थोड़ाथोड़ा नाश्ता कर लिया. निर्मला आंटी ने राजेश के पसंद के आलू के परांठे बनाए थे तथा रिंकू की पसंद की गाढ़ी सेंवइयां भी बनाई थीं.

पापा का बैडरूम वैसा ही था जैसा मम्मी के समय रहता था. घर की साजसज्जा भी वैसी ही थी, जैसी मम्मी के समय रहती थी. परदे, चादरें सब मम्मी की पसंद के ही लगे हुए थे. बैडरूम में मम्मी की बड़ी सी तसवीर लगी हुई, उस पर सुंदर सी माला पड़ी हुई थी. मुझे मायके आए हुए 2 दिन हो चुके थे. निर्मला आंटी से मैं ने कोई बात नहीं की थी. पापा से भी कुछ खास बात नहीं हुई थी. शाम को पापा रिंकू को ले कर घूमने निकले थे, मैं और राजेश टैरेस पर गुमसुम बैठे हुए थे, तभी निर्मला आंटी आईं और मेरे हाथ में एक कागज थमाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी रिया, इसे पढ़ लो. मैं खाना बनाने जा रही हूं. क्या खाना पसंद करोगी, बता देतीं तो अच्छा रहता.’’

मैं ने बेरुखी से कहा, ‘‘जो आप की इच्छा, हम लोगों को खास भूख नहीं है.’’

वे चली गईं. तब मैं ने कटाक्ष करते हुए राजेश से कहा, ‘‘खाना हमारी पसंद से बनेगा और शादी के समय हमारी पसंद कहां गई थी? हुंह, बात बनाना भी कोई इन से सीखे. कितनी बेशर्मी से नाटक जारी है,’’ कहते हुए मैं ने बेमन से कागज खोला, यह तो मम्मी का पत्र था :

प्यारी प्यारी निम्मो,

आज मैं तुझ से अपनी हेमेश की कसम तोड़ने की इजाजत लेते हुए पुनर्विवाह की बात कर रही हूं. आशा करती हूं, मेरी अंतिम इच्छा पूरी करने से ‘न’ नहीं करेगी. मेरी तो विदाई की वेला आ गई है. तुझ से, हेमेश से, बेटी रिया, राजेश, रिंकू सभी से इच्छा न होते हुए भी विदा तो मुझे होना ही पड़ेगा.

एक दिन मैं ने हेमेश और डाक्टर की बातें सुन ली थीं. मुझे अपनी बीमारी का हाल मिल गया था. मैं अच्छी तरह समझ चुकी थी कि मैं चंद दिनों की मेहमान हूं. मैं ने सब से नजर बचा कर यह पत्र लिखा क्योंकि अपनी अंतिम इच्छा बताना जरूरी था. मन की बात तुम लोगों को बताए बिना भी तो मेरी आत्मा को शांति न मिल सकेगी.

मेरे बाद हेमेश एकदम अकेले हो जाएंगे. तू भी अब रिटायर होने वाली है. मेरे हेमेश को अपना लेना. दोनों एकदूसरे का सहारा बन जाना. हेमेश को तो जानती ही है, अपनी सेहत के प्रति कितने लापरवाह रहते हैं, तू रहेगी तो उन्हें वक्त पर हर चीज मिलेगी. प्यारी निम्मो, हेमेश की साली साहिबा से बीवी साहिबा बन जाना.

रिया बेटी मेरे जाने से बहुत दुखी होगी. फिर धीरेधीरे रियाराजेश अपनी जिंदगी, अपनी गृहस्थी में मन लगा लेंगे. उन की आंटी से उन की मम्मी बन जाना. मेरी बेटी का मायका पूर्ववत बना रहेगा.

थक गई हूं, अब लिखा नहीं जा रहा है. बोल देती हूं, तुम दोनों की शादी ही तुम दोनों की तरफ से मेरे लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

तेरी,

हेमू

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे. राजेश ने भी मेरे साथ ही पत्र पढ़ लिया था. उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोले, ‘‘चलो, सारी गलतफहमियां दूर हो गईं. चल कर देखें मम्मी क्या कर रही हैं?’’

हम लोग किचन में गए. देखा, निर्मला आंटी खाना बनाने में व्यस्त थीं. पापा भी किचन में ही थे. वे सलाद काट रहे थे. मैं निर्मला आंटी के पास गई तथा बोली, ‘‘क्या बना रही हैं, मम्मी?’’

निर्मला आंटी की आंखें डबडबा आईं. उन्होंने प्यार से मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया फिर धीरे से कहा, ‘‘हेमेश और मेरा शादी करने का एकदम मन नहीं था. हम ने कभी एकदूसरे को इस नजर से देखा ही नहीं था लेकिन हेमू की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए शादी करनी पड़ी. मंदिर में तुम्हारे बूआ, फूफा की उपस्थिति में हम ने एकदूसरे को माला पहनाई, हेमेश ने मेरी सूनी मांग में सिंदूर भर दिया, हो गई शादी. तुम्हारी नीता बूआ ने मिठाई खिला हमारा मुंह मीठा कराया.’’

मैं चुपचाप उन्हें देखे जा रही थी.

उन्होंने आगे कहा, ‘‘तुम्हें बताने की हिम्मत मुझ में और हेमेश में न थी.

तुम्हें बताने की जिम्मेदारी नीता ने ली, उस ने तुम्हें सारी बातें बताने की कोशिश की, लेकिन तुम ने उस के फोन काट दिए, बात नहीं सुनी उस की. वैसे बेटा, तुम ने भी वही किया जो एक बेटी अपनी मम्मी को खोने के बाद इस तरह की खबर सुन कर करेगी, हमें तुम से…’’

मैं ने बीच में ही निर्मला आंटी की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप लोगों से माफी मांगने लायक तो नहीं हूं, लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए. सौरी मम्मी, सौरी पापा.’’

मम्मीपापा दोनों ने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगा लिया. मैं ने देखा राजेश, रिंकू को गोद में लिए पूरी तरह संतुष्ट नजर आ रहे थे. वे भी मुझ से नजर मिलते ही मुसकरा दिए. इस दौरान एक विचार दिल और दिमाग को लगातार मथ रहा था कि दो उदास और तन्हा प्राणियों को एक कर जीने का मौका देना क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है? इस विचार के आते ही मम्मी के प्रति श्रद्धा से सिर झुक गया.

अदलाबदली : क्यों था झगड़ा चौकोर जमीन का?

जब से गांव की कच्ची सड़क को हाईवे से जोड़ने की बात छिड़ी है, कारू के घर में कुहराम मच गया. उस की पत्नी को लगा कि जेठजी की जमीन के ज्यादा दाम मिलेंगे, जबकि जमीन का बंटवारा कारू के मनमुताबिक हुआ था. कारू इस बवाल से परेशान हो गया था. क्या उस का बड़ा भाई ललन इस समस्या का हल निकाल पाया?

ललन और कारू 2 भाई अपने परिवार के साथ पुश्तैनी जमीन पर अपनेअपने हिस्से में रह रहे थे. दोनों भाइयों की आपस में कभीकभार 2-4 बातें हो जाया करती थीं, पर दोनों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न सुहाती थीं.

अब तो एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया था, जिस से आएदिन हीलहुज्जत तय थी.

पहले जमीन के आगे कच्चा रास्ता हुआ करता था, पर जब से उसे नैशनल हाईवे से उसे पक्की सड़क बना कर जोड़े जाने की खबर उड़ी है, तब से छोटे भाई कारू के घर अकसर चिकचिक होती रहती थी.

सड़क बनने के सिलसिले में कुछ लोगों की जमीन उस हिस्से में पड़ रही थी. कारू की 4 हाथ और ललन की कुछ ज्यादा ही जमीन थी.

जाहिर था कि सरकार की तरफ से पैसा भी उसी हिसाब से मिलना था. कारू की पत्नी को लग रहा था कि उस के साथ गलत हुआ है. ललन को पहले से ही मालूम था कि भविष्य में इधर से बड़ी सड़क गुजरेगी, तभी उस ने आसानी से हर बात मान ली थी.

कारू तो हमेशा से शहर में रहता रहा था. उसे गांव का कुछ खास अतापता भी तो न था.

बारबार उस के दिमाग में एक ही विचार कौंध रहा था कि आखिर कोई सामने की जगह छोड़ कर तिरछा हिस्सा क्यों लेना चाहेगा, जैसा कि ललन ने किया था?

गांव वालों के सामने सब की रजामंदी से 2 हिस्से हुए थे. ललन ने तो छोटे भाई की मरजी पर ही छोड़ दिया. जिधर तुम्हें चाहिए वह ले लो. सब ने ललन की दरियादिली पर उस की तारीफ भी की थी.

‘‘आखिर ललन ने राम की मिसाल पेश कर दी, वरना कौन इस तरह किसी की मरजी पर छोड़ता है आज के कलयुगी जमाने में.’’

कारू की पत्नी झट से बोल पड़ी थी, ‘‘मुझे तो सामने का ही हिस्सा चाहिए…’’ चौकोर जमीन उस की आंखों में तैर रही थी.

ललन ने बस इतना ही कहा था, ‘‘भाई, जमीन 2 हिस्सों में बंटी है, हमारे दिल नहीं बंटने चाहिए.’’

कारू की पत्नी बहुत खुश थी, पर आज वह अपने ही फैसले पर सिर फोड़ रही थी. हर वक्त बुराभला कहती रहती.

‘‘आज जो तुम ने बात नहीं की, तो मेरा मरा मुंह देखना. आखिरी बार कहे देती हूं तुम्हें…’’

वह कारू को कहती, ‘‘जाओ, अपने बड़े भाई से कहो कि यह 4 हाथ जमीन भी ले ले. हमें तो जानबूझ कर ठगा गया है. आज हमारे पास भी ज्यादा जमीन होती, तो ज्यादा पैसे मिलते.’’

वह भी चिढ़ कर कह देता, ‘‘भैया ने कोई जोरजबरदस्ती नहीं की थी. तुम ने ही आगे बढ़ कर कहा था. जो चाहा वह मिला. यह उन का नसीब है कि उन की जमीन रास्ते में जाएगी. मैं नहीं जाता कहने, तुम्हें जो करना है करो.’’

कारू किस मुंह से बड़े भाई को कहता. ललन ने उसे ही तो फैसले का हक दिया था.

कारू को अपनी पत्नी पर बहुत गुस्सा आ रहा था. खुद ही तो आगे बढ़ कर बोली थी और आज घर में कुहराम मचा रखा है.

2 दिन से खानापीना सब पर आफत छाई थी. बच्चे बाहर से कुछकुछ ला कर खा रहे थे. कारू भी कल सुबह से जो गया देर शाम होने को आया, वह घर नहीं लौटा था.

न जाने क्यों ललन का मन बेचैन हो रहा था. खून के रिश्ते जब तक गाढ़े रहते हैं तो सुखदुख का भी भान होता है. आज उसे कारू की चिंता सता रही थी. कुछ तो बात है. इतना सन्नाटा कि कोई आवाज भी नहीं. धड़कते दिल से बच्चों को आवाज लगाई.

मालूम चला कि पिछले 2 दिन से घर में चूल्हा नहीं जल रहा है, खाना नहीं बन रहा है और कारू भी घर नहीं आया. अब तो पक्का यकीन हो गया था कि कुछ तो गड़बड़ है. पर क्या…?

ललन ने टौर्च उठाई और हर ठिकाने पर जाजा कर ढूंढ़ता रहा, लोगों से पूछता रहा, ‘‘किसी ने कारू को देखा है क्या?’’

कहीं कोई खाबर नहीं थी. मन में तरहतरह के खयाल हिलोरें मार रहे थे. आखिर गया तो कहां गया?

तभी किसी ने बताया कि कारू को गांव के बाहर बने देवस्थान के चबूतरे पर लेटे हुए देखा था, जहां कभी किसी खास मौके पर लोग जाते थे. ललन दौड़ कर उस ओर आवाज लगाता हुआ गया.

‘‘कारू, यह क्या भाई… तू यहां क्यों लेटा है? बच्चों से मालूम चला कि कल सुबह से ही घर से निकले हो तुम. ऐसा कोई करता है भला. 2-4 बातें पतिपत्नी में हो भी गईं तो क्या हुआ. सब ठीक हो जाएगा. चलो मेरे साथ… गांव वाले क्या कहेंगे…’’

‘‘घर… कौन सा घर भैया… जहां पत्नी मेरे सिर पर तांडव करती है. सब तो उस का ही कियाधरा है, फिर भी आएदिन के झगड़ों से परेशान हो गया हूं. घर में मैं सो नहीं पा रहा हूं. यहां काफी अच्छी नींद आई.’’

‘‘इस तरह की बहकीबहकी बातें मत करो. चलो मेरे साथ. क्या बात है, मुझे बताओ… बच्चों से पूछना अच्छा नहीं लगता. तुम ही बता दो अब. मुझे बड़ा भाई मानते हो तो…’’

‘‘भैया… मानूंगा क्यों नहीं. हमेशा मेरे लिए आप खड़े रहे. आप ने कितने त्याग किए हैं, मुझ से ज्यादा और कौन जान सकता है…’’ और वह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा.

ललन कारू के सिर पर हाथ फिराते हुए बोला, ‘‘बोल न, बात क्या है, जिस ने तुझे इतना परेशान कर रखा है?’’

‘‘भैया, वह कहती है कि वह 4 हाथ जमीन भी आप ही ले लें, जो सड़क बनने में जा रही है. आप की ज्यादा

जमीन गई है, तो पैसे भी आप को ज्यादा मिलेंगे. आप ने जानबूझ कर पीछे की तरफ की जमीन ली थी. यही झगड़े की वजह है.’’

‘‘ठीक है… तो एक काम करते हैं कि अपनीअपनी जगह बदल लेते हैं, तब तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. तुम मेरे हिस्से की और मैं तुम्हारे हिस्से की जमीन ले लेता हूं. चलो, चल कर घर में बात कर लो.’’

‘‘पर भैया, क्या भाभी कुछ नहीं बोलेंगी?’’

‘‘वह बाद में देख लेंगे. पहले अपनी पत्नी से बात तो करो. सब हल निकल जाएगा.’’

कारू ने अपनी पत्नी के सामने यह प्रस्ताव रखा. इस बार ललन की पत्नी ने भी कुछ बोलना चाहा, पर सारी बात समझाने पर वह चुप ही रही.

इधर कारू ने अपनी पत्नी से सारी बात कही. पहले तो वह सुन कर बहुत खुश हुई, लेकिन जब दिमाग लगाया तो उस की गणना ही उसे ठेंगा दिखाती मिली.

ललन की जमीन हमेशा दबंगों की नजर में खटकती रहती, पर ललन की भलमनसाहत और अच्छा स्वभाव उन्हें हर बार रोक लेता था.

सरकार जमीन ले रही थी तो एवज में पैसे भी दे रही थी, जिस से वह कहीं दूसरी जमीन खरीद सकता था.

यह बात कारू की पत्नी को पता थी कि उस के स्वभाव के चलते उस की गांव में अच्छी इमेज नहीं थी. कोई साथ भी नहीं देगा. आखिर में उस ने चुप रहना ही बेहतर समझ.

कारू के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘जो जिसे मिला वही ठीक है. मेरे 4 हाथ तो 4 हाथ ही सही, मुझे अदलाबदली नहीं करनी.’’

अब दोनों भाइयों के चेहरे पर सुकून आ गया था.

एक और अध्याय: आखिर क्या थी दादी मां की कहानी – भाग 2

मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है. ‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

सच्ची श्रद्धांजलि: विधवा निर्मला ने क्यों की थी दूसरी शादी?- भाग 2

निर्मला आंटी और मम्मी कालेज के दिनों से ही अच्छी सहेलियां थीं और शादी के बाद भी दोनों अच्छी सहेलियां बनी रहीं. निर्मला आंटी आगरा में रहती थीं. उन के पति बेहद स्मार्ट और हैंडसम थे व अच्छे ओहदे पर कार्यरत थे, लेकिन शादी के 2 साल बाद ही एक ऐक्सीडैंट में उन का देहांत हो गया. निर्मला आंटी को उन के पति के औफिस में काम पर रख लिया गया. लेकिन उन के ससुराल वालों ने उन्हें ‘अभागी’ मान उन से संबंध तोड़ लिया. उन की सास बहुत कड़े स्वभाव की थीं. उन्होंने साफ कह दिया कि बेटे से ही बहू है, जब बेटा ही नहीं रहा तो बहू कैसी?

निर्मला आंटी एकदम अकेली हो गई थीं, लेकिन मम्मी ने उन्हें टूटने नहीं दिया. मम्मी और निर्मला आंटी में बहुत प्रेम था. मम्मी उन्हें प्रेम से निम्मो कहती थीं तथा आंटी मम्मी को हेमू कह कर पुकारती थीं. मम्मी अब हर मौके पर निर्मला आंटी को अपने घर बुला लेती थीं. मम्मी अकसर आंटी से कहतीं, ‘निम्मो, फिर से शादी कर ले, अकेले जिंदगी पहाड़ जैसी लगेगी, मन की कहनेसुनने को तो कोई होना चाहिए.’ निर्मला आंटी हमेशा ‘न’ कर देतीं, कहतीं, ‘हेमू, यदि मेरे जीवन में उन का साथ होना होता तो उन का देहांत क्यों होता? यदि मेरे जीवन में अकेला, सूनापन है तो वही सही.’ मम्मी फिर भी कहतीं, ‘निम्मो, भविष्य की तो सोच, हर दिन एक से नहीं होते, कोई सहारा चाहिए होता है.’ निर्मला आंटी कहतीं, ‘हेमू, तू और तेरा परिवार है न, इतना अपनापन तुम लोगों से मिलता है, उस सहारे जिंदगी काट लूंगी.’  मम्मी के बहुत समझाने पर भी निर्मला आंटी दूसरी शादी के लिए तैयार न होतीं.

एक बार उन्होंने मम्मी से सख्ती से कह भी दिया था, ‘देख हेमू, यदि तू मुझे आइंदा पुनर्विवाह के लिए बोलेगी तो मैं तेरे पास आना छोड़ दूंगी,’ उन्होंने बहुत भावुक हो कर कहा था, ‘रमेश के साथ गुजरे 2 सालों पर मेरी पूरी जिंदगी कुरबान है हेमू.’ मम्मी ने आंटी को गले से लगाते हुए कहा था, ‘निम्मो, मैं आइंदा तुझ से विवाह के लिए नहीं बोलूंगी, मुझे हेमेश की कसम.’

पापा निर्मला आंटी को ‘साली साहिबा’ कह कर पुकारते थे. मम्मी को यदि पापा की मरजी के खिलाफ पापा से काम करवाना होता तो वे निर्मला आंटी के माध्यम से ही पापा को कहलवाती थीं तथा पापा यह कहते हुए कि साली साहिबा, आप की बात टालने की हिम्मत तो मुझ में नहीं है, काम कर देते थे.

बड़ा प्यारा रिश्ता था पापा और निर्मला आंटी का. दोनों के रिश्तों में शुद्ध लगाव के अलावा ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता था जिसे आपत्तिजनक कहा जा सके. वे दोनों कभी भी अकेले में मिलते हुए या बातें करते हुए भी नजर नहीं आते थे. दोनों के रिश्तों की धुरी तो मम्मी ही नजर आती थी. फिर दोनों ने शादी कैसे कर ली और क्यों कर ली. दोनों इतने समय से मम्मी को छल रहे थे. इस गुत्थी को मैं किसी भी तरह सुलझा नहीं पा रही थी.

मम्मी और निर्मला आंटी रंगरूप, स्वभाव में बहुत मेल खाती थीं. पहली नजर में तो वे जुड़वां बहनें ही नजर आती थीं. मम्मी के कैंसर का पता अंतिम स्थिति में चल पाया. पापा ने मम्मी के इलाज और सेवा में रातदिन एक कर दिए.

मैं ने उन्हें छिपछिप कर रोते हुए देखा था. मम्मी की हालत की खबर निर्मला आंटी को भी दे दी गई. वे खबर मिलते ही मम्मी के पास पहुंच गईं. आते ही मम्मी की सेवा में लग गईं. कितना प्यार करती थीं मम्मी को वे, कभीकभी उन की बुदबुदाहट मुझे सुनाई भी पड़ी थी, ‘यह क्या हो गया? मेरी हेमू को कुछ नहीं होना चाहिए, उसे बचा लो, मुझे उठा लो, उस के सारे कष्ट मुझे दे दो.’

फिर वही सवाल दिमाग को मथने लगता कि कैसे दोनों ने शादी कर ली? इस का मतलब तो यही है कि दोनों मम्मा के सामने नाटक कर रहे थे.

मैं रातदिन पापा और आंटी की शादी की गुत्थी में उलझी रहती, एक सेकंड भी मेरा मन इस उलझन से निकल नहीं पाता था. नतीजतन, इस का असर मेरे स्वास्थ्य पर पड़ना ही था, सो पड़ गया. राजेश ने मुझे डाक्टर को दिखाया. सारी जांचपड़ताल के बाद डाक्टर का दोटूक निर्णय यही था कि सब रिपोर्ट नौर्मल हैं, ये बहुत टैंशन में हैं, इतना टैंशन इन को काफी नुकसान पहुंचा सकता है. इन्हें खुश रहने की ही आवश्यकता है. राजेश ने मुझे बड़े प्यार से समझाया, ‘‘रिया, जो होना था सो हो गया, मम्मी चली गई हैं, तुम्हारे लाख चिंता करने से भी वापस नहीं आएंगी. सो, मन को दुखी मत करो.’’

मैं ने कहा, ‘‘राजेश, मम्मी को गुजरे ढाई माह हो रहे हैं, मैं ने उस दुख को सहज ले लिया है. मैं क्या करूं, पापा और आंटी ने शादी कर मम्मी के साथ विश्वासघात किया है, यह मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा है.’’

राजेश बहुत संयत हो कर बोले, ‘‘यों अपने को जलाने से तो कोई फायदा नहीं है. मुझे ऐसा लगता है, जरूर कोई कारण होगा जो उन लोगों ने ऐसा कदम उठाया है, दोनों ही बहुत सुलझे हुए और समझदार इंसान हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘राजेश, क्या कारण हो सकता है, दोनों सब की आंखों में धूल झोंक कर प्रेम किया करते होंगे. अभी तक दोनों नाटक ही कर रहे थे, बल्कि मुझे तो पूरा विश्वास है कि दोनों मम्मी की मृत्यु का इंतजार ही करते होंगे. उन्हें अपने रास्ते का कांटा ही समझते रहे होंगे.’’

राजेश ने थोड़ा सख्ती से मुझ से कहा, ‘‘रिया, हम भी बच्चे नहीं हैं. हमारी आंखों पर पट्टी नहीं बंधी हुई है जो हमारी आंखों के सामने प्रेमलीला खेली जाए और वह हमें दिखाई भी न दे.’’

मैं ने मायूस हो कर कहा, ‘‘राजेश, मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? किस के आगे रोऊं, चीखूं, चिल्लाऊं. जी में आता है उन दोनों से खूब झगड़ूं कि आप लोगों की नीयत में ही खोट था जो मम्मी चल बसीं और अब दोनों शादी रचा रहे हैं.’’

राजेश ने मेरे हाथ को अपने हाथों में ले कर बहुत ही संयत ढंग से कहा, ‘‘रिया, मेरी बात ध्यान से सुनो. 4 दिनों बाद रिंकू की गरमी की छुट्टियां शुरू हो रही हैं. हम भी छुट्टी ले कर पापा के पास चलते हैं.’’

मैं ने झट से कहा, ‘‘राजेश, उन्हें तो हम कबाब में हड्डी की तरह लगेंगे. वे दोनों तो हनीमून के मूड में होंगे. अब निर्मला आंटी मेरी आंटी नहीं, बल्कि मेरी सौतेली मां बन बैठी हैं, न जाने कैसा व्यवहार करें,’’ मैं ने बात और विस्तार से समझाने के लिए राजेश से कहा, ‘‘अब तो पापा पर भी भरोसा नहीं रहा. कहीं वे हम लोगों का अपमान न कर बैठें? मेरी तो छोड़ो, तुम्हारे अपमान को मैं बरदाश्त न कर पाऊंगी.’’

एक और अध्याय: आखिर क्या थी दादी मां की कहानी- भाग 1

Family Story in Hindi : वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है. तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादीमां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादीमां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादीमां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

इंसाफ का अंधेरा: 5 कैदियों ने रचा जेल में कैसा खेल – भाग 1

Family Story in Hindi: वह कैद में है. उसे बदतर खाना दिया जाता है. वह जिंदा लाश की तरह है. उस की जिंदगी का फैसला दूसरे लोग करेंगे. वे लोग जो न उसे जानते हैं, न वह उन को. कागज पर जो उस के खिलाफ लिखा गया है उसी की बुनियाद पर सारे फैसले होने हैं. वह कैद क्यों किया गया? वह यादों में चला जाता है. बुंदेलखंड का छोटा सा गांव. डकैतों की भरमार. सब का अपनाअपना इलाका. डाकू मानसिंह का गांव और पुलिस. कई बार पुलिस और डाकू मानसिंह का आमनासामना हुआ. गोलियां चलीं. मुठभेड़ हुई. दोनों तरफ से लोग मारे गए. कई बार डाकू मानसिंह भारी पड़ा, तो कई बार पुलिस. दोनों के बीच समझौता हुआ और तय हुआ कि डाकू मानसिंह के साथ मुठभेड़ नहीं की जाएगी. लेकिन पुलिस को सरकार को दिखाने और जनता को समझाने के लिए कुछ तो करना होगा.

दारोगा गोपसिंह ने कहा, ‘‘ऐसा करो कि हफ्ते, 15 दिन में तुम अपना एक आदमी हमें सौंप देना. जिंदा या मुरदा, ताकि हमारी नौकरी होती रहे.’’

शुरू में तो मानसिंह राजी हो गया, लेकिन जब उसे यह घाटे का सौदा लगा तब उस के साथियों में से एक ने उस से कहा, ‘‘आप अपने लोगों को ही मरवा रहे हैं. इस तरह पूरा गिरोह खत्म हो जाएगा. लोग गिरोह में शामिल होने से कतराएंगे.’’

मानसिंह ने कहा, ‘‘मैं अपने आदमी नहीं दूंगा. पासपड़ोस के गांव के लोगों को सौंप दूंगा अपना आदमी बता कर.’’

‘‘क्या यह ठीक रहेगा? क्या हम पुलिस को बलि देने के लिए डाकू बने हैं?’’ गिरोह के एक सदस्य ने पूछा.

मानसिंह बोला, ‘‘नहीं, यह कुछ समय की मजबूरी है. अभी हमारे गिरोह पर पुलिस का शिकंजा कसा हुआ है. जैसे ही हम पुलिस को मुंहतोड़ जवाब देने लायक हो जाएंगे तब पुलिस वालों की ही बलि चढ़ेगी.’’

‘‘कब तक?’’ गिरोह के दूसरे सदस्य ने पूछा.

‘‘दिमाग पर जोर मत दो. 1-2 आदमी पुलिस को सौंपने से कुछ नहीं बिगड़ जाता. हम गांव के अपने किसी दुश्मन को पकड़ कर पुलिस को सौंपेंगे, वह भी जिंदा. तब तक हमें भी संभलने का मौका मिल जाएगा.’’

‘‘और दारोगा मान जाएगा?’’ गिरोह के एक सदस्य ने पूछा.

मानसिंह चुप रहा. उस ने एक योजना बनाई. शहर से लगे गांवों में रहने वाले पुलिस वालों को उठाना शुरू किया. उन्हें डकैतों के कपड़े पहनाए. कुछ दिन उन्हें बांध कर रखा. जब उन की दाढ़ीबाल बढ़ गए, तो गोली मार कर उन्हें थाने के सामने फेंक दिया.

हैरानी की बात यह थी कि यह खेल कुछ समय तक चलता रहा. जब बात खुली तो पुलिस बल समेत दारोगा ने कई मुठभेड़ें कीं और हर मुठभेड़ में कामयाबी हासिल की.

मानसिंह कुछ समय के लिए अंडरग्राउंड हो गया. दारोगा गोपसिंह ने गांव वालों को थाने बुला कर थर्ड डिगरी देना शुरू कर दिया. उसे मानसिंह का पता चाहिए था और मानसिंह की मदद उस के गांव के लोग करते थे, यह बात दारोगा जानता था.

एक बार खेत को ले कर गांव के 2 पक्षों में झगड़ा हुआ. दूसरा पक्ष मजबूत था और जेल में बंद शख्स का पक्ष कमजोर था. पैसे से और सामाजिक रूप से भी. उस के पिता के पास महज 5 एकड़ जमीन थी. दूसरे पक्ष को जब लगा कि मामला उस के पक्ष में नहीं जा पाएगा तब उस ने दारोगा गोपसिंह से बात की.

गोपसिंह ने बापबेटे को थाने में बुला कर धमकाया कि एक एकड़ खेती दूसरे पक्ष के लिए छोड़ दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा. लेकिन बापबेटा धमकी से डरे नहीं.

एक दिन जब बेटा शहर से मैट्रिक का इम्तिहान दे कर पैदल ही गांव आ रहा था कि तभी दारोगा की जीप उस के पास आ कर रुकी. 4 सिपाही उतरे. उसे जबरन गाड़ी में बिठाया और थाने ले गए.

उस ने लाख कहा कि वह बेकुसूर है, तो दारोगा गोपसिंह ने गुस्से में कहा, ‘‘तुम्हारे बाप ने मेरी बात नहीं मानी.

अब भुगतो. आज से कानून की नजर में तुम डाकू हो. आज रात में ही तुम्हारा ऐनकाउंटर होगा.’’

उसे हवालात में बंद कर दिया गया. अपनी मौत के डर से वह अंदर तक कांप गया.

रात होने से पहले मानसिंह के गिरोह ने थाने पर हमला कर दिया. दोनों तरफ से फायरिंग हुई. मानसिंह गिरोह के कई सदस्य मारे गए. दारोगा गोपसिंह और कई पुलिस वाले भी मारे गए.

शहर से जब एसपी आया तो नतीजा यह निकाला गया कि वह लड़का मानसिंह गिरोह का आदमी था. मानसिंह अपने गिरोह के साथ उसे छुड़ाने आया था. गिरोह की जानकारी के बारे में उसे थर्ड डिगरी टौर्चर से गुजरना पड़ा. आखिर में उसे जेल भेज दिया गया.

बाप को बहुत बाद में पता चला कि उस का बेटा डकैत होने के आरोप में जेल में बंद है. बाप ने अपनी औकात के मुताबिक वकील किया. जमानत रिजैक्ट हो गई.

बेटे का कानून पर से यकीन उठ चुका था. उसे अपने आगे अंधेरा दिखाई दे रहा था. उसे तब गुस्सा आया जब अदालत ने उसे गुनाहगार मान कर उम्रकैद की सजा सुना दी. अब उस की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया. पहली बार उस के मन में खयाल आया कि उसे भाग जाना चाहिए और जब उसे अपने जैसी सोच के कुछ लोग मिले तो वे आपस में भागने की योजना बनाने लगे.

वे सब जेल में एकसाथ टेलर का काम करते थे जो उन्हें सिखाता था और उस के अलावा 3 और कैदी मिला कर वे 5 लोग थे. पांचों को उम्रकैद की सजा हुई थी.

इधर बूढ़े बाप ने सोचा, ‘क्या करूंगा 5 एकड़ खेती का. इस से अच्छा है कि जमीन बेच कर बेटे के लिए हाईकोर्ट में अपील की जाए.’

बाप ने गांव की खेती औनेपौने दाम में बेच कर सारा रुपया वकील को दे दिया. बेटे को इसलिए नहीं बताया क्योंकि उसे लगेगा कि बाप उसे झूठा ढांढस बंधा रहा है.

सच्ची श्रद्धांजलि : विधवा निर्मला ने क्यों की थी दूसरी शादी?- भाग 1

सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी. मुझे चिढ़ हुई कि रविवार के दिन भी चैन से सोने को नहीं मिला. फोन उठाया तो नीता बूआ की आवाज आई, ‘‘रिया बेटा, शाम तक आ जाओ. तुम्हारे पापा और निर्मला की शादी है.’’

मुझे बहुत तेज गुस्सा आ गया. लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘नीता बूआ, आप को मेरे साथ इतना भद्दा मजाक नहीं करना चाहिए.’’

वे तुरंत बोलीं, ‘‘बेटा, मैं मजाक नहीं कर रही हूं, बल्कि तुम्हें खबर दे रही हूं.’’

मैं ने फोन काट दिया. मुझ में पापा की शादी के संबंध में बातचीत करने का सामर्थ्य नहीं था. बूआ का 2 बार और फोन आया किंतु मैं ने काट दिया. मेरी चीख सुन राजेश भी जाग गए तथा मुझ से बारबार पूछने लगे कि किस का फोन था, क्या बात हुई, मैं इतना परेशान क्यों हूं वगैरहवगैरह. मैं तो अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘आदमी इतना भी मक्कार हो सकता है. अपनी जान से प्यारी पत्नी के देहांत के ढाई माह के अंदर ही उस की प्यारी सखी से शादी रचा ले, इस का मतलब तो यही है कि मम्मी के साथ उन के पति और उन की सखी ने षड्यंत्र रचा है.’

पापा दूसरी शादी कर रहे हैं, यह सुन कर मैं हतप्रभ थी. रोऊं या हंसूं, चीखूं या चिल्लाऊं, करूं तो क्या करूं, पापा की शादी की खबर गले में फांस की तरह अटकी हुई थी. मम्मी को गुजरे अभी सिर्फ ढाई माह हुए हैं, उन की मृत्यु के शोक से तो मन उबर नहीं पा रहा है. रातदिन मम्मी की तसवीर आंखों के सामने छाई रहती है. घर, औफिस सभी जगह काम मशीनी ढंग से करती रहती हूं, पर दिलोदिमाग पर मम्मी ही छाई रहती हैं. अपने मन को स्वयं ही समझाती रहती हूं. मम्मी तो इस दुनिया से चली गईं, अब लौट कर आएंगी भी नहीं. जिंदगी तो किसी के जाने से रुकती नहीं. मैं खुद भी कितनी खुश हूं कि मेरी मम्मी मुझे सैटल कर, गृहस्थी बसा कर गई हैं. कितने ऐसे अभागे हैं इस संसार में जिन की मम्मी  उन के बचपन में ही गुजर जाती हैं, फिर भी वे अपना जीवन चलाते हैं.

मम्मी के साथसाथ इन दिनों पापा भी बहुत याद आते, मन बहुत भावुक हो आता पापा को याद कर. मन में विचार आता कि मैं तो अपनी गृहस्थी, औफिस और अपनी प्यारी गुडि़या रिंकू में व्यस्त होने के बावजूद मम्मी को भुला नहीं पाती हूं, बेचारे पापा का क्या हाल होता होगा? वे अपना समय मम्मी के बिना किस तरह बिताते होंगे? 30 वर्षों का सुखी विवाहित जीवन दोनों ने एकसाथ बिताया था. मम्मी के साथ साए की तरह रहते थे. उन की दिनचर्या मम्मी के इर्दगिर्द ही घूमती रहती थी.

मम्मी की मृत्यु के बाद 4 दिन और पापा के साथ रह कर मैं वापस लखनऊ आ गई थी. मैं ने पापा को लखनऊ अपने साथ लाने की बहुत जिद की, पापा को अकेला छोड़ना मुझे नागवार लग रहा था. पापा 2 साल पहले रिटायर्ड हो चुके थे. मेरा सोचना था कि मम्मी के बिना वे अकेले यहां क्या करेंगे.

पापा मेरे साथ आने के लिए एकदम तैयार नहीं हुए. उन का तर्क था, ‘यह घर मैं ने और हेमा ने बड़े प्यार से बनवाया है, सजायासंवारा है. इस घर के हर कोने में मुझे हेमा नजर आती है. उस की यादों के सहारे मैं बाकी जिंदगी गुजार लूंगा. फिर तुम लोग हो ही, जब फुरसत मिले, मिलने चले आना या मुझे जरूरत लगेगी तो मैं बुला लूंगा. 4-5 घंटे का ही तो रास्ता है.’

मैं ने कहा, ‘ठीक है पापा, किंतु मेरी तसल्ली के लिए कुछ दिनों के लिए चलिए.’

पापा तैयार नहीं ही हुए. मैं सपरिवार लखनऊ लौट आई. अपनी गृहस्थी में रमने की लाख कोशिशों के बावजूद पूरे समय मम्मीपापा पर ध्यान लगा रहता. पापा से रोज फोन से बात कर लेती, पापा ठीक से हैं, यह जान कर मन को कुछ तसल्ली होती.

आज अचानक नीता बूआ से पापा की शादी की खबर मिलना, मेरे जीवन में झंझावात से कम न था. मेरी दशा पागलों जैसी हो रही थी. मन में बारबार यही खयाल आता कि बूआ ने कहीं मजाक ही किया हो, यह खबर सही न हो.

लंच बौक्स : क्या अच्छा पिता बन पाया विजय

सूरज ढलने को था. खंभों पर कुछ ही समय बाद बत्तियां जल गईं. घर में आनेजाने वालों का तांता लगा हुआ था. अपनेअपने तरीके से लोग विजय को दिलासा देते, थोड़ी देर बैठते और चले जाते.

मकान दोमंजिला था. ग्राउंड फ्लोर के ड्राइंगरूम में विजय ने फर्श डाल दिया था और सामने ही चौकी पर बेटे लकी का फोटो रखवा दिया गया था. पास में ही अगरबत्ती स्टैंड पर अगरबत्तियां जल रही थीं.

लोग विजय को नमस्ते कर, जहां भी फर्श पर जगह मिलती, बैठ जाते और फिर वही चर्चा शुरू हो जाती. रुलाई थी कि फूटफूट आना चाहती थी.

दरवाजे पर पालतू कुत्ता टौमी पैरों पर सिर रख कर चुपचाप बैठा था, जरा सी आहट पर जो कभी भूंकभूंक कर हंगामा बरपा देता था, आज शांत बैठा था. दिल पर पत्थर रख मन के गुबार को विजय ने मुश्किल से रोक रखा था.

‘‘क्यों, कैसे हो गया ये सबकुछ?’’

‘‘सामने अंधेरा था क्या?’’

‘‘सीटी तो मारनी थी.’’

‘‘तुम्हारा असिस्टैंट साथ में नहीं था क्या?’’

‘‘उसे भी दिखाई नहीं दिया?’’

एकसाथ लोगों ने कई सवाल पूछे, मगर विजय सवालों के जवाब देने के बजाय उठ कर कमरे में चला गया और बहुत देर तक रोता रहा.

रोता भी क्यों न. उस का 10 साल का बेटा, जो उसे लंच बौक्स देने आ रहा था, अचानक उसी शंटिंग इंजन के नीचे आ गया, जिसे वह खुद चला रहा था. बेटा थोड़ी दूर तक घिसटता चला गया.

इस से पहले कि विजय इंजन से उतर कर लड़के को देखता कि उस की मौत हो चुकी थी.

‘‘तुम्हीं रोरो कर बेहाल हो जाओगे, तो हमारा क्या होगा बेटा? संभालो अपनेआप को,’’ कहते हुए विजय की मां अंदर से आईं और हिम्मत बंधाते हुए उस के सिर पर हाथ फेरा.

मां की उम्र 75 साल के आसपास रही होगी. गजब की सहनशक्ति थी उन में. आंखों से एक आंसू तक नहीं बहाया. उलटे वे बहूबेटे को हिम्मत के साथ तसल्ली दे रही थीं. मां ने विजय की आंखों के आंसू पोंछ डाले. वह दोबारा ड्राइंगरूम में आ गया.

‘पापापापा, मुझे चाबी से चलने वाली कार नहीं चाहिए. आप तो सैल से जमीन पर दौड़ने वाला हैलीकौप्टर दिला दो,’ एक बार के कहने पर ही विजय ने लकी को हैलीकौप्टर खरीद कर दिलवा दिया था.

कमरे में कांच की अलमारियों में लकी के लिए खरीदे गए खिलौने थे. उस की मां ने सजा रखे थे. आज वे सब विजय को काटने को दौड़ रहे थे.

एक बार मेले में लकी ने जिस चीज पर हाथ रख दिया था, बिना नानुकर किए उसे दिलवा दिया था. कितना खुश था लकी. उस के जन्म के 2 दिन बाद ही बड़े प्यार से ‘लकी’ नाम दिया था उस की दादी ने.

‘देखना मां, मैं एक दिन लकी को बड़ा आदमी बनाऊंगा,’ विजय ने लकी के नन्हेनन्हे हाथों को अपने हाथों में ले कर प्यार से पुचकारते हुए कहा था.

लकी, जो अपनी मां की बगल में लेटा था, के चेहरे पर मुसकराते हुए भाव लग रहे थे.

‘ठीक है, जो मरजी आए सो कर. इसे चाहे डाक्टर बनाना या इंजीनियर, पर अभी इसे दूध पिला दे बहू, नहीं तो थोड़ी देर में यह रोरो कर आसमान सिर पर उठा लेगा,’ विजय की मां ने लकी को लाड़ करते हुए कहा था और दूध पिलाने के लिए बहू के सीने पर लिटा दिया था.

अस्पताल के वार्ड में विजय ने जच्चा के पलंग के पास ही घूमने वाले चकरीदार खिलौने पालने में लकी को खेलने के लिए टंगवा दिए थे, जिन्हें देखदेख कर वह खुश होता रहता था.

एक अच्छा पिता बनने के लिए विजय ने क्याक्या नहीं किया…

विजय इंजन ड्राइवर के रूप में रेलवे में भरती हुआ था. रनिंग अलाउंस मिला कर अच्छी तनख्वाह मिल जाया करती थी उसे. घर की गाड़ी बड़े मजे से समय की पटरियों पर दौड़ रही थी.

उसे अच्छी तरह याद है, जब मां ने कहा था, ‘बेटा, नए शहर में जा रहे हो, पहनने वाले कपड़ों के साथसाथ ओढ़नेबिछाने के लिए रजाईचादर भी लिए जा. बिना सामान के परेशानी का सामना करना पड़ेगा.’

‘मां, क्या जरूरत है यहां से सामान लाद कर ले जाने की? शहर जा कर सब इंतजाम कर लूंगा. तुम्हारा  आशीर्वाद जो साथ है,’ विजय ने कहा था.

वह रसोई में चौकी पर बैठ कर खाना खा रहा था. मां उसे गरमागरम रोटियां सेंक कर खाने के लिए दिए जा रही थीं.

विजय गांव से सिर्फ 2 पैंट, 2 टीशर्ट, एक तौलिया, साथ में चड्डीबनियान ब्रीफकेस में रख कर लाया था.

कोयले से चलने वाले इंजन तो रहे नहीं, उन की जगह पर रेलवे ने पहले तो डीजल से चलने वाले इंजन पटरी पर उतारे, पर जल्द ही बिजली के इंजन आ गए. विजय बिजली के इंजनों की ट्रेनिंग ले कर लोको पायलट बन गया था.

ड्राइवर की नौकरी थी. सोफा, अलमारी, रूम कूलर, वाशिंग मशीन सबकुछ तो जुटा लिया था उस ने. कौर्नर का प्लौट होने से मकान को खूब हवादार बनवाया था उस ने.

शाम को थकाहारा विजय ड्यूटी से लौटता, तो हाथमुंह धो कर ऊपर बैठ कर चाय पीने के लिए कह जाता. दोनों पतिपत्नी घंटों ऊपरी मंजिल पर बैठेबैठे बतियाते रहते. बच्चों के साथ गपशप करतेकरते वह उन में खो जाता.

लकी के साथ तो वह बच्चा बन जाता था. स्टेशन रोड पर कोने की दुकान तक टहलताटहलता चला जाता और 2 बनारसी पान बनवा लाता. एक खुद खा लेता और दूसरा पत्नी को खिला देता.

विजय लकी और पिंकी का होमवर्क खुद कराता था. रात को डाइनिंग टेबल पर सब मिल कर खाना खाते थे. मन होता तो सोने से पहले बच्चों के कहने पर एकाध कहानी सुना दिया करता था.

मकान के आगे पेड़पौधे लगाने के लिए जगह छोड़ दी थी. वहां गेंदा, चमेली के ढेर सारे पौधे लगा रखे थे. घुमावदार कंगूरे और छज्जे पर टेराकोटा की टाइल्स उस ने लगवाई थी, जो किसी ‘ड्रीम होम’ से कम नहीं लगता था.

मगर अब समय ठहर सा गया है. एक झटके में सबकुछ उलटपुलट हो गया है. जो पौधे और ठंडी हवा उसे खुशी दिया करते थे, आज वे ही विजय को बेगाने से लगने लगे हैं.

घर में भीड़ देख कर पत्नी विजय के कंधे को झकझोर कर बोली, ‘‘आखिर हुआ क्या है? मुझे बताते क्यों नहीं?’’

विजय और उस की मां ने पड़ोसियों को मना कर दिया था कि पत्नी को मत बताना. लकी की मौत के सदमे को वह सह नहीं पाएगी. मगर इसे कब तक छिपाया जा सकता था. थोड़ी देर बाद तो उसे पता चलना ही था.

आटोरिकशा से उतर कर लकी के कटेफटे शरीर को देख कर दहाड़ मार कर रोती हुई बेटे को गोदी में ले कर वहीं बैठ गई. विजय आसमान को अपलक देखे जा रहा था.

पिंकी लकी से 3 साल छोटी थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि हुआ क्या है? मां को रोते देख वह भी रोने लगी.

‘‘देख, तेरा लकी अब कभी भी तेरे साथ नहीं खेल पाएगा,’’ विजय, जो वहीं पास बैठा था, पिंकी को कहते हुए बोला. उसे कुछ भी नहीं सू?ा रहा था. पिंकी को उस ने अपनी गोद में बिठा लिया. रहरह कर ढेर सारे बीते पलों के चित्र उस के दिमाग में उभर रहे थे, जो उस ने लकी और पिंकी के साथ जीए थे.

उन चित्रों में से एक चित्र फिल्मी सीन की तरह उस के सामने घट गया. इंजन ड्राइवर होने के नाते रेल के इंजनों से उस का निकट का रिश्ता बन गया था. वर्तमान आशियाने को छोड़ कर वह बाहर ट्रांसफर पर नहीं जाना चाहता था, इसलिए प्रशासन ने नाराज हो कर उसे शंटिंग ड्राइवर बना दिया. रेलवे का इंजन, डब्बे, पौइंटमैन और कैबिनमैन के साथ परिवार की तरह उस का रिश्ता बन गया.

विजय दिनभर रेलवे क्रौसिंग के पास बने यार्ड में गाडि़यों की शंटिंग किया करता और डब्बों के रैक बनाया करता. लालहरी बत्तियों और ?ांडियों की भाषा पढ़ने की जैसे उस की दिनचर्या ही बन गई. सुबह 8 बजे ड्यूटी पर निकल जाता और दिनभर इंजन पर टंगा रहता, रैक बनाने के सिलसिले में.

अचानक उस के असिस्टैंट को एक लड़का साइकिल पर आता दिखाई दिया, जो तेजी से रेलवे बैरियर के नीचे से निकला. इस से पहले कि विजय कुछ कर पाता, उस ने इंजन की सीटी मारी, पर लड़का सीधा इंजन से जा टकराया.

‘यह तो लकी है…’ विजय बदहवास सा चिल्लाया.

लकी जैसे ही इंजन से टकराया, उस ने पैनल के सभी बटन दबा दिए. वह इंजन को तुरंत रोकना चाहता था. उस के मुंह से एक जोरदार चीख निकल गई.

सामने लकी की साइकिल इंजन में उल?ा गई और सौ मीटर तक घिसटती चली गई. लकी के शरीर के चिथड़ेचिथड़े उड़ गए.

‘बचाओ, बचाओ रे, मेरे लकी को बचा लो,’ विजय रोता हुआ इंजन के रुकने से पहले उतर पड़ा.

लकी, जो पापा का लंच बौक्स देने यार्ड की तरफ आ रहा था, वह अब कभी नहीं आ पाएगा. चैक की शर्ट जो उस ने महीनेभर पहले सिलवाई थी, उसे हाथ में ले कर ?ाटकाया. वहां पास ही पड़े लकी के सिर को उस की शर्ट में रख कर देखने लगा और बेहोश हो गया.

शंटिंग ड्राइवर से पहले जब वह लोको पायलट था, तो ऐसी कितनी ही घटनाएं लाइन पर उस के सामने घटी थीं. उसे पता है, जब एक नौजवान ने उस के इंजन के सामने खुदकुशी की थी, नौजवान ने पहले ड्राइवर की तरफ देखा, पर और तेज भागते हुए इंजन के सामने कूद पड़ा था.

उस दिन विजय से खाना तक नहीं खाया गया था. जानवरों के कटने की तो गिनती भी याद नहीं रही उसे. मन कसैला हो जाया करता था उस का. मगर करता क्या, इंजन चलाना उस की ड्यूटी थी. आज की घटना कैसे भूल पाता, उस के जिगर का टुकड़ा ही उस के हाथों टुकड़ेटुकड़े हो गया.

बेटे, जो पिता के शव को अपने कंधों पर श्मशान ले जाते हैं, उसी बेटे को विजय मुक्तिधाम ले जाने के लिए मजबूर था.

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