हमें तुम से प्यार कितना : भाग 3

मधु को यह बात कभीकभी परेशान करती थी कि अंशू कभी नहीं चाहेगा कि वह एक बच्चे को जन्म दे और वह बच्चा अंशू की ईर्ष्या का पात्र बन जाए. उस ने सोच रखा था कि वह उचित समय पर आलोक से इस विषय पर बात करेगी. वैसे, अंशू ने उसे इतना आदर और प्यार दिया जिस ने उसे भरपूर मां की ममता और सुख का एहसास करा दिया.

दोनों के बीच जो स्नेह और ममता का रिश्ता बन गया था वह बहुत मजबूत था. मधु को लगा, अंशू उसे पूरी तरह मां के रूप में मान चुका है और अगले वर्ष अपना बर्थडे बहुत धूमधाम से मनाना चाहेगा. वह बहुत खुश हुई जब अंशू ने उस से कहा, ‘‘मम्मा, सब बच्चे अपना बर्थडे दोस्तों के साथ हर साल मनाते हैं. मैं भी अपने क्लासमेट के साथ इस साल बर्थडे मनाना चाहता हूं.’’

फिर क्या था, आलोक और मधु ने घर पर ही उस का बर्थडे मनाने का इंतजाम कर दिया. ढेर सारे व्यंजन, डांस के फोटोशूट और केक के साथ बड़ी धूमधाम से उस का बर्थडे मनाया गया.

अंशू का लालनपालन मधु ने उस की हर भावना के क्षणों में अपने को मनोचिकित्सक मान कर किया जिस के सकारात्मक परिणाम ने हमेशा उसे हौसला दिया.

शादी के 6-7 साल पलक झपकते ही मधु के अंशू के साथ इस तरह गुजरे कि वह वैवाहिक जीवन के हर सुख की हकदार बन गई. मां बनने का हर सुख उसे महसूस हो चुका था.  अंशू के नैराश्य और मां की कमी की स्थिति से बाहर आने का श्रेय घर के हर सदस्य को था.

मधु ने आलोक को पति के रूप में स्वीकार करते समय यह सोचा था, आलोक अपनी पत्नी सुहानी को खोने के बाद उसे अपने घर में सम्मान और प्यारभरी जिंदगी जरूर दे सकेगा. उसे अंशू की मां के रूप में उस की सख्त जरूरत है. पहली नजर में, उस से मिलने पर उसे अपने सारे सपने साकार होते हुए जान पड़े. तभी तो उस ने ‘आई लव यू’ कहने के स्थान पर खुश हो कर उस से कहा था, ‘आलोक, तुम हर तरह से मेरे जीवनसाथी बनने के काबिल हो.’ तब वह उस के शादीशुदा होने के बैकग्राउंड से बिलकुल अनभिज्ञ थी.

7 वर्षों बाद, एक दिन जब अंशू स्कूल से घर लौटा तो उस के हाथ में एक बैग था. वह बहुत खुश दिखाई दे रहा था. मधु मां को उस ने गले लगा लिया और बताया, ‘‘मम्मा, मैं क्लास में फर्स्ट आया हूं. कई ऐक्टिविटीज में मुझे ट्रौफियां मिली हैं. पिं्रसिपल सर कह रहे थे यह सब मुझे अच्छी मां के कारण ही मिला है.’’ थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात वह भावुक हो गया, बोला, ‘‘मम्मा, मैं एक बार सुहानी मां की फोटो, जो मैं ने छिपा कर रख ली थी, उसे देख लूं.’’

मधु ने कहा, ‘‘हां, क्यों नहीं, ले आओ. हम सब उस फोटो को देखेंगे.’’ मधु की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. भावुक हो कर उस ने कहा, ‘‘अंशू, मैं ने कहा था न, तुम्हारी मां सुहानी हर समय तुम्हारे आसपास होती हैं.  अब तुम कभी उदास मत होना. सुहानी मां भी यही चाहती हैं तुम हमेशा खुश रहो.’’

उस रात आलोक ने मधु को अपनी बांहों में ले कर जीभर प्यार किया. इन भावुकताभरे लमहों में मधु ने आलोक को अपना फैसला सुनाते हुए अपील की, ‘‘आलोक, इतना आसान नहीं था मेरे लिए अब तक का सफर तय करना. तुम्हारा साथ मिला तो यह सफर आसान हो गया. मुझ से वादा करोगे कि कमजोर से कमजोर क्षणों में तुम मुझे मां बनाने की कोशिश नहीं करोगे. अंशू से मुझे पूरा मातृत्व सुख हासिल हो चुका है. मैं उस के प्रतिद्वंद्वी के रूप में कोई और संतान पैदा नहीं करना चाहती.’’

एक और परिणीता : भाग 2

स्वर्णा को अपनी जगह न देख कर शिवेन ने पूछताछ की तो पता चला कि स्वर्णा और मिसेज ठाकुर ने शाम की शिफ्ट ली है. उस रात जब दोनों ड्यूटी खत्म कर बाहर निकलीं तो जहां उन का रिकशा और चपरासी खड़ा होता था वहां शिवेन अपनी जीप ले कर खुद खड़े थे. दोनों को जीप में बैठने का आदेश दिया और खुद चालक की सीट पर बैठ कर जीप चलाने लगे. पहले स्वर्णा को उस के घर छोड़ा फिर मिसेज ठाकुर जब अकेली रह गईं तो उन्हें आड़े हाथों लिया.

अपनी सफाई में मिसेज ठाकुर ने सारा सच उगल दिया.

‘‘सर, आप समझने की कोशिश कीजिए. दफ्तर के लोगों ने स्वर्णा का जीना दूभर कर दिया था. कौन क्या कहता है आप को शायद इस का आभास नहीं है.’’

‘‘एक कुंआरी लड़की का रात को बाहर अकेले काम पर जाना क्या ठीक है?’’

‘‘नहीं, मगर यहां उसे कोई छेड़ता तो नहीं है. रामदेवजी बाप की तरह उसे स्नेह देते हैं. मैं उस के साथ हूं. रिकशे वाले को मैं पिछले 15 साल से जानती हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लोगों को रात के समय घर छोड़ने के लिए कल से आरिफ रोज जीप ले कर आएगा,’’ शिवेन बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में मैं आप लोगों के लिए एक वैन का इंतजाम करा दूंगा.’’

कभीकभी शिवेन विभाग में दौरा करने आते तो स्वर्णा से हालचाल पूछ लेते. धीरेधीरे शिवेन स्वर्णा से इधरउधर की भी बातें करने लगे. मसलन, कौनकौन से लेखक तुम्हें पसंद हैं, कहांकहां घूमी हो, क्याक्या तुम्हारी अभिरुचि है.

स्वर्णा उत्तर देने में झिझकती. मिसेज ठाकुर ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘मित्रता बुरी नहीं होती. बातचीत से आत्मविश्वास पनपता है.’’

एक दिन रामदेव ने कहा, ‘‘बेटी, शिवेन को तुम्हारी बड़ी चिंता रहती है,’’ और उस पर गहरी नजर डाल दी.

स्वर्णा संभल गई. अगली बार जब शिवेन उस के पास बैठ कर शहर में लगी फिल्मों की बात करने लगे तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘सर, मेरे पास इतना समय नहीं है कि फिल्में देखती फिरूं.’’

उस की इस बेरुखी से शिवेन शर्मिदा हो चुपचाप वहां से हट गए.

स्वर्णा का मन फिर काम में नहीं लगा. अनमनी सी सोचने लगी कि सब तो उस के चेहरे का इतिहास पूछते हैं, फिर सहानुभूति जताते हैं और उस के अंदर की वेदना को जगा कर अपना मनोरंजन करते हैं. लेकिन इस व्यक्ति ने कभी भी उस से वह सबकुछ नहीं पूछा जो और लोग पूछते हैं.

शिवेन फिर दिखाई नहीं दिए. अगर आते भी थे तो रामदेव से औपचारिक पूछताछ कर के चले जाते थे.

उधर स्वर्णा की बेचैनी बढ़ने लगी. हर रोज उस की आंखें बारबार दरवाजे की ओर उठ जातीं. इतने सरल, स्वच्छ इनसान पर उस ने यह कैसा वार किया. क्या बुरा था. दो बातें ही तो वह करते थे. हंसनामुसकराना जुर्म है क्या. वह तो उस के संग हंसते थे न कि उस पर.

अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझी स्वर्णा को जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन बिना किसी को कुछ बताए उस ने एक छोटा सा पत्र लिख कर डाक द्वारा शिवेन को भिजवा दिया.

कई दिनों तक कोई उत्तर नहीं आया. फिर एक पत्र उस के घर के पते पर सरकारी लिफाफे में आया जिस में उसे एक नए पद के साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था.

दिल्ली से आए 3 उच्च अधिकारियों ने उस का साक्षात्कार लिया और वह सहायक प्रबंधक के रूप में चुन ली गई.

शिवेन के सामने वाले कमरे में अब उस की मेज लगा दी गई थी. उसे प्रबंधन व नियंत्रण की सारी जानकारी शिवेन स्वयं देने लगे. वह एक चतुर शिष्या की तरह सब ग्रहण करती गई.

ऊपर से भले ही सबकुछ शांत था पर अंदर ही अंदर इस नई नियुक्ति को ले कर दफ्तर में काफी उथलपुथल थी. आतेजाते किसी ने वही पुराना राग छेड़ दिया, ‘‘यार, नया न सही, 4 बच्चों वाला ही सही.’’

स्वर्णा तिलमिला कर रह गई. घर आने के बाद रोरो कर उस ने अपनी आंखें सुजा लीं.

दशहरे पर शिवेन ने 15 दिन की छुट्टी ली तो उन की गैरमौजूदगी में स्वर्णा बिना किसी सहायता के विभाग सुचारु रूप से चलाती रही.

इसी दौरान एक दिन घर पर शिवेन का फोन आया. दफ्तर के बाबत औपचारिक बातें करने के बाद उसे बाजार की एक बड़ी दुकान के बाहर मिलने को कहा. स्वर्णा ने घर में किसी को कुछ नहीं बताया और मिलने चली गई.

शिवेन ने उस की पसंद से अपनी मां और बहन के लिए कपड़ों की खरीदारी की. फिर दोनों एक रेस्तरां में बैठ कर इधरउधर की बातें करते रहे.

बातों के सिलसिले में ही स्वर्णा पूछ बैठी, ‘‘बच्चों के लिए कुछ नहीं लिया आप ने?’’

‘‘नहीं,’’ शिवेन एकदम खिलखिला कर हंस दिए और बोले, ‘‘किस के बच्चे? मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है.’’

स्वर्णा अविश्वास से बोली, ‘‘दफ्तर में तो सब कहते हैं कि आप 4 बच्चों के बाप हैं.’’

‘‘स्वर्णा, मेरी उम्र 36 साल हो गई है पर मैं कुंआरा हूं. अगर एक 30 साल की स्त्री कुंआरी हो तो लोग कहते हैं कि किसी ने उसे पसंद नहीं किया. मगर एक पुरुष अविवाहित रहे तो जानती हो लोग उस के विषय में क्या सोचते हैं…मैं शादीशुदा हूं यही भ्रम बना रहे तो अच्छा है.’’

शिवेन ने अपना हृदय खोल कर रख दिया था और स्वर्णा जीवन में पहली बार किसी की राजदार बनी थी.

2 दिन बाद शिवेन ने स्वर्णा को अपने साथ सिनेमा देखने के लिए आमंत्रित किया. इस बार भी वह घर से बहाना बना कर शिवेन के साथ चली गई. यद्यपि इस तरह घर वालों से झूठ बोल कर जाने पर उस के मन ने उसे धिक्कारा था मगर इस खतरे में बाजी जीत जाने का स्वाद भी था.

कोई उसे भी चाह रहा था, यह एहसास होते ही उस के सपने अंगड़ाई लेने लगे थे. वह सुबह उठती तो अपनी उनींदी मुसकान उसे समेटनी पड़ती. कहीं कोई कुछ पूछ न ले.

 

Monsoon Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए -भाग 3

मिशी की आंखें उस लड़की को ढूंढ़ रही थीं, जिसे मिलवाने के लिए विहान उसे यहां ले कर आया था.

‘‘नाराज हो कर चली गई वह,‘‘ मिशी के पास बैठते हुए विहान ने कहा.

‘‘नाराज हो गई, पर क्यों?‘‘ मिशी ने पूछा.

‘‘अरे वाह, मैं जिसे प्रपोज करने वाला हूं, वह लड़की अगर देखे कि मेरे बचपन की दोस्त रेत पर इस कदर प्यार से उस के बौयफ्रैंड का नाम लिख रही है, तो गुस्सा नहीं आएगा उसे,‘‘ विहान ने पूरे नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘मैं ने… मैं ने कब लिखा तुम्हारा नाम,‘‘ मिशी सकपका कर बोली.

‘‘जो अभी अपनेआप रेत पर उभर आया था, उस नाम की बात कर रहा हूं.‘‘

यह सुन कर उस ने अपनी नजरें झुका लीं, उस की चोरी जो पकड़ी गई थी, फिर भी मिशी बोली, ‘‘मैं ने… मैं ने तो कोई नाम नहीं लिखा.‘‘

‘‘अच्छा बाबा… नहीं लिखा,‘‘ विहान ने मुसकरा कर कहा.

मिशी समझ ही नहीं पा रही थी कि ये हो क्या रहा है…

‘‘और… और वह लड़की, जिस से मिलवाने के लिए तुम मुझे यहां ले कर आए थे. सच बताओ ना विहान…‘‘

‘‘कोई लड़कीवड़की नहीं है, मैं अभी जिस के करीब बैठा हूं, बस वही है,’’ उस ने मिशी की आंखों में देखते हुए कहा. नजरें मिलते ही मिशी भी नजरें चुराने लगी.

‘‘मिशी, मत छुपाओ, आज कह दो जो भी दिल में हो.’’

मिशी की जबान खामोश थी, पर आंखों में विहान के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था, जिसे विहान ने पहले ही महसूस कर लिया था, पर वह ये सब मिशी से जानना चाहता था.

मिशी कुछ देर चुप रही. दूर समंदर में उठती लहरों के ज्वार को देखती रही, ऐसा ही भावनाओं का ज्वार अभी उस के दिल में मचल रहा था. फिर उस ने हिम्मत बटोर कर बोलने की कोशिश की, पर उस की आंखों में जज्बातों का समंदर तैर गया. कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘कहां चले गए थे विहान, मैं… मैं… तुम को कितना मिस कर रही थी.’’
इतना कह कर वह फिर शून्य में देखने लगी…
‘‘मिशी… आज भी चुप रहोगी… बह जाने दो अपने जज्बातों को… जो भी दिल में है कहो… तुम नहीं जानती कि मैं ने इस दिन का कितना इंतजार किया है…

‘‘मिशी बताओ… प्यार करती हो मुझ से…’’

मिशी विहान की तरफ मुड़ी. उस के इमोशंस उस की आंखों में साफ नजर आ रहे थे… होंठ कंपकंपा रहे थे…
‘‘विहान, तुम जब नहीं थे, तब जाना कि मेरे जीवन में तुम क्या हो, तुम्हारे बिना जीना, सिर्फ सांस लेना भर है. तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि मैं किस दौर से गुजरी हूं. मेरी उदासी का थोड़ा भी खयाल नहीं आया तुम को,‘‘ कहतेकहते मिशी रो पड़ी.

विहान ने उस के आंसू पोंछे और मुसकराने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘मिशी, तुम ने तो सिर्फ 10 महीने इंतजार किया… मैं ने वर्षों किया है… जिस तड़प से तुम कुछ दिन गुजरी हो… वह मैं ने आज तक सही है…

‘‘मिशी, तुम मेरे लिए तब से खास हो, जब मैं प्यार का मतलब भी नहीं समझता था. बचपन में खेलने के बाद जब तुम्हारे घर जाने का समय आता था, तब अकसर तुम्हारी चप्पल कहीं खो जाती थी, तुम देर तक ढूंढ़ने के बाद मुझ से ही शिकायत करतीं और हम दोनों मिल कर अपने साथियों पर ही बरस पड़ते.
‘‘पर मिशी, वह मैं ही होता था… हर बार जो तुम्हें रोकने के लिए ये सब करता था… तुम कभी जान ही नहीं पाई,‘‘ कहतेकहते विहान यादों में खो गया.

‘‘जानती हो… जब हम साथ पढ़ाई करते थे, तब भी मैं टौपिक समझ ना आने के बहाने से देर तक बैठा रहता, तुम मुझे बारबार समझाती, पर मैं नादान बना बैठा रहता सिर्फ तुम्हारा साथ पाने की चाह में…

‘‘जब छुट्टियों में बच्चे बाहर अलगअलग ऐक्टिविटी करते, तब भी मैं तुम्हारी पसंद के हिसाब से काम करता था, ताकि तुम्हारा साथ रहे.’’

‘‘विहान… तुम,’’ मिशी ने अचरज से कहा.

‘‘अभी तुम बस सुनो… मुझे और मेरे दिल की आवाज को… याद है मिशी, जब हम 12जी में थे, तुम मुझे कहती.. क्यों विहान गर्लफ्रैंड नहीं बनाई.. मेरी तो सब सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं.. मंर पूछता तो तुम्हारा भी है… तुम हंस देती… हट पागल, मुझे तो पढ़ाई करनी है… फिर मस्त जौब… पर, विहान तुम्हारी गर्लफ्रैंड होनी चाहिए…’’ इतना कह कर तुम मुझे अपनी कुछ सहेलियों की खूबियां गिनवाने लगतीं. मेरा मन करता कि तुम्हें झकझोर कर कहूं कि तुम हो तो… पर नहीं कह सका.

‘‘और तुम्हें जो अपने हर बर्थडे पर जिस सरप्राइज का सब से ज्यादा इंतजार होता है … वो देने वाला मैं ही था… बचपन में जब तुम्हारी फेवरेट टौफी तुम्हारे पंेसिल बौक्स में मिलती, तो तुम बेहद खुश हुई थीं…

‘‘अगली बार भी जब मैं ने तुम को सरप्राइज किया, तब तुम ने कहा था, ‘‘विहान, पता नहीं कौन है… मौमडैड, दी या मेरी कोई फ्रैंड, पर मेरी इच्छा है कि मुझे हमेशा ये सरप्राइज गिफ्ट मिले. तुम ने सब के नाम लिए, पर मेरा नहीं,‘‘ कहतेकहते विहान की आवाज लड़खड़ा सी गई, फिर भर आए गले को साफ कर वह आगे बोला, ‘‘तब से हर बार मैं ये करता गया… पहले पेंसिल बौक्स था, फिर बैग… फिर तुम्हारा पर्स… और अब कुरियर.‘‘

सच जान कर मिशी जैसे सुन्न हो गई… वह हर बात विहान से शेयर करती थी. पर, कभी ये नहीं सोचा था कि विहान भी तो वह शख्स हो सकता है. उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

रात गहरा चुकी थी, चांद… स्याह रात के माथे पर बिंदी बन कर चमक रहा था. तेज हवा और लहरों के शोर में मिशी के जोर से धड़कते दिल की आवाज भी मिल रही थी. विहान आज वर्षों से छुपे प्रेम की परतें खोल रहा था.

वह आगे बोला, ‘‘मिशी, उस दिन तो जैसे मैं हार गया था, जब मैं ने तुम से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है… मैं ने बहुत हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार करने के लिए यह प्लान बनाया था… मैं ने धड़कते दिल से कहा… दिखाऊं फोटो… तो तुम ने झट से मेरा मोबाइल छीना… और जैसे ही फोटो देखा, तुम्हार रिएक्शन देख कर मैं ठगा सा रह गया… लगा, यहां मेरा कुछ नहीं होने वाला… पगली से प्यार कर बैठा.’’

इतना कह कर उस ने मिशी से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें याद है, उस दिन तुम ने क्या किया था?‘‘

‘‘हां… हां, तुम्हारे मोबाइल में मुझे अपना फोटो दिखा, तो मैं ने कहा… कब लिया ये फोटो… बहुत प्यारा है…‘‘ और मैं उस पिक में खो गई, सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी. तुम्हारी गर्लफ्रैंड वाली बात तो मेरे दिमाग से गायब ही हो गई थी.
‘‘जी मैडम… जी… मैं तुम्हारी लाइफ में इस हद तक जुड़ा रहा कि तुम मुझे कभी अलग से फील कर ही नहीं पाई.’’
‘‘ऐसा कितनी बार हुआ, पर तुम अपनेआप में थी, अपने सपनों में, किसी और बात के लिए शायद तुम्हारे पास टाइम ही नहीं था, यहां तक कि अपने जज्बातों को समझने के लिए भी नही…‘‘ विहान कहता जा रहा था.
मिशी जोर से अपनी मुट्ठियाँ भींचती हुई अपनी बेवकूफियों का हिसाब लगा रही थी.

इस तरह विहान ना जाने कितनी छोटीबड़ी बातें बताता रहा और मिशी सिर झुकाए सुनती रही..

मिशी का गला रुंध गया… विहान इतना प्यार कोई किसी से कैसे कर सकता है…. और तब तो बिलकुल नहीं… जब उसे कोई समझने वाला ही ना हो… कितना कुछ दबा रखा है तुम ने…. मेरे साथ की छोटी से छोटी बातें कितनी सिद्दत से सहेज कर रखी हैं तुम ने ‘‘

‘‘अरे… पागल.. रोते नहीं… और ये किस ने कहा कि तुम मुझे समझती नहीं थी… मैं तो हमेशा तुम्हारा सब से करीबी रहा… इसलिए प्यार का अहसास कहीं गुम हो गया था.‘‘

‘‘और इस हकीकत को सामने लाने के लिए…. मैं ने खुद को तुम से दूर करने का फैसला किया… कई बार दूरियां नजदीकियों के लिए बहुत जरूरी हो जाती हैं. मुझे लगा कि मेरा प्यार सच्चा होगा, तो तुम तक मेरी ‘सदा‘ जरूर पहुंचेगी, नहीं तो मुझे आगे बढ़ना होगा… तुम को छोड़ कर.‘‘
‘‘मैं कितनी मतलबी थी…’’
‘‘ना बाबा… ना, तुम बहुत प्यारी हो, तब भी थीं और अब भी हो.’’

मिशी के रोते चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई… वह धीरे से विहान के कंधे पर अपना सिर टिकाने को बढ़ ही रही थी कि अचानक उसे कुछ याद आया… वह एकदम उठ खड़ी हुई…

‘‘क्या हुआ… मिशी?’’

‘‘ये सब गलत है…’’

‘‘क्यों गलत है?’’

‘‘तुम और पूजा दी…?’’

‘‘मैं और पूजा…’’ कह कर विहान हंस पड़ा.

‘‘तुम हंस क्यों रहे हो?’’

‘‘मिशी, मेरी प्यारी मिशी….. मुझे जैसे ही पूजा और मेरी शादी की बात पता चली, तो मैं पूजा से मिला और तुम्हारे बारे में बताया…’’ सुन कर पूजा भी खुश हुई. उस का कहना था कि विहान हो या कोई और उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता…. मम्मीपापा जहां चाहेंगे, वह खुशीखुशी वहां शादी कर लेगी… फिर हम दोनों ने सारी बात घर पर बता दी… किसी को कोई दिक्कत नहीं है… अब इंतजार है तो तुम्हारे जवाब का…

इतना सुनते ही मिशी को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई… अब ना कोई शिकायत बची थी… ना सवाल…

‘‘बोलो मिशी… मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं,‘‘ विहान ने बेचैनी से कहा.

‘‘मेरे चेहरे पर बिखरी खुशी देखने के बाद भी तुम को जवाब चाहिए,‘‘ मिशी ने नजरें झुका कर बड़े ही भोलेपन से कहा.

‘‘नहीं मिशी, जवाब तो मुझे उसी दिन मिल गया था.. जब मैं तुम्हारे घर आया था. पहले वाली मिशी होती तो बोलबोल कर, सवाल पूछपूछ कर… झगड़ा कर के मुझे भूखा ही भगा देती…’’ कह कर विहान जोर से हंस पड़ा.

‘‘अच्छा… मैं इतनी बकबक करती हूं,‘‘मिशी ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘हां… पर, न तुम झगड़ीं और न ही कुछ बोलीं… बस, देखती रही मुझे… ख्वाब बुनती रहीं… मेरे वजूद को महसूस करती रही… उसी दिन मैं समझ गया था कि जिस मिशी को पाने के लिए मैं ने उसे खोने का गम सहा, ये वही है… मेरी मिशी… सिर्फ मेरी मिशी,‘‘ विहान ने मिशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

मिशी ने भी विहान का हाथ जोर से थाम लिया, हमेशा के लिए. वे हाथों में हाथ लिए चल दिए… जिंदगी के नए सफर पर साथसाथ… कभी जुदा ना होने के लिए… आसमां, चांदतारे और चांदनी के प्रेम में सराबोर लहलहाता समुद्र उन के प्रेम के साक्षी बन गए थे…

कहीं दूर से हवा में संगीत की धुन उन के प्रेम की दास्तां बयां कर रही थी,
‘‘हमसफर… मेरे हमसफर,
हमें साथ चलना है उम्रभर…’’

तंत्र मंत्र का खेला – भाग 2 : बाबा के जाल से निकल पाए सुजाता और शैलेश

कुछ परिवारों की महिलाएं अंगूठाछाप हैं तो कुछ 10वीं या 12वीं तक पढ़ी हैं किंतु इस के बाद विवाह हो जाने के कारण वे आगे न पढ़ सकीं. अभी तक यहां 16-17 वर्ष में शादी और 20-21 वर्ष में गौना कर देने का चलन रहा है.

ऐसे परिवारों के बीच सुजाता को कार्यक्रम करवाने के लिए इन महिलाओं से बढ़ कर कौन मिलता. ये महिलाएं, जो गांव में दिनभर किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहती थीं, यहां परसिया में घर से बाहर, कुरसियां डाले, दिनभर गाउन पहन कर बतियाती रहतीं. गाउन पहनना उन के लिए आधुनिकता की निशानी है. बस, इतना ही फैशन करना आता है इन को.

सुजाता का शुरू में तो यहां बिलकुल मन नहीं लगता था मगर धीरेधीरे उस ने अपनेआप को साथी महिलाओं के साथ सामूहिक कार्यक्रम में व्यस्त कर लिया. उसे रहरह कर भोपाल याद आता. वहां की चमचमाती सड़कों की लौंग ड्राइव, किट्टी पार्टी, बड़े ताल का नजारा, क्लब और अपनी आधुनिक सखियों का साथ.

शादी के 10 वर्षों बाद सारी शारीरिक जांचों के परिणामों से उसे मालूम हो गया था कि वह कभी मां नहीं बन सकती. वह अपने खाली समय को किसी न किसी तरह व्यस्त रखती ताकि खाली दिमाग में कोई खुराफात न पैदा हो जाए.

जहां भोपाल में वह किट्टी, क्लब और सोशल वर्क में बिजी थी वहीं यहां के माहौल में वह पूरी तरह रम गई थी. हां, मगर नियम से, वह यहां के एकलौते ब्यूटीपार्लर में जाना न भूलती. यहां की ब्यूटीशियन से ज्यादा तो उसे ब्यूटी नौलेज थी, इसीलिए उसे भी वह तरहतरह के ब्यूटी टिप्स देती रहती.

ब्यूटीशियन रमा जबलपुर में अपनी मौसी के घर रह कर,  6 महीने का कोर्स कर के परसिया में अपना पार्लर खोल कर बैठ गई थी. यहां युवतियां थ्रेडिंग और फेशियल खूब करवाती थीं. उस का पार्लर चल निकला. परंतु सुजाता के आने के बाद रमा को वैक्ंिसग, मैनीक्योर, पैडिक्योर, हेयर कटिंग के नए तरीके जानने को मिले. वह सुजाता को देखते ही खिल उठती और सोचती, कितनी उच्चशिक्षित है मगर स्वभाव उतना ही सरल है.

इधर, सुजाता का मन मजार के चक्कर लगाने को मचलने लगा. वह सोचती सारे वैज्ञानिक तरीके अपना कर देख ही लिए हैं, कोई परिणाम नहीं मिला. अब इस मजार के चक्कर लगा कर भी देख लेती हूं. जब इस विषय में महेंद्र की राय लेनी चाही तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उन्होंने भी सुजाता की आंखों में आशा की चमक को देख लिया था. महेंद्र से कोई भी जवाब न पा कर सुजाता सोच में पड़ गई. उस ने अपने पड़ोसियों से इस विषय में बात करने का मन बना लिया.

दूसरे दिन हमेशा की तरह दोपहर में जब सारी महिलाएं अपने चबूतरे पर या प्लास्टिक की कुरसियां डाल कर गपों में मशगूल हो गईं, सुजाता ने मजार का जिक्र छेड़ दिया. फिर क्या था, सभी के पास तर्क निकल आए कि मजार इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों है? सभी सवर्र्ण और पिछड़े वर्ग के परिवारों की महिलाओं में वैसे तो पूजापाठ के नियमों में बहुत अंतर था मगर मजार के विषय में वे सभी एकमत थीं.

लगेहाथ महिलाओं ने सुजाता की दुखती रग पर हाथ रखते हुए उसे भी संतान की मनौती मांगने के लिए 40 दिन मजार का फेरा लगाने का सुझाव दे ही दिया. कुछ का तो कहना था कि 40 दिन पूरे होने से पहले ही उस की गोद हरी हो जाएगी. जितने मुंह उतनी बातें सुन कर सुजाता ने तय कर लिया कि वह कल सुबह से ही मजार जाने लगेगी. महेंद्र उस के इस फैसले से खुश तो नहीं हुआ, किंतु उस ने उसे उस के विश्वास के साथ फैसला लेने को स्वतंत्र कर दिया.

मजार का रास्ता रेलवे स्टेशन के ओवरब्रिज से गुजर कर 2 प्लेटफौर्म्स के बाद है. छोटा सा  स्टेशन होने के कारण, बहुत ही कम यात्रीगाड़ी के फेरे लगते हैं. दिनभर पास के अंचल से कोयला खदानों का कोयला लाद कर गुजरने वाली मालगाडि़यों का ही तांता लगा रहता है, जो ज्यादातर तीसरे प्लेटफौर्म से गुजरती हैं.

दूसरे और तीसरे प्लेटफौर्म के बीच में ही मजार है, जिसे चारों तरफ से घेर कर ओवरब्रिज की सीडि़यों से जोड़ दिया गया है. जिस से लोगों की मजार में आवाजाही से रेलवे स्टेशन के सुरक्षा प्रबंधन पर कोई असर नहीं पड़ता. लोगों का आनाजाना एक ओर से लगा ही रहता.

जब से यह जगह जिले में परिवर्तित हुई है तब से भीड़ बढ़ने लगी और एक बाबा की मौजूदगी भी. वह हफ्ते में 3 दिन मजार में, शेष 4 दिन स्टेशन के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठा मिलता. कोई कहता कि बाबा मुसलिम है तो कोई उस के हिंदू होने का दावा करता. मगर बाबा से जाति पूछने की हिम्मत किसी में नहीं थी. बाबा से लोग अपनी परेशानियां जरूर बताते जिन्हें वह अपने तरीके से हल करने के उपाय बताता.

बाबा बड़ा होशियार था, वह शाकाहारियों को नारियल तोड़ने तो मांसाहारियों को काला मुरगा काट कर चढ़ाने का उपाय बताता. लोगों के बुलावे पर उन के घर जा कर भी झाड़फूंक करता. जो लोग उस के उपाय करवाने के बाद मनमांगी मुराद पा जाते, वे खुश हो उस के मुरीद हो जाते. लेकिन जो लोग सारे उपाय अपना कर भी खाली हाथ रह जाते, वे अपने को ही दोषी मान कर चुप रहते. इसीलिए, बाबा का धंधा अच्छा चल निकला.

सुजाता सुबह के समय जब घर से निकली उस समय जाड़े के मौसम के कारण कोहरा छाया हुआ था. वह तेज कदमों से स्टेशन की ओर निकल गई. उस के घर और स्टेशन के बीच एक किलोमीटर का ही फासला तो था.

अभी मजार में अगरबत्ती सुलगा कर पलटी ही थी कि बाबा से सामना हो गया. उस ने प्रणाम करने को झुकना चाहा पर उस की मंशा भांप कर बाबा दो कदम पीछे हट गया. मेरे नहीं, इस के पैर पकड़ो, वह जो इस में समाया है. उस ने उंगली से मजार की तरफ इशारा करते हुए कहा, जिस मंशा से यहां आई हो, वह जरूर पूरी होगी. बस, अपने मन में कोई शंका न रखना.

आखिर क्या कमी थी- भाग 1 : क्यों विजय की पत्नी ने किया उसका जीना हराम

‘‘मेरा जीना हराम कर दिया है मेरी पत्नी ने. उठतेबैठते, सोतेजागते एक ही रट कि मेरा बाहर की औरतों से संबंध है. घर के बाहर गया नहीं कि चीखनाचिल्लाना शुरू. क्या करूं मैं? उसे न बच्चों की शर्म है न महल्ले वालों की. नौकरचाकर सामने रहते हैं और वह अनापशनाप बकने लगती है,’’ विजय की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गया. नीरा भाभी भला ऐसा क्यों करने लगीं. पढ़ीलिखी समझदार हैं. जब मेरी शादी हुई थी तब भाभी ने बड़ी बहन की तरह सारा काम संभाला था. अपनी बहन सी लगने वाली भाभी पर उस के पति विजय का आरोप मैं कैसे सह लेता.

‘‘ऐसा कैसे हो गया एकाएक?’’

झुंझला पड़ा था विजय, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘पता क्यों नहीं, तुम्हारी पत्नी है… कुछ तो ऐसा होगा ही जिस की वजह से वे ऐसा व्यवहार कर रही हैं वरना दिमाग खराब है क्या उन का?’’

‘‘हां, यही लगता है मुझे भी,’’ बदबुदाया विजय.

‘‘क्या कह रहे हो तुम, होश में हो न. जिस औरत ने तुम्हारे साथ 15 साल की खुशहाल गृहस्थी काटी है, तुम्हारे हर सुखदुख में तुम्हारा साथ दिया, एकाएक उस का व्यवहार क्यों बदल गया है, तुम्हें पता नहीं और उस पर यह दावा कि उस का दिमाग खराब हो गया है?’’

‘‘दिमाग ही तो खराब है जो मुझ पर शक करती है. क्या यह सही दिमाग की निशानी है?’’

‘‘तुम ने कुछ ऐसा किया है क्या जो भाभी को तुम पर शक करने का मौका मिला? आखिर इस शक की कोई तो वजह होगी.’’

‘‘मुझे तो लगता है उसी का किसी के साथ संबंध है,’’ विजय बोला, ‘‘जो खुद गलत करता है वही सामने वाले पर आरोप लगाता है…’’

चटाक की आवाज के साथ मेरा हाथ विजय के गाल पर पड़ा. ऐसा लगा विश्वास और निष्ठा का सुंदर भवन मेरे सामने भरभरा कर गिर गया. धूलमिट्टी उड़ कर कुछ मेरे कपड़ों पर पड़ी और कुछ मेरी आंखों में भी. किसी ने मानो मेरी जीभ ही खींच ली. क्या विजय की आंखों की शर्म इतनी मर गई है कि मेरे सामने भाभी को चरित्रहीन कहते उसे लज्जा नहीं आई.

मर्द तो सदा ही अपनी मर्दानगी प्रमाणित करता आया है यहांवहां मुंह मार कर, कम से कम अपनी पत्नी का मान- सम्मान तो वह इस तरह न उछालता. क्या समझूं मैं? विजय के इस व्यवहार पर कैसे अपनी सोच का निर्धारण करूं? हद होती है हर बात की.

अवाक् था विजय. उस ने भी कहां सोचा होगा कि मैं नीरा भाभी का पक्ष ले कर उसी पर हाथ उठा बैठूंगा.

‘‘मुझे लगता है तुम ही कहीं भटक गए हो और अपनी किसी करतूत पर परदा डाल रहे हो. शायद तुम्हीं नहीं चाहते कि नीरा भाभी तुम्हारे साथ रहें और इसलिए उन्हें अपमानित कर अपने जीवन से निकालना चाहते हो. कहीं तो कुछ है…’’

‘‘वही कुछ तो मैं भी समझाना चाह रहा हूं तुम्हें…कहीं तो कुछ है जिस की आड़ ले कर वह मेरा अपमान कर रही है. मैं तो कहीं मुंह दिखाने के लायक भी नहीं रहा. अब तो बच्चों के सामने भी आंख उठाते हुए मुझे शर्म आती है.’’

विजय का रोनापीटना, चीखना- चिल्लाना सब सत्य था लेकिन भाभी का चरित्र खोटा है मैं इसे भी कैसे मान लूं, ‘‘बच्चों पर क्या असर होगा तुम्हारे झगड़ों का, सोचा है कभी तुम ने…’’

‘‘वही सब तो तुम से पूछना चाहता हूं कि नीरा के इस पागलपन की वजह से मेरे घर का भविष्य क्या होगा?’’

विजय की पीड़ा कहींकहीं मुझे भेदने लगी. कहीं सचमुच कुछ है तो नहीं, ‘‘तुम दोनों के आपसी संबंध कैसे हैं?’

 

आखिर क्या कमी थी

एक और परिणीता : भाग 3

अगली शाम वह उसी दुकान पर गई और अपने लिए सुंदर साडि़यां खरीद लाई. फिर जाने क्या सोच कर अपनी मां के लिए ठीक वैसी ही साड़ी खरीदी जैसी शिवेन की मां के लिए उस ने पसंद की थी.

मां को ला कर साड़ी दी तो वह उदास स्वर में बोलीं, ‘‘क्या मेरी तकदीर में बेटी की कमाई की साड़ी ही लिखी है?’’

‘‘मां, तुम यह क्यों नहीं समझ लेतीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूं.’’

स्वर्णा अपनी खुशी में मिसेज ठाकुर को शरीक करने के लिए उन के घर की ओर चल दी. धीरेधीरे उन्हें सबकुछ बता दिया. वह गंभीर हो गईं. समझाते हुए बोलीं, ‘‘स्वर्णा, तुम जवान लड़की हो. आगेपीछे सोच कर कदम उठाना. शिवेन बड़े ओहदे वाला इनसान है. क्या तुम्हें अपनी बिरादरी के सामने स्वीकार करेगा? कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन उसे अपनी बिरादरी की कोई अच्छी लड़की मिले तो तुम्हें फटे कपड़े की तरह छोड़ दे. थोड़े दिनों की खुशी के लिए जीवन भर का दुख मोल लेना कहां की समझदारी है? अब अगर शिवेन बुलाए तो मत जाना.’’

अगली बार शिवेन ने फोन पर उसे अपने घर आने के लिए कहा. स्वर्णा ने पहली बार टाल दिया. लेकिन दूसरी बार शिवेन ने फिर बुलाया तो उस ने मिसेज ठाकुर को बताया. सुनते ही वह भड़क उठीं.

‘‘देखा न, घर पर बुला रहा है. इस का इरादा कतई नेक नहीं है, कुछ करना पड़ेगा.’’

‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई तो भी वह बदला निकाल सकते हैं. मेरी नौकरी और पदोन्नति का भी तो खयाल करो. सब उन्हीं की मेहरबानी है. टेलीफोन पर उन की बातों से ऐसा नहीं लगता कि उन का कोई बुरा इरादा होगा. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं क्या न करूं.’’

‘‘ठीक से सोच लो, स्वर्णा. जाना तो तुम्हें कल है.’’

मिसेज ठाकुर के घर से लौटते समय आगे की सोच कर उस का गला सूखा जा रहा था. मन का तनाव उस की नसनस में बह रहा था. अनायास उस ने महसूस किया कि वह नितांत अकेली है. उस के आसपास के सभी व्यक्ति, जो उस पर अधिकार जताते हैं, किसी न किसी डर के अधीन हैं. अपनीअपनी सामाजिकता से बंधे पालतू पशुओं की तरह एक नियत जीवनयापन कर रहे हैं.

दादी को जातबिरादरी का डर, पिताजी को अपने कर्तव्य से गिर जाने का डर, मां को इन दोनों को नाराज करने का डर और इन सब के नीचे, लगभग कुचला हुआ उस का अपना अस्तित्व था.

इन सब के विपरीत उस के मन को एक शिवेन ही तो था जो बादलों तक उड़ा ले जा रहा था.

शिवेन का खयाल आते ही उस का अंगअंग झंकृत हो उठा. सहसा उसे लगा कि वह इतनी हलकी है कि कोई शिला उसे पूरी तरह दबा दे, नहीं तो वह उड़ जाएगी. वह अपने ही हाथपैरों को कस कर समेटे गठरी सी बनी खिड़की के बाहर देखती कब सो गई उसे पता ही न चला.

सुबह आंख खुली तो उस की नजर सामने अलमारी पर पड़ी जिस के एक खाने में उस की दोनों छोटी बहनों के विवाह की तसवीरें रखी थीं. उन के ठीक बीच में एक बंगाली दूल्हादुलहन की जोड़ी रखी थी जो वर्षों पहले उस ने एक मेले से खरीदी थी.

सुबह उस ने अपना फैसला फोन पर मिसेज ठाकुर को सुनाया. वह बोली, ‘‘चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं. तुम आगे जा कर दरवाजा खुलवाना. बाहर ही खड़ी रह कर बात करना. यदि अंदर आने के लिए शिवेन जोर दें तो बताना मैं भी साथ हूं. रिकशे वाला भी हमारा अपना है. यदि जरूरत पड़ी तो शोर मचा देंगे.’’

हिम्मत कर के स्वर्णा शिवेन के घर चल दी. मिसेज ठाकुर भी रिकशे में पीछेपीछे हो लीं. शिवेन का मकान कई गलियों से गुजरने के बाद मिला था.

स्वर्णा ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से एक स्त्री कंठ ने कहा, ‘‘कौन है, दरवाजा खुला है, आ जाओ.’’

स्वर्णा ने अपना नाम बताया और दरवाजा जरा सा खोला तो वह पूरा ही खुल गया. सामने आंगन में बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे बुला रही थी.

स्वर्णा ने दरवाजा खुला ही छोड़ दिया क्योंकि उस के ठीक सामने 10 गज की दूरी पर मिसेज ठाकुर उसे अपने रिकशे में बैठेबैठे देख सकती थीं.

‘‘बेटी शेफाली, देखो, स्वर्णा आई है.’’

शेफाली धड़धड़ाती हुई सीढि़यों से उतरी और स्वर्णा को प्रेम से गले लगाया.

‘‘शिबू ने बताया था कि आप आएंगी. वह कोलकाता गया है. परसों आ जाएगा. आइए, बैठिए.’’

शेफाली को देख कर स्वर्णा का मुंह खुला का खुला रह गया, क्योंकि उस का ऊपर का होंठ बीच में से कटा हुआ था. इस के बाद भी शेफाली ने सहज ढंग से उस की खातिर की. मांजी के पास रखे बेंत के मूढ़ों पर दोनों बैठीं बातचीत करती रहीं. नाश्ता किया और फिर शेफाली उसे अपना घर दिखाने के लिए अंदर ले गई. स्वर्णा ने देखा कि शिवेन के कमरे में ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं. एक कोने में सितार रखा था.

शेफाली ने बताया, ‘‘शिबू मुझ से 3 साल छोटा है और वह तुम को बेहद पसंद भी करता है. इस से पहले शिवेन ने कभी अपनी शादी की बात नहीं की थी. तुम पहली लड़की हो जो उस के जीवन में आई हो.

‘‘आज से 20 साल पहले जब  पिताजी का देहांत हुआ था तब मैं 19 साल की थी और शिवेन 16 का रहा होगा. इतनी छोटी उम्र में ही उस पर मेरी शादी का बोझ आ पड़ा. मेरा ऊपर का होंठ जन्म से ही विकृत था. विकृति के कारण रिश्तेदारों ने मेरे योग्य जो वर चुने उन में से कोई विधुर था, कोई अपंग. स्वयं अपंग होते हुए भी लोग मुझे देख कर मुंह बना लेते थे.

‘‘एक दिन एक आंख से अपंग व्यक्ति ने जब मुझे नकार दिया तो शिवेन उसे बहुत भलाबुरा कहते हुए बोला कि चायमिठाई खाने आ जाते हैं, अपनी सूरत नहीं देखते.

‘‘इस बात को ले कर हमारे रिश्तेदारों ने हमें बहुत फटकारा. बस, उसी दिन मैं ने शिवेन को बुला कर कह दिया कि बंद करो यह नाटक. मुझे किसी से शादी नहीं करनी है. शिवेन रोते हुए बोला, ‘ऐसा मत सोचिए, दीदी. मैं अपना फर्ज पूरा नहीं करूंगा तो समाज यही कहेगा कि बाप रहता तो बेटी कुंआरी तो न बैठी रहती,’’’ शेफाली स्वर्णा को बता रही थी.

‘‘ ‘बाबा मेरी शादी करवा सकते थे क्या?’’ क्या उन के पास देने के लिए लाखों रुपए का दहेज था?’ मैं ने शिवेन से पूछा, ‘अभी तू छोटा है तभी फर्ज की बात कर रहा है. कल को जब तू शादी लायक होगा तो क्या तू मेरी जैसी लड़की से शादी कर लेगा? दूसरों को क्यों लज्जित करता है?’

‘‘बस, उसी दिन से उस ने शपथ ले ली कि विकृत चेहरे वाली लड़की से ही शादी करूंगा.’’

थोड़ा रुक कर शेफाली फिर बोली, ‘‘स्वर्णा, जिस दिन पहली बार उस ने तुम्हें देखा था उसी दिन शिबू ने तुम से शादी के लिए अपना मन बना लिया था. इस पर तुम इतनी गुणी निकलीं. अब तुम्हारी बारी है. घरबार भी तुम ने देख लिया है. बोलो, क्या कहती हो?’’

स्वर्णा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. उस की रुलाई फूट पड़ी. शेफाली ने उसे गले से लगाया. स्वर्णा चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू पीछे से खींच कर सर ढक लिया और घुटनों के बल बैठ कर मांजी के पांव छुए.

स्वर्णा जाते समय धीरे से शेफाली से बोली, ‘‘आज से चौथे दिन मैं आप सब का अपने घर पर इंतजार करूंगी.’’

कादंबरी मेहरा

Monsoon Special: वह पूनम की रात- भाग 3

इस पर फिर अपने गाल फुला कर प्रीति बोली, ‘‘ऐसी बातें करोगे, तो मैं चली जाऊंगी.‘‘

‘‘तो चली जाओ. भले ही मुझे नाराजगी न हो, यह रात और यह चांदनी, यह मौसम और ये नजारे तुम से जरूर नाराज हो जाएंगे. कहेंगे, यह लड़की कितनी पत्थर दिल है,‘‘ रूठी मैना को मनाने के चक्कर में मैं ने भी रूठने का नाटक किया.

तब अचानक अपने कदम रोक कर बिना कुछ बोले प्रीति मुझ से लिपट गई थी.

‘‘अरे, यह हुई न बात, वैसे मैं तो तुम्हें यों ही छेड़ रहा था,‘‘ मैं ने भी भावुक हो कर उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

प्रीति कुछ देर तक उसी तरह मेरी बांहों में लिपटी रही. दोनों की सांसें अनायास ही तेज हो चली थीं और दिल की धड़कनों का टकराना, दोनों ही महसूस कर रहे थे. फिर मैं ने प्रीति की मौन स्वीकृति को भांप कर प्यार से उस के होंठों को चूम लिया. फिर जब दोनों अलग हुए, तो दोनों की ही आंखों में प्रेम के आंसू झिलमिला रहे थे.

‘‘चलो, अब वापस चलते हैं, काफी देर हो गई,‘‘ अपने मोबाइल पर समय देखते हुए प्रीति ने कहा.

‘‘थोड़ी देर और रुको न, तुम तो जानती हो, मैं इसी रात के लिए शहर से गांव आया हूं. अगर तुम आने का वादा न करती, तो क्या मैं यहां आता?‘‘

‘‘तुम्हें पता है, मैं कितनी होशियारी से निकली हूं. अगर घर में किसी को भनक लग गई तो…‘‘

‘‘तो क्या होगा? हम यहां घूमने ही तो आए हैं, कोई गलत काम तो नहीं कर रहे.‘‘

‘‘मेरे भोले मजनूं, यह शहर नहीं गांव है. मैं यहां 14-15 साल से रह रही हूं. तुम तो बस, 2-3 दिन के लिए कभीकभार ही आते हो. यहां बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती.‘‘

‘‘तो डरता कौन है? जब हमारा प्यार सच्चा है, तो मुझे किसी की परवा नहीं.‘‘

‘‘मेरी तो परवा है…‘‘

‘‘तुम्हें कोई कुछ कह कर तो देखे…‘‘

‘‘मैं अपने मांबाप की बात कर रही हूं. अगर वे ही कुछ कहेंगे तो?‘‘

‘‘अरे, उन्हें तो मैं कुछ नहीं कह सकता. मेरे लिए तो वे पूजनीय हैं, क्योंकि उन के कारण ही तो तुम मुझे मिली हो. मैं तो जिंदगी भर उन के पैर धो सकता हूं.‘‘

‘‘तो चलो, चलते हैं,‘‘ प्रीति मुसकराते हुए मेरा हाथ पकड़ कर बोली.

‘‘काश, इस तरह हम रोज मिल पाते,‘‘ मैं ने प्रीति के साथ कदम बढ़ाते हुए आह भर कर कहा.

‘‘इंतजार का मजा लेना भी सीखो. ऐसी चांदनी रात रोज नहीं हुआ करती,‘‘ प्रीति मेरी ओर देखते हंसते हुए बोली.

‘‘इसीलिए तो कह रहा हूं, थोड़ी देर और ठहर लेते हैं. खैर, छोड़ो. अब तो कुछ दिन कुछ रातें, इंतजार का ही मजा लेना पड़ेगा. तुम महीने भर बाद जो शहर लौटोगी.  मुझे तो शायद कल ही लौटना पड़ेगा,‘‘ मैं ने कुछ उदास स्वर में कहा.

‘‘क्या? तुम कल ही लौट रहे हो,‘‘ प्रीति हैरानी जाहिर करते हुए बोली.

‘‘हां, पापा का फोन आया था. इस बार उन्हें छुट्टी नहीं मिल पाई वरना मम्मीपापा भी सप्ताह भर के लिए यहां आ जाते. वे नहीं आ पाएंगे, इसलिए उन्होंने इस बार दादी को भी साथ ले कर आने के लिए कहा है. अगर तुम भी साथ वापस चलती तो कितना अच्छा होता.‘‘

‘‘अगर चाचाजी आ जाते तो शायद जल्दी लौटना हो जाता, पर उन को भी छुट्टी नहीं मिल पाई. बाबा, खेतों का काम खत्म होने से पहले जाएंगे नहीं और तुम तो जानते हो मैं अकेली जा नहीं सकती.‘‘

‘‘खासकर किसी दूसरी जाति के लोगों के साथ…‘‘

‘‘फिर मुझे ताने सुना रहे हो?‘‘

‘‘नहीं, मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रहा पर कभीकभी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि हमारा गांव इतना खूबसूरत है मगर यहां अभी भी जातपांत के पुराने खयालातों से लोग मुक्त नहीं हो पाए हैं. पता नहीं, हमारे प्यार का अंजाम क्या होगा…‘‘

‘‘तो क्या तुम अंजाम से डरते हो?‘‘

‘‘हां, डरता तो हूं. अगर कोई कहेगा, तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारी नहीं हो सकती, तो क्या डरना नहीं चाहिए?‘‘

‘‘बिलकुल नहीं डरना चाहिए आप को, क्योंकि आप की जिंदगी हमेशा आप के साथ रहेगी,‘‘ प्रीति मुसकरा कर बोली.

‘‘तो मैं भी अंजाम से नहीं डरता,‘‘ मैं ने भी उसी अंदाज में कहा.

‘‘यह हुई न बात‘‘ फिर शांत स्वर में बोली, ‘‘रमेश, देखना इस गांव में बदलाव हम ही लाएंगे. लोगों को यह मानना पड़ेगा कि इंसानियत से बड़ी दूसरी कोई जात नहीं होती और इंसानियत कहती है कि एकदूसरे को समान दृष्टि से देखा जाए और सभी प्रेम से मिल कर रहें.‘‘

‘‘तुम जब भी इस तरह की बातें करती हो, तो मेरे अंदर एक जोश आ जाता है. आज मैं भी इस पूनम की रात में कसम खाता हूं, रास्ता चाहे जितना कठिन हो, जब तक हमें मंजिल मिल नहीं जाती, मैं हर कदम तुम्हारे साथ रहूंगा,‘‘ मैं ने अपने दोनों हाथों को ऊपर फैला कर बड़े जोश में कहा.

उस रात ढेर सारी उम्मीदों के साथ, दिल में ढेर सारे सपनों को सजाए, एकदूसरे से विदा ले कर, हम दोनों अपनेअपने घर चले गए थे. लेकिन जिस कठिन रास्ते की हम ने कल्पना की थी, वह इतना कंटीला साबित होगा, कभी सोचा न था.

उस रात लौटते वक्त शायद किसी ने हमें देख लिया था. हो सकता है, वह मंदिर का पुजारी, गांव का पंडित ही रहा हो. क्योंकि उस ने ही प्रीति के बाबा को बुलवा कर इस की शिकायत की थी. धर्म के, समाज के ऐसे ठेकेदार, जिन्हें राधाकृष्ण के प्रेम, उन की रासलीला से तो कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन यदि हम जैसे जोड़े उस का अनुसरण करें, तो उन के लिए समाज की मानमर्यादा, उस की इज्जत का सवाल उत्पन्न हो जाता है…

उस दिन प्रीति के साथ क्या हुआ? यह कहने की आवश्यकता नहीं है. उस के घर वाले तो मुझे भी ढूंढ़ने आ गए थे… पर मैं दादी को ले कर शहर के लिए सुबह की बस से पहले ही निकल गया था.

बाद में गांव से प्रीति का फोन आने पर मैं पिताजी के सामने जा कर उन्हें सारी बातें बता कर रोने लगा. हमेशा की तरह एक दोस्त के समान मेरा साथ देते हुए पिताजी मुझे समझा कर तुरंत प्रीति के चाचाजी से बात करने चले गए. जो हम से कुछ ही दूर किराए के मकान में रहते थे. चाचाजी, पिताजी की तरह ही सुलझे विचारों वाले आदमी थे. गांव जा कर सब को काफी समझाने का प्रयास किया. यहां तक कि पंचों से भी बात कर के देखा, लेकिन बात नहीं बन पाई.

भाईभाई के बीच मनमुटाव वाली स्थिति पैदा हो गई. फिर पंचों से भी यह धमकी मिली कि यदि वे समाज की परंपरा के खिलाफ जाएंगे, तो उन्हें जातबिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा. कोई उन का छुआ पानी तक नहीं पीएगा.

अंत में हार कर चाचाजी और पिताजी को पुलिस का सहारा लेना पड़ा और न चाहते हुए भी हम दोनों की शादी मजबूरन कोर्ट में करनी पड़ी.

हम दोनों की बस इतनी ही तो इच्छा थी कि समाज के सामने सामाजिक रीतिरिवाज से हम दोनों की शादी हो जाए. लेकिन समाज की रूढि़वादी परंपराओं की दीवार को गिरा पाना आसान काम तो नहीं होता. हम ने प्रयास क्या किया? कितना कुछ घटित हो गया. बाद में यह भी पता चला कि गांव के कुछ लोगों ने हमारे घर को आग लगाई और गांव से हमेशा के लिए हमारा बहिष्कार कर दिया गया.

आज इतने सालों बाद भी स्थिति जस की तस है. हमारे लिए वह रास्ता उतना ही दुर्गम है, जो वापसी को उस गांव तक जाता है. उस रात के बारे में कभी सोचता हूं, तो अपनी उस नादानी पर डर जाता हूं. क्योंकि जिस समाज में जातपांत के आधार पर इंसान का विभाजन होता हो और जहां जवान लड़केलड़की के बीच पवित्र रिश्ते जैसी किसी चीज की कल्पना तक नहीं की जाती, वहां उस सुनसान रात में एक जवान जोड़े को घूमते देख कर क्या उन्हें यों ही छोड़ दिया जाता?

फिर भी पता नहीं क्यों? उस रात को, प्रीति का साथ मैं भी कभी भुला नहीं पाया. आज भी हर ऐसी चांदनी रात में वह पूनम की रात याद आते ही मन भावविभोर हो जाता है.

तंत्र मंत्र का खेला – भाग 3 : बाबा के जाल से निकल पाए सुजाता और शैलेश

सुजाता गदगद हो गई. आज सुबह  इतनी सुहावनी होगी, उस ने  सोचा न था. उसे पड़ोसिनों ने बताया तो था यदि मजार वाले बाबा का आशीर्वाद भी मिल जाए तो फिर तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई ही समझो.

खुश मन से सुजाता ने जब घर में प्रवेश किया, तो उस का पति चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ने में तल्लीन था. सुजाता गुनगुनाते हुए घर के कार्यों में व्यस्त हो गई. महेंद्र सब समझ गया कि वह मजार का चक्कर लगा कर आई है, मगर कुछ न बोला.

वह सोचने लगा कितने सरल स्वभाव की है उस की पत्नी, सब की बातों में तुरंत आ जाती है, अब अगर मैं वहां जाने से रोकूंगा तो रुक तो जाएगी मगर उम्रभर मुझे दोषी भी समझती रहेगी कि मैं ने उस के मन के अनुसार कार्य न कर के, उसे संतान पाने के आखिरी अवसर से भी वंचित कर दिया. आज जा कर आई है तो कितनी खुश लग रही है वरना कितनी बुझीबुझी सी रहती है. चलो, कोई नहीं, 40 दिनों की ही तो बात है, फिर खुद ही शांत हो कर बैठ जाएगी. मेरे टोकने से इसे दुख ही पहुंचेगा.

दिन बीतते देर नहीं लगती, 40 दिन क्या 4 महीने बीत गए, मगर सुजाता का मजार जाना न रुका. अब वह गैस्ट फैकल्टी के कार्य में भी रुचि नहीं लेती, न ही आसपड़ोस की महिलाओं के संग कार्यक्रम में मन लगाती. अपने कमरे को अंदर से बंद कर, घंटों न जाने कैसे तंत्रमंत्र अपनाती. इन सब बातों से बेखबर एक दिन अचानक रमा उस महल्ले से गुजरी. उस ने सोचा, सुजाता भाभी की खबर भी लेती चलूं, अरसा हो गया उन्हें, वे पार्लर नहीं आईं.

दोपहर का समय, दरवाजे की घंटी सुन सुजाता को ताज्जुब हुआ कि इस समय कौन है? दरवाजा खोलते ही रमा को देख कर खुशी से चहक उठी. उसे लगभग खींचते हुए भीतर ले गई.

मगर रमा उसे देख कर हैरान थी कि क्या यह वही सुजाता है जो कितनी सजीसंवरी रहती थी. सामने मैलेकुचैले गाउन में, कालेसफेद बेतरतीब बालों की खिचड़ी के साथ, न मांग में सिंदूर, न मंगलसूत्र, न चूडि़यां, न बिंदी पहने सुजाता किसी सड़क पर घूमती पगली से कम नहीं लगी. ‘‘भाभी, आप को क्या हो गया है? तबीयत तो ठीक है न आप की? भाईसाहब ठीक तो हैं न?’’ रमा ने हैरानी से पूछा.

‘‘अब आई है, तो बैठ. तुझे सब बताती हूं. मेरी तबीयत को कुछ नहीं हुआ बल्कि मेरे चारों तरफ भूतों का डेरा हो गया है. कोई मेरी बात का विश्वास नहीं करता. यहां देख मैं इसे सोफे पर रातभर जाग कर टीवी देखती रहती हूं. अगर झपकी आई तो सो गई वरना पूरी रात यों ही कट जाती है. ये भूत दिनरात मेरे चारों तरफ मंडराते रहते हैं. दिन में भी कभी महल्ले के बच्चे के रूप में तो कभी पड़ोसिन के रूप में आ कर बैठ जाते हैं. फिर चाय बनाने या कुछ लेने भीतर जाओ, तो गायब हो जाते हैं.’’

‘‘भाभी, ऐसी बातें कर के मुझे मत डराओ?’’ रमा घबरा गई.

‘‘यह मेरी जिंदगी की सचाई बन गई है. ये देखो, मेरे हाथ में ये निशान. अगर मैं चूड़ी, बिंदी, कुछ भी पहनती हूं तो ऐसे निशान बन जाते हैं. सजनेसंवरने पर मुझे ये भूत बहुत परेशान करते हैं, इसीलिए मैं अब सादगी से रहती हूं, बाल भी नहीं रंगती, मेहंदी भी नहीं लगाती,’’ सुजाता बोली.

‘‘भाईसाहब, आप को कुछ समझाते नहीं हैं क्या?’’ रमा सुजाता की बातें सुन कर उलझन में पड़ गई.

‘‘मेरे पति के अंदर तो खुद ही आत्मा आती है. जब वह आत्मा आती है तो उन की आवाज भर्रा जाती है, चेहरा सर्द हो जाता है, उसी आत्मा ने मुझे सादगी से रहने का आदेश दिया है.’’

‘‘मैं चलती हूं भाभी, बेटे के स्कूल से लौटने का समय हो गया है,’’ कह कर रमा उठ खड़ी हुई. सुजाता की बातें सुन कर रमा के रोंगटे खड़े हो गए. उस ने वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी.

रमा अपनी स्कूटी स्टार्ट कर ही रही थी कि सामने से शैलेश आता दिखा. शैलेश उसी की गांवबिरादरी का है, रिश्ते में उस का चचेरा भाई लगता है. उसे देख कर वह रुक गई. उसी ने तो 2 महीने पहले उसे स्कूटी चलानी सिखाई थी. उस ने सुजाता के दरवाजे पर नजर डाली. सुजाता ने अपनेआप को फिर से घर में कैद कर लिया था. उस ने शैलेश को अपने पीछे बैठने का इशारा किया और वहां से सीधा अपने घर को चल पड़ी.

शैलेश ने जो बताया उसे सुन कर रमा हैरान रह गई. ‘‘सुजाता जब पहली बार मजार में गई थी तो उसी दिन बाबा ने उस के बारे में पूरी जानकारी उस से जुटा ली. सुजाता धीरेधीरे बाबा की कही बातों का आंख मूंद कर विश्वास करने लगी थी. किंतु 40 दिन बीतने के बाद भी जब कोई परिणाम न मिला तो बाबा ने उसे समझाया कि यह सब तुम्हारे पति की शंका करने की वजह से हो रहा है. जब तक वे भी सच्चे मन से इस ताकत को नमन नहीं करेंगे, तब तक तुम अपने लक्ष्य को नहीं पा सकतीं. यह सुन कर सुजाता ने अपने पति को भी मजार लाने का फैसला किया और रोधो कर, गिड़गिड़ा कर, उसे यहां तक लाने में सफल हो ही गई. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, शैलेश? रमा की उत्सुकता चरम पर थी.’’

‘‘लेकिन जब मैं ने महेंद्र सर से कहा तो वे गुस्से से लालपीले हो कर कहने लगे, ‘ये सारी बातें बकवास हैं, ये फेरे लगाने से कुछ नहीं होता बल्कि अब तो सुजाता घरेलू कार्य में भी रुचि नहीं लेती. बीमारों की तरह पूरे दिन वह लेटी रहती है. चलो, मैं भी वहां का नजारा देख कर आता हूं.

‘‘उस दिन बाबा स्टेशन से पहले पीपल के पेड़ के नीचे बैठे आसपास से आए आदिवासियों को घेर कर बैठे थे. उस दिन मजार का मेला भी था जो मजार पर न लग कर बाहर पास के मैदान में लगता है. उस दिन की भीड़ को देखते हुए किसी को भी स्टेशन की सुरक्षा के लिहाज से मजार तक जाने नहीं दिया जाता. इसलिए जो भी भक्त, चादर, अगरबत्ती, धूप जो भी चढ़ाना चाहे, वह बाबा को सौंप देता है. इसीलिए बाबा के चारों तरफ भीड़ जुटी थी. जिस में गरीब आदिवासी महिलाएं, उन की बेटियां बहुत श्रद्धा के साथ हाथ जोड़ लाइन से आगे बढ़ती जा रही थीं.’’

‘‘सर, उन सब को बड़े ध्यान से देख रहे थे. थोड़ी देर में जब बाबा की नजर मेरे साथ खड़े सर पर पड़ी तो वे समझ गए कि ये सुजाता मैम के पति होंगे. उन्होंने उन्हें दूसरे दिन आ कर बात करने को कहा. सर मेरे साथ वापस आ गए.

‘‘तब तक तो मैं भी नहीं जानता था कि मैं खुद बाबा के हाथों का मोहरा बन कर रह गया हूं. वह एकतरफ सुजाता मैम को बच्चे के ख्वाब दिखा कर बरगला रहा था तो दूसरी तरफ प्रोफैसर को दूसरी शादी के सब्जबाग दिखाने लगा. इन दोनों को अपनी बातों का विश्वास दिलाने को, बाबा जब न तब, मुझे और मेरे दोस्तों को बुला कर हमारी मनोकामनाओं के पूरी होने के उदाहरण देता. हम भी उस की बात में हां में हां मिलाते, क्योंकि हमें बाबा की ताकत पर भरोसा भी था और डर भी.’’

‘‘धीरेधीरे उस ने मैम के दिमाग में यह बात भर दी कि उस का रहनसहन, पहनावा आकर्षक होने के कारण, पीपल के पेड़ के भूत, उस पर आसक्त हो गए हैं. इसलिए उसे सब से पहले अपने आप को सादगी में रखना होगा. दूसरी तरफ, प्रोफैसर को दूसरी शादी के लिए रिश्ते दिखाने लगा. उन्हीं में से एक रिश्ते में 16 साल की एक गरीब की लड़की का रिश्ता भी था, जो प्रोफैसर को बहुत ही भा गया.

‘‘आजकल सर के बहुत चक्कर लग रहे हैं उस लड़की के गांव के. यहां से 15 किलोमीटर पर ही तो है वह गांव. वहां आदिवासी परिवार हैं. उन के वहां अभी भी बालविवाह, बहुविवाह का चलन है. अब क्या है, सर की पांचों उंगलियां घी में हैं. वे भी बस लगता है अपनी बीवी के पूरी पागल होने के इंतजार में हैं ताकि उसे पागलखाने भेज कर, उस की सहानुभूति भी बटोर लें और फिर उस कन्या से विवाह कर संतान भी पैदा कर लें.

‘‘मेरी गलती, बस, यही है कि मैं बाबा और सर की चालों को पहले समझ ही नहीं पाया वरना मैम की कुछ मदद कर देता. मगर अब उन की मानसिक स्थिति को केवल किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ से मिल कर ही संभाला जा सकता है.’’

लेकिन मानसिक रोग विशेषज्ञ इस शहर में मौजूद ही नहीं हैं और दूसरे बड़े शहर में ले जा कर इलाज कराने के मूड में प्रोफैसर हैं ही नहीं. शैलेश के मुख से यह सब सुन रमा घोर चिंता में आ गई.

बेचारी सुजाता भाभी, यह मक्कार बाबा जब प्रोफैसर को अपनी बातों में न उलझा पाया तो उस ने दूसरा जाल फेंका जिस में बड़ेबड़े ऋ षिमुनि न पार पा पाए. तो फिर उस जाल में यह प्रोफैसर कैसे बच पाता. वह दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी को भूल गया, मौकापरस्त आदम जात. यह सोच कर रमा अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

Monsoon Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए -भाग 2

‘‘पर, मैं खुश क्यों नहीं हूं, क्या मैं विहान से प्यार… नहींनहीं, हम तो बस बचपन के साथी हैं. इस से ज््यादा तो कुछ नहीं है, फिर मैं आजकल विहान को ले कर इतना क्यों परेशान रहती हूं. उस से बात न होने से मुझे ये क्या हो रहा है? क्या मैं अपनी ही फीलिंग्स समझ नहीं पा रही हूं…?‘‘

इसी उधेड़बुन में रात आंखों में ही बीत गई थी. किसी से कुछ शेयर किए बिना ही वह वापस मुंबई लौट गई.

दिन यों ही बीत रहे थे, पूजा की शादी के बारे में न घर वालों ने आगे कुछ बताया और न ही मिशी ने पूछा.
एक दिन दोपहर को मिशी को काल आया, ‘‘घर की लोकेशन भेजो, डिनर साथ ही करेंगे.‘‘

मिशी ‘करती हूं’ के अलावा कुछ ना बोल सकी. उस के चेहरे पर मुसकान बिखर गई थी, उस रोज वह औफिस से जल्दी घर पहुंची, खाना बना कर, घर संवारा और खुद को संवारने में जुट गई, ‘‘मैं विहान के लिए ऐसे क्यों संवर रही हूं, इस से पहले तो कभी मैं ने इस तरह नहीं सोचा… ‘‘ उस को खुद पर हंसी आ गई, अपने ही सिर पर धीरे से चपत लगा कर वह विहान के इंतजार में भीतरबाहर होने लगी. उसे लग रहा था, जैसे वक्त थम गया हो, वक्त काटना मुश्किल हो रहा था.

शाम के लगभग 8 बजे बेल बजी. मिशी की सांसें ऊपरनीचे हो गईं. शरीर ठंडा सा लगने लगा. होंठों पर मुसकराहट तैर गई. दरवाजा खोला, पूरे 10 महीने बाद विहान उस के सामने था. एक पल को वह उसे देखती ही रही, दिल की बेचैनी आंखों से निकलने को उतावली हो उठी.

विहान भी लंबे समय बाद अपनी मिशी से मिल उसे देखता ही रह गया.फिर मिशी ने ही किसी तरह संभलते हुए विहान को अंदर आने के लिए कहा. मिशी की आवाज सुन विहान अपनी सुध में वापस आया. दोनों देर तक चुप बैठे, छुपछुप कर एकदूसरे को देख लेते, नजरें मिल जाने पर यहांवहां देखने लगते. दोनों ही कोशिश में थे कि उन की चोरी पकड़ी न जाए.

डिनर करने के बाद जल्दी ही फिर मिलने की कह कर विहान वापस चला गया.

उस रात वह विहान से कोई सवाल नहीं कर सकी थी, जितना विहान पूछता रहा, वह उतना ही जवाब देती गई. वह खोई रही, विहान को इतने दिनों बाद अपने करीब पा कर, जैसे जी उठी थी वह उस रात…

विहान एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था… 15 दिन बीत चुके थे, इन 15 दिनों में विहान और मिशी दो ही बार मिले.

विहान का काम पूरा हो चुका था, 1 दिन बाद उस को निकलना था. मिशी विहान को ले कर बहुत परेशान थी. आखिर उस ने निर्णय लिया कि विहान के जाने के पहले वह उस से बात करेंगी… पूछेगी उस की बेरुखी की वजह… मिशी अभी उधेड़बुन में थी, तभी मोबाइल बज उठा… विहान का था…
‘‘हेलो, मिशी औफिस के बाद तैयार रहना… बाहर चलना है, तुम्हें किसी से मिलवाना है.‘‘

‘‘किस से मिलवाना है, विहान.‘‘

‘‘शाम होने तो दो, पता चल जाएगा.‘‘

‘‘बताओ तो…‘‘

‘‘समझ लो, मेरी गर्लफ्रैंड है.‘‘

इतना सुनते ही मिशी चुप हो गई. 6 बजे विहान ने उसे पिक किया. मिशी बहुत उदास थी. दिल में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. वह कहना चाहती थी, विहान तुम्हारी शादी पूजा दी से होने वाली है, ये क्या तमाशा है. पर नहीं कह सकी, चुपचाप बैठी रही.

‘‘पूछोगी नहीं, कौन है?’’ विहान ने कहा.

‘‘पूछ कर क्या करना है? मिल ही लूंगी कुछ देर में,‘‘ मिशी ने धीरे से कहा.
थोड़ी देर बाद वे समुद्र किनारे पहंुचे. विहान ने मिशी को एक जगह इंतजार करने को कहा, ‘‘ तुम यहां रुको, मैं उस को ले कर आता हूं.‘‘

आसमान झिलमिलाते तारों की सुंदर बूटियों से सजा था. समुद्र की लहरें प्रकृति का मनभावन संगीत फिजाओं में घोल रही थीं. हवा मंथर गति से बह रही थी, फिर भी मिशिका का मन उदासी के भंवर में फंसा जा रहा था.

‘‘विहान मुझ से दूर हो जाएगा, मेरा विहान,‘‘ सोचतेसोचते उस की उंगलियां खुद बा खुद रेत पर विहान का नाम उकेरने लगीं.

‘‘विहान… मेरा नाम इस से पहले इतना अच्छा कभी नहीं लगा,‘‘ विहान पीछे से खड़ेखड़े ही बोला.

मिशी ने हड़बड़ाहट में नाम पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कहां…. है, कब आए तुम… कहां है वह?‘‘

 

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