चालान : लहना सिंह पर क्यों गिरी गाज

‘‘आजकल काम मंदा चल रहा है. 2-4 दिन ठहर कर आना,’’ लहना सिंह ने सादा वरदी में महीना लेने आए ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही से कहा.

‘‘यह नहीं हो सकता. थानेदार साहब ने बोला है कि पैसे ले कर ही आना. आज बड़े साहब के यहां पार्टी है,’’ सिपाही ने कोल्डड्रिंक की बोतल खाली कर उसे थमाते हुए कहा.

‘‘अरे भाई, 4 दिन से गाड़ी खाली खड़ी है. जेब बिलकुल खाली है,’’ लहना सिंह ने मजबूरी जताई.

‘‘जब थानेदार साहब यहां आएं, तब उन से यह सब कहना. कैसे भी हो, मु झे तो 3 सौ रुपए थमाओ. मु झे औरों से महीना भी इकट्ठा करना है,’’ सिपाही पुलिसिया रोब के साथ बोला.

लहना सिंह ने जेब में हाथ डाला. महज 60-70 रुपए थे. अब वह बाकी रकम कहां से पूरी करे? वह उठा और अड्डे पर मौजूद दूसरे साथियों से खुसुरफुसुर की.

किसी ने 20 रुपए, किसी ने 50 रुपए, तो किसी ने सौ रुपए थमा दिए.

लहना सिंह सिपाही के पास पहुंचा और गिन कर उसे ‘महीने’ के 3 सौ रुपए थमा दिए.

सिपाही रुपए ले कर चलता बना.

लहना सिंह भाड़े का छोटा ट्रक चलाता था. पहले वह एक ट्रक मालिक के यहां ड्राइवर था, जिस के कई ट्रक थे. फिर उस ने अपने मालिक से ही यह छोटा ट्रक कबाड़ी के दाम पर खरीद लिया था.

लहना सिंह ने कुछ हजार रुपए ऊपर खर्च कर के ट्रक को काम करने लायक बना लिया था.

ट्रक काफी पुराना था. उस के सारे कागजात पुराने थे. कई साल से उस का रोड टैक्स नहीं भरा गया था.

ऐसे ट्रक को बेचने वाला मालिक काफी तेजतर्रार था. उस ने पुलिस से ‘महीना’ बांधा हुआ था. अब यही ‘महीना’ लहना सिंह को देना पड़ता था.

पिछले कई दिनों से लगातार बारिश हो रही थी. जहांतहां कीचड़ और पानी भरा था. धंधा काफी मंदा था. उसे कभी काम मिल जाता था, कभी कई तक दिन खाली बैठना पड़ता था. पहले लहना सिंह खुद दूसरों का ट्रक चलाता रहा था, लेकिन अब मालिक बन कर अड्डे के तख्त पर दूसरे ट्रक मालिकों के साथ वह ताश खेलता था.

आज घर राशन ले जाना था. बीमार मां और पत्नी को भी अस्पताल दवा लेने जाना था. खर्च बहुत थे, मगर कमाई नहीं हुई थी.

तभी लाला मिट्ठल लाल अड्डे पर आ गया.

‘‘आओ लालाजी,’’ लहना सिंह ने बडे़ प्यार से कहा.

‘‘अरे लहना सिंह, किस की गाड़ी का नंबर है?’’

‘‘अपना है जी. कहां जाना है?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘चलेंगे जी. क्या माल है?’’

‘‘अनाज की बोरियां हैं. तकरीबन 20 क्विंटल माल है.’’

‘‘कोई बात नहीं जी. ले जाएंगे.’’

‘‘गाड़ी ठीक है न?’’

‘‘अरे लालाजी, आप ने कई बार बरत रखी है. क्या कभी आप का काम रुका है?’’

‘‘कितना भाड़ा लोगे?’’

‘‘2 हजार रुपए.’’

‘‘बहुत ज्यादा है.’’

‘‘नहीं लालाजी, आज के महंगाई के जमाने में ज्यादा नहीं है.’’

‘‘5 सौ रुपए दूंगा.’’

‘‘नहीं जी, आप 2 सौ रुपए कम

कर लो.’’

‘‘चलो, 17 सौ दे देंगे.’’

‘‘ठीक है जी. आप मालिक हो. कब गाड़ी लगाऊं?’’

‘‘अभी ले चलो. मेरा गोदाम तो देखा हुआ है तुम ने.’’

‘‘लालाजी 5 सौ रुपए पेशगी दे दो. डीजल डलवाना है.’’

लालाजी ने 5 सौ रुपए दे दिए.

लालाजी के साथसाथ लहना सिंह, ड्राइवर और क्लीनर चारों ट्रक में सवार हो गए.

पैट्रोल पंप रास्ते में ही था. 4 सौ रुपए का डीजल डलवा कर सौ रुपए ड्राइवर को रास्ते के खर्च के लिए थमा कर लहना सिंह अड्डे पर लौट आया.

लालाजी ने गोदाम से 50-50 किलो वाले 40 कट्टे ट्रक में रखवा दिए. ट्रक जमालपुर की तरफ चल पड़ा.

जमालपुर जाने के लिए 2 रास्ते थे. पहला रास्ता थोड़ा लंबा था, मगर कच्चा था. लेकिन इस रास्ते पर चैकिंग न के बराबर होती थी. नंबर दो का काम करने वालों के लिए और लहना सिंह जैसे गाड़ी वालों के लिए जिन के कागजात पूरे नहीं थे, महफूज रास्ता था.

दूसरा रास्ता पक्का था. साफसपाट, सीधा था. मगर इस रास्ते पर ट्रैफिक पुलिस, टैक्स वालों और दूसरे महकमों की चैकिंग बहुत होती रहती थी. ऊपर से यह रास्ता रेलवे लाइन के साथसाथ रेलवे स्टेशन को पार करता आगे बढ़ता था.

यहां पर रेलवे पुलिस का अधिकार क्षेत्र था. किसी भी लिहाज से यह नंबर दो वालों के लिए और बिना पूरे कागजात वाली गाड़ी वालों के लिए महफूज नहीं था.

लालाजी लंबे और महफूज रास्ते से जा रहे थे. ट्रक आगे बढ़ रहा था कि तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगा दिया.

‘‘क्या हुआ?’’  झपकी ले रहे लालाजी ने आंखें खोल कर पूछा.

‘‘आगे सड़क टूटी हुई है जी.’’

लालाजी ने उचक कर देखा. सड़क का एक लंबा हिस्सा टूट कर बिखर गया था. घुटनों तक पानी था. अब क्या करें?

ड्राइवर ने लहना सिंह को मोबाइल से फोन किया और सारी बात बताई.

‘‘लालाजी से पूछ ले कि क्या करना है?’’ लहना सिंह ने कहा.

लालाजी सोच में डूबे थे. उन के पास नंबर दो का माल था. दूसरा रास्ता चैकिंग करने वालों से भरा रहता था. माल पकड़ा जा सकता था.

अभी तक लालाजी को यह पता नहीं था कि लहना सिंह के ट्रक के कागजात पूरे नहीं थे. क्या गाड़ी वापस ले चलें? मगर माल आज ही पहुंचाना था. पार्टी सारा पैसा पेशगी दे गई थी.

‘‘दूसरे रास्ते से ले चलो.’’

‘‘ठीक है जी,’’ कह कर ड्राइवर ने गाड़ी मोड़ ली.

रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले ट्रक रोक कर उस ने क्लीनर को ‘जरा नजर डाल आ’ का इशारा किया.

क्लीनर स्टेशन के पास पहुंचा. चौक सुनसान था. रेलवे स्टेशन खाली था. रेलवे लाइन के साथ लगती सड़क भी खाली थी.

क्लीनर के इशारा करते ही ड्राइवर ने ट्रक स्टार्ट कर आगे बढ़ा दिया.

रेलवे पुलिस की चौकी का इंचार्ज अचानक चौकी से बाहर चला आया.

उसी वक्त ड्राइवर ट्रक को चलाता हुआ चौक पर पहुंचा. ट्रक को देखते ही चौकी इंचार्ज ने रुकने का इशारा किया.

ट्रक रुक गया. पुलिस वाला पास आते हुए बोला, ‘‘ट्रक कहां जा रहा है?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘इधर से क्यों जा रहे हो?’’

‘‘उधर का रास्ता खराब है जी.’’

‘‘गाड़ी में क्या है?’’

‘‘अनाज है जी.’’

‘‘माल का बिल है?’’

‘‘माल मेरा अपना है जी. अपने घर ही ले जा रहा हूं. किसी को बेचा नहीं है, इसलिए बिल किस बात का?’’ लालाजी ने दिलेरी दिखाते हुए कहा.

‘‘गाड़ी के कागजात दिखाओ.’’

इस पर ड्राइवर सकपका गया. उस ने एक कटीफटी कौपी थमा दी.

‘‘यह क्या है?’’

‘‘आरसी है जी.’’

‘‘अबे, यह आरसी है?’’ पुलिस वाले ने कौपी के पन्ने पलटते हुए कहा.

‘‘और कोई कागजात है?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘रोड टैक्स की रसीद? बीमा की रसीद या प्रदूषण की रसीद? कुछ है?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘नीचे उतर.’’

ड्राइवर के साथसाथ लालाजी भी नीचे उतर आए.

‘‘साहबजी, मु झे नहीं पता था कि इस गाड़ी के कागजात पूरे नहीं हैं, वरना मैं माल नहीं लाता,’’ लालाजी ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘हमें माल से कोई मतलब नहीं है. आप अपना माल उतरवा लें. गाड़ी के कागजात नहीं हैं और यह रेलवे पुलिस के इलाके में आ गई है. इसलिए इसे बंद करना पड़ेगा.’’

ड्राइवर ने मोबाइल निकाल कर लहना सिंह को फोन कर दिया.

‘हौसला रख. मैं आ रहा हूं,’ लहना सिंह ने कहा.

तब तक गाड़ी थाने में बंद हो गई.

लहना सिंह की मिन्नतों का कोई असर न हुआ. चालान पर ड्राइवर के बाएं हाथ के अंगूठे की छाप लगवा कर चौकी इंचार्ज ने मुख्य कौपी उसे थमा दी.

‘‘इस चालान का फैसला कौन करेगा साहब?’’ लहना सिंह ने पूछा.

‘‘जिला अदालत में चले जाना. वहां पर मजिस्ट्रेट इस के लिए नियुक्त है, वह जुर्माना लगा कर गाड़ी छोड़ देगा.’’

लहना सिंह जिला अदालत पहुंचा. पता चला कि इन दिनों अदालतें बंद थीं. ड्यूटी मजिस्टे्रट को जुर्माना लगाने का अधिकार नहीं था. गाड़ी कानूनी तौर पर लहना सिंह के नाम नहीं थी, इसलिए सुपुर्दगी के आधार पर भी ट्रक नहीं छूट सकता था. लहना सिंह के पास 3 हफ्ते तक इंतजार करने के सिवा और कोई चारा न था.

3 हफ्ते बाद अदालतें खुलीं. भुक्तभोगियों ने लहना सिंह को बता दिया था कि उस को ज्यादा से ज्यादा 5 हजार रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है.

जेब में 6 हजार रुपए रख लहना सिंह ड्राइवर के साथ अदालत पहुंचा. चालान ड्राइवर के नाम काटा गया था. मजिस्ट्रेट अभी चैंबर में ही बैठे थे. लहना सिंह रीडर के पास पहुंचा. सौ रुपए का एक नोट उस की मुट्ठी में दबा कर फुसफुसाया, ‘‘ठीक है.’’

‘‘मैं 12 बजे आवाज दिलवाऊंगा और साहब को सिफारिश लगा दूंगा,’’ रीडर भी फुसफुसाया.

12 बजे आवाज पड़ी. ड्राइवर के साथ लहना सिंह अंदर पहुंचा. साहब ने उस की तरफ फिर ड्राइवर की तरफ गौर से देखा.

‘‘गाड़ी का मालिक कौन है?’’

‘‘मैं हूं जी,’’ लहना सिंह बोला.

‘‘गाड़ी के कागजात कहां हैं?’’

लहना सिंह ने कटीफटी कौपी सामने रख दी. साहब ने सारे पन्ने देखे, फिर चालान नियमों पर नजर डाली.

ऐसी गाड़ी को तो जब्त कर ‘डिस्सपोज औफ’ कर देना चाहिए, मगर ऐसा अधिकार प्रशासन को था, पर उन्हें नहीं.

चैंबर में बैठे साहब ने ढाई हजार रुपए का जुर्माना लगाने का आदेश दे कर फाइल रीडर को थमा दी. रसीद में जरूरी बातें दर्ज कर लहना सिंह को रसीद वापस थमा दी गई.

साहब ने ‘गाड़ी तुरंत छोड़ दो’ लिख कर रसीद लौटा दी. घूस के कुल 28 सौ रुपए और 3 हफ्ते तक बेरोजगारी  झेल कर लहना सिंह ने गाड़ी छुड़ा ली.

ड्राइवर के साथ उस ने कसम खाई कि रेलवे स्टेशन और किसी भी उस इलाके में जहां ‘महीना’ नहीं बंधा, गाड़ी नहीं ले जाना है.

दो नावों की सवारी : किसको पड़ी भारी

‘‘जब मैं उसे देखता हूं, तो अपने होश खो बैठता हूं. उस के बिना तो मेरा जीना मुश्किल हो गया है,’’ राकेश ने अपने दोस्त अजय से कहा.

अजय ने चेहरे पर हलकी सी मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘यार राकेश, तू तो बड़ा छिपा रुस्तम निकला. तू ने आज तक कभी यह बात नहीं बताई.’’

राकेश बोला, ‘‘प्यार ऐसी चीज है, जिस के बारे में किसी को नहीं बताया जा सकता. तू मेरा बचपन का दोस्त है, इसलिए मैं ने तुझे यह बात बताने की हिम्मत की है.’’

राकेश और अजय एक झोंपड़ी में बैठे हुए ये बातें कर रहे थे, जो राकेश के खेत पर बनी हुई थी. यहीं पर खेतों में सिंचाई करने के लिए एक ट्यूबवैल लगा था.

राकेश ज्यादातर ट्यूबवैल पर ही रहता है. यहीं उस के कुछ दोस्त आ जाते थे, जिन से उस का मन लगा रहता था.

गांव की ज्यादातर औरतें इसी ट्यूबवैल पर पानी भरने आती थीं. क्या करें, उन की भी मजबूरी थी, क्योंकि गांव का पानी खारा था.

गीता भी यहां रोजाना पानी लेने आती थी. राकेश और गीता की प्रेम कहानी इसी ट्यूबवैल से शुरू हुई थी.

राकेश बीए में पढ़ता था. उस के 2 बड़े भाई थे. एक भाई नौकरी करता था और दूसरा भाई खेती संभालता था.

राकेश कालेज से पढ़ कर यहीं  झोंपड़ी में आ जाता था, क्योंकि यहां हरेभरे पेड़ थे और शांत माहौल था.

रोजाना की तरह गीता आज भी पानी भरने आई थी. वह अपना बरतन भरने वाली थी कि बिजली चली गई. वह सोच में पड़ गई कि अब क्या करे.

उधर राकेश पास में ही चारपाई पर बैठा किताबें पढ़ रहा था. अकेली लड़की, आसपास भी कोई नहीं, ऐसे में किसी का भी मन भटक सकता है. ऐसा ही राकेश के साथ भी हुआ. वह गीता को प्यारभरी नजरों से देखने लगा.

राकेश को देख कर गीता के मन में शक पैदा होने लगा और वह घबरा कर इधरउधर देखने लगी.

राकेश गीता से बातें करना चाह रहा था, पर उस की हिम्मत नहीं हो रही थी.

थोड़ी देर बाद राकेश हिम्मत बटोर कर चारपाई से उठा और गीता की तरफ बढ़ा, लेकिन उस के पास पहुंचते ही वह सबकुछ भूल गया.

गीता ने राकेश को देख कर अच्छी तरह पहचान लिया कि वह उस से बात करना चाहता है, पर घबराहट के चलते कुछ कह नहीं पा रहा है.

गीता का डर खत्म हुआ और उस के खूबसूरत चेहरे पर मुसकान आ गई.

गीता की इस मुसकान को देख कर राकेश के दिल में गुदगुदी होने लगी. इसी बीच बिजली आ गई. राकेश ने फौरन मोटर चला दी और गीता पानी भरने लगी.

पानी भर कर गीता गांव की तरफ जाने लगी, तो राकेश उसे तब तक देखता रहा, जब तक वह गांव में नहीं पहुंच गई.

एक दिन राकेश ने ठान लिया कि वह गीता से अपने प्यार का इजहार कर के ही रहेगा. उसी समय गीता रोजाना की तरह पानी भरने आई.

राकेश हिम्मत कर के गीता के पास गया और बोला, ‘‘गीता, मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

गीता बोली, ‘‘क्या?’’

राकेश बोला, ‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगी?’’

गीता ने कहा, ‘‘बुरा क्यों मानूंगी?’’

राकेश हिम्मत कर के धीरे से बोला, ‘‘गीता, मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. तुम मुझे अच्छी लगने लगी हो.’’

यह सुन कर गीता का चेहरा सुर्ख पड़ गया. यह देख राकेश डर गया.

गीता बिना कुछ बोले पानी का बरतन ले कर चली गई. रास्ते में वह राकेश के बारे में सोचती जा रही थी और बीचबीच में उस के चेहरे पर हलकी मुसकराहट भी आ जाती थी.

इस के बाद राकेश और गीता के बीच रोजाना बातें होती रहीं और दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा.

अजय को पता चला कि राकेश जिस लड़की से प्यार करता है, वह तो उसी की महबूबा है, तो वह उस से जलने लगा.

अजय का गीता से एक साल से इश्क का चक्कर चल रहा था. गीता भी अजय को प्यार करती थी, लेकिन राकेश को इस बारे में कुछ पता नहीं था.

गीता का खिंचाव अजय से हट कर राकेश की तरफ बढ़ने लगा, यह बात अजय को अच्छी नहीं लग रही थी.

एक दिन अजय ने गीता से पूछा, ‘‘तू राकेश से बात क्यों करती है?’’

गीता ने जवाब दिया, ‘‘तुझे क्या मतलब है? मैं किसी से भी बात करूं, मेरी मरजी.’’

यह सुन कर अजय के अंदर मानो ज्वालामुखी फट पड़ा था. वह मन ही मन राकेश से नफरत करने लगा. उस ने सोच लिया, ‘अगर गीता मेरी नहीं हुई, तो मैं किसी की भी नहीं होने दूंगा.’

अजय ने भोला से बात की. भोला एक नंबर का ऐयाश था. उस की कमजोरी लड़की औैर शराब थी.

‘‘भोला, अगर आज तेरी मदद मिले, तो तु  झे हुस्न और शराब दोनों मिल सकते हैं.’’

यह सुन कर भोला पागल भेडि़ए की तरह फड़फड़ाने लगा और बोला, ‘‘जल्दी बोल यार, क्या करना है?’’

अजय ने जैसे ही शराब की बोतल निकाली, भोला के मुंह में पानी आ गया.

अजय बोला, ‘‘आज जितनी पीना चाहे उतनी पी लेना, लेकिन अभी नहीं. काम हो जाने के बाद.’’

भोला अजय के साथ राकेश के ट्यूबवैल पर आ गया.

राकेश वहां चारपाई पर बैठ कर पढ़ाई कर रहा था. अजय और भोला उस के पास आ कर बैठ गए.

राकेश कुछ कहने वाला था कि अजय ने राकेश के गले में रस्सी डाली और उसे खींचने लगा. राकेश ने थोड़ी देर हाथपैर मारे, फिर शांत हो गया.

दोनों ने उसे झोंपड़ी में डाल दिया और झोंपड़ी के पीछे छिप गए. वहां दोनों ने खूब शराब पी.

थोड़ी देर बाद गीता पानी भरने आई. जब राकेश दिखाई नहीं दिया, तो वह   झोंपड़ी के अंदर चली गई. उस ने जैसे ही राकेश की लाश को देखा, तो वह डर के मारे कांपने लगी.

वह कुछ सोचती, उस से पहले ही अजय और भोला ने उसे दबोच लिया.

अजय गीता से बोला, ‘‘आज तेरी वजह से मेरे दोस्त की जान गई है. पहले तू ने मु  झ से प्यार किया और फिर राकेश से. तु  झे यह नहीं पता कि मेरे दिल पर क्या बीत रही थी.

‘‘तुम लड़कियों में यही कमी है. पहले प्यार का ढोंग करती हो, फिर किनारा कर जाती हो. आज तु  झे इस की सजा जरूर मिलेगी.’’

यह कह कर उन दोनों ने गीता को पकड़ लिया और बारीबारी से मुंह काला करने के बाद उसे जाने दिया.

बेचारी गीता अपने दुपट्टे को मुंह में दबाए रोती हुई गांव की तरफ चल दी. साथ ही, वह अपनेआप को कोसती जा रही थी कि आज अगर वह दोतरफा प्यार नहीं करती, तो शायद राकेश की जान और उस की इज्जत नहीं जाती.

उलझन: रश्मि का कड़वा सच

आश्चर्य में डूबी रश्मि मुझे ढूंढ़ती हुई रसोईघर में पहुंची तो उस की नाक ने उसे एक और आश्चर्य में डुबो दिया, ‘‘अरे वाह, कचौरियां, बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. किस के लिए बना रही हो, मां?’’

‘‘तेरे पिताजी के दोस्त आ रहे हैं आज,’’ उड़ती हुई दृष्टि उस के थके, कुम्हलाए चेहरे पर डाल मैं फिर चकले पर झुक गई.

‘‘कौन से दोस्त?’’ हाथ की किताबें बरतनों की अलमारी पर रखते हुए उस ने पूछा.

‘‘कोई पुराने साथी हैं कालिज के. मुंबई में रहते हैं आजकल.’’

जितनी उत्सुकता से उस के प्रश्न आ रहे थे, मैं उतनी ही सहजता से और संक्षेप में उत्तर दिए जा रही थी. डर रही थी, झूठ बोलते कहीं पकड़ी न जाऊं.

गरमागरम कचौरी का टुकड़ा तोड़ कर मुंह में ठूंसते हुए उस ने एक और तीर छोड़ा, ‘‘इतनी बढि़या कचौरियां आप ने हमारे लिए तो कभी नहीं बनाईं.’’

उस का फूला हुआ मुंह और उस के साथ उलाहना. मैं हंस दी, ‘‘लगता है, तेरे कालिज की कैंटीन में आज तेरे लिए कुछ नहीं बचा. तभी कचौरियों में ज्यादा स्वाद आ रहा है. वरना वही हाथ हैं और वही कचौरियां.’’

‘‘अच्छा, तो पिताजी के यह दोस्त कितने दिन ठहरेंगे हमारे यहां?’’ उस ने दूसरी कचौरी तोड़ कर मुंह में ठूंस ली थी.

‘‘ठहरे तो वह रमाशंकरजी के यहां हैं. उन से रिश्तेदारी है कुछ. तुम्हारे पिताजी ने तो उन्हें आज चाय पर बुलाया है. तू हाथ तो धो ले, फिर आराम से प्लेट में ले कर खाना. जरा सब्जी में भी नमक चख ले.’’

उस ने हाथ धो कर झरना मेरे हाथ से ले लिया, ‘‘वह सब चखनावखना बाद में होगा. पहले आप बेलबेल कर देती जाइए, मैं तलती जाती हूं. आशु नहीं आया अभी तक स्कूल से?’’

‘‘अभी से कैसे आ जाएगा? कोई तेरा कालिज है क्या, जो जब मन किया कक्षा छोड़ कर भाग आए? छुट्टी होगी, बस चलेगी, तभी तो आएगा.’’

‘‘तो हम क्या करें? अर्थशास्त्र के अध्यापक पढ़ाते ही नहीं कुछ. जब खुद ही पढ़ना है तो घर में बैठ कर क्यों न पढ़ें. कक्षा में क्यों मक्खियां मारें?’’ उस ने अकसर कक्षा छोड़ कर आने की सफाई पेश कर दी.

4 हाथ लगते ही मिनटों में फूलीफूली कचौरियों से परात भर गई थी. दहीबड़े पहले ही बन चुके थे. मिठाई इन से दफ्तर से आते वक्त लाने को कह दिया था.

‘‘अच्छा, ऐसा कर रश्मि, 2-4 और बची हैं न, मैं उतार देती हूं. तू हाथमुंह धो कर जरा आराम कर ले. फिर तैयार हो कर जरा बैठक ठीक कर ले. मुझे वे फूलवूल सजाने नहीं आते तेरी तरह. समझी? तब तक तेरे पिताजी और आशु भी आ जाएंगे.’’

‘‘अरे, सब ठीक है मां. मैं पहले ही देख आई हूं. एकदम ठीक है आप की सजावट. और फिर पिताजी के दोस्त ही तो आ रहे हैं, कोई समधी थोड़े ही हैं जो इतनी परेशान हो रही हो,’’ लापरवाही से मुझे आश्वस्त कर वह अपनी किताबें उठा कर रसोई से निकल गई. दूर से गुनगुनाने की आवाज आ रही थी, ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यों ही जीवन में…’

मैं अवाक् रह गई. अनजाने में वह कितना बड़ा सत्य कह गई थी, वह नहीं जानती थी. सचमुच इन के कोई दोस्त नहीं वरन दफ्तर के साथी रमाशंकर की बहन और बहनोई आ रहे थे रश्मि को देखने.

लेकिन बेटे वालों के जितने नाजनखरे होते हैं, उस के हिसाब से कितनी बार यह नाटक दोहराना पड़ेगा, कौन जानता है. और लाड़दुलार में पली, पढ़ीलिखी लड़कियों का मन हर इनकार के साथ विद्रोह की जिस आग से भड़क उठता है, मैं नहीं चाहती थी, मेरी सीधीसादी सांवली सी बिटिया उस आग में झुलस कर अभी से किसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाए.

इसी वजह से वह जितनी सहज थी, मैं उतनी ही घबरा रही थी. कहीं उसे संदेह हो गया तो…

भारतीय परंपरा के अनुरूप हमारे माननीय अतिथि पूरे डेढ़ घंटे देर से आए. प्रतीक्षा से ऊबे रश्मि और आशु अपने पिता पर अपनी खीज निकाल रहे थे, ‘‘रमाशंकर चाचाजी ने जरूर आप का अप्रैल फूल बनाया है. आप हैं भी तो भोले बाबा, कोई भी आप को आसानी से बुद्धू बना लेता है.’’

‘‘नहीं, बेटा, रमाशंकरजी अकेले होते तो ऐसा संभव था, क्योंकि वह अकसर ऐसी हरकतें किया करते हैं. पर उन के साथ जो मेहमान आ रहे हैं न, वे ऐसा नहीं करेंगे. नए शहर में पहली बार आए हैं इसलिए घूमनेघामने में देर हो गई होगी. पर वे आएंगे जरूर…’’

‘‘मान लीजिए, पिताजी, वे लोग न आए तो इतनी सारी खानेपीने की चीजों का क्या होगा?’’ रश्मि को मिठाई और मेहनत से बनाई कचौरियों की चिंता सता रही थी.

‘‘अरे बेटा, होना क्या है. इसी बहाने हमतुम बैठ कर खाएंगे और रमाशंकरजी और अपने दोस्त को दुआ देंगे.’’

बच्चों को आश्वस्त कर इन्होंने खिड़की का परदा सरका कर बाहर झांका तो एकदम हड़बड़ा गए.

‘‘अरे, रमाशंकरजी की गाड़ी तो खड़ी है बाहर. लगता है, आ गए हैं वे लोग.’’

‘‘माफ कीजिए, राजकिशोरजी, आप लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिस के लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं,’’ क्षमायाचना के साथसाथ रमाशंकरजी ने घर में प्रवेश किया, ‘‘पर यह औरतों का मामला जहां होता है, आप तो जानते ही हैं, हमें इंडियन स्टैंडर्ड टाइम पर उतरना पड़ता है.’’

वह अपनी बहन की ओर कनखियों से देख मुसकरा रहे थे, ‘‘हां, तो मिलिए मेरी बहन नलिनीजी और इन के पति नरेशजी से, और यह इन के सुपुत्र अनुपम तथा अनुराग. और नलिनी बहन, यह हैं राजकिशोरजी और इन का हम 2, हमारे 2 वाला छोटा सा परिवार, रश्मि बिटिया और इन के युवराज आशीष.’’

‘‘रमाशंकरजी, हमारे बच्चों को यह गलतफहमी होने लगी थी कि कहीं आप भूल तो नहीं गए आज का कार्यक्रम,’’ सब को बिठा कर यह बैठते हुए बोले.

रमाशंकरजी ने गोलगोल आंख मटकाते हुए आशु की तरफ देखा, ‘‘वाह, मेरे प्यारे बच्चो, ऐसी शानदार पार्टी भी कोई भूलने की चीज होती है भला? अरे, आशु बेटा, दरवाजा बंद कर लो. कहीं ऐसा न हो कि इतनी अच्छी महक से बहक कर कोई राह चलता अपना घर भूल इधर ही घुस आए,’’ अपने चिरपरिचित हास्यमिश्रित अभिनय के साथ जिस नाटकीय अदा से रमाशंकरजी ने ये शब्द कहे उस से पूरा कमरा ठहाकों से गूंज गया.

प्रतीक्षा से बोझिल वातावरण एकाएक हलका हो गया था. बातचीत आरंभ हुई तो इतनी सहज और अनौपचारिक ढंग से कि देखतेदेखते अपरिचय और दूरियों की दीवारें ढह गईं. रमाशंकरजी का परिवार जितना सभ्य और सुशिक्षित था, उन के बहनबहनोई का परिवार उतना ही सुसंस्कृत और शालीन लगा.

चाय पी कर नलिनीजी ने पास रखी अटैची खोल कर सामान मेज पर सजा दिया. मिठाई के डब्बे, साड़ी का पैकेट, सिंदूर रखने की छोटी सी चांदी की डिबिया. फिर रश्मि को बुला कर अपने पास बिठा कर उस के हाथों में चमचमाती लाल चूडि़यां पहनाते हुए बोलीं, ‘‘यही सब खरीदने में देर हो गई. हमारे नरेशजी का क्या है, यह तो सिर्फ बातें बनाना जानते हैं. पर हम लोगों को तो सब सोचसमझ कर चलना पड़ता है न? पहलीपहली बार अपनी बहू को देखने आ रही थी तो क्या खाली हाथ झुलाती हुई चली आती?’’

‘‘बहू,’’ मैं ने सहसा चौंक कर खाने के कमरे से झांका तो देखती ही रह गई. रश्मि के गले में सोने की चेन पहनाते हुए वह कह रही थीं, ‘‘लो, बेटी, यह साड़ी पहन कर आओ तो देखें, तुम पर कैसी लगती है. तुम्हारे ससुरजी की पसंद है.’’

रश्मि के हाथों में झिलमिलाती हुई चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी, गले में सोने की चेन…यह सब क्या हो रहा है? हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा सिनेमा का कोई अवास्तविक दृश्य. घोर अचरज में डूबी रश्मि भी अलग परेशान लग रही थी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसे कोई देखने आ रहा है.

हाथ की प्लेटें जहां की तहां धर मैं सामने आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्षमा कीजिए, नलिनीजी, हमें भाईसाहब ने इतना ही कहा था कि आप लोग रश्मि को देखने आएंगे, पर आप का निर्णय क्या होगा, उस का तो जरा सा भी आभास नहीं था, सो हम ने कोई तैयारी भी नहीं की.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, सरला बहन? बेटी तो आप की है ही, अब हम ने बेटा भी आप को दे दिया. जी भर के खातिर कर लीजिएगा शादी के मौके पर,’’ उन का चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था, ‘‘अरे, आ गई रश्मि बिटिया. लो, रमाशंकर, देख लो साड़ी पहन कर कैसी लगती है तुम्हारी बहूरानी.’’

‘‘हम क्या बताएंगे, दीदी, आप और जीजाजी बताइए, हमारी पसंद कैसी लगी आप को? हम ने हीरा छांट कर रख दिया है आप के सामने. अरे भई, अनुपम, ऐसे गुमसुम से क्यों बैठे हो तुम? वह जेब में अंगूठी क्या वापस ले जाने के इरादे से लाए हो?’’ रमाशंकरजी चहके तो अनुपम झेंप गया.

‘‘हमारी अंगूठी के अनुपात से काफी दुबलीपतली है यह. खैर, कोई बात नहीं. अपने घर आएगी तो अपने जैसा बना लेंगे हम इसे भी,’’ नलिनीजी हंस दीं.

पर मैं अपना आश्चर्य और अविश्वास अब भी नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, ‘‘वो…वो…नलिनीजी, ऐसा है कि आजकल लड़के वाले बीसियों लड़कियां देखते हैं…और इनकार कर देते हैं…और आप…?

‘‘हां, सरला बहन, बड़े दुख की बात है कि संसार में सब से महान संस्कृति और सभ्यता का दंभ भरने वाला हमारा देश आज बहुत नीचे गिर गया है. लोग बातें बहुत बड़ीबड़ी करते हैं, आदर्श ऊंचेऊंचे बघारते हैं, पर आचरण ठीक उस के विपरीत करते हैं.

‘‘लेकिन हमारे घर में यह सब किसी को पसंद नहीं. लड़का हो या लड़की, अपने बच्चे सब को एक समान प्यारे होते हैं. किसी का अपमान अथवा तिरस्कार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है. हमारे अनुपम ने पहले ही कह दिया था, ‘मां, जो कुछ मालूम करना हो पहले ही कर लेना. लड़की के घर जा कर मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकूंगा.’

‘‘इसलिए हम रमाशंकर और भाभी से सब पूछताछ कर के ही मुंबई से आए थे कि एक बार में ही सब औपचारिकताएं पूरी कर जाएंगे और हमारी भाभी ने रश्मि बिटिया की इतनी तारीफ की थी कि हम ने और लड़की वालों के समस्त आग्रह और निमंत्रण अस्वीकार कर दिए. घरघर जा कर लड़कियों की नुमाइश करना कितना अपमानजनक लगता है, छि:.’’

उन्होंने रश्मि को स्नेह से निहार कर हौले से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘बेटी का बहुत चाव था हमें, सो मिल गई. अब तुम्हें 2-2 मांओं को संभालना पड़ेगा एकसाथ. समझी बिटिया रानी?’’ हर्षातिरेक से वह खिलीखिली जा रही थीं.

‘‘अच्छा, बहनजी, अब आप का उठने का विचार है या अपनी लाड़ली बहूरानी को साथ ले कर जाने का ही प्रण कर के आई  हैं?’’ रमाशंकरजी अपनी चुटकियां लेने की आदत छोड़ने वाले नहीं थे, ‘‘बहुत निहार लिया अपनी बहूरानी को, अब उस बेचारी को आराम करने दीजिए. क्यों, रश्मि बिटिया, आज तुम्हारी जबान को क्या हो गया है? जब से आए हैं, तुम गूंगी बनी बैठी हो. तुम भी तो कुछ बोलो, हमारे अनुपम बाबू कैसे लगे तुम्हें? कौन से हीरो की झलक पड़ती है इन में?’’

रश्मि की आंखें उन के चेहरे तक जा कर नीचे झुक गईं तो वह हंस पड़े, ‘‘भई, आज तो तुम बिलकुल लाजवंती बन गई हो. चलो, फिर किसी दिन आ कर पूछ लेंगे.’’

तभी इन्होंने एक लिफाफा नरेशजी के हाथों में थमा दिया, ‘‘इस समय तो बस, यही सेवा कर सकते हैं आप की. पहले से मालूम होता तो कम से कम अनुपमजी के लिए एक अंगूठी और सूट का प्रबंध तो कर ही लेते. जरा सा शगुन है बस, ना मत कीजिएगा.’’

हम लोग बेहद संकोच में घिर आए थे. अतिथियों को विदा कर के आए तो लग रहा था जैसे कोई सुंदर सा सपना देख कर जागे हैं. चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की वादियां हैं, ठंडे पानी के झरझर झरते झरने हैं और बीच में बैठे हैं हम और हमारी रश्मि. सचमुच कितना सुखी जीवन है हमारा, जो घरबैठे लड़का आ गया था. वह भी इंजीनियर. भलाभला सा, प्यारा सा परिवार. कहते हैं, लड़की वालों को लड़का ढूंढ़ने में वर्षों लग जाते हैं. तरहतरह के अपमान के घूंट गले के भीतर उड़ेलने पड़ते हैं, तब कहीं वे कन्यादान कर पाते हैं.

क्या ऐसे भले और नेक लोग भी हैं आज के युग में?

नलिनीजी के परिवार ने लड़के वालों के प्रति हमारी तमाम मान्यताओं को उखाड़ कर उस की जगह एक नन्हा सा, प्यारा सा पौधा रोप दिया था, मानवता में विश्वास और आस्था का. और उस नन्हे से झूमतेलहराते पौधे को देखते हुए हम अभिभूत से बैठे थे.

‘‘अच्छा, जीजी, चुपकेचुपके रश्मि बिटिया की सगाई कर डाली और शहर के शहर में रहते भी हमें हवा तक नहीं लगने दी?’’ देवरानी ने घुसते ही बधाई की जगह बड़ीबड़ी आंखें मटकाते हुए तीर छोड़ा.

‘‘अरे मंजु, क्या बताएं, खुद हमें ही विश्वास नहीं हो रहा है कि कैसे रश्मि की सगाई हो गई. लग रहा है, जैसे सपना देख कर जागे हैं. उन लोगों ने देखने आने की खबर दी थी, पर आए तो पूरी सगाई की तैयारी के साथ. और हम लोग तो समझो, पानीपानी हो गए एकदम. लड़के के लिए न अंगूठी, न सूट, न शगुन का मिठाईमेवा. यह देखो, तुम्हारी बिटिया के लिए कितना सुंदर सेट और साड़ी दे गए हैं.’’

मंजु ने सामान देखा, परखा और लापरवाही से एक तरफ धर कर, फिर जैसे मैदान में उतर आई, ‘‘अरे, अब हमें मत बनाइए, जीजी. इतनी उमर हो गई शादीब्याह देखतेदेखते, आज तक ऐसा न देखा न सुना. परिवार में इतना बड़ा कारज हो जाए और सगे चाचाचाची के कान में भनक भी न पड़े.’’

‘‘मंजु, इस में बुरा मानने की क्या बात है. ये लोग बड़े हैं. जैसा ठीक समझा, किया. उन की बेटी है. हो सकता है, भैयाभाभी को डर हो, कहीं हम लोग आ कर रंग में भंग न डाल दें. इसलिए…’’

‘‘मुकुल भैया, आप भी…हम पर इतना अविश्वास? भला शुभ कार्य में अपनों से दुरावछिपाव क्यों करते?’’ छोटे भाई जैसे देवर मुकुल से मुझे ऐसी आशा नहीं थी.

‘‘अच्छा, रानीजी, जो हो गया सो तो हो गया. अब ब्याह भी चुपके से न कर डालना. पहलीपहली भतीजी का ब्याह है. सगी बूआ को न भुला देना,’’ शीला जीजी दरवाजे की चौखट पर खड़ेखड़े तानों की बौछार कर रही थीं.

‘‘हद करती हैं आप, जीजी. क्या मैं अकेले हाथों लड़की को विदा कर सकती हूं? क्या ऐसा संभव है?’’

‘‘संभवअसंभव तो मैं जानती नहीं, बीबी रानी, पर इतना जरूर जानती हूं कि जब आधा कार्य चुपचाप कर डाला तो लड़की विदा करने में क्या धरा है. अरे, मैं पूछती हूं, रज्जू से तुम ने आज फोन करवाया. कल ही करवा देतीं तो क्या घिस जाता? पर तुम्हारे मन में तो खोट था न. दुरावछिपाव अपनों से.’’

शीला जीजी हाथ का झोला सोफे पर पटक कर स्वयं भी पसर गईं, ‘‘उफ, इन बसों का सफर तो जान सोख लेता है. पर क्या किया जाए, सुन कर बैठा भी तो नहीं गया. जैसे ही यह दफ्तर से आए, सीधे बस पकड़ कर चले आए. अपनों की मायाममता होती ही ऐसी है. भाई का जरा सा सुखदुख सुनते ही छटपटाहट सी होने लगती है. पर तुम पराए घर की लड़की, क्या जानो, हमारा भाईबहन का संबंध कितना अटूट है.’’

शीला जीजी के शब्द कांटों की तरह कलेजे को आरपार चीरे डाल रहे थे.

‘‘ला तो रश्मि, जरा दिखा तो तेरे ससुराल वालों ने क्या पहनाया तुझे? सुना है बड़े अच्छे लोग हैं…बड़े भले हैं…रज्जू ने फोन पर बताया. दूर के ढोल ऐसे ही सुहावने लगते हैं. अपने सगे तो तुम्हारे दुश्मन हैं.’’

‘‘अच्छा, मामीजी, जल्दी से पैसे निकालिए, बहन की सगाई हुई है. कम से कम मुंह तो मीठा करवा दीजिए सब का,’’ शीला जीजी के बेटे ने जैसे मुसीबतों के पहाड़ तले से खींच कर उबार लिया मुझे.

‘‘हां…हां, अरुण, एक मिनट ठहरो, मैं रुपए लाती हूं,’’ कहती हुई मैं वहां से उठ गई.

देखतेदेखते अरुण रुपयों के साथ इन का स्कूटर भी ले कर उड़ गया. लौटा तो मिठाई, नमकीन मेज पर रखते हुए बोला, ‘‘मामीजी, मिठाई वाले का उधार कर आया हूं. पैसे कम पड़ गए. आप बाद में आशु से भिजवा दीजिएगा 30 रुपए. पता लिखवा आया हूं यहां का.’’

मैं सकते में खड़ी थी. 50 का नोट भी कम पड़ गया था. कैसे? पर जब मेज पर नजर पड़ी तो कारण समझ में आ गया. एक से एक बढि़या मिठाइयां मेज पर बिखरी पड़ी थीं और शीला जीजी और मुकुल भैया अपने बच्चों सहित बड़े प्रेम से मुंह मीठा कर रहे थे. लड़की की सगाई जो हुई थी हमारी.

‘‘अच्छा, तो अकेलेअकेले बिटिया रानी की सगाई की मिठाई उड़ाई जा रही है,’’ दरवाजे पर मेरे मझले मामामामी अपने बेटेबहुओं के साथ खड़े थे, ‘‘क्यों, सरला, तेरा नाम जरूर सरला है, पर निकली तू विरला. क्यों री, तेरे एक ही तो मामा बचे हैं लेदे के और उन्हें भी तू ने समधियों से मिलवाना जरूरी नहीं समझा? अरे बेटा, हम लोग बुजुर्ग हैं, तजरबेकार हैं, शुभ काम में अच्छी ही सलाह देते. याद है, तेरे ब्याह पर मैं ने ही तुझे गोद में उठा कर मंडप में बिठाया था?’’

उफ्, किस मुसीबत में फंस गए थे हम लोग. छोटाबड़ा कोई भी हम पर विश्वास करने को तैयार नहीं था. नाहक ही सब को फोन कर के दफ्तर से खबर करवाई. कल की खुशी की मिठाई मुंह में कड़वी सी हो गई थी.

‘‘मामाजी, बात यह हुई कि हमें खुद ही पता नहीं था. वे लोग रश्मि को देखने आए थे…’’ खीजा, झुंझलाया स्वर स्वयं मुझे अपने ही कानों में अटपटा लग रहा था.

पर मामाजी ने मेरी बात बीच में ही काट दी, ‘‘अरे, हां…हां, ये सब बहाने तो हम लोग काफी देर से सुन रहे हैं. पर बेटा, बड़ों की सलाह लिए बिना तुम्हें ‘हां’ नहीं कहनी चाहिए थी. खैर, अब जो हो गया सो हो गया. अच्छाबुरा जैसा भी होगा, सब की जिम्मेदारी तुम्हीं पर होगी.

‘‘पर आश्चर्य तो इस बात का है कि राजकिशोरजी ने भी हम से दुराव रखा. आज की जगह कल फोन कर लेते तो हम समधियों से बातचीत कर लेते, उन्हें जांचपरख लेते. खैर, तुम लोग जानो, तुम्हारा काम. हम तो सिर्फ अपना फर्ज निभाते आए हैं.

‘‘पुराने लोग हैं, उसूलों पर चलने वाले. तुम लोग ठहरे नए जमाने के आधुनिक विचारों वाले. चाहो तो शादी की सूचना का कार्ड भिजवा देना, चले आएंगे. न चाहो तो कोई बात नहीं. कोई गिला- शिकवा करने नहीं आएंगे उस के लिए.’’

समझ में नहीं आ रहा था, यह क्या हो रहा है. सिर भन्ना गया था. बेटी की शादी की बधाई तथा उस के सुखमय भविष्य के लिए आशीषों की वर्षा की जगह हम पर झूठ, धोखेबाजी, दुरावछिपाव और न जाने किनकिन मिथ्या आरोपों की बौछार हो रही थी और हम इन आरोपों की बौछार तले सिर झुकाए बैठे थे…आहत, मर्माहत, निपट अकेले, निरुपाय.

सब को विदा करतेकराते रात के साढ़े 9 बज गए थे. मन के साथ तन भी एक अव्यक्त सी थकान से टूटाटूटा सा हो आया था. घर में मनहूस सी शांति पसरी पड़ी थी. मौन इन्होंने ही तोड़ा, ‘‘लगता है, रश्मि की सगाई की खबर सुन कर कोई खुश नहीं हुआ. अपनी सगी बहन…अपना भाई…’’ धीरगंभीर व्यथित स्वर.

घंटों से उमड़ताघुमड़ता अपमान और दुख आंखों की राह बह निकला.

‘‘ओफ्फोह, मां, आप भी बस, रोने से क्या वे खुश हो जाएंगे? सब के सब कुढ़ रहे थे कि दीदी का ब्याह इतनी आसानी से और इतने अच्छे घर में क्यों तय हो गया. बस, यही कुढ़न हमारे ऊपर उलटेसीधे तानों के रूप में उड़ेल गए. उंह, यह भी कोई बात हुई,’’ कुछ ही घंटों में आशु भावनाओं की काफी झलक पा गया था.

‘‘छि: बेटा, ऐसे नहीं कहते. वे हमारे बड़े हैं…अपने हैं…उन के लिए ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए.’’

‘‘उंह, बड़े आए अपने. 80 रुपए की मिठाइयां खा गए, ऊपर से न जाने क्या- क्या कह गए. ऐसे ही नाराज थे तो मिठाई क्यों खाई? क्यों मुंह मीठा किया? प्लेटों पर तो ऐसे टूट रहे थे जैसे मिठाई कभी देखी ही न हो. इतना गुस्सा आ रहा था कि बस, पर आप के डर से चुप रह गया कि बोलते ही सब के सामने मुझे डांट देंगी.’’

16 वर्षीय आशु भी अपना आक्रोश मुझ पर निकाल रहा था, ‘‘सब से अच्छा यही है कि दीदी की शादी में किसी को न बुलाया जाए. चुपचाप कोर्ट में जा कर शादी कर ली जाए.’’

मैं गुमसुम सी खड़ी थी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या खून के रिश्ते इतनी आसानी से झुठलाए जा सकते हैं?

शायद नहीं…तो फिर?

आशु के तमतमाए चेहरे पर एक दृष्टि डाल, मैं मेज पर फैली बिखरी प्लेटें समेटने लगी. कैसे हैं ये मन के बंधन, जो नितांत अनजान और अपरिचितों को एक प्यार भरी सतरंगी डोर से बांध देते हैं तो अपने ही आत्मीयों को पल भर में छिटका कर परे कर देते हैं.

कैसी विडंबना है यह? जो आज की टूटतीबिखरती आस्थाओं और आशाओं को बड़े यत्न से सहेज कर मन में प्रेम और विश्वास का एक नन्हा सा पौधा रोप गए थे. वे कल तक नितांत पराए थे और आज उस नवजात पौधे को जड़मूल से उखाड़ कर अपने पैरोंतले पूरी तरह कुचल कर रौंदने वाले हमारे अपने थे. सभी आत्मीय…

इन में से किसे अपना मानें, किसे पराया, कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा है.

दलदल : रेखा की दास्तां

रेखा और आरती बीए के दूसरे साल में पढ़ रही थीं. दोनों का संबंध साधारण परिवारों से था. अमीर लड़कियों की तरह वे दिल खोल कर पैसे खर्च करने की हालत में नहीं थीं.

‘‘काश, मेरे पापा भी रजनी के पापा की तरह पैसे वाले होते, तो मैं भी खूब ऐश करती,’’ रेखा ने रजनी को कार से उतर कर कैंटीन की तरफ जाते देख कर लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘छोड़ यह सब. पहले तू यह बता कि चाय कौन पिला रहा है, मैं या तू? आरती ने पूछा, ‘‘हम जैसे हैं, वैसे ही भले. हमें रजनी की तरह नहीं बनना.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘पूरा कालेज जानता है कि वह देर तक लड़कों के साथ घूमतीफिरती है, नशा करती है,’’ आरती कैंटीन वाले को चाय लाने का इशारा करते हुए बोली.

चाय पी कर वे दोनों अपनीअपनी स्कूटी पर सवार हो कर अपने घरों की ओर चल दीं.

एक दिन रेखा ने आरती को फोन किया, ‘‘यार, तेरे साथ लंच करने का मन कर रहा है. बिल की चिंता मत करना, मैं पैसे दे दूंगी.’’

‘‘अरे वाह, लंच… वह भी तेरे साथ. मजा आ गया. जल्दी बोल, मुझे तेरे घर कब आना है?’’ आरती ने खुशी से उछलते हुए कहा.

‘‘तू डिलाइट रैस्टोरैंट पहुंच जा. मैं गेट पर तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ रेखा ने जिस रैस्टोरैंट का पता बताया था, वह शहर के सब से महंगे रैस्टोरैंटों में गिना जाता था.

आरती ने दोबारा नाम पूछा, तो रेखा ने जो लोकेशन बताई, यह वही डिलाइट रैस्टोरैंट था.

आरती फटाफट तैयार हुई और डिलाइट रैस्टोरैंट पहुंच गई. रेखा वहीं खड़ी थी. उस ने महंगी जींस और मैचिंग का टौप पहन रखा था. इस ड्रैस में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी.

रेखा ने आरती का हाथ थामा और उसे भीतर ले गई.

आरती पहली बार शहर के सब से अच्छे रैस्टोरैंट के भीतर आई थी.

‘‘बोल, क्या खाएगी?’’ रेखा ने मीनू सामने रखते हुए पूछा.

‘‘बाप रे, यहां तो सब महंगा है. लंच छोड़ आमलेट मंगा ले, मेरे लिए वही काफी है,’’ आरती ने मीनू पर निगाह डालते हुए कहा, तो रेखा हंस दी.

‘‘माई डियर सहेली, पैसों की चिंता छोड़. तू तो बस यह बता कि खाने में तुझे क्याक्या पसंद है. मैं अभी सारी चीजें मंगाती हूं.’’

‘‘पर इतना सब तो… तेरी लौटरी लगी है या पर्स उड़ा लाई है किसी का?’’ कहते हुए आरती समझ नहीं पा रही थी कि अचानक उस की सहेली इतनी फुजूलखर्च कैसे हो गई.

‘‘सवाल मत कर. भूख के मारे मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं. तुझ से तो और्डर भी नहीं दिया जाएगा. मुझे ही बताना पड़ेगा,’’ कहते हुए उस ने वेटर को ढेर सारी चीजें लाने को कह दिया.

आरती बहुतकुछ पूछना चाहती थी, पर चुप रही. दोनों के खाने का बिल 4 हजार रुपए से भी ज्यादा का आया.

रेखा ने पर्स निकाला, तो उस के भीतर हजारहजार के कई नोट देख कर आरती की आंखें फटी की फटी रह गईं.

रेखा ने टिप में 5 सौ रुपए का नोट दिया, तो आरती का शक गहरा गया.

‘‘सचसच बता, आजकल तेरे रंगढंग बदले हुए क्यों लग रहे हैं? कहीं तू कोई उलटासीधा काम तो नहीं करने लगी?’’ आरती ने 2-3 दिन बाद रेखा से पूछ ही डाला.

‘‘छोड़ ये सब बेकार की बातें. जिंदगी मिली है, तो क्यों न मजा किया जाए. आज जिस की जेब में पैसा है, इस दुनिया में जीने का हक केवल उसी के पास है.

‘‘पैसा हो तो हर खुशी आप के कदमों में होती है,’’ रेखा अपनी रौ में बोले जा रही थी.

तभी रेखा का मोबाइल फोन बज उठा. उस के हाथ में चमचमाता महंगा फोन देख कर आरती दंग रह गई.

‘‘हां, मैं पहुंच जाऊंगी.’’

‘‘तेरा बौयफ्रैंड है क्या?’’ आरती ने पूछा, तो रेखा खिलखिला कर हंस दी, ‘‘नहीं, दोस्त है… कुछ समझ मेरी भोलीभाली सहेली?’’

आरती समझ गई कि कुछ ऐसा जरूर है, जिसे रेखा छिपा रही है. अब वह पहले वाली रेखा नहीं लगती थी, बल्कि बोल्ड, बिंदास और खिलंदड़ किस्म की लड़की नजर आने लगी थी.

‘‘कसम से सच बता, बात क्या है? मैं जानती हूं कि तू मुझ से कुछ छिपा रही है. मैं तेरी सहेली हूं. तुझे बताना ही होगा.

‘‘शीलू कह रही थी कि तू आजकल होटलों में बहुत जाती है,’’ आरती ने जिद की, तो रेखा ने सच बता दिया.

‘‘मैं अपनी मरजी से जाती हूं. एक रात के 10 हजार रुपए से 50 हजार रुपए तक वसूल करती हूं. जब जी में आता

है, बुकिंग कर लेती हूं. बुराई क्या है इस में?’’

‘‘तू कालगर्ल बन गई? शर्म नहीं आती तुझे यह सब करते हुए? पैसे के लिए तू इतना नीचे गिर जाएगी, मैं ने सोचा भी नहीं था.

‘‘मेरी मान, छोड़ दे यह सब, वरना एक दिन बहुत पछताएगी,’’ आरती ने उसे झकझोरते हुए कहा.

‘‘बंद कर अपनी भाषणबाजी. मेरे पास जिस्म की दौलत है, तो मैं उसे क्यों न भुनाऊं? हमारे कालेज की कई लड़कियां यही सब करती हैं. तू कहे तो मैं नाम बताऊं?’’

‘‘रहने दे, मुझे नहीं जानना. मैं तो कहूंगी कि तू भी इस दलदल से बाहर आ जा. दौलत की चाह में खुद को मत गिरवी रख. प्लीज, मेरी बात मान ले,’’ आरती ने बहुत समझाया, पर रेखा पर तो दौलत की शह पर ऐश की जिंदगी बिताने का भूत सवार था.

बदनामी होने लगी, तो आरती ने रेखा से दूरी बना ली. रेखा जिस राह पर चल रही थी, वहां का दलदल और गहरा होता गया. एक समय ऐसा आया कि वह चाह कर भी उस गंदगी से बाहर नहीं निकल पाई.

आरती का कालेज पूरा हो गया. उसे जज बनने का बड़ा अरमान था. उस ने दिनरात एक कर के अपना यह मुकाम हासिल भी कर लिया.

उधर रेखा अभी भी भटक रही थी. पैसे की चकाचौंध में अंधी हो कर उस ने अपने जिस्म की मंडी लगा कर पैसे की बरसात तो कर ली, पर अब उस का शरीर जवाब देने लगा था.

एक के बाद एक बुकिंग और देह के सौदागरों द्वारा नोचे जाने से रेखा एक जिंदा लाश में बदल गई थी.

अब रेखा का अपने जिस्म पर हक नहीं रह गया था. जेके नाम के एक दलाल ने उसे अपने हाथों की कठपुतली बना रखा था. वह बुकिंग करता, ग्राहकों से मोटी रकम भी वही वसूलता और रेखा के हिस्से आते चंद रुपए. कई बार तो कईकई घंटों की बुकिंग चलती थी.

2-3 बार तो पुलिस की दबिश में रेखा पकड़ी भी गई. जेल जाना पड़ा, तो वहां पहले से बंद अपराधी किस्म की औरतों के साथ रह कर उसे बहुतकुछ बुरा सीखने को मिला.

जेल से छूटी, तो फिर वही नरक सामने था. उस ने भागने की कोशिश की, तो जेके के गुंडों ने उसे खूब पीटा. मारमार कर उस की चमड़ी उधेड़ दी. नतीजा यह हुआ कि वह फिर जेके के शिकंजे में फंसने को मजबूर हो गई.

रेखा का जिस्म बीमारियों से भर चुका था. उस की ज्यादा हालत बिगड़ी, तो जेके ने उसे सरकारी अस्पताल में भरती करा दिया.

वहां थोड़े दिनों के लिए बुकिंग से छुटकारा मिला, तो उस की तबीयत थोड़ी सुधरने लगी, लेकिन ठीक होते ही जेके ने उसे फिर धंधे पर लगा दिया.

गुस्साई रेखा ने खुद पुलिस को फोन कर के जेके के सारे ठिकानों की सूचना दे दी. दबिश हुई, तो सारा भांड़ा फूट गया. रेखा जैसी कई लड़कियां ग्राहकों के साथ पकड़ी गईं.

जेके का लाखों रुपए का नुकसान करा कर रेखा मन ही मन खुश थी. पुलिस ने सब के बयान लिए और हवालात में बंद कर दिया.

कोर्ट में चालान पेश हुआ, तो जज साहिबा ने हर लड़की से खुद सवाल किए. जब रेखा की बारी आई, तो जज साहिबा को उस की शक्ल कुछकुछ जानीपहचानी सी लगी.

‘‘ऐ लड़की, तेरा नाम क्या है?’’ जज साहिबा ने पूछा, तो वह हंस दी.

‘‘एक नाम हो तो बोलूं जज साहिबा. रीटा, मीना, लिली… न जाने कितने नाम इन दुनिया वालों ने मुझे दिए हैं. इन सब नामों में से किसी भी नाम से मुझे पुकार लीजिए,’’ रेखा ने जवाब दिया.

अब तक जज की कुरसी पर बैठी आरती कुछकुछ अपनी पुरानी सहेली रेखा को पहचान गई थी. लंच में उस ने रेखा को अपने केबिन में बुलाया.

‘‘तुम रेखा हो न?’’ आरती ने पूछा.

‘‘जिस रेखा को तुम जानती हो जज साहिबा, वह तो कब की मर चुकी है. मैं खुद नहीं जानती कि मैं कौन हूं, मेरा नाम क्या है. मैं चाहती भी नहीं कि कोई मुझे जाने या पहचाने,’’ रेखा बोली.

‘‘मैं आरती हूं… तेरी सहेली. यह क्या हाल बना रखा है तू ने रेखा?’’ आरती आगे बढ़ी, तो रेखा पीछे हट गई.

‘‘नहीं जज साहिबा, मुझे मत छूना. मैं नहीं चाहती कि आप मेरे इस दागदार जिस्म को हाथ भी लगाएं.

‘‘मुझे माफ कर दो आरती. मुझे तुम से हमदर्दी की भीख नहीं चाहिए. मुझे इंसाफ देना, बस यही कहना है,’’ कहते हुए रेखा केबिन से बाहर आ गई.

आरती उसे रोकना चाहती थी, पर ऐसा कर न सकी. लंच खत्म होने को था. अपनी आंखों में आए आंसुओं को पोंछते हुए वह इंसाफ की कुरसी पर जा बैठी.

Valentine Day : प्यार का त्रिकोण – अजब प्रेम की गजब कहानी

जिस शादी समारोह में मैं अपने पति के साथ शामिल होने आई, उस में शिखा भी मौजूद थी. उस का कुछ दूरी से मेरी तरफ नफरत व गुस्से से भरी नजरों से देखना मेरे मन में किसी तरह की बेचैनी या अपराधबोध का भाव पैदा करने में असफल रहा था.

शिखा मेरी कालेज की अच्छी सहेलियों में से एक है. करीब 4 महीने पहले मैं ने मुंबई को विदा कह कर दिल्ली में जब नया जौब शुरू किया, तो शिखा से मुलाकातों का सिलसिला फिर से शुरू हो गया था.

जिस शाम मैं पहली बार उस के औफिस के बाहर उस से मिली, विवेक भी उस के साथ था. वह घंटे भर हम दोनों सहेलियों के साथ रहा और इस पहली मुलाकात में ही मैं उस के शानदार व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई थी.

‘‘क्या विवेक तुझ से प्यार करता है,’’ उस के जाते ही मैं ने उत्तेजित लहजे में शिखा से यह सवाल पूछा था.

‘‘हां, और मुझ से शादी भी करना चाहता है,’’ ऐसा जवाब देते हुए वह शरमा गई थी.

‘‘यह तो अच्छी खबर है, पर यह बता कि रोहित तेरी जिंदगी से कहां गायब हो गया है?’’ मैं ने उस के उस पुराने प्रेमी के बारे में सवाल किया जिस के साथ घर बसाने की इच्छा वह करीब 6 महीने पहले हुई हमारी मुलाकात तक अपने मन में बसाए हुए थी.

आंतरिक कशमकश दर्शाने वाले भाव फौरन उस की आंखों में उभरे और उस ने संजीदा लहजे में जवाब दिया, ‘‘वह मेरी जिंदगी से निकल गया था, पर…’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘मैं विदेश जा कर बसने में बिलकुल दिलचस्पी नहीं रखती, पर वह मेरे लाख मना करने के बावजूद अपने जीजाजी के साथ बिजनैस करने 3 महीने पहले अमेरिका चला गया था. उस समय मैं ने यह मान लिया था कि हमारा रिश्ता खत्म हो गया है.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘उस का न वहां काम बना और न ही दिल लगा, तो वह 15 दिन पहले वापस भारत लौट आया.’’

‘‘और रोहित के वापस लौटने तक तू विवेक के प्यार में पड़ चुकी थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘तो अब तू रोहित को सारी बातें साफसाफ क्यों नहीं बता देती?’’

‘‘यह मामला इतना सीधा नहीं है, नेहा. मैं आज भी अपने दिल को टटोलने पर पाती हूं कि रोहित के लिए वहां प्यार के भाव मौजूद हैं.’’

‘‘और विवेक से भी तुझे प्यार है?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ बहुत खुश रहती हूं. उस का साथ मुझे बहुत पसंद है, पर…’’

‘‘पर कोई कमी है क्या उस में?’’

‘‘तू तो जानती ही है कि रोमांस को मैं कितना ज्यादा महत्त्व देती हूं. मुझे ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो मेरे सारे नाजनखरे उठाते हुए मेरे आगेपीछे घूमे, पर विवेक वैसा नहीं करता. उस का कहना है कि वह मेरे साथ तो चल सकता है, पर मेरे आगेपीछे कभी नहीं घूमेगा. वह चाहता है कि मैं अपने बलबूते पर खुश रहने की कला में माहिर बनूं.’’

उस के मन की उलझन को मैं जल्दी ही समझ गई थी. रोहित अमीर बाप का बेटा है और शिखा पर जान छिड़कता है. रोहित उस की जिंदगी से इतनी देर के लिए दूर नहीं हुआ था कि वह उस के दिल से पूरी तरह निकल जाता.

दूसरी तरफ वह विवेक के आकर्षक व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित है, पर उस के साथ जुड़ कर मिलने वाली सुरक्षा के प्रति ज्यादा आश्वस्त नहीं है. वह अपने पुराने प्रेमी को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है, पर विवेक के साथ ऐसा करना उस के लिए संभव नहीं.

हम दोनों ने कुछ देर रोहित और विवेक के बारे में बातें की, पर वह किसी एक को भावी जीवनसाथी चुनने का फैसला करने में असफल रही थी.

मेरा ममेरा भाई कपिल प्रैस रिपोर्टर है. उस के बहुत अच्छे कौंटैक्ट हैं. मैं ने उस से कहा कि विवेक की जिंदगी के बारे में खोजबीन करने पर उसे अगर कोई खास बात मालूम पड़े, तो मुझे जरूर बताए.

उस ने अगले दिन शाम को ही मुझे यह चटपटी खबर सुना दी कि विवेक का सविता नाम की इंटीरियर डिजाइनर के साथ पिछले 2 साल से अफेयर चल रहा था, पर फिलहाल दोनों का मिलना कम हो गया था.

मैं ने यह खबर उसी शाम शिखा के घर जा कर उसे सुनाई, तो वह परेशान नजर आती हुई बोली थी, ‘‘यह हो सकता है कि अब उन दोनों के बीच कोई चक्कर न चल रहा हो, पर मैं फिल्मी हीरो से आकर्षक विवेक की वफादारी के ऊपर आंखें मूंद कर विश्वास नहीं कर सकती हूं. क्या गारंटी है कि वह कल को इस पुरानी प्रेमिका के साथ फिर से मिलनाजुलना शुरू नहीं करेगा या कोई नई प्रेमिका नहीं बना लेगा?’’

अगले दिन उस ने विवेक से सविता के बारे में पूछताछ की, तो उस ने किसी तरह की सफाई न देते हुए इतना ही कहा, ‘‘सविता के साथ अब मेरा अफेयर बिलकुल खत्म हो चुका है. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, पर अगर तुम्हें मेरे प्यार पर पूरा भरोसा नहीं है, तो मैं तुम्हारी जिंदगी से निकल जाऊंगा. किसी तरह का दबाव बना कर तुम्हें शादी करने के लिए राजी करना मेरी नजरों में गलत होगा.’’

अगले दिन शाम को मुझे लंबे समय बाद रोहित से मिलने का मौका मिला था. इस में कोई शक नहीं कि विवेक के मुकाबले उस का व्यक्तित्व कम आकर्षक था. वह शिखा की सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, पर उसे विवेक हंसा कर खुश नहीं कर पाया.

उस रात औटोरिकशा से घर लौटते हुए शिखा ने अपने दिल की उलझन मेरे सामने बयान की, ‘‘रोहित के साथ भविष्य सुरक्षित रहेगा और विवेक के साथ हंसतेहंसाते वक्त के गुजरने का पता नहीं चलता. रोहित के साथ की आदत गहरी जड़ें जमा चुकी है और विवेक जीवन भर साथ निभाएगा, ऐसा भरोसा करना कठिन लगता है. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि किस के हक में फैसला करूं.’’

वैसे उस ने जब भी मेरी राय पूछी, मैं ने उसे रोहित के पक्ष में शादी का फैसला करने की सलाह ही दी थी. उस के हावभाव से मुझे लगा भी कि उस का झुकाव रोहित को जीवनसाथी बनाने की तरफ बढ़ गया था.

करीब 3 दिन बाद शिखा ने फोन पर रोंआसी आवाज में मुझे बताया, ‘‘विवेक को किसी से रोहित के बारे में पता चल गया है. उस ने मुझ पर दो नावों में सवारी करने का आरोप लगाते हुए आज मुझ से सीधेमुंह बात नहीं की. मुझे लगता है कि वह मुझ से दूर जाने का मन बना चुका है.’’

‘‘इस में ज्यादा परेशान होने वाली बात नहीं, क्योंकि तू भी तो रोहित से शादी करने का मन काफी हद तक बना ही चुकी है,’’ मैं ने उसे हौसला दिया.

‘‘अब मेरा मन बदल गया है, नेहा. विवेक के दूर हो जाने की बात सोच कर ही मेरा मन बहुत दुखी हो रहा है. देख, रोहित ने एक बार मुझ से दूर जाने का फैसला कर लिया था, इसी कारण मैं उस के साथ रिश्ता तोड़ने में किसी तरह का अपराधबोध महसूस नहीं करूंगी. विवेक की गलतफहमी दूर करने में तू मेरी हैल्प कर, प्लीज.’’

‘‘ओके, मैं आज शाम उस से मिलूंगी,’’ मैं ने उसे ऐसा आश्वासन दिया था.

आगामी दिनों में विवेक के साथ अकेले मेरा मिलनाजुलना कई बार हुआ और इन्हीं मुलाकातों में मुझे लगा कि उस जैसे ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धांत को मानने वाले खुशमिजाज इंसान के लिए बातबात पर रूठने वाली नखरीली शिखा विवेक के लिए उपयुक्त जीवनसाथी नहीं है. इसी बात को ध्यान में रख इस मामले में मैं ने रोहित की सहायता करने का फैसला मन ही मन किया.

मैं अगले दिन शाम को रोहित से मिली और उसे शिखा का दिल जीत लेने के लिए एक सुझाव दिया, ‘‘मेरी सहेली खूबसूरत सपनों और रोमांस की रंगीन दुनिया में जीती है. अगर तुम उसे हमेशा के लिए अपनी बनाना चाहते हो, तो कुछ ऐसा करो जो उस के दिल को छुए और वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए झटके से हां कहने को मजबूर हो जाए.’’

मेरी सुझाई तरकीब पर चलते हुए अगले सप्ताह अपने जन्मदिन की पार्टी में रोहित ने शिखा को पाने का अपना लक्ष्य पूरा कर लिया.

बड़े भव्य पैमाने पर उस ने बैंकट हाल में अपनी बर्थडे पार्टी का आयोजन किया, जिस में शिखा वीआईपी मेहमान थी. रोहित के कोमल मनोभावों से परिचित होने के कारण उस के परिवार का हर सदस्य शिखा के साथ प्रेम भरा व्यवहार कर रहा था.

बीच पार्टी में रोहित ने पहले सब मेहमानों का ध्यान आकर्षित किया और फिर शिखा के सामने घुटने के बल बैठ कर बड़े रोमांटिक अंदाज में उसे प्रपोज किया, ‘‘तुम जैसी सर्वगुणसंपन्न रूपसी अगर मुझ से शादी करने को ‘हां’ कह देगी, तो मैं खुद को संसार का सब से धन्य इंसान समझूंगा.’’

वहां मौजूद सभी मेहमानों ने बड़े ही जोशीले अंदाज में तालियां बजा कर शिखा पर ‘हां’ कहने का दबाव जरूर बनाया, पर हां कराने में रोहित के हाथ में नजर आ रही उस बेशकीमती हीरे की अंगूठी का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिसे मैं ने ही उसे खरीदवाया था.

शिखा ने रोहित के साथ शादी करने का फैसला कर लिया, तो औफिस में बहुत ज्यादा काम होने का बहाना बना कर मैं ने उस से मिलना बंद कर दिया. मैं विवेक के साथ लगातार हो रही अपनी मुलाकातों की चर्चा उस से बिलकुल नहीं करना चाहती थी.

विवेक को मैं अपना दिल पहले ही दे बैठी थी, पर अपनी भावनाओं को दबा कर रखने को मजबूर थी. चूंकि अब शिखा बीच में नहीं थी, इसलिए मुझे उस के साथ दिल का रिश्ता मजबूत बनाने में किसी तरह की झिझक नहीं थी.

विवेक के दिल की रानी बनने के लिए मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि मैं उस के मन को समझने लगी थी. मैं जैसी हूं, अगर वैसी ही उस के सामने बनी रहूंगी, तो उसे ज्यादा पसंद आऊंगी, यह महत्त्वपूर्ण बात मैं ने अच्छी तरह समझ ली थी. उसे किसी तरह बदलने की कोशिश मैं ने कभी नहीं की. उस की नाराजगी की चिंता किए बिना जो मन में होता, उसे साफसाफ उस के मुंह पर कह देती. हां, यह जरूर ध्यान रखती कि मेरी नाराजगी बात खत्म होने के साथसाथ ही विदा हो जाए.

मेरी समझदारी जल्दी ही रंग लाई. जब विवेक की भी मुझ में रुचि जागी, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

एक दिन मैं ने आंखों में शरारत भर कर उस का हाथ पकड़ा और रोमांटिक लहजे में कह ही दिया, ‘‘अब तुम से दूर रहना मेरे लिए संभव नहीं है, विवेक. तुम अगर चाहोगे, तो मैं तुम्हारे साथ शादी किए बिना ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में भी रहने को तैयार हूं.’’

विवेक ने मेरे हाथ को चूम कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे इतनी अच्छी तरह समझने वाली तुम जैसी लड़की को मैं अपनी जीवनसंगिनी बनाने से बिलकुल नहीं चूकूंगा. बोलो, कब लेने हैं बंदे को तुम्हारे साथ सात फेरे?’’

शादी के लिए उस की हां होते ही मैं ने शिखा वाली मूर्खता नहीं दोहराई. अपने मम्मीपापा को आगामी रविवार को ही उस के मातापिता से मिलवाया और सप्ताह भर के अंदर शादी की तारीख पक्की करवा ली.

शिखा और रोहित की शादी से पहले विवेक और मेरी शादी के कार्ड छपे थे. मैं अपनी शादी का कार्ड देने शिखा के घर गई, तो उस ने सीधे मुंह मुझ से बात नहीं की.

मैं ने उसी दिन मन ही मन फैसला किया कि भविष्य में शिखा के संपर्क में रहना मेरे हित में नहीं रहेगा. मैं ने विवेक को हनीमून के दौरान समझाया, ‘‘शिखा का होने वाला पति रोहित नहीं चाहता है कि कभी वह तुम से कैसा भी संपर्क रखे. उस की खुशियों की खातिर हम उस से नहीं मिला करेंगे.’’

विवेक ने मेरी इस बात को ध्यान में रखते हुए शिखा से कभी, किसी माध्यम से संपर्क बनाने की कोशिश नहीं की. मैं इस पूरे मामले में न खुद को कुछ गलत करने का दोषी मानती हूं, न किसी तरह के अपराधबोध की शिकार हूं. मेरा मानना है कि अपनी खुशियों की खातिर पूरी ताकत से हाथपैर मारने का हक हमसब को है

शिखा ने फैसला लेने में जरूरत से ज्यादा देरी की वजह से विवेक को खोया. वह नासमझ चील जो अपने मनपसंद शिकार पर झपट्टा मारने में देरी करे, उस के हाथ से शिकार चुनने का मौका छिन जाना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है.

शिखा की दोस्ती को खो कर विवेक जैसे मनपसंद जीवनसाथी को पा लेना मैं अपने लिए बिलकुल भी महंगा सौदा नहीं मानती हूं. तभी उस से ‘हैलोहाय’ किए बिना विवाह समारोह से लौट आने पर मेरे मन ने किसी तरह का मलाल या अपराधबोध महसूस नहीं किया था.

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Story in Hindi

सावित्री की नई कहानी

चौधरी जगवीर सिंह की हवेली गांव की शान थी. उन की बेटी सावित्री चुपचाप लेटी रात के अंधेरे में कई सवालों को सुलझाने की कोशिश कर रही थी. इस वक्त उस के दिलोदिमाग में एक नई रोशनी जगमगाने लगी थी. उस की आंखों में घुटन और पीड़ा के आंसू सूख चुके थे. राम किशन पर हुए जुल्म की याद उस के लिए बहुत दुखदायी थी, पर अब इस जुल्म के खिलाफ वह उठ खड़ी हुई थी.

‘पैदाइश से कोई छोटा या बड़ा कैसे हो सकता है? अच्छे घर में जन्म लेने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता,’ यह सोचते हुए सावित्री को लगा कि तीखे कांटों वाली कोई जिंदा मछली उस के गले में फंस गई है. वह फूटफूट कर रो पड़ी.

सावित्री को राम किशन की नजदीकी एक अजीब सी खुशी से भर देती थी. वह सोचने लगी कि वह जातपांत के बंधनों को झूठा साबित करेगी, चाहे उसे कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े. वह इस कालिख को धो डालेगी.

सावित्री की यादों में राम किशन का उदास चेहरा छाने लगा और उसे लगा कि हमेशा की तरह वह आंगन में पड़े तख्त पर बैठा है. पिताजी उस से कह रहे हैं, ‘क्यों रे राम किशन… तू छोटी जात वालों के घर कहां से पैदा हो गया? गांवभर में ब्राह्मण, बनियों का कोई भी लड़का है तेरे जोड़ का… न सूरत में और न सीरत में?’

तब सावित्री की आंखों में तारे नाच उठे थे. ऐसा लगता था जैसे चारों ओर रंगबिरंगे फूल खिल उठे हों. एक राम किशन ही तो था, जिसे हवेली में आनेजाने की इजाजत थी. यह सब सावित्री को सोचतेसोचते नींद आने लगी.

राम किशन और सावित्री ने एकसाथ ही ग्रेजुएशन पास की थी. उस के बाद राम किशन नौकरी की तलाश में दरबदर की खाक छानता रहा, लेकिन उसे कहीं भी काम न मिला. मेहनतमजदूरी भी इस पढ़ाई ने छीन ली थी. गांव के ढोरडंगर वह चरा नहीं सकता था. घर की हालत ऐसी थी कि क्या बिछाएं और क्या ओढ़ें.

कई दिनों के बाद राम किशन हवेली में आया. वह बेहद थका हुआ और उदास था. सावित्री घर में नहीं थी. वह आंगन में पड़े तख्त पर बैठ गया.

बाहर बैठक में चौधरी जगवीर सिंह के पास खानदानी पुरोहित बिसेसर पंडित बैठे थे. गांवभर के पापपुण्य का लेखाजोखा उन के पास रहता था. बापदादा की जो इज्जत पोथीपत्तरों की बदौलत बनी थी, उसे खींचखांच कर जमाए बैठे थे पंडितजी.

पुरोहित बिसेसर पंडित बोले, ‘‘देश रसातल को जा रहा है चौधरी साहब. इस छोटी जात के लौंडे का हवेली में आनाजाना बंद कराओ. इन लोगों ने तो देश का सत्यानाश कर दिया है.’’

‘‘क्या हुआ पंडित… कुछ बताओगे भी?’’ चौधरी जगवीर सिंह ने पूछा.

पंडितजी आंखें नचा कर बोले, ‘‘अजी बताना क्या है… कल तक जो हमारे जूतों पर पलते थे, अब सिर उठा कर चलते हैं. हमारा बेटा महेश कभी फेल नहीं हुआ. हमेशा हर क्लास में पास हुआ है. कल इंटरव्यू देने गया था शहर के बड़े दफ्तर में. बस, वही ‘आरक्षण’ की बात. उसे फेल कर एक निचली जाति वाले को ले लिया. है कि नहीं यह जुल्म?

‘‘ये गंवार लोग देश का कारोबार चलाएंगे? अरे, मैं तो कहूं चौधरी, देश डूबेगा या नहीं?’’ पंडितजी की आवाज आंगन तक गूंज रही थी.

आंगन में पड़े एक पुराने तख्त पर बैठा राम किशन एकएक लफ्ज सुन रहा था. पुरोहित बिसेसर के लफ्ज उस को छलनी कर रहे थे. वह बुदबुदाया, ‘हरामखोर कहीं का… जहर उगल रहा है. भला महेश की नौकरी पर एक दलित कैसे लिया जा सकता है. अगर आरक्षण को वाकई इस तरह लागू किया जाता तो कितने ही दलित नौजवान पढ़लिख कर भी बेकार क्यों घूम रहे हैं?’

‘‘अरे, तुम कब आए? ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो? कहां थे इतने दिन?’’ राम किशन को देखते ही सावित्री ने सवालों की झड़ी लगा दी.

राम किशन सकपकाया सा उस की ओर देखने लगा.

‘‘अरे, ऐसे क्यों देख रहे हो? क्या बात है?’’ राम किशन की आंखों में उदासी देख कर सावित्री सिहर उठी.

राम किशन कुछ बोल नहीं पाया. कुछ पल तक दोनों एकदूसरे को देखते रहे, जैसे मिल कर खामोशी का कोई बाग लगा रहे हों.

राम किशन ने हौले से कहा, ‘‘शहर गया था, काम की तलाश में… पर काम नहीं मिला.’’

‘‘तो इस में इतना उदास होने की क्या बात है? मिल जाएगी नौकरी भी,’’ सावित्री ने धीरज बंधाया. फिर वह आगे बोली, ‘‘लेकिन राम किशन, मैं ने तो सुना है कि तुम लोगों को नौकरी जल्दी मिल जाती है… और फिर भी अभी तक…’’ कहतेकहते वह रुक गई.

राम किशन के चेहरे पर फैलती उदासी को सावित्री ने देख लिया था. उसे लगा, जैसे उस ने कोई गलत बात कह दी हो.

‘‘मैं ने कुछ बुरा कह दिया, जो ऐसे देख रहे हो?’’ सावित्री ने पूछा.

‘‘नहीं, बुरा नहीं… जो सुनती हो वही कहोगी न,’’ राम किशन बोला, ‘‘आसपास नजर उठा कर देखो सावित्री… हमारी जिंदगी… क्या है… किन हालात में रहते हैं… एक बार हमारी जिंदगी में झांक कर देखो, वहां कुनमुनाते सपनों की राख मिलेगी, जिस में दुख और आंसू छिपे पड़े हैं,’’ राम किशन की आवाज के दर्द ने सावित्री को भीतर तक हिला दिया था.

राम किशन उठ कर चल दिया था. सावित्री को लगा, जैसे दोनों के बीच रिश्तों के सभी धागे अचानक टूट गए हैं. आंखों में बेबसी के आंसू लुढ़क पड़े. राम किशन की पीड़ा से वह दुखी हो उठी. उसे लगा जैसे वह किसी घने, कंटीले जंगल में भटक गई है.

चौधरी जगवीर सिंह की बैठक में और 4-5 लोग आ जुटे थे. राम किशन को हवेली से निकलते देख पुरोहित बिसेसर की त्योरियां चढ़ गईं.

‘‘राम किशन, तहसीलदार बनने में और कितने दिन हैं? हां भई, तुम लोगों का ही तो राज है… बामन, बनिए तो सिर्फ नाम के रह गए हैं,’’ बिसेसर ने मजाक किया.

राम किशन पुरोहित बिसेसर की बातें सुन कर रुक गया. खुद को संभालते हुए वह बोला, ‘‘पंडितजी, आप जोकुछ सुनते हैं या सोचते हैं… जरूरी नहीं कि सब उसी तरह से सोचें या सुनें… गांवदेहात की वजह से मैं आप की इज्जत करता हूं.’’

राम किशन की बात पर पंडित बिसेसर ने बिगड़ते हुए कहा, ‘‘कल का लौंडा, हमें ज्ञान सिखाता है, वह भी छोटी जात का हो कर? कलियुग आ गया है. अबे, कल तक तेरे बापदादा हमारी परछाईं के भी नजदीक खड़े नहीं हो सकते थे… और तू जबान लड़ाता है हम से.

‘‘चौधरी ने तुझे सिर चढ़ा रखा है, नहीं तो अब तक दो जूते लगा कर तेरे होश ठिकाने ला देता. तू समझता क्या है… दो अच्छर क्या पढ़ लिए कि

खुद को ज्यादा पढ़ालिखा समझने लगा. है तो छोटी जात का ही न,’’ पुरोहित बिसेसर के मुंह से लफ्ज गोली की तरह फूटने लगे.

चौधरी जगवीर सिंह ने उन्हीं को डांटा, ‘‘क्यों बच्चों के मुंह लगते हो पंडित?’’ फिर राम किशन की ओर देख कर बोले, ‘‘जा बेटा… बड़ों की बात का बुरा नहीं मानते.’’

गांव के पश्चिम में एक गंदी बस्ती थी. एक बड़े से जोहड़ ने उस बस्ती को 3 तरफ से घेर रखा था. इसी जोहड़ के किनारे बरगद का एक पुराना पेड़ था, जिस के नीचे से हो कर ही बस्ती में जाया जा सकता था.

सूरज धीरेधीरे नीचे उतर रहा था. ढोरडंगर धूल उड़ाते गांव में लौट रहे थे.

बरगद के नीचे बिसेसर का बेटा महेश अपने दोस्तों के साथ गांजा फूंक रहा था. उस की इस गांजा मंडली में गांवभर के आवारा लड़के जमा थे.

राम किशन हवेली से निकल कर सीधा चला आ रहा था. बिसेसर के लफ्ज अभी तक उस के कानों में गूंज रहे थे. उसे देखते ही गांजा मंडली चौकन्ना हो गई. आंखों ही आंखों में मशवरा होने लगा, जैसे शिकारी शिकार को देख कर जाल फेंकने की बात सोच रहे हों.

महेश ने आगे बढ़ कर राम किशन का रास्ता रोक लिया और बोला, ‘‘कहो मजनू, लैला कैसी है?’’

राम किशन के बदन में कांटे भर गए. गांजा मंडली ने राम किशन को चारों ओर से घेर लिया. बरगद की छांव में अंधेरा घिरने लगा था. राम किशन शांत खड़ा था. मंडली राम किशन के नजदीक सिमट आई.

‘‘तेरे बड़े मजे हैं यार,’’ एक लड़का बोला.

‘‘झोंपड़ी चली है महलों में रास रचाने… कहो कन्हैया, राधा से मुलाकात कैसी रही?’’ दूसरे ने ठहाका लगाया.

‘‘अबे, इश्क से पहले अपनी औकात तो देख ली होती,’’ महेश ने आंखें तरेरीं.

राम किशन को लगा, जैसे वह जमीन में धंसता जा रहा है. उस का सारा बदन जैसे जड़ हो गया था.

‘‘अबे, आरक्षण से नौकरी पा सकते हो… पर चौधरी की बेटी तो किसी चौधरी को ही मिलेगी,’’ महेश राम किशन के मुंह के पास फुसफुसाया.

राम किशन ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘महेश, जाने दो मुझे. मैं झगड़ा करना नहीं चाहता.’’

‘‘अरे, देखो तो इस के सींग निकल आए है. हमें सिखाता है. यहीं जिंदा गाड़ दूंगा,’’ महेश ने राम किशन का गला पकड़ कर जोर से धक्का दिया.

राम किशन गिर पड़ा. जब तक वह उठने की कोशिश करता, तब तक गांजा मंडली ने लातघूंसों की बौछार शुरू कर दी. राम किशन की आंखों में तारे नाचने लगे. बदन में जगहजगह अंगारे फूटने लगे. उस ने हिम्मत नहीं छोड़ी. किसी तरह उन की गिरफ्त से छूट कर वह निकल भागा.

महेश ने दौड़ कर पकड़ना चाहा. छीनाझपटी में राम किशन के हाथ में महेश का हाथ आ गया. उस की मुट्ठियां कस गईं. हाथ को जोर से झटका दिया. एक चीख चारों ओर फैल गई. बरगद पर दुबके पक्षी डर से उड़ गए.

गांजा मंडली सिर पर पैर रख कर भागी. बरगद खामोश गवाह बना देख रहा था. सदियों से यह बरगद न जाने कितनी दास्तानें अपने भीतर छिपाए खड़ा था. इसी के नीचे पड़ा महेश दर्द से कराह रहा था.

खबर सनसनाती हवा की तरह गांवभर में फैल गई कि राम किशन ने महेश को मार डाला. बस्ती में डर के मारे लोगों का बुरा हाल था.

पुरोहित बिसेसर ने पूरा गांव सिर पर उठा लिया. वह राम किशन और बस्ती के खिलाफ पूरे गांव को भड़काता रहा. उधर महेश दर्द से रातभर छटपटाता रहा.

खबर उड़तेउड़ते हवेली तक भी पहुंच गई. सावित्री ने सुना, तो सन्न रह गई. ऐसा लगा, जैसे गले में कुछ अटक गया हो. वह राम किशन से मिल कर असलियत जानने को बेचैन हो उठी. परेशान सी आंगन में चक्कर काटने लगी. हवेली की हर चीज उस के लिए बरदाश्त से बाहर हो रही थी. वह खुद को एक ऐसे कुएं में फंसा महसूस कर रही थी, जिस से बाहर निकलने का रास्ता ही न बनाया गया हो.

सावित्री रहरह कर खुद पर खीज उठती. क्या करे, क्या न करे? वह इसी उधेड़बुन में थी.

तभी हवेली का पुराना दरवाजा चरमराया. दरवाजे पर घर की नौकरानी रामेसरी खड़ी थी, उसे देखते ही वह बिफर पड़ी, ‘‘कहां थी अब तक? कहां गई थी… अब मिली है फुरसत?’’

सावित्री के इस बरताव को देख कर रामेसरी दंग रह गई. पहली बार सावित्री ने ऐसा कहा था. उस की समझ में कुछ नहीं आया. वह जहां की तहां ठिठक कर खड़ी रह गई. वह इस नई सावित्री को एकटक हैरान हो कर देख रही थी.

रामेसरी को इस तरह खड़ा देख कर सावित्री का गुस्सा और बढ़ गया और बोली, ‘‘चुपचाप खड़ी रहेगी या कुछ बोलेगी भी…’’

रामेसरी ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘बिटिया, राम किशन और महेश में बहुत मारपीट हो गई है. मैं राम किशन के घर से आ रही हूं. महेश और उस के दोस्तों ने उसे खूब मारा है. इसी मारपीट में महेश का हाथ टूट गया है.

‘‘बिटिया, राम किशन तो बहुत अच्छा लड़का है. एकदम गऊ… जरूर इन गुंडों ने जानबूझ कर झगड़ा किया होगा. न जाने अब क्या होगा… मुझे तो डर लग रहा है.

‘‘बिटिया, यह पंडित तो नाग है… इस के डसे तो पानी भी नहीं मांगते. राम किशन को कुछ हो गया तो…’’ कहतेकहते रामेसरी का गला भर आया.

सावित्री ठगी सी रामेसरी की बातें सुन रही थी. उस के भीतरबाहर एक हलचल सी मच गई. वह तेजी से अपने कमरे की ओर भागी.

हर रोज की तरह सुबह हुई. राम किशन का पोरपोर दुख रहा था. वह खटिया पर लेटेलेटे कल की वारदात के बारे में सोचता रहा. वह हवेली न जाने का फैसला कर चुका था. सोचा कि अब वह सावित्री से मिलनाजुलना भी बंद कर देगा.

गली में चौधरी जगवीर सिंह का नौकर कालू दिखा, ‘‘राम किशन भैया, चौधरी साहब ने तुम्हें बुलाया है. जल्दी चलो.’’

राम किशन ने उठतेउठते पूछा, ‘‘क्या बात है? क्यों बुलाया है?’’

कालू ने सहमते हुए कहा, ‘‘वही कल वाली मारपीट की बात होगी. अब हम क्या जानें? पंडित पुलिस ले कर आया है.’’

आंगन में खड़ी राम किशन की मां ने सुना तो वे घबरा गईं. राम किशन के बापू तो मुंहअंधेरे ही काम पर निकल गए थे.

मां ने कहा, ‘‘नहीं बेटा, तू वहां मत जा. वे लोग पता नहीं कैसा सुलूक करें. इन लोगों पर यकीन मत करना,’’ युगोंयुगों का दर्द झलक उठा था मां के लफ्जों में.

राम किशन ने मां को धीरज बंधाया, ‘‘चिंता क्यों करती हो मां, कुछ नहीं होगा. झगड़ा मैं ने नहीं किया. उन लोगों ने ही मुझे मारा है. तुम चिंता मत करो. मैं अभी आता हूं…’’

मां अपने बेटे की नादानी पर रो पड़ी. उस ने आसपड़ोस वालों को आवाज दी. राम किशन तब तक गली में जा चुका था. मां ने कई लोगों को उस के पीछे भेजा.

हवेली में पहुंचते ही राम किशन पर पुलिस इंस्पैक्टर ने लातघूंसों की बारिश शुरू कर दी. मुंह से गालियां ऐसे फूट रही थीं मानो निहत्थे जुलूस पर मशीनगन चल रही हो.

चौधरी जगवीर सिंह खामोश बैठे थे. बैठक के चबूतरे पर पुरोहित बिसेसर, इंस्पैक्टर और एक पुलिस का सिपाही लोकतंत्र को मजबूत बना रहे थे. चबूतरे से नीचे भीड़ इकट्ठी हो गई थी. बस्ती के लोगों को हवेली से बाहर गली में ही रोक दिया गया था.

पुरोहित बिसेसर के मुंह से गालियां वेदमंत्रों सी निकल रही थीं. राम किशन के बदन पर जगहजह खून के धब्बे उभरने लगे.

बाहर के शोर ने सावित्री को झकझोर दिया था. हवेली से बैठक में आ कर देखा, तो सन्न रह गई.

उस की आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया. उस ने अपने पिता की ओर देखा. ऐसा लगा जैसे कोई माटी का पुतला बैठा हो.

सावित्री की आंखों में खून उतर आया. चोट खाई शेरनी की तरह इंस्पैक्टर की ओर घूर कर देखा, फिर सिपाही के हाथ से डंडा छीन कर दहाड़ी, ‘‘क्यों पीट रहे हो इसे? क्या किया है इस ने?’’ भीड़ में सन्नाटा छा गया.

इंस्पैक्टर कुछ कह पाता, उस से पहले ही पुरोहित बिसेसर जहरीले नाग की तरह फुफकारा, ‘‘अपनी बेटी से कहो चौधरी कि हवेली में जाए. यह गांव का मामला है.’’

चौधरी जगवीर सिंह बेटी के इस तरह अचानक आ जाने से सहम गए थे. उन्होंने कुछ कहना चाहा, लेकिन सावित्री ने गरज कर कहा, ‘‘पंडित, यह मामला गांव का नहीं, आप के कपूत का है. एक गरीब के ऊपर इस तरह जुल्म होते देख रहा है पूरा गांव और आप इसे गांव का मामला कहते हैं?’’

चौधरी जगवीर सिंह ने बेटी को समझाने की कोशिश की, लेकिन सावित्री के चेहरे पर गुस्से का ज्वालामुखी फट पड़ा था.

पुरोहित बिसेसर ने लोगों की ओर देख कर कहा, ‘‘देख लो गांव वालो, चौधरी की बेटी एक छोटी जात वाले का साथ दे रही है. यह अधर्म है. आज तक हम चुप थे. हवेली की इज्जत सब की इज्जत थी…’’

सावित्री ने पूरी ताकत से कहा, ‘‘हां पंडित… यह अधर्म है… धर्म वह है, जो आप करते हैं… आप का गंजेड़ी, शराबी, चोर, बेईमान बेटा करता है. आप ब्राह्मण हैं… आप का बेटा ब्राह्मण है… इसलिए आप को इज्जत प्यारी है. बाकी सब लोग कीड़ेमकोड़े हैं. बेकुसूर लोगों पर जुल्म करना, उन्हें बेइज्जत करना, यही धर्म है आप का…?’’

‘‘उठो राम किशन, तुम अकेले नहीं हो… मैं हूं तुम्हारे साथ… उठो…’’

राम किशन को सहारा दे कर उठातेउठाते सावित्री का गला भर आया. आंखों में जलते अंगारे आंसुओं ने भिगो दिए. सावित्री ने गांव के नक्शे पर एक नई कहानी लिख दी थी.

एक और बलात्कारी : रूपा का रसपान करने वाला जालिम

रूपा पगडंडी के रास्ते से हो कर अपने घर की ओर लौट रही थी. उस के सिर पर घास का एक बड़ा गट्ठर भी था. उस के पैरों की पायल की ‘छनछन’ दूर खड़े बिरजू के कानों में गूंजी, तो वह पेड़ की छाया छोड़ उस पगडंडी को देखने लगा.

रूपा को पास आता देख बिरजू के दिल की धड़कनें तेज हो गईं और उस का दिल उस से मिलने को मचलने लगा.

जब रूपा उस के पास आई, तो वह चट्टान की तरह उस के रास्ते में आ कर खड़ा हो गया.

‘‘बिरजू, हट मेरे रास्ते से. गाय को चारा देना है,’’ रूपा ने बिरजू को रास्ते से हटाते हुए कहा.

‘‘गाय को तो तू रोज चारा डालती है, पर मुझे तो तू घास तक नहीं डालती. तेरे बापू किसी ऐरेगैरे से शादी कर देंगे, इस से अच्छा है कि तू मुझ से शादी कर ले. रानी बना कर रखूंगा तुझे. तू सारा दिन काम करती रहती है, मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘गांव में और भी कई लड़कियां हैं, तू उन से अपनी शादी की बात क्यों नहीं करता?’’

‘‘तू इतना भी नहीं समझती, मैं तो तुझ से प्यार करता हूं. फिर और किसी से अपनी शादी की बात क्यों करूं?’’

‘‘ये प्यारव्यार की बातें छोड़ो और मेरे रास्ते से हट जाओ, वरना घास का गट्ठर तुम्हारे ऊपर फेंक दूंगी,’’ इतना सुनते ही बिरजू एक तरफ हो लिया और रूपा अपने रास्ते बढ़ चली.

शाम को जब सुमेर सिंह की हवेली से रामदीन अपने घर लौट रहा था, तो वह अपने होश में नहीं था. गांव वालों ने रूपा को बताया कि उस का बापू नहर के पास शराब के नशे में चूर पड़ा है.

‘‘इस ने तो मेरा जीना हराम कर दिया है. मैं अभी इसे ठीक करती हूं,’’ रूपा की मां बड़बड़ाते हुए गई और थोड़ी देर में रामदीन को घर ला कर टूटीफूटी चारपाई पर पटक दिया और पास में ही चटाई बिछा कर सो गई.

सुबह होते ही रूपा की मां रामदीन पर भड़क उठी, ‘‘रोज शराब के नशे में चूर रहते हो. सारा दिन सुमेर सिंह की मजदूरी करते हो और शाम होते ही शराब में डूब जाते हो. आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा? रूपा भी सयानी होती जा रही है, उस की भी कोई चिंता है कि नहीं?’’

रामदीन चुपचाप उस की बातें सुनता रहा, फिर मुंह फेर कर लेट गया.

रामदीन कई महीनों से सुमेर सिंह के पास मजदूरी का काम करता था. खेतों की रखवाली करना और बागबगीचों में पानी देना उस का रोज का काम था.

दरअसल, कुछ महीने पहले रामदीन का छोटा बेटा निमोनिया का शिकार हो गया था. पूरा शरीर पीला पड़ चुका था. गरीबी और तंगहाली के चलते वह उस का सही इलाज नहीं करा पा रहा था. एक दिन उस के छोटे बेटे को दौरा पड़ा, तो रामदीन फौरन उसे अस्पताल ले गया.

डाक्टर ने उस से कहा कि बच्चे के शरीर में खून व पानी की कमी हो गई है. इस का तुरंत इलाज करना होगा. इस में 10 हजार रुपए तक का खर्चा आ सकता है.

किसी तरह उसे अस्पताल में भरती करा कर रामदीन पैसे जुटाने में लग गया. पासपड़ोस से मदद मांगी, पर किसी ने उस की मदद नहीं की.

आखिरकार वह सुमेर सिंह के पास पहुंचा और उस से मदद मांगी, ‘‘हुजूर, मेरा छोटा बेटा बहुत बीमार है.

उसे निमोनिया हो गया था. मुझे अभी 10 हजार रुपए की जरूरत है. मैं मजदूरी कर के आप की पाईपाई चुका दूंगा. बस, आप मुझे अभी रुपए दे दीजिए.’’

‘‘मैं तुम्हें अभी रुपए दिए दे देता हूं, लेकिन अगर समय पर रुपए नहीं लौटा सके, तो मजदूरी की एक फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा. बोलो, मंजूर है?’’

‘‘हां हुजूर, मुझे सब मंजूर है,’’ अपने बच्चे की जान की खातिर उस ने सबकुछ कबूल कर लिया.

पहले तो रामदीन कभीकभार ही अपनी थकावट दूर करने के लिए शराब पीता था, लेकिन सुमेर सिंह उसे रोज शराब के अड्डे पर ले जाता था और उसे मुफ्त में शराब पिलाता था. लेकिन अब तो शराब पीना एक आदत सी बन गई थी. शराब तो उसे मुफ्त में मिल जाती थी, लेकिन उस की मेहनत के पैसे सुमेर सिंह हजम कर जाता था. इस से उस के घर में गरीबी और तंगहाली और भी बढ़ती गई.

रामदीन शराब के नशे में यह भी भूल जाता था कि उस के ऊपर कितनी जिम्मेदारियां हैं. दिन पर दिन उस पर कर्ज भी बढ़ता जा रहा था. इस तरह कई महीने बीत गए. जब रामदीन ज्यादा नशे में होता, तो रूपा ही सुमेर सिंह का काम निबटा देती.

एक सुबह रामदीन सुमेर सिंह के पास पहुंचा, तो सुमेर सिंह ने हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहा, ‘‘रामदीन, आज तुम हमारे पास बैठो. हमें तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हुजूर, आज कुछ खास काम है क्या?’’ रामदीन कहते हुए उस के पास बैठ गए.

‘‘देखो रामदीन, आज मैं तुम से घुमाफिरा कर बात नहीं करूंगा. तुम ने मुझ से जो कर्जा लिया है, वह तुम मुझे कब तक लौटा रहे हो? दिन पर दिन ब्याज भी तो बढ़ता जा रहा है. कुलमिला कर अब तक 15 हजार रुपए से भी ज्यादा हो गए हैं.’’

‘‘मेरी माली हालत तो बदतर है. आप की ही गुलामी करता हूं हुजूर, आप ही बताइए कि मैं क्या करूं?’’

सुमेर सिंह हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘देख रामदीन, तू जितनी मेरी मजदूरी करता है, उस से कहीं ज्यादा शराब पी जाता है. फिर बीचबीच में तुझे राशनपानी देता ही रहता हूं. इस तरह तो तुम जिंदगीभर मेरा कर्जा उतार नहीं पाओगे, इसलिए मैं ने फैसला किया है कि अब अपनी जोरू को भी काम पर भेजना शुरू कर दे.’’

‘‘लेकिन हुजूर, मेरी जोरू यहां आ कर करेगी क्या?’’ रामदीन ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘मुझे एक नौकरानी की जरूरत है. सुबहशाम यहां झाड़ूपोंछा करेगी. घर के कपड़ेलत्ते साफ करेगी. उस के महीने के हजार रुपए दूंगा. उस में से 5 सौ रुपए काट कर हर महीने तेरा कर्जा वसूल करूंगा.

‘‘अगर तुम यह भी न कर सके, तो तुम मुझे जानते ही हो कि मैं जोरू और जमीन सबकुछ अपने कब्जे में ले लूंगा.’’

‘‘लेकिन हुजूर, मेरी जोरू पेट से है और उस की कमर में भी हमेशा दर्द रहता है.’’

‘‘बच्चे पैदा करना नहीं भूलते, पर मेरे पैसे देना जरूर भूल जाते हो. ठीक है, जोरू न सही, तू अपनी बड़ी बेटी रूपा को ही भेज देना.

‘‘रूपा सुबहशाम यहां झाड़ूपोंछा करेगी और दोपहर को हमारे खेतों से जानवरों के लिए चारा लाएगी. घर जा कर उसे सारे काम समझ देना. फिर दोबारा तुझे ऐसा मौका नहीं दूंगा.’’

अब रामदीन को ऐसा लगने लगा था, जैसे वह उस के भंवर में धंसता चला जा रहा है. सुमेर सिंह की शर्त न मानने के अलावा उस के पास कोई चारा भी नहीं बचा था.

शाम को रामदीन अपने घर लौटा, तो उस ने सुमेर सिंह की सारी बातें अपने बीवीबच्चों को सुनाईं.

यह सुन कर बीवी भड़क उठी, ‘‘रूपा सुमेर सिंह की हवेली पर बिलकुल नहीं जाएगी. आप तो जानते ही हैं. वह पहले भी कई औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर चुका है. मैं खुद सुमेर सिंह की हवेली पर जाऊंगी.’’

‘‘नहीं मां, तुम ऐसी हालत में कहीं नहीं जाओगी. जिंदगीभर की गुलामी से अच्छा है कि कुछ महीने उस की गुलामी कर के सारे कर्ज उतार दूं,’’ रूपा ने अपनी बेचैनी दिखाई.

दूसरे दिन से ही रूपा ने सुमेर सिंह की हवेली पर काम करना शुरू कर दिया. वह सुबहशाम उस की हवेली पर झाड़ूपोंछा करती और दोपहर में जानवरों के लिए चारा लाने चली जाती.

अब सुमेर सिंह की तिरछी निगाहें हमेशा रूपा पर ही होती थीं. उस की मदहोश कर देनी वाली जवानी सुमेर सिंह के सोए हुए शैतान को जगा रही थी. रूपा के सामने तो उस की अपनी बीवी उसे फीकी लगने लगी थी.

सुमेर सिंह की हवेली पर सारा दिन लोगों का जमावड़ा लगा रहता था, लेकिन शाम को उस की निगाहें रूपा पर ही टिकी होती थीं.

रूपा के जिस्म में गजब की फुरती थी. शाम को जल्दीजल्दी सारे काम निबटा कर अपने घर जाने के लिए तैयार रहती थी. लेकिन सुमेर सिंह देर शाम तक कुछ और छोटेमोटे कामों में उसे हमेशा उलझाए रखता था.

एक दोपहर जब रूपा पगडंडी के रास्ते अपने गांव की ओर बढ़ रही थी, तभी उस के सामने बिरजू आ धमका. उसे देखते ही रूपा ने अपना मुंह फेर लिया.

बिरजू उस से कहने लगा, ‘‘मैं जब भी तेरे सामने आता हूं, तू अपना मुंह क्यों फेर लेती है?’’

‘‘तो मैं क्या करूं? तुम्हें सीने से लगा लूं? मैं तुम जैसे आवारागर्दों के मुंह नहीं लगना चाहती,’’ रूपा ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘देख रूपा, तू भले ही मुझ से नफरत कर ले, लेकिन मैं तो तुझ को प्यार करता ही रहूंगा. आजकल तो मैं ने सुना है, तू ने सुमेर सिंह की हवेली पर काम करना शुरू कर दिया है. शायद तुझे सुमेर सिंह की हैवानियत के बारे में पता नहीं. वह बिलकुल अजगर की तरह है. वह कब शिकारी को अपने चंगुल में फंसा कर निगल जाए, यह किसी को पता नहीं.

‘‘मुझे तो अब यह भी डर सताने लगा है कि कहीं वह तुम्हें नौकरानी से रखैल न बना ले, इसलिए अभी भी कहता हूं, तू मुझ से शादी कर ले.’’

यह सुन कर रूपा का मन हुआ कि वह बिरजू को 2-4 झपड़ जड़ दे, पर फिर लगा कि कहीं न कहीं इस की बातों में सचाई भी हो सकती है.

रूपा पहले भी कई लोगों से सुमेर सिंह की हैवानियत के बारे में सुन चुकी थी. इस के बावजूद वह सुमेर सिंह की गुलामी के अलावा कर भी क्या सकती थी.

इधर सुमेर सिंह रूपा की जवानी का रसपान करने के लिए बेचैन हो रहा था, लेकिन रूपा उस के झांसे में आसानी से आने वाली नहीं थी.

सुमेर सिंह के लिए रूपा कोई बड़ी मछली नहीं थी, जिस के लिए उसे जाल बुनना पड़े.

एक दिन सुमेर सिंह ने रूपा को अपने पास बुलाया और कहा, ‘‘देखो रूपा, तुम कई दिनों से मेरे यहां काम कर रही हो, लेकिन महीने के 5 सौ रुपए से मेरा कर्जा इतनी जल्दी उतरने वाला नहीं है, जितना तुम सोच रही हो. इस में तो कई साल लग सकते हैं.

‘‘मेरे पास एक सुझाव है. तुम अगर चाहो, तो कुछ ही दिनों में मेरा सारा कर्जा उतार सकती हो. तेरी उम्र अभी पढ़नेलिखने और कुछ करने की है, मेरी गुलामी करने की नहीं,’’ सुमेर सिंह के शब्दों में जैसे एक मीठा जहर था.

‘‘मैं आप की बात समझी नहीं?’’ रूपा ने सवालिया नजरों से उसे देखा.

सुमेर सिंह की निगाहें रूपा के जिस्म को भेदने लगीं. फिर वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘मैं तुम से घुमाफिरा कर बात नहीं करूंगा. तुम्हें आज ही एक सौदा करना होगा. अगर तुम्हें मेरा सौदा मंजूर होगा, तो मैं तुम्हारा सारा कर्जा माफ कर दूंगा और इतना ही नहीं, तेरी शादी तक का खर्चा मैं ही दूंगा.’’

रूपा बोली, ‘‘मुझे क्या सौदा करना होगा?’’

‘‘बस, तू कुछ दिनों तक अपनी जवानी का रसपान मुझे करा दे. अगर तुम ने मेरी इच्छा पूरी की, तो मैं भी अपना वादा जरूर निभाऊंगा,’’ सुमेर सिंह के तीखे शब्दों ने जैसे रूपा के जिस्म में आग लगा दी थी.

‘‘आप को मेरे साथ ऐसी गंदी बातें करते हुए शर्म नहीं आई,’’ रूपा गुस्से में आते हुए बोली.

‘‘शर्म की बातें छोड़ और मेरा कहा मान ले. तू क्या समझाती है, तेरा बापू तेरी शादी धूमधाम से कर पाएगा? कतई नहीं, क्योंकि तेरी शादी के लिए वह मुझ से ही उधार लेगा.

‘‘इस बार तो मैं तेरे पूरे परिवार को गुलाम बनाऊंगा. अगर ब्याह के बाद तू मदद के लिए दोबारा मेरे पास आई भी तो मैं तुझे रखैल तक नहीं बनाऊंगा. अच्छी तरह सोच ले. मैं तुझे इस बारे में सोचने के लिए कुछ दिन की मुहलत भी देता हूं. अगर इस के बावजूद भी तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मुझे दूसरा रास्ता भी अपनाना आता है.’’

सुमेर सिंह की कही गई हर बात रूपा के जिस्म में कांटों की तरह चुभती चली गई.

सुमेर सिंह की नीयत का आभास तो उसे पहले से ही था, लेकिन वह इतना बदमाश भी हो सकता है, यह उसे बिलकुल नहीं पता था.

रूपा को अब बिरजू की बातें याद आने लगीं. अब उस के मन में बिरजू के लिए कोई शिकायत नहीं थी.

रूपा ने यह बात किसी को बताना ठीक नहीं समझ. रात को तो वह बिलकुल सो नहीं पाई. सारी रात अपने वजूद के बारे में ही वह सोचती रही.

रूपा को सुमेर सिंह की बातों पर तनिक भी भरोसा नहीं था. उसे इस बात की ज्यादा चिंता होने लगी थी कि अगर अपना तन उसे सौंप भी दिया, तो क्या वह भी अपना वादा पूरा करेगा? अगर ऐसा नहीं हुआ, तो अपना सबकुछ गंवा कर भी बदनामी के अलावा उसे कुछ नहीं मिलेगा.

इधर सुमेर सिंह भी रूपा की जवानी का रसपान करने के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो बस रूपा की हां का इंतजार था. धीरेधीरे वक्त गुजर रहा था. लेकिन रूपा ने उसे अब तक कोई संकेत नहीं दिया था. सुमेर सिंह ने मन ही मन कुछ और सोच लिया था.

यह सोच कर रूपा की भी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उसे खुद को सुमेर सिंह से बचा पाना मुश्किल लग रहा था.

एक दोपहर जब रूपा सुमेर सिंह के खेतों में जानवरों के लिए चारा लाने गई, तो सब से पहले उस की निगाहें बिरजू को तलाशने लगीं, पर बिरजू का कोई अतापता नहीं था. फिर वह अपने काम में लग गई. तभी किसी ने उस के मुंह पर पीछे से हाथ रख दिया.

रूपा को लगा शायद बिरजू होगा, लेकिन जब वह पीछे की ओर मुड़ी, तो दंग रह गई. वह कोई और नहीं, बल्कि सुमेर सिंह था. उस की आंखों में वासना की भूख नजर आ रही थी.

तभी सुमेर सिंह ने रूपा को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ते हुए कहा, ‘‘हुं, आज तुझे मुझ से कोई बचाने वाला नहीं है. अब तेरा इंतजार भी करना बेकार है.’’

‘‘मैं तो बस आज रात आप के पास आने ही वाली थी. अभी आप मुझे छोड़ दीजिए, वरना मैं शोर मचाऊंगी,’’ रूपा ने उस के चंगुल से छूटने की नाकाम कोशिश की.

पर सुमेर सिंह के हौसले बुलंद थे. उस ने रूपा की एक न सुनी और घास की झड़ी में उसे पूरी तरह से दबोच लिया.

रूपा ने उस से छूटने की भरपूर कोशिश की, पर रूपा की नाजुक कलाइयां उस के सामने कुछ खास कमाल न कर सकीं.

अब सुमेर सिंह का भारीभरकम बदन रूपा के जिस्म पर लोट रहा था, फिर धीरेधीरे उस ने रूपा के कपड़े फाड़ने शुरू किए.

जब रूपा ने शोर मचाने की कोशिश की, तो उस ने उस का मुंह उसी के दुपट्टे से बांध दिया, ताकि वह शोर भी न मचा सके.

अब तो रूपा पूरी तरह से सुमेर सिंह के शिकंजे में थी. वह आदमखोर की तरह उस पर झपट पड़ा. इस से पहले वह रूपा को अपनी हवस का शिकार बना पाता, तभी किसी ने उस के सिर पर किसी मजबूत डंडे से ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया. कुछ ही देर में वह ढेर हो गया.

रूपा ने जब गौर से देखा, तो वह कोई और नहीं, बल्कि बिरजू था. तभी वह उठ खड़ी हुई और बिरजू से लिपट गई. उस की आंखों में एक जीत नजर आ रही थी.

बिरजू ने उसे हौसला दिया और कहा, ‘‘तुम्हें अब डरने की कोई जरूरत नहीं है. मैं इसी तरह तेरी हिफाजत जिंदगीभर करता रहूंगा.’’

रूपा ने बिरजू का हाथ थाम लिया और अपने गांव की ओर चल दी.

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 3

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

मुकुल अपनी मां की करतूतों से वाकिफ था. लेकिन मां की वजह से उसे पैसों की तंगी नहीं रहती थी. इसलिए वह चुप रहता था. दूसरी ओर कविता को अपनी ढलती उम्र की चिंता रहती थी. अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

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