आवारा : खोखले उसूलों से लड़ता एक नौजवान

Family Story in Hindi: हाजी साहब के 2 बेटे थे. बड़ा इसलाम व छोटा सलमान. हाजी साहब के पुरखे नवाब थे, इसलिए अभी भी उन का रुतबा नवाबों से कम न था. जमीनजायदाद की भी कमी न थी, इसलिए गांव में ही नहीं, बल्कि पूरे इलाके में उन का रोब था. इसलाम और सलमान की उम्र में सिर्फ एक साल का फर्क था. दोनों ने एकसाथ पढ़ाई शुरू की थी और गांव के ही स्कूल से 10वीं जमात पास की थी. दोनों भाई पढ़ने में होशियार थे. उन के चेहरे बहुतकुछ आपस में मिलतेजुलते थे. धीरेधीरे अब वे जवानी की दहलीज पर पैर रख चुके थे.

हाईस्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही हाजी साहब ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए बनारस भेज दिया. दोनों भाई कालेज के होस्टल में अलगअलग कमरों में रहने लगे थे.

हाजी साहब उन्हें घर से अलगअलग पैसे भेजते थे, ताकि दोनों में तकरार न हो. बड़ा भाई इसलाम, जहां सिर्फ पढ़ाई में ही दिलचस्पी रखता था, वहीं छोटा भाई सलमान पढ़ाईलिखाई के साथसाथ खेलकूद, सिनेमा वगैरह में भी दिलचस्पी रखता था.

वक्त बीतने पर वे दोनों बीए में दाखिला ले चुके थे. उन की पढ़ाई का आखिरी साल था. दोनों पढ़ाई में ज्यादा ध्यान देने लगे थे.

सलमान जब पढ़ाई से ऊब जाता, तो फिल्म देख लिया करता. उस समय सलमान खान की फिल्म ‘सनम बेवफा’ लगी हुई थी. सलमान उस फिल्म को देखने के लिए मचल उठा.

लेकिन जब सलमान सिनेमाघर पहुंचा, खिड़की पर भारी भीड़ देख कर नाउम्मीद हो गया, लेकिन थोड़ी देर बाद उस ने ब्लैक में टिकट खरीद लिया.

सलमान खुशीखुशी सिनेमाघर के भीतर पहुंच कर सीट पर जा बैठा. फिल्म शुरू हो चुकी थी.

सलमान को हैरानी हो रही थी कि इतनी भीड़ के बावजूद उस के बाईं ओर वाली सीट अभी भी खाली थी.

तभी टिकट चैकर ने टौर्च की रोशनी दिखा कर एक बुरकापोश औरत को उस के बगल वाली सीट पर बैठने का इशारा किया.

सलमान की नजरें उस औरत पर टिक गईं. वह जैसे ही उस के बगल में बैठी, खुशबू का एक झोंका उस की नाक में समा गया. सलमान अब उस औरत का चेहरा देखने को उतावला हो उठा.

अचानक उस औरत ने जब अपना बुरका उठाया, तो सलमान ने अंधेरे के बावजूद यह महसूस किया कि वह कोई औरत नहीं, बल्कि 16-17 साल की एक खूबसूरत लड़की थी.

फिल्म खत्म होते ही सलमान उस लड़की के पीछे हो लिया. उस ने उसे मन का मीत बनाने की ठान ली थी.

वह लड़की एक रिकशे में बैठ चुकी थी. सलमान भी दूसरे रिकशे में बैठ कर उस का पीछा करने लगा.

थोड़ी देर बाद लड़की का रिकशा तवायफ गली की ओर मुड़ चुका था. सलमान एकबारगी चौंका, लेकिन वह उसे पाने के लिए सबकुछ करने को तैयार था.

उस लड़की का रिकशा एक खूबसूरत मकान के आगे रुक चुका था. लड़की ने पैसे दिए और मकान के अंदर चली गई.

रिकशे वाले से ही सलमान को पता चला कि वह लड़की सलमा बाई है और उस जैसी खूबसूरत तवायफ पूरे बनारस में नहीं है.

सलमान को न तो सलमा बाई के पेशे से मतलब था और न ही जातिधर्म से, वह तो उस का दीवाना हो चुका था. उस ने मन में ठान लिया था कि नतीजा चाहे कुछ भी क्यों न निकले, अगर निकाह करेगा तो सिर्फ सलमा बाई से, नहीं तो अपनी जान दे देगा.

सलमान का सलमा बाई के कोठे पर आनाजाना शुरू हो गया. सलमा बाई भी उसे चाहने लगी थी. दोनों एकदूसरे पर जान छिड़कने को तैयार थे. इस बात की खबर सलमान के अब्बाअम्मी के पास भी पहुंच चुकी थी.

‘कैसा आवारा लड़का इस खानदान में पैदा हो गया,’ यह कह कर वे दोनों उसे कोसने लगे थे.

इसलाम ने भी सलमान को बहुत समझाया, समाज के तौरतरीके बताए, लेकिन सलमान पर इस का कोई असर न हुआ.

इस पर सलमान कहता, ‘‘भाईजान, जरा उस लड़की को तो देखिए. क्या उसे इस समाज में जीने का हक नहीं है? आखिर यह समाज ही तो उस का जन्मदाता है.

‘‘इस समाज ने आज तक सदियों से चली आ रही बुराई को इसीलिए तो खत्म नहीं किया कि फिर वह अपनी हवस कहां शांत करेगा. इस गली में समाज के गरीब और अमीर, सभी लोग हवस की झोली फैलाए खड़े रहते हैं.

‘‘इस समाज के ठेकेदारों ने ही अपने फायदे के लिए कुछ उसूल बना दिए हैं. औरत को हमेशा हम ने भोगने वाली चीज समझ, उस के दर्द को कभी नहीं समझ.

‘‘मैं इस समाज के रीतिरिवाजों और खोखले उसूलों के खिलाफ आखिरी दम तक लड़ूंगा, चाहे इस का नतीजा जो भी निकले.’’

इसलाम सलमान की यह दलील सुन कर चुप हो गया.

एक दिन तो हद हो गई, जब सलमा को ले कर सलमान अपने गांव की हवेली पर पहुंचा. अब्बा और अम्मी ने उसे एक पल भी घर में ठहरने नहीं दिया.

लेकिन सलमान भी हार नहीं मानने वाला था. वह गांव के ही बचपन के दोस्त राम के घर जा पहुंचा. राम ने उस की काफी तारीफ की, क्योंकि उस ने भी एक तवायफ से शादी कर के समाज के सारे उसूलों को ठेंगा दिखाया था.

राम ने सलमान के निकाह के सारे इंतजाम किए, लेकिन मुल्ला निकाह कराने को तैयार नहीं हुआ. वह बोला, ‘‘मैं एक तवायफ का निकाह करा कर खुद की नजरों में नहीं गिरना चाहता.’’

राम भी हार मानने वाला नहीं था. उस ने अपने एक दोस्त रहीम को निकाह कराने के लिए तैयार किया, क्योंकि वह सारे नियम जानता था. दोनों का निकाह हो गया. राम ने ही उन्हें खेती करने को अपनी जमीन दे दी.

वक्त के साथ सलमा ने एक बेटे को जन्म दिया. बच्चे को पा कर वे दोनों खुशी से फूले न समाए.

जब यह खबर हवेली पहुंची, तो अब्बा और अम्मी की भी खुशियों का ठिकाना न रहा.

पोते की खबर पाते ही वे उस से मिलने को तड़प उठे. जब उन से नहीं रहा गया, तो वे समाज के सारे नियमों को ताक पर रख कर बहूबेटे को घर ले आए.

निम्मो: क्या मनोज को मिला उसका प्यार

बिशना ठाकुर के पास बहुत से मवेशी थे. उन की रखवाली बीरू करता था. वह तब बच्चा ही था. उस की मां ‘बडे़ घर’ यानी बिशना ठाकुर की हवेली में काम करती थीं. बीरू हमेशा घास पर सुस्त पड़ा आकाश में मंडराते कौओं को गिनता रहता था.

खेत जोतने के बाद खाना खाने के लिए मनोज घर नहीं जा पाता था कि कहीं मौका पा कर बैल सारी खेती साफ न कर डालें. अगर वे ठाकुर के खेतों में घुस जाते तो डांटफटकार सुननी पड़ती थी, इसीलिए मनोज की मां जब खेतों की रखवाली करने जाने लगतीं, तो रास्ते में उसे भात दे जाती थीं. उधर बीरू के लिए भी बड़े प्यार से कटोरदान में खाना आता था. वे दोनों साथ बैठ कर खाते थे. उसे उस कटोरदान का बड़ा घमंड था.

बीरू के लिए खाना बड़े घर की नौकरानी निम्मो लाती थी. उस घर में वह कहां से और कैसे आई, यह कोई नहीं जानता था. मनोज को यकीन था कि उसे तनख्वाह नहीं मिलती थी, बल्कि सिर्फ खाना और कपड़ा मिलता था. वह तब छोटी ही थी. उस की उम्र 13 या 14 साल रही होगी. तब मनोज 15 या 16 बरस का था.

निम्मो सांवली थी, पर थी खूबसूरत. उस की देह सुडौल और गठी हुई थी. मनोज को देखते ही निम्मो पता नहीं क्यों नाकभौं सिकोड़ लेती थी. मनोज के भात के साथ सब्जी नहीं होती थी. अचार भी बेस्वाद सा ही होता था. शायद वह इसीलिए चिढ़ती थी या फिर इसलिए कि मनोज ठाकुर के खेतों में बैल चराता था. लेकिन निम्मो उसे बहुत अच्छी लगती थी.

मनोज ने तो कई बार उस से बात करने की कोशिश की, लेकिन बदले में उसे सिर्फ झिड़कियां ही सुनने को मिलीं. बीरू को सिर्फ खाने से मतलब होता था. वह कभी निम्मो की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखता था.

एक दिन निम्मो ने बीरू के हिस्से में से थोड़ा सा अचार मनोज को भी दे दिया. अचार बहुत जायकेदार था. यह बात उस ने निम्मो से भी कही. उस के बाद वह हमेशा मनोज के लिए भी अचार के 1-2 टुकड़े ले आती थी. कई बार उस ने मनोज को थोड़ी सब्जी भी दी. अब वह झिड़कती तो नहीं थी, लेकिन बातें अभी भी नहीं हो पाती थीं.

निम्मो मनोज को अब बहुत ही प्यारी लगने लगी थी. उस ने कई बार उस के पास बैठ कर बातें करने की कोशिश की, पर वह ऐसे दूर भगा देती, मानो वह अछूत हो. दरअसल, मनोज उसे ही अछूत समझता था.

एक दिन बीरू खाना खा रहा था. निम्मो ने घास काटी और गट्ठर बांधा. फिर कटोरदान धो कर घर जाने की तैयारी करने लगी. वह चाहती थी कि मनोज घास का गट्ठर उस के सिर पर रखवा दे. वह बोली, ‘‘यह बीरू से तो उठेगा नहीं.’’

मनोज ने गट्ठर उस के सिर पर रखवा दिया. तब उसे पता चला कि वह बहुत ही हलका था. उसे उठाने के लिए किसी की मदद की जरूरत नहीं थी.

वे दोनों आमनेसामने खड़े थे. सिर पर गट्ठर रखवाते हुए मनोज के हाथ निम्मो की छातियों से टकरा गए. उसे झुरझुरी सी महसूस हुई. सारा शरीर गरम हो गया और दिल जैसे आसमान में उड़ने लगा.

निम्मो मुंह फेर कर ऐसे भागी, जैसे वह बहुत जल्दी में हो. मनोज उसे देखता ही रह गया. बीरू तब भी आसमान में मंडराते हुए कौए गिन रहा था.

इस घटना के बाद मनोज निम्मो को और भी ज्यादा चाहने लगा. जायकेदार अचार में से एक हिस्सा उसे मिलता रहता था. अब तो सब्जी भी रोजाना मिलने लगी. बीरू इस बात से चिढ़ता था, लेकिन छोटा होने की वजह से एतराज नहीं कर पाता था.

निम्मो ने अब रोजाना घास ले जाना शुरू कर दिया. उस का गट्ठर हर रोज भारी होता जा रहा था. मनोज निम्मो के जिस्म के सुडौल हिस्सों की बनावट पहचानने लगा था.

इस बीच मनोज निम्मो को पागलपन की हद तक चाहने लगा था. बिशना ठाकुर को मदद की जरूरत होती तो वह खुशी से चला जाता, ताकि निम्मो के साथ काम कर सके. वह घास के गट्ठर उठाने में हमेशा उस की मदद करता.

इस दौरान निम्मो से मनोज की बात नहीं हो पाई, क्योंकि खेतों में काम करने वाली औरतें उसे नफरत भरी निगाहों से देखती थीं. मनोज यह सब ताड़ जाता और लोगों की मौजूदगी में निम्मो भी ऐसा दिखावा करती, जैसे उस से बहुत नफरत करती हो. तब वह परेशान हो जाता. समझ नहीं पाता कि क्या करे.

फसल कटने के बाद निम्मो से मुलाकात नहीं हो पाई थी. मनोज बेचैनी से इंतजार करने लगा कि कब सर्दियां आएं और उसे पशुओं की रखवाली का मौका मिले.

उन्हीं दिनों बिशना ठाकुर की पत्नी बीमार हो गईं, इसलिए निम्मो के लिए घर के तमाम काम बढ़ गए. उस ने घास काटना बंद कर दिया. एक दिन वह बीरू को खाना पहुंचाने आई, तो उस के साथ एक और लड़की भी थी.

उस दिन निम्मो ने घास काटी और मनोज ने हमेशा की तरह गट्ठर उठाने में उस की मदद की. वह बोली, ‘‘आज से मेरी जगह यह लड़की खाना लाया करेगी.’’

मनोज के घर की माली हालत अच्छी नहीं थी. पिताजी अब भी कर्ज में डूबे हुए थे. सारी कमाई तो ब्याज में चली जाती थी. जरूरी कामों के लिए फिर कर्ज लेना पड़ता था. जिंदगी में बड़ी कड़वाहट आ चुकी थी.

उन्हीं दिनों गांव के कुछ लड़के कोलकाता चले गए थे. वे छुट्टी ले कर घर आते तो सारे गांव में उन का रोब पड़ता था. आखिरकार एक दिन मनोज भी अपने ही गांव के एक लड़के तिलक के साथ कोलकाता चला गया. वहां जा कर वह एक कारखाने में मजदूरी करने लगा.

मनोज के दोस्त छुट्टियों में घर जाते, लेकिन वह नहीं जाता था मानो इस काम के लिए उस के पास पैसे ही न हों. पिताजी चिट्ठियों में पैसों के लिए तकाजा करते, तो वह उन को मनीऔर्डर भेज दिया करता.

तकरीबन 3 साल बाद कारखाने की नौकरी छोड़ कर मनोज ने पान और सिगरेटबीड़ी की छोटी सी दुकान खोल ली. देखते ही देखते अच्छी आमदनी होने लगी. वह हर महीने अपने पिताजी को मनीऔर्डर भेजता रहता था. इस दौरान निम्मो के बारे में उसे कोई खबर नहीं मिली. वह अब उस से मिलने के लिए बेताब रहने लगा था.

इसी तड़प ने मनोज को गांव जाने के लिए मजबूर कर दिया. वहां पहुंचते ही उस ने सब से पहले निम्मो का पता लगाया. मालूम हुआ कि बिशना ठाकुर की बीवी को मरे 2 साल हो चुके हैं और उस घर में अब निम्मो का रोब चलता है. खेतों में काम करना तो दूर, वह उन दिनों घर से बहुत ही कम बाहर निकलती थी. अब वह कपड़े भी शानदार पहनती थी. नौकरचाकर उस से कांपते थे.

पिताजी के मना करने पर भी मनोज बिशना ठाकुर से मिलने बड़े घर गया. वहां पर न तो निम्मो दिखाई पड़ी और न ही उस के बारे में किसी से पूछा ही. बीरू ने भी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. मनोज ने इधरउधर की कुछ बातें पूछीं, पर वह टाल गया.

मनोज बहुत बेचैन रहा. बड़े तालाब के किनारे सब्जियों का खेत था. एक दिन वहां से गुजरते वक्त मनोज ने देखा कि निम्मो कोई सब्जी तोड़ रही है. उस की जवानी और गदराए बदन को देख कर वह सिहर उठा. एकटक उस की तरफ देखता रहा. समझ में नहीं आ रहा था कि उस से क्या कहे. आखिर में हिम्मत कर के उसे अपने पास बुला ही लिया.

निम्मो ने मुड़ कर मनोज की तरफ देखा, लेकिन उस के चेहरे पर जरा भी परेशानी नहीं थी.

‘‘निम्मो, मैं कोलकाता से कुछ दिनों के लिए आया हूं. मैं ने ठाकुर का सारा कर्ज चुका दिया है,’’ मनोज ने मुसकराते हुए कहा.

निम्मो खामोश ही रही. मनोज की बात को जैसे उस ने सुना ही न हो.

अचानक मनोज पूछ बैठा, ‘‘क्या हम… शादी कर सकते हैं?’’

‘‘नहीं…’’ वह उसे घूरते हुए बोली.

‘‘क्यों?’’

निम्मो ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हें नहीं चाहती. अगर तुम ने ठाकुर का कर्ज चुका दिया है, तो कौन सा एहसान किया है… वैसे, कोलकाता में मजदूरी ही तो करते हो…’’

‘‘नहीं निम्मो,’’ मनोज ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘पिछले साल मैं ने पानसिगरेट की दुकान खोल ली थी. अब मैं काफी पैसे कमा लेता हूं.’’

मनोज ने अपने उजले कपड़ों और घड़ी की ओर निगाह डालते हुए अकड़ कर कहा, ‘‘तुम्हें पहले वाले और अब के मनोज में कोई फर्क नजर नहीं आ रहा? मैं तुम्हें पलकों पर बिठाऊंगा.’’

‘‘बसबस… अब ज्यादा शेखी बघारने की जरूरत नहीं,’’ निम्मो ने नफरतभरी नजरों से मनोज की ओर देखा, ‘‘पान की दुकान खोल लेने से कोई धन्ना सेठ तो नहीं बन गए. मैं भी अब पहले वाली निम्मो नहीं रही… ठाकुर की हवेली की मालकिन हूं.

‘‘फेरे नहीं लिए तो क्या हुआ… ठाकुर तो अब दिनरात मेरे तलवे चाटता है. जहांजहां तक उस का दबदबा है, वहांवहां पर अब मेरी हुकूमत चलती है.

‘‘जितना तुम महीने में कमाते हो, उतना तो मैं बिंदी, पाउडर और क्रीम पर ही खर्च कर देती हूं,’’ निम्मो ने होंठों को सिकोड़ते हुए ताना कसा, ‘‘अरे कंगले, यहां मैं लाखों की मालकिन हूं… नौकरचाकर मुझे ‘सेठानी’ कहते हैं. मुझ से ब्याह करने के सपने अब भूल कर भी मत देखना… अपनी औकात मत भूल,’’ निम्मो गुस्से से पैर पटकते हुए हवेली की ओर चली गई.

मनोज डबडबाई आंखों से उसे जाते हुए देखता रहा. घर लौटते समय इस मतलबी दुनिया की सचाई उस की आंखों के आगे घूमने लगी, ‘इस दुनिया में पैसा ही सबकुछ है. पैसे के बिना आदमी की औकात दो कौड़ी की भी नहीं होती.’

गांव अब मनोज को काटने को दौड़ रहा था. वह मायूस रहने लगा. मां के आंसुओं की परवाह किए बगैर वह इस वादे के साथ कोलकाता लौट गया कि उसे अब उसे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना है.

अब मनोज सुबह 8 बजे से ले कर रात 10-11 बजे तक दुकान खुली रखता, खूब मेहनत करता. नजदीक ही एक सिनेमाहाल बन जाने की वजह से वह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा. एक छोकरा भी मदद के लिए रख लिया. लेकिन गांव से सैकड़ों मील दूर कोलकाता में रहते हुए भी वह निम्मो को भुला नहीं पाया.

तकरीबन ढाई साल बाद मनोज फिर गांव गया. वह निम्मो से मिलने के लिए बेचैन था. शाम को उस के पैर बड़े घर की ओर बढ़ चले थे. थोड़ा आगे जाने पर उसे अपना पुराना दोस्त चमन मिल गया.

बातों ही बातों में मनोज ने चमन से निम्मो के बारे में पूछा, तो उस ने एक जोरदार ठहाका लगाया, ‘‘अरे, उस की मत पूछ… खुद को मालकिन और सेठानी समझने लगी थी, पर ठाकुर के मरते ही वह अपनी औकात पर आ गई…’’

‘‘क्या ठाकुर चल बसे…?’’ मनोज ने चौंक कर पूछा.

‘‘अरे, तुम्हें मालूम नहीं,’’ चमन हैरानी से बोला, ‘‘3-4 महीने पहले ही तो उन की मौत हुई थी. जैसे ही ठाकुर ने आंखें मूंदी, उन के बेटों ने उस बेहया को जूते मारमार कर हवेली से बाहर निकाल दिया.’’

‘‘तो निम्मो अब कहां रहती है?’’ मनोज ने जल्दी से पूछा.

‘‘अरे भैया, रहना कहां है… अपने सूबेदार जैमल सिंह दयालु आदमी हैं. उन्होंने उसे एक छोटी सी कोठरी रहने को दे रखी है. उन्हीं के खेतों में मजदूरी करती है और घर में सूबेदारनी की सेवाटहल करती रहती है… बड़ी चली थी मालकिन बनने…’’ कह कर चमन खिलखिलाता हुआ आगे बढ़ गया.

मनोज चंद पलों के लिए तो हक्काबक्का वहीं खड़ा रहा. अंधेरा घिर आया था. वह थके कदमों से घर की ओर चल पड़ा. खाना भी उस ने बेमन से खाया. रात को एक पल के लिए भी उसे नींद नहीं आई. सुबह जल्दी से नहाधो कर वह सूबेदार जैमल सिंह के घर की ओर चल पड़ा. बाहर का दरवाजा भीतर से बंद था. खटखटाने के थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला.

अचानक निम्मो को बेचारगी की हालत में देख मनोज हैरान रह गया. वह एकदम सूख कर कांटा हो गई थी. चेहरे पर जैसे कालिख पोत दी गई थी.

मनोज कुछ कह पाता, इस से पहले ही वह धीरे से बोली, ‘‘तुम… कोलकाता से कब आए?’’

‘‘सूबेदारजी घर पर हैं?’’ मनोज ने धीरे से पूछा.

‘‘नहीं… घर में इस वक्त मैं अकेली ही हूं… सभी लोग पास के गांव में एक ब्याह में गए हैं.’’

‘‘चलो, यह भी अच्छा हुआ निम्मो, मैं सिर्फ तुम से ही मिलने आया हूं… अंदर आने को नहीं कहोगी?’’

‘‘मुझे से मिलने…? खैर, आओ,’’ कह कर निम्मो अंदर की ओर मुड़ गई.

मनोज उस के पीछेपीछे आंगन में जा कर चारपाई पर बैठ गया. निम्मो जमीन पर बिछी बोरी पर बैठ गई.

‘‘निम्मो, मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है… और, वैसे भी हमें यहां अकेले… यानी मैं और तुम… लोग बेकार में बातें बनाएंगे…’’

‘‘मैं बहुत बदनाम हो चुकी हूं… मैं… बस एक जिंदा लाश बन कर रह गई हूं,’’ डबडबाई आंखों से वह बोली, ‘‘खैर, यह बताओ, मुझ से क्या काम है?’’

‘‘ढाई साल पहले मैं ने तुम्हारे सामने शादी की बात रखी थी, मगर तब की बात और थी. मुझे चमन ने सबकुछ बता दिया है. जो हुआ उसे भूल जाओ… मैं आज भी तुम्हारे लिए तड़प रहा हूं… मुझे तुम्हारी जरूरत है निम्मो, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘क्या…? सबकुछ जानने के बाद भी…?’’ निम्मो ने मनोज को घूरते हुए कहा, ‘‘तुम सचमुच पागल हो. यहां गांव के लोग मुझे धंधेवाली, रखैल… और न जाने क्याक्या कहते रहते हैं… और तुम मुझ से ब्याह करोगे? यह दुनिया बहुत जालिम है. फिर मैं ने तो हमेशा तुम्हारी बेइज्जती ही की है… तुम्हें दुत्कारा है…’’

‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहता. मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मेरे घर वाले, जातिबिरादरी और गांव वाले मुझे ऐसा कदम उठाने की कभी भी इजाजत नहीं देंगे… लेकिन मैं हर हालत में तुम से ही ब्याह करूंगा.’’

मनोज पलभर रुक कर आगे बोला, ‘‘मैं मांबाप से कोलकाता जल्दी लौटने का कोई बहाना बना लूंगा… तुम आज से ठीक 3 दिन बाद… यानी इतवार की सुबह मुझे स्टेशन पर मिलना. गाड़ी

7 बजे यहां पहुंचती है… सोमवार की सुबहसुबह हम कोलकाता पहुंच जाएंगे, जहां हम ब्याह करेंगे और अपनी एक नई दुनिया बसाएंगे… अब इनकार मत करना.’’

‘‘यकीन रखो, मैं जरूर आऊंगी. तुम स्टेशन पर मेरा इंतजार करना,’’ निम्मो ने हौले से कहा.

इतवार की सुबह 6 बजे ही मनोज रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया था. अभी चारों ओर अंधेरा ही था. वह बेसब्री से निम्मो का इंतजार करने लगा.

धीरेधीरे अंधेरा छंटने लगा था. लेकिन मनोज दुख, चिंता और नाकामियों के अंधेरे में घिरता चला जा रहा था. घड़ी में समय देखा. 7 बजने में 10 मिनट बाकी थे. उस की उम्मीदों पर काली छाया फैलने लगी थी कि अचानक निम्मो को आते हुए देख कर वह उस की ओर दौड़ा.

निम्मो के पास पहुंच कर मनोज ने हांफते हुए कहा, ‘‘निम्मो, गाड़ी आने ही वाली है… मैं टिकट ले कर आता हूं. हमें होशियार रहना होगा… कहीं कोई जानपहचान वाला न मिल जाए… बेकार में मुसीबत खड़ी हो जाएगी.

‘‘मैं तुम्हें इशारा करूंगा. तुम जनाना डब्बे में चढ़ जाना. अगले स्टेशन पर मैं तुम्हें अपने डब्बे में ले आऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ निम्मो ने इधरउधर देखते हुए डरी हुई आवाज में कहा.

मनोज फौरन टिकट ले कर प्लेटफार्म पर आ खड़ा हुआ. जल्दी ही गाड़ी आ गई. वह निम्मो के करीब पहुंच गया और इशारे से उसे जनाना डब्बे में चढ़ा कर दरवाजे पर ही खड़ा हो गया. तभी गार्ड ने सीटी बजाई और हरी झंडी दिखाई.

धीरेधीरे गाड़ी सरकने लगी. मनोज खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया. सुबह की ठंडी हवा के झोंकों के संग मनोज को यों महसूस हुआ, जैसे वह किसी उड़नखटोले पर सवार हो कर ऊंचे, नीले आसमान में घने बादलों में तैरता हुआ उड़ा चला जा रहा है. उस उड़नखटोले में वह अकेला नहीं था, उस की निम्मो भी उस के साथ थी.

प्याज के आंसू: क्यों पत्नी ने बर्बाद कर दिया पति का जीवन

आज घर का माहौल बहुत गमगीन था. भैया का सामान ट्रक से उतारा जा रहा था और हमारे पुराने घर में इस सामान के लिए  जैसेतैसे जगह बनाई जा रही थी. मेरे भतीजे और ममेरे, फुफेरे भाई सभी सजल नेत्रों के साथ सामान उतार रहे थे. वे किस तरह सहेज और संभाल कर सामान उतार रहे थे उसे देख कर मन भीग सा गया. काश, भाभी भी जीवन को इसी तरह सहेज कर चलतीं तो दरके मन के साथ भैया को आज यह दिन तो नहीं देखना पड़ता.

मन बरबस ही आज से 12 साल पहले  के माहौल में चला गया जब भैया मात्र 20 वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी प्राप्त करने में सफल रहे थे. घर में मम्मीपापा ही क्या हम सब भाईबहन भी बेहद खुश थे. भैया दिल्ली में सेना मुख्यालय में निजी सहायक के पद पर चयनित हुए थे. 2 साल की कड़ी मेहनत के बाद उन के जीवन में खुशी का यह क्षण आया था.

मम्मी और पापा यह सोच कर अत्यंत  भावुक हो गए थे कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में बेटा कहां रहेगा, उस के खानेपीने का ध्यान कौन रखेगा, लेकिन भैया बहुत उत्साहित थे. एक युवा मन में नौकरी पाने के बाद जो उमंग और उत्साह होता है वह सब भैया में मौजूद था.

भैया अपना सूटकेस ले कर एक अनजान शहर में जा चुके थे. दिल्ली जैसे महानगर में रहने की समस्या, खानेपीने की समस्या और आफिस आनेजाने की समस्या से भी भैया का सामना हुआ और उन्होंने इस का न केवल डट कर मुकाबला किया बल्कि इस पर विजय भी पाई.

बड़े शहर में जितने जन उतने सपने. हर इनसान एक जीताजागता सपना होता है और अपने सपने से संघर्ष करता हुआ नजर आता है. भैया भी इस भीड़ में शामिल हो गए थे और अपने सपनों को साकार करने में जुट गए.

भैया ने पढ़ाई से नाता जोड़े रखा और तमाम तरह की तकलीफों से अकेले जूझते हुए उन्होंने अपना ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया और अपनेआप को सिविल सेवा के लिए तैयार करने में जुट गए लेकिन वह इस में सफल नहीं हो सके.

भैया को जब भी अवकाश मिलता था वह घर आ जाते थे और हम सब मिल कर बहुत खुश होते थे. धीरेधीरे 5 वर्ष निकल गए. इन 5 सालों में बहुत कुछ बदल गया था. पापा अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. मैं खुद इंजीनियरिंग करने के बाद एक अदद नौकरी की तलाश में भटक रहा था. उधर भैया भी अपना जीवन स्तर उठाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. हम सब बहुत ही खुश थे और जिंदगी ठीकठाक चल रही थी.

भैया के सरकारी नौकरी में होने की वजह से उन के लिए जगहजगह से शादी के रिश्ते आने लगे थे. भैया बेहद स्मार्ट एवं सुडौल शरीर के मालिक थे. उन्हें ऐसी लड़की चाहिए थी जो पढ़ीलिखी, सुंदर व तेज दिमाग वाली हो ताकि दिल्ली जैसे शहर की सचाइयों के साथ जी सके और साथ ही भैया को अपनी परिपक्वता से कुछ सुकून के पल दे सके क्योंकि वह अब तक संघर्ष कर के बुरी तरह थक चुके थे और प्यार की, अपनत्व भरे सहयोग की शीतल छांव में थोड़ा विश्राम करना चाहते थे.

भैया की यह तलाश इंदौर जा कर समाप्त हुई. शादी बहुत ही धूमधाम से हुई. शादी में दोनों परिवारों ने दिल खोल कर खर्च किया था. शादी संपन्न होने के बाद सभी अपनीअपनी घरगृहस्थी में रम गए. भैयाभाभी बहुत खुश थे. दोनों ने मिल कर कहीं बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाया और वे लोग हनीमून मनाने के लिए शिमला गए.

मम्मीपापा  भी अपने को थोड़ा हलका महसूस कर रहे थे क्योंकि पापा ने अपनी एक जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभा दी थी. भैया अपनी नौकरी और पत्नी में लीन हो  गए. कभीकभी मम्मी शिकायत भरे लहजे में कह भी देती थीं कि शादी के बाद तू बदल गया है, लेकिन ऐसा शायद नहीं था.

भैया ने भाभी को भी आगे पढ़ने व अपना एक मुकाम हासिल करने के लिए प्रेरित किया लेकिन अपने अंतर्मुखी स्वभाव के चलते वह वैसा न कर सकीं जैसा भैया चाहते थे. वह अपने को पति तक ही सीमित रखती थीं और  घर में किसी से ज्यादा बात नहीं करती थीं. यहां तक कि मम्मी और पापा से भी वह बात करना पसंद नहीं करती थीं.

भैया सदैव भाभी को खुश रखने का प्रयास करते थे. उन्हें न केवल सारी सुख- सुविधा देने का प्रयास करते बल्कि भाभी की हर इच्छा को पूरी करना अपना कर्तव्य समझते थे. अपने प्रति भैया का यह लगाव भाभी ने उन की कमजोरी समझ लिया और फिर पूरे षड्यंत्र के तहत वह सब किया जो आज की आम बात हो गई है.

भैया के घर आने पर वह किसी को कुछ नहीं समझती थीं लेकिन हम लोग भैया के डर से चुप रहते थे और सोचते थे कि थोड़े दिनों के लिए ये आए हैं जैसे रहते हैं रहने दिया जाए क्योंकि दोनों अपनी जिंदगी से खुश थे और उन की खुशी में ही हम सब की खुशी थी.

भाभी हमेशा अपने मायके वालों को ही सबकुछ समझती रहीं और उन के अंदर कभी इस परिवार के प्रति समर्पण व त्याग की भावना नहीं जागी जिस में वह शादी कर के आई थीं. शायद उन की शिक्षा ही ऐसी थी कि उन का दिमाग सदैव इसी बात में लगा रहता था कि किस प्रकार भैया को घर की तरफ से विमुख रखा जाए.

भैया का वैचारिक स्तर काफी ऊंचा व सुलझा हुआ था. भैया और मम्मी की वैचारिक बहस में कभीकभी मतभेद हो जाया करता था और इस वैचारिक मतभेद का भाभी व उन के मायके वालों ने बड़ा गलत फायदा उठाया. भाभी  को कभी भी हमारे परिवार के सदस्यों का सम्मान करने की शिक्षा नहीं दी गई. भैया भी भाभी पर ही विश्वास करते थे लेकिन भाभी लगातार इसी विश्वास का फायदा उठाने में लगी थीं और अपने घर वालों के साथ मिल कर भैया को उन के परिवार से दूर रखने का घिनौना प्रयास ही करती रहीं.

भाभी के मम्मीपापा व अन्य रिश्तेदार उन का लगातार दिमाग खराब कर रहे थे. वे इन बातों को समझ नहीं पा रही थीं कि ऐसा कर के अपनी ही घरगृहस्थी में सेंध लगा रही हैं. भैया को उन के परिवार से दूर रखने की जो कुत्सित मुहिम चलाई जा रही थी उस का पता उन को अपने ही ससुराल के एक अन्य सदस्य से लग गया और भैया ने अपने ससुराल वालों के यहां आनाजाना व उन्हें महत्त्व देना बंद कर दिया, लेकिन तब तक भाभी का दिमाग इतना खराब कर दिया गया था कि वह इस से उबर नहीं पा रही थीं और उन्हें वही सही लगता था जो उन के मायके वाले कहते थे. और आखिर तक इस मकड़जाल से वह कभी नहीं निकल पाईं. भाभी का दिमाग इतना खराब कर दिया गया कि वह भैया पर शक करने लगीं. भैया की हर गतिविधि को शक के घेरे में रख कर देखने लगीं और उन का दिमाग एक कूड़ेदान की तरह हो गया था जिस में कितनी भी अच्छी बातों को डाला जाए वह सड़  ही जाती है.

भैया ने भाभी को प्यार से कई बार समझाने का प्रयत्न किया और कहा कि अपना दिमाग ठीक रखो. भाभी के शंकालु स्वभाव के कारण भैया की परेशानी बढ़ गई और वह चिड़चिड़े हो गए. जब भाभी प्यार से नहीं मानती थीं तो धीरेधीरे उन के बीच झगड़ा होने लगा और उन का घरेलू जीवन एकदम नीरस हो गया. दोनों अकेले रहते थे लेकिन खुश नहीं थे.  भैया, भाभी को अपने  हिसाब से  रहने को कहते थे परंतु भाभी का अहंम बहुत ही चरम पर था. उन्होंने भैया की कोई बात न मानने की जैसे कसम ही खा ली थी.

भैया को अपने सपने टूटते से लगे और धीरेधीरे यह बात घर के बड़ेबुजुर्गों तक भी पहुंच गई. भैया को यह जान कर भी बहुत दुख हुआ था कि भाभी के मायके वाले भी उन्हें समझाने को तैयार नहीं थे और लगातार षड्यंत्र रच रहे थे.

भैया और भाभी के बीच का तनाव इतना ज्यादा बढ़ गया कि उसे देख कर दोनों परिवार के सदस्य परेशान हो गए. भाभी चोरीछिपे अपने मायके फोन कर के उलटासीधा बताने लगीं जिस ने जलती आग में घी का काम किया. समस्या के प्रति भाभी के मायके वाले कभी गंभीर नहीं रहे और उन्होंने कभी आमनेसामने खुल कर बात नहीं की और फिर वही हुआ जिस का सब को डर था.

एक रात भाभी दिल्ली जैसे शहर से अकेली भैया को बिना बताए ही अपने मायके पहुंच गईं. उन के घर के लोग पहले से ही भरे बैठे थे, उन्होंने भैया को सबक सिखाने की ठान ली.

उधर भाभी के इस तरह से अचानक चले जाने से भैया बहुत परेशान हुए और जगहजगह उन्हें ढूंढ़ते रहे. भाभी के मायके फोन कर के पूछने पर भी उन लोगों ने भैया को नहीं बताया कि भाभी उन के पास पहुंच गई हैं. अंतत: भाभी की गुमशुदगी की रिपोर्ट उन्होंने थाने में दर्ज करवा दी. इसी के बाद भैया के ससुराल के लोग उन्हें बरबाद करने की सोचने लगे.

भैया पर क्या बीत रही है जब इस का पता घर के लोगों को चला तो कुनबे के बड़ेबूढ़ों को ले कर पापा, भाभी को लेने उन के घर गए लेकिन उन्होंने शायद फैसला कर लिया था कि लड़की को नहीं भेजना है. वहां सभी बड़ों का अपमान होता रहा और भाभी परदे के पीछे से यह सब देखती रहीं. क्या मेरे घर के बुजुर्ग उन के कुछ नहीं लगते थे, शायद नहीं, तभी तो वह हमारे परिवार की बुजुर्गियत को शर्मसार होते चुपचाप देखती रही थीं.

इधर भैया यह सोच कर बहुत ही परेशान थे कि जिस औरत के साथ वह पिछले 5 सालों से रह रहे थे और जिस पर वह अपनों से ज्यादा भरोसा करते थे वही औरत उन के साथ इतना बड़ा  विश्वास- घात कैसे कर सकती है, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उस औरत की संवेदनशीलता मर चुकी थी.

भैया ने कई बार भाभी से फोन पर बात करने की कोशिश की लेकिन उन के घर वालों ने भैया को अपनी ही पत्नी से बात नहीं करने दी. इस से बड़ा दुख तो इस बात का है कि भाभी ने कभी एक बार भी अपनी तरफ से भैया से बात नहीं की. भैया एक बार खुद भाभी को लेने पहुंचे तो ससुराल वालों ने सभी परंपराओं व मान्यताओं को ताक पर रख कर उन को बेइज्जत कर के घर से निकाल दिया और यह सब होते हुए भाभी चुपचाप देखती रहीं. इतना सब हो गया कि आपस का प्यार व विश्वास तारतार हो गया. रहीसही कसर भाभी की उस हरकत ने पूरी कर दी जिसे आज औरत अपना सब से बड़ा हथियार मानती है और वह है भारतीय कानून की धारा 498.

भाभी ने भैया पर कई बेबुनियाद आरोप लगाए, उन्हें चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की, उन पर मारपीट करने, दहेज के लिए प्रताडि़त करने का आरोप लगाया और ऐसे आरोप भैया के लिए मौत के समान थे. वह अपने पर लगाए गए आरोपों से टूट गए. भाभी ने मम्मी व मुझ पर भी आरोप लगाए, मेरी बड़ी बहन पर भी आरोप लगाए जबकि हम सब उन से करीब 1,500 किलोमीटर दूर रहते हैं. लेकिन यह एक परंपरा चल निकली है कि दहेज के  घेरे में सभी को रखा जाए और परेशान किया जाए, भले ही सचाई से इस का कोई लेनादेना नहीं. पुलिस भी कानून के आगे बेबस है.

भैया के लिए इन आरोपों का आघात किसी वज्रपात से कम न था. उन का सारा जीवन तबाह हो गया. इस घटना के बाद हंसतेमुसकराते भैया गम के गहरे सागर में चले गए थे जहां से उबरना उन के लिए शायद अब कभी संभव नहीं होगा. और हम लोग उन्हें धीरेधीरे खत्म होते देखने के लिए विवश थे.

भैया के लिए यह असहनीय बात थी कि वह एक ऐसी औरत के साथ पूरे मन से रह रहे थे जो पूरे मन के साथ उन के साथ नहीं रह रही थी. वह दोहरे चरित्र की साक्षी थीं. उन के दिलोदिमाग में भैया के लिए कितना जहर भरा था यह उन के द्वारा लिखे गए शिकायती पत्रों से पता चलता है जोकि उन्होंने थाने में व भैया के आफिस में लिखे और जिस के कारण भैया की सरकारी नौकरी चली गई.

उस दिन तो भैया पूरी तरह से ही टूट गए जिस दिन इंदौर की पुलिस ने मां व दीदी को थाने में आने के लिए कहा. भाभी को इस बात का एहसास ही नहीं था कि वह क्या कर रही हैं. किसी की मांबहन को पुलिस से बेइज्जत कराने का क्या मतलब होता है? यह शायद उन्हें मालूम नहीं था, और फिर क्या मेरी मां तथा दीदी उन की कुछ नहीं लगती थीं, शायद नहीं.

आज भैया बीमार हैं और बहुत ही थकेथके से लगते हैं. वे अकेले में बहुत रोते हैं और शायद उन का पुरुष मन उन्हें सब के सामने रोने नहीं देता इसलिए वे रसोई में प्याज काटने चले जाते हैं ताकि उन की आंखों के पानी को प्याज की तिक्तता समझा जाए लेकिन मैं इतना नादान नहीं था.

मैं जब भी भैया को देखता यही सोचता कि इस देश का कानून क्यों एक औरत को इतनी निरंकुश होने की इजाजत देता है कि वह अपने अहं को शांत करने के लिए सबकुछ बरबाद कर दे, किसी के भी आत्मसम्मान के साथ मनमाना खेल, खेल सके.

पूरे घटनाक्रम में भाभी पूरी तरह से स्वयं षड्यंत्र का शिकार नजर आ रही थीं.

भारत में औरत को त्याग, बलिदान व  तपस्या की मूर्ति कहा जाता है लेकिन भाभी तो छोड़ गई थीं भैया को तिलतिल कर मरने के लिए. मुझे तो इस बात का भी आश्चर्य है कि वह इतना सब होते हुए प्रत्यक्ष देखने के बाद इस संसार में कैसे चैन से रह सकेंगी, कैसे वह अपनेआप से नजरें मिला सकेंगी और इस दंश से अपनेआप को कैसे मुक्त कर सकेंगी कि वह एक घर से भागी हुई तथा एक जिंदादिल इनसान और उस की रोजीरोटी की हत्यारिन हैं.

ट्रक वाला मुझ से बाकी पैसे देने को कह रहा था और मेरी तंद्रा टूट गई. मैं वर्तमान में आ गया था. भैया का सामान उतारा जा चुका था और भैया के स्वर्णिम कैरियर का दुखद अंत हो चुका था.

लेखक- छबी पराते

लौट आओ अपने वतन- विदेशी चकाचौंध में फंसी उर्वशी

लंदन एयरपोर्ट पर ज्यों ही वे तीनों आधी रात उतरे, उर्वशी को छोड़ उस के मम्मीपापा का चेहरा एकाएक उतर गया. आंखें नम हो आईं.

एयरपोर्ट पर हर तरफ जगमगाहट थी. चकाचौंध इतनी थी कि रात होने का आभास ही नहीं हो रहा था.

इस चकाचौंध में भी उर्वशी के मम्मीपापा के चेहरों की उदासी साफ झलक रही थी. उर्वशी का रिश्ता तय करने के लिए वे लंदन उसे लड़के वालों को दिखाने लाए थे, लेकिन उन का मन इतना उदास था कि मानो उसे विदा करने आए हों.

सड़क  के दोनों ओर बड़ीबड़ी स्ट्रीट लाइटें, हर चौराहे पर रैड सिगनल, मुस्तैदी से ड्यूटी निभा रही टै्रफिक

पुलिस, साफसुथरी, चौड़ी सड़कों पर दौड़तीभागती लंबीलंबी चमचमाती कारें, बाइक, साइकिलें और विक्टोरिया (तांगे), पैदल यात्रियों के लिए ईंटों से बने फुटपाथ, अनगिनत दुकानें, मौल वहां की शोभा बढ़ा रहे थे.

उस समय लंदन की ठिठुरन वाली ठंड में भी हाफ जींस, टीशर्ट डाले, हर उम्र के कई जोड़े स्टालों पर कोल्डडिं्रक, आइसक्रीम का मजा उठाते दिखे. कहीं कोई तनाव नहीं. सुकूनभरी जीवनशैली चलती दिख रही थी.

विशाल बहुमंजिला इमारतें और उन पर टंगे बड़ेबड़े ग्लोसाइन. रास्ते में कई छोटेछोटे पार्क और उन की शोभा बढ़ाते फुहारे. हर तरफ एक सिस्टम. उर्वशी तो जैसे दूसरी दुनिया में भ्रमण कर रही थी. उस के चेहरे का उत्साह देखते ही बनता था. मन ही मन अनेक सपने संजोए उस ने. अपने वतन से कोसों दूर लंदन में अपने लिए वर देखने आना उर्वशी का उद्देश्य था. वह भारत में अपनी शादी के लिए किसी से भी बात करने में अपनी तौहीन समझती थी. और तो और अपनी मातृभाषा में बात करना भी उसे पसंद नहीं था. गिनती के लड़केलड़कियों से ही उस की मित्रता थी.

उसे लगता कि हर भारतीय गंदगी, आलस्य और बेचारगी में जीता है. भारतीय कामचोर होते हैं. यहां के बड़ेबड़े घोटाले, किसानों की लाचारी और नेताओं के बड़ेबड़े लच्छेदार भाषण? सारा दोष पब्लिक का ही तो है. यहां की सड़कें तो गायभैंसों के लिए बनी हैं ताकि वे सड़क के बीचोंबीच जुगाली कर सकें, धूलधुएं से भरा वातावरण, चूहोंमच्छरों से अस्तव्यस्त जनजीवन. ऊपर से दौड़तेभागते कुत्तों का झुंड. पान की पीकों से रंगी दीवारें, सड़कें,  बेतरतीबी से बने मकान, सोच कर ही उबकाई आने लगती थी उसे.

जमाने से चला आ रहा ‘ओल्ड फैशंड’ धोतीकुरता, सलवारजंपर, ऊपर से दुपट्टा. एडि़यों से ऊपर उठी सिमटीसिकुड़ी साडि़यां और किलो के भाव से लदे सोनेचांदी के जेवर, भला यह भी कोई पहनावा है? न चेहरे पर कोई क्रीम, न बौडीलोशन लेकिन खुद को फैशनेबल मानने वाली ये औरतें? कहीं कोई मैचिंग नहीं. अगर कपड़े ठीकठाक हों तो भी पैरों में फटी खुली जूतियां, जैसे मुंह चिढ़ा रही हों.

जेन ड्राइव कर रहा था. उर्वशी का ध्यान उस की तरफ नहीं था. उस का नाम जेन नहीं था. लेकिन जयदीप से बदल कर उस ने अपना अंगरेजों वाला नाम रख लिया था. पूरे परिवार में मात्र उर्वशी ही थी, जिस ने अपनी सभ्यता, संस्कृति बिलकुल पीछे छोड़ रखी थी. पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण कर खुद को अंगरेजों जैसा ही बना डाला था उस ने.

शौर्ट स्कर्ट, पैंसिल हील वाले सैंडल, जींस, ब्रेसलेट यही सब उर्वशी को पसंद था. कंधों तक का स्टाइलिश हेयरकट, इंगलिश फिल्मों और पौप म्यूजिक की शौकीन, कांटेछुरी से खाना, एकदम बोल्ड.

भारत में तो उर्वशी को एक भी लड़का पसंद नहीं आया था. यों कहें कि वह किसी भी लड़के को देखनेमिलने में इच्छुक ही नहीं थी. उस की तो इच्छा ही थी कि उस की शादी इंडिया से बाहर ही हो चाहे वह अमेरिका हो, आस्ट्रेलिया या फिर ब्रिटेन ही क्यों न हो, पर वह भारत में शादी नहीं करेगी. चाहे उसे जिंदगी यों ही क्यों न गुजारनी पड़े.

हरियाणा में रहने वाली उर्वशी की बूआ, जो अब मुंबई में थीं और अपनी पंजाबी बोलना नहीं भूल पाईर् थीं, को उर्वशी की मम्मी सरला ने फोन किया. एक समय था जब बूआजी को उर्वशी की मम्मी से बात करना पसंद नहीं था, लेकिन आज उर्वशी के लिए रिश्ता बताने के लिए उन्होंने फोन किया, ‘‘भाभीजी, तुसी

उर्वशी दे ब्याह दी चिंता न करो. चाहो ते इक फोटो भिजवा देवो, मुंडे दी माताजी नू. इक मुंडा हैगा लंडन विच… काफी साल होए, मां हरियाणा दी रहण वाली सी. मां चाहंदी है कि लड़के दा ब्याह हिंदुस्तानी कुड़ी नाल होवे. इस वास्ते मैं फून कीत्ता…’’ बस, इधर बूआ से फोन पर बात हुई और उधर उर्वशी का परिवार लंदन पहुंचा.

जेन को देखते ही उर्वशी को लगा कि जैसे उस के सपनों का राजकुमार मिल गया हो. उस ने उर्वशी का बैग  पिछली सीट पर डाला और तुरंत डिग्गी खोल दी. तब उर्वशी ने देखा कि उस के मम्मीपापा ने अपनेअपने बैग उठा कर डिग्गी में खुद ही रखे थे. थोड़ा बुरा तो लगा था तब उसे. जेन के कहने पर वह आगे की सीट पर बैठी थी.

जयदीप से जेन तक की कहानी लंबी तो नहीं थी. जेन का परिवार हरियाणा का था. 18 वर्ष से वे लंदन में रचबस गए. होश संभालते ही जयदीप ने सब से पहला और बड़ा काम यही किया कि अपना नाम बदल कर जेन रख लिया. साथ ही अपना तौरतरीका व रहनसहन भी बदल डाला. उसे देख कोई कह ही नहीं सकता था कि वह हिंदुस्तानी है.

उर्वशी को एक नजर में वह भा तो गया, पर अभी ढेर सारी जांचपड़ताल जो करनी थी उसे.

घर कालोनी में था और काफी अच्छा भी था. बड़ा सा मेन गेट और गेट के दोनों तरफ एक कतार में नारियल के कई ऊंचेलंबे वृक्ष मकान की शोभा बढ़ा रहे थे. हर कमरा बड़ी तरतीब से सजा हुआ मिला. पर वहां रहने वाले मात्र 2 प्राणी थे. एक उस की मम्मी और दूसरा खुद वह.

चंद मिनटों में उन के सामने जेन की मम्मी ने हिंदुस्तानी भोजन परोसा, उन की मम्मी आनेजाने वाले हर हिंदुस्तानी को खुद खाना बना कर ऐसे ही खिलाती थीं, फिर देर तक हिंदुस्तान में रह रहे खासमखास लोगों के विषय में पूछती रहीं, बतियाती रहीं. वे बड़ी सलीकेदार थीं, व्यावहारिक थीं. उन के मन में कई बातों की पीड़ा थी, दर्द था जो जबान से फूट पड़ा था.

‘‘अब तो जीनामरना, सबकुछ यहीं होगा. अपने वतन की खूब याद सताती है. फिर इस के डैडी ने तो हम से नाता ही तोड़ रखा है. एक अंगरेजन के साथ रह रहे हैं. वह तो अच्छा है जो यह नौकरी कर रहा है. वरना बड़ी खराब जगह है यह और लोग बड़े गंदे हैं. बस, चमकदमक के अलावा और कुछ भी नहीं है यहां. मन तो नहीं लगता, देखो, लड़का क्या चाहता है?’’

फिर थोड़ा ठहर कर, एक लंबी सांस खींची. जब वे बोलीं तो भीतर की कड़वाहट चेहरे पर साफ झलक रही थी, ‘‘अगर अंगरेजन के चंगुल से इस के डैडी मुक्त हो जाएं तो यकीन मानें, यह देश छोड़ अपने वतन लौट आऊंगी. काश, ऐसा हो जाए.’’

जेन और उर्वशी के बीच बातचीत अधिकतर अंगरेजी में ही होती थी. जेन की फर्राटेदार अंगरेजी कभीकभी उर्वशी समझ नहीं पाती. फिर भी वह संभाल लेती. ऐसा नहीं कि जेन हिंदी नहीं जानता था, पर टूटीफूटी. हिंदी बोलतेबोलते न जाने कब अंगरेजी में घुस जाता…

‘‘चलो, तुम्हें घुमा लाऊं,’’ बात दूसरे दिन की शाम की थी. खुशीखुशी उर्वशी ने मम्मीपापा को भी साथ चलने के लिए कहा. सुनते ही जेन आगबबूला हो गया और बोला, ‘‘हमारे बीच इन बुड्ढों का क्या काम? सारा मजा किरकिरा हो जाएगा. यह तुम्हारा इंडिया नहीं, जहां कहीं भी पूरा परिवार एकसाथ निकल पड़े. यहां का कल्चर, सोसाइटी, कुछ अलग है, तभी तो यह लंदन है.’’

वह अभी और कुछ कहता, तभी सरलाजी उर्वशी को देख कर अपनी आंख हौले से भींचते हुए इशारा कर बोलीं, ‘‘तुम दोनों हो आओ, जयदीप ठीक ही कह रहा है?’’

‘‘मेरा नाम जेन है. जयदीप नहीं. इस घटिया नाम से मुझे फिर न बुलाएं. सो प्लीज, जेन कहा करें,’’ उस ने एतराज जताते हुए कहा.

‘‘ओह, सौरी जेन, आगे से याद रखूंगी,’’ सरलाजी ने सुधार कर उस हिप्पी जेन से क्षमा मांगी. उधर पापाजी  का चेहरा तमतमा उठा. उर्वशी अपनी मम्मी का इशारा समझ जेन के साथ हो ली. तब जेन का व्यवहार उसे जरा भी नहीं भाया था. ऐसा रूखापन?

काफी देर इधरउधर भटकने के बाद वे दोनों डिस्कोथिक गए. आधी रात गए डिस्कोथिक में कईकई जोड़े थिरकते दिखे. कुछ पल वह भी उर्वशी के साथ डांस फ्लोर पर रहा. फिर वह एक अंगरेज युवती के साथ देर तक डांस करता रहा.

उर्वशी जेन को देर तक निहारती रही. उसे समझने का प्रयास करती रही पर विफल रही. अभी वह उस के विषय में सोच ही रही थी कि किसी ने उस के कंधे पर हाथ रखा. वह चौंक पड़ी. सामने एक युवक खड़ा था. वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘डांस प्लीज?’’

‘‘वाय नौट,’’ वह उठ खड़ी हुई.

अभी उस ने डांस शुरू किया ही था कि उसे महसूस हुआ कि वह बदतमीजी पर उतर आया है. यही नहीं उस की बदतमीजी लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उस ने खुद को  छुड़ाने की कोशिश की, पर अपने को छुड़ा नहीं पाई और जेन से चिल्लाचिल्ला कर मदद मांगने लगी पर जेन ने यह सब देख कर भी अनदेखा कर दिया. जैसेतैसे वह खुद मुक्त हुई और साथ ही उस ने एक जोरदार थप्पड़ उस व्यक्ति के चेहरे पर रसीद कर दिया. अंगरेज थप्पड़ खा कर तिलमिला उठा था.

जोरदार थप्पड़ की झनझनाहट से उस का सिर घूम गया था. वह कुछ भी कर जाता, अगर जेन ने मिन्नतें न की होतीं. काफी देर बाद वह शांत हुआ और जेन को धक्का देते हुए वहां से हट गया. जेन ने इस बात की नाराजगी उर्वशी पर निकाली, ‘‘जानती हो, वह एक गुंडा है. फिर, वह कौन सा निगल रहा था तुम्हें?’’

‘‘तो क्या तुम किसी के साथ हो रहे अन्याय को बस देखते ही रहोगे. विरोध नहीं करोगे उस का? कैसी परवरिश है तुम्हारी?’’ उर्वशी गुस्से में बोली.

‘‘छोड़ो भी, तुम लोगों को जीना आता ही कहां है? हर पल किसी न किसी से उलझते ही रहो बस,’’ जेन बोला.

उर्वशी ने जेन से उलझना उचित नहीं समझा और चुपचाप घर लौट आई. फिर तो रास्तेभर दोनों ने एकदूसरे से बिल्कुल भी बात नहीं की. मम्मीपापा को सोता देख वह भी सोने चली गई.

‘‘कैसा रहा जेन के साथ कल का दिन तुम्हारा?’’ सरलाजी ने उर्वशी से पूछा. उस ने मुंह बिचका दिया. सरलाजी के होंठों पर एक मुसकान तैर गई. एक  शाम को उर्वशी और उस के मम्मीपापा को जेन समुद्र किनारे ले गया.

समुद्रतट पर अंगरेजों का साम्राज्य था. नंगेधड़ंगे, कुछ तो हदें पार कर रहे थे. सरलाजी उर्वशी के साथ थीं इसलिए, बात घुमा कर बोलीं, ‘‘चलो, यहां से… बहुत घूम लिए. फिर मेरी तो सांस भी फूलने लगी है.’’ फिर वे लौटते हुए देर तक न जाने क्याक्या बड़बड़ाती रही थीं. वैसे उर्वशी को समुद्रतट का नजारा जरा भी न भाया था. यहां के लोग सभ्य, सलीके वाले होते हैं, भ्रम टूटने लगा था अब तो.

जेन ने डायनिंग टेबल पर पूछा, ‘‘कैसा लगा हमारा लंदन?’’ उस ने शराब के 2 पैग बना, मम्मीपापाजी को पेश किए. पापाजी के इनकार करने पर उस ने कहा, ‘‘आप इंडिया के लोग शराब नहीं पीते? फिर जीते कैसे हैं?’’ यही वजह है कि भारत हमेशा पीछे रहा है. अब यहां के लोगों को ही देख लें. हर कोई एंजौय करता है. जेन का इतना कहना ही उस के लिए मुसीबत ले आया. अपने को बहुत

देर से दबा कर बैठी उर्वशी अपना आपा खो बैठी जैसे सहस्र बिच्छुओं ने उसे एकसाथ काट खाया हो. ऊंची आवाज में वह कहती रही और जेन स्तब्ध खड़ा बस, सुनता ही रहा.

‘‘मैं ने यहां की तहजीब और तमीज अच्छी तरह महसूस कर ली है. बड़ीबड़ी इमारतों और झूठी चकाचौंध के अलावा और कुछ नहीं पाया. यहां बुजुर्गों का तो जरा भी लिहाज नहीं. नग्नता के अलावा और कुछ भी नहीं. जबरन एंजौय का ढोंग. फिर तुम्हारी मम्मी के होते, तुम्हारे पापा ने कितना घृणित काम किया? यही है यहां का कल्चर. औैर बात इतने में खत्म नहीं होती. तुम बुजदिल हो. तुम में इंसानियत नाम की चीज नहीं है. मेरा भारत महान है, महान ही रहेगा. वहां दिखावा नहीं है. सच्चे, सीधेसादे लोग बसते हैं, हमारे वतन में.’’

वह तैश में थी, थोड़ा ठहर कर, पल भर रुक कर बोली, ‘‘जयदीप, तुम भी अंगरेज नहीं हो. नाम बदल लेने से किसी के संस्कार, संस्कृति नहीं बदलती, समझे मिस्टर जेन. तुम भी हिंदुस्तानी हो. इस देश ने तुम में अहम भर दिया है. इस देश में तुम पूरी जिंदगी क्यों न बिता लो, तब भी तुम्हारी यहां कोई अहमियत नहीं है. मेरी यह बात याद रखना.’’

हक्काबक्का जेन स्तब्ध खड़ा सुन रहा था. जेन की माताजी भी सिर झुकाए, शर्म से गढ़ी खड़ी थीं. मम्मीपापा के साथ उर्वशी ने डायनिंग टेबल छोड़ दी. उर्वशी ने महसूस किया कि उस के मम्मीपापा की आंखों से अविरल आंसुओं की धारा बह रही थी. वे खुश थे यह जान कर कि उन की बेटी अब इस लायक हो गई है कि वह अच्छेबुरे की पहचान कर सके और वे लोग उसे नासमझ समझते रहे थे.

बेहद दृढ़ स्वर में उर्वशी बोली, ‘‘हम कल लौट रहे हैं अपने वतन, तुम्हारा लंदन तुम्हें ही मुबारक. एक बात और कि तुम हमें छोड़ने नहीं आओगे.’’

उर्वशी का तमतमाया चेहरा देखने की ताकत जेन में थी ही नहीं, उस ने चुपचाप वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी.

लेखक- केशव राम वाड़दे

गंध मादन : कर्नल साहब क्यों निराश नहीं किया – भाग 3

कर्नल साहब जल्दी लौटने की बात कहते हुए गेट तक आए. मैं ने फिर उत्सुकतावश कैक्टस और क्रोटन के पौधों को देखते हुए पूछा, ‘‘अंकल, क्या आंटी को भी फूलों का शौक नहीं है.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘उसे तो फूलों से बहुत प्यार है, लेकिन मैं लगाने नहीं देता.’’

‘‘क्यों अंकल?’’

कर्नल साहब ने आंखों से गोपनीयता का इशारा किया और फिर उन के मुंह से यह शेर फूटा, ‘‘मैं वो गुलशन गजिदा हूं कि तनहाई के मौसम में, नहीं होते अगर कांटे तो डंसती है कली मुझ को.’’

शाम को वापस आतेआते मुझे साढ़े 7 बज गए थे. केयूर भी कुछ देर पहले ही आया था. कर्नल साहब तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठे थे. उन के सामने मेज पर 3 कट ग्लास, डिकैंटर में व्हिस्की और प्लेट में स्नैक्स थे. केयूर एक ओर बैठा टीवी देख रहा था.

मेरे आते ही उन्होंने केयूर को अपने पास बुलाया और हम दोनों को बैठने को कहा, ‘‘आओ भाई, जल्दी करो. मैं क्लब से कबाब, फिश और चिप्स लाया हूं. मेरे क्लब जैसा कबाब पूरी दिल्ली में कहीं नहीं मिलेगा.’’

आंटी किचेन में एप्रन पहने खाना बना रही थीं, आकर बोलीं, ‘‘चिकन बना रही हूं, 1 घंटे में खाना तैयार हो जाएगा.’’

कर्नल साहब ने इतनी तैयारी की थी, इतना उत्साहित थे और इतना अपनापन था कि मैं उन्हें निराश नहीं कर सका.

आंटी ने प्लेट में कुछ और खाने का सामान ला कर दिया. केयूर ने कहा, ‘‘सर, कल 10 बजे मुझे इंटरव्यू में भी जाना है.’’

कर्नल साहब ने कबाब का एक टुकड़ा उठाते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं 5 बजे उठा दूंगा.’’

हमारे खानेपीने के दौरान आंटी हाथ में कोल्ड ड्रिंक ले कर आईं और कुरसी खींच कर बैठ गईं. पसीना पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इसीलिए तो हम ने अपनाअपना बेड अलग कर लिया है. मैं गेस्टरूम में शिफ्ट कर गई हूं.’’

कर्नल साहब ने कृत्रिम गंभीर मुद्रा बना कर कहा, ‘‘देखा यारों, बुढ़ापे में बीवी भी साथ छोड़ देती है.’’

आंटी हंस कर बोलीं, ‘‘बात यह है कि ये रोज शाम को 9 बजे तक खाना खा कर कुछ देर टेलीविजन देखते हैं फिर 10 बजतेबजते खर्राटा मारने लगते हैं. मेरा काम 10 बजे के बाद शुरू होता है, क्लास की तैयारी, पेपर्स करेक्ट करना, सवाल सेट करना और इन कामों में ही मुझे 12 बज जाते हैं. फिर यह उठते हैं 5 बजे सुबह. जौगिंग के लिए कपड़े बदलते हैं, खटरपटर करते हैं, बाथरूम जाते हैं, मेरी नींद में खलल पड़ता है.’’

कर्नल साहब बोले, ‘‘कितना कहता हूं कि तुम भी जौगिंग पर चलो, नहीं तो कम से कम सुबह की सैर ही किया करो स्लिमट्रिम हो जाओगी. लेकिन यह मानने वाली नहीं हैं. देखते हो, इन का पेट कितना निकल आया है.’’

आंटी उठ कर बोलीं, ‘‘बेटा, 12 बजे रात तक काम करने के बाद सुबह 5 बजे उठ कर सैर पर जाना क्या संभव है. फिर घुटने में दर्द रहता है इसलिए भी ज्यादा चल नहीं सकती.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘मेरे साथ गोल्फ खेलो, सब ठीक हो जाएगा.’’

आंटी बोलीं, ‘‘तुम्हारी तरह फुरसत कहां कि बनठन कर, सेंट लगा कर क्लब जाओ, मौज करो.’’

आंटी कर्नल साहब के बालों में उंगलियां फंसा कर उन्हें बिखराते हुए किचेन की ओर चली गईं.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘देखा, मेरे जैसे ब्रिलियंट हार्ड वर्किंग आफिसर को यह कहती हैं मैं कुछ नहीं करता? अब सेंट कहां यारों, नो सेंट, नो फ्लावर.’’

हमें याद आया, ‘‘हां अंकल, ये फूलों का राज क्या है?’’

‘‘ओह,’’ कर्नल साहब मुसकराए और बोले, ‘‘कम आन यंग मैन, बाटम्स. अब याद आने से बहुत तकलीफ होती है. इसीलिए कहता हूं कि…क्या नाम है उस का?’’

‘‘अर्चिता.’’

‘‘हां, अर्चिता को छोड़ना मत. बिलकुल उसी की तरह, फूलों की सुगंध वाली परी. जवानी याद आ जाती है… इसीलिए अब फूल के पौधे नहीं लगाता हूं, न घर में फूलों के गुलदस्ते रखता हूं.’’

कर्नल साहब कुछ देर अतीत में खोए रहे फिर उन्होंने मुसकरा कर कहा, ‘‘जानते हो, मैं हाकी बहुत अच्छी खेलता था. मैं ने नेशनल टीम रिप्रेजेंट की है. उन दिनों हाकी बहुत लोकप्रिय खेल था और हाकी के खिलाड़ी नेशनल स्टार होते थे, आजकल के क्रिकेटर्स की तरह. लड़कियां फिदा रहती थीं. जहां जाता था लड़कियां, एक से एक खूबसूरत, दौड़ी आती थीं. 3 साल की पीस पोस्टिंग थी. क्या दिन थे. देखो, ये मेरी ट्राफियां हैं और वह मेरी फोटो.’’

उन्होंने मेटल पीस और उस की बगल में शीशे की अलमारी की ओर इशारा किया. उस पर उन की यूनिफार्म में फोटो रखी थी. वाकई कर्नल साहब बहुत ही स्मार्ट और खूबसूरत थे.

‘‘जब भी मेरा मैच होता था, वह जरूर देखने आती थी. वह हसीनों में सब से हसीन थी, बिलकुल किसी परी जैसी चलती थी तो लगता था हवा में तैरती हुई आ रही है. देखती थी तो लगता था बोलने की जरूरत नहीं, आंखें ही सबकुछ कह देंगी. गालिब का वह शेर है न :

‘‘क्या हुस्न का अफसाना महफूज हो लफ्जों में,

आंखें ही कहें उस को, आंखों ने जो देखा है.’’

‘‘उस की पर्सनाल्टी को कोई बयान नहीं कर सकता. देख लिया तो समझो दिमाग पर नकशा बन गया. मरते दम तक याद रहा. वह क्या नाम है, अर्चिता? वह भी कुछ उसी की तरह है. लंबी गरदन के ऊपर चेहरा हमेशा लगता था मानो एक गुलाब है, जो अभीअभी खिला है, ओस की बूंदों के साथ. जब भी उसे देखता था मुझे 2 ही फूल याद आते थे, एक गुलाब और दूसरा सूरजमुखी. हमेशा ताजा गुलाब सा चेहरा और जब किसी की ओर मुड़ कर देखती थी तो लगता था सूरजमुखी का फूल झुक गया है. उसे देखने के बाद दिल में यही खयाल आता था, ‘‘अब तो यह तमन्ना है किसी को भी न देखूं, सूरत जो दिखा दी है तो ले जाओ नजर भी.’’

आंटी हलके से लंगड़ाती हुई आईं और कुरसी खींच कर बैठ गईं.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘मैं इन दोनों को अपनी जवानी के किस्से सुना रहा था, जब मैं हाकी खेलता था.’’

आंटी के चेहरे पर खुशी की आभा फैल गई. वह हंस कर बोलीं, ‘‘जवानी में तो इन्हें हर महीने एक लड़की से इश्क होता था. वह तो मैं ने पकड़ कर इन्हें बांध लिया तब बंद हुआ.’’

तभी किचेन के अंदर से कुकर की सीटी की आवाज आई. आंटी ने कहा, ‘‘खाना लगाती हूं. बस, 15 मिनट.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘प्रोफेसर की बेटी थी, पढ़ने में तेज थी. मैं तो हमेशा एवरेज स्टूडेंट रहा. जानते हो, उस की सब से बड़ी खूबी थी कि उस के बदन से हमेशा फूलों की सुगंध आती थी. वह न सेंट लगाती थी न इत्र, हलकी लिपस्टिक के अलावा कोई मेकअप भी नहीं करती थी. पाउडर से उसे नफरत थी, फिर भी हमेशा उस के बदन से सुगंध आती थी.’’

‘‘कैसी सुगंध अंकल?’’

‘‘कौन सा फूल है जो सब से अधिक सुगंध वाला है? हां, याद आया, चंपा.’’

‘‘हांहां, मेरे घर में एक पेड़ है. पूरा कंपाउंड उस के फूलों की सुगंध से भर जाता है, अगलबगल के लोग शाम को आते हैं, उस की महक लेने.’’

‘‘हां, चंपा का फूल पूरी दुनिया में सब से अधिक सुगंध वाला फूल है. उस के बदन से हमेशा चंपा के फूलों की महक आती थी.’’

इतना कह कर कर्नल सिंह खामोश हो गए. हम अपनेअपने खयालों में डूबे रहे. फिर मैं ने पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ अंकल?’’

आंटी बगल से प्लेट, ग्लास ले कर गुजरीं. चिकन, प्याज और सब्जी की सुगंध आई. कर्नल साहब बोले, ‘‘बस, खो दिया, पर केयूर, तुम मत खोना. पूरी जिंदगी याद आती रहेगी.’’ वह उठ गए, ‘‘चलो, आंटी की मदद करो, किचेन से खाना ले आओ.’’

खाना खाने के बाद आंटी हम दोनों को अपने बेडरूम में ले गईं. हम लोगों का सामान वहां रखा था. दोनों बेडों पर साफसुथरी चादरें बिछी थीं. हलकी ठंड थी इसलिए खिड़कियां बंद थीं. आंटी ने मुझे बाथरूम दिखाया. सुबह 7 बजे चाय, ओ.के. गुडनाइट.

आंटी चली गईं. हम लोग हाथमुंह धो कर कपड़े बदलने लगे. बगल की मेज पर 1 फोटो रखा था, अति सुंदर तन्वंगी. गौर से देखा, तब पहचाना, वही नाकनक्श और आंखें, आंटी का ही फोटो था, उन की जवानी के दिनों का. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा, ‘‘आंटी का फोटो है, विश्वास नहीं होता. इतनी स्मार्ट, खूबसूरत. इनसान उम्र के साथ कितना बदल जाता है?’’

दिन भर के थके हुए हम दोनों अपने बिस्तर में जा कर चादर ओढ़ कर लेटे ही थे कि तकिए पर सिर रखते ही दोनों झटके से उठ कर बैठ गए और आश्चर्य से एकदूसरे की ओर देखने लगे. अरे, यह क्या? अचानक एहसास हुआ कि पूरे कमरे में चंपा के फूलों की सुगंध फैली थी. हम दोनों को ही कर्नल अंकल की चंपा के फूलों की खुशबू वाली लड़की का खयाल आ गया. पर उन्होंने तो अभी कहा था कि बस…खो दिया. नहीं…उन्होंने उसे पा लिया था.

गंध मादन : कर्नल साहब क्यों निराश नहीं किया – भाग 2

‘‘लेकिन अर्चिता के पिता फौजी से इस की शादी नहीं करना चाहते.’’

‘‘डोंट वरी सर, सिविल में भी फौजी किस्म के बहुत लड़के हैं. मैं सब ठीक कर दूंगा.’’

लगभग 12 बजे हम लोग वहां से निकले तो उन्होंने रास्ते में केयूर से पूछा, ‘‘यार, क्या नाम है तुम्हारा? भूल गया.’’

‘‘केयूर.’’

‘‘हां, केयूर, कहो तो बात करूं? लड़की के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘नहीं अंकल, ऐसी कोई बात नहीं है?’’

‘‘अरे, बेवकूफ, हाथ पकड़ ले, नहीं तो जिंदगी भर मेरी तरह पछताएगा.’’

‘‘आप की तरह?’’

‘‘हां, ऐसी परी जिंदगी में दोबारा नहीं मिलती.’’

केयूर शरमा गया, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है अंकल, केवल मामूली सी जानपहचान है.’’

‘‘मैं आंखें देख कर दिल की आवाज सुन लेता हूं बरखुरदार. जिंदगी भर फौज में लेफ्टराइट किया है और इश्क किया है, इस के अलावा कुछ नहीं,’’ फिर कर्नल सिंह गुनगुनाने लगे, ‘चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल. इक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल.’

कर्नल सिंह की बातों और शायरी के बीच रास्ता कैसे कट गया पता ही नहीं चला. पता तो तब चला जब कार अपनी मंजिल पर पहुंच कर रुकी.

कर्नल साहब का घर छोटा था लेकिन बहुत ही आरामदेह और साफ- सुथरा था. घर के आगेपीछे 2 छोटेछोटे लौन थे. अंदर 2 बड़ेबड़े बेडरूम थे. ऊपरी मंजिल में भी कुछ निर्माण हुआ था जो अधूरा पड़ा था. कर्नल साहब की पत्नी बरामदे में बैठी अखबार पढ़ रही थीं. हम लोग भी वहीं बैठ गए.

आंटी चाय ले आईं. चाय पी कर कर्नल साहब ने अपना मकान और लौन हमें दिखाया. आंटी किचन में चली गईं. उन के लौन में मैं ने एक खास बात मार्क की कि वहां फूल का एक भी पौधा नहीं था. सामने वाले छोटे लौन के बीच में गोल्फ के लिए एक ‘होल’ था जिस में वह ‘पट’ की प्रैक्टिस करते थे.

मैं ने उत्सुकतावश पूछा, ‘‘अंकल, जाड़े की शुरुआत है, लेकिन आप के लौन में फूल का एक भी पौधा नहीं है. क्या आप को फूलों का शौक नहीं है?’’

कर्नल साहब ने संक्षिप्त जवाब दिया, ‘‘पहले था, अब नहीं है.’’

मैं ने उत्सुकतावश पूछा कि अंकल, आप ने आर्मी क्यों छोड़ दी? आप तो मेजर जनरल या लेफ्टिनेंट जनरल हो जाते.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘क्या करता? घर के बहुत सारे झंझट थे. मातापिता की मौत हो गई. 2 बेटियों की शादी करनी थी. वाइफ यहां अकेली पड़ गई,’’ फिर उन्होंने सरगोशी के अंदाज से कहा, ‘‘थोड़ा चेस्ट पेन भी होने लगा था. आर्मी में हर साल मेडिकल चेकअप होता है न? वेरी थारो.’’

‘‘अब फ्री हैं. दोनों बेटियों की शादी कर दी. दोनों अमेरिका में हैं. हम दोनों यहां अकेले हैं. नौकरचाकर का भी झंझट नहीं है. केवल सुबह एक पार्टटाइम सरर्वेंट आती है.’’

केयूर ने अचानक पूछा, ‘‘अंकल, फौजी अफसर हो कर आप को शायरी में इतना शौक कैसे है?’’

कर्नल साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, ‘‘तुम सिविलियंस को गलतफहमी है कि फौजी केवल लेफ्टराइट करते हैं और दारू पीते हैं. फौजी शेरओशायरी, साहित्य के बहुत शौकीन होते हैं. मैं जब 5वीं बटालियन में तैनात था तो हमारी ब्रिगेड के मेजर पंजाबी थे, जिन्हें शायरी का बहुत शौक था. मेस में शाम को एकदो पैग व्हिस्की अंदर गई नहीं कि उन्होंने शायरी शुरू कर दी. 3-4 पेग पीने के बाद तो वह घंटों, शेर, गजल, नज्म सुनाते रहते थे और अंत में वह एक ही नज्म पढ़ते थे, ‘फिर कब आओगे बीमार हो कर?’

आंटी आईं तो अचानक कर्नल साहब ने कहा, ‘‘जानती हो केतकी, इस की जो गर्लफ्रेंड है, शी इज वंडरफुल. इन की शादी करा दो, वरना जे.एन.यू. में एडमिशन हो जाने के बाद उस के पीछे लड़कों की लाइन लग जाएगी. बाद में पछताओगे बरखुरदार,’’ उन्होंने केयूर की ओर इशारा किया.

केयूर शरमा कर बोला, ‘‘नहीं आंटी, ऐसी कोई बात नहीं है, अंकल तो यों ही…’’

आंटी ने मुसकरा कर कर्नल साहब की पीठ पर एक चपत लगाई, ‘‘ये तो रोज पछताते हैं.’’

‘‘अरे, केतकी, तुम अर्चिता को देखना. शी विल बीट आल द फिल्म स्टार्स. अगर 30 साल पहले मुझे मिली होती तो मैं दौड़ कर उस से शादी कर लेता.’’

‘‘30 साल पहले तो वह पैदा ही नहीं हुई थी जनाब,’’ आंटी ने हंसते हुए कहा.

कर्नल साहब ने लंबी सांस ली, ‘‘न जाने खूबसूरत लड़कियां हमेशा देर से क्यों पैदा होती हैं.’’

‘‘अरे, बाबा, तुम लोगों को खाना नहीं खाना है? मैं तो चली, मुझे महिला क्लब की मीटिंग में जाना है. खाना खा कर थोड़ा आराम करूंगी फिर 3 बजे जाऊंगी. 5 बजे तक वापस आ जाऊंगी.’’

‘‘चलिए, हम लोग भी नहा लेते हैं,’’ और आंटी के साथ हम अंदर आ गए.

कर्नल साहब लौन में बैठ कर अखबार पढ़ने लगे. मैं उन के बाथरूम में चला गया. केयूर ड्राइंगरूम से लगे गेस्ट बाथरूम में चला गया. नहा कर हम निकले तो आंटी ने डाइनिंग स्पेस की ओर इशारा किया, ‘‘तुम दोनों बैठो, मैं तुरंत लंच लगाती हूं.’’

लंच खाते समय आंटी ने कर्नल साहब से कहा, ‘‘तुम अपनी चाभी ले लो. हो सकता है मुझे आने में देर हो जाए. तुम्हें भी तो क्लब जाना है न?’’

आंटी ने हम से कहा, ‘‘तुम दोनों बगल वाले मेरे रूम में आराम करो. सब ठीकठाक कर दिया है. कहीं बाहर जाना है तो मैं अपनी ‘स्पेयर की’ दे देती हूं.’’

केयूर ने उठते हुए कहा, ‘‘आंटी, मुझे कनाट प्लेस जाना है. सोचता हूं इंटरव्यू की जगह देख आऊं. दिल्ली दूसरी बार आया हूं, 1-2 परिचितों से मिलना भी है. मैं 7 बजे तक आऊंगा.’’

कर्नल साहब ने ठहाका लगाया, ‘‘अरे, मैडम, अपनी जवानी भूल गई. क्या नाम है उस का? अ…… हां, अर्चिता, उस से भी तो मिलने जाना है. साफसाफ कैसे कहे बेचारा?’’

मैं भी उठते हुए बोला, ‘‘आंटी मैं भी एम्स तक जाऊंगा. कुछ दोस्तों से मिलना है. मैं भी 7 बजे तक आ जाऊंगा.’’

‘‘ओ.के. ब्यौज इंज्वाय योर सेल्फ. लेकिन 7 बजे तक जरूर आ जाना. वी विल हैव ड्रिंक्स टूगेदर, सेलीबे्रट करना है.’’

गंध मादन : कर्नल साहब क्यों निराश नहीं किया – भाग 1

हम लोग राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली लगभग 10 बजे सुबह पहुंचे. हम ने सुबह ट्रेन में ही नाश्ता कर लिया था. हम 3 थे, मैं, मेरा दोस्त केयूर और अर्चिता. तीनों को दिल्ली में अलगअलग काम थे. मुझे इंगलैंड जाने के लिए वीजा बनवाना था, केयूर को एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंटरव्यू देना था और अर्चिता को जे.एन.यू. में एडमिशन के लिए आवेदन करना था.

अर्चिता के चाचा डाक्टर थे और सफदरजंग इनक्लेव में रहते थे, इसलिए उस का वहीं ठहरने का कार्यक्रम था. कर्नल के.के. सिंह की पत्नी वहीं एक कालिज में लेक्चरर थीं. कर्नल सिंह मेरे चाचा ब्रिगेडियर सिन्हा के जिगरी दोस्त थे. दोनों ने एकसाथ कालिज की पढ़ाई की थी. मेरे चाचा इस समय लद्दाख में तैनात थे.

मैं कर्नल के.के. सिंह को बचपन से जानता हूं. पटना मेरे चाचा के यहां वह अकसर आते थे और कई दिनों तक ठहरते थे. मैं जब मेडिकल कालिज में पढ़ता था तो अपने चाचा के यहां अकसर जाता था. मेरी छुट्टियां लगभग वहीं बीतती थीं. इसलिए मैं कर्नल साहब को बहुत नजदीक से जानता था. पहले भी दिल्ली आने पर कई बार उन के यहां ठहरा था.

स्टेशन पर उतर कर हम ने प्लान बनाया कि अर्चिता को प्रीपेड टैक्सी में बिठा कर सफदरजंग भेज देंगे और फिर आटोरिकशा पकड़ कर हम कर्नल साहब के यहां चले जाएंगे. उन से फोन पर बात हो चुकी थी.

लेकिन जब हम अपना सामान ले कर गाड़ी से प्लेटफार्म पर उतरे तो देखा कि कर्नल साहब हाथ हिलाते हुए हम लोगों की ओर आ रहे हैं.

हम लोगों ने उन्हें नमस्कार किया फिर मैं ने केयूर और अर्चिता का उन से परिचय कराया और कहा, ‘‘अंकल, हम लोग तो आ ही जाते. आप इतनी दूर क्यों आए?’’

‘‘वौट नानसेंस, आज संडे है, कोई काम नहीं है. केवल दोपहर को क्लब जाना है, मीटिंग है. तब तक एकदम फ्री हूं. इसी बहाने सैर हो गई.’’

कर्नल के.के. सिंह ने केयूर और अर्चिता को गंभीर हो कर गौर से देखा, फिर मुसकराए और बोले, ‘‘एक्सिलेंट, स्मार्ट हैंडसम बौय, ब्यूटीफुल गर्ल.’’

उस के बाद कर्नल सिंह ने आगे बढ़ कर सब इंतजाम टेकओवर कर लिया. तुरंत कुली बुलवाया, अपनी कार में सामान रखवाया, कुली को भुगतान किया. हम लोगों ने जब इस का विरोध किया तो हमें डांटते हुए बोले, ‘‘कम आन, गेट इन. मेरा भतीजा है, पेमेंट करेगा?’’ कौन कहां बैठेगा? इस पर वह बोले, ‘‘शमीक, तुम शादीशुदा हो इसलिए आगे बैठोगे, और तुम दोनों पीछे.’’

जब अर्चिता ने कहा कि उसे नजदीक ही तो जाना है, टैक्सी ले लेगी तो उन्होंने चेहरे पर गंभीर भाव लाते हुए उसे कार के अंदर बैठा कर कार स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘नो, मैं कभी अलाउ नहीं कर सकता, मेरी जिंदगी का सिद्धांत है और मैं उसे कभी तोड़ नहीं सकता.’’

अर्चिता ने पूछा, ‘‘कैसा सिद्धांत सर?’’

कर्नल साहब गाड़ी निकालते हुए हंस कर बोले, ‘‘मैं कभी भी खूबसूरत, स्मार्ट लड़की को अकेले नहीं जाने देता.’’

अर्चिता के चाचा के घर पहुंच कर हम ने बाहर से ही विदा मांगी तो उस ने औपचारिकतावश कहा, ‘‘आइए, चाय पी कर जाइए, चाचाचाची से भी मिल लीजिएगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘फिर कभी, अब देर हो गई है.’’

लेकिन तब तक कर्नल साहब गाड़ी से उतर कर, शीशा चढ़ा कर गाड़ी लाक कर के तैयार हो गए थे, ‘‘हांहां, चलो, एक कप चाय हो जाए और तुम्हारे चाचाचाची से भी मिल लेंगे. उन्हें भी तसल्ली हो जाएगी कि हम जैसे भले आदमियों ने उन की इतनी खूबसूरत भतीजी को सही- सलामत घर तक पहुंचा दिया है.’’

मैं तो उन को मुंहबाए खड़ा देखता रह गया. तब तक वे अर्चिता के साथ आगे बढ़ गए. कर्नल साहब, अर्चिता के चाचाचाची से बेहद गरमजोशी से मिले. चाय पीतेपीते उन्होंने उन दोनों पर भी पूरी तरह कब्जा कर लिया था. तरहतरह के किस्से सुनाते रहे और केयूर की तारीफ करते रहे. मैं आश्चर्य से सबकुछ सुनता रहा. जिस शख्स से वह आज पहली बार मिले हैं उस के बारे में यों बात कर रहे थे मानो बचपन से जानते हों. फिर अर्चिता की तारीफ करते हुए उन्होंने चाचाचाची को समझा दिया कि वह उन की भतीजी के लिए एवन लड़का लाएंगे, नो तिलक, नो दहेज, सबकुछ मुझ पर छोड़ दीजिए.

7 बजे की ट्रेन: रेणु क्यों उदास रहती थी?

Family Story in Hindi: एक उदास शाम थी. स्टेशन के बाहर गुलमोहर के पीले सूखे पत्ते पसरे हुए थे जो हवा के धीमे थपेड़ों से उड़ कर इधरउधर हो रहे थे. स्टेशन पहुंचने के बाद उन्हीं पत्तों के बीच से हो कर रेणू प्लेटफौर्म के अंदर आ चुकी थी. वह धीमेधीमे कदमों से प्लेटफौर्म के एक किनारे पर स्थित महिला वेटिंगरूम की ओर जा रही थी. 7 बजे की ट्रेन थी और अभी 6 ही बजे थे. ट्रेन के आने में देर थी. शहर में उस की मां का घर स्टेशन से दूर है और ट्रांसपोर्टेशन की भी बहुत अच्छी सुविधा नहीं है. इसलिए वहां से थोड़ा समय हाथ में रख कर ही चलना पड़ता है, लेकिन आज संयोग से तुरंत ही एक खाली आटो मिल गया जिस के कारण रेणू स्टेशन जल्दी पहुंच गई थी. पिताजी की मृत्यु के बाद मां घर में अकेली ही रह गई थी. घर के सामने सड़क के दूसरी ओर एक पीपल का पेड़ था और उस के बाद थोड़ी दूरी पर एक बड़ा सा तालाब. दोपहर के समय सड़क एकदम सुनसान हो जाती थी.

कम आबादी होने के कारण इधर कम ही लोग आतेजाते थे. सुबह तो थोड़ी चहलपहल रहती भी थी पर दोपहर होतेहोते, जिन्हें काम पर जाना होता वे काम पर चले जाते बाकी अपने घरों में दुबक जाते. दूर तक सन्नाटा पसरा रहता. यह सूनापन मां के घर के आंगन में भी उतर आता था. घर के आंगन में स्थित हरसिंगार की छाया तब छोटी हो जाती.

मां कितनी अकेली हो गई थी. आज जब वह घर से निकल रही थी तो मां उस का हाथ पकड़ कर रोने लगी. इतना लाचार और उदास उस ने मां को कभी नहीं देखा था. उस की आंखों में अजीब सी बेचैनी और बेचारगी झलक रही थी.

जब वह छोटी थी तो घर की सारी जिम्मेदारियां मां ही उठाती थी. वह मानसिक रूप से कितनी मजबूत थी. पिताजी तो अपने काम से अकसर बाहर ही रहते थे. बस, वे महीने के आखिर में अपनी सारी कमाई मां के हाथ में रख देते थे. घरबाहर का सारा काम मां ही किया करती थी. उसे स्कूल, ट्यूशन छोड़ना और लाना सब वही करती थी. उस समय तो वह इलाका जहां आज उन का घर है, और भी उजाड़ था. स्कूल बस के आने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था.

उसे याद है जब एक बार वह बीमार हो गई थी और कोई रिकशा नहीं मिल रहा था तो मां उसे अपनी गोद में ले कर उस सड़क तक ले गई थी जहां आटोरिकशा मिलता था. उस के बाद वहां से शहर के नामी अस्पताल में ले गई थी और उस का इलाज कराया था. तब उसे डाक्टरों ने 3 दिन तक अस्पताल में भरती रखा था. मां कितनी मुस्तैदी से अकेले ही अस्पताल में रह कर उस की देखभाल करती रही थी. पिताजी तो उस के एक सप्ताह बाद ही आ पाए थे. इस बार मां बता रही थी कि जब वह बीमार हुई तो 3 दिन तक बुखार से घर में अकेले तड़पती रही. कोई उसे डाक्टर के पास ले जाने वाला भी कोई नहीं था. वह तो भला हो दूध वाले का, जिस ने दया कर के एक दिन उसे डाक्टर के यहां पहुंचा दिया था.

यह सब बताते हुए मां कितनी बेबस और कमजोर दिख रही थी. उम्र के इस पड़ाव में अकेले रह जाना एक अभिशाप ही तो है. रेणू यह सब सोच ही रही थी.

रेणू अपने मांबाप की इकलौती संतान थी. उस के मातापिता ने कभी दूसरे संतान की चाहत नहीं की. वे कहते कि एक ही बच्चे को अगर अच्छे से पढ़ायालिखाया जाए तो वह 10 के बराबर होता है. रेणू को याद है कि उस की बड़ी ताई ने जब उस की मां से कहा था कि अनुराधा, तुम्हारे एक बेटा होता तो अच्छा रहता, तो कैसे उस की मां उन पर झुंझला गई थी. वह कहने लगी थी कि आज के जमाने में बेटी और बेटा में भी भला कोई अंतर रह गया है. बेटियां आजकल बेटों से बढ़ कर काम कर रही हैं. हम तो अपनी बेटी को बेटे से बढ़ कर परवरिश देंगे. प्लेटफौर्म पर कोई ट्रेन आ कर रुकी थी, जिस के यात्री गाड़ी से उतर रहे थे. अचानक प्लेटफौर्म पर भीड़ हो गई थी. लाउडस्पीकर पर ट्रेन के आने और उस के गंतव्य के संबंध में घोषणा हो रही थी. रेणू ने तय किया कि वेटिंगरूम में जाने से पूर्व एक कप चाय पी ली जाए और तब फिर आराम से वेटिंगरूम में कोई पत्रिका पढ़ते हुए समय आसानी से गुजर जाएगा. यही सोच कर वह एक टी स्टौल पर

रुक गई. उस के मांपिताजी ने उसे पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इंजीनियरिंग करने के बाद रेणू आज बेंगलुरु में एक अच्छी कंपनी में कार्य कर रही थी. उस के पति भी वहीं एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे. दोनों की मासिक आय अच्छीखासी थी. किसी चीज की कोई कमी नहीं थी.

अब तक प्लेटफौर्म पर भीड़ छंट चुकी थी. प्लेटफौर्म पर आई गाड़ी निकल चुकी थी. रेणू ने वेटिंगरूम की ओर जाने का निश्चय किया. बगल के बुक स्टौल से उस ने एक पत्रिका भी खरीद ली थी. रेणू धीरेधीरे वेटिंगरूम की ओर बढ़ रही थी पर उस का मन फिर उड़ कर मां के उदास आंगन की ओर चला गया था. क्या मां ने चाय पी होगी? वह सोचने लगी. मां बता रही थी कि अब वह एक वक्त ही खाना बनाती है. एक बार सुबह कुछ बना लिया, फिर उसे ही रात में भी गरम कर के खा लेती थी. जितनी बार खाना बनाओ, उतनी बार बरतन धोने का झंझट.

इस बार रेणू ने अपनी मां को कुछ ज्यादा ही उदास पाया था. इस बार वह आई भी तो पूरे 1 साल के बाद थी. प्राइवेट कंपनी में वेतन भले ही ज्यादा मिलता हो पर जीने की आजादी खत्म हो जाती है और अभी तो उस का तरक्की करने का समय है. अभी तो जितनी मेहनत करेगी उतनी ही तरक्की पाएगी. इतनी दूर बेंगलुरु से बारबार आना संभव भी तो नहीं था. जब तक पिताजी थे, मां अकसर फोन कर के भी उस का हालचाल लेती रहती थी पर अब वह इस बात से भी उदासीन हो गई थी. पहले बगल में मेहरा आंटी रहती थीं तो मां को कुछ सहारा था. उन से बोलबतिया लेती थी और एकदूसरे को मदद भी करती रहती थीं. इस बार जब रेणू आई और उस ने मेहरा आंटी के बारे में पूछा तो मां ने बताया कि उस का बेटा विनीत उसे मुंबई ले कर चला गया है अपने पास. हालांकि रेणू ने यह महसूस किया था कि जैसे मां कह रही हो कि उस का तो बेटा था, उसे अपने साथ ले गया.

अपनी इन्हीं विचारों में डूबी रेणू अचानक से किसी चीज से टकराई, नीचे देखा तो वह एक आदमी था, जिस के दोनों पैर कटे थे. वह हाथ फैला कर उस से भीख मांग रहा था. वह आदमी बारबार अपने दोनों पैर दिखा कर उस से कुछ पैसे देने का अनुरोध कर रहा था. उस के चेहरे पर जो भाव थे, उसे देख कर रेणू चौंक गई. उसे लगा वह मानो गहरे पानी में डूबती जा रही है और सांस नहीं ले पा रही है. ऐसे ही भाव तो उस की मां के चेहरे पर भी थे जब वह अपनी मां से विदा ले रही थी. उसे लगा वह चक्कर खा कर गिर जाएगी. वह बगल में ही पड़ी एक बैंच पर धम्म से बैठ गई. वह आदमी अब भी उस के पैरों के पास उसे आशाभरी नजरों से देख रहा था. उसे उस आदमी की आंखों में अपनी मां की आंखें दिखाई दे रही थीं. ऐसी ही आंखें… बिलकुल ऐसी ही आंखें तो थीं उस की मां की जब वह घर से स्टेशन के लिए निकल रही थी.

रेणू ने अपनी आंखें बंद कर लीं और वहीं बैठी रही. 7 बज गए थे. बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का जोरजोर से अनाउंसमैंट हो रहा था. ट्रेन निकल जाने के बाद प्लेटफौर्म पर शांति छा गई और रेणू के मन में भी. रेणू थोड़ी देर वहीं बैठी रही.

अब उस का मन बहुत हलका हो गया था. आटो में बैठे हुए उस के मोबाइल पर मैसेज प्राप्त होने का रिंगटोन बजा. उस ने देखा कि बेंगलुरु जाने वाली अगले दिन की ट्रेन में 2 लोगों के टिकट कन्फर्म हो गए हैं. उस ने अपने पति को एक थैंक्स का मैसेज भेज दिया. ‘‘मां, आज क्या खाना बना रही हो? बहुत जोरों की भूख लगी है,’’ मां ने जैसे ही दरवाजा खोला, रेणू ने मां से कहा.

‘‘अरे, गई नहीं तुम? क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है? ट्रेन तो नहीं छूट गई?’’ मां के स्वर में बेटी की खैरियत के लिए स्वाभाविक उद्विग्नता थी. ‘‘हां, मां सब ठीक है,’’ कहती हुई रेणू सोफे पर बैठ गई और मां को खींच कर वहीं बिठा लिया और उस की गोद में अपना सिर रख दिया. ऐसी शांति और ऐसा सुख, मां की गोद के अलावा कहां मिल सकता है. रेणू सोच रही थी. उस के गाल पर पानी की 2 गरम बूंदें गिर पड़ीं. ये शायद मां की खुशी के आंसू थे. अगले दिन बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन में 2 औरतें सवार हुई थीं.

लव यू पापा: क्या अभिषेक की मां दूर हो पाई?

Family Story in Hindi: ‘‘अरे तनु, तुम कालेज छोड़ कर यहां कौफी पी रही हो? आज फिर बंक मार लिया क्या? इट्स नौट फेयर बेबी,’’ मौल के रेस्तरां में अपने दोस्तों के साथ बैठी तनु को देखते ही सृष्टि चौंक कर बोली. फिर तनु से कोई जवाब न पा कर खिसियाई सी सृष्टि उस के दोस्तों की तरफ मुड़ गई. पैरों में हाईहील, स्टाइल से बंधे बाल और लेटैस्ट वैस्टर्न ड्रैस में सजी सृष्टि को तनु के दोस्त अपलक निहार रहे थे. ‘‘चलो, अब आ ही गई हो तो ऐंजौय करो,’’ कहते हुए सृष्टि ने कुछ नोट तनु के पर्स में ठूंस सब को बाय किया और फिर रेस्तरां से बाहर निकल गई.

‘‘तनु, कितनी हौट हैं तुम्हारी मौम… तुम तो उन के सामने कुछ भी नहीं हो…’’

यह सुनते ही रेस्तरां के दरवाजे तक पहुंची सृष्टि मुसकरा दी. वैसे उस के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि उसे अकसर ऐसे कौंप्लिमैंट सुनने को मिलते रहते थे. मगर तनु के चेहरे पर अपनी मां के लिए खीज के भाव साफ देखे जा सकते हैं.

सृष्टि बला की खूबसूरत है. इतनी आकर्षक कि किसी को भी मुड़ कर देखने पर मजबूर कर देती है. उसे देख कर कोई भी कह सकता है कि हां, कुछ लोग वाकई सांचे में ढाल कर बनाए जाते हैं.

16 साल की तनु उस की बेटी नहीं, बल्कि छोटी बहन लगती है.

जिस खूबसूरती को लोग वरदान समझते हैं वही सुंदरता सृष्टि के लिए अभिशाप बन गई थी. 5 साल पहले जब तनु के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई तब इसी खूबसूरती ने 1-1 कर सब नातेरिश्तेदारों, दोस्तों और जानपहचान वालों के चेहरों से नकाब उठाने शुरू कर दिए थे.

नकाबों के पीछे छिपे कुछ चेहरे तो इतने घिनौने थे कि उन से घबरा कर सृष्टि ने यह दुनिया ही छोड़ने का फैसला कर लिया. मगर तभी तनु का खयाल आ गया. उसे लगा कि जब वही इस दुनिया का सामना नहीं कर पा रही है तो फिर यह नादान तनु कैसे कर पाएगी. फिर उन्हीं दिनों उस की जिंदगी में आए थे अभिषेक…

अभिषेक सृष्टि के पति के सहकर्मी थे और उन की मृत्यु के बाद अब सृष्टि के, क्योंकि सृष्टि को उसी औफिस में अपने पति के स्थान पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल गई थी. अभिषेक अब तक कुंआरे क्यों थे, यह सभी के लिए कुतूहल का विषय था.

यह राज पहली बार खुद अभिषेक ने ही सृष्टि के सामने खोला था कि पिताविहीन घर में सब से बड़े होने के नाते छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारियां निभातेनिभाते कब खुद उन की शादी की उम्र निकल गई, उन्हें पता ही नहीं चला और इन सब के बीच उन का दिल भी तो कभी किसी के लिए ऐसे नहीं धड़का था जैसे अब सृष्टि को देख कर धड़कता है. यह सुन कर एकबार को तो सृष्टि सकपका गई, मगर फिर सोचा कि क्यों कटी पतंग की तरह खुद को लुटने के लिए छोड़ा जाए… क्यों न अपनी डोर किसी विश्वासपात्र के हाथों सौंप कर निश्चिंत हुआ जाए.

मगर अपने इस निर्णय से पहले उसे तनु की राय जानना बहुत जरूरी था और तनु की राय जानने के लिए जरूरी था उस का अभिषेक से मिलना और फिर उन्हें अपने पिता के रूप में स्वीकार करने को सहमत होना, क्योंकि तनु अभी तक अपने पिता को भूल नहीं पाई थी. भूली तो वह भी कहां थी, मगर हकीकत यही है कि जीवन की सचाइयों को कड़वी गोलियों की तरह निगलना ही पड़ता है और यह बात उस की तरह तनु भी जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है.

अभिषेक का सौम्य और स्नेहिल व्यवहार… नानी का तनु को दुनियादारी समझाना और थोड़ीबहुत सामाजिक सुरक्षा की जरूरत भी, जोकि शायद खुद तनु ने महसूस की थी…सभी को देखते हुए तनु ने बेमन से ही सही मगर सृष्टि के साथ अभिषेक के रिश्ते को सहमति दे दी.

अभिषेक को उन के साथ रहते हुए लगभग साल भर होने को आया था, लेकिन तनु अभी भी उन्हें अपने दिल में बसी पिता की तसवीर के फ्रेम में फिट नहीं कर पाई थी. वह उन्हें अपनी मां के पति के रूप में ही स्वीकार कर पाई थी, अपने पिता के रूप में नहीं. तनु ने एक बार भी अभिषेक को पापा कह कर नहीं पुकारा था.

पिता का असमय चले जाना और मां की नई पुरुष के साथ नजदीकियां तनु को भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर कर रही थीं. बातबात में चीखनाचिल्लाना, अपनी हर जिद मनवाना, हर वक्त अपने मोबाइल से चिपके रहना, अभिषेक के औफिस से घर आते ही अपने कमरे में घुस जाना तनु की आदत बनती जा रही थी. उस की मानसिक दशा देख कर कई बार सृष्टि को अपने फैसले पर अफसोस होने लगता. मगर तभी अभिषेक तनु के इस व्यवहार को किशोरावस्था के सामान्य लक्षण बता कर सृष्टि को इस गिल्ट से बाहर निकाल देते थे.

अभिषेक का साथ पा कर सृष्टि की मुरझाती खूबसूरती फिर से खिलने लगी थी. अभिषेक भी उसे हर समय सजीसंवरी देखना चाहते थे. इसीलिए उस के कपड़ों, गहनों और अन्य ऐक्सैसरीज पर दिल खोल कर खर्च करते थे. शायद लेट शादी होने के कारण पत्नी को ले कर अपनी सारी दबी इच्छाएं पूरी करना चाहते थे. मगर इस के ठीक विपरीत तनु अपनेआप को बेहद अकेला और असुरक्षित महसूस करने लगी थी. अपनेआप से बेहद लापरवाह हो चुकी थी.

धीरेधीरे तनु के कोमल मन में यह भावना घर करने लगी थी कि मां की सुंदरता ही उस के जीवन का सब से बड़ा अभिशाप है. जब कभी कोई उस की तुलना सृष्टि से करता तो तनु के सीने पर सांप लोट जाता था. उसे सृष्टि से घृणा सी होने लगी थी.

अब तो उस ने सृष्टि के साथ बाहर आनाजाना भी लगभग बंद कर दिया था. उस के दिमाग में यही उथलपुथल रहती कि अगर मां इतनी सुंदर न होती तो अभिषेक का दिल भी उन पर नहीं आता और तब वे सिर्फ तनु की मां होतीं, अभिषेक या किसी और की पत्नी नहीं.

मां को भी तो देखो. कितनी इतराने लगी हैं आजकल… पांव हैं कि जमीन पर टिकते ही नहीं… हर समय अभिषेक आगेपीछे जो घूमते रहते हैं. तो क्या यह सब अभिषेक के प्यार की वजह से है? अगर अभिषेक इन की बजाय मुझे प्यार करने लगें तो? फिर मां क्या करेंगी? कैसे एकदम जमीन पर आ जाएंगी… कल्पना मात्र से ही तनु खिल उठी.

तनु के मन में ईर्ष्या के नाग ने फन उठाना शुरू कर दिया. उस के दिमाग ने तेजी से सोचना शुरू कर दिया. कई तरह की योजनाएं बननेबिगड़ने लगीं. अचानक तनु के होंठों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. आखिर उसे रास्ता सूझने लगा था.

हां, मैं अब अभिषेक को अपना बनाऊंगी… उन्हें मां से दूर कर के मां का घमंड तोड़ दूंगी… तनु ने यह फैसला लेने में जरा भी देर नहीं लगाई. मगर यह इतना आसान नहीं है, यह बात भी वह अच्छी तरह से जानती थी. अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए उस ने अभिषेक पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी. उस की पसंदनापसंद को समझने की कोशिश करने लगी. उस के औफिस से आते ही वह उस के लिए पानी का गिलास भी लाने लगी थी. हां, अभिषेक को देख कर प्यार से मुसकराने में उसे जरूर थोड़ा वक्त लगा था.

‘‘मां, सिर में बहुत तेज दर्द है… थोड़ा बाम लगा दो न…’’ तनु जोर से चिल्लाई तो अभिषेक भाग कर उस के कमरे में गए. देखा तो तनु बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ी थी. शौर्ट पहने सोई तनु ने अपने शरीर पर चादर कुछ इस तरह से डाल रखी थी कि उस की खुली जांघों ने अभिषेक का ध्यान एक पल के लिए ही सही, अपनी तरफ खींच लिया.

उन्हें अटपटा सा लगा तो चादर ठीक से ओढ़ा कर उस के सिर पर हाथ रखा. बुखार नहीं था. सृष्टि सब्जी लेने गई थी, अभी तक लौटी नहीं थी. इसीलिए वे तनु के सिरहाने बैठ कर उस का माथा सहलाने लगे. तनु ने खिसक कर अभिषेक की गोद में सिर रख लिया तो अभिषेक को अच्छा लगा. उन्हें विश्वास होने लगा कि शायद अब उन के रिश्ते में जमी बर्फ पिघल जाएगी.

धीरेधीरे तनु अभिषेक से खुलने लगी. कभीकभी सृष्टि की अनुपस्थिति में वह अभिषेक को जिद कर के बाहर ले जाने लगी. चलतेचलते कभी उस का हाथ पकड़ लेती तो कभी उस के कंधे पर सिर टिका लेती. अभिषेक भी पूरी कोशिश करते थे उसे खुश करने की.

वे उस की जिंदगी में पिता की हर कमी को पूरा करना चाहते थे. मगर कभीकभी वे सोच में पड़ जाते थे कि आखिर तनु उन से क्या चाहती है, क्योंकि तनु ने अब तक उन्हें पापा कह कर संबोधित नहीं किया था. वह हमेशा उन से बिना किसी संबोधन के ही बात करती थी.

बाहर जाते समय कपड़ों के मामले में तनु अभिषेक के पसंदीदा रंग के कपड़े ही पहनती थी. एक दिन पार्क में बेंच पर अभिषेक के कंधे से लग कर बैठी तनु ने अचानक अभिषेक से पूछ लिया, ‘‘मैं आप को कैसी लगती हूं?’’

‘‘जैसी हर पिता को अपनी बेटी लगती है… एकदम परी जैसी…’’ अभिषेक ने बहुत ही सहजता से जवाब दिया. मगर इसे सुन कर तनु के चेहरे की मुसकान गायब हो गई. फिर मन ही मन बड़बड़ाई कि किस मिट्टी का बना है यह आदमी… मैं तो इसे अपने मोहजाल में फंसाना चाह रही हूं और यह है कि मुझ में अपनी बेटी ढूंढ़ रहा है… या तो यह इंसान बहुत नादान है या फिर बहुत ही चालाक… कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेरी पहल का इंतजार कर रहा है? लगता है अब मुझे अपना मास्टर स्ट्रोक खेलना ही पड़ेगा और फिर मन ही मन कुछ तय कर लिया.

‘‘अभिषेक, मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है. मुझे 2-4 दिनों के लिए वहां जाना होगा. तुम तनु का खयाल रखना प्लीज…’’ सृष्टि ने अभिषेक के औफिस लौटते ही कहा तो तनु की जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई हो. वह ऐसे ही किसी मौके का तो इंतजार कर रही थी. वह कान लगा कर उन दोनों की बातें सुनने लगी. थोड़ी ही देर में सृष्टि ने कैब बुलाई और 4 दिनों के लिए अपनी मां के घर चली गई. जातेजाते उस ने तनु को गले लगा कर समझाया कि वह अपना और अभिषेक का खयाल रखे.

अभिषेक को रात में सोने से पहले शावर बाथ लेने की आदत थी. जब वह नहा कर बाथरूम से बाहर आया तो तनु को अपने बैड पर सोते देख चौंक गया. कमरे की डिम लाइट में पारदर्शी नाइटी से तनु के किशोर अंग झांक रहे थे. तनु दम साधे पड़ी अभिषेक की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही थी. अभिषेक कुछ देर तो वहां खड़े रहे, फिर धीरे से तनु को चादर ओढ़ाई और लाइट बंद कर के लौबी में आ कर बैठ गए. सुबह दूधवाले ने जब घंटी बजाई तो उसे भान हुआ कि वह रात भर यह सोफे पर ही सो रहा था.

तनु हताश हो गई. अभिषेक को अपनी ओर खींचने के लिए किस डोरी से बांधे उसे… उस के सारे हथियार 1-1 कर निष्फल हो रहे थे. कल तो मां भी वापस आ जाएंगी… फिर उसे यह सुनहरा मौका नहीं मिलेगा… उसे जो कुछ करना है आज ही करना होगा. तनु ने आज आरपार का खेल खेलने की ठान ली.

रात लगभग आधी बीत चुकी थी. अभिषेक नींद में बेसुध थे. तभी अचानक किसी के स्पर्श से उन की आंख खुल गई. देखा तो तनु थी. उस से लिपटी हुई. अभिषेक कुछ देर तो यों ही लेटे रहे, फिर धीरे से करवट बदली. अभिषेक तनु के मुंह पर झुकने लगे. तनु अपनी योजना की कामयाबी पर खुश हो रही थी. अभिषेक ने धीरे से उस के माथे को चूमा और फिर अपने ऊपर आए उस के हाथ को छुड़ा तनु को वहीं सोता छोड़ लौबी में आ कर सो गए.

उस दिन संडे था. सृष्टि कुछ ही देर पहले मां के घर से लौटी थी. नहानेधोने और नाश्ता करने के बाद सृष्टि अभिषेक को मां की तबीयत के बारे में बताने लगी. तनु के कान उन दोनों की बातों की ही तरफ लगे थे. वह डर रही थी कि कहीं अभिषेक उस की हरकतों की शिकायत सृष्टि से न कर दे. अचानक सृष्टि ने जरा शरमाते हुए कहा, ‘‘अभि, मां चाहती हैं किअब हम दोनों का भी एक बेबी आना चाहिए.’’

यह सुनते ही तनु को झटका सा लगा. ‘लो, अब यही दिन देखना बाकी रह गया था. अब इस उम्र में मां फिर से मां बनेंगी… हुंह,’ तनु ने सोच कर मुंह बिचका दिया.

‘‘सृष्टि मुझे तनु के प्यार में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहिए… मैं तुम से यह बात छिपाने के लिए माफी चाहता हूं, मगर तुम से शादी करने से पहले ही मैं ने फैसला कर लिया था कि मुझे तनु अपनी एकमात्र संतान के रूप में स्वीकार है, इसलिए मैं ने बिना किसी को बताए हमारी शादी से पहले ही अपना नसबंदी का औपरेशन करवा लिया था,’’ अभिषेक ने कहा.

यह सुन कर सृष्टि और तनु दोनों ही चौंक उठीं. ‘‘हमें तनु का खास खयाल रखना होगा सृष्टि… 16 साल की तनु मन से अभी भी 6 साल की अबोध बच्ची है… यह अपनेआप को बहुत अकेला महसूस करती है… कोई भी बाहरी व्यक्ति इस के भोलेपन का गलत फायदा उठा सकता है. बिना बाप की यह मासूम बच्ची कितनी डरी हुई है. यह मुझे पिछले 3 दिनों में एहसास हो गया. तुम्हें पता है, इसे रात में कितना डर लगता है? इसे जब डर लगता था तो यह कितनी मासूमियत से मुझ से लिपट जाती थी… नहीं सृष्टि मैं तनु का प्यार किसी और के साथ नहीं बांट सकता… मैं बहुत खुशनसीब हूं कि कुदरत ने मुझे इतनी प्यारी बेटी दी है,’’ अभिषेक अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे.

सृष्टि अपलक उन्हें निहार रही थी. और तनु? वह तो शर्म से पानीपानी हुई जैसे जमीन में गड़ जाना चाहती थी. फिर जैसे ही अभिषेक ने आ कर उसे गले से लगाया तो वह सिसक उठी. आंखों से बहते आंसुओं के साथ मन का सारा मैल धुलने लगा. सृष्टि ने पीछे से आ कर दोनों को अपनी बांहों में समेट लिया.

अभिषेक ने तनु के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘अब बना है यह सही माने में स्वीट होम…’’

तनु ने मुसकराते हुए धीरे से कहा, ‘‘लव यू पापा,’’ और फिर उन से लिपट गई.

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