हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?- भाग 3

कहता है कि लड़की की तनख्वाह को ही दहेज समझ लो. भला, ऐसे कैसे समझ लें? हम ही क्या, और भी कोई समझने को तैयार नहीं है, तभी तो अभी तक माया कुंआरी बैठी है.’’

‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’

‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब  की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’

‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’

‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’

‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.

‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’

‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’

विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.

‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.

‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’

विद्याधर ने सिर पीट लिया.

‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’

‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.

‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’

‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’

‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’

‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’

‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘तो फिर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’

विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’

‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’

‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’

‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’

मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. हिकमत कामयाब हो गई थी.

जिंदगी की तलाश में : कैसे बदला कृष्ण का जीवन

शाम गहराने लगी थी, मगर बाहर के अंधेरे से घोर अंधेरा कृष्ण के भीतर छाने लगा था. अपने चेहरे को हथेलियों से ढके, आंखें मूंदे उस ने मोबाइल के ईयरफोन कान में ठूंस कर सुनीता की आवाज दबाने की नाकाम कोशिश में अपना सारा ध्यान गाने पर लगा दिया था, ‘जिंदगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए…’

गाना खत्म होतेहोते कृष्ण की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. उस के जी में आया कि वह अपने हालात पर खूब फूटफूट कर रोए… मगर उस से ऐसा नहीं हो सका और अंदर की हूक आंखों से आंसू बन कर बहती रही.

कृष्ण ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी इस मोड़ पर आ कर खड़ी हो जाएगी, जहां वह कहीं का नहीं रहेगा… काश, वह उस नर्स के इश्क में न फंसा होता… काश… उस ने घर वालों की बात मानी होती… काश… उस ने अपने और अपने परिवार के बारे में सोचा होता… काश… काश… काश… मगर अब क्या हो सकता था… जिंदगी इसी काश में उलझ कर रह गई थी.

कृष्ण को अच्छी तरह याद है कि पिता की अचानक हुई मौत के बाद उन की जगह पर उस की नौकरी लगते ही उस के जैसे पंख उग आए थे. जवानी का जोश और मुफ्त में मिली पिताजी की जगह रेलवे की नौकरी के बाद दोस्तीयारी में पैसे उड़ाना, मोटरसाइकिल पर सजसंवर कर इधर से उधर चक्कर काटना, मौका मिलते ही दोस्तों के साथ मौजमस्ती मारना… बस, यही उस का रोज का काम बन गया था. तब न उसे दोनों बहनों के ब्याह की चिंता थी और न विधवा मां की सेहत की फिक्र.

एक दिन दोस्तों के साथ पिकनिक पर भीग जाने पर कृष्ण को बुखार चढ़ गया था. अस्पताल में नर्स से सूई लगवाते हुए उस की नजरों से घायल हो कर कृष्ण उस का दीवाना हो उठा था, जब नर्स ने अपने मदभरे नैनों में ढेर सारा प्यार समेटे हुए पूछा था, ‘‘सूई से डरते तो नहीं हो? आप को सूई लगानी है.’’

कृष्ण उस नर्स की हिरनी सी बड़ीबड़ी आंखों को बस देखता रह गया था. सफेद पोशाक में गोलमटोल चेहरे वाली नर्स की उन आंखों ने जैसे उसे अपने अंदर समा लिया था. उसे लगा था, जैसे खुशबू से सराबोर हवा ने उसे मदहोश कर दिया हो, जैसे पहाड़ों पर घटाएं बरसने को उमड़ पड़ी हों…

नर्स ने बांह ऊंची करने के लिए कृष्ण का हाथ अपने कोमल हाथों में लिया, तो वह कंपकंपा कर बोला था, ‘‘डर तो लगता है, पर आप लगाएंगी तो लगवा लूंगा.’’

इतना कहते हुए नर्स ने शर्ट की बांह ऊपर चढ़ा दी थी. नर्स ने हौले से सूई लगा कर कृष्ण की आंखों में झांकते हुए पूछा था, ‘‘दर्द तो नहीं हुआ?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘कृष्ण.’’

‘‘मतलब कृष्ण कन्हैया हैं आप… गोपियों के कन्हैया…’’ नर्स ने इंजैक्शन की जगह को रुई से रगड़ते हुए मुसकरा कर कहा था.

कृष्ण अपने घर चला आया था. शरीर का बुखार तो अब उतर चुका था, मगर नर्स के इश्क का बुखार उस पर इस कदर हावी हो गया था कि आंखें बंद करते ही नर्स की बड़ीबड़ी हिरनी सी आंखें नजर आती थीं.

बुखार उतरने के बाद भी कृष्ण कई बार अस्पताल के चक्कर लगा आता. नर्स से किसी न किसी बहाने दुआसलाम कर आता. नर्स भी उस से मुसकरा कर बात करती.

उसी दौरान क्रिसमस पर हिम्मत कर कृष्ण ने नर्स को रास्ते में रोक कर ‘मैरी क्रिसमस’ कह कर लाल गुलाबों का गुलदस्ता थमा दिया था. नर्स

ने भी मुसकरा कर उस का तोहफा कबूल कर लिया था.

बस, फिर वे दोनों मिलने लगे थे. प्यार हो चुका था, इजहार हो चुका था. घर में क्या हो रहा है, कृष्ण को कुछ परवाह न थी. वह उस नर्स को मोटरसाइकिल पर पीछे बैठा कर घूमता… उस के प्यार में झूमता, मस्ताता बस.

उधर ब्याह लायक बहनें कृष्ण के इस आवारापन की हरकतों को देख कर मजबूरन मां को संभालने की खातिर अपना घर बसाने की सोच भी न पाती थीं. अगर उन्होंने ब्याह रचा लिया, तो दिल की मरीज विधवा मां को कौन संभालेगा? बस, इसी एक बड़े सवाल ने उन्हें कुंआरी रहने पर मजबूर कर दिया था. वे दोनों घर में ही ब्यूटीपार्लर खोल कर रोजीरोटी कमाने लगी थीं.

फिर अचानक ही नर्स का तबादला और उसी के चलते ही कृष्ण का घर से और दूर हो जाना… वह कईकई दिन घर से 200 किलोमीटर दूर अपने प्यार के नशे में चूर पड़ा रहता.

और एक दिन जैसे बिजली गिरी थी कृष्ण पर. नर्स के घर का दरवाजा बिना खटखटाए घनघोर घटाओं में भीगता वह अचानक अंदर दाखिल हुआ था, तो सामने का नजारा देख कर उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई थी. वह नर्स किसी और मर्द के साथ बिस्तर पर थी.

कृष्ण को यह सब देख कर ऐसा लगा था, जैसे किसी ने उस के दिल में छुरा भोंक दिया हो, जैसे सारा आसमान घूमने लगा हो… उसे लगा था कि वह खून से लथपथ हो कर वीरान रेगिस्तान में अकेला घायल खड़ा हो और तमाम चीलकौए उसे नोंच खाने को उस पर मंडरा रहे हों… कितने वादे… कितनी कसमें खाई थीं… कैसे कहती थी वह नर्स, ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती कृष्ण… मैं मर जाऊंगी, जो तुम मेरे न हुए…’

कृष्ण को लगा था कि जमीन फट जाए और वह उस में समा जाए… जैसे नर्स के क्वार्टर की दीवारें आग से भभक उठी हों, वैसे ही नफरत की आग में भभक उठा था कृष्ण.

कृष्ण नर्स को कुछ कह पाता, उस से पहले ही नर्स ने उस से रूखी आवाज में कहा था, ‘‘बेवकूफ इनसान, तुम को इतना भी नहीं पता कि किसी लड़की के घर का दरवाजा खटखटा कर अंदर आना चाहिए…’’ फिर गुर्राते हुए नफरत भरे अंदाज में उस ने घूरते हुए कृष्ण से कहा था, ‘‘ऐसे घूर कर क्या देख रहे हो मुझे? ये नए डाक्टर साहब हैं. मेरे नए फ्रैंड… अभी एक हफ्ता पहले ही डिस्पैंसरी में पोस्टिंग हुआ है…’’

कृष्ण मुट्ठी भींचे सब सुनता रहा था. जी में आया कि नर्स का गला ही घोंट दे, मगर वह कुछ और कहती, उस से पहले ही वह मुड़ कर मोटरसाइकिल स्टार्ट कर निकल पड़ा था तेज रफ्तार से घर की ओर… जैसे वह जल्दी से जल्दी दूर… बहुत दूर भाग जाना चाहता हो… जैसे नर्स की आवाज उस का पीछा कर रही हो और वह

उसे सुनना नहीं चाहता हो… वह टूट गया था अंदर ही अंदर.

इसी तरह उदासी और तनहाई में दिन रगड़रगड़ कर बीत रहे थे कि एक दिन अचानक ही कृष्ण के कानों में किसी की दिल भेद देने वाली रुलाई सुनाई पड़ी.

‘अरे, यह तो सुनीता के रोने की आवाज है,’ कृष्ण पहचान गया था. सुनीता, उस की पड़ोसन… मजबूर, बेसहारा सी, मगर निहायत ही खूबसूरत, जिसे उस का पति रोज शराब पी कर बिना बात मारता है और वह उस की मार खाती जाती है. आखिर जाए भी तो कहां… उस का इस दुनिया में कोई नहीं… मामा ने मामी की रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर उसे एक बेरोजगार शराबी से ब्याह कर मानो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी.

कृष्ण, जो अपने प्यार में नाकाम हो कर टूट चुका था, न जाने क्यों अचानक ही उठ कर सुनीता के घर की ओर लपका. वह  रोजरोज सुनीता को यों पिटते नहीं देख सकता.

कृष्ण ने दरवाजा खोल कर पिटती सुनीता को हाथ से पकड़ा ही था कि वह उस के सीने से इस कदर लिपट पड़ी, जैसे कोई बच्चा मार के डर से लिपट जाता है.

‘‘बचा लो इस राक्षस से, वरना मुझे यह मार ही डालेगा…’’ सुनीता कृष्ण से लिपट कर फूट पड़ी थी. पता नहीं, कृष्ण के टूटे दिल को सुनीता के यों सीने से लग जाने से कितना सुकून मिला था. उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था.

‘‘मैं तुम्हें इस तरह पिटता नहीं देख सकता सुनीता…’’

‘‘अबे हट, बड़ा आया सुनीता का आशिक. तू होता कौन है इसे बचाने वाला…?’’ कहते हुए सुनीता के पति ने कृष्ण को जोर का धक्का दे दिया और खुद कमरे में रखी हौकी उठा कर कृष्ण के ऊपर लपका. अगर पड़ोसी न बचाते, तो वह नशे में कृष्ण के सिर पर हौकी दे मारता.

मगर अब सुनीता कृष्ण के सामने आ खड़ी थी उसे बचाने के लिए. सारा महल्ला तमाशा देख रहा था.

सुनीता के पति ने तमाम महल्ले वालों के सामने चीखचीख कर कहा, ‘‘आशिक बनता है इस का… कब से चल रहा है तुम्हारा चक्कर… रख सकता है हमेशा के लिए इसे… चार दिन ऐश करेगा और छोड़ देगा… इतना ही मर्द है तो ले जा हमेशा के लिए और रख ले अपनी बीवी बना कर… मुझे इस की जरूरत भी नहीं…’’

सुनीता और सारा महल्ला खामोश हो कर कृष्ण के जवाब का इंतजार करने लगे. सुनीता उस से लिपटी कांप रही थी. कृष्ण के जवाब के इंतजार में उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा था.

‘‘हां, बना लूंगा अपनी बीवी… एक औरत पर हाथ उठाते, भूखीप्यासी रखते, जुल्म करते शर्म नहीं आती… बड़ा मर्द बनता है… देख, कैसा मारा है इसे…’’ कृष्ण ने जेब से रूमाल निकाल कर सुनीता के होंठों से बहता खून पोंछ दिया.

सुनीता कृष्ण के सीने से लगी आंखों में आंसू लिए बस उसे ही देखती रह गई, जैसे कहना चाह रही हो, ‘मेरे लिए इतना रहम… आखिर क्यों? मैं तो शादीशुदा और एक बच्ची की मां… फिर भी…’

किसी ने पुलिस को भी फोन कर दिया. फिर क्या, पुलिस के सामने ही सुनीता ने कृष्ण को और कृष्ण ने सुनीता को स्वीकार कर लिया. महिला थाने में रिपोर्ट, फिर फैमिली कोर्ट से आसानी से तलाक हो गया.

पता नहीं, कृष्ण ने अपने पहले प्यार को भुलाने के लिए या सुनीता पर इनसानियत के नाते तरस खा कर उसे घर वालों, महल्ले वालों और रिश्तेदारों की परवाह किए बगैर अपना लिया था… फिर किराए का अलग मकान… सुनीता की बेटी का नए स्कूल में दाखिला और लोन पर ली गई नई कार…

शायद अपने पहले प्यार को भुलाने की कोशिश में कृष्ण ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था और सुनीता उसे और उस के द्वारा मुहैया कराए गए ऐशोआराम पा कर निहाल हो गई थी.

उधर, कृष्ण सुनीता की बांहों में पड़ा उस की रेशमी जुल्फों से खेलता और नर्स के साथ बिताए पलों को सुनीता के साथ दोहराने की कोशिश करता. पड़ोस में रहने के चलते शायद सुनीता उस के पहले प्यार के बारे में सबकुछ जानती थी.

कृष्ण को न बूढ़ी मां की चिंता थी, न दोनों बहनों के प्रति फर्ज का भान. हां, कभी सुनीता को उस ने मांबहनों के साथ रहने के लिए दबाव दिया था, तो सुनीता ने दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘‘मैं उस महल्ले में तुम्हारी मांबहनों के साथ कभी नहीं रह सकती. लोग तुम्हारे और नर्स के किस्से छेड़ेंगे, जो मुझ से कभी बरदाश्त नहीं होगा…’’

समय के साथसाथ कृष्ण का अपने पहले प्यार को भुलाने और जोश में आ कर सुनीता को अपनाने की गलतियों का अहसास होने लगा.

सुनीता ऐशोआराम की आदी हो गई. वह कृष्ण के उस पर किए गए उपकार को भी भूल गई और एक लड़के को जन्म देने के बाद तो उस के बरताव में न जाने कैसा बदलाव आया कि कृष्ण अपने किए पर पछताने लगा.

कभीकभार मां के पास रुक जाने, दोस्तयारों के पास देर हो जाने पर सुनीता उसे इतना भलाबुरा कहने लगी कि उस का जी करता उसे जहर ही दे दे. वह अकसर नर्स को ले कर ताना मारने लगी. न समय पर नाश्ता, न समय पर खाना… कृष्ण के लेट घर आने पर खुद खा कर बेटी को ले कर सो जाना उस का स्वभाव बन गया.

सुनीता तो अब नर्स और कृष्ण के पहले प्यार को ले कर ताना मारती रहती थी. ज्यादा कुछ बोलने पर वह दोटूक कह देती थी, ‘‘नर्स ने धोखा दिया तुम्हें इस चक्कर में मुझे अपना लिया, वरना इतने बदनाम आदमी से कौन रचाता ब्याह? मुझे अपना कर कोई अहसान नहीं कर दिया तुम ने… अभी भी मुझे क्या पता कहांकहां जाते हो… किसकिस के साथ गुलछर्रे उड़ाते हो…’’

तब काटो तो खून नहीं वाली हालत हो जाती थी कृष्ण की. वह चीख पड़ता, ‘‘हां… उड़ाता हूं… खूब उड़ाता हूं गुलछर्रे… तेरी इच्छा है तो तू भी उड़ा ले…’’ और निकल जाता कार ले कर दूर जंगलों में.

एक दिन कृष्ण तेज बुखार से तपता जब नजदीकी डिस्पैंसरी में इलाज कराने पहुंचा, तो सन्न रह गया. हाथ

में इंजैक्शन लिए उस की वही नर्स खड़ी थी.

कृष्ण ने उस के हाथ से परची छीन ली. नर्स ने आसपास देखा. दोपहर के डेढ़ बजे का समय था. मरीज जा चुके थे. उस के और कृष्ण के अलावा वहां कोई नहीं था.

नर्स ने कृष्ण के हाथ से दोबारा परची ली और कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं आप के पैर पड़ती हूं. मुझ से बहुत बड़ी भूल हुई, जो मैं ने आप को…’’

बाकी शब्द नर्स के गले में अटक कर रह गए. कान पकड़ कर आंखों में आंसू भरे वह कृष्ण के कदमों में झुक गई.

कृष्ण का गुस्सा नर्स को यों गिड़गिड़ाते देख बुखार की गरमी से जैसे पिघल गया. उस ने बुखार से तपते अपने हाथों से उठाते हुए पहली बार नर्स को उस के नाम से पुकारा, ‘‘बस भी करो मारिया. मैं अब…’’

कहतेकहते रुक गया कृष्ण और अपनी बांहें खोल कर मारिया के सामने कर दीं.

‘‘पास ही स्टाफ क्वार्टर है, मैं उसी में रहती हूं. अभी एक हफ्ता पहले ही ट्रांसफर हुआ है यहां. आप को देखने की कितनी तमन्ना थी… आज पूरी हो गई. प्लीज आना… ए 41 नंबर है र्क्वाटर का,’’ कहते हुए मारिया ने आंसुओं से भरी आंखों से कृष्ण को इंजैक्शन लगा दिया.

घर आ कर कृष्ण निढाल सा पलंग पर पड़ गया. आंखों में मारिया की आंसुओं भरी आंखें और फूल

सा कुम्हलाया चेहरा था. आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज चमकती बिजली थी. कृष्ण पलंग पर आंखें मूंदे यों ही पड़ा रहा और आज के दिन के बारे में सोचता रहा…

सुनीता ने एक बार भी कृष्ण से तबीयत खराब होने के बावजूद खानेपीने, दवा वगैरह के बारे में नहीं पूछा. बस, नए दिलाए हुए मोबाइल फोन से वह चिपकी रही.

आज तीसरा दिन था. बुखार अभी भी महसूस हो रहा था, मगर रविवार के दिन डाक्टर कम ही मिलता है, फिर भी कृष्ण किसी तरह उठा और डिस्पैंसरी की ओर चल दिया. उस की सोच के मुताबिक डाक्टर नहीं आया था. मारिया ही डिस्पैंसरी संभाल रही थी.

कृष्ण को देखते ही मारिया गुलाब के फूल सी खिल उठी, ‘‘ओह कृष्ण… अब कैसा है आप का तबीयत?’’

केरल की होने के चलते मारिया के हिंदी के उच्चारण कुछ बिगड़े हुए होते थे. उस ने कृष्ण की कलाई को अपने नरम हाथों से पकड़ कर नब्ज टटोलने की कोशिश की ही थी कि तभी कृष्ण ने हाथ खींच लिया.

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘अभी तक नाराज हो…’’ कहते हुए मारिया ने कृष्ण को अपनी बांहों में भर लिया. कृष्ण को लगा जैसे वह कोयले की तरह धूधू कर जल उठा हो. जैसे उसे 104 डिगरी बुखार हो गया हो. तभी मारिया ने मौका पा कर अपने पंजों पर खड़े हो उस के होंठों पर अपने धधकते होंठ रख दिए.

मारिया की आंखों में नशा उतरने लगा था. डिस्पैंसरी खाली थी. खाली डिस्पैंसरी के एक खाली कमरे की हवा मारिया की गरम सांसों से गरम हो चली थी.

‘‘कृष्ण, मुझे माफ कर दो. देखो न, आप की मारिया आप से अपने प्यार की भीख मांग रही है. अभी भी वही आग, वही कसक और वही प्यार बाकी है मारिया में… एक बार, सिर्फ एक बार…’’

कृष्ण, जो मारिया का साथ पा कर कुछ पल को अपने होश खो बैठा था, ने मारिया को दूर धकेल दिया और बोला, ‘‘मुझे तुम से घिन आ रही है. तुम प्यार के नाम पर कलंक हो. मैं तुम से प्यार नहीं, बल्कि नफरत करता हूं. मुझे कभी अपनी सूरत भी मत दिखाना…’’

इतना कहता हुआ कृष्ण डिस्पैंसरी से बाहर चला गया था. मारिया ‘धम्म’ से कुरसी पर बैठ गई.

कृष्ण नफरत से भरा भनभनाता सीधे अपने घर की तरफ निकल पड़ा था. उसे लग रहा था जैसे उस के चारों ओर आग जल रही हो, जिस में वह जला जा रहा हो… मारिया ने जैसे उस के अंदर आग भर दी थी… प्यार की नहीं, नफरत की आग. बस, उसी आग में जलता जब घर पहुंचा तो वहां का नजारा देख हैरान रह गया.

घर के दरवाजे पर सुनीता का पहला पति सुनीता का हाथ अपने हाथों में लिए उस से कह रहा था, ‘‘चिंता मत करो, मैं जल्दी आऊंगा…’’ फिर कृष्ण को देख कर वह नजरें झुकाए हुए चुपचाप वहां से खिसक लिया.

कृष्ण ने सुनीता के गाल पर एक करारा तमाचा जड़ दिया और बोला, ‘‘मक्कार… धोखेबाज… बता, कब से चल रहा है यह सब?’’

सुनीता गाल को सहलाते हुए कृष्ण पर चिल्लाई, ‘‘जब से तुम्हारा नर्स के साथ चक्कर चल रहा है. कहां से आ रहे हो? मारिया से मिल कर न? अपने गरीबान में झांक लो, तब मुझे कुछ कहना. वे आएंगे… तुम उन्हें रोक भी नहीं सकते… उन की बेटी मेरे पास है… क्या कर लोगे तुम?’’

कृष्ण को लगा कि वह चक्कर खा कर वहीं गिर पड़ेगा. उस ने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था. इतना बड़ा धोखा.

कृष्ण चल पड़ा था अपने घर की ओर. मांबहनों के पास. टूटे कदम और बोझिल मन लिए. जा कर ‘धम्म’ के पलंग पर पड़ गया था. उसे लगा जैसे वह न घर का रहा न घाट का… न मांबहनों का हो पाया और न मारिया या सुनीता का… आखिर उसे उस के भटकने की सजा जो मिल गई थी.

कृष्ण की आंखों में आंसू थे. सुनीता की गूंजती आवाज दबाने के लिए उस ने मोबाइल फोन के ईयरफोन कानों में ठूंस लिए थे, ‘जिंदगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए… जब ये सोचा तो घबरा गए… आ गए, हम कहां आ गए…’

 

हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?- भाग 2

‘‘तुम्हें घर पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

‘‘फिर तो आप जब तक कहेंगी मैं रुक जाऊंगी.’’

शाम को मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रात को हम दोनों का अकेले आटो पर जाना ठीक नहीं रहेगा. मैं विद्याधर को फोन कर देती हूं, वह अपने स्कूटर पर हमारे साथ हो लेगा.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’

कुछ देर फोन पर बात करने के बाद मनोरमाजी ने पूछा, ‘‘माया, घर देर से जाने पर तुम्हें खाने के लिए कुछ परेशानी तो नहीं होगी?’’

माया ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘ढका रखा होगा, खा लूंगी.’’

‘‘तो क्यों न तुम भी हमारे साथ बाहर ही खा लो? विद्याधर को देर से जाने पर मां की बातें सुननी पड़ेंगी और मुझे अपने लिए कुछ पकाना पड़ेगा, सो हम लोग बाहर खा रहे हैं, फिक्र मत करो, औफिस के काम में देर हुई न, सो बिल औफिस को दे दूंगी. तुम अपने घर पर फोन कर दो कि तुम खाना खा कर आओगी या मुझे नंबर मिला कर दो, मैं तुम्हारी मां को समझा देती हूं.’’

‘‘आज के लिए इतना ही काफी है, माया. जाओ, फ्रैश हो जाओ,’’ मनोरमाजी ने 7 बजे के बाद कहा.

जब वह वापस आई तो विद्याधर आ चुका था.

‘‘तुम दोनों बातें करो, मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं,’’ कह कर मनोरमाजी चली गईं.

दोनों में परिचय तो था ही सो कुछ देर तक आसानी से बात करते रहे, फिर माया ने कहा, ‘‘बड़ी देर लगा दी मनोरमाजी ने.’’

‘‘बौस हैं और बौस की बीवी भी, कुछ तो ठसका रहेगा ही,’’ विद्याधर ने ठहाका लगा कर कहा. माया भी हंस पड़ी और रहीसही असहजता भी खत्म हो गई.

‘‘कल ‘निमंत्रण’ में चलेंगे, वहां का खाना इस से भी अच्छा है,’’ मनोरमाजी से खाने की तारीफ सुन कर विद्याधर ने कहा.

‘‘तुम्हारा खयाल है कि हम कल भी देर तक काम करेंगे?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘बौस आप हैं. सो यह तो आप को ही मालूम होगा कि काम खत्म हुआ है या नहीं,’’ विद्याधर ने कहा.

‘‘काम तो कई दिन तक खत्म नहीं होगा लेकिन तुम लोग रोज देर तक रुकोगे?’’

‘‘हां, मुझे तो कुछ फर्क नहीं पड़ता,’’ विद्याधर बोला.

‘‘मुझे भी, अब जब काम शुरू किया है तो पूरा कर ही लेते हैं,’’ माया ने कहा.

‘‘ठीक है, मुझे भी आजकल घर पहुंचने की जल्दी नहीं है.’’

माया के घर के बाहर आटो रुकने पर विद्याधर ने भी स्कूटर रोक कर कहा, ‘‘कल मिलते हैं, शुभरात्रि.’’

‘जल्दी ही तुम इस में ‘स्वीट ड्रीम’ भी जोड़ोगे,’ मनोरमाजी ने पुलक कर सोचा, उन की योजना फलीभूत होती लग रही थी. औफिस में यह पता चलते ही कि मनोरमाजी और माया बकाया काम निबटा रही थीं, अन्य लोगों ने भी रुकना चाहा. मनोरमाजी सहर्ष मान गईं क्योंकि अब वे सब के खाना लाने के बहाने माया को विद्याधर के साथ भेज दिया करेंगी, घर छोड़ने का सिलसिला तो वही रहेगा. और काम का क्या उसे तो रबर की तरह खींच कर जितना चाहे लंबा कर लो.

मनोज के लौटने से पहले ही माया और विद्याधर में प्यार हो चुका था. उन्हें अब फोन करने या मिलने के लिए बहाने की जरूरत नहीं थी लेकिन मुलाकात लंचब्रेक में ही होती थी. छुट्टी के रोज या शाम को मिलने का रिस्क दोनों ही लेना नहीं चाहते थे.

मनोज ने उन के जीवन में और भी उथलपुथल मचाने के लिए मनोरमा को बुरी तरह लताड़ा.

‘‘जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. माया के घर वाले तो बिना दहेज या कम दहेज के सजातीय वर से तुरंत शादी कर देंगे और विद्याधर के घर वाले भी हमारी थोड़ी सी कोशिश से मान जाएंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘कुछ ठीक नहीं होगा मनोरमा, माना कि विद्याधर की मां को बहू की सख्त जरूरत है लेकिन बिरादरी में नाक कटवा कर नहीं, यानी उसे तो शादी में निर्धारित रकम मिलनी ही चाहिए जो माया का परिवार नहीं दे सकता और मां या बिरादरी के खिलाफ जाने की हिम्मत प्यार होने के बावजूद विद्याधर में नहीं है.’’

‘‘कई बार हिम्मत नहीं हिकमत काम आती है. मानती हूं विद्याधर तिकड़मी भी नहीं है लेकिन मैं तो हूं. आप साथ दें तो मैं दोनों की शादी करवा सकती हूं,’’ मनोरमाजी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा, ‘‘आप को कुछ ज्यादा नहीं करना है, बस मेरे साथ विद्याधर के घर चलना है और बातोंबातों में उस के घर वालों को बताना है कि आप की नजर में विद्याधर के लिए एक उपयुक्त कन्या है, उस के बाद मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तो चलो, अभी चलते हैं.’’

शनिवार की सुबह थी सो विद्याधर घर पर ही मिल गया. उस ने और घर वालों ने उन का स्वागत तो किया लेकिन चेहरे पर एक प्रश्नचिह्न लिए हुए, ‘कैसे आए?’

‘‘हम ने तो सोचा तुम तो कभी बुलाओगे नहीं, हम स्वयं ही चलते हैं,’’ मनोज ने कहा.

‘‘कैसे बुलाए बेचारा? घर में मेहमानों को चायपानी पूछने वाला कोई है नहीं,’’ विद्याधर की मां ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मेरे से तो अब कुछ होता नहीं…’’

‘‘आप की उम्र अब काम नहीं, आराम करने यानी बहू से सेवा करवाने की है, मांजी,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘बहू का सुख तो लगता है मेरे नसीब में है ही नहीं,’’ मांजी उसांस ले कर बोलीं.

‘‘ऐसी मायूसी की बातें मत करिए, मांजी. मैं विद्याधर के लिए ऐसी सर्वगुण संपन्न, सजातीय लड़की बताता हूं कि यह मना नहीं करेगा,’’ मनोज ने कहा, ‘‘माया मनोरमा की कनिष्ठ अधिकारी है, बहुत ही नेक स्वभाव की संस्कारशील लड़की है, नेहरू नगर में घर है उस का…’’

‘‘शंकरलाल की बेटी की बात तो नहीं कर रहे?’’ विद्याधर की मां ने बात काटी, ‘‘मिल चुके हैं हम उन से, लड़की के सर्वगुण संपन्न होने में तो कोई शक नहीं है लेकिन बाप के पास दहेज में देने को कुछ नहीं है.

हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 2

सुनंदा ने अतीत को भुला दिया और विनय को अपनाने में ही भलाई समझी. विनय उस के रूपरंग का इस कदर दीवाना हो गया कि न तो उसे बच्चों की सुध रही न ही रिश्तदारों की. सब से कन्नी काट ली. और तो और सुनंदा के रूपसौंदर्य को ले कर इस कदर शंकित हो गया कि उसे छोड़ कर औफिस जाने में भी गुरेज करता. मैं अब उस के घर कम ही जाता. मुझे लगता विनय को मेरी मौजूदगी मुनासिब नहीं लगती. वह हर वक्त सुनंदा के पीछे साए की तरह रहता. उस के रंगरूप को निहारता. सुनंदा अपने पति की इस कमजोरी को भांप  गई. फिर क्या था अपने फैसले उस पर थोपने लगी. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से सब से ज्यादा परेशान अमन और मोनिका थे. वे दोनों एकदम से अलगथलग पड़ गए. विनय कहीं से आता तो सीधे सुनंदा के कमरे में जा कर उसे आलिंगनबद्ध कर लेता. बच्चों का हालचाल लेना महज औपचारिकता होती.

सुनंदा के रिश्ते में शादी थी. विनय व सुनंदा अपनी बेटी के साथ वहां जा रहे थे. अमन भी जाना चाहता था. उस ने दबी जबान से जाने की इच्छा जाहिर की तो विनय ने उसे डांट दिया, ‘‘जा कर पढ़ाई करो. कहीं जाने की जरूरत नहीं.’’ अमन उलटे पांव अपने कमरे में आ कर अपनी मां की तसवीर के सामने सुबकने लगा. तभी राधिका आ गई. उस को समझाबुझा कर शांत किया. विनय वही करता जो सुनंदा कहती. विनय का सारा ध्यान सुनंदा की बेटी शुभी पर रहता. बहाना यह था कि वह बिन बाप की बेटी है. विनय सुनंदा के रंगरूप पर इस कदर फिदा था कि उसे अपने खून से उपजे बच्चों का भी खयाल नहीं था. अमन किधर जा रहा है, क्या कर रहा है, उस की कोई सुध नहीं लेता. बस बच्चों के स्कूल की फीस भर देता, उन की जरूरत का सामान ला देता. इस से ज्यादा कुछ नहीं. अमन समझदार था. पढ़ाईलिखाई में अपना वक्त लगाता. थोड़ाबहुत भावनात्मक सहारा उसे अपनी बूआ राधिका से मिल जाता, जो विनय की उपेक्षा से उपजी कमी को पूरा कर देता.

अब विनय अपने पुश्तैनी मकान को छोड़ कर शारदा के मकान में रहने लगा. यह वही मकान था जिसे शारदा की मां अपने मरने के बाद अपने नाती अमन के नाम कर गई थीं. पुश्तैनी मकान में संयुक्त परिवार था, जहां उस की निजता भंग होती. भाईभतीजे उस के व्यवहार में आए परिवर्तन का मजाक उड़ाते. अब जब वह अकेले रहने लगा तो सुनंदा के प्रति कुछ ज्यादा ही स्वच्छंद हो गया. राधिका कभीकभार बच्चों का हालचाल लेने आ जाती. मुझे अमन से विनय का हालचाल मिलता रहता. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से मैं भी आहत था. सोचता उसे राह दिखाऊं मगर डर लगता कहीं अपमानित न होना पड़े. अमन से पता चला कि सुनंदा मां बनने वाली है तो विश्वास नहीं हुआ. 2 बच्चे पहली पत्नी से तो वहीं सुनंदा से एक 8 वर्षीय बेटी. और पैदा करने की क्या जरूरत थी? अमन इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चला गया. मोनिका बी.ए. में थी. वह खुद 45 की लपेट में था. ऐसे में बाप बनने की क्या तुक? यहीं से मेरा मन उस से तिक्त हो गया. मुझे दोनों घोर स्वार्थी लगे. मैं ने राधिका से पूछा. पहले तो उस ने आनाकानी की, बाद में हकीकत बयां कर दी. कहने लगी कि इस में मैं क्या कर सकती हूं. यह उन दोनों का निजी मामला है. उस ने पल्लू झाड़ लिया, जो अच्छा न लगा. कम से कम विनय को समझा तो सकती थी. दूसरी शादी करते वक्त मैं ने उसे आगाह किया था कि यह शादी तुम दोनों सिर्फ एकदूसरे का सहारा बनने के लिए कर रहे हो. तुम्हें अकेलेपन का साथी चाहिए, वहीं सुनंदा को एक पुरुष की सुरक्षा. जहां तुम्हारे बच्चों की देखभाल करने के लिए एक मां मिल जाएगी, वहीं सुनंदा की बेटी को एक बाप का साया. विनय मुझ से सहमत था. मगर अचानक दोनों में क्या सहमति बनी कि सुनंदा ने मां बनने की सोची?

सुनंदा ने एक लड़के को जन्म दिया. वह बहुत खुश थी. विनय की खुशी भी देखने लायक थी मानों पहली बार पिता बन रहा हो. राधिका को सोने की अंगूठी दी. वह बेहद खुश थी. कुछ दिनों के बाद एक होटल में पार्टी रखी गई. मैं भी आमंत्रित था. रिश्तेदार पीठ पीछे विनय की खिल्ली उड़ा रहे थे मगर वह इस सब से बेखबर था. सुनंदा से चिपक कर बैठा अपने नवजात शिशु को खेला रहा था. अमन और मोनिका उदास थे. उदासी का कारण था उन की तरफ से विनय की बेरुखी. रुपयापैसा दे कर बच्चों को बहलाया जा सकता है, मगर उन का दिल नहीं जीता जा सकता. अमन और मोनिका को सिर्फ मांबाप का प्यार चाहिए था. मां नहीं रहीं, मगर पिता तो अपने बच्चों को भावनात्मक संबल दे सकता था. मगर इस के उलट पिता अपनी नई पत्नी के साथ रासरंग में डूबा था. जबकि दूसरी शादी करने के पहले उस ने अमन व मोनिका को विश्वास में लिया था. अब उन्हीं के साथ धोखा कर रहा था. पूछने पर कहता कि मैं ने दोनों की परवरिश में कया कोई कमी रख छोड़ी है? उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाया और अब क्व10 लाख दे कर अमन को इंजीनियरिंग करवा रहा हूं.

अब विनय से कौन तर्क करे. जिस का जितना बौद्धिक स्तर होगा वह उतना ही सोचेगा. राधिका भी दोनों बच्चों की तरफ से स्वार्थी हो गई थी. परित्यक्त राधिका को विनय से हर संभव मदद मिलती रहती सो वह अमन और मोनिका में ही ऐब ढूंढ़ती.मेरे जेहन में एक बात रहरह कर शूल की तरह चुभती कि आखिर सुनंदा ने एक बेटे की मां बनने की क्यों सोची? अमन मौका देख कर मेरे पास आया और व्यथित मन से बोला, ‘‘क्या आप को यह सब देख कर अच्छा लग रहा है? यह मेरे साथ मजाक न हीं कि इस उम्र में मेरे पिता बाप बने हैं.’’ गुस्सा तो मुझे भी आ रहा था. मैं ने उस के मुंह पर विनय पर कोई टीकाटिप्पणी करने से बचने की कोशिश की पर ऐसे समय मुझे शारदा की याद आ रही थी. वह बेचारी अगर यह सब देख रही होती तो क्या बीतती उस पर. किस तरह से उस के बच्चों को बड़ी बेरहमी के साथ उस का ही बाप हाशिये पर धकेल रहा था. कैसे पुरुष के लिए प्यारमुहब्बत महज एक दिखावा होता है. शारदा से उस ने प्रेम विवाह किया था. कैसे इतनी जल्दी उसे भुला कर सुनंदा का हो गया. तभी 2 बुजुर्ग दंपती मेरे पास आ कर खड़े हो गए. उन की बातचीत से जाहिर हो रहा था कि सुनंदा के मांबाप हैं. बहुत खुश सुनंदा की मां अपने पति से बोली, ‘‘अब सुनंदा का परिवार संपूर्ण हो गया. 1 लड़का 1 लड़की.’’

तो इसका मतलब विनय के परिवार से अमन और मोनिका हटा दिए गए, मेरे मन में यह विचार आया. घर आ कर मैं ने गहराई से चिंतनमनन किया तो पाया कि सुनंदा द्वारा एक बेटे की मां बनना विनय के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने का जरीया था. ऐसे तो विनय की 2 संतानें और सुनंदा की 1. लेकिन आज तो विनय उस के रूपजाल में फंसा हुआ है, कल जब उस का अक्स उतर जाएगा तब वह क्या करेगी? हो सकता है वह अपने दोनों बच्चों की तरफ लौट जाए तब तो वह अकेली रह जाएगी. यही सब सोच कर सुनंदा ने एक पुत्र की मां बनने की सोची ताकि पुत्र के चलते विनय खून के रिश्ते से बंध जाए. साथ ही पुत्र के बहाने धनसंपत्ति में हिस्सा भी मिलेगा वरना अमन और मोनिका ही सब ले जाएंगे, उस के हिस्से में कुछ नहीं आएगा. औसत बुद्धि का विनय सुनंदा की चाल में आसानी से फंस गया यह सोच कर मुझे उस की अक्ल पर तरस आया.

हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?- भाग 1

दावतों में जाना माया को पसंद नहीं था क्योंकि वह बदले में किसी को दावत नहीं दे सकती थी, खासकर उस घर में जहां यह इंतजार रहता था कि कब वह शादी कर के विदा हो और उस की चारपाई की जगह पर उस के भतीजे की पढ़ने की मेज लग सके. लेकिन यह दावत विभागाध्यक्ष मनोरमाजी ने अपने पति मनोज की तरक्की होने की खुशी में दी थी, न जाने पर मनोरमाजी नाराज हो जातीं और उन्हें नाराज करना जल में रह कर मगर से बैर मोल लेना था.

दावत में मनोरमाजी के ही नहीं मनोज के औफिस के लोग भी थे. परस्पर परिचय के बाद, सदाबहार विषय देश की वर्तमान स्थिति पर बहस छिड़ गई.

‘‘वर्तमान स्थिति तो बहुत ही हास्यास्पद है भई, सुबह के समय सरेआम यानी खुले में फारिग होते लोग मोबाइल पर बतिया रहे होते हैं, कहीं और मिलेगी पिछड़ेपन और आधुनिकीकरण की ऐसी मिसाल?’’ मिर्जा साहब की बात पर जोरदार ठहाका लगा.

‘‘एक मिसाल और भी है, हमारे समाज में एक ओर तो लिव इन रिलेशनशिप जीरो है और दूसरी ओर आधुनिक उच्च जातियां अभी भी जातिबिरादरी और दहेज के लेनदेन में बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं. उन के उत्थान के आसार मुझे अपनी जिंदगी में तो नजर नहीं आ रहे,’’ एक युवक ने उत्तेजित स्वर में कहा.

‘‘ऐसी क्या नाराजगी है अपनी उच्च जाति से, विद्याधर, साफसाफ बताओ बंधु?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘आप सब अकसर पूछते रहते हैं न कि शादी कब कर रहे हो तो सुनिए, मेरी शादी इस जन्म में तो होने से रही क्योंकि हमारे श्रीपंथ समाज में लड़कों का मूल्य निर्धारित है यानी उतनी मोटी रकम दहेज में लिए बगैर मेरे मांबाप  मेरी शादी नहीं करेंगे, बिरादरी में इज्जत का सवाल है और मेरे जैसे मामूली सूरतशक्ल, नौकरी और परिवार यानी हर तरह से औसत लड़के के लिए कोई उतनी रकम क्यों देगा जबकि उतने में मुझ से बेहतर घरवर मिल सकता है.

‘‘अपनी पसंद की या दूसरी जाति में शादी करने का मतलब है, अपनी जाति से बहिष्कार और आजकल जो यह औनर किलिंग का चलन शुरू हो गया है, वह सोच कर तो बिरादरी से बगावत करते हुए भी डर लगता है. कहिए, क्या यह सब पिछड़ापन नहीं है?’’ विद्याधर ने पूछा, ‘‘अगर अपनी बिरादरी की लड़की से भी कम दहेज ले कर शादी कर लूं तो इसे बगावत समझा जाएगा और इस के अलावा मेरी मां, बहनें और मामीचाची वगैरह ताने देदे कर उस लड़की का जीना दुश्वार कर देंगी कि सस्ते में हमारा लाखों का बेटा फंसा लिया. सो, मेरे लिए तो बेहतर यही है कि शादी ही न करूं.’’

माया को लगा जैसे विद्याधर उसी की भावनाएं या व्यथा व्यक्त कर रहा था.

‘‘मूल्य निर्धारण या औनर किलिंग छोटे कसबों की बातें हैं विद्याधर, देश की राजधानी में रहने वाले तुम पर लागू नहीं होतीं,’’ मनोरमाजी बोलीं.

‘‘बात कसबे या राजधानी की नहीं, पिछड़ेपन की हो रही है भाभीजी. और वह तो राजधानी में भी घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है, खासकर दहेज और जाति के मामले में.’’

किसी अन्य की टिप्पणी पर माया की हिम्मत बढ़ी और वह बोली, ‘‘आप लोग ठीक कह रहे हैं, औनर किलिंग का तो मालूम नहीं लेकिन राजधानी में भी श्रीपंथ संप्रदाय में तो लड़कों का मूल्य या दहेज की रकम तय है. लड़की चाहे कितनी भी अच्छी हो उस राशि से कम में उस की शादी का सवाल ही नहीं उठता और लड़का चाहे लूलालंगड़ा भी हो, बिकेगा फिक्स्ड रेट पर ही.’’

‘‘तुम्हें यह सब कैसे मालूम है?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘क्योंकि मैं भी श्रीपंथ समाज से ही हूं. मेरी योग्यता और तगड़ी तनख्वाह से दहेज की रकम में कोई रियायत करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तो तनख्वाह से दहेज की रकम जोड़ लो…’’

‘‘और उस के लिए बरसों मन मार कर जीओ,’’ माया ने उस की बात काटी, ‘‘यह सुझाव अकसर मिलता रहता है मगर मुझे यह सौदा मंजूर नहीं है.’’

‘‘होना भी नहीं चाहिए,’’ विद्याधर ने सराहना के स्वर में कहा, ‘‘अगर युवा वर्ग इस प्रथा के सामने घुटने न टेके तो समाज के ठेकेदार स्वयं ही इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर हो जाएंगे.’’

‘‘हमारे समाज में एक नहीं, कई कुरीतियां ऐसी हैं जिन के सामने घुटने टेकने बंद कर दिए जाएं तो यह जहान जन्नत बन जाए. तुम्हारे से पहले न जाने कितने लोग यह सपना देख चुके हैं विद्याधर…’’

‘‘और न जाने कितने देखेंगे, मिश्राजी,’’ मनोज ने मिश्राजी की बात काटी, ‘‘पत्तागोभी के छिलके छीलने के बजाय आप फूलगोभी के पकौड़े खाइए.’’

मनोज ने तो बात बदल दी लेकिन मनोरमाजी के दिमाग में यह बात जैसे घर कर गई. सब के जाने के बाद उन्होंने मनोज से कहा, ‘‘माया और विद्याधर दोनों जब एक ही जाति के हैं तो क्यों न हम कोशिश कर के दोनों की शादी करवा दें?’’

‘‘विद्याधर से यह सुनने के बाद भी कि दहेज लाने वाली सजातीय लड़की का भी उस की मांबहनें जीना दुश्वार कर देंगी?’’ मनोज ने कहा, ‘‘उन दोनों ने अपने हालात से समझौता कर के जीना सीख लिया है, सो तुम भी उन्हें चैन से जीने दो.’’

लेकिन मनोरमाजी जानती थीं कि दोनों चैन से नहीं बड़ी बेचैनी से जी रहे थे. माया की तनख्वाह से जुटाई गई सुखसुविधाओं का मजा लूटने वाले भाईभाभी उसे परिवार का अनचाहा सदस्य समझते थे और मां भी उन का साथ देती थीं.

यही हाल तकरीबन विद्याधर का भी था, मां उसे चायखाना देते हुए यह याद दिलाना नहीं भूलती थीं कि उन की उमर अब काम करने की नहीं, बहू से सेवा करवाने की है और अकसर आने वाली बहनें भी यह कह कर बिसूरती रहती थीं कि वे अपने पतियों को इसलिए साथ नहीं ला सकतीं कि मां पर काम का बोझ बढ़ जाएगा. जैसे माया जानबूझ कर ससुराल नहीं जा रही थी और विद्याधर शादी से मना कर रहा था. मनोरमाजी ने सोच लिया कि वह माया और विद्याधर को अकसर मिलवाया करेंगी. जल्दी ही संयोग भी बन गया. मनोज को औफिस के काम से कुछ सप्ताह के लिए विदेश जाना पड़ा. औफिस में बकाया काम तो रहता ही है सो, उसे निबटाने के बहाने मनोरमाजी ने एक रोज माया को देर तक रुकने को कहा.

हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 3

अमन ने बी.टैक कर के अपने पसंद  की लड़की से शादी कर ली, जान कर विनय ने उस से बात करना छोड़ दिया. वहीं अमन का कहना था, ‘‘जब उन्हें हमारी परवाह नहीं तो हम क्यों उन की परवाह करें. क्या दूसरी शादी उन्होंने हम से पूछ कर की थी? कौन संतान चाहेगी कि उस के हिस्से का प्रेम कोई और बांटे?’’ ‘‘ऐसा नहीं कहते. उन्होंने तुम्हें पढ़ायालिखाया,’’ मैं बोला. ‘‘पढ़ाना तो उन्हें था ही. पढ़ा कर उन्होंने हमारे ऊपर कौन सा एहसान किया है? नानी हमारे नाम काफी रुपयापैसा छोड़ गई थीं. आज भी पापा जिस मकान में रहते हैं वह मेरी नानी का है और मेरे नाम है.’’ ‘आज के लड़के काफी समझदार हो गए हैं. उन्हें बरगलाया नहीं जा सकता,’ यही सोच कर मैं ने ज्यादा तूल नहीं दिया. मोनिका की शादी कर के विनय पूरी तरह सुनंदा का हो कर रह गया. न कभी अमन के बारे में हाल पूछता न ही मोनिका का. समय बीतता रहा. विनय ने सुनंदा के लिए एक फ्लैट खरीदा. फिर वहीं जा कर रहने लगा. अमन को पता चला तो बनारस आया और अपने मकान की चाबी ले कर दिल्ली लौट गया. विनय ने उसे काफी भलाबुरा कहा. खिसिया कर यह भी कहा कि पुश्तैनी मकान में उसे फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा. अमन ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि वह जानता था कि यह उतना आसान नहीं जितना पापा सोचते हैं.

सुनंदा की लड़की भी शादी योग्य हो गई थी. सुनंदा उस की शादी किसी अधिकारी लड़के से करना चाहती थी, जबकि विनय उतना दहेज दे पाने में समर्थ नहीं था. बस यहीं से दोनों में मनमुटाव शुरू हो गया. सुनंदा उसे आए दिन ताने मारने लगी. कहती, ‘‘अमन को पढ़ाने के लिए 10 लाख खर्च कर दिए वहीं मेरी बेटी की शादी के लिए रुपए नहीं हैं?’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है. फ्लैट खरीदने के बाद मेरे पास 10 लाख ही बचे हैं. 35 लाख कहां से लाऊं?’’

‘‘अमन से मांगो,’’ सुनंदा बोली.

‘‘बेमलतब की बात न करो. मैं ने तुम्हारे लिए उस से अपना रिश्ता हमेशा के लिए खत्म कर लिया है.’’

‘‘मेरे लिए?’’ सुनंदा ने त्योरियां चढ़ाईं, ‘‘यह क्यों नहीं कहते दो पैसे आने लगे तो तुम्हारे बेटे के पर निकल आए?’’

‘‘कुछ भी कह लो. मैं उस से फूटी कौड़ी भी मांगने वाला नहीं.’’

‘‘ठीक है न मांगो. पुश्तैनी मकान बेच दो.’’

‘‘विनय को सुनंदा की यह मांग जायज लगी. वैसे भी संयुक्त परिवार के उस मकान में अब रहने को रह नहीं गया था. अमन को भनक लगी तो भागाभागा आया.’’ ‘‘मकान बिकेगा तो सब को बराबरबराबर हिस्सा मिलेगा,’’ अमन विनय से बोला.

‘‘सब का मतलब?’’

‘‘मोनिका को भी हिस्सा मिलेगा.’’

‘‘मोनिका की शादी में मैं ने जो रुपए खर्च किए उस में सब बराबर हो गया.’’ ‘‘आप को कहते शर्म नहीं आती पापा? मोनिका क्या आप की बेटी नहीं थी, जो उस की शादी का हिसाब बता रहे हैं?’’‘‘तुम दोनों के पास मकान है.’’ ‘‘वह मकान मेरी नानी का दिया है. यह मकान मेरे दादा का है. कानूनन इस पर मेरा हक भी है. बिकेगा तो मेरे सामने. हिसाब होगा तो मेरे सामने,’’ अमन का हठ देख कर सामने तो सुनंदा कुछ नहीं बोली, मगर जब विनय को अकेले में पाया तो खूब लताड़ा, ‘‘बहुत पुत्रमोह था. मिल गया उस का इनाम. मेरे बेटेबेटी के मुंह का निवाला छीन कर उसे पढ़ायालिखाया, बड़ा आदमी बनाया. अब वही आंखें दिखा रहा है.’’ ‘‘मैं ने किसी का निवाला नहीं छीना. वह भी मेरा ही खून है.’’

‘‘खून का अच्छा फर्ज निभाया,’’ सुनंदा ने तंज कसा.

‘‘बेटी तुम्हारी है मेरी नहीं,’’ विनय की सब्र का बांध टूट गया.

सुन कर सुनंदा आगबबूला हो गई, ‘‘तुम्हारे जैसा बेशर्म नहीं देखा. शादी के समय तुम्हीं ने कहा था कि मैं इस को पिता का नाम दूंगा. अब क्या हुआ, आ गए न अपनी औकात पर. मैं तुम्हें छोड़ने वाली नहीं.’’ ‘‘हां, आ गया अपनी औकात पर,’’ विनय भी ढिठाई पर उतर आया, ‘‘मेरे पास इस के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है. भेज दो इसे इस के पिता के पास. वही इस की शादी करेगा. मैं इस का बाप नहीं हूं.’’ सुन कर सुंनदा आंसू बहाने लगी. फिर सुबकते हुए बोली, ‘‘क्या यह भी तुम्हारा तुम्हारा बेटा नहीं है? क्या इस से भी इनकार करोगे?’’ सुनंदा ने अपने बेटे की तरफ इशारा किया. उसे देखते ही विनय का क्रोध पिघल गया. सुनंदा की चाल कामयाब हुई. आखिरकार अमन की ही शर्तों पर मकान बिका. मोनिका रुपए लेने में संकोच कर रही थी. अमन ने जोर दिया तो रख लिए. उस रोज के बाद विनय का मन हमेशा के लिए अमन से फट गया.  रिटायर होने के बाद विनय अकेला पड़ गया. सुनंदा का बेटा अभी 15 साल का था. उस का ज्यादातर लगाव अपनी मां से था. सुनंदा की बेटी भी मां से ही बातचीत करती. वह सिर्फ उन दोनों का नाम का ही पिता था. ऐसे समय विनय को आत्ममंथन का अवसर मिला तो पाया कि उस ने अमन और मोनिका के साथ किए गए वादे ठीक से नहीं निभाए. उसे तालमेल बैठा कर चलना चाहिए था. अपनी गलती सुधारने के मकसद से विनय ने मुझे याद किया. मैं ने उस से कोई वादा तो नहीं किया, हां विश्वास जरूर दिलाया कि अमन को उस से मिलवाने का भरसक कोशिश करूंगा. इसी बीच विनय को हार्टअटैक का दौरा पड़ा. मुझे खबर लगी तो मैं भागते हुए अस्पताल पहुंचा. सुनंदा नाकभौं सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘इस संकट की घड़ी में कोई साथ नहीं है. बड़ी मुश्किल से महल्ले वालों ने विनय को  पहुंचाया.’’

मैं ने मन ही मन सोचा कि आदमी जो बोता है वही काटता है. चाहे विनय हो या सुनंदा दोनों की आंख पर स्वार्थ की पट्टी पड़ी रही. विनय कुछ संभला तो अमन को ले कर भावुक हो गया. मोनिका विनय को देखने आई, मगर अमन ने जान कर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई. रात को मैं ने अमन को फोन किया. विनय की इच्छा दुहराई तो कहने लगा,‘‘अंकल, कोई भी संतान नहीं चाहेगी कि उस की मां की जगह कोई दूसरी औरत ले. इस के बावजूद अगर पापा ने शादी की तो इस आश्वासन के साथ कि हमारे साथ नाइंसाफी नहीं होगी. बल्कि नई मां आएगी तो वह हमारा बेहतर खयाल रखेगी. हमें भी लगा कि पापा नौकरी करें कि हमें संभालें. लिहाजा इस रिश्ते को हम ने खुशीखुशी स्वीकार कर लिया. हमें सुनंदा मां से कोई शिकायत नहीं. शिकायत है अपने पापा से जिन्होंने हमें अकेला छोड़ दिया और सुनंदा मां के हो कर रह गए. मोनिका की शादी जैसेतैसे की, वहीं सुनंदा मां की बेटी के लिए पुश्तैनी मकान तक बेच डाला. मुझे संपत्ति का जरा सा भी लोभ नहीं है. मैं तो इसी बहाने पापा की नीयत को और भी अच्छी तरह जानसमझ लेना चाहता था कि वे सुनंदा मां के लिए कहां तक जा सकते हैं. देखा जाए तो उस संपत्ति पर सिर्फ मेरा हक है. पापा ने सुनंदा मां के लिए फ्लैट खरीदा. अपनी सारी तनख्वाह उन्हें दी. तनख्वाह ही क्यों पी.एफ., बीमा और पैंशन सभी के सुख वे भोग रही हैं. बदले में हमें क्या मिला?’’

‘‘क्या तुम्हें रुपयों की जरूरत है?’’

‘‘हमें सिर्फ पापा से भावनात्मक लगाव की जरूरत थी, जो उन्होंने नहीं दिया. वे मां की कमी तो पूरी नहीं कर सकते थे, मगर रात एक बार हमारे कमरे में आ कर हमें प्यार से दुलार तो सकते थे. इतना ही संबल हमारे लिए काफी था,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो गया. ‘‘उन्हें अपने किए पर अफसोस है.’’ ‘‘वह तो होगा ही. उम्र के इस पड़ाव पर जब सुनंदा मां ने भी उपेक्षात्मक रुख अपनाया होगा तो जाहिर है हमें याद करेंगे ही.’’ ‘‘तुम भी क्या उसी लहजे में जवाब देना चाहते हो? उस ने प्रतिशोध लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं क्या लूंगा, वे अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं.’’

‘जो भी हो वे तुम्हारे पिता हैं. उन्होंने जो किया उस का दंड भुगत रहे हैं. तुम तो अपने फर्ज से विमुख न होओ, वे तुम से कुछ मांग नहीं रहे हैं. वे तो जिंदगी की सांध्यबेला में सिर्फ अपने किए पर शर्मिंदा हैं. चाहते हैं कि एक बार तुम बनारस आ जाओ ताकि तुम से माफी मांग कर अपने दिल पर पड़े नाइंसाफी के बोझ को हलका का सकें. मेरे कथन का उस पर असर पड़ा. 2 दिन बाद वह बनारस आया. हम दोनों विनय के पास गए, सुनंदा ने देखा तो मुंह बना लिया. विनय अमन को देख कर भावविह्वल हो गया. भर्राए गले से बोला, ‘‘तेरी मां से किया वादा मैं नहीं निभा पाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना,’’ फिर थोड़ी देर में भावुकता से जब वह उबरा तो आगे बोला, ‘‘मां की कमी पूरी करने के लिए मैं ने सुनंदा से शादी की, मगर मैं उस पर इस कदर लट्टू हो गया कि तुम लोगों के प्रति अपने दायित्वों को भूल गया. मुझे सिर्फ अपने निजी स्वार्थ ही याद रहे.’’

‘‘सुनंदा मां को सोचना चाहिए था कि आप ने शादी कर के उन्हें सहारा दिया. बदले में उन्होंने हमें क्या दिया? आदमी को इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए,’’ अमन बोला. सुनंदा बीच में बोलना चाहती थी पर विनय ने रोक दिया. मुझे लगा यही वक्त है वर्षों बाद मन की भड़ास निकालने का सो किचिंत रोष में बोला, ‘‘भाभी, जरूरत इस बात की थी कि आप सब मिल कर एक अच्छी मिसाल बनते. न अमन आप की बेटी में फर्क करता न ही आप की बेटी अमन में. दोनों ऐसे व्यवहार करते मानों सगे भाईबहन हों. मगर हुआ इस का उलटा. आप ने आते ही अपनेपराए में भेद करना शुरू कर दिया. विनय की कमजोरियों का फायदा उठाने लगीं. जरा सोचिए, अगर विनय आप से शादी नहीं करता तब आप का क्या होता? क्या आप विधवा होने के सामाजिक कलंक के साथ जीना पसंद करतीं? साथ में असुरक्षा की भावना होती सो अलग.’’

विधवा कहने पर मुझे अफसोस हुआ. बाद में मैं ने माफी मांगी. फिर मैं आगे बोला,‘‘कौन आदमी दूसरे के जन्मे बच्चे की जिम्मेदारी उठाना चाहता है? विधुर हो या तलाकशुदा पुरुष हमेशा बेऔलाद महिला को ही प्राथमिकता देता है. इस के बावजूद विनय ने न केवल आप की बेटी को ही अपना नाम दिया, बल्कि उस की शादी के लिए अपना पुश्तैनी मकान तक बेच डाला.’’ अपनी बात कह कर हम दोनों अपनेअपने घर लौट आए, एक रोज खबर मिली कि सुनंदा और विनय दोनों दिल्ली अमन से मिलने जा रहे हैं. निश्चय ही अपनी गलती सुधारने जा रहे थे. मुझे खुशी हुई. देर से सही सुनंदा भाभी का हृदयपरिवर्तन तो हुआ.

हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 1

विनय का फोन आया. सहसा विश्वास नहीं हुआ. अरसा बीत गया था मुझे विनय से नाता तोड़े हुए. तोड़ने का कारण था विनय की आंखों पर पड़ी अहंकार की पट्टी. अहं ने उस के विवेक को नष्ट कर दिया था. तभी तो मेरा मन उस से जो एक बार तिक्त हुआ तो आज तक कायम रहा. न उस ने कभी मेरा हाल पूछा न ही मैं ने उस का पूछना चाहा. दोस्ती का मतलब यह नहीं कि उस के हर फैसले पर मैं अपनी सहमति की मुहर लगाता जाऊं. अगर मुझे कहीं कुछ गलत लगा तो उस का विरोध करने से नहीं चूका. भले ही किसी को बुरा लगे. परंतु विनय को इस कदर भी मुखर नहीं हो जाना चाहिए था कि मुझे अपने घर से चले जाने को कह दे. सचमुच उस रोज उस ने अपने घर से बड़े ही खराब ढंग से चले जाने के लिए मुझ से कहा. वर्षों की दोस्ती के बीच एक औरत आ कर उस पर इस कदर हावी हो गई कि मैं तुच्छ हो गया. मेरा मन व्यथित हो गया. उस रोज तय किया कि अब कभी विनय के पास नहीं आऊंगा. आज तक अपने निर्णय पर कायम रहा.

विनय और मैं एक ही महल्ले के थे. साथसाथ पढ़े, सुखदुख के साथी बने. विनय का पहला विवाह प्रेम विवाह था. उस की पत्नी शारदा को उस की मौसी ने गोद लिया था. देखने में वह सुंदर और सुशील थी. मौसी का खुद का बड़ा मकान था, जिस की वह अकेली वारिस थी. इस के अलावा मौसी के पास अच्छाखासा बैंक बैलेंस भी था जो उन्होंने शारदा के नाम कर रखा था. विनय के मांबाप को भी वह अच्छी लगी. भली लगने का एक बहुत बड़ा कारण था उस की लाखों की संपत्ति, जो अंतत: विनय को मिलने वाली थी. दोनों की शादी हो गई. शारदा बड़ी नेकखयाल की थी. हम दोनों की दोस्ती के बीच कभी वह बाधक नहीं बनी. मैं जब भी उस के घर जाता मेरी आवभगत में कोई कसर न छोड़ती. एक तरह से वह मुझ से अपने भाई समान व्यवहार करती. मैं ने भी उसे कभी शिकायत का मौका नहीं दिया और न ही मर्यादा की लक्ष्मणरेखा पार की.

इसी बीच वह 2 बच्चों की मां बनी. विनय की सरकारी नौकरी ऐसी जगह थी जहां ऊपरी आमदनी की सीमा न थी. उस ने खूब रुपए कमाए. पर कहते हैं न कि बेईमानी की कमाई कभी नहीं फलती. जब उस का बड़ा लड़का अमन 10 साल का था तो उस समय शारदा को एक लाइलाज बीमारी ने घेर लिया. उस के भीतर का सारा खून सूख गया. विनय ने उस का कई साल इलाज करवाया. लाखों रुपए पानी की तरह बहाए. एक बार तो वह ठीक हो कर घर भी आ गई, मगर कुछ महीनों के बाद फिर बीमार पड़ गई. इस बार वह बचाई न जा सकी. मुझे उस के जाने का बेहद दुख था. उस से भी ज्यादा दुख उस के 2 बच्चों का असमय मां से वंचित हो जाने का था. पर कहते हैं न समय हर जख्म भर देता है. दोनों बच्चे संभल गए. विनय की एक तलाकशुदा बेऔलाद बहन राधिका ने उस के दोनों बच्चों को संभाल लिया. इस से विनय को काफी राहत मिली.

शारदा के गुजर जाने के बाद राधिका और दूसरे रिश्तेदार विनय पर दूसरी शादी का दबाव बनाने लगे. विनय तब 42 के करीब था. मैं ने भी उसे दूसरी शादी की राय दी. अभी उस के बच्चे छोटे थे. वह अपनी नौकरी देखे कि बच्चों की परवरिश करे. घर का अकेलापल अलग काट खाने को दौड़ता. विनय में थोड़ी हिचक थी कि पता नहीं सौतली मां उस के बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करे? मेरे समझाने पर उस की आंखों में गम के आंसू आ गए. निश्चय ही शारदा के लिए थे. भरे गले से बोला, ‘‘क्यों बीच रास्ते में छोड़ कर चली गई? मैं क्या मां की जगह ले सकता हूं? मेरे बच्चे मां के लिए रात में रोते हैं. रात में मैं उन्हें अपने पास ही सुलाता हूं. भरसक कोशिश करता हूं उस की कमी पूरी करूं. औफिस जाता हूं तो सोचता हूं कि जल्द घर पहुंच कर उन्हें कंपनी दूं. वे मां की कमी महसूस न करें.’’ सुन कर मैं भी गमगीन हो गया. क्षणांश भावुकता से उबरने के बाद मैं बोला, ‘‘जो हो गया सो हो गया. अब आगे की सोच.’’

‘‘क्या सोचूं? मेरा तो दिमाग ही काम नहीं करता. अमन 17 साल का है तो मोनिका 14 साल की. वे कब बड़े होंगे कब उन के जेहन से मां का अक्स उतरेगा, सोचसोच कर मेरा दिल भर आता है.’’ ‘‘देखो, मां की कसक तो हमें भी रहेगी. हां, दूसरी पत्नी आएगी तो हो सकता है इन्हें कुछ राहत मिले.’’ ‘‘हो सकता है लेकिन गारंटेड तो नहीं. कहीं मेरा विवाह का फैसला गलत साबित हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा. बच्चों की नजरों में अपराधी बनूंगा वह अलग.’’

विनय की शंका निराधार नहीं थी. पर शंका के आधार पर आगे बढ़ने के लिए अपने कदम रोकना भी तो उचित नहीं. भविष्य में क्या होगा क्या नहीं, कौन जानता है? हो सकता है कि विनय ही बदल जाए? बहरहाल, कुछ रिश्ते आए तो राधिका ने इनकार कर दिया. कहने लगी कि सुंदर लड़की चाहिए. बड़ी बहन होने के नाते विनय ने शादी की जिम्मेदारी उसी को सौंप दी थी. लेकिन इस बात को जिस ने भी सुना उसे बुरा लगा. अब इस उम्र में भी सुंदर लड़की चाहिए. विनय के जेहन से धीरेधीरे शारदा की तसवीर उतरने लगी थी. अब उस के तसव्वुर में एक सुंदर महिला की तसवीर थी. ऐसा होने के पीछे राधिका व कुछ और शुभचिंतकों का शादी का वह प्रस्ताव था जिस में उसे यह आश्वासन दिया गया था कि उन की जानकारी में एक विधवा गोरीचिट्टी, खूबसूरत व 1 बच्ची की मां है. अगर वह तैयार हो तो शादी की बात छेड़ी जाए. भला विनय को क्या ऐतराज हो सकता था? अमूमन पुरुष का विवेक यहीं दफन हो जाता है. फिर विनय तो एक साधारण सा प्राणी था. उस विधवा स्त्री का नाम सुनंदा था. सुनने में आया कि उस का पति किसी निजी संस्थान में सेल्स अधिकारी था और दुर्घटना में मारा गया था.

राधिका को इस रिश्ते में कोई खामी नजर नहीं आई. वजह सुनंदा का खूबसूरत होना था. रही 8 वर्षीय बच्ची की मां होने की बात, तो थोड़ी हिचक के साथ विनय ने इसे भी स्वीकार कर लिया. सुनंदा वास्तव में खूबसूरत थी. मगर पता नहीं क्यों मैं इस रिश्ते से खुश नहीं था. मेरा मानना था कि विनय को एक घर संभालने वाली साधारण महिला से शादी करनी चाहिए थी. मजबूरी न होती तो शायद ही सुनंदा इस रिश्ते के लिए तैयार होती क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व में जमीनआसमान का अंतर था. जुगाड़ से क्लर्की की नौकरी पाने वाला विनय कहीं से भी सुनंदा के लायक नहीं था. मुझे सुनंदा पर तरस भी आया कि काश उस का पति असमय न चल बसा होता तो उस का एक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन होता.  विनय मेरा दोस्त था. पर जब मैं मानवता की दृष्टि से देखता था तो लगता था कि कुदरत ने सुनंदा के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की बेटी भी निहायत स्मार्ट व सुंदर थी, जबकि विनय की पहली पत्नी से पैदा दोनों संतानों में वह आकर्षण न था. अकेली स्त्री के लिए जीवन काटना आसान नहीं होता सो सुनंदा के मांबाप ने सामाजिक सुरक्षा के लिए सुनंदा को विनय के साथ बांधना मुनासिब समझा.

औलाद की खातिर : कजरी को किसने दिया यह सुख

पहली मुलाकात में ही प्रदेश के जेल मंत्री जयप्रकाश यादव बाबा सुखानंद के पांचसितारा होटल जैसे आलीशान आश्रम में जब कजरी से मिले, तो उन की लार टपकने लगी.

मंत्रीजी बाबा सुखानंद से बोल पड़े, ‘‘वाह बाबाजी, वाह, आज आप ने मेरे लिए क्या बुलबुल परोसी है. बिलकुल संगमरमर जैसी चमक रही है. यह तो रस भरी मदमस्त जवानी की मालकिन है.’’

बाबाजी ठहाका लगा कर बोले, ‘‘मंत्रीजी, आप तो जानते ही हैं कि हमारे आश्रम के बगल में एक पुराना मंदिर है. यहां हर साल मेला लगता है. इस मेले के बंदोबस्त के लिए शहर के तमाम आला अफसर मेरी इस कुटिया में पहले आ कर मु  झ से बातचीत कर के काम को आगे बढ़ाते हैं. तमाम फोर्स लगाने के बाद ही मेला शुरू होता है.

‘‘मेरे ऊपर पिछले चुनाव में हमला हो चुका है, लेकिन मैं उस हमले में बालबाल बच गया था. इस बार विपक्षी पार्टी के लोग अगर मेरे ऊपर हमला करते हैं, तो मेरे गुरगे उन को वहीं ढेर कर देंगे, क्योंकि इस बार हम ने भी पूरी तैयारी कर ली है. आप ठहरे जेल मंत्री, तो जेलर आप की मुट्ठी में है…

‘‘अब आप जाइए, कजरी आप का इंतजार कर रही है… रात के 11 भी बज चुके हैं.’’

‘‘ठीक है स्वामीजी, मुझे भी सुबह जल्दी जाना है,’’ कहते हुए मंत्रीजी वहां से कजरी के कमरे में चले गए.

कजरी को बांहों में भरते हुए जेल मंत्री बोले, ‘‘तुम तो बहुत लाजवाब चीज हो. मैं अकसर इस आश्रम में आ कर इस कमरे में शराब और शबाब का मजा लेता रहा हूं, लेकिन अब तक तुम जैसी कोई नहीं मिली…’’

कजरी भी मटकते हुए बोली, ‘‘क्या करूं मंत्रीजी, मेरा पति ही नकारा है. दिनभर सेठ के यहां काम करतेकरते थक जाता है और रातभर मैं जल बिन मछली की तरह करवटें बदल कर प्यासी ही तड़पती रहती हूं.

‘‘शादी के 4 साल बाद भी मुझे कोई बच्चा नहीं हुआ. लेकिन हां, मेरा पति कभीकभार ही हलकीफुलकी मर्दानगी दिखा पाता है.’’

‘‘कोई बात नहीं कजरी… तुम्हारे पास मोबाइल फोन है न? नहीं है, तो मैं दुकान से मंगवा देता हूं,’’ मंत्रीजी ने कहा.

‘‘हां, है न मेरे पास मोबाइल फोन. आजकल मोबाइल का जमाना है. जब बाबाजी को जरूरत पड़ती है, तो वे मु  झे मोबाइल से फोन कर के बुला लेते हैं,’’ कजरी ने कहा.

‘‘बाबा को मैं भी सवेरे फोन पर बोल देती हूं कि आज पति की नाइट ड्यूटी है. जरूरत पड़े तो याद कीजिएगा.

‘‘शाम को घूमने के बहाने मैं अपनी सहेली रमिया के साथ यहां आ जाती हूं. इस आश्रम में शाम को बहुत लोग आते हैं.’’

‘‘यह रमिया कौन है?’’ मंत्रीजी ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘वह इस समय दूसरे कमरे में बाबाजी के साथ मौजमस्ती कर रही होगी. वह यहां पर साफसफाई का काम करती है,’’ कजरी अपने कपड़े उतारते हुए बोली.

कजरी की पीठ पर हाथ फेरते हुए मंत्रीजी बोले, ‘‘कजरी, तुम कहां की रहने वाली हो?’’

‘‘मेरा घर तो जौनपुर में है. यहां इलाहाबाद में मेरा पति एक सेठ के यहां काम करता है. शादी होने के एक साल बाद ही मेरा पति मुझे यहां ले आया था. घर पर बूढ़े सासससुर, जेठजेठानी और उन के 3 बच्चे हैं.

‘‘रमिया से गहरी दोस्ती होने पर उस ने मुझे यहां पर लाना शुरू किया. मंदिर में मन्नत मांगने के बहाने रात में हम दोनों साथ आ जाती हैं और काम निबटा कर साथ ही घर चली जाती हैं.’’

मंत्रीजी बोले, ‘‘ठीक है, जल्दी करो. मुझे देर हो रही है. सुबह दौरे पर भी जाना है. तुझे देख कर तो मेरा मन उतावला हो रहा है,’’ यह कह कर वे कजरी की कमर में हाथ डालते हुए उस को पलंग की तरफ ले जाने लगे.

कुछ देर बाद तूफान थम चुका था. कजरी और रमिया दोनों घर आ गईं. रमिया भी बाबा सुखानंद को दूसरे कमरे में जा कर भरपूर सुख दे कर लौटी थी.

रास्ते में दोनों ने मैडिकल स्टोर से दर्द दूर करने की दवा खरीदी और अपनीअपनी दवा खाने के बाद सोईं, तो फिर सुबह ही उन की आंख खुली.

सुबह कजरी का चेहरा खिलाखिला सा लग रहा था. अब मौका मिलते ही किसी अफसर या मंत्री से कोई खास काम करवाना रहता, तो बाबा सुखानंद कजरी को उस के आगे परोस देते. इस के लिए बाबा मनोवैज्ञानिक तरीका ही अपनाते थे.

कुछ दिन बाद कजरी के पैर भारी हो गए, तो वह बहुत खुश हुई.

सुबहसुबह उलटी करते देख कजरी का पति मनोज बोला, ‘‘क्या बात है? उलटी क्यों कर रही हो?’’

कजरी बोली, ‘‘यह तो खुशी की बात है. तुम बाप बनने वाले हो.’’ यह सुन कर मनोज बहुत खुश हुआ.

कजरी बोली, ‘‘यह बाबा सुखानंद के आशीर्वाद का नतीजा है.’’

भभूत का कमाल : स्वामीजी का जादू या जंजाल

आज फिर बिस्तर पर निढाल पड़े पति को शीला आंखों में आंसू लिए नफरत की नजरों से देख रही थी. आधी रात जवानी पर थी, लेकिन शीला तड़प रही थी. वजह, उस की कोख अभी तक नहीं भरी थी.

शीला का पति नामर्द जो निकला था. वह काम से आते ही थकामांदा खापी कर सो जाता. कभीकभार उस की नसों में खून दौड़ जाता, तो थोड़ी देर के लिए वह शीला से प्यार जता देता. फिर शीला जल बिन मछली की तरह आधी भूख लिए तड़प कर रह जाती.

शीला सोचने लगी कि कुछ तो उपाय करना चाहिए. पड़ोस की लालमती को भी 7 साल के बाद बच्चा हुआ था.

यह सब शायद स्वामीजी की कृपा थी, जो लालमती को औलाद सुख मिला.

स्वामी कृपानंद पास के गांव धरमपुर में तालाब के किनारे आश्रम बना कर रहते थे. लालमती स्वामीजी के पास जा कर दवा और भभूत लाई थी.

एक दिन लालमती बता रही थी कि स्वामीजी दवा और भभूत देते हैं, जिसे पतिपत्नी को 3 महीने तक खानी पड़ती है.

‘अब मैं लालमती से मिलूंगी, तभी काम बनेगा,’ यह सोचतेसोचते शीला न जाने कब सो गई.

सुबह हुई, तो शीला आंखें मलते हुए उठी. वह जल्दी से नहाईधोई, फिर घर के सारे काम निबटा कर लालमती के घर जा पहुंची.

लालमती अपने बेटे को खाना खिला रही थी. यह देख कर शीला के अंदर भी टीस उभरी. काश, मुझे भी एक ऐसी औलाद मिल जाए, तो क्या कहने.

शीला ने लालमती के सामने अपने मन की बात कह दी.

लालमती हंसते हुए उस से बोली, ‘‘बिलकुल न घबराओ बहन, मैं भी तुम्हारी तरह 7 साल तक बच्चे के लिए परेशान हुई, तमाम डाक्टरों से इलाज कराया, लेकिन आखिर में स्वामीजी की मेहरबानी से ही यह औलाद मिली.

‘‘तुम चाहो, तो मेरे साथ आज ही स्वामीजी के पास चलो. वैसे, स्वामीजी रविवार और मंगलवार को ही ज्यादा औरतों की कोख भरने के लिए भभूत देते हैं और झाड़फूंक भी करते हैं.’’

‘‘चलो, अभी चलें,’’ शीला आंखों में चमक लिए बोली. वे दोनों स्वामीजी के पास चल दीं.

स्वामीजी की कुटिया एकांत में बनी थी. उस के आसपास 2-3 किलोमीटर दूर गांव बसे थे. स्वामीजी के पास जा कर दोनों उन के पैरों पर गिर पड़ीं और उन का आशीर्वाद लिया.

स्वामीजी 6 फुट के हट्टेकट्टे कसरती बदन के मालिक थे. उन्होंने जब शीला को पैर छूते देखा, तो उस के उभारों पर नजर रखते हुए वे चिडि़या को जाल में फंसाने की बात सोचने लगे.

शीला के सिर पर हाथ रख कर सहलाते हुए उन्होंने आशीर्वाद दिया, ‘‘तुम्हारी इच्छा पूरी हो.’’

शीला को यह सुन कर रोना आ गया. आंखों में आंसू भर कर वह बोली, ‘‘स्वामीजी, 5 साल से अभी तक मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई. अब तो मैं बड़ी उम्मीद ले कर आप के पास आई हूं.’’

वे बोले, ‘‘मेरे दरबार से अभी तक कोई भी खाली हाथ नहीं लौटा है. बताओ, क्या बात है?’’

शीला से पहले ही लालमती बोल पड़ी, ‘‘बाबाजी, जो मेरी समस्या थी, वही शीला की भी है. 5 साल हो गए, अभी तक इस की गोद नहीं भरी है.’’

‘‘ठीक है, कुछ पूजा करनी होगी. तकरीबन 5 हजार रुपए लग जाएंगे और तुम अपने पति को भी साथ लाना. परसों मंगलवार को पूजा होगी,’’ स्वामीजी ने शीला से मुखातिब होते हुए कहा.

कुछ प्रसाद और भभूत दे कर उन्होंने शीला और लालमती को घर भेज दिया.

शाम को शीला ने अपने पति को सारी बातें बताईं. उस का पति रमेश स्वामीजी के पास जाने को तैयार हो गया, क्योंकि वह भी औलाद की चाह में तमाम ओझागुनियों, मुल्लामौलवियों को दिखा चुका था.

रमेश हर पल अंधविश्वास में पड़ कर अनापशनाप सोचता रहता. उसे लगता कि किसी पड़ोसी ने उस के घर पर कुछ तंत्रमंत्र कर दिया है. दूसरे दिन लालमती के साथ शीला और उस का पति रमेश स्वामीजी के आश्रम में पहुंचे.

स्वामीजी बोले, ‘‘बेटा, घबराओ मत. सब ठीक हो जाएगा. घर पर भी हवन करना होगा. अब तुम पूजा का सामान ले आओ. 7 दिनों तक पूजा करनी पड़ेगी. मंत्रों का जाप भी करना होगा.’’

रमेश की आंखों पर धर्म की पट्टी पड़ चुकी थी. स्वामीजी पर भरोसा कर के वह सामान लेने चला गया. इधर बंद कमरे में पहले ही एक गिलास में पानी भर कर उस में नशीली गोली मिला दी गई थी. कुछ देर बाद स्वामीजी ने वह पानी शीला को पीने के लिए दिया, फिर शीला की जवानी का भरपूर मजा लूटा.

इस तरह रोज झाड़फूंक व पूजापाठ का झांसा दे कर स्वामीजी शीला की इज्जत से खेलते रहे.

शीला को भी सबकुछ मालूम हो गया, क्योंकि पहले ही दिन पानी पीने के बाद नशा छाया और होश में आने पर उसे एहसास हो गया कि स्वामीजी उस के साथ क्या कर चुके हैं.

एक दिन स्वामीजी ने शीला से फिर गिलास में पानी मंगवाया, तो शीला बोल पड़ी, ‘‘स्वामीजी, अब गिलास और पानी की जरूरत नहीं. अब तो जो हो रहा है, वह वैसे भी हो सकता है, क्योंकि बच्चे पैदा करना मेरे पति के बस की बात नहीं.

‘‘आप मुझे बेहोशी में लूट ही चुके हैं. अब जब तक बच्चा ठहर नहीं जाता, तब तक मैं खुद को आप को सौंपती हूं.’’

यह सुन कर स्वामीजी और शीला खूब देर तक वासना का खेल खेलते रहे. कुछ दिनों बाद शीला के पैर भारी हो गए.

रमेश कभीकभार शीला के साथ सो पाता था और स्वामीजी की दी गई भभूत खाता रहता था.

शीला को एक दिन सुबहसुबह उलटी होती देख रमेश शीला से पूछ बैठा, ‘‘क्या पैर भारी हो गए?’’

शीला ने मुसकरा कर ‘हां’ में सिर हिलाया.

रमेश खुशी से समझाते हुए बोला, ‘‘यह सब स्वामीजी की भभूत का कमाल है.’’ खुश हो कर रमेश ने स्वामीजी को 5 हजार रुपए दे दिए.

बचाने वाला महान : क्यों खतरे में थी गुलाबो की जिंदगी

पंच मेलाराम की नजरें काफी दिनों से अपने घर के साथ चौराहे पर नुक्कड़ वाली जगह पर लगी हुई थीं. वहां पर गरीब हरिया की विधवा बहू गुलाबो मिट्टी की कच्ची झोंपड़ी में बच्चों के लिए टौफीबिसकुट, पैनपैंसिलों, कौपियों वगैरह की दुकान चलाती थी.

पंच मेलाराम नुक्कड़ वाली वह जगह हरिया से खरीदना चाहता था. दरअसल, उस का मझला बेटा निकम्मा व आवारा था, इसलिए मेलाराम गुलाबो की दुकान की जगह पर अपने उस बेटे को शराब की दुकान खोल कर देना चाहता था.

विधवा गुलाबो के घर में अपाहिज सास व 2 बेटियों के अलावा बूढ़ा शराबी ससुर हरिया भी था, जो दो घूंट शराब पीने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था.

पंच मेलाराम ने हरिया को शीशे में उतार लिया था. उसे हर रोज खूब देशी दारू पिला रहा था, ताकि नुक्कड़ वाली जगह उसे मिल जाए.

वह जगह हरिया के नाम नहीं थी. मकान की मालकिन पहले हरिया की अपाहिज पत्नी संतरा थी. बेटे नरपाल की शादी हो गई, तो बहू गुलाबो आ गई.

गुलाबो बेहद मेहनती, गुणवान, अच्छे चरित्र की औरत थी. वह अपनी सास की प्यारी बहू बन गई थी.

नरपाल भी बाप की तरह शराबी था. कभीकभी जंगल में जंगली जानवरों का शिकार कर के मांस बेच कर वह कुछ पैसे कमाता था.

सास ने मकान बहू गुलाबो के नाम कर दिया था. उसे यकीन था कि मकान बहू के नाम होगा तो बचा रहेगा, नहीं तो बापबेटा शराब के लालच में उसे बेच खाएंगे.

नरपाल एक दिन घने जंगल में जंगली जानवर का शिकार करने गया और वापस नहीं आया. 4 दिन बाद तलाश करने पर नरपाल के कपड़े मिले. कपड़े मिलने का सब ने यही मतलब लगाया कि कोई जंगली जानवर उसे खा गया है. अब वह दुनिया में नहीं रहा. बेचारी गुलाबो जवानी में विधवा हो गई. जवान होती बेटियों और अपाहिज सास की जिम्मेदारी उस पर आ गई थी.

एक दिन शाम के समय हरिया ने बहू से कहा कि अगर दुकान वाली जगह मेलाराम को बेच दी जाए, तो अच्छे पैसे मिल जाएंगे. अपने रहने वाले दोनों कच्चे मिट्टी के बने कमरे पक्के हो जाएंगे. खर्चे के लिए पैसा बच जाएगा.

‘‘पिताजी, दुकान वाली जगह बेच दी, तो घर का चूल्हा नहीं जलेगा. कच्चे मकान में रहा जा सकता है, पर भूखे पेट जिंदा रहना मुश्किल है. जगह बेच कर पैसा कितने दिन चलेगा?’’ गुलाबो ने दूर की बात सोचते हुए कहा, तो हरिया कुछ देर के लिए चुप हो गया.

दुकान के बाहर पंच मेलाराम खड़ा ससुरबहू की बातें सुन रहा था. वह भीतर आ गया और गुलाबो की भरीपूरी छाती पर नजरें टिकाते हुए चापलूसी भरे लहजे में बोला, ‘‘देखो हरिया, तुम्हारी बहू विधवा हो गई तो क्या हुआ, हमारे गांव की इज्जत है. शाम होते ही यहां चौक में कितने आवारा किस्म के लोग खड़े हो कर बेहूदा इशारे करते हैं.’’

‘‘यही बात तो मैं इसे समझ रहा हूं. नुक्कड़ वाली जगह बेच कर जो पैसा मिलेगा, उस से पक्का मकान बनवा लेंगे. कुछ पैसा जरूरत के लिए बच भी जाएगा. आगे की आगे देखी जाएगी. मेरी दोनों पोतियां बड़ी हो रही हैं. सभी मिल कर काम करेंगे, तो हमारे बुरे दिन गुजर जाएंगे,’’ हरिया ने अपनी बात कही.

‘‘पिताजी, जगह बेचने का पैसा तो सालभर का खर्चा नहीं चला पाएगा. दोनों बेटियां जवान हो रही हैं. इन की शादियां भी करनी हैं. सासू मां भी दूसरों की मुहताज हैं,’’ गुलाबो ने कहा.

गुलाबो की बात पर मेलाराम हमदर्दी जताते हुए बोला, ‘‘गुलाबो, तू अपने रोजगार की चिंता मत कर. मैं सरकारी स्टांप पेपर पर लिख कर दूंगा. तुम्हारी दुकान पर मैं शराब की दुकान खोलूंगा. महीनेभर मैं कम से कम 10-12 लाख रुपए की आमदनी होगी. उस कमाई में से 25 फीसदी हिस्सा तुम्हारा होगा. महीने के महीने तुम्हें तुम्हारा हिस्सा मिल जाएगा.’’

‘‘वह तो बाद की बात है काका. काम चलने में सालभर लग जाएगा. इस से पहले हम खाएंगे क्या?’’

‘‘उस की चिंता मत कर गुलाबो. तुम हमारे खेतों में काम करो. 5 हजार रुपए हर महीना दूंगा. जब हमारी शराब की दुकान चल पड़ेगी, तुम काम छोड़ देना. लाखों रुपए तुम्हें तुम्हारा हिस्सा मिला करेगा. देखना मौज करोगी,’’ कहते हुए मेलाराम ने 5 हजार रुपए उस के सामने लहरा दिए.

‘‘रुपए रख लो बहू. 5 हजार रुपए हर महीने मिलेंगे. जब हमारी दुकान में दारू का कारोबार चल निकलेगा, तो तुम्हारा हिस्सा लाखों में मिलेगा. तब खेतों में काम करना छोड़ देना,’’ ससुर हरिया ने हरेहरे नोटों को ललचाई नजरों से देखते हुए कहा.

इधर गुलाबो भी सोच में पड़ गई. वह छोटी सी दुकान में हर महीने मुश्किल से हजारबारह सौ रुपए ही कमा पाती थी. इसी मामूली से काम में उस का सारा दिन खत्म हो जाता था.

अगर मेलाराम के खेतों में काम करने से 5 हजार रुपए महीना मिल जाए, तो

2 हजार रुपए में घर का खर्चा चला कर वह 3 हजार रुपए बचा सकती है. इस तरह 2-3 साल काम करेगी, तो अपनी दुकान की जगह बेचे बगैर ही वह अपने दोनों कमरे पक्के बनवा सकती है.

अभी गुलाबो सोच ही रही थी कि मेलाराम ने 5 हजार रुपए गुलाबो के सामने रख दिए. जब उस ने दूसरे दिन काम पर आने को कहा, तो गुलाबो ने गंभीर लहजे में अपने मन की बात कही, ‘‘ठीक है काका, आप के खेतों में काम जरूर करूंगी, मगर मैं अपनी सास और पति की निशानी अपने मकान का एक कोना तक नहीं बेचूंगी. पहले ही कहे देती हूं.’’

‘‘अरे हरिया, तू अपनी बहू को ठंडे दिमाग से समझना. मैं जो भी काम करूंगा, उस में तुम्हारा भी फायदा होगा,’’ कहते हुए मेलाराम चला गया.

‘‘बहू सारे रुपए संभाल ले. कल से काम पर जाना शुरू कर दे. तुम्हारी दुकान पर मैं काम कर लूंगा. बूढ़ा आदमी हूं, बैठा रहूंगा,’’ हरिया ने आगे की योजना बनाते हुए कहा.

रुपए ले कर गुलाबो सास के पास गई और सारी बात बताई, तो सास ने नुक्कड़ वाली दुकान की जगह बेचने से साफ मना कर दिया. वह बहू के मेलाराम के खेतों में काम करने के पक्ष में नहीं थी, मगर उसे अपनी बहू पर यकीन था.

गुलाबो को काम करते हुए महीनेभर से ऊपर हो गया था. दूसरे महीने का पैसा भी मेलाराम ने दिया नहीं था. शाम को जाते समय गुलाबो ने पैसे मांगे, तो मेलाराम ने उसे रुकने को कहा. उस के साथ काम करने वाली दूसरी औरतें जा चुकी थीं.

दरअसल, मेलाराम ने खेत पर भी मकान बना रखा था. वह उस में खेतों की रखवाली करने या फसल में रात को पानी देने के लिए रुकता था.

शाम हो चली थी. दूरदूर तक सन्नाटा पसरा था. गुलाबो को लगा कि अगर ज्यादा देर हो गई, तो अकेले गांव जाना मुश्किल होगा.

मेलाराम अपने कमरे में था. वह काफी समय से बाहर निकल नहीं रहा था. गुलाबो परेशान हो कर कमरे में घुस गई. महीने का पैसा मांगा, तो मेलाराम ने झपट कर उसे अपनी बांहों में कस लिया और उस की साड़ी खोलने लगा.

गुलाबो ने मेलाराम को अपने से दूर कर उसे उस की बूढ़ी उम्र का एहसास कराना चाहा, ‘‘यह क्या पागलपन है? तुम मेरे बाप की उम्र के हो. ऐसी घिनौनी हरकत तुम्हें शोभा नहीं देती.’’

तभी बाहर से गुलाबो की 12 साला बेटी उसे तलाश करती हुई वहां आ गई. उस ने अपनी मां से छेड़छाड़ करते मेलाराम को पीछे से काट खाया, तो वह गाली बकते हुए बुरी तरह बिदक गया.

मेलाराम ने मासूम बच्ची को जोर से धक्का दिया. वह दीवार से जा टकराई. उस के सिर से खून बह निकला. चोट लगने से वह बेहोश हो गई.

गुस्से में मेलाराम दूसरे कमरे से तलवार उठा लाया, जो उस ने पहले से छिपा कर रखी थी. वह दहाड़ते हुए बोला, ‘‘देख गुलाबो, अगर तू अपनी जवानी का खजाना मुझ पर नहीं लुटाएगी, तो मैं तेरी हत्या कर के तेरी जवान होती बेटी की इज्जत लूट लूंगा.’’

‘‘बेटी के साथ मुंह काला मत करना. हम मांबेटी तो पहले ही मुसीबत की मारी हैं,’’ बेचारी गुलाबो अपनी हालत पर सिसक उठी.

मेलाराम के हाथ में चमकती तलवार देख कर वह घबरा उठी थी. अगर उस की हत्या हो गई, तो उस की बेटी को बचाने कौन आएगा?

‘‘ठीक है. अगर अपनी जवान होती बेटी की आबरू बचाना चाहती है, तो तू पहले सफेद कागज पर लिख कि अपनी नुक्कड़ वाली दुकान मुझे बेच रही है. साथ ही, जिस्म से सारे कपड़े उतार दे.

‘‘बूढ़ा आदमी हूं, थोड़ेबहुत मजे लूटूंगा. तेरी बेटी को तेरे साथ हिफाजत से घर छोड़ आऊंगा. तेरा महीने का पैसा इस शर्त पर दूंगा कि हर शाम मेरी इच्छा पूरी कर के जाया करेगी.’’

‘‘कमीने, अपने घर की एक इंच जगह नहीं बेचूंगी. तेरी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी,’’ गुलाबो नफरत से गरजी.

‘‘ठीक है, तू ऐसे नहीं मानेगी. पहले तेरी बेटी का गला धड़ से अलग करता हूं,’’ गुर्राते हुए उस ने चमकती तलवार उस की बेटी की गरदन पर रख दी.

ऐसा दिल दहला देने वाला नजारा देख कर गुलाबो कांप उठी. वह नीच गांव से दूर खेतों में मांबेटी की हत्या कर के लाशें दबा देगा. कोई पूछेगा नहीं. उन दोनों का खात्मा हो जाएगा. उस का पति जिंदा नहीं है. ससुर शराबी है. अपाहिज सास भीख मांगती फिरेगी.

अभी गुलाबो सोच में उलझ थी कि मेलाराम फिर गरजा, ‘‘अरे, सोच क्या रही है? जल्दी से सादा कागज पर अपना नाम लिख. अपने सुलगतेमचलते जिस्म से कपड़े उतार, नहीं तो तेरी बेटी का खात्मा हो गया, समझ ले.’’

मजबूर गुलाबो ने सामने पड़े कागज पर दस्तखत कर अपना बदन मेलाराम को सौंप दिया.

गुलाबो का मादक बदन मेलाराम के दिलोदिमाग में वासना का तूफान जगाने लगा था.

मेलाराम ने जवानी में ऐसा मचलता हुस्न नहीं देखा था. वह अभी आगे बढ़ता कि बाहर से आती कुछ आवाजें सुन कर चौंक उठा. आवाजें उस के मकान के नजदीक से आ रही थीं.

गुलाबो ने फटाफट अपने कपड़े पहन लिए, तभी उस की छोटी बेटी हांफती हुई आई और मां से लिपटते हुए बोली, ‘‘मां… मां, बाहर देखो, पापा आ रहे हैं. अपने साथ पुलिस को भी ला रहे हैं.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है गुड़िया? तेरे पापा को तो जंगली जानवर…’’ गुलाबो इतना कह पाई थी कि आंधीतूफान की तरह गुस्से की आग में सुलगता हुआ उस का पति नरपाल वहां आ पहुंचा.

उस ने मेलाराम को देखते ही दबोच लिया और उसे इतना मारा कि उस के दोनों हाथ टूट गए और एक आंख फूट गई. अगर पुलिस वाले नहीं बचाते, तो नरपाल मेलाराम को मार ही डालता.

हैरानी में डूबी गुलाबो ने नरपाल से पूछा, ‘‘तुम्हें तो जंगली जानवर…’’

‘‘नहीं…नहीं, मुझे जंगली जानवर क्या खाएंगे, मुझे तो मेलाराम और इस के दोनों बेटों ने जंगल में पकड़ लिया था. मैं नशे में था. ये तीनों हमारा मकान हड़पना चाहते थे.

‘‘मना करने पर इन लोगों ने मुझे बुरी तरह मारापीटा और बेहोशी की हालत में नंगा कर के नदी में बहा दिया. इन का अंदाजा था कि लोग समझोंगे कि मुझे जंगली जानवर खा गए.’’

नरपाल की बात सुन कर तो गुलाबो ने वह कागज फाड़ डाला, जिस पर मेलाराम ने उस से दस्तखत कराए थे.

गुलाबो आगे बढ़ कर नरपाल से लिपट गई.

‘‘ऐसा हादसा तुम्हारे शराब पीने की आदत के चलते हुए था. पंच मेलाराम हमारे मकान की नुक्कड़ वाली जगह पर शराब की दुकान खोलना चाहता था,’’ गुलाबो ने पति की शराब पीने की आदत पर अपना विरोध जताया.

‘‘गुलाबो, नशा समाज के लिए अभिशाप है. मैं इस का बुरा नतीजा भुगत चुका हूं. अगर एक भला आदमी मुझे बेहोशी की हालत में बहती नदी से न बचाता, तो मेरी बेटी और पत्नी के साथ पता नहीं क्या हो जाता.

‘‘अब मैं न शराब पीऊंगा और न ही शराब की दुकान खुलेगी. अब ये शैतान जेल जाएंगे,’’ नरपाल ने इतना कहा, तो गुलाबो पति की बांहों में समा गई.

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