फ्लौपी

कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने में केवल 2 दिन शेष रह गए थे. जाती बार सुदर्शन हिदायत दे गए थे कि सांझ तक अपना पूरा काम निबटा लूं. सारे फर्नीचर को ठिकाने से व्यवस्थित कर दूं. बारबार के तबादलों ने दुखी कर रखा था. कितने परिश्रम और चाव से एक अरसे बाद घर बन कर पूरा हुआ था. अब सब छोड़छाड़ कर कलकत्ता चलो. अचानक घंटी ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया. भाग कर किवाड़ खोला तो बबल को सामने खड़ा मुसकराता पाया. उस के हाथ में खूबसूरत सा काला और सफेद पिल्ला था.

‘‘कहां से लाए? बड़ा प्यारा है,’’ मैं ने उस के नन्हे मुख को हाथ में ले कर पुचकारा.

‘‘मां, यह बी ब्लाक वाली चाचीजी का है. पूरे साढ़े 700 रुपए का है,’’ उस ने उत्साह से भर कर उस के कीमती होने का  बखान किया.

‘‘हां, बहुत प्यारा है,’’ मैं ने पिल्ले को हाथ में ले कर कहा.

‘‘गोद में ले लो. देखो, कैसे रेशम जैसे बाल हैं इस के,’’ उस ने पिल्ले के चमकते हुए बालों को हाथ से सहलाया.

गोद में ले कर मैं ने उसे 3-4 बिस्कुट खिलाए तो वह गपागप चट कर गया और जब उस की आंखें डब्बे में बंद शेष बिस्कुटों की तरफ भी लोलुपता से निहारने लगीं तो मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘बस, चलो भागो यहां से. बहुत हो गया लाड़प्यार.’’

फिर मैं ने बबल से कहा, ‘‘बबल, देखो अब ज्यादा समय नष्ट मत करो. इस पिल्ले को इस के घर छोड़ आओ और वापस आ कर अपना सामान बांधो. विकी से भी कहना कि जल्दी घर लौटे. अपने- अपने कमरों का जिम्मा तुम्हारा है, मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘चलो भई, मां तुम्हारे साथ खेलने नहीं देंगी,’’ उस ने पिल्ले का मुख चूम लिया और बी ब्लाक की तरफ भाग गया.

आधे घंटे बाद जब वह पुन: लौटा तो विकी उस के साथ था. दोनों अपने- अपने कमरों में जा कर सामान समेटने लगे परंतु बीचबीच में कुछ खुसुरफुसुर की आवाजों से मैं शंकित हो उठी. मैं ने आवाज दे कर पूछा, ‘‘क्या बात है. आज तो दोनों भाइयों में बड़े प्रेम से बातचीत हो रही है.’’

जब भी मेरे दोनों बेटे आपस में घुलमिल कर एक हो जाते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि जरूर मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. जैसे वे घर में देवरानी और जेठानी हों और मैं उन की कठोर सास. एक बार हंस कर मेरे पति ने पूछा भी था, ‘‘तुम इन्हें देवरानीजेठानी क्यों कहती हो?’’

‘‘इसलिए कि वैसे तो दोनों में पटती नहीं, परंतु जब भी मेरे खिलाफ होते हैं तो आपस में मिल कर एक हो जाते हैं. आप ने देखा होगा, अकसर देवरानीजेठानी के रिश्तों में ऐसा ही होता है,’’ मेरी इस बात पर घर में सब बहुत हंसे थे.

‘‘मेरी प्यारीप्यारी मां,’’ पीठ के पीछे से आ कर बबल ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया.

‘‘जरूर कोई बात है, तभी मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘फ्लौपी है न सुंदर.’’

‘‘कौन फ्लौपी?’’

‘‘वही पिल्ला, जिसे मैं घर लाया था.’’

‘‘उस का नाम फ्लौपी है, बड़ा अजीब सा नाम है,’’ मैं ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया.

‘‘वह गिरता बहुत है न, इसलिए चाचीजी ने उस का नाम फ्लौपी रख दिया है.’’

‘‘हमारे पामेरियन माशा के साथ उस की कोई तुलना नहीं. जैसी शक्ल वैसी ही अक्ल पाई थी उस ने. कितनी मेहनत की थी मैं ने उस पर. हमारे दिल्ली आने से पहले ही बेचारा मर गया,’’ मैं ने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कोई भी घर आता तो कैसे 2 पांवों पर खड़ा हो कर हाथ जोड़ कर नमस्ते करता. मैं उसे कभी भूल नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मां अपना ब्ंिलकर भी किसी से कम न था, जिसे आप की एक सहेली ने भेंट किया था,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘पर उस के बाल बड़े लंबे थे. बेचारा ठीक से देख भी नहीं सकता था. हर समय अपनी आंखें ही झपकता रहता था. तभी तो पिताजी ने उस का नाम ब्ंिलकर रख छोड़ा था.’’

बबल की बातें सुन कर मैं कुछ देर के लिए खो सी गई और एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘1 साल बाद ब्ंिलकर चोरी हो गया और माशा को किसी ने मार डाला.’’

‘‘कई लोग बड़े निर्दयी होते हैं,’’ बबल ने मेरी दुखती रग पकड़ी.

‘‘तुम्हें याद है, जिस दिन मैं एक पत्रिका के लिए साक्षात्कार कर के लौटी तो कितनी देर तक मेरे हाथपांव चाटता रहा. जहां भी जा कर लेटती वहीं भाग आता. मैं सुबह से गायब रही, शायद इसलिए उदास हो गया था. उस रात हम किसी के घर आमंत्रित थे. चुपके से कमरे से बाहर निकल गया और लगा कार के पीछे भागने. मैं कार से उतर कर पुन: उसे घर छोड़ आई. पर वह था बड़ा बदमाश. हमारे जाते ही गेट से निकल कर फिर कहीं मटरगश्ती करने निकल पड़ा.’’

‘‘मां, उस रात आप ने बड़ी गलती की. वह आप के साथ कार में जाना चाहता था. आप उसे साथ ले जातीं तो वह बच जाता.’’

‘‘बच्चे, अगर उसे बचना होता तो उसे एक जगह टिक कर बंधे रहने की समझ अपनेआप आ जाती. उस का सब से बड़ा दोष था कि वह एक जगह बंध कर नहीं रहना चाहता था. जब भी बांधने का नाम लो, आगे से गुर्राना शुरू कर देता. उस रात भी तो उस ने ऐसा ही किया था.’’

‘‘मां, आप मेरी बात मानो, वह किसी की कार के नीचे आ कर नहीं मरा. उस के शरीर पर एक भी जख्म नहीं था. ऐसे लगता था जैसे सो रहा हो. जरूर उस निकम्मे नौकर ने ही उसे मार डाला था. माशा उसे पसंद नहीं करता था. नौकर ने ही तो आ कर खबर दी थी कि माशा मर गया है,’’ बबल ने क्रोध में अपने दांत पीसे.

‘‘हम कुत्ता पालते तो हैं लेकिन उस का सुख नहीं भोग सकते,’’ मैं ने उदास हो कर कहा.

‘‘मां, अगर आप को फ्लौपी जैसा पिल्ला मिल जाए तो आप ले लेंगी?’’ विनम्रता से चहक कर उस ने मतलब की बात कही.

‘‘मैं साढ़े 700 रुपए खर्च करने वाली नहीं. कोई मजाक है क्या? मुझे नहीं चाहिए फ्लौपी,’’ मैं ने गुस्से में अपने तेवर बदले.

‘‘कौन कहता है आप को रुपए खर्च करने को. चाचीजी तो उसे मुफ्त में दे रही हैं.’’

‘‘क्यों? तो फिर जरूर उस में कोई खोट होगी. वरना कौन अपना कुत्ता किसी को देता है?’’

‘‘खोटवोट कुछ नहीं. उन का बच्चा छोटा है, इसलिए उसे समय नहीं दे पातीं. आप तो बस हर बात पर शक करती हैं.’’

हम दोनों की बहस सुन कर मेरा बड़ा बेटा विकी भी उस की तरफदारी करने अपने कमरे से निकल आया, ‘‘मां, बबल बिलकुल ठीक कह रहा है. चाचीजी पिल्ले के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूंढ़ रही हैं. आप को शक हो तो स्वयं उन से मिल लो.’’

‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से. माशा के बाद अब मुझे कोई कुत्ता नहीं पालना. सुना तुम ने,’’ मैं पांव पटकती पुन: सामान समेटने लगी, ‘‘कलकत्ता के 8वें तल्ले पर है हमारा फ्लैट. उसे पालना कोई मजाक नहीं. तुम्हारे पिता भी नहीं मानेंगे,’’ मैं ने कड़ा विरोध किया. परंतु उन दोनों में से मेरी बात मानने वाला वहां था कौन?

‘‘हम तो फ्लौपी को जरूर पालेंगे,’’ दोनों भाई जोरदार शब्दों में घोषणा कर के अपनेअपने कमरों में चले गए.

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े.

इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया.

दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है.

कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले.

बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता.

एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’

‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया.

फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी.

‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’

‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई.

इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था.

‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’

बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है.

सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके.

हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’

‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा.

‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला.

‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’

‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’

‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा.

हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया.

मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की.

‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’

‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’

‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की.

‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया.

‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता.

सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी.

‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया.

मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

मेरो मदन गोपाल

रामपुरा गांव में बैरागिन माताश्री के सत्संग का काफी प्रचार हो रहा था. इस से पहले शहर में 7 दिन तक उन्होंने भागवत कथा की धूम मचा रखी थी. माताश्री से दीक्षा लेने के लिए लोगों की कतारें लग गई थीं. ईर्ष्यावश कृष्ण मंदिर के पुजारी के मुंह से निकल ही गया, ‘‘घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध…माताश्री ने 7 दिन में ही लगभग 2 लाख रुपए बटोर लिए हैं. हमें कोई ससुरा 21 या 51 रुपए से ज्यादा दक्षिणा नहीं देता.’’

रामपुरा गांव के पहले के जमींदार और अब के सरपंच स्वरूप सिंह ने भी माताश्री की कथा को सुना था. उन के मन में भक्ति रस की लहरों ने जोर मारा तो अपने गांव में भी कथा करवाने की जिद सी ठान ली. उन के छोटे भाई योगेश और बेटे मनोज ने बहुत समझाया कि इन ढकोसलों में कुछ नहीं रखा. पर स्वरूप सिंह ने किसी की एक न मानी. माताश्री बड़ी मुश्किल से 21 हजार रुपए दक्षिणा पाने के प्रस्ताव पर 3 दिन तक सत्संग करने को राजी हुईं.

कथास्थल को काफी भव्य रूप प्रदान किया गया था. सुसज्जित मंच की शोभा देखने लायक थी. आसपास के 5-6 गांवों की भीड़ जमा हो गई थी. सुनने वालों के लिए रंगबिरंगे शामियाने तान दिए गए थे. रोशनी की जगमगाहट में पूरा माहौल भक्ति रस में डूबने को तैयार था. 7 बजे के लगभग भजनकीर्तन आरंभ हुआ. उस के बाद माताश्री के प्रवचन ने भक्तों को काफी प्रभावित किया. इस के बाद कीर्तन मंडली ने फिर से अपना रंग जमाया.

अलगअलग साजों के संग नईनई फिल्मी तर्जों पर तैयार किए गए भजनों को सुन कर पंडाल में बैठे ग्रामीण झूमझूम कर तालियां बजाने लगे. ‘धूम मचा दे…धूम मचा दे…’ गीत की तर्ज पर गाए भजन पर तो आगे बैठे 7-8 युवक मस्ती में ठुमके लगाने लगे. कार्यक्रम समाप्त होने से पहले माताश्री ने एक भजन गाया…

‘मेरो मदन गोपाल…मेरो मदन गोपाल…

सोनाचांदी मैं ना चाहूं ना चाहूं धनमाल…

मेरो मदन गोपाल…’

माताश्री के सुरीले कंठ से गाए गए इस भजन ने श्रोताओं को पूरी तरह सम्मोहित कर दिया. कथा की समाप्ति पर एक वृद्धा बोल उठी, ‘‘माताश्री कितना त्यागमय जीवन जी रही हैं. कोई लोभलालच नहीं, कोई ऐशोआराम नहीं…किसी तरह की सुखसुविधा की इच्छा नहीं…’’

माताश्री के रात्रि विश्राम के लिए सरपंच के सड़क किनारे बने नए दो- मंजिला मकान में शानदार प्रबंध था. भोजन में पुलाव, 3 सब्जियां, दाल, पूरी व खीर आदि का इंतजाम था.

दूसरे दिन भी रात में सत्संग का वैसा ही कार्यक्रम था, पर तीसरे दिन गड़बड़ हो गई. लगभग 70 किलोमीटर दूर के कसबे से फोन आया कि सरपंचजी के ससुर इस दुनिया से कूच कर गए हैं. अत: वे पत्नी के संग ससुराल जाने की तैयारी करने लगे. जातेजाते सरपंच अपने छोटे भाई और बेटे को समझा गए कि सत्संग में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए. उन्हें डर था कि भाई और बेटा कोई चाल न चल जाएं, अत: भेंटपूजा के रूप में वस्त्र, मिठाई, फलों की 2 टोकरियां और 21 हजार रुपए माताश्री को उसी समय देते गए.

तीसरे दिन ठीक समय पर माताश्री का प्रवचन शुरू हुआ. फिर लगभग 1 घंटे तक श्रोताओं ने भजनों का आनंद लिया. कथा समाप्ति पर श्रोता घरों को लौटने लगे. अचानक सभी लोग पंडाल में प्रवेश करती बैलगाड़ी को कौतुक से देखने लगे. सरपंच के बेटे मनोज ने माताश्री के समक्ष जा कर हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘हमारे पापों को क्षमा करें…आप को विश्रामस्थल तक पहुंचाने के लिए हम ने नाहक ही कार का इस्तेमाल किया. आप के त्यागमयी शरीर को इस से कितना कष्ट हुआ होगा. चलिए, अब बैलगाड़ी में सवार हो जाइए, मौसम भी खराब है…किसी समय भी बरसात हो सकती है.’’

माताश्री और उन की मुख्य शिष्या क्रोध में भुनभुनाती हुई बैलगाड़ी पर सवार हो गईं. भजनमंडली पैदल चलने लगी.

माताश्री अभी पहले सदमे से उबरी भी नहीं थीं कि एक दूसरा हृदय विदारक दृश्य उन की आंखों के सामने साकार हो उठा. बैलगाड़ी खेत के किनारे बनी एक झोंपड़ी के सामने जा कर रुक गई. अब तो माताश्री से रहा न गया, गुस्से में उबलती हुई तीखी आवाज में बोलीं, ‘‘तुम्हारे पिता के आग्रह को हम ठुकरा न सके. अगर मालूम होता कि ऐसे भक्त के घर में कंस जैसा बेटा और रावण जैसा भाई मौजूद हैं तो 21 क्या, हम 51 हजार रुपए में भी इस ओर न झांकते. बच्चे, तुम अभी हमारी हस्ती से परिचित नहीं हो.’’

‘‘शांत, माताश्री, शांत…आप स्वयं ही भजन गा रही थीं कि ‘नहीं चाहिए महल चौबारे, रहूं झोंपड़ी में खुशहाल…’ अत: हम ने सोचा, चौबारे में पलंग पर बिछे मखमली गद्दे पर लेटने से आप की आत्मा को कितना कष्ट झेलना पड़ा होगा. अब आप स्वयं सोचिए, हम भला यह पाप क्योंकर करते?’’ सरपंच के भाई योगेश की व्यंग्य भरी वाणी सुन कर साथ खड़े युवक अपनी हंसी न रोक सके.

तभी 2 सूखी रोटियों और मूंग की दाल से सजी थाली को माताश्री के सामने रखते हुए मनोज ने धीरे से कहा, ‘‘क्षमा करें, हम ने 2 दिन तक हलवा, पूरी, पनीर और खीर खिला कर आप के साथ घोर अन्याय किया है. जैसा कि आप भजन गा रही थीं कि ‘खाने को न चाहिए हलवा पूरी, दो रोटी व मूंग की दाल…’ अत: आप की उसी फरमाइश को ध्यान में रखते हुए हम ने यह सादा व पवित्र भोजन तैयार करवाया है. धन्य हैं आप और धन्य हैं आप का त्यागमय जीवन…आप वास्तव में महान हैं…’’

‘‘शंभू,’’ माताश्री ने अपने ड्राइवर की ओर क्रोध से देखा, ‘‘तुम भी इन पापियों की बातें सुन कर दांत फाड़ रहे हो…जल्दी से अपनी गाड़ी ले कर आओ.’’

तभी एक देहाती ने ऊंचे स्वर में गाया, ‘‘अब तो हो गया बुरा हाल, टूट गई जोग की तलवार और बैराग की ढाल, मेरो तो मदन गोपाल…मेरो तो मदन गोपाल.’’

इन पंक्तियों को सुन कर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया.

माताश्री शीघ्र ही अपनी मंडली के संग गांव से ही विदा नहीं हुईं, शहर के मंदिर में रखा बोरियाबिस्तर समेट कर रातोंरात वहां से भी नौ दो ग्यारह हो गईं. वह जानती थीं कि गांव की घटना तरहतरह के मिर्चमसालों के संग सुबह होतेहोते पूरे शहर में फैल चुकी होगी. अत: ऐसी स्थिति में भय, लज्जा और अपमान से बचने के लिए वे जल्द से जल्द वहां से बहुत दूर निकल जाना चाहती थीं.

कुछ दिनों बाद पता लगा, माताश्री की शादी उन के ड्राइवर शंभू से हो गई. दोबारा बैलगाड़ी पर न चढ़ना पड़े, लगता है माताश्री ने इस का पूरा इंतजाम कर लिया था.

बदली परिपाटी

लगता है रात में जतिन ने फिर बहू पर हाथ उठाया. मुझ से यह बात बरदाश्त नहीं होती. बहू की सूजी आंखें और शरीर पर पड़े नीले निशान देख कर मेरा दिल कराह उठता है. मैं कसमसा उठता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. काश, पूजा होती और अपने बेटे को समझाती पर पूजा को तो मैं ने अपनी ही गलतियों से खो दिया है.

यह सोचतेसोचते मेरे दिमाग की नसें फटने लगी हैं. मैं अपनेआप से भाग जाना चाहता हूं. लेकिन नहीं भाग सकता, क्योंकि नियति द्वारा मेरे लिए सजा तय की गई है कि मैं पछतावे की आग में धीरेधीरे जलूं.

‘‘अंतरा, मैं बाजार की तरफ जा रहा हूं, कुछ मंगाना तो नहीं.’’

‘‘नहीं पापाजी, आप हो आइए.’’ मैं चल पड़ा यह सोच कर कि कुछ देर बाहर निकलने से शायद मेरा मन थोड़ा बहल जाए. लेकिन बाहर निकलते ही मेरा मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा…

‘मुझ से जबान लड़ाती है,’ एक भद्दी सी गाली दे कर मैं ने उस पर अपना क्रोध बरसा दिया.

‘आह…प्लीज मत मारो मुझे, मेरे बच्चे को लग जाएगी, दया करो. मैं ने आखिर किया क्या है?’ उस ने झुक कर अपनी पीठ पर मेरा वार सहन करते हुए कहा.

कोख में पल रहे बच्चे पर वह आंच नहीं आने देना चाहती थी. लेकिन मैं कम क्रूर नहीं था. बालों से पकड़ते हुए उसे घसीट कर हौल में ले आया और अपनी बैल्ट निकाल ली. बैल्ट का पहला वार होते ही जोरों की चीख खामोशी में तबदील होती चली गई. वह बेहोश हो चुकी थी.

‘पागल हो गया क्या, अरे, उस के पेट में तेरी औलाद है. अगर उसे कुछ हो गया तो?’ मां किसी बहाने से उसे मेरे गुस्से से बचाना चाहती थीं.

‘कह देना इस से, भाड़े पर लड़कियां लाऊं या बियर बार जाऊं, यह मेरी अम्मा बनने की कोशिश न करे वरना अगली बार जान से मार दूंगा,’ कहते हुए मैं ने 2 साल के नन्हे जतिन को धक्का दिया, जो अपनी मां को मार खाते देख सहमा हुआ सा एक तरफ खड़ा था. फिर गाड़ी उठाई और निकल पड़ा अपनी आवारगी की राह.

उस पूरी रात मैं नशे में चूर रहा. सुबह के 6 बज रहे होंगे कि पापा के एक कौल ने मेरी शराब का सारा नशा उतार दिया. ‘कहां है तू, कब से फोन लगा रहा हूं. पूजा ने फांसी लगा ली है. तुरंत आ.’ जैसेतैसे घर पहुंचा तो हताश पापा सिर पर हाथ धरे अंदर सीढि़यों पर बैठे थे और मां नन्हे जतिन को चुप कराने की बेहिसाब कोशिशें कर रही थीं.

अपने बैडरूम का नजारा देख मेरी सांसें रुक सी गईं. बेजान पूजा पंखे से लटकी हुई थी. मुझे काटो तो खून नहीं. मांपापा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पूजा ने अपने साथ अपनी कोख में पल रहे मेरे अंश को भी खत्म कर लिया था. पर इतने खौफनाक माहौल में भी मेरा शातिर दिमाग काम कर रहा था. इधरउधर खूब ढूंढ़ने के बाद भी पूजा की लिखी कोई आखिरी चिट्ठी मुझे नहीं मिली.

पुलिस को देने के लिए हम ने एक ही बयान को बारबार दोहराया कि मां की बीमारी के चलते उसे मायके जाने से मना किया तो जिद व गुस्से में आ कर उस ने आत्महत्या कर ली. वैसे भी मेरी मां का सीधापन पूरी कालोनी में मशहूर था, जिस का फायदा मुझे इस केस में बहुत मिला. कुछ दिन मुझे जरूर लौकअप में रहना पड़ा, लेकिन बाद में सब को देदिला कर इस मामले को खत्म करने में हम ने सफलता पाई, क्योंकि पूजा के मायके में उस की खैरखबर लेने वाला एक शराबी भाई ही था जिसे अपनी बहन को इंसाफ दिलाने में कोई खास रुचि न थी.

थोड़ी परेशानी से ही सही, लेकिन 8-10 महीने में केस रफादफा हो गया पर मेरे जैसा आशिकमिजाज व्यक्ति ऐसे समय में भी कहां चुप बैठने वाला था. इस बीच मेरी रासलीला मेरे एक दोस्त की बहन लिली से शुरू हो गई. लिली का साथ मुझे खूब भाने लगा, क्योंकि वह भी मेरी तरह बिंदास थी. पूजा की मौत के डेढ़ साल के भीतर ही हम ने शादी कर ली. वह तो शादी के बाद पता चला कि मैं सेर, तो वह सवा सेर है. शादी होते ही उस ने मुझे सीधे अपनी अंटी में ले लिया.

बदतमीजी, आवारगी, बदचलनी आदि गुणों में वह मुझ से कहीं बढ़ कर निकली. मेरी परेशानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई जिस दिन मैं ने पूजा समझ कर उस पर पहली बार हाथ उठाया. मेरे उठे हाथ को हवा में ही थाम उस ने ऐसा मरोड़ा कि मेरे मुंह से आह निकल गई. उस के बाद मैं कभी उस पर हाथ उठाने की हिम्मत न कर पाया.

घर के बाहर बनी पुलिया पर आसपास के आवारा लड़कों के साथ बैठी वह सिगरेट के कश लगाती जबतब कालोनी के लोगों को नजर आती. अपने दोस्तों के साथ कार में बाहर घूमने जाना उस का प्रिय शगल था. रात को वह शराब के नशे में धुत हो घर आती और सो जाती. मैं ने उसे अपने झांसे में लेने की कई नाकाम कोशिशें कीं, लेकिन हर बार उस ने मेरे वार का ऐसा प्रतिवार किया कि मैं बौखला गया. उस ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दी कि अगर मैं ने उस से उलझने की कोशिश की तो वह मुझे मरवा देगी या ऐसा फंसाएगी कि मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं उस के गदर से तभी तक बचा रहता जब तक कि उस के कामों में हस्तक्षेप न करता.

तो इस तरह प्रकृति के न्याय के तहत मैं ने जल्द ही वह काटा, जो बोया था. घर की पूरी सत्ता पर मेरी जगह वह काबिज हो चुकी थी. शादी के सालभर बाद ही मुझ पर दबाव बना कर उस ने पापा से हमारे घर को भी अपने नाम करवा लिया. और फिर हमारा मकान बेच कर उस ने पौश कालोनी में एक फ्लैट खरीदा और मुझे व जतिन को अपने साथ ले गई. मेरे मम्मीपापा मेरी बहन यानी अपनी बेटी के घर में रहने को मजबूर थे. यह सब मेरी ही कारगुजारियों की अति थी जो आज सबकुछ मेरे हाथ से मुट्ठी से निकली रेत की भांति फिसल चुका था.

अपना मकान बिकने से हैरानपरेशान पापा इस सदमे को न सह पाने के कारण हार्टअटैक के शिकार हो महीनेभर में ही चल बसे. उन के जाने के बाद मेरी मां बिलकुल अकेली हो गईं. प्रकृति मेरे कर्मों की इतनी जल्दी और ऐसी सजा देगी, मुझे मालूम न था.

नए घर में शिफ्ट होने के बाद भी उस के क्रियाकलाप में कोई खास अंतर नहीं आया. इस बीच 5 साल के हो चुके जतिन को उस ने पूरी तरह अपने अधिकार में ले लिया. उस के सान्निध्य में पलताबढ़ता जतिन भी उस के नक्शेकदम पर चल पड़ा. पढ़ाईलिखाई से उस का खास वास्ता था नहीं. जैसेतैसे 12वीं कर उस ने छोटामोटा बिजनैस कर लिया और अपनी जिंदगी पूरी तरह से उसी के हवाले कर दी. उन दोनों के सामने मेरी हैसियत वैसे भी कुछ नहीं थी. किसी समय अपनी मनमरजी का मालिक मैं आजकल उन के हाथ की कठपुतली बन, बस, उन के रहमोकरम पर जिंदा था.

इसी रफ्तार से जिंदगी के कुछ और वर्ष बीत गए. इस बीच लिली एक भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आ गई और अपनेआप में गुमसुम पड़ी रहने लगी. अब घर की सत्ता मेरे बेटे जतिन के हाथों में आ गई. हालांकि इस बदलाव का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं था. हां, जतिन की शादी होने पर उस की पत्नी अंतरा के आने से अलबत्ता मुझे कुछ राहत जरूर हो गई, क्योंकि मेरी बहू भी पूजा जैसी ही एक नेकदिल इंसान थी.

वह लिली की सेवा जीजान से करती और जतिन को खुश करने की पूरी कोशिश भी. पर जिस की रगों में मेरे जैसे गिरे इंसान का लहू बह रहा हो, उसे भला किसी की अच्छाई की कीमत का क्या पता चलता. सालभर पहले लिली ने अपनी आखिरी सांस ली. उस वक्त सच में मन से जैसे एक बोझ उतर गया और मेरा जीवन थोड़ा आसान हो गया.

इस बीच, जतिन के अत्याचार अंतरा के प्रति बढ़ते जा रहे थे. लगभग रोज रात में जतिन उसे पीटता और हर सुबह अपने चेहरे व शरीर की सूजन छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए वह फिर से अपने काम पर लग जाती. कल रात भी जतिन ने उस पर अपना गुस्सा निकाला था.

मुझे समझ नहीं आता था कि आखिर वह ये सब क्यों सहती है, क्यों नहीं वह जतिन को मुंहतोड़ जवाब देती, आखिर उस की क्या मजबूरी है? तमाम बातें मेरे दिमाग में लगातार चलतीं. मेरा मन उस के लिए इसलिए भी परेशान रहता क्योंकि इतना सबकुछ सह कर भी वह मेरा बहुत ध्यान रखती थी. कभीकभी मैं सोच में पड़ जाता कि आखिर औरत एक ही समय में इतनी मजबूत और मजबूर कैसे हो सकती है?

ऐसे वक्त पर मुझे पूजा की बहुत याद आती. अपने 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैं ने एक पल भी उसे सुकून का नहीं दिया. शादी की पहली रात जब सजी हुई वह छुईमुई सी मेरे कमरे में दाखिल हुई थी, तो मैं ने पलभर में उसे बिस्तर पर घसीट कर उस के शरीर से खेलते हुए अपनी कामवासना शांत की थी.

काश, उस वक्त उस के रूपसौंदर्य को प्यारभरी नजरों से कुछ देर निहारा होता, तारीफ के दो बोल बोले होते तो वह खुशी से अपना सर्वस्व मुझे सौंप देती. उस घर में आखिर वह मेरे लिए ही तो आई थी. पर मेरे लिए तो प्यार की परिभाषा शारीरिक भूख से ही हो कर गुजरती थी. उस दौरान निकली उस की दर्दभरी चीखों को मैं ने अपनी जीत समझ कर उस का मुंह अपने हाथों से दबा कर अपनी मनमानी की थी. वह रातों में मेरे दिल बहलाने का साधनमात्र थी. और फिर जब वह गर्भवती हुई तो मैं दूसरों के साथ इश्क लड़ाने लगा, क्योंकि वह मुझे वह सुख नहीं दे पा रही थी. वह मेरे लिए बेकार हो चुकी थी. इसलिए मुझे ऐसा करने का हक था, आखिर मैं मर्द जो था. मेरी इस सोच ने मुझे कभी इंसान नहीं बनने दिया.

हे प्रकृति, मुझे थोड़ी सी तो सद्बुद्धि देती. मैं ने उसे चैन से एक सांस न लेने दी. अपनी गंदी हरकतों से सदा उस का दिल दुखाया. उस की जिंदगी को मैं ने वक्त से पहले खत्म कर दिया.

उस दिन उस ने आत्महत्या भी तो मेरे कारण ही की थी, क्योंकि उसे मेरे नाजायज संबंधों के बारे में पता चल गया था और उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि इस बारे में मुझ से पूछ बैठी थी. बदले में मैं ने जीभर कर उस की धुनाई की थी. ये सब पुरानी यादें दिमाग में घूमती रहीं और कब मैं घर लौट आया पता ही नहीं चला.

‘‘पापा, जब आप मार्केट गए थे. उस वक्त बूआजी आई थीं. थोड़ी देर बैठीं, फिर आप के लिए यह लिफाफा दे कर चली गईं.’’ बाजार से आते ही अंतरा ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘ठीक है बेटा,’’ मैं ने लिफाफा खोला. उस में एक छोटी सी चिट और करीने से तह किया हुआ एक पन्ना रखा था. चिट पर लिखा था, ‘‘मां के जाने के सालों बाद आज उन की पुरानी संदूकची खोली तो यह खत उस में मिला. तुम्हारे नाम का है, सो तुम्हें देने आई थी.’’ बहन की लिखावट थी. सालों पहले मुझे यह खत किस ने लिखा होगा, यह सोचते हुए कांपते हाथों से मैं ने खत पढ़ना शुरू किया.

‘‘प्रिय मयंक,

‘‘वैसे तो तुम ने मुझे कई बार मारा है, पर मैं हमेशा यह सोच कर सब सहती चली गई कि जैसे भी हो, तुम मेरे तो हो. पर कल जब तुम्हारे इतने सारे नाजायज संबंधों का पता चला तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया. हर रात तुम मेरे शरीर से खेलते रहे, हर दिन मुझ पर हाथ उठाते रहे. लेकिन मन में एक संतोष था कि इस दुखभरी जिंदगी में भी एक रिश्ता तो कम से कम मेरे पास है. लेकिन जब पता चला कि यह रिश्ता, रिश्ता न हो कर एक कलंक है, तो इस कलंक के साथ मैं नहीं जी सकती. सोचती थी, कभी तो तुम्हारे दिल में अपने लिए प्यार जगा लूंगी. लेकिन अब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. मायके में भी तो कोई नहीं है, जिसे मेरे जीनेमरने से कोई सरोकार हो. मैं अपनी व्यथा न ही किसी से बांट सकती हूं और न ही उसे सह पा रही हूं. तुम्हीं बताओ फिर कैसे जिऊं. मेरे बाद मेरे बच्चों की दुर्दशा न हो, इसलिए अपनी कोख का अंश अपने साथ लिए जा रही हूं. मासूम जतिन को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुश रहो तुम, कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना. जाने से पहले एक बात तुम से जरूर कहना चाहूंगी. ‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.’

‘‘तुम्हारी चाहत के इंतजार में पलपल मरती…तुम्हारी पूजा.’’

पूरा पत्र आंसुओं से गीला हो चुका था, जी चाह रहा था कि मैं चिल्लाचिल्ला कर रो पड़ूं. ओह, पूजा माफ कर दे मुझे. मैं इंसान कहलाने के काबिल नहीं, तेरे प्यार के काबिल भला क्या बनूंगा. हे प्रकृति, मेरी पूजा को लौटा दे मुझे, मैं उस के पैर पकड़ कर अपने गुनाहों की माफी तो मांग लूं उस से. लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत.

भावनाओं का ज्वार थमा तो कुछ हलका महसूस हुआ. शायद मां को पूजा का यह सुसाइड लैटर मिला हो और मुझे बचाने की खातिर यह पत्र उन्होंने अपने पास छिपा कर रख लिया हो. यह उन्हीं के प्यार का साया तो था कि इतना घिनौना जुर्म करने के बाद भी मैं बच गया. उन्होंने मुझे कालकोठरी की सजा से तो बचा लिया, परंतु मेरे कर्मों की सजा तो नियति से मुझे मिलनी ही थी और वह किसी भी बहाने से मुझे मिल कर रही.

पर अब सबकुछ भुला कर पूजा की वही पंक्ति मेरे मन में बारबार आ रही थी, ‘‘कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना.’’ अंतरा के मायके में भी तो उस की बुजुर्ग मां के अलावा कोई नहीं है. हो सकता है इसलिए वह भी पूजा की तरह मजबूर हो. पर अब मैं मजबूर नहीं बनूंगा…कुछ सोच कर मैं उठ खड़ा हुआ. अंतरा को आवाज दी.

‘‘जी पापा,’’ कहते हुए अंतरा मेरे सामने मौजूद थी. बहुत देर तक मैं उसे सबकुछ समझाता रहा और वह आंखें फाड़फाड़ कर मुझे हैरत से देखती रही. शायद उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जतिन का पिता होने के बावजूद मैं उस का दर्द कैसे महसूस कर रहा हूं या उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि अचानक मैं यह क्या और क्यों कर रहा हूं, क्योंकि वह मासूम तो मेरी हकीकत से हमेशा अनजान थी.

पास के पुलिसस्टेशन पहुंच कर मैं ने अपनी बहू पर हो रहे अत्याचार की धारा के अंतर्गत बेटे जतिन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. मेरे कहने पर अंतरा ने अपने शरीर पर जख्मों के निशान उन्हें दिखाए, जिस से केस पुख्ता हो गया. थोड़ा वक्त लगा, लेकिन हम ने अपना काम कर दिया था. आगे का काम पुलिस करेगी. जतिन को सही राह पर लाने का एक यही तरीका मुझे कारगर लगा, क्योंकि सिर्फ मेरे समझानेभर से बात उस के पल्ले नहीं पड़ेगी. पुलिस, कानून और सजा का खौफ ही अब उसे सही रास्ते पर ला सकता है.

पूजा के चिट्ठी में कहे शब्दों के अनुसार, मैं उसे रिश्तों की इज्जत करना सिखाऊंगा और एक अच्छा इंसान बनाऊंगा, ताकि फिर कोई पूजा किसी मयंक के अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करने को मजबूर न हो. औटो में वापसी के समय अंतरा के सिर पर मैं ने स्नेह से हाथ फेरा. उस की आंखों में खौफ की जगह अब सुकून नजर आ रहा था. यह देख मैं ने राहत की सांस ली.

एक मुलाकात जिन्ना से

मोहम्मद अली जिन्ना, जिन को पाकिस्तान का संस्थापक होने का श्रेय दिया जाता है, अब इस दुनिया में नहीं हैं. जाहिर है उन से मुलाकात तो अब सिर्फ सपने में ही हो सकती है. चलिए ऐसा ही एक सपना एक दिन मैं ने भी देख लिया. सपने में मैं ने देखा कि मैं जिन्ना का इंटरव्यू ले रहा हूं.

राजनेता वैसे भी इंटरव्यू देने में बड़े उतावले व कुशल होते हैं. खुद का अधिक से अधिक प्रचार व सत्ता की प्राप्ति ही उन के जीवन का इकलौता ध्येय होता है. जिन्ना कोई साधारण राजनेता नहीं थे, वे आजादी के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा थे. कोई एक व्यक्ति ही नए राष्ट्र के निर्माण का सारा श्रेय ले जाए, ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में विरला है. जिन्ना साहब ने यही श्रेय प्राप्त किया है.

मेरे मन में मुख्य प्रश्न तो यही था कि यदि इस पृथ्वी पर धर्म जैसी कोई चीज नहीं होती तो क्या जिन्ना जिन्ना होते या कुछ और होते? माना, जिन्ना ने देश के 2 टुकड़े किए लेकिन जिस चाकू से उन्होंने 2 टुकड़े किए वह चाकू तो धर्म का ही था. सदियों से इनसान समझ नहीं पाया है कि धर्म जोड़ने का काम करता है या तोड़ने का. धर्म को ले कर इनसान इतना टची क्यों है? खैर, यहां आप के लिए पेश हैं उस काल्पनिक इंटरव्यू के कुछ अंश :

जिन्ना साहब, आप हमेशा हौट रहे हैं. आप उन राजनेताओं में हैं जो हमेशा हौट डिमांड में रहते हैं. आप इस समय भी बड़ी चर्चा में हैं. आप को चर्चा में लाने वाले हैं जसवंत सिंह. आप जिन्ना और वे जसवंत. मजे की बात यह है कि वे एक ऐसे राजनीतिक दल के सदस्य रहे हैं जो धर्म की बैसाखियों के सहारे ही चलता रहा है. जसवंत ने बड़ी कुशलता से अपने विचारों को वर्षों छिपा कर रखा और अब जब उन्होंने उन विचारों को जाहिर किया तो उन के दल ने उन्हें बाहर निकाल दिया.

हूं हूं. राजनीति कुछ ऐसी ही होती है. एक समय सुभाष चंद्र बोस को भी कांगे्रस छोड़ कर जाना पड़ा था.

आप को यह जान कर खुशी होगी कि जसवंत ने आप को एक महान भारतीय बताया है?

इनसानों पर लेबल लगाना हमेशा से समाज का काम रहा है. किसी पर वह भगवान होने का लेबल लगाता है तो किसी पर शैतान होने का लेबल लगाता है. हिंदूमुसलमान के लेबल भी तो समाज ही लगाता है, कोई अपनी मां के पेट से तो हिंदूमुसलमान हो कर आता नहीं है. दूसरे इनसानों की तरह मैं भी सिर्फ एक इनसान ही हूं.

(आश्चर्य से) जिन्ना साहब, यह आप कह रहे हैं?

यकीन रखो, मैं अब बहुत बदल चुका हूं. मैं वह नहीं हूं जो कभी पहले था. गांधी भी आज होते तो वही नहीं होते जो वे 1948 में थे. इनसान निरंतर बदलता रहता है, समय व समाज भी निरंतर बदलते रहते हैं. बौद्ध ठीक कहते हैं कि सत्य परिवर्तनशील है.

आप की बातों से मेरा आश्चर्य बढ़ता है. इन दिनों मैं ने आप पर दर्जनों लेख समाचारपत्रपत्रिकाओं में पढ़े हैं. ये लेख स्वनामधन्य, नामीगिरामी लेखकों द्वारा लिखे गए हैं. सब पढ़ कर भी कुछ हाथ नहीं लगा. और तो और यह भी पता नहीं लगा कि जिन्ना साहब नायक हैं या खलनायक, और न ही यह पता चला कि देश का बंटवारा क्यों हुआ. क्या आप बता सकते हैं कि देश का बंटवारा क्यों हुआ?

देश का बंटवारा हुआ, इस बारे में हम कह सकते हैं कि पहली बार 2 आधुनिक राष्ट्रों के रूप में भारत व पाकिस्तान का गठन हुआ. 540 रियासतों को एक कर पहली बार भारत देश बना. वरना तो यह भूभाग हजारों वर्षों से छोटेछोटे राजामहाराजाओं के कब्जे में रहा है. मैं ने भी पाकिस्तान के रूप में एक आधुनिक देश के निर्माण का प्रयास किया. यह अलग बात है कि वह आधुनिक राष्ट्र नहीं बन पाया. अब तो पाकिस्तान तालिबानीकरण का शिकार हो गया है. न जाने मेरे सपने का क्या होगा?

इस देश के लोग हमेशा से धर्म व जाति के नाम पर बंटे हुए थे. देश का बंटवारा क्यों हुआ यह पूछने से पहले यह पूछो कि देश गुलाम क्यों हुआ? हजारों साल से यह देश गुलाम था. देश का गुलाम होना, आजाद होना, देश का बंटवारा होना, ये सब एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं.

1971 में तो देश फिर एक बार टूटा. पाकिस्तान व भारत पर आज भी विभाजन का खतरा ज्यों का त्यों बना हुआ है. लोग धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर दिनरात लड़ रहे हैं. बंटवारे के लिए किसी एक व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. पूरा देश व पूरा समाज इस के लिए जिम्मेदार था.

मैं पूछता हूं कि 1947 में मुझ जिन्ना के सिवा शेष 40 करोड़ लोग क्या कर रहे थे. यदि मैं देश को तोड़ने में लगा था तो उन्होंने मेरा हाथ क्यों नहीं पकड़ा? उन्होंने मुझ को उठा कर गटर में क्यों नहीं डाल दिया? अपने को धोखा न दो, बंटवारे के लिए उस समय मौजूद देश का हर नागरिक जिम्मेदार था. हां, मेरी जिम्मेदारी दूसरों से कुछ ज्यादा हो सकती है.

जिन्ना साहब, आप तो धर्मवादी नहीं थे. धर्म ने एकता के नाम पर हमेशा लोगों को विभाजित किया है. आप का निजी जीवन तो धर्म से लगभग मुक्त था. फिर क्यों आप ने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए धार्मिक विभाजन की बैसाखियों का सहारा लिया?

मजेदार बात यह है कि मैं, नेहरू व पटेल तो शुद्ध राजनेता थे. हम में से किसी को भी साधु होने का शौक नहीं था. केवल गांधी ही कभी यह तय नहीं कर पाए कि उन्हें साधु होना है या राजनीति करनी है. उन का जीवन एक घालमेल बन गया. राजनेता हर हाल में सत्ता पाना चाहता है. लेकिन समाज द्वारा थोपे गए आदर्शों के कारण उसे हिप्पोक्रेट बनना पड़ता है.

मैं भी अपने समय का शीर्षस्थ नेता होना चाहता था लेकिन 1915 में गांधी ने अफ्रीका से आ कर मेरे सपनों को तोड़ना शुरू कर दिया. पटेल व नेहरू तो उन के अनुयायी हो गए. मेरे लिए यह संभव नहीं था. उन्होंने सार्वजनिक जीवन में जिस तरह धर्म का उपयोग शुरू किया उस का मुकाबला भी मैं किसी प्रकार नहीं कर सकता था. राजनेता के लिए लोकप्रियता उस का जीवन रस है. आखिर एक समय भगतसिंह का अपने बराबर लोकप्रिय हो जाना गांधी को भी रास नहीं आया था.

राजनीति में अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करना बुरी बात नहीं समझी जाती है. चाणक्य ने भी साम, दाम, दंड, भेद की बात की है. हजारों वर्षों से राजा, राजनेता अपने स्वार्थ, अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए राज्यों को बनाते व तोड़ते आए हैं. इसलिए मैं न तो ऐसा पहला व्यक्ति हूं और न ही अंतिम. हां, आज मुझे यह लगता है कि मैं ने धर्म व राजनीति की जगह इनसानियत को तरजीह दी होती तो बेहतर होता.

तो आप विभाजन में अपनी जिम्मेदारी स्वीकारते हैं?

जितनी मेरी थी उतनी स्वीकारता हूं. उस से ज्यादा जिम्मेदारी मुझ पर मत थोपें.

कुछ लोग यह सपना देखते हैं कि भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश फिर एक हो जाएं. क्या आप भी ऐसा सोचते हैं?

उस से क्या होगा? एक हो भी गए तो क्या होगा? जो हाल अभी इन 3 देशों का है एक होने पर भी वही हाल बना रहेगा. भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, वोटों की राजनीति, कमजोरों और दलितों पर अत्याचार, पैसे की ताकत का नंगा नाच, स्त्रियों से बलात्कार आदि मामलों में एक होने से हालात कुछ बदल नहीं जाएंगे.

धर्मों ने हमेशा एकतासमानता की बातें की हैं, लेकिन वे कभी एकता- समानता ला नहीं पाए हैं. सच तो यह है कि हर नए धर्म ने विश्व को एक नया विभाजन दिया है. एक ही धर्म के मानने वाले लोग भी कभी आपस में एकतासमानता को स्थापित नहीं कर सके तो अन्य धर्मावलंबियों के साथ तो एकतासमानता की बात ही व्यर्थ है.

शायद वैश्विक एकता की बात वे लोग करते हैं जो दूसरों पर शासन करने को उत्सुक होते हैं. बगैर लोगों को संगठित किए नेता बना नहीं जा सकता है. यदि विश्व सरकार स्थापित हो जाए तो एक राजनेता पूरे विश्व पर शासन कर सकता है. यदि विश्व के सब नागरिक हिंदू हो जाएं तो एक हिंदू धर्मगुरु पूरे विश्व पर शासन कर सकता है. इसी तरह यदि सब मुसलमान एक हो जाएं तो एक मुसलमान धर्मगुरु सब पर शासन कर सकता है. बुरा होगा वह दिन जब एक ही व्यक्ति या एक ही दल का शासन पूरे विश्व पर होगा.

राजनेता हो या धर्मगुरु, कोई भी आखिरी सांस तक अपनी सत्ता छोड़ना नहीं चाहता है. जनता मजबूर कर दे तो बात अलग है.

खेद व्यक्त करता हूं जिन्ना साहब कि आप का इंटरव्यू करतेकरते मैं अपने विचार व्यक्त करने लग गया.

खैर, आप आज के युवकों को कोई संदेश देना चाहते हैं?

मेरा कोई संदेश नहीं है. हजारों वर्षों में धर्मगुरुओं, विचारकों ने हजारों व्यर्थ धारणाओं, आदर्शों को गढ़ा है. हमें इस जाल को काट फेंकना है. इनसान को धर्म व राजनीति की जकड़ से छुड़ाना है.

री गैया पार करो मोरी चुनावी नैया 

वे अब के चुनाव के बहाव में किसी भी तरह अपनी सीट निकालने की फिराक में थे, ताकि इज्जत के साथ देश को खापचा सकें. बिना चुनाव जीते देश को खाने की हिम्मत और हिमाकत करने पर कब्ज होने का कभीकभार डर सा बना रहता है.

रात को जब वे सोए हुए भी जागे से थे तो अचानक सपना आया और उन्हें सुनाई दिया, ‘जो अब के चुनावी तरणी पार करना चाहते हो तो गाय की शरण में जाओ. उस का गोबर अपने बदन पर मलो. उस के मूत्र से नहाओ. अब के चुनाव में जनता का नहीं, गाय का सिक्का जम कर चलेगा. गाय का जिस पर आशीर्वाद होगा, वही सत्ता की लंगड़ी घोड़ी चढ़ेगा. इस बार जो गाय को रिझाने में कामयाब रहेगा, वही देश का भार अपने कंधों पर सहेगा.’

सपने की उस आवाज को सुनते ही वे कच्छेबनियान में ही उठे और निकल पड़े शहर के किसी कूड़े के ढेर के पास गाय ढूंढ़ने. अंधेरे में भी अपना मुंह छिपाते… पता नहीं, किस से. ओह, उन्होंने अभी भी अपने मुंह को छिपाने का रिवाज कायम रखा था.

मजे की बात तो यह रही कि उन को अपने घर के बाहर ही रात को फेंके गए कूड़े के पास गाय मिल गई, पर दिक्कत यह थी कि उस के साथ देश का एक नागरिक भी था, उन के फेंके कूड़े में रोटी ढूंढ़ता हुआ. गाय उसे अपने सींग से हटा रही थी तो वह उसे अपनी जबान से डरा रहा था. अब तो आम आदमी के पास जबान ही बची है डराने के लिए, जिसे कानों से बहरी सत्ता ने कभी का सुनना बंद कर दिया है.

पहले तो वे थोड़ा सहमे कि देश के तथाकथित अव्वल दर्जे के नेता होने के चलते एक उंगली भर के नागरिक ने उन्हें उन के द्वारा रात को खापी कर फेंके गए उन्हीं के कूड़े के पास देख लिया तो…?

पर जब जीत का खयाल आया तो वे हुंकार उठे. एकाएक उन्हें गाय में तैंतीस करोड़ वोटर दिखने लगे… अपने चुनाव क्षेत्र के वोटरों से कई गुना ज्यादा.

वे कूड़े के ढेर के पास चंदन की खुशबू लेते खड़ेखड़े सोचने लगे, ‘इतने वोटरों से तो मैं अकेला ही सरकार भी बना सकता हूं.’

कुछ देर और सोचने के बाद उन्होंने कूड़े के ढेर के पास से उस रोटी ढूंढ़ने वाले को हड़काया, धमकाया, भगाया. जब वह उन के डर से सिर पर पैर रख दूर भाग गया तो उन्होंने बिना इधरउधर देखे, कूड़े की परवाह किए बिना गाय की पूंछ के बदले उस के गंदे खुर पकड़े और हो गए आदतन चरणम् शरणम् गच्छामि.

गाय भी उन से जितना अपने खुर छुड़वाने की कोशिश करती, वे उतनी ही जोर से गाय के खुर पकड़ लेते.

कुछ देर कूड़े के ढेर में ही उन के खुर पकड़ने और गाय के खुर छुड़वाने के बीच काफी जद्दोजेहद हुई. आखिरकार जीत उन की हुई तो उन्हें चुनाव में भी अपनी जीत तय लगी.

वे पूरे बदन पर कूड़ा लगा होने के बाद भी खुश हो उठे. उन का जोश अब दोगुना हो गया था. अब बाजी उन के हाथ में थी.

जब गाय ने जनता की तरह उन के आगे लंगर डाल दिए तो गाय ने उन पर अपनी पूंछ घुमाते हुए पूछा, ‘‘क्या चाहते हो तुम चुनाव के दिनों में मुझ से?’’

‘‘हे गऊ मैया, अब के चुनाव में मैं बस आप का साथ चाहता हूं.’’

‘‘मेरा साथ, बोले तो…?’’

‘‘अगर तुम मुझ से खुश हो जाओ गऊ मैया, तो पार लग जाए मेरी

चुनावी नैया.’’

‘‘मतलब, मैं तुम्हारी नाव को चुनाव के दलदल से पार लगाऊं? न बाबा न. यह हम से न होगा. गांवदेश से ‘छोड़ी गईं’ भला कैसे किसी की नैया पार लगा सकती हैं? हम तो खुद ही अपना आसरा ढूंढ़ने के लिए मजबूर हैं.’’

‘‘हे गऊ मैया, मैं अब के तुम्हारे खुर पकड़ कर चुनावी तरणी पार करना चाहता हूं बस. मैं पिछले 20 सालों से चुनावी तरणी के भंवर में फंसा हूं. मत पूछो, देश सेवा करने को उतावले इस मन के क्या हाल हैं.’’

‘‘पर, आज तक तो मेरी पूंछ मरने

के बाद ही वैतरणी पार कराने में ही मददगार होती रही है. ऐसे में… मुझे शक है कि…’’

‘‘मां, कुछ भी करो. वोटरों के सिर पर बहुत चुनाव लड़ लिया. अब के चुनाव तुम्हारे सिर पर लड़ा जा रहा है, सो…’’ कह कर वे घोर मतलबी गाय के चरणों में लोटपोट हुए.

‘‘कल जो सूअर के सिर पर चुनाव लड़ा गया तो क्या तुम उस के भी खुर पकड़ लोगे? हद है तुम लोगों की भी. जब चुनाव के लिए मुद्दे न बचे तो मुझ लावारिस गाय को ही चुनावी मुद्दा बना लिया. कम से कम हम ढोरों को तो छोड़ देते देश के कर्णधारो.’’

‘‘हे गऊ मैया, यह वक्त बहस करने का नहीं है. जैसेतैसे चुनावी तरणी पार लगाने का है. अब के जो तुम मुझे जिता दोगी तो मैं तुम्हें वचन देता

हूं कि तुम्हारे लिए एक फाइवस्टार तबेला बनवाऊंगा.

‘‘हे गऊ, मैया, अगर तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो मैं हर गलीमहल्ले से वहां के लोगों को बेदखल कर तुम्हारे लिए आलीशान गौशाला बनवाऊंगा.

‘‘जो तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो मैं तुम्हें सड़क से उठा कर संसद में ले जाऊंगा.

‘‘तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो मैं तुम्हें राष्ट्रमाता घोषित करवाऊंगा. तुम मुझे जीत का आशीर्वाद दोगी तो…’’ कहतेकहते उन का गला सूख गया.

यह देख कर अपने मुंह में देश का कचरा जुगालती गाय ने अपने मुंह में की गई जुगाली में से कुछ हिस्सा उन के मुंह में डाला तो वे उस से अपना मुंह गीला कर आगे कहने लायक हुए, ‘‘हे गऊ मैया, जो तुम मुझे अपना आशीर्वाद दोगी तो मैं…’’

तभी गाय ने उन्हें जोर से लात मारी और उन की नींद की खुमारी झट से गायब हो गई. वे इधरउधर ताकते हुए घर के अंदर भागे.

हौसले बुलंद रहें सरकार : पत्नी को खुश करने के लिए

आजकल पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है कि शाम को जब भी मैं औफिस से सहीसलामत घर लौट कर आता हूं तो पत्नी हैरान हो कर पूछती है, ‘आ गए आज भी वापस?’ कई बार तो मुझे उस के पूछने से ऐसा लगता है मानो मुझे शाम को सकुशल घर नहीं आना चाहिए था. उस के हिसाब से लगता है, वह मुझ से ऊब गई हो जैसे. वैसे, एक ही बंदे के साथ कोई 20 साल तक रहे, तो ऊबन, चुभन हो ही जाती है. मुझे भी कई बार होने लगती है.

हर रोज मेरे सकुशल घर आने पर उस में बढ़ती हैरानी को देख सच पूछो तो मैं भी परेशान होने लगा हूं. कई बार इस परेशानी में रात को नींद नहीं आती. अजीबअजीब से सपने आते हैं. कल रात के सपने ने तो मुझे तड़पा ही दिया.

मैं ने सपने में देखा कि जब मैं औफिस से सब्जी ले कर घर आ रहा था तो मेरा एनकाउंटर हो गया है. पुलिस कहानियां बना अपने को शेर साबित कर रही है. मीडिया में मरने के बाद मैं कुलांचे मार रहा हूं. इस देश में आम आदमी मरने के बाद ही कुलांचे मारता है वह भी मीडिया की कृपा से. बहरहाल, मामला आननफानन सरकार के द्वार पहुंचा तो उस ने मामले को सांत्वना देनी चाही. प्रशासन मेरी पत्नी के द्वार सांत्वना देने के बजाय मामला दबाने आ धमका. वह तो मेरे जाने से पहले ही प्रशासन का इंतजार कर रही थी जैसे.

मेरे फेक एनकाउंटर के बाद सरकार और पत्नी के बीच जो बातें हुईं, प्रस्तुत हैं, आने वाले समय में किए जाने वाले फेक एनकाउंटरों में शहीद होने वालों को प्रसन्न करने वाले उन बातों के कुछ अंश :

‘बहनजी, गलती हो गई, हमारे पुलिस वाले से आप के पति का एनकाउंटर हो गया,’ कोई सरकार सा मेरी बीवी के आगे दोनों हाथ जोड़े सांत्वना देने के बदले मेरी मौत की सौदेबाजी करने के पूरे मूड में.

‘कोई बात नहीं सर. पुलिस से बहुधा गलती हो ही जाती है. हमारी पुलिस है ही गलती का पुतला. उन के जाने के बाद ही सही, आप हमारे द्वार आए, हमें तो कुबेर मिल गया. अब हमें उन के एनकाउंटर का तनिक गम नहीं. वैसे भी इस धरती पर जो आया है, उसे किसी न किसी दिन तो जाना ही है. बंदा जाने के बाद भी कुछ दे कर जाए तो बहुत अच्छा लगता है सर.’ आह, मेरी बीवी का दर्द. वारि जाऊं बीवी की मेरे लिए श्रद्धांजलि के प्रति. काश, ऐसी बीवी ब्रह्मचारियों को भी मिले.

‘देखो बहनजी, हम वैसा दूसरा पति तो आप को ला कर दे नहीं सकते पर हम ऐसा करते हैं…’ सरकार ने बीच में अपनी वाणी रोकी तो मेरी बीवी की आर्थिक चेतना जैसे जागृत हुई. उन के जाने के बाद अब तो सरकार मुझे, बस, आप का ही सहारा है,’ पत्नी कुछ तन कर बैठी.

‘तो आप को अपने यहां आप के पति की जगह पर सरकारी नौकरी में लगा देते हैं. आप चाहो तो कल से ही आ जाओ. इस के साथ ही साथ आप को एक सरकारी टू रूम सैट भी हम अभी दे देते हैं. चाबियां निकालो यार. आप के खाते में अपनी गलतीसुधार के लिए जिंदा जनता के पैसों में से 20 लाख रुपए जमा करवा देते  हैं,’ सरकार ने मुसकराते हुए घोषणा की तो पत्नी के कान खड़े हुए.

‘पर सर, उस मामले में तो आप ने उन की पत्नी को पीआरओ बनाया है. वहां भी पति ही गया है. पति तो सारे एक से होते हैं. फिर मेरे साथ मुआवजे को ले कर भेदभाव क्यों? उस के खाते में आप ने 25 लाख रुपए डाले. उस के बच्चों की पढ़ाई के लिए 5-5 लाख रुपए की एफडी बना दी. मेरी आप से इतनी विनती है कि कम से कम पतियों के एनकाउंटर के मामले में हम महिलाओं के साथ भेदभाव तो न कीजिए. चलो, ऐसा करती हूं सास के खाते में डालने वाले पैसे आप की सरकार पर छोड़े. पर…’

‘देखिए बहनजी, आप उन से अपनी तुलना मत कीजिए. कहां राजा भोज, कहां आप का गंगू तेली.’

‘सरकार माफ करना, आप जात पर उतर रहे हैं,’ पत्नी ने सरकार को वैसे ही आंखें दिखाईं जैसे मुझे दिखाती थी तो सरकार सहमी. पत्नी की आंखों से बड़ेबड़े तीसमारखां सहम जाते हैं. ऐसे में भला सरकार की क्या मजाल.

‘जात पर नहीं बहनजी, मैं तो मुहावरे पर उतरा था,’ सरकार को लग गया कि किसी गलत बीवी से पाला पड़ा है. सो, सरकार ने मुहावरे पर स्पष्टीकरण जारी किया.

‘पर फिर भी?’

‘देखिए बहनजी, सरकार को आप भी ब्लैकमेल मत कीजिए. सच पूछो तो, कहां उन की बीवी, कहां आप? वह मामला कुछ अधिक ही पेचीदा हो गया था. मीडिया बीच में आ गया था वरना…’

‘तो आप को क्या लगता है कि मेरे मामले में मीडिया बीच में नहीं आएगा? नहीं आएगा तो मैं ढोल बजाबजा कर सब को बताऊंगी कि मेरे पति को इन की पुलिस ने फ्री में निशाना बना दिया है,’ मेरी पत्नी की धमकी सुन सरकार डरीसहमी.

‘प्लीज, बहनजी, आप जो चाहेंगी हम करेंगे, पर मीडिया को बीच में मत डालिए. यह मसला मेरे, आप के और आप के पति के बीच हुए एनकाउंटर का है. मतलब हम तीनों के बीच का. अब पुलिस से गलती हो गई तो हो गई. सरकारी कर्मचारियों से बहुधा गलती हो ही जाती है. नशे में ही रहते हैं हरदम. पर इस गलती के लिए हम उन की जान भी तो नहीं ले सकते न. पर अब आप को भविष्य में आप के पति से भी अधिक खुश रखने के लिए दिल खोल कर मुआवजा तो दे सकते हैं न. सो दे रहे हैं. वैसे भी बहनजी, आज के इस दौर में क्या रखा है पतिसती में? अब तो कोर्ट ने भी साफ कर दिया है कि…’

‘देखो सर, अपने पति के फेक एनकाउंटर के बदले जितना आप ने पिछली दीदी को दिया है, उतना तो कम से कम लूंगी ही. इधर हर रोज पैट्रोलडीजल के दाम तो सुबह होते ही 4 इंच बढ़े होते हैं, पर अब आप ने गैस के दाम भी बढ़ा दिए. अब हमारे पास दिल जलाने के और बचा ही क्या? ऐसे में आप खुद ही देख लीजिए कि पति का मुआवजा ईमानदारी से दीदी को दिए मुआवजे से अधिक नहीं, तो उतना तो कम से कम बनता ही है.’

‘देखो बहनजी, हम ठहरे ब्रह्मचारी. हमें न पति के रेट पता हैं न पत्नी के. इस झंझट से बचने के लिए ही तो हम ने विवाह नहीं करवाया. तो अच्छा, ऐसा करते हैं, चलो, न मेरी न आप की. जो मेरे सलाहकार आप के पति के एनकाउंटर का तय करेंगे, सो आप को दे दूंगा. मेरा क्या? मेरे लिए तो सब टैक्स देने वालों का है. मैं तो बस बांटनहार हूं. अब पुलिस से गलती हो गई तो भुगतनी भी तो मुझे ही पड़ेगी. पर जो आप सरकार पर थोड़ा रहम करतीं तो…’

बीवी चुप रही.

आखिर, सरकार ने मेरी पत्नी को सांत्वना देते सहर्ष घोषणा की कि सरकार बहनजी के पति के फेक एनकाउंटर के मुआवजे के दुख में शरीक होते हुए उन्हें पुलिस में थानेदार की नौकरी, रहने को थ्री बैडरूम सरकारी आवास, उन के खाते में 25 लाख रुपए, बच्चों की सगाई के लिए 10-10 लाख रुपए और सास के लिए 5 लाख रुपए देने की सहर्ष घोषणा करती है.

सरकार की इस घोषणा के बाद मत पूछो कि पत्नी कितनी खुश. उस वक्त मेरा फेक एनकाउंटर उसे कितना पसंद आया, मत पूछो. उस ने ऊपर वाले को दोनों हाथ जोड़े और कहा, ‘हे ऊपर वाले, मेरे हर पति का ऐसा फेक एनकाउंटर हर जन्म में 4-4 बार हो.’

और मैं पत्नी से भी ज्यादा खुश. उसे इतना प्रसन्न मैं ने उस वक्त पहली बार देखा, तो मन गदगद हो गया. मेरी अंधी आंखें खुशी के आंसुओं से लबालब हो आईं. वाह, अपने एनकाउंटर के बाद ही सही, पत्नी को खुश तो देख सका.

हे जनपोषण को चौबीसों घंटे वचनबद्ध मित्रो, आप ने मेरा फेक एनकाउंटर कर मुझे मृत्यु नहीं, खुशियों भरा नया जीवन प्रदान किया है. आप के हौसले यों ही बुलंद रहें.

मिशन छिपकली : कोई पेपर में फेल नहीं हो सकता

45 साल की ढलती उम्र में हमारी जुड़वां संतानें हुई थीं. मुझे नन्हींमुन्नी गुडि़या का मनचाहा उपहार मिला था और वाइफ को उन का दुलारा गुड्डा, लेकिन वाइफ को बिटिया की भी चाहत थी. वे बिटिया को साइंटिस्ट बनाना चाहती थीं. मुझे बेटे के साथ नुक्कड़ पर क्रिकेट खेलने की तमन्ना थी. हम ने महल्ले में मिठाई बंटवाई. अनाथालय के बच्चों के लिए मिठाईनमकीन के पैकेट और कपड़ों के उपहार भिजवाए. हमारी खुशी का ठिकाना न था.

हम ने अपने बच्चों को भरपूर प्यार दिया. उन की सभी इच्छाएं पूरी कीं. कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया. मोबाइल, लैपटौप, स्कूटी, बाइक, कार, ब्रैंडेड ड्रैसेज, ट्यूटर सबकुछ उन के पास थे. दोनों अब बड़े हो चुके थे. 9वीं कक्षा की परीक्षा दे चुके थे.

‘‘पापा, एडवांस बुकिंग करानी है,’’ बिटिया ने मुझ से रिक्वैस्ट की.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, ‘संजू’ लगी है. यह फिल्म काफी पसंद की जा रही है,’’ मैं ने बिटिया का हौसला बढ़ाया. मैं खुद फिल्म देखने के मामले में आगे रहता हूं.

‘‘पापा, अगले साल हम दोनों 10वीं बोर्ड की परीक्षा देंगे. परीक्षा में हैल्प के लिए मिशन की बुकिंग चल रही है,’’ बिटिया ने मुझे बताया.

‘‘बोर्ड की परीक्षा के लिए बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है. सेहत पर बुरा असर पड़ता है. सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी में एडवांस बुकिंग कराना सही होगा. अभी औफर चल रहा है,’’ साहबजादे ने मुझे समझाया.

अपनी समझदानी थोड़ी छोटी है. पूरी बात समझ आने में थोड़ी देर लगी. अपनी संतान को 10वीं में नकल करने के लिए विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई स्पैशल चिटों की जरूरत होगी. मुझे इस संबंध में जानकारी कम थी.

‘‘वैज्ञानिक बनाने के लिए अच्छे कालेज में दाखिला दिलाना होगा. 10वीं कक्षा में अच्छे मार्क्स की जरूरत होगी,’’ वाइफ ने चिंता जताई. बच्चों को उन से झिझक नहीं थी. उन को सबकुछ पता था.

औलाद के भविष्य की चिंता मुझे भी थी. वैज्ञानिक बनने के लिए अच्छे कालेज में दाखिले की जरूरत भी थी. अच्छे कालेज में दाखिले के लिए कक्षा 10 में 90 प्रतिशत मार्क्स आने भी जरूरी थे.

परिवार के साथ मैं सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी से मिला. उन से रेट्स और औफर्स की जानकारी ली.

‘‘साइंस के एक पेपर और मैथ्स के लिए 8 हजार रुपए तथा दूसरे पेपरों के लिए 5 हजार रुपए. हमारी एजेंसी प्रीमियर एजेंसी है. एडवांस बुकिंग में 25 प्रतिशत की छूट दी जा रही है. ये रेट केवल प्रश्नोत्तर चिट के लिए हैं. और हां, मिशन छिपकली के लिए डबल रेट से रुपए देने होंगे. इस के अलावा दूसरी सेवाएं तथा कौम्बो औफर भी हैं,’’ प्रीमियर एजेंसी के रिसैप्शन पर तैनात मैडम ने जानकारी दी.

‘‘यह मिशन छिपकली क्या बला है?’’ मैं ने पूछ ही लिया. वैसे कुछकुछ अंदाजा हो रहा था.

पिछले महीने मैं ने पाटलीपुत्र सुसंवाद समाचारपत्र में खबर पढ़ी थी कि ईस्टर्न इंडिया के महानगरों के चिडि़याघरों से बहुत ही खास प्रजाति की कुछ छिपकलियों की चोरी हो गई थी. ये प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर थीं. इस इमारत की दीवार पर कई मानव आकृतियां चिपकी थीं. मैं ने बाद में इस न्यूज को चश्मा लगा कर पढ़ा था.

‘‘मिशन छिपकली के अंतर्गत एजेंसी बहुमंजिली इमारतों में परीक्षार्थियों को स्पैशल चिट उपलब्ध कराती है. पुलिस, केंद्र अधीक्षक, न्यूजपेपर रिपोर्टर सब को मैनेज करना मुश्किल जौब है. मिशन छिपकली के लिए औनजौब ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है. भगदड़ में दुर्घटना भी हो जाती है. परीक्षा केंद्र ग्राउंडफ्लोर पर होने की हालत में भुगतान की गई रकम का 50 प्रतिशत लौटा दिया जाता है. अप्रत्याशित और कठिन परिस्थितियों के लिए 2 साल की वारंटी का प्रावधान रखा गया है,’’ रिसैप्शनिस्ट ने मुसकरा कर मिशन छिपकली के टैरिफ वाउचर्स का बखान किया.

हम ने शहर की दूसरी सर्विस प्रोवाइडर एजेंसियों से भी संपर्क किया. गोल्डन सर्विस एजेंसी में बालिकाओं के लिए फीस में 30 प्रतिशत की छूट का औफर था. लेकिन एजेंसी की बहुमंजिली सर्विस काफी महंगी थी.

बैस्ट सर्विस प्रोवाइडर ने रजिस्टर्ड परीक्षार्थियों के लिए शहरी इलाकों से परीक्षा केंद्रों तक ले जाने के लिए वीडियो सुविधायुक्त फ्री बस का औफर दिया था.

इन सभी एजेंसियों की शाखाएं राज्य के सभी छोटेबड़े शहरों में होने की भी जानकारी मिली. एजेंसीज ने प्रश्नोत्तर के लिए राजधानी व राज्य के दूसरे शहरों के नामीगिरामी स्कूलों के शिक्षकों व खास कोचिंग संस्थानों के विशेषज्ञों से भी अपने जुड़े होने की बात कही.

इस संपर्क मुहिम के दौरान कई दूसरी सर्विसेज की मौजूदगी के बारे में जाननेसमझने का मौका मिला. उन की सेवाओं की जानकारी मिली. कई खुलासे हुए. ये सुविधाएं परीक्षार्थियों, अभिभावकों के व्यापक हित में हैं, इस का भी ज्ञान हुआ.

मुझे इस उद्योग की पूरी जानकारी नहीं थी. मुझे पता नहीं था कि कभी शिक्षा का केंद्र रहे अपने पुराने शहर में कक्षा-10 स्पैशल चिट सप्लाई के धंधे ने बड़े कारोबार का दर्जा हासिल कर लिया है और इस कारोबार से बड़े घराने भी आकर्षित हो रहे हैं.

परीक्षाएं लंबे समय तक चलती हैं. इस दौरान खेलकूद, मूवी, मौजमस्ती, गेम्स, फेसबुक, चैटिंग, यारदोस्तों से गपें और सभी खिलंदड़ी व मनोरंजक गतिविधियां बंद हो जाती हैं. महीनों किताबों, नोट्स में घुसे रहने से बोरियत होती है. टैंशन से सेहत खराब हो जाती है. ऐसे में परीक्षाओं से जुड़ी सर्विसेज एजेंसियां हमारी आम दिनचर्या के साथसाथ ही कैरियर विकल्पों को आगे बढ़ाने में सहायक होती हैं.

इन सुविधाओं से गुप्तरूप से जुड़े शिक्षकों व सहायक कर्मियों को होने वाली कमाई, उन को कठिन हालात से उबारने में सहायक होती है. राज्य में शिक्षकों व कर्मचारियों के वेतन भुगतान की समस्या हमेशा बनी रहती है. त्योहार के महीनों में भी वेतन भुगतान नहीं हो पाता है. इस तरह सर्विस एजेंसीज उन की वित्तीय समस्याओं का समाधान भी करती हैं.

अभिभावक सर्विस एजेंसीज की बुकिंग के बाद बेफिक्र हो जाते हैं. उन्हें बहुमंजिली इमारतों पर छिपकली बन कर चिपकने से मुक्ति मिल जाती है. अच्छे कालेजों में दाखिले की राह आसान हो जाती है. शिक्षक उत्तरपुस्तिका पर, अपने द्वारा तैयार उत्तर पा कर, मार्क्स लुटाते हैं. एजेंसी विभिन्न कोलेजों व तकनीकी संस्थानों में ऐडमिशन भी दिलवाती है.

‘‘विशिष्ट संस्थानों में ऐडमिशन के लिए आप हमारी एजेंसी से संपर्क कर सकते हैं,’’ ब्राइट सर्विस एजेंसी की सुंदर रिसैप्शनिस्ट ने मुसकरा कर मुझे बताया.

कई स्रोतों से जानकारी मिली कि सर्विस एजेंसीज अपनी सीक्रेट सर्विस के तहत राष्ट्रीय स्तर व राज्य स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं के प्रश्नपत्र, उत्तर के साथ उपलब्ध कराती हैं. प्रश्नपत्र लीक कराने के लिए कई वैज्ञानिक राजनीतिक हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है. एडवांस बुकिंग कराने से पहले ठोकबजा कर पूरी तसल्ली करने की अपनी पुरानी आदत रही है. सो, मैं ने छानबीन की, कई एजेंसियों से जानकारी ली-

‘‘हमारी एजेंसी एक सर्विस एजेंसी है. यह जनसुविधाएं मुहैया कराती है.’’

‘‘अभिभावकों के हितों की सुरक्षा का काम कर रहे हैं. उन के सपने पूरे हों, इस के लिए कोशिश जारी है.’’

‘‘हमारी इंडस्ट्री बेरोजगारों को रोजगार देती है.’’

‘‘लंबे समय तक पूरी रात किताबों से चिपके रहने से गरदन अकड़ जाती है. ओनली बुक्स ऐंड नो प्ले मेक्स पप्पू ए डल बौय इस का हमारे पास कारगर इलाज है.’’

‘‘नाकामी से जूझते हुए बच्चे कई बार गलत फैसले भी ले लेते हैं. हमारी एजेंसी उन्हें कामयाबी दिलाने का काम करती है.’’

अब मुझे पूरी तसल्ली हो चुकी थी. स्पैशल चिट बनाना, बहुमंजिली इमारतों की दीवार से चिपकना मेरे बूते से बाहर की बात थी. लंबी पढ़ाई और अपनी रोजमर्रा से लंबी जुदाई बच्चों के लिए तकरीबन नामुमकिन था. मिशन छिपकली मुझे जंच रही थी.

जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी

वह औरत कौन थी? कार में धीरज के साथ कहां जा रही थी? धीरज के साथ उस का क्या रिश्ता था? धीरज के पास से तो उस का मोबाइल और पर्स मिल गया था, लेकिन उस औरत का कोई पहचानपत्र या मोबाइल घटनास्थल से बरामद नहीं हुआ. इस वजह से यह सब एक रहस्य बन गया था.

धीरज के मित्र, औफिस वाले, रिश्तेदार और पड़ोसी सब जानना चाहते थे कि आखिर वह औरत थी कौन? और उस का धीरज से क्या रिश्ता था? सब को धीरज की मौत का गम कम, उस राज को जानने की उत्सुकता ज्यादा थी.

जिंदगी में कभीकभी ऐसा घटित हो जाता है कि इंसान समझ ही नहीं पाता कि यह क्या हो गया? ऐसी ही एक घटना नहीं बल्कि दुर्घटना घटी शोभा के साथ. उस का पति धीरज एक औरत के साथ सड़क दुर्घटना में मारा गया था.

पुलिस ने अपनी खानापूर्ति कर दी. दोनों लाशों का पोस्टमौर्टम हो गया. उस औरत की लाश को लेने कोई नहीं आया, सो, उस का अंतिम संस्कार पुलिस द्वारा कर दिया गया.

वह औरत शादीशुदा थी क्योंकि उस की मांग में सिंदूर था. सवाल यह था कि वह गैरमर्द के साथ कार में क्यों थी? कार के कागजात के आधार पर पता चला कि वह कार धीरज के मित्र की थी. एक दिन पहले ही धीरज ने उस से यह कह कर ली थी कि वह एक जरूरी काम से चंडीगढ़ जा रहा है, लेकिन कार दुर्घटनाग्रस्त हुई दिल्लीआगरा यमुना ऐक्सप्रैसवे पर यानी धीरज ने अपने मित्र से झूठ बोला.

जब दुर्घटना की गुत्थी नहीं सुलझ सकी तो लोगों ने खुल कर कहना शुरू कर दिया कि उस औरत के साथ धीरज के अवैध रिश्ते रहे होंगे और वे दोनों मौजमस्ती के लिए निकले होंगे.

लोगों की इस बेहूदा सोच पर शोभा खासी नाराज थी लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. किसी का मुंह वह बंद तो नहीं कर सकती थी.

धीरज उसे बहुत प्यार करता था. शादी के 5 वर्षों में जब उन्हें संतान सुख नहीं मिला तब उन दोनों ने अपनाअपना मैडिकल चैकअप कराया. रिपोर्ट में पता चला कि वह मां नहीं बन सकती जबकि धीरज पिता बनने के काबिल था. यह जान कर वह बहुत रोई और धीरज से बोली, ‘तुम दूसरी शादी कर लो, मैं अपना जीवन काट लूंगी.’

‘शोभा, अगर कमी मुझ में होती तो क्या तुम मुझे छोड़ कर दूसरी शादी कर लेतीं,’ कहते हुए धीरज ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था.

क्या उस से इतना प्यार करने वाला धीरज उस के साथ इस तरह बेवफाई कर सकता है? शोभा ने अपने मन को यह कह कर तसल्ली दी, हो सकता है उस औरत ने धीरज से लिफ्ट मांगी हो. लेकिन दिमाग में कुछ सवाल बिजली की तरह कौंध रहे थे कि धीरज ने अपने दोस्त से गाड़ी चंडीगढ़ जाने को कह कर ली तो फिर वह आगरा जाने वाले यमुना ऐक्सप्रैसवे पर क्यों गया? मित्र से उस ने झूठ क्यों बोला? आखिर वह जा कहां रहा था? और उसे भी कुछ बता कर नहीं गया जबकि वह उस को छोटी से छोटी बात भी बताता था. कुछ बात तो जरूर है तभी धीरज ने उस से अपने बाहर जाने की बात छिपाई थी.

शोभा को दुखी और परेशान देख कर उस के पिता ने कहा, ‘‘बेटी, जो होना था वह तो हो गया, तुम अब खुद को मजबूत करो और आर्थिक रूप से अपने पांवों पर खड़ी होने की कोशिश करो. धीरज की कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं कि जिस के आधार पर तुम्हें नौकरी या पैंशन मिलेगी. उस के कागजात देखो, शायद उस ने कोई इंश्योरैंस पौलिसी वगैरह कराई हो. उस के बैंक खातों को भी देखो. शायद तुम्हें कुछ आर्थिक मदद मिल सके.’’

‘‘नहीं पापा, मुझे सब पता है. उन्होंने कोई पौलिसी वगैरह नहीं कराई थी. न ही बैंक में कोई खास रकम है, क्योंकि उन की नौकरी मामूली थी और वेतन भी कम था. कुछ बचता ही कहां था जो वे जमा करते. वे अपने मांबाप की भी आर्थिक मदद करते थे.’’

‘‘फिर भी बेटा, एक बार देख लो, हर इंसान अपने आने वाले वक्त के लिए करता है और फिर धीरज जैसे समझदार इंसान ने भी कुछ न कुछ अवश्य किया होगा.’’

दुखी मन से शोभा ने धीरज की अलमारी खोली, शायद उस के कागजात के साथ ही उस के साथ हुए हादसे का भी कोई सूत्र मिल जाए. अलमारी में बैंक की एक चैकबुक मिली और भारतीय जीवन बीमा निगम की एक डायरी मिली. उस ने उसे जोश के साथ से खोला. पहले ही पृष्ठ पर लिखा था, ‘जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी.’ कुछ पृष्ठों पर औफिस से संबंधित कार्यों का लेखाजोखा था.

डायरी के बीच में एक मैडिकल स्टोर का परचा मिला, जिस में कुछ दवाइयां लिखी थीं. ये कौन सी दवाइयां थीं, खराब लिखावट की वजह से कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. जिस तारीख का परचा था, शोभा को खासा याद था कि उस ने उस दौरान कोई दवाई नहीं मंगाई थी. इस का मतलब धीरज ने अपने लिए दवा खरीदी थी. यह सोच कर वह भयभीत हो उठी कि कहीं धीरज किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त तो नहीं था.

उस ने फौरन मैडिकल स्टोर जाने का फैसला लिया. वह मैडिकल स्टोर उस के घर से काफी दूर था, लेकिन वह वहां गई. मैडिकल स्टोर वाले ने परचे पर लिखी दवाएं तो बता दीं लेकिन दवाएं लेने कौन आया था, वह न बता सका. दवाइयां दांतों की बीमारी से संबंधित थीं.

उस दौरान धीरज को दांतों से संबंधित कोई समस्या नहीं थी. अगर थी भी तो वह अपने घर या औफिस के नजदीक के मैडिकल स्टोर से दवा लेता. इतनी दूर आने की क्या जरूरत थी? तो इस का मतलब साफ था कि धीरज ने किसी और के लिए दवाइयां खरीदी थीं. किस के लिए खरीदी थीं, यह जानने के लिए शोभा ने घर आ कर धीरज का सामान फिर से टटोला.

उस ने उस की डायरी दोबारा अच्छी तरह से चैक की. 15 अगस्त वाले पृष्ठ पर उस ने लिखा था, ‘आज आजादी का दिन मेरे लिए खास बन गया.’ आखिर15 अगस्त को ऐसा क्या हुआ था जो उस के लिए खास बन गया था, इस बात का जिक्र नहीं था.

उस ने उस के मोबाइल पर भी एक चीज नोट की, उस ने अपने मोबाइल के वालपेपर पर तिरंगे के साथ अपनी हंसतीमुसकराती तसवीर लगा रखी थी. तभी उस का मोबाइल बज उठा. बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन थी. यह सत्य था कि उसे बच्चों से बहुत प्यार था, इसलिए उस ने बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन लगा रखी थी. लेकिन आज ध्यान से सुना तो बीच में कोई धीरे से बोल रहा था, ‘पापा, बोलो पापा.’

यह सुन कर उस का माथा ठनका. हो न हो, 15 अगस्त और बच्चे की खिलखिलाहट में कुछ न कुछ राज जरूर छिपा है.

वालपेपर को उस ने गौर से देखा. धीरज के पीछे एक अस्पताल था. अस्पताल का नाम साफ नजर आ रहा था. शायद उस ने सैल्फी ली थी यानी 15 अगस्त को धीरज उस अस्पताल के पास था. वह वहां क्यों गया था, यह जानने के लिए वह तुरंत उस अस्पताल के लिए चल पड़ी. वह भी काफी दूर था. वहां गई तो वास्तव में अस्पताल के बाहर तिरंगा लहरा रहा था. यह तो तय हो गया था कि धीरज ने सैल्फी यहीं ली थी. लेकिन वह यहां करने क्या आया था. अचानक उस के मस्तिष्क में बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन और ‘पापा, बोलो पापा’ की ध्वनि बिजली की तरह कौंध गई और वह फौरन अस्पताल के अंदर चली गई.

मैटरनिटी होम के रिसैप्शन पर जा कर उस ने 15 अगस्त को जन्मे बच्चों की जानकारी चाही. पहले तो उसे मना कर दिया गया, लेकिन काफी रिक्वैस्ट करने पर बताया गया कि उस दिन 7 बच्चे हुए थे जिन में 4 लड़के और 3 लड़कियां थीं. उन बच्चों के पिता के नाम में धीरज का नाम नहीं था. सातों मांओं के नाम उस ने नोट कर लिए. अस्पताल के नियम के मुताबिक उसे उन के पते और मोबाइल नंबर नहीं दिए गए.

घर आ कर उस ने धीरज के मोबाइल में उन नामों के आधार पर नंबर ढूंढ़े, लेकिन कोई नंबर नहीं मिला. एक नंबर जरूर ‘एस’ नाम से सेव था. उस ने उस नंबर पर फोन लगाया तो उधर से एक नारीस्वर गूंजा, ‘‘कौन?’’

‘‘जी, मैं बोल रही हूं.’’

‘‘कौन? तू सीमा बोल रही है क्या?’’

यह सुन कर वह थोड़ा घबराई, ‘‘आप मेरी बात तो सुनिए.’’

‘‘अरे सीमा, क्या बात सुनूं तेरी? तू उस दिन शाम तक आने को कह कर गई थी और आज चौथा दिन है. तेरे बच्चे का रोरो कर बुरा हाल है. जल्दबाजी में तू अपना मोबाइल और पर्स भी यहीं भूल गई. तेरे फोन भी आ रहे हैं. समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं कि तू है कहां?’’

‘‘जी, वह बात यह है कि…’’

‘‘तू इतना घबरा कर क्यों बोल रही है? कोई परेशानी है तो मुझे बता, क्या पति से झगड़ा हो गया है?’’

‘‘जी, मैं सीमा नहीं, उस की बहन शोभा बोल रही हूं.’’

‘‘शोभा? लेकिन सीमा ने कभी आप का जिक्र ही नहीं किया. आप बोल कहां से रही हैं?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं आप को फोन पर कुछ नहीं बता पाऊंगी. आप से मिल कर सबकुछ विस्तार से बता दूंगी. शीघ्र ही मैं आप से मिलना चाहती हूं. प्लीज, आप अपना पता बता दीजिए,’’ निवेदन करते हुए उस ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं अभी आप को अपना पता एसएमएस करती हूं.’’

चंद मिनटों में ही उस का पता मोबाइल स्क्रीन पर आ गया और शोभा शीघ्र ही वहां के लिए रवाना हो गई.

जैसे ही शोभा ने दरवाजे की घंटी बजाई, एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘आप शोभाजी हैं न,’’ कहते हुए वे उसे बहुत सम्मान के साथ अंदर ले गईं.

पानी का गिलास पकड़ाते हुए बोलीं, ‘‘सीमा ने कभी आप का जिक्र तक नहीं किया था. वह मेरे यहां किराए पर अपने पति के साथ रहती थी. अभी 15 अगस्त को उस के बेटा  भी हुआ है. उस की ससुराल और मायके से कोई नहीं आया था. सारा काम मैं ने और उस के पति ने ही संभाला था. वह मुझे मां समान मानती है. अभी

4 दिनों पहले ही सुबह 6 बजे अपने बेटे को मेरे पास छोड़ कर जाते हुए बोली थी, ‘‘आंटी, एक बहुत जरूरी काम से हम दोनों जा रहे हैं, शाम तक वापस आ जाएंगे, प्लीज, तब तक आप आर्यन को संभाल लेना.’’

अपने पर्स से धीरज का फोटो निकाल कर उन्हें दिखाते हुए शोभा बोली, ‘‘आंटी, क्या यही सीमा के पति हैं?’’

‘‘हां, यही इस के पति हैं, लेकिन आप क्यों पूछ रही हैं? आप को तो सबकुछ पता होना चाहिए, क्योंकि आप तो सीमा की बहन हैं,’’ उन्होंने शंका जाहिर की.

‘‘आंटी, बात दरअसल यह है कि सीमा ने परिवार की मरजी के खिलाफ प्रेमविवाह किया था, इसलिए हमारा उस से संपर्क नहीं था. लेकिन अभी 4 दिनों पहले ही सीमा और उस के पति की एक कार ऐक्सिडैंट में मौत हो गई है. आखिरी समय में उस ने पुलिस को हमारा पता और आप का मोबाइल नंबर बताया था. उसी के आधार पर मैं यहां आई हूं,’’ कहते हुए उस ने अखबार की कटिंग जिस में दुर्घटना के समाचार के साथसाथ सीमा और धीरज की तसवीर थी, दिखा दी, और फिर सुबक पड़ी. वे बुजुर्ग महिला भी रो पड़ीं और सिसकते हुए बोलीं, ‘‘अब आर्यन तो अनाथ हो गया.’’

‘‘नहीं आंटी, आर्यन क्यों अनाथ हो गया. उस की मौसी तो जिंदा है. मैं पालूंगी उसे. आखिर मौसी भी तो मां ही होती है.’’

‘‘हां शोभा, तुम ठीक कह रही हो. अब तुम ही संभालो नन्हें आर्यन को,’’ कहते हुए वे अंदर से एक 7-8 माह के बच्चे को ले आईं जो हूबहू धीरज की फोटोकौपी था.

शोभा ने बच्चे को अपनी छाती से ऐसे चिपका लिया जैसे कोई उसे छीन न ले. वह जल्दी से जल्दी वहां से निकलना चाह रही थी.

आंटी ने कहा, ‘‘आप सीमा का कमरा खोल कर देख लो. बच्चे का जरूरी सामान तो अभी ले जाओ, बाकी सामान जब जी चाहे ले जाना. उस के बाद ही मैं कमरा किसी और को किराए पर दूंगी.’’

उस ने सीमा का कमरा खोला. कमरे में खास सामान नहीं था. बस, जरूरी सामान था. बच्चे का सामान और सीमा का पर्स व मोबाइल ले कर वह आंटी को फिर आने को कह कर घर चल पड़ी.

सारे रास्ते सोचती रही कि धीरज ने उस के साथ कितना बड़ा धोखा किया. दूसरी शादी रचा ली और बच्चा तक पैदा कर लिया. जब खुद उस ने दूसरी शादी के लिए कहा था तब कितनी वफादारी दिखा रहा था. ऐसे दोहरे व्यक्तित्व वाले इंसान के प्रति उस का मन घृणा से भर गया.

घर आ कर उस ने सब से पहले सीमा का पर्स चैक किया. पर्स में थोड़ेबहुत रुपए, दांतों के डाक्टर का परचा और थोड़ाबहुत कौस्मैटिक का सामान था. पैनकार्ड और आधारकार्ड से पता चला कि सीमा धीरज के ही शहर की थी. इस का मतलब धीरज शादी के पहले से ही सीमा को जानता था और उस का प्रेमप्रसंग काफी पुराना था.

फिर उस ने सीमा का मोबाइल चैक किया. वालपेपर पर सीमा, धीरज और बच्चे का फोटो लगा था. व्हाट्सऐप पर काफी मैसेज थे जो डिलीट नहीं किए गए थे.

‘‘सीमा, इतने सालों बाद तुम मुझे मैट्रो में मिली. मुझे अच्छा लगा. लेकिन यह जान कर दुख हुआ कि तुम्हारा पति से तलाक हो चुका है.’’

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा क्योंकि अब मैं शादीशुदा हूं और अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. वैसे भी तुम अकेली रहती हो, मुझे देख कर तुम्हारी मकानमालकिन आंटी क्या सोचेंगी?’’

‘‘तुम ने आंटी को अपना परिचय मेरे पति के रूप में दिया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा.’’

‘‘हमारे बीच जो कुछ क्षणिक आवेश में हुआ, उस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं और अब मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगा.’’

‘‘क्या? मैं पिता बनने वाला हूं.’’

‘‘सीमा, प्लीज जिद छोड़ दो, मैं शोभा को तलाक नहीं दे सकता. मैं

उसे सचाई बता दूंगा. वह स्वीकार कर लेगी. उस का दिल बहुत बड़ा है. हम सब साथ रहेंगे. हमारे बच्चे को 2-2 मांओं का प्यार मिलेगा.’’

‘‘सीमा, मुझे अपने बच्चे से मिलने दो. उस के बिना मैं मर जाऊंगा.’’

इस के अलावा औरों के भी मैसेज थे. तभी अचानक सीमा के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने तुरंत रिसीव किया, ‘‘कौन?’’

‘‘कौन की बच्ची? इतने दिनों से फोन लगा रही हूं. हर बार तेरी खड़ूस आंटी उठाती है और कहती है कि तू अभी तक वापस नहीं आई. क्या बात है? मथुरा में शादी कर के वहीं से हनीमून मनाने भी निकल गई.’’

शोभा चुप रही. बस, ‘‘हूं’’ कहा.

‘‘अच्छा, व्यस्त है हनीमून में. वैसे सीमा, यह ठीक ही रहा वरना धीरज तो तुझे अपने घर में अपनी बीवी की नौकरानी बना कर रख देता. तेरा बच्चा भी तेरा अपना नहीं रहता. बच्चे से न मिलने देने की धमकी सुन कर आ गया न लाइन पर. मेरा यह आइडिया कामयाब रहा. अब मंदिर में तू ने शादी तो कर ली है लेकिन ऐसी शादी कोई नहीं मानेगा, इसलिए बच्चे को ढाल बना कर जल्दी से जल्दी धीरज को अपनी बीवी से तलाक के लिए राजी कर.’’

‘‘हांहां,’’ शोभा ने अटकते स्वर में कहा.

‘‘हांहां मत कर, पार्टी की तैयारी शुरू कर. मैं अगले हफ्ते ही दिल्ली आ रही हूं औफिस के काम से.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए शोभा ने फोन काट दिया.

धीरज के प्रति उस के मन में जो गलत भाव आ गए थे, वे एक पल में धुल गए. सच में धीरज ने एक पति होने के नाते उसे पूरा मानसम्मान और प्रेम दिया. वह धीरज पर गौरवान्वित हो उठी. धीरज की निशानी नन्हें आर्यन को पा कर उस का तनमन महक उठा. उस ने उसे कस कर सीने से लगा लिया और बरसों से सहेजा ममता का खजाना उस पर लुटा दिया.

उस के अनुभवी पिता ने सत्य ही कहा था कि धीरज जैसे समझदार इंसान ने भविष्य के लिए कुछ न कुछ जरूर किया होगा. वास्तव में उस ने अपनी जिंदगी की एक महत्त्वपूर्ण पौलिसी करा ही दी थी जो शोभा का सुरक्षित भविष्य बन गई थी. बीमा कंपनी की टैग लाइन ‘जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी’ को सार्थक कर दिया था धीरज ने. वह जिंदगी में शोभा के साथ था और जिंदगी के बाद भी उस के साथ है नन्हें आर्यन के रूप में.

बिछुड़े सभी बारीबारी: काश नीरजा ने तब हिम्मत दिखाई होती

दरवाजे की तेज खटखटाहट से मैं नींद से हड़बड़ा कर उठी. 7 बज चुके थे. मैं ने झट से शौल ओढ़ा और दरवाजा खोला. सामने दूध वाले को पा कर मैं बड़बड़ाती हुई किचन में डब्बा लेने चली गई. ‘इतनी जोर से दरवाजा पीटने की क्या जरूरत है?’

रोज बाई सुबह 6 बजे तक आ जाती थी. उस के पास दूसरी चाबी थी. चाय बना कर वह मुझे उठाती और नाश्ता तैयार करने लग जाती. मैं ने डब्बा बढ़ा कर दूध लिया. तब तक काम वाली बाई प्रेमा भी सामने से आ गई.

मैं उसे देर से आने पर बहुतकुछ कहना चाहती थी पर डर था कि कहीं वापस न चली जाए. उस को तो कई घर मिल जाएंगे पर मुझे प्रेमा जैसी कोई नहीं मिलेगी. मैं ने प्रेमा से कहा. ‘‘अच्छा, तू झट से चाय बना दे और नहाने का पानी गरम कर दे.’’

‘‘मेमसाहब, एक तो गीजर खराब, बाथरूम की लाइट नहीं जलती, दरवाजे की घंटी नहीं बजती और फिर गैस का पाइप…आप ये सब ठीक क्यों नहीं करातीं. मेरा काम बहुत बढ़ जाता है,’’ वह एक ही सांस में उलटा मुझे ही सुनाने लग गई. उस को कहने की आदत थी और मुझे सुनने की. बस, यों ही हमारा गुजारा चल रहा था. कभीकभी तो लगता था, सबकुछ छोड़ कर भाग जाऊं. पर जाऊं कहां? वहां भी तो अकेली ही रहूंगी. उम्र के 52 वसंत पार करने के बाद भी मैं एक नीरस सी जिंदगी ढो रही थी.

रोज सुबह कोचिंग सैंटर जाना, 3-4 बैच को पढ़ाना, जौइंट ऐंट्रैंस और नीट की तैयारी करवाना, फिर वापस शाम को घर आ जाना. प्रेमा जो बना कर चली जाती, उसी को गरम कर के खा लेती और टीवी के चैनल बदलतेबदलते सो जाती.

न मैं किसी के घर जाती न कोई मेरे घर आता. यहां तक कि औफिस के कलीग से भी मेरी कोई खास बातचीत नहीं होती. दबीछिपी जबान में मुझे अकड़ू और खूसट की संज्ञा से जाना जाता. मैं ने भी

हालात के तहत पारिवारिक व सामाजिक दायरा बढ़ाने की कोशिश नहीं की.

मैं तैयार हो कर अपने सैंटर पहुंच गई. दिल्ली के इस इंस्टिट्यूट में लगभग 200 बच्चे पढ़ते थे. मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे मैनेजमैंट ने कई बार एकेडमिक हैड के लिए कहा, पर मैं कोई जिम्मेदारी लेने से बचती थी. मेरे औफिस पहुंचते ही मिसेज रीना बोलीं, ‘‘लंच के बाद कहीं मत जाना, मुंबई आईआईटी से डाक्टर सिंह आ रहे हैं. अपने स्टूडैंट्स से भी कह देना कि औडिटोरियम में 3 बजे तक पहुंच जाएं. वे अपना अनुभव शेयर करेंगे और बच्चों को कुछ टिप्स भी देंगे.’’

‘‘ठीक है, कह दूंगी. सो, दोपहर के बाद कोई क्लास नहीं होगी.’’

‘‘तुम छुट्टी की बात तो नहीं सोच रही हो न. अरे, इतने बड़े प्रोफैसर हैं आईआईटी में. अब डीन होने का उन्हीं का नंबर है. और हां, वे हमारे साथ 2 बजे लंच भी करेंगे. तुम भी तब तक कौमनरूम में पहुंच जाना.’’

लंच के लिए हम लोग कौमनरूम में इकट्ठे हुए. तभी पिं्रसिपल जोसेफ डाक्टर सिंह को ले कर कमरे में आए. मैं उन को देख कर एकदम धक सी रह गई. पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ, अचानक मेरे दिल ने तेजी से धड़कना शुरू कर दिया. इस से पहले कि मैं संभल पाती, पिं्रसिपल साहब ने मेरा परिचय कराते हुए कहा, ‘ये नीरजा हैं. हमारे यहां की बेहद डैडीकेटिड टीचर.’ जानते हैं, इन का पढ़ाया बच्चा…’’ मैं ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया.

‘‘अरे, नीरजा तुम, यहां,’’ कह कर उन्होंने बड़े ही नपेतुले शब्दों में मुझे ऊपर से नीचे तक देखा.

‘‘आप जानते हैं इन्हें?’’ पिं्रसिपल जोसेफ ने पूछा.

‘‘हां, हम दोनों ने एकसाथ ही, एक ही कालेज से एमबीए किया था. कुछ याद है आप को,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे देखा और बोले, ‘‘मैं, नरेन,’’ और उसी चिरपरिचित मुसकराहट से मेरा स्वागत किया जैसा सदियों पहले.

मैं ने भी मुसकरा कर सिर हिलाया और अपने स्थान पर बैठ गई. मैं उन्हें कभी भूली तो नहीं पर याद कर के करती भी क्या. जो पल हम ने साथसाथ बिताए थे वे लौट कर तो आएंगे नहीं.

असैंबली हौल में उन के परिचय और तजरबे को ले कर जितनी तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी, वे सब आज मेरी झोली में गिरी होतीं. परंतु आज मैं एक कोने में मासूम सी, सहमी सी दुबकी बैठी थी.

इधर उन का लैक्चर शुरू हुआ, उधर मैं यादों के झरोखों में जा गिरी. हमारी पहली मुलाकात एमबीए की उस सिलैक्शन लिस्ट से हुई जिस में मेरा नाम उन्हीं के नाम के नीचे था. एक नामराशि होने के कारण लिस्ट पर उस की उंगली मेरी उंगली के ऊपर थी और वह अपने पंजाबी अंदाज में बोला था, ‘आप का नाम नीरजा है, मुबारकां हो जी, लिस्ट में नाम तो आया.’ मैं मुसकरा कर एकतरफ हो गई. मुझे अपना नाम इस इंस्टिट्यूट में आने की खुशी थी और उस ने समझा मैं उस की बातों पर मुसकरा रही हूं.

एक ही नामराशि के होने के कारण रजिस्टर में हमारे नाम भी आगेपीछे लिखे होते और सीटें भी आसपास ही होतीं. मैं होस्टल में रहती और उस ने लाजपत नगर में पेइंगगैस्ट लिया था. उस इंस्टिट्यूट में किसी का भी नाम आने का मतलब था कि उस का पिछला रिकौर्ड बहुत ही बेहतरीन रहा होगा.

वह काफी हंसमुख और चुलबुला लड़का था. अपने इसी स्वभाव के चलते वह जल्दी ही लोगों में घुलमिल जाता था. उस में यही ऐसी खासीयत थी जो उसे सब से अलग करती और ऊपर से उस का सिख होना.

उस के विपरीत मैं एकदम शांत, शर्मीले स्वभाव की थी. जब भी वह मुझे देख कर मुसकराता, मैं एकतरफ हो जाती. यों कहना चाहिए कि मैं उस से कन्नी काट लेती. सुबह जब भी वह क्लास में आता, एक खुशनुमा माहौल सा पैदा हो जाता. उस की हंसी में भी संगीत की झंकार थी.

मेरा परिवार लखनऊ में रहता था. पापा बैंक में थे और बड़े भैया एक मल्टीनैशनल कंपनी में चेन्नई में तैनात थे. एक दिन मेरा भाई किसी काम के सिलसिले में दिल्ली आया और मुझ से मिलने चला आया. मैं ने अपने कालेज के गैस्टहाउस में ही उस का रहने का इंतजाम करवा दिया था. उस को सुबह शताब्दी से पापा से मिलने के लिए लखनऊ जाना था. अचानक किसी वीआईपी के आ जाने से गैस्टहाउस में उस का रहना कैंसिल हो गया. मैं परेशान हो गई. बाहर कैफे में बैठ कर हम दोनों भाईबहन इसी उधेड़बुन में लगे रहे कि अब क्या करें.

तभी नरेन अपने एक मित्र के साथ पास से गुजरा और मेरी तरफ हाथ हिलाया. वह शायद अपने घर जाने की जल्दी में था. जवाब में मेरी तरफ से रिस्पौंस न पा कर वह अपने स्वभाव के मुताबिक मेरे पास आया. ‘हैलोजी, कोई परेशानी है क्या?’ जैसे उस ने मेरे मन के भाव पढ़ लिए हों. ‘हां, है तो,’ मैं ने बिना कोई समय गंवाए कहा, ‘ये मेरे भैया हैं, आज रात मैं ने इन का गैस्टहाउस में रहने का इंतजाम करवा दिया था पर अब वहां से मना कर दिया गया है. कोई आसपास होटल भी तो नहीं है और जो हैं वो…’

‘बहुत महंगे हैं, है न,’ वह तपाक से बोला.

‘हां,’ मैं ने कहा.

‘कोई नहींजी, मुझे आधे घंटे का समय दो, मैं कोई न कोई बंदोबस्त कर के आता हूं. कुछ न हुआ तो अपने साथ ले चलूंगा,’ फिर वह भैया की तरफ देख कर बोला, ‘आप टैंशन मत लो, मैं बस गया और आया.’ और सचमुच वह थोड़ी देर में आया और एक कमरे की चाबी दे कर बोला, ‘सामने के ब्लौक में दूसरी मंजिल पर यह कमरा है, आराम से रहो.’

मैं उस की तरफ हैरानी से देखने लगी. वह तो होस्टल का कमरा था, वह भी 2 या 4 लड़कों का. उस ने आगे कहा, ‘ये अकेले ही रहेंगे, दूसरे लड़के को मैं ने कहीं और जाने को कह दिया है. आप आराम से रात बिताओ.’

मैं उस के इस एहसान के सामने बौनी पड़ गई. मुन्नाभाई की तरह वह अपने मीठे व्यवहार से कुछ भी कर सकता था. ‘मैं तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं,’ मैं ने कहा.

‘हां, यह हुई न बात. कैंपस के बाहर पिज्जा खाते हैं, पैसे तुम दे देना.’ और फिर उस ने पैसे देने नहीं दिए, कहा, ‘तुम्हारे भाई के सामने नहीं लूंगा, पर उधार रहे.’

उस दिन के बाद मेरा उस के प्रति नजरिया बदल गया. हम कभी कैंपस में साथसाथ घूमते, कभी हैल्थ क्लब में, कभी स्विमिंग पूल में और कभी कैंपस के बाहर. वैसे तो वह अपने दोस्तों या प्रोफैसर्स के साथ ही घिरा रहता पर जब मुझे देखता, वह अकेला ही आता.

साल कब खत्म हुआ, पता ही नहीं चला. अब हम ने अपनी असाइनमैंट रिपोर्ट्स भी साथसाथ तैयार कीं. कैंपस में ही उस का एक बड़ी कंपनी में सिलैक्शन हो गया था. मैं यहीं इसी इंस्टिट्यूट से पीएचडी करना चाहती थी, इसलिए मैं ने कोई इंटरव्यू नहीं दिया. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए.

उस से बिछुड़ने का दर्द मुझे भीतर से खाए जा रहा था. उस के मन में क्या था, यह मैं कैसे जान सकती थी. हम उस दहलीज को भी पार कर चुके थे जिसे बचपना कहते हैं. जहां जीनेमरने की कसमें खाई जाती थीं. न वह मेरे लिए रुक सकता था न मैं उस के साथ जा सकती थी.

एक दिन मैं ने उस के सामने अपना दिल खोल कर रख दिया, ‘अब तो तुम यहां से चले जाओगे, मेरा तुम्हारे बिना दिल कैसे लगेगा.’

‘फिर?’ सवालिया लहजे में उस ने कहा.

‘या तो मुझे अपने साथ ले चलो या यहीं रह जाओ,’ मैं रो सी पड़ी.

‘इन दोनों सूरतों में हमें एक काम तो करना ही पड़ेगा,’ उस ने अपनी बात रखी.

‘क्या?’ मैं ने जानना चाहा.

‘शादी, तुम तैयार हो क्या?’ उस ने बिना किसी हिचकिचाहट से कहा. वह इतनी जल्दी इस नतीजे पर पहुंच जाएगा, मैं ने सोचा भी न था.

‘मैं तो चाहती हूं,’ मैं ने भी बिना कोई समय गंवाए बेबाक कह दिया, ‘मम्मी को थोड़ा मनाना पड़ेगा. वे पुराने रीतिरिवाजों को आज भी मानती हैं पर पापा और भैया तो मान जाएंगे. और तुम्हारे घर वाले?’

‘ओजी, हमारे यहां ऐसा कोई चक्कर नहीं है. मेरी बहन तो एक बंगाली लड़के को पसंद करती थी, बाद में वह खुद ही पीछे हट गया. हम पहले हिंदू हैं, बाद में सिख.’

उस दिन पहली बार मैं ने जाना कि वह भी मुझे उतना ही चाहता है जितना मैं. मैं जिस बात को घुमाफिरा कर पूछना चाहती थी, उस ने खुलेदिल से कह दिया. उस की ऐसी बात उसे दूसरों से अलग करती थी.

अब तो मैं दिनरात उसी के खयालों में डूबी रहती और खुली आंखों से सपने देखती.

घर पर वही हुआ जिस का मुझे डर था. जिन मम्मीपापा पर मुझे भरोसा था उन्होंने ही मेरा भरोसा तोड़ दिया. इस मिलन से साफ इनकार कर दिया. इतना ही नहीं, मुझे सख्त हिदायतें दे दीं कि अगर पीएचडी करनी है तो घर रह कर करो.

घर वालों का विरोध करने का जो साहस होना चाहिए था, उस की मुझ में कमी थी. मैं खामोश हो गई. क्या करती, मैं तब उन पर बोझ थी. काश, उस दिन कहीं से विरोध करने की हिम्मत जुटा पाती तो आज जिंदगी कुछ और ही होती.

उस दिन मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने आई. वह मेरी जिंदगी का बेहद गमगीन पल था. मेरी हालत उस पक्षी की जैसी थी जिसे पता था कि उस के पंख अब कटने ही वाले हैं. पहली बार मैं ने उस की आंखों में आंसू देखे. मैं यह भी नहीं कह सकती थी कि फिर मिलेंगे. मैं उसे बस, देखती ही जा रही थी. एक बार तो हुआ कि उस के साथ गाड़ी में बैठ कर भाग ही जाऊं. पर ऐसा सिर्फ फिल्मों में होता है. काश, मैं ने उस दिन अपनी भावनाओं को दबाया न होता और हिम्मत से काम लेती.

उस का हाथ मेरे हाथ में था. मेरे हाथपांव ठंडे पड़ने लगे और सांसें उखड़ने लगीं. जातेजाते मैं ने उस से कहा, ‘फोन करते रहना. पता नहीं जिंदगी में दोबारा तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं.’

‘क्या होगा फोन कर के,’ कह कर उस ने मेरा हाथ छुड़ा लिया. गाड़ी चल पड़ी. विदाई के लिए न हाथ उठे न होंठ हिले, और सबकुछ खत्म हो गया.

उस के बाद न तो उस ने कोई फोन किया, न मैं ने. मैं भरे गले से वापस लखनऊ आ गई. घर वालों की अनदेखी ने मुझे बागी बना दिया था. बातबात पर मैं तुनक पड़ती. बस, समय यों ही घिसटता रहा.

और आज, अचानक ही अपने चिरपरिचित अंदाज में उस ने कहा था, ‘मैं नरेन, पहचाना मुझे?’

औडिटोरियम में तालियों की तेज गड़गड़ाहट से मैं भूत से वर्तमान में आ गिरी. वह सारी वाहवाही लूटे जा रहा था और मैं कोने में चेहरे पर बनावटी मुसकराहट लिए उसे देखे जा रही थी. अपने हाथ में ढेर सारी फूलमालाएं लादे वह मंच पर बैठा था. उस से नजरें मिलाने की हिम्मत मुझ में नहीं थी.

कुछ ही पलों में वह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे पास आ कर धीरे से बोला, ‘‘मैं कल सुबह वापस चला जाऊंगा. तुम चाहो तो अपने पिज्जा का उधार आज चुका सकती हो. याद है न तुम्हारे भैया के साथ…’’

मैं एकदम पिघल सी गई. बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई को छिपा लिया. इस से पहले कि वह मुझे रोता हुआ देख ले, मैं ने सिर झुकाया और पर्स में से अपना कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘जब फुरसत हो, फोन कर लेना. मैं आ जाऊंगी.’’

कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘चलो, कौफीहोम में मिलते हैं आधे घंटे बाद. तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं, मेरा मतलब घर पर…’’

‘‘न…नहीं,’’ कह कर मैं वहां से चल दी.

मैं कौफी का कप ले कर उसी नीम के पेड़ के नीचे बैठ गई, जहां कभी हम उस के साथ बैठा करते, फिर हम रीगल सिनेमा में पिक्चर देखते और 8 बजे से पहले मैं होस्टल वापस आ जाती. अब न वह रीगल हौल रहा न वे दिन. मैं पुरानी यादों में खोई रही और इतना खो गई कि नरेन के आने का मुझे पता ही न चला.

‘‘मुझे मालूम था, तुम यहीं मिलोगी,’’ मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘आज जब से मैं ने तुम को देखा है, बस तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा और यह बात मेरे जेहन से उतर नहीं रही कि एमबीए करने के बाद भी तुम इस छोटे से इंस्टिट्यूट में पढ़ाती होगी. मैं तो समझता था कि…’’

‘‘कि किसी बड़े कालेज में पिं्रसिपल रही होंगी या किसी मल्टीनैशनल कंपनी में डायरैक्टर, है न?’’ मैं ने बात काट कर कहा, ‘‘नरेन, जिंदगी वैसी नहीं चलती जैसा हम सोचते हैं.’’

‘‘अच्छा, अब फिलौसोफिकल बातें छोड़ो, बताओ कुछ अपने बारे में. कहां रहती हो? घर में कौनकौन हैं?’’ कह कर वह मुसकराने लगा. वह आज भी वैसा ही था जैसा पहले.

‘‘मेरी रामकहानी तो चार लाइनों में समाप्त हो जाएगी. तुम तो बिलकुल भी नहीं बदले. कहो, कैसा चल रहा है?’’

‘‘ओजी, मेरा क्या है. मुंबई गया तो बस वहीं का हो कर रह गया. सेठों की नौकरी पसंद नहीं आई, तो मैं ने आईआईटी से पीएचडी कर ली. फिर वहीं प्रोफैसर हो गया और अब वाइस पिं्रसिपल हूं.’’

‘‘और परिवार में?’’ मैं ने धड़कते दिल से पूछा.

‘‘एक बेटा है जो जरमनी में पढ़ रहा है. पापा रहे नहीं. ममी मेरे पास ही रहती हैं. वाइफ एक कालेज में लैक्चरर हैं. बस, बड़ी खुशनुमा जिंदगी जी रहे हैं.’’

तब तक वेटर आ गया. उस ने मेरे लिए बर्गर और अपने लिए सैंडविच का और्डर दे दिया.

‘‘तुम अब तक मेरी पसंद नहीं भूले,’’ मैं ने संजीदा हो कर पूछा, ‘‘मेरी याद कभी नहीं आई?’’

उस ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर धीरे से कहा, ‘‘उन लमहों की चर्चा हम न ही करें तो अच्छा है. जिंदगी वैसी नहीं है जैसा हम चाहते हैं. लाख रुकावटें आएं, वह अपना रास्ता खुदबखुद चुनती रहती है. हमारा उस पर कोई अख्तियार नहीं है. पपड़ी पड़े घावों को न ही कुरेदो तो अच्छा है.’’ फिर वह एक ठंडी सांस भर कर बोला, ‘‘छोड़ो यह सब, अपनी सुनाओ, सब ठीक तो है न?’’

‘‘क्या ठीक हूं, बस ठीक ही समझो. क्या बताऊं, कुछ बताने लायक है ही नहीं.’’

‘‘क्या मतलब? इतना रूखा सा जवाब क्यों दे रही हो?’’ वह चौंका.

‘‘तुम से शादी होने नहीं दी और घर वाले मेरे लिए कोई घरवर तलाश कर नहीं पाए. लखनऊ से पीएचडी करने की हसरत भी मन में ही रह गई. एक तरह से मेरा कुछ भी करने को मन नहीं करता था. उन दिनों कई अच्छेअच्छे कालेजों और कंपनियों से औफर आए परंतु मैं मातापिता को अकेला छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी. उन के रिटायरमैंट के बाद उन्होंने वहीं रहने का फैसला लिया. मैं ने भी वहीं नौकरी ढूंढ़ ली.

‘‘मैं यह भूल गई थी कि कभी पिता भी बूढ़े होंगे. वे तो गुजर गए, उन को तो गुजरना ही था. मां, भाई के पास मुंबई चली गईं. मैं अकेली वहां क्या करती, फिर दिल्ली में जो मिला, उसी में जिंदगी बसर कर रही हूं. 2 साल पहले मां भी चली गईं और जातेजाते हमारा घर भी भैयाभाभी के नाम कर गईं.

‘‘मैं ने जिन मांबाप के लिए जिंदगी यों ही गुजार दी वे भी चल दिए और जिस घर को पराई नजरों से बचाने में लगी रही, वह भी चला गया. जिंदगी में अब कुछ खोने के लिए बचा नहीं है. सबकुछ उद्देश्यहीन नजर आता है.

‘‘आज मानती हूं, गलती मेरी ही थी. मैं ने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं. कभी यह भी खयाल नहीं आया कि उन के बाद मेरा क्या होगा. मेरी तो सारी जिंदगी बेकार ही चली गई. मेरा अपना अब कोई रहा ही नहीं,’’ कहतेकहते मेरे होंठ थम गए. बरसों की दबी रुलाई सिसकी में फूट पड़ी और मैं सिर ढक कर रोने लगी.

मैं ने कस कर उस का हाथ पकड़ लिया. हम दोनों के बीच एक लंबा सन्नाटा सा पसर गया. थोड़ी देर में जी हलका होने पर मैं ने कहा, ‘‘मैं हर कदम पर छली गई. कभी अपनों से, तो कभी समय से. दोष किस को दूं, बस, बेचारी सी बन कर रह गई हूं.’’

लंबी चुप्पी के बाद नरेन बोला, ‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूं क्या?’’

‘‘मैं जानती हूं आज जीवन के इस मोड़ पर भी तुम मेरे लिए कुछ कर सकते हो. पर मैं तुम से कोई मदद लेना नहीं चाहती. मुझे यह लड़ाई खुद ही खुद से लड़नी है. काश, यह लड़ाई मैं ने उस दिन लड़ी होती, जिस दिन तुम से आखिरी मुलाकात हुई थी.’’

‘‘तुम फिर से घर क्यों नहीं बसा लेतीं,’’ उस ने कहा.

‘‘मेरा घर बसा ही कहां था जो फिर से बसाऊं. वह तो बसने से पहले ही ढह गया था,’’ कह कर मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘मुझे तुम से बहुत हमदर्दी है. उम्र के जिस मोड़ पर तुम खड़ी हो, मैं तुम्हारी परेशानी समझ सकता हूं, पर…’’ कहतेकहते उस का गला भर आया. आगे कुछ कहने के लिए उस को शायद शब्द नहीं मिल रहे थे.

शाम बहुत हो चुकी थी. कौफीहोम भी तकरीबन खाली हो चुका था. अब फिर से हमारे बिछुड़ने की बारी थी. उस ने खड़े होते हुए अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया. मैं कटे वृक्ष की तरह उस की बांहों में गिर पड़ी और अमरबेल की तरह उस से जा कर लिपट गई. उस की बांहों की कसावट को मैं महसूस कर रही थी.

और धीरेधीरे अपनी पकड़ को ढीली कर के मूक बने हुए हम एकदूसरे से विदा हो गए. मेरी जबान ने एक बार फिर से मेरा साथ छोड़ दिया.

फिर एक दिन सुबहसुबह उस का फोन आया. मैं सैंटर जाने की तैयारी कर रही थी. वह बोला, ‘‘सुनो, एक बहुत ही शानदार खबर है. मैं ने तुम्हारे मतलब का एक काम ढूंढ़ा है जिस में तुम्हारा तजरबा बहुत काम आएगा.’’

‘‘तुम ने ढूंढ़ा है तो ठीक ही होगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘बताओ, कब और कहां जाना है. बस, मुंबई मत बुलाना.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. मेरे एक जानने वाले का गुड़गांव के पास एक वृद्धाश्रम है. ऐसावैसा नहीं, फाइवस्टार फैसिलिटीज वाला है. वह खुद तो फ्रांस में रहता है, पर उसे आश्रम के लिए एक लेडी डायरैक्टर चाहिए. तुम्हें किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी. मैं ने हां कर दी है, इनकार मत करना.

‘‘तुम चाहो तो एक महीने की छुट्टी ले लो. न पसंद आए तो यहीं वापस आ जाना. एक नई जिंदगी तो कभी भी शुरू की जा सकती है.’’

उस की बात में एक अपील थी, ठहराव था. एक अच्छे दोस्त और हमदर्द की तरह एक तरह से आदेश भी था.

मैं अपना चेहरा अपने हाथों से छिपा कर रोने लगी. इसी अधिकार की भावना के लिए तो तरस गई थी. मन का एक छोटा सा कोना उसी का था और सदा उसी का रहेगा. उस की यादों की मीठी छावं में बैठने से कलेजे को आज भी ठंडक पहुंचती है.

रिश्ता (अंतिम भाग): कैसे बिखर गई श्रावणी

पूर्व कथा

आकाश के बीमार होने की खबर अन्नू श्रावणी को देती है. वह नहीं चाहती कि उस के मायके में किसी को इस बात का पता चले. इसलिए वह कालिज के काम से लखनऊ जाने की बात अपने पापा से कहती है. ट्रेन में बैठते ही वह अतीत की यादों में खो जाती है.

कालिज के वार्षिक समारोह में अन्नू श्रावणी का परिचय अपने भैया आकाश से करवाती है. पहली ही मुलाकात में आकाश और श्रावणी एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगते हैं. दोनों शादी करने का फैसला करते हैं तो श्रावणी के पिता शादी में जल्दबाजी न करने की सलाह देते हैं पर वह नहीं मानती.

शादी की पहली रात को वह आकाश का बदला रूप देख कर चौंक जाती है. एक दिन पिक्चर हाल में आकाश छोटी सी बात पर हंगामा खड़ा कर देता है और घर आ कर सब के सामने उसे अपमानित करता है और अंतरंग क्षणों में उस से माफी मांगने लगता है. श्रावणी आकाश के इस दोहरे व्यवहार को समझ नहीं पाती. शादी के बाद वह आकाश के साथ पहली बार मायके जाती है तो घर के बाहर एक कार चालक से वह लड़ने लगता है.

समय बीतने लगता है. अन्नू की शादी तय हो जाती है और श्रावणी भी गर्भवती हो जाती है. आकाश उस पर गर्भपात कराने का दबाव बनाने लगता है. उस के इस व्यवहार से घर के सभी लोग दुखी हो जाते हैं. श्रावणी एक बेटे को जन्म देती है. उधर अन्नू की शादी की तारीख करीब आने लगती है लेकिन आकाश का तटस्थ व्यवहार देख सब परेशान होते हैं और शादी की सारी जिम्मेदारी श्रावणी को निभानी पड़ती है,

और अब आगे…

अम्मां के आग्रह पर अब सुबहशाम पापा आ जाते थे. पापा के साथ उन की कार में बैठ कर मैं बाहर के काम निबटा लिया करती थी. मां घर और चौके की देखभाल कर लिया करती थीं. बहू के अति विनम्र स्वभाव को देख कर अम्मां आशीर्वादों की झड़ी लगा कर मुक्तकंठ से मेरी मां से सराहना करतीं, ‘बहनजी, जितना सुंदर श्रावणी का तन है, उतना ही सुंदर मन भी है. श्रावणी जैसी बहू तो सब को नसीब हो.’

अन्नू का ब्याह हो गया. मां और पापा घर लौट रहे थे. अम्मां ने एक बार फिर मेरी प्रशंसा मां से की तो मां के जाते ही आकाश के अंत:स्थल में दबा विद्रोह का लावा फूट पड़ा था :

‘वाहवाही बटोरने का बहुत शौक है न तुम्हें? अपने जेवरात क्यों दे दिए तुम ने अन्नू को?’

मैं ने आकाश के साथ उस के परिवार को भी अपनाया था. फिर इस परिवार में मां और बहन के अलावा था भी कौन? दोनों से दुराव की वजह भी क्या थी? मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘जेवर किसी पराए को नहीं अपनी ननद को दिए हैं. अन्नू तुम्हारी बहन है, आकाश. जेवरों का क्या, दोबारा बन जाएंगे.’

‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते, श्रावणी, मेहनत करनी पड़ती है.’

मैं अब भी उन के मन में उठते उद्गारों से अनजान थी. चेहरे पर मायूसी के भाव तिर आए थे. रुंधे गले से बोले, ‘इन लोगों ने मुझे कब अपना समझा. हमेशा गैर ही तो समझा…जैसे मैं कोई पैसा कमाने की मशीन हूं. उन दिनों 7 बजे दुकानें खुलती थीं. सुबह जा कर मामा की आढ़त की दुकान पर बैठता. वहां से सीधे दोपहर को स्कूल जाता. तब तक घर का कामकाज निबटा कर मां दुकान संभालती थीं. शाम को स्कूल से लौट कर पुन: दुकान पर बैठता, क्योंकि मामा शाम को किसी दूसरी दुकान पर लेखागीरी का काम संभालते थे. इन लोगों ने मेरा बचपन छीना है. खेल के मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखता तो मां की गोद में सिर रख कर कई बार रोया था मैं, लेकिन मां हर समय चुप्पी ही साधे रहती थीं.’

मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता और अगर करता भी है तो हमेशा दूसरे को ही दोषी समझता है. आकाश इन सब बातों का रोना मुझ से कई बार रो चुके थे. अपनी सकारात्मक सोच और आत्मबल की वजह से मैं, अलग होने में नहीं, हालात से सामंजस्य बनाने की नीति में विश्वास करती थी. हमेशा की तरह मैं ने उन्हें एक बार फिर समझाया :

‘अम्मां की विवशता परिस्थितिजन्य थी, आकाश. असमय वैधव्य के बोझ तले दबी अम्मां को समझौतावादी दृष्टिकोण, मजबूरी से अपनाना पड़ा होगा. जिस के सिर पर छत नहीं, पांव तले जमीन नहीं थी, देवर, जेठ, ननदों…सभी ने संबंध विच्छेद कर लिया था तो भाई से क्या उम्मीद करतीं? अम्मां को सहारा दे कर, उन के बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी कीं, उन्हें आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान किया. ऐसे में यदि अम्मां ने बेटे से थोड़े योगदान की उम्मीद की तो गलत क्या किया?

‘आखिर मामा का अपना भी तो परिवार था और फिर अम्मां भी तो हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठी थीं. यही क्या कम बात है कि अपने सीमित साधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद, अम्मां ने तुम्हें और अन्नू को पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाया कि आज तुम दोनों समाज में मानसम्मान के साथ जीवन जी रहे हो.’

सुनते ही आकाश आपे से बाहर हो गए, ‘गलती की, जो तुम से अपने मन की बात कह दी…और एक बात ध्यान से सुन लो. मुझे मां ने नहीं पढ़ाया. जो कुछ बना हूं, अपने बलबूते और मेहनत से बना हूं.’

उस दिन आकाश की बातों से उबकाई सी आने लगी थी मुझे. पानी के बहाव को देख कर  बात करने वाले आकाश में आत्मबल तो था ही नहीं, सोच भी नकारात्मक थी. इसीलिए आत्महीनता का केंचुल ओढ़, दूसरों में मीनमेख निकालना, चिड़चिड़ाना उन्हें अच्छा लगता था. खुद मित्रता करते नहीं थे, दूसरों को हंसतेबोलते देखते तो उन्हें कुढ़न होती थी.

अन्नू अकसर घर आती थी. कभी अकेले, कभी प्रमोदजी के साथ. नहीं आती तो मैं बुलवा भेजती थी. उस के आते ही चारों ओर प्रसन्नता पसर जाती थी. अम्मां का झुर्रीदार बेरौनक चेहरा खिल उठता. लेकिन बहन के आते ही भाई के चेहरे पर सलवटें और माथे पर बल उभर आते थे. जब तक वह घर रहती, आकाश यों ही तनावग्रस्त रहते थे.

अन्नू के ब्याह के कुछ समय बाद ही अम्मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. मेरा प्रसवकाल भी निकट आता जा रहा था. अम्मां को बिस्तर से उठाना, बिठाना काफी मुश्किल लगता था. मैं ने आकाश से अम्मां के लिए एक नर्स नियुक्त करने के लिए कहा तो उबल पडे़, ‘जानती हो कितना खर्चा होगा? अगले महीने तुम्हारी डिलीवरी होगी. मेरे पास तो पैसे नहीं हैं. तुम जो चाहो, कर लो.’

घरखर्च मेरी पगार से चलता था. मैं ने कभी भी खुद को इस घर से अलग नहीं समझा, न ही कभी आकाश से हिसाब मांगा. अन्नू के ब्याह पर भी अपने प्राविडेंट फंड में से पैसा निकाला था. फिर इस संकीर्ण मानसिकता की वजह क्या थी? किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. मां के इलाज के लिए पैसेपैसे को रोने वाले बेटे को चमचमाती हुई कार दरवाजे के बाहर पार्क करते देख कर कोई पूछ भी क्या सकता था? डा. प्रमोद ही अम्मां की देखभाल करते रहे थे.

कुछ ही दिनों बाद अम्मां ने दम तोड़ दिया. मैं फूटफूट कर रो रही थी. एकमात्र संबल, जिस के कंधे पर सिर रख कर मैं अपना सुखदुख बांट सकती थी, वह भी छिन गया था. मां ढाढ़स बंधा रही थीं. पापा, अन्नू और प्रमोदजी मित्रोंपरिजनों की सहानुभूतियां बटोर रहे थे. दुनिया ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं सदी में जी रहा है. ब्याहशादियों में कोई आए न आए, मृत्यु के अवसर पर जरूर पहुंचते हैं.

धीरेधीरे यहां भी लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई. मांपापा, अन्नू, प्रमोद, यहीं हमारे घर पर ठहरे हुए थे. आकाश घर में रह कर भी घर पर नहीं थे. एक बार वही तटस्थता उन पर फिर हावी हो चुकी थी. जब मौका मिलता, घर से बाहर निकल जाते और जब वापस लौटते तो उन की सांसों से आती शराब की दुर्गंध, पूरे वातावरण को दूषित कर देती. प्रबंध से ले कर पूरी सामाजिकता प्रमोदजी ही निभा रहे थे और यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. यह सोच कर कि अम्मां बेटे की मां थीं. आकाश को उन्होंने जन्म दिया था, पालपोस कर बड़ा किया था तो अम्मां के प्रति उन की जिम्मेदारी बनती है.

एक दिन पंडितों के लिए वस्त्र, खाद्यान्न, हवन के लिए नैवेद्य आदि लाते हुए प्रमोदजी को देखा तो बरसों का उबाल, हांडी में बंद दूध की तरह उबाल खाने लगा, ‘ये सब काम आप को करने चाहिए आकाश. प्रमोदजी इस घर के दामाद हैं. फिर भी कितनी शांति से दौड़भाग में लगे हुए हैं.’

‘मैं शुरू से ही जानता था. तुम्हें ऐसे ही लोग पसंद हैं जो औरतों के इर्दगिर्द चक्कर लगाते हैं और खासकर के तुम्हारी जीहुजूरी करते हैं,’ फिर मां और पापा को संबोधित कर के बोले, ‘प्रमोद जैसा लड़का ढूंढ़ दीजिए अपनी बेटी को,’ और धड़धड़ाते हुए वह कमरे से बाहर निकल गए.

आकाश का ऐसा व्यवहार मैं कई बार देख चुकी थी. बरदाश्त भी कर चुकी थी. कई बार दिल में अलग होने का खयाल भी आया था लेकिन कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिस कर वह चूरचूर हो गया. आकाश के झूठ, दंभ और पशुता को मैं इसीलिए अपनी पीठ पर लादे रही कि समाज में मेरी इमेज, एक सुखी पत्नी की बनी रहे. लेकिन आकाश ने इन बातों को कभी नहीं समझा. वहां आए रिश्तेदारों के सामने, मां की मृत्यु के मौके पर वह मुझे इस तरह जलील करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझे.

तेरहवीं के दिन, शाम के समय मां और पापा ने मुझे साथ चलने के लिए कहा तो, सभ्य रहने की दीवार जो मैं ने आज तक खींच रखी थी, धीरे से ढह गई. पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता था? चुपचाप चली आई थी मां के साथ.

इसे औरत की मजबूरी कहें या मोह- जाल में फंसने की आदत. बरसों तक त्रासदी और अवहेलना के दौर से गुजरने के बाद भी, उसी चिरपरिचित चेहरे को देखने का खयाल बारबार आता था. क्रोध से पागल हुआ आकाश, नफरत भरी दृष्टि से मुझे देखता आकाश, अम्मां को खरीखोटी सुनाता आकाश, अन्नू को दुत्कारता, प्रमोदजी का अनादर करता आकाश.

मां और पापा, सुबहशाम की सैर को निकल जाते तो मुझे तिनकेतिनके जोड़ कर बनाया अपना घरौंदा याद आता, एकांत और अकेलापन जब असहनीय हो उठता तो दौड़ कर अन्नू को फोन मिला देती. अन्नू एक ही उत्तर देती कि सागर में से मोती ढूंढ़ने की कोशिश मत करो श्रावणी. आकाश भैया अपनी एक सहकर्मी मालती के साथ रह कर, मुक्ति- पर्व मना रहे हैं. हर रात शराब  के गिलास खनकते हैं और वह दिल खोल कर तुम्हें बदनाम करते हैं.

बिट्टू के जन्म के समय भी आकाश की प्रतीक्षा करती रही थी. पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर मेरी आंखों में चमक लौट आती. लेकिन आकाश नहीं आए. अन्नू प्रमोदजी के साथ आई थी. मेरी पसीने से भीगी हथेली को अपनी मजबूत हथेली के शिकंजे से, धीरेधीरे खिसकते देख बोली, ‘मृगतृष्णा में जी रही हो तुम श्रावणी. आकाश भैया नहीं आएंगे. न ही किसी प्रकार का संपर्क ही स्थापित करेंगे तुम से. जब तक तुम थीं तब तक कालिज तो जाते थे. परिवार के दायित्व चाहे न निभाए, अपनी देखभाल तो करते ही थे. आजकल तो नशे की लत लग गई है उन्हें.’

अन्नू चली गई. मां मेरी देखभाल करती रहीं. लोग मुबारक देते, साथ ही आकाश के बारे में प्रश्न करते तो मैं बुझ जाती. मां के कंधे पर सिर रख कर रोती, ‘बिट्टू के सिर से उस के पिता का साया छीन कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है, मां.’

‘जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके, वह समाज में रह कर भी समाज का अंग नहीं बन सकता, न ही किसी दृष्टि में सम्मानित बन सकता है,’ पापा की चिढ़, उन के शब्दों में मुखर हो उठती थी.

मां, पुराने विचारों की थीं, मुझे समझातीं, ‘बेटी, यह बात तो नहीं कि तू ने प्रयास नहीं किए, लेकिन जब इतने प्रयासों के बाद भी तुझे तेरे पति से मंजूरी नहीं मिली तो क्या करती? साए की ओट में दम घुटने लगे तो ऐसे साए को छोड़ खुली हवा में सांस लेने में ही समझदारी है.’

‘लेकिन जगहजगह उसे पिता के नाम की जरूरत पड़ेगी तब?’

‘अब वह जमाना नहीं रहा, जब जन्म देने वाली मां का नाम सिर्फ अस्पताल के रजिस्टर तक सीमित रहता था और स्कूल, नौकरी, विवाह के समय बच्चे की पहचान पिता के नाम से होती थी. आज कानूनन इन सभी जगहों पर मां का नाम ही पर्याप्त है.’

मां की मृत्यु पर भी आकाश नहीं दिखाई दिए थे. अन्नू और प्रमोदजी ही आए थे. मैं समझ गई, जिस व्यक्ति ने मुझ से संबंध विच्छेद कर लिया वह मेरी मां की मृत्यु पर क्यों आने लगा. जाते समय अन्नू ने धीरे से बतला दिया था, ‘आजकल आकाश भैया सुबह से ही बोतल खोल कर बैठ जाते हैं. मैं ने सौ बार समझाया और उन्होंने न पीने का वादा भी किया, लेकिन फिर शुरू हो जाते हैं,’ फिर एक सर्द आह  भर कर बोली, ‘लिवर खराब हो गया है पूरी तरह. प्रमोदजी काफी ध्यान रखते हैं उन का लेकिन कुछ परहेज तो भैया को भी रखना चाहिए.’

सोच के अपने बयावान में भटकती कब मैं झांसी पहुंची पता ही नहीं चला. तंद्रा तो मेरी तब टूटी जब किसी ने मुझे स्टेशन आने की सूचना दी. लोगों के साथ टे्रन से उतर कर मैं स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुंच गई. अन्नू पहले से ही मौजूद थी. प्रमोद डाक्टरों के साथ बातचीत में उलझे थे. मैं ने आकाश के पलंग के पास पड़े स्टूल पर ही रात काट दी. सच कहूं तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. मेरा मन सारी रात न जाने कहांकहां भटकता रहा.

सुबह अन्नू ने चाय पी कर मुझे जबर्दस्ती घर के लिए ठेल दिया. आकाश तब भी दवाओं के नशे में सोए हुए थे.

घर आ कर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. पराएपन की गंध हर ओर से आ रही थी. नहाधो कर आराम करने का मन बना ही रही थी, पर अकेलापन मुझे काटने को दौड़ रहा था. घर से निकल कर अस्पताल पहुंची तो आकाश, नींद से जाग चुके थे. अन्नू के साथ बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देख कर भी कुछ नहीं बोले. मैं ने धीरे से पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन का जवाब ठंडे लोहे की तरह लगा. किसी के बारे में कुछ पूछताछ नहीं की. यहां तक कि बिट्टू के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. अन्नू ही कमरे में मौन तोड़ती रही. हम दोनों के बीच पुल बनाने का प्रयास करती रही. डाक्टरों की आवाजाही जारी थी. सारे दिन लोग, आकाश से मिलने आते रहे. मुझे देख कर हर आने वाला कहता, ‘अच्छा हुआ आप आ गईं,’ पर 3 दिन में, एक बार भी मेरे पति ने यह नहीं कहा, ‘अच्छा हुआ जो तुम आ गईं. तुम्हें बहुत मिस कर रहा था मैं.’

आकाश की हालत काबू में नहीं आ रही थी. प्रमोदजी ने मुझ से धीरे से कहा, ‘‘भाभीजी, आकाश भैया की हालत अच्छी नहीं लग रही है. आप जिसे चाहें खबर कर दें.’’

मैं जब तक कुछ कहती या करती, आकाश ने दम तोड़ दिया. अन्नू फूटफूट कर रो रही थी. प्रमोदजी उसे ढाढ़स बंधा रहे थे. मेरे तो जैसे आंसू ही सूख गए थे. इस पर क्या आंसू बहाऊं? जिस आदमी ने मुझे कभी अपना नहीं समझा…मेरे बेटे को अपना समझना तो दूर उस का चेहरा तक नहीं देखा, मैं कैसे उस आदमी के लिए रोऊं? यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

जाने कितने लोग, शोक प्रकट करने आ रहे थे. हर आदमी, इतनी कम उम्र में इन के चले जाने से दुखी था, पर मैं जैसे जड़ हो गई थी. इतने लोगों को रोते देख कर भी मैं पत्थर की हो गई थी. मेरे आंसू न जाने क्यों मौन हो गए थे? सब कह रहे थे, मुझे गहरा शौक लगा है. इन दिनों आकाश की सारी बुराइयां खत्म हो गई थीं. हर व्यक्ति को उन की अच्छाइयां याद आ रही थीं. मैं खामोश थी.

पापा का फोन मेरे मोबाइल पर कई बार आ चुका था. मैं उन्हें 1-2 दिन का काम और है बता कर फोन काट देती थी.

तेरहवीं के बाद सब ने अपनाअपना सामान बांध लिया. मेरी उत्सुक निगाहें मालती को ढूंढ़ रही थीं. अन्नू से ही पूछताछ की तो बोली, ‘‘आकाश भैया का सारा पैसा अपने नाम करवा कर वह तो कभी की चली गई झांसी छोड़ कर. कहां है, कैसी है हम नहीं जानते. भला ऐसी औरतें रिश्ता निभाती हैं?’’

झांसी से टे्रन के चलते ही मैं ने राहत की सांस ली. ऐसा लगा, जैसे मैं किसी कैद से बाहर आ गई हूं. झांसी की सीमा पार करते ही मुझे पहली बार एहसास हुआ कि झांसी से मेरा रिश्ता सचमुच टूट गया है. अब मैं यहां क्यों आऊंगी? रिश्तों के दरकने का मुझे पहली बार एहसास हुआ. मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें