नायाब नुसखे रिश्वतबाजी के

रिश्वत के लेनदेन की भूमिगत नदी न जाने कब से बहती चली आ रही है. पत्रंपुष्पं से आरंभ हुई रिश्वत की यह धारा अब करोड़ों के कमीशन की महानदी में बदल चुकी है. रिश्वत के मामले में भारतीय समाज ने ही क्या पूरे विश्व ने धर्म को भी नहीं बख्शा. अपने किए पापों के परिणाम से बचने के लिए हम तथाकथित देवीदेवताओं को रिश्वत देते हैं. इच्छित फल पाने के लिए सवा रुपए से ले कर सवा लाख तक का प्रसाद और दक्षिणा चढ़ाते हैं जो रिश्वत का ही एक रूप है. थोड़ी सी भेंट चढ़ा कर उस के बदले में करोड़ों की संपत्ति की चाह रखते हैं. इसी के मद्देनजर एक तुकबंदी भी बनाई गई है:

‘तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगा.’

अब बताइए कि इतनी सुविधा- जनक रिश्वत का कारोबार अपने देश के अलावा और कहां चल सकता है. वर्षा के अभाव में नदियां सूख कर भले ही दुबली हो जाएं लेकिन रिश्वत की धारा दिनप्रतिदिन मोटी होती जा रही है. रिश्वत को अपने यहां ही क्या, सारी दुनिया में किस्मत खोलने वाला सांस्कृतिक कार्यक्रम समझा जाता है. रिश्वत के दम पर गएगुजरों से ले कर अच्छेअच्छों तक की किस्मत का ताला खुलता है.

आप रिश्वत दे कर टाप पर पहुंच सकते हैं पर अगर रिश्वत देने में कोताही की तो टापते रह जाएंगे और दूसरों को आगे बढ़ता देख कर लार टपकाते रहेंगे. बिना रिश्वत के आप सांसत में पडे़ रहिए या फिर रिश्वत दे कर चैन की बंसी बजाइए. रिश्वत के लेनदेन का एक ऐसा शिष्टाचार, एक ऐसा माहौल शुरू हुआ है कि लोग अपना काम कराने के लिए सरकारी कार्यालयों में अफसर और कर्मचारियों को रिश्वत से खुश रखते हैं. चुनाव के दिनों में नेता जनता से वोट बटोरने के लिए जो वादे करते हैं, जो इनाम बांटते हैं वह भी रिश्वत की श्रेणी में ही आता है. इस तरह प्रजातंत्र में सारा भ्रष्टाचार शिष्टाचार का मुखौटा पहन कर गोमुखी गंगा हो जाता है.

रिश्वत के लेनदेन में पहले कोई डर नहीं रहता था. लोग बेफिक्र हो कर नजराने, शुकराने, मेहनताने आदि के नाम पर जो कुछ ‘पत्रंपुष्पं’ मिलता था, ले लिया करते थे और शाम को आपस में बांट लेते थे. अब लेनदेन अधिक हुआ तो पकड़ने और पकड़ाने वाले भी बहुत हो गए. पहले चुनावों में भी यही हाल था. नीचे से ले कर चुनाव आयोग तक चुनावी रिश्वत पर विशेष तवज्जो नहीं दी जाती थी. चुनाव आयोग नेताओं पर विश्वास किया करते थे.

अब तो बिना भ्रष्टाचार के चुनाव संभव ही नहीं है. चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा से सौ गुना खर्च कर के चुनाव लड़ने वाला नेता चुनाव आयोग को खर्चे के हिसाब को व्यय की सीमा में बांध कर किस तरह पेश करता है, इस गणित को जान पाना मुश्किल है. जनता को दी गई तरहतरह की रिश्वत का तो कोई हिसाब ही नहीं होता है.

आजकल जिन्हें कुछ नहीं मिलता है या जो चुनाव हार जाते हैं वे दूसरों को पकड़वाने की फिराक में रहते हैं. कौन कब, किस को, कहां फंसा बैठे इस का ठिकाना नहीं. इसलिए रिश्वत में बचाव की जोखिम राशि शामिल होने से रिश्वत के भाव भी बढ़ गए हैं. कहा जाता है कि लेते हुए पकड़े जाओ तो कुछ दे कर छूट जाओ और देते हुए पकडे़ जाओ तो बोलो कि आप के पिताश्री का क्या दे रहे हैं, आप को चाहिए तो कुछ हिस्सा आप भी ले लीजिए.

इस के बाद इतना निश्चित है कि मिल जाने पर कोई माई का लाल कुछ भी एतराज नहीं करेगा. लेनेदेने वाले, पकड़ने और पकड़ाने वाले सभी अपने ही देशवासी हैं. अपनों को अपने ही मौसेरे भाइयों से क्या डर है. वे अपने ही भाइयों को कैसे पकड़ सकते हैं. पकड़ भी लेंगे तो प्यार जताने पर छोड़ देंगे.

रिश्वत लेने और देने वाले दोनों ही दबंग होते हैं. उन में वैज्ञानिक बुद्धि, सामाजिक चतुराई, राजनीतिक चालबाजी और धार्मिक निष्ठा होती है. ये लोग लेनदेन के नएनए आयाम, नएनए तरीके और नायाब नुसखे तलाशते रहते हैं. कहावत है, ‘तू डालडाल मैं पातपात’, पकड़ने वाले अपना जाल बुनते रहते हैं और रिश्वत लेने और देने वाले उस जाल को तोड़ने और बच निकलने की तरकीबें ईजाद करते रहते हैं. जैसे मारने वाले से बचाने वाला प्रबल होता है वैसे ही पकड़ने वाले से बचाने वाला भी प्रबल होता है.

दुनिया का रिवाज है कि मगरमच्छ कभी नहीं पकड़े जाते, न वे कभी मारे जाते हैं. उन्हें तो सिर्फ पाला जाता है. हमेशा छोटी मछलियां ही पकड़ी जाती हैं, मारी जाती हैं और निगली जाती हैं. मछली भी बड़ी हो तो बच जाती है, जैसे ह्वेल मछली. रिश्वत कई रूपों, कई नामों, कई प्रकारों और कई आयामों से ली जाती है. आइए, कुछ ऐसे ही नायाब तरीकों की चर्चा करें जो लेनदेन में इस्तेमाल होते हैं.

दानपात्र में डालिए

आप देवस्थानों पर जाएं तो जगहजगह गुल्लकनुमा दानपात्र रखे मिलेंगे. आप उन में देवीदेवताओं के लिए रिश्वत डालिए तो आप को फायदा होगा. समाज को भी उस का फायदा मिलता ही होगा तभी तो इतने पढ़ेलिखे लोग भी उन दानपात्रों को भरते हैं. इस से यही साबित होता है कि रिश्वत देने के मामले में मनुष्य ने धर्म को भी नहीं छोड़ा. धर्म के नाम पर रिश्वत दे कर पुण्य कमाने और स्वर्ग में अपनी सीट रिजर्व करने का रिवाज आजकल जोरों पर है.

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चूल्हे में डाल दो

हमारे समय में एक बहुत ही तेजतर्रार अफसर हुआ करते थे. लेकिन कुछ पा जाने पर उतने ही मुलायम हो जाया करते थे. जब कोई आदमी उन के पास दफ्तर में अपना काम कराने के लिए आता और कायदे के मुताबिक कुछ देने की पेशकश करता तो वह कहते, ‘चूल्हे में डाल दो.’ काम कराने वाला व्यक्ति घबरा कर उन के स्टेनो की शरण जाता और अफसर के गूढ़ वचनों का अर्थ पूछता. स्टेनो उस व्यक्ति को बगल में बने छोटे से कमरे में चूल्हा दिखाता. यह व्यक्ति उस ठंडे चूल्हे में इच्छित रकम डाल कर और स्टेनो को अपना काम बता कर बेफिक्र हो जाता. दिन भर इसी तरह चूल्हे में रुपए पड़ते रहते और शाम को अफसर और कर्मचारी बांट लेते. अब कोई बताए कि चूल्हे में फेंके गए और उठाए गए रुपयों पर किसी को क्या एतराज होगा. इस  में कौन माई का लाल किसे पकडे़गा.

शुकराना, नजराना और मेहनताना

काम कराने के लिए आदमी क्या नहीं करता. पहले समय में लोग कहा करते थे कि हुजूर, काम हो जाए तो खुश कर देंगे. काम हो जाने पर शुक्रिया अदा करने के नाम पर जो रकम दी या ली जाती थी उसे शुकराना कहा जाता था. काम कराने के लिए कुछ लोग नजर भेंट करते थे, वह नजराना कहलाता था.

कुछ लोग काम का मेहनताना वसूल करते थे जबकि काम करने के लिए सरकारी वेतन मिलता ही था. आज तो फाइल तलाशने, उठाने और उसे आगे बढ़ाने का भी मेहनताना लिया जाता है. आज भी न्याय मंदिरों में और सरकारी दफ्तरों में शुकराने, नजराने और मेहनताने की प्रथा बदस्तूर लागू है.

पंडेपुजारियों को चढ़ौत्री

आप त्योहारों पर देवस्थानों पर जाएं तो दर्शन करने वालों की लंबी कतारें लगी हुई मिलेंगी. आप लेनदेन जानते हैं तो आप को शार्टकट से दर्शन कराए जा सकते हैं. अगर समझ नहीं है तो पब्लिक की लाइन में लगे रहिए, कभी न कभी दर्शन हो ही जाएंगे.

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और अब सेवा शुल्क

आज जब सरकार ने भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को पकड़नेपकड़ाने का महकमा ही खोल दिया है तो लेनेदेने वाले भी कम नहीं हैं. सरकार तो जनता की बनाई है अत: सरकार की अक्ल से बड़ी तो जनता जनार्दन की अक्ल है. लेनेदेने वालों ने भी अपने तौरतरीके और अस्त्रशस्त्र बदल लिए हैं. अब रिश्वत न ले कर सेवा शुल्क लिया जाता है. देने वाले देते हैं, लेने वाले लेते हैं और सब काम बेखौफ होते हैं. मियांबीवी राजी हों तो काजीजी को क्या पड़ी है कि दोनों के बीच कूदाफांदी करें. पकड़ने या पकड़ाने वाले भी तो सेवा करते हैं, अत: उन्हें भी सेवा शुल्क मिल जाता है और आप का मेवा सुरक्षित हो जाता है. कुछ मिले तो खा लेने में क्या हर्ज है.

सो भैया, अगर कुछ करना है या करवाना है तो मनमाफिक दीजिए और लीजिए और आज के शिष्टाचार में शरीफ हो जाइए. रिश्वत ही सारी मुसीबतों का ‘खुल जा सिमसिम’ है. अत: इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लीजिए और मौजमजे उड़ाइए और दूसरों को भी मौज उड़ाने दीजिए.

जितने लोग उतने तरीके

रिश्वत के लेनदेन के इतने तरीके हैं कि कहां तक गिनाएं. रिश्वत में कोई रूप देता है कोई राशि, कोई माल तो कोई मिल्कीयत. कुछ लोग अपनों से बड़ों के यहां सुबहशाम हाजिरी दे कर ही रिश्वत की भरपाई कर लेते हैं. चरण छूने की रिश्वत तो सब से बड़ी रिश्वत होती है जो सार्वजनिक रूप से ली और दी जा सकती है. कुछ अफसर अपने दफ्तर के आंगन में देवस्थान बनवा लेते हैं और काम कराने आने वालों से चढ़ौत्री चढ़वाते हैं. शाम को सारी चढ़ौत्री घर पहुंच जाती है. एक तथाकथित साहित्यकार तो संपादकों को अपनी रचना भेजते समय पत्र में संपादकजी को चरण स्पर्श लिखते थे और इसी रिश्वत के बल पर वह सभी पत्रपत्रिकाओं में सितारे की तरह चमके.

भेंट का समय

कई राजनेता, अफसर अपने दफ्तर और बंगले में भेंट का समय लिखवा कर तख्ती टांगे रहते हैं. मिलने वाले आते हैं, उन के निजी सहायकों से पूछते हैं कि उन्हें साहब या नेताजी से मिलना है. निजी सहायक भी तो ऐसे लोगों के ऐसे ही हुआ करते हैं, सो वे भी सामने टंगी हुई तख्ती की तरफ इशारा कर समझा देते हैं कि भैयाजी, भेंट का समय लिखा है, मिलने का नहीं. अगर कुछ भेंट लाए हैं तो दीजिए और मिल आइए वरना मिलने की कहां और किसे फुरसत है. जिसे काम कराना होता है वह भेंट चढ़ा कर मिल लेता है. जो भेंट नहीं चढ़ाता वह अपनी बलि भी चढ़ा दे तब भी काम नहीं होता. कभी होता भी है तो तब तक वह इतना खर्च कर चुका होता है जितने में 2 बार भेंट दी जा सकती थी. कभीकभी तो बिना भेंट चढ़ाए तब काम होता है जब मिलने वाला दुनिया से कूच कर चुका होता है.

मुन्ने से मिलिए

अपने देश में मुन्नों की बड़ी महिमा है. देश में इसलिए मुन्नों की भरपूर फसल उगाई जाती है. कई सच्चे और ईमानदार माने जाने वाले अपने मुन्नों की मार्फत वारेन्यारे कर रहे हैं. राजनीति की कुरसी पर भले ही बाप विराजमान हैं लेकिन उन के मुन्ने राज कर रहे हैं. हम लोग तो पक्के ईमानदार हैं और लेनदेन में कोई विश्वास भी नहीं रखते हैं. अब अगर हमारा मुन्ना कुछ करताकराता है तो उस के तो खेलनेखाने के दिन हैं. ऐसे ही तथाकथित ईमानदार लोग जो किसी पद पर होते हैं, मिलने वालों को अपने मुन्नों से मिलवाते हैं. मुन्नों से ओ.के. रिपोर्ट मिलने पर काम हो जाता है. जो मुन्ने को ही खुश न कर पाया वह मुन्ने के बाप को क्या खुश करेगा. फिर उस का काम कैसे हो सकता है. मुन्ने की खुशी में ही साहब की खुशी है.

वजन रखना होगा

काम कराने के लिए आजकल दफ्तरों में फाइल पर वजन रखने की बात कही जाती है. दूसरी चीजें तो वजन से दबती हैं लेकिन फाइल पर वजन रखने से वह फुर्र से उड़ती है.

फाइलों के बारे में विज्ञान का गति सिद्धांत लागू नहीं होता. फाइल पर जितना अधिक वजन रखेंगे उस की गति उतनी ही तेज होती जाएगी और अफसर से हस्ताक्षर करा कर वापस आ जाएगी. वजन रखने वाला व्यक्ति अपना काम करा कर खुशीखुशी चला जाता है. वजन न रखने पर फाइलों पर वर्षों तक निर्णय और हस्ताक्षर नहीं हो पाते हैं. इस तरह लालफीताशाही में फंस कर आप भी फीते की तरह हो जाते हैं.

कुछ लाए हो

हम ने एक नामीगिरामी अफसर ऐसे देखे हैं जो काम कराने के लिए आए लोगों से मिलते ही प्रश्न दागते थे, ‘कुछ लाए हो या यों ही चले आए.’ काम कराने वाला अगर समझदार होता तो नजराना हाजिर कर देता, जिसे वह फौरन डब्बे में रखवा लेते.

उस का काम बेझिझक, बेझंझट हो जाता. अगर मिलने वाला सीधा या शातिर होता और अफसर से पलट कर पूछ बैठता कि सर, क्या लाना था? तो वह फट से कहते, ‘अरे भाई, मेरा मतलब जरूरी कागजात वगैरह से है.’ जाहिर है कि सारे कागज और पूरी जानकारी देने पर ऐसे अनाड़ी लोगों का काम कैसे हो सकता था. पता लगा कर जब अगली बार वह कुछ न कुछ लाता तभी मामला आगे बढ़ता.

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अपने लिए नहीं, ऊपर वालों के लिए

लेने वाला कभी अपने लिए या अपने नाम पर नहीं लेता है. वह तो ऊपर वाले के नाम पर लेता है. लेने वाले को तो कुछ नहीं चाहिए. वह बेचारा तो काम करने के लिए तड़प रहा है.

पैसा तो उसे अपने ऊपर वाले को देना है. लेने वाला तो सतयुगी जीव है उसे तो ऊपर वाले के लिए लेना पड़ता है तभी निर्णय होता है. देने वाले

को झख मार कर देना ही पड़ता है वरना वह नीचे और ऊपर वालों के चक्कर में फंस कर चक्कर ही काटता रहेगा.

पत्रंपुष्पं के रूप में

कुछ लोग काम कराने के लिए पत्रंपुष्पं के रूप में कुछ दियालिया करते हैं. अपने यहां रिश्वत लेनेदेने की किसे फुरसत है.

इस जमाने में अफसर और नेता ही सबकुछ होते हैं और कुछ उन से भी बडे़ होते हैं. देने वाला भी बड़ी नम्रता से पत्रपुष्प ही अर्पित करता है.

अब भला बताइए कि पत्रपुष्प अर्पित करने और स्वीकार करने की मनाही कहां लिखी है. इस में न तो भारतीय दंड संहिता की धारा ही

लग सकती है और न ही भ्रष्टाचार निरोधक कानून की कोई भी धारा या उपधारा.

डाली और डोली

डाली और डोली की रिश्वत तो आदिकाल से चली आ रही है. युद्ध बंद करने, संधि करने अथवा कर्ज माफ कराने के लिए डालियां और डोलियां सजा कर रिश्वत भेजी जाती थी. राजा- महाराजाओं के युग में तथा अंगरेजी राज्य में भी रिश्वत के रूप में दियालिया जाता है और धड़ल्ले से काम हो रहे हैं. डाली और डोली से लोगों ने ऊंचेऊंचे पद और प्रतिष्ठा प्राप्त की है.

कमीशन और कोड नंबर

जैसेजैसे युग बदल रहा है आदमी के तौरतरीके बदल रहे हैं. वैसे ही रिश्वत के तौरतरीके भी बदल रहे हैं. लेनदेन के आयाम बदल रहे हैं. अब रिश्वत न कह कर कमीशन या दलाली देते हैं और वह भी किसी माध्यम

से. सीधी रिश्वत तो नासमझ स्वीकार करते हैं.

चतुर लोग तो माध्यम के माध्यम से वारेन्यारे करते हैं. जो इन में से बड़े और समझदार हैं वे कोड नंबर से रिश्वत की राशि विदेशी बैंकों में जमा कराते हैं.  द्य

नारमल डिलीवरी बस ढूंढ़ते रह जाओगे

‘‘बधाई हो भाई, मिठाई हो जाए,’’ मैं ने कहा तो जैसे हमारे शब्दों को बाजू में सरका कर कहने लगे, ‘‘किसी अच्छे अस्पताल में दिखाना है. गांव में तो सुविधाएं थीं नहीं. हां, पखवाड़े में एक बार हाजिरी भरने के लिए आने वाली डाक्टर साहिबा ने अभी तक सबकुछ नार्मल ही बताया था पर यहां तसल्ली करना जरूरी है क्योंकि श्रीमतीजी को सीजेरियन से बहुत डर लगता है.’’

हम ने भी अपने सामान्य ज्ञान पर इठलाते हुए नजदीकी एक अस्पताल का जिक्र किया एवं शाम को साथ चलने का वादा भी कर दिया.

शाम को कतार में खड़ेखड़े डाक्टर साहिबा पर नजर पड़ते ही हम अंदर तक कांप गए. यह तो वही हैं जिन्हें 10 साल पहले अपनी बहन को इन्हीं परिस्थितियों में दिखाने हम सरकारी अस्पताल में गए थे. उस समय यह डाक्टरनी बड़ी जोर से चिल्ला पड़ी थी, ‘अभी तक जहां दिखाया है वहीं दिखाओ, अब यहां क्या करने आए हो. मेरे पास समय नहीं है.’

डाक्टर साहिबा के इस धाराप्रवाह श्री वचनों के बीच हम बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाए थे कि यह हमारी बहन है और कल ही ससुराल से आई है.

अपनी बारी आने तक हम आगे की रणनीति बनाते रहे कि हमें क्या कहना है, पर यह क्या, बर्फ की तरह ठंडी डाक्टर साहिबा ने पूरा चेकअप कर के मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बाहर से ट्रांसफर हो कर आए हैं क्या? सब नार्मल है. चिंता की कोई बात नहीं है. हर 15 दिन पर नियमित चेकअप के लिए आते रहना.

डाक्टर साहिबा में आए इस क्रांतिकारी बदलाव को देख कर तो मानो हमारी सोचनेसमझने की क्षमता ही खत्म हो गई. आदमी इतना भी बदल सकता है? खैर, सब नार्मल है, सुन कर हम भी मित्र की खुशी में शामिल हो गए. लगेहाथ मित्र को अपने पूर्व अनुभव के आधार पर तसल्ली भी दे डाली कि इन डाक्टर साहिबा के 99 प्रतिशत केस नार्मल डिलीवरी के ही होते हैं.

निर्धारित समय के 2 दिन पहले डाक्टर साहिबा ने देख कर गंभीर आवाज में कह दिया कि भरती हो जाओ, आपरेशन करना पड़ेगा.

मित्र की आवाज, मुखमुद्रा और प्रश्नसूचक आंखों से निगाह चुराते हुए हम नर्स की शरण में पहुंचे तो वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनी की वरिष्ठ बिक्री अधिकारी की तरह समझाने लगी, ‘‘देखिए, यह एक प्रेस्टिजियस अस्पताल है, यहां हम अपने मरीज की बेस्ट पौसिबल केयर करते हैं. हम किसी प्रकार का रिस्क नहीं लेते हैं. हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हर डिलीवरी 100 प्रतिशत परफेक्ट हो और हर कस्टमर को पूरा सेटिस्फेक्शन मिले.

‘‘मैं खुद पिछले 3 सालों से यहां काम कर रही हूं पर औसतन 90-95 प्रतिशत डिलीवरी आपरेशन से होते देख रही हूं. इनफेक्ट, आजकल हमारी लाइफ स्टाइल, खानपान, रहनसहन, यहां तक कि ब्रीड ही ऐसी हो चुकी है कि नार्मल डिलीवरी में जान जाने का खतरा हमेशा बना रहता है.’’

‘‘यह बिलकुल सही कह रही हैं जनाब,’’ की आवाज के साथ एक भारी-भरकम हाथ हमारे कंधे पर आ पड़ा. मुड़ कर देखा तो वैज्ञानिक सोच वाले आधुनिक बुद्धिजीवी महाशय सामने खड़े मुसकरा रहे थे.

एक सेल्समैन की तरह पूरे आत्म-विश्वास के साथ वे पुन: बोले, ‘‘डरने की कोई बात नहीं है. इस अस्पताल में आधु-निक तकनीक का प्रयोग होता है तथा विश्व स्तर के सभी आधुनिक उपकरण यहां मौजूद हैं. रही बात खर्च की तो डाक्टर साहिबा बिल ही इस तरह से बनवा देंगी कि पूरा का पूरा आप के विभाग से आप को वापस मिल जाएगा. यह लोग इस मामले में एकदम ईमानदार हैं.’’

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‘‘लेकिन साहब, डिलीवरी नार्मल हो जाए तो इस का कोई मुकाबला ही नहीं होता है. अभी तक सबकुछ ठीक ही था. डाक्टर साहिबा कोशिश करें तो डिलीवरी नार्मल भी हो सकती है. हमारे परिवार वालों के विचार भी कुछ ऐसे ही हैं,’’ हमारे मित्र कुछ घिघियाते से बोले थे.

बुद्धिजीवी बोले, ‘‘अमां यार, इस साइबर एज में भी आप बैलगाड़ी युग की बातें कर रहे हैं. मौडर्न टाइम है भाई. अभी पिछले सप्ताह ही मैं विदेश टूर कर के आया हूं. वहां तो नार्मल डिलीवरी का कंसेप्ट ही खत्म हो गया है. हजारों में शायद ही एकदो नार्मल डिलीवरी होती हैं. आदमी मंगल पर पहुंच रहा है और आप हैं कि अभी तक जमीन के अंदर धंसे हुए हैं.’’

मित्र फिर घिघियाए, ‘‘भाई साहब, हमारे पूरे खानदान में ही नहीं बल्कि श्रीमती के परिवार में भी आज तक सभी डिलीवरियां नार्मल ही हुई हैं. किसी में आपरेशन की जरूरत ही नहीं पड़ी.’’

मित्र का मुंह लगभग दबाते हुए बुद्धिजीवी बोले, ‘‘यार, धीरे बोलो, अगर डाक्टर साहिबा ने सुन लिया कि आप ऐसे खानदान से आए हो तो आप का केस लेने से ही मना कर देंगी. अपने खानदान को कुछ तो प्रगतिशील बनाओ. जमाने के साथ चलना सीखो भाई. जिस कालोनी में आप रह रहे हैं वहां सभी ने इसी अस्पताल में डिलीवरी करवाई है, शायद ही कोई नार्मल डिलीवरी हुई हो. कम से कम अपने और अस्पताल के स्टेटस का तो खयाल करो,’’ वह एक पल को किसी मजे हुए नेता की तरह रुके फिर बोलना

शुरू किया, ‘‘यह कोई सरकारी खैराती अस्पताल तो है नहीं, एक हाइटेक अस्पताल है. अब तो इस क्षेत्र में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी कूदने वाली हैं जिन के अस्पताल को देख कर आप की आंखें चुंधिया जाएंगी. फिर तो सीजेरियन डिलीवरी पूरी तरह से स्टेटस सिंबल बन जाएगी.

‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां’, ‘स्टेटस’ जैसे शब्द कान में पड़ने के साथ ही हम अपनी सोचनेविचारने की ‘मुंगेरी’ आदत के चलते विचारों के महासागर में गोते लगाने लगे. अगर वास्तव में बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस क्षेत्र में आ पहुंचीं तो विज्ञापनों की बाढ़ के दबाव से सीजेरियन करवाना हर आदमी की मजबूरी हो जाएगी और नार्मल डिलीवरी तो बस जिद्दी दाग की तरह ढूंढ़ते रह जाएंगे. टेलीविजन पर विज्ञापन आएगा, ‘जो बीवी से करे प्यार वह सीजेरियन से कैसे करे इंकार’ या फिर सरकार ही समाचारों से पहले दिखलाने लगे कि विमला का बेटा टेढ़ामेढ़ा इसलिए पैदा हुआ कि उस ने नार्मल डिलीवरी करवाई थी, अगर स्वस्थ सुंदर बच्चा चाहिए तो भाई साहब सीजेरियन ही करवानी चाहिए.

कंपनियां भी ऐसा टीका विकसित कर लेंगी कि नार्मल डिलीवरी हो ही नहीं पाए. देश भर के तथाकथित क्लब और संस्थाएं पोलियो खुराक की तरह पैदा होते ही हर संतान को यह टीका लगा देगी. एक बार जनमानस पर सीजेरियन स्टेटस के रूप में स्थापित हुआ नहीं कि सामाजिक संबंधों में भूचाल सा आ जाएगा.

शादीसंबंधों में सब से पहले पूछा जाएगा कि लड़का नार्मल है या सीजेरियन. बायोडाटा के कालम में एक लाइन यह भी होगी कि क्या संतान सीजेरियन है? उच्च कुल के लोग पूरे परिवार को गर्व के साथ सीजेरियन बताएंगे. अगर कोई संतान गलती से नार्मल हुई तो मांबाप खिसियाते हुए कहेंगे बाकी भाई और बहन तो सीजेरियन ही हैं, बस, यही गलती से…

गांव से शहर लाते समय यदि रास्ते में नार्मली कुछ हो गया तो इस दुर्घटना को मातापिता छिपाएंगे या अपने बच्चे के भविष्य को देखते हुए दूर पलायन कर जाएंगे. ऐसे बच्चे बड़े होने पर ताना मारेंगे, ‘‘हमारे लिए आप ने किया ही क्या है? नार्मल डिलीवरी से दुनिया में हमें ले आए. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’

नार्मल डिलीवरी आर्थिक दिवालि-एपन या मानसिक पिछड़ेपन का प्रतीक बन कर रह जाएगी.

प्रतिक्रियास्वरूप कुछ नेता और सामाजिक संगठन इन की रक्षा के लिए आगे आएंगे. जातियों के महासागर में एक और तलैया शामिल करवाएंगे. नया वर्ग संघर्ष पैदा होगा. समाज इन्हें हेय समझेगा और नेता इन्हें अल्पसंख्यक घोषित करवा कर विकलांगों की तरह इन के लिए आरक्षण कोटा निर्धारित कराएंगे. धारा ‘3’ का सदुपयोग करने का अधिकार भी इन्हें दिलवाया जाएगा. एक वर्ग सरकारी अस्पतालों में नार्मल डिलीवरी करवाने वाले डाक्टरों के खिलाफ प्रदर्शन कर जांच आयोग बैठाने की मांग करेगा तो दूसरी ओर शबाना आजमी टेलीविजन पर आ कर कहेंगी, ‘‘नार्मल को एबनार्मल न समझें, इन्हें प्यार दें.’’

आगे बढ़ते विचारों के अश्व को अचानक डाक्टर साहिबा के सप्तम स्वर ने झटके से रोक दिया. मित्र को सुनाते हुए सफाई कर्मचारी को कह रही थीं, ‘‘सरकारी अस्पताल समझ रखा है क्या? मुझे एकदम साफ चाहिए… क्रिस्टल क्लियर, नो कंप्रोमाइज.’’

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फिर बुद्धिजीवी महाशय से मैराथन तर्कवितर्क में उलझे मित्र की ओर ब्रह्मास्त्र चला दिया, ‘‘मुझे दिक्कत नहीं है पर कल को कुछ हो गया तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी,’’ इतना कह कर तेजी से डाक्टर साहिबा अंदर चली गईं. पीछेपीछे बुद्धिजीवी भी रुख्सत हो गए.

बस, मित्र और हम ने अभिमन्यु वाली हार मान ली. मैं ने भी सांत्वना दी. यार करवा भी लो वरना कुछ ऐसावैसा हो गया तो नातेरिश्तेदार और यही संतान बड़ी हो कर 100-100 ताने मारेगी.

बिल की च्ंिता में मित्र के पेट में मरोड़े उठने लगे. नर्स से पूछने पर पता चला 15-20 हजार रुपए का खर्च आएगा. अपनी किसी संस्था के लिए डाक्टर साहिबा से डोनेशन का चेक ले कर वापस आ रहे बुद्धिजीवी महाशय ने फिर समझाया कि अभी तो बड़े सस्ते में निबट रहे हो, बाद में बहुराष्ट्रीय अस्पतालों में तो यही काम लाखों में होंगे.

हम फिर सोचने लगे कि अगर महाभारत काल में ही यह व्यवस्था लागू हो जाती तो बेचारे धृतराष्ट्र तो बिल चुकातेचुकाते ही राजपाट लुटवा बैठते.

खैर, मित्र महोदय ने जैसेतैसे इस प्रकरण को निबटाया फिर तुरंत कसम खाई कि अब दूसरी संतान के बारे में कभी सोचूंगा भी नहीं.

 संजीव झा

गरीबी रेखा

रेखा सिर्फ हीरोइन ही नहीं है, सरकारी कलाकारी भी है जिसे गरीबीरेखा कहते हैं. गरीबीरेखा इसलिए नहीं खींची जाती कि वह अमीर और गरीब का भेद कर सके बल्कि यह तो लक्ष्मणरेखा जैसी है जिसे कोई अमीर पार कर गरीबों की गरीबी का अपहरण न कर सके. और सरकार भी उस रेखा पार सब का उद्धार कर सके.

उन का आना कभी नागवार नहीं गुजरा. चाहे घर में कोई मेहमान आया हो या मैं कोई जरूरी काम निबटा रहा होऊं. यहां तक कि हम पतिपत्नी के बीच किसी बात को ले कर हुए विवाद की वजह से घर का माहौल अगर तनावभरा हो गया हो, तो भी.

वे जब भी आते, गोया अपने साथ हर मर्ज की दवा ले कर आते. हालांकि उन के पास दवा की कोई पुडि़या नहीं होती, फिर भी, शायद यह उन के व्यक्तित्व का कमाल था कि उन के आते ही घर में शीतल वायु सी ठंडक घुल जाती. जरूरी काम को बाद के लिए टाल दिया जाता और मेहमान तो जैसे उन्हीं से मिलने आए होते हों. पलभर में वे उन से इतना खुल जाते जैसे वर्षों से उन्हें जानते हों.

लवी तो उन्हें देखते ही उन की गोद में बैठ जाता, उन की मोटीघनी मूंछों के साथ खेलने लगता. और बेगम बड़ी अदा से मुसकरा कर कहती, ‘‘चाचाजी, आज स्पैशल पकौड़े बनाने का मूड था, अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘तुम्हारे मूड को मैं जानता हूं बेटी, जो मुझे देख कर ही पकौड़े बनाने का बन जाता है. लेकिन सौरी,’’ वे हाथ उठा कर कहते, ‘‘आज पकौड़े खाने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

लेकिन बेगम उन की एक नहीं सुनती और उन्हें पकौड़े खिला कर ही मानती.

वे आते, तो कभी इतनी धीरगंभीर चर्चा करते जैसे सारे जहां कि चिंताएं उन्हीं के हिस्से में आ गई हैं, तो कभी बच्चों की तरह कोई विषय ले कर बैठ जाते. आज आए तो कहने लगे, ‘‘बेटा, यह तो बताओ, यह गरीबीरेखा क्या होती है?’’

मुझे ताज्जुब नहीं हुआ कि वे मुझ से गरीबीरेखा के बारे में सवाल कर रहे हैं. मैं उन के स्वभाव से वाकिफ हूं. वे कब, क्या पूछ बैठेंगे, कुछ तय नहीं रहता. अकसर ऐसे सवाल कर बैठते, जिन से आमतौर पर आदमी का अकसर वास्ता पड़ता है, लेकिन आम आदमी का उस पर ध्यान नहीं जाता. और ऐसा भी नहीं कि जो सवाल वे कर रहे होते हैं, उस का जवाब वे न जानते हों. वे कोई सवाल उस का जवाब जानने के लिए नहीं, बल्कि उस की बखिया उधेड़ने के लिए करते हैं, यह मैं खूब जानता हूं.

मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा से आदमी के जीवनस्तर का पता चलता है.’’

‘‘मतलब, गरीबीरेखा से यह पता चलता है कि कौन गरीब है और कौन अमीर है.’’

मैं बोला, ‘‘हां, जो इस रेखा के इस पार है, वह अमीर है और जो उस पार है, वह गरीब है.’’

‘‘मतलब, गरीब को उस की गरीबी का और अमीर को उस की अमीरी का एहसास दिलाने वाली रेखा.’’

‘‘हां,’’ मैं थोड़ा हिचकिचा कर बोला, ‘‘आप इसे इस तरह भी समझ सकते हैं.’’

‘‘यानी, एक तरह से यह कहने वाली रेखा कि तू गरीब है. तू ये वाला चावल मत खा. ये वाले कपड़े मत पहन वगैरहवगैरह.’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा का यह मतलब निकालना मेरे हिसाब से ठीक नहीं होगा.’’

‘‘गरीब को उस की गरीबी का एहसास दिलाने के पीछे कोई और भी मकसद हो सकता है भला,’’ उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में पहलू बदल कर कहा, ‘‘खैर, यह बताओ, यह रेखा खींची किस ने है, सरकार ने?’’

‘‘हां, और क्या, सरकार ने ही खींची है. और कौन खींच सकता है.’’

‘‘लेकिन सरकार को यह रेखा खींचने की जरूरत क्यों पड़ी भला?’’

‘‘सरकार गरीबों की चिंता करती है इसलिए. सरकार चाहती है कि गरीब भी सम्मानपूर्वक जिंदगी गुजारें. उन की जरूरतें पूरी हों. वे भूखे न रहें. गरीबों का जीवनस्तर ऊपर उठाने के लिए सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं बना रखी हैं.’’

‘‘तो ऊपर उठा उन का जीवनस्तर?’’

‘‘उठेगा,’’ मैं बोला, ‘‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है. लेकिन यह तय है कि इस से उन्हें उन की जरूरत की चीजें जरूर आसानी से मुहैया हो रही हैं.’’

‘‘गरीबों को उन की जरूरत की चीजें गरीबीरेखा खींचे बगैर भी तो मुहैया कराई जा सकती थीं?’’

उन के इस सवाल से मेरा दिमाग चकरा गया और मुझ से कोई जवाब देते नहीं बना. फिर भी मैं बोला, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं. ऐसा हो तो सकता था. फिर पता नहीं क्यों, गरीबीरेखा खींचने की जरूरत पड़ गई.’’

‘‘ऐसा तो नहीं कि अमीर लोग गरीबों का हक मार रहे थे, इसलिए यह रेखा खींचने की जरूरत पड़ी?’’

तभी गरमागरम पकौड़े से भरी ट्रे ले कर बेगम वहां आ गई. आते ही बोली, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप दोनों अपनी बहस को विराम दीजिए. पहले गरमागरमा पकौड़े खाइए, उस के बाद देशदुनिया की फिक्र करिए.’’

बेगम के वहां आ जाने से चाचा के मुंह से निकला अंतिम वाक्य आयागया हो गया. मैं और चाचाजी पकौड़े खाने में मसरूफ हो गए. पकौड़े गरम तो थे ही, स्वादिष्ठ भी थे.

4-6 पकौड़े खाने के बाद चाचाजी  ही बोले, गरीबीरेखा से अगर सचमुच अमीर लोगों को गरीबों का हक मारने का मौका नहीं मिल रहा है और गरीबों को उन की जरूरत की चीजें मुहैया हो रही हैं, तो क्यों ने ऐसी दोचार रेखाएं और खींच दी जाएं.’’

मैं ने एक पकौड़ा उठा कर मुंह में रखा और चाचाजी की तरफ देखने लगा. वे समझ गए कि मैं उन का आशय समझ नहीं पाया हूं. इसलिए उन्होंने खुद ही अपनी बात आगे बढ़ाई, बोले, ‘‘एक भ्रष्टाचारी रेखा हो. एक कमीनेपन की रेखा हो. एक चुनाव के दौरान झूठे वादे करने की रेखा हो…’’

उन्होंने एक और पकौड़ा उठाया और उसे मिर्र्च वाली चटनी में डुबोते हुए बोले, ‘‘भ्रष्टाचार, कमीनापन और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करना मनुष्य के स्वभावगत गुण हैं. इन्हें पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता. चुनावी सीजन में जो भ्रष्टाचार खत्म करने और ब्लैकमनी वापस लाने के दावे करते थे, चुनाव जीतने के बाद वे खुद उस में रम जाते हैं. यहां तक कि अपने मूल काम को भी त्याग देते हैं, जिस का नुकसान सीधे गरीबों को होता है. इसलिए गरीबीरेखा की तरह कुछ और रेखाएं भी खींची जानी चाहिए.

‘‘भ्रष्टाचारी रेखा, भ्रष्टाचार करने वालों की लिमिट तय करेगी. तुम ने सुना होगा, यातायात विभाग के एक हैड कौंस्टेबल के पास से करोड़ों रुपए बरामद हुए थे. भ्रष्टाचारी रेखा खींच दी जाए तो भ्रष्टाचारी एक हद तक ही भ्रष्टाचार करेगा.

‘‘भ्रष्टाचार जब लाइन औफ कंट्रोल तक पहुंचेगा तो वह खुद ही हाथ जोड़ कर रकम लेने से मना कर देगा, कहेगा, ‘इस साल का मेरा भ्रष्टाचार का कोटा पूरा हो गया है, इसलिए अब नहीं. कम से कम इस साल तो नहीं. अगले साल देखेंगे.’

‘‘इसी तरह चुनावीरेखा चुनाव के दौरान झूठे वादों की लिमिट तय करेगी. चुनाव के दौरान उम्मीदवार यह देखेगा कि उस की पार्टी के नेता ने पिछली बार कौनकौन से वादे किए थे और उन में से कौनकौन से वादे पूरे नहीं हुए हैं. उस हिसाब से उम्मीदवार वादे करेगा, कहेगा, ‘पिछले चुनाव में मेरी पार्टी के नेता ने फलांफलां वादे किए थे जो पूरे नहीं हो पाए, इसलिए इस चुनाव में मैं कोई नया वादा नहीं करूंगा बल्कि पिछली बार किए गए वादों को पूरा करूंगा.’ इसी तरह कमीनीरेखा लोगों के कमीनेपन की लिमिट तय करेगी.’’

उन की इस राय के बाद मेरे पास बोलने को जैसे कुछ रह ही नहीं गया था. वे भी एकदम से खामोश हो गए थे. जैसे बोलने की उन की लिमिट पूरी हो गई हो. उसी समय बेगम भी वहां चाय ले कर पहुंच गई थी. तब तक लवी उन की गोद में ही सो गया था.

बेगम ने लवी को उन की गोद से उठाया और उसे ले कर दूसरे कमरे में चली गई. हम दोनों चुपचाप चाय सुड़कने लगे थे. चाय का घूंट भरते हुए बीचबीच में मैं उन की ओर कनखियों से देख लिया करता था, लेकिन वे निर्विकार भाव से चुप बैठे चाय सुड़क रहे थे.

उन के दिमाग की थाह पाना मुश्किल है. समझ में नहीं आता कि उन के दिमाग में क्या चल रहा होता है. एक दिन पूछ बैठे, ‘‘मुझे देख कर तुम्हारे मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग तुम्हारी कौम के लोगों का गला काटते हैं, उन के घर जलाते हैं, उन की संपत्ति लूटते हैं.’’

उन के इस अप्रत्याशित सवाल से मैं बौखला गया था, बोला, ‘‘यह कैसा सवाल है चाचाजी.’’

‘‘सवाल तो सवाल है बेटा. सवाल में कैसे और वैसे का सवाल क्यों?’’

‘‘तो एक सवाल मेरा भी है चाचाजी,’’ मैं बोला, ‘‘क्या आप के मन में कभी यह खयाल आया कि आप मुसलमान हैं और मैं हिंदू हूं. जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग भी आप की कौम के लोगों के साथ वही सब करते हैं जो आप की कौम के लोग हमारी कौम के साथ करते हैं. आप मांसभक्षी हैं और मैं शुद्ध शाकाहारी.’’

‘‘जवाब यह है बेटे कि यह खयाल हम दोनों के मन में नहीं आता, न आएगा.’’

‘‘फिर आप ने यह सवाल पूछा ही क्यों चाचाजी?’’

वे अपेक्षाकृत गंभीर लहजे में बोले, ‘‘दरअसल, हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे बेटा कि जब एक आम हिंदू और एक आम मुसलमान के मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि मैं हिंदू, तू मुसलमान या मैं मुसलमान तू हिंदू, जब आम दिनों में दोनों संगसंग व्यापार करते हैं, उठतेबैठते हैं, एकदूसरे के रस्मोरिवाज का हिस्सा बनते हैं तो आखिर दंगा होता ही क्यों है. और जब दंगा होता भी है तो इतना जंगलीपन कहां से पैदा हो जाता है कि दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. कहीं…’’ वे एक पल के लिए रुके, फिर बोले, ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे बीच भी कोई रेखा खींच दी जाती हो, हिंदूरेखा या मुसलमानरेखा…’’

जीत गया जंगवीर

‘‘खत आया है…खत आया है,’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी. दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्यद्वार तक जाना पड़ा.

देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंक्ति आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया. सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने.’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं. पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए. पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वक्त के गलियारे में खो गई मैं.

जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी. जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा. जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था. सीनियर लड़केलड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था. मैं नए छात्रछात्राओं के पीछे दुबकी खड़ी थी. औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तरबतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं.

वैसे भी मैं देहातनुमा कसबे की लड़की, सब से अलग दिखाई दे रही थी. मेरा नंबर भी आना ही था. मुझे देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं.’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं.’ ऐसी ही तरहतरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी. एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो. कोई इस की रैगिंग नहीं करेगा.’

‘क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा. ‘चलो भाई, इस के कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए. मैं ने अपनी त्राणकर्ता को देखा. लड़कों जैसा डीलडौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है. उस ने प्यार से मुझे उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है. सब लोग मुझे जंगवीर कहते हैं. तुम चिंता मत करो. अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मुझे बताना.’

सचमुच उस के बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया. होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया. मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा. मेस में भी अच्छाखासा ध्यान रखा जाता. लड़कियां मुझ से खिंचीखिंची रहतीं. कभीकभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है.’ लड़के मुझे देख कर कन्नी काटते. इन सब बातों को दरकिनार कर मैं ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया. थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्रछात्राओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मुझे पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे.

जगवीरी कालेज में कभीकभी ही दिखाई पड़ती. 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगेपीछे होतीं.

एक बार जगवीरी मुझे कैंटीन खींच ले गई. वहां बैठे सभी लड़केलड़कियों ने उस के सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो. उस ने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिलापिला दे.’

मैं समझ गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है. वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती. सिर पर हाथ फेरती. हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मुझे एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उस की ये हरकतें मुझे विचित्र लगतीं. उस से इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती. मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए.’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर. हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा.’

वह कई बार मुझे गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई. छोटीबड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम.आई. रोड ले जाती और मेरे मना करतेकरते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए. यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता.

एक बार 3 दिन की छुट्टियां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं. जगवीरी मुझे राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई. उमराव जान लगी हुई थी. मैं उस के दृश्यों में खोई हुई थी कि मुझे अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ. जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे. मुझे लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है. जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी. मैं उस का हाथ झटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी. आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं.

मैं रो कर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी. मुझे एक गुडि़या की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं.’

‘हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी. हमारे मम्मीपापा बहुत गरीब हैं. यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना तो…’ मैं ने सुबकते हुए कह ही दिया.

‘अच्छा, चल चुप हो जा. अब कभी ऐसा नहीं होगा. तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुडि़या सी. आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं. पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़लड़ाएं,’ कह कर उस ने मेरा माथा चूम लिया. सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी.

जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला. प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मुझे दिल्ली जाना पड़ा. वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मुझे पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया. मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मुझ को महंगेमहंगे उपहारों से लाद दिया.

मैं दिल्ली आ गई. जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उस के भाई उसे हठ कर के घर ले गए और उस का विवाह तय कर दिया. उस के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था. मैं ने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती. मुझे डाक्टर बनाने का श्रेय मातापिता के साथसाथ जगवीरी को भी है.

जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली. पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी. मुझे और पति को बेटीदामाद सा सम्मानसत्कार मिला. जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था. बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल. पता चला सूरत और अहमदाबाद में उस की कपड़े की मिलें हैं.

सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रचबस जाएगी, पर कहां? हर हफ्ते उस का लंबाचौड़ा पत्र आ जाता, जिस में ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता. सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उस में ढूंढ़े न मिलता. गृहस्थसुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था. तभी तो साल भी न बीता कि उस का पति उसे छोड़ गया. पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उस का पति गजराज ब्लडकैंसर से पीडि़त था. हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था. अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था. रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया. सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था. वह उस के लिए बनी ही कहां थी.

एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची. वही पुराना मर्दाना लिबास. अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे. उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी. मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी. उस के लिए हम ने आया रखी हुई थी.

जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती. मेरे या कुणाल के ड्यूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उलझाए रखती. मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता. बुरा तो मुझे भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती. धीरेधीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी. सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है. दोचार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ.’

कुणाल उस के पागलपन से चिढ़ते ही थे, उस का नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था. परंतु उस की ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया. मैं ने लाख समझाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलोदिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मुझ में और जगवीरी में से एक को चुनना होगा. यदि तुम मुझे चाहती हो तो उस से स्पष्ट कह दो कि तुम से कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा.’

यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. उस के भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई. वह नेपाल चली गई. वहां उस ने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया. 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था.

मुझे पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है. वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी. फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी. हम ने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मुझे और कुणाल को नियुक्ति भी मिल गई. मेरा अनुमान ठीक था. रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी. दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची. मैं ने भाईभाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था.

जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी. तब हार कर उस ने वहीं नर्सिंगहोम खोल लिया. शायद इस आशा से कि कभी तो वह मुझ से वहां मिल सकेगी. मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वारत्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया. हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रों से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते.

उस के नर्सिंगहोम में मुफ्तखोर ही अधिक आते थे. जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उस का उपहास करते. कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती. सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपएपैसे उस ने सौंप दिए. वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुल्लमखुल्ला रहते हैं. बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की. भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है. सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था. एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया. पागलखाने में यातनाएं झेलते हुए उस ने मुझे बहुत याद किया. उस के भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी जगवीरी.

मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी. उस के अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा. तभी मेरी आंख लग गई और मैं ने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैं ने कहा. वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था. अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं.’

तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोल कर देखा शाम हो गई थी.

व्यंग्य : क्या भभूत से दामाद जी को संतान की प्राप्ति हुई

भभूत ने सासूजी को ठीक कर दिया तो संतान की चाह में दामादजी, पत्नी के संग भभूत वाले बाबा के दर्शन को आतुर दिखे. सुबह उठे तो घर पर ही बाबा के दर्शन हो गए.

जैसे तितली का फूल से, सावन का पानी से, नेता का वोट से, पुजारी का मंदिर से रिश्ता होता है उसी तरह मेरी सास का रिश्ता उन की इकलौती बेटी से है. मेरी शादी के साथ वे भी अपनी बेटी के साथ हमारे पास आ गईं. हम ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन को इसलिए स्वीकार कर लिया कि पीला पत्ता आज नहीं तो कल तो पेड़ से टूटेगा ही.

लेकिन पेड़ ही (यानी हम) पीले पड़ गए मगर पत्ता नहीं टूटा. मरता क्या न करता. उन्हें हम ने स्वीकार कर लिया वरना कौन बीवी की नाराजगी झेलता. पिछले 7-8 महीने से देख रहा था कि अपनी पत्नी को हम जो रुपए खर्च के लिए देते थे वे बचते नहीं थे. हम ने कारण जा?नने के लिए डरतेडरते पत्नी से पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आजकल मम्मी की तबीयत खराब चल रही है, इसी कारण डाक्टर को हर माह रुपया देना पड़ रहा है.’’

हम चुप हो गए. कुछ कह कर मरना थोड़े ही था लेकिन आखिर कब तक हम ओवरबजट होते?

एक रविवार हम घर पर बैठ कर टेलीविजन देख रहे थे कि विज्ञापन बे्रक आते ही हमारी पत्नी ने टेलीविजन बंद कर के हमारे सामने अखबार का विज्ञापन खोल कर रख दिया.

‘‘क्या है?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘पढ़ो तो.’’

हम ने पढ़ना प्रारंभ किया. लिखा था, ‘शहर में कोई भभूत वाले बाबा आए हुए हैं जो भभूत दे कर पुराने रोगों को ठीक कर देते हैं.’ हम ने पढ़ कर अखबार एक ओर रख दिया और आशा भरी नजरों से देखती पत्नी से कहा, ‘‘यह विज्ञापन हमारे किस काम का है?’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं यह विज्ञापन आप को थोड़े ही जाने के लिए पढ़वा रही थी?’’

‘‘फिर?’’ हम ने कुत्ते की तरह सतर्क होते हुए सवाल किया.

‘‘मेरी मम्मी के लिए,’’ हिनहिनाती पत्नी ने जवाब दिया.

‘‘ओह, क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन एक बात है…’’

‘‘क्या बात है?’’ बीच में बात को रोकते हुए कहा.

‘‘कालोनी की एकदो महिलाएं इलाज के लिए गई थीं तो बाबा एवं बाबी ने उन्हें…’’

‘‘बाबा… बाबी…यानी, मैं कुछ समझा नहीं?’’ हम ने घनचक्कर की तरह प्रश्न किया.

‘‘अजी, मास्टर की घरवाली मास्टरनी, डाक्टर की बीवी डाक्टरनी तो बाबा की बीवी बाबी…’’ पत्नी ने अपने सामान्य ज्ञान को हमारे दिमाग में डालते हुए कहा.

हो…हो…कर के हम हंस दिए, फिर हम ने प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बाबा व बाबी मिल कर इलाज करते हैं?’’

‘‘जी हां, कालोनी की कुछ महिलाएं उन के पास गई थीं. लौट कर उन्होंने बताया कि बाबा का बड़ा आधुनिक इलाज है.’’

‘‘यानी?’’

‘‘किसी को भभूत देने के पहले वे उस की ब्लड रिपोर्ट, ब्लडप्रेशर, पेशाब की जांच देख लेते हैं फिर भभूत देते हैं,’’ पत्नी ने हमें बताया तो विश्वास हो गया कि ये निश्चित रूप से वैज्ञानिक आधार वाले बाबाबाबी हैं.

‘‘तो हमें क्या करना होगा?’’

‘‘जी, करना क्या है, मम्मीजी के सारे टेस्ट करवा कर ही हम भभूत लेने चलते हैं,’’ पत्नीजी ने सलाह देते हुए कहा.

‘‘ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा,’’ हम ने कहा और टेलीविजन चालू कर के धारावाहिक देखने लगे.

अगले दिन पत्नी हम से 1 हजार रुपए ले कर अपनी मम्मी के पूरे टेस्ट करवा कर शाम को लौटी. हम से शाम को कहा गया कि अगले दिन की छुट्टी ले लूं ताकि मम्मीजी को भभूत वाले बाबाजी के पास ले जाया जा सके. मन मार कर हम ने कार्यालय से छुट्टी ली और किराए की कार ले कर पूरे खानदान के साथ भभूत वाले बाबा के पास जा पहुंचे. वहां काफी भीड़ लगी थी.

हम ने दान की रसीद कटवाई, जो 501 रुपए की काटी गई थी. हम तीनों प्राणियों का नंबर दोपहर तक आया. अंदर गए तो चेंबर में नीला प्रकाश फैला था. विशेष कुरसी पर बाबाजी बैठे थे. उन के दाईं ओर कुरसी पर मैडम बाबी बैठी थीं. हमारी सास ने औंधे लेट कर उन के चरण स्पर्श किए. बाबाजी के सामने एक भट्ठी जल रही थी. उस ने हमारी सास से आगे बढ़ने को कहा और बोला, ‘‘यूरिन, ब्लड टेस्ट होगा.’’

पत्नीजी मेंढकी की तरह उचक गईं और कहने लगीं, ‘‘हम करवा कर लाए हैं.’’

‘‘उधर दे दो,’’ नाराजगी से बाबा ने देखते हुए कहा.

ब्लड, यूरिन रिपोर्ट मैडम बाबी को दी तो उन्होंने रिपोर्ट देखी, गोलगोल घुमाई और मेरी सास के हाथों में दे दी. बारबार मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि बाबा को कहीं देखा है लेकिन वह शायद मेरा भ्रम ही था.

बाबाजी ने सासूजी को पास बुलाया. जाने कितने राख के छोटेछोटे ढेर उन के पास लगे थे. 1 मिनट के लिए प्रकाश बंद हुआ और संगीत गूंज उठा. मेरा दिल धकधक करने लगा था. मैं ने पत्नी का हाथ पकड़ लिया. 1 मिनट बाद रोशनी हुई तो बाबा ने राख में से एक मुट्ठी राख उठा कर कहा, ‘‘इस भभूत से 50 पुडि़या बना लेना और सुबह, दोपहर, शाम श्रद्धा के साथ बाबा कंकड़ेश्वर महाराज की जय बोल कर खा लेना और 10 दिन बाद फिर ब्लडशुगर, यूरिन की जांच यहां से करवा कर लाना.’’

इतना कह कर बाबा ने एक लैबोरेटरी का कार्ड थमा दिया. हम बाहर आए. सुबह ही हमारी सास ने श्रद्धा के साथ कंकड़ेश्वर महाराज की जय कह कर भभूत को फांक लिया. दोपहर में दूसरी बार, जब शाम को हम कार्यालय से लौटे तो हमारी पत्नीजी हम से आ कर लिपट गईं और बोलीं, ‘‘मम्मीजी को बहुत फायदा हुआ है.’’

‘‘सच?’’

‘‘वे अब अच्छे से चलनेफिरने लगी हैं, जय हो बाबा कंकडे़श्वर की,’’ पत्नी ने श्रद्धा के साथ कहा.

हमें भी बड़ा आश्चर्य हुआ. होता होगा चमत्कार. हम ने भी मन ही मन श्रद्धा के साथ विचार किया. पत्नी ने सिक्सर मारते हुए हमारे कानों में धीरे से कहा, ‘‘सुनो, नाराज न हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘हमारी शादी के 2 साल हो गए हैं. एक पुत्र के लिए हम भी भभूत मांग लें,’’ पत्नी ने शरमातेबलखाते हुए कहा.

‘‘क्या भभूत खाने से बच्चा पैदा हो सकता है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘शायद कोई चमत्कार हो जाए,’’ पत्नी ने पूरी श्रद्धा के साथ कहा.

मैं बिना कुछ कहे घर के अंदर चला आया.

सच भी था. मेरी सास की चाल बदल गई थी. उन की गठिया की बीमारी मानो उड़न छू हो गई थी. मेरे दिल ने भी कहा, ‘क्यों न मैं भी 2-2 किलो राख (भभूत) खा कर शरीर को ठीक कर लूं.’

रात को बिस्तर पर सोया तो फिर भभूत वाले बाबा का चेहरा आंखों के सामने डोल गया. कहां देखा है? लेकिन याद नहीं आया. हम ने मन ही मन विचार किया कि कल, परसों छुट्टी ले कर हम भी भभूत ले आएंगे. पत्नी को भी यह खुशखबरी हम ने दे दी थी. वे?भी सुंदर सपने देखते हुए खर्राटे भरने लगीं.

सुबह हम उठे. हम ने चाय पी और जा कर समाचारपत्र उठाया. अखबार खोलते ही हम चौंक गए, ‘भभूत वाले बाबा गिरफ्तार’ हेडिंग पढ़ते ही घबरा गए कि आखिर क्या बात हो गई? समाचार विस्तार से लिखा था कि भभूत वाला चमत्कारी बाबा किसी कसबे का झोलाछाप डाक्टर था जिस की प्रैक्टिस नहीं चलती थी, जिस के चलते उस ने शहर बदल लिया और बाबा बन गया. ब्लड, यूरिन की रिपोर्ट देख कर भभूत में दवा मिला कर दे देता था जिस से पीडि़त को लाभ मिलता था.

पिछले दिनों एक ब्लडशुगर के मरीज को उस ने शुगर कम करने की दवा भभूत में मिला कर दे दी. ओवरडोज होने से मरीज सोया का सोया ही रह गया. शिकायत करने पर पुलिस ने भभूत वाले बाबा को गिरफ्तार कर लिया. लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई है. अंत में लिखा था, ‘किसी भी तरह की कोई भभूत का सेवन न करें, उस में स्टेराइड मिला होने से तत्काल कुछ लाभ दिखलाई देता है, लेकिन बाद में बीमारी स्थायी हो जाती है.’ एक ओर बाबा का फोटो छपा था. अचानक हमारी याददाश्त का बल्ब भी जल गया. अरे, यह तो हमारे गांव के पास का व्यक्ति है, जो एक कुशल डाक्टर के यहां पट्टी बांधने का काम करता था और फिर डाक्टर की दवाइयां ले कर लापता हो गया था.

हम बुरी तरह से घबरा गए. हम ने विचार किया, पता नहीं रात को हमारी सास भी स्वर्ग को न चली गई हों. हम अखबार लिए अंदर को दौड़ पड़े. सासू मां किचन में भजिए उड़ा रही थीं और भभूत वाले बाबा के गुणगान गा रही थीं. सासू मां को जीवित अवस्था में देख हम खुश हुए. हमें आया देख कर वे कहने लगीं, ‘‘आओ, दामादजी, मुझे बिटिया ने बता दिया कि तुम भी भभूत वाले बाबा के यहां जा रहे हो… देखना, बाबा कंकड़ेश्वर जरूर गोद हरीभरी करेंगे.’’

हम ने कहा, ‘‘आप की भभूत कहां रखी है?’’

उन्होंने पल्लू में बंधी 40-50 पुडि़यां हमें दे दीं. हम ने वे ले कर गटर में फेंक दीं. पत्नी और उन की एकमात्र मम्मी नाराज हो गईं. हम ने कहा, ‘‘हम अपनी सास को मरते हुए नहीं देखना चाहते.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’ सासजी ने नाराजगी से कहा.

‘‘बिलकुल सच कह रहा हूं, मम्मी,’’ कह कर मैं ने वह अखबार पढ़ने के लिए आगे कर दिया.

दोनों ने पढ़ा और माथा पकड़ लिया. हम ने कहा, ‘‘वह भभूत नहीं बल्कि न जाने कौन सी दवा है जिस के चलते उस के साइड इफेक्ट हो सकते थे. आप जैसी भी हैं, बीमार, पीडि़त, आप हमारे बीच जीवित तो हैं. हम आप को कहीं दूसरे डाक्टर को दिखा देंगे लेकिन इस तरह अपने हाथों से जहर खाने को नहीं दे सकते,’’ कहते- कहते हमारा गला भर आया.

सासूमां और मेरी पत्नी मेरा चेहरा देख रही थीं. सासूमां ने मेरी बलाइयां लेते हुए कहा, ‘‘बेटा, दामाद हो तो ऐसा.’’

हम शरमा गए. सच मानो दोस्तो, घर में बुजुर्ग रूपी वृक्ष की छांव में बड़ी शांति होती है और हम यह छांव हमेशा अपने पर बनाए रखना चाहते हैं.

मुलाकात का एक घंटा

. पेश है स्वार्थियों की खबर लेता संजय अय्या का व्यंग्य.

एक ही साथ वे दोनों मेरे कमरे में दाखिल हुए. अस्पताल के अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा हुआ मैं उस घड़ी को मन ही मन कोस रहा था, जब मेरी मोटर बाइक के सामने अचानक गाय के आ जाने से यह दुर्घटना घटी. अचानक ब्रेक लगाने की कोशिश करते हुए मेरी बाइक फिसल गई और बाएं पैर की हड्डी टूटने के कारण मुझे यहां अस्पताल में भरती होना पड़ा.

‘‘कहिए, अब कैसे हैं?’’ उन में से एक ने मुझ से रुटीन प्रश्न किया.

‘‘अस्पताल में बिस्तर पर लेटा व्यक्ति भला कैसा हो सकता है? समय काटना है तो यहां पड़ा हूं. मैं तो बस यहां से निकलने की प्रतीक्षा कर रहा हूं,’’ मैं ने दर्दभरी हंसी से उन का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘आप को भी थोड़ी सावधानी रखनी चाहिए थी. अब देखिए, हो गई न परेशानी. नगरनिगम तो अपनी जिम्मेदारी निभाता नहीं है, आवारा जानवरों को यों ही सड़कों पर दुर्घटना करने के लिए खुला छोड़ देता है. लेकिन हम तो थोड़ी सी सावधानी रख कर खुद को इन मुसीबतों से बचा सकते हैं,’’ दूसरे ने अपनी जिम्मेदारी निभाई.

‘‘अब किसे दोष दें? फिर अनहोनी को भला टाल भी कौन सकता है,’’ पहले ने तुरंत जड़ दिया.

लेकिन मेरी बात सुनने की उन दोनों में से किसी के पास भी फुर्सत नहीं थी. अब तक शायद वे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके थे और अब शायद उन के पास मेरे लिए वक्त नहीं था. वे आपस में बतियाने लगे थे.

‘‘और सुनाइए गुप्ताजी, बहुत दिनों में आप से मुलाकात हो रही है. यार, कहां गायब रहते हो? बिजनेस में से थोड़ा समय हम लोगों के लिए भी निकाल लिया करो. पर्सनली नहीं मिल सकते तो कम से कम फोन से तो बात कर ही सकते हो,’’ पहले ने दूसरे से कहा.

‘‘वर्माजी, फोन तो आप भी कर सकते हैं पर जहां तक मुझे याद है, पिछली बार शायद मैं ने ही आप को फोन किया था,’’ पहले की इस बात पर दूसरा भला क्यों चुप रहता.

‘‘हांहां, याद आया, आप को शायद इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में कुछ काम था. कह तो दिया था मैं ने सिंह को देख लेने के लिए. फिर क्या आप का काम हो गया था?’’ पहले ने अपनी याददाश्त पर जोर देते हुए कहा.

‘‘हां, वह काम तो खैर हो गया था. उस के बाद यही बात बताने के लिए मैं ने आप को फोन भी किया था, पर आप शायद उस वक्त बाथरूम में थे,’’ गुप्ता ने सफाई दी.

‘‘लैंडलाइन पर किया होगा. बाद में वाइफ शायद बताना भूल गई होंगी. वही तो मैं सोच रहा था कि उस के बाद से आप का कोई फोन ही नहीं आया. पता नहीं आप के काम का क्या हुआ? अब यदि आज यहां नहीं मिलते तो मैं आप को फोन लगाने ही वाला था,’’ पहले ने दरियादिली दिखाते हुए कहा.

‘‘और सुनाइए, घर में सब कैसे हैं? भाभीजी, बच्चे? कभी समय निकाल कर आइए न हमारे यहां. वाइफ भी कह रही थीं कि बहुत दिन हुए भाभीजी से मुलाकात नहीं हुई,’’ अब की बार दूसरे ने पहले को आमंत्रित कर के अपना कर्ज उतारा, वह शायद उस से अपनी घनिष्ठता बढ़ाने को उत्सुक था.

‘‘सब मजे में हैं. सब अपनीअपनी जिंदगी जी रहे हैं. बेटा इंजीनियरिंग के लिए इंदौर चला गया. बिटिया को अपनी पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं है. अब बच गए हम दोनों. तो सच बताऊं गुप्ताजी, आजकल काम इतना बढ़ गया है कि समझ ही नहीं आता कि किस तरह समय निकालें. फिर भी हम लोग शीघ्र ही आप के घर आएंगे. इसी बहाने फैमिली गैदरिंग भी हो जाएगी,’’ पहले ने दूसरे के घर आने पर स्वीकृति दे कर मानो उस पर अपना एहसान जताया.

‘‘जरूर, जरूर, हम इंतजार करेंगे आप के आने का, मेरे परिवार को भी अच्छा लगेगा वरना तो अब ऐसा लगने लगा है कि लाइफ में काम के अलावा कुछ बाकी ही नहीं बचा है,’’ दूसरे ने पहले के कथन का समर्थन किया.

मैं चुपचाप उन की बातें सुन रहा था.

‘‘और सुनाइए, तिवारी मिलता है क्या? सुना है इन दिनों उस ने भी बहुत तरक्की कर  ली है,’’ पहले ने दूसरे से जानकारी लेनी चाही.

‘‘सुना तो मैं ने भी है लेकिन बहुत दिन हुए, कोई मुलाकात नहीं हुई. फोन पर अवश्य बातें होती हैं. हां, अभी पिछले दिनों स्टेशन पर जोशी मिला था. मैं अपनी यू.एस. वाली कजिन को छोड़ने के लिए वहां गया हुआ था. वह भी उसी ट्रेन से इंदौर जा रहा था. किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर बता रहा था. इन दिनों उस ने अपने वजन को कुछ ज्यादा ही बढ़ा लिया है,’’ दूसरे ने भी अपनी तरफ से बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाया.

‘‘आजकल तो मल्टीनेशनल्स का ही जमाना है,’’ पहले ने अपनी ओर से जोड़ते हुए कहा.

‘‘पैकेज भी तो अच्छा दे रही हैं ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां,’’ दूसरे ने अपनी राय व्यक्त की.

‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसे तो देती हैं लेकिन काम भी खूब डट कर लेती हैं. आदमी चकरघिन्नी बन कर रह जाता है. उन में काम करने वाला आदमी मशीन बन कर रह जाता है. उस की अपनी तो जैसे कोई लाइफ ही नहीं रह जाती. एकएक सेकंड कंपनी के नाम समर्पित हो जाता है. सारे समय, चाहे वह परिवार के साथ आउटिंग पर हो या किसी सोशल फंक्शन में, कंपनी और टार्गेट उस के दिमाग में घूमते रहते हैं.’’

जाने कितनी देर तक वे कितनी और कितने लोगों की बातें करते रहे. अभी वे जाने और कितनी देर बातें करते तभी अचानक मुझे उन में से एक की आवाज सुनाई दी.

‘‘अरे, साढ़े 4 हो गए.’’

‘‘इस का मतलब हमें यहां आए 1 घंटे से अधिक का समय हो रहा है,’’ यह दूसरे की आवाज थी.

‘‘अब हमें चलना चाहिए,’’ पहले ने निर्णयात्मक स्वर में कहा.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, घर में वाइफ इंतजार कर रही होंगी,’’ दूसरे ने सहमति जताते हुए कहा.

आम सहमति होने के बाद दोनों एक साथ उठे, मुझ से विदा मांगी और दरवाजे की ओर बढ़ गए. मैं ने भी राहत की सांस ली.

अब मेरे कमरे में पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था. मुझे ऐसा लगा जैसे अब कमरे में उस पोस्टर की कतई आवश्यकता नहीं है जिस के नीचे लिखा था, ‘‘कृपया शांति बनाए रखें.’’

एक और बात, वे एक घंटे बैठे, लेकिन मुझे कतई नहीं लगा कि वे मेरा हालचाल पूछने आए हों. लेकिन दूसरों के साथ दर्द बांटने में जरूर माहिर थे. जातेजाते दर्द बढ़ाते गए. उन की फालतू की बातें सोचसोच कर मैं अब उन के हिस्से का दर्द भी झेल रहा था.

जारी है सजा

पूर्व कथा

श्रीमान गोयल की रंगीनमिजाजी के चलते उन के बेटेबहुएं साथ नहीं रहते. पति से बहुत ही लगाव रखती व उन की खूब इज्जत करती श्रीमती गोयल के पास पति की गलत आदतोंबातों को सहने के अलावा चारा न था, जबकि उन के बच्चे पिता की गंदी हरकतों से बेहद क्रोधित रहते थे. उन के अपने बच्चों पर श्रीमान गोयल की छाया न पड़े, इसलिए वे मातापिता से अलग रहते हैं. लेकिन उन में मां की ममता में कोई कमी न थी. वे मां को बराबर पैसे भेजते रहते हैं ताकि उन के पिता, उन की मां को तंग न करें. उधर, श्रीमती गोयल का अपनी नई पड़ोसन शुभा से संपर्क हुआ तो उन्हें लगा कि गैरों में भी अपनत्व होता है. जबतब दोनों में मुलाकातें होती रहतीं और श्रीमती गोयल उन्हें पति का दुखड़ा सुना कर संतुष्ट हो लेतीं. शुभा के पूछने पर श्रीमती गोयल ने बताया, ‘‘गोयल साहब औरतबाज हैं, इस सीमा तक बेशर्म भी कि बाजारू औरतों के साथ मनाई अपनी रासलीला को चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं,’’ श्रीमती गोयल पति के साथ इस तरह जीती रहीं जैसे पड़ोसी. ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे, दीवार फांद कर आए और उन का इस्तेमाल कर चलता बने. श्रीमती गोयल सोचती हैं कि शायद ऐसा पति ही उन के जीवन का हिस्सा था, जैसा मिला है उसी को निभाना है. श्रीमती गोयल न जाने कौन सा संताप सहती रहीं जबकि उन का पति क्षणिक मौजमस्ती में मस्त रहा. कुछ भी गलत न करने की कैसी सजा वे भोग रही हैं वहीं, कुकर्म करकर के भी श्रीमान गोयल बिंदास घूम रहे हैं. लेकिन…

ऐयाश बाप को उन के पुत्र इसलिए पैसा देते हैं कि वे घर से बाहर बाहरवालियों पर लुटाएं और मां को तंग न करें. लेकिन जब मां की आंखें हमेशा के लिए बंद हो जाती हैं तब…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

बातों का सिलसिला चल निकलता तो उन का रोना भी जारी रहता और हंसना भी.

‘‘आप के घर का खर्च कैसे चलता है?’’

‘‘मेरे बच्चे मुझे हर महीने खर्च भेजते हैं. बाप को अलग से देते हैं ताकि वे मुझे तंग न करें और जितना चाहें घर से बाहर लुटाएं.’’

मैं स्तब्ध थी. ऐसे दुराचारी पिता को बच्चे पाल रहे हैं और उस की ऐयाशी का खर्च भी दे रहे हैं.

अपने बच्चों के मुंह से निवाला छीन कर कौन इनसान ऐसे बाप का पेट भरता होगा जिस का पेट सुरसा के मुंह की तरह फैलता ही जा रहा है.

‘‘आप लोग इतना सब बरदाश्त कैसे करते हैं?’’

‘‘तो क्या करें हम. बच्चे औलाद होने की सजा भोग रहे हैं और मैं पत्नी होने की. कहां जाएं? किस के पास जा कर रोएं…जब तक मेरी सांस की डोर टूट न जाए, यही हमारी नियति है.’’

मैं श्रीमती गोयल से जबजब मिलती, मेरे मानस पटल पर उन की पीड़ा और गहरी छाप छोड़ती जाती. सच ही तो कह रही थीं श्रीमती गोयल. इनसान रिश्तों की इस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाए भी तो कहां? किस के पास जा कर रोए? अपना ही अपना न हो तो इनसान किस के पास जाए और अपनत्व तलाश करे. मेकअप की परत के नीचे वे क्याक्या छिपाए रखने का प्रयास करती हैं, मैं सहज ही समझ सकती थी. जरूरी नहीं है कि जो आंखें नम न हों उन में कोई दर्द न हो, अकसर जो लोग दुनिया के सामने सुखी होने का नाटक करते हैं ज्यादातर वही लोग भीतर से खोखले होते हैं.

इसी तरह कुछ समय बीत गया. मुझ से बात कर वे अपना मन हलका कर लेती थीं.

उन्हीं दिनों एक शादी में शामिल होने को मुझे कुल्लू जाना पड़ा. जाने से पहले श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए शाल लाने के लिए दिए थे. मैं और मेरे पति लंबी छुट्टी पर निकल पड़े. लगभग 10 दिन के बाद हम वापस आए.

रात देर से पहुंचे थे इसलिए खाना खाया और सो गए. अगले दिन सुबह उठे तो 10 दिन का छोड़ा घर व्यवस्थित करतेकरते ही शाम हो गई. चलतेफिरते मेरी नजर श्रीमती गोयल के घर पर पड़ जाती तो मन में खयाल आता कि आई क्यों नहीं आंटी. जब हम गए थे तो उन्होंने सफर के लिए गोभी के परांठे साथ बांध दिए थे. गरमगरम चाय और अचार के साथ उन परांठों का स्वाद अभी तक मुंह में है. शाम के बाद रात और फिर दूसरा दिन भी आ गया, मैं ने ही उन की शाल अटैची से निकाली और देने चली गई, लेकिन गेट पर लटका ताला देख मुझे लौटना पड़ा.

अभी वापस आई ही थी कि पति का फोन आ गया, ‘‘शुभा, तुम कहां गई थीं, अभी मैं ने फोन किया था?’’

‘‘हां, मैं थोड़ी देर पहले सामने आंटी को शाल देने गई थी, मगर वे मिलीं नहीं.’’

वे बात करतेकरते तनिक रुक गए थे, फिर धीरे से बोले, ‘‘गोयल आंटी का इंतकाल हुए आज 12 दिन हो गए हैं शुभा, मुझे भी अभी पता चला है.’’

मेरी तो मानो चीख ही निकल गई. फोन के उस तरफ पति बात भी कर रहे थे और डर भी रहे थे.

‘‘शुभा, तुम सुन रही हो न…’’

ढेर सारा आवेग मेरे कंठ को अवरुद्ध कर गया. मेरे हाथ में उन की शाल थी जिसे ले कर मैं क्षण भर पहले ही यह सोच रही थी कि पता नहीं उन्हें पसंद भी आएगी या नहीं.

‘‘वे रात में सोईं और सुबह उठी ही नहीं. लोग तो कहते हैं उन के पति ने ही उन्हें मार डाला है. शहर भर में इसी बात की चर्चा है.’’

धम्म से वहीं बैठ गई मैं, पड़ोस की बीना भी इस समय घर नहीं होगी…किस से बात करूं? किस से पूछूं अपनी सखी के बारे में. भाग कर मैं बाहर गई और एक बार फिर से ताले को खींच कर देखने लगी. तभी उधर से गुजरती हुई एक काम वाली मुझे देख कर रुक गई. बांह पकड़ कर फूटफूट कर रोने लगी. याद आया, यही बाई तो श्रीमती गोयल के घर काम करती थी.

‘‘क्या हुआ था आंटी को?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछा.

‘‘बीबीजी, जिस दिन सुबह आप गईं उसी रात बाबूजी ने सिर में कुछ मार कर बीबीजी को मार डाला. शाम को मैं आई थी बरतन धोने तो बीबीजी उदास सी बैठी थीं. आप के बारे में बात करने लगीं. कह रही थीं, ‘मन नहीं लग रहा शुभा के बिना.’ ’’

आंटी का सुंदर चेहरा मेरी आंखों के सामने कौंध गया. बेचारी तमाम उम्र अपनेआप को सजासंवार कर रखती रहीं. चेहरा संवारती रहीं जिस का अंत इस तरह हुआ. रो पड़ी मैं, सत्या भी जोर से रोने लगी. कोई रिश्ता नहीं था हम तीनों का आपस में. मरने वाली के अपने कहां थे हम. पराए रो रहे थे और अपने ने तो जान ही ले ली थी.

दोपहर को बीना आई तो सीधी मेरे पास चली आई.

‘‘दीदी, आप कब आईं? देखिए न, आप के पीछे कैसा अनर्थ हो गया.’’

रोने लगी थी बीना भी. सदमे में लगभग सारा महल्ला था. पता चला श्रीमान गोयलजी तभी से गायब हैं. डाक्टर बेटा आ कर मां का शव ले गया था. बाकी अंतिम रस्में उसी के घर पर हुईं.

‘‘तुम गई थीं क्या?’’

‘‘हां, अमेरिका वाला बेटा भी आजकल यहीं है. तीनों बेटे इतना बिलख रहे थे कि  क्या बताऊं आप को दीदी. गोयल अंकल ने यह अच्छा नहीं किया. गुल्लू तो कह रहा था कि बाप को फांसी चढ़ाए बिना नहीं मानेगा लेकिन बड़े दोनों भाई उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास कर रहे हैं.’’

गुल्लू अमेरिका में जा कर बस जाना ज्यादा बेहतर समझता था, इसीलिए साथ ले जाने को मां के कागजपत्र सब तैयार किए बैठा था. वह नहीं चाहता था कि मां इस गंदगी में रहें. घर का सारा वैभव, सारी सुंदरता इसी गुल्लू की दी हुई थी. सब से छोटा था और मां का लाड़ला भी.

हर सुबह मां से बात करना उस का नियम था. आंटी की बातों में भी गुल्लू का जिक्र ज्यादा होता था.

‘‘तुम चलोगी मेरे साथ बीना, मैं उन के घर जा कर उन से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘इसीलिए तो आई हूं. आज तेरहवीं है. शाम 4 बजे उठाला हो जाएगा. आप तैयार रहना.’’

आंखें पोंछती हुई बीना चली गई. दिल जैसे किसी ने मुट्ठी में बांध रखा था मेरा. नाश्ता वैसे ही बना पड़ा था जिसे मैं छू भी नहीं पाई थी. संवेदनशील मन समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर आंटी का कुसूर क्या था, पूरी उम्र जो औरत मेहनत कर बच्चों को पढ़ातीलिखाती रही, पति की मार सहती रही, क्या उसे इसी तरह मरना चाहिए था. ऐसा दर्दनाक अंत उस औरत का, जो अकेली रह कर सब सहती रही.

‘एक आदमी जरा सा नंगा हो रहा हो तो हम उसे किसी तरह ढकने का प्रयास कर सकते हैं शुभा, लेकिन उसे कैसे ढकें जो अपने सारे कपड़े उतार चौराहे पर जा कर बैठ जाए, उसे कहां कहां से ढकें…इस आदमी को मैं कहांकहां से ढांपने की कोशिश करूं, बेटी. मुझे नजर आ रहा है इस का अंत बहुत बुरा होने वाला है. मेरे बेटे सिर्फ इसलिए इसे पैसे देते हैं कि यह मुझे तंग न करे. जिस दिन मुझे कुछ हो गया, इस का अंत हो जाएगा. बच्चे इसे भूखों मार देंगे…बहुत नफरत करते हैं वे अपने पिता से.’

गोयल आंटी के कहे शब्द मेरे कानों में बजने लगे. पुन: मेरी नजर घर पर पड़ी. यह घर भी गोयल साहब कब का बेच देते अगर उन के नाम पर होता. वह तो भला हो आंटी के ससुर का जो मरतेमरते घर की रजिस्ट्री बहू के नाम कर गए थे.

शाम 4 बजे बीना के साथ मैं डा. विजय गोयल के घर पहुंची. वहां पर भीड़ देख कर लगा मानो सारा शहर ही उमड़ पड़ा हो. अच्छी साख है उन की शहर में. इज्जत के साथसाथ दुआएं भी खूब बटोरी हैं आंटी के उस बेटे ने.

तेरहवीं हो गई. धीरेधीरे सारी भीड़ घट गई. आंटी की शाल मेरे हाथ में कसमसा रही थी. जरा सा एकांत मिला तो बीना ने गुल्लू से मेरा परिचय कराया. गुल्लू धीरे से उठा और मेरे पास आ कर बैठ गया. सहसा मेरा हाथ पकड़ा और अपने हाथ में ले कर चीखचीख कर रोने लगा.

‘‘मैं अपनी मां की रक्षा नहीं कर पाया, शुभाजी. पिछले कुछ हफ्तों से मां की बातों में सिर्फ आप का ही जिक्र रहता था. मां कहती थीं, आप उन्हें बहुत सहारा देती रही हैं. आप वह सब करती रहीं जो हमें करना चाहिए था.’’

‘‘जिस सुबह आप कुल्लू जाने वाली थीं उसी सुबह जब मैं ने मां से बात की तो उन्होंने बताया कि बड़ी घबराहट हो रही है. आप के जाने के बाद वे अकेली पड़ जाएंगी. ऐसा हो जाएगा शायद मां को आभास हो गया था. हमारा बाप ऐसा कर देगा किसी दिन हमें डर तो था लेकिन कर चुका है विश्वास नहीं होता.’’

दोनों बेटे भी मेरे पास सिमट आए थे. तीनों की पत्नियां और पोतेपोतियां भी. रो रही थी मैं भी. डा. विजय हाथ जोड़ रहे थे मेरे सामने.

‘‘आप ने एक बेटी की तरह हमारी मां को सहारा दिया, जो हम नहीं कर पाए वह आप करती रहीं. हम आप का एहसान कभी नहीं भूल सकते.’’

क्या उत्तर था मेरे पास. स्नेह से मैं ने गुल्लू का माथा सहला दिया.

सभी तनिक संभले तो मैं ने वह शाल गुल्लू को थमा दी.

‘‘श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए दिए थे. कह रही थीं कि कुल्लू से उन के लिए शाल लेती आऊं. कृपया आप इसे रख लीजिए.’’

पुन: रोने लगा था गुल्लू. क्या कहे वह और क्या कहे परिवार का कोई अन्य सदस्य.

‘‘आप की मां की सजा पूरी हो गई. मां की कमी तो सदा रहेगी आप सब को, लेकिन इस बात का संतोष भी तो है कि वे इस नरक से छूट गईं. उन की तपस्या सफल हुई. वे आप सब को एक चरित्रवान इनसान बना पाईं, यही उन की जीत है. आप अपने पिता को भी माफ कर दें. भूल जाइए उन्हें, उन के किए कर्म ही उन की सजा है. आज के बाद आप उन्हें उन के हाल पर छोड़ दीजिए. समयचक्र कभी क्षमा नहीं करता.’’

‘‘समयचक्र ने हमारी मां को किस कर्म की सजा दी? हमारी मां उस आदमी की इतनी सेवा करती रहीं. उसे खिला कर ही खाती रहीं सदा, उस इनसान का इंतजार करती रहीं, जो उस का कभी हुआ ही नहीं. वे बीमार होती रहीं तो पड़ोसी उन का हालचाल पूछते रहे. भूखी रहतीं तो आप उसे खिलाती रहीं. हमारा बाप सिर पर चोट मारता रहा और दवा आप लगाती रहीं…आप क्या थीं और हम क्या थे. हमारे ही सुख के लिए वे हम से अलग रहीं सारी उम्र और हम क्या करते रहे उन के लिए. एक जरा सा सहारा भी नहीं दे पाए. इंतजार ही करते रहे कि कब वह राक्षस उन्हें मार डाले और हम उठा कर जला दें.’’

गुल्लू का रुदन सब को रुलाए जा रहा था.

‘‘कुछ नहीं दिया कालचक्र ने हमारी मां को. पति भी राक्षस दिया और बेटे भी दानव. बेनाम ही मर गईं बेचारी. कोई उस के काम नहीं आया. किसी ने मेरी मां को नहीं बचाया.’’

‘‘ऐसा मत सोचो बेटा, तुम्हारी मां तो हर पल यही कहती रहीं कि उन के  बेटे ही उन के जीने का सहारा हैं. आप सब भी अपने पिता जैसे निकल जाते तो वे क्या कर लेतीं. आप चरित्रवान हैं, अच्छे हैं, यही उन के जीवन की जीत रही. बेनाम नहीं मरीं आप की मां. आप सब हैं न उन का नाम लेने वाले. शांत हो जाओ. अपना मन मैला मत करो.

‘‘आप की मां आप सब की तरफ से जरा सी भी दुखी नहीं थीं. अपनी बहुओं की भी आभारी थीं वे, अपने पोतेपोतियों के नाम भी सदा उन के होंठों पर होते थे. आप सब ने ही उन्हें इतने सालों तक जिंदा रखा, वे ऐसा ही सोचती थीं और यह सच भी है. ऐसा पति मिलना उन का दुर्भाग्य था लेकिन आप जैसी संतान मिल जाना सौभाग्य भी है न. लेखाजोखा करने बैठो तो सौदा बराबर रहा. प्रकृति ने जो उन के हिस्से में लिखा था वही उन्हें मिल गया. उन्हें जो मिला उस का वे सदा संतोष मनाती थीं. सदा दुआएं देती थीं आप सब को. तुम अपना मन छोटा मत करो… विश्वास करो मेरा…’’

मेरे हाथों को पकड़ पुन: चीखचीख कर रो पड़ा था गुल्लू और पूरा परिवार उस की हालत पर.

समय सब से बड़ा मरहम है. एक बुरे सपने की तरह देर तक श्रीमती गोयल की कहानी रुलाती भी रही और डराती भी रही. कुछ दिनों बाद उन के बेटों ने उस घर को बेच दिया जिस में वे रहती थीं.

श्रीमान गोयल के बारे में भी बीना से पता चलता है. बच्चों ने वास्तव में पिता को माफ कर दिया, क्या करते.

उड़तीउड़ती खबरें मिलती रहीं कि श्रीमान गोयल का दिमाग अब ठीक नहीं रहा. बाहर वालियों ने उन का घर भी बिकवा दिया है. बेघर हो गया है वह पुरुष जिस ने कभी अपने घर को घर नहीं समझा. पता नहीं कहां रहता है वह इनसान जिस का अब न कोई घर है न ठिकाना. अपने बच्चों के मुंह का निवाला जो इनसान वेश्याओं को खिलाता रहा उस का अंत भला और कैसा होता.

एक रात पुन: गली में चीखपुकार हुई. श्रीमान गोयल अपने घर के बाहर खड़े पत्नी को गालियां दे रहे थे. भद्दीगंदी गालियां. दरवाजा जो नहीं खोल रही थीं वे, शायद पागलपन में वे भूल चुके थे कि न यह घर अब उन का है और न ही उन्हें सहन करने वाली पत्नी ही जिंदा है.

चौकीदार ने उन्हें खदेड़ दिया. हर रोज चौकीदार उन्हें दूर तक छोड़ कर आता, लेकिन रोज का यही क्रम महल्ले भर को परेशान करने लगा. बच्चों को खबर की गई तो उन्होंने साफ कह दिया कि वे किसी श्रीमान गोयल को नहीं जानते हैं. कोई जो भी सुलूक चाहे उन के साथ कर सकता है. किसी ने पागलखाने में खबर की. हर रात  का तमाशा सब के लिए असहनीय होता जा रहा था. एक रात गाड़ी आई और उन्हें ले गई. मेरे पति सब देख कर आए थे. मन भर आया था उन का.

‘‘वह आंटीजी कैसे सजासंवार कर रखती थीं इस आदमी को. आज गंदगी का बोरा लग रहा था…बदबू आ रही थी.’’

आंखें भर आईं मेरी. सच ही कहा है कहने वालों ने कि काफी हद तक अपने जीवन के सुख या दुख का निर्धारण मनुष्य अपने ही अच्छेबुरे कर्मों से करता है. श्रीमती गोयल तो अपनी सजा भोग चुकीं, श्रीमान गोयल की सजा अब भी जारी है.

फ्लौपी

कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने में केवल 2 दिन शेष रह गए थे. जाती बार सुदर्शन हिदायत दे गए थे कि सांझ तक अपना पूरा काम निबटा लूं. सारे फर्नीचर को ठिकाने से व्यवस्थित कर दूं. बारबार के तबादलों ने दुखी कर रखा था. कितने परिश्रम और चाव से एक अरसे बाद घर बन कर पूरा हुआ था. अब सब छोड़छाड़ कर कलकत्ता चलो. अचानक घंटी ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया. भाग कर किवाड़ खोला तो बबल को सामने खड़ा मुसकराता पाया. उस के हाथ में खूबसूरत सा काला और सफेद पिल्ला था.

‘‘कहां से लाए? बड़ा प्यारा है,’’ मैं ने उस के नन्हे मुख को हाथ में ले कर पुचकारा.

‘‘मां, यह बी ब्लाक वाली चाचीजी का है. पूरे साढ़े 700 रुपए का है,’’ उस ने उत्साह से भर कर उस के कीमती होने का  बखान किया.

‘‘हां, बहुत प्यारा है,’’ मैं ने पिल्ले को हाथ में ले कर कहा.

‘‘गोद में ले लो. देखो, कैसे रेशम जैसे बाल हैं इस के,’’ उस ने पिल्ले के चमकते हुए बालों को हाथ से सहलाया.

गोद में ले कर मैं ने उसे 3-4 बिस्कुट खिलाए तो वह गपागप चट कर गया और जब उस की आंखें डब्बे में बंद शेष बिस्कुटों की तरफ भी लोलुपता से निहारने लगीं तो मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘बस, चलो भागो यहां से. बहुत हो गया लाड़प्यार.’’

फिर मैं ने बबल से कहा, ‘‘बबल, देखो अब ज्यादा समय नष्ट मत करो. इस पिल्ले को इस के घर छोड़ आओ और वापस आ कर अपना सामान बांधो. विकी से भी कहना कि जल्दी घर लौटे. अपने- अपने कमरों का जिम्मा तुम्हारा है, मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘चलो भई, मां तुम्हारे साथ खेलने नहीं देंगी,’’ उस ने पिल्ले का मुख चूम लिया और बी ब्लाक की तरफ भाग गया.

आधे घंटे बाद जब वह पुन: लौटा तो विकी उस के साथ था. दोनों अपने- अपने कमरों में जा कर सामान समेटने लगे परंतु बीचबीच में कुछ खुसुरफुसुर की आवाजों से मैं शंकित हो उठी. मैं ने आवाज दे कर पूछा, ‘‘क्या बात है. आज तो दोनों भाइयों में बड़े प्रेम से बातचीत हो रही है.’’

जब भी मेरे दोनों बेटे आपस में घुलमिल कर एक हो जाते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि जरूर मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. जैसे वे घर में देवरानी और जेठानी हों और मैं उन की कठोर सास. एक बार हंस कर मेरे पति ने पूछा भी था, ‘‘तुम इन्हें देवरानीजेठानी क्यों कहती हो?’’

‘‘इसलिए कि वैसे तो दोनों में पटती नहीं, परंतु जब भी मेरे खिलाफ होते हैं तो आपस में मिल कर एक हो जाते हैं. आप ने देखा होगा, अकसर देवरानीजेठानी के रिश्तों में ऐसा ही होता है,’’ मेरी इस बात पर घर में सब बहुत हंसे थे.

‘‘मेरी प्यारीप्यारी मां,’’ पीठ के पीछे से आ कर बबल ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया.

‘‘जरूर कोई बात है, तभी मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘फ्लौपी है न सुंदर.’’

‘‘कौन फ्लौपी?’’

‘‘वही पिल्ला, जिसे मैं घर लाया था.’’

‘‘उस का नाम फ्लौपी है, बड़ा अजीब सा नाम है,’’ मैं ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया.

‘‘वह गिरता बहुत है न, इसलिए चाचीजी ने उस का नाम फ्लौपी रख दिया है.’’

‘‘हमारे पामेरियन माशा के साथ उस की कोई तुलना नहीं. जैसी शक्ल वैसी ही अक्ल पाई थी उस ने. कितनी मेहनत की थी मैं ने उस पर. हमारे दिल्ली आने से पहले ही बेचारा मर गया,’’ मैं ने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कोई भी घर आता तो कैसे 2 पांवों पर खड़ा हो कर हाथ जोड़ कर नमस्ते करता. मैं उसे कभी भूल नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मां अपना ब्ंिलकर भी किसी से कम न था, जिसे आप की एक सहेली ने भेंट किया था,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘पर उस के बाल बड़े लंबे थे. बेचारा ठीक से देख भी नहीं सकता था. हर समय अपनी आंखें ही झपकता रहता था. तभी तो पिताजी ने उस का नाम ब्ंिलकर रख छोड़ा था.’’

बबल की बातें सुन कर मैं कुछ देर के लिए खो सी गई और एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘1 साल बाद ब्ंिलकर चोरी हो गया और माशा को किसी ने मार डाला.’’

‘‘कई लोग बड़े निर्दयी होते हैं,’’ बबल ने मेरी दुखती रग पकड़ी.

‘‘तुम्हें याद है, जिस दिन मैं एक पत्रिका के लिए साक्षात्कार कर के लौटी तो कितनी देर तक मेरे हाथपांव चाटता रहा. जहां भी जा कर लेटती वहीं भाग आता. मैं सुबह से गायब रही, शायद इसलिए उदास हो गया था. उस रात हम किसी के घर आमंत्रित थे. चुपके से कमरे से बाहर निकल गया और लगा कार के पीछे भागने. मैं कार से उतर कर पुन: उसे घर छोड़ आई. पर वह था बड़ा बदमाश. हमारे जाते ही गेट से निकल कर फिर कहीं मटरगश्ती करने निकल पड़ा.’’

‘‘मां, उस रात आप ने बड़ी गलती की. वह आप के साथ कार में जाना चाहता था. आप उसे साथ ले जातीं तो वह बच जाता.’’

‘‘बच्चे, अगर उसे बचना होता तो उसे एक जगह टिक कर बंधे रहने की समझ अपनेआप आ जाती. उस का सब से बड़ा दोष था कि वह एक जगह बंध कर नहीं रहना चाहता था. जब भी बांधने का नाम लो, आगे से गुर्राना शुरू कर देता. उस रात भी तो उस ने ऐसा ही किया था.’’

‘‘मां, आप मेरी बात मानो, वह किसी की कार के नीचे आ कर नहीं मरा. उस के शरीर पर एक भी जख्म नहीं था. ऐसे लगता था जैसे सो रहा हो. जरूर उस निकम्मे नौकर ने ही उसे मार डाला था. माशा उसे पसंद नहीं करता था. नौकर ने ही तो आ कर खबर दी थी कि माशा मर गया है,’’ बबल ने क्रोध में अपने दांत पीसे.

‘‘हम कुत्ता पालते तो हैं लेकिन उस का सुख नहीं भोग सकते,’’ मैं ने उदास हो कर कहा.

‘‘मां, अगर आप को फ्लौपी जैसा पिल्ला मिल जाए तो आप ले लेंगी?’’ विनम्रता से चहक कर उस ने मतलब की बात कही.

‘‘मैं साढ़े 700 रुपए खर्च करने वाली नहीं. कोई मजाक है क्या? मुझे नहीं चाहिए फ्लौपी,’’ मैं ने गुस्से में अपने तेवर बदले.

‘‘कौन कहता है आप को रुपए खर्च करने को. चाचीजी तो उसे मुफ्त में दे रही हैं.’’

‘‘क्यों? तो फिर जरूर उस में कोई खोट होगी. वरना कौन अपना कुत्ता किसी को देता है?’’

‘‘खोटवोट कुछ नहीं. उन का बच्चा छोटा है, इसलिए उसे समय नहीं दे पातीं. आप तो बस हर बात पर शक करती हैं.’’

हम दोनों की बहस सुन कर मेरा बड़ा बेटा विकी भी उस की तरफदारी करने अपने कमरे से निकल आया, ‘‘मां, बबल बिलकुल ठीक कह रहा है. चाचीजी पिल्ले के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूंढ़ रही हैं. आप को शक हो तो स्वयं उन से मिल लो.’’

‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से. माशा के बाद अब मुझे कोई कुत्ता नहीं पालना. सुना तुम ने,’’ मैं पांव पटकती पुन: सामान समेटने लगी, ‘‘कलकत्ता के 8वें तल्ले पर है हमारा फ्लैट. उसे पालना कोई मजाक नहीं. तुम्हारे पिता भी नहीं मानेंगे,’’ मैं ने कड़ा विरोध किया. परंतु उन दोनों में से मेरी बात मानने वाला वहां था कौन?

‘‘हम तो फ्लौपी को जरूर पालेंगे,’’ दोनों भाई जोरदार शब्दों में घोषणा कर के अपनेअपने कमरों में चले गए.

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े.

इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया.

दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है.

कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले.

बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता.

एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’

‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया.

फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी.

‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’

‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई.

इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था.

‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’

बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है.

सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके.

हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’

‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा.

‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला.

‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’

‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’

‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा.

हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया.

मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की.

‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’

‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’

‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की.

‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया.

‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता.

सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी.

‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया.

मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

मेरो मदन गोपाल

रामपुरा गांव में बैरागिन माताश्री के सत्संग का काफी प्रचार हो रहा था. इस से पहले शहर में 7 दिन तक उन्होंने भागवत कथा की धूम मचा रखी थी. माताश्री से दीक्षा लेने के लिए लोगों की कतारें लग गई थीं. ईर्ष्यावश कृष्ण मंदिर के पुजारी के मुंह से निकल ही गया, ‘‘घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध…माताश्री ने 7 दिन में ही लगभग 2 लाख रुपए बटोर लिए हैं. हमें कोई ससुरा 21 या 51 रुपए से ज्यादा दक्षिणा नहीं देता.’’

रामपुरा गांव के पहले के जमींदार और अब के सरपंच स्वरूप सिंह ने भी माताश्री की कथा को सुना था. उन के मन में भक्ति रस की लहरों ने जोर मारा तो अपने गांव में भी कथा करवाने की जिद सी ठान ली. उन के छोटे भाई योगेश और बेटे मनोज ने बहुत समझाया कि इन ढकोसलों में कुछ नहीं रखा. पर स्वरूप सिंह ने किसी की एक न मानी. माताश्री बड़ी मुश्किल से 21 हजार रुपए दक्षिणा पाने के प्रस्ताव पर 3 दिन तक सत्संग करने को राजी हुईं.

कथास्थल को काफी भव्य रूप प्रदान किया गया था. सुसज्जित मंच की शोभा देखने लायक थी. आसपास के 5-6 गांवों की भीड़ जमा हो गई थी. सुनने वालों के लिए रंगबिरंगे शामियाने तान दिए गए थे. रोशनी की जगमगाहट में पूरा माहौल भक्ति रस में डूबने को तैयार था. 7 बजे के लगभग भजनकीर्तन आरंभ हुआ. उस के बाद माताश्री के प्रवचन ने भक्तों को काफी प्रभावित किया. इस के बाद कीर्तन मंडली ने फिर से अपना रंग जमाया.

अलगअलग साजों के संग नईनई फिल्मी तर्जों पर तैयार किए गए भजनों को सुन कर पंडाल में बैठे ग्रामीण झूमझूम कर तालियां बजाने लगे. ‘धूम मचा दे…धूम मचा दे…’ गीत की तर्ज पर गाए भजन पर तो आगे बैठे 7-8 युवक मस्ती में ठुमके लगाने लगे. कार्यक्रम समाप्त होने से पहले माताश्री ने एक भजन गाया…

‘मेरो मदन गोपाल…मेरो मदन गोपाल…

सोनाचांदी मैं ना चाहूं ना चाहूं धनमाल…

मेरो मदन गोपाल…’

माताश्री के सुरीले कंठ से गाए गए इस भजन ने श्रोताओं को पूरी तरह सम्मोहित कर दिया. कथा की समाप्ति पर एक वृद्धा बोल उठी, ‘‘माताश्री कितना त्यागमय जीवन जी रही हैं. कोई लोभलालच नहीं, कोई ऐशोआराम नहीं…किसी तरह की सुखसुविधा की इच्छा नहीं…’’

माताश्री के रात्रि विश्राम के लिए सरपंच के सड़क किनारे बने नए दो- मंजिला मकान में शानदार प्रबंध था. भोजन में पुलाव, 3 सब्जियां, दाल, पूरी व खीर आदि का इंतजाम था.

दूसरे दिन भी रात में सत्संग का वैसा ही कार्यक्रम था, पर तीसरे दिन गड़बड़ हो गई. लगभग 70 किलोमीटर दूर के कसबे से फोन आया कि सरपंचजी के ससुर इस दुनिया से कूच कर गए हैं. अत: वे पत्नी के संग ससुराल जाने की तैयारी करने लगे. जातेजाते सरपंच अपने छोटे भाई और बेटे को समझा गए कि सत्संग में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए. उन्हें डर था कि भाई और बेटा कोई चाल न चल जाएं, अत: भेंटपूजा के रूप में वस्त्र, मिठाई, फलों की 2 टोकरियां और 21 हजार रुपए माताश्री को उसी समय देते गए.

तीसरे दिन ठीक समय पर माताश्री का प्रवचन शुरू हुआ. फिर लगभग 1 घंटे तक श्रोताओं ने भजनों का आनंद लिया. कथा समाप्ति पर श्रोता घरों को लौटने लगे. अचानक सभी लोग पंडाल में प्रवेश करती बैलगाड़ी को कौतुक से देखने लगे. सरपंच के बेटे मनोज ने माताश्री के समक्ष जा कर हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘हमारे पापों को क्षमा करें…आप को विश्रामस्थल तक पहुंचाने के लिए हम ने नाहक ही कार का इस्तेमाल किया. आप के त्यागमयी शरीर को इस से कितना कष्ट हुआ होगा. चलिए, अब बैलगाड़ी में सवार हो जाइए, मौसम भी खराब है…किसी समय भी बरसात हो सकती है.’’

माताश्री और उन की मुख्य शिष्या क्रोध में भुनभुनाती हुई बैलगाड़ी पर सवार हो गईं. भजनमंडली पैदल चलने लगी.

माताश्री अभी पहले सदमे से उबरी भी नहीं थीं कि एक दूसरा हृदय विदारक दृश्य उन की आंखों के सामने साकार हो उठा. बैलगाड़ी खेत के किनारे बनी एक झोंपड़ी के सामने जा कर रुक गई. अब तो माताश्री से रहा न गया, गुस्से में उबलती हुई तीखी आवाज में बोलीं, ‘‘तुम्हारे पिता के आग्रह को हम ठुकरा न सके. अगर मालूम होता कि ऐसे भक्त के घर में कंस जैसा बेटा और रावण जैसा भाई मौजूद हैं तो 21 क्या, हम 51 हजार रुपए में भी इस ओर न झांकते. बच्चे, तुम अभी हमारी हस्ती से परिचित नहीं हो.’’

‘‘शांत, माताश्री, शांत…आप स्वयं ही भजन गा रही थीं कि ‘नहीं चाहिए महल चौबारे, रहूं झोंपड़ी में खुशहाल…’ अत: हम ने सोचा, चौबारे में पलंग पर बिछे मखमली गद्दे पर लेटने से आप की आत्मा को कितना कष्ट झेलना पड़ा होगा. अब आप स्वयं सोचिए, हम भला यह पाप क्योंकर करते?’’ सरपंच के भाई योगेश की व्यंग्य भरी वाणी सुन कर साथ खड़े युवक अपनी हंसी न रोक सके.

तभी 2 सूखी रोटियों और मूंग की दाल से सजी थाली को माताश्री के सामने रखते हुए मनोज ने धीरे से कहा, ‘‘क्षमा करें, हम ने 2 दिन तक हलवा, पूरी, पनीर और खीर खिला कर आप के साथ घोर अन्याय किया है. जैसा कि आप भजन गा रही थीं कि ‘खाने को न चाहिए हलवा पूरी, दो रोटी व मूंग की दाल…’ अत: आप की उसी फरमाइश को ध्यान में रखते हुए हम ने यह सादा व पवित्र भोजन तैयार करवाया है. धन्य हैं आप और धन्य हैं आप का त्यागमय जीवन…आप वास्तव में महान हैं…’’

‘‘शंभू,’’ माताश्री ने अपने ड्राइवर की ओर क्रोध से देखा, ‘‘तुम भी इन पापियों की बातें सुन कर दांत फाड़ रहे हो…जल्दी से अपनी गाड़ी ले कर आओ.’’

तभी एक देहाती ने ऊंचे स्वर में गाया, ‘‘अब तो हो गया बुरा हाल, टूट गई जोग की तलवार और बैराग की ढाल, मेरो तो मदन गोपाल…मेरो तो मदन गोपाल.’’

इन पंक्तियों को सुन कर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया.

माताश्री शीघ्र ही अपनी मंडली के संग गांव से ही विदा नहीं हुईं, शहर के मंदिर में रखा बोरियाबिस्तर समेट कर रातोंरात वहां से भी नौ दो ग्यारह हो गईं. वह जानती थीं कि गांव की घटना तरहतरह के मिर्चमसालों के संग सुबह होतेहोते पूरे शहर में फैल चुकी होगी. अत: ऐसी स्थिति में भय, लज्जा और अपमान से बचने के लिए वे जल्द से जल्द वहां से बहुत दूर निकल जाना चाहती थीं.

कुछ दिनों बाद पता लगा, माताश्री की शादी उन के ड्राइवर शंभू से हो गई. दोबारा बैलगाड़ी पर न चढ़ना पड़े, लगता है माताश्री ने इस का पूरा इंतजाम कर लिया था.

बदली परिपाटी

लगता है रात में जतिन ने फिर बहू पर हाथ उठाया. मुझ से यह बात बरदाश्त नहीं होती. बहू की सूजी आंखें और शरीर पर पड़े नीले निशान देख कर मेरा दिल कराह उठता है. मैं कसमसा उठता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. काश, पूजा होती और अपने बेटे को समझाती पर पूजा को तो मैं ने अपनी ही गलतियों से खो दिया है.

यह सोचतेसोचते मेरे दिमाग की नसें फटने लगी हैं. मैं अपनेआप से भाग जाना चाहता हूं. लेकिन नहीं भाग सकता, क्योंकि नियति द्वारा मेरे लिए सजा तय की गई है कि मैं पछतावे की आग में धीरेधीरे जलूं.

‘‘अंतरा, मैं बाजार की तरफ जा रहा हूं, कुछ मंगाना तो नहीं.’’

‘‘नहीं पापाजी, आप हो आइए.’’ मैं चल पड़ा यह सोच कर कि कुछ देर बाहर निकलने से शायद मेरा मन थोड़ा बहल जाए. लेकिन बाहर निकलते ही मेरा मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा…

‘मुझ से जबान लड़ाती है,’ एक भद्दी सी गाली दे कर मैं ने उस पर अपना क्रोध बरसा दिया.

‘आह…प्लीज मत मारो मुझे, मेरे बच्चे को लग जाएगी, दया करो. मैं ने आखिर किया क्या है?’ उस ने झुक कर अपनी पीठ पर मेरा वार सहन करते हुए कहा.

कोख में पल रहे बच्चे पर वह आंच नहीं आने देना चाहती थी. लेकिन मैं कम क्रूर नहीं था. बालों से पकड़ते हुए उसे घसीट कर हौल में ले आया और अपनी बैल्ट निकाल ली. बैल्ट का पहला वार होते ही जोरों की चीख खामोशी में तबदील होती चली गई. वह बेहोश हो चुकी थी.

‘पागल हो गया क्या, अरे, उस के पेट में तेरी औलाद है. अगर उसे कुछ हो गया तो?’ मां किसी बहाने से उसे मेरे गुस्से से बचाना चाहती थीं.

‘कह देना इस से, भाड़े पर लड़कियां लाऊं या बियर बार जाऊं, यह मेरी अम्मा बनने की कोशिश न करे वरना अगली बार जान से मार दूंगा,’ कहते हुए मैं ने 2 साल के नन्हे जतिन को धक्का दिया, जो अपनी मां को मार खाते देख सहमा हुआ सा एक तरफ खड़ा था. फिर गाड़ी उठाई और निकल पड़ा अपनी आवारगी की राह.

उस पूरी रात मैं नशे में चूर रहा. सुबह के 6 बज रहे होंगे कि पापा के एक कौल ने मेरी शराब का सारा नशा उतार दिया. ‘कहां है तू, कब से फोन लगा रहा हूं. पूजा ने फांसी लगा ली है. तुरंत आ.’ जैसेतैसे घर पहुंचा तो हताश पापा सिर पर हाथ धरे अंदर सीढि़यों पर बैठे थे और मां नन्हे जतिन को चुप कराने की बेहिसाब कोशिशें कर रही थीं.

अपने बैडरूम का नजारा देख मेरी सांसें रुक सी गईं. बेजान पूजा पंखे से लटकी हुई थी. मुझे काटो तो खून नहीं. मांपापा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पूजा ने अपने साथ अपनी कोख में पल रहे मेरे अंश को भी खत्म कर लिया था. पर इतने खौफनाक माहौल में भी मेरा शातिर दिमाग काम कर रहा था. इधरउधर खूब ढूंढ़ने के बाद भी पूजा की लिखी कोई आखिरी चिट्ठी मुझे नहीं मिली.

पुलिस को देने के लिए हम ने एक ही बयान को बारबार दोहराया कि मां की बीमारी के चलते उसे मायके जाने से मना किया तो जिद व गुस्से में आ कर उस ने आत्महत्या कर ली. वैसे भी मेरी मां का सीधापन पूरी कालोनी में मशहूर था, जिस का फायदा मुझे इस केस में बहुत मिला. कुछ दिन मुझे जरूर लौकअप में रहना पड़ा, लेकिन बाद में सब को देदिला कर इस मामले को खत्म करने में हम ने सफलता पाई, क्योंकि पूजा के मायके में उस की खैरखबर लेने वाला एक शराबी भाई ही था जिसे अपनी बहन को इंसाफ दिलाने में कोई खास रुचि न थी.

थोड़ी परेशानी से ही सही, लेकिन 8-10 महीने में केस रफादफा हो गया पर मेरे जैसा आशिकमिजाज व्यक्ति ऐसे समय में भी कहां चुप बैठने वाला था. इस बीच मेरी रासलीला मेरे एक दोस्त की बहन लिली से शुरू हो गई. लिली का साथ मुझे खूब भाने लगा, क्योंकि वह भी मेरी तरह बिंदास थी. पूजा की मौत के डेढ़ साल के भीतर ही हम ने शादी कर ली. वह तो शादी के बाद पता चला कि मैं सेर, तो वह सवा सेर है. शादी होते ही उस ने मुझे सीधे अपनी अंटी में ले लिया.

बदतमीजी, आवारगी, बदचलनी आदि गुणों में वह मुझ से कहीं बढ़ कर निकली. मेरी परेशानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई जिस दिन मैं ने पूजा समझ कर उस पर पहली बार हाथ उठाया. मेरे उठे हाथ को हवा में ही थाम उस ने ऐसा मरोड़ा कि मेरे मुंह से आह निकल गई. उस के बाद मैं कभी उस पर हाथ उठाने की हिम्मत न कर पाया.

घर के बाहर बनी पुलिया पर आसपास के आवारा लड़कों के साथ बैठी वह सिगरेट के कश लगाती जबतब कालोनी के लोगों को नजर आती. अपने दोस्तों के साथ कार में बाहर घूमने जाना उस का प्रिय शगल था. रात को वह शराब के नशे में धुत हो घर आती और सो जाती. मैं ने उसे अपने झांसे में लेने की कई नाकाम कोशिशें कीं, लेकिन हर बार उस ने मेरे वार का ऐसा प्रतिवार किया कि मैं बौखला गया. उस ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दी कि अगर मैं ने उस से उलझने की कोशिश की तो वह मुझे मरवा देगी या ऐसा फंसाएगी कि मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं उस के गदर से तभी तक बचा रहता जब तक कि उस के कामों में हस्तक्षेप न करता.

तो इस तरह प्रकृति के न्याय के तहत मैं ने जल्द ही वह काटा, जो बोया था. घर की पूरी सत्ता पर मेरी जगह वह काबिज हो चुकी थी. शादी के सालभर बाद ही मुझ पर दबाव बना कर उस ने पापा से हमारे घर को भी अपने नाम करवा लिया. और फिर हमारा मकान बेच कर उस ने पौश कालोनी में एक फ्लैट खरीदा और मुझे व जतिन को अपने साथ ले गई. मेरे मम्मीपापा मेरी बहन यानी अपनी बेटी के घर में रहने को मजबूर थे. यह सब मेरी ही कारगुजारियों की अति थी जो आज सबकुछ मेरे हाथ से मुट्ठी से निकली रेत की भांति फिसल चुका था.

अपना मकान बिकने से हैरानपरेशान पापा इस सदमे को न सह पाने के कारण हार्टअटैक के शिकार हो महीनेभर में ही चल बसे. उन के जाने के बाद मेरी मां बिलकुल अकेली हो गईं. प्रकृति मेरे कर्मों की इतनी जल्दी और ऐसी सजा देगी, मुझे मालूम न था.

नए घर में शिफ्ट होने के बाद भी उस के क्रियाकलाप में कोई खास अंतर नहीं आया. इस बीच 5 साल के हो चुके जतिन को उस ने पूरी तरह अपने अधिकार में ले लिया. उस के सान्निध्य में पलताबढ़ता जतिन भी उस के नक्शेकदम पर चल पड़ा. पढ़ाईलिखाई से उस का खास वास्ता था नहीं. जैसेतैसे 12वीं कर उस ने छोटामोटा बिजनैस कर लिया और अपनी जिंदगी पूरी तरह से उसी के हवाले कर दी. उन दोनों के सामने मेरी हैसियत वैसे भी कुछ नहीं थी. किसी समय अपनी मनमरजी का मालिक मैं आजकल उन के हाथ की कठपुतली बन, बस, उन के रहमोकरम पर जिंदा था.

इसी रफ्तार से जिंदगी के कुछ और वर्ष बीत गए. इस बीच लिली एक भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आ गई और अपनेआप में गुमसुम पड़ी रहने लगी. अब घर की सत्ता मेरे बेटे जतिन के हाथों में आ गई. हालांकि इस बदलाव का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं था. हां, जतिन की शादी होने पर उस की पत्नी अंतरा के आने से अलबत्ता मुझे कुछ राहत जरूर हो गई, क्योंकि मेरी बहू भी पूजा जैसी ही एक नेकदिल इंसान थी.

वह लिली की सेवा जीजान से करती और जतिन को खुश करने की पूरी कोशिश भी. पर जिस की रगों में मेरे जैसे गिरे इंसान का लहू बह रहा हो, उसे भला किसी की अच्छाई की कीमत का क्या पता चलता. सालभर पहले लिली ने अपनी आखिरी सांस ली. उस वक्त सच में मन से जैसे एक बोझ उतर गया और मेरा जीवन थोड़ा आसान हो गया.

इस बीच, जतिन के अत्याचार अंतरा के प्रति बढ़ते जा रहे थे. लगभग रोज रात में जतिन उसे पीटता और हर सुबह अपने चेहरे व शरीर की सूजन छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए वह फिर से अपने काम पर लग जाती. कल रात भी जतिन ने उस पर अपना गुस्सा निकाला था.

मुझे समझ नहीं आता था कि आखिर वह ये सब क्यों सहती है, क्यों नहीं वह जतिन को मुंहतोड़ जवाब देती, आखिर उस की क्या मजबूरी है? तमाम बातें मेरे दिमाग में लगातार चलतीं. मेरा मन उस के लिए इसलिए भी परेशान रहता क्योंकि इतना सबकुछ सह कर भी वह मेरा बहुत ध्यान रखती थी. कभीकभी मैं सोच में पड़ जाता कि आखिर औरत एक ही समय में इतनी मजबूत और मजबूर कैसे हो सकती है?

ऐसे वक्त पर मुझे पूजा की बहुत याद आती. अपने 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैं ने एक पल भी उसे सुकून का नहीं दिया. शादी की पहली रात जब सजी हुई वह छुईमुई सी मेरे कमरे में दाखिल हुई थी, तो मैं ने पलभर में उसे बिस्तर पर घसीट कर उस के शरीर से खेलते हुए अपनी कामवासना शांत की थी.

काश, उस वक्त उस के रूपसौंदर्य को प्यारभरी नजरों से कुछ देर निहारा होता, तारीफ के दो बोल बोले होते तो वह खुशी से अपना सर्वस्व मुझे सौंप देती. उस घर में आखिर वह मेरे लिए ही तो आई थी. पर मेरे लिए तो प्यार की परिभाषा शारीरिक भूख से ही हो कर गुजरती थी. उस दौरान निकली उस की दर्दभरी चीखों को मैं ने अपनी जीत समझ कर उस का मुंह अपने हाथों से दबा कर अपनी मनमानी की थी. वह रातों में मेरे दिल बहलाने का साधनमात्र थी. और फिर जब वह गर्भवती हुई तो मैं दूसरों के साथ इश्क लड़ाने लगा, क्योंकि वह मुझे वह सुख नहीं दे पा रही थी. वह मेरे लिए बेकार हो चुकी थी. इसलिए मुझे ऐसा करने का हक था, आखिर मैं मर्द जो था. मेरी इस सोच ने मुझे कभी इंसान नहीं बनने दिया.

हे प्रकृति, मुझे थोड़ी सी तो सद्बुद्धि देती. मैं ने उसे चैन से एक सांस न लेने दी. अपनी गंदी हरकतों से सदा उस का दिल दुखाया. उस की जिंदगी को मैं ने वक्त से पहले खत्म कर दिया.

उस दिन उस ने आत्महत्या भी तो मेरे कारण ही की थी, क्योंकि उसे मेरे नाजायज संबंधों के बारे में पता चल गया था और उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि इस बारे में मुझ से पूछ बैठी थी. बदले में मैं ने जीभर कर उस की धुनाई की थी. ये सब पुरानी यादें दिमाग में घूमती रहीं और कब मैं घर लौट आया पता ही नहीं चला.

‘‘पापा, जब आप मार्केट गए थे. उस वक्त बूआजी आई थीं. थोड़ी देर बैठीं, फिर आप के लिए यह लिफाफा दे कर चली गईं.’’ बाजार से आते ही अंतरा ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘ठीक है बेटा,’’ मैं ने लिफाफा खोला. उस में एक छोटी सी चिट और करीने से तह किया हुआ एक पन्ना रखा था. चिट पर लिखा था, ‘‘मां के जाने के सालों बाद आज उन की पुरानी संदूकची खोली तो यह खत उस में मिला. तुम्हारे नाम का है, सो तुम्हें देने आई थी.’’ बहन की लिखावट थी. सालों पहले मुझे यह खत किस ने लिखा होगा, यह सोचते हुए कांपते हाथों से मैं ने खत पढ़ना शुरू किया.

‘‘प्रिय मयंक,

‘‘वैसे तो तुम ने मुझे कई बार मारा है, पर मैं हमेशा यह सोच कर सब सहती चली गई कि जैसे भी हो, तुम मेरे तो हो. पर कल जब तुम्हारे इतने सारे नाजायज संबंधों का पता चला तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया. हर रात तुम मेरे शरीर से खेलते रहे, हर दिन मुझ पर हाथ उठाते रहे. लेकिन मन में एक संतोष था कि इस दुखभरी जिंदगी में भी एक रिश्ता तो कम से कम मेरे पास है. लेकिन जब पता चला कि यह रिश्ता, रिश्ता न हो कर एक कलंक है, तो इस कलंक के साथ मैं नहीं जी सकती. सोचती थी, कभी तो तुम्हारे दिल में अपने लिए प्यार जगा लूंगी. लेकिन अब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. मायके में भी तो कोई नहीं है, जिसे मेरे जीनेमरने से कोई सरोकार हो. मैं अपनी व्यथा न ही किसी से बांट सकती हूं और न ही उसे सह पा रही हूं. तुम्हीं बताओ फिर कैसे जिऊं. मेरे बाद मेरे बच्चों की दुर्दशा न हो, इसलिए अपनी कोख का अंश अपने साथ लिए जा रही हूं. मासूम जतिन को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुश रहो तुम, कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना. जाने से पहले एक बात तुम से जरूर कहना चाहूंगी. ‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.’

‘‘तुम्हारी चाहत के इंतजार में पलपल मरती…तुम्हारी पूजा.’’

पूरा पत्र आंसुओं से गीला हो चुका था, जी चाह रहा था कि मैं चिल्लाचिल्ला कर रो पड़ूं. ओह, पूजा माफ कर दे मुझे. मैं इंसान कहलाने के काबिल नहीं, तेरे प्यार के काबिल भला क्या बनूंगा. हे प्रकृति, मेरी पूजा को लौटा दे मुझे, मैं उस के पैर पकड़ कर अपने गुनाहों की माफी तो मांग लूं उस से. लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत.

भावनाओं का ज्वार थमा तो कुछ हलका महसूस हुआ. शायद मां को पूजा का यह सुसाइड लैटर मिला हो और मुझे बचाने की खातिर यह पत्र उन्होंने अपने पास छिपा कर रख लिया हो. यह उन्हीं के प्यार का साया तो था कि इतना घिनौना जुर्म करने के बाद भी मैं बच गया. उन्होंने मुझे कालकोठरी की सजा से तो बचा लिया, परंतु मेरे कर्मों की सजा तो नियति से मुझे मिलनी ही थी और वह किसी भी बहाने से मुझे मिल कर रही.

पर अब सबकुछ भुला कर पूजा की वही पंक्ति मेरे मन में बारबार आ रही थी, ‘‘कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना.’’ अंतरा के मायके में भी तो उस की बुजुर्ग मां के अलावा कोई नहीं है. हो सकता है इसलिए वह भी पूजा की तरह मजबूर हो. पर अब मैं मजबूर नहीं बनूंगा…कुछ सोच कर मैं उठ खड़ा हुआ. अंतरा को आवाज दी.

‘‘जी पापा,’’ कहते हुए अंतरा मेरे सामने मौजूद थी. बहुत देर तक मैं उसे सबकुछ समझाता रहा और वह आंखें फाड़फाड़ कर मुझे हैरत से देखती रही. शायद उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जतिन का पिता होने के बावजूद मैं उस का दर्द कैसे महसूस कर रहा हूं या उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि अचानक मैं यह क्या और क्यों कर रहा हूं, क्योंकि वह मासूम तो मेरी हकीकत से हमेशा अनजान थी.

पास के पुलिसस्टेशन पहुंच कर मैं ने अपनी बहू पर हो रहे अत्याचार की धारा के अंतर्गत बेटे जतिन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. मेरे कहने पर अंतरा ने अपने शरीर पर जख्मों के निशान उन्हें दिखाए, जिस से केस पुख्ता हो गया. थोड़ा वक्त लगा, लेकिन हम ने अपना काम कर दिया था. आगे का काम पुलिस करेगी. जतिन को सही राह पर लाने का एक यही तरीका मुझे कारगर लगा, क्योंकि सिर्फ मेरे समझानेभर से बात उस के पल्ले नहीं पड़ेगी. पुलिस, कानून और सजा का खौफ ही अब उसे सही रास्ते पर ला सकता है.

पूजा के चिट्ठी में कहे शब्दों के अनुसार, मैं उसे रिश्तों की इज्जत करना सिखाऊंगा और एक अच्छा इंसान बनाऊंगा, ताकि फिर कोई पूजा किसी मयंक के अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करने को मजबूर न हो. औटो में वापसी के समय अंतरा के सिर पर मैं ने स्नेह से हाथ फेरा. उस की आंखों में खौफ की जगह अब सुकून नजर आ रहा था. यह देख मैं ने राहत की सांस ली.

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