औलाद की चाहत : कैसे भरी सायरा की कोख

उस्मान की शादी को 5 साल हो गए थे, मगर अभी भी उसे बाप होने का सुख नहीं मिला था. उस्मान की बीवी सायरा की गोद नहीं भरी तो उस्मान के अब्बा बेचैन रहने लगे. उन्हें यह चिंता सताने लगी कि वे पोते या पोती का मुंह देखे बिना ही इस दुनिया से चले जाएंगे.

तभी किसी ने उन्हें बताया कि पास वाले गांव में एक पहुंचे हुए मुल्लाजी आए हुए हैं. वे जिस किसी को भी तावीज देते हैं, उस की हर मुराद पूरी हो जाती है.

इतना सुनना था कि उस्मान के अब्बा अगले ही दिन उन मुल्लाजी के पास पहुंच गए.

मुल्लाजी ने कहा, ‘‘मैं घर आ कर पहले आप की बहू को देखूंगा कि उस पर किस का साया है. और हां, साए को दूर करने में खर्चा भी आएगा.’’

‘‘आप पैसे की परवाह मत करो, बस मेरे बेटे और बहू को औलाद का सुख दे दो.’’

उस्मान के अब्बा उसी वक्त मुल्लाजी को अपने साथ ले आए और उन्हें बैठक में बिठा कर उन्होंने उस्मान व सायरा को बताया, ‘‘इन मुल्लाजी के तावीज से तुम्हारी औलाद की चाहत जरूर पूरी होगी, बस तुम दोनों को इन की हर बात माननी पड़ेगी.’’

थोड़ी देर के बाद उस्मान की बीवी सायरा को बैठक में बुलाया गया. जैसे ही मुल्लाजी की नजर सायरा पर पड़ी, वे उसे पाने के लिए बेताब हो गए. हों भी क्यों न, सायरा थी ही इतनी खूबसूरत. सुर्ख गाल, गुलाबी होंठ, गदराया बदन जिसे देखते ही कोई भी मदहोश हो जाए.

मुल्लाजी किसी भी कीमत पर सायरा को अपनी बांहों में भरना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी चाल चली और उस के मखमली पेट पर हाथ रखते हुए उस्मान के अब्बा से कहा, ‘‘तुम्हारे एक दुश्मन ने जादूटोने से इस की

गोद बांध रखी है. जब तक इस को खोला नहीं जाएगा, तब तक यह मां नहीं बन पाएगी.

‘‘इस काम में 3 दिन लगेंगे और यह काम रात को 12 बजे अकेले में बंद कमरे में करना पड़ेगा और इस में काफी पैसा भी लगेगा, क्योंकि जाफरान से 3 तावीज बनाने पड़ेंगे.’’

उस्मान और सायरा को तो औलाद की इतनी ज्यादा चाहत थी कि उन्होंने फौरन हां कर दी. उस्मान के अब्बा ने 50,000 रुपए उस ढोंगी मुल्लाजी को दे दिए. उन्होंने उन के घर में से एक कमरा ले लिया और कहा, ‘‘जब तक पूरा इलाज न हो, तब तक कोई भी कमरे में मेरी बिना इजाजत के अंदर न आए.’’

मुल्लाजी शाम ढलते ही कमरे के अंदर लुबान जला कर कुछ बुदबुदाने लगे. कभी उन की आवाज तेज हो जाती, तो कभी शांत.

मुल्लाजी कभी किसी से बात करने का नाटक करते और चिल्लाते, ‘‘तू इसे छोड़ कर चला जा, वरना तु?ो यहीं भस्म कर दूंगा. क्यों इस बच्ची की कोख पर बैठा है? क्यों इसे मां नहीं बनने दे रहा है? इस मासूम ने तेरा क्या बिगाड़ा है?’’

इस तरह मुल्लाजी ने कई घंटे तक यह नाटक जारी रखा और रात ढलते ही उन्होंने सायरा को अपने कमरे में बुलाया और उसे एक तावीज देते हुए बोले, ‘‘इसे अपनी शर्मगाह में रख लो और चुपचाप लेट जाओ. एक घंटे तक बिलकुल भी हिलनाडुलना नहीं.

‘‘और हां, इस एक घंटे के लिए अपने बदन पर कोई भी सिला हुआ कपड़ा मत पहनना. बिना सिला हुआ कपड़ा जैसे चादर वगैरह से अपना बदन ढक लो.’’

सायरा तो औलाद की चाहत में अंधी हो चुकी थी. वह उस पाखंडी मुल्लाजी की हवस भरी नजरों को भांप नहीं पा रही थी. सायरा ही क्या, उस का शौहर और ससुर भी औलाद की चाहत में कुछ नहीं सम?ा पा रहे थे, इसलिए उन्होंने सायरा को उस पाखंडी मुल्लाजी के पास अकेले बंद कमरे में भेज दिया था. उन की आंखों पर अंधविश्वास की पट्टी जो बंधी हुई थी.

उधर बंद कमरे में सायरा ने अपने बदन से सारे कपड़े अलग किए और चादर ओढ़ कर एक चटाई पर लेट गई.

उस पाखंडी मुल्लाजी ने सायरा के पास आ कर अगरबत्ती जलाई, पूरे कमरे को खुशबू से महकाया और कुछ बुदबुदाने लगे. फिर वे सायरा से बोले, ‘‘अपनी आंखें बंद कर के चुपचाप लेटी रहो और कुछ भी बोलने की कोशिश

मत करना, वरना सारा कियाधरा बेकार हो जाएगा, फिर तुम कभी भी मां नहीं बन पाओगी.’’

सायरा चुपचाप लेटी थी और पाखंडी मुल्लाजी तावीज ले कर उस के होंठों से रगड़ते हुए कुछ बुदबुदाने का नाटक करते हुए धीरेधीरे उस के बदन को सहलाने लगे. उन की इस हरकत पर सायरा हैरान थी, पर औलाद पाने की चाहत में वह कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी, जिस का वे पाखंडी मुल्लाजी फायदा उठा रहे थे.

मुल्लाजी सायरा का बदन सहलाते रहे और उस तावीज को उस की शर्मगाह के पास ले जा कर छेड़छाड़ करने लगे. जल्द ही सायरा की जवानी उफान पर आ गई और वह मुल्लाजी की इस हरकत से मदहोश होने लगी.

सायरा की हवस जाग उठी थी. पाखंडी मुल्लाजी की इस हरकत ने उस के अंदर जोश भर दिया और इस का फायदा उठा कर उस मुल्लाजी ने उस के साथ खूब मजा किया. औलाद पाने की चाहत में सायरा उन के सामने पूरी तरह से बिछ चुकी थी.

इसी तरह उन पाखंडी मुल्लाजी ने 3 दिन तक सायरा की देह के मजे लिए और उस के जिस्म से खूब खेला. 3 दिन बाद उन्होंने उस्मान और उस के अब्बू से कहा, ‘‘जल्दी ही तुम्हें खुशखबरी मिल जाएगी,’’ और वहां से चले गए.

एक हफ्ता गुजर गया, पर सायरा को उम्मीद की कोई किरण नजर न आई. वह सम?ा चुकी थी कि उन पाखंडी मुल्लाजी ने दौलत के साथसाथ उस की इज्जत भी लूट ली है.

उस्मान और उस के अब्बू हैरान थे कि उन की बहू अभी भी पेट से नहीं हुई. उन्होंने पास के गांव जा कर उन मुल्लाजी से मिलना चाहा, तो पता चला कि वे तो यहां एक परिवार से लाखों रुपए ले कर भाग गए हैं.

अब उस्मान और उस के अब्बा को अपने ऊपर पछतावा हो रहा था कि वे क्यों पाखंडी मुल्लाजी की बातों में आ गए. बाद में उन्होंने एक अस्पताल में जा कर एक लेडी डाक्टर से सायरा का चैकअप कराया, तो उन्होंने बताया कि सायरा की बच्चेदानी में सूजन है,

जिस की वजह से वह मां नहीं बन पा रही है. 2-3 महीने के इलाज से सब ठीक हो जाएगा.

और हुआ भी यही. 3 महीने के इलाज के बाद सायरा को बच्चा ठहर गया और वक्त पूरा होने के बाद उस ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया.

इस तरह न जाने कितनी सायरा औलाद की चाहत में अपनी इज्जत गंवा बैठती हैं और न जाने कितने उस्मान दौलत के साथसाथ अपने घर की आबरू भी पाखंडी मुल्लाओं को सौंप देते हैं.

पति जो ठहरे: शादी के बाद कैसा था सलोनी का हाल

सलोनी की शादी के पीछे सब हाथ धो कर पड़े थे. कुछ तो अंधविश्वासी टाइप के लोग मुफ्त की सलाह भी देते,” देखो, शादी समय से होनी चाहिए नहीं तो बड़ी मुसीबत होगी और अच्छा पति भी नहीं मिलेगा. इसलिए 16 सोमवार का व्रत करो, वैभव लक्ष्मी का 11 शुक्रवार भी, शादी आराम से हो जाएगी…”

सलोनी ने सारे व्रतउपवास कर लिए. अब इंतजार था कि कोई राजकुमार आएगा और उसे घोड़े पर बैठा कर ले जाएगा और जिंदगी हो जाएगी सपने जैसी. प्रतीक्षा को विराम लगा और आ गए राजकुमार साहब, मगर घोड़ा नहीं कार पर चढ़ कर.

अब शादी के पहले का हाल भी बताना जरूरी है…

सगाई के बाद ही सलोनी को यह राजकुमार साहब लगे फोन करने. घंटों बतियाते, चिट्ठी भी लिखतेलिखाते. सलोनी के तो पौ बारह, पढ़ालिखा बांका जवान जो मिल गया था. खैर, शादी धूमधाम से हुई. सलोनी के पैर जमीन पर नहीं पङ रहे थे.

राजकुमार साहब भी शुरुआत में हीरो की माफिक रोमांटिक थे पर पति बनते ही दिमाग चढ़ गया सातवें आसमान पर,”मैं पति हूं…” सलोनी भी हक्कीबक्की कि इन महानुभाव को हुआ क्या? अभी तक तो बड़े सलीके से हंसतेमुसकराते थे, लेकिन पति बनते ही नाकभौं सिकोड़ कर बैठ गए. प्रेम के महल में हुक्म की इंतहा…. यह बात कुछ हजम नहीं हुई पर शादी की है तो हजम करना ही पड़ेगा. फिर तो सलोनी ने अपना पूरा हाजमा ठीक किया पर पति को यह कैसे बरदाश्त कि पत्नी का हाजमा सही हो रहा है, कुछ तो करना पड़ेगा वरना पति बनने का क्या फायदा?

“कपड़े क्यों नहीं फैलाए अभी तक?” पति महाशय ने हेकङी दिखाते हुए पूछा.

बेचारी सलोनी ने सहम कर कहा,”भूल गई थी.”

“कैसे भूल गईं? फेसबुक, व्हाट्सऐप, किताबें याद रहती हैं… यह कैसे भूल गईं?”

‘अब भूल गई तो भूल गई. भूल सुधार ली जाएगी,’ सलोनी मन ही मन बोली.

“कितनी बड़ी गलती है यह तो. अब जाओ, आइंदे से मेरा कोई काम मत करना, मैं खुद कर लूंगा,” पति महाशय ने ऐलान कर दिया.

‘ठीक है जनाब, कर लो… बहुत अच्छा. ऐसे भी मुझे कपड़े फैलाने पसंद नहीं,’ सलोनी ने मन में सोचा.

पति महाशय ने मुंह फुला लिया तो अब बात नहीं करेंगे. बात नहीं करेंगे तो वह भी कुछ घंटों नहीं बल्कि पूरे 3-4 दिनों तक. अब सलोनी का हाजमा कहां से ठीक हो, अब तो ऐसिडिटी होना ही है फिर सिरदर्द.

एक बार सलोनी पति महाशय के औफिस के टूअर पर साथ आई थी. पति महाशय ने रात को गैस्ट हाउस के कमरे में साबुन मांगा. सलोनी ने साबुनदानी पकड़ाई पर यह क्या, उस में तो पिद्दी सा साबुन का टुकड़ा था. पति महाशय का गुस्सा सातवें आसमान पर. फिर तो पूरे 1 हफ्ते बात नहीं की. औफिस के टूअर में घूमने आई सलोनी की घुमाई गैस्ट हाउस में ही रह गई, आखिर इतनी बड़ी भूल जो कर दी थी.

उस के बाद से सलोनी कभी साबुन ले जाना नहीं भूली. पति महाशय गर्व से सीना तान लिए कि सलोनी की इस गलती को उन्होंने सुधार दी. सलोनी ने भी सोचा कि पति के इस तरह मुंह फुलाने की गलती को सुधारा जाए पर पति कहां सुधरने वाले. उन का मुंह गुब्बारे जैसा फूला तो जल्दी पिचकेगा नहीं, आखिर पति जो ठहरे.

सलोनी एक बार घूमने गई थी बड़े शौक से. पति महाशय ने ऊंची एड़ी की सैंडिल खरीदी. सलोनी सैंडिल पहन कर ज्यों ही घूमने निकली कि ऊंची एड़ी की चप्पल गई टूट और पति महाशय गए रूठ. उस पर से ताना भी मार दिया,”कभी इतनी ऊंची एड़ी की चप्पलें पहनी नहीं तो खरीदी क्यों? अब चलो, बोरियाबिस्तर समेट वापस चलो. सलोनी हो गई हक्कीबक्की कि इतनी सी बात पर इतना बवाल? आखिर चप्पल ही है दूसरी ले लेंगे. पति महाशय का मुंह तिकोना हो गया तो सीधा होने में समय लगता है पर सलोनी को भी ऐसे आड़ेतिरछे सीधा करना खूब आता है. फिर तो “सौरी…” बोल कर मामला रफादफा किया.

कभीकभी पति महाशय का स्वर चाशनी में लिपटा होता है पर ऐसा बहुत कम ही होता है. एक बार बड़े प्यार से सलोनी को जन्मदिन पर घुमाने का वादा कर औफिस चले गए और लौटने पर सलोनी के तैयार होने में सिर्फ 5 मिनट की देरी पर बिफर पड़े. नाकभौं सिकोड़ कर ले गए मौल लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं फूटा… सलोनी ने अपनी फूटी किस्मत को कोसा कि ऐसे नमूने पति मिले थे उसे.

सलोनी पति की प्रतीक्षा में थी कि पति टूअर से लौट कर आएंगे तो साथ में खाना खाएंगे. पति महाशय लौटे 11 बजे. जैसे ही सुना कि सलोनी ने खाना नहीं खाया तो बस जोर से डपट दिया और पूरी रात मुंह फुलाए लेटे रहे. सलोनी ने फिल्मों में कुछ और ही देखा था पर हकीकत तो कुछ और ही था.

वह दिन और आज का दिन सलोनी ने पति की प्रतीक्षा किए बगैर ही खाने का नियम बना लिया. अब भला कौन भूखे पेट को लात मारे और भूखे रह कर कौन से उसे लड्डू मिलने वाले थे.

कभीकभी भ्रम का घंटा मनुष्य को अपने लपेटे में ले ही लेता है. सलोनी को लगा कि पति महाशय का त्रिकोण अब सरलकोण में तब्दील होने लगा है पर भरम तो भरम ही होता है सच कहां होता है? सलोनी को प्रतीत हुआ कि उस का इकलौता पति भी सलोना हो गया है पर सूरत और सीरत में फर्क होता है न… सूरत से सलोना और सीरत… व्यंग्यबाण चला दिया,”आजकल बस पढ़तीलिखती ही रहती हो, घर का काम भी मन से कर लिया किया करो. नहीं तो कोई जरूरत नहीं करने की…”

सलोनी ने कुछ ऊंचे स्वर में कहा,”दिखता नहीं है कि मैं कितना काम करती हूं…” इतना कहना था कि पति जनाब ने फिर से मुंह फुला लिया. इस बार सलोनी ने भी ठान लिया कि वह पति को नहीं मनाएगी. पर हमेशा की तरह सलोनी ने ही मनाया.

सलोनी ने एक दिन अपनी माता से अपनी व्यथा कथा कह डाली,”मां, पापा तो ऐसे हैं नहीं?”

मां मुसकराईं,”बेटी, तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं पर पति कैसे हैं उस का दुखड़ा अब तुम से क्या बताऊं…मेरी दुखती रग पर तुम ने हाथ रख दिया….दरअसल, यह पति नामक प्रजाति होती ही ऐसी है. इस प्रजाति में कोई भी जैविक विकास की अवधारणा लागू नहीं होती, इसलिए जो है जैसा है, इन्हीं से उलझे रहो. ये कभी सुलझने वाले नहीं. लड़के प्रेमी, भाई, मित्र, पिता सब रूप में अच्छे हैं पर पति बनते ही बौरा जाते हैं. सलोनी को वह गाना याद आने लगा, ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है मेरा पति मेरा…’

“पर मां, स्त्री के अधिकारों का क्या और स्त्री विमर्श का प्रश्न?” सलोनी ने पूछा.

“सलोनी, तुम्हारा पति त्रिकोण ही सही पर तिकोना समोसा खिलाता है न…”

“हां, वह तो खिलाते हैं…”

“बस, फिर कोई बात नहीं, उस की बातें एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो. अपना काम धीरेधीरे करते चलो…”

सलोनी ने एक ठंडी आह भरी और मुंह से निकला,”ओह, पति जो ठहरे.”

जूही: आसिफ के साथ मास्टर साहब ने क्या किया?

आसिफ दुकान बंद कर के जब अपने घर पहुंचा, तो ड्राइंगरूम के दरवाजे पर जा कर ठिठक गया. अंदर से उस के अम्मीअब्बा के बोलने की आवाजें आ रही थीं.

‘‘दुलहन तो मुश्किल से 16-17 साल की है और मास्टर साहब 40-50 के. बेचारी…’’

इतना सुनते ही आसिफ जल्दी से दीवार की आड़ में हो गया और सांस रोक कर सारी बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा.

‘‘ऐसी शादी से तो बेहतर होता कि लड़की के मांबाप उसे जहर दे कर ही मार डालते,’’ आसिफ की अम्मी सलमा ने कहा.

‘‘तुम नहीं जानती सलमा, लड़की के मांबाप तो बचपन में ही चल बसे थे. गरीब मामामामी ने ही उस की परवरिश की है. 4-4 लड़कियां ब्याहने को हैं,’’ अब्बा ने बताया.

‘‘यह भी कोई बात हुई. कम से कम उस की जोड़ का लड़का तो ढूंढ़ लेते.

‘‘इतनी हसीन और कमसिन लड़की को इस बूढ़े के पल्ले बांधने की क्या जरूरत आ पड़ी थी, जिस के पहले ही 4-4 बच्चे हैं.

‘‘हाय, मुझे तो उस की जवानी पर तरस आ रहा है. कैसे देख रही थी वह मेरी तरफ. इस समय उस पर क्या बीत रही होगी,’’ अम्मी ने कहा.

आसिफ इस से आगे कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. वह धीरे से अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गया.

आसिफ आंखें मूंद कर सोने लगा, ‘क्या वाकई वह 16-17 साल की है? क्या सचमुच वह हसीन है? अगर वह खूबसूरत लगती होगी तो क्या मास्टर साहब की कमजोर आंखें उस के हुस्न की चमक बरदाश्त कर पाएंगी? आज की रात क्या वह… क्या मास्टर साहब…’ यह सोचतेसोचते उस का सिर चकराने लगा और वह कुरसी से उठ कर कमरे में टहलने लगा.

थोड़ी देर बाद आसिफ की अम्मी खाना रख गईं, मगर उस से खाया न गया. बड़ी मुश्किल से वह थोड़ा सा पानी पी कर बिस्तर पर लेट गया, पर उसे नींद भी नहीं आई. रातभर करवटें बदलते हुए वह न जाने क्याक्या सोचता रहा.

सुबह हुई तो आसिफ मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ गया और बेकरारी से टहलटहल कर मास्टर साहब के आंगन में झांकने लगा. कुछ ही देर में आंगन में एक परी दिखाई दी.

उसे देख कर आसिफ अपने होशोहवास खो बैठा. फिर कुछ संभलने के बाद उस की खूबसूरती को एकटक देखने लगा. परी को भी लगा कि कोई उसे देख रहा है. उस ने निगाहें ऊपर उठाईं तो आसिफ को देख कर वह शरमा गई और छिप गई.

लेकिन आसिफ उस का मासूम चेहरा आंखों में लिए देर तक उस के खयालों में डूबा रहा. उस की धड़कनें तेज हो गई थीं. दिल में नई चाहत सी उमड़ पड़ी थी. वह फिर उस परी को देखना चाहता था, पर वह नजर न आई.

इस के बाद आसिफ रोज सुबहसुबह मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ जाता. परी आंगन में आती. उस की निगाह आसिफ की निगाह से टकराती. फिर वह शरमा कर छिप जाती.

लेकिन एक दिन आसिफ को देख कर उस की निगाह झुकी नहीं. वह उसे देखती रही. आसिफ भी उसे देखता रहा. फिर उन के चेहरे पर मुसकराहटें फूटने लगीं और बाद में तो उन में इशारेबाजी भी होने लगी.

अब उन दोनों के बीच केवल बातें होनी बाकी थीं. पर इस के लिए आसिफ को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा.

मास्टर साहब सुबहसवेरे घर से निकलते थे तो स्कूल से शाम को ही लौटते थे. उन के बच्चे भी स्कूल चले जाते थे. घर में केवल मास्टर साहब की अंधीबहरी मां रह जाती थीं.

एक दिन उस परी का इशारा पा कर आसिफ नजर बचा कर उन के घर में घुस गया. वह उसे बड़े प्यार से अपने कमरे में ले गई और पलंग पर बैठने का इशारा कर के खुद भी पास बैठ गई.

थोड़ी घबराहट के साथ उन में बातचीत शुरू हुई. उस ने अपना नाम जूही बताया. आसिफ ने भी उसे अपना नाम बताया. फिर दोनों ने यह जाहिर किया कि वे एकदूसरे पर दिलोजान से मरते हैं.

आसिफ ने जूही के हाथों पर अपना हाथ रख दिया. वह सिहर उठी. उस पर नशा सा छाने लगा. आसिफ उस के जिस्म पर हाथ फेरने लगा. वह खामोश रही और खुद को आसिफ के हवाले करती चली गई.

कुछ देर बाद जब वे दोनों एकदूसरे से अलग हुए तो जूही अपना दुखड़ा ले कर बैठ गई. ऐसा दुख जिस का आसिफ को पहले से अंदाजा था. लेकिन उस के मुंह से सुन कर आसिफ को पूरा यकीन हो गया. इस से उस का हौसला और भी बढ़ गया.

वह जूही को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी दुखी नहीं होने दूंगा.’’

उस के बाद तो उन के इस खेल का सिलसिला सा चल पड़ा. इस चक्कर में आसिफ अब सुबह के बजाय दोपहर

को दुकान पर जाने लगा. वह रोज सुबह 10 बजे तक मास्टर साहब और उन के बच्चों के स्कूल जाने का इंतजार करता. जब वे चले जाते तो जूही का इशारा पा कर वह उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन वह मास्टर साहब के बैडरूम में पलंग पर लेट कर रेडियो पर गाने सुन रहा था. जूही उस के लिए रसोईघर में चाय बना रही थी. दरवाजा खुला हुआ था, जबकि रोज वह अंदर से बंद कर देती थी.

अचानक मास्टर साहब आ गए. उन का कोई जरूरी कागज छूट गया था.

आसिफ को अपने पलंग पर आराम से पसरा देख मास्टर साहब के तनबदन में आग लग गई, पर उन्होंने सब्र से काम लिया और फाइल से कागज निकाल कर चुपचाप रसोईघर में चले गए.

‘‘आसिफ यहां क्या कर रहा है?’’ उन्होंने जूही से पूछा.

अचानक मास्टर साहब की आवाज सुन कर जूही का पूरा जिस्म कांप गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. लेकिन जल्दी ही वह संभलते हुए बोली, ‘‘जी, कुछ नहीं. जरा रेडियो का तार टूट गया था. मैं ने ही उसे बुलाया है.’’

मास्टर साहब फिर कुछ न बोले और चुपचाप घर से बाहर निकल गए.

मास्टर साहब के बाहर जाने के बाद ही जूही की जान में जान आई. वह चाय छोड़ कर कमरे में आ गई. आसिफ अभी तक पलंग पर सहमा हुआ बैठा था.

आसिफ ने कांपती आवाज में पूछा, ‘‘वे गए क्या…?’’

‘‘हां,’’ जूही ने कहा.

‘‘दरवाजा बंद नहीं किया था क्या?’’ आसिफ ने पूछा.

‘‘ध्यान नहीं रहा,’’ जूही बोली.

‘‘अच्छा हुआ कि हम…’’ वह एक गहरी सांस ले कर बोला.

‘‘लगता है, उन्हें शक हो गया है,’’ जूही चिंता में डूबते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा…’’ आसिफ ने उस का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए,’’ इतना कह कर वह दुकान पर चला गया.

उस के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक मिलने से परहेज किया. जब वे मास्टर साहब की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र हो गए, तो यह खेल फिर से

चल पड़ा और हफ्तोंमहीनों नहीं, बल्कि सालों तक चलता रहा. उस दौरान जूही 2 बच्चों की मां भी बन गई.

एक दिन मास्टर साहब काफी गुस्से में घर में दाखिल हुए. किसी ने जूही के खिलाफ उन के कान भर दिए थे.

जूही को देखते ही मास्टर साहब उस पर बरस पड़े, ‘‘क्या समझती हो अपनेआप को. जो तुम कर रही हो, उस का मुझे पता नहीं है. आज के बाद अगर आसिफ यहां आया तो उसे जिंदा न छोड़ूंगा.’’

यह सुन कर जूही डर गई और कुछ भी नहीं बोली. फिर मास्टर साहब गुस्से में आसिफ के अब्बा के पास जा कर चिल्लाने लगे, ‘‘अपने लड़के को समझा दीजिए, मेरी गैरमौजूदगी में वह मेरे घर में घुसा रहता है. आज के बाद उसे वहां देख लिया तो गोली मरवा दूंगा.’’

आसिफ के अब्बा निहायत ही शरीफ इनसान थे, इसलिए उन्होंने अपने बेटे को खूब डांटाफटकारा. इस का नतीजा यह हुआ कि एक दिन आसिफ ने मास्टर साहब को रास्ते में रोक लिया.

‘‘अब्बा से क्या कहा तुम ने? मुझे गोली मरवाओगे? तुम्हारी खोपड़ी उड़ा दूंगा, अगर उन से कुछ कहा तो,’’ आसिफ ने मास्टर साहब का गरीबान पकड़ कर धमकी दी.

उस के बाद न तो मास्टर साहब ने आसिफ को गोली मरवाई और न ही आसिफ ने मास्टर साहब की खोपड़ी उड़ाई.

धीरेधीरे बात पुरानी हो गई. जिस्मों का खेल बंद हो गया. लेकिन आंखों का खेल जारी रहा और आसिफ इंतजार करता रहा जूही के बुलावे का.

पर जूही ने उसे फिर कभी नहीं बुलाया. हां, उस ने एक खत जरूर आसिफ को भिजवा दिया जिस में लिखा था:

‘तुम तो जानते हो कि मैं अपनी किस मजबूरी के चलते इस अधेड़ आदमी से ब्याही गई हूं. अगर यह भी मुझे छोड़ देंगे तो फिर मुझे कौन अपनाएगा? अब मेरे बच्चे भी हैं, उन्हें कौन सहारा देगा? यह सब सोच कर डर सा लगता है. उम्मीद है, तुम मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश करोगे.’

खत पढ़ने के बाद आसिफ ने दरवाजे पर खड़ेखड़े बड़ी बेबसी से जूही की तरफ देखा और भारी कदमों से दुकान की तरफ बढ़ गया.

ऐसे रिश्ते का यह खात्मा तो होना ही था. वह तो मास्टर साहब की भलमनसाहत थी कि जूही और आसिफ सहीसलामत रह गए.

बहू-बेटी का फर्क : बहू के नाम पर सास के क्यों बदले तेवर

जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाडू पोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’ और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साड़ियां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साड़ियां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई. यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी.

हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.

तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’

दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’

काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझी और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े.

काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.

ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.

अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी.

भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.

किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे? वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे? उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.

‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’

कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तुझ पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.

‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’

कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी. वह करती भी तो क्या करती.

35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है.

गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.

वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं.

पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में.

पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.

रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.

उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.

काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.

अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.

रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोंपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.

काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.

जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.

रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.

फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझने की कोशिश करती. मां झुंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’

मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझने लगे थे.

आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.

कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झुका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

टूटा कप : सुनीता ने विनीता को क्यों दी टूटे कप में चाय

‘‘विनी, दिव्या का विवाह पास आ गया है, पहले सोच रही थी सब काम समय से निबट जाएंगे पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. थोड़ा जल्दी आ सको तो अच्छा है. बहुत काम है, समझ नहीं पा रही हूं कहां से प्रारंभ करूं, कुछ शौपिंग कर ली है और कुछ बाकी है.’’

‘‘दीदी, आप चिंता न करें, मैं अवश्य पहुंच जाऊंगी. आखिर मेरी बेटी का भी तो विवाह है,’’ विनीता ने उत्तर दिया.

विनीता अपनी बड़ी बहन सुनीता की बात मान कर विवाह से लगभग 15 दिन पूर्व ही चली आई थी. उस की 7 वर्षीय बेटी पूर्वा भी उस के साथ आ गई थी. विशाल, विक्रांत की पढ़ाई के कारण बाद में आने वाले थे. विनीता को आया देख कर सुनीता ने चैन की सांस ली. चाय का प्याला उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पहले चाय पी ले, बाकी बातें बाद में करेंगे.’’

विनीता ने चाय का प्याला उठाया, टूटा हैंडिल देख कर वह आश्चर्य से भर उठी. ऐसे कप में किसी को चाय देना तो दूर वह उसे उठा कर फेंक दिया करती थी पर इतने शानोशौकत से रहने वाली दीदी के घर भला ऐसी क्या कमी है जो उन्होंने उसे ऐसे कप में चाय दी. मन किया वह चाय न पीए पर रिश्ते की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खून का घूंट पी कर चाय सिप करने लगी पर उस की पुत्री पूर्वा से नहीं रहा गया. वह बोली, ‘‘मौसी, इस कप का हैंडिल टूटा हुआ है.’’

‘‘क्या, मैं ने ध्यान ही नहीं दिया. सारे कप गंदे पड़े हैं, मुनिया भी पता नहीं कहां चली गई. चाय की पत्ती लाने भेजा था, एक घंटे से ज्यादा हो गया, अभी तक नहीं आई. नौकरानियों से कप ही नहीं बचते. अभी कुछ दिन पहले ही तो खरीद कर लाई थी. दूसरा निकालूंगी तो उस का भी यही हाल होगा. वैसे भी विवाह से 3 दिन पहले होटल में शिफ्ट होना ही है. अभी तो हम लोग ही हैं, इन्हीं से काम चला लेते हैं,’’ सुनीता ने सफाई देते हुए कहा.

विनीता ने कुछ नहीं कहा. पूर्वा खेलने में लग गई. विनीता भी सुनीता के साथ विवाह के कार्यों की समीक्षा करने व उन्हें पूर्ण करने में जुट गई. कुछ दिन बाद नंदिता भी आ गई. उसे देखते ही सुनीता और विनीता की खुशी की सीमा न रही, दोनों एकसाथ बोल उठीं, ‘‘अरे, अचानक तुम कैसे, कोई सूचना भी नहीं दी.’’

‘‘मैं सरप्राइज देना चाहती थी, मुझे पता चला कि तुम दोनों अभी एकसाथ हो तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने सुजय से कहा कि विक्की की परीक्षा की सारी तैयारी करा दी है, आप बाद में आ जाना. मैं जा रही हूं. कम से कम हम तीनों बहनें दिव्या के विवाह के बहाने ही कुछ दिनों साथसाथ रह लेंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा किया, हम दोनों तुम्हें ही याद कर रहे थे. मुनिया, 3 कप चाय बना देना और हां, नए कप में लाना,’’ सुनीता ने नौकरानी को आवाज लगाते हुए कहा, फिर नंदिता की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अगर पहले सूचना दी होती तो गाड़ी भिजवा देती.’’ सुनीता दीदी की बात सुन कर विनीता के मन में कुछ दरक गया. नन्ही पूर्वा के कान भी खड़े हो गए. नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात ने उस के शांत दिल में हलचल पैदा कर दी थी. जब वह आई थी तब तो दीदी को पता था, फिर भी उन्होंने किसी को नहीं भेजा. वह स्वयं ही आटो कर के घर पहुंची थी. बात साधारण थी पर विनीता को ऐसा महसूस हो रहा था कि अनचाहे ही सुनीता दीदी ने उस की हैसियत का एहसास करा दिया है. वह पिछले 8 दिनों से उसी टूटे कप में चाय पीती रही थी पर नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात को वह पचा नहीं पा रही थी. मन कर रहा था वह वहां से उठ कर चली जाए पर न जाने किस मजबूरी के कारण उस के शरीर ने उस के मन की बात मानने से इनकार कर दिया. विनीता तीनों बहनों में छोटी है. सुनीता और नंदिता के विवाह संपन्न परिवारों में हुए थे पर पिताजी की मृत्यु के बाद घर की स्थिति दयनीय हो गई थी.

भाई ने अपनी हैसियत के अनुसार घरवर ढूंढ़ा और विवाह कर दिया. यद्यपि विशाल की नौकरी उस के जीजाजी की तुलना में कम थी. संपत्ति भी उन के बराबर नहीं थी पर वह अत्यंत परिश्रमी, सुलझे हुए व स्वभाव के बहुत अच्छे इंसान हैं. उन्होंने उसे कभी किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया था और उस ने भी अपने छोटे से घर को इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा रखा है कि विशाल के सहकर्मी उस से ईर्ष्या करते थे. स्वयं काम करने के कारण उस के घर में कहीं भी गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता था और न ही टूटेफूटे बरतनों का जमावड़ा. यह बात अलग है कि ऐसे ही पारिवारिक आयोजन उसे चाहेअनचाहे उस की हैसियत का एहसास करा जाते हैं पर अपनी सगी बहन को अपने साथ ऐसा व्यवहार करते देख कर वह स्तब्ध रह गई. क्या अब नया सैट खराब नहीं होगा? हमेशा की तरह इस बार भी सुनीता व नंदिता गप मारने लग जातीं और विनीता काम में लगी रहती थी. अगर वह समय निकाल कर उन के पास बैठती तो थोड़ी ही देर बाद कोई काम आने पर उसे ही उठना पड़ता था. पहले वह इन सब बातों पर इतना ध्यान नहीं दिया करती थी पर इस बार उसे काम में लगा देख कर एक दिन उस की पुत्री पूर्वा ने कहा, ‘‘ममा, दोनों मौसियां बातें करती रहती हैं और आप काम में लगी रहती हो, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘बेटा, वे दोनों बड़ी हैं, मुझे उन का काम करने में खुशी मिलती है,’’ पूर्वा की बात सुन कर वह चौंकी पर संतुलित उत्तर दिया.

उस ने उत्तर तो दे दिया पर पूर्वा की बातें चाहेअनचाहे उस के दिमाग में गूंजने लगीं. पहले भी इस तरह की बातें उस के मन में उठा करती थीं पर यह सोच कर अपनी आवाज दबा दिया करती थी कि आखिर वे उस की बड़ी बहनें हैं, अगर वे उस से कोई काम करने के लिए कहती हैं तो इस में बुराई क्या है. पर इस बार बात कुछ और ही थी जो उसे बारबार चुभ रही थी. न चाहते हुए भी दीदी का नंदिता के आते ही नए कप में चाय लाने व गाड़ी भेजने का आग्रह उस के दिल और दिमाग में हथौड़े मारने लगता.

जबजब ऐसा होता वह यह सोच कर मन को समझाने का प्रयत्न करती कि हो सकता है वह सब दीदी से अनजाने में हुआ हो, उन का वह मंतव्य न हो जो वह सोच रही है. आखिर वह उन की छोटी बहन है, वे उस के साथ भेदभाव क्यों करेंगी. सच तो यह है कि दीदी का उस पर अत्यंत ही विश्वास है तभी तो अपनी सहायता के लिए दीदी ने उसे ही बुलाया. उन का उस के बिना कोई काम नहीं हो पाता है. चाहे वह दुलहन की ड्रैस की पैकिंग हो या बक्से को अरेंज करना हो, चाहे मिठाई के डब्बे रखने की व्यवस्था करनी हो. और तो और, विवाह के समय काम आने वाली सारी सामग्री की जिम्मेदारी भी उसी पर थी.

दिव्या भी अकसर उस से ही आ कर सलाह लेते हुए पूछती,

‘‘मौसी, इस ड्रैस के साथ कौन सी ज्वैलरी पहनूंगी या ये चूडि़यां, पर्स और सैंडिल मैच कर रही हैं या नहीं?’’

विवाह की लगभग आधी से अधिक शौपिंग तो दिव्या ने उस के साथ ही जा कर की थी. वह कहती, ‘मौसी, आप का ड्रैस सैंस बहुत अच्छा है वरना ममा और नंदिता मौसी को तो भारीभरकम कपड़े या हैवी ज्वैलरी ही पसंद आती हैं. अब भला मैं उन को पहन कर औफिस तो जा नहीं सकती, फिर लेने से क्या फायदा?’ कहते हैं मन अच्छा न हो तो छोटी से छोटी बात भी बुरी लगने लग जाती है. शायद यही कारण था कि आजकल वह हर बात का अलग ही अर्थ निकाल रही थी. यह सच है कि दिव्या का निश्छल व्यवहार उस के दिल पर लगे घावों पर मरहम का काम कर रहा था पर दीदी की टोकाटाकी असहनीय होती जा रही थी. उसे लग रहा था कि काम निकालना भी एक कला है. बस, थोड़ी सी प्रशंसा कर दो, और उस के जैसे बेवकूफ बेदाम के गुलाम बन जाते हैं. मन कह रहा था व्यर्थ ही जल्दी आ गई. काम तो सारे होते ही, कम से कम यह मानसिक यंत्रणा तो न झेलनी पड़ती.

‘‘विनीता, जरा इधर आना,’’ सुनीता ने आवाज लगाई.

‘‘देख, यह सैट, नंदिता लाई है दिव्या को देने के लिए,’’ विनीता के आते ही सुनीता ने नंदिता का लाया सैट उसे दिखाते हुए कहा.

‘‘बहुत खूबसूरत है,’’ विनीता ने उसे हाथ में ले कर देखते हुए निश्छल मन से कहा.

‘‘पूरे ढाई लाख रुपए का है,’’ नंदिता ने दर्प से सब को दिखाते हुए कहा.

‘‘मौसी, आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ वहीं खड़ी दिव्या ने विनीता की तरफ देख कर बच्चों सी मनुहार की.

नंदिता का यह वाक्य सुन कर विनीता का मन बुझ गया. अपना लाया गिफ्ट उस बहुमूल्य सैट की तुलना में नगण्य लगने लगा पर दिव्या के आग्रह को वह कैसे ठुकराती, उस ने सकुचाते हुए सूटकेस से अपना लाया उपहार निकाल कर दिखाया. उस का उपहार देख कर दिव्या खुशी से बोली, ‘‘वाउ, मौसी, आप का जवाब नहीं, यह पैंडेंट बहुत ही खूबसूरत है, साथ ही व्हाइट गोल्ड की चेन. ऐसा ही कुछ तो मैं चाहती थी. इसे तो मैं हमेशा पहन सकती हूं.’’ दिव्या की बात सुन कर विनीता के चेहरे पर रौनक लौट आई. लाखों के उस डायमंड सैट की जगह हजारों का उपहार दिव्या को पसंद आया. यही उस के लिए बहुत था.

विवाह खुशीखुशी संपन्न हो गया और सभी अपनेअपने घर चले गए, विनीता भी धीरेधीरे सब भूलने लगी. समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, वैसे भी दिव्या के विवाह के बाद मिलना भी नहीं हो पाया. न ही दीदी आईं और न ही उस ने प्रयत्न किया, बस फोन पर ही बातें हो जाया करती थीं. समय के साथ विक्की को आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया और पूर्वा प्लस टू में आ गई, इस के साथ ही वह मैडिकल की तैयारी कर रही थी. समय के साथ विशाल के प्रमोशन होते गए और अब वे मैनेजर बन गए थे. एक दिन सुनीता दीदी का फोन आया कि तुम्हारे जीजाजी को वहां किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में आना है. मैं भी आ रही हूं, बहुत दिन हो गए तुम सब से मिले हुए.

दीदी पहली बार उस के घर आ रही हैं, सो पिछली सारी बातें भूल कर उत्सुकता से विनीता उन के आने का इंतजार करने के साथ तैयारियां भी करने लगी. सोने के कमरे को उन के अनुसार सैट कर लिया और दीदी की पसंद की खस्ता कचौड़ी बना लीं व रसगुल्ले मंगा लिए. खाने में जीजाजी की पसंद का मलाई कोफ्ता व पनीर भुर्जी भी बना ली थी. उस ने दीदी, जीजाजी की खातिरदारी का पूरा इंतजाम कर रखा था. पर न जाने क्यों पूर्वा को उस का इतना उत्साह पसंद नहीं आ रहा था. जीजाजी दीदी को ड्रौप कर यह कहते हुए चले गए, ‘‘मुझे देर हो रही है, विनीता, मैं निकलता हूं, आतेआते शाम हो जाएगी, तब तक तुम अपनी बहन से खूब बात कर लो. बहुत तरस रही थीं ये तुम से मिलने के लिए. शाम को आ कर तुम सब से मिलता हूं.’’

दीदी ने उस का घर देख कर कहा, ‘‘छोटे घर को भी तू ने बहुत ही करीने से सजा रखा है,’’ विशेषतया उन्हें पूर्वा का कमरा बहुत पसंद आया.

तब तक पूर्वा ने नाश्ता लगा दिया. नाश्ते के बाद पूर्वा चाय ले आई. चाय का कप मौसी को पकड़ाया. सुनीता उस कप को देख कर चौंकी, विनीता कुछ कहने के लिए मुंह खोलती उस से पहले ही पूर्वा ने कहा, ‘‘मौसी, इस कप को देख कर आप को आश्चर्य हो रहा होगा. पर दिव्या दीदी के विवाह में आप ने ममा को ऐसे ही कप में चाय दी थी. हफ्तेभर तक वे ऐसे ही कपों में चाय पीती रहीं जबकि नंदिता मौसी के आते ही आप ने नया टी सैट निकलवा दिया था.

‘‘तब से मेरे मन में यह बात रहरह कर टीस देती रहती थी. वैसे तो टूटे कप हम फेंक दिया करते हैं पर यह कप मैं ने बहुत सहेज कर रखा था, उस याद को जीवित रखने के लिए कि कैसे कुछ अमीर लोग अपनी करनी से लोगों को उन की हैसियत बता देते हैं, चाहे वे उन के अपने ही क्यों न हों और आज उस अपमान के साथ अपनी बात कहने का अवसर भी मिल गया.’’

सुनीता चुप रह गई. बाद में वह पूर्वा के कमरे में गई और बोली, ‘‘सौरी बेटा, आज तू ने मुझे आईना ही नहीं दिखाया, सबक भी सिखा दिया है. शायद मैं नासमझ थी, मैं यह सोच ही नहीं पाई थी कि हमारे हर क्रियाकलाप को बच्चे बहुत ध्यान से देखते हैं और हमारी हर छोटीबड़ी बात का वे अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ भी निकालते हैं. मुझे इस बात का एहसास ही नहीं था कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, सब में आत्मसम्मान होता है. बड़े एक बार आत्मसम्मान पर लगी चोट को रिश्तों की परवा करते हुए भूलने का प्रयत्न कर भी लेते हैं किंतु बच्चे अपने या अपने घर वालों के प्रति होते अन्याय को सहन नहीं कर पाते और  अपना आक्रोश किसी न किसी रूप में निकालने की कोशिश करते हैं.

‘‘पूर्वा, तुम ने अपने मन की व्यथा को इतने दिनों तक स्वयं तक ही सीमित रखा और आज इतने वर्षों बाद अवसर मिलते ही प्रकट भी कर दिया. मुझे खुशी तो इस बात की है कि तुम ने अपनी बात इतने सहज और सरल ढंग से कह दी. आज तुम ने मुझे एहसास करा दिया बेटे कि उस समय मैं ने जो किया, गलत था. एक बार फिर से सौरी बेटा,’’ यह कह कर उन्होंने पूर्वा को गले से लगा लिया.

जहां सुनीता अपने पिछले व्यवहार पर शर्मिंदा थी वहीं विनीता पूर्वा के कटु वचनों को सुन कर उसे डांटना चाह कर भी नहीं डांट पा रही थी. संतोष था तो सिर्फ इतना कि दीदी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए अपनी गलती मान ली थी.

सच तो यह था कि आज उस के दिल से भी वर्षों पुराना बोझ उतर गया था, आखिर आत्मसम्मान तो हर एक में होता है. उस पर लगी चोट व्यक्ति के दिन का चैन और रात की नींद चुरा लेती है. शायद उस की पुत्री के साथ भी ऐसा ही हुआ था. आज उसे यह भी एहसास हो गया कि आज की पीढ़ी अन्याय का उत्तर देना जानती है, साथ ही बड़ों का सम्मान करना भी. अगर ऐसा न होता तो पूर्वा ‘सौरी मौसी’ कह कर उन के कदमों में न झुकती.

बोझ : अपनो का बोझ भी क्या बोझ होता है

मां ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा, ‘‘साफसाफ कह दो, मैं कोई बांदी नहीं हूं. या तो मैं रहूंगी या वे लोग. यह भी कोई जिंदगी है?’’

इस तरह की उलटीसीधी बातें मां 2 दिनों से लगतार मुझे समझा रही थी. मैं चुपचाप उस का मुख देखने लगी. मेरी दृष्टि में पता नहीं क्या था कि मां चिढ़ कर बोली, ‘‘तू मूर्ख ही रही. आजकल अपने परिवार का तो कोई करता नहीं, और तू है कि बेगानों…’’

मां का उपदेश अधूरा ही रह गया, क्योंकि अनु ने आ कर कहा, ‘‘नानीअम्मा, रिकशा आ गया.’’ अनु को देख कर मां का चेहरा कैसा रुक्ष हो गया, यह अनु से भी छिपा नहीं रहा.

मां ने क्रोध से उस पर दृष्टि डाली. उस का वश चलता तो वह अपनी दृष्टि से ही अनु, विनू और विजू को जला डालती. फिर कुछ रुक कर तनिक कठोर स्वर में बोली, ‘‘सामान रख दिया क्या?’’

‘‘हां, नानीअम्मा.’’

अनु के स्वर की मिठास मां को रिझा नहीं पाई. मां चली गई किंतु जातेजाते दृष्टि से ही मुझे जताती गई कि मैं बेवकूफ हूं.

मां विवाह में गई थी. लौटते हुए 2 दिन के लिए मेरे यहां आ गई. मां पहली बार मेरे घर आई थी. मेरी गृहस्थी देख कर वह क्षुब्ध हो गई. मां के मन में इंजीनियर की कल्पना एक धन्नासेठ के रूप में थी. मां के हिसाब से घर में दौलत का पहाड़ होना चाहिए था. हर भौतिक सुख, वैभव के साथसाथ सरकारी नौकरों की एक पूरी फौज होनी चाहिए थी. इन्हीं कल्पनाओं के कारण मां ने मेरे लिए इंजीनियर पति चुना था.

मां की इन कल्पनाओं के लिए मैं कभी मां को दोषी नहीं मानती. हमारे नानाजी साधारण क्लर्क थे, लेकिन वे तनमन दोनों से पूर्ण क्लर्क थे. वेतन से दसगुनी उन की ऊपर की आमदनी थी. पद उन का जरूर छोटा था किंतु वैभव की कोई कमी नहीं थी. हर सुविधा में पल कर बड़ी हुई मां ने उस वैभव को कभी नाजायज नहीं समझा. यही कारण था कि मेरे नितांत ईमानदार मास्टर पिता से मां का कभी तालमेल नहीं बैठा.

मुझे अब भी याद है कि मैं जब भी मायके जाती, मां खोदखोद कर इन की कमाई का हिसाब पूछती. घुमाफिरा कर नानाजी के सुखवैभव की कथा सुना कर उसी पथ पर चलने का आग्रह करती, किंतु हम सभी भाईबहनों की नसनस में पिता की शिक्षादीक्षा रचबस गई थी. विवाह भी हुआ तो पति पिता के मनोनुकूल थे.

मां के इन 2 दिनों के वास ने मेरी खुशहाल गृहस्थी में एक बड़ा कांटा चुभो दिया. आज जब सभी अपने काम पर चले गए तो रह गई हैं रचना और मां की बातों का जाल.

रचना को दूध पिला कर सुला देने के बाद मैं घर में बाकी काम निबटाने लगी. ज्यादातर काम तो अनु ही निबटा जाती है, फिर भी गृहस्थी के तो कई अनदेखे काम हैं. सब कामों से निबट कर जब मैं अकेली बैठी तो मां की बातें मुझे बींधने लगीं. ‘क्या हम ने गलत किया है? क्या मैं रचना और आशीष का हक छीन रही हूं? क्या उन की इच्छाओं को मैं पूर्ण कर पा रही हूं? मुझे अपने पति पर क्रोध आने लगा. सचमुच मैं मूढ़ हूं. कितनी लच्छेदार बातें बना कर मुझ से इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठवा दी. मुझे अपनी स्थिति अत्यंत दयनीय नहीं, असह्य लगने लगी. मां के आने से पूर्व भी तो परिस्थितियां यही थीं. सब बच्चे अनु, विनू और विजू साथ रहे किंतु आज उन का रहना असह्य क्यों लग रहा है?’

मन बारबार अतीत में भटकने लगा है. 3 साल पहले की घटना मेरे मनमस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से अंकित थी. रचना तब होने वाली थी. होली की छुट्टियां हो चुकी थीं. उसी दिन हमें अपनी बड़ी ननद  के यहां जाना था. किंतु वह जाना सुखद नहीं हुआ. उस दिन बिजली का धक्का लगने से उन्हें बचाते हुए जीजी और भाईसाहब दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए. रह गए बिलखते, विलाप करते उन के बच्चे अनु, विनू और विजू, सबकुछ समाप्त हो गया. आज के युग में हर व्यक्ति अपने ही में इतना लिप्त है कि दूसरे की जिम्मेदारी का करुणक्रंदन मन को विचलित किए दे रहा था.

रात्रि के सूनेपन में मेरे पति ने मुझ से लगभग रोते हुए कहा, ‘आभा, क्या तुम इन बच्चों को संभाल सकोगी?’

मैं पलभर के लिए जड़ हो गई. कितनी जोड़तोड़ से तो अपनी गृहस्थी चला रही हूं और उस पर 3 बच्चों का बोझ.

मैं कुछ उत्तर नहीं दे पाई. अपना स्वार्थ बारबार मन पर हावी हो जाता. वे अतीत की गाथाएं गागा कर मेरे हृदय में सहानुभूति जगाना चाह रहे थे. अंत में उन्होंने कहा, ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, किंतु सार्थक जीवन उसी का है जो दूसरों के लिए जिए.’

अंततोगत्वा बच्चे हमारे साथ आ गए. घरबाहर सभी हमारी प्रशंसा करते. किंतु मेरा मन अपने स्वार्थ के लिए रहरह कर विचलित हो जाता. फिर धीरेधीरे सब कुछ सहज हो गया. इस में सर्वाधिक हाथ 17 वर्षीय अनु का था.

उन लोगों के आने के बाद हम पारिवारिक बजट बना रहे थे, तभी ‘मामी आ जाऊं?’ कहती हुई अनु आ गई थी. उस समय उस का आना अच्छा नहीं लगा था, किंतु कुछ कह नहीं पाई. ‘मामी,’ मेरी ओर देख कर उस ने कहा था, ‘आप को बजट बनाते देख कर चली आई हूं. अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं, बुरा नहीं मानिएगा.’

‘नहींनहीं बेटी, कहो, क्या कहना चाहती हो?’

‘आप रामलाल की छुट्टी कर दें. एक आदमी के खाने में कम से कम 2,000 रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं.’

मेरे प्रतिरोध के बाद भी वह नहीं मानी और रामलाल की छुट्टी कर दी गई. अनु ने न केवल रामलाल का बल्कि मेरा भी कुछ काम संभाल लिया था.

उस के बाद रचना का जन्म हुआ. रचना के जन्म पर अनु ने मेरी जो सेवा की उस की क्या मैं कभी कीमत चुका पाऊंगी?

रचना के आने से खर्च का बोझ बढ़ गया. उसी दिन शाम को अनु ने आ कर कहा, ‘‘मम्मा, मेरी एक टीचर ने बच्चों के लिए एक कोचिंग सैंटर खोला है. प्रति घंटा 300 रुपए के हिसाब से वे अभी पढ़ाने के लिए देंगी. बहुत सी लड़कियां वहां जा रही हैं. मैं भी कल से जाऊंगी.’’

हम लोगों ने कितना समझाया पर वह नहीं मानी. अपनी बीए की पढ़ाई, घर का काम, ऊपर से यह मेहनत, किंतु वह दृढ़ रही. इन के हृदय में अनु के इस कार्य के लिए जो भाव रहा हो, पर मेरे हृदय में समाज का भय ही ज्यादा था. दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े यत्न से अच्छाई का जो मुखौटा मैं ने ओढ़ रखा है, वह क्या लोगों की आलोचना सह सकेगा?

पर वह प्रतिमाह अपनी सारी कमाई मेरे हाथ पर रख देती. कितना कहने पर भी एक पैसा तक न लेती. यह देख कर मैं लज्जित हो उठती.

विनू भी पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम ट्यूशन करता. इन्होंने बहुत मना किया, पर बच्चों का एक ही नारा था-  ‘मेहनत करते हैं, चोरी तो नहीं.’

3 साल देखतेदेखते बीत गए. आशीष और रचना दोनों की जिम्मेदारियों से मैं मुक्त थी. वह अपने अग्रजों के पदचिह्नों पर चल रहा था. कक्षा में वह कभी पीछे नहीं रहा. मेरी आंखों के सामने बारीबारी से अनु, विनू और विजू का चेहरा घूम जाता. उस के साथसाथ आशीष का भी. क्या इन बच्चों को घर से निकाल दूं?

मेरा बाह्य मन हां कहता. 3 का खर्च तो कम होगा. किंतु अंतर्मन मुझे धिक्कारता. कल अगर हम दोनों नहीं रहे तो आशीष और रचना भी इसी तरह फालतू हो जाएंगे. मैं फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘क्या बात है, मामी, रो क्यों रही हैं?’’ अनु के कोमल स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गई. शाम हो चुकी थी.

मां ने कितना अत्याचार किया मात्र 2 दिनों में. आशीष और रचना को छिपा कर हर चीज खिलाना चाहती थी. बारबार बच्चों को उलटीसीधी बातें सिखाती.

मैं अनु की ओर देखने लगी. मुझे लगा अनु नहीं, मेरी रचना बड़ी हो गई है और हम दोनों के अभाव में मां की दी हुई मानसिक यातनाएं भोग रही है.

मैं ने अनु को हृदय से लगा लिया. ‘‘नहींनहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.’’

‘‘मुझे आप से अलग कौन कर रहा है?’’ अनु ने हंस कर कहा.

‘‘किंतु इसे जाना तो होगा ही,’’ यह करुण स्वर मेरे पति का था. पता नहीं कब वे आ गए थे.

‘‘क्या?’’ मैं ने अपराधी भाव से पूछा.

‘‘अनु का विवाह पक्का हो गया है. मेरे अधीक्षक ने अपने पुत्र के लिए स्वयं आज इस का हाथ मांगा है. दहेज में कुछ नहीं देना पड़ेगा.’’

अनु सिर झुका कर रोने लगी. मेरे हृदय पर से एक बोझ हट गया. उसे हृदय से लगा कर मैं भी खुशी में रो पड़ी.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

गांव की ओर : रमुआ की नौकरी

डाक्टर की सलाह पर रमुआ हवापानी बदलने के लिए अपने गांव जा रहा था. न जाने कितने साल हो गए थे उसे गांव गए हुए. मांबाप के मरने के बाद से वह एक बार भी गांव नहीं गया था.

रमुआ तकरीबन 10-12 साल पहले गांव से शहर आया था. गांव में उस की थोड़ीबहुत खेती थी. खेती के साथसाथ वह गांव में मजदूरी भी करता था.

गांव के कुछ लोग शहर में मजदूरी करते थे. जब रमुआ उन को गांव से वापस शहर जाते देखता था तो उस का मन भी मचल उठता था. लेकिन मांबाप उसे शहर नहीं जाने देते थे.

जब मजदूर शहर से गांव लौटते तो अपनी बीवी के लिए चूड़ियां, बिंदी वगैरह लाते थे. यह देख कर रमुआ की बीवी सोचती कि काश, उस का पति भी शहर जाता. वह रमुआ को शहर जाने के लिए उकसाती थी.

एक दिन जिद कर के रमुआ रोजगार के लिए शहर चला गया. हफ्तेभर बाद उस ने बीवीबच्चों को भी वहां बुला लिया.

रमुआ को अपने गांव वालों की मदद से कैमिकल बनाने वाली किसी फैक्टरी में दिहाड़ी पर काम मिल गया था. रहने के लिए उस ने अपने साथियों के साथ शहर के बाहर एक नाले के किनारे ?ोंपड़ी बना ली थी.

रमुआ को जब पहली बार तनख्वाह मिली तो वह हैरान रह गया. इतना पैसा उस ने आज तक नहीं कमाया था.

रमुआ सोचने लगा कि वह अपने बच्चों को खूब पढ़ालिखा कर सरकारी नौकरी दिलाएगा.

शुरू के कुछ महीने तो अच्छे बीते, लेकिन बाद में यही पैसे कम पड़ने लगे. शहर में महंगाई ज्यादा थी और खर्चे भी गांव से ज्यादा थे.

धीरेधीरे रमुआ को भी अपने साथियों की तरह शराब पीने की लत लग गई. कभीकभी उसे काम नहीं मिलता था. फैक्टरी में हड़ताल भी अकसर होती रहती थी.

समय के साथसाथ रमुआ के बच्चे बड़े होते गए. साथ ही, नाले से लगा पूरा इलाका भी ?ोंपडि़यों का एक जंगल सा बन गया.

अब हफ्ता वसूलने वाले गिरोह पैदा हो गए थे. रमुआ को भी नगरपालिका व गुंडों को हफ्ता देना पड़ता था. इस चक्कर में जो आमदनी पहले बहुत ज्यादा दिखती थी, अब उस में घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल हो गया था. बीवी तो पहले ही लोगों के घरों में बरतन मांजने का काम कर रही थी, अब बच्चों को भी काम पर लगा दिया गया था. इस इलाके में यह नई बात नहीं थी. सब परिवारों में यही हो रहा था.

रमुआ की बीवी का किसी गैर मर्द से चक्कर चल रहा था. इस बात को ले कर वह आएदिन अपनी बीवी से लड़ता रहता था. वह उसे शराब पीने के लिए कोसती थी.

धीरेधीरे रमुआ का बेटा व बेटी भी दूसरे बच्चों की तरह बुरी आदतों के शिकार हो गए. बेटा भी अब छिप कर शराब पीने लगा था. बीड़ी तो वह खुलेआम ही पीता था.

पहले जब रमुआ अपने बेटे को डांटता और पीटता था तो वह चुपचाप सुन लेता था, लेकिन अब वह भी जवाब देने लगा था, ‘तुम खुद पीते हो तो मुझे डांटते क्यों हो?’

रमुआ ताज्जुब से सिर पकड़ कर बैठ जाता था. सोचता कि आजकल के बच्चों को क्या हो गया है. उस ने तो बचपन में क्या पूरी जिंदगी में अपने बाप को ऐसे जवाब देना तो दूर आंख मिला कर बात भी नहीं की थी.

दूसरी ओर रमुआ की बड़ी बेटी, जो अपनी मां के साथ काम पर जाती थी, ने भी बस्ती की दूसरी लड़कियों के रंगढंग अपना लिए थे. वह काली थी तो क्या हुआ, पर जवान थी. लोगों की तीखी नजरें व फिकरे उस की जवानी में उबाल लाते थे. उस ने बस्ती के कुछ आवारा लड़कों को दिल दे दिया था.

प्यार के 2 रास्ते होते हैं. एक रास्ता शादी का होता?है और दूसरा बरबादी का.

रमुआ की बेटी इतनी खुशनसीब नहीं थी कि प्यार के पहले रास्ते पर चलती. कई लड़कों से उस के जिस्मानी रिश्ते बने और वह भी बिना शादी के ही पेट से हो गई.

हालांकि बस्ती में रहने वाली दाई ने दूसरी लड़कियों की तरह उसे भी इस मुसीबत से छुटकारा दिला दिया था, पर रमुआ के लिए यह बात फांस बन गई.

तभी फैक्टरी में हड़ताल हो गई. इस बार हड़ताल काफी लंबी चली. लगता था जैसे दोनों तरफ के लोग अखाड़े में उतर आए हों.

जल्दी ही भूखे रहने की नौबत आ गई. शहर की महंगाई में अकेली कमाई से पेट नहीं भरता. इस वजह से घर में क्लेश बढ़ गया.

अब बीवी अकेली कमाती थी, इसलिए दबती नहीं थी. रमुआ मन मार कर रह जाता था. मौका मिलते ही वह घर का सामान बेच कर शराब पी लेता था.

एक दिन रमुआ की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई. ज्यादा शराब पीने व फैक्टरी में जो कैमिकल बनता था, उस की वजह से रमुआ के फेफड़े खराब हो गए. डाक्टर ने उसे कुछ दिन जगह बदलने की सलाह दी.

पहले तो रमुआ ने डाक्टर की सलाह नहीं मानी. लेकिन जब वह ठीक नहीं हुआ तो गांव जाने की तैयारी करने लगा.

एक दिन रमुआ के घर पुलिस आई और उस के बेटे कालू के बारे में पूछने लगी. रमुआ को हैरानी हुई कि आखिर उस के बेटे ने ऐसा क्या कर दिया.

काफी पूछने पर पुलिस ने बताया कि कालू ने चोरी की है.

रमुआ घबरा कर बोला, ‘साहब, वह तो कई दिनों से घर आया ही नहीं, पता नहीं कहां गया है?’

‘क्या तुम्हें अपने बच्चे के बारे में पता नहीं, कैसे बाप हो तुम?’ पुलिस ने धमकाया.

रमुआ सिर ?ाका कर चुपचाप सुनता रहा. उस के दिमाग में हलचल मच गई. वह सोचने लगा कि आखिर इस शहर ने उसे क्या दिया? फिर उसे लगा कि इस शहर ने उसे काम तो दिया है नहीं तो गांव में कभी अकाल, तो कभी बाढ़ की मार सहनी पड़ती थी.

काफी सोचविचार के बाद रमुआ ने गांव लौटने की ठानी. गांव जाने के लिए पहले तो रमुआ की बीवी व बच्चों ने मना किया, पर बाद में वे राजी हो गए.

गांव पहुंचते ही रमुआ के दोस्तों व रिश्तेदारों ने उसे घेर लिया.

शाम को रमुआ अपने दोस्तों के साथ गांव घूमने गया तो उस ने देखा कि गांव के बाहर खुदाई का काम चल रहा?है.

‘‘अरे रहमान, यहां क्या हो रहा है?’’ रमुआ ने हैरानी से पूछा.

‘‘गांव में कच्ची नहर बन रही है. इस में पानी आएगा और हम साल की 2 फसलें ले सकेंगे.

‘‘और हां, इस की खुदाई भी हम गांव वाले ही कर रहे हैं. पंचायत इस के बदले में हमें 10 किलो अनाज व 30 रुपए दिहाड़ी देती है,’’ रहमान ने बताया.

‘‘अच्छा, तभी तो मैं ने गांव में कोई हुक्का पीते या बातें करते हुए नहीं देखा,’’ रमुआ ने कहा.

‘‘हां, अब बच्चे भी स्कूल जाते हैं और आदमी व औरतें नहर व दूसरे कामों पर जाते हैं,’’ रहमान ने बताया.

‘‘दूसरे कौन से काम…?’’ रमुआ ने हैरानी से पूछा.

‘‘प्रधानमंत्री गांव सड़क योजना, सरकारी दवाखाना, स्कूल व पंचायत के भवन बनाने जैसे काम,’’ रहमान ने जोश में आ कर बताया.

‘‘क्या गांव में इतने सारे काम हो रहे हैं?’’ रमुआ आंखें फाड़ कर बोला.

‘‘और नहीं तो क्या,’’ रहमान ने जवाब दिया.

लौटते समय अंधेरा हो गया था. रहमान ने चलते हुए कहा, ‘‘यार, तुम्हें तो अंधेरे में परेशानी होती होगी. तुम तो शहर में बिजली के आदी हो गए होगे?’’

अब रमुआ क्या जवाब देता. उस की झोंपड़ी में 25 वाट का बल्ब था. वह भी कभीकभी ही रोशनी देता था. गली में खंभा तो था, पर बल्ब नहीं था.

आज खाना रमुआ के दोस्त बनवारी के यहां था. रमुआ व उस के परिवार को लगा कि उन्हें इतना लजीज खाना खाए कितने साल हो गए.

सुबह उठ कर रमुआ अपने खेत की ओर गया. इतने सालों में जमीन में खरपतवार हो गए थे. खेत की मिट्टी को हाथ लगाते ही रमुआ रोने लगा.

उसे दीनू काका आते दिखाई दिए तो उस ने पूछा, ‘‘इतनी सुबहसुबह कहां जा रहे हो काका?’’

‘‘पास के कसबे के बैंक में जा रहा हूं. खेत में बीज बोने व हल खरीदने के लिए कर्ज ले रहा हूं,’’ दीनू काका ने जवाब दिया.

‘‘क्या सरकार हम जैसे छोटे लोगों को भी कर्ज देती है?’’ रमुआ ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘हां, वह भी कम ब्याज पर,’’ दीनू काका ने कहा और चल पड़े.

रमुआ की बीवी को पड़ोसी फरजाना पंचायतघर की ओर ले गई. उस ने गांव की औरतों व शहर की एक लड़की को वहां बैठे देखा तो पूछा, ‘‘अरे दीदी, यहां क्या हो रहा है?’’

‘‘यह लड़की गांव की औरतों को सिलाईकढ़ाई का काम सिखाती है और शहर से काम ला कर देती है,’’ फरजाना ने कहा.

रात को रमुआ व उस की बीवी ने गांव में आए इस बदलाव को देख कर एक फैसला किया.

सुबह रमुआ को अपना घर ठीक करते हुए देख वहां सब लोग जमा हो गए. जुम्मन ने हैरत से पूछा, ‘‘क्यों रमुआ, यहां ज्यादा दिन रहने का इरादा है क्या?’’

‘‘अब मैं कभी शहर नहीं जाऊंगा. सब के बीच यहीं काम करूंगा. शहर में गंदगी व बीमारी के सिवा कुछ नहीं रखा है. अब मैं ने सोच समझ कर फैसला किया है कि मुझे यहीं पर रहना है,’’ रमुआ ने गांव वालों से कहा.

रमुआ की बीवी फैसला सुनाते हुए बोली, ‘‘बस, अब हम यह गांव छोड़ कर कभी नहीं जाएंगे.’’

कुछ अरसे बाद रमुआ की बेटी की शादी भी गांव में हो गई. उस का बेटा मजदूरी के साथसाथ खेती भी करने लगा. सभी लोग खुश थे.

अब रमुआ न शराब पीता था, न ही उस की बीवी उस से झगड़ती थी.

रमुआ को देख कर बाकी गांव वाले भी शहर से वापस आ गए. अब लोग शहर जाने की बात पर एकदूसरे को चुटकुले सुनाते और हंसते हैं

घर है या जेल : क्या था मोहन की कमाई का राज

नई नवेली पत्नी उर्मिको पा कर मोहन बहुत खुश था. हो भी क्यों न, आखिर हूर की परी जो मिली थी उसे. सच में गजब का नूर था उर्मि में. अगर उसे बेशकीमती पोशाक और लकदक गहने पहना दिए जाते तो वह किसी रानीमहारानी से कम न लगती. लेकिन बेचारी गरीब मांबाप की बेटी जो ठहरी, तो कहां से उसे यह सब मिलता भला, पर सपने उस के भी बहुत ऊंचेऊंचे थे.

अब सपने तो कोई भी देख सकता है न. तो बेचारी वह भी ऊंचेऊंचे सपना देखती थी कि उस का राजकुमार भी सफेद छोड़े पर चढ़ कर उसे ब्याहने आएगा और उसे दुनियाभर की खुशियों से नहला देगा.

लेकिन जब उर्मि ने अपने दूल्हे के रूप में मोहन को देखा तो उस का मन बु?ाबुझा सा हो गया क्योंकि मोहन उस के सपनों के राजकुमार से कहीं भी मैच नहीं बैठ रहा था. खैर, चल पड़ी वह अपने पति मोहन के साथ जहां वह उसे ले गया.

‘‘जब शादी हो ही गई है तो अब अपनी जिम्मेदारी भी संभालना सीखो…’’ पिता का यह हुक्म मान कर मोहन उर्मि को ले कर शहर आ गया और काम की तलाश करने लगा.

लेकिन मोहन को कहीं भी कोई ढंग का काम नहीं मिल पा रहा था. दिहाड़ी पर मजदूरी कर के वह किसी तरह कुछ पैसे कमा लेता, मगर उतने से क्या होगा और दोस्त के घर भी वह कितने दिन ठहरता भला?

आखिर मोहन को काम न मिलता देख उस दोस्त ने सलाह दी कि क्यों न वह बड़ी सब्जी मंडी से सब्जियां ला कर बेचे. इस से उस की अच्छी कमाई हो जाएगी और रोज काम न मिलने की फिक्र भी नहीं रहेगी.

किसी तरह जोड़ेजुटाए पैसों से मोहन बड़ी सब्जी मंडी जा कर सब्जियां खरीद लाया और उन्हें लोकल बाजार में जा कर बेचने लगा.

अब मोहन का रोज का यही काम था. अंधेरे मुंह सुबहसवेरे उठ कर वह बड़ी सब्जी मंडी चला जाता और वहां से थोक भाव में खूब सारी फलसब्जियां खरीद कर उन्हें लोकल बाजार में जा कर बेचता.

अब मोहन की कमाई इतनी होने लगी थी कि पतिपत्नी के लिए अच्छे से दालरोटी जुट जाती थी. बेचारा मोहन, जब फलसब्जियां बेच कर थकाहारा घर आता तो उस के माथे पर पसीने का मुकुट और सीने में धड़कनों का जंगल होता, लेकिन फिर भी वह अपनी खूबसूरत पत्नी का मुखड़ा देख कर अपनी सारी थकान भूल जाता.

लेकिन उस की उर्मि जाने उस से क्या चाहती थी. वह कभी खुश ही नहीं रहती थी. नहीं, वैसे तो वह खुश रहती थी, पर मोहन को देखते ही ठुनकने लगती थी कि उसे क्याक्या कमी है.

बेचारा मोहन हर तरह से कोशिश करता कि उर्मि को खुश रखे, पर उस की मांगें रोजाना बढ़ती ही जाती थीं.

मोहन मेहनत के चार पैसे इसलिए ज्यादा कमाना चाहता था ताकि उर्मि को ज्यादा से ज्यादा खुश रख सके, मगर उर्मि को इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी. वह तो अपने ही पड़ोस के एक बांके नौजवान धीरुआ के साथ नैनमटक्का कर रही थी.

तेलफुलेल, चूड़ी, बिंदी वगैरह बेचने वाला धीरुआ पर उस का दिल आ गया था. जब भी वह उसे देखती, उसे कुछकुछ होने लगता.

सोचती, काश, धीरुआ उस का पति होता तो कितना मजा आता. पता नहीं, क्यों उस के मांबाप ने उस से 10 साल  से भी ज्यादा बड़े मोहन के साथ उसे ब्याह दिया?

उधर धीरुआ भी जब उर्मि को देखता तो देखता रह जाता. उस के गठीले बदन के उभार को देख कर उस के मुंह से लार टपकने लगती. उसे लगता, कैसे वह उसे अपने ताकतवर हाथों में समेट ले और फिर कभी छोड़े ही न. और वैसे भी वह अभी तक कुंआरा था.

जब भी उर्मि उस की दुकान पर आती, धीरुआ उसे ही निहारते रहता. यह बात उर्मि भी सम?ा रही थी इसलिए तो बहाना बना कर वह उस की दुकान पर अकसर जाती रहती थी.

धीरुआ अपने मोबाइल फोन में उर्मि को बढि़याबढि़या प्यार वाले गाने सुनाता और वीडियो भी दिखाता. प्यार वाले गाने सुन कर वह ऐसे मंत्रमुग्ध हो जाती कि पूछो मत. वह खुद को उस गाने की हीरोइन ही सम?ाने लगती और धीरुआ को हीरो.

एक दिन उर्मि ने ठुनकते हुए मोहन से मोबाइल फोन की मांग कर दी. हैसियत तो नहीं थी बेचारे की, लेकिन फिर भी एक सस्ता सा मोबाइल, जिस से सिर्फ बात हो सकती थी, उर्मि के लिए खरीद लाया.

मोबाइल फोन देख कर उर्मि बहुत खुश तो नहीं हुई, पर लगा चलो बात तो होगी न इस से. अब उस का जब भी मन करता, धीरुआ को फोन लगा देती और खूब बातें करती. पर अपने पति मोहन से कभी सीधे मुंह बात नहीं करती थी.

न जाने क्यों उर्मि बातबात पर मोहन पर चढ़ जाती और बेचारा मोहन भी उस के गुस्से को शरबत सम?ा कर चुपचाप हंसतेहंसते पी जाता.

सोचता, उम्र कम है इसलिए सम?ा भी थोड़ी कम है. मगर उसे तो मोहन जरा भी भाता ही नहीं था. उस का दिल तो अपने आशिक धीरुआ के दिल से जा कर अटक गया था.

किसी तरह हिचकोले खाते हुए मोहन और उर्मि की गृहस्थी चल रही थी. लेकिन कहते हैं न, वक्त कब करवट ले, कह नहीं सकते. अचानक एक दिन लोगों में हड़कंप देख कर मोहन चौंक गया. देखा तो सब अपनेअपने सामान समेट कर भागने लगे हैं.

‘‘अरे, क्या हुआ भाई?’’ मोहन ने पास में अपनी सब्जियां समेट रहे सब्जी वाले से पूछा.

‘‘अरे, क्या हुआ क्या, तुम भी अपना सामान जल्दी से उठा कर भागो. तुम देख नहीं रहे कब्जा हटाने के लिए नगर प्रशासन का दस्ता आया हुआ है,’’ उस सब्जी वाले ने कहा.

‘‘नगर प्रशासन का दस्ता… पर वह क्यों भाई?’’ मोहन ने उस सब्जी वाले से हैरानी से पूछा.

‘‘क्योंकि यहां सब्जियां बेचना गैरकानूनी है,’’ ?ां?ालाते हुए उस सब्जी वाले ने कहा.

‘‘गैरकानूनी… पर यहां शहर के बीचोंबीच कुछ लोगों ने जो मौल और होटल बना रखे हैं, वे भी आधे से ज्यादा सरकारी जमीन पर हैं तो उन्हें ये प्रशासन वाले क्यों कुछ नहीं कहते? क्या इन लोगों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती? हम गरीब ही मिले हैं इन्हें सताने को?’’ मोहन ने गुस्से से कहा.

‘‘अरे भाई, वे अमीर लोग हैं. पैसा और पहुंच बहुत है उन की. फिर उन के खिलाफ क्यों कोई कार्यवाही होने लगी? चल, मैं तो चला, तू भी निकल ले जल्दी से,’’ कह कर वह सब्जी वाला चलता बना.

मोहन भी खुद में भुनभुनाते हुए अपनी सब्जियां समेटने लगा, लेकिन तभी किसी की कड़क आवाज से वह कांप उठा और उस के हाथ थरथर कांपने लगे.

‘‘क्यों बे, अब तु?ो क्या अलग से न्योता देता… हां, बोल?’’ कह कर उस में से एक ने उस की टोकरी में ऐसी लात मारी कि वह लुढ़कती हुई दूर चली गई. सारे टमाटर सड़क पर छितरा गए.

तभी एक दूसरा अफसर उस की तरफ बढ़ा ही था कि मोहन हाथ जोड़ कर विनती करते हुए कहने लगा, ‘‘साहब, मैं अभी उठाए लेता हूं सारी सब्जियां, दया माईबाप दया…’’

लेकिन मोहन की बातों को अनसुना कर एक बड़े अफसर ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘इन का तो यह रोज का नाटक है. जब तक इन्हें सबक नहीं सिखाओगे, सम?ोंगे नहीं,’’ कह कर उस ने उस की बचीखुची सब्जियां भी फेंक दीं.

बेचारा मोहन उन सब के सामने गिड़गिड़ाता रह गया. वह अपने आंसू पोंछते हुए जो भी सब्जियां बची थीं, ले कर घर चला गया, पर वहां भी उर्मि की जहरीली बातों ने उसे मार डाला.

‘‘तो क्या करूं… बोल न? क्या गरीब होना मेरी गलती है या वहां जा कर सब्जियां बेच कर मैं ने कोई गुनाह कर दिया, बोलो?’’ मोहन रोंआसी आवाज में बोला.

‘‘वह सब मु?ो नहीं पता… तुम चोरी करो, डकैती करो, जेब काटो चाहे जो भी करो मु?ो तो बस पैसे चाहिए घर चलाने के लिए,’’ जख्म पर महरम लगाने के बदले उर्मि अपनी बातों से उसे और जख्म देने लगी.

अब क्या करता बेचारा, पैसे तो थे नहीं जो फिर से कोई धंधा शुरू करता. कहीं सचमुच में उर्मि उसे छोड़ कर भाग न जाए, इस वजह से मोहन ने गलत रास्ता अख्तियार कर लिया.

अब सब्जियां बेचने के बजाय लोगों की जेबें काटने लगा और छोटीमोटी चोरियां भी करने लगा.

शुरूशुरू में तो मोहन को बहुत बुरा लगता था ये सब काम करने में, लेकिन फिर धीरेधीरे उसे भी यह सब करने में मजा आने लगा.

घर में सामानपैसा आते रहने से उर्मि भी अब खुश रहने लगी थी. उस के ठाठ देख आसपड़ोस की औरतें जल मरतीं और उर्मि उन्हें देख और इतराती. लेकिन उन के पास यह सुख भी ज्यादा दिनों तक टिका न रह सका.

एक दिन मोहन चोरी करते हुए पुलिस के हत्थे चढ़ गया और उसे जेल भेज दिया.

मोहन के जेल जाने से उर्मि को कोई खास फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उस की तो और मौज हो गई. अब वह खुल कर धीरुआ के साथ आंखें चार करने लगी.

धीरुआ उसे जबतब अपने घर ले जाता और दोनों खूब मस्ती करते. अपनी मोटरसाइकिल पर वह उर्मि को खूब घूमाताफिराता, सिनेमा दिखाता. जब लोग कुछ कहते तो उर्मि उन्हें दोटूक जवाब दे कर चुप कर देती.

इधर बिना गुनाह साबित हुए ही मोहन महीनों तक जेल में पड़ा सड़ता रहा, क्योंकि कोई उस की जमानत कराने नहीं आया इसलिए. जब जान लिया उर्मि ने कि अब मोहन नहीं आने वाला, तो एक दिन वह धीरुआ के साथ भाग गई.

बिना गुनाह साबित हुए ही महीनों जेल में गुजारने की बात जब एक कैदी दोस्त ने सुनी तो उसे मोहन पर दया आ गई. छूटते ही उस कैदी दोस्त ने मोहन की जमानत तो करवा दी, लेकिन महीनों जेल में पड़े रहने से वह बहुत कमजोर हो गया. जब पत्नी के बारे में जाना तो उस का दिल और टूट गया. लगा जिस के लिए उस ने इतना सबकुछ सहा, वही उस का साथ छोड़ गई.

अब मोहन बीमार और बेसहारा हो गया था. न तो अब वह कोई काम करने लायक रहा और न ही चोरीजेबकतरी के ही लायक रह गया. कोई कुछ दे जाता तो खा लेता, वरना भूखे पेट ही सो जाता. उसे लग रहा था कि उस के लिए तो जेल भी वैसी ही थी जैसा घर.

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