आखिर किसानों से सरकार को क्यों चिढ़ है?

सुप्रीम कोर्ट ने यह तो कह दिया कि किसान सड़कों को रोक कर अपना आंदोलन नहीं कर सकते पर उन्हें यह नहीं बताया कि सारे देश में आखिर जिसे भी सरकार से नाराजगी हो वह जाए कहां? सारे देश में पुलिस और प्रशासन ने इस तरह से मैदानों, चौराहों, खाली सड़कों की नाकाबंदी कर रखी है कि कहीं भी सरकारी कुरसी की जगह धरनेप्रदर्शन की जगह बची नहीं है.

सारी दुनिया में सड़कों पर ही आंदोलन होते रहे हैं. हमेशा सत्ता का बदलाव सड़कों से हुआ है. जिन सड़कों के बारे में सत्ता के पाखंडियों का प्यार आजकल उमड़ रहा है वे ही इन पर कांवड़ यात्रा, महायात्रा, रथयात्रा, रात्रि जागरण, कथा कराते रहे हैं. सड़कों पर बने मंदिर सारे देश में आफत हैं जो हर रोज फैलते हैं, खिसकते नहीं हैं. सरकार और सुप्रीम कोर्ट को ये नहीं दिख रहे, किसान दिख रहे हैं.

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किसानों से सरकार को चिढ़ यह?है कि आज का किसान हमारे पुराणों के हिसाब से शूद्र है और वह किसी भी हक को नहीं रख सकता. उस का काम तो पैरों के पास बैठ कर सेवा करना है या उस गुरु के कहने पर अंगूठा काट देना है जिस ने शिक्षा भी नहीं दी. वह शूद्र आज पांडित्य के भरोसे बनी सरकार को आंखें दिखाए यह किसी को मंजूर नहीं. न सरकार को, न मीडिया को, न सुप्रीम कोर्ट को, क्योंकि इन सब में तो ऊंची जातियों के लोग बैठे हैं जिन की आत्मा ने पिछले जन्मों में ऋषिमुनियों की सेवा कर के आज ऊंची जातियों में जन्म लिया है.

सरकार और सुप्रीम कोर्ट तो कहती हैं कि हर जने (जिस का अर्थ हर काम करने वाले को) को काम करते रहना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए. अब कर्म होगा तो फल किसी के हाथ तो लगेगा. पूरी गीता छान मारो कहीं नहीं मिलेगा कि कर्म का फल जाएगा किसे और क्यों. कर्म का फल तो कर्म करने वाले को मिलना चाहिए. अनाज का दाम किसान को मिलना चाहिए, साहूकार को नहीं. गीता के पाठ को नए कृषि कानूनों में पिरोने की चाल को समझ कर किसान अगर आंदोलन कर रहे हैं तो गलत नहीं है.

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प्रोटैस्ट का हक ही लोकतंत्र की जान है पर प्रोटैस्ट की सोचने वालों को गिरफ्तार कर लेना, प्लानिंग करने वाले पर मुकदमा चला देना, उसे मैदान, सड़क न देना आज सरकार का हथियार बन गया है जिसे किसान तोड़ने में लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट बिलकुल सही है जब कहती है कि प्रोटैस्ट का हक है पर बिलकुल गलत है जब कहती है कि सड़कों पर प्रोटैस्ट नहीं हो सकता. प्रोटैस्ट तो वहीं होगा जहां से सरकार को दिखे, जहां सरकार की कुरसी हो. किसान वीरान रण के कच्छ में जा कर तो अपना धरनाप्रदर्शन नहीं कर सकते जहां मीलों तक न पेड़ हैं, न मकान, न सरकारी नेता, न सरकार की कुरसी.

गहरी पैठ

जम्मूकश्मीर और बंगलादेश के निहत्थे निर्दोष हिंदू अपने ही देश के नागरिकों द्वारा मारे जा रहे हैं और महान हिंदू राष्ट्र बनाने का वादा करने वाले असहाय ताक रहे हैं. जम्मूकश्मीर में अचानक हिंदू बिहारी मजदूरों पर आक्रमण शुरू हो गए और लगभग उसी समय बंगलादेश में बंगलादेशी नागरिक हिंदुओं पर भी आक्रमण होने लगे. कुछ गोलियां से मारे गए, कुछ हिंसा में, कुछ के घर जले. धर्म के नाम पर एक गुट दूसरे के खून का प्यासा होने लगा, जबकि दोनों ही जगह न हिंदू, न मुसलमान इतनी फुरसत में हैं कि वे किसी तरह का दंगा सह सकें.

आर्थिक संकटों से जूझ रहे बंगलादेश और जम्मूकश्मीर दोनों में समय व शक्ति काम में लगनी चाहिए, पर लग रही है फालतू के दंगों में. जिन से तथाकथित कल्याण करने वाला धर्म बचाया जा सके. बंगलादेश ने हाल में उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है और इस में वहां के हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का बराबर का हाथ है और कोई खास वजह नहीं कि वे एकदूसरे के खून के प्यासे हों.

जम्मूकश्मीर में जो भी नाराजगी कश्मीरी मुसलमानों को है वह दिल्ली सरकार से है और बिहार से गए हिंदू मजदूर उस के लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं हैं. ये लोग कश्मीर इसलिए आते हैं, क्योंकि यहां इस तरह का काम करने वाले नहीं मिलते. ये कमा रहे हैं पर साथ ही उन कश्मीरियों की सेवा भी कर रहे हैं जो काम नहीं करना चाहते, वरना क्यों गरम इलाकों में रहने वाले कश्मीर की ठंड में सर्दियों में अपने को ठिठुराएंगे?

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धर्म को असल में लोगों के सुख से कुछ लेनादेना नहीं होता. जन्म से ही धर्म में कैद लोगों को चाहे जैसे मरजी हांका जा सकता है. धर्म ने सदियों से यह फार्मूला अपनाया है. झोंपड़ी में रह कर, भूखेनंगे लोगों के पिरामिड बनाए, रोम के चर्च बनाए, मसजिदें बनाईं, मकबरे बनाए, अंकोरवाट जैसे मंदिर बनाए, एलोरा और अजंता में पत्थर काट कर महल बनाए, अपने सुख के लिए नहीं उस धर्म के लिए जिस का न ओर पता है, न छोर और जो देता सपने और वादे है और लेता पैसा, औरतें और जान है.

जो हिंदू कश्मीर और बंगलादेश में मारे जा रहे हैं और जो मुसलमान मर रहे हैं उन की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है, किसी ने एकदूसरे से कुछ लियादिया नहीं. धर्म ने कहा मार दो तो मार डाला. हमारे देश में भी यही काम हिंदू बजरंगी, सेवादल कर रहे हैं. सड़कों पर चल रहे निहत्थे मुसलमानों को मारापीटा जा रहा है, बिना किसी कारण के. न कश्मीर में, न बंगलादेश में और न भारत में दूसरे धर्म को लूटने की नीयत से भी नहीं मारा जा रहा. सिर्फ इसलिए पीट दो, मार दो कि  उस का हुक्म उन के धर्म ने दिया है.

अफगानिस्तान में अमेरिका के भाग जाने से मुसलिम जगत की हिम्मत भी बढ़ गई तो बड़ी बात नहीं. तालिबानी अपने मनसूबे पहले ही जता चुके हैं. अफीम के व्यापार के कारण उन के पैर हर जगह फैले हैं. वे अब यूरोप में भी कहर मचाने लगे हैं, अमेरिका में न जाने फिर कभी न्यूयौर्क के ट्विन टौवर जैसा 9/11 हादसा हो जाए.

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इस सब से क्या हिंदू या ईसाई अपना धर्म छोड़ कर मुसलमान बन जाएं तो बात होती. हर धर्म की अपने मूर्ख भक्तों पर इतनी पकड़ है कि वह जानता है कि लोग जान दे देंगे पर धर्म नहीं बदलेंगे. वैसे भी जब भी 10-20 लोग एक धर्म छोड़ कर हावी हो रहे धर्म को अपनाते हैं तो उन के पुराने धर्म वाले ही उन के दुश्मन हो जाते हैं और उन्हें मारने के स्पष्ट आदेश हर धर्म में हैं. एक तरह से हर धर्म का भक्त अपने धर्म का गुलाम है और ये हत्याएं भक्ति का प्रसाद हैं.

इन से न तो इसलाम को लाभ होगा और न हिंदू धर्म को कोई नुकसान होगा. पिसेंगे तो दोनों धर्मों के लोग. दुकानों की हलवापूरी चालू रहेगी. औरतें भी मिलती रहेंगी.

गहरी पैठ

करनाल और लखीमपुर खीरी में जिस बेरहमी से किसानों को मारा गया है, इस देश के लिए कोई नया नहीं है. इस समय सरकार यह समझ नहीं पा रही कि जो किसान और मजदूर नोटबंदी के समय पूंछ दबाए लाइनों में घंटों खड़े रहे आखिर कैसे हाकिमों के सामने खड़े हो कर आंख से आंख मिला कर बात कर रहे हैं. सरकार को तो आदत है कि राजा का आदेश आकाशवाणी की तरह हो कि वह भगवान का कहा है और उसे मानना हरेक को होगा ही.

कांग्रेस सरकारों ने 60-70 सालों में मंडियों का जो जाल बिछाया था वह कोई किसानों के फायदे में नहीं था पर किसानों ने हार मान कर उस में जीना सीख लिया था क्योंकि मंडी का आढ़ती और लाला उन्हीं के आसपास के गांव का तो था जिस से रोज मेलमुलाकात होती थी.

अब सरकार दूर मुंबई, अहमदाबाद में बैठे सेठों को खेती की बागडोर दे रही है जैसे अंगरेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी को तो सिर्फ लगान की फिक्र थी, आज सरकार चाहती है कि किसान वह उगाए जो सेठ चाहें, उसे बेचें, जिसे सेठों की कंपनियां चाहें, उतने पैसे पा कर जयजयकार बोलें जितने मिल जाएं.

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सरकार को समझ नहीं आ रहा कि ऐसा क्या हो गया कि हमेशा से अपनी जाति की वजह से डरा रहने वाला किसान आज आंखें तरेर कर पूछ रहा है कि इस फरमान की क्या जरूरत है, क्यों उस की पीठ पर सेठों की कंपनियां लादी जा रही हैं, क्यों मंडियों के बिछे जालों को तोड़ा जा रहा है. सरकार का इरादा तो नेक था. वह चाहती है कि 1947 के बाद के भूमि सुधार कानूनों के बाद जो जमीनें शूद्र कहे जाने वाले किसानों को मिल गई थीं. एक बार फिर उन जमींदारों के हाथों में पहुंच जाएं जिन के नाम कंपनियों सरीखे हैं और जहां से वे किसानों का आज और कल दोनों तय कर सकें.

इंदिरा गांधी ने जब निजी कंपनियों का सरकारीकरण करा था तो उन्होंने प्राइवेट सेठों का हक छीन कर सरकारी अफसरों को दे दिया था. जनता के पल्ले तो तब भी कुछ नहीं पड़ा था. मंडी कानून भी अफसरशाही को किसानों पर बैठाने के लिए थे पर कम से कम वे मंडियां अफसरों की निजी जागीरें तो नहीं बनती थीं. उन के बच्चे बैठेबिठाए तो नहीं खा सकते थे. अब सेठों के बच्चों के अकाउंट विदेशों में खुलेंगे, पैसा वहां जमा होगा जहां टैक्स नहीं देना होता, वे हर साल 6 महीने विदेशों के मजे लेंगे और मेहनती किसान बिना अपनी जमीन के रातदिन जोत में लगेगा. किसान इस की खिलाफत कर रहे हैं तो किसानों के घरों से ही अब पुलिस बलों के सिपाहियों के हाथों उन्हें पिटवाया जा रहा है. न वह खट्टर और न वह आयुष सिन्हा जो किसानों के सिर फोड़ने की वकालत करते हुए कैमरों में पकड़े गए किसानों के घर से आए हैं.

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अगर देश के नेता किसान होते जैसे देवगौड़ा, लालू प्रसाद यादव, चरण सिंह, देवीलाल या मुलायम सिंह तो किसान कानून न बनते न आफत आती. कांग्रेस ने तो जातेजाते किसानों की जमीन को छीनने को रोकने का कानून बना दिया था और नई सरकार 7 सालों में चाह कर भी उसे अपने आकाओं के हिसाब से बदल नहीं सकी तो उस ने कृषि कानूनों का सहारा लिया है कि किसान इतने फटेहाल हो जाएं कि जमीन बेच कर कुएं में कूद जाएं. नहीं तो पुलिस के डंडे और गाडि़यां तो हैं न कुचलने के लिए.

सरकारी नौकरी किसान की जान से ज्यादा कीमती है?

मोदी सरकार का एक छिपा काम किसी तरह देश में फिर से पूरी तरह पौराणिक ऊंचनीच वाले समाज को बनाना है जिस में पैदा होते ही तय हो जाए कि कौन क्या बनेगा. रामायण और महाभारत में  2 राजसी घरों का ?ागड़ा ही सब से बड़ी बात है और पैदा होने के हक को देने या न देने पर इन पूजे जाने वाले भारीभरकम किताबों से निकलने वालों को पूजा भी जाता है और उन्हीं की तर्ज पर पैदा होने को ही जिंदगी की जड़ माना जाता है.

हमारे संविधान ने चाहे सभी अमीरों और गरीबों के बच्चों को बराबर का माना हो पर असलियत यही है कि रोजाना ऊंचे घरों में पैदा हुए लोगों की ही गारंटी है. अंबेडकर और मंडल की वजह से शैड्यूल कास्टों और बैकवर्डों को जगह मिलने लगी पर यह बात समाज के कर्ताधर्ताओं को पसंद नहीं आई और उन्होंने रामायण और महाभारत के पन्नों से कुछ पात्रों को निकाल कर जनता को ऐसा बहकाया है कि आज सादे घर में पैदा हुआ सिर्फ मजदूर बन कर रह गया है. उसे ज्यादा से ज्यादा कुछ मिल सकता है तो वह ऊंचे घरों में पैदा हुए लोगों के घरों और धंधों में छोटे कामकरना या उन की सुरक्षा करने का. पुलिस और सेना में खूब भरतियां हुई हैं पर अफसरी गिनेचुनों को मिली है. आम घरों के पैदा हुए तो सलूट ही मारते हैं चाहे उन्हें चुप करने के लिए अफसरी का बिल्ला लगाने को दे दिया गया हो.

देश में बढ़ती बेरोजगारी एक पूरी साजिश है. सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन हो गया है इसलिए सरकार ने सरकारी कारखाने धड़ाधड़ बेचने शुरू कर दिए ताकि सादे घरों में पैदा हुए लोगों को ऊंची सरकारी नौकरियां देनी ही न पड़ें. पुलिस और सेना के अलावा कहीं और थोक में भरतियां हो ही नहीं रहीं. आधुनिक टैक्नोलौजी ने निजी कंपनियों को वह रास्ता दिखा दिया जिस में सादे घरों के लोगों का काम मशीनें कर सकती हैं और उन मशीनों को ऊंचे घरों में पैदा हुए एयरकंडीशंड कमरों में बंद दफ्तरों से चला सकते हैं.

आज हालात ये हो गए हैं कि किसानों की मौतों का मुआवजा एक अदद सरकारी नौकरी रह गई है. करनाल और लखीमपुर खीरी में राकेश टिकैत जैसे जु?ारू नेता ने भी एकएक सरकारी नौकरी का वादा पा कर मौतों का सम?ौता कर लिया. बेकारी इतनी बढ़ा दी गई है कि एक सरकारी नौकरी किसान की जान से ज्यादा कीमती हो गई है.

नौकरियों को खत्म करने में नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानूनों, नागरिक कानूनों को जबरन साजिश के तौर पर लाया गया है. सरकार को पहले से पता था कि इन का क्या नुकसान होगा. इन से छोटे घरों से पनपते छोटेछोटे व्यापारी मारे जाएंगे यह एहसास सरकार को था और छोटे धंधे और छोटे व्यापार जो छोटे घरों के मेहनती युवा करने लगे थे, भारीभरकम टैक्सों, नियमों, नोटों की किल्लतों, बैंक अकाउंट रखने की जरूरत जिसे खोलना आसान नहीं है, एक पूरी साजिश की तरह थोपा गया है, ताकि देश की 80 फीसदी जनता गुलाम बन कर रह जाए. उन्हें बहलाने के लिए रामायण और महाभारत, जिसे पहले टीवी पर चला कर घरघर पहुंचा दिया गया था, से लिए पात्रों को दे दिया गया कि इन्हें बचाओ चाहे खुद मर जाओ.

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आज देश बुरी तरह कराह रहा है पर हर गरीब इसे अपने पिछले जन्मों का फल मानता है क्योंकि गीता में यही कृष्ण कह गए हैं. हर गरीब शंबूक, केवट या शबरी की तरह है, इस से ज्यादा नहीं. बेरोजगार हैं तो क्या हुआ, देश के धर्म का डंका तो बज रहा है न.

गहरी पैठ

सरकार अब वही कर रही है जो आमतौर पर अकाल या बाढ़ का शिकार किसान करता है या नौकरी छूट जाने पर उस की पत्नी करती है. जमीन और जेवर बेच कर काम चलाना. सरकारी खर्च तो आज भी बेतहाशा बढ़ रहे हैं क्योंकि इस सरकार को किफायत करने की आदत है ही नहीं. चूंकि देश की माली हालत नोटबंदी के बाद से खराब होती जा रही है जिस को जीएसटी और कोरोना ने और खराब कर दिया, खर्च के हिसाब से सरकार की आमदनी नहीं हो रही.

पैट्रोल और डीजल के दाम अगर बढ़ रहे हैं तो इसीलिए कि सरकार के पास इन को महंगा कर के वसूली करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. कहने को तो सरकार ने उज्ज्वला गैस प्रोग्राम में 9 करोड़ घरों को गैस कनैक्शन दिए पर जब गैस सिलैंडर 850 रुपए से 1,100 रुपए तक का हो यह उज्ज्वला योजना केवल दिखावा है. लोग तो फिर बटोर कर लकड़ी जलाएंगे या उपलों पर ही खाना बनाएंगे.

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सरकार अब 6,000,000,000,000 रुपए (6,000 अरब रुपए) जमा करने को लग गई है : सरकारी कारखाने, जमीनें,  कंपनियां बेच कर. मजेदार बात यह है कि बिक्री उसी धूमधाम से की जा रही है जिस धूमधाम से हमारे यहां घर के कमाऊ सदस्य के मरने के बाद 13 या 17 दिन बाद पंडेपुजारियों और समाज को खाना खिलाया जाता है. मरने वालोंका अफसोस किसी को होता हो, बाकियों की तो बन ही आती है.

इस ब्रिकी से जनता का हक बहुत सी सेवाओं में से छीन लिया जाएगा. सस्ती रेलें, खुलेआम बाग, ऐतिहासिक धरोहरें, सड़कें, बसें, अस्पताल, सरकारी कारखाने बिक जाएंगे. जो खरीदेगा वह सब से पहले छंटनी करेगा. इन सरकारी सेवाओं और कंपनियों में बहुत से तो नेताओं के ही सगे चाचाभतीजे, साले लगे थे जो काम कुछ नहीं करते थे और उन के बेकार हो जाने का अफसोस नहीं है, पर उसी चक्कर में वे भी नप जाएंगे जिन्होंने मेहनत से नौकरी पाई और जिन्होंने नौकरी में 15-20 या ज्यादा साल गुजार दिए हैं और अब किसी नई जगह नौकरी करने लायक नहीं बचे.

देश में सरकारी और गैर सरकारी नियमित वेतन वाली नौकरियां भी बस 8 करोड़ हैं. इन 8 करोड़ में से भी कितनों का सफाया हो जाएगा, पता नहीं. बहुत सी निजी नौकरियां सरकारी मशीनरी पर ही टिकी हैं और जब वह सरकारी मशीनरी दूसरे हाथ में जाएगी तो उन के सप्लायर तो बदले ही जाएंगे. इन सप्लायरों के यहां काम करने वालोंकी नौकरियां भी समझ लें कि गईं.

नए मालिकों को तो मुनाफा कमाना है. उन के लिए जनता को सेवा देते रहना या काम चालू रखना कोई शर्त सरकार नहीं रख रही. जो लोग अच्छे दिनों के ढोल बजाबजा कर स्वागत कर रहे थे उन्हें अब एक और झटका अपनी ही सरकार का दिया लगेगा.

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पर इस से फर्क नहीं पड़ता इस देश की जनता को. वह तो सदियों से इस तरह राजाओं की मनमानी सहती रही है. उसे आदत है कि हर आफत के लिए वह पिछले जन्म के कर्मों को दोष दे, सरकार को नहीं जिस की गलत नीतियों से नुकसान हुआ.

समस्या का हल पूजापाठ और मंदिरमठ नहीं है!

नरेंद्र मोदी के जन्मदिन को ही बेरोजगार दिवस जोरशोर से मना कर भारतीय जनता पार्टी के सामने खड़ी पार्टियों ने यह जता दिया है कि केवल नारों और वादों से देश की मुसीबतों का हल नहीं किया जा सकता. भारतीय जनता पार्टी जिस हिंदूहिंदू और मंदिरमठ के नाम पर राज कर रही है उस की पोल खुल रही है क्योंकि देश की क्या किसी भी आम जने की समस्या का हल पूजापाठ और मंदिर नहीं हैं, समस्या का हल तो नए कारखाने, नए व्यापार और उन को बल देने वाली उच्च तकनीकी शिक्षा है.

कोविड के कहर से दुनियाभर की सरकारों को अपने काम समेटने पड़े हैं और जनता की जान बचाने के लिए लौकडाउन करने पड़े थे पर उन देशों ने इस मौके का इस्तेमाल अपने नेता के गुणगान में नहीं किया. हमारे यहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार कोविड की मार से कराह रहे देश को नए कानूनों, नए टैक्सों और जन्मदिनों की दवा दे रही है, कोई सहायता नहीं. यह नई बात नहीं है.

हमारे किसी भी पौराणिक ग्रंथ को पढ़ लें. उस में वही सोच मिलती है जो आज भाजपा सरकार की है. शिव पुराण की पहली पंक्तियों में ही एक ऋ षि का दूसरे से मिलने पर अपने जन्म को तर जाना कहता है. भाजपा भी जनता से यही कह रही है कि हम पूजने के लिए आप को मिल रहे हैं, यह काफी नहीं है क्या. प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर 3 सप्ताह तक अखंड जागरण सा माहौल करना जताता है कि पार्टी और उस की सरकार के पास न कोईर् ठोस सोच है, न रास्ता. वह खोदखोद कर पूजापाठी स्टंटों को ढूंढ़ रही है और यह जनता की मूर्खता है कि इस भुलावे में है कि इस से उस का कल्याण हो जाएगा.

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इस देश की माटी में बहुत दम है. यहां की बारिश और गरमी भी सही जा सकती है और सर्दी भी. यहां आराम से उत्पादन भी हो रहा है और खेती भी. और इसीलिए सदियों से यहां के राजाओं और मंदिरों की शानबान की चर्र्चा दूसरे देशों में होती रही और पहाड़ों या पानी के रास्ते विदेशी इस देश में आते रहे, कुछ बसने के लिए, कुछ राज करने के लिए तो कुछ लूटने के लिए. आज बाहरी लूट से तो हम आजाद हैं पर सरकारी नीतियों और सत्ता ने जनता को अपना गुलाम बना कर लूटना शुरू कर रखा है.

नरेंद्र मोदी ने ऋ षि का रूप धारण कर के यह बताना चाहा है कि वे तो मोहमाया के झंझटों से दूर हैं, फकीर हैं और झोले वाले हैं. तो फिर उन को अपने जन्मदिन को गाजेबाजे से मनवाने की क्या जरूरत थी कि विपक्ष को उसे बेरोजगार दिवस कहने का मौका मिल गया.

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इस देश की दिक्कत यही रही है कि यहां की आम जनता मेहनती और कम में संतोष करने वाली रही है वहीं पर अपने हकों को दूसरों के हवाले करने वाली भी रही है. गांव का पुजारी हो, ठाकुर हो, इलाके का हाकिम हो या देश का राजा, उसे सिर्फपूजना आता है. जो राजा बनता है वह पुजवाने का आदी हो जाता है. नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपनी जो छवि सीधे, शरीफ व्यक्ति की बनाई थी उस पर सूटबूट तो जड़ ही गए, अब 21 दिनों के जन्मदिनों के धागे भी बंधने लगे हैं.

यह व्यक्ति पूजा ही की आदत है जो जनता को महंगी पड़ती है. पूजापाठी जनता को सिखाया ही यही जाता है. या तो उस का उद्धार कोई ऊपर वाला करेगा या राजा.

गहरी पैठ

लगभग आजादी के बाद से भारत सरकारों का गरीबों की मुसीबतों से ध्यान बंटाने में कश्मीर बड़े काम का रहा है. जब भी महंगाई, बेरोजगारी, सूखा, बाढ़, पानी की कमी, फसल के दामों, मजदूर कानून, मकानों की बात होती है, सरकारें कश्मीर के सवाल को खड़ा कर देती हैं कि पहले इसे सुलटा लें, फिर इन छोटे मामलों को देखेंगे. 1947 से ही कश्मीर की आग में लगातार तेल डाला जाता रहा है ताकि यह जलती रहे और देश की जनता को मूर्ख बनाया जाता रहे.

भारतीय जनता पार्टी के लिए तो यह मामला बहुत दिल के करीब है क्योंकि मुगल और अफगान शासनों के बाद डोगरा राज जब कश्मीर में आया तो ढेरों पंडितों को वहां अच्छे ओहदे मिले पर 1985 के बाद जब कश्मीर में आतंकवाद पनपने लगा तो उन्हें कश्मीर छोड़ कर जम्मू या अन्य राज्यों में जाना पड़ा. इन पंडितों की बुरी हालत का बखान भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा रहा है, गरीबों, किसानों, मजदूरों की मुसीबतें नहीं.

अब कश्मीर के मसले में पाकिस्तान की जगह अफगानिस्तान के तालिबानी भी आ कूद पड़े हैं. अफगानों ने कश्मीर पर 1752 से 1819 तक राज किया था और एक लाख से ज्यादा पश्तून वहां रहते हैं. तालिबानी शासकों ने साफसाफ कह दिया है कि उन्हें कश्मीर के मामले में बोलने का हक है. और चूंकि अफगानिस्तान पर पूरे कब्जे के बाद तालिबानियों के हौसले अब बुलंद हैं और चीन, रूस भी उन से उल?ाने को तैयार नहीं और पाकिस्तान तो उन का साथी है ही, कश्मीर का विवाद अब तेज होगा ही.

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नरेंद्र मोदी की सरकार अब इस मामले को चुनावों में कैसे भुनाती है, यह देखना है. 1947 के बाद अफगानिस्तान कश्मीर के मामले में आमतौर पर चुप रहा है और पाकिस्तान ही कश्मीर की पैरवी करता रहा है. पाकिस्तान का नाम ले कर अपने यहां हिंदू खतरे में है का नारा लगा कर चुनाव जीतना काफी आसान है. लोगों को चाहे फर्क नहीं पड़ता हो, पर हवा जो बांधी जाती है उस में हाय पाकिस्तान, हाय पाकिस्तान इतना होता है कि चुनाव में लगता है कि विपक्षी दल तो हैं ही नहीं और चुनाव में पाकिस्तान और देश में से एक को चुनना है. रोटी, कपड़ा, मकान बाद में देखेंगे, पहले कश्मीर और पाकिस्तान को सुलटा लें.

तालिबानी लड़ाकुओं से निबटना भारत के लिए आसान नहीं होगा. काबुल और इसलामाबाद की दोस्ती की वजह से तालिबानी लड़ाकू आसानी से भारतीय सीमा पर डटे सैनिकों से भिड़ने आ सकते हैं. चूंकि तालिबानी मरने से डरते नहीं हैं और उन के पास जो अमेरिकी हथियारों का भंडार है उसे कश्मीर में ही इस्तेमाल किया जा सकता है, हमारे लिए चिंता की बात है. हमें कश्मीर को तो बचाना है पर यह जो बहाना बनेगा सरकार के निकम्मेपन को छिपाने का, यह दोहरी मार होगी.

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अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं को भी भगा देने से अफगानों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है और वे तालिबानी पंजे कहांकहां फैलाएंगे, पता नहीं. भारत उन के चंगुल में फंसेगा या बचेगा अभी नहीं कहा जा सकता. कट्टर हिंदू भाजपा सरकार और कट्टर इसलामी तालिबानी सरकारों की आपस में बनेगी, इस की गुंजाइश कम है. गरीबों की रोजीरोटी और मकान के मसले चुनावी जंग में फिर पीछे कहीं चले जाएंगे.

गहरी पैठ

किसानों की मांगों को न मान कर भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी भूल कर रही है जिस के लिए उसे लंबे समय तक पछताना पड़ेगा. यह सोच कर भारतीय जनता तो हिंदूमुसलिम, राम मंदिर, यज्ञशालाओं, पाखंडी पूजापाठों से बहकाई जा सकती है, एक छलावा है. किसानों को दिख गया है कि भारतीय जनता पार्टी के कृषि कानूनों से उन को कोई फायदा नहीं होगा और इसीलिए धीरेधीरे ही सही, यह आंदोलन हर जगह पनप रहा है.

भाजपा को अगर खुशी है कि सारे देश में एकदम सारे किसान उठ खड़े नहीं हुए तो यह बेमतलब की बात है. किसानों के लिए किसी आंदोलन में भाग लेना आसान नहीं क्योंकि उन के लिए खेती जरूरी है और 10-20 दिन धरने पर बैठ कर या जेल में बंद रह कर फसल की देखभाल नहीं की जा सकती, इसलिए हर गांव के कुछ लोग ही आंदोलन में हिस्सा लेते हैं और वे भी हर रोज नहीं, केवल तभी जब उन के आसपास हो रहा है.

वैसे सरकार ने इस कानून को ठंडे बस्ते में डाल रखा है और न मंडियां तोड़ी गई हैं और न न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी बंद हुई है. मंच पर चढ़ कर तो नेता यही कह रहे हैं कि उन्होंने रिकौर्ड खरीद की है. अगर रिकौर्ड खरीद की होती और किसानों के हाथों में पैसा होता तो 90 करोड़ लोगों को 4 माह तक मुफ्त 5 किलो अनाज देने की जरूरत ही नहीं पड़ती.

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अगर गांवों में बरकत हो रही होती तो अमेरिका की तरह यहां मजदूरों का अकाल पड़ रहा होता. यहां तो बेरोजगारी बढ़ रही है जिन में अगर शहरी पढ़ेलिखे युवा हैं तो गांव के अधपढ़े भी करोड़ों में क्यों हैं? किसानों को दिख रहा है कि किस तरह मोटे पैसे से आज टैक कंपनियों ने कितने ही क्षेत्रों में मोनोपौली खड़ी कर ली है. आज छोटी कंपनियों का सामान बिक ही नहीं रहा. एमेजन और फ्लिपकार्ड ने किराने की दुकानों के सामने संकट खड़ा कर दिया है. ओला ने छोटे टैक्सी स्टैंडों की टैक्सियों का सफाया कर डाला है.

अडानीअंबानी चाहे न आएं और हजारों दूसरे व्यापारी भी आएं, किसान कानून छोटे किसानों, छोटे आढ़तियों, छोटे व्यापारियों को लील ले जाएंगे, यह दिख रहा है. इन के पास केवल पीठ पर सामान लाद कर घरघर पहुंचाना रह जाएगा और पैसा भी नहीं दिखेगा.

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किसानी बीघाओं में हजारों एकड़ों में होगी जैसी चाय की होती है, जहां पहले से बहुत बड़ी कंपनियों ने अंगरेजों से पहाड़ खरीदे थे.

किसान कानून मुनाफे वाली सारी उपज अमीरों के हाथों में पहुंचा सकते हैं और सस्ती उपजों को गरीब किसान और गरीब व्यापारी तक ही बांध सकते हैं. इस कानून का समर्थन सिर्फ पूजापाठी लोग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें मोदी सरकार हर हालत में बचानी है जो मंदिर के धंधे को और जाति की ऊंचनीच को बनाए रखे. भाजपा अपने आज के मतलब के लिए समाज को इस तरह बांट रही है कि जब लूट हो तो कोई एकदूसरे की तरफदारी करने न आए.

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पंजाब से चला यह आंदोलन आज सिख किसानों के बाद उत्तर प्रदेश के किसानों में बुरी तरह फैल गया है. अब तो भाजपा को रैलियों में लोग मिलने बंद हो गए हैं क्योंकि पहले किसानों को बस की सवारी और 4 बार हलवापूरी के नाम पर हांक कर ले आया जा सकता था. अब वे 100 रुपए लिटर के डीजल को खर्च कर के टेढे़मेढे़ रास्तों से टै्रक्टरों पर इधर से उधर आंदोलन के लिए जा रहे हैं तो इस में दम है, बहुत दम है.

आखिर क्यों लड़कियों को ही माना जाता हैं रेप के लिए दोषी?

गरीब कमजोर लड़कियों को, खासतौर पर अगर वे निचले वर्गों से आती हों तो, रेप करने का हक हर ऊंची जाति का मर्द पैदायशी और धर्म की मोहर वाला मानता है. निचले लोग तो होते ही सेवा के लिए हैं और भोग की चीज बनाने में कोई हर्ज नहीं है, यह सोच देश के गांवगांव में भरी है. 2014 में बरेली के पास के एक गांव में दोपहर में 3 मर्दों ने तमंचे के बल पर एक शादीशुदा लड़की का रेप किया. उस की हिम्मत थी कि उस ने पुलिस, मजिस्टे्रट और डाक्टर को पूरी बात बताई और फास्टटै्रक अदालत में मामला गया.

चूंकि फास्टटै्रक कोर्ट भी ऐसे मामले को हलके में ही लेती है, गवाही तक काफी समय बीत गया और जब लड़की से अदालत ने बयान लिया तो वह मुकर गई. जाहिर है इतने दिन काफी थे एक गरीब लड़की के घर वालों को धमकाने में. ये गरीब लड़कियां न सिर्फ कमजोर हैं, उन के घर वालों ने दिमाग में भरा है कि इस तरह के जुल्म सहना तो उन के भाग में लिखा है जो पिछले जन्मों के कर्मों का फल है.

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ऐसा बहुत मामलों में होता है. मुंबई में 2015 में एक साढ़े 3 साल की बच्ची को रेप करने के मामले में एक लड़के को  6 साल जेल में तो रखा गया पर जब गवाही का समय आया तो मातापिता खिलाफ बोलने से मुकर गए. लड़की से पूछताछ वे कराना नहीं चाहते थे क्योंकि वह हादसा भूल सी चुकी थी.

भुवनेश्वर में 2003 में एससीएसटी जाति की एक मजदूरनी को रेप करने के आरोप में एक शख्स पकड़ा गया पर वह 2004 में जमानत पा गया. ट्रायल कोर्ट ने 2012 में उसे अपराधी माना पर गवाही में औरत ने कहा था कि उसे याद नहीं कि इन में से कौन लोग थे जो रात को इस अनाथ लड़की के घर में घुसे थे. उड़ीसा हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया.

18 साल की एक लड़की ने अपने ममेरे भाई के खिलाफ नोएडा में शिकायत दर्ज कराई थी कि उस का कई बार बलात्कार किया गया और धमकी दी गई कि किसी को बताए न. जब उस ने शिकायत की तो उस लड़के को पकड़ा गया और कुछ महीनों में उसे जमानत मिल गई. गवाही में लड़की अपनी शिकायत से मुकर गई और एक गवाह जो उस का दादा ही था, वह भी मुकर गया और अपराधी बच निकला.

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रेप के मामले होते ही इसलिए हैं कि लड़कियों के मन में कूटकूट कर भर दिया गया है कि रेप की दोषी वे खुद हैं और गांवों, कसबों से ले कर शहरों तक यह खेल चलता है. हर लड़की को समझा दिया जाता है कि अगर जेल हो भी गई तो लड़की को तो गंदा मान लिया ही जाएगा, इसलिए पहले शिकायत करने के बाद भी लड़कियों को कहा जाता है कि वे मुकर जाएं कि उन के साथ रेप किया गया था ताकि इज्जत बची रहे.

औरतों और खासतौर पर गरीब और निचली, पिछड़ी जातियों का रेप करना आसान रहता है क्योंकि उन को समझा दिया जाता है कि ऊंचे लोगों को तो खुश करना ही उन का काम है. हमारे देश के चकले और देहव्यापार के केंद्र इन्हीं लड़कियों से भरे हैं. रेप हमेशा होते रहे हैं और होते रहेंगे पर चोरीडकैती भी हमेशा होती रही है और होती रहेगी. पर चोर और डाकू का शिकार अपने को अपराधी नहीं मानता जबकि लड़की रेप के बाद खुद को ही गलत मानती है और यही बड़ी वजह है कि धड़ल्ले से रेप होते हैं. जब तक रेप के आरोपी छूटते रहेंगे तब तक हिम्मत बनी रहेगी, यह पक्का है और अगर शिकार के मुकरने से छूट जाओ तो समझो गंगा नहा कर पाप धो आए. पाप करो, फिर गंगा नहाओ बस.

देश में धर्म के नाम पर दंगे हो रहे हैं!

भारतीय जनता पार्टी के भक्त आजकल नाखुश हैं कि उन का रिजर्वेशन हटाने का सपना दूर होना तो दूर रिजर्वेशन किसे मिलेगा यह छूट उन की राज्य सरकारों को मिल गई है. लोकसभा और राज्यसभा ने एक संविधान बदलाव से सुप्रीम कोर्ट की बंदिश को हटाने की कोशिश की है. सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि कौन रिजर्वेशन पा सकता?है इस की सूची केंद्र सरकार ही बनाएगी. इस में बहुत दिक्कतें थीं क्योंकि कुछ जातियां एक राज्य में ऊंची थीं और दूसरे में नीची.

अभी तो सारे सांसद 50 फीसदी की लिमिट को हटाने की मांग कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी की हिम्मत नहीं हो रही है कि वह इस का खुल्लमखुल्ला विरोध कर सके.

देश में जो भी धर्म के नाम पर दंगे हो रहे हैं उन के पीछे हिंदुओं में जाति है. जाति के नाम पर बंटे हिंदुओं को भगवे लोगों को एक डंडे के नीचे लाने के लिए वे भगवा झंडा फहरा कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते हैं. इस से लोग अपने पर जाति के कारण हो रहे जुल्म भूल जाते हैं और अपना दुश्मन ऊंची जातियों के कट्टरों को न मान कर मुसलमानों को मानना शुरू कर देते हैं.

यह तरकीब सदियों से काम में आ रही है. गीता का पाठ जिस में कर्म और जन्म का उपदेश दिया गया है, दो भाइयों को लड़वा कर दिया गया था न. भाइयों की लड़ाई में जाति और जन्म का सवाल कहीं नहीं था क्योंकि दोनों कुरु वंश के थे पर कृष्ण ने उसी लड़ाई के मैदान को जाति को जन्म से जोड़ डाला और आज सैकड़ों सालों तक वह हुक्म जिंदा है. जैसे भाइयों को बांट कर इसे थोपा गया था वैसे ही आज जाति के नाम पर समाज को बांट कर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करे जा रहे हैं.

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भारतीय जनता पार्टी को जिताया गया था कि वह कृष्ण के गीता के पाठ और मनुस्मृति को और जोर से लागू करे पर वोटर की ताकत के कारण आधापौना लौलीपौप बांटना पड़ रहा है.

50 फीसदी की सीमा की कोई वजह नहीं है. यह सुप्रीम कोर्ट ने मरजी से थोप दी. पिछड़े इसे हटवाना चाहते हैं. हालांकि कुछ लाख सरकारी नौकरियों और कुछ लाख को पढ़ने के मौकों से कुछ बननेबिगड़ने वाला नहीं है. पर इस बहाने कुछ सत्ता में भागीदारी हो जाती है. वैसे हमारी पौराणिक कथाएं भरी हैं कि जब भी काले दस्युओं को राज मिला बेईमानी कर के उन से राज छीन लिया गया. यही आज गलीगली में हो रहा है.

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भाजपा को मीडिया में जो सपोर्ट मिली है वह इन लोगों से मिली है जो नहीं चाहते कि पिछड़े और निचलों को जरा भी रिजर्वेशन मिले. वे मोदी को अपना देवता इसलिए मान रहे थे कि वह ओरिजिनल हिंदू पौराणिक धर्म पिछड़ों और दलितों पर थोपेगा. उन्हें कांग्रेस और लालू यादवों जैसों से चिढ़ इसीलिए है कि वे बराबरी का हक मांग रहे हैं. हाल का बदलाव राज्य सरकारों को हक देता है पर किसी दिन 50 फीसदी की सीमा भी हटेगी और तब पूरी तरह ऊंची जमातों की भाजपा से तलाक की नौबत आएगी.

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