यह इस देश के आम लोगों की हिम्मत ही कही जाएगी कि हर तरह के कोविड के खतरे के बावजूद जैसे ही लौकडाउन खुलता है लोग सड़कों, बाजारों, चौराहों पर जमा होने लगते हैं मानो कुछ नहीं हो रहा है या हो सकता है. कोविड 19 के खूनी पंजों से जो बच गया वह अपने को बिलकुल पहलवान समझ लेता है और बिना मास्क लगाए सटसट कर चलने का हक इस्तेमाल करने लगता है. हर शहर, राज्य में पुलिस के लिए कोविड के सिस्टम को लागू करे रखना मुश्किल हो रहा है और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने न तो चारधाम यात्रा होने दी, न कांवड़ यात्रा.
यह पक्का था कि अगर ये होतीं तो प्रसाद में सारे देश में कोविड खुलेआम बंटता और लाखों फिर मरते. यह जानते हुए भी कि एकदूसरे को छूने और एकदूसरे की सांस के पास आने से कोरोना वायरस एक से दूसरे पर जा सकता है, लोग अपनी हिम्मत का खुला दरसन कराते हैं और कहते हैं कि कोविड उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकता.
वैसे भी इस देश की 80 फीसदी जनता हर कोविड जैसे खतरों में काम करती है. खेतों में सांपबिच्छू का डर रहता है. किसानों को हर समय बाढ़ व सूखे का डर रहता है. खेती के औजार खराब होने से मौतों का डर रहता है. पहाड़ों पर चढ़ते हुए फिसलने का डर रहता है. कुएं को खोदते हुए मिट्टी बहने का डर रहता है. मकान बनाते हुए दीवार गिरने या छत गिरने का डर रहता है.
गरीबों की रसोई भी बीमारियों से घिरी रहती है. खुले में खाना बनता है, खुले में रहता है. धूलमिट्टी तो होती है, पानी भी जो वे इस्तेमाल करते हैं, जहरीला हो सकता है. कपड़ों में बदबू रहती है. पैरों में चप्पल नाम की होती है. दस्ताने पहन कर काम करने का रिवाज हमारे यहां है ही नहीं. जहां पलपल मौत का सामना करने की आदत हो वहां आप चाहे जितने कागजी हंटर चला लें, कोई सुनेगा नहीं. तभी तो 24 मार्च, 2020 को लौकडाउन अनाउंस होते ही लाखों मजदूर पैदल ही 1000-2000 किलोमीटर चलने लगे कि अपने गांव पहुंच जाएं. वे जानते थे कि कौन रास्ते में मर जाएगा क्या पता.
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ऐसे लोगों को हाथ धोना, मास्क पहनना, दूरी बनाए रखना, भीड़ जमा न करना सिखाया ही नहीं जा सकता. जो जान को हर समय हथेली पर रख कर चलते हैं उन्हें कोविड डस सकता है पर डरा नहीं सकता.