गणतंत्र दिवस स्पेशल: एक 26 जनवरी ऐसी भी

हर रविवार की तरह आज भी मयंक देर तक सोता रहा. दोपहर के तकरीबन 12 बजे आंख खुली तो उस ने अपना मोबाइल फोन टटोलना शुरू किया. मोबाइल फोन का लौक ओपन कर के ह्वाट्सएप चैक किया. देखा कि आज कुछ ज्यादा ही लोगों ने स्टेट्स अपडेट कर रखा है.

देखने से पता चला कि आज 26 जनवरी है, जिस की वजह से सब ने देशभक्ति से जुड़े स्टेटस डाले. तब उसे याद आई कि आज तो उस की पत्नी स्नेहा ने सोसाइटी में एक रंगारंग कार्यक्रम भी रखा है.

हर रविवार को उठने से पहले ही बिस्तर पर चाय मिल जाया करती थी, आज स्नेहा लेट कैसे हो गई? कुछ देर इंतजार करने के बाद उस ने आवाज लगाई, ‘‘स्नेहा, मेरी चाय कहां है?’’

पर कोई जवाब न मिलने से मयंक खीज गया. बैडरूम से निकल कर बाहर जा कर देखा तो कोई था ही नहीं. न बच्चे और न ही स्नेहा. मयंक और ज्यादा गुस्सा होते हुए तेज कदमों से वापस कमरे में गया और फोन उठाया.

जैसे ही उस ने स्नेहा को फोन लगाया, उस की नजर स्टडी टेबल पर बहुत ही बेहतरीन तरीके से सजाए हुए एक लिफाफे पर पड़ी, जिस पर बहुत ही खूबसूरत तरीके से लिखा हुआ था, ‘एक त्योहार ऐसा भी’.

मयंक ने बिना समय गंवाए वह लिफाफा खोला और पढ़ना शुरू किया:

‘डियर हसबैंड,

‘आज मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. मैं यह घर छोड़ कर जा रही हूं. हमेशा के लिए नहीं, लेकिन 2 महीने के लिए जरूर. कल रात तुम ने मुझ पर हाथ उठाया था. मुझे उस का कोई गम नहीं है, क्योंकि यह कोई पहली दफा नहीं हुआ था जो तुम ने मुझ पर हाथ उठाया, पर कल रात तुम ने बिना मुझे समझे यह दर्द दिया.

‘आप यह भी मत सोचो कि मैं आप से नाराज हूं, इसलिए जा रही हूं. मैं आप से नाराज नहीं हूं. बस मैं जा रही हूं लौट आने के लिए, क्योंकि जब हम बीमार होते हैं तो न चाहते हुए भी कड़वी दवा लेते हैं, क्योंकि हम अच्छे से जानते हैं कि कड़वी दवा ही हमें ठीक कर सकती है. शायद कुछ दिन की ये दूरियां हमारी जिंदगी में हमेशा के लिए नजदीकियां ला दें.

‘कल से जब आप औफिस जाएंगे, तो शायद आप को आप का सामान देने वाला कोई नहीं होगा. बाथरूम में तौलिया भी खुद ले जाना पड़ेगा. शायद आप की जुराब भी जगह पर न मिले, गाड़ी की चाबी भी खुद ही ढूंढ़नी पड़े, शाम को घर आते ही आप की नाइट डै्रस भी जगह पर न हो कर बाथरूम में ही उलटी टंगी मिले. बैड पर एक भी सिलवट पसंद न करने वाले को वैसा ही बैड मिलेगा, जैसा कि वह छोड़ कर गया था.

‘एक आवाज पर चायपानी हाथ में न मिले, खाना खाते वक्त कोई नहीं होगा जो रिमोट ढूंढ़ कर आप को दे दे, रात को नींद खुलने पर प्यास लगने पर पानी का जग भरा हुआ न मिले, सुबह मोबाइल फोन भी डिस्चार्ज मिले, क्योंकि कोई नहीं होगा, जो तुम्हारा मोबाइल फोन चार्ज कर दे.

‘मैं आप को यह नहीं जता रही हूं कि आप मेरे बिना यह काम नहीं कर पाएंगे. बेशक, आप सब हैंडल कर लेंगे, बस यही कि यह सब करते वक्त आप को अहसास होगा कि कोई था जो मेरे बिना कहे सब समझाया करता था कि मुझे कब किस चीज की जरूरत है. क्या मुझे भी उसे पूरा नहीं तो थोड़ा तो समझने की जरूरत है.

‘पिछले 8 सालों से मैं हर रोज तुम्हें और अपने बच्चों को हर तरह की खुशियां देने में ही लगी हूं. मैं तुम से शिकायत नहीं कर रही हूं. बस एक गुजारिश है कि मैं तुम्हारे लिए ही आई हूं, तो क्या तुम मुझे थोड़ा भी नहीं सम झ सकते.

‘मांबाबा के गुजर जाने के बाद जब भैयाभाभी ने मेरी तुम से शादी की थी, तब से तुम ही मेरे लिए सबकुछ हो. तुम्हारे औफिस में बिजी रहने के चलते इस अनजान शहर मैं हर सामान लेने के लिए भटकती हूं.

‘‘मैं तुम्हें कोई दोष नहीं दे रही हूं, बस यही कहना चाहती हूं कि तुम मुझे समझ जाओ, क्योंकि तुम ही हो जो मुझे समझ सकते हो. मेरे लिए भी यहां से जाना इतना आसान नहीं था, पर मैं यहां से जा रही हूं. अपना खयाल रखना.

‘तुम्हारी संगिनी.’

यह चिट्ठी पढ़ने के बाद मयंक के चेहरे का तो जैसे रंग ही उड़ गया. उस ने फौरन मोबाइल पर स्नेहा का नंबर डायल किया और आवाज आई, ‘जिस नंबर से आप संपर्क करना चाहते हैं, वह या तो अभी बंद है या नैटवर्क क्षेत्र से बाहर है. लगातार डायल करने पर भी यही जवाब मिला.

अलमारी चैक की तो स्नेहा का पर्स भी नहीं था. स्कूटी भी घर में ही थी. घर से बाहर निकल कर पड़ोसी मिश्राजी से पूछा कि स्नेहा कुछ बोल कर गई है क्या?

मिश्राजी ने जवाब दिया, ‘‘नहीं मयंक बेटा, कुछ बोल कर तो नहीं गई, पर जाते वक्त मैं ने उसे देखा था. दोनों बच्चों के साथ और एक बैग ले कर गई है.’’

मयंक के तो हाथपैरों ने जैसे जवाब ही दे दिया. उसे हर वह बात याद आ रही थी, जब उस ने स्नेहा पर अपना गुस्सा निकाला. उसे अपशब्द बोले.

बालों में हाथ फेरता हुआ मयंक वहीं बरामदे में बैठ गया. न जाने कौनकौन सी बातें उस के जेहन में आ रही थीं. वक्त का तो जैसे उसे पता ही नहीं चला. बेमन से उठ कर रूम में आया तो देखा कि गैलरी का गेट खुला होने के चलते रूम पर जैसे मच्छरों ने ही कब्जा कर लिया हो. मच्छर भागने की मशीन चालू करने गया तो देखा रिफिल खत्म हो चुकी है और कमरे में तो मच्छरों की पार्टी शुरू हो गई थी.

बहुत ढूंढ़ने के बाद फास्ट कार्ड मिला, उसे जलाया और लेट गया. पर फास्ट कार्ड की बदबू उसे और भी गुस्सा दिला रही थी. कुछ अजीब सा मुंह बनाने के बाद उसे अहसास हुआ कि कुछ अच्छी महक आ रही है. उस ने तेज कदमों के साथ नीचे जा कर देखा तो स्नेहा किचन में काम कर रही थी. उसे कुछ भी समझ नहीं आया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि खुश होवे या गुस्सा करे.

मयंक ने स्नेहा का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘तुम तो चली गई थी न, फिर वापस क्यों आई?’’

स्नेहा बोली, ‘‘कहां चली गई थी? मुझे कुछ सम झ नहीं आ रहा है. क्या बोल रहे हो? कहां चली गई थी?’’

मयंक चिढ़ते हुए बोला, ‘‘अच्छा तो दिनभर से कहां थी? बैग ले कर गई थी न, और वह चिट्ठी जो मेरे लिए छोड़ कर गई थी.’’

स्नेहा फिर बोली, ‘‘मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है कि तुम क्या बोल रहे हो और कौन सी चिट्ठी की बात कर रहे हो?’’

मयंक और गुस्से में आ कर बोला, ‘‘स्नेहा, अब मुझे गुस्सा मत दिलाओ. सचसच बताओ.’’

स्नेहा थोड़ा सा चिढ़ते हुए बोली, ‘‘क्या बताऊं?’’

मयंक ने बिना देर लगाए जेब से चिट्ठी निकाल कर स्नेहा को पकड़ाई और कहा, ‘‘यह चिट्ठी.’’

चिट्ठी हाथ में लेते ही स्नेहा की तो मानो हंसी ही नहीं रुक रही थी. मयंक आंखें फाड़फाड़ कर देख रहा था. कुछ देर तक स्नेहा को हंसते हुए देखकर मयंक ने कहा, ‘‘स्नेहा, जवाब दो मुझे.’’

स्नेहा कुछ मजाकिया अंदाज में बोली, ‘‘मैनेजर साहब, यह चिट्ठी आप के लिए नहीं है. यह तो आज 26 जनवरी पर हमारी महिला मंडली ने सुबह झंडा फहराने और उस के बाद उसे सैलिब्रेट करने और उस में मेहंदी या बैस्ट डै्रस प्रतियोगिता की जगह एक कहानी प्रतियोगिता रखी है, जिस में सब को एक कहानी लिखनी है.

‘‘जो चिट्ठी तुम ने पकड़ रखी है, वह मेरी लिखी हुई कहानी है. सुबह से सब 26 जनवरी को सैलिब्रेट करने की तैयारी के लिए इकट्ठा हुए थे, तो मैं वहां गई थी. और वैसे भी आज छुट्टी थी, तो बच्चे ख्वाहमख्वाह तुम्हें परेशान करते, तो मैं इन्हें भी अपने साथ ले गई.

‘‘पास में ही जाना था तो स्कूटी भी नहीं ले गई. अब प्रतियोगिता टाइम हुआ है तो तैयार होने और यह लिफाफा लेने आई हूं.

‘‘वैसे, तुम्हें क्या हो गया है? ऐसे क्यों बरताव कर रहे हो? चाय नहीं मिली इसलिए क्या? तुम सोए थे तो मैं ने तुम्हें जगाया नहीं… सौरी.’’

कुछ सोचने के बाद मयंक बोला, ‘‘तुम्हारा फोन क्यों स्विच औफ आ रहा था?’’

स्नेहा खीजते हुए बोली, ‘‘यह है न तुम्हारी औलाद, गेम खेलखेल कर बैटरी ही खत्म कर देती है.’’

मयंक मुसकराते हुए बोला, ‘‘ओके, कोई बात नहीं. तुम तैयार हो जाओ, मैं तुम्हें छोड़ आऊंगा और बच्चों को भी मैं संभाल लूंगा. वैसे भी आज तो तुम्हें थोड़ा ज्यादा ही सजना होगा.’’

स्नेहा तैयार हो कर जब सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी, तो मयंक ने कुछ आशिकाना अंदाज में कहा, ‘‘नजर न लग जाए मेरी जान को. बहुत खूबसूरत लग रही हो.’’

स्नेहा हलकी सी मुसकराहट के साथ बोली, ‘‘वैसे, मैं ने कुछ कहा ही नहीं, उस से पहले ही बोल दिए जनाब.’’

पूरे रास्ते मयंक मंदमंद मुसकराता रहा. स्नेहा के पूछने पर भी कुछ नहीं बोला.

जैसे ही स्नेहा कार्यक्रम वाली जगह पर पहुंची, तो मयंक ने पीछे से आवाज लगाई और उस का हाथ पकड़ कर माथे को चूम कर कहा, ‘‘आज तुम यह प्रतियोगिता जीतो या न जीतो, पर आज तुम ने मुझे जरूर जीत लिया है. तुम ने अपने नाम की तरह मुझे बहुत स्नेह दिया है. मैं भी आज तुम से वादा करता हूं कि तुम्हें कभी कोई दुख नहीं दूंगा. हमेशा तुम्हें खुश रखूंगा.’’

स्नेहा की आंखों से आंसू आ रहे थे. वह कुछ भी बोल नहीं पाई. बस उस का मन यही कह रहा था. एक 26 जनवरी ऐसी थी, जिस ने मुझे समझने वाला मेरा हमसफर लौटा दिया.

आंधी से बवंडर की ओर

फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

अधूरे प्यार की टीस: क्यों हुई पतिपत्नी में तकरार – भाग 1

राकेशजी अपनी पत्नी सीमा को भरपूर प्यार व सम्मान देते थे और उस की जरूरतों का भी काफी खयाल रखते थे पर सीमा के मन में एक ऐसी शंका ने जन्म ले लिया जिस की वजह से उन की गृहस्थी बिखर गई.

आज सुबह राकेशजी की मुसकराहट में डा. खन्ना को नए जोश, ताजगी और खुशी के भाव नजर आए तो उन्होंने हंसते हुए पूछा, ‘‘लगता है, अमेरिका से आप का बेटा और वाइफ आ गए हैं, मिस्टर राकेश?’’

‘‘वाइफ तो नहीं आ पाई पर बेटा रवि जरूर पहुंच गया है. अभी थोड़ी देर में यहां आता ही होगा,’’ राकेशजी की आवाज में प्रसन्नता के भाव झलक रहे थे.

‘‘आप की वाइफ को भी आना चाहिए था. बीमारी में जैसी देखभाल लाइफपार्टनर करता है वैसी कोई दूसरा नहीं कर सकता.’’

‘‘यू आर राइट, डाक्टर, पर सीमा ने हमारे पोते की देखभाल करने के लिए अमेरिका में रुकना ज्यादा जरूरी समझा होगा.’’

‘‘कितना बड़ा हो गया है आप का पोता?’’

‘‘अभी 10 महीने का है.’’

‘‘आप की वाइफ कब से अमेरिका में हैं?’’

‘‘बहू की डिलीवरी के 2 महीने पहले वह चली गई थी.’’

‘‘यानी कि वे साल भर से आप के साथ नहीं हैं. हार्ट पेशेंट अगर अपने जीवनसाथी से यों दूर और अकेला रहेगा तो उस की तबीयत कैसे सुधरेगी? मैं आप के बेटे से इस बारे में बात करूंगा. आप की पत्नी को इस वक्त आप के पास होना चाहिए,’’ अपनी राय संजीदा लहजे में जाहिर करने के बाद डा. खन्ना ने राकेशजी का चैकअप करना शुरू कर दिया.

डाक्टर के जाने से पहले ही नीरज राकेशजी के लिए खाना ले कर आ गया.

‘‘तुम हमेशा सही समय से यहां पहुंच जाते हो, यंग मैन. आज क्या बना कर भेजा है अंजुजी ने?’’ डा. खन्ना ने प्यार से रवि की कमर थपथपा कर पूछा.

‘‘घीया की सब्जी, चपाती और सलाद भेजा है मम्मी ने,’’ नीरज ने आदरपूर्ण लहजे में जवाब दिया.

‘‘गुड, इन्हें तलाभुना खाना नहीं देना है.’’

‘‘जी, डाक्टर साहब.’’

‘‘आज तुम्हारे अंकल काफी खुश दिख रहे हैं पर इन्हें ज्यादा बोलने मत देना.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब.’’

‘‘मैं चलता हूं, मिस्टर राकेश. आप की तबीयत में अच्छा सुधार हो रहा है.’’

‘‘थैंक यू, डा. खन्ना. गुड डे.’’

डाक्टर के जाने के बाद हाथ में पकड़ा टिफिनबौक्स साइड टेबल पर रखने के बाद नीरज ने राकेशजी के पैर छू कर उन का आशीर्वाद पाया. फिर वह उन की तबीयत के बारे में सवाल पूछने लगा. नीरज के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि वह राकेशजी को बहुत मानसम्मान देता था.

करीब 10 मिनट बाद राकेशजी का बेटा रवि भी वहां आ पहुंचा. नीरज को अपने पापा के पास बैठा देख कर उस की आंखों में खिं चाव के भाव पैदा हो गए.

‘‘हाय, डैड,’’ नीरज की उपेक्षा करते हुए रवि ने अपने पिता के पैर छुए और फिर उन के पास बैठ गया.

‘‘कैसे हालचाल हैं, रवि?’’ राकेशजी ने बेटे के सिर पर प्यार से हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया.

‘‘फाइन, डैड. आप की तबीयत के बारे में डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘बाईपास सर्जरी की सलाह दे रहे हैं.’’

‘‘उन की सलाह तो आप को माननी होगी, डैड. अपोलो अस्पताल में बाईपास करवा लेते हैं.’’

‘‘पर, मुझे आपरेशन के नाम से डर लगता है.’’

‘‘इस में डरने वाली क्या बात है, पापा? जो काम होना जरूरी है, उस का सामना करने में डर कैसा?’’

‘‘तुम कितने दिन रुकने का कार्यक्रम बना कर आए हो?’’ राकेशजी ने विषय परिवर्तन करते हुए पूछा.

‘‘वन वीक, डैड. इतनी छुट्टियां भी बड़ी मुश्किल से मिली हैं.’’

‘‘अगर मैं ने आपरेशन कराया तब तुम तो उस वक्त यहां नहीं रह पाओगे.’’

‘‘डैड, अंजु आंटी और नीरज के होते हुए आप को अपनी देखभाल के बारे में चिंता करने की क्या जरूरत है? मम्मी और मेरी कमी को ये दोनों पूरा कर देंगे, डैड,’’ रवि के स्वर में मौजूद कटाक्ष के भाव राकेशजी ने साफ पकड़ लिए थे.

‘‘पिछले 5 दिन से इन दोनों ने ही मेरी सेवा में रातदिन एक किया हुआ है, रवि. इन का यह एहसान मैं कभी नहीं उतार सकूंगा,’’ बेटे की आवाज के तीखेपन को नजरअंदाज कर राकेशजी एकदम से भावुक हो उठे.

‘‘आप के एहसान भी तो ये दोनों कभी नहीं उतार पाएंगे, डैड. आप ने कब इन की सहायता के लिए पैसा खर्च करने से हाथ खींचा है. क्या मैं गलत कह रहा हूं, नीरज?’’

‘‘नहीं, रवि भैया. आज मैं इंजीनियर बना हूं तो इन के आशीर्वाद और इन से मिली आर्थिक सहायता से. मां के पास कहां पैसे थे मुझे पढ़ाने के लिए? सचमुच अंकल के एहसानों का कर्ज हम मांबेटे कभी नहीं उतार पाएंगे,’’ नीरज ने यह जवाब राकेशजी की आंखों में श्रद्धा से झांकते हुए दिया और यह तथ्य रवि की नजरों से छिपा नहीं रहा था.

‘‘पापा, अब तो आप शांत मन से आपरेशन के लिए ‘हां’ कह दीजिए. मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं,’’ व्यंग्य भरी मुसकान अपने होंठों पर सजाए रवि कमरे से बाहर चला गया था.

‘‘अब तुम भी जाओ, नीरज, नहीं तो तुम्हें आफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

राकेशजी की इजाजत पा कर नीरज भी जाने को उठ खड़ा हुआ था.

‘‘आप मन में किसी तरह की टेंशन न लाना, अंकल. मैं ने रवि भैया की बातों का कभी बुरा नहीं माना है,’’ राकेशजी का हाथ भावुक अंदाज में दबा कर नीरज भी बाहर चला गया.

नीरज के चले जाने के बाद राकेशजी ने थके से अंदाज में आंखें मूंद लीं. कुछ ही देर बाद अतीत की यादें उन के स्मृति पटल पर उभरने लगी थीं, लेकिन आज इतना फर्क जरूर था कि ये यादें उन को परेशान, उदास या दुखी नहीं कर रही थीं.

अपनी पत्नी सीमा के साथ राकेशजी की कभी ढंग से नहीं निभी थी. पहले महीने से ही उन दोनों के बीच झगड़े होने लगे थे. झगड़ने का नया कारण तलाशने में सीमा को कोई परेशानी नहीं होती थी.

शादी के 2 महीने बाद ही वह ससुराल से अलग होना चाहती थी. पहले साल उन के बीच झगड़े का मुख्य कारण यही रहा. रातदिन के क्लेश से तंग आ कर राकेश ने किराए का मकान ले लिया था.

अलग होने के बाद भी सीमा ने लड़ाईझगड़े बंद नहीं किए थे. फिर उस ने मकान व दुकान के हिस्से कराने की रट लगा ली थी. राकेश अपने दोनों छोटे भाइयों के सामने सीमा की यह मांग रखने का साहस कभी अपने अंदर पैदा नहीं कर सके. इस कारण पतिपत्नी के बीच आएदिन खूब क्लेश होता था.

3 बार तो सीमा ने पुलिस भी बुला ली थी. जब उस का दिल करता वह लड़झगड़ कर मायके चली जाती थी. गुस्से से पागल हो कर वह मारपीट भी करने लगती थी. उन के बीच होने वाले लड़ाईझगड़े का मजा पूरी कालोनी लेती थी. राकेश को शर्म के मारे सिर झुका कर कालोनी में चलना पड़ता था.

फिर एक ऐसी घटना घटी जिस ने सीमा को रातदिन कलह करने का मजबूत बहाना उपलब्ध करा दिया.

उन की शादी के करीब 5 साल बाद राकेश का सब से पक्का दोस्त संजय सड़क दुर्घटना का शिकार बन इस दुनिया से असमय चला गया था. अपनी पत्नी अंजु, 3 साल के बेटे नीरज की देखभाल की जिम्मेदारी दम तोड़ने से पहले संजय ने राकेश के कंधों पर डाल दी थी.

राकेशजी ने अपने दोस्त के साथ किए वादे को उम्र भर निभाने का संकल्प मन ही मन कर लिया था. लेकिन सीमा को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वे अपने दोस्त की विधवा व उस के बेटे की देखभाल के लिए समय या पैसा खर्च करें. जब राकेश ने इस मामले में उस की नहीं सुनी तो सीमा ने अंजु व अपने पति के रिश्ते को बदनाम करना शुरू कर दिया था.

इस कारण राकेश के दिल में अपनी पत्नी के लिए बहुत ज्यादा नफरत बैठ गई थी. उन्होंने इस गलती के लिए सीमा को कभी माफ नहीं किया.

सीमा अपने बेटे व बेटी की नजरों में भी उन के पिता की छवि खराब करवाने में सफल रही थी. राकेश ने इन के लिए सबकुछ किया पर अपने परिवारजनों की नजरों में उन्हें कभी अपने लिए मानसम्मान व प्यार नहीं दिखा था.

अपनी जिंदगी के अहम फैसले उन के दोनों बच्चों ने कभी उन के साथ सलाह कर के नहीं लिए थे. जवान होने के बाद वे अपने पिता को अपनी मां की खुशियां छीनने वाला खलनायक मानने लगे थे. उन की ऐसी सोच बनाने में सीमा का उन्हें राकेश के खिलाफ लगातार भड़काना महत्त्वपूर्ण कारण रहा था.

उन की बेटी रिया ने अपना जीवनसाथी भी खुद ढूंढ़ा था. हीरो की तरह हमेशा सजासंवरा रहने वाला उस की पसंद का लड़का कपिल, राकेश को कभी नहीं जंचा.

कपिल के बारे में उन का अंदाजा सही निकला था. वह एक क्रूर स्वभाव वाला अहंकारी इनसान था. रिया अपनी विवाहित जिंदगी में खुश और सुखी नहीं थी. सीमा अपनी बेटी के ससुराल वालों को लगातार बहुतकुछ देने के बावजूद अपनी बेटी की खुशियां सुनिश्चित नहीं कर सकी थी.

शादी करने के लिए रवि ने भी अपनी पसंद की लड़की चुनी थी. उस ने विदेश में बस जाने का फैसला अपनी ससुराल वालों के कहने में आ कर किया था.

राकेश को इस बात से बहुत पीड़ा होती थी कि उन के बेटाबेटी ने कभी उन की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की. वे अपनी मां के बहकावे में आ कर धीरेधीरे उन से दूर होते चले गए थे.

इन परिस्थितियों में अंजु और उस के बेटे के प्रति उन का झुकाव लगातार बढ़ता गया. उन के घर उन्हें मानसम्मान मिलता था. वहां उन्हें हमेशा यह महसूस होता कि उन दोनों को उन के सुखदुख की चिंता रहती है.

इस में कोई शक नहीं कि उन्होंने नीरज की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का लगभग पूरा खर्च उठाया था. सीमा ने इस बात के पीछे कई बार कलहक्लेश किया पर उन्होंने उस के दबाव में आ कर इस जिम्मेदारी से हाथ नहीं खींचा था. वह अंजु से उन के मिलने पर रोक नहीं लगा सकी थी क्योंकि उसे कभी कोई गलत तरह का ठोस सुबूत इन के खिलाफ नहीं मिला था.

राकेशजी को पहला दिल का दौरा 3 साल पहले और दूसरा 5 दिन पहले पड़ा था. डाक्टरों ने पहले दौरे के बाद ही बाईपास सर्जरी करा लेने की सलाह दी थी. अब दूसरे दौरे के बाद आपरेशन न कराना उन की जान के लिए खतरनाक साबित होगा, ऐसी चेतावनी उन्होंने साफ शब्दों में राकेशजी को दे दी थी.

पिछले 5 दिनों में उन के अंदर जीने का उत्साह मर सा गया था. वे खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहे थे. उन्हें बारबार लगता कि उन का सारा जीवन बेकार चला गया है.

मोबाइल फोन की घंटी बजी तो राकेशजी यादों की दुनिया से बाहर निकल आए थे. उन की पत्नी सीमा ने अमेरिका से फोन किया था.

‘‘क्या रवि ठीकठाक पहुंच गया है?’’ सीमा ने उन का हालचाल पूछने के बजाय अपने बेटे का हालचाल पूछा तो राकेशजी के होंठों पर उदास सी मुसकान उभर आई.

‘‘हां, वह बिलकुल ठीक है,’’ उन्होंने अपनी आवाज को सहज रखते हुए जवाब दिया.

‘‘डाक्टर तुम्हें कब छुट्टी देने की बात कह रहे हैं?’’

सूनी मांग का दर्द: सालों बाद चंपा के घर कौन आया था

थोड़ी ही देर में चंपा उस के पास आ कर बोली, ‘‘बाईजी, कोई तरुण आए हैं.’’

‘‘तरुण….’’ वह हतप्रभ रह गई. शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई. उस ने फिर पूछा, ‘‘तरुण कि अरुण…’’

‘‘कुछ ऐसा ही नाम बताया बाईजी.’’

वह ‘उफ’ कर रह गई. लंबी आह भर कर उस ने सोचा, बड़ा अंतर है तरुण व अरुण में. एक वह जो उस के रोमरोम में समाया हुआ है और दूसरा वह जो बिलकुल अनजान है….फिर सोचा, अरुण ही होगा. तरुण नाम का कोई व्यक्ति तो उसे जानता ही नहीं. यह खयाल आते ही उस का रोमरोम पुलकित हो उठा. तुरंत हाथ धो कर वह दौड़ती हुई बाहर पहुंची, देखा तो अरुण नहीं था.

‘‘आप अर्पणा हैं न?’’ आने वाले पुरुष के शब्द उस के कानों में पडे़.

‘‘जी…’’

‘‘मैं अरुण का दोस्त हूं तरुण.’’

मन में तो उस के आया, कह दे कि तुम ने ऐसा नाम क्यों रखा, जिस से अरुण का भ्रम हो लेकिन प्रत्यक्ष में होंठों पर मुसकराहट बिखेरते हुए बोली, ‘‘आइए, अंदर बैठिए…चाय तो लेंगे,’’ और बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए अंदर चली गई.

चाय की केतली गैस पर रखी तो यादों का उफान फिर उफन गया. कैसा होगा अरुण….उसे याद करता भी है…जरूर करता होगा, तभी तो उस ने अपने दोस्त को भेजा है. कोई खबर तो लाया ही होगा…तभी चाय उफन गई. उस ने जल्दी गैस बंद की और चाय ले कर बैठक में आ गई.

‘‘आप ने व्यर्थ कष्ट किया. मैं तो चाय पी कर आया था.’’

‘‘कष्ट कैसा, आप पहली बार तो मेरे घर आए हैं.’’

तरुण चुपचाप चाय की चुस्कियां भरने लगा. उस की खामोशी अपर्णा को अंदर से बेचैन कर रही थी कि  कुछ बताए भी…कैसा है अरुण? कहां है? कैसे आना हुआ?

यही हाल तरुण का था, बोलने को बहुत कुछ था लेकिन बात कहां से शुरू की जाए, तरुण कुछ सोच नहीं पा रहा था. आखिर अपर्णा ने ही खामेशी तोड़ी, ‘‘अरुण कैसे हैं? ’’

‘‘उस का एक्सीडेंट हो गया है….’’

‘‘क्या?’’ अपर्णा की चीख ही निकल गई.

‘‘अभी 2 हफ्ते पहले वह फैक्टरी से घर जा रहा था कि अचानक उस की कार के सामने एक बच्चा आ गया. बच्चे को बचाने के लिए उस ने जैसे ही कार दाईं ओर मोड़ी कि उधर से आते ट्रक से एक्सीडेंट हो गया.’’

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’

‘‘बड़ा भयंकर एक्सीडेंट था. उसे देख कर रोंगटे खडे़ हो गए थे. ट्रक से टकरा कर कार नीचे खड्डे में जा गिरी थी. पेट में गहरा घाव है. सिर किसी तरह बच गया पर अभी भी बेहोशी छाई रहती है.’’

‘‘मुझे खबर नहीं दी?’’

‘‘खबर कौन देता? अरुण के डैडी को आप के नाम से चिढ़ है. अरुण पर उन्होंने कितनी बंदिशें नहीं लगाईं, कितनी डांट उसे नहीं पिलाई, फिर भी वह आप को नहीं भुला सका. रातरात भर आप की याद में तड़पता रहा. आप को तो पता ही होगा कि ठाकुर साहब अरुण की शादी टीकमगढ़ के राजघराने में करना चाहते थे. बात भी तय हो गई थी लेकिन अरुण ने साफ मना कर दिया. ठाकुर साहब का पारा चढ़ गया. उन्होंने छड़ी उठा ली और उसे भयंकर ढंग से पीटा लेकिन उस ने ‘उफ’ तक न की.

‘‘यह देख कर भी ठाकुर साहब अपनी जिद पर अटल रहे. लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि बेटे की शादी उस की मरजी से कर दें लेकिन वे सहमत नहीं हुए और एक दिन उन्होंने यहां तक कह दिया कि अरुण ने उन की मरजी के बगैर शादी की तो वे अपने आप को गोली मार लेंगे.

‘‘अरुण इस बात से डर गया. वह आप को खत भी न लिख सका क्योंकि वह जानता था कि डैडी अपने वचन के पक्के हैं. यदि ऐसा हो गया तो वह किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा. दिन ब दिन उस की हालत पतली होती गई. वह आप के गम में आंसू बहाता रहा. उस दिन अस्पताल में अचेतावस्था में उस के होंठों पर जब मैं ने आप का नाम सुना तो मुझे लगा कि आप ही उसे मौत के मुंह से बचा सकती हैं. मेरे दोस्त को बचा लीजिए,’’ इतना कहते ही उस का गला रुंध गया. आंखें छलछला आईं.

इस दुखद वृत्तांत ने अपर्णा का अंतस बेध दिया. वह गहरीगहरी सांसें भरने लगी. मन में धुंधली यादें ताजा हो आईं, अतीत कचोट गया. किन कठिन परिस्थितियों में उसे घर छोड़ना पड़ा, रिश्तेदारों से नाता तोड़ना पड़ा और परिचितों, सहेलियों से मुख मोड़ना पड़ा. कहांकहां नहीं भटकी वह, लेकिन अरुण की याद भुला न सकी. प्रेम का दीपक उस के अंदर सदैव जलता रहा और आज वह उस से अलग होना चाहता है, नहीं वह ऐसा कभी भी नहीं होने देगी. यदि उसे अपने जीवन की कुरबानी भी देनी पडे़ तो वह देगी.

बेशक, उस की शादी अरुण से नहीं हो सकी, लेकिन उस के नाम के साथ उस का नाम जुड़ा तो है. यह सोचते ही उस की आंखें छलछला आईं.

तभी खामोशी को तोड़ता हुआ तरुण बोला, ‘‘अच्छा अपर्णाजी, चलता हूं. आज ही शाम को छतरपुर जाना है, आप तैयार रहिएगा.’’

वह चुप ही रही…‘हां’, ‘न’ उस के मुख से कुछ नहीं निकल सका और तरुण हवा के तेज झोंके सा बाहर निकल गया. अतीत की परछाइयों ने फिर उसे समेट लिया. एकएक लम्हा उसे कुरेदता गया.

कालिज के दिनों में उस का साथ अरुण से हुआ था. अरुण उस की कक्षा का मेधावी छात्र था. दोनों की सीट पासपास थीं इसलिए उन में अकसर किसी विषय पर बहस हो जाया करती थी. अरुण के तर्क इतने सटीक होते थे कि वह परास्त हो जाती. हार की पीड़ा उस के अंदर छटपटाती रहती. वह पूरी कोशिश कर मंजे तर्क उस के सामने रखती, लेकिन वह उतनी ही कुशलता से उस के तर्क काट देता. तर्कवितर्क का यह सिलसिला प्रेम में परिणीत हो गया. दोनों घंटों बातों में मशगूल रहते और अपने प्रेम के इंद्रधनुषी पुल बनाते. कालिज के कैंपस से ले कर चौकचौराहों तक यह प्रेमजोड़ी चर्चित हो गई.

अपर्णा के पिता हरिशंकर उपाध्याय धार्मिक विचारों के थे, वे अध्यापक थे. उन के एक ही संतान थी अपर्णा और उसे वह उच्च से उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे, लेकिन बेटी के जमाने के साथ बदलते रंगों ने उन्हें तोड़ कर रख दिया.

उन्होंने अपर्णा को समझाते हुए कहा, ‘बेटी अपनी सीमा में रहो, जैसे इस परिवार की लड़कियां रही हैं. तुम्हारा इस तरह ठाकुर के लड़के के साथ घूमना मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’

‘पिताजी, मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’ अपर्णा ने जवाब दिया.

‘चुप नादान, तेरा रिश्ता उस से कैसे हो सकता है? वह क्षत्रिय है, हम ब्राह्मण हैं.’

‘लेकिन पिताजी, वह मुझ से शादी करने को तैयार है.’

‘उस के मानने से क्या होगा? जब तक कि उस के परिवार वाले न मानें. वह बहुत बडे़ आदमी हैं बेटी, उन्हें यह रिश्ता कभी मंजूर नहीं होगा.’

‘तब हम कोर्ट में शादी कर लेंगे.’

‘चुप बेशर्म,’ वह गुस्से से आगबबूला हो गए, ‘जा, चली जा मेरी आंखों के सामने से, वरना…. ’

यही हाल अरुण का था. जब उस के डैडी सूर्यभान सिंह को इस बात का पता चला तो वे क्रोध से पागल हो गए. यह उन के लिए बरदाश्त से बाहर था कि उन का लड़का एक मामूली पंडित की लड़की से प्यार करे. उन्होंने पहले अरुण को बहुत समझाया लेकिन जब उन की बात का उस पर कुछ असर नहीं हुआ तो उन्होंने दूसरा गंभीर उपाय सोचा.

वह सीधे हरिशंकर उपाध्याय के पास पहुंचे जो उस समय बरामदे में बैठे स्कूल का कुछ काम कर रहे थे. ठाकुर साहब को देखते ही वह हाथ जोड़ कर खडे़ हो गए.

‘हां, तो पंडित हरिशंकर, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’ अपनी जोरदार आवाज में ठाकुर साहब ने कहा.

‘बहुत ख्वाब देखने लगे हो तुम.’

‘जी ठाकुर साहब, मैं समझा नहीं.’

‘अच्छा, तो तुम्हें यह भी बताना पडे़गा. जिस बात को पूरा कसबा जानता है उस से तू कैसे अनजान है. देखो पंडित, अपनी लड़की को समझाओ कि वह मेरे बेटे से मिलना छोड़ दे वरना मैं तुम बापबेटी का वह हाल करूंगा जिस की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो.’

‘ठाकुर साहब, यह क्या कह रहे हैं आप….मैं आज ही उस की खबर लेता हूं. माफ करें….माफ करें.’

ठाकुर साहब के कडे़ प्रतिबंध के बाद भी अरुण अपर्णा से छुटपुट मुलाकात करने में सफल हो जाता जिस की भनक किसी न किसी तरह ठाकुर सूर्यभान को लग ही जाती और वे गुस्से से भिनभिना उठते.

उन्होंने दूसरा उपाय सोचा, क्यों न हरिशंकर का तबादला छतरपुर से कहीं और करा दिया जाए. और यह कार्य वहां के विधायक से कह कर करवा दिया. इधर पंडित हरिशंकर घबरा गए थे. तबादले का जैसे ही उन्हें आदेश मिला फौरन छतरपुर छोड़ दतिया आ गए. अपर्णा को भी पिताजी के साथ आना पड़ा.

वह दिन अपर्णा के जीवन का सब से बोझिल दिन था, जब बिना अरुण से मिले उसे दतिया आना पड़ा. जुदाई के सौसौ तीर उस के दिल में चुभ गए थे. अरुण का घर से निकलना बंद था. वह जातेजाते एक बार मिल लेना चाहती थी. लेकिन उस की हर कोशिश नाकाम हुई. एक यही दुख उसे लगातार पूरी यात्रा सालता रहा.

पिताजी के साथ अपर्णा चली तो आई लेकिन अरुण को भुला न सकी. दतिया आए अब 1 साल हो गया था. उस दौरान अरुण की उसे कोई खबर नहीं मिली. पढ़ाई भी उस की बंद हो गई. पिताजी को उस की शादी करने की जल्दी थी. मास्टर हरिशंकर ने एक अच्छा घर देख कर अपर्णा की सगाई बिना उस से पूछे ही कर दी. यह पता चलते ही उस ने शादी करने से इनकार कर दिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ अरुण से.

यह सुन कर पिताजी उस पर बरस पडे़, ‘‘तेरी ही वजह से मुझे छतरपुर छोड़ कर दतिया आना पड़ा है फिर भी तू अरुण के नाम की माला जप रही है. कितना सताएगी मुझे. भला इसी में है कि तू घर छोड़ कर कहीं निकल जा.’’

‘ऐसा मत कहिए पिताजी, अपर्णा गिड़गिड़ा पड़ी, समझने की कोशिश कीजिए.’

‘मुझे कुछ नहीं समझना. अगर तू यहां से नहीं जाएगी तो मैं ही चला जाता हूं, ले रह तू यहां….’

आखिर दिल के हाथों मजबूर हो कर अपर्णा ने वह घर त्याग दिया और अपनी सहेली नीता के पास भिंड चली आई. नीता की मदद से उसे भिंड में नौकरी मिल गई. खानेपीने का जरिया हो गया. किराए पर मकान ले लिया. इसी बीच उस के पास शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन उस ने सब को ठुकरा दिया.

वह दिन याद आते ही उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘समाज की यह कैसी रूढ़ियां हैं कि आदमी अपना मनपसंद साथी भी नहीं ढूंढ़ सकता? वंश परिवार की परंपराएं उस पर थोप दी जाती हैं. वहां आदमी टूटेगा नहीं तो क्या जुडे़गा?’’

आज अरुण की दुर्घटना की खबर ने उसे बेचैन ही कर दिया. वह नदी के किनारे पड़ी मछली सी फड़फड़ा गई. शाम को जब तरुण आया तो वह जाने को पूरी तरह तैयार बैठी थी, इस समय तक उस ने अपनी मानसिक स्थिति संभाल ली थी.

छतरपुर पहुंचते ही अपर्णा सीधे अस्पताल पहुंची. एक वार्ड में अरुण बेड पर मूर्छित पड़ा था. खून की बोतल लगी थी. हाथपैरों में प्लास्टर बंधा था. दोस्त, परिजन, रिश्तेदार उसे घेर कर खडे़ थे. डाक्टर उपचार में लगा था. उसे समझते देर न लगी कि अभी जरूर कोई गंभीर दौर गुजरा है क्योंकि सभी के चेहरे उदास थे.

ठाकुर सूर्यभान सिंह सिर नीचे झुकाए खडे़ थे. यद्यपि वह एक नजर उस पर डाल चुके थे. आज उसे उन से डर नहीं लगा था. डाक्टर के चेहरे से मायूसी साफ झलक रही थी. सभी की निगाहें उन पर टिक गईं.

‘‘इंजेक्शन दे दिया है. 10 मिनट में होश आ जाना चाहिए,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘लेकिन डाक्टर साहब, कुछ मिनट होश में रहता है फिर बेहोश हो जाता है,’’ ठाकुर साहब व्यग्रता से बोले.

‘‘देखिए, मैं तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं. आप मरीज को खुश रखने की कोशिश कीजिए….कोई गहरा आघात पहुंचा है, जिस की याद आते ही उसे बेहोशी छा जाती है. वैसे ंिचंता की बात नहीं. इस रोग पर काबू पाया जा सकता है,’’ इतना कह कर डाक्टर नर्स के साथ चले गए.

मौत सा सन्नाटा छा गया. किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था. तभी तरुण अपर्णा की ओर देख कर बोला, ‘‘आप कोशिश कीजिए, शायद होश आए. एक हफ्ते से यह इसी तरह पड़ा है. होश में आने पर भी किसी से एक शब्द नहीं बोलता.’’

यह सुनते ही अपर्णा निडर हो कर अंदर गई और अरुण के पास पहुंच कर बोली, ‘‘अरुण, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी, यहीं रहूंगी तुम्हारे पास.’’

‘‘लेकिन तुम ने तो….कोई दूसरा घर बसा लिया….शादी कर ली?’’

‘‘अरुण क्या कहते हो? किस ने कहा तुम से यह….मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘विश्वास तो था लेकिन….’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम्हारे नाम के अलावा कोई दूसरा नाम मेरे होंठों पर कभी नहीं आया. मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखो, सच क्या है तुम्हें पता चल जाएगा,’’ इतना कह कर अपर्णा फूटफूट कर रो पड़ी.

अरुण कुछ क्षण उसे देखता रहा, फिर आह कर उठा. उसे लगा जैसे उस के अंदर हजारों शूल एकसाथ चुभ गए हों.

‘‘अपर्णा….’’ वह गहरी निश्वास भरता हुआ बोला, ‘‘धोखा…विश्वासघात हुआ मेरे साथ…क्या समझ बैठा मैं तुम्हें…सोच भी नहीं सकता, तुम्हारे पिताजी ने यह झूठ मुझ से क्यों बोला?’’

कुछ क्षण अंदर ही अंदर वह सुलगती रही, फिर सोचा इस से तो काम नहीं चलेगा, उसे अगर अरुण को पाना है तो डट कर आगे आना होगा,’’

इस विचार के आते ही वह दृढ़ता से बोली, ‘‘अब मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी अरुण, तुम्हारे पास रहूंगी. देखती हूं कौन मुझे हटाता है.’’

तभी अरुण के सीने में भयंकर दर्द उठा और वह कराह उठा, उस के हाथपैर मछली से फड़फड़ा गए. लोग डाक्टर को बुलाने दौडे़…अरुण हांफता हुआ बोला, ‘‘बहुत देर हो गई अपर्णा, अब मैं नहीं बचूंगा….मुझे माफ…’’ और यहीं उस के शब्द अटक गए. आंखें खुली रह गईं… चेहरा एक तरफ लुढ़क गया. यह देख अपर्णा की चीख ही निकल गई.

उसे जब होश आया तो देखा ठाकुर साहब और 2-3 लोग उस के पास खडे़ थे. अरुण के शरीर को स्ट्रेचर पर रखा जा रहा था. वह तेजी से स्ट्रेचर की तरफ लपक कर बोली, ‘‘इन्हें मत ले जाओ. मैं भी इन के साथ जाऊंगी.’’

ठाकुर साहब अपर्णा को पकड़ते हुए बोले, ‘‘यह क्या कह रही हो अपर्णा? पागल हो गई हो…’’

वह शेरनी सी दहाड़ उठी, ‘‘पागल तो आप हैं, इन्हें पागल बना कर मार दिया, अब मुझे पागल बना रहे हैं. मुझे आप की कृपा की जरूरत नहीं ठाकुर सूर्यभान सिंह. आप ने भले ही मुझे अपने घर की बहू नहीं बनने दिया, लेकिन विधवा बनने से आप मुझे नहीं रोक सकते.’’

वह और जोर से सिसक पड़ी, ‘‘काश, मौत कुछ क्षण ठहर जाती तो वह मांग में सिंदूर तो लगा लेती?’’ आज इस स्थिति में, कुछ पोंछने को भी उस के पास नहीं था. सबकुछ पहले से ही सूनासूना था….

पति की नीति निर्देशक

पत्नी को तरहतरह से संबोधन दिया जाता है. कोई जीवनसंगिनी कहता है, कोई जीवनसहचरी, कोई हमसफर तो कोई अर्धांगिनी. कई तो उसे स्वीटहार्ट कहते हैं, ऐसे लोगों को धोखा हो जाता होगा, वे पत्नी की जगह प्रेयसी को देख रहे होते होंगे. आखिर जिस के साथ समय सुहाना लगता है वही तो खयालों के आकाश में ज्यादा आच्छादित रहती है.

कुछ सयाने पतिजन कहते हैं कि उन की पत्नी, पत्नी नहीं बल्कि पथप्रदर्शक है. गोया कि वे जीवनपथ के भटके हुए राहगीर हैं और पत्नी यातायात के सिपाही की तरह उन की मार्गप्रदर्शक.

चमचागीरी केवल राजनीतिक या प्रशासनिक क्षेत्र में नहीं होती है. दांपत्य में भी इस का काफी महत्त्व व आधिपत्य है. पति नामक जीव भी पत्नी की चमचागीरी में स्वार्थवश या भयवश अव्वल बना रहता है.

और भी पति हैं जो कहते हैं कि उन का यदि सब से बड़ा मित्र कोई दुनिया में है तो वह उन की पत्नी है. वाह भाई वाह, विवाह होने तक न जाने कितने मित्र बनाए, उन के साथ जीनेमरने की कसमें खाईं, कितनी खट्टीमीठी यादें साथ बिताए पलों की उन के साथ जुड़ी हैं, लेकिन, एक अनजान सी लड़की से शादी क्या हो गई कि सारे मित्रों को जोर का झटका धीरे से दे यादों की भूलभुलैया में छोड़ दिया. और ताल ठोक कर कह रहे हैं कि यदि कोई मित्र है तो वह पत्नी है. अच्छा हुआ कि ऐसा कहते समय कोई पुराना जिगरी दोस्त सामने नहीं था, वरना दोस्ती की इतनी किरकिरी होते देख उसी समय वह किसी चट्टान से कूदने के लिए रवानगी डाल देता.

कुल मिला कर जितने तरह के पति हैं उतनी तरह की बातें व उपमाएं वे पत्नियों की शोभा में पेश करते हैं. पत्नी के सामने वैसे भी एक पति की औकात शोभा की सुपारी से अधिक होती नहीं है. ऐसे नमूने भी हैं जो पत्नी को अपना गुरु तक कहते हैं. हो सकता है कि रोज सुबह उठ कर उस के पैर छू आशीर्वाद भी लेते हों. वैसे, इस मामले में गंगू का कहना है कि आज के पाखंडी बाबाओं, गुरुओं की तुलना में तो पत्नी को ही किसी ने यदि गुरु मान लिया है तो यह एक अच्छा दौर शुरू हुआ मान सकते हैं.

और भी पति हैं जोकि एक कदम आगे बढ़ कर कहते हैं कि उन की पत्नी उन के पिता व मां से भी बढ़ कर है.

गंगू ने उपरोक्त सारी उपमाओं पर गंभीरता से विचारमंथन किया और यह पाया कि अलगअलग पति अपनेअपने अनुभवों के आधार पर अलगअलग तरह से पत्नी का अलंकरण कर्म करते रहते हैं. कुछ विशेष स्वार्थवश पत्नी का यश बढ़ाने वाली बात तात्कालिक रूप से अपने मुखश्री से उगल दते हैं. लेकिन सही व खरी बात यह है कि पत्नी, पति की जीवनरूपी फिल्म की निर्देशक है, जैसे कि किसी मूवी को बनाने में निर्देशक का अहम योगदान होता है. वह कलाकारों को छोटीछोटी बारीकियों के बारे में समझाइश व निर्देश देता रहता है और वे कलाकार उस की बात को मगन हो कर एक निष्ठावान व समर्पित शिष्य की तरह गगन की ओर देखते हुए सुनते हैं.

निर्देशक के निर्देश के बिना कलाकार एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते हैं. और यदि मूवी को बौक्सऔफिस पर करोड़ों का व्यापार करने लायक दमदार व सफल बनाना है तो उसे इग्नोर तो कर ही नहीं सकते. उसी तरह पति की जिंदगीरूपी मूवी सफल हो, वह निरंतर तरक्की के पथ पर अग्रसर रहे, वह दाएंबाएं जाने की जुर्रत भी न करे, इस के लिए पत्नीरूपी एक निर्देशक के निरंतर निर्देश उस के दिनप्रतिदिन के कार्यकलापरूपी अभिनय के लिए आवश्यक हैं. वह सुबह से रात तक, देररात तक पति को निर्देश देती रहती है और पति मुंडी नीची कर के सुनता रहता है. सिर ऊपर करने की सुविधा यहां नहीं है.

पत्नी यदि बोलेगी बैठ जाओ, तो उसे बैठना है. वह बोलेगी कि खड़े हो जाओ तो उसे तुरंत खड़े हो जाना है. बिना कारण पूछे यदि वह कहे कि उठकबैठक करो, तो वह करनी है. सवालजवाब की कोई गुंजाइश यहां नहीं होती.

आप किसी पार्टी में जा रहे हैं. आप ने पतलूनशर्टटाई सब गांठ ली है. अचानक पत्नी का सीन में प्रवेश होता है. वह कहती है कि यह क्या विदूषक जैसा वेश बना डाला है, और उस के निर्देश पर आप तुरंत पहने कपड़े बदलने को मजबूर हो जाते हो. आप को कुछ पसंद आ रहा है, उसे वह नापसंद है. जो आप को नापसंद है, वह उसे पसंद है. बात वही है कि निर्देशक के निर्देशों को आप नजरअंदाज कर ही नहीं सकते.

पत्नी के पापाजी व मम्मीजी आ रहे हैं और बौस ने एक जरूरी मीटिंग में आप को शिरकत करने को निर्देशित किया है, लेकिन घर की बौस ने आप को रेलवे स्टेशन ड्यूटी के लिए निर्देशित कर दिया है. ट्रेन का समय आप की बैठक के समय से क्लेश हो रहा है. ऐसी स्थिति में भी आप निर्देशक से क्लेश नहीं कर सकते हैं. यहां की डांट खाने व अपनी खाट खड़ी करने से अच्छा है कि बौस की डांट खा लो.

तो, आप सहमत हैं कि नहीं कि पत्नी के लिए बाकी की सारी उपमाएं अपनी जगह सही हो सकती हैं, लेकिन सब से सही उपमा जो गंगू ने निर्देशक की कही है, वही है और केवल वही है.

इकलौती बेटी: जब लालजी ने चली अपनी चाल

‘‘किस का पत्र है, उमा?’’ सास ने पूछा.

‘‘पिताजी का पत्र है, मांजी. गृहप्रवेश के लिए उत्सव का आयोजन कर रहे हैं. मुझे भी बुलाया है,’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘जाना चाहती हो क्या?’’ पति ने प्रश्न किया.

‘‘कहीं जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. बबलू की परीक्षा है. फिर मुझे भी तो छुट्टी नहीं मिलेगी. वैसे भी हम इतने स्वतंत्र थोड़े ही हैं कि जब मन आया अटैची उठा कर चल पड़ें,’’ उमा व्यंग्य से मुसकराते हुए बोली. उस की बात सुन कर पति भी मुसकरा कर रह गए. मां दूसरी ओर देखने लगीं पर मीना तिलमिला कर रह गई. पुरानी घटनाएं तेजी से उस की आंखों के सामने घूमने लगीं.

घड़ी में समय देखते हुए मीना अपने पति मनोज से बोली थी, ‘कितनी देर कर दी? गाड़ी छूटने में केवल 1 घंटा रह गया है. मैं ने तुम्हारे कार्यालय में कई बार फोन किया था. कहां चले गए थे?’

‘क्यों, कहां जाना है? क्या मुझे और कोई काम नहीं है जो सदा तुम्हारी ही हाजिरी में खड़ा रहूं,’ मनोज सुनते ही झुंझला गया था.

‘कितनी जल्दी भूल जाते हो तुम? सुबह ही तो बताया था कि मां का फोन आया है,’ मीना ने याद दिलाया.

‘सहारनपुर से आए हुए कितने दिन हुए हैं? पिछले सप्ताह ही तो लौटी हो. अब फिर जाने की तैयारी कर ली?’

‘अरे, तो क्या हो गया, बेटी हूं उन की, बुलाएंगे तो क्या जाऊंगी नहीं? तुम क्या जानो, मातापिता अपनी संतान से कितना प्यार करते हैं,’ मीना नाटकीय अंदाज में बोली.

‘तुम्हारे कुछ ज्यादा ही करते हैं, मेरे भी मातापिता हैं. 1 वर्ष हो गया विवाह को…कितनी बार गया हूं मैं?’

‘पुरुषों की बात दूसरी है, तुम तो पिछले 10 वर्ष से छात्रावास में ही रहते आए हो, अब भला उन्हें तुम से कितना लगाव होगा. तुम तो परिवार के साथ रहते हुए अधिकतर मित्रों के साथ ही घूमते रहते हो. इसीलिए तो तुम्हारे मातापिता तुम्हें याद नहीं करते.’

‘व्यर्थ की बातें करने की आवश्यकता नहीं है…मांजी का फिर फोन आए तो कह देना, अभी आना संभव नहीं है. यहां मेरे मातापिता भी आने वाले हैं.’

‘क्या?’

‘हां, आज ही पत्र आया है,’ मनोज ने एक अंतर्देशीयपत्र निकाल कर सामने रख दिया था.

‘तब तो और भी आसान है, मांजी आ जाएंगी तो तुम्हें खानेपीने की भी सुविधा हो जाएगी और अकेलापन भी नहीं अखरेगा,’ मीना ने छोटी बच्ची की तरह प्रसन्न हो कर कहा.

‘जरा सोचो, विवाह के बाद पहली बार वे लोग आ रहे हैं. तुम चली जाओगी तो उन के मन को कितनी ठेस पहुंचेगी,’ मनोज ने समझाने का प्रयत्न किया.

‘मेरे मातापिता की भावनाओं की भी कुछ चिंता है तुम्हें? मैं उन की इकलौती बेटी हूं. कजरी तीज का व्रत बड़ी धूमधाम से मनाते हैं हम लोग…3 दिन तक उत्सव चलता है. मैं नहीं गई तो मां कितना बुरा मानेंगी,’ मीना तैश में आ गई.

‘हर बार मैं तुम्हारी बात मानता हूं. इस बार मेरी बात मान लो. विवाह की वर्षगांठ आ रही है, सब साथ रहेंगे तो कितना अच्छा लगेगा,’ मनोज ने मिन्नत की.

‘देखो, ट्रेन का समय हो रहा है, व्यर्थ के तर्कवितर्क में उलझने का समय नहीं है. यदि तुम यह समझते होगे कि तुम जोर दे कर मुझे रोक लोगे तो यह बात भूल जाओ. तुम मेरे साथ नहीं चले तो मैं स्वयं ही चली जाऊंगी. स्टेशन तक का मार्ग मुझे भी मालूम है,’ मीना का उत्तर था.

‘तो ठीक है, चली क्यों नहीं जातीं. मेरी भी जान छूटे. मातापिता से इतना ही प्यार था तो विवाह क्यों किया था?’ मनोज क्रोध में इतनी जोर से चीखा कि मीना एक क्षण को तो स्तंभित रह गई. किंतु दूसरे ही क्षण चेहरा क्रोध से लाल हो गया और वह फूटफूट कर रो पड़ी.

2 दिन तक दोनों के बीच मौन छाया रहा. मीना ने खानापीना छोड़ रखा था. मनोज ने मनाने का प्रयत्न किया तो वह और बिफर पड़ी.

‘ठीक है, पहले खाना खा लो. तुम जाना ही चाहती हो तो छोड़ आऊंगा. किसी को जबरदस्ती यहां रोक कर रखने का मेरा कोई इरादा नहीं है और उस से लाभ ही क्या है,’ अंतत: मनोज ने दुखी हो कर हथियार डाल ही दिए थे और मीना सहारनपुर आ गई थी.

6 महीने बीत गए थे. मनोज ने मीना की सुधि नहीं ली थी और मीना को भी जिद थी कि वह बिना बुलाए जाएगी नहीं. किंतु आज उमा भाभी का व्यंग्य उस के सीने को चीरता निकल गया था. वह इतनी नादान भी नहीं थी कि इतनी सी बात भी न समझ पाती. वह फिर सोचने लगी… भाभी की बात सुन कर मां भी चुप रह गई थीं, इस बात ने उसे और अधिक आहत किया था.

पहले भी मां कई बार मीना को खोदखोद कर पूछ चुकी थीं कि इतने दिन बीत गए हैं, मनोज का कोई पत्र क्यों नहीं आया?

‘उन्हें पत्र लिखने की आदत नहीं है, मां,’ वह हंसने का प्रयत्न करती पर हंस न पाती.

किंतु आज इस घटना ने उसे पूर्णत: उद्वेलित कर दिया था. अपने कमरे में वह अकेली बैठी चुपचाप आंसू बहाती रही.

‘‘अरे, मीना, क्या बात है? शाम होने को आई, अभी तक सो रही हो,’’ अचानक उमा ने आ कर कमरे की बत्ती जलाई तो वह चौंक कर उठ बैठी और वर्तमान में आ गई. रोतेरोते कब आंख लग गई थी, वह समझ ही न पाई.

‘‘तबीयत ठीक नहीं है भाभी, बत्ती बुझा दो,’’ वह बोली.

‘‘बुखार तो नहीं है?’’ भाभी ने माथा छूते हुए कहा.

‘‘नहीं, बुखार नहीं, सिर में तेज दर्द है.’’

‘‘सिरदर्द में भी भला कोई इस तरह बिस्तर पर पड़ा रहता है? चलो, एक गोली खा लो और चाय पी लो, दर्द ठीक हो जाएगा. आज तुम्हारी चचेरी बहन सुधा का विवाह है, वहां भी तो जाना है. उठो, तैयार हो जाओ,’’ उमा ने कहा.

‘‘मेरी ओर से सुधा से माफी मांग लेना भाभी. मैं नहीं जा सकूंगी. जी बिलकुल अच्छा नहीं है,’’ मीना की आंखें डबडबा आईं.

‘‘मीना, तुम्हारे सिरदर्द का कारण मैं जानती हूं. सुबह की मेरी बात पर नाराज हो न? उसी समय तुम्हारा चेहरा देख कर मैं अपने मुंह से निकले उस व्यंग्य पर पश्चात्ताप से भर उठी थी. पर क्या करूं, कमान से निकले तीर की तरह मुंह से निकली इस बात को मैं लौटा तो नहीं सकती पर क्या अब तुम यह चाहती हो कि मैं बड़ी हो कर तुम से माफी मांगूं?’’ उमा दुखी स्वर में बोली.

‘‘कैसी बातें करती हो, भाभी. मैं भला तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगी?’’ मीना उदास स्वर में बोली.

‘‘क्या तुम सचमुच सोचती हो कि तुम्हारा यहां रहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता?’’ उमा ने कहा.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा, भाभी?’’

‘‘मीना, तुम यहां रहती हो तो घर ज्यादा भराभरा लगता है, पर तुम शायद नहीं जानतीं कि खून का रिश्ता न होते हुए भी मैं तुम्हें हमेशा सुखी देखना चाहती हूं. तुम्हारे चेहरे पर घिरती दुख की छाया अब पूरे परिवार को भी घेरने लगी है.’’

‘‘तो क्या तुम चाहती हो कि मैं जा कर मनोज के पैर पकड़ं ू?’’

‘‘पैर मत पकड़ो, पर कम से कम उस की कुशलता जानने के लिए फोन तो कर सकती हो, पत्र तो लिख सकती हो, उसे भी तो लगे कि उस की पत्नी को उस की चिंता है.’’

‘‘मुझे यहां आए 6 माह हो गए, किसी ने मेरी चिंता की?’’

‘‘किसी न किसी को पहल करनी ही पड़ेगी, मीना. सच बताना, तुम मनोज से लड़ कर आई थीं न?’’

‘‘हां,’’ मीना ने सिर हिलाते हुए आंखें झुका लीं.

‘‘मैं तो उसी दिन तुम्हारा उतरा चेहरा देख कर समझ गई थी और मैं नहीं सोचती कि मां या पिताजी की अनुभवी आंखों से यह तथ्य छिपा रहा होगा. इसीलिए तो लोग कहते हैं कि विवाह के बाद बेटी पराई हो जाती है. सबकुछ जानते हुए भी वे तुम से कुछ नहीं कह सकते और मनोज से संपर्क करने को शायद उन का अहं आड़े आ जाता है,’’ उमा बोली.

‘‘मैं क्या करूं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘मेरी मानो तो इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न मत बनाओ. ये छोटीछोटी बातें ही वैवाहिक जीवन में विष घोल देती हैं. मनोज और उस के परिवार के लोग भले हैं, पर वे भी शायद हम लोगों की तरह पहल नहीं करना चाहते. अब तो तुम्हें ही निर्णय लेना है कि तुम क्या चाहती हो,’’ उमा ने समझाते हुए कहा.

‘‘तुम दोनों यहां छिपी बैठी हो और मैं सारे घर में ढूंढ़ आई,’’ तभी मांजी आ गईं और दोनों की बातचीत बीच में ही रह गई.

‘‘मीना की तबीयत ठीक नहीं है, मांजी. वह विवाह में नहीं जाना चाहती,’’ उमा ने सास की ओर देखा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘सिर में दर्द है.’’

‘‘अरे, इस का तो चेहरा उतरा हुआ है. ठीक है, तुम्हीं चली जाओ, इसे आराम करने दो.’’

‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी, मीना नहीं जा रही तो आप चलिए,’’ उमा बोली.

‘‘ठीक है, चलो, मैं चलती हूं. जल्दी तैयार हो जाओ, देर हो रही है.’’

सब के जाते ही मीना उठी. उमा भाभी से बातचीत कर के उस का मन काफी हलका हो गया था. वह दिल्ली मनोज को फोन करने का प्रयत्न करने लगी. पर जब बहुत देर तक संपर्क नहीं हुआ तो उस का मन अजीब सी आशंका से भर उठा. तभी उसे याद आया कि मनोज के पड़ोसी लाल भाई का फोन नंबर उस के पास है. अत: उस ने उन से संपर्क करने का निश्चय किया.

‘‘नमस्ते भाभीजी, मैं मीना बोल रही हूं…मनोज कैसे हैं? काफी दिनों से कोई समाचार नहीं मिला,’’ मीना लाल भाई की पत्नी की आवाज पहचान कर बोली.

‘‘अरे, मीना बोल रही हो? क्या हो गया तुम्हें…इस बार तो मायके जा कर जम ही गईं. यहां आने का नाम ही नहीं ले रहीं?’’

एक क्षण को मीना मौन खड़ी रह गई. किस मुंह से कहे कि वह मनोज की प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है.

‘‘हैलो…’’ लाल भाई की पत्नी पुन: बोलीं.

‘‘जी हां, मैं बोल रही हूं. आवश्यक कार्यवश नहीं आ सकी. बहुत देर से मनोज को फोन करने का प्रयत्न कर रही थी पर मिला ही नहीं…वे कैसे हैं?’’

‘‘कैसे होंगे…तुम्हारी अनुपस्थिति में रंगरलियां मना रहे हैं…हर दूसरे दिन नई लड़की के साथ घूमते नजर आते हैं. मैं ने तो समझाया भी पर कौन सुनता है. तुम ने फोन किया तो मैं ने बता दिया परंतु मेरा नाम मत लेना, व्यर्थ ही मनोज बुरा मानेगा,’’ वे बोलीं.

घर के सदस्य विवाह से लौटे तो मीना अस्तव्यस्त दशा में बैठी थी. चेहरा आंसुओं में भीगा था.

‘‘क्या हुआ, मीना?’’ देखते ही सब ने समवेत स्वर में पूछा.

‘‘मुझे दिल्ली जाना है,’’ वह शून्य में देखती हुई बोली.

‘‘अब इस समय? रात के 12 बजे हैं,’’ भैया आश्चर्यचकित हो बोले.

‘‘पर क्या हुआ?’’ मां उलझन भरे स्वर में बोलीं.

‘‘मुझे यहां भेज कर मनोज रंगरलियां मना रहा है.’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ पिताजी ने पूछा.

‘‘उन की पड़ोसिन ने बताया. मैं ने फोन किया था.’’

‘‘सुबह चली जाना…इतनी देर में कुछ नहीं बिगड़ेगा. तुम्हारे भैया जा कर छोड़ आएंगे,’’ पिताजी बोले.

वह रात बच्चों को छोड़ कर सब ने आंखों में ही काटी. दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही मीना पहली बस पकड़ कर भैया के साथ दिल्ली रवाना हो गई.

दोनों भाईबहन घर पहुंचे तो मनोज तो नहीं था पर उस की मां वहां थीं.

‘‘आप कब आईं, मांजी,’’ अभिवादन के बाद भैया ने पूछा.

‘‘मैं तो 4 महीने से पूरे परिवार को छोड़ कर यहां पड़ी हूं. सोचा था मनोज का विवाह हो गया तो उस की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. पर वह लगभग 4 महीने पहले बहुत बीमार हो गया था और मीना सहारनपुर जा कर ऐसी बैठी कि अपने परिवार को भूल ही गई,’’ मनोज की मां शिकायत भरे स्वर में बोलीं.

‘‘सचमुच गलती मीना की है, मांजी. पर इस बार क्षमा कर दीजिए, नासमझ है. आगे से ऐसी भूल नहीं होगी,’’ भैया बोले.

‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मैं तो प्रसन्न हूं कि घर की लक्ष्मी घर आ गई है. अब अपना घर संभाले और मुझे मुक्ति दे,’’ वे बोलीं.

मनोज काफी रात गए घर लौटा, वह मीना को देख हैरान हो गया.

‘‘यह कोई घर आने का समय है?’’ मीना एकांत पाते ही बोली.

उत्तर में मनोज अपनी हंसी न रोक सका.

‘‘इस में हंसने की क्या बात है?’’ मीना ने नाराजगी से कहा.

‘‘नहीं, हंसने की कोई बात नहीं है पर अब तो रोज ही मुझे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा,’’ मनोज बोला.

‘‘मुझे लाल भाई की पत्नी ने सब बता दिया है,’’ मीना ने आंखें तरेरते हुए कहा.

‘‘मुझे भी उन्होंने आज सुबह सब बताया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि अब तुम्हारे लौटने में अधिक देर नहीं है.’’

‘‘यानी कि उन्होंने सब झूठ कहा था.’’

‘‘यह तो तुम उन्हीं से पूछो.’’

‘‘मैं बिना बुलाए आ गई इसलिए अपनी विजय पर इठला रहे हो.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो मीना, हम दोनों क्या अलग हैं, जो मैं अपमान और सम्मान जैसी ओछी बातें सोचूंगा. तुम अपने घर आई हो, इस में शर्म कैसी? रही बात मेरे वहां आने की तो एक बार लिखा होता या फोन ही कर दिया होता तो मैं सिर के बल दौड़ा आता.’’

‘‘मुझ पर अपना जरा सा भी अधिकार समझते हो तो बिना बुलाए आ सकते थे.’’

‘‘आ सकता था पर सच कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘तुम ठहरीं इकलौती बेटी. याद है, मेरे मना करने पर तुम कितने क्रोध में यहां से गई थीं. वहां जाने पर तुम मेरा अपमान कर देतीं और मेरे साथ न आतीं तो शायद मैं सह न पाता.’’

मीना सोच रही थी कि मनोज के विचार कितने सुलझे हुए हैं और एक वह है जिस ने अपनी हठधर्मी के कारण सब के जीवन में विष घोल दिया. वह तो उमा भाभी ने बचा लिया, नहीं तो शायद पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी हाथ न लगता.

खुश रहो गुड़िया

9 दिसंबर मेरे जीवन का सब से बड़ा काला दिन है क्योंकि 2 साल पहले आज के ही दिन नियति के क्रूर हाथों ने मेरी उस गुडि़या को छीन लिया था जो फूल बन कर अपने साजन के आंगन को महका रही थी. एक दिन पहले गुडि़या ने फोन किया था, ‘मम्मा, जाने क्यों पिछले कुछ दिनों से आप की बहुत याद आ रही है. राजीव की 2 दिन की छुट्टी है, हम लोग आप से मिलने आ रहे हैं.’

मैं ने रात को ही दहीबडे़ और आलू की कचौडि़यों की तैयारी कर के रख दी थी. मेरी बेटी गुडि़या, दामाद राजीव और दोनों नातिनें गीतूमीतू सुबह की ट्रेन से आ रहे थे पर सुबहसुबह ही टेलीविजन पर समाचार आया कि जिस ट्रेन से वे लोग आ रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई.

चेतना जागृत होने पर यह क्रूर सचाई मेरे सामने थी कि मेरी गुडि़या अपनी अबोध गीतूमीतू और पति राजीव को छोड़ कर इस संसार से जा चुकी थी. समझाने वाले मुझे समझाते रहे पर मैं यह मानने को कहां तैयार थी कि मेरी गुडि़या अब हमारे बीच नहीं है और इसे स्वीकारने में मुझे वर्षों लग गए थे.

राजीव की आंखों में कैसा अजीब सा सूनापन उभर आया था और वह दोनों नन्ही कलियां इतनी नादान थीं कि उन्हें इस का अहसास तक नहीं था कि कुदरत ने उन के साथ कितना क्रूर खेल खेला है. उन की आंखें अपनी मां को ढूंढ़तेढूंढ़ते थक गईं. आखिर में उन के मन में धीरेधीरे मां की छवि धुंधली पड़तेपड़ते लुप्त सी हो गई और उन्होंने मां के बिना जीना सीख लिया.

दादी व बूआ के भरपूर लाड़प्यार के बावजूद मुझे गीतूमीतू अनाथ ही नजर आतीं. कभी दोपहर में बालकनी में खड़ी हो जाती तो देखती नन्हेमुन्ने बच्चे रंगबिरंगी यूनीफार्म में सजे अपनीअपनी मम्मी की उंगली पकड़ कर उछलतेकूदते स्कूल जा रहे हैं. उन्हें देख कर मेरे सीने में हूक सी उठती कि हाय, मेरी गीतूमीतू किस की उंगली पकड़ कर स्कूल जाएंगी. किस से मचलेंगी, किस से जिद करेंगी कि मम्मी, हमें टौफी दिला दो, हमें चिप्स दिला दो. और यही सब सोचते- सोचते मेरा मन भर उठता था.

जब से उड़ती- उड़ती सी यह खबर मेरे कानों में पड़ी है कि राजीव की मां अपने बेटे के पुन- र्विवाह की सोच रही हैं तो लगा किसी ने गरम शीशा मेरे कानोें में डाल दिया है. कई लड़की वाले अपनी अधेड़ बेटियों के लिए राजीव को विधुर और 2 बेटियों का बाप जान कर सहजप्राप्य समझने लगे थे.

राजीव की दूसरी शादी का मतलब था मासूम कलियों को विमाता के जुल्म व अत्याचार की आग में झोंकना. इस सोच ने मेरी बेचैनी को अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दिया था. अब राजीव के पुनर्विवाह को रोकना मेरे लिए पहला और सब से अहम मकसद बन गया.

मैं ने अपनी चचेरी बहन, जो राजीव के घर से कुछ ही दूरी पर रहती थी, को सख्त हिदायत दे डाली कि किसी भी कीमत पर राजीव की दूसरी शादी नहीं होनी चाहिए. कोई लड़की वाला राजीव या उस के घरपरिवार के बारे में जानकारी हासिल करना चाहे तो उन की कमियां बताने में कोई कोरकसर न छोडे़.

राजीव के साथ अपनी बेटी की शादी की इच्छा ले कर जो भी मातापिता मेरे पास उन के घरपरिवार की जानकारी लेने आते, मैं उन के सामने उस परिवार के बुरे स्वभाव का कुछ ऐसा चित्र खींचती कि वह दोबारा वहां जाने का नाम नहीं लेते थे और अपनी इस सफलता पर मैं अपार संतुष्टि का अनुभव करती थी.

मेरे बहुत अनुरोध पर उस दिन राजीव गीतूमीतू को मुझ से मिलाने ले आया. इस बार वह काफी खीजा हुआ सा लग रहा था. बातबात में गीतूमीतू को झिड़क बैठता. पता नहीं, मेरे कुचक्रों से या किसी और वजह से उस का विवाह नहीं हो पा रहा था और वह एकाकी जीवन जीने को विवश था.

मेरी समधिन बारबार फोन पर मुझ से अनुरोध करतीं, ‘बहनजी, कोई अच्छी लड़की हो तो बताइएगा. मैं चाहती हूं कि मेरी आंखों के सामने राजीव का घर फिर से बस जाए. कल को बेटी सुधा भी ब्याह कर अपने घर चली जाएगी तो इन बच्चियों को संभालने वाला कोई तो चाहिए न.

प्रकट में तो मैं कुछ नहीं कहती पर मेरी गुडि़या के बच्चों को सौतेली मां मिले, यह मेरे दिल को मंजूर न था. आखिर तिनकातिनका जोड़ कर बसाए अपनी बेटी के घोंसले को मैं किसी और का होता हुआ कैसे देख सकती थी.

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें यह पता लग गया कि राजीव का घर बसाने के मामले में जड़ काटने का काम मैं खुद कर रही हूं तो उन्हें सतर्क होना ही था और उन के सतर्क होने का नतीजा यह निकला कि राजीव ने अपनी सहकर्मी से विवाह कर लिया.

इस मनहूस खबर ने तो मुझे तोड़ कर ही रख दिया. हाय, अब मेरी गुडि़या के बच्चों का क्या होगा. अब मैं ने लगातार राजीव और उस की मां को कोसना शुरू कर दिया.

अब दिनोदिन मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. जाने कितनी सौतेली मांओं के क्रूरता भरे किस्से मेरे दिमाग में कौंधते रहते और एक पल भी मुझे चैन न लेने देते. मन ही मन में गीतूमीतू को सौतेली मां की झिड़कियां खाते, पिटते और कई तरह के अत्याचारों को तसवीर में ढाल कर देखती रहती और अपनी बेबसी पर खून के आंसू रोती.

उस दिन मैं घर में अकेली ही थी. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने जो खड़ा था उसे देख कर मेरी त्यौरियां चढ़ गईं. मैं तो दरवाजा ही बंद कर लेती पर बगल में मुसकराती गीतूमीतू को देख कर मैं अपने गुस्से को पी गई.

राजीव ने नमस्ते की और उस के साथ जो औरत खड़ी थी उस ने भी कुछ सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर नजरें झुका लीं.

राजीव ने कुछ अपराधी मुद्रा में कहा, ‘मांजी, मुझे माफ कीजिएगा कि आप को बिना बताए मैं ने फिर से विवाह कर लिया. मैं तो यहां आने में संकोच का अनुभव कर रहा था पर नेहा की जिद थी कि वह आप से मिल कर आप का आशीर्वाद जरूर लेगी.

मैं ने क्रोध भरी नजरों से नेहा को देखा पर उस के होंठों पर सरल मुसकान खेल रही थी. उस ने अपने सिर पर गुलाबी साड़ी का पल्लू डाला और मेरे चरण स्पर्श करने को झुकी पर उसे आशीर्वाद देना तो दूर, मैं ने अपने कदमों को पीछे खींच लिया. नेहा ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, शायद वह इस के लिए तैयार थी.

बहुत दिनों बाद गीतूमीतू को अनायास ही अपने पास पा कर अपनी ममता लुटाने का जो अवसर आज मुझे मिला था उसे मैं किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसलिए मजबूरीवश सब को अंदर आने के लिए कहना पड़ा.

राजीव तो बिना कहे ही सोफे पर बैठ गया और अपने माथे पर उभर आए पसीने को रूमाल से जज्ब करते हुए कहीं खो सा गया. गीतूमीतू ने खुद को टेलीविजन देखने में व्यस्त कर लिया पर नेहा थोड़ी देर ठिठकी सी खड़ी रही फिर स्वयं रसोई में जा कर सब के लिए पानी ले आई.

उस ने सब से पहले पानी के लिए मुझ से पूछा पर मैं ने बड़ी रुखाई से मना कर दिया. उस ने गीतूमीतू और राजीव को पानी पिलाया और फिर खुद पिया. इस के बाद मेरे रूखे व्यवहार की परवा न करते हुए वह मेरे पास ही बैठ गई.

पानी पी कर राजीव अचानक उठ कर बाहर चला गया. उस के चेहरे से मुझे लगा कि शायद यहां आ कर उस के मन में मेरी गुडि़या की याद ताजा हो गई थी पर अब क्या फायदा. मेरी गुडि़या से यदि वह इतना ही प्यार करता तो उस का स्थान किसी और को क्यों देता. और उस पर से मुझ से मिलाने के बहाने मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए उसे यहां ले आया है. मेरी सोच की लकीरें मेरे चेहरे पर शायद उभर आई थीं तभी नेहा उन लकीरों को पढ़ कर अपराधबोध से पीडि़त हो उठी.

अगले ही पल नेहा ने अपने चेहरे से अपराधभाव को उतार फेंका और सहज हो कर पूछने लगी, ‘मांजी, आप की तबीयत ठीक नहीं है शायद? मैं अभी चाय बना कर लाती हूं.’

राजीव बाहर से अपने को सहज कर वापस आ गया. गीतूमीतू दौड़ती हुई राजीव की गोद में चढ़ गईं. नेहा चाय और रसोई के डब्बों में से ढूंढ़ कर बिस्कुटनमकीन भी ले आई. सब से पहले उस ने चाय मुझे ही दी, न चाहते हुए भी मुझे चाय लेनी ही पड़ी.

मीतू अचानक राजीव की गोद से उतर कर नेहा की गोद में बैठ गई. बिस्कुट कुतरती मीतू बारबार नेहा से चिपकी जा रही थी और नेहा उस के माथे पर बिखर आई लटों को पीछे करते हुए उस का माथा सहला रही थी. मीतू का इस तरह दुलार होता देख गीतू भी नेहा की गोद में जगह बनाती हुई चढ़ बैठी और नेहा ने उसे भी अपने अंक में समेट लिया तो गीतूमीतू दोनों एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़ीं. पता नहीं उन की हंसी मेरे रोने का सबब क्यों बन गई. मैं आंखों के कोरों में छलक आए आंसुओं को कतई न छिपा सकी.

तभी नेहा ने दोनों बच्चों को गोद से उतार कर आंखों ही आंखों में राजीव को जाने क्या इशारा किया कि वह दोनों बच्चों को ले कर बाहर चला गया. नेहा खाली हो गया कप जो अभी भी मेरे हाथों में ही था, को ले कर सारे बरतन समेट रसोई में रख आई और मेरे एकदम करीब आ कर बैठ गई. फिर मेरे हाथों को अपने कोमल हाथों में ले कर जैसे मुझे आश्वस्त करती हुई बोली, ‘मांजी, मैं आप का दुख समझ सकती हूं. आप ने अपने कलेजे के टुकडे़ को खोया है और मैं यह भी जानती हूं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है. आप बेहद आशंकित हैं कि कहीं सौतेली मां आ कर आप की नातिनों पर अत्याचार करना न शुरू कर दे और उन के पिता को उन से दूर न कर दे.

‘मेरा विश्वास कीजिए मांजी, जब यह बात मुझे पता चली तो मैं ने मन में यह ठान लिया कि मैं आप से मिल कर आप की आशंका जरूर दूर करूंगी. सभी ने तो मुझे रोका था कि आप पता नहीं मुझ से कैसे पेश आएंगी लेकिन मुझे यह पता था कि आप का वह व्यवहार बच्चों की असुरक्षा की आशंका से ही प्रेरित होगा.’

मेरे हाथों पर नेहा के  कोमल हाथों का हल्का सा दबाव बढ़ा और थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहना शुरू किया, ‘मांजी, आप अपने दिल से यह डर बिलकुल निकाल दीजिए कि मैं गीतू व मीतू के साथ बुरा सुलूक करूंगी. आप निश्ंिचत हो कर रहिए ताकि आप का स्वास्थ्य सुधर सके,’ नेहा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा कर मेरा कंधा थपथपाया और मेरी आंखों में झांकती हुई बोली, ‘मांजी, मेरी विनती है कि मुझे भी आप अपनी बेटी जैसी ही समझें. मेरा आप से वादा है कि आप बच्चों से मिलने को नहीं तरसेंगी. हम उन्हें आप से मिलाने लाते रहेंगे.’

नेहा की बात समाप्त भी न होने पाई थी कि राजीव व बच्चे आ गए. दोनों बच्चे दौड़ कर नेहा की टांगों से लिपट गए और ‘मम्मी घर चलो,’ ‘मम्मी घर चलो’ की रट लगाने लगे.

नेहा ने उन्हें गोद में बिठाते हुए कहा, ‘चलते हैं बेटे, पहले आप नानी मां को नमस्ते करो.’

गीतूमीतू ने एकसाथ अपनी छोटीछोटी हथेलियां जोड़ कर तोतली भाषा में मुझे नमस्ते की. मेरे अंदर जमा शिलाखंड पिघलने को आतुर होता सा जान पड़ा. राजीव व नेहा ने चलने की इजाजत मांगी.

उन्हें कुछ पल रुकने को कह कर मैं अंदर गई और अलमारी से गीतूमीतू को देने के लिए 100-100 के 2 नोट निकाले तो लिफाफे के नीचे से झांकती नीली कांजीवरम् की साड़ी ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. साड़ी देखते ही मेरी आंखें भर आईं क्योंकि यह साड़ी मैं अपनी गुडि़या को देने के लिए लाई थी. साड़ी का स्पर्श करते ही मेरे हाथ कांपने लगे पर न जाने कैसे मैं वह साड़ी उठा लाई और टीके की थाली भी लगा लाई.

टीके के बाद मेरे पैर छू कर नेहा ने मीतू को गोद में उठाया और गीतू की उंगली पकड़ कर आटो में बैठने चल दी. आटो में बैठने से पहले नेहा ने मुझे पीछे मुड़ कर देखा. पता नहीं उस की आंखों में मैं ने क्या देखा कि मेरी आंखें झरझर बरसने लगीं. आंसुओं के सैलाब ने आंखों को इतना धुंधला कर दिया कि कुछ भी दिखना संभव न रहा.

जब धुंध छंटी तो सामने से जाती नेहा में मुझे अपनी गुडि़या की छवि का कुछकुछ आभास होने लगा. अब मुझे लगने लगा कि गुडि़या के जाने के बाद मैं जिस डर व आशंका के साथ जी रही थी वह कितना बेमानी था.

एक सवाल मन को मथे जा रहा था कि मैं जो करने जा रही थी क्या वह उचित था?

आज नेहा से मिल कर ऐसा लगा कि मेरी समधिन ने मुझ से छिपा कर राजीव का पुनर्विवाह कर के बहुत ही अच्छा काम किया, वरना मैं तो अपनी नातिनों की भलाई सोच कर उन का बुरा करने ही जा रही थी. कभी अपनी हार भी इतनी सुखदाई हो सकती है यह मैं ने आज नेहा से मिलने के बाद जाना. राजीव के चेहरे पर छाई संतुष्टि और गीतूमीतू के लिए नेहा के हृदय से छलकता ममता का सागर देख कर मैं भावविभोर थी.

मैं यह सोचने पर विवश थी, कितना बड़ा दिल है नेहा का. एक तो उसे विधुर पति मिला और उस पर से 2 अबोध बच्चियों के पालनपोषण की जिम्मेदारी. फिर भी वह मुझे मनाने चली आई. मुझे नेहा अपने से बहुत बड़ी लगने लगी.

अब मुझ से और नहीं रहा गया. बहुत दिनों बाद मैं ने राजीव के यहां फोन लगाया. रुंधे कंठ से इतना ही पूछ पाई, ‘‘ठीक से पहुंच गई थीं, बेटी?’’

‘‘जी, मम्मीजी,’’ नेहा का भी गला भर आया था. मेरे गले और दिल से एकसाथ निकला, ‘‘खुश रहो, मेरी गुडि़या.’’

क्यों दूर चले गए: भाग 1

परिस्थितियां कभीकभी इनसान को इतना विवश कर देती हैं कि वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता. सामाजिक मान्यताएं, संस्कार और परंपराएं व्यक्ति को अपने मकड़जाल में उलझाए रखती हैं. ऐसे में या तो वह विद्रोह कर के सब का कोपभाजन बने या फिर परिस्थितियों से समझौता कर के खुद को नियति के हाल पर छोड़ दे. किंतु यह जरूरी नहीं कि वह सुखी रह सके.

मैं भी जीवन के एक ऐसे दोराहे पर उस मकड़जाल में फंस गया कि जिस से निकलना शायद मेरे लिए संभव नहीं था. कोई मेरी मजबूरी नहीं समझना चाहता था. बस, अपनाअपना स्वार्थ भरा आदेश और निर्णय वे थोपते रहे और मैं अपने ही दिल के हाथों मजबूरी का पर्याय बन चुका था.

मैं जानता हूं कि पिछले कई दिनों से खुशी मेरे फोन का इंतजार कर रही थी. उस ने कई बार मेरा फैसला सुनने के लिए फोन भी किया था मगर मेरे पास वह साहस नहीं था कि उस का फोन उठा सकूं. वैसे हमारे बीच कोई अनबन नहीं थी और न ही कोई मतभेद था फिर भी मैं उस का फोन सुनने का साहस नहीं जुटा सका.

मैं ने कई बार यह कोशिश की कि खुशी को फोन पर सबकुछ साफसाफ बता दूं पर मेरा फोन पर हाथ जातेजाते रुक जाता और दिल तेजी से धड़कने लगता. मैं घबरा कर फोन रख देता.

खुशी मेरी प्रेमिका थी, मेरी जान थी, मेरी मंजिल थी. थोडे़ में कहूं तो वह मेरी सबकुछ थी. पिछले 4 सालों में हमारे बीच संबंध इतने गहरे बनते चले गए कि हम ने एकदूसरे की जिंदगी में आने का फैसला कर लिया था और आज जो समाचार मैं उसे देने जा रहा था वह किसी भी तरह से मनोनुकूल नहीं था. न मेरे लिए, न उस के लिए. फिर भी उसे बताना तो था ही.

मैं आफिस में बैठा घड़ी की तरफ देख रहा था. जैसे ही 2 बजेंगे वह फिर फोन करेगी क्योंकि इसी समय हम दोनों बातें किया करते थे. मैं भी अपने काम से फ्री हो जाता और वह भी. बाकी आफिस के लोग लंच में व्यस्त हो जाते.

मैं ने हिम्मत जुटा कर फोन किया, ‘‘खुशी.’’

‘‘अरे, कहां हो तुम? इतने दिन हो गए, न कोई फोन न कोई एसएमएस. मैं ने तुम्हें कितने फोेन किए, क्या बात है सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ठीक ही है. बस, तुम से मिलना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ अनमने मन से कहा.

‘‘क्या बात है, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो? न डार्लिंग कहा, न जानू बोले. बस, सीधेसीधे औपचारिकता निभाने लग गए. घर पर कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘हां, हुई तो थी पर फोन पर नहीं बता सकता. तुम मिलो तो सारी बात बताऊंगा.’’

‘‘देखो, कुछ ऐसीवैसी बात मत बताना. मैं सह नहीं पाऊंगी,’’ वह एकदम घबरा कर बोली, ‘‘डार्लिंग, आई लव यू. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘आई लव यू टू, पर खुशी, लगता है हम इस जन्म में नहीं मिल पाएंगे.’’

 

Father’s Day Special- कीमत संस्कारों की: भाग 1

‘‘सौरी डैड, मुझे पता है कि आप ने मुझे एक घंटा पहले बुलाया था, पर उस समय मुझे अपनी महिला मित्र को फोन करना था. चूंकि उस के पास यही समय ऐसा होता है कि मैं उस से बात कर सकता हूं इसलिए मैं आप के बुलावे को टाल गया था. अब बताइए कि आप किस काम के लिए मुझे बुला रहे थे.’’

‘‘कोई खास नहीं,’’ दीनप्रभु ने कहा, ‘‘दवा लेने के लिए मुझे पानी चाहिए था. तुम आए नहीं तो मैं ने दवा की गोली बगैर पानी के ही निगल ली.’’

‘‘डैड, आप ने यह बड़ा ही अच्छा काम किया. वैसे भी इनसान को दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. मैं कल से पानी का पूरा जार ही आप के पास रख दिया करूंगा.’’

हैरीसन के जाने के बाद दीनप्रभु सोचने लगे कि इनसान के जीवन की वास्तविक परिभाषा क्या है? और वह किस के लिए बनाया गया है. क्या वह बनाने वाले के हाथ का एक ऐसा खिलौना है जिस को बनाबना कर वह बिगाड़ता और तोड़ता रहता है और अपना मनोरंजन करता है.

इनसान केवल अपने लिए जीता है तो उस को ऐसा कौन सा सुख मिल जाता है, जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती और यदि दूसरों के लिए जीता है तो उस के इस समर्पित जीवन की अवहेलना क्यों कर दी जाती है. यह कितना कठोर सच है

कि इनसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कठिन से कठिन परिश्रम करता है. वह दूसरों को रास्ता दिखाता है मगर जब वह खुद ही अंधकार का शिकार होने लगता है तो उसे एहसास होता है कि प्रवचनों में सुनी बातें सरासर झूठ हैं.

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हैरीसन घर से जा चुका था. कमरे में एक भरपूर सन्नाटा पसरा पड़ा था. दीनप्रभु के लिए यह स्थिति अब कोई नई बात नहीं थी. ऐसा वह पिछले कई सालों से अपने परिवार में देखते आ रहे थे मगर दुख केवल इसी बात का कि जो कुछ देखने की कल्पना कर के वह विदेश में आ बसे थे उस के स्थान पर वह कुछ और ही देखने को मजबूर हो गए. भरेपूरे परिवार में पत्नी और बच्चों के रहते हुए भी वह अकेला जीवन जी रहे थे.

अपने मातापिता, बहनभाइयों के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया. सब को रास्ता दिखा कर उन के घरों को आबाद किया और जब आज उन की खुद की बारी आई तो उन की डगमगाती जीवन नैया की पतवार को संभालने वाला कोई नजर नहीं आता था. सोचतेसोचते दीनप्रभु को अपने अतीत के दिन याद आने लगे.

भारत में वह दिल्ली के सदर बाजार के निवासी थे. पिताजी स्कृल में प्रधानाचार्य थे. वह अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़े थे. परिवार की आर्थिक स्थिति संभालने का जरिया नौकरी के अलावा सदर बाजार की वह दुकान थी जिस पर लोहा, सीमेंट आदि सामान बेचा जाता था. इस दुकान को उन के पिता, वह और उन के दूसरे भाई बारीबारी से बैठ कर चलाया करते थे.

संयुक्त परिवार था तो सबकुछ सामान्य और ठीक चल रहा था मगर जब भाइयों की पत्नियां घर में आईं और बंटवारा हुआ तो सब से पहले दुकान के हिस्से हुए, फिर घर बांटा गया और फिर बाद में सब अपनेअपने किनारे होने लगे.

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इस बंटवारे का प्रभाव ऐसा पड़ा कि बंटी हुई दुकान में भी घाटा होने लगा. एकएक कर दुकानें बंद हो गईं. परिवार में टूटन और बिखराव के साथ अभावों के दिन दिखाई देने लगे तो दीनप्रभु के मातापिता ने भी अपनी आंखें सदा के लिए बंद कर लीं. अभी उन के मातापिता के मरने का दुख समाप्त भी नहीं हुआ था कि एक दिन उन की पत्नी अचानक दिल के दौरे से निसंतान ही चल बसीं. दीनप्रभु अकेले रह गए. किसी प्रकार स्वयं को समझाया और जीवन के संघर्षों के लिए खुद को तैयार किया.

दीनप्रभु के सामने अब अपनी दोनों सब से छोटी बहनों की पढ़ाई और फिर उन की शादियों का उत्तरदायित्व आ गया. उन्हें यह भी पता था कि उन के भाई इस लायक नहीं कि वे कुछ भी आर्थिक सहायता कर सकें. इन्हीं दिनों दीनप्रभु को स्कूल की तरफ से अमेरिका आने का अवसर मिला तो वह यहां चले आए.

अमेरिका में रहते हुए ही दीनप्रभु ने यह सोच लिया कि अगर वह कुछ दिन और इस देश में रह गए तो इतना धन कमा लेंगे जिस से बहनों की न केवल शादी कर सकेंगे बल्कि अपने परिवार की गरीबी भी दूर करने में सफल हो जाएंगे.

अमेरिका में बसने का केवल एक ही सरल उपाय था कि वह यहीं की किसी स्त्री से विवाह करें और फिर यह शार्र्टकट रास्ता उन्हें सब से आसान और बेहतर लगा. अपनी सोच को अंजाम देने के लिए दीनप्रभु अमेरिकन लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन देखने  लगे. इत्तफाक से उन की बात एक लड़की के साथ बन गई. वह थी तो  तलाकशुदा पर उम्र में दीनप्रभु के बराबर ही थी. इस शादी का एक कारण यह भी था कि लड़की के परिवार वालों की इच्छा थी कि वह अपनी बेटी का विवाह किसी भारतीय युवक से करना चाहते थे, क्योंकि उन की धारणा थी कि पारिवारिक जीवन के लिए भारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला हुआ युवक अधिक विश्वासी और अपनी पत्नी के प्रति ईमानदार होता है.

एक दिन दीनप्रभु का विवाह हो गया और तब उन की दूसरी पत्नी लौली उन के जीवन में आ गई. विवाह के बाद शुरू के दिन तो दोनों को एकदूसरे को समझने में ही गुजर गए. यद्यपि लौली उन की पत्नी थी मगर हरेक बात में सदा ही उन से आगे रहा करती, क्योेंकि वह अमेरिकी जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी. दीनप्रभु वहां कुछ सालों से रह जरूर रहे थे पर वहां के माहौल से वह इतने अनुभवी नहीं थे कि अपनेआप को वहां की जीवनशैली का अभ्यस्त बना लेते. उन की दशा यह थी कि जब भी कोई फोन आता था तो केवल अंगरेजी की समस्या के चलते वे उसे उठाते हुए भी डरते थे. शायद उन की पत्नी लौली इस कमजोरी को समझती थी, इसी कारण वह हर बात में उन से आगे रहा करती थी.

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दीनप्रभु शुरू से ही सदाचारी थे. इसलिए अपनी विदेशी पत्नी के साथ निभा भी गए लेकिन विवाह के बाद उन्हें यह जान कर दुख हुआ था कि उन की पत्नी के परिवार के लोग अपने को सनातन धर्म का अनुयायी बताते थे पर उन का सारा चलन ईसाइयत की पृष्ठभूमि लिए हुए था. अपने सभी काम वे लोग अमेरिकियों की तरह ही करते थे. उन के लिए दीवाली, होली, क्रिसमस और ईस्टर में कोई भी फर्क नहीं दिखाई देता था. लौली के परिवार वाले तो इस कदर विदेशी रहनसहन में रच गए थे कि यदि कभीकभार कोई एक भी शनिवार बगैर पार्टी के निकल जाता था तो उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे जीवन का कोई बहुत ही विशेष काम वह करने से भूल गए हैं.

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