था कि जबतब शेयर मार्केट में भी वह जाया करता था. जो हो, सचाई अपनी जगह ठोस थी. पत्नी के नाम साढ़े 5 लाख रुपए निश्चित थे.
आमतौर पर बैंक वाले ऐसी बातें खुद नहीं बताते, नामिनी को खुद दावा करने जाना पड़ता है. वह तो बैंक का क्लर्क सुभाष गली में ही रहता है, उसी ने बात फैला दी. अमिता के घर यह सूचना देने सुभाष निजी रूप से गया था और इसी के चलते गली भर को मालूम हो गई यह बात.
वह नातेदार, पड़ोसी, जो कभी उस के घर में झांकते तक न थे, वह भी आ कर सतीश के गुणों का बखान करने लगे. गली वालों ने एकमत से मान लिया कि सतीश जैसा निरीह, साधु प्रकृति आदमी नहीं मिलता है. अपने काम से काम, न किसी की निंदा, न चुगली, न झगड़े. यहां तो चार पैसे पाते ही लोग फूल कर कुप्पा हो जाते हैं.
अमिता चकराई हुई थी. यह क्या हो गया, वह समझ नहीं पा रही थी.
उसे सहारा देने दूर महल्ले के मायके से मां, बहन और भाई आ पहुंचे. बाद में पिताजी भी आ गए. आते ही मां ने नाती को गोद में उठा लिया. बाकी सब भी अमिता के 4 साल के बच्चे राहुल को हाथोंहाथ लिए रहते.
मां ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नी, यों उदास न रहो. जो होना था वह हो गया. तुम्हें इस तरह उदास देख कर मेरी तो छाती फटती है.’’
पिता ने खांसखंखार कर कहा, ‘‘न हो तो कुछ दिनों के लिए हमारे साथ चल कर वहीं रह. यहां अकेली कैसे रहेगी, हम लोग भी कब तक यहां रह सकेंगे.’’
‘‘और यह घर?’’ अमिता पूछ बैठी.
‘‘अरे, किराएदारों की क्या कमी है, और कोई नहीं तो तुम्हारे मामा रघुपति को ही रख देते हैं. उसे भी डेरा ठीक नहीं मिल रहा है, अपना आदमी घर में रहेगा तो अच्छा ही होगा.’’
‘‘सुनते हो जी,’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी की सूनी कलाई देख मेरी छाती फटती है. ऐसी हालत में शीशे की नहीं तो सोने की चूडि़यां तो पहनी ही जाती हैं, जरा सुखलाल सुनार को कल बुलवा देते.’’
‘‘जरूर, कल ही बुला देता हूं.’’
अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.
सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.
अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.
बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थी
ले जा कर कागजी काररवाई निबटा देगा.
अमिता लगभग 4 बजे घर पहुंची तो सब चिंतित थे. मां ने पूछा, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी, बेटी?’’
‘‘बैंक गई थी मां, कुछ और भी जरूरी काम थे…’’
घर वालों के चेहरे आशंकाओं से घिर गए कि बैंक क्या करने गई थी. पर पूछने का साहस किसी में न हुआ.
2 दिन बाद छोटा भाई ललित आया और बोला, ‘‘दीदी, कालिज से 20 लड़कों का एक ग्रुप विन्टरविकेशन में गोआ घूमने जा रहा है, हर लड़के को 5 हजार जमा करने पड़ेंगे…’’
अमिता ने सख्ती से कहा, ‘‘अभी, गरमियों की छुट्टी में तुम मसूरी घूमने गए थे न? हर छुट्टी में मटरगश्ती गलत है. तुम्हें छुट्टियों में यहीं रह कर वार्षिक परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए. मैं इतने रुपए न जुटा सकूंगी…’’
ललित का चेहरा उतर गया. मां भी अमिता का रुख देख कुछ न कह सकीं.
3 माह पूरे होने पर विवेक आ कर बीमे की किस्त ले गया और कागजों पर उस से हस्ताक्षर भी कराए. अमिता ने साफ शब्दों में मां को बता दिया कि उसे अब राहुल की फीस और ललित की कोचिंग की फीस ही देने योग्य आय होगी, वीणा की फीस पिताजी जैसे पहले देते थे, दिया करें.
विवेक की सलाह से अमिता ने एक स्वयंसेवी संस्था की सदस्यता ग्रहण कर ली. उस के कार्यक्रमों में वह अधिकतर घर के बाहर ही रहने लगी. बाहरी अनुभव बढ़ने और व्यस्तता के चलते अब अमिता का तनमन अधिक खुश रहने लगा.
विवेक से अमिता की अच्छी पटने लगी. अकसर दोनों साथ ही बाहर घूमनेफिरने निकलते. यह देख कर मांपिता सहमते, किंतु सयानी और लखपती बेटी को क्या कहते. उस के कारण घर की हालत बदली थी.
साल भर बाद ही एक दिन अमिता, मां से बोली, ‘‘मां, मैं ने विवेक से विवाह करना तय कर लिया है, तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए…’’
मां को तो कानों पर विश्वास ही न हुआ. हतप्रभ सी खड़ी रह गईं. बगल के कमरे से पिताजी भी आ गए, ‘‘क्या हुआ? मैं क्या सुन रहा हूं?’’
‘‘मैं विवेक के साथ विवाह करने जा रही हूं, आशीर्वाद दें.’’
मां फट पड़ीं, ‘‘तेरी बुद्धि तो ठीक है, भला कोई विधवा…’’ तभी विवेक आ गया. उसे देख कर मां खामोश हो गईं. लेकिन आतेआते उस ने उन की बातें सुन ली थीं, अंतत: हंस कर विवेक बोला, ‘‘मांजी, आप किस जमाने की बात कह रही हैं? अब जमाना बदल गया है. अब विधवा की दोबारा शादी को बुरा नहीं समझा जाता. जब हमें कोई आपत्ति नहीं है तो दूसरों से क्या लेनादेना. खैर, आप लोगों का आशीर्वाद हमारे साथ है, ऐसा हम ने मान लिया है. चलो, अमिता.’’
उसी दिन आर्यसमाज मंदिर में उन का विवाह संपन्न हो गया. मन में सहमति न रखते हुए भी अमिता के मातापिता व भाईबहन विवाह समारोह में शामिल हुए. मांपिता ने कन्यादान किया. विवेक के घर में केवल मां और छोटी बहन थीं और विवेक के आफिस के सहयोगी भी पूरे उत्साह के साथ सम्मिलित हुए. साथियों ने निकट के रेस्तरां में नवदंपती के साथ सब की दावत की.
अमिता ने मांपिता के पैर छुए. फिर अमिता के साथ सभी लोग उस के घर आ गए तो विवेक की मां ने कहा, ‘‘समधीजी, अब अमिता को विदा कीजिए. वह अब मेरी बहू है, उसे अपने घर जाने दें…’’
पिता की जबान खुली, ‘‘लेकिन, राहुल…’’
विवेक की मां ने हंस कर कहा, ‘‘राहुल विवेक को बहुत चाहता है, विवेक भी उसे अपने बेटे की तरह प्यार करता है. बच्चे को उस का पिता भी तो मिलना चाहिए.’’
अमिता बोली, ‘‘पिताजी, मेरे इस घर को फिलहाल किराए पर उठा दें. उस पैसे से भाईबहनों की पढ़ाई, घर की देखभाल आदि का खर्च निकल आएगा.’’
चलते समय विवेक ने अमिता के मातापिता से कहा, ‘‘पिताजी, मैं ने अमिता से स्पष्ट कह दिया है कि तुम्हारा जो धन है वह तुम्हारा ही रहेगा, तुम्हारे ही नाम से रहेगा. मैं खुद अपने परिवार, पत्नी और पुत्र के लायक बहुत कमा लेता हूं. आप ऐसा न सोचें कि उस के धन के लालच से मैं ने शादी की है. वह उस का, राहुल का है.’’
फिर मातापिता के पैर छू कर विवेक और अमिता थोड़े से सामान और राहुल को साथ लेकर चले गए.