Family Story : निकम्मा बाप

Family Story : जसदेव जब भी अपने गांव के बाकी दोस्तों को दूसरे शहर में जा कर नौकरी कर के ज्यादा पैसे कमाते हुए देखता तो उस के मन में भी ऐसा करने की इच्छा होती.

एक दिन जसदेव और शांता ने फैसला कर ही लिया कि वे दोनों शहर जा कर खूब मेहनत करेंगे और वापस अपने गांव आ कर अपने लिए एक पक्का घर बनवाएंगे.

शांता और जसदेव अभी कुछ ही महीने पहले शादी के बंधन में बंधे थे. जसदेव लंबीचौड़ी कदकाठी वाला, गोरे रंग का मेहनती लड़का था. खानदानी जायदाद तो थी नहीं, पर जसदेव की पैसा कमाने के लिए मेहनत और लगन देख कर शांता के घर वालों ने उस का हाथ जसदेव को दे दिया था.

शांता भी थोड़े दबे रंग की भरे जिस्म वाली आकर्षक लड़की थी.

अपने गांव से कुछ दूर छोटे से शहर में पहुंच कर सब से पहले तो जसदेव के दोस्तों ने उसे किराए पर एक कमरा दिलवा दिया और अपने ही मालिक ठेकेदार लखपत चौधरी से बात कर मजदूरी पर भी रखवा लिया. अब जसदेव और शांता अपनी नई जिंदगी की शुरुआत कर चुके थे.

थोड़े ही दिनों में शांता ने अपनी पहली बेटी को जन्म दिया. दोनों ने बड़े प्यार से उस का नाम रवीना रखा.

मेहनतमजदूरी कर के अपना भविष्य बनाने की चाह में छोटे गांवकसबों से आए हुए जसदेव जैसे मजदूरों को लूटने वालों की कोई कमी नहीं थी.

ठेकेदार लखपत चौधरी का एक बिगड़ैल बेटा भी था महेश. पिता की गैरहाजिरी में बेकार बैठा महेश साइट पर आ कर मजदूरों के सिर पर बैठ जाता था.

सारे मजदूर महेश से दब कर रहते थे और ‘महेश बाबू’ के नाम से बुलाया करते थे, शायद इसलिए क्योंकि महेश एक निकम्मा इनसान था, जिस की नजर हमेशा दूसरे मजदूरों के पैसे और औरतों पर रहती थी.

जसदेव की अपने काम के प्रति मेहनत और लगन को देख कर महेश ने अब उसे अपना अगला शिकार बनाने की ठानी. महेश ने उसे अपने साथ बैठा कर शराब और जुए की ऐसी लत लगवाई कि पूछो ही मत. जसदेव भी अब शहर की चमकधमक में रंग चुका था.

महेश ने धोखे से 1-2 बार जसदेव को जुए में जितवा दिया, ताकि लालच में आ कर वह और ज्यादा पैसे दांव पर लगाए.

महेश अब जसदेव को साइट पर मजदूरी नहीं करने देता था, बल्कि अपने साथ कार में घुमाने लगा था.

शराब और जुए के अलावा अब एक और चीज थी, जिस की लत महेश जसदेव को लगवाना चाहता था ‘धंधे वालियों के साथ जिस्मफरोशी की लत’, जिस के लिए वह फिर शुरुआत में अपने रुपए खर्च करने को तैयार था.

महेश जसदेव को अपने साथ एक ऐसी जगह पर ले कर गया, जहां कई सारी धंधे वालियां जसदेव को अपनेअपने कमरों में खींचने को तैयार थीं, पर जसदेव के अंदर का आदर्श पति अभी बाकी था और शायद इसी वजह से उस ने इस तोहफे को ठुकरा दिया.

महेश को चिंता थी कि कहीं नया शिकार उस के हाथ से निकल न जाए, यही सोच कर उस ने भी जसदेव पर ज्यादा दबाव नहीं डाला.

उस रात घर जा कर जसदेव अपने साथ सोई शांता को दबोचने की कोशिश करने लगा कि तभी शांता ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा, ‘‘आप भूल गए हैं क्या? मैं ने बताया था न कि मैं फिर पेट से हूं और डाक्टर ने अभी ऐसा कुछ भी करने को मना ही किया है.’’

जसदेव गुस्से में कंबल ताने सो गया.

अगले दिन जसदेव फिर महेश बाबू के पास पहुंचा और कल वाली जगह पर चलने को कहा.

महेश मन ही मन खुश था. एक बार धंधे वाली का स्वाद चखने के बाद जसदेव को अब इस की लत लग चुकी थी. इस बीच महेश बिचौलिया बन कर मुनाफा कमा रहा था.

जसदेव की तकरीबन ज्यादातर कमाई अपनी इस काम वासना में खर्च हो जाती थी और बाकी रहीसही जुए और शराब में.

जसदेव के दोस्तों को महेश बाबू की आदतों के बारे में अच्छी तरह से मालूम था. उन्होंने जसदेव को कई बार सचेत भी किया, पर महेश बाबू की मीठीमीठी बातों ने जसदेव का विश्वास बहुत अच्छी तरह से जीत रखा था.

पैसों की कमी में जसदेव और शांता के बीच रोजाना झगड़े होने लगे थे. शांता को अब अपना घर चलाना था, अपने बच्चों का पालनपोषण भी करना था.

10वीं जमात में पढ़ने वाली रवीना के स्कूल की फीस भी कई महीनों से नहीं भरी गई थी, जिस के लिए उसे अब जसदेव पर निर्भर रहने के बजाय खुद के पैरों पर खड़ा होना ही पड़ा.

शांता ने अपनी चांदी की पायल बेच कर एक छोटी सी सिलाई मशीन खरीद ली और अपने कमरे में ही एक छोटा सा सिलाई सैंटर खोल दिया. आसपड़ोस की औरतें अकसर उस से कुछ न कुछ सिलवा लिया करती थीं, जिस के चलते शांता और उस के परिवार की दालरोटी फिर से चल पड़ी.

जसदेव की आंखों में शांता का काम करना खटकने लगा. वह शांता के बटुए से पैसे निकाल कर ऐयाशी करने लगा और कभी शांता के पैसे न देने पर उसे पीटपीट कर अधमरा भी कर दिया करता था.

शांता इतना कुछ सिर्फ अपनी बेटी रवीना की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए सह रही थी, क्योंकि शांता नहीं चाहती थी कि उस की बेटी को भी कोई ऐसा पति मिल जाए जैसा उसे मिला है.

बेटी रवीना के स्कूल की फीस पिछले 10 महीनों से जमा नहीं की गई थी, जिस के चलते उस का नाम स्कूल से काट दिया गया.

स्कूल छूटने के गम और जसदेव और शांता के बीच रोजरोज के झगड़े से उकताई रवीना ने सोच लिया कि अब वह अपनी मां को अपने बापू के साथ रहने नहीं देगी.

अभी जसदेव घर पर नहीं आया था. रवीना ने अपनी मां शांता से अपने बापू को तलाक देने की बात कही, पर गांव की पलीबढ़ी शांता को छोटी बच्ची रवीना के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगीं.

शांता ने रवीना को समझाया, ‘‘तू अभी पाप की इन बातों पर ध्यान मत दे. वह सब मैं देख लूंगी. भला मुझे कौन सा इस शहर में जिंदगीभर रहना है. एक बार तू पढ़लिख कर नौकरी ले ले, फिर तो तू ही पालेगी न अपनी बूढ़ी मां को…’’

‘‘मैं अब कैसे पढ़ूंगी मां? स्कूल वालों ने तो मेरा नाम भी काट दिया है. भला काटे भी क्यों न, उन्हें भी तो फीस चाहिए,’’ रवीना की इस बात ने शांता का दिल झकझोर दिया.

रात के 11 बजे के आसपास अभी शांता की आंख लगी ही थी कि किसी ने कमरे के दरवाजे को पकड़ कर जोरजोर से हिलाना शुरू कर, ‘‘शांता, खोल दरवाजा. जल्दी खोल शांता… आज नहीं छोड़ेंगे मुझे ये लोग शांता…’’

दरवाजे पर जसदेव था. शांता घबरा गई कि भला इस वक्त क्या हो गया और कौन मार देगा.

शांता ने दरवाजे की सांकल हटाई और जसदेव ने फौरन घर में घुस कर अंदर से दरवाजे पर सांकल चढ़ा दी और घर की कई सारी भारीभरकम चीजें दरवाजे के सामने रखने लगा.

जसदेव के चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई थीं. वह ऊपर से नीचे तक पसीने में तरबतर था. जबान लड़खड़ा रही थी, मुंह सूख गया था.

‘‘क्या हुआ? क्या कर दिया? किस की जेब काटी? किस के गले में झपट्टा मारा?’’ शांता ने एक के बाद एक कई सवाल दागने शुरू कर दिए.

जसदेव पर शांता के सवालों का कोई असर ही नहीं हो रहा था, वह तो सिर्फ अपनी गरदन किसी कबूतर की तरह इधर से उधर घुमाए जा रहा था, मानो चारदीवारी में से बाहर निकलने के लिए कोई सुरंग ढूंढ़ रहा हो.

‘‘क्या हुआ? बताओ तो सही? और कौन मार देगा?’’ शांता ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

जसदेव ने शांता के मुंह पर अपना हाथ रख कर उसे चुप रहने को कहा.

शांता को इस से पहले कि कुछ समझ में आता, इस बार कई सारे आदमी शांता के दरवाजे को उखाड़ने की कोशिश में लग गए. उन की बातों से यह तो साफ था कि वह जसदेव को अपने साथ उठा ले जाने आए थे या फिर मारने.

दरवाजे की सांकल टूट गई, पर उस के आगे रखे ढेर सारे भारीभरकम सामान ने अभी तक दरवाजे को थामा हुआ था और शायद जसदेव की सांसों को भी.

जसदेव को कुछ समझ में नहीं आया कि शांता से क्या बताए, ऊपर से इतना शोर सुन कर उसे अपना हर एक पल अपना आखिरी पल दिखाई पड़ने लगा.

‘‘अरे, बता न क्या कर के आया है आज? इतने लोग तेरे पीछे क्यों पड़े हैं?’’ अब शांता की आवाज में गुस्सा और चिंता दोनों दिखाई पड़ रही थी, जिस के चलते जसदेव ने अपना मुंह खोला, ‘‘मैं ने कुछ नहीं… मैं ने कुछ नहीं किया शांता, मुझे क्या पता था कि वह…’’ जसदेव फिर चुप हो गया.

अब शांता जसदेव का गरीबान पकड़ कर झकझोरने लगी, ‘‘कौन है वह?’’

शांता पति से बात करने का अब अदब भी भूल चुकी थी.

‘‘आज जब मैं महेश बाबू के यहां जुआ खेलने बैठा था कि एक लड़की मुझे जबरदस्ती शराब पिलाने लगी. मैं नशे में धुत्त था कि इतने में उस लड़की ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया.

‘‘मैं कुछ समझ न पाया और बहाना बना कर जुए के अड्डे से उठ गया और सीधा उस लड़की के पास चला गया.

‘‘वह मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गई और नंगधड़ंग हो कर मुझ से सारे पाप करवा डाले, जिस का अंदाजा तुम लगा सकती हो.’’

‘‘फिर…?’’ शांता ने काफी गुस्से में पूछा.

‘‘उसी वक्त न जाने कहां से महेश बाबू उस कमरे में आ गए और गेट खटखटाना शुरू कर दिया.

‘‘जल्दी दरवाजा न खुलने की वजह से उन्होंने लातें मारमार कर दरवाजा तोड़ दिया.

‘‘दरवाजा खुलते ही वह लड़की उन से जा लिपटी और मेरे खिलाफ इलजाम लगाने लगी. मैं किसी तरह से अपनी जान बचा कर यहां आ पाया, पर शायद अब नहीं बचूंगा.’’

शांता को अब जसदेव की जान की फिक्र थी. उस ने जसदेव को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम पीछे के रास्ते से भाग जाओ और अब यहां दिखना भी मत.’’

‘‘तेरा, रवीना और तेरे पेट में पल रहे इस मासूम बच्चे का क्या…? मैं नहीं मिला, तो वे तुम लोगों को मार डालेंगे,’’ जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की भी फिक्र थी.

शांता ने फिर जसदेव पर गरजते हुए कहा, ‘‘तुम पागल मत बनो. वे मुझ औरत को कितना मारेंगे और मारेंगे भी तो जान से थोड़े ही न मार देंगे. अगर तुम यहां रहोगे, तो हम सब को ले डूबोगे.’’

जसदेव पीछे के दरवाजे से चोरीछिपे भाग निकला. जसदेव भाग कर कहां गया, इस का ठिकाना तो किसी को नहीं पता.

तकरीबन 2 साल बीत चुके थे. जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की फिक्र सताने लगी थी. उस ने सोचा कि काफी समय हो गया है और अब तक तो मामला शांत भी हो गया होगा और जो रहीसही गलतफहमी होगी, वह महेश बाबू के साथ बैठ कर सुलझा लेगा.

जसदेव ने 2 साल से अपनी दाढ़ी नहीं कटवाई थी और बाल भी काफी लंबे हो चुके थे. जसदेव ने इसे अपना नया भेष सोच कर ऐसे ही अपनी शांता और रवीना के पास जाने की योजना बनाई.

जसदेव ने शहर पहुंच कर कुछ मिठाइयां साथ ले लीं. सोचा कि बच्चों और शांता से काफी दिन बाद मिल रहा है, खाली हाथ कैसे जाए और अब तो वे नन्हा मेहमान भी राह देख रहा होगा उस की.

जसदेव ने अपने दोनों हाथों में मिठाइयों का थैला पकड़े शांता का दरवाजा खटखटाया. कमरे के बाहर नया पेंट और सजावट देख कर उसे लगा कि शांता अब अच्छे पैसे कमाने लगी है शायद.

हलका सा दरवाजा खुला और एक अनजान औरत दरवाजे से मुंह बाहर निकाल कर जसदेव से सवाल करने लगी, ‘‘आप कौन…?’’

‘‘जी, मुझे शांता से मिलना था. वह यहां रहती है न?’’ जसदेव ने पूछा.

‘‘शांता, नहीं तो भाई साहब, यहां तो कोई शांता नहीं रहती. हम तो काफी दिनों से यहां रह रहे हैं,’’ उस औरत ने हैरानी से कहा.

‘‘बहनजी, आप यहां कब आई हैं?’’ जसदेव ने उस औरत से पूछताछ करते हुए पूछा.

‘‘तकरीबन 2 साल पहले.’’

जसदेव वहां से उलटे पैर निकल गया. उस के मन में कई बुरे विचार भी आए, पर अपनेआप को तसल्ली देते हुए खुद से ही कहता रहा कि शायद शांता गांव वापस चली गई होगी. जसदेव शांता की खबर लेने शहर में रह रहे अपने दोस्तों के पास पहुंचा.

पहली नजर में तो जसदेव के बचपन का दोस्त फगुआ भी उसे पहचान नहीं पाया था, पर आवाज और कदकाठी से उसे पहचानने में ज्यादा देर नहीं लगी.

जसदेव ने समय बरबाद करना नहीं चाहा और सीधा मुद्दे पर आ कर फगुआ से शांता के बारे में पूछा, ‘‘मेरी शांता कहां है? मुझे सचसच बता.’’

फगुआ ने उस से नजरें चुराते हुए चुप रहना ही ठीक समझा. पर जसदेव के दवाब डालने पर फगुआ ने उसे अपने साथ आने को कहा. फगुआ अंदर से चप्पल पहन कर आया और जसदेव उस के पीछेपीछे चलने लगा.

कुछ दूरी तक चलने के बाद फगुआ ने जसदेव को देख कर एक घर की तरफ इशारा किया, फिर फगुआ वापस चलता बना.

फगुआ ने जिस घर की ओर इशारा किया था, वह वही कोठा था, जहां जसदेव पहले रोज जाया करता था. पर जसदेव को समझ में नहीं आया कि फगुआ उसे यहां ले कर क्यों आया है.

अगले ही पल उस ने जो देखा, उसे देख कर जसदेव के पैरों तले जमीन खिसक गई. कोठे की सीढि़यों से उतरता एक अधेड़ उम्र का आदमी रवीना की बांहों में हाथ डाले उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठ कर कहीं ले जाने की तैयारी में था. जसदेव भाग कर गया और रवीना को रोका. वह नौजवान मोटरसाइकिल चालू कर उस का इंतजार करने लगा.

रवीना ने पहले तो अपने बापू को इस भेष में पहचाना ही नहीं, पर फिर समझाने पर वह पहचान ही गई.

उस ने अपने बापू से बात करना भी ठीक नहीं समझा. रवीना के दिल में बापू के प्रति जो गुस्सा और भड़ास थी, उस का ज्वालामुखी रवीना के मुंह से फूट ही गया.

रवीना ने कहा, ‘‘यह सबकुछ आप की ही वजह से हुआ है. उस दिन आप तो भाग गए थे, पर उन लोगों ने मां को नोच खाया, किसी ने छाती पर झपट्टा मारा, किसी ने कपड़े फाड़े और एकएक कर मेरे सामने ही मां के साथ…’’ रवीना की आंखों से आंसू आ गए.

‘‘मां कहां है बेटी?’’ जसदेव ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

‘‘मां तो उस दिन ही मर गईं और उन के पेट में पल रहा आप का बच्चा भी…’’ रवीना ने कहा, ‘‘मां ने मुझे भागने को कहा, पर उस से पहले ही आप के महेश बाबू ने मुझे इस कोठे पर बेच दिया.’’

रवीना इतना ही कह पाई थी कि मोटरसाइकिल वाला ग्राहक रवीना को आवाज देने लगा और जल्दी आने को कहने लगा.

रवीना उस की मोटरसाइकिल पर उस से लिपट कर निकल गई और एक बार भी जसदेव को मुड़ कर नहीं देखा.

जसदेव का पूरा परिवार ही खत्म हो चुका था और यह सब महेश बाबू की योजना के मुताबिक हुआ था, इसे समझने में भी जसदेव को ज्यादा समय नहीं लगा. बीच रोड से अपनी कीमती कार में महेश बाबू को जब उस लड़की के साथ जाते हुए देखा, जिस ने उसे फंसाया था, तब जा कर जसदेव को सारा माजरा समझ में आया कि यह महेश बाबू और इस लड़की की मिलीभगत थी, पर अब बहुत देर हो चुकी थी और कुछ
भी वापस पहले जैसा नहीं किया जा सकता था.

लेखक – हेमंत कुमार

Love Story : प्यार का धागा

Love Story : सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’ उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन…

लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोंपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था.

वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोंपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास.

धारावी की झोंपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी.

काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था.

इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था.

जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था.

जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज झगड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’

जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी.

कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझ से कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया.

रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं.

उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख

कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं.

आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मुझे याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था.

उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी 2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया.

मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’

‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा.

‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी.

‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसमझाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’

‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’

इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा.

‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया समझ लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बोझ उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

Family Story 2025 : जवानी का हिसाब लगाती शालिनी

Family Story 2025 : शालिनी ने हिसाब लगाया. उस ने पूरी रात खन्ना, तिवारी और शर्मा के साथ गुजारी है. सुबह होते ही उस ने 10 हजार रुपए झटक लिए. वे तीनों उस के रंगरूप, जवानी के दीवाने हैं. शहर के माने हुए रईस हैं. तीनों की शहर में और शहर से बाहर कईकई प्लाईवुड की फैक्टरियां हैं. तीनों के पास माल आता भी 2 नंबर में है. तैयार प्लाई भी 2 नंबर में जाती है. वे सरकार को करोड़ों रुपए के टैक्स का चूना लगाते हैं. शालिनी ने उन तीनों के साथ रात गुजारने के 25 हजार रुपए मांगे थे. सुबह होने पर तिवारी के पास ही 10 हजार रुपए निकले. खन्ना और शर्मा खाली जेबों में हाथ घुमाते नजर आए. कमबख्त तीनों रात को 5 हजार रुपए की महंगी शराब पी गए थे. उस ने जब अपने बाकी के 15 हजार रुपए के लिए हंगामा किया, तो खन्ना ने वादा किया कि वह दोपहर को आ कर उस के दफ्तर से पैसे ले जाए.

सुबह के 10 बजने को थे. शालिनी ने पहले तो सस्ते से होटल पर ही पेट भर कर नाश्ता किया. कमरे पर जाना उस ने मुनासिब नहीं समझा. सोचा कि अगर कमरे पर गई, तो चारपाई पर लेटते ही नींद आ जाएगी. फिर तो बस्ती के कमरे से इंडस्ट्रियल एरिया आने का मन नहीं करेगा. पूरे 7 किलोमीटर दूर है. अभी खन्ना के दफ्तर से 15 हजार भी वसूल करने थे. गरमी बहुत हो रही थी. शालिनी ने सोचा कि रैस्टोरेंट में जा कर आइसक्रीम खाई जाए. एसी की ठंडक में घंटाभर गुजारा जाए. इतने में दोपहर हो जाएगी, फिर वह अपने रुपए ले कर ही कमरे पर जा कर आराम करेगी. रेस्टोरैंट में अगर कोई चाहने वाला मिल गया, तो खाना भी मुफ्त में हो जाएगा. अगली रात भी 5-10 हजार रुपए में बुक हो जाएगी. वैसे तो उस ने अपना मोबाइल नंबर 5-6 दलालों को दे रखा था.

शालिनी आइसक्रीम खा कर पूरे 2 घंटे के बाद रैस्टोरैंट से निकली. अगली 2 रातों के लिए एडवांस पैसा भी मिल गया था. पूरे 5 हजार रुपए. मोबाइल में समय देखा, तो दोपहर के एक बजने को था. शालिनी रिकशा पकड़ कर खन्ना के दफ्तर पहुंचना चाहती थी. शहर के चौराहे पर रिकशे के इंतजार में थी कि तभी थानेदार जालिम सिंह ने उस के सामने गाड़ी रोक दी. थानेदार जालिम सिंह को देख शालिनी ने निगाहें घुमा लीं, मानो उस ने पुलिस की गाड़ी को देखा ही न हो. वह जालिम सिंह को अच्छी तरह जानती थी. अपने नाम जैसा ही उस का बरताव था. रात में मजे लूटने को तो बुला लेगा, पर सुबह जाते समय 50 रुपए का नोट तक नहीं निकालता. उलटा दारू भी पल्ले से पिलानी पड़ती है. बेवजह अपना जिस्म कौन तुड़वाए. शालिनी वहां से आगे जाने लगी, तो जालिम सिंह ने रुकने को कहा.

शालिनी ने बहाना बनाया, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं है. रातभर बुखार से तपती रही हूं. किसी डाक्टर के पास दवा लेने जा रही हूं. अच्छा हुआ कि आप मिल गए. एक हजार रुपए चाहिए मुझे. अगर आप…’’ जालिम सिंह ने शालिनी की बाजू पकड़ी और उस के चेहरे को गौर से देखते हुए बड़ी बेशर्मी से गुर्राया, ‘‘हम पुलिस वालों को बेवकूफ बना रही है. रातभर मजे लूटे हैं. गाल पर दांत गड़े नजर आ रहे हैं. हमें बता रही है कि बीमार है. तुझे शहर में धंधा करना है या भागना है?’’

‘‘ठीक ही तो कह रही हूं. कभी 10-20 रुपए तो हम मजदूरों पर तुम खर्च नहीं करते,’’ शालिनी बोली. ‘‘तुझे धंधा करने की इजाजत दे दखी है, वरना हवालात में तड़पती नजर आएगी. आज हमारे लिए भी मजे लूटने वाला काम कर. पूरे 5 सौ रुपए दूंगा, लेकिन काम पूरा होने पर,’’ जालिम सिंह ने अपना इरादा जाहिर किया.

शालिनी समझ गई कि यह कमबख्त कोई खतरनाक साजिश रचने वाला है, तभी तो 5 सौ रुपए खर्च करने को कह रहा है, वरना 10 रुपए जेब से खर्च नहीं करता. शालिनी ने सोचा कि काम के बदले मोटी रकम की मांग करे. शायद मुरगा फंस जाए. मौका हाथ आया था.

शालिनी के पूछने पर थानेदार जालिम सिंह ने कहा, ‘‘तुम को एक प्रैस फोटोग्राफर अर्जुन की अक्ल ठिकाने लगानी है. उसे अपनी कातिल अदाओं का दीवाना बना कर अपने कमरे पर बुला लेना. नशा वगैरह पिला कर तुम वीडियो फिल्म बना कर उस की प्रैस पत्रकारिता पर फुल स्टौप लगाना है.’’ ‘‘अर्जुन ने ऐसा क्या कर दिया, जो आप इतना भाव खा रहे हैं?’’ शालिनी ने शरारत भरी अदा से जालिम सिंह की आंखों में झांकते हुए पूछा.

शालिनी के चाहने वाले बताया करते हैं कि उस की बिल्लौरी आंखों में जाद है. जिसे भी गहरी नजरों से देखती है, चारों खाने चित हो जाता है. जालिम सिंह भी उस के असर में आ गया था. ‘‘अरे, रात को अग्रसेन चौक पर नाका लगा रख था. 2 नंबर वाली गाडि़यों से थोड़ा मालपानी बना रहे थे. बस, पता नहीं अर्जुन को कैसे भनक लग गई. उस ने हमारी वीडियो फिल्म बना ली. कहता है कि पहले मुख्यमंत्री को दिखाऊंगा, फिर टैलीविजन चैनल पर और अखबार में खबर देगा. हमें सस्पैंड कराने का उस ने पूरा इंतजाम कर रखा है. एक बार उसे नंगा करो, फिर मैं उसे कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘पहले तो तुम मुझे अपनी गाड़ी में बैठा कर खन्ना के दफ्तर ले चलो. कुछ हिसाब करना है. उस के बाद तुम्हारे काम को करूंगी. अभी मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा,’’ शालिनी ने मोबाइल फोन पर समय देखते हुए अपनी बात कही. ‘‘इधर अपना समय खराब चल रहा है और तेरे भाव ऊपर आ गए हैं. आ, बैठ गाड़ी में,’’ झुंझलाते हुए जालिम सिंह बोला.

वह शालिनी को खन्ना के दफ्तर ले गया. वहां से उस ने रुपए लिए. अब वे दोनों कमानी चौक पर आ गए. ‘‘तुम अर्जुन को जानती हो न?’’ जालिम सिंह ने पूछा.

‘‘हांहां, वही प्रैस फोटोग्राफर, जिस ने पिछले महीने पुलिस चौकी में हुए बलात्कार की वीडियो फिल्मी चैनल पर दिखा कर तहलका मचा दिया था,’’ शालिनी ने मुसकराते हुए उस के कारनामे का बखान किया, तो जालिम सिंह भद्दी सी गाली बकते हुए गुर्राया, ‘‘तू पहले उसे अपने जाल में फंसा, फिर तो उस की जिंदगी जेल में कटेगी.’’ ‘‘इस काम के मैं पूरे 50 हजार रुपए लूंगी और 10 हजार रुपए एडवांस,’’ शालिनी ने अपनी मांग रखी, तो जालिम सिंह उछल पड़ा, ‘‘अरे, कुछ तो लिहाज कर. तू हमें जानती नहीं?’’

‘‘लिहाज कर के ही तो 50 हजार रुपए मांगे हैं. इस काम का मेहनताना तो एक लाख रुपए है,’’ शालिनी भी बेशर्मी से सौदेबाजी पर उतर आई. ‘‘मजाक मत कर शालिनी. यह काम 5 हजार रुपए का है. ये संभाल एक हजार रुपए.’’

‘‘10 हजार पहले लूंगी, 40 बाद में. नकद. वरना तुम्हारी सारी मेहनत पर पानी फेर दूंगी. अगर रुपए नहीं दोगे, तो मैं अर्जुन को तुम्हारी साजिश के बारे में बता सकती हूं,’’ शालिनी ने शातिराना अंदाज में थानेदार जालिम सिंह को खौफजदा कर दिया. थानेदार ने 10 हजार रुपए शालिनी को दिए और चेतावनी भी दी कि अगर उस का काम नहीं हुआ, तो उस की फिल्म खत्म हुई समझे.

इस के बाद थानेदार जालिम सिंह शालिनी को गाड़ी से उतार कर चलता बना. शालिनी अपने पर्स में पूरे 25 हजार रुपए संभाले हुए थी. उस के 15 साल के बेटे ने मोटरसाइकिल लेने की जिद पकड़ रखी थी 2-4 दिन में वह बेटे को मोटरसाइकिल ले कर देगी. शालिनी गांव की रहने वाली थी, लेकिन उस का रहनसहन, पहनावा वगैरह रईस अमीर औरतों जैसा था. उस की शादी गांव के मजदूर आदमी से हुई थी. पति उसे जरा भी पसंद नहीं था. उस की बेरुखी के चलते पति मेहनतमजदूरी कर के जो कमाता, उस रुपए की शराब पी जाता था. शालिनी देहधंधा कर के अमीर बनना चाहती थी. बेटा आवारा हो गया था. स्कूल नहीं जाता था. सारासारा दिन आवारा लड़कों के साथ नशा करता रहता था. वह छोटेमोटे अपराध भी करने लगा था.

बाप शराबी और मां बदचलन हो, तो बेटे का भविष्य इस से बढ़ कर क्या हो सकता है? शालिनी अपने बिगड़ते परिवार से बेखबर पराए मर्दों की रातें रंगीन कर रही थी. अभी शालिनी का कमरा 4 किलोमीटर दूर था. सामने पेड़ की छांव में एक रिकशे वाला सीट पर बैठा रुपए गिन रहा था. उस के हाथों में नोट देख कर शालिनी की आंखों में चमक आ गई. शालिनी ने अपने पहने कसे ब्लाउज का ऊपर वाला हुक खोला और उस के सामने आ कर खड़ी हुई.

रिकशे वाला भी शालिनी की उम्र का था. उस की कामुक निगाहें भी उस के उभारों पर ठहर गईं. उस का दिल धड़क रहा था. अपने रुपए पर्स में रखे और पर्स को पतलून की पीछे वाली जेब में लापरवाही से ठूंस दिया. उस ने शालिनी को रोमांटिक नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘मैडम, आप को कहां चलना है?’’ ‘‘मोती चौक चलना है. कितने रुपए लोगे?’’

‘‘जो मरजी दे देना. मुझे भी उसी तरफ जाना है. मेरा कमरा भी उसी तरफ है. अकेला रहता हूं,’’ रिकशे वाले ने जवाब दिया, तो शालिनी समझ गई कि वह उस पर मरमिटा है. वह रिकशे पर बैठ गई और रिकशे वाले से मीठीमीठी बातें करने लगी. तभी उस ने देखा, रिकशे वाले की पतलून के पीछे वाली जेब से पर्स बाहर खिसका हुआ था. उसे बातों में उलझा कर शालिनी ने पर्स खिसका लिया.

मोती चौक आ गया था. शालिनी अपने कमरे से पहले ही चौराहे पर उतर गई. उस ने रिकशे वाले को किराया देना चाहा, मगर रिकशे वाले ने तो उस के मनचले उभारों को देखते हुए पैसे लेने से इनकार कर दिया. शालिनी चोर भी थी. वह तो पलक झपकते ही कालोनी की गलियों में गुम हो गई. शालिनी आज बहुत खुश थी. उस की अच्छीखासी कमाई हो गई थी. कमरा खोला. निढाल सी चारपाई पर लेट गई. पूरी रात और दिनभर की थकी हुई थी. कुछ देर बाद वह कपड़े उतार कर पहले अच्छी तरह नहाई. भूख लगी थी. खाना बनाने की हिम्मत नहीं थी. होटल से खाना पैक करा लाई और खा कर सो गई. इतनी गहरी नींद आई कि रात कैसे गुजरी, कुछ पता न चला.

शालिनी सुबह उठी, तो चायनाश्ता करते हुए उस ने रिकशे वाले का चुराया पर्स खोला. उस में छोटेबड़े नोटों की मोटी गड्डी थी. गिनने पर पूरे 4 हजार रुपए निकले. उस का मन खुश हो गया. उन रुपयों के साथ एक चिट्ठी भी थी, जो रिकशे वाले की घरवाली ने उसे लिखी थी. उस में लिखा था कि उस का बेटा बहुत बीमार है. अस्पताल में दाखिल कराया है. जितनी जल्दी हो सके, 10 हजार रुपए ले कर फौरन गांव आ जाओ. बेटे का इलाज रुक गया है. डाक्टर का कहना है कि अगर बच्चे की जिंदगी बचानी है, तो फौरन इलाज कराओ. जो 1-2 गहने थे, वे सब बेटे के इलाज की भेंट चढ़ गए हैं. जितना जल्दी हो सके, पैसे ले कर आ जाओ.

चिट्ठी पढ़ कर शालिनी को धक्का सा लगा. उस ने यह क्या किया? लालच में आ कर उस ने एक मजदूर आदमी की जेब काट कर उस के मासूम बेटे की जिंदगी को मौत के दलदल में धकेल दिया. पता नहीं, उस के बेटे का क्या हाल होगा? वह अपने बेटे को मोटरसाइकिल ले कर देने के लिए उलटेसीधे तरीके से पैसा इकट्ठा कर रही है, यह पाप की कमाई न जाने कैसा असर दिखाएगी? शालिनी ने रिकशे वाले को तलाश कर उस के रुपए वापस देने का मन बना लिया. वह यहां तक सोच रही थी कि उस गरीब को 10 हजार रुपए देगी, ताकि उस के बेटे का इलाज हो सके.

शालिनी सारा दिन पागलों की तरह रिकशे वाले को ढूंढ़ती रही, मगर वह नहीं मिला. जैसे कि वह रिकशे वाला शहर से गायब हो गया था. थानेदार जालिम सिंह का कितनी बार फोन आ चुका था. वह बारबार धमकी दे रहा था कि उस का काम कर, नहीं तो उसे टपका दिया जाएगा. मगर शालिनी ने थानेदार जालिम सिंह की धमकी को ठोकर पर रखा. वह जानती थी कि जालिम सिंह उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, उलटा प्रैस फोटोग्राफर को बलात्कार के अपराध में फंसाने की सुपारी देने का मामला बनवा देगी.

2 दिन से शालिनी ने अपना धंधापानी भी बंद कर रखा था. उस के कितने चाहने वालों के फोन आ चुके थे. उस ने सब को न में जवाब दे दिया था. उस ने तीसरे दिन भी रिकशे वाले को तलाश करने की मुहिम जारी रखी. उस दिन उस ने अखबार में खबर पढ़ी कि थानेदार जालिम सिंह को 2 नंबर का सामान लाने वाली गाडि़यों से वसूली करने के आरोप में सस्पैंड कर दिया गया. अखबार में पत्रकार अर्जुन की खोजी पत्रकारिता की तारीफ हो रही थी.

अभी शालिनी अखबार में छपी यह खबर पढ़ ही रही थी कि तभी उस की नजर सड़क पर आते हुए उसी रिकशे वाले पर पड़ी. वह लपक कर आगे बढ़ी और उस का रिकशा रुकवा कर बोली, ‘‘अरे रिकशे वाले, मुझे माफ करना. मैं ने 3 दिन पहले तेरा पर्स चुराया था. उस में तेरे 4 हजार रुपए थे. अपनी गलती मानते हुए मैं तुम्हें 10 हजार रुपए वापस दे रही हूं. फौरन जाओ और अपने बेटे का इलाज कराओ.’’ रिकशा वाला खामोशी से उस की तरफ देखता रहा. जबान से कुछ नहीं बोला. शायद उस की आंखों से बहते आंसुओं ने समूची कहानी बता दी थी. मगर शालिनी अभी तक सचाई समझ न पाई. पर वह उस की खामोशी से सहम गई थी.

‘‘देखो भैया, पुलिस में शिकायत मत करना. तुम्हारे रुपए मैं ज्यादा कर के दे रही हूं. अपने बेटे का किसी बड़े अस्पताल में इलाज कराना,’’ शालिनी ने 10 हजार रुपए उस के सामने कर दिए. ‘‘अब रुपए ले कर क्या करूंगा मैडम. मेरा बेटा तो इलाज की कमी में मर गया. उस के गम में पत्नी भी चल बसी. अब तुम इतनी मेहरबानी करो कि किसी गरीब की जेब मत काटना, वरना किसी का मासूम बेटा फिर मरेगा,’’ भर्राई आवाज में रिकशे वाले ने कहा और रुपए लिए बिना ही आगे बढ़ गया.

अब शालिनी को अपनी बुरी आदतों पर भारी पछतावा हो रहा था.

Emotional Story 2025 : कभी अलविदा न कहना

Emotional Story 2025 : वरुण के बदन में इतनी जोर का दर्द हो रहा था कि उस का जी कर रहा था कि वह चीखे, पर वह चिल्लाता कैसे. वह था भारतीय सेना का फौजी अफसर. अगर वह चिल्लाएगा, तो उस के जवान उस के बारे में क्या सोचेंगे कि यह कैसा अफसर है, जो चंद गोलियों की मार नहीं सह सकता.

वरुण की आंखों के सामने उस की पूरी जिंदगी धीरेधीरे खुलने लगी. उसे अपना बचपन याद आने लगा. उस के 5वें जन्मदिन पर उसे फौजी वरदी भेंट में मिली थी, जिसे पहन कर वह आगेपीछे मार्च करता था और सेना में अफसर बनने के सपने देखता था.

‘पापा, मैं बड़ा हो कर फौज में भरती होऊंगा,’ जब वह ऐसा कहता, तो उस के पापा अपने बेटे की इस मासूमियत पर मुसकराते, लेकिन कहते कुछ नहीं थे.

वरुण के पापा एक बड़े कारोबारी थे. उन का इरादा था कि वरुण कालेज खत्म करने के बाद उन्हीं के साथ मिल कर खुद एक मशहूर कारोबारी बने. उन्होंने सोच रखा था कि वे वरुण को फौज में तो किसी हालत में नहीं जाने देंगे.

अचानक वरुण के बचपन की यादों में किसी ने बाधा डाली. उस के कंधे पर एक नाजुक सा हाथ आया और उस के साथ किसी की सिसकियां गूंज उठीं. तभी एक मधुर सी आवाज आई, ‘मेजर वरुण…’ और फिर एक सिसकी सुनाई दी. फिर सुनने में आया, ‘मेजर वरुण…’

वरुण ने सिर घुमा कर देखा कि एक हसीन लड़की उस के पास खड़ी थी. उस के हाथ में एक खूबसूरत सा लाल गुलाब भी था.

‘वाह हुजूर, अब आप मुझे पहचान नहीं रहे हैं…’

वरुण को हैरानी हुई. उस ने सोचा, ‘कमाल है यार, मैं फौजी अफसर हूं और यह जानते हुए भी यह मुझे बहलाफुसला कर अपने चुंगल में फंसाने के लिए मुझ से जानपहचान बनाना चाह रही है. मैं इस से बात नहीं करूंगा. अपना समय बरबाद नहीं होने दूंगा,’ और उस ने अपना सिर घुमा लिया.

वरुण की जिंदगी की कहानी फिर उस की आंखों के सामने से गुजरने लगी. जब वह सीनियर स्कूल में पहुंचा, तो एनसीसी में भरती हो गया. वह फौज में जाने की पूरी तैयारी कर रहा था.

स्कूल खत्म होने के बाद वरुण के पापा ने उसे कालेज भेजा. कालेज तो उसी शहर में था, पर उन्होंने वरुण का होस्टल में रहने का बंदोबस्त किया. वह इसलिए कि वरुण के पापा का खयाल था कि होस्टल में रह कर उन का बेटा खुद अपने पैरों पर खड़ा होना सीखेगा.

उस जमाने में मोबाइल फोन तो थे नहीं, इसलिए वरुण हफ्ते में एक बार घर पर फोन कर सकता था, अपना हालचाल बताने और घर की खबर लेने के लिए.

उस के पापा उस से हमेशा कहते, ‘बेटे, याद रखो कि कालेज खत्म करने के बाद तुम कारोबार में मेरा हाथ बंटाओगे. आखिर एक दिन यह सारा कारोबार तुम्हारा ही होगा.’

वरुण को अपनी आंखों के सामने फौजी अफसर बनने का सपना टूटता सा दिखने लगा. वह हिम्मत हारने लगा. फिर एक दिन अचानक एक अनोखी घटना घटी, जिस से उस की जिंदगी का मकसद ही बदल गया.

वरुण के होस्टल का वार्डन ईसाई था. उस के पिता फौज के एक रिटायर्ड कर्नल थे, जो पत्नी की मौत के चलते अपने बेटे के साथ रहते थे. एक दिन 90 साल की उम्र में उन की मौत हो गई.

वार्डन होस्टल के लड़कों की अच्छी देखभाल करता था. इस वजह से होस्टल के सारे लड़कों ने तय किया कि वे सब वार्डन के पिता की अंत्येष्टि में शामिल होंगे.

जब लड़के कब्रिस्तान पहुंचे, तो उन्होंने एक अजीब नजारा देखा. वार्डन के पिता का शव कफन के अंदर था, पर कफन के दोनों तरफ गोल छेद काटे गए थे, जिन में से उन के हाथ बाहर लटक रहे थे.

एक लड़के ने पास खड़े उन के एक रिश्तेदार से पूछा कि ऐसा क्यों किया गया है. जवाब मिला, ‘यह उन की मरजी थी और उन की वसीयत में भी लिखा था कि उन को इस हालत में दफनाया जाए. लोग देखें कि वे इस दुनिया में खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जा रहे हैं.’ वरुण यह जवाब सुन कर हैरान हो गया. उस ने सोचा कि अगर खाली हाथ ही जाना है, तो क्या फर्क पड़ेगा कि वह अपने मन की मुराद पूरी कर के फौजी अफसर की तनख्वाह कमाए, बनिस्बत कि अपने पिता के साथ करोड़ों रुपए का मालिक बने. उस ने पक्का इरादा किया कि वह फौजी अफसर ही बनेगा.

वरुण जानता था कि उस के पापा उसे कभी अपनी रजामंदी से फौज में जाने नहीं देंगे. काफी सोचविचार के बाद वरुण ने अपने पिता को राजी कराने के लिए एक तरकीब निकाली.

एक दिन जब देर शाम वरुण के पापा घर लौटे और उस के कमरे में गए, तो उन्होंने उस की टेबल पर एक चिट्ठी पाई. लिखा था: ‘पापा, मैं घर छोड़ कर अपनी प्रमिका के साथ जा रहा हूं. वैसे तो उम्र में वह मुझ से 10 साल बड़ी है, पर इतनी बूढ़ी लगती नहीं है. वह पेट से भी है, क्योंकि उस के एक दोस्त ने शादी का वादा कर के उसे धोखा दिया.

‘हम दोनों किसी मंदिर में शादी कर लेंगे और कहीं दूर जा कर रहेंगे. जब एक साल के बाद हम वापस आएंगे, तो आप अपनी पोती या पोते का स्वागत करने के लिए एक बड़ी पार्टी जरूर दीजिएगा.

‘आप का आज्ञाकारी बेटा,

‘वरुण.’

वरुण को पीछे पता चला कि उस की चिट्ठी पढ़ने के बाद उस के पापा की आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा. तब तक उस के कमरे में उस की मां आ गईं.

‘वरुण कहां है?’ मां ने पूछा, तो वरुण के पापा की आवाज बड़ी मुश्किल से उन के गले से निकली. ‘पता नहीं…’

वरुण की मां ने कहा, ‘तकरीबन एक घंटे पहले उस ने कहा था कि वह बाहर जा रहा है और शायद देर से लौटेगा. पर बात क्या है? आप की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है.’

वरुण के पापा ने बिना कुछ बोले जमीन पर गिरी चिट्ठी की ओर इशारा किया. उस की मां ने चिट्ठी उठाई और पढ़ने लगीं.

‘मेरे प्यारे पापा,

‘जो इस चिट्ठी के पिछली तरफ लिखा है, वह सरासर झूठ है. मेरी कोई प्रेमिका नहीं है और न ही मैं किसी के साथ आप से दूर जा रहा हूं. मैं अपने दोस्त मनोहर के घर पर हूं. हम देर रात तक टैलीविजन पर क्रिकेट मैच देखेंगे और फिर मैं वहीं सो जाऊंगा.

‘मैं ने मनोहर के मम्मीपापा को बताया है कि मुझे उन के यहां रात बिताने में कोई दिक्कत नहीं है. मैं आप लोगों से कल सुबह मिलूंगा.

‘मैं ने जो पिछली तरफ लिखा है, वह तो इसलिए, ताकि आप को महसूस हो कि मेरा फौज में जाना बेहतर होगा, इस से पहले कि मैं कोई गड़बड़ी वाला काम कर लूं.’ वरुण के पापा ने ठंडी सांस भरी और मन ही मन में बोले, ‘तू जीत गया मेरे बेटे, मैं हार गया.’

वरुण ने यूपीएससी का इम्तिहान आसानी से पास किया. सिलैक्शन बोर्ड के इंटरव्यू में भी उस के अच्छे नंबर आए. फिर देहरादून की मिलिटरी एकेडमी में उस ने 2 साल की तालीम पाई. उस के बाद उस के बचपन का सपना पूरा हुआ और वह फौजी अफसर बन गया.

कुछ साल बाद कारगिल की लड़ाई छिड़ी. वरुण की पलटन दूसरे फौजी बेड़ों के साथ वहां पहुंची. वरुण उस समय छुट्टी पर था… उस की छुट्टियां कैंसिल हो गईं. वह लौट कर अपनी पलटन में आ गया. वरुण ने अपनी कंपनी के साथ दुश्मन पर धावा बोला. भारतीय अफसरों की परंपरा के मुताबिक, वरुण अपने सिपाहियों के आगे था. दुश्मन ने अपनी मशीनगनें चलानी शुरू कीं. वरुण को कई गोलियां लगीं और वह गिर गया…

फिर वही सिसकियों वाली आवाज वरुण के कानों में गूंज उठी, ‘वरुण, मैं आप का इंतजार कब तक करती रहूंगी? आप मुझे क्यों नहीं पहचान रहे हैं?’

वह लड़की घूम कर वरुण के सामने आ कर खड़ी हो गई. वरुण की सहने की ताकत खत्म हो गई.

‘हे सुंदरी….’ वरुण की आवाज में रोब भरा था, ‘मैं जानता नहीं कि तुम कौन हो और तुम्हारी मंशा क्या है. पर अगर तुम एक मिनट में यहां से दफा नहीं हुईं, तो मैं…’

‘आप मुझे कैसे भूल गए हैं? आप ने खुद मुझ से मिलने के लिए कदम उठाया था.’

वरुण ने सोचा, ‘अरे, एक बार मिलने पर क्या तुम्हें कोई अपना दिल दे सकता है,’ पर वह चुप रहा.

इस से पहले कि वह अपनी निगाहें सुंदरी से हटा लेता, वह फिर बोली, ‘अरे फौजी साहब, आप के पापा ने आप के मेजर बनने की खुशी में पार्टी दी थी. आप के दोस्त तो उस में आए ही, पर उन से बहुत ज्यादा आप के मम्मीपापा के ढेरों दोस्त आए हुए थे.

‘मेरे पापा आप के पापा के खास दोस्तों में हैं. वे मुझे भी साथ ले गए थे.

‘आप के पापा ने मेरे मम्मीपापा से आप को मिलवाया था. मैं भी उन के साथ थी. आप ने मुझे देखा और मुझे देखते ही रह गए. बाद में मुझे लगा कि आप की आंखें मेरा पीछा कर रही हैं. मुझे बड़ा अजीब लगा.’

वह कुछ देर चुप रही. वरुण उसे एकटक देखता ही रहा. ‘मैं ने देखा कि बहुत से लोग आप को फूलों के गुलदस्ते भेंट कर रहे थे. मैं दूर जा कर एक कोने में दुबक कर बैठ गई. जब आप शायद फारिग हुए होंगे, तो आप मुझे ढूंढ़ते हुए आए. मेरे सामने झुक कर एक लाल गुलाब आप ने मुझे भेंट किया.’

वरुण के मन में एक परदा सा उठा और उसे लगा कि वह लड़की सच ही कह रही थी. तभी उसे आगे की बातेंयाद आईं. उस की मम्मी ठीक उसी समय वहां पहुंच गईं. उन्होंने शायद सारा नजारा देख लिया था, इसलिए उन्होंने मुसकराते हुए वरुण की पीठ थपथपाई. वे काफी खुश लग रही थीं. वे शायद उस के पापा के पास चली गईं और उन्हें सारी बातें बता दी होंगी.

तभी वरुण के माइक पर सभी लोगों से कहा, ‘आज की पार्टी मेरे बेटे वरुण के मेजर बनने की खुशी में है,’ उन्होंने वरुण की ओर देख कर उसे बुलाया. जब वरुण स्टेज पर पहुंच गया, तब वे माइक पर आगे बोले, ‘और इस मौके पर उसे मैं एक भेंट देने जा रहा हूं.’

उन्होंने एक हाथ बढ़ा कर वरुण का हाथ थामा और दूसरे हाथ से अपने दोस्त राम कुमार की बेटी का हाथ पकड़ा और बोले, ‘वरुण को हमारी भेंट है… भेंट है उस की होने वाली दुलहन विनीता, जो मेरे दोस्त राम कुमार की बेटी है.’

उन्होंने वरुण को विनीता का हाथ थमा दिया. सारा माहौल खुशी की लहरों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. विनीता शरमा कर अपना हाथ वरुण के हाथ से छुड़ाने की कोशिश करने लगी. वरुण ने हाथ नहीं छोड़ा और विनीता के कान के पास कहा, ‘सगाई में मैं तुम्हारे लिए एक अंगूठी देख लूंगा. अभी मेरी छुट्टी के 45 दिन बाकी हैं.’

अफसोस, लड़ाई छिड़ने के चलते वरुण की छुट्टियां कैंसिल हो गईं…

फौजी डाक्टर ने वरुण के शरीर की पूरी जांचपड़ताल की. उस के पास ही वरुण के कमांडिंग अफसर खड़े थे, जिन के चेहरे पर भारी आशंका छाई हुई थी.

‘‘मुबारक हो सर,’’ डाक्टर ने उन को संबोधित कर के कहा, ‘‘आप के मेजर को 4 गोलियां लगी हैं, पर कोई भी जानलेवा नहीं है. खून काफी बह चुका है, पर वे जिंदा हैं. आप के ये अफसर बड़े मजबूत हैं. मैं इन्हें जल्द ही अस्पताल पहुंचा दूंगा. मुझे पक्का यकीन है कि चंद हफ्तों में ये बिलकुल ठीक हो जाएंगे.’’

‘‘मुझे भी यही लग रहा है,’’ वरुण के कमांडिंग अफसर ने जवाब दिया.

Romantic Story 2025 : क्या एक हो पाए विजय और निम्मो?

Romantic Story 2025 : नैशनल हाईवे की उस सुनसान सड़क पर ट्रक ड्राइवर ने जब विजय को उस के गांव से 8 किलोमीटर पहले उतारा, तो विजय को इस बात की तसल्ली थी कि गांव न सही, लेकिन गांव के करीब तो पहुंच ही गया. लेकिन इस बात का मलाल भी था कि जहां किराएभाड़े के तौर पर पहले 400-500 रुपए लगा करते थे, वहीं आज उसे 4,000 रुपए देने पर भी अपने गांव पहुंचने के लिए 8 किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ेगा.

अब विजय सुनसान दोपहर में गरम हवाओं के थपेड़े सहता हुआ नैशनल हाईवे से तेजी से अपने गांव की तरफ बढ़ रहा था. चारों तरफ सन्नाटा पसरा था. सामान के नाम पर साथ में बस एक बैग था, जिसे अपने कंधे पर लटकाए पसीने से तरबतर वह लगातार चल रहा था.

अभी गांव कुछ ही दूरी पर था कि एक ठंडी हवा के झोंके से उस का धूप से झुलस कर मुरझाया चेहरा खिल उठा.

गांव से पहले पड़ने वाले अपने खेत में लहलहाती फसल देख कर विजय के तेजी से चल रहे कदमों ने दौड़ना शुरू कर दिया. वह दौड़ते हुए ही अपने खेत में दाखिल हुआ और वहां काम कर रहे अपने बाबा से लिपट गया.

‘‘अरे, देखो तो कौन आया है…’’  विजय के बाबा ने खेत में बनी झोंपड़ी में काम कर रही उस की मां को आवाज लगाई.

‘‘अरे विजय बेटा, कैसा है तू? और यह क्या हालत बना ली… देख, कितना दुबलापतला हो गया है,’’ कहते हुए विजय की मां झोंपड़ी से भाग कर के पास आई.

‘‘इतने दिनों के बाद देखा है न मां, इसीलिए ऐसा लग रहा है तुम्हें. और वैसे भी अब तो गांव में तुम्हारे हाथों का ही बना खाना मिलेगा, खिलापिला कर कर मुझे कर देना मोटाताजा,’’ कहते हुए विजय ने मां को गले से लगा लिया.

‘‘धूप में चल कर आया है, देख कितना गरम हो गया है. यहां ज्यादा मत रुक, घर जा कर आराम कर ले… और हां, निम्मो को भी लेता जा साथ में, वह तुझे खाना बना कर खिला देगी.’’

‘‘निम्मो.. निम्मो यहां क्या कर रही है?’’ विजय ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘अरे, तुझे तो मालूम है कि निम्मो के मांबाबा हमारे गांव में बाहर से आ कर बसे हैं. उन का खुद का खेत तो है नहीं, इसलिए वे लोग काम करने किसी दूसरे के खेत में जाते हैं. निम्मो उन के साथ नहीं जाती.

‘‘निम्मो का भाई अपने मामा के यहां बिजली का काम सीखने शहर चला गया. यह बेचारी घर में बैठी बोर हो जाती है…’’

मां ने आगे कहा, ‘‘एक दिन मैं और तेरे बाबा खेत के लिए निकल रहे थे तो यह मुझ से बोली, ‘काकी, आते वक्त अपने खेत से बेर लेती आना, मुझे बेरी के बेर बहुत भाते हैं…’

‘‘तो मैं बोली, ‘खुद ही आ कर तोड़ ले और जितने मरजी ले जा…’

‘‘तब से जब भी मन करता है, यह हमारे खेत चली आती है,’’ कह कर मां ने निम्मो को आवाज लगाई.

बेर की गुठली थूकते हुए जैसे ही निम्मो झोंपड़ी से बाहर आई, विजय हैरान रह गया. गांव के सरकारी स्कूल में उसी की क्लास में पढ़ने वाली निम्मो अब काफी बदल चुकी थी. पहले तो न कपड़ों का कोई अतापता था, न बालों की कोई सुधबुध होती थी.

लेकिन आज निम्मो की खूबसूरती देख कर विजय को यकीन नहीं हुआ. खुले बाल, गोरा रंग, भरापूरा बदन और बिना किसी मेकअप के चेहरे पर लाली दमक रही थी.

विजय भी यह सोच कर हैरान था कि इतने कम समय में इतना बदलाव कैसे आ सकता है. हालांकि पिछले 3 सालों में वह 2 बार गांव आया था, लेकिन दोनों बार ही निम्मो अपने मामा के यहां गई हुई थी.

‘‘हां काकी…’’ पास आ कर निम्मो विजय की मां से बोली.

‘‘तू विजय के साथ घर जा और इसे खाना बना कर खिला देना, फिर भले ही अपने घर चली जाना. हम लोग भी थोड़ा जल्दी आने की कोशिश करेंगे,’’ मां ने निम्मो से कहा, तो निम्मो ने हां में सिर हिलाया और इकट्ठा किए हुए बेरों से भरी अपनी थैली लेने झोंपड़ी की ओर चली गई.

जब वह वापस आई तो विजय की ओर देख कर बोली, ‘‘चलिए.’’

मांबाबा को जल्दी घर आने की कह कर विजय निम्मो के साथ घर के लिए निकल पड़ा.

रास्ते में निम्मो बेर निकाल कर विजय की तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘ये लो बेर खाओ, रास्ते में अच्छा टाइमपास हो जाएगा.’’

विजय ने उस के हाथों से बेर ले लिए और चलते हुए उस की नजरों से बच कर उसे देखने लगा.

निम्मो थैली से बेर निकालती और उसे तब तक चूसती, जब तक उस का सारा रस न निकल जाता और फिर फीका पड़ने पर थूक देती.

विजय भी निम्मो के अंदाज में बेर खाते हुए उस के साथ चल रहा था. चलते वक्त निम्मो के सीने पर होने वाली हलचल बारबार उस का ध्यान खींच रही थी.

निम्मो की जब इस पर नजर पड़ी तो उस ने दुपट्टे से ढक लिया. लेकिन दुपट्टा भी विजय की नीयत की तरह बारबार फिसल रहा था.

‘‘लौकडाउन हुआ तो गांव की याद आ गई, वरना तुम्हारे तो दर्शन ही दुर्लभ थे,’’ बेर की गुठली थूकते हुए निम्मो बोली.

‘‘इस से पहले भी 2 बार आया था, लेकिन तू नहीं मिली. काकी से पूछा तो बोली मामा के यहां गई हुई है,’’ विजय ने भी शिकायती लहजे में कहा.

‘‘और जिस दिन मैं आई तो काकी बोली कि विजय आज सुबह ही शहर के लिए निकला है. मतलब, इस थोड़े से फासले की वजह से तुम्हारे दर्शन नहीं हो पाए,’’ निम्मो ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘हां, ऐसा ही समझो,’’ विजय ने कहा.

पूरे रास्ते निम्मो तीखे सवाल करती तो विजय उन का मीठा सा जवाब दे देता और विजय कोई मीठा सवाल करता तो निम्मो उस का खट्टामीठा जवाब दे देती.

बातों का यही स्वाद चलतेचलते एकदूसरे के दिलों में झांकने का जरीया बना और इसी की बदौलत दोनों एकदूसरे के दिल का हाल जान पाए.

बेरों से भरी थैली भी तकरीबन आधी हो चुकी थी और अब घर भी आ गया था.

घर पहुंच कर विजय नहाने चला गया और निम्मो रसोई में खाने की तैयारी करने लगी.

विजय नहाधो कर आया, तब तक खाना भी तैयार था. निम्मो ने उसे खाना खिलाया, फिर विजय ने उसे चाय बनाने को कह दिया और खुद कमरे में अपना बैग खोल कर उस में नीचे दबा कर लाए हुए कुछ रुपए अलमारी में रख कर निढाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़ा. थकावट की वजह से कब उस की आंख लग गई और उसे पता ही नहीं चला.

निम्मो जब तक चाय ले कर आई, तब तक विजय को नींद आ चुकी थी. निम्मो ने उसे उठाना मुनासिब नहीं समझा और वापस रसोई की ओर मुड़ी. तभी उस की नजर विजय के बैग के पास बिखरे सामान पर पड़ी तो वह हैरान रह गई. उस के सामान के साथ कुछ गरमागरम पत्रिकाएं भी पड़ी थीं.

यह देख एक बार तो निम्मो को बहुत गुस्सा आया, लेकिन बाद में उस ने धीरे से चाय की ट्रे नीचे रखी और उन पत्रिकाओं को उठा कर देखने लगी.

उस ने बैग के अंदर हाथ डाला तो

2-4 पत्रिकाएं और निकलीं, जो कुछ हिंदी में तो कुछ इंगलिश में थीं.

निम्मो ने एक के बाद एक उन के पन्ने पलटने शुरू किए. हर पलटते पन्ने के साथ उस के सांसों की रफ्तार भी बढ़ने लगी. सांसों में गरमाहट महसूस करते

हुए वह कभी बिस्तर पर लेटे विजय की ओर देखती, तो कभी मैगजीन में छपी बोल्ड तसवीरें.

कुछ तसवीरें देख कर तो वह ऐसे ठहर जाती मानो यह सब उसी के साथ हो रहा हो, जबकि कुछ तसवीरों ने तो उस के दिलोदिमाग में घर कर लिया था.

तभी अचानक विजय ने करवट बदली तो वह सहम गई, जिस से उस के हाथ से मैगजीन छूट कर चाय की ट्रे पर जा गिरी.

इस आवाज से विजय की आंख खुली और निम्मो के हाथ में मैगजीन देख वह चौंक कर खड़ा हो गया.

एक बार तो निम्मो भी शर्म से पानीपानी हो गई थी. विजय अपनी सफाई में कुछ कहता, उस से पहले निम्मो ने आगे बढ़ कर उसे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘कमबख्त शहर में यही सब करते हो क्या तुम?’’ निम्मो ने पूछा.

खुद को निम्मो की बांहों में पा कर विजय हैरान तो था, साथ ही वह उस की मंशा जान चुका था.

विजय ने अपनी सफाई में कहा, ‘‘ये सब मेरी नहीं हैं, उस ट्रक ड्राइवर की हैं, जिस ने मुझे सड़क तक छोड़ा था. ट्रक में रखी इन पत्रिकाओं को देख कर मैं ने लौकडाउन में टाइमपास के लिए पढ़ने के लिए मांगी तो उस ने दे दीं.’’

‘‘जरा भी शर्म है तुम में? मेरे होते हुए इन से टाइमपास करोगे तुम? पता है, कितनी तरसी हूं मैं तुम्हारे लिए… हर दूसरे दिन काकी से तुम्हारे बारे में पूछती रहती थी. यह तो अच्छा हुआ कि मुझे मांबाबा ने फोन नहीं दिलाया वरना मैं फोन कर के रोज तुम्हें परेशान करती,’’ विजय को अपनी बांहों में जकड़ते हुए निम्मो ने कहा, तो विजय ने उसे बिस्तर पर धकेल दिया.

निम्मो के अंगों को प्यार से सहलाते हुए विजय ने कहा, ‘‘मैं भी तुझे बहुत चाहता हूं पगली, पर अब तक यह सोच कर चुप रहा कि न जाने तेरे मन में क्या होगा.’’

‘‘अब तो पता चल गया न कि मेरे मन में क्या है?’’ निम्मो ने पूछा, तो विजय पागलों की तरह उसे चूमने लगा और इस प्यार की सारी हदें पार करने के बाद विजय के साथ चादर में लिपटी निम्मो बोली, ‘‘विजय… आज तुम्हारा प्यार पा कर निम्मो विजयी हुई.’’

विजय ने निम्मो के माथे को चूमते हुए फिर से उसे अपनी बांहों में भर लिया.

लेखक – पुखराज सोलंकी

Happy New Year 2025 : आरिफ का मूड इस वजह से हुआ खराब

Happy New Year 2025 : रेहान को मैं क्या जवाब दूं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. उस ने मुझे मुश्किल में डाल दिया है. मैं दूसरी शादी नहीं करना चाहती, पर वह है कि  मेरे पीछे ही पड़ गया है. मुझ से शादी करना चाहता है.

मैं दोबारा उन दर्दों को सहन नहीं करना चाहती, जो मैं पहले सहन कर चुकी हूं. अब सब ठीकठाक चल रहा है. मेरी जिंदगी सही दिशा में चल रही है. मैं खुश हूं और मेरी बेटी भी.

रेहान जानता है कि मैं तलाकशुदा हूं और मेरी एक बच्ची भी है, 5 साल की. फिर भी वह मुझ से शादी करना चाहता है और मेरी बेटी को भी अपनाना चाहता है. पर शादी कर के मैं दोबारा उस पीड़ा में नहीं पड़ना चाहती, जिस से मैं निकल कर आई हूं.

रेहान पूछता है कि आखिर बात क्या है? तुम शादी क्यों नहीं करना चाहती हो? वजह क्या है? मैं क्या बताऊं? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है. वजह बताऊं भी या नहीं? बताऊं भी तो किस तरह? कहां से हिम्मत लाऊं?

क्या इन दागों के बारे में उसे बता दूं? दाग… हां, ये दाग जो मिटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. अब तक ये दाग दहक रहे हैं यहां, मेरे सीने पर.

मैं पहली शादी भी नहीं करना चाहती थी इन्हीं दागों के चलते, पर मेरी अम्मी नहीं मानीं. मेरे पीछे ही पड़ गईं. वे समझातीं, ‘बेटी, शादी के बिना एक औरत अधूरी है. शादी के बगैर उस की जिंदगी जहन्नुम बन जाती है. तू शादी कर ले, तेरे दोनों भाइयों का क्या भरोसा, तुझे कब तक सहारा देंगे… अभी तेरी भाभियों का मिजाज बढि़या है, आगे चल कर वे भी तुझे बोझ समझने लगीं, तो…?’

‘पर, ये दाग…?’ मैं अम्मी का ध्यान दागों की ओर दिलाते हुए कहती, ‘अम्मी, इन दागों का क्या करूं मैं? ये तो मिटने का नाम ही नहीं लेते. ऊपर से दहकने लगते हैं समयसमय पर, फिर भी आप कहती हैं कि मैं शादी कर लूं… क्या ये दाग छिपे रहेंगे? क्या ये दाग मेरे शौहर को दिखाई नहीं पड़ेंगे?’

अम्मी चुप्पी साध लेतीं, फिर रोने लगतीं, ‘बेटी, इन का जिक्र मत किया कर. ये दाग हैं तो तेरे सीने पर, मगर जलन मुझे भी देते हैं.’

‘तब आप ही बताइए कि इन के रहते मैं कैसे शादी कर लूं?’

‘नहीं बेटी, तू शादी जरूर कर… तुझे मेरी कसम… मेरी जिंदगी की यही तमन्ना है…’

आखिर मैं हार गई. मैं ने शादी के लिए हां कर दी. और मेरी शादी धूमधाम से हो गई, आरिफ के साथ.

पहली रात को मुझे देख कर आरिफ की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. आरिफ मुझ से कसमेवादे करने लगे. जहानभर की खुशियां ला कर मेरे कदमों में रख देने को बेताब हो उठे. आरिफ को खुश देख कर मैं भी खुश हो गई, पर मेरी खुशी कुछ पलों की थी.

शादी के दूसरे ही दिन जब मैं आरिफ की बांहों में थी और ये मुझे चांदतारों की सैर करा रहे थे… अचानक जमीन पर आ गिरे, धड़ाम से… और करवट बदल ली. मुझे कसमसाहट हुई, ‘क्या बात हुई? क्यों हट गए?’

मैं ने आरिफ को अपनी बांहों में भरना चाहा, तो आरिफ ने झिड़क दिया और दूर जा बैठे.

‘क्या बात है? आप नाराज क्यों हो गए?’

‘ये दाग कैसे हैं?’

‘ओह…’ मुझे होश आया. मेरी नजर मेरे सीने पर गई. मैं दहल गई. मैं ने उसे दुपट्टे से ढक लिया.

‘कैसे हैं ये दाग? बहुत खराब लग रहे हैं. सारा मूड चौपट कर दिया. किस तरह के हैं ये दाग?’ मैं आरिफ को अपने आगोश में लेते हुए बोली, ‘ये दाग चाय के हैं.’

‘चाय के…’

‘जी, मैं जब छोटी थी. यही तकरीबन 5 साल की… मेरे सीने पर खौलती हुई चाय गिर गई थी. पूछो मत… मैं तड़प कर रह गई थी…’

‘इन का इलाज नहीं हुआ था?’

‘इलाज हुआ था और ये तकरीबन ठीक भी हो गए थे, पर…’

‘पर, क्या?’

‘एक दिन इन जख्मों पर मैं ने एक क्रीम लगा ली थी. तभी से ये दाग सफेदी में बदल गए. बहुत इलाज करवाया, मगर सफेदपन गया ही नहीं.’

‘कहीं, ये दाग वे दाग तो नहीं, जिस का ताल्लुक खून से होता है?’

‘न बाबा न… वे वाले दाग नहीं हैं, जो आप समझ रहे हैं. ये तो जले के निशान हैं…’

मैं आरिफ को अपने आगोश में भर कर चूमने लगी. आरिफ भी मुझे प्यार देने लगे. अभी कुछ देर ही हुई थी कि उन का हाथ मेरे सीने पर आ गया. देख कर उन का मूड फिर खराब हो गया. वे दूर हट गए.

वे मुझ से दूर रहने लगे. मैं कोशिश करतेकरते हार गई. वे मेरे करीब नहीं आते. एक ही छत के नीचे हम दोनों अजनबियों की तरह रहने लगे. वे मुझ से नफरत तो नहीं करते थे, पर मुहब्बत भी नहीं. मुझे रुपएपैसे भी देते थे, पर प्यार नहीं. जब भी प्यार देने की कोशिश करती, दूर हट जाते. फिर सुबह मेरे हाथ से चाय भी नहीं लेते. चाय का नाम सुन कर उन्हें मेरे सीने के दाग याद आ जाते. मन उचाट हो जाता.

इसी बीच मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर कोई नन्हा वजूद पनप रहा है. मुझे खुशी हुई, पर आरिफ को नहीं. उन्होंने एक फैसला ले लिया था, वह था मुझे तलाक देने का.

उन्होंने मेरी कोख में पनप रहे वजूद को तहसनहस करवाना चाहा. मुझे रजामंद करने में पूरी ताकत झोंक दी, पर मैं नहीं मानी और जीती रही उसी वजूद के सहारे.

आखिरकार उस वजूद ने दुनिया में आंखें खोलीं. मेरा सूनापन कम हो गया. मैं उस वजूद से हंसनेबोलने लगी. अपने गम को भूलने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे मेरी बेटी मेरी सहेली बन गई. अभी मेरी बेटी 2 साल की ही हुई थी कि यह हादसा हो गया. मैं अपने मायके में आई हुई थी. मेरे बड़े भाई के लड़के का अकीका यानी मुंडन था. आरिफ भी आए हुए थे. रात को खाना खाने के बाद आरिफ की आदत है पान खाने की. उस रात वे मेरे महल्ले की एक पान की दुकान पर पान खाने पहुंचे, तो मेरी जिंदगी में मानो कयामत सी आ गई.

वहीं पान की दुकान पर आरिफ ने मेरे बारे में सुना. सुना क्या, रंजिशन उन्हें सुनाया गया. मेरे बारे में बातें सुन कर वे चकरा गए.

गिरतेपड़ते वे घर वापस आए, तो मैं उन के चेहरे को देख कर भांप गई कि हो न हो, कोई अनहोनी हुई है. मैं उन के पास पहुंची. पूछने लगी कि क्या बात है? आरिफ कुछ नहीं बोले. मेरे घर चुपचाप ही रहे. गुमसुम.

पर दूसरे दिन घर आ कर कुहराम मचा दिया. ऐसा कुहराम कि पासपड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए. मसजिद के पेशइमाम साहब, मदरसे के मौलाना और मुफ्ती जैसे बड़े लोग भी बुला लिए गए और मेरे घर से मेरे वालिद साहब व दोनों भाई भी.

बेचारी अम्मी भी रोतीपीटती हुई आईं. अम्मी को देखते ही मेरी आंखों से आंसू झरझर बहने लगे. अम्मी ने मुझे गले से लगा लिया. समझ गईं कि क्या हुआ होगा.

बाहर घर के सामने चबूतरे पर पूरी पंचायत जमा थी. मौलाना साहब मेरे ससुर से बोले, ‘हाजी साहब, आप ने हम सब को क्यों याद किया? क्या बात है?’

मेरे ससुर ने अपना चेहरा झुका लिया. कुछ भी बोल नहीं पाए. मौलाना साहब ने दोबारा पूछा, ‘आखिर बात क्या है हाजी साहब?’

मेरे ससुर ने अपना चेहरा धीरे से ऊपर उठाया और आरिफ की ओर संकेत किया, ‘इस से पूछिए. पंचायत इस ने बुलाई है, मैं ने नहीं.’

अब मौलाना साहब ने आरिफ से पूछा, ‘आरिफ बेटा, बात क्या है? क्यों जहमत दी हम लोगों को?’

आरिफ बड़े अदब से खड़े हुए और बोले, ‘मौलाना साहब, मेरे साथ धोखा हुआ है. मुझ से झूठ बोला गया है.’

मसजिद के पेशइमाम साहब बोले, ‘बेटा, किस ने तुम्हें धोखा दिया है? किस ने तुम से झूठ बोला है?’

आरिफ तैश में बोले, ‘मेरी बीवी ने मुझ से झूठ बोला है और धोखा दिया है. मेरी ससुराल वालों ने भी…’

मुफ्ती साहब बोले, ‘आरिफ बेटा, तुम्हारी बीवी ने तुम से क्या झूठ बोला है? ससुराल वालों ने तुम्हें कैसे धोखा दिया है?’

‘हजरत, यह बात आप मुझ से नहीं, मेरी बीवी से पूछिए.’

पूरी महफिल में सन्नाटा पसर गया. मेरे अब्बूअम्मी और भाइयों के ही नहीं, मेरे ससुर का भी चेहरा शर्म से झुक गया. मेरी अम्मी तड़प उठीं. परदे के पीछे खड़ी मैं भी सिसक पड़ी.

मुफ्ती साहब बोले, ‘बताओ बेटी, क्या बात है?’

मैं जोरजोर से रोने लगी. मेरी आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा. होंठ थरथराने लगे. जिस्म कांप उठा. मुझ से बोला नहीं गया. बोलती भी तो क्या?

आरिफ ही खड़े हुए और तैश में बोले, ‘हजरत, यह क्या बोलेगी… बोलने के लायक ही नहीं है यह… सिर्फ यही नहीं, इस के घर वाले भी…’

मेरी अम्मी का रोना और बढ़ गया. मेरे अब्बू भी फफक पड़े. भाइयों को गुस्सा आया. उन की मुट्ठियां भिंच गईं. पर अब्बू ने उन्हें चुप रहने का संकेत किया… और मैं? मैं सोच रही थी कि यह धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं, पर ऐसा होना नामुमकिन था.

पेशइमाम साहब बोले, ‘बात क्या है?… मुझे बात भी तो पता चले.’

‘मेरी बीवी के सीने पर दाग हैं. उजलेउजले… चरबी जैसी दिखाई पड़ती है. नजर पड़ते ही मुझे घिन आती है.’ पंचायत में दोबारा सन्नाटा छा गया. आरिफ बोलते रहे, ‘यह बात मुझ से छिपाई गई है… हम लोगों को नहीं बताई गई?’

इतना कह कर आरिफ थोड़ी देर शांत रहे, फिर बोले, ‘और, जब मुझे इस की जानकारी हुई, तो मुझे मेरी बीवी ने बताया कि ये दाग चाय के हैं, जबकि…’

‘जबकि, क्या…?’ एकसाथ कई मुंह खुले.

‘जबकि, ये दाग तेजाब के हैं.’ पंचायत में खलबली मच गई.

आरिफ ने आगे बताया, ‘कल मैं खैराबाद अपनी ससुराल में था. वहीं एक पान की दुकान पर मैं ने 2 लड़कों को आपस में बातें करते सुना. मैं नहीं जानता कि वे लोग कौन थे?’ ‘उन में से एक ने दूसरे से पूछा था कि यार, उस लड़की का क्या हुआ?

‘दूसरा बोला था कि कौन सी लड़की?

‘पहला लड़का बोला था कि वही हाजी अशरफ साहब की लड़की, जिस पर एसिड अटैक हुआ था.

‘दूसरा लड़का बोला था कि अरे, उस की तो शादी हो गई. दोढाई साल हो गए हैं. अच्छा शौहर पाया है उस ने. ‘इतना सुनना था कि मेरे होश उड़ गए. आगे उन लोगों ने क्या बातें कीं, मैं नहीं जानता, लेकिन हजरत, मैं यह जानता हूं कि मैं कहीं का नहीं रहा. पहले तो किसी तरह एकसाथ बसर हो रही थी, मगर अब हम साथ नहीं रह सकते. मुझे इस झूठी औरत से नजात दिलाइए…’

आरिफ अपनी बात पूरी कर के बैठ गए. पंचायत में कानाफूसी होने लगी. थोड़ी देर के बाद मुफ्ती साहब बोले, ‘हाजी साहब… आप कुछ बताएंगे… क्या मामला है? हमें कुछ समझ नहीं आया… एसिड अटैक… कब और क्यों…?’

मेरे अब्बू हिम्मत कर के खड़े तो हुए, पर थरथर कांपने लगे. उन से बोला नहीं गया. अम्मी ने भी बोलना चाहा. उन से भी नहीं बोला गया. बस खड़ीखड़ी रोती रहीं. आखिर में मैं खड़ी हुई.

‘मेरे घर वाले धोखेबाज हैं या नहीं, मैं नहीं कह सकती… हां, मैं यह जरूर कह सकती हूं कि मैं झूठी हूं… मैं ने झूठ बोला है… मुझे साफसाफ बता देना चाहिए था इन दागों के बारे में… मैं बताना चाहती भी थी, मगर मुझे कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी…’

‘सुन रहे हैं आप…’ मैं बोली.

आरिफ ने खड़े हो कर बड़े गुस्से में कहा, ‘यह और इस के घर वाले इसी तरह लच्छेदार बातों में उलझा देते हैं… झूठ पर झूठ बोलते हैं… झूठे… धोखेबाज कहीं के…’

मुफ्ती साहब बोले, ‘आरिफ, खामोश रहिए. अदब से पेश आइए…’ आरिफ सटपटा कर बैठ गए. मुफ्ती साहब ने मुझ से पूछा, ‘बेटी, दाग का राज क्या है? बताएंगी आप…’

मैं फफक पड़ी. ऐसा लगा, जैसे दाग दहक उठे. जलन पूरे शरीर में दौड़ गई. मैं बोली, ‘मैं उस वक्त 11वीं जमात में पढ़ती थी. एक हिसाब से दुनियाजहान से अनजान थी. मैं अबुल कलाम आजाद गर्ल्स इंटर कालेज में रोजाना अपनी चचेरी बहन के साथ पढ़ने जाया करती थी.

‘मेरी चचेरी बहन भी उसी स्कूल में पढ़ाया करती थीं…’ इतना कह कर मैं ने थोड़ी सी सांसें भरीं और दोबारा कहना शुरू किया, ‘मेरी चचेरी बहन की शादी जिस आदमी से हुई थी, वह ठीक नहीं था… जुआरी… शराबी था… उन को मारतापीटता भी था, इसलिए उन्होंने तलाक लेना चाहा था.

‘वह शख्स तलाक देने के लिए राजी नहीं हुआ. बहन बेचारी मायके में बैठी रहीं और कालेज में पढ़ाने लगीं.’

मैं ने फिर थोड़ा दम लिया और आगे बोली, ‘हर दिन की तरह उस दिन भी हम लोग खुशीखुशी कालेज जा रही थीं. हम लोग कालेज पहुंचने वाली ही थीं कि बहन ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपनी तरफ खींचा और चिल्लाते हुए बोलीं कि भागो… भागो…

‘मैं ने देखा सामने वही जालिम शख्स खड़ा था. वह पहले भी एकदो बार बहन के सामने आ चुका था. उन का रास्ता रोक चुका था. उन्हें जबरदस्ती अपने घर ले जाना चाहा था. ‘हम ने सोचा कि वह आज भी वही हरकत करेगा… सो, हम दौड़ पड़ीं. बहन आगेआगे दौड़ रही थीं और मैं उन के पीछेपीछे.

‘मुझे पीछे छोड़ता हुआ वह शख्स बहन के पास तक पहुंच गया. उस ने एक हाथ से बहन का नकाब खींच लिया. बहन को ठोकर लग गई. वे वहीं सड़क पर गिर पड़ीं.

‘उस जालिम ने झोले से तेजाब की बोतल निकाली और उस का ढक्कन खोल कर एक झटके से उन के चेहरे पर उड़ेल दी.

‘मैं भी तब तक उन के करीब पहुंच चुकी थी. तेजाब के छींटे मेरे चेहरे पर तो नहीं पड़े. हां, मेरे सीने पर जरूर आ पड़े. मेरा सीना झुलस उठा. मैं गश खा कर गिर पड़ी. ‘जब मुझे होश आया, तो मैं अस्पताल में थी. मैं ने बहन के बारे में पूछा, तो पता चला कि उन की मौत तो अस्पताल पहुंचते ही हो गई थी.’

मेरी दुखभरी कहानी सुन कर पूरी पंचायत में खामोशी छा गई. अजब तरह की खामोशी. 90 फीसदी लोगों की हमदर्दी मेरे साथ थी, पर फैसला मेरे हक में न रहा. फैसला रहा आरिफ के हक में. मेरे घर वालों के सचाई छिपाने और मेरे झूठ बोलने की वजह से मेरा तलाक हो गया. मैं अपने घर वालों के साथ मायके चली आई. आरिफ ने बच्ची को लेने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. यह मेरे लिए अच्छी बात हुई. मैं अपनी बच्ची के बगैर एक पल जिंदा रह भी नहीं पाती.

मैं बीऐड तो पहले से ही थी और टीईटी भी. अभी जब एक साल पहले सहायक अध्यापकों की जगह निकली, तो मेरा उस में सलैक्शन हो गया. यहीं 10 किलोमीटर की दूरी पर मेरी एक प्राथमिक विद्यालय में पोस्टिंग भी हो गई. वहीं मेरी मुलाकात रेहान से हुई.

रेहान पास ही के एक माध्यमिक स्कूल में सहायक अध्यापक है. जब से मुझे देखा है, अपने अंदर मुहब्बत का जज्बा पाले बैठा है. मुझ से मुहब्बत का इजहार भी किया है और शादी करने की इच्छा भी जाहिर की है. मैं ने न तो उस के प्यार को स्वीकार किया है और न ही उस के शादी के प्रस्ताव को. मैं दोबारा उस दर्द को झेलना नहीं चाहती.

Happy New Year 2025 : मंजरी और दिवाकर के रिश्ते की मिठास

Happy New Year 2025 : ‘‘अरे, जरा धीरे चलो भई. कितना तेज चल रहे हो. मुझ में इतनी ताकत थोड़े ही है कि मैं तुम्हारे बराबर चल सकूं,’’ दिवाकर ने कहा और हांफते हुए सड़क के किनारे चट्टान पर निढाल हो कर बैठ गए. फिर पीछे पलट कर देखा तो मंजरी उन से थोड़ी दूर ऐसी ही एक चट्टान पर बैठी अपने दुपट्टे से पसीना पोंछती हलाकान हो रही थी. साथ चल रहे हम्माल ने भी बेमन से सामान सिर से उतारा, बैठ गया और बोला, ‘‘टैक्सी ही कर लेते साहब, ऐसा कर के कितना पैसा बचा लेंगे?’’

‘‘हम पैसा नहीं बचा रहे हैं. रहने दो, तुम नहीं समझोगे,’’ दिवाकर ने कहा. थोड़ी देर में मंजरी ने फिर चलना शुरू किया और उन से आधी दूर तक आतेआते थक कर फिर बैठ गई.

‘‘अरे, थोड़ा जल्दी चलो मैडम, चल कर होटल में आराम ही करना है,’’ दिवाकर ने जोर से कहा. जैसेतैसे वह उन तक पहुंची और थोड़ा प्यार से नाराज होती हुई बोली, ‘‘अरे, कहां ले आए हो, अब इतनी ताकत नहीं बची है इन बूढ़ी होती हड्डियों में.’’

‘‘तुम्हारी ही फरमाइश पर आए हैं यहां,’’ दिवाकर ने भी मंजरी से मजे लेते हुए कहा. आखिरकार वे होटल पहुंच ही गए. वास्तव में मंजरी और दिवाकर अपनी शादी की 40वीं सालगिरह मनाने गंगटोक-जो कि सिक्किम की जीवनरेखा तीस्ता नदी की सहायक नदी रानीखोला के किनारे बसा है और जिस ने साफसफाई के अपने अनुकरणीय प्रतिमान गढ़े हैं-आए हैं. इस से पहले वे अपने हनीमून पर यहां आए थे. और उस समय भी वे इसी होटल तक ऐसे पैदल चल कर ही आए थे. और तब से ही गंगटोक उन्हें रहरह कर याद आता था. यहां उसी होटल के उसी कमरे में रुके हैं, जहां हनीमून के समय रुके थे. यह सब वे काफी प्रयासों के बाद कर पाए थे.

40 साल के लंबे अंतराल के बाद भी उन्हें होटल का नाम याद था. इसी आधार पर गूगल के सहारे वे इस होटल तक पहुंच ही गए. होटल का मालिक भी इस सब से सुखद आश्चर्य से भर उठा था. उस ने भी उन की मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं उठा रखी थी. यहां तक कि उस ने उन के कमरे को वैसे ही संवारा था जैसा वह नवविवाहितों के लिए सजाता है. यह देख कर दिवाकर और मंजरी भी पुलकित हो उठे. उन के चेहरों से टपकती खुशी उन की अंदरूनी खुशी को प्रकट कर रही थी.

फ्रैश हो कर उन दोनों ने परस्पर आलिंगन किया, बधाइयां दीं. फिर डिनर के बाद रेशमी बिस्तरों से अठखेलियां करने लगे. सुबह जब वे उठे तो बारिश की बूंदों ने उन का तहेदिल से स्वागत किया. बड़ीबड़ी बूंदें ऐसे बरस रही थीं मानो इतने सालों से इन्हीं का इंतजार कर रही थीं. नहाधो कर वे बालकनी में बैठे और बारिश का पूरी तरह आनंद लेने लगे.

‘‘चलो, थोड़ा घूम आते हैं,’’ दिवाकर ने मंजरी की ओर कनखियों से देखते हुए कहा.

‘‘इतनी बारिश में, बीमार होना है क्या?’’ मंजरी बनावटी नाराजगी से बोली.

‘‘पिछली बार जब आए थे तब तो खूब घूमे थे ऐसी बारिश में.’’

‘‘तब की बात और थी. तब खून गरम था और पसीना गुलाब,’’ मंजरी भी दिवाकर की बातों में आनंद लेने लगी.

‘‘अच्छा, जब मैं कहता हूं कि बूढ़ी हो गई हो तो फिर चिढ़ती क्यों हो?’’ दिवाकर भी कहां पीछे रहने वाले थे.

‘‘बूढ़े हो चले हैं आप. इतना काफी है या आगे भी कुछ कहूं,’’ मंजरी ने रहस्यमयी चितवन से कहा तो दिवाकर रक्षात्मक मुद्रा में आ गए और अखबार में आंखें गड़ा कर बैठ गए. हालांकि अंदर ही अंदर वे बेचैन हो उठे थे. ‘आखिर इस ने इतना गलत भी तो नहीं कहा,’ उन्होंने मन ही मन सोचा. इतने में कौलबैल बजी. मंजरी ने रूमसर्विस को अटैंड किया. गरमागरम मनपसंद नाश्ता आ चुका था.

‘‘सौरी, मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती थी. चलिए, नाश्ता कर लीजिए,’’ मंजरी ने पीछे से उन के गले में बांहें डाल कर और उन का चश्मा उतारते हुए कहा. फिर खिलखिला कर हंस दी. दिवाकर की यह सब से बड़ी कमजोरी है. वे शुरू से मंजरी की निश्छल और उन्मुक्त हंसी के कायल हैं. जब वह उन्मुक्त हो कर हंसती है तो उस का चेहरा और भी प्रफुल्लित, और भी गुलाबी हो उठता है. वे उस से कहते भी हैं, ‘तुम्हारी जैसी खिलखिलाहट सब को मिले.’

‘‘आज कहां घूमने चलना है नाथूला या खाचोट पलरी झील? बारिश बंद होने को है,’’ दिवाकर ने नाश्ता खत्म होतेहोते पूछा. मंजरी ने बाहर देखा तो बारिश लगभग रुक चुकी थी. बादलों और सूरज के बीच लुकाछिपी का खेल चल रहा था.

‘‘नाथूला ही चलते हैं. पिछली बार जब गए थे तो कितना मजा आया था. रियली, इट वाज एडवैंचरस वन,’’ कहतेकहते मंजरी एकदम रोमांचित हो गई.

‘‘जैसा तुम कहो,’’ दिवाकर ने कहा. हालांकि उन को मालूम था कि उन के ट्रैवल एजेंट ने उन के आज ही नाथूला जाने के लिए आवश्यक खानापूर्ति कर रखी है.

‘‘अब तक नाराज हो, लो अपनी नाराजगी पानी के साथ गटक जाओ,’’ मंजरी ने पानी का गिलास उन की ओर बढ़ाते हुए कहा और फिर हंस दी. उन दोनों के बीच यह अच्छी बात है कि कोई जब किसी से रूठता है तो दूसरा उस को अपनी नाराजगी पानी के साथ इसी तरह गटक जाने के लिए कहता है और वातावरण फिर सामान्य हो जाता है.

टैक्सी में बैठते ही दोनों हनीमून पर आए अपनी पिछली नाथूला यात्रा की स्मृतियों को ताजा करने लगे.

वास्तव में हुआ यह था कि नाथूला जा कर वापस लौटने में जोरदार बारिश शुरू हो गई थी और रास्ता बुरी तरह जाम. जो जहां था वहीं ठहर गया था. फिर जो हुआ वह रहस्य, रोमांच व खौफ की अवस्मरणीय कहानी है जो उन्हें आज भी न केवल डराती है बल्कि आनंद भी देती है.

उस वक्त जैसे ही जाम लगा और अंधेरा होना शुरू हुआ तो उन की बेचैनी बढ़ने लगी. वे दोनों और ड्राइवर बस, अपना समय होने पर और दिवाकर के बहुत मना करने के बावजूद ड्राइवर ने साथ लाई शराब पी और खाना खा कर सो गया. गाड़ी के अंदर की लाइट भी लूज होने से बंद हो गई.

दोनों अंधेरे में परस्पर गूंथ कर बैठ गए. जो अंधेरा नवविवाहितों को आनंद देता है, वह कितना खौफनाक हो सकता है, यह वे ही जानते हैं. रात के सन्नाटे में हर आहट आतंक का नया अध्याय लिख देती. दिवाकर ने हिम्मत कर के गाड़ी से बाहर निकल कर देखा तो होने को वहां बहुत सी गाडि़यां थीं लेकिन इन के आसपास जितनी भी थीं उन में सारे लोग ऐसे ही दुबके हुए थे. वह तो यह अच्छा था कि बारिश बंद हो चुकी थी. और आसमान में इक्केदुक्के तारे अपने होने का सुबूत देने लगे थे. मंजरी सिर नीचा और आंखें बंद किए बैठी थी.

ड्राइवर बेसुध सो रहा था. उस के खर्राटों से मंजरी के बदन में झुरझुरी सी हो रही थी. इतने में खिड़की के शीशे पर ठकठक हुई तो मंजरी की तो चीख ही निकल गई. लेकिन दिवाकर की आवाज सुन कर जान में जान आई. दिवाकर ने बताया था कि वहां से कुछ दूरी पर सेना का कैंप है, उन में से किसी का जन्मदिन है, इसलिए वे कैंपफायर कर रहे हैं. और इसी बहाने लोगों की सहायता भी.

मंजरी थोड़े नानुकुर के बाद जाने को राजी हुई थी. जब दिवाकर ने वहां पहुंच कर सैनिकों को बताया कि उन के पिताजी भी सेना में थे और 1967 का नाथूला का युद्घ लड़ा था तो दिवाकर उन के लिए आदर के पात्र हो गए. फिर वह रात गातेबजाते कब निकल गई थी, पता ही नहीं चला. उस दिन दिवाकर ने मंजरी को पहली बार गाते हुए सुना था. मंजरी ने गाया था- ‘ये दिल और उन की निगाहों के साए…’ उस दिन से आज तक दोनों को वह घटना ऐसे याद है मानो कल ही घटी हो.

‘‘अरे, कहां खो गई,’’ दिवाकर ने कहा तो स्मृतियों को विराम लग गया.

इधर, ड्राइवर ने चायनाश्ते के लिए गाड़ी रोक दी. दोनों ने साथ लाया नाश्ता किया और बिना चीनी की चाय पी. दिवाकर अपने जमाने में बहुत तेज मीठी चाय के शौकीन रहे हैं, और इसी कारण मंजरी की पसंद भी धीरेधीरे वैसी ही होती चली गई. लेकिन दिवाकर को डायबिटीज ने अनुशासित कर दिया. नतीजतन, मंजरी भी वैसी ही चाय पीने लगी. दिवाकर उस से कहते भी हैं कि तुम अपनी पसंद का ही खायापिया करो. पर वह हर बार बात को हंस कर टाल देती है. मीठे के नाम पर अब दोनों केवल मीठी बातें ही करते हैं, बस.

नाथूला में वे सब से पहले वार मैमोरियल गए और शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित किए. चीनी सीमा दिखते ही दिवाकर को बाबूजी की याद आ गई. नाथूला पास भारत और चीन (तिब्बत) को जोड़ने वाले हिमालय की वादियों में एक बेहद खूबसूरत किंतु उतना ही खतरनाक रास्ता है. यह प्राचीनकाल से दोनों देशों को सिल्क रोड (रेशम मार्ग) के माध्यम से जोड़ता है और यह सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं ऐतिहासिक यात्राओं का गवाह रहा है. जो इन दोनों देशों के 1962 के युद्ध के बाद बंद कर दिया गया था. जिसे 2006 में आंशिक रूप से खोला गया.

बाबूजी ने 1967 का वह युद्ध लड़ा था जो इसी नाथूला पास पर लड़ा गया. बाबूजी ने इसी युद्ध में अपनी जांबाजी के चलते एक पैर खो कर अनिवार्यतया सेवानिवृत्ति ली थी जिसे भारत की चीन पर विजय के बाद लगभग बिसार दिया गया. जबकि 1962 का वह युद्ध सभी को याद है जिस में देश ने मुंह की खाई थी. इस की पीड़ा बाबूजी को ताउम्र रही.

दिवाकर ने जब बाबूजी को अपने हनीमून पर गंगटोक जाने का इरादा बताया था, तो बाबूजी की युद्घ की सारी स्मृतियां ताजी हो गई थीं. चीनी सैनिकों की क्रूरता और उन का युद्धकौशल सभी कुछ उन की आंखों के आगे घूम गया था. साथ ही, अपने पैर को खोने की पीड़ा भी आंखों के रास्ते बह उठी थी. बाबूजी नहीं चाहते थे कि उन के बच्चे उस देश की सीमा को दूर से भी देखें, जिस ने एक बार न सिर्फ अपने देश को हराया था, बल्कि उन का पैर, नौकरी एवं सुखचैन हमेशा के लिए छीन लिया था. इसीलिए उन्होंने दिवाकर से कहा था कि पहाड़ों पर ही जाना है तो बद्रीनाथ, केदारनाथ हो आओ. लेकिन दिवाकर के गरम खून ने यह कहा कि ‘हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, धार्मिक यात्रा पर नहीं.’ तब बाबूजी ने हथियार डालते हुए मां को इस बात के लिए डांट भी लगाई थी कि उन के लाड़प्यार ने ही बच्चों को बिगाड़ा है.

इतने लंबे वैवाहिक जीवन में मंजरी ने दिवाकर को जितना जाना, उस के आधार पर ही उन्होंने दिवाकर को अकेला रहने दिया. जब काफी समय दिवाकर ने अतीत में विचरण कर लिया तब, दिवाकर जहां खड़े थे, उन के सामने वाली एक ऊंची चट्टान के पास खड़े हो कर, मंजरी ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘क्यों जी, कैसी लग रही हूं मैं यहां?’’ इस पर दिवाकर ने वर्तमान में लौटते हुए कहा, ‘‘अरे रे, उस पर क्यों चढ़ रही हो, तुम से न हो सकेगा अब यह सब.’’

‘‘ओके बाबा, अब मैं भी कौनसी चढ़ी ही जा रही हूं इस पर. लेकिन इस के साथ फोटो तो खिंचवा सकती हूं न,’’ मंजरी ने फोटो के लिए पोज देते हुए कहा. दिवाकर ने भी कहां देर की, अपने कैमरे से फटाफट कई फोटो खींच लिए. दोनों को याद आया कि पिछली बार रोल वाले कैमरे से कैसे वे एकएक फोटो गिनगिन कर खींचते थे. और यह भी कि कैसे दोनों में प्रतियोगिता होती थी कि कौन ऐसी ही चट्टानों और कठिन चढ़ाइयों पर पहले पहुंचता है. मंजरी की शारीरिक क्षमता काफी अच्छी थी क्योंकि वह अपनी शिक्षा के दौरान ऐथलीट रही थी. मगर फिर भी दिवाकर कभी जानबूझ कर हार जाते तो मंजरी का चेहरा जीत की प्रसन्नता से और भी खिल जाता था. इस पर दिवाकर उस की सुंदरता पर कुरबान हो जाते. सो, हनीमून और भी गरमजोशी से भर उठता.

गंगटोक से नाथूला जाते और आते समय सारे रास्ते जंगलों को देख कर दिवाकर को बड़ा दुख हुआ. क्योंकि अब जंगल उतना सघन नहीं रहा. पेड़ों की निर्मम कटाई ने हिमालय की हसीन पर्वतशृंखलाओं का जैसे चीरहरण कर लिया हो. जब यह बात उन्होंने मंजरी से शेयर की तो मंजरी ने विकास को जरूरी बताया. उन का यह भी कहना था कि लोग बढ़ेंगे तो पानी, बिजली, आवास, सड़कें सभी चाहिए. इन के लिए पेड़ तो काटने ही पड़ेंगे.

दिवाकर ने उन को संतुलित विकास की अवधारणा बताई कि विकास जितना जरूरी है उतने ही वन प्रदेश भी आवश्यक हैं. इस में जब आदमी की लालची प्रवृत्ति घर कर जाती है तभी सारी गड़बड़ होती है. केदारनाथ और कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ ने भी शायद आदमी के लिए सबक का काम नहीं किया है.

‘‘मैं आप से शैक्षिक बातचीत में नहीं जीत सकती. यह मुझे भी पता है और आप भी जानते हैं,’’ मंजरी ने दिवाकर से कहा और उन की तरफ पानी की बोतल बढ़ा दी. दिवाकर ने पानी पिया. मंजरी को ऐसा लगा कि उन का सारा आक्रोश जैसे उन्होंने ठंडा कर दिया हो. इस पूरी चर्चा का आनंद ड्राइवर ने भी खूब उठाया. होटल पहुंचे तब तक दोनों थक कर चूर हो चुके थे. कुछ खाया न पीया और जो बिस्तर पर पड़े तो दिवाकर की नींद सुबह तब खुली जब मंजरी ने चाय तैयार कर के उन को जगाया.

‘‘ऐसे मनाने आए हैं शादी की सालगिरह इतनी दूर,’’ मंजरी ने अर्थपूर्ण तरीके से कहा तो दिवाकर ने बहुत थके होने का स्पष्टीकरण दिया. मंजरी भी मन ही मन इस बात को मान रही थी लेकिन प्रकट रूप में उन से असहमत बनी हुई थी. फिर आगे बोली, ‘‘चलिए, जल्दी से चाय खत्म कर के तैयार हो जाइए. अभी तो हमें खाचोट पलरी झील के साथसाथ रूमटेक, नामग्याल और टीशिलिंग मौंटेसरी भी चलना है.’’

‘‘अरे यार, आज तो बिलकुल भी हिम्मत नहीं हो रही,’’ दिवाकर ने कहा. फिर करवट बदल कर सोने लगे. इस पर जब मंजरी ने बनावटी गुस्से से उन का कंबल खींच कर उन को उठाने की कोशिश की तो उन्होंने उसे भी अपने साथ कंबल में लपेट लिया. फिर वे कहीं नहीं गए.

लंबे आराम के बाद नींद खुली तो बादल बिलकुल खिड़की पर आ कर दस्तक सी दे रहे थे. दोनों बालकनी में बैठ कर गरमागरम चायपकौड़ों के साथ ठंडे मौसम का आनंद लेने लगे. तब तक भी दिवाकर की थकान पूरी तरह उतरी नहीं थी. बल्कि उन को हरारत हो आई. मंजरी उन को ले कर परेशान हो उठी. साथ लाई दवा वह दे ही रही थी कि कौलबैल बजी. दरवाजा खोला तो होटल का मालिक खड़ा था. उस ने नमस्कार किया. मंजरी ने उसे प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो वह बोला, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘हां, हां, जरूर,’’ यह दिवाकर की आवाज थी. वे बिस्तर पर ही उठ बैठे थे. जब उन्होंने सेठ के आने का कारण पूछा तो वह बोला, ‘‘आप हमारे खास मेहमान हैं. मैं ने जब घर पर आप के बारे में बताया तो पत्नीबच्चे सब आप से मिलना चाहते हैं. आज का डिनर आप हमारे साथ करेंगे तो अच्छा लगेगा. हमारे यहां का मोमोज खाएंगे तो हमेशा याद रखेंगे. जब मंजरी ने दिवाकर के स्वास्थ्य के बारे में बताया तो उस ने डाक्टर की व्यवस्था की. और दिवाकर के आग्रह पर डिनर में केवल दूधदलिया का ही इंतजाम करवाया.’’

सेठ को हलका सा याद आया कि पिछली बार जब ये लोग आए थे तो होटल में कोल्डडिं्रक खत्म हो जाने पर इन्हीं दिवाकर ने काफी हंगामा मचाया था. सेठ ने बातचीत के दौरान जब इस बात का जिक्र किया तो दिवाकर ने माना कि सच में ऐसा ही हुआ था. उन्होंने यह भी कहा कि जब आदमी जवान होता है और नईनई बीवी साथ होती है तब अकसर ही ऐसी बेवकूफियां कर बैठता है.

‘‘सब वक्त, वक्त की बात है. अब यह गरम पानी ही दुनियाभर में सारे कोल्डडिं्रक का और दूधदलिया ही सारे भोजन का मजा देते हैं,’’ दिवाकर ने गरम पानी पीते हुए कहा. तो सभी लोग जोर से हंस पड़े. होटल आ कर मंजरी ने अगली सुबह ही वापस लौट जाने को कहा तो दिवाकर ने यह कह कर मना कर दिया कि अभी बहुत घूमना बाकी है और वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगे.

अगले दिन सुबह वे खेचेओपलरी झील गए. यह गंगटोक से लगभग 150 किलोमीटर पश्चिम में है और पेलिंग शहर के नजदीक. यहां कंचनजंगा, जो कि दुनिया की तीसरी सर्वोच्च चोटी है, इतनी करीब दिखाई देती है मानो पूरे क्षेत्र को वह अपना आशीष सिर पर हाथ रख कर दे रही हो. गंगटोक से ले कर झील तक के रास्ते में उन को अनेक तरह के लोग कई प्रकार की वेशभूषा में दिखाई दिए. जब गाइड ने बताया कि इस झील को स्थानीय भाषा में ‘शो जो शो’ कहते हैं जिस का अर्थ होता है ‘ओ लेडी सिट हियर’ इस पर वे दोनों खूब हंसे और मंजरी ने जगहजगह बैठ कर खूब फोटो खिंचवाए. हर फोटो पर दिवाकर कहते, ‘ओ लेडी सिट हियर.’

फिर अगले कुछ दिन और रुक कर वे दूसरी कई झीलों, रूमटेक, नामग्याल और टीशिलिंग जैसे प्राचीन बौद्ध मठों और गंगटोक शहर में कई स्थानों पर घूमे व अपनी इस यात्रा को भी जीवंत बनाते रहे.

आज वे वापस लौट रहे हैं. इस पूरे विहार ने उन के जीवन में उत्साह, उमंग, आनंद और अनेक आशाओं का संचरण कर दिया. दिवाकर ने मंजरी से कहा, ‘‘अंगूर जब सूख जाता है तब भी उस में मिठास कम नहीं होती, बल्कि स्थायी हो जाती है. अंगूर का रसभरा जीवन कुछ ही दिनों का होता है, लेकिन किशमिश हमेशा के लिए होती है और अधिक गुणकारी भी. आदमी का जीवन भी ऐसा ही होता है. समझ रही हो ना, क्या कह रहा हूं मैं?’’ दिवाकर ने मंजरी से पूछा.

‘‘जी,’’ मंजरी ने भी उसी उत्साह से कहा और उन के कंधे पर सिर रख दिया. दिवाकर उस के बालों को सहलाने लगे और दोनों किशमिश सी मिठास महसूस करने लगे.

Family Story : बेकसूर विनायक ने किया प्रायश्चित्त

Family Story : बगुले के पंखों की तरह झक सफेद बर्फ, रुई के छोटेछोटे फाहों के रूप में गिर रही थी. यह सिलसिला परसों शुरू हुआ था और लगा था, कभी रुकेगा नहीं. लेकिन पूरे 44 घंटे बाद बर्फबारी थमी. पता नहीं रात के कितने बजे थे. आकाश में पूरा चांद मुसकरा रहा था. विनायक बिस्तर पर उठ कर बैठ गया. उस ने अपने एक हाथ से दूसरा हाथ छुआ. लेकिन पता न चल सका कि बुखार उतरा या नहीं. जब बर्फ गिरनी शुरू हुई थी तो उसे होश था. उस ने 2 गोलियां खाई थीं. लेकिन उन से कुछ हुआ नहीं था. उस ने अनुमान लगाया कि वह पूरे 2 दिनों तक अवचेतनावस्था में अपने बिस्तर में पड़ा रहा था. भूखप्यास तथा 2 दिनों तक बिस्तर में निष्क्रिय पड़े रहने से उपजी थकान ने शरीर के हर हिस्से में दर्द भर दिया था.

विनायक ने खिड़की के शीशे के पीछे मुसकरा रहे चांद के साथ आंख लड़ाने का खेल शुरू किया. 1 मिनट, 2 मिनट, फिर उस ने थक कर अपनी आंखें नीचे झुका लीं. उस ने अपनेआप से कहा, ‘इश्क करने में भला कोई चांद से जीता है, जो मैं जीतूंगा. जीतता तो यहां इतना लाचार, इस कदर तनहा क्यों पड़ा होता.’

दूनागिरि के उस उपेक्षित से बिमलजी के मकान की दूसरी मंजिल का खुलाखुला सहमासहमा सा कमरा. विनायक ने अपने अंतर में दस्तक दी, ‘दोस्त, तुम अपनी जिंदगी की किताब के तमाम पन्ने मथुरा, हरिद्वार, ऋषिकेश, नैनीताल और न जाने कहांकहां के होटलों, गैस्टहाउसों में छितरा कर अब आखिरी पन्ना फाड़ कर फेंक देने के लिए यहां आ गए हो.’

खिड़की के उस पार चमक रहा चांद फिर धुंध में सिमट गया. बाहर रेशारेशा बन कर गिर रही बर्फ फिर दिखलाई पड़ने लगी. दोस्त का पैगाम… ‘लो भई विनायक, मौत आ गई,’ आ गया, ‘एक परी आएगी, तुम से तुम्हारी जिंदगी छीन कर ले जाएगी. फिर इस धरती पर तुम्हारी पहचान खत्म, नयन की याद खत्म,’ उस ने घुटनों में अपना सिर रख कर अपने सिर्फ एक ऐसे गुनाह से रिहाई पाने की कोशिश की, जो कि उस ने किया ही नहीं था.

पतझड़, पेड़ों की पातविहीन नंगी डालें, नीचे गिरे हुए अरबोंखरबों पत्ते, फिर वसंत आएगा, फिर नई कोंपलें, नए फल, नए फूल उगेंगे. मौत से जिंदगी छीन लाने का वही पुराना खेल. अब के बिछुड़े कब मिलें, कहां मिलें, मिलें भी कि न मिलें, कुछ पता नहीं. लेकिन नयन से माफी वसूलने की बात…और कमरे के भीतर भूख, प्यास, बुखार से छटपटा रहा विनायक.

‘प्रायश्चित्त…स्वीकारोक्ति से तुम अपनी की गलती से नजात पा सकते हो?’ बहुत पहले एक वृद्धा के मुख से उस ने ये शब्द सुने थे. प्रायश्चित्त वह कर रहा है, लेकिन स्वीकारोक्ति? ‘कहां पाऊं नयन को जो स्वीकारोक्ति करूं?’

रजाई की परतों में छिपी यातना से बेहोश हो रही विनायक की काया. कल, परसों, नहीं, 5 साल पहले…

अपने पिता की विनायक को कुछ याद नहीं थी. सभी कहते थे कि वह अपने पिता की हूबहू नकल है. उसे मां की याद है. मामूली बुखार से हार कर वे चल बसी थीं. घर में बड़े भाई सुधाकर, भाभी अहिल्या तथा उन की 11 साल की बेटी कालिंदी, यही उस के अपने शेष थे. कालिंदी पूरी आफत थी. सारा दिन लौन में तितलियां पकड़ने से ले कर बंगले के बाहर लगे आम, कटहल, नीबू तथा जामुन के पेड़ों की खोहों से गिलहरी, चिडि़या के बच्चे पकड़ने का काम वह पूरे उत्साह के साथ किया करती थी. इसी से विनायक ने उस का नाम नौटी यानी शरारती रख दिया था.

दूनागिरि का वह मकान…दूसरी मंजिल का कमरा. बर्फ व अंधड़ से बिजली के खंभे टूट गए थे. पानी सप्लाई की लाइनें फट चुकी थीं. बिजली नहीं, पानी नहीं. उसे निपट अकेला छोड़ कर उस के मकानमालिक बिमलजी सपरिवार नीचे लालकुंआ चले गए थे.

उस ने नीचे उतर कर उन का घर टटोला. मिट्टी के सकोरे में डबलरोटी के टुकड़े, एक बोतल में थोड़ा सा कड़वा तेल, 2 दौनों में बांध कर सहेजा हुआ पावडेढ़पाव गुड़, एक छींके पर टंगे हुए गिनती के 15 आलू और इतने ही प्याज. छींके में ही 10 ग्राम चाय का पैकेट रखा था. बिमलजी की पत्नी 45 वर्ष की अधेड़, निखरे रंग की सुंदर, सुघढ़ महिला थीं. उन्होंने एक बार दबे मन से विनायक के लिए कुछ करने की बात कही थी लेकिन बिमलजी ने यह कह कर, ‘मरने वाले के साथ खुद नहीं मरा जाता,’ उन्हें चुप करा दिया था.

चिमटे से बर्फ खोद कर उस ने स्टोव पर अपने लिए बगैर दूध वाली गुड़ की चाय बनाई. बर्फ से सख्त डबलरोटी के एक टुकड़े को चाय में डुबोडुबो कर खाया. पर लगा, कुछ भी भीतर जाने को तैयार नहीं है. उस ने पूरी मनोशक्ति लगा कर भीतर के पदार्थ को बाहर आने से रोका. विनायक को लगा कि चायरोटी के बावजूद उस की 2 दिनों की भूखी काया की प्रतिरोधक शक्ति में कोई वृद्घि नहीं हुई है. बिस्तर में घुसते ही अर्धचेतनावस्था ने उसे फिर घेर लिया.

भैया, भाभी और नौटी, जो कि छठी क्लास में फिर फेल हो गई थी, फेल होने का उसे कोई मलाल नहीं था. विनायक ने नौटी को पढ़ाने की कोशिश की, मगर नतीजा…वह खुद भी लड़की के साथ तितलियों, गिलहरियों के पीछे भागने लगा. अहिल्या कभी खीझ कर तो कभी मुसकरा कर अपना माथा पीटने लगती, ‘कमाल की लड़की जन्मी है मेरी कोख से…आज चाचा को गिलहरी के पीछे दौड़ा रही है, कल बाप को दौड़ाएगी और फिर ससुराल जा कर मेरा नाम रोशन करेगी.’

नयन…हां, नयन को ही खोज कर लाया था, विनायक. 20 साल की लंबी, सांवली, छरहरी बंगाली लड़की…सदर मुकाम खुलना…वहीं से अपने चाचा राखाल के साथ शरणार्थी बन कर वह 1981 में बंगलादेश की सीमा पार कर पहले कलकत्ता, फिर वहां से दिल्ली और अंत में दिल्ली से गाजियाबाद आई थी. राखाल, भैया की कपड़े की दुकान में काम करता था. दिनभर ग्राहक निबटाने के बाद वह रात 9 बजे पूरा हिसाबकिताब निबटा कर गुलजारी लाला के ठेके से शराब पीता हुआ अपने घर लौटता था. पैसे के लिए मुंह न फाड़ने वाला राखाल दारू वाले ऐब के अलावा बाकी सब मामलों में सीधासादा, काम से काम रखने वाला एक मुनासिब किस्म का आदमी था.

प्रथम श्रेणी में एमए करने के बाद विनायक भी सुबह 9 से 12 बजे तक दुकान में बैठता था. दुकान में ही भोजन कर के लाइब्रेरी चला जाता, जहां से पढ़ कर शाम को 5-6 बजे तक घर वापस आता. कुछ देर वह नौटी को पढ़ाता या उस के साथ खेलता. भाभी के साथ रात 9 साढ़े 9 बजे खाना खाता. फिर 2-3 घंटे पढ़ता और सो जाता.

वह अखिल भारतीय या इसी किस्म की दूसरी सेवाओं में जाना चाहता था. उस की भाभी भी यही चाहती थीं, लेकिन भैया, विनायक की बात सुन कर धमकी देने लगते थे, ‘भई, हम से अकेले यह सब नहीं होता. यदि विनायक नौकरी पर गया तो मैं दुकान बंद कर घर बैठ जाऊंगा.’

एक दिन भैया किसी पेशी में कोर्ट गए हुए थे. वह अकेला राखाल के साथ दुकान देख रहा था कि एक लड़का उस के सामने तह की हुई एक चिट्ठी फेंक कर भाग गया.

पत्र 2 लाइनों का था, ‘जुबली रेस्तरां में फौरन मिलिए. किसी के जीवनमरण का प्रश्न है. हरे रंग की साड़ी और उसी रंग के ब्लाउज में आप मुझे पहचान जाएंगे.’

विनायक शर्मीला लड़का था. लड़कियों का सामना पड़ने पर तो उस की जान ही निकल जाती थी. सोचा, जाऊं या न जाऊं? लेकिन जीवनमरण का प्रश्न. उंह, ऐसा तो झूठ भी लिखा जा सकता है. पता नहीं कौन हो,

कैसे चालचलन की हो. बात भैया के कानों तक पहुंच सकती है और उन के मुंह से भाभी के कानों तक भी. इस के बाद दुनियाभर के सवालों का सिलसिला.

रेस्तरां के केबिन में अपने सामने विनायक को बैठाते हुए उस ने कहा, ‘मेरा नाम नयन है. मैं आप को जानती हूं. मेरे बारे में आप, बस, इतना जान लें कि मैं आप की दुकान के कर्मचारी राखाल की भतीजी हूं.’

‘ओह,’ विनायक की घबराहट में थोड़ी कमी आई.

‘मेरे चाचाजी आजकल खूब शराब पीने लगे हैं. मेरी दिवंगत चाची को चाचाजी बहुत प्यार करते थे. वे कहते हैं, ‘नयन, तेरी चाची मुझे रोज रात में दिखाई देती है. जब नहीं पीता तो नहीं दिखाई देती.’ अब बताइए, मैं उन्हें कैसे रोकूं? आप और आप के भैया हमारे अन्नदाता हैं. हम आप के आश्रित हैं. एक आश्रिता की याचना समझ कर आप इस मामले में कुछ कीजिए.’

‘आप वैसे करती क्या हैं?’ समस्या का समाधान विनायक की समझ में न आ रहा था. सो, फिलहाल इस से नजात पाने के लिए उस ने वार्त्ता का रुख मोड़ा.

‘एमए कर रही हूं, अंगरेजी साहित्य में.’

‘बीए में कौन सी डिवीजन थी?’

‘प्रथम.’

विनायक को लगा कि इस समय भी नौटी बगीचे में गिलहरियों के पीछे भाग रही होगी. ‘आप क्या मेरा एक काम कर सकती हैं?’

‘हां, यदि मेरी सामर्थ्य में हुआ तो.’

‘आप मेरी नौटी को पढ़ा दिया कीजिए.’

‘नौटी, यानी?’

‘मेरी भतीजी, छठी क्लास में फेल हो गई है.’

‘पढ़ा दूंगी, 2 घंटे रोज ठीक रहेगा?’

‘बिलकुल ठीक रहेगा. क्या लेंगी?’

‘मैं ने कहा न, मैं आप लोगों की आश्रिता हूं. जैसा आप उचित समझें.’

‘8 सौ रुपए महीना ठीक रहेगा?’

‘कल से पढ़ाना शुरू कर दूंगी. लेकिन मेरा काम?’

‘यह काम मेरा नहीं, भाभी के करने का है. आप उन्हीं से कहिएगा. आप उन्हें नहीं जानतीं, वे सबकुछ कर सकती हैं. वे जितने अधिकार से मेरी बात भैया तक पहुंचाती हैं, उतने ही अधिकार से आप की बात भी पहुंचाएंगी.’

इस के बाद उचितअनुचित बहुतकुछ हो गया. पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है और प्रकृति इस घूमती धरती के वासियों को किस्मकिस्म के अनजाने खेल खिला कर हंसाती, रुलाती रहती है.

उम्मीद से जल्दी ही राखाल बाबू का निधन हो गया. भाभी नयन को अपने घर ले आईं. दारुण दुखों की बेला में वह पूस की धूप की तरह नयन के जख्मों को ठोंकती हुई बोलीं, ‘अच्छाखासा लड़का देख कर तुम्हारे हाथ पीले कर दूंगी. बस, अपनी जिम्मेदारी खत्म. तब तक यहीं रहो, मेरी छोटी बहन की तरह.’

नौटी थोड़ाबहुत पढ़ने लगी थी. नयन यदाकदा विनायक को दिखाई पड़ जाती. हालांकि दोनों एक ही घर में रह रहे थे.

एक दिन नौटी ने विनायक से कहा, ‘चाचू, अपनी तसवीर बनवाओगे?’

‘तसवीर? तू बनाएगी?’

‘मैं नहीं, नयन दीदी बनाएंगी. उन्होंने मेरी और मां की तसवीरें बनाई हैं. तुम भी बनवा लो. सच, बहुत सुंदर बनाती हैं.’

अगले दिन नौटी, विनायक को जबरदस्ती नयन के कमरे में ले गई. उस समय वह कहीं बाहर गई हुई थी. किसी लड़की के कमरे में उस की अनुपस्थिति में घुसना अच्छी बात नहीं होती, लेकिन वह गया. नौटी की जिद के आगे, हार कर गया. कमरे में चारों तरफ विभिन्न आकार की लगी पेंटिंग्स को दिखलाते हुए नौटी ने सगर्व कहा, ‘देखा चाचू, मैं कहती थी न कि हमारी नयन दीदी…’

नौटी की बात पूरा होने से पहले नयन ने कमरे में अपने पैर रखे, ‘आप?’

लज्जा, शर्म से विनायक का चेहरा काला पड़ गया, जैसे कोई चोर चोरी के माल के साथ रंगे हाथों पकड़ लिया गया हो.

‘क्षमा चाहता हूं. यह नौटी उचितअनुचित कुछ नहीं समझती.’

‘इस में अनुचित क्या हुआ?’ नयन सहजता के साथ बोली, ‘आप का घर है. मेरा तो यहां अपना चौका तक नहीं है. भाभी ने सबकुछ अपने में समेट लिया है वरना मैं आप को चाय पिलाती.’

‘इतनी सारी पेंटिंग्स स्कैच, सब आप ने बनाए हैं?’

‘हां.’

‘बहुत अच्छे बने हैं.’

‘जैसे भी हैं, ये मेरे अपनों जैसे अंतरंग हैं. ये मुझ से बातें करते हैं और मैं इन से बतियाती हूं. इन की बातें, इन के सुखदुख और दर्दव्यथाएं इन के चित्रों में भर देती हूं.’

रात को खाना खाते समय भाभी ने पूछा, ‘मुन्ना, बोल तो कैसा लगा?’

‘क्या, कैसा लगा?’

‘नयन का कमरा, उस की बनाई तसवीरें और वह खुद?’

उसे लगा, एक अपराधबोध, जो दब चुका था, फिर कराह बन कर उभर रहा है. विनायक को कोई जवाब न देता पा कर भाभी फिर कहने लगीं, ‘वैसे, लड़की है अच्छी, रंग थोड़ा दबा जरूर है पर चेहरे से नजर हटाने को जी नहीं चाहता. बंगालिन है, मांसमछली जरूर खाती होगी. अपना वैष्णवों का घर है. और फिर, हम बनिए हैं और वह ब्राह्मण. ब्राह्मण माने गुरुजन. बिना मांबाप की बेटी. उसे देख कर मन न जाने कैसा हो जाता है. कौन जाने किस कुपात्र, सुपात्र के हाथ पड़े. पर मन करता है कि मैं अपने वे कंगन नयन के हाथों में पहना दूं जो कभी मांजी ने मुझे पहनाए थे.’

‘भाभी, एक अनजान लड़की का इतना मोह,’ भाभी की व्यथा देख कर विनायक को अजीब सा लगा.

‘मुन्ना, वैसे एक बात मैं तुझे बता दूं, अगर मैं अपनी पर आ जाऊं तो तेरे भैया की मुझ से बाहर जाने की हिम्मत नहीं हो सकती. दुकान उन की है, पर यह घर मेरा है.’

‘भाभी, जो होना नहीं, उस पर इतनी मायाममता क्यों, किसलिए?’

‘होना तो नहीं है,’ भाभी आंचल से आंखें पोंछने लगीं, ‘अगर हो जाता तो सच, मैं जी जाती.’

‘मतलब यह कि तुम्हारी नजर में मेरी पसंदनापसंद कुछ नहीं?’

‘तू, तू क्या है, मेरी पसंद के सामने सिर झुका लेने के अलावा क्या कोई दूसरा उपाय है तेरे पास? तू मुझ से बाहर जाएगा तो मैं मर नहीं जाऊंगी. ’

विनायक की मुट्ठियां भिंच गईं, ‘मुझे भाभी का और भाभी को नयन का इतना मोह.’

‘भाभी को नयन इतनी अच्छी लगती है,’ विनायक बिस्तर में लेटा सोचता रहा, ‘काश, मैं पृथ्वीराज चौहान की तरह उस का हरण कर भाभी के चरणों में उसे डाल कर उन को सुखी कर सकता तो…’

उस रात विनायक देररात तक सो न सका. नीचे नयन के कमरे में बत्ती जल रही थी. विनायक शराब नहीं पीता, कोई दूसरा नशा भी नहीं करता, लेकिन नयन के कमरे में जल रही बत्ती को देख कर उसे ऐसा लगा, मानो तेज शराब की आधी से ज्यादा बोतल का नशा उस पर सवार हो गया हो. उन्मादी की तरह वह एक के बाद एक सीढि़यां लांघता हुआ बिना द्वार खटखटाए नयन के कमरे में घुस गया. वह तन्मय भाव से रंगों को स्कैच में भर रही थी. विनायक को देखते ही वह सख्त लहजे में बोली, ‘घड़ी इस वक्त रात के साढ़े 12 से ज्यादा बजा रही है. और आप बिना द्वार खटखटाए चुपके से एक चोर की तरह मेरे कमरे में घुस आए. आप को शर्र्म नहीं आई?’

विनायक की सांस फूल रही थी. होश या बेहोशी में उस के मुंह से निकला, ‘वैसे, पानी मक्खन से भी कोमल होता है, परंतु उन्माद आने पर वह मजबूत दीवार तोड़ डालता है. जो रोके रुक न पा रहा हो, मेरी दशा भी कुछ ऐसे ही पानी जैसी है. मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं, कुछ मांगना चाहता हूं…’

‘आप होश में नहीं हैं. लगता है आप ने नशा कर रखा है. आप अभी जाइए.’

विनायक संभला नहीं और लड़खड़ा गया. फिर चीख कर बोला, ‘जब आप कहती हैं तो ठीक है, समझिए मुझ पर नशा ही सवार है. मगर किस का, यह आप समय रहने पर ही जानेंगी. बाकी आज मैं आप से अपनी बात कह कर रहूंगा, फिर चाहे जो भी हो जाए. चाहे मैं मर जाऊं, चाहे आप मर जाएं. लेकिन मैं…’

‘विनायक बाबू, इस वक्त आप जाइए. मैं आप की आश्रिता हूं. जो आश्रय देता है, वह महान होता है,’ इतना कहने के बाद उस ने पूरी शक्ति के साथ विनायक को अपने कमरे से बाहर ढकेल कर दरवाजा बंद कर लिया.

अगली सुबह नयन न जाने कहां चली गई. विनायक पूरी रात सो न पाया था. सुबह 6 बजे उस की पलक झपकी थी. तभी भाभी ने उसे झकझोर कर जगाया था, ‘मुन्ना, उठ तो. देख, नयन अपने कमरे में नहीं है. न जाने कहां चली गई. उस के कपडे़, उस की अटैची भी नहीं है. बाकी सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा है.’

कमरे के बाहर एक नया दिन जन्म ले रहा था और भीतर, जहां विनायक लेटा था, एक अंधेरा फैलता जा रहा था. विनायक बड़बड़ाया, ‘भाभी, जाओ, अपना काम देखो. नयन को भूल जाओ. वह वापस न आने के लिए ही गई है.’

‘मेरी तो कोई बुरी इच्छा नहीं थी. मैं ने तो उस का देहईमान कभी पाना नहीं चाहा था,’ विनायक हथेलियों के बीच दोनों कनपटियां दबाए सोच रहा था, ‘आश्रयदाता कहां था? मैं तो भाभी की बात उस से कहने गया था. मगर कैसे, छिछि, सोच कर लज्जा आती है. प्रायश्चित्त, हां, मैं यही करूंगा. नौकरी, चाकरी, दुकान…कुछ नहीं करना है मुझे. अब मेरी कोई मंजिल नहीं है सामने, केवल रास्ते हैं. नयन से अधिक दीनहीन, बन कर अनजानी राहों पर भटकूंगा.’

विनायक कई बार नयन के कालेज गया. किसी ने कहा कि वह पहाड़ों पर चली गई है तो किसी ने बताया कि वह एक अनजाने गांव में अज्ञातवास कर रही है. वह सबकुछ छोड़छाड़ कर स्वयं को दंड देने के लिए अनजानी राहों पर निकल पड़ा. नयन की कहानियां, कविताएं, लेख प्रकाशित होते रहते थे, उन के जरिए उस ने उस का पता जानने की कोशिश की. हर बार एक पोस्टबौक्स नंबर उसे दे दिया जाता. वह वहां यानी पोस्टऔफिस पहुंचता पर पता चलता कि वह उस जगह को छोड़ कर कहीं और चली गई है. इसी तरह कई माह बीत गए.

और अब, चारों तरफ बर्फ ही बर्फ है. बिजली नहीं, पानी नहीं, खाना नहीं. जनशून्य धरती. दूनागिरि का एकाकी प्रवास और वह, तिलतिल कर पूरी तरह चुकचुका एक निस्सहाय जीव, धीरेधीरे मनमस्तिष्क पर सैकड़ों केंचुओं की तरह रेंगरेंग कर बढ़ रही अवचेतना.

सहसा कोई खट्टी सी, मीठी सी चीज विनायक को अपने गले के नीचे उतरती महसूस हुई.

‘‘कौन, बिमलजी?’’ आप लौट जाएं?’’ विनायक कराहा.

‘‘ज्यादा बात नहीं, अच्छे बच्चे की तरह, जो दिया जा रहा है, उसे लेते जाओ.’’

‘‘तो क्या आप बिमलजी की पत्नी हैं?’’

कोई जवाब न मिला. विनायक को लगा कि वह खट्टामीठा तरल पदार्थ ऐसे ही हजारों सालों से इन्हीं हाथों से पीता चला आ रहा है. 2 हाथ धीरे से रेंग कर उस के तलुए सहलाने लगे. तब ऐसा लगा, मानो प्राण आंखों तक लौट आए हैं.

उस ने धीरे से आंखें खोली, ‘‘नयन, आप?’’

‘‘आप नहीं, तुम कहो. मैं भी तुम्हें तुम ही कहूंगी.’’

‘‘यहां कैसे पहुंची?’’

‘‘रानीखेत के पोस्टऔफिस में अपनी डाक लेने गई थी,’’ नयन ने जवाब दिया, ‘‘वहां मुझे एक अधेड़ दंपती मिले. वहां तुम्हारा जिक्र होने से जाना कि तुम उन्हीं के मकान में रह रहे थे. बिमलजी की पत्नी कह रही थीं, ‘उस गाजियाबाद के आदमी को मरने के लिए अकेला छोड़ कर हम ने अच्छा नहीं किया,’ बस, मैं सब समझ गई कि वह तुम हो. उन से पता पूछ कर यहां चली आई.’’

‘‘लेकिन मैं, मेरा दोष, क्या तुम ने मुझे…?’’

‘‘गाजियाबाद में मेरी एक सहेली है, वह मुझे तुम्हारे, तुम्हारे घर के बारे में समाचार भेजती रहती है. उसी ने बताया कि तुम अपनी भाभी के हुक्म से उस रात मेरे कमरे में भाभी की बात कहने चले आए थे.’’

मेज पर रखे गुलदस्ते में 20 दिन पुराने गुलाब के फूल रखे थे. विनायक ने उस में से एक मुरझाया फूल निकाला, ‘‘जरा घूमो, तुम्हारे जूड़े में मैं यह गुलाब तो लगा दूं.’’

‘‘खबरदार, जो मेरे बालों में फूलवूल लगाया,’’ नयन ने आंखें तरेरीं, ‘‘मुझे तुम्हारा सामान बांधना है. पिघल रही बर्फ पर ड्राइवर जीप कैसे लाया और कैसे नीचे ले जाएगा, यह वह ही जानता होगा. जूड़े में लगा फूल देख कर वह क्या सोचेगा.’’

‘‘लेकिन यह फूल, इस का मैं क्या करूं?’’

‘‘संभाल कर रखे रहो. मैं ने गाजियाबाद फोन कर दिया है. अब तक भैया, भाभी और नौटी खुनौली पहुंच चुके होंगे. वहां चल कर भाभी के सामने यह फूल मेरे जूड़े में लगाना. अगर लगा सके तो मैं तुम्हारी गुलाम, वरना तुम्हें सारी जिंदगी मेरी…’’

‘‘देख लेना, भाभी के सामने मैं यह फूल लगा ही दूंगा. लेकिन तुम मेरी गुलाम बन कर नहीं, मेरी आंखों का तारा, मेरी नयनतारा बन कर रहोगी.’’

नीचे जीपचालक हौर्न बजा रहा था.

Family Story : करणकुंती

Family Story : ‘‘रंजीतचल यार, कुछ खा कर आते हैं. आज मैरीडियन में सिजलर्स स्पैशल डे है.’’

समीर के उत्साह पर रंजीत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. जैसे कुछ सुना ही नहीं. पत्थर की तरह बैठा रहा.

‘‘मैं भी देख रहा हूं, जब से तू अपने गांव से आया है, बहुत डल फील कर रहा है. आखिर बात क्या है यार?’’

रंजीत से अब रहा न गया. बोला, ‘‘मम्मीपापा ने ऐसा सच बताया, जिसे मैं अभी तक बरदाश्त नहीं कर पा रहा हूं, समीर,’’ उस का गला भर आया. आगे कुछ न बोल सका.

‘‘रोता क्यों है, हर समस्या का कोई न कोई हल होता है. तेरी प्रौब्लमक्या है?’’ समीर को बड़ा अजीब लग रहा था.

रंजीत ने एक लंबी सांस ली, ‘‘मैं मम्मीपापा का बेटा नहीं हूं. उन्होंने बताया कि मैं उन्हें ट्रेन

में मिला था. कोई मुझे ट्रेन के डब्बे में छोड़ गया था. मैं तब 6 महीने का था. मम्मीपापा ने पुलिस में शिकायत दी और उस की इजाजत से मुझे घर ले गए. जब 1 साल के बाद भी मुझे लेने कोई नहीं आया तो उन्होंने मुझे कानूनी तौर पर गोद ले लिया.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है…अब तू मायूस

क्यों है?’’

‘‘मुझे इतना बड़ा सच मालूम हो और

मुझ पर कोई असर न पड़े, यह कैसे हो सकता

है यार?’’

‘‘कम औन रंजीत, तुझे तो कुदरत का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिस ने तुझे इतने अच्छे मांबाप दिए. तुम्हारे मांबाप ने तुझे इतना प्यार दिया, पढ़ायालिखाया. तुझे इस लायक बनाया कि तू दुनिया के आगे सिर उठा कर जी सके… तुझे तो उन का शुक्रगुजार होना चाहिए.’’

‘‘वह तो है. अब उन के प्रति मेरा प्रेम, अभिमान और भी ज्यादा हो गया है.’’

‘‘तो यह उदासी क्यों?’’

‘‘मेरी सगी मां, मुझ से मुंह फिरा कर क्यों चली गई? कहते हैं, बुरा बेटा हो सकता है, मगर मां बुरी नहीं. एक 6 महीने के बच्चे में क्या बुराई हो सकती है, जो वे मुझे छोड़ गईं या फिर वे मजबूर थीं. किसी ने उन के साथ बलात्कार कर के उन्हें समाज के सामने मुंह दिखाने लायक न रखा हो और वे मुझे छोड़ने पर मजबूर हो गईं.’’

‘‘अरे छोड़ न तू… अपने गुजरे कल पर रो क्यों रहा है? अच्छा हुआ जो तू किसी अनाथालय नहीं पहुंचा और न ही बुरे लोगों के चंगुल में… तेरे साथ सब अच्छा ही हुआ है… रोता क्यों है?’’

‘‘हां, तू बिलकुल ठीक कहता है मैं अपने मम्मीपापा का शुक्रगुजार हूं. फिर भी मैं अपनी असली मां को ढूंढ़ कर ही रहूंगा. यह मेरा

जनून है.’’

समीर ने उस की पीठ थपथपा कर कहा, ‘‘मैं तेरे साथ हूं.’’

अगले 2-3 दिनों तक रंजीत अपने औफिस में व्यस्त था. वह एक नामी कंपनी में सौफ्टवेयर टैक्निशियन था. उस ने एमसीए किया था. प्रोग्रामिंग में कुछ नएनए कंप्यूटर कोर्स भी किए थे. 25वें साल में ही अपनी उम्र से दोगुनी से भी अधिक तनख्वाह पाता था. मांबाप का एकलौता बेटा था. पिताजी स्कूल मास्टर थे. अपने कम वेतन में भी उसे किसी भी चीज की कमी नहीं होने दी. मां तो आज भी उसे बच्चा ही समझतीं.

एक दिन अचानक मां का बीपी डाउन होने की वजह से उन्हें अस्पताल में भरती किया गया. वह सारे काम छोड़ कर मां के पास बैठ गया. मां की तबीयत बिगड़ती गई. रंजीत ने पानी की तरह पैसा बहाया. उन्हें दिल्ली ले जा कर बड़े अस्पताल में भरती करवा कर इलाज करवाया. मां तो बच गईं. मगर उन्होंने अपनी बीमारी के दिनों में वह सच जाहिर कर दिया जिसे सुन रंजीत पूरी तरह हिल गया था.

उसे अपने बचपन के दिनों की याद आई. पड़ोस की आंटी उसे काला कौआ कह कर चिढ़ाया करती थीं.

‘‘तेरी मम्मी तो दूध जैसी गोरी है रे. पापा भी इतने काले नहीं, तो तू क्यों ऐसा है?’’

आंटी के सवाल पर रोतेरोते मम्मी के पास जा कर उस ने वही सवाल दोहराया था.

मम्मी ने प्यार से उस का माथा चूम कर कहा था, ‘‘बेटा, मैया यशोदा भी गोरी थीं, मगर कृष्ण काले थे…कोई नियम नहीं है बच्चे बिलकुल अपने मांबाप पर जाएं. तुम अपने दादादादी, नानानानी या परदादा, परदादी पर भी जा सकते हो. ऐसी बातों से मन खराब मत करो. जाओ अपने दोस्तों के साथ खेलो.’’

फिर मां ने उस पड़ोसिन को बच्चों के मन को दुखाने वाली ऐसी बातें करने के लिए काफी कटु वचन सुनाए थे.

रंजीत को एक और किस्सा याद आया. पापा का तबादला होने पर वे एक नए जिले में गए थे. मांबेटे का प्यार देख कर, घर की कामवाली को आश्चर्य हुआ था.

‘‘आप का बहुत बड़ा दिल है मालकिन. सौतन के बच्चे से कोई इतना प्यार

नहीं करता.’’

‘‘तुम्हें किस ने कहा कि यह मेरी सौतन का बच्चा है?’’

‘‘रंजीत बाबा की शक्ल आप दोनों से नहीं मिलती तो मैं ने सोचा, यह बच्चा साहब की पहली बीवी का तो नहीं.’’

मम्मी ने गुस्से में आ कर उसे काम से निकाल दिया.

रंजीत सोच रहा था बचपन से ही मांबाप से मेरी शक्लसूरत से भिन्नता को कई लोगों ने पहचाना. मगर मम्मीपापा के प्यार में डूबे मेरे मन में कभी इस बारे में कोई हैरानी पैदा नहीं हुई.

औफिस के काम निबटा कर उस ने सोचना शुरू किया कि अब अपनी मां को ढूंढ़े कैसे? पहले उस ने पुलिस की मदद लेने की कोशिश की. समीर के साथ कई बार पुलिस स्टेशन के चक्कर भी काट आया. मगर उन की प्रतिक्रिया निराशाजनक थी.

‘‘रंजीत हम आप की भावनाओं को समझ सकते हैं. मगर जो फाइल 25 साल पहले सी रिपोर्ट के दौरान बंद हुई हो, उस का पता हम कैसे लगा सकते हैं? 25 साल पहले भी इस बारे में तहकीकात हुई थी. मगर बच्चे को छोड़ कर जाने वाले के बारे में कुछ भी पता न लगने के कारण ही सी रिपोर्ट डाली गई थी और वह फाइल बंद भी हुई थी. सौरी, अब हम इस मामले में कोई मदद नहीं कर सकते.’’

समीर उसे बाहर ले आया था. होटल में चाय पीते वक्त बोला, ‘‘सुन हम खुद ढूंढ़ते हैं. मैं रेलवे की इनफौर्मेशन निकालता हूं और 25 साल पहले के उस ट्रेन के डब्बे की रिजर्वेशन लिस्ट निकालता हूं. शुक्र है, तुझे छोड़ कर जाने वाले कम से कम रिजर्वेशन के डब्बे में तो आए. अगर जनरल में आते तो कोई तुझे ढूंढ़ नहीं पाता.’’

‘‘काम तो मुश्किल है समीर. उस के साथसाथ हम क्यों न दूसरा रास्ता भी अपनाएं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘बचपन से लोग मेरी और मम्मीपापा की शक्लसूरत की भिन्नता को पहचान रहे हैं. मतलब मैं अपनी असली मां या पिता के रूप से मिलताजुलता हूं. क्यों न मैं अपनी तसवीर फेसबुक पर डालूं और अपनी कहानी सुना कर लोगों से अपने मांबाप को ढूंढ़ने में मदद मांगू?’’

‘‘आइडिया तो अच्छा है. कोशिश करते हैं.’’

फेसबुक पर उस के पोस्ट पर उम्मीद से ज्यादा प्रतिक्रियाएं आईं. वृद्धाश्रम, अनाथालय में रही कुछ बूढि़यों की तसवीरें भी आईं, जिन्हें अपने किए पर पछतावा था. वे दोनों जा कर उन से मिल कर भी आए. वे उसी इलाके की रहने वाली थीं. जवानी में भूल के कारण बच्चे को जन्म दे कर उसे त्यागना पड़ा था. मगर किसी ने भी ट्रेन में नहीं छोड़ा था. 1-2 ने कहा था, उन्होंने बच्चा तो दूसरों के हाथ में दिया था. फिर पता नहीं आगे क्याक्या हुआ होगा… उन लोगों ने बच्चे के जन्म की जो तारीख बताई, उन में से कोई भी

रंजीत की जन्मतिथि की आसपास वाली नहीं थी.

समीर बड़े प्रयत्न के बाद रेलवे से रिजर्वेशन लिस्ट भी ले आया. पहले तो उन लोगों ने उन पतों को इंटरनैट में रही वोटर्स लिस्ट के साथ मैच किया. कुछ नाम और पते तो आज भी वही थे, पर कुछ में वे नाम नहीं थे. रंजीत की मां ने बताया था कि जब वह बच्चा उन्हें मिला था तो वह आराम से सो रहा था और उस डब्बे में कोई नहीं था.

‘‘पूरे डब्बे के लोग एकसाथ कैसे खाली हो सकते हैं?’’

समीर के सवाल पर मां ने समाधान दिया था, ‘‘उस समय वहां मेला लगा था बेटा. दूरदूर के लोग मेले में आते थे बेटा.’’

‘‘छोटे बच्चे को सोते छोड़ जाना मतलब उस की मां भी साथ में आई होगी. उसे दूध पिला कर, उसे चैन से सुला कर छोड़ गई होगी ताकि उसे छोड़ते वक्त किसी की नजर न पड़े. अगर वह रोने लगता तो सब की नजरें उस पर पड़ जातीं. जिस बर्थ पर तुम्हें छोड़ा गया था यदि उस के आजूबाजू वालों को ढूंढ़ कर उन से पूछें तो शायद कुछ पता चले.’’

‘‘यू आर सर्चिंग ए नीडल इन ए हेस्टैक,’’ रंजीत खुद निराश था.

‘‘ऐटलिस्ट देयर इज हेस्टैक,’’ समीर मुसकराया.

‘‘शुक्रिया. जो मेरे लिए इतना कष्ट उठा रहे हो,’’ रंजीत ने दोस्त को गले से लगाया.

दोनों औफिस से छुट्टी ले कर रिजर्वेशन लिस्ट में दर्ज नामों की तलाश में जुट गए. कुछ ने मकान बदल दिए थे तो कुछ लोगों के पतेठिकाने मिल गए. दोनों घरघर जाने लगे. बहुत से घरों में कोई सहयोग नहीं मिला.

उन्होंने कहा, ‘‘25 साल पुरानी रेल यात्रा के हमसफरों की याद भला किसे रह सकती है?’’

एक वृद्धा की याददाश्त तेज थी. बोली, ‘‘हां बेटा उस कोने की सीट पर एक लड़की अपने नवजात शिशु के साथ बैठी थी, साथ में उस की मां भी थी. उन लोगों के कपड़ों व बातचीत से लगता था वे लोग ब्राह्मण हैं और किसी मंदिरवंदिर के पुजारियों के परिवार वाले हैं. वे दोनों किसी के साथ भी बातचीत नहीं कर रहे थे. मुझे नहीं पता कि वे कौन थे.’’

‘‘दादीजी, क्या यह याद है कि वे लोग कहां से उस ट्रेन में चढ़े थे?’’

‘‘हां बेटा, दोनों भारतीपुर से चढ़े थे.’’

‘‘शुक्रिया दादीजी,’’ उस वृद्धा के चरण छू कर दोनों वहां से चल दिए.

रंजीत ने कंप्यूटर में अपने फोटो को मौर्फ कर के एक औरत की तसवीर में बदल दिया. करीब 45 साल की औरत की उस तसवीर को भारतीपुर की वोटर लिस्ट में रही सभी औरतों की तसवीरों के साथ तुलना करने पर भी कोई फायदा नहीं हुआ.

‘‘भारतीपुर के मंदिरों और पुजारियों का अतापता लगाते हैं.’’

वहां के कई मंदिरों और पुजारियों के दर्शन के बाद शिव मंदिर के पुजारी 80 साल के शंकर शास्त्रीजी ने कहा, ‘‘बेटा, तुम अपनी मां को ढूंढ़ने के लिए इतना प्रयत्न कर रहे हो…अगर तुम ने अपनी मां का पता लगा भी लिया और मिलने गए तो जानते हो उस औरत के जीवन में कितना बड़ा तूफान उठ सकता है… उस की बसीबसाई जिंदगी बिगड़ जाएगी बेटा.’’

‘‘बाबाजी, मैं वादा करता हूं, मैं किसी की भी जिंदगी बरबाद नहीं करूंगा. मैं तो बस अपनी मां को देखना चाहता हूं. अगर मेरे जन्म के कारण से वह इस समाज में बाधित हुई हो तो मैं उसे अपने साथ ले जाने के लिए भी तैयार हूं. मगर यदि मेरे प्रवेश से उस की जिंदगी में तूफान उठ सकता है, तो मैं दूर से ही उसे एक बार देख लूंगा. प्लीज बताइए पंडितजी आप मेरी मां के बारे में कुछ जानते हैं?’’

‘‘मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता बेटा, मैं पूछताछ कर के बताऊंगा. तुम अपना नंबर मुझे दे दो बेटा.’’

दोनों को यकीन हो गया कि वे रंजीत की मां के बारे में जानते हैं. शायद उस की इजाजत लेने के बाद, रंजीत को इस बारे में बताएंगे. अब इंतजार करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.

2 हफ्तों के बाद शास्त्रीजी के बेटे ने कौल की, ‘‘पिताजी आप से मिलना चाहते हैं. क्या इस इतवार को फुरसत निकाल कर आ सकते हैं आप?’’

दोनों बड़ी बेसब्री से इतवार की प्रतीक्षा करने लगे. वह दिन आ भी गया. दोनों भारतीपुर पहुंचे. शास्त्रीजी ने उन के खाने का इंतजाम किया था. खाने के बाद घर के बरामदे में ही बातचीत शुरू हुई. घर वाले अंदर थे.

शास्त्रीजी ने गला ठीक किया और बड़ी मुश्किल से बात शुरू की, ‘‘देखो बेटा, तुम ने उस दिन अपने बारे में बताया और अपनी मां को देखने की इच्छा व्यक्त की. मैं ने उस औरत से बात भी की. उसे भी इस बात पर बड़ा दुख है. आखिर वह भी एक मां है बेटा. मंगर उस की जिंदगी में कुछ और लोग भी हैं और उसे स्वयं अपने जीवन का भी तो खयाल करना है, इसलिए वह दुनिया के सामने तुम्हें अपना नहीं सकती.’’

‘‘मैं समझ सकता हूं पंडितजी, मगर वह कौन है? क्या मैं उसे देख सकता हूं?’’

‘‘वह मेरी भानजी है बेटा. 16वें साल में उस से हुई एक नादानी का

फल तुम हो… जब उसे अपनी भूल का एहसास हुआ था, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टर ने कहा बच्चे को जन्म देने के अलावा और कोई चारा नहीं है. इसलिए वह अपने शहर से दूर मेरे घर आई थी तुम्हें जन्म देने.

‘‘तुम यहीं पर पैदा हुए थे बेटा. तुम्हारी शक्लसूरत बिलकुल तुम्हारी मां से मिलतीजुलती है बेटा. उस का नाम राजेश्वरी है बेटा. उस जमाने में एक कुंआरी मां का इस समाज में जीना असंभव था बेटा. इसलिए उसे मजबूरन तुम्हें त्यागना ही पड़ा. वह इस घर में जैसे अज्ञातवास में थी. हमेशा घर के अंदर छिपी रहती थी दुनिया की नजरों से दूर.

‘‘तुम्हारे जन्म के 15वें दिन तुम्हें त्यागना पड़ा. रातभर रो रही थी वह. फिर 4 साल बाद उस की शादी हो गई. 2 बेटे भी हुए. अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गई. जब मैं ने तुम्हारे बारे में बताया तो उस से रहा न गया. फौरन चली आई. अपनी मां से मिलोगे बेटा. मैं अभी उसे भेजता हूं,’’ और वे अंदर चले गए.

अंदर से हूबहू उसी की शक्त से मिलतीजुलती एक औरत आई. भले ही 40 साल की थी, मगर उम्र का एहसास नहीं हो रहा था. उस ने अपनी सुंदरता को बरकरार रखा था. कमरे में आ कर बस रंजीत को एक टक देखती रही. कुछ बोली नहीं. फिल्मों की तरह दौड़ कर आ कर लिपटी नहीं और न ही आंसू बहाने लगी.

रंजीत मां कहते हुए उस के चरण छूने चला तो राजेश्वरी ने बीच ही में उसे रोक दिया. बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो बेटा. मैं मजबूर थी.’’

‘‘मैं समझ सकता हूं मां. कम से कम आज तो मुझ से मिलने आई. इतना ही काफी है,’’ और फिर रंजीत ने अपने बारे में बताया. अपने मम्मीपापा, पढ़ाईलिखाई, नौकरी, समीर अन्य दोस्त वगैरह सभी के बारे में.

उस की परवरिश की कथा सुन कर राजेश्वरी की आंखें भर आईं, ‘‘भले ही मैं ने तुम्हारा साथ छोड़ दिया हो, मगर कुदरत तुम्हारे साथ है बेटा. मुझे खुशी है कि तुम्हें इतनी अच्छी जिंदगी मिली.’’

3 घंटों के मांबेटे के मिलाप के बाद उसे वहां से निकलना ही पड़ा. उस ने मां को अपना नंबर दिया और जब भी फुरसत मिले कौल करने को कहा. मां अपना नंबर देने के लिए झिझक रही थी. उसे डर था कि अपने पति और बच्चों के सामने यदि इस बेटे की कौल आई तो क्या करेगी? तब रंजीत ने समझाया. फिर उस ने न ही मां के नंबर के लिए जिद की और न ही ऐड्रैस पूछा.

3 महीने बीत गए. न मां का फोन आया और न कोई खबर मिली. रंजीत निराश था. दोस्त के सामने अपनी निराशा व्यक्त भी की, ‘‘मैं तो सोचता था मेरी मां भी मेरी ही तरह बेटे को देखने के लिए तरस रही होगी. अगर वह मेरे जन्म के कारण इस दुनिया की कू्ररता का शिकार हुई होगी तो मैं उसे अपने साथ रखने के लिए भी तैयार था. अगर उस के अपने परिवार में किसी चीज की जरूरत हो तो मैं उसे पूरा करने के लिए भी तैयार था, मगर वह तो अपनेआप में ही मगन है. मेरे बारे में सोचने के लिए भी तैयार नहीं है.’’

‘‘तुझे बुरा न लगे तो इस का जवाब दूं?’’

‘‘यही न कि मैं पागल हूं?’’

‘‘अगर वह तुम से प्यार करती या तुम्हारे लिए तरसती तो तुम्हें छोड़ती क्यों? वह दुनिया की क्रूरता का शिकार तब होती, जब वह तुम्हें साथ रखती. इस से बचने के लिए ही तो उस ने तुम्हें छोड़ा. इस का मतलब तो यही हुआ न कि उसे अपनी जिंदगी के सुकून से प्यार था. आज भी वह सिक्योर्ड है अपने परिवार में. उन के कानों में तुम्हारे बारे में भनक भी नहीं पड़ने देगी. अच्छा हुआ जो रास्ते में छोड़े जाने पर भी तू भिखारी नहीं बना.’’

‘‘हां, मम्मीपापा ही मेरे लिए सबकुछ हैं. मगर मां मुझ से मिली क्यों? आखिर यह राज उस ने जाहिर क्यों किया?’’

‘‘डर कर.’’

‘‘सच…?’’

‘‘और नहीं तो क्या? जो लड़का 25 साल बाद भी न जाने कहांकहां से पता

लगा कर अपने जन्मस्थान तक पहुंच गया,

क्या जाने वह कल को उस के घर तक पहुंच

गया तो? उस की तो बसीबसाई गृहस्थी बिखर जाएगी यार.’’

रंजीत मायूस हो गया. समीर ने उसे गले लगा कर कहा, ‘‘जाने दे छोड़… पूरी दुनिया ही मतलबी है.’’

और 3 महीने बीत गए. रंजीत मां को धीरेधीरे भूलने लगा. उस रात उस के मोबाइल पर अनजान नंबर से कौल आई. रंजीत ने तीसरी बार रिंग होने पर उठाया.

‘‘मैं राजेश्वरी बोल रही हूं. कैसे हो बेटा?’’

‘‘मां, बड़े दिनों बाद इस गरीब की याद कैसे आई?’’ वह खुशी से उछल रहा था.

‘‘सौरी बेटा, घरगृहस्थी के झंझट तो तुम जानते ही हो. तुम ठीक तो हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं मां. आप कैसी हैं?’’

‘‘हमारा क्या है बेटा, बस जैसेतैसे जिंदगी काट रहे हैं. तुम जरा मेहरबानी दिखा दो तो हम भी जरा चैन की सांस लेंगे.’’

‘‘क्या बात है मां?’’

‘‘मेरा बेटा राजीव पिछले हफ्ते तुम्हारी ही कंपनी में इंटरव्यू देने आया था. उस इंटरव्यू कमेटी में तुम भी थे. मेरे बेटे ने तुम्हारा नाम बताया. तुम जरा बड़ा दिल दिखा कर अपने भाई को चुन लोगे तो तुम्हारी मां जिंदगीभर इस एहसान को नहीं भूलेगी बेटा.’’

‘‘मैं कुछ नहीं कह सकता मां. यह मुझ अकेले के फैसले पर निर्भर नहीं है. वैसे मेरे भाई को मेरे बारे में बताया है आप ने?’’

‘‘जो बातें मुंह से नहीं कह सकते, मन

ही उन्हें बता देता है बेटा… तुम उस कंपनी में इतने बड़े ओहदे पर हो… तुम्हारे लिए मुश्किल क्या है बेटा?’’

रंजीत ने फोन काट दिया.

‘‘क्या बात है?’’ समीर ने पूछा.

टीवी पर महाभारत आ रहा था, जिस में कुंती करण से युद्ध में पाडवों को खासकर अर्जुन को कोई हानि न पहुंचाने का वचन मांग रही थी,’’ रंजीत उसी दृश्य की ओर इशारा कर बोला, ‘‘यही.’’

Family Story : आखिर किस से भाग रही थी वो लड़की

Family Story : फरीदाबाद बसअड्डे पर बस खाली हो रही थी. जब वह बस में बैठी थी तो नहीं सोचा था कहां जाना है. बाहर अंधेरा घिर चुका था. जब तक उजाला था, कोई चिंता न थी. दोपहर से सड़कें नापती, बसों में इधरउधर घूमती रही. दिल्ली छोड़ना चाहती थी. जाना कहां है, सोचा न था. चार्ल्स डिकेन्स के डेविड कौपरफील्ड की मानिंद बस चल पड़ी थी. भूल गई थी कि वह तो सिर्फ एक कहानी थी, और उस में कुछ सचाई हो भी तो उस समय का समाज और परिस्थितियां एकदम अलग थीं. वह सुबह स्कूल के लिए सामान्यरूप से निकली थी. पूरा दिन स्कूल में उपस्थित भी रही. अनमनी थी, उदास थी पर यों निकल जाने का कोई इरादा न था. छुट्टी के समय न जाने क्या सूझा. बस्ता पेड़ पर टांग कर गई तो थी कैंटीन से एक चिप्स का पैकेट लेने, लेकिन कैंटीन के पास वाले छोटे गेट को खुला देख कर बाहर निकल आई. खाली हाथ स्कूल के पीछे के पहाड़ी रास्ते पर आ गई. कहां जा रही है, कुछ पता न था. कुछ सोचा भी नहीं था. बारबार, बस, मां के बोल मस्तिष्क में घूम रहे थे.

अंधेरा घिरने पर जी घबराने लगा था. अब कदम वापस मोड़ भी नहीं सकती थी. मां का रौद्र रूप बारबार सामने आ जाता था. उस गुस्से से बचने के लिए ही वह निकली थी. निकली भी क्या, बस यों लगा था जैसे कुछ देर के लिए सबकुछ से बहुत दूर हो जाना चाहती है, कोई बोल न पड़े कान में…

पर अब कहां जाए? उसे किसी सराय का पता न था. जो पैसे थे, उन से उस ने बस की टिकट ली थी. अंधेरे में बस से उतरने की हिम्मत न हुई. चुपचाप बैठी रही. कुछ ऐसे नीचे सरक गई कि आगे, पीछे से खड़े हो कर देखने पर किसी को दिखाई न दे. सोचा था ड्राइवर बस खड़ी कर के चला जाएगा और वह रातभर बस में सुरक्षित रह सकेगी.

बाहर हवा में खुनक थी. अंदर पेट में कुलबुलाहट थी. प्यास से होंठ सूख रहे थे. पर वह चुपचाप बैठी रही. नानीमामी बहुत याद आ रही थीं. घर से कोई भी कहीं जाता, पूड़ीसब्जी बांध कर पानी के साथ देती थीं. पर वह कहां किसी से कह कर आई थी. न घर से आई थी, न कहीं जाने को आई थी. बस, चली आई थी.

किसी के बस में चढ़ने की आहट आई. उस ने अपनी आंखें कस कर भींच लीं. पदचाप बहुत करीब आ गई और फिर रुक गई. उस की सांस भी लगभग रुक गई. न आंखें खोलते बन रहा था, न बंद रखी जा रही थीं. जीवविज्ञान में जहां हृदय का स्थान बताया था वहां बहुत भारी लग रहा था. गले में कुछ आ कर फंस गया था. वह एक पल था जैसे एक सदी. अनंत सा लगा था.

‘‘कौन हो तुम? आंख खोलो,’’ कंडक्टर सामने खड़ा था, ‘‘मैं तो यों ही देखने चढ़ गया था कि किसी का सामान वगैरा तो नहीं छूट गया. तुम उतरी क्यों नहीं? जानती नहीं, यह बस आगे नहीं जाएगी.’’ उस के चेहरे का असमंजस, भय वह एक ही पल में पढ़ गया था, ‘‘कहां जाओगी?’’

उस समय, उस के मुंह से अटकते हुए निकला, ‘‘जी…जी, मैं सुबह दूसरी बस से चली जाऊंगी, मुझे रात में यहीं बैठे रहने दीजिए.’’

‘‘जाना कहां है?’’

…यह तो उसे भी नहीं पता था कि जाना कहां है.

कुछ जवाब न पा कर कंडक्टर फिर बोला, ‘‘घर कहां है?’’

यह वह बताना नहीं चाहती थी, डर था वह घर फोन करेगा और उस के आगे की तो कल्पना से ही वह घबरा गई. बस, इतना ही बोली, ‘‘मैं सुबह चली जाऊंगी.’’

‘‘तुम यहां बस में नहीं रह सकती, मुझे बस बंद कर के घर जाना है.’’

‘‘मुझे अंदर ही बंद कर दें, प्लीज.’’

‘‘अजीब लड़की हो, मैं रातभर यहां खड़ा नहीं रह सकता,’’ वह झल्ला उठा था, ‘‘मेरे साथ चलो.’’

कोई दूसरा रास्ता न था उस के पास. इसलिए न कोई प्रश्न, न डर, पीछेपीछे चल पड़ी. बसअड्डे तक पहुंचे तो कंडक्टर ने इशारा कर एक रिकशा रुकवाया और बोला, ‘‘बैठो.’’ रिकशा तेज चलने से ठंडी हवा लगने लगी थी. कुछ हवा, कुछ अंधेरा, वह कांप गई.

उस की सिहरन को सहयात्री ने महसूस करते हुए भी अनदेखा किया और फिर एक प्रश्न उस की ओर उछाल दिया, ‘‘घर क्यों छोड़ कर आई हो?’’

‘‘मैं वहां रहना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कोई मुझे प्यार नहीं करता, मैं वहां अनचाही हूं, अवांछित हूं.’’

‘‘सुबह कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कहां रहोगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कोई तो होगा जो तुम्हें खोजेगा.’’

‘‘वे सब खोजेंगे.’’

‘‘फिर?’’

‘‘परेशान होंगे, और मैं यही चाहती हूं क्योंकि वे मुझे प्यार नहीं करते.’’

‘‘तुम सब से ज्यादा किसे प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी नानी से, मैं 3 महीने की थी जब मेरी मां ने मुझे उन के पास छोड़ दिया.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘मथुरा में.’’

‘‘तो मथुरा ही चली जाओ?’’

‘‘मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं.’’ अब वह लगभग रोंआसी हो उठी थी.

वह ‘हूंह’ कह कर चुप हो गया था.

हवा को चीरता मोड़ों पर घंटी टुनटुनाता रिकशा आगे बढ़ता रहा और जब एक संकरी गली में मुड़ा तो वह कसमसा गई थी. आंखें फाड़ कर देखना चाहा था घर. घुप्प अंधेरी रात में लंबी पतली गली के सिवा कुछ न दिखा था. कुछ फिल्मों के खौफनाक दृश्यों के नजारे उभर आए थे. देखी तो उस ने ‘उमराव जान’ भी थी.

आवाज से उस की तंद्रा टूटी. ‘‘बस भइया, इधर ही रोकना,’’ उस ने कहा तो रिकशा रुक गया और उन के उतरते ही अपने पैसे ले कर रिकशेवाला अंधेरे को चीरता सा उसी में समा गया था. वह वहां से भाग जाना चाहती थी.

कंडक्टर ने उस का हाथ पकड़ एक दरवाजे पर दस्तक दी थी. सांकल खटखटाने की आवाज सारी गली में गूंज गई थी.

भीतर से हलकी आवाज आई थी, ‘‘कौन?’’

‘‘दरवाजा खोलो, पूनम,’’ और दरवाजा खोलते ही अंदर का प्रकाश क्षीण हो सड़क पर फैल गया. उस पर नजर पड़ते ही दरवाजा खोलने वाली युवती अचकचा गई थी. एक ओर हट कर उन्हें अंदर तो आने दिया पर उस का सारा वजूद उसे बाहर धकेल रहा था.

दरवाजा एक छोटे से कमरे में खुला था, ठीक सामने एक कार्निस पर 2 फूलदान सजे थे, बीच में कुछ मोहक तसवीरें. एक कोने में एक छोटा सा रैक था जिस पर कुछ डब्बे थे, कुछ कनस्तर, एक स्टोव और कुछ बरतन, सब करीने से लगे थे. एक ओर छोटा पलंग जिस पर साफ धुली चादर बिछी थी और 2 तकिए थे. चादर पर कोई सिलवट तक न थी.

कुल मिला कर कम आय में सुचारु रूप से चल रही सुघड़ गृहस्थी का आदर्श चित्र था. वह भी ऐसा ही चित्र बनाना चाहती थी. बस, अभी तक उस चित्र में वह अकेली थी. अकेली, हां यही तो वह कह रहा था. ‘‘पूनम, यह लड़की बसअड्डे पर अकेली थी. मैं साथ ले आया. सुबह बस पर बिठा दूंगा, अपनी नानी के घर मथुरा चली जाएगी.’’

युवती की आंखों में शिकायत थी, गरदन की अकड़ नाराजगी दिखा रही थी. वह भी समझ रहा था और शायद स्थिति को सहज करने की गरज से बोला, ‘‘अरे, आज दोपहर से कुछ नहीं खाया, कुछ मिलेगा क्या?’’ युवती चुपचाप 2 थालियां परोस लाई और पलंग के आगे स्टूल पर रखते हुए बोली, ‘‘हाथमुंह धो कर खा लो, ज्यादा कुछ नहीं है. बस, तुम्हारे लिए ही रखा था.’’

दोपहर से तो उस ने भी कुछ नहीं खाया था किंतु इस अवांछिता से उस की भूख बिलकुल मर गई थी. घर का खाना याद हो आया, सब तो खापी कर सो गए होंगे, शायद. क्या कोई उस के लिए परेशान भी हो रहा होगा? जैसेतैसे एक रोटी निगल कर उस ने कमरे के कोने में बनी मोरी पर हाथ धो लिए और सिमट कर कमरे में पड़ी इकलौती प्लास्टिक की कुरसी पर बैठ गई.

पूनम नाम की उस युवती ने पलंग पर पड़ी चादर को झाड़ा और चादर के साथ शायद नाराजगी को भी. फिर जरा कोमल स्वर में बोली, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा, घर क्यों छोड़ आई?’’

‘‘जी’’ कह कर वह अचकचा गई. ‘‘नहीं बताना चाहती, कोई बात नहीं. सो जाओ, बहुत थकी होगी.’’ शायद वह उस की आंखों के भाव समझ गई थी. एक ही पलंग दुविधा उत्पन्न कर रहा था. तय हुआ महिलाएं पलंग पर सोएंगी और वह आदमी नीचे दरी बिछा कर.

वे दोनों दिनभर के कामों से थके, लेटते ही सो गए थे. हलके खर्राटों की आवाजें कमरे में गूंजने लगीं. उस की आंख में तो नींद थी ही नहीं, प्रश्न ही प्रश्न थे. ऐसे प्रश्न जिन का वह उत्तर खोजती रही थी सदा. वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी.

अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी. सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था.

और कल तो हद ही हो गई थी. स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे.

मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’

‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा.

काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है. वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे.

उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी.

गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.

बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.

वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.

खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.

आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी.

रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था. इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला था उसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.

रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’

वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था. वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.

उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.

आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.

मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.

मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.

कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है. सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई.

अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था. अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झ्ंिझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.

आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी.

‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.

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