कुंआरी मां : राहिल और सिराज की कहानी

शाम का सुहाना मौसम था. राहिल रोजाना की तरह ट्यूशन पढ़ने जा रही थी कि अचानक एक खूबसूरत नौजवान लड़का तेज रफ्तार में बाइक चलाता हुआ उस के बगल से गुजरा.

राहिल जोर से चिल्लाते हुए बोली, ‘‘पागल हो क्या, जो इतनी तेज गाड़ी चला रहे हो… आतेजाते लोगों का कुछ तो खयाल करो.’’

बाइक सवार कुछ दूर जा कर बाइक रोकते हुए बोला, ‘‘पूरी सड़क पर आप का राज है क्या, जो बीच रोड पर चल रही हो?’’

राहिल ने कहा, ‘‘लगता है कि यह सड़क आप के अब्बा ने बनवाई है, जो आंधी की तरह बाइक चला रहे हो.’’

बाइक सवार बोला, ‘‘सड़क तो मेरे अब्बा ने ही बनवाई है, क्योंकि मैं इस गांव के प्रधान शौकत अली का बेटा सिराज हूं.’’

राहिल भी कहां कम थी, बोली, ‘‘तभी इतना घमंड आप के अंदर भरा है, जो राह चलते लोगों की भी परवाह नहीं है.’’

सिराज ने कहा, ‘‘मैडम, यह घमंड नहीं, बल्कि मेरा बाइक चलाने का शौक है और तेज गाड़ी चलाने का हुनर भी. आज तक कोई नहीं कह सकता कि सिराज से किसी तरह का कोई हादसा हुआ हो.

‘‘वैसे, आप इस गांव में नई लगती हो, जो मुझे इस तरह डांट रही हो, वरना मुझे देख कर लोग सिर्फ मेरी तारीफ ही करते हैं.’’

राहिल बोली, ‘‘बेवकूफ हैं वे लोग, जो एक सिरफिरे की तारीफ करते हैं और इस तरह बाइक चलाने से आनेजाने वालों को ही नहीं, बल्कि खुद को भी नुकसान पहुंचा सकता है.’’

सिराज ने कहा, ‘‘आप मेरी फिक्र न करें, मैं अपने हुनर में माहिर हूं.’’

राहिल भी जवाब देते हुए बोली, ‘‘फिक्र नहीं कर रही हूं, बल्कि मैं आप को चेतावनी दे रही हूं कि अपनी नहीं तो अपने मांबाप की परवाह करो. किसी दिन आप के साथ कोई हादसा हो गया, तो आप के मांबाप पर क्या गुजरेगी… क्या हाल होगा उन का…’’

राहिल के मुंह से यह बात सुन कर सिराज यह सोचने पर मजबूर हो गया कि वाकई उस के अम्मीअब्बा उस से कितना प्यार करते हैं. अगर उसे कुछ हो गया तो वे तो जीतेजी मर जाएंगे.

सिराज ने राहिल से कहा, ‘‘मुझे माफ करना. मैं ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था कि मेरी जिंदगी पर मेरे मांबाप का भी हक है. वे मुझे लगी एक मामूली सी खरोंच से परेशान हो उठते हैं. वैसे, आप हैं कौन और यहां कहां रहती हैं?’’

राहिल ने बताया, ‘‘मैं युसूफ पटवारी की बेटी राहिल हूं, जो अभी कुछ महीने पहले ही यहां आ कर बसे हैं.’’

जैसे ही राहिल ने अपना नकाब हटाया, तो सिराज उस के खूबसूरत चेहरे को बस देखता ही रहा. राहिल उसे एक प्यारी सी मुसकान दे कर अपने रास्ते पर चली गई.

सिराज पहले तो उसे ठगा सा देखता रहा, पर फिर थोड़ी देर बाद उस ने बाइक स्टार्ट की और राहिल से बात करने के इरादे से उस के पीछे गया, पर तब तक वह कहीं गायब हो चुकी थी.

सिराज एक हैंडसम और हट्टाकट्टा लड़का था. आज वह राहिल को देख कर उस का दीवाना हो गया था.

उस रात सिराज की आंखों से नींद कोसों दूर थी. उस की आंखों के सामने बस राहिल ही घूम रही थी.

राहिल का सिराज को डांटना उस के दिल पर एक गहरी छाप छोड़ गया था, जबकि आज तक गांव में न जाने कितनी लड़कियां सिराज को पाने के लिए बेताब रहती थीं, पर उस ने आज तक किसी को भाव नहीं दिया था.

अगले दिन सिराज राहिल की एक झलक पाने और उस से अपने दिल की बात कहने के लिए उसी रास्ते पर जा

कर खड़ा हो गया, जहां वह कल उसे मिली थी. काफी इंतजार करने के बाद राहिल अपनेआप को नकाब में ढक कर उस रास्ते से गुजरती हुई नजर आई, तो सिराज भी उस के पीछेपीछे चल दिया.

राहिल सिराज को अपने पीछे आते देख एक सुनसान जगह पर रुकते हुए बोली, ‘‘जनाब, आप मेरा पीछा क्यों कर रहे हैं?’’

सिराज झिझकते हुए बोला, ‘‘आप बहुत खूबसूरत हो. मैं आप से प्यार

करता हूं.’’

राहिल बोली, ‘‘पर, मैं तो आप से प्यार नहीं करती.’’

सिराज ने कहा, ‘‘मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’

राहिल ने जवाब दिया, ‘‘आज तक तो मेरे बिना ही रह रहे थे.’’

सिराज बोला, ‘‘तब मैं ने आप को देखा नहीं था और न ही कभी किसी ने मुझे इस कदर तेज गाड़ी चलाने पर डांट कर समझाया था, जिस में एक मां की ममता भी थी और एक जीवनसाथी की परवाह भी.’’

राहिल ने कहा, ‘‘वह तो मैं ने आप को किसी बड़े हादसे का शिकार होने से बचाने के लिए बोला था.’’

सिराज बोला, ‘‘बस, यही वजह है. उसी समय आप ने मेरे दिल को जीत लिया था और मैं आप का दीवाना बन गया था.’’

राहिल ने साफसाफ कहा, ‘‘पर, मैं आप से प्यार नहीं करती.’’

सिराज ने जिद में आ कर कहा, ‘‘अगर आप मुझ से प्यार नहीं करेंगी, तो मैं अपनी जान दे दूंगा.’’

राहिल ने कहा, ‘‘ऐसी बातें नहीं करते. मुझे थोड़ा समय दो. मैं एकदम से कैसे हां कर सकती हूं…’’

सिराज बोला, ‘‘ठीक है, कल इसी समय या तो तुम मेरे प्यार को कबूल कर लेना, वरना तुम्हारे सामने ही मैं अपनी जान दे दूंगा.’’

राहिल भी मन ही मन सिराज को चाहने लगी थी, पर उस ने यह कभी नहीं सोचा था कि सिराज उसे इस कदर प्यार करने लगा है कि उस के न मिलने पर वह अपनी जान देने पर भी उतारू हो जाएगा.

अगले दिन सिराज समय से पहले ही राहिल के आने के इंतजार में वहीं खड़ा हो गया. उस का एकएक पल कई घंटे की तरह बीत रहा था. वह कभी अपनी घड़ी देखता, तो कभी राहिल के आने की झलक बेताबी से देखता. आज उसे ऐसा लग रहा था, मानो समय कहीं थम गया हो, जैसे घड़ी अपनी जगह पर रुक गई हो.

तभी कुछ देर बाद राहिल आती हुई नजर आई, तो सिराज की जान में जान आ गई, पर अभी भी वह इसी उधेड़बुन में लगा था कि वह उसे हां में जवाब देगी या न में.

राहिल जब सिराज के पास से हो कर गुजरी, तो उस ने अपना नकाब हटाते हुए सिराज को एक मुसकान भरी नजर से देखा और सीधी आगे चल दी.

राहिल का ग्रीन सिगनल पाते ही सिराज खुशी से झूम उठा. वह भी राहिल के पीछेपीछे चल दिया और उस सुनसान जगह पर जा कर दोनों ने एकदूसरे से अपने प्यार का इजहार करते हुए गले से लगा लिया.

अब दोनों को एकदूसरे का फोन नंबर मिल चुका था. दोनों घंटों एकदूसरे से प्यारमुहब्बत की बातें करते और एकदूसरे से शादी करने के सपने संजोते.

दोनों अपनी जिंदगी में खुश थे कि उन के प्यार की कहानी पूरे गांव में फैलने लगी, तो राहिल के अब्बा को भी इस बात का पता चल गया. उन्होंने गुस्से में आ कर राहिल को घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी.

उधर जब सिराज को राहिल कहीं आतेजाते न मिली, तो वह पागलों की तरह उसे ढूंढ़ने लगा और जल्द ही राहिल के घर पहुंच गया.

सिराज ने राहिल के अब्बा को अपने और राहिल के प्यार के बारे में बताया, तो उन्हें गुस्सा आ गया और वे बोले, ‘‘तेरी हिम्मत कैसे हुई कि तू मेरी बेटी से मिलने मेरे ही घर तक आ गया…’’

सिराज ने कहा, ‘‘मैं राहिल से निकाह करना चाहता हूं. हम दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं.’’

यह सुनते ही राहिल भी अपने अब्बा के सामने आ गई और बोली, ‘‘अब्बा, मैं भी सिराज के बिना नहीं रह सकती और मैं इस से बहुत प्यार करती हूं.’’

राहिल के अब्बा समझ चुके थे कि बेटी पर जोरजबरदस्ती करने से कोई फायदा नहीं है.

राहिल के अब्बा सिराज से बोले, ‘‘बेटा, मुझे तुम दोनों के प्यार से कोई गिलाशिकवा नहीं है. तुम अपने अम्मीअब्बा को यहां भेज दो. अगर वे तुम्हारे लिए राहिल का रिश्ता मांगेंगे, तो मैं तैयार हूं.’’

यह सुनते ही सिराज खुशी से झूम उठा और उन से विदा ले कर अपने घर चला गया.

सिराज ने घर आ कर अम्मीअब्बा से अपने प्यार के बारे में बताया और कहा, ‘‘मैं राहिल से शादी करना चाहता हूं. आप मेरे लिए राहिल का हाथ मांगने उन के घर जाएं.’’

सिराज की बात सुन कर पहले

तो उस के अब्बा ने नानुकर की, पर सिराज की जिद और उस की अम्मी के जोर देने पर उन्हें अपने एकलौते बेटे

की बात माननी पड़ी और वे सिराज के लिए राहिल का हाथ मांगने उस के घर चले गए.

राहिल और सिराज के अब्बा दोनों अपने बच्चों की मुहब्बत के आगे झुक गए और राहिल के अब्बा ने सिराज से शादी करने के लिए एक साल का समय इस शर्त पर मांगा कि राहिल की तब तक पढ़ाई पूरी हो जाएगी और उसे बीच में पढ़ाई छोड़ कर शादी के बंधन में नहीं बंधना पड़ेगा.

सिराज के अब्बा इस बात के लिए भी राजी हो गए और दोनों की शादी की बात पक्की हो गई.

सिराज और राहिल का रिश्ता तय होने के बाद अब वे दोनों खूब घूमते और आपस में बातचीत कर के अपनी शादी के सपने संजोते.

शाम का समय था. सिराज राहिल को घुमाने अपने खेत पर ले गया, जहां उन की फसल लहलहा रही थी. जून का महीना था. आम के पेड़ पर कच्चे आम लगे थे, जिन्हें सिराज ने तोड़ कर राहिल को दिए राहिल खट्टे आम बड़े मजे से खा रही थी. दोनों खेतखलिहान की हवा का मजा ले रहे थे, तभी तेज आंधी आई और बारिश शुरू हो गई.

बारिश से बचने के लिए राहिल और सिराज खेत में बनी कोठरी के अंदर चले गए, जिस में काफी अंधेरा था. राहिल अंधेरा देख कर घबराने लगी कि तभी बिजली की गड़गड़ाहट से वह घबरा कर सिराज से चिपक गई.

राहिल की छुअन पाते ही सिराज के बदन में भी बिजली दौड़ने लगी. उस ने आज तक किसी लड़की के बदन को छुआ तक नहीं था. दोनों ऐसे चिपक गए, जैसे किसी पेड़ से कोई अमरबेल.

सिराज राहिल के उभरे हुए सीने को अपने सीने पर महसूस कर रहा था. उस के बदन में गरमी आने लगी. उस ने अपने गरम होंठ राहिल के कंपकंपाते होंठों पर रख दिए.

राहिल सिराज के होंठों की छुअन पाते ही सिहर उठी कि तभी सिराज राहिल के होंठों को चूमने लगा. फिर उस ने राहिल को जमीन पर लिटा दिया और उस की गरदन पर चुंबनों की बौछार

कर दी.

सिराज की इस हरकत से राहिल कामुक हो उठी. उस ने सिराज को

अपने ऊपर खींचते हुए अपनी बांहों में भर लिया.

सिराज ने मोके की नजाकत को समझते हुए बिना समय गंवाए राहिल के कपड़े उतारने शुरू कर दिए और उस पर हावी हो गया. फिर उन दोनों ने एकदूसरे के बदन की गरमी को शांत कर दिया.

राहिल और सिराज आज दोनों खुश थे. उन्होंने एकदूसरे के बदन से पहली बार एक ऐसा सुख भोगा था, जिस से वे अनजान थे.

बारिश रुक चुकी थी. उन दोनों ने जल्दीजल्दी कपड़े पहने और अपनेअपने अपने घर आ गए.

इस घटना को अभी एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन राहिल को एक दुखभरी घटना सुनने को मिली.

हुआ यों था कि एक दिन सिराज राहिल से मिलने की खुशी में तेज रफ्तार से बाइक चला कर उस के घर आ रहा था कि तभी एक मोड़ पर सामने से अचानक ट्रक आ गया. टक्कर इतनी तेज थी कि सिराज ने वहीं दम तोड़ दिया.

राहिल अभी सिराज के जाने का गम भुला भी नहीं सकी थी कि उसे एक दिन तेज चक्कर आया और वह वहीं गिर पड़ी. घर वालों ने जब उसे डाक्टर को दिखाया तो पता चला कि वह एक महीने के पेट से है.

यह सुन कर राहिल के घर वाले दंग रह गए. उन्होंने इस बदनामी से बचने

के लिए राहिल को बच्चा गिराने की सलाह दी.

राहिल को जब अपने पेट से होने का पता चला और उस के घर वालों ने उसे बच्चा गिराने के लिए कहा, तो राहिल ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया.

राहिल की अम्मी ने उसे बहुत समझाया, ‘‘क्या तुम कुंआरी मां बन कर हमारी इज्जत उछालना चाहती हो? कुछ तो शर्म करो…’’

राहिल बोली, ‘‘मैं ने सिराज से सच्ची मुहब्बत की है. मैं अपने प्यार की निशानी को नहीं खो सकती. दुनिया क्या कहती है, मुझे परवाह नहीं. मैं अपने प्यार की निशानी को इस दुनिया में जरूर लाऊंगी.’’

आखिरकार वह समय भी आ गया, जब राहिल ने अपने प्यार की निशानी सिराज के बेटे को जन्म दिया, जिस से उसे बड़ी खुशी मिली और वह एक कुंआरी मां बन गई.

राहिल ने दुनिया की परवाह न करते हुए अपने प्यार की निशानी को दुनिया

में लाने के लिए कई ताने सहे, कई

लोगों ने उस की बुराई की, उस के मांबाप को भी काफी रुसवाई का सामना करना पड़ा, पर राहिल ने सिराज की इस आखिरी निशानी को दुनिया में लाने के लिए कुंआरी मां बनना पसंद किया. वह जिंदगीभर बिनब्याही मां रही.

एक सवाल : सुमित्रा की कामकाजी जिंदगी

अभी तक मामा अस्पताल से नहीं लौटे थे. मामी बड़ी बेचैनी से बारबार हर आनेजाने वाली गाड़ी के रुकने की आवाज सुन कर दरवाजे की ओर भागतीं और निराश हो कर फिर लौट आतीं.

दीपक ने मामी से कहा, ‘‘मामी, कब तक इंतजार कीजिएगा, पकौड़े बिलकुल ठंडे हो जाएंगे. अब आप भी खाना खा लीजिए. कोई मरीज आ गया होगा.’’

‘‘नहीं, इतनी देर तो वे कभी नहीं लगाते. आज तो कोई बड़ा आपरेशन भी नहीं करना था. पता नहीं, क्यों…’’ इतना कह कर मामी बिस्तर पर लेट कर एक पत्रिका पलटने लगीं.

उधर, सुमित्रा ड्राइंगरूम से मामी के चेहरे को एकटक निहार रही थी. मामी के चेहरे पर डर, चिंता और शक के मिलेजुले भाव उभरे थे. अकसर ऐसी हालत में यह सब देख कर सुमित्रा के चेहरे का रंग उड़ जाता था. शायद मामी की चिंता उस की भी चिंता थी. मामी को खुश देख कर वह भी खुश होती थी.

सुमित्रा ने अपने कामकाज से मामी का मन मोह लिया था. वह मामी को तो एक भी काम नहीं करने देती थी. खुद झपट कर उन का काम करने लग जाती थी. तब मामी दुलार से उसे ऐसे देखतीं, जैसे कह रही हों, ‘तुम मेरी कोख से क्यों नहीं जनमी?’

इतने में मामाजी आ गए. उन के हाथों में ढेर सारी मालाओं को देख कर मामी अचरज से भर उठीं. मामी कुछ पूछें, इस से पहले मालाओं का ढेर टेबल पर रखते हुए मामा ने बताया कि वे अंबेडकर जयंती में गए थे.

सुमित्रा फूलों को बड़े प्रेम से निहार रही थी. उस के पल्ले मामा की बात नहीं पड़ी.

‘‘वह क्या बाई?’’ उस ने पूछा.

‘‘अरे, छोटी जाति वालों ने साहब को बुलाया था. उन्हीं ने इन को माला पहनाई है. वे सब साहब को बहुत मानते हैं. ऊंचनीच, छोटी जाति, बड़ी जाति में हम लोग भेद नहीं करते. समझी?’’ मामी ने चहक कर कहा.

‘‘सच बाई?’’ सुमित्रा के पूछने में अचरज, शक और भरोसा, तीनों का मिलान था.

‘‘हांहां, एकदम सच,’’ मामी ने कहा.

उसी दिन शाम को कुछ लोगों का जुलूस जा रहा था. दूर से कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे कौन लोग हैं और क्या चिल्ला रहे हैं. मामी को जब कुछ समझ में नहीं आया, तो जुलूस में जा रहे एक लड़के को बुला कर उन्होंने पूछा.

वह ‘जलगार जना, जलगार जना,’ कह कर चला गया. मामी ‘जलगार जना’ का मतलब नहीं समझ पाईं. उन्होंने सुमित्रा से पूछा.

तब पलभर के लिए सुमित्रा सकपका गई. मामी को ताकते हुए दोनों हाथ उस ने इनकार में नचा दिए. शायद मामी की पेशानी पर चिड़चिड़ाहट भरी सिलवटें उभरी देख कर वह सहम गई थी या ‘जलगार जना’ शब्द की पहचान तक से अपने को अलग रखना चाहती थी.

दरअसल, सुमित्रा काम बड़ा अच्छा करती थी. अकसर उस के काम की बड़ाई मामी बड़े साफ दिल से अपनी सखीसहेलियों के बीच करती रहती थीं. इस का नतीजा यह हुआ कि उस से फायदा उठाने के लिए मामी की एक सहेली सीता ने उसे चुपके से फोड़ लेना चाहा.

एक दिन जब मामी के घर से काम निबटा कर सुमित्रा अपने घर जा रही थी, तभी रास्ते में खड़ी सीता उसे अपने घर ले गई. कुछ लगाईबुझाई की और अगले महीने से ज्यादा तनख्वाह पर काम करने के लिए राजी कर लिया जैसा कि अकसर लोग नौकरानी रखने से पहले करते हैं.

सीता एक दिन चुपके से सुमित्रा के पीछेपीछे गई. उसे शक था कि कहीं पूछने पर गलत घर न दिखा दे. गली तक उस के पीछे पैदल चलने के बाद उस ने एक घर में उसे घुसते देखा. वह उसी समय तेज चल कर उस के सामने पहुंची और पूछ बैठी, ‘‘तुम यहां रहती हो?’’

‘हां,’ में जवाब सुन कर सीता वहां से जल्दी हट गई, जैसे अंधे कुएं में गिरतेगिरते बची हो. उस के मन में एक खलबली सी थी, जिसे कहने के लिए वह बेचैन थी.

सीता दूसरे ही दिन मामी के पास आई और बोली, ‘‘देखिए, बुरा मत मानिएगा. आप की नौकरानी एक दिन मेरे घर आई और कहने लगी कि भूखी हूं. उस वक्त तो घर में कुछ था नहीं, इसलिए मैं ने होटल से मिठाई और डोसा मंगवा कर खिला दिया. पर वह तो खा भी नहीं रही थी. कह रही थी कि छोटे भाई के लिए घर ले जाऊंगी. फिर कहने लगी कि मेरा लहंगा फटा है. मुझे तरस आ गया और अपनी एक मैक्सी दे दी.’’

इतना सुनना था कि मामी गुस्से में उबलने लगीं. उन का तमतमाता चेहरा देख कर सीता असली बात तेजी से कह गई, ‘‘अरे, वह एससी कास्ट वाले सफाई का काम करते हैं.

मैं तो उस का घर चुपके से देख आई हूं. फिर, मैं ने चौकीदार को भी भेज कर पता लगवाया. वह भी यही कह रहा था.’’

ये बातें सुनने के बाद भी मामी के चेहरे पर कोई तीखे भाव नहीं दिखे, तो सीता सपाट शब्दों में कहने लगी, ‘‘मैं तो इन लोगों से काम नहीं करा सकती, क्योंकि ये लोग बहुत गंदे होते हैं.’’

तब भी मामी को गुस्सा उस के एससी होने पर नहीं के बराबर और अपनी सहेली पर ज्यादा हो रहा था. वे तो सोच रही थीं, ‘कैसी सहेली है? भला सुमित्रा क्या जाने इस का घर? आज तक उन से तो उस ने कभी मजाक में भी ‘भूख लगी है’ नहीं कहा. इस के घर जा कर क्यों कहेगी? जरूर उस ने काम करने से इनकार कर दिया होगा, तभी यह लगाईबुझाई कर रही है.’

मामी को सहीगलत तो सूझ नहीं रहा था. अलबत्ता, सहेली के सामने वे अपने को बड़ा शर्मिंदा महसूस कर रही थीं. ठीक उसी तरह जब छोटा बच्चा पड़ोस में जा कर ‘भूख लगी है, कुछ खाने को दो,’ कह कर मां को शर्मिंदा करता है.

इस झेंप को ढकने के लिए मामी अपनी सहेली से पूछने लगीं, ‘‘एससी होने का क्या सुबूत है तुम्हारे पास?’’

सीता तपाक से बोली, ‘‘अरे, क्या इस की दादी को नहीं देखा? रोज सिर पर एक टोकरी रख कर निकलती है. रास्तेभर कागज बटोरती, प्लास्टिक का टूटाफूटा सामान कूड़े से ढूंढ़ती इसी रास्ते से जाती है. ये जितनी औरतें सिर पर टोकरी रख कर निकलती हैं, सब छोटी जात हैं.’’

‘‘उसी वक्त एक औरत सिर पर टोकरी रखे सामने से आती दिखाई पड़ी. मामी ने सीता से पूछा, ‘‘क्या यह औरत भी?’’

‘‘हांहां, यह भी. अभी देखिएगा,’’ सीता ने कहा.

तभी वह औरत सड़क के उस पार वाले घर में घुस गई और टोकरी नीचे रख कर घर की मालकिन को बुलाने लगी. पता लगा कि वह तो सब्जी बेचने वाली थी. तब सीता ने कई और दलीलें दीं, पर मामी ने तो यह मान लिया था कि सीता झूठी है.

सुमित्रा को अचानक हटा देने का डर भी मामी के मन में कहीं न कहीं था. एक तो जल्दी नौकरानी मिलती नहीं, दूसरे एससी मान कर हटाना भी तो गलत होगा.

अब सीता की एकएक बात मामी की समझ में आने लगी. अपनी सहेली द्वारा लगाए गए जाति के लांछन की सचाई भी उन्होंने देख ही ली थी. वे मुसकरा रही थीं कि सीता कैसे अपनी ही बात से झूठी साबित हो गई.

दूसरे दिन मामी ने सुमित्रा को डांटा, ‘‘मुझे क्यों नहीं बताया कि सीता ने तुझे मैक्सी दी है?’’

तब सीधीसादी सुमित्रा ने जोकुछ बताया, उस से सबकुछ साफ हो गया. उस ने बताया कि किस तरह सीता उसे घर ले गई. अहाते की सफाई कराई. पौधों की जड़ों में गोबर डलवाया और 3 घंटे की मजदूरी की एवज में उसे पैसे के बदले पुरानी मैक्सी दी और डोसा खिलाया. साथ में मामी को कुछ भी नहीं बताने की हिदायत भी दी.

यह सुन कर मामी चिढ़ कर सीता पर बुदबुदाने लगीं, ‘‘कौन कहता है उसे पागल? वह तो खुद दूसरों को पागल बना दे. वह तो दूसरों की हमदर्दी का नाजायज फायदा उठाती रहती है और इसी ओट में चालें भी चलती रहती है.’’

उस दिन के बाद सीता ने मामी के घर आना बंद कर दिया. मामी ने कई बार देखा कि वह पड़ोस के घरों में आतीजाती थी, पर मामी को इस बात का बिलकुल भी दुख या मलाल नहीं था कि वह उन के घर नहीं आती. उन्हें उस का दूर रहना ही अच्छा लग रहा था.

एक बार सड़क पर दीपक से सीता मिली थी. दीपक के पूछने पर सीता ने कहा था, ‘‘मैं तो तुम्हारी मामी के घर पानी भी नहीं पी सकती.’’

यह बात दीपक ने मामी से नहीं कही थी, क्योंकि उस से मामी के घाव फिर हरे होते. दीपक ऐसा नहीं चाहता था.

उस दिन सुमित्रा बड़ी लगन से मामी के पैर दबा रही थी और वह बड़े दुलार से उस की ओर देख रही थीं. उसे कुछ खोया देख मामी ने पूछा, ‘‘क्या बात है सुमित्रा?’’

वह हंस कर बोली, ‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ बात तो जरूर है. बड़ा सन्नाटा छाया है. बता, क्या बात है?’’

भोलीभाली सुमित्रा दुखभरी आवाज में कहने लगी, ‘‘बाई, उस जमाने में मेरी दादी को बड़े दुख उठाने पड़े थे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अब भी मेरी दादी बड़ी जाति वालों से डरती हैं.’’

‘‘यह बड़ी जाति और छोटी जाति क्या होती है?’’ मामी ने डपटा.

सुमित्रा बड़ी सावधान थी. साफसाफ न बता कर इशारों में बता रही थी, जैसे दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. वह बोली, ‘‘गांव में मेरी दादी को एक बार पुलिस वालों ने खूब मारा था.’’

फिर वह थोड़ा ठहर कर बोली, ‘‘शहर में डर नहीं है बाई.’’

मामी समझ नहीं पा रही थीं कि आखिर सुमित्रा कहना क्या चाह रही थी.

मामी को हैरानी में पड़ा देख सुमित्रा बोली, ‘‘गांव में तो दादी की परछाईं से भी लोग दूर भागते थे. यहां तो हम लोग मंदिर भी जाते हैं, कोई नहीं रोकता.’’

मामी ने पूछा, ‘‘तुम्हारी दादी गांव में करती क्या थीं?’’

‘‘सूअर चराती थीं,’’ जल्दी में या असावधानी में सुमित्रा के मुंह से सच निकल गया. फिर सफाई देते हुए वह बोली, ‘‘अब नहीं चराती हैं.’’

मामी तो मानो आसमान से धरती पर गिरी हों. वह अपने पैर उस के हाथों से धीरे से छुड़ा कर बैठ गईं. सीता की जानकारी में थोड़ा सा भी झूठ उन्हें दिखलाई नहीं पड़ रहा था. उन की आंखों के सामने वह सीन भी घूम गया, जब उन्होंने ‘जलगार जना’ का मतलब सुमित्रा से पूछा था, तब उस का चेहरा फक्क पड़ गया था. उन्होंने भी इधर जवान लड़कियों और औरतों को सड़क से कचरा बीनते देखा था, लेकिन उन में से किसी ने कभी आपस में बातचीत नहीं की थी. उन्हें इतमीनान होता चला गया था कि ये एससी होतीं, तो आपस में बोलतीं जरूर, पर नहीं.

आज मामी को याद आ रहा था उन लड़कियों को देख कर सुमित्रा या तो ठिठक कर कठोर चेहरा बना लेती थी या दूसरी तरफ मुंह मोड़ लेती थी. ऐसा वह क्यों करती थी, यह पहेली मामी सुलझा नहीं पा रही थीं.

मामी को यह भी याद आ रहा था कि अंबेडकर जयंती के दूसरे दिन सुमित्रा अपने देर से आने की सफाई देते हुए बोली थी, ‘‘बाई, कल हमारे दादीबाबा 20 कोस गए थे.’’

‘‘भला क्यों?’’

‘‘50-50 रुपए और एक जून का खाना

मिला था,’’ फिर थोड़ा रुक कर वह बोली थी,

‘‘मैं भी जाती तो 50 रुपए पाती, पर आप के डर से नहीं गई.’’

‘‘किसलिए रुपए मिले थे?’’

‘‘पता नहीं,’’ दोनों हाथ बड़ी सरलता व ईमानदारी से चमका कर सुमित्रा ने कहा था. तब मामी आदतन झुंझला गई थीं. आज दीपक को लग रहा है कि जहां दो जून की रोटी के लाले पड़े हों, पीने के लिए पानी न हो, वहां बौराई आबादी यही

तो करती है. उन का सारा समय तो जुगाड़ में बीत जाता है. ऊपर से उन का ठग मुखिया साल में एक बार 50 रुपए व एक वक्त के भोजन के बल पर चुनाव के आसपास नेताओं की सभा की शोभा बढ़ाता है, वोट दिलाता है.

एकाएक मामी को सुमित्रा में अनेक कमियां नजर आने लगी थीं. चूंकि महीना पूरा होने में एक हफ्ता बाकी था, इसलिए मामी ने उसे अचानक हटाने का पाप अपने सिर पर नहीं लिया. महीना पूरा होते ही उन्होंने उसे आगे से काम पर न आने को कह दिया.

उस वक्त यह बात देखने को मिली कि सुमित्रा के निकालते ही पड़ोसी बड़े खुश हो गए थे. बहुत लोग तो मामी को बधाई देने लगे थे मानो मामी ने सच में बड़ी होशियारी का काम किया.

कुछ ही दिनों बाद मामी अंदर ही अंदर अपने से लड़ती हुई बीमार पड़ गईं. एक हफ्ते बुखार में तपती रहीं.

दीपक को पता था कि मामी के मन में कुछ टीस रहा है. पर वे कह नहीं पा रही थीं मानो वे खुद से जूझते हुए पूछ रही थीं, ‘छुआछूत की प्रथा गई कहां है? बस, गंदगी के ऊपर कालीन बिछा दिया गया है. इतनी जवान, गरीब छोकरियां सड़क पर घूमा करती हैं. कोई उन्हें काम पर नहीं रखता. मैं ही कौन भली हूं? भूल से रख लिया, तो सचाई जानते ही निकाल दिया.’

यह सब देखने के बाद दीपक के दिमाग में एक महापुरुष के शब्द घूमने लगे, ‘यदि अछूतों को अछूत इसलिए माना जाता है कि वे जानवरों को मारते हैं, मांस, रक्त, हड्डियां और मैला छूते हैं, तब तो हर नर्स और डाक्टर को भी अछूत माना जाना चाहिए, जो खाने या बलि देने के लिए जानवरों की हत्या करते हैं.’

ये शब्द बारबार घंटे की तरह दीपक के दिमाग में बज रहे थे. तब वह मामी से यह पूछने के लिए बेचैन हो उठा, ‘तो क्या हम सब और मामा अछूत नहीं हुए?’

उधर सुमित्रा यह जान चुकी थी कि ऊंची जाति वाले आसानी से नहीं बदलने वाले. वे उन लोगों को बारबार एहसास दिलाएंगे कि तुम्हारा जन्म नीच कुल में हुआ है, नीचे रहोगे. वक्तजरूरत पर जरूर काम के लिए बुला लेंगे. कुरसी पर बैठा भी देंगे, पर उतरते ही उसे छींटे मार कर धोने से बाज नहीं आएंगे.

दीपक की मामी भी उस मकड़जाल से नहीं निकल पाईं, जो समाज ने उन के चारों ओर बुन रखा था. उन्हें सुमित्रा की जाति से न कोई शिकायत थी, न अलगाव पर पड़ोसियोंरिश्तेदारों का वे क्या करें. सुमित्रा ने उन्हें कब का माफ कर दिया, पर मामी खुद को सालों तक माफ नहीं कर पाईं.

सोनिया: राज एक आत्महत्या का

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

अगली बार कब: आखिर क्यों वह अपने पति और बच्चों से परेशान रहती थी?

उफ, कल फिर शनिवार है, तीनों घर पर होंगे. मेरे दोनों बच्चों सौरभ और सुरभि की भी छुट्टी रहेगी और अमित भी 2 दिन फ्री होते हैं. मैं तो गृहिणी हूं ही. अब 2 दिन बातबात पर चिकचिक होती रहेगी. कभी बच्चों का आपस में झगड़ा होगा, तो कभी अमित बच्चों को किसी न किसी बात पर टोकेंगे. आजकल मुझे हफ्ते के ये दिन सब से लंबे दिन लगने लगे हैं. पहले ऐसा नहीं था. मुझे सप्ताहांत का बेसब्री से इंतजार रहता था. हम चारों कभी कहीं घूमने जाते थे, तो कभी घर पर ही लूडो या और कोई खेल खेलते थे. मैं मन ही मन अपने परिवार को हंसतेखेलते देख कर फूली नहीं समाती थी.

धीरेधीरे बच्चे बड़े हो गए. अब सुरभि सी.ए. कर रही है, तो सौरभ 11वीं क्लास में है. अब साथ बैठ कर हंसनेखेलने के वे क्षण कहीं खो गए थे.

मैं ने फिर भी जबरदस्ती यह नियम बना दिया था कि सोने से पहले आधा घंटा हम चारों साथ जरूर बैठेंगे, चाहे कोई कितना भी थका हुआ क्यों न हो और यह नियम भी अच्छाखासा चल रहा था. मुझे इस आधे घंटे का बेसब्री से इंतजार रहता था. लेकिन अब इस आधे घंटे का जो अंत होता है, उसे देख कर तो लगता है कि यह नियम मुझे खुद ही तोड़ना पड़ेगा.

दरअसल, अब होता यह है कि हम चारों की बैठक खत्म होतेहोते किसी न किसी का, किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता है. मैं कभी सौरभ को समझाती हूं, कभी सुरभि को, तो कभी अमित को.

सुरभि तो कई बार यह कह कर मुझे बहुत प्यार करती है कि मम्मी, आप ही हमारे घर की बाइंडिंग फोर्स हो. सुरभि और मैं अब मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं.

जब सप्ताहांत आता है, तो अमित फ्री होते हैं. थोड़ी देर मेल चैक करते हैं, फिर कुछ देर टीवी देखते हैं और फिर कभी सौरभ तो कभी सुरभि को किसी न किसी बात पर टोकते रहते हैं. बच्चे भी अपना तर्क रखते हुए बराबर जवाब देने लगते हैं, जिस से झगड़ा बढ़ जाता और फिर अमित का पारा हाई होता चला जाता है.

मैं अब सब के बीच तालमेल बैठातेबैठाते थक जाती हूं. मैं बहुत कोशिश करती हूं कि छुट्टी के दिन शांति प्यार से बीतें, लेकिन ऐसा होता नहीं है. कोई न कोई बात हो ही जाती है. बच्चों को लगता है कि पापा उन की बात नहीं समझ रहे हैं और अमित को लगता है कि बच्चों को उन की बात चुपचाप सुन लेनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि अमित बहुत रूखे, सख्त किस्म के इंसान हैं. वे बहुत शांत रहने और अपने परिवार को बहुत प्यार करने वाले इंसान हैं. लेकिन आजकल जब वे युवा बच्चों को किसी बात पर टोकते हैं, तो बच्चों के जवाब देने पर उन्हें गुस्सा आ जाता है. कभी बच्चे सही होते हैं, तो कभी अमित. जब मेरा मूड खराब होता है, तीनों एकदम सही हो जाते हैं.

वैसे मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता है, लेकिन जब आता है, तो मेरा अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रहता है. वैसे मेरा गुस्सा खत्म भी जल्दी हो जाता है. पहले मैं भी बच्चों पर चिल्लाने लगती थी, लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए हैं, मुझे उन पर चिल्लाना अच्छा नहीं लगता.

अब मैं ने अपने गुस्से के पलों का यह हल निकाला है कि मैं घर से बाहर चली जाती हूं. घर से थोड़ी दूर स्थित पार्क में बैठ या टहल कर लौट आती हूं. इस से मेरे गुस्से में चिल्लाना, फिर सिरदर्द से परेशान रहना बंद हो गया है. लेकिन ये तीनों मेरे गुस्से में घर से निकलने के कारण घबरा जाते हैं और होता यह है कि इन तीनों में से कोई न कोई मेरे पीछे चलता रहता है और मुझे पीछे देखे बिना ही यह पता होता है कि इन तीनों में से एक मेरे पीछे ही है. जब मेरा गुस्सा ठंडा होने लगता है, मैं घर आने के लिए मुड़ जाती हूं और जो भी पीछे होता है, वह भी मेरे साथ घर लौट आता है.

एक संडे को छोटी सी बात पर अमित और बच्चों में बहस हो गई. मैं तीनों को शांत करने लगी, मगर मेरी किसी ने नहीं सुनी. मेरी तबीयत पहले ही खराब थी. सिर में बहुत दर्द हो रहा था. जून का महीना था, 2 बज रहे थे. मैं गुस्से में चप्पलें पहन कर बाहर निकल गई. चिलचिलाती गरमी थी. मैं पार्क की तरफ चलती गई. गरमी से तबीयत और ज्यादा खराब होती महसूस हुई. मेरी आंखों में आंसू आ गए. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि इतनी बहस क्यों करते हैं ये लोग. मैं ने मुड़ कर देखा. सुरभि चुपचाप पसीना पोंछते मेरे पीछेपीछे आ रही थी. ऐसे समय में मुझे उस पर बहुत प्यार आता है, मैं उस के लिए रुक गई.

सुरभि ने मेरे पास पहुंच कर कहा, ‘‘आप की तबीयत ठीक नहीं है, मम्मी. क्यों आप अपनेआप को तकलीफ दे रही हैं?’’

मैं बस पार्क की तरफ चलती गई, वह भी मेरे साथसाथ चलने लगी. मैं पार्क में बेंच पर बैठ गई. मैं ने घड़ी पर नजर डाली. 4 बज रहे थे. बहुत गरमी थी.

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी, कम से कम छाया में तो बैठो.’’

मैं उठ कर पेड़ के नीचे वाली बेंच पर बैठ गई. सुरभि ने मुझ से धीरेधीरे सामान्य बातें करनी शुरू कर दीं. वह मुझे हंसाने की कोशिश करने लगी. उस की कोशिश रंग लाई और मैं धीरेधीरे अपने सामान्य मूड में आ गई.

तब सुरभि बोली, ‘‘मम्मी, एक बात कहूं मानेंगी?’’

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘मम्मी, आप गुस्से में यहां आ कर बैठ जाती हैं… इतनी धूप में यहां बैठी हैं. इस से आप को ही तकलीफ हो रही है न? घर पर तो पापा और सौरभ एयरकंडीशंड कमरे में बैठे हैं… मैं आप को एक आइडिया दूं?’’

मैं उस की बात ध्यान से सुन रही थी, मैं ने बताया न कि अब हम मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं. अत: मैं ने कहा, ‘‘बोलो.’’

‘‘मम्मी, अगली बार जब आप को गुस्सा आए तो बस मैं जैसा कहूं आप वैसा ही करना. ठीक है न?’’

मैं मुसकरा दी और फिर हम घर आ गईं. आ कर देखा दोनों बापबेटे अपनेअपने कमरे में आराम फरमा रहे थे.

सुरभि ने कहा, ‘‘देखा, इन लोगों के लिए आप गरमी में निकली थीं.’’ फिर उस ने चाय और सैंडविच बनाए. सभी साथ चायनाश्ता करने लगे. तभी अमित ने कहा, ‘‘मैं ने सुरभि को जाते देख कर अंदाजा लगा लिया था कि तुम जल्द ही आ जाओगी.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. सौरभ ने मुझे हमेशा की तरह ‘सौरी’ कहा और थोड़ी देर में सब सामान्य हो गया.

10-15 दिन शांति रही. फिर एक शनिवार को सौरभ अपना फुटबाल मैच खेल कर आया और आते ही लेट गया. अमित उस से पढ़ाई की बातें करने लगे जिस पर सौरभ ने कह दिया, ‘‘पापा, अभी मूड नहीं है. मैच खेल कर थक गया हूं… थोड़ी देर सोने के बाद पढ़ाई कर लूंगा.’’

अमित को गुस्सा आ गया और वे शुरू हो गए. सुरभि टीवी देख रही थी, वह भी अमित की डांट का शिकार हो गई. मैं खाना बना रही थी. भागी आई. अमित को शांत किया, ‘‘रहने दो अमित, आज छुट्टी है, पूरा हफ्ता पढ़ाई ही में तो बिजी रहते हैं.’’

अमित शांत नहीं हुए. उधर मेरी सब्जी जल रही थी, मेरा एक पैर किचन में, तो दूसरा बच्चों के बैडरूम में. मामला हमेशा की तरह मेरे हाथ से निकलने लगा तो मुझे गुस्सा आने लगा. मैं ने कहा, ‘‘आज छुट्टी है और मैं यह सोच कर किचन में कुछ स्पैशल बनाने में बिजी हूं कि सब साथ खाएंगे और तुम लोग हो कि मेरा दिमाग खराब करने पर तुले हो.’’

अमित सौरभ को कह रहे थे, ‘‘मैं देखता हूं अब तुम कैसे कोई मैच खेलते हो.’’

सौरभ रोने लगा. मैं ने बात टाली, ‘‘चलो, खाना बन गया है, सब डाइनिंग टेबल पर आ जाओ.’’

सौरभ ने कहा, ‘‘अभी भूख नहीं है. समोसे खा कर आया हूं.’’

यह सुनते ही अमित और भड़क उठे. इस के बाद बात इतनी बढ़ गई कि मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा.

‘‘तुम लोगों की जो मरजी हो करो,’’ कह लंच छोड़ कर सुरभि पर एक नजर डाल कर मैं निकल गई. मैं मन ही मन थोड़ा चौंकी भी, क्योंकि मैं ने सुरभि को मुसकराते देखा. आज तक ऐसा नहीं हुआ था. मैं परेशान होऊं और मेरी बेटी मुसकराए. मैं थोड़ा आगे निकली तो सुरभि मेरे पास पहुंच कर बोली, ‘‘मम्मी, आप ने कहा था कि अगली बार मूड खराब होने पर आप मेरी बात मानेंगी?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘मम्मी, आप क्यों गरमी में इधरउधर भटकें? पापा और भैया दोनों सोचते हैं आप थोड़ी देर में मेरे साथ घर आ जाएंगी… आप आज मेरे साथ चलो,’’ कह कर उस ने अपने हाथ में लिया हुआ मेरा पर्स मुझे दिखाया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरा पर्स क्यों लाई हो?’’

सुरभि हंसी, ‘‘चलो न मम्मी, आज गुस्सा ऐंजौय करते हैं,’’ और फिर एक आटो रोक कर उस में मेरा हाथ पकड़ती हुई बैठ गई.

मैं ने पूछा, ‘‘यह क्या है? हम कहां जा रहे हैं?’’ और मैं ने अपने कपड़ों पर नजर डाली, मैं कुरता और चूड़ीदार पहने हुए थी.

सुरभि बोली, ‘‘आप चिंता न करें, अच्छी लग रही हैं.’’

वंडरमौल पहुंच कर आटो से उतर कर हम  पिज्जा हट’ में घुस गए.

मैं हंसी तो सुरभि खुश हो गई, बोली, ‘‘यह हुई न बात. चलो, शांति से लंच करते हैं.’’

तभी सुरभि के सैल पर अमित का फोन आया. पूछा, ‘‘नेहा कहां है?’’

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी मेरे साथ हैं… बहुत गुस्से में हैं… पापा, हम थोड़ी देर में आ जाएंगे.’’

फिर हम ने पिज्जा आर्डर किया. हम पिज्जा खा ही रहे थे कि फिर अमित का फोन आ गया. सुरभि से कहा कि नेहा से बात करवाओ.

मैं ने फोन लिया, तो अमित ने कहा, ‘‘उफ, नेहा सौरी, अब आ जाओ, बड़ी भूख लगी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी नहीं, थोड़ा और चिल्ला लो… खाना तैयार है किचन में, खा लेना दोनों, मैं थोड़ा दूर निकल आई हूं, आने में टाइम लगेगा.’’

कुछ ही देर में सौरभ का फोन आ गया, ‘‘सौरी मम्मी, जल्दी आ जाओ, भूख लगी है.’’

मैं ने उस से भी वही कहा, जो अमित से कहा था.

‘पिज्जा हट’ से हम निकले तो सुरभि ने कहा, ‘‘चलो मम्मी, पिक्चर भी देख लें.’’

मैं तैयार हो गई. मेरा भी घर जाने का मन नहीं कर रहा था. वैसे भी पिक्चर देखना मुझे पसंद है. हम ने टिकट लिए और आराम से फिल्म देखने बैठ गए. बीचबीच में सुरभि अमित और सौरभ को मैसज देती रही कि हमें आने में देर होगी… आज मम्मी का मूड बहुत खराब है. जब अमित बहुत परेशान हो गए तो उन्होंने कहा कि वे हमें लेने आ रहे हैं. पूछा हम कहां हैं. तब मैं ने ही अमित से कहा कि मैं जहां भी हूं शांति से हूं, थोड़ी देर में आ जाऊंगी.

फिल्म खत्म होते ही हम ने जल्दी से आटो लिया. रास्ता भर हंसते रहे हम… बहुत मजा आया था. घर पहुंचे तो बेचैन से अमित ने ही दरवाजा खोला. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘ओह नेहा, इतना गुस्सा, आज तो जैसे तुम घर आने को ही तैयार नहीं थी, मैं पार्क में भी देखने गया था.’’

सुरभि ने मुझे आंख मारी. मैं ने किसी तरह अपनी हंसी रोकी. सौरभ भी रोनी सूरत लिए मुझ से लिपट गया. बोला, ‘‘अच्छा मम्मी अब मैं कभी कोई उलटा जवाब नहीं दूंगा.’’

दोनों ने खाना नहीं खाया था, मुझे बुरा लगा.

अमित बोले, ‘‘चलो, अब कुछ खिला दो और खुद भी कुछ खा लो.’’

सुरभि ने मुझे देखा तो मैं ने उसे खाना लगाने का इशारा किया और फिर खुद भी उस के साथ किचन में सब के लिए खाना गरम करने लगी. हम दोनों ने तो नाम के कौर ही मुंह में डाले. मैं गंभीर बनी बैठी थी.

अमित ने कहा, ‘‘चलो, आज से कोई किसी पर नहीं चिल्लाएगा, तुम कहीं मत जाया करो.’’

सौरभ भी कहने लगा, ‘‘हां मम्मी, अब कोई गुस्सा नहीं करेगा, आप कहीं मत जाया करो… बहुत खराब लगता है.’’

और सुरभि वह तो आज के प्रोग्राम से इतनी उत्साहित थी कि उस का मुसकराता चेहरा और चमकती आंखें मानो मुझ से पूछ रही थीं कि अगली बार आप को गुस्सा कब आएगा?

उलझे रिश्ते: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

दिन भर की भागदौड़. फिर घर लौटने पर पति और बच्चों को डिनर करवा कर रश्मि जब बैडरूम में पहुंची तब तक 10 बज चुके थे. उस ने फटाफट नाइट ड्रैस पहनी और फ्रैश हो कर बिस्तर पर आ गई. वह थक कर चूर हो चुकी थी. उसे लगा कि नींद जल्दी ही आ घेरेगी. लेकिन नींद न आई तो उस ने अनमने मन से लेटेलेटे ही टीवी का रिमोट दबाया. कोई न्यूज चैनल चल रहा था. उस पर अचानक एक न्यूज ने उसे चौंका दिया. वह स्तब्ध रह गई. यह क्या हुआ?

सुधीर ने मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. उस का मन किया कि वह जोरजोर से रोए. लेकिन उसे लगा कि कहीं उस का रोना सुन कर पास के कमरे में सो रहे बच्चे जाग न जाएं. पति संभव भी तो दूसरे कमरे में अपने कारोबार का काम निबटाने में लगे थे. रश्मि ने रुलाई रोकने के लिए अपने मुंह पर हाथ रख लिया, लेकिन काफी देर तक रोती रही. शादी से पूर्व का पूरा जीवन उस की आंखों के सामने घूम गया.

बचपन से ही रश्मि काफी बिंदास, चंचल और खुले मिजाज की लड़की थी. आधुनिकता और फैशन पर वह सब से ज्यादा खर्च करती थी. पिता बड़े उद्योगपति थे. इसलिए घर में रुपयोंपैसों की कमी नहीं थी. तीखे नैननक्श वाली रश्मि ने जब कालेज में प्रवेश लिया तो पहले ही दिन सुधीर से उस की आंखें चार हो गईं.

‘‘हैलो आई एम रश्मि,’’ रश्मि ने खुद आगे बढ़ कर सुधीर की तरफ हाथ बढ़ाया. किसी लड़की को यों अचानक हाथ आगे बढ़ाता देख सुधीर अचकचा गया. शर्माते हुए उस ने कहा, ‘‘हैलो, मैं सुधीर हूं.’’

‘‘कहां रहते हो, कौन सी क्लास में हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘अभी इस शहर में नया आया हूं. पापा आर्मी में हैं. बी.कौम प्रथम वर्ष का छात्र हूं.’’ सुधीर ने एक सांस में जवाब दिया.

‘‘ओह तो तुम भी मेरे साथ ही हो. मेरा मतलब हम एक ही क्लास में हैं,’’ रश्मि ने चहकते हुए कहा. उस दिन दोनों क्लास में फ्रंट लाइन में एकदूसरे के आसपास ही बैठे. प्रोफैसर ने पूरी क्लास के विद्यार्थियों का परिचय लिया तो पता चला कि रश्मि पढ़ाई में अव्वल है. कालेज टाइम के बाद सुधीर और रश्मि साथसाथ बाहर निकले तो पता चला कि सुधीर को पापा का ड्राइवर कालेज छोड़ गया था. रश्मि ने अपनी मोपेड बाहर निकाली और कहा, ‘‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ती हूं.’’

‘‘नहीं नहीं ड्राइवर आने ही वाला है.’’

‘‘अरे, चलो भई रश्मि खा नहीं जाएगी,’’ रश्मि के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सुधीर उस की मोपेड पर बैठ गया. पूरे रास्ते रश्मि की चपरचपर चलती रही. उसे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि वह सुधीर से पूछे कि कहां जाना है. बातोंबातों में रश्मि अपने घर की गली में पहुंची, तो सुधीर ने कहा, ‘‘बस यही छोड़ दो.’’

‘‘ओह सौरी, मैं तो पूछना ही भूल गई कि आप को कहां छोड़ना है. मैं तो बातोंबातों में अपने घर की गली में आ गई.’’

‘‘बस यहीं तो छोड़ना है. वह सामने वाला मकान हमारा है. अभी कुछ दिन पहले ही किराए पर लिया है पापा ने.’’

‘‘अच्छा तो आप लोग आए हो हमारे पड़ोस में,’’ रश्मि ने कहा

‘‘जी हां.’’

‘‘चलो, फिर तो हम दोनों साथसाथ कालेज जायाआया करेंगे.’’ रश्मि और सुधीर के बाद के दिन यों ही गुजरते गए. पहली मुलाकात दोस्ती में और दोस्ती प्यार में जाने कब बदल गई पता ही न चला. रश्मि का सुधीर के घर यों आनाजाना होता जैसे वह घर की ही सदस्य हो. सुधीर की मम्मी रश्मि से खूब प्यार करती थीं. कहती थीं कि तुझे तो अपनी बहू बनाऊंगी. इस प्यार को पा कर रश्मि के मन में भी नई उमंगें पैदा हो गईं. वह सुधीर को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर कल्पनाएं करती. एक दिन सुधीर घर में अकेला था, तो उस ने रश्मि को फोन कर कहा, ‘‘घर आ जाओ कुछ काम है.’’

जब रश्मि पहुंची तो दरवाजे पर मिल गया सुधीर. बोला, ‘‘मैं एक टौपिक पढ़ रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था. सोचा तुम से पूछ लेता हूं.’’

‘‘तो दरवाजा क्यों बंद कर रहे हो? आंटी कहां है?’’

‘‘यहीं हैं, क्यों चिंता कर रही हो? ऐसे डर रही हो जैसे अकेला हूं तो खा जाऊंगा,’’ यह कहते हुए सुधीर ने रश्मि का हाथ थाम उसे अपनी ओर खींच लिया. सुधीर के अचानक इस बरताव से रश्मि सहम गई. वह छुइमुई सी सुधीर की बांहों में समाती चली गई.

‘‘क्या कर रहे हो सुधीर, छोड़ो मुझे,’’ वह बोली लेकिन सुधीर ने एक न सुनी. वह बोला,  ‘‘आई लव यू रश्मि.’’

‘‘जानती हूं पर यह कौन सा तरीका है?’’ रश्मि ने प्यार से समझाने की कोशिश की,  ‘‘कुछ दिन इंतजार करो मिस्टर. रश्मि तुम्हारी है. एक दिन पूरी तरह तुम्हारी हो जाएगी.’’ परंतु सुधीर पर कोई असर नहीं हुआ. हद से आगे बढ़ता देख रश्मि ने सुधीर को धक्का दिया और हिरणी सी कुलांचे भरती हुई घर से बाहर निकल गई. उस रात रश्मि सो नहीं पाई. उसे सुधीर का यों बांहों में लेना अच्छा लगा. कुछ देर और रुक जाती तो…सोच कर सिहरन सी दौड़ गई. और एक दिन ऐसा आया जब पढ़ाई की आड़ में चल रहा प्यार का खेल पकड़ा गया. दोनों अब तक बी.कौम अंतिम वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और एकदूजे में इस कदर खो चुके थे कि उन्हें आभास भी नहीं था कि इस रिश्ते को रश्मि के पिता और भाई कतई स्वीकार नहीं करेंगे. उस दिन रश्मि के घर कोई नहीं था. वह अकेली थी कि सुधीर पहुंच गया. उसे देख रश्मि की धड़कनें बढ़ गईं. वह बोली,  ‘‘सुधीर जाओ तुम, पापा आने वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हो गया. दामाद अपने ससुराल ही तो आया है,’’ सुधीर ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘नहीं, तुम जाओ प्लीज.’’

‘‘रुको डार्लिंग यों धक्के मार कर क्यों घर से निकाल रही हो?’’ कहते हुए सुधीर ने रश्मि को अपनी बांहों में भर लिया. तभी जो न होना चाहिए था वह हो गया. रश्मि के पापा ने अचानक घर में प्रवेश किया और दोनों को एकदूसरे की बांहों में समाया देख आगबबूला हो गए. फिर पता नहीं कितने लातघूंसे सुधीर को पड़े. सुधीर कुछ बोल नहीं पाया. बस पिटता रहा. जब होश आया तो अपने घर में लेटा हुआ था. सुधीर और रश्मि के परिवारजनों की बैठक हुई. सुधीर की मम्मी ने प्रस्ताव रखा कि वे रश्मि को बहू बनाने को तैयार हैं. फिर काफी सोचविचार हुआ. रश्मि के पापा ने कहा,  ‘‘बेटी को कुएं में धकेल दूंगा पर इस लड़के से शादी नहीं करूंगा. जब कोई काम नहीं करता तो क्या खाएगाखिलाएगा?’’ आखिर तय हुआ कि रश्मि की शादी जल्द से जल्द किसी अच्छे परिवार के लड़के से कर दी जाए. रश्मि और सुधीर के मिलने पर पाबंदी लग गई पर वे दोनों कहीं न कहीं मिलने का रास्ता निकाल ही लेते. और एक दिन रश्मि के पापा ने घर में बताया कि दिल्ली से लड़के वाले आ रहे हैं रश्मि को देखने. यह सुन कर रश्मि को अपने सपने टूटते नजर आए. उस ने कुछ नहीं खायापीया.

भाभी ने समझाया, ‘‘यह बचपना छोड़ो रश्मि, हम इज्जतदार खानदानी परिवार से हैं. सब की इज्जत चली जाएगी.’’

‘‘तो मैं क्या करूं? इस घर में बच्चों की खुशी का खयाल नहीं रखा जाता. दोनों दीदी कौन सी सुखी हैं अपने पतियों के साथ.’’

‘‘तेरी बात ठीक है रश्मि, लेकिन समाज, परिवार में ये बातें माने नहीं रखतीं. तेरे गम में पापा को कुछ हो गया तो…उन्होंने कुछ कर लिया तो सब खत्म हो जाएगा न.’’

रश्मि कुछ नहीं बोल पाई. उसी दिन दिल्ली से लड़का संभव अपने छोटे भाई राजीव और एक रिश्तेदार के साथ रश्मि को देखने आया. रश्मि को देखते ही सब ने पसंद कर लिया. रिश्ता फाइनल हो गया. जब यह बात सुधीर को रश्मि की एक सहेली से पता चली तो उस ने पूरी गली में कुहराम मचा दिया,  ‘‘देखता हूं कैसे शादी करते हैं. रश्मि की शादी होगी तो सिर्फ मेरे साथ. रश्मि मेरी है.’’ पागल सा हो गया सुधीर. इधरउधर बेतहाशा दौड़ा गली में. पत्थर मारमार कर रश्मि के घर की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले. रश्मि के पिता के मन में डर बैठ गया कि कहीं ऐसा न हो कि लड़के वालों को इस बात का पता चल जाए. तब तो इज्जत चली जाएगी. सब हालात देख कर तय हुआ कि रश्मि की शादी किसी दूसरे शहर में जा कर करेंगे. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी. अब एक तरफ प्यार, दूसरी तरफ मांबाप के प्रति जिम्मेदारी. बहुत तड़पी, बहुत रोई रश्मि और एक दिन उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘मैं अपने प्यार का बलिदान देने को तैयार हूं. परंतु मेरी एक शर्त है. मुझे एक बार सुधीर से मिलने की इजाजत दी जाए. मैं उसे समझाऊंगी. मुझे पूरी उम्मीद है वह मान जाएगा.’’

भाभी ने घर वालों से छिपा कर रश्मि को सुधीर से आखिरी बार मिलने की इजाजत दे दी. रश्मि को अपने करीब पा कर फूटफूट कर रोया सुधीर. उस के पांवों में गिर पड़ा. लिपट गया किसी नादान छोटे बच्चे की तरह,  ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रश्मि. मैं नहीं जी  पाऊंगा, तुम्हारे बिना. मर जाऊंगा.’’ यंत्रवत खड़ी रह गई रश्मि. सुधीर की यह हालत देख कर वह खुद को नहीं रोक पाई. लिपट गई सुधीर से और फफक पड़ी, ‘‘नहीं सुधीर, तुम ऐसा मत कहो, तुम बच्चे नहीं हो,’’ रोतेरोते रश्मि ने कहा.

‘‘नहीं रश्मि मैं नहीं रह पाऊंगा, तुम बिन,’’ सुबकते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘अगर तुम ने मुझ से सच्चा प्यार किया है तो तुम्हें मुझ से दूर जाना होगा. मुझे भुलाना होगा,’’ यह सब कह कर काफी देर समझाती रही रश्मि और आखिर अपने दिल पर पत्थर रख कर सुधीर को समझाने में सफल रही. सुधीर ने उस से वादा किया कि वह कोई बखेड़ा नहीं करेगा. ‘‘जब भी मायके आऊंगी तुम से मिलूंगी जरूर, यह मेरा भी वादा है,’’ रश्मि यह वादा कर घर लौट आई. पापा किसी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए एक दिन रात को घर के सब लोग चले गए एक अनजान शहर में. रश्मि की शादी दिल्ली के एक जानेमाने खानदान में हो गई. ससुराल आ कर रश्मि को पता चला कि उस के पति संभव ने शादी तो उस से कर ली पर असली शादी तो उस ने अपने कारोबार से कर रखी है. देर रात तक कारोबार का काम निबटाना संभव की प्राथमिकता थी. रश्मि देर रात तक सीढि़यों में बैठ कर संभव का इंतजार करती. कभीकभी वहीं बैठेबैठे सो जाती. एक तरफ प्यार की टीस, दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से रश्मि टूट कर रह गई. ससुराल में पासपड़ोस की हमउम्र लड़कियां आतीं तो रश्मि से मजाक करतीं  ‘‘आज तो भाभी के गालों पर निशान पड़ गए. भइया ने लगता है सारी रात सोने नहीं दिया.’’ रश्मि मुसकरा कर रह जाती. करती भी क्या, अपना दर्द किस से बयां करती? पड़ोस में ही महेशजी का परिवार था. उन के एक कमरे की खिड़की रश्मि के कमरे की तरफ खुलती थी. यदाकदा रात को वह खिड़की खुली रहती तो महेशजी के नवविवाहित पुत्र की प्रणयलीला रश्मि को देखने को मिल जाती. तब सिसक कर रह जाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता था रश्मि के पास.

संभव जब कभी रात में अपने कामकाज से जल्दी फ्री हो जाता तो रश्मि के पास चला आता. लेकिन तब तक संभव इतना थक चुका होता कि बिस्तर पर आते ही खर्राटे भरने लगता. एक दिन संभव कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था और रश्मि तपती दोपहर में  फर्स्ट फ्लोर पर बने अपने कमरे में सो रही थी. अचानक उसे एहसास हुआ कोई उस के बगल में आ कर लेट गया है. रश्मि को अपनी पीठ पर किसी मर्दाना हाथ का स्पर्श महसूस हुआ. वह आंखें मूंदे पड़ी रही. वह स्पर्श उसे अच्छा लगा. उस की धड़कनें तेज हो गईं. सांसें धौंकनी की तरह चलने लगीं. उसे लगा शायद संभव है, लेकिन यह उस का देवर राजीव था. उसे कोई एतराज न करता देख राजीव का हौसला बढ़ गया तो रश्मि को कुछ अजीब लगा. उस ने पलट कर देखा तो एक झटके से बिस्तर पर उठ बैठी और कड़े स्वर में राजीव से कहा कि जाओ अपने रूम में, नहीं तो तुम्हारे भैया को सारी बात बता दूंगी, तो वह तुरंत उठा और चला गया. उधर सुधीर ने एक दिन कहीं से रश्मि की ससुराल का फोन नंबर ले कर रश्मि को फोन किया तो उस ने उस से कहा कि सुधीर, तुम्हें मैं ने मना किया था न कि अब कभी मुझ से संपर्क नहीं करना. मैं ने तुम से प्यार किया था. मैं उन यादों को खत्म नहीं करना चाहती. प्लीज, अब फिर कभी मुझ से संपर्क न करना. तब उम्मीद के विपरीत रश्मि के इस तरह के बरताव के बाद सुधीर ने फिर कभी रश्मि से संपर्क नहीं किया.

रश्मि अपने पति के रूखे और ठंडे व्यवहार से तो परेशान थी ही उस की सास भी कम नहीं थीं. रश्मि ने फिल्मों में ललिता पंवार को सास के रूप में देखा था. उसे लगा वही फिल्मी चरित्र उस की लाइफ में आ गया है. हसीन ख्वाबों को लिए उड़ने वाली रश्मि धरातल पर आ गई. संभव के साथ जैसेतैसे ऐडजस्ट किया उस ने परंतु सास से उस की पटरी नहीं बैठ पाई. संभव को भी लगा अब सासबहू का एकसाथ रहना मुश्किल है. तब सब ने मिल कर तय किया कि संभव रश्मि को ले कर अलग घर में रहेगा. कुछ ही दूरी पर किराए का मकान तलाशा गया और रश्मि नए घर में आ गई. अब तक उस के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हो चुके थे. शादी के 12 साल कब बीत गए पता ही नहीं चला. नए घर में आ कर रश्मि के सपने फिर से जाग उठे. उमंगें जवां हो गईं. उस ने कार चलाना सीख लिया. पेंटिंग का उसे शौक था. उस ने एक से बढ़ कर एक पोट्रेट तैयार किए. जो देखता वह देखता ही रह जाता. अपने बेटे साहिल को पढ़ाने के लिए रश्मि ने हिमेश को ट्यूटर रख लिया. वह साहिल को पढ़ाने के लिए अकसर दोपहर बाद आता था जब संभव घर होता था. 28-30 वर्षीय हिमेश बहुत आकर्षक और तहजीब वाला अध्यापक था. रश्मि को उस का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था. खुले विचारों की रश्मि हिमेश से हंसबोल लेती. हिमेश अविवाहित था. उस ने रश्मि के हंसीमजाक को अलग रूप में देखा. उसे लगा कि रश्मि उसे पसंद करती है. लेकिन रश्मि के मन में ऐसा दूरदूर तक न था. वह उसे एक शिक्षक के रूप में देखती और इज्जत देती. एक दिन रश्मि घर पर अकेली थी. साहिल अपने दोस्त के घर गया था. हिमेश आया तो रश्मि ने कहा कि कोई बात नहीं, आप बैठिए. हम बातें करते हैं. कुछ देर में साहिल आ जाएगा.

रश्मि चाय बना लाई और दोनों सोफे पर बैठ गए. रश्मि ने बताया कि वह राधाकृष्ण की एक बहुत बड़ी पोट्रेट तैयार करने जा रही है. उस में राधाकृष्ण के प्यार को दिखाया गया है. यह बताते हुए रश्मि अपने अतीत में डूब गई. उस की आंखों के सामने सुधीर का चेहरा घूम गया. हिमेश कुछ और समझ बैठा. उस ने एक हिमाकत कर डाली. अचानक रश्मि का हाथ थामा और ‘आई लव यू’ कह डाला. रश्मि को लगा जैसे कोई बम फट गया है. गुस्से से उस का चेहरा लाल हो गया. वह अचानक उठी और क्रोध में बोली, ‘‘आप उठिए और तुरंत यहां से चले जाइए. और दोबारा इस घर में पांव मत रखिएगा वरना बहुत बुरा होगा.’’ हिमेश को तो जैसे सांप सूंघ गया. रश्मि का क्रोध देख उस के हाथ कांपने लगे.

‘‘आ…आ… आप मुझे गलत समझ रही हैं मैडम,’’ उस ने कांपते स्वर में कहा.

‘‘गलत मैं नहीं समझ रही आप ने मुझे समझा है. एक शिक्षक के नाते मैं आप की इज्जत करती रही और आप ने मुझे क्या समझ लिया?’’ फिर एक पल भी नहीं रुका हिमेश. उस के बाद उस ने कभी रश्मि के घर की तरफ देखा भी नहीं. जब कभी साहिल ने पूछा रश्मि से तो उस से उस ने कहा कि सर बाहर रहने लगे हैं. रश्मि की जिंदगी फिर से दौड़ने लगी. एक दिन एक पांच सितारा होटल में लगी डायमंड ज्वैलरी की प्रदर्शनी में एक संभ्रात परिवार की 30-35 वर्षीय महिला ऊर्जा से रश्मि की मुलाकात हुई. बातों ही बातों में दोनों इतनी घुलमिल गईं कि दोस्त बन गईं. वह सच में ऊर्जा ही थी. गजब की फुरती थी उस में. ऊर्जा ने बताया कि वह अपने घर पर योगा करती है. योगा सिखाने और अभ्यास कराने योगा सर आते हैं. रश्मि को लगा वह भी ऊर्जा की तरह गठीले और आकर्षक फिगर वाली हो जाए तो मजा आ जाए. तब हर कोई उसे देखता ही रह जाएगा.

ऊर्जा ने स्वाति से कहा कि मैं योगा सर को तुम्हारा मोबाइल नंबर दे दूंगी. वे तुम से संपर्क कर लेंगे. रश्मि ने अपने पति संभव को मना लिया कि वह घर पर योगा सर से योगा सीखेगी. एक दिन रश्मि के मोबाइल घंटी बजी. उस ने देखा तो कोई नया नंबर था. रश्मि ने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई,  ‘‘हैलो मैडम, मैं योगा सर बोल रहा हूं. ऊर्जा मैडम ने आप का नंबर दिया था. आप योगा सीखना चाहती हैं?’’‘‘जी हां मैं ने कहा था, ऊर्जा से,’’ रश्मि ने कहा.

‘‘तो कहिए कब से आना है?’’

‘‘किस टाइम आ सकते हैं आप?’’

‘‘कल सुबह 6 बजे आ जाता हूं. आप अपना ऐडै्रस नोट करा दें.’’

रश्मि ने अपना ऐड्रैस नोट कराया. सुबह 5.30 बजे का अलार्म बजा तो रश्मि जाग गई. योगा सर 6 बजे आ जाएंगे यही सोच कर वह आधे घंटे में फ्रैश हो कर तैयार रहना चाहती थी. बच्चे और पति संभव सो रहे थे. उन्हें 8 बजे उठने की आदत थी. रश्मि उठते ही बाथरूम में घुस गई. फ्रैश हो कर योगा की ड्रैस पहनी तब तक 6 बजने जा रहे थे कि अचानक डोरबैल बजी. योगा सर ही हैं यह सोच कर उस ने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजा खोला तो सामने खड़े शख्स को देख कर वह स्तब्ध रह गई. उस के सामने सुधीर खड़ा था. वही सुधीर जो उस की यादों में बसा रहता था.

‘‘तुम योगा सर?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘हां.’’

फिर सुधीर ने, ‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ कहा तो रश्मि हड़बड़ा गई.

‘‘हांहां आओ, आओ न प्लीज,’’ उस ने कहा. सुधीर अंदर आया तो रश्मि ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने को कहा. दोनों एकदूसरे के सामने बैठे थे. रश्मि को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले, क्या नहीं. सुधीर कहे या योगा सर. रश्मि सहज नहीं हो पा रही थी. उस के मन में सुधीर को ले कर अनेक सवाल चल रहे थे. कुछ देर में वह सामान्य हो गई, तो सुधीर से पूछ लिया, ‘‘इतने साल कहां रहे?’’

सुधीर चुप रहा तो रश्मि फिर बोली, ‘‘प्लीज सुधीर, मुझे ऐसी सजा मत दो. आखिर हम ने प्यार किया था. मुझे इतना तो हक है जानने का. मुझे बताओ, यहां तक कैसे पहुंचे और अंकलआंटी कहां हैं? तुम कैसे हो?’’ रश्मि के आग्रह पर सुधीर को झुकना पड़ा. उस ने बताया कि तुम से अलग हो कर कुछ टाइम मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ा रहा. फिर थोड़ा सुधरा तो शादी की, लेकिन पत्नी ज्यादा दिन साथ नहीं दे पाई. घरबार छोड़ कर चली गई और किसी और केसाथ घर बसा लिया. फिर काफी दिनों के इलाज के बाद ठीक हुआ तो योगा सीखतेसीखते योगा सर बन गया. तब किसी योगाचार्य के माध्यम से दिल्ली आ गया. मम्मीपापा आज भी वहीं हैं उसी शहर में. सुधीर की बातें सुन अंदर तक हिल गई रश्मि. यह जिंदगी का कैसा खेल है. जो उस से बेइंतहां प्यार करता था, वह आज किस हाल में है सोचती रह गई रश्मि. अजब धर्मसंकट था उस के सामने. एक तरफ प्यार दूसरी तरफ घरसंसार. क्या करे? सुधीर को घर आने की अनुमति दे या नहीं? अगर बारबार सुधीर घर आया तो क्या असर पड़ेगा गृहस्थी पर? माना कि किसी को पता नहीं चलेगा कि योगा सर के रूप में सुधीर है, लेकिन कहीं वह खुद कमजोर पड़ गई तो? उस के 2 छोटेछोटे बच्चे भी हैं. गृहस्थी जैसी भी है बिखर जाएगी. उस ने तय कर लिया कि वह सुधीर को योगा सर के रूप में स्वीकार नहीं करेगी. कहीं दूर चले जाने को कह देगी इसी वक्त.

‘‘देखो सुधीर मैं तुम से योगा नहीं सीखना चाहती,’’ रश्मि ने अचानक सामान्य बातचीत का क्रम तोड़ते हुए कहा.

‘‘पर क्यों रश्मि?’’

‘‘हमारे लिए यही ठीक रहेगा सुधीर, प्लीज समझो.’’

‘‘अब तुम शादीशुदा हो. अब वह बचपन वाली बात नहीं है रश्मि. क्या हम अच्छे दोस्त बन कर भी नहीं रह सकते?’’ सुधीर ने लगभग गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहा.

‘‘नहीं सुधीर, मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मेरी गृहस्थी, मेरे बच्चों पर असर पड़े,’’ रश्मि ने कहा. सुधीर ने लाख समझाया पर रश्मि अपने फैसले पर अडिग रही. सुधीर बेचैन हो गया. सालों बाद उस का प्यार उस के सामने था, लेकिन वह उस की बात स्वीकार नहीं कर रहा था. आखिर रश्मि ने सुधीर को विदा कर दिया. साथ ही कहा कि दोबारा संपर्क की कोशिश न करे. सुधीर रश्मि से अलग होते वक्त बहुत तनावग्रस्त था. पर उस दिन के बाद सुधीर ने रश्मि से संपर्क नहीं किया. रश्मि ने तनावमुक्त होने के लिए कई नई फ्रैंड्स बनाईं और उन के साथ बहुत सी गतिविधियों में व्यस्त हो गई. इस से उस का सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया. उस दिन वह बहुत से बाहर के फिर घर के काम निबटा कर बैडरूम में पहुंची तो न्यूज चैनल पर उस ने वह खबर देखी कि सुधीर ने दिल्ली मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया था. वह देर तक रोती रही. न्यूज उद्घोषक बता रही थी कि उस की जेब में एक सुसाइड नोट मिला है, जिस में अपनी मौत के लिए उस ने किसी को जिम्मेदार नहीं माना परंतु अपनी एक गुमनाम प्रेमिका के नाम पत्र लिखा है. रश्मि का सिर घूम रहा था. उस की रुलाई फूट पड़ी. तभी संभव ने अचानक कमरे में प्रवेश किया और बोला, ‘‘क्या हुआ रश्मि, क्यों रो रही हो? कोई डरावना सपना देखा क्या?’’ प्यार भरे बोल सुन रश्मि की रुलाई और फूट पड़ी. वह काफी देर तक संभव के कंधे से लग कर रोती रही. उस का प्यार खत्म हो गया था. सिर्फ यादें ही शेष रह गई थीं.

सावित्री और सत्य: त्याग और समर्पण की गाथा

सावित्री को नींद नहीं आ रही थी. अभी पिछले साल ही उस के पति की मौत हुई थी. उस की शादीशुदा जिंदगी का सुख महज एक साल का था. सावित्री ससुराल में ही रह रही थी. उस का पति ही बूढ़े सासससुर की एकलौती औलाद था. ससुराल और मायका दोनों ही पैसे वाले थे. सावित्री अपने मायके में 4 बच्चों में सब से छोटी और एकलौती लड़की थी. मांबाप और भाइयों की दुलारी… मैट्रिक पास होते ही सावित्री की शादी हो गई थी. पति की मौत के बाद उस का बापू उसे लेने आया था, पर वह मायके नहीं गई. उस ने बापू से कहा था कि आप के तो 3 बच्चे और हैं, पर मेरे सासससुर का तो कोई नहींहै. पहाड़ी की तराई में एक गांव में सावित्री का ससुराल था. गांव तो ज्यादा बड़ा नहीं था, फिर भी सभी खुशहाल थे. उस के ससुर उस इलाके के सब से धनी और रसूखदार शख्स थे. वे गांव के सरपंच भी थे.

पहाडि़यों पर रात में ठंडक रहती ही है. थोड़ी देर पहले ही बारिश रुकी थी. सावित्री कंबल ओढ़े लेटी थी, तभी अचानक ही जोर के धमाके की आवाज से वह चौंक पड़ी थी.

वह बिस्तर से नीचे उतर आई. शाल से अपने को ढकते हुए बगल में सास के कमरे में गई. वहां उस ने देखा कि सासससुर दोनों ही जोरदार धमाके की आवाज से जाग गए थे.

उस के ससुर स्वैटर पहन कर टौर्च व छड़ी उठा कर बाहर जाने के लिए निकलने लगे, तो सावित्री ने कहा, ‘‘बाबूजी, मैं आप को रात में अकेले नहीं जाने दूंगी. मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

काफी मना मरने के बावजूद सावित्री भी उन के साथ चल पड़ी थी. जब सावित्री बाहर निकली, तो थोड़ी दूरी पर ही खेतों के बीच उस ने आग की ऊंची लपटें देखीं. गांव के कुछ और लोग भी धमाके की आवाज सुन कर जमा हो चुके थे. करीब जाने पर देखा कि एक छोटे हवाईजहाज के टुकड़े इधरउधर जल रहे थे. लपटें काफी ऊंची और तेज थीं. किसी में पास जाने की हिम्मत नहीं थी. देखने से लग रहा था कि सबकुछ जल कर राख हो चुका है.

तभी सावित्री की नजर मलबे से दूर पड़े किसी शख्स पर गई, जिस के हाथपैरों में कुछ हरकत हो रही थी. वह अपने ससुर के साथ उस के नजदीक गई. कुछ और लोग भी साथ हो लिए थे.

उस नौजवान का चेहरा जलने से काला हो गया था. हाथपैरों पर भी जलने के निशान थे. वह बेहोश पड़ा था, पर रहरह कर अपने हाथपैर हिला रहा था.

तभी एक गांव वाले ने उस की नब्ज देखी और फिर नाक के पास हाथ ले जा कर सावित्री के ससुर से बोला, ‘‘सरपंचजी, इस की सांसें चल रही हैं. यह अभी जिंदा है, पर इस की हालत नाजुक दिखती है. इस को तुरंत इलाज की जरूरत है.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘हां, इसे जल्द ही अस्पताल ले जाना होगा. प्रशासन को अभी इस की सूचना भी शायद न मिली हो. सूचना मिलने के बाद भी सुबह के पहले यहां पर किसी के आने की उम्मीद नहीं है. तुम में से कोई मेरी मदद करो. मेरा ट्रैक्टर ले कर आओ. इसे शहर के अस्पताल ले चलते हैं.’’

थोड़ी देर में ही 2-3 नौजवान ट्रैक्टर ले कर आ गए थे. उस घायल नौजवान को ट्रैक्टर से ही शहर के बड़े अस्पताल ले गए. सावित्री भी सरपंचजी के साथ शहर तक गई थी.

अस्पताल में डाक्टर ने देख कर कहा कि हालत नाजुक है. पुलिस को भी सूचित करना होगा. यह काम सरपंच ने खुद किया और डाक्टर को तुरंत इलाज शुरू करने को कहा.

इमर्जैंसी वार्ड में चैकअप करने के बाद डाक्टर ने उसे इलाज के लिए आईसीयू में भेज दिया. पर उस शख्स के पास से कोई पहचानपत्र या बोर्डिंग पास भी नहीं मिला.

हादसे की जगह के पास से एक बुरी तरह जला हुआ पर्स मिला था. उस पर्स में ऐसा कुछ भी सुबूत नहीं मिला था, जिस से उस की पहचान हो सके.

डाक्टर ने इलाज तो शुरू कर दिया था. सरपंचजी खुद गारंटर बने थे यानी इलाज का खर्च उन्हें ही उठाना था.

सुबह होते ही इस हादसे की खबर रेडियो और टैलीविजन पर फैल चुकी थी.

पुलिस भी आ गई थी. पुलिस को सारी बात बता कर उस की सहमति ले कर सरपंचजी अपनी बहू सावित्री के साथ अपने घर लौट आए थे.

शहर के एयरपोर्ट पर अफरातफरी का सा माहौल था. एयरपोर्ट शहर से 20 किलोमीटर दूर और गांव की विपरीत दिशा में था. लोग उस उड़ान से आने वाले अपने रिश्तेदारों का हाल जानने के लिए बेचैन थे.

एयरलाइंस के मुलाजिमों ने तो सभी सवारियों और हवाईजहाज के मुलाजिमों की लिस्ट लगा रखी थी, जिस में सब को ही मरा ऐलान किया गया था.

थोड़ी ही देर में टैलीविजन पर एक ब्रेकिंग न्यूज आई कि एक मुसाफिर इस हादसे में बच गया है, जिस की हालत नाजुक है, पर उस की पहचान नहीं हो सकी है. सब के मन में उम्मीद की एक किरण जग रही थी कि शायद वह उन्हीं का सगा हो.

अस्पताल में भीड़ उमड़ पड़ी थी. डाक्टर ने कहा कि अभी वह वैंटिलेटर पर है और हालत नाजुक है. मरीज के पास तो अभी कोई नहीं जा सकता है, उसे सिर्फ बाहर से शीशे से देखा जा सकता है. लोग बाहर से ही उस को देख कर पहचानने की कोशिश कर रहे थे, पर यह मुमकिन नहीं था. उस का चेहरा काफी जला हुआ था. उस पर दवा का लेप भी लगा था.

इधर सरपंच रोज सुबह अस्पताल आते थे, अकसर सावित्री भी साथ होती थी. वह उन को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, क्योंकि सरपंच खुद दिल के मरीज थे.

कुछ दिनों के बाद डाक्टर ने सरपंच से कहा, ‘‘मरीज खतरे से बाहर तो है, पर वह कोमा में जा चुका है. कोमा से बाहर निकलने में कितना समय लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है. कुछ ही दिनों में उसे आईसीयू से निकाल कर स्पैशल वार्ड में भेज देंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि उस का चेहरा बहुत खराब हो चुका है. अगर वह कोमा से बाहर भी आता है, तो आईने में अपनेआप को देख कर उसे गहरा सदमा लगेगा.’’

सरपंच ने पूछा, ‘‘तो इस का इलाज क्या है?’’

डाक्टर बोला, ‘‘उस के चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करनी होगी, पर इस में काफी खर्च होगा. अभी तक के इलाज का खर्च तो आप देते आए हैं.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘आप पैसे की चिंता न करें. अगर यह ठीक हो जाता है, तो मैं समझूंगा कि मेरा बेटा मुझे दोबारा मिल गया है.’’

कुछ दिनों के बाद उस मरीज को स्पैशल वार्ड में शिफ्ट किया गया था. वहां उस की देखभाल दिन में तो अकसर सावित्री ही किया करती थी, लेकिन रात में सरपंच के कहने पर गांव से भी कोई न कोई आ जाता था.

तकरीबन 2 महीने बाद उस की प्लास्टिक सर्जरी भी हुई. उस आदमी को नया चेहरा मिल गया था.

इसी बीच सरपंच के ट्रैक्टर की ट्रौली पर एक बैल्ट मिली. हादसे के बाद उस नौजवान को इसी ट्रौली से अस्पताल पहुंचाया गया था. शायद किसी ने उसे आराम पहुंचाने के लिए बैल्ट निकाल कर ट्रौली के एक कोने में रख दी थी, जिस पर अब तक किसी की नजर नहीं पड़ी थी. बैल्ट पर 2 शब्द खुदे थे एसके. उस बैल्ट को देख कर सरपंच को लगा कि उस आदमी की पहचान में यह एक अहम कड़ी साबित हो.

इस की सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी. साथ ही, लोकल टैलीविजन चैनल और रेडियो पर भी इसे प्रसारित किया गया.

अगले ही दिन एक बुजुर्ग दंपती उसे देखने अस्पताल आए थे. उन का शहर में काफी बड़ा कारोबार था, पर चेहरा बदल जाने के चलते वे उसे पहचान नहीं पा रहे थे. बैल्ट भी पुलिस को दे दी गई थी.

वहां पर उन्होंने सावित्री को देखा, जो मन लगा कर मरीज की सेवा कर रही थी. अस्पताल से निकल कर वे सीधे पुलिस स्टेशन गए और वहां उस बैल्ट को देख कर कहा कि ऐसी ही एक बैल्ट उन के बेटे की भी थी, जिस पर एसके लिखा था. यह बैल्ट जानबूझ कर उन के बेटे ने खरीदी थी, क्योंकि एसके उस के नाम ‘सत्य कुमार’ से मिलती थी. फिर भी संतुष्ट हुए बिना उसे अपना बेटा मानने में कुछ ठीक नहीं लग रहा था. फिलहाल वे अपने घर लौट गए थे. पर सरपंच का मन कह रहा था कि यह सत्य कुमार ही है.

तकरीबन एक महीना गुजर चुका था. सरपंच और सावित्री दोनों ही सत्य कुमार की देखभाल कर रहे थे.

एक दिन अचानक सावित्री ने देखा कि सत्य कुमार के होंठ फड़फड़ा रहे थे और हाथ से कुछ इशारा कर रहा था. उस ने तुरंत डाक्टर को यह बात कही.

डाक्टर ने कहा कि दवा अपना काम कर रही है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि अब वह बिलकुल ठीक हो जाएगा.

कुछ दिन बाद सावित्री उसे जब अपने हाथ से खाना खिला रही थी, सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर कुछ बोलने की कोशिश की थी.

उसी शाम जब सावित्री अपने घर जाने के लिए उठी, तो सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर बहुत कोशिश के बाद लड़खड़ाती जबान में बोला, ‘‘रुको, मैं यहां कैसे आया हूं? मैं तो हवाईजहाज में था. मैं तो कारोबार के सिलसिले में बाहर गया हुआ था.’’

फिर अपने बारे में उस ने कुछ जानकारी दी थी. सरपंच और सावित्री दोनों की खुशी का ठिकाना न था. उन्होंने डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे चैक कर कहा, ‘‘मुबारक हो. अब यह होश में आ गया है. इस के मातापिता को सूचना दे दें.’’

सावित्री और सरपंच अस्पताल में ही रुक कर सत्य कुमार के मातापिता का इंतजार कर रहे थे. वे लोग भी खबर मिलते ही दौड़े आए थे. सत्य कुमार ने अपने मातापिता को पहचान लिया था और हादसे के पहले तक की बात बताई. उस के बाद का उसे कुछ याद नहीं था.

सत्य कुमार के पिता ने सरपंच और सावित्री का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘‘आप के उपकार के लिए हम लोग हमेशा कर्जदार रहेंगे. यह लड़की आप की बेटी है न?’’

सरपंच बोले, ‘‘मेरे लिए तो बेटी से भी बढ़ कर है. है तो मेरी बहू, पर शादी के एक साल के अंदर ही मेरा एकलौता बेटा हम लोगों को अकेला छोड़ कर चला गया, पर सावित्री ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.

‘‘मैं तो चाहता था कि यह अपने मांबाप के पास चली जाए और दूसरी शादी कर ले, पर यह तैयार नहीं थी.’’

सत्य कुमार के पिता ने कहा, ‘‘अगर आप को कोई एतराज नहीं है, तो मैं सावित्री को अपनी बहू बनाने को तैयार हूं, क्यों सत्य कुमार? ठीक रहेगा न?’’

सत्य कुमार ने सहमति में सिर हिला कर अपनी हामी भर दी थी. फिर सेठजी ने सत्य कुमार की मां की ओर देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे सेठानी, तुम भी तो कुछ कहो.’’

सेठानी बोलीं, ‘‘आप लोगों ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मेरे बोलने को कुछ बचा ही नहीं है.’’

फिर वे सावित्री की ओर देख कर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’

सावित्री की आंखों से आंसू की कुछ बूंदें छलक कर उस के गालों पर आ गई थीं. वह बोली, ‘‘मैं आप लोगों की भावनाओं का सम्मान करती हूं, पर मैं अपने सासससुर को अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’

सरपंच ने सावित्री को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम सभी लोगों की खुशी इसी में है. और हम लोगों को अब जीना ही कितने दिन है, जबकि तुम्हारी सारी जिंदगी आगे पड़ी है.’’

सेठजी ने भी सरपंच की बातों को सही ठहराते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी चाहो और जितने दिन चाहो, सरपंचजी के यहां बीचबीच में आती रहना.’’

सावित्री सेठजी से बोली, ‘‘सत्यजी को आप ने जन्म दिया है और बाबूजी ने इन्हें दोबारा जन्म दिया है, तो इन की भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है मेरे ससुरजी के लिए.’’

सेठजी बोले, ‘‘मैं मानता हूं और मेरा बेटा भी इतनी समझ रखता है. सत्य कुमार को तो 2-2 पिताओं का प्यार मिलेगा. सत्य कुमार सरपंचजी का उतना ही खयाल रखेगा, जितना वह हमारा रखता है.’’

सावित्री और सत्य दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. उन लोगों की बातें सुन कर वह कुछ संतुष्ट लग रही थी.

उस दिन सारी रात लोगों ने अस्पताल में ही बिताई थी. सावित्री के मायके में भी सरपंच ने यह बात बता दी थी. सभी को यह रिश्ता मंजूर था. सरपंच ने धूमधाम से अपने घर से ही सावित्री की शादी की थी.

निकिता की नाराजगी: कौन-सी भूल से अनजान था रंजन

निकिता अकसर किसी बात को ले कर झल्ला उठती थी. वह चिङचिङी स्वभाव की क्यों हो गई थी, उसे खुद भी पता नहीं था. पति रंजन ने कितनी ही बार पूछा लेकिन हर बार पूछने के साथ ही वह कुछ और अधिक चिड़चिड़ा जाती.

“जब देखो तब महारानी कोपभवन में ही रहती हैं. क्या पता कौन से वचन पूरे न होने का मौन उलाहना दिया जा रहा है. मैं कोई अंतरयामी तो हूं नहीं जो बिना बताए मन के भाव जान लूं. अरे भई, शिकायत है तो मुंह खोला न, लेकिन नहीं. मुंह को तो चुइंगम से चिपका लिया. अब परेशानी बूझो भी और उसे सुलझाओ भी. न भई न. इतना समय नहीं है मेरे पास,” रंजन उसे सुनाता हुआ बड़बड़ाता.

निकिता भी हैरान थी कि वह आखिर झल्लाई सी क्यों रहती है? क्या कमी है उस के पास? कुछ भी तो नहीं… कमाने वाला पति. बिना कहे अपनेआप पढ़ने वाले बच्चे. कपड़े, गहने, कार, घर और अकेले घूमनेफिरने की आजादी भी. फिर वह क्या है जो उसे खुश नहीं होने दे रहा? क्यों सब सुखसुविधाओं के बावजूद भी जिंदगी में मजा नहीं आ रहा.

कमोबेश यही परेशानी रंजन की भी है. उस ने भी लाख सिर पटक लिया लेकिन पत्नी के मन की थाह नहीं पा सका. वह कोई एक कारण नहीं खोज सका जो निकिता की नाखुशी बना हुआ है.

‘न कभी पैसे का कोई हिसाब पूछा न कभी खर्चे का. न पहननेओढ़ने पर पाबंदी न किसी शौक पर कोई बंदिश. फिर भी पता नहीं क्यों हर समय कटखनी बिल्ली सी बनी रहती है…’ रंजन दिन में कम से कम 4-5 बार ऐसा अवश्य ही सोच लेता.

ऐसा नहीं है कि निकिता अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से नहीं निभा रही या फिर अपनी किसी जिम्मेदारी में कोताही बरत रही है. वह सबकुछ उसी तरह कर रही है जैसे शादी के शुरुआती दिनों में किया करती थी. वैसे ही स्वादिष्ठ खाना बनाती है. वैसे ही घर को चकाचक रखती है. बाहर से आने वालों के स्वागतसत्कार में भी वही गरमजोशी दिखाती है. लेकिन सबकुछ होते हुए भी उस के क्रियाकलापों में वह रस नहीं है. मानों फीकी सी मिठाई या फिर बिना बर्फ वाला कोल्डड्रिंक… उन दिनों कैसे उमगीउमगी सी उड़ा करती थी. अब मानों पंख थकान से बोझिल हो गए हैं.

रंजन ने कई दोस्तों से अपनी परेशानी साझा की. अपनीअपनी समझ के अनुसार सब ने सलाह भी दी. किसी ने कहा कि महिलाओं को सरप्राइज गिफ्ट पसंद होते हैं तो रंजन उस के लिए कभी साड़ी, कभी सूट तो कभी कोई गहना ले कर आया लेकिन निकिता की फीकी हंसी में प्राण नहीं फूंक सका. किसी ने कहा कि बाहर डिनर या लंच पर ले कर जाओ. वह भी किया लेकिन सब व्यर्थ. किसी ने कहा पत्नी को किसी पर्यटन स्थल पर ले जाओ लेकिन ले किसे जाए? कोई जाने को तैयार हो तब न? कभी बेटे की कोचिंग तो कभी बेटी की स्कूल… कोई न कोई बाधा…

रंजन को लगता है कि निकिता बढ़ते बच्चों के भविष्य को ले कर तनाव में है. कभी उसे लगता कि वह अवश्य ही किसी रिश्तेदार को ले कर हीनभावना की शिकार हो रही है. कभीकभी उसे यह भी वहम हो जाता कि कहीं खुद उसे ही ले कर तो किसी असुरक्षा की शिकार तो नहीं है? लेकिन उस की हर धारणा बेकार साबित हो रही थी.

ऐसा भी नहीं है कि निकिता उस से लड़तीझगड़ती या फिर घर में क्लेश करती, बस अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करती. न ही कोई जिद या आग्रह. जो ले आओ वह बना देती है, जो पड़ा है वह पहन लेती. अपनी तरफ से तो बात की शुरुआत भी नहीं करती. जितना पूछो उतना ही जवाब देती. अपनी तरफ से केवल इतना ही पूछती कि खाने में क्या बनाऊं? या फिर चाय बना दूं? शेष काम यंत्रवत ही होते हैं.

कई बार रंजन को लगता है जैसे निकिता किसी गहरे अवसाद से गुजर रही है लेकिन अगले ही पल उसे फोन पर बात करते हुए मुसकराता देखता तो उसे अपना वहम बेकार लगता.
निकिता एक उलझी हुई पहेली बन चुकी थी जिसे सुलझाना रंजन के बूते से बाहर की बात हो गई. थकहार कर उस ने निकिता की तरफ से अपनेआप को बेपरवाह करना शुरू कर दिया. जैसे जी चाहे वैसे जिए.
न जाने प्रकृति ने मानव मन को इतना पेचीदा क्यों बनाया है, इस की कोई एक तयशुदा परिभाषा होती ही नहीं.

मानव मन भी एक म्यूटैड वायरस की तरह है. हरएक में इस की सरंचना दूसरे से भिन्न होती है. बावजूद इस के कुछ सामान्य समानताएं भी होती हैं. जैसे हरेक मन को व्यस्त रहने के लिए कोई न कोई प्रलोभन चाहिए ही चाहिए. यह कोई लत, कोई व्यसन, या फिर कोई शौक भी हो सकता है. या इश्क भी…

बहुत से पुरुषों की तरह रंजन का मन भी एक तरफ से हटा तो दूसरी तरफ झुकने लगा. यों भी घर का खाना जब बेस्वाद लगने लगे तो बाहर की चाटपकौड़ी ललचाने लगती हैं.

पिछले कुछ दिनों से अपने औफिस वाली सुनंदा रंजन को खूबसूरत लगने लगी थी. अब रातोरात तो उस की शक्लसूरत में कोई बदलाव आया नहीं होगा. शायद रंजन का नजरिया ही बदल गया था. शायद नहीं, पक्का ऐसा ही हुआ है. यह मन भी बड़ा बेकार होता है. जब किसी पर आना होता है तो अपने पक्ष में माहौल बना ही लेता है.

“आज जम रही हो सुनंदा,” रंजन ने कल उस की टेबल पर ठिठकते हुए कहा तो सुनंदा मुसकरा दी.

“क्या बात है? आजकल मैडम घास नहीं डाल रहीं क्या?” सुनंदा ने होंठ तिरछे करते हुए कहा तो रंजन खिसिया गया.

‘ऐसा नहीं है कि निकिता उस के आमंत्रण को ठुकरा देती है. बस, बेमन से खुद को सौंप देती है,’ याद कर रंजन का मन खट्टा हो गया.

“लो, अब सुंदरता की तारीफ करना भी गुनाह हो गया. अरे भई, खूबसूरती होती ही तारीफ करने के लिए है. अब बताओ जरा, लोग ताजमहल देखने क्यों जाते हैं? खूबसूरत है इसलिए न?” रंजन ने बात संभालते हुए कहा तो सुनंदा ने गरदन झुका कर दाहिने हाथ को सलाम करने की मुद्रा में माथे से लगाया. बदले में रंजन ने भी वही किया और एक मिलीजुली हंसी आसपास बिखर गई.

रंजन निकिता से जितना दूर हो रहा था उतना ही सुनंदा के करीब आ रहा था. स्त्रीपुरुष भी तो विपरीत ध्रुव ही होते हैं. सहज आकर्षण से इनकार नहीं किया जा सकता. यदि उपलब्धता सहज बनी रहे तो बात आकर्षण से आगे भी बढ़ सकती है. सुनंदा के साथ कभी कौफी तो कभी औफिस के बाद बेवजह तफरीह… कभी साथ लंच तो कभी यों ही गपशप… आहिस्ताआहिस्ता रिश्ते की रफ्तार बढ़ रही थी.

सुनंदा अकेली महिला थी और अपने खुद के फ्लैट में रहती थी. जाने पति से तलाक लिया था या फिर स्वेच्छा से अलग रह रही थी, लेकिन जीवन की गाड़ी में बगल वाली सीट हालफिलहाल खाली ही थी जिस पर धीरेधीरे रंजन बैठने लगा था.

रंजन हालांकि अपनी उम्र के चौथे दशक के करीब था लेकिन इन दिनों उस के चेहरे पर पच्चीसी वाली लाली देखी जा सकती थी. प्रेम किसी भी उम्र में हो, हमेशा गुलाबी ही होता है.
सुनंदा के लिए कभी चौकलेट तो कभी किसी पसंदीदा लेखक की किताब रंजन अकसर ले ही आता था.

वहीं सुनंदा भी कभी दुपट्टा तो कभी चप्पलें… यहां तक कि कई बार तो अपने लिए लिपस्टिक, काजल या फिर बालों के लिए क्लिप खरीदने के लिए भी रंजन को साथ चलने के लिए कहती. सुन कर रंजन झुंझला जाता. सुनंदा उस की खीज पर रीझ जाती.

“ऐसा नहीं है कि मैं यह सब अकेली खरीद नहीं सकती बल्कि हमेशा खरीदती ही रही हूं लेकिन तुम्हारे साथ खरीदने की खुशी कुछ अलग ही होती है. चाहे पेमेंट भी मैं ही करूं, तुम्हारा केवल पास खड़े रहना… कितना रोमांटिक होता है, तुम नहीं समझोगे,” सुनंदा कहती तो रंजन सुखद आश्चर्य से भर जाता.

मन की यह कौन सी परत होती है जहां इस तरह की इंद्रधनुषी अभिलाषाएं पलती हैं. इश्क की रंगत गुलाबी से लाल होने लगी. रंजन पर सुनंदा का अधिकार बढ़ने लगा. अब तो सुनंदा अंडरगारमैंट्स भी रंजन के साथ जा कर ही खरीदती थी. सुनंदा के मोबाइल का रिचार्ज करवाना तो कभी का रंजन की ड्यूटी हो चुकी थी. मिलनामिलाना भी बाहर से भीतर तक पहुंच गया था. यह अलग बात है कि रंजन अभी तक सोफे से बिस्तर तक का सफर तय नहीं कर पाया था.

आज सुबहसुबह सुनंदा का व्हाट्सऐप मैसेज देख कर रंजन पुलक उठा. लिखा था,”मिलो, दोपहर में.”

ऐसा पहली बार हुआ है जब सुनंदा ने उसे छुट्टी वाले दिन घर बुलाया है.
दोस्त से मिलने का कह कर रंजन घर से निकला. निकिता ने न कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही कुछ पूछा. कुछ ही देर में रंजन सुनंदा के घर के बाहर खड़ा था. डोरबेल पर उंगली रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया.

“दरवाजे पर ही खड़ी थीं क्या?” रंजन उसे देख कर प्यार से मुसकराया.

सुनंदा अपनी जल्दबाजी पर शरमा गई. रंजन हमेशा की तरह सोफे पर बैठ गया. सुनंदा ने अपनी कुरसी उस के पास खिसका ली.

“आज कैसे याद किया?” रंजन ने पूछा. सुनंदा ने कुछ नहीं कहा बस मुसकरा दी.

चेहरे की रंगत बहुतकुछ कह रही थी. सुनंदा उठ कर रंजन के पास सोफे पर बैठ गई और उस के कंधे पर सिर टिका दिया. रंजन के हाथ सुनंदा की कमर के इर्दगिर्द लिपट गए और चेहरा चेहरे पर झुक गया. थोड़ी ही देर में रंजन के होंठ सुनंदा के गालों पर थे. वे आहिस्ताआहिस्ता गालों से होते हुए होंठों की यात्रा कर अब गरदन पर कानों के जरा नीचे ठहर कर सुस्ताने लगे थे. सुनंदा ने रंजन का हाथ पकड़ा और भीतर बैडरूम की तरफ चल दी. यह पहला अवसर था जब रंजन ने ड्राइंगरूम की दहलीज लांघी थी.

साफसुथरा बैड और पासपास रखे जुड़वां तकिए… कमरे के भीतर एक खुमारी सी तारी थी. तापमान एसी के कारण सुकूनभरा था. खिड़कियों पर पड़े मोटे परदे माहौल की रुमानियत में इजाफा कर रहे थे. अब ऐसे में दिल का क्या कुसूर? बहकना ही था.

सुनंदा और रंजन देह के प्रवाह में बहने लगे. दोनों साथसाथ गंतव्य की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक रंजन को अपनी मंजिल नजदीक आती महसूस हुई. उस ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी और अंततः खुद को निढाल छोड़ कर तकिए के सहारे अपनी सांसों को सामान्य करने लगा. तृप्ति की संतुष्टि उस के चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी. सुनंदा की मंजिल अभी दूर थी. बीच राह अकेला छुट जाने की छटपटाहट से वह झुंझला गई मानों मगन हो कर खेल रहे बच्चे के हाथ से जबरन उस का खिलौना छीन लिया गया हो.

नाखुशी जाहिर करते हुए उस ने रंजन की तरफ पीठ कर के करवट ले ली. रंजन अभी भी आंखें मूंदे पड़ा था. जरा सामान्य होने पर रंजन ने सुनंदा की कमर पर हाथ रखा. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हाथ को धीरे से परे खिसका दिया. वह कपड़े संभालते हुए उठ बैठी.

“चाय पीओगे?” सुनंदा ने पूछा. रंजन ने खुमारी के आगोश में मुंदी अपनी आंखें जबरन खोलीं.

“आज तो बंदा कुछ भी पीने को तैयार है,” रंजन ने कहा.

उस की देह का जायका अभी भी बना हुआ था. सुनंदा के चेहरे पर कुछ देर पहले वाला उत्साह अब नहीं था. उस की चाल में गहरी हताशा झलक रही थी. रंजन की उपस्थिति अब उसे बहुत बोझिल लग रही थी.

“थैंक्स फौर सच ए रोमांटिक सिटिंग,” कहता हुआ चाय पीने के बाद रंजन उस के गाल पर चुंबन अंकित कर चला गया. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

कुछ दिनों से रंजन को सुनंदा के व्यवहार का ठंडापन बहुत खल रहा है. 1-2 बार दोनों अकेले में भी मिले लेकिन वही पहले वाली कहानी ही दोहराई गई. हर बार समागम के बाद रंजन का चेहरा तो खिल जाता लेकिन सुनंदा के चेहरे पर असंतुष्टि की परछाई और भी अधिक गहरी हो जाती. धीरेधीरे सुनंदा रंजन से खिंचीखिंची सी रहने लगी. अब तो उस के घर आने के प्रस्ताव को भी टालने लगी.

रंजन समझ नहीं पा रहा था कि उसे अचानक क्या हो गया? वह कभी उस के लिए सरप्राइज गिफ्ट ले कर आता, कभी उस के सामने फिल्म देखने चलने या यों ही तफरीह करने का औफर रखता लेकिन वह किसी भी तरह से अब सुनंदा की नजदीकियां पाने में सफल नहीं हो पा रहा था.

‘सारी औरतें एकजैसी ही होती हैं. जरा भाव दो तो सिर पर बैठ जाती हैं…’ निकिता के बाद सुनंदा को भी मुंह फुलाए देख कर रंजन अकसर सोचता. सुनंदा का इनकार वह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

“आज छुट्टी है, निकिता को उस के घर जा कर सरप्राइज देता हूं. ओहो, कितनी ठंड है आज,” निकिता के साथ रजाई में घुस कर गरमगरम कौफी पीने की कल्पना से ही उस का मन बहकने लगा.

निकिता के घर पहुंचा तो उस ने बहुत ही ठंडेपन से दरवाजा खोला. बैठी भी उस से परे दूसरे सोफे पर. बैडरूम में जाने का भी कोई संकेत रंजन को नहीं मिला. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद सुनंदा खड़ी हो गई.

“रंजन, मुझे जरा बाहर जाना है. हम कल औफिस में मिलते हैं,” सुनंदा ने कहा. रंजन अपमान से तिलमिला गया.

“क्या तुम मुझे साफसाफ बताओगी कि आखिर हुआ क्या है? क्यों तुम मुझ से कन्नी काट रही हो?” रंजन पूछ बैठा.

“आई वांट ब्रैकअप,” सुनंदा ने कहा.

“व्हाट? बट व्हाई?” रंजन ने बौखला कर पूछा.

“सुनो रंजन, हमारे रिश्ते में मैं ने बहुतकुछ दांव पर लगाया है. यहां तक कि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा भी. मैं तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखती सिवाय संतुष्टि के. यदि वह भी तुम मुझे नहीं दे सकते तो फिर मुझे इस रिश्ते से क्या मिला? सिर्फ बदनामी? अपने पैसे, समय और प्रतिष्ठा की कीमत पर मैं बदनामी क्यों चुनूं?” सुनंदा ने आखिर वह सब कह ही दिया जिसे वह अब तक अपने भीतर ही मथ रही थी. उस के आरोप सुन कर रंजन अवाक था.

“लेकिन हमारा मिलन तो कितना सफल होता था,” रंजन ने उसे याद दिलाने की कोशिश की.

“नहीं, उस समागम में केवल तुम ही संतुष्ट होते थे. मैं तो प्यासी ही रह जाती थी. तुम ने कभी मेरी संतुष्टि के बारे में सोचा ही नहीं. ठीक वैसे ही जैसे अपना पेट भरने के बाद दूसरे की भूख का एहसास न होना,” सुनंदा बोलती जा रही थी और रंजन के कानों में खौलते हुए तेल सरीखा कुछ रिसता जा रहा था.

सुनंदा के आक्रोश में उसे निकिता का गुस्सा नजर आ रहा था. निकिता में सुनंदा… सुनंदा में निकिता… आज रंजन को निकिता की नाराजगी समझ में आ रही थी.

थके कदमों से रंजन घर की तरफ लौट गया. मन ही मन यह ठानते हुए कि यदि यही निकिता की नाराजगी की वजह है तो वह अवश्य ही उसे दूर करने की कोशिश करेगा. अपने मरते रिश्ते को संजीवनी देगा.

कहना न होगा कि इन दिनों निकिता हर समय खिलखिलाती रहती है. एक लज्जायुक्त मुसकान हर समय होंठों पर खिली रहती है.

रंजन मन ही मन सुनंदा का एहसानमंद है, इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने का रास्ता दिखाने के लिए.

लुट गई जोगी तेरे प्यार में : क्या थी मौलाना की शर्त

जमीला और शर्मिला पक्की सहेलियां थीं. उन की दोस्ती को देख कर घरपरिवार वाले और पड़ोसी उन्हें दो जिस्म एक जान कहते थे.

दोनों सहेलियों ने गांव में ही एकसाथ पढ़ाई की थी. आगे की पढ़ाई के लिए गांव में स्कूल न होने, गरीबी और परदा प्रथा की वजह से उन के परिवारों ने आगे दिलचस्पी नहीं दिखाई. नतीजतन, वे दोनों घर पर ही रह कर परिवार के साथ बीड़ी बनाने का काम करने लगीं.

जमीला कब जवान हो गई, उस की समझ में नहीं आया. घर के बड़ेबूढ़े जब उसे टोकते, ‘बड़ी हो गई है तू, ठीक से दुपट्टा ओढ़ कर बाहर निकला कर. अकेले घूमने मत जाना. बहू, इसे नकाब ला कर दे. अब कोई छोटी बच्ची थोड़े ही है, बड़ी हो गई…’

वह सोचती, ‘आखिर मुझ में ऐसा क्या हुआ है? जब मैं स्कूल जाती थी, तब कोई कुछ नहीं कहता था.’

शर्मिला की शादी पास के गांव में हो गई और जमीला अकेली रह गई. दिल की बात कहनेसुनने वाला कोई न रहा. उस की जिंदगी कैद के पंछी की तरह रह गई. बीड़ी बनाते और घर का काम करतेकरते उस का दम घुटने लगा.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. जवानी जमीला को जिंदगी का मजा लूटने की दावत देने लगी. वह अंदर ही अंदर कसमसाने लगी. जब वह जवान जोड़ों को देखती, तो उस की बेचैनी और बढ़ जाती. शहनाई की आवाज सुन कर वह जोश में आ जाती.

‘‘जमीला के अब्बू, देखना… जमीला को क्या हुआ है…’’ उस की मां ने घबरा कर आवाज दी.

‘‘आया बेगम,’’ बाहर अपने दोस्तों के साथ बैठे जमीला के अब्बू जावेद मियां ने कहा.

वे दौड़ेदौड़े बैठक में आए, जहां जमीला अकेली बैठी बीड़ी बनातेबनाते बेहोश हो कर गिर गई थी.

‘‘क्या हुआ बेटी, देखो मुझे… आंखें खोलो… बेगम, पानी लाओ… इस के मुंह पर पानी के छींटे मारो,’’ जावेद मियां ने कहा.

तब तक उन के दोस्त भी अंदर आ गए थे.

‘‘कैसे हो गया यह सब?’’ मौलाना ने पूछा, जो जावेद के दोस्त थे.

‘‘क्या बताऊं… जमीला बैठी बीड़ी बना रही थी कि एकाएक बेहोश हो कर गिर पड़ी,’’ जमीला की मां ने बताया.

मौलाना ने झाड़फूंक शुरू कर दी. मुंह पर पानी के छींटे मारे, प्याज

सुंघाई गई और तकरीबन आधा घंटे बाद जमीला को होश आ गया.

जमीला कुछ थकीथकी सी लग

रही थी, इसलिए उसे आराम करने की सलाह दे कर जावेद मियां के दोस्त वहां से चले गए.

दूसरे दिन मौलाना ने जावेद मियां के घर पर दस्तक दी. दोनों बैठ कर जमीला की बीमारी पर बातचीत करने लगे.

‘‘देखो जावेद मियां, ऐसे हालात

में लड़की की शादी करने में मुश्किल आएगी,’’ मौलवी ने कहा.

‘‘बात तो सही है, पर इस का कोई उपाय तो बताओ?

‘‘जमीला के ठीक होते ही मुझे जैसा भी लड़का मिलेगा, मैं उस की शादी कर दूंगा,’’ कह कर जावेद मियां चुप हो गए.

‘‘ठीक है, मैं पता करता हूं, फिर तुम्हें खबर करूंगा…’’ मौलाना ने कहा, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

तकरीबन हफ्तेभर बाद मौलाना जावेद मियां के घर दोबारा आए.

‘‘आओ मौलाना, काफी दिन बाद आना हुआ,’’ जावेद मियां ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारे काम में लगा था. बड़ी मुश्किल से एक शख्स मिला है. उस का कहना है कि वह लड़की को ठीक कर देगा. कुछ वक्त लगेगा, पैसा भी खर्च होगा. जब तक झाड़फूंक चलेगी, तब तक यह बात किसी तक न पहुंचे, वरना इल्म टूट जाएगा.’’

‘‘मौलाना, मुझे हर शर्त मंजूर है. तुम आज से ही इलाज शुरू करा दो. अपनी बेटी की बेहतरी के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं.’’

मौलाना के मन में खोट था. उस ने अपने एक दूर के साले असद से इस पूरे मसले पर पहले ही बात कर ली थी.

मौलाना ने उस से कहा था, ‘देखो मियां, मैं ने सौदा पटा लिया है. जावेद मियां की जमीन अपनी जमीन से लगी हुई है. हमें उसे हड़पना है. अब जा कर फंसा है. पहले तो बड़ीबड़ी बातें करता था, खेत जाने का रास्ता बंद कर दिया था, इसलिए मजबूरी में मुझे उस से दोस्ती करनी पड़ी.

‘तुम ऐसी चाल चलो कि जावेद की जमीन बिक जाए और वह मुझे मिल जाए.’

असद एक शातिर बदमाश था. उस की बीवी उस की हरकतों से तंग आ कर पिछले 10 सालों से अपने मायके में बैठी थी. गांव के भोलेभाले लोगों को गंडेतावीज बना कर देना, उन से रकम ऐंठना उस का पेशा था.

असद ने जावेद मियां के घर आ कर अपना काम शुरू कर दिया.

शुरूशुरू में तो जमीला को कुछ अच्छा न लगा, लेकिन अकेले में पराए मर्द को पा कर वह धीरेधीरे खुश रहने लगी.

जब असद को महसूस हुआ कि जमीला उस की ओर खिंच रही है, तो उस ने जावेद मियां से कहा, ‘‘जावेद साहब, कुछ जरूरी काम से मैं 1-2 दिन के लिए घर जा रहा हूं, लेकिन जल्दी ही वापस आ जाऊंगा.’’

जाने से पहले मौलाना और असद के बीच साजिश की लंबी बात चली. इसी के तहत वह अचानक अपने घर चला गया.

इधर जावेद मियां परेशान हो उठे, क्योंकि जमीला फिर से बारबार बेहोश होने लगी थी.

वे घबरा कर मौलाना के पास गए और असद को जल्द से जल्द बुलाने की गुहार लगाई.

मौलाना की खबर पा कर असद वापस आया ही था कि 8-10 मर्द और औरत उसे ढूंढ़ते हुए जावेद मियां के घर जा पहुंचे.

वे सभी गुजारिश करने लगे, ‘जोगी बाबा गांव वापस चलो, हम सब परेशान होने लगे हैं.’

इसी बीच मौलाना ने आ कर लोगों को समझीया कि आप के जोगी बाबा 2 दिन बाद आप के पास आ जाएंगे.

रात में असद उर्फ जोगी बाबा के शरीर में भयानक हलचल होने लगी और वह जोरजोर से हंसने लगा. घर के सभी लोग जाग गए. बाहर से आए उस के चेले दुआ मांगने लगे, परेशानी से बचने के उपाय पूछने लगे.

जोगी बाबा का गुस्से से भरा मिजाज देख कर सब डर गए. असद ने बताया कि जावेद के घर के पीछे किसी ने काला जादू कर दिया है, उसे निकाल कर नदी में डाल दो.

पर सावधान, किसी की जान जा सकती है. 5 क्विंटल पुलाव बना कर फातिहा दिलाओ और पहले कहीं से काले जादू की पुडि़या ढूंढ़ो. ज्यादा से ज्यादा लोगों को खाना खिलाओ. जोगी बाबा जो कहे वह करो. सब ठीक हो जाएगा.

काफी मशक्कत के बाद आखिर कपड़े में लिपटी एक पुडि़या मिल गई.

उस पुडि़या में हड्डी, काजल, सिंदूर, अनाज, काली चूड़ी वगैरह मिली. शक अब यकीन में बदल गया.

‘‘जावेद मियां, बात को समझे…’’ मौलाना ने कहा, ‘‘बच्ची प्यारी है या जायदाद. तुम ऐसा करो कि मेरे नाम जमीन की रजिस्ट्री कर दो. पूरा खर्चा मैं करता हूं. जब पैसा हो, तो मेरा पैसा लौटा देना और जमीन वापस ले लेना.’’

मौलाना ने अपनी चाल से जावेद को फांस लिया. अंधविश्वास में फंसे जावेद ने मौलाना की बात मान कर जमीन की रजिस्ट्री उन के नाम कर दी.

इधर असद उर्फ जोगी बाबा ने ऐसी चाल चली कि जमीला ने अपनेआप को उस के हवाले कर दिया.

अब वे दोनों बीमारी की आड़ले कर जिंदगी का मजा लूटने लगे. झाड़फूंक के बहाने अब दोनों को कोई नहीं रोक पाता था.

जमीला को जब से पराए मर्द का चसका लगा था, तब से वह खुश रहने लगी थी. उस के मांबाप इसे जोगी बाबा की झाड़फूंक का नतीजा मान रहे थे.

धीरेधीरे साल पूरा होने को आया. उस के मांबाप को जमीला की शादी

की फिक्र होने लगी और वे लड़के की तलाश में जुट गए.

इस बात की भनक असद को लग गई. वह मौका पा कर वहां से रफूचक्कर हो गया.

इसी बीच जमीला की शादी पक्की हो गई, लेकिन एक दिन वह अचानक बेहोश हो कर गिर पड़ी.

लोगों के झकझोरने पर भी होश नहीं आया, तो उसे अस्पताल ले जाया गया.

लेडी डाक्टर ने जांच करने के बाद कहा, ‘‘हम ने बच्ची को देख लिया है. अब वह होश में आ गई है. आप

उस का खयाल रखिए. भारी चीज न उठाने दें, क्योंकि आप की बेटी मां बनने वाली है.’’

लेडी डाक्टर की यह बात सुन कर जावेद, उस की बेगम और रिश्तेदारों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. उन की जमीला ढोंगी जोगी के प्यार में लुट चुकी थी.

पगली: कैसे पति के धोखे का शिकार हुई नंदिनी

‘‘आजकल आप के टूर बहुत लग रहे हैं. क्या बात है जनाब?’’ नंदिनी संजय से चुहलबाजी कर रही थी.

‘‘क्या करूं, नौकरी का सवाल है, नहीं तो तुम्हें छोड़ कर जाने का मेरा मन बिलकुल भी नहीं करता है,’’ संजय ने भी हंसी का जवाब हंसी में दे दिया.

‘‘पहले तो ऐसा नहीं था, फिर अचानक इतने ज्यादा टूर क्यों हो रहे हैं?’’ इस बार नंदिनी ने संजीदगी से पूछा था.

‘‘तो क्या घर बैठ जाऊं?’’ संजय को गुस्सा आ गया.

‘‘इस में इतना गुस्सा होने की क्या बात है? मैं तो यों ही पूछ रही थी,’’ नंदिनी बोली.

‘‘जैसा कंपनी कहेगी, वही करना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है, पर…’’

‘‘तुम मु?ा पर शक कर रही हो…’’ संजय ने कहा, ‘‘जैसे मैं किसी और से मिलने जाता हूं… है न?’’

‘‘अरे, मैं तो मजाक कर रही थी,’’ नंदिनी ने कहा.

‘‘तुम्हारे मन में ऐसेऐसे खयाल आ जाते हैं, जिन का कुछ भी मतलब नहीं होता है.’’

‘‘अच्छा बाबा, माफ कर दो. मैं तो इसलिए कह रही थी कि गरमी की छुट्टियों में हम सब बच्चों के साथ कहीं बाहर घूमने चलें,’’ नंदिनी जैसे अपनी सफाई पेश कर रही थी.

‘‘ठीक है, देखते हैं,’’ संजय ने कहा.

एक दिन घर के कामकाज निबटा कर नंदिनी छत पर चली गई थी, तभी दरवाजे की घंटी बजी.

जब दरवाजा खोला, तो सामने पड़ोसन रागिनी खड़ी थी.

‘‘आओ रागिनी भाभी, अचानक कैसे आना हुआ?’’ नंदिनी ने पूछा.

‘‘तुम्हें पता है नंदिनी कि आजकल कालोनी में क्या हो रहा है.’’

‘‘ऐसा क्या हो रहा है, जो मु?ो नहीं पता?’’

‘‘अरे, पिछले कई दिनों से एक पगली इस कालोनी में आई हुई है और सब बच्चे उसे छेड़ते रहते हैं.’’

‘‘हां, मैं ने भी उसे देखा है, पर बच्चों को ऐसा नहीं करना चाहिए.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि बाहर बहुत शोर सुनाई दिया. दोनों घर के बाहर आ गईं.

नंदिनी ने देखा कि एक लड़की भाग रही थी और कुछ बच्चे उस के पीछे भाग रहे थे.

नंदिनी ने उन बच्चों को डांट लगाई और उसे अपने साथ घर में ले आई.

अंदर आते ही वह लड़की बेहोश हो गई. नंदिनी ने उस के चेहरे पर पानी के छींटे मारे. होश में आने पर वह नंदिनी से लिपट कर रोने लगी.

नंदिनी ने लड़की से उस का नाम पूछा, लेकिन वह चुप रही, फिर वह जोरजोर से चिल्लाने लगी और नंदिनी से ऐसे लिपट गई, जैसे उसे कुछ याद आ गया हो.

नंदिनी ने उसे आराम से बैठाया और उसे खाने को दिया, तो वह फटाफट    5-6 रोटियां खा गई, जैसे बहुत दिनों से भूखी हो.

‘‘कौन हो तुम?’’ पड़ोसन रागिनी ने उस लड़की से पूछा, तो वह चुप रही. कई बार पूछने पर वह बोली, ‘रेवा…रेवा…रेवा.’

‘‘नंदिनी, पता नहीं यह कहां से आई है? अब इसे यहां से जाने को कह दे,’’ रागिनी ने नंदिनी को सलाह दी.

‘‘कैसी बातें कर रही हो भाभी?  कुछ देर आराम कर ले, फिर जाने को कह दूंगी,’’ नंदिनी बोली.

‘‘देख, मैं कह रही हूं कि ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए,’’ रागिनी ने उसे फिर से सम?ाने की कोशिश की.

‘‘भाभी, आप को पता है कि मैं एक एनजीओ के साथ काम कर रही हूं. मैं उन से बात करूंगी. आप परेशान न हों,’’ नंदिनी बोली.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर रागिनी चली गई.

नंदिनी जब वापस आई, तो देखा कि वह लड़की कमरे के एक कोने में दुबकी डरीसहमी बैठी थी.

नंदिनी ने उसे आवाज लगाई, ‘‘रेवा…’’

वह कुछ नहीं बोली, बल्कि और सिमट कर बैठ गई.

नंदिनी उस के पास गई और पूछा, ‘‘रेवा नाम है न तुम्हारा?’’

उस लड़की ने धीरे से अपना सिर ‘हां’ में हिला दिया.

नंदिनी ने उस से कहा, ‘‘देखो, डरो नहीं. बताओ, तुम कहां से आई हो? हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देंगे.’’

वह लड़की इतना ही बोली, ‘‘मेरा कोई घर नहीं है बीबीजी.’’

नंदिनी को हैरानी हुई कि यह तो कहीं से पागल नहीं लग रही है.

अचानक उस लड़की ने नंदिनी के पैर पकड़ लिए. नंदिनी को उस का बदन गरम लगा. ऐसा लगता था, जैसे उसे बुखार हो.

‘‘अच्छा ठीक है, आज की रात तुम यहीं रह जाओ. कल मैं तुम्हें अपनी संस्था में ले जाऊंगी.’’

‘‘बीबीजी, आप मु?ो अपने पास रख लो. मैं घर का सारा काम करूंगी,’’ कह कर वह फिर से रोने लगी.

‘‘अच्छा, आज तो तुम यहीं रहो, फिर कल देखेंगे,’’ नंदिनी बोली.

संजय रात को काफी देर से आया था. सो, उसे उस लड़की के बारे में कुछ नहीं पता था.

अगली सुबह नंदिनी ने संजय को उस लड़की के बारे में बताया.

संजय ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘‘नंदिनी, इस को अभी घर से निकालो, पता नहीं कौन है….’’

‘‘हां संजय, लेकिन अभी मैं इसे अपनी संस्था में ले जाती हूं.’’

‘‘मैं रात को घर आऊं, तो मु?ो कोई बखेड़ा नहीं चाहिए,’’ कह कर संजय चला गया.

नंदिनी नीचे आई, तो देखा कि उस लड़की को तेज बुखार था.

रात को संजय ने नंदिनी से पूछा, ‘‘क्या वह लड़की चली गई?’’

नंदिनी ने कहा, ‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों…?’’ संजय बोला.

‘‘संजय, उसे बहुत तेज बुखार है और ऐसी हालत में वह लड़की कहां जाएगी? अगर वह मर गई तो…’’

‘‘मु?ो नहीं पता,’’ कहते हुए संजय नीचे चला गया.

वहां वह लड़की बेहोश पड़ी थी. पता नहीं क्यों संजय उसे देख कर हैरानी में पड़ गया.

‘‘नंदिनी, शायद तुम ठीक कह रही हो. अगर यह यहां से गई और मर गई, तो क्या होगा?’’

‘‘फिर क्या करें?’’

‘‘ऐसा करते हैं, जब तक यह ठीक नहीं हो जाती, इसे अपने पास ही रख लेते हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

आजकल करतेकरते कई दिन हो गए, पर रेवा वहां से न जा सकी.

वैसे, नंदिनी अब तक सिर्फ इतना ही जान पाई कि वह एक पहाड़ी लड़की थी और किसी बाबूजी से मिलने आई थी.

‘‘तुम्हें यहां कौन छोड़ गया है?’’ नंदिनी ने पूछा.

‘‘मेरे गांव में कई लोग यहां पर फेरी लगाने आते हैं. उन्हीं लोगों के साथ मैं भी आ गई.’’

‘‘देखो, अगर तुम हमें अपने गांव का नामपता बता दोगी, तो हम तुम्हें वहां पहुंचा देंगे,’’ नंदिनी ने कहा.

‘‘मैं पहली बार अपने गांव से बाहर निकली हूं और मु?ो तो यह भी नहीं पता कि मेरे गांव का क्या नाम है.’’

पता नहीं, वह सच बोल रही थी या ?ाठ, पर नंदिनी को उस की बातों पर कभी भरोसा हो जाता, तो कभी नहीं.

अभी रेवा को आए हुए कुछ समय ही बीता था कि नंदिनी को पता चला कि वह मां बनने वाली है.

नंदिनी हैरानी में पड़ गई कि अब वह क्या करे. उस ने रेवा से पूछा कि यह सब क्या है? कौन है इस बच्चे का पिता? लेकिन रेवा का एक ही जवाब होता, ‘‘बीबीजी, मु?ो नहीं पता. शायद पागलपन के दौरे में मेरा किसी ने फायदा उठा लिया होगा.’’

‘‘तू याद करने की कोशिश तो कर, शायद याद आ जाए.’’

‘‘नहीं बीबीजी, क्योंकि जब मु?ो दौरा पड़ता है, तो उस वक्त की सारी बातें मैं भूल जाती हूं.’’

नंदिनी को कुछ भी सम?ा नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

उस ने संजय से बात की. यह सब सुन कर वह भड़क उठा, ‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था कि इस ?ां?ाट में मत फंसो. अब भुगतो.’’

‘‘तो क्या उसे घर से निकाल दूं?’’

‘‘अब क्या घर से निकालोगी? रहने दो अब.’’

नंदिनी ने अपने पड़ोसियों से बात की. सब ने यही राय दी कि उसे फौरन घर से निकाल देना चािहए.

पर नंदिनी रेवा को वहां से जाने के लिए एक बार भी नहीं कह पाई.

रेवा के मां बनने का समय भी आ गया था. नंदिनी अब तक एक बड़ी बहन की तरह रेवा की देखभाल कर रही थी.

रेवा को एक बहुत ही प्यारा बेटा हुआ. उस बच्चे को देख कर नंदिनी को अपने बच्चों के बचपन याद आ गए.

ठीक होने के बाद रेवा ने फिर से घर के काम करने शुरू कर दिए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि अचानक एक दिन सुबह नंदिनी ने देखा कि रसोई बिखरी पड़ी है. इस का मतलब अभी तक रेवा नहीं आई थी.

कुछ देर उस का इंतजार करने के बाद नंदिनी उस के कमरे में आई, तो देखा कि रेवा कमरे में नहीं थी और उस का बच्चा पलंग पर सो रहा था.

नंदिनी ने बच्चे को गोद में उठा लिया. बच्चे के पास एक चिट्ठी रखी  थी. नंदिनी ने उसे पढ़ना शुरू किया:

‘दीदी, मैं पागल नहीं हूं, लेकिन मु?ो पागल बनना पड़ा, क्योंकि अगर मैं ऐसा नहीं करती, तो आप मु?ो अपने घर में नहीं रखतीं.

‘मैं बहुत गरीब घर से हूं. कुछ समय पहले संजय साहब मेरे गांव आए थे. उन्होंने मु?ो एक अच्छी जिंदगी के सपने दिखाए, लेकिन बदले में आप ने जान ही लिया होगा कि मैं ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है.

‘दीदी, मैं ने ही साहब को मजबूर किया था कि अगर वे मु?ो अपने घर में नहीं रहने देंगे, तो मैं आप को सबकुछ सच बता दूंगी.

‘साहब जैसे भी हैं, लेकिन वह अपना घर नहीं तोड़ना चाहते हैं. अगर मैं चाहती, तो आप के घर रह सकती थी, लेकिन मैं जानती हूं कि सच को ज्यादा दिनों तक नहीं छिपाया जा सकता.

‘दीदी, आप इतनी अच्छी हैं कि कभीकभी मु?ो लगता था कि मैं आप के साथ बेईमानी कर रही हूं, लेकिन इस बच्चे की वजह से चुप कर जाती थी.

‘दीदी, अब यह आप का बच्चा है. आप जैसे चाहें इस की परवरिश कर सकती हैं.

‘मैं ने साहब को माफ कर दिया है. आप भी उन को माफ कर दो.’

नंदिनी चिट्ठी पढ़ कर मानो आसमान से नीचे गिर पड़ी. इतना बड़ा धोखा, इतना बड़ा गुनाह. उस की आंखों के सामने सबकुछ होता रहा और उसे पता भी नहीं चला.

उस ने कभी भी संजय और रेवा को एकसाथ नहीं देखा था और न ही दोनों को कभी बातें करते सुना था, तो फिर कब…?

नंदिनी को लगा कि कमरे की दीवारें चीखचीख कर कह रही हैं, ‘नंदिनी, पगली वह नहीं तू थी, जो अपने पति और एक अनजान लड़की पर भरोसा कर बैठी. पगली…पगली…पगली…’

पिंकी खुराना

पकड़ौआ ब्याह : भाभी से कैसा परदा

ट्रेन पूरी स्पीड से भागी जा रही थी. ट्रेन के उस एसी कोच में सन्नाटा पसरा था. पराग के सामने वाली सीट पर भी कोई नहीं था. ऊपर की बर्थ पर एक बुजुर्ग बैठे थे, जो बीचबीच में ऊपर की बर्थ से नीचे उतर कर अपना नीचे रखा सूटकेस खोल कर देख लेते थे, फिर ऊपर की बर्थ पर जा कर लेट जाते थे.

पराग ने उस बुजुर्ग को नीचे वाली बर्थ पर आने को कहा, लेकिन उन का कहना था कि उन की बर्थ ऊपर वाली है. वे ऊपर ही रहेंगे. नीचे की बर्थ का पैसेंजर आ गया, तो फिर उठना पड़ेगा.

पराग ने फिर दोबारा नहीं कहा. वह जानता था कि पैसेंजर को आना होता तो अब तक आ गया होता. खैर, वह फिर अपना लैपटौप खोल कर बैठ गया.

तकरीबन 25 साल का पराग दिल्ली मैट्रो रेल में नौकरी करता था. सालभर पहले ही उस की नौकरी लगी थी. लेकिन अब वह दिल्ली मैट्रो रेल की नौकरी छोड़ने वाला था, क्योंकि दिल्ली की ही एक अच्छी कंपनी में उसे आटोमोटिव इंजीनियर की नौकरी मिल गई थी.

थोड़ी देर में ही लैपटौप बंद कर पराग खिड़की से बाहर देखने लगा. अगस्त का महीना था. हलकीहलकी फुहार थी. हरियाली की चादर चारों ओर थी. कुदरत मानो मुसकरा रही थी. छोटेछोटे टीले ऊंचेनीचे छोटे से पहाड़, जगहजगह तालाबों में पानी भरा था.

ऐसा ही खुशनुमा मौसम था, जब पराग की मुलाकात गोमती से हुई थी. गोमती अब 23 साल की होगी. गोमती उस के गांव की लड़की. गांव की मिट्टी सी सौंधीसौंधी खुशबू उस के पूरे शरीर से उठती हुई महसूस होती.

पराग आज भी वह 2 साल पहले की बारिश का दिन नहीं भूलता, जब गांव के पेड़ों पर सावन के ?ाले डल गए थे. गोमती अपने घर के बाहर बगीचे के झूले में झाला झूल रही थी. नीले रंग के सलवारसूट में लंबी लहराती चोटी, उस पर बारिश की फुहारें… सूट भीग कर

उस के शरीर से चिपक गया था, जिस से उस का शरीर किसी अजंता की मूरत सा दिख रहा था.

पराग का दिल पहली बार इतनी जोर से धड़का था. उसे अपने दिल की धड़कन की आवाज सुनाई देने लगी थी. पराग ने बारिश से बचने के लिए कुछ नहीं लिया था. न रेनकोट, न ही छाता. उसे हलकी फुहार में भीगना पसंद था.

भीगे हाथों से ही गोमती ने घर की डोरबैल दबा दी थी. गोमती के पापा गांव के जमींदार थे. नाम था तेजबहादुर. जैसे ही उन्होंने पराग को देखा, खुश हो गए.

‘‘आओ, पराग बेटा.’’

पराग बोला, ‘‘अंकलजी, मैं भीगा हुआ हूं, अंदर नहीं आऊंगा. अम्मां ने मखाने की खीर और आलू की पूरियां भेजी हैं,’’ पराग अपने साथ लाया टिफिन तेजबहादुर को थमा ही रहा था कि गोमती वहां आ गई और तेजबहादुर से टिफिन ले कर अंदर जाने लगी.

‘‘अरी, कपड़े तो बदल ले पहले, खीर कहां भागी जा रही है?’’ बेटी का उतावलापन देख तेजबहादुर हंस दिए. वे जानते थे कि पराग की अम्मां जब भी मखाने की खीर बनाती हैं, उन के घर जरूर पहुंचाती हैं.

पराग फिर वापस घर लौट आया था, लेकिन उस दिन लगा था जैसे दिल वहीं गोमती के पास छोड़ आया है. वह बचपन से गोमती को देखता आ रहा है. कालेज की पढ़ाई के लिए ही वह गांव से बाहर गया था, लेकिन इस नजर से उस ने गोमती को नहीं देखा था.

पराग जब वापस घर आया था, तो अम्मां ने उसे खोयाखोया सा देख कर अनेक सवाल किए थे. खीर खातेखाते भी भीगी गोमती दिख रही थी, तो खीर का चम्मच मुंह के बजाय कपड़ों पर गिर पड़ा था. अम्मां जोर से हंसने लगी थीं. बापू भी हंस दिए थे. बड़े भाई अनुराग ने भांप लिया था कि कुछ तो बात है. छोटा भाई गुमसुम है.

बड़े भाई अनुराग ने एक दिन पराग से पूछ ही लिया था. पराग ने उन्हें अपने दिल की बात बता दी थी.

‘‘अरे वाह, यह तो अच्छी बात है. तू गांव में रहता तो बापू से बात करते, पर तू ठहरा शहरी बाबू, नौकरी करने शहर जाएगा,’’ अनुराग भैया ने कहा.

‘‘भैया, वह तो मैं करूंगा ही. मेरा सपना है, शहर में नौकरी करना,’’ पराग बोला.

‘‘तो फिर एक काम कर कि गांव में तब तक रुक जा, जब तक गोमती के दिल की बात भी न जान ले,’’ अनुराग भैया ने कहा.

यह सुन कर पराग खुश हो गया. कुछ दिन बाद पराग को पता चला कि गोमती की एक बड़ी बहन भी है, जो ज्यादातर घर पर ही रहती है. उस के पैर में थोड़ी सी लंगड़ाहट है और नाम रेवती है. पर पराग को गोमती से मतलब था. उस ने गोमती से मिलने का समय भी मांग लिया था.

दूसरे दिन तालाब के मंदिर के पास शाम ढले गोमती इंतजार करती मिली.

वह आज साड़ी में थी. कमर तक चोटी किसी नागिन सी लग रही थी. हलकी पीली साड़ी में उस का रंग बादामी लग रहा था. छोटी सी बिंदी खूबसूरत लग रही थी. नाक में छोटी सी नथ थी. पराग तो मानो उस मुलाकात में पगला सा गया था, जब वह सिमट कर उस की बांहों में आई थी.

‘‘कुछ बोलोगे भी या यों ही बुत बन कर खड़े रहोगे?’’

‘‘क्या कहूं…’’ पराग की आवाज लरज रही थी, फिर भी वह बोला, ‘‘गोमती, हम गांव में साथ ही रहते हैं. एकदूसरे को पसंद भी करते हैं. क्यों न हम जीवनसाथी भी बन जाएं?’’

‘‘बात तो ठीक है तुम्हारी, पर तुम को शहर में जाना है. हमारे घर वाले कैसे मानेंगे?’’ गोमती बोली.

‘‘तो क्या हुआ… शहर में नौकरी लगेगी, तो हम शहर में रहेंगे. गांव में आतेजाते रहेंगे,’’ पराग ने समझाया. फिर वे काफी देर तक वहां रहे और आगे भी मिलते रहे.

एकदम से ट्रेन रुक गई और पराग अपने खयालों से बाहर निकल आया. देखा कि स्टेशन आ गया है. अब यहां से कुछ ही घंटे में बस से अपने गांव पहुंच जाएगा.

जब बस रुकी, तो गांव रतिहानी आ चुका था. अब बस 10 मिनट का रास्ता था. जगहजगह कीचड़ और गड्ढों से बचता हुआ पराग घर पहुंचा. उस ने घर के बड़े गेट को खोला ही था कि पूरा घर लाइट से जगमगा गया. उसी का इंतजार हो रहा था.

भैया, बापू, अम्मां, सब दौड़े चले आए. भाभी गुड़ और पानी ले आईं. पराग ने गुड़ खा कर पानी पिया, फिर कपड़े बदलने चला गया. देर रात हो गई थी, सब अपनेअपने कमरों में चले गए.

सुबह तेज बारिश थी. पराग देर तक सोता रहा. भैया भी खेतों में नहीं गए थे. भाभी 2-3 बार आवाज दे चुकी थीं.

जब पराग उठा, तो सुबह के 9 बज रहे थे. पराग उठ कर किचन में ही चला गया. अरमान भैया ने पराग को देखा, तुरंत ही चाय का कप पकड़ा दिया.

पराग ने चाय जल्दी खत्म की और नहाधो कर अनुराग भैया के साथ नाश्ता करने बैठ गया. नाश्ते के बाद दोनों भाई कमरे में बंद हो गए. भाभी भी कमरे में चली आईं, तो पराग एकदम चुप हो गया.

‘‘भाभी से कैसा परदा, जानते हैं हम गोमती के बारे में,’’ कह कर भाभी जोर से हंस दीं.

‘‘तू बता, गोमती से तो बात होती होगी?’’ भैया ने पूछा.

‘‘हां भैया, होती है.’’

दोनों भाई बड़ी देर तक बतियाते रहे.

दूसरे दिन गांव के दोस्त मिलने आए, पर पराग बेताब था गोमती से मुलाकात करने के लिए. शाम को मिलना तय था. आज मौसम खुला था. जैसे ही दोस्त गए, पराग अपने कमरे में गया, जल्दी से कपड़े बदले.

पराग बाहर आ कर मोटरसाइकिल स्टार्ट कर ही रहा था कि बापू अचानक सामने से आते दिखे, ‘‘कहां चल दिए शहरी बाबू?’’

‘‘बापू, थोड़ा गांव का चक्कर लगाने जा रहा हूं,’’ पराग बोला.

‘‘बाद में चक्करवक्कर लगा लेना, अभी मौसम खराब है.’’

‘‘बारिश बंद है बापू,’’ पराग प्यार से बोला.

‘‘जवान लड़के को क्यों डांट रहे हो?’’ अम्मां उन दोनों की बातें सुनतेसुनते बाहर आईं.

‘‘जाने दो, थोड़ी देर में आ जाएगा,’’ अम्मां ने बेटे की तरफदारी की.

‘‘बेवकूफ हो तुम, नौकरी लगने बाद पहली बार घर आया है, आराम करे,’’ बापू गुस्सा हुए.

‘‘बापू, बस थोड़ी देर में आता हूं,’’ पराग बोला.

‘‘एक काम कर, जाना ही है तो भाई को साथ ले जा,’’ बापू बोले.

पराग को गुस्सा आ गया, ‘‘बापू, मैं बड़ा हो गया हूं, भैया के साथ जाऊंगा?’’

‘‘बापू सही बोल रहे हैं. मैं भी साथ चलता हूं,’’ भैया अंदर आतेआते बोले.

‘‘भैया, आप भी…’’ पराग गुस्साया.

‘‘चल, आ जा,’’ कहते हुए भैया मोटरसाइकिल पर बैठ गए.

मजबूरन पराग को मोटरसाइकिल स्टार्ट करनी पड़ी. थोड़ी दूर जा कर पराग मोटरसाइकिल रोकते हुए बोला, ‘‘भैया, पता है आप को कि मैं गोमती से मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? मैं थोड़ी दूरी पर रहूंगा. तू मिल लेना,’’ भैया बोले.

‘‘भैया, ऐसे मजा नहीं आएगा,’’ पराग बोला.

‘‘तो क्या करूं?’’ भैया बोले.

‘‘तब तक आप किसी दोस्त के पास हो लो,’’ पराग बोला.

‘‘कहीं कोई बात हो गई तो बापू मेरे पैर तोड़ देंगे,’’ भैया अनुराग ने कहा.

‘‘भैया, क्या मैं बच्चा हूं? क्या ऊंचनीच होगी?’’ पराग बोला.

‘‘अच्छाअच्छा ठीक है, पर ध्यान रखना अपना,’’ कहतेकहते भैया वहां से चले गए.

यह सुन कर पराग हंस दिया, फिर उस ने अपनी मोटरसाइकिल तालाब की तरफ मोड़ दी.

इतने में पराग का मोबाइल फोन बज उठा. मजबूरन उसे रुकना पड़ा. देखा तो गोमती का नाम चमक रहा था.

‘‘कहां अटक गए? मैं इंतजार कर रही हूं,’’ गोमती की आवाज नाराजगी से भरी थी.

‘‘मैं बस पहुंच ही रहा हूं. रास्ते में हूं,’’ पराग बोला.

‘‘मां ने कुछ सामान लाने को कहा था. तुम से मिल कर फिर बाजार जाऊंगी,’’ गोमती बोली.

‘‘छोटा सा बाजार है. पहले हम दोनों मोटर साइकिल से घूमेंगे, फिर तुम को बाजार के नजदीक छोड़ दूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ फिर गोमती बोली, ‘‘घर कब आओगे पापा से बात करने?’’

‘‘भैया को सब पता है. भैया पापा को समझ कर साथ लाएंगे. अच्छा फोन काटो, मिल कर बात करेंगे,’’ इतना कह कर पराग मोबाइल अपनी जेब में रखने लगा कि इतने में उस के सिर पर किसी ने चोट की और उस का चेहरा पूरे कपड़े से ढक दिया गया. हाथ एकदम से पीछे बांध दिए गए.

यह सब इतना अचानक हुआ कि पराग संभल नहीं पाया. वह चिल्लाने लगा. उस के चिल्लाने पर उस का मुंह भी बांध दिया गया.

पराग को एक दिशा में ले जाया जाने लगा. तकरीबन 10 मिनट बाद गाड़ी को रोक दिया गया, फिर दोनों कंधों से पकड़ कर उसे दरवाजे से बाहर धकेल दिया गया.

थोड़ी दूर चलने के बाद पराग की आंखों की पट्टी खोल दी गई. पीछे बंधे हाथ भी खोल दिए गए. जब उस ने अपनेआप को संभाला तो देखा कि सामने 2-3 आदमी खड़े थे. सभी के चेहरे ढके हुए थे और हाथों में बंदूकें थीं.

‘‘पराग बाबू, जल्दी कपड़े बदलो. उतारो यह शर्ट.’’

फिर पराग को शादी के कपड़े पहनाए गए. सिर पर चमकीली पगड़ी रख दी गई.

पराग सम?ा गया कि वह पकड़ौआ गैंग का शिकार बन गया है. गोमती इंतजार करतेकरते चली गई होगी.

‘‘मैं पुलिस में रिपोर्ट करूंगा,’’ पराग ने आवाज को कड़क बनाते हुए कहा.

‘‘वह भी कर लेना, पहले शादी कर लो,’’ एक आदमी बोला.

पराग को पकड़ कर शादी के मंडप में बिठा दिया गया. वहां पहले से लाल जोड़े में सजी दुलहन बैठी थी.

‘‘मैं इस को शादी नहीं मानता. मैं पढ़ालिखा हूं,’’ पराग ने हिम्मत की.

‘‘पढ़ेलिखे हो, इसलिए उठवाए गए हो पराग बाबू,’’ एक आवाज ने चौंका दिया. सामने देखा तो गोपाल काका थे.

‘‘गोपाल काका आप…?’’ पराग के चेहरे पर हैरानी थी.

‘‘हां बेटा, पर यहां गलत कुछ भी नहीं हो रहा है, बस तुम शांत रहो.’’

‘‘यह जुल्म है,’’ पराग गिड़गिड़ाया.

‘‘कोई जुल्म नहीं है. पंडितजी, आप मंत्र पढ़ो,’’ काका बोले.

मुश्किल से आधे घंटे में शादी के मंत्र पढ़ कर पंडित ने फेरे करवा दिए. गोपाल काका वहां काम में हाथ बंटवा रहे थे, इसलिए उन का चेहरा ढका नहीं था, बाकी लोगों के चेहरे ढके थे.

‘‘चलो, खड़े हो जाओ,’’ पंडित के इतना कहते ही पराग दुलहन के साथ खड़ा हो गया.

‘‘चलो, पैर छुओ इन के,’’ गोपाल काका ने कहा.

पराग ने देखा कि सामने एक चेहरा ढका आदमी था. पास ही एक औरत भी अपना चेहरा ढके हुए खड़ी थी. पराग उन के पैरों में झुक गया. उन दोनों ने पराग के सिर पर हाथ रखा. पराग को उस की दुलहन के साथ वापस कार में बिठा दिया गया. कार चल पड़ी.

तकरीबन आधे घंटे बाद कार गांव के अंदर दाखिल होने लगी. कार पराग के घर के सामने जा कर रुक गई.

‘‘चलो, उतरो जल्दी,’’ साथ आए आदमी ने कहा.

बाहर पराग अनुराग भैया और बापू परेशान घूम रहे थे कि कार को रुकते देख तुरंत नजदीक आए. बापू का गुस्सा हद पर था.

‘‘मैं ने बोला था कि अकेले मत जाओ, भैया को ले कर जाओ. ज्यादा होशियार बन रहे थे, अब भुगतो.’’

पराग बोला, ‘‘बापू, मैं इस शादी को नहीं मानता.’’

‘‘अब तो मानना पड़ेगा बेटा,’’ बापू बोले, ‘‘अब कुछ नहीं हो सकता.’’

‘‘पराग की मां, आरती की थाली ले आओ और बहू को अंदर ले जाओ.’’

पराग की मां आरती की थाली ले कर आईं और उन दोनों को अंदर ले गईं.

पराग गुस्से में था. उस ने गले की माला निकाल कर तोड़ दी और बड़े भैया के गले लग कर रोने लगा.

थोड़ी देर के बाद पराग बाहर आंगन में चला गया और वहां बिछी खाट पर सो गया. दुलहन अकेली कमरे में उस का इंतजार करती रही.

‘‘अरे वीरभद्र बाबू, कहां हो भई…’’ जोरजोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

‘‘बापू तो सुबहसुबह खेतों की तरफ निकल गए थे,’’ बड़े भैया अनुराग बोले.

इतने में पराग के बापू भी बाहर से आते दिखे. पराग जाग तो गया था, पर सिर पर चादर ओढ़े सुन रहा था.

‘‘कहां सुबहसुबह शोर मचा हुआ है,’’ सोचते हुए पराग ने चादर के अंदर ही मोबाइल फोन देखा. सुबह के साढ़े 9 बज रहे थे.

‘‘अभी यों ही पड़ा रहता हूं. शोर कम हो जाए, तब उठूंगा. सारी रात टैंशन में था,’’ पराग ने सोचा.

‘‘अरे, जमींदार बाबू, आप…’’ पराग के बापू की आवाज में हैरानी थी.

‘‘अरे भई, लड्डू खाओ. अब हम समधी हैं,’’ तेजबहादुर की ऊंची आवाज गूंजी और यह कहतेकहते लड्डू पराग के बापू के मुंह में ठूंस दिया.

यह सुनते ही पराग के दिल की धड़कन तेज होने लगी. मतलब, तेजबहादुर बापू के समधी तो क्या घूंघट में गोमती है? वह समझ नहीं पाया.

मां खुशी से चिल्ला पड़ीं, ‘‘पराग, ओ पराग.’’

बापू और तेजबहादुर घर के अंदर बैठक में आ गए.

अब पराग ने सोचा कि उसे उठना चाहिए, क्योंकि बैठक से खुशियों भरे ठहाकों की आवाज आ रही थी.

पराग तुरंत उठा और तकरीबन दौड़ता हुआ अपने कमरे से बाहर आया. उस ने सोचा कि पहले फ्रैश हो ले, घर में देर तक बातें चलेंगी.

पराग नहाधो कर निकला ही था, तभी पीछे से किसी ने उसे अपनी बांहों में कस लिया. उस के दिल की धड़कन तेज होने लगी. वह पलटा, गोमती सामने थी. तुरंत ही उस ने अपने गीले होंठ गोमती के प्यासे होंठों पर रख दिए. उसे लगा कि उसे उस की मंजिल मिल गई है.

तभी गोमती ने खुद को छुड़ाया और तुरंत ही बैठक में चली गई. पराग खुश हो गया. उस ने अपनी पसंद की सब से प्यारी शर्ट पहनी. हलकी खुशबू वाला परफ्यूम लगा कर वह भी बैठक में आ गया.

गरमागरम पकौड़ों का दौर चल रहा था. पराग के आते ही बैठक में मानो जान पड़ गई.

‘‘आओ बेटा,’’ तेजबहादुर बोले.

‘‘इन के पैर छुओ बेटा, ये तुम्हारे ससुर हैं,’’ बापू खुश हो कर बोले.

पराग ने ?ाक कर पैर छू लिए. वह सम?ा गया कि गोमती से उस की शादी कर दी गई है. गोमती भी वहीं बैठी थी और तिरछी नजरों से उसे देख कर मुसकराए जा रही थी.

तभी अंदर से हलकी गुलाबी साड़ी में लिपटी घूंघट किए बहू आई. मां ने उसे अंदर वाले कमरे में ही बिठा दिया.

पराग का सिर चकरा उठा. इस का मतलब घूंघट में दुलहन कोई दूसरी है, क्योंकि गोमती तो सामने है.

गोमती की बहन रेवती पराग की पत्नी हुई. पराग अपने बड़े भैया को इशारा करता हुआ अंदर चला गया. बड़े भैया जल्दी से अंदर चले आए.

‘‘बोल, क्या हुआ?’’ भैया ने पूछा.

‘‘भैया, मुझे बचा लो. मैं इस शादी को नहीं मानता. गोमती के पापा से बात कर के मेरी शादी गोमती से करवा दो. प्लीज भैया.’’

‘‘देख पराग, जो हुआ सो हुआ, अब कुछ नहीं हो सकता,’’ भैया बोले.

‘‘भैया, आप तो मेरी फीलिंग को समझ,’’ पराग गिड़गिड़ाया.

‘‘देख, एक काम कर,’’ भैया सोचते  हुए बोले.

‘‘क्या…?’’ पराग थोड़ा उतावलेपन से बोला.

‘‘तू गोमती से मुलाकात कर ले आज ही, अगर वह राजी है, तो मैं तेरी शादी गोमती से करवा देता हूं, वहीं तेरे शहर दिल्ली में… बोल? जरूरत पड़ने पर कानून का सहारा लेंगे.’’

‘‘हां, यह हो सकता है,’’ पराग खुश हो गया. उस ने मोबाइल से मैसेज कर दिया कि आज शाम 6 बजे पीपल के पेड़ के नीचे मिलो.

गोमती का मैसेज तुरंत आ गया, ‘क्यों नहीं.’

शाम को सूरज की सुनहरी किरणें तालाब के पानी में चमक रही थीं. पीपल के चबूतरे पर बैठी गोमती पराग का इंतजार कर रही थी.

पराग के आते ही गोमती उस से लिपट गई. पराग ने भी बेताबी से उसे अपने में समेट लिया. गोमती ने पराग की शर्ट के बटनों से खेलते हुए कहा, ‘‘पराग, अब हम हमेशा साथ रहेंगे. कोई हमें अलग नहीं कर सकता.’’

‘‘हां गोमती…’’ पराग ने गोमती के बिखरे बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘गोमती, हम दोनों शादी कर

लेते हैं.’’

‘‘क्या… शादी?’’ गोमती अचानक चौंक गई.

‘‘इस में चौंकने की क्या बात है?’’ पराग ने सवाल किया.

‘‘शादी की क्या जरूरत है?’’ गोमती बोली, ‘‘समय ने हमें मिला तो दिया, चाहे किसी भी रूप में, तुम मेरे जीजू हुए. हमें यों भी कोई मिलने से नहीं रोक सकता.’’

‘‘अरे…’’ पराग हैरान था.

‘‘सही तो है… हम सबकुछ कर सकते हैं और करेंगे भी. मैं तो खुश हूं. सुहागरात भी मनाएंगे आज ही.’’

‘‘पागल तो नहीं हो गई हो गोमती, दिमाग ठिकाने पर है तुम्हारा? मैं ने तुम से प्यार किया है. अभी तक रेवती का तो घूंघट उठा कर उस का चेहरा भी नहीं देखा है.’’

‘‘तो फिर हम क्या करें पराग? तुम बताओ?’’ गोमती बोली.

‘‘तुम राजी हो तो सारी बातें घर वालों को बता देते हैं. हो सकता है कि तुम्हारे और मेरे पापा मान जाएं,’’ पराग ने समझाया. गोमती चुप रही.

‘‘हम कानून की भी मदद ले सकते हैं,’’ पराग ने दोबारा कोशिश की.

‘‘नहीं पराग, ऐसा नहीं हो पाएगा. पापा नहीं मानेंगे,’’ गोमती बोली, ‘‘इस गांव की प्रथा ही है, कोई अच्छी नौकरी वाला लड़का मिल गया तो ठीक, नहीं तो पकड़ौआ ब्याह कर देते हैं, अपहरण कर के. तुम ऐसे भोले बन रहे हो, जैसे जानते ही नहीं हो,’’ गोमती रूठने वाले अंदाज में बोली.

‘‘पता है, लेकिन गाज मुझ पर ही गिरेगी, यह पता नहीं था,’’ पराग दुखी था, ‘‘हम कानून की मदद ले कर भी इस समस्या का हल कर सकते हैं गोमती,’’ पराग बोला, ‘‘तुम भी प्यार करती हो न मुझ से?’’

‘‘प्यार करती हूं, पर क्या हम बिना शादी किए जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाए रख सकते?’’ गोमती बोली.

‘‘नहीं गोमती, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. दिल पर बोझ नहीं होना चाहिए. यह रेवती के साथ नाइंसाफी होगी.’’

‘‘जिसे तुम ने देखा नहीं, उस के साथ कैसी नाइंसाफी?’’ गोमती बोली.

‘‘मैं आखिरी बार पूछ रहा हूं गोमती, क्या चाहती हो तुम?’’ पराग ने पूछा.

‘‘तुम्हारी बनी रहना चाहती हूं,’’ कह कर गोमती पराग के सीने से लिपट गई.

पराग फिर बेबस हो गया. उस ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया. गोमती को सीने से लिपटा रहने दिया.

‘‘क्या हुआ पराग? प्यार करो न,’’ गोमती ने कहा, ‘‘हम दोनों सभी सीमाएं तोड़ कर एक हो जाएं,’’ गोमती की सांसें तेज होने लगी थीं.

‘‘मुझे ऐसा प्यार नहीं चाहिए. मैं वापस जा रहा हूं,’’ कहतेकहते पराग मोटरसाइकिल की तरफ बढ़ने लगा, तभी गोमती ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा.

‘‘गोमती, अब भी मौका है, सोच लो,’’ पराग बोला,

‘‘नहीं पराग, इतनी परेशानियों, लड़ाई झगड़े, कानून, पुलिस के लफड़े में नहीं फंसना मुझे.’’

पराग ने कोई जवाब नहीं दिया और मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी. पराग ने भैया को फोन कर दिया.

‘‘क्या हुआ पराग? क्या जवाब दिया गोमती ने?’’ भैया अनुराग ने पूछा.

‘‘भैया, आप सही बोले थे. मैं अपनी दुलहन रेवती को ले कर दिल्ली जाऊंगा. मांबापू को भी बता देना,’’ पराग की मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगी.

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