निराधार शक- कैसे एक शक बना दोनों का दुश्मन?

मैं अंकित से नाराज थी. परसों हमारे बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ था और इस कारण पिछली 2 रात से मैं ढंग से सो भी नहीं पाई हूं.

परसों शाम हम दोनों डिस्ट्रिक्ट पार्क में घूम रहे थे कि अचानक मेरे कालेज के पुराने 5-6 दोस्तों से हमारी मुलाकात हो गई, जैसा कि ऐसे मौकों पर अकसर होता है, पुराने दिनों को याद करते हुए हम सब खूब खुल कर आपस में हंसनेबोलने लगे थे.

सच यही है कि उन सब के साथ गपशप करते हुए आधे घंटे के लिए मैं अंकित को भूल सी गई थी. उन को विदा करने के बाद मुझे अहसास हुआ कि उस का मूड कुछ उखड़ाउखड़ा सा था.

मैं ने अंकित से इस का कारण पूछा तो वह फौरन शिकायती अंदाज में बोला, ‘‘मुझे तुम्हारे इन दोस्तों का घटिया व्यवहार जरा भी अच्छा नहीं लगा, मानसी.’’

‘‘क्या घटिया व्यवहार किया उन्होंने?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.

‘‘मुझे बिलकुल पसंद नहीं कि कोई तुम से बात करते हुए तुम्हें छुए.’’

‘‘अंकित, ये सब मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं और मुझे ले कर किसी की नीयत में कोई खोट नहीं है. उन के दोस्ताना व्यवहार को घटिया मत कहो.’’

‘‘मेरे सामने तुम्हारी कोल्डड्रिंक की बोतल से मुंह लगा कर कोक पीने की रोहित की हिम्मत कैसे हुई? उस के बाद तुम ने क्यों उस बोतल को मुंह से लगाया?’’ उस की आवाज गुस्से से कांप रही थी.

‘‘कालेज के दिनों में भी हमारे बीच मिलजुल कर खानापीना चलता था, अंकित. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम इस छोटी सी बात पर क्यों इतना ज्यादा नाराज…’’

‘‘मेरे लिए यह छोटी सी बात नहीं है, मानसी. अब इस तरह की घटिया और चीप हरकतें तुम्हें बंद करनी होंगी.’’

‘‘क्या तुम मुझे ‘चीप’ कह रहे हो?’’ मुझे भी एकदम गुस्सा आ गया.

‘‘तुम चुपचाप मेरी बात मान क्यों नहीं लेती? बेकार की बहस शुरू करने के बजाय तुम मेरी खुशी की खातिर अपनी गलत आदतों को फौरन छोड़ देने की बात क्यों नहीं कह रही हो?’’

‘‘तुम मुझे आज खुल कर बता ही दो कि तुम्हारी खुशी की खातिर मैं अपनी और कौनकौन सी घटिया और चीप आदतें छोड़ूं?’’

‘‘सब से पहले किसी भी लड़के से इतना ज्यादा खुल कर मत हंसोबोलो कि वह तुम्हें चालू लड़की समझने लगे.’’

‘‘अंकित, क्या तुम मुझ पर अब चालू लड़की होने का आरोप भी लगा रहे हो?’’ तेज गुस्से के कारण मेरी आंखों में आंसू छलक आए थे.

‘‘मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं. बस, सिर्फ तुम्हें समझा रहा हूं. मेरे मन की सुखशांति के लिए तुम्हें अपने व्यवहार को संतुलित बनाने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘तुम समझाने की आड़ में मुझे अपमानित कर रहे हो, अंकित. अरे, तुम अभी से मेरे चरित्र पर शक कर मुझे पुराने दोस्तों के साथ खुल कर हंसनेबोलने को मना कर रहे हो तो शादी के बाद तो अवश्य ही मेरे मुंह पर ताला लगा कर रखोगे. तुम्हारी 18वीं सदी की सोच देख कर तो मुझे तुम पर हैरानी हो रही है.’’

‘‘बेकार की बहस में पड़ने के बजाय हम दोनों एकदूसरे के विचारों को समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या अपनी शादीशुदा जिंदगी को हंसीखुशी से भरपूर रखने की जिम्मेदारी हम दोनों की नहीं है?’’ वह अपना आपा खो कर जोर से चिल्लाते हुए बोला.

‘‘जो आदमी मुझे चालू और चीप समझ रहा है, मुझे उस से शादी करनी ही नहीं है,’’ मैं झटके से मुड़ी और पार्क के गेट की तरफ चल पड़ी.उस ने मुझे आवाज दे कर रोकना चाहा, पर मैं रुकी नहीं. घर पहुंच कर मैं देर तक रोती रही. मेरे हंसनेबोलने को नियंत्रित करने का उस का प्रयास मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा.

अपने मन में बसी नाराजगी के चलते पूरे 2 दिन अंकित को इंतजार कराने के बाद मैं ने रविवार की सुबह उस की कौल रिसीव की.

‘‘कुछ देर के लिए मिलने आ सकती हो, मानसी?’’ अंकित की आवाज में अभी भी खिंचाव के भाव मैं साफ महसूस कर सकती थी.

मैं ने भावहीन लहजे में जवाब दिया, ‘‘मेरा आना नहीं हो सकता क्योंकि मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘किसी भी जरूरी काम का बहाना बना कर थोड़ी देर के लिए आ जाओ.’’

‘‘मुझे मम्मीपापा से झूठ बोलना सिखा रहे हो?’’

‘‘प्यार में कभीकभी झूठ बोलना चलता है, यार.’’

‘‘तुम मुझ से प्यार करते हो?’’

‘‘अपनी जान से ज्यादा,’’ वह एकदम भावुक हो उठा था.

‘‘ज्यादा झूठ बोलने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं और यह बात मैं तुम्हें आमनेसामने समझाना चाहूंगा.’’

‘‘ठीक है, आधे घंटे बाद मुझे मेन सड़क पर मिलना.’’

‘‘थैंक यू, यू आर ए डार्लिंग.’’ उस का स्वर किसी छोटे बच्चे की तरह खुशी से भर गया तो मैं भी खुद को मुसकराने से रोक नहीं पाई थी.

हमारी पहली मुलाकात मेरी अच्छी सहेली रितु की शादी के दौरान करीब 2 महीने पहले हुई थी. अंकित उस के बड़े भाई का दोस्त था. हमारे मिलने का सिलसिला चल निकला. खूब बातें होतीं, मौजमस्ती करते. इन कुछ मुलाकातों के दौरान मेरे व्यक्तित्व से प्रभावित हो वह मुझे अपना दिल दे बैठा था.

मेरी नजरों में वह एक उपयुक्त जीवनसाथी था, पर परसों के अपने संकुचित व्यवहार से उस ने मेरा दिल बहुत दुखाया था. मेरे जिस हंसमुख व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उस ने मुझे अपना दिल दिया था अब मेरा वही खास गुण उसे चुभने लगा था. अपनी मोटरसाइकिल के पास खड़ा अंकित मेन सड़क पर मेरा इंतजार कर रहा था. मुझे देखते ही उस का चेहरा फूल सा खिल उठा.

मैं पास पहुंची तो वह खुशी भरे लहजे में बोला, ‘‘यू आर लुकिंग वैरी ब्यूटीफुल, मानसी.’’

‘‘थैंक यू,’’ उस के मुंह से अपनी प्रशंसा सुन कर मैं न चाहते हुए भी मुसकरा उठी थी.

‘‘मुझे परसों के अपने व्यवहार के लिए तुम से क्षमा…’’

मैं ने उस के मुंह पर हाथ रख कर उसे चुप किया और बोली, ‘‘अब उस बात की चर्चा शुरू कर के मूड खराब करने के बजाय पहले कुछ खा लिया जाए, मुझे बहुत जोर से भूख लग रही है.’’

‘‘जरूर,’’ उस ने किक मार कर मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी.

मेरे मनपसंद रेस्तरां में हम ने पहले पेट भर कर चायनीज खाना खाया. फिर आमिर खान की ‘थ्री इडियट’ फिल्म दोबारा देखी. वहां से निकल कर आइसक्रीम खाई और उसी डिस्ट्रिक्ट पार्क में घूमने पहुंच गए जहां 2 दिन पहले हमारा झगड़ा हुआ था.

वहां हम हाथ पकड़ कर मस्त अंदाज में घूमने लगे. अब तक बीते पूरे समय के दौरान नाराजगी का कोई नामोनिशान मेरे व्यवहार में मौजूद नहीं था. उस ने तो कई बार झगड़े की चर्चा छेड़नी भी चाही, पर हर बार मैं ने वार्तालाप की दिशा बदल दी थी. मन में डर भी था कि बेवजह फिर कहीं बात का बतंगड़ न बन जाए.

टहलते हुए हम पार्क के ऐसे एकांत कोने में पहुंचे जहां आसपास कोई नजर नहीं आ रहा था. मैं ने रुक कर उस का हाथ चूमा तो उस ने मुझे अपनी मजबूत बांहों में एकाएक भर कर मेरे होठों से अपने होंठ जोड़ दिए थे.

मैं ने आंखें मूंद कर इस पहले चुंबन का भरपूर आनंद लिया था.

अंकित से अलग होने के बाद मैं प्यार भरे अंदाज में फुसफुसा उठी थी, ‘‘अब तुम से दूर रहने का मन नहीं करता है, अंकित.’’

‘‘मेरा भी,’’ वह अपनी सांसों को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था.

‘‘हम जल्दी शादी कर लेंगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं जैसी हूं, तुम्हें पसंद तो हूं न?’’

‘‘तुम मुझे बहुत ज्यादा पसंद हो.’’

‘‘तब मुझ पर अपने स्वभाव को बदलने के लिए परसों जोर क्यों डाल रहे थे?’’

‘‘तुम भूली नहीं हो उस बात को?’’ वह बेचैन नजर आने लगा.

‘‘नहीं,’’ मैं ने उसे सचाई बता दी.

उस ने अटकते हुए अपने दिल की बात कह दी, ‘‘मानसी, इस मामले में मैं तुम से झूठ नहीं बोलूंगा. तुम्हें किसी भी अन्य युवक के साथ ज्यादा खुला व्यवहार करते देख मेरा मन गलत तरह की कल्पनाएं करने लगता है. तुम्हारा जो व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगता, उसे छोड़ देने की बात कह कर मैं ने क्या कुछ गलत किया है?’’

‘‘इस मामले में तुम अब मेरे मन की बात ध्यान से सुनो, अंकित,’’ मैं भावुक लहजे में बोलने लगी, ‘‘तुम बहुत अच्छे हो… मेरे सपनों के राजकुमार जैसे सुंदर हो… मैं सचमुच तुम्हारी जीवनसंगिनी बनना चाहती हूं, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ उस की आंखों में तनाव के भाव उभर आए.

‘‘किसी दोस्त या सहयोगी के साथ तुम्हारे खुल कर हंसनेबोलने को ले कर मैं तुम्हारे साथ कभी झगड़ा नहीं करना चाहूंगी. शादी के बाद तुम मुझे कितना भी प्यार करो, मेरा जी नहीं भरेगा. बैडरूम में मेरा खुला व्यवहार देख कर मेरे चरित्र के बारे में अगर तुम ने गलत अंदाजे लगाए तो हमारी कैसे निभेगी? हमें एकदूसरे के ऊपर पूरा विश्वास…’’

‘‘मैं इतना कमअक्ल इंसान…’’

मैं ने भी उसे बीच में ही टोक कर अपने मन की बात कहना जारी रखा, ‘‘प्लीज, पहले मेरी पूरी बात सुन लो. आज अपने मम्मीपापा से झूठ बोल कर तुम से मिलने आई थी. तुम्हें अपना हाथ पकड़ने दिया… अपनी कमर में बांहें डाल कर चलने दिया. होंठों पर आज पहली बार किस करने की छूट दी. मैं ने वह खास प्रेमी होने का दर्जा आज तुम्हें दिया जो कल को मेरी मांग में सिंदूर भी भरेगा.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’ अंकित की आंखों में बेचैनी और उलझन के भाव साफ नजर आ रहे थे.

‘‘मैं यह कहना चाह रही हूं कि जब तक तुम अपनी आंखों से किसी युवक के साथ ऐसा कुछ होता न देखो… जब तक तुम मेरा कोई झूठ न पकड़ो, तब तक मेरे चरित्र पर शक करने की भूल मत करना.

‘‘मैं ने आज तक किसी गलत नीयत वाले युवक को दोस्त का दर्जा नहीं दिया है और न ही कभी दूंगी. फ्लर्ट करने के शौकीन इंसानों को मैं अपने से दूर रखना अच्छी तरह जानती हूं. माई लव, मैं स्वभाव से हंसमुख हूं, चरित्रहीन नहीं.’’

उस ने पहले मेरे आंसुओं को पोंछा और फिर संजीदा लहजे में बोला, ‘‘मानसी, मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा है. मेरी समझ में आ गया है कि तुम्हारे खुले व हंसमुख व्यवहार के कारण मेरे मन में हीनभावना पैदा हो गई थी जिस से मुझे मुक्ति पाना जरूरी है. मैं अब भविष्य में तुम्हारे ऊपर निराधार शक कर तुम्हारा दिल नहीं दुखाऊंगा.’’

‘‘सच कह रहे हो?’’

‘‘बिलकुल सच कह रहा हूं.’’

‘‘अब कभी मेरे ऊपर निराधार शक नहीं करोगे?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘आई लव यू वैरी मच.’’ मैं भावविभोर हो उस से लिपट गई.

‘‘आई लव यू टू.’’ उस ने मेरे होंठों से अपने होंठ जोड़े और मेरे तनमन को मदहोश करने वाले दूसरे चुंबन की शुरुआत कर दी थी.

सूखता सागर: करण की शादी को लेकर क्यों उत्साहित थी कविता?

उधर मझली दीदी को अपनी ननद के घर जा कर रिश्ते की बात करनी थी. अत: खाना खा कर कविता चुपचाप अपने कमरे में आ गई.

उधर बच्चे भी उकताने लगे भैया का ड्राइवर कार से स्टेशन तक छोड़ गया था. अटैची, बैग और थैला कुली को दे कर कविता छोटू और बबली के हाथ थाम प्लेटफार्म की तरफ बढ़ गई. बैंच पर बैठने के बाद कविता सोच में डूब गई कि लो भतीजे करण की शादी भी निबट गई. इतने महीनों से तैयारी चल रही थी, कितना उत्साह था इस शादी में आने का. पूरे 8 वर्ष बाद घर में शादी का समारोह होने जा रहा था. भैया ने तो काफी समय पहले ही सब को बुलावे के पत्र डाल दिए थे, फिर आए दिन फोन पर शादी की तैयारी की चर्चा होती रहती कि दुलहन का लहंगा जयपुर में बन रहा है… ज्वैलरी भी खास और्डर पर बनवाई जा रही है… मेहमानों के ठहरने की भी खास व्यवस्था की जा रही है…

इस में संदेह नहीं कि काफी खर्चा किया होगा भैयाभाभी ने. उन के इकलौते बेटे की शादी जो थी. पर पता नहीं क्यों इतने अच्छे इंतजाम के बावजूद कविता वह उत्साह या उमंग अपने भीतर नहीं पा सकी, जिस की उसे अपेक्षा थी. एक तो चलने के ऐन वक्त पर ही पति अनिमेष को जरूरी काम से रुकना पड़ गया था. वह तो डर रही थी कि पता नहीं भैयाभाभी क्या सोचेंगे कि इतने आग्रह से इतने दिन पहले से बुला रहे थे और दामादजी को ऐन वक्त पर कोई काम आ गया. पूरे रास्ते वह इसी भावना से आशंकित रही थी. मगर कानपुर पहुंचने पर जैसा ठंडा स्वागत हुआ उस से उस की यह धारणा बदल गई.

यहां भी तो स्टेशन पर यही ड्राइवर खड़ा था, उस के नाम की तख्ती लिए हुए. ठीक है भैया व्यस्त होंगे पर कोई और भी तो आ सकता था, लेने. घर पहुंचने पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वह अकेली ही बच्चों के साथ आई है.

‘‘चलो कविता आ गई, बच्चे ठीक हैं, ऐसा करो श्यामलाल को साथ ले कर अपने कमरे में सामान रखवा लो, वहीं तुम्हारा चायनाश्ता भी पहुंच जाएगा. फिर नहाधो कर तैयार हो कर नीचे डाइनिंगहौल में लंच के लिए आओगी तो सब से मिल लेना,’’ भाभी बोलीं.

थकान तो थी ही सफर की, पर अब कविता का मन भी बुझ चला था. दोनों बड़ी बहनें पहले ही आ चुकी थीं. वे भी अपनेअपने कमरे में थीं. एक बड़े होटल में भैया ने सब के ठहरने का इंतजाम किया था.

थर्मस में चाय और साथ में नाश्ते की प्लेटें रख कर नौकर चला गया. चाय पी कर कुछ देर लेटने का मन हो रहा था पर बच्चों का उत्साह देख कर उन्हें नहला कर तैयार कर दिया. स्वयं भी तैयार हुई.

तभी कमरे में इंटरकौम की घंटी बजने लगी. शायद खाने के लिए सब लोग नीचे पहुंचने लगे थे. बड़ी दीदी और मझली दीदी से वहीं मिलना हुआ.

‘‘अरे कविता, इधर आ… बहुत दिनों बाद मिली है,’’ मझली दीदी ने दूर से ही आवाज दी.

बड़ी दीदी के घुटनों में तकलीफ थी, इसलिए सब उन्हें घेरे बैठे थे. भैया भी 2 मिनट को उधर आए. कुछ देर की औपचारिकता के बाद उन्हें ध्यान आया, ‘‘अरे, अनिमेष कहां है?’’

‘‘आ नहीं पाए भैया, क्या करें ऐन वक्त पर ही…’’

वह कुछ और कहने की भूमिका बना ही रही थी कि भैया ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘कोई बात नहीं, तुम आ गईं, बच्चे आ गए… चलो अब बहनों के साथ गपशप करो,’’ कहते हुए भैया आगे बढ़ गए.

बड़ी दीदी के पास अपने घरपरिवार की उलझनें थीं तो मझली दीदी यहां अपनी बेटी के लिए रिश्ता खोज रही थीं.

‘‘दीदी, हम लोग एक ही हौल में रहते तो अच्छा रहता, देर रात तक गपशप करते… अब अपनेअपने कमरे में बंद हैं तो किसी की शक्ल तक नहीं दिखती कि कौनकौन मेहमान आए हैं, कहां ठहरे हैं, कैसे हैं. बस, खाने के समय मिल लो,’’ कविता के मुंह से निकल ही गया.

पर बड़ी दीदी तो अपनी ही उधेड़बुन में थीं. बोलीं, ‘‘मुझे तो अभी बाजार निकलना होगा. दर्द तो है घुटनों में पर किसी का साथ मिल जाता तो हो आती, बहू ने साडि़यां मंगवाई थीं… आज ही समय है. भाभी से ही कहती हूं कि गाड़ी का इंतजाम कर दें…’’

थे, ‘‘ममा, हम किस के साथ खेलें? हमारी उम्र का तो कोई है ही नहीं.’’

‘‘नीचे बगीचे में घूम आओ या फिर टीवी देख लेना.’’

बच्चों को भेज कर कविता लेट तो गई, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी. 12 वर्ष पहले उस का स्वयं का विवाह हुआ था. फिर 8 साल पहले चचेरी बहन पिंकी का. अभी तक सारे विवाह अपने पुश्तैनी घर में ही होते रहे थे. घर छोटा था तो क्या हुआ, सारे मेहमान उस में आ जाते. आंगन में ही रात को सब की खाटें बिछ जातीं. दिन भर गहमागहमी रहती. शादी का माहौल दिखता. ढोलक की थाप पर नाचगाना होता. पिंकी के विवाह में जब आशा बूआ नाच रही थीं तो बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हो रहे थे.

‘‘हाय दइया ततैयों ने खा लयोरे…’’ कहते हुए वे साड़ी घुटनों तक उठा लेतीं.

सब लोग हा…हा… कर के हंसते. तभी बड़ी ताईजी सब को डांटतीं कि बेटी का ब्याह है कोई नौटंकी नहीं हो रही, समझीं? पर फिर भी सब हंसते रहते और वही माहौल बना रहता. आज मांबाबूजी हैं नहीं, ताईजी भी इतनी बूढ़ी हैं कि कहीं आ जा नहीं सकतीं. बस छोटी बूआ आई हैं, दीदी बता रही थीं. पर वे भी शायद अकेली किसी कमरे में होंगी.

हां, दीदी कह तो रही थीं किसी से कि एक थाली कमरे में भिजवा दो. उस समय तो हलवाइयों की रौनक, मिठाई, नमकीन सब की खुशबू हुआ करती थी शादीब्याह के माहौल में, पर यहां तो बस चुपचाप अपने कमरे में बंद हैं. लग ही नहीं रहा है कि अपने घर की शादी में आए हैं.

शाम को बरात को रवाना होना था, बरात क्या होटल में ठहरे मेहमानों को ही चलना था, पास ही के एक दूसरे होटल में लड़की वाले ठहरे थे, वहीं शादी होनी थी.

पर जब तक कविता तैयार हो कर बच्चों को ले कर नीचे आई तो पता चला कि भैयाभाभी और करण तो पहले ही जा चुके हैं. कुछ लोग अब जा रहे थे, दोनों दीदियां भी नीचे खड़ी थीं.

‘‘अरे दीदी, करण का तिलक भी तो होना था,’’ कविता को याद आया.

‘‘अब रहने दे, सब लोग वहां पहुंच चुके हैं… नीचे ड्राइवर इंतजार कर रहा है,’’ कहते हुए मझली दीदी आगे बढ़ गईं.

ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूसरे परिचित की शादी हो, खाने की अलगअलग मेजें लगी थीं, जैसा कि होटलों में होता है. सब लोग मेजों पर पहुंचने लगे.

‘‘फेरों के समय तो अपनी कोई जरूरत है नहीं,’’ बड़ी दीदी कह रही थीं.

‘‘और क्या, मेरी तो वैसे भी रात को देर तक जागने की आदत है नहीं. सुबह फिर जल्दी उठना है, 7 बजे की ट्रेन है, तो 6 बजे तक तो निकलना ही होगा,’’ मझली दीदी बोलीं.

तभी भाभी की छोटी बहन ममता हाथ में ढेर से पैकेट लिए आती दिखी.

‘‘दीदी आप लोग तो कल ही जा रहे हो न तो अपनेअपने गिफ्ट संभालो,’’ कहते हुए उस ने सभी को पैकेट और मिठाई के डब्बे थमा दिए.

‘‘पर मेरी तो ट्रेन सुबह 10 बजे की है, अभी इतनी जल्दी क्या है?’’ कविता के मुंह से निकला.

‘‘वह तो ठीक है पर दीदी जीजाजी को कहां सुबह समय मिल पाएगा, रात भर के थके होंगे. हां, आप अपने नाश्ते के समय लंच का डब्बा जरूर सुबह ले लेना.’’

मझली दीदी ने तो तब तक एक पैकेट के कोने से अंदर झांक भी लिया, ‘‘साड़ी तो बढि़या दी है भाभी ने,’’ वे फुसफुसाईं.

पर कविता चुप थी. अंदर कमरे में आ कर भी उसे देर तक नींद नहीं आई थी. रिश्ते क्या इतनी जल्दी बदल जाते हैं? क्या अब लेनादेना ही शेष रह गया है? प्रश्न ही प्रश्न थे उस के मन में जो अनुत्तरित थे.

सुबह चायनाश्ते के बाद वह तैयार हो कर नीचे उतरी तो भैयाभाभी नीचे ही खड़े थे.

‘‘कविता, तुम्हारा गिफ्ट पैक मिल गया है न… और हां, ड्राइवर नीचे ही है. तुम्हें स्टेशन तक छोड़ देगा. श्याम, गाड़ी में सामान रखवा दो,’’ भैया ने नौकर को आवाज दी.

इस तरह कविता की विदाई भी हो गई. दोनों दीदियां सुबह ही जा चुकी थीं. ड्राइवर को किसी और को भी छोड़ना था, इसलिए कविता को 2 घंटे पहले ही स्टेशन उतार गया.

बैंच पर बैठेबैठे कविता अनमनी सी हो गई थी. अभी भी घोषणा हो रही थी कि ट्रेन और 2 घंटे लेट है.

‘‘लो…’’ उस के मुंह से निकल ही गया.

‘‘ममा, हमें तो भूख लगी है…’’ छोटू की आवाज गूंजी तो उस ने एक पैकेट खोल लिया.

‘‘और कुछ खाना हो तो सामने से ले आऊं, अभी ट्रेन के आने में देर है.’’

‘‘हां ममा, जूस पीना है.’’

‘‘मुझे भी…’’

‘‘ठीक है, अभी लाती हूं.’’

‘बच्चे साथ थे तो मन कुछ बहल गया… अकेली होती तो…’ सोचते हुए कविता आगे बढ़ गई.

ट्रेन में बैठ कर बच्चे तो सो गए पर कविता चुपचाप खिड़की के बाहर देख रही थी… ‘पीछे छूटते वृक्ष, इमारतें… शायद ऐसे ही बहुत कुछ छूटता जाता है…’ सोचते हुए उस ने भी आंखें मूंद लीं.

अजनबी: आखिर कौन था उस दरवाजे के बाहर

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा. ‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्ंि?डग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है? ‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा. इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया. नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी. ‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’ शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’ शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी. आंटी ने बताया कि उन की बिल्ंिडग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

ई. एम. आई. – भाग 1: क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म की एक बेंच पर सोम और समिधा बैठे हुए अम्मां बाबूजी की गाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे. कुहरे के कारण गाड़ी 4 घंटे लेट थी. सोम गहरे सोच में था.

वह मन ही मन बढ़ने वाले खर्च को सोच कर गुणाभाग में लगा हुआ था.

‘‘समिधा, इस ई.एम.आई. के कारण हम लोगों के हाथ हमेशा बंधे रहते हैं.’’

‘‘तुम भी सोम न जाने क्याक्या सोचते रहते हो. इसी के जरिए तो हम लोगों ने सुखसुविधा की चीजें जोड़ ली हैं, नहीं तो भला क्या मुमकिन था?’’

‘‘समिधा, अम्मांबाबूजी पहली बार अपने घर आ रहे हैं. ध्यान रखना, अम्मां नाराज न होने पाएं.’’

‘‘सोम, तुम यह बात कम से कम 15 बार कह चुके हो. तुम्हारी अम्मां तुनकमिजाज हैं, यह मुझे अच्छी तरह मालूम है.’’

सोम चुप हो कर बैठ गया.

उस के मन में डर था कि अम्मां और समिधा की कैसे निभेगी, क्योंकि अम्मां को उस के हर काम में मीनमेख निकालने की आदत है. समिधा भी बहुत जिद्दी है. सोम उसे 2 साल तक मां न बनने की बात कह रहा था, लेकिन उस ने चुपचाप अपनी मनमानी कर ली. यह राज तो तब खुला जब एक दिन उस ने समिधा से कहा कि उस का प्रमोशन हुआ है, उस की तनख्वाह भी बढ़ जाएगी. तभी हंस कर बोली थी वह, ‘‘आप का एक प्रमोशन और हुआ है.

‘‘वह क्या?’’ पूछने पर समिधा शरमाते हुए बोली थी, ‘‘आप पापा बनने वाले हैं.’’

सुन कर वह घबरा गया था, ‘‘नहींनहीं, अभी यह सब नहीं. अभी मेरे लिए तुम्हारी नौकरी बहुत जरूरी है. तुम औफिस जाओगी तो बच्चे को कौन रखेगा?’’

निश्चिंत हो कर वह बोली थी, ‘‘मैं ने अम्मां से बात कर ली है, वे अब यहीं रहेंगी. बच्चे को वे ही संभालेंगी.’’

दोनों में अच्छीखासी बहस हो गई थी. सोम का कहना था कि उस की और अम्मां की पटेगी नहीं.

समिधा का कहना था कि वह अम्मां को अच्छी तरह समझती है, वे उसे अकेला छोड़ कर गांव कभी नहीं जाएंगी.

सोम गंभीर हो कर अपनी और समिधा की मुलाकात और शादी के बारे में सोचने लगा. उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे कल की ही बात हो.

समिधा सोम के औफिस में ही काम करती थी. वह गोरे रंग एवं तीखे नैननक्श वाली लड़की थी. काम के सिलसिले में उसे सोम के पास बारबार जाना पड़ता था. दोनों ही साधारण परिवार से थे. मिलतेजुलते कब एकदूसरे के आकर्षण में बंध गए, उन्हें पता ही नहीं लगा.

ई. एम. आई. – भाग 2 : क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

समिधा का पहले शरमाना, फिर मुसकराना, फिर साथ में कौफी पीना और फिर बाइक पर लिफ्ट… चूंकि दोनों की पृष्ठभूमि लगभग एक सी थी, अत: प्यार परवान चढ़ने लगा. औफिस में दोनों के बारे में चर्चा होने लगी थी. कुछ दिन बाद अचानक समिधा ने औफिस आना बंद कर दिया, तो सोम परेशान हो उठा. उस ने समिधा के घर का पता लगाया और बेचैन हालत में उस के घर पहुंच गया. वह एक कालोनी में अपनी बूआ के साथ रहती थी. उस के मांबाप बचपन में ही गुजर गए थे. बूआ ने ही उसे पढ़ाया लिखाया था. बूआ एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं. समिधा और बूआ दोनों एकदूसरे का सहारा थीं. मेवा मिठाई, पकवान तो उन के पास नहीं था, परंतु दाल रोटी अच्छी तरह से चल रही थी.

सोम को देखते ही समिधा की बूआ सरिताजी की त्योरियां चढ़ गई थीं. छूटते ही उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी कि कहां रहते हो? घर पर कौनकौन है? समिधा से क्यों मिलने आए हो? तुम्हारी तनख्वाह कितनी है? आदिआदि.

सोम के माथे पर पसीना आ गया था. वह उस घड़ी को कोसने लगा था, जब उस ने समिधा के घर की ओर रुख किया था. परंतु वह अपनी अम्मां के ऐसे तेवरों से वाकिफ था, इसलिए उस ने धैर्यपूर्वक उन्हें उत्तर दिए.

जब सरिताजी थोड़ी आश्वस्त हुईं तो बोलीं, ‘‘इसे तो 1 हफ्ते से बुखार आ रहा था. इसीलिए औफिस नहीं जा रही थी. अब बुखार ठीक हो गया है, इसलिए कल से यह औफिस जाएगी,’’ फिर चेतावनी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘मुझे लड़के लड़कियों की दोस्ती पसंद नहीं है. लड़के कुछ दिन तो लड़कियों से प्यार का नाटक करते हैं, फिर जब दूसरी पर दिल आ जाता है तो पहले वाली की ओर मुड़ कर भी नहीं देखते.’’

सोम की तो स्पष्टवादी सरिताजी के सामने बोलती ही बंद हो गई थी. सरिताजी उठ कर अंदर चली गईं तब समिधा ने फुसफुसा कर उस से कहा, ‘‘आप को यहां आने की क्या जरूरत थी? बूआ ने इतनी बातें कह डालीं आप से, मैं उन की ओर से क्षमा मांगती हूं.’’

सोम ने दबे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारा मोबाइल बंद था, इसलिए मैं घबरा गया था. अच्छा अब मैं चलता हूं.’’ वह खड़ा ही हुआ था कि तभी बूआ चायनाश्ता ले कर आ गईं. बोलीं, ‘‘क्यों बेटा, तुम मेरी बात का बुरा मान गए क्या? मेरी जवान बेटी है, सुंदर भी है इसलिए डरती हूं, कहीं किसी गलत लड़के के चक्कर में न पड़ जाए. लंबाचौड़ा दहेज देने की हैसियत तो मेरी है नहीं कि यह राजकुमार का ख्वाब देखे. कोई पढ़ालिखा, खाताकमाता लड़का मिल जाए, जो इस का ध्यान रखे, इस को इज्जत दे, बस यही चाहती हूं मैं. पढ़ालिखा कर काबिल बना दिया है मैं ने इसे, अपने पैरों पर खड़ी हो गई है यह.’’

सोम ने उन लोगों से विदा ली. सरिताजी की स्पष्टवादिता से वह उन का कायल हो गया. एक मां के दर्द को उस ने गहराई से अनुभव किया था. उसी क्षण उस ने मन ही मन समिधा से शादी का निर्णय कर लिया था. अम्मांबाबूजी से आज्ञा लेना तो मात्र औपचारिकता थी.

अगले दिन वह औफिस गई तो सोम से आंखें मिलाने में सकुचा रही थी, परंतु वह उस को देखते ही खुश हो गया. लंच के समय समिधा ने पुन: उस से बूआ की बातों के लिए माफी मांगी, परंतु सोम ने तो उस के समक्ष शादी का प्रस्ताव ही रख दिया. वह खुशी से झूम उठी, उसे अपने पर विश्वास नहीं हो रहा था.

एक हफ्ते बाद ही सोम छुट्टी ले कर अपने गांव गया. वहां उस ने अम्मांबाबूजी को उस का फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘यह लड़की कैसी है?’’ दोनों ने फोटो देखा फिर एकसाथ बोल पड़े, ‘‘दहेज कितना मिलेगा?’’

वह बोला, ‘‘दहेज. लेकिन मैं तो बिना दहेज लिए ही शादी करूंगा.’’

बाबूजी भड़क उठे, ‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. मेरे पास क्या रकम गड़ी है, जो मैं शादी में खर्च करूंगा? अभी तक सुनंदा के विवाह का कर्ज चुका रहा हूं. ब्याज बढ़ता जा रहा है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा रुपया. तुम्हें जो नकद मिले उस से तुम शहर में अपने लिए घर ले लेना.’’

‘‘आप मेरे घर की चिंता न करें. किस्तों में फ्लैट मैं ले चुका हूं. आप दहेज की बात करते हैं, वह तो नौकरी कर रही है, सारी जिंदगी कमा कर दहेज देती रहेगी.’’

बाबूजी चीखते हुए बोले, ‘‘जब तुम ने सब तय कर लिया है, तो मुझ से हामी भरवाने की क्या जरूरत है. भाड़ में जाओ, जो चाहे वह करो.’’

सोम ने अगली सुबह की ट्रेन पकड़ी और दिल्ली लौट आया. उस के बाद 3-4 बार वह जल्दीजल्दी फिर गांव गया. अम्मां बाबूजी को तरहतरह से समझाने का प्रयास करता रहा, परंतु हठी बाबूजी का मन नहीं पसीजा.

 

ई. एम. आई

साथी साथ निभाना – भाग 1 : संजीव ने ऐसा क्या किया कि नेहा की सोच बदल गई

उस शाम नेहा की जेठानी सपना ने अपने पति राजीव के साथ जबरदस्त झगड़ा किया. उन के बीच गालीगलौज भी हुई.

‘‘तुम सविता के साथ अपने संबंध फौरन तोड़ लो, नहीं तो मैं अपनी जान दे दूंगी या तुम्हारा खून कर दूंगी,’’ सपना की इस धमकी को घर के सभी सदस्यों ने बारबार सुना.

नेहा को इस घर में दुलहन बन कर आए अभी 3 महीने ही हुए थे. ऐसे हंगामों से घबरा कर वह कांपने लगी.

उस के पति संजीव और सासससुर ने राजीव व सपना का झगड़ा खत्म कराने का बहुत प्रयास किया, पर वे असफल रहे.

‘‘मुझे इस गलत इंसान के साथ बांधने के तुम सभी दोषी हो,’’ सपना ने उन तीनों को भी झगड़े में लपेटा, ‘‘जब इन की जिंदगी में वह चुड़ैल मौजूद थी, तो मुझे ब्याह कर क्यों लाए? क्यों अंधेरे में रखा मुझे और मेरे घर वालों को? अपनी मौत के लिए मैं तुम सब को भी जिम्मेदार ठहराऊंगी, यह कान खोल कर सुन लो.’’

सपना के इस आखिरी वाक्य ने नेहा के पैरों तले जमीन खिसका दी. संजीव के कमरे में आते ही वह उस से लिपट कर रोने लगी और फिर बोली, ‘‘मुझे यहां बहुत डर लगने लगा है. प्लीज मुझे कुछ समय के लिए अपने मम्मीपापा के पास जाने दो.’’

‘‘भाभी इस वक्त बहुत नाराज हैं. तुम चली जाओगी तो पूरे घर में अफरातफरी मच जाएगी. अभी तुम्हारा मायके जाना ठीक नहीं रहेगा,’’ संजीव ने उसे प्यार से समझाया.

‘‘मैं यहां रही, तो मेरी तबीयत बहुत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘जब तुम से कोई कुछ कह नहीं रहा है, तो तुम क्यों डरती हो?’’ संजीव नाराज हो उठा.

नेहा कोई जवाब न दे कर फिर रोने लगी.

उस के रोतेबिलखते चेहरे को देख कर संजीव परेशान हो गया. हार कर वह कुछ दिनों के लिए नेहा को मायके छोड़ आने को राजी हो गया.

उसी रात सपना ने अपने ससुर की नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की.

उसे ऐसा करते राजीव ने देख लिया. उस ने फौरन नमकपानी का घोल पिला कर सपना को उलटियां कराईं. उस की जान का खतरा तो टल गया, पर घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं.

डरीसहमी नेहा ने तो संजीव के साथ मायके जाने का इंतजार भी नहीं किया. उस ने अपने पिता को फोन पर सारा मामला बताया, तो वे सुबहसुबह खुद ही उसे लेने आ पहुंचे.

नेहा के मायके जाने की बात के लिए अपने मातापिता से इजाजत लेना संजीव के लिए बड़ा मुश्किल काम साबित हुआ.

‘‘इस वक्त उस की जरूरत यहां है. तब तू उसे मायके क्यों भेज रहा है?’’ अपने पिता के इस सवाल का संजीव के पास कोई ठीक जवाब नहीं था.

‘‘मैं उसे 2-3 दिन में वापस ले आऊंगा. अभी उसे जाने दें,’’ संजीव की इस मांग को उस के मातापिता ने बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया.

नेहा को विदा करते वक्त संजीव तनाव में था. लेकिन उस की भावनाओं की फिक्र न नेहा ने की, न ही उस के पिता ने. नेहा के पिता तो  गुस्से में थे. किसी से भी ठीक तरह से बोले बिना वे अपनी बेटी को ले कर चले गए.

उन के मनोभावों का पता संजीव को 3 दिन बाद चला जब वह नेहा को वापस  लाने के लिए अपनी ससुराल पहुंचा.

नेहा की मां नीरजा ने संजीव से कहा, ‘‘हम ने बहुत लाड़प्यार से पाला था अपनी नेहा को. इसलिए तुम्हारे घर के खराब माहौल ने उसे डरा दिया.’’

नेहा के पिता राजेंद्र तो एकदम गुस्से से फट पड़े, ‘‘अरे, मारपीट, गालीगलौज करना सभ्य आदमियों की निशानी नहीं. तुम्हारे घर में न आपसी प्रेम है, न इज्जत. मेरी गुडि़या तो डर के कारण मर जाएगी वहां.’’

 

साथी साथ निभाना – भाग 2 : संजीव ने ऐसा क्या किया कि नेहा की सोच बदल गई

‘‘पापा, नेहा को मेरे घर के सभी लोग बहुत प्यार करते हैं. उसे डरनेघबराने की कोई जरूरत नहीं है,’’ संजीव ने दबे स्वर में अपनी बात कही.

‘‘यह कैसा प्यार है तुम्हारी भाभी का, जो कल को तुम्हारे व मेरी बेटी के हाथों में हथकडि़यां पहनवा देगा?’’

‘‘पापा, गुस्से में इंसान बहुत कुछ कह जाता है. सपना भाभी को भी नेहा बहुत पसंद है. वे इस का बुरा कभी नहीं चाहेंगी.’’

‘‘देखो संजीव, जो इंसान आत्महत्या करने की नासमझी कर सकता है, उस से संतुलित व्यवहार की हम कैसे उम्मीद करें?’’

‘‘पापा, हम सब मिल कर भैयाभाभी को प्यार से समझाएंगे. हमारे प्रयासों से समस्या जल्दी हल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी की खुशियां तुम्हारे भैयाभाभी के कभी समझदार बनने की उम्मीद पर आश्रित रहें.’’

‘‘फिर आप ही बताएं कि आप सब क्या चाहते हैं?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘इस समस्या का समाधान यही है कि तुम और नेहा अलग रहने लगो. भावी मुसीबतों से बचने का और कोई रास्ता नहीं है,’’ राजेंद्रजी ने गंभीर लहजे में अपनी राय दी.

‘‘मुझे पता था कि देरसवेर आप यह रास्ता मुझे जरूर सुझाएंगे. लेकिन मेरी एक बात आप सब ध्यान से सुन लें, मैं संयुक्त परिवार में रहना चाहता हूं और रहूंगा. नेहा को उसी घर में  लौटना होगा,’’ संजीव का चेहरा कठोर हो गया.

‘‘मुझे सचमुच वहां बहुत डर लगता है,’’ नेहा ने सहमे हुए अपने मन की बात कही, ‘‘न ठीक से नींद आती है, न कुछ खाया जाता है? मैं वहां लौटना नहीं चाहती हूं.’’

‘‘नेहा, तुम्हें जीवन भर मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए. अपने मातापिता की बातों में आने के बजाय मेरी इच्छाओं और भावनाओं को ध्यान में रख कर काम करो. मुझे ही नहीं, पूरे घर को तुम्हारी इस वक्त बहुत जरूरत है. प्लीज मेरे साथ चलो,’’ संजीव भावुक हो उठा.

अपनी आदत के अनुरूप नेहा कुछ कहनेसुनने के बजाय रोने लगी. नीरजा उसे चुप कराने लगीं. राजेंद्रजी सिर झुका कर खामोश बैठ गए. संजीव को वहां अपना हमदर्द या शुभचिंतक कोई नहीं लगा.

कुछ देर बाद नेहा अपनी मां के साथ अंदर वाले कमरे में चली गई. संजीव के साथ राजेंद्रजी की ज्यादा बातें नहीं हो सकीं.

‘‘तुम मेरे प्रस्ताव पर ठंडे दिमाग से सोचविचार करना, संजीव. अभी नेहा की

बिगड़ी हालत तुम से छिपी नहीं है. उसे यहां कुछ दिन और रहने दो,’’ राजेंद्रजी की इस पेशकश को सुन संजीव अपने घर अकेला ही लौट गया.

नेहा को वापस न लाने के कारण संजीव को अपने मातापिता से भी जलीकटी बातें सुनने को मिलीं.

गुस्से से भरे संजीव के पिता ने अपने समधी से फोन पर बात की. वे उन्हें खरीखोटी सुनाने से नहीं चूके.

‘‘भाईसाहब, हम पर गुस्सा होने के बजाय अपने घर का माहौल सुधारिए,’’ राजेंद्रजी ने तीखे स्वर में प्रतिक्रिया व्यक्त की, ‘‘नेहा को आदत नहीं है गलत माहौल में रहने की. हम ने कभी सोचा भी न था कि वह ससुराल में इतनी ज्यादा डरीसहमी और दुखी रहेगी.’’

‘‘राजेंद्रजी, समस्याएं हर घर में आतीजाती रहती हैं. मेरी समझ से आप नेहा को हमारे इस कठिनाई के समय में अपने घर पर रख कर भारी भूल कर रहे हैं.’’

‘‘इस वक्त उसे यहां रखना हमारी मजबूरी है, भाईसाहब. जब आप के घर की समस्या सुलझ जाएगी, तो मैं खुद उसे छोड़ जाऊंगा.’’

‘‘देखिए, लड़की के मातापिता उस के ससुराल के मसलों में अपनी टांग अड़ाएं, मैं इसे गलत मानता हूं.’’

‘‘भाईसाहब, बेटी के सुखदुख को नजरअंदाज करना भी उस के मातापिता के लिए संभव नहीं होता.’’

इस बात पर संजीव के पिता ने झटके से फोन काट दिया. उन्हें अपने समधी का व्यवहार मूर्खतापूर्ण और गलत लगा. अपना गुस्सा कम करने को वे कुछ देर के लिए बाहर घूमने चले गए.

सपना ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की है, यह बात किसी तरह उस के मायके वालों को भी मालूम पड़ गई.

उस के दोनों बड़े भाई राजीव से झगड़ने का मूड बना कर मिलने आए. उन के दबाव के साथसाथ राजीव पर अपने घर वालों का दबाव अलग से पड़ ही रहा था. सभी उस पर सविता से संबंध समाप्त कर लेने के लिए जोर डाल रहे थे.

सविता उस के साथ काम करने वाली शादीशुदा महिला थी. उस का पति सऊदी अरब में नौकरी करता था. अपने पति की अनुपस्थिति में उस ने राजीव को अपने प्रेमजाल में उलझा रखा था.

सब लोगों के दबाव से बचने के लिए राजीव ने झूठ का सहारा लिया. उस ने सविता को अपनी प्रेमिका नहीं, बल्कि सिर्फ अच्छी दोस्त बताया.

‘‘सपना का दिमाग खराब हो गया है. सविता को ले कर इस का शक बेबुनियाद है. मैं किसी भी औरत से हंसबोल लूं तो यह किलस जाती है. इस ने तो आत्महत्या करने का नाटक भर किया है, लेकिन मैं किसी दिन तंग आ कर जरूर रेलगाड़ी के नीचे कट मरूंगा.’’

उन सब के बीच कहासुनी बहुत हुई, मगर समस्या का कोई पुख्ता हल नहीं निकल सका.

संजीव की नाराजगी के चलते नेहा ही उसे रोज फोन करती. बातें करते हुए उसे अपने पति की आवाज में खिंचाव और तनाव साफ महसूस होता.

वह इस कारण वापस ससुराल लौट भी जाती, पर राजेंद्र और नीरजा ने उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दी.

‘‘वहां के संयुक्त परिवार में तुम कभी पनप नहीं पाओगी, नेहा,’’ राजेंद्रजी ने उसे समझाया, ‘‘अपने भैयाभाभी के झगड़ों व तुम्हारे यहां रहने से परेशान हो कर संजीव जरूर अलग रहने का फैसला कर लेगा. तेरे पास पैसा अपनी गृहस्थी अलग बसा लेने के बाद ही जुड़ सकेगा, बेटी.’’

नीरजा ने भी अपनी आपबीती सुना कर नेहा को समझाया कि इस वक्त उस का ससुराल में न लौटना ही उस के भावी हित में है.

एक रात फोन पर बातें करते हुए संजीव ने कुछ उत्तेजित लहजे में नेहा से कहा, ‘‘कल सुबह 11 बजे तुम मुझे नेहरू पार्क के पास मिलो. हम दोनों सविता से मिलने चलेंगे.’’

‘‘हम उस औरत से मिलने जाएंगे, पर क्यों?’’ नेहा चौंकी.

‘‘देखो, राजीव भैया पर उस से अलग होने की बात का मुझे कोई खास असर नहीं दिख रहा है. मेरी समझ से कल रविवार को तुम और मैं सविता की खबर ले कर आते हैं. उसे डराधमका कर, समाज में बेइज्जती का डर दिखा कर, उस के पति को उस की चरित्रहीनता की जानकारी देने का भय दिखा कर हम जरूर उसे भैया से दूर करने में सफल रहेंगे,’’ संजीव की बातों से नेहा का दिल जोर से धड़कने लगा.

 

ई. एम. आई. – भाग 3 : क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

बाबूजी और सोम में बोलचाल बंद हो गई थी. वह उन के सामने भी नहीं पड़ता था. धीरेधीरे लगभग 1 साल बीत गया. एक बार अम्मां की ममता जाग उठी. बोलीं, ‘‘लल्ला, तुम उस छोरी से चुपचाप कचहरी में लिखापढ़ी से ब्याह कर लो. तुम्हारे बाबूजी गांव भर में पंडिताई करते हैं, इसलिए अपनी बदनामी से डरते हैं. तुम बाद में बहू को ले कर आ जाना. हम सब संभाल लेंगे.’’

दिल्ली लौट कर सोम ने कोर्ट में शादी के लिए अर्जी दे दी और नियत तिथि को उदास मन से शादी कर ली. शादी में कोई धूमधाम न होने से दोनों के मन में बड़ा मलाल था.

समिधा ने सोम की उदासी परखते हुए कुछ दिन बाद उस के गांव चलने का प्रस्ताव रखा. सोम अम्मांबाबूजी के स्वभाव से परिचित था. उस ने उसे समझाया, ‘‘तुम उन के क्रोध को नहीं जानती हो. वे न जाने कैसी प्रतिक्रिया करेंगे.’’

वैसे वह भी समिधा को सब से मिलवाना चाहता था. नए जीवन की शुरुआत पर अम्मां बाबूजी का आशीर्वाद लेना चाहता था. उस ने अम्मां को फोन किया, ‘‘अम्मां, आप के कहे अनुसार हम ने कचहरी में शादी कर ली है, अब हम दोनों आप लोगों का आशीर्वाद चाहते हैं.’’

अम्मां जैसे इंतजार ही कर रही थीं. तुरंत बोलीं, ‘‘आ जाओ, हम भी तो तुम्हारी परकटी परी को अपनी आंखों से देखें, जिस ने हमारे लल्ला को फंसा लिया है.’’

समिधा के बाल कटे हुए थे. आज्ञा पाते ही सोम खुशी से उछल पड़ा. वह बाजार जा कर बाबूजी के लिए सिल्क का कुरता, धोती और ऊनी दोशाला लाया. अम्मां के लिए सुंदर सी साड़ी और शाल लाया. सरिताजी ने भी अपनी ओर से उन के लिए उपहार दिए.

सोम के मन में रास्ते भर उमड़घुमड़ मची रही. वह घर रात के अंधेरे में पहुंचा. संयोगवश दरवाजा बाबूजी ने ही खोला. सोम को देखते ही वे मुंह फेर ही रहे थे कि समिधा उन के पैरों पर गिर पड़ी. बाबूजी थोड़ा सकपकाए, परंतु तुरंत ही सब समझ गए. फिर अप्रत्याशित रूप से आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘‘सदा प्रसन्न रहो.’’

सोम का दिल बल्लियों उछल रहा था, परंतु यह क्या? बाबूजी ने अम्मां को आवाज दी, ‘‘उठो, तुम्हारा लाड़ला बहू ले कर आया है. न ढोल न नगाड़ा बस बेटे का ब्याह हो गया.’’ अम्मां ने आ कर दोनों को गले से लगा लिया. आंसुओं की धारा में सारा कलुष बह गया. बाबूजी भी चुपचाप अपने आंसू पोंछते रहे.

अगली सुबह ही अम्मां ने आदमी भेज कर अपनी बेटी सुनंदा को बुला लिया. वह सपरिवार आ गई. घर में खूब रौनक हो गई. बाबूजी ने कोई कसर न छोड़ी. गांव वालों को दावत दी. अम्मां ने समिधा को अपना हार पहना दिया.

सोम बहुत खुश था. उस ने स्वप्न में भी बाबूजी द्वारा ऐसे स्वागत के बारे में नहीं सोचा था. दोनों की गृहस्थी की गाड़ी रफ्तार से चल निकली थी. एक की पूरी तनख्वाह ई.एम.आई.  चुकाने में चली जाती थी, एक की तनख्वाह से घर चलता था. सोम अम्मांबाबूजी को हर महीने कुछ पैसा भेजता था, साथ ही सुनंदाजी की भी कुछ न कुछ मदद करता रहता था, इसलिए उस का हाथ हमेशा तंग रहता था.

‘‘सोम, कहां खो गए हो?’’

समिधा की आवाज से उस की विचार तंद्रा भंग हो गई. ट्रेन के आने की घोषणा हो गई थी. वह वर्तमान में लौट आया था. वह तेजी से अम्मांबाबूजी के डब्बे की ओर चल पड़ा.

‘‘प्लीज, अम्मां का ध्यान रखना,’’ सोम कहना नहीं भूला. उस ने लोन पर गाड़ी भी खरीद ली थी. उन लोगों को वह अपनी गाड़ी में दिल्ली घुमाने ले जाएगा, यह उस की चाहत थी.

सोम की अम्मां 65 वर्ष की बुजुर्ग महिला थीं. उन का पूरा जीवन गांव में गरीबी में बीता था. पहली बार वे दिल्ली आई थीं. प्लेटफार्म की भीड़ देख कर वे हैरान थीं. सड़कों पर लोगों की आवाजाही और गाडि़यों की कतार उन के लिए नई चीज थी. ऊंचीऊंची अट्टालिकाओं की भव्यता से वे हतप्रभ थीं. रोशनी की जगमग देख वे बोल उठीं, ‘‘का हो लल्ला, कोई मेला है क्या?’’

‘‘नहीं अम्मां, लोग काम से आतेजाते रहते हैं. यह देश की राजधानी दिल्ली है.’’

लिफ्ट से ऊपरी मंजिल पर चढ़ना भी उन के लिए अनोखा अनुभव था. सोम का फ्लैट छठी मंजिल पर था. सोम के ड्राइंगरूम में सोफासैट आदि सामान देख कर उन की आंखें फटी की फटी रह गईं.

‘‘सोम, इतने सामान में तो बहुत रुपया लगा होगा?’’

‘‘नहीं अम्मां, हम लोगों ने एकएक कर के पुरानी चीजें खरीद ली हैं.’’

साथी साथ निभाना

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