Family Story : आठवां फेरा – मैरिज सर्टिफिकेट की क्यों पड़ी जरूरत

Family Story : हमारी शादी को 35 वर्ष का लंबा  अंतराल हो चुका था. दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी और हम 4 वर्ष पुराने नानानानी भी बन चुके थे. सिर के तीनचौथाई बाल सफेद हो गए थे या गायब हो चुके थे. पति 60 वर्ष के ऊपर और मैं भी वहां तक पहुंच रही थी, पर आज कचहरी में अपने एक वकील की 8 बाई 8 फुट की कोठरी में बैठना हमें बड़ा असुविधाजनक लग रहा था.

कोर्टकचहरी तो हम वैसे भी कभी नहीं गए. न कभी चोरी की न कभी डाका डाला. और तो और, ईमानदारी बनाम हमारे पति ने कभी रिश्वत भी नहीं ली लेकिन हमारी प्रवासी बिटिया ने हमें एक फार्म भेजा था. वह चाहती थी कि हम लोग ‘इमीग्रेशन’ के लिए उसे भर दें. जब फार्म भरने बैठे तो ‘विवाहित’ के सामने (ङ्क) मार्क करने के बाद उस फार्म ने फरमाइश की कि यदि आप विवाहित हैं तो ‘मैरिज’ सर्टिफिकेट चाहिए. मैं अपने पति का और पति मेरा मुंह देखने लगे.

यह मैरिज सर्टि- फिकेट क्या होता है? हाईस्कूल सर्टिफिकेट, 12वीं का सर्टिफिकेट, बी.ए. व एम.ए. की डिगरी, पतिदेव की कालिज की तमाम डिगरियों तथा अपने कालिज के स्पोर्ट्स में सदैव तीसरा स्थान पाने वाले 15-20 सर्टिफिकेट्स, सभी की एक फाइल तैयार थी. पर कभी किसी नौकरी के साक्षात्कार से ले कर तत्काल के रेलवे रिजर्वेशन में ऐसा सर्टिफिकेट किसी ने नहीं मांगा था.

‘‘अरे भाई, अब इस उम्र में क्या हमें अपनी शादी का सर्टिफिकेट तैयार करना पड़ेगा?’’

हमारे से आधी उम्र के वकील साहब, जो मेरे छोटे भाई के दोस्त रह चुके थे, बोले, ‘‘जीजी, आप चिंता क्यों करती हैं, मैं हूं न. मैं बनवा दूंगा. आखिर कचहरी में बैठा किसलिए हूं,’’ वह एकदम फिल्मी वकील साहब वाली हंसी हंसते हुए बोले.

हम दोनों चुपचाप बैठे रहे, जहां वह हमें कहते रहे वहां हम दस्तखत करते रहे. कचहरी के जिन गलियारों से वह हमें ले जाते रहे हम वहां से गुजरते रहे. जिन अधिकारियों के सामने पेश किया, पेश हो गए. जहां कहा वहां अंगूठे का निशान तक लगा दिया और 2-3 दिन की दौड़भाग के बाद एक अधमरा सा कागज हमें इस एतराम (रौब) से सौंपा गया जैसे लखनऊ के नवाब की शाही जागीर वह हमें सौंप रहे हों. उस कागज पर तरहतरह की मुहरें हमें दिखाते हुए वकील साहब गहरी सांस ले कर पूरी बत्तीसी दिखाते हुए बोले, ‘‘लीजिए, अब आप और जीजाजी कानूनी तौर पर शादीशुदा हो गए.’’

‘तो क्या हम अब तक गैरकानूनी तौर पर…’ जबान पर भी जो लफ्ज न आ पाए, जरा सोचिए वह खयाल मेरे जेहन पर, मस्तिष्क पर, हृदय पर कितने सारे आड़ेतिरछे प्रश्नचिह्न भाले की तरह चुभो गए होंगे? यह सोच कर कि हम क्या यों ही…तो क्या हम वैसे ही…अब तक पिछले 35 साल से रह रहे थे? कैसा मजाक है कि हमारे बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र हैं जिन पर हम उन के कानूनी मांबाप हैं, वह तो स्वीकार है पर हमारी शादी सर्टिफिकेट के बिना…नहीं. यह कैसा विरोधाभास है?

मुझे हंसी भी आ रही थी और एक गहन विचार भी दिमाग में जन्म ले रहा था.

हमारे समाज में हिंदू मैरिज सिस्टम में जहां सैकड़ों छोटीबड़ी रस्मों की भरमार है, जहां शादीविवाह के मामले में हम इतना सोचविचार करते हैं…इतने शुभअशुभ, मंगलअमंगल, रीतिरिवाजों की भरमार है, जहां बिटिया के लिए वर और बेटे के लिए वधू ढूंढ़ने के लिए अनेक आधुनिकतम वैवाहिक विज्ञापन हैं, जहां कई हजार देवीदेवताओं की मंगल कामनाएं मांगने के इतने ढेर सारे रिवाज हैं, जहां विवाह जैसे अति महत्त्वपूर्ण मामले में हम अपनी पूरी मेहनत व पूंजी लगा देते हैं, जहां ब्याहशादी की सैकड़ों रस्मों पर तरहतरह के कपड़ेगहने, खानेपीने, सजनेसजाने की सभी व्यवस्था हम खूब बारीकी से करते हैं, जहां अग्नि को साक्षी मान स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ सैकड़ों रिश्तेदार, मामा, नाना, दादा, दादी व मित्र आशीर्वाद देते हैं, जहां भावविभोर पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में दे कर कन्यादान करता है, जहां सिल्क के धोतीकुरते में सजेसजाए पंडितजी सात फेरे डलवाते हैं वहां ‘एक कागज के टुकड़े बनाम मैरिज सर्टिफिकेट’ का प्रावधान क्या इतना महत्त्वपूर्ण है? यदि हां, तो यह विवाह के समय ही क्यों नहीं दे देना चाहिए?

‘सप्तपदी’ के एकएक श्लोक की विवेचना पर पोथियां लीपी गईं तो कानूनी तौर पर मैरिज सर्टिफिकेट के महत्त्व को ताक पर उठा कर क्यों रखा गया? ‘मैट्रीमोनियल’, ‘रिश्ते ही रिश्ते’ और ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’ जैसी हजारों संस्थाओं को चाहिए कि वे जिस तरह वाहन सीखने वाले ड्राइविंग स्कूल अपना विज्ञापन करते हैं और अपनी फीस में सिखाने के साथ ड्राइविंग लाइसेंस की फीस निश्चित कर के बताते हैं, उसी प्रकार वरवधू के साथ मैरिज सर्टिफिकेट्स की फीस भी लगा दें या जिस प्रकार बड़े टीवी के साथ छोटा टीवी मुफ्त मिलता है, उसी प्रकार मालदार आसामी के साथ मैरिज सर्टिफिकेट मुफ्त दिला कर अपने व्यापार को ऊपर बढ़ा सकते हैं. कृपया सुझाव नोट करें.

सदियों से चली आ रही हिंदू विवाह पद्धति में कुछ फेरबदल करना आवश्यक है. समय के साथ हिंदू विवाह की रीतियां भी अपने में विकसित करें. अत: हनीमून पर जाने से पहले या बिटिया को ‘मायके’ का फेरा डलवाने से पहले प्रत्येक नवविवाहित जोड़े को एक और रीति का पालन करना होगा.

आज का तकाजा है प्रत्येक विवाह में वरवधू के जोड़े से सातवें फेरे के बाद, जहां सामान्य तौर पर उस के साथ ही यह पंडितजी बड़ों का आशीर्वाद लेने को कहते हैं, उसी समय कहें कि अब विवाह तभी संपूर्ण माना जाएगा जब आप ‘मैरिज रजिस्ट्रार’ के दफ्तर में जा कर आठवां फेरा लगा लें.

Short Story : राज को राज रहने दो – लालच बुरी बला है

Short Story : आज का युग घोटाले, फिक्सिंग, ठगी, बाबागीरी और भ्रष्टाचार की ओर तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है. ऊपर से जब से मेरे दिलोदिमाग में क्रिकेट में होने वाले स्पौट फिक्सिंग का मामला घुसा है, मुझे तो बारबार गांधीजी का यह कथन याद आए बिना चैन ही नहीं मिल रहा, ‘‘हमारी धरती प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन प्रत्येक मनुष्य के लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती.’’

इशारों से खेलों में होने वाला भ्रष्टाचार अब सभी के सामने खुल कर आ चुका है. खेलों में तरहतरह के डोपिंग, स्कैंडल और मैच फिक्सिंग की खबरें आएदिन आती रहती हैं. यहां पर यह कहना भी उचित होगा कि जब लोगों के पास ज्यादा रुपया आता है तो उन के अंदर इस को और अधिक पाने की ललक अनायास ही पैदा हो जाती है. कुछ ही लोग होते हैं जो खुद को संयमित रख पाते हैं. तेज बुखार को पैरासिटामौल यानी बुखार नियंत्रक दवा खा कर नियंत्रित किया जा सकता है मगर किसी व्यक्ति के दिमाग में यदि रुपया कमाने का फुतूर चढ़ जाए तो वह अकसर कारागार की सलाखों के पीछे जा कर ही नियंत्रित होता हुआ देखा गया है.

कहते हैं कि अति तो किसी भी चीज की हो, बुरी ही होती है. फिर भी लोग मानते नहीं. नएनए तरीके निकाल ही लेते हैं घोटाले, फिक्सिंग और भ्रष्टाचार करने के. चलना भी नियति का नियम है, सो, हमारे क्रिकेट खिलाड़ी भी चल दिए फिक्सिंग जैसी राह पर और खेल के मध्य ही इशारेबाजी कर बैठे. वैसे देखा जाए तो क्रिकेट के इतिहास में इशारों का संबंध बहुत पुराना रहा है, क्योंकि क्रिकेट के अंपायर इस कला में माहिर होते थे. उन के एक इशारे पर पूरी की पूरी टीम आउट घोषित कर दी जाती थी यानी पूरी टीम की हारजीत व नोबौल का निर्णय हो जाता था.

लेकिन आजकल अंपायर का काम इलैक्ट्रौनिक कैमरों ने भलीभांति संभाल लिया है, इसलिए इस से बच कर अब कुछ नया करने और पाने की चाह में हमारे क्रिकेट खिलाड़ी खुद ही इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं और लोगों की आंखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. वैसे, इशारा कर के सामने वाले को प्रभावित करना व उचित मार्गदर्शन देना किसी ऐरेगैरे नत्थूखैरे के वश की बात भी नहीं है. जरूरत से ज्यादा समझदार लोग ही इस कला में पारंगत हो पाते हैं.

आजकल ‘आसमान से गिरे खजूर पर अटके’ वाला दौर नहीं है. अब तो है परछाईं देख आसमान में पहुंच जाने का युग. यदि इस धरती पर कहीं रुपयों के वृक्ष का बीज होता तो उसे भी बड़ी मेहनत से ही लगाया जाता. उसे लगाने, अंकुरित हो कर वृक्ष बनने तथा उस में रुपया लद कर आने में समय लगता. परिणामस्वरूप उस की भी जबरदस्त सुरक्षा करनी पड़ती. वहां भी कोई चमत्कार नहीं हो जाता कि इशारा किया और रुपयों का वृक्ष लद गया ढेर सारे रुपयों से. मगर जब आजकल खेलखेल में खेलों के अंदर इशारों से ही धनवर्षा हो रही हो तो इस से बेहतर और आसान बात कोई हो ही नहीं सकती. भला ऐसे में कौन ‘इशारा’ करने से वंचित रहना चाहेगा. जो पीछे रह जाएगा वह आखिर में पश्चात्ताप ही करेगा और सोचेगा कि यदि किसी ने मेरे इशारे भी समझ लिए होते या मुझे भी एक इशारा करने का मौका दिया जाता तो मैं भी मालामाल हो जाता, लेकिन छप्परफाड़ कर धनवर्षा सभी के यहां नहीं होती है, इसलिए मन मार कर संतुष्ट होना ही पड़ता है.

आजकल क्रिकेट में भी लोगों ने जाना कि खिलाडि़यों के एक इशारे पर अब रनवर्षा की जगह धनवर्षा भी होती है. इसलिए अब मेरी रायनुसार ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ का नाम बदल कर ‘स्पौट फिक्सिंग मनी गारंटी क्रिकेट मैच’ यानी एसएफएमजीसीएम रख दिया जाना चाहिए. इस प्रकार के मनी गारंटी क्रिकेट खेल के लिए दिशाओं में बैटबौल घुमाने से ज्यादा, खिलाडि़यों को इशारा करने और इशारे पहचानने की ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत पड़ेगी यानी जम कर धन पाने की तैयारी के लिए उन्हें नएनए इशारों द्वारा हार कर भी शानदार से शानदार कहे जाने वाले नतीजे सामने लाने में योग्य होना पड़ेगा.

माना कि लालच बुरी बला होती है मगर धनवर्षा के समय तो सभी भूल जाते हैं कि ज्यादा धनवर्षा की लूटखसोट में सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने का डर भी बना रहता है. फिर भी इस एसएफएमजीसीएम खेल में यही कहा जाएगा, ‘इशारों को अगर समझो तो राज को राज रहने दो…’ और इस से अधिक कुछ नहीं.

कभीकभी इशारे भी खतरनाक सिद्ध होते हैं. इस बात को हम अपने जीवन में भुगत चुके हैं. यहां आपबीती के तौर पर आप को बता रहे हैं. दरअसल, अपनी जवानी में अपने घर के सामने वाली बिल्डिंग में रहने वाली रंजना को अपना दिल दे बैठे थे और हम ने उसे समझा रखा था कि जब भी घर में तुम्हारे मम्मीपापा न हों तो अपनी बालकनी में लाल रंग का रूमाल टांग दिया करना तो उसे देख कर मैं समझ जाया करूंगा कि तुम्हारे मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. बस, तुम ही घर पर अकेली हो. और मैं तुम से मिलने तुम्हारे घर बेधड़क आ जाया करूंगा.

कई बार ऐसा हुआ. लेकिन एक बार मुझे उस की बालकनी में एक लाल रंग के रूमाल की जगह तौलिया टंगा दिखा तो भी रंजना के प्यार में अंधे हो चुके मेरे दीवाने दिल को वह लाल रूमाल ही लगा और प्यार में दीवाना हो कर मैं ने जैसे ही उस के घर की घंटी बजाई, दरवाजा खुलते ही मुझे सामने उस के पिताजी दिखाई दिए और मुझे देख कर वे तेज आवाज में बोले, ‘‘कमबख्त, कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम अपने घर से मेरे घर की बालकनी में ही टकटकी लगाए हुए देखते रहते हो और अब तुम्हारी यह हिम्मत कि मेरे घर पर ही आ धमके. अभी लो, पुलिस को बुला कर तुम्हारा हुलिया ठीक करवा देता हूं.’’

उन का तेजतर्रार चेहरा व बातें सुन कर मैं एकदम उन के पैरों में गिर पड़ा और बोला, ‘‘अंकलजी, गलती हो गई. अब कभी ऐसा नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दें.’’ मेरे माफी मांगने और गिड़गिड़ाने के संपूर्ण कार्यक्रम को रंजना भी अपने पिताजी के पीछे खड़ी हो कर देख रही थी. परिणामस्वरूप उस ने मेरे डरपोक किस्म के मूल स्वभाव को अच्छी तरह से पहचान लिया. इसलिए फिर उस ने कभी भी लाल रूमाल अपनी बालकनी में नहीं टांगा और मैं ने भी कभी अपनी बदनामी व पिटाई के डर से उस के घर के अंदर दौड़ कर जाने व अपने प्यार की पेंगें बढ़ाने की हिम्मत फिर कभी नहीं जुटा पाई.

कुल मिला कर प्रेम हो, खेल हो या कोई और क्षेत्र, इशारे तो सभी क्षेत्र की जान होते हैं. कोई इन इशारों से सफल होता है, तो कोई असफल. किसी को यश मिलता है, तो किसी को अपयश. फिर भी इशारों का अस्तित्व होता है और सदा रहेगा.

जिन लोगों को लगता है कि इशारों का गणित समझना जरूरी है और वे भविष्य में इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं, उन्हें इशारों का गणित समझाने वाले गुरु की तलाश करनी चाहिए ताकि अगली बार कलाईबैंड घुमाने, बालकनी में लाल रूमाल टांगने या तौलिया लटकाने या फिर खेल के मैदान में अपनी कमीज उतार कर बारबार लहराने जैसे इशारों पर किसी थानेदार की सख्त व बुरी नजर न पड़ सके.

Family Story : अपनी खूबी ले डूबी – संतोष के साथ क्या हुआ

Family Story : दफ्तर से घर लौटते समय ताराचंद के चेहरे से दुनियाभर की खुशी टपक रही थी. दरवाजे के भीतर कदम रखते ही उन्होंने ऊंची आवाज में अपनी बीवी को पुकारा, ‘‘अरी ओ संतोष, कहां हो?’’

‘‘तुम चिल्लाते क्यों हो जी. कुरतापाजामा वहीं खूंटी पर तो टंगा है. लेकिन ठहरो, अभी तुम कपड़े मत बदलना…’’ संतोष ने भीतर से आते हुए कहा.

‘‘क्यों…?’’ ताराचंद ने पूछा.

संतोष मुसकरा कर बोली, ‘‘क्योंकि तुम्हारी इच्छा चाय पीने की होगी. ऐसा करो तुम दुर्गा ताई के घर हो आओ. ताऊ को कल शाम से बुखार है. वहां चाय के साथ नमकीन भी मिल जाएगी…’’ थोड़ा रुक कर वह फिर बोली, ‘‘कल हम दोनों ही वहां जा कर सुबह की चाय पी लेंगे. आज दिनभर वहां बैठेबैठे मैं तो 2 बार की चाय पी आई थी. लौटते समय 6 संतरे भी साथ ले आई थी.’’

‘‘संतरे?’’ ताराचंद ने पूछा.

संतोष फिर मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, ताऊ का हालचाल पूछने जो भी आ रहा था, ज्यादातर संतरे ही ला रहा था. मैं ने ताई के कान में फुसफुसा कर कह दिया था कि किसीकिसी बुखार में संतरा जहर का काम करता है. बस, ताई ने सारे संतरे आसपड़ोस में बांट दिए. मेरे हाथ भी 6 संतरे लग गए.’’

‘‘मिल ही रहे थे, तो पूरे दर्जनभर ले आती,’’ ताराचंद ने कहा.

‘‘ले तो आती, मगर सोचा कि शाम को 6 ही तो खा सकेंगे. बाकी रखेरखे सड़ गए तो फेंकने ही पड़ेंगे. अब कपड़े बदल लो. शाम के लिए कटोरा भर कर आलूपालक की सब्जी सुशीला दे गई है. भूख लग आए तो बता देना. मैं रोटियां सेंक दूंगी,’’ संतोष ने कहा.

‘‘सुशीला के घर की सब्जी में तो मिर्च बहुत होगी,’’ ताराचंद बोले.

‘‘अरे, मुफ्त की तो मिर्च में भी मजा ले लेना चाहिए. तुम्हें तो मुझे शाबाशी देनी चाहिए, जो मौका मिलते ही मुफ्त का जुगाड़ कर लेती हूं,’’ संतोष ने कहा.

ताराचंद हंस कर बोले, ‘‘तुम्हारी खूबी का तो मैं शुरू से ही कायल रहा हूं. कोई सोच भी नहीं सकता कि इस छोटी सी खोपड़ी के भीतर अक्ल का इतना बड़ा भंडार है.’’

तभी ताराचंद को अपनी बात याद आई, ‘‘तुम्हारी तो बात हो गई, लेकिन आज मैं ने भी कुछ कम अक्ल का काम नहीं किया है. मेज पर लिफाफे में 4 आम रखे हैं.’’

‘‘आम,’’ संतोष चौंकी.

‘‘तुम जरा इन की खुशबू तो लो,’’ ताराचंद बोले.

‘‘अब बता भी दो कि कहां से लाए हो…’’ इतराते हुए संतोष ने पूछा.

‘‘आज एक आदमी हमारे खन्ना साहब के लिए तोहफे में थैला भर कर आम ले आया था. साहब ने मुझ से ही कह दिया कि एकएक सब को बांट दो. बस, मैं ने मौका देख कर उन में से 4 आम चुरा लिए,’’ उन्होंने बताया.

‘‘अरे, चुराने ही थे, तो कम से कम 6 तो चुराते,’’ संतोष ने मुंह बिचकाया.

ताराचंद कुछ कहने ही वाले थे कि आवाज सुन कर रुक गए.

‘‘संतोष बहन…’’

आवाज पहचान कर संतोष बोली, ‘‘अरी कमलेश बहन, बाहर से क्या आवाजें दे रही हो, अंदर आ जाओ.’’

‘‘नमस्ते भाई साहब. मैं कह रही थी कि तुम्हारे घर में थोड़ा सा गरम मसाला होगा. मैं तो आज मंगाना ही भूल गई और ये हैं कि बिना गरम मसाले के खाने में स्वाद ही नहीं मानते,’’ कमलेश ने अंदर आ कर कहा.

संतोष दुनियाभर का अफसोस अपने चेहरे पर लाते हुए बोली, ‘‘तुम भी कैसे समय पर आई हो बहन, गरम मसाला मेरे यहां भी सुबह ही खत्म हुआ है. इन से मंगाया तो था, लेकिन मर्दों की भूलने की आदत तुम जानती ही हो, सो ये भी भूल गए. लो, ये 2 आम तुम भी ले जाओ.’’

‘‘वह तो ठीक है… लौकी के कोफ्ते बना रही थी, मगर अब गरम मसाला…’’

कमलेश की बात पूरी होने से पहले ही संतोष बोल पड़ी, ‘‘लौकी के कोफ्ते तो एक दिन सरोज ने खिलाए थे हमें. कह रही थी कि उस के जैसे कोफ्ते पूरे महल्ले में कोई नहीं बना सकता.’’

कमलेश ने मुंह बनाया, ‘‘अपने मुंह से अपनी तारीफ करना मुझे तो नहीं आता. कल दोबारा बनाऊंगी, तो तुम्हारे यहां भी भिजवा दूंगी. फिर तुम खुद ही देख लेना कि कोफ्ता किसे कहते हैं.’’

कमलेश के बाहर जाते ही संतोष मुसकराई, ‘‘देखा, कल की सब्जी का भी इंतजाम हो गया.’’

‘‘वह तो देखा, लेकिन उसे इतने महंगे आम क्यों दे दिए? देने ही थे तो संतरे दे दिए होते,’’ ताराचंद बोले.

संतोष हंसी, ‘‘अक्ल से काम लेना सीखो. हो सकता है कि दुर्गा ताई ने उसे भी संतरे दे दिए हों.’’

अचानक ताराचंद के चेहरे पर आई उदासी देख कर संतोष को हैरानी हुई. उस ने वजह पूछी, तो ताराचंद परेशान हो कर बोले, ‘‘खन्ना साहब कल रात घर आ रहे हैं, वह भी पत्नी के साथ.’’

यह सुन कर संतोष भी सोच में डूब गई. कुछ देर बाद थोड़ा खुश हो कर वह इतमीनान से बोली, ‘‘आसपड़ोस में मेरा दबदबा तो तुम ने देख ही लिया है. सब्जियों का जुगाड़ हो जाएगा. हमें केवल रोटियों और सलाद का इंतजाम करना पड़ेगा.’’

‘‘सुनो, खन्ना साहब की मिसेज को पिछली बार खीर बहुत पसंद आई थी. खन्ना साहब दफ्तर में भी बहुत दिनों तक उसी की चर्चा करते रहे थे,’’ ताराचंद ने याद दिलाया.

‘‘वह सुशीला के यहां से आई थी,’’ कहते हुए संतोष 2 समोसे और थोड़ी सी बरफी साथ ले कर सुशीला के घर निकल गई.

2 दिन बाद उन्होंने खन्ना साहब को बड़े आदर के साथ अपने घर आने की दावत दी, जिसे खन्ना साहब ने खुशीखुशी मंजूर कर लिया.

शाम को वे दोनों इतमीनान से घर पर खन्ना साहब के आने का इंतजार करने लगे. महल्लेभर से दाल, सब्जी, रायता का एकएक डोंगा शाम को साढ़े 7 बजे से पहले ही उन के घर पहुंच चुका था. बस, सुशीला के घर से खीर आने की कमी रह गई थी.

जब पौने 8 बजे तक खीर नहीं पहुंची तो ताराचंद को थोड़ी चिंता सताने लगी. तभी बाहर खन्ना साहब की कार के रुकने की आवाज सुनाई दी. खन्ना साहब अपनी पत्नी के साथ उन्हीं के घर की ओर बढ़ रहे थे.

‘‘लो, ये लोग तो आ गए. लेकिन तुम्हारी सुशीला अभी तक नहीं आई,’’ ताराचंद फुसफुसाए.

संतोष भी उसी अंदाज में बोली, ‘‘तुम इन लोगों का स्वागत करो. मैं सुशीला के घर से हो कर आती हूं.’’ वह तेजी के साथ सुशीला के घर की ओर चल दी. सुशीला उसे घर में कहीं दिखाई नहीं दी.

संतोष सीधे उस के रसोईघर में पहुंच गई. यह देख कर उसे बड़ी राहत मिली कि सुशीला खीर तैयार करने के बाद ही कहीं गई थी. खीर भरी पतीली सामने ही रखी थी. उस ने फटाफट डोंगा भरा और अपने घर पहुंच गई.

डोंगा रसोईघर में रख संतोष भी उन के बीच चली आई. मिसेज खन्ना बोलीं, ‘‘मिसेज चंद, आप हैं कहां? हमारे पास बैठिए. खाना तो एक बहाना है. हम तो प्यार के भूखे हैं, इसीलिए तो मुंह उठाए किसी भी छोटेमोटे आदमी के यहां जा टपकते हैं.’’

‘जी,’ ताराचंद और संतोष के मुंह से एकसाथ निकल पड़ा. खन्नाजी ने समझाने के अंदाज में कहा, ‘‘इन का मतलब है कि हम किसी को भी छोटा नहीं समझते.’’

संतोष ने कुछ ही देर में खाना मेज पर सजा दिया. ढेर सारी चीजें देख कर मिसेज खन्ना बोलीं, ‘‘अरे, इतना सबकुछ करने की क्या जरूरत थी…’’

‘‘यह तो कुछ भी नहीं है, आप शुरू करें,’’ संतोष ने एक डोंगा उन की तरफ बढ़ाया. वे सब खाने में जुट गए. बीच में संतोष ने ताराचंद को इशारा किया कि वह खन्ना साहब से अपने प्रमोशन की बात छेड़ दें.

‘‘सर, आप बुरा न मानें तो…’’ ताराचंद हकलाने लगे.

‘‘अरे, अब कह भी डालिए,’’ खन्ना साहब ने कुछ तेजी के साथ कहा.

ताराचंद सकपका गए और बोले, ‘‘मेरा मतलब है सर, आप ने यह बैगन का भरता तो छुआ ही नहीं है. थोड़ा यह भी लीजिए न.’’

‘‘ओ… जरूर लेंगे, जरूर लेंगे. लेकिन इस में इतना हकलाने की क्या बात थी,’’ खन्ना साहब बोले.

‘‘भाई साहब, अब यह खीर तो लीजिए. आप लोगों के लिए खासतौर से बनवाई है,’’ कुछ देर बाद संतोष ने खन्ना साहब से कहा.

‘‘भई, खीर तो हमारी श्रीमतीजी की पसंद है. वे जी भर कर खा लें,’’ खन्ना साहब बोले.

‘‘आप लीजिए न, मैं तो 2 कटोरी ले चुकी हूं,’’ मिसेज खन्ना ने खीर का डोंगा खन्ना साहब के सामने सरका दिया.

वे बड़े चाव से खीर खा ही रहे थे कि अचानक सुशीला वहां चली आई और बोली, ‘‘संतोष बहन, जो खीर तुम मेरे घर से उठा लाई थीं, वह तुम ने खाई तो नहीं? उसे खाना मत. वह कौशल्या है न, उस का कुत्ता आज पता नहीं कैसे खुला रह गया और मेरी रसोई में घुस कर उस खीर में मुंह मार गया.

‘‘मैं ने तो खीर अलग रख दी थी कि रामकली की गाय को खिला दूंगी, मगर इस बीच तुम उसे उठा लाईं. मैं उस समय कौशल्या की खबर लेने चली गई थी.’’

अचानक सुशीला की नजर खाने की मेज पर पड़ी और वह ठिठक गई. मेहमानों को देख कर उस ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और उलटे पैर वापस चली गई.

उस के जाते ही वहां कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया. फिर मिसेज खन्ना अचानक चीखीं, ‘‘खीर कुत्ते की जूठी थी.’’ इस के साथ ही उन्होंने एक उबकाई ली और सारा खायापीया वहीं मेज पर उगल दिया.

‘‘डार्लिंग… डार्लिंग…’’ खन्ना साहब ने घबरा कर कहा और अचानक ताराचंद की ओर देखते हुए दहाड़े, ‘‘यू… मिस्टर ताराचंद… तुम्हारी यह हिम्मत, हमें भिखारी समझते हो. भीख में मांगा हुआ खाना हमें खिलाते हो, वह भी कुत्ते का जूठा…

‘‘हम तुम्हें दरदर का भिखारी बना देंगे. ऐसा भिखारी जिसे कुत्ते का जूठा भी कभी नसीब नहीं होगा, समझे तुम.’’

‘‘सर… सर, माफ कर दीजिए सर, कुछ नहीं होगा सर. कुत्ते को इंजैक्शन लगे हुए हैं सर,’’ ताराचंद के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था.

तभी मिसेज खन्ना की उबकाइयां बढ़ती गईं. ‘‘अपनेआप को संभालो डार्लिंग,’’ कहते हुए खन्ना साहब फिर से उन्हें संभालने लगे.

ताराचंद के मुंह से खन्ना साहब के अंदाज में ही निकला, ‘‘हांहां, डार्लिंग, अपनेआप को संभालो.’’

‘‘मिस्टर ताराचंद, तुम्हारी यह मजाल कि तुम हमारी बीवी को डार्लिंग कह रहे हो, वह भी हमारे ही सामने…’’ खन्ना साहब चीखे.

वह शायद ताराचंद के कपड़े भी फाड़ देते, लेकिन मिसेज खन्ना फिर उबकाई लेने लगीं.

अपनी बातों के तीरों से ताराचंद को अच्छी तरह से छलनी करने के बाद वे लोग चले गए.

ताराचंद और संतोष काटो तो खून नहीं की हालत में खड़े रह गए. कुछ देर बाद ताराचंद संतोष पर बिफर पड़े, ‘‘भाड़ में गई तुम्हारी खूबी, तुम्हारे चलते डूब गई न नैया…’’

इतना सुनना था कि संतोष रोने लगी और भीतर जा कर ताराचंद नाक रगड़रगड़ कर माफी मांगने के अभ्यास में जुट गए.

Funny Story : वीकली ऑफ – पति महोदय की फरमाइशें

Funny Story : साप्ताहिक छुट्टी के दिन खूब मजे करने के इरादे से सुबह उठते ही रवि ने किरण से   2-3 बढि़या चीजें बनाने को कहा और बताया कि उस के 2 दोस्त सपत्नीक हमारे घर लंच पर आ रहे हैं. इस से पहले कि किरण रवि से पूछ पाती कि नाश्ते में आज क्या बनाया जाए आंखें मलते हुए रवि के बेडरूम से आ रही रोजी और बंटी ने अपनी मम्मी को बताया कि वह इडली और डोसा खाना चाहते हैं.

पति और बच्चों की फरमाइशें सुन कर किरण रसोईघर में जाने के लिए उठी ही थी कि  उसे याद आया कि गैस तो खत्म होने को है.

‘‘रवि, स्कूटर पर जा कर गैस एजेंसी से सिलेंडर ले आओ, गैस खत्म होने वाली है. कहीं ऐसा न हो कि मेहमान घर आ जाएं और गैस खत्म हो जाए.’’

‘‘ओह, एक तो हफ्ते भर बाद एक छुट्टी मिलती है वह भी अब तुम्हारे घर के कामों में बरबाद कर दूं. तुम खुद ही रिकशे पर जा कर गैस ले आओ, मुझे अभी कुछ देर और सोने दो.’’

‘‘मैं कैसे ला सकती हूं, बच्चों के लिए अभी नाश्ता तैयार करना है और साढ़े 8 बज रहे हैं, अब और कितनी देर सोना है तुम्हें,’’ किरण ने अपनी मजबूरी जाहिर की.

‘‘जाओ यार यहां से, तंग मत करो, लाना है तो लाओ, नहीं तो खाना होटल से मंगवा लो, पर मुझे कुछ देर और सोने दो, वीकली रेस्ट का मजा खराब मत करो.’’

‘‘छुट्टी मनाने का तुम्हें इतना ही शौक है तो दोस्तों को दावत क्यों दी,’’ खीझते हुए किरण बोली और माथे    पर बल डालते हुए रसोई की तरफ बढ़ गई.

‘‘बहू, पानी गरम हो गया?’’ जैसे ही यह आवाज किरण के कानों में पड़ी उस का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘पानी कहां से गरम करूं, पिताजी, गैस खत्म होने वाली है और रवि को छुट्टी मनाने की पड़ी है.’’

1 घंटे बाद रवि उठा और     गैस एजेंसी से गैस का सिलेंडर और मंडी से सब्जियां ला कर उस ने किरण के हवाले कर दीं.

‘‘स्नान कर के मैं तैयार हो जाता हूं,’’ रवि बोला, ‘‘कहीं पानी न चला जाए, बच्चे कहां हैं?’’

सिलेंडर आया देख किरण थोड़ी ठंडी हुई और फिर बोली, ‘‘बच्चे पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने गए हैं,’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम शांति से काम कर सकोगी, नाश्ता तो कर गए हैं न,’’ कहते हुए रवि बाथरूम में घुस गया.

‘‘नाश्ता कहां कर गए हैं, गैस तो चाय रखते ही खत्म हो गई थी,’’ किरण की आवाज रवि के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही टकरा कर लौट आई.

‘10 बजने को हैं, यह शांति अभी तक क्यों नहीं आई? सारे बर्तन साफ करने को पड़े हैं, कपड़ों से मशीन भरी पड़ी है,’ किरण मन ही मन बुदबुदाई.

‘‘रवि, जरा मीना के यहां फोन कर के पता करना, यह शांति की बच्ची अभी तक क्यों नहीं आई,’’ लेकिन बाथरूम में चल रहे पानी के शोर में किरण की आवाज दब कर रह गई.

स्नान कर के जैसे ही रवि बाथरूम से निकला तो देखा कि किरण बर्तन साफ करने में जुटी है. भूख ने उस के पारे को और बढ़ा दिया, ‘‘अब क्या खाना भी नहीं मिलेगा?’’

‘‘खाओगे किस में, एक भी बर्तन साफ नहीं है.’’

‘‘शांति कहां हैं, जब यह वक्त पर आ नहीं सकती तो किसी और को काम पर रख लो, कम से कम खाना तो वक्त पर मिले,’’ 2 अलगअलग बातों को एक ही वाक्य में समेटते हुए रवि बोला.

‘‘तुम से बोला तो था कि फोन कर के मीना के यहां से शांति के बारे में पूछ लो लेकिन तुम सुनते कब हो. अब छोड़ो, 5 मिनट इंतजार करो, मैं बना देती हूं तुम्हारे लिए कुछ खाने को.’’

‘‘बाबूजी ने नाश्ता कर लिया?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, उन्हें दूध के साथ ब्रैड दे दी थी. वैसे भी वह हलका ही नाश्ता करते हैं.’’

नाश्ते से फ्री होते ही किरण बिना नहाएधोए रसोई में दोपहर का खाना बनाने में जुट गई.

‘‘आप के दोस्त आते ही होंगे, काम जल्दी निबटाना होगा. ऐसा करो, कम से कम तुम तो तैयार हो जाओ…और तुम ने यह क्या कुर्तापायजामा पहन रखा है, कम से कम कपड़े तो बदल लो.’’

‘‘अरे भई, कपड़े निकाल कर तो दो, और उन्हें आने में अभी 1 घंटा बाकी है.’’

‘‘अलमारी से कपड़े निकाल नहीं सकते. आप को तो हर चीज हाथ में चाहिए,’’ खीजती हुई किरण अलमारी से कपड़े भी निकालने लगी, ‘‘अभी सब्जियां काटनी हैं, आटा गूंधना है, कितना काम बाकी है.’’

सब्जियां गैस पर चढ़ा कर किरण नहाने चली गई. बच्चों को भी नहला कर किरण ने तैयार कर दिया.

थोड़ी देर बाद ही रवि के दोस्त अपने बीवीबच्चों के साथ घर आ गए. हाल में बैठा कर रवि उन की खातिरदारी में लग गया. किरण, पानी लाना, किरण, खाना लगा दो, किरण, ये ला दो, वो ला दो के बीच चक्कर लगातेलगाते किरण थक चुकी थी लेकिन रवि की फरमाइशें पूरी नहीं हो रही थीं.

शाम 4 बजे जब सारे मेहमान चले गए तब जा कर कहीं किरण ने चैन की सांस ली.

वह थोड़ी देर लेटना चाहती थी लेकिन तभी बाबूजी की आवाज ने उस के लेटने के अरमान पर पानी फेर दिया, ‘‘बहू, जरा चाय तो बना दो, सोचता हूं थोड़ी दूर टहल आऊं.’’

किरण ने चाय बना कर जैसे ही बाबूजी को दी कि बच्चे उठ गए, रवि सो चुका था. बच्चों को कुछ खिलापिला कर अभी उसे थोड़ी फुर्सत हुई थी कि काम वाली शांति बाई ने बेल बजा कर उस के चैन में खलल डाल दिया.

शांति को देखते ही किरण भड़क उठी, ‘‘क्या शांति, यह तुम्हारे आने का टाइम है. सारा काम मुझे खुद करना पड़ा. नहीं आना होता है तो कम से कम बता तो दिया करो, तुम्हें मालूम है कि कितनी परेशानी हुई आज,’’ एक ही सांस में किरण बोल गई.

‘‘क्या करूं बीबीजी, आज मेरे मर्द को काम पर नहीं जाना था, सो कहने लगा कि आज तू मेरे पास रह,’’ शांति ने अपनी रामकहानी सुनानी शुरू कर दी.

‘‘चल छोड़ अब रहने दे, जल्दी से कपड़े धो ले, पानी आ गया, सारे कपड़े गंदे हो गए हैं,’’ 2 घंटे शांति के साथ कपड़े धुलवाने और साफसफाई करवाने के बाद किरण डिनर बनाने में जुट गई. सब को खाना खिला कर जब रात को वह बिस्तर पर लेटी तो रवि अपनी रूमानियत पर उतर आया.

‘‘अब तंग मत करो, सो जाओ चुपचाप, मैं भी थक गई हूं.’’

‘‘क्या थक गई हूं, रोज तुम्हारा यही हाल है. कम से कम छुट्टी वाले दिन तो मान जाया करो.’’

‘‘छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी, तुम्हारी तो छुट्टी है, पर मुझ से क्यों ट्रिपल शिफ्ट में काम करवा रहे हो?’’

Short Story : हकीकत – जमाल और कमाल की ये थी असलियत

Short Story : फारुकी साहब के खानदान के हमारे पुराने संबंध थे. वे पुश्तैनी रईस थे. अच्छे इलाके में दोमंजिला मकान था. उन के 2 बेटे थे, जमाल और कमाल. एक बेटी सुरैया थी, जिस की शादी भी अच्छे घर में हुई थी. फारुकी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. सुनते हैं कि उन की बीवी नवाब खानदान की हैं. उम्र 72-73 साल होगी. वे अकसर बीमार रहती हैं. जमाल व कमाल भी शादीशुदा व बालबच्चेदार हैं. उन का भरापूरा परिवार है. सुरैया से मुलाकात हो जाती थी. उन के भी एक बेटी व एक बेटा है. दोनों की भी शादी हो गई है.

उन्हीं दिनों कमाल साहब के यहां से शादी का कार्ड आया. उन के दूसरे बेटे की शादी थी. कार्ड देख कर बड़ी खुशी हुई. कार्ड उन की अम्मी दुरदाना बेगम के नाम से छपा था. नीचे भी उन्हीं का नाम था. अच्छा लगा कि आज भी लोग बुजुर्गों की इतनी कद्र और इज्जत करते हैं.

शादी में जाने का मेरा पक्का इरादा था. इस तरह अम्मी व सुरैया आपा से भी मुलाकात हो जाती, पर मुझे फ्लू हो गया. मैं शादी में न जा सकी. फिर कहीं से खबर मिली कि कमाल साहब की अम्मी बीमार हैं. उन्हें लकवे का असर हो गया है.

एक दिन मैं कमाल साहब के यहां पहुंच गई. दोनों भाई बड़े ही अपनेपन से मिले. नई बहू से मिलाया गया, खूब खातिरदारी हुई. मैं ने कहा, ‘‘कमाल साहब, मुझे अम्मी से मिलना है. कहां हैं वे?’’

कमाल साहब का चेहरा फीका पड़ गया. वे कहने लगे ‘‘दरअसल, अम्मी सुरैया के यहां गई हुई हैं. वे एक ही जगह पर रहतेरहते बोर हो गई थीं.’’ मैं वहां से निकल कर सीधी सुरैया आपा के यहां पहुंच गई. वे मुझे देख कर बेहद खुश हो गईं, फिर अम्मी के कमरे में ले गईं.

खुला हवादार, साफसुथरा महकता कमरा. सफेद बिस्तर पर अम्मी लेटी थीं. वे बड़ी कमजोर हो गई थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि यह एक मरीज का कमरा है.

अम्मी मुझ से मिल कर खूब खुश हुईं, खूब बातें करने लगीं. उन्हीं की बातों से पता चला कि वे तकरीबन डेढ़ साल से सुरैया आपा के पास हैं. जब उन पर लकवे का असर हुआ था. उस के तकरीबन एक महीने बाद ही कमाल और जमाल, दोनों भाई अम्मी को यह कह कर सुरैया आपा के पास छोड़ गए थे कि हमारे यहां अम्मी को अलग से कमरा देना मुश्किल है और घर में सभी लोग इतने मसरूफ रहते हैं कि अम्मी की देखभाल नहीं हो पाती.

तब से ही अम्मी सुरैया आपा के पास रहने लगी थीं. सुरैया आपा और उन की बहू बड़े दिल से उन की खिदमत करतीं, खूब खयाल रखतीं.

मैं ने सुरैया आपा से कहा, ‘‘अम्मी डेढ़ साल से आप के पास हैं, पर 3-4 महीने पहले कमाल भाई के बेटे की शादी का कार्ड आया था, उस में तो दावत देने वाले में अम्मी का नाम था और दावत भी अम्मी की तरफ से ही थी.’’

सुरैया आपा हंस कर बोलीं, ‘‘दोनों भाइयों के घर में अम्मी के लिए जगह न थी, पर कार्ड में तो बहुत जगह थी. कार्ड तो सभी देखते हैं और वाहवाह करते हैं, घर आ कर कौन देखता है कि अम्मी कहां हैं? दुनिया को दिखाने के लिए यह सब करना पड़ा उन्हें.’

Family Story : मुक्ति – आजादी का एहसास

Family Story : आज उस का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हो कर औफिस गया था.

वह भी लगता था आज कुछ ज्यादा ही मुस्तैद हो कर आया था.

हर रोज तो वह 10 बजे के बाद ही औफिस आता था लेकिन आज जल्दी आ गया था. मुझे पक्का पता था कि आज वह मुझ से पहले ही पहुंच जाएगा. आज पार्किंग में उस की गाड़ी पहले से ही खड़ी थी.

मेरे मन में गुस्से की एक बड़ी सी लहर उठी, यह आदमी बहुत कमीना है. इस से बचना लगभग नामुमकिन है. मैं ने मन ही मन अपनी प्रतिज्ञा दोहराई, ‘आज मैं इस की बातों में नहीं आने वाला.’ मैं ने मन ही मन अपना यह प्रण भी दोहराया कि मैं पिछले कई दिनों से उस से दूर रहने की योजना बना रहा था, अब उस की शुरुआत मैं कर चुका हूं.

कल पूरे दिन उस से दूर रहने में मैं कामयाब रहा था. उस ने कितने फोन किए, बुलावे भेजे, बड़े साहब का नाम ले कर मुझे अपने केबिन में बुलाने की कोशिश की, मगर मैं औफिस से बाहर रहा. वह कहता रहा, ‘कहां है भाई, जल्दी आ जा. लंच में बाजार की सैर करेंगे. आज अच्छी रौनक है.’

मैं अपने इरादे पर अटल रहा. उसे गच्चा देता रहा. फिर 4 बजे के बाद उस ने मुझे फोन किया, ‘कहां है तू? आ जा, आज जिमखाना में बियर पिलाऊंगा.’

मैं ने बहाने बनाए कि अपने काम में बहुत फंसा हुआ हूं.

हद होती है किसी का पीछा करने की. क्या किसी आदमी की अपनी कोई निजता नहीं हो सकती भला? कोई जब चाहे मुझे अपने पीछे लगा ले. क्या मेरा कोई अपना पर्सनल एजेंडा नहीं हो सकता आज का. क्या मेरा मन नहीं करता कि मैं आज का दिन अपनी मरजी से गुजारूं? सदर बाजार की तरफ टहलूं या माल रोड पर? लाइब्रेरी जाऊं या अपनी सीट पर ही सुस्ताऊं? चाय पियूं या कौफी? किसी और का इतना रोब क्यों सहूं. उस का इतना हक क्यों है मेरी दिनचर्या पर.

औफिस आते ही मुझे निर्देश देने लगता है, आज यह करेंगे, वह करेंगे. इतनी आज्ञाकारी तो आदमी की बीवी नहीं होती आजकल. मैं क्यों उस आदमी का इतना पिछलग्गू बन गया हूं.

आज उस से सीधी मुठभेड़ का दूसरा दिन था. आज मेरी असली परीक्षा थी. कल तो औफिस से मैं बाहर था. मेरा बहाना काम कर गया था. आज उस से पीछा छुड़ा सकूं, यही मेरी उपलब्धि रहेगी.

आज अभी मैं अपनी सीट पर आ कर बैठा ही था.

चपरासी ने मेरे सारे अनुभागों के हाजिरी रजिस्टर मेरे सामने ला कर रखे. उन पर अपने दस्तखत कर के मैं ने पहली फाइल खोली ही थी कि इंटरकौम पर उस की कौल आ गई.

मेरे अंदर का डरा हुआ रूप मेरे गुस्से में आ गया. मैं ने तय किया कि मैं आज उस का फोन ही नहीं उठाता. गुस्से के मारे मैं ने घंटी बजाई और अपने मातहत 2 लोगों को बुलाया. फाइल पर ‘चर्चा करें’ लिख कर उसे नीचे पटक दिया.

पिछली रात से ही मैं कुलबुला रहा था कि इस आदमी ने मेरे दिनरात का चैन छीना हुआ है. उस से पीछा कैसे छुड़ाऊं? क्यों इतना डरता हूं मैं उस से. उसे ले कर किस बात का लिहाज है? वह मेरा जीजा लगता है क्या? एक दोस्त ही तो है. मेरे व्यक्तित्व पर इतना नियंत्रण क्यों है उस का? क्या कमी है मुझ में?

मुझ से कितना अलग स्वभाव है उस का. वह हर किसी के मुंह पर कड़वी बात कह देता है. वह हर किसी से लड़ पड़ता है. मैं चुप क्यों रहता हूं? मैं इतना नरम स्वभाव का क्यों हूं? उसे देख कर मुझे अपने अंदर की कमजोरी का एहसास कुछ ज्यादा होता है. उस ने एक लिस्ट बना रखी है औफिस के कुछ मुझ जैसे दब्बू लोगों की. वह दिन में कई बार मेरी इन लोगों में से किसी न किसी से तुलना कर के मेरे अंदर के स्वाभिमान को चोट पहुंचाता रहता है. यही कारण है कि इस आदमी की सोहबत में मैं खुद को हमेशा असहज और दुखी महसूस करता हूं.

मेरे साथ बहुत समय से यह सब चल रहा है. मैं ही इस सब के लिए जिम्मेदार हूं. मेरा दोष है, हर समय अच्छा बने रहना. हर वक्त कूल और शांत. अपने अंदर से चाहे इस बात को ले कर मैं कितना भी दुखी या व्यथित होता रहूं मगर लोगों के सामने मैं उग्र नहीं हो पाता. ऐसा नहीं कि मुझ में प्रतिभा, हुनर या आत्मविश्वास की कमी है. मैं अपनेआप में ठीक हूं. कहीं कोई दिक्कत नहीं है. अहिंसा का पालन मैं ‘बाई डिफौल्ट’ करता हूं. मेरा खून कभीकभी खौलता है. मेरा आधे से ज्यादा समय इस आदमी की बेढंगी और बेकार में थोपी गई बातों से निबटने में ही निकल जाता है.

घर में भी पत्नी या बच्चों के सामने नरम और मधुर स्वभाव बनाए रखना मेरी भरसक कोशिश होती है. अंदर से चाहे लाख गुस्सा आ रहा हो मगर उसे जाहिर न होने देना मेरा कुदरती गुण कह लो या अवगुण. बहुत कम ऐसे मौके आए हैं कि मेरा गुस्सा जगजाहिर हो सका है. एकाध बार गुस्सा किया भी, मगर दोचार पल के लिए ही.

बाकी किसी से कोई समस्या नहीं हुई. यह आदमी औफिस में हर पल मेरा साथ चाहता है. मुझे ले कर ज्यादा ही पोजेसिव हो गया है यह. मैं घर से छुट्टी का आवेदन भेज दूं तो फोन कर के मुझे कोसेगा कि उसे क्यों नहीं बताया उस ने कि आज वह छुट्टी ले रहा है. कहेगा, ‘पहले बताता तो मैं भी छुट्टी ले लेता.’ अरे, मेरे बिना तू मर तो नहीं जाएगा. बहुत बार होता है कि जब वह छुट्टी ले कर घर पर होता है सप्ताह के लिए, मैं तो उसे फोन कर के नहीं बुलाता कि आ जा, मैं मरा जा रहा हूं, तेरे बिना दिल नहीं लग रहा मेरा.

पत्नी भी तंज करती, ‘मुझे वह आदमी पसंद नहीं करता. मुझ से शादी करने से पहले तुम ने उस से पूछा नहीं था क्या?’

यह सच है कि इस आदमी को अपनेआप के सिवा कोई पसंद नहीं.

मैं भी इसलिए उस के साथ हूं, क्योंकि मैं खुल्लमखुला उस का मुंह नहीं नोचता कि बंद कर ये बकबक. तू कोई अनोखा नहीं है कि मेरी हर समय प्रशंसा किए जा.

बहुत से मित्र आए, गए. हर किसी पर उस ने तंज कसे, उन पर अपने थोथे उसूलों को थोपने की बेकार कोशिश की. वे सब तो कुछ ही समय में उस से जान छुड़ा कर अलग हो गए मगर मैं उस के चंगुल में फंसा रहा.

अकसर मुझे कभी फील नहीं हुआ कि यह आदमी मेरे विचारों को इस तरह काबू क्यों करना चाहता है. कभीकभी जब वह मुझे दब्बू या डरपोक कह कर बेइज्जत करता है तो न जाने क्यों मेरे मन में उस के प्रति बदले की भावना उमड़ने लगती है.

मुझ पर वह इतनी अधिकार भावना क्यों जमाता है. मैं सोचता हूं कि हमारी बहुत लंबी और गहरी दोस्ती है. मगर 10-15 दिनों में एक बार मेरे दिल को उस की कोई बात चुभ जाती है. वह अपने कोरे आदर्श मुझ पर लादता रहता है. क्यों मैं पलटवार नहीं करता? मेरी हर बात को वह टोकता है. मैं उसे मुंहतोड़ जवाब क्यों नहीं देता कि तुम दोगले हो, झूठे हो, मक्कार हो.

मैं ने आज अपने केबिन को कमेटीरूम की शक्ल दे दी थी. बहुत सारे केस खोल लिए. मैं दिखाना चाहता था कि मैं हर समय उस के लिए उपलब्ध नहीं हूं. मैं अपनी दिनचर्या अपने हिसाब से तय करूंगा.

उस का मेरे मोबाइल पर कौल आया. वह फुंफकार रहा था, ‘कब आएगा? अबे, चाय ठंडी हो रही है.’

मैं ने जी कड़ा कर के कहा, ‘मैं ने कब कहा था कि मेरे लिए चाय मंगवाओ? मैं मीटिंग में व्यस्त हूं.’

5 मिनट में ही वह मेरे केबिन में था. चेहरा तमतमाया हुआ. कान से मोबाइल लगाए हुए. मुझे टोक कर बोला, ‘कब तक है यह सब?’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. वह झुंझला कर लौट गया. लंच के आसपास वह फिर मेरे पास ही आ गया. हालांकि मुझे कोई काम नहीं था, फिर भी मैं ने साथ के एक औफिस में जाने का प्रोग्राम रख लिया. अपने एक साथी के साथ मैं तुरतफुरत वहां से निकल लिया.

उस शाम बीवी के साथ चाय पीते हुए मुझे संतोष हुआ कि मैं एक आजाद व्यक्तित्व हूं. रोजाना उस आदमी का मुझे अकारण कोसना मुझे कचोटता रहता था. आज मुझे एक अजीब सी मुक्ति का एहसास हुआ.

Short Story : इंसाफ हम करेंगे

Short Story : माही बेहाल पड़ी थी. रहरह कर शरीर में दर्द उभर रहा था. पूरे शरीर पर मारपीट के निशान पड़ चुके थे. माही का पति निहाल सिंह शराब पीने के बाद बिलकुल जानवर बन जाता था, फिर तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहता था कि उस के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं.

जब कभी उस की बेटी रूबी मां को बचाने आती तो वह भी पिट जाती.

2 दिन पहले जब निहाल सिंह शराब पी कर घर में गालियां देने लगा, तो माही ने उसे समझाया, ‘बस करो, अब खाना खा लो. सुबह काम पर भी जाना है.’

निहाल सिंह चीखते हुए बोला, ‘अब तुम रोकोगी मुझे. अभी बताता हूं तुझे,’ फिर तो उस का हाथ न थमा. आखिर रूबी दोनों के बीच में आ गई और उस का हाथ पकड़ कर झटकते हुए बोली, ‘पापा, अब बस कीजिए. गलती तो आप की है, मम्मी को क्यों मार रहे हो?’

इस के बाद रूबी ने मां को उठाया और दूसरे कमरे में ले गई. उस के जख्मों पर दवा लगाई और बोली, ‘मम्मी, बहुत हो गया अब. पापा नहीं सुधरेंगे.’

दर्द सहती माही बोली, ‘हां रूबी, मैं भी अब थक चुकी हूं. मुझे समझ में आ चुका है. अब मैं इन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तुम बुलाओ पुलिस को, अब मैं दूंगी इन के खिलाफ बयान.’

रूबी ने झट से पुलिस का नंबर डायल किया और सारी घटना बता दी.

माही और निहाल सिंह की लव मैरिज हुई थी. घर वालों के खिलाफ जा कर माही ने निहाल सिंह का हाथ थामा था. दोनों भारत से यूरोप आ कर बस गए थे.

माही ने जब काम करना चाहा तो निहाल सिंह ने उस से कहा, ‘तुम घर संभालो, मैं बाहर संभालता हूं.’

कुछ समय तो बहुत अच्छा बीता, मगर धीरेधीरे माही को महसूस होने लगा कि निहाल सिंह का स्वभाव बदलता जा रहा है. काम से आते ही वह शराब पीने लग जाता. तब तक बच्चे भी हो चुके थे.

निहाल सिंह अब छोटीछोटी बातों में भी माही पर शक करने लगा था. जब कभी काम का लोड बढ़ जाता, वह झल्ला कर कहता, ‘मुझ से नहीं होता इतना काम, मैं नहीं उठा सकता इतना बोझ.’

अगर माही नौकरी करने को कहती, तो वह उसे पीटने लगता. बच्चे डरते हुए मां के पीछे छिप जाते थे. वह अब थोड़े बड़े भी हो गए थे. उन का स्कूल में दाखिला कराना जरूरी हो गया था. खर्चा बढ़ गया था, तो माही ने निहाल सिंह को किसी तरह नौकरी के लिए मना लिया. वह घर का सारा काम निबटा कर ही नौकरी पर जाती और वापस आते ही बच्चों और घर को देखती.

निहाल सिंह का मन करता तो माही को प्यार करता नहीं, तो आधी रात को उसे मारपीट कर कमरे से बाहर निकाल देता. इतना सबकुछ होने के बावजूद माही निहाल सिंह का पूरा ध्यान रखती. हर काम समय से करती. सुबह उठते ही सब से पहले उस का टिफिन तैयार करती. किसी तरह उस ने निहाल सिंह को मना कर बच्चों को साथ वाले बड़े शहरों में पढ़ने के लिए भेज दिया था, ताकि वे दोनों पढ़लिख कर अच्छी नौकरियों पर लग सकें.

1-2 बार ऐसे ही किसी बात पर गुस्सा हो कर निहाल सिंह ने माही को आधी रात में घर से बाहर निकाल दिया था. माही की मौसी का बेटा इसी शहर में रहता था. वह उसे फोन करती और वह उसे ले कर अपने घर चला जाता.

फिर उस ने माही को समझाया कि ऐसे तो यह कभी नहीं सुधरेगा, तुम कब तक इस की मारपीट बरदाश्त करोगी. उस ने खुद ही पुलिस में उस की रिपोर्ट लिखवा दी.

जब पुलिस निहाल सिंह को घर से उठा कर ले गई, तब माही डर गई और उस ने भाई को रिपोर्ट वापस लेने के लिए मना लिया. जब ऐसा 2-3 बार हुआ, तो वह भी पीछे हट गया.

माही को पता था कि निहाल सिंह गुस्सैल है, पर उस के बच्चों का पिता है. वह भले ही अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करता, मगर वह उस के लिए तो आज भी वही उस का प्यार है.

तभी एक दिन निहाल सिंह काम से आते वक्त अपने साथ एक जवान औरत को घर ले आया. माही ने उसे देखते ही निहाल सिंह से उस के बारे में पूछा कि यह कौन है तो उस ने बताया, ‘यह प्रीति है. इस का पति मेरे साथ काम करता था. ज्यादा शराब पीने से वह मर गया. मैं इस की मदद कर रहा हूं, क्योंकि उस के बीमा और पैंशन के बारे में इसे कुछ नहीं पता.’

माही भोली थी. वह बोली, ‘अच्छा है. आप इन की मदद कर रहे हो, वरना कौन बेगाने देश में किसी की मदद करता है.’

अब तो जब भी प्रीति का फोन आता, निहाल सिंह भागाभागा उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन माही काम से जल्दी लौट आई, तो घर का दरवाजा खोलते ही बैडरूम से किसी के हंसने की आवाज आई. अंदर अंधेरा था. बिजली का स्विच औन करते ही माही की आंखें खुली रह गईं, जब उस ने उन दोनों को बैड पर देखा. शर्मिंदा होने के बजाय वे दोनों हंसने लगे. इस के बाद तो उस के सामने ही सबकुछ चलने लगा.

माही का दिल टूट चुका था. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह उसे इस तरह धोखा देगा.

एक दिन माही को पास बिठा कर निहाल सिंह बोला, ‘तू हां करे, तो मैं इसे भी साथ रख लूं.’

माही चुप रही. उस ने पक्का मन बना लिया कि अब वह उस के साथ  नहीं रहेगी.

बच्चे पढ़लिख कर अब अच्छी नौकरियों पर लग चुके थे. सिर्फ छुट्टियों में ही घर आते थे. वह मां को अपने साथ चलने को कहते, मगर वह जानती थी कि निहाल सिंह बीमारी का शिकार है. उस के खानेपीने का ध्यान उस ने ही रखना है, इसलिए वह सबकुछ बरदाश्त कर के भी उसी के साथ रह  रही थी.

आजकल छुट्टियों में रूबी घर आई हुई थी. कल की हुई मारपीट के बाद माही ने रूबी को निहाल सिंह और प्रीति  के संबंधों के बारे में भी बता दिया.

रूबी को अपने पिता पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने पिता के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी थी.

थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई. रूबी और माही ने बयान दे दिया. माही की चोटें उस के साथ हुए जुल्म की साफ गवाही दे रही थी. माही ने यह भी बताया कि जब वह पेट से थी तो निहाल सिंह ने उसे बहुत बार पीटा था.

रिपोर्ट को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने माही की चोटों के फोटो भी खींच कर साथ लगा दिए.

पुलिस निहाल सिंह को साथ ले गई. वहां 2 दिन उसे हिरासत में रखा. फिर उस को चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया कि वह माही के आसपास भी नहीं फटकेगा. अगर उस ने माही को तंग किया, तो उस पर कार्यवाही की जाएगी और 2 साल की जेल भी हो सकती है. उसे एक अलग घर में रहने के लिए  कहा गया.

निहाल सिंह फोन कर के बारबार माही से माफी मांगने लगा. उसे पता था, माही का दिल पिघल जाता है. वह उसे अब भी प्यार करती है. मगर रूबी ने मां को साफसाफ कह दिया, ‘मम्मी इस बार अगर तुम ने पापा को माफ किया, तो मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’

माही ने निहाल सिंह का फोन उठाना भी बंद कर दिया.

रूबी पिता को फोन पर धमकी  देते हुए बोली, ‘आज के बाद अगर आप ने मम्मी को फोन किया, तो पुलिस आप को 2 साल के लिए जेल में डाल देगी.

‘मम्मी अब अकेली नहीं हैं. आज तक जो आप ने उन के साथ किया, उस के लिए हम तीनों आप से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे. आज तक जो बेइज्जती मम्मी की हुई है, उस की सजा तो आप को भुगतनी पड़ेगी. मम्मी को उन के बच्चे इंसाफ दिलवाएंगे.’

पहले निहाल सिंह गिड़गिड़ाया, फिर बेशर्मी से बोला, ‘मैं भी तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आज तक मैं ने तुम दोनों की पढ़ाई पर जो खर्चा किया वह मुझे वापस चाहिए.’

यह सुनते ही रूबी की आंखों में आंसू आ गए, उस का पिता इतना गिर सकता है उस ने कभी नहीं सोचा था, मगर फिर भी वह हिम्मत कर अपने आंसुओं को साफ करते हुए बोली, ‘पापा, कोई बात नहीं. हमारी नौकरी लग चुकी है. हम दोनों हर महीने आप को खर्चा भेज दिया करेंगे, पर अब मम्मी की और बेइज्जती बरदाश्त नहीं करेंगे,’ कहते हुए रूबी ने फोन रख दिया और माही को अपने गले से लगा लिया.

Social Story : लैला और मोबाइल मजदूर

Social Story : ‘‘अरे वाह रे भैया… यह पुल का काम तो द्रौपदी के चीर की तरह हो गया है… एक बार शुरू तो हो गया, पर खत्म होने का नाम ही नहीं लेता है,’’ पेड़ के नीचे बैठे लड़कों से एक बूढ़े चाचा ने कहा.

‘‘हां चाचा… यह सब तो सरकारी कामकाज है… कभी काम शुरू तो कभी काम बंद.’’

‘‘पर कुछ भी कहो… जब भी इस पुल का काम शुरू होता है, तो फायदा तो गांव के बेरोजगार मजदूर लड़के और लड़कियों का होता है, जो उन को घर बैठे ही कामधाम मिल जाता है.’’

गांव के कुछ ही दूर पर बहने वाली नदी पर पुल बनने का काम चल रहा था, जिस में कई इंजीनियर, ठेकेदार और मजदूर आते थे, दिनभर काम करते और अस्थायी रूप से घर बना कर रहते.

इन्हीं मजदूरों में एक मजदूर रणबीर नाम का भी था. पता नहीं क्यों पर वह ठेकेदार का मुंह लगा हुआ मजदूर था, तभी तो कामधाम तो बस दिखावे का और दिनभर गांव में घूमघूम कर तसवीरें उतारा करता पूरे गांव की.

और कभी किसी ने कुछ पूछ भी लिया कि भाई ये तसवीरें क्यों खींचते रहते हो तो बड़ी होशियारी से जवाब देता कि मैं तो शहरी मजदूर हूं, पर थोड़ाबहुत मोबाइल का शौक है, इसलिए गांवों की तसवीरें फेसबुक पर डालता रहता हूं… इस से तुम्हारे गांव को लोग शहर में भी जानेंगे और तुम्हारी भी पहचान बनेगी.

रणबीर हमेशा ही मोबाइल हाथ में रखता था, इसलिए उस का नाम ही पड़ गया था मोबाइल मजदूर.

रणबीर को जब भी कभी राह में गांव की लड़कियां मिल जातीं तो उन के फोटो भी उन की नजर बचा कर उतार लेता.

रणबीर की यह हरकत गांव की कुछ लड़कियों को सख्त नागवार थी, पर उन के पास कोई सुबूत नहीं था और एक अजनबी का तसवीर खींच लेना उन के शरीर को रोमांच से भी भर देता था, इसलिए वे सीधा विरोध न कर पाती थीं.

‘‘सुरीली… एक बात तो बता… यह जो मोबाइल वाला मजदूर है न… इस की शक्ल देख कर ऐसा लगता है कि इस को पहले भी कहीं देखा है,’’ लैला ने अपनी आंखों को गोल करते हुए कहा.

‘‘हां यार, लगता तो मुझे भी है… और यह वैसे भी मुझे फूटी आंख नहीं भाता है, जब देखो यहांवहां के फोटो खींचता रहता है,’’ सुरीली ने अपनी सहेली लैला से कहा.

पता नहीं क्यों लैला को उस मोबाइल वाले मजदूर का चेहरा बारबार पहचाना सा लग रहा था और बड़ी देर से वह उसे पहचानने के लिए अपने दिमाग पर जोर डाल रही थी.

अचानक से लैला को जैसे कुछ याद आया हो, ‘‘अरे सुनो सब की सब… यह जो मोबाइल वाला मजदूर है न, इस के चेहरे को ध्यान से देखो और अगर इस की घनी दाढ़ी हटा दें, तो ये वही मजदूर लगता है, जो पिछली बार भी आया था जब पुल का काम शुरू हुआ था और कुछ दिन बाद हमारी प्यारी सहेली शन्नो को भगा कर ले गया था. तब से शन्नो कभी वापस नहीं लौटी. आखिर लफड़ा क्या है?’’ लैला ने कहा.

‘‘नहींनहीं… लैला, हमारा भला उस से क्या लफड़ा होगा… हां, इतना जरूर है कि एक बार जब हम भूसे के ढेर के पास बैठे थे, तब वह मोबाइल अपने हाथों में ले कर आया और बड़े अदब से मेरी एक तसवीर खींचते हुए बोला कि अगर मैं शहर में होती तो किसी फिल्म की हीरोइन होती…’’ शरमाते हुए सांवरी ने कहा.

‘‘और उस से कोई भी मदद मांगो तो पीछे न हटता है वह… और ऐसे कैसे किसी भले आदमी पर तुम्हारा यों आरोप लगा देना ठीक भी नहीं है,’’ सांवरी की बातें बड़ी हमदर्दी भरी थीं उस मोबाइल मजदूर के लिए.

सांवरी का एक अजनबी मजदूर के प्रति इतनर प्यार भरी बातें बोलना लैला और उस की सहेलियों को कुछ अजीब सा जरूर लग रहा था.

बरसात हो रही थी, पुल पर चल रहा काम भी आज बंद था, गांव और कसबे के स्कूलकालेजों में भी छुट्टी थी.

लैला भी अपने कमरे की खिड़की पर फुरसत में बैठी थी कि तभी उस ने देखा कि सांवरी छतरी ताने बरसात में कहीं जा रही है. एक जवान लड़की इतनी तेज बरसात में कहां जा रही है, वह भी गांव से बाहर जाने वाले रास्ते पर.

अपने मन में कुछ सोच कर, मां को अभी वापस आने को बोल कर लैला सांवरी का पीछा करने लगी.

सांवरी गांव के बाहर बने पुराने स्कूल में आ गई थी.

लैला का शक ठीक निकला. वहां पर रणबीर बैठा हुआ पहले से इंतजार कर रहा था, सांवरी स्कूल के अंदर एक खाली क्लास में घुस गई और रणबीर उस के पीछेपीछे घुस गया.

लैला ने उन की जासूसी करने की गरज से अपनी एक आंख दरवाजे में बनी दरार पर टिका दी. अंदर चल रहे दृश्य देख कर उस के कुंआरे जिस्म में भी झुरझुरी दौड़ गई.

रणबीर सांवरी को अपनी बांहों में कस कर उस के गीले होंठों को अपने होठों से सुखाने की कोशिश कर रहा था और सांवरी भी किसी बेल की तरह रणबीर से चिपकी हुई थी.

लैला की आंखें हैरत से फैल गई थीं, अंदर कमरे में रणबीर और सांवरी दोनों ही लगातार एकदूसरे में समा जाने की कोशिश कर रहे थे. सांवरी और रणबीर के उत्साह में कोई कमी नहीं थी.

लैला समझ गई थी कि दोनों एकदूसरे के जिस्मानी सुख का मजा लेना चाहते हैं, इसलिए लैला ने वहां से हट जाना ही उचित समझा, पर इतने में उस की आंखों ने जो देखा, उस ने लैला को वहीं पर रुकने को मजबूर कर दिया.

सांवरी की आंखें जोश से बंद थीं और रणबीर अपना मोबाइल हाथ में  ले कर सांवरी के बदन का वीडियो बनाने लगा.

चौंक पड़ी थी लैला… प्यार में जिस्मानी संबंध बन जाना आम बात है, पर यह कोई प्रेमी नहीं, बल्कि यह तो कोई धोखेबाज है… नहीं तो भला सांवरी के जिस्म का वीडियो क्यों बनाता?

सांवरी तो घोर संकट में फंसने वाली?है. लैला का मन किया कि अभी कमरे में अंदर घुस जाए और चीखचीख कर गांव वालों को बुला ले और रणबीर का हिसाब अभी बराबर करवा दे, पर ऐसा करने में सांवरी की बदनामी का डर था.

लैला ने मन ही मन रणबीर का राज फाश करने की बात सोची. वह कोई भोलीभाली लड़की नहीं थी, जिस का कोई भी फायदा उठा सकता था, लैला भले ही गांव में रहती थी पर नए से नए मोबाइल का इस्तेमाल करना अच्छी तरह जानती थी और इसी के सहारे उस ने  इस मोबाइल मजदूर का राज खोलने की बात सोची.

इतने में रणबीर और सांवरी अपनी मंजिल पर पहुंच चुके थे और अंदर से बाहर आने की आहट हुई, तो लैला तेज कदमों से वहां से घर वापस लौट गई.

आज लैला जानबूझ कर रणबीर के आनेजाने वाले रास्ते पर खड़ी हो गई. कुछ देर बाद जब रणबीर वहां से गुजरा तो लैला जैसी खूबसूरत लड़की को देख कर उस के मुंह में पानी आ गया.

‘‘सुनो… मेरा नाम रणबीर है. मैं यहां बन रहे पुल पर मजदूरी करता हूं और खाली वक्त में इस गांव की खूबसूरत चीजों को अपने मोबाइल में कैद करता हूं… तुम कहो तो तुम्हारा एक फोटो अपने मोबाइल में खींच लूं.’’

रणबीर से तो मेलजोल बढ़ाना लैला का मकसद था, इसलिए वह फोटो खिंचवाने के लिए तैयार हो गई. इतना ही नहीं, बल्कि दोस्ती बढ़ाने की गरज से दोनों ने एकदूसरे से फेसबुक पर दोस्ती भी कर ली. इस के पीछे लैला की मंशा रणबीर की पर्सनल बातें जानने की  ही थी.

घर पहुंचते ही लैला ने रणबीर की फेसबुक प्रोफाइल खंगाली और उस पर डाली गई पुरानी तसवीरें देखीं. उस का शक सही निकला कि यह दाढ़ी वाला मजदूर वही था, जो कुछ समय पहले शन्नो को इसी गांव से भगा ले गया था.

फेसबुक पर दोस्त बन जाने के बाद तो रणबीर की बेचैनी और भी बढ़ गई थी. वह आएदिन लैला को प्यार भरे मैसेज भेजा करता. कभीकभी उन में कुछ बेहूदगी भी होती.

लैला को रणबीर की फेसबुक प्रोफाइल से यह भी पता चला कि रणबीर के संबंध शहर के कुछ दूसरे लोगों से भी हैं. कभी तो लैला को यह भी लगता कि रणबीर जो दिखता है, वह नहीं है.

तेजतर्रार लैला को शन्नो का पता लगाना था और रणबीर की हकीकत भी जाननी थी, इसलिए लैला ने अपनेआप को ही एक प्लान के तहत दांव पर लगा दिया.

‘‘हां, रणबीर… फेसबुक से पता चला कि आज तुम्हारा जन्मदिन है, तो सोचा बधाई दे दूं,’’ लैला ने रणबीर से फोन कर के कहा.

‘‘अरे धन्यवाद… पर खाली बधाई देने से क्या होगा… कुछ पार्टी दो तो बात बने. वैसे भी पुल का कामकाज 2 दिन के लिए बंद है,’’ रणबीर ने रोमांटिक मूड में लैला से कहा.

‘‘हांहां… दे दूंगी पार्टी… पर समय और जगह तुम बताओ,’’ लैला ने कहा.

‘‘शाम को 8 बजे… गांव के बाहर वाले स्कूल में आ जाओ, फिर जम कर पार्टी करते हैं.’’

रणबीर की आंखों में चमक आ गई थी. लैला को अभी शाम के प्लान की तैयारी करनी थी, इसलिए सब से पहले तो उस ने अपने मांबाप को विश्वास में लिया, उन्हें सारी बात बताई और यह भी बताया कि उसे शन्नो का पता लगाने के लिए यह सब करना जरूरी है.

मांबाप को अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्होंने उसे जाने की इजादत दे दी.

लैला ने अपनी सहेलियों को भी बता दिया था कि वह कहां जा रही है और अगर रात 10 बजे तक वापस नहीं आए तो वे सब गांव वालों को ले कर पुराने स्कूल में आ जाएं.

उस का प्लान सुन कर उस की सहेलियां भी चिंतित हुईं, पर लैला ने उन को समझाया और अकेले ही स्कूल में आ गई.

ठीक 8 बजे लैला बाहर वाले स्कूल पहुंच गई. रणबीर वहां पर पहले से मौजूद था और सिगरेट के कश लगा रहा था. लैला को देख कर रणबीर उस की तरफ झपटा.

‘‘चलो हटो… अपनेआप को मजदूर कहते हो… दिन के 200 रुपए कमाने वाले इतनी महंगी सिगरेट नहीं पिया करते.’’

‘‘अरे… मैं कौन हूं, क्या हूं… यह सब छोड़ो… मेरी बांहों में आ जाओ और जवानी का मजा लो,’’ रणबीर कामुक आवाज में बोला.

‘‘पर, पहले मूड तो बना लो,’’ शराब से भरा गिलास रणबीर के होंठों से लगाते हुए लैला ने कहा.

‘‘वाह मेरी जान… तुम्हें कितना खयाल है मेरा,’’ शराब का गिलास खाली करते हुए रणबीर ने कहा.

आज रणबीर काफी जोश में था, क्योंकि उस के सामने लैला जैसी खूबसूरत और जवान लड़की थी, पर लैला ने अभी तक अपने शरीर को छूने तक नहीं दिया था, लेकिन एक काम वह लगातार कर रही थी कि रणबीर को लगातार पैग पर पैग दे रही थी और नजर बचा कर एक नींद की गोली भी उस ने शराब में मिला दी थी.

रणबीर भी अपनी शराब पीने की सीमा को पार कर चुका था, आंखें भारी हो रही थीं और जब वह बेहोश सा होने लगा, तो लैला उस से ऐसे प्यार जताने लगी जैसे कि वह भी उस के प्यार की प्यासी है.

कुछ ही देर में जब रणबीर पूरी तरह नींद में चला गया, तो लैला ने तेजी से अपना काम शुरू किया. सब से पहले उस ने रणबीर का मोबाइल चैक किया और उस में मौजूद फोन की रिकौर्डिंग सुनी. काफी फोन तो औपचारिक थे, कुछ और फोन की रिकौर्डिंग को लैला ने सुना, जिस से उसे पता चला कि शहर में रणबीर के एक बीवी और बच्चा भी है, जबकि रणबीर ने कभी भी यहां के लोगों को इस बारे में कुछ नहीं बताया था, बल्कि वह अपनेआप को कुंआरा ही बताया करता था.

लैला अब भी तेजी से फोन की रिकौर्डिंग चैक कर रही थी, एक नंबर की काल थी, जिसे ‘साहब’ के नाम से सेव किया गया था और उस की रिकौर्डिंग सुन कर दंग रह गई थी लैला.

वह साहब नाम का शहर में लड़कियों को बाहर के देशों में बेचने का काम करता था और इस के लिए वह रणबीर जैसे गुरगों को गांव में काम करने के बहाने से भेजता और रणबीर मजदूर के वेश में रहता, ताकि गांव के लोगों का विश्वास आसानी से जीत सके और वहां की सीधीसादी लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसा सके.

उस के बाद वह पहले तो उन का यौन शोषण करता और फिर उन के वीडियो भी बना लेता, जिन के बल पर वह उन्हें ब्लैकमेल करने का काम भी करता और अकसर तो लड़कियों से शादी करने के बहाने से उन्हें शहर ले आता और उस ‘साहब’ नाम के आदमी को पेश कर देता और इस के बदले में रणबीर को काफी पैसे भी मिलते, शन्नो को भी कहीं बेच दिया गया था.

लैला समझ गई थी कि यह कोई मजदूर नहीं, बल्कि एक आदमी की खाल में भेडि़या है, जो दलाली का काम करता है.

लैला ने देखा कि रणबीर के मोबाइल में गांव के बाहर की दूसरी लड़कियों के साथ सैक्स करने के वीडियो भी थे, जिन्हें भी रणबीर ने लड़कियों की नजर बचा कर बनाया गया था यानी रणबीर का प्लान अभी और लड़कियों का सौदा करने का भी था.

लैला को अब लगने लगा था कि सुबूत रणबीर को सजा दिलाने के लिए काफी हैं, तो वह रणबीर के मोबाइल के साथ वहां से पुलिस के पास गई.

सुबह जब रणबीर होश में आया, तब तक सूरज सिर पर चढ़ चुका था और लैला पुलिस में रिपोर्ट करने के बाद पुलिस को अपने साथ ले भी आई थी.

पुलिस ने मोबाइल की काल डिटेल्स को आधार मानते हुए रणबीर को गिरफ्तार कर लिया और रणबीर के माध्यम से ही पुलिस ने शहर में मौजूद ‘साहब’ नाम के आदमी को दबोच लिया.

इस तरह से लैला ने अपनी सूझबूझ से एक बड़े अपराधी गैंग का खात्मा कर दिया था और न जाने कितनी लड़कियों को देह धंधे के दलदल में जाने से बचा लिया था.

माना कि गांव की लड़कियां सीधीसादी होती हैं, पर बात अगर उन की इज्जत की होती है तो वे तेजतर्रार भी बनना जानती हैं और बोल्ड भी.

Short Story : आशीर्वाद – क्या हुआ नीलम की कहानी का अंजाम

Short Story : नीलम ने आलोक के लिए चाय ला कर मेज पर रख दी और चुपचाप मेज के पास पड़ी कुरसी पर बैठ केतली से प्याले में चाय डालने लगी. आलोक ने नीलम के झुके हुए मुख पर दृष्टि डाली. लगता था, वह अभीअभी रो कर उठी है. आलोक रोजाना ही नीलम को उदास देखता है. वैसे नीलम रोती बहुत कम है. वह समझता है कि नीलम के रोने का कारण क्या हो सकता है, इसलिए उस ने पूछ कर नीलम को दोबारा रुलाना ठीक नहीं समझा. उस ने कोमल स्वर में पूछा, ‘‘मां और पिताजी ने चाय पी ली?’’ ‘‘नहीं,’’ नीलम के स्वर में हलका सा कंपन था.

‘‘क्यों?’’ ‘‘मांजी कहती हैं कि उन्हें इस कदर थकावट महसूस हो रही है कि चाय पीने के लिए बैठ नहीं सकतीं और पिताजी को चाय नुकसान करती है.’’

‘‘तो पिताजी को दूध दे देतीं.’’ ‘‘ले गई थी, किंतु उन्होंने कहा कि दूध उन्हें हजम नहीं होता.’’

आलोक चाय का प्याला हाथ में ले कर मातापिता के कमरे की ओर जाने लगा तो नीलम धीरे से बोली, ‘‘पहले आप चाय पी लेते. तब तक उन की थकान भी कुछ कम हो जाती.’’ ‘‘तुम पियो. मेरे इंतजार में मत बैठी रहना. मां को चाय पिला कर अभी आता हूं.’’

नीलम ने चाय नहीं पी. गोद में हाथ रखे खिड़की से बाहर देखती रही. काश, वह भी हवा में उड़ते बादलों की तरह स्वतंत्र और चिंतारहित होती. नीलम के पिता एक सफल डाक्टर थे. पर उन की सब से बड़ी कमजोरी यह थी कि वे किसी को कष्ट में नहीं देख सकते थे. जब भी कोई निर्धनबीमार उन के पास आता तो वे उस से फीस का जिक्र तक नहीं करते, बल्कि उलटे उसे फल व दवाइयों के लिए कुछ पैसे अपने पास से दे देते. परिणाम यह हुआ कि वे जितना काम व मेहनत करते थे उतना धन संचित नहीं कर पाए. फिर उन की लंबी बीमारी चली, जो थोड़ाबहुत धन था वह खत्म हो गया.

उन की मृत्यु के बाद सिर्फ एक मकान के अलावा और कोई संपत्ति नहीं बची थी. सब से बड़ी बहन होने के नाते नीलम ने घर का भार संभालना अपना कर्तव्य समझा. उस ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली. छोटी बहन पूनम मैडिकल कालेज में चौथे साल में थी और भाई अनुनय बीए द्वितीय वर्ष में. आलोक ने जब नीलम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस ने साफ इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि जब तक पूनम पढ़ाई पूरी कर के कमाने लायक नहीं हो जाती, तब तक वह विवाह की बात सोच भी नहीं सकती. इस पर आलोक ने आश्वासन दिया था कि विवाह में वह कुछ खर्च न होने देगा और विवाह के पश्चात भी नीलम अपना वेतन घर में देने के लिए स्वतंत्र होगी. आलोक का यह तर्क था कि वह एक मित्र के नाते उस के परिवार के प्रति सबकुछ नहीं कर सकता जो परिवार का सदस्य बन जाने के पश्चात कर सकेगा.

यह तर्क नीलम को भी ठीक लगा था. कभीकभी अपनी चिंताओं के बीच वह खुद को बहुत ही अकेला व असहाय सा पाती थी. उस ने सोचा यदि उसे आलोक जैसा साथी, जो उस की भावनाओं को अच्छी तरह समझता है, मिल गया तो उस की चिंताएं कम हो जाएंगी. फिर भी नीलम की आशंका थी कि अकेली संतान होने के कारण आलोक से उस के मातापिता को बहुत सी आशाएं होंगी और इसलिए शायद उन्हें दहेजरहित लड़की को अपनी बहू बनाने में आपत्ति हो सकती है, पर आलोक ने इस बात को भी टाल दिया था. उस का कहना था कि उस के मातापिता उसे इतना अधिक प्यार करते हैं कि उस की इच्छा के सामने वे दहेज जैसी बात पर सोचेंगे भी नहीं.

आलोक के पिता प्रबोध राय एक साधारण औफिस असिस्टैंट की हैसियत से ऊपर न उठ सके थे. आलोक उन की आशाओं से बहुत अधिक उन्नति कर गया था. घर के रहनसहन का स्तर भी ऊंचा उठ गया था. आलोक सोचता था कि उस के मातापिता उस की अर्जित आय से ही इतने अधिक संतुष्ट हैं कि नीलम के वेतन की आवश्यकता अनुभव नहीं करेंगे. यही उस की भूल थी, जिसे वह अब समझ पाया था. उस के मातापिता ने पुत्र का विवाह बिना दहेज लिए केवल इसलिए किया था कि बहू अपने वेतन से वह कमी पूरी कर देगी. जब उन की वह आशा पूरी नहीं हुई तो वे क्षुब्ध हो उठे. उन्हें इस भावना ने जकड़ लिया कि उन्हें धोखा दिया गया. आलोक कमरे में पहुंचा तो उस की मां सुमित्रा अपने पलंग पर लेटी हुई थीं. प्रबोध राय पास ही पड़ी कुरसी पर बैठे समाचारपत्र देख रहे थे. आलोक बोला, ‘‘मां, नीलम कह रही थी कि आप थकान महसूस कर रही हैं. चाय पी लीजिए, थकान कुछ कम हो जाएगी.’’

‘‘रहने दे बेटा, चाय के लिए मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है.’’ ‘‘तो बताइए फिर क्या लेंगी? नीलम पिताजी के लिए मौसमी का रस निकाल रही है, आप के लिए भी निकाल देगी.’’

‘‘रहने दे, मैं रस नहीं पिऊंगी. मैं तेरी मां हूं. क्या मुझे अच्छा लगता है कि मैं अपने खर्चे बढ़ाबढ़ा कर तेरे ऊपर बोझ बन जाऊं? क्या करूं, उम्र से मजबूर हूं. अब काम नहीं होता.’’ ‘‘तो फिर क्यों नहीं नीलम को रोटी बनाने देतीं? वह तो कहती है कि सुबह आप दोनों के लिए पूरा भोजन बना कर स्कूल जा सकती है.’’

‘‘कैसी बातें कर रहा है, आलोक? 7 बजे का पका खाना 12 बजे तक बासी नहीं हो जाएगा? तू ने कभी अपने पिताजी को ठंडा फुलका खाते देखा है?’’ फिर एक ठंडी सांस ले मां बोलीं, ‘‘मांबाप पुत्र का विवाह कितने अरमानों से करते हैं. घर में बहू आएगी, रौनक होगी. शरीर को आराम मिलेगा,’’ फिर एक और लंबी सांस छोड़ कर बोलीं, ‘‘खैर, इस में किसी का क्या दोष? अपनाअपना समय है. श्यामसुंदर लाल 25 लाख रुपए नकद और एक कार देने का वादा कर रहे थे.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, मां? जो लड़की इतनी रकम ले कर आती वह क्या आप को रस निकाल कर देती? कार में उसे फिल्में दिखाने और शौपिंग कराने में ही मेरा आधे से ज्यादा वेतन स्वाहा हो जाता. ऊपर से उस के उलाहने सुनने को मिलते कि उस के मायके में तो इतने नौकरचाकर काम करते थे. और मां, यदि मेरा विवाह अभी हुआ ही न होता तो क्या होता? यदि नीलम कुछ लाई नहीं, तो वह अपने ऊपर खर्च भी तो कुछ नहीं कराती. तुम से इतनी बार मैं ने कहा है कि नौकर रख लो, पर तुम्हें तो नौकर के हाथ का खाना ही पसंद नहीं. अब तुम ही बताओ कि यह समस्या कैसे हल हो?’’ सुमित्रा के पास जो समाधान था, वह उस के बिना बताए भी आलोक जानता था, सो, वह चुप रही. आलोक ही फिर बोला, ‘‘थोड़े दिन और धीरज रखो, मां, पूनम ने आखिरी वर्ष की परीक्षा दे दी है. अब उस का खर्च तो समाप्त हो ही जाएगा. अनुनय भी 1-2 वर्ष में योग्य हो जाएगा और उस के साथ नीलम का उस का उत्तरदायित्व भी खत्म हो जाएगा. वह नौकरी छोड़ देगी.’’

‘‘अरे, एक बार नौकरी कर के कौन छोड़ता है? फिर वह इसलिए धन जमा करती रहेगी कि बहन का विवाह करना है.’’

आलोक हंस कर बोला, ‘‘इतने दूर की चिंता आप क्यों करती हैं मां? पूनम डाक्टर बन कर स्वयं अपने विवाह के लिए बहुत धन जुटा लेगी.’’ ‘‘मुझे तो तेरी ही चिंता है. तेरे अकेले के ऊपर इतना बोझ है. मुझे तो छोड़ो, इन्हें तो फल इत्यादि मिलने ही चाहिए, नहीं तो शरीर कैसे चलेगा?’’

तभी नीलम 2 गिलासों में मौसमी का जूस ले कर कमरे में आई. आलोक हंस कर बोला, ‘‘देखो मां, तुम तो केवल पिताजी की आवश्यकता की बात कह रही थीं, नीलम तो तुम्हारे लिए भी जूस ले आई है. अब पी लो. नीलम ने इतने स्नेह से निकाला है. नहीं पिओगी तो उस का दिल दुखेगा.’’ इस प्रकार की घटनाएं अकसर होती रहतीं. मां का जितना असंतोष बढ़ता जाता है, आलोक का पत्नी के प्रति उतना ही मान और अनुराग. विवाह के पश्चात नीलम ने एक बार भी सुना कर नहीं कहा कि आलोक ने उसे जो आश्वासन दिए थे वे निराधार थे. उस ने कभी यह नहीं कहा कि आलोक के मातापिता की तरह उस के मातापिता ने भी उसे योग्य बनाने में उतना ही धन खर्च किया था. तब क्या उस का उन के प्रति इतना भी कर्तव्य नहीं है कि वह अपने बहनभाई को योग्य बनाने में सहायता करे. वह तो अपने सासससुर को संतुष्ट करने में किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ती. स्कूल से आते ही घरगृहस्थी के कार्यों में उलझ जाती है.

कभी उस ने पति से कोई स्त्रीसुलभ मांग नहीं की. अपने मायके से जो साडि़यां लाई थी, अब भी उन्हें ही पहनती, पर उस के माथे पर शिकन तक नहीं आती थी. नीलम ने सरलता से परिस्थितियों से समझौता कर लिया था, उसे देख आलोक उस से काफी प्रभावित था. यही बात वह अपने मातापिता को समझाने का प्रयत्न करता था, किंतु वे तो जैसे समझना ही नहीं चाहते थे. वे घर के खर्चों को ले कर घर में एक अशांत वातावरण बनाए रखते, केवल इसलिए कि वे बहू को यह बतलाना चाहते थे कि वह अपने बहनभाई के ऊपर जो धन खर्च करती है वह उन के अधिकार का अपहरण है. नीलम स्कूल के लिए तैयार हो रही थी. उसे सास की पुकार सुनाई दी तो बाहर निकल आई. पड़ोस के 2 लड़कों ने उन्हें बताया कि प्रबोध राय जब अपने नियम के अनुसार सुबह की सैर के बाद घर लौट रहे थे, तब एक स्कूटर वाला उन्हें धक्का दे कर भाग निकला और वे सड़क पर गिरे पड़े हैं. नीलम तुरंत घटनास्थल पर पहुंची. ससुर बेहोश पड़े थे. नीलम कुछ लोगों की सहायता से उन्हें उठा कर घर लाई.

उस ने जल्दी से पूनम को फोन किया, पूनम ने कहा कि वे चिंता न करें, वह जल्दी ही एंबुलेंस ले कर आ रही है. नीलम ने छुट्टी के लिए स्कूल फोन कर दिया और घर आ कर अस्पताल के लिए जरूरी सामान रखने लगी. तभी पूनम आ गई. जितनी तत्कालीन चिकित्सा करना संभव था, उस ने की और उन्हें अस्पताल ले गई.

पूनम अपने स्वभाव व व्यवहार के कारण पूरे अस्पताल में सर्वप्रिय थी. यह जान कर कि उस का कोई निकट संबंधी अस्पताल में भरती होने आया है, उस के मित्रों और संबंधित डाक्टरों ने सब प्रबंध कर दिए. घबराहट के कारण सुमित्रा को लग रहा था कि वह शक्तिरहित होती जा रही है. सारे अस्पताल में एक हलचल सी मची हुई थी. वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि कभी उस के रिटायर्ड पति को इस प्रकार का विशेष इलाज उपलब्ध हो सकेगा. बीचबीच में नीलम आ कर सास को धीरज बंधाने का प्रयत्न करती.

आलोक औफिस के कार्य से कहीं बाहर गया हुआ था. नीलम ने उसे भी इस घटना की सूचना दे दी. अनुनय समाचार पाते ही तुरंत आ गया था. दवाइयों के लिए भागदौड़ वही कर रहा था. मदद के लिए उस के एक मित्र ने उसे अपनी कार दे दी थी. 5-6 घंटे बाद प्रबोध राय कमरे में लाए गए. पूनम ने बारबार नीलम की सास को तसल्ली दी कि प्रबोध राय जल्दी ही ठीक हो जाएंगे. वातावरण में एक ठहराव सा आ गया था. सुमित्रा ने कमरे में चारों ओर देखा. अस्पताल में इतना अच्छा कमरा तो काफी महंगा पड़ेगा. जब उस ने अपनी शंका व्यक्त की तब अनुनय बोला, ‘‘मांजी, आप 2 बेटों की मां हो कर खर्च की चिंता क्यों करती हैं? मेरे होते यदि आप को किसी प्रकार का कष्ट हो तो मैं बेटा होने का अधिकार कैसे पाऊंगा?’’

नीलम हंस कर बोली, ‘‘मांजी, आज इस ने पिताजी को अपना रक्त दिया है न, इसीलिए यह बढ़बढ़ कर आप का बेटा होने का दावा कर रहा है.’’ यह सुन सुमित्रा की आंखें छलछला आईं. वे सोच रही थीं कि यदि नीलम ने बहन की पढ़ाई में सहायता न की होती तो क्या आज पूनम डाक्टर होती और क्या उस के पति को ये सुविधाएं मिल पातीं, श्यामसुंदर लाल का पुत्र क्या अपनी बहन को दहेज के बाद उस के ससुर को खून देने की बात सोचता?

प्रबोध राय जब घर आए, तब तक सुमित्रा की मनोस्थिति बिलकुल बदल चुकी थी और सारी कमजोरी भी गायब हो चुकी थी. रात को पति को जल्दी भोजन करा कर वे नीलम के लिए कार्डीगन बुन रही थीं. तभी उन्हें अनुनय के आने की आवाज सुनाई दी. प्रसन्नता से उन का मुख उज्ज्वल हो उठा. अनुनय ने एक डब्बा ला कर उन के पैरों के पास रख दिया और पूछने पर बोला, ‘‘मांजी, मैं ने एक पार्टटाइम जौब कर लिया है. पहला वेतन मिला तो आप से आशीर्वाद लेने चला आया.’’

यह सुन कर सुमित्रा चकित रह गईं. वे रुष्ट हो कर बोलीं, ‘‘क्या तेरा दिमाग खराब हुआ है? पढ़ना नहीं है, जो पार्टटाइम जौब करेगा?’’ ‘‘पढ़ाई में इस से कुछ अंतर नहीं पड़ता, मां. बेशक अब आवारागर्दी का समय नहीं मिलता.’’

‘‘मैं तेरी बात नहीं मानूंगी. जब तक तू नौकरी छोड़ने का वादा नहीं करेगा, मैं इस डब्बे को हाथ भी नहीं लगाऊंगी.’’ ‘‘और मांजी, आप तो जीजाजी से भी ज्यादा धमकियां दे रही हैं. चलिए, मैं ने आप की बात मान ली. अब शीघ्र डब्बा खोलिए,’’ अनुनय ने आतुरता से कहा.

डब्बा खोला तो सुमित्रा स्तब्ध रह गईं और डबडबाई आंखों से बोलीं, ‘‘पगले, मैं बुढि़या यह साड़ी पहनूंगी? अपनी जीजी को देता न?’’ ‘‘पहले मां, फिर बहन. अच्छा मांजी, अब जल्दी से आशीर्वाद दे दो,’’ और अनुनय ने सुमित्रा का हाथ अपने सिर पर रख लिया. सुमित्रा हंसे बिना न रह सकीं, ‘‘तू तो बड़ा शातिर है, आशीर्वाद लेने के लिए भी रिश्वत देता है. तुम सब भाईबहन सदा प्रसन्न रहो और दूसरों को प्रसन्न रखो, मैं तो कामना करती हूं.’’

Family Story : उस का घर – दिलों के विभाजन की गंध

Family Story : बहुत अजीब थी वह सुबह. आवाजरहित सुबह. सबकुछ खामोश. भयानक सन्नाटा. किसी तरह ही आवाज का नामोनिशान न था. उस ने हथेलियां रगड़ीं, सर्दी के लिए नहीं, सरसराहट की आवाज के लिए. खिड़की खोली, सोचा, हवा के झोंके से ही कोई आवाज हो सकती है. लकड़ी के फर्श पर भी थपथपाया कि आवाज तो हो. कुछ भी, कहीं से सुनाई तो पड़े. पेड़ भी सुन्न खड़े थे, आवाजरहित.

उस ने अपनी घंटी बजाई, थोड़ी आवाज हुई…आवाज होती थी, मर जाती थी, कोई अनुगूंज नहीं बचती थी. ये कैसे पेड़ थे. कैसी हवा थी, हरकतरहित जिस में न सुर, न ताल. उस ने खांस कर देखा. खांसी भी मर गई थी जैसे प्रेरणा, उस की दोस्त…अब उस की कभी आवाज नहीं आएगी. वह क्या गई, मानो सबकुछ अचानक मर गया हो. यह सोच कर उस के हाथपैर ठंडे पड़ने लगे. शायद वह प्रेरणा की मौत की खबर को सहन नहीं कर पा रहा था. पिछले सप्ताह ही तो मिली थी उसे वह.

अब तक तो अंतिम संस्कार भी हो गया होगा. हैरान था वह खुद पर. अब तक हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाया उस के घर जाने की. शायद लोगों को उस की मौत का मातम मनाते देख नहीं सकता था, या फिर प्रेरणा की छवि जो उस के जेहन में थी उसे संजो कर रखना चाहता था.

अंतिम संस्कार हुए 4 दिन हो चुके थे. तैयार हो कर उस ने गैराज से कार निकाली और भारी मन से चल दिया. रास्तेभर यही सोचता रहा, वहां जा कर क्या कहेगा. आज तक वह किसी शोकाकुल माहौल में गया नहीं. वह नहीं जानता था कि ऐसी स्थिति में क्या कहना चाहिए, क्या करना चाहिए. यही सोचतेसोचते प्रेरणा के घर की सड़क भी आ गई. उस का दिल धड़कने लगा. दोनों ओर कतारों में पेड़ थे. उस का मन तो धुंधला था ही, धुंध ने वातावरण को भी धुंधला कर दिया था. उस ने अपना चश्मा साफ किया, बड़ी मुश्किल से उस के घर का नंबर दिखाई दिया. घर बहुत अंदर की तरफ था. उस ने कार बाहर ही पार्क कर दी. कार से पांव बाहर रखते ही उस के पांव साथ देने से इनकार करने लगे. बाहर लगे लोहे के गेट की कुंडी हटाते ही, लोहे के टकराव से, कुछ क्षणों के लिए वातावरण में एक आवाज गूंजी. वह भी धीरेधीरे मरती गई. पलभर को उसे लगा, मानो प्रेरणा सिसकियां भर रही हो…

वहां 3 कारें खड़ी थीं. घर के चारों ओर इतने पेड़ लगे थे कि उस के मन के अंधेरे और बढ़ने लगे. एक भयानक नीरवता चारों ओर घिरी थी. लगता था हमेशा की तरह ब्रिटेन की मरियल धूप कहीं दुबक कर बैठ गई थी. बादल बरसने को तैयार थे.

मन के भंवर में धंसताधंसता न जाने कब और कैसे उस के दरवाजे पर पहुंचा. दिल की धड़कन बढ़ने लगी. एक पायदान दरवाजे के बाहर पड़ा था. उस ने जूते साफ किए और गहरी सांस ली. उस ने घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि दरवाजा खुला. शायद लोहे के गेट की गुंजन ने इत्तला दे दी होगी. प्रेरणा के पति ने उस के आगे बढ़े हाथ को अनदेखा कर, रूखेपन से कहा, ‘‘अंदर आओ.’’

उस ने अपना हाथ पीछे करते कहा, ‘‘आई एम राहुल. प्रेरणा और मैं एक ही कंपनी में काम करते थे.’’

‘‘आई एम सुरेश, बैठो,’’ उस ने सोफे की ओर इशारा करते कहा.

सोफे पर बैठने से पहले राहुल ने नजरें इधरउधर दौड़ाईं और कुछ बिखरी चीजें सोफे से हटा कर बैठ गया. राहुल को विश्वास नहीं हुआ, हैरान था वह, क्या सचमुच यह प्रेरणा का घर है. यहां तो उस के व्यक्तित्व से कुछ भी तालमेल नहीं खाता. दीवारें भी सूनीसहमी खड़ी थीं. उन पर न कोई पेंटिंग, न ही कोई तसवीर. अखबारों के पन्ने, कुशन यहांवहां बिखरे पड़े थे. टैलीविजन व फर्नीचर पर धूल चमक रही थी. बीच की मेज पर पड़े चाय के खाली प्यालों में से चाय के सूखे दाग झांकझांक कर अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे थे.

हर तरफ वीरानगी थी. लगता था मानो घर की दीवारें तक मातम मना रही हों. दिलों के विभाजन की गंध सारे घर में फैली थी. अचानक उस की नजर एक कोने में बैठे 2 उदास कुत्तों पर पड़ी जो सिर झुकाए बैठे थे. शायद वे भी प्रेरणा की मौत का मातम मना रहे थे.

‘‘राहुल, चाय?’’

‘‘नहींनहीं, चाय की आवश्यकता नहीं, आ तो मैं पहले ही जाता, सोचा, अंतिम संस्कार के बाद ही जाऊंगा, तब तक लोगों का आनाजाना कुछ कम हो जाएगा.

‘‘वैसे, प्रेरणा ने आप का जिक्र तो कभी किया नहीं. हां, अगर आप पहले आ जाते तो अच्छा ही रहता, आप का नाम भी उस के चाहने वालों की सूची में आ जाता. सच पूछो तो मैं नहीं जानता था कि हिंदी में कविता और कहानियों की इतनी मांग है. क्या आज के युग में भी सभ्य इंसान हिंदी बोलता या पढ़ता है?’’ प्रेरणा के पति ने बड़े पस्त और व्यंग्यात्मक लहजे में कहा.

‘‘प्रेरणा तो बहुत अच्छा लिखती थी. उस की एकएक कविता मन को छू लेने वाली है. व्यक्तिगत दुखसुख व प्रेम के रंगों की सुगंध है. ऐसी संवदेनाएं हैं जो पाठकों व श्रोताओं को आपबीती लगती हैं. आप ने तो पढ़ी होंगी,’’ राहुल ने कहा.

इतना सुनते ही एक कुटिल छिपी मुसकराहट उस के चेहरे पर फैल गई. उस ने राहुल की बात को तूल न देते हुए संदर्भ बदल कर कहना शुरू किया, ‘‘अच्छा हुआ, आप वहां नहीं थे. कैसे बेवकूफ बना गई वह मुझे, मैं जान ही नहीं पाया कि मेरी पार्टनर कितनी फ्लर्ट थी. कितने दोस्त आए थे अंतिम संस्कार के मौके पर. उस वक्त हमारे परिवार का समाज के सामने नजरें उठाना दूभर हो गया था. उम्रभर मना करता रहा, ऐसी प्रेमभरी कविताएं मत लिखो, बदनामी होगी, लोग क्या कहेंगे. वही हुआ जिस का डर था. लोग कानाफूसी कर रहे थे, बुदबुदा रहे थे, ‘पति हैं, बच्चे हैं…’ किस के लिए लिखती थी?’’ इतना कह कर कुछ क्षण वह चुप रहा, फिर बिफरता सा बोला, ‘‘राहुल, कहीं वह तुम्हारे लिए तो…’’ उस की जबान बेलगाम चलती रही.

राहुल हैरान था, क्या यह वही दरिंदा है जिस से वह एक बार कंपनी के सालाना डिनर पर मिला था. राहुल कसमसाता रहा, तय नहीं कर पा रहा था कि उस की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए. पलभर को उस का मन किया कि उठ कर चला जाए, फिर मन को समझाते बुदबुदाया, ‘मैं उस के स्तर पर नहीं गिर सकता.’ वक्त की नजाकत को देखते वह गुस्से को पी गया. मन में तो उस के आया कि इस पत्थरदिल से साफसाफ कह दे, हां, हां, था रिश्ता.

मानवता के रिश्ते को जो नाम देना चाहो, दे दो. जीवन का सच तो यह है कि प्रेरणा मेरे जीवन में रोशनी बन कर आई थी और आंसू बन कर चली गई.

वहां बैठेबैठे राहुल को एक घंटा हो चुका था. अभी तक घर में अक्षुब्ध शांति थी. चुप्पी को भंग करते राहुल ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, बच्चे दिखाई नहीं दे रहे?’’

‘‘श्रुति तो कालेज गई है, रुचि सहेलियों के साथ बाहर गई है. सारा दिन घर में बैठ कर करेगी भी क्या. मैं उस की मां की मौत को बड़ा मुद्दा बना कर उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं डालना चाहता. घर को बिखरते नहीं देख सकता. मेरा घर मेरे लिए सबकुछ है, इसे बनाने में मैं ने बहुत पैसा और जान लगाई है. प्रेरणा ने तो पीछा छुड़ा लिया है सभी जिम्मेदारियों से. बच्चों की पढ़ाई, विवाह, घर का लोन सब मुझे ही तो चुकाना है. इस के लिए पैसा भी तो चाहिए,’’ वह भावहीन बोलता गया.

राहुल ने सबकुछ जानते हुए भी विरोध का नहीं, मौन के हथियार को अपनाना सही समझा. सोचने लगा, जो तुम नहीं जानते, मैं वह जानता हूं. मैं ने ही तो करवाया था प्रेरणा के मकान के लिए इतना बड़ा लोन सैंक्शन. फिर लोन का इंश्योरैंस कराने के लिए उसे बाध्य भी किया. इस सुरेश पाखंडी ने प्रेरणा को बदले में क्या दिया? आंसू, यातनाएं, उम्रभर आजादी से कलम न उठा पाने की बंदिशें? एक मैं ही था जिसे वह पति के नुकीले शब्दों के कंकड़ों से पड़े दाग दिखा सकती थी. उस की हंसी तक खोखली हो चुकी थी. अकसर वह कहती थी कि उसे अपना घर कभी अपना नहीं लगा. वह सीखती रही अशांति में भी शांति से जीने की कला. वह खुद पर मुखौटा चढ़ा कर उम्रभर खुद को धोखा देती रही.

राहुल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वह प्रेरणा की लिखनेपढ़ने की जगह देखने को उतावला हो रहा था. अभी तक उसे कोई सुराग नहीं मिला था. कभी बाथरूम इस्तेमाल करने का बहाना कर के दूसरे कमरों में झांक कर देखा, कहीं भी स्टडी टेबल दिखाई नहीं दी. राहुल टटोलता रहा. चाय पीतेपीते जब राहुल से रहा नहीं गया, तो हिम्मत बटोर कर उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, क्या मैं प्रेरणा का अध्ययन करने का स्थान देख सकता हूं. आई मीन, जहां बैठ कर वह पढ़ालिखा करती थी?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोला, ‘‘आओ मेरे साथ, वह देखो, सामने,’’ उस ने गार्डन में एक खोके की ओर इशारा किया और फिर बोला, ‘‘वह जो आखिर में कमरा है वही था उस का स्टडीरूम.’’

राहुल भलीभांति जानता था कि जिसे वह कमरा कह रहा है वह कमरा नहीं, 5×8 फुट का लकड़ी का शैड है. मुरगीखाने से भी छोटा. शैड को खोलते ही राहुल का दिमाग चकरी की तरह घूमने लगा. शैड के चारों और मकड़ी के जाले लगे थे. सीलन की गंध पसरी थी. शैड फालतू सामान से भरा था. उस की दीवारों पर फावड़ा, खुरपी, कैंची, फौर्क वगैरह टंगे थे.

एकदो पुराने सूटकेस और पेंट के खाली डब्बे पड़े थे. आधा हिस्सा तो घास काटने वाली मशीन ने ले लिया था, बाकी थोड़ी सी जगह में पुराना लोहे का बुकशैल्फ था, जिस पर शायद प्रेरणा किताबें, पैन, पेपर रखती रही होगी. कुछ मोमबत्तियां और बैट्री वाली हैलोजन की बत्तियां पड़ी थीं. दीवार से टिकी 2 फुट की फोल्ंिडग मेज और फोल्ंिडग गार्डनकुरसी पड़ी थीं. एक छोटा सा पोर्टेबल हीटर भी पड़ा था. फर्श पर चूहे व कीड़ेमकोडे़ दौड़ रहे थे. बिजली का वहां कोई प्रबंध नहीं था. हां, एक छोटी सी प्लास्टिक की खिड़की जरूर थी जहां से दिन की रोशनी झांक रही थी. अविश्वसनीय था कि कैसे एक इंसान दूसरे से किस हद तक क्रूर हो सकता है.

डरतेडरते राहुल ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘भला बिना बिजली के कैसे लिखती होगी? डर भी तो लगता होगा?’’

‘‘डर, वह सामने 2 कुत्ते देख रहे हो, प्रेरणा के वफादार कुत्ते. उस की किसी चीज को हाथ लगा कर तो देखो, खाने को दौड़ पड़ेंगे.

‘‘प्रेरणा के अंगरक्षक या बौडीगार्ड, जो चाहे कह लो. यह कहावत तो सुनी होगी तुम ने, ‘जहां चाह वहां राह? मेरे सामने उसे लिखने की इजाजत ही कहां थी. मुझे तो बच्चों की मां और मेरी पत्नी चाहिए थी, लेखिका नहीं. मैं नहीं चाहता था मेरे घर में कविताओं के माध्यम से प्रेम का इजहार हो. देखो न, अब बेकार हैं उस की सब किताबें. कौन पढ़ना चाहेगा इन्हें? बच्चे तो पढ़ेंगे नहीं. नौकर से कह कर बक्से में रखना ही है. तुम चाहो तो ले जा सकते हो वरना रद्दी वाला ले जाएगा या फिर मैं गार्डन में लोहड़ी जला दूंगा,’’ उस ने क्रूरता से कहा.

राहुल को लगा उस के कानों में किसी ने किरचियां डाल दी हों. राहुल उसे कह भी क्या सकता था, वह प्रेरणा का पति था. बस, बड़बड़ाता रहा, ‘जा, थोड़ा सा दिल खरीद कर ला, कैसा मर्द है समानता का दर्जा तो क्या, उसे उस के हिसाब से जीने का हक तक न दे सका. तुम क्या जानो कुबेर का खजाना. लेखन का भी एक अनूठा नशा होता है. पत्रिका या किताबों पर अपना नाम देख कर अपने लिखे शब्दों को देख कर जो शब्द धुएं की तरह मन में उठते हैं और हमेशा के लिए कागज पर अंकित हो जाते हैं, दुनिया में कोई और चीज उन से अधिक स्थायी नहीं हो सकती.’

‘‘सर, कुछ किताबें तो रख लेते यादगार के लिए.’’

‘‘यादगार, बेकार की बातें क्यों करते हो. औरत भी कोई याद रखने की चीज है क्या. हां, प्रेरणा ने 2 बच्चियां जरूर दी हैं, उन के लिए मैं आभारी हूं. जानवर भी घर में रहता है तो उस से मोह हो ही जाता है.’’

राहुल अब वहां पलभर भी रुकना नहीं चाहता था. सोचने लगा, इतनी तौहीन, कठोर शब्दों के बाण. शाबाशी है प्रेरणा को, जो ऐसी बंदिशों व घुटनभरी जिंदगी की रेलपेल से पिस्तेपिस्ते भी अपना काम करती रही.

भारी मन से गार्डन से अंदर आतेआते राहुल का पांव हाल में पड़े एक खुले गत्ते के डब्बे से टकराया, जिस में से प्रेरणा का सभी सामान और ट्रौफियां उचकउचक कर झांक रहे थे.

‘‘लगी तो नहीं तुम्हें? मैं तो इन्हें देख कर आपे से बाहर हो जाता हूं. नौकर से कह कर इन्हें बक्से में रखवा दिया है. इन्हें कबाड़ी वाले को धातु के भाव दे दूंगा.’’

उस की हृदयहीन बातें राहुल के हृदय को बींधती रहीं. कितनी आसानी से समेट लिया था सुरेश ने सबकुछ. प्रेरणा की 25 वर्षों की मेहनत के अध्याय को चार दिन में अपने जीवन से निकाल कर फेंक दिया था उस ने. अभी तो उस की राख भी ठंडी नहीं हुई थी, उस का तो नामोनिशान तक मिटा दिया इस बेदर्द ने.

इतनी  नफरत, आखिर क्यों? फिर वह मन ही मन ही बड़बड़ाने लगा, ‘हो सकता है प्रेरणा की तरक्की से जलता हो. इस का क्या गया, खोया तो मैं ने है अपना सोलमेट. अब किस से करूंगा मन की बातें. कौन सुनेगा एकदूसरे की कविताएं,’ बहुत रोकतेरोकते भी राहुल की आंखें भर्रा गईं.

राहुल की भराई आंखें देख कर सुरेश का चेहरा तमतमा उठा, भौंहों पर बल पड़ गए, माथे की रेखाएं गहरा गईं. उस के स्वर में कसैलापन झलका, वह बोला, ‘‘आई सी, राहुल, कहीं तुम वह तो नहीं हो जिस के साथ वह रात को देरदेर तक बातें करती रहती थी, आई मीन उस के बौयफ्रैंड?’’

इतना सुनते ही राहुल की सांस रुक गई. निगाह ठहर गई. उसे लगा जैसे किसी ने उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया हो या फिर पंजा डाल कर उस का दिल चाकचाक कर दिया हो. प्रेरणा तो उस की दोस्त थी, केवल दोस्त जिस में न कोई शर्त, न आडंबर, खालिस अपनेपन की गहनता. प्रेरणा के पास नई राह पर चलने का हौसला नहीं था. उस की खामोशी शब्दों में परिभाषित रहती थी. ऐसी थी वह.

राहुल वहां से भाग जाना चाहता था. वह अपनी खामोश गीली आंखों में चुपचाप प्रेरणा की असहनीय पीड़ा को गले लगाए, उस की कुर्बानियों पर कुर्बान महसूस करता अपने घर को निकलने की तैयारी करने लगा. उसे संतुष्टि थी कि अब प्रेरणा आजाद है. उसे याद आया प्रेरणा अकसर कहा करती थी, ‘भविष्य क्या है, मैं नहीं जानती. इतना जरूर जानती हूं कि सीतासावित्री का जीवन भी इस देश में गायभैंस के जीवन जैसा है, जिन के गले की रस्सी पर उस का कोई अधिकार नहीं.’’

जैसे ही राहुल अपना पैर चौखट के बाहर रखने लगा, उस ने दोनों बक्सों की ओर देखा और सोचा, ‘प्रेरणा की 25 वर्षों की अमूल्य कमाई मैं इस विषैले वातावरण में दोबारा मरने के लिए नहीं छोड़ सकता.’’

राहुल ने प्रेरणा के पति की ओर देखते इशारे से पूछा, ‘‘सर, क्या मैं इन्हें ले जा सकता हूं?’’

‘‘शौक से, लेकिन इन कुत्तों से इजाजत ले लेना?’’

राहुल ने दोनों बक्सों को छूते हुए, कुत्तों की ओर देखा. कुत्ते पूंछ हिला रहे थे. उस ने बक्से कार में रखे. कुत्ते उस के पीछेपीछे कार तक गए, मानो, कह रहे हों प्रेरणा का घर तो कभी उस का था ही नहीं.

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