सहारा: क्या जबरदस्ती की शादी निभा पाई सुलेखा

“शादी… यानी बरबादी…” सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी थी.

“मां मुझे शादी नहीं करनी है. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी देखभाल करना चाहती हूं,” और फिर सुलेखा ने बड़े प्यार से अपनी मां की ओर देखा.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,” मां ने स्नेह भरी दृष्टि से अपनी बेटी की ओर देखा.

“मां, मुझे शादी जैसे रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं,.. विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है…

“आप जरा अपनी जिंदगी में देखो… शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है. पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…” कहती हुई वह अचानक रुक सी जाती है और आंसू भरी नेत्रों से अपनी मां की ओर देखती है तो मां दूसरी तरफ मुंह घुमा लेती हैं और अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलती हैं, “अरे छोड़ो इन बातों को. इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते. और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन.

“देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,” और वह अपनी बेटी को गले से लगा कर उस के माथे को चूम लेती है.

मालती अपनी बेटी सुलेखा को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए.

जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था, तब सुलेखा महज 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का ही प्यार दिया था. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं, बल्कि उन की सुखदुख की साथी भी थी.

अपनी टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया था, वह सभी कुछ अपनी बेटी पर ही लुटाया था. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरतों का खयाल रखा था. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, चाहे खुद उन्हें कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब वह अपनी बेटी की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया, ताकि उन की बेटी को कोई कष्ट ना हो.

सुलेखा आजाद खयालों की लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद ही आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिश नहीं लगाई.

सुलेखा ने भी अपनी मां को हमेशा ही एक स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह से यह बात जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें झेलना पड़े झेल लेंगी, परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा का शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती बड़े ही भावुक हो कर कहती हैं, “बेटा तू क्यों नहीं समझती? तुझे ले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी. एक ना एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,” और फिर हंसते हुए वे बोलती हैं, “और, तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छुपा हुआ है. कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक ना एक दिन मैं भी इस दुनिया को अलविदा तो कहने वाली ही हूं… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी…” कहते हुए उन का गला भर्रा जाता है.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर तैनात है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी हैं, जो 80 या 85 उम्र की हैं.

मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आता है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जिएगी. यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं था. वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं होगी. तो उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

विदाई के वक्त सुलेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. धुंधली आंखों से उस ने अपनी मां की तरफ और उस घर की ओर देखा, जिस में उस का बचपन बीता था.

“अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो… ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से झिड़कते हुए कहा और उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया गया…

“परंतु आंखें पल्लू में ढक गईं तो मैं देख कैसे पाऊंगी…” उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए हुए अपनी जेठानी को देखा, जो बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने के लिए अपनी नाक तक घूंघट खींच रखी थी.

“तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट रखा जाता है,” यह आवाज उस की सास की थी.

“आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल ना उठाएं…” सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई थी.

“तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,” योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्ला पड़ता है.

ऐसा बरताव देख सुलेखा तिलमिला सी जाती है और गुस्से से योगेंद्र की ओर देखती है.

“अरे, नई बहू दरवाजे पर ही कब तक खड़ी रहेगी? कोई उसे अंदर क्यों नहीं ले आता?” दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था, उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं. वैसे भी उन के कानों ने उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. यमराज तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गए थे, क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखनी थी.

अपनी लंबी उम्र और घर की उन्नति के लिए कई बार काशी के बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड पूजाअर्चना करवा चुकी हैं, ताकि चित्रगुप्त का लिखा बदलवाया जा सके, उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उन के छोटे पोते की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो, उसी लड़की से छोटे पोते की शादी कराई जाए.

अतः सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा दे दिया गया था और अब उन्हें बेचैनी इस बात से हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए… वरना कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए.

लेकिन घूंघट के ना होने पर उखड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

“आप मुझ से ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?” सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोलती है.

“तुम्हें तुम्हारे पति से कैसे बात करनी चाहिए, क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया,” घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

“अरे, इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,” सुलेखा की सास ने बेहद ही गुस्से में कहा.

“आप मुझे तमीज मत सिखाइए…” सुलेखा के स्वर भी ऊंचे हो उठे थे.

“पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए… ”

“सुलेखा…” योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ता है.

“चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझे भी आता है,” सुलेखा ने भी ठीक उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा था.

“इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है. पति से जबान लड़ाती है,” सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

“आप लोगों के संस्कार का क्या…? नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है,” सुलेखा ने भी जोर से चिल्लाते हुए कहा.

“तुम सीमा लांघ रही हो…” योगेंद्र चिल्लाता है.

“और आप लोग भी मुझे मेरी हद न सिखाएं….”

“सुलेखा…” और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ जाता है.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठती है. साथ में उस की आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है और आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उमड़ पड़ता है.

अचानक उस के पैर डगमगा जाते हैं और नीचे रखे तांबे के कलश से उस के पैर जा टकराते हैं और वह कलश उछाल खाता हुआ सीधा दादी सास के सिर से जा टकराता है और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर ही एक ओर लुढ़क जाती हैं. सभी तरफ कोहराम मच जाता है.

लोग चर्चा करते हुए कहते हैं, “देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के… गुस्से में दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी… अरे हाय… हाय, अब तो ऊपर वाला ही रक्षा करे…

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झुका हुआ था और गले से तुलसी की माला नीचे लटकी हुई जमीन को छू रही थी.

यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें मानो क्षणभर के लिए जैसे रुक सी गईं…

“अरे हाय, ये क्या कर दिया तुम ने,” सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई बेतहाशा दादी सास की ओर दौड़ पड़ती है.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा, उस के होठों पर लाल गहरे रंग की लिपिस्टिक लगी हुई थी और साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आखों पर नीले रंग के आईशैडो भी लगा रखे थे और गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहन रखा था. उन का यह बनावसिंगार उन के अति सिंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा जाती है और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस के पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है…

“कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,” योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही थी.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी होता है. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह जाती है. उस की आंखों से छलछल आंसू बहने लगते हैं. वह मन ही मन सोचने लगती है कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है, उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है.

जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया है, जितनी कुंठित विचारधारा इन सबों की है, वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी. उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इन सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे सब से ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी, तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी, अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि, जिस सुंदर चित्र को उस ने संजोया था, वह अब एक झटके में ही टूटताबिखरता नजर आ रहा था.

खैर, उन की पूजापाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि के प्रभाव से भी दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

“अरे, अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,” सास ने बड़े ही गुस्से में आवाज लगाई.

“नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,” सुलेखा ने बड़ी ही दृढ़ता से कहा.

“क्या कहा…? कैसी कुलक्षणी है यह…? अब और कोई कसर रह गई है क्या…?” सास ने गुस्से से गरजते हुए कहा.

“अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो, अंदर चलो…” योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

“नहीं, मै अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकूंगी,” कहते हुए सुलेखा एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लेती है.

“जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया. जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई, अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,” कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल कर अपनी मां के घर की ओर चल देती है.

सुलेखा मन ही मन सोचती जाती है, ‘जिस रिश्ते में सम्मान नहीं, उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी? जो परंपरा एक औरत को खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे. जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करें और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो, वैसे रिश्ते से तो अकेले की ही जिंदगी बेहतर है.

‘मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के. उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है. सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है. अब मैं उन का सहारा बनूंगी…”

खतरा यहां भी है: महामारी का कहर

‘‘मम्मीमम्मी, आप जा रही हो? पापा को यहां कौन देखेगा?’’ राजू अपनी मम्मी को तैयार होते देख कर बोला, ‘‘पापा अकेले परेशान नहीं हो जाएंगे…’’

‘‘नहीं बेटा, वे बिलकुल परेशान नहीं होंगे,’’ मम्मी पैंट की बैल्ट कसते हुए बोलीं, ‘‘उन्हें पता है कि इस समय हमारी ड्यूटी कितनी जरूरी है. फिर तुम हो, तुम्हारी दीदी सुहानी हैं. तुम लोग उन का ध्यान रखोगे ही. खाना बना ही दिया है. तुम लोग मिलजुल कर खा लेना.

‘‘पापा होम आइसोलेशन में हैं. तुम्हें तो पता ही है कि जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, उन से दूरी बना कर रखना है, इसलिए तुम उन के कमरे में नहीं जाना. अपनी पढ़ाई करना और मन न लगे तो टैलीविजन देख लेना.’’

‘‘मन नहीं करता टैलीविजन देखने का…’’ राजू मुंह बना कर बोला, ‘‘सब चैनल में एक ही बात ‘कोरोनाकोरोना’. ऊब गया हूं यह सब सुनतेदेखते.’’

‘‘इसी से समझ लो कि कैसी परेशानी बढ़ी हुई है…’’ मम्मी राजू को समझाते हुए बोलीं, ‘‘इसलिए तो लोग बाहर नहीं निकल रहे. और तुम लोग भी घर से बाहर नहीं निकलना. घर में जो किताबें और पत्रिकाएं तुम लोगों के लिए लाई हूं, उन्हें पढ़नादेखना.’’

‘‘रचना मैडमजी, चलिए देर हो रही है…’’ ड्राइवर मोहसिन खान ने बाहर से हांक लगाई, ‘‘हम समय से थाने नहीं पहुंचे, तो इंस्पैक्टर साहब नाराज होने लगेंगे. उन की नसीहतें तो आप जानती ही हैं. बेमतलब शुरू हो जाएंगे.’’

‘‘नहीं जी, वे बेमतलब नहीं बोलते हैं…’’ रचना जीप में बैठ कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘जब हम ही समय का खयाल नहीं रखेंगे, तो पब्लिक क्यों खयाल रखेगी, इसलिए वे बोलते हैं. हमें तो समय का, अनुशासन का सब से पहले खयाल रखना होता है.’’

जीप एक झटके के साथ आगे बढ़ी, तो रचना ने बच्चों को दूर से ही हाथ हिला कर ‘बाय’ कहा. पति रमाशंकर अपने कमरे की खिड़की से उन्हें एकटक देखे जा रहे थे.

जीप जैसे ही थाने पहुंची, रचना  उस से तकरीबन कूद कर थाने के अंदर आ गईं.

‘‘आप आ गईं… अच्छा हुआ…’’ इंस्पैक्टर हेमंत रचना को देख कर बोले, ‘‘अभी रमाशंकरजी कैसे हैं?’’

‘‘वे ठीक हैं सर,’’ रचना उन का अभिवादन करते हुए बोलीं, ‘‘होम आइसोलेशन में हैं. उन्हें समझा दिया है कि कमरे से बिलकुल बाहर न निकलें और बच्चों को दूर से ही दिशानिर्देश देते रहें. वैसे, मेरे बच्चे समझदार हैं.’’

‘‘जिन की आप जैसी मां हों, वे बच्चे समझदार होंगे ही मैडम रचनाजी…’’ इंस्पैक्टर हेमंत हंसते हुए बोले, ‘‘क्या कहें, हमारी ड्यूटी ही ऐसी है. सरकार ने ऐन वक्त पर हम पुलिस वालों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं, जिस से मजबूरन आप को आने के लिए कहना पड़ा, वरना आप को घर पर होना चाहिए था. औरतें तो घर की ही शान होती हैं.’’

‘‘वह समय कब का गया सर,’’ रचना हंसते हुए बोलीं, ‘‘अब तो औरतें भी घर के बाहर फर्राटा भर रही हैं. तभी तो हम लोगों को भी पुलिस में नौकरी मिलने लगी है.’’

‘‘ठीक कहती हैं आप,’’ इंस्पैक्टर हेमंत जोर से हंसे, फिर बोले, ‘‘देखिए, 10 बजने वाले हैं. आप गश्ती दल के साथ सब्जी बाजार की ओर चली जाइए. वहां की भीड़ को चेतावनी देने के साथ उसे तितरबितर कराइए. मैं दूसरी गाड़ी से बड़े बाजार की ओर निकल रहा हूं.’’

‘‘ठीक है सर,’’ बोलते हुए रचना उठने को हुईं, तो वे फिर बोले, ‘‘लोगों के मास्क पर खास नजर रखिएगा. और हां, आप भी लोगों से सोशल डिस्टैंसिंग बना कर रखिएगा.’’

‘‘जरूर सर…’’ रचना बाहर निकलते हुए बोलीं, ‘‘आप भी अपना खयाल रखिएगा.’’

‘‘किधर धावा मारना है?’’ मोहसिन उठते हुए बोला, ‘‘हम चैन से बैठ भी नहीं पाते कि बाहर निकलना पड़ जाता है.’’

‘‘क्या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है…’’ वे बोलीं, ‘‘हमारे साथ 3 और कांस्टेबल जाएंगे.’’

तभी थाने परिसर में बनी छावनी से 2 कांस्टेबल हाथ में राइफल और डंडा उठाए आते दिखाई दिए.

‘‘क्यों हरिनारायण, ठीक तो हो न?’’ रचना उन से मुखातिब हुईं, ‘‘और रामजी, क्या हाल है तुम्हारा?’’

‘‘अब थाने की चाकरी कर रहे हैं, तो ठीक तो होना ही है,’’ रामजी हंस कर बोला, ‘‘इस लौकडाउन की वजह से बेवजह हमारा काम बढ़ गया, तो भागादौड़ी लगी ही रहती है. चलिए, किधर जाना है?’’

‘‘अरे, तुम 2 ही लोग साथ जाओगे?’’ रचना बोली ही थीं कि इंस्पैक्टर हेमंत बाहर निकल कर बोले, ‘‘अभी इन दोनों के साथ ही जाइए मैडम. आप तो जानती ही हैं कि एरिया कितना बड़ा है हमारा और कांस्टेबल कितने कम हैं. स्टेशन के पास के बाजार में ज्यादा कांस्टेबल भेजने पड़ गए, क्योंकि वह संवेदनशील इलाका ठहरा. आप तो समझ ही रही हैं. वैसे, आप ने अपना रिवाल्वर चैक कर लिया है न?’’

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी सर…’’ वह अपने बगल में लटके रिवाल्वर पर हाथ धर कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘यह वरदी ही काफी है भीड़ को कंट्रोल करने के लिए.’’

अपने गश्ती दल के साथ रचना बाजार की ओर बढ़ रही थीं. उन की गाड़ी देखते ही लोग अलगअलग हो कर दूरी बना लेते थे, मगर उन के आगे बढ़ते ही दोबारा वही हालत बन जाती थी.

रचना तिराहेचौराहे पर कभीकभी गाड़ी रुकवा लेतीं और अपने साथियों के साथ उतर कर सभी से एक दूरी बनाने की हिदायत देती फिरतीं. समयसीमा खत्म होने के साथ ही दुकानें बंद और सड़कें सुनसान होने लगी थीं. अब कुछ ही लोग बाहर नजर आ रहे थे, जिन्हें उन्होंने अनदेखा सा किया. वे सब थक चुके थे शायद.

थाना लौटने के पहले ही रचना का मोबाइल फोन बजने लगा था. उन्होंने फोन रिसीव किया. फोन की दूसरी तरफ से जिले के पुलिस अधीक्षक मोहन वर्मा थे, ‘आप सबइंस्पैक्टर रचना हैं न?’

‘‘जी सर, जय हिंद सर…’’ रचना सतर्क हो कर बोलीं, ‘‘क्या आदेश  है सर?’’

‘अरे, जरा तुम उधर से ही गांधी पार्क वाले चौराहे पर चली जाना,’ मोहन वर्मा रचना को बताने लगे, ‘कुछ पत्रकार बता रहे थे कि उधर लौकडाउन का पालन नहीं हो रहा है. आतेजाते लोगों और गाडि़यों पर नजर रखना और कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखना.

‘जरूरत के हिसाब से थोड़ा सख्त हो जाना. जिन के पास उचित कागजात हों, उन्हें छोड़ कर सभी के साथ सख्ती करना. कितनी और कैसी सख्ती करनी है, यह तुम्हें समझाने की जरूरत तो  है नहीं.’

रचना की गाड़ी अब थाने के बजाय गांधी पार्क की ओर मुड़ चुकी थी. वहां भी सन्नाटा ही पसरा था. मगर कुछ गाडि़यां तेजी से आजा रही थीं.

रचना ने वहां एक साइड में रखे बैरिकेडिंग को सड़क पर ठीक कराया और हर आतीजाती गाडि़यों की खोजखबर लेने लगी थीं.

पुलिस को देखते ही एक बाइक पर सवार 2 नौजवान हड़बड़ा से गए. रचना ने उन्हें रोक कर पूछा, ‘‘कहां चल दिए? पता नहीं है क्या कि लौकडाउन लगा हुआ है?’’

‘‘सदर अस्पताल से आ रहा हूं मैडम…’’ एक नौजवान हकलाते हुए बोला, ‘‘दवा लेने गया था.’’

‘‘जरा डाक्टर का परचा तो दिखाना कि किस चीज की दवा लेने गए थे?’’

‘‘वह घर पर ही छूट गया है मैडम…’’ दूसरा नौजवान घिघियाया, ‘‘हम जल्दी में थे मैडम. हमें माफ कर दीजिए. हमें जाने दीजिए.’’

‘‘जब तुम गलत नहीं थे, तो हमें देख कर कन्नी कटाने की कोशिश क्यों की?’’ रचना सख्त हो कर बोलीं, ‘‘तुम दोनों के मास्क गले में लटके हुए थे. हमें देख कर तुम ने अभी उन्हें ठीक किया है. अपने साथ दूसरों को भी क्यों खतरे में डालते हो. अच्छा, बाइक के कागज तो होंगे ही न तुम्हारे पास?’’

‘‘सौरी मैडम, हम हड़बड़ी में कागज रख नहीं पाए थे…

‘‘और कितना झूठ बोलोगे?’’

‘‘सच कहता हूं, दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी. कान पकड़ता हूं,’’ उस ने हरिनारायण की ओर मुसकरा कर देखा. वह उस का इशारा समझ गया और उन्हें घुड़कता हुआ बोला, ‘‘एक तो गलती करोगे और झूठ पर झूठ बोलते जाओगे. जैसे कि हम समझते ही नहीं. चलो सड़क किनारे और इसी तरह कान पकड़े सौ बार उठकबैठक करो, ताकि आगे से याद रहे.’’

अब वे दोनों नौजवान सड़क किनारे कान पकड़े उठकबैठक करने लग गए थे.

अचानक रचना ने तेजी से गुजरती कार रुकवाई, तो उस का चालक बोला, ‘‘जरूरी काम से सदर होस्पिटल गए थे मैडम. आप डाक्टर का लिखा परचा देख लें, तो आप को यकीन हो जाएगा. हमें जाने दें.’’

‘‘वह तो हम देखेंगे ही. मगर पीछे की सीट पर जिन सज्जन को आप बिठाए हुए हैं, उन के पास तो मास्क ही नहीं है. आप लोग हौस्पिटल से आ रहे हैं, तो आप को तो खास सावधानी बरतनी चाहिए. वे कोरोना पौजिटिव हैं कि नहीं हैं, यह कैसे पता चलेगा? अगर वे कोरोना पौजिटिव हुए, तो आप भी हो जाएंगे. बाद में हमारे जैसे कई लोग हो जाएंगे. आप पढ़ेलिखे लोग इतनी सी बात को समझते क्यों नहीं हैं?’’

‘‘अरे मैडम, मेरे पास मास्क है न…’’ पीछे बैठे सज्जन ने मास्क निकाल कर उसे मुंह पर लगाया और बोले, ‘‘हमारे मरीज की हालत सीरियस है. हमें जल्दी है, प्लीज जाने दें.’’

‘‘वह तो हम जाने ही देंगे…’’ रचना उन के दिए डाक्टर के परचे को देखते हुए बोलीं, ‘‘मगर, आप को फाइन देना ही होगा, ताकि आप को पता तो चले कि आप ने गलती की है.’’

धूप तीखी हो चली थी और रचना पसीने से तरबतर थीं. उन्होंने देखा कि साथी कांस्टेबल भी गरमी से बेहाल हो थक चुके थे. उन्होंने ड्राइवर मोहसिन को आवाज दी और वापस थाना चलने का संकेत दिया.

थाने आ कर रचना ने अच्छे से हाथमुंह धोया और खुद को सैनेटाइज किया, फिर एक कांस्टेबल को भेज कर गरम पानी मंगवा कर पीने लगीं. इस के बाद वे अपनी टेबल पर रखी फाइलों और कागजात के निबटान में लग गईं.

शाम के 6 बज चुके थे. तब तक इंस्पैक्टर हेमंत आ चुके थे. आते ही वे बोले, ‘‘अरे रचना मैडम, आप क्या  कर रही हैं. अभी तक यहीं हैं, घर  नहीं गईं?’’

‘‘कैसे चली जाती…’’ वे बोलीं, ‘‘आप भी तो नहीं थे.’’

‘‘ठीक है, ठीक  है. अब मैं आ गया हूं, अब आप घर जाइए. घर में आप के पति बीमार हैं. छोटेछोटे बच्चे हैं. आप घर जाइए,’’ इतना कह कर वे मोहसिन को आवाज देने लगे, ‘‘मोहसिन भाई, कहां हैं आप? जरा, मैडम को घर  छोड़ आइए.’’

‘‘मैडम को कहा तो था…’’ मोहसिन बोला, ‘‘मगर, आप तो जानते ही हैं कि वे अपनी ड्यूटी की कितनी पक्की हैं.’’

‘‘ठीक है, अब तो पहुंचा दो यार…’’

साढ़े 6 बजे जब रचना घर पहुंचीं, तो राजू लपक कर बाहर निकल आया था. वह उन से चिपकना ही चाहता था कि वे बोलीं, ‘‘अभी नहीं, अभी दूर ही रहो मुझ से. दीदी को बोलो कि वे सैनेटाइज की बोतल ले कर आएं. सैनेटाइज होने के बाद सीधे बाथरूम जाना है मुझे.’’

पूरे शरीर को सैनेटाइज करने के बाद रचना बाहर ही अपने भारीभरकम जूते खोल कर घर में घुसीं, गीजर औन करने के बाद वे अपनी ड्रैस उतारने लगीं.

अच्छी तरह स्नान करने के बाद हलके कपड़े पहन कर रचना बाहर निकलीं और सीधी रसोईघर में आ गईं. दूध गरम कर कुछ नाश्ते के साथ बच्चों को दिया. फिर गैस पर चाय के लिए पानी चढ़ा कर पति के लिए कुछ खाने का सामान निकालने लगीं.

चाय पीते हुए रचना ने रिमोट ले समाचार चैनल लगाया, जिस में कोरोना संबंधी खबरें आ रही थीं. थोड़ी देर बाद उन्होंने टैलीविजन बंद किया, फिर बच्चों की ओर मुखातिब हुईं.

सुहानी पहले की तरह चुप थी. शायद समय की नजाकत ने उस 12 साल की बच्ची को गंभीर बना दिया था. मगर राजू उन्हें दुनियाजहान की बातें बताने में लगा था और वे चुपचाप सुनती रही थीं.

रचना का सारा शरीर थकान से टूट रहा था और उन्हें अभी भोजन भी बनाना था. जल्दी खाना नहीं बना, तो रात में सोने में देर हो जाएगी.

भोजन बनाने और सब को खिलानेपिलाने में रात के 10 बज गए थे. राजू को समझाबुझा कर बहन के कमरे में ही सुला कर वे बाहर अपने कमरे में आईं और अपने पलंग पर लेट गईं. थकान उन पर हावी हो रही थी. मगर अब अतीत उन के सामने दृश्यमान होने लगा था.

कितना संघर्ष किया है रजनी ने यहां तक आने के लिए, मगर कभी उफ तक नहीं की. देखतेदेखते इतना समय बीत गया. दोनों बच्चे बड़े हो गए, मगर ऐसा खराब समय नहीं देखा कि लोग  अपनों के सामने हो कर भी उन के लिए तरस जाएं.

घर में एक नौकर था, वह इस महामारी में अपने गांव क्या भागा, पीछे पलट कर देखने की जरूरत भी नहीं समझी. कामवाली महरी भी कब का किनारा कर चुकी है. ऐसे में उन्हें ही घरबाहर सब देखना पड़ रहा है.

यह सब अपनी जगह ठीक था, मगर जब रचना के शिक्षक पति बीमार पड़े, तो वे घबरा गई थीं. पहले वे छिटपुट काम कर लेते थे, बच्चों को संभाल भी लेते थे. इधर उन का स्कूल भी बंद था, जिस से वे निश्चिंत भी थीं, मगर एक दिन किसी शादी में क्या गए, वहीं कहीं पति कोरोना संक्रमित हो गए.

शुरू के कुछ दिन तो जांच और भागदौड़ में बीता, मगर बाद में पता चला कि पति कोरोना पौजिटिव हैं, तो मुश्किलें बढ़ गईं. घर पर ही रह कर इलाज शुरू हुआ था. मगर सांस लेने में तकलीफ और औक्सीजन के घटते लैवल को देख कर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. उफ, क्या मुसीबत भरे दिन थे वे. सारे अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे पड़े थे. एकएक बिस्तर के लिए मारामारी थी. अगर बिस्तर मिल गया, तो दवाएं नहीं थीं या औक्सीजन सिलैंडर नहीं मिलते थे.

ऐसे में एसपी मोहन वर्मा ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उन्हें बिस्तर दिलवाया था और औक्सीजन का इंतजाम कराया था. रचना उन के इस अहसान को हमेशा याद रखेगी.

उन दिनों रचना एक आम घरेलू औरत की तरह रोने लगती थी, तब वे ही उन्हें हिम्मत बंधाते थे. उन्होंने खुद आगे बढ़ कर रचना की छुट्टी मंजूर की और उन्हें हर तरह से मदद की…

अचानक राजू के रोने की आवाज से रचना की तंद्रा टूटी. राजू उन के पलंग के पास आ कर रोता हुआ कह रहा था, ‘‘मुझे डर लग रहा है मम्मी. मैं आप के साथ ही रहूंगा, कहीं नहीं जाऊंगा…’’

रचना ने उसे समझाबुझा कर चुप कराया, फिर वापस उसे अपने कमरे  में पलंग पर लिटा कर थपकियां देदे  कर सुलाया.

इस कोरोना काल में कैसेकैसे लोगों के साथ मिलनाजुलना होता है. क्या पता कि कोरोना वायरस उन के शरीर में ही घुसा बैठा हो. ऐसे में वे अपने परिवार के साथ खुद को कैसे खतरे में डाल सकती हैं… अपने कमरे में जाते हुए सबइंस्पैक्टर रचना यही सोच रही थीं.

ऊंची उड़ान: स्नेहा को क्या पता चली दुनिया की सच्चाई

‘‘दीदी, तुम्हारे लिए जतिन का फोन है,’’ कह कर मैं हंसती हुई दीदी के हाथ में फोन दे कर बाहर चली गई.

तभी पिताजी की आवाज आई, ‘‘किस का फोन है इतनी रात में?’’

‘‘जी पापा, वो…. दीदी की एक सहेली का.’’

‘‘पर मैं ने तुम दोनों से क्या कह रखा है?’’ पापा चिल्लाए तो उन की ऊंची आवाज सुन कर मैं सहम गई. मुझे लगा आज तो दीदी की खैर नहीं. वह हमारे कमरे में चले आए और दीदी को फोन पर हंसते हुए देख कर गरज पड़े.

‘‘स्नेहा, क्या हो रहा है?’’

पापा की आवाज से दीदी के हाथ से रिसीवर छूट गया. पापा ने रिसीवर उठाया और उसी लहजे में बोले, ‘‘हैलो, कौन है वहां?’’

उधर से कोई आवाज न पा कर उन्होंने रिसीवर पटक दिया.

‘‘बताओ कौन था?’’

‘‘कोई नहीं पापा. नीरज भैया थे. आप उन से हमेशा नाराज रहते हैं न. इसलिए उन्होंने आप से बात नहीं की,’’ दीदी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बड़ी मौसी के बेटे का नाम ले लिया.

नीरज भैया पढ़ाई पर जरा कम ध्यान देते थे. इस वजह से पापा उन्हें पसंद नहीं करते थे.

‘‘इस समय क्यों फोन किया था उस नालायक ने?’’

‘‘पापा, उन्हें मेरी कुछ पुरानी किताबें चाहिए थीं.’’

‘‘उसे कब से किताबें अच्छी लगने लगीं? 11 बज गए हैं घड़ी में अलार्म लगाओ और बत्ती बंद कर सो जाओ.’’

पापा के जाते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘बच गए दीदी.’’

बस, यही थी हमारी जिंदगी. मम्मीपापा, दोनों के अनुशासन के बीच झूठ के सहारे हमारी जिंदगी कट रही थी. मम्मी तो कभीकभी मनमानी करने भी देती थीं पर पिताजी, वह तो लगता था कि पूर्वजन्म के हिटलर थे.

हम दोनों बहनों पर वे ऐसी नजर रखते थे जैसे जेलर कैदियों पर रखता है. घर से बाहर हमें सिर्फ कालिज जाने की इजाजत थी. हमारे हर फोन, हर चिट्ठी, हर दोस्त पर उन की निगाह रहती और हमारे दिलों में उन का एक अजीब सा खौफ बैठ गया था. अकसर जब हम दोनों बहनें दूसरी लड़कियों को फिल्म देखने या घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते देखते तो हमें बहुत दुख होता पर इस के अलावा हमारे बस में कुछ था भी नहीं.

इस सब के बावजूद हम दोनों बहनें एकदूसरे के बहुत करीब थीं. मैं तो फिर भी इस सब के बारे में ज्यादा नहीं सोचती थी और खुश रहती थी पर दीदी अपनों का यह व्यवहार देख कर दुखी होती थीं और उन्हें गुस्सा भी बहुत आता था. उन्हें इस बात पर बहुत हैरानी होती थी कि हमारे अपने इतना मानसिक कष्ट कैसे दे सकते हैं.

अगली सुबह जब हम कालिज जा रहे थे तो रास्ते में दीदी ने मुझ से पूछा, ‘‘नेहा, मातापिता इतना दुख क्यों देते हैं?’’

मैं कुछ पल सोचती रही कि क्या कहूं फिर चलतेचलते रुक कर बोली, ‘‘दीदी, पालने वाले जो भी दें, ले लेना चाहिए.’’

‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’ दीदी ने मेरी तरफ देख कर पूछा.

मैं ने आसमान की तरफ देखा और फिर हम हंस पड़े.

ऐसे ही खट्टेमीठे लम्हों के बीच दीदी का बी.ए. हो गया. उन दिनों मेरे पेपर चल रहे थे. जब मैं आखरी पेपर दे कर घर लौटी तो दीदी के बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की कल्पना मैं ने सपने में भी नहीं की थी. मम्मीपापा दोनों मुझ पर सवाल बरसाए जा रहे थे.

‘‘बताती क्यों नहीं, किस के साथ भाग गई वह? इसी दिन के लिए पढ़ालिखा रहा था तुम दोनों को.’’

मम्मी बैठेबैठे रोए जा रही थीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

उन के पास जा कर मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, दीदी यहीं कहीं होंगी. आप रो क्यों रही हैं?’’

‘‘उस की सब सहेलियों से पूछ लिया है, कहीं नहीं है वह,’’ मम्मी ने रोते हुए बस, इतना ही कहा था कि पापा फिर चिल्ला पड़े, ‘‘कालिख पोत दी हमारे मुंह पर.’’

इतना कह कर वह अपने कमरे में गए और दरवाजा बंद कर लिया. मैं दौड़ कर अपने कमरे में गई और हर चीज को उठाउठा कर देखा. फिर जतिन को फोन मिलाया तो उसे भी दीदी के बारे में कुछ मालूम नहीं था. मैं पलंग पर बैठ कर रोने लगी. तभी मेज पर रखी दीदी की डायरी पर नजर पड़ी. मैं ने उस के पन्ने पलटे तो एक कागज मिला जिस पर लिखा था :

प्रिय नेहा,

तुम्हें याद होगा, कुछ दिनों पहले कालिज में कैंपस इंटरव्यू हुए थे. इस के कुछ दिनों बाद ही मुझे एक कंपनी की ओर से ‘कस्टमरकेयर एग्जिक्यूटिव’ का नियुक्ति पत्र मिला था. मैं मम्मीपापा से इजाजत मांगती तो वे मुझे यह नौकरी नहीं करने देते, इसलिए बिना बताए जा रही हूं.

मुझे मालूम है, उन्हें दुख होगा पर नेहा थोड़े दिन ही सही, मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. यह मत करो, वह मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, यह मत पहनो, ये बातें सुनसुन कर मैं थक गई हूं. मुझे वहां अच्छा नहीं लगा तो मैं वापस लौट आऊंगी. तुम अपना और मम्मीपापा का ध्यान रखना.

तुम्हारी दीदी,

स्नेहा

इस खत को पढ़ने के बाद मुझे बहुत सुकून मिला. मैं ने पत्र ले जा कर मम्मी को थमा दिया.

‘‘अरे, उसे इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? हम से पूछा तो होता…’’

‘‘अगर दीदी पूछतीं तो क्या आप उन्हें जाने देतीं?’’

उन के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. वह बुत सी बैठी रहीं और फिर रोने लगीं.

दीदी के जाने के बाद मैं ने मम्मीपापा का एक नया ही रूप देखा. दोनों हमेशा उदास रहते थे. ऐसा लगता था जैसे अंदर ही अंदर टूट रहे हों. जबकि पहले लगता था कि उन के दिल पत्थर के हैं पर अब पता चला कि ऐसा नहीं है. मम्मी की सेहत गिरती जा रही थी और पापा भी घंटों चुपचाप कमरे में बैठे रहते.

उन की तकलीफ इस बात से और बढ़ती जा रही थी कि दीदी ने जाने के बाद कोई खबर नहीं भेजी. मेरी बड़ी अजीब सी स्थिति थी. मम्मीपापा के दुख से दुखी थी पर दिल में दीदी के लिए खुशी भी थी. उन के न होने से अकसर अपनेआप से बातें कर लिया करती कि अगर मम्मीपापा दीदी से इतना ही प्यार करते थे तो उन्हें इतना दुखी क्यों किया जाता था.

कभीकभी लगता कि अच्छा ही हुआ जो दीदी चली गईं. कम से कम थोड़ा सुकून तो पाया उन्होंने.

फिर ऐसे ही एक शाम बैठेबैठे दीदी की बात याद आने लगी.

‘नेहा, एक दिन मैं पर लगा कर आसमान के उस पार उड़ जाऊंगी और सितारों से दोस्ती करूंगी.’

‘फिर मेरा क्या होगा?’

‘तुझे भी अपने साथ ले जाऊंगी.’

‘और जतिन का क्या होगा?’

‘वह…वह तो बस, मेरा दोस्त है जो पता नहीं कैसे बन गया? उसे धरती पर ही रहने दो. आसमान पर सिर्फ हम दोनों चलेंगे.’

और फिर हम जोर से हंस पड़े थे.

वक्त अच्छा हो या बुरा, थमता नहीं है. मेरे आसपास सबकुछ ठहर गया था. मुझे अब दीदी की चिंता होने लगी थी. 3 महीने गुजर जाने के बाद भी उन्होंने कोई खबर नहीं भेजी. इस बीच मुझे यह भी एहसास हो गया कि मातापिता भले ही पत्थर से लगते हों, उन का दिल तितली के पंखों से भी नाजुक होता है.

रविवार के दिन मम्मीपापा को चाय दे कर मैं बरामदे में बैठी ही थी कि गेट खुलने की आवाज आई. देखा तो दीदी थीं. मैं दौड़ कर उन के पास  गई. जब हम गले मिले तो हमारी आंखें भर आईं. मैं ने वहीं से मम्मीपापा को बाहर आने की आवाज दी.

दोनों जब बाहर आए तो दीदी उन के सामने हाथ जोड़ कर रोने लगीं. दोनों ने कुछ भी नहीं कहा. मैं ने उन का सामान उठाया और हम अंदर आ गए.

दीदी को मैं ने पानी दिया. थोड़ा सा पानी पी कर वह पापा से बोलीं, ‘‘आप बहुत नाराज हैं न पापा मुझ से?’’

‘‘नहीं…हां, बच्चे गलती करेंगे तो मांबाप नाराज नहीं होंगे?’’

‘‘होंगे न पापा. होना भी चाहिए. वहां हास्टल में आप तीनों को मैं बहुत मिस करती थी. सितारों से दोस्ती करने गई थी पर उन के पास जा कर पता चला कि वे सिर्फ धरती से ही खूबसूरत दिखाई देते हैं. उन्हें छूना चाहो तो हाथ जल जाता है. मैं अपनी जमीन पर लौट आई हूं पापा. मुझे माफ करेंगे न?’’

पापा ने प्यार से दीदी के सिर पर हाथ फेरा. उस के बाद दीदी ने मम्मी से भी माफी मांगी. उस रात हम लोग चैन से सोए.

‘‘मैं तुम दोनों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए ही पढ़ा रहा हूं. तुम्हें नौकरी करनी है तो कर लेना पर पहले अच्छी तरह से पढ़ तो लो, बेटा. उच्च शिक्षा लोगे तो और भी अच्छी नौकरी मिलेगी,’’ नाश्ते की मेज पर पापा की यह बात सुन कर हमें बहुत अच्छा लगा.

दीदी ने एम.ए. में एडमिशन लिया. अब घर में ज्यादा सुकून था. हमारे सारे दोस्त व सहेलियां घर आजा सकते थे और कभीकभी हमें भी उन के साथ बाहर जाने की इजाजत मिल जाती. दीदी को यकीन हो गया था कि सच्ची खुशियां अपनों के ही बीच मिलती हैं.

ऐसे ही एक खुशी के पल में दीदी के साथ मैं एक पार्क के बाहर खड़ी हो कर नारियल पानी पी रही थी. अचानक मुझे एक खयाल आया तो बोल पड़ी, ‘‘दीदी, क्या आप को नहीं लगता कि मांबाप नारियल की तरह होते हैं या ये कहें कि कुछ रिश्ते नारियल जैसे होते हैं, यानी अंदर से मीठे और बाहर से रूखे.’’

दीदी ने मुझे अपने पुराने अंदाज में देखा और बोलीं, ‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’

और इसी के साथ हम दोनों आसमान की ओर देख कर हंस पड़े.

रोटी: क्या था अम्मा के संदूक में छिपा रहस्य

ढाई बजे तक की अफरातफरी ने पंडितजी का दिमाग खराब कर के रख दिया था. ये लाओ, वो लाओ, ये दिखाइए, वो दिखाइए, ऐसा क्यों है, कहां है, किस तरह है? इस का सुबूत…उस का साक्ष्य?

पारिवारिक सूची क्या बनी, पूरे खानदान की ही फेहरिस्त तैयार हो गई. पूरे 150 नाम दर्ज हो गए, सभी के पते, फोन नंबर, मोबाइल नंबर, उन का व्यवसाय और उन सब के व्यवसायों से जुड़े दूसरेदूसरे लोग.

पंडित खेलावन ने बेटी की सगाई पिछले माह ही की थी. उन्हें डर था कि कहीं ऐसा कुछ न हो कि उन के संबंधों पर आंच आए, सो कह उठे, ‘‘देखिए शर्मा साहब, आप को मेरे परिवार और मेरे धंधे के बाबत जो कुछ पूछना और जानना है, पूछिए किंतु मेरे समधी को इस में न घसीटिए, प्लीज. बेटी के विवाह का मामला है. कहीं ऐसा न हो कि…’’

पंडित खेलावन को बीच में टोकते हुए शर्माजी बोले, ‘‘देखिए पंडितजी, जिस तरह से आप को अपने संबंधों की परवा है उसी तरह मुझे भी अपनी नौकरी की चिंता है. यह सब तो आप को बताना ही होगा. आखिर आप का, आप के व्यापार का किसकिस से और कैसाकैसा संबंध है, यह मुझे देखना है और यही मेरे काम का पार्र्ट है.’’

तमाम जानकारियां दर्ज कर शर्माजी लंच के लिए बाहर निकल गए थे किंतु पीछे अपनी पूरी फौज छोड़ गए थे. घर के हर सदस्य पर पैनी नजर रखने के लिए आयकर विभाग का एकएक कर्मचारी मुस्तैद था.

पलंग पर निढाल हो पंडित खेलावन ने सारी स्थितियों पर गौर करना शुरू किया. आयकर वालों की ऐसी रेड पड़ी थी कि छिपनेछिपाने की तनिक भी मोहलत नहीं मिली. यह शनि की महादशा ही थी कि सुबहसुबह हुई दस्तक ने उन्हें जैसे सड़क पर नंगा ला कर खड़ा कर दिया हो.

पंडित खेलावन का दिमाग हर समय हर बात को धंधे की तराजू पर तोलता रहता था. पलड़ा अपनी तरफ झुके तभी फायदा है, इसी सिद्धांत को उन्होंने अपनाना सीखा था. और पलड़ा अपनी ओर झुकाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति ही कारगर सिद्ध  होती थी, होती आई है. इसीलिए पूरे जीवन को उन्होंने धंधे की तराजू पर तोला था.

‘‘मुझे, नहीं खाना कुछ भी,’’ कह कर पंडित खेलावन ने थाली परे सरका दी.

‘‘हमारी तो तकदीर ही फूटी थी जो यह दिन देखना पड़ रहा है,’’ पत्नी ने पीड़ा पर मरहम लगाते हुए कहा, ‘‘मैं कहती थी न कि अपने दुश्मनों से होशियार रहो. कहने को भाई हैं तुम्हारे मांजाए. पर हैं नासपीटे…यह सबकुछ उन्हीं का कियाधरा है, नहीं तो…’’ कहतेकहते पंडिताइन सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘देख लूंगा…एकएक को देख लूंगा…किसी को नहीं छोड़ं ूगा. मुझे बरबाद करने पर तुले हैं…उन को भी आबाद नहीं रहने दूंगा. क्या मैं उन की रगरग को नहीं जानता हूं कि उन की औलादें क्याक्या गुल खिलाती फिरती हैं? मेरे मुंह खोलने की देर भर है, सब लपेटे में आ जाएंगे.’’

पंडितजी जोरजोर से चिल्ला रहे थे. वह जानते थे कि दीवार के उस पार जरूर भाइयों के कान लगे होंगे, भाभियों को चटखारे लेने का आज अच्छा मौका जो मिला था.

आयकर जांच अधिकारी ने लंच से लौटते ही एकएक चीज का मूल्यांकन करना शुरू किया. पत्नी के काननाक को भी उन्होंने नहीं छोड़ा.

‘‘हर चीज सामने होनी चाहिए…सोना, चांदी, हीरा, मोती, नकदी, बैंकबैलेंस, जमीनजायदाद, फैक्टरी, दुकान, घर, मकान, कोठी, बंगला, खेत खलिहान… सबकुछ नामे या बेनामे.’’

ज्योंज्यों लिस्ट बढ़ती जा रही थी त्योंत्यों पंडित खेलावन का दिल बैठता जा रहा था.

कोई जगह, कोई  कोना, कोई तहखाना नहीं छोड़ा था रेड पार्टी ने. हर कमरे की तलाशी, गद्दोंतकियों को छू- दबा कर देखा तो देखा, दीवारों के प्लास्टर को भी ठोकबजा कर देखने से नहीं चूके.

पंडितजी कुछ कहने को होते तो शर्मा साहब उन्हें बीच में ही रोक देते, ‘‘हम, अच्छी तरह जानते हैं, कहां क्या हो सकता है. टैक्स बचाने के चक्कर में आप लोगों का बस चले तो क्या कुछ नहीं कर सकते?’’

आखिरी कमरा बचा था अम्मां वाला. शर्माजी ने कहा, ‘‘इसे भी देखना होगा.’’

‘‘इस में क्या रखा है…बूढ़ी मां का कमरा है. जाओजाओ, अब उसे भी देख लो…कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए पंडितजी की इज्जत का फलूदा बनाने में…’’ झल्लाहट में पंडित खेलावन बड़बड़ा रहे थे.

समाज में इज्जत बनाने के लिए और बाजार में अपनी साख कायम रखने के लिए पंडित खेलावन ने क्याक्या नहीं किया था. थोड़ीबहुत राजनीति में भी दखल रखने का इरादा था. इसीलिए उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हुए अपने एक चित्र को परचे पर छपवाया और इस खूबसूरत परचे को शहर के कोनेकोने में चस्पां करवा डाला था. गली, महल्ला, टैक्सी, जीप, बस और रेल के डब्बों में भी उन की पहचान कायम थी.

सबकुछ धो डाला है आज के मनहूस दिन ने. हो न हो, कहीं यह सामने वाली पार्टी की करतूत तो नहीं? हो भी सकता है क्योंकि अभी वह पार्टी पावर में है. उन का मानना था कि अगले चुनाव में केंद्र वाली पार्टी ही राज्य में भी आएगी, इसलिए उस से ही जुड़ना ठीक होगा. पर इस बार के अनुमान में वह गच्चा खा गए.

अम्मां 80 को पार कर रही थीं. इस आयु में तो हर कोई सठिया जाता है. बातबात पर बच्चों जैसी जिद…अब वह क्या जानें कि ये आयकर क्या होता है वह तो जिद पर अड़ी हैं कि अपने कमरे में किसी को नहीं आने देंगी.

आंख से भले ही पूरा दिखाई न देता हो पर किसी बच्चे के पैरों की आहट भी सुनाई दे जाती है तो कोहराम मचा देती हैं…रोने लगती हैं. उन्हें अकेले पड़े रहना ही सुहाता है. अब अम्मां को कौन समझाए कि ये रेड पार्टी वाले जो ठान लेते हैं कर के ही दम लेते हैं, उन्हें तो यह कमरा भी चेक कराना ही होगा.

शर्माजी समय की नजाकत को जानते थे और जांचपड़ताल के दौरान किस के साथ कैसा व्यवहार कर के जड़ तक पहुंचना है, खूब जानते थे. उन्होंने सभी को रोक कर अकेले अम्मां के कमरे में प्रवेश किया.

‘‘अम्मां, पांव लागूं. कैसी हो अम्मां जी. बहुत दिनों से सुनता था कि बड़ेबूढ़ों का आशीर्वाद जीवन में पगपग पर कामयाबी देता है, क्या ऐसा वरदान आप मुझे नहीं देंगी?’’

‘‘बेटा, सब करनी का फल है… आशीषों से क्या होता है? पर तुम हो कौन? सुबह से इस घर में कोहराम मचा हुआ है. क्यों परेशान कर रखा है मेरे बच्चों को?’’ अम्मां के शब्दों में तल्खी भी थी और आर्तनाद भी, जैसे वह सबकुछ जानतीसमझती हों.

शर्माजी ने अम्मां को जैसे समझाने का प्रयास किया, ‘‘हम लोग सरकारी आदमी हैं, अम्मां. हमारा काम है गलत तरीकों से कमाए गए रुपएपैसों की पड़ताल करना…खरी कमाई पर खरा टैक्स लेना सरकार का कायदा है. अब देखिए न अम्मांजी, मैं ठहरा सरकारी मुलाजिम. मुझे आदेश मिला है कि पंडित खेलावन पर टैक्स चोरी का मुआमला है, उस की छानबीन करो…सो आदेश तो बजाना ही होगा न…अब बताइए अम्मां, इस में मेरा क्या दोष है? जो खरा है तो खरा ही रहेगा…पंडितजी ने कोई गुनाह किया नहीं है तो उन्हें सजा कैसे मिल सकती है पर खानापूर्ति तो करनी ही होगी न…’’

‘‘सो तो है, बेटा…तुम आदमी भले लगते हो. मुझ से क्या चाहते हो? सारे घर का हिसाब तो तुम ले ही चुके हो…लो, मेरा कमरा भी देख लो. यही चाहते हो न…पूरी कर लो अपनी ड्यूटी,’’ शर्माजी की बातों से अम्मां प्रभावित हुई थीं.

पुराने कमरे में क्या लुकाधरा है लेकिन शर्माजी की पैनी नजर ने संदेह तो खड़ा कर ही दिया था.

‘‘इस संदूक में क्या है? अम्मां, जरा खोल कर दिखाओ तो,’’ शर्माजी ने कहा तो अम्मां जैसे फिर बिफर पड़ीं, ‘‘नहीं… नहीं, इसे नहीं खोलने दूंगी. तुम इसे नहीं देख सकते…’’

‘‘लेकिन ऐसा भी क्या है, अम्मां, संदूक को जरा देख तो लेने दो,’’ शर्माजी बोले, ‘‘आप ने ही तो कहा है कि मुझे मेरी ड्यूटी पूरी करने देंगी. सो समझिए कि मेरी ड्यूटी में हर बंद चीज को खोल कर देखना शामिल है.’’

अम्मां ने अब और जिद नहीं की. खटिया से उठीं, दरवाजा भीतर से बंद किया.

संदूक का नाम सुनते ही पंडिताइन के मन में खटका हुआ था कि हो न हो, बुढि़या ने सब से छिपा कर जरूर कुछ बचा रखा है. इसीलिए वह अपने संदूक के पास किसी को फटकने तक नहीं देती थीं. जरूर कुछ ऐसा है जिसे शर्माजी ताड़ गए हैं, नहीं तो…

इधर पंडितजी भी शंकालु हो उठे तो पंडिताइन से कहने लगे, ‘‘अम्मां रहती हैं मेरे यहां और मन लगा रखा है दूसरे बेटों के साथ. भले ही वे उन्हें न पूछते हों. कहीं ऐसा तो नहीं है कि बड़के भैया के लिए कुछ रख छोड़ा हो. चलो, जो भी होगा, आज सामने आ ही जाएगा.’’

बंद कमरे में पसरे अंधकार में पिछली खिड़की से जो थोड़ी रोशनी की लकीर  आ रही थी उसी रोशनी में संदूक रखा था. ताला खोल कर ज्यों अम्मां ने संदूक का ढक्कन उठाया तो शर्माजी अवाक् रह गए.

‘‘रोटियां, ये क्या अम्मां… रोटियां और संदूक में?’’

‘‘हां, बेटे, यही जीवन का सत्य है… रोटियां. इन्हीं के लिए इनसान दुनिया में जीता है, जीवन भर भागता फिरता है, रातदिन एक करता है, बुरे से बुरा काम करता है. किस के लिए ? रोटी के लिए ही तो. खानी उसे सिर्फ दो रोटी ही हैं. फिर भी न जाने क्यों…’’ कहतेकहते अम्मां का गला भर उठा था.

‘‘लेकिन मांजी, ये तो सूखी रोटियां हैं. आप ने इन्हें संदूक में सहेज कर क्यों रख छोड़ा है?’’ शर्माजी इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे थे, भले ही उन्होंने बड़ी से बड़ी गुत्थियों को सुलझा दिया हो.

‘‘सप्ताह में एक दिन ऐसा भी आता है बेटे, जब कोई भी घर में नहीं रहता. इतवार को सभी बाहर खाना खाते हैं. उस दिन घर में रोटी नहीं बनती. उसी दिन के लिए मैं इन्हें बचाए रखती हूं. दो रोटियों को पानी में भिगो देती हूं और फिर किसी न किसी तरह से उन्हें चबा कर पेट भर ही लेती हूं…लो बेटे, तुम ने तो देख ही लिया है… अब इस कटुसत्य को पूरे घर के सामने भी जाहिर हो जाने दो…न जाने मेरे बच्चे क्या सोचेंगे.’’ आंसू पोंछते हुए अम्मां ने बंद दरवाजा खोल दिया.

वजूद से परिचय: भैरवी के बदले रूप से क्यों हैरान था ऋषभ?

‘‘मम्मी… मम्मी, भूमि ने मेरी गुडि़या तोड़ दी,’’ मुझे नींद आ गई थी. भैरवी की आवाज से मेरी नींद टूटी तो मैं दौड़ती हुई बच्चों के कमरे में पहुंची. भैरवी जोरजोर से रो रही थी. टूटी हुई गुडि़या एक तरफ पड़ी थी.

मैं भैरवी को गोद में उठा कर चुप कराने लगी तो मुझे देखते ही भूमि चीखने लगी, ‘‘हां, यह बहुत अच्छी है, खूब प्यार कीजिए इस से. मैं ही खराब हूं… मैं ही लड़ाई करती हूं… मैं अब इस के सारे खिलौने तोड़ दूंगी.’’

भूमि और भैरवी मेरी जुड़वां बेटियां हैं. यह इन की रोज की कहानी है. वैसे दोनों में प्यार भी बहुत है. दोनों एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं.

मेरे पति ऋषभ आदर्श बेटे हैं. उन की मां ही उन की सब कुछ हैं. पति और पिता तो वे बाद में हैं. वैसे ऋषभ मुझे और बेटियों को बहुत प्यार करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन की मां प्रसन्न रहें. यदि उन के चेहरे पर एक पल को भी उदासी छा जाए तो ऋषभ क्रोधित हो उठते, तब मेरी और मेरी बेटियों की आफत हो जाती.

शादी के कुछ दिन बाद की बात है. मांजी कहीं गई हुई थीं. ऋषभ औफिस गए थे. घर में मैं अकेली थी. मांजी और ऋषभ को सरप्राइज देने के लिए मैं ने कई तरह का खाना बनाया.

परंतु यह क्या. मांजी ऋषभ के साथ घर पहुंच कर सीधे रसोई में जा घुसीं और फिर

जोर से चिल्लाईं, ‘‘ये सब बनाने को किस ने कहा था?’’

मैं खुशीखुशी बोली, ‘‘मैं ने अपने मन से बनाया है.’’

वे बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा बंद कर लिया. ऋषभ भी चुपचाप ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट गए. मेरी खुशी काफूर हो चुकी थी.

ऋषभ क्रोधित स्वर में बोले, ‘‘तुम ने अपने मन से खाना क्यों बनाया?’’

मैं गुस्से में बोली, ‘‘क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? क्या मैं अपनी इच्छा से खाना भी नहीं बना सकती?’’

मेरी बात सुन कर ऋषभ जोर से चिल्लाए, ‘‘नहीं, यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मां की इच्छानुसार चलना होगा. यहां तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी. तुम्हें मां से माफी मांगनी होगी.’’

मैं रो पड़ी. मैं गुस्से से उबल रही थी कि सब छोड़छाड़ अपनी मां के पास चली जाऊं. लेकिन मम्मीपापा का उदास चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं मां के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, माफ कर दीजिए. आगे से कुछ भी अपने मन से नहीं करूंगी.’’

मैं ने मांजी के साथ समझौता कर लिया था. सभी कार्यों में उन का ही निर्णय सर्वोपरि रहता. मुझे कभीकभी बहुत गुस्सा आता मगर घर में शांति बनी रहे, इसलिए खून का घूंट पी जाती.

सब सुचारु रूप से चल रहा था कि अचानक हम सब के जीवन में एक तूफान आ गया. एक दिन मैं औफिस में चक्कर खा कर गिर गई और फिर बेहोश हो गई. डाक्टर को बुलाया गया, तो उन्होंने चैकअप कर बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

सभी मुझे बधाई देने लगे, मगर ऋषभ और मैं दोनों परेशान हो गए कि अब क्या किया जाए.

तभी मांजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं था उसी कमी को पूरा करने के लिए यह अवसर आया है.’’

मां खुशी से नहीं समा रही थीं. वे अपने पोते के स्वागत की तैयारी में जुट गई थीं.

अब मां मुझे नियमित चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जातीं.

चौथे महीने मुझे कुछ परेशानी हुई तो डाक्टर के मुंह से अल्ट्रासाउंड करते समय अचानक निकल गया कि बेटी तो पूरी तरह ठीक है औैर मां को भी कुछ नहीं है.

मांजी ने यह बात सुन ली. फिर क्या था. घर आते ही फरमान जारी कर दिया कि दफ्तर से छुट्टी ले लो और डाक्टर के पास जा कर गर्भपात कर लो. मांजी का पोता पाने का सपना जो टूट गया था.

मैं ने ऋषभ को समझाने का प्रयास किया, परंतु वे गर्भपात के लिए डाक्टर के पास जाने की जिद पकड़ ली. आखिर वे मुझे डाक्टर के पास ले ही गए.

डाक्टर बोलीं, ‘‘आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है. अब मैं गर्भपात की सलाह नहीं दे सकती.’’

अब मांजी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया. व्यंग्यबाणों से मेरा स्वागत होता. एक दिन बोलीं, ‘‘बेटियों की मां तो एक तरह से बांझ ही होती हैं, क्योंकि बेटे से वंश आगे चलता है.’’

अब घर में हर समय तनाव रहता. मैं भी बेवजह बेटियों को डांट देतीं. ऋषभ मांजी की हां में हां मिलाते. मुझ से ऐसा व्यवहार करते जैसे इस सब के लिए मैं दोषी हूं. वे बातबात पर चीखतेचिल्लाते, जिस से मैं परेशान रहती.

एक दिन मांजी किसी अशिक्षित दाई को ले कर आईं और फिर मुझ से बोलीं, ‘‘तुम औफिस से 2-3 की छुट्टी ले लो… यह बहुत ऐक्सपर्ट है. इस का रोज का यही काम है.

यह बहुत जल्दी तुम्हें इस बेटी से छुटकारा दिला देगी.’’

सुन कर मैं सन्न रह गई. अब मुझे अपने जीवन पर खतरा साफ दिख रहा था. मैं ऋषभ के आने का इंतजार करने लगीं. वे औफिस से आए तो मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

ऋषभ एक बार को थोड़े गंभीर तो हुए, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘‘मांजी नाराज हो जाएंगी, इसलिए उन का कहना तो मानना ही पड़ेगा.’’

मुझे कायर ऋषभ से घृणा होने लगी. अपने दब्बूपन पर भी गुस्सा आने लगा कि क्यों मैं मुखर हो कर अपने पक्ष को नहीं रखती. मैं क्रोध से थरथर कांप रही थी. बिस्तर पर लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ऋषभ बोले, ‘‘क्या बात है? बहुत परेशान दिख रही हो? सो जाओ… डरने की जरूरत नहीं है. सबेरे सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि ऋषभ इतने डरपोक क्यों हैं? मांजी का फैसला क्या मेरे जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? मेरा मन मुझे प्रताडि़त कर रहा था. मुझे अपने चारों ओर उस मासूम का करुण क्रंदन सुनाई पड़ रहा था. मेरा दिमाग फटा जा रहा था… मुझे हत्यारी होने का बोध हो रहा था. ‘बहुत हुआ, बस अब नहीं,’ सोच मैं विरोध करने के लिए मचल उठी. मैं चीत्कार कर उठी कि नहीं मेरी बच्ची, अब तुम्हें मुझ से कोई नहीं दूर कर सकता. तुम इस दुनिया में अवश्य आओगी…

मैं ने निडर हो कर निर्णय ले लिया था. यह मेरे वजूद की जीत थी. अपनी जीत पर मैं स्वत: इतरा उठी. मैं निश्चिंत हो गई और प्रसन्न हो कर गहरी नींद में सो गई.

सुबह ऋषभ ने आवाज दी, ‘‘उठो, मांजी आवाज दे रही हैं. कोई दाई आई है… तुम्हें बुला रही हैं.’’

मेरे रात के निर्णय ने मुझे निडर बना दिया था. अत: मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे सोने दीजिए… आज बहुत दिनों के बाद चैन की नींद आई है. मांजी से कह दीजिए कि मुझे किसी दाईवाई से नहीं मिलना.’’

मांजी तब तक खुद मेरे कमरे में आ चुकी थीं. वे और ऋषभ दोनों ही मेरे धृष्टता पर हैरान थे. मेरे स्वर की दृढ़ता देख कर दोनों की बोलती बंद हो गई थी. मैं आंखें बंद कर उन के अगले हमले का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या? दोनों खुसुरफुसुर करते हुए कमरे से बाहर जा चुके थे.

भैरवी और भूमि मुझे सोया देख कर मेरे पास आ गई थीं. मैं ने दोनों को अपने से लिपटा कर खूब प्यार किया. दोनों की मासूम हंसी मेरे दिल को छू रही थी. मैं खुश थी. मेरे मन से डर हवा हो चुका था. हम तीनों खुल कर हंस रहे थे.ऋषभ को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रात भर में इसे क्या हो गया. अब मेरे मन में न तो मांजी का खौफ था न ऋषभ का और न ही घर टूटने की परवाह थी. मैं हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार थी.

यह मेरे स्वत्व की विजय थी, जिस ने मुझे मेरे वजूद से मेरा परिचय कराया था.

नई चादर: विधवा शरबती की मुसीबत

बस, इतनी सी थी उस की खूबसूरती की जमापूंजी, मगर करमू जैसे मरियल से अधेड़ के सामने तो वह सचमुच अप्सरा ही दिखती थी. आगे चल कर सब ने शरबती की सीरत भी देखी और उस की सीरत सूरत से भी चार कदम आगे निकली. अपनी मेहनतमजदूरी से उस ने गृहस्थी ऐसी चमकाई कि इलाके के लोग अपनीअपनी बीवियों के सामने उस की मिसाल पेश करने लगे.

करमू की बिरादरी के कई नौजवान इस कोशिश में थे कि करमू जैसे लंगूर के पहलू से निकल कर शरबती उन के पहलू में आ जाए. दूसरी बिरादरियों में भी ऐसे दीवानों की कमी न थी. वे शरबती से शादी तो नहीं कर सकते थे, अलबत्ता उसे रखैल बनाने के लिए हजारों रुपए लुटाने को तैयार थे.

धीरेधीरे समय गुजरता रहा और शरबती एक बच्चे की मां बन गई. लेकिन उस की देह की बनावट और कसावट पर बच्चा जनने का रत्तीभर भी फर्क नहीं दिखा. गांव के मनचलों में अभी भी उसे हासिल करने की पहले जैसे ही चाहत थी. तभी जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूट पड़ा. करमू एक दिन काम की तलाश में शहर गया और सड़क पार करते हुए एक बस की चपेट में आ गया. बस के भारीभरकम पहियों ने उस की कमजोर काया को चपाती की तरह बेल कर रख दिया था.

करमू के क्रियाकर्म के दौरान गांव के सारे मनचलों में शरबती की हमदर्दी हासिल करने की होड़ लगी रही. वह चाहती तो पति की तेरहवीं को यादगार बना सकती थी. गांव के सभी साहूकारों ने शरबती की जवानी की जमानत पर थैलियों के मुंह खोल रखे थे, मगर उस ने वफादारी कायम रखना ही पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समझते हुए सबकुछ बहुत किफायत से निबटा दिया.

शरबती की पहाड़ सी विधवा जिंदगी को देखते हुए गांव के बुजुर्गों ने किसी का हाथ थाम लेने की सलाह दी, मगर उस ने किसी की भी बात पर कान न देते हुए कहा, ‘‘मेरा मर्द चला गया तो क्या, वह बेटे का सहारा तो दे ही गया है. बेटे को पालनेपोसने के बहाने ही जिंदगी कट जाएगी.’’

वक्त का परिंदा फिर अपनी रफ्तार से उड़ चला. शरबती का बेटा गबरू अब गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने लगा था और शरबती मनचलों से खुद को बचाते हुए उस के बेहतर भविष्य के लिए मेहनतमजदूरी करने में जुटी थी. उन्हीं दिनों उस इलाके में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी कैंप लगा. टारगेट पूरा न हो सकने के चलते जिला प्रशासन ने आपरेशन कराने वाले को एक एकड़ खेतीबारी लायक जमीन देने की पेशकश की.

एक एकड़ जमीन मिलने की बात शरबती के कानों में भी पड़ी. उसे गबरू का भविष्य संवारने का यह अच्छा मौका दिखा. ज्यादा पूछताछ करती तो किस से करती. जिस से भी जरा सा बोल देती वही गले पड़ने लगता. जो बोलते देखता वह बदनाम करने की धमकी देता, इसलिए निश्चित दिन वह कैंप में ही जा पहुंची. शरबती का भोलापन देख कर कैंप के अफसर हंसे.

कैंप इंचार्ज ने कहा, ‘‘एक विधवा से देश की आबादी बढ़ने का खतरा कैसे हो सकता है…’’

कैंप इंचार्ज का टका सा जवाब सुन कर गबरू के भविष्य को ले कर देखे गए शरबती के सारे सपने बिखर गए. बाहर जाने के लिए उस के पैर नहीं उठे तो वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई.

तभी एक अधेड़ कैंप इंचार्ज के पास आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लोग मेरा आपरेशन नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहते हैं कि मैं अपात्र हूं.’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा? किस गांव में रहते हो?’’

‘‘सर, मेरा नाम केदार है. मैं टमका खेड़ा गांव में रहता हूं.’’

‘‘कैंप इंचार्ज ने टैलीफोन पर एक नंबर मिलाया और उस अधेड़ के बारे में पूछताछ करने लगा, फिर उस ने केदार से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि तुम्हारी बीवी पिछले महीने मर चुकी है?’’

‘‘हां, सर.’’

‘‘फिर तुम्हें आपरेशन की क्या जरूरत है. बेवकूफ समझते हो हम को. चलो भागो.’’

केदार सिर झुका कर वहां से चल पड़ा. शरबती भी उस के पीछेपीछे बाहर निकल आई. उस के करीब जा कर शरबती ने धीरे से पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘एक लड़का है. सोचा था, एक एकड़ खेत मिल गया तो उस की जिंदगी ठीकठाक गुजर जाएगी.’’

‘‘मेरा भी एक लड़का है. मुझे भी मना कर दिया गया… ऐसा करो, तुम एक नई चादर ले आओ.’’

केदार ने एक नजर उसे देखा, फिर वहीं ठहरने को कह कर वह कसबे के बाजार चला गया और वहां से एक नई चादर, थोड़ा सा सिंदूर, हरी चूडि़यां व बिछिया वगैरह ले आया.

थोड़ी देर बाद वे दोनों कैंप इंचार्ज के पास खड़े थे. केदार ने कहा, ‘‘हम लोग भी आपरेशन कराना चाहते हैं साहब.’’

अफसर ने दोनों पर एक गहरी नजर डालते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है कि अभी कुछ घंटे पहले मैं ने तुम्हें कुछ समझाया था.’’

‘‘साहब, अब केदार ने मुझ पर नई चादर डाल दी है,’’ शरबती ने शरमाते हुए कहा.

‘‘नई चादर…?’’ कैंप इंचार्ज ने न समझने वाले अंदाज में पास में ही बैठी एक जनप्रतिनिधि दीपा की ओर देखा.

‘‘इस इलाके में किसी विधवा या छोड़ी गई औरत के साथ शादी करने के लिए उस पर नई चादर डाली जाती है. कहींकहीं इसे धरौना करना या घर बिठाना भी कहा जाता है,’’ उस जनप्रतिनिधि दीपा ने बताया.

‘‘ओह…’’ कैंप इंचार्ज ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और कहा, ‘‘इस आदमी को ले जाओ. अब यह अपात्र नहीं है. इस की नसबंदी करवा दें… हां, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘शरबती.’’

‘‘तुम कल फिर यहां आना. कल दूरबीन विधि से तुम्हारा आपरेशन हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन साहब, मुझे भी एक एकड़ जमीन मिलेगी न?’’

‘‘हां… हां, जरूर मिलेगी. हम तुम्हारे लिए तीसरी चादर ओढ़ने की गुंजाइश कतई नहीं छोड़ेंगे.’’

शरबती नमस्ते कह कर खुश होते हुए कैंप से बाहर निकल गई तो उस जनप्रतिनिधि ने कहा, ‘‘साहब, आप ने एक मामूली औरत के लिए कायदा ही बदल दिया.’’

‘‘दीपाजी, यह सवाल तो कायदेकानून का नहीं, आबादी रोकने का है. ऐसी औरतें नई चादरें ओढ़ओढ़ कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देंगी. मैं आज ही ऐसी औरतों को तलाशने का काम शुरू कराता हूं,’’ उन्होंने फौरन मातहतों को फोन पर निर्देश देने शुरू कर दिए. दूसरे दिन शरबती कैंप में पहुंची तो वहां मौजूद कई दूसरी औरतों के साथ उस का भी दूरबीन विधि से नसबंदी आपरेशन हो गया.

कैंप की एंबुलैंस पर सवार होते समय उसे केदार मिला और बोला, ‘‘शरबती, मेरे घर चलो. तुम्हें कुछ दिन देखभाल की जरूरत होगी.’’

‘‘मेरी देखभाल के लिए गबरू है न.’’

‘‘मेरा भी तो फर्ज बनता है. अब तो हम लिखित में मियांबीवी हैं.’’

‘‘लिखी हुई बातें तो दफ्तरों में पड़ी रहती हैं.’’

‘‘तुम्हारा अगर यही रवैया रहा तो तुम एक बीघा जमीन भी नहीं पाओगी.’’

‘‘नुकसान तुम्हारा भी बराबर होगा.’’

‘‘मैं तुम्हें ऐसे ही छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘छोड़ने की बात तो पकड़ लेने के बाद की जाती है.’’

शरबती का जवाब सुन कर केदार दांत पीस कर रह गया. कुछ साल बाद गबरू प्राइमरी जमात पास कर के कसबे में पढ़ने जाने लगा. एक दिन उस के साथ उस का सहपाठी परमू उस के घर आया.

परमू के मैलेकुचैले कपड़े और उलझे रूखे बाल देख कर शरबती ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां क्या करती रहती है परमू?’’

‘‘मेरी मां नहीं है,’’ परमू ने मायूसी से बताया.

‘‘तभी तो मैं कहूं… खैर, अब तो तुम खुद बड़े हो चुके हो… नहाना, कपड़े धोना कर सकते हो.’’

परमू टुकुरटुकुर शरबती की ओर देखता रहा. जवाब गबरू ने दिया, ‘‘मां, घर का सारा काम परमू को ही करना होता है. इस के बापू शराब भी पीते हैं.’’

‘‘अच्छा शराब भी पीते हैं. क्या नाम है तुम्हारे बापू का?’’

‘‘केदार.’’

‘‘कहां रहते हो तुम?’’

‘‘टमका खेड़ा.’’

शरबती के कलेजे पर घूंसा सा लगा. उस ने गबरू के साथ परमू को भी नहलाया, कपड़े धोए, प्यार से खाना खिलाया और घर जाते समय 2 लोगों का खाना बांधते हुए कहा, ‘‘परमू बेटा, आतेजाते रहा करो गबरू के साथ.’’

‘‘हां मां, मैं भी यही कहता हूं. मेरे पास बापू नहीं हैं, तो मैं जाता हूं कि नहीं इस के घर.’’

‘‘अच्छा, इस के बापू तुम्हें अच्छे लगते हैं?’’

‘‘जब शराब नहीं पीते तब… मुझे प्यार भी खूब करते हैं.’’

‘‘अगली बार उन से मेरा नाम ले कर शराब छोड़ने को कहना.’’ इसी के साथ ही परमू और गबरू के हाथों दोनों घरों के बीच पुल तैयार होने लगा. पहले खानेपीने की चीजें आईंगईं, फिर कपड़े और रोजमर्रा की दूसरी चीजें भी आनेजाने लगीं. फिर एक दिन केदार खुद शरबती के घर जा पहुंचा.

‘‘तुम… तुम यहां कैसे?’’ शरबती उसे अपने घर आया देख हक्कीबक्की रह गई.

‘‘मैं तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं ने तुम्हारा संदेश मिलने से अब तक शराब छुई भी नहीं है.’’

‘‘तो इस से तो परमू का भविष्य संवरेगा.’’

‘‘मैं अपना भविष्य संवारने आया हूं… मैं ने तुम्हें भुलाने के लिए ही शराब पीनी शुरू की थी. तुम्हें पाने के लिए ही शराब छोड़ी है शरबती,’’ कह कर केदार ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे… अरे, क्या करते हो. बेटा गबरू आ जाएगा.’’

‘‘वह शाम से पहले नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारा जवाब ले कर ही जाऊंगा शरबती.’’

‘‘बच्चे बड़े हो चुके हैं… समझाना मुश्किल हो जाएगा उन्हें.’’

‘‘बच्चे समझदार भी हैं. मैं उन्हें पूरी बात बता चुका हूं.’’

‘‘तुम बहुत चालाक हो. कमजोर रग पकड़ते हो.’’

‘‘मैं ने पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं,’’ केदार ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा. शरबती की आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं. उस दिन के बाद केदार अकसर परमू को लेने के बहाने शरबती के घर आ जाता. गबरू की जिद पर वह परमू के घर भी आनेजाने लगी. जब दोनों रात में भी एकदूसरे के घर में रुकने लगे तो दोनों गांवों के लोग जान गए कि केदार ने शरबती पर नई चादर डाल दी है.

परमू, गबरू और केदार बहुत खुश थे. खुश तो शरबती भी कम नहीं थी, मगर उसे कभीकभी बहुत अचंभा होता था कि वह अपने पहले पति को भूल कर केदार की पकड़ में आ कैसे गई?

एक दिन अपने लिए : आभा किसे पहचान नहीं पाई

‘कल संडे है. सोनू की भी छुट्टी है. अलार्म बंद कर के सोती हूं,’ सोचते हुए आभा मोबाइल की तरफ बढ़ी, मगर फिर एक बार व्हाट्सऐप चैक कर लें सोच उस ने हरे से सम्मोहक आइकोन पर क्लिक कर दिया. स्क्रोल करतेकरते एक अनजान नंबर से आए मैसेज पर अंगूठा रुक गया.

‘‘कैसी हो आभा?’’ पढ़ कर एकबार को तो आभा समझ नहीं पाई कि किस का मैसेज है, फिर डीपी पर टैब किया. तसवीर कुछ जानीपहचानी सी लगी.

‘‘अरे, यह तो अनुराग है,’’ आभा के दिमाग को पहचानने में ज्यादा मशकक्त नहीं करनी पड़ी.

‘‘फाइन,’’ लिख कर आभा ने 2 अंगूठे वाली इमोजी के साथ रिप्लाई सैंड कर दी.

‘‘क्या हुआ? किस का मैसेज था?’’ मां ने अचानक आ कर पूछा तो आभा को लगा मानो चोरी पकड़ी गई हो.

‘‘यों ही…कोई अननोन नंबर था,’’ कह कर आभा ने बात टाल दी.

‘‘अच्छा सुनो सोनू को सुबह 4 बजे जगा देना. उसे अपने फाइनल ऐग्जाम के प्रोजैक्ट पर काम करना है. और हां 1 कप चाय भी बना देना ताकि उस की नींद खुल जाए…’’ मां ने उसे आदेश सा दिया और फिर सोने चली गईं.

अलार्म बंद करने को बढ़ता आभा का हाथ रुक गया. उस ने मोबाइल को चार्जिंग में लगा दिया ताकि कहीं बैटरी लो होने के कारण वह स्विच औफ न हो जाए वरना नींद खुलेगी और फिर 4 बजे नहीं जगाया तो सोनू नाराज हो कर पूरा दिन मुंह फुलाए घूमता रहेगा. मां नाराज होंगी सो अलग. यह और बात है कि इस चक्कर में उसे रातभर नींद नहीं आई. वैसे नींद न आने का एक कारण अनुराग का मैसेज भी था.

आभा रातभर अनुराग के बारे में ही सोचती रही. अनुराग उस के कालेज का दोस्त था. एकदम पक्के वाला… शायद कुछ और समय दोनों ने साथ बिताया होता तो यह दोस्ती प्यार में बदल सकती थी, मगर कालेज के बाद अनुराग सरकारी नौकरी की तैयारी करने के लिए कोचिंग लेने दिल्ली चला गया. न इकरार का मौका मिला और न ही इजहार का… एक कसक थी जो मन में दबी की दबी ही रह गई.

इसी बीच आभा के पिता की एक ऐक्सीडैंट में मृत्यु हो गई और अपनी मां के साथसाथ छोटे भाई सोनू की जिम्मेदारी भी उस पर आ गई. पिता के जाने के बाद मां अकसर बीमार रहने लगी थीं. सोनू उन दिनों छठी कक्षा की परीक्षा देने वाला था.

आभा का अपने पिता की जगह उन के विभाग में नौकरी मिल गई. वह जिंदगी की गुत्थी सुलझाने के फेर में उलझती चली गई. 10 साल बाद आज अचानक अनुराग के मैसेज ने उस के दिल में खलबली सी मचा दी थी.

‘कल दिन में बात करूंगी,’ सोचते हुए आखिर उसे नींद आ ही गई.

घरबाहर संभालती आभा हर सुबह 5 बजे बिस्तर छोड़ देती और फिर यह उसे रात 11 बजे ही नसीब होता. औफिस जाने से पहले नाश्ते से ले कर लंच तक का काम उसे निबटाना होता.

9 बजे तक वह भी औफिस के लिए निकल लेती, क्योंकि 10 बजे बायोमैट्रिक प्रणाली से अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी होती है. उस के बाद कब शाम के 6 बज जाते हैं, पता ही नहीं चलता. घर लौटने पर 1 कप गरम चाय का प्याला जरूर उसे मां के हाथ का मिलता जिसे पी कर वह फिर से रिचार्ज हो कर अपने मोर्चे पर तैनात होने यानी रसोई में जाने के लिए कमर कस लेती.

जैसेतैसे रात के 11 बजे तक कंप्यूटर की तरह खुद को शटडाउन दे कर चार्जिंग में लगा देती है ताकि अगले दिन के लिए बैटरी पूरी तरह चार्ज रहे. यही है उस की दिनचर्या… कभीकभार मेहमानों के आ जाने या मां की बीमारी बढ़ जाने आदि पर यह और भी ज्यादा हैक्टिक हो जाती है. फिर तो बस शरीर मानो रोबोट ही बन जाता है. अंतिम बार खुद के लिए कब कुछ लमहे निकाले थे, याद ही नहीं पड़ता…

बस, इसी तरह मशीन सी चलती जिंदगी में अचानक अनुराग के मैसेज ने जैसे लूब्रिकैंट का काम किया.

सुबह के लगभग 11 बजे जब आभा औफिस के रूटीन काम से थोड़ा फ्री हुई तो उसे अनुराग का खयाल आया. मोबाइल में उस के रात वाले मैसेज को ढूंढ़ कर फोन नंबर एक कागज पर लिखा और डायल कर दिया. जैसे ही फोन के दूसरी तरफ घंटी बजी, उस के दिल की धड़कनें भी तेज हो गईं.

‘‘कैसी हो आभा?’’ स्नेह से भरी आवाज सुन कर आभा खिल उठी.

‘‘थोड़ी व्यस्त… थोड़ी मस्त…’’ अपना कालेज के जमाने वाला डायलौग मार कर वह खिलखिला पड़ी. अनुराग ने भी उस की हंसी में भरपूर साथ दिया. दोनों काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. आभा के पिता की मृत्यु की खबर सुन कर अनुराग उस के प्रति सहानुभूति से भर उठा. आभा ने भी उस के परिवार के बारे में जानकारी ली और फिर आगे भी संपर्क में रहने का वादा करने के साथ फोन रख दिया.

अनुराग से बात करने के बाद आभा को लगा कि जिस तरह मशीनों में तकनीकी खामियां आती हैं और उन्हें मरम्मत की जरूरत पड़ती है ठीक उसी तरह उस के मन को भी मैकेनिक की जरूरत थी. तभी तो आज पुराने दोस्त से बात कर के उस का मन भी कितना हलका हो गया. ठीक वैसे ही जैसे ओवरहालिंग के बाद मशीनें स्मूद हो जाती हैं

लगभग रोज आभा और अनुराग की फोन पर बात होने लगी. वक्त और संपर्क की खाद और पानी मिलने से यह रिश्ता भी पुष्पितपल्लवित होने लगा. कभीकभी आभा के मन में अनुराग को पाने की ख्वाहिश बलवती होने लगती, मगर उस की पत्नी का खयाल कर के वह अपने मन को समझा लेती थी.

‘‘सुनो, औफिशियल काम से तुम्हारे शहर में आया हूं… होटल राजहंस… शाम को मिल सकती हो?’’ अनुराग के अचानक आए इस प्रस्ताव से आभा चौंक गई.

‘‘हां, मगर… किसी ने देख लिया तो… बिना मतलब बवाल हो जाएगा… किसकिस को सफाई दूंगी… तुम तो जानते हो, यह शहर बहुत बड़ा नहीं है…’’ आभा ने कह तो दिया मगर उस के दिल और दिमाग में जंग जारी थी. मन ही मन वह भी अनुराग का साथ चाहती थी.

‘‘क्या तुम रह पाओगी बिना मिले जबकि तुम्हें पता है कि मैं तुम से कुछ ही मिनट्स की दूरी पर हूं,’’ अनुराग ने प्यार से कहा.

‘‘अच्छा ठीक है… मैं शाम को 5 बजे आती हूं?’’ आखिर आभा का दिल उस के दिमाग से जंग जीत ही गया.

इतने बरसों बाद प्रिय को सामने देख कर आभा भावुक हो गई और अनुराग की बांहों में समा गई. अनुराग ने भी उसे अपने घेरे में कस लिया और फिर उस के माथे पर एक चुंबन अंकित कर दिया.

दोनों लगभग घंटेभर तक साथ रहे. कौफी पी और बहुत सी बातें कीं. अनुराग की ट्रेन शाम 7 बजे की थी, इसलिए आभा ने उस से फिर मिलने का वादा करते हुए विदा ली.

इसी तरह 6 महीने बीत गए. फोन पर बात और वीडियो चैट करतेकरते दोनों काफी नजदीक आ गए थे. कभीकभी दोनों बहुत ही अंतरंग बातें भी कर लेते थे, जिन्हें सुन कर आभा के शरीर में झनझनाहट सी होने लगती थी.

एक रोज जब अनुराग की पत्नी अपने मायके गई हुई थी तब वह आभा के साथ देर रात वीडियो पर चैट कर रहा था.

‘‘अनुराग, अपनी शर्ट उतार दो,’’ अचानक आभा ने कहा.

अनुराग ने एक पल सोचा और फिर शर्ट उतार दी. उस के बाद पाजामा भी.

‘‘अब तुम्हारी बारी है…’’ अनुराग ने कहा तो आभा का चेहरा शर्म से लाल हो गया. उस ने तुरंत चैट बंद कर दी मगर अब आभा का युवा मन अनुराग की कामना और भी तीव्रता से करने लगा. सोनू और मां की जिम्मेदारियों के कारण वह अपनी शादी के बारे में सोच नहीं पा रही थी. मगर उस की अपनी भी कुछ कामनाएं थीं जो रहरह कर सिर उठाती थीं.

‘काश, उसे सिर्फ एक दिन भी अनुराग के साथ बिताने को मिल जाए. इस एक दिन में वह अपनी पूरी जिंदगी जी लेगी. अनुराग का प्रेम अपने मनमस्तिष्क में समेट लेगी,’ आभा कल्पना करने लगी. वह ऐसी संभावनाएं तलाशने लगी कि उसे यह मौका हासिल हो सके. वह नहीं जानती थी कि कल क्या होगा, मगर एक रात वह अपनी मरजी से जीना चाहती थी.

उस ने एक दिन डरतेडरते अपनी यह कल्पना अनुराग के साथ साझा की तो वह भी राजी हो गया. तय हुआ कि दोनों दूर के किसी तीसरे शहर में मिलेंगे.

अनुराग के लिए तो यह ज्यादा मुश्किल नहीं था, लेकिन आभा का बिना कारण बाहर जाना संभव नहीं था. मगर तकदीर भी शायद आभा पर मेहरबान होना चाह रही थी. अत: उसे एक दिन उस के लिए देना चाह रही थी ताकि वह अपनी कल्पनाओं में रंग भर सके.

आभा के औफिस में वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ. आभा ने शतरंज में भाग लिया. अधिक महिला प्रतिभागी न होने के कारण उस का चयन राज्य स्तर पर विभागीय प्रतिभागी के रूप में हो गया. इस प्रतियोगिता का फाइनल राउंड जयपुर में होना था, जिस में भाग लेने के लिए आभा को 2 दिनों के लिए जयपुर जाना था.

आभा ने टूरनामैंट की डेट फिक्स होते ही अनुराग को बता दिया. हालांकि आभा सहित सभी प्रतिभागियों के ठहरने की व्यवस्था विभाग के गैस्ट हाउस में की गई थी, मगर आभा ने अपनी सहेली के घर रुकने की खास परमिशन अपने लीडर से ले ली.

आभा अपने साथियों के साथ बस से सुबह 6 बजे जयपुर पहुंच गई. अनुराग की ट्रेन 10 बजे आने वाली थी. आभा ठीक 10 बजे रेलवे स्टेशन पहुंच गई. फिर अनुराग के साथ एक होटल में पतिपत्नी के रूप में चैकइन किया. थोड़ी देर बातें करने के बाद आभा ने उस से विदा ली, क्योंकि दोपहर बाद उस का मैच था. हालांकि दोनों ही अब दूरी बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे, मगर जिस बहाने ने उन्हें मिलाया था उसे निभाना भी तो जरूरी था वरना पूरी टीम को उस पर शक हो जाता.

आभा ने बेमन से अपना मैच खेला और पहले ही राउंड में बाहर हो गई. उस ने टीम लीडर से तबीयत खराब होने का बहाना बनाया और 2 ही घंटों में वापस होटल आ गई. अनुराग ने उसे देखते ही बांहों में भर लिया और उस के चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. आभा ने उसे कंट्रोल किया. वह इन लमहों को चाय की चुसकियों की तरह घूंटघूंट पी कर जीना चाहती थी. आभा की जिद पर दोनों मौल में घूमने चले गए. रात 9 बजे डिनर करने के बाद जब वे रूम में आए तो अनुराग ने उस की एक न सुनी और सीधे बिस्तर पर खींच लिया और उस पर बरस पड़ा. आभा प्यार की इस पहली बरसात में पूरी तरह भीग गई.

उस के बाद रातभर दोनों जागते रहे और रिमझिम फुहारों का आनंद लेते रहे. सुबह दोनों ने एकसाथ शावर लिया और नहातेनहाते एक बार फिर प्यार के दरिया में तैरने लगे. आभा पूरी तरह तृप्त हो चुकी थी. आज उसे लगा मानो उस की हर इच्छा पूरी हो गई. अब उसे अधिक की चाह नहीं थी.

इसी बीच आभा के टीम लीडर का फोन आ गया. उन्हें 10 बजे रवाना होना था. आभा ने अनुराग के होंठों को एक बार भरपूर चूसा और दोनों होटल से बाहर आ गए. अनुराग ने उस के लिए कैब बुला ली थी.

‘‘कैसा रहा तुम्हारा यह अनुभव?’’ अनुराग ने शरारत से पूछा.

‘‘मैं ने आज जाना है कि कभीकभी फूलों को तोड़ कर खुशबू हवा में बिखेर देनी चाहिए… कभीकभी किनारों को तोड़ कर बहने में कोई बुराई… खुद के लिए चाहने में कुछ भी अपराध नहीं…बेशक समाज इसे नैतिकता के तराजू में तोलता है, मगर मैं ने अपने मन की सुनी और मुझे उसी का पलड़ा भारी लगा,’’ आभा ने अनुराग का हाथ थाम कर दार्शनिक की तरह कहा.

अनुराग उस की बात को कितना समझा, कितना नहीं यह मालूम नहीं, मगर आभा आज एक दिन अपने लिए जी कर बेहद खुश थी. अब वह एकबार फिर से तैयार थी. बाकी सब के लिए जीने की खातिर.

अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

मम्मीपापा अचानक ही देहरादून छोड़ कर दिल्ली आ बसे. यहां का स्कूल और सहेलियां कशिश को बहुत पसंद आईं. देहरादून पिछली कक्षा की किताबों की तरह पीछे छूट गया. बस, मधुलिका आंटी की याद गाहेबगाहे आ जाती थी.

‘‘देहरादून से सभी लोग आप से मिलने आते हैं. बस, मधुलिका आंटी नहीं आतीं,’’ कशिश ने एक रोज हसरत से कहा.

‘‘मधुलिका आंटी डाक्टर हैं और देवेन अंकल वकील. दोनों ही अपनी प्रैक्टिस छोड़़ कर कैसे आ सकते हैं?’’ मां ने बताया.

मां और भी कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उस से पहले ही पापा ने कशिश को पानी पिलाने को कहा. वह पानी ले कर आई तो सुना कि पापा कह रहे थे, ‘कशिश की यह बात तुम मधु को कभी मत बताना.’

कशिश को समझ में नहीं आया कि इस में न बताने वाली क्या बात थी.

जल्दी ही उम्र का वह दौर शुरू हो गया जिस में किसी को खुद की ही खबर नहीं रहती तो मधु आंटी को कौन याद करता.

मम्मीपापा न जाने कैसे उस के मन की बात समझ लेते थे और उस के कुछ कहने से पहले ही उस की मनपसंद चीज उसे मिल जाती थी. उस की सहेलियां उस की तकदीर से रश्क किया करतीं. कशिश का मेडिकल कालिज में अंतिम वर्ष था. मम्मीपापा दोनों चाहते थे कि वह अच्छे नंबरों से पास हो. वह भी जीजान से पढ़ाई में जुटी हुई थी कि दादी के मरने की खबर मिली. दादादादी अपने सब से छोटे बेटे सुहास और बहू दीपा के साथ चंडीगढ़ में रहते थे. पापा के अन्य भाईबहन भी वहां पहुंच चुके थे. घर में काफी भीड़ थी. दादी के अंतिम संस्कार के बाद दादाजी ने कहा, ‘‘शांति बेटी, तुम्हारी मां के जो जेवर हैं, मैं चाहता हूं कि वह तुम सब आपस में बांट लो. तू सब से बड़ी है इसलिए सब के जाने से पहले तू बराबर का बंटवारा कर दे.’’

रात को जब कशिश दादाजी के लिए दूध ले कर गई तो दरवाजे के बाहर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई. दादाजी शांति बूआ से पूछ रहे थे, ‘‘तुझे कशिश से चिढ़ क्यों है. वह तो बहुत सलीके वाली और प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मैं कशिश में कोई कमी नहीं निकाल रही पिताजी. मैं तो बस, यही कह रही हूं कि मां के गहने हमारी पुश्तैनी धरोहर हैं जो सिर्फ  मां के अपने बच्चों को मिलने चाहिए, किसी दूसरे की औलाद को नहीं. मां के जो भी जेवर अभी विभा भाभी को मिलेंगे वह देरसवेर देंगी तो कशिश को ही, यह नहीं होना चाहिए.’’ शांति बूआ समझाने के स्वर में बोलीं.

कशिश इस के आगे कुछ नहीं सुन सकी. ‘दूसरे की औलाद’ शब्द हथौड़े की तरह उस के दिलोदिमाग पर प्रहार कर रहा था. उस ने चुपचाप लौट कर दूध का गिलास नौकर के हाथ दादाजी को भिजवा दिया और सोचने लगी कि वह किसी दूसरे यानी किस की औलाद है.

दूसरी जगह और इतने लोगों के बीच मम्मीपापा से कुछ पूछना तो मुनासिब नहीं था. तभी दीपा चाची उसे ढूंढ़ती हुई आईं और बरामदे में पड़ी कुरसी पर निढाल सी लेटी कशिश को देख कर बोलीं, ‘‘थक गई न. जा, सो जा अब.’’

तभी कशिश के दिमाग में बिजली सी कौंधी. क्यों न दीपा चाची से पूछा जाए. दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क न होने के कारण उस की दीपा चाची से बहुत बनती थी और पिछले 3-4 रोज से एकसाथ काम करते हुए दोनों में दोस्ती सी हो गई थी.

‘‘आप से कुछ पूछना है चाची, बताएंगी ?’’ उस ने निवेदन करने के अंदाज में कहा.

‘‘जरूर,’’ दीपा ने प्यार से उस का सिर सहलाया.

‘‘मैं कौन हूं?’’

कशिश के इस प्रश्न से दीपा चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी भतीजी, कशिश.’’

‘‘मगर मैं आप की असली भतीजी तो नहीं हूं न, क्योंकि मैं डा. विकास और डा. विभा की नहीं किसी दूसरे की औलाद…’’

‘‘यह तू क्या कह रही है?’’ दीपा ने बात काटी.

‘‘जो भी कह रही हूं  चाची, सही कह रही हूं’’ और कशिश ने शांति बूआ और दादाजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

दीपा झल्ला कर बोली, ‘‘तुम्हारी शांति बूआ को भी बगैर बवाल मचाए खाना नहीं पचता…’’

‘‘उन्होंने कोई बवाल नहीं मचाया, चाची, सिर्फ सचाई बताई है पर अगर आप मुझे यह नहीं बताएंगी कि मैं किस की औलाद हूं तो बवाल मच सकता है.’’

‘‘मैं जो बताऊंगी उस पर तू यकीन करेगी?’’

अगर यकीन नहीं करना होता तो आप से पूछती ही क्यों? असलियत जानने के बाद मैं मम्मीपापा से कुछ नहीं पूछूंगी और कम से कम यहां तो कतई नहीं.

‘‘कभी भी और कहीं भी नहीं पूछना बेटे, वरना वे बहुत दुखी होंगे कि शायद उन की परवरिश में ही कोई कमी रह गई. तुम डा. मधुलिका और देंवेंद्र नाथ वर्मा की बेटी हो. विभा भाभी और मधुलिका बचपन की सहेलियां हैं. यह स्पष्ट होने पर कि बचपन में हुई किसी दुर्घटना के चलते विभा भाभी कभी मां नहीं बन सकतीं, मधुलिका ने उन की गोद में तुम्हें डाल दिया था. विभा भाभी और विकास भाई साहब ने तुम्हें शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो.’’

कशिश ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मम्मीपापा से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मधु आंटी ने मुझे क्यों और कैसे दे दिया?’’

‘‘दोस्ती की खातिर.’’

‘‘दोस्ती ममता से ज्यादा…’’

तभी अंदर से बहुत उत्तेजित स्वर सुनाई देने लगे. सब से ऊंचा स्वर विकास का था.

‘‘मेरे लिए मेरे जीवन की सब से अमूल्य निधि मेरी बेटी है, जिस के लिए मैं देहरादून से सरकारी नौकरी छोड़ कर चला आया. उस के लिए क्या चंद गहने नहीं छोड़ सकता? मैं कल सवेरे यानी आप के बंटवारे से पहले ही यहां से चला जाऊंगा’’

‘‘लेकिन मां की उठावनी?’’ शांति बूआ ने पूछा.

‘‘उस के लिए आप सब हैं न. मां की अंत समय में सेवा कर ली, मेरे लिए यही बहुत है,’’ विकास ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘जो लोग मेरी बेटी को पराया समझते हों उन के साथ रहना मुझे गवारा नहीं है.’’

दीपा ने कशिश की ओर देखा और उस ने चुपचाप सिर झुका लिया.

‘‘यह अब नहीं रुकेगा. रोक कर शांति तुम बात मत बढ़ाओ,’’ दादाजी का स्वर उभरा. उसी समय विकास कशिश को पुकारता हुआ वहां आया और उसे इस तरह बांहों में भर कर अपने कमरे में ले गया जैसे कोई कशिश को उस से छीन न ले, ‘‘कल हम दिल्ली लौट रहे हैं कशिश, सो अब तुम सो जाओ. सुबह जल्दी उठना होगा,’’ विकास ने कहा.

‘‘जी, पापा,’’ कशिश ने कहा और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. विकास ने बत्ती बुझा दी.

‘‘विकास,’’ कुछ देर के बाद विभा का स्वर उभरा, ‘‘मुझे लगता है इस तरह लौट कर तुम सब की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हो.’’

‘‘शांति बहनजी ने जिस बेदर्दी से मेरी भावनाओं को कुचला है न उस के मुकाबले में मेरी ठेस तो बहुत मामूली है,’’ विकास ने तल्खी से कहा, ‘‘जो भी मेरी बेटी को नकारेगा उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा… चाहे वह कोई भी हो… यहां तक कि तुम भी.’’

अगली सुबह उन्हें विदा करने को केवल दादाजी, सुहास और दीपा ही थे और सब शायद अप्रिय स्थिति से बचने के लिए नींद का बहाना कर के उठे ही नहीं.

घर आ कर विभा और विकास अपने काम में व्यस्त हो गए और कशिश पढ़ाईर् में. हालांकि कशिश को लग रहा था कि चंडीगढ़ से लौटने के बाद पापा उसे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गए हैं लेकिन वह अपने असली मातापिता से मिलने और यह जानने को बेचैन थी कि उन्होंने उसे अपनी गोद से उठा कर दूसरे की गोद में क्यों डाल दिया? उस ने मम्मी की डायरी में से मधुलिका मौसी का फोन नंबर और पता तो नोट कर लिया था मगर वह खत या फोन के जरिए नहीं, स्वयं मिल कर यह बात पूछना चाहती थी.

परीक्षा सिर पर थी और पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था. कशिश यही सोचती रहती थी कि क्या बहाना बना कर देहरादून जाए. समीरा उस की खास सहेली थी. उस से कशिश की बेचैनी छिप नहीं सकी. उस के पूछने पर कशिश को बताना ही पड़ा.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि देहरादून किस बहाने से जाऊं.’’

‘‘तू भी अजब भुलक्कड़ है. कई बार तो बता चुकी हूं कि सालाना परीक्षा खत्म होते ही मेरे बड़े भाई की शादी है और बरात देहरादून जाएगी. मैं तुझे बरात में ले चलती हूं. वहां जा कर तू जहां कहेगी तुझे पहुंचवाने का इंतजाम करवा दूंगी. सो अब सारी चिंता छोड़ कर पढ़ाई कर.’’

समीरा की बात से कशिश को कुछ राहत मिली. और फिर शाम को समीरा उस के मम्मीपापा से मिल कर बरात में चलने की स्वीकृति लेने उस के घर आ गई.

‘‘बरात में जाने के बारे में सोचने के बजाय फिलहाल तो तुम दोनों पढ़ाई में ध्यान लगाओ,’’ पापा ने समीरा की बात सुन कर बड़े प्यार से दोनों का सिर सहलाया.

‘‘अंतिम साल की परीक्षा है. इस के नतीजे पर तुम्हारा पूरा भविष्य निर्भर करता है. कशिश को तो मैं कार्डियोलोजी में महारत हासिल करने के लिए अमेरिका भेज रहा हूं. तुम्हारा क्या इरादा है, समीरा?’’

‘‘अगर मैं भी कार्डियोलोजिस्ट बन गई अंकल, तो मुझ में और कशिश में दोस्ती के  बजाय स्पर्धा हो जाएगी और हमारी दोस्ती खत्म हो ऐसा रिस्क मुझे नहीं लेना है. सो कुछ और सोचना पडे़गा मगर सोचने को फिलहाल आप ने मना कर दिया है,’’ समीरा हंसी.

समीरा को विदा कर के कशिश जब अंदर आई तो उस ने अपने पापा को यह कहते सुना, ‘‘मैं नहीं चाहता विभा कि कशिश देहरादून जाए और मधुदेवेन से मिले. इसलिए समीरा के भाई की शादी से पहले ही कशिश को ले कर कहीं और घूमने चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे विकास? इस बार आई.एम.ए. का वार्षिक अधिवेशन तुम्हारी अध्यक्षता में होगा और वह उन्हीं दिनों में है.’’

कशिश लपक कर कमरे में आई और कहने लगी, ‘‘मेरी एक बात मानेंगी, मम्मा? आप प्लीज, मधु मौसी को मेरे देहरादून आने के बारे में कुछ मत बताना क्योंकि मैं शादी की रौनक छोड़ कर उन से मिलने नहीं जाने वाली.’’

पापा के चेहरे पर यह सुन कर राहत के भाव उभरे थे.

‘‘ठीक कहती हो. अपनी सहेलियों को छोड़ कर मां की सहेली के साथ बोर होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक यू, पापा,’’ कह कर कशिश बाहर आ कर दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

पापा, मम्मी से कह रहे थे कि अच्छा है, कशिश उन दिनों शादी में जा रही है क्योंकि हम दोनों तो अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त हो जाएंगे और यह घर पर बोर होती रहने से बच जाएगी. इस तरह समस्या हल होते ही कशिश जीजान से पढ़ाई में जुट गई.

देहरादून स्टेशन पर बरात का स्वागत करने वालों में कई महिलाएं भी थीं. लड़की के पिता सब का एकदूसरे से परिचय करवा रहे थे. एक अत्यंत चुस्तदुरुस्त, सौम्य महिला का परिचय करवाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह डा. मधुलिका हैं. कहने को तो हमारी फैमिली डाक्टर और पड़ोसिन हैं लेकिन हमारे परिवार की ही एक सदस्य हैं. हमारे से ज्यादा शादी की धूमधाम इन की कोठी में है क्योंकि सभी मेहमान वहीं ठहरे हुए हैं.’’

कशिश को यकीन नहीं हो रहा था कि उस का काम इतनी आसानी से हो जाएगा. उस ने आगे बढ़ कर मधुलिका को अपना परिचय दिया. मधुलिका ने उसे खुशी से गले से लगाया और पूछा कि विभा क्यों नहीं आई?

‘‘आंटी, मम्मीपापा आजकल एक अधिवेशन में भाग ले रहे हैं. मैं भी इस बरात में महज आप से मिलने आई हूं,’’ कशिश ने बिना किसी हिचक के कहा, ‘‘मुझे आप से अकेले में बात करनी है.’’

मधुलिका चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘अभी तो एकांत मिलना मुश्किल है. रात को बरात की खातिरदारी से समय निकाल कर तुम्हें अपने घर ले चलूंगी.’’

‘‘उस में तो बहुत देर है, उस से पहले ही घर ले चलिए न,’’ कशिश ने मनुहार की.

‘‘अच्छा, दोपहर को क्लिनिक से लौटते हुए ले जाऊंगी.’’

दोपहर को मधुलिका ने खुद आने के बजाय उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी. वह अपने क्लिनिक में उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘तुम अकेले में मुझ से बात करना चाहती हो, जो फिलहाल घर पर मुमकिन नहीं  है. बताओ क्या बात है?’’ मधुलिका मुसकराई.

‘‘मैं यह जानना चाहती हूं कि आप ने मुझे क्यों नकारा, क्यों मुझे दूसरों को पालने के लिए दे दिया? मां, मुझे मालूम हो चुका है कि मैं आप की बेटी हूं,’’ और कशिश ने चंडीगढ़ वाला किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘विभा और विकास ने तुम्हें क्या वजह बताई?’’ मधुलिका ने पूछा.

‘‘उन्हें मैं ने बताया ही नहीं कि मुझे सचाई पता चल गई है. वह दोनों मुझे इतना ज्यादा प्यार करते हैं कि  मैं कभी सपने में भी उन से कोई अप्रिय बात पूछ कर उन्हें दुखी नहीं कंरूगी.’’

‘‘यानी कि तुम्हें विभा और विकास से कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘कतई नहीं. लेकिन आप से है. आप ने क्यों मुझे अपने से अलग किया?’’

‘‘कमाल है, बजाय मेरा शुक्रिया अदा करने के कि तुम्हें इतने अच्छे मम्मीपापा दिए, तुम शिकायत कर रही हो?’’

‘‘सवाल अच्छेबुरे का नहीं बल्कि उन्हें दिया क्यों, यह है?’’

‘‘मान गए भई, पली चाहे कहीं भी हो, रहीं वकील की बेटी,’’ मधुलिका ने बात हंसी में टालनी चाही.

‘‘मगर वकील की बेटी को डाक्टर की बेटी कहलवाने की क्या मजबूरी थी?’’

‘‘मजबूरी कुछ नहीं थी बस, दोस्ती थी. विभा मां नहीं बन सकती थी और अनाथालय से किसी अनजान बच्चे को अपनाने में दोनों हिचक रहे थे. बेटे और बेटी के जन्म के बाद मेरा परिवार तो पूरा हो चुका था. सो जब तुम होने वाली थीं तो हम लोगों ने फैसला किया कि चाहे लड़का हो या लड़की यह बच्चा हम विभा और विकास को दे देंगे. ऐसा कर के मैं नहीं सोचती कि मैं ने तुम्हारे साथ कोई अन्याय किया है.’’

‘‘अन्याय तो खैर किया ही है. पहले तो सब ठीक था मगर असलियत जानने के बाद मुझे अपने असली मातापिता का प्यार चाहिए…’’

तभी कुछ खटका हुआ और एक प्रौढ़ पुरुष ने कमरे में प्रवेश किया. मधुलिका चौंक ०पड़ी.

‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘कोर्ट से लौट रहा था तो बाहर तुम्हारी गाड़ी देख कर देखने चला आया कि खैरियत तो है.’’

‘‘ऋचा की बरात में कशिश भी आई है. मुझ से अकेले में बात करना चाह रही थी, सो यहां बुलवा लिया,’’ मधुलिका ने कहा और कशिश की ओर मुड़ी,‘‘यह तुम्हारे देवेन अंकल हैं.’’

‘‘अंकल क्यों, पापा कहिए न?’’ कशिश नमस्ते कर के देवेन की ओर बढ़ी लेकिन देवेन उस की अवहेलना कर के मधुलिका के जांच कक्ष में

जाते हुए कड़े स्वर में बोले, ‘‘इधर आओ, मधु.’’

मधुलिका सहमे स्वर में कशिश को रुकने को कह कर परदे के पीछे चली गई.

‘‘यह सब क्या है, मधु? मैं ने तुम्हें कितना समझाया था कि अपने बेटेबेटी का प्यार और हक बांटने के लिए मुझे तीसरी औलाद नहीं चाहिए, तुम गर्भपात करवाओ. मगर तुम नहीं मानीं और इसे अपनी सहेली के लिए पैदा किया. खैर, उन के दिल्ली जाने के बाद मैं ने चैन की सांस ली थी मगर यह फिर टपक पड़ी मुझे पापा कहने, हमारे सुखी परिवार में सेंध लगाने के लिए. साफ कहे दे रहा हूं मधु, मेरे लिए यह अनचाही औलाद है. न मैं स्वयं इस का अस्तित्व स्वीकार करूंगा न अपने बच्चों…’’

कशिश आगे और नहीं सुन सकी. उस ने फौरन बाहर आ कर एक रिकशा रोका. अब उसे दिल्ली जाने का इंतजार था, जहां उस के मम्मीपापा व्यस्तता के बावजूद उस के बगैर बेहाल होंगे. प्यार जन्म से नहीं होता है. प्यार तो प्यार करने वालों से होता है और जो प्यार उसे अपने दिल्ली वाले मातापिता से मिला, उस का तो कोई मुकाबला ही नहीं.

 

पेड़ : कैसी लड़की थी सुलभा

चीनू की नन्हीनन्ही हथेलियां दूर होती चली गईं और धीरेधीरे एकदम से ओझल हो गईं.

पूरे 30 दिन से उन का घर गुलजार था. बच्चों के होहल्ले से भरा था. साल भर में उन के घर में 2 ही तो खुशी के मौके आते थे. एक गरमी की लंबी छुट्टियों में और दूसरा, दशहरे की छुट्टियों के समय.

उन दिनों नीरेंद्र की उजाड़ जिंदगी में हुलस कर बहार आ जाती थी. उस का जी करता था कि इस आए वक्त को रोक कर अपने घर में कैद कर ले. खूब नाचेगाए और जश्न मनाए, पर ऐसा हो कहां सकता था.

छोटी बहन के साथ 2 बच्चे, छोटे भाई के 2 बच्चे और बड़ी दीदी के दोनों बच्चे, पूरे 6 नटखट ऊधमी सदस्यों के आने से ऐसा लगता जैसे घर छोटा पड़ गया हो. बच्चे उस कमरे से इस कमरे में और इस कमरे से उस कमरे में भागे फिरते, चिल्लाते और चीजें बिखेरते रहते.

बच्चों के मुंह से ‘चाचीजी’, ‘मामीजी’ सुनसुन कर वे अघाते न थे. दिनरात उन की फरमाइशें पूरी करने में लगे रहते. किसी को कंचा चाहिए तो किसी को गुल्लीडंडा. किसी को गुडि़या तो किसी को लट्टू.

4 माह में जितना पैसा वे बैंक से निकाल कर अपने ऊपर खर्च करते थे, उस से भी ज्यादा बच्चों की फरमाइशें पूरी करने में उन दिनों खर्च कर देते. फिर भी लगता कि कुछ खर्च ही नहीं किया है. वे तो नईनई चीजें खरीदने के लिए बच्चों को खुद ही उकसाते रहते.

कभीकभी भाईबहनों को गुस्सा आने लगता तो वे उन्हें झिड़कते, ‘‘क्या करते हो भैया. सुबह से इन मामूली चीजों के पीछे लगभग 100 रुपए फूंक चुके हो. बच्चों की मांग का भी कहीं अंत है?’’

नीरेंद्र हंस देते, ‘‘अरे, रहने दो, यह इन्हीं का तो हिस्सा है. बस, साल में 10 दिन ही तो इन के चाव के होते हैं. देता हूं तो बदले में इन से प्यार भी तो पाता हूं.’’

सिर्फ 30 दिन का ही तो यह मेला होता है. बाद में बच्चों की बातें, उन की गालियां याद आतीं. उन की छोड़ी हुई कुछ चीजें, कुछ खिलौने संभाल कर वे उन निर्जीव वस्तुओं से बातें करते रहते और मन को बहलाते. उन की एक बड़ी अलमारी तो बच्चों के खिलौनों से भरी पड़ी थी.

इस तरह नीरेंद्र अपने अकेलेपन को काटते. हर बार उन का जी करता कि बच्चों को रोक लें, पर रोक नहीं पाते. न बच्चे रुकना चाहते हैं न माताएं उन्हें यहां रहने देना पसंद करती हैं. पहले तो उन के छोटे होने का बहाना था. बड़े हुए तो छात्रावास में डाल दिए गए. इसी से नीरेंद्र उन्हीं बच्चों में से एक को गोद लेना चाहते थे. मगर हर घर में 2 बच्चे देख खुद ही तालू से जबान लग जाती थी.

किसीकिसी साल तो ऐसा भी होता है कि 30 दिनों में भी कटौती हो जाती. कभीकभी बच्चे यहां आने के बजाय कश्मीर, मसूरी घूमने की ठान लेते. फिर तो ऐसा लगने लगता जैसे जीने का बहाना ही खत्म हो जाएगा. पिछले साल यही तो हुआ था. बच्चे रानीखेत घूमने की जिद कर बैठे थे और यहां आना टल गया था. किसी तरह छुट्टियों के 7-8 दिन बचा कर वे यहां आए थे तो उन का मन रो कर रह गया था.

कभीकभी नीरेंद्र को अपनेआप पर ही कोफ्त होने लगती कि क्यों वे अकेले रह गए? आखिर क्या कारण था इस का? पिता की असमय मृत्यु ने उन के घर को अनाथ कर दिया था. घर में वे सब से बड़े थे, इसलिए जिम्मेदारी निभाना उन्हीं का कर्तव्य था. घर में सभी को पढ़ाया- लिखाया. पूरी तरह से हिम्मत बांध कर उन के शादीब्याह किए तब कहीं जा कर अपने लिए विचार किया था.

नीरेंद्र सीधीसादी लड़की चाहते थे. मां ने उन के लिए सुलभा को पसंद किया था. सुलभा में कोई दोष न था. नीरेंद्र खुश थे कि उम्र उन के विवाह में बाधक नहीं बनी. इस से पहले जब वे भाईबहनों का घर बसा रहे थे तब सदा उन्हें एक ही ताना मिला था, ‘‘क्यों नीरेंद्र, ब्याह करोगे भी या नहीं? बूढ़े हो जाओगे, तब कोई लड़की भी न देगा. बाल पक रहे हैं, आंखों पर चश्मा चढ़ गया है और क्या कसर बाकी है?’’

सुन कर नीरेंद्र हंस देते थे, ‘‘चश्मा और पके बाल तो परिपक्वता और बुद्धिमत्ता की निशानी हैं. मेरी जिम्मेदारी को जो लड़की समझेगी वही मेरी पत्नी बनेगी.’’

सुलभा उन्हें ऐसी ही लड़की लगी थी. सगाई के बाद तो वे दिनरात सुलभा के सपने भी देखने लगे थे. उन्हें ऐसा लगता जैसे सुलभा उन की जिंदगी में एक बहार बन कर आएगी.

विवाह की तिथि को अभी काफी दिन थे. एक दिन इसी बीच वे सुलभा के साथ रात को फिल्म देख कर लौट रहे थे. अचानक कुछ बदमाशों ने सुलभा के साथ छेड़छाड़ की थी. नीरेंद्र को बुढ़ऊ कह कर ताना मार दिया था.

सुन कर नीरेंद्र को सहन न हुआ था और वे बदमाशों से उलझ पड़े थे, पर उन से वे कितना निबट सकते थे. अपनेआप से वे पहली बार हारे थे. गुस्सा आया था उन्हें अपनी कमजोरी पर. वे स्वयं को अत्यंत अपमानित महसूस कर रहे थे. हतप्रभ रह गए थे अपने लिए बुढ़ऊ शब्द सुन कर. उस शाम किसी तरह वे और सुलभा बच कर लौट तो आए थे मगर सुलभा ने दूसरे ही दिन सगाई की अंगूठी वापस भेज दी थी. शायद उसे भी यकीन हो गया था कि वे बूढ़े हो गए हैं.

‘अच्छा ही किया सुलभा ने.’ एक बार नीरेंद्र ने सोचा था. परंतु मन में अपनी हीनता और कमजोरी का एक दाग सा रह गया. विवाह से मन उचट गया, कोई इस विषय पर बात चलाए भी तो उस से उलझ बैठते. मां जब तक रहीं नीरेंद्र को शादी के लिए मनाती रहीं, समझाती रहीं.

मां की मृत्यु के बाद वह जिद और मनुहार भी खत्म हो गई. कुछ यह भी जिद थी कि अब इसी तरह जीना है. पहले भाईबहनों पर भरोसा था, पर वे अपनी- अपनी जिंदगी में लग गए तो उन्होंने उन्हें छेड़ना भी उचित न समझा.

हां, भाईबहनों के बच्चों ने अवश्य ही नीरेंद्र के अंदर एक बार गृहस्थी का लालच जगा दिया था. अंदर ही अंदर वे आकांक्षा से भर उठे कि उन्हें भी कोई पिता कहता. वे भी किसी के भविष्य को ले कर चिंता करते. वे भी कोई सपना पालते कि उन का बेटा बड़ा हो कर डाक्टर बनेगा या कोई उन का भी दुखसुख सुनता. सोतेजागते वे यही सोचा करते.

तब कभीकभी मन में मनाते कि कोई उन्हें क्यों नहीं कहता कि ब्याह कर लो. अकेले ही वे रसोईचूल्हे से उलझे हुए हैं कोई पसीजता क्यों नहीं, कोई अजूबा तो नहीं इस उम्र में ब्याह करना. बहुत से लोग कर रहे हैं.

नीरेंद्र अपनी जिंदगी की तुलना भाई की जिंदगी से करते. सोचते कि उन की और धीरेंद्र की सुबह में कितना अंतर है. वे 4 बजे का अलार्म लगा कर सोते. सोचते हुए देर रात गए उन्हें नींद आती. परंतु सुबह तड़के घड़ी की तेज घनघनाहट के साथ ही उन की नींद टूट जाती जबकि वे जागना नहीं चाहते. लेकिन जानते हैं कि सुबह के नाश्ते की तैयारी, कमरों की सफाई, कपड़ों की धुलाई आदि सब उन्हीं को ही करनी है.

मगर धीरेंद्र की सुबह भले ही झल्लाहट से शुरू हो लेकिन उत्सुकता से भरी जरूर होती है. 4 बजे का अलार्म बज जाए तो भी उसे कोई परवाह नहीं. नींद ही नहीं टूटती है. न जाने उसे कैसी गहरी नींद आती है.

घड़ी का कांटा जब 4 से 5 तक पहुंचता है तब उस की पत्नी चिल्लाती है, ‘‘उठो, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘हूं,’’ धीरेंद्र उसी खर्राटे के साथ कहेगा, ‘‘क्या 5 बज गए?’’

‘‘तैयार होतेहोते 10 बज जाएंगे. फिर मुझे न कहना कि देर हो गई.’’

शायद फिर बच्चों को इशारा किया जाता होगा. पप्पू धीरेंद्र के बिछौने पर टूट पड़ता, ‘‘उठिए पिताजी, वरना पानी डाल दूंगा.’’

फिर वह बच्चों के अगलबगल बैठ कर कहता, ‘‘अरे, नहीं बाबा, मां से कहो कि चाय ले आए.’’

स्नानघर में जा कर भी धीरेंद्र बीवी से उलझता रहता, ‘‘मेरे कुरते में 2 बटन नहीं हैं और जूते के फीते बदले या नहीं? जाने मोजों की धुलाई हुई है या नहीं?’’

पत्नी तमक कर कहती, ‘‘केवल तुम्हें ही तो नौकरी पर नहीं जाना है, मुझे भी दफ्तर के लिए निकलना है.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम्हारे ब्लाउज के बटन मुझे टांकने होंगे,’’ धीरेंद्र चुहल करता तो पत्नी उसे धप से उलटा हाथ लगाती.

इसे कोई कुछ भी कहे, पर नीरेंद्र का लोभी मन गृहस्थी के ऐसे छोटेमोटे सुखों की कान लगा कर आहट लेता रहता.

नीरेंद्र बेसन के खुशबूदार हलवे के बहुत शौकीन हैं. जी करता है नाश्ते में कोई सुबहसुबह हलवा परोस दे और वे जी भर कर खाएं. अम्मां थीं तो उन का यह पसंदीदा व्यंजन हफ्ते में 3-4 बार अवश्य मिला करता था. पर उन की मृत्यु के बाद सारे स्वाद समाप्त हो गए.

धीरेंद्र की पत्नी बेसन का हलवा देखते ही मुंह बनाती थी. खुद नीरेंद्र अम्मां की भांति कभी हलवा बना नहीं सके. अब तो बस हलवे की खुशबू मन में ही दबी रहती है.

धीरेंद्र को बेसन के पकौड़ों के एवज में कई बार बीवी के हाथ बिक जाना पड़ता है. बीवी का मन न हो तो कोई न कोई बात पक्की करवा कर ही वह पकौड़े बनाती है. नीरेंद्र भी अपने पसंद के हलवे पर नीलाम हो जाना चाहते हैं, पर वह नीलामी का चाव मन में ही दबा रह गया. अब तो रोज सुबह थोड़ा सा चिवड़ा फांक कर दफ्तर की ओर चल देते हैं.

दफ्तर में नए और पुराने सहयोगियों का रेला नीरेंद्र को देखदेख कर दबी मुसकराहट से अभिवादन करता. कम से कम इतनी तसल्ली तो जरूर रहती कि हर कोई उन से काम निकलवाने के कारण मीठीमीठी बातें तो जरूर करता है. उस के साहब, अपनीअपनी फाइल तैयार करवाने के चक्कर में उसे मसका लगाते रहते. किसी को पार्टी में जाना हो, पत्नी को ले कर बाजार जाना हो, बच्चे को अस्पताल पहुंचाना हो, तुरंत उन्हें पकड़ते. ‘‘नीरेंद्र, थोड़ा सा यह काम कर दो.’’

इतना ही नहीं दफ्तर के क्लर्क, चपरासी, माली, जमादार आदि अपने तरीके से इस अकेले व्यक्ति से नजराना वसूलते रहते. अगर देने में थोड़ी सी आनाकानी की तो वे लोग कह देते, ‘‘किस के लिए बचा रहे हो, बाबू साहब. आप की बीवी होती तो कहते, साड़ी की फरमाइश पूरी करनी है. बेटा होता तो कहते कि उस की पढ़ाई का खर्च है. अगर बेटी होती तो हम कभी धेला भी न मांगते…मगर कुंआरे व्यक्ति को भला कैसी चिंता?’’

पर धीरेंद्र को न तो दफ्तर में रुकने की जरूरत पड़ती और न ही अपने मातहतों के हाथ में चार पैसे धरने की नौबत आती. घर जल्दी लौटने के बहाने भी उसे नहीं बनाने पड़ते. खुद ही लोग समझ जाते हैं कि घर में देरी की तो जनाब की खैर नहीं.

पर नीरेंद्र किस के लिए जल्दी घर लौटें. बालकनी में टहलते ठीक नहीं लगता. अपनीअपनी छतों पर टहलते जोड़ों का आपस में हंसीमजाक सुनना अब उन से सहन नहीं होता. बारबार  लगता है जैसे हर बात उन्हें ही सुनाई जा रही है. खनकती, ठुनकती हंसी वे पचा नहीं पाते. घर के अंदर भाग कर आएं तो मच्छरों की भूखी फौज उन की दुबली देह पर टूट पड़ती है. तब एक ही उपाय नजर आता है कि मच्छरदानी गिरा कर अंदर घुस जाएं और घड़ी के भागते कांटों को देखते हुए समय निकालते रहें.

इसीलिए नीरेंद्र कभीकभी वैवाहिक विज्ञापनों में स्वयं ही अपने लिए उपयुक्त पात्र तलाशने लगते हैं. पर ऐसा कभी न हो सका. कई बार समझौतों के सहारे लगा कि बात बनेगी परंतु विवाह के लिए समझौता करना उन्हें उचित नहीं लगा. अकेलेपन के कारण झिझकते हुए उन्होंने छोटे भाई की लड़की नीलू को अपने पास रख लेने का प्रस्ताव किया तो वह बचने लगा था, ‘‘पता नहीं, बच्ची की मां राजी होगी या नहीं?’’

पर नीरेंद्र बजाय बच्ची की मां से पूछने के छोटी बहन के सामने ही गिड़गिड़ा उठे थे, ‘‘कामिनी, मैं चाहता हूं, क्यों न आशू यहीं मेरे साथ रहे. उस का जिम्मा मैं उठाऊंगा.’’

‘‘आशू?’’ बहन की आंखें झुक गईं, ‘‘बाप रे, इस की दादी तो मुझे काट कर रख देंगी.’’

जवाब सुन कर नीरेंद्र चकित रह गए थे, ‘अरे यह क्या? अपनी लगभग सारी कमाई इन के बच्चों पर उड़ाता हूं. कितने दुलार से यहां उन्हें रखता हूं. हर वर्ष राखी पर मुंहमांगी चीज बहन के हाथ में रखता हूं. इतना ही नहीं, किसी भी बच्चे को कुछ भी चाहिए तो साधिकार माएं चालाकी से उन की फरमाइश लिख भेजती हैं, लेकिन क्या कोई भी अपने एक बच्चे को मेरे पास नहीं छोड़ सकती. कल को वह बच्चा मेरी पूरी संपत्ति का वारिस होगा, लेकिन सब ने मेरी मांग ठुकरा दी.’

‘‘अच्छा, आशू से ही पूछती हूं,’’ बहन ने आशू को आवाज दी थी.

नीरेंद्र उस की बातों से बेजार छत ताकने लगे थे, लेकिन आशू को सिर्फ उन की चीजें ही अच्छी लगती थीं.

कुंआरे रह कर नीरेंद्र लोगों के लिए सिर्फ एक पेड़ बन कर रह गए थे, जिसे जिस का जी चाहे, नोचे, फलफूल, लकड़ी आदि प्रत्येक रूप में उस का उपयोग करे. अपने लिए भी वे एक पेड़ की भांति थे. जैसे बसंत के मौसम में पेड़ों के नए फूलपत्ते आते हैं उसी प्रकार वे भी किसी पेड़ की तरह हरेभरे हो जाते. क्या उन्हें वर्ष भर मुसकराने का हक नहीं है? स्वयं के नोचे जाने के विरोध का भी कोई अधिकार नहीं है?

कर्ण : खराब परवरिश के अंधेरे रास्ते

न्यू साउथ वेल्स, सिडनी के उस फोस्टर होम के विजिटिंग रूम में बैठी रम्या बेताबी से इंतजार कर रही थी उस पते का जहां उस की अपनी जिंदगी से मुलाकात होने वाली थी. खिड़की से वह बाहर का नजारा देख रही थी. कुछ छोटे बच्चे लौन में खेल रहे थे. थोड़े बड़े 2-3 बच्चे झूला झूल रहे थे. वह खिड़की के कांच पर हाथ फिराती हुई उन्हें छूने की असफल कोशिश करने लगी. मृगमरीचिका से बच्चे उस की पहुंच से दूर अपनेआप में मगन थे. कमरे के अंदर एक बड़ा सा पोस्टर लगा था, हंसतेखिलखिलाते, छोटेबड़े हर उम्र और रंग के बच्चों का. रम्या अब उस पोस्टर को ध्यान से देखने लगी, कहीं कोई इन में अपना मिल जाए.

‘ज्यों सागर तीर कोई प्यासा, भरी दुनिया में अकेला, खाने को छप्पन भोग पर रुचिकर कोई नहीं.’ रम्या की गति कुछ ऐसी ही हो रखी थी. तड़पतीतरसती जैसे जल बिन मछली. उस ने सोफे पर सिर टिका अपने भटकते मन को कुछ आराम देना चाहा, लेकिन मन थमने की जगह और तेजी से भागने लगा, भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर. स्याह अतीत के काले पन्ने फड़फड़ाने लगे, बिना अंधड़, बिना पलटे जाने कितने पृष्ठ पलट गए. जिस अतीत से वह भागती रही, आज वही अपने दानवी पंजे उस के मानस पर गड़ा और आंखें तरेर कर गुर्राने लगा.

बात तब की है जब रम्या 14-15 वर्ष की रही होगी. उस के डैडी को 2-3 वर्षों में ही इतने बड़ेबड़े ठेके मिल गए कि वे लोग रातोंरात करोड़पति बन गए. पैसा आ जाने से सभ्यता और संस्कार नहीं आ जाते. ऐसा ही हाल उन लोगों का भी था. पैसों की गरमी से उन में ऐंठन खूब थी. आएदिन घर में बड़ीबड़ी पार्टियां होती थीं. बड़ेबड़े अफसर और नेताओं को खुश करने के लिए घर में शराब की नदियां बहती थीं.

एक स्वामीजी हर पार्टी में मौजूद रहते थे. रम्या के डैडी और मौम उन के आने से बिछबिछ जाते. वे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों में बड़ी पैठ रखते थे. उन घरानों से काम या ठेके पाने के लिए स्वामीजी की अहम भूमिका होती थी.

पार्टी वाले दिन रम्या और उस की दीदी को नीचे आने की इजाजत नहीं होती थी. अपनी केयरटेकर सुफला के साथ दोनों बहनें छत वाले अपने कमरे में ही रहतीं और छिपछिप कर पार्टी का नजारा लेतीं. कुछ महीने से दीदी भी गायब रहने लगीं. वे रातरातभर घर नहीं आती थीं. जब सुबह लौटतीं तो उन की आंखें लाल और उनींदी रहतीं. फिर वे दिनभर सोती ही रहतीं. यों तो मौम और डैड भी रात की पार्टी के बाद देर से उठते, सो, उन्हें दीदी के बारे में पता ही नहीं था कि वे रातभर घर में नहीं होती हैं.

उस दिन सुबह से ही घर में चहलपहल थी. मौम किसी को फोन पर बता रही थीं कि एक बहुत बड़े ठेके के लिए उस के पापा प्रयासरत हैं. आज वे स्वामीजी भी आने वाले हैं, यदि स्वामीजी चाहें तो उक्त उद्योगपति यह ठेका उस के पापा को ही देंगे.

रम्या उस दिन बहुत परेशान थी, उस के स्कूल टैस्ट में नंबर बहुत कम आए थे और उस का मन कर रहा था कि वह मौम को बताए कि उसे एक ट्यूटर की जरूरत है. वह चुपके से सुफला की नजर बचा कर मौम के कमरे की तरफ चली गई.

अधखुले दरवाजे की ओट से उस ने जो देखा, उस के पांवतले जमीन खिसक गई. मौम और स्वामीजी की अंतरंगता को अपनी खुली आंखों से देख उसे वितृष्णा सी हो गई. वह भागती हुई छत वाले कमरे की तरफ जाने लगी. अब वह इतनी छोटी भी नहीं थी, जो उस ने देखा था वह बारबार उस की आंखों के सामने नाच रहा था. इसी सोच में वह दीदी से टकरा गई.

‘दीदी, मैं ने अभी जो देखा…मौम को छिछि…मैं बोल नहीं सकती,’ रम्या घबरातीअटकती हुई दीदी से बोलने लगी. दीदी ने मुसकराते हुए उसे देखा और कहा, ‘चल, आज तुझे भी एक पार्टी में ले चलती हूं.’

‘कैसी पार्टी, कौन सी पार्टी?’ रम्या ने पूछा.

‘रेव पार्टी,’ दीदी ने आंखें बड़ीबड़ी कर उस से कहा.

‘यह शहर से दूर बंद अंधेरे कमरों में तेज म्यूजिक के बीच होने वाली मस्ती है, चल कोई बढि़या सा हौट ड्रैस पहन ले,’ दीदी ने कहा तो रम्या सब भूल झट तैयार होने लगी.

‘बेबी आप लोग किधर जा रही हैं, साहब, मेमसाहब को पता चला तो मुझे ही डांटेंगे?’ सुफला ने बीच में कहा.

‘चल सुफला, आज की रात तू भी ऐश कर ले,’ दीदी ने उसे 100 रुपए का एक नोट पकड़ा दिया.

उस दिन रम्या पहली बार किसी ऐसी पार्टी में गई. दीदी व दूसरे लड़केलड़कियों को बेतकल्लुफ हो तेज संगीत और लेजर लाइट में नाचते, झूमते, पीते, खाते, सूंघते, सुई लगाते देखा. थोड़ी देर वह आंख फाड़े देखती रही. फिर धीरेधीरे शोर मध्यम लगने लगा, अंधेरा भाने लगा, तेजी से झूमना और जिसतिस की बांहों में गुम होते जाना सुकूनदायक हो गया.

दूसरे दिन जब आंख खुली तो देखा कि वह अपने बिस्तर पर है. घड़ी दोपहर का वक्त बता रही थी यानी आज सारा दिन गुजर गया. वह स्कूल नहीं जा पाई. रात की घटनाएं हलकीहलकी अभी भी जेहन में मौजूद थीं. उसे अब घिन्न सी आने लगी. रम्या को पढ़नेलिखने और कुछ अच्छा बनने का शौक था. बाथरूम में जा कर वह देर तक शौवर में खुद को धोती रही. उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था.

‘क्यों रामी डिअर, कल फुल एंजौयमैंट हुआ न, चल आज भी ले चलती हूं एक नए अड्डे पर,’ दीदी ने मुसकराते हुए पूछा तो रम्या ने साफ इनकार कर दिया. आने वाले दिनों में वह मौमडैड और बहन व आसपास के माहौल सब से कन्नी काट अपनी पढ़ाई व परीक्षा की तैयारी में लगी रही. एक सुफला ही थी जो उसे इस घर से जोड़े हुए थी. बाकी सब से बेहद सामान्य व्यवहार रहा उस का.

कुछ दिनों से उसे बेहद थकान महसूस हो रही थी. उसे लगातार हो रही उलटियां और जी मिचलाते रहना कुछ और ही इशारा कर रहा था.

सुफला की अनुभवी नजरों से वे छिप नहीं पाईं, ‘बेबीजी, यह आप ने क्या कर लिया?’

‘सुफला, क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूं, उस एक रात की भूल ने मुझे इस कगार पर ला दिया है. मुझे कोई ऐसी दवाई ला दो जिस से यह मुसीबत खत्म हो जाए और किसी को पता भी न चले. अगले कुछ महीनों में मेरी परीक्षाएं शुरू होंगी. मुझे आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय से अपनी आगे की पढ़ाई करनी है. मुझे घर के गंदे माहौल से दूर जाना है,’ कहतेकहते रम्या सुफला की गोद में सिर रख कर रोने लगी.

अब सुफला आएदिन कोई दवा, कोई जड़ीबूटी ला कर रम्या को खिलाने लगी. रम्या अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती गई और एक जीव उस के अंदर पनपता रहा. इस बीच घर में तेजी से घटनाक्रम घटे. उस की दीदी को एक रेव पार्टी से पुलिस पकड़ कर ले गई और फिर उसे नशामुक्ति केंद्र में पहुंचा दिया गया.

उस दिन मौम अपनी झीनी सी नाइटी पहन सुबह से बेचैन सी घर में घूम रही थीं कि उन की नजर रम्या के उभार पर पड़ी. तेजी से वे उस का हाथ खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं. ‘रम्या, यह क्या है? आर यू प्रैग्नैंट? बेबी तुम ने प्रिकौशन नहीं लिया था? तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’ मौम ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी.

रम्या खामोश ही रही तो मौम ने आगे कहा, ‘मेरी एक दोस्त है जो तुम्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिला देगी. हम आज ही चलते हैं. उफ, सारी मुसीबतें एकसाथ ही आती हैं,’ मौम बड़बड़ा रही थीं.

रम्या ने पास पड़े अखबार में उन स्वामीजी की तसवीर को देखा जिन्हें हथकड़ी लगा ले जाया जा रहा था. अगले कुछ दिन मौम रम्या को ले अपनी दोस्त के क्लिनिक में ही व्यस्त रहीं, लेकिन अबौर्शन का वक्त निकल चुका था और गलत दवाइयों के सेवन से अंदरूनी हिस्से को काफी नुकसान हो चुका था.

इस बीच न्यूज चैनल और अखबारों में स्वामीजी और उस की मौम के रिश्ते भी सुर्खियों में आने लगे. रम्या की तो पहले से ही आस्ट्रेलिया जाने की तैयारियां चल रही थीं. मौम उसे ले अचानक सिडनी चली गईं ताकि कुछ दिन वे मीडिया से बच सकें और रम्या की मुसीबत का हल विदेश में ही हो जाए बिना किसी को बताए.

लाख कोशिशों के बावजूद एक नन्हामुन्ना धरती पर आ ही गया. मौम ने उसे सिडनी के एक फोस्टर होम में रख दिया. रम्या फिर भारत नहीं लौटी. अनचाहे मातृत्व से छुटकारा मिलने के बाद वह वहीं अपनी आगे की पढ़ाई करने लगी. 5 वर्षों बाद उस ने वहीं की नागरिकता हासिल कर अपने साथ ही काम करने वाले यूरोपियन मूल के डेरिक से विवाह कर लिया. रम्या अब 28 वर्ष की हो चुकी थी. शादी के 5 वर्ष बीत गए थे. लेकिन उस के मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे.

सिडनी के बड़े अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे बताया कि पहले गर्भाधान के दौरान ही उस कीबच्चेदानी में अपूर्णीय क्षति हो गई थी और अब वह गर्भधारण करने लायक नहीं है. यह सुन कर रम्या के पैरोंतले जमीन खिसक गई. डेरिक तो सब जानता ही था, उस ने बिलखती रम्या को संभाला. ‘रम्या, किसी दूसरे के बच्चे को अडौप्ट करने से बेहतर है हम तुम्हारे बच्चे को ही अपना लें,’ डेरिक ने कहा. यह सुन कर रम्या एकबारगी सिहर उठी, अतीत फिर फन काढ़ खड़ा हो गया.

‘लेकिन, वह मेरी भूल है, अनचाहा और नफरत का फूल,’ रम्या ने कहा.

जब कोई वस्तु या व्यक्ति दुर्लभ हो जाता है तो उस को हासिल करने की चाह और ज्यादा हो जाती है. अब तक जिस से उदासीन रही और नफरत करती रही, धीरेधीरे अब उस के लिए छाती में दूध उतरने लगा. फिर एक दिन डेरिक के साथ उस फोस्टर होम की तरफ उस के कदम उठ ही गए.

…तभी संचालिका ने रम्या की तंद्रा को भंग किया, ‘‘यह रहा उस बच्चे को अडौप्ट करने वाली लेडी का पता. वे एक सिंगल मदर हैं और मार्टिन प्लेस में रहती हैं. मैं ने उन्हें सूचना दे दी है कि आप उन के बच्चे को जन्म देनेवाली मां हैं और मिलना चाहती हैं.’’ फोस्टर होम की संचालिका ने कार्ड थमाते हुए कहा.

जो भाव आज से 13-14 वर्र्ष पहले अनुभव नहीं हुआ था वह रम्या में उस कार्ड को पकड़ते ही जागृत हो उठा. उसे ऐसा लगा कि उस के बच्चे का पता नहीं, बल्कि वह पता ही खुद बच्चा हो. मातृत्व हिलोरे लेने लगा. डेरिक ने उसे संभाला और अगले कुछ घंटों में वे लोग, नियत समय पर मार्टिन प्लेस, मिस पोर्टर के घर पहुंच चुके थे. 50-55 वर्षीया, थोड़ा घसीटती हुई चलती मिस पोर्टर एक स्नेहिल और मिलनसार महिला लगीं. रम्या के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए उन्होंने लौन में लगी कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘क्या मैं अपने बेटे से मिल सकती हूं्? क्या मैं उसे अपने साथ ले जा सकती हूं?’’ रम्या ने छूटते ही पूछा पर आखिरी वाक्य बोलते हुए खुद ही उस की जबान लड़खड़ाने लगी. डेरिक और रम्या ने देखा, मिस पोर्टर की आंखें अचानक छलछला गईं.

‘‘आप उस की जन्म देनेवाली मां हैं, पहला हक आप का ही है. वह अभी स्कूल से आता ही होगा. वह देखिए, आप का बेटा,’’ गेट की तरफ इशारा करते हुए मिस पोर्टर ने कहा.

रम्या अचानक चौंक गई, उसे ऐसा लगा कि उस ने आईना देख लिया. हूबहू उस की ही तरह चेहरा, वही छोटी सी नुकीली नाक, हिरन सी चंचल बड़ी सी आंखें, पतले होंठ, घुंघराले काले बाल और बिलकुल उस की ही रंगत.

‘‘आओ बैठो, मैं ने तुम्हे बताया था न कि तुम्हारी मां आने वाली हैं. ये तुम्हारी मां रम्या हैं,’’ मिस पोर्टर ने प्यार से कहा. 14 वर्षीय उस बच्चे ने गरदन टेढ़ी कर रम्या को ऊपर से नीचे तक देखा और मिस पोर्टर की बगल में बैठ गया, ‘‘मौम, तुम्हारे पैरों का दर्द अब कैसा है, क्या तुम ने दवा खाई?’’

रम्या लालसाभरी नजरों से देख रही थी, जिस के लिए जीवनभर हिकारत और नफरत भाव संजोए रही, आज उसे सामने देख ममता का सागर हिलोरे मारने लगा.

‘‘बेटा, मेरे पास आओ. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. तुम्हें छूना चाहती हूं,’’ दोनों हाथ पसार रम्या ने तड़प के साथ कहा.

बच्चे ने मिस पोर्टर की तरफ सवालिया नजरों से देखा. उन्होंने इशारों से उसे जाने को कहा. पर वह उन के पास ही बैठा रहा.

‘‘यदि आप मेरी जन्मदात्री हैं तो इतने वर्षों तक कहां रहीं? आप के होते हुए मैं अनाथ आश्रम में क्यों रहा?’’ बेटे के सवालों के तीर अब रम्या को आगोश में लेने लगे. बेबसी के आंसू उस की पलकों पर टिकने से विद्रोह करने लगे. उस मासूम के जायज सवालों का वह क्या जवाब दे कि तुम नाजायज थे, पर अब उसी को जायज बनाने, बेशर्म हो, आंचल पसारे खड़ी हूं.

बेटा आगे बोला, ‘‘आप को मालूम है, मैं 5 वर्ष की उम्र तक फोस्टर होम में रहा. मेरी उम्र के सभी बच्चों को किसी न किसी ने गोद लिया था. पर आप के द्वारा बख्शी इस नस्ल और रंग ने मुझे वहीं सड़ने को मजबूर कर दिया था.’’

‘‘मैं वहां हफ्ते में एक बार समाजसेवा करने जाती थी. इस के अकेलेपन और नकारे जाने की हालत मुझे साफ नजर आ रही थी. फोस्टर होम की मदद से मैं ने इंडिया के कुछ एनजीओज से संपर्क साधा, जिन्होंने आश्वासन दिया कि शायद वहां इसे कोई गोद ले लेगा. मैं ले कर गई भी. कुछ लोगों से संपर्क भी हुआ. पर फिर मेरा ही दिल इसे वहां छोड़ने को नहीं हुआ, बच्चे ने मेरा दिल जीत लिया. और मैं इसे कलेजे से लगा कर वापस सिडनी आ गई,’’ मिस पोर्टर ने भर्राए हुए गले से बताया.

‘‘इस के जन्म के वक्त आप की मां ने आप के बारे में जो सूचना दी थी, उस आधार पर मुझे पता चला कि आप यहीं आस्ट्रेलिया में ही कहीं हैं. यह भी एक कारण था कि मैं इसे वापस ले आई और मैं ने अपने कोखजाए की तरह इसे पाला. मन के एक कोने में यह उम्मीद हमेशा पलती रही थी कि आप एक दिन जरूर आएंगी,’’ मिस पोर्टर ने जब यह कहा तो रम्या को लगा कि काश, धरती फट जाती और वह उस में समा जाती. डबडबाई आंखों से उस ने शर्मिंदगी के भार से झुकी पलकों को उठाया.

बच्चा अब मिस पोर्टर से लिपट कर बैठा था. मिस पोर्टर स्नेह से उस के घुंघराले बालों को सहला रही थीं.

‘‘आप ले जाइए अपने बेटे को. मैं इसे भेज, ओल्डएज होम चली जाऊंगी,’’ उन्होंने सरलता से मुसकराते हुए कहा.

रम्या की आंखों में चमक आ गई, उस ने अपनी बांहें पसार दीं.

‘‘आज इतने सालों बाद मुझ से मिलने और मुझे अपनाने का क्या राज है? आप यहीं थीं, जानती थीं कि मैं किस अनाथ आश्रम में हूं, फिर भी आप का दिल नहीं पसीजा? आज क्यों अपना मतलबी प्यार दिखाने मुझ से मिलने चली आईर्ं? लाख तकलीफें सह कर, मुसीबतों के पहाड़ टूटने के बावजूद इन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और अब मैं इन्हें नहीं छोडूंगा.’’ बेटे के मुंह से यह सुन रम्या को अपनी खुदगर्जी पर शर्म आने लगी.

‘‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’’ डेरिक ने रम्या का हाथ थाम उठते हुए पूछा.

‘‘कीन, कीन पोर्टर है मेरा नाम.’’

‘‘क्या कहा कर्ण. ‘कर्ण,’ हां यही होगा तुम्हारा नाम, वाकई तुम क्यों छोड़ोगे अपने आश्रयदाता को. पर मैं कुंती नहीं, मैं कुंती होती तो मेरे पांडव भी होते. मेरी भूल माफ करने लायक नहीं…’’

खाली गोद लौटती रम्या बुदबुदा रही थी और डेरिक हैरानी से उस की बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें