असुविधा के लिए खेद है – भाग 3 : जीजाजी को किसके साथ देखा था ईशा ने

आखिर वह कौन था? सेल्विना का बौयफ्रैंड? मगर क्यों? कनैक्शन क्यों जमा आखिर? अचानक अंधेरे में रोशनी की तरह अपना नेपाली दोस्त अनादि याद आया, कालेज में 3 साल हम अच्छे ही दोस्त थे. अब वह कोलकाता में ही रहता है और सिक्यूरिटी गार्ड सप्लाई संस्थान चलाता है. बैचलर है, घरपरिवार का झंझट नहीं, मेरी मदद कर पाएगा.

हमारे कालेज के वाल्सअप गु्रप में हम सभी जुड़े हैं और इस लिहाज से उस के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी मुझे थी. शाम के 6 बज रहे थे. मैं चल पड़ी उस के ठिकाने की ओर.

पहली मंजिल में उस का औफिस और दूसरी मंजिल में उस का घर था.

वह औफिस में ही मिल गया मुझे.

मुझे देख वह इतना खुश हुआ कि मुझे कुछ हद तक यह भी लगा कि मैं पहले ही इस से अपनी दोस्ती जारी रख सकती थी.

थोड़ी देर की बातचीत और कुछ स्नैक्सकौफी के बाद मैं मुद्दे पर आ गई. मैं ने उस से कहा, ‘‘अनादि, बात उतनी खतरनाक न सही, चिंता वाली तो है. मैं प्रोफैशनल तरीका अपना कर ज्यादा होहल्ला नहीं मचाना चाहती. बस जीजी की खुराफात बंद हो. मैं जानती हूं उस में बदले की भावना बचपन से ही कुछ ज्यादा है. अगर किसी पर उस ने टारगेट बना लिया तो उस की खैर नहीं.’’

मैं ने अपनी शादी और उस लड़के के इनकार की घटना बताई ताकि कुछ सूत्र मिल

सके अनादि को. सारी बातें सुन कर उस की दिलचस्पी जगी, कहा, ‘‘चलो कुछ तो खास

करने का मौका मिला वरना यह बिजनैस ऊबाने वाला है.’’

‘‘देखो, हमारे पास 2 पौइंट हैं. एक बदला जीजी का, दूसरा जीजू से पीछा छुड़ा कर किसी सुंदर लड़के के प्रेम में पड़ कर अपनी जिंदगी को अपनी मरजी से जीना, तो इन 2 बातों में से कौन सी के लिए जीजी इतनी डैस्परेट है?’’

‘‘आज रात को वह सेल्विना के बौयफ्रैंड को बुला रही है. सेल्विना के स्कूल में जीजी पेंटिंग्स सिखाती है.’’

‘‘बाप रे काफी मसले हैं. हमें क्या

करना है?’’

‘‘समस्या यह है कि जीजी के पास उस वक्त कैसे पहुंचा जाए जब जीजी का बुलाया व्यक्ति वहां मौजूद हो क्योंकि मुझे घर में

देखते ही वह पैतरा बदल देगी और विश्वास में

न लूं तो गेम डबल कर के मुझे उलझएगी.

बेहतर यही होगा कि उसे विश्वास दिलाया जाए कि हम से उसे कोई खतरा नहीं. तो एक बात

हो सकती है तुम मेरे बौयफ्रैंड बन कर मेरे साथ घर चलो.

‘‘जीजू के घर मम्मीपापा को छोड़ जब आ रही थी तो  तुम से मुलाकात हुई और कालेज के दिनों से मुझ से प्रेम करने वाले तुम अब मुझे पा कर खोना नहीं चाहते, जीजी हमारी शादी में मदद करे, मम्मीपापा और रिश्तेदारों को समझने में मदद करे. तो हम भी उन की करतूतों पर आंख मूंदे ही साथ रहे हैं,’’ मैं ने प्लान बताया जो जीजी से कहना था.

‘‘ऐसा क्या?’’ नेपाली बाबू ने मेरी ओर बड़ी गहरी दृष्टि डाली.

मुझे कुछ अटपटा लगा. फिर भी मैं ने

सहज रह कर बाकी बातें पूरी की, ‘‘जब

जानेगी कि हमें उस की जरूरत है तो वह हमारा भी फायदा उठाना चाहेगी, और वक्तवक्त पर हमें भी अपनी कारगुजारियों से अनजाने ही अवगत करा देगी. इस के लिए वह कुछ हद तक हमारी ओर से निश्चिंत रहेगी. वह मेरे इस प्रेम वाले कमजोर पक्ष की वजह से मेरी ओर से लापरवाह हो जाएगी क्योंकि उसे लगेगा कि अब मैं ही

खुद अपनी जरूरत के लिए उस के सामन

झकी रहूंगी.’’

अनादि सामान्य दिख रहा था. बोला, ‘‘ग्रेट आइडिया, लैट्स प्रोसीड.’’

रात 9 बजे जब मैं और अनादि घर पहुंचे अपनी चाबी से दरवाजा खोल हम अंदर गए, जीजी के कमरे में लाइट जल रही थी. दोनों बिस्तर पर व्यस्त थे.

लड़का मेरी ही उम्र का लगभग 27 के आसपास, गोरा स्मार्ट और बहुत खूबसूरत था.

हम ने अपना वीडियो कैमरा औन कर लिया.

हमें प्रमाण चाहिए था और इस के लिए ग्रिल वाली खिड़की और परदे की आड़ हमारे लिए काफी थी. जीजी बीचबीच में लड़के से बातें भी करती जाती.

‘‘सेल्विना को वापस जाने को कब कहोगे?’’

‘‘रहने दो न उसे, बेचारी का बहुत पैसा लगा है स्कूल में.’’

‘‘तो मैं तुम्हें कैसे पा सकूंगी. शादी कैसे होगी हमारी?’’

‘‘तुम बड़ी हो उस से 4 साल, मां नहीं मानेगी.’’

‘‘अच्छा तो सिर्फ  मजे के लिए मैं?’’ जीजी होश खो रही थी.

जीजी ने आगे कहा, ‘‘और वह नैकलैस लाए?’’

‘‘हां.’’

‘‘हीरे की लौकेट वाला न?’’

‘‘हां बाबा.’’

‘‘कल, 20 हजार ट्रांसफर करने को बोला था बैंक में. किए?’’

‘‘करता हूं.’’

‘‘अभी करो.’’

‘‘इतनी जल्दी क्या है?’’

‘‘फिर इस वीडियो को देखो, सेल्विना तो क्या हर जगह पहुंच जाएगा. अच्छा लगेगा?

तुम्ही बताओ?’’

तनय वीडियो देख कर तनाव में आ कर उठ बैठा, ‘‘तुम मुझे ब्लैकमेल कर रही हो?’’

‘‘नहीं तनय. मैं तो बस सावधान कर रही हूं, सुख मुझे अकेले नहीं मिल रहा है, तुम्हें भी मिल रहा है, तो कुछ तो चुकाओगे न?’’

तनय ने मोबाइल से तुरंत रुपए ट्रांसफ र कर दिए. जीजी शातिर गेम खेल सकती है, मैं जानती नहीं थी. मैं उलझती ही जा रही थी.

हम ने कैमरा बंद कर दरवाजा खटखटाया. दोनों संभल गए. कुछ देर बाद जीजी ने कमरे का दरवाजा खोला.

हम ने अपनी तय बातें उन के सामने रखीं. जैसाकि पहले से मालूम था वह भी इसी शर्त पर हमारी शादी में मदद को राजी हुई कि घर पर वे कुछ भी करें, हम उस के मामले में न दखल दें, न ही किसी से कुछ कहें.

हम ने उस का आभार माना और अपने कमरे में चले आए. 10 मिनट में अनादि चला गया. तनय भी थोड़ी देर बाद चला गया.

जीजू यानी निहार का संदेश मिला, ‘‘कब आओगी ईशा? साथ ही फोटो भी लाना. वाकई, जीजू ने कमाल किया. बेहद स्मार्ट और स्लिम हो गए. सच प्यार में बड़ी शक्ति है. उन की तसवीर देख चकित थी.’’

पता कर लिया था कि उन्होंने पार्कस्ट्रीट की एक कालोनी में सेल्विना के साथ मिल कर फ्लैट खरीदा था और सेल्विना के साथ तब तक लिवइन में था, जब तक न सेल्विना को भारतीय नागरिकता मिले और उस से कानूनी प्रक्रिया के तहत शादी हो जाए.

अनादि ने मुझे पता करने को कहा कि जीजी का इस तनय के साथ पहले से फेसबुक और चैटिंग का कोई रिश्ता है क्या?

जीजी से यह पूछने की फिराक में थी कि अनादि का संदेश आया, ‘‘ईशा क्या

मेरी बनोगी? बड़ा मिस करने लगा हूं यार तुम्हें.’’

‘‘यह क्या? जीजी के केस के बीच यह नया गेम क्या है?’’

5 फुट 7 ईंच का अनादि देखनेभालने में गोरा, सीधा, सरल नेपाली नहीं. कहती कि मुझे

5 फुट 7 ईंच की हाइट की लड़की के साथ बिलकुल नहीं जमेगा. लेकिन मैं तो…

मैं मन ही मन झल्ला गई. पर कोई जवाब नहीं दिया. क्या पता नहीं क्यों उसे दुखी कर

पाई. उस का हंसता सा चेहरा मेरी आंखों के आगे घूम गया.

ऐसे ही सही-भाग 1: क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

पार्किंग में अपना स्कूटर खड़ा कर के मैं इमरजेंसी वार्ड की तरफ बढ़ा. काफी पूछने पर पता चला कि जिस व्यक्ति को मैं ने यहां भरती कराया था वह अब आई.सी.यू. में है. रात को हालत ज्यादा बिगड़ जाने के कारण उसे वहां शिफ्ट कर दिया गया था. आई.सी.यू. चौथी मंजिल पर था. मैं लिफ्ट का इंतजार करने के बजाय तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ वहां पहुंचा.

थोड़ा सा ढूंढ़ने पर मैं ने उन की पत्नी को एक कोने में मायूस गुमसुम बैठे देखा. मैं तेजी से उन के पास गया और उन का हाल पूछा. वह पहले तो मुझे अजनबियों की तरह देखती रहीं फिर याद आने पर मेरे साथ उठ कर एक तरफ आ कर फूटफूट कर रोने लगीं.

‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है न?’’ मैं थोड़ा चिंतित हो गया.

‘‘कुछ भी ठीक नहीं है. आप के जाने के बाद कई डाक्टर आए. कई टैस्ट किए फिर भी कमर से नीचे के हिस्से में कोई हरकत नहीं हो रही है. उन्हें रात को ही यहां शिफ्ट कर दिया गया था. बस, तब से यहीं बैठी हूं. क्या करूं…एकदम नया शहर और आते ही यह हादसा,’’  कह कर वह पुन: साड़ी का पल्लू मुंह में दबाए सिसकने लगीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था, मैं क्या कहूं.

सब से पहले मैं ने कैंटीन से चाय और बिस्कुट ला कर उन्हें दिए. लग रहा था जैसे रात से उन्होंने कुछ खाया नहीं है. उन के पास ही उन की 10 साल की बेटी बैठी हुई थी, जो थोड़ीथोड़ी देर में सहमे हुए मां का हाथ पकड़ लेती थी. उन के पास कुछ देर बैठ कर मैं डाक्टर से मिलने चला गया.

डाक्टर से पता चला कि उन की स्पाइनल कौर्ड में कोई गहरी चोट आई है जिस के कारण यह हादसा हुआ है. यह भी कह पाना मुश्किल है कि वह कब तक ठीक हो पाएंगे और ठीक भी हो पाएंगे या नहीं.

‘‘तो क्या यह उम्र भर यों ही पड़े रहेंगे,’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘अभी कुछ भी कहना संभव नहीं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘कुछ विशेषज्ञ बुलाए हैं…शायद वे कुछ सलाह दे सकें.’’

‘‘तो आप उन्हें कब तक यहां आई.सी.यू. में रखेंगे?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 3 दिन,’’ कह कर डाक्टर वहां से चला गया.

एक बीमा एजेंट होने के नाते उन की बीमारी के प्रति जानकारी रखना मेरे लिए स्वाभाविक बात थी. और तब ज्यादा जब सबकुछ मेरी आंखों के सामने हुआ.

कल दोपहर को आफिस जाते समय अचानक स्पीड ब्रेकर सामने आ गया तो मुझे तेजी से ब्रेक लगाने पड़े, क्योंकि स्पीड ब्रेकर ठीक से नहीं बना था. इतने में देखा कि एक तेज गति से आती वैन उस स्पीड ब्रेकर से टकराई और चलाने वाला व्यक्ति उछल कर बाहर जा गिरा. वैन सामने पेड़ से टकरा गई. यह हादसा मुझ से कुछ ही दूरी पर हुआ था.

मैं ने वहां जा कर उस व्यक्ति को  देखा जो मूर्च्छितावस्था में एक तरफ पड़ा हुआ था. मैं ने कुछ लोगों की सहायता से उसे एक आटोरिकशा में लिटाया और पास ही एक नर्सिंग होम में ले गया. उस व्यक्ति के सिर पर गहरी चोट का निशान था.

वहां मौजूद डाक्टरों को मैं ने पूरी घटना का विवरण दिया और उसे लिटा दिया. उस की जेब से एक परिचयपत्र निकला जिस पर उस के आफिस का पता और फोन नंबर लिखा था. पता चला कि वह एक सरकारी संस्थान में डिप्टी डायरेक्टर है और उस का नाम विनोद शर्मा है.

मैं ने उस संस्थान से उन के घर का फोन नंबर लिया और उन की पत्नी को इस हादसे के बारे में बताया. थोड़ी ही देर में वह वहां आ गईं. उन को सबकुछ बताने के बाद मैं ने उन से इजाजत मांगी. वह मन भर कर बोलीं, ‘‘मैं आप की बहुत शुक्रगुजार हूं कि आप ने इन्हें यहां तक पहुंचा दिया, वरना आज के व्यस्त जीवन में कौन ऐसा करता है.’’

‘‘अरे, यह तो मेरा फर्ज था. बस, यह ठीक हो जाएं तो समझूंगा कि मेरा लाना सफल हुआ.’’

‘‘एक मेहरबानी और कर दीजिए,’’ वह कहने लगीं, इन की गाड़ी किसी तरह घर पहुंचा दीजिए…जो भी खर्च आएगा, मैं दे दूंगी.’

‘‘ठीक है, मैम, अभी तो देखना होगा कि वह चलने लायक है या नहीं,’’ कह कर मैं ने अपने एक परिचित को वर्कशाप में फोन कर के गाड़ी को वहां से निकालने का इंतजाम किया. बीमा एजेंट होने के नाते यह सब काम करना, करवाना मैं अच्छी तरह जानता था.

इस सारी प्रक्रिया से निबट कर मैं जब घर पहुंचा तो 8 बज चुके थे. संगीता ने दरवाजा खोलते ही अपने चिरपरिचित स्वर में मुंह बना कर कहा, ‘‘तो आज क्या बहाना है देर से आने का?’’

इतना सुनना था कि मेरा मन  कसैला हो गया. उस का यह स्वभाव और व्यवहार सर्पदंश की तरह मुझे हर बार डंस जाता. मेरे विवाह को 4 साल हो चुके थे और इन 4 सालों में मैं ने कभी उस के मुंह से फूल झड़ते नहीं देखे. हमेशा किसी न किसी बात को ले कर वह ताने देती रहती थी.

शुरुआत में मैं ने बड़ी कोशिश की कि उस के पास बैठ कर कोई प्यार की बात कर सकूं. मगर हर बात मायके से शुरू हो कर मायके पर ही खत्म होती. बातों को तूल न देने के लिए मैं खामोश हो जाता और इस खामोशी का उस ने भरपूर फायदा उठाया.

हद तो तब हो गई जब मेरी सास और साली ने मुझ पर संगीता को खुश रखने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. उसे अच्छे कपडे़े, जेवर और घुमानेफिराने, घर जल्दी लौटने का सिलसिलेवार क्रम भी उन्होंने ही तय कर दिया. मैं हर बात का जवाब देना जानता था पर मर्यादाओं में रह कर और वह अमर्यादित हो चुकी थी.

‘‘यह बात तो तुम प्यार से भी पूछ सकती हो. पर मेरे किसी उत्तर से तुम संतुष्ट तो होगी नहीं इसलिए कोई बहाना नहीं बनाऊंगा,’’ मैं ने मेज पर अपना बैग रखते हुए बड़ी नरमी से कहा.

‘‘5 बजे तुम्हारा आफिस बंद हो जाता है और 7 बजे से पहले तुम कभी आते नहीं हो. सुबह भी 8 बजे चले जाते हो. तुम से तो मजदूर अच्छे होते हैं जिन का कोई समय तो होता है.’’

‘‘तो फिर किसी मजदूर से ही शादी कर लेतीं. वह तुम्हारे घर वालों के इशारों पर नाचता और समय पर आ भी जाता. तुम्हें अच्छी तरह मेरे काम और व्यक्तिगत संपर्क के बारे में पता है.’’

‘‘पता नहीं तुम्हारी कौन सी बात से प्रभावित हो कर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. आज इस घर में जो कुछ भी है, पापा का दिया हुआ है वरना तुम तो उन के सामने खड़े भी नहीं हो सकते.’’

‘‘जानता हूं…तभी तो तुम्हारी मां से सारा दिन ताने और आदेश सुनने पड़ते हैं. सभी कुछ तो हमारे घर पर था. कमी किस बात की थी. तुम्हीं ने जिद कर के मुझे अलग कर दिया था. सुखसुविधाओं को जुटा लेने से भी कहीं गृहस्थी चलती है. पहले पति से नहीं बनी तो मेरे पल्ले बांध दिया…और यह बात भी हम से छिपा ली. तुम ने अलग किया है तो घरगृहस्थी के सामान की व्यवस्था भी तुम करोगी. मैं ने तो पहले ही कह दिया कि…’’

‘‘मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. यही न. कौन से मांबाप अपनी बच्ची को ऐसी हालत में देख सकते हैं. तुम्हारे मांबाप ने क्या किया,’’ वह बात काट कर तेज आवाज में बोली

‘‘उन्होंने अपने इकलौते बेटे की जुदाई का गम सहन किया…’’ कहतेकहते मेरी आंखें भर आईं और मैं बिना कोई बात किए दूसरे कमरे में चला गया. मेरा मौन हमेशा कह देता कि शादी की कीमत चुका रहा हूं.

हमारी रातें यों ही करवटें बदलते निकल जातीं और सुबह बिना किसी बात के…मैं ने मन ही मन यह फैसला किया कि टकराव की स्थिति पैदा न होने देने के लिए कम से कम घर पर रहूं.

एक दिन उत्सुकतावश मैं ने शर्माजी को फोन किया. पता चला कि उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है. अब उन्हें एक बडे़ प्राइवेट नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया गया है जहां पर ज्यादा सुविधाएं थीं. देश के कई बडे़ डाक्टर उन्होंने अपनी जांच के लिए बुलवाए पर कोई फायदा नहीं हुआ. मैं उसी समय उन के नर्सिंग होम में पहुंचा. उन की हालत देख कर मन कसैला सा हो उठा.

असुविधा के लिए खेद है – भाग 2 : जीजाजी को किसके साथ देखा था ईशा ने

पहले जब वह अमेरिका पढ़ने गई थी तो इस लड़के से प्रेम हुआ. लड़के के

पिता जब बाद में चल बसे और लड़के की मां ने उसे यहां बुलावा भेजा तो लड़की ने भी लड़के के साथ आने का मन बनाया.

इस रशियन लड़की सेल्विना दास्तावस्की की मां नहीं रही. सौतेले पिता हैं, अब उस का यह ब्रौयफ्रैंड ही सबकुछ है. सेल्विना की आंखों में एक मधुर संभाषण और बालसुलभ कुतूहल देखा मैं ने. वाकई वह बहुत प्यारी और निश्चल थी. मुझे भा गई थी.

रात को जीजी घर आई तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘अचानक कैसे वहां ड्राइंग सीखने जाने लगी? कैसे पहचान हुई सेल्विना से तुम्हारी?’’

‘‘फेसबुक के मेरे नए प्रोफाइल पर.’’

‘‘तुम ने भेजी थी रिकवैस्ट?’’

‘‘तुझे क्या करना किस ने भेजी?’’

‘‘जीजी तुम सारी चीजों में उलझ कर रह गई, लेकिन जीजू के बारे में बिलकुल नहीं सोच रही. आखिर चाहती क्या हो? जीजू अकेले

क्यों रहें?’’

‘‘मैं ने उन से कहा तो है कोलकाता ट्रांसफर करा लें. नहीं, अपनी पैत्रिक संपत्ति छोड़ कर किराए के मकान में आना नहीं चाहते. मैं क्यों नहीं बड़े शहर में रहूं. पर तू यह बता तुझे क्यों इतनी फिक्र हो रही जीजू की?

‘‘जीजी.’’

‘‘चुप कर. ढीलेढाले पाजामे को मेरे गले बांध दिया. सभी ने मिल कर.. बैंक की नौकरी है… वह कोई मर्द है?’’

जीजी की बातें बड़ी चकित करने वाली थीं. मैं रात तक बेचैन रही.

वे मुझ से स्नेह रखते थे. जीजू की लाचारी मुझे खलने लगी. मैं ने उन्हें एक के बाद एक कई संदेश भेजे ताकि उन की खैरियत पता चल सके. कोई उत्तर न मिला मुझे तो मैं ने फोन मिला दिया. फोन उठाया गया, लेकिन कुछ पल कानाफूसी सी आवाजें आने के बाद फोन कट गया.

मुझे ऐसा क्यों लगा कि उस वक्त ऐसा कुछ था जो न  होता तो अच्छा था. कल की सुबह शनिवार की थी. जीजी अपना भलाबुरा समझ नहीं पा रही थी, मैं तो समझती थी. औफिस से

2 दिन की छुट्टी लेने की ठान मैं

सो गई.

कोलकाता से बस में 4-5 घंटे लगते थे जीजू के शहर पहुंचने में. रात को पहुंची तो मेन गेट खुला था.

बरामदे में पहुंच मैं ने दरवाजे पर हाथ रखा तो अंदर से बंद था. मुझे लग रहा था कोई दिक्कत जरूर है. मेरी छठी इंद्री ने काम शुरू किया और मैं ने बगीचे की तरफ खुल रही बैडरूम की खिड़की से हाथ अंदर कर धीरे से परदा हटा कर झंका.

दृश्य ने मुझे सदमे में डाल दिया. जीजू और उन की रसोई बनाने वाली रीना बिस्तर

पर साथ. यह क्या किया जीजू तुम ने. मुझे बहुत दुख हुआ. अभिमान और व्यथा से मैं तड़पने लगी. पर क्यों? क्या जीजी के लिए या और कुछ? मैं बरामदे में आ कर बैठ गई. क्या मैं माफ  कर दूं जीजू को? करना ही पड़ेगा. ठगा गया इंसान जीने की सूरत ढूंढ़ रहा है, थोड़ी देर में दरवाजा खोल रीना निकली. मुझे देख उस का चेहरा सफेद पड़ गया. किसी तरह नमस्ते किया और सरपट निकल गई.

मुझे देख जीजू सकपका गए. अपना सिर नीचे कर लिया. मैं अभी कुछ कहती कि वे

बोल पड़े, ‘‘ईशा, मैं तुम्हारे परिवार का गुनहगार हूं. प्रभा को कितने संदेश भेजे… न ही जवाब दिया, न ही आई. मुझ से अकेलापन बरदाश्त नहीं हो रहा था. रीना के पति का शराब पीपी कर लिवर खराब हो गया है, उसे पैसों की जरूरत

थी. सच तो यह है कि हम दोनों ही कंगाली में थे. वह गरीब है, दुखी है, मैं ने उसे संभाला, उस ने मुझे.’’

यथासंभव खुद के साथ लड़ते हुए मैं ने उन का हाथ अपने हाथों में लिया, ‘‘क्या फिर भी आप ने यह ठीक किया? जीजी को छोड़ो, कभी भी आप ने मुझे जानने की कोशिश नहीं की.’’

जीजू उम्मीद भरी आंखों से मुझे देखने लगे.

‘‘क्या कोई 10 बार यों ही किसी को संदेश भेजता है? आप के लिए शरीर ही सबकुछ है? मेरा संदेश आप की खैरियत के बारे में होता है, लेकिन इस के पीछे की कोई बात…’’

जीजू ने मेरे होंठ अपने होंठों से सिल दिए.

‘‘मैं कल्पना कैसे करूं कि आसमान का सूरज आ कर कहे कि मैं सिर्फ तुम्हारा हूं,’’

जीजू ने कहा मैं अपने आप को रोक नहीं पाई.

उन के गले लग पड़ी. और हम भावनाओं में, अनुभूतियों में, प्रेम के आकंठ अणृतवर्षा में डूब चुके थे.

‘‘ईशा. क्या सच ऐसा कभी हो सकेगा कि तुम हमेशा के लिए मेरी हो जाओ?’’

‘‘और रीना?’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘कभी नहीं, विदा कर दूंगा उसे, माफ कर दो मुझे.’’

‘‘फिर तो यह आप पर है. लेकिन मैं मोटा जो हूं? तुम इतनी स्लिम और सुंदर?’’

‘‘उफ्फ. आप का यह भोलापन, सादगी, मेरी जान लेगा. कौन कहता है आप मोटे हो. बस इतने मोटे हो कि तीन महीने की जिम ट्रेनिंग और डायट सही कर आप बिलकुल फिट लगोगे. और वो सारा कुछ मैं इंतजाम करवा दूंगी.’’

‘‘शुक्रिया मेरे तनमनधन से तुम्हारा शुक्रिया. मैं विश्वास नहीं कर पा रहा हूं कि कंगाल को राजपाट मिल गया है.’’

आज जीजू और मैं दोनों हवा से हल्के और समुद्र से भी गहरे हो गये थे.

जब लोटी तो देखा कि चार दिनों में ही जीजी में और भी बदलाव दिखे. अब वह बिलकुल मौर्डन स्टाइलिश लड़की थी, साड़ी से तो अब दूरदूर का नाता नहीं था. उस का घर आते ही अपने स्मार्टफोन में बिजी हो जाती. उस के बदलाव में कुछ और भी बात थी.

मैं ने जीजू यानी निहार से बात की और अपने मम्मीपापा को कुछ दिनों के लिए वहां छोड़ आई. तीनों को आपस में साथ रह कर एकदूसरे को समझने समझने का मौका मिले और इधर जीजी के दिमाग में शतरंज के प्यादे किसकरवट बैठ रहे हैं उस का भी मैं पता लगा पाऊं.

मम्मीपापा को निहार के पास छोड़ने जा रही थी तो जीजी से अपनी वापसी का जो दिन बताया था, उस के एक दिन पहले ही पहुंच गई मैं घर. घर की चाबी मेरे पास भी थी. मैं अंदर पहुंची तो आशा के मुताबिक जीजी फोन पर किसी से लगी पड़ी थी, ‘‘आज ही मिलो, तुम्हारी सेल्विना के साथ मैं लगभग गृहस्थी ही बसा चुकी. तुम जानते हो पेंटिंग्स की वजह से मैं तुम से जुड़ी, तुम पेंटिंग्स ग्राफिक्स का काम करते हो, और कहा भी था तुम ने कि तुम मेरे लिए वे सबकुछ करोगे जिस से मेरी पेंटिंग्स को पहचान मिले. लेकिन तुम ने तो मुझे गर्लफ्रैंड के हवाले कर दिया और भूल गये. क्या मैं तुम्हारी कुछ

भी नहीं.

‘‘कुछ भी नहीं सुनूंगी आज. मैं तुम्हें बुरी तरह मिस कर रही हूं, कल ईशा आ जाएगी वापस. आज रात सेल्विना को कोई बहाना बता कर मेरे पास आओ.’’

सारी बातें सुन कर फिर मेन दरवाजा बंद कर मैं बाहर आ गई.

असुविधा के लिए खेद है – भाग 1 : जीजाजी को किसके साथ देखा था ईशा ने

‘‘मेरीनानी की चचिया सास की बेटी के बेटे ने मेरी बहन से शादी करने को इनकार किया? मेरी बहन से? क्या कमी है तुझ में? मैं उसे छोड़ूंगी नहीं. मैं ने कहा था इस रिश्ते के लिए. मुझे मना करेगा? 2-4 बार उस से इस बाबत पूछ क्या लिया, कहता है कि आप मेरे

पीछे क्यों पड़ी हैं? उस की इतनी हिम्मत?

मुंबई पढ़ने गया था तो प्राइवेट होस्टल में रहने के लिए कैसे मेरी जानपहचान का फायदा लिया.

अब विदेश में नौकरी हो गई, अच्छी सैलरी

मिल गई तो मेम भा रही है उसे. मुझे इनकार. बताऊंगी उसे.’’

‘‘अरे जीजी छोड़ न. मुझे ऐसे भी पसंद नहीं था वह. तुम भी तो हाथ धो कर उस के पीछे पड़ी थी, सभ्य तरीके से मना करने के बाद भी जब तुम साथ नहीं रही थी, तभी उस ने कहा ऐसा. बात समझेगी नहीं तो क्या करे वह और तब जब पहले से ही वह किसी के प्यार में है. अब तो मैं ने भी जौब जौइन की है, कहां उस के साथ विदेश जाऊंगी. फिर मांपिताजी की तबीयत भी ऐसी कि उन्हें अकेला छोड़ा न जाए.’’

‘‘तू चुप कर. रिश्ता सही था या नहीं यह अलग बात है, पर मेरी बात को वह टालने वाला होता कौन है? आज तक किसी ने बात नहीं

टाली मेरी.’’

‘‘अरे जीजी गुस्सा क्यों होती है जब मुझे करनी ही नहीं थी शादी?’’

‘‘तु चुप करे. एक मेम के लिए मुझे ‘न’ कहा. मैं छोड़ूंगी नहीं उसे और तेरे लिए तो कभी लड़का न देखूं. कुंआरी ही रह.’’

‘‘दीदी क्यों खून जलाती है अपना? देखो 30 साल की उम्र में ही तुम कितनी चिड़चिड़ी

हो गई हो. वीपी हाई हो जाएगा. बीमार पड़ोगी

तो कंसीव नहीं कर पाओगी. जीजू कुछ कहते नहीं तुम्हें?’’

‘‘तु चुप कर. क्या कहेगा वह? उस की मम्मीपापा के भरोसे चलती थी उस की जिंदगी, अब दोनों गए ऊपर तो मेरा ही मुंह ताकता है. औफिस से घर और घर से औफिस, आता ही क्या है उसे? मुझे कहेगा?’’

जीजी को लगता कि दुनियाजहान का सारा भार जीजी के ही कंधों पर है. पहले हम दोनों

का साझ कमरा था. 3 साल हुए इधर जीजी की शादी हुई और दादादादी भी इहलोक सिधार गए. तब से उन लोगों का कमरा जीजी के नाम किया गया है.

ज्यादातर जीजी अपने भोलेभाले जरा गोलमटोल पति को रसोइए के जिम्मे छोड़ यहां आ जाती. यहां हम सब पर राज करने की पुरानी आदत उस की गई नहीं थी. जीजी के कमरे से फोन पर बात करने की आवाजें आ रही थीं.

‘‘क्यों, छोड़े क्यों? ऐसे ही छोड़ दें? निकालती हूं हवा उस की.’’

उधर शायद जीजी की वह सहेली थी जिन के पति वकील थे. बात नहीं बनी शायद. जीजी ने फोन रख दिया.

बड़ी उतावली हो वह ऐसे किसी सज्जन

को ढूंढ़ रही थी जो जीजी की बात न मान कर जीजी को अपमानित करने वाले दुर्जन की हवा निकाल सके. कौन मिलेगा ऐसा. जीजी सोच में पड़ी थी.

मैं जीजी के कमरे में गई. उसे शांत करने का प्रयास किया, ‘‘जीजी, यह कोई इशू नहीं

है, तुम ईगो पर क्यों लेती हो? तुम अब इस प्रकरण को बंद करो. मुझे नहीं करनी थी कोई शादी… अभी बहुत जल्दीबाजी होगी शादी की बात करना.’’

‘‘मत कर शादी. मैं तेरे लिए लड़ भी नहीं रही. मेरी बात टाल जाए, मुझ से ही काम निकाल कर वह भी विदेशी मेम के लिए? यह गलत है. मैं होने नहीं दूंगी.’’

‘‘बड़ी अडि़यल और बेतुकी है जीजी.’’

‘‘हूं. तुझे उस से क्या तू अपने काम से

काम रख.’’

इस के 2 दिन बाद शाम को जीजी अपना फोन लाई. मुझ से कहा इन तसवीरों में सब से अच्छी वाली कौन सी है?

‘‘क्यों?’’

‘‘तु बता न.’’

‘‘यह वाली. मगर यह तो 4 साल पुरानी तसवीर है, करोगी क्या इस का?’’

‘‘एक दूसरी एफबी प्रोफाइल खोल कर उस में मेरी सारी पुरानी पेंटिंग्स डालूंगी.’’

‘‘अरे वाह. सच जीजी. यह हुई न बात. यह प्लान बढि़या है.’’

जीजी ने नया प्रोफाइल खोला और अपनी पुरानी पेंटिंग्स की तसवीरें खींच कर उस में डालती रही. वैसे समझ नहीं पाईर् कि पेंटिंग्स पुराने एफबी प्रोफाइल में क्यों नहीं डालीं? जीजी को यहां आए 20 दिन तो हो ही चुके थे. जीजू के लिए हम सब को चिंता होती. वहां अकेले उन्हें दिक्कत होती थी. लेकिन जीजी से इस बारे में कुछ कहो तो उस का उत्तर होता, ‘‘हांहां, मैं तो हूं ही पराई. अब तू ही यहां राज कर. यहां रहने के खर्च देने पड़ेगा क्या? यह मेरा भी घर है. मेरा इस पर हक है.’’

महीनाभर हो गया तो जीजू ही आ गए. मुहतरमा ने वापस जाने को ठेंगा दिखा दिया. जीजू वापस चले गए. जीजी को लगातार फोन पर व्यस्त देखती. कोलकाता के जिस मार्केटिंग एरिया में हम रहते हैं वहां शाम होते ही बाजार और दुकानों में गहमागहमी रहती है. पहले जीजी के  साथ अकसर मैं भी मार्केटिंग को निकला करती थी. लेकिन अब तो जीजी का फोन ही सबकुछ था. कुछ दिनों बाद जीजी ने निर्णय सुनाया कि वह एक जगह पेंटिंग्स सिखाने को जाना चाहती है. कह दिया और शुरू हो गई.

जीजू के लिए वाकई मैं चिंतित थी. एक सीधासरल इंसान इस तरह बेवजह रिश्ते की उलझन में फंस जाए. अफसोस की बात थी. जीजू को एक दिन मैं ने फोन किया और उन से जीजी के बारे में बातें कीं.

‘‘मैं क्या कह सकता हूं? मेरी बातों को वह मानती नहीं, न ही इन 3 सालों में उस का अपनों से कोई लगाव देखा.

‘‘दुनिया रुकती नहीं है ईशा, मेरी भी दुनिया चल रही है. उसे मेरी फिक्र नहीं है… कुछ बोलूं तो खाने को दोड़ती है…’’

जीजी पार्क स्ट्रीट के ड्राइंग पेंटिग स्कूल में क्लास लेने जाने लगी थी. जीजी ने एक विदेशी बाला से मिलवाया. 26-27 की होगी. गोल्डन बालों में वह एशियन लड़की भारतीय सलवार सूट बड़े शौक से पहने थी.

जीजी ने इंग्लिश में परिचय कराया तो रशियन लड़की मुझ से गले मिली. फिर उस ने टूटीफूटी हिंदी में जो भी कहा उस का सार यही था कि वह अपने होने वाले पति के लिए सब छोड़ आईर् थी. लड़का अभी कोलकाता के किसी मल्टीनैशनल ग्राफिक्स डिजाइनिंग ऐंड कंपनी में काम करता है

बहू: कैसे बुझी शाहिदा की प्यास

शाहिदा शेख प्रोफैसर महमूद शौकत की छात्रा रह चुकी थी. 3 साल पहले बीए की डिगरी ले कर वह घर बैठ गई थी. कुछ दिनों पहले न जाने कैसे और कब वह प्रोफैसर से आ मिली, कब दिलोदिमाग पर छाई, कब हवस बन कर रोमरोम में समा गई, उन्हें कुछ नहीं याद. यह भी याद नहीं कि पहले किस ने किस को बेपरदा किया था.

अगर याददाश्त में कुछ महफूज रखा था तो बस शाहिदा शेख की चंचलता, अल्हड़ता और उस का मादक शरीर जो उन की खाली जिंदगी और ढलती उम्र के लिए खास तोहफे की तरह था.

यही हाल शाहिदा शेख का भी था, क्योंकि दोनों ही एकदूसरे के बिना अधूरापन महसूस करते थे.

शाहिदा शेख अपने मांबाप की एकलौती औलाद थी, इसलिए एक प्रोफैसर का उन के घर आनाजाना किसी इज्जत से कम न था. उन्हें अपनी बेटी पर फख्र भी होता था कि यह इज्जत उन्हें उसी के चलते मिल रही थी. वे समझते थे कि प्रोफैसर उन की बेटी को अपनी बेटी की तरह मानते हैं.

प्रोफैसर महमूद शौकत को दिलफेंक, आशिकमिजाज या हवस का पुजारी कहा जाए, ऐसा कतई न था, बल्कि वे तो ऐसे लोगों में से थे जो हर समय गंभीरता ओढ़े रहते हैं. अलबत्ता, वे सठिया जरूर गए थे यानी उन की उम्र 60वें साल में घुस चुकी थी.

प्रोफैसर महमूद शौकत की पत्नी 10 साल पहले ही इस दुनिया से जा चुकी थीं. पत्नी की इस अचानक जुदाई से प्रोफैसर महमूद शौकत ऐसे बिखरे थे कि उन का सिमटना मुहाल हो गया था. कालेज जाना तो दूर खानेपीने तक की सुध न रहती थी. हां, कुछ होश था तो बस उन्हें अपनी बेटी का, जो जवानी की दहलीज पर थी. अब तो वह भी अपने घरबार की हो गई थी और 2 बच्चों की मां भी बन चुकी थी. बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और एक निजी कंपनी में मुलाजिम था. प्रोफैसर महमूद शौकत समय से पहले रिटायरमैंट ले कर खुद आराम से सुख भोग रहे थे.

इधर लगातार कई दिनों से प्रोफैसर महमूद शौकत शाहिदा शेख का दीदार न कर सके थे. इंतजार जब आंख का कांटा बन गया तो वे सीधे उस के घर जा पहुंचे. पता चला कि वह पिछले 10 दिनों से मलेरिया से पीडि़त थी. खैर, अब कुछ राहत थी लेकिन कमजोरी ऐसी कि उठनाबैठना मुहाल हो गया था.

प्रोफैसर महमूद शौकत जैसे ही शाहिदा शेख के बैडरूम में गए, उन्हें देखते ही शाहिदा की निराश आंखें चमक उठीं और बीमार मुरझाया चेहरा खिल गया.

इस बीच प्रोफैसर महमूद शौकत शाहिदा की नब्ज देखने के लिए उस पर झुके थे कि उस ने झट उन पर गलबहियां डाल दीं और अपने तपतेसुलगते होंठों को उन के होंठों में धंसा दिया.

शाहिदा शेख के ऐसे बरताव से प्रोफैसर महमूद शौकत शर्मिंदा हो उठे और खुद को उस की पकड़ से छुड़ाते हुए बोले, ‘‘प्लीज, मौके की नजाकत को समझो.’’

‘‘समझ रही हूं सर कि मम्मी हमारे बीच दीवार बनी हुई हैं. मैं तो उम्मीद कर रही हूं कि वे थोड़ी देर के लिए ही सही, किसी काम से बाहर चली जाएं और हम एकदूसरे में…’’

शाहिदा की पकड़ से छूट कर प्रोफैसर महमूद शौकत सोफे पर बैठे ही थे कि शाहिदा की मम्मी चायनमकीन लिए कमरे में आ धमकीं.

यह देख प्रोफैसर का जी धक से हो गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वे सोचने लगे कि अगर वे कुछ समय पहले आ जातीं तो…

बहरहाल, चाय की चुसकियों के दौरान उन में बातें होने लगीं. फिर शाहिदा की मम्मी अपने घराने और शाहिदा से संबंधित बातों की गठरी खोल बैठीं. बातों ही बातों में उस के ब्याह की चर्चा छेड़ दी. वे कहने लगीं, ‘‘प्रोफैसर साहब, हम पिछले 3 महीनों से शाहिदा के लिए लड़का खोज रहे हैं, पर अच्छे लड़कों का तो जैसे अकाल पड़ा है. देखिए न कोई मुनासिब लड़का हमारी शाहिदा के लिए.’’

इस से पहले कि प्रोफैसर कुछ कहते, शाहिदा झट से बोल पड़ी, ‘‘सर, अपनी ही कालोनी में देखिएगा, ताकि शादी के बाद भी मैं आप के करीब रहूं.’’

उस रात प्रोफैसर सो नहीं सके थे. शाहिदा का कहा उन के दिमाग में गूंजने लगता और वे चौंक कर उठ बैठते.

इसी उधेड़बुन में वे धीरेधीरे फ्लैशबैक में चले गए.

होटल मेघदूत के आलीशान कमरे में नरम बिस्तर पर शाहिदा शेख बिना कपड़ों के प्रोफैसर महमूद शौकत की बांहों में सिमटी कह रही थी, ‘जी तो चाहता है सर, मैं जवानी की सभी घडि़यां आप की बांहों में बिताऊं. आप ऐसे ही मेरे बदन के तारों को छेड़ते रहें और मैं आप की मर्दानगी से मस्त होती रहूं.’

इतना सुनने के बाद प्रोफैसर ने उस के रेशमी बालों से खेलते हुए पूछा था, ‘तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम जो कर रहे हैं, वह गुनाह है?’

शाहिदा ने न में सिर हिला दिया.

‘क्यों?’

‘क्योंकि, सैक्स कुदरत की देन है. इस को गुनाह कैसे कह सकते हैं. वैसे भी सर, मैं तो मानती हूं कि यह केवल हमारी शारीरिक जरूरत है. आप मर्द हैं और आप को मेरी जवानी चाहिए. मैं औरत हूं और मुझे आप की मर्दानगी की तलब है.’

‘ओह मेरी जान,’ शाहिदा की इस बात पर प्रोफैसर महमूद शौकत चहक उठे थे. साथ ही, उन के होंठ उस के होंठों पर झुकते चले गए.

शाहिदा इस अचानक हल्ले के लिए तैयार न थी, फिर भी उन की छुअन ने उस के शरीर को झनझना दिया था और उस का कोमल शरीर उन की बांहों के घेरे में फड़फड़ाने लगा था.

प्रोफैसर का यह कामुक हल्ला इतना तेज… इतना वहशियाना था कि शाहिदा का पोरपोर उधेड़े दे रहा था. शाहिदा भी अपने शरीर को ऐसे ढीला छोड़ रही थी मानो खुद को हारा हुआ मान लिया हो.

कुछ मिनट तक दोनों ऐसे ही बिस्तर पर उधड़ेउधड़े बिखरेबिखरे से रहे, फिर किसी तरह शाहिदा खुद को अपने में बटोरतेसमेटते फुसफुसाई, ‘सर…’

‘क्या…’

‘इस उम्र में भी आप में नौजवानों से कहीं ज्यादा मर्दानगी का जोश है.’

यह सुन कर प्रोफैसर महमूद शौकत हैरानी से उसे देखने लगे.

‘हां सर, मुझे तो अपने साथी लड़कों से कहीं ज्यादा सुख आप से मिलता है.’

‘लेकिन, तुम यह कैसे कह सकती हो?’ प्रोफैसर की आवाज में बौखलाहट आ गई थी.

‘आजमाया है मैं ने… 1-2 को नहीं, दसियों को.’

‘यानी तुम उन के साथ…’

‘बिलकुल, शायद पहले भी आप से कह चुकी हूं कि मेरे लिए जिंदगी मौत का नजरअंदाज किया हुआ एक पल है, तो क्यों न मैं हर पल को ज्यादा से ज्यादा भोगूं…’

यह सुन कर प्रोफैसर चौंक उठते हैं और फ्लैशबैक से वापस आ जाते हैं. वे फटीफटी आंखों से शून्य में घूरने लगते हैं और धीरेधीरे वह शून्य सिनेमा के परदे में बदल जाता है. उस में 2 धुंधली छाया निकाह कर रही होती हैं. जैसेजैसे दूल्हे के मुंह से ‘कबूल है’ की गिनती बढ़ती है, दुलहन शाहिदा का और दूल्हा प्रोफैसर का रूप धर लेता है.

उसी पल प्रोफैसर की बेटी अपने दोनों बच्चों की उंगली थामे शाहिदा के सामने आ खड़ी होती है और उन का यह सुंदर सपना इस तरह गायब हो जाता है जैसे बिजली गुल होने पर टैलीविजन स्क्रीन से चित्र.

सुबह होते ही प्रोफैसर शौकत बिना सोचेसमझे शाहिदा के घर जा पहुंचे. डोर बैल की आवाज पर शाहिदा की मम्मी ने दरवाजा खोला और अपने सामने प्रोफैसर को देख वे हैरत में डूब गईं, ‘‘प्रोफैसर साहब, आप…’’

प्रोफैसर महमूद शौकत चुपचाप निढाल कदमों से अंदर गए और खुद को सोफे पर गिराते हुए पूछा, ‘‘शेख साहब कहां हैं?’’

‘‘वे तो सो रहे हैं…’’ कहते हुए शाहिदा की मम्मी ने उन की आंखों में झांका, ‘‘अरे, आप की आंखें… लगता है, सारी रात आप जागते रहे हैं.’’

‘‘हां… मैं रातभर शाहिदा के निकाह को ले कर उलझा रहा… आप ने कहा था न कि मैं उस के लिए लड़का देखूं?’’

‘‘तो देखा आप ने?’’ मम्मी जानने के लिए उत्सुक हो गईं, ‘‘कौन है? क्या करता है? मतलब काम… फैमिली बैकग्राउंड क्या है?

‘‘अजी सुनते हो, उठो जल्दी… देखो, प्रोफैसर साहब आए हैं. हमारी शाहिदा के लिए लड़का देख रखा है इन्होंने. कितना ध्यान रखते हैं हमारी शाहिदा का.’’

‘‘महान नहीं, खुदा हैं खुदा,’’ शेख साहब ने आते हुए कहा.

‘‘खुदा तो आप हैं, एक हूर जैसी लड़की के पिता जो हैं. मगर आप दोनों मियांबीवी को एतराज न हो तो मैं शाहिदा को अपने घर… मतलब… मेरे बेटे को तो आप लोग जानते ही हैं, और…’’

‘‘बसबस, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है हमारे लिए,’’ मिस्टर शेख ने कहा, ‘‘हमारी शाहिदा आप के घर जाएगी तो हमें ऐसा लगेगा जैसे अपने ही घर में है, हमारे साथ.’’

फिर क्या था, आननफानन बड़े ही धूमधाम से शाहिदा प्रोफैसर के बेटे से ब्याह दी गई. वह प्रोफैसर के घर आ कर बहुत खुश थी. बेटा भी शाहिदा जैसी जीवनसाथी पा कर फूला न समाता था. दुलहनिया को ले कर हनीमून मनाने वह महाबलेश्वर चला गया.

प्रोफैसर चाहते हुए भी उसे रोक न सके और भीतर ही भीतर ऐंठ कर रह गए. खैर, दिन तो जैसेतैसे कट गया, पर रात काटे न कटती थी. वे जैसे ही आंखें मूंदते, उन्हें बेटे और बहू का वजूद आपस में ऐसे लिपटा दिखाई देता मानो दोनों एकदूसरे में समा जाना चाहते हों. ऐसे में उन्हें बेवफा महबूबा और बेटा अपना दुश्मन मालूम होने लगते. रहरह कर उन्हें ऐसा भी महसूस होता कि बेटे की मर्दानगी का जोश शाहिदा की जवानी की दीवानगी से हार रहा है.

बेटे और बहू को हनीमून पर गए 3 दिन बीत चुके थे. इस बीच प्रोफैसर की हालत पतली हो गई थी. घर में होते तो दिमाग पर शाहिदा का मादक यौवन छाया रहता या अपने ही बेटे की दुश्मनी में चुपकेचुपके सुलगते रहते. उन्हें यह तक खयाल न आता कि अब उन के और शाहिदा के बीच रिश्ते की दीवार खड़ी कर दी गई है. बेटे के संग गठबंधन ने उसे प्रेमिका से बहू बना दिया है. बहू यानी बेटी. वे अपनी इस चूक पर बस हाथ मलते थे.

इन्हीं दिनों उन का एक छात्र किसी काम के चलते उन से मिलने आया. इधरउधर की बातों के दौरान उस ने बताया कि बीकौम के बाद वह एक मैन पावर कंसलटैंसी में अकाउंटैंट के तौर पर काम कर रहा है. फिर उस ने प्रोफैसर के पूछने पर उस फर्म के काम करने के तरीके के बारे में बताया.

उस रात उन्हें काफी सुकून व बहके खयालात में ठहराव का अहसास हुआ. ऐसा महसूस होने लगा जैसे उस छात्र की मुलाकात ने उन्हें सांप के काटे का मंत्र सिखा दिया हो.

बेटा और बहू यानी प्रेमिका पूरे 20 दिन बाद हनीमून से लौटे थे. बेटा शाहिदा का साथ पा कर बेहद खुश दिखाई दे रहा था. देखने में तो शाहिदा भी खुश थी, पर उस की आंखों से खुशियों की चमक गायब थी.

प्रोफैसर की नजर ने सबकुछ पलक झपकते ही ताड़ लिया था और वे चिंता की गहराइयों में डूब गए थे.

अगले दिन चायनाश्ते के बाद प्रोफैसर महमूद शौकत ने अपने बेटे को कमरे में बुलाया और दुनियादारी, जमाने की ऊंचनीच का पाठ पढ़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा, अब तक तुम केवल अपनी जिंदगी के जिम्मेदार थे, पर अब एक और जिंदगी तुम से जुड़ चुकी है यानी तुम एक से 2 हो चुके हो. आने वाले दिनों में 3, फिर 4 हो जाओगे.

‘‘जरूरतों और खर्चों में बढ़ोतरी लाजिमी है, जबकि आमदनी वही होगी जो तुम तनख्वाह पाते हो, इसलिए मैं ने तुम्हारे सुनहरे भविष्य के लिए, तुम्हारी मरजी जाने बिना मौजूदा नौकरी से बढि़या और 4 गुना ज्यादा तनख्वाह वाली नौकरी का जुगाड़ कर दिया है.’’

इस बीच प्रोफैसर महमूद शौकत की नजर के पीछे खड़ी शाहिदा पर जमी थी. उस की आंखों में खुशी की लहरें और होंठों पर कामुक मुसकान रेंग रही थी. उस के इस भाव से खुश होते हुए उन्होंने मेज की दराज से एक लिफाफा निकाला और उसे शहिदा की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘शाहिदा, यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए एक छोटा सा तोहफा है.’’

‘‘शुक्रिया,’’ शाहिदा धीरे से बोली.

‘‘अगर अब तुम इस तोहफे को अपने हाथों से मेरे बेटे को दे दो तो यकीनन यह तोहफा बेशकीमती हो जाएगा.’’

वह उन की इच्छा भांप गई और एक अदा से लजाते, इठलाते हुए उस ने लिफाफा शौहर की ओर बढ़ा दिया.

बेटे को शाहिदा की इस अदा पर प्यार उमड़ आया. वह उसे चाहत भरी नजर से देखते हुए लिफाफा थाम कर ‘शुक्रिया डार्लिंग’ बोला.

लिफाफे में मोटे शब्दों में लिखा था, ‘पिता की तरफ से बेटे को अनमोल तोहफा’. उस में जो कागज था, वह

बेटे की दुबई में नौकरी का अपौंइटमैंट लैटर था. साथ में वीजा, पासपोर्ट और हवाईजहाज की टिकट भी थी. यह पढ़ते ही बेटे के हाथ कांपने लगे.

विरासत: आकर्षण को मिला विरासत का तोहफा

 

‘‘दादाजी, आप का पाकिस्तान से फोन है,’’ आश्चर्य भरे स्वर में आकर्षण ने अपने दादा नंद शर्मा से कहा.

‘‘पाकिस्तान से, पर अब तो हमारा वहां कोई नहीं है. फिर अचानक…फोन,’’ नंद शर्मा ने तुरंत फोन पकड़ा.

दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘अस्सलामअलैकुम, मैं पाकिस्तान, जडांवाला से जहीर अहमद बोल रहा हूं. मैं ने आप का साक्षात्कार यहां के अखबार में पढ़ा था. मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई कि मेरे शहर जड़ांवाला के रहने वाले एक नागरिक ने हिंदुस्तान में खूब तरक्की पाई है. मैं ने यह भी पढ़ा है कि आप के मन में अपनी जन्मभूमि को देखने की बड़ी तमन्ना है. मैं आप के लिए कुछ उपहार भेज रहा हूं जो चंद दिनों में आप को मिल जाएगा, शेष बातें मैं ने पत्र में लिख दी हैं जो मेरे उपहार के साथ आप को मिल जाएगा.’’

फोन पर जहीर की बातें सुन कर नंद शर्मा भावुक हो उठे. फिर बोले, ‘‘भाई, आज बरसों बाद मैं ने अपने जन्मस्थान से किसी की आवाज सुनी है. आज आप से बात कर के 55 साल पहले का बीता समय आंखों के आगे घूम रहा है. मैं क्या कहूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. बस, आप की समृद्धि और उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं.’’

इतना कहतेकहते नंद शर्मा की आंखें डबडबा गईं. वह आगे कुछ न कह सके और फोन रख दिया.

14 साल का आकर्षण अपने दादाजी के पास ही खड़ा था. उस ने दादाजी को इतना भावुक होते कभी नहीं देखा था.

कुछ समय तक नंद शर्मा की आंखें नम रहीं. उन्हें ऐसा लगा था मानो वह वहां केवल शरीर से मौजूद थे, उन का मन 55 साल पहले के जड़ांवाला में था.

आकर्षण कुछ देर वहां बैठा और उन के सामान्य होने का इंतजार करता रहा. फिर बोला, ‘‘दादाजी, आप को अपने पुराने घर की याद आ रही है?’’

‘‘हां बेटा, बंटवारे के समय मैं 17 साल का था. आज भी मुझे वह दिन याद है जब जड़ांवाला में कत्लेआम शुरू हुआ और दंगाइयों ने चुनचुन कर हिंदुओं को गाजरमूली की तरह काटा था. हमारे पड़ोसी मुसलमान परिवार ने हमें शरण दी और फिर मौका पा कर एकएक कर के मेरे परिवार के लोगों को सेना के पास पहुंचा दिया था. मेरे परिवार में केवल मैं ही पाकिस्तान में बचा था. मैं भी मौका देख कर निकलने की ताक में था कि किसी ने दंगाइयों को खबर कर दी कि नंद शर्मा को उस के पड़ोसियों ने पनाह दे रखी है.

‘‘खबर पा कर दंगाई पागलों की तरह उस घर की ओर झपटे. इस से पहले कि वे मेरी ओर पहुंच पाते मुझे छत के रास्ते से उन्होंने भगा दिया.

‘‘मैं एक छत से दूसरी छत को फांदता हुआ जैसे ही सड़क पर पहुंचा कि तभी सेना का ट्रक आ गया और सेना को देख कर दंगाई भाग खड़े हुए. फिर उसी ट्रक से सेना ने मुझे अमृतसर के लिए रवाना कर दिया.

‘‘उस वक्त तक मैं यही समझता था कि यह अशांति कुछ समय की है… धीरधीरे सब ठीक हो जाएगा, मैं फिर अपने परिवार के साथ वापस जड़ांवाला जा पाऊंगा पर यह मेरा भ्रम था. पिछले 55 सालों में कभी ऐसा मौका नहीं आया. मेरा शहर, मेरी जन्मभूमि, मेरी विरासत हमेशा के लिए मुझ से छीन ली गई.’’

इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए. आकर्षण का मन अभी और भी बहुत कुछ जानने को इच्छुक था पर उस समय दादा को परेशान करना उचित नहीं समझा.

नंद शर्मा हरियाणा के अंबाला शहर में एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे. उन की गिनती वहां के वरिष्ठ पत्रकारों में होती थी. कुछ समय पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री ने एक पत्रकार सम्मेलन में उन्हें सम्मानित किया था. उस सम्मेलन में पाकिस्तान से भी पत्रकारों का प्रतिनिधिमंडल आया हुआ था. उस समारोह में नंद शर्मा ने इस बात का जिक्र किया था कि वह विभाजन के बाद जड़ांवाला से भारत कैसे आए थे और साथ ही वहां से जुड़ी यादों को भी ताजा किया.

समारोह समाप्त होने के बाद एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उन का साक्षात्कार लिया और पाकिस्तान आ कर अपने अखबार में उसे छाप भी दिया. वह साक्षात्कार जड़ांवाला के वकील जहीर अहमद ने पढ़ा तो उन्हें यह जान कर बहुत दुख हुआ कि कोई व्यक्ति इस कदर अपनी जन्मभूमि को देखने के लिए तड़प रहा है.

जहीर एक नेकदिल इनसान था. उस ने नंद शर्मा के लिए फौरन कुछ करने का फैसला लिया और समाचारपत्र में प्रकाशित नंबर पर उन से संपर्क किया.

नंद शर्मा एक भरेपूरे परिवार के मुखिया थे. उन के 4 बेटे और 1 बेटी थी. सभी विवाहित और बालबच्चों वाले थे. आज के इस भौतिकवादी युग में भी सभी मिलजुल कर एक ही छत के नीचे रहते थे.

आकर्षण ने जब सब को पाकिस्तान से आए फोन के  बारे में बताया तो सब विस्मित रह गए. फिर नंद शर्मा के बड़े बेटे मोहन शर्मा ने पिता के पास जा कर कहा, ‘‘बाबूजी, यदि आप कहें तो हम सब जड़ांवाला जा सकते हैं और अब तो बस सेवा भी शुरू हो चुकी है. इसी बहाने हम भी अपने पुरखों की जमीन को देख आएंगे.’’

‘‘मन तो मेरा भी करता है कि एक बार जड़ांवाला देख आऊं पर देखो कब जाना होता है,’’ इतना कह कर नंद शर्मा खामोश हो गए.

एक दिन नंद शर्मा के नाम एक पार्सल आया. वह पार्सल देखते ही आकर्षण जोर से चिल्लाया, ‘‘दादाजी, आप के लिए पाकिस्तान से पार्सल आया है,’’ और इसी के साथ परिवार के सारे सदस्य उसे देखने के लिए जमा हो गए.

नंद शर्मा आंगन में कुरसी डाल कर बैठ गए. आकर्षण ने उस पैकेट को खोला. उस में 100 से भी अधिक तसवीरें थीं. हर तसवीर के पीछे उर्दू में उस का पूरा विवरण लिखा हुआ था.

नंद शर्मा के चेहरे पर उमड़ते खुशी के भावों को आसानी से पढ़ा जा सकता था. उन्होंने ही नहीं, उन का पूरा परिवार उन तसवीरों को देख कर भावविभोर हो उठा.

एक तसवीर उठाते हुए नंद शर्मा ने कहा, ‘‘यह देखो, हमारा घर, हमारी पुश्तैनी हवेली और यहां अब बैंक आफ पाकिस्तान बन गया है.’’

नंद शर्मा के पोतेपोतियां बहुत हैरान हो उन तसवीरों को देख रहे थे. उन के छोटे पोते मानू और शानू बोले, ‘‘दादाजी, क्या इन में आप का स्कूल भी है?’’

‘‘हां बेटा, अभी दिखाता हूं,’’ कह कर उन्होंने तसवीरों को उलटापलटा तो उन्हें स्कूल की तसवीर नजर आई. अपने स्कूल की तसवीर देख कर उन का चेहरा खिल उठा और वह खुशी से चिल्ला उठे, ‘‘यह देखो बच्चों, मेरा स्कूल और यह रही मेरी कक्षा. यहां मैं टाट पर बैठ कर बच्चों के साथ पढ़ता था.’’

धीरेधीरे जड़ांवाला के बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, खेल के मैदान, सिनेमाघर, वहां की गलियां, पड़ोसियों के घर, गोलगप्पे, चाट वालों की दुकान और वहां की छोटी से छोटी जानकारी भी तसवीरों के माध्यम से सामने आने लगी. अंत में एक छोटी सी कपड़े की थैली को खोला गया. उस में कुछ मिट्टी थी और साथ में एक छोटा सा पत्र था. पत्र जहीर अहमद का था जिस में उस ने लिखा था :

‘नमस्ते, आज यह तसवीरें आप के पास पहुंचाते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है. आप भी सोचते होंगे कि मुझे क्या जरूरत पड़ी थी यह सब करने की. भाईजान, मेरे वालिद बंटवारे से पहले पंजाब के बटाला शहर में रहते थे. अपने जीतेजी वह कभी अपने शहर वापस न आ सके. उन के मन में यह आरजू ही रह गई कि वह अपनी जन्मभूमि को एक बार देख सकें. इसलिए जब मैं ने आप के बारे में पढ़ा तो फैसला किया कि आप की खुशी के लिए जो बन पड़ेगा, जरूर करूंगा.

‘भाईजान, इस पोटली में आप के पुश्तैनी मकान की मिट्टी है जो मेरे खयाल से आप के लिए बहुत कीमती होगी. इस के साथ ही मैं अपने परिवार की ओर से भी आप को पाकिस्तान आने की दावत देता हूं. आप जब चाहें यहां तशरीफ ला सकते हैं. आप अपने बच्चों, पोतेपोतियों के साथ यहां आएं. हम आप की खातिरदारी में कोई कमी नहीं रखेंगे.

‘आप का, जहीर अहमद.’

पत्र पढ़तेपढ़ते नंद शर्मा भावुक हो उठे. उन्होंने फौरन घर की पुश्तैनी मिट्टी को अपने माथे से लगाया और अपने पोते आकर्षण को बुला कर उस मिट्टी से सब के माथे पर तिलक करने को कहा.

‘‘दादाजी, पाकिस्तानी तो बहुत अच्छे हैं,’’ आकर्षण बोला, ‘‘फिर क्यों हम उस देश को नफरत की दृष्टि से देखते हैं. आज जहीर अहमद के कारण ही घरबैठे आप को अपनी विरासत के दर्शन हुए हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो बेटा,’’ नंद शर्मा बोले, ‘‘घृणा और नफरत की दीवार तो चंद नेताओं और संकीर्ण विचारधारा वाले तथाकथित लोगों ने बनाई है. आम हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी के दिलों में कोई मैल नहीं है. आज अगर मैं तुम्हारे सामने जिंदा हूं तो अपने उस मुसलिम पड़ोसी परिवार के कारण जिन्होंने समय रहते मुझे व मेरे परिवार को वहां से बाहर निकाला.’’

नंद शर्मा अगले कुछ दिनों तक घर आनेजाने वालों को जड़ांवाला की तसवीरें दिखाते रहे. एक दिन शाम को जब वह पत्रकार सम्मेलन से वापस आए तो ‘हैप्पी बर्थ डे टू दादाजी’ की ध्वनि से वातावरण गूंज उठा. उस दिन उन के जन्मदिन पर बच्चों ने उन्हें पार्टी देने का मन बनाया था.

नंद शर्मा को उन के पोतेपोतियों ने घेर लिया और फिर उन्हें उस कमरे की ओर ले गए जहां केक रखा था. वहां जा कर उन्होंने केक काटा और फिर सब ने खूब मस्ती की. फोटोग्राफर को बुलवा कर तसवीरें भी खिंचवाई गईं. बाद में उन में से एक तसवीर जो पूरे परिवार के साथ थी, वह जड़ांवाला भेज दी गई.

वक्त गुजरता रहा. धीरधीरे पत्राचार और फोन के माध्यम से दोनों परिवारों की नजदीकियां बढ़ने लगीं. देखते ही देखते 1 साल बीत गया. एक दिन जहीर अहमद का फोन आया, ‘‘भाईजान, ठीक 1 माह बाद मेरे बड़े बेटे की शादी है. आप सपरिवार आमंत्रित हैं. और हां, कोई बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. मैं ने सारा इंतजाम कर दिया है. आप के पुरखों की विरासत आप का इंतजार कर रही है.’’

नंद शर्मा तो मानो इसी पल का इंतजार कर रहे थे. उन्होंने तुरंत कहा, ‘‘ऐसा कभी हो सकता है कि मेरे भतीजे की शादी हो और मैं न आऊं. आप इंतजार कीजिए, मैं सपरिवार आ रहा हूं.’’

रात के खाने पर जब सारा परिवार जमा हुआ तो नंद शर्मा ने रहस्योद्घाटन किया, ‘‘ध्यान से सुनो, हम सब लोग अगले माह जड़ांवाला जहीर के बेटे की शादी में जा रहे हैं. अपनीअपनी तैयारियां कर लो.’’

‘‘हुर्रे,’’ सब बच्चे खुशी से नाच उठे.

‘‘सच है, अपनी जमीन, अपनी मिट्टी और अपनी विरासत, इन की खुशबू ही कुछ और है,’’ कह कर नंद शर्मा आंखें बंद कर मानो किसी अलौकिक सुख में खो गए.

हीरे की अंगूठी : राहुल शहर से दूर क्यों जा रहा था

नैना थी ही इतनी खूबसूरत. चंपई रंग, बड़ीबड़ी आंखें, पतली नाक, छोटेछोटे होंठ. वह हंसती तो लगता जैसे चांदी की छोटीछोटी घंटियां रुनझुन करती बज उठी हों. उस के अंगअंग से उजाले से फूटते थे.

राहुल और नैना दोनों शहर के बीच बहते नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे. नीचे गंदा नाला बहता, ऊपर घने पड़ों की ओट में बने झोंपड़ीनुमा कच्चेपक्के घरों में जिंदगी पलती. बड़े शहर की चकाचौंध में पैबंद सी दिखती इस बस्ती में राहुल अपने मातापिता और छोटी बहन के साथ रहता था और यहीं रहती थी नैना भी.

राहुल के पिता रिकशा चलाते, मां घरघर जूठन धोती. नैना की मां भी यही काम करती और उस के बाबा पकौड़ी की फेरी लगाते.

नैना बड़े चाव से पकौड़ी बनाती, खट्टीमीठी चटनी तैयार करती, दही जमाती, प्याज, अदरक, धनिया महीनमहीन कतरती और सबकुछ पीतल की चमकती बड़ी सी परात में सजा कर बाबा को देती.

बाबा परात सिर पर उठाए गलीगली चक्कर काटते. दही, चटनी, प्याज डाल कर दी गई पकौड़ी हाथोंहाथ बिक जातीं.

नैना के बाबा को अच्छे रुपए मिल जाते, पर हाथ आए रुपए कभी पूरे घर तक न पहुंचते. ज्यादातर रुपए दारू में खर्च हो जाते. फिर नैना के बाबा कभी नाली में लोटते मिलते तो कभी कहीं गिरे पड़े मिलते.

ऐसे गलीज माहौल में पलीबढ़ी नैना की खूबसूरती पर हालात की कहीं कोई छाया तक नहीं झलकती थी. राहुल सबकुछ भूल कर नैना को एकटक देखता रह जाता था.

नैना के दीवानों की कमी न थी. कितने लोग उस के आगेपीछे मंडराया करते, पर उन में राहुल जैसा कोई दूसरा था ही नहीं.

राहुल भी कम सुंदर न था. भला स्वभाव तो था ही उस का. गरीबी में पलबढ़ कर, कमियों की खाद पा कर भी उस की देह लंबी, ताकतवर थी. एक से एक सुंदर लड़कियां उस के इर्दगिर्द चक्कर काटतीं, पर कोई किसी भी तरह उसे रिझा न पाती, क्योंकि उस के मन में तो नैना बसी थी.

नैना के मन में बसी थी हीरे की अंगूठी. उसे बचपन से हीरे की अंगूठी पहनने का चाव था. सोतेजागते उस के आगे हीरे की अंगूठी नाचा करती. अपनी इसी इच्छा के चलते एक दिन नैना ने सारे बंधन झुठला दिए. प्रीति की रीति भुला दी.

बस्ती के एक छोर पर पत्थर की टूटी बैंच पर नैना बैठी थी. काले रंग की छींट की फ्रौक पहने, जिस पर सफेद गुलाबी रंग के गुलाब बने थे. फ्रौक की कहीं सिलाई खुली, कहीं रंग उड़ा, पर वह पैर पर पैर चढ़ाए किसी राजकुमारी की सी शान से बालों में जंगली पीला फूल लगाए बैठी थी. सब उसी को देख रहे थे.

इतराते हुए बड़ी अदा से नैना बोली, ‘‘जो मेरे लिए हीरे की अंगूठी लाएगा, मैं उसी से शादी करूंगी.’’

नैना की ऐसी विचित्र शर्त सुन कर सब की उम्मीदों पर जैसे पानी फिर गया. राहुल को तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

धन्नो काकी यह तमाशा देख कर ठहरीं और हाथ नचाते हुए बोलीं, ‘‘घर में खाने को भूंजी भांग नहीं, उतरन के कपड़े, मांगे का सम्मान, मां घरघर जूठे बरतन धोए, बाप फेरी लगाए और दारू पीए और ये पहनेंगी हीरे की अंगूठी,’’ ऐसा कह कर वे आगे बढ़ गईं.

रंग में भंग हुआ. शायद नैना का प्रण टूट ही जाता, पर तभी राहुल के मुंह से निकला, ‘‘मैं पहनाऊंगा तुम्हें हीरे की अंगूठी,’’ और सब हैरानी से उसे देखते रह गए.

राहुल, जिस के घर में खाने के भी लाले थे, बीमार पिता की दवा के लिए पूरे पैसे नहीं थे, छत गिर रही थी, एक छोटी बहन ब्याहने को बैठी थी, उस राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी देने का वचन दे दिया. वह भी उसे जो उस का इंतजार करेगी भी या नहीं, यह वह नहीं जानता.

सचमुच राहुल के लिए हीरे की अंगूठी खरीदना और आकाश के तारे तोड़ना एक समान था. अभी तो वह पढ़ रहा है. बड़ा होनहार लड़का है वह. टीचर उसे बहुत प्यार करते हैं. उस की मदद के लिए तैयार रहते हैं.

राहुल पढ़लिख कर कुछ बनना चाहता है. राहुल की मां भी चाहती है कि वह पढ़लिख कर अपनी जिंदगी संवारे, इसीलिए वह हाड़तोड़ मेहनत कर राहुल को पढ़ा रही है.

राहुल की मां 35-36 साल की उम्र में ही 60 साल की दिखने लगी है. उसे लगता है कि उस का बेटा जग से निराला है. एक दिन वह पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनेगा और उस की सारी गरीबी दूर हो जाएगी, इसीलिए जब उसे पता चला कि राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी पहनाने का वचन दिया है तो उस के मन को गहरी ठेस लगी. थकी आंखों की चमक फीकी हो कर बुझ सी गई.

राहुल में ही तो उस की मां के प्राण बसते थे. अब तक मन में एक इसी आस के भरोसे कितनी तकलीफ सहती आई है कि राहुल बड़ा होगा तो उस के सारे कष्ट दूर देगा. वह भी जीएगी, हंसेगी, सिर उठा कर चलेगी. आज उस का यह सपना पानी के बुलबुले सा फूट गया.

अब क्या करे? राहुल तो अब ऐसी तलवार की धार पर, कांटों भरी राह पर चल पड़ा है जिस के आगे अंधेरे ही अंधेरे हैं.

मां ने राहुल को समझाने की भरसक कोशिश की और कहा, ‘‘अभी तू इन सब बातों में मत पड़ बेटा. बहुत छोटा है तू. पहले पढ़लिख कर कुछ बन जा, फिर यह सब करना.’’

‘‘मुझे रुपए चाहिए मां.’’

‘‘रुपए पेड़ों पर नहीं फलते. हम लोग तो पहले से ही सिर से पैर तक कर्ज में डूबे हैं.’’

‘‘मां, तुम नहीं समझोगी इन सब बातों को.’’

‘‘मुझे समझना भी नहीं है. मेरे पास बहुतेरे काम हैं. तू अभी…’’ मां की बात पूरी होने से पहले ही राहुल बिफर उठता. अब वह अपनी मां से, अपनों से दूर होता जा रहा था. नैना और हीरे की अंगूठी अब राहुल और उस के अपनों के बीच एक ऐसी दीवार के रूप में खड़ी हो गई थी जो हर पल ऊंची होती जा रही थी. उसे तो एक ही धुन सवार थी कि जल्दी से जल्दी ढेर सारा पैसा कमाना है ताकि हीरे की अंगूठी खरीद सके.

राहुल जबतब किसी सुनार की दुकान के बाहर खड़ा हो कर अंदर देखा करता था. एक दिन उसे अंदर झांकते देख दरबान ने डांट कर भगा दिया. नैना को पाने की ख्वाहिश में वह अपनी हैसियत वगैरह सब भूल गया था.

राहुल को यह भी नहीं समझ आया कि वह नैना को प्यार करता है और नैना हीरे की अंगूठी को प्यार करती है. उस ने तो बस अपनी कामना का उत्सव मनाना चाहा, समर्पण के बजाय अपनी इच्छा को पूरा करने का जरीया बनाना चाहा.

राहुल अपनी पढ़ाई छोड़ इस शहर से बहुत दूर जा रहा था. जाने से पहले नैना से विदा लेने आया वह. भुट्टा खाती, एक छोटी सी मोटी दीवार पर बैठी पैर हिलाती नैना को वह अपलक देखता रहा.

नैना से विदा लेते हुए राहुल की आंखें मानो कह रही थीं, ‘काश, तुम जान सकती, पढ़ सकतीं मेरा मन और देख सकतीं मेरे दिल के भीतर जिस में बस तुम ही तुम हो और तुम्हारे सिवा कोई नहीं और न होगा कभी.

‘मैं ने वादा किया है तुम से, मैं लौट कर आऊंगा और सारे वचन निभाऊंगा. लाऊंगा अपने साथ अंगूठी जो होगी हीरे से जड़ी होगी, जैसी तुम्हारी उजली हंसी है. तुम मेरा इंतजार करना नैना. कहीं और दिल न लगा लेना. मैं जल्दी आ जाऊंगा. तुम मेरा इंतजार करना.’

राहुल अपने परिवार को छोड़ सब के सपने ताक पर रख हीरे की अंगूठी खरीदने के जुगाड़ में चल पड़ा. मां पुकारती रह गई. घर की जिम्मेदारियां गुहार लगाती रहीं. सुनहरा भविष्य पलकें बिछाए बैठा रह गया और राहुल सब को छोड़ कर दूसरी ओर मुड़ गया.

शहर आ कर राहुल ने 18-18 घंटे काम किया. ईंटगारा ढोना, अखबार बांटना, पुताई करना से ले कर न जाने कैसेकैसे काम किए. वहीं उसे प्रकाश मिला था, जो उसे गन्ना कटाई के लिए गांव ले गया. हाथों में छाले पड़ गए. गोरा रंग जल कर काला पड़ गया, पर रुपए हाथ में आते गए. हिम्मत बढ़ती गई.

अंधेरी स्याह रातों में कहीं कोने में गुड़ीमुड़ी सा पड़ा राहुल सोते समय भी सुबह का इंतजार करता रहता. मीलों दूर रहती नैना को देखने के लिए वह छटपटाता रहता.

समय का पहिया घूमता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए. हीरे की अंगूठी की शर्त लोग भूल गए, पर राहुल नहीं भूला. बड़ी मुश्किल से, कड़ी मेहनत से आखिरकार उस ने पैसे जोड़ कर अंगूठी खरीद ही ली.

इस बीच कितनी बार ये पैसे निकालने की नौबत आई, मां बीमार पड़ी, बहन की शादी तय होतेहोते पैसे की कमी के चलते रुक गई, वह खुद भी बीमार पड़ा, घर के कोने की छत टपकने लगी, पर उस ने इन पैसों पर आंच न आने दी और आज बिना एक पल गंवाए वह हीरे की अंगूठी ले कर जब नैना के घर की ओर चला तो पैर जैसे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

राहुल शहर से लौट कर सब से पहले अपनी मां के गले कुछ ऐसे लिपटा मानो कह रहा हो, ‘मां, तेरा राहुल जीत गया. अब नैना को तुम्हारी बहू बनाने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि तेरा राहुल नैना की शर्त पूरी कर के ही लौटा है.’

मां ने उस का ध्यान तोड़ते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक हो न बेटा? कहां चले गए थे तुम इतने दिनों तक? क्या तुम्हें अपनी बीमार मातापिता और बहन की याद भी नहीं आई?’’ कहते हुए वह सिसकने लगी.

‘‘मां, अब रोनाधोना बंद करो. अब मैं आ गया हूं न. अपनी नैना को तेरी बहू बना कर लाने का समय आ गया. अब तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा.’’

‘‘हां बेटा, अब काम ही क्या है… तेरे मातापिता अब बूढ़े हो चले हैं. जवान बहन घर में बैठी है. तुम जिस नैना के लिए हीरे की अंगूठी लाए हो न, उसे पहले ही कोई और हीरे की अंगूठी पहना कर ले जा चुका है.’’

‘‘झूठ न बोलो मां. हां, मेरी नैना को कोई नहीं ले जा सकता.’’

‘‘ले जा चुका है बेटा. तेरी नैना को हीरे की अंगूठी से प्यार था, तुझ से नहीं, जो उसे कोई और पहना कर ले गया. तुझे रूपवती लड़की चाहिए थी, गुणवती नहीं और उसे हीरे की अंगूठी चाहिए थी, हीरे जैसा लड़का नहीं.

‘‘उसे हीरे की अंगूठी तो मिल गई, पर हीरे की अंगूठी देने वाला पक्का शराबी है. तुम हो कि ऐसी लड़की के लिए घर, मातापिता और बहन सब छोड़ कर चल दिए.’’

‘‘बस मां, बस करो अब,’’ राहुल रोते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

राहुल को लगा कि वह भीड़ भरी राह पर सरपट दौड़ा चला जा रहा है. गाडि़यां सर्र से दाएंबाएं, आगेपीछे से गुजर रही हैं. उसे न कुछ दिखाई दे रहा है, न सुनाई दे रहा है. एकाएक किसी का धक्का लगने से वह गिरा. आधा फुटपाथ पर और आधा सड़क पर. हां, प्यार के पागलपन में कितनाकुछ गंवा दिया, यह समझ आते ही पछतावे से भरा राहुल उठ खड़ा हुआ.

सपना टूटते ही राहुल अपनेआप को सहजता की राह पर चला जा रहा था, अपनी बहन के लिए हीरे जैसे लड़के की तलाश में.                             द्य

उपलब्धि : शीला को किसकी आवाज सुनाई दे रही थी

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

लाड़ली : आराधना की मौत कैसे हुई

‘‘चा ची, आप को

तो आना ही पड़ेगा… आप ही तो अकेली घर की बुजुर्ग हैं… और बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना शादीब्याह के कार्यक्रम अपूर्ण ही होते हैं,’’ जेठ के बेटेबहू के इस अपनापन से भरे आग्रह को सावित्री टाल न सकी पर अंदर ही अंदर जिस बात से वह डरती थी वही हुआ. न चाहते हुए भी वहां स्वस्तिका से सावित्री

का सामना हो गया. यद्यपि स्वस्तिका सावित्री की रिश्ते में नातिन थी फिर भी वह उस की आंख की किरकिरी बन गई थी.

आराधना की मौत हुए अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ था पर स्वस्तिका के चेहरे पर अपनी मां की मौत का तनिक भी अफसोस नहीं था बल्कि वह तो अपने पति की बांहों में बांहें डाले हंसती हुई सावित्री के सामने से निकल गई थी. यह देख कर उन का मन बेचैन हो उठा और तबीयत ठीक न होने का बहाना कर वह घर लौट आई थीं.

सावित्री की जल्दबाजी से प्रकाश और विभा को भी घर लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही प्रकाश झल्ला पड़ा, ‘‘मां, तुम भी कमाल करती हो…जब स्वस्तिका से अपना कोई संबंध ही नहीं रहा तो उस के होने न होने से हमें क्या फर्क पड़ता है.’’

विभा ने भी समझाना चाहा, ‘‘मम्मी- जी, कब तक यों स्वयं को कष्ट देंगी आप. जिसे दुखी होना चाहिए वह तो सरेआम हंसतीखिलखिलाती घूमती है…’’

सावित्री बेटेबहू की बातों पर चुप ही रही. क्या कहती? प्रकाश और विभा गलत भी तो नहीं थे.

कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गईं पर अशांत मन चैन नहीं पा रहा था. बारबार स्वस्तिका के चेहरे में झलकती आराधना की तसवीर आंखों में तैर जाती.

सहसा सावित्री के विचारों में स्वस्तिका की उम्र वाली आराधना याद हो आई. आराधना भी बिलकुल ऐसी ही मस्तमौला थी पर तुनकमिजाज…जिद्दी ऐसी कि 2-2 दिनों तक भूखी रहती थी पर अपनी बात मनवा के दम लेती.

शेखर कहते भी थे कि बेटी को जरूरत से ज्यादा सिर चढ़ाओगी तो पछताओगी, सावित्री. पर कब ध्यान दिया सावित्री ने उन बातों पर. सावित्री के लाड़प्यार की शह में तो आराधना बिगड़ैल बनती गई.

पिताजी का डर था जो थोड़ीबहुत आराधना की लगाम कस के रखता था, वह भी उन की अचानक मौत के बाद जाता रहा. अब वह सुबह से नाश्ता कर कालिज निकल जाती तो बेलगाम हो कर दिन भर सहेलियों के साथ घूमती रहती.

सावित्री कुछ कहती तो आराधना झल्ला पड़ती. उस का समयअसमय आना- जाना जरूरत से ज्यादा बढ़ता जा रहा था.

प्रकाश भी अब किशोर से जवान हो रहा था. उसे दीदी का देर रात तक घूमनाफिरना और रोज अलगअलग पुरुष मित्रों का घर तक छोड़ने आना अटपटा लगता पर क्या कहता वह? कहता तो छोटे मुंह बड़ी बात होती.

1-2 बारप्रकाश ने मां से कहने की कोशिश भी की पर आराधना ने घुड़क दिया, ‘तुम अपना मन पढ़ाई में लगाओ, मेरी चिंता मत करो. मैं कोई नासमझ नहीं हूं, अपना भलाबुरा अच्छी तरह समझती हूं.’

प्रकाश ने मां की ओर देखा पर वह भी बेटी का समर्थन करते हुए बोलीं, ‘प्रकाश, तुम छोटे हो अभी. आराधना बड़ी हो चुकी है, वह जानती है कि उस के लिए क्या सही है क्या गलत.’

सावित्री ने आराधना को नाराज होने से बचाने के लिए प्रकाश को चुप तो कर दिया पर मन ही मन वह भी आराधना की इन हरकतों से चिंतित थीं. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि नहीं…मेरी बेटी गलत कदम कभी नहीं उठाएगी.

पर कोरे निराधार विश्वास ज्यादा समय तक कहां टिक पाते हैं? आखिर वही हुआ जिस की आशंका सावित्री को थी.

एक दिन आराधना बदले रूप के साथ घर लौटी. साथ में खड़े व्यक्ति का परिचय कराते हुए बोली, ‘मां, ये हैं डा. मोहन शर्मा.’

आराधना के शरीर पर लाल सुर्ख साड़ी, भरी मांग देख सावित्री को सारा माजरा समझ में आ गया पर घर आए मेहमान के सामने बेटी पर चिल्लाने के बजाय अगले ही पल उलटे कदमों अपने कमरे में आ गईं.

आराधना भी अपनी मां के पीछेपीछे कमरे में आ गई, ‘मां, सुनो तो…’

‘अब क्या सुना रही हो, आराधना?’ सावित्री लगभग रोते हुए बोलीं, ‘तू ने तो एक पल को भी अपनी मां की भावनाओं के बारे में नहीं सोचा. अरे, एक बार कहती तो मुझ से…तेरी खुशी के लिए मैं खुद तैयार हो जाती.’

‘मां, मोहन ने ऐसी जल्दी मचाई कि वक्त ही नहीं मिला.’

आराधना की बात पूरी होने से पहले ही सावित्री के मन को यह बात खटक गई, ‘जल्दी मचाई…क्यों? शादीब्याह के कार्य जल्दबाजी में निबटाने के लिए नहीं होते, आराधना… और यह डा. मोहन कौन है, कहां का है…इस का घरपरिवार, अतापता कुछ जानती भी है तू या नहीं?’

‘मां, डा. मोहन बहुत अच्छे इनसान हैं. बस, मैं तो इतना जानती हूं. मेडिकल कालिज के परिसर में इन का क्वार्टर है, जहां यह अकेले रहते हैं. रही बाकी परिवार की बात तो अब शादी की है तो वह भी पता चल जाएगा. मां, मैं तो एक ही बात जानती हूं, जिस का वर्तमान अच्छा है उस का भविष्य भी अच्छा ही होगा….तुम नाहक चिंता न करो. अब उठो भी, मोहन बैठक में अकेले बैठे हैं.’

यह तो ठीक है कि वर्तमान अच्छा है तो भविष्य भी अच्छा ही होगा है पर इन दोनों का आधार तो अतीत ही होता है न. किसी का पिछला इतिहास जाने बिना इस तरह आंखें मूंद कर विश्वास कर लेना मूर्खता ही तो है. सावित्री चाह कर भी नहीं समझा पाई आराधना को और अब समझाने से लाभ भी क्या था.

सावित्री ने खुद के मन को ही समझा लिया कि चलो, आराधना ने कम से कम ऐरेगैरे से तो विवाह नहीं रचाया. डाक्टर है लड़का. आर्थिक परेशानी की तो बात नहीं रहेगी.

2 वर्ष भी नहीं बीत पाए और एक दिन वही हुआ जिस का डर सावित्री को था. आराधना मोहन द्वारा मार खाने के बाद 6 माह की स्वस्तिका को ले कर मायके आ गई थी.

मोहन पहले से विवाहित, 2 बच्चों का बाप था. आराधना से उस ने विवाह मंदिर में रचाया था जिस का न कोई प्रमाण था न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी. बिना पूर्व तलाक के जहां यह विवाह अवैध सिद्ध हो गया वहीं स्वस्तिका का जन्म भी अवैधता की श्रेणी में आ गया.

आज सावित्री को शेखर अक्षरश: सत्य नजर आ रहे थे. उस का अंत:करण स्वयं को धिक्कार उठा, ‘मेरा आवश्यकता से अधिक लाड़, बारबार आराधना की गलतियों पर प्रेमवश परदा डालने का प्रयास, उस की नाजायज जिद का समर्थन वीभत्स रूप में बदल कर ही तो मेरे समक्ष खड़ा हो मुझे मुंह चिढ़ा रहा है.’

आराधना ने नौकरी ढूंढ़ ली. स्वस्तिका को संभालने का जिम्मा अब सावित्री का था.

जो भूल आराधना के साथ की वह स्वस्तिका के साथ नहीं दोहराऊंगी, मन ही मन तय किया था सावित्री ने, पर जैसजैसे स्वस्तिका बड़ी होती जा रही थी आराधना के लाड़प्यार ने उसे बिगाड़ना शुरू कर दिया था. सावित्री कुछ समझाती तो बजाय बात को समझने के आराधना बेटी का पक्ष ले कर अपनी मां से लड़ पड़ती. पिता के प्यार की भरपाई भी आराधना अपनी ओर से कर डालना चाहती थी और इसी प्रयास में वह स्वयं का ही प्रतिरूप तैयार करने की भूल कर बैठी.

आराधना के मामलों में तो सावित्री हरदम प्रकाश की अनसुनी कर दिया करती थी पर अब प्रकाश उन्हें शेखर की तरह ही संजीदा व सही प्रतीत होता.

स्वस्तिका की 10वीं की परीक्षा थी. गणित में कमजोर होने के कारण आराधना एक दिन सतीश नाम के एक ट्यूटर को घर ले आई और बोली, ‘कल से यह स्वस्तिका को गणित पढ़ाने आएगा.’

22 साल का सतीश प्रकाश के मन को खटक गया लेकिन आराधना दीदी के स्वभाव को जानते हुए वह चुप ही रहा.

जब भी सतीश स्वस्तिका को पढ़ाने आता प्रकाश की नजरें उन के क्रियाकलापों का जायजा लेती रहतीं. कान सचेत हो कर उन के बीच हो रही बातचीत पर ही लगे रहते. प्रकाश को भय था कि आराधना दीदी की तरह ही कहीं स्वस्तिका का हश्र न हो.

एक दिन प्रकाश ने स्वस्तिका को सतीश के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा तो उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया.

शाम को आराधना के दफ्तर से आते ही स्वस्तिका फफक कर रोने लगी, ‘मम्मी, प्रकाश मामा को समझा दो. हर समय हमारी जासूसी करते हैं. आज जरा सी बात पर सर को धक्का दे कर घर से निकाल दिया.’

‘क्यों प्रकाश? यह किस तरह का बरताव है?’ बिना अपनी लाड़ली की गलती जानेसमझे आराधना अपनी आदत के अनुसार गरज पड़ी.

‘दीदी, वह जरा सी बात क्या है यह अपनी लाड़ली से नहीं पूछोगी?’ प्रकाश भी तमतमा गया.

आराधना ने इसे अहं का विषय बना डाला, ‘ओह, तो अब हम मांबेटी तुम लोगों को भारी पड़ने लगे हैं, लेकिन यह मत भूलो कि कमाती हूं, घर में पैसे भी देती हूं. इसलिए हक से रहती हूं. तुम्हें पसंद नहीं तो हम अलग रह लेंगे, एक मकान लेने की हैसियत है मुझ में.’

बात बिगड़ती देख सावित्री ने दोनों को समझाना चाहा पर आराधना ठान चुकी थी. हफ्ते भर में नया मकान देख स्वस्तिका को ले कर चली गई. सतीश फिर उसे पढ़ाने आने लगा. न चाहते हुए भी सावित्री व प्रकाश चुप रहे. कहते भी तो सुनता कौन?

उन्हीं दिनों अचानक आराधना का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. स्थानीय डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए. मुंबई अथवा दिल्ली के बड़े चिकित्सा संस्थानों में दिखाने के लिए कहा गया. प्रकाश पुराने गिलेशिकवे भुला कर दीदी को मुंबई ले गया. आखिर भाई था वह और उस के सिवा और कोई पुरुष था भी तो नहीं घर में जो आराधना के साथ बड़े शहरों के बड़ेबड़े अस्पतालों में चक्कर काटता.

डाक्टरों ने बताया कि आराधना को कैंसर है जो अंतिम अवस्था तक पहुंच चुका है. जीवन की डोर को केवल 6 माह तक और खींचा जा सकता है. वह भी केवल दवाइयों व इंजेक्शनों के आधार पर.

ऐसे हालात में सावित्री व प्रकाश का आराधना के साथ रहना निहायत जरूरी हो गया था. साथ रहते हुए प्रकाश को स्वस्तिका व सतीश की नाजायज हरकतें पुन: नजर आने लगीं. पर बात का बतंगड़ न बन जाए यह सोच कर वह चुप रहा, केवल मां से ही बात की. मौका देख कर सावित्री ने आराधना को इस बारे में सचेत करना चाहा. इस बार आराधना ने भी हंगामा नहीं मचाया बल्कि स्वस्तिका को बुला कर इस बारे में बात की.

स्वस्तिका शायद अवसर की खोज में ही थी इसलिए साफ शब्दों में उस ने कह दिया कि वह सतीश से प्यार करती है और वह भी उसे चाहता है.

अगले दिन आराधना ने सावित्री व प्रकाश को अपना निर्णय सुना दिया, ‘प्रकाश, तुम पर बड़ी जिम्मेदारी डाल रही हूं. इसी माह स्वस्तिका की शादी सतीश से करनी है. उस के घर वालों से बात कर लो व शादी की तैयारी शुरू कर दो. सुविधा के लिए मैं अपने बैंक खाते को तुम्हारे नाम के साथ संयुक्त कर देती हूं ताकि पैसा निकालने में तुम्हें सुविधा हो. तुम पैसे की चिंता बिलकुल मत करना. मैं चाहती हूं अपने जीतेजी बेटी को ब्याह कर जाऊं.’

शायद यह खुद के विधिविधान से विवाह संस्कार न हो पाने की अधूरी चाह थी जिसे आराधना स्वस्तिका के रूप में देखना चाहती थी.

सब कुछ आराधना की इच्छानुसार हो गया. सतीश के दामाद बनते ही स्वस्तिका ने नए तेवर दिखाना शुरू कर दिए, ‘मम्मी, अब मैं और सतीश तो हैं न तुम्हारी देखभाल करने के लिए….नानी और मामा को वापस अपने घर भेज दो.’

प्रकाश ने सुना तो खुद ही सावित्री को साथ ले कर अपने घर लौट आया. सावित्री घर आ कर बारबार दवाई व इंजेक्शनों के समय पर बेचैन हो जातीं कि पता नहीं स्वस्तिका ठीक समय पर दवाई दे पाती है या नहीं. अभी 2 हफ्ते भी नहीं गुजरे थे कि एक शाम सतीश का फोन आया, ‘नानीजी, जल्दी आ जाइए, मम्मीजी हमें छोड़ कर चली गईं.’

‘क्या?’ सावित्री सुन कर अवाक् रह गईं.

सावित्री को साथ ले कर बदहवास सा प्रकाश आराधना के घर पहुंचा पर तब तक तो सारा खेल खत्म हो चुका था.

सभी अंतिम क्रियाकर्म प्रकाश ने ही पूरा किया. अस्थि कलश के विसर्जन का समय आया तो स्वस्तिका आ गई, ‘मामाजी, पहले उस संयुक्त खाते का हिसाबकिताब साफ कर दीजिए उस के बाद कलश को हाथ लगाइएगा.’

रिश्तेदारों का लिहाज न होता तो स्वस्तिका व सतीश को उन की इस धृष्टता का प्रकाश अच्छा सबक सिखाता पर रिश्तेदारों के सामने कोई तमाशा न हो यह सोच कर अपने क्रोध को किसी तरह दबा लिया और स्वस्तिका की इच्छानुसार कार्य करते हुए अपने सारे कर्तव्य पूरे कर दिए.

सावित्री वापस लौटने वाली थीं. आराधना के कमरे की सफाई करते समय अचानक उन की नजर अलमारी में पड़े दवा के डब्बे पर गई जो स्वस्तिका के विवाह के बाद घर लौटने से पहले प्रकाश ने ला कर रखा था. खोल कर देखा तो सारी दवाइयां व इंजेक्शन उसी तरह पैक ही रखे थे.

सावित्री का माथा ठनका. तो क्या स्वस्तिका ने पिछले दिनों आराधना को दवाइयां दी ही नहीं? यह सोच कर सावित्री ने स्वस्तिका को आवाज लगाई.

‘क्या है, नानी?’

खुला डब्बा दिखाते हुए सावित्री ने पूछा, ‘स्वस्तिका, तुम ने अपनी मम्मी को दवाइयां नहीं दीं?’

‘हां, नहीं दीं…तो? क्या गलत किया मैं ने? तकलीफ में थीं वह…और आज नहीं तो 4 माह बाद जाने ही वाली थीं न हमें छोड़ कर…तो अभी चली गईं…क्या फर्क पड़ गया?’

‘बेशरम, मेरी बेटी की जान लेने वाली तू डाइन है…पूरी डाइन.’

पसीने से तरबतर सावित्री हड़बड़ा कर बिस्तर से उठ बैठीं…अतीत की वे यादें आज भी उन्हें बेचैन कर देती हैं. न जाने उस दिन कौनकौन सी गालियां दे कर सावित्री ने हमेशा के लिए स्वस्तिका से रिश्ता तोड़ दिया था. सावित्री का सिर भारी हो गया.

सुना तो यही था कि बेटियां मां का दर्द बांटती हैं फिर स्वस्तिका बेटी हो कर भी अपनी मां के प्रति इतनी कठोर कैसे बन गई. शायद आराधना की शिक्षा में ही कोई कसर रह गई थी…आखिर बेटी अपनी मां से ही तो संस्कार पाती है. नहींनहीं…फिर तो पूरी गलती आराधना की भी नहीं है…गलत तो मैं ही थी…आराधना ने तो वही संस्कार स्वस्तिका को दिए जो मुझ से पाए थे.

काश, मैं ने आराधना को सहेज कर रखा होता तो आज उस की संतान में उस कुटिल व्यक्ति का कलुषित खून न होता जो आज उस का पिता न हो कर भी पिता था. काश, मैं ने आराधना की नाजायज बातों पर प्रेमवश परदा डालने के बजाय उसे ऊंचनीच का ज्ञान कराया होता, उस की हर गलत बात पर किए गए मेरे समर्थन का नतीजा ही तो था जो आराधना स्वभाव से अक्खड़ बन गई थी. आराधना ने भी वही सब स्वस्तिका को दिया जो मैं ने परवरिश में उस की झोली में डाला था.

जब भी स्वस्तिका से सावित्री का सामना होता वह अपने इन्हीं विचारों के अनसुलझे मकड़जाल में फंस कर रह जाती. अपने लाड़ के अतिरेक से ही तो अपनी लाड़ली को खो चुकी थी वह और शायद लाड़ली की लाड़ली को भी.

लेखक- स्निग्धा श्रीवास्तव

मूव औन माई फुट : विक्रम किससे मिलने दिल्ली गया था

‘‘तुमयकीन नहीं करोगी पर कुछ दिनों से मैं तुम्हें बेइंतहा याद कर रहा था,’’ विक्रम बोला.

‘‘अच्छा,’’ मिताली बोली.

‘‘तुम अचानक कैसे आ गईं?’’

‘‘किसी काम से दिल्ली आई थी और इसी तरफ किसी से मिलना भी था. मगर वह काम हुआ नहीं. फिर सोचा इतनी दूर आई हूं तो तुम से ही मिलती चलूं. तुम्हारे औफिस आए जमाने हो चले थे.’’

‘‘औफिस के दरदीवार तुम्हें बहुत मिस करते हैं?’’ विक्रम फिल्मी अंदाज में बोला.

वह बहुत जिंदादिल और प्रोफैशनल होने के साथसाथ बेहद कामयाब इंसान भी था.

‘‘यार प्लीज, तुम अब फिर से यह फ्लर्टिंग न शुरू करो,’’ मिताली हंसती हुई बोली.

‘‘क्या यार, तुम खूबसूरत लड़कियों की यही परेशानी है कि कोई प्यार भी जताए तो तुम्हें फ्लर्टिंग लगती है.’’

‘‘सच कह रहे हो… तुम क्या जानो खूबसूरत होने का दर्द.’’

‘‘उफ, अब तुम अपने ग्रेट फिलौसफर मोड में मत चली जाना,’’ विक्रम दिल पर हाथ रख फिल्मी अंदाज में बोला.

‘‘ओ ड्रामेबाज बस करो… तुम जरा भी नहीं बदले,’’ वह खिलखिलाती हुई बोली.

‘‘मैं तुम सा नहीं जो वक्त के साथ बदल जाऊं.’’

‘‘अरे इतने सालों बाद आई हूं कुछ खानेपीने को तो पूछ नालायक,’’ उस ने बातचीत को हलका ही रहने दिया और विक्रम का ताना इग्नोर कर दिया.

‘‘ओह आई एम सौरी. तुम्हें देख कर सब भूल गया. चाय लोगी न?’’

‘‘तुम्हारा वही पुराना मुंडू है क्या? वह तो बहुत बुरी चाय बनाता है,’’ उस ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हां वही है. पर तुम्हारे लिए चाय मैं बना कर लाता हूं.’’

‘‘अरे पागल हो क्या… तुम्हारा स्टाफ क्या सोचेगा. तुम बैठो यहीं.’’

‘‘अरे रुको यार तुम फालतू की दादागीरी मत करो. अभी आया बस 5 मिनट में. औफिस किचन में बना कर छोड़ आऊंगा. सर्व वही करेगा,’’ कह वह बाहर निकल गया.

मिताली भी उठ कर औफिस की खिड़की पर जा खड़ी हुई. कभी इसी

बिल्डिंग में उस का औफिस भी था और वह भी सेम फ्लोर पर. वह और विक्रम 11 बजे की चाय और लंच साथ ही लेते थे. शाम को एक ही वक्त औफिस से निकलते थे. हालांकि अलगअलग कार में अपने घर जाते थे पर पार्किंग में कुछ देर बातें करने के बाद.

पूरी बिल्डिंग से ले कर आसपास के औफिस एरिया तक में सब को यही लगता था कि उन का अफेयर है. पर…

‘‘तुम फिर अपनी फैवरिट जगह खड़ी

हो गई?’’

‘‘बन गई चाय?’’

‘‘और क्या? मैडम आप ने हमारे प्यार की कद्र नहीं की… हम बहुत बढि़या हसबैंड मैटीरियल हैं.’’

‘‘स्वाह,’’ कह मिताली जोर से हंस पड़ी.

‘‘स्वाह… सिरमिट्टी सब करा लो पर अब तो हां कर दो.’’

तभी औफिस बौय चाय रख गया.

‘‘अब किस बात की हां करनी है?’’

‘‘मुझ से शादी की.’’

चाय का कप छूटतेछूटते बचा मिताली के हाथ से. बोली, ‘‘पागल हो क्या?’’

‘‘दीवाना हूं.’’

‘‘मेरा बेटा है 3 साल का… भूल गए हो तो याद दिला दूं.’’

‘‘सब याद है. मुझे कोई प्रौब्लम नहीं. उस के बिना नहीं रहना तुम्हें. साथ ले आओ.’’

‘‘अच्छा, बहुत खूब. क्या औफर है. और तुम्हें यह क्यों लगता है कि मैं इस औफर को ऐक्सैप्ट कर लूंगी?’’

‘‘शादी के बाद आज मिली हो इतने सालों बाद पर साफ दिख रहा है तुम अब भी मुझ से ही प्यार करती हो. तुम्हारी आंखें आज भी पढ़ लेता हूं मैं.’’

‘‘तो?’’

‘‘मतलब तुम मानती हो तुम अब भी मुझ से ही प्यार करती हो.’’

‘‘नहीं. मैं यह मानती हूं कि मैं तुम से भी प्यार करती हूं.’’

‘‘वाह,’’ विक्रम तलख हो उठा.

‘‘प्यार भी 2-4 से एकसाथ किया जा सकता है, यह मुझे मालूम न था.’’

‘‘ये सब क्या है यार… इतने समय बाद आई हूं और तुम यह झगड़ा ले बैठे.’’

विक्रम जैसे नींद से जागा, ‘‘सौरी, मुझे तुम्हें दुखी नहीं करना चाहिए है न? यह राइट तो तुम्हारे पास है.’’

‘‘विक्रम तुम्हें अच्छी तरह पता है मैं आदित्य से प्यार करती हूं. वह बेहद अच्छा और सुलझा हुआ इंसान है. उसे हर्ट करने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती. तुम्हारी इन्हीं बातों की वजह से मैं ने तुम्हारा फोन उठाना बंद कर दिया. और अब लग रहा है आ कर भी गलती की.’’

विक्रम बेहद गंभीर हो गया. सीट से उठ कर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ. फिर मुड़ कर पास की अलमारी खोली. अलमारी के अंदर ही अच्छाखासा बार बना रखा था.

मिताली बुरी तरह चौंकी, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘क्यों, दिख नहीं रहा? शराब है और क्या.’’

‘‘यह कब से शुरू की?’’

‘‘डेट नोट नहीं की वरना बता देता.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही.’’

‘‘मैं भी मजाक नहीं कर रहा.’’

‘‘अच्छा, तो यह नुमाइश मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने के लिए कर रहे हो कि देखो तुम्हारे गम में मेरी क्या हालत है.’’

‘‘तुम हुईं?’’

‘‘नहीं रत्तीभर भी नहीं,’’ मिताली मुंह फेर कर बोली.

‘‘मुझे पता है तुम स्ट्रौंग हैड लड़की हो… यह तुम्हें मेरे करीब नहीं ला सकता, बल्कि तुम इरिटेट हो कर और दूर जरूर हो सकती हो. वैसे इस से दूर और क्या जाओगी,’’ कह तंज भरी हंसी हंसा.

‘‘मैं ने तो सुना था तुम्हारी सगाई हो गई है. मैं तो मुबारकबाद देने आई थी.’’

‘‘वाह, क्या खूब. तो नमक लगाने आई हो या अपना गिल्ट कम करने?’’

‘‘मैं ने सचमुच आ कर गलती की.’’

‘‘मैं तो पहले ही कह रहा हूं तुम और इरिटेट हो जाओगी.’’

‘‘ठीक है तो फिर चलती हूं?’’

‘‘जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’

मिताली उठ खड़ी हुई.

विक्रम बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘सुनो…’’

‘‘कुछ रह गया कहने को अभी?’’

‘‘मुझे ही क्यों छोड़ा?’’

‘‘तुम ज्यादा मजबूत थे.’’

‘‘तो यह मजबूत होने की सजा थी?’’

‘‘पता नहीं, पर आदित्य बहुत इमोशनल है और उसे बचपन से हार्ट प्रौब्लम भी है और यह मैं पहले ही बता चुकी हूं.’’

‘‘तुम्हें ये सब पहले नहीं याद रहा था?’’

‘‘विक्रम क्यों ह्यूमिलिएट कर रहे हो यार… जाने दो न अब.’’

‘‘नहीं मीता… बता कर जाओ आज.’’

‘‘विक्रम मैं इस शहर में पढ़ने आई थी. फिर अच्छी जौब मिल गई तो और रुक गई.’’

‘‘आदित्य और मैं बचपन के साथी थे. उस का प्यार मुझे हमेशा बचपना या मजाक लगा. सोचा नहीं वह सीरियस होगा इतना. फिर तुम्हारे पास थी यहां इस शहर में बिलकुल अकेली तो तुम से बहुत गहरा लगाव हो गया. पर मैं ने शादी जैसा तो कभी न सोचा था न चाहा. न कभी कोई ऐसी बात ही कही थी तुम से. कोई हद कभी पार नहीं की.’’

‘‘अरे कहना क्या होता है?’’ वह लगभग चीख पड़ा, ‘‘सब को यही लगता था हम प्यार में हैं. सब को दिखता था… तुम ने ही जानबूझ कर सब अनदेखा किया और जब उस आदित्य का रिश्ता आया तो मुझे पलभर में भुला दिया. बस एक कार्ड भेज दिया?’’ सालों का लावा फूट पड़ा था.

मिताली चुप खड़ी रही.

‘‘बोलो कुछ?’’ वह फिर चिल्लाया.

‘‘क्या बोलना है अब. मुझे इतना पता है जब आदित्य ने प्रोपोज किया, तो मैं उसे न कर के हर्ट नहीं कर पाई. मेरे और उस के दोनों परिवार भी वहीं थे. पापा को क्या बोलूं कुछ समझ न आया और सब से बड़ी बात आदित्य मुझे ले कर ऐसे आश्वस्त था जैसे मैं बरसों से उसी की हूं. उसे 15 सालों से जानती थी और तुम्हें बस सालभर से. श्योर भी नहीं थी तुम्हें ले कर. तुम्हारे लिए मुझे लगता था तुम खुशमिजाज मजबूत लड़के हो, जल्दी मूव औन कर जाओगे.’’

‘‘मूव औन,’’ विक्रम बहुत ही हैरानी से चीखा, ‘‘मूव औन माई फुट. ब्लडी हैल… साला जिंदगीभर यह सालेगा. इस से तो लड़कियों की तरह दहाड़ें मार कर तुम्हारे आगे रो लिया होता. कम से कम तुम छोड़ के तो न जातीं.’’

‘‘ओ हैलो… कहां खोए हो?’’

विक्रम सोच के समंदर से बाहर आया. मिताली तो कब की जा चुकी थी और वह खुद ही सवालजवाब कर रहा था.

‘‘तुम गई नहीं?’’

‘‘पर्स छूट गया था उसे लेने आई हूं.’’

‘‘बस पर्स?’’

‘‘हां बस पर्स,’’ वह ठहरे लहजे में बोली, ‘‘बाय, अपना खयाल रखना,’’ कह कर बाहर निकल गई.

लिफ्ट बंद होने के साथ ही उस की आंखें छलक उठीं, ‘‘छूट तो बहुत कुछ गया यहां विक्रम. पर सबकुछ समेटने जितनी मेरी मुट्ठी नहीं. कुछ समेटने के लिए कुछ छोड़ना बेहद जरूरी है.’’

‘‘सर, आप मैडम को बहुत प्यार करते थे न?’’ टेबल से चाय के कप उठाते हुए उस के मुंडू ने पूछा. आखिर वही था जो तब से अब तक नहीं बदला था.

‘‘प्यार तो नहीं पता रे, पर साला आज तक यह बरदाश्त न हुआ कि मुझ पर इतनी लड़कियां मरती थीं… फिर यह ऐसे कैसे छोड़ गई मुझे…’’ कह उस ने गहरी सांस ली.

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