Serial Story- रिश्तों से परे: भाग 1

जून का मौसम अपनी पूरी गरमाहट से स्टे्रटफोर्ड के निवासियों का स्वागत करने आ गया था. उस ने यहां पर जिन पेड़ों को बिलकुल नग्न अवस्था में देखा था, वे अब विभिन्न आकार के पत्तों से सुसज्जित हो हवा में नृत्य करने लगे थे. चैरी के पेड़ों पर फूलों के गुच्छे आने वाले को अपनी ओर आकर्षित तो कर ही रहे थे, अपनी छाया में बिठा कर विश्राम भी दे रहे थे. यह वही स्टे्रटफोर्ड है जहां महान साहित्यकार शेक्सपियर ने जन्म लिया था. अभीअभी वह शेक्सपियर के जन्मस्थान को देख कर आई थी. लकड़ी का साफसुथरा 3 मंजिल का घर, जहां आज भी शेक्सपियर पालने में झूल रहा था, आज भी वहां गुलाबी रंग की खूबसूरत शानदार मसहरी रखी हुई थी, आज भी साहित्यकार की मां का चूल्हा जल रहा था. जिस शेक्सपियर को उस ने पढ़ा था, उस को वह महसूस कर पा रही थी.

सोने में सुहागा यह कि वह उस समय वहां पहुंची थी जब शेक्सपियर का जन्मदिवस मनाया जा रहा था. नुमाइश देख कर वह उसी से संबंधित दुकान में गई. जैसे ही वह दुकाननुमा स्टोर से बाहर निकली, अपने सामने शेक्सपियर को खड़ा पाया. वही कदकाठी, वही काली डे्रस. एकदम भौचक रह गई. रूथ ने अंगरेजी में बताया था, ‘इस आदमी ने शेक्सपियर का डे्रसअप कर रखा है. जैसे आप के भारत में बहुरूपिए होते हैं…’ समझने के अंदाज में उस ने गरदन हिलाई और अन्य कई लोगों को जमीन पर पड़े हुए काले कपड़े पर पैसे डालते हुए देख कर उस ने 20 पैंस का एक सिक्का उस कपडे़ पर उछाल दिया.

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भारत से इंगलैंड आए हुए उसे कुछ माह ही हुए थे. जिस स्कूल में उसे नौकरी मिली थी, उस के कुछ अध्यापक-अध्यापिकाओं के साथ वह स्टे्रटफोर्ड आई थी, शेक्सपियर की जन्मभूमि को महसूस करने, उस की मिट्टी की सुगंध को अपने भीतर उतार लेने. इस नौकरी को पाने के लिए उसे न जाने कितने पापड़ बेलने पडे़ थे. पूरे स्कूल में एक अकेली वही ‘एशियन’ थी, सो सभी की नजर उस पर अटक जाती थी. उसे औरों से अधिक परिश्रम करना था, स्वयं को सिद्ध करने के लिए दिनरात एक करने थे. रूथ उस की सहयोगी अध्यापिका थी, जो बहुत अच्छी महिला थी, उसी के बाध्य करने पर वह यहां आई थी और सब से मेलमिलाप बढ़ाने का प्रयास कर रही थी.

चैरी के घने पेड़ के नीचे एक ऊंची मुंडेर सी बनी हुई थी. वह सब के साथ उस पर बैठ गई और सोचने लगी कि क्या हमारे तुलसीदास और कालीदास इतने समर्थ साहित्यकार नहीं थे? स्टे्रटफोर्ड के चारों ओर शेक्सपियर को महसूस करते हुए भारतीय महान साहित्यकार उस के दिमाग में हलचल पैदा करने लगे. हम क्यों अपने साहित्यकारों को इतना सम्मान नहीं दे पाते…ऐसा जीवंत एहसास इन साहित्यकारों के जन्मस्थल पर जाने से क्यों नहीं हो पाता? ‘‘प्लीज हैव दिस…’’ इन शब्दों ने उसे चौंका दिया मगर नजर उठा कर देखा तो सामने रूथ अपने हाथों में 2 बड़ी आइस्क्रीम लिए खड़ी थी.

‘‘ओह…थैंक्स….’’ उस ने अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो सब लोग अपनेअपने तरीके से मस्त थे. गरमी के कारण अधनंगे गोरे शरीर लाल हो उठे थे और हाथों में ठंडे पेय के डब्बे या आइस्क्रीम के कोन ले कर गरमी को कम करने का प्रयास कर रहे थे. उन के साथ के लोग अपनीअपनी रुचि के अनुसार आनंद लेने में मग्न थे. यह केवल रूथ ही थी जो लगातार उसी के साथ बनी हुई थी.

स्कूल में नौकरी मिलने के बाद हर परेशानी में रूथ उस का सहारा बनती, उसे विद्यार्थियों के बारे में बताती, कोर्स के बारे में सिखाती और पढ़ाने की योजना तैयार करने में सहायता करती. कुछेक माह में ही उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था. बेहतर था कि वह कहीं और नौकरी करती, किसी स्टोर में या कहीं भी पर स्कूल में…जहां के वातावरण को सह पाना उस के भारतीय मनमस्तिष्क के लिए असहनीय हो रहा था. सरकार के आदेशानुसार 10वीं तक की पढ़ाई आवश्यक थी. फीस माफ, कोई अन्य खर्चा नहीं…जब तक छठी, 7वीं तक बच्चे रहते सब सामान्य चलता पर उस के बाद उन्हें बस में करना तौबा….उस के पसीने छूटने लगे. स्कूल से घर आते ही प्रतिदिन तो वह रोती थी. आंखें लाल रहतीं. कोई न कोई ऐसी घटना अवश्य घट जाती जो उसे भीतर तक हिला कर रख देती और तब उसे अपने भारतीय होने पर अफसोस होने लगता.

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चैरी के फूल झरझर कर उस के ऊपर पड़ रहे थे, खिलते हुए सफेद- गुलाबी से फूलों को उस ने अपने कुरते पर से समेट कर पर्स में डाल लिया. रूथ उसे देख कर मुसकराने लगी थी. आज फिर स्कूल में वह पढ़ा नहीं सकी, क्योंकि जेड ठीक उस के सामने बैठ कर तरहतरह के मुंह बनाती रहती है. च्यूइंगम चबाती हुई जेड को देख कर उस का मन करता है कि एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर रसीद कर दे पर मन मसोस कर रह जाती है. इंगलैंड में किसी छात्र को मारने की बात तो दूर जोर से बोलना भी सपने की बात है. वह मन मार कर रह जाती है. अनुशासन वाले इस समाज में विद्यार्थी इतने अनुशासनहीन… यह बात किस प्रकार गले उतर सकती है? पर सच यही है.

वैसे भी उस की कक्षा को जेड ने बिगाड़ रखा है. 9वीं कक्षा के ये विद्यार्थी अपनी नेता जेड के इशारे पर हर प्रकार की असभ्यता करते हैं. एकदूसरे की गोद में बैठ कर चूमाचाटी करना तो आम बात है ही, उस ने अपने पीछे से जेड की आवाज में ‘दिस इंडियन बिच’ न जाने कितनी बार सुना है और बहरों की भांति आगे बढ़ गई है. यह बात और है कि उस की आंखों में आंसुओं की बाढ़ उमड़ आई है. हर दिन सवेरे स्कूल के लिए तैयार होते हुए वह सोचती कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा? फिलहाल तो अपने इस प्रश्न का कोई उत्तर उस के पास नहीं है. उस ने एक साल का बांड भरा है, उस से पहले तो वहां से छुटकारा पाना उस के लिए संभव ही नहीं. अपने पीछे ठहाकों की बेहूदी आवाजें सुनना उस की नियति हो गई है.

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इस अमीर देश में वह बेहद गरीब है, जो अपने बच्चों की जूठन और फैलाव तो समेटती ही है जेड जैसी जाहिलोंके उस के कमरे में फैलाई हुई ‘गंद’ भी उसे ही समेटनी पड़ती है. भरीभरी आंखों से वह एक मशीन की भांति काम करती रहती है. अधिक संवेदनशील होने के कारण सूई सा दर्द भी उसे तलवार का घाव महसूस होता है. आसान नहीं है यहां पर ‘टीचिंग प्रोफेशन’ यह जानती तो वह पहले से ही थी पर इतना मानसिक क्लेश होता होगा, यह अनुभव से ही उसे पता चल सका.

एक साल बीता तो उस ने चैन की सांस ली. अब वह सलिल से कहेगी कि वह यह काम नहीं कर पाएगी. खाली तो रहेगी नहीं, कुछ न कुछ तो करना ही है. सलिल को ‘वारविकशायर विश्वविद्यालय’ में प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आमंत्रित किया गया था. उन का पिछला रेकार्ड देख कर ही कई अंतर्राष्ट्रीय विश्व- विद्यालयों से उन्हें निमंत्रण मिलते रहे थे. कुछ साल पहले वह अमेरिका भी 2 वर्ष के लिए हो आए थे और समय पूर्ण होने पर भारत लौट गए थे. यहां पर उन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन से पूरे 4 वर्ष के बांड पर हस्ताक्षर करवा लिए गए. भारतीय दिमाग का तो वाकई कोई जवाब नहीं है. हर तरफ मलाई की कीमत है, केवल अपने यहां ही वह सम्मान नहीं प्राप्त होता जिस का आदमी हकदार है.

दूर की सोच: कैसे उतर गई पंडित जी की इज्जत

जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. कसबे में एक हलचल सी मची हुई थी. लोग समूह बना कर आपस में बातें कर रहे थे.

एक आदमी ने कहा, ‘‘भैया, धरमकरम तो अब रह नहीं गया है. क्या छूत, क्या अछूत, सभी एकसमान हो गए हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहते हो. कलियुग आ गया है भाई, कलियुग. जब धरम के जानकार ऐसा कदम उठाएंगे, तो हम नासमझ कहां जाएंगे?’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘मुझे तो लगता है कि पंडितजी सठिया गए हैं. लोग कहते हैं कि बुढ़ापे में आदमी की अक्ल मारी जाती है, तभी वह ऊलजलूल हरकतें करने लगता है. अब पंडितजी भांग के नशे में डगमगाते हुए जा पहुंचे दलित बस्ती में…’’ तीसरे आदमी ने कहा.

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दरअसल, एक दिन पंडित द्वारका प्रसाद घर से मुफ्त में भांग पीने निकले थे. पूजापाठ की तरह यह भी उन का रोज का काम था.

छत्री चौक पर भांग की दुकान का मालिक राधेश्याम जब तक पंडितजी को मुफ्त में 2 गिलास भांग नहीं पिलाता था, तब तक वह किसी दूसरे ग्राहक को भांग नहीं बेचता था. उस का भी यह रोज का नियम था और एक विश्वास था कि जिस दिन पंडितजी उस की भांग का भोग लगा लेते हैं, उस दिन उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती है.

कभी पंडितजी दूसरे गांव चले जाते या बीमार पड़ जाते, तो राधेश्याम पंडितजी के नाम की भांग दुकान के सामने मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बांट देता था.

कसबे में पंडितजी की इज्जत थी. उन का अच्छाखासा नाम था. लोग जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी पूजापाठ उन से ही कराना पसंद करते थे. वे जब भी किसी काम से घर से निकलते, तो राह में आतेजाते सब लोग उन्हें प्रणाम करते थे.

वे अपनी बढ़ी हुई तोंद पर एक हाथ फेरते हुए दूसरे हाथ को आशीर्वाद की मुद्रा में ला कर मंदमंद मुसकराते आगे बढ़ जाते थे.

आज पंडितजी को घर से निकलने में देर हो गई थी, इसलिए उन्हें बड़ी जोर से भांग की तलब सता रही थी. वे बड़ी तेजी से छत्री चौक की ओर बढ़े चले जा रहे थे. रास्ते में उन्हें कौन प्रणाम कर रहा था या नहीं, इस का उन्हें जरा भी एहसास नहीं था. उन्हें तो मुफ्त के 2 गिलास भांग नजर आ रही थी. देर होने के चलते उन्हें यह भी डर सता रहा था कि कहीं राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों में न बांट दे.

पंडितजी तेजी से चलते हुए अचानक एक आदमी से टकरा गए और गिरतेगिरते बचे. वे जैसेतैसे अपने  भारीभरकम शरीर का बैलैंस बना कर खड़े हुए, तो देखा कि सामने दोनों हाथ जोड़े कसबे का दलित भीखू खड़ा थरथर कांप रहा था.

पंडितजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वे गुस्से में आगबबूला हो कर चीखते हुए बोले, ‘‘अधर्मी, तू ने मुझे छू कर अपवित्र कर दिया.’’ भीखू कांपते हुए गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘ब्राह्मण देवता माफ करें. मैं आप से नहीं, बल्कि आप मुझ से टकराए हैं.’’

‘‘चुप रह… एक तो चोरी, ऊपर से तेरी सीनाजोरी…’’ पंडितजी को चिल्लाता देख कर वहां भीड़ जमा हो गई.

तभी भीड़ का फायदा उठा कर भीखू वहां से चुपचाप निकल गया.

पंडितजी का गुस्सा जैसेतैसे शांत हुआ, तो अपने साथ लाए लोटे में से पानी हथेली पर निकाल कर उसे अपने शरीर पर छिड़क कर उन्होंने पवित्र होने का ढोंग किया… फिर चल पड़े भांग की दुकान की ओर.

राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों को देने जा ही रहा था कि पंडितजी पहुंच गए. पंडितजी का मन भीखू से टकराने से पूरी तरह दुखी हो गया था. इधर, भांग की तलब में वे एकसाथ दोनों गिलास भांग गटागट पी गए.

कुछ देर शांत बैठने के बाद पंडितजी को महसूस हुआ कि भांग की तलब पूरी तरह मिटी नहीं है, तो उन्होंने राधेश्याम से एक गिलास और भांग की मांग की.

राधेश्याम को मसखरी सूझी, ‘‘क्या बात है पंडितजी, कल नहीं आओगे क्या?’’

‘‘नहीं भाई, आज मन अशांत है… कमबख्त भीखू मुझ से टकरा गया था.’’

राधेश्याम ने एक और गिलास भांग दी, जिसे पी कर लंबी डकार ले पंडितजी घर की ओर चल दिए, पर पूरे रास्ते भांग का नशा और भीखू उन के दिलोदिमाग से उतर नहीं रहा था, इसलिए वे दलित बस्ती में जा पहुंचे.

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पंडितजी को दलित बस्ती में आया देख दलितों में हलचल मच गई. भीखू और उस का परिवार हाथ जोड़े बारबार गिड़गिड़ाने लगा.

‘‘ब्राह्मण देवता, माफ करें. अनजाने में हम से भूल हो गई. आप जो सजा देंगे, वह हमें मंजूर है,’’ भीखू ने कहा.

पंडितजी ने भीखू और उस के परिवार से कहा, ‘‘घबराओ मत और डरो भी मत. मैं तुम्हें कोई सजा देने नहीं आया हूं.

‘‘दरअसल, गलती मेरी ही थी. मैं ही तेजी में था, इसलिए तुम से टकरा गया. खैर, उस बात को खत्म करो और मेरी आगे की बात…’’ फिर उन्होंने भीखू के पास खड़े बस्ती के दूसरे लोगों से भी कहा, ‘‘तुम लोग भी ध्यान से मेरी

बात सुनो. आज से 10 दिन बाद पूर्णिमा है. मैं तुम्हारी बस्ती में आऊंगा और पूजापाठ के साथ तुम्हारे कल्याण के लिए भागवत भी पढ़ूंगा.

‘‘तुम सभी लोग नहाधो कर तैयार रहना. रही पूजापाठ की सामग्री की बात, तो वह मैं ले आऊंगा. बाद में तुम लोग कीमत चुका देना.’’

पंडितजी दलित बस्ती में पूजापाठ की क्या कह कर गए, पूरे कसबे में चर्चा हो गई. पंडितजी को चुनाव लड़ना है, तभी वे बराबरी की बातें कर रहे हैं.

ब्राह्मणों का एक तबका पंडितजी के खिलाफ खुल कर खड़ा हो गया. दशहरा मैदान में एक सभा का आयोजन कर के उन का समाज से हुक्कापानी बंद करने का फैसला रख दिया गया.

तय किए गए दिन को कसबे के सभी ब्राह्मण दशहरा मैदान में पहुंच गए.

सभा शुरू होने से पहले एक आदमी ने सलाह दी, ‘‘पंडितजी का हुक्कापानी बंद करने से पहले उन के विचार जान लें, तो अच्छा होगा.’’

लोगों ने उस की सलाह मान ली. थोड़ी देर बाद पंडितजी मंच पर आए, तो लोगों ने नाराजगी की झड़ी लगा दी.

पंडितजी शांत मन से सब की बातें सुन कर बोले, ‘‘भाइयो, आप का आरोप सही नहीं है, पर जरा सोचो… हमारा समाज सदियों से मेहनतमजदूरी से दूर रहा है. हमारे पुरखों ने भी कभी मेहनतमजदूरी नहीं की और न हम ही कर रहे हैं.

‘‘हमारे पुरखों ने धार्मिक ग्रंथ लिखे. उन धार्मिक ग्रंथों में हम ने अपनी बिरादरी को मेहनतमजदूरी से दूर रखते हुए खुद को सब से बेहतर बताया और लोगों को धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर, स्वर्गनरक के नाम पर डरायाधमकाया, दानपुण्य के लिए उकसाया.

‘‘हमारे पुरखों की सोच की वजह से हम आज भी समाज में इज्जत पा रहे हैं. पेड़ वे लगा गए, फल हम और हमारी पीढि़यां बरसों से खा रही हैं.

‘‘पर आज समय बदल रहा है. हमारा धंधा मंदा होता जा रहा है. उस की वजह यह है कि आज देश में कई प्रवचन बाबा पैदा हो गए हैं, जो गांवशहरों, कसबों में प्रवचन देते रहते हैं.

‘‘वे लोगों के दिलों में ही नहीं, बल्कि घरों में टैलीविजन के जरीए घुसपैठ कर चुके हैं. लोग भारी तादाद में उन की ओर खिंचे चले जा रहे हैं.

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‘‘ऐसे में हमारे यजमानों की तादाद दिनोंदिन घटती जा रही है. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो एक दिन ऐसा आएगा कि हमें मेहनतमजदूरी करनी पड़ेगी और हमारे बच्चों को भयंकर  गरीबी में जीना पड़ेगा.

‘‘ऐसे हालात में हमें दलितों को भी गले लगाना चाहिए, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी ऐशोआराम के साथ मौजमजे से अपनी गुजरबसर कर सके.’’

लोगों ने जोश में आ कर तालियां बजाते हुए पंडितजी का समर्थन किया और बोले, ‘पंडितजी, आप तो धन्य हैं. आप की सोच बहुत अच्छी है.’’

कुछ लोग नारे लगाने लगे, ‘जब तक सूरजचांद रहेगा, पंडितजी का नाम रहेगा…’

सही रास्ते पर: कैसे सही रास्ते पर आया मांगीलाल

भूख के मारे लक्ष्मी की अंतडि़यां ऐंठी जा रही थीं. वह दिनभर मजदूरी के लिए इधरउधर भटकती रही, मगर उसे कहीं भी मजदूरी नहीं मिली.

आज शहर बंद था. वजह थी कि कल दिनदहाड़े भरे बाजार में सत्ता पक्ष के एक खास कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई थी.

इस हत्या के पीछे जो भी  वजह रही हो, मगर इस से शहर की राजनीति गरमा गई थी. हत्यारा खून कर के फरार हो चुका था. दिनभर पूरे शहर में पार्टी वाले पुलिस प्रशासन के खिलाफ नारे लगाते रहे.

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सुबह जब लक्ष्मी शासकीय भवन पर मजदूरी करने गई थी, तब ठेकेदार के अलावा वहां कोई नहीं था.

उसे देख कर ठेकेदार मुसकराते हुए बोला, ‘‘लक्ष्मी, आज काम बंद है… कल आना.’’

‘‘क्यों ठेकेदार साहब?’’ लक्ष्मी ने पूछा.

‘‘पूरा शहर बंद है न इसलिए,’’ ठेकेदार ने जवाब दिया.

‘‘पर, आप ने काम क्यों बंद कर दिया ठेकेदार साहब?’’ लक्ष्मी ने फिर पूछा.

‘‘मुझे नुकसान कराना है क्या? और फिर जिस नेता का खून हुआ है, उस ने मुझे यह ठेका दिलवाया था, इसलिए मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं उस की याद में एक दिन के लिए काम बंद कर दूं,’’ ठेकेदार ने बताया.

‘‘ठेकेदार साहब, बंद का असर आप पर तो नहीं पड़ेगा, मगर हमारे पेट पर जरूर पड़ेगा,’’ लक्ष्मी ने कहा.

‘‘तो मैं क्या करूं? मैं ने रोजरोज काम देने का ठेका नहीं लिया है. जा, कल टाइम पर आ जाना. आज जहां मजदूरी मिले, वहां जा कर कर ले,’’ ठेकेदार ने टका सा जवाब दे कर उसे वहां से भगा दिया.

लक्ष्मी निराश हो कर वहां से चल दी. फिर वह काम तलाशने उसी चौराहे पर आ गई, जहां रोज आ कर बैठती थी. वहां सारे मजदूर जमा होते थे और अपनी जरूरत के मुताबिक लोग वहां से उन्हें ले जाते थे. मगर लक्ष्मी को वहां पहुंचने में देर हो गई थी. सारा चौराहा मजदूरों से तकरीबन खाली हो चुका था.

कुछ बचेखुचे मजदूर ही वहां बैठे हुए थे. लक्ष्मी भी उन के बीच जा कर बैठ गई. मगर काफी देर बैठने के बाद भी उसे काम के लिए कोई नहीं ले गया.

थोड़ी देर बाद लक्ष्मी वहां से उठ कर काम की तलाश में काफी देर तक इधरउधर भटकती रही, मगर उसे कहीं काम नहीं मिला.

घर में लक्ष्मी के 2 बच्चों और सास के अलावा कोई नहीं था. समाज की नजरों में मांगीलाल उस का पति था, मगर उस ने एक दूसरी औरत रख ली थी. वह सारी कमाई

उसी पर उड़ाता था. उस औरत के बारे में लक्ष्मी कभी कुछ कहती तो वह उसे मारतापीटता था.

शुरूशुरू में तो मांगीलाल लक्ष्मी को कुछ खर्चा देता था, मगर बाद में उस

ने वह भी देना बंद कर दिया, इसलिए वह मजदूरी करने लगी. कभीकभी तो मांगीलाल उस की मजदूरी भी छीन कर ले जाता था और दारू में उड़ा देता था.

लक्ष्मी ने कुछ पैसे साड़ी के आंचल में छिपा कर रखे थे. उस ने सोचा था कि जिस दिन मजदूरी नहीं मिलेगी, उस दिन यह बचा हुआ पैसा काम आएगा, मगर मांगीलाल ने वे छिपे पैसे भी जबरन छीन लिए थे.

जब दोपहर हो गई, तो लक्ष्मी थकहार कर घर लौट आई. डब्बे में एक भी रोटी नहीं बची थी. सब रोटियां सास और उस के दोनों बच्चे खा चुके थे. घर में पकाने के लिए भी कुछ नहीं था.

लक्ष्मी दिनभर शहर के इस छोर से उस छोर तक भूखी ही काम के लिए भटकती रही. उसे शाम के राशन का इंतजाम जो करना था. मगर शाम तक भी उसे कोई काम नहीं मिला. तब वह एक होटल के पास आ कर बैठ गई.

यह वही होटल है, जहां शहर के रईस लोग आएदिन पार्टियां करते रहते हैं और उन्हें मजदूरों की जरूरत पड़ती रहती है. मगर वहां पर भी उसे बैठेबैठे रात हो गई.

‘‘क्या कोई ग्राहक नहीं मिला? चलेगी मेरे साथ?’’ पास खड़े एक आदमी ने लक्ष्मी से पूछा.

उस आदमी की आंखों में वासना झलक रही थी. वह लक्ष्मी को देह धंधा करने वाली औरत समझ रहा था.

लक्ष्मी बोली, ‘‘फोकट में ही ले जाएगा या पैसे भी देगा?’’

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‘‘हां दूंगा… कितने लेगी?’’ उस आदमी ने पूछा.

‘‘दिनभर काम करती हूं, तो मुझे 50 रुपए मिलते हैं,’’ लक्ष्मी ने बताया.

‘‘चल, मैं तुझे 50 रुपए ही दूंगा,’’ उस ने कहा, तो लक्ष्मी की इच्छा हुई कि उस के मुंह पर थूक दे, मगर उसे जोरों की भूख लग रही थी.

लक्ष्मी ने सोचा, ‘मांगीलाल भी तो मेरे जिस्म से खेल कर चला जाता है. और फिर मुझे अब मजदूरी भी कौन देगा?’

‘‘क्या सोच रही है?’’ उसे चुप देख उस आदमी ने पूछा.

‘‘लगता है, मेरी तरह तू भी बहुत भूखा है. तेरी घरवाली नहीं है क्या?’’ लक्ष्मी ने पूछा.

‘‘अभी तो कुंआरा हूं,’’ वह बोला.

‘‘तो शादी क्यों नहीं कर लेता है?’’ लक्ष्मी ने दोबारा पूछा.

‘‘खुद अपना पेट तो पूरी तरह भर नहीं पाता हूं, फिर उसे क्या खिलाऊंगा?’’ वह बोला.

‘‘सही बात है. जो आदमी अपनी घरवाली को खिला नहीं सकता, वह मरद नहीं होता है…’’ कह कर लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘कहां ले जाएगा मुझे?’’

‘‘शहर के बाहर एक खंडहर है, जहां अंधेरा रहता?है,’’ उस ने बताया.

‘‘ठीक है, मुझे तो पैसों से मतलब है,’’ लक्ष्मी ने कहा.

‘‘तो चल मेरे पीछेपीछे,’’ उस आदमी ने कहा और लक्ष्मी उस के पीछेपीछे चलने लगी.

वह आदमी पीछे मुड़ कर देख लेता कि वह औरत आ रही है या नहीं. मगर लक्ष्मी उस के पीछेपीछे साए की तरह चल रही थी.

अभी लक्ष्मी एक चौराहा पार कर ही रही थी कि सामने से मांगीलाल आता दिखाई दिया. वह डर के मारे कांप उठी.

मांगीलाल ने पास आ कर पूछा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘तुम पूछने वाले कौन हो?’’ लक्ष्मी ने नफरत से कहा.

‘‘तुम्हारा पति…’’ मांगीलाल बोला.

‘‘खुद को पति कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती…’’ लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘जो आदमी अपने बीवीबच्चों और मां को भूखाप्यासा छोड़ कर दूसरी औरत पर कमाई लुटाए, वह किसी का पति कहलाने लायक नहीं होता.’’

मांगीलाल नीची गरदन कर के चुपचाप किसी मुजरिम की तरह सुनता रहा.

‘‘मगर, तुम जा कहां रही हो?’’ मांगीलाल ने फिर पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं… वैसे भी तुम ने तो मियांबीवी का रिश्ता उसी दिन तोड़ दिया था, जिस दिन तुम दूसरी औरत के साथ रहने लगे थे.’’

‘‘देखो लक्ष्मी, तुम अपनी हद से ज्यादा बढ़ कर बात कर रही हो. मैं तुम्हारा पति हूं. चलो, घर चलो,’’ मांगीलाल भड़क उठा.

‘‘नहीं जाना मुझे तुम्हारे साथ. देखो, मैं उस आदमी के साथ जा रही हूं. वह मुझे 50 रुपए दे रहा है,’’ कह कर लक्ष्मी ने मुड़ कर देखा, मगर वह आदमी तो उन का झगड़ा देख कर वहां से भाग चुका था.

यह देख कर लक्ष्मी बोली, ‘‘आखिर भगा दिया न उसे…’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम धंधा करने लगी हो,’’ मांगीलाल गुस्से से बोला.

‘‘हमें अपने पेट की भूख मिटाने के लिए यही करना पड़ेगा. तुम तो दूसरी औरत के साथ मस्त रहते हो. मुझे तुम्हारी मां और दोनों बच्चों को देखना पड़ता है.

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‘‘आज दिनभर काम नहीं मिला. आखिर क्या करती? घर में न आटा?है, न चावल,’’ कहते हुए लक्ष्मी ने दिनभर की भड़ास निकाल दी.

वह आगे बोली, ‘‘अब कहां से उन लोगों के खाने का इंतजाम करूं?’’

‘‘लक्ष्मी, मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुझे माफ कर दो. अब मैं तुम्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा,’’ माफी मांगते हुए मांगीलाल बोला.

‘‘रहने दो. तुम्हारा क्या भरोसा? यह बात तो तुम कई बार कह चुके हो. फिर भी तुम से वह औरत नहीं छूटती है. उस के पीछे तुम ने मुझे कितना मारापीटा है…’’ लक्ष्मी ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं कोई दूसरा ग्राहक ढूंढ़ती हूं. पेट की आग तो बुझानी ही पड़ेगी न.’’

‘‘नहीं लक्ष्मी, अब तुम कहीं नहीं जाओगी और न ही मजदूरी करोगी,’’ मांगीलाल ने लक्ष्मी को रोकते हुए कहा.

‘‘अगर मजदूरी नहीं करूंगी तो मेरा, तुम्हारे बच्चों का और तुम्हारी मां का पेट कैसे भरेगा?’’ लक्ष्मी चिढ़ कर बोली.

‘‘मैं कमा कर खिलाऊंगा सब को,’’ मांगीलाल बोला.

‘‘तुम कमा कर खिलाओगे… कभी आईने में अपना चेहरा देखा है?’’

‘‘हां लक्ष्मी, तुम्हें जितना ताना देना हो दो, जो कहना है कह लो, मगर मैं बहुत शर्मिंदा हूं. क्या तुम मुझे माफ नहीं करोगी?’’ मांगीलाल गिड़गिड़ाया.

‘‘माफ उसे किया जाता?है, जिस की आंखों में शर्म हो. मैं तुम पर कैसे यकीन कर लूं कि तुम सही रास्ते पर आ जाओगे?’’ लक्ष्मी ने सवाल दागा.

‘‘हां, तुम्हें यकीन आएगा भी कैसे? मैं ने तुम्हारे साथ काम ही ऐसा किया है, मगर मैं अब पिछली जिंदगी छोड़ कर तुम्हारे साथ पूरी तरह रहना चाहता हूं. यकीन न हो तो मुझे एक महीने की मुहलत दे दो,’’ मांगीलाल बोला.

‘‘मगर, मेरी भी 2 शर्तें हैं?’’ लक्ष्मी ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारी हर शर्त मानने को तैयार हूं,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘सब से पहले तो उस औरत को छोड़ना होगा. दूसरा, दारू पीना भी छोड़ना होगा,’’ लक्ष्मी बोली.

‘‘मुझे तुम्हारी ये दोनों शर्तें मंजूर हैं,’’ मांगीलाल बोला.

‘‘तो फिर चलो घर, पहले राशन ले लो. सभी भूखे होंगे,’’ लक्ष्मी बोली.

‘‘हां लक्ष्मी, अब तो तुम जो कहोगी, वही मैं करूंगा,’’ कह कर मांगीलाल मुसकरा दिया. बदले में लक्ष्मी भी भूखे पेट मुसकरा दी. मगर आज तो उस की मुसकान में सुख छिपा था.

मांगीलाल चलतेचलते बोला, ‘‘आज मैं बहुत राहत महसूस कर रहा हूं लक्ष्मी. मैं अपने रास्ते से भटक गया था. तुम मुझे सही रास्ते पर ले आई हो.’’

मांगीलाल सोच रहा था कि लक्ष्मी कुछ बोलेगी, पर जवाब देने के बजाय वह मुसकरा दी.

Serial Story- जहर का पौधा: भाग 1

बहुत ज्यादा थक गया था डाक्टर मनीष. अभीअभी भाभी का औपरेशन कर के वह अपने कमरे में लौटा था. दरवाजे पर भैया खड़े थे. उन की सफेद हुई जा रही आंखों को देख कर भी वह उन्हें ढाढ़स न बंधा सका था. भैया के कंधे पर हाथ रखने का हलका सा प्रयास मात्र कर के रह गया था.

टेबललैंप की रोशनी बुझा कर आरामकुरसी पर बैठना उसे अच्छा लगा था. वह सोच रहा था कि अगर भाभी न बच सकीं तो भैया जरूर उसे हत्यारा कहेंगे. भैया कहेंगे कि मनीष ने बदला निकाला है. भैया ऐसा न सोचें, वह यह मान नहीं सकता. उन्होंने पहले डाक्टर चंद्रकांत को भाभी के औपरेशन के लिए बुलाया था. डाक्टर चंद्रकांत अचानक दिल्ली चले गए थे. इस के बाद भैया ने डाक्टर विमल को बुलाने की कोशिश की थी, पर जब वे भी न मिले तो अंत में मजबूर हो कर उन्होंने डाक्टर मनीष को ही स्वीकार कर लिया था.

औपरेशनटेबल पर लेटने से पहले भाभी आंखों में आंसू लिए भैया से मिल चुकी थीं, मानो यह उन का अंतिम मिलन हो. उस ने भाभी को बारबार ढाढ़स दिलाया था, ‘‘भाभी, आप का औपरेशन जरूर सफल होगा.’’ किंतु भीतर ही भीतर भाभी उस का विश्वास न कर सकी थीं. और भैया कैसे उस पर विश्वास कर लेते? वे तो आजीवन भाभी के पदचिह्नों पर चलते रहे हैं.

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डाक्टर मनीष जानता है कि आज से 30 वर्ष पहले जहर का जो पौधा भाभी के मन में उग आया था, उसे वह स्नेह की पैनी से पैनी कुल्हाड़ी से भी नहीं काट सका. वह यह सोच कर संतुष्ट रह गया था कि संसार की कई चीजों को मानव चाह कर भी समाप्त करने में असमर्थ रहता है.

जहर के इस पौधे का बीजारोपण भाभी के मन में उन की शादी के समय हुआ था. तब मनीष 10 वर्ष का रहा होगा. भैया की बरात बड़ी धूमधाम से नरसिंहपुर गई थी. उसे दूल्हा बने भैया के साथ घोड़े पर बैठने में बड़ा आनंद आ रहा था. आने वाली भाभी के प्रति सोचसोच कर उस का बालकमन हवा से बातें कर रहा था. मां कहा करती थीं, ‘मनीष, तेरी भाभी आ जाएगी तो तू गुड्डो का मुकाबला करने के काबिल हो जाएगा. यदि गुड्डो तुझे अंगरेजी में चिढ़ाएगी तो तू भी भाभी से सारे अर्थ समझ कर उसे जवाब दे देना.’ वह सोच रहा था, भाभी यदि उस का पक्ष लेंगी तो बेचारी गुड्डो अकेली पड़ जाएगी. उस के बाद मन को बेचारी गुड्डो पर रहरह कर तरस आ रहा था.

भैया का ब्याह देखने के लिए वह रातभर जागा था और घूंघट ओढ़े भाभी को लगातार देखता रहा था. सुबह बरात के लौटने की तैयारी होने लगी थी. विवाह के अवसर पर नरसिंहपुर के लोगों ने सप्रेम भेंट के नाम पर वरवधू को बरतन, रुपए और अन्य कई किस्मों की भेंटें दी थीं. बरतन और अन्य उपहार तो भाभी के पिताजी ने दे दिए थे किंतु रुपयों के मामले में वे अड़ गए थे. इस बात को मनीष के पिता ने भी तूल दे दिया था.

भाभी के पिता का कहना था कि वे रुपए लड़की के पिता के होते हैं, जबकि मनीष के पिता कह रहे थे कि यह भी लोगों द्वारा वरवधू को दिया गया एक उपहार है, सो, लड़की के पिता को इस पर अपनी निगाह नहीं रखनी चाहिए.

बात बढ़ गई थी और मामला सार्वजनिक हो गया था. तुरंत ही पंचायत बैठाई गई. पंचायत में फैसला हुआ कि ये रुपए वरवधू के खाते में ही जाएंगे.

इस फैसले से भाभी के पिता मन ही मन सुलग उठे. उस समय तो वे मौन रह गए, किंतु बाद में इस का बदला निकालने का उन्होंने प्रण कर लिया.

उन की बेटी ससुराल से पहली बार 4 दिनों के लिए मायके आई तो उन्होंने बेटी के सामने रोते हुए कहा था, ‘बेटा, तेरे ससुर ने जिस दिन से मेरा अपमान किया है, मैं मन ही मन राख हुआ जा रहा हूं.’

भाभी ने पिता को सांत्वना देते हुए कहा था, ‘पिताजी, आप रोनाधोना छोडि़ए. मैं प्रण करती हूं कि आप के अपमान का बदला ऐसे लूंगी कि ससुर साहब का घर उजड़ कर धूल में मिल जाएगा. ससुरजी को मैं बड़ी कठोर सजा दूंगी.’

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इस के पश्चात भाभी ने ससुराल आते ही किसी उपन्यास की खलनायिका की तरह शतरंज की बिसात बिछा दी. चालें चलने वाली वे अकेली थीं. सब से पहले उन्होंने राजा को अपने वश में किया. भैया के प्रति असाधारण प्रेम की जो गंगा उन्होंने बहाई, तो भैया उसी को वैतरणी समझने लगे. भैया ने पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा सी कर दी.

मनीष को अच्छी तरह याद है कि एक बार वह महल्ले के बच्चों के साथ गुल्लीडंडा खेल रहा था. गुल्ली अचानक भाभी के कमरे में घुस गई थी. वह गुल्ली उठाने तेजी से लपका. रास्ते में खिड़की थी, उस ने अंदर निगाह डाली. भाभी एक चाबी से माथे पर घाव कर रही थीं.

जब वह दरवाजे से हो कर अंदर गया तो भाभी सिर दबाए बैठी थीं. उस ने बड़ी कोमलता से पूछा, ‘क्या हुआ, भाभी?’ तब वे मुसकरा कर बोली  थीं, ‘कुछ नहीं.’ वह गुल्ली उठा कर वापस चला गया था.

लेकिन शाम को सब के सामने भैया ने मनीष को चांटे लगाते हुए कहा था, ‘बेशर्म, गुल्ली से भाभी के माथे पर घाव कर दिया और पूछा तक नहीं.’ भाभी के इस ड्रामे पर तो मनीष सन्न रह गया था. उस के मुंह से आवाज तक न निकली थी. निकलती भी कैसे? उम्र में बड़ी और आदर करने योग्य भाभी की शिकायत भैया से कर के उसे और ज्यादा थोड़े पिटना था.

भैया घर के सारे लोगों पर नाराज हो रहे थे कि उन की पत्नी से कोई भी सहानुभूति नहीं रखता. सभी चुपचाप थे. किसी ने भी भैया से एक शब्द नहीं कहा था. इस के बाद भैया ने पिताजी, मां और भाईबहनों से बात करना छोड़ दिया था. वे अधिकांश समय भाभी के कमरे में ही गुजारते थे.

इस के बाद एक सुबह की बात है. भैया को सुबह जल्दी जाना था. भाभी भैया के लिए नाश्ता तैयार करने के लिए चौके में आईं. चौके में सभी सदस्य बैठे थे, सभी को चाय का इंतजार था. मनीष रो रहा था कि उसे जल्दी चाय चाहिए. मां उसे समझा रही थीं, ‘बेटा, चाय का पानी चूल्हे पर रखा है, अभी 2 मिनट में उबल जाएगा.’

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उसी समय भाभी ने चूल्हे से चाय उतार कर नाश्ते की कड़ाही चढ़ा दी. मां ने मनीष के आंसू देखते हुए कहा, ‘बहू, चाय तो अभी दो मिनट में बन जाएगी, जरा ठहर जाओ न.’

इतनी सी बात पर भाभी ने चूल्हे पर रखी कड़ाही को फेंक दिया. अपना सिर पकड़ कर वे नीचे बैठ गईं और जोर से बोलीं, ‘मैं अभी आत्महत्या कर लेती हूं. तुम सब लोग मुझ से और मेरे पति से जलते हो.’

Short Story- बेईमानी का नतीजा

आधी रात का समय था. घना अंधेरा था. चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था. ऐसे में रामा शास्त्री के घर का दरवाजा धीरे से खुला. वे दबे पैर बाहर आए. उन का बेटा कृष्ण भी पीछेपीछे चला आया. उस के हाथ में कुदाली थी. रामा शास्त्री ने एक बार अंधेरे में चारों ओर देखा. लालटेन की रोशनी जहां तक जा रही थी, वहां तक उन की नजर भी गई थी. उस के आगे कुछ भी नहीं दिख रहा था.

रामा शास्त्री ने थोड़ी देर रुक कर कुछ सुनने की कोशिश की. कुत्तों के भूंकने की आवाज के सिवा कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था. रामा शास्त्री ने अपने घर से सटे हुए दूसरे घर का दरवाजा खटखटाया और पुकारा, ‘‘नारायण.’’

नारायण इसी इंतजार में था. आवाज सुनते ही वह फौरन बाहर आ गया. ‘‘सबकुछ तैयार है. चलें क्या?’’ रामा शास्त्री बोले.

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‘‘हां चलो,’’ कह कर नारायण ने घर में ताला लगा दिया और उन के पीछे हो लिया. उस के हाथ में टोकरी थी. उस की बीवी और बच्चे मायके गए थे. रामा शास्त्री लालटेन ले कर आगेआगे चलने लगे और कृष्ण व नारायण उन के पीछे चल पड़े.

रामा शास्त्री और उन का छोटा भाई नारायण पहले एक ही घर में रहते थे. छोटे भाई की 2 बेटियां थीं. रामा शास्त्री का बेटा कृष्ण 25 साल का था. उस की शादी अभी नहीं हुई थी. नारायण की बेटियां अभी छोटी थीं. घर में जेठानी और देवरानी में पटती नहीं थी. उन दोनों में हमेशा किसी

न किसी बात को ले कर झगड़ा होता रहता था. अपने मातापिता के जीतेजी नारायण व रामा शास्त्री बंटवारा नहीं करना चाहते थे. मातापिता की मौत के बाद दोनों भाइयों और उन की बीवियों के बीच मनमुटाव बढ़ गया. अंदर सुलगती आग अब भड़क उठी थी.

नारायण का मिजाज कुछ नरम था पर रामा शास्त्री चालबाज थे. भाई और भाभी की बातों में आ कर नारायण अपनी बीवी को अकसर पीटता रहता था. उस की नासमझी का फायदा उठा कर रामा शास्त्री ने चोरीछिपे कुछ रुपए भी जमा कर रखे थे. नारायण के साथ जो नाइंसाफी हो रही थी, उसे देख कर गांव के कुछ लोगों को बुरा लगता था. उन्होंने नारायण को बड़े भाई के खिलाफ भड़का दिया.

नतीजतन एक दिन दोनों के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ और घर व जमीनजायदाद का बंटवारा हो गया. मातापिता की मौत के बाद 3 महीने के अंदर ही वे अलग हो गए. सब बंटवारा तो ठीक से हो गया, मगर बाग को ले कर फिर झगड़ा शुरू हो गया. रामा शास्त्री बाग को अपने लिए रखना चाहते थे. इस के बदले में वे सारी जायदाद छोड़ने के लिए तैयार थे. लेकिन 6 एकड़ के बाग में नारायण अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं था.

बाग में 3 सौ नारियल के पेड़ और सौ से ज्यादा सुपारी के पेड़ थे. उस से सटी हुई 6 एकड़ खाली जमीन भी थी. बाकी जमीन भी बहुत उपजाऊ थी. बाग से जितनी आमदनी होती थी, उतनी बाकी जमीन में भी होती थी. लेकिन नारायण की जिद की वजह से बाग का भी 2 हिस्सों में बंटवारा हो गया.

रामा शास्त्री ने अपने हिस्से के बाग में जो खाली जगह थी, वहां रहने के लिए मकान बनवाना शुरू कर दिया. इसी चक्कर में एक दिन शाम को मजदूरों के जाने के बाद कृष्ण नींव के लिए खोदी गई जगह का मुआयना कर रहा था. वह एक जगह पर कुदाली से मिट्टी हटाने लगा, क्योंकि वहां मिट्टी अंदर से खिसक रही थी.

कृष्ण ने 2 फुट गहराई का गड्ढा खोद डाला. नीचे एक बड़ा चौकोर पत्थर था. उस के नीचे एक लोहे का जंग लगा ढक्कन था, मगर वह उसे खोल नहीं सका. उस ने सोचा कि वहां कोई राज छिपा हुआ होगा. वह मिट्टी से गड्ढा भर कर वापस घर लौट गया. उस ने अपने पिता को सबकुछ बताया. रामा शास्त्री ने बेटे के साथ आ कर अच्छी तरह से गड्ढे की जांच की. देखते ही देखते उन का चेहरा खिल उठा. उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे कुछ पलों तक सुधबुध खो कर बैठ गए.

कुछ देर बाद रामा शास्त्री ने इधरउधर देखा और कहा, ‘‘कृष्ण, मिल गया… मिल गया.’’ 4-5 पीढि़यों पहले रामा शास्त्री का कोई पुरखा किसी राजा का खजांची रह चुका था. वह अपने एक साथी के साथ राजा के खजाने का बहुत सा धन चुरा कर भाग गया था. राजा को इस बात का पता चल गया था.

राजा ने सैनिकों को चारों ओर भेजा, लेकिन वे चोर तलाशने में नाकाम रहे. राजा ने चोरों के घर वालों को तमाम तकलीफें दीं, मगर कुछ भी नतीजा नहीं निकला. इस के बाद सभी पीढ़ी के लोग मरते समय अपने बेटों को यह बात बता कर जाते. लेकिन किसी को भी वह छिपाया गया खजाना नहीं मिला था.

रामा शास्त्री ने तय किया था कि अगर उन्हें खजाना मिल गया तो वे एक मंदिर बनवाएंगे. उन का सपना अब पूरा होने वाला था. बापबेटा दोनों लोहे का ढक्कन हटाने की कोशिश कर रहे थे कि उसी समय नारायण भी वहां आ गया. उस का आना रामा शास्त्री व कृष्ण दोनों को अच्छा नहीं लगा.

उन की बेचैनी देख कर नारायण को कुछ शक हुआ और इस काम में वह भी शामिल हो गया. तीनों ने मिल कर उस ढक्कन को हटा दिया. उस के नीचे भी मिट्टी ही थी. लेकिन वहां कुछ खोखला था. लकड़ी के तख्त पर मिट्टी बिछी हुई थी. उन को यकीन हो गया कि अंदर कोई खजाना है.

इतने में दूर से किसी की बातचीत सुनाई पड़ी, इसलिए उन्होंने गड्ढे पर पत्थर रख दिया. फिर रात को दोबारा आ कर खजाना निकालने की योजना बनाई गई.

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आधी रात को कुदाली ले कर तीनों चल पड़े. वे गांव के मंदिर के पास वाली पगडंडी से होते हुए बाग की ओर चल पड़े. वे चारों ओर सावधानी से देखते हुए चल रहे थे. दूर से किसी की आहट सुन कर वे लालटेन बुझा कर पास के इमली के पेड़ की आड़ में छिप गए.

पड़ोस के गांव गए 2 लोग बातें करते हुए वापस आ रहे थे. नजदीक आतेआते उन की बातें साफ सुनाई दे रही थीं. एक ने कहा, ‘‘इधर कहीं आग की लपट दिखाई दी थी न?’’

दूसरे ने कहा, ‘‘हां, मैं ने भी देखी थी… आग का भूत होगा.’’ पहला आदमी बोला, ‘‘सचमुच भूत ही होगा. उसे परसों रंगप्पा ने यहीं देखा था. इस इमली के पेड़ में मोहिनी भूत है.

‘‘रंगप्पा अकेला आ रहा था. पेड़ के पास कोई औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी. उसे देख कर रंगप्पा डर कर घर भाग गया था. उस के बाद वह 3 दिनों तक बीमार पड़ा रहा.’’ तभी इमली के पेड़ से सरसराहट की आवाज सुनाई दी.

‘भूत… भूत…’ चिल्ला कर वे दोनों तेजी से भागे. कुछ देर बाद रामा शास्त्री, नारायण और कृष्ण पेड़ की आड़ से बाहर निकल कर बाग की ओर चल पड़े. बाग के पास पहुंच कर उन्होंने कुछ देर तक आसपास का जायजा लिया. वहां कोई न था. दूर से सियारों की आवाज आ रही थी. फिर तीनों वहां खड़े हो गए, जहां खजाना गड़ा होने की उम्मीद थी.

कृष्ण कुदाली से मिट्टी खोदने लगा, तो नारायण टोकरी में भर कर मिट्टी एक तरफ डालता रहा. रामा शास्त्री आसपास के इलाके पर नजर रखे हुए थे. लोहे का ढक्कन हटा कर नीचे की मिट्टी निकाल कर एक ओर फेंक दी गई. उस के नीचे मौजूद लकड़ी के तख्त को भी हटा दिया गया, तख्त के नीचे एक गोलाकार मुंह वाला गहरा गड्ढा नजर आया. उस की गहराई करीब

6 फुट थी. लालटेन की रोशनी में अंदर कुछ कड़ाहियां दिखाई पड़ीं. नारायण गड्ढे के अंदर झांक कर देख रहा था तभी रामा शास्त्री ने कृष्ण को कुछ इशारा किया. अचानक नारायण के सिर पर एक बड़े पत्थर की मार पड़ी. वह बिना आवाज किए वहीं लुढ़क गया.

दोबारा पत्थर की मार से उस का काम तमाम हो गया. उस की लाश को बापबेटे ने घसीट कर एक ओर फेंक दिया. रामा शास्त्री लालटेन हाथ में ले कर खड़े हो गए. कृष्ण गड्ढे में कूद पड़ा. गड्ढे में जहरीली गैस की बदबू भरी थी. कृष्ण को सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. उस ने लालटेन की रोशनी में अंदर चारों ओर देखा.

दीवार से सटी हुई 6 ढकी हुई कड़ाहियां रखी हुई थीं. कृष्ण ने कुदाली से एक कड़ाही के मुंह पर जोर से मारा, तो उस का ढक्कन खुल गया. उस में चांदी के सिक्के भरे थे. दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे उस सारे खजाने के मालिक थे. तभी कृष्ण की नजर वहां एक कोने में पड़ी हुई किसी चीज पर पड़ी. वह जोर से चीख उठा. डर से उस का जिस्म कांपने लगा.

रामा शास्त्री ने परेशान हो कर भीतर झांक कर देखा तो वे भी थरथर कांपने लगे. वहां 2 कंकाल पड़े थे. वे शायद खजांची और उस के साथी के रहे होंगे. रामा शास्त्री ने किसी तरह खुद को संभाला और बेटे को हौसला बंधाते हुए एकएक कर सभी कड़ाहियां ऊपर देने को कहा.

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कड़ाहियां भारी होने की वजह से उन्हें उठाना कृष्ण के लिए मुश्किल हो रहा था. जहरीली गैस की वजह से उसे सांस लेने में भी तकलीफ हो रही थी. कृष्ण ने बहुत कोशिश कर के एक कड़ाही को कमर तक उठाया ही था कि उस का सिर चकरा गया और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह कड़ाही लिए हुए नीचे गिर गया.

रामा शास्त्री घबरा कर कृष्ण को पुकारने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. परेशान हो कर वह भी गड्ढे में कूद पड़े. जहरीली गैस की वजह से उन से भी वहां सांस लेना मुश्किल हो गया. उन्होंने कृष्ण को उठाने की कोशिश की, लेकिन उठा न सके. वह भी बेदम हो कर नीचे गिर पड़े. बाप और बेटे फिर कभी नहीं उठे. वे मर चुके थे.

Serial Story- जहर का पौधा: भाग 2

इतना सुन कर भैया दौड़ेदौड़े आए और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. वे भी चीखने लगे, ‘मीरा, तुम इन जंगलियों के बीच में न बैठा करो. खाना अपने कमरे में ही बनेगा. ये अनपढ़ लोग तुम्हारी कद्र करना क्या जानें.’

भैया के आग्रह पर 4-5 दिनों बाद ही घर के बीच में दीवार उठा दी गई. सारा सामान आधाआधा बांट लिया गया. इस बंटवारे से पिताजी को बहुत बड़ा धक्का लगा था. वे बीमार रहने लगे थे. उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र लिख दिया था.

भैया केंद्र सरकार की ऊंची नौकरी में थे. अच्छाखासा वेतन उन्हें मिलता था. मनीष को याद नहीं है कि विवाह के बाद भैया ने एक रुपया भी पिताजी की हथेली पर धरा हो. पिताजी को इस बात की चिंता भी न थी. पुरानी संपत्ति काफी थी, घर चल जाता था.

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एक दिन भाभी के गांव से कुछ लोग आए. गरमी के दिन थे. मनीष और घर के सभी लोग बाहर आंगन में सो रहे थे. अचानक मां आगआग चिल्लाईं. सभी लोग शोर से जाग गए. देखा तो घर जल रहा था. पड़ोसियों ने पानी डाला, दमकल विभाग की गाडि़यां आईं. किसी तरह आग पर काबू पाया गया. घर का सारा कीमती सामान जल कर राख हो गया था. घर के नाम पर अब खंडहर बचा था. भैया के हिस्से वाले घर को अधिक क्षति नहीं पहुंची थी. पिताजी ने कमचियों की दीवार लगा कर किसी तरह घर को ठीक किया था. मां रोती रहीं. मां का विश्वास था कि यह करतूत भाभी के गांव से आए लोगों की थी. पिताजी ने मां को उस वक्त खामोश कर दिया था, ‘बिना प्रमाण के इस तरह की बातें करना अच्छा नहीं होता.’

साहूकारी में लगा रुपया किसी तरह एकत्र कर के पिताजी ने मनीष की दोनों बहनों का विवाह निबटाया था.

उस समय मनीष 10वीं कक्षा का विद्यार्थी था. मां को गठियावात हो गया था. वे बिस्तर से चिपक गई थीं. पिताजी मां की सेवा करते रहे. मगर सेवा कहां तक करते? दवा के लिए तो पैसे थे ही नहीं. मनीष को स्कूल की फीस तक जुटाना बड़ा दुरूह कार्य था, सो, पिताजी ने, जो अब अशक्त और बूढ़े हो गए थे, एक जगह चौकीदारी की नौकरी कर ली.

भाभी को उन लोगों पर बड़ा तरस आया था. वे कहने लगीं, ‘मनीष, हमारे यहां खाना खा लिया करेगा.’ मां के बहुत कहने पर मनीष तैयार हो गया था. वह पहले दिन भाभी के घर खाने को गया तो भाभी ने उस की थाली में जरा सी खिचड़ी डाली और स्वयं पड़ोसी के यहां गपें लड़ाने चली गईं. उस दिन वह बेचारा भूखा ही रह गया था.

मनीष ने निश्चय कर लिया था कि अब वह भाभी के घर खाना खाने नहीं जाएगा. इस का परिणाम यह निकला कि भाभी ने सारे महल्ले में मनीष को अकड़बाज की उपाधि दिलाने का प्रयास किया.

मां कई दिनों तक बीमार पड़ी रहीं और एक दिन चल बसीं. मनीष रोता रह गया. उस के आंसू पोंछने वाला कोई भी न था.

पिताजी का अशक्त शरीर इस सदमे को बरदाश्त न कर सका. वे भी बीमार रहने लगे. अचानक एक दिन उन्हें लकवा मार गया. मनीष की पढ़ाई छूट गई. वह पिताजी की दिनरात सेवा करने में जुट गया. पिताजी कुछ ठीक हुए तो मनीष ने पास की एक फैक्टरी में मजदूरी करनी शुरू कर दी.

लकवे के एक वर्ष पश्चात पिताजी को हिस्टीरिया हो गया. उसी बीमारी के दौरान वे चल बसे. मनीष के चारों ओर विपत्तियां ही विपत्तियां थीं और विपत्तियों में भैयाभाभी का भयानक चेहरा उस के कोमल हृदय पर पीड़ाओं का अंबार लगा देता. उस ने शहर छोड़ देना ही उचित समझा.

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एक दिन चुपके से वह मुंबई की ओर प्रस्थान कर गया. वहां कुछ हमदर्द लोगों ने उसे ट्यूशन पढ़ाने के लिए कई बच्चे दिला दिए. मनीष ने ट्यूशन करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. प्रथम श्रेणी में पास होने से उसे मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया. उसे स्कौलरशिप भी मिलती थी.

फिर एक दिन मनीष डाक्टर बन गया. दिन गुजरते रहे. मनीष ने विवाह नहीं किया. वह डाक्टर से सर्जन बन गया. फिर उस का तबादला नागपुर हो गया यानी वह फिर से अपने शहर में आ गया.

मनीष ने भैया व भाभी से फिर से संबंध जोड़ने के प्रयास किए थे किंतु वह असफल रहा था. भाभी घायल नागिन की तरह उस से अभी भी चिढ़ी हुई थीं. उन्हें दुख था तो यह कि उन्होंने जिस परिवार को उजाड़ने का प्रण लिया था, उसी परिवार का एक सदस्य पनपने लगा था.

मनीष को भाभी के इस प्रण की भनक लग गई थी किंतु इस से उसे कोई दुख नहीं हुआ. उस के चेहरे पर हमेशा चेरी के फूल की हंसी थिरकती रहती थी. उस ने सोच रखा था कि भाभी के मन में उगे जहर के पौधे को वह एक दिन जरूर धराशायी कर देगा.

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मनीष को संयोग से मौका मिल भी गया था. भाभी के पेट में एक बड़ा फोड़ा हो गया था. उस फोड़े को समाप्त करने के लिए औपरेशन जरूरी था. यह संयोग की ही बात थी कि वह औपरेशन मनीष को ही करना पड़ा.

Serial Story- जहर का पौधा: भाग 3

वह जानता था कि यदि औपरेशन असफल रहा तो भैया जरूर उस पर हत्या का आरोप लगा देंगे. वह अपने कमरे में बैठा इसी बात को बारबार सोच रहा था.

उसी वक्त मनीष के सहायक डाक्टर रामन ने कमरे में प्रवेश किया. ‘‘हैलो, सर, मीराजी अब खतरे से बाहर हैं,’’ रामन ने टेबललैंप की रोशनी करते हुए कहा.

‘‘थैंक्यू डाक्टर, आप ने बहुत अच्छी खबर सुनाई,’’ मनीष ने कहा, ‘‘लेकिन आगे भी मरीज की देखभाल बहुत सावधानी से होनी चाहिए.’’

‘‘ऐसा ही होगा, सर,’’ डाक्टर रामन ने कहा.

‘‘मीराजी के पास एक और नर्स की ड्यूटी लगा दी जाए,’’ मनीष ने आदेश दिया.

‘‘अच्छा, सर,’’  डाक्टर रामन बोला. एक सप्ताह में मनीष की भाभी का स्वास्थ्य ठीक हो गया. हालांकि अभी औपरेशन के टांके कच्चे थे लेकिन उन के शरीर में कुछ शक्ति आ गई थी. मनीष भाभी से मिलने के लिए रोज जाता था. वह उन्हें गुलाब का एक फूल रोज भेंट करता था.

एक महीने बाद भाभी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. मनीष भैयाभाभी को टैक्सी तक छोड़ने गया. सारी राह भैया अस्पताल की चर्चा करते रहे. भाभी कुछ शर्माई सी चुपचुप रहीं.

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मनीष ने कहा, ‘‘भाभीजी, मेरी फीस नहीं दोगी.’’

‘‘क्या दूं तुम्हें?’’ भाभी के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘सिर्फ गुलाब का एक फूल,’’ मनीष ने मुसकराते हुए कहा.

घर पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही भाभी के स्वस्थ हो जाने की खुशी में महल्लेभर के लोगों को भोज दिया गया. भाभी सब से कह रही थीं, ‘‘मैं बच ही गई वरना इस खतरनाक रोग से बचने की उम्मीद कम ही होती है.’’

लेकिन भाभी का मन लगातार कह रहा था, ‘मनीष ने अस्पताल में मेरे लिए कितना बढि़या इंतजाम कराया. मैं ने उसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु उस ने मेरा औपरेशन कितने अच्छे ढंग से किया.’

भाभी बारबार मनीष को भुलाने का प्रयास करतीं किंतु उस की भोली सूरत और मुसकराता चेहरा सामने आ जाता. वे सोचतीं, ‘आखिर बेचारे ने मांगा भी क्या, सिर्फ एक गुलाब का फूल.’

आखिर भाभी से रहा नहीं गया. उन्होंने अपने बाग में से ढेर सारे गुलाब के फूल तोड़े और अपने पति के पास गईं.

‘‘जरा सुनिए, आज के भोज में सारे महल्ले के लोग शामिल हैं, यदि मनीष को भी अस्पताल से बुला लें तो कैसा रहेगा वरना लोग बाद में क्या कहेंगे?’’

‘‘हां, कहती तो सही हो,’’ भैया बोले, ‘‘अभी बुलवा लेता हूं उसे.’’

एक आदमी दौड़ादौड़ा अस्पताल गया मनीष को बुलाने, लेकिन मनीष नहीं आ सका. वह किसी दूसरे मरीज का जीवन बचाने में पिछली रात से ही उलझा हुआ था. मनीष ने संदेश भेज दिया कि वह एक घंटे बाद आ जाएगा.

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किंतु मरीज की दशा में सुधार न हो पाने के कारण मनीष अपने वादे के मुताबिक भोज में नहीं पहुंच सका. भाभी द्वारा तोड़े गए गुलाब जब मुरझाने लगे तो भाभी ने खुद अस्पताल जाने का निश्चय कर लिया.

भोज में पधारे सारे मेहमान रवाना हो गए, तब भाभी ने मनीष के लिए टिफिन तैयार किया और गुलाब का फूल ले कर भैया के साथ अस्पताल की ओर रवाना हो गईं.

अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि मनीष एक वार्ड में पलंग पर आराम कर रहा है. उस ने मरीज को अपना स्वयं का खून दिया था, क्योंकि तुरंत कोई व्यवस्था नहीं हो पाई थी और मरीज की जान बचाना अति आवश्यक था.

भाभी को जब यह जानकारी मिली कि मनीष ने एक गरीब रोगी को अपना खून दिया है तो उन के मन में अचानक ही मनीष के लिए बहुत प्यार उमड़ आया. भाभी के मन में वर्षों से नफरत की जो ऊंची दीवार अपना सिर उठाए खड़ी थी, एक झटके में ही भरभरा कर गिर पड़ी. उन के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘मनीष वास्तव में एक सच्चा इंसान है.’’

भाभी के मुंह से निकली इस हलकी सी प्रेमवाणी को मनीष सुन नहीं सका. मनीष ने तो यही सुना, भाभी कह रही थीं, ‘‘मनीष, तुम्हारी भाभी ने तुम्हारे लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया. लेकिन आश्चर्य है, तुम इस के बाद भी भाभी की इज्जत करते हो.’’

‘‘हां, भाभी, परिवाररूपी मकान का निर्माण करने के लिए प्यार की एकएक ईंट को बड़ी मजबूती से जोड़ना पड़ता है. डाक्टर होने के कारण मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी भाभी के मन में कहीं न कहीं स्नेह का स्रोत छिपा है.’’

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‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष,’’ कहते हुए भावावेश में भाभी ने मनीष का हाथ पकड़ लिया. उन की आंखों में आंसू छलक आए. वे बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा बहुत बुरा किया है, मनीष. मेरे कारण ही तुम्हें घर छोड़ना पड़ा.’’

‘‘अगर घर न छोड़ता तो कुछ करगुजरने की लगन भी न होती. मैं यहां का प्रसिद्ध डाक्टर आप के कारण ही तो बना हूं,’’ कहते हुए मनीष ने अपने रूमाल से भाभी के आंसू पोंछ दिए.

देवरभाभी का यह अपनापन देख कर भैया की आंखें भी खुशी से गीली हो उठीं.

Serial Story: सबक के बाद- भाग 3

‘नहीं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?’ उन्होंने तमक कर पूछा था.

‘अब हमारे बीच नन्हा भी आ गया है. प्रीति उन्हें समझाने लगी थी, ‘हम 2 से 3 हो आए हैं. मुझे इस गुलामी की जंजीर से मुक्त कर दें.’

‘नहीं,’ वे गुर्राए, ‘मैं अपने निश्चय से टस से मस नहीं हो सकता. मैं हमेशा अपने ही मन की करता रहूंगा.’

‘ठीक है,’ प्रीति का भी स्वाभिमान जाग गया था. उस ने कहा, ‘फिर मैं भी अपनी मनमरजी पर उतरने लगूंगी.’ प्रीति के अनुनयविनय का प्रयाग पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो एक दिन नन्हे को ले कर मायके चली गई. रोरो कर उस ने मां को सारी बातें बतला दीं. मां उस का सिर सहलाने लगीं, ‘धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा बेटी.’

तब से प्रीति मायके में ही रह कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगी थी. उन्होंने कभी भी उस की खोजखबर नहीं ली. उन का बेटा नन्हा भी उन्हें नहीं पिघला पाया था. उन के दोस्तों में इजाफा होता गया. बदनाम गलियों में भी वह मुंह मारने लगे थे.

एक दिन बूढ़ी हो आई नानी उन के यहां चली आई थीं. ‘क्यों रे, तेरा यह मनमौजीपन कब छूटेगा?’

‘छोड़ो भी नानी मां,’ उन्होंने बात टाल दी थी, ‘मेरे संस्कार ही ऐसे हैं. जो होगा उसे मैं झेल लूंगा.’

‘संस्कार बदले भी तो जा सकते हैं न,’ नानी का हाथ उन के कंधे पर आ गया था, ‘तू अब भी मान जा. जा कर बहू को लिवा ला. इसी में तेरा भला है.’

वह नहीं समझ पाते कि उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. आज उन की पी.ए. कनु तक ने उन्हें नंगा कर देना चाहा था. ठुड्डी पर हाथ रखे हुए वह प्रीति के बारे में सोचने लगे कि उस में कोई कमी नहीं है. उन्हीं के अत्याचारों से उस बेचारी को आज निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है.

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दफ्तर से प्रयाग सीधे ही घर चले आए. उन के पीछेपीछे दोचार उन के मित्र भी चले आए. कुछ देर तक खानेपीने का दौर चला फिर मित्र चले गए तो वह फिर से तन्हा हो गए. उस से नजात पाने के लिए उन्होंने 2-3 बडे़बडे़ पैग लिए और बिस्तर पर जा धंसे.

सुबह हुई, देर से सो कर उठे तो नहा धो कर सीधे आफिस चल दिए. दरवाजे पर खडे़ चपरासी ने निवेदन किया, ‘‘साहब, आप को मैडम याद कर रही हैं.’’

‘‘मुझे?’’ वह चौंके.

‘‘जी,’’ चपरासी बोला, ‘‘मैडम बोली थीं कि आते ही उन्हें मेरे पास भेज दे.’’

वह आशंकित होने लगे. महा- निदेशक ने उन्हें न जाने क्यों बुलवाया है? किसी प्रकार शंकित मन से वह मिसेज रूंगटा के चैंबर में चल दिए. मैडम ने तो उन्हें देखते ही उन की ओर जैसे तोप दाग दी, ‘‘क्यों, मिस्टर, आप को अपने कैरियर का खयाल नहीं है क्या?’’

‘‘ऐसी क्या बात हो आई, मैडम?’’ उन्होंने कुछ सहम कर पूछा.

‘‘यह क्या है, देखिए,’’ मिसेज रूंगटा ने उन्हें कनुप्रिया की शिकायत थमा दी, ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या? आप तो छिपेरुस्तम निकले.’’

शिकायत देख कर उन को सारा कमरा घूमता हुआ सा लगा. वह होंठों पर जीभ फिरा कर बोले, ‘‘माफ करना मैडम, यह लड़की दुश्चरित्र है.’’

‘‘दुश्चरित्र आप हैं,’’ मिसेज रूंगटा ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है कि आप जैसे लंपट व्यक्ति इस पद पर कैसे बने हुए हैं? सुना है, आप का अपनी पत्नी के साथ भी…’’

उन की तो बोलती ही बंद हो आई. उन्होंने अपराधभाव से गरदन झुका ली. मिसेज रूंगटा ने उन्हें चेतावनी दे डाली, ‘‘आइंदा ध्यान रखें. अब आप जा सकते हैं.’’

वह उठे और चुपचाप महानिदेशक के चैंबर से निकल कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गए. तभी उन के कमरे में कनुप्रिया चली आई और बोली,  ‘‘सर, मेरी यहां से बदली हो गई है.’’

वह कुछ बोले नहीं बल्कि चुपचाप फाइलें देखते रहे. आज वह अपने को हारे हुए जुआरी सा महसूस कर रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. तभी उन के पास बाबू छगनलाल चले आए. उन्होंने कहा, ‘‘माफ करना साहब, आज आप कुछ उदास से हैं.’’

‘‘बैठिए छगन बाबू,’’ वह सामान्य हो गए.

छगनलाल कुरसी पर बैठ कर बोले,  ‘‘वैसे हम लोग आफतें खुद ही मोल लिया करते हैं. लगता है कि आप भी किसी आफत में फंसे हैं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ वह बोले, ‘‘मेरी पी.ए. कनु ने महानिदेशक से मेरी बदसलूकी की शिकायत की है.’’

‘‘वही तो,’’ छगनलाल ने कहा, ‘‘सारे निदेशालय में यही सुगबुगाहट चल रही है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा, छगन बाबू,’’ वह बोले, ‘‘अब मैं सावधानी से रहा करूंगा.’’

‘‘रहना भी चाहिए, साहब,’’ छगनलाल बोले, ‘‘आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिए.’’

उन्हें जीवन में पहली बार सबक मिला था. अब वह ध्यानपूर्वक अपना काम करने लगे. वह नानाजी को फोन मिलाने लगे. मिलने पर वे बोले, ‘‘नानाजी, मैं प्रयाग बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो बेटे,’’ उधर से कहा गया.

‘‘मैं आप के पास ही रहना चाहता हूं,’’ उन्होंने अपनी दिली इच्छा प्रकट की.

‘‘स्वागत है,’’ नानाजी ने पूछा, ‘‘कब आ रहे हो?’’

‘‘एकदो दिन में प्रीति को भी साथ ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘फिर तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होगी,’’ नानाजी ने चहक कर कहा, ‘‘यह तो तुम्हें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था.’’

‘‘सौरी नानाजी,’’ प्रयाग क्षमा मांगने लगे, ‘‘अब तक मैं भटकने की राह पर था.’’

शाम को वह दफ्तर से सीधे ही ससुराल चले गए. आंगन में नन्हा खेल रहा था, उसे उन्होंने गोद में उठाया और प्यार करने लगे. कोने में खड़ी प्रीति उन्हें देखती ही रह गई. वह मुसकरा दिए, ‘‘प्रीति, आज मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘वह तो आप को आना ही था,’’ प्रीति हंस दी.

वह सासससुर के आगे अपने किए पर प्रायश्चित्त करने लगे. ससुर ने उन का कंधा थपथपा दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, आदमी ठोकर खा कर ही तो संभलता है.’’

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सुबह उन की नींद खुली तो उन्होंने अपने को तनावमुक्त पाया. प्रीति भी खुश नजर आ रही थी. चायनाश्ते के बाद उन्होंने एक टैक्सी बुला ली. प्रीति और नन्हे को बिठा कर खुद भी उन की बगल में बैठ गए. टैक्सी नानाजी के घर की ओर सड़क पर दौड़ने लगी.

सबक के बाद: किस मोड़ पर खड़ा था प्रयाग

खुद को खोजती मैं: बड़की अम्मां ने क्या किया

उस दिन पूरे तकियागंज में खुसुरफुसुर हो रही थी. कभी बशीरा ताई जानने के लिए चली आती थीं, तो कभी रजिया बूआ. सकीना की अम्मी के कान भी खुसुरफुसुर में ही लगे रहते थे. रेहाना के अब्बा कभी थूकने के बहाने, तो कभी नीम की पत्तियां तोड़ने के बहाने औरतों की बातें सुनने के लिए बाहर आ जाते थे.

सभी को बड़की अम्मां से बड़ी उम्मीद थी. उन की इस हरकत से सब को चिंता हो गई थी कि अब बड़का अब्बा का बुढ़ापा कैसे कटेगा? कौन उन्हें रोटीपानी देगा? जब बड़का अब्बा का टीबी की गांठ का इलाज चल रहा था, रिकशे के पैसे बचाने के लिए बड़की अम्मां मीलों पैदल चल लिया करती थीं और बचे पैसों से उन के लिए फल ले लिया करती थीं.

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जब बड़का अब्बा को डेंगू हुआ था, तब खुद बीमारी से जूझने के बावजूद सिलाई कर के उन का इलाज कराया था. इस बुढ़ापे में बड़का अब्बा तो कुछ ही कदम चलने पर हांफने लगते थे, पर यह औरत 72 साल की उम्र में भी मीलों पैदल चल लिया करती थी. पता नहीं, उस दिन उन्हें क्या सूझी कि इस उम्र में अलग जिंदगी गुजारने का फैसला ले डाला.

अब तो 2 साल गुजर गए… गहमागहमी भी नरम पड़ गई थी. उस वक्त तो सब ने यही सोचा था कि बड़की अम्मां इस उम्र में अकेली कैसे रह पाएंगी. ज्यादा नहीं, तो कुछ दिन में ही लौट कर वापस आ जाएंगी.

बड़की अम्मां की 55 साल की गृहस्थी थी… कोई मजाक है क्या? बड़ा वाला बक्सा, तखत, कूलर सब बड़की अम्मां ने सिलाई करकर के जोड़े थे. खैर… जो भी हो… अब तो बड़की अम्मां की जिंदगी बेहद बेढंगी हो चुकी है. आराम से दोपहर तक उठ कर साग खोेंटने चली जाती हैं, कोई चिंता नहीं रहती कि वापस भी लौटना है.

अगर वे सूरज ढले वापस आ गईं, तो घर और दुकान के नसीब. गलीगली, महल्लेमहल्ले वे डोलतीफिरती हैं. भले घरों में तो लोगों की नजरें जरा अलग ही रहती थीं, लेकिन गलीनुक्कड़ पर उन के दोस्तों की कमी न थी. सर्दी की कंपकंपाती रात में बड़की अम्मां बैठ कर कभी चाय वाले, कभी समोसे वाले, कभी सब्जी वाली के दुखसुख सुनतीं, उन की जिंदगी के बारे में जानतीं और अपने बारे में भी शायद ही कुछ गोपनीय रख पातीं. खुलतीं तो वे खुल ही जातीं.

मुझे भी यह देखने का कम कुतूहल नहीं था कि इस बुढ़ापे में उन के दिन कैसे कट रहे हैं. इसी कुतूहल में अकसर मैं उन के घर पहुंच जाती थी. मुझे उन की जिंदगी के बारे में काफी बातें पता चल गई थीं.

मिट्टी और छप्पर से बने उन के घर में बारिश के दिनों में अंदर तक पानी आ जाता था. गरमी में तो वे बाहर सो लिया करती थीं, पर सर्दी में दिनभर बटोरी लकडि़यों से अपनी कोठरी और खुद को सेंक लिया करती थीं. घर से बाहर निकलते ही बांस में कुछ 5-5 रुपए वाले साबुन, बिसकुट, चिप्स, बीड़ी, तंबाकू, पानमसाले के पैकेट लटका कर दुकान का नाम भी दे रखा था.

अफसोस कि खाना भी सुबह एक बार जो बना तो रात तक वही चल जाता था. बड़का अब्बा का साथ जो छोड़ा, अम्मां तो जैसे शाकाहारी हो गई थीं. उस दिन वे मुझे अंदर अंधेरी कोठरी में ले गईं, जिस में बदरंग व मैलीकुचैली रजाई व कथरी पड़ी हुई थी. एक कोने में एक छोटा सा संदूक रखा था, जो बहुत ही चमकीली चादर से ढका हुआ था. उस छोटे से संदूक में से उन्होंने एक फटीपुरानी, गर्द लगी अलबम निकाली और बड़े जोश से दिखाने लगीं.

पोपले मुंह से कहते हुए बड़की अम्मां के चेहरे पर खुशी उभर आती थी, ‘‘वे आज भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं, जितना 55 साल पहले किया करते थे.’’

शायद बड़की अम्मां को भी नहीं मालूम था कि उन्होंने जो 55 साल पहले नहीं किया, वे अब क्यों, कैसे कर सकीं और क्या अब उन्होंने जो चाहा, वह पा लिया है? बड़की अम्मां ने ऐसा करते समय बहुत सोचा होगा या एक झटके में हो गया होगा. वह बुढि़या इस फलसफे पर बहुत बात नहीं करना चाहती थी? क्यों लोग उस से जानने को इच्छुक थे? क्यों? बड़ी उलझन थी.

बड़की अम्मां खुश भी थीं और दुखी भी. आजादी चाहती थीं और गुलामी भी. चारों बातें सच थीं. कई सच जी रही थीं बड़की अम्मां. उन्होंने बताया, ‘‘बड़का अब्बा ने सारासारा दिन लूम चला कर मुझे गुलाबी रंग का सूट दिलाया था ईद में. शाम को आते थे तो चेहरे पर सूखापन… बहुत काम लेता था न मालिक, इसलिए… पर मेरे हाथों की मेहंदी देख कर खुश हो जाया करते थे. मुझे सजासंवरा देखना उन्हें बहुत पसंद था. वे अभी तक ऐसे बोलते थे कि अभी तो तुम जवान हो.’’

यह कहते ही वे शरमा गईं. कहां की बात कहांकहां से जोड़ रही थी वह बूढ़ी औरत. ‘‘जब तेरे बड़का अब्बा की लूम की नौकरी छूट गई थी और मिस्त्रीगीरी करने लगे थे, उस में उतनी आमदनी नहीं होती थी. तब घर पर रह कर मैं सिलाई कर बच्चों को अच्छे से अच्छा पहनाती थी.’’

‘‘आप ने फरहान भाई को कितने जतन से पाला है, मुझे सब पता है. यास्मीन आपा ठीक हैं न? अब तो कोई दिक्कत नहीं है न फरहान की दुलहन को?’’

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‘‘हां, अभी तो ठीक ही है. फरहान तो मेरा बहुत खयाल रखता है. सुना है, अभी कुछ होने को है… वह उसे कोई भारी काम नहीं करने देता. हर रोज वह कभी अनार, तो कभी मौसमी, बादाम खिलाता है. ‘‘मजीद कहता था कि आप की लड़की बांझ है. कीड़े पड़ेंगे उसे. मैं ने आखिर तक सोचा, यास्मीन अपने घर वापस चली जाए, मेरी बच्ची का घर बना रहे. उस के अब्बा ने कहा था, ‘अब क्या सुख उठा पाएगी, जब मजीद के मन में मैल आ घुसा है.’

‘‘सोचा, लगता है कि उस के नसीब में सुख नहीं है. सिलाई कर के मैं ने तरन्नुम को भी 7 साल का किया. ‘‘फरहान के अब्बा ने तो कई लोगों से बात भी की कि बात बन जाए, मगर मुझे पता चल गया था कि अब बात नहीं बननी है, तभी तो मैं ने फिर से इतनी बड़ी जिंदगी अकेले काटने की सलाह दे डाली थी. मगर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था… अभी कुछ उम्मीद है. चुपके से आती है कभीकभी मिलने. बुरा लगता है दामाद साहब को न.

‘‘फरहान को पढ़ने का खूब जोश था. वह 9वीं जमात में था. तेरे बड़का अब्बा को उसी समय डेंगू हो गया था. तब मैं भी बीमारी से जूझ रही थी. इलाज में हजारों रुपया खर्च हुआ. रातरातभर अस्पताल में बैठी मैं रोती रहती थी. ‘‘उस दिन बहुत तेज पानी बरस रहा था. शाम 6 बजे ही लगता था कि आधी रात हो गई है. बड़ी वाली साइकिल भी बिक चुकी थी. पैदल ही सारे काम करने पड़ते थे.

‘‘स्कूल से फरहान लौटा, फिर टूटीफूटी छतरी ले कर आया था अब्बा को खाना देने. खाना रख कर वह मेरी बगल आ कर बैठ गया. रोतेरोते आंखें सूज गई थीं उस की और मेरी भी. ‘‘फरहान धीरे से बोला, ‘अम्मां, स्कूल वाले फीस जमा करने को बोल रहे हैं. अंगरेजी की किताब के लिए भी रोज ही सजा देते हैं.’

‘‘मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया, ‘यह कोई समय है इस तरह की बात करने का. दिखता नहीं कि बाप ने खटिया पकड़ रखी है. मां बीमार है, फिर भी दिनभर काम कर के दवा जुटा रही है. रातरातभर रोती रहती है, सोती नहीं है. तुझे अपनी पड़ी है.’ ‘‘हाथ उठ गया था अनजाने ही. गाल पर पांचों उंगलियां छप गई थीं. हाथ पकड़ कर खींचते हुए बरसते पानी में अस्पताल से बाहर कर आई थी मैं.

‘‘वह रोता हुआ गया था और एक घंटे बाद फिर वापस आ गया. ‘‘अब्बा का हाथ पकड़ कर वह बहुत रोया. तब से जो ट्रक पर गया, तो फिर कोई बीएएमए न कर सका,’’ बड़की अम्मां की सूखी आंखों में दर्द था, तड़प थी, मगर आंसू नहीं थे.

ऐसी हिम्मती औरत भला कहीं होती है क्या. सब को पालापोसा, बड़का अब्बा का कितना खयाल रखा, मेहनतमजदूरी भी की. ऐसी हिम्मत सब को मिले. ‘‘नहीं पढ़ पाए तो क्या, फरहान भाई आज अपने बच्चों को तो अच्छे से पढ़ा रहे हैं. देखा है मैं ने गुलफिशां और साबिर के गाल टमाटर से लाल हुए जा रहे हैं,’’ मैं ने कहा, तो वे धीरे से मुसकराईं, ‘‘बकरीद वाले दिन वह आया था. मुझे सलवारकमीज दी और हाथ में सौ रुपए भी रख गया था. वह गुस्सा हो रहा था. कह रहा था कि अम्मां, कुछ तो लिहाज किया होता. क्या हो गया है आप को? जैसे अब तक आप निभा आई

थीं, वैसे ही कुछ साल और सही. मरते समय तो अकेला न छोड़तीं. जगहंसाई हो रही है.’’ एक दिन तो वे अपने बचपन की बातें ले कर बैठी थीं, ‘‘पता है, मैं बचपन में बहुत शरारती थी. जब मैं

3 साल की थी, तब साकिरा फूफी की छत से अचार चुरा कर खाया करती थी. दिनभर धूप में मैं अकेले ही खेला करती थी.

‘‘रजिया और अनवर के साथ मिल कर मैं ने बहुत शैतानी की है. सब को पता था कि महल्ले में कौन सब से शरारती है. पूरे दिन मैं पतंग उड़ाती थी. ‘‘अब्बा गुस्साते थे, ‘लड़का बनी फिरती है ये लड़की, न जाने किस के घर में गुजर होगी.’

‘‘जब मैं 7वीं जमात में थी कि अब्बा ने पढ़ाई छुड़वा कर मेरा निकाह करा दिया. रामेश्वर सर ने अब्बा से बहुत लड़ाई की, जेल भिजवाने की धमकी तक दी, मगर वे नहीं माने.’’ रात 8 बज गए, सर्दी में हाथ कंपकंपाने लग गए. बड़की अम्मां ने चूल्हे से आग निकाल कर एक तसले में रखी और मेरे आगे कर दी.

मेरा मन ललचाया तो जरूर आग देख कर, लेकिन घड़ी इजाजत नहीं देती थी कि मैं और देर ठहरूं. अगले दिन दोपहर के 2 बज रहे थे. बहुत तेज धूप खिली हुई थी. मुझे इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि मौसम गिरगिट की तरह रंग बदलेगा और देखते ही देखते बारिश हो जाएगी.

मैं आटोरिकशा से हाथ निकाल कर झमझमाती बूंदों का मजा लेने लग गई. घर के लिए आटोस्टैंड से थोड़ी दूर पैदल चलना पड़ता था. थोड़ी देर तो मैं ने एक टिन के नीचे बारिश के थमने का इंतजार किया.

मैं जरा सा ही चली थी कि मेरी आंखें अचानक फटी की फटी रह गईं. उस चबूतरे पर जहां पर लवली चाची रोज सब्जी लगाती हैं, उस चबूतरे पर खड़े हो कर कोई मजे से और जम कर भीग रहा है. पहले तो मैं ठिठकी. कुछ सोच कर मैं धीरेधीरे आगे बढ़ी, वहां जा कर देखा, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

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मैं खुशी और हैरानी से चीख पड़ी, ‘‘बड़की अम्मां… आप? इतनी तेज बारिश में.’’ पानी की आवाज में मेरी आवाज दब रही थी, सो मुझे तेजतेज चीखना पड़ रहा था.

‘‘तबीयत खराब हो जाएगी,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा. वे खिलखिला कर हंसने लगीं. एक दिन वे सरसों का साग खोंटने चली गई थीं. बरैया ने छेद दिया. हायतोबा मच गई थी, ‘इतनी धूप में न जाया करो. वहां सांप का एक बिल भी है.’

‘‘मुझे कहीं भी अकेले नहीं जाने देते थे. जितना बन सकता था, साथ ही जाते थे,’’ यही सब तो बताया था बड़की अम्मां ने एक दिन. ‘‘अरे, वहां पानी भी पीना हराम है. रजिया बूआ ने हायतोबा मचाई. सायरा और रजिया बूआ एकदूसरे से खुसुरफुसुर में थीं.

‘‘अरे बताओ, क्या जमाना आ गया है,’’ अफसाना चाची बोल रही थीं. इस तरह की आवाजें सुन कर मुझे जानने का कुतूहल हो रहा था कि आखिर बात क्या हो गई. मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘खैर, उन की अपनी जिंदगी है, वे जानें,’’ सायरा बूआ ने लंबी सांस लेते हुए कहा. ‘‘दरवाजा बंद था. बुढ़वा निकला था घर से, बादामी रंग के कुरते में, गोश्त की महक आ रही थी अंदर से. चल ऐसे रहा था, जैसे कोई चोर हो,’’ रजिया बूआ फुसफुसा रही थीं. पूरे महल्ले में बात फैल गई थी.

बड़की अम्मां उन दिनों हमारे घर की तरफ गुजरी तक नहीं. महल्ले में किसी के घर देखी नहीं गईं, न चाय वाले ठेले वाले के पास, न सब्जी वाली के पास. सुना, फरहान की दुलहन ने फिर एक दिन तो तीनों जून खाना नहीं दिया था बुड्ढे को, सारी रात खांसता रहा, लेकिन फरहान अस्पताल नहीं ले गया. आखिर उस को भी अपनी इज्जत का कुछ तो खयाल रखना ही पड़ेगा, कल को जगहंसाई हो, दुनिया थूथू करे, उन पर कीचड़ उछाले, तो फरहान क्या उन छींटों से बच पाएगा?

गुलफिशां 15 साल की हो गई है. 2-3 साल में उस के लिए रिश्ता तलाशना पड़ेगा. हंसी की हंसारत हो चुकी थी. बड़का अब्बा को किसी चौराहे पर खड़े होना मुनासिब नहीं था. यों लगता था कि सब की नजरें उन्हें बेध रही हों. पहले गलीमहल्ले में बुढि़या पंचायत लगाया करती थी, अब कम ही लोग उसे फटकने देते थे. 2 साल बाद आखिर उन दोनों की यह हरकत महल्ले वालों को कैसे गवारा होती.

अब तो मैं भी धड़ल्ले से उन के घर नहीं जा सकती थी. कुछ पता नहीं कि बड़की अम्मां का क्या हाल था. अब तो फरहान को बड़का अब्बा को सजा दे कर ही सुधारना पड़ता था. यासमीन ने एकदम ही जाना बंद कर दिया था. वहां जाने पर उस का पति गुस्साता जो था.

इस तनहाई में तो बीमारी और घर करती है, कमजोर जिस्म तो था ही. एक जून पका के चार जून तक वही खाती जो थीं. सिर पर तेल रखने वाला भी कोई नहीं था. बस कोई अनहोनी मौका तलाश रही थी, टूटती दीवार के टुकड़े भी उठा ले जाते हैं लोग. दीवार टूट चुकी थी. शहर में स्वाइन फ्लू फैला हुआ था. बुढि़या ने खटिया पकड़ ली. खबर फैल गई. लगने लगा था कि बुढि़या बचेगी नहीं. कोई खैरखबर लेने वाला भी नहीं था. कौन देखभाल करता?

चैन नहीं आया और एक बार चला गया बुड्ढा. डाक्टर को दिखाया, दवा लाया, खुद बना कर खाना खिलाया. दवा पिलाई, सारी रात जागता रहा. बुढि़या कराहती रही, आंखों की पुतली सफेद होती चली जा रही थी. ‘‘नाजिया की अम्मी, हो गई तसल्ली?’’ बुड्ढे ने धीरे से पूछा, पर वह कुछ जवाब न दे सकी.

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