इस दुनिया को तोड़ें नहीं, जोड़ें

दुनिया का मौसम बदल रहा है. पर्यावरण तो प्रदूषित हो ही रहा है, हर देश में शासन ऐसे लोगों के हाथों में आ रहा है जो संकुचित सोच वाले हैं और जब बोलते हैं तो जहर उगलते हैं और कुछ करते हैं तो शहर ही नहीं पूरे देश गंदे हो जाते हैं. हम तो ऐसे नेताओं के आदी हैं ही लेकिन अब अमेरिका हम से बाजी मार ले गया. अमेरिका ने राष्ट्रपति चुनावों में डौनल्ड ट्रंप को चुना, जो 2 माह बाद भी अपना सही कैबिनेट नहीं बना सका है, पर उसे परवा नहीं है. वह जब बोलता है या व्हाइट हाउस के ओवल रूम में बैठ कर कोई आदेश निकालता है तो उसे इस की चिंता नहीं होती कि इस से कहां किस का दम घुटेगा. इंगलैंड की जनता ने भी यूरोपीय यूनियन से निकलने का फैसला ले कर ट्रंप को जिताने जैसा बरबादी वाला कदम उठाया है. फ्रांस में ला पेन नाम की पुरातनपंथी पार्टी कोयले से चलने वाले इंजन मानो वापस लाने को तैयार है, जो धुएं से दम घोट दें.

भारत में नोटबंदी के जहर का असर अभी भी बाकी है पर फिर भी राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी दमखम से उतरी. यानी दुनिया के ज्यादातर देशों की जनता को न प्रकृति के पर्यावरण की चिंता है न राजनीतिक प्रदूषण की. लोकतंत्र ने हरेक को वोट देने का हक दिया है कि आगे आने वाली पीढि़यों की सुरक्षा का बंदोबस्त उन के अपने मातापिता वोट देते समय कर सकें, पर यहां तो लगता है कि लोकतंत्र के वोटरों और इसलामी देशों के हथियारबंद जिहादियों में कुछ खास फर्क नहीं. दोनों ही अपनेअपने देशों को नष्ट करने में लगे हैं.

यह दुनिया बनी भी तो जंगलों में रहने लायक थी. बस लाखों ने आज और अब की नहीं कल की सोची. तरहतरह की किताबें लिखी गईं. दुनिया के रहस्य जानने के लिए कोई एवरेस्ट पर चढ़ा तो कोई गहरे समुद्र में गया. लोगों ने चांद पर जाने के लिए वाहन बनाए तो आम आदमी को दुनिया भर में घंटों में पहुंचाने के लिए हवाईजहाज बनाए. सरकारों ने इन का कितना साथ दिया यह आकलन करना कठिन है पर सरकारों ने बहुतों को रोका, यह साफ है.

अब इस रुकावट को शासन का तरीका माना जाने लगा है. हर देश में शासक अपने बाशिंदों को काले मध्य युग के से आदेश देने लगा है. दुनिया की जेलों में जगह नहीं बची है. हर जगह एक डर बैठ रहा है कि अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने, शहरों के प्रदूषण से, समुद्र में गंद भरने से ज्यादा नुकसान होगा या शासकों की गैर जिम्मेदारियों से.

आज का किशोर भ्रमित है कि कल क्या होगा? जिन्होंने अमेरिकाइंगलैंड जा कर पढ़ने की सोची थी उन का सपना धुंधला पड़ गया है. कल किस देश में सीरियाई आपसी युद्ध की बीमारी न फैल जाए यह अंदेशा होने लगा है. सारी दुनिया एक है, यह भ्रम टूट रहा है. जैसे गरमी के अंधड़ अपने साथ धूल लाते हैं, वैसा डर हर मन में धीरधीरे आ रहा है. उम्मीद करिए कि सद्बुद्धि जागेगी और लोग दुनिया को तोड़ेंगे नहीं, जोड़ेंगे.

लड़कियों का अन्याय सहना है गलत

एक युवा साधारण से दर्जी के यहां काम करने वाला, दिल्ली सहित कई शहरों में जा कर बीसियों लड़कियों और कुछ लड़कों का बलात्कार कर पाए यह घिनौनी हरकत न केवल डरा देने वाली है, इस समाज के अन्याय को सहने की गलत आदत की पुष्टि भी करती है. वह युवक तो अब कहता है कि उस ने 400-500 लड़कियों से जबरदस्ती की है पर पुलिस उस की निशानदेही पर केवल 15-20 तक पहुंच पाई है, क्योंकि वह युवक अनजान लड़कियों को पकड़ता था, उन्हें अकेले में ले जा कर दुराचार करता और छोड़ देता था. उसे खुद नहीं मालूम कि वे कहां रहती थीं.

इन लड़कियों के मातापिताओं ने मुंह सी रखे थे, यह ज्यादा भयावह है. इस तरह के दुर्जन होते हैं, इस का अंदाजा है पर उन के सताए लोग आज भी कानून व्यवस्था व सामाजिक मान्यताओं से इतना ज्यादा डरते हैं कि वे यातना का दुख सह लेते हैं पर हुए अपराध की सूचना नहीं देते.

आमतौर पर जेब कतरी जाए, चेन खींच ली जाए, घर में चोरी हो जाए, तो लोग तुरंत पुलिस तक पहुंच जाते हैं पर सैकड़ों मातापिता अपनी बच्चियों के साथ हुई बलात्कार की घटना की शिकायत पुलिस में यह सोच न करें कि कहीं उन की इज्जत पर बट्टा न लग जाए, यह सरकार की नाक काटने के बराबर है. यह कैसी सरकार है जिस ने इस सीरियल अपराध पर मुंह सी रखा है और जो सफाई मिल रही है वह छोटे इंस्पैक्टरों से मिल रही है.

साफ है हमारे यहां सरकारें राज करने आती हैं, राज चलाने नहीं. नेता चुनाव लड़ कर, जीत कर पद का लाभ उठाना चाहते हैं, कर्तव्य पूरा नहीं करना चाहते. यदि जनता को नेताओं व पुलिस पर भरोसा होता तो इन पीडि़तों में से आधे तो अपने क्षेत्र के नेताओं से मिलते और व्यथा सुनाते. लगता है आम आदमी को पूरा एहसास है कि सरकार तो क्या सरकार का सांसद, विधायक, पार्षद, सरपंच, पंच सब इस तरह राजनीति के स्विमिंग पूल में नहाने में व्यस्त हैं कि जनता की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं और उन के दरवाजे खटखटाने से कोई लाभ नहीं.

देश की स्थिति इस बुरी तरह खराब होगी कि एक अदना सा पर हिम्मती युवा इतना जघन्य काम लगातार कई सालों तक कर सके, देश की नाक कटाने वाला है. हम अपने को किस तरह का विश्व गुरु कहते हैं, किस मुंह से अपनी सभ्यता का बखान करते हैं, कैसे अपनी संस्कृति का ढोल पीटते हैं जब हमारे बीच ऐसे युवा मजे से सामाजिक व्यवस्था तारतार कर हमें जानवरों माफिक बनाते हैं? तिरंगे को सलाम या तिरंगे के अपमान पर बौखलाना देशभक्ति नहीं है, यह सिर्फ दिखावा है. जो देश समाज को सुरक्षा न दे सके उसे ज्यादा हांकना तो नहीं चाहिए.

मसला: ‘‘पंच परमेश्वर’ पर भाजपा का ‘फंदा’

यह आज का कड़वा सच है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और उन की सरकार का एक ही मकसद है सभी ‘संवैधानिक संस्थाओं’ को अपनी जेब में रख लेना और अपने हिसाब से देश को चलाना. किसी भी तरह के विरोध को नेस्तनाबूद कर देना.देश के संविधान की शपथ ले कर  सत्ता में आए भारतीय जनता पार्टी के ये चेहरे? ऐसा लगता है कि शायद संविधान पर आस्था नहीं रखते, जिस तरह इन्होंने अपने भाजपा के संगठन में उदार चेहरों को हाशिए पर डाल दिया है, वही हालात यहां भी कायम करना चाहते हैं. ये देश को उस दिशा में ले जाना चाहते हैं,

जो बहुतकुछ पाकिस्तान और अफगानिस्तान की है. यही वजह है कि अब कार्यपालिका, विधायिका के साथ चुनाव आयोग, सूचना आयोग को तकरीबन अपने कब्जे में लेने के बाद यह सुप्रीम कोर्ट यानी न्यायपालिका को भी अपने मनमुताबिक बनाने के लिए बड़े ही उद्दंड रूप में सामने आ चुकी है.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी होती है, जो देश की आजादी और देश को संजोने के लिए अपने प्राण देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, भगत सिंह, डाक्टर बाबा साहेब अंबेडकर जैसे नायकों की विचारधारा से बिलकुल उलट है.

और जब कोई विपरीत विचारधारा सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होती है, तो वह लोकतंत्र पर विश्वास नहीं करती, बल्कि तानाशाही को अपना आदर्श मान कर आम लोगों की भावनाओं को कुचल देना चाहती है और अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद कर देना चाहती है.कोलेजियम से कष्ट हैआज सब से ज्यादा कष्ट केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम सिस्टम से है. भाजपा के नेता यह भूल जाते हैं कि जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी या दूसरे दल देश चला रहे थे, तब भी यही सिस्टम काम कर रहा था, क्योंकि यही आज के हालात में सर्वोत्तम है. इसे बदल कर अपने मुताबिक करने की कोशिश देशहित या लोकतंत्र के हित में नहीं है.

कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर न्यायपालिका पर कब्जा करने के लिए उसे डराने और धमकाने का आरोप लगाया है. कांग्रेस पार्टी ने यह आरोप केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की ओर से प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को लिखे उस पत्र के मद्देनजर लगाया, जिस में किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कोलेजियम में केंद्र और राज्यों के प्रतिनिधियों को शामिल करने का सुझाव दिया है.किरण रिजिजू ने प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग करते हुए कहा है कि इस से जस्टिसों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही लाने में मदद मिलेगी.

इस पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने ट्वीट किया, ‘उपराष्ट्रपति ने हमला बोला. कानून मंत्री ने हमला किया. यह न्यायपालिका के साथ सुनियोजित टकराव है, ताकि उसे धमकाया जा सके और उस के बाद उस पर पूरी तरह से कब्जा किया जा सके.’ उन्होंने आगे कहा कि कोलेजियम में सुधार की जरूरत है, लेकिन यह सरकार उसे पूरी तरह से अधीन करना चाहती है. यह उपचार न्यायपालिका के लिए विष की गोली है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इस मांग को बेहद खतरनाक करार दिया. उन्होंने ट्वीट किया, ‘यह खतरनाक है. न्यायिक  नियुक्तियों में सरकार का निश्चित तौर पर कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.’भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा इतनी अलोकतांत्रिक है कि वह न तो विपक्ष चाहती है और न ही कहीं कोई विरोधअवरोध.

यही वजह है कि सत्ता में आने के बाद वह सारे राष्ट्रीय चिह्न और धरोहर, जो स्वाधीनता की लड़ाई से जुड़ी हुई हैं या कांग्रेस पार्टी से, उन्हें धीरेधीरे खत्म किया जा रहा है. इस के साथ ही सब से खतरनाक हालात ये हैं कि आज सत्ता बैठे हुए देश के जनप्रतिनिधि देश की संवैधानिक संस्थाओं को सुनियोजित तरीके से कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं और चाहते हैं कि यह संस्था उन की जेब में रहे और वे जो चाहें वही होना चाहिए.हम ने देखा है कि किस तरह चाहे वह राष्ट्रपति हो या उपराष्ट्रपति या फिर राज्यपालों की नियुक्तियां, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार ऐसे चेहरों को इन कुरसियों पर बैठा रही है, जो पूरी तरह से उन के लिए मुफीद हैं, जो एक गलत चलन है.

एक बेहतर लोकतंत्र के लिए विपक्ष उतना ही जरूरी है, जितना देश को गति देने के लिए सत्ता, मगर अब यह कोशिश की जा रही है कि विपक्ष खत्म कर दिया जाए और संवैधानिक संस्थाओं को अपनी जेब में रख कर देश को एक अंधेरे युग में धकेल दिया जाए, जहां वे जो चाहें वही अंतिम सत्य हो. पर ऐसा होना बड़ा मुश्किल है.

राजनीति में अकेली ताकतवर नहीं मोदी सरकार

गुजरात व हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं केदिल्ली की म्यूनिसिपल कमेटी केउत्तर प्रदेशबिहार व ओडिशा के उपचुनावों से एक बात साफ है कि न तो भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कोई बड़ा माहौल बना है और न ही भारतीय जनता पार्टी इस देश की अकेली राजनीतिक ताकत है. जो सोचते हैं कि मोदी है तो जहां है वे भी गलत हैं और जो सोचते हैं कि धर्म से ज्यादा महंगाईबेरोजगारीहिंदूमुसलिम खाई से जनता परेशान हैवे भी गलत हैं.

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सीटें बढ़ा लीं क्योंकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में वोट बंट गए. गुजरात की जनता का बड़ा हिस्सा अगर भाजपा से नाराज है तो भी उसे सुस्त कांग्रेस औैर बड़बोली आम आदमी पार्टी में पूरी तरह भरोसा नहीं हुआ. गुजरात में वोट बंटने का फायदा भारतीय जनता पार्टी को जम कर हुआ और उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी की दिल्ली की सरकार अब तोहफे की शक्ल में अरविंद केजरीवाल को दिल्ली राज्य सरकार और म्यूनिसिपल कमेटी चलाने में रोकटोक कम कर देगी. उपराज्यपाल के मारफत केंद्र सरकार लगातार अरविंद केजरीवाल को कीलें चुभाती रहती है.

कांग्रेस का कुछ होगायह नहीं कहा जा सकता. गुजरात में हार धक्का है पर हिमाचल प्रदेश की अच्छी जीत एक मैडल है. हांयह जरूर लग रहा है कि जो लोग भारत को धर्मजाति और बोली पर तोड़ने में लगे हैंवे अभी चुप नहीं हुए हैं और राहुल गांधी को भारत जोड़ो यात्रा’ में मिलते प्यार और साथ से उन्हें कोईर् फर्क नहीं पड़ता.

देशों को चलाने के लिए आज ऐसे लोग चाहिए जो हर जने को सही मौका दें और हर नागरिक को बराबर का सम?ों. जो सरकार हर काम में भेदभाव करे और हर फैसले में धर्म या जाति का पहलू छिपा होवह चुनाव भले जीत जाएअपने लोगों का भला नहीं कर सकती. धर्म पर टिकी सरकारें मंदिरोंचर्चों को बनवा सकती हैं पर नौकरियां नहीं दे सकतीं. आज भारत के लाखों युवा पढ़ने और नौकरी करने दूसरे देशों में जा रहे हैं और विश्वगुरु का दावा करने वाली सरकार के दौरान यह गिनती बढ़ती जा रही है. यहां विश्वगुरु नहींविश्वसेवक बनाए जा रहे हैं. भारतीय युवा दूसरे देशों में जा कर वे काम करते हैं जो यहां करने पर उन्हें धर्म और जाति से बाहर निकाल दिया जाए.

अफसोस यह है कि भाजपा सरकार का यह चुनावी मुद्दा था ही नहीं. सरकार तो मानअपमानधर्मजातिमंदिर की बात करती रही और कम से कम गुजरात में तो जीत गई.

देश में तरक्की हो रही है तो उन मेहनती लोगों की वजह से जो खेतों और कारखानों में काम कर रहे हैं और गंदी बस्तियों में जानवरों की तरह रह रहे हैं. देश में किसानों के मकान और जीवन स्तर हो या मजदूरों का उस की चिंता किसी को नहींक्योंकि ऐसी सरकारें चुनी जा रही हैं जो इन बातों को नजरअंदाज कर के धर्म का ढोल पीट कर वोट पा जाती हैं.

ये चुनाव आगे सरकारों को कोई सबक सिखाएंगेइस की कोई उम्मीद न करें. हर पार्टी अपनी सरकार वैसे ही चलाएगीजैसी उस से चलती है. मुश्किल है कि आम आदमी को सरकार पर कुछ ज्यादा भरोसा है कि वह अपने टूटफूट के फैसलों से सब ठीक कर देगी. उसे लगता है कि तोड़जोड़ कर बनाई गई महाराष्ट्रकर्नाटकगोवामध्य प्रदेश जैसी सरकारें भी ठीक हैं. चुनावों में तोड़फोड़ की कोई सजा पार्टी को नहीं मिलती. नतीजा साफ है. जनता को सुनहरे दिनों को भूल जाना चाहिए. यहां तो हमेशा धुंधला माहौल रहेगा.

अंधविश्वास की राजनीति आखिर कबतक

देसी चुनावों में जीत पा जाना कोई कमाल की बात नहीं है खासतौर पर जब यह पैसा देने को भी तैयार हो और भक्तों का चलाया जा रहा मीडिया लोगों को पाखंडी और अंधविश्वासी के साथ राज्य की भक्ति भी सिखा रहा. नेता की ताकत तो तब दिखती है जब दूसरे देश उस की सुनते हों, उसे नाराज करने की हिम्मत न करते हों.

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होने की वजह से बारीबारी से मिलने वाली जी-20, बड़े 20 देशों की संस्था के अध्यक्ष बने हैं पर उन के अध्यक्ष की कुर्सी लेने के कुछ दिन बाद ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ शुरू कर दी यही नहीं, मुसलिम देशों के संगठन औगैंनाइजेशन औफ इस्लामिक कंट्रीज के महासचिव ने भारत के कश्मीर के उस हिस्से का दौरा कर लिया जो पाकिस्तान ने 1947 से जबरन दबोच रखा है.

अच्छा नेता वह होता है जिस का खौफ न हो तो कम से कम इज्जत हो कि उसे अपने देश में नीचा देखने की जरूरत न पड़े. पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर घूमने जाने से या अरुणाचल प्रदेश में घुस जाने से भारत टूटने नहीं वाला, न उसे…..है पर यह सवाल जरूर कर सकता है कि जब केंद्र में दिल्ली में बैठी सरकार इतनी मजबूत है तो ऐसा हो ही क्यों रहा है.

अपने देश में अपने बलबूते पर चुनाव जीतना किसी देश के नेता के लिए काफी नहीं है. हर देश का नेता चुनाव जीत कर या लड़ कर जीत कर ही नेता बनता है. बड़ा नेता वह होता है जिस की सब की इज्जत करें. जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में धोखा खाया था. उन्हें लगा कि महात्मा गांधी के शिष्य होने की वजह से उन्हें दुनिया भर में इज्जत मिलेगी और चाहे चुनाव उन्होंने जीते हो, बेहद लोकप्रिय रहे हो. कानून मानने वाले रहे हों, माओ त्से तुंग के चीन ने. 1862 में हमला कर के मोहभंग कर दिया.

आज भारत ऐसे मोड़ पर बैठा है जहां अपनी गिनती की वजह से, सस्ती मजदूरी की वजह से, बड़ा देश होने की वजह से, सडक़ों, हवाई अड्डों, रेलों के जाल की वजह से वह दुनिया के किसी भी देश से बढ़ कर बन सकता है. पर हो क्या हो रहा है. एक चीन और इस्लामिक देश अपने तेवर दिखा रहे है और दूसरी तरफ भारतीय मजदूर कोठियों में नौकरियां करने के लिए खुद को गुलाम बना कर दुनिया भर में घटिया काम करने के लिए जा रहे हैं. हमारा हाल तो यह है कि हमारे पढ़ेलिखे ही पढऩे के लिए बाहर जा रहे हैं. देश में अमनचैन की बात की जाती है पर हर साल 2 लाख ङ्क्षहदुस्तानी अपनी नागरिकता छोड़ कर दूसरे देश की नागरिकता अपना लेते हैं.

देश को चलाने के बैलेट या बुलेट की नहीं, सही बैल्ट वाली नीतियों की जरूरत है जो हमारी खिसकती फटी पैंट को रोक सके. देश बाहरी खतरों से ज्यादा तो अदरुनी खतरों से परेशान है और इसीलिए बाहर वाले शेर हो रहे हैं.

कांग्रेसी एकजुटता के सुरीले सुर

यह दर्द था हिमाचल प्रदेश के एक आम आदमी और प्रतिभा सिंह खेमे के कार्यकर्ता का. पर सवाल उठता है कि आखिर जिन वीरभद्र सिंह के नाम पर कांग्रेस ने खूब चुनाव प्रसार किया, उन के परिवार में से किसी को मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया?

कांग्रेस के लिहाज से हिमाचल प्रदेश में सत्ता पर काबिज होना देश की राजनीति के लिए सुखद संकेत है. भले ही हम राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का फिलहाल कोई सीधा असर नहीं देख रहे हैं, पर उन की मेहनत अब कदम दर कदम रफ्तार पकड़ रही है. साथ ही, कांग्रेस अब एकजुट होती दिखाई दे रही है.

यही वजह है कि सुखविंदर सिंह सुक्खू के हिमाचल प्रदेश के नए मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सचिन पायलट, राजीव शुक्ला समेत पार्टी के कई दिग्गज नेता शामिल हुए.

इस एकता के कई सियासी माने हैं, जैसे कांग्रेस पहले की तुलना में भले ही कमजोर दिखती है, पर जनता ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को सिरे से खारिज कर के बता दिया है कि कांग्रेसी तिलों में अभी काफी तेल बाकी है.

इसी एकता का नतीजा है कि दिल्ली कांग्रेस इकाई के उपाध्यक्ष अली मेहंदी, जो हाल ही में 2 नवनिर्वाचित पार्षदों के साथ आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए थे, कुछ समय बाद उन्होंने कांग्रेस से माफी मांगते हुए वापस पार्टी में शामिल होने की जानकारी दी.

अली मेहंदी ने इस दौरान कहा, ‘‘मैं कांग्रेस में था, कांग्रेस में हूं और रहूंगा… मैं हमेशा राहुल गांधी का कार्यकर्ता बन कर रहूंगा.’’

दूसरी ओर अगर हिमाचल प्रदेश के कांग्रेसी घमासान पर नजर डालें, तो प्रदेश के 6 बार मुख्यमंत्री रहे दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह और उन के समर्थकों द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए होहल्ला मचाने के बावजूद अगर आलाकमान ने अपना कड़ा रुख बनाए रखा, तो इस की सब से बड़ी वजह यह रही कि कांग्रेस परिवारवाद के आरोप से उबरना चाहती है.

प्रतिभा सिंह के पति वीरभद्र सिंह हिमाचल प्रदेश में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे. उन के बेटे भी विधायक हैं और खुद प्रतिभा सिंह सांसद हैं. ऐसे में अगर प्रतिभा सिंह को मुख्यमंत्री या विक्रमादित्य को उपमुख्यमंत्री बनाया जाता तो एक बार फिर से कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगता. पर मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी

ने सख्ती दिखाई और प्रतिभा सिंह के बागी तेवरों के बावजूद उन की दाल नहीं गलने दी.

अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, तो मैनपुरी लोकसभा सीट पर पिछले दिनों हुए उपचुनाव में पार्टी की उम्मीदवार डिंपल यादव ने अपने भारतीय जनता पार्टी के रघुराज सिंह शाक्य को 2 लाख, 88 हजार, 461 वोटों के फर्क से हरा दिया था. जब डिंपल यादव ने लोकसभा सदस्य के रूप में शपथ ली, तब उन्होंने सोनिया गांधी के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.

इतना ही नहीं, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने उसी दौरान पत्रकारों से बात करते हुए इशारा किया कि साल 2024 के चुनाव के लिए विपक्ष एकजुट होगा. विपक्षी दल साल 2024 से पहले साथ आएंगे. नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, केसीआर सभी इस की कोशिश कर रहे हैं. विपक्ष की एकता और डिंपल यादव का सोनिया गांधी के पैर छूना भारतीय राजनीति के लिए नया संकेत है.

हाल के दिनों में कांग्रेस की बांछें खिलने की एक अहम वजह यह भी है कि इन दिनों पार्टी सोशल प्लेटफार्म पर बदलीबदली नजर आ रही है. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के ट्वीट और हैशटैग चुटीले हो चले हैं और अकसर ट्रैंड भी करते हैं. इस का असर पार्टी और राहुल गांधी के फौलोअर्स की तादाद पर भी साफ देखा जा सकता है.

अगर ऐसा ही रहा, तो साल 2023 में होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की एकजुटता को नया बल मिल सकता है और यह भारतीय जनता पार्टी के साथसाथ तमाम छोटे क्षेत्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है.

छत्तीसगढ़: राज भवन का राज हट

कभी राज हट, बाल हट और स्त्री हट के बारे में कहा जाता था कि इन्हें शांत करना बहुत कठिन होता है . आजकल आदिवासी राज्य छत्तीसगढ़ में राजभवन का राज हट चर्चा का विषय बना हुआ है. यहां राज्यपाल के रूप में अनुसूचित जनजाति से अनुसुइया उईके राज्यपाल की भूमिका का निर्वहन कर रही है और आरक्षण के मसले पर उनका हट चर्चा में है. छत्तीसगढ़ में सरकार और राजभवन में एक ऐसी खींचतान चल रही है जिसकी मिसाल शायद देश में नहीं मिल सकती. ऐसा लगता है मानो सविधान का कोई सम्मान राजभवन नहीं करना चाहता और एक हेटी के चक्कर में आरक्षण का मुद्दा एक दावानल की तरह प्रदेश की फिजाओं में धड़क रहा है. छत्तीसगढ़ आदिवासी बाहुल्य प्रदेश है इसीलिए यहां अक्सर छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग जोर पकड़ती रही है अगर हम कथित रूप से प्रथम मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी को छोड़ दें तो विगत 22 वर्षों में छत्तीसगढ़ को आदिवासी मुख्यमंत्री तो नहीं मिला है आरक्षण का जो अधिकार था उस पर भी ग्रहण लगा हुआ है.

हद तो तब हो गई है, जब विधानसभा में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने आरक्षण हेतु विशेष सत्र 2 और 3 दिसंबर 20220 को बुलाकर आरक्षण का विधेयक पास कर दिया. मगर अब राज्यपाल अनुसुइया उइके ने प्रश्नों की झड़ी लगा कर के एक ऐसी हठधर्मिता देश को दिखाई है जो आज तक किसी राज्यपाल ने छत्तीसगढ़ में कम से कम नहीं दिखाई थी. इस मसले को लेकर के एक तरह से सरकार और राज्य भवन में ठन गई है इसमें न तो केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार कोई पहल कर रही है और ना ही देश की उच्चतम न्यायालय ने अभी तक कोई संज्ञान लिया है. परिणाम स्वरूप 30 दिन से ज्यादा हो जाने के बावजूद राजभवन में आरक्षण विधेयक धूल खा रहा है और प्रदेश में आदिवासी समाज में इसको लेकर के राज्यपाल अनुसुइया उइके के विरोध में अब आवाजें उठने लगी हैं और राजभवन को घेरने भी घटना भी घटित हो चुकी है.

सरकार और राजभवन अब खुलकर आमने- सामने

विधानसभा के शीतकालीन सत्र की कार्यवाही शुरू होते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्यपाल अनुसूईया उइके पर खुलकर हमला किया. आरक्षण विधेयक पर मचे घमासान के बीच उन्होंने सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री ने लिखा-“अगर ये तुम्हारी चुनौती है तो मुझे स्वीकार है, लेकिन तुम्हारे लड़ने के तरीके पर धिक्कार है.”

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल यहीं नहीं रुके. उन्होंने लिखा-” सनद रहे ! – भले ‘संस्थान’ तुम्हारा हथियार हैं, लड़कर जीतेंगे! वो भीख नहीं आधिकार है। फिर भी एक निवेदन स्वीकार करो-कायरों की तरह न तुम छिपकर वार करो, राज्यपाल पद की गरिमा मत तार-तार करो.” ‌ एक दिन पहले कांग्रेस ने रायपुर के साइंस कॉलेज मैदान में जन अधिकार महारैली का आयोजन किया जिसमें पचास हजार से ज्यादा कांग्रेसियों ने भागीदारी की और यह संदेश दिया कि राजभवन और भारतीय जनता पार्टी जो कर रही है वह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा-, छत्तीसगढ़ में दो-चार बंधुआ लोगों को छोड़कर सभी लोग आरक्षण विधेयक का समर्थन कर रहे हैं. राज्यपाल ने उस विधेयक को रोक रखा है.” मुख्यमंत्री ने आगे कहा, -”

मैने पहले भी आग्रह किया है, फिर कर रहा हूं कि राज्यपाल हठधर्मिता छोड़ें. या तो वे विधेयक पर दस्तखत करें या फिर उसे विधानसभा को लौटा दें. राज्यपाल न विधेयकों पर दस्तखत कर रही हैं और न विधानसभा को लौटा रही हैं, सवाल सरकार से कर रही हैं. मुख्यमंत्री ने रैली में कहा था, उच्च न्यायालय के एक फैसले की वजह से छत्तीसगढ़ में आरक्षण खत्म हो चुका है. भाजपा का आरक्षण विरोधी चरित्र है वह नहीं चाहती है कि अनुसूचित जनजाति को आरक्षण मिले. इसी वजह से केंद्र सरकार 14 लाख पद खाली होने के बाद भी नई भर्ती नहीं कर रही है. सार्वजनिक उपक्रमों को बेचा जा रहा है ताकि आरक्षण का लाभ न देना पड़े. छत्तीसगढ़ सरकार लोगों को नौकरी देना चाहती है.”
यहां यह भी बताते चलें कि अनुसुइया उइके स्वयं अनुसूचित जनजाति से हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री बघेल के समक्ष पहले पहल की थी कि अगर आरक्षण पर विधेयक सरकार लाएगी तो वह तत्काल हस्ताक्षर कर देंगी .
इस संपूर्ण वाद विवाद में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि राज्यपाल अनुसूया सरकार से लगातार प्रश्न कर रही है आरक्षण के परीक्षण की बात कर रही हैं जबकि विधि विशेषज्ञों का मानना है कि या उनके अधिकार क्षेत्र में ही नहीं है.
मुख्यमंत्री ने जन अधिकार महारैली में कहा था, मंत्रिमंडल राज्यपाल को सलाह देने के लिए होता है. लेकिन विधानसभा उन्हें सलाह देने के लिए नही है. मंत्रिमंडल सलाह देगी, जो जानकारी मांगेंगी वह देंगे, लेकिन जो संपत्ति विधानसभा की है उसका है जवाब सरकार नहीं देती. इसकी वजह है कि विधायिका का काम अलग है, कार्यपालिका का काम अलग है. कुल मिलाकर के आने वाले समय में यह मामला और भी गर्माहट भरा होगा.

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