Best Hindi Story: सहयात्री – क्या वह अजनबी बन पाया कनिका का सहयात्री

Best Hindi Story, लेखिका – अर्विना गहलोत

शामको 1 नंबर प्लेटफार्म की बैंच पर बैठी कनिका गाड़ी आने का इंतजार कर रही थी. तभी कंधे पर बैग टांगे एक हमउम्र लड़का बैंच पर आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें. लगता है आज गाड़ी लेट हो गई है.’’

न बोलना चाहते हुए भी कनिका ने हां में सिर हिला उस की तरफ देखा. लड़का देखने में सुंदर था. उसे भी अपनी ओर देखते हुए कनिका ने अपना ध्यान दूसरी ओर से आ रही गाड़ी को देखने में लगा दिया. उन के बीच फिर खामोशी पसर गई. इस बीच कई ट्रेनें गुजर गई. जैसे ही उन की टे्रन की घोषणा हुई कनिका उठ खड़ी हुई. गाड़ी प्लेटफार्ट पर आ कर लगी तो वह चढ़ने को हुई कि अचानक उस की चप्पल टूट गई और पैर पायदान से फिसल प्लेटफार्म के नीचे चला गया.

कनिका के पीछे खड़े उसी अनजान लड़के ने बिना देर किए झटके से उस का पैर निकाला और फिर सहारा दे कर उठाया. वह चल नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘‘यदि आप को बुरा न लगे तो मेरे कंधे का सहारा ले सकती हैं… ट्रेन छूटने ही वाली है.’’

कनिका ने हां में सिर हिलाया तो अजनबी ने उसे ट्रेन में सहारा दे चढ़ा कर सीट पर बैठा दिया और खुद भी सामने की सीट पर बैठ गया. तभी ट्रेन चल दी.

उस ने अपना नाम पूरब बता कनिका से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘कनिका.’’

‘‘आप को कहां जाना है?’’

‘‘अहमदाबाद.’’

‘‘क्या करती हैं?’’

‘‘मैं मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रही हूं. वहां पीजी में रहती हूं. आप को कहां जाना है?’’

‘‘मैं भी अहमदाबाद ही जा रहा हूं.’’

‘‘क्या करते हैं वहां?’’

‘‘भाई से मिलने जा रहा हूं.’’

तभी अचानक कंपार्टमैंट में 5 लोग घुसे और फिर आपस में एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए 3 लोग कनिका की बगल में बैठ गए. उन के मुंह से आती शराब की दुर्गंध से कनिका का सांस लेना मुश्किल होने लगा. 2 लोग सामने पूरब की साइड में बैठ गए. उन की भाषा अश्लील थी.

पूरब ने स्थिति को भांप कनिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे पैर में चोट है. तुम इधर आ जाओ… ऊपर वाली बर्थ पर लेट जाओ… बारबार आनेजाने वालों से तुम्हें परेशानी होगी.’’

कनिका स्थिति समझ पूरब की हर बात किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह माने जा रही थी. पूरब ने सहारा दिया तो वह ऊपर की बर्थ पर लेट गई. इधर पैर में चोट से दर्द भी हो रहा था.

हलकी सी कराहट सुन पूरब ने मूव की ट्यूब कनिका की तरफ बढ़ाई तो उस के मुंह

से बरबस निकल गया, ‘‘ओह आप कितने

अच्छे हैं.’’

उन लोगों ने पूरब को कनिका की इस तरह सेवा करते देख फिर कोई कमैंट नहीं कसा और अगले स्टेशन पर सभी उतर गए.

कनिका ने चैन की सांस ली. पूरब तो जैसे उस की ढाल ही बन गया था.

कनिका ने कहा, ‘‘पूरब, आज तुम न होते तो मेरा क्या होता?’’ मैं

किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करूं… आज जो भी तुम ने मेरे लिए किया शुक्रिया शब्द उस के सामने छोटा पड़ रहा है.

‘‘ओह कनिका मेरी जगह कोई भी होता तो यही करता.’’

बातें करतेकरते अहमदाबाद आ गया. कनिका ने अपने बैग में रखीं स्लीपर निकाल कर पहननी चाहीं, मगर सूजन की वजह से पहन नहीं पा रही थी. पूरब ने देखा तो झट से अपनी स्लीपर निकाल कर दे दीं. कनिका ने पहन लीं.

पूरब ने कनिका का बैग अपने कंधे पर टांग लिया. सहारा दे कर ट्रेन से उतारा और फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें पीजी तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे जाओगी? अपने पैर की हालत देखी है? किसी नर्सिंग होम में दिखा लेते हैं. फिर तुम्हें छोड़ कर मैं भैया के पास चला जाऊंगा. आओ टैक्सी में बैठो.’’

कनिका के टैक्सी में बैठने पर पूरब ने टैक्सी वाले से कहा, ‘‘भैया, यहां जो भी पास में नर्सिंगहोम हो वहां ले चलो.’’

टैक्सी वाले ने कुछ ही देर में एक नर्सिंगहोम के सामने गाड़ी रोक दी.

डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने कहा, ‘‘ज्यादा नहीं लगी है. हलकी मोच है. आराम करने से ठीक हो जाएगी. दवा लिख दी है लेने से आराम आ जाएगा.’’

नर्सिंगहोम से निकल कर दोनों टैक्सी में बैठ गए. कनिका ने अपने पीजी का पता बता दिया. टैक्सी सीधा पीजी के पास रुकी. पूरब ने कनिका को उस के कमरे तक पहुंचाया. फिर जाने लगा तो कनिका ने कहा, ‘‘बैठिए, कौफी पी कर जाइएगा.’’

‘‘अरे नहीं… मुझे देर हो जाएगी तो भैया ंिंचतित होंगे. कौफी फिर कभी पी लूंगा.’’

जाते हुए पूरब ने हाथ हिलाया तो कनिका ने भी जवाब में हाथ हिलाया और फिर दरवाजे के पास आ कर उसे जाते हुए देखती रही.

थोड़ी देर बाद बिस्तर पर लेटी तो पूरब का चेहरा आंखों के आगे घूम गया… पलभर को पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, धड़कनें तेज हो गईं.

तभी कौल बैल बजी.

इस समय कौन हो सकता है? सोच कनिका फिर उठी और दरवाजा खोला तो सामने पूरब खड़ा था.

‘‘क्या कुछ रह गया था?’’ कनिका ने

पूछा, ‘‘हां… जल्दबाजी में मोबाइल यहीं भूल गया था.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई कि मेरे पैरों में तुम्हारी स्लीपर हैं. इन्हें भी लेते जाना,’’ कह कौफी बनाने चली गई. अंदर जा कर कौफी मेकर से झट से 2 कप कौफी बना लाई, कनिका पूरब को कनखियों से देख रही थी.

पूरब फोन पर भाई से बातें करने में व्यस्त था. 1 कप पूरब की तरफ बढ़ाया तो पूरब की उंगलियां उस की उंगलियों से छू गईं. लगाजैसे एक तरंग सी दौड़ गई शरीर में. कनिका पूरब के सामने बैठ गई, दोनों खामोशी से कौफी पीने लगे.

कौफी खत्म होते ही पूरब जाने के लिए उठा और बोला, ‘‘कनिका, मुझे तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’

अब तक विश्वास अपनी जड़े जमाने

लगा था. अत: कनिका ने अपना मोबाइल नंबर

दे दिया.

पूरब फिर मिलेंगे कह कर चला गया. कनिका वापस बिस्तर पर आ कर कटे वृक्ष की तरह ढह गई.

खाना खाने का मन नहीं था. पीजी चलाने वाली आंटी को भी फोन पर ही अपने आने की खबर दी, साथ ही खाना खाने के लिए भी मना कर दिया.

लेटेलेटे कनिका को कब नींद आ गई,

पता ही नहीं चला. सुबह जब सूर्य की किरणें आंखों पर पड़ीं तो आंखें खोल घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. फिर बड़बड़ाते हुए तुरंत

उठ खड़ी हुई कि आज तो क्लास मिस हो गई. जल्दी से तैयार हो नाश्ता कर कालेज के लिए निकल गई.

एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला. आज कालेज की छुट्टी थी. कनिका को

बैठेबैठे पूरब का खयाल आया कि कह रहा था फोन करेगा, लेकिन उस का कोई फोन नहीं आया. एक बार मन किया खुद ही कर ले. फिर खयाल को झटक दिया, लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. किताब ले कर कुछ देर यों ही पन्ने पलटती रही, रहरह कर न जाने क्यों उसे पूरब का खयाल आ रहा था. अनमनी हो खिड़की से बाहर देखने लगी.

तभी अचानक फोन बजा. देखा तो पूरब का था. कनिका ने कांपती आवाज में हैलो कहा.

‘‘कैसी हो कनिका?’’ पूरब ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो? तुम ने कोई फोन नहीं किया?’’

पूरब ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं भाई के साथ व्यवसाय में व्यस्त था, हमारा हीरों का व्यापार है.’’

तुम तैयार हो जाओ मैं लेने आ रहा हूं.

कनिका के तो जैसे पंख लग गए. पहनने के लिए एक प्यारी पिंक कलर की ड्रैस निकाली. उसे पहन कानों में मैचिंग इयरिंग्स पहन आईने में निहारा तो आज एक अलग ही कनिका नजर आई. बाहर बाइक के हौर्न की आवाज सुन कर कनिका जल्दी से बाहर भागी. पूरब हलके नीले रंग की शर्ट बहुत फब रहा था. कनिका सम्मोहित सी बाइक पर बैठ गई.

पूरब ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

सुन कर कनिका का दिल रोमांचित हो उठा. फिर पूछा, ‘‘कहां ले चल रहे हो?’’

‘‘कौफी हाउस चलते हैं… वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ और फिर बाइक हवा से बातें करने लगी.

कनिका का दुपट्टा हवा से पूरब के चेहरे पर गिरा तो भीनी सी खुशबू से पूरब का दिल जोरजोर से धड़कने लगा.

कनिका ने अपना आंचल समेट लिया.

‘‘पूरब, एक बात कहूं… कुछ देर से एक गाड़ी हमारे पीछे आ रही है. ऐसा लग रहा है जैसे कोई हमें फौलो कर रहा है.’’

‘‘तुम्हारा वहम है… उन्हें भी इधर ही

जाना होगा.’’

‘‘अगर इधर ही जाना है तो हमारे पीछे

ही क्यों चल रहे हैं… आगे भी निकल कर जा सकते हैं.’’

‘‘ओह, शंका मत करो… देखो वह काफी हाउस आ गया. तुम टेबल नंबर 4 पर बैठो. मैं बाइक पार्क कर के आता हूं.’’

कनिका अंदर जा कर बैठ गई.

पूरब जल्दी लौट आया. बोला, ‘‘कनिका क्या लोगी? संकोच मत करो… अब तो हम मिलते ही रहेंगे.’’

‘‘पूरब ऐसी बात नहीं है. मैं फिर कभी… आज और्डर तुम ही कर दो.’’

वेटर को बुला पूरब ने 2 कौफी का और्डर दे दिया. कुछ ही पलों में कौफी आ गई.

कौफी पीने के बाद कनिका ने घड़ी की तरफ देख पूरब से कहा, ‘‘अब हमें चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है मैं तुम्हें छोड़ कर औफिस चला जाऊंगा. मेरी एक मीटिंग है.’’

पूरब कनिका को छोड़ कर अपने औफिस पहुंचा. भाई सौरभ के

कैबिन में पहुंचा तो उन की त्योरियां चढ़ी हुई थीं. पूछा, ‘‘पूरब कहां थे? क्लाइंट तुम्हारा इंतजार कर चला गया. तुम कहां किस के साथ घूम रहे थे… मुझे सब साफसाफ बताओ.’’

अपनी एक दोस्त कनिका के साथ था… आप को बताया तो था.’’

‘‘मुझे तुम्हारा इन साधारण परिवार के लोगों से मिलनाजुलना पसंद नहीं है… और फिर बिजनैस में ऐसे काम नहीं होता है… अब तुम घर जाओ और फोन पर क्लाइंट से अगली मीटिंग फिक्स करो.’’

‘‘जी भैया.’’

कनिका और पूरब की दोस्ती को 6 महीने बीत गए. मुलाकातें बढ़ती गईं. अब दोनों एकदूसरे के काफी नजदीक आ गए थे. एक दिन दोनों घूमने के  लिए निकले. तभी पास से एक बाइक पर सवार 3 युवक बगल से गुजरे कि अचानक सनसनाती हुई गोली चली जो कनिका की बांह को छूती हुई पूरब की बांह में जा धंसी.

कनिका चीखी, ‘‘गाड़ी रोको.’’

पूरब ने गाड़ी रोक दी. बांह से रक्त की धारा बहने लगी. कनिका घबरा गई. पूरब को सहारा दे कर वहीं सड़क के किनारे बांह पर दुपट्टा बांध दिया और फिर मदद के लिए

सड़क पर हाथ दिखा गाड़ी रोकने का प्रयास

करने लगी. कोई रुकने को तैयार नहीं. तभी कनिका को खयाल आया. उस ने 100 नंबर पर फोन किया. जल्दी पुलिस की गाड़ी पहुंच गई. सब की मदद से पूरब को अस्पताल में भरती

करा पूरब के फोन से उस के भाई को फोन पर सूचना दे दी.

डाक्टर ने कहा कि काफी खून बह चुका है. खून की जरूरत है. कनिका अपना खून देने के लिए तैयार हो गई. ब्लड ग्रुप चैक कराया तो उस का ब्लड गु्रप मैच कर गया. अत: उस का खून ले लिया गया.

तभी बदहवास से पूरब के भाई ने वहां पहुंच डाक्टर से कहा, ‘‘किसी भी हालत में मेरे भाई को बचा लीजिए.’’

‘‘आप को इस लड़की का धन्यवाद करना चाहिए जो सही समय पर अस्पताल ले आई… अब ये खतरे से बाहर हैं.’’

सौरभ की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. जैसे ही पूरब को होश आया सौरभ फफकफफक कर रो पड़ा, ‘‘भाई, मुझे माफ कर दे… मैं पैसे के मद में एक साधारण परिवार की लड़की को तुम्हारे साथ नहीं देख सका और उसे तुम्हारे रास्ते से हमेशा के लिए हटाना चाहा पर मैं भूल गया था कि पैसे से ऊपर इंसानियत भी कोई चीज है. कनिका मुझे माफ कर दो… पूरब ने तुम्हारे बारे में बताया था कि वह तुम्हें पसंद करता है. लेकिन मैं नहीं चाहता था कि साधारण परिवार की लड़की हमारे घर की बहू बने… आज तुम ने मेरे भाई की जान बचा कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया,’’ और फिर कनिका का हाथ पूरब के हाथों में दे कर बोला, ‘‘मैं जल्द ही तुम्हारे मातापिता से बात कर के दोनों की शादी की बात करता हूं.’’ कह बाहर निकल गया.

पूरब कनिका की ओर देख मुसकराते हुए बोला, ‘‘कनिका, अब हम सहयात्री से जीवनसाथी बनने जा रहे हैं.’’

यह सुन कनिका का चेहरा शर्म से लाल हो गया. Best Hindi Story

Story In Hindi: काठ की हांड़ी – मीना ने ऐसा क्या कारनामा किया

Story In Hindi: मीनाका चेहरा देख कर शोभाजी हैरान रह गईं. वे 1-2 मुलाकातों में ही समझ जाती थीं कि सामने खड़ा इंसान कितने पानी में है. मगर मीना को ले कर उन की आंखें धोखा खा गईं.

‘‘जो चीज आंखों के बहुत ज्यादा पास हो उसे भी ठीक से पहचाना नहीं जा सकता और जो ज्यादा दूर हो उस की भी पहचान नहीं हो सकती. हमारी आंखें इंसान की आंखें हैं. हमारे पास गिद्ध की आंखें नहीं हैं,’’ सोमेश ने मां को समझाया था, ‘‘आप इतनी परेशान क्यों हो रही हैं? आजकल का युग सीधे व सरल इंसान का नहीं है. भेष बदलना पड़ता है.’’

दिल्ली वाले चाचाजी के किसी मित्र की बेटी है मीना और यहां लुधियाना में एक कंपनी में काम करती है. कुछ दिन उन के पास रहेगी. उस के बाद अपने लिए कोई ठिकाना देख लेगी. यही कह कर चाचाजी ने उसे उन के पास भेजा था.

3 महीने होने को आए हैं इस लड़की ने पूरे घर पर अपना अधिकार जमा रखा है. कल तो हद हो गई जब एक मां और बेटा उस की जांचपरख के लिए घर तक चले आए. मीना का उन के सामने जो व्यवहार था वह ऐसा था मानो वह इसी घर की बेटी है.

‘‘घर बहुत सुंदर सजाया है तुम ने बेटा… तुम्हारी पसंद का जवाब नहीं है. सोफा, परदे सब लाजवाब… यह पेंटिंग भी तुम ने बनाई है क्या? इतना समय कैसे निकाल लेती हो?’’

‘‘बस आंटी शौक है… समय निकल ही आता है.’’

शोभाजी यह सुन कर हैरान रह गईं कि उन की बनाई कलाकृति पर अपनी मुहर लगाने में इस लड़की को 1 मिनट भी नहीं लगा. फिर 3 महीने की सेवा पर कहीं पानी न फिर जाए, यह सोच वे चुप रहीं. मगर उसी पल तय कर लिया कि अब और नहीं रखेंगी वे मीना को अपने घर में. सामनेसामने उन्हीं को बेवकूफ बना रही है यह लड़की.

‘‘आप मीना की आंटी हैं न… अभी कुछ दिन और रुकेंगी न… घर आइए न इस इतवार को,’’ जातेजाते उस महिला ने अपना कार्ड देते हुए.

शोभाजी अकेली रहती हैं. बेटा सोमेश बैंगलुरु में रहता है और पति का देहांत हुए 3 साल हो गए हैं. शोभाजी ने अपने फ्लैट को बड़े प्यार से सजाया है.

शोभाजी इस हरकत पर सकते में हैं कि कहीं यह लड़की कोई खतरनाक खेल तो नहीं खेल रही. फिर चाचा ससुर को फोन किया.

‘‘तो क्या अब तक वह तुम्हारे ही घर पर है… पिछली बार घर आई थी तब तो कह रही थी उस ने घर ढूंढ़ लिया है. बस जाने ही वाली है.’’

इस बात को भी 2 महीने हो गए हैं. अब तक तो उसे चले जाना चाहिए था.

हैरान थे चाचाजी. शोभाजी ने पूरी बात सुनाना उचित नहीं समझा. बस इतना ही पता लगाना था कि सच क्या है.

‘‘तुम्हें कुछ दिया है क्या उस ने? कह रही थी पैसे दे कर ही रहेगी. खानेपीने और रहने सब के.’’

‘‘नहींनहीं चाचाजी. अपना बच्चा खापी जाए तो क्या उस से पैसे लूंगी मैं?’’

हैरान रह गए थे चाचाजी. बोले, ‘‘यह लड़की इतनी होशियार है मैं ने तो सोचा भी नहीं था. जैसा उचित लगे वैसा करो. मेरी तरफ से पूरी छूट है. मैं ने तो सिर्फ 8-10 दिनों के लिए कहा था. 3 महीने तो बहुत लंबा समय हो गया है.’’

‘‘ठीक है चाचाजी,’’ कहने को तो शोभाजी ने कह दिया देख लेंगी, मगर देखेंगी कैसे यह सोचने लगीं.

पड़ोसी नमन परिवार से उन का अच्छा मेलजोल है. मीना की भी दोस्ती है

उन से. शोभाजी ने पहली बार उन से इस विषय पर बात की.

‘‘वह तो कह रही थी आप को क्10 हजार महीना देती है.’’

चौंक उठी शोभाजी. डर लगने लगा… फिर उन्होंने पूरी बात बताई तो नमनजी भी हैरान रह गए.

‘‘नहींनहीं शोभा भाभी, यह तो हद से

ज्यादा हो रहा है… क्या आप उन मांबेटे का पता जानती हैं?’’

‘‘उस महिला ने कार्ड दिया था अपना… रविवार को अपने घर बुलाया है.’’

‘‘इस लड़की को डर नहीं लगता क्या? वे मांबेटा किस भुलावे में हैं… यहां आए थे तो यह तो समझना पड़ेगा न कि क्या देखनेसुनने आए थे,’’ नमनजी ने कहा.

शोभाजी ने कार्ड ढूंढ़ कर फोन मिलाया, ‘‘जी मैं मीना की आंटी बोल रही हूं.’’

‘‘हांहां कहिए शोभाजी… आप आईं ही नहीं… मीना कह रही थी आप जल्दी वापस जाने वाली हैं, इसीलिए नहीं आ सकतीं… सुनाइए बच्चे कैसे हैं? दिल्ली में सब ठीक है न?’’

‘‘माफ कीजिएगा मैं कुछ समझी नहीं… दिल्ली   में मेरा क्या काम मैं तो यहीं रहती हूं लुधियाना में और जिस घर में आप आई थीं वही मेरा घर है. मीना तो मेरे चाचा ससुर के किसी मित्र की बेटी है जो 3 महीने पहले मेरे पास यह कह कर रहने आई थी कि 8-10 दिनों में चली जाएगी. मैं तो इस से ज्यादा उसे जानती तक नहीं हूं.’’

‘‘लेकिन उस ने तो बताया था कि वह फ्लैट उस के पापा का है,’’ हैरान रह गई थी वह महिला, ‘‘कह रही थी उस के पापा दिल्ली में हैं. मेरे बेटे को बहुत पसंद आई है मीना. उस ने कहा यहां लुधियाना में उस का अपना फ्लैट है. सवाल फ्लैट का भी नहीं है. मुझे तो सिर्फ अच्छी बहू चाहिए,’’ परेशान हो उठी थी वह महिला, ‘‘यह लड़की इतना बड़ा झूठ क्यों बोल गई? ऐसी क्या मजबूरी हो गई?’’

दोनों महिलाएं देर तक बातें करती रहीं. दोनों ही हैरान थीं.

शाम 6 बजे जब मीना घर आई तब तक उस का सारा सामान शोभाजी ने दरवाजे पर रख दिया था. यह देख वह हैरान रह गई.

‘‘बस बेटा अब तमाशा खत्म करो… बहुत समय हो गया… मुझे छुट्टी दो.’’

रंग उड़ गया मीना का. ‘‘सच बोल कर भी तुम्हारा काम चल सकता था. झूठ क्यों बोलती रही? पैसे बचाने थे उस के लिए चाचाजी से झूठ कहा. अपना रोब जमाना था उस के लिए नमनजी से कहा कि हर महीने मुझे क्व10 हजार देती हो. अच्छे घर का लड़का भा गया तो मेरा घर ही अपने पिता का घर बता दिया. तुम पर भरोसा कौन करेगा?’’

‘‘अच्छी कंपनी में काम करती हो… झूठ पर झूठ बोल कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली तुम ने.’’

‘‘आंटी आप… आप क्या कह रही हैं… मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘बस करो न अब… मुझे और तकलीफ मत दो. अफसोस हो रहा है मुझे कि मैं ने

3 महीने एक ऐसी लड़की के साथ गुजार दिए जिस के पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है. बेवकूफ तो मैं हूं जिसे समझने में इतनी देर लग गई. मिट्टी का बरतन बबनो बच्ची जो आंच पर रखरख कर और पक्का होता है. तुम तो काठ की हांड़ी बन चुकी हो.’’

‘‘रिकशा आ गया है मीना दीदी,’’ नमनजी के बेटे ने आवाज दी. मीना हैरान थी कि इस वक्त 6 बजे शाम वह कहां जाएगी.

‘‘पास ही बीवी रोड पर एक गर्ल्स होस्टल है. वहां तुम्हें आराम से कमरा मिल जाएगा. तुम्हें इस समय सड़क पर भी तो नहीं छोड़ सकते न…’’

रो पड़ी थी मीना. आत्मग्लानि से या यह सोच कर कि अच्छाखासा होटल हाथ से निकल गया.

‘‘आंटी मैं आप के पैसे दे दूंगी,’’ कह मीना ने अपना सामान रिकशे में रखा.

‘‘नहीं चाहिए… समझ लूंगी बदले में तुम से अच्छाखासा सबक ले लिया.

भारी मन से बिदा दी शोभाजी ने मीना को. ऐसी ‘बिदा’ भी किसी को देनी पड़ेगी, कभी सोचा नहीं था. Story In Hindi

Hindi Story: आधी अधूरी प्रेम कहानी – नर्मदा नदी के तट पर क्या हुआ था

Hindi Story: लौक डाउन का दूसरा चरण देश में चल रहा था. नर्मदा नदी पुल पर बने जिस चैक पोस्ट पर मेरी ड्यूटी जिला प्रशासन ने लगाई थी,वह दो जिलों की सीमाओं को जोड़ती थी. मेरे साथ ड्यूटी पर पुलिस के हबलदार,एक पटवारी ,गाव का कोटवार और मैं निरीह मास्टर.आठ आठ घण्टे की तीन शिफ्ट में लगी ड्यूटी में हमारा समय सुबह 6 बजे से लेकर दोपहर के 2 बजे तक रहता.आठ घंटे की इस ड्यूटी में जिले से बाहर आने जाने वाले लोगों की एंट्री करनी पड़ती थी. यदि कोई कोरोना संक्रमण से प्रभावित क्षेत्रों से जिले की सीमा में प्रवेश करता,तो तहसीलदार को इसकी सूचना दी जाती और यैसे लोगों की जांच कर उन्हें कोरेन्टाईन में रखा जाता. म‌ई महिने की पहली तारीख को मैं ड्यूटी के लिए सुबह 6 बजे ककरा घाट पर बनी चैक पोस्ट पर पहुंच गया था.

नर्मदा नदी के किनारे एक खेत पर एक किसानअपनी मूंग की फसल में पानी दे रहा था . काम करते हुए उसकी नजर नदी की ओर ग‌ई ,तो उसे नदी में कोई भारी सी चीज बहती हुई किनारे की तरफ आती दिखाई दी. थोड़ा करीब जाने पर किसान ने एक दूसरे से लिपटे युवक युवतियों को देखा तो चैक पोस्ट की ओर जोर से आवाज लगाई

” मुंशी जी दौड़ कर आइए ,ये नदी में देखिए लड़का लड़की बहते हुये किनारे लग गये हैं”

मेरे साथ ड्यूटी कर रहे पुलिस थाना के हबलदार बैनीसिंह ने आवाज सुनकर पुल से नीचे की तरफ दौड़ लगा दी. सूचना मिलने पर पुलिस टीम भी मौक़े पर आ ग‌ई . आस पास के लोगों की भीड़ नदी किनारे इकट्ठी हो गई, मुझसे भी रह नहीं गया . तो मैं भी नदी के घाट परपहुंच गया . सबने मिलकर आपस में एक दूसरे से लिपटे दोनों लड़का-लड़की के शव को नदी से निकाल कर किनारे पर कर दिया . जैसे ही उनके चेहरे  पर मेरी नजर गई तो मैं दंग रह ग‌या.

दरअसल नर्मदा नदी में मिले ये दोनों शव दो साल पहले मेरे स्कूल में पढ़ने वाले सौरभ और नेहा के ही थे ,जो दिन पहले ही रात में घर से भागे थे. गाव में जवान लड़का, लड़की के भागने की खबर फैलते ही लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे. नेहा के मां वाप का तो‌‌ रो रोकर बुरा हाल था. गांव में जाति बिरादरी में उनकी इज्जत मुंह दिखाने लायक नहीं बची थी. हालांकि दो साल से चल रहे दोनों के प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन गये थे.पुलिस लाशों के पंचनामा और अन्य कागजी कार्रवाई में जुटी थी और मेरे स्मृति पटल पर स्कूल के दिनों की यादें के एक एक पन्ने खुलते जा रहे थे.

सौरभ और नेहा स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे को पसंद करने लगे थे. सौरभ बारहवीं जमात में और नेहा दसवीं जमात में पढते थे. स्कूल में शनिवार के दिन बालसभा में जीवन कौशल शिक्षा के अंतर्गत किशोर अवस्था पर डिस्कशन चल रहा था. जब सौरभ ने विंदास अंदाज़ में बोलना शुरू किया तो सब देखते ही रह गये.  सौरभ ने जब बताया कि किशोर अवस्था में लड़के लड़कियों में जो शारीरिक परिवर्तन होते हैं, उसमें गुप्तांगों के आकार बढ़ने के साथ बाल उग आते हैं.लड़को के लिंग में कड़ा पन आने लगता हैऔर लड़कियों के वक्ष में उभार आने लगते हैं .लड़का-लड़की एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते हैं.  हमारे बुजुर्ग शिक्षक जो दसवीं जमात के विज्ञान का जनन वाला पाठ पढ़ाने में संकोच करते हैं ,वे बालसभा छोड़ कर चले गये. लड़को को सौरभ के द्वारा बताई जा रही बातों में मजा आ रहा था, तो क्लास की लड़कियों के शर्म के मारे सिर झुके जा रहे थे.  17साल की  नेहा को सौरभ की बातें सुनकर गुदगुदी हो रही थी, लेकिन जब उसका बोलने का नंबर आया तो उसने भी खडे होकर बता दिया-
“लड़कियों को भी किशोरावस्था में पीरियड आने लगते है”

सौरभ और नेहा के इन विंदास बोल ने उन्हें स्कूल का आयडियल बना दिया था.

सौरभ स्कूल की पढ़ाई के साथ ही सभी प्रकार के फंक्शन में भाग लेता और नेहा उसके अंदाज की दीवानी हो गई.स्कूल में पढ़ाई के दौरान नेहा और सौरभ एक दूसरे से मन ही मन प्यार कर बैठे. दोनों के बीच का यह प्यार इजहार के साथ जब परवान चढ़ा तो मेल मुलाकातें बढ़ने लगी और दोनों ने एक दूजे के साथ जीने मरने की कसमें खा ली . इसी साल सौरभ कालेज की पढ़ाई के लिए सागर चला गया तो नेहा का  स्कूल में मन ही नहीं लगता.मोबाइल फोन के जरिए सौरभ और नेहा  आपस में बात करने लगे. सौरभ जब भी गांव आता तो लुक छिपकर नेहा से मिलता और पढ़ाई पूरी होते ही शादी करने का बादा करता  .

कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिये लगे लौक डाउन के तीन दिन पहले कालेज की छुट्टियां होने पर सौरभ सागर से गांव आ गया था . गांव वालों की नजरों से बचकर नेहा और सौरभ जब आपस में मिलते तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. नेहा सौरभ से कहती-” अब तुम्हारे बिना गांव में मेरा दिल नहीं लगता”

सौरभ नेहा को अपनी बाहों में भरकर दिलासा देता,” सब्र करो नेहा , मेरी पढ़ाई खत्म होते ही हम शादी कर लेंगे”. नेहा सौरभ के बालों में हाथ घुमाते हुए कहती-

” लेकिन सौरभ घर वालों को कैसे मनायेंगे” .
सौरभ नेहा के माथे पर चुंबन देते हुए कहता-
“नेहा घर वालों को भी मना लेंगे,आखिर हम एक ही जाति बिरादरी के हैं”
सौरभ के सीने से लिपटते हुए नेहा कहती

” सौरभ यदि हमारी शादी नहीं हुई तो मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी”.
सौरभ ने उसके ओंठों को चूमते हुए आश्वस्त किया
“नेहा हमार प्यार सच्चा है हम साथ जियेंगे, साथ मरेंगे”

साथ जीने मरने की कसमें खाने वाले नेहा और सौरभ को एक दिन आपस में बात करते नेहा के पिता  ने देख लिया तो परिवार में बबाल मच गया .घर वालों ने समाज में अपनी इज्जत का वास्ता देकर नेहा को डरा धमकाकर समझाने की कोशिश की. नेहा ने घर वालों से साफ कह दिया कि वह तो सौरभ से ही शादी करेंगी.सौरभ के दादाजी को जब इसका पता चला तो दादाजी आग बबूला हो गये.कहने लगे” आज के लडंका लड़कियों में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं है.ये शादी हरगिज नहीं होगी.जिस लड़की में लाज शरम ही नहीं है, उसे हम घर की बहू नहीं बना सकते.”

सौरभ को जब दादाजी के इस निर्णय का पता चला तो वह भी ‌तिलमिला कर‌रह गया.

अब घर परिवार का पहरा  नेहा और सौरभ पर गहराने लगा था. एक दूजे के प्यार में पागल दोनों प्रेमी घर पर रहकर तड़पने लगे .और एक रात उन्होंने बिना सोचे समझे घर से भाग जाने का फैसला कर लिया.  योजना के मुताबिक वे अपने घरों से रात के दो बजे  मोटर साइकिल पर सवार होकर गांव से निकल तो गये, लेकिन लौक डाउन में जगह-जगह पुलिस की निगरानी से इलाके से दूर न जा सके.

दूसरे दिन सुबह  जब नेहा घर के कमरे में नहीं मिली तो घर वालों के होश उड़ गए .  सौरभ के वारे में जानकारी मिलने पर पता चला कि वह भी घर से गायब है,तो उन्हें यह समझ आ गया कि दोनों एक साथ घर से गायब हुए हैं. गांव में समाज के मुखिया और पंचो ने बैठक कर यह तय किया कि पहले आस पास के रिश्तेदारों के यहां उनकी खोज बीन कर ली जाए , फिर पुलिस को सूचना दी जाए. शाम तक जब दोनों का कोई पता नहीं चला ,तो घर वालों ने पुलिस थाना मे गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

अपने वेटे की तलाश में जुटे सौरभ के पिता ने तीसरे दिन की सुबह अपने मोबाइल  पर आये सौरभ के मेसेज को देखा तो उन्हें कुछ आशा की किरण दिखाई दी. मैसेज बाक्स को खोलकर वे मैसेज पढ़ने लगे . मैसेज में सौरभ ने लिखा था
” मेरे प्यारे मम्मी पापा,
हमारी वजह से आपको बहुत दुःख हुआ है, इसलिए हम हमेशा के लिए आपसे दूर जा रहे हैं.   नर्मदा नदी के ककरा घाट के किनारे मोटर साइकिल ,और मोबाइल रखे हैं.इन्हे ले जाना अलविदा”.

तुम्हारा अभागा वेटा
सौरभ

उधर नेहा के भाई के मोबाइल के वाट्स ऐप पर नेहा ने गुड बाय का मैसेज  सेंड किया था. जब दोनों के घर वाले मैसेज में बताई गई जगह पर पहुंचे तो वहां  मोटरसाइकिल खड़ी थी . उसके पास दो मोबाइल, गमछा, चुनरी और जूते चप्पल रखे थे. पुलिस की मौजूदगी में वह सामान जप्त कर नदी के किनारे और नदी में भी तलाशी की गई, लेकिन नेहा और सौरभ का दूर दूर तक कोई पता नहीं था.
घर वाले और पुलिस टीम दोनों की तलाशी में रात दिन जुटे हुए थे ,तभी म‌ई की एक तारीख को सुबह सुबह दोनों के शव नदी में उतराते मिले थे.

” मास्साब यै लोग इंदौर से आ रहे हैं ,इनकी एंट्री करो” पटवारी की आवाज सुनकर मैने देखा एक कार चैक पोस्ट पर जांच के लिए खड़ी थी . यादों के सफर से मैं वापस आ गया था . झटपट कार का नंबर नोट कर मुंह और नाक पर मास्क चढाकर उसमें सवार लोगों के नाम पता नोट कर लिए थे . कार के जाते ही हाथों पर सेनेटाइजर छिड़क कर हाथों को अच्छी तरह रगड़ कर अपने काम में लग गया.
उधर पोस्ट मार्टम के बाद सौरभ और‌ नेहा के शव को गांव में अपने अपने घर लाया गया और उनके अंतिम संस्कार में पूरा गांव उमड़ पड़ा था.  अस्सी साल की उमर पार कर चुके सौरभ के दादाजी पश्चाताप की आग में जल रहे थे.अपनी झूठी शान की खातिर युवाओं के सपनों को चूर चूर कर जबरदस्ती समाज के कायदे कानून थोपने के अपने निर्णय से दुःख भी हो रहा था.

मुझे भी सौरभ और नेहा की इस अधूरी प्रेम कहानी ने दुखी कर दिया था.  स्कूल की बालसभा में बच्चों को किशोरावस्था में समझ और धैर्य से काम ‌लेने और सोच समझकर निर्णय लेने की शिक्षा देने के बावजूद भी जवानी के‌ जोश में होश खो देकर अपनी जीवन लीला खत्म करने वाले इस प्रेमी जोड़े के निर्णय पर वार अफसोस भी हो रहा था. मुझे लग रहा था कि  काम धंधा जमाकर पहले सौरभ अपने पैरों पर खड़ा होता  और‌ लौक डाउन खत्म होते ही नेहा के साथ  कानूनी तौर पर शादी करता तो शायद ये प्रेम कहानी आधी अधूरी न रहती. Hindi Story

Best Hindi Story: एक दोस्त है मेरा – रिया ने किन से मिलाया था हाथ

Best Hindi Story: मैं बैडरूम की खिड़की में बस यों ही खड़ी बारिश देख रही थी. अमित बैड पर लेट कर अपने फोन में कुछ कह रहे थे. मैं ने जैसे ही खिड़की से बाहर देखते हुए अपना हाथ हिलाया, उन्होंने पूछा, ‘‘कौन है?’’

मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘तो फिर हाथ किसे देख कर हिलाया?’’

‘‘मैं नाम नहीं जानती उस का.’’

‘‘रिया, यह क्या बात कर रही हो? जिस का नाम भी नहीं पता उसे देख कर हाथ हिला रही हो?’’ मैं चुप रही तो उन्होंने फिर कुछ शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है? लड़का है या लड़की?’’

‘‘लड़का.’’

‘‘ओफ्फो, क्या बात है, भई, कौन है, बताओ तो.’’

‘‘दोस्त है मेरा.’’

इतने में तो अमित ने झट से बिस्तर छोड़ दिया. संडे को सुबह 7 बजे इतनी फुर्ती. तारीफ की ही बात थी, मैं ने भी कहा, ‘‘वाह, बड़ी तेजी से उठे, क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, देखना था उसे जिसे देख कर तुम ने हाथ हिलाया था. बताती क्यों नहीं कौन था?’’

अब की बार अमित बेचैन हुए. मैं ने उन के गले में अपनी बांहें डाल दीं, ‘‘सच बोल रही हूं, मुझे उस का नाम नहीं पता.’’

‘‘फिर क्यों हाथ हिलाया?’’

‘‘बस, इतनी ही दोस्ती है.’’ अमित कुछ समझते नहीं, गरदन पर झटका देते हुए बोले, ‘‘पता नहीं कैसी बात कर रही हो, जान न पहचान और हाथ हिला रही हो हायहैलो में.’’

‘‘अरे उस का नाम नहीं पता पर पहचानती हूं उसे.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘बस यों ही आतेजाते मिल जाता है. एक ही सोसायटी है, पता नहीं कितने लोगों से आतेजाते हायहैलो हो ही जाती है. जरूरी तो नहीं कि सब के नाम पता हों.’’

‘‘अच्छा ठीक है. मैं फ्रैश होता हूं, नाश्ता बना लो,’’ अमित ने शायद यह टौपिक यहीं खत्म करना ठीक समझा होगा.

संडे था, मैं अमित और बच्चों की पसंद का नाश्ता बनाने में व्यस्त हो गई. बच्चों को कुछ देर से ही उठना था.

नाश्ता बनाते हुए मेरी नजर बाहर सड़क पर गई. वह शायद कहीं से कुछ रैडीमेड नाश्ता पैक करवा कर ला रहा था. हां, आज उस की पत्नी आराम कर रही होगी. उस की नजर फिर मुझ पर पड़ी. वह मुसकराता हुआ चला गया.

10 साल पहले हम अंधेरी की इस सोसायटी के फ्लैट में आए थे. हमारी बिल्डिंग के सामने कुछ दूरी पर जो बिल्डिंग है उसी में उस का भी फ्लैट है. मैं तीसरी फ्लोर पर रहती हूं और वह

5वीं पर. जब हम शुरूशुरू में आए थे तभी वह मुझे आतेजाते दिख जाता था. पता नहीं कब उस से हायहैलो शुरू हुई थी, जो आज तक जारी है.

इन 10 सालों में भी न तो मुझे उस का नाम पता है, न शायद उसे मेरा नाम पता होगा. दरअसल, ऐसा कोई रिश्ता है ही नहीं न कि मुझे उस का नाम जानने की जरूरत पड़े. बस समय के साथ इतना जरूर हुआ कि मेरी नजर उस की तरफ उस की नजरें मेरी तरफ अब अनजाने में नहीं, इरादतन उठती हैं, अब तो उस का इकलौता बेटा भी 10-12 साल का हो रहा है. मैं अनजाने में ही उस का सारा रूटीन जान चुकी हूं. दरअसल मेरे बैडरूम की खिड़की से पता नहीं उस के कौन से मरे की खिड़की दिखती है. बस, साल भर पहले ही तो जब उसे खिड़की में खड़े अचानक देख लिया तभी तो पता चला कि वह उसी फ्लैट में रहता है. पर उस के बाद जब भी महसूस हुआ कि वह खिड़की में खड़ा है, तो मैं ने फिर नजरें उधर नहीं उठाईं. अच्छा नहीं लगता न कि मैं उस की खिड़की की तरफ दिखूं.

हां, इतना होता है कि वह जब भी रोड से गुजरता है, तो एक नजर मेरी खिड़की की तरफ जरूर उठाता है और अगर मैं खड़ी होती हूं तो हम एकदूसरे को हाथ हिला देते हैं और कभीकभी यह भी हो जाता है कि मैं सोसायटी के गार्डन में सैर कर रही हूं और वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ आ जाए तब भी वह पत्नी की नजर बचा कर मुसकरा कर हैलो बोलता है, तो मैं मन ही मन हंसती हूं.

अब मुझे उस का सारा रूटीन पता है. सुबह 7 बजे वह अपने बेटे को स्कूल बस में बैठाने जाता है. फिर उस की नजर मेरी किचन की तरफ उठती है. नजरें मिलने पर वह मुसकरा देता है. साढ़े 9 बजे उस की पत्नी औफिस जाती है. 10 बजे वह निकलता है. 3 बजे तक वह वापस आता है. फिर अपने बेटे को सोसायटी के ही डे केयर सैंटर से लेने जाता है. उस की पत्नी लगभग 7 बजे तक आती है.

मेरे बैडरूम और किचन की खिड़की से हमारी सोसायटी की मेन रोड दिखती है. घर में सब हंसते हैं. अमित और बच्चे कहते हैं, ‘‘सब की खबर रहती है तुम्हें.’’ बच्चे तो हंसते हैं, ‘‘कितना बढि़या टाइमपास होता है आप का मौम. कहीं जाना भी नहीं पड़ता आप को और सब को जानती हैं आप.’’

इतने में अमित की आवाज आ गई,

‘‘रिया, नाश्ता.’’

‘‘हां, लाई.’’ हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. हमारी 20 वर्षीय बेटी तनु और 17 वर्षीय राहुल 10 बजे उठे. वे भी फ्रैश हो कर नाश्ता कर के हमारे साथ बैठ गए.

इतने में तनु ने कहा, ‘‘आज उमा के घर मूवी देखने सब इकट्ठा होंगे, वहीं लंच है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौनकौन?’’

‘‘हमारा पूरा ग्रुप. मैं, पल्लवी, निशा, टीना, सिद्धि, नीरज, विनय और संजय.’’

अमित बोले, ‘‘नीरज, विनय को तो मैं जानता हूं पर अजय कौन है?’’

‘‘हमारा नया दोस्त.’’

अमित ने मुझे छेड़ते हुए कहा, ‘‘ठीक है बच्चों पर कभी मम्मी का दोस्त देखा है?’’

राहुल चौंका, ‘‘क्या?’’

‘‘हां भई, तुम्हारी मम्मी का भी तो एक दोस्त है.’’

तनु गुर्राई, ‘‘पापा, क्यों चिढ़ा रहे हो मम्मी को?’’

राहुल ने कहा, ‘‘उन का थोड़े ही कोई दोस्त होगा.’’

अमित ने बहुत ही भोलेपन से कहा, ‘‘पूछ लो मम्मी से, मैं झूठ थोड़े ही बोल रहा हूं.’’ दरअसल, हम चारों एकदसूरे से कुछ ज्यादा ही फ्रैंक हैं. युवा बच्चों के दोस्त बन कर ही रहते हैं हम दोनों इसलिए थोड़ाबहुत मजाक, थोड़ीबहुत खिंचाई हम एकदूसरे की करते ही रहते हैं.

तनु थोड़ा गंभीर हुई, ‘‘मौम, पापा झूठ बोल रहे हैं न?’’

मैं पता नहीं क्यों थोड़ा असहज सी हो गई, ‘‘नहीं, झूठ तो नहीं है.’’

‘‘मौम, क्या मजाक कर रहे हो आप लोग, कौन है, क्या नाम है?’’

मैं ने जब धीरे से कहा कि नाम तो नहीं पता, तो तीनों जोर से हंस पड़े. मैं भी मुसकरा दी.

राहुल ने कहा, ‘‘कहां रहता है आप का दोस्त मौम?’’

‘‘पता नहीं,’’ मैं ने पता नहीं क्यों झूठ बोल दिया. इस बार मेरे घर के तीनों शैतान हंसहंस कर एकदूसरे के ऊपर गिर गए. वह सामने वाले फ्लैट में रहता है, मैं ने जानबूझ कर नहीं बताया. मुझे पता है अमित की खोजी नजरें फिर सामने वाली खिड़की को ही घूरती रहेंगी. बिना बात के अपना खून जलाते रहेंगे.

तनु ने कहा, ‘‘पापा, आप बहुत शैतान हैं, मम्मी को तो कुछ भी नहीं पता फिर दोस्त कैसे हुआ मम्मी का.’’

‘‘अरे भई, तुम्हारी मम्मी उस की दोस्त हैं. तभी तो उस की हैलो का जवाब दे रही थीं, हाथ हिला कर.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम तीनों के दोस्त हो सकते हैं, मेरा क्यों नहीं हो सकता? आज तुम्हारे पापा ने किसी को हाथ हिलाते देख लिया, उन्हें चैन ही नहीं आ रहा है.’’

तीनों फिर हंसे, ‘‘लेकिन हमें हमारे दोस्तों के नाम तो पता हैं.’’ मैं खिसिया गई. फिर उन की मस्ती का मैं ने भी दिल खोल कर आनंद लिया. इतने में मेड आ गई, तो मैं उस के साथ किचन की सफाई में व्यस्त हो गई.

आज मेरे हाथ तो काम में व्यस्त थे पर मन में कई विचार आजा रहे थे. मुझे उस का नाम नहीं पता पर उसे आतेजाते देखना मेरे रूटीन का एक हिस्सा है अब. बिना कुछ कहेसुने इतना महसूस करने लगी हूं कि अगर उस की पत्नी उस के साथ होगी तो वह हाथ नहीं हिलाएगा. बस धीरे से मुसकराएगा. बेटे को बस में बैठा कर मेरी किचन की तरफ जरूर देखेगा. उस की कार तो मैं दूर से ही पहचानती हूं अब. नंबर जो याद हो गया है.

उस की पार्किंग की जगह पता है मुझे. यह सब मुझे कुछ अजीब तो लगता है पर यह जो ‘कुछ’ है न, यह मुझे अच्छा लगता है. मुझे दिन भर एक अजीब से एहसास से भरे रखता है. यह ‘कुछ’ किसी का नुकसान तो कर नहीं रहा है. मैं जो अपने पति को अपनी जान से ज्यादा प्यार करती हूं, उस में कोई रुकावट, कोई समस्या तो है नहीं इस ‘कुछ’ से. यह सच है कि जब अमित और बच्चों के साथ होती हूं तो यह ‘कुछ’ विघ्न नहीं डालता हमारे जीवन में. ऐसा नहीं है कि वह बहुत ही हैंडसम है. उस से कहीं ज्यादा हैंडसम अमित हैं और उस की पत्नी भी मुझ से ज्यादा सुंदर है पर फिर भी यह जो ‘कुछ’ है न इस बात की खुशी देता है कि हां, एक दोस्त है मेरा जिस का नाम मुझे नहीं पता और उसे मेरा. बस कुछ है जो अच्छा लगता है. Best Hindi Story

Hindi Story: बेवफा – एकतरफा प्यार करने वाली प्रिया के साथ क्या हुआ?

Hindi Story: ‘‘इट्स टू मच यार, लड़के कितने चीप, आई मीन कितने टपोरी होते हैं.’’ कमरे में घुसते ही सीमा ने बैग पटकते हुए झुंझलाए स्वर में कहा तो मैं चौंक पड़ी.

‘‘क्या हुआ यार? कोई बात है क्या? ऐसे क्यों कह रही है?’’

‘‘और क्या कहूं प्रिया? आज विभा मिली थी.’’

‘‘तेरी पहली रूममेट.’’

‘‘हां, यार. उस के साथ जो हुआ मैं तो सोच भी नहीं सकती. कोई ऐसा कैसे कर सकता है?’’

‘‘कुछ बताएगी भी? यह ले पहले पानी पी, शांत हो जा, फिर कुछ कहना,’’ मैं ने बोतल उस की तरफ उछाली.

वह पलंग पर बैठते हुए बोली, ‘‘विभा कह रही थी, उस का बौयफ्रैंड आजकल बड़ी बेशर्मी से किसी दूसरी गर्लफैं्रड के साथ घूम रहा है. जब विभा ने एतराज जताया तो कहता है, तुझ से बोर हो गया हूं. कुछ नया चाहिए. तू भी किसी और को पटा ले. प्रिया, मैं जानती हूं, तेरी तरह विभा भी वन मैन वूमन थी. कितना प्यार करती थी उसे. और वह लफंगा… सच, लड़के होते ही ऐसे हैं.’’

‘‘पर तू सारे लड़कों को एक जैसा क्यों समझ रही है? सब एक से तो नहीं होते,’’ मैं ने जिरह की.

‘‘सब एक से होते हैं. लड़कों के लिए प्यार सिर्फ टाइम पास है. वे इसे गंभीरता से नहीं लेते. बस, मस्ती की और आगे बढ़ गए, पर लड़कियां दिल से प्यार करती हैं. अब तुझे ही लें, उस लड़के पर अपनी जिंदगी कुरबान किए बैठी है, जिस लफंगे को यह भी पता नहीं कि तू उसे इतना प्यार करती है. उस ने तो आराम से शादी कर ली और जिंदगी के मजे ले रहा है, पर तू आज तक खुद को शादी के लिए तैयार नहीं कर पाई. आज तक अकेलेपन का दर्द सह रही है और एक वह है जिस की जिंदगी में तू नहीं कोई और है. आखिर ऐसी कुरबानी किस काम की?’’

मैं ने टोका, ‘‘ऐक्सक्यूजमी. मैं ने किसी के लिए जिंदगी कुरबान नहीं की. मैं तो यों भी शादी नहीं करना चाहती थी. बस, जीवन का एक मकसद था, अपने पैरों पर खड़ा होना, क्रिएटिव काम करना. वही कर रही हूं और जहां तक बात प्यार की है, तो हां, मैं ने प्यार किया था, क्योंकि मेरा दिल उसे चाहता था. इस से मुझे खुशी मिली पर मैं ने उस वक्त भी यह जरूरी नहीं समझा कि इस कोमल एहसास को मैं दूसरों के साथ बांटूं, ढोल पीटूं कि मैं प्यार करती हूं. बस, कुछ यादें संजो कर मैं भी आगे बढ़ चुकी हूं.’’

‘‘आगे बढ़ चुकी है? फिर क्यों अब भी कोई पसंद आता है तो कहीं न कहीं तुझे उस में अमर का अक्स नजर आता है. बोल, है या नहीं…’’

‘‘इट्स माई प्रौब्लम, यार. इस में अमर की क्या गलती. मैं ने तो उसे कभी नहीं कहा कि मैं तुम से प्यार करती हूं, शादी करना चाहती हूं. हम दोनों ने ही अपना अलग जहां ढूंढ़ लिया.’’

‘‘अब सोच, फिजिकल रिलेशन की तो बात दूर, तूने कभी उस के साथ रोमांस भी नहीं किया और आज तक उस के प्रति  वफादार है, जबकि वह… तूने ही कहा था न कि वह कालेज की कई लड़कियों के साथ फ्लर्ट करता था. क्या पता आज भी कर रहा हो. घर में बीवी और बाहर…’’

‘‘प्लीज सीमा, वह क्या कर रहा है, मुझे इस में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन देख उस के बारे में उलटासीधा मत कहना.’’

‘‘हांहां, ऐसा करने पर तुझे तकलीफ जो होती है तो देख ले, यह है लड़की का प्यार. और लड़के, तोबा… मैं आजाद को भी अच्छी तरह पहचानती हूं. हर तीसरी लड़की में अपनी गर्लफ्रैंड ढूंढ़ता है. वह तो मैं ने लगाम कस रखी है, वरना…’’

मैं हंस पड़ी. सीमा भी कभीकभी बड़ी मजेदार बातें करती है, ‘‘चल, अब नहाधो ले और जल्दी से फ्रैश हो कर आ. आज डिनर में मटरपनीर और दालमक्खनी है, तेरी मनपसंद.’’

मुसकराते हुए सीमा चली गई तो मैं खयालों में खो गई. बंद आंखों के आगे फिर से अमर की मुसकराती आंखें आ गईं. मैं ने उसे एक बार कहा था, ‘तुम हंसते हो तो तुम्हारी आंखें भी हंसती हैं.’

वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘तुम ने ही कही है यह बात. और किसी ने तो शायद मुझे इतने ध्यान से कभी देखा ही नहीं.’

सच, प्यार को शब्दों में ढालना कठिन होता है. यह तो एहसास है जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है. इस खूबसूरत एहसास ने 2 साल तक मुझे भी अपने रेशमी पहलू में कैद कर रखा था. कालेज जाती, तो बस अमर को एक नजर देखने के लिए. स्मार्ट, हैंडसम अमर को अपनी तरफ देखते ही मेरे अंदर एक अजीब सी सिहरन होती.

वह अकसर जब मेरे करीब आता तो गुनगुनाने लगता. मुझ से बातें करता तो उस की आवाज में कंपन सी महसूस होती. उस की आंखें हर वक्त मुझ से कुछ कहतीं, जिसे मेरा दिल समझता था, पर दिमाग कहता था कि यह सच नहीं है. वह मुझ से प्यार कर ही नहीं सकता. कहां मैं सांवली सी अपने में सिमटी लड़की और कहां वह कालेज की जान. पर अपने दिल पर एतबार तब हुआ जब एक दिन उस के सब से करीबी दोस्त ने कहा कि अमर तो सिर्फ तुम्हें देखने को कालेज आता है.

मैं अजीब सी खुशफहमी में डूब गई. पर फिर खुद को समझाने लगी कि यह सही नहीं होगा. हमारी जोड़ी जमेगी नहीं. और फिर शादी मेरी मंजिल नहीं है. मुझे तो कुछ करना है जीवन में. इसलिए मैं उस से दूरी बढ़ाने की कोशिश करने लगी. घर छोड़ने के लिए कई दफा उस ने लिफ्ट देनी चाही, पर मैं हमेशा इनकार कर देती. वह मुझ से बातें करने आता तो मैं घर जाने की जल्दी दिखाती.

इसी बीच एक दिन आशा, जो हम दोनों की कौमन फ्रैंड थी, मेरे घर आई. काफी देर तक हम दोनों ने बहुत सी बातें कीं. उस ने मेरा अलबम भी देखा, जिस में ग्रुप फोटो में अमर की तसवीरें सब से ज्यादा थीं. उस ने मेरी तरफ शरारत से देख कर कहा, ‘लगता है कुछ बात है तुम दोनों में.’ मैं मुसकरा पड़ी. उस दिन बातचीत से भी उसे एहसास हो गया था कि मैं अमर को चाहती हूं. मुझे यकीन था, आशा अमर से यह बात जरूर कहेगी, पर मुझे आश्चर्य तब हुआ जब उस दिन के बाद से वह मुझ से दूर रहने लगा.

मैं समझ गई कि अमर को यह बात बुरी लगी है, सो मैं ने भी उस दूरी को पाटने की कोशिश नहीं की. हमारे बीच दूरियां बढ़ती गईं. अब अमर मुझ से नजरें चुराने लगा था. कईकई दिन बीत जाने पर भी वह बात करने की कोशिश नहीं करता. मैं कुछ कहती तो शौर्ट में जवाब दे कर आगे बढ़ जाता, जबकि आशा से उस की दोस्ती काफी बढ़ चुकी थी. उस के इस व्यवहार ने मुझे बहुत चोट पहुंचाई. भले ही पहले मैं खुद उस से दूर होना चाहती थी, पर जब उस ने ऐसा किया तो बहुत तकलीफ हुई.

इसी बीच मुझे नौकरी मिल गई और मैं अपना शहर छोड़ कर यहां आ गई. हौस्टल में रहने लगी. बाद में अपनी एक सहेली से खबर मिली की अमर की शादी हो गई है. इस के बाद मेरे और अमर के बीच कोई संपर्क नहीं रहा.

मैं जानती थी, उस ने कभी भी मुझे याद नहीं किया होगा और करेगा भी क्यों? हमारे बीच कोई रिश्ता ही कहां था? यह मेरी दीवानगी है जिस का दर्द मुझे अच्छा लगता है. इस में अमर की कोई गलती नहीं. पर सीमा को लगता है कि अमर ने गलत किया. सीमा ही क्यों मेरे घर वाले भी मेरी दीवानगी से वाकिफ हैं. मेरी बहन ने साफ कहा था, ‘तू पागल है. उस लड़के को याद करती है, जिस ने तुझे कोई अहमियत ही नहीं दी.’

‘‘किस सोच में डूब गई, डियर?’’ नहा कर सीमा आ चुकी थी. मैं हंस पड़ी, ‘‘कुछ नहीं, फेसबुक पर किसी दूसरे नाम से अपना अकाउंट खोल रही थी.’’

‘‘किसी और नाम से? वजह जानती हूं मैं… यह अकाउंट तू सिर्फ और सिर्फ अमर को ढूंढ़ने के लिए खोल रही है.’’

‘‘जी नहीं, मेरे कई दोस्त हैं, जिन्हें ढूंढ़ना है मुझे,’’ मैं ने लैपटौप बंद करते हुए कहा.

‘‘तो ढूंढ़ो… लैपटौप बंद क्यों कर दिया?’’

‘‘पहले भोजन फिर मनोरंजन,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ पर धौल जमाई.

रात 11 बजे जब सीमा सो गई तो मैं ने फिर से फेसबुक पर लौगइन किया और अमर का नाम डाल कर सर्च मारा. 8 साल बाद अमर की तसवीर सामने देख कर यकायक ही होंठों पर मुसकराहट आ गई. जल्दी से मैं ने उस के डिटेल्स पढ़े. अमर ने फेसबुक पर अपना फैमिली फोटो भी डाला हुआ था, जिस में उस की बहन भी थी. कुछ सोच कर मैं ने उस की बहन के डिटेल्स लिए और उस के फेसबुक अकाउंट पर उस से दोस्ती के लिए रिक्वैस्ट डाल दी.

2 दिन बाद मैं ने देखा, उस की बहन निशा ने रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली है. फिर क्या था, मैं ने उस से दोस्ती कर ली ताकि अमर के बारे में जानकारी मिलती रहे. वैसे यह बात मैं ने निशा पर जाहिर नहीं की और बिलकुल अजनबी बन कर उस से दोस्ती की.

निशा औनलाइन अपने बारे में ढेर सारी बातें बताती. वह दिल्ली में ही थी और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. उस ने लाजपत नगर में कमरा किराए पर ले रखा था. अब तो जानबूझ कर मैं दिन में 2-3 घंटे अवश्य उस से चैटिंग करती ताकि हमारी दोस्ती गहरी हो सके.

एक दिन अपने बर्थडे पर उस ने मुझे घर बुलाया तो मैं ने तुरंत हामी भर दी. शाम को जब तक मैं उस के घर पहुंची तबतक  पार्टी खत्म हो चुकी थी और उस के फ्रैंड्स जा चुके थे. मैं जानबूझ कर देर से पहुंची थी ताकि अकेले में उस से बातें हो सकें. कमरा  खूबसूरती से सजा हुआ था. हम दोनों जिगरी दोस्त की तरह मिले और बातें करने लगे. निशा का स्वभाव बहुत कुछ अमर की तरह ही था, चुलबुली, मजाकिया पर साफ दिल की. वह सुंदर भी काफी थी और बातूनी भी.

मैं अमर के बारे में कुछ जानना चाहती थी जबकि निशा अपने बारे में बताए जा रही थी. उस के कालेज के दोस्तों और बौयफ्रैंड्स की दास्तान सुनतेसुनते मुझे उबासी आ गई. यह देख निशा तुरंत चाय बनाने के लिए उठ गई.

अब मैं चुपचाप निशा के कमरे में रखी चीजों का दूर से ही जायजा लेने लगी, यह सोच कर कि कहीं तो कोई चीज नजर आए, तभी टेबल पर रखी डायरी पर मेरी नजर गई तो मैं खुद को रोक नहीं सकी. डायरी के पन्ने पलटने लगी. ‘निशा ने अच्छा संग्रह कर रखा है,’ सोचती हुई मैं डायरी के पन्ने पलटती रही. तभी एक पृष्ठ पर नजरें टिक गईं. ‘बेवफा’ यह एक कविता थी जिसे मैं पूरा पढ़ गई.

मैं यह कविता पढ़ कर बुत सी बन गई. दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. ‘तुम्हारी आंखें भी हंसती हैं…’ यह पंक्ति मेरी आंखों के आगे घूम रही थी. यह बात तो मैं ने अमर से कही थी. एक नहीं 2-3 बार.

तभी चाय ले कर निशा अंदर आ गई. मेरे हाथ में डायरी देख कर उस ने लपकते हुए उसे खींचा. मैं यथार्थ में लौट आई. मैं अजीब सी उलझन में थी, नेहा ने हंसते हुए कहा, ‘‘यार, यह डायरी मेरी सब से अच्छी सहेली है. जहां भी मन को छूती कोई पंक्ति या कविता दिखती है मैं इस में लिख लेती हूं.’’ उस ने फिर से मुझे डायरी पकड़ा दी और बोली, ‘‘पढ़ोपढ़ो, मैं ने तो यों ही छीन ली थी.’’

डायरी के पन्ने पलटती हुई मैं फिर उसी पृष्ठ पर आ गई. ‘‘यह कविता बड़ी अच्छी है. किस ने लिखी,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह कविता…’’ निशा मुसकराई, ‘‘मेरे अमर भैया हैं न, उन्होंने ही लिखी है. पिछली दीवाली के दिन की बात है. वे चुपचाप बैठे कुछ लिख रहे थे. मैं पहुंच गई तो हड़बड़ा गए. दिखाया भी नहीं पर बाद में मैं ने चुपके से देख लिया.’’

‘‘किस पर लिखी है इतनी अच्छी कविता? कौन थी वह?’’ मैं ने कुरेदा.

‘‘थी कोई उन के कालेज में. जहां तक मुझे याद है, प्रिया नाम था उस का. भैया बहुत चाहते थे उसे. पहली दफा उन्होंने किसी को दिल से चाहा था, पर उस ने भैया का दिल तोड़ दिया. आज तक भैया उसे भूल नहीं सके हैं और शायद कभी न भूल पाएं. ऊपर से तो बहुत खुश लगते हैं, परिवार है, पत्नी है, बेटा है, पर अंदर ही अंदर एक दर्द हमेशा उन्हें सालता रहता है.’’

मैं स्तब्ध थी. तो क्या सचमुच अमर ने यह कविता मेरे लिए लिखी है. वह मुझे बेवफा समझता है? मैं ने उस के होंठों की मुसकान छीन ली.

हजारों सवाल हथौड़े की तरह मेरे दिमाग पर चोट कर रहे थे.

मुझ से निशा के घर और नहीं रुका गया. बहाना बना कर मैं बाहर आ गई. सड़क पर चलते वक्त भी बस, यही वाक्य जहर बन कर मेरे सीने को बेध रहा था… ‘बेवफा’… मैं बेवफा हूं…’

तभी भीगी पलकों के बीच मेरे होंठों पर हंसी खेल गई. जो भी हो, मेरा प्यार आज तक मेरे सीने में दहक रहा है. वह मुझ से इतना प्यार करता था तभी तो आज तक भूल नहीं सका है. बेवफा के रूप में ही सही, पर मैं अब भी उस के दिलोदिमाग में हूं. मेरी तड़प बेवजह नहीं थी. मेरी चाहत बेनाम नहीं. बेवफा बन कर ही सही अमर ने आज मेरे प्यार को पूर्ण कर दिया था.

‘आई लव यू अमर ऐंड आई नो… यू लव मी टू…’ मैं ने खुद से कहा और मुसकरा पड़ी. Hindi Story

Story In Hindi: जौर्जेट लेडी – क्यों साड़ी को निहार रही थी पपीहा

Story In Hindi: पपीहाने घर से आया कूरियर उत्सुकता से खोला. 2 लेयर्स के नीचे 3 साडि़यां   झांक रही थीं. तीनों का ही फैब्रिक जौर्जेट था. एक मटमैले से रंग की थी, दूसरी कुछ धुले हरे रंग की, जिस पर सलेटी फूल खिले हुए थे और तीसरी साड़ी चटक नारंगी थी.

पपीहा साडि़यों को हाथ में ले कर सोच रही थी कि एक भी साड़ी का रंग ऐसा नहीं है जो उस पर जंचेगा. पर मम्मी, भाभी या दादी किसी को भी कोई ऐसी सिंथैटिक जौर्जेट मिलती है तो फौरन उपहारस्वरूप उसे मिल जाती है.

दीदी तो नाक सिकोड़ कर बोलती हैं, ‘‘मेरे पास तो रखी की रखी रह जाएगी… मु  झे तो ऐलर्जी है इस स्टफ से. तू तो स्कूल में पहन कर कीमत वसूल कर लेगी.’’

पपीहा धीमे से मुसकरा देती थी. उस के पास सिंथैटिक जौर्जट का अंबार था. बच्चे भी हमेशा बोलते कि बैड के अंदर भी मम्मी की साडि़यां, अलमारी में भी मम्मी की साडि़यां. ‘‘फिर भी मम्मी हमेशा बोलती हैं कि उन के पास ढंग के कपड़े नहीं हैं.’’

आज स्कूल का वार्षिकोत्सव था. सभी टीचर्स आज बहुत सजधज कर आती थीं. अधिकतर टीचर्स के लिए यह नौकरी बस घर से बाहर निकलने और लोगों से मिलनेजुलने का जरीया थी.

पपीहा ने भी वसंती रंग की साड़ी पहनी और उसी से मेल खाता कंट्रास्ट में कलमकारी का ब्लाउज पहना. जब स्कूल के गेट पर पहुंची तो जयति और नीरजा से टकरा गई.

जयति हंसते हुए बोली, ‘‘जौर्जेट लेडी आज तो शिफौन या क्रैप पहन लेती.’’

जयति ने पिंक रंग की शिफौन साड़ी पहनी हुई थी और उसी से मेल खाती मोतियों की ज्वैलरी.

नीरजा बोली, ‘‘मैं तो लिनेन या कौटन के अलावा कुछ नहीं पहन सकती हूं.’’

‘‘कौटन भी साउथ का और लिनेन भी

24 ग्राम का.’’

पपीहा बोली, ‘‘आप लोग अच्छी तरह

कैरी कर लेते हो. मैं कहां अच्छी लगूंगी इन साडि़यों में?’’

पूरी शाम पपीहा देखती रही कि सभी छात्राएं केवल उन टीचर्स को कौंप्लिमैंट कर रही थीं, जिन्होंने महंगे कपड़े पहने हुए थे.

किसी भी छात्रा या टीचर ने उस की तारीफ नहीं की. वह घर से जब निकली थी तो उसे तो आईने में अपनी शक्ल ठीकठाक ही लग रही थी.

तभी उस की प्रिय छात्रा मानसी आई और बोली, ‘‘मैम, आप रोज की तरह आज भी अच्छी लग रही हैं.’’

पपीहा ये शब्द सुन कर अनमनी सी हो गई. उसे सम  झ आ गया कि वह रोज की तरह ही बासी लग रही है.

घर आतेआते पपीहा ने निर्णय कर लिया कि अब अपनी साडि़यों का चुनाव सोचसम  झ कर करेगी. क्या हुआ अगर उस के पति की आमदनी औरों की तरह नहीं है. कम से कम कुछ महंगी साडि़यां तो खरीद ही सकती है.

जब पपीहा घर पहुंची तो विनय और

बच्चों ने धमाचौकड़ी मचा रखी थी. उस का

मूड वैसे ही खराब था और यह देख कर उस

का पारा चढ़ गया. चिल्ला कर बोली, ‘‘अभी स्कूल से थकी हुई आई हूं… घर को चिडि़याघर बना रखा है.’’

मम्मी का मूड देख कर ओशी और गोली अपने 2 अपने कमरे में दुबक गए.

विनय प्यार से बोला, ‘‘पपी क्या हुआ है? क्यों अपने खूबसूरत चेहरे को बिगाड़ रही हो.’’

पपीहा आंखों में पानी भरते हुए बोली, ‘‘बस तुम्हें लगती हूं… आज किसी ने भी मेरी तारीफ नहीं की. सब लोग कपड़ों को ही देखते

हैं और मेरे पास तो एक भी ढंग की साड़ी

नहीं है.’’

विनय बोला, ‘‘बस इतनी सी बात. चलो तैयार हो जाओ, बाहर से कुछ पैक भी करवा लेते हैं और तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद की साड़ी भी खरीद लेते हैं.’’

जब विनय का स्कूटर एक बहुत बड़ी साड़ी की दुकान के आगे रुका तो पपीहा बोली, ‘‘अरे फुजूलखर्ची क्यों कर रहे हो.’’

विनय बोला, ‘‘एक बार देख लेते हैं… तुम नौकरी करती हो, बाहर आतीजाती हो…. आजकल सीरत से ज्यादा कपड़ों का जमाना है.’’

पपीहा ने जब साड़ी के लिए कहा तो दुकानदार ने साडि़यां दिखानी आरंभ कर दीं. एक से बढ़ कर एक खूबसूरत साडि़यां थीं पर किसी भी साड़ी की कीमत क्व8 हजार से कम नहीं थी. पपीहा की नजर अचानक एक साड़ी पर ठहर गई. एकदम महीन कपड़ा, उस पर रंगबिरंगे फूल खिले थे.

दुकानदार भांप गया और बोला, ‘‘मैडम

यह साड़ी तो आप ही के लिए बनी है. देखिए फूल से भी हलकी है और आप के ऊपर तो खिलेगी भी बहुत.’’

विनय बोला, ‘‘क्या प्राइज है?’’

‘‘क्व12 हजार.’’

पपीहा बोली, ‘‘अरे नहीं, थोड़े कम दाम

की दिखाइए.’’

विनय बोला, ‘‘अरे एक बार पहन कर

तो देखो.’’

पपीहा ने जैसे ही साड़ी का पल्लू अपने से लगा कर देखा, ऐसा लगा वह कुछ और ही बन गई है.

पपीहा का मन उड़ने लगा, उसे लगा जैसे वह फिर से स्कूल पहुंच गई है. जयति और नीरजा उस की साड़ी को लालसाभरी नजरों से देख रही हैं.

छात्राओं का समूह उसे घेरे हुए खड़ा है और सब एक स्वर में बोल रहे थे कि मैम यू आर लुकिंग सो क्यूट.

तभी विनय बोला, ‘‘अरे, कब तक हाथों में लिए खड़ी रहोगी?’’

जब साड़ी ले कर दुकान से बाहर निकले तो पपीहा बेहद ही उत्साहित थी. यह उस की पहली शिफौन साड़ी थी.

पपीहा बोली, ‘‘अब मैं इस साड़ी की स्पैशल फंक्शन में पहनूंगी.’’

पपीहा जब अगले दिन स्कूल पहुंची तो स्टाफरूम में साडि़यों की चर्चा हो रही थी. पहले पपीहा ऐसी चर्चा से दूर रहती थी, परंतु अब उस के पास भी शिफौन साड़ी थी. अत: वह भी ध्यान से सुनने लगी.

नीरजा शिफौन के रखरखाव के बारे में बात कर रही थी.

पपीहा भी बोल पड़ी, ‘‘अरे वैसे शिफौन थोड़ी महंगी जरूर है पर सिंथैटिक जौर्जेट उस के आगे कहीं नहीं ठहरती है.’’

अब पपीहा प्रतीक्षा कर रही थी कि कब

वह अपनी शिफौन साड़ी पहन कर

स्कूल जाए. पहले उस ने सोचा कि पेरैंटटीचर मीटिंग में पहन लेगी पर फिर उसे लगा कि टीचर्स डे पर पहन कर सब को चौंका देगी. पपीहा ने पूरी तैयारी कर ली थी पर 5 सितंबर को जो बरसात की   झड़ी लगी वह थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

जब पपीहा तैयार होने लगी तो विनय ने कहा भी, ‘‘पपी, वह शिफौन वाली साड़ी पहन लो न.’’

पपीहा मन मसोस कर बोली, ‘‘विनय इतनी महंगी साड़ी बरसात में कैसे खराब कर दूं?’’

जब पपीहा स्कूल पहुंची तो देखा चारों

तरफ पानी ही पानी भरा था पर तब भी जयति बड़ी अदा से शिफौन लहराते हुए आई और बोली, ‘‘जौर्जेट लेडी, आज तो तुम शिफौन

पहनने वाली.’’

पपीहा बोली, ‘‘बरसात में कैसे पहनती?’’

नीरजा ग्रे और गोल्डन लिनेन पहने इठलाती हुई आई और बोली, ‘‘अरे लिनेन सही रहती है इस मौसम में.’’

पपीहा को लग रहा था वह कितनी

फूहड़ हैं.

पपीहा के जन्मदिन पर विनय बोला,

‘‘शाम को डिनर करने बाहर जाएंगे तो वही साड़ी पहन लेना.’’

पपीहा बोली, ‘‘अरे किसी फंक्शन में

पहन लूंगी.’’

विनय चिढ़ते हुए बोला, ‘‘मार्च से फरवरी आ गया… कभी तो उस साड़ी को हवा लगा दो.’’

पपीहा बोली, ‘‘विनय इस बार पेरैंटटीचर मीटिंग पर पहन लूंगी.’’

पेरैंटटीचर मीटिंग के दिन जब विनय ने याद दिलाया तो पपीहा बोली, ‘‘अरे काम में लथड़पथड़ जाएगी.’’

ऐसा लग रहा था जैसे पपीहा के लिए वह साड़ी नहीं, अब तक की जमा की हुई जमापूंजी हो. पपीहा रोज अलमारी में टंगी हुई शिफौन साड़ी को ममता भरी नजरों से देख लेती थी.

पेरैंटटीचर मीटिंग में फिर पपीहा ने मैहरून सिल्क की साड़ी

पहन ली.

पपीहा ने सोच रखा था कि नए सैशन में वह साड़ी वही पहन कर सब टीचर्स के बीच ईर्ष्या का विषय बन जाएगी, परंतु कोरोना के कारण स्कूल अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गए थे. पपीहा के मन में रहरह कर यह खयाल आ जाता कि काश वह अपनी साड़ी अपने जन्मदिन पर पहन लेती या फिर पेरैंटटीचर मीटिंग में. देखते ही देखते 10 महीने बीत गए, परंतु लौकडाउन के कारण क्या शिफौन कया जौर्जेट किसी भी कपड़े को हवा नहीं लगी.

धीरेधीरे लौकडाउन खुलने लगा और जिंदगी की गाड़ी वापस पटरी पर

आ गई. पपीहा के भाई ने अपने बेटे के जन्मदिन पर एक छोटा सा गैटटुगैदर रखा था. पपीहा ने सोच रखा था कि वह भतीजे के जन्मदिन पर शिफौन की साड़ी पहन कर जाएगी. जरा भाभी भी तो देखे कि शिफौन पहनने का हक बस उन्हें ही नहीं है. कितने दिनों बाद घर से बाहर निकलने और तैयार होने का अवसर मिला था. सुबह भतीजे के उपहार को पैक करने के बाद पपीहा नहाने के लिए चली गई.

बाहर विनय और बच्चे बड़ी बेसब्री से पपीहा का इंतजार कर रहे थे.

विनय शरारत से बोल रहा था, ‘‘बच्चो आज मम्मी से थोड़ा दूर ही रहना. पूरे क्व12 हजार की शिफौन पहन रही है वह आज.’’

आधा घंटा हो गया पर पपीहा बाहर नहीं निकली तो विनय बोला, ‘‘अरे भई आज किस की जान लोगी.’’ फिर अंदर जा कर देखा तो पपीहा जारजार रो रही थी. शिफौन की साड़ी बिस्तर पर पड़ी थी.

विनय ने जैसे ही साड़ी को हाथ में लिया तो जगहजगह साड़ी में छेद नजर आ रहे थे. विनय सोचने लगा कि शिफौन साड़ी इस जौर्जेट लेडी के हिस्से में नहीं है. Story In Hindi

Best Story In Hindi: वसंत लौट गया – किन्नी मां को लेकर क्यों बहुत ज्यादा खुश थी

Best Story In Hindi, लेखिका – रीता कश्यप

टैलीविजन पर मेरा इंटरव्यू दिखाया जा रहा है. मुझे साहित्य का इतना बड़ा सम्मान जो मिला है. बचपन से ही कागज काले करती आ रही हूं. छोटेबड़े और सम्मान भी मिलते रहे हैं लेकिन इतना बड़ा सम्मान पहली बार मिला है. इसलिए कई चैनल वाले मेरा इंटरव्यू लेने पहुंच गए थे.

मैं ने इस बारे में अपने घर में किसी को कुछ भी नहीं बताया. बताना भी किसे था? आज तक कभी किसी ने मेरी इस प्रतिभा को सराहा ही नहीं. घर की मुरगी दाल बराबर. न पति को, न बच्चों को, न मायके में और न ही ससुराल में किसी को भी आज तक मेरे लेखिका होने से कोई मतलब रहा है.

मैं एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी, अच्छी मां बनूं यह आशा तो मुझ से सभी ने की, लेकिन मैं एक अच्छी लेखिका भी बनूं, मानसम्मान पाऊं, ऐसी कोई चाह किसी अपने को नहीं रही. मैं अपनों की उम्मीद पर पता नहीं खरी उतरी या नहीं लेकिन आलोचकों और पाठकों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरी उतरी. तभी तो आज मैं साहित्य के इस शिखर पर पहुंची हूं.

इंटरव्यू लेने वाले भी कैसेकैसे प्रश्न पूछते हैं? शायद अनजाने में हम लेखक ही कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो पाठकों को हमारे अंतर्मन का पता दे देता है जबकि लेखकों को लगता है कि वे मात्र दूसरों के जीवन को, उन की समस्याओं को, उन के परिवेश को ही कागज पर उतारते हैं.

इंटरव्यू लेने वाले ने बड़े ही सहज ढंग से एक सवाल मेरी तरफ उछाला था, ‘‘वैसे तो जीवन में कभी किसी को रीटेक का मौका नहीं मिलता फिर भी यदि कभी आप को जीवन की एक भूल सुधारने का अवसर दिया जाए तो आप क्या करेंगी? क्या आप अपनी कोई भूल सुधारना चाहेंगी?’’

मैं ने 2 बार इस सवाल को टालने की कोशिश की, लेकिन हर बार शब्दों का हेरफेर कर उस ने गेंद फिर मेरे ही पाले में डाल दी. मैं उत्तर देने से बच न सकी. झूठ मैं बोल नहीं पाती, इसीलिए झूठ मैं लिख भी नहीं पाती. मैं ने जीवन की अपनी एक भूल स्वीकार कर ली और कहा कि अगर मुझे अवसर मिले तो मैं अपनी वह एक भूल सुधारना चाहूंगी जिस ने मुझ से मेरे जीवन के वे कीमती 25 साल छीन लिए हैं, जिन्हें मैं आज भी जीने की तमन्ना रखती हूं, हालांकि यह सब अब बहुत पीछे छूट गया है.

प्रोग्राम कब का खत्म हो चुका था लेकिन मैं वर्तमान में तब लौटी जब फोन की घंटी बजी.

बेटी किन्नी का फोन था. मेरे हैलो कहते ही वह चहक कर बोली, ‘‘क्या मम्मा, आप को इतना बड़ा सम्मान मिला, इतना अच्छा इंटरव्यू टैलीकास्ट हुआ और आप ने हमें बताया तक नहीं? वह तो चैनल बदलते हुए एकाएक आप को टैलीविजन स्क्रीन पर देख कर मैं चौंक गई.’’

‘‘इस में क्या बताना था? यह सब तो…’’

‘‘फिर भी मम्मा, बताना तो चाहिए था. मुझे मालूम है आप को एक ही शिकायत है कि हम कभी आप का लिखा कुछ पढ़ते ही नहीं. खैर, छोड़ो यह शिकायत बहुत पुरानी हो गई है. मम्मा, बधाई हो. आई एम प्राउड औफ यू.’’

‘‘थैंक्स, किन्नी.’’

‘‘सिर्फ इसलिए नहीं कि आप मेरी मम्मा हैं बल्कि आप में सच बोलने की हिम्मत है. पर यह सच मेरी समझ से परे है कि आप ने इस को स्वीकारने में इतने साल क्यों लगा दिए? मैं ने तो जब से होश संभाला है मुझे हमेशा लगा कि पता नहीं आप इस रिश्ते को कैसे ढो रही हैं? मैं तो यह सोच कर हैरान हूं कि जब आप इसे अपनी भूल मान रही थीं तो ढो क्यों रही थीं?’’

‘‘तुम दोनों के लिए बेटा, तब इस भूल को सुधार कर मैं तुम दोनों का जीवन और भविष्य बरबाद कर कोई और भूल नहीं करना चाहती थी. भूल का प्रायश्चित्त भूल नहीं होता, किन्नी.’’

‘‘ओह, मम्मा, हमारे लिए आप ने अपना पूरा जीवन…इस के लिए थैंक्स. आई एम रियली प्राउड आफ यू. अच्छा मम्मा, जल्दी ही आऊंगी. अभी फोन रखती हूं. मिलने पर ढेर सारी बातें करेंगे,’’ कहते हुए किन्नी ने फोन रख दिया.

किन्नी हमेशा ऐसे ही जल्दी मेें होती है. बस, अपनी ही कहती है. मुझे तो कभी कुछ कहने या पूछने का अवसर ही नहीं देती. इस से पहले कि मैं कुछ और सोचती फोन फिर बज उठा. दीपक का फोन था.

‘‘हैलो दीपू, क्या तुम ने भी प्रोग्राम देखा है?’’

‘‘हां, देख लिया है. वह तो मेरे एक दोस्त, रवि का फोन आया कि आंटी का टैलीविजन पर इंटरव्यू आ रहा है, बताया नहीं? मैं उसे क्या बताता? पहले मुझे तो कोई कुछ बताए,’’ दीपक नाराज हो रहा था.

‘‘वह तो बेटा, तुम लोग इस सब में कभी रुचि नहीं लेते तो सोचा क्या बताना है,’’ मैं ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘मम्मा, यह तो आप को पता है कि हम रुचि नहीं लेते, लेकिन आप ने कभी यह सोचा है कि हम रुचि क्यों नहीं लेते? क्या यही सब सुनने और बेइज्जत होने के लिए हम रुचि लें इस सब में?’’

‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘इस इंटरव्यू का आखिर मतलब क्या है? क्या हम सब की सोसाइटी में नाक कटवाने के लिए आप यह सब…आज तो इंटरव्यू देखा है, किताबों में पता नहीं क्याक्या लिखती रहती हैं. पता तो है न कि हम आप का लिखा कुछ पढ़ते नहीं.’’

‘‘बेटा, तुम ही नहीं पढ़ते, मैं ने तो कभी किसी को पढ़ने से नहीं रोका. बल्कि मुझे तो खुशी ही होगी अगर कोई मेरी…’’

‘‘वैसे पढ़ कर करना भी क्या है? कभी सोचा ही नहीं था कि पापा से अपनी शादी को आप भूल मानती आ रही हैं, तो क्या मैं और किन्नी आप की भूल की निशानियां हैं?’’ बेटे का स्वर तीखा होता जा रहा था.

‘‘यह तू क्या कह रहा है दीपू. मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’

‘‘वैसे जब 25 साल तक चुप रहीं तो अब मुंह खोलने की क्या जरूरत थी? चुप भी तो रह सकती थीं आप?’’

‘‘बेटा, इंटरव्यू में कहे मेरे शब्दों का यह मतलब नहीं था. तू समझ नहीं रहा है मैं…’’

‘‘मैं क्या समझूंगा, पापा भी कहां समझ पाए आप को? दरअसल, औरतों को तो बड़ेबड़े ज्ञानीध्यानी भी नहीं समझ पाए. पता नहीं आप किस मिट्टी से बनी हैं, कभी खुश रह ही नहीं सकतीं,’’ कहते हुए उस ने फोन पटक दिया था.

मैं तो ठीक से समझ भी नहीं पाई कि उसे शिकायत मेरे इंटरव्यू के उत्तर से थी या अपनी पत्नी से लड़ कर बैठा था, जो इतना भड़का हुआ था. यह इतनी जलीकटी सुना कर भड़क रहा है, दूसरी तरफ बेटी है जो गर्व अनुभव कर रही है.

औरत को खानेकपड़े के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ चाहिए होता है. यह बात जब पिछले 25 वर्षों में मैं इस के पापा को नहीं समझा पाई तो भला इसे क्या समझा पाऊंगी? बहुत सहा है इन 25 वर्षों में, आज पहली बार मुंह खोला तो परिवार में तूफान के आसार बन गए. कैसे समझाऊं अपने बेटे को कि मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि कभी पता होता कि शादीशुदा जीवन में इतनी घुटन, इतनी सीलन, इतना अकेलापन, इतने समझौते हैं तो मैं शादी ही नहीं करती.

मैं तो उस पल में वापस जाना चाहती हूं जब इंद्रजीत को दिखा कर मेरे मम्मीपापा ने शादी के लिए मेरी राय पूछी थी और मैं ने इन की शिक्षा, इन का रूप देख कर शादी के लिए हां कर दी थी. तब मुझे क्या पता था कि साल में 8 महीने घर से दूर रहने वाला यह व्यक्ति अपने परिवार के लिए मेहमान बन कर रह जाएगा. इस का सूटकेस हमेशा पैक ही रहेगा. न जाने कब एक फोन आएगा और यह फिर काम पर निकल जाएगा.

बच्चों का क्या है…बचपन में कीमती तोहफों से बहलते रहे, बड़े हुए तो पढ़ाई और कैरियर की दौड़ में दौड़ते हुए मित्रों के साथ मस्त हो गए और शादी के बाद अपने घरपरिवार में रम गए. मां और बाप दोनों की जिम्मेदारियां उठाती हुई घर की चारदीवारी में मैं कितनी अकेली हो गई हूं, इस ओर किसी का कभी ध्यान ही नहीं गया. जब मुझे जीवन अकेले अपने दम पर ही जीना था और कलम को ही अपने अकेलेपन का साथी बनाना था तो इस शादी का मतलब ही क्या रह जाता है?

बेटे के गुस्से को देख कर तो मुझे इंद्रजीत की तरफ से और भी डर लगने लगा है. अगर उन्होंने भी यह इंटरव्यू देखा होगा तो क्या होगा? पता नहीं क्या कहेंगे? मैं जब इतने वर्षों में अपनी परेशानी कभी उन्हें नहीं कह पाई तो अब अपनी सफाई में क्या कह पाऊंगी? वे कहीं मुझे तलाक ही न दे दें और कहें कि लो, मैं ने तुम्हारी भूल सुधार दी है.

मैं परेशान हो उठी. वर्षों से सच उजागर करने वाली मैं अपने जीवन के एक सच का सामना नहीं कर पा रही थी. आंसुओं से मेरा चेहरा भीग गया. पहली बार मुझे सच बोलने पर खेद हो रहा था. मेरा मन मुझे धिक्कार रहा था. बेटा ठीक ही तो कह रहा था कि अब इस उम्र में मुझे मुंह खोलने की क्या जरूरत थी. काश, इंटरव्यू देते समय मैं ने यह सब सोच लिया होता.

ये मीडिया वाले भी कैसे हैं… ‘मौका पाते ही सामने वाले को नंगा कर के रख देते हैं.’

अचानक फोन की घंटी बज उठी. इंद्रजीत का फोन था. मैं ने कांपते हाथों से फोन उठाया. मेरे रुंधे गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी. मुझे लगा अभी उधर से आवाज आएगी, ‘तलाक… तलाक…’

‘‘सुभी…हैलो सुभी…’’ वह मुझे पुकार रहे थे.

‘‘हैलो…’’ मैं चाह कर भी इस के आगे कुछ नहीं बोल पाई.

‘‘अरे, सुभी, मैं ने तो सोचा था खुशी से चहकती हुई फोन उठाओगी. तुम तो शायद रो रही हो? क्या हुआ, सब ठीक तो है न?’’ उन के स्वर में घबराहट थी. मैं ने पहली बार उन्हें अपने लिए परेशान पाया था.

‘‘अरे, भई, इतना बड़ा सम्मान मिला है. तुम्हें बताना तो चाहिए था? खैर, मैं परसों दोपहर पहुंच रहा हूं फिर सैलीब्रेट करेंगे तुम्हारे इस सम्मान को.’’

पति का यह रूप मैं ने 25 साल में पहली बार देखा था. आज अचानक यह परिवर्तन कैसा? मैं भय से कांप उठी. कहीं यह किसी तूफान की सूचना तो नहीं?

‘‘क्या आप ने टैलीविजन पर मेरा इंटरव्यू देखा है?’’ मैं ने घबराते हुए पूछा. मुझे लगा शायद उन्हें किसी से मुझे मिले सम्मान की बात पता लगी है.

‘‘देखा है सुभी, उसे देख कर ही तो सब पता लगा है, वरना तुम कब कुछ बताती हो?’’

‘‘क्या आप ने इंटरव्यू पूरा देखा था?’’ मेरी शंका अभी भी अपनी जगह खड़ी थी. पति में आए इस परिवर्तन को मैं पचा नहीं पा रही थी.

‘‘पूरा देखा ही नहीं रिकार्ड भी कर लिया है. रिकार्डिंग भी साथ ले आ रहा हूं.’’

‘‘फिर भी आप नाराज नहीं हैं?’’

‘‘नाराज तो मैं अपनेआप से हो रहा हूं. मैं ने अनजाने में तुम्हें कितनी तकलीफ पहुंचाई है. तुम इतनी बड़ी लेखिका हो, जिस का सम्मान पूरा देश कर रहा है उसे मेरे कारण अपनी शादी एक भूल लग रही है. काश, मैं तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ता होता तो यह सब मुझे बहुत पहले पता लग जाता. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, शेष जीवन प्रायश्चित्त के लिए बहुत है,’’ इंद्रजीत हंसने लगे.

‘‘मैं क्षमा चाहती हूं, क्या आप मुझे माफ कर पाएंगे?’’ मैं रोंआसी हो गई.

‘‘क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए पगली, लेकिन मैं मात्र क्षमा मांग कर इस भूल का प्रायश्चित्त नहीं करना चाहता, बल्कि तुम्हारे पास आ रहा हूं, तुम्हारे हिस्से की खुशियां लौटाने. वास्तव में यह तुम्हारी भूल नहीं मेरे जीवन की भूल थी जो मैं ने अपनी गुदड़ी में पड़े हीरे को नहीं पहचाना.’’

मेरे आंसू खुशी के आंसुओं में बदल चुके थे. मुझे इंद्रजीत का बेसब्री से इंतजार था. उन के कहे शब्द मेरे लिए किसी भी सम्मान से बड़े थे. मैं वर्षों से इसी प्यार के लिए तो तरस रही थी.

जैसे तेज बारिश और तूफान अपने साथ सब गंदगी बहा ले जाए और निखरानिखरा सा, खिलाखिला सा प्रकृति का कणकण दिलोदिमाग को अजीब सी ताजगी से भर दे कुछ ऐसा ही मैं महसूस कर रही थी. खुशियों के झूले में झूलते हुए न मालूम कब आंख लग गई. सपने भी बड़े ही मोहक आए. अपने पति की बांहों में बांहें डाल मैं फूलों की वादियों में, झरनों, पहाड़ों में घूमती रही.

सुबह दरवाजे की घंटी से नींद खुली. सूरज सिर पर चढ़ आया था. संगीता काम करने आई होगी यह सोच कर मैं ने जल्दी से जा कर दरवाजा खोला तो सामने किन्नी खड़ी थी. मुझे देखते ही मुझ से लिपट गई. मैं वर्षों से अपनी सफलताओं पर किसी अपने की ऐसी ही प्रतिक्रिया, ऐसे ही स्वागत की इच्छुक थी. मैं भी उसे कस कर बांहों में समेटे हुए ड्राइंगरूम तक ले आई. मन अंदर तक भीग गया.

‘‘मम्मा, मुझे हमेशा लगता था कि आप नहीं समझेंगी, लेकिन कल टैलीविजन पर आप का इंटरव्यू देख कर लगा, मैं गलत थी,’’ किन्नी मेरी बांहों से अपने को अलग करती हुई बोली.

‘‘क्या नहीं समझूंगी? क्या कह रही है?’’ मैं वास्तव में कुछ नहीं समझी थी.

‘‘मम्मा, मैं ने तय कर लिया है कि मैं कार्तिक के साथ अब और नहीं रह सकती,’’ किन्नी एक ही सांस में बोल गई.

‘‘क्या…क्या कह रही है तू? किन्नी, यह कैसा मजाक है?’’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही. यह सच है. यह कोई जरूरी तो नहीं कि मैं भी अपनी भूल स्वीकार करने में 25 वर्ष लगा दूं?’’

‘‘लेकिन कार्तिक के साथ शादी करने का फैसला तो तुम्हारा ही था?’’

‘‘तभी तो इसे मैं अपनी भूल कह रही हूं. फैसले गलत भी तो हो जाते हैं. यह बात आप से ज्यादा कौन समझ सकेगा?’’

‘‘बेटा, मैं ने कहा था कि मैं शादी ही करने की भूल नहीं करती, न कि तुम्हारे पिता से शादी करने की भूल नहीं करती. तुम गलत समझ रही हो. दोनों में बहुत फर्क है.’’

‘‘आप अपनी बात को शब्दों में कैसे भी घुमा लो, मतलब वही है. मैं कार्तिक के साथ और नहीं रह सकती. बस, मैं ने फैसला कर लिया है,’’ कहते हुए उस ने अपने दोनों हाथ कुछ इस तरह से सोफे की सीट पर फेरे मानो अपनी शादी की लिखी इबारत को मिटा रही हो.

मैं हैरान सी उस का चेहरा देख रही थी. ठीक इसी तरह 2 वर्ष पहले उस ने कार्तिक के साथ शादी करने का अपना फैसला हमें सुनाया था. कार्तिक पढ़ालिखा, अच्छे संस्कारों वाला, कामयाब लड़का है इसलिए हमें भी हां करने में कोई ज्यादा सोचना नहीं पड़ा. वैसे भी आज के दौर में मातापिता को अपने बच्चों की शादी में अपनी राय देने का अधिकार ही कहां है? हमारी पीढ़ी से चला वक्त बच्चों की पीढ़ी तक पहुंचतेपहुंचते कुछ ऐसी ही करवट ले चुका है.

लेकिन अब क्या करूं? क्या आज भी किन्नी की हां में हां मिलाने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है? एकदूसरे को समझने के लिए तो पूरा जीवन भी कम पड़ जाता है, 2 वर्षों की शादीशुदा जिंदगी होती ही कितनी है?

बहुत पूछने पर भी किन्नी ने अपने इस फैसले का कोई ठोस कारण नहीं बताया. उस का कहना था, मैं नहीं समझ पाऊंगी. मैं जो लोगों के भीतर छिपे दर्द को महसूस कर लेती हूं, उस के बताने पर भी कुछ नहीं समझ पाऊंगी, ऐसा उस का मानना है.

मैं जानती हूं आज की पीढ़ी के पास रिश्तों को जोड़ने, निभाने और तोड़ने की कोई ठोस वजह होती ही नहीं फिर भी इतने बड़े फैसले के पीछे कोई बड़ा कारण तो होना ही चाहिए.

एक दिन वह उस के बिना नहीं रह सकती थी तो शादी का फैसला कर लिया. अब उस के साथ नहीं रह सकती तो तलाक का फैसला ले लिया. जीवन कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल है क्या? लेकिन मैं उसे कुछ भी न समझा पाई क्योंकि वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी. अपनी तथा परिवार की नजरों में भी मैं इस के लिए कुसूरवार थी. इंद्रजीत को भी किन्नी के फैसले का पता लग गया था. अगले दिन लौटने वाले वे अगले महीने भी नहीं लौटे थे. कोई नया प्रोजैक्ट शुरू कर दिया था. दीपक उस दिन से ही नाराज है. अब उसे कौन समझाता. किन्नी का यह फैसला मेरी खुशियों पर तुषारापात कर गया.

यह नया दर्द, यह उपेक्षा, यह साहिल पर उठा भंवर फिर किसी कालजयी रचना का माहौल बना रहा है. सभी खिड़कीदरवाजे बंद कर मैं ने कलम उठा ली है. Best Story In Hindi

Hindi Story: मुझे जवाब दो – हर कुसूर की माफी नहीं होती

Hindi Story: ‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.

‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.

‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?

‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.

‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?

‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.

‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?

‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?

‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.

‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.

‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?

‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.

‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?

‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.

‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.

‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.

‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.

‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.

‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.

‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.

‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक

शोभा.’’ Hindi Story

Hindi Story: अलविदा – आरती से आखिर इतनी चिढ़ने क्यों लगी थी पूजा

Hindi Story: पूजा सुबह से गुमसुम बैठी थी. आज उस की छोटी बहन आरती दिल्ली से वापस लौट रही थी. उस को आरती के वापस आने की सूचना रात को ही मिल चुकी थी. साथ ही इस बात की भनक भी मिल गई थी कि लड़के ने आरती को पसंद कर लिया है और आरती ने भी अपने विवाह की स्वीकृति दे दी है. उस को लगा था कि इस स्वीकृति ने न केवल उस के साथ अन्याय ही किया?है, बल्कि उस के भविष्य को भी तहसनहस कर डाला है.

पूजा आरती से 4 वर्ष बड़ी?थी लेकिन आरती अपने स्वभाव, रूप एवं गुणों के कारण उस से कहीं बढ़ कर थी. वह एक स्कूल में अध्यापिका थी. विवाह में देरी होने के कारण पूजा का स्वभाव काफी चिड़चिड़ा हो गया था. हर किसी से लड़ाईझगड़ा करना उस की आदत बन चुकी थी.

उन के पिता दोनों पुत्रियों के विवाह को ले कर अत्यंत चिंतित थे. इसलिए बड़े बेटों को भी उन्होंने विवाह की आज्ञा नहीं दी थी. उन्हें भय था कि पुत्र अपने विवाह के पश्चात युवा बहनों के विवाह में दिलचस्पी ही नहीं लेंगे. पितापुत्र आएदिन अखबारों में पूजा के विवाह के लिए विज्ञापन देते रहते. कभी पूजा के मातापिता, कभी पूजा स्वयं लड़के को और कभी पूजा को लड़के वाले नापसंद कर जाते और बात वहीं की वहीं रह जाती.

वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए, लेकिन पूजा का विवाह तय नहीं हो पाया. वह अब पड़ोस में जा कर आरती की बुराइयां करने लगी थी.

एक दिन पूजा सामने वाली उषा दीदी के घर जा कर रोने लगी, ‘‘दीदी, मेरे लिए जितने भी अच्छे रिश्ते आते हैं वे सब मुझे ठुकरा कर आरती को पसंद कर लेते हैं. इसीलिए मुझे आरती की शक्ल से भी नफरत हो गई है. मैं ने भी पक्का फैसला कर रखा है कि जब तक मेरा विवाह नहीं होगा, मैं आरती का विवाह भी नहीं होने दूंगी.’’

उषा दीदी पूजा को समझाने लगीं, ‘‘यदि तुम्हारे विवाह से पहले आरती का विवाह हो भी जाए तो क्या हर्ज है? शायद आरती की ससुराल की रिश्तेदारी में तुम्हारे लिए भी कोई अच्छा वर मिल जाए. ऐसे जिद कर के आरती का जीवन बरबाद करना उचित नहीं.’’

लेकिन पूजा का एक ही तर्क था, ‘जब मैं बरबाद हो रही हूं तो दूसरों को क्यों आबाद होने दूं.’

2 वर्ष तक लाख जतन करने के बाद भी जब पूजा का विवाह निश्चित नहीं हुआ तो वह काफी हद तक निराश हो गई थी.

आरती अध्यापन कार्य करने के पश्चात शाम को घर पर भी ट्यूशन पढ़ा कर अपनेआप को व्यस्त रखती.

पूजा सुबह से शाम तक मां के साथ घरगृहस्थी के कार्यों में उलझी रहती. वह यह भी भूल गई थी कि अधिक पकवान, चाटपकौड़ी खाने से उस का शरीर बेडौल होता जा रहा?था.

लोग पूजा को देख कर हंसते तो वह कुढ़ कर कहती, ‘‘बाप की कमाई खा रही हूं, जलते हो तो जलो लेकिन मेरी सेहत पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा.’’

पिता ने हार कर अपने दोनों बड़े पुत्रों की शादियां कर दी?थीं.

बड़े बेटे का एक मित्र मनोज उन के परिवार का बड़ा ही हितैषी?था. उस ने आरती से शादी करने के लिए अपने एक अधीनस्थ सहयोगी को राजी कर लिया था.

मनोज ने आरती के पिता से कहा, ‘‘चाचाजी, आप चाहें तो आरती का रिश्ता आज ही तय कर देते हैं.’’

पिता ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा, आरती तुम्हारी अपनी बहन है. मैं कल ही किसी बहाने आरती को तुम्हारे साथ अंबाला भेज दूंगा.’’

चूंकि मनोज का परिवार भी अंबाला में रहता था, इसलिए आरती के बड़े भाई तथा मनोज के परिवार के लोगों ने ज्यादा शोर किए बगैर आरती के शगुन की रस्म अदा कर दी. विवाह की तारीख भी निश्चित कर दी.

चंडीगढ़ में पूजा को इस संबंध में कुछ नहीं बताया गया था. घर में सारे कार्य गुप्त रूप से किए जा रहे थे, ताकि पूजा किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर सके.

अचानक एक दिन पूजा को एक पत्र बरामदे में पड़ा हुआ मिला. वह उत्सुकतावश पत्र को एक सांस में ही पढ़ गई. पत्र के अंत में लिखा था, ‘आरती की गोदभराई की रस्म के लिए हम लोग रविवार को 4 बजे पहुंच रहे हैं.’

पढ़ते ही पूजा के मन में जैसे हजारों बिच्छू डंक मार गए. उस से झूठ बोला गया कि अंबाला में मनोज के बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से आरती को वहां भेजा गया था. उसे लगा कि इस घर के सब लोग बहुत ही स्वार्थी हैं. उस ने पत्र से अंबाला का पता डायरी में लिखा और पत्र को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया.

2 दिन के पश्चात लड़के के पिता के हाथ में एक चिट्ठी थी, जिस में लिखा था, ‘आरती मंगली लड़की है. यदि इस से आप ने पुत्र का विवाह किया तो लड़का शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगा.’

पत्र पढ़ते ही उस परिवार में श्मशान जैसी खामोशी छा गई. वे लोग सीधे मनोज के घर पहुंच गए. लड़के के पिता गुस्से से बोले, ‘‘आप जानते थे कि लड़की मंगली है, फिर आप ने हमारे परिवार को ही बरबाद करने का क्यों निश्चय किया? मैं इस रिश्ते को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकता.’’

मनोज ने उन लोगों को समझाने का काफी प्रयत्न किया, लेकिन बिगड़ी बात संवर न सकी.

चंडीगढ़ से पूजा के बड़े भाई को अंबाला बुला कर सारी स्थिति से अवगत कराया गया. पत्र देखने पर पता चला कि यह पूजा की लिखावट नहीं है. उस के पास तो अंबाला का पता ही नहीं था और न ही आरती के रिश्ते की बात की उसे कोई जानकारी थी.

चंडीगढ़ आने पर बड़े भैया उदास एवं दुखी थे. पूजा से इस बात की चर्चा करना बेकार था. घर का वातावरण एक बार फिर खामोश हो चुका था.

उषा दीदी की बड़ी लड़की नीलू, पूजा से सिलाई सीखने आती थी. एक दिन कहने लगी, ‘‘पूजा दीदी, आप ने जो चिट्ठी किसी को बेवकूफ बनाने के लिए लिखवाई थी, उस का क्या हुआ?’’

आरती के कानों में इस बात की भनक पड़ गई और वह झटपट मां तथा?भाई को बताने भाग गई.

2 दिन पश्चात पूजा की मां ने उषा के घर जा कर नीलू से सारी बात उगलवा ली कि पूजा दीदी ने ही मनोज भाई साहब के रिश्तेदारों को तंग करने के लिए उस से चिट्ठी लिखवाई थी.

आरती और पूजा में बोलचाल बंद हो गई लेकिन फिर धीरेधीरे घर का वातावरण सामान्य हो गया. पूजा और आरती चुपचाप अपनेअपने कामों में लगी रहतीं.

आरती स्कूल जाती और फिर शाम को ट्यूशन पढ़ाती.

पूजा उसे अच्छेअच्छे कपड़ोंजेवरों में देख कर कुढ़ती और फिर उस का गुस्सा उतरता अपनी भाभियों तथा बूढ़े पिता पर, ‘‘मैं पैदा ही तुम्हारी गुलामी करने के लिए हुई थी. क्यों नहीं रख लेते मेरे स्थान पर एक माई.’’

स्कूल की अध्यापिकाएं आरती को समझातीं, ‘‘अब भी समय है, यदि कोई लड़का तुम्हें पसंद कर ले तो तुम स्वयं ही कोशिश कर के विवाह कर लो.’’

आरती की एक सखी ने अपने ममेरे भाई के लिए उसे राजी कर लिया था और उस के साथ स्वयं दिल्ली जा कर उस का विवाह तय कर आई थी.

आरती की शादी की बात पूजा को बता दी गई थी. पूजा ने केवल एक ही शर्त रखी थी, ‘आरती की शादी में जितना खर्च होगा, उस से दोगुना धन मेरे नाम से बैंक में जमा कर दो ताकि मैं अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाऊं.’

विवाह का दिन नजदीक आता जा रहा था. बाहरी रूप से पूजा एकदम सामान्य दिखाई दे रही थी. पिता ने मोटी रकम पूजा के नाम बैंक में जमा करवा दी थी. आरती को उपहार देने के लिए पूजा ने अपने विवाह के लिए रखी हुई 2 बेहद सुंदर चादरें व गुड्डेगुडि़या का जोड़ा निकाल लिया था तथा छोटीमोटी अन्य कई कशीदाकारी की चीजें भी थीं.

आरती के विवाह का दिन आ गया. पूजा सुबह से ही भागदौड़ में लगी थी. घर मेहमानों से खचाखच भरा था, इसलिए दहेज के सामान का कमरा ऊपर की मंजिल पर निश्चित हुआ था और विदा से पूर्व दूल्हादुलहन उस में आराम भी कर सकते थे. उस कमरे की चाबी आरती की बड़ी भाभी को दे दी गई थी.

पूजा ने सामान्य सा सूट पहन रखा था. उस की मां ने 2-3 बार गुस्से से उसे डांटा भी, ‘‘आज भी ढंग के  कपड़े नहीं पहनने तो फिर 4 सूट बनवाने की जरूरत ही क्या थी?’’

पूजा ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘अब सूट बदलने का क्या फायदा. मुझे कई काम निबटाने हैं.’’

मां बड़ी खुश हुईं कि इस के मन में कोई मलाल नहीं. बेचारी कितनी भागदौड़ कर रही?है.

पूजा अपने कमरे में बारबार आजा रही थी. भाभी समझ रही थीं कि शायद मां उसे ऊपर काम के लिए भेज रही हैं और आरती समझ रही थी कि शायद अधूरे काम पूरे कर रही है.

दरअसल, पूजा अपने दहेज के लिए सहेज कर रखी हुई सब चीजों को छिपाछिपा कर बांध रही थी. यहां तक कि उस ने अपने जेवर भी डब्बों में बंद कर दिए थे.

बरात आने में केवल 1 घंटा शेष रह गया था. आरती को मेकअप के लिए ब्यूटी पार्लर भेज दिया गया था और पूजा घर में ही अपनेआप को संवारने लगी थी. उस ने बढि़या सूट पहना और शृंगार इत्यादि कर के पंडाल में पहुंच गई. सब रिश्तेदारों से हंसहंस कर बतियाती रही.

निश्चित समय पर बरात आई तो बड़े चाव से पूजा आरती को जयमाला के लिए मंच पर ले गई. इस के पश्चात पूजा किसी बहाने से भाभी से चाबी ले कर पंडाल से खिसक गई.

बरात ने खाना खा लिया तो घर के लोग भी खाना खाने में व्यस्त हो गए. अचानक बड़ी?भाभी को खयाल आया कि पूजा ने अभी खाना नहीं खाया. उसे बुलवाने किसी बच्चे को भेजा तो पता चला कि पूजा ऊपर वाला कमरा ठीक कर रही है. थोड़ी देर बाद आ जाएगी.

काफी देर बाद भी पूजा नीचे नहीं उतरी तो मां स्वयं उसे बुलाने ऊपर पहुंच गईं. तब पूजा ने कहा, ‘‘मैं दूल्हादुलहन का कमरा ठीक कर रही हूं. 5 मिनट का काम बाकी है.’’

मां और दूसरे लोग नीचे फेरों की तैयारी में व्यस्त हो गए.

रात 1 बजे तक फेरे भी पूरे हो चुके थे, लेकिन पूजा नीचे नहीं आई थी. घर के लोग डर रहे थे कि बारबार बुलाने से शायद वह गुस्सा न कर बैठे और बात बाहर के लोगों में फैल जाए. इसलिए सभी अपनेआप को काबू में रखे हुए थे.

दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए भेजा जाने लगा तो भाभी ने सोचा कि पहले वह जा कर कमरा देख ले. जैसे ही भाभी ने दरवाजा खोला तो सामने बिस्तर पर फूल इत्यादि बिखरे पड़े थे. साथ ही एक लिफाफा भी रखा हुआ था.

पत्र आरती के नाम था, ‘प्रिय आरती, मैं ने अपनी सभी प्यारी चीजें तुम्हारे विवाह के लिए बांध दी हैं. अपने पास कुछ भी नहीं रखा. पैसा भी पिताजी को लौटा रही हूं. केवल मैं अकेली ही जा रही हूं. पूजा.’

भाभी ने पत्र पढ़ लिया, लेकिन उसे किसी को भी नहीं दिखाया और वापस आ कर दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए उस कमरे में ले गई.

थोड़ी देर बाद अचानक ही आरती भाभी से पूछ बैठी, ‘‘भाभीजी, पूजा दिखाई नहीं दे रही. क्या सो गई है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘हां, मैं ने ही सिरदर्द की गोली दे कर उसे अपने कमरे में भिजवा दिया है. थोड़ी देर बाद ऊपर आ जाएगी.’’

भाभी दौड़ कर पति के पास पहुंची और उन्हें छिपा कर पत्र दिखाया. पत्र पढ़ कर उन्हें पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी.

बड़े भैया सोचने लगे कि अगर मातापिता से बात की तो वे लोग घबरा कर कहीं शोर न मचा दें. अभी तो आरती की विदाई भी नहीं हुई. भैयाभाभी ने सलाह की कि विदा तक कोई बहाना बना कर इस बात को छिपाना ही होगा.

विदाई की सभी रस्में पूरी की जा रही थीं कि मां ने 2-3 बार पूजा को आवाज लगाई, लेकिन भैया ने बात को संभाल लिया और मां चुप रह गईं.

सुबह 8 बजे बरात विदा हो गई. आरती ने सब से गले मिलते हुए पूजा के बारे में पूछा तो भाभी ने कहा, ‘‘सो रही है. कल शाम को तेरे घर पार्टी में हम सब पहुंच ही रहे हैं. फिर मिल लेना.’’

बरात के विदा होने के बाद अधिकांश मेहमान भी जाने की तैयारी में व्यस्त हो गए.

10 बजे के लगभग बड़े भैया पिताजी को सही बात बताने का साहस जुटा ही रहे थे कि सामने वाली उषा दीदी का नौकर आया, ‘‘भाभीजी, मालकिन बुला रही हैं. जल्दी आइए.’’

भाभी तथा भैया दौड़ कर वहां पहुंचे. वहां उषा दीदी और उन के पति गुमसुम खड़े थे. पास ही जमीन पर कोई चीज ढकी पड़ी थी. उषा तो सदमे से बुत ही बनी खड़ी थी. उन के पति ने बताया कि नौकर छत पर कपड़े डालने आया तो पूजा को एक कोने में लेटा देख कर घबरा कर नीचे दौड़ा आया और उस ने बताया कि पूजा दीदी ऊपर सो रही?हैं लेकिन यहां आ कर कुछ और ही देखा.

बड़े भैया ने पूजा के ऊपर से चादर हटा दी. उस ने कोई जहरीली दवा खा कर आत्महत्या कर ली थी.

समीप ही एक पत्र भी पड़ा हुआ था. लिखा था :

‘पिताजी जब तक आप के पास यह पत्र पहुंचेगा तब तक मैं बहुत दूर जा चुकी होंगी. आरती को तो आप ने केवल विदा ही किया है, लेकिन मैं आप को अलविदा कह रही हूं. मैं आरती के विवाह में सम्मिलित नहीं हुई, इसलिए मेरी विदाई में उसे न बुलाया जाए.

आप की बेटी पूजा.’

मांबाप और भाइयों को दुख था कि पूजा को पालने में उन से कहीं गलती हो गई थी, जिस से वह इतनी संवेदनशील और जिद्दी हो गई थी और अपनी छोटी बहन से ही जलने लगी थी. उन्हें लगा कि अगर वे कहीं सख्ती से पेश आते तो शायद बात इतनी न बिगड़ती. पूजा न केवल बहन से ही, बल्कि पूरे घर से ही कट गई थी.

जिस लड़की ने जीते जी उन की शांति भंग कर रखी थी, उस ने मृत्यु के बाद भी कैसा अवसाद भर दिया था, उन सब के जीवन में. Hindi Story

Best Hindi Story: तब और अब – रमेश की नियुक्ति क्यों गलत समय पर हुई थी?

Best Hindi Story: पिछले कई दिनों से मैं सुन रहा था कि हमारे नए निदेशक शीघ्र ही आने वाले हैं. उन की नियुक्ति के आदेश जारी हो गए थे. जब उन आदेशों की एक प्रतिलिपि मेरे पास आई और मैं ने नए निदेशक महोदय का नाम पढ़ा तो अनायास मेरे पांव के नीचे की जमीन मुझे धंसती सी लगी थी.

‘श्री रमेश कुमार.’

इस नाम के साथ बड़ी अप्रिय स्मृतियां जुड़ी हुई थीं. पर क्या ये वही सज्जन हैं? मैं सोचता रहा था और यह कामना करता रहा था कि ये वह न हों. पर यदि वही हुए तो…मैं सोचता और सिहर जाता. पर आज सुबह रमेश साहब ने अपने नए पद का भार ग्रहण कर लिया था. वे पूरे कार्यालय का चक्कर लगा कर अंत में मेरे कमरे में आए. मुझे देखा, पलभर को ठिठके और फिर उन की आंखों में परिचय के दीप जगमगा उठे.

‘‘कहिए सुधीर बाबू, कैसे हैं?’’ उन्होंने मुसकरा कर कहा.

‘‘नमस्कार साहब, आइए,’’ मैं ने चकित हो कर कहा. 10 वर्षों के अंतराल में कितना परिवर्तन आ गया था उन में. व्यक्तित्व कैसा निखर गया था. सांवले रंग में सलोनापन आ गया था. बाल रूखे और गरदन तक कलमें. कत्थई चारखाने का नया कोट. आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लग गया था. सकपकाहट के कारण मैं बैठा ही रह गया.

‘‘तुम अभी तक सैक्शन औफिसर ही हो?’’ कुछ क्षण मौन रहने के बाद उन्होंने प्रश्न किया. क्या सचमुच उन के इस प्रश्न में सहानुभूति थी अथवा बदला लेने की अव्यक्त, अपरोक्ष चेतावनी, ‘तो तुम अभी तक सैक्शन औफिसर हो, बच्चू, अब मैं आ गया हूं और देखता हूं, तुम कैसे तरक्की करते हो?’

‘‘सुधीर बाबू, तुम अधिकारी के सामने बैठे हो,’’ निदेशक महोदय के साथ आए प्रशासन अधिकारी के चेतावनीभरे स्वर को सुन कर मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो गया. मन भी कैसा विचित्र होता है. चाहे परिस्थितियां बदल जाएं पर अवचेतन मन की सारी व्यवस्था यों ही बनी रहती है. एक समय था जब मैं कुरसी पर बैठा रहता था और रमेश साहब याचक की तरह मेरे सामने खड़े रहते थे.

‘‘कोई बात नहीं, सुधीर बाबू, बैठ जाइए,’’ कह कर वे चले गए. जातेजाते वे एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाल गए थे जिस के सौसौ अर्थ निकल सकते थे.

मैं चिंतित, उद्विग्न और उदास सा बैठा रहा. मेरे सामने मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. फोन बजता और बंद हो जाता. पर मैं तो जैसे चेतनाशून्य सा बैठा सोच रहा था. मेरी अस्तित्वरक्षा अब असंभव है. रमेश यों छोड़ने वाला नहीं. इंसान सबकुछ भूल सकता है, पर अपमान के घाव पुर कर भी सदैव टीसते रहते हैं.

पर रमेश मेरे साथ क्या करेगा? शायद मेरा तबादला कर दे. मैं इस के लिए तैयार हूं. यहां तक तो ठीक ही है. इस के अलावा वह प्रत्यक्षरूप से मुझे और कोई हानि नहीं पहुंचा सकता था.

रमेश की नियुक्ति बड़े ही गलत समय पर हुई थी, इस वर्ष मेरी तरक्की होने वाली थी. निदेशक महोदय की विशेष गोपनीय रिपोर्ट पर ही मेरी पदोन्नति निर्भर करती थी. क्या उन अप्रिय घटनाओं के बाद भी रमेश मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट देगा? नहीं, यह असंभव है. मेरा मन बुझ गया. दफ्तर का काम करना मेरे लिए असंभव था. सो, मैं ने तबीयत खराब होने का कारण लिख कर, 2 दिनों की छुट्टी के लिए प्रार्थनापत्र निदेशक महोदय के पास पहुंचवा दिया. 2 दिन घर पर आराम कर के मैं अपनी अगली योजना को अंतिम रूप देना चाहता था. यह तो लगभग निश्चित ही था कि रमेश के अधीन इस कार्यालय में काम करना अपने भविष्य और अपनी सेवा को चौपट करना था. उस जैसा सिद्घांतहीन, झूठा और बेईमान व्यक्ति किसी की खुशहाली और पदोन्नति का माध्यम नहीं बन सकता. और फिर मैं? मुझ से तो उसे बदले चुकाने थे.

मुझे अच्छी तरह याद है. जब आईएएस का रिजल्ट आया था और रमेश का नाम उस में देखा तो मुझे खुशी हुई थी, पर साथ ही, मैं थोड़ा भयभीत हो गया था. रमेश ने पार्टी दी थी पर उस ने मुझे निमंत्रित नहीं किया था. मसूरी अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाते वक्त रमेश मेरे पास आया था. और वितृष्णाभरे स्वर में बोला था, ‘सुधीर, मेरी बस एक ही इच्छा है. किसी तरह मैं तुम्हारा अधिकारी बन कर आ जाऊं. फिर देखना, तुम्हारी कैसी रगड़ाई करता हूं. तुम जिंदगीभर याद रखोगे.’

कैसा था वह क्षण. 10 वर्षों बाद आखिर उस की कामना पूरी हो गई. यों, इस में कोई असंभव बात भी नहीं थी. रमेश मेरा अधिकारी बन कर आ गया था. जीवन में परिश्रम, लगन तथा एकजुट हो कर कुछ करना चाहो तो असंभव भी संभव हो सकता है, रमेश इस की जीतीजागती मिसाल था. वर्ष 1960 में रमेश इस संस्थान में क्लर्क बन कर आया था. मैं उस का अधिकारी था तथा वह मेरा अधीनस्थ कर्मचारी. रोजगार कार्यालय के माध्यम से उस की भरती हुई थी. मैं ने एक ही निगाह में भांप लिया कि यह नवयुवक योग्य है, किंतु कामचोर है. वह महत्त्वाकांओं की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है. वह स्नातक था और टाइपिंग में दक्ष. फिर भी वह दफ्तर के काम करने से कतराता था. मैं समझ गया कि यह व्यक्ति केवल क्लर्क नहीं बना रहेगा. सो, शुरू से ही मेरे और उस के बीच एक खाई उत्पन्न हो गई.

मैं अनुशासनपसंद कर्मचारी था, जिस ने क्लर्क से सेवा प्रारंभ कर के विभागीय पदोन्नतियों की विभिन्न सीढि़यां पार की थीं. कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं दी थी.पर रमेश अपने भविष्य की सफलताओं के प्रति इतना आश्वस्त था कि उस ने एक दिन भी मेरी अफसरियत को नहीं स्वीकारा था. वह अकसर दफ्तर देर से आता. मैं उसे टोकता तो वह स्पष्टरूप से तो कुछ नहीं कहता, किंतु अपना क्रोध अपरोक्षरूप  से व्यक्त कर देता. काम नहीं करता या फिर गलत टाइप करता, सीट पर बैठा मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता. खाने की छुट्टी आधे घंटे की होती तो वह 2 घंटे के लिए गायब हो जाता. मैं उस से बहुत नाराज था. पर शायद उसे मेरी चिंता नहीं थी. सो, वह मनमानी किए जाता. उस ने मुझे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया.

एक दिन मैं ने दफ्तर के बाद रमेश को रोक लिया. सब लोग चले गए. केवल हम दोनों रह गए. मैं ने सोचा था कि मैं उसे एकांत में समझाऊंगा. शायद उस की समझ में आ जाए कि काम कितना अहम होता है. ‘रमेश, आखिर तुम यह सब क्यों करते हो?’ मैं ने स्नेहसिक्त, संयत स्वर में कहा था. ‘क्या करता हूं?’ उस ने उखड़ कर कहा था.

‘तुम दफ्तर देर से आते हो.’

‘आप को पता है, दिल्ली की बस व्यवस्था कितनी गंदी है.’

‘और लोग भी तो हैं जो वक्त से पहुंच जाते हैं.’

‘उस से क्या होता है. अगर मैं देर से आता हूं तो

2 घंटे का काम आधे घंटे में निबटा भी तो देता हूं.’

‘रमेश दफ्तर का अनुशासन भी कुछ होता है. यह कोई तर्क नहीं है. फिर, मैं तुम से सहमत नहीं कि तुम 2 घंटे का काम…’

‘मुझे बहस करने की आदत नहीं,’ कह कर वह अचानक उठा और कमरे से बाहर चला गया. मैं अपमानित सा, तिलमिला कर रह गया. रमेश के व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं आया. अब वह खुलेआम दफ्तर में मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता था. काम की उसे कोई चिंता नहीं थी.एक दिन मैं ने उसे फिर समझाया, ‘रमेश, तुम दफ्तर के समय में किताबें मत पढ़ा करो.’

‘क्यों?’

‘इसलिए, कि यह गलत है. तुम्हारा काम अधूरा रहता है और अन्य कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता है.’

‘सुधीर बाबू, मैं आप को एक सूचना देना चाहता हूं.’

‘वह क्या?’

‘मैं इस वर्ष आईएएस की परीक्षा दे रहा हूं.’

‘तो क्या तुम्हारी उम्र 24 वर्ष से कम है?’

‘हां, और विभागीय नियमों के अनुसार मैं इस परीक्षा में बैठ सकता हूं.’

‘फिर तुम ने यह नौकरी क्यों की? घर बैठ कर…’

‘आप की दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में टांग अड़ाने की बुरी आदत है,’ उस ने कह तो दिया फिर पलभर सोचने के बाद वह बोला, ‘सुधीर बाबू, यों आप ठीक कह रहे हैं. मजा तो तभी है जब एकाग्रचित्त हो यह परीक्षा दी जाए. पर क्या करूं, घर की आर्थिक परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया.’

‘पर रमेश, यह बौद्धिक तथा नैतिक बेईमानी है. तुम इस कार्यालय में नौकरी करते हो. तुम्हें वेतन मिलता है. किंतु उस के प्रतिरूप उतना काम नहीं करते. तुम अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे हुए हो.’

‘जितने भी डिपार्टमैंटल खूसट मिलते हैं, सब को भाषण देने की बीमारी होती है.’

मैं ने तिलमिला कर कहा था, ‘रमेश, तुम में बिलकुल तमीज नहीं है.’

‘आप सिखा दीजिए न,’ उस ने मुसकरा कर कहा था.

मेरी क्रोधाग्नि में जैसे घी पड़ गया. ‘मैं तुम्हें निकाल दूंगा.’

‘यही तो आप नहीं कर सकते.’

‘तुम मुझे उकसा रहे हो.’

‘सुधीर बाबू, सरकारी सेवा में यही तो सुरक्षा है. एक बार बस घुस जाओ…’

मैं ने आगे बहस करना उचित नहीं समझा. मैं अपने को संयत और शांत करने का प्रयास कर रहा था कि रमेश ने एक और अप्रत्याशित स्थिति में मुझे डाल दिया.

‘सुधीर बाबू, मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं.’

‘पूछो.’

‘आखिर तुम अपने काम को इतनी ईमानदारी से क्यों करते हो?’

‘क्या मतलब?’

‘सरकार एक अमूर्त्त चीज है. उस के लिए क्यों जानमारी करते हो, जिस का कोई अस्तित्व नहीं, उस की खातिर मुझ जैसे हाड़मांस के व्यक्ति से टक्कर लेते रहते हो. आखिर क्यों?’

‘रमेश, तुम नमकहराम और नमकहलाल का अंतर समझते हो?’

‘बड़े अडि़यल किस्म के आदमी हैं, आप,’ रमेश ने मुसकरा कर कहा था.

‘तुम जरूरत से ज्यादा मुंहफट हो गए हो, मैं…’ मैं ने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे पर्याप्त धमकीभरा बना दिया था.

‘मैं…मैं…क्या करते हो? मैं जानता हूं, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’

बस, गाड़ी यों ही चलती रही. रमेश के कार्यकलापों में कोई अंतर नहीं आया. पर मैं ने एक बात नोट की थी कि धीरेधीरे उस का मेरे प्रति व्यवहार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शालीन, संयत और अनुशासित हो चुका था. क्यों? इस का पता मुझे बाद में लगा.

रमेश की परक्षाएं समीप आ गईं. एक दिन वह सुबह ढाई महीने की छुट्टी लेने की अरजी ले कर आया. अरजी को मेरे सामने रख कर, वह मेरी मेज से सट कर खड़ा रहा.

अरजी पर उचटी नजर डाल कर मैं ने कहा, ‘तुम्हें नौकरी करते हुए केवल 8 महीने हुए हैं, 8-10 दिन की छुट्टी बाकी होगी तुम्हारी. यह ढाई महीने की छुट्टी कैसे मिलेगी?’

‘लीव नौट ड्यू दे दीजिए.’

‘यह कैसे मिल सकती है? मैं कैसे प्रमाणपत्र दे सकता हूं कि तुम इसी दफ्तर में काम करते रहोगे और इतनी छुट्टी अर्जित कर लोगे.’

‘सुधीर बाबू, मेरे ऊपर आप की बड़ी कृपा होगी.’

‘आप बिना वेतन के छुट्टी ले सकते हैं.’

‘उस के लिए मुझे आप की अनुमति की जरूरत नहीं. क्या आप अनौपचारिक रूप से यह छुट्टी नहीं दे सकते?’

‘क्या मतलब?’

‘मेरा मतलब साफ है.’

‘रमेश, तुम इस सीमा तक जा कर बेईमानी और सिद्धांतहीनता की बात करोगे, इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. यह तो सरासर चोरी है. बिना काम किए, बिना दफ्तर आए तुम वेतन चाहते हो.’

‘सब चलता है, सुधीर बाबू.’

‘तुम आईएएस बन गए तो क्या विनाशलीला करोगे, इस की कल्पना मैं अभी से कर सकता हूं.’

‘मैं आप को देख लूंगा.’

‘‘सुधीर बाबू, आप को साहब याद कर रहे हैं,’’ निदेशक महोदय के चपरासी की आवाज सुन कर मेरी चेतना लौट आई भयावह स्मृतियों का क्रम भंग हो गया.

मैं उठा. मरी हुई चाल से, करीब घिसटता हुआ सा, मैं निदेशक के कमरे की ओर चल पड़ा. आगेआगे चपरासी, पीछेपीछे मैं, एकदम बलि को ले जाने वाले निरीह पशु जैसा. परिस्थितियों का कैसा विचित्र और असंगत षड्यंत्र था.

रमेश की मनोकामना पूरी हो गई थी. वर्ष पूर्व उस ने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो कर जो कुछ कहा था, उसे पूरा करने का अवसर उसे मिल चुका था. उस जैसा स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी, सिद्धांतहीन और निर्लज्ज व्यक्ति कुछ भी कर सकता है.

चपरासी ने कमरे का दरवाजा खोला. मैं अंदर चला गया. गरदन झुकाए और निर्जीव चाल से मैं उस की चमचमाती, बड़ी मेज के समीप पहुंच गया.

‘‘आइए, सुधीर बाबू.’’

मैं ने गरदन उठाई, देखा, रमेश अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ है और उस ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया है, मुझ से हाथ मिलाने के लिए.

मैं ने हाथ मिलाया तो मुझे लगा कि यह सब नाटक है. बलि से पूर्व पशु का शृंगार किया जा रहा है.

‘‘सुधीर बाबू, बैठिए न.’’

मैं बैठ गया. सिकुड़ा और सिहरा हुआ सा.

‘‘क्या बात है? आप की तबीयत खराब है?’’

‘‘हां…नहीं…यों,’’ मैं सकपका गया.

‘‘इस अरजी में तो…’’

‘‘यों ही, कुछ अस्वस्थता सी महसूस हो रही थी.’’

‘‘आप कुछ परेशान और घबराए हुए से लग रहे हैं.’’

‘‘हां, नहीं तो…’’

अचानक, कमरे में एक जोर का अट्टहास गूंज गया.

मैं ने अचकचा कर दृष्टि उठाई. रमेश अपनी गुदगुदी घूमने वाली कुरसी में धंसा हुआ हंस रहा था.

‘‘क्या लेंगे, सुधीर बाबू, कौफी या चाय?’’

‘‘कुछ नहीं, धन्यवाद.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कह कर रमेश ने सहायिका को 2 कौफी अंदर भेजने का आदेश दे दिया.

कुछ देर तक कमरे में आशंकाभरा मौन छाया रहा. फिर अनायास, बिना किसी संदर्भ के, रमेश ने हा, ‘‘10 वर्ष काफी होते हैं.’’

‘‘किसलिए?’

‘‘किसी को भी परिपक्व होने के लिए.’’

‘‘मैं समझा नहीं, आप क्या कहना चाहते हैं.’’

‘‘10-12 वर्षों के बाद इस दफ्तर में आया हू. देखता हूं, आप के अलावा सब नए लोग हैं.’’

‘‘जी.’

‘‘आखिर इतने लंबे अरसे से आप उसी पद पर बने हुए हैं. तरक्की का कोई मौका नहीं मिला.’’

‘‘इस साल तरक्की होने वाली है. आप की रिपोर्ट पर ही सबकुछ निर्भर करेगा, सर,’’ न जाने किस शक्ति से प्रेरित हो, मैं यंत्रवत कह गया.

रमेश सीधा मेरी आंखों में झांक रहा था, मानो कुछ तोल रहा हो. मैं पछता रहा था. मुझे यह सब नहीं कहना चाहिए था. अब तो इस व्यक्ति को यह अवसर मिल गया है कि वह…

तभी चपरासी कौफी के 2 प्याले ले आया.

‘‘लीजिए, कौफी पीजिए.’

मैं ने कौफी का प्याला उठा कर होंठों से लगाया तो महसूस हुआ जैसे मैं मीरा हूं, रमेश राणा और प्याले में काफी नहीं, विष है.

‘‘सुधीर बाबू, आप की तरक्की होगी. दुनिया की कोईर् ताकत एक ईमानदार, परिश्रमी, नमकहलाल, अनुशासनप्रिय कर्मचारी की पदोन्नति को नहीं रोक सकती.’’ मैं अविश्वासपूर्वक रमेश की ओर देख रहा था. विष का प्याला मीठी कौफी में बदलने लगा था.

‘‘मैं आप की ऐसी असाधारण और विलक्षण रिपोर्ट दूंगा कि…’’

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’

‘‘सुधीर बाबू, शायद आप बीते दिनों को याद कर के परेशान हो रहे हैं. छोडि़ए, उन बातों को. 10-12 वर्षों में इंसान काफी परिपक्व हो जाता है. तब मैं एक विवेकहीन, त्तरदायित्वहीन, उच्छृंखल नवयुवक, अधीनस्थ कर्मचारी था और अब मैं विवेकशील, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकारी हूं और समझ सकता हूं कि… तब और अब का अंतर?’’ हां, एक सुपरवाइजर के रूप में आप कितने ठीक थे, इस सत्य का उद्घाटन तो उसी दिन हो गया था, जब मैं पहली बार सुपरवाइजर बना था.’’ रमेश ने मेरी छुट्टी की अरजी मेरी ओर सरका दी और बोला, ‘‘अब इस की जरूरत तो नहीं है.’’

मैं ने अरजी फाड़ दी. फिर खड़े हो कर मैं विनम्र स्वर में बोला, ‘‘धन्यवाद, सर, मैं आप का बहुत आभारी हूं. आप महान हैं.’’

और रमेश के होंठों पर विजयी व गर्वभरी मुसकान बिछ गई. Best Hindi Story

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